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Vedic vichar
29-07-2024
???????? *वेदों में नारी का महत्व* ????????♀ ➖➖➖➖➖➖➖➖➖ ▶️ वेद नारी को अत्यंत महत्वपूर्ण, गरिमामय, उच्च स्थान प्रदान करते हैं। वेदों में स्त्रियों की शिक्षा- दीक्षा, शील, गुण, कर्तव्य, अधिकार और सामाजिक भूमिका का जो सुन्दर वर्णन पाया जाता है, वैसा संसार के अन्य किसी धर्मग्रंथ में नहीं है| वेद उन्हें घर की सम्राज्ञी कहते हैं और देश की शासक, पृथ्वी की सम्राज्ञी तक बनने का अधिकार देते हैं। *वेदों में स्त्री यज्ञीय है अर्थात् यज्ञ समान पूजनीय| वेदों में नारी को ज्ञान देने वाली, सुख – समृद्धि लाने वाली, विशेष तेज वाली, देवी, विदुषी, सरस्वती, इन्द्राणी, उषा- जो सबको जगाती है इत्यादि अनेक आदर सूचक नाम दिए गए हैं।* *वेदों में स्त्रियों पर किसी प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं है –* उसे सदा विजयिनी कहा गया है और उन के हर काम में सहयोग और प्रोत्साहन की बात कही गई है। वैदिक काल में नारी अध्यन- अध्यापन से लेकर रणक्षेत्र में भी जाती थी। जैसे कैकयी महाराज दशरथ के साथ युद्ध में गई थी| कन्या को अपना पति स्वयं चुनने का अधिकार देकर वेद पुरुष से एक कदम आगे ही रखते हैं। *अनेक ऋषिकाएं वेद मंत्रों की द्रष्टा हैं – अपाला, घोषा, सरस्वती, सर्पराज्ञी, सूर्या, सावित्री, अदिति- दाक्षायनी, लोपामुद्रा, विश्ववारा, आत्रेयी आदि।* *आइए, वेदों में नारी के स्वरुप की झलक इन मंत्रों में देखें ―* ???? *यजुर्वेद २०.९* स्त्री और पुरुष दोनों को शासक चुने जाने का समान अधिकार है। ???? *यजुर्वेद १७.४५* स्त्रियों की भी सेना हो। स्त्रियों को युद्ध में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित करें। ???? *यजुर्वेद १०.२६* शासकों की स्त्रियां अन्यों को राजनीति की शिक्षा दें। जैसे राजा, लोगों का न्याय करते हैं वैसे ही रानी भी न्याय करने वाली हों। ???? *अथर्ववेद ११.५.१८* ब्रह्मचर्य सूक्त के इस मंत्र में कन्याओं के लिए भी ब्रह्मचर्य और विद्या ग्रहण करने के बाद ही विवाह करने के लिए कहा गया है। यह सूक्त लड़कों के समान ही कन्याओं की शिक्षा को भी विशेष महत्त्व देता है। कन्याएं ब्रह्मचर्य के सेवन से पूर्ण विदुषी और युवती होकर ही विवाह करें। ???? *अथर्ववेद १४.१.६* माता- पिता अपनी कन्या को पति के घर जाते समय बुद्धीमत्ता और विद्याबल का उपहार दें। वे उसे ज्ञान का दहेज़ दें। जब कन्याएं बाहरी उपकरणों को छोड़ कर, भीतरी विद्या बल से चैतन्य स्वभाव और पदार्थों को दिव्य दृष्टि से देखने वाली और आकाश और भूमि से सुवर्ण आदि प्राप्त करने – कराने वाली हो तब सुयोग्य पति से विवाह करे। ???? *अथर्ववेद १४.१.२०* हे पत्नी ! हमें ज्ञान का उपदेश कर। वधू अपनी विद्वत्ता और शुभ गुणों से पति के घर में सब को प्रसन्न कर दे। ???? *अथर्ववेद ७.४६.३* पति को संपत्ति कमाने के तरीके बता। संतानों को पालने वाली, निश्चित ज्ञान वाली, सह्त्रों स्तुति वाली और चारों ओर प्रभाव डालने वाली स्त्री, तुम ऐश्वर्य पाती हो। हे सुयोग्य पति की पत्नी, अपने पति को संपत्ति के लिए आगे बढ़ाओ। ???? *अथर्ववेद ७.४७.१* हे स्त्री ! तुम सभी कर्मों को जानती हो। हे स्त्री ! तुम हमें ऐश्वर्य और समृद्धि दो। ???? *अथर्ववेद ७.४७.२* तुम सब कुछ जानने वाली हमें धन – धान्य से समर्थ कर दो। हे स्त्री ! तुम हमारे धन और समृद्धि को बढ़ाओ। ???? *अथर्ववेद ७.४८.२* तुम हमें बुद्धि से धन दो। विदुषी, सम्माननीय, विचारशील, प्रसन्नचित्त पत्नी संपत्ति की रक्षा और वृद्धि करती है और घर में सुख़ लाती है। ???? *अथर्ववेद १४.१.६४* हे स्त्री ! तुम हमारे घर की प्रत्येक दिशा में ब्रह्म अर्थात् वैदिक ज्ञान का प्रयोग करो। हे वधू ! विद्वानों के घर में पहुंच कर कल्याणकारिणी और सुखदायिनी होकर तुम विराजमान हो। ???? *अथर्ववेद २.३६.५* हे वधू ! तुम ऐश्वर्य की नौका पर चढ़ो और अपने पति को जो कि तुमने स्वयं पसंद किया है, संसार – सागर के पार पहुंचा दो। हे वधू ! ऐश्वर्य कि अटूट नाव पर चढ़ और अपने पति को सफ़लता के तट पर ले चल। ???? *अथर्ववेद १.१४.३* हे वर ! यह वधू तुम्हारे कुल की रक्षा करने वाली है। हे वर ! यह कन्या तुम्हारे कुल की रक्षा करने वाली है। यह बहुत काल तक तुम्हारे घर में निवास करे और बुद्धिमत्ता के बीज बोये। ???? *अथर्ववेद २.३६.३* यह वधू पति के घर जा कर रानी बने और वहां प्रकाशित हो। ???? *अथर्ववेद ११.१.१७* ये स्त्रियां शुद्ध, पवित्र और यज्ञीय ( यज्ञ समान पूजनीय ) हैं, ये प्रजा, पशु और अन्न देतीं हैं। यह स्त्रियां शुद्ध स्वभाव वाली, पवित्र आचरण वाली, पूजनीय, सेवा योग्य, शुभ चरित्र वाली और विद्वत्तापूर्ण हैं। यह समाज को प्रजा, पशु और सुख़ पहुँचाती हैं। ???? *अथर्ववेद १२.१.२५* हे मातृभूमि ! कन्याओं में जो तेज होता है, वह हमें दो। स्त्रियों में जो सेवनीय ऐश्वर्य और कांति है, हे भूमि ! उस के साथ हमें भी मिला। ???? *अथर्ववेद १२.२.३१* स्त्रियां कभी दुख से रोयें नहीं, इन्हें निरोग रखा जाए और रत्न, आभूषण इत्यादि पहनने को दिए जाएं। ???? *अथर्ववेद १४.१.२०* हे वधू ! तुम पति के घर में जा कर गृहपत्नी और सब को वश में रखने वाली बनों। ???? *अथर्ववेद १४.१.५०* हे पत्नी ! अपने सौभाग्य के लिए मैं तेरा हाथ पकड़ता हूं। ???? *अथर्ववेद १४.२ .२६* हे वधू ! तुम कल्याण करने वाली हो और घरों को उद्देश्य तक पहुंचाने वाली हो। ???? *अथर्ववेद १४.२.७१* हे पत्नी ! मैं ज्ञानवान हूं तू भी ज्ञानवती है, मैं सामवेद हूं तो तू ऋग्वेद है। ???? *अथर्ववेद १४.२.७४* यह वधू विराट अर्थात् चमकने वाली है, इस ने सब को जीत लिया है। यह वधू बड़े ऐश्वर्य वाली और पुरुषार्थिनी हो। ???? *अथर्ववेद ७.३८.४ और १२.३.५२* सभा और समिति में जा कर स्त्रियां भाग लें और अपने विचार प्रकट करें। ???? *ऋग्वेद १०.८५.७* माता- पिता अपनी कन्या को पति के घर जाते समय बुद्धिमत्ता और विद्याबल उपहार में दें। माता- पिता को चाहिए कि वे अपनी कन्या को दहेज़ भी दें तो वह ज्ञान का दहेज़ हो। ???? *ऋग्वेद ३.३१.१* पुत्रों की ही भांति पुत्री भी अपने पिता की संपत्ति में समान रूप से उत्तराधिकारी है।
Vedic vichar
25-07-2024
जीवन क्या है: स्वामी दयानंद सरस्वती की दृष्टि में (कविता) जीवन क्या है, स्वामी दयानंद ने सिखाया, सत्य और धर्म की राह पर, हर कदम को चलाया। ज्ञान और अहिंसा का, सच्चा महत्व बताया, हर प्राणी के प्रति करुणा, हमारे दिल में जगाया। जीवन है सत्य की खोज, हर पल में सच्चाई, स्वामी दयानंद ने सिखाया, यह राह है सबसे न्यारी। सत्यार्थ प्रकाश की रोशनी, जीवन को करे उज्जवल, अंधकार को दूर भगाकर, दिल को करे प्रफुल्लित। धर्म है जीवन का मार्ग, सच्चे कर्म का आधार, स्वामी दयानंद की शिक्षाओं से, मिले हमें सही विचार। धर्म के मार्ग पर चलकर, जीवन को सवांरे, हर पल में सच्चाई और, स्नेह का दीप जलाएं। ज्ञान है जीवन की शक्ति, हर अज्ञान को मिटाएं, स्वामी दयानंद के विचारों से, सच्ची राह को अपनाएं। शिक्षा और अध्ययन से, जीवन को बनाए महान, ज्ञान की धारा में बहकर, बने हर इंसान विद्वान। अहिंसा का पालन, जीवन का सच्चा आदर्श, स्वामी दयानंद ने सिखाया, यह मार्ग है बहुत उच्च। हर जीव के प्रति प्रेम, और करुणा का भाव, अहिंसा की इस राह पर, चले जीवन का हर नाव। शाकाहार का पालन, स्वामी जी का संदेश, जीवन को संतुलन और शांति, देता है यह विशेष। प्रकृति का सम्मान और, हर जीव का अधिकार, शाकाहार के पालन से, मिले जीवन का सच्चा सार। माता-पिता का सम्मान, जीवन का सच्चा धर्म, स्वामी दयानंद ने सिखाया, यह सबसे महान कर्म। उनकी सेवा और आदर से, मिले सच्ची खुशी, माता-पिता के आशीर्वाद से, जीवन बने सुखी। जीवन है एक यात्रा, सत्य, धर्म और ज्ञान की, स्वामी दयानंद के विचारों से, मिले राह सच्ची और पावन। हर पल में सच्चाई और, प्रेम का हो संचार, जीवन को सवांरे, स्वामी जी का हर एक विचार। जीवन क्या है, स्वामी दयानंद ने सिखाया, सत्य, धर्म और ज्ञान की, राह पर हमें चलाया। हर कदम पर मिले हमें, सच्चा मार्गदर्शन, स्वामी दयानंद के आदर्शों से, बने जीवन का सच्चा आवरण। आओ, हम सब मिलकर, जीवन की इस राह पर बढ़ें, स्वामी दयानंद के विचारों को, अपने दिल में गहराई से भरें। सत्य, धर्म और ज्ञान की, ज्योति से जीवन को सजाएं, स्वामी दयानंद की शिक्षाओं से, सच्चा जीवन अपनाएं।
Vedic vichar
25-07-2024
आमंत्रण सभी को: आर्य समाज से जुड़ें और स्वामी दयानंद को अपनाएं आओ, सब मिलकर आर्य समाज से जुड़ें, स्वामी दयानंद के विचारों को अपनाएं। सत्य, धर्म और ज्ञान की राह पर चलें, जीवन को सच्चाई और शांति से सजाएं। आर्य समाज का संदेश, हर दिल में बसा हो, स्वामी दयानंद के आदर्शों से, जीवन का हर पल रचा हो। समानता और शिक्षा का, मिले सच्चा अधिकार, आओ, हम सब मिलकर, इस पवित्र मार्ग पर बढ़ें सवार। आओ, सत्यार्थ प्रकाश की ज्योति से, अंधकार को दूर भगाएं, आर्य समाज की शिक्षाओं से, हर दिल को जगमगाएं। स्वामी दयानंद का मार्ग, हमें सिखाता सच्चा धर्म, इस राह पर चलकर, जीवन बने अत्यंत परम। नारी का सम्मान, शिक्षा का महत्व बढ़ाएं, जाति-पाति के भेदभाव को, समाज से मिटाएं। आर्य समाज के पथ पर, जीवन को नया रंग दें, सत्य, धर्म और ज्ञान की राह पर, हर दिल को संवारें। आओ, हम सब मिलकर, इस अद्भुत समाज का हिस्सा बनें, स्वामी दयानंद के आदर्शों को, अपने दिल में गहराई से बसाएं। अहिंसा, करुणा और स्नेह का, दीप जलाएं हर पल, आर्य समाज की शिक्षाओं से, जीवन को करें उत्तम और सरल। शाकाहार का पालन, और सत्य की राह, स्वामी दयानंद के विचारों से, मिले सच्चा इतिहास। प्रकृति का सम्मान और, हर जीव का अधिकार, आर्य समाज की शिक्षाओं से, जीवन बने सच्चा और पारदर्शी। आओ, हम सब मिलकर, आर्य समाज का गुणगान करें, स्वामी दयानंद के आदर्शों को, अपने दिल में संवारें। सत्य, धर्म और ज्ञान की राह पर, चलें सदा, आर्य समाज की शिक्षाओं से, बने जीवन का सच्चा साथी। आमंत्रण है सभी को, आर्य समाज से जुड़ने का, स्वामी दयानंद के मार्ग पर, जीवन को संवारने का। सत्य, धर्म और ज्ञान की राह पर, चलें सदा, आओ, हम सब मिलकर, इस पवित्र मार्ग पर बढ़ें सवार।
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25-07-2024
आर्य समाज: लोगों के लिए, लोगों द्वारा, और लोगों के लिए आर्य समाज की शिक्षाएं, हर दिल में बसीं, लोगों के लिए, लोगों द्वारा, लोगों को सिखाएं दिशा। स्वामी दयानंद की राह पर, सच्चे धर्म का पालन, आर्य समाज का संदेश, हर जीवन में नया आलोक। लोगों के लिए आर्य समाज, सच्ची राह दिखाए, स्वामी दयानंद के विचारों से, हर मन को सजाए। सत्य, धर्म और ज्ञान की, अद्भुत शिक्षा दे, लोगों के जीवन को, नए सिरे से सवारे और बढ़ाए। लोगों द्वारा आर्य समाज, पाता सच्चा बल, समानता और शिक्षा का, फैलता उज्ज्वल जल। जाति-पाति के भेदभाव को, मिटाने का संकल्प, लोगों की एकता से, बने समाज का अद्भुत संकल्प। लोगों के लिए आर्य समाज, है एक आदर्श स्थान, धर्म और सत्य की राह पर, हर दिल को बनाए महान। स्वामी दयानंद के आदर्शों को, अपनाकर हर कदम, लोगों के जीवन में, सच्चाई का बसा हो रत्न। आर्य समाज का संदेश, हर दिल में हो बसेरा, स्वामी दयानंद के विचारों से, बने जीवन सुनहरा। धर्म, सत्य और ज्ञान की, राह पर चलें सदा, लोगों के जीवन में, आए नया सवेरा और उजाला। आर्य समाज की शिक्षाएं, हर मन को करें प्रबल, लोगों के लिए, लोगों द्वारा, बनें समाज का अमूल्य जल। समानता और सम्मान का, हो हर दिल में वास, आर्य समाज की राह पर, बने जीवन का सच्चा आभास। आओ, हम सब मिलकर, आर्य समाज का गुणगान करें, स्वामी दयानंद के आदर्शों को, अपने दिल में बसाएं। सत्य, धर्म और ज्ञान की राह पर, चलें सदा, आर्य समाज की शिक्षाओं से, बने जीवन का सच्चा रास्ता। लोगों के लिए, लोगों द्वारा, आर्य समाज का संग, स्वामी दयानंद के विचारों से, सजे जीवन का रंग। धर्म, सत्य और ज्ञान की राह पर, चलें सदा, आर्य समाज के पथ पर, बने हर दिल का सच्चा साथी।
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25-07-2024
आर्य समाज: बच्चों के जीवन और विकास का आधार आर्य समाज की छाया में, बच्चे पाएं सच्चा मार्ग, स्वामी दयानंद के विचारों से, बने जीवन का उत्तम भाग। सत्य, धर्म और ज्ञान का, अनमोल है यह संग, बच्चों के जीवन को सवांरे, आर्य समाज का अडिग रंग। आर्य समाज की शिक्षाओं में, छुपा है जीवन का सार, स्वामी दयानंद की राह पर, बच्चों का हो उज्ज्वल संसार। सत्य और धर्म की राह पर, चलना सिखाएं, ज्ञान की ज्योति से, हर अंधकार मिटाएं। बच्चों का हो सशक्त विकास, शिक्षा का अधिकार, आर्य समाज की शिक्षाओं से, मिले उन्हें सच्चा आधार। नारी का सम्मान, और समानता की बात, बच्चों को सिखाएं, समाज का सच्चा साथ। वैदिक विचारों की धारा में, बच्चों का हो स्नान, संस्कार और सच्चाई का, हो जीवन में निदान। शाकाहार का पालन, अहिंसा का संदेश, आर्य समाज की शिक्षाओं से, बच्चों का हो सशक्त परिवेश। आओ, हम सब मिलकर, आर्य समाज का गुणगान करें, स्वामी दयानंद के आदर्शों को, बच्चों के जीवन में भरें। सत्य, धर्म और ज्ञान की राह पर, चलें सदा, आर्य समाज के पथ पर, बच्चों का हो सच्चा वास्ता। आर्य समाज की शिक्षाएं, बच्चों का हो जीवन संवार, हर कदम पर मिलें उन्हें, सच्चे धर्म का आधार। स्वामी दयानंद के विचारों से, बच्चों का हो उज्ज्वल भविष्य, आर्य समाज की राह पर, बने उनका जीवन सर्वश्रेष्ठ। शिक्षा, संस्कार और समानता का, संदेश हो प्रबल, बच्चों के दिलों में, आर्य समाज का हो अडिग जल। हर पल में हो उनकी, सत्य और धर्म की पहचान, आर्य समाज की शिक्षाओं से, बने उनका जीवन महान। आर्य समाज की इस पवित्र राह पर, बच्चों को मिले सच्चा मार्गदर्शन। स्वामी दयानंद के आदर्शों से, बने उनका जीवन सजीव और आलोकित। आओ, हम सब मिलकर, आर्य समाज का गुणगान करें, स्वामी दयानंद के विचारों को, बच्चों के जीवन में भरें। सत्य, धर्म और ज्ञान की राह पर, चलें सदा, आर्य समाज के पथ पर, बच्चों का हो सच्चा विकास और सृजन।
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25-07-2024
मेरा आर्य समाज: दुनिया का श्रेष्ठ समाज (कविता) मेरा आर्य समाज है, दुनिया का श्रेष्ठ समाज, स्वामी दयानंद की शिक्षाएं, देतीं हमें अद्भुत विराज। सत्य, धर्म और ज्ञान का, अनमोल उपहार, वैदिक विचारों से सजी, जीवन की सच्ची राह। आर्य समाज की ज्योति, दिलों में जगाती उम्मीद, स्वामी दयानंद का संदेश, करता हर मन को पुनीत। सत्यार्थ प्रकाश की रौशनी, हर अंधेरे को दूर भगाए, वैदिक विचारों की गहराई, जीवन को नई दिशा दिखाए। मैं गर्वित हूँ अपने आर्य समाज पर, और स्वामी दयानंद पर, उनके विचारों से ही, मिला हमें सच्चा धर्म और पथ। नारी का सम्मान, शिक्षा का अधिकार, आर्य समाज की शिक्षाओं से, जीवन बना साकार। जाति-पाति के भेदभाव को, मिटाया हमने सदा, समानता और भाईचारे का, संदेश फैलाया सच्चा। आर्य समाज के पथ पर, जीवन को सवांरा, स्वामी दयानंद के आदर्शों से, हर दिन को संवारा। वैदिक विचारों की धारा, जीवन को कर देती शुद्ध, हर प्राणी के प्रति करुणा, और स्नेह का संदेश अमृत। शाकाहार का पालन, हमें सिखाया सच्चा धर्म, स्वामी दयानंद की शिक्षाओं से, जीवन बना अति उत्तम। आर्य समाज की राह पर, सच्चे धर्म का पालन करें, स्वामी दयानंद के विचारों से, जीवन को आलोकित करें। सत्य, अहिंसा और करुणा का, दीप जलाएं हर दिल में, आर्य समाज की शिक्षाओं से, बनाएं जीवन को उत्तम और निर्मल। आओ, हम सब मिलकर, आर्य समाज का गुणगान करें, स्वामी दयानंद के आदर्शों को, जीवन में अपनाएं। सत्य, धर्म और ज्ञान की राह पर, चलें सदा, आर्य समाज के पथ पर, हमें मिले सच्चा रास्ता। मेरा आर्य समाज है, दुनिया का श्रेष्ठ समाज, स्वामी दयानंद की शिक्षाएं, करतीं हमें अद्भुत विराज। सत्यार्थ प्रकाश की ज्योति, हर दिल में जगमगाए, वैदिक विचारों की गहराई, जीवन को नई दिशा दिखाए। मैं गर्वित हूँ अपने आर्य समाज पर, और स्वामी दयानंद पर, उनके विचारों से ही, मिला हमें सच्चा धर्म और पथ। आओ, हम सब मिलकर, आर्य समाज का गुणगान करें, स्वामी दयानंद के आदर्शों को, जीवन में अपनाएं और सहेजें।
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25-07-2024
मंदिर नहीं, माता-पिता के दिल में पाओ सच्ची श्रद्धा मंदिर की प्रतिमा से नहीं, सच्चा धर्म निबाहो, माता-पिता के दिल में, श्रद्धा का दीप जलाओ। सच्ची पूजा वही है, जो दिल से की जाए, माँ-बाप की ममता को, हर पल सम्मानित बनाए। मंदिर की मूर्तियों में, देखोगे तुम केवल पत्थर, पर माता-पिता के दिल में, बसी है सच्ची ममता का स्वर। उनकी दुआओं में छुपा, जीवन का सच्चा आशीर्वाद, हर आंसू, हर हंसना, उनका प्यार और समर्पण अनमोल अंदाज। तुम मंदिर जा सकते हो, पूजा-अर्चना कर सकते हो, पर माता-पिता की सेवा से, सच्चे धर्म का फल पा सकते हो। उनके चेहरे की मुस्कान, उनकी खुशी की रौशनी, तुम्हारी ज़िन्दगी को सजाए, एक पवित्र नज़रिया की तरह सही। मंदिर में जाकर पूजा करोगे, तो भी स्वागत है तुम्हारा, पर माता-पिता के दिल में जाकर, सच्चा धर्म निभाओ, यह प्यारा। उनकी देखभाल और आदर से, सच्ची श्रद्धा को दिखाओ, उनकी ममता के हर पल को, अपने दिल में बसा लो। मंदिर की सजावट से, केवल बाहरी दिखावा हो सकता है, पर माता-पिता के दिल में, सच्चा प्रेम और सम्मान बसता है। हर कष्ट में, उनकी स्नेह की छांव होती है, उनकी सेवा में सच्चा धर्म, और उनका आशीर्वाद अमूल्य होता है। आओ, हम सब मिलकर, माता-पिता की सेवा करें, उनके दिल में बसाकर, श्रद्धा की वास्तविकता को पहचानें। मंदिर की पूजा से अधिक, उनका दिल सहेजना है, सच्चे धर्म का पालन, यही जीवन की सच्ची राह है। मंदिर नहीं, माता-पिता के दिल में पाओ सच्ची श्रद्धा, उनके आशीर्वाद से चमकाओ, जीवन की यह अमूल्य विद्या। सच्ची पूजा वही है, जो दिल से की जाए, माँ-बाप की ममता को, हर पल सम्मानित बनाए।
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25-07-2024
यज्ञ, आर्य समाज और वैदिक विचार: जीवन का महत्वपूर्ण अंग यज्ञ की अग्नि में छुपा, है जीवन का सार, आर्य समाज की शिक्षाएं, करतीं हर दिल को पावन और पार। वैदिक विचारों की गहराई, ज्ञान का अनमोल भंडार, स्वामी दयानंद की राह पर, जीवन बने अति विशेष और पार। यज्ञ की अग्नि का महत्व, जीवन में है महान, शुद्धि और पुण्य का स्रोत, धर्म का यह महान मान। अग्नि में समर्पण से, हर कष्ट मिटता है, सच्चे मन से किया यज्ञ, जीवन को सुख-समृद्धि से भरता है। आर्य समाज ने सिखाया, यज्ञ का पावन अर्थ, स्वामी दयानंद के विचारों से, मिला जीवन को सच्चा मर्थ। धर्म और सत्य की राह पर, यज्ञ की अग्नि से जो जुड़े, उनका जीवन बन जाए, सुख-शांति से भरा और जुड़े। वैदिक विचारों की गहराई, जीवन को कर देती संवार, सत्य, धर्म और ज्ञान का, मिलता है अद्भुत प्यार। वेदों की पवित्र शिक्षाओं से, जीवन को सजाओ, धर्म के सच्चे मार्ग पर, सच्चे इंसान बनाओ। आर्य समाज का संदेश, यज्ञ और वैदिक विचारों का संगम, धर्म, शिक्षा और समानता, जीवन में लाए बदलाव का रत्न। अज्ञानता और भ्रांतियों को, दूर भगाए, सत्य और ज्ञान के दीप से, हर दिल को सजाए। नारी का सम्मान, शिक्षा का महत्व बढ़ाएं, जाति-पाति के भेदभाव को, समाज से मिटाएं। आर्य समाज की शिक्षाओं से, जीवन को अद्भुत बनाएं, यज्ञ और वैदिक विचारों से, हर दिन को सुहाना बनाएं। आओ, हम सब मिलकर, यज्ञ और वैदिक विचारों का सम्मान करें, आर्य समाज की शिक्षाओं से, जीवन को सुधारें। स्वामी दयानंद के आदर्शों को, अपनाएं हर दिल में, सत्य, धर्म और ज्ञान की राह पर, आगे बढ़ाएं हर कदम में। यज्ञ की अग्नि और वैदिक विचार, जीवन का महत्वपूर्ण अंग, आर्य समाज की शिक्षाओं से, हर दिल में बसी है यह संग। स्वामी दयानंद के संदेश से, जीवन में आए निखार, सत्य, धर्म और ज्ञान के मार्ग पर, बनाएं जीवन को उत्कृष्ट और शुद्ध विचार।
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25-07-2024
आर्य समाज: जीवन में बदलाव की कुंजी (कविता) आर्य समाज का संदेश, जीवन में लाए बदलाव, स्वामी दयानंद के विचार, दूर करें हर सवाल। सत्य, धर्म और ज्ञान की राह पर चलें, आर्य समाज की शिक्षाओं से, अपने जीवन को सजा लें। आर्य समाज की ज्योति, जीवन में करे उजाला, स्वामी दयानंद का मार्ग, हमें सही राह दिखला। अंधविश्वास और भ्रांतियों को, करें हम दूर, आर्य समाज की शिक्षाओं से, जीवन बने भरपूर। धर्म की सच्ची राह पर, चलना हमें सिखाए, सत्य और ज्ञान के दीप से, जीवन को सजाए। नारी का सम्मान, शिक्षा का अधिकार, आर्य समाज की राह पर, मिले सच्चा प्यार। जाति-पाति के भेदभाव को, करें हम मिटाए, समाज में समानता और भाईचारा, हर दिल में बसाए। आर्य समाज की शिक्षाओं से, जीवन में लाएं परिवर्तन, स्वामी दयानंद के विचारों से, बने सशक्त समाज का निर्माण। आओ, हम सब मिलकर, आर्य समाज से जुड़ें, स्वामी दयानंद के मार्ग पर, सच्चे इंसान बनें। धर्म, सत्य और ज्ञान का, दीप जलाएं, मानवता की राह पर, हम सब आगे बढ़ाएं। स्वामी दयानंद का आह्वान, हमें सदा प्रेरित करे, आर्य समाज की शिक्षाओं से, जीवन को आलोकित करे। सत्यार्थ प्रकाश की ज्योति, हर मन में बसी रहे, आर्य समाज की राह पर, हमारा जीवन सजीव रहे। आर्य समाज का संदेश, जीवन में लाए सुधार, स्वामी दयानंद के विचारों से, मिटे हर विकार। धर्म की सच्ची राह पर, हमें चलना सिखाए, सत्य, अहिंसा और ज्ञान से, जीवन को सवांरे। आओ, हम सब मिलकर, आर्य समाज की राह पर चलें, स्वामी दयानंद के आदर्शों को, अपने दिल में ढलें। मानवता, सत्य और धर्म का, संदेश फैलाएं, आर्य समाज की शिक्षाओं से, अपने जीवन को सजा लें। आर्य समाज की इस पवित्र राह पर, स्वामी दयानंद के संदेश को अपनाएं। सत्य, धर्म और ज्ञान की ज्योति से, अपने जीवन को आलोकित बनाएं। मानवता की सेवा में, सदा आगे बढ़ें, आर्य समाज की शिक्षाओं से, सशक्त समाज गढ़ें। आओ सब मिलकर, एक साथ चलें, स्वामी दयानंद का मार्ग अपनाएं, और सच्चे इंसान बनें।
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25-07-2024
आर्य समाज से जुड़ो: स्वामी दयानंद का मार्ग अपनाओ आओ सब मिलकर, एक साथ चलें, आर्य समाज की राह पर, जीवन को सजा लें। स्वामी दयानंद का संदेश, सच्चाई का है प्रकाश, उनके दिखाए मार्ग पर, जीवन बने सुनहरा आकाश। आर्य समाज की ज्योति, हर दिल में जगाएं, स्वामी दयानंद के विचारों को, जीवन में अपनाएं। सत्य, धर्म और ज्ञान का, दीप जलाएं, मानवता की राह पर, सच्चे इंसान बन जाएं। धर्म की सच्ची राह पर, हमें चलना सिखाया, अज्ञानता के अंधकार से, हमें बाहर निकाला। आर्य समाज की शिक्षाओं में, जीवन का सार, स्वामी दयानंद का संदेश, सदा रहे अपार। जाति-पाति के बंधनों को, हमें तोड़ना है, समाज में समानता और भाईचारे का, संदेश फैलाना है। नारी का सम्मान और शिक्षा का अधिकार, स्वामी दयानंद की राह पर, बने सशक्त आधार। भ्रष्टाचार और अत्याचार से, हमें लड़ना है, सत्य और अहिंसा की राह पर, सदा चलना है। आर्य समाज की शिक्षाओं को, दिल से अपनाएं, स्वामी दयानंद के विचारों को, जीवन में बसाएं। आओ सब मिलकर, आर्य समाज से जुड़ें, स्वामी दयानंद के मार्ग पर, सच्चे इंसान बनें। धर्म, सत्य और ज्ञान का, दीप जलाएं, मानवता की राह पर, हम सब आगे बढ़ाएं। स्वामी दयानंद का आह्वान, हमें सदा प्रेरित करे, आर्य समाज की शिक्षाओं से, जीवन को आलोकित करे। सत्यार्थ प्रकाश की ज्योति, हर मन में बसी रहे, आर्य समाज की राह पर, हमारा जीवन सजीव रहे। आओ, हम सब मिलकर, आर्य समाज की राह पर चलें, स्वामी दयानंद के आदर्शों को, अपने दिल में ढलें। मानवता, सत्य और धर्म का, संदेश फैलाएं, आर्य समाज की शिक्षाओं से, अपने जीवन को सजा लें। आर्य समाज की इस पवित्र राह पर, स्वामी दयानंद के संदेश को अपनाएं। सत्य, धर्म और ज्ञान की ज्योति से, अपने जीवन को आलोकित बनाएं। मानवता की सेवा में, सदा आगे बढ़ें, आर्य समाज की शिक्षाओं से, सशक्त समाज गढ़ें। आओ सब मिलकर, एक साथ चलें, स्वामी दयानंद का मार्ग अपनाएं, और सच्चे इंसान बनें।
Vedic vichar
25-07-2024
आर्य समाज और वैदिक विचार: मानव विकास की राह (कविता) आर्य समाज की ज्योति, वैदिक विचारों का प्रकाश, मानवता की राह पर, यह दोनों सदा रहे अग्रगण्य। स्वामी दयानंद का संदेश, सत्य, धर्म और ज्ञान, मानव विकास की दिशा, हमें दिखाते महान। वैदिक विचारों की गहराई, जीवन का सच्चा सार, आर्य समाज ने सिखाया, इस ज्ञान का अमूल्य उपहार। धर्म की सच्ची राह पर, हमें चलना सिखाया, ज्ञान के दीप जलाकर, अज्ञानता को दूर भगाया। सत्य की खोज में, हमें आगे बढ़ना, धर्म के सच्चे मर्म को, जीवन में अपनाना। आर्य समाज की शिक्षाएं, सदा हमें प्रेरित करतीं, मानव विकास की राह पर, हमें अग्रसर करतीं। नारी की गरिमा, शिक्षा का महत्व, आर्य समाज ने बताया, सच्चे मानवता का तत्व। जाति-पाति के भेदभाव को, समाज से मिटाना, समानता और भाईचारे का, संदेश फैलाना। आर्य समाज की शिक्षाएं, हमें सिखातीं, सत्य, अहिंसा और धर्म की राह पर, हमें चलातीं। स्वामी दयानंद के विचारों को, हमें अपनाना, हर दिल में मानवता का, दीप जलाना। वैदिक ज्ञान की धारा, जीवन को सजाती, आर्य समाज की राह पर, मानवता को सशक्त बनाती। धर्म के सच्चे अर्थ को, हमें बतलातीं, ज्ञान की ज्योति से, हर मन को आलोकित करतीं। मानव विकास की दिशा, हमें सिखातीं, सत्य, धर्म और ज्ञान की, राह पर चलातीं। आर्य समाज और वैदिक विचार, सदा रहें साथ, मानवता की राह पर, हमें दिखाते सही मार्ग। आओ, हम सब मिलकर, आर्य समाज की राह पर चलें, वैदिक विचारों से प्रेरणा लेकर, जीवन को सजा लें। सत्य, धर्म और ज्ञान का, दीप जलाएं, मानव विकास की राह पर, सच्चे इंसान बन जाएं। आर्य समाज और वैदिक विचार, जीवन का सच्चा सार, मानवता की राह पर, हमें देते उज्जवल आभार। स्वामी दयानंद का संदेश, सदा रहेगा जीवंत, आर्य समाज की शिक्षाओं से, हमारा जीवन बने महान। मानव विकास की इस यात्रा में, हम सब आगे बढ़ें, आर्य समाज और वैदिक विचारों से, सशक्त समाज गढ़ें। सत्य, धर्म और ज्ञान की राह पर, चलें सदा, आर्य समाज और वैदिक विचारों से, जीवन को सजाएं हरदम।
Vedic vichar
25-07-2024
आर्य समाज के माध्यम से मानवता और अच्छाई की राह स्वामी दयानंद का संदेश, आर्य समाज की छवि, सत्य, धर्म और मानवता, जीवन का सच्चा रवि। आओ हम सब मिलकर, अच्छाई की राह पर चलें, आर्य समाज की शिक्षाओं से, अपने जीवन को सजा लें। मानवता की भावना, आर्य समाज में बसी है, स्वामी दयानंद की शिक्षाओं में, हर मानवता की दिशा है। सच्चाई की राह पर, हमें सिखाया चलना, धर्म के सच्चे मर्म को, जीवन में अपनाना। सत्य का दीप जलाकर, अज्ञानता को दूर भगाना, न्याय और समानता का संदेश, हर दिल में जगाना। जाति-पाति की दीवारें, हमें नहीं रोक पाएंगी, आर्य समाज की शिक्षाओं से, हर बंधन को मिटाएंगे। नारी का सम्मान, आर्य समाज ने सिखाया, हर नारी को दिया, स्वतंत्रता का अधिकार बताया। शिक्षा का महत्व, हर जन को बताया, ज्ञान की ज्योति से, जीवन को सवांरा। सच्चा इंसान वही, जो दूसरों का भला करे, आर्य समाज की राह पर चलकर, हर दिल में प्यार भरे। भ्रष्टाचार और अत्याचार से, हमें सदा लड़ना है, स्वामी दयानंद के आदर्शों को, हमें जीवन में अपनाना है। धर्म की सच्ची राह पर, हम सबको चलना है, आर्य समाज की शिक्षाओं से, हमें समाज को बदलना है। सत्य, अहिंसा और मानवता का, संदेश फैलाना है, हर दिल में प्रेम और भाईचारा, हमें जगाना है। आओ, हम सब मिलकर, अच्छाई की मिसाल बनें, आर्य समाज के सिद्धांतों से, सच्चे इंसान बनें। स्वामी दयानंद के विचारों को, जीवन में उतारें, सत्य, धर्म और मानवता की राह पर, हम सब आगे बढ़ें। मानवता की राह पर, हमें सदा चलना है, आर्य समाज की शिक्षाओं से, जीवन को सँवारना है। सत्य, धर्म और ज्ञान का, दीप जलाना है, हर दिल में मानवता का, संदेश फैलाना है। स्वामी दयानंद का आह्वान, हमें सदा याद रहेगा, आर्य समाज की शिक्षाओं से, जीवन में प्रकाश रहेगा। आओ, हम सब मिलकर, सच्चे इंसान बनें, आर्य समाज के सिद्धांतों से, मानवता की मिसाल बनें। आर्य समाज की इस ज्योति से, हम सबको राह मिलेगी, सत्य, धर्म और मानवता की, सच्ची प्रेरणा मिलेगी। स्वामी दयानंद के आदर्शों को, अपनाएं हर दिल में, हम सब मिलकर बनाएंगे, एक सशक्त और मानवतावादी समाज।
Vedic vichar
25-07-2024
आर्य समाज: एक परिचय (कविता) आर्य समाज की ज्योति, जले हर दिल में सदा, स्वामी दयानंद का संदेश, फैले जीवन में धरा। सत्य, धर्म और ज्ञान की राह पर चलना, आर्य समाज का है संकल्प, यह बात सबको कहना। आर्य समाज का उदय, सत्य की खोज में हुआ, स्वामी दयानंद का संदेश, हर दिल में बस गया। अंधविश्वास और भ्रांतियों का, उन्होंने किया नाश, ज्ञान का दीप जलाया, सत्यार्थ प्रकाश। शुद्धि आंदोलन का संदेश, समाज में फैलाया, वेदों की महिमा को, पुनः सबने गाया। धर्म के सच्चे स्वरूप को, हर जन तक पहुँचाया, नारी की गरिमा को, हर दिल में बसाया। शिक्षा का महत्व, हर किसी को बताया, जाति-पाति की बेड़ियों को, समाज से हटाया। समता और भाईचारे का, संदेश जोड़ा, आर्य समाज ने, हर मन में प्रेम बोया। नारी की स्वतंत्रता और अधिकार की बात, आर्य समाज ने दी, हर नारी को सौगात। बाल विवाह के खिलाफ, उठाई उन्होंने आवाज, विधवा विवाह को दिलाया, समाज में रुतबा और इज्जत। सत्य, अहिंसा और धर्म की राह, आर्य समाज ने दिखाई, हर कदम पर साथ। धर्म के सच्चे मर्म को, हर जन तक पहुँचाया, स्वामी दयानंद के विचारों को, हर दिल में बसाया। आर्य समाज का उद्देश्य, समाज का उत्थान, सत्य, धर्म और ज्ञान से, जीवन को बनाना महान। स्वामी दयानंद का आह्वान, हर दिल में गूँजता, आर्य समाज का संकल्प, सदा जीवंत रहता। आओ, हम सब मिलकर, आर्य समाज के पथ पर चलें, सत्य, धर्म और ज्ञान की राह पर, जीवन को सजा लें। स्वामी दयानंद के विचारों को, अपनाएं हर दिल में, आर्य समाज का संकल्प, बनाए हमें एक सशक्त समाज। आर्य समाज की इस प्रेरक यात्रा में, हर कदम पर हमें, मिलेगी नई राह। सत्य, धर्म और ज्ञान की ज्योति से, हम सबके जीवन में, आएगा सच्चा प्रकाश।
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25-07-2024
सत्यार्थ प्रकाश: स्वामी दयानंद सरस्वती का अनुपम उपहार स्वामी दयानंद सरस्वती, वह दिव्य प्रकाश, जिनकी शिक्षाओं ने किया, अज्ञान का नाश। सत्यार्थ प्रकाश की ज्योति, हर मन में जगी, जिसने हमें सिखाया, सत्य की राह पर चलना सही। स्वामी दयानंद, वह योगी महान, जिनके उपदेशों से, हुआ जीवन आसान। उन्होंने सत्य का, जो दीप जलाया, सत्यार्थ प्रकाश में, वह मार्ग दिखाया। वेदों की महिमा को, उन्होंने फिर से गाया, भ्रम और अंधविश्वास को, दूर भगाया। सत्यार्थ प्रकाश की पवित्रता, हर पन्ने में झलके, ज्ञान का सागर, जिसमें हर मन तरके। अज्ञान के अंधकार को, उन्होंने मिटाया, धर्म के सच्चे स्वरूप को, उन्होंने बताया। सत्यार्थ प्रकाश के हर शब्द में, सच्चाई की चमक, स्वामी दयानंद के उपदेशों में, जीवन की दमक। नारी की गरिमा, उन्होंने जगाई, शिक्षा का महत्व, हर मन में बिठाई। जाति-पाति की बेड़ियों को, उन्होंने तोड़ा, समता और भाईचारे का, संदेश जोड़ा। सत्य की राह पर चलना, सिखाया उन्होंने हमें, धर्म के सच्चे अर्थ को, बताया उन्होंने हमें। सत्यार्थ प्रकाश में छुपा, जीवन का सार, स्वामी दयानंद का, वह अनुपम उपहार। स्वामी जी का जीवन, प्रेरणा की मिसाल, उनकी शिक्षाओं से, हमें मिला उज्जवल भविष्य का लाल। सत्यार्थ प्रकाश की किरणें, हर दिल में बसीं, स्वामी दयानंद के विचारों ने, नई दिशा दी। आओ, हम सब मिलकर, उनके पदचिन्हों पर चलें, सत्यार्थ प्रकाश की ज्योति से, जीवन को उज्जवल बनाएं। स्वामी दयानंद के आदर्शों को, अपनाएं हम सब, सत्य, धर्म और ज्ञान की राह पर, आगे बढ़ें सब।
Vedic vichar
25-07-2024
स्वामी दयानंद सरस्वती: मानव जीवन के लिए एक मार्गदर्शक स्वामी दयानंद सरस्वती, एक युग पुरुष, एक महान विचारक और सुधारक थे, जिन्होंने भारतीय समाज को नई दिशा दी। उनके जीवन और शिक्षाओं ने हमें सत्य, धर्म, और ज्ञान की राह दिखाई। यह कविता उनके जीवन की प्रेरणा को समर्पित है, जो आज भी हमारे जीवन में प्रकाश की किरण बनकर चमक रही है। स्वामी दयानंद सरस्वती, एक महान विभूति, जीवन का उनका संदेश, हर दिल में गूँजता है। सत्य, ज्ञान और धर्म की राह पर, उन्होंने हमें चलना सिखाया है। जीवन की कठिनाइयों से न हार मानो, हर समस्या का समाधान, सत्य में पाओ। धर्म की सच्ची राह पर चलो, अज्ञानता के अंधकार से खुद को बचाओ। स्वामी जी का जीवन, एक प्रेरणा का स्रोत, हर इंसान के लिए, एक जीता जागता उदाहरण। उन्होंने हमें सिखाया, संघर्ष से न डरना, सत्य की खोज में, सदा आगे बढ़ते रहना। आर्य समाज के सिद्धांतों को अपनाओ, नारी का सम्मान करो, शिक्षा को फैलाओ। जाति-पाति के भेदभाव को मिटाओ, समाज में समानता और एकता का संदेश फैलाओ। जीवन का उद्देश्य, केवल धन कमाना नहीं, सच्चा सुख, सच्ची खुशी, सत्य में है। धर्म के सच्चे मार्ग पर चलकर, स्वयं को और समाज को उन्नति की ओर ले जाओ। स्वामी जी का संदेश, हर युग में प्रासंगिक, उनके विचारों से, हमारा जीवन बनता स्वर्णिम। सत्य, ज्ञान और धर्म की धारा में, हम अपने जीवन को, सार्थक बनाते हैं। आओ, उनके पदचिन्हों पर चलें, हर दिल में उनके विचारों को बसा लें। स्वामी दयानंद सरस्वती का जीवन, हमारे जीवन के हर पहलू को प्रेरित करे।
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25-07-2024
पीड़ा के आँसू: एक भारतीय समाज की कथा हम भारत की धरती पर जन्मे, सदियों से चली आ रही परंपराएँ, यहाँ के संस्कार और संस्कृति, हमारी रग-रग में समाई हैं। आओ, सुनो एक कथा, भारतीय समाज की पीड़ा की, जहाँ अरमानों की चिता जलती, और सपनों का संसार टूटता है। आर्य समाज के सिद्धांतों ने, हमारे जीवन में प्रकाश फैलाया, स्वामी दयानंद सरस्वती का संदेश, सत्य की राह दिखाया। लेकिन समय की धारा में, हम खो गए कहीं, सत्य की खोज में भटकते, स्वार्थ के दलदल में सनी। बेटी की शिक्षा का सपना, माँ के आँखों में बसता है, लेकिन दहेज की काली छाया, उसके सपनों को कुचलता है। बेटा जब पढ़ाई छोड़, परिवार का भार उठाता है, पिता के आंसुओं में छुपी, उनकी मजबूरी रोती है। आर्य समाज के विचार, जहाँ नारी का सम्मान था, आज उन्हीं विचारों को हमने, भूल के तिरस्कार किया। स्वामी दयानंद का आह्वान, जहाँ शिक्षा का अधिकार था, आज उस आह्वान को हमने, अज्ञानता के गर्त में धकेला। गरीबी की चादर ओढ़े, हमारा समाज जीता है, जहाँ बच्चों के सपने, भूख की आग में जलते हैं। हमारी बेटियाँ आज भी, अशिक्षा के अंधकार में हैं, और बेटे आज भी, शोषण की चक्की में पिसते हैं। आओ, उठें एक बार फिर, स्वामी दयानंद के मार्ग पर चलें, सत्य, शिक्षा और समानता का, हम सब मिलकर आह्वान करें। हमारी बेटियाँ पढ़ेंगी, हमारी बेटियाँ बढ़ेंगी, हमारी बेटियाँ नहीं होंगी, अब और बेड़ियों में जकड़ी। हमारा समाज फिर से बनेगा, आदर्श आर्य समाज, जहाँ सत्य, धर्म और न्याय का, सदा हो अभिमान। आओ, मिलकर संकल्प लें, एक नए समाज का निर्माण करें, जहाँ हर बच्चे के सपने, सच हो जाएं, पूरा हो हर अरमान। हम भारतीय हैं, हमारी पहचान, हमारी संस्कृति, हमारा स्वाभिमान, स्वामी दयानंद का संदेश, हमेशा हमारे दिलों में रहेगा, सदियों तक गूंजता रहेगा। हम उठेंगे, हम लड़ेंगे, हर अन्याय से टकराएंगे, स्वामी दयानंद की राह पर, हम फिर से समाज बनाएंगे। यह कविता नहीं, एक पुकार है, हर भारतीय के दिल की आवाज़, आओ, मिलकर बदलें, इस समाज का इतिहास।
Vedic vichar
11-05-2024
प्रकृति- प्रश्न :- प्रकृति किसें कहतें हैं? उत्तर :- सत्व , रज तथा तमो गुण इन तीन तत्वों के सामूहिक नाम को प्रकृति कहतें हैं। प्रश्न :- प्रकृति की क्या आवश्यकता है ? उत्तर :- जगत् की रचना करने के लिए कारण के रूप में इसकी आवश्यकता होती हैं । जैसे घड़ा बनाने के लिए मिट्टी की आवश्यकता होती है। प्रश्न :- क्या प्रकृति की उत्पत्ति और विनाश कभी होता है? उत्तर :- प्रकृति की उत्पत्ति और विनाश कभी नहीं होता है। प्रश्न :- सत्वगुणरजोगुण और तमोगुण के स्वरूप को बतलाएँ? उत्तर :- सत्वगुण आकर्षण तथा प्रकाश को, रजोगुण चंचलता तथा दु:ख को उत्पन्न करता है और तमोगुण मूढ़ता (मोह) तथा स्थिरता को उत्पन्न करता है । प्रश्न :- क्या प्रकृति में जीवात्माओं को उत्पन्न करने का सामर्थ्य है? उत्तर :- प्रकृति में जीवात्माओं को उत्पन्न करने का सामर्य नहीं है। प्रश्न :- क्या प्रकृति से जीवों के समस्त दु:ख दूर हो सकते हैं ? उत्तर :- प्रकृति से जीवों के समस्त दु:ख दूर नहीं हो सकते हैं। प्रश्न :- संसार में दुःख कितने प्रकार के हैं ? उत्तर :- संसार में दु:ख तीन प्रकार के हैं -(१) आध्यात्मिक, (२) आधिभौतिक, (३) आधिदैविक। प्रश्न :- आध्यात्मिक दुःख किसे कहते हैं ? उत्तर :- स्वयं की त्रुटि (मूर्खता) से प्राप्त होने वाले दुःख को आध्यात्मिक दु:ख कहते हैं। प्रश्न :- आधिदैविक दुःख किसे कहते हैं। ? उत्तर :- बाढ़, भूकम्प ,अकाल आदि प्राकृतिक विपदाओं से प्राप्त होने वाले दु:ख को आधिदैविक दु:ख कहते हैं। प्रश्न :- आधिभौतिक दुःख किसे कहते हैं। ? उत्तर :- अन्य पशु , पक्षी ,मनुष्य आदि जीवों से प्राप्त होने वाले दु:ख को। आधिभौतिक दु:ख कहते हैं। प्रश्न :- क्या प्रकृति से अपने आप संसार बन सकता है ? उत्तर :- नहीं, ईश्वर की शक्ति व सहायता के बिना प्रकृति से अपने आप संसार नहीं बन सकता है। प्रश्न :- क्या प्रकृति कभी चेतन हो सकती है ? उत्तर :- नहीं प्रकृति कभी चेतन नहीं हो सकती है। प्रश्न :- क्या प्रकृति की ब्रह्म से स्वतन्त्र सत्ता है या ब्रह्म ही जगत् रूप में परिवर्तित हो जाता है? उत्तर :- प्रकृति की सत्ता ब्रह्म से पृथक् और स्वतन्त्र है। ब्रह्म जगत् रूप में कभी परिवतर्तित नहीं होता है। प्रश्न :- सत्व, रज, तम वास्तव में गुण हैं या द्रव्य हैं ? उत्तर :- सत्व, रज, तम वास्तव में द्रव्य हैं। किन्तु सत्वगुण, रजोगुण तमोगुण नाम से जान जाते हैं। प्रश्न :- क्या प्रकृति के समस्त परमाणु एक ही स्वरूप वाले हैं? उत्तर :- नहीं, प्रकृति के परमाणु अलग -अलग स्वरूप अलग-अलग गुण कर्म-स्वभाव, रंग- रूप, आकार, भार वाले हैं। प्रश्न :- . क्या ईश्वर की सहायता के बिना पाँच महाभूतों से रजवीर्य मिलने से स्वत शरीर का निर्माण हो सकता है ? उत्तर :- नहीं बिना ईश्वर की सहायता से पाँच महाभूतों से रजवीर्य के मिलने से स्वत: शरीर का निर्माण नहीं हो सकता। प्रश्न :- प्रकृति सर्वत्र व्यापक है या नहीं ? उत्तर :- प्रकृति सर्वत्र व्यापक नहीं है बल्कि एकदेशी है अर्थात एकनिश्चित सीमा में फैली हुई है, किन्तु ईश्वर उसके बाहर भी विद्यमान है। प्रश्न :- प्रलय अवस्था कैसी होती है ? उत्तर :- प्रलय अवस्था में घोर अन्धकार होता है।इस काल में न सूर्य होता है, न चाँद, न पृथ्वी न कोई शरीरधारी होता है, अपितु सर्वथा सुनसान, प्रकाशरहित अन्धकार जैसी अवस्था होती है। प्रश्न :- प्रलय काल कितना होता है ? उत्तर :- प्रलय काल ४ अरब ३२ करोड़ वर्ष का होता है। प्रश्न :- प्रलय काल की गणना (हिसाब ) कौन करता है ? उत्तर :- प्रलय काल की गणना ईश्वर करता है। प्रश्न :- प्रकृति के साथ जीव क्यों जुड़ता है और कब जुड़ता है ? उत्तर :- प्रकृति के साथ जीव अपनी अविद्या के कारण जुड़ता है तथा सृष्टि के आरम्भ में जुड़ता है और मुक्ति से लौटने वाला जीव सृष्टि के मध्य में भी प्रकृति से जुड़ता है। प्रश्न :- जीवात्मा प्रकृति के बन्धन से कब छूटता है? . उत्तर :- जब प्रकृति और प्राकृतिक पदार्थों के प्रति आसक्ति को समाप्त कर पूर्ण वैराग्य को प्राप्त कर लेता है अर्थात् रागद्वेष आदि समस्त क्लेशों को समाधि लगाकर नष्ट कर देता है तब प्रकृति के बन्धन से छूट जाता है। प्रश्न :- मानव जीवन को सफल करने हेतु चार पुरुषार्थ कौन-कौन से हैं ? उत्तर :- (१) धर्म(२) अर्थ(३) काम, (४) मोक्ष। इन चार पुरुषार्थों को सिद्ध कर लेना मानव जीवन को सफल करने का उपाय है। प्रश्न :- जैसे सुख गुण प्रकृति का है वैसे ही क्या ज्ञान गुण भी प्रकृति का है? उत्तर :- नहीं ज्ञान गुण प्रकृति का नहीं है, अपितु चेतन का है। प्रश्न :- क्या मन रबर की तरह फैलता सिकुड़ता है? उत्तर :- नहीं, मन रबर की तरह फैलता-सिकुड़ता नहीं है। प्रश्न :- क्या सत्व, रज, तम तीनों के बिना केवल दो गुणों से कोई पदार्थ बन सकता है ? उत्तर :- नहीं मात्र दो गुणों से कोई पदार्थ नहीं बन सकता। सभी पदार्थों में तीन गुण होते ही हैं चाहे वे न्यून अधिक क्यों न हों। प्रश्न :- अन्न भोजन कितने प्रकार का होता है ? उत्तर :- अन्न तीन प्रकार का होता है-(१) सात्विक, (२) राजसिक, (३) तामसिक। प्रश्न :- क्या अन्न का प्रभाव मन पर पड़ता है ? उत्तर :- हाँ, साविक अन्न खाने से मन शुद्ध होता है, राजसिक अन्न से मन में चंचलता आती है और तामसिक अन्न मोह, आलस्य आदि उत्पन्न करता है। प्रश्न :- मानव जीवन को स्वस्थ रखने के मूल आधार स्तम्भ कौन कौन-से हैं? उत्तर :- मानव जीवन को स्वस्थ रखने हेतु मूल आधार आहार, निद्रा और ब्रह्मचर्य का उत्तम प्रकार से सेवन करना है।
Vedic vichar
10-05-2024
यदि महाभारत को पढ़ने का समय न हो तो भी इसके नौ सार- सूत्र हमारे जीवन में उपयोगी सिद्ध हो सकते है, जरूर पढ़ें... 1.संतानों की गलत माँग और हठ पर समय रहते अंकुश नहीं लगाया गया, तो अंत में आप असहाय हो जायेंगे- कौरव 2.आप भले ही कितने बलवान हो लेकिन अधर्म के साथ हो तो, आपकी विद्या, अस्त्र-शस्त्र शक्ति और वरदान सब निष्फल हो जायेगा - कर्ण 3.संतानों को इतना महत्वाकांक्षी मत बना दो कि विद्या का दुरुपयोग कर स्वयंनाश कर सर्वनाश को आमंत्रित करे- अश्वत्थामा 4.कभी किसी को ऐसा वचन मत दो कि आपको अधर्मियों के आगे समर्पण करना पड़े -भीष्म पितामह 5.संपत्ति, शक्ति व सत्ता का दुरुपयोग और दुराचारियों का साथ अंत में स्वयंनाश का दर्शन कराता है -दुर्योधन 6.अंधा व्यक्ति- अर्थात मुद्रा, मदिरा, अज्ञान, मोह और काम ( मृदुला) अंध व्यक्ति के हाथ में सत्ता भी विनाश की ओर ले जाती है -धृतराष्ट्र 7. यदि व्यक्ति के पास विद्या, विवेक से बँधी हो तो विजय अवश्य मिलती है -अर्जुन 8. हर कार्य में छल, कपट, व प्रपंच रच कर आप हमेशा सफल नहीं हो सकते - शकुनि 9. यदि आप नीति, धर्म, व कर्म का सफलता पूर्वक पालन करेंगे, तो विश्व की कोई भी शक्ति आपको पराजित नहीं कर सकती - युधिष्ठिर यदि इन नौ सूत्रों से सबक लेना सम्भव नहीं होता है तो जीवन मे महाभारत संभव हो जाता है.. तं सूर्यं जगतां नाथं ज्ञानविज्ञानमोक्षदम्। महापापहरं देवं तं सूर्यं प्रणमाम्यहम्।।
Vedic vichar
10-05-2024
*कभी????सोचना :* *__एक सर्वे के मुताबिक भारत में साल भर में शादियों पर जितना खर्च हो रहा है, उतनी कई देशों की GDP भी नहीं है_* सनातन में शादी एक संस्कार होती थी जो अब एक इवेंट बन कर रह गई हैं। पहले शादी समारोह मतलब दो लोगों को जुड़ने का एहसास कराते पवित्र विधि विधान, परस्पर दोनों पक्षों की पहचान कराते रीति- रिवाज, नेग भी मान सम्मान होते थे। पहले हल्दी और मेंहदी यह सब घर अंदर हो जाता था किसी को पता भी नहीं होता था। पहले जो शादियां मंडप में बिना तामझाम के होती थी, वह भी शादियां ही होती थी और तब दाम्पत्य जीवन इससे कहीं ज्यादा सुखी थे। परंतु समाज व सोशल मीडिया पर दिखावे का ऐसा भूत चढ़ा है कि किसी को यह भान ही नहीं है कि क्या करना है क्या नहीं ? यह एक दूसरे से ज्यादा आधुनिक और अमीर दिखाने के चक्कर में लोग हद से ज्यादा दिखावा करने लगे हैं। अड़तालिस किलो की बिटिया को पचास किलो का लहंगा भारी न लगता। माता पिता की अच्छी सीख की तुलना में कई किलो मेकअप हल्का लगता है। हर इवेंट पर घंटों का फोटो शूट थकान नहीं देता पर शादी की रस्म शुरू होते ही पंडित जी जल्दी करिए, कितना लम्बा पूजा पाठ है, कितनी थकान वाला सिस्टम है" कहते हुए शर्म भी न आती। वाक़ई, अब की शादियाँ हैरान कर देने वाली हैं। मज़े की बात ये है कि ये एक सामाजिक बाध्यता बनती जा रही है। उत्तर भारत में शादियों में फ़िज़ूल खर्ची धीरे धीरे चरम पर पहुँच रही है। पहले मंडप में शादी, वरमाला सब हो जाता था। फिर अलग से स्टेज का खर्च बढ़ा, अब हल्दी और मेहंदी में भी स्टेज, खर्च बढ़ गया है। प्री वेडिंग फोटोशूट, डेस्टिनेशन वेडिंग, रिसेप्शन, अब तो सगाई का भी एक भव्य स्टेज तैयार होने लगा है। टीवी सीरियल देख देख कर सब शौक चढ़े है। पहले बच्चे हल्दी में पुराने कपड़े पहन कर बैठ जाते थे अब तो हल्दी के कपड़े पांच दस हजार के आते है। प्री वेडिंग शूट, फर्स्ट कॉपी डिजाइनर लहंगा, हल्दी/मेहंदी के लिए थीम पार्टी, लेडिज संगीत पार्टी, बैचलर'स पार्टी, ये सब तो लडकी वाला नाक उँची करने के लिये करवाता है। यदि लड़की का पिता खर्च मे कमी करता है तो उसकी बेटी कहती है कि शादी एक बार ही होगी और यही हाल लड़के वालो का भी है। मजे की बात यह है कि स्वयं बेटा-बेटी ही इतना फिल्मी तामझाम चाहते हैं, चाहे वो बात प्री-वेडिंग शूट की हो या महिला संगीत की, कहीं कोई नियंत्रण नहीं है। लडक़ी का भविष्य सुरक्षित करने के बजाय पैसा पानी की तरह बहाते हैं। अब तो लड़का लड़की खुद माँ बाप से खर्च करवाते हैं। शादियों में लड़के वालों का भी लगभग उतना ही खर्चा हो रहा है जितना लड़की वालों का। अब नियंत्रण की आवश्यकता जितना लड़की वाले को है, उतना ही लड़के वाले को भी है। दोनों ही अपनी दिखावे की नाक ऊंची रखने के लिए कर्जा लेकर घी पी रहे हैं। कभी ये सब अमीरों, रईसों के चोंचले होते थे लेकिन देखा देखी अब मिडिल क्लास और लोअर मिडिल क्लास वाले भी इसे फॉलो करने लगे है। रिश्तों में मिठास खत्म ये सब नौटंकी शुरू हो गई। एक मज़बूत के चक्कर में दूसरा कमजोर भी फंसता जा रहा है। कुछ वर्षों पहले ही शादी के बाद औकात से भव्य रिसेप्शन का क्रेज तेजी से बढ़ा। धीरे-धीरे एक दूसरे से बड़ा दिखने की होड़ एक सामाजिक बाध्यता बनती जा रही है। इन सबमें मध्यम वर्ग परिवार मुसीबत में फंस रहे हैं कि कहीं अगर ऐसा नहीं किया तो समाज में उपहास का पात्र ना बन जायें। सोशल मीडिया और शादी का व्यापार करने वाली कंपनिया इसमें मुख्य भूमिका निभा रहीं हैं। ऐसा नहीं किया तो लोग क्या कहेंगे / सोचेंगे का डर ही ये सब करवा रहा है। कोई नही पूछता उस पिता या भाई से जो जीवनभर जी तोड़ मेहनत करके कमाता है ताकि परिवार खुश रह सकें। वो ये सब फिजूलखर्ची भी इसी भय से करता है कि कोई उसे बुढ़ापे में ये ना कहे के आपने हमारे लिए किया क्या। दिखावे में बर्बाद होते समाज को इसमें कमी लाने की महती आवश्यकता है वरना अनर्गल पैसों का बोझ बढ़ते बढ़ते वैदिक वैवाहिक संस्कारों को समाप्त कर देगा।
Vedic vichar
10-05-2024
महाभारत मे कहा है अहिंसा परमो धर्मस्तथाहिंसा परमो दम:। अहिंसा परमं दानमहिंसा परमं तप:।। अहिंसा परम धर्म है। अहिंसा परम संयम है।अहिंसा परम दान है और अहिंसा परम तप है।अहिंसा का अर्थ है मन वचन और कर्म से वैर का त्याग करना। वेद मे कहा है - मित्रस्य चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे।। मैं संसार के सभी प्राणियो को मित्र की दृष्टि से देखू। यह सामान्य उपदेश है। किन्तु जब गुण्डे अत्याचारी ,बलात्कारी, आतंकवादी लोगों पर अत्याचार कर रहे हो शत्रु देश पर आक्रमण कर रहे हो तो क्या हम उनके अत्याचार को ऐसे ही सहन कर ले? शत्रुओं के सामने आत्मसमर्पण कर दे उनसे युद्ध न करे जैसा कि कुछ संप्रदाय जैन और बौद्ध और गांधी कहते है?उत्तर है नहीं क्योंकि ऐसे दुष्टो के लिए वेद कहता है-उतिष्ठत सं नह्यध्वमुदारा: केतुभि: सह। सर्पा इतरजना रक्षांस्यमित्राननु धावत।। अथर्व ११-१०-१ । हे योद्धाओं अपने झण्डे को लेकर उठो और जो सर्प के समान कुटिल है, मानव के समाज के राष्ट्र के शत्रु है उन पर आक्रमण करो। आगे कहा है -इन्द्र जहि पुमांसं यातुधानमुत स्वियं मायया शाशदानाम्।विग्रीवासो मूरदेवा ऋदन्तु मा ते दृशन्त्सूर्यमुच्चरन्तम्।। अथर्व ।हे राजा! डाकुओं ,लुटेरो और आतंकवादियों बलात्कारियों की गर्दनो को तलवार से काटकर धड से अलग कर दो। ऐसे आतंकवादी चाहे स्त्री हो या पुरुष सबका एक ही दण्ड है। आगे कहा है-वि न इन्द्र मृधो जहि नीचा यच्छ पृतन्यत:। अधमं गमया तमो यो अस्मां अभिदासति।। हे राजा सेना लेकर हम पर आक्रमण करने वाले शत्रुओं का नाश कर ,उन्हें नीचा दिखा ।उन्हें घोर अंधकार मे धकेल। मनु महाराज कहते है -नाततायी वधे दोष: ।आतंकवादी को मारने मे कोई दोष नहीं ।वे तो यहाँ तक कहते है ऐसे लोगों को बिना विचारे मार देना चाहिये ।लेकिन अहिंसा की सही जानकारी न होने से बुद्ध और महावीर दो ऐसे महापुरुष हुए जिन्होंने युद्ध का घोर विरोध किया उनका कहना था कि अपनी अन्तरात्मा से युद्ध करो बाहर के युद्ध से लाभ नहीं । परिणामस्वरूप करोडो क्षत्रीय वीर केवल अहिंसा का सहारा लेकर बौद्ध भिक्षुक और जैन श्रावक बन गये ।और इन मतो का प्रचार प्रसार इतना हुआ कि सारा काबुल बंगाल बिहार श्रीलंका बौद्ध हो गये ।और फिर जब इस्लामी आक्रमण आरंभ हुए तो ये उनका विरोध न कर सके और लुटते पिटते पददलित होते हुए विधर्मी होते गये इससे देश और धर्म की बहुत बड़ी हानि हुई
Vedic vichar
10-05-2024
◼️धर्म शिक्षा◼️ ✍???? लेखक - स्वामी दर्शनानन्द ????प्रश्न- धर्म किसे कहते हैं? ????उत्तर- धर्म उन स्वाभाविक गुणों का नाम है जिनके होने से वस्तु की सत्ता स्थिर रहती है और जिनके न होने पर वस्तु की सत्ता स्थिर नहीं रह सकती। ????प्रश्न- हमें दृष्टान्त देकर समझा दो। ????उत्तर- गर्मी और तेज अग्नि के धर्म हैं। जहाँ अग्नि होगी वहाँ गर्मी और तेज अवश्य होंगे जहाँ गर्मी और तेज न रहेंगे, वहाँ अग्नि भी न रहेगी। ????प्रश्न- और दृष्टान्त दो। ????उत्तर- मनुष्य-जीवन के लिए शरीर के अङ्ग और प्राण आवश्यक हैं। यदि शरीर का कोई अङ्ग कट जाए तो मनुष्य के जीवन का नाश नहीं होगा, परन्तु प्राणों के न रहने पर मनुष्य कभी जीवित न रहेगा। ????प्रश्न- क्या जीव का धर्म प्राण धारण करना है? ????उत्तर- नहीं, जीव का धर्म ज्ञान और प्रयत्न है, अर्थात् ज्ञान के अनुसार कर्म करना। ????प्रश्न- जीव को कर्म करने की आवश्यकता क्यों हुई? ????उत्तर- जीव अल्पज्ञ है, अत: उसे दुःख प्राप्त होता है, उस दुःख को दूर करने के लिए जीव को कर्म करने की आवश्यकता है। ????प्रश्न- दुःख का लक्षण क्या है? ????उत्तर- आवश्यकता का होना और उसकी पूर्ति के साधनों का न होना दुःख है, या स्वतन्त्रता का न होना दु:ख है। ????प्रश्न- दुःख का अर्थ तो तक़लीफ़ है? ????उत्तर- दुःख और तकलीफ़ दो पर्यावाचक शब्द हैं। जो लक्षण दुःख का है वही तक़लीफ़ का है। ????प्रश्न- दुःख के वास्ते कोई प्रमाण देकर समझाओ। ????उत्तर- एक मनुष्य घर में बैठा है, उसे कोई कष्ट नहीं है, परन्तु उसे घर से निकलने से बलपूर्वक रोक दिया जाए तो यह बन्धन ही दुःख है। जब क्षुधा लगे और भोजन न मिले तो दुःख है; यदि भोजन मिल जावे तो कष्ट नहीं। इसी प्रकार बहुत-से उदाहरण मिल सकते हैं। ????प्रश्न- जीव अल्पज्ञ क्यों है? ????उत्तर- एकदेशी अर्थात् परिच्छिन्न होने से। ????प्रश्न- जीव दुःख से किस प्रकार छूट सकता है? ????उत्तर- परमेश्वर के जानने और उसकी आज्ञानुसार कार्य करने से। ????प्रश्न- परमेश्वर एक है या अनेक। ????उत्तर- ईश्वर एक है। ????प्रश्न- ईश्वर कौन है? ????उत्तर- जो इस जगत् को रचनेवाला, पालनेवाला और नाश करनेवाला है। ????प्रश्न- ईश्वर के होने में क्या प्रमाण है? ????उत्तर- जगत् की प्रत्येक वस्तु का नियमानुसार कार्य करना और प्रत्येक वस्तु में नियम होना और इन नियमों के परीक्षार्थ वेद-जैसे पूर्ण शास्त्र का होना। ????प्रश्न- ईश्वर को जगत् के रचने की क्या आवश्यकता थी? ????उत्तर- उसकी स्वाभाविक दया और न्याय का गुण ही जगत् बनाने का हेतु है। ????प्रश्न- न्याय और दया तो किसी दूसरे पर होती है, क्या ईश्वर के अतिरिक्त और वस्तु भी जगत् से पहले थी जिसपर न्याय और दया करने के लिए जगत् बनाया? ????उत्तर- प्रकृति और जीव दो अनादि पदार्थ ईश्वर के अतिरिक्त हैं, अर्थात् ईश्वर, प्रकृति, और जीव तीन वस्तुएँ अनादि हैं। जीवों पर दया और न्याय के लिए ईश्वर जगत् को रचता अर्थात् उत्पन्न करता है। ????प्रश्न- क्या जगत् से जीव और प्रकृति पृथक् हैं? ????उत्तर- जीव और प्रकृति अनादि हैं और जगत् उत्पन्न किया हुआ है। ????प्रश्न- यदि जीव और प्रकृति परमेश्वर के उत्पन्न किये हुए नहीं हैं तो इन्हें परमेश्वर का आज्ञाकारी किसने बनाया? ????उत्तर- परमेश्वर अपने सर्वोत्तम गुण आनन्द और सर्वज्ञता आदि के कारण से इनपर अनादि काल से राज्य करता है। ????प्रश्न- जो लोग परमेश्वर को प्रकृति और जीव आदि का रचनेवाला कहते हैं, क्या उनका विचार असत्य है? ????उत्तर- उत्पन्न करने का अर्थ प्रकट करना है, अभाव से भाव में लाना नहीं, क्योंकि बिना शरीर में आये जीव का और बिना कार्य-जगत् बने प्रकृति का ज्ञान नहीं हो सकता, इसलिए जो शरीर और जगत् का रचनेवाला है वही उत्पन्न करनेवाला है। ????प्रश्न- ईश्वर कहाँ है? ????उत्तर- 'कहाँ' शब्द एकदेशी वस्तु के लिए आता है, क्योंकि ईश्वर सर्वव्यापक है, इसलिए 'ईश्वर कहाँ है' यह प्रश्न ही ठीक नहीं है। जैसे कोई कहे कि दूध में सफेदी कहाँ है तो कहेंगे कि दूध की बूंद-बूंद में। कोई कहे कि मिश्री में मिठास कहाँ है तो उत्तर होगा कि कण-कण में। इसी प्रकार जो वस्तु प्रत्येक स्थान में रहती हो उसके लिए 'कहाँ' के प्रश्न का उत्तर 'प्रत्येक स्थान में', 'जगह-जगह पर' होगा, कारण यह है कि कहाँ कहने का अर्थ कोई एक स्थान ज्ञात करना है, अतः यह प्रश्न ही ठीक नहीं है। ????प्रश्न- यदि ईश्वर प्रत्येक स्थान में है तो हमें दिखाई क्यों नहीं देता, जबकि दूध में सफेदी हम नेत्र से देखते हैं, मिश्री में मिठास हम जिह्वा से ज्ञात करते हैं? ????उत्तर- वर्तमान वस्तु के दृष्टि में न आने के छह कारण होते हैं- प्रथम, वस्तु हमारे नेत्र से बहुत समीप हो, जैसे सुरमा नेत्र से बहुत निकट होने के कारण दृष्टि में नहीं आता। दूसरे, दूर होने से दृष्टिगोचर नहीं होता। तीसरे, अत्यधिक सूक्ष्म होने से जैसे परमाणु विद्यमान होने पर भी दृष्टि में नहीं आते। चौथे, बहुत बड़ा होने से, जैसे हिमालय। पाँचवें, इन्द्रिय अर्थात् चक्षु आदि में विकार आ जाने से, जैसे अन्धे को दूध में सफेदी दृष्टिगोचर नहीं होती। छठे, आवरण (परदा, दीवार) होने पर हम दीवार के दूसरी ओर की वस्तुओं को नहीं देख सकते। ????प्रश्न- इन छह कारणों में से हमारे ईश्वर के न जानने का क्या कारण है? ????उत्तर- क्योंकि ईश्वर सर्वव्यापक है इस कारण जीव के अन्दर-बाहर होने से बहुत समीप है और दूसरे बहुत ही सूक्ष्म है, ये ही दो कारण हैं जिससे हमें ईश्वर दृष्टिगोचर नहीं होता। ????प्रश्न- जो बहुत निकट हो उसके दृष्टिगोचर न होने का क्या कारण है? ????उत्तर- क्योंकि मनुष्य को प्रत्येक वस्तु के देखने के लिए प्रकाश की आवश्यकता होती है, इसलिए जब तक नेत्र और वस्तु के मध्य में प्रकाश की किरणें न हों, तब तक नेत्र से उस वस्तु का सम्बन्ध नहीं होता। सुरमे के नेत्र के अति समीप होने के कारण नेत्र और सुरमे के मध्य प्रकाश की किरणें नहीं हैं, अतः उसका ज्ञान नहीं होता। ????प्रश्न- तो क्या ईश्वर को किसी प्रकार जान भी सकते हैं? ????उत्तर- हम ईश्वर को अवश्य जान सकते हैं। ????प्रश्न- किस प्रकार जान सकते हैं? ????उत्तर- जिस प्रकार से नेत्र के सुरमे को जान सकते हैं, उसी प्रकार परमेश्वर को जान सकते हैं। ????प्रश्न- नेत्र के सुरमे को देखने के लिए तो केवल एक शीशे की आवश्यकता है। शीशा हाथ में लिया और नेत्र का सुरमा दृष्टि में आया! ????उत्तर- जैसे नेत्र के सुरमे को देखने के लिए बाह्य शीशे की आवश्यकता है, वैसे ही ईश्वर को देखने के लिए भी एक आन्तरीय शीशा है। ????प्रश्न- वह आन्तरीय शीशा कौन-सा है? ????उत्तर- मन। मनुष्य का दिल एक शीशा है जिसमें परमेश्वर का दर्शन किया जा सकता। ????प्रश्न- मन तो प्रत्येक मनुष्य के पास है, फिर प्रत्येक मनुष्य को ईश्वर दृष्टिगोचर क्यों नहीं होता? मन क्या वस्तु है? ????उत्तर- मन वह भीतरी सूक्ष्म वस्तु है जिसके कारण हमें एक समय में दो वस्तुओं का ज्ञान नहीं होता। ????प्रश्न- मन प्रकृति से बना है या अप्राकृत है? वह नित्य है या अनित्य? ????उत्तर- मन प्रकृति से बना है, उत्पत्तिवाला है, नित्य नहीं है। ????प्रश्न- मन तो प्रत्येक मनुष्य के पास है, फिर सभी को ईश्वर दृष्टिगोचर क्यों नहीं होता? ????उत्तर- यदि शीशे और नेत्र के मध्य में प्रकाश न हो तो शीशे की उपस्थिति में भी नेत्र का सुरमा दिखाई नहीं देता। ????प्रश्न- मन और ईश्वर के मध्य कौन-सा अँधेरा है, जिसके कारण ईश्वर दृष्टिगोचर नहीं होता? ????उत्तर- अविद्या का अँधेरा जब तक विद्या के प्रकाश से दूर न हो, तब तक ईश्वर दृष्टिगोचर नहीं हो सकता। ????प्रश्न- अविद्या को दूर करने का उपाय क्या है? ????उत्तर-सत्य विद्या। ????प्रश्न- क्या कोई असत्य विद्या भी है? ????उत्तर- विद्या शब्द ज्ञान का दूसरा नाम है और ज्ञान दो प्रकार का होता है, एक-उत्पत्तिवाले पदार्थों का जानना; दूसरे-नित्य पदार्थों का जानना। जो उत्पत्तिवाले पदार्थ हैं वे सब विकारी हैं, इसलिए उनका जानना भी परिणामी है, उसी को असत्य विद्या कहते हैं। सत्य कहते हैं नित्य को, अर्थात् जो तीन काल में रहे। परिणामी की सत्ता स्थिर नहीं रह सकती इसलिए वह अनित्य है। ????प्रश्न- ज्ञान कितने प्रकार का होता है? ????उत्तर- ज्ञान तीन प्रकार का है-विद्या, अविद्या, सत्यविद्या। ????प्रश्न- अविद्या किसे कहते हैं? ????उत्तर- पदार्थ के यथार्थ तत्त्व न को जानकर उलटा समझने को अविद्या कहते हैं। ????प्रश्न- अविद्या गुण है या द्रव्य? ????उत्तर-अविद्या गुण है। ????प्रश्न- अविद्या जीव का स्वाभाविक गुण है या नैमित्तिक? ????उत्तर- अविद्या नैमित्तिक है, स्वाभाविक नहीं। ????प्रश्न- यदि अविद्या नैमित्तिक गुण है तो उसकी उत्पत्ति का कारण क्या है? ????उत्तर- इन्द्रियों की कमजोरी और संस्कारों का दोष अविद्या की उत्पत्ति का कारण है। ????प्रश्न- अविद्या से किस प्रकार का ज्ञान होता है? ????उत्तर- चेतन अर्थात् ज्ञानवाले जीवात्मा को अचेतन प्रकृति का कार्य जानना, नित्य अर्थात् अनादि वस्तुओं को उत्पत्तिवाली और उत्पत्तिवाली वस्तुओं को अनादि समझना, शरीर आदि अपवित्र पदार्थों को पवित्र और दुःख देनेवाले पदार्थों को सुख का कारण और दुःख को सुख समझना-इस प्रकार का ज्ञान अविद्या कहलाता है। ????प्रश्न- विद्या किसे कहते हैं? ????उत्तर- चेतन जीवात्मा के ज्ञान का नाम विद्या है। जो अविद्या के गुण से पृथक हो और जिससे जितने परिणाम होते जावें उसी प्रकार से शुद्ध परिणामी ज्ञान हो, उसे विद्या कहते हैं। ????प्रश्न- सत्यविद्या किसे कहते हैं? ????उत्तर- जो सर्वज्ञ ईश्वर का अपरिणामी ज्ञान है, जो देश-काल और वस्तु के भेद से बदलता नहीं, उसे सत्यविद्या कहते हैं। ????प्रश्न- सत्यविद्या और विद्या का भेद किसी दृष्टान्त से समझाओ! ????उत्तर- जिस प्रकार सूर्य का प्रकाश मनुष्यों के लिए संसार के आदि में ईश्वर ने उत्पन्न किया है, वह प्रत्येक मनुष्य के लिए एक-सा है, लेकिन मानवी सृष्टि का प्रकाश दीपक, लैम्प, गैस, बिजली, आदि अनेक भाँति का है, वह प्रत्येक गृह के लिए पृथक्-पृथक् प्रकार का है। ????प्रश्न- क्या ईश्वरीय ज्ञान के बिना मनुष्य अपने जीवनोद्देश्य पर नहीं पहुँच सकता? ????उत्तर- कदापि नहीं! जिस प्रकार प्रकाश के बिना नेत्र अपने काम को पूरा नहीं कर सकते, ऐसे ही बुद्धि भी बिना ईश्वरीय ज्ञान की सहायता के अपना काम नहीं कर सकती। ????प्रश्न- नेत्र को काम करने के लिए प्रकाश की आवश्यकता है चाहे वह सूर्य का हो या लैम्प का, इसी प्रकार बुद्धि को विद्या चाहिए चाहे वह मनुष्य की बनाई हो या ईश्वर की। ????उत्तर- मनुष्य के जीवनोद्देश्य बहुत कठिन और जीवन का समय बहुत न्यून है, इसलिए मनुष्य ईश्वरीय ज्ञान से ही कृतकार्य हो सकता है, उदाहरण के रूप में कोई मनुष्य दीपक को हाथ में लेकर नहीं चल सकता। ????प्रश्न- क्या कारण है कि मनुष्य सूर्य के प्रकाश में दौड़कर चल सकता है और दीपक का प्रकाश लेकर दौड़कर नहीं चल सकता? ????उत्तर- दीपक का प्रकाश पवन को सहन नहीं कर सकता, ऐसे ही मनुष्य की विद्या तर्क को सहन नहीं कर सकती। दीपक के बुझने का भय चलनेवाले को रोकता है और दूर तक देखने की शक्ति का न होना भी रोकनेवाला है। इसी प्रकार मनुष्य की विद्या केवल मान ली जाती है जिसे कोई "ईमान' कहते हैं, और जिस मार्ग पर विद्या की सहायता से चले उसे “मत'' कहते हैं, परन्तु मत और ईमान से कोई जीवनोद्देश्य पर नहीं पहुँच सकता, केवल धर्म और ज्ञान से पहुँच सकता है। ????प्रश्न- मत और धर्म तो पर्यायवाचक शब्द हैं? ????उत्तर- कदापि नहीं! मत के अर्थ मार्ग और धर्म का अर्थ स्वाभाविक गुण है। ????प्रश्न- धर्म और मत की पहचान क्या है? ????उत्तर- धर्म में जीवात्मा का सम्बन्ध सिवाय सर्वव्यापक परमेश्वर और अपने आत्मिक गुण के अन्य किसी प्राकृतिक वस्तु और मनुष्य-से नहीं होता, परन्तु मत बिना मनुष्य और प्राकृतिक सम्बन्ध के नहीं चल सकता। ????प्रश्न- हमें धर्म और मत का दृष्टान्त देकर समझाओ! ????उत्तर- धर्म के दस लक्षण जो मनु ने लिखे हैं उनको पढ़ो और मुस्लिम तथा ईसाइयों की पुस्तकों को पढ़ो तो धर्म और मत का भेद ज्ञात हो जाएगा। ????प्रश्न- मनु ने धर्म के दस लक्षण कौन-से लिखे हैं? ????उत्तर- प्रथम धृति, दूसरे क्षमा अर्थात् सहन करने की शक्ति, तीसरे मन को स्थिर रखना, चौथे चोरी का स्मरण तक न होने देना, पाँचवें शुद्ध अर्थात् पवित्र रहना, छठे अपनी इन्द्रियों को वश में रखना, सातवें बुद्धि को बढ़ाना, आठवें विद्या का ग्रहण करना, नवें सत्य के ग्रहण करने और असत्य के त्यागने में सर्वदा उद्यत रहना, दसवें क्रोध न करना। ✍???? लेखक - स्वामी दर्शनानन्द जी प्
Vedic vichar
26-02-2024
Q- What is called death? U0- The separation of the soul from the body is called death. Q- Can the soul enter another body by his own will? Uh- no it happens by God's system. Q- How long does it take to hold another body after death? After leaving the body, the soul takes the second body in a few moments with the system of God. Q- Is there any exception in this? U0-G yes the exception in this rule is that after death when the soul leaves one body but to get the next body the mother's womb is not available according to his deeds then Yamlok is in the air for some time by God's provision. Again favorable parents are born on meeting. Q- What happens at the time of death? It is said in U-Upnishad that when a man becomes fainted with weakness in the end of time, then the conscious power of the soul which is spread in all the senses outside and inner reaches the shrinking heart where all his strength is gathered. When the conscious power called a demonstrated man, the eyes become lightless and the man is unable to see and recognize anyone. That means that conscious power comes out of the eye, nose, tongue, speech, source, mind, skin etc and joins into the soul, then people sitting beside such a dying man say they don't see, don't listen. Thus the creature reaches the heart with all powers and when leaves the heart, the forefront of the heart is illuminated by the light of the soul, then the light also leaves the heart with the power of consciousness, saying that That eye, stupid or other parts of the body, ears, nose, and mouth etc goes out of somewhere. Thus, with the creatures that come out of the body, life and the entire senses also go out. When the creature dies, science becomes civilized, that means the whole game of life comes out. And with the exit creature goes his knowledge, his deeds, and the rituals, lust and memory of past lives. And the micro body goes along too.
Maharishi Dayanand's personality!(vedic vichar)
26-02-2024
▶Maharshi Dayanand was at the highest peak physically, intellectually and spiritually than all his contemporary persons. He was giant both physically and intellectually and was the best among his contemporary people. All intellectuals and scholars living in India were dwarfs before him in every way. The reason for being born in the house of strong parents, they remained celibate throughout their life. They remained free from family and worldly worries. Their celibacy was the effect of whether the Himalayas or the hot sand of Rajasthan had very few cloths on their bodies but they never had any. There is no difficulty. 6 feet 9 inches tall, strong body like iron, master of power like Hercules, firm like rock, only one langot wearing Swamiji faced angry crowd, rented goons, murderers and never distracted. Some incidents related to Maharishi Dayanand's physical ability:- ????1- In Agra, 1863-1865 used to walk 39 miles from Agra to Mathura in just 3 hours. ???? 2-1867, the famous wrestler of Chasi Bulandshahar Omkarnath Bohra prayed for Swamiji's leg to press. He found that Swamiji's legs were strong like iron. ????3-1869 some wrestlers came to Swamiji in Farrukhabad and said that if you exercise you will become very powerful. Swamiji gave his wet ankle and asked him to extract a drop of water but none of them succeeded, then Swamiji gave the same ankle. The water started dripping when the squeezed. ????4-1877 Sardar Vikram Singh in Jalandhar said Swamiji that we have read in the scriptures that great power is achieved by Brahmacharya, we want to see the power of a Brahmachari. Swamiji did not say anything then. Vikram Singhji stood up and sat in Bagghi which two powerful Horses were pulling. Sais pulled the rein, whipped the horses but they didn't even move. He kept whipping, pulling the rein but there was no effect. Vikram Singh looked back and was surprised, Swamiji was caught a wheel of a four-wheeler bugghi. Swamiji smiled and Vikram Singh asked are you now confident of the power of a celibate? ????5- Swamiji's biography writer social reformer Deewan Harvilasji Sarada had also seen an incident of Swamiji's force with his own eyes. Swamiji's discourse were being held in the chant of Seth Gajmal in Ajmer. After one day of discourse, all the audience left except 20-25 persons. Swamiji also woke up. When everyone reached the main gate, noticed that the heavy main gate was closed. Some people went ahead and started opening the gate to remove Swamiji. About 12-15 persons gave their full strength but didn't even shake the door. Deewanji's father (Deewanji always father's Went to listen to the discourse along) and 4-5 others were standing beside Swamiji watching other people's efforts. When the door refused to open, Swamiji called them to remove and put one foot on the wooden door and one Opened the door in the same blow. All filled with awe and devotion to see His power. Maharishi's amazing courage and fearlessness:- ???? 1-1867 Thakurdas and others sent some goons to attack Swamiji in Farrukhabad. Seth Jagannath Prasad requested Swamiji to move to a safer place. Swamiji said how many fatal attacks my life have been but I am here. Roaming there unarmed, how long will you protect me? ????2 - 1869 Some people attacked Swamiji in Kanpur, Swamiji snatched a man's stick and pushed him into the Ganga and broke the branch from the nearby tree and dusted some people, and said "You guys don't think I am a unique saint." ????3- In Farrukhabad on 23 May 1876, Reverend Lukas told Swamiji that if you are tied to a cannon face and told that you bow down in front of the statue, otherwise you will be blown away, what will be your answer? Swamiji said perfectly I would say "blow it up." The forgiveness of Maharishi:- ????1- Whenever Swamiji was attempted to do physical or financial harm, he always forgave the criminal. As if he was poisoned many times and fatally attacked. Anupshahar incident in 1870, a Brahmin poisoned him in pan. The criminal was caught But Swamiji released him saying that I have come to liberate the world, not to bother. ????2-1877. Swamiji threw stones in greed of sweets at his teacher's saying in Amritsar. Police caught him. Swamiji forgiven the teacher and distributed sweets among the children. ????3- Thakur Karna Singh attacked him with sword, Swamiji grabbed his sword and broke him, people pressured Swamiji to complain against Karna Singh in police but Swamiji clearly refused to do so. Maharishi's narrative and humorous attitude:- ????Swamiji was instant intelligence, he had a lot of humor and he tried to improve the society with his style. Once Swamiji was sitting on the floor with other persons, a pandit came and sat on a high pigeon. Conversation with Swamiji If he didn't get down, then others objected his behavior. So Swamiji said, "Let him sit there. If elevation is a symbol of scholar, the crow sitting on a tree will be considered more scholar than Pandit.
Great character of Maharishi Swami Dayananda Saraswati (1825-1883) (vedic vichar )
26-02-2024
Historian Niranjadev Kesari had said - If there is a devotee of God then not a scholar, If there is a scholar then not a Yogi, If there is a Yogi then not a reformer, If there is a reformer, then not courageous, If there is any courage then there is no celibate, If there is a celibate then not a speaker, If there is a speaker then not a writer, If there is a writer then not a righteous person, If there is any righteousness then not a philanthropist, If there is a philanthropist then not a worker, If there is a hard worker then there is no sacrifice. If there is a sacrifice then not a patriot, If there is a patriot then not a Veda devotee, If there is a devotee of Veda, then not liberal, If someone is generous then not purification, If there is a purification then not a warrior, If there is a warrior then not simple, If someone is simple then not beautiful, If someone is beautiful then not strong, If someone is strong then not kind, If someone is kind then not sober. But if you want to see all these qualities in one place then see Maharishi Dayanand - try being fair. (Reference Book: "Maharshi Dayanand: Kaal and Krititva", written by late Prof. Dr. Kushaldev Shastri, page 423) #dayanand200 #swami_dayanand #swami_shraddhanand
Vedic vichar
11-07-2023
गुरु शिष्यों को कैसे शिक्षा दे ?इस विषय मे वृहदारण्यक उपनिषद मे एक कथा आती है कि जब अश्वि कुमार ऋषि दधीचि से मधु विद्या के रहस्य जानने के लिए गये, तो दधीचि ने कहा कि इन्द्र ने मुझे इस विद्या का उपदेश देने से मना किया है,तब अश्वि कुमारों ने कहा कि हम आपका सिर ऐसा बना देंगे कि इन्द्र पहचान ही न सके।उन्होंने दधीचि का सिर काट कर अलग रख लिया, और उसकी जगह अश्व का सिर लगा दिया।दधीचि ने अश्व के सिर से मधु विद्या का उपदेश दिया।जब वह उपदेश पूरा हो गया तो इन्द्र ने आकर उसका सिर काट दिया।अश्वि कुमारों ने दधीचि के सम्भाल कर रखे सिर को फिर जोड़ दिया।इस कथानक का अभिप्राय यह है कि गुरु और शिष्य की मस्तिष्क शक्ति अलग-२ होती है।अगर गुरु अपने स्तर से शिक्षा देने लगे तो शिष्य के पल्ले कुछ नहीं पडेगा।इसलिए शिष्य के सिर (बुद्धि का स्तर)के समान ही गुरु को अपना सिर बनाना पडता है।अश्वि कुमार का सिर अश्व का है पशु समान है अतः दधीचि को भी अश्व का सिर चाहिए।यदि हम पांचवीं कक्षा के छात्र को पढाते है तो हम इण्टर के स्तर से नहीं पढा सकते क्योंकि उसकी बुद्धि इतनी विकसित नहीं है जिसे वह समझ सके।हमें पांचवीं के स्तर पर जाकर ही पढाना पडेगा तब वह समझेगा।फिर शिक्षा प्राप्त करने के बाद शिष्यों ने गुरु के सिर को पुनः जोड़ दिया।अर्थात् शिष्य इतने योग्य हो गए कि उन्होंने गुरु की उच्च विचार धारा से अपनी विचारधारा को जोड़ दिया।शिष्य गुरु के समान ही विद्वान हो गये।यही विद्या प्राप्त करने कराने का नियम है।
Vedic vichar
11-07-2023
माता पिता अपनी कन्या के लिए ऐसे वर का वरण न करें जो अति निर्बल हो,जिसकी आवाज सरसराती सी हो,जो भेडिये की भांति बहुत खाने वाला हो, मलिन स्वभाव वाला हो, किसी संक्रामक रोग से पीड़ित हो, दिखावे के लिए तडक भडक के कपड़े पहने,रीछ की भांति गर्दन वाला हो और चुंधी आंखों वाला हो।--अथर्ववेद-८-६-२
Vedic vichar
11-07-2023
असुन्वन्तमयजमानमिच्छ स्तेनस्येत्यामन्विहि तस्करस्य। हे स्त्रियों! तुम लोग पुरुषार्थ रहित ,आलसी ,चोरों और तस्करों व दान धर्म से रहित पुरुषों से विवाह करने की इच्छा मत करो। यजु०-१२-६२
Vedic vichar
11-07-2023
भारत ही विश्व का ऐसा राष्ट्र है जहाँ सृष्टि काल से ही तन और मन दोनों को आयुर्वेद और योग के द्वारा स्वस्थ रखा जाता है।
Vedic vichar
11-07-2023
मनुष्य को दु:ख मे चिंता नहीं करनी चाहिए और न सुख से हर्ष मानना चाहिए। जिससे एक दूसरे के उपकार के लिए चित्त अच्छी प्रकार लगाया जाय और जो ऐश्वर्य हो वह सबके सुख के लिए बांटा जाय।--ऋग्वेद--१-१४१-११
Vedic vichar
11-07-2023
निरीह जीवों की क्रूर हत्या के समय उत्पन्न चीत्कार से उत्पन्न ध्वनि उर्जा तरंगें वातावरण मे फैलकर मनुष्य के मन मस्तिष्क पर नकारात्मक प्रभाव डालती है।जिससे मानसिक रोग उत्पन्न होते हैं।
Vedic vichar
11-07-2023
राष्ट्र का निर्माण वेदमाता द्वारा होता है । सृष्टि के आरंभ से ही ईश्वर ने व्यवस्था की कि राजा ब्राह्मण के निर्देशानुसार राष्ट्र व्यवस्था करे। सृष्टि मे आचार्य ब्रह्मचारियों के लिए वेदज्ञान देते रहे। यही राष्ट्र द्वारा वेदमाता का अत्याग है इसी से राष्ट्र उन्नति करता है।--अथर्ववेद-१२-४-३३
Vedic vichar
11-07-2023
हे पुत्र शिष्य और पुत्रवधू आदि लोगों!तुम उत्तम अन्न आदि पदार्थो से पिता आदि वृद्धों का निरन्तर सत्कार किया करो तथा पितर लोग तुम्हें भी आनंदित करें।जैसे माता-पिता बचपन मे तुम्हारी सेवा करते हैं ,वैसे तुम लोग वृद्धावस्था मे उनकी यथावत सेवा करो।यजु-१९-३६
Vedic vichar
11-07-2023
संस्कृत एक अद्भुत भाषा है। जैसे कि अंग्रेजी में 'THE QUICK BROWN FOX JUMPS OVER A LAZY DOG' एक प्रसिद्ध वाक्य है। जिसमें अंग्रेजी वर्णमाला के सभी अक्षर समाहित कर लिए गए हैं। मज़ेदार बात यह है की अंग्रेज़ी वर्णमाला में कुल 26 अक्षर ही उप्लब्ध हैं जबकि इस वाक्य में 33 अक्षरों का प्रयोग किया गया है। जिसमें चार बार O और A, E, U तथा R अक्षर का प्रयोग क्रमशः 2 बार किया गया है। इसके अलावा इस वाक्य में अक्षरों का क्रम भी सही नहीं है। जहां वाक्य T से शुरु होता है वहीं G से खत्म हो रहा है। अब ज़रा संस्कृत के इस श्लोक को पढिये।- *क:खगीघाङ्चिच्छौजाझाञ्ज्ञोSटौठीडढण:।* *तथोदधीन पफर्बाभीर्मयोSरिल्वाशिषां सह।।* अर्थात: पक्षियों का प्रेम, शुद्ध बुद्धि का, दूसरे का बल अपहरण करने में पारंगत, शत्रु-संहारकों में अग्रणी, मन से निश्चल तथा निडर और महासागर का सर्जन करनार कौन ?? राजा मय ! जिसको शत्रुओं के भी आशीर्वाद मिले हैं। श्लोक को ध्यान से पढ़ने पर आप पाते हैं की संस्कृत वर्णमाला के सभी 33 व्यंजन इस श्लोक में दिखाई दे रहे हैं वो भी क्रमानुसार। यह खूबसूरती केवल और केवल संस्कृत जैसी समृद्ध भाषा में ही देखने को मिल सकती है! पूरे विश्व में केवल एक संस्कृत ही ऐसी भाषा है जिसमें केवल *एक अक्षर* से ही पूरा वाक्य लिखा जा सकता है। किरातार्जुनीयम् काव्य संग्रह में केवल “न” व्यंजन से अद्भुत श्लोक बनाया है और गजब का कौशल्य प्रयोग करके भारवि नामक महाकवि ने थोडे में बहुत कहा है- *न नोननुन्नो नुन्नोनो नाना नानानना ननु।* *नुन्नोऽनुन्नो ननुन्नेनो नानेना नुन्ननुन्ननुत्॥* अर्थात: जो मनुष्य युद्ध में अपने से दुर्बल मनुष्य के हाथों घायल हुआ है वह सच्चा मनुष्य नहीं है। ऐसे ही अपने से दुर्बल को घायल करता है वो भी मनुष्य नहीं है। घायल मनुष्य का स्वामी यदि घायल न हुआ हो तो ऐसे मनुष्य को घायल नहीं कहते और घायल मनुष्य को घायल करें वो भी मनुष्य नहीं है। वंदेसंस्कृतम्! एक और उदहारण है। *दाददो दुद्द्दुद्दादि दादादो दुददीददोः।* *दुद्दादं दददे दुद्दे ददादददोऽददः।।* अर्थात: दान देने वाले, खलों को उपताप देने वाले, शुद्धि देने वाले, दुष्ट्मर्दक भुजाओं वाले, दानी तथा अदानी दोनों को दान देने वाले, राक्षसों का खंडन करने वाले ने, शत्रु के विरुद्ध शस्त्र को उठाया। है ना खूबसूरत !! इतना ही नहीं, क्या किसी भाषा में केवल *2 अक्षर* से पूरा वाक्य लिखा जा सकता है ?? संस्कृत भाषा के अलावा किसी और भाषा में ये करना असंभव है। माघ कवि ने शिशुपालवधम् महाकाव्य में केवल “भ” और “र ” दो ही अक्षरों से एक श्लोक बनाया है। देखिये - *भूरिभिर्भारिभिर्भीराभूभारैरभिरेभिरे* *भेरीरे। भिभिरभ्राभैरभीरुभिरिभैरिभा:।।* अर्थात- निर्भय हाथी जो की भूमि पर भार स्वरूप लगता है, अपने वजन के चलते, जिसकी आवाज नगाड़े की तरह है और जो काले बादलों सा है, वह दूसरे दुश्मन हाथी पर आक्रमण कर रहा है। एक और उदाहरण - *क्रोरारिकारी कोरेककारक कारिकाकर।* *कोरकाकारकरक: करीर कर्करोऽकर्रुक॥* अर्थात - क्रूर शत्रुओं को नष्ट करने वाला, भूमि का एक कर्ता, दुष्टों को यातना देने वाला, कमलमुकुलवत, रमणीय हाथ वाला, हाथियों को फेंकने वाला, रण में कर्कश, सूर्य के समान तेजस्वी [था]। पुनः क्या किसी भाषा मे केवल *तीन अक्षर* से ही पूरा वाक्य लिखा जा सकता है ?? यह भी संस्कृत भाषा के अलावा किसी और भाषा में असंभव है! उदहारण - *देवानां नन्दनो देवो नोदनो वेदनिंदिनां।* *दिवं दुदाव नादेन दाने दानवनंदिनः।।* अर्थात - वह परमात्मा [विष्णु] जो दूसरे देवों को सुख प्रदान करता है और जो वेदों को नहीं मानते उनको कष्ट प्रदान करता है। वह स्वर्ग को उस ध्वनि नाद से भर देता है, जिस तरह के नाद से उसने दानव [हिरण्यकशिपु] को मारा था। जब हम कहते हैं की संस्कृत इस पूरी दुनिया की सभी प्राचीन भाषाओं की जननी है तो उसके पीछे इसी तरह के खूबसूरत तर्क होते हैं। यह विश्व की अकेली ऐसी भाषा है, जिसमें "अभिधान-सार्थकता" मिलती है। अर्थात् अमुक वस्तु की अमुक संज्ञा या नाम क्यों है, यह प्रायः सभी शब्दों में मिलता है। जैसे इस विश्व का नाम संसार है तो इसलिये है क्यूँकि वह चलता रहता है, परिवर्तित होता रहता है- संसरतीति संसारः गच्छतीति जगत् आकर्षयतीति कृष्णः रमन्ते योगिनो यस्मिन् स रामः इत्यादि। विश्व की अन्य भाषाओं में ऐसी अभिधानसार्थकता नहीं है। Good का अर्थ अच्छा, भला, सुंदर, उत्तम, प्रियदर्शन, स्वस्थ आदि है। किसी अंग्रेजी विद्वान् से पूछो कि ऐसा क्यों है तो वह कहेगा है बस पहले से ही इसके ये अर्थ हैं। क्यों हैं वो ये नहीं बता पायेगा। ऐसी सरल, तर्कसंगत और समृद्ध भाषा आज अपने ही देश में अपने ही लोगों में अपने अस्तित्व की लड़ाई लड रही है।
Vedic vichar
11-07-2023
चेतन का सम्मान करना, आज्ञा का पालन करना और उसकी आवश्यकता पूरी करना ही उसकी पूजा है, जबकि जड़ वस्तु का अपने और दूसरो के सुख के लिए सदुपयोग करना उसका रक्षण करना ही उसकी पूजा है।
Vedic vichar
11-07-2023
एक बार अजमेर मे रायबहादुर श्यामसुन्दरलाल ने स्वामी जी से कहा आप मूर्ति पूजा पर इतना कडा आक्रमण क्यो करते हो क्या कोमलता से आलोचना करके आपका ध्येय पूरा नहीं होता?उत्तर मे स्वामी जी ने कहा मृदु आक्रमण या किसी भी रुप मे इस धार्मिक बुराई से समझौता करना हानि कारक होगा ।ऐसा करते -करते कुछ समय बाद आर्य समाज भी पौराणिक समाज बन जायेगा।और आर्य समाज अपना तेज गौरव खो देगा।
Vedic vichar
11-07-2023
संसार मे आचारहीन षड्यंत्रकारी स्त्रियां काम और क्रोध के वशीभूत होने वाले अविद्वान पुरुष को अथवा विद्वान मनुष्य को भी उसके सन्मार्ग से उखाडने अर्थात् उद्देश्य से पथभ्रष्ट करने में निश्चय से पूर्ण समर्थ है।--मनु--२--१८९ (२१४)
Vedic vichar
23-06-2023
हिन्दू किसे कहते है?इसका उत्तर असम्भव नहीं तो मुश्किल अवश्य है ,क्योंकि कोई भी बात ऐसी नहीं जो सब हिन्दुओं पर घटती हो ।कोई भी मान्यता ,कोई सिद्धांत ,कोई भगवान ऐसा नहीं जो सबको मान्य हो।हिन्दू समाज की मान्यताएँ प्रस्पर इतनी विरोघी है कि उन्हें एक स्वीकार करना सम्भव नहीं है। ईश्वर को निराकार मानने वाले भी हिन्दू ,साकार मानने वाले भी हिन्दू । वेद की पूजा करने वाला भी हिन्दू ,वेद की निन्दा करने वाला भी हिन्दू ।शाकाहारी भी हिन्दू और पशुओं की बलि देकर ईश्वर को खुश करने वाला भी हिन्दू ।केवल शरीर को ही सब कुछ मानने वाला भी हिन्दू , और जीव व ब्रह्म को एक मानने वाला भी हिन्दू । ऐसे मे हिन्दू की परिभाषा कैसे करे वह कौन सी बात जो सब पर लागू हो?आजकल अपने को अल्पसंख्यक घोषित कराने मे होड लगी है ,चाहे बौद्ध ,जैन ,सिक्ख आदि अपने को हिन्दू से अलग कहने लगे है। सावरकर जी ने कहा था कि जो सिन्धु प्रदेश को अपनी पुण्य भूमि पितृ भूमि माने वह हिन्दू है।कोई कहता है कि हिन्दू मुस्लिम दंगो मे मुसलमान जिसे शत्रु माने वह हिन्दू परन्तु यह सब अधूरा है कोई कहता है अनेकता मे एकता हिन्दू की विशेषता। परन्तु हिन्दू मे ऐसा नहीं है।हिन्दू समाज मे एकता की सबसे छोटी ईकाई परिवार और सबसे बड़ी जाति है। जाति के नाम पर अब भी वे सामाजिक हानि लाभ के लिए संगठित होने का प्रयास करते है।जाति हिन्दू समाज की इतनी मजबूत विशेषता है कि यदि दूसरे सम्प्रदायों मे चला जाता है तो वहाँ भी जाति साथ जाती है। जाट ,राजपूत , गुजर हिन्दू भी है मुसलमान भी है।इसलिए जाति के आधार पर भी परिभाषा नहीं हो सकती। अब हिन्दू को परिभाषित करने के दो आधार है एक हमारा इतिहास और दूसरा भूगोल। हमारा भूगोल तो बदलता रहा है कभी हिन्दुओं का शासन अफगानिस्तान ,ईरान तक फैला था। भारत व पाकिस्तान के विभाजन का आधार भी हिन्दू और मुसलमान ही था।हिन्दू कोई थोड़े समय की अवधारणा नहीं है।हिन्दू इतिहास के नाम पर जिनका इतिहास लिखा गया उन्हें हिन्दू ही समझा जायेगा । भारत की गुलामी के समय को कौन अच्छा कहेगा।यह देश सात सौ वर्ष मुसलमानों के अधीन रहा जो इसे दु:ख का कारण समझता है वह हिन्दू है।यदि कोई औरंगज़ेब के शासन को अच्छा कहे वह हिन्दू नहीं है।इतिहास मे शिवाजी , राणाप्रताप गुरुगोविन्द सिंह जिनके लिए लडे वे हिन्दू है ।क्या इस बात मे कोई सन्देह है और यही हिन्दू की पहचान है।अब प्रमाण की बात करते है मैक्समूलर ने कहा-"मानव मस्तिष्क के इतिहास का अध्ययन करते समय हमारे स्वयं के अध्ययन मे भारत का स्थान विश्व के अन्य देशो की तुलना मे अद्वितीय है--क्योंकि मानव इतिहास के मूल्यवान एवं ज्ञानवान तथ्यों का कोष आपको भारत और केवल भारत मे ही मिलेगा।"पाश्चात्य लेखक मि० पियरे लोती कहते है-"ऐ भारत अब मैं तुम्हे आदर सम्मान के साथ प्रणाम करता हूं।मैं उस प्राचीन भारत को प्रणाम करता हूँ ,जिसका मैं विशेषज्ञ हूँ ।मैं उस भारत का प्रशंसक हूँ जिसे कला और दर्शन मे सर्वोच्च स्थान प्राप्त है।ईश्वर करे तेरे उद्बोधन से प्रतिदिन ह्रासोन्मुख ,पतित एवं क्षीणता को प्राप्त होता हुआ राष्ट्रो ,देवताओ और आत्माओ का हत्यारा पश्चिम आश्चर्य चकित हो जाय।वह आज भी तेरे महान् व्यक्तियो के सामने नतमस्तक है"।पाश्चात्य लेखिका श्रीमती मैनिकग कहती है-"हिन्दूओ के पास मस्तिष्क का इतना व्यापक विस्तार था ,जितना किसी भी मानव मैं कल्पना की जा सकती है।"भारतीय इतिहास मे तुलामान ,दूरी का मान कालमान की विधियो को देखकर बडे-२ विद्वान आश्चर्य चकित हो जाते है। मनु महाराज की वर्ण व्यवस्था और दण्ड विधान आज भी संसार मे सर्वश्रेष्ठ है।कहाँ तक कहे ये विचार जिस देश के है वह हिन्दू राष्ट्र है और इन विचारो को जो अपनी धरोहर समझता है वह हिन्दू है।कोई मनुष्य लंगडा , लूला ,अन्धा हो जाने पर रहता तो मनुष्य ही है। यदि कोई नाम बदल ले तो व्यक्ति तो वही रहता है।वह वैदिक था,आर्य था पौराणिक हो गया ,बाद मे हिन्दू बन गया ,लेकिन सारा इतिहास तो उसी व्यक्ति का है जिसे केवल अपने विचार ,कला व कृतित्व पर ही गर्व नहीं उसे अपने चरित्र पर भी उतना ही गर्व है।
ସଂସ୍କାରକ ଶ୍ରୀବତ୍ସ ପଣ୍ଡାଙ୍କ ପୁଣ୍ୟତିଥୀ ଅବସରରେ ସେହି ମହାନ ଆତ୍ମାଙ୍କୁ ଭକ୍ତିପୂତ ଶ୍ରଦ୍ଧାଞ୍ଜଳି
15-05-2023
Vedic Vichar: ଶ୍ରୀବତ୍ସ ପଣ୍ଡା (୧୮୭୦ - ୧୯୪୩) ଜଣେ ଓଡ଼ିଆ ଭାଷାପ୍ରେମୀ ସାହିତ୍ୟିକ ଓ ସମାଜ ସଂସ୍କାରକ ଥିଲେ ।ସେ ଗଞ୍ଜାମ ଜିଲ୍ଲାର ଭଞ୍ଜନଗର ନିକଟବର୍ତ୍ତୀ ମନ୍ଦାର ଗ୍ରାମରେ ଏକ ରକ୍ଷଣଶୀଳ ବ୍ରାହ୍ମଣ ପରିବାରରେ ଅକ୍ଟୋବର ୧ ତାରିଖ, ୧୮୭୦ ମସିହାରେ ଜନ୍ମଗ୍ରହଣ କରିଥିଲେ । ତାଙ୍କର ପିତା ଥିଲେ ଧର୍ମ ପଣ୍ଡା ଓ ମାତା ରାଧାଦେବୀ । ସେ ଆନ୍ଧ୍ର ପ୍ରଦେଶର ରାଜମହେନ୍ଦ୍ରୀଠାରେ ଉଚ୍ଚ ଶିକ୍ଷା ଲାଭ କରିଥିଲେ । ଜାତିପ୍ରଥା, ବାଲ୍ୟବିବାହର ବିରୋଧ, ଅସ୍ମୃଶ୍ୟତା ନିବାରଣ, ବାଳିକା ଶିକ୍ଷା, ବିଧବା ଓ ଅନ୍ତର୍ଜାତୀୟ ବିବାହ ଏବଂ ଗୋରକ୍ଷା ଆଦି ଦିଗରେ ସେ ମହତ୍ୱପୂର୍ଣ୍ଣ ଭୂମିକା ନିର୍ବାହ କରିଥିଲେ । ଉତ୍କଳ ସମ୍ମିଳନୀର ଜନ୍ମ ପୂର୍ବରୁ ସେ ଗଞ୍ଜାମରେ ଜାତୀୟ-ସଭାର ପ୍ରତିଷ୍ଠା ଓ ବେଦର ପ୍ରଚାରରେ ବ୍ରତି ଥିଲେ । ଓଡିଶା ଭୂମିରେ ସର୍ବପ୍ରଥମେ ସେ ଅର୍ଯ୍ୟସମାଜର ଭିତ୍ତି ସ୍ଥାପନ କରିଥଲେ। ଆର୍ଯ୍ୟ ସମାଜର ଆଦର୍ଶାନୁରାଗୀ ହେତୁ ସେ ପ୍ରତି ଦିନ ପଞ୍ଚମହାଯଜ୍ଞ କରୁଥିଲେ। ମୋହନ ଦାସ ଗାନ୍ଧୀଙ୍କ ଅସହଯୋଗ ଆନ୍ଦୋଳନ ସହ ଜାତୀୟ କଂଗ୍ରେସ କାର୍ଯ୍ୟକ୍ରମ ସହିତ ସେ ସକ୍ରିୟ ରହୁଥିଲେ। ଅସୁସ୍ଥତା ସତ୍ତ୍ୱେ ତାଙ୍କୁ ଦୁଇଥର ଗଞ୍ଜାମ ଜିଲ୍ଲା କଂଗ୍ରେସ କମିଟିର ସଭାପତି ରୂପେ ମନୋନୀତ କରାଯାଇଥିଲା । ଭଞ୍ଜନଗର ନିକଟବର୍ତ୍ତୀ ତନରଡ଼ାଠାରେ ସେ ଗୋରକ୍ଷାଶ୍ରମ ଓ ବେଦଭବନ ପ୍ରତିଷ୍ଠା କରିଥିଲେ । ସରକାରୀ ଚାକିରି କାଳରେ ଯେଉଁ ସବୁ ସ୍ଥାନ ମାନଙ୍କରେ ସେ ରହୁଥିଲେ, ସେଠିକାର ଲୋକଙ୍କୁ ବୁଝାଇସୁଝାଇ ବାଳିକାଙ୍କ ପାଇଁ ବିଦ୍ୟାଳୟ ସ୍ଥାପନ କରିବା, ପରଦା ପ୍ରଥାର ଉନ୍ମୋଚନ, ଛୁଆଁଅଛୁଆଁ ଭେଦଭାବ ଦୂରୀକରଣ, ସ୍ୱତନ୍ତ୍ର ଓଡ଼ିଶା ଗଠନ ଓ ସ୍ୱରାଜ୍ୟ ପ୍ରାପ୍ତି ପାଇଁ ଉଦ୍ୟମ ଜାରି ରଖିଥିଲେ । ତାଙ୍କର ନିଜସ୍ୱ ସକଳ ସଂପତ୍ତି ସେ ଗୋରକ୍ଷାଶ୍ରମ, ବିଧବାଶ୍ରମ, ବାଳିକା ବିଦ୍ୟାଳୟ ଓ ଆର୍ଯ୍ୟସମାଜକୁ ଦାନ କରିଥିଲେ। ଓଡ଼ିଆ ଭାଷା ଓ ସାହିତ୍ୟକୁ ଶ୍ରୀବତ୍ସ ପଣ୍ଡାଙ୍କର ମହତ୍ୱପୂର୍ଣ ଅବଦାନ ରହିଥିଲା। ସରକାରୀ ଫାଇଲରେ ଇଂରାଜୀ ବା ତେଲଗୁ ଭାଷା ପରିବର୍ତ୍ତେ ଓଡ଼ିଆ ଭାଷାର ପ୍ରଚଳନ ପାଇଁ ସେ ଉଦ୍ୟମ କରିଥିଲେ । ଓଡ଼ିଆ ସାହିତ୍ୟର ପ୍ରସାର ପାଇଁ ସେ ସ୍ବୀୟ ବ୍ୟୟରେ ଗଞ୍ଜାମର ରସୁଲକୋଣ୍ଡା (ବର୍ତ୍ତମାନର ଭଞ୍ଜନଗର) ଠାରେ ‘ସ୍ଵଦେଶୀ ପ୍ରେସ୍’ ନାମକ ଏକ ଛାପାଖାନା ପ୍ରତିଷ୍ଠା କରିଥିଲେ। ସେ ୧୯୨୫ ମସିହାରେ ‘ସଂସ୍କାର’ ନାମକ ପତ୍ରିକାର ସମ୍ପାଦନା କରିଥିଲେ । ଗୋରକ୍ଷାଶ୍ରମ, ତନରଡ଼ା, ଗଞ୍ଜାମରୁ ସେ ୧୯୨୭ ମସିହାରେ 'ଆର୍ଯ୍ୟ' ନାମକ ଏକ ମାସିକ ପତ୍ରିକା ପ୍ରକାଶିତ କରିଥିଲେ ଓ ସେ ନିଜେ ଏହାର ସମ୍ପାଦକ ଥିଲେ । ପତ୍ରିକାର ଆଭିମୁଖ୍ୟ ଥିଲା ସମାଜସଂସ୍କାର, ବ୍ରାହ୍ମଣ୍ୟବାଦ, ଧର୍ମବିଶ୍ୱାସ, ମୂର୍ତ୍ତିପୂଜା, ଆର୍ଯ୍ୟସଭ୍ୟତା, ପାଶ୍ଚାତ୍ୟସଭ୍ୟତା, ପରଦାପ୍ରଥା ଇଦ୍ୟାଦିର ବ୍ୟାଖ୍ୟା କରିବା। ଦୀର୍ଘ ଚାରିବର୍ଷ କାଳ ପ୍ରକାଶିତ ହୋଇ ପତ୍ରିକାଟି ସମାଜର ବହୁ ଗୁରୁତ୍ୱପୂର୍ଣ୍ଣ ଦିଗ ପ୍ରତି ଆଲୋକପାତ କରିଥିଲା। ଶ୍ରୀବତ୍ସ ପଣ୍ଡାଙ୍କର ପ୍ରଥମ ପ୍ରବନ୍ଧ ସେ ମାଟ୍ରିକ୍ ପଢୁଥିବା ସମୟରେ ‘ସମ୍ବଲପୁର ହିତୈଷିଣୀ‘ ରେ ପ୍ରକାଶ ପାଇଥିଲା । ଏହା ପରେ ତାଙ୍କର ବିଭିନ୍ନ ଲେଖା ପ୍ରଜାବନ୍ଧୁ, ଉତ୍କଳବାସୀ, ଉତ୍କଳଦର୍ପଣ, ଉତ୍କଳ ସେବକ, ଉତ୍କଳବାର୍ତ୍ତା, ଉତ୍କଳ ଦୀପିକା, ସମ୍ବାଦବାହିକା, ଓଡ଼ିଆ ନବସମ୍ବାଦ, ଗଡ଼ଜାତବାସିନୀ, ଗଞ୍ଜାମ ଗୁଣଦର୍ପଣ, ଆଶା, ପ୍ରଜାମିତ୍ର, ସମାଜମିତ୍ର, ମୁକୁର ପ୍ରଭୃତି ପତ୍ରିକା ମାନଙ୍କରେ ପ୍ରକାଶିତ ହୋଇ ଓଡ଼ିଶାରେ ସମାଜ ସଂସ୍କାର ପ୍ରତି ଆଲୋଡ଼ନ ସୃଷ୍ଟି କରିଥିଲା। ସେ ଛୋଟ ବଡ଼ ଅନେକ ଗୁଡିଏ ସାହିତ୍ୟ ରଚନା କରିଯାଇଛନ୍ତି। ସେଗୁଡିକ ମଧ୍ୟରେ ଅଛବ ଜାତି, ଆରୋଗ୍ୟ ବିଧାନ, ଗୋଧନ, ପଞ୍ଚାୟତ, ଆର୍ଯ୍ୟଧର୍ମ, ଜାତୀୟ ସଙ୍ଗୀତ, ସଂସ୍କାର ସଂଗୀତାବଳୀ, ନିବେଦନ, ସଂସ୍କାରକ, ଜାତିଗୀତି, ମୋ ମାତୃଭାଷା, ବିଧବା ବିବାହ ନାଟ୍ଯ- ଶଶିକଳା ପରିଣୟ, ଜାତୀୟ ଜୀବନ, ପୋଷ୍ଯପୁତ୍ର, ପୁନର୍ମୂଷିକ ଭବ, ହିନ୍ଦୁମାନଙ୍କର ବ୍ରାହ୍ମଣପ୍ରିୟତା, ଭୁବନେଶ୍ୱର ଦର୍ଶନ, ତୀର୍ଥଯାତ୍ରା (ଦକ୍ଷିଣାଞ୍ଚଳ), ତୀର୍ଥଯାତ୍ରା (ଉତ୍ତରାଞ୍ଚଳ), ରେଙ୍ଗୁନ ଯାତ୍ରା, ପାର୍ବତୀପୁର ପ୍ରବନ୍ଧ ଇତ୍ୟାଦି ଅନ୍ୟତମ। ମହର୍ଷି ଦୟାନନ୍ଦ ସରସ୍ୱତୀଙ୍କର ଅମର ଗ୍ରନ୍ଥ ‘ସତ୍ୟାର୍ଥ ପ୍ରକାଶ’ କୁ ସର୍ବପ୍ରଥମେ ଓଡ଼ିଆ ଭାଷାରେ ମଧ୍ୟ ସେ ଅନୁବାଦ କରିଥିଲେ। ଅତ୍ୟନ୍ତ ପରିତାପର ବିଷୟ ଏହି ମହାନ ସାହିତ୍ୟିକଙ୍କର ଅନେକ ମୂଲ୍ୟବାନ ପାଣ୍ଡୁଲିପି ଏ ପର୍ଯ୍ୟନ୍ତ ପ୍ରକାଶ ହୋଇ ପାରିନାହିଁ। ବିଭିନ୍ନ ସ୍ଥାନରେ ସେଭିତରୁ ଅନେକ ନଷ୍ଟ ହୋଇ ସାରିଛି ଓ ଅନେକ ନଷ୍ଟପ୍ରାୟ ଅବସ୍ଥାରେ ରହିଛି। ବର୍ତମାନ ସମୟରେ ଏ ସମସ୍ତ ଦୁଷ୍ପ୍ରାପ୍ୟ ସାହିତ୍ୟ ଗୁଡିକର ସଂକଳନ କରି ଗ୍ରନ୍ଥାବଳୀ ଆକାରରେ ପ୍ରକାଶିତ କଲେ ଓଡିଶା ମାଟିର ଏହି ବରପୁତ୍ରଙ୍କର ସାହିତ୍ୟ ସବୁକୁ ସୁରକ୍ଷିତ ରଖାଯାଇ ପାରନ୍ତା। ବ୍ୟାସକବି ଫକୀର ମୋହନ ସେନାପତି, ସମ୍ବଲପୁର ଉତ୍କଳ ସମିଳନୀରେ ଶ୍ରୀବତ୍ସ ପଣ୍ଡା ମହୋଦୟଙ୍କୁ କହିଥିଲେ ଯେ, "ଆପଣଙ୍କ ଲେଖାରେ ସତ୍ୟବାଦିତା ଓ ସାହସ ଭରି ରହିଛି । ତେଣୁ ସ୍ୱାର୍ଥୀଲୋକେ ସମାଜ ସଂସ୍କାର ଚାହୁଁ ନାହାନ୍ତି ଓ ଆପଣଙ୍କୁ ଗାଳି ଦିଅନ୍ତି । ପରନ୍ତୁ, ସେଥିରେ ସମାଜର ହିତସାଧନ ହେବ, ଏଥିରେ ସନ୍ଦେହ ନାହିଁ" । ଉତ୍କଳ ଗୌରବ ମଧୁସୂଦନ ଦାସ, ଶ୍ରୀବତ୍ସ ପଣ୍ଡାଙ୍କୁ ଉତ୍କଳର ବିଦ୍ୟାସାଗର ଆଖ୍ୟା ଦେଇଥିଲେ। ଓଡ଼ିଶାର ଏହି ବରପୁତ୍ରଙ୍କର ୧୧ ମଇ, ୧୯୪୩ ମସିହାରେ ପରଲୋକ ଘଟିଥିଲା । ଯେଉଁ ଓଡ଼ିଶାର ବରପୁତ୍ର ନିଜର ସମ୍ପୂର୍ଣ୍ଣ ତନ-ମନ-ଧନ ଶିକ୍ଷାର ପ୍ରସାର, ସମାଜ ସଂସ୍କାର ଓ ବେଦର ପ୍ରଚାର ପାଇଁ ଉତ୍ସର୍ଗୀକୃତ କରିଦେଇଥିଲେ ସେହି ମହାନ ସମାଜ ସୁଧାରକ, ସ୍ୱତନ୍ତ୍ରତା ସଂଗ୍ରାମୀ, ସଂସ୍କାରକ ଶ୍ରୀବତ୍ସ ପଣ୍ଡାଙ୍କ ପୁଣ୍ୟତିଥୀ ସେହି ମହାନ ଆତ୍ମାଙ୍କୁ ଭକ୍ତିପୂତ ଶ୍ରଦ୍ଧାଞ୍ଜଳି l
Vedic vichar
20-04-2023
वेदों में बताया है, कि *"जीवन क्षणभंगुर है। अगले मिनट में क्या होगा, कुछ नहीं मालूम।" "व्यक्ति चलते चलते गिर पड़ता है। बैठे-बैठे लेट जाता है। उसे हृदयाघात (Heartattack) हो जाता है। लेटे लेटे रात को मृत्यु हो जाती है, सुबह उठता नहीं है इत्यादि।"* इस प्रकार से संसार में देखने को मिलता है कि 'जीवन सदा रहेगा' इस बात की कोई भी गारंटी नहीं है। *"बल्कि इतनी भी गारंटी नहीं है, कि कल हम रहेंगे या नहीं?"* फिर भी मनुष्य आशावादी है। उसे आशावादी रहना भी चाहिए, कि *"मैं इस जीवन में अपनी और समाज की उन्नति करूंगा।"* *"हम इस आशा का विरोध नहीं करते। आशावादी तो होना ही चाहिए।"* परंतु साथ ही साथ हम यह भी कहना चाहते हैं, कि *"वेदादि शास्त्र सबको सावधान करते हैं, कि "कल जिएंगे या नहीं जिएंगे इस बात की कोई 'गारंटी नहीं है।' इसलिए मृत्यु के आने से पहले खूब अच्छे-अच्छे काम कर लीजिए, ताकि फिर बुढ़ापे में पछताना न पड़े, कि जीवन निकल गया, और कुछ पुण्य तो कमाया नहीं।"* मृत्यु एक न एक दिन अवश्य आएगी। उस की तो गारंटी है। उससे बचने का कोई उपाय नहीं है। *"क्योंकि 'मृत्यु' का कारण है, 'जन्म लेना।' जब कारण = जन्म हुआ है, तो उसका परिणाम = मृत्यु भी अवश्य होगी। इसीलिए इस जन्म में मरने से बचने का कोई उपाय नहीं है।"* फिर वेदों में यह भी कहा है, कि *"जो व्यक्ति बार बार मरना नहीं चाहता, वह वेदों के अनुसार अष्टांग योग का अभ्यास करे। समाधि लगाकर अपनी अविद्या का नाश करे, और मोक्ष को प्राप्त करे।"* इस विधि से कार्य करने पर व्यक्ति बार-बार जन्म लेने और बार-बार मरने से बच सकता है। *"परन्तु इस बार तो जन्म हुआ है, इसलिए इस बार तो मरने से नहीं बच सकता।"* *"अतः वेदों के अनुसार अपना विचार चिंतन बनाएं। उसी के अनुसार अपना आचरण करें। "अष्टांग योग का अभ्यास करें। समाधि लगाकर अपनी अविद्या का नाश करें, और मोक्ष को प्राप्त करें।" तभी आप पूरे सुखी हो पाएंगे, अन्यथा नहीं।"*
Vedic vichar
20-04-2023
व्यक्ति चाहता है, मैं सुखी रहूं। मेरे बच्चे भी सुखी रहें। मेरा और मेरे परिवार का भविष्य भी अच्छा हो। *"परन्तु अविद्या अज्ञानता के कारण वह अनेक ऐसी गलतियां कर देता है, जिनके कारण उसका भविष्य दुखमय बन जाता है।" "इसलिए अपनी गलतियों को समझना और उन्हें दूर करना चाहिए। अपने भविष्य की योजनाएं बनाने से पूर्व अपने हितैषी विद्वानों से मार्गदर्शन अवश्य लेना चाहिए।"* *"लोगों ने धन संपत्ति को ही सुख प्राप्ति का सर्वोच्च साधन मान लिया है। यह बहुत बड़ी भूल है।"* इसके कारण से भारत के माता पिता अपने बच्चों को विदेश भेज रहे हैं, ताकि वे वहां खूब धन कमा सकें और सुखी रह सकें। कभी-कभी बच्चे भी एक दूसरे की देखा देखी और विदेश की कुछ भौतिक सुविधाओं को देखकर विदेश जाना चाहते हैं। *"हो सकता है, यहां भारत में व्यवस्थाओं में कुछ कमियां हों। परंतु इसका अर्थ यह नहीं होता, कि अपना देश अपनी मिट्टी छोड़कर विदेश चले जाएं। बल्कि यहां जो कमियां हैं उन्हें दूर करके अपने देश को सुंदर और सुखमय बनाना चाहिए। जैसे विदेशी लोग अपने देश को सुंदर और सुखमय बनाते हैं।"* *"विदेश में जाना और भोगवादी बनकर जीवन नष्ट कर लेना, यह कोई बुद्धिमत्ता नहीं है।"* विदेश में जाकर तो वे लोग केवल धन कमाकर खा पीकर भोग विलास करके कोई वास्तविक उन्नति नहीं कर पाएंगे। *"वास्तविक उन्नति तो भौतिकवाद तथा अध्यात्मवाद दोनों के संतुलन से होती है, जो कि भारत में संभव है, विदेशों में नहीं।"* विदेशों में भोगवाद तो है, परन्तु सच्चे वैदिक अध्यात्मवाद का अभाव है। *"इसलिए वहां के लोग भोगों में फंस कर अंत में दुखी परेशान होकर, या तो आत्महत्या करते हैं, या दूसरों को मारते हैं। इसलिए उस भोगवादी सभ्यता में कोई कल्याण नहीं है।"* विदेश में बच्चे खा पीकर भोगवादी हो जाते हैं। *"न वे माता पिता की सेवा करके उनके ऋण से मुक्त हो पाते, न ही भारतीय जनता की सेवा के ऋण से मुक्त हो पाते, जो उन्होंने अपने बचपन में 20 वर्ष तक लीं। और न ही कोई आध्यात्मिक उन्नति कर पाते। विदेश में बच्चों को अपने माता-पिता एवं गुरुजनों आदि का कोई मार्गदर्शन भी नहीं मिल पाता, जिसके अभाव में वे अनेक गलतियां भी कर बैठते हैं।" "इधर भारत में उनके माता-पिता वृद्धावस्था में परेशान होते हैं। कोई उनको सत्संग में ले जाने वाला नहीं मिलता। कोई उनकी दवाई चिकित्सा कराने वाला नहीं मिलता। कोई उनको ठीक से भोजन खिलाने वाला नहीं मिलता। परिवार ही टूट जाता है। यह कोई बुद्धिमत्ता है? क्या इसी का नाम उन्नति और सुख है? इस प्रकार से बच्चे और माता-पिता, दोनों की बहुत हानि होती है। दोनों ही बहुत कष्ट भोगते हैं।"* जो बच्चे विदेश में जाकर बस जाते हैं, उनकी नई संतान भी विदेशी होती है। *"वे लोग विदेश में 20 साल तक अपने बच्चों का पालन करते हैं, 2, 4 करोड़ रुपए भी अपने बच्चों पर खर्च करते हैं। और उनके बच्चे बड़े होकर विदेशी सभ्यता से जीवन जीते हैं। वे अपने माता-पिता की सेवा, या वृद्धावस्था में सम्मान आदि कुछ नहीं करते। यह भी बहुत बड़ी हानि है।"* *"इन सारी हानियों से बचने के लिए और अपने भविष्य की सुरक्षा के लिए कृपया अपने बच्चों को विदेश न भेजें। स्वयं भी भारत में रहें और अपने बच्चों को भी भारतीय सभ्यता संस्कृति के अनुसार विकसित करें। इसी में सबको सुख मिलेगा, सबका कल्याण होगा, और सबकी भौतिक एवं आध्यात्मिक, सब प्रकार की उन्नति होगी।"*
Vedic vichar
20-04-2023
संसार में बड़े-बड़े सेठ दिखाई देते हैं, जिनके पास धन संपत्ति और भौतिक साधन बहुत अधिक मात्रा में होते हैं। *"उनके पास धन तथा भौतिक साधन जितने अधिक होते हैं, वे उतने अधिक सुखी दिखाई नहीं देते। क्योंकि धन संपत्ति तथा उन भौतिक साधनों की प्राप्ति और सुरक्षा में, जो उन्हें श्रम करना पड़ता है, उससे उनका दुख कई गुना अधिक बढ़ जाता है। वह दुख उनके सुख को नष्ट कर देता है।"* *"और व्यक्ति जितने अधिक भौतिक साधनों का उपयोग करता है, उतना ही वह भौतिक साधनों के आधीन होता जाता है। इससे उसकी परतंत्रता भी बढ़ती जाती है, जो कि दुखदायक होती है। क्योंकि जब कभी वे साधन उपलब्ध नहीं हो पाते, तो उस समय वह व्यक्ति बहुत दुखी होता है।"* दूसरी ओर, ऐसे लोग भी दिखाई देते हैं, *"जिनके पास भौतिक साधन कम से कम होते हैं। तथा उनके जीवन में, यज्ञ करना ईश्वर की उपासना करना समाज की सेवा करना परोपकार करना वेदों का अध्ययन करना संतोष का पालन करना तपस्या करना अनुशासन में रहना इत्यादि शुभ गुण कर्म अधिक होते हैं। वे जितने कम भौतिक साधनों का उपयोग करते हैं, उतने ही वे अधिक स्वतन्त्र रहते हैं। ऐसे लोग बहुत अधिक सुखी दिखाई देते हैं।"* अतः दोनों की तुलना करने से पता चलता है, कि *"जिसके पास धन तथा भौतिक साधन अधिक होंगे, और शुभ गुण कर्म स्वभाव कम होंगे, वह कम सुखी और परतन्त्र होगा।" और "जिसके जीवन में भौतिक साधन कम होंगे, तथा ऊपर बताए शुभ गुण कर्म स्वभाव अधिक होंगे, वह व्यक्ति अधिक सुखी और स्वतन्त्र होगा।"* आप भी इन दोनों की तुलना करें और निर्णय करें, कि किस प्रकार से अपना जीवन बनाया जाए! *"यदि आप भौतिक साधन कम रखते हुए और उत्तम गुण कर्मों को धारण करते हुए अपना जीवन जिएंगे, तो अधिक सुखी, स्वतन्त्र एवं सफल होंगे।*
Vedic vichar
20-04-2023
संसार में अच्छे और बुरे सब प्रकार के काम होते रहते हैं। यह तो ठीक है, कि संसार में अच्छे काम होने चाहिएं। परंतु यह बात ठीक नहीं है, कि बुरे काम होने चाहिएं। *"जो लोग बुरे काम करते हैं, क्या वे अनपढ़ हैं? क्या वे इतना नहीं जानते कि बुरे काम नहीं करने चाहिएं?"* जी नहीं। *"जो लोग बुरे काम करते हैं, उनमें से अधिकांश लोग अनपढ़ नहीं हैं, पढ़े लिखे हैं। और जो अनपढ़ हैं भी, वे भी इतने अज्ञानी नहीं हैं, कि वे इस बात को न जानते हों, कि बुरे काम नहीं करने चाहिएं।"* अब प्रश्न यह होता है, कि *"जानते समझते हुए भी लोग बुरे काम क्यों करते हैं? क्या इन बुरे कामों से बचने का कोई उपाय नहीं है?"* उत्तर -- उपाय है। *"लोग बुरे काम इसलिए करते हैं, क्योंकि उन्हें शाब्दिक ज्ञान है, कि "झूठ बोलना चोरी करना छल कपट करना धोखा करना एक दूसरे की संपत्ति को हड़प लेना, ये सब बुरे काम हैं।" "वास्तव में लोग गहराई से इस बात को नहीं जानते, कि ये सब बुरे काम हैं। इनको करने से हमें भविष्य में ईश्वर की न्याय व्यवस्था से दंड भोगना पड़ेगा। क्योंकि ईश्वर सदा सबको देखता है। वह न्यायकारी है। वह हमें भी नहीं छोड़ेगा।"* इस प्रकार से लोग गहराई से नहीं समझते। जो लोग वास्तव में गहराई से इस बात को समझते हैं, वे लोग बुरे काम नहीं करते। *"उन्हें ऐसा वास्तविक ज्ञान कैसे हुआ? उसके बहुत से कारण हैं।"* जिनमें से दो मुख्य कारण ये हैं, कि *"वे लोग मृत्यु को सदा याद दखते हैं। और ईश्वर के दंड को भी याद रखते हैं," कि "एक न एक दिन हमें मरना होगा। और हमें अपने कर्मों का फल ईश्वर की न्याय व्यवस्था से भोगना होगा। उस से हम बच नहीं पाएंगे।" "यदि हम अच्छे काम करेंगे, तो ईश्वर हमको अगले जन्मों में मनुष्य बनाएगा और सुख देगा।" "यदि हम बुरे काम करेंगे, तो ईश्वर हमें अगले जन्मों में कीड़ा मकौड़ा पशु पक्षी आदि योनियों में डाल देगा, वहां हमें भयंकर दुख भोगने पड़ेंगे।"* *"इस प्रकार से जो व्यक्ति मृत्यु तथा कर्म फल व्यवस्था को समझता है, वह बुरे काम नहीं करता। आप भी समझने का प्रयत्न करें।"*
Vedic vichar
20-04-2023
कुछ शब्दों के भाव मिलते-जुलते से होते हैं। उन शब्दों के भावों में बहुत सूक्ष्म अंतर होता है। उसको समझना चाहिए। जब लोग उस सूक्ष्म अंतर को नहीं समझते, तो व्यवहार में बहुत सी गलतियां हो जाती हैं। जैसे *"दृढ़ता और हठ,"* इन दोनों में अंतर है। *"दृढ़ता का अर्थ है, किसी सत्य बात पर जमकर चलना। उसे छोड़ना नहीं।" "परंतु हठ का अर्थ है, किसी ग़लत बात पर अड़ जाना।"* इसका नाम दृढ़ता नहीं है, यह हठ कहलाता है। इसलिए दोनों के अंतर को समझें। *"व्यक्ति में दृढ़ता होनी चाहिए, हठ नहीं। दृढ़ता सुखदायक है, जबकि हठ दुखदायक है।"* इसी प्रकार से *"वीरता और क्रूरता"* इन दो शब्दों के भाव भी काफी कुछ मिलते जुलते से हैं। *"वीरता का अभिप्राय है दुष्टों को मारना। उनसे युद्ध करना, उनको जीत लेना।" "परंतु क्रूरता में ऐसा नहीं है। बल्कि सज्जनों कमजोर निर्बल रोगी विकलांग असहाय व्यक्तियों को अन्यायपूर्वक दुख देना, इसका नाम क्रूरता है, यह वीरता नहीं है."* एक अच्छे व्यक्ति में वीरता होनी चाहिए, क्रूरता नहीं। ऐसे ही *"दया और अभिमान"। "दया का तात्पर्य है दूसरों पर कृपा करना, उनको सहयोग देना, उनकी मदद करना, इस प्रकार का सेवा भाव व्यक्ति में होना चाहिए।" "परंतु इसके विपरीत अभिमान नहीं होना चाहिए। अभिमान का तात्पर्य है "अपनी योग्यता को, अपनी वास्तविक योग्यता से भी अधिक मानना, और दूसरों से अधिक अधिक धन सम्मान आदि सुविधाओं की अपेक्षा रखना। यदि उतना न मिले तो लड़ाई झगड़े करना, दूसरों का अधिकार छीनना। इस प्रकार के व्यवहारों का कारण अभिमान है."* यह कोई अच्छे मनुष्यों का लक्षण नहीं है। *"इसी प्रकार से व्यक्ति में 'ज्ञान' होना चाहिए। वेदों का ज्ञान, शुद्ध ज्ञान, जो अपना और सब का कल्याण कर सके। इसके विपरीत 'अज्ञान' नहीं होना चाहिए। अर्थात वेदों और वैदिक शास्त्रों को छोड़कर, अज्ञानी लोगों के लिखे ग्रंथों को पढ़कर, उल्टी बातें सीख लेना, इसका नाम अज्ञान है।" "यह अज्ञान व्यक्ति को सत्य से दूर ले जाता है। सुख से वंचित करता है। इसलिए व्यक्ति में ज्ञान होना चाहिए, अज्ञान नहीं।"* *"इन सूक्ष्म बातों पर विचार करें। सही को अपनाएं, ग़लत को छोड़ें। तभी आपका और सब का कल्याण होगा।"*
ईसाइयत से लोगों को बचाने की ऋषि दयानन्द की आर्यों को प्रेरणा. (Vedic vichar)
14-04-2023
सत्यार्थ प्रकाश के 13वें समुल्लास में एक स्थान पर ऋषि दयानन्द ने लिखा है - "यह भी विदित हुआ कि ईसा ने मनुष्यों के फसाने के लिये एक मत चलाया है कि जाल में मच्छी के समान मनुष्यों को स्वमत में फसाकर अपना प्रयोजन साधें । जब ईसा ही ऐसा था, तो आजकल के पादरी लोग अपने जाल में मनुष्यों को फसावें, तो क्या आश्चर्य है ? क्योंकि जैसे बड़ी-बड़ी और बहुत मच्छियों को जाल में फसानेवाले की प्रतिष्ठा और जीविका अच्छी होती है, ऐसे ही जो बहुतों को अपने मत में फसा ले, उसकी अधिक प्रतिष्ठा और जीविका होती है । इसी से ये लोग जिन्होंने वेद और शास्त्रों को न पढ़ा न सुना, उन बिचारे भोले मनुष्यों को अपने जाल में फसाके, उनके मा-बाप कुटुम्ब आदि से पृथक् कर देते हैं । इससे सब विद्वान् आर्यों को उचित है कि स्वयं इनके भ्रमजाल से बचकर अन्य अपने भोले भाइयों के बचाने में तत्पर रहें ।" (सत्यार्थप्रकाश, पृष्ठ ७६९, आर्यसमाज शताब्दी संस्करण, सन् १९७२, वि० सं० २०२९, सम्पादक : पण्डित युधिष्ठिर मीमांसक, रामलाल कपूर ट्रस्ट)
Advantages of believing in OMNIPOTENT ISHWAR :. (Vedic vichar)
14-04-2023
1. Believing in such archetype power directs you to establish strong determination in life. 2. Believing in omnipresent and formless ISHWAR gives strength to fight from miseries. 3.Believing in originator of all true knowledge, continues invoking inner determination of achieving more and more knowledge. 4.Believing in creator of the NATURE ,makes you fall in love with creation of ISHWAR. 5.Fearlessness, Increase in inner strength, follower of true path, liberation from fear of death , achievement of happiness at par excellence, spiritual development , Inner peace, life full of righteousness etc, a human can achieve theses qualities on being theist. 6.Liberation from vices like selfishness, sinful action , atrocities, sorrow, attraction and repulsion(राग-द्वेष), egotism etc.
Vedic vichar
14-04-2023
वेद मंत्र से करे दिन का शुभारम्भ ओं शं नो मित्रः शं वरुणः शं नो भवत्वर्य्यमा। शं न इन्द्रो बृहस्पतिः शं नो विष्णुरुरुक्रमः।।1।। ऋ. अ.1। अ.6।व.18। मं.9।। व्याख्यानः- हे सच्चिदानन्दानन्तस्वरूप, हे नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभाव, हे अद्वितीयानुपमजगदादिकारण, हे अज निराकार सर्वशक्तिमन्, न्यायकारिन्, हे जगदीश, सर्वजगदुत्पादकाधार, हे सनातन, सर्वमंगलमय, सर्वस्वामिन्, हे करुणाकरास्मत्पितः परमसहाय, हे सर्वानन्दप्रद, सकलदुःखविनाशक, हे अविद्यान्धकारनिर्मूलक, विद्यार्कप्रकाशक, हे परमैश्वर्यदायक, साम्राज्यप्रसारक, हे परमैश्वर्यदायक, साम्राज्यप्रकाशक, हे अधमोद्धारक, पतितपावन, मान्यप्रद, हे विश्वविनोदक, विनयविधिप्रद, हे विश्वासविलासक, हे निरंजन, नायक, शर्मद, नरेश, निर्विकार, हे सर्वान्तर्यामिन्, सदुपदेशक, मोक्षप्रद, हे सत्यगुणाकर, निर्मल, निरीह, निरामय, निरुपद्रव, दीनदयाकर, परमसुखदायक, हे दारिद्यविनाशक, निर्वैरविधायक, सुनीतिवर्धक, हे प्रीतिसाधक, राज्यविधायक, शत्रुविनाशक, हे सर्वबलदायक, निर्बलपालक, हे सुधर्मसुप्रापक, हे अर्थसुसाधक, सुकामवर्द्धक, ज्ञानप्रद, हे सन्ततिपालक, धर्मसुशिक्षक, रोगविनाशक, …हे पुरुषार्थप्रापक, दुर्गुणनाशक, सिद्धिप्रद, हे सज्जनसुखद, दुष्टताड़न, गर्वकुक्रोधकुलोभविदारक, हे परमेश, परेश, परमात्मन्, परब्रह्मन्, हे जगदानन्दक, परमेश्वर व्यापक सूक्ष्माच्छेद्य, हे अजरामृताभयनिर्बन्धनादे, हे अप्रतिमप्रभाव, निगुर्णातुल, विश्वाद्य, विश्ववन्द्य, विद्वद्विलासक, इत्याद्यनन्तविशेषणवाच्य, हे मंगलप्रदेश्वर ! आप सर्वथा सबके निश्चित मित्र हो, हमका सत्यसुखदायक सर्वदा हो, हे सर्वोत्कृष्ट, स्वीकरणीय, वरेश्वर ! आप वरुण अर्थात् सबसे परमात्तम हो, सो आप हम को परमसुखदायक हो, हे पक्षपातरहित, धर्म्मन्यायकारिन् ! आप आर्य्यमा (यमराज) हो इससे हमारे लिये न्याययुक्त सुख देनेवाले आप ही हो, हे परमैश्वर्य्यवन्, इन्द्रेश्वर ! आप हमको परमैर्श्वयुक्त शीघ्र स्थिर सुख दीजिये। हे महाविद्यावाचोधिपते, बृहस्पते, परमात्मन् ! हम लोगों को (बृहत्) सबसे बड़े सुख को देनेवाले आप ही हो, हे सर्वव्यापक, अनंत पराक्रमेश्वर विष्णो ! आप हमको अनंत सुख देओ, जो कुछ मांगेंगे सो आपसे ही हम लोग मांगेंगे, सब सुखों का देनेवला आपके विना काई नहीं है, सर्वथा हम लोगों को आपका ही आश्रय है। अन्य किसी का नहीं क्योंकि सर्वशक्तिमान् न्यायकारी दयामय सबसे बड़े पिता को छोड़ के नीच का आश्रय हम लोग कभी न करेंगे, आपका तो स्वभाव ही है कि अंगीकृत को कभी नहीं छोड़ते सो आप सदैव हमको सुख देंगे, यह हम लोगों को दृढ़ निश्चय है।।1।। महर्षि स्वामी दयानंद जी द्वारा प्रणीत आर्याभिविनय से उद्दृत
Vस्वामी दयानन्द सरस्वती को वेदविषयक ज्ञान कैसे हुआ? (Vedic vichar)
14-04-2023
✍???? लेखक - पण्डित युधिष्ठिर मीमांसक जी प्रस्तुति - ???? ‘अवत्सार’ स्वामी दयानन्द सरस्वती के समय वेदविषयक प्रचलित मान्यता के परिप्रेक्ष्य में यह जानना आवश्यक है कि उन्होंने वेदों का जो स्वरूप जनता एवं विद्वानों के समक्ष उपस्थापित किया, उसका परिज्ञान उन्हें कहाँ से और कैसे प्राप्त हुआ ? बाल्यावस्था में उन्होंने घर में केवल शुक्लयजुर्वेद की माध्यन्दिनसंहिता कण्ठस्थ की थी। यह बात उन्होंने स्वयं लिखित एवं कथित आत्मवृत्त में कही है। इससे अन्यत्र गृह-परित्याग के पश्चात् भी एक-दो स्थानों पर वेद पढ़ने का संकेत किया है, परन्तु उससे हम किसी विशेष परिणाम पर नहीं पहुंच सकते। गुरुवर स्वामी विरजानन्द सरस्वती से उन्होंने केवल पाणिनीय व्याकरण शास्त्र का ही अध्ययन किया था। इससे अधिक उनके जीवन चरितों से कुछ नहीं जाना जाता । श्री स्वामी विरजानन्द सरस्वती की प्रसिद्धि भी केवल वैयाकरण रूप में ही थी। हाँ, उन्हें जीवन के अन्तिम भाग में आर्षग्रन्थों और अनार्ष ग्रन्थों के मौलिक भेद का परिज्ञान हो गया था। इसलिये उन्होंने सिद्धान्तकौमुदी शेखर मनोरमा आदि का पठन पाठन बन्द करके अष्टाध्यायी महाभाष्य का पठन-पाठन प्रारम्भ कर दिया था। इसी काल में स्वामी दयानन्द सरस्वती अध्ययन के लिये उनके चरणों में उपस्थित हुए थे और गुरुमुख से महाभाष्यान्त पाणिनीय व्याकरण का अध्ययन किया था। इसलिये स्वामी दयानन्द सरस्वती के हृदय में आर्षग्रन्थों के प्रति जो असीम श्रद्धा और मानुषग्रन्थों के प्रति जो प्रतिक्रिया देखने में आती है, उसका उत्स स्वामी विरजानन्द सरस्वती की शिक्षा में ही मूलरूप से निहित है, परन्तु इसके विशदीकरण में स्वामी दयानन्द सरस्वती का अपना प्रमुख योगदान रहा है। उन्होंने अपने जीवन में सहस्रों ग्रन्थों का अध्ययन मनन और परीक्षण के अनन्तर भ्रमोच्छेदन में लिखा है कि मैं लगभग तीन सहस्र ग्रन्थों को प्रामाणिक मानता हूँ। यह सब कुछ होने पर भी स्वामी दयानन्द सरस्वती को वेद के उस स्वरूप का परिज्ञान कहाँ से हुआ, जिसे वे ताल ठोककर सबके सम्मुख उपस्थापित करते थे, यह जिज्ञासा का विषय बना ही रहता है। मैं इस गुत्थी को सुलझाने के लिये वर्षों से प्रयत्नशील रहा हूं, क्योंकि मेरी दृष्टि में स्वामी दयानन्द सरस्वती की देश जाति और समाज को उक्त वेद-विषयक देन सर्वोपरि है और इसी में निहित है उनके वेदोद्धार के कार्य की महत्ता एवं विलक्षणता । मैं अपने अल्पज्ञान एवं अल्प स्वाध्याय से इस विषय में इतना तो अवश्य समझ पाया है कि स्वामी दयानन्द सरस्वती ने जब विशाल संस्कृत वाङ्मय का आलोडन किया, तब उन्हें यह तत्त्व तो अवश्य ज्ञात हो गया होगा कि संस्कृत वाङ्मय के विविध विद्याओं के आकर ग्रन्थ स्व-स्वविद्या का उद्गम वेद से ही वणित करते हैं। [द्र०-वैदिकसिद्धान्तमीमांसा में छपा ????'वेदानां महत्त्वं तत्प्रवारोपायाश्च' संस्क० २ पृष्ठ १-१० (संस्कृत), पृष्ठ ३३-३७ (हिन्दी)।] अत: वेद में उन समस्त विद्याओं का मूलरूप से वर्णन होना ही चाहिये। स्वायम्भुव मनुप्रोक्त आद्य समाजशास्त्ररूप मनुस्मृति में समस्त मानव समाज के वेदो दित कर्तव्याकर्तव्य का विधान किया है और भूतभव्य तथा वर्तमान में उत्पन्न हुई या उत्पन्न होनेवाली समस्त समस्याओं का समाधान वेद ही कर सकता है,[????भूतं भव्यं भविष्यं च सर्व वेदात् प्रसिद्ध्यति। मनु० १२।१७ तथा इसी अध्याय के श्लोक ९४, ९९, १००] ऐसा उल्लेख मिलता है। इससे सम्पूर्ण मनुष्यव्यवहारोपयोगी कार्यों की समस्त समस्याओं का समाधान वेद कर सकता है, का बोध भी हो गया होगा, परन्तु शब्दप्रमाण से विज्ञात वेद का स्वरूप वैसा ही है या नहीं, इसके निश्चय के लिये प्रमाणान्तर की अपेक्षा भी रहती ही है। इसका कारण यह है कि शास्त्रकारों का लेख वेद के प्रति अतिशय श्रद्धा के कारण अथवा स्वप्रतिपाद्य विषय की प्रामाणिकता दर्शाने के लिये भी हो सकता है। अत: मेरी क्षुद्र बुद्धि में स्वामी दयानन्द सरस्वती को वेद का जो स्वरूप ज्ञात हुग्रा, उसका स्रोत कहीं बाहर नहीं, अपितु तत्स्थ (-उनके भीतर) ही होना चाहिये । क्योंकि ऊपर जिन शास्त्रों के आधार पर वेद के विशिष्ट स्वरूप की कल्पना की जा सकती है, वे शास्त्र तो शङ्कराचार्य और भट्टकुमारिल के समय न केवल विद्यमान थे अपितु वर्तमान काल की अपेक्षा अधिक पढ़े-पढ़ाये जाते थे। स्वामी शङ्कराचार्य प्रस्थानत्रयी (वेदान्त-उपनिषद्-गीता) तक ही सीमित रह गये, उन्होंने वेद के सम्बन्ध में न कुछ लिखा और न कहीं विचार ही प्रस्तुत किया। भट्टकुमारिल वैदिक कर्मकाण्ड में ही यावज्जीवन उलझे रहे। मैं इस विषय में जो समझ पाया हूं, वह इस प्रकार है - ◼️१. वेद के स्व शब्दों में ????उतो त्वस्मै तन्वं विसले जायेव पत्य उशती सुवासा (ऋ० १०।७१।५)= कोई एक ऐसा वेदविद्या का अधिकारी पुरुष होता है, जिसके सम्मुख वेदवाक् स्वयं अपने स्वरूप को उसी प्रकार प्रकट कर देती है जैसे ऋतुकाल में पति की कामना करती हुई अच्छे वस्त्र पहने हुई पत्नी स्वपति के सम्मुख गोपनीयतम अङ्गों को भी उद्घाटित कर देती है। ◼️२-जिस अधिकारी पुरुष के प्रति वेदवाक स्वयं अपना स्वरूप उद्घाटित करती है, वह कौन हो सकता है ? इस विषय में शास्त्रकार कहते हैं - ????न ह्यष प्रत्यक्षमस्त्यनषेरतपसो वा। अर्थात् वेद का प्रत्यक्ष उन्हीं को होता है, जो ऋषि और तपस्वी होते हैं। ◼️३-ऐसे ऋषिभूत एवं तपस्वी को वेद की प्राप्ति के लिये इधर-उधर भटकना नहीं पड़ता। वेदवाक् स्वयं उस हृदय में उपस्थित होकर अपने रहस्यों को उद्घाटित कर देती है ????अजान्ह वै पृश्नीस्तपस्यमानान्ब्रह्म स्वयंभ्वभ्यानर्षत त ऋषयोऽभवन्त दृषीणामूषित्वम्। -तैत्तिरीय आरण्यक २९ ????तद्यदेनांस्तपस्यमानान् ऋषीन् ब्रह्म स्वयमभ्यानर्षत। [त ऋषयोऽभवन् तद् ऋषीणामृषित्वम् ।[१] -निरुक्त २।११ इसका भाव यह है कि जो ऋषिभूत व्यक्ति यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति के लिये तपस्या करते हैं, उन्हें ब्रह्म (=वेद) स्वयं प्राप्त होता है । यही ऋषियों का ऋषित्व है। [१. स्वामी दयानन्द को सर्वविध विपरीत परिस्थितियों में वेद के यथार्थ स्वरूप का बोध कैसे हुआ ? इस विषय में मेरे मन में वर्षों से शंका बनी हुई थी। गतमास (८-१७ अगस्त १९६०)नर्मदातीरस्थ अपनी बाल-लीला स्थली माहिष्मती (महेश्वर) की यात्रा के प्रसङ्ग में जब मैं आर्यसमाज मल्हारगंज, इन्दौर में ठहरा हुमा था, तब अचानक ११ अगस्त की रात्रि में यह ब्राह्मणवचन स्मृति पटल पर उभरा और मेरी वर्षों की शङ्का का समाधान हो गया।] निरुक्त के उक्त वचन की व्याख्या में दुर्गाचार्य लिखता है - ????यद्यस्मादेनांस्तपस्यमानांस्तप्यमानान्ब्रह्म ऋग्यजुःसामाख्यं स्वयम्भु अकृतकमभ्यागच्छत्।[२] अनधीतमेव तत्त्वतो ददृशुस्तपो विशेषेण। यद्वाऽदर्शयदास्मानमित्यर्थोऽत्र विवक्षितः । -निरुक्त श्लोकवार्तिक २।३।५९ पृष्ठ ३१४ [२. वेंकटेश्वर प्रेस में छपे निरुक्त में शिवदत्त दाधिमथ ने लिखा है "आविर्भूतमित्यर्थः"] भगवान् श्रीकृष्ण ने गीता (१७।१४-१६) में कायिक वाचिक एवं मानसिक त्रिविध तपों का वर्णन किया है। ये विविध तप निश्चय ही मानव जीवन को उन्नत बनाने हारे हैं परन्तु वेदज्ञान की प्राप्ति के साक्षात् प्रयोजक नहीं हैं। निश्चय ही स्वामी दयानन्द सरस्वती ने गृह-त्याग के पश्चात् योग की प्राप्ति एवं सच्चे शिव के दर्शन के लिये कठोर कायिक वाचिक एवं मानसिक तपों से अपने शरीर वचन और मन को कुन्दन बना लिया था, द्वन्द्वातीत अवस्था को प्राप्त कर लिया था, परन्तु सद्गुरु अथवा यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति के लिये वे वर्षों बीहड़ वनों, हिमाच्छादित पर्वतों, उनकी कन्दरामों तथा गङ्गा एवं नर्मदा[३] के तटों पर वर्षों भ्रमण करते रहे। नर्मदा के तट पर ही उन्हें स्वामी विरजानन्द जैसे सद्गुरु का परिचय प्राप्त हुआ । वहाँ से उन्होंने मथुरा पाकर स्वामी विरजानन्द सरस्वती से पाणिनीय व्याकरण का अध्ययन किया, आर्ष-अनार्ष ग्रन्थों की भेदक कुजी प्राप्त की, परन्तु हम उन्हें सं० १९२४ के हरिद्वार के कुम्भ के पश्चात् पुनः सर्वविध परिग्रह से रहित केवल लंगोटी वस्त्रधारी के रूप में गङ्गा तट पर विचरते एवं तपस्या करते हुए देखते हैं। यह विचरण निधूत अवस्था में लगभग ८ वर्ष रहा। [३. भारतीय परम्परा में प्रसिद्धि है कि ज्ञान की प्राप्ति के लिये गङ्गा की और मोक्ष की प्राप्ति के लिये नर्मदा की परिक्रमा करनी चाहिये।] इसी निधूत अवस्था में विचरण करते हुए, उन्हें विविध शास्त्रों का अवलोकन एवं स्वाध्याय करता हुआ भी पाते हैं। स्वामी दयानन्द सरस्वती में यह स्वाध्याय की प्रवृत्ति हमें उनके जीवन के अन्त तक देखने को मिलती है। यद्यपि जीवन चरितों में इस विषय में विशेष उल्लेख नहीं मिलता, परन्तु यत्र-तत्र स्फूट प्रसङ्ग जीवन-चरितों में अवश्य उपलब्ध होते हैं । यथा - बनेडा यात्रा (२ अक्टू० से २६ अक्टू० १८८१) में राजकीय पुस्तकालय से निघण्टु के पाठ मिलाने अथर्व के मन्त्रों पर स्वर लगाने आदि का वर्णन मिलता है। द्र० - लेखरामजी कृत ऋ० द० स० जीवन चरित, हिन्दी पृष्ठ ५९१ (प्रथम संस्करण) । हमारी दृष्टि में 'स्वाध्याय' ही एक ऐसा तप है, जो वेद के ज्ञान विज्ञान की प्राप्ति में साक्षात् संबद्ध हो सकता है। वैदिक वाङ्मय में 'स्वाध्याय' शब्द वेद के अध्ययन का वाचक है, ऐसा सभी विद्वान् मानते हैं। प्रतिपक्ष[४] में 'प्रवचन' शब्द का प्रयोग होने से स्वाध्याय का अर्थ है स्वयं वेद का अध्ययन। [४. ????स्वाध्यायप्रवचनाभ्यां न प्रमदितव्यम् । ते० आर० ७।११।१। 'ऋतं च स्वाध्यायप्रवचने च' (त० आर० ९।७ आदि वचनों में)।] ब्रह्मर्षि याज्ञवल्क्य ने शतपथ में ????अथातः स्वाध्यायप्रशंसा के प्रकरण में स्वाध्याय को परम तप कहा है। उन्होंने लिखा है - ????यदि ह वाऽभ्यलङ्कृतः सुखे शयने शयानः स्वाध्यायमधीते आ हैव नखानन्यस्तपस्तप्यते य एवं विद्वान् स्वाध्यायमधीते । -शत० ११।५।१।४ अर्थात् जो व्यक्ति चन्दन माला आदि से अलङ्कृत होकर गुदगुदे बिस्तर पर लेटा हुआ भी स्वाध्याय करता है, वह पैर के नख के अग्र भाग तक तप करता है। इससे स्पष्ट है कि समस्त सांसारिक विषयों से वृत्तियों को रोककर अपने को वेदाध्ययन में ही प्रवृत्त रखना सबसे महान् एवं क्लिष्टतम तप है। तैत्तिरीय प्रारण्यक ७।९ में ऋत, सत्य, तप, शम, दम आदि सभी के साथ 'स्वाध्याय और प्रवचन' का निर्देश होने से जहाँ ऋत सत्य आदि धर्मों के पालन की अपेक्षा स्वाध्याय-प्रवचन की महत्ता जानी जाती है, वहाँ इसकी अवश्यकर्तव्यता का निर्देश भी किया है । इस प्रकरण के अन्त में नाक मौद्गल्य के मत का निर्देश इस प्रकार किया है - ????स्वाध्यायप्रवचने एवेति नाको मौद्गल्यः। तद्धि तपः तद्धि तपः। अर्थात् मुद्गल पुत्र 'नाक' महर्षि का मत है कि स्वाध्याय और प्रवचन ही तप है । वही तप है, वही तप है। 'स्वाध्याय' की सिद्धि होने पर ही वेदवाक् स्वयं अपने रूप को प्रकट करती है। पातञ्जल योगशास्त्र में स्वाध्याय की सिद्धि होने का फल इस प्रकार दर्शाया है - ????स्वाध्यायादिष्टदेवतासम्प्रयोगः। स्वाध्याय से इष्ट देवता विषय के साथ स्वाध्याय करनेवाले व्यक्ति का सम्बन्ध उपपन्न हो जाता है। स्वामी दयानन्द सरस्वती जैसे परम वराग्यसम्पन्न द्वन्द्वातीत तपस्वी का प्रथम लक्ष्य तो वेद का वास्तविक स्वरूप जानना ही था । वह उन्हें स्वाध्यायरूप परम तप से प्राप्त हुअा। यह मानना ही उचित प्रतीत होता है। जब मुझे इस तथ्य का आभास हुआ, स्वामी दयानन्द सरस्वती के प्रति मेरी प्रास्था अत्यधिक बढ़ गई। ✍???? लेखक - पण्डित युधिष्ठिर मीमांसक जी (पुस्तक - मेरी दृष्टि में स्वामी दयानन्द सरस्वती और उनका कार्य) ॥ओ३म्॥
ईश्वर (Vedic vichar)
14-04-2023
प्र. 1: ईश्वर का मुख्य नाम क्या है ? उत्तर: ईश्वर का मुख्य नाम ‘ओ३म्’ है। प्र. 2: ईश्वर के कुल कितने नाम हैं ? उत्तर: ईश्वर के असंख्य नाम हैं। प्र. 3: ईश्वर के नामों से हमें क्या पता चलता है ? उत्तर: ईश्वर के नामों से हमें उसके गुण, कर्म और स्वभाव का पता चलता है। प्र. 4: ईश्वर एक है या अनेक ? उत्तर: ईश्वर एक ही है उसके नाम अनेक हैं। प्र. 5: क्या ईश्वर कभी जन्म लेता है ? उत्तर: नहीं, ईश्वर कभी जन्म नहीं लेता। वह अजन्मा है। प्र. 6: स्तुति, प्रार्थना, उपासना किसकी करनी चाहिए ? उत्तर: स्तुति, प्रार्थना, उपासना केवल ईश्वर की ही करनी चाहिए। प्र. 7: ईश्वर से अध्कि सामर्थ्यशाली कौन है ? उत्तर: ईश्वर से अध्कि सामर्थ्यशाली और कोई नहीं है। वह सर्वशक्तिमान् है। प्र. 8: ‘इन्द्र’ नाम किसका है ? उत्तर: जिसमें सबसे अधिक ऐश्वर्य होता है उसे इन्द्र कहते हैं अर्थात् ‘इन्द्र’ ईश्वर का नाम है। प्र. 9: दुःख कितने प्रकार के और कौन-कौन से होते हैं ? उत्तर: दुःख तीन प्रकार के होते हैं - (1) आध्यात्मिक, (2) आधिभौतिक, (3) आधिदैविक दुःख। प्र. 10: आध्यात्मिक दुःख किसे कहते हैं ? उत्तर: अविद्या, राग-द्वेष, रोग इत्यादि से होने वाले दुःख को आध्यात्मिक दुःख कहते हैं। प्र. 11: आधिभौतिक दुःख किसे कहते हैं ? उत्तर: मनुष्य, पशु-पक्षी, कीट-पतंग, मक्खी-मच्छर, सांप इत्यादि से होने वाले दुःख को आधिभौतिक दुःख कहते हैं। प्र. 12: आधिदैविक दुःख किसे कहते हैं ? उत्तर: अधिक सर्दी-गर्मी-वर्षा, भूख-प्यास, मन की अशान्ति से होने वाले दुःख को आधिदैविक दुःख कहते हैं। प्र. 13: ईश्वर के कोई दस नाम बताइए। उत्तर: (1) विष्णु, (2) वरुण, (3) परमात्मा, (4) पिता, (5) ब्रह्मा, (6) महादेव, (7) महेश, (???? सरस्वती, (9) शिव, (10) गणेश। यह नाम ईश्वर के गुणवाचक हैं इन नामों के चित्र नहीं बन सकते। प्र. 14: ईश्वर के तीन गुण बताइए। उत्तर: ईश्वर के तीन गुण हैं - न्याय, दया और ज्ञान। प्र. 15: ईश्वर के तीन कर्म बताइए। उत्तर (1) ईश्वर संसार को बनाता है। (2) ईश्वर वेदों का उपदेश करता है। (3) ईश्वर कर्मों का फल देता है। प्र. 16: ‘अनन्त’ का अर्थ क्या है ? उत्तर: जिसका कभी अन्त नहीं होता उसे अनन्त कहते हैं। ईश्वर अनन्त है। प्र. 17: क्या ‘गणेश’ ईश्वर का नाम है? क्यों ? उत्तर: हाँ, क्योंकि वह पूरे संसार का स्वामी है और सबका पालन करता है। प्र. 18: ‘सरस्वती’ से आप क्या समझते हैं ? उत्तर ‘सरस्वती’ ईश्वर का एक नाम है। संसार का पूर्ण ज्ञान जिसे होता है, उसे सरस्वती कहते हैं। प्र. 19: ईश्वर को ‘निराकार’ क्यों कहते हैं ? उत्तर: ईश्वर का कोई आकार, रुप, रंग, मूर्ति नहीं है। अतः उसे निराकार कहते हैं । प्र. 20: क्या राहु और केतु ग्रहों के नाम हैं। उत्तर: नहीं, इस नाम के कोई ग्रह नहीं होते। ये दोनों नाम ईश्वर के हैं। प्र. 21: ईश्वर के किन्हीं दो नामों की व्याख्या कीजिए। उत्तर (क) ब्रह्मा - ईश्वर जगत् को बनाता है इसलिए उसे ब्रह्मा कहते हैं। (ख) शुद्ध - राग-द्वेष, छल-कपट, झूठ इत्यादि समस्त बुराइयों से वह दूर है। उसका स्वभाव पवित्र है। प्र. 22: ‘सत्यार्थ प्रकाश’ नामक ग्रन्थ की रचना किसने की थी ? उत्तर: ‘सत्यार्थ प्रकाश’ नामक ग्रन्थ की रचना महर्षि दयानन्द ने की थी।
बैसाखी के अवसर पर हिन्दू समाज के लिए सन्देश. (Vedic vichar)
14-04-2023
मुगल शासनकाल के दौरान बादशाह औरंगजेब का आतंक बढ़ता ही जा रहा था। चारों और औरंगज़ेब की दमनकारी नीति के कारण हिन्दू जनता त्रस्त थी। सदियों से हिन्दू समाज मुस्लिम आक्रांताओं के झुंडों पर झुंडों का सामना करते हुए अपना आत्म विश्वास खो बैठा था। मगर अत्याचारी थमने का नाम भी नहीं ले रहे थे। जनता पर हो रहे अत्याचार को रोकने के लिए सिख पंथ के गुरु गोबिन्द सिंह ने बैसाखी पर्व पर आज ही के दिन आनन्दपुर साहिब के विशाल मैदान में अपनी संगत को आमंत्रित किया। जहां गुरुजी के लिए एक तख्त बिछाया गया और तख्त के पीछे एक तम्बू लगाया गया। गुरु गोबिन्द सिंह के दायें हाथ में नंगी तलवार चमक रही थी। गोबिन्द सिंह नंगी तलवार लिए मंच पर पहुंचे और उन्होंने ऐलान किया- मुझे एक आदमी का सिर चाहिए। क्या आप में से कोई अपना सिर दे सकता है? यह सुनते ही वहां मौजूद सभी शिष्य आश्चर्यचकित रह गए और सन्नाटा छा गया। उसी समय दयाराम नामक एक खत्री आगे आया जो लाहौर निवासी था और बोला- आप मेरा सिर ले सकते हैं। गुरुदेव उसे पास ही बनाए गए तम्बू में ले गए। कुछ देर बाद तम्बू से खून की धारा निकलती दिखाई दी। तंबू से निकलते खून को देखकर पंडाल में सन्नाटा छा गया। गुरु गोबिन्द सिंह तंबू से बाहर आए, नंगी तलवार से ताजा खून टपक रहा था। उन्होंने फिर ऐलान किया- मुझे एक और सिर चाहिए। मेरी तलवार अभी भी प्यासी है। इस बार धर्मदास नामक जाट आगे आये जो सहारनपुर के जटवाडा गांव के निवासी थे। गुरुदेव उन्हें भी तम्बू में ले गए और पहले की तरह इस बार भी थोड़ी देर में खून की धारा बाहर निकलने लगी। बाहर आकर गोबिन्द सिंह ने अपनी तलवार की प्यास बुझाने के लिए एक और व्यक्ति के सिर की मांग की। इस बार जगन्नाथ पुरी के हिम्मत राय झींवर (पानी भरने वाले) खड़े हुए। गुरुजी उन्हें भी तम्बू में ले गए और फिर से तम्बू से खून धारा बाहर आने लगी। गुरुदेव पुनः बाहर आए और एक और सिर की मांग की तब द्वारका के युवक मोहकम चन्द दर्जी आगे आए। इसी तरह पांचवी बार फिर गुरुदेव द्वारा सिर मांगने पर बीदर निवासी साहिब चन्द नाई सिर देने के लिए आगे आये। मैदान में इतने लोगों के होने के बाद भी वहां सन्नाटा पसर गया, सभी एक-दूसरे का मुंह देख रहे थे। किसी को कुछ समझ नहीं आ रहा था। तभी तम्बू से गुरु गोबिन्द सिंह केसरिया बाना पहने पांचों नौजवानों के साथ बाहर आए। पांचों नौजवान वहीं थे जिनके सिर काटने के लिए गुरु गोबिन्द सिंह तम्बू में ले गए थे। गुरुदेव और पांचों नौजवान मंच पर आए, गुरुदेव तख्त पर बैठ गए। पांचों नौजवानों ने कहां गुरुदेव हमारे सिर काटने के लिए हमें तम्बू में नहीं ले गए थे बल्कि वह हमारी परीक्षा थी। तब गुरुदेव ने वहां उपस्थित सिक्खों से कहा आज से ये पांचों मेरे पंज प्यारे हैं। गुरु गोविन्द सिंह के महान संकल्प से खालसा की स्थापना हुई। हिन्दू समाज अत्याचार का सामना करने हेतु संगठित हुआ। यह घटना एक मनोवैज्ञानिक प्रयोग था। गुरु साहिबान ने अपनी योग्यता के अनुसार यह प्रयोग कर हिन्दुओं को संगठित करने का प्रयास किया। पञ्च प्यारों में सभी जातियों के प्रतिनिधि शामिल हुए थे। इसका अर्थ यही था कि अत्याचार का सामना करने के लिए हिन्दू समाज को जात-पात मिटाकर संगठित होना होगा। तभी अपने से बलवान शत्रु का सामना किया जा सकेगा। खेद है की हिन्दुओं ने गुरु गोविन्द सिंह के सन्देश पर अमल नहीं किया। जात-पात के नाम पर बटें हुए हिन्दू समाज में संगठन भावना शुन्य है। गुरु गोविन्द सिंह ने स्पष्ट सन्देश दिया कि कायरता भूलकर, स्व बलिदान देना जब तक हम नहीं सीखेंगे तब तक देश, धर्म और जाति की सेवा नहीं कर सकेंगे। अन्धविश्वास में अवतार की प्रतीक्षा करने से कोई लाभ नहीं होने वाला। अपने आपको समर्थ बनाना ही एक मात्र विकल्प है। धर्मानुकूल व्यवहार, सदाचारी जीवन, अध्यात्मिकता, वेदादि शास्त्रों का ज्ञान जीवन को सफल बनाने के एकमात्र विकल्प हैं। 1. आज हमारे देश में सेक्युलरता के नाम पर, अल्पसंख्यक के नाम पर, तुष्टिकरण के नाम पर अवैध बांग्लादेशियों, रोहिंग्या को बसाया जा रहा हैं। 2. हज सब्सिडी दी जा रही है, मदरसों को अनुदान और मौलवियों को मासिक खर्च दिया जा रहा हैं, आगे आरक्षण देने की तैयारी हैं। 3. वेद, दर्शन, गीता के स्थान पर क़ुरान और बाइबिल को आज के लिए धर्म ग्रन्थ बताया जा रहा हैं। 4. हमारे अनुसरणीय राम-कृष्ण के स्थान पर साईं बाबा, ग़रीब नवाज, मदर टेरेसा को बढ़ावा दिया जा रहा हैं। 5. ईसाईयों द्वारा हिन्दुओं के धर्मान्तरण को सही और उसका प्रतिरोध करने वालों को कट्टर बताया जाता रहा हैं। 6. गौरी-ग़जनी को महान और शिवाजी और प्रताप को भगोड़ा बताया जा रहा हैं। 7.1200 वर्षों के भयानक और निर्मम अत्याचारों कि अनदेखी कर बाबरी और गुजरात दंगों को चिल्ला चिल्ला कर भ्रमित किया जा रहा हैं। 8. हिन्दुओं के दाह संस्कार को प्रदुषण और जमीन में गाड़ने को सही ठहराया जा रहा हैं। 9. दीवाली-होली को प्रदुषण और बकर ईद को त्योहार बताया जा रहा हैं। 10. वन्दे मातरम, भारत माता की जय बोलने पर आपत्ति और कश्मीर में भारतीय सेना को बलात्कारी बताया जा रहा हैं। 11. विश्व इतिहास में किसी भी देश, पर हमला कर अत्याचार न करने वाली हिन्दू समाज को अत्याचारी और समस्ते विश्व में इस्लाम के नाम पर लड़कियों को गुलाम बनाकर बेचने वालों को शांतिप्रिय बताया जा रहा हैं। 12. संस्कृत भाषा को मृत और उसके स्थान पर उर्दू, अरबी, हिब्रू और जर्मन जैसी भाषाओं को बढ़ावा दिया जा रहा हैं। हमारे देश, हमारी आध्यात्मिकता, हमारी आस्था, हमारी श्रेष्ठता, हमारी विरासत, हमारी महानता, हमारे स्वर्णिम इतिहास सभी को मिटाने के लिए सुनियोजित षड़यंत्र चलाया जा रहा हैं। गुरु गोविन्द सिंह के पावन सन्देश- जातिवाद और कायरता का त्याग करने और संगठित होने मात्र से हिन्दू समाज का हित संभव हैं। आइये बैसाखी पर एक बार फिर से देश, धर्म और जाति की रक्षा का संकल्प ले।
*ज्योतिबाफुले, बाबा साहेब आंबेडकर व कुछ अन्य विद्वानों के ऋषि दयानंद जी के बारे में विचार-*(Vedic vichar)
14-04-2023
स्वामी दयानन्द के पूना प्रवास के समय ज्योतिबा फुले स्वामी जी का विशेष स्वागत करने वालों में से थे। फुले के आग्रह पर स्वामी दयानन्द फुले द्वारा स्थापित दलित लड़कियों की पाठशाला में गायत्री मंत्र पर उपदेश देने गए थे। फुले की संस्था ने स्वामी दयानन्द जी के सम्मान हेतु प्रशस्ति पत्र भी भेंट किया था। स्वामी दयानन्द के पूना प्रवास के समय उन्नीस भाषण हुए थे जो उपदेश मंजरी के नाम से लिखित मिलते हैं। फुले उन भाषणों को सुनने के लिए नियमित रूप से आते थे। अंतिम दिनों में स्वामी दयानन्द को हाथी पर बैठाकर जुलुस निकाला गया था। हाथी एक ओर, एक और महागोविंद रानाडे और दूसरी और फुले स्वयं चल रहे थे। देश व समाज को जन्मना जाति व्यवस्था के अभिशाप से मुक्त कराने के लिए ऋषि दयानन्द के दलितोद्धार के कुछ प्रेरक कार्य- वर्णव्यवस्था जन्मना है या कर्मणा ? यदि उसे जन्मना माना जाय तो वह जातिगत भेदभाव को निर्माण करने का एक महत्तवपूर्ण कारण सिद्ध होती है। ऋषि दयानन्द कर्मणा वर्णव्यवस्था के पक्षधर हैं। उनकी यह धारणा थी कि जन्मना वर्णव्यवस्था तो पांच-सात पीढ़ियों से शुरु हुई है,अतः उसे पुरातन या सनातन नहीं कहा जा सकता। अपनें तार्किक प्रमाणों द्वारा उन्होंने जन्मना वर्णव्यवस्था का सशक्त खंड़न किया है। उनकी दृष्टि में जन्म से सब मनुष्य समान हैं, जो जैसे कर्तव्य-कर्म करता है,वह वैसे वर्ण का अधिकारी होता है। अस्पृश्य अछूत-दलित शब्द का विवेचन प्रस्तुत करते हुए डा. कुशलदेव शास्त्री लिखते हैं कि दलितोद्धार से पूर्व दलितों के लिए सार्वजनकि सामाजिक क्षेत्र में अस्पृश्य और अछूत शब्द प्रचलित थे,लेकिन जब समाज-सुधार के बाद समाज में यह धारणा बनने लगी कि कोई भी अस्पृश्य और अछूत नहीं है,तो धीरे-धीरे अस्पृश्य के स्थान पर दलित शब्द रुढ़ हो गया। स्वाभाविक रूप से अस्पृश्योद्धार वा अछूतोद्धार का स्थान भी दलितोद्धार ने ले लिया।मानसिक परिवर्तन ने पारिभाषिक संज्ञाओं को भी परिवर्तित कर दिया। दीर्घ समय तक सामाजिक,आर्थिक आदि दृष्टि से जिनका दलन किया गया,कालान्तर में उन्हें ही दलित कहा गया। पं. इन्द्र विद्यावाचस्पति के अनुसार जब यह महसूस किया जाने लगा कि शुद्धि और दलितोद्धार दोनों चीजें एक सी नहीं हैं।दलितों की हीन दशा के लिए सवर्ण समझे जाने वाले लोग ही जिम्मेदार हैं,जिन्होंने जाति के करोड़ों व्यक्तियों को अछूत बना रखा है।उन्हें मानवता का अधिकार देना सवर्णों का कर्तव्य है।इस विचार को सामने रखकर आर्य समाज के कार्यकर्ताओं ने अछूतों के लिए दलित और अछूतों के उद्धार कार्य के लिए दलितोद्धार की संज्ञा दे दी।तभी से अछूतों की शुद्धि के संदर्भ में दलितोद्धार संज्ञा प्रचलित हो गयी। यह बात अविस्मरणीय है कि आर्य समाज के समाज सुधार आंदोलन ने ही दलित-आन्दोलन को दलित और दलितोद्धार जैसे सक्षम शब्द प्रदान किये हैं। महर्षि दयानन्द अपने ही नही सबके मोक्ष की चिंता करनेवाले थे।किसी जाति-सम्प्रदाय वर्ग विशेष के लिए नहीं,अपितु सारे संसार के उपकार के लिए उन्होंने आर्यसमाज की स्थापना की थी। सन् 1880 मेन काशी में एक दिन एक मनुष्य ने वर्ण व्यवस्था को जन्मगत सिद्ध करने के उद्देश्य से महाभाष्य का निम्न श्लोक प्रस्तुत कियाः- विद्या तपश्च योनिश्च एतद् ब्राह्मण कारकम्।विद्या तपोभ्यां यो हीनो जाति ब्राह्मण एव सः।। 4/1/48।। अर्थात् ब्राह्मणत्व के तीन कारक हैं –1) विद्या, 2) तप और 3) योनि।जो विद्या और तप से हीन है वह जात्या (जन्मना) ब्राह्मण तो है ही। ऋषि दयानन्द ने प्रतिखंडन में मनु का यह श्लोक प्रस्तुत किया- यथा काष्ठमयो हस्ती, यश्चा चर्ममयो मृगः। यश्च विप्रोऽनधीयानस्त्रयस्ते नाम बिभ्रति।।-मनु०(2,157) अर्थात् जैसे काष्ठ का कटपुतला हाथी और चमड़े का बनाया मृग होता है,वैसे ही बिना पढ़ा हुआ ब्राह्मण होता है।उक्त हाथी,मृग और विप्र ये तीनों नाममात्र धारण करते हैं ऋषि दयानन्द से पूर्व और विशेष रूप से मध्यकाल से ब्राह्मणों के अतिरिक्त सभी वर्णस्थ व्यक्तियों को शूद्र समझा गया था,अतः क्रमशः मुगल और आंग्ल काल में महाराष्ट्र केसरी छत्रपति शिवाजी महाराज,बड़ौदा नरेश सयाजीराव गायकवाड और कोल्हापुर नरेश राजर्षि शाहू महाराज को उपनयन आदि वेदोक्त संस्कार कराने हेतु आनाकानी करनेवाले ब्राह्मणों के कारण मानसिक यातनाओं के बीहड़ जंगल से गुजरना पड़ा था। ऋते ज्ञानान्नमुक्तिः अर्थात् ज्ञानी हुए बिना इन्सान की मुक्ति संभव नहीं है।अतः ऋषि दयानन्द का दलितोद्धार की दृष्टि से भी सब से महान् कार्य यह था कि उन्होंने सबके साथ दलितों के लिए भी वेद-विद्या के दरवाजे खोल दिए।मध्यकाल मे स्त्री-शूद्रों के वेदाध्ययन पर जो प्रतिबंध लगाये गए थे,आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द ने अपने मेधावी क्रांतिकारी चिंतन और व्यक्तित्व से उन सब प्रतिबंधों को अवैदिक सिद्ध कर दिया।ऋषि दयानन्द के दलितोद्धार के इस प्रधान साधन और उपाय में ही उनके द्वारा अपनाये गए अन्य सभी उपायों का समावेश हो जाता है,जैसे- दलित स्त्री-शूद्रों को गायत्री मंत्र का उपदेश देना, उनका उपनयन संस्कार करना, उन्हें होम-हवन करने का अधिकार प्रदान करना, उनके साथ सहभोज करना, शैक्षिक संस्थाओं में शिक्षा वस्त्र और खान पान हेतु उन्हें समान अधिकार प्रदान करना, गृहस्थ जीवन में पदार्पण हेतु युवक-युवतियों के अनुसार (अंतरजातीय) विवाह करने की प्रेरणा देना आदि। डा. आंबेडकर जी ने भी स्वीकार किया है कि-‘‘स्वामी दयानन्द द्वारा प्रतिपादित वर्णव्यवस्था बुद्धि गम्य और निरूपद्रवी है।” डा. बाबासाहेब आंबेडकर मराठवाड़ा विश्वविद्यालय के उपकुलपति,महाराष्ट्र के सुप्रसिद्ध वक्ता प्राचार्य शिवाजीराव भोसले जी ने अपने एक लेख में लिखा है,‘राजपथ से सुदूर दुर्गम गांव में दलित पुत्र को गोदी में बिठाकर सामने बैठी हुई सुकन्या को गायत्री मंत्र पढ़ाता हुआ एकाध नागरिक आपको दिखाई देगा तो समझ लेना वह ऋषि दयानन्द प्रणीत का अनुयायी होगा।’ आर्यसमाजी न होते हुए भी ऋषि दयानन्द की जीवनी के अध्ययन और अनुसंधान में पन्द्रह से भी अधिक वर्ष समर्पित करने वाले बंगाली बाबू देवेंद्रनाथ ने दयानन्द की महत्ता का प्रतिपादन करते हुए लिखा है,‘वेदों के अनधिकार के प्रश्न ने तो स्त्री जाति और शूद्रों को सदा के लिए विद्या से वंचित किया था और इसी ने धर्म के महंतों और ठेकेदारों की गद्दियां स्थापित की थीं,जिन्होंने जनता के मस्तिष्क पर ताले लगाकर देश को रसातल में पहुंचा दिया था। दयानन्द तो आया ही इसलिए था कि वह इन तालों को तोड़कर मनुष्यों को मानसिक दासता से छुड़ाए।’ ऋषि दयानन्द के काशी शास्त्रार्थ में उपस्थित पं. सत्यव्रत सामश्रमी ने भी स्पष्ट रूप से स्वीकार करते हुए लिखा है,‘‘शूद्रस्य वेदाधिकारे साक्षात् वेदवचनमपि प्रदर्शितं स्वामि दयानन्देन यथेमां वाचं ….. इति।” डा. चन्द्रभानु सोनवणे ने लिखा है,‘मध्यकाल में पौराणिकों ने वेदाध्ययन का अधिकार ब्राह्मण पुरुष तक ही सीमित कर दिया था,स्वामी दयानन्द ने यजुर्वेद के (26/2) मंत्र के आधार पर मानवमात्र को वेद की कल्याणी वाणी का अधिकार सिद्ध कर दिया।स्वामीजी इस यजुर्वेद मंत्र के सत्यार्थद्रष्टा ऋ़षि हैं।’ ऋषि दयानन्द के बलिदान के ठीक दस वर्ष बाद उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए दादा साहेब खापर्डे ने लिखा था,‘स्वामीजी ने मंदिरों में दबा छिपाकर रखे गए वेद भंडार समस्त मानव मात्र के लिए खुले कर दिये।उन्होंने हिंदू धर्म के वृक्ष को महद् योग्यता से कलम करके उसे और भी अधिक फलदायक बनाया।’ ‘वेदभाष्य पद्धित को दयानन्द सरस्वती की देन’ नामक शोध प्रबंध के लेखक डा. सुधीर कुमार गुप्त के अनुसार ‘स्वामी जी ने अपने वेदभाष्य का हिंदी अनुवाद करवा कर वेदज्ञान को सार्वजनिक संपत्ति बना दिया।’ पं. चमूपति जी के शब्दों में ‘दयानन्द की दृष्टि में कोई अछूत न था।उनकी दयाबल-बली भुजाओं ने उन्हें अस्पृश्यता की गहरी गुहा से उठाया और आर्यत्व के पुण्यशिखर पर बैठाया था।’ हिंदी के सुप्रसिद्ध छायावादी महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने लिखा है ‘‘देश में महिलाओं,पतितों तथा जाति-पांति के भेदभाव को मिटाने के लिए महर्षि दयानन्द तथा आर्य समाज से बढ़कर इस नवीन विचारों के युग में किसी भी समाज ने कार्य नहीं किया। आज जो जागरण भारत में दीख पड़ता है, उसका प्रायः सम्पूर्ण श्रेय आर्य समाज को है।’ महाराष्ट्र राज्य संस्कृति संवर्धन मंडल के अध्यक्ष मराठी विश्वकोश निर्माता तर्क-तीर्थ लक्ष्मण शास्त्री जोशी ऋषि दयानन्द की महत्ता लिखते हुए कहते हैं, ‘सैकड़ों वर्षों से हिंदुत्व के दुर्बल होने के कारण भारत बारंबार पराधीन हुआ।इसका प्रत्यक्ष अनुभव महर्षि स्वामी दयानन्द ने किया।इसलिए उन्होंने जन्मना जातिभेद और मूर्तिपूजा जैसी हानिकारक रुढ़ियों का निर्मूलन करनेवाले विश्वव्यापी महत्वाकांक्षा युक्त आर्यधर्म का उपदेश किया। इस श्रेणी के दयानन्द यदि हजार वर्ष पूर्व उत्पन्न हुए होते,तो इस देश को पराधीनता के दिन न देखने पड़ते।इतना ही नहीं,प्रत्युत विश्व के एक महान् राष्ट्र के रूप में भारतवर्ष देदीप्यमान होता।’ मनुस्मृति के संबंध में प्रचलित भ्रांतियों के निवारण के लिए #डॉ_विवेक_आर्य द्वारा रचित एवं मनुस्मृति भाष्यकार एवम पूर्व उप कुलपति डॉ सुरेंद्र कुमार जी द्वारा संपादित मनुस्मृति को जानें पुस्तक अवश्य पढ़ें।
Vedic vichar
12-04-2023
*"प्रत्येक व्यक्ति को अपने सुखमय भविष्य के लिए धन बल विद्या बुद्धि स्वास्थ्य सेवा सम्मान आदि सब कुछ चाहिए। इनके बिना वह सुखी नहीं हो सकता।"* *"यदि आप की भी इस प्रकार की इच्छाएं पूरी हो जाती हैं, तो आपका भविष्य सुखमय हो सकता है।" "परंतु ये सब सुविधाएं, हाथ पर हाथ धरकर बैठने से तो नहीं मिलेंगी।"* क्योंकि ईश्वर का यह नियम है, कि *"जो व्यक्ति पुरुषार्थ करेगा, उसी को सब धन बल विद्या बुद्धि सुख आदि प्राप्त होगा। और जो आलसी होगा, उसे कुछ नहीं मिलेगा। उसके हिस्से में केवल दुख ही आएगा।"* इसलिए यदि आप अपना भविष्य सुखमय बनाना चाहते हों, सब प्रकार की सुख सुविधाएं प्राप्त करना चाहते हों, तो यह आप पर निर्भर करता है। अर्थात *"यदि आप पुरुषार्थी बनेंगे, तो सब कुछ मिलेगा। यदि आलसी रहेंगे, तो कुछ नहीं।"* अब आप स्वयं सोचिए, कि *"आपको सुखी होना है या दुखी!"*
Vedic vichar
12-04-2023
*"एक ओर व्यक्ति अपने जीवन में सफलता भी प्राप्त करना चाहता है। और दूसरी ओर वह स्वयं के साथ झूठ बोल बोलकर स्वयं को धोखा देता रहता है। ये दोनों बातें एक साथ संभव नहीं हैं।"* अपने साथ झूठ बोलने का तात्पर्य यह है, कि *"व्यक्ति अपने दोषों के साथ समझौता करता रहता है।"* वह दूसरों के साथ झूठ छल कपट अन्याय पक्षपात आदि दोष पूर्ण व्यवहार करता है। *"वह अपने दोषों को स्वयं तो देखता ही नहीं। यदि उसका हितैषी कोई दूसरा व्यक्ति उसे दोष बताए, तो वह ध्यान से सुनता नहीं। उन दोषों को दूर नहीं करता, और अपने आप को झूठी तसल्ली देता रहता है," कि "नहीं नहीं, यह कोई दोष नहीं है। मैं जो करता हूं, वह तो ठीक ही है। इसमें कोई गलती नहीं है।"* इस प्रकार से स्वयं से झूठ बोल बोल कर, स्वयं को धोखा देता रहता है। इस प्रकार से *"जब वह अपने दोषों को दूर नहीं करता, और जब तक सेवा न्याय दया सत्य परोपकार आदि गुणों को धारण नहीं करता, तब तक उसकी उन्नति संभव नहीं है।"* *"इसलिए अपने दोषों को निष्पक्ष भाव से देखें। उन्हें स्वीकार करें। उन्हें दूर करने में पूरा परिश्रम करें। तथा सेवा न्याय दया सत्य परोपकार आदि उत्तम गुणों को धारण करें, तभी आप अपने जीवन में सफलता प्राप्त कर सकते हैं।"*
Vedic vichar
12-04-2023
आप जीवन में प्रतिदिन सुखी होना चाहते हैं या कभी-कभी? आप कहेंगे, *"हम प्रतिदिन सुखी होना चाहते हैं. कभी-कभी क्यों?"* क्योंकि आत्मा का यह स्वभाव ही है, कि *"वह सदा सुखी रहना चाहता है. बल्कि हर क्षण में सुखी रहना चाहता है."* *"अतः यदि आप प्रतिदिन सुखी रहना चाहते हों, तो इसके लिए बड़ी-बड़ी घटनाएं न ढूंढें।"* क्योंकि बड़ी बड़ी घटनाएं तो जीवन में कभी कभार ही होती हैं। जैसे कभी किसी के विवाह का उत्सव, किसी की सगाई, किसी का नामकरण, किसी का मुंडन अथवा कभी कभी विदेश यात्रा आदि। *"यदि आप केवल इन्हीं अवसरों पर सुख ढूंढते हैं, तो आप जीवन में कभी-कभार ही सुखी हो पाएंगे, प्रतिदिन नहीं।"* *"यदि आप प्रतिदिन सुखी होना चाहते हैं, तो छोटी-छोटी घटनाओं में सुख को ढूंढें।"* कैसे ढूंढें? छोटी-छोटी घटनाएं प्रतिदिन होती रहती हैं। जो भी घटना होती है, उसमें कुछ अंश सकारात्मक होता है, और कुछ नकारात्मक। *"आप उन घटनाओं के सकारात्मक अंश को देखें, नकारात्मक को नहीं। सकारात्मक अंश को देखने से व्यक्ति का सुख बढ़ता है।"* उदाहरण के लिए - आपने नौकर से कहा कि *"जाओ, बाजार से अमुक कंपनी का साबुन ले आओ।"* आपका नौकर बाजार में साबुन लेने गया। परंतु जिस कंपनी का आपने मंगवाया था, उस कंपनी का नहीं मिला। उसने आप से फोन द्वारा पूछा, कि *"इस कंपनी का साबुन नहीं मिला। क्या दूसरी कंपनी का साबुन ले आऊं?"* आपने कहा, *"हां, ले आओ।"* आप से पूछकर वह किसी दूसरी कंपनी का साबुन ले आया। अब इस घटना में *"आपकी मनपसंद कंपनी का साबुन नहीं मिला।"* यह नकारात्मक अंश है. लेकिन *"किसी दूसरी कंपनी का साबुन मिल तो गया."* यह सकारात्मक अंश है. *"साबुन बिल्कुल ही न मिलता, उससे तो यह अच्छा ही हुआ, कि कोई न कोई साबुन तो मिल ही गया! आपका काम तो चल ही गया!"* यदि आप इतने में संतोष का पालन करें, तो इसको कहेंगे कि *"आप घटना के सकारात्मक अंश को देख रहे हैं। और ऐसा करने से आप सुखी हो जाएंगे।"* यदि आप बार-बार ऐसा सोचेंगे कि *"देखो मेरा मनपसंद साबुन नहीं मिला. मेरा मनपसंद साबुन नहीं मिला."* तो इसका अर्थ यह होगा, कि *"आप घटना के नकारात्मक अंश को देख रहे हैं." ऐसा करने से आप दुखी होंगे।"* इस प्रकार से नकारात्मक अंश को न देखें, बल्कि सकारात्मक अंश को देखें। इससे आप प्रतिदिन सुखी हो सकते हैं। *"सदा सुखी रहने का इससे उत्तम और कोई उपाय नहीं है।"* *"यदि कहीं प्रयास करने से आपकी मनपसंद कंपनी का साबुन मिल जाए, तो वह प्रयास भी करें,"* इस बात का निषेध नहीं है। परंतु *"यदि प्रयास करने पर भी न मिले, तब दुखी न हों, और जो भी साबुन मिला, उसी से ही काम चलाएं।"* एक अन्य उदाहरण -- *"एक गिलास में आधे तक पानी भरा था। आधा गिलास खाली था।"* किसी ने सोचा, *"इस गिलास में तो आधा ही पानी है।"* इस प्रकार से सोचना, यह नकारात्मक अंश को देखना है। इसी घटना पर दूसरे व्यक्ति ने सोचा, *"अरे आधा गिलास पानी तो मिला। इतने पानी का तो लाभ उठाओ।"* यह सकारात्मक अंश को देखना है। इससे व्यक्ति सुखी होता है। *"बुद्धिमान के लिए एक दो उदाहरण ही पर्याप्त होते हैं। इसी प्रकार से आप सभी घटनाओं को समझ लेंगे।"*
क्या मुक्त जीवों का कोई शरीर नहीं होता?
10-04-2023
सभी योगियों, ऋषियों, मुनियों और आम लोगों के पास एक शरीर होता है और वे सभी (निश्चित रूप से) मुंडकोपनिषद की भाषा में जीवन की आवश्यकता की पुष्टि करते हैं और उसकी सिद्धि के लिए उर्वर हो जाते हैं, अर्थात मुक्त हो जाते हैं। यह मुक्त आत्मा शरीर में कैसे रहती है? इस संदर्भ में, मुंडु कोपनिसद कहते हैं, "समंद्यह सयंदमन एक नाम के रूप में समुद्र में संग्रहीत है। इस प्रकार विद्वान्नम रूप द्विमुक्ता 8 परं परंग पुरु मुपेति दिब्यम" (8)। अर्थात जब नदी समुद्र में विलीन हो जाती है तो उसका नाम और रूप बदल जाता है अर्थात वह समुद्र बन जाता है। वह सागर में लीन हो जाता है अर्थात योगी अपनी इच्छा रूप को छोड़कर ध्यान के माध्यम से आत्मा तक पहुँच जाता है। प्रत्येक कविता के 2 भाग होते हैं, बाह्य और आंतरिक। रूप, रंग, आकार और प्रकार बाह्य रूप से देखे जाते हैं और भौतिक सिद्धांत आंतरिक रूप से रहता है। इसी प्रकार नदी के समुद्र में मिल जाने के बाद उसका नाम, लंबाई, चौड़ाई और गहराई खो जाती है। लेकिन समुद्र में पानी की मात्रा बढ़ जाती है, अर्थात वस्तु नष्ट नहीं होती है। उसी तरह, मुक्त आत्मा या आत्मा अपना अस्तित्व तब नहीं खोती जब वह अपनी मुक्त अवस्था में सर्वोच्च सत्ता की उपस्थिति का आनंद लेती है। लेकिन नाम और रूप छुपा हुआ है। डॉ यज्ञ दत्त
Vedic Wisdom
10-04-2023
How does wealth move ? Be it Puranic or Vedic, if there is no reform, the movement of wealth moves in the direction of decay. There are 3 types of movement of wealth namely- 1. Pleasure movement 2. Trade 3. decay rate After we earn money, we first serve our father, mother and Gurujan, then we spend it on the education and upbringing of our children, and if we have any left over, we give it to charity. If there is a desire to give charity or if you understand the importance of charity, giving charity is fulfilled by reducing the expenses. Those who want to acquire religion by giving the people wealth by exploiting money, either in trade or in power, are fools. Remember, one does not do religion by committing sins. Some people feel like they are giving money to all religious monasteries, temples, and ashrams, and some monks feel like rich saints or wise saints by accepting this donation. If not, will the omniscient God punish the giver and the receiver or release the entire deposit? Yes, the last thing is that those who have accepted Vedic knowledge for years and are related to such saints, if they could not give rites to their future descendants, how can they do Samajr Mangal? Yes, it is certain that it happens because of the cruelty of the previous birth. It is not only that Arya Samajis are wise and reformers. Good Arya Samajis wear Bhadrakhol and created conflict among monks and nuns by showing the patiyara of their Dhanpati, which is reflected in the shade of Odisha today. Recently, Guru Bada has been adopted by collecting money in the name of dharma prachara. The unreformed literalist is no less than a great fool. Why should we prevent animal sacrifice instead of human sacrifice in the country? This is certainly ridiculous. Since there is a lack of publicity, we should all hurry up and join hands to increase the publicity. Pujya Swami Meliananda, never saw the dream of the big grandfather in our country that he is seeing today. He gave special importance to the campaign, he was not in favor of the Navaschumbhi Attalika Onijs Naam Yash. Therefore, no one can ever be freed or entitled to salvation just by reading the scriptures. He is worshiped in the society because of his movement, character and thinking. Maharishi Manu says in relation to donation, "For example, plbe naupalen nimjjatudke taran wa nimjwatobkadhastad6 gyadadatri pratich kau" If you donate in a potra, you will not be freed. "So be careful, donors and receivers. Recently, some saints are playing the role of beggars and are busy collecting donations. Just like politicians in politics have colluded with ministers and cheated chit funds, today the spiritual world is becoming tainted. Give charity to the needy in your sight. Earn merit by giving charity to the odd, sick and sick people in your neighborhood, village and friendship. Such a swindler traveling in a motor car, building temples and writing names on marble floors. Man builds palace after palace. Wisdom of the heart and mind does not develop or emerge. Wisdom develops. Behavior and character show it. Not just on the face. OMM. Vedic Vichar.
स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी का उपदेश (Vedic vichar)
03-04-2023
( स्वामी जी की पुण्यतिथि 3 अप्रैल पर विशेष रूप से प्रकाशित) एक बार आर्य समाज के स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी भिक्षा माँगते हुए एक घर के सामने खड़े हुए और उन्होंने आवाज लगायी - “वैदिक धर्म की जय !” घर से महिला बाहर आयी। उसने उनकी झोली में भिक्षा डाली और कहा, “महात्मा जी, कोई उपदेश दीजिए !” स्वामी जी बोले, “आज नहीं, कल दूँगा।” दूसरे दिन स्वामीजी ने पुन: उस घर के सामने आवाज दी – “वैदिक धर्म की जय !”उस घर की स्त्री ने उस दिन खीर बनायीं थी, जिसमें बादाम-पिस्ते भी डाले थे। वह खीर का कटोरा लेकर बाहर आयी। स्वामीजी ने अपना कमंडल आगे कर दिया। वह स्त्री जब खीर डालने लगी, तो उसने देखा कि कमंडल में गोबर और कूड़ा भरा पड़ा है। उसके हाथ ठिठक गए। वह बोली, “महाराज ! यह कमंडल तो गन्दा है।” स्वामीजी बोले, “हाँ, गन्दा तो है, किन्तु खीर इसमें डाल दो।” स्त्री बोली, “नहीं महाराज, तब तो खीर ख़राब हो जायेगी। दीजिये यह कमंडल, में इसे शुद्ध कर लाती हूँ।” स्वामीजी बोले, मतलब जब यह कमंडल साफ़ हो जायेगा, तभी खीर डालोगी न ?” स्त्री ने कहा : “जी महाराज !” स्वामीजी बोले, “मेरा भी यही उपदेश है। मन में जब तक चिन्ताओं का कूड़ा-कचरा और बुरे संस्कारों का गोबर भरा है, तब तक उपदेशामृत का कोई लाभ न होगा। यदि उपदेशामृत पान करना है, तो प्रथम अपने मन को शुद्ध करना चाहिए, कुसंस्कारो का त्याग करना चाहिए, तभी सच्चे सुख और आनन्द की प्राप्ति होगी।”
श्री राम जी का आदर्श जीवन (Vedic vichar)
03-04-2023
(रामनवमी के शुभ अवसर पर प्रकाशित) आज रामनवमी है। आज आर्यकुलभूषण, क्षत्रिय कुलदीवाकर, वेदवित, वेदोक्त कर्मप्रचारक, देशरक्षक, शुर सिरताज, रघुकुलभानु, दशरथात्मज, महाराजाधिराज रामचन्द्रजी का जन्म दिवस है। आज ही के दिन आर्य कुल दिवाकर मर्यादा-पुरुषोत्तम श्री रामचन्द्र जी महाराज का जन्म हुआ था। सदियों से श्री राम जी का पावन चरित्र हमें प्रेरणा देता आ रहा हैं। यह कहने में हमें गर्व होता हैं की यदि मनुष्य रामचरित के अनुसार अपना जीवन व्यतीत करें तो अवश्य मुक्ति पद को प्राप्त हो जाएँ। महर्षि वाल्मीकि रामायण में श्री राम जी के गुणों के विषय में लिखते है कि श्री राम अपने धर्म की रक्षा करने और प्रजा पालने में तत्पर, वेद वेदांग तत्व ज्ञाता, धनुर्वेद में निष्णात है। वह सभी के प्रिय, प्रजा के दुःख दूर करने वाले, भाइयों को हृदय से प्रिय, माता पिता के आज्ञाकारी पुत्र है। वचन के दृढ़, सत्यवादी, शरीरों, राक्षसों के शत्रु और ऋषियों की सच्चे हृदय से सेवा में तत्पर रहते है। बालकाण्ड में वाल्मीकि जी लिखते है कि श्री राम धर्मज्ञ, सत्य प्रतिज्ञा, प्रजा हित में सदैव रत, यशस्वी, ज्ञान सम्पन्न, शुचि तथा भक्ति में सदा तत्पर। शरणागत रक्षक, प्रजापति समान प्रजा पालक, तेजस्वी, सर्वश्रेष्ठ गुण-धारक, रिपु विनाशक, सर्व जीवों की रक्षा करने वाले, धर्म के रक्षक, सर्व शास्त्रार्थ के तत्ववेत्ता, स्मृतिमान्, प्रतिभावान् तेजस्वी, सब लोगों के प्रिय, परम साधु, प्रसन्न चित्त, महा पंडित, विद्वानों, विज्ञान वेत्ताओं तथा निर्धनों के रक्षक, विद्वानों की आदर करने वाले जैसे समुद्र में सब नदियों की पहुंच होती है। वैसे ही सज्जनों की वहां पहुंच होती है। परम श्रेष्ठ, हंस मुख, दुःख सुख के सहन कर्ता, प्रिय दर्शन, सर्व गुण-युक्त और सच्चे आर्य पुरुष है। अयोध्या काण्ड में वाल्मीकि जी लिखते है कि अहिंसा, दया, वेदादि सकल शास्त्रों में अभ्यास, सत्य स्वभाव, इन्द्रिय दमन करना, शान्त चित्त रहना, यह छ: गुण राघव (रामचन्द्र)जी को शोभा देते हैं। जब भरत जी रामचन्द्र जी से चित्रकूट में मिलने आए तब उस समय रामचन्द्र जी ने उनको वेदों की शिक्षा अनुसार आखेट, जुआ, मद्यपान, दुराचार आदि से दूर रहने का अनमोल उपदेश दिया है। एक शासक हो अथवा एक साधारण मनुष्य। यह उपदेश समान रूप से सभी के लिए मानने योग्य हैं। यह बड़े ही मार्मिक एवं प्रशंसा के योग्य हैं। श्री राम ईश्वर के भक्त, वेदों के विद्वान्, सभी में प्रिय, सत्यवादी, कर्मशील, आदर्श, आज्ञाकारी, वचन के दृढ़ आदि सभी शस्त्र विद्याओं में निपुण व्यक्ति थें। श्री रामचन्द्र जी का जीवन काल देखिये। माता कौशलया राजमहल में रहकर वेदों का स्वाध्याय एवं अग्निहोत्र करती थीं। वेदों की शिक्षा को ग्रहण करने के लिए श्री राम अपने अन्य भाइयों के साथ वशिष्ठ मुनि जी के आश्रम में गए। इससे यही शिक्षा मिलती है कि वेदों के स्वाध्याय, चिंतन, मनन एवं उनकी शिक्षाओं के अनुसार जीवन यापन करने से कोई भी व्यक्ति महान बन सकता हैं। शिक्षा काल के पश्चात ब्रह्मचर्य, विद्या एवं धर्म का प्रताप देखिये की अभी रामचन्द्र जी युवा ही थे की उनके पिता महाराज दशरथ ने उन्हें वन में राक्षसों का अंत करने के लिए ऋषि विश्वामित्र के सानिध्य में भेज दिया। यह ऋषि मुनियों के प्रताप एवं तपस्या का भी प्रभाव था जो राजा लोग उनकी सेवा में सत्संग एवं जीवन निर्माण हेतु अपनी संतानों को भेजते थे। सीता स्वयंवर में शिव धनुष के तोड़ने से श्री राम जी की शूरवीरता सिद्ध होती है। यह भी सिद्ध होता है कि उस काल में वधु वर का चयन पूर्ण विद्या प्राप्ति के पश्चात, माता-पिता की आज्ञा से वर के गुण, कर्म और स्वभाव देखकर करती थी। इससे न केवल वर-वधु में प्रीति रहती थी, अपितु उनकी संतान भी स्वस्थ एवं शुद्ध मन बुद्धि वाली उत्पन्न होती थी। आज के समाज में वासना में बहकर बेमेल विवाह करने के कारण ही कमजोर संतान उत्पन्न होती हैं और गृहस्थ जीवन भी क्लेशों के रूप में व्यतीत होता हैं। कैकयी द्वारा राजा दशरथ के साथ युद्ध में भाग लेना यह सिद्ध करता है कि उस काल में स्त्रियां अबला नहीं अपितु क्षत्राणी होती थी। वे अपनी वीरता के प्रताप से बड़े बड़े युद्धों में भाग लेती थी। वही कैकयी जो राजा दशरथ की प्रिय स्त्री थी पर बुरे संग का प्रभाव देखिये की दासी मंथरा की बातों में बहक कर तथा पुत्र मोह में आकर उसने श्री राम जी को वनवास दिलवाया। इससे यही सिद्ध होता है कि जैसे बुरी संगत से बुद्धि नष्ट होती है। महाराज दशरथ ने न केवल पुत्र वियोग का दुःख सहा अपितु संसार में अपयश के भागी भी इसी कारण से बने। इसलिए उचित संगत मनुष्यों के लिए अनिवार्य नियम है। श्री राम जी की पितृ भक्ति भी हमारे लिए आदर्श है। केवल राज का ही त्याग नहीं किया अपितु वनवास भी स्वीकार किया। भाई लक्ष्मण का भ्रातृ प्रेम देखिये। राज्य का सुख, माता पिता की शीतल छाया, पत्नी का संग त्याग कर केवल अपने भाई की सेवा के लिए वन का आश्रय लिया। भाई भरत का भ्रातृ प्रेम देखिये। जिस सिंहासन के लिए भरत की माता कैकयी ने राम को वनवास दिया। उसी सिंहासन का त्याग कर राम जी की चरण पादुका को प्रतीक रूप में रखकर राजमहल का त्याग कर कुटिया में रहकर 14 वर्ष त्यागी एवं तपस्वी समान जीवन व्यतीत किया। आज के समाज में दशरथ पुत्रों के समान अगर परिवार में भाइयों में प्रेम हो तो आदर्श समाज क्यों स्थापित नहीं हो सकता? वन में प्रवास करते समय श्री राम एवं लक्ष्मण द्वारा शूर्पनखा के विवाह के प्रस्ताव को अस्वीकार किया था। यह उनके महान चरित्र के आदर्श को स्थापित करता है। एक अन्य उदाहरण लक्ष्मण जी के चरित्र को सुशोभित करता है। जब सुग्रीव ने राम जी को सीता द्वारा सर पर पहने जाने वाले आभूषण चूड़ामणि को दिखाया तब श्री राम जी लक्ष्मण से उसे पहचानने के लिए पूछा। तब लक्ष्मण जी के मुख से निकले शब्द कितने प्रेरणादायक है। लक्ष्मण जी कहते है। हे! भ्राता जी मैं केवल माता सीता द्वारा चरणों में पहनी जाने वाले आभूषण को पहचानता हूँ क्यूंकि मैंने आज तक उनका मुख नहीं देखा है। मैंने केवल उनके चरण स्पर्श करते हुए उनके चरणों को देखा है। समाज में व्यभिचार को जड़ से समाप्त करने के लिए ऐसे महान आदर्श की अत्यंत आवश्यकता हैं। जटायु द्वारा मित्र दशरथ की पुत्र वधु रक्षा हेतु अपने प्राण दे देना मित्रता रूपी धर्म के पालन का श्रेष्ठ उदाहरण है। राम द्वारा अत्याचारी बाली का वध कर सुग्रीव को किष्किन्धा का राजा बनाना भी मित्र धर्म का पालन है। सुग्रीव द्वारा रावण से युद्ध में श्री राम की सहायता करना भी उसी मित्र धर्म का पालन है। आज समाज के सभी सदस्य एक दूसरे की सहायता मित्र भाव से करे तो अवश्य ही सभी का कल्याण होगा। रावण वध के पश्चात विभीषण को लंका का राजा बनाना भी श्री राम के नैतिक गुणों को दर्शाता है क्यूंकि दूसरे देश पर राज्य करना उनका उद्देश्य नहीं था। उनका उद्देश्य उसे अपना मित्र देश बनाना था। रावण एवं विभीषण का सम्बन्ध यही दर्शाता है की जब एक घर में दो विभिन्न मत हो जाये तो उस का नाश निश्चित है। आपस की फुट दो भाइयों में दूरियां ही पैदा कर देती है। जिसका परिणाम केवल नाश है। इसीलिए वेद की आज्ञा हम एक जैसा सोचे, एक साथ मिलकर चले और हमारे मन एक दूसरे के अनुकूल हो। यही हमारे लिए अनुकरणीय है। संसार में सभी प्रकार के वैमनस्य का नाश अपने मन को एक दूसरे के अनुकूल बनाने से हो सकता हैं। रावण द्वारा अपनी पत्नी द्वारा रोके जाने पर भी वासना से अभिभूत होकर परस्त्री का छलपूर्वक हरण करना एवं बंधक बनाया था। श्री राम द्वारा क्षत्रिय धर्म का पालन करते हुए उसे मार डालना यही सन्देश देता है की पापी, अभिमानी, व्यभिचारी, बलात्कारी का अंत सदा नाश ही होता है। रावण शिव का भक्त था एवं वेदों का विद्वान था मगर वेदों की आज्ञा का उल्लंघन कर उसने सीता माता के हरण जैसा महापाप किया था। रावण की बुद्धि नष्ट होने का कारण भी मांसाहार, शराब एवं पर-स्त्री गमन आदि दोष थे। आज के समाज में भी यही शाश्वत नियम मान्य है कि जो उस काल में था। जो भी व्यक्ति इन बुरी आदतों को अपनी दिनचर्या का भाग बना लेगा उसकी बुद्धि नष्ट होने से उसका नाश निश्चित हैं। आये आज रामनवमी के दिवस पर हम श्रीराम जी द्वारा स्थापित आदर्शों का जीवन में पालन कर अपने जीवन में आध्यात्मिक उन्नति कर उसे यथार्थ सिद्ध करने के लिए पूर्ण पुरुषार्थ करेंगे।
रामचन्द्र जी का अद्भुत दर्शन (Vedic vichar)
03-04-2023
रामनवमी के अवसर पर प्रकाशित रामचन्द्र जी ईश्वर के भक्त, वेदों के विद्वान्, सभी में प्रिय, सत्यवादी, कर्मशील, आदर्श, आज्ञाकारी, वचन के दृढ़ आदि सभी शस्त्र विद्याओं में निपुण व्यक्ति थें। उनके राज्य में कोई भी व्यक्ति दुःखी नहीं, कोई नारी विधवा नहीं, कहीं अकाल नहीं, कहीं चोरी, द्यूत आदि नहीं होता था। कुछ लोग रामचन्द्र जी के बारे में पूर्ण रूप से उनका व्यक्तित्त्व न जानकर और विशेष दूसरे सम्प्रदाय के लोग उनपर आक्षेप करते हैं जिसमें मुख्य यह प्रचलन में है कि रामचन्द्र जी मांस का सेवन करते थे चूंकि वाल्मीकि रामायण पढ़ने से किसी प्रकार का सन्देह नहीं रहता कि रामचन्द्र जी का व्यवहार कैसा था, वह किस जाति के थे, वह मांस का सेवन करते थे वा नहीं आदि? समस्त वेद शास्त्र के मानने वाले एक मत होकर कहते हैं कि वह सूर्यवंशी कुल में प्रसिद्ध राजर्षि थे। उनका समस्त जीवन हमें उपदेश दे रहा है कि वह आर्य जाति के शिरोमणि और वैदिक धर्म के मानने वाले वेदों के प्रकाण्ड विद्वान् और पुरुषार्थयुक्त व्यक्ति थें। उनका धर्म हमें रामायण के इस एक ही श्लोक से पूरा हो जाता है- रक्षितास्वस्य धर्मस्य स्वजनस्य च रक्षिता। वेद वेदांग तत्वज्ञो धनुर्वेद च निष्ठित:।। -वाल्मीकि रामायण सर्ग १/१४ अपने धर्म की रक्षा करने और प्रजा पालने में तत्पर, वेद वेदांग तत्व ज्ञाता, धनुर्वेद में निष्णात थे। वह स्वभार्या के प्रिय, प्रजा के दुःख दूर करने वाले, भाइयों को हृदय से प्रिय, माता पिता के आज्ञाकारी पुत्र थें। वचन के दृढ़, सत्यवादी, शरीरों, राक्षसों, मांसा-हारियों के शत्रु और ऋषियों की सच्चे हृदय से सेवा में तत्पर थे। जैसा कि रामायण अयोध्याकाण्ड १८/३० में तथा कई अन्य स्थानों पर इस बात को अच्छे प्रकार प्रगट किया है। बालकाण्ड में भी लिखा है- धर्मज्ञ: सत्यसंधश्च प्रजानां च हितेरत:। यशस्वी ज्ञान संपन्न: शुचिर्वश्य: समाधिमान्।।१२।। प्रजापति सम: श्रीमान्धाता रिपुनिषूदन:। रक्षिता जीवलोकस्य धर्मस्य परिरक्षिता।।१३।। सर्व शास्त्रार्थ तत्वज्ञ: स्मृतिमान् प्रतिभावान्। सर्वलोक प्रियः साधुरदोनात्मा विचक्षण:।।१५।। सर्वदाभिगत: सद्भि: समुद्रइव सिन्धुभि:। आर्य: सर्वसमश्चैव सदैव प्रिय दर्शन:।।१६।। -बालकाण्ड १/१२,१३,१५,१६ धर्मज्ञ, सत्य प्रतिज्ञा, प्रजा हितरत, यशस्वी, ज्ञान सम्पन्न, शुचि तथा भक्ति तत्पर हैं। शरणागत रक्षक, प्रजापति समान प्रजा पालक, तेजस्वी, सर्वश्रेष्ठ गुणधारक, रिपु विनाशक, सर्व जीवों की रक्षा करने वाले, धर्म के रक्षक, सर्व शास्त्रार्थ के तत्ववेत्ता, स्मृतिमान्, प्रतिभावान् तेजस्वी, सब लोगों के प्रिय, परम साधु, प्रसन्न चित्त, महा पंडित, विद्वानों, विज्ञान वेत्ताओं तथा निर्धनों के रक्षक, विद्वानों की आदर करनेवाले जैसे समुद्र में सब नदियों की पहुंच होती है वैसे ही सज्जनों की वहां पहुंच होती है। परम श्रेष्ठ, हंस मुख, दुःख सुख के सहन कर्ता, प्रिय दर्शन, सर्व गुणयुक्त और सच्चे आर्य पुरूष थे। आनुशंस्यतनु कोश: श्रुतंशीलं दम: शम:। राघव शोभयन्त्येते षङ्गुणा: पुरूषर्षभम्।। -अयोध्याकाण्ड ३३/१२ अहिंसा, दया, वेदादि सकल शास्त्रों में अभ्यास, सत्य स्वभाव, इन्द्रिय दमन करना, शान्त चित्त रहना, यह छे गुण राघव (रामचन्द्र) को शोभा देते हैं। रामचन्द्र जी ने कौशल्या माता को वचन भी दिया था कि "हे माता? मैं १४ वर्ष तक वन में मुनियों की भांति कंदमूल और फलों से अपना जीवन निर्वाह करूंगा न कि मांस से (क्योंकि वह राजसीय भोजन है)।" -अयोध्याकाण्ड सर्ग २०/२९ जब भरत जी रामचन्द्र जी से चित्रकूट में मिलने आए तब उस समय रामचन्द्र जी ने उनको अथर्व काण्ड ६ मन्त्र १ तथा मनु ७/५० आदि के अनुसार आखेट, द्यूत, मद्यपान, दुराचारादि बातों का निषेध का अनमोल उपदेश दिया हैं, यह बड़े ही मार्मिक एवं प्रशंसा के योग्य हैं। जिसका इतना आदर्श भरा चरित्र हो भला वह महापुरुष मांस का सेवन कैसे कर सकता है? "अधजल गगरी छलकत जाए" यह कहावत इन आक्षेप करने वाले अज्ञानियों, मूर्खों पर सटीक बैठती है। वह केवल अर्थों का तोड़-मरोड़कर साधारण लोगों को मूर्ख बनाते हैं एवं अपने धर्म में उन्हें सम्मिलित करना चाहते हैं। यहां मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचन्द्र पर लगे विभिन्न आक्षेपों का क्रमबद्ध खण्डन किया जा रहा है- शंका १. रामचन्द्र जी मृग मारने के लिए गए और पीछे रावण सीता को ले गया। इससे प्रगट है कि वह हिरण मारकर अवश्य खाया करते थे। समाधान- इस स्थान अथवा अन्य किसी स्थान पर मृग को खाने के लिए मारने का कोई वर्णन नहीं। किन्तु स्वर्णरूप हिरण देखकर सीता का मन ललचाया। वह उसके रूप पर मुग्ध हो गईं और रामचन्द्र को उसके पकड़ने के लिए प्रार्थना की। उसके हठ के कारण पहले राम पुनः लक्ष्मण दोनों गए और जब पकड़ा तो ज्ञात हुआ कि वह छल था, वास्तविक हिरण न था। मारीच नाम का एक दैत्य या असभ्य जंगली मनुष्य हिरण का स्वांग धारण कर व खाल ओढ़कर भरमाने आया था। जिससे पीछे रावण सीता को भगा ले जाने में सफल हो पाया। शंका २. रामचन्द्र जी ने वनवास के समय सूत से कहा कि हम नहीं जानते कि अब पुनः कब सरयू के तट पर पुष्पित वन में शिकार खेलेंगे और अपने माता-पिता से मिलेंगे। -अयोध्याकाण्ड ४९/१५ समाधान- शिकार खेलना सर्वथा बुरा नहीं है और विशेष करके उस समय जब दुष्ट पशुओं, सिंह, भेड़िया आदि का मारना प्रयोजन हो। शंका ३. सीता ने यमुना से पार उतरते समय मांस और मद्य के घड़े उसमें डालने के वचन से नदी से प्रार्थना की कि यदि मेरा पति सुखपूर्वक घर लौटे तो मैं ऐसा करूंगी। समाधान- यह बात कई कारणों से मिथ्या ही कहलाएगी- प्रथम कारण:- यमुना अथवा गंगा दोनों नदियां जड़ हैं। उनकी पूजा इन पदार्थों से कदापि नहीं हो सकती। इसको वह ही माने जिसको चेतन अथवा इस जड़ पूजा और नदी पूजा मानता हो अर्थात् मूर्ख। द्वितीय कारण:- जब सीता वापिस आयीं तो यह वचन कदापि पूर्ण नहीं किया गया। इसलिए भी मिथ्या है कि किसी मद्यमांस के आसक्त वाममार्गी ने यह लोक डाल दिये हैं। वास्तव में यह कोई घटना है ही नहीं केवल कल्पित कहानियां मिला दी गयी हैं। तृतीय कारण:- इस लोक में मांस शब्द नहीं है और न किसी पशु के मारने का उल्लेख है किन्तु लोक में तो गो सहस्रेण सुरा घट शतेन लिखा है। -अयोध्याकाण्ड ५५/१९/२० अतः मांस का इससे कोई सम्बन्ध ही नहीं। अब शेष रह गयी सुरा की बात तो इसका खण्डन राम-लक्ष्मण के बहनों से स्वयं सिद्ध है जैसा कि एक बार सुग्रोव ने मद्य पान किया तो राम लक्ष्मण ने उसे वहां बहुत ही बुरा कहा। भरत जी ने भी स्वयं शपथों में इसका खंडन किया है। अतः यह घटना कदापि घटित नहीं हुई। शंका ४. जब रामचन्द्र जी चित्रकूट में पहुँचे तो झोपड़ी बना कर लक्ष्मण को आज्ञा दी कि हिरण को मारकर लावे जिससे यज्ञ किया जाए। लक्ष्मण जी इस आज्ञानुसार हिरण मार कर लाये जिससे यज्ञ किया और पकाया गया। -मांस प्रचार पृष्ठ ५६ समाधान- वहां तो ऐसा नहीं इसके विरुद्ध लिखा है। हे लक्ष्मण? एक मृग पकड़ लाओ। उसको पर्णशाला (कुटिया) के द्वार पर बांधेंगे। तब वास्तव की पूजा करेंगे। क्योंकि जो लोग बहुत दिन जीना चाहते हैं उन को चाहिए कि बिना वास्तव की पूजा के उस में न रहें। -अयोध्याकाण्ड ५६/२२ हे लक्ष्मण? इससे अति शीघ्र मृग लाओ। सन्ध्या न होने पावे। पश्चात् हे लक्ष्मण? इस मृग के खाने हेतु फल लाओ, अति शीघ्रता कीजिये क्योंकि ध्रुव मुहूर्त्त है। -अयोध्याकाण्ड ५६/२५ इस सर्ग में स्पष्ट वर्णन है कि उस स्थान पर फलमूल कंद बहुत अधिक हैं। -अयोध्याकाण्ड ५६/६-१४ नोट:- (१) उनका ऐसा करना ऋषि-मुनियों एवं सूत्रकारों के विरुद्ध है। (२) हवन की अग्नि में मांस कदापि न डालना चाहिए। आश्वलायन ऋषि कहते हैं हवन की सामग्री में मांस नहीं है। शंका ५. रामचन्द्र जी ने बिना अपराध हिरणों और राक्षसों को क्यों मारा? समाधान- ऐसा कदापि नहीं। किसी को अपराध के बिना नहीं मारा। स्वयं रामायण में इसका कारण भी लिखा है कि "ऋषियों ने रामचन्द्र जी को कहा कि कुछ बात बनावट की नहीं कहते। आप यहां पधारें और देखें कि महात्मा मुनियों के अस्थि-पंजर पड़े हैं जिनको राक्षसों और जंगली लोगों ने मार मार कर भक्षण कर लिया है। प्रायः जो मुनि लोग पम्पा नदी से लेकर मन्दाकिनी के तट तक के वनों में निवास कर रहे हैं और जो चित्रकूट पर्वत पर निवास करते हैं उन्हीं लोगों का नाश यह राक्षस लोग करते हैं।" अरण्यकाण्ड सर्ग ६/१६-१७ इसी लिए रामचन्द्र जी ने इन दुष्टों का मारने का संकल्प लिया। नोट:- यह बात किसी संस्कृत ज्ञाता से छिपी नहीं है कि मृग के अर्थ समस्त वनस्थ पशु हैं केवल हिरण नहीं किन्तु सिंह, भेड़िया आदि सब इसमें शामिल हैं। रामायण में जहां राक्षसों का वर्णन लिखा है वहां यह भी स्पष्ट लिखा है कि यह मांसाहारी लोग थें। लगभग दो तीन सौ स्थानों पर रामायण में मांसाहारी को राक्षस लिखा गया है। स्वयं रावण के सम्बन्ध में भी ऐसा लिखा है। -(देखिए युद्धकाण्ड) उपरोक्त प्रमाणों के आधार पर यह स्पष्ट है कि रामचन्द्र जी मांस खाना नहीं अपितु मांस निषेध करते थे। यह विधर्मी केवल हमारे महापुरुषों पर तरह-तरह के कल्पित आक्षेप कर अपने धर्म का प्रचार करते हैं। आइये आज रामनवमी के दिवस पर हम मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचन्द्र जी को अपना आदर्श मानते हुए यह संकल्प लें कि हम भी उनके जैसा श्रेष्ठ बनने का प्रयत्न करेंगे, कभी भी अपने जीवन में चोरी, छल, ईर्ष्या, मांस-मंदिर का सेवन, द्यूत (जुआ) आदि कुकर्मों का साथ छोड़ सन्मार्ग की ओर बढ़ेंगे एवं अन्यों को भी इसी पथ पर चलने की ओर प्रेरित करेंगे। आज्ञाकारी, स्थितप्रज्ञ, सत्यवादी, आर्यश्रेष्ठ, "मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचंद्र जी" के जन्मदिवस पर हार्दिक शुभकामनाएं!
मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम (Vedic vichar)
03-04-2023
✍???? लेखक - महर्षि वाल्मीकि (वाल्मीकि रामायण) प्रस्तुति - ???? ‘अवत्सार’ ????तपः स्वाध्यायनिरतं तपस्वी वाग्विदां वरम्। नारदं परिपप्रच्छ वाल्मीकिर्मुनिपुंगवम्॥१॥ तप और स्वाध्याय में निरत, वक्ताओं में चतुर एवं मुनियों में श्रेष्ठ नारदजी से तपस्वी वाल्मीकि मुनि ने पूछा- ????कोन्वस्मिन्साम्प्रतं लोके गुणवान्कश्च वीर्यवान्। धर्मज्ञश्च कृतज्ञश्च सत्यवाक्यो दृढव्रतः॥२॥ भगवन्! इस समय इस संसार में गुणवान्, शूरवीर, धर्मज्ञ, कृतज्ञ, सत्यवादी और दृढ़-प्रतिज्ञ कौन है ? ????चारित्रेण च को युक्तः सर्वभूतेषु को हितः। विद्वान्कः कः समर्थश्च कश्चैकप्रियदर्शनः ॥३॥ सदाचार से युक्त, सब प्राणियों का हित करने वाला, विद्वान्, सामर्थ्यवान् और प्रिय-दर्शन कौन है ? ????आत्मवान्को जितक्रोधो द्युतिमान्कोऽनसूयकः। कस्य बिभ्यति देवाश्च जातरोषस्य संयुगे॥४॥ धैर्ययुक्त, काम-क्रोधादि शत्रुओं का विजेता, कान्तियुक्त, ईर्ष्या तथा निन्दा न करनेवाला तथा युद्ध में क्रुद्ध होने पर देवताओं को भी भयभीत करनेवाला कौन है? ????एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं परं कौतूहलं हि मे। महर्षे त्वं समर्थोऽसि ज्ञातुमेवं विधं नरम्॥५॥ हे महर्षे ! ऐसे गुणों से युक्त व्यक्ति के सम्बन्ध में जानने की मुझे उत्कट अभिलाषा है और आप इस प्रकार के मनुष्य को जानने में समर्थ हैं। ????श्रुत्वा चैतत् त्रिलोकज्ञो वाल्मीके रदो वचः। श्रूयतामिति चामन्त्र्य प्रहृष्टो वाक्यमब्रवीत्॥६॥ यह सुन, तीनों लोको का वृत्तान्त जाननेवाले देवर्षि नारद प्रसन्न होकर कहने लगे - ????बहवो दुर्लभाश्चैव ये त्वया कीर्तिता गुणाः। मुने वक्ष्याम्यहं बुद्ध्वा तैर्युक्तः श्रूयतां नरः ॥७॥ हे मुने! आपने जिन बहुत-से तथा दुर्लभ गुणों का वर्णन किया है, उनसे युक्त मनुष्य के सम्बन्ध में सुनिए-मैं सोच-विचार के पश्चात् कहता हूँ।। ????इक्ष्वाकुवंशप्रभवो रामो नाम जनैः श्रुतः। नियतात्मा महावीर्यो द्युतिमान्धृतिमान्वशी॥८॥ इक्ष्वाकु-वंश में उत्पन्न, राम नाम से लोगों में विख्यात, श्रीरामचन्द्र नियतस्वभाव (मन को वश में रखनेवाले) अतिबलवान्, तेजस्वी, धैर्यवान् और जितेन्द्रिय हैं। ????बुद्धिमान्नीतिमान्वाग्मी श्रीमाञ्छत्रुनिबर्हणः। विपुलांसो महाबाहुः कम्बुग्रीवो महाहनुः॥९॥ ????महोरस्को महेष्वासो गूढजत्रुररिन्दमः। आजानुबाहुः सुशिराः सुललाटः सुविक्रमः॥१०॥ वे श्रीराम बुद्धिमान्, नीतिज्ञ, मधुरभाषी, श्रीमान्, शत्रुनाशक, विशाल कन्धोंवाले, गोल तथा मोटी भुजाओंवाले, शंख के समान गर्दनवाले, बड़ी ठोड़ीवाले और बड़े भारी धनुष को धारण करनेवाले हैं। उनके गर्दन की हड्डियाँ मांस से छिपी हुई हैं । वे शत्रु का दमन करनेवाले हैं। उनकी भुजाएँ घुटनों तक लटकती हैं। उनका सिर सुन्दर एवं सुडौल है, माथा चौड़ा है। वे अच्छे विक्रमशाली हैं। ????समः समविभक्ताङ्गः स्निग्धवर्णः प्रतापवान्। पीनवक्षा विशालाक्षो लक्ष्मीवाञ्छुभलक्षणः ॥११॥ उनके अङ्गों का विन्यास सम है। वे न बहुत छोटे हैं, न बहुत बड़े। उनके शरीर का रंग चिकना एवं सुन्दर है। वे बड़े प्रतापी हैं। उनकी छाती उभरी हुई है और नेत्र विशाल हैं। उनके सब अङ्ग-प्रत्यङ्ग सुन्दर हैं और वे शुभ लक्षणों से सम्पन्न हैं। ????धर्मज्ञः सत्यसन्धश्च प्रजानां च हिते रतः। यशस्वी ज्ञानसम्पन्नः शुचिर्वश्यः समाधिमान्॥१२॥ वे धर्मज्ञ, सत्यप्रतिज्ञ, परोपकारी, कीर्तियुक्त, ज्ञाननिष्ठ, पवित्र, जितेन्द्रिय और समाधि लगानेवाले। ????प्रजापतिसमः श्रीमान्धाता रिपुनिषूदनः। रक्षिता जीवलोकस्य धर्मस्य परिरक्षिता ॥१३॥ ????रक्षिता स्वस्य धर्मस्य स्वजनस्य च रक्षिता। वेदवेदाङ्गतत्त्वज्ञो धनुर्वेदे च निष्ठितः॥ १४॥ वे प्रजापति ब्रह्मा के समान प्रजा के रक्षक, अतिशोभावान् और सबके पोषक हैं । वे शत्रुओं का नाश करनेवाले हैं। वे प्राणिमात्र के रक्षक और धर्म के प्रवर्तक हैं। वे अपने प्रजा-पालनरूप धर्म के रक्षक, स्वजनों के पालक, वेद और वेदाङ्गों के मर्मज्ञ तथा धनुर्वेद में निष्णात हैं (शास्त्र और शस्त्र दोनों में प्रवीण हैं)। ????सर्वशास्त्रार्थतत्त्वज्ञः स्मृतिमान्प्रतिभानवान्। सर्वलोकप्रियः साधुरदीनात्मा विचक्षणः ॥१५॥ वे सब शास्त्रों के तत्त्वों को भली-भाँति जाननेवाले, उत्तम स्मरणशक्ति से युक्त, प्रतिभा-शाली (सूझ -बूझवाले), सर्वप्रिय, सज्जन, कभी दीनता न दिखाने वाले और लौकिक तथा अलौकिक क्रियाओं में कुशल हैं। ????सर्वदाभिगतः सद्भिः समुद्र इव सिन्धुभिः। आर्य: सर्वसमश्चैव सदैव प्रियदर्शनः ॥१६॥ जिस प्रकार नदियाँ समुद्र में पहुँचती हैं उसी प्रकार उनके पास सदा सज्जनों का समागम लगा रहता है। वे आर्य हैं, वे समदृष्टि हैं और सदा प्रियदर्शन हैं। ????स च सर्वगुणोपेतः कौसल्यानन्दवर्धनः। समुद्र इव गाम्भीर्ये धैर्येण हिमवानिव ॥१७॥ ????विष्णुना सदृशो वीर्ये सोमवत्प्रियदर्शनः। कालाग्निसदृशः क्रोधे क्षमया पृथिवीसमः। धनदेन समस्त्यागे सत्ये धर्म इवापरः॥ १८॥ वे सब गुणों से युक्त और कौसल्या के आनन्द को बढ़ानेवाले हैं। वे गम्भीरता में समुद्र के समान, धैर्य में हिमालय के तुल्य, पराक्रम में विष्णु के सदृश, प्रियदर्शन में चन्द्रमा-जैसे, क्षमा में पृथ्वी की भाँति और क्रोध में कालाग्नि के समान हैं। वे दान में कुबेर के समान और सत्य-भाषण में मानो दूसरे धर्म हैं। ॥ओ३म्॥ #Ramnavami
१९वीं सदी के महान् ज्योतिर्धर महर्षि दयानन्द सरस्वती के व्याख्यानों (भाषणों) के विषयों की एक सूची (Vedic vichar)
18-03-2023
आर्य समाज के प्रवर्त्तक स्वामी दयानन्द सरस्वती (१८२५-१८८३ ई०) मूलतः गुजराती थे । वे २१ वर्ष की आयु में अमरत्व की प्राप्ति तथा सच्चे शिव का साक्षात्कार करने के उद्देश्य से गृहत्याग कर निकल गए थे । तत्पश्चात् लगभग पन्द्रह वर्ष पर्यन्त अनेक ज्ञानी, योगी, महात्माओं से ज्ञान प्राप्त करते हुए निरन्तर देशाटन – भ्रमण करते रहे । अन्त में मथुरा के दण्डी स्वामी विरजानन्द सरस्वती जी के पास लगभग ढाई वर्ष पर्यन्त वैदिक संस्कृत व्याकरण के अष्टाध्यायी तथा महाभाष्य एवं निरुक्त, निघण्टु आदि ग्रन्थों का अध्ययन पूर्ण कर स्वामी दयानन्द ने १८६३ ई० से कार्य क्षेत्र में पदार्पण किया । अपने गुरुदेव स्वामी विरजानन्द जी के समक्ष उन्होंने गुरुदक्षिणा के रूप में प्रण लिया था कि वे वेद और आर्ष ग्रन्थों की शिक्षाओं को संसार में प्रतिष्ठापित करेंगे और अविद्याजन्य साम्प्रदायिक अनार्ष ग्रन्थों के कुप्रभाव से उसे मुक्त करेंगे । इसी उद्देश्य की पूर्ति ले लिए स्वामी दयानन्द जी ने अपना सम्पूर्ण जीवन लगा दिया । स्वामी जी गुजराती होने से गुजराती भाषा को तो जानते ही थे । उनका जन्म एक सनातनी पौराणिक शिवभक्त ब्राह्मण परिवार हुआ था । अतः बचपन से ही शास्त्रों की भाषा संस्कृत से भी वे सुपरिचित थे । परन्तु गृहत्याग के पश्चात् जनसामान्य के साथ अपेक्षित व्यवहार करने में काम आ सके ऐसी टूटी-फूटी हिन्दी (जिसे वे ‘हिन्दी’ के स्थान पर ‘आर्य भाषा’ कहते थे) तो वे सम्भवतः बोल लेते होंगे । १८६९ ई० में स्वामी जी का काशी के पण्डितों के साथ प्रसिद्ध शास्त्रार्थ हुआ जिसमें काशी की पण्डित मण्डली वेदों में मूर्तिपूजा का विधान सिद्ध नहीं कर सकी । स्वामी दयानन्द अब देशभर में प्रसिद्ध हो गए । स्वामी जी दिसम्बर १८७२ में देश की तत्कालीन राजधानी कलकत्ता पहुंचे और लगभग साढ़े तीन मास वहां रहे । वहां के प्रायः सभी गण्य-मान्य व्यक्तिओं को वे मिले, विभिन्न विषयों पर उनसे वार्तालाप एवं विचार विमर्श भी किया । अब तक स्वामी जी वार्तालाप, उपदेश आदि में केवल संस्कृत भाषा का प्रयोग करते थे । कलकत्ता में भी उन्होंने सर्वत्र संस्कृत में ही अपने विचार व्यक्त किए । परन्तु ब्रह्मसमाज के नेता केशवचन्द्र सेन ने स्वामी जी को लोगों को समझने में आसानी हो इसके लिए संस्कृत के स्थान पर हिन्दी का प्रयोग करने का सुझाव दिया । स्वामी जी को उनका यह सुझाव ठीक लगा । परिणाम स्वरूप आगे चलकर मई १८७४ में स्वामी जी ने काशी में हिन्दी में अपना प्रथम व्याख्यान देने का निश्चय किया । यह प्रथम प्रयास था । अतः इस व्याख्यान में कई कथन संस्कृत में ही निकल रहे थे । परन्तु दृढ़ निश्चय, निरन्तर प्रयास और प्रतिभा के बल पर उन्होंने शीघ्र ही इस भाषा पर प्रभुत्व स्थापित कर लिया । सत्यार्थ प्रकाश के १८७५ ई० वाले प्रथम संस्करण तथा स्वामी जी के देहावसान के पश्चात् प्रकाशित १८८४ ई० वाले उन्हीं के द्वारा संशोधित द्वितीय संस्करण की हिन्दी भाषा के स्तरीय भेद को सुधी पाठक सहजता से अनुभव कर सकता है । १८७४ से लेकर अपने जीवन के अन्त तक अर्थात् १८८३ पर्यन्त स्वामी जी ने हिन्दी भाषा को अपने धर्मान्दोलन, समाज संशोधन तथा राष्ट्रीय जागरण का माध्यम बनाया । देश में सर्वत्र घूमकर अपने क्रान्तिकारी व्याख्यानों, शास्त्रार्थों तथा ग्रन्थों के द्वारा नवजागरण लाने का उन्होंने भरपूर प्रयास किया । उनके जीवन चरित्रों में उन विषयों का उल्लेख पाया जाता है जिन पर वे व्याख्यान देते थे । यहां उनके ऐसे १५६ व्याख्यान के विषयों की एक सूची प्रस्तुत की जाती है जिसे उनके प्रामाणिक जीवन चरित्रों के आधार पर संकलित किया गया है । इस सूची को देखकर स्वामी जी की विद्वत्ता का, उनके व्यापक अध्ययन का तथा किन विषयों को वे अपने उद्देश्य की पूर्ति हेतु प्राथमिकता देते थे – ये और ऐसी कई अन्य बातों का अनुमान करना पाठक मित्रों को आसान होगा । ध्यातव्य है कि स्वामी जी ने अपने जीवन के अन्तिम वर्षों में २४ जून १८८२ को मुम्बई से प्रस्थान कर खण्डवा, इन्दौर, रतलाम, जावरा, चित्तौड़, उदयपुर, शाहपुरा, अजमेर और जोधपुर की यात्रा की थी । उदयपुर में वे लगभग छः मास से अधिक रहे और जोधपुर में लगभग चार मास से अधिक । जोधपुर में २९ सितम्बर १८८३ को षड़यन्त्रकारी तत्त्वों ने उन्हें विष दे दिया । १६ अक्टूबर १८८३ को स्वामी जी ने गम्भीर हालत में जोधपुर से प्रस्थान किया । उन्हें प्रथम आबू पर्वत पर ले जाया गया और वहां से फिर अजमेर । ३० अक्टूबर १८८३, कार्तिक अमावस्या दीपमाला के दिन अजमेर में उनका ५८ वर्ष की आयु में देहावसान हो गया । जागरण का अग्रदूत सदा के लिए चला गया । ● महर्षि दयानन्द निम्नलिखित विषयों पर व्याख्यान देते थे – ईश्वर ईश्वर-सिद्धि ईश्वर और माया का वास्तविक स्वरूप ईश्वर का निराकारत्व ईश्वर का स्वरूप ईश्वर का एकत्व और उसका अस्तित्व वेद वेद विद्या वेद ईश्वरीय ज्ञान है ईश्वरीय वाणी – वेद वेद ईश्वरोक्त हैं सत्य धर्म और वेद वेद ईश्वरकृत तथा नित्य हैं मैक्समूलरकृत वेदभाष्य की समीक्षा वेद सम्मत धर्म तथा तद्विरुद्ध मत-सम्प्रदाय सत्य शास्त्र – वेद वेदों का अपौरुषेयत्व वेदों का अनादित्व बाइबिल, कुरान तथा वेदों की शिक्षाएं वेदों का ईश्वरीय ज्ञान होना वेदों में विज्ञान वेदों की श्रेष्ठता तथा पवित्रता धर्म की आवश्यकता वैदिक धर्म अहिंसा धर्म मानवी धर्म सद्धर्म धर्म के दस लक्षण वर्णाश्रम धर्म धर्म का वास्तविक स्वरूप आर्यावर्त्त का प्राचीन धर्म धर्माधर्म के लक्षण राजधर्म धर्म की आवश्यकता तथा आर्य समाज के लाभ वेदोक्त धर्म की उत्कृष्टता वेदोत्पत्ति ब्रह्मचर्य ब्रह्मचर्य का महत्त्व स्व-जीवन विषयक वृत्तान्त वल्लभ सम्प्रदाय की आलोचना आर्यों का विगत इतिहास आर्यों का पुरातन इतिहास मानवी कर्त्तव्य पुनर्जन्म पुनर्जन्म का सिद्धान्त पुनर्जन्म की सिद्धि पुनर्जन्म तथा सृष्टि विद्या विद्या और अविद्या मुक्ति और बन्धन हवन के लाभ वर्णभेद वर्ण-व्यवस्था मूर्तिपूजा मृतक श्राद्ध खण्डन सृष्टि उत्पत्ति आवागमन गोरक्षा आर्यों के 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प्रथम दिन वेदाधिकार यज्ञ तीर्थ यात्रा आर्य कौन हैं ? सत्य सृष्टि उत्पत्ति आवागमन गोरक्षा आर्यों के कर्त्तव्य आर्यावर्त्त की प्राचीन दशा सन्ध्योपासना यज्ञोपवीत योरोप महाद्वीप में सभ्यता का विकास प्राचीन काल में विवाह की प्रथा फलित ज्योतिष छः दर्शनों में मतैक्य नागा मत खण्डन योग विद्या पादरी कुक के दावों का (ईसाई मत) खण्डन (मुम्बई में) आर्य समाज यज्ञ के लाभ योग यजुर्वेद वर्णित देवताओं के प्रकरण को आधार बनाकर (व्याख्यान) सृष्टिक्रम ग्राह्य तथा तद्विरुद्ध अग्राह्य है थियोसोफी के नेताओं की कुटिल नीति का पर्दाफाश विद्या का महत्त्व और उसकी प्राप्ति धर्म का वास्तविक स्वरूप मुक्ति के साधन मुक्ति का स्वरूप व साधन मोक्ष वेदान्त दर्शन के मूल सिद्धान्त नास्तिकों की युक्तियों का खण्डन धर्मोन्नति अहिंसा और ईसाई मत मनुष्योन्नति अवतार मादक द्रव्य निषेध आर्य समाज एवं थियोसोफिकल सोसायटी धर्म का स्वरूप परमेश्वर का अस्तित्व और उसका वैशिष्ट्य सृष्टि उत्पत्ति और आदि सृष्टि षोडश संस्कारों की व्याख्या पृथिव्यादि लोकों का भ्रमण तथा गुरुत्वाकर्षण सिद्धान्त राज-प्रजा धर्म, शासन व्यवस्था तथा जनाधिकार का प्रश्न प्रार्थना और उपासना – विधि तथा आवश्यकता व्याख्यानों का सार भक्ष्याभक्ष्य विचार आर्य समाज का विधान और उसके नियम सृष्टि विषय सनातन वेदोक्त विषय विधवाओं का पुनर्विवाह गोवध से हानि और गोरक्षा से लाभ मूर्ति, मन्त्र, देव, ऋषि, पितृ, उपासना तथा कर्त्तव्याकर्त्तव्य (नोटः इन १५६ विषयों के अतिरिक्त न जाने किन-किन विषयों पर महर्षि ने अपने विचार वाणी द्वारा अभिव्यक्त किए होंगे, इसकी ठीक-ठीक गणना करना हमारे लिए सम्भव नहीं । यह सूची तो केवल दिग्दर्शन के लिए ही है, अन्तिम सूची नहीं है ।)
ईश्वर की सत्ता (Vedic vichar)
18-03-2023
वेद ईश्वर की सत्ता में विश्वास रखते हैं और आस्तिकता के प्रचारक हैं। वेद नास्तिकता के विरोधी हैं। परन्तु संसार में कुछ व्यक्ति हैं जो ईश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं करते। वेद ऐसे लोगों की बुद्धि पर आश्चर्य प्रकट करता है और उनकी भर्त्सना करता है। न तं विदाथ य इमा जजानाऽन्यद्युष्माकमन्तरं बभूव । नीहारेण प्रावृता जल्प्या चाऽसुतृप उक्थशासश्चयन्ति ।। ―(ऋ० १०/८२/७) भावार्थ― तुम उसको नहीं जानते जो इन सबको उत्पन्न करता है। तुम्हारा अन्तर्यामी तुमसे भिन्न है। किन्तु मनुष्य अज्ञान से ढके हुए होने के कारण वृथा जल्प करते हैं और बकवादी प्राण-मात्र की तृप्ति में लगे रहते हैं। अब हम तर्क और सृष्टि-क्रम में आधार पर ईश्वर की सत्ता को सिद्ध करने का प्रयत्न करेंगे। संसार और संसार के जितने पदार्थ हैं, वे परमाणुओं के संयोग से बने हैं, इस तथ्य को नास्तिक भी स्वीकार करता है। ये परमाणु संयुक्त कैसे हुए? नास्तिक कहता है कि ये परमाणु अपने-आप संयुक्त हुए। नास्तिक की यह धारणा मिथ्या है। परमाणुओं का संयोग अपने-आप नहीं हो सकता। संयोग करने वाली इस शक्ति का नाम परमात्मा है। जैसे सृष्टि और सृष्टि के पदार्थों के निर्माण के लिए परमाणुओं का संयोग होता है, वैसे ही वियोग भी होता है। परमाणुओं का यह वियोग अपने-आप नहीं होता। इन परमाणुओं के वियोग करने वाला भी परमात्मा ही है। जड़ और बुद्धिशून्य परमाणुओं में अपने-आप संयोग कैसे हो हो सकता है? इन जड़ परमाणुओं में इतना विवेक कैसे उत्पन्न हुआ कि उन्होंने अपने-आप को विभिन्न पदार्थों में परिवर्तित कर लिया? यदि यह कहा जाए कि प्रकृति के नियमों एवं सिद्धान्तों से ही संसार की रचना हो जाती है, तो प्रश्न यह है कि जड़ प्रकृति में नियम और सिद्धान्त किसने लागू किए? नियमों के पीछे कोई-न-कोई नियामक होता है। इन नियमों और सिद्धान्तों के स्थापित करने वाली सत्ता का नाम परमेश्वर है। संसार की वस्तुएँ एक-दूसरे की पूरक हैं। उदाहरणार्थ―हम दूषित वायु छोड़ते हैं, वह पौधों और वृक्षों के काम आती है; और पौधे एवं वृक्ष जिस वायु को छोड़ते हैं वह मनुष्यों के काम आती है। इस प्रक्रिया के कारण संसार नरक होने से बच जाता है। किसने वस्तुओं का यह पारस्परिक सम्बन्ध स्थापित किया है? वस्तुओं के पारस्परिक सम्बन्ध को स्थापित करने वाली शक्ति का नाम ईश्वर है। विज्ञान और आस्तिकता में कोई विरोध नहीं। विज्ञान जिन नियमों की खोज करता है, उन नियमों को स्थापित करने वाली ज्ञानवान् सत्ता का नाम ही तो ईश्वर है। यदि विकास के कारण ही सृष्टि-रचना को माना जाए तो विकास का कारण कौन है? डार्विन के पितृ-नियम, अर्थात् एक वस्तु से उसी के समान वस्तु का उत्पन्न होना, परिवर्तन का नियम अर्थात् उपयोग तथा अनुपयोग के कारण वस्तुओं में परिवर्तन, अधिक उत्पत्ति का नियम और योग्यतम की विजय―यदि इन चारों नियमों को भी सत्य माना जाए तो प्रश्न यह है कि नियमों को स्थापित करने वाला कौन है? वैज्ञानिक, धातुओं का आविष्कार तो करता है, परन्तु उनका निर्माण नहीं करता। उनका निर्माण करने वाली कोई और शक्ति है जिसे परमात्मा कहते हैं। इसी प्रकार वैज्ञानिक, सृष्टि में विद्यमान नियमों की खोज करता है; वह नियमों का निर्माता नहीं है। इन नियमों का निर्माता एवं स्थापितकर्त्ता परमात्मा है। संसार में सोना, चाँदी, लोहा, सीसा, कांस्य, पीतल आदि अनेक धातुएँ पाई जाती हैं। हीरे, मोती, जवाहर आदि अनेक बहुमूल्य रत्न पाए जाते हैं। ये सब ईश्वर के द्वारा बनाए गए हैं; किसी मनुष्य के द्वारा नहीं बनाए गए। इस ब्रह्माण्ड की असीम वायु, अनन्त जल, पृथिवी, सूर्य, चन्द्रमा, नक्षत्र―ये सब किसी महान् सत्ता का परिचय दे रहे हैं। आस्तिक इसी महान् सत्ता को ईश्वर के नाम से पुकारता है। फल-फूल, वनस्पतियों और ओषधियों के संसार को देखकर भी मनुष्य को बहुत आश्चर्य होता है। गुलाब के पौधे वा नीम की पत्तियाँ देखने में कितनी सुन्दर लगती हैं। उनके किनारे बिना मशीन के एक-जैसे कटे होते हैं। गुलाब के फूल में सुन्दर रंग, मधुर मोहक सुगन्ध और उसके अन्दर इत्र का प्रवेश―ये किसी बुद्धिमान् कारीगर की कारीगरी को दिखा रहे हैं। अनार की अद्भुत रचना देखिए। ऊपर कठोर छिलका, छिलके के अन्दर झिल्ली, झिल्ली के अन्दर दानों का एक निश्चित क्रम में फँसा होना, दानों में सुमधुर रस का भरा होना, उन रसभरे दानों में छोटी-सी गुठली और गुठली में सम्पूर्ण वृक्ष को उत्पन्न करने की शक्ति। वट का विशाल वृक्ष और सरसों के बीज में एक विशाल वृक्ष का समाविष्ट होना, ये सब उस अद्भुत रचयिता को सिद्ध करते हैं। चींटी से लेकर हाथी तक जीव-जन्तुओं की शरीर-रचना, वन्य-जन्तुओं के आकार और विभिन्न पक्षियों और कीट-पतंगों की रचना―ये सब किसके कारण है? क्या जड़ प्रकृति में इतनी सूझ-बूझ है कि वह विभिन्न आकृतियों का सृजन कर दे? ये विभिन्न शरीर-रचनाएँ परमपिता परमात्मा की ओर संकेत कर रही हैं। इस समय धरती पर पाँच अरब व्यक्ति निवास करते हैं। सृष्टि के रचयिता की अद्भुत कारीगरी देखिए कि एक व्यक्ति की आकृति दूसरे व्यक्ति से नहीं मिलती। इस संसार की विशालता भी आश्चर्यकारी है। ऐसा कहते हैं कि पृथिवी की परिधि २५ हजार मील है। पाँच अथवा छ: फुट लम्बे शरीरवाले मनुष्य के लिए यह परिधि आश्चर्यजनक है। पर्वत की विशालता भी कुछ कम आश्चर्यकारी नहीं―पत्थरों की एक विशाल राशि, जिसके आगे मनुष्य तुच्छ प्रतीत होता है। समुद्र की विशालता को लीजिए। कितनी अथाह-जलराशि होती है। सूर्य पृथिवी से १३ लाख गुणा बड़ा है। पृथिवी की परिधि आश्चर्यकारी है, परन्तु पृथिवी से १३ लाख गुणा बड़ा सूर्य विशालता की दृष्टि से क्या कम विस्मयकारी है? और फिर सूर्य के समान ब्रहाण्ड में करोड़ों सूर्य हैं। क्या यह संसार किसी अद्भुत रचयिता की ओर संकेत नहीं कर रहा है? जहाँ संसार की विशालता आश्चर्यकारी है, वहाँ सृष्टि की सूक्ष्मता भी कम विस्मयकारी नहीं। बड़े-से-बड़े हाथी को देखकर जहाँ आश्चर्य होता है, वहाँ चींटी-जैसे सूक्ष्म प्राणियों को देखकर भी विस्मय होता है। संसार की यह सूक्ष्मता भी किसी रचयिता की ओर संकेत कर रही है। कुछ लोग कहते हैं कि यह संसार अकस्मात् बना है। कोई भी घटना पूर्व-परामर्श अथवा पूर्व-प्रबन्ध के बिना नहीं होती। बाजार में दो व्यक्तियों का अकस्मात् मिलन उनकी इच्छा-शक्ति से प्रेरित होकर किसी उद्देश्य के लिए घर से निकलने का परिणाम है। अकस्मात् वाद का आश्रय लेकर यदि कोई कहे कि देवनागरी के अक्षरों को उछालते रहने से 'रामचरित मानस' की रचना हो जाएगी तो उनकी यह कल्पना असम्भव है। 'रामचरित मानस' की रचना के पीछे किसी ज्ञानवान् चेतन सत्ता की आवश्यकता है। कुछ लोग कहते हैं कि संसार का बनाने वाला कोई नहीं। जो कुछ बनता है वह नेचर अथवा कुदरत से बनता है। प्रश्न यह है कि नेचर अथवा कुदरत किसे कहते हैं? यदि नेचर का अर्थ सृष्टिनियमों से है तो सृष्टियों का कोई नियामक चाहिए। कुदरत अरबी भाषा का शब्द है। इसका अर्थ है सामर्थ्य। सामर्थ्य, बिना सामर्थ्यवान् के टिक नहीं सकता। सामर्थ्यवान् कोई चेतन सत्ता ही हो सकती है। स्वभाववादी, स्वभाव से ही संसार को बना हुआ मानते हैं। किन्तु तथ्य यह है कि यदि परमाणुओं में मिलने का स्वभाव होगा तो वे अलग नहीं होंगे, सदा मिले रहेंगे। यदि अलग रहने का स्वभाव है तो परमाणु मिलेंगे नहीं; सृष्टि-रचना नहीं हो पाएगी। यदि मिलने वाले परमाणुओं की प्रबलता होगी तो वे सृष्टि को कभी बिगड़ने नहीं देंगे। यदि अलग-अलग रहने वाले परमाणुओं की प्रबलता होगी तो सृष्टि कभी नहीं बन पाएगी। यदि बराबर होंगे तो सृष्टि न बन पाएगी, न बिगड़ेगी। जैनी ऐसी शंका करते हैं कि ईश्वर तो क्रियाशून्य है, अत: वह जगत् को नहीं बना सकता। वे इस यथार्थ को भूल जाते हैं कि क्रिया की आवश्यकता एकदेशीय कर्त्ता को पड़ती है। जो परमात्मा सर्वदेशी है उसे क्रिया की आवश्यकता ही नहीं होती। वह सर्वव्यापक होने से ही संसार की रचना करने में समर्थ होता है, जैसे शरीर में आत्मा के स्थित होने के कारण शरीर सब प्रकार की चेष्टाएँ करता है। जब परमात्मा आनन्दस्वरुप है तो वह आनन्द छोड जगत् के प्रपंच में क्यों फँसता है?―यह बात निर्मूल है क्योंकि, प्रपंच में फँसने की बात एकदेशी पर लागू होती है, सर्वदेशी पर नहीं। साभार― ["वैदिक धर्म का स्वरुप" पुस्तक से, लेखक-प्रा० रामविचार]
शाकाहार और मांसाहार (Vedic vichar)
18-03-2023
1. एथलीट्स को मजबूत होने के लिये मीट खाने की जरूरत होती है।” अनेक ओलंपिक पदक विजेता शाकाहारी है। मांसाहारी देश जैसे पाकिस्तान, बांग्लादेश, सोमालिया, सऊदी अर्ब, ईरान, ईराक आदि ओलंपिक सूची मे कहाँ हैं? अमेरिका चीन के खिलाड़ियों के गोल्ड मैडल जीतने के कारण अलग हैं। 2. “अकेले मेरे मांसाहार छोड़ने से कुछ नहीं बदलेगा।” फ़र्क पड़ता है।1 परिवार कम से कम 30 पशुओं को हर साल बचा सकता हैं। 3. “हमें प्रोटीन के लिये मांस खाना चाहिये।” नहीं, ऐसा जरूरी नहीं है। प्रोटीन वनस्पतीय भोजन में भी प्रचुरता से भरे होते हैं। दाल और अनाज से आपको पर्याप्त है। प्रोटीन प्राप्त करने के लिये मांसाहार की जरूरत नहीं है। यह एक मिथक है। । यदि मांस और प्रोटीन से ही स्वास्थ्य होता तो -- अमेरिका मे 62% मोटे ना होते। पाकिस्तान मे दुनिया की सबसे अधिक जेनिटिक (अनुवानशींक) बीमारी नहीं होती। 4. “फ़ार्म में पशुओं के साथ मानवीय व्यवहार होता है।” दूर-दूर तक नहीं। खाने के लिये पाले जाने वाले पशुओं में 95 प्रतिशत से अधिक फ़ैक्ट्री फ़ार्म में घोर कष्टमय जीवन जीते हैं। गंदे, तंग पिंजरे में खचाखच ठूँसे हुए, बिना दर्दनिबारक के अंग-भंग की पीड़ा सहने को मजबूर, और निर्दयतापूर्वक बध किये जाते हैं। यकीन नहीं होता ? तो youtube पर टर्की पक्षी के पंख हटाने की प्रक्रिया देखिए। इतना ही नही फार्महाउस पर पशुओं और पक्षियों को बड़ी मात्रा मे अंटीबायोटिक व कृमिनाशक दवाई दी जाती है। यह दवाइया मांस के साथ अल्प मात्रा मे हमारे शरीर मे पहुँचती है। मानव शरीर मे जीवाणु इन दवाइयों के प्रति प्रतिरोध उत्पन्न कर लेते हैं। इससे हमारी बीमारी आदिक जटिल होती जा रही हैं। 5. “मुझे शाकाहारी आहार पसंद नहीं है।” तो क्या आपको फ़्रेंच-फ़्राइज और पास्ता पसंद नहीं है? डोसा,-चटनी और ढोकला के बारे में क्या ख्याल है? मिठाइयाँ सभी पसंद करते हैं। आप अक्सर शाकाहारी भोजन खाते हैं और पसंद भी करते हैं लेकिन सिर्फ़ कहते नहीं है। 6. “शाकाहारी होना अस्वास्थ्यकर है।” यदि मांसाहारी स्वस्थ होते तो पाकिस्तान ब्ंग्लादेश मे 100 % स्वस्थ होते. शाकाहारी प्रदेश हरियाणा, राजस्थान के लोग मांसाहारी बंगाल या केरल से अधिक स्वस्थ हैं। 7. “लोग हमेशा से मांस खाते आए हैं और खाते रहेंगे।” माफ़ कीजिए...! यह सत्य नहीं है। मानव इतिहास में कई संस्कृतियाँ मांसाहार से परहेज करती हैं। वैदिक मान्यता के अनुसार जीने वाले प्राचीन भारतीय मांस नहीं खाते थे। कुछ चीजें बीते समय में होती थी तो इसका मतलब यह नहीं कि हम उसे जारी रखें। कल तक TB जानलेवा थी। आज नहीं। तो क्या आज भी इसका इलाज ना करवाएँ? 8. “मेरे शरीर को मीट की जरूरत है।” नहीं, कोई जरूरत नहीं है। आपका शरीर इसके बिना कहीं ज़्यादा अच्छा रहेगा। शाकाहारी भी स्वस्थ और बलवान रह सकते हैं। 9. “मांसाहार छोड़ दिया तो पूरे पृथ्वी पर मुर्गी और बकरी ही होंगी।” अगर लोग मांस खाना छोड़ देंगे तो फ़ार्मर्स पशुओं की ब्रीडिंग करना छोड़ देंगे। 99% मांस और अंडा मीट फार्मिंग से ही आता है. 10. “पूरी दुनियाँ को खिलाने का एक मात्र उपाय फ़ैक्ट्री फ़ार्मिंग ही है।" एक मिनट..! फ़ैक्ट्री फ़ार्मिंग न केवल जलवायु परिवर्तन का मुख्य कारण है बल्कि इससे भारी बर्बादी भी होती है। एक किलो मांस के उत्पादन के लिये 16 किलो अनाज लगता है। जरा सोचिये...! उन अनाज से कितने लोगों का पेट भर सकता है। 11- मांसाहारी बुद्धिमान होते हैं. जैसे अमेरिका, यूरोपीय देश या चीन.-- . 55 मुस्लिम देश. 100% मांसाहारी. विश्व की मुख्य 500 युनिवर्सिटी में 1 भी इनमे नहीं. 100 बड़े चिकित्सालय में इनका नाम नहीं . जमीन तेल निकालने की योग्यता नहीं. अमेरिकन इंजिनियर निकालते हैं. बड़ी बिल्डिंग जैसे बुर्ज खलीफा के निर्माण योजनाकार अमेरिकी और यूरोपीय. . 12- . टीवी में भी कहते हैं. सन्डे हो या मंडे रोज खाओ अंडे. यह विज्ञापन पैसे के कारण दिखाई देता है. अंडा उत्पादन करने वालों की यूनियन इसके लिए पैसा देती है. 13- कसाई (Butcher} शरीर से मजबूत होते हैं. इसका कारण उनका व्यवसाय नहीं मानसिकता है. अत्यन्त निर्दयी होने से उनमे मानव सुलभ संवेदनाए नहीं रहती. वे किसी भी बात को लेकर कभी आत्मग्लानि या पश्चाताप नहीं करते. चिन्ता से परेशान नहीं होते. हरियाणा में जो चरवाहे ( जिन्हें हरियाणा में पाली} कहते हैं शाकाहारी होते थे. आज से 30 साल पहले मजबूत शरीर के होते थे.क्योंकि वे सारा दिन मस्त रहते थे और चिन्ता नहीं करते थे.. कुछ सालों से शराब और नशे ने उनके स्वास्थ्य को चौपट कर दिया है.
स्वामी दयानन्द और आर्यावर्त्त. (Vedic vichar)
18-03-2023
स्वामी दयानन्द ने स्वमन्तव्य-अमन्तव्य प्रकाश में 'आर्यावर्त्त' की परिभाषा इस प्रकार से दी है। 'आर्यावर्त्त' देश इस भूमि का नाम इसलिए है कि जिस में आदि सृष्टि से पश्चात आर्य लोग निवास करते हैं परन्तु इस उत्तर में हिमालय, दक्षिण में विंध्याचल, पश्चिम में अटक और पूर्व में ब्रह्मपुत्र नदी है। इस चारों के बीच में जितना देश है उसी को 'आर्यावर्त्त' कहते और इस में सदा रहते हैं उन को भी आर्य कहते हैं। सत्यार्थ प्रकाश अष्ठम समुल्लास में भी स्वामी दयानन्द मनुस्मृति 2/22 का सन्दर्भ देते हुए लिखते है कि- आसमुद्रात्तु वै पूर्वादासमुद्रात्तु पश्चिमात्।तयोरेवान्तरं गिर्योरार्य्यावर्त्तं विदुर्बुधाः।।१।। सरस्वतीदृषद्वत्योर्देवनद्योर्यदन्तरम् ।तं देवनिर्मितं देशमार्यावर्त्तं प्रचक्षते।।२।। मनु०। उत्तर में हिमालय, दक्षिण में विन्ध्याचल, पूर्व और पश्चिम में समुद्र।।१।। तथा सरस्वती पश्चिम में अटक नदी, पूर्व में दृषद्वती जो नेपाल के पूर्व भाग पहाड़ से निकल के बंगाल के आसाम के पूर्व और ब्रह्मा के पश्चिम ओर होकर दक्षिण के समुद्र में मिली है जिस को ब्रह्मपुत्र कहते हैं और जो उत्तर के पहाड़ों से निकल के दक्षिण के समुद्र की खाड़ी में अटक मिली है। हिमालय की मध्यरेखा से दक्षिण और पहाड़ों के भीतर और रामेश्वर पर्यन्त विन्ध्याचल के भीतर जितने देश हैं उन सब को आर्यावर्त्त इसलिये कहते हैं कि यह आर्यावर्त्त देव अर्थात् विद्वानों ने बसाया और आर्यजनों के निवास करने से आर्यावर्त्त कहाया है। यहाँ पर स्वामी जी ने रामेश्वर पर्यन्त विन्ध्याचल शब्दों का प्रयोग किया है। वर्तमान में विंध्याचल पर्वतमाला मध्य और पश्चिमी भारत में मिलने वाली पर्वतमाला को कहते हैं। ऐसे में यह भ्रान्ति हो जाती है कि क्या स्वामी दयानन्द केवल उत्तर और मध्य भारत को आर्यावर्त्त कहते हैं। दक्षिण को आर्यावर्त्त का भाग नहीं मानते। ऐसी भ्रान्ति प्रसिद्द लेखक रामधारी सिंह दिनकर को भी हुई थी। उन्होंने "संस्कृति के चार अध्याय" पुस्तक में आर्यसमाज विषय पर लिखते हुए इस विषय पर लिखा कि "स्वामी दयानन्द ने तो संस्कृत की सभी सामग्रियों को छोड़कर केवल वेदों को पकड़ा और उनके सभी अनुयायी भी वेदों की दुहाई देने लगे। परिणाम इसका यह हुआ कि वेद और आर्य, भारत में ये दोनों सर्व प्रमुख हो उठे और इतिहासकारों में भी यह धारणा चल पड़ी कि भारत की सारी संस्कृति और सभ्यता वेद वालों अर्थात आर्यों की रचना है।" "हिन्दू केवल उत्तर भारत में ही नहीं बस्ते और न यही कहने का कोई आधार था कि हिंदुत्व की रचना में दक्षिण भारत का कोई योगद्दान नहीं है। फिर भी स्वामीजी ने आर्यावर्त की जो सीमा बाँधी है, वह विंध्याचल पर समाप्त हो जाती है। आर्य-आर्य कहने, वेद-वेद चिल्लाने तथा द्रविड़ भाषाओं में सन्निहित हिंदुत्व के उपकरणों से अनभिज्ञ रहने का ही यह परिणाम है कि आज दक्षिण में आर्य-विरोधी आंदोलन उठ खड़ा हुआ है। " "इस सत्य पर यदि उत्तर के हिन्दू ध्यान देते तो दक्षिण के भाइयों को वह कदम उठाना नहीं पड़ता, जिसे वे आज उपेक्षा और क्षोभ से विचलित होकर उठा रहे है।" दिनकर जी विषय को न सही से समझा न स्वामी जी की परिभाषा पर चिंतन किया। उल्टा स्वामी जी पर आक्षेप कर दिया जो उन्हें शोभा नहीं देता। असल में वो साहित्यकार थे। इतिहास तत्त्वेत्ता नहीं। स्वामी जी की परिभाषा में रामेश्वर पर्यन्त विंध्याचल लिखा है जबकि दिनकर जी केवल मध्य भारत तक ही विंध्याचल समझ रहे है। जबकि वाल्मीकि रामायण के किष्किंधा कांड में कई श्लोकों में विंध्य पर्वत का वर्णन मिलता है। १. सुग्रीव बाली के भय से दक्षिण दिशा को जाते हुए कहते है- उस दिशा को छोड़कर मैं फिर दक्षिण दिशा की ओर प्रस्थित हुआ जहाँ विंध्य पर्वत पर वृक्ष और चन्दन के वृक्ष शोभा बढ़ाते हैं। किष्किंधा कांड 46/1 २. सीता को खोजते हुए हनुमान जी इसी कांड में 48/2 एवं 52/31-32 श्लोक में विंध्य पर्वत, प्रस्रवण गिरी और सागर तीनों पास में होने का वर्णन करते हैं। ३. इसी कांड में 53/3 श्लोक में लिखा है कि सीता को न पाकर हनुमान आदि विंध्य पर्वत की तलहटी में बैठकर चिंता करने लगे। ४. इसी कांड में सम्पाती विंध्य की कन्दराओं से निकल कर हनुमान से वार्तालाप करता हैं। यह वर्णन श्लोक 56/3 में मिलता हैं। ऐसे अनेक प्रमाण यह सिद्ध करते है कि रामायण काल में विंध्य पर्वत दक्षिण भारत में सागर के समीप पर्वत श्रृंखला का नाम था। मेरे विचार से आज कल भारत के पश्चिमी तट पर स्थित पर्वत श्रृंखला को पश्चिमी घाट या सह्याद्रि कहते हैं। उसी का नाम विंध्य था। यह नामकरण कब और कैसे परिवर्तित हुआ। इस पर अनुसन्धान की आवश्यकता हैं। मगर रामायण की आत्म साक्षी से यह सिद्ध होता है कि विंध्य पर्वतमाला दक्षिण भारत में ही थी। दिनकर जी की बात गलत सिद्ध होती हैं। उत्तर और दक्षिण भारत के मध्य विवाद का मुख्य कारण विदेशी लेखकों द्वारा आर्यों को विदेशी और दक्षिण भारतीय को मूलनिवासी बताने की कल्पना करना हैं। ऐसी भ्रांतियों का समूल निराकरण हो ताकि भारत देश के वासी एकता और अखंडता का वरण करें। स्वामी दयानन्द का उद्देश्य केवल समस्त मानव समाज का उपकार करना था।
Vedic vichar
18-03-2023
ओं शं नो मित्रः शं वरुणः शं नो भवत्वर्य्यमा। शं न इन्द्रो बृहस्पतिः शं नो विष्णुरुरुक्रमः।।1।। ऋ. अ.1। अ.6।व.18। मं.9।। व्याख्यानः- हे सच्चिदानन्दानन्तस्वरूप, हे नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभाव, हे अद्वितीयानुपमजगदादिकारण, हे अज निराकार सर्वशक्तिमन्, न्यायकारिन्, हे जगदीश, सर्वजगदुत्पादकाधार, हे सनातन, सर्वमंगलमय, सर्वस्वामिन्, हे करुणाकरास्मत्पितः परमसहाय, हे सर्वानन्दप्रद, सकलदुःखविनाशक, हे अविद्यान्धकारनिर्मूलक, विद्यार्कप्रकाशक, हे परमैश्वर्यदायक, साम्राज्यप्रसारक, हे परमैश्वर्यदायक, साम्राज्यप्रकाशक, हे अधमोद्धारक, पतितपावन, मान्यप्रद, हे विश्वविनोदक, विनयविधिप्रद, हे विश्वासविलासक, हे निरंजन, नायक, शर्मद, नरेश, निर्विकार, हे सर्वान्तर्यामिन्, सदुपदेशक, मोक्षप्रद, हे सत्यगुणाकर, निर्मल, निरीह, निरामय, निरुपद्रव, दीनदयाकर, परमसुखदायक, हे दारिद्यविनाशक, निर्वैरविधायक, सुनीतिवर्धक, हे प्रीतिसाधक, राज्यविधायक, शत्रुविनाशक, हे सर्वबलदायक, निर्बलपालक, हे सुधर्मसुप्रापक, हे अर्थसुसाधक, सुकामवर्द्धक, ज्ञानप्रद, हे सन्ततिपालक, धर्मसुशिक्षक, रोगविनाशक, …हे पुरुषार्थप्रापक, दुर्गुणनाशक, सिद्धिप्रद, हे सज्जनसुखद, दुष्टताड़न, गर्वकुक्रोधकुलोभविदारक, हे परमेश, परेश, परमात्मन्, परब्रह्मन्, हे जगदानन्दक, परमेश्वर व्यापक सूक्ष्माच्छेद्य, हे अजरामृताभयनिर्बन्धनादे, हे अप्रतिमप्रभाव, निगुर्णातुल, विश्वाद्य, विश्ववन्द्य, विद्वद्विलासक, इत्याद्यनन्तविशेषणवाच्य, हे मंगलप्रदेश्वर ! आप सर्वथा सबके निश्चित मित्र हो, हमका सत्यसुखदायक सर्वदा हो, हे सर्वोत्कृष्ट, स्वीकरणीय, वरेश्वर ! आप वरुण अर्थात् सबसे परमात्तम हो, सो आप हम को परमसुखदायक हो, हे पक्षपातरहित, धर्म्मन्यायकारिन् ! आप आर्य्यमा (यमराज) हो इससे हमारे लिये न्याययुक्त सुख देनेवाले आप ही हो, हे परमैश्वर्य्यवन्, इन्द्रेश्वर ! आप हमको परमैर्श्वयुक्त शीघ्र स्थिर सुख दीजिये। हे महाविद्यावाचोधिपते, बृहस्पते, परमात्मन् ! हम लोगों को (बृहत्) सबसे बड़े सुख को देनेवाले आप ही हो, हे सर्वव्यापक, अनंत पराक्रमेश्वर विष्णो ! आप हमको अनंत सुख देओ, जो कुछ मांगेंगे सो आपसे ही हम लोग मांगेंगे, सब सुखों का देनेवला आपके विना काई नहीं है, सर्वथा हम लोगों को आपका ही आश्रय है। अन्य किसी का नहीं क्योंकि सर्वशक्तिमान् न्यायकारी दयामय सबसे बड़े पिता को छोड़ के नीच का आश्रय हम लोग कभी न करेंगे, आपका तो स्वभाव ही है कि अंगीकृत को कभी नहीं छोड़ते सो आप सदैव हमको सुख देंगे, यह हम लोगों को दृढ़ निश्चय है।।1।। महर्षि स्वामी दयानंद जी द्वारा प्रणीत आर्याभिविनय से
Yogendra Maharaj Shri Krishna : A Big Troublemaker and Warmonger ? (Vedic vichar)
18-03-2023
Was lord Krishna just a warmonger and a ‘Hindu’ troublemaker ? Was he unfair and biased in the way that he dealt between the Pandavas and Kauravas? Were his war ethics, which involved a disregard for the pre-ordained rules of warfare, justifiable? These are common questions that are brought up against Shri Krishna, particularly with regards to the unflinching help he gave to the Pandavas in their struggle against the Kauravas, and with reference to Krishna’s tacit encouragement to Bhima to strike Duryodana’s thigh during the final mace dual between Duryodhana and Bhima on the banks of the Godavari River. Even though it was against the warrior code to strike a man below the waist, on seeing that Bhima was losing, Krishna encouraged Bhima to strike low. Thus was Duryodhana slain. There are several other examples in which Krishna encouraged the Pandavas to break the warrior code in order to secure victory. The slaying of Drona and Karna, great warriors who arguably the Pandavas were otherwise incapable of defeating, were achieved through schemes engineered by Krishna. How can such incidents in the Mahabharata be explained against the general ethical and compassionate basis of Krishna’s overall teachings? ========================= Krishna’s support of the Pandavas ========================= Krishna’s obsession throughout the entire Mahabharata was to establish a society where Dharma was the guiding principle. This is a society where there is protection and happiness for all, and where people live in a balanced, spiritually orientated way, with respect for other people, creatures and all of nature. Krishna’s support for the Pandavas was based solely on shared ideals, not on any intrinsic favouritism. There is an incident in the Mahabharata where Duryodhana complains that Krishna always favoured the Pandavas. Krishna’s reply was simple - “Adopt a Dharmic way of life, and I will give you, Duryodhana, the same support and guidance I give to the Pandavas.” The Pandavas, consciously strove to act for the betterment of the masses rather than for their own personal gain. They were rulers who could be instrumental in bringing about such a society as Krishna wanted to create. On the other hand, Duryodhana stood for hedonism and self-aggrandisement. As such, it would have been disastrous for society if he had come to hold sway over the most influential and powerful kingdom of that era. A Kaurava victory would have meant a rule of darkness over Hastinapoor, Indrapastha and beyond. ============= The Warrior Code ============= Rules and regulations, such as the warrior code that was then in vogue, were created for a limited purpose – to make sure that men of arms did not resort to excessive cruelty in battle, as well as to prevent them from harassing non-combatant civilians. The rules were created to protect the people, and are only relevant so long as they served that purpose. If Duryodhana and the Kauravas had won the Mahabharata War, then society would be far more vulnerable as compared with a Pandava victory. The Epic is full of examples where Duryodhana and his followers dishonoured women and acted aggressively towards men who dared speak up against them. If the Pandavas had abided by all the rules of warfare, but as a result of this ended up losing the War, society would have suffered greatly – the common man, woman and child would be deprived of an ethical and fair government. In such a case, the rules that comprise the warrior’s code would have actually hindered the very purpose that they were set up to serve (viz. the protection of the people). Following the written rules would have in fact violated the spirit that gave rise to them in the first place. In such circumstances, rules become a hindrance, and should be discarded. Men have to serve the principles behind rules, not worship the rules as if they are irrevocable. When Dharma itself is at stake, a warrior should not be too choosy about the means of victory against an adversary who has no respect for Dharma. =========== War ethics =========== Krishna also advised the Pandavas that it is suicidal to behave honourably and courteously towards an enemy who is willing to stoop to any level to kill you. By the time Krishna devised his seemingly cunning schemes to remove the key players in the opposing army, all of them had themselves flouted the rules of warfare too. The most brutal example of this was the slaying of Arjuna’s son, Abhimanyu. In such circumstances, it is foolish to maintain decency towards people who themselves have no decency and are trying to kill you at any cost. ============== Unarmed casualties ============== Despite all of this, it should be noted that there was no advice nor any incident in the Mahabharata where Krishna would accept or justify the killing on non-combatants. The struggle was only ever directed against the individuals who were directly involved in upholding Duryodhana’s powers through the force of arms. ----------------------------------------------------------------------- Conclusion In this brief overview, it can be seen that Krishna’s guidance to the Pandavas reflects a universal and valid approach to certain predicaments that will always face mankind. His efforts to help the Pandavas should be understood in the sole context of the establishment of a righteous society in the face of tyranny, rather than any favouritism.
मानव-संस्कृति के मूलाधार वेद हैं! (Vedic vichar)
18-03-2023
लेखक- व्याख्यान वाचस्पति पं० बिहारीलाल शास्त्री, काव्य-तीर्थ प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ संसार के पुस्तकालय में वेद ही सबसे प्राचीन पुस्तक है। इस सिद्धान्त को तो प्रायः सबने ही मान लिया है। जो लोग मिश्र की सभ्यता-संस्कृति को आर्यों की सभ्यता तथा संस्कृति से पुराना मानते हैं, वा जो भारत में द्रविड़ सभ्यता वा जैन धर्म को वैदिक संस्कृति और धर्म से पुराना कहते हैं, उनके पास भी मिश्र, द्रविड़ व जैनों का कोई लेख वा ग्रन्थ वेदों से पुराना नहीं है। सबसे पुराने साहित्य के अधिकारी आर्य ही हैं, और उनमें भी भारतीय आर्य। बस, यदि वेदों में ज्ञान-विज्ञान और कला-संस्कृति के मूल सिद्धान्त हैं तो मानना पड़ेगा कि संसार ने वेद से ही सब-कुछ सीखा है। संसार के मनुष्यों ने संस्कृति का पाठ वेद से ही पढ़ा। आज सारा संसार पड्ज, ऋषभ, गन्धार, मध्यम, पंचम, धैवत, निषाद- इन सातों स्वरों में ही गाता है। इन सबों का प्रादुर्भाव सामवेद से हुआ है। भूमण्डल में अश्विन्यादि सत्ताईस नक्षत्र प्रकट हैं। इनके नाम अथर्ववेद में हैं। युग, वर्ष, मास, ऋतु, पक्ष, ग्रह इनका वर्णन यजुर्वेद और अथर्ववेद में है। अनेक लाभदायक जड़ी-बूटियां अथर्ववेद में, ओषधियों के सेवन का निर्देश; अनेक पशु-पक्षी-कृमि की जानकारी यजुर्वेद में है- अध्याय २४ में; अन्नों के नाम अध्याय १८ में। वस्त्रों का धारण, आभूषणों से सजावट, रत्नों का उपयोग अथर्ववेद में है। सेना, रण-वाद्य, अनेक शस्त्रास्त्रों के वर्णनों से अथर्ववेद भरा हुआ है। सभ्यता और संस्कृति के उच्च उदाहरण वेदों में विद्यमान हैं। उस पुराने काल में वेदों जैसा सुन्दर संस्कृतिपूर्ण ग्रन्थ तभी तैयार हो सकता है जब कि समाज पूर्ण सुसंस्कृत रहा हो। यदि तत्कालीन समाज पूर्ण सु-संस्कृत था और उसी समाज के व्यक्तियों ने वेद की रचना करी तो फिर वह समाज सु-संस्कृत किस प्रकार हुआ? यदि कहो कि वह समाज अपने-आप विकास के नियमों से लाखों वर्षों में सुसंस्कृत हो गया था, फिर प्रश्न होता है कि उसका वेद से पूर्व और कोई ग्रन्थ क्यों नहीं मिलता? और क्या बिना कुछ आधारभूत सिद्धान्तों को पाए मनुष्य विकास कर सकता है? मनुष्य को विकास के लिए कुछ संकेत वेद से मिले हैं। आर्यधर्मियों का ही नहीं, अन्य भी ईश्वरविश्वासी धर्मवालों का यही विश्वास है कि आदि-सृष्टि में मनुष्य को ज्ञान भगवान् ने दिया। बाइबल-कुरान बताते हैं कि ईश्वर ने 'आदम' (आदि-मनुष्य) को बनाकर सब वस्तुओं के नाम याद करा दिए। वे नाम फ़रिश्तों तक को याद न थे। कुरान के भाष्यकारों ने लिखा है कि हजरत आदम जब स्वर्ग से भूमि पर उतारे गए तो अपने साथ 'सुरपानी' भाषा में दस सइफे (अभिलेख) लाए थे। 'सुरपानी' सुरवाणी, देववाणी, यह संस्कृत वेदभाषा के नाम हैं। वे आदम के लाए दस 'सइफे' ऋग्वेद के दस मण्डल ही तो है! भगवान् ने मनुष्य को वाणी दी, और ज्ञान का भण्डार वेद। उसी मूल ज्ञान को मनुष्य समय-समय पर पल्लवित करता हुआ बहुत बड़े ज्ञान का अधिकारी बन गया। फिर कालान्तर में जब मनुष्य-जाति भूमि के विविध भागों में बिखरी तो उसकी भाषा में भेद हो गया। विचारधारा बदल गई। परन्तु अपनी विविध भाषाओं और विचारों में भी विविध मनुष्य-जातियां वैदिक भाषा और ज्ञान की मूल नींव को नष्ट न कर सकीं। जैसे कई-कई पीढ़ियों तक दादों-परदादों की मुख्य छवि पर शरीर का गढ़न चला करता है, इसी प्रकार संसार की जातियों को भाषाओं, धर्मों और विचारों में, वेदों की भाषा के शब्दों के मूल और वैदिक धारणाओं के विकृत विचार विद्यमान हैं। श्रीमान् जैकालिया महोदय ने, जो गोआ में जज रहे थे, एक पुस्तक लिखी है- 'बाइबल इन इण्डिया'। इसमें सप्रमाण सिद्ध किया है कि संसार की भाषाओं की जननी वैदिक भाषा और संसार की जातियों की माता आर्य जाति है। जो लोग यह मानते हैं कि आदिसृष्टि में मानवाकार एक पशु था, धीरे-धीरे उसके ज्ञान में विकास हुआ, और आज उसके ज्ञान-विकास का मध्याह्न है, ऐसे लोगों को यह जानना चाहिए कि ईश्वर वा ईश्वरास्तित्व के अनंगीकारी लोगों की नेचर (निसर्ग) कोई काम नासमझी का वा आयुक्त नहीं करती। पशु, पक्षी आदि तिर्यक् योनि के जीवों को निसर्ग-प्राप्त व्यवहार-ज्ञान मिला है। परन्तु मनुष्य को कुछ बातों के ज्ञान के अतिरिक्त जीवन की आवश्यक वस्तुओं तक का ज्ञान नहीं। अक्षरमयी वाणी बिना अनुकृति के मनुष्य की जन्मजात कला नहीं है। मनुष्य वानरवत् वृक्षों पर नहीं चढ़ सकता और न वैसी उछल-कूद कर सकता है। मनुष्य की हड्डियां भी ऐसी लचकीली नहीं हैं। मनुष्य पर सींग, दांत, नख आदि रक्षा के साधन भी नहीं हैं। यदि मनुष्य को नैमित्तिक ज्ञान, निसर्ग (नेचर) वा परमेश्वर की ओर से न मिलता तो वह संसार में पहली ही पीढ़ी में समाप्त हो जाता। ईश्वर ने आदिसृष्टि में ही मनुष्य को नैमित्तिक ज्ञान प्रदान किया। उसी से उसने जगत् के सब पदार्थों को जाना और उसी प्रकार उनका नाम रखा। यही सिद्धान्त शास्त्र ने बताया है- नामरूपे च भूतानां कर्मणा प्रवर्तनम्। वेद शब्देभ्य: एवादौ निर्मये स महेश्वर:।। "यो ब्रह्मणो प्रथमो गा अविन्दत्"- ईश्वर ने आदिसृष्टि में ब्रह्मा को वाणी प्रदान करी। संसार के जीव-अजीव पदार्थों के नाम और कर्मों की प्रवृत्ति वेद से जानी गई। यदि किसी मनुष्य को नानाविध विचित्र वस्तुओं से भरे भवन में छोड़ दें और वस्तुओं की जानकारी न कराएं तो मनुष्य उन पदार्थों का विपरीत प्रयोग करके हानि भी कर सकता है। क्योंकि मनुष्य चंचल, रचनाप्रिय तथा क्रियावान् होता है। अतः संसार-रूपी भवन में आने पर मनुष्य को यहां के पदार्थों की उचित जानकारी और प्रयोग सिखाने के लिए वेद-ज्ञान से पूर्ण ऋषि, आदिसृष्टि में ही आए और पहली पीढ़ी के मनुष्यों को भाषा तथा संसार की वस्तुओं का प्रयोग एवं समाज के नियम सिखाकर चले गए। "साक्षात्कृत धर्माणो ऋषयो बभूव:' ऋषि लोगों ने धर्म का साक्षात्कार ईश्वर से किया था। उन्होंने सब मनुष्यों को भाषा, धर्म, सभ्यता और संस्कृति की शिक्षा दी। सभी धर्मों की विचारधारा में वेद का ज्ञान किसी-न-किसी रूप में अवश्य प्रवाहित होता है। वेद ने ईश्वर को 'अग्नि' नाम से कहा तो मूसाई-ईसाई-मुहम्मदी धर्मों में भी ईश्वर को 'नूर' (प्रकाश) ही बताया गया है। हजरत मूसा को तथाकथित ईश्वर का साक्षात् हुआ तो 'नूर' पर्वत अग्निमय ही दीखा। ईसाइयों का जल से संस्कार (बप्तिस्मा) "आप: शुन्धन्तु मैनस:" आप: (जल वा ईश्वर) मुझे पाप से शुद्ध करें। यह यजुर्वेद के विचार का ही परिणाम है। खुदा का अर्श पानी पर था और ईश्वर का आत्मा जलों पर मण्डलाता था- ये कुरान और बाइबल के विचार "भुवनस्य मध्ये...सलिलस्य पृष्ठे" इस वेद-ज्ञान के "सलिलस्य पृष्ठे" का ही विकृत भाव है। कलाओं में सर्वोत्कृष्ट कला- नाट्यकला वेद ही से प्रादुर्भूत हुई है। सबसे पहला नाटक 'इन्द्रविजय' नाटक इन्द्र-ध्वजारोहण के उत्सव में आर्यों ने खेला था (भारत का नाट्य शास्त्र)। विश्व ने छन्द, अलंकार वेदों से सीखे। कथाएं, संवाद, पहेलियां वेदों से जाने। काव्य के दोष और गुण दोनों वेद से सीखे। इतिहास की शिक्षा देने के लिए ही वेदों में सृष्टि-रचना के इतिहास की कथाएँ आईं जिन्हें विकृति से लोग लौकिक इतिहास समझ लेते हैं। बड़े-बड़े उत्सव वैदिक यज्ञों से सीखे गए। खेती-बाड़ी, वस्त्रों का बुनना वेदों ने सिखाया। ऋग् मण्डल १०, सूक्त ८५, मन्त्र २-४ तथा मण्डल १, सूक्त ८४, मन्त्र १५ में चन्द्र-विज्ञान, मण्डल १ सूक्त ४० मन्त्र ५-८ में ग्रहण विज्ञान, १-११६-५ में नौविद्या, १०-१२-९ में दार्शनिक विचार, १०-७१ में ज्ञान-महिमा, १०-७५ में सृष्टि-विद्या, १-५० में सूर्य-गुण, १-१६४ में आध्यात्मिक और आधिभौतिक ज्ञान, २-३-६ में शिल्प, ४-५७ में कृषि, १०-९ में जल-चिकित्सा, १०-५७ में कायाकल्प, १०-१२५ में राजसभा की शक्ति, १०-१९१ में समाज-धर्म, इसी प्रकार यत्र-तत्र ज्ञान विद्यमान हैं। अथर्व काण्ड १ सूक्त, ५ में जल-चिकित्सा, सूक्त २३ में श्वेत कुष्ठ चिकित्सा, २९ में मनोविज्ञान, ३४ में जड़ी-बूटी, काण्ड ४ सूक्त १२ तथा छठे में संजीवनी बूटी तथा अनेक उपयोगी बूटियों का वर्णन है। अथर्व काण्ड १२ में मातृभूमि की स्तुति और उसको सुरक्षित रखने के उपाय, काण्ड १० सूक्त ८ में रहस्यवाद, काण्ड ८ सूक्त ५ तथा काण्ड १० सूक्त ३ में मणि विज्ञान, २ में ब्रह्म-विद्या, काण्ड १९ सूक्त १० मन्त्र १२ में सूर्य-किरण विज्ञान, काण्ड १९ सूक्त ७ में नक्षत्र-वर्णन आदि अनेक विषय तथा जहां-तहां आध्यात्मिक वर्णन है। ३-३० में पारिवारिक शिक्षा और विश्व-प्रेम एवं यत्र-तत्र सत्य की महिमा, ब्रह्मचर्य-महिमा आदि सदाचार-सम्बन्धी शिक्षाएं, मानसिक चिकित्सा आदि अनेक विज्ञान हैं। यजुर्वेद १८-२३ तथा अथर्व १५-२-११ में गणित के नियमों के सूक्ष्म बीज विद्यमान हैं। यजुर्वेद अध्याय २४ में प्राणि-विज्ञान, अध्याय ३० में मनुष्यों का स्वभावानुसार उपयोग, ३४ में मनोविज्ञान, ४० में ब्रह्मविद्या है; १६-४८ में सेनापति के कर्तव्य, अध्याय २० में राजा, अध्यापक और उपदेशक के कर्तव्य, १२वें अध्याय में हैं। वेद-सागर विविध विज्ञान के रत्नों का भण्डार है। इस सबको देखकर एक ही मिथ्या हो सकता है- या तो वेदों का निर्माण ऐसे समय में हुआ जब कि मनुष्य-समाज पूर्णतया विद्या-सम्पन्न और सुसंस्कृत था, वा वेदों ने ही यह सब-कुछ मनुष्यों को सिखाया। दोनों ही दशाओं में मानव-संस्कृति के कोश वा मूलाधार वेद ठहरते हैं। भूतल पर और कोई भी पुस्तक ऐसी मिलता ही नहीं। वेदों का प्रभाव मानव-संस्कृति पर पड़ा व तत्कालीन मानव-संस्कृति का प्रतिबिम्ब वेदों में विद्यमान है। इसमें पहली मान्यता तो मनुस्मृति आदि शास्त्रों की है। सब वैदिकधर्मी प्रथम मान्यता को ही मानते हैं। दूसरी धारणा पर प्रश्न यह होता है कि वैसा सुसंस्कृत समाज किस शिक्षा से बना? क्योंकि मनुष्य बिना सिखाए सीखने की योग्यता नहीं रखता। यदि कहा जाए कि इसके प्रथम अन्य पुस्तक थे, तो प्रमाण चाहिए। कोरी कल्पना मान्य नहीं हो सकती। फिर उन पुस्तकों पर भी प्रश्न होता चला जाएगा तो अनवस्था-दोष आएगा। अतः यही मान्यता ठीक ठहरती है कि आदिशिक्षक वेद ही है। मानव-मात्र ने ज्ञान-विज्ञान, कला-कौशल, शिल्प, सुसंस्कृति वेदों से ही सीखी थी। इसीलिए वैदिक शिक्षा 'सा प्रथमा संस्कृतिर्विश्ववारा' अर्थात् वैदिक शिक्षा पहली और सार्वभौम संस्कृति है। नोट- यह लेख 'आर्य' साप्ताहिक अम्बाला छावनी के स्वाध्याय अंक श्रावणी सम्वत् २०१० वि० में प्रकाशित हुआ था। [साभार- वैदिक ज्ञान-धारा]
Vedic vichar
18-03-2023
वेद के वेदत्व और उसकी सर्वाङ्गपूर्णता पर न केवल भारतीय विद्वान अपितु पाश्चात्य जगत् भी मोहित एवं मुग्ध है। जिन्होंने विमल वैदिक ज्ञान के अन्वेषण में अपना समय, श्रम, और शक्ति व्यय की है, उन सभी व्यक्तियों ने वेद के अलौकिक ज्ञान की प्रशंसा भी की है। यहाँ कुछ सम्मतियाँ दी जाती हैं:- 1. प्रो. हीरेन(pro. Heeren) महोदय लिखते हैं- The Vedas stand alone in their solitary splendour serving as beacon of Divine Light for the onward March of humanity. ------historical Researches Vol. 2P. 127 2. लार्ड मोर्ल ने घोषणा की:- जो कुछ वेदों में मिलता है, वह अन्यत्र कहीं नही है। 14 जुलाई 1884 को पेरिस में आयोजित अन्तर्राष्ट्रिय साहित्य संघ(International Literary Association) के समक्ष निबन्ध पढते हुये फ्रांसदेशीय विद्वान लेओ देल्बो(Mons. Leon Delbos) ने कहा था- The Rigveda is the most sublime conception of the great highways of humanity. -हरबिलास शारदा Hindu superiority 3. उबिनगन विश्वविद्यालय के प्रो. पाल थीम ने 26वीं अन्तर्राष्ट्रिय प्राच्य सभा(26th International Congress of Orientalists) में अपने अध्यक्षीय भाषण में कहा था:- The Vedas are noble documents- documents not only of value and pride to India but to the entire humanity because in them we see man attempting to lift himself above the earthly existence. -------Hindustan Times, 6th January 1964 4. प्रसिद्ध आइरिश कवि और दार्शनिक डा. जेम्स क्युजन अपनी पुस्तक Path to peace (शांति का मार्ग) में लिखते हैं:- On that(Vedic) ideal alone, with its inclusiveness which absorbs and annihilates the causes of antogonisms, its sympathy which wins hatred away from itself, it is possible to rear a new earth in image and likeness of the eternal heavens. -- Path to Peace by Dr. James Cousins p. 60 5. थ्योरी नामक अमेरिकन विद्वान के मुख से वेद की महिमा इन शब्दों में निस्सरित हुई थी:- What extracts from the Vedas I have read fall on me like the light of a higher and purer luminary which describes a loftier course through a purer stratum - free from particular, simple, universal, the Vedas contain a sensible account of God. -- स्वामी ओंकार लिखित mother America पृष्ठ 9 से उद्धत 6. श्री डबल्यू. डी. ब्राऊन(W.D. Brown) महोदय ने वैदिक धर्म के विषय में निम्न उदगार व्यक्त किये हैं:- It (Vedic Religion) recognises but one God. It is a thoroughly scientific religion, where religion and science meet hand in hand. Here theology is based upon science and philosophy. --- The Superiority of the Vedic Religion 7. वेदों में वैज्ञानिक आविष्कारों की सत्ता स्वीकार करते हुये अमरीकी महिला ह्वीलर विलौक्स ने लिखा:- We have all heard and read about the ancient religion of India. It is the land of the great Vedas- the most remarkable works containing not only religious ideas for a perfect life, but also facts which all the science has since proved true. electricity, Radium, Electrons, Airships all seem to be known to the seers who found the Vedas. ------ Sublimity of the Vedas P. 83 8. प्रसिद्ध फारसी विद्वान फर्दून दादा चानजी वेदों की महिमा का वर्णन करते हुये लिखते हैं:- The Vedas is a book of knowledge and wisdom comprising the Book of Nature, the Book of Religion, the Book of Prayers, the Book of Morals and so on. The word "Vedas" means wit, wisdom, knowledge and truly the Vedas is codensed wit, wisdom and knowledge. ----- Philosophy of Zoroastrianism P. 100 9. फ्रांस के प्रसिद्ध विद्वान वाल्टेयर का मत है:- " केवल इसी देन(यजुर्वेद) के लिये पश्चिम पूर्व का ॠणी रहेगा।" 10. फ्रांस देश के अन्य विद्वान जैकालियट ने अपने ग्रन्थ The Bible of India में लिखा है:- Astonishing fact! The Hindu Revelation(Vedas) is of all revelations the only one whose ideas are in perfect harmony with Modern Science as it proclaims the slow and gradual formation of the world. ---- The Bible in India Vol 2 ch. 1 11. ईसाइ पादरी मौरिस फ़िलिप (Rev. Moris Philip) ने भी वेद को ईश्वरीय ज्ञान स्वीकार किया है। वे लिखते हैं:- The conclusion, therefore, is inevitable viz; that the development of religious thought in India has been uniformly downward, and not upward, deterioration and not evolution. We are justified, therefore, in concluding that the higher and pure conceptions of the Vedic Aryans were the results of a primitive Divine Revelation. ----The Teachings of the Vedas P. 23 I 12. अन्त में जे. मास्करो(J. Mascaro M. A.) की सम्मति, वेद की तुलना आत्मा के हिमालय से करते हुये वे लिखते है:- If a Bible of India were compiled...... The Veda the Upanishads and the Bhagvad Gita would rise above the rest like Himalaya of the spirit of man.
धर्म शिक्षा (Vedic vichar)
16-03-2023
????प्रश्न- धर्म किसे कहते हैं? ????उत्तर- धर्म उन स्वाभाविक गुणों का नाम है जिनके होने से वस्तु की सत्ता स्थिर रहती है और जिनके न होने पर वस्तु की सत्ता स्थिर नहीं रह सकती। ????प्रश्न- हमें दृष्टान्त देकर समझा दो। ????उत्तर- गर्मी और तेज अग्नि के धर्म हैं। जहाँ अग्नि होगी वहाँ गर्मी और तेज अवश्य होंगे जहाँ गर्मी और तेज न रहेंगे, वहाँ अग्नि भी न रहेगी। ????प्रश्न- और दृष्टान्त दो। ????उत्तर- मनुष्य-जीवन के लिए शरीर के अङ्ग और प्राण आवश्यक हैं। यदि शरीर का कोई अङ्ग कट जाए तो मनुष्य के जीवन का नाश नहीं होगा, परन्तु प्राणों के न रहने पर मनुष्य कभी जीवित न रहेगा। ????प्रश्न- क्या जीव का धर्म प्राण धारण करना है? ????उत्तर- नहीं, जीव का धर्म ज्ञान और प्रयत्न है, अर्थात् ज्ञान के अनुसार कर्म करना। ????प्रश्न- जीव को कर्म करने की आवश्यकता क्यों हुई? ????उत्तर- जीव अल्पज्ञ है, अत: उसे दुःख प्राप्त होता है, उस दुःख को दूर करने के लिए जीव को कर्म करने की आवश्यकता है। ????प्रश्न- दुःख का लक्षण क्या है? ????उत्तर- आवश्यकता का होना और उसकी पूर्ति के साधनों का न होना दुःख है, या स्वतन्त्रता का न होना दु:ख है। ????प्रश्न- दुःख का अर्थ तो तक़लीफ़ है? ????उत्तर- दुःख और तकलीफ़ दो पर्यावाचक शब्द हैं। जो लक्षण दुःख का है वही तक़लीफ़ का है। ????प्रश्न- दुःख के वास्ते कोई प्रमाण देकर समझाओ। ????उत्तर- एक मनुष्य घर में बैठा है, उसे कोई कष्ट नहीं है, परन्तु उसे घर से निकलने से बलपूर्वक रोक दिया जाए तो यह बन्धन ही दुःख है। जब क्षुधा लगे और भोजन न मिले तो दुःख है; यदि भोजन मिल जावे तो कष्ट नहीं। इसी प्रकार बहुत-से उदाहरण मिल सकते हैं। ????प्रश्न- जीव अल्पज्ञ क्यों है? ????उत्तर- एकदेशी अर्थात् परिच्छिन्न होने से। ????प्रश्न- जीव दुःख से किस प्रकार छूट सकता है? ????उत्तर- परमेश्वर के जानने और उसकी आज्ञानुसार कार्य करने से। ????प्रश्न- परमेश्वर एक है या अनेक। ????उत्तर- ईश्वर एक है। ????प्रश्न- ईश्वर कौन है? ????उत्तर- जो इस जगत् को रचनेवाला, पालनेवाला और नाश करनेवाला है। ????प्रश्न- ईश्वर के होने में क्या प्रमाण है? ????उत्तर- जगत् की प्रत्येक वस्तु का नियमानुसार कार्य करना और प्रत्येक वस्तु में नियम होना और इन नियमों के परीक्षार्थ वेद-जैसे पूर्ण शास्त्र का होना। ????प्रश्न- ईश्वर को जगत् के रचने की क्या आवश्यकता थी? ????उत्तर- उसकी स्वाभाविक दया और न्याय का गुण ही जगत् बनाने का हेतु है। ????प्रश्न- न्याय और दया तो किसी दूसरे पर होती है, क्या ईश्वर के अतिरिक्त और वस्तु भी जगत् से पहले थी जिसपर न्याय और दया करने के लिए जगत् बनाया? ????उत्तर- प्रकृति और जीव दो अनादि पदार्थ ईश्वर के अतिरिक्त हैं, अर्थात् ईश्वर, प्रकृति, और जीव तीन वस्तुएँ अनादि हैं। जीवों पर दया और न्याय के लिए ईश्वर जगत् को रचता अर्थात् उत्पन्न करता है। ????प्रश्न- क्या जगत् से जीव और प्रकृति पृथक् हैं? ????उत्तर- जीव और प्रकृति अनादि हैं और जगत् उत्पन्न किया हुआ है। ????प्रश्न- यदि जीव और प्रकृति परमेश्वर के उत्पन्न किये हुए नहीं हैं तो इन्हें परमेश्वर का आज्ञाकारी किसने बनाया? ????उत्तर- परमेश्वर अपने सर्वोत्तम गुण आनन्द और सर्वज्ञता आदि के कारण से इनपर अनादि काल से राज्य करता है। ????प्रश्न- जो लोग परमेश्वर को प्रकृति और जीव आदि का रचनेवाला कहते हैं, क्या उनका विचार असत्य है? ????उत्तर- उत्पन्न करने का अर्थ प्रकट करना है, अभाव से भाव में लाना नहीं, क्योंकि बिना शरीर में आये जीव का और बिना कार्य-जगत् बने प्रकृति का ज्ञान नहीं हो सकता, इसलिए जो शरीर और जगत् का रचनेवाला है वही उत्पन्न करनेवाला है। ????प्रश्न- ईश्वर कहाँ है? ????उत्तर- 'कहाँ' शब्द एकदेशी वस्तु के लिए आता है, क्योंकि ईश्वर सर्वव्यापक है, इसलिए 'ईश्वर कहाँ है' यह प्रश्न ही ठीक नहीं है। जैसे कोई कहे कि दूध में सफेदी कहाँ है तो कहेंगे कि दूध की बूंद-बूंद में। कोई कहे कि मिश्री में मिठास कहाँ है तो उत्तर होगा कि कण-कण में। इसी प्रकार जो वस्तु प्रत्येक स्थान में रहती हो उसके लिए 'कहाँ' के प्रश्न का उत्तर 'प्रत्येक स्थान में', 'जगह-जगह पर' होगा, कारण यह है कि कहाँ कहने का अर्थ कोई एक स्थान ज्ञात करना है, अतः यह प्रश्न ही ठीक नहीं है। ????प्रश्न- यदि ईश्वर प्रत्येक स्थान में है तो हमें दिखाई क्यों नहीं देता, जबकि दूध में सफेदी हम नेत्र से देखते हैं, मिश्री में मिठास हम जिह्वा से ज्ञात करते हैं? ????उत्तर- वर्तमान वस्तु के दृष्टि में न आने के छह कारण होते हैं- प्रथम, वस्तु हमारे नेत्र से बहुत समीप हो, जैसे सुरमा नेत्र से बहुत निकट होने के कारण दृष्टि में नहीं आता। दूसरे, दूर होने से दृष्टिगोचर नहीं होता। तीसरे, अत्यधिक सूक्ष्म होने से जैसे परमाणु विद्यमान होने पर भी दृष्टि में नहीं आते। चौथे, बहुत बड़ा होने से, जैसे हिमालय। पाँचवें, इन्द्रिय अर्थात् चक्षु आदि में विकार आ जाने से, जैसे अन्धे को दूध में सफेदी दृष्टिगोचर नहीं होती। छठे, आवरण (परदा, दीवार) होने पर हम दीवार के दूसरी ओर की वस्तुओं को नहीं देख सकते। ????प्रश्न- इन छह कारणों में से हमारे ईश्वर के न जानने का क्या कारण है? ????उत्तर- क्योंकि ईश्वर सर्वव्यापक है इस कारण जीव के अन्दर-बाहर होने से बहुत समीप है और दूसरे बहुत ही सूक्ष्म है, ये ही दो कारण हैं जिससे हमें ईश्वर दृष्टिगोचर नहीं होता। ????प्रश्न- जो बहुत निकट हो उसके दृष्टिगोचर न होने का क्या कारण है? ????उत्तर- क्योंकि मनुष्य को प्रत्येक वस्तु के देखने के लिए प्रकाश की आवश्यकता होती है, इसलिए जब तक नेत्र और वस्तु के मध्य में प्रकाश की किरणें न हों, तब तक नेत्र से उस वस्तु का सम्बन्ध नहीं होता। सुरमे के नेत्र के अति समीप होने के कारण नेत्र और सुरमे के मध्य प्रकाश की किरणें नहीं हैं, अतः उसका ज्ञान नहीं होता। ????प्रश्न- तो क्या ईश्वर को किसी प्रकार जान भी सकते हैं? ????उत्तर- हम ईश्वर को अवश्य जान सकते हैं। ????प्रश्न- किस प्रकार जान सकते हैं? ????उत्तर- जिस प्रकार से नेत्र के सुरमे को जान सकते हैं, उसी प्रकार परमेश्वर को जान सकते हैं। ????प्रश्न- नेत्र के सुरमे को देखने के लिए तो केवल एक शीशे की आवश्यकता है। शीशा हाथ में लिया और नेत्र का सुरमा दृष्टि में आया! ????उत्तर- जैसे नेत्र के सुरमे को देखने के लिए बाह्य शीशे की आवश्यकता है, वैसे ही ईश्वर को देखने के लिए भी एक आन्तरीय शीशा है। ????प्रश्न- वह आन्तरीय शीशा कौन-सा है? ????उत्तर- मन। मनुष्य का दिल एक शीशा है जिसमें परमेश्वर का दर्शन किया जा सकता। ????प्रश्न- मन तो प्रत्येक मनुष्य के पास है, फिर प्रत्येक मनुष्य को ईश्वर दृष्टिगोचर क्यों नहीं होता? मन क्या वस्तु है? ????उत्तर- मन वह भीतरी सूक्ष्म वस्तु है जिसके कारण हमें एक समय में दो वस्तुओं का ज्ञान नहीं होता। ????प्रश्न- मन प्रकृति से बना है या अप्राकृत है? वह नित्य है या अनित्य? ????उत्तर- मन प्रकृति से बना है, उत्पत्तिवाला है, नित्य नहीं है। ????प्रश्न- मन तो प्रत्येक मनुष्य के पास है, फिर सभी को ईश्वर दृष्टिगोचर क्यों नहीं होता? ????उत्तर- यदि शीशे और नेत्र के मध्य में प्रकाश न हो तो शीशे की उपस्थिति में भी नेत्र का सुरमा दिखाई नहीं देता। ????प्रश्न- मन और ईश्वर के मध्य कौन-सा अँधेरा है, जिसके कारण ईश्वर दृष्टिगोचर नहीं होता? ????उत्तर- अविद्या का अँधेरा जब तक विद्या के प्रकाश से दूर न हो, तब तक ईश्वर दृष्टिगोचर नहीं हो सकता। ????प्रश्न- अविद्या को दूर करने का उपाय क्या है? ????उत्तर-सत्य विद्या। ????प्रश्न- क्या कोई असत्य विद्या भी है? ????उत्तर- विद्या शब्द ज्ञान का दूसरा नाम है और ज्ञान दो प्रकार का होता है, एक-उत्पत्तिवाले पदार्थों का जानना; दूसरे-नित्य पदार्थों का जानना। जो उत्पत्तिवाले पदार्थ हैं वे सब विकारी हैं, इसलिए उनका जानना भी परिणामी है, उसी को असत्य विद्या कहते हैं। सत्य कहते हैं नित्य को, अर्थात् जो तीन काल में रहे। परिणामी की सत्ता स्थिर नहीं रह सकती इसलिए वह अनित्य है। ????प्रश्न- ज्ञान कितने प्रकार का होता है? ????उत्तर- ज्ञान तीन प्रकार का है-विद्या, अविद्या, सत्यविद्या। ????प्रश्न- अविद्या किसे कहते हैं? ????उत्तर- पदार्थ के यथार्थ तत्त्व न को जानकर उलटा समझने को अविद्या कहते हैं। ????प्रश्न- अविद्या गुण है या द्रव्य? ????उत्तर-अविद्या गुण है। ????प्रश्न- अविद्या जीव का स्वाभाविक गुण है या नैमित्तिक? ????उत्तर- अविद्या नैमित्तिक है, स्वाभाविक नहीं। ????प्रश्न- यदि अविद्या नैमित्तिक गुण है तो उसकी उत्पत्ति का कारण क्या है? ????उत्तर- इन्द्रियों की कमजोरी और संस्कारों का दोष अविद्या की उत्पत्ति का कारण है। ????प्रश्न- अविद्या से किस प्रकार का ज्ञान होता है? ????उत्तर- चेतन अर्थात् ज्ञानवाले जीवात्मा को अचेतन प्रकृति का कार्य जानना, नित्य अर्थात् अनादि वस्तुओं को उत्पत्तिवाली और उत्पत्तिवाली वस्तुओं को अनादि समझना, शरीर आदि अपवित्र पदार्थों को पवित्र और दुःख देनेवाले पदार्थों को सुख का कारण और दुःख को सुख समझना-इस प्रकार का ज्ञान अविद्या कहलाता है। ????प्रश्न- विद्या किसे कहते हैं? ????उत्तर- चेतन जीवात्मा के ज्ञान का नाम विद्या है। जो अविद्या के गुण से पृथक हो और जिससे जितने परिणाम होते जावें उसी प्रकार से शुद्ध परिणामी ज्ञान हो, उसे विद्या कहते हैं। ????प्रश्न- सत्यविद्या किसे कहते हैं? ????उत्तर- जो सर्वज्ञ ईश्वर का अपरिणामी ज्ञान है, जो देश-काल और वस्तु के भेद से बदलता नहीं, उसे सत्यविद्या कहते हैं। ????प्रश्न- सत्यविद्या और विद्या का भेद किसी दृष्टान्त से समझाओ! ????उत्तर- जिस प्रकार सूर्य का प्रकाश मनुष्यों के लिए संसार के आदि में ईश्वर ने उत्पन्न किया है, वह प्रत्येक मनुष्य के लिए एक-सा है, लेकिन मानवी सृष्टि का प्रकाश दीपक, लैम्प, गैस, बिजली, आदि अनेक भाँति का है, वह प्रत्येक गृह के लिए पृथक्-पृथक् प्रकार का है। ????प्रश्न- क्या ईश्वरीय ज्ञान के बिना मनुष्य अपने जीवनोद्देश्य पर नहीं पहुँच सकता? ????उत्तर- कदापि नहीं! जिस प्रकार प्रकाश के बिना नेत्र अपने काम को पूरा नहीं कर सकते, ऐसे ही बुद्धि भी बिना ईश्वरीय ज्ञान की सहायता के अपना काम नहीं कर सकती। ????प्रश्न- नेत्र को काम करने के लिए प्रकाश की आवश्यकता है चाहे वह सूर्य का हो या लैम्प का, इसी प्रकार बुद्धि को विद्या चाहिए चाहे वह मनुष्य की बनाई हो या ईश्वर की। ????उत्तर- मनुष्य के जीवनोद्देश्य बहुत कठिन और जीवन का समय बहुत न्यून है, इसलिए मनुष्य ईश्वरीय ज्ञान से ही कृतकार्य हो सकता है, उदाहरण के रूप में कोई मनुष्य दीपक को हाथ में लेकर नहीं चल सकता। ????प्रश्न- क्या कारण है कि मनुष्य सूर्य के प्रकाश में दौड़कर चल सकता है और दीपक का प्रकाश लेकर दौड़कर नहीं चल सकता? ????उत्तर- दीपक का प्रकाश पवन को सहन नहीं कर सकता, ऐसे ही मनुष्य की विद्या तर्क को सहन नहीं कर सकती। दीपक के बुझने का भय चलनेवाले को रोकता है और दूर तक देखने की शक्ति का न होना भी रोकनेवाला है। इसी प्रकार मनुष्य की विद्या केवल मान ली जाती है जिसे कोई "ईमान' कहते हैं, और जिस मार्ग पर विद्या की सहायता से चले उसे “मत'' कहते हैं, परन्तु मत और ईमान से कोई जीवनोद्देश्य पर नहीं पहुँच सकता, केवल धर्म और ज्ञान से पहुँच सकता है। ????प्रश्न- मत और धर्म तो पर्यायवाचक शब्द हैं? ????उत्तर- कदापि नहीं! मत के अर्थ मार्ग और धर्म का अर्थ स्वाभाविक गुण है। ????प्रश्न- धर्म और मत की पहचान क्या है? ????उत्तर- धर्म में जीवात्मा का सम्बन्ध सिवाय सर्वव्यापक परमेश्वर और अपने आत्मिक गुण के अन्य किसी प्राकृतिक वस्तु और मनुष्य-से नहीं होता, परन्तु मत बिना मनुष्य और प्राकृतिक सम्बन्ध के नहीं चल सकता। ????प्रश्न- हमें धर्म और मत का दृष्टान्त देकर समझाओ! ????उत्तर- धर्म के दस लक्षण जो मनु ने लिखे हैं उनको पढ़ो और मुस्लिम तथा ईसाइयों की पुस्तकों को पढ़ो तो धर्म और मत का भेद ज्ञात हो जाएगा। ????प्रश्न- मनु ने धर्म के दस लक्षण कौन-से लिखे हैं? ????उत्तर- प्रथम धृति, दूसरे क्षमा अर्थात् सहन करने की शक्ति, तीसरे मन को स्थिर रखना, चौथे चोरी का स्मरण तक न होने देना, पाँचवें शुद्ध अर्थात् पवित्र रहना, छठे अपनी इन्द्रियों को वश में रखना, सातवें बुद्धि को बढ़ाना, आठवें विद्या का ग्रहण करना, नवें सत्य के ग्रहण करने और असत्य के त्यागने में सर्वदा उद्यत रहना, दसवें क्रोध न करना। ✍???? लेखक - स्वामी दर्शनानन्द जी प्रस्तुति - ???? ‘अवत्सार’ ॥ओ३म्॥
जीवन में कर्म की प्रधानता (Vedic vichar)
16-03-2023
-पण्डित गंगाप्रसाद उपाध्याय कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतँ समा:। एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे।। (यजुर्वेद अध्याय ४०, मन्त्र २) अन्वय :- इह कर्माणि कुर्वन् एव शतं समा: जिजीविषेत्। एवं त्वयिनरे न कर्म लिप्यते। इत: अन्यथा न अस्ति। अर्थ- (इह) इस संसार में (कर्माणि) कर्मो को (कुर्वन् एव) करते हुए ही मनुष्य (शतं समा:) सौ वर्ष तक (जिजीविषेत्) जीने की इच्छा करे। (एवं) यही एक साधन है जिसके द्वारा (त्वयि नरे) तुझ मनुष्य में कर्म लिप्त न होंगे। (इत: अन्यथा) इससे भिन्न दूसरा कोई मार्ग (न अस्ति) नहीं है। व्याख्या :-इस मन्त्र में 'कर्म' का गौरव और माहात्म्य दिखाया गया है। विस्तृत व्याख्या करने से पहले मुख्य भावना को समझने का यत्न करना चाहिए। जब एक बार भावना हृदयंगम हो जाती है तो अन्य तत्वसम्बन्धी बारीक बातें समझने में सुगमता होती है। मुख्य भावना यह है- "कर्म करो तभी कर्म के बन्धनों से छुटकारा मिलेगा।" कर्म क्या है और कर्म का बन्धन क्या है। इसके लिए एक दृष्टान्त पर विचार कीजिये। एक चोर ने चोरी की। चोरी एक कर्म था। शासन की ओर से उसे कारागार मिला। यह कारागार ही कर्म का बन्धन है। "बाधना लक्षणं दुःखम" (न्यायदर्शन १/१/२१)। बन्धन ही दुख का लक्षण है। कैदी जेल में बन्द है। यह "बन्धन" है। वह नहीं चाहता फिर भी चक्की पीसनी पड़ती है। यह बन्धन है। कहीं जा-आ नहीं सकता, यह कर्म का बन्धन है। किसी अपने प्यारे से मिल नहीं सकता यही बन्धन है। यह सब कर्म के बन्धन हुए। कर्म था चोरी। कर्म के बन्धन हुए वह कर्म जो बिना इच्छा के जबरदस्ती करने पड़ते हैं। वेद मन्त्र कहता है कि इन कर्म के बन्धनों से छुटकारा पाने के लिए भी निरन्तर कर्म करने चाहिए। उन कर्मों का प्रकार भिन्न होगा। उनकी प्रकृति भी भिन्न होगी। उनके लक्षण भी भिन्न होंगे परन्तु वह होंगे 'कर्म' ही। कर्म के बन्धन बिना कर्म किये नहीं छूट सकते। अनाचार दोष से रोग उत्पन्न होता है। उपचार से रोग दूर होता है। अनाचार भी कर्म था जिसका बन्धन हुआ रोग। उपचार भी कर्म है परन्तु भिन्न प्रकार का इसलिए वह 'बन्धन' का छुड़ाने वाला है, बन्धन को कड़ा करने वाल नहीं। यह प्रश्न केवल दार्शनिक नहीं। लोक व्यवहार की नित्य चीज है। हम रोज तकदीर और तदबीर की बहस सुनते हैं। तकदीर बन्धन है और तदबीर कर्म है। जीवन में हम सैकड़ों बन्धन देखते हैं जिनको हमने नहीं बनाया। वह बन्धन कहीं से बने बनाए आ गये। जेल के विशाल भवन को चोर ने नहीं बनाया। किसी और शक्ति ने जबरदस्ती उसके ऊपर यह बन्धन थोप दिए। वह जकड़ा है। जैसा तकदीर में दिया है होगा, इससे छुटकारा नहीं। कुछ लोग कहते हैं कि खुदा (ईश्वर) जो चाहता है करता है। जिसको चाहता है सन्मार्ग दिखाता है, जिसको चाहता है 'गुमराह' करता है। अल्लाह की मर्जी के विरुद्ध हो भी क्या सकता है। सरकार जबरदस्त है उसने मजबूत जेल खाना बनाकर उसमें चोर को ठूस दिया। कितने ही भागने की तदबीर करो भाग नहीं सकते। इसलिए उस घड़ी की प्रतीक्षा करो जब ईश्वर की ही मर्जी हो और वह बन्धन से मुक्त कर दे। ऐसे तकदीर के गुलामों की संख्या ईश्वर भक्तों में सबसे अधिक है। इसका परिणाम है 'आलस्य', क्रियाहीनता। आलस्य के साथ इसी के बहुत से बाल-बच्चे हैं जो अन्य रूपों में प्रकट होते हैं और बन्धनों को जकड़ते हैं। कुछ ऐसे भी हैं जो बन्धन से छूटने के लिए हाथ-पैर मारते हैं। कोई जेल की दीवार फांदकर भागता है। कोई खिड़कियों की छड़ों को तोड़ देता है। कोई चौकीदारों की आंख में धूल डालता है। इसको आप तदबीर कह सकते हैं। तदबीर के नाम पर सहस्त्रों पातक किये जाते हैं, जिनसे बन्धन ढीले नहीं होते अधिक कड़े हो जाते हैं। यह 'तदबीर' थी तो कर्म परन्तु यह सोचकर नहीं किये गए थे कि बन्धन के कारणों पर विचार किया जाता। अतः ऐसे कर्म छुटकारे के हेतु सिद्ध नहीं होते? कर्म करना मनुष्य का स्वभाव है। कर्म करना संसार की हर वस्तु का स्वभाव है। मनुष्य भी इसी संसार का एक भाग है। सारी मशीन चलती है तो ऐसा कौन-सा पुर्जा है जो बिना चले रह सके। लेकिन एक काम इच्छा से किया जाता है और एक बिना इच्छा के। जीते तो सभी हैं परन्तु जीकर क्या करेंगे ऐसा तो बहुत कम लोग सोचते हैं। इसलिए वेदमन्त्र में एक शब्द आया है 'जिजीविषेत्'। इस रहस्य का सौन्दर्य समझने के लिए कुछ संस्कृत व्याकरण का पारिभाषिक ज्ञान आवश्यक है। यह क्रिया है 'विधिलिंङ्' और साथ ही सन्नन्त भी है। जिनको 'विधिलिंङ्' और सन्नन्त के स्वरूप का ज्ञान नहीं उनके लिए मन्त्र का महत्व समझने में कठिनाई होगी। "विधि-निमंत्रण-आमंत्रण-अधीष्टसंप्रशन-प्रार्थनेषु लिंङ्" (अष्टाध्यायी ३/३/१६१) यहां 'लिंङ्' लकार विधि के अर्थ में प्रयुक्त होता है अर्थात् जब किसी को आदेश देते हैं कि उसको अमुक काम करना ही चाहिए तो लिंङ् लकार का प्रयोग किया जाता है। अब 'सन्नन्त' (सन्+अन्त) पर विचार कीजिए "धातो: कर्मण: समान-कतृर्कात् इच्छायां वा" (अष्टाध्यायी ३/१/६)। यहां इतना जानना पर्याप्त होगा कि जहां 'इच्छा' प्रकट करनी हो वहां क्रिया की धातु में 'सन्' जोड़ देते हैं। इस प्रकार जिजीविषेत् विधिलिंङ् भी है और सन्नन्त भी अर्थात् मनुष्य को चाहिए कि जीने की इच्छा करे। किस प्रकार "कर्माणि कुर्वन् एव" (कर्म करते हुए भी) बिना कर्मों को करने की इच्छा के जीने की इच्छा से कोई लाभ नहीं। यदि कुदरत को यह मंजूर न होता कि हम चलें तो हमको पैर न मिलने चाहिए थे। यदि यह मंजूर न होता कि हम देखें तो आंखें देना निरर्थक था। इसलिए कुदरत ने हमारे शरीर के प्रत्येक अवयव में कुछ ऐसी प्रेरणा दी हुई है कि निरन्तर काम करना ही है। भेद केवल इतना ही है कि जो काम हम अपनी इच्छा से करते हैं उसके करने में मजा आता है। लोग नित्य सैर को जाते हैं। यदि सरकार आदेश दे देवे कि तुम को अवश्य ही सैर को जाना पड़ेगा तो सैर भी जान का बवाल हो जाती है। इसलिए वेदमन्त्र में उपदेश है कि पहले से ही ऐसी इच्छा करो कि सौ वर्ष जीना है तो निष्क्रिय न होकर अपितु कार्यक्रम बनाकर निरन्तर कर्म करने की योजना भी हो और इच्छा भी। सभी जीते रहना चाहते हैं। उनसे पूछो "क्यों? किस काम के लिए?" तो इसका उनके पास कोई उत्तर नहीं है। यदि दो वर्ष और जीते रहो तो क्या करोगे? विचारा नहीं। "बस खायेंगे, पियेंगे, मौज करेंगे।" खाना-पीना और मौज करना कर्म तो नहीं यह तो जीवन के साधन मात्र हैं। खाना आसान है, पीना आसान है। परन्तु मौज करना तो आसान नहीं। ("Eat you can, drink you can. But you cannot be merry") इसलिए कर्म करने की प्रबल इच्छा होनी चाहिए। जो बुद्धिमत्ता से कर्मों की योजना बनाता है और उस पर चलने का यत्न करता है उसका बन्धन छूट जाता है। जेल का कैदी जेल में रहकर जो नियुक्त कर्म करता रहता है वह जेल के बन्धन से अवश्य छूट जाता है। कर्मों के करने में तीन प्रकार के दोष आ सकते हैं। कर्तव्य को न करना, अकर्तव्य को करना, कर्तव्य का उल्टा करना। इन तीनों प्रकार के दोष कर्म-बन्धन के कारण होते हैं। यदि गेहूं न बोये जायें तो गेहूं पैदा न होगा, उगे हुए गेहूं में अधिक पानी देना, इससे गेहूं उत्पन्न होकर नष्ट हो जायेंगे और गेहूं के स्थान में जौ बो देना, तब भी गेहूं पैदा न होगा। अतः कर्तव्य कर्म के करने पर ही बन्धन छूटेगा। गीता में इसी वेद मन्त्र पर आधारित एक श्लोक है- कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। मां कर्मफल हेतुर्भू: मा ते संगोस्त्वकर्मण:।। यहां अधिकार का अर्थ है कर्तव्य। अधिकार, अधिकरण यह दोनों समानार्थक हैं। सूत्र ग्रन्थों में अधिकार सूत्र वह होते हैं जिनमें अन्य सूत्रों का समावेश होता है। गीता के श्लोक का तात्पर्य है कि कर्म ही मनुष्य के चिन्तन क्षेत्र का विषय या अधिकरण है फल नहीं। इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि बिना सोचे समझे अर्थात् किस कर्म से क्या फल होगा, किसी काम को कर दिया जाए। कर्म की प्रेरणा ही उसके फल की दृष्टि से होती है। गेहूं बोने वाला पहले देख लेता है कि गेहूं उगाने रूपी फल की प्राप्ति तभी होगी जब गेहूं बोया जायगा। "स्वर्गकामोयजेत" अर्थात् स्वर्ग की कामना वाले को यज्ञ करना चाहिए। यहां फल की न अपेक्षा है न अवहेलना। प्रश्न यहां चिन्तन का है। जब यह निश्चित हो गया कि अमुक कर्म हमारा कर्तव्य है तो फल का चिन्तन छोड़ देना चाहिए। फल की प्रेरणा आरम्भ में होती है। परन्तु यदि कर्तव्य-पालन के समय मन में फल की उत्कण्ठा बनी रहेगी तो मन में दुविधा उत्पन्न हो जाएगी और कर्तव्य के यथेष्ट पालन में बाधा होगी। कर्म का फल तुम्हारे हाथ में नहीं अतः फल का अपने को हेतु समझना मूर्खता होगी। इसके लिए एक दृष्टान्त लीजिए। आप सरकारी दफ्तर में क्लर्क हैं। आपने पद को स्वीकार ही तब किया जब आपको निश्चित हो गया कि अमुक वेतन मिलेगा। परन्तु जब आप अपने काम में लगे तो 'वेतन' आपके चिन्तन क्षेत्र का विषय नहीं रहा। कार्यालय का कार्य ही एकमात्र चिन्तन का विषय है, वेतन आपके शासक के चिन्तन का विषय है। अतः जो सेवक सेवा का ध्यान छोड़कर हर घड़ी वेतन पर दृष्टि रखता है वह अपने पद का काम न करके अनेक भूलें करता है। क्योंकि वह कर्म का हेतु न होकर कर्मफल का हेतु बन जाता है। गीता में कहा है कि तेरा अकर्मों से सम्पर्क न होना चाहिए। कर्महीनता का नाम भी अकर्म है और उल्टे काम का नाम भी अकर्म है। (अकर्म= अ+कर्म= जो कर्म नहीं उसका करना। या जो कर्म है उसको न करना)। कुछ लोगों ने इस मन्त्र के उल्टे ही अर्थ लगाए हैं। उनका कहना है कि इस मन्त्र में जिन कर्मों पर बल दिया गया है वह केवल मूर्खों के लिए है। जो ज्ञानी है उनके लिए तो कर्म की आवश्यकता ही नहीं रहती। श्री शंकराचार्य जी ईशोपनिषद् के भाष्य में लिखते हैं- "अथ इतरस्यानात्मज्ञतया आत्मग्रहणाय अशक्त स्येदमुदपदिशति मन्त्र: कुर्वन्नेवेहेति।" अर्थात् इस मन्त्र में केवल उन लोगों के लिए उपदेश है जो अनात्मज्ञ हैं अर्थात् जिनको आत्मज्ञान नहीं हुआ और जो अशक्त अर्थात् सामर्थ्यहीन है। इसका स्पष्ट तात्पर्य यह निकला कि वेद में जहां कहीं कर्मों का गौरव दर्शाया गया है वह केवल मूर्ख अशक्तों के लिए है। जो विज्ञ हैं वह कर्मों की कर्तव्य से ऊपर हैं। इस पर शांकर मत में ज्ञान काण्ड को कर्मकाण्ड से पृथक् कर दिया गया और ब्रह्मज्ञों के मन में कर्म की अवहेलना बैठ गई। इसी मन्त्र की व्याख्य के अन्त में श्री शांकर भाष्य में एक प्रश्न उठाया है- कथं पुनरिदमवगम्यते पूर्वेण सन्यासिने ज्ञाननिष्ठोक्ता द्वितीयेन तदशक्तस्य कर्मनिष्ठेति। अर्थात् यह कैसे ज्ञात हुआ कि पहले मन्त्र "ईशावास्य" से संन्यासी की ज्ञाननिष्ठा और दूसरे मन्त्र "कुर्वेन्ने" से ज्ञान की सामर्थ्य से अशक्त की कर्मनिष्ठा अभिप्रेत है? वस्तुतः यह प्रश्न तो समीचीन ही था कि वेद के इन दोनों मन्त्रों में से किसी शब्द से यह विदित नहीं होता कि पहला मन्त्र ज्ञानियों के लिए है और दूसरा अनात्मज्ञ के लिये। परन्तु भाष्यकार ने इसका यह उत्तर दिया है- "उच्चयते ज्ञान कर्मणाविरोध पर्वत वादकम्पां यथोवतेन स्मरसि किम्।" क्या तुम को हमारी यह बात याद नहीं रही कि ज्ञान और कर्म का परस्पर विरोध तो पहाड़ के समान अकम्प या अटल है। वस्तुतः यह शंका का समाधान नहीं समाधानाभास मात्र है। ज्ञान और कर्म एक दूसरे के विरोधी नहीं अपितु एक दूसरे के पूरक हैं। ज्ञाननिष्ठ ही कर्मनिष्ठ हो सकता है। और ज्ञान निष्ठ ही "माते संगोऽस्त्वकर्मण:" का पालन कर सकता है। गीता के भक्त भी तो यही कहते हैं कि भगवान कृष्ण ने अर्जुन को कर्म की भावना से मुक्त करने और कर्मनिष्ठ बनाने के लिए गीता का उपदेश किया था। जिनमें कर्म की निष्ठा है वह अज्ञानी नहीं है। जो ज्ञान से शून्य हैं वे कर्मनिष्ठ कैसे होंगे। भगवान् ने हमारे शरीर में ज्ञानेन्द्रियां और कर्मेन्द्रियां दोनों ही दी हैं। वे एक दूसरे के पूरक हैं विरोधी नहीं और न उनका विरोध पर्वत के समान अटल है। जब ज्ञान और कर्म में पर्वत के समान अकम्प विरोध हो उठता है और मस्तिष्क तथा हाथ-पैर एक दूसरे के विरोधी हो जाते हैं तो इसको पागलपन की दशा ही कहते हैं। ज्ञान और कर्मेन्द्रियों का परस्पर विरोध केवल पागलों में मिलता है, ज्ञानियों में नहीं। इस प्रकार के निराधार और काल्पनिक भाष्य वैदिक संस्कृति के ह्रास के कारण ही सिद्ध हुए हैं। यह वेद मन्त्रों के आशय को न समझने अथवा कल्पित भावनाओं के अध्यारोप के कारण हुआ है। वस्तुतः यह वेदमन्त्र कर्म के गौरव को बताता है और स्पष्ट शब्दों में कहता है कि यथेष्ट कर्मों की इच्छा करके जीना और उन कर्मों का यथाविधि पालन करना सब कर्म के बन्धनों के छुटकारे का साधन होगा। यहां एक बात स्पष्ट कर देनी चाहिए। 'कर्मकाण्ड' के अर्थों में भी बहुत कुछ विकार हुआ है। श्री शंकर स्वामी के समय में कर्मकाण्ड का केवल यही अर्थ लिया जाता था कि यज्ञों के विषय में प्रचलित कुछ क्रियाएं करना, जैसे पात्र साफ करना, वेदी बनाना, अमुक मन्त्र पढ़कर चावल निकालना या पकाना या अमुक मन्त्र पढ़कर अमुक आहुति देना। यह कर्मकाण्ड का सम्भव है कि किसी अंश तक बाह्य रूप रहा हो परन्तु यह वास्तविक कमर्काण्ड नहीं है केवल हल को एक मन्त्र पढ़कर उठा लेने का नाम कृषि कर्म नहीं है और न व्यापार-सम्बन्धी किसी मन्त्र के पढ़ देने का नाम व्यापार है। कितनी समिधा कितनी बड़ी हो या कर्मकाण्ड नहीं। सम्भव है कि वेदनुयायी को ऐसे निरर्थक कृत्यों से बचाने के लिए शंकर स्वामी ने इस प्रकार के तर्कों का प्रयोग किया हो क्योंकि उस युग के कुमारिल भट्ट या मण्डन मिश्र आदि ऐसे ही कर्मकाण्ड के प्रचारक थे। और महात्मा बुद्ध आदि ने इसी जाल से मनुष्यों को सुरक्षित रखने के लिए वेदों का विरोध किया था। परन्तु यह तो कल्पित उपचार था जिसने एक रोग दूर करने के लिए दूसरा रोग उत्पन्न कर दिया। कर्म के जाल से छूटने के प्रयत्न में लोगों को नास्तिक बना दिया। कर्मकाण्ड के जाल से छूटे तो मायाजाल के शिकार हो गये। इससे कर्म का बन्धन तो नहीं छूटा। कर्म (वैदिक कर्म) अवश्य ही छूट गये। देश निरुद्यम हो गया। कर्म और ज्ञान के बीच अकम्प पर्वत खड़ा हो गया। परन्तु यह पर्वत भाष्यकारों की कल्पना का फल है। कर्मकाण्ड और ज्ञानकाण्ड के बीच से इस व्यवधान को हटाने की आवश्यकता है और यह बात केवल यथेष्ट स्वाध्याय से ही पूरी हो सकती है। [स्त्रोत- आर्ष क्रान्ति : आर्य लेखक परिषद् का मुख पत्र का जून २०१९ का अंक; प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ]
Swami Dayanand On Bhakti (Vedic vichar)
16-03-2023
Author- Tarachand D. Gajra Presented By- Priyanshu Seth Of the many charges that are repeatedly brought against the Arya Samajists, one is want of Bhakti. 'With an Arya Samajist', so says the critic, 'Dharma is synonymous with discussion. Devotion he has none and Shradha finds no place in the programme of his reform work. Vehemently criticising other sects, he spends his time in picking holes in the pockets of his antagonists and depicting in darkest hues the prophets of religious other than his own. Such a man, by his very nature, is incapable of developing a devout heart and a devoted soul. But the critic does not stop here. From the Arya Samajist he turns to his Guru. Finishing with the living members of the Samaj, he engages himself in digging out the bones of the dead and devoted Dayanand. "The Arya Samajist is not a Bhakta because his Guru Swami Dayanand never preached Bhakti. He spent his time in railing against other religious denominations. That appears to have been the sole aim of his life." This perhaps comes from a rather severe critic. But often a man who admires the Swamiji and the Samaj in several ways, heaves a sigh and says "All is well, but, alas! there is no spiritual life, no Bhakti, no devotion in the teachings." It is my belief that the above view of the critics is unfounded and due to the ignorance of the real teachings of the Swami. I therefore take his opportunity to glide with the reader through some of the works of Swamiji to get a true idea of his teachings on higher spiritual life. Before I do this I shall just throw a glance at the history of India during the post Mahabharata period. The beginning of this period is one of the most certain dates in the history of India. The battle of the Mahabharata is not shrouded in mystery as several other events of Indian history are. The causes, the effects and the events of the war are well known to every one. At the time of the war, there was present in India a sage who was respected and revered by all in existence then. Bhishma and Vidura, Yudhishthir and Dhritarashtra, Kirpa and Drona all recognized his merit. Vyas sweetly sings: "The side on which the Yogeshwara (Powerful Yogi) Krishna stands and on which the holder of bow, Pratha plays his part, on that side you find prosperity and victory, happiness and firm morality, so I think." Thus then this great sage as described by the writer of Mahabharata is capable of having at once the earthly and the heavenly, the physical and the spiritual good. And why? The simple reply is that his teachings, his beliefs and ideals are all-embracing, harmonious. There is no one sidedness, no atrophy of one faculty, no hypertrophy of another. Long after the battle of the Mahabharata, long after the teachings of Bhagwan Krishna were forgotten, the people of India passed through a strange transformation. Instead of the all sided development of man meaningless ritual and dead ceremonials were taken to be religion. The degradation was very great. The reality was altogether forgotten and the ritual distorted into immorality by the mischief of selfish and passion-loving Vam-Margis. India alone did not pass through this stage. There were other lands which underwent a similar transformation. The animal sacrifices of the old Testament and those of Vam Margis are closely allied. The assertion in the Scandinavian Scriptures that "animal sacrifices were invented by the selfish and the wicked" lends support to my view. But this is rather wandering away from the main point. All morality was forgotten and Karma was mistaken for ritual. To put life in the dead skeleton was required a Messiah; to make the ritual a living force or to sweep it away and replace it by a living morality was wanted a reformer. He came in the form of the Great Buddha who to my mind stands primarily as the apostle of action, the preacher of Karma. But great movements are often wrecked on the rock of human weakness. The followers of the 'Light of Asia' soon learnt to associate Karma with more austerities and asceticism. The spirit was dying when Swami Shankar-Acharya began his work. Karma is bound to degrade into mere forms if there is no Jnan behind it. To fulfil this want Shankar Swami called forth the people to 'Jnan' When I say so I am not to be understood to say that Shankar Acharya did not care for Karma and Bhakti. Not the least of it. Jnan stands prominent in his preaching because it was required most prominently in that age. Shankar's work after some time came to be forgotten and a newer movement, pushed on by a number of prophets, was inaugurated. This movement, whatever else may be said of it, has for its keynote 'Bhakti', Chaitanya or Lord Gauranga went through Bengal singing the praise of the Lord Kabir and Nanak worked in the Northern India; Tukaram, Dhyandeva and several others in Southern India. Complete devotion was what they preached. "No attachment to the world was what they taught" Justice Ranade speaks of a saint who killed his child by throwing it in a pit when he was accused of loving his child more than the Lord he talked of. Thus had the history run for some time. But during the confusion that came over the land after these saints were gone, the movement inaugurated by them bacame dead. Some had picked up one idea, others another. Those who had adopted Buddhism consciously or unconsciously stood for all kind of tortures and austerities. The Lamas and the monks of Buddhistic temples believed that the path to Nirvana was to live a severe life, to kill the flesh and to follow a certain prescribed routine detailing the number of times a man should stretch himself like a stick on the ground before the idol. The practices were imitated and adopted by several of the pure Hindu sects. Those who believed themselves to walk in the path of the great Shankar, came to identify the path of salvation with the cry "Aham Brahmasmi" (I am God). For them there was neither Karma (action), nor Bhoga (fruit of action). Devotion and Bhakti, too, had no place in their programme of human life. As for Jnan it was all lip deep. There was no realization of any kind. A smattering or a complete ignorance characterised the Sadhus and the laymen were no better. They had developed strange notions of Bhakti. Some held and preached that the repetition of 'Rama' was sufficient to take them to Heaven. Others thought a particular kind of Tilak (mark on forehead) stamped most sedulously was true devotion. Bathing the idol, keeping food before it and ringing the bells was a model of Bhakti to others. The mistaken notions of Bhakti in some cases led to the degrading institution of Devadasis and of giving over the children to the Fakirs and Saints. In the cases of others Bhakti was identified with over-doses of excited prayers, fumings of heart, simmerings of mind, suspension and destruction of reason. This when carried to excess produced dances and often amorous singing culminating in Ras Lila and Sufistic love for fair faces. This was the situation when Swami Dayanand began his work. The keynote to his work is harmony. Yes harmony I say and say it inspite of so many critics. They who think that Swami Dayanand has created a sect and added to the wranglings of the sectarians, have never dispassionately studied his works. They have seen only one side and not the other. Dayanand's work in pulling down these wrong notions of ages is familiar to them, but his labour in building up a newer and manlier race is not known to them. They have seen Dayanand as the destroyer of superstition, but not as the constructor of a higher and better kind of religious consciousness. But the Swamiji's aim of life can properly be realized only when both the slides are seen. The harmony is in fact the keynote to his mission can be seen from the principles of the Arya Samaj. He clearly lays down here that bodily, spiritual and social progress should go hand in hand. The idea is emphasised in the following words in the Satyarth Prakash. "By the increase of bodily strength and activity the intellect becomes so subtle, that it can easily grasp the most abstruse and profound subjects. It also helps to preserve and perfect the productive element in the human body which in its turn produces self-control, firmness of mind, strength, energy and acuteness of intellect." Taking hold of this keynote we can well understand why Swami Dayanand speaks of Jnan, (Knowledge) Karma (Action) and Upasana (Devotion) at the same time. To Swami Dayanand one without the others has no meaning. If a man has to develop himself harmoniously he must cultivate all the three together. This idea of harmony is found in the writings of Swami Dayanand very conspicuously and the reason is not far to seek. A believer in the Vedic revelation- a revelation that divides itself into three parts, Jnan, Karma and Bhakti- Dayanand could not help emphasising harmony and speaking of all the three together. Dayanand clearly points out that the realization of the Lord is the highest aim. This can be very clearly seen from the following passage which Dayanand quotes from the Upnishad- "Oh Nachiketa! that God, who is worthy of being realized and who is described in the Veda as free from all pains and miseries, and for realizing Whom the Veda opens its teaching, for realizing Whom is followed the path of true piety, is observed the vow of Brahmachary; and owing to the desire of union with Whom, the learned meditate and preach; that Brahma I briefly describe to you. He is Om." He adds "Thus that Brahma, Who is worthy of being realized is present everywhere". 'Brahma then is the only object to hanker after' and therefore Dayanand's Revelation- the Veda "Describes especially the Brahma" and has "Brahma as its foremost subject". And why should it not be so, when "His glory is seen in, and vividly described by all the Vedas and Shastras, by nature and its beauty". The object of all the teachings of the Veda being the realization of the Lord, every human being is required by the Swami "to follow the threefold path of Jnan, Karma, and Upasana to realize the higher spiritual life." What higher spiritual life is, is hard to described in words. It is a matter of experience and experiment. They alone can fully grasp the import of the words of wisdom, who in their life have realized the reality behind the phenomenal word. To the ordinary mind mode often the truths of higher life have no reality. But the Reformer and the Prophet has to work for the salvation of these ordinary men. This compels him to put in words what has been realized by the soul. And Dayanand a real benefactor of mankind has tried to vividly describe these higher spiritual truths. Let them who doubt the statement peruse the 7th and 9th chapters of the Satyarth Prakash and ponder over the inspiring and elevating passages in the Bhashya Bhumika. What should invite us more eloquently to this higher life than the following words of Dayanand "For our protection we pray unto God, who is the Creator and Governor of the living and non-living, the Illuminator of the heart and the mind. He is the giver of strength to all. He is our Support and Protection. Oh God! Thou art the Giver of knowledge, wealth and fame. Have mercy upon us, take us under your protection and look after us……… Verily that God alone is the Support of all and hence is He called Saha……… May we through the mercy of the Remover of all pain realize the truth and may we follow the Dharma the expression of His will……… Oh Lord! The master of vows! mat I take the vow of following the path of rectitude……… Oh the Mighty One lead me on to this path, give me strength to observe my vow faithfully and sincerely"……… What can bring to our mind more vividly the thought of worshipping the Lord than the statement- "The bliss of Salvation can be obtained only by realizing the Lord and by uniting with Him through Dhyan (meditation) performed with all the powers of soul and Antahkarana (the internal power of mind)"? What can teach us more forcibly the ideal of resigning the self to the Divine will than the injunction, "Oh man, in order to realize the Lord, dedicate your whole life. Let all- the breath, the eye, the tongue, the mind, the soul, the Brahma or the knower of all the four Vedas, the performer of Yajnas- the lights- sun etc, Dharma (righteousness), happiness, the actions such as : Ashvamedha, the prayers and praises, the study of the Veda, in fact all the sources of pleasure and happiness be dedicated to the Great God?" What else can make our devotion complete and our love all - forgetting, if not the following precept- "There is neither a second God, nor a third God, neither a fourth God, nor a fifty God………" or the assertion "You will get true happiness and fame only when with sincere soul and humility and humbleness you devote yourself to the Sanatan (Brahma Eternal)." These are but a few quotations taken at random from the works of Swami Dayanand. But they are sufficient to show the spirit of the Rishi and to prove that he was one of the greatest- if not the greatest- spiritual teacher and 'apostle of Bhakti' in modern times. Scientific and systematic in all other things the Swami does not leave the Bhakta to grope in the dark or to work at random. He goes out, seeks the Bhakta and takes him by hand on to the path of higher life. The course of prepration is carefully laid down. The body, the physical part of the man is first trained to be strong and vigorous and able to bear all troubles, so that the devotee may feel no encumbrance, no hindrance as he advances on the path of spirituality. Tapa and Brahmachary are the two great factors. A strong body should also be pure before the soul within can find itself in possession of a clean house where to invite the Lord. Daily bath, cleanliness and purity- purity secured by curbing the lower passions- are required to play their part. Thus is the 'Mala' destroyed. Arjuna said to Krishna 'Oh Bhagwan the manas (mind) is chanchal (unsteady)'. What Arjuna felt 5,000 years hence, we feel even now. His difficulty is our difficulty. How many of the admirers of Swamiji might have enunciated their own difficulty in the words of Arjuna? Then Swamiji teaches to conquer the mind by Pranayam (Deep controlled breathing). As a tender flowerplant stands in a tank so does the Manas stand in the tank of Hridaya. (Thoracic region full of air). The plant responds to every movement of the tank. The smallest waves make it vibrate. The plant can be kept in one position by stopping effectively the waves in the tank. The mind can be made steady by stopping the waves of the fluid filling the Hridaya. This is to be done by Pranayam. Two hours every day is the 'Jijnasoo' required to sit in a retired corner and perform Pranayam. One fails to understand why inspite of it the critic speaks of no Bhakti and no devotion in the Arya Samaj? He fails to understand how Swamiji's method is of a silent, serious and systematic character. There is no play of vague sentiments and of restlessness- the things which now-a-day are considered as essentials of Bhakti. Suggesting how to steady the mind, the great Rishi removes the Avaran (curtain) that separates the Bhakta from the Brahma, the devotee from the object of devotion, the worshiper from the worshipped. Avidya (ignorance) should be dispelled. For this is required a peculiar atmosphere. The clouds never allow the sun to show its glory, till the surrounding atmosphere is favorable. So the cloud in the mind, 'Avidya', obstructs the devotee from getting a glimpse of the most Glorious Sun. The atmosphere is to be made favorable by constant and fervent prayer. The prayer that the Swami prescribes, the Vedic Sandhya is beautiful beyond compare. It starts by contemplating God as the personification of light and Love and as distributer of peace unto all. With the mind put in this attitude, the devotee looks to his body, the physical thing nearest to him and prays that its different parts may be strong and vigorous. Praying for power, he forgets not to pray for goodness. He remembers. It is excellent, To have a giant's strength. But it is tyrannous. To use it like a giant, and prays that with the strength of the body he might have purity and excellence. The Mantra (verse) is highly elevating and there is a natural connection between the phrase of the Lord in which He is viewed and the importance of the organ or the sense that is to be pure. If the prayer is for the purification of the head, the Lord is viewed as the Life giver and supporter of the world. How beautiful and natural the relation. For the purification of the Hridaya (Heart) the Lord is contemplated as 'Mahan' (the Great). Great are the powers of heart-great both for good and evil. Regard and admiration, respect and reverence, generosity and charity, affection and love, all flow out of it. It too is the seat of evil passions like dislike and aversion, contempt and scorn, narrowness and stinginess, malice and hatred. Through the heart are the enemies conquered. Its evil passions repel all friends and change them into rebels. It can take man to Heaven, it can pave his path to hell. Verily it is 'Mahan' (Great) and well has God been invoked as 'Mahan' (the great one). They only can realize the underlying beauty of the Mantra, who ponder over and meditate upon it. The body being strengthened, the organs purified, the devotee approaches his Lord and tries to realize Him as the Soul of his Soul, as the Giver of Beatitude and as the Dispenser of Peace. A close connection is formed. Seeing the power within, the devotee looks without to see its play. The world is the product of that power. Rit (knowledge Divine) and Sat (Nature) proceed from it. The mountain like wave of the sea, the thunder of the Heaven, the lightening in the cloud, the moon and the sun, the stars and the constellations, the expanse of the earth and the glory of Antaraksha (intervening space) all are the manifestations of the self-same power. To view the power more closely, to realize it more vividly and to feel it more intensely the devotee turns all round, seeks it in all directions. To the east he views it in the sun, the giver of light and heat and finds that its rays are a protective force. In reverence bows he to the rays, bows he to the power of the Lord and through them bows to the Lord Himself- free from all earthly connections. To make his environments suitable for the growth of spiritual life, he prays that his protective power- a combination of Light or Jnan (knowledge) and heat or Prem (Love) might serve to make him friend to all and all freinds to him and might put an end to every kind to hate. Similarly is the glory of the Lord seen in all the six directions and every time is the pious wish for protection and peace most piously expressed. The vivid realization of the play of the Divine power in nature and her glory makes him once more go deep down into the recesses of the unseen and low passing by the flag-staffs (Ketavah) of nature the Bhakta sees now face to face Uttam Jyoti (the Grand Light) free from all darkness, everlasting, ruling all and giving light to all. Realizing the bliss he cries, "Wonderful art Thou- wonderful art Thou- Thou art the life of all the things; Thou art the source of the power of the sun and the eye. Under Thy control are the earth and heaven. Verily, Thou art the Soul of the moveable and the immoveable. May I realize the reality! May I realize the reality!" The trance passes and the dead reality forces itself on the Bhakta, for long life, for vigorous body, for sound organs, the devotee prays. But then comes to his mind that most sacred of the Vedic hymns- the hymn with which he was initiated into the path of Dharma and for a pure heart and elevating thought he approaches his Lord. Finally realizing the Peace- giving, the Bliss- yielding nature of the Divine, completely he resigns himself to the Higher will. This is Dayanand's method for destroying Avidya (Nescience), this is his Sandhya. Undoubtedly it is a most potent factor in inculcating the true spiritual life. May the critic realize this! May God remove his prejudice! Before I take leave of you, dear reader, I shall mention a few more points. By the side of Sandhya or the Brahma Yajna, stands in Swamiji's system Havan or Deva Yajna. It is not to be mistaken for a mere mechanical process for the purification of the air. It has a deep significance. It throws the individual into the universal. It connects man with the forces of nature and establishes a direct communication between them. It practically teaches man to seek his good in the general weal, to feel his life in the all- embracing life. And look at the 'Mantras' (Verses recited); how forcibly and elegantly do they remind the 'Yajman' (performer of Havan) of the higher spiritual life. Oh! how beautifully does each speak of the Lord and His power! Each Mantra reminds the repeater of his own insignificance in the great 'Yajna' of the Lord and so he himself says "I do this for Thy sake, I do this for Thy sake". It should also be borne in mind that the Sadhana (Process of arriving at the Higher Spiritual life) prescribed by Dayanand is Akhanda (continuous). Through Brahmachary, Grihastha and Vanprastha stages it is to be continued. Those who choose to have a detailed view of this may well spend a few days in going through the Sanskar-Vidhi (Hand Book of ritual) of Swamiji. I shall content myself with merely referring to the Mantras which a Grihasthi is required to meditate upon each morn. How eloquently do they teach him to yield his will to the Divine Will, to resign himself to the Lord. Brother Arya Samajist! I have tried to vindicate the Swamiji. I have tried to remove misunderstanding regarding him. It is now for you to vindicate yourself and to vindicate the Samaj. In my humble opinion, it should be yours to walk on the path chalked out by your great Guru and to try to become a Bhakta yourself. Do you feel for the ignorant masses? Do you feel for the superstition- ridden sons of humanity? Does your heart grieve to see the troubles of mankind? Do you ever shed tears to see the load of sins with which the earth is heavy? Does your imagination ever fire you to be a sincere and devout follower of the Rishi? Do you ever feel that you are called upon to discharge the trust that has been left in your hand? Then brother! wake up and follow my humble suggestion. This alone will be sufficient to give us peace within and goodwill without; to bless us and make the world happy! Footnotes: 1. Ordinarily taken to mean Horse-sacrifice. But interpreted by Swami Dayanand as the act of governing people properly. This is considered a deed of highest merit. For further details, please see the author's Animal Sacrifices in the light of World Scriptures. 2. Burning of clarified butter and odoriferous substances to purify the atmospheric air.
ओ३म् - हम परोपकार के मार्ग से परे न हों (Vedic vichar)
16-03-2023
परोपकार का अर्थ है दूसरे की भलाई। मनुष्य का धर्म है वह दूसरे की भलाई करे। मनुष्य-जीवन की सार्थकता इसी में है कि वह दूसरों के काम आये। मनुष्य यदि शक्ति रखते हुए भी दूसरों के काम नहीं आता तो वह मनुष्य-जीवन के लिए दूषण रुप है। मनुष्य अपने लिए तो जीता ही है, परन्तु दूसरों के लिए कितना जिया, इसी से इसके जीवन की उत्कृष्टता का पता चलता है। महर्षि दयानन्द ने क्या खूब कहा है― *संसारदुःखदलनेन सुभूषिता ये धन्या नरा विहितकर्मपरोपकाराः ।* संसारी जनों के दुःखों के दूर करने में सुभूषित, वेदविहित कर्मों से जो उपकार करने में लगे रहते हैं, वे नर और नारी धन्य हैं। परोपकार से मनुष्य जीवन की शोभा और महिमा बढ़ती है। सच्चा परोपकारी सदा प्रसन्नचित्त रहता है। वह दूसरे का कार्य करके हर्ष की अनुभूति करता है। सच्चा परोपकारी जीवन में यश और सम्मान प्राप्त करता है। महान् पुरुष संसार में सम्मान ही चाहते हैं। उपकृत उनका सदा सम्मान करते हैं― *अधमा धनमिच्छन्ति धनं मानं च मध्यमाः ।* *उत्तमा मानमिच्छन्ति मानो हि महतां धनम् ।।* *अर्थात्―*निकृष्ट व्यक्ति धन की इच्छा करते हैं, मध्यश्रेणी के व्यक्ति धन और मान दोनों चाहते हैं और उत्तम व्यक्ति केवल मान ही चाहते हैं।वास्तव में मान ही महापुरुषों का धन होता है। आचार्य चाणक्य ने लिखा है― *परोपकरणं येषां जागर्ति ह्रदये सताम् ।* *नश्यन्ति विपदस्तेषां सम्पदः स्युः पदे पदे ।।* ―(चा० नी० १७/१४) *भावार्थ―*जिन सज्जनों के ह्रदय में परोपकार की भावना जाग्रत् रहती है, उनकी आपत्तियाँ दूर हो जाती हैं और पद-पद पर उन्हें सम्पत्ति प्राप्त होती है। किसी कवि ने सही कहा है― *तरुवर फल नहीं खात है, नदी न पीवै नीर।* *परमार्थ के कारणे, सन्तन धरा शरीर।।* और आगे कहा है― *परोपकार-रहित मनुष्य के जीवन को धिक्कार है। उससे तो वे पशु ही धन्य हैं, जिनका चमड़ा भी दूसरों के काम आता है।* परोपकार ईश्वर-प्राप्ति का एक सोपान है। व्यक्ति जितना परोपकारी बनता है उतना ही ईश्वर की समीपता प्राप्त करता है। परोपकार से शत्रु भी मित्र बन जाते हैं। परोपकार के लिए संकुचित विचारों को छोड़ने की आवश्यकता होती है। व्यक्ति यदि संकुचितता को छोड़कर ह्रदय की विशालता को धारण करे,तभी परोपकारी बन सकता है। सज्जन व दुर्जन व्यक्ति में यह अन्तर है― *यथा परोपकारेषु नित्यं जागर्ति सज्जनः ।* *तथा परापकारेषु जागर्ति सततं खलः ।।* *अर्थात्―*जैसे सज्जन उपकार करने में सदा तैयार रहता है वैसे दुष्ट व्यक्ति दूसरों का अपकार (बुराई) करने के लिए सदा तैयार रहता है। उपकृत को चाहिए कि वह उपकारी व्यक्ति की सदा प्रशंसा करता रहे। जब कभी उपकारी व्यक्ति का नाम आये तो वह सदा प्रशंसा-सूचक शब्दों द्वारा उसका सम्मान करे। यदि वह उपकारी व्यक्ति की प्रशंसा भी नहीं कर सकता तो वह कृतघ्न है। कृतघ्न व्यक्ति का कभी भी कल्याण नहीं हो सकता।उपकारी की प्रशंसा के कई सुपलिणाम निकलते हैं। उपकृत प्रशंसा करने से कृतघ्नता के पाप से छूटेगा और पुण्य का अधिकारी बनेगा। यदि उपकारी व्यक्ति किसी विपत्ति में फँस जाता है तो उपकृत व्यक्ति को उसके कल्याण की प्रार्थना करनी चाहिए। केवल प्रार्थना ही नहीं, अपितु सक्रिय सहयोग भी देना चाहिए। 'महाभारत' में भी कहा है― *एतावान् पुरुषस्तात कृतं यस्मिन्न नश्यति ।* *यावच्च कुर्यादन्योऽस्य कुर्यादभ्यधिकं ततः ।।* ―(महाभा० आदि० १५६/१४) *भावार्थ―*पुरुष वही होता है जिसके प्रति किया हुआ कार्य व्यर्थ नहीं जाता ! तुम्हारे लिए जो कुछ कोई दूसरा करता है, तुम उसके लिए उससे ज्यादा करो। *कृते च प्रतिकर्त्तव्यमेष धर्मः सनातनः ।।* जो उपकार करे उसका प्रत्युपकार करना सनातन धर्म है। जितनी किसी में उपकार की भावना होती है उतनी ही उसमें मनुष्यता होती है। जितनी किसी में उपकार की भावना नहीं होती उतना ही वह मनुष्यता से परे होता है। परन्तु सच्चे अर्थों में वही व्यक्ति परोपकारी बन सकता है जो फल की भावना को सामने रखकर परोपकार न करे, अपितु केवल दूसरों के हित को अपनी दृष्टि में रखकर उपकार करे अर्थात् उपकार को केवल उपकार की भावना से करे। उपकृत व्यक्ति से उसे फल मिले न मिले, परन्तु वह यह समझे कि परोपकार से मेरे अन्तःकरण में पवित्रता के संस्कार संचित होंगे जो मुझे शुभगति प्रदान करेंगे और ईश्वर की न्याय-व्यवस्था में मुझे उसका फल अवश्य मिलेगा। योगिराज श्री कृष्ण जी ने ऐसा ही कहा है― *पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते ।* *नहि कल्याणकृत्कश्चिद् दुर्गतिं तात गच्छति ।।* ―(गी० ६/४०) *भावार्थ―*हे अर्जुन ! शुभकर्म करने वालों का न यहाँ और न परलोक में विनाश होता है। हे प्रिय बन्धु ! कोई शुभ कर्म करने वाला दुर्गति को प्राप्त नहीं होता है। गीता के इन्हीं पवित्र वचनों को ध्यान में रखकर व्यक्ति को सदा परोपकार में लगे रहना चाहिए।
Vedas and Sati Pratha (Vedic vichar)
16-03-2023
Sati Pratha is one among the most favorite topic discussed by Hindu-bashers. There are special groups working on intellectual platform whose duty is to dishonor Hindus as one who oppress Women-hood equality and Rights. Most of these groups belongs to Christian and Islamic institutions. Surprisingly Christian’s refrains from any comment on alive burning of thousands of women on name of witchcraft in Europe for centuries.While Islamic's groups refrains from any comment on their support to ill practices like Female Genitalia mutilation, Polygamy, Triple Talaq and Halala on name of Sharia. On contrary to that they judges an outdated, extinct and almost forgotten ill practice of Sati Pratha on name of Human Rights watching. Origin of Sati Pratha is being attributed to Vedas. This is a big misconception. In reality Sati Pratha is nowhere mentioned in Hindu scriptures. There is no advice of forceful widow burning in Vedas.This confusion was created in middle ages by ignorant commentators of Vedas. Atharvaveda 18.3.1 is mostly quoted as Vedic Mantra which supports Sati Pratha. This mantra is interpreted as Choosing her husband's world, O man, this woman lays herself down beside thy lifeless body. Preserving faithfully the ancient custom. Bestow upon here both wealth and offspring. [Translation by Griffith] In this Mantra the word ‘Choosing her husband's world’ is often interpreted as Wife is advised to join the Dead Husband in afterlife in next world. So she must burn herself in funeral pyre of her husband. The Correct interpretation of this Mantra is This Women have chosen her Husband’s world earlier. Today she is sitting besides your dead body. Now Bestow upon here both wealth and offspring for rest of her life to continue her afterlife in this world. Thus, this mantra speaks about continuation of worldly affairs by Women in this world after her husband’s death. In the very next Mantra of Atharvaveda 18.3.2 the same advise is attested by the authority of the Vedas. It says.. Rise, come unto the world of life, O woman: come, he is lifeless by whose side thou liest. Wife hood with this thy husband was thy portion who took thy hand and wooed thee as a lover. [Translation by Griffith] This Mantra clearly speaks to Women to rise besides the dead body of her husband and start worldly affairs in this living world. Even Vedas speaks of Widow Remarriage for a Widow. Evidence from Rigveda 10:18:8 The Rigveda contains a famous passage mentioning Sati and preventing it. To a widow who is with her husband on his funeral pyre, the text says: rise up, abandon this dead man and re-join the living. This mis-interpretation of Vedic Mantras were done in the middle ages by ignorant class of Priests. The fraud related to interpretation of Rigveda 10.18.7 was exposed by none other than Maxmuller. In this mantra widow women as was advised to go ahead (Agre) in her life rather than go in funeral pyre (Agne means fire) after her husband’s death. The word Agre was mis-interpreted as Agni. Maxmuller condemned this fraud widely. He quotes ,“ This is perhaps the most flagrant instance of what can be done by an unscrupulous priesthood. Here have thousands of life be sacrificed, and a practical rebellion threatened on the authority of a passage which was mangled, mistranslated and misapplied.” In Mahabharata Madri burned herself to death not due to custom of Sati Pratha but due to regret. She felt that it was her who was responsible for death of her husband Pandu. There is no evidence of Women performing Sati Pratha in Mahabharata post war whose husbands were killed in the Great War. Thus it is proved that Vedas never supports Sati Pratha. Its mere a palpable falsification of a Vedic Hymn which forcibly killed thousands of innocent widows. This ill practice prevailed in middle ages only. Vedas advise a widow to return from her Husband’s corpse and live a happy life in her remarriage. First sincere attempt to stop Sati Pratha was taken by Raja Ram Mohan Rai in 1829 with help of British Government. A special law as enacted by the Government against Sati pratha. This law was not consummated widely by the Society. Even if it was accepted by few it lead to sudden rise in large number of Widow in country. The reason being the institution of widow remarriage was still not in practice. Ishwar Chandra Vidya Sagar started few attempts of remarriage. But wide acceptance of remarriage begin only in early 20th century when Aryasamaj started a crusade movement in support of Widow Remarriage. Swami Dayanand was first eminent in Modern India to support Widow Remarriage.
चित्त की अशुद्धि के कारण. (Vedic vichar)
16-03-2023
(1) भूतकाल का स्मरण, व्यर्थ की भविष्य चिन्ता और वर्तमान में न जीना। (2) अहंकार, कपट और आडम्बर का होना। (3) दूसरों की निन्दा और अपनी प्रशंसा करना। (4) संकीर्णवृत्ति, संग्रह वृत्ति और हर कार्य में निज स्वार्थ की भावना रखना। (5) भेद-भाव की भावना रखना। (6) मन, वचन, कर्म से एक न होना अर्थात् अन्दर से कुछ और बाहर से कुछ होना। (7) कथनी-करनी में सदैव अन्तर रखना। (???? दूसरों का अधिकार छीनना और अपना अधिकार दूसरों पर लादना। (9) अति कामुक, अति भोजी, एवं अधिक बोलना। (10) लक्ष्यहीन होना और सदैव क्रोध करना। (11) असत्यवादी होना। (12) आत्मविश्लेषण में रुचि न होना। (13) सदैव गप्पे हाँकना। चित्त शुद्धि के बिना ध्यान लगना संभव नहीं है। चित्त की अशुद्धि के जो कारण हैं, उन्हें दूर करके ध्यान के लिए प्रयास कीजिए आपको सरलता से ध्यान-साधना का लक्ष्य प्राप्त होगा। भोग से योग की ओर जाने के लिए शारीरिक और मानसिक शक्ति का विकास आवश्यक है, इसके लिए योग के आठों अङ्गों का पालन करें।
डांडी यात्रा और स्वामी दयानन्दb (Vedic vichar)
16-03-2023
आज 12 मार्च को डांडी यात्रा के 90 वर्ष पूर्ण होते है। डांडी यात्रा के माध्यम से गांधी जी ने अंग्रेजों द्वारा बनाए गए नमक कानून को तोड़कर उनकी सत्ता को चुनौती दी थी। बहुत कम लोग जानते है कि गाँधी जी के प्रयासों से लगभग अर्ध शताब्दी पहले स्वामी दयानन्द ने अंग्रेजों द्वारा लगाए गए नमक कर का सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम संस्करण में विरोध किया था। सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम संस्करण ने स्वामी दयानंद ने नमक पर अंग्रेज सरकार द्वारा जो कर लगाया जाता था उसे निर्धन जनता पर अत्याचार मानते हुए उसे हटाने का प्रस्ताव दिया था। स्वामी जी लिखते है-- "नोन (नमक) और पौन रोटी में जो कर लिया जाता है, वह मुझको अच्छा नहीं मालूम देता, क्योंकि नोन के बिना दरिद्र का भी निर्वाह नहीं होता, क्यूंकि नोन सबको आवश्यक होता है और वे मजूरी मेहनत से जैसे तैसे निर्वाह करते है, उनके ऊपर भी यह नोन का कर दण्डतुल्य रहता है। इससे दरिद्रों को क्लेश पहुँचता है। इससे ऐसा होय कि मद्य, अफीम, गांजा, भांग इनके ऊपर दुगना- चौगुना कर स्थापन होय तो अच्छी बात है, क्यूंकि नशादिकों का छूटना ही अच्छा है और जो मद्य आदि बिलकुल छूट जाएँ तो मनुष्यों का बड़ा भाग्य है, क्यूंकि नशा से किसी का कुछ उपकार नहीं होता। इससे इनके ऊपर ही कर लगाना चाहिए और लवण आदि के ऊपर न चाहिए। (सन्दर्भ- सत्यार्थ प्रकाश, प्रथम संस्करण, 11 समुल्लास पृष्ठ संख्या 384-85)" कुछ पाठक सोच रहे होगे की नमक पर कर साधारण सी बात है एवं स्वामी जी ने इस विषय को इतनी उपयोगिता क्यों दी जो इसे सत्यार्थ प्रकाश में सम्मिलित किया। ध्यान दीजिये नमक कर के विरुद्ध महात्मा गांधी ने कालांतर में दण्डी मार्च के नाम से सम्पूर्ण सत्याग्रह ही किया था। महात्मा गांधी अपनी पुस्तक हिन्द स्वराज में लिखते है की अंग्रेज सरकार ने केवल कर से 7 मिलियन पौंड कर 1880 में राजस्व रूप में प्राप्त किया था। शिकागो विश्व विद्यालय के पुस्तकालय के अनुसार अंग्रेज सरकार ने 7.3 करोड़ रुपये का राजस्व नमक कर से प्राप्त किया था। अगर सन 1947 से 2014 के मध्य मुद्रा स्फीति की दर 6.5% के हिसाब से माने तो यह राशि आज के समय में केवल 33,600 करोड़ रुपये बनती है। जोकि आज के समय नमक के माध्यम से प्राप्त होने वाले राजस्व 3.85 करोड़ से केवल 10,000 गुना अधिक है। अब आप स्वयं सोचे की नमक कर के माध्यम से अंग्रेज सरकार हमारे देश की जनता पर कितना अत्याचार कर रहे थे। यह आकड़ें उन लोगों के मुंह पर भी तमाचा है जो अंग्रेजी राज को भारत के लिए कल्याणकारी मानते हैं एवं अंग्रेज सरकार को शांतिप्रिय मानते है। इसलिए स्वामी दयानंद का जनकल्याण हेतु चिंतन भारत को स्वतंत्र करवाने की प्रेरणा अपने लेखन के माध्यम से सदा देता रहा था।
महर्षि दयानन्द के सिद्धान्त (Vedic vichar)
16-03-2023
1. ऋषि दयानन्द 'सत्य' को सर्वोपरि मानते थे। उनका दृढ़ विश्वास था कि - "जो सत्य है उसको सत्य और जो मिथ्या है उसको मिथ्या ही प्रतिपादन करना सत्य अर्थ का प्रकाश समझा है क्योंकि सत्योपदेश के बिना अन्य कोई भी मनुष्य जाति की उन्नति का कारण नहीं ।" 2. ऋषि संसार के सब मनुष्यों को एक ईश्वर का पुत्र होने के नाते भाई मानते थे। मनुष्य और मनुष्य के मध्य खड़ी समस्त भेद की दीवारों को वे समूल नष्ट करना चाहते थे ! मनुष्य मात्र की एक जाति, एक धर्म, एक लक्ष्य की स्थापना उनका इष्ट था। जन्म से सब मनुष्य समान और कर्म से ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शूद्र हैं। वर्ण गुण कर्म स्वभाव सूचक हैं, जाति सूचक नहीं। 3. ऋषि का लक्ष्य मनुष्य मात्र को यह ज्ञान कराना था कि वह शरीर नहीं, शरीर का स्वामी 'आत्मा' है, आत्मतत्त्व को जान, ईश्वर का निरन्तर सान्निध्य प्राप्त कर मनुष्य सच्चे अर्थों में मनुष्य बनता है। 'ज्ञान' का उद्देश्य आत्म तत्त्व की प्राप्ति का मार्ग निर्देशन है। हम संसार के समस्त कर्मों को करते हुए उस ऐश्वर्य का संग्रह करें जो धरती से विदा होते हुए साथ जा सके। भोगवाद और अध्यात्म का समन्वय ऋषि का विशेष संदेश था। 4. ऋषि का यह अटूट विश्वास था कि वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। वेद का पढ़ना-पढ़ाना, सुनना-सुनाना वे परम धर्म मानते थे। 'वेद' ज्ञान के प्रचार के अतिरिक्त और कोई मनुष्य जाति की उन्नति का कारण नहीं। उनका विचार था जब से भारत वासियों ने वेद का स्वाध्याय छोड़ा है तभी से भारत का पतन प्रारम्भ हुआ है। वस्तुतः वेद की विचार धारा का साम्राज्य धरती पर स्थापित करना ऋषि का चरम लक्ष्य था । 5. नारि जाति को ऋषि पूजनीय मानते थे। उन्होंने 5000 वर्षों के बाद सबल स्वरों में यह घोषित किया कि - "यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता।" 6. ऋषि की दृष्टि में 'धर्म' वह है "जिसका विरोधी कोई भी न हो सके।" उनका कथन था कि - “मैं अपना मंतव्य उसी को मानता हूँ कि जो तीन काल में सबको एक सा मानने योग्य है। जो सत्य है उस का मानना-मनवाना और जो असत्य है उसका छोड़ना-छुड़वाना मुझको अभीष्ट है।" 7. ऋषि का आदेश था कि - "अन्यायकारी बलवान से भी न डरे और धर्मात्मा निर्बल से भी डरता रहे, इतना ही नहीं किन्तु अपने सर्व सामर्थ्य से घर्मात्माओं की चाहे वे महा अनाथ, निर्बल और गुण रहित क्यों न हों, उनकी रक्षा, उन्नति, प्रियाचरण और अधर्मी चाहे चक्रवर्ती, सनाथ, महा बलवान और गुणवान भी हों तथापि उसका अप्रियाचरण सदा किया करे। 8. ईश्वर, जीव और प्रकृति को अनादि मानते हुए, जीव को भोक्ता, प्रकृति को साधन, और ईश्वर से नित्य आनन्द प्राप्त करना जीव का लक्ष्य है। निरन्तर कर्म करते हुए, प्रभु की प्राप्ति के लिए यत्नशील रहना ही ज्ञानमार्ग उन्होंने बताया। 9. गंगा स्नान, व्रत, पूजा से पाप क्षमा नहीं होते। कर्मों का फल सभी को भोगना ही होगा। ऋषि का यह विश्वास पुण्य और धर्म भाव की आधार शिला था। 10. मूर्ति पूजा, अवतारवाद, छूत छात, गुरुडम और अन्धविश्वास, भूत प्रेतादि और मत-मतान्तरों के ऋषि प्रबलतम विरोधी थे और वे इन्हें मनुष्यजाति के पतन का कारण मानते थे। 11. ऋषि दयानन्द एक ईश्वर को उपास्य देव मानते थे। नाना देवी देवताओं और अवतारवाद को वे पतन का हेतु समझते थे। उनकी मान्यता थी कि मनुष्य मात्र अपने शुभ कर्मों से ही मोक्ष को प्राप्त कर सकता है इसके लिए किसी पैगम्बर या गुरु की सिफारिश आवश्यक नहीं। 12. महर्षि दयानन्द ऐसी सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, आध्यात्मिक व्यवस्था चाहते थे, जिसके द्वारा संसार स्वर्ग बन जाए और जन्म से मृत्यु तक कोई भी मनुष्य दुःख, कष्ट क्लेश अनुभव न करे। 13. "सर्व सत्य का प्रचार कर, सबको ऐक्य मत में करा, द्वेष छुड़ा, परस्पर में दृढ़ प्रीतियुक्त कराके, सब से सब को सुख लाभ पहुँचाने के लिए मेरा प्रयत्न और अभिप्राय है।" - ऋषि का यह चरम लक्ष्य उनके ही शब्दों में कितना स्पष्ट है। 14. अपने चरम लक्ष्य को पूरा करने की ऋषि की अत्यन्त उत्कंठा थी। वे लिखते हैं - "सर्वशक्तिमान परमात्मा की कृपा सहाय और आप्त जनों की सहानुभूति से यह सिद्धान्त सर्वत्र भूगोल में शीघ्र प्रवृत्त हो जाए। क्यों प्रवृत्त हो जाए - इसका उत्तर ऋषि के शब्दों में इस प्रकार है - "जिस से सब लोग सहज से धर्मार्थ काम मोक्ष की सिद्धि करके सदा उन्नत और आनन्दित होते रहें। यही मेरा मुख्य प्रयोजन है।" [स्रोत : कई वर्ष पूर्व जनज्ञान पत्रिका द्वारा प्रकाशित महर्षि दयानन्द के एक हिंदी जीवन चरित्र के आरम्भ में पत्रिका के सम्पादक का यह लेख छपा है। पुस्तक के प्रारंभिक पृष्ठ उपलब्ध नहीं होने से प्रकाशन वर्ष का पता नहीं चलता। - भावेश मेरजा]
Vedic vichar
16-03-2023
वैदिक ईश्वर स्तुति-प्रार्थना-उपासना मन्त्र विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव । यद् भद्रं तन्न आ सुव ॥१॥ मंत्रार्थ – हे सब सुखों के दाता ज्ञान के प्रकाशक सकलजगत के उत्पत्तिकर्ता एवं समग्र ऐश्वर्ययुक्त परमेश्वर! आप हमारे सम्पूर्ण दुर्गुणों, दुर्व्यसनों और दुखों को दूरकर दीजिए, और जो कल्याणकारक गुण, कर्म, स्वभाव, सुख और पदार्थ हैं,उसको हमें भलीभांति प्राप्त कराइये। हिरण्यगर्भ: समवर्त्तताग्रे भूतस्य जात: पतिरेकआसीत् । स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषाविधेम ॥२॥ मंत्रार्थ – सृष्टि के उत्पन्न होने से पूर्व और सृष्टि रचना केआरम्भ में स्वप्रकाशस्वरूप और जिसने प्रकाशयुक्त सूर्य,चन्द्र, तारे, ग्रह-उपग्रह आदि पदार्थों को उत्पन्न करकेअपने अन्दर धारण कर रखा है, वह परमात्मा सम्यक् रूप से वर्तमान था। वही उत्पन्न हुए सम्पूर्ण जगत का प्रसिद्ध स्वामी केवल अकेला एक ही था। उसी परमात्मा ने इस पृथ्वीलोक और द्युलोक आदि को धारण किया हुआ है, हम लोग उस सुखस्वरूप, सृष्टिपालक, शुद्ध एवंप्रकाश-दिव्य-सामर्थ्य युक्त परमात्मा की प्राप्ति के लियेग्रहण करने योग्य योगाभ्यास व हव्य पदार्थों द्वारा विशेषभक्ति करते हैं। य आत्मदा बलदा यस्य विश्व उपासते प्रशिषं यस्यदेवा: । यस्य छायाऽमृतं यस्य मृत्यु: कस्मै देवाय हविषाविधेम ॥३॥ मंत्रार्थ – जो परमात्मा आत्मज्ञान का दाता शारीरिक,आत्मिक और सामाजिक बल का देने वाला है, जिसकी सब विद्वान लोग उपासना करते हैं, जिसकी शासन,व्यवस्था, शिक्षा को सभी मानते हैं, जिसका आश्रय ही मोक्षसुखदायक है, और जिसको न मानना अर्थात भक्ति न करना मृत्यु आदि कष्ट का हेतु है, हम लोग उस सुखस्वरूप एवं प्रजापालक शुद्ध एवंप्रकाशस्वरूप, दिव्य सामर्थ्ययुक्त परमात्मा की प्राप्ति के लिये ग्रहण करने योग्ययोगाभ्यास व हव्य पदार्थों द्वारा विशेष भक्ति करते हैं। य: प्राणतो निमिषतो महित्वैक इन्द्राजा जगतोबभूव। य ईशे अस्य द्विपदश्चतुष्पद: कस्मै देवाय हविषाविधेम ॥४॥ मंत्रार्थ – जो प्राणधारी चेतन और अप्राणधारी जड़जगत का अपनी अनंत महिमा के कारण एक अकेला ही सर्वोपरि विराजमान राजा हुआ है, जो इस दो पैरों वाले मनुष्य आदि और चार पैरों वाले पशु आदि प्राणियों की रचना करता है और उनका सर्वोपरि स्वामी है, हम लोग उस सुखस्वरूप एवं प्रजापालक शुद्ध एवं प्रकाशस्वरूप, दिव्यसामर्थ्ययुक्त परमात्मा की प्रप्ति के लिये योगाभ्यास एवं हव्य पदार्थों द्वारा विशेष भक्ति करते हैं । येन द्यौरुग्रा पृथिवी च दृढा येन स्व: स्तभितं येननाक: । यो अन्तरिक्षे रजसो विमान: कस्मै देवाय हविषाविधेम ॥५॥ मंत्रार्थ – जिस परमात्मा ने तेजोमय द्युलोक में स्थित सूर्य आदि को और पृथिवी को धारण कर रखा है,जिसने समस्त सुखों को धारण कर रखा है, जिसने मोक्ष को धारण कर रखा है, जो अंतरिक्ष में स्थित समस्त लोक-लोकान्तरों आदि काविशेष नियम से निर्माता धारणकर्ता, व्यवस्थापक एवंव्याप्तकर्ता है, हम लोग उस शुद्ध एवं प्रकाशस्वरूप,दिव्यसामर्थ्ययुक्त परमात्मा की प्रप्ति के लिये ग्रहण करने योग्य योगाभ्यास एवं हव्य पदार्थोंद्वारा विशेष भक्ति करते हैं । प्रजापते न त्वदेतान्यन्यो विश्वा जातानि परिता बभूव। यत्कामास्ते जुहुमस्तन्नो अस्तु वयं स्याम पतयोरयीणाम् ॥६॥ मंत्रार्थ – हे सब प्रजाओं के पालक स्वामी परमत्मन!आपसे भिन्न दूसरा कोई उन और इन अर्थात दूर औरपास स्थित समस्त उत्पन्न हुए जड-चेतन पदार्थों कोवशीभूत नहीं कर सकता, केवल आप ही इस जगत को वशीभूत रखने में समर्थ हैं। जिस-जिस पदार्थ की कामना वाले हम लोग अपकीयोगाभ्यास, भक्ति और हव्यपदार्थों से स्तुति-प्रार्थना-उपासना करें उस-उस पदार्थ की हमारी कामना सिद्ध होवे, जिससे की हम उपासक लोग धन-ऐश्वर्यों के स्वामी होवें । स नो बन्धुर्जनिता स विधाता धामानि वेद भुवनानिविश्वा। यत्र देवा अमृतमानशाना स्तृतीये धामन्नध्यैरयन्त ॥७॥ मंत्रार्थ – वह परमात्मा हमारा भाई और सम्बन्धी के समान सहायक है, सकल जगत का उत्पादक है, वही सब कामों को पूर्ण करने वाला है। वह समस्त लोक-लोकान्तरों को, स्थान-स्थान को जानता है। यह वही परमात्मा है जिसके आश्रय में योगीजन मोक्ष को प्राप्त करते हुए, मोक्षानन्द का सेवन करते हुए तीसरे धाम अर्थात परब्रह्म परमात्मा के आश्रय से प्राप्त मोक्षानन्द में स्वेच्छापूर्वक विचरण करते हैं। उसी परमात्मा की हम भक्ति करते हैं। अग्ने नय सुपथा राये अस्मान् विश्वानि देव वयुनानिविद्वान। युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठां ते नम उक्तिं विधेम॥८॥ मंत्रार्थ – हे ज्ञानप्रकाशस्वरूप, सन्मार्गप्रदर्शक,दिव्यसामर्थयुक्त परमात्मन! हमें ज्ञान-विज्ञान, ऐश्वर्यआदि की प्राप्ति कराने के लिये धर्मयुक्त, कल्याणकारीमार्ग से ले चल। आप समस्त ज्ञानों और कर्मों को जानने वाले हैं। हमसे कुटिलतायुक्त पापरूपकर्म को दूर कीजिये । इस हेतु से हम आपकी विविधप्रकार की और अधिकाधिक स्तुति-प्रार्थना-उपासनासत्कार व नम्रतापूर्वक करते हैं।
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16-03-2023
शंका- वैदिक संध्या प्रात: और सांय दो बार करने का प्रावधान बताया गया हैं। जबकि नमाज़ एक दिन में पांच बार करने का प्रावधान बताया गया है। इससे तो यह सिद्ध होता है कि नमाज़ वैदिक संध्या से उत्तम हैं क्यूंकि पांच बार करने से उसका प्रभाव अधिक रहेगा। (शंका करता-इरशाद खान) समाधान- 1. दो बार वैदिक संध्या करने का प्रावधान इसलिए रखा गया है क्यूंकि प्रात: करी गई संध्या से प्रात: से सांय तक परमेश्वर का स्मरण करते हुए उत्तम आचरण करने की प्रेरणा मिलती हैं और सांय करी गई संध्या से सांय से प्रात: तक परमेश्वर का स्मरण करते हुए उत्तम आचरण करने की प्रेरणा मिलती हैं। 2. वैदिक संध्या पूर्णत वैज्ञानिक और प्राचीन काल से चली आ रही हैं। यह ऋषि-मुनियों के अनुभव पर आधारित हैं जबकि नमाज तो केवल पिछले 1400 वर्षों में एक मत से सम्बंधित कल्पित पद्यति हैं। इस्लाम की स्थापना से पूर्व लोग ईश्वर उपासना किस प्रकार करते थे इस पर इस्लाम मौन हैं। 3 . नमाज़ का इतिहास पढ़े तो अल्लाह ने आदम को एक दिन में हज़ारों बार नमाज़ पढ़ने को कहा। मुहम्मद साहिब ने उनसे सिफारिश करके उसे एक दिन में पांच बार सीमित करने निवेदन किया। अब यह प्रसंग कल्पित सिद्ध होता है। क्या इस्लाम का ईश्वर इतना अपरिपक्व और अज्ञानी हैं कि वह यह भी नहीं जानता कि एक दिन में हज़ारों बार नमाज़ पढ़ना मनुष्य के लिए संभव नहीं हैं? फिर मुहम्मद साहिब के माध्यम से सुलहनामा कराना यह सिद्ध करता हैं यह मुहम्मद साहिब का महिमामंडन (Marketing Agenda) करने की सोची समझी रणनीति हैं। निष्पक्ष लोग इसे नबी को अल्लाह से अधिक महत्व देना कहेंगे। 4. वैदिक संध्या की विधि से उसके प्रयोजन पर प्रकाश पड़ता है। मनुष्य में शरीर, इन्द्रिय, मन, बुद्धि, चित और अहंकार स्थित हैं। वैदिक संध्या में आचमन मंत्र से शरीर, इन्द्रिय स्पर्श और मार्जन मंत्र से इन्द्रियाँ, प्राणायाम मंत्र से मन, अघमर्षण मंत्र से बुद्धि, मनसा-परिक्रमा मंत्र से चित और उपस्थान मंत्र से अहंकार को सुस्थिति संपादन किया जाता है। फिर गायत्री मंत्र द्वारा ईश्वर की स्तुति-प्रार्थना और उपासना की जाती हैं। अंत में ईश्वर को नमस्कार किया जाता हैं। यह पूर्णत वैज्ञानिक विधि हैं जिससे व्यक्ति धार्मिक और सदाचारी बनता हैं, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को सिद्ध करता हैं। नमाज अरबी भाषा में होने के कारण विश्व के 99.9% मुसलमानों को समझ ही नहीं आती। दूसरा वह कल्पित हैं इसलिए उसके प्रयोजन और उद्देश्य का ज्ञान होना उनके लिए असंभव हैं। मुल्ला मौलवियों को भी उसका अर्थ और प्रयोजन नहीं मालूम। सम्भवत इसीलिए इस्लाम में क़ुरान की मान्यताओं पर प्रश्न करने पर मनाही है। ऐसे में स्वतंत्र चिंतन के स्थान पर भेड़चाल अधिक दिखती है। तीसरा इस्लाम में जीवन का उद्देश्य मोक्ष के स्थान पर भोग है। जन्नत, हूरें, मीठे पानी के चश्मे, शराब की नहरे, गिलमान। क्या इन्हें आप जीवन का उद्देश्य मानते हैं? यह किसी रेगिस्तान में रहने वाले निर्धन चरवाहे का सुनहरी ख़्वाब लगता हैं। वैज्ञानिक वैदिक संध्या के समक्ष नमाज़ केवल प्रयोजन रहित भेड़चाल सिद्ध होती हैं। 5. वैदिक ईश्वर की स्तुति करने का उद्देश्य ईश्वर के समान न्यायकारी, दयालु, सत्यवादी, श्रेष्ठ कर्म करने वाला बनना हैं। इस्लाम का ईश्वर अशक्त प्रतीत होता है। उसे अपना ज्ञान बार बार बदलना पड़ता हैं। कभी तौरेत,कभी जबूर,कभी इंजील और अंत में क़ुरान दिया। इस्लाम के ईश्वर को अपना पैगाम देने के लिए 4 लाख फरिश्ते चाहिए। वैदिक ईश्वर को कोई मध्यस्त नहीं चाहिए। इस्लाम का ईश्वर चौथे आसमान पर विराजमान है। उनसे मिलने के लिए लड़की के सर और पंख वाला उड़ने वाला बराक गधा चाहिए। जो केवल मुहम्मद साहिब को नसीब था। इसलिए मुसलमानों को जीवन भर नबी से अधिक रसूल की खुशामद करनी पड़ती हैं। वैदिक ईश्वर हमारे हृद्य में आत्मा में स्थित है। इसलिए स्वयं में पूर्णत: सक्षम और सर्वशक्तिमान है। किसी पर निर्भर नहीं हैं। इस्लाम का ईश्वर मुहम्मद साहिब से सिफारिश स्वीकार करता है। वैदिक ईश्वर किसी भी मनुष्य के कर्मों के अनुसार फल देता हैं। कोई पक्षपात नहीं। इसलिए नमाज़ खुद से अधिक रसूल की खुशामद सिद्ध होती हैं। नमाज में एक अशक्त अल्लाह की इबादत है जबकि वैदिक संध्या में सर्वशक्तिमान ईश्वर की उपासना हैं। उपरोक्त कारणों से वैदिक संध्या केवल और केवल ईश्वर की अराधना होने के कारण नमाज से श्रेष्ठ सिद्ध होती हैं।
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16-03-2023
आर्य समाज कौनसे पुराणों को मानता है और कौनसे पुराणों को नहीं मानता ? आर्य समाज इन पुराणों को मानता है :- चारों वेदों के चार व्याख्या ग्रंथ हैं जिनको ब्राह्मणग्रंथ कहते हैं (१) ऐतरेय (२) तैत्तरीय (३) शतपथ (४) गोपथ इन्हीं ब्राह्मणग्रंथों को पांच नामों से पुकारा जाता है :- इतिहास, कल्प, गाथा, नाराशंसी, पुराण | यही वो पुराण हैं जिनको आर्य समाज मानता है क्योंकि ये ग्रंथ ऋषियों के प्रमाणिक इतिहास को बताते हैं और वेदों का तात्पर्य सटीक ढंग से समझाते हैं | इतिहास का संधी विछेद हमें बताता है :- 'इति + ह + एवमासीत् ' = ऐसा ही पहले था | इन्हीं चार ब्राह्मणग्रंथों में विज्ञानपूर्वक सभी वैदिक सिद्धान्तों का समावेष है जिसमें अप्रमाणिक कुछ भी नहीं है | स्वयं तैत्तरीय आरण्यक २:९ में लिखा है कि "ब्राह्मणानीतिहासान् पुराणानि कल्पान् गाथा नाराशंसीरिति" | यही वो पुराण हैं जिन्हें आर्य समाज मानता है | आर्य समाज कौनसे पुराणों को नहीं मानता ? (१) ब्रह्मपुराण (२) पद्मपुराण (३) विष्णुपुराण (४) शिवपुराण (५) भागवतपुराण (६) नारदपुराण (७) मार्कण्डेयपुराण (८) अग्निपुराण (९) भविष्यपुराण (१०) ब्रह्मवैवर्तपुराण (११) लिंगपुराण (१२) वाराहपुराण (१३) कूर्मपुराण (१४) स्कन्दपुराण (१५) मत्स्यपुराण (१६) गरुड़पुराण (१७) ब्रह्माण्डपुराण (१८) सुर्यपुराण ये वो १८ नवीन ग्रंथ हैं जिनको सनातन समाज पुराण नाम से मानता है | जिन्हें आर्य समाज इसलिए नहीं मानता क्योंकि प्रथम तो इनका उल्लेख किसी प्रमाणिक शास्त्र में नहीं है और इनमें हमारे महापुरुषों के बारे में अश्लील और निंदायुक्त बातें मिलती हैं जिन्हें पढ़कर कोई भी मनुष्य घृणा से भर जाए | इन्हीं के कारण हमारे वैदिक धर्म में अनेकों कुरीतियाँ जैसे कि एक सच्चे ईश्वर के स्थान पर अनेकों मिथ्या देवी देवताओं की उपासना करना, भूत प्रेतों की पूजा करना, मूर्तीपूजा करना, मूर्तीयों पर निर्दोष पशु और मानवों की बली देना, मृतक श्राधों में मांसाहार का विधान करना, देवी देवताओं की मूर्तीयों पर शराब चढ़ाना आदि प्रचलित हुईं | और इन १८ ग्रंथों को प्रमाणित करने के लिए इन्हें व्यास जी द्वारा लिखा प्रचारित किया जाता है जो कि सत्य नहीं है | इन १८ पुराण नामक अश्लील ग्रंथों को लगभग २८०० वर्ष के कालखंड में लिखा गया है और समय समय पर इसे संप्रदाईयों ने लिखा है, जो संप्रदाय अपने इष्ट देव को मानता था वही अपने देवता की स्तुति में पुराण रचता और उसमें अन्य देवों की निंदा उसमें करता था | सभी पुराणों में अपने अपने देवों की स्तुति और अन्य देवों की निंदायुक्त कथाएँ हैं | इन्हीं कथाओं का सहारा लेकर विधर्मी मुसलमान, ईसाई, अंबेदकरवादी आदि सनातन समाज की खूब खिल्ली उड़ाते हैं और इन्हीं अश्लील कथाओं को दिखा दिखाकर हिंदू युवाओं और युवतियों के मन में उनके देवों महापुरुषों के प्रति घृणा उत्पन्न करके उनको मुसलमान, ईसाई, वामपंथी या नास्तिक आदि बना देते हैं | इसलिए आर्य समाज इन १८ पुराण नामक कपोल्कल्पित ग्रंथों को नहीं मानता | और न ही किसी सभ्य मनुष्य को मानना चाहिए |
Value and importance of Sanskrit. (Vedic vichar)
16-03-2023
What blessing can Sanskrit confer to the people of India? What valuable services can Sanskrit serve towards the regeneration, development and unification of our beloved country? We might have heard people saying that Sanskrit is a dead language. But I will say that Sanskrit is very breath and life and soul of our Country people. Even I will say that if I have to preserve, maintain and perpetuate the noblest of all heritages ever bequeathed that would be obviously Sanskrit. In this article we will like to know the value and importance of Sanskrit. Caste system is the biggest weakness of our Hindu Society. We Hindus are divided and subdivided by deep rooted caste-prejudices and social distinctions. Sanskrit can provide us with the bond of uniformity and unification. By learning Sanskrit we will our Vedas and get enlightened. It will enable us to get rid of our ignorance. Vedic texts nowhere supports Caste system thus it helps us to get rid of this evil. Sanskrit is able to bring us sense of pride and self-respect. Since the era of British rule we have lost confidence and we always feel that the western are superior race as compared to ours. This loss of self-esteem can easily be regained by right understanding if our true heritage, our magnificent past. And that cannot be learned without the knowledge of Sanskrit. Sanskrit is essentially indispensable to the unbroken continuity of all that is sacred and valuable and glorious in India’s Past. Let the ancient glory and greatness of India be the natural and fitting foundation upon which her future glory is to be reared. Sanskrit can weld together various corners of our country into one bond. Readers will be surprised to know that Sanskrit not even helps in enrichment and development of North Indian languages but also Dravidian languages. Thus all vernacular languages of our Country are bounded by a common thread known as Sanskrit. I will like to quote an example from “Minutes of evidence taken before the select committee on Indian territories published in 1855.The committee asked that what’s the ratio of Sanskrit words in Bangla language is? Wilson who was appearing before committee replied “I tried to enquire about the Sanskrit synonym of first 500 words from Shakespeare India’s Dictionary. I was able to get 305 words. I tried in Bangla Hitopdesha book, used as textbook by students for appearing in exams. I was unable to get only 5 out of first 147 words in Sanskrit. If any learned Sanskrit Scholar, visiting India for first time is given the same book to read, he will find out that he is aware of 142 out of 147 words of the Text.” A committee member asked me “Is the relation between Sanskrit and Hindustani and vernacular languages similar to what is between English and Greek?” Wilson replied, “Sanskrit, especially in Northern India languages is part of almost all dialects. Although it’s not a compulsory part of Southern India languages, but in the language of Malabar (Malayalam) it’s intermingled to such extent that 80% of its words are originated from Sanskrit. ” I think nothing more is left to say about relations of Sanskrit with Indian Vernacular languages. Let the lovers of unity and friends of peaceful progress push in the cause of Sanskrit. Sanskrit can also give the people of India the unique blessing of possessing one common indigenous “Lingua India” viz, Hindi (Arya Bhasha) which is understood by the greatest number of people throughout the entire country. Hindi containing easy Sanskrit words is, therefore, already the language of the whole of India. With the help of Devanagri script, Hindi Bhasha and Sanskrit we can unite our country. Sanskrit can furnish the vernaculars with a fine common indigenous scientific Terminology rivalling and even excelling the Greek-Latin one employed in English. Let our people have, by all means, the real scientific and commercial culture of the West; but let them have it all in their own vernaculars so as to make at least those of them which possess literatures worth preserving. Thus with the help of Sanskrit and the developed vernaculars, our people can thoroughly assimilate, without losing their individuality, all that is good, valuable and elevating in modern culture, of science, industry, art etc. while fully preserving and perpetuating all that is pure, noble and invigorating in India’s past. We think that Sanskrit is of greatest use in both preserving the glory of our past and opening up the future. Thus the very life, soul and vitality of India depend before Sanskrit.
ओ३म् की महिमा (Vedic vichar)
16-03-2023
????गोपथ ब्राह्मण में ओंकार की महिमा:-* गोपथ ब्राह्मण में ओ३म् की महिमा विषेश ध्यान देने योग्य है।यथा श्लोक (गो० 1/22) जिसके अर्थ इस प्रकार हैं, कि जो ब्रह्मोपासक इस अक्षर 'ओ३म्' की जिस किसी कामना पूर्ति की इच्छा से तीन रात्रि उपवास रखकर तेज-प्रधान पूर्व दिशा की ओर मुख करके, कुशासन पर बैठकर सहस्र बार जाप करता है उसके सब मनोरथ (शुभ कामनाएं) सिद्ध होते हैं। इस कथन में जप करने के विधान का उपदेश भी किया गया है। आजकल प्रायः सभी जिज्ञासु जप करने की विधि जानना चाहते हैं,उनके लिए यह सुगम विधि है। *????प्रश्नोपनिषद में ओंकार की महिमा:-* एक समय शिवि के पुत्र सत्यकाम ने पिप्पलाद ऋषि से पूछा-हे भगवन् ! मनुष्यों में वह व्यक्ति जो प्राण के अन्त तक ओंकार का ध्यान करता है, उसकी क्या गति होती है? पिप्पलाद ऋषि ने उत्तर दिया कि जो उपासक उस सर्वव्यापक परमेश्वर का 'ओ३म्' शब्द द्वारा ध्यान करता है, वह ब्रह्म को प्राप्त करता है। उस सर्वज्ञ अन्तर्यामी परमात्मा को सर्वसाधारण ओंकार के द्वारा प्राप्त होते हैं। जो साधक त्रिमात्र ओम् का ध्यान करे, वह तेज में सूर्यलोक से सम्पन्न हो जाता है, एकमात्र की उपासना करने वाला पृथ्वी लोक में, द्विमात्र की उपासना करने वाला सोमलोक अर्थात् चन्द्रलोक में और त्रिमात्र की उपासना करने वाला सूर्यलोक में पहुंचता है।सूर्यलोक ओर चन्द्रलोक दोनों कही बाहर नहीं,अपने भीतर ही हैं। ऐसे व्यक्ति का जीवन सूर्य की ज्योति के समान जगमगाता है।ज्योतिर्मयी हो जाता है।। जैसे सांप केंचुली से मुक्त हो जाता है । इसी क्रम में पिप्पलाद ऋषि ओंकार की एकमात्र, द्विमात्र, त्रिमात्र उपासना का बखान करते हैं। एकमात्र ओंकार का अर्थ है, ओंकार की कुछ कुछ उपासना, द्विमात्र का अर्थ है बहुत काफी उपासना, त्रिमात्र का अर्थ है-ओंकार की उपासना में ही रत हो जाना, मग्न हो जाना। पृथ्वीलोक, चन्द्रलोक तथा सूर्यलोक भी मानसिक स्थितियों को सूचित करते हैं। पिप्पलाद ऋषि इन तीनों लोकों का संकेत दे रहे हैं। पृथ्वीलोक का अर्थ है भौतिक सुख लाभ; चन्द्रलोक का अर्थ है मानसिक शान्ति; सूर्यलोक का अर्थ है-आध्यात्मिक प्रकाश। अतः ऋक्,यजु,साम भी ओंकार की त्रिमात्राओं की तरह त्रया-विद्या के प्रतिनिधि हैं। ऋक, यजु, साम को ज्ञान, कर्म तथा भक्ति का प्रतीक भी समझा जा सकता है। इन शब्दों का शाब्दिक अर्थ न लेकर अर्थवादपरक अर्थ लेना चाहिये। अर्थात् जब किसी बात की महिमा का बखान करना हो, तब कोई अच्छी बात कह दी जाती है,जिसका अभिप्रायः सिर्फ पढ़ने सुनने वाले को प्रेरणा देना होता है।
Vedic vichar
15-03-2023
फलित ज्योतिष की अमान्य मान्यताओं से मानव जगत् से सबसे बड़ा भ्रामिक वैचारिक शोषण लेखक- पण्डित उम्मेद सिंह विशारद, वैदिक प्रचारक उन्नीसवीं शताब्दी के सबसे महान् समाजिक सुधारक आर्ष और अनार्ष मान्यताओं का रहस्य बताने वाले युगपुरुष महर्षि दयानन्द सरस्वती जी अपने अमरग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश के द्वितीय समुल्लास के प्रश्नोत्तर में लिखते हैं। प्रश्न- तो क्या ज्योतिष शास्त्र झूठा है? उत्तर- नहीं, जो उसमें अंक, बीज, रेखागणित विद्या है, वह सब सच्ची, जो फल की लीला है, वह सब झूठी है। फलित ज्योतिष के द्वारा अवैदिक व सृष्टिक्रम विज्ञान के अमान्य अनार्ष मान्यताओं को चतुर लोगों द्वारा भारत की जनता का वैचारिक शोषण करके अपना मनोरथ तो पूर्ण किया ही है, अपितु भारत वर्ष को गुलामी के दलदल में धकेलने का भी कार्य किया है। बड़े अफसोस के साथ लिखना पड़ रहा है कि यह पाखण्ड इस वैज्ञानिक युग में भी दिनोदिन बढ़ता जा रहा है। स्वार्थी और चतुर किन्तु ज्ञान विज्ञान से शून्य लोग भोली-भाली जनता को फलित ज्योतिष की आड़ में कई प्रकार से लूट रहे हैं। इस माह का लेख फलित ज्योतिष पर लिखने का मन बना इसलिए प्रस्तुत लेख में क्लेवर क्षमता के अनुसार कई उदाहरण सहित लिखा जा रहा है। विस्तार आप स्वयं करके आगे भी प्रेषित करने की कृपा करें। फलित ज्योतिष का पाखण्ड कृतं मेदक्षिणे हस्ते जयोमेसव्य आहित: (अथर्व.) ईश्वरीय व्यवस्था में मानव कर्म करने के लिये स्वतन्त्र है और कर्मानुसार फल प्राप्ति ईश्वरीय व्यवस्था में होती है। मानव जैसा कर्म करता है वैसा ही फल उसके ईश्वर द्वारा दिया जाता है। अतः मनुष्यों को अपने दिल में भरोसा रखना चाहिए कि यदि पुरुषार्थ मेरे दायें हाथ में है तो सफलता मेरे बायें हाथ में है। अतः संसार में जितने भी कार्य सिद्ध होते हैं वह पुरुषार्थ से होते हैं। मनुष्य के जीवन में अगले क्षण क्या होने वाला है वह नहीं जानता है। ज्योतिषों द्वारा फलित आश्वासन भ्रामिक हैं, यह केवल मनुष्य को गुमराह करने वाला है। उदाहरण 1- भारत में मुगल साम्राज्य की नींव डालने वाले लुटेरे बाबर की जीवन की एक घटना है। जब वह भारत पर आक्रमण करने आया तो भारत के प्रसिद्ध भविष्य बताने वाले ज्योतिष ने बाबर से कहा कि अभी आप भारत पर आक्रमण न करें, इससे आपको सफलता नहीं मिलेगी। बाबर ने पूछा आपको यह जानकारी कैसे मिली। ज्योतिष ने कहा हमारे फलित ज्योतिष शास्त्र में लिखा है। बाबर ने कुछ सोचकर कहा ज्योतिष जी आप यह भी जानते होंगे कि आप और कितने वर्ष जिन्दा रहोगे, ज्योतिष ने कहा अभी मैं 37 वर्ष और जिन्दा रहूंगा, बाबर ने म्यान से तलवार निकाली और एक ही झटके में ज्योतिषी का सिर धड़ से अलग कर दिया और कहा कि जिसको अपने अगले क्षण का पता नहीं ऐसे पाखण्डी पर क्या विश्वास किया जा सकता है और उस ऐतिहासिक युद्ध में बाबर की विजय हुई और ज्योतिष की बात मिथ्या हुई। उदाहरण 2- आप कल्पना करो कि मेरे सामने एक भोजन का थाल पड़ा है और उसमें दस कटोरियां हैं अलग-अलग व्यंजनों की है। पहले मैं कौनसी कटोरी का पदार्थ खाऊंगा ज्योतिष तो क्या स्वयं ईश्वर भी नहीं बता सकते हैं पहले मैं कौनसी चीज खाऊंगा क्योंकि कर्म करना मेरे स्वतन्त्रता के अधिकार में है। उदाहरण 3- एक ब्राह्मण काशी में दस वर्ष ज्योतिष विद्या पढ़ के अपने गांव में आया गांव का एक उलट जाट लाठी लिये अपने खेत में जा रहा था, नमस्ते पश्चात् जाट ने पूछा आप कहां से आ रहे हैं, ब्राह्मण बोला मैं दस वर्ष काशी से ज्योतिष विद्या पढ़ के अ रहा हूं। जाट ने पूछा महाराज ज्योतिष क्या होता है। ब्राह्मण ने बताया हम अगले क्षण आने वाली बातों को पहले बता देते हैं। जाट ने पूछा महाराज मैं पूछूं तो आप बतायेंगे, क्यों नहींअवश्य पूछिये। ब्राह्मण बोला मैं उच्च कोटि का भविष्यवक्ता बन गया हूं। अब जाट ने कन्धे से लाठी उठाकर घुमाकर पूछा बता मैं तेरे इस लाठी को कहां मारूंगा। यह सुनकर ब्राह्मण नीचे ऊपर देखने लगा, यदि मैंने कहा कि सिर पर मारेगा तो वह पैरों पर ठोकेगा यदि पैरों पर कहा तो यह सिर पर ठोकेगा। ब्राह्मण सिर झुकाकर नीचे देखने लगा। इसलिए फलित ज्योतिष पाखण्ड है। नवग्रहों को मानव पर लगाने का भ्रम प्रश्न (सत्यार्थप्रकाश)- जब किसी ग्रहस्थ ज्योतिर्विदाभास के पास जाके कहते हैं कि महाराज इसको क्या है? तब वह कहते हैं इस पर सूर्यादि क्रूर ग्रह चढ़े हैं। जो तुम इनकी शान्ति, पाठ, पूजा, दान कराओ तो इसको सुख हो जाए, नहीं तो बहुत पीड़ित और मर जाये तो भी आश्चर्य नहीं है। उत्तर- कहिए ज्योतिर्विद्! जैसी यह पृथ्वी जड़ है, वैसे ही सूर्य आदि लोक हैं। वे ताप और प्रकाशादि से भिन्न कुछ नहीं कर सकते। क्या ये चेतन है, जो क्रोधित होके दुःख और शान्त होकर सुख दे सकें। भोली-भाली जनता को ठगने के लिये ग्रहों का प्रकोप का डर उनके दिलों में बिठा रखा है। प्रत्येक ग्रह जड़ हैं और पृथ्वी से लाखों गुना बड़े हैं फिर वह एक छोटे से मनुष्य पर कैसे चढ़ सकते हैं। उदाहरण- दो नवयुवक एक बलिष्ठ शरीर बालक और दूसरा मरियल-सा कमजोर शरीर वाले ज्योतिष के पास जाकर पूछने लगे, महाराज हम पर कौन से ग्रह चढ़े हैं, जो हमारे कोई भी कार्य सिद्ध नहीं होते। ज्योतिष ने बलिष्ठ शरीर वाले युवक से कहा तुम पर सूर्य ग्रह मेहरबान है, तुम्हारा कुछ भी अनिष्ट नहीं होगा और दूसरे कमजोर शरीर वाले युवक से कहा कि तुम पर सूर्य ग्रह चढ़े हैं, तुम्हारा यह अनिष्ट करेंगे, जल्दी पूजा-पाठ, दान करो हम सूर्य ग्रह को शान्त कर देंगे। यह सब कौतूहल एक विद्वान् युवक देख रहा था, उससे रहा नहीं गया वह चुप भी कैसे रह सकता था ऋषि दयानन्द का भक्त जो था। उसने ज्योतिषी से कहा मैं अभी इन दोनों की परीक्षा ले सकता हूं क्या? ज्योतिषी जी ने अहंकार में कहा अवश्य-अवश्य हमारा कथन कभी गलत नहीं होता है, अस्तु! जून का महीना था, दोपहर का समय था, विद्वान् युवक ने दोनों पीड़ित युवकों से कहा मैं तुम्हारी परीक्षा लूंगा दोनों के कपड़े उतरवाये और नंगे पैर दोनों को पक्के फर्श पर खड़ा कर दिया और आधा घण्टा खड़े रहने को कहा। किन्तु यह क्या जो बलिष्ठ शरीर वाला युवक था जिस पर सूर्य ग्रह मेहरबान था वह चक्कर खाकर गिर गया और कमजोर शरीर वाला किन्तु दृढ़ इच्छा वाला वह युवक जिस पर सूर्य ग्रह कुपित थे ज्यों का त्यों खड़ा रहा। अब आर्य युवक ज्योतिष से कहने लगा कहिए महाराज प्रत्यक्ष में आपकी भविष्यवाणी असफल क्यों हुई। वास्तव में सूर्य ग्रह जड़ है और ताप से अधिक कुछ नहीं दे सकता है। सूर्य की गरमी का प्रभाव दोनों पर बराबर पड़ा किन्तु सहन क्षमता में दोनों अलग-अलग थे। इसलिए नवग्रहों का ज्योतिष भ्रम है, धोखा है। शनिग्रह- शनिग्रह पृथ्वी से लाखों मील दूर है और कई लाख गुना बड़ा है- बताइए ज्योतिष महाराज वह शनिग्रह एक छोटे से आदमी पर कैसे लग सकता है, शनि ग्रह के लगने से तो सारी पृथ्वी ही दब जायेगी। वास्तव में ईश्वरीय व्यवस्था में प्रत्येक ग्रह जड़ हैं और अपनी-अपनी धुरी पर केन्द्रित हैं। इस सृष्टिक्रम की व्यवस्था को बनाए रखते हैं। यह मानव जगत् का उपकार ही करते हैं, किन्तु अपकार कभी नहीं करते हैं। उदाहरण- आश्चर्य होता है शनिवार को कुछ लोगों का धन्धा खूब चलता है। वह एक बाल्टी में तेल लेकर जगह-जगह चौराहों पर घरों में शनि के नाम से लोगों को ठगते रहते हैं और अन्धविश्वासी लोग उनकी बाल्टी को सिक्कों से भर देते हैं। क्या शनिदेव मांगने वाले लोगों पर मेहरबान होते हैं। नहीं, यह उनका धन हरण का मार्ग है और अधिक आश्चर्य होता है अब शनि को देवता बनाकर उनकी मूर्ति भी बना दी गई है और मन्दिर भी बना दिया गया है। ईश्वर भारतवासियों को सुमति दें। परिवारों के प्रत्येक शुभकार्यों में शुभदिन मुहूर्त निकालना भी भ्रम है- वास्तव में पृथ्वी पर सब दिन बराबर होते हैं और एक जैसे होते हैं। ऋतुओं के अनुसार व जलवायु के अनुसार अपना प्रभाव दिखाते हैं। वैसे प्रत्येक शुभकार्य करने के लिये प्रत्येक दिन शुभ होता है किन्तु आप अपना शुभकार्य तब करें जब ऋतु अनुकूल हो, स्वास्थ्य अनुकूल हो, परिवार सुख-शान्ति में हो, वह दिन किसी भी समय शुभकार्य के लिए शुभ होता है। एक ज्वलन्त उदाहरण- श्री रामचन्द्र जी कोई साधारण पुरुष न थे वह मर्यादा पुरुषोत्तम थे और उनके कुलगुरु वशिष्ठ भी ऋषि ब्रह्मा के पुत्र थे, श्रीराम को गद्दी पर बैठाने का मुहूर्त वशिष्ठ ऋषि ने निकाला था। इसी मुहूर्त में श्रीराम को चौदह वर्ष के लिये वनवास जाना पड़ा था। पीछे श्रीराम के पिता दशरथ को पुत्र वियोग में मृत्यु हो गई। तीनों रानियां विधवा हो गयीं, आगे चलकर सीता का हरण हुआ, वशिष्ठ की शुभ मुहूर्त शुभकार्य हेतु व्यर्थ गया। इस ऐतिहासिक उदाहरण से स्पष्ट हो जाता है कि शुभ व अशुभ मुहूर्त ज्योतिष का चलन भी भ्रामिक है। गणित ज्योतिष अन्त में- वेदों की शिक्षा के आधार पर गणित ज्योतिष सत्य है, गणित ज्योतिष द्वारा हम सौ वर्ष पहले बता सकते हैं कि क्या होगा। जैसे कि तिथियों का हिसाब, दिनों का हिसाब, ऋतुओं का परिवर्तन, सूर्य व चन्द्रग्रहण। चूंकि यह सारी चीजें चांद, सूर्य और जमीन इन तीनों को नियमानुसार गति पर निर्भर है, जिसमें एक पल का भी अन्तर नहीं आता। अतः हम सौ साल पहले बतला सकते हैं कि अमुक तिथि, अमुक वार को अमुक ऋतु में और अमुक समय में सूर्य व चन्द्रग्रहण होगा तथा कारण को देखकर कार्य का अनुमान अर्थात् कारण को देखकर होने वाले काम का अनुमान आदि। आर्यसमाज के चौथे नियम में महर्षि दयानन्द सरस्वती जी कहते हैं कि- सत्य के ग्रहण करने और असत्य के छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिए। [स्रोत- आर्य प्रतिनिधि : आर्य प्रतिनिधि सभा हरियाणा का पाक्षिक मुख्यपत्र का दिसम्बर २०१८ का अंक; प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ]
ईश्वर की सत्ता (Vedic vichar)
15-03-2023
वेद ईश्वर की सत्ता में विश्वास रखते हैं और आस्तिकता के प्रचारक हैं। वेद नास्तिकता के विरोधी हैं। परन्तु संसार में कुछ व्यक्ति हैं जो ईश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं करते। वेद ऐसे लोगों की बुद्धि पर आश्चर्य प्रकट करता है और उनकी भर्त्सना करता है। न तं विदाथ य इमा जजानाऽन्यद्युष्माकमन्तरं बभूव । नीहारेण प्रावृता जल्प्या चाऽसुतृप उक्थशासश्चयन्ति ।। ―(ऋ० १०/८२/७) भावार्थ― तुम उसको नहीं जानते जो इन सबको उत्पन्न करता है। तुम्हारा अन्तर्यामी तुमसे भिन्न है। किन्तु मनुष्य अज्ञान से ढके हुए होने के कारण वृथा जल्प करते हैं और बकवादी प्राण-मात्र की तृप्ति में लगे रहते हैं। अब हम तर्क और सृष्टि-क्रम में आधार पर ईश्वर की सत्ता को सिद्ध करने का प्रयत्न करेंगे। संसार और संसार के जितने पदार्थ हैं, वे परमाणुओं के संयोग से बने हैं, इस तथ्य को नास्तिक भी स्वीकार करता है। ये परमाणु संयुक्त कैसे हुए? नास्तिक कहता है कि ये परमाणु अपने-आप संयुक्त हुए। नास्तिक की यह धारणा मिथ्या है। परमाणुओं का संयोग अपने-आप नहीं हो सकता। संयोग करने वाली इस शक्ति का नाम परमात्मा है। जैसे सृष्टि और सृष्टि के पदार्थों के निर्माण के लिए परमाणुओं का संयोग होता है, वैसे ही वियोग भी होता है। परमाणुओं का यह वियोग अपने-आप नहीं होता। इन परमाणुओं के वियोग करने वाला भी परमात्मा ही है। जड़ और बुद्धिशून्य परमाणुओं में अपने-आप संयोग कैसे हो हो सकता है? इन जड़ परमाणुओं में इतना विवेक कैसे उत्पन्न हुआ कि उन्होंने अपने-आप को विभिन्न पदार्थों में परिवर्तित कर लिया? यदि यह कहा जाए कि प्रकृति के नियमों एवं सिद्धान्तों से ही संसार की रचना हो जाती है, तो प्रश्न यह है कि जड़ प्रकृति में नियम और सिद्धान्त किसने लागू किए? नियमों के पीछे कोई-न-कोई नियामक होता है। इन नियमों और सिद्धान्तों के स्थापित करने वाली सत्ता का नाम परमेश्वर है। संसार की वस्तुएँ एक-दूसरे की पूरक हैं। उदाहरणार्थ―हम दूषित वायु छोड़ते हैं, वह पौधों और वृक्षों के काम आती है; और पौधे एवं वृक्ष जिस वायु को छोड़ते हैं वह मनुष्यों के काम आती है। इस प्रक्रिया के कारण संसार नरक होने से बच जाता है। किसने वस्तुओं का यह पारस्परिक सम्बन्ध स्थापित किया है? वस्तुओं के पारस्परिक सम्बन्ध को स्थापित करने वाली शक्ति का नाम ईश्वर है। विज्ञान और आस्तिकता में कोई विरोध नहीं। विज्ञान जिन नियमों की खोज करता है, उन नियमों को स्थापित करने वाली ज्ञानवान् सत्ता का नाम ही तो ईश्वर है। यदि विकास के कारण ही सृष्टि-रचना को माना जाए तो विकास का कारण कौन है? डार्विन के पितृ-नियम, अर्थात् एक वस्तु से उसी के समान वस्तु का उत्पन्न होना, परिवर्तन का नियम अर्थात् उपयोग तथा अनुपयोग के कारण वस्तुओं में परिवर्तन, अधिक उत्पत्ति का नियम और योग्यतम की विजय―यदि इन चारों नियमों को भी सत्य माना जाए तो प्रश्न यह है कि नियमों को स्थापित करने वाला कौन है? वैज्ञानिक, धातुओं का आविष्कार तो करता है, परन्तु उनका निर्माण नहीं करता। उनका निर्माण करने वाली कोई और शक्ति है जिसे परमात्मा कहते हैं। इसी प्रकार वैज्ञानिक, सृष्टि में विद्यमान नियमों की खोज करता है; वह नियमों का निर्माता नहीं है। इन नियमों का निर्माता एवं स्थापितकर्त्ता परमात्मा है। संसार में सोना, चाँदी, लोहा, सीसा, कांस्य, पीतल आदि अनेक धातुएँ पाई जाती हैं। हीरे, मोती, जवाहर आदि अनेक बहुमूल्य रत्न पाए जाते हैं। ये सब ईश्वर के द्वारा बनाए गए हैं; किसी मनुष्य के द्वारा नहीं बनाए गए। इस ब्रह्माण्ड की असीम वायु, अनन्त जल, पृथिवी, सूर्य, चन्द्रमा, नक्षत्र―ये सब किसी महान् सत्ता का परिचय दे रहे हैं। आस्तिक इसी महान् सत्ता को ईश्वर के नाम से पुकारता है। फल-फूल, वनस्पतियों और ओषधियों के संसार को देखकर भी मनुष्य को बहुत आश्चर्य होता है। गुलाब के पौधे वा नीम की पत्तियाँ देखने में कितनी सुन्दर लगती हैं। उनके किनारे बिना मशीन के एक-जैसे कटे होते हैं। गुलाब के फूल में सुन्दर रंग, मधुर मोहक सुगन्ध और उसके अन्दर इत्र का प्रवेश―ये किसी बुद्धिमान् कारीगर की कारीगरी को दिखा रहे हैं। अनार की अद्भुत रचना देखिए। ऊपर कठोर छिलका, छिलके के अन्दर झिल्ली, झिल्ली के अन्दर दानों का एक निश्चित क्रम में फँसा होना, दानों में सुमधुर रस का भरा होना, उन रसभरे दानों में छोटी-सी गुठली और गुठली में सम्पूर्ण वृक्ष को उत्पन्न करने की शक्ति। वट का विशाल वृक्ष और सरसों के बीज में एक विशाल वृक्ष का समाविष्ट होना, ये सब उस अद्भुत रचयिता को सिद्ध करते हैं। चींटी से लेकर हाथी तक जीव-जन्तुओं की शरीर-रचना, वन्य-जन्तुओं के आकार और विभिन्न पक्षियों और कीट-पतंगों की रचना―ये सब किसके कारण है? क्या जड़ प्रकृति में इतनी सूझ-बूझ है कि वह विभिन्न आकृतियों का सृजन कर दे? ये विभिन्न शरीर-रचनाएँ परमपिता परमात्मा की ओर संकेत कर रही हैं। इस समय धरती पर पाँच अरब व्यक्ति निवास करते हैं। सृष्टि के रचयिता की अद्भुत कारीगरी देखिए कि एक व्यक्ति की आकृति दूसरे व्यक्ति से नहीं मिलती। इस संसार की विशालता भी आश्चर्यकारी है। ऐसा कहते हैं कि पृथिवी की परिधि २५ हजार मील है। पाँच अथवा छ: फुट लम्बे शरीरवाले मनुष्य के लिए यह परिधि आश्चर्यजनक है। पर्वत की विशालता भी कुछ कम आश्चर्यकारी नहीं―पत्थरों की एक विशाल राशि, जिसके आगे मनुष्य तुच्छ प्रतीत होता है। समुद्र की विशालता को लीजिए। कितनी अथाह-जलराशि होती है। सूर्य पृथिवी से १३ लाख गुणा बड़ा है। पृथिवी की परिधि आश्चर्यकारी है, परन्तु पृथिवी से १३ लाख गुणा बड़ा सूर्य विशालता की दृष्टि से क्या कम विस्मयकारी है? और फिर सूर्य के समान ब्रहाण्ड में करोड़ों सूर्य हैं। क्या यह संसार किसी अद्भुत रचयिता की ओर संकेत नहीं कर रहा है? जहाँ संसार की विशालता आश्चर्यकारी है, वहाँ सृष्टि की सूक्ष्मता भी कम विस्मयकारी नहीं। बड़े-से-बड़े हाथी को देखकर जहाँ आश्चर्य होता है, वहाँ चींटी-जैसे सूक्ष्म प्राणियों को देखकर भी विस्मय होता है। संसार की यह सूक्ष्मता भी किसी रचयिता की ओर संकेत कर रही है। कुछ लोग कहते हैं कि यह संसार अकस्मात् बना है। कोई भी घटना पूर्व-परामर्श अथवा पूर्व-प्रबन्ध के बिना नहीं होती। बाजार में दो व्यक्तियों का अकस्मात् मिलन उनकी इच्छा-शक्ति से प्रेरित होकर किसी उद्देश्य के लिए घर से निकलने का परिणाम है। अकस्मात् वाद का आश्रय लेकर यदि कोई कहे कि देवनागरी के अक्षरों को उछालते रहने से 'रामचरित मानस' की रचना हो जाएगी तो उनकी यह कल्पना असम्भव है। 'रामचरित मानस' की रचना के पीछे किसी ज्ञानवान् चेतन सत्ता की आवश्यकता है। कुछ लोग कहते हैं कि संसार का बनाने वाला कोई नहीं। जो कुछ बनता है वह नेचर अथवा कुदरत से बनता है। प्रश्न यह है कि नेचर अथवा कुदरत किसे कहते हैं? यदि नेचर का अर्थ सृष्टिनियमों से है तो सृष्टियों का कोई नियामक चाहिए। कुदरत अरबी भाषा का शब्द है। इसका अर्थ है सामर्थ्य। सामर्थ्य, बिना सामर्थ्यवान् के टिक नहीं सकता। सामर्थ्यवान् कोई चेतन सत्ता ही हो सकती है। स्वभाववादी, स्वभाव से ही संसार को बना हुआ मानते हैं। किन्तु तथ्य यह है कि यदि परमाणुओं में मिलने का स्वभाव होगा तो वे अलग नहीं होंगे, सदा मिले रहेंगे। यदि अलग रहने का स्वभाव है तो परमाणु मिलेंगे नहीं; सृष्टि-रचना नहीं हो पाएगी। यदि मिलने वाले परमाणुओं की प्रबलता होगी तो वे सृष्टि को कभी बिगड़ने नहीं देंगे। यदि अलग-अलग रहने वाले परमाणुओं की प्रबलता होगी तो सृष्टि कभी नहीं बन पाएगी। यदि बराबर होंगे तो सृष्टि न बन पाएगी, न बिगड़ेगी। जैनी ऐसी शंका करते हैं कि ईश्वर तो क्रियाशून्य है, अत: वह जगत् को नहीं बना सकता। वे इस यथार्थ को भूल जाते हैं कि क्रिया की आवश्यकता एकदेशीय कर्त्ता को पड़ती है। जो परमात्मा सर्वदेशी है उसे क्रिया की आवश्यकता ही नहीं होती। वह सर्वव्यापक होने से ही संसार की रचना करने में समर्थ होता है, जैसे शरीर में आत्मा के स्थित होने के कारण शरीर सब प्रकार की चेष्टाएँ करता है। जब परमात्मा आनन्दस्वरुप है तो वह आनन्द छोड जगत् के प्रपंच में क्यों फँसता है?―यह बात निर्मूल है क्योंकि, प्रपंच में फँसने की बात एकदेशी पर लागू होती है, सर्वदेशी पर नहीं। साभार― ["वैदिक धर्म का स्वरुप" पुस्तक से, लेखक-प्रा० रामविचार]
नरक का द्वार (Vedic vichar)
15-03-2023
(बोध कथा) एक बार टहलते हुए राजा भोज की दृष्टि एक भिखारी पर पड़ी, जो मांस की दुकान से मांस खरीद रहा था । राजा भोज ने भिखारी से पूछा ऐ भिखारी ! क्या तुम मांस खाते हो ? भिखारी ने उत्तर दिया शराब के बिना मास का क्या मजा है । राजा ने कहा अच्छा तो तुम्हें शराब भी प्रिय है । भिखारी ने कहा शराब और मांस वेश्याओं के साथ बैठकर पीता खाता हूं । अकेला नहीं । राजा ने कहा वेश्याओं का संग तो धन के बिना नहीं होता । तुम्हारे पास धन कहां से आता है ? भिखारी ने कहा - मैं चोरी करके तथा जुआ खेलकर वेश्याओं के लिए धन संग्रह करता हूं । राजा ने आश्चर्य से कहा तुम चोरी करते हो जुआ खेलते हो । भिखारी की दयनीय दशा पर शोक प्रकट करते हुए राजा ने आगे कहा भ्रष्ट व्यक्ति का इससे अधिक और क्या पतन हो सकता है । शिक्षा यह सब पाप कर्म एक दूसरे से जुड़े हुए है। जो व्यक्ति एक पाप कर्म में संलिप्त होता है। वो धीरे धीरे दूसरे में भी डूब कर अपने जीवन का पतन कर लेता है।
विश्व की प्रथम गौशाला, रेवाड़ी (Vedic vichar)
15-03-2023
( राव राजा युधिष्ठिर सिंह जी यदुवंशी द्वारा निर्मित) ॥ ____________ दस्तावेज़ों के अनुसार आधुनिक युग की सर्वप्रथम गौशाला हरियाणा के रेवाड़ी जिले (अहीरवाल) में स्थित है। इस गौशाला का निर्माण सन् 1878 में रेवाड़ी रियासत के क्षत्रिय यदुवंशी अहीर राजा राव युधिष्ठिर सिंह जी ने करवाया था। इस निर्माण के पीछे रोचक घटना पर एक नज़र। ________ परम पूज्य स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के रेवाड़ी रियासत के यदुवंशी रजवाड़ों के साथ बहुत अच्छे संबंध थे। 1878 में स्वामी दयानन्द का रेवाड़ी आगमन ऐतिहासिक रहा। उस वक्त रेवाड़ी के राजसिंहासन पर राजा राव युधिष्ठिर सिंह जी नशीन थे जो 1857 के महानायक, यदु-कुल सिरमौर रेवाड़ी नरेश महाराजा राव तुला सिंह बहादुर के पुत्र थे। राजा राव युधिष्ठिर सिंह के राज के दौरान स्वामी जी का रेवाड़ी आगमन हुआ। स्वामी जी ने राव युधिष्ठिर सिंह को उनके महान पूर्वजों का स्मरण तथा उनके पूर्वज द्वारिकाधीश भगवान कृष्ण का स्मरण कराते हुए उन्हें आर्य समाज के कल्याण के लिए मदद करने को कहा। स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के व्यक्तित्व से राजा राव युधिष्ठिर सिंह बहुत प्रभावित हुए और रेवाड़ी के महल में स्वामी जी का स्वागत करते हुए विनती करी कि वे रेवाड़ी रुककर यदुवंशी रजवाड़ों की शान में बनी शाही छतरियों में रुककर रेवाड़ी के लोगों को अपने अनमोल प्रवचन वाणी से लोगों को धन्य करें। फिर उसी वर्ष 1878 में रेवाड़ी में राजा राव युधिष्ठिर सिंह के हुक्म के अनुसार दुनिया की सर्वप्रथम 'गौशाला' का शिलान्यास किया गया। राव युधिष्ठिर सिंह जी ने स्वामी जी को रेवाड़ी के महल की छत से दिख रहे विशाल भूमंडल की और इशारा करते हुए कहा कि- " हे स्वामी जी हमारे रियासत का विशाल भूमंडल जो महल के छत से दिख रहा है आप अपने उंगलियों से इशारा करते हुए बताइये की कितनी ज़मीन हम गौमाता के रहवास के लिए दान करें।" स्वामी जी ने महल की छत से दूर दूर तक जहाँ तक उनकी नज़र विशाल भूमंडल पर पड़ी उन्होंने ने अपने हाथों से इशारा करते हुए माँगी। इस प्रकार 1878 में दस्तावेजों के अनुसार रेवाड़ी में आधुनिक युग की प्रथम और विशालतम गौशाला का निर्माण कराया गया और राजा राव युधिष्ठिर सिंह ने स्वामी दयानन्द सरस्वती जी से ही गौशाला का शिलान्यास करवाया और गौशाला का नामकरण स्वामी जी के नाम पर पड़ा "स्वामी दयानन्द सरस्वती गौशाला"। गौशाला की इमारत बहुत ही भव्य और आलीशान है और आज भी यहाँ लाखों गौओं की देखरेख की जाती है। [मेरे परदादा श्री राम किशन जी आर्य ने स्वामी दयानन्द के 1878 में गौशाला की स्थापना के समय ही उनके भाषण सुनकर वैदिक धर्म स्वीकार किया था।
Vedic vichar
15-03-2023
★सत्य सनातन वेदिक धर्म में होने के लाभ★ ★आर्यसमाज से प्राप्त होने वाले शुद्ध लाभ★ ★ महर्षि दयानन्द के अनुयायी क्यों बनें ? ★ ★***---डॉ० भवानीलाल भारतीय--***★ 1. दयानन्द का सच्चा अनुयायी भूत-प्रेत, पिशाच, डाकिनी, शाकिनी आदि कल्पित पदार्थों से कभी भयभीत नहीं होता । 2. आप फलित ज्योतिष, जन्म-पत्र, मुहूर्त, दिशा-शूल, शुभाशुभ ग्रहों के फल, झूठे वास्तु शास्त्र आदि धनापहरण के अनेक मिथ्या जाल से स्वयं को बचा लेंगें । 3. कोई पाखण्डी साधु, पुजारी, गंगा पुत्र आपको बहका कर आपसे दान-पुण्य के बहाने अपनी जेब गरम नहीं कर सकेगा । 4. शीतला, भैरव, काली, कराली, शनैश्चर आदि अप-देवता, जिनका वस्तुतः कोई अस्तित्व ही नहीं है, आपका कुछ भी अनिष्ट नहीं कर सकेंगे । जब वे हैं ही नहीं तो बेचारे करेंगे क्या ? 5. आप मदिरापान, धूम्रपान, विभिन्न प्रकार के मादक से बचे रह कर अपने स्वास्थ्य और धन की हानि से बच जायेंगे । 6. बाल-विवाह, वृद्ध-विवाह, नारी-प्रताडना, पर्दा-प्रथा, अस्पृश्यता आदि सामाजिक बुराइयों से दूर रहकर सामाजिक सुधार के उदाहरण बन सकेंगे । 7. जीवन का लक्ष्य सादगी को बनायेंगे और मित व्यवस्था के आदर्श को स्वीकार करने के कारण दहेज, मिलनी, विवाहों में अपव्यय आदि पर अंकुश लगाकर आदर्श उपस्थित करेंगे । 8. दयानन्द का अनुयायी होने के कारण अपने देश की भाषा, संस्कृति, स्वधर्म तथा स्वदेश के प्रति आपके हृदय में अनन्य प्रेम रहेगा । 9. आप पश्चिम के अन्धानुकरण से स्वयं को तथा अपनी सन्तान को बचायेंगे तथा फैशन परस्ती, फिजूलखर्ची, व्यर्थ के आडम्बर तथा तडक-भडक से दूर रहेंगे । 10. आप अपने बच्चों में अच्छे संस्कार डालेंगे ताकि आगे चलकर वे शिष्ट, अनुशासन प्रिय, आज्ञाकारी बनें तथा बडों का सम्मान करें । 11.आप अपने कार्य, व्यवसाय, नौकरी आदि में समय का पालन, ईमानदारी, कर्त्तव्यपरायणता को महत्त्व देंगे ताकि लोग आपको मिसाल के तौर पर पेश करें । 12. वेदादि सदग्रन्थों के अध्ययन में आपकी रुचि बढेगी, फलतः आपका बौद्धिक क्षितिज विस्तृत होगा और विश्व-बन्धुता बढेगी । 13. जीवन और जगत् के प्रति आपका सोच अधिकाधिक वैज्ञानिक होता चला जायेगा । इसे ही स्वामी दयानन्द ने 'सृष्टिक्रम से अविरुद्ध होना' कहा है । आप इसी बात को सत्य मानेंगे जो युक्ति, तर्क और विवेक की कसौटी पर खरी उतरती हो । मिथ्या चमत्कारों और ऐसे चमत्कार दिखाने वाले ढोंगी बाबाओं के चक्कर में दयानन्द के अनुयायी कभी नहीं आते । 14. दयानन्द की शिक्षा आपको एक परिपूर्ण मानव बना देगी । आप जाति, धर्म, भाषा, संस्कृति के भेदों से ऊपर उठकर मनुष्य मात्र की एकता के हामी बन जायेंगे । 15. निन्दा-स्तुति, हानि-लाभ, सुख-दुःख आदि द्वन्द्वों को सहन करने की क्षमता आप में अनायास आ जायेगी । 16. शैव, शाक्त, कापालिक, वैष्णव, ब्रह्माकुमारी आदि सम्प्रदायों के मिथ्या जाल से हटकर आप एक अद्वितीय सच्चिदानन्द परमात्मा के उपासक बन जायेंगे । 17. आपकी गृहस्थी में पंच महायज्ञों का प्रवर्त्तन होगा जिससे आप परमात्मा, सूर्यादि देवगण, माता-पिता आदि पितृगण, अतिथि एवं सामान्य जीवों की सेवा का आदर्श प्रस्तुत करेंगे । क्या सृष्टी की प्रथम आर्य संस्कृति, ईश्वर प्रदत्त वेद ज्ञान, महर्षि दयानन्द द्वारा स्थापित आर्यसमाज व उनके गुरूत्व के अनुयायी बनने से मिलने वाले उपर्युक्त लाभ कोई कम महत्त्व के हैं ? ★★***---तो फिर देर क्यों ?---***★★ ★आर्यसमाज सत्य बोलने का साहस देता हैं॥ ★आपको सत्य बोलने की कला सिखाता है॥ ★ पूर्ण वैज्ञानिक दृष्टिकोण प्रदान करता है ॥ ★एकपूर्ण परिपक्व व्यक्तित्व प्रदान करता है॥ ★सत्यार्थप्रकाश सम मार्गदर्शक ग्रन्थ देता है॥ ★आपको विश्वस्तरीय पूर्ण मनुष्य बनाता है॥ ---***★★★॥ओ३म्॥★★★***---
गौहत्या ही राष्ट्र हत्या है (Vedic vichar)
15-03-2023
लेखक :- स्व. श्री सुखदेव शास्त्री महोपदेशक आसन्न वाले आर्य प्रतिनिधि सभा दयानंद मठ रोहतक हरियाणा महान् देशभक्त , महान् गोभक्त , महर्षि दयानन्द सरस्वती भारत के उन सन्तों एवं महर्षियों में अग्रगण्य थे जिन्होंने वैदिक धर्म के प्रचार एवं गोरक्षा के प्रचार - प्रसार में ही अपना महान् बलिदान दे दिया था। भारत का यह महर्षि उस समय सामाजिक सुधार के कार्यक्षेत्र में अवतीर्ण हुआ था जब १८५७ में राष्ट्रीय स्वतन्त्रता के स्फुलिंग फूट - फूटकर देश के चारों कोनों में व्याप्त हो रहे थे। सबसे पहले स्वराज्य के मन्त्रदाता इस महर्षि ने संगठित रूप से गोहत्या बंदी की आवाज उठाई थी । इसके प्रमाण के रूप में डॉ फर्रुखसियर ने जो उसी ईस्वी शताब्दी आरम्भिक दशक में भारत भ्रमण पर आया था , उसने भारत से वापिस जाकर एक पुस्तक लिखी थी| जिसका नाम है- “ दी रिलीजस मूवमेंट इन इण्डिया " इस पुस्तक में उसने लिखा- “ भारत में एक आग सुलगने लगी है जो पता नहीं किस दिन ज्वालाओं का रूप धारण कर ले और उसमें अंग्रेजी राज्य जलकर भस्म हो जाये। " इस आग को सुलगाने वाले महर्षि दयानन्द सरस्वती का नाम ही उसने लिखा है। उसने महर्ज़ि के सम्बन्ध में लिखा- " इस व्यक्त ने १८५७ के संग्राम के बाद एक पुस्तक लिखी जिसका नाम " गोकरुणानिधि " है। उसमें दयानन्द ने एक स्थल पर लिखा है- " जो सुखकारक पशुओं के गले छुरों से काटकर अपना पेट भरकर संसार की हानि करते हैं क्या संसार में उनसे अधिक कोई विश्वासघाती औरअ अनुपकारी दुःख देने वाले पापी जन होंगे। " उस महर्षि ने वहां पर फिर लिखा- " गो आदि। पशुओं के नाश होने से राजा और प्रजा का नाश हो जाता है। " इस प्रकार १८५७ के स्वातन्त्र्य संग्राम में जहां विदेशी शासन को उतार फैंकने की प्रबल भावना महर्षि ने पैदा की थी , उसी गोरक्षा की भावना के कारण ही १८५७ में गाय की चर्बी लगे कारतूसों को सिपाहियों ने अपने हाथ से छूना भी पसंद न किया था। मंगलपाण्डे ने इसी बगावत के कारण मेजर ह्यूसन को गोली से उडा दिया था। मंगल पाण्डे को भी अंग्रेजों ने फांसी दे दी थी। रानी विक्टोरिया ने जो इस बगावत के बाद घोषणा की थी कि उसमें गोवध रोकने की भी की गई थी। इस गोवध बंदी की घोषणा की महर्षि ने अपनी पुस्तक में की है। राजस्थान के पोलिटिक्ल एजेंट कर्नल ब्रुक्स जब रिटायर्ड होकर इंग्लैण्ड जाने लगे तो उनकी विदाई सभा में भी महर्षि ने कर्नल ब्रुक्स से कहा था- " हमारी ओर से रानी विक्टोरिया को जाकर यह कह देना कि अंग्रेजी शासन के मस्तक पर लगे गोवध के कलंक से भारतीय बहुत असंतुष्ट हैं। " गोकरुणानिधि पुस्तक लिखते समय महर्षि इतने द्रवित एवं अश्रुपूर्ण आंखों से परमात्मा की ओर अपनी लेखनी उठाकर बोल उठे- “ हे परमेश्वर ! तू क्यों इन पशुओं पर जो कि बिना अपराध मारे जाते हैं दया नहीं करता ? क्या इन पर तेरी प्रीति नहीं है ? क्या इनके लिए तेरी न्यायसभा बंद हो गई है ? क्यों उनकी पीड़ा छुड़ाने पर तू ध्यान नहीं देता ? और उनकी पुकार क्यों नहीं सुनता ? इससे प्रतीत होता है कि महर्षि को गोहत्या होने से पर्याप्त आन्तरिक कष्ट था। गोकरुणानिधि पृथक् पुस्तक लिखने के बाद सत्यार्थप्रकाश के दसवें समुल्लास में उन्होंने इस समस्या को फिर उठाया है। गाय के होने वाले लाभों से सबसे सुव्यवस्थित आंकड़े जितने महर्षि ने देकर उस समय भारतीयों का ध्यान आकृष्ट किया था। इसके साथ ही उन्होंने भारत में सबसे पहले गोशाला रिवाड़ी में आपके ही हाथों से स्थापित कर रचनात्मक कार्यक्रम दिया था। जहां महर्षि ने गोवध बंदी की ध्वनि ऊंचे स्वर से गुजारित की वहां साथ ही साथ “ गोकृष्यादि रक्षिणी सभा की भी स्थापना की थी। कृषि करने वाले किसानों के विषय में भी महर्षि ने ऐलान किया- " राजाओं के राजा किसान आदि परिश्रम करने वाले होते हैं। " की उन्नति का मार्ग किसानों के खेतों से ही गुजरता है। वैसे तो महर्षि प्राणिमात्र की हत्या के विरोधी थे , परन्तु गाय के आर्थिक , नैतिक , सांस्कृतिक रूप के कारण वह गाय को प्रमुखता देते थे। पीछे वेदों के अर्थों का अनर्थ जिन लोगों ने किया और यज्ञों ने गोमांस डालने का विधान वेदों से किया और गोमेध ' जैसे यज्ञों में गौओं की हत्या का विधान किया , महर्षि ने वेदों का भाष्य करते समय उन सबका खण्डन किया। वेदों का सच्चा स्वरूप प्रकट किया। भारतीय स्वाधीनता का शंखनाद करते समय महर्षि ने राजस्थान के क्षत्रिय राजाओं को गोहत्या के प्रश्न पर धिक्कारते हुए कहा था- " आप कैसे क्षत्रिय हैं ? जब सात समुद्र पार से आकर विदेशी अंग्रेजों ने भारत भूमि पर गोहत्या आरम्भ कर दी फिर आप का यह क्षत्रियापन किस दिन काम आएगा ? तुम क्षत्रिी के रहते हुए भारत माता की छाती पर गाय का खून बहे यह कितने दुःख की बात है। " गोरक्षा के लिये इतना करते - करते उन्होंने आपने जीवन के चलते - चलते उन्होंने महत्त्वपूर्ण कार्य किया वह भी गोहत्या के ही विरोध में था। ब्रिटिश पार्लियामेंट के नाम पर गाय जैसी सर्वोपाकारी पशु के लिए एक बहुत ही गंभीर और गोरक्षा की युक्तियों से भरी हुई चिट्ठी लिखकर राजा महाराजाओं से लेकर भारत की निर्धन जनता से स्वयं घूम - घूमकर स्थान - स्थान पर जाकर करोड़ों हस्ताक्षर महर्षि ने करवाए। पार्लियामेंट में उनके द्वारा भेजी गई करोड़ों व्यक्तियों की उस आन्तरिक पुकार की क्या प्रतिक्रिया रही इसके परिणाम महर्षि जान भी न पाए थे कि उन्हें विष दे दिया गया। गोरक्षा की वेदि पर महर्षि का बलिदान हो गया। महर्षि के संसार से विदा होने के बाद फिर होना ही क्या था ? हुआ भी उल्टा ही। सन् १८८३ में अलीगढ़ के मुहम्मदन कॉलेज के प्रिंसिपल मिस्टर बेक थे। उसने मुसलमानों को उभाकर गोहत्या चालू रहे , इसके हस्ताक्षर कराने आरंभ कर दिए। उसने यह काम दिल्ली की जामा मस्जिद की सीढ़ियों पर बैठ कर कराए। उसने गोहत्या बंदी के विरोध में मुस्लिमों को तैयार किया। यह अंग्रेजों की कूटनीति का प्रत्यक्ष उदाहरण है। महर्षि के बाद उनके द्वारा स्थापित शक्तिशाली संगठन आर्यसमाज ने भी गोहत्या बंदी के कार्यक्रम को बराबर चालू रखा। आर्यसमाज का आन्दोलन जिस उग्रता के साथ आगे बढ़ता जा रहा था , सारे देश की सहानुभूति आर्यसमाज को प्राप्त होती जा रही थी। ब्रिटिश सरकार चिन्तित हो उठी , उसने स्थान - स्थान पर हिन्दू - मुस्लिम दंगे करवाकर आर्यसमाज को बदनाम करने की कोशिश की। १८९३ में उत्तर प्रदेश के बलिया में गाय के प्रश्न पर भयंकर दंगा करवाया गया। अनेकों स्थानों पर गौ के कारण दंगे करवाए जाते रहे। उधर आर्यसमाज के धुआंधार प्रचार से सांस्कृतिक मनोवृत्ति के कारण तिलक , गोखले , मालवीय आदि कांग्रेसी नेता भी गोवध पर रोक चाहते थे। तिलक जी ने तो १९१९ में अपने एक भाषण में कहा था कि स्वराज्य मिलते ही ५ मिनट में ही गोहत्या बंद कर देंगे। मालवीय जी तो गोसम्मेलनों में रो ही पड़ते थे। गांधी जी पहले तो गोहत्या के विरोध में थे , गाय के सम्बन्ध में भी उनका दृष्टिकोण गोहत्या बंदी का ही था। किन्तु जैसे वे हले हिन्दी के पक्ष में थे , बाद में हिन्दुस्तानी के पक्ष में हो गये। इसी प्रकार आद में राजनीति के कारण वे गोहत्या के पक्ष में हो गए उन्होंने कलकत्ता में २२ अगस्त १९४७ को कहा था कि अगर गोरक्षा के प्रश्न को आर्थिक दृष्टिकोण से देखा जाये तो उस हालत में दूधन न देने वाले , कम दूध देने वाले गाएं , बूढ़े और बेकार जानवर बिना किसी बात के सोचे मार डालने चाहिएं। इस बेरहम आर्थिक व्यवस्था की भारत में कोई जगह नहीं है। गांधी जी का यह भी कहना था कि भारत में मुसलमान भी रहते हैं , उनकी इच्छा के विरुद्ध गोहत्या कैसे बंद की जा सकती है। मुस्लिम तुष्टिकरण के कारण ही तो गांधी जी पाकिस्तान निर्माण का समर्थन करते रहे। पाकिस्तान निर्माण करवाकर उसे ५५ करोड़ रुपये भी दे दिए थे। अब रही बात महात्मा गांधी जी के परम् सहयोगी प्रधानमन्त्री पं० जवाहरलाल नेहरू की बात - सरकार ने गोहत्या बंदी के विषय में जानकारी के लिए सर दातार की अध्यक्षता में एक कमेटी नियुक्त की थी कि लोकसभा में २ अप्रैल , १९५५ को दातार कमेटी की सिफारिशों पर विचार हो रहा था। नेहरू जी ने उसमें अपने विचार बहुत ही क्रोध एवं आवेश में आकर रखते हुए कहा था want to make it perfectly clear at the outset that the Govt . are entirely oppesed to this bill . I do not agree and I am prepared to resign from the Prime ministership but I will not give into this kind of अर्थात् मैं आरम्भ से ही यह स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि सरकार इस गोरक्षा विधेयक के सर्वथा विरुद्ध है। मैं सदन को कहूंगा कि इस विधेयक को बिल्कुल रद्द कर दें। यह राज्य सरकारों का विषय है। मैं उनसे भी कहूंगा कि वे इसे बिल्कुल पास न करें। मैं इससे सहमत नहीं हूं। मैं इसके विरुद्ध प्रधानमन्त्री पद से भी त्यागपत्र देने के लिए उद्यत हूँ। मैं गोरक्षा विधेयक के सामने झुडूंगा नहीं। " कांग्रेसी राज में फिर गोहत्या कैसे बंद हो सकती थी। प्रधानमंत्री नेहरू ही इसके मुख्य कारण थे। वेद हमारे मनुष्य जीवन के लिए परम धर्म माने गए हैं। गायों के लिए वेद का आदेश है “ माताए रुद्राणां दुहिता वसूनां स्वसादित्यानाम मतस्य नाभिः। " ( ऋ०८-१०१-१५ ) प्रस्तुत मन्त्र में न केवल उसे माता कहा गया है अपितु उसे पुत्री और बहन भी कहा गया है। अर्थात् जो हमारे भावनात्मक और पवित्र पारिवारिक सम्बन्ध माता , पुत्री और बहन के साथ है वे ही इस गौ के साथ हैं। वैदिक संस्कृति में गोहत्यारों के लिए दण्ड व्यवस्था है। अथर्ववेद १-१६-४ में कहा गया है- “ यदि नो गां हंसि यद्यश्वं यदि पूरुषम्। तं त्वा सीसेन विध्यामो यथा नोऽसीऽचीरहा।। " अर्थात् जो हमारे गाय , घोड़े और मनुष्यों का विनाश करता है , उसे हमें सीसे की गोली से मार देना चाहिए। गोहत्यारों के लिए जन तक भारत में यह गोली से उड़ा देने की व्यवस्था रही , तब तक गोडल्या नहीं होती थी। बस , अन्न तो सरकार के एक नियम बना देना चाहिए कि यदि कोई हत्या करता है तो उसे मृत्युदण्ड होना चाहिए। ऋग्वेद १०-८७-१६ में लिखा है योऽघ्न्याया भरति क्षीरमग्ने तेषां शीर्षाणि हरसापि वृश्च। इसमें गोहत्यारों के सिरों को कुल्हाड़े से काटने का आदेश दिया गया है। आज देश में लगभग ३६ हजार कत्लखाने हैं। जहां बड़ी सत्रा में सार भर में लाखों पशुओं का कत्ल होता है। देखिये - एक बूचड़खाना हैदराबाद के निकट अलकबीर नाम का है जिसका निर्माण ७५ करोड़ रुपयों की लागत से हुआ है। यह नाम जान बूझकर उसके हिन्दू मालिक एवं एन.आर.आई ने चुना है , क्योंकि उसके इस प्लांट का सारा माल मिडिल ईस्ट मलेशिया के मुस्लिम देशों और ईसाई फिलीपीन को भेजा जाता है। इस कत्लखाने से ७५ करोड़ रुपये की विदेशी मुद्रा प्राप्त होती है। यहां पर मारी गई गाय - भैंस के हरेक हिस्से का इस्तेमाल होता है। इसकी लैदर - चमड़े की इण्डस्ट्री द्वारा चमड़े के अन्य उत्पादन तथा हड्डियों से खाद तैयार किए जाते हैं। एक बहुत बड़ा कत्लगाह बम्बई के निकट देवनार में भी है। इसमें कत्ल किए गए पशुओं की संख्या २६४१७६८ है। कत्ल किए गए पशुधन का मूल्य १७९४८७९ ००० रुपये है। ऐसे २३६ हजार से अधिक कत्लखाने व ३००-३०० एकड़ भूमि में फैले इस अलकबीर जैसे २४ से भी अधिक यान्त्रिक कत्लखानों द्वारा होने वाले नुकसान का हिसाब जोड़ा जाये तो देश में एक भी पशु कहां बचेगा ? देखिये चन्द्रगुप्त के समय भारत की जसख्या १९ करोड़ थी , गायों की संख्या ३६ करोड़ थी। अकबर के समय भारत की जनसंख्या २० करोड थी और गौओं की संख्या २८ करोड़ थी। कहां तक गिनें जाएं। गाय तो अब करोड़ों में नहीं , लाखों की संख्या में ही बच रही है। सब जगह छोड़ देने पर मारी - मारी फिरती हैं। कोई भी नहीं पूछता और अधिक क्या लिखें। महर्षि दयानन्द की गोपालन की आज्ञानुसार आज भी सभी गुरुकुलों में गोओं का पालन बड़ी श्रद्धा हो रहा है। गुरुकुल कुरुक्षेत्र में अनेकों गाय गोशाला में हैं जो मन - मन दूध देने ली हैं। उनकी सेवा में गुरुकुल के आचार्य देवव्रत जी अधिकारी बड़े तन - मन धन से करते हैं। आर्ष गुरुकुल कालवा के आचार्य श्री बलदेव जी ने भी एक बड़ी भारी गोशाला गांव धडौली में चालू की है जिसमें ३ हजार के लगभग गाएं बहुत ही अच्छी हैं। गुरुकुल झज्जर में भी बहुत ही हैं। इस प्रकार सभी गुरुकुलों के साथ गोशालाएं भी होती हैं। हरयाणा में तो सभी गुरुकुलों में गोशालाएं हैं। हरयाणा में जहां प्रत्येक घर में गाय होती थी , आज उनके यहां भी गोपालन का रिवाज छूटता जा रहा है। बैलों वाले ' हल ' समाप्त होते जा रहे हैं। इसलिए साल भर में दुधारू गाएं एक लाख , नब्बे हजार बछड़ों का मांस डिब्बों में बंद करके अरब आदि मुस्लिम देशों में पैट्रोल मंगवाने के लिए भेजा जा रहा है। गाय का दूध - घी - छाछ तो अब दुर्बलभ होते जा रहे हैं। हरयाणा में तो एक छोटा पाकिस्तान बना हुआ है। जहां रात्रि के समय हजारों गायों का कत्ल होता है। इसे ' मेवात ' कहा जाता है। ट्रकों में भरकर मांस व हड्डियां कानपुर आदि में भेजी जाती हैं। यह सब काम रात्रि के समय खेतों में किया जाता है। प्राचीनकाल में राजे - महाराजे भी गोपालन करते थे। जनता भी गाय पालती थी। आज सब कुछ समाप्त हो गया है। हिन्दी के कवि कुसुमाकर ने गोपालन के लाभों के बारे में कितना अच्छा लिखा -- चाहते हो भव - व्याधियों से निज मानस का कल - कंज हरा हो , दूध - दही की बहे सरिता फिर गान गोपाल का मोद भरा हो। नन्दिनी नन्दन में विचरे शुचि शक्ति का स्रोत सदा उभरा हो , घाम ललाम वही कुसुमाकर गाय को चाट रहा बछड़ा हो।।
होली पर्व क्या है ? वास्तव मे. (Vedic vichar)
04-03-2023
इस पर्व का प्राचीनतम नाम वासन्ती नव सस्येष्टि है अर्थात् बसन्त ऋतु के नये अनाजों से किया हुआ यज्ञ, परन्तु होली होलक का अपभ्रंश है। क्योंकि *तृणाग्निं भ्रष्टार्थ पक्वशमी धान्य होलक: (शब्द कल्पद्रुम कोष) अर्धपक्वशमी धान्यैस्तृण भ्रष्टैश्च होलक: होलकोऽल्पानिलो मेद: कफ दोष श्रमापह।*(भाव प्रकाश) *अर्थात्*―तिनके की अग्नि में भुने हुए (अधपके) शमो-धान्य (फली वाले अन्न) को होलक कहते हैं। यह होलक वात-पित्त-कफ तथा श्रम के दोषों का शमन करता है। *(ब) होलिका*―किसी भी अनाज के ऊपरी पर्त को होलिका कहते हैं-जैसे-चने का पट पर (पर्त) मटर का पट पर (पर्त), गेहूँ, जौ का गिद्दी से ऊपर वाला पर्त। इसी प्रकार चना, मटर, गेहूँ, जौ की गिदी को प्रह्लाद कहते हैं। होलिका को माता इसलिए कहते हैं कि वह चनादि का निर्माण करती *(माता निर्माता भवति)* यदि यह पर्त पर (होलिका) न हो तो चना, मटर रुपी प्रह्लाद का जन्म नहीं हो सकता। जब चना, मटर, गेहूँ व जौ भुनते हैं तो वह पट पर या गेहूँ, जौ की ऊपरी खोल पहले जलता है, इस प्रकार प्रह्लाद बच जाता है। उस समय प्रसन्नता से जय घोष करते हैं कि होलिका माता की जय अर्थात् होलिका रुपी पट पर (पर्त) ने अपने को देकर प्रह्लाद (चना-मटर) को बचा लिया। *(स)* अधजले अन्न को होलक कहते हैं। इसी कारण इस पर्व का नाम *होलिकोत्सव* है और बसन्त ऋतुओं में नये अन्न से यज्ञ (येष्ट) करते हैं। इसलिए इस पर्व का नाम *वासन्ती नव सस्येष्टि* है। यथा―वासन्तो=वसन्त ऋतु। नव=नये। येष्टि=यज्ञ। इसका दूसरा नाम *नव सम्वतसर* है। मानव सृष्टि के आदि से आर्यों की यह परम्परा रही है कि वह नवान्न को सर्वप्रथम अग्निदेव पितरों को समर्पित करते थे। तत्पश्चात् स्वयं भोग करते थे। हमारा कृषि वर्ग दो भागों में बँटा है―(1) वैशाखी, (2) कार्तिकी। इसी को क्रमश: वासन्ती और शारदीय एवं रबी और खरीफ की फसल कहते हैं। फाल्गुन पूर्णमासी वासन्ती फसल का आरम्भ है। अब तक चना, मटर, अरहर व जौ आदि अनेक नवान्न पक चुके होते हैं। अत: परम्परानुसार पितरों देवों को समर्पित करें, कैसे सम्भव है। तो कहा गया है– *अग्निवै देवानाम मुखं* अर्थात् अग्नि देवों–पितरों का मुख है जो अन्नादि शाकल्यादि आग में डाला जायेगा। वह सूक्ष्म होकर पितरों देवों को प्राप्त होगा। हमारे यहाँ आर्यों में चातुर्य्यमास यज्ञ की परम्परा है। वेदज्ञों ने चातुर्य्यमास यज्ञ को वर्ष में तीन समय निश्चित किये हैं―(1) आषाढ़ मास, (2) कार्तिक मास (दीपावली) (3) फाल्गुन मास (होली) यथा *फाल्गुन्या पौर्णामास्यां चातुर्मास्यानि प्रयुञ्जीत मुखं वा एतत सम्वत् सरस्य यत् फाल्गुनी पौर्णमासी आषाढ़ी पौर्णमासी* अर्थात् फाल्गुनी पौर्णमासी, आषाढ़ी पौर्णमासी और कार्तिकी पौर्णमासी को जो यज्ञ किये जाते हैं वे चातुर्यमास कहे जाते हैं आग्रहाण या नव संस्येष्टि। *समीक्षा*―आप प्रतिवर्ष होली जलाते हो। उसमें आखत डालते हो जो आखत हैं–वे अक्षत का अपभ्रंश रुप हैं, अक्षत चावलों को कहते हैं और अवधि भाषा में आखत को आहुति कहते हैं। कुछ भी हो चाहे आहुति हो, चाहे चावल हों, यह सब यज्ञ की प्रक्रिया है। आप जो परिक्रमा देते हैं यह भी यज्ञ की प्रक्रिया है। क्योंकि आहुति या परिक्रमा सब यज्ञ की प्रक्रिया है, सब यज्ञ में ही होती है। आपकी इस प्रक्रिया से सिद्ध हुआ कि यहाँ पर प्रतिवर्ष सामूहिक यज्ञ की परम्परा रही होगी इस प्रकार चारों वर्ण परस्पर मिलकर इस होली रुपी विशाल यज्ञ को सम्पन्न करते थे। आप जो गुलरियाँ बनाकर अपने-अपने घरों में होली से अग्नि लेकर उन्हें जलाते हो। यह प्रक्रिया छोटे-छोटे हवनों की है। सामूहिक बड़े यज्ञ से अग्नि ले जाकर अपने-अपने घरों में हवन करते थे। बाहरी वायु शुद्धि के लिए विशाल सामूहिक यज्ञ होते थे और घर की वायु शुद्धि के लिए छोटे-छोटे हवन करते थे दूसरा कारण यह भी था। *ऋतु सन्धिषु रोगा जायन्ते*―अर्थात् ऋतुओं के मिलने पर रोग उत्पन्न होते हैं, उनके निवारण के लिए यह यज्ञ किये जाते थे। यह होली शिशिर और बसन्त ऋतु का योग है। रोग निवारण के लिए यज्ञ ही सर्वोत्तम साधन है। अब होली प्राचीनतम वैदिक परम्परा के आधार पर समझ गये होंगे कि होली नवान्न वर्ष का प्रतीक है। *पौराणिक मत में कथा इस प्रकार है―होलिका हिरण्यकश्यपु नाम के राक्षस की बहिन थी। उसे यह वरदान था कि वह आग में नहीं जलेगी। हिरण्यकश्यपु का प्रह्लाद नाम का आस्तिक पुत्र विष्णु की पूजा करता था। वह उसको कहता था कि तू विष्णु को न पूजकर मेरी पूजा किया कर। जब वह नहीं माना तो हिरण्यकश्यपु ने होलिका को आदेश दिया कि वह प्रह्लाद को आग में लेकर बैठे। वह प्रह्लाद को आग में गोद में लेकर बैठ गई, होलिका जल गई और प्रह्लाद बच गया। होलिका की स्मृति में होली का त्यौहार मनाया जाता है जो नितान्त मिथ्या है।इसलिए आओ सब मिलकर अपने इस पवित्र पर्व को इसके वास्तविक स्वरूप मे मनाये।
स्वामी श्रद्धानंद जयंती पर शत शत नमन जाने कौन थे स्वामी श्रद्धानंद। (Vedic vichar)
03-03-2023
स्वामी श्रद्धानन्द सरस्वती भारत के शिक्षाविद, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी तथा आर्यसमाज के संन्यासी थे जिन्होंने स्वामी दयानन्द सरस्वती की शिक्षाओं का प्रसार किया। वे भारत के उन महान राष्ट्रभक्त संन्यासियों में अग्रणी थे, जिन्होंने अपना जीवन स्वाधीनता, स्वराज्य, शिक्षा तथा वैदिक धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए समर्पित कर दिया था। स्वामी श्रद्धानन्द का जन्म २२ फ़रवरी सन् १८५६ (फाल्गुन कृष्ण त्र्योदशी, विक्रम संवत् १९१३) को पंजाब प्रान्त के जालन्धर जिले के तलवान ग्राम में एक कायस्थ परिवार में हुआ था। उनके पिता, लाला नानक चन्द, ईस्ट ईण्डिया कम्पनी द्वारा शासित यूनाइटेड प्रोविन्स (वर्तमान उत्तर प्रदेश) में पुलिस अधिकारी थे। उनके बचपन का नाम वृहस्पति और मुंशीराम था, किन्तु मुन्शीराम सरल होने के कारण अधिक प्रचलित हुआ। पिता का ट्रान्सफर अलग-अलग स्थानों पर होने के कारण उनकी आरम्भिक शिक्षा अच्छी प्रकार नहीं हो सकी। लहौर और जालंधर उनके मुख्य कार्यस्थल रहे। वे एक सफल वकील बने जो कभी झूठा केस नहीं लड़ते थे तथा काफी नाम और प्रसिद्धि प्राप्त की। उनका विवाह श्रीमती शिवा देवी के साथ हुआ था। जब आप ३५ वर्ष के थे तभी शिवा देवी स्वर्ग सिधारीं। उस समय उनके दो पुत्र और दो पुत्रियां थीं। सन् १९१७ में उन्होने सन्यास धारण कर लिया और स्वामी श्रद्धानन्द के नाम से विख्यात हुए। मुंशीराम की बाल्यावस्था एवं किशोरावस्था अपने पिता के साथ व्यतीत होती रही | इन्होने बनारस के क्वींस कॉलेज , जय नारायण कॉलेज और प्रयाग के मेयो कॉलेज में शिक्षा प्राप्त की थी | वंश परम्परा के अनुसार इनके धर्म-कर्म एवं भक्ति का विशेष प्रभाव था | विश्वनाथ जी के दर्शन किये बिना ये जलपान तक नही करते थे | बांदा में ये नियमित रामचरितमानस का पाठ सुनते थे और प्रत्येक आदित्यवार को एक पैर पर खड़े होकर सौ बार हनुमान चालीसा का पाठ करते थे | एक दिन उनके किशोर हृदय को ऐसी ठेस लगी कि इनकी समस्त रुढ़िवादी धार्मिक कट्टरता तिरोहित हो गयी | हुआ यह कि काशी के विश्वनाथ के दर्शनार्थ गये तो उन्हें बाहर ही रोक दिया गया क्योंकि मन्दिर में रींवा की महारानी दर्शन कर रही थी | इस प्रकार मूर्तिपूजा से इनको विरक्ति हो गयी | वे चर्च में गये तो एक पादरी का मन के साथ व्यभिचार का दृश्य देखकर मुंशीराम जी का धर्म से विश्वास उठ गया था औ ऐसी ही अनेक घटनाओं के कारण मुंशी राम के मन में उथल पुथल मच गयी | एक बार आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द सरस्वती वैदिक-धर्म के प्रचारार्थ बरेली पहुंचे। पुलिस अधिकारी नानकचन्द अपने पुत्र मुंशीराम को साथ लेकर स्वामी दयानन्द का प्रवचन सुनने पहुँचे। आदित्यमूर्ति दयानन्द के महान व्यक्तित्व के दर्शन कर तथा सभा में पादरी स्काट एवं अन्य यूरोपियनो को बैठा देखकर इनके मन में श्रुधा का उत्स प्रस्फुटित हो उठा | युवावस्था तक मुंशीराम ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं करते थे। लेकिन स्वामी दयानन्द जी के तर्कों और आशीर्वाद ने मुंशीराम को दृढ़ ईश्वर विश्वासी तथा वैदिक धर्म का अनन्य भक्त बना दिया। इन्होनें तीन अवसरों पर स्वामी जी के समक्ष ईश्वर के अस्तित्व पर शंका प्रकट की |स्वामी दयानंद ने उनके हर प्रश्न का उतर दिया को मुंशी राम कहने लगे आप ने मुझे उतर से सन्तुष्ट को कर दिया लेकिन ईश्वर पर मेरा विश्वास अभी भी नहीं हुआ इस पर स्वामी दयानंद ने कहा मैंने कब कहा था कि मैं तुझे ईश्वर विश्वासी बना दूँगा ईश्वर की इस सृष्टि और कार्यों को देख कर मनुष्य ईश्वर पर विश्वास करता है समय आने पर वो भी होगा। राजनैतिक व सामाजिक जीवन: उनका राजनैतिक जीवन रोलेट एक्ट का विरोध करते हुए एक स्वतन्त्रता सेनानी के रूप में प्रारम्भ हुआ । अच्छी-खासी वकालत की कमाई छोड़कर स्वामीजी ने ”दैनिक विजय” नामक समाचार-पत्र में ”छाती पर पिस्तौल” नामक क्रान्तिकारी लेख लिखे । स्वामीजी महात्मा गांधी के सत्याग्रह से प्रभावित थे । जालियांवाला बाग हत्याकाण्ड तथा रोलेट एक्ट का विरोध वे हिंसा से करने में कोई बुराई नहीं समझते थे । इतने निर्भीक कि जनसभा करते समय अंग्रेजी फौज व अधिकारियों को वे ऐसा साहसपूर्ण जवाब देते थे कि अंग्रेज भी उनसे डरा करते थे । 1922 में गुरु का बाग सत्याग्रह के समय अमृतसर में एक प्रभावशाली भाषण दिया । हिन्दू महासभा उनके विचारों को सुनकर उन्हें प्रभावशाली पद देना चाहती थी, किन्तु उन्होंने इसे अस्वीकार कर दिया । स्वामीजी ने 13 अप्रैल 1917 को संन्यास ग्रहण किया, तो वे स्वामी श्रद्धानन्द बन गये । आर्यसमाज के सिद्धान्तों का समर्थक होने के कारण उन्होंने इसका बड़ी तेजी से प्रचार-प्रसार किया । वे नरम दल के समर्थक होते हुए भी ब्रिटिश उदारता के समर्थक नहीं थे । आर्यसमाजी होने के कारण उन्होंने हरिद्वार में गंगा किनारे गुरुकुल कांगड़ी की स्थापना कर वैदिक शिक्षा प्रणाली को महत्व दिया स्वाधीनता आंदोलन में सक्रिय स्वामी श्रद्धानन्द ने दलितों की भलाई के कार्य को निडर होकर आगे बढ़ाया, साथ ही कांग्रेस के स्वाधीनता आंदोलन का बढ़-चढ़कर नेतृत्व भी किया। कांग्रेस में उन्होंने 1919 से लेकर 1922 तक सक्रिय रूप से महत्त्वपूर्ण भागीदारी की। 1922 में अंग्रेज़ सरकार ने उन्हें गिरफ्तार किया, लेकिन उनकी गिरफ्तारी कांग्रेस के नेता होने की वजह से नहीं हुई थी, बल्कि वे सिक्खों के धार्मिक अधिकारों की रक्षा के लिए सत्याग्रह करते हुए बंदी बनाये गए थे। स्वामी श्रद्धानन्द कांग्रेस से अलग होने के बाद भी स्वतंत्रता के लिए कार्य लगातार करते रहे। हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए स्वामी जी ने जितने कार्य किए, उस वक्त शायद ही किसी ने अपनी जान जोखिम में डालकर किए हों। वे ऐसे महान् युगचेता महापुरुष थे, जिन्होंने समाज के हर वर्ग में जनचेतना जगाने का कार्य किया। हत्या श्रद्धानन्द जी सत्य के पालन पर बहुत जोर देते थे। उन्होंने लिखा है- "प्यारे भाइयो! आओ, दोनों समय नित्य प्रति संध्या करते हुए ईश्वर से प्रार्थना करें और उसकी सत्ता से इस योग्य बनने का यत्न करें कि हमारे मन, वाणी और कर्म सब सत्य ही हों। सर्वदा सत्य का चिंतन करें। वाणी द्वारा सत्य ही प्रकाशित करें और कमरे में भी सत्य का ही पालन करें। लेकिन सत्य और कर्म के मार्ग पर चलने वाले इस महात्मा की एक व्यक्ति ने 23 दिसम्बर, 1926 को नया बाजार चांदनी चौक, दिल्ली स्थित उनके निवास स्थान पर अब्दुल रशीद नामक एक उन्मादी मुसलमान ने धर्म-चर्चा के बहाने उनके कक्ष में प्रवेश करके गोली मारकर इस महान विभूति की हत्या कर दी। इस तरह धर्म, देश, संस्कृति, शिक्षा और दलितों का उत्थान करने वाला यह युगधर्मी महापुरुष सदा के लिए अमर हो गया।
ऋषि दयानंद सरस्वती का हिन्दुओं (आर्यो )को अंतिम संदेश. (Vedic vichar)
03-03-2023
काशी में श्री रामधार जी ने एक दिन लंबी सांस लेकर कहा - भगवन् !आप इतना पुरुषार्थ करते हैं,परन्तु लोग पौराणिक लीलाएं और पाखंड छोड़ते ही नहीं ।उन्ही लोगो में रह कर सुधार कैसे होगा ? ये कहीं हमे भी तो ना ले डूबेंगे ??"स्वामी दयानन्द जी ने ढांढस बंधाते हुए कहा- ब्रह्मसमाजी और ईसाईयों की भांति पृथक होकर सामूहिक जातीय जीवन की मात्रा को घटा देना हमारा उद्देश्य नहीं है।इन्हीं लोगों में रहते हुए अपने कर्तव्य कर्म को करते जाओ।वैदिक धर्म का प्रचार करो।ये लोग यदि आपका विकट विरोध करे और घृणा करे तो भी इनको अपनाने का प्रयास करो ,परन्तु अपनी वैदिक विचार धारा और धर्म धारणा से एक उंगली भर भी इधर उधर नहीं झुकना चाहिए ।अंत में ये सब आपका रूप बन जाएंगे।उतावली से कुछ मनुष्य आगे निकल सकते हैं ,परन्तु शोभा तो सब मनुष्यो को साथ लेकर चलने में है।"जैसे सूर्य अपना प्रकाश देना बंद नहीं करता ,चाहे कोई कितना ही सोता रहे, वैसे ही नित्य कर्म और धर्मोपदेश प्रतिदिन करना चाहिए। उसमे आलस्य और प्रमाद ना करे। मेरठ आर्य समाज के उत्सव पर ,अंतिम व्याख्यान देते समय ,उस महान आत्मा ने अतिव अंत की प्रेरणादायक शिक्षा दी ।स्वामी दयानन्द जी ने कहा---"मुझे लोग कहते है ,जो कोई आता है आप उसे ही भर्ती कर लेते हैं ।मेरा इस विषय में स्पष्ट उत्तर है कि मै वेद ही को सर्वोपरि मानता हूं।वेद ही ऐसी पुस्तक है कि जिसके झंडे तले सारे आर्य श्रेष्ठ सज्जन पुरुष आ सकते हैं।इसलिए जो मनुष्य कह दे कि मै वेदों को मानता हूं और आर्य हूं,उसे आर्य समाज में सम्मिलित कर लो।ऐसे विश्वासी को अस्वीकार नहीं किया जा सकता।लोग भिन्न भिन्न भेद (भाव) पर अधिक दृष्टिपात करते हैं परन्तु आप लोग परस्पर भेद मूलक बातों की अपेक्षा मेल मूलक और प्रेम भ्रातृ भाव की बातों पर अधिक ध्यान दो। तुच्छ भेदों और विरोधो को त्याग कर मेल जोल की बातो में मिलाप संपादन करो।आपस में मिलती बातो में मिल जाने से विरोध और भेद स्वयंमेव मिट जाते हैं। " अब आपको अपना कर्तव्य स्वयं पालन करना चाहिए।अपने जीवन को ऊंचा बनाओ और अपनी आवश्यकताओं को आप स्वयं पूर्ण करो।इस समय तो यह अवस्था है कि जब कोई प्रबल प्रतिपक्षी (विधर्मी) आ जाता है तो और शास्त्रार्थ की खुली चुनौती देता है, आप तार पर तार देकर मुझे ही बुलाते हैं ।किसी भ्रम या शंश्य के उत्पन्न होने पर मुझ पर ही अवलंबित और आश्रित रहते हो, वैदिक उपदेश कराने हो तो मुझ पर ही निर्भर करते हो।जब कभी आप में परस्पर की फूट ,फूट निकलती हैं , वैमनस्य बढ़ जाता है,अनबन बढ़ने लगती हैं और वैर विरोध उत्पन्न हो जाता है तो उसे मिटाने की चिंता मुझे ही करनी पड़ती हैं । मै ही आकर आप लोगो के मध्य शांति स्थापित करता हूं।आपके अंत: करणों में अवनतिकारी अंतर नहीं पड़ने देता।आपके पारस्परिक स्नेह के सुकोमल सूत्रों और धागो को बिखरने नहीं देता।परन्तु महाशय ! मै कोई सदा नहीं बना रहूंगा।विधाता के नियम न्याय में मेरा शरीर भी क्षण भंगुर है।काल (मृत्यु)अपने कराल पेट में सबको पचा डालता है। अंत में इस देह के कच्चे घड़े को भी उसके हाथ टूटना है।" "सोचो ,यदि अपने पांव खड़ा होना नहीं सीखोगे तो मेरे आंख मिचने के पीछे( बाद )क्या करोगे??अभी से अपने आप को सुसज्जित कर लो।विधर्मी आपको निगल लेने को तैयार बैठे हैं। स्वावलंबन के सिद्धांत का अवलंबन करो।अपनी स्वाध्याय साधना की प्रवृति को बढ़ाओ।अपनी आवश्यकताओं को पूर्ण करने के योग्य बन जाओ।किसी दूसरे की सहारे की अपेक्षा अपने ही पर निर्भर करो।मुझे विश्वास है कि आप में ऐसे अनेक सज्जन उत्पन्न होंगे जो उतमोत्तम कार्य कर दिखलाएंगे। प्राण पन से अपने पवित्र प्राणों (वचनों )की पालना करेगे।अपने अंदर निराभिमानी ता लाओ, ज्ञान का अभिमान ना करें ।आर्य समाज का बड़ा विस्तार हो जाएगा।कालांतर में ये वाटिकाए हरी भरी , फूली फली और लहलहाती दिखाई देंगी।ईश्वर कृपा से वह सब कुछ होगा,परन्तु मै नहीं देख सकूंगा।"" ऋषि दयानंद सरस्वती जी के इस अंतिम भाषण का लोगो पर बड़ा प्रभाव पड़ा ।सबके हृदय उछल पड़े।हृदय रोमांचित हो गए ।क्या बच्चे और क्या बूढ़े सबकी आंखें आसुओं के बादलों से आच्छादित हो गई । ऋषि दयानंद सरस्वती जी के कथन से ऐसा प्रतीत होता था कि वे होनी की निश्चित तिथि देखकर यह कह रहे हैं।अपने मानस पुत्रो और पुत्रियों को बिछुड़ते समय का उपदेश दे रहे हैं।मानो इस आर्य समाज रूपी नौका का यह निपुण नाविक ,अब स्वयं ,विदा होना चाहता है।इसलिए यात्रियों को ही अखिल संसार की खेप सौंप कर ,नौका खेने के लिए खेवट बना रहा है। याद करो जो वादा तुमने कभी ऋषि से किया था शायद वादा याद नहीं हो जो तुमने ऋषि से कभी किया था वचन दिया था कि ओम् पताका कभी ना झुकने देंगे हवन कुंड की आग घरों से कभी ना बुझने देंगे। लहू शहीदों का गद्दारों को धिक्कार रहा है देश द्रोह का विषधर फन फैला फुफकार रहा है!!!!
वैदिक धर्म की विषेशताएं. (Vedic vichar)
03-03-2023
*(1)* वैदिक धर्म संसार के सभी मतों और सम्प्रदायों का उसी प्रकार आधार है जिस प्रकार संसार की सभी भाषाओं का आधार संस्कृत भाषा है जो मानव सृष्टि के प्रारम्भ से अर्थात् १,९६,०८,५३,१२३ वर्ष से अभी तक अस्तित्व में है।संसार भर के अन्य मत,पन्थ किसी पीर-पैगम्बर,मसीहागुरु,महात्मा आदि द्वारा चलाये गये हैं,किन्तु चारों वेदों के अपौरुषेय होने से वैदिक धर्म ईश्वरीय है,किसी मनुष्य का चलाया हुआ नहीं है। *(2)* वैदिक धर्म में एक निराकार,सर्वज्ञ,सर्वव्यापक,न्यायकारी ईश्वर को ही पूज्य(उपास्य) माना जाता है,उसके स्थान में अन्य देवी-देवताओं को नहीं। *(3)* ईश्वर अवतार नहीं लेता अर्थात् कभी भी शरीर धारण नहीं करता। *(4)* जीव और ईश्वर(ब्रह्म) एक नहीं हैं बल्कि दोनों की सत्ता अलग-अलग है और मूल प्रकृति इन दोनों से अलग तीसरी सत्ता है।ये तीनों अनादि हैं तीनों ही एक दूसरे से उत्पन्न नहीं होते। *(5)* वैदिक धर्म के सब सिद्धान्त सृष्टिक्रम के नियमों के अनुकूल तथा बुद्धि सम्मत हैं।जबकि अन्य मतों के बहुत से सिद्धान्त बुद्धि की घोर उपेक्षा करते हैं। *(6)* हरिद्वार,काशी,मथुरा,कुरुक्षेत्र,अमरनाथ,प्रयाग आदि स्थलों का नाम तीर्थ नहीं है।जो मनुष्यों को दुःख सागर से पार उतारते हैं उन्हें तीर्थ कहते हैं।विद्या,सत्संग,सत्यभाषण,पुरुषार्थ,विद्यादान,जितेन्द्रियता,परोपकार,योगाभ्यास,शालीनता आदि शुभ तीर्थ हैं। *(7)* भूत-प्रेत डाकिन आदि के प्रचलित स्वरुप को वैदिक धर्म में स्वीकार नहीं किया जाता है।भूत-प्रेत शब्द आदि तो मृत शरीर के कालवाची शब्द हैं और कुछ नहीं। *(8)* स्वर्ग के देवता अलग से कोई नहीं होते।माता-पिता,गुरु,विद्वान तथा पृथ्वी,जल,अग्नि,वायु आदि ही स्वर्ग के देवता होते हैं,जिन्हें यथावत रखने व यथायोग्य उपयोग करने से सुख रुपी स्वर्ग की प्राप्ति होती है। *(9) स्वर्ग और नरक:* स्वर्ग और नरक किसी स्थान विषेश में नहीं होते,सुख विशेष का नाम स्वर्ग और दुःख विशेष का नाम नरक है और वे भी इसी संसार में शरीर के साथ ही भोगे जाते हैं।स्वर्ग-नरक के सम्बन्ध में गढ़ी हुई कहानियों का उद्देश्य केवल कुछ निष्कर्मण्य लोगों का भरण-पोषण करना है। *(10) मुहूर्तः* जिस समय चित्त प्रसन्न हो तथा परिवार में सुख-शान्ति हो वही मुहूर्त है।ग्रह नक्षत्रों की दिशा देखकर पण्डितों से शादी ब्याह,कारोबार आदि के मुहूर्त निकलवाना शिक्षित समाज का लक्षण नहीं है।,क्योंकि दिनों का नामकरण हमारा किया हुआ है,भगवान का नहीं अतः दिनों को हनुमान आदि के व्रतों और शनि आदि के साथ जोड़ना व्यर्थ है।अर्थात् अवैदिक है। *(11) राशिफल एवं फलित ज्योतिष:* ग्रह नक्षत्र जड़ हैं और जड़ वस्तु का प्रभाव सभी पर एक सा पड़ता है अलग-अलग नहीं।अतः ग्रह नक्षत्र देखकर राशि निर्धारित करना एवं उन राशियों के आधार पर मनुष्य के विषय में भांति-भांति की भविष्यवाणियां करना नितान्त अवैज्ञानिक है।जन्मपत्री देखकर वर-वधू का चयन करने के बजाए हमें गुण-कर्म-स्वभाव एवं चिकित्सकीय परीक्षण के आधार पर ही रिश्ते तय करने चाहिएं।जन्मपत्रियों का मिलान करके जिनके विवाह हुए हैं क्या वे दम्पति पूर्णतः सुखी हैं?विचार करें राम-रावण व कृष्ण-कंस की राशि एक ही थी। *(12) चमत्कार:* दुनिया में चमत्कार कुछ भी नहीं है।हाथ घुमाकर चेन,लाकेट बनाना एवं भभूति देकर रोगों को ठीक करने का दावा करने वाले क्या उसी चमत्कार विद्या से रेल का इंजन व बड़े-बड़े भवन बना सकते हैं?या कैंसर,ह्रदय तथा मस्तिष्क के रोगों को बिना आपरेशन के ठीक कर सकते हैं?यदि वह ऐसा कर सकते हैं तो उन्होंने अपने आश्रमों में इन रोगों के उपचार के लिए बड़े-२ अस्पताल क्यों बना रखे हैं?वे अपनी चमत्कारी विद्या से देश के करोड़ों अभावग्रस्त लोगों के दुःख-दर्द क्यों नहीं दूर कर देते?असल में चमत्कार एक मदारीपन है जो धर्म की आड़ में धर्मभीरु जनता के शोषण का बढ़िया तरीका है। *(13) गुरु और गुरुडम:* जीवन को संस्कारित करने में गुरु का महत्वपूर्ण स्थान है।अतः गुरु के प्रति श्रद्धाभाव रखना उचित है।लेकिन गुरु को एक अलौकिक दिव्य शक्ति से युक्त मानकर उससे 'नामदान' लेना,भगवान या भगवान का प्रतिनिधि मानकर उसका अथवा उसके चित्र की पूजा अर्चना करना ,उसके दर्शन या गुरु नाम का संकीर्तन करने मात्र से सब दुःखों और पापों से मुक्ति मानना आदि गुरुडम की विष-बेल है अर्थात् वैदिक मान्यताओं के विरुद्ध है।अतः इसका परित्याग करना चाहिए। *(14) मृतक कर्म ???? मनुष्य की मृत्यु के बाद उसके मृत शरीर का दाहकर्म करने के पश्चात् अन्य कोई करणीय कार्य शेष नहीं रह जाता।आत्मा की शान्ति के लिए करवाया जाने वाला गरुड़पुराण आदि का पाठ या मन्त्र जाप इत्यादि धर्म की आड़ लेकर अधार्मिक लोगों द्वारा चलाया जाने वाला प्रायोजित पाखण्ड है अर्थात् वैदिक मान्यताओं के विरुद्ध है। *(15)* राम,कृष्ण,शिव,ब्रह्मा,विष्णु आदि ऐतिहासिक महापुरुष थे न कि वे ईश्वर या ईश्वर के अवतार थे। *(16)* जो मनुष्य जैसे शुभ या अशुभ (बुरे) कर्म करता है उसको वैसा ही सुख या दुःख रुप फल अवश्य मिलता है।ईश्वर किसी भी मनुष्य के पाप को किसी परिस्थिति में क्षमा नहीं करता है। *(17)* मनुष्य मात्र को वेद पढ़ने का अधिकार है,चाहे वह स्त्री हो या शूद्र। *(18)* प्रत्येक राष्ट्र में राष्ट्रोन्नति के लिए गुण-कर्म-स्वभाव के आधार पर चार ही प्रकार के पुरुषों की आवश्यकता है इसीलिए वेद में चार वर्ण स्थापित किये हैं-१.ब्राह्मण,२.क्षत्रिय,३.वैश्य ,४.शूद्र । *(19)* व्यक्तिगत उन्नति के लिए भी मनुष्य की आयु को चार भागों में बांटा गया है इन्हें चार आश्रम भी कहते हैं।२४ वर्ष की अवस्था तक ब्रह्मचर्य आश्रम,२५ से ५० वर्ष की अवस्था तक गृहस्थाश्रम,५० से ७५ वर्ष की अवस्था तक वानप्रस्थाश्रम और इसके आगे संन्यासाश्रम माना गया है। *(20)* जन्म से कोई भी व्यक्ति ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य या शूद्र नहीं होता।अपने-अपने गुण-कर्म-स्वभाव से ब्राह्मण आदि कहलाते हैं,चाहे वे किसी के भी घर में उत्पन्न हुए हों। *(21)* भंगी,चमार आदि के घर उत्पन्न कोई भी मनुष्य जाति या जन्म के कारण अछूत नहीं होता।जब तक गन्दा है तब तक अछूत है चाहे वह जन्म से ब्राह्मण हो या भंगी या अन्य कोई। *(22)* वैदिक धर्म पुनर्जन्म को मानता है।अच्छे कर्म अधिक करने पर अगले जन्म में मनुष्य का शरीर और बुरे कर्म करने पर पशु,पक्षी,कीट-पतंग आदि का शरीर,अपने कर्मों को भोगने के लिए मिलता है।जैसे अपराध करने पर मनुष्य को कारागार में भेजा जाता है। *(23)* गंगा-यमुना आदि नदियों में स्नान करने से पाप नहीं धुलते।वेद के अनुसार उत्तम कर्म करने से व्यक्ति भविष्य में पाप करने से बच सकता है।जल से तो केवल शरीर का मल साफ होता है आत्मा का नहीं। *(24)* पंच महायज्ञ करना प्रत्येक गृहस्थी के लिए आवश्यक है। *(25)* मनुष्य के शरीर,मन तथा आत्मा को संस्कारी(उत्तम) बनाने के लिए गर्भाधान संस्कार से लेकर अन्त्येष्टि पर्यन्त १६ संस्कारों का करना सभी गृहस्थजनों का कर्तव्य है। *(26)* मूर्तिपूजा,सूतियों का जल विसर्जन,जगराता,कांवड लाना,छुआछूत,जाति-पाति,जादू-टोना,डोरा-गंडा,ताबिज,शगुन,जन्मपत्री,फलित ज्योतिष,हस्तरेखा,नवग्रह पूजा,अन्धविश्वास,बलि-प्रथा,सतीप्रथा,मांसाहार,मद्यपान,बहुविवाह आदि सामाजिक कुरीतियां वैदिक राह से भटक जाने के बाद हिन्दू धर्म के नाम से बनी हुई हैं वेदों में इनका नाम भी नहीं है। *(27)* वेद के अनुसार जब मनुष्य सत्यज्ञान को प्राप्त करके निष्काम भाव से शुभकर्मों को प्राप्त करता है और महापुरुषों की भांति उपासना से ईश्वर के साथ सम्बन्ध जोड़ लेता है।तब उसकी अविद्या (राग-द्वेष आदि की वासनाएं) समाप्त हो जाती है।मुक्ति में जीव ३१ नील,१० खरब,४० अरब वर्ष तक सब दुःखों से छूटकर केवल आनन्द का ही भोग करके फिर लौटकर मनुष्यों में उत्तम जन्म लेता है। *(28)* जब-जब मिलें तब-तब परस्पर 'नमस्ते शब्द' बोलकर अभिवादन करें।यही भारत की प्राचीनतम वैदिक प्रणाली है। *(29)* वेद में परमेश्वर के अनेक नामों का निर्देश किया है जिनमें मुख्य नाम 'ओ३म्' है।शेष नाम गौणिक कहलाते हैं अर्थात् यथा गुण तथा नाम ।। ओ३म्।।
ईश्वर की सत्ता (Vedic vichar)
03-03-2023
वेद ईश्वर की सत्ता में विश्वास रखते हैं और आस्तिकता के प्रचारक हैं। वेद नास्तिकता के विरोधी हैं। परन्तु संसार में कुछ व्यक्ति हैं जो ईश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं करते। वेद ऐसे लोगों की बुद्धि पर आश्चर्य प्रकट करता है और उनकी भर्त्सना करता है। *न तं विदाथ य इमा जजानाऽन्यद्युष्माकमन्तरं बभूव *नीहारेण प्रावृता जल्प्या चाऽसुतृप उक्थशासश्चयन्ति ।।* ―(ऋ० १०/८२/७) *भावार्थ―* तुम उसको नहीं जानते जो इन सबको उत्पन्न करता है। तुम्हारा अन्तर्यामी तुमसे भिन्न है। किन्तु मनुष्य अज्ञान से ढके हुए होने के कारण व्यर्थ बकवास करते हैं और बकवादी प्राण-मात्र की तृप्ति में लगे रहते हैं। अब हम तर्क और सृष्टि-क्रम के आधार पर ईश्वर की सत्ता को सिद्ध करने का प्रयत्न करेंगे। संसार और संसार के जितने पदार्थ हैं, वे परमाणुओं के संयोग से बने हैं, इस तथ्य को नास्तिक भी स्वीकार करता है। ये परमाणु संयुक्त कैसे हुए? नास्तिक कहता है कि ये परमाणु अपने-आप संयुक्त हुए। नास्तिक की यह धारणा मिथ्या है। परमाणुओं का संयोग अपने-आप नहीं हो सकता। संयोग करने वाली इस शक्ति का नाम परमात्मा है। जैसे सृष्टि और सृष्टि के पदार्थों के निर्माण के लिए परमाणुओं का संयोग होता है, वैसे ही वियोग भी होता है। परमाणुओं का यह वियोग अपने-आप नहीं होता। इन परमाणुओं के वियोग करने वाला भी परमात्मा ही है। जड़ और बुद्धिशून्य परमाणुओं में अपने-आप संयोग कैसे हो हो सकता है? इन जड़ परमाणुओं में इतना विवेक कैसे उत्पन्न हुआ कि उन्होंने अपने-आप को विभिन्न पदार्थों में परिवर्तित कर लिया? यदि यह कहा जाए कि प्रकृति के नियमों एवं सिद्धान्तों से ही संसार की रचना हो जाती है, तो प्रश्न यह है कि जड़ प्रकृति में नियम और सिद्धान्त किसने लागू किए? नियमों के पीछे कोई-न-कोई नियामक होता है। इन नियमों और सिद्धान्तों के स्थापित करने वाली सत्ता का नाम परमेश्वर है। संसार की वस्तुएँ एक-दूसरे की पूरक हैं। उदाहरणार्थ―हम दूषित वायु छोड़ते हैं, वह पौधों और वृक्षों के काम आती है; और पौधे एवं वृक्ष जिस वायु को छोड़ते हैं वह मनुष्यों के काम आती है। इस प्रक्रिया के कारण संसार नरक होने से बच जाता है। किसने वस्तुओं का यह पारस्परिक सम्बन्ध स्थापित किया है? वस्तुओं के पारस्परिक सम्बन्ध को स्थापित करने वाली शक्ति का नाम ईश्वर है। विज्ञान और आस्तिकता में कोई विरोध नहीं। विज्ञान जिन नियमों की खोज करता है, उन नियमों को स्थापित करने वाली ज्ञानवान् सत्ता का नाम ही तो ईश्वर है। यदि विकास के कारण ही सृष्टि-रचना को माना जाए तो विकास का कारण कौन है? डार्विन के पितृ-नियम, अर्थात् एक वस्तु से उसी के समान वस्तु का उत्पन्न होना, परिवर्तन का नियम अर्थात् उपयोग तथा अनुपयोग के कारण वस्तुओं में परिवर्तन, अधिक उत्पत्ति का नियम और योग्यतम की विजय―यदि इन चारों नियमों को भी सत्य माना जाए तो प्रश्न यह है कि नियमों को स्थापित करने वाला कौन है? वैज्ञानिक, धातुओं का आविष्कार तो करता है, परन्तु उनका निर्माण नहीं करता। उनका निर्माण करने वाली कोई और शक्ति है जिसे परमात्मा कहते हैं। इसी प्रकार वैज्ञानिक, सृष्टि में विद्यमान नियमों की खोज करता है; वह नियमों का निर्माता नहीं है। इन नियमों का निर्माता एवं स्थापितकर्त्ता परमात्मा है। संसार में सोना, चाँदी, लोहा, सीसा, कांस्य, पीतल आदि अनेक धातुएँ पाई जाती हैं। हीरे, मोती, जवाहर आदि अनेक बहुमूल्य रत्न पाए जाते हैं। ये सब ईश्वर के द्वारा बनाए गए हैं; किसी मनुष्य के द्वारा नहीं बनाए गए। इस ब्रह्माण्ड की असीम वायु, अनन्त जल, पृथिवी, सूर्य, चन्द्रमा, नक्षत्र―ये सब किसी महान् सत्ता का परिचय दे रहे हैं। आस्तिक इसी महान् सत्ता को ईश्वर के नाम से पुकारता है। फल-फूल, वनस्पतियों और ओषधियों के संसार को देखकर भी मनुष्य को बहुत आश्चर्य होता है। गुलाब के पौधे वा नीम की पत्तियाँ देखने में कितनी सुन्दर लगती हैं। उनके किनारे बिना मशीन के एक-जैसे कटे होते हैं। गुलाब के फूल में सुन्दर रंग, मधुर मोहक सुगन्ध और उसके अन्दर इत्र का प्रवेश―ये किसी बुद्धिमान् कारीगर की कारीगरी को दिखा रहे हैं। अनार की अद्भुत रचना देखिए। ऊपर कठोर छिलका, छिलके के अन्दर झिल्ली, झिल्ली के अन्दर दानों का एक निश्चित क्रम में फँसा होना, दानों में सुमधुर रस का भरा होना, उन रसभरे दानों में छोटी-सी गुठली और गुठली में सम्पूर्ण वृक्ष को उत्पन्न करने की शक्ति। वट का विशाल वृक्ष और सरसों के बीज में एक विशाल वृक्ष का समाविष्ट होना, ये सब उस अद्भुत रचयिता को सिद्ध करते हैं। चींटी से लेकर हाथी तक जीव-जन्तुओं की शरीर-रचना, वन्य-जन्तुओं के आकार और विभिन्न पक्षियों और कीट-पतंगों की रचना―ये सब किसके कारण है? क्या जड़ प्रकृति में इतनी सूझ-बूझ है कि वह विभिन्न आकृतियों का सृजन कर दे? ये विभिन्न शरीर-रचनाएँ परमपिता परमात्मा की ओर संकेत कर रही हैं। इस समय धरती पर पाँच अरब व्यक्ति निवास करते हैं। सृष्टि के रचयिता की अद्भुत कारीगरी देखिए कि एक व्यक्ति की आकृति दूसरे व्यक्ति से नहीं मिलती। इस संसार की विशालता भी आश्चर्यकारी है। ऐसा कहते हैं कि पृथिवी की परिधि २५ हजार मील है। पाँच अथवा छ: फुट लम्बे शरीरवाले मनुष्य के लिए यह परिधि आश्चर्यजनक है। पर्वत की विशालता भी कुछ कम आश्चर्यकारी नहीं―पत्थरों की एक विशाल राशि, जिसके आगे मनुष्य तुच्छ प्रतीत होता है। समुद्र की विशालता को लीजिए। कितनी अथाह-जलराशि होती है। सूर्य पृथिवी से १३ लाख गुणा बड़ा है। पृथिवी की परिधि आश्चर्यकारी है, परन्तु पृथिवी से १३ लाख गुणा बड़ा सूर्य विशालता की दृष्टि से क्या कम विस्मयकारी है? और फिर सूर्य के समान ब्रहाण्ड में करोड़ों सूर्य हैं। क्या यह संसार किसी अद्भुत रचयिता की ओर संकेत नहीं कर रहा है? जहाँ संसार की विशालता आश्चर्यकारी है, वहाँ सृष्टि की सूक्ष्मता भी कम विस्मयकारी नहीं। बड़े-से-बड़े हाथी को देखकर जहाँ आश्चर्य होता है, वहाँ चींटी-जैसे सूक्ष्म प्राणियों को देखकर भी विस्मय होता है। संसार की यह सूक्ष्मता भी किसी रचयिता की ओर संकेत कर रही है। कुछ लोग कहते हैं कि यह संसार अकस्मात् बना है। कोई भी घटना पूर्व-परामर्श अथवा पूर्व-प्रबन्ध के बिना नहीं होती। बाजार में दो व्यक्तियों का अकस्मात् मिलन उनकी इच्छा-शक्ति से प्रेरित होकर किसी उद्देश्य के लिए घर से निकलने का परिणाम है। अकस्मात् वाद का आश्रय लेकर यदि कोई कहे कि देवनागरी के अक्षरों को उछालते रहने से 'रामचरित मानस' की रचना हो जाएगी तो उनकी यह कल्पना असम्भव है। 'रामचरित मानस' की रचना के पीछे किसी ज्ञानवान् चेतन सत्ता की आवश्यकता है। कुछ लोग कहते हैं कि संसार का बनाने वाला कोई नहीं। जो कुछ बनता है वह नेचर अथवा कुदरत से बनता है। प्रश्न यह है कि नेचर अथवा कुदरत किसे कहते हैं? यदि नेचर का अर्थ सृष्टिनियमों से है तो सृष्टियों का कोई नियामक चाहिए। कुदरत अरबी भाषा का शब्द है। इसका अर्थ है सामर्थ्य। सामर्थ्य, बिना सामर्थ्यवान् के टिक नहीं सकता। सामर्थ्यवान् कोई चेतन सत्ता ही हो सकती है। स्वभाववादी, स्वभाव से ही संसार को बना हुआ मानते हैं। किन्तु तथ्य यह है कि यदि परमाणुओं में मिलने का स्वभाव होगा तो वे अलग नहीं होंगे, सदा मिले रहेंगे। यदि अलग रहने का स्वभाव है तो परमाणु मिलेंगे नहीं; सृष्टि-रचना नहीं हो पाएगी। यदि मिलने वाले परमाणुओं की प्रबलता होगी तो वे सृष्टि को कभी बिगड़ने नहीं देंगे। यदि अलग-अलग रहने वाले परमाणुओं की प्रबलता होगी तो सृष्टि कभी नहीं बन पाएगी। यदि बराबर होंगे तो सृष्टि न बन पाएगी, न बिगड़ेगी। जैनी ऐसी शंका करते हैं कि ईश्वर तो क्रियाशून्य है, अत: वह जगत् को नहीं बना सकता। वे इस यथार्थ को भूल जाते हैं कि क्रिया की आवश्यकता एकदेशीय कर्त्ता को पड़ती है। जो परमात्मा सर्वदेशी है उसे क्रिया की आवश्यकता ही नहीं होती। वह सर्वव्यापक होने से ही संसार की रचना करने में समर्थ होता है, जैसे शरीर में आत्मा के स्थित होने के कारण शरीर सब प्रकार की चेष्टाएँ करता है। जब परमात्मा आनन्दस्वरुप है तो वह आनन्द छोड जगत् के प्रपंच में क्यों फँसता है?―यह बात निर्मूल है क्योंकि, प्रपंच में फँसने की बात एकदेशी पर लागू होती है, सर्वदेशी पर नहीं। *साभार―* *["वैदिक धर्म का स्वरुप" पुस्तक से, लेखक-प्रा० रामविचार]*
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03-03-2023
दुराचारी मनुष्य संसार मे निन्दा का पात्र बनता है वह निरन्तर रोगी रहने वाला दुःख भोगी और शीघ्र मृत्यु को प्राप्त होता है।मनु-४-१५७
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27-02-2023
नवविवाहिता स्त्री, छोटी कन्याएं ,रोगी व गर्भवती स्त्री को बिना सोचे अतिथि से पहले भोजन दे देना चाहिये । मनु-३-११४
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27-02-2023
मनुष्यों को योग्य है कि जो अन्तःकरण (मन,बुद्धि, चित्त, अहंकार)प्राण आदि दशवायु , इन्द्रिय अर्थात् श्रोत्रादि दश इन्द्रियों का प्रेरक इनका धारक और नियन्ता स्वामी, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख,दुःख और ज्ञान आदि गुण वाला है, वह इस देह मे जीव है ऐसा निश्चित जानो।-ऋग्वेद-१-५८-५
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27-02-2023
ईर्ष्या करने वाला,घृणा करनेवाला, असन्तोषी,क्रोधी, सदा शंका करनेवाला और दूसरे के आश्रय पर जीने वाला ये छः प्रकार के लोग सदैव दुःखी रहते हैं। -विदुर-१-८८
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27-02-2023
ऋणं ह वै जायते यः अस्ति। सः जायमानः एव देवेभ्यः ,ऋषिभ्यः,पितृभ्यः,मनुष्येभ्यः।। --शतपथ ब्राह्मण-१-७-२-१ जो भी मनुष्य जन्म लेता है वह चार ऋणों के साथ जीवन जी रहा है। १-देव ऋण २-ऋषि ऋण ३-पितृ ऋण -४-मनुष्य ऋण।
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25-02-2023
स यद् एव यजेत।तेन देवेभ्यः ऋणं जायते।तत् हि एभ्यः एतत् करोति यत् एनान् यजते,यत् एभ्यः जुहोति।--शतपथ ब्राह्मण-१-७-२-२ देव ऋण से उऋण होने के लिए मनुष्य को यज्ञ करना चाहिए।यज्ञ मे हवि प्रदान करते हुए देवों को प्रसन्न करके ही मनुष्य देव ऋण से मुक्त हो सकता है।
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25-02-2023
जैसे नीम के पेड़ को दूध से सींचने पर भी वह मीठा नहीं होता वैसे ही दुष्ट के साथ कितना भी उपकार किया जाय वह सज्जन नहीं बनता।
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25-02-2023
अधर्मी मनुष्यों की सफलता का राज यही है कि धार्मिक मनुष्य धार्मिक जीवन से रहित हैं या संख्याबल बहुत कम है इसलिए अधार्मिकों सें समझोता करनें के लिए वाध्य हो जातें है लेकिन यह भी धार्मिक मनुष्यों को लग भलें ही रहा हों कि उन्होने सही रास्ता निकाला सफल होनें का लेकिन वे निजि लक्ष्य सें निजि कर्तव्य सें चूक गयें ये इनका निर्णय स्वयं डूबकर दुसरों को बचाने का है वो सौ प्रतिशत गलत है क्योंकि आप स्वयं ही डूब गयें फिर दुसरों को कहां बचा सकतें हो।
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22-02-2023
ओ३म् *????मांस भक्षण विवेचन????* किसी भी पशु पक्षी का मांस या मछली, अण्ड़ा आदि मनुष्य का भोजन नहीं है। मांस जहाँ मनुष्य शरीर के लिए हानिकारक है वहां मन, बुद्धि और आत्मा के लिए भी जहर है। वैदिक साहित्य में मांस खाने की पूरे तौर पर मनाही की गई है―वैद्यक शास्त्र में भी तथा धर्म शास्त्र में भी। वेद में पशुओं को पालने का तथा उनकी रक्षा करने का अनेक स्थानों पर आदेश है। *अविर्मा हिंसीः गां मा हिंसीः एकशफंमा हिंसीः।―(यजुर्वेद)* *अर्थ–*हे मनुष्य तू भेड़, गाय, एक खुर वाले घोड़े आदि पशुओं को मत मार। *प्रजां मे पाहि शंस्य पशून् मे पाहि ।―(यजुर्वेद)* *अर्थ―*हे जगदीश्वर आप मेरी प्रजा और पशुओं की रक्षा कीजिए। *यदि नो गां हंसि यद्यश्वं यदि पूरुषम् ।* *तं त्वा सीसेन विध्यामो यथा नोऽसो अवीरहा ।।* ―(अथर्ववेद १/१६/४) *भावार्थ―*हे दुष्ट यदि तू हमारे गाय, घोड़ा आदि पशुओं की या पुरुषों की हत्या करेगा, तो हम तुझे सीसे की गोली से बींध देंगे जिससे तू इन्हें फिर न मार सके। वेदों में खाने पीने के सम्बन्ध में गेहूँ, जौ, चावल आदि अनाज तथा फल, सब्जी, दूध, घी आदि का वर्णन है मांस का कहीं भी नहीं। मांस क्रूरता से प्राप्त होता है इसलिए मांसाहारी मनुष्य क्रूर बन जाता है।उसमें दया आदि उत्तम गुण नहीं रहते।किन्तु स्वार्थवश होकर दूसरे की हानि करके अपना प्रयोजन सिद्ध करने में ही लगा रहता है। जैसा खावे अन्न वैसा होवे मन। मनुष्य जाति में हिंसा, क्रूरता तथा निर्दयता आदि के आ जाने से सब मनुष्यों तथा प्राणियों के लिए सुख खत्म हो जाता है। मांस में यूरिक एसिड आदि कई प्रकार के विष तथा रोगकारक अंश पाए जाते हैं।शाकाहार में कोई भी रोगाणु नहीं रहता, अपितु रोगनाशक होते हैं।मांस उत्तेजनाकारक है। मांस खाने से अन्य बुराईयां भी आ जाती हैं। *मांस भक्षण पर महर्षि दयानन्द के विचार―*वेदों में कहीं मांस खाना नहीं लिखा। शुभ गुण युक्त सुखकारक पशुओं के गले छुरी से काटकर जो अपने पेट भरकर सब संसार की हानि करते हैं क्या संसार में उनसे भी अधिक कोई विश्वासघाती अनुपकारी दुःख देने वाले और पापी जन होंगे? *ईश्वर सब प्राणियों का पिता है और सब प्राणी उसके पुत्र हैं ऐसा भाव दिखला कर महर्षि लिखते हैं―भला कोई मनुष्य एक लड़के को मरवाए और दूसरे लड़के को उसका मांस खिलावे ऐसा कभी हो सकता है? हे मांसाहारियों तुम लोग जब कुछ काल के पश्चात् पशु न मिलेंगे तब मनुष्यों का भी मांस छोड़ोगे या नहीं?* *महर्षि दयानन्द की बेजबान पशुओं की ओर से मनुष्यों के प्रति अपील―*_हे धार्मिक सज्जन लोगों आप हम पशुओं की रक्षा, तन, मन और धन से क्यों नहीं करते? हाय बड़े शोक की बात है कि जब हिंसक लोग गाय, बकरे, पशु और मुर्गा आदि पक्षियों को मारने के लिए ले जाते हैं तब वे अनाथ तुम हमको देख के राजा और प्रजा पर बड़ा शोक प्रकाशित करते हैं कि देखो हमको बिना अपराध बुरी तरह से मारते हो और हम रक्षा करने तथा मारने वालों को भी दूध आदि अमृत पदार्थ देने के लिए उपस्थित रहना चाहते हैं, और मारे जाना नहीं चाहते। देखो, हमारा सर्वस्व परोपकार के लिए है और हम इसलिए पुकारते हैं कि हमको आप लोग बचावें। हम तुम्हारी भाषा में अपना दुःख नहीं समझा सकते और आप लोग हमारी भाषा नहीं जानते। नहीं तो क्या हम में से किसी को कोई मार सकता? हम भी आप लोगों की तरह अपने मारने वाले को न्याय व्यवस्था से फांसी पर न चढ़वा देते? हम इस समय अतीव कष्ट में हैं क्योंकि कोई भी हमारे बचाने में उद्यत नहीं होता और जो कोई होता है तो उससे मांसाहारी द्वेष करते हैं।_ *अश्वमेध, गोमेध और नरमेध का अर्थ महर्षि दयानन्द के शब्दों में―*राजा न्याय धर्म से प्रजा का पालन करे, विद्या आदि दान देने हारा यजमान और अग्नि में घी आदि का होम करना अश्वमेध, अन्न इन्द्रियां किरण पृथ्वी आदि को पवित्र रखना गोमेध, जब मनुष्य मर जाए तब उसके शरीर का विधि पूर्वक दाह करना नरमेध कहाता है।
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22-02-2023
● स्वामी दयानन्द सरस्वती और प्रो० मैक्समूलर ● - भावेश मेरजा (1) स्वामी दयानन्द सरस्वती के जीवन चरित्र में मैक्समूलर के सम्बन्ध में उल्लेख पाया जाता है । जैसे कि – मैक्समूलर के वैदिक ज्ञान की चर्चा चलने पर स्वामी जी ने बताया कि - "यह जर्मन् विद्वान् (मैक्समूलर) इस (वैदिक ज्ञान के) क्षेत्र में तो अभी बालक ही है । जब तक वेदों का कोई पारगामी विद्वान् उसका गुरु बन कर बोध नहीं करायेगा, तब तक वेदार्थ में वह सायण, महीधर आदि मध्य कालीन याज्ञिक भाष्यकारों का ही अन्धानुकरण करता रहेगा ।" (सन्दर्भ ग्रन्थ : ‘नवजागरण का पुरोधा दयानन्द सरस्वती’, लेखक : डॉ० भवानीलाल भारतीय, प्रथम संस्करण, पृष्ठ 319) (2) सत्यार्थ प्रकाश के 11वें समुल्लास में भी स्वामी जी ने मैक्समूलर के वेदार्थ सम्बन्धी ज्ञान के बारे में टिप्पणी करते हुए लिखा है - "जो लोग कहते हैं कि - जर्मनी देश में संस्कृत विद्या का बहुत प्रचार है और जितना संस्कृत मोक्षमूलर साहब पढ़े हैं उतना कोई नहीं पढ़ा । यह बात कहनेमात्र है क्योंकि ‘यस्मिन्देशे द्रुमो नास्ति तत्रैरण्डोऽपि द्रुमायते’ अर्थात् जिस देश में कोई वृक्ष नहीं होता उस देश में एरण्ड ही को बड़ा वृक्ष मान लेते हैं । वैसे ही यूरोप देश में संस्कृत विद्या का प्रचार न होने से जर्मन लोगों और मोक्षमूलर साहब ने थोड़ा-सा पढ़ा वही उस देश के लिये अधिक है। परन्तु आर्यावर्त्त देश की ओर देखें तो उनकी बहुत न्यून गणना है । क्योंकि मैंने जर्मनी देशनिवासी के एक प्रिन्सिपल के पत्र से जाना कि जर्मनी देश में संस्कृत चिट्ठी का अर्थ करनेवाले भी बहुत कम हैं । और मोक्षमूलर साहब के संस्कृत साहित्य और थोड़ी-सी वेद की व्याख्या देखकर मुझको विदित होता है कि मोक्षमूलर साहब ने इधर उधर आर्यावर्त्तीय लोगों की की हुई टीका देखकर कुछ-कुछ यथा तथा लिखा है । जैसा कि - 'युञ्जन्ति ब्रध्नमरुषं चरन्तं परि तस्थुषः । रोचन्ते रोचना दिवि ॥' इस मन्त्र का अर्थ घोड़ा किया है । इस से तो जो सायणाचार्य ने सूर्य अर्थ किया है सो अच्छा है । परन्तु इसका ठीक अर्थ परमात्मा है सो मेरी बनाई ‘ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका’ में देख लीजिये । उसमें इस मन्त्र का अर्थ यथार्थ किया है । इतने से जान लीजिये कि जर्मनी देश और मोक्षमूलर साहब में संस्कृत विद्या का कितना पाण्डित्य है ।" (3) मैक्समूलर स्वामी जी के वेद-भाष्य (जो प्रथम मासिक रूप में प्रकाशित होता था) के ग्राहक थे । स्वामी जी ने भी मैक्समूलर के ग्रन्थ देखे थे । स्वामी जी स्वयं अन्ग्रेजी नहीं जानते थे, फिर भी यह जानने का प्रयास करते थे कि मैक्समूलर आदि पाश्चात्य विद्वान् वेद तथा वेदार्थ के सन्बन्ध में कैसी धारणा रखते हैं । वे दोनों कभी नहीं मिले, परन्तु लगता है कि दोनों एक-दूसरे के बारे में जानने की चाह अवश्य रखते थे । स्वामी दयानन्द अपने ग्रन्थों में मैक्समूलर का नाम भारतीय ढंग से ‘भट्ट मोक्षमूलर’ लिखते थे ! स्वामी जी ने अपने 'ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका' तथा वेदभाष्य आदि ग्रन्थों में मैक्समूलर द्वारा किए गए वेदार्थ की कई स्थानों पर आलोचना करते हुए उनके द्वारा की गई वेद-व्याख्या को अप्रामाणिक दर्शाया है । (4) पण्डित लेखराम जी आर्य मुसाफ़िर संगृहीत स्वामी जी के जीवन चरित्र में लिखा है – “बम्बई में ही मैक्समूलर साहब की इस विषय की चिट्ठी जर्मनी से आई थी कि यदि आप यहां आवे तो बहुत बड़ी कृपा होगी और वहां के धन्य भाग्य है जहां आपने जन्म लिया है, आदि आदि । स्वामी जी ने उत्तर में लिखा था कि मेरी इच्छा आने की अवश्य थी, परन्तु यहां के लोग अभी मुझे नास्तिक कहते हैं । जब तक मैं इस देश को अच्छी प्रकार न बतला दूं कि मैं कैसा नास्तिक हूं, तब तक नहीं आ सकता । जब मैक्समूलर साहब की चिट्ठी आई थी तब वहां के भाटियों ने अपने जहाज पर ले जाने का वचन भी दिया था, परन्तु स्वामी जी स्वयं न गये ।” (पृष्ठ 272, संस्करण 2046 वि० सम्वत्) (5) मैक्समूलर ने ‘इण्डिया वॉट केन इट टिच अस?’ तथा ‘बायोग्राफिकल ऐसेज़’ आदि ग्रन्थों में स्वामी जी, उनकी 'ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका' तथा उनके वेद वेषयक मन्तव्यों के सम्बन्ध में टिप्पणी की है । कई आर्य विद्वानों का मत है कि स्वामी दयानन्द के 'ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका' ग्रन्थ पढ़ने के बाद मैक्समूलर के वेद विषयक मन्तव्यों में पर्याप्य सुधार व परिवर्तन आया था ।
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22-02-2023
मातृभाषा को मात्र भाषा ना समझें. नहीं तो मातृभाषा को मृत भाषा बनने से कोई नहीं रोक सकता. ---------- 1- अफ्रिका महाद्वीप - 46 पिछडे देश 21 देश फ्रांसीसी में सीखते हैं। 18 देश अंग्रेज़ी में सीखते हैं।, 5 देश पुर्तगाली में सीखते हैं।, 2 देश स्पेनिश में सीखते हैं।, उन देशों के लिए ये सारी परदेशी भाषाएँ हैं। उनपर शासन करने वालों की भाषाएँ. इनमें से कितने देश आगे बढे हैं? शून्य ---------- 2- जापान दुनिया की 6 भाषाओं से शोधपत्र (रिसर्च पेपर)का अनुवाद जर्मन, फ्रांसीसी, रूसी, अंग्रेज़ी, स्पेनिश और डच भाषाओं से शोधपत्रों का जापानी में अनुवाद करवाते है। , जापानी भाषा में मात्र 3 सप्ताह में प्रकाशित किया जाता है। अनुवाद छापकर जापानी विशेषज्ञों को मूल कीमत से भी सस्ते मूल्य पर बेचे जाते हैं. जापान की उन्नति का कोई प्रमाण देने की जरूरत नहीं. --------------------------- 3- पाकिस्तान - आपको जानकार आश्चर्य होगा कि पाकिस्तान की अपनी भाषा क्या है यह आज भी विवाद का विषय है. सरकारी कामकाज + उच्च शिक्षा - अंग्रेजी संसद की भाषा + मिडिया की भाषा -- उर्दू घर की भाषा- पंजाबी, सिन्धी, बलोच आदि. 1947 से पहले पाकिस्तान के किसी भी हिस्से की मुख्य भाषा उर्दू नहीं थी. बंग्लादेश बनने का मुख्य कारण बंगाली को हटा कर उर्दू लादना था। पाकिस्तान के हालत -- 60 % पाकिस्तान में पीने लायक पानी नहीं. 25% पाकिस्तान इतना अधिक अशान्त है कि वहां पाकिस्तान का प्रधानमन्त्री भी नहीं जा सकता. आज भी पाकिस्तान जनमानस अपनी मातृभाषा पंजाबी, सिन्धी, पश्तो और बलोच से नफरत करता है। बंग्लादेश भी उससे बहुत आगे निकल चुका है। ---- 4--इजरायल देश से आप परिचित ही हैं जो द्वितीय विश्व युद्ध के बाद 1948 में विश्व भर में फैले यहूदियों को एक स्थान पर बसाने के लिए बनाया गया। आज वहाँ की मुख्य राजभाषा हिब्रू है और सहयोगी भाषाएँ अँग्रेजी एवं अरबी हैं। अँग्रेजी और अरबी तो आज विश्व के अनेक देशों में बोली जाती हैं, पर हिब्रू ऐसी भाषा है जो दुनिया के नक़्शे से लगभग गायब ही हो गई थी। इसके बावजूद यदि आज वह जीवित है और एक देश की राजभाषा के प्रतिष्ठित पद पर आसीन है • दुनिया में प्रति व्यक्ति पेटेंट कराने वालों में इजरायलियों का स्थान पहला है. इजरायल की जनसंख्या न्यूयॉर्क की आधी जनसंख्या के बराबर है. इजराइल का कुल क्षेत्रफल इतना है कि तीन इजराइल मिल कर भी राजस्थान जितना नहीं हो सकते. इजरायल दुनिया का इकलौता ऐसा देश है, जो समूचा एंटी बैलिस्टिक मिसाइल डिफेंस सिस्टम से लैस है. इजरायल के किसी भी हिस्से में रॉकेट दागने का मतलब है मौत. इजरायल की ओर जाने वाला हर मिसाइल रास्ते में ही दम तोड़ देता है. इजरायल अपने जन्म से अब तक 7 बड़ी व अनेकों छोटी लड़ाइयां लड़ चुका है. जिसमें अधिकतम में उसने जीत हासिल की है. इजरायल दुनिया में जीडीपी के प्रतिशत के मामले में सर्वाधिक खर्च रक्षा क्षेत्र पर करता है इजरायल के कृषि उत्पादों में 25 साल में सात गुणा बढ़ोतरी हुई है, जबकि पानी का इस्तेमाल जितना किया जाता था, उतना ही अब भी किया जा रहा है. इजरायल अपनी जरुरत का 93 प्रतिशत खाद्य पदार्थ खुद पैदा करता है. खाद्यान्न के मामले में इजरायल लगभग आत्मनिर्भर है. एक भाषा से एकता का उदाहरण है इजरायल . ------------------ 5-राष्ट्र भाषा और महर्षि दयानन्द -- भारतवर्ष के इतिहास में महर्षि दयानन्द पहले व्यक्ति हैं जिन्होंने अहिन्दी भाषी गुजराती होते हुए पराधीन भारत में सबसे पहले राष्ट्रीय एकता एवं अखण्डता के लिए हिन्दी को सर्वाधिक महत्वपूर्ण जानकर मन, वचन व कर्म से इसका प्रचार-प्रसार किया। दिसम्बर, 1872 को स्वामीजी वैदिक मान्यताओं के प्रचारार्थ भारत की तत्कालीन राजधानी कलकत्ता पहुंचे थे और वहां उन्होंनें अनेक सभाओं में व्याख्यान दिये। ऐसी ही एक सभा में स्वामी दयानन्द के संस्कृत भाषण का बंगला में अनुवाद गवर्नमेन्ट संस्कृत कालेज, कलकत्ता के उपाचार्य पं. महेशचन्द्र न्यायरत्न कर रहे थे। दुभाषिये वा अनुवादक का धर्म वक्ता के आशय को स्पष्ट करना होता है परन्तु श्री न्यायरत्न महाशय ने स्वामी जी के वक्तव्य को अनेक स्थानों पर व्याख्यान को अनुदित न कर अपनी उनसे विपरीत मान्यताओं को सम्मिलित कर वक्ता के आशय के विपरीत प्रकट किया जिससे व्याख्यान में उपस्थित संस्कृत कालेज के छात्रों ने उनका विरोघ किया। विरोध के कारण श्री न्यायरत्न बीच में ही सभा छोड़कर चले गये थे। प्रसिद्ध ब्रह्मसमाजी नेता श्री केशवचन्द्र सेन भी इस सभा में उपस्थित थे। बाद में इस घटना का विवेचन कर उन्होंने स्वामी जी को सुझाव दिया कि वह संस्कृत के स्थान पर लोकभाषा हिन्दी को अपनायें। गुण ग्राहक स्वाभाव वाले स्वामी दयानन्द जी ने तत्काल यह सुझाव स्वीकार कर लिया। यह दिन हिन्दी के इतिहास की एक प्रमुख घटना थी कि जब एक 48 वर्षीय गुजराती मातृभाषा के संस्कृत के अद्वितीय विद्वान ने हिन्दी को अपना लिया। ऐसा दूसरा उदाहरण इतिहास में अनुपलब्ध है। इसके बाद स्वामी दयानन्द जी ने जो प्रवचन किए उनमें वह हिन्दी का ही प्रयोग करने लगे। थियोसोफिकल सोसासयटी की नेत्री मैडम बैलेवेटेस्की ने स्वामी दयानन्द से उनके ग्रन्थों के अंग्रेजी अनुवाद की अनुमति मांगी तो स्वामी दयानन्द जी ने 31 जुलाई 1879 को विस्तृत पत्र लिख कर उन्हें अनुवाद से हिन्दी के प्रचार-प्रसार एवं प्रगति में आने वाली बाधाओं से परिचित कराया। स्वामी जी ने लिखा कि अंग्रेजी अनुवाद सुलभ होने पर देश-विदेश में जो लोग उनके ग्रन्थों को समझने के लिए संस्कृत व हिन्दी का अध्ययन कर रहे हैं, वह समाप्त हो जायेगा। हिन्दी के इतिहास में शायद कोई विरला ही व्यक्ति होगा जिसने अपनी हिन्दी पुस्तकों का अनुवाद इसलिए नहीं होने दिया जिससे अनुदित पुस्तक के पाठक हिन्दी सीखने से विरत होकर हिन्दी प्रसार में बाधक हो सकते थे। हरिद्वार में एक बार व्याख्यान देते समय पंजाब के एक श्रद्धालु भक्त द्वारा स्वामीजी से उनकी पुस्तकों का उर्दू में अनुवाद कराने की प्रार्थना करने पर उन्होंने आवेश पूर्ण शब्दों में कहा था कि अनुवाद तो विदेशियों के लिए हुआ करता है। देवनागरी के अक्षर सरल होने से थोड़े ही दिनों में सीखे जा सकते हैं। हिन्दी भाषा भी सरल होने से आसानी से कुछ ही समय में सीखी जा सकती है। हिन्दी न जानने वाले एवं इसे सीखने का प्रयत्न न करने वालों से उन्होंने पूछा कि जो व्यक्ति इस देश में उत्पन्न होकर यहां की भाषा हिन्दी को सीखने में परिश्रम नहीं करता उससे और क्या आशा की जा सकती है? ---------------------------------------- आज जरूरत है भाषा गौरव जगाने की
आदर्श राष्ट्र (Vedic vichar)
22-02-2023
आ ब्रह्मन् ब्राह्मणो ब्रह्मवर्चसी जायतामाराष्ट्रे राजन्यः शूर इषव्योऽतिव्याधी महारथो जायतां दोग्ध्री धेनुर्वोढानड्वानाशुः सप्तिः पुरन्धिर्योषा जिष्णू रथेष्ठाः सभेयो युवास्य यजमानस्य वीरो जायतां निकामे निकामे नः पर्जन्यो वर्षतु फलवत्यो न ओषधयः पच्यन्तां योगक्षेमो नः कल्पताम् ।।-(यजु० २२/२२) इस मन्त्र में एक आदर्श राष्ट्र का वर्णन है।हमारा राष्ट्र कैसा हो? हे महतो महान् परमेश्वर ! (1) हमारे राष्ट्र में ब्राह्मण ब्रह्मतेज से युक्त हों, वे ज्ञान-दीप्ति से दीप्त हों। ब्राह्मण कौन है? ब्राह्मण के घर में उत्पन्न होने वाले को ब्राह्मण नहीं कह सकते। ब्राह्मण बनता है साधना से। ब्राह्मण नाम है उन ऋषियों, मुनियों और मेधावियों का जो राष्ट्र को सन्मार्ग दिखाते हैं।सच्चे ब्राह्मण ही 'अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि' कर सकते हैं। (2) क्षत्रीय शूरवीर,शस्त्रास्त्र चलाने में निपुण, शत्रुओं को उद्विग्न करने वाले और महारथी हों। आन्तरिक और वाह्य शत्रुओं से युद्ध करने के लिए तथा देश की रक्षा के लिए राष्ट्र में क्षत्रिय वीर हों। (3) प्रभूत दूध देने वाली गौएँ हों।देश के नागरिकों को स्वस्थ हृष्ट-पुष्ट और बलिष्ठ बनाने के लिए राष्ट्र में गौएँ होनी चाहिएँ। जो राष्ट्र गो-दुग्ध और गो-दुग्ध से बने पदार्थों का सेवन करते हैं वे प्रत्येक क्षेत्र में उन्नति करते हैं। (4) बैल भार उठाने वाले हों। (5) घोड़े शीघ्रगामी हों। (6) स्त्रियाँ नगर की रक्षिका हों। (7) इस यज्ञशील राष्ट्र का युवक सभा-सञ्चालन में कुशल, विजयशील, वीर और महारथी हो। भारतमाता के नौनिहालों को, युवक और युवतियों को इन उपदेशों को हृदयंगम कर लेना चाहिए। राष्ट्र-रक्षा का उत्तरदायित्व देश के युवक और युवतियों पर ही निर्भर है। (???? हमारी इच्छानुसार वृष्टि हो। (9) ओषधियाँ हमारे लिए फलवती होकर पकें। (10) हमारा योग-क्षेम सिद्ध हो।अप्राप्त की प्राप्ति का नाम है योग और प्राप्त वस्तु के रक्षण को क्षेम कहते हैं। भाव यह है कि राष्ट्र की आवश्यकताएँ सुगमता से पूर्ण होती रहें। आदर्श राष्ट्र के लिए यहाँ दस बातें कही गई हैं। सारे संसार के साहित्य को देख जाइए। आदर्श राष्ट्र की इससे सुन्दर,भव्य, और श्रेष्ठ कल्पना हो ही नहीं सकती।
What is great about Indian History? (Vedic vichar)
22-02-2023
Indian civilization is the greatest civilization in the World’s History. India in past was glorified with its rich heritage and culture. No doubt India was the world teacher for centuries. Today western scholars are not interested in giving its credit to India. Many of them describes Indian race as barbaric and uncivilized race. This is a planned conspiracy to defame our country. Still many unbiased scholars praised our contribution towards the world learning. Here are few of the reviews. On Glory of Vedas Albert Einstein, American scientist: "We owe a lot to the Indians, who taught us how to count, without which no worthwhile scientific discovery could have been made." Will Durant, American historian: "India was the motherland of our race, and Sanskrit the mother of Europe's languages: she was the mother of our philosophy; mother, through the Arabs, of much of our mathematics". Mark Twain, American author: " Our most valuable and most instructive materials in the history of man are treasured up in India only." Henry David Thoreau, American Thinker & Author:" Whenever I have read any part of the Vedas, I have felt that some unearthly and unknown light illuminated me. In the great teaching of the Vedas, there is no touch of sectarianism. It is of all ages, climbs, and nationalities and is the royal road for the attainment of the Great Knowledge. When I read it, I feel that I am under the spangled heavens of a summer night." R.W. Emerson, American Author:" In the great books of India, an empire spoke to us, nothing small or unworthy, but large, serene, consistent, the voice of an old intelligence, which in another age and climate had pondered and thus disposed of the questions that exercise us." William James, American Author: "From the Vedas we learn a practical art of surgery, medicine, music, house building under which mechanized art is included. They are encyclopedia of every aspect of life, culture, religion, science, ethics, law, cosmology and meteorology." Hu Shih, former Ambassador of China to USA: "India conquered and dominated China culturally for 20 centuries without ever having to send a single soldier across her border." On the Vedas and Upanishads Books: Max Muller, German Scholar: "There is no book in the world that is so thrilling, stirring and inspiring as the Upanishads." ('Sacred Books of the East') Emmelin Plunret: "They were very advanced Hindu astronomers in 6000 because. Vedas contain an account of the dimension of Earth, Sun, Moon, Planets and Galaxies." ('Calendars and Constellations') Schopenhauer: "Vedas are the most rewarding and the most elevating book which can be possible in the world." (Works VI P.427) Wheeler Wilcox: "India - The land of Vedas, the remarkable works contain not only religious ideas for a perfect life, but also facts which science has proved true. Electricity, radium, electronics, airship, all were known to the seers who founded the Vedas." B.G. Rele: "Our present knowledge of the nervous system fits in so accurately with the internal description of the human body given in the Vedas (5000 years ago). Then the question arises whether the Vedas are really religious books or books on anatomy of the nervous system and medicine." ('The Vedic Gods') On Sanskrit: Sir William Jones, British Orientalist: "The Sanskrit language, whatever be its antiquity is of wonderful structure, more perfect than the Greek, more copious than the Latin and more exquisitely refined than either." Professor Leonard Bloomfield (1887-1949) of Chicago University holds that Sanskrit language specially the scientific basis of its grammar is "one of the greatest monuments of human intelligence." William Humboldt of Germany is of opinion that language cannot be created artificially, it is the manifestation of power and divinity in man. We must feel pride on our Rich Heritage and Culture.
Vedic vichar
22-02-2023
स्वामी श्रद्धानन्द जी का हिंदी प्रेम (विश्व मातृभाषा दिवस 21 फरवरी पर विशेष रूप से प्रचारित) स्वामी श्रद्धानन्द जी के महाराज के हिंदी प्रेम जगजाहिर था। आप जीवन भर स्वामी दयानंद के इस विचार को की सम्पूर्ण देश को हिंदी भाषा के माध्यम से एक सूत्र में पिरोया जा सकता हैं सार्थक रूप से क्रियान्वित करने में अग्रसर रहे। सभी जानते हैं की स्वामी जी ने कैसे एक रात में उर्दू में निकलने वाले सद्धर्म प्रचारक अख़बार को हिंदी में निकालना आरम्भ कर दिया था जबकि सभी ने उन्हें समझाया की हिंदी को लोग भी पढ़ना नहीं जानते और अख़बार को घाटा होगा। मगर वह नहीं माने। अख़बार को घाटे में चलाया मगर सद्धर्म प्रचारक को पढ़ने के लिए अनेक लोगों ने विशेषकर उत्तर भारत में देवनागरी लिपि को सीखा। यह स्वामी जी ने तप और संघर्ष का परिणाम था। स्वामी जी द्वारा 1913 में भागलपुर में हुए हिंदी सहित्य सम्मेलन में अध्यक्ष पद से जो भाषण दिया गया था उसमें उनका हिंदी प्रेम स्पष्ट झलकता था। स्वामी जी लिखते हैं मैं सन 1911 में दिल्ली के शाही दरबार में सद्धर्म प्रचारक के संपादक के अधिकार से शामिल हुआ था। मैंने प्रेस कैंप में ही डेरा डाला था। मद्रास के एक मशहूर दैनिक के संपादक महोदय से एक दिन मेरी बातचीत हुई। उन सज्जन का आग्रह था कि अंग्रेजी ही हमारी राष्ट्रभाषा बन सकती हैं। अंग्रेजी ने ही इन्डिन नेशनल कांग्रेस को संभव बनाया हैं, इसीलिए उसी को राष्ट्रभाषा बनाना चाहिए। जब मैंने संस्कृत की ज्येष्ठ पुत्री आर्यभाषा (हिंदी) का नाम लिया तो उन्होंने मेरी समझ पर हैरानी प्रकट की। उन्होंने कहा कि कौन शिक्षित पुरुष आपकी बात मानेगा? दूसरे दिन वे कहार को भंगी समझ कर अपनी अंग्रेजीनुमा तमिल में उसे सफाई करने की आज्ञा दे रहे थे। कहार कभी लोटा लाता कभी उनकी धोती की तरफ दौड़ता। उसकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था। मिस्टर एडिटर खिसियाते जाते। इतने में ही मैं उधर से गुजरा। वे भागते हुए मेरे पास आये और बोले "यह मुर्ख मेरी बात नहीं समझता" इसे समझा दीजिये की जल्दी से शौचालय साफ़ कर दे। मैंने हंसकर कहा - "अपनी प्यारी राष्ट्रभाषा में ही समझाइए।" इस पर वे शर्मिंदा हुए। मैंने कहार को मेहतर बुलाने के लिए भेज दिया। किन्तु एडिटर महोदय ने इसके बाद मुझसे आंख नहीं मिलाई। भागलपुर आते हुए मैं लखनऊ रुका था। वहां श्रीमान जेम्स मेस्टन के यहाँ मेरी डॉ फिशर से भेंट हुई थी। वे बड़े प्रसिद्द शिक्षाविद और कैंब्रिज विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर हैं, भारतवर्ष में पब्लिक सर्विस कमीशन के सदस्य बनकर आये थे। उन्होंने कहां कि मैंने अपने जीवन में सैकड़ों भारतीय विद्यार्थियों को पढ़ाया हैं। वे कठिन से कठिन विषय में अंग्रेज विद्यार्थियों का मुकाबला कर सकते हैं, परन्तु स्वतंत्र विचार शक्ति उनमें नहीं हैं। उन्होंने मुझसे इसका कारण पूछा। मैंने कहा की यदि आप मेरे गुरुकुल चले तो इसका कारण प्रत्यक्ष दिखा सकता हूँ, कहने से क्या लाभ? जब तक शिक्षा का माध्यम मातृभाषा नहीं होगी, तब तक इस अभागे देश के छात्रों में स्वतंत्र और मौलिक चिंतन की शक्ति कैसे पैदा होगी ? (100 वर्ष पहले दिए गए विचार आज भी कितने प्रसांगिक और यथार्थ हैं पाठक स्वयं अवगत हैं)
श्रीमदभग्वदगीता का वैदिक उपदेश (Vedic vichar)
22-02-2023
ईश्वर का स्वरूप :- • सर्वतः पाणिपादं तत्सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम् । सर्वतः श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति ।। ( 13/13 ) ईश्वर सर्वव्यापक है । सब ओर उसके हाथ पैर हैं । वह सब जगह देखता और सुनता है । • अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्मुच्यते । भूतभावादोभ्दवकरो विसर्गः कर्मसंज्ञितः ।। (8/3) ईश्वर जन्म और मृत्यु से परे है । वह अवतार नहीं लेता । • बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च । सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञेयं दूरस्थं चान्तिके च तत् ।। (13/15) ईश्वर अत्यन्तसूक्ष्म होने से बाहर की आँख आदि इन्द्रियों से जानने योग्य नहीं है । ईश्वर न आता है न ही कहीं जाता है । क्योंकि वह दूर तथा पास स्थानों पर विद्यमान है, वह निराकार होने से दिखाई नहीं देता । • यया धर्ममधर्म च कार्य चाकार्यमेव च । अयाथावत्प्रजानाति बुद्धिः सा पार्थ राजसी ।। ( 18/13 ) हे अर्जुण ! यदि तूँ इस निराकार अत्यन्त सूक्ष्म और सर्वव्यापक ईश्वर को जानना चाहता है तो अपने हृदय में ही ध्यान करके जान सकता है, क्योंकि वह बाहर नहीं मिल सकता । वह वहीं मिलता है जहाँ आत्मा भी हो, दोनों का वास हृदय में ही है बाहर नहीं । • ईश्वर सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति । भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारुढानि मायया ।। (18/61) हे अर्जुण ! वह परमात्मा ही व्याप्त होकर अपनी निराकार शक्तियों से इस संसार को यन्त्र के समान चलाता है । • तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत । तत्प्रसादात्परां शान्तिस्थानं प्राप्स्यसिशाश्वतम् ।। (18/62) हे अर्जुण ! उसी निराकार सर्वव्यापक संसार को बनाने तथा चलाने वाले की शरण में पूर्ण भावना सहित जा । उसकी शरण में जाने से सर्वोत्तम शांती तथा शाश्वत सुख मिल सकता है । ( तमेव शब्द सिद्ध करता है कि कृष्ण ईश्वर से भिन्न हैं )
हम सब ऋणी. (Vedic vichar)
22-02-2023
-डॉ० राजेन्द्रप्रसाद [भारत के प्रथम राष्ट्रपति] स्वामी दयानन्द की सबसे बड़ी विशेषता उनकी दूरदर्शिता थी। यह देखकर आश्चर्य होता है कि विदेशी शासन के विरोध में सक्रिय संघर्ष के समय जिन बातों पर महात्मा गांधी ने अधिक बल दिया और उन्हें रचनात्मक कार्य की संज्ञा दी, प्रायः वे सभी काम स्वामी दयानन्द के कार्यक्रम में ५० वर्ष पूर्व शामिल थे। देश भर के लिए एक सामान्य भाषा की आवश्यकता स्वामी दयानन्द ने महसूस की और हिन्दी को ही राष्ट्र अथवा आर्य भाषा होने के योग्य माना। इसके अतिरिक्त अछूतोद्धार, स्त्री शिक्षा, हाथ के बने कपड़े अथवा स्वदेशी का प्रयोग इत्यादि बातों पर भी उन्होंने काफी बल दिया और वे स्वयं भी जीवन भर इन बातों पर पूरा अमल करते रहे। उनकी कृतियों और उपदेशों से यह बात भी स्पष्ट हो जाती है कि वे विचारों से राष्ट्रवादी थे और विदेशी शासन के स्थान पर स्वराज्य अथवा भारतीयों के ही राज्य का स्वप्न देखते थे। समाज सेवा के क्षेत्र में स्वामी दयानन्द और आर्यसमाज ने जो कार्य किया उसके महत्व से इन्कार नहीं किया जा सकता। उस कार्य के लिए और देश को जो उससे लाभ पहुंचा उसके लिए हम सब स्वामी दयानन्द के ऋणी हैं। [स्त्रोत- 'सार्वदेशिक' (साप्ताहिक) : सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा दिल्ली का मुख पत्र का ३० अगस्त - ६ सितम्बर, १९६६ का वेद कथा विशेषांक; प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ]
धर्म के नाम पर ठगी का धंधा (Vedic vichar)
22-02-2023
(हमारे देश में साधुओं के नाम पर मुफ्तखोरों की फौज बढ़ती जाती है। स्वामी दयानन्द इन मुफ्तखोरों के प्रबल विरोधी थे। स्वामी जी चाहते थे की गृहस्थ आदि इन सन्यासी के वस्त्र धारण करने वाले ठगों से बचे। सत्यार्थ प्रकाश के 11 समुल्लास में इनकी ठगी की पोल स्वामी जी एक कहानी के माध्यम से देते है। संभवतः उन्होंने अपने जीवन में ऐसा होता यथार्थ रूप में देखा था। आज भी यह ठगी का धंधा चल रहा है। आओ हिन्दू समाज की इन ठगों से रक्षा करे। स्वामी दयानन्द इन ठगों को सम्बोधित करते हुए लिखते है-- "देखो! तुम्हारे सामने पाखण्ड मत बढ़ते जाते हैं, ईसाई, मुसलमान तक होते जाते हैं। तनिक भी तुम से अपने घर की रक्षा और दूसरों का मिलाना नहीं बन सकता। बने तो तब जब तुम करना चाहो! जब लों वर्त्तमान और भविष्यत् में संन्यासी उन्नतिशील नहीं होते तब लों आर्य्यावर्त्त और अन्य देशस्थ मनुष्यों की वृद्धि नहीं होती। जब वृद्धि के कारण वेदादि सत्यशास्त्रें का पठनपाठन, ब्रह्मचर्य्य आदि आश्रमों के यथावत् अनुष्ठान सत्योपदेश होते हैं तभी देशोन्नति होती है। चेत रक्खो! बहुत सी पाखण्ड की बातें तुम को सचमुच दीख पड़ती हैं। जैसे कोई साधु, दुकानदार पुत्रदि देने की सिद्धियां बतलाता है। तब उस के पास बहुत स्त्री जाती हैं और हाथ जोड़कर पुत्र मांगती हैं। और बाबा जी सब को पुत्र होने का आशीर्वाद देता है। उन में से जिस-जिस के पुत्र होता है वह-वह समझती हैं कि बाबा जी के वचन से ऐसा हुआ। जब उन से कोई पूछे कि सूअरी, कुत्ती, गधी और कुक्कुटी आदि के कच्चे बच्चे किस बाबा जी के वचन से होते हैं? तब कुछ भी उत्तर न दे सकेंगी! जो कोई कहे कि मैं लड़के को जीता रख सकता हूं तो आप ही क्यों मर जाता है?" कितने ही धूर्त्त लोग ऐसी माया रचते हैं कि बड़े-बड़े बुद्धिमान् भी धोखा खा जाते हैं, जैसे धनसारी के ठग। ये लोग पांच सात मिल के दूर-दूर देश में जाते हैं। जो शरीर से डौलडाल में अच्छा होता है उस को सिद्ध बना लेते हैं। जिस नगर वा ग्राम में धनाढ्य होते हैं उस के समीप जंगल में उस सिद्ध को बैठाते हैं। उसके साधक नगर में जाके अजान बनके जिस किसी को पूछते हैं-‘तुम ने ऐसे महात्मा को यहां कहीं देखा वा नहीं? वे ऐसा सुनकर पूछते हैं कि वह महात्मा कौन और कैसा है? साधक कहता है-बड़ा सिद्ध पुरुष है। मन की बातें बतला देता है। जो मुख से कहता है वह हो जाता है। बड़ा योगीराज है, उसके दर्शन के लिए हम अपने घर द्वार छोड़कर देखते फिरते हैं। मैंने किसी से सुना था कि वे महात्मा इधर की ओर आये हैं। गृहस्थ कहता है-जब वह महात्मा तुम को मिले तो हम को भी कहना। दर्शन करेंगे और मन की बातें पूछेंगे। इसी प्रकार दिन भर नगर में फिरते और प्रत्येक को उस सिद्ध की बात कहकर रात्रि को इकट्ठे सिद्ध साधक होकर खाते पीते और सो रहते हैं। फिर भी प्रातःकाल नगर वा ग्राम में जाके उसी प्रकार दो तीन दिन कहकर फिर चारों साधक किसी एक-एक धनाढ्य से बोलते हैं कि वह महात्मा मिल गये। तुम को दर्शन करना हो तो चलो। वे जब तैय्यार होते हैं तब साधक उन से पूछते हैं कि तुम क्या बात पूछना चाहते हो? हम से कहो। कोई पुत्र की इच्छा करता, कोई धन की, कोई रोग-निवारण की और कोई शत्रु के जीतने की। उन को वे साधक ले जाते हैं। सिद्ध साधकों ने जैसा संकेत किया होता है अर्थात् जिस को धन की इच्छा हो उस को दाहिनी, और जिस को पुत्र की इच्छा हो उसको सम्मुख, और जिस को रोग-निवारण की इच्छा हो उस को बाईं ओर और जिस को शत्रु जीतने की इच्छा हो उस को पीछे से ले जा के सामने वाले के बीच में बैठाते हैं। जब नमस्कार करते हैं उसी समय वह सिद्ध अपनी सिद्धाई की झपट से उच्च स्वर से बोलता है-‘क्या यहां हमारे पास पुत्र रक्खे हैं जो तू पुत्र की इच्छा करके आया है? इसी प्रकार धन की इच्छा वाले से ‘क्या यहां थैलियां रक्खी हैं जो धन की इच्छा करके आया है? ‘फकीरों के पास धन कहां धरा है? ’ रोगवाले से ‘क्या हम वैद्य हैं जो तू रोग छुड़ाने की इच्छा से आया? हम वैद्य नहीं जो तेरा रोग छुड़ावें; जा किसी वैद्य के पास’ परन्तु जब उस का पिता रोगी हो तो उस का साधक अंगूठा; जो माता रोगी हो तो तर्जनी; जो भाई रोगी हो मध्यमा, जो स्त्री रोगी हो तो अनामिका; जो कन्या रोगी हो तो कनिष्ठिका अंगुली चला देता है। उस को देख वह सिद्ध कहता है कि तेरा पिता रोगी है। तेरी माता, तेरा भाई, तेरी स्त्री, और तेरी कन्या रोगी है। तब तो वे चारों के चारों बड़े मोहित हो जाते हैं। साधक लोग उन से कहते हैं-देखो! हम ने कहा था वैसे ही हैं वा नहीं? गृहस्थ कहते हैं-हां जैसा तुमने कहा था वैसे ही हैं। तुम ने हमारा बड़ा उपकार किया और हमारा भी बड़ा भाग्योदय था जो ऐसे महात्मा मिले। जिस के दर्शन करके हम कृतार्थ हुए। साधक कहता है-सुनो भाई! ये महात्मा मनोगामी हैं। यहां बहुत दिन रहने वाले नहीं। जो कुछ इन का आशीर्वाद लेना हो तो अपनी-अपनी सामर्थ्य के अनुकूल इन की तन, मन, धन से सेवा करो, क्योंकि ‘सेवा से मेवा मिलती है।’ जो किसी पर प्रसन्न हो गये तो जाने क्या वर दे दें। ‘सन्तों की गति अपार है।’ गृहस्थ ऐसे लल्लो-पत्तो की बातें सुनकर बड़े हर्ष से उनकी प्रशंसा करते हुए घर की ओर जाते हैं। साधक भी उनके साथ ही चले जाते हैं क्योंकि मार्ग में कोई उन का पाखण्ड खोल न देवे। उन धनाढ्यों का जो कोई मित्र मिला उस से प्रशंसा करते हैं। इसी प्रकार जो-जो साधकों के साथ जाते हैं उन-उन का वृतान्त सब कह देते हैं। जब नगर में हल्ला मचता है कि अमुक ठौर एक बड़े भारी सिद्ध आये हैं; चलो उन के पास। जब मेला का मेला जाकर बहुत से लोग पूछने लगते हैं कि महाराज! मेरे मन का वृतान्त कहिये। तब तो व्यवस्था के बिगड़ जाने से चुपचाप होकर मौन साध जाता है और कहता है कि हम को बहुत मत सताओ। तब तो झट उसके साधक भी कहने लग जाते हैं जो तुम इन को बहुत सताओगे तो चले जायेंगे और जो कोई बड़ा धनाढ्य होता है वह साधक को अलग बुला कर पूछता है कि हमारे मन की बात कहला दो तो हम सच मानें। साधक ने पूछा कि क्या बात है? धनाढ्य ने उस से कह दी। तब उस को उसी प्रकार के संकेत से ले जा के बैठाल देता है। उसे सिद्ध ने समझ के झट कह दिया, तब तो सब मेला भर ने सुन ली कि अहो ! बड़े ही सिद्ध पुरुष हैं। कोई मिठाई, कोई पैसा, कोई रुपया, कोई अशर्फी, कोई कपड़ा और कोई सीधा सामग्री भेंट करता है। फिर जब तक मानता बहुत सी रही तब तक यथेष्ट लूट करते हैं और किन्हीं-किन्हीं दो एक आंख के अन्धे गांठ के पूरों को पुत्र होने का आशीर्वाद वा राख उठा के दे देता है और उस से सहस्रों रुपये लेकर कह देता है कि तेरी सच्ची भक्ति होगी तो तेरा पुत्र हो जायेगा। इस प्रकार के बहुत से ठग होते हैं जिन को विद्वान् ही परीक्षा कर सकते हैं और कोई नहीं। इसलिए वेदादि विद्या का पढ़ना, सत्संग करना होता है जिस से कोई उस को ठगाई में न फंसा सके। औरों को भी बचा सके क्योंकि मनुष्य का नेत्र विद्या ही है। विना विद्या शिक्षा के ज्ञान नहीं होता। जो बाल्यावस्था से उत्तम शिक्षा पाते हैं वे ही मनुष्य और विद्वान् होते हैं। जिन को कुसंग है वे दुष्ट पापी महा मूर्ख हो कर बड़े दुःख पाते हैं। इसलिये ज्ञान को विशेष कहा है कि जो जानता है वही मानता है। (सन्दर्भ-स्वामी दयानन्द कृत सत्यार्थ प्रकाश- 11 वां समुल्लास) सन्देश- मनुष्य का नेत्र विद्या ही है क्योंकि बिना विद्या के ज्ञान नहीं होता इसलिए वेदादि विद्या को ग्रहण करने के लिए सभी को पुरुषार्थ करना चाहिये।- स्वामी दयानंद
Wonderful was Maharshi Dayanand's magnanimity (Vedic vichar)!
15-02-2023
Fearless, dauntless, Dayanand hated every evil with all the hatred that he could cammand. Hating evil, he hated not its perpetrator. Wonderful was his magnanimity. How often did he save those who wronged him ! He had in his hands the note in which the plot for poisoning him was clearly hinted at. But the Rishi thought it below his dignity to proceed against the culprits. Quietly he tore the note. (The note was written by an Acharya of Gosaen sect and given to Swamiji’s servant who was hired to poison him.) A constable, who admired him, got some one who had troubled the Swami, punished. The Swami did but ill brook the news. (The incident refers to Anupshahar. The name of the constable is Sayyid Mahomed.) At Kashi, a Brahmin gentleman brought to him pudding that had been poisoned. “Eat of it first yourself,” said Dayanand who could see through the things owing to his Yogic powers. The Brahmin refused. With his usual thunder Dayanand fell upon the Brahmin. Half dead was the assassin with fear. His looks grew all pale. “ Let us send for police,” said a friend. But Dayanand “who came to the world to make men free from meshes of ignorance and not to send them to prison,” at once rejected the proposal. (Swamiji’s Life by Lekh Ram, p. 876.) He severly rebuked the members of the Farrukhabad Samaj, for getting their ‘enemies’ punished by a court of law. (same, p. 874.) These are but a few instances of the magnanimity of the mighty master. If we carefully study his life we find it but one great sacrifice. Verily, Dayanand breathed, lived and died for mankind. No wonder then that he blessed them that cursed him, favoured them that did him wrong, laboured to improve them that threw thousands of obstacles in his way. Yes, Dayanand forgets and forgives all personal injuries. A right sort of Hero he— where shall we have his equal in magnanimity ? [Source: Prof. Tarachand Gajra's book "The Life of Swami Dayanand Saraswati," p. 92-93, 1st edn, 1915, Lahore. Presented here by: Bhavesh Merja]
Vedic vichar
15-02-2023
ईश्वर मनुष्यों को अच्छे गुण, कर्म और स्वभाव में प्रवृत करने वाला है एक बार एक आचार्य अपने शिष्यों की कक्षा ले रहे थे। उन्होंने गुरु द्रोणाचार्य का उदाहरण दिया। गुरु द्रोणाचार्य ने एक बार युधिष्ठिर और दुर्योधन की परीक्षा लेने का निश्चय किया। द्रोणाचार्य ने युधिष्ठिर से कहा की जाओ और कहीं से कोई ऐसा मनुष्य खोज कर लाओ जिसमें कोई अच्छाई न हो। द्रोणाचार्य ने फिर दुर्योधन से कहा की जाओ और कहीं से कोई ऐसा व्यक्ति खोज कर लाओ जिसमें कोई बुराई न हो। दोनों को व्यक्ति की खोज करने के लिए एक माह का समय दिया गया। एक माह पश्चात युधिष्ठिर एवं दुर्योधन दोनों गुरु द्रोणाचार्य के पास वापिस आ गए। दोनों अकेले ही वापिस आ गए। द्रोणाचार्य ने युधिष्ठिर से खाली हाथ आने का कारण पूछा। युधिष्ठिर ने विनम्रता से द्रोणाचार्य को उत्तर दिया, "गुरु जी मुझे संसार में कोई ऐसा व्यक्ति नहीं मिला जिसमें कोई न कोई गुण, कोई न कोई अच्छाई न हो। इस सृष्टि में सभी मनुष्यों में कोई न कोई अच्छाई अवश्य हैं। इसलिए मैं ऐसा कोई मनुष्य खोजने में असमर्थ रहा जिसमें कोई अच्छाई न हो। " द्रोणाचार्य ने दुर्योधन से खाली हाथ आने का कारण पूछा। दुर्योधन ने उत्तेजित वाणी से द्रोणाचार्य को उत्तर दिया," गुरु जी मुझे संसार में कोई ऐसा व्यक्ति नहीं मिला जिसमें कोई न कोई दुर्गुण, कोई न कोई बुराई न हो। इस सृष्टि में सभी मनुष्यों में कोई न कोई बुराई अवश्य हैं। इसलिए मैं ऐसा कोई मनुष्य खोजने में असमर्थ रहा जो सभी बुराइयों से मुक्त हो।" आचार्य ने अब अपने शिष्यों से पूछा। एक ही संसार में सभी प्राणियों में युधिष्ठिर सभी प्राणियों में केवल अच्छाई देख पाते हैं और दुर्योधन केवल बुराई देख पाते हैं। इस भेद का कारण बताये? एक बुद्धिमान शिष्य ने उत्तर दिया, "आचार्य जी। इस भेद का मुख्य कारण परीक्षा लेने वाले की मनोवृति, उसकी रुचि और उसका सोच की दिशा हैं। " आचार्य जी ने उत्तर दिया, "बिलकुल ठीक। "व्यक्ति की वृतियां उसके विचारों और कर्मों दोनों पर प्रभाव डालती हैं। इसीलिए वेद मनुष्यों को सात्विक वृत्ति वाला बनाने के लिए ईश्वर से प्रार्थना करने का सन्देश देते हैं। यजुर्वेद 3/36 मंत्र में मनुष्य को सात्विक वृतियों की प्राप्ति के लिए अत्यंत शुद्ध ईश्वर से प्रार्थना करने का सन्देश दिया गया हैं। इस संसार में सबसे उत्तम गुण, कर्म और स्वभाव ईश्वर का है। इसीलिए सभी प्राणी मात्र को सर्वश्रेष्ठ गुण, कर्म और स्वभाव वाले ईश्वर की ही स्तुति, प्रार्थना और उपासना करनी चाहिए। अपनी आत्मा में धारण एवं प्राप्त किया हुआ ईश्वर मनुष्यों को अच्छे गुण, कर्म और स्वभाव में प्रवृत करता हैं। मनुष्यों को जैसी उत्तम प्रार्थना करनी चाहिए वैसा ही पुरुषार्थ उत्तम कर्मों और सदाचरण के लिए भी करना चाहिए।
Vedic vichar
15-02-2023
◼ मतों व सम्प्रदायों में दर्शन का लोप ◼ ✍???? पंडित चमूपति एम॰ए॰ (आर्यसमाज के अग्रिम विद्वान, चिंतक एवं लेखक पंडित चमूपति जी के जन्मदिवस 15 फरवरी 1893 को विशेष रूप से प्रकाशित) आर्य — आप परमात्मा का अस्तित्व मानते हैं ? मौलवी साहब - हाँ । आर्य - जीव तथा प्रकृति के अस्तित्व पर आपका क्या विचार है ? मौलवी — उन्हें भी मानते हैं । आर्य - ईश्वर तथा जीव एवं प्रकृति के अस्तित्व में क्या अन्तर मानते हैं ? मौलवी साहब - ईश्वर का अस्तित्व अपना है ; जीव एवं प्रकृति का अस्तित्व अपना नहीं है , अपितु यह उन्हें ईश्वर ने दिया है । आर्य - ईश्वर ने क्या दिया है ? मौलवी — अस्तित्व । आर्य - क्या इस अस्तित्व के देने से पूर्व आत्मा तथा प्रकृति विद्यमान थे या नहीं ? मौलवी - यदि उनका अस्तित्व होता , तो देने की आवश्यकता क्या थी ? अस्तित्व देने का अर्थ ही यही है कि वे पहले विद्यमान न थे । आर्य — यदि वे थे ही नहीं , तो ईश्वर ने अस्तित्व दिया किसे था ? मौलवी - आत्मा तथा प्रकृति को । आर्य — जिसका अस्तित्व ही न हो , उसे भी कुछ दिया जा सकता है ? लेनेवाला उपस्थित ही नहीं , और देनेवाला दे रहा है , यह नया तर्क है ! मौलवी साहब - ईश्वर अनादि काल से देता आया है । आर्य - बहुत अच्छा ! क्या देता आया है ? मौलवी — अस्तित्व । आर्य - जो वस्तु अनादि काल से दी जाती रही है , वह अनादि है अथवा नहीं ? मौलवी - हाँ ! अस्तित्व अनादि है , तभी तो . ईश्वर अनादि काल से देता आया है । आर्य - आप ईश्वर के अस्तित्व में तथा जीव और प्रकृति के अस्तित्व में कोई अन्तर मानते हैं या दोनों का अस्तित्व एक - सा मानते हैं ? मौलवी - ये दोनों अस्तित्व ( जीव - प्रकृति का तथा ईश्वर का ) विरोधी अस्तित्व हैं । आर्य - अस्तित्व का विरोधी तो अनस्तित्व ( अभाव ) होता है । दो अस्तित्व एक - दूसरे के विरोधी कैसे ? यदि आप विरोध को ही मानते हैं तो परमात्मा को सत् एवं जीव - प्रकृति को असत् मान लीजिये , अथवा इसके उलट मन्तव्य बना लीजिये कि अस्तित्व ....... मौलवी - नहीं । ईश्वर का अस्तित्व अपना है , जीव तथा प्रकृति का अस्तित्व उधार का है । आर्य — यह उधार वाला अस्तित्व कब से उधार मिलने लगा ? मौलवी — अनादि काल से । आर्य - उधार लिया अस्तित्व भी एक गुण है , इसका गुणी चाहिए , क्या यह गुणी अनादि काल से है या नहीं ? मौलवी - उधार अस्तित्व के गुणी जीव तथा प्रकृति हैं और ये जातिरूप से अनादि हैं । आर्य - और ये जातिरूप से अनन्त काल तक रहेंगे ? मौलवी — यह मनुष्य जातिरूप से भी तथा अपने वैयक्तिक रूप में भी अनन्त काल तक रहेंगे । आर्य - क्या अनादि उधारवाले अस्तित्व के गुणी कोई मनुष्य होंगे ? मौलवी — हाँ ! मनुष्य जातिरूप से अनन्त काल तक उधार लिये अस्तित्व का गुणी है । परन्तु हर मनुष्य ऐसा नहीं । आर्य - वह जाति भी कैसी अनादि है जिसका कोई व्यक्ति अनादि न हुआ हो ? क्या अल्लाह तआला ने जाति बनाई या व्यक्ति ? मौलवी - जाति । आर्य - क्या जाति का व्यक्ति के बिना निर्माण सम्भव है ? मौलवी - नहीं । पैदा तो व्यक्ति किये जाते हैं और उनके एकत्रित रूप की कल्पना ‘ जाति ' कहलाती है । आर्य - बहुत अच्छा ! जब खुदा अनादि काल से उत्पन्न करता आया है और जाति की उत्पत्ति व्यक्ति के उत्पन्न किये बिना सम्भव नहीं है , तो व्यक्तियों को अनादि मानिये , उनका अस्तित्व उधार लिया हुआ सही , होंगे तो अनादि ? " मौलवी - हाँ , यह तो मानना पड़ेगा । सनातन उत्पत्ति में कुछ मनुष्यों का उधार लिया अस्तित्व अनादि होगा , नहीं तो अल्लाहतआला की अनादि सृजन - शक्ति समाप्त हो जाएगी । आर्य - जब आप मनुष्यों का अनादित्व , व्यक्ति - रूप से भी मानते हैं , तब तो वे अनादि मनुष्य अनन्त काल तक रहेंगे ? मौलवी - हाँ , हर मनुष्य अनादि है , अनादि मनुष्य अनन्त काल तक रहेंगे । परन्तु भाई , इससे कुफ्र लगता है । आर्य - कुफ्र ( नास्तिकता ) अस्तित्व में नहीं होता क्योंकि वह तो इस समय भी है , हम भी मौजूद हैं और ईश्वर भी । मौलवी — मैंने आपसे कहा था कि हमारा अस्तित्व ईश्वर की देन है जबकि ईश्वर का अस्तित्व अपना है । आर्य — इसकी वास्तविकता तो आपने सुन ली । आपने उसे ईश्वर की देन भी कहा , और अनादि भी ; भला कोई अनादि वस्तु देन भी होती है ? देनेवाली वस्तु वह होती है , जो लेनेवाले में पहले न हो , और कुछ काल पश्चात् दी जाए ; और अनादि अस्तित्व वह होता है जो पहले था । अस्तित्व देन नहीं होता ; अपने स्वरूप से होता है अथवा दूसरे के कारण से । दूसरे के कारण से गुणों , कमों , रूपों , शक्तियों का अस्तित्व होता है । परन्तु आप यह तो न मानेंगे कि आत्मा एवं प्रकृति ईश्वर के कर्म , रूप अथवा शक्तियों या गुण हैं ? मौलवी - यह मन्तव्य तो ‘ सर्व खल्विदं ब्रह्म ' वालों का है , हम त्रुटियों तथा दुर्बलताओं को ईश्वर का गुण नहीं मान सकते । आर्य - परन्तु संसार में तो त्रुटि एवं दुर्बलता मौजूद हैं ? मौलवी — हां , हैं तो सही ! आर्य - तो ये किसके गुण हुए ! मौलवी - ईश्वर से इतर के । आर्य - वस , यही हमारा मन्तव्य है कि दुर्बलता एक गुण है जो वास्तविक है । इसका गुणी ईश्वर नहीं , उसके अतिरिक्त कोई और है , और वह है आत्मा तथा प्रकृति । आप कुफ्र से भयभीत थे कि आत्मा तथा प्रकृति अनादि न माने जाएँ । हमें इस कुफ्र का भय है कि आत्मा तथा प्रकृति की अल्पज्ञता एवं जड़ता ईश्वर के गुण न बनें । आप बताएँ कुफ्र का पाप आप पर लगता है कि हम पर ? [ ऊपर लिखी गयी वार्तालाप पंडित चमूपति द्वारा लिखित पुस्तक “अनादि तत्व”(जवाहिरे जावेद) से ली गयी है , अनादि तत्व उच्च कोटि की दार्शनिक पुस्तक है , जो की “हदूसे रूहो माद्दः” का युक्तियुक्त सप्रमाण उत्तर जवाहिरे जावेद का हिन्दी संस्करण है । जिज्ञासु पाठक इसको पढ़ कर लाभान्वित होंगे ।
Vedic vichar
15-02-2023
पंडित चमूपति जी के स्वामी दयानन्द के प्रति प्रेरणादायक उदगार (आर्यसमाज के अग्रिम विद्वान, चिंतक एवं लेखक पंडित चमूपति जी के जन्मदिवस 15 फरवरी 1893 को विशेष रूप से प्रकाशित) पं चमुपति जी लिखते हैं कि आज केवल भारत नही,सारे संसार पर दयानंद का सिक्का है। मतों के प्रचारकों ने अपने मन्तव्य बदल लिए हैं,धर्म पुस्तकों का संशोधन किया है,महापुरूषों की जीवनियों में परिवर्तन किया है। स्वामी जी का जीवन इन जीवनियों में बोलता है।ऋषि मरा नहीं करते,अपने भावों के रूप में जीते हैं। दलितोद्दार का प्राण कौन है? पतित पावन दयानंद। समाज सुधार की जान कौन है?आदर्श सुधारक दयानंद। शिक्षा के प्रचार की प्रेरणा कहां से आती है?गुरूवर दयानंद के आचरण से। वेद का जय जयकार कौन पुकारता है?ब्रहंर्षि दयानंद। माता आदि देवियों के सत्कार का मार्ग कौन सिखाता है?देवी पूजक दयानंद। गोरक्षा के विषय में प्राणिमात्र पर करूणा दिखाने का बीङा कौन उठाता है?करूणानिधि दयानंद। आओ हम अपने आप को ऋषि दयानंद के रंग में रंगे।हमारा विचार ऋषि का विचार हो,हमारा अचार ऋषि आचार हो,हमारा प्रचार ऋषि का प्रचार हो।हमारी प्रत्येक चेष्टा ऋषि की चेष्टा हो।नाङी नाङी से धवनि उठे। महर्षि दयानन्द पापों और पाखंङो से ऋषि राज छुङाया था तूने। भयभीत निराश्रित जाति को, निर्भिक बनाया था तूने।। बलिदान तेरा था अदिव्तीयहो गई दिशाएं गुंजित थी जन जन को देगा प्रकाश वहदीप जलाया था तूने।। हमारा सौभाग्य है और अपने इस सौभाग्य पर हमें गर्व है कि हम महर्षि दयानंद दव्ारा प्रदर्शित ईश्वरीय ज्ञान वेदों के अनुयायी हैं।महर्षि दयानंद दव्ारा प्रदर्षित मार्ग एेहिक व पारलौकिक उन्नति अथवा अभु्युदय व नि:श्रेयस प्राप्त कराता है। इसे यह भी कह सकते है कि वेद मार्ग योग का मार्ग है।जिस पर चलकर धर्म,अर्थ,काम व मोक्ष की प्राप्ति होती है। संसार की यह सबसे बङी संपदाये हैं।अन्य सभी भौतिक संपदाये तो नाशवान हैं परन्तु दयानंद जी दव्ारा दिखाई व दिलाई गई संपदाये जीते जी तो सुख देती हैं मरने के बाद भी लाभ ही लाभ पहंुचाती है। आत्म जोत काव्य के माध्यम से पंडित जी स्वामी दयानन्द की श्रद्धांजलि देते है। लगे मेरे स्वामी को छाले सताने ।लगे बीसियों दस्त उन्हें ज़ोर आने ॥ किया ज़हर का काम उल्टा दवा ने ।न आई तबीअत , न आई ठिकाने ॥ ऋषिवर की किस्मत के थे फेर उल्टे।मुआलज थे हमराज़ सब नन्ही जाँ के ॥ रहे दस्त पर दस्त हर रोज़ जारी।लगी बेहोशी रह रह के तारी ॥ हरारत से बढ़ती गई बेकरारी ।ऋषि की हुई लागू शामत हमारी ॥ फफोले उठे नाफ़ से थे ज़बाँ तक ।ज़िगर से यही सोज़ पहुँचा था जाँ तक ॥ वोह स्वामी जो हाथी की ताकत था रखता।उठी तेग़ को हाथ से टुकड़े करता ॥ था बेख़ौफ़ राजों के सिर पर गर्जता।था लाचार खटिया पै आज आह ! लेटा ॥ तड़पते कटीं दर्द से सत्रह रातें ।न आराम आया जरा जोधपुर में ॥ लगे कहने स्वामी चलीं कोह आबू ।नहीं चैन आने का याँ कोई पहलू ॥ हवा में होता है पहाड़ों की जादू ।कहीं रोग का मेरे शायद हो दारु ॥ लगे राजा रोने "कटी नाक मेरी ।ऋषि जो गये राज से मेरे रोगी " ॥ ऋषि को सुलाया गया पालकी में।था डूबा खड़ा राजा शर्मिन्दगी में ॥ न रखा दकीका उठा बन्दगी में।कहा पाओं पर गिर के अरमाँ है जी में ॥ जो सेहत में करता ऋषिवर को रुख़सत ।न यूँ पाओं पड़ने में होती नदामत ॥ किसी डाक्टर ने जो स्वामी को देखा।कहा तेरा साधु जिगर है ग़ज़ब का ॥ तू इस दर्द में है ज़मीयत से जीता।नहीं उफ़ ज़बाँ से तिरी कोई सुनता ॥ गये कोह आबू से अजमेर स्वामी।इशारे में करते थे शीरीं कलामी ॥ कहा एक दिन कोई नाईं बुलाओ।हमें आज पानी से मिलकर नहाओ ॥ जो खाना कि हो सबसे शीरीं पकाओ।हलावत का इक ख़ांनचा भरके लाओ ॥ थे सब शुक्र करते , है हाल आज अच्छा।खबर क्या ? संभाला था बीमार लेता ॥ नहा कर जमाया ऋषिवर ने आसन।हुए ध्यान में महव खुलवा के रोज़न ॥ सुरें वेद की मीठी-मीठी नवाज़न ।पकड़ती थी अनवारे रहमत जा दामन ॥ रज़ा पर कहा तेरी साईं ! हूँ राजी।वोह लो ! आत्मा साँस के साथ चलदी ॥ ऋषि चैन से आख़री नींद सोया।था चेहरे पै नूर अब भी उसके चमकता ॥ गुरुदत्त कि रखते थे ईमान बोदा।समाँ देखकर उन पै छाया अचम्भा ॥ कहा मर के भी तुम नहीं स्वामी मरते।हैं मुर्दार हम जैसे मरने से डरते ॥ ज़मी आई कहती यह मिट्टी है मेरी।ख़ला में ख़ला , बाद में बाद पहुँची ॥ यह कहती हुई आग वेदी से उठी।हमारा महर्षि ! हमारा महर्षि ॥ किया मौत ने तेरी हर सू उजाला।दयानन्द स्वामी ! तिरा बोल बाला ॥
आत्मदर्शी दयानन्द. (Vedic vichar)
15-02-2023
✍???? लेखक – पंडित चमूपति एम॰ए० (आर्यसमाज के अग्रिम विद्वान, चिंतक एवं लेखक पंडित चमूपति जी के जन्मदिवस 15 फरवरी 1893 को विशेष रूप से प्रकाशित) [स्वर्गीय पं० चमूपतिजी एम०ए० का यह लेख तब का लिखा हुआ है जब वे गुरुकुल काँगड़ी के मुख्याधिष्ठाता थे। यह लेख साप्ताहिक प्रकाश उर्दू और ‘आर्य मुसाफिर’ में भी छपा था। आचार्य दयानन्द ने आर्यसमाज को स्कूल कमेटी नहीं बनाया था। महर्षि का लक्ष्य वेद-प्रचार व ईशोपासना की रीति चलाना था। ऋषि, महर्षि, यति योगेश्वर दयानन्द का अनूप रूप समझना हो तो यह लेख बारम्बार पढ़िए ।] ऋषि दयानन्द का जन्म एक भ्रान्ति-प्रधान युग में हुआ था। कोई ऐसी असम्भव बात न थी जिसे योग की सिद्धि के नाम पर सम्भव न समझा जाता हो । योगियों की विशेषता ही चमत्कार था । धार्मिक नेताओं का गौरव ही उनके आलौकिक कारनामों के कारण था। धर्म की इस प्रवृत्ति को आर्यसमाज ने अन्धविश्वास समझा और इसका घोर खण्डन किया। परिणाम यह हुआ कि आर्यसमाज की श्रद्धा विभूति मात्र से उड़ गई। सौभाग्यवश आर्यसमाज का अपना ऋषि मूर्त सदाचार था। ऋषि की इस विभूति को आर्यसमाज के प्रचारकों ने हाथों हाथ उठा लिया और इसी चमत्कार की कसौटी पर संसार भर के सिद्धों के जीवन परखे जाने लगे। भला इस क्षेत्र में किसी की ताव थी कि दयानन्द से लोहा लेता? दयानन्द का निष्पाप कुन्दन-सा जाज्वल्यमान उज्ज्वल चरित्र आर्यसमाज का वह अमोघ हथियार था जिसके आगे विरोधी चारों खाने चित्त थे। आर्यसमाज को अपने मन्तव्यों के गौरव की स्थापना के लिए किसी आलौकिक कारनामे का आश्रय लेना ही नहीं पड़ा। तो क्या अलौकिक कारनामों की कथाएँ वस्तुत: मिथ्या हैं? क्या संसार की सम्पूर्ण घटनाओं के संचालक केवल भौतिक नियम तथा भौतिक शक्तियाँ ही हैं? या क्या आत्मा भी कोई सचमुच की वस्तु है- ऐसी वस्तु जिसके अस्तित्व का संसार के जीवन पर मूर्त-अनुभव में आने वाला-प्रभाव पड़ता हो? उन्नीसवीं शताब्दी के आरम्भ का विज्ञान प्रधान यूरोप आत्मा तथा परमात्मा की सत्ता को ही जवाब दे चुका था। जब विश्वचक्र की सभी घटनाओं का समाधान प्राकृतिक नियमों के द्वारा हो जाता है तो अप्राकृतिक सत्ताओं को स्वीकार करने की आवश्यकता ही क्या है? उन दिनों विज्ञान का अर्थ ही प्राकृतिक समझा जाता था। मनोविज्ञान का भी एक ऐसा रूप निकल आया जिसका नाम ही पड़ा मनः शरीर-शास्त्र(psychophysics)। इसके द्वारा मानसिक घटनाओं की व्याख्या शारीरिक-तन्तुओं (nerves) ही की-परिभाषा में की जाने लगी। परन्तु विज्ञान का तो काम ही गवेषणा करना है। मानव जीवन का मानसिक पहलु वैज्ञानिक अन्वेषण के लिए एक विशेष क्षेत्र पेश करता है। इस क्षेत्र की साधारण घटनाओं की व्याख्या भी भौतिक नियमों द्वारा करनी असम्भव है। परन्तु साधारण घटनायें फिर साधारण थीं, इनकी ओर अन्वेषणकर्ताओं का विशेष ध्यान क्यों जाता? आँख देखती क्यों है? जिन भौतिक अंशों के संयोग से यह बनी है उन्हें कोई रासायनिक अब मिला देखे। एक कृत्रिम चक्षु बन जाएगा, परन्तु वह देख नहीं सकेगा। भूख का रूप भौतिक भोजनाभाव के अतिरिक्त एक विशेष प्रकार की मानसिक वेदना का है। उसकी भौतिक व्याख्या करना असम्भव है। अन्वेषणकर्ता आश्चर्यचकित तब हुए जब सैकड़ों मील की दूरी पर हो रही घटनाओं का साक्षात्कार कई मनुष्यों ने इस प्रकार किया मानो वे घटनायें उनकी आँखों के सामने हो रही हैं । बरसों बाद होने वाली बात इसी वर्तमान क्षण में मूर्त होकर दृष्टि के सामने आ गई। एक हृदय में उद्बुद्ध हो रही भावना, दूसरे हृदय में झट संचारित हो गई। विचार का संचार बिना किसी भौतिक बिजली के तार के किया गया। इन विचित्र कार्यों की भौतिक व्याख्या क्या हो सकती थी? आज विज्ञान किसी अप्राकृतिक सत्ता होने का विरोध नहीं करता और यद्यपि सदाचार का पक्का भौतिक आधार किसी अलौकिक सत्ता की अनुभूति ही हो सकती है-बिना आध्यात्मिक विचार के, सदाचार युक्ति के क्षेत्र में ठहर ही नहीं सकता-तो भी सदाचार के नियमों का क्रियात्मक पालन बिना इस अनुभूति के भी भली प्रकार होता रहा है। मानव समाज के कई अद्वितीय सेवक नास्तिक-कट्टर निरीश्वरवादी-हुए हैं। यह सच है कि बिना सदाचार के धर्म का कोई रूप नहीं बनता। किसी पुरुष में आध्यात्मिक विभूतियाँ चाहे कितनी भी स्पष्ट क्यों न हों, यदि उसके आचार पर उन विभूतियों का कोई विशेष रंग नहीं चढ़ा तो धर्म के क्षेत्र में वह पुरुष पाँव नहीं रख रहा, किन्तु दुलत्ति चलाने की चेष्टा मात्र कर रहा है। आध्यात्मिक अनुभूति की पूर्ण परिणति सन्त स्वभाव युक्त सदाचार में ही है। इसी सन्त-स्वभाव को आधुनिक मनोवैज्ञानिक धर्म कहते हैं। सदाचार ही धर्म का बाह्य अंग है, परन्तु इसमें आन्तरिक मधुरता-अलौकिक संजीवनी का सा रस- आध्यात्मिक भावना से ही आता है। ऋषि दयानन्द में सदाचार की पराकाष्ठा है, परन्तु क्या इनके इस सदाचार का आधार कोई आध्यात्मिक अनुभूति थी? वे तर्क के पुतले थे, परन्तु क्या वह तर्क नीरस था? या उसमें रसपूर्ण भावना का भी एक प्रबल पुट था? तर्क ने उनकी भक्ति को आँख मींचकर ‘बाबा वाक्यं प्रमाणम्’ की प्रवृत्ति से दूर ही रखा, परन्तु उनके महत्व की इतिश्री इसी में हो जाती है कि उन्हें तर्क के क्षेत्र में धोखा नहीं दिया जा सकता था। ‘साक्षात् कृत धर्माण ऋषयोबभूव:’-यास्क की इस उक्ति के अनुसार ऋषि कहते ही उस पुरुष को हैं जिसने धर्म का अर्थात् उस शक्ति का जो समस्त सत् पदार्थों को धारण करती है, साक्षात्कार किया हो । भौतिक संसार की आधारभूत एक आध्यात्मिक सत्ता है। सदाचार का वास्तविक मूल यही है। ऋषि अपने आध्यात्मिक नेत्रों से उसका दर्शन करता है। इसी में उसका ऋषित्व है। दूसरे शब्दों में हमारे प्रश्न का एक और रूप यह हो जाएगा कि क्या स्वामी दयानन्द ऋषि थे? । इस प्रश्न का उत्तर किसी और की साक्षी से दे सकना असम्भव है। सन्तों के जीवन में कुछ ऐसे बाह्य गुण पाये जाते हैं, जिनसे वे प्राणिमात्र को अपनी ओर खींच लेते हैं। उनसे उनका आत्मसाक्षात्कार प्रमाणित होता है, परन्तु बाह्य लक्षण फिर भी बाहर ही वस्तु है। उसके सम्बन्ध में भ्रान्ति हो सकती है। अपने आन्तरिक अनुभव को अन्तिम गवाह तो प्रत्येक पुरुष अपने आप ही हो सकता है। विभु परमेश्वर का सम्बन्ध प्रत्येक आत्मा से उसके हृदय की गुफा में ही होता है। वेदों तथा उपनिषदों में इन आध्यात्मिक अनुभूतियों के मुँह बोलते चित्र मिलते हैं, यद्यपि किसी उपनिषत्कार ने अपने वैयक्तिक अनुभव का वर्णन अपने नाम के साथ जोड़कर नहीं किया। फिर वेद तो है ही वेद, उनमें नामों का क्या काम? यद्यपि ऋषि दयानन्द ने भी इस विषय में मौनावलम्बन किए रहने की प्राचीन ऋषियों की शैली का पूर्णतया अनुसरण किया है तो भी कई स्थानों पर उनकी आध्यात्मिक अनुभूति की अनायास झाँकी सी मिल जाती है। हम नीचे कतिपय उक्तियों और घटनाओं का उल्लेख करेंगे, जिनमें ऋषि के जीवन के इस पहलु पर प्रकाश पड़ सके। ऋषि दयानन्द के योग-प्रत्यक्ष का पहला उल्लेख उनकी आत्मकथा ही में मिलता है। ऋषि लिखते हैं- ???? फिर एक मास के पश्चात् मैं भी उनकी आज्ञा के अनुसार दूधेश्वर-महादेव के मन्दिर में उनसे जाकर मिला। वहाँ उन्होंने योगविद्या के अन्तिम रहस्य और उसकी प्राप्ति की विधि बताने की प्रतिज्ञा की थी सो उन्होंने भी अपना वचन पूरा किया और कथनानुसार-मुझको भी निहाल कर दिया । ऋषि ने भौतिक क्षेत्र में भी प्रत्यक्ष ही की साक्षी का अवलम्बन किया था। यह बात उनके अपने हाथ से शवछेदन की क्रिया करने से प्रकट होती है। आध्यात्मिक क्षेत्र में भी उनकी यही अवस्था थी। सुनी-सुनाई पर विश्वास कर लेना उनकी प्रकृति के सर्वथा प्रतिकूल था। उनके एक पत्र में नीचे लिखी सारगर्भित उक्ति ध्यान देने योग्य है – ???? बहूनामार्याणां वेदशास्त्र बोध समाधि योग विचाराभ्याम्। जीव स्वरूप ज्ञानं बभूव भवति भविष्यति वेति॥ (ऋषि दयानन्द के पत्र और विज्ञापन भा० १ पृ० ५७ ) इस वाक्य में भवति शब्द ध्यान देने योग्य है। कुछ समय महर्षि केवल समाधि ही का आनन्द लेते रहे थे। तत्पश्चात् वे देशसुधार का कार्य करने लगे। वे लिखते हैं – ???? हमने केवल परमार्थ और स्वदेशोन्नति के कारण समाधि और बह्मानन्द को छोड़ कर यह कार्य ग्रहण किया है।( पत्र और विज्ञापन भाग ४ पृ० १८ ) आर्याभिविनय में ऋषि दयानन्द के हृदय के आन्तरिक उद्गार प्रकट हुए हैं। परमेश्वर को सम्बोधित कर कहते हैं – ???? ‘हम से अलग आप कभी मत हों ।'( पृ० ११० ) ???? ‘आप (स्वमुख) स्वशक्ति से सब जीवों के हृदय में सत्योपदेश नित्य ही कर रहे हो।'(पृ० ८७ ) ???? ‘आप साम को सदा गाते हो, वैसे ही हमारे हृदय में सब विद्या का प्रकाशित गान करो।'(पृ० ११८ ) ???? जैसे सूर्य की किरण, विद्वानों का मन और गाय, पशु अपने-अपने विषय और घासादी में रमण करते हैं व जैसे मनुष्य अपने घर में रमण करता है वैसे ही आप स्वप्रकाशयुक्त हमारे हृदय (आत्मा) में रमण कीजिए।( पृ० ८४ ) परमेश्वर से ऋषि दयानन्द का सम्बन्ध साक्षात् था। सदा उसे अपने अंग संग पाते थे और उससे अलग न होने का आग्रह करते थे। प्रभु के मधुर आलाप को सुनते थे और उसके अति रमणीय रमण का आनन्द लेते-लेते स्वयं भी उसी में रत हो जाते थे। इस सम्बन्ध के परिणामस्वरूप कुछ विशेष मानसिक शक्तियाँ योगी को अनायास प्राप्त हो जाती हैं। उन्हें सिद्धि कहा जाता है। योगी इन शक्तियों की आकांक्षा नहीं करती। उनमें आसक्त हो जाने से समाधि के रास्ते में बाधा खड़ी हो जाने की सम्भावना है।ऋषि अपने विषय में लिखते हैं – ???? मैं इन तमाशों की बातों को देखना दिखलाना उचित नहीं समझता। चाहे वे हाथ की चालाकियों से हों चाहे योग की रीति से हों, किन्तु कोई चाहे तो उसको योग की रीति सिखला सकता हूँ कि जिसके अनुष्ठान करने से वह स्वयं सिद्धि को प्राप्त हो जाए।( पत्र और विज्ञापन भाग १ ) ???? एक और स्थान पर लिखा है-देखो पूर्वकाल में हमारे ऋषि मुनियों को कैसी पदार्थ विद्या आती थी कि जिससे आत्मा के बल से सब अन्त:करण के भेद को शीघ्र ही जान लिया करते थे-भीतर के पदार्थों के योग से योगी लोग अपने अद्भुत कर्म कर सकते थे।( पत्र विज्ञापन भाग २ पृ० २० ) इन दो उद्धरणों को मिलाने से स्पष्ट हो जाएगा कि ऋषि दयानन्द जब किसी मानसिक तथ्य का वर्णन सामान्य संज्ञा द्वारा ऋषियों की सम्पूर्ण श्रेणी के विषय में करते हैं तो वह तथ्य उनका अपना अनुभूत होता है। जीवन-स्वरूप-ज्ञान के सम्बन्ध में जो एक संस्कृत वाक्य ऊपर उद्धृत किया गया है उसका निर्देश ऋषि को अपनी ओर होने में अब कोई सन्देह नहीं रहेगा। ऋषि दयानन्द को दूर देश तथा भविष्य काल की घटनाओं का साक्षात्कार हो जाने के अनेक उदाहरण उनके जीवन चरित्र में मिलते हैं। ऋषि ने एक नवयुवक को एक विशेष अवधि तक विवाह करने से रोक दिया था। अवधि के समाप्त होते ही उसका देहान्त हो गया। ऋषि की योग दृष्टि ने एक आर्यबाला को उम्र भर के वैधव्य से बाल-बाल बचा लिया। एक भक्त दूध लाया। ऋषि ने पूछा-क्या रास्ते में साँप देखा था? वह आश्चर्यचकित था- ऋषि को इस घटना का ज्ञान कैसे हुआ इत्यादि। आध्यात्मिक अनुभूति का एक फल यह भी प्राप्त होता है कि जब वह अनुभूति किसी को प्राप्त हो जाती है तो लोगों के हृदय में उसके लिए अनायास भक्ति का भाव उमड़ने लगता है। यह बात यहाँ तक पहुँचती है कि भक्त जन जब कभी आँखे मींचते हैं उनके सामने गुरुदेव का चित्र सा आ जाता है और वे चाहते हैं कि गुरुदेव हमेशा उनके अंगसंग रहें। गुरु से सम्बन्ध रखने वाली प्रत्येक वस्तु में भी एक विशेष भक्ति का भाव पैदा हो जाता है। ऋषि दयानन्द के जीवन में यह बात जगह-जगह पर उल्लिखित है। हम केवल दो उदाहरणों का उल्लेख करेंगे – ऋषि की सेवा में ईश्वरानन्द सरस्वती का एक पत्र मिलता है जिसमें लिखा है- ???? मेरे पर भगवचरणों की धूरी स्वप्न में वर्षी है सो मैंने खूब स्नान किया।( पत्र व्यवहार पृ २० ) जोशी लालजी कल्याणजी एक पत्र में लिखते हैं – ???? आपके हस्ताक्षर कुं बोहोत प्रेम में दण्डवत किया।( पत्र व्यवहार पृ २९५) ऋषि के प्रति राजस्थान के राजाओं, उच्च अधिकारियों तथा सर्वसाधारण-यहाँ तक कि एक पापताप से सन्तप्त दुखिया देवी के भाव अत्यन्त भक्तिपूर्ण थे। यह बात मैं ऋषि के पत्र व्यवहार की ही साक्षी से “आर्य” की किसी पूर्व संख्या में सिद्ध कर चुका हूँ। मेरे इस लेख का प्रयोजन केवल यह दिखाना है कि ऋषि दयानन्द सचमुच ऋषि थे, उन्होंने आध्यात्मिक अनुभूति तथा उससे सम्बन्ध रखने वाली सिद्धियाँ प्राप्त की थीं। उसी अनुभूति का चमत्कार उनका निष्कलंक सच्चरित्र-सम्पन्न जीवन था। उनकी सर्वस्व स्वाहा करने वाली असीम परोपकार की प्रवृत्ति, उनके प्राणिमात्र के लिए उन्नत दयाभावे, उनका जगत् के उद्वारार्थ अनथक अविरल परिश्रम, आपत्तियों की उमड़ रही बाढ़ के सामने उनकी अदम्य अटल धैर्य, अपने उद्देश्य की सफलता में उनका निरपेक्ष विश्वास, ये सब उसी एक अनुभूति के परिणाम थे। ऋषि ब्रह्म का ध्यान करते-करते ब्रह्ममय हो गये थे। उनसे ब्रह्म अलग न था। वे ब्रह्म में रम रहे थे और ब्रह्म उनमें । कहने को तो उन्होंने ब्रह्मानन्द को छोड़कर परोपकार का कार्य आरम्भ किया था, परन्तु ब्रह्मानन्द ने एक क्षण भी उनका पल्ला नहीं छोड़ा। किसी भक्त के प्रश्न का उत्तर देते हुए उन्होंने स्वयं भी तो यही कहा था कि यह महान् कार्य मैं बिना किसी योग सिद्धि के नहीं कर रहा हूँ। ऋषि का योग की सिद्धि उनका आत्मदर्शन था।
Swami Dayanand Saraswati Jayanti
12-02-2023
आर्य समाज के संस्थापक, महान चिंतक एवं समाज सुधारक स्वामी दयानंद सरस्वती जी की जयंती पर सादर नमन I समाज में भारतीय संस्कृति, स्वदेशी व स्वभाषा के प्रति नवजागरण के उनके प्रयासों के लिए देश सदैव उनका ऋणी रहेगा। @Dr. Yajnya Dutta
दुर्जन से मित्रता न करें. (Vedic vichar)
11-02-2023
दुष्टों और सज्जनों की मित्रता में अन्तर होता है– *आरम्भगुर्वी क्षयिणी क्रमेण लघ्वी पुरा वृद्धिमती च पश्चात् ।* *दिनस्य पूर्वार्धपरार्धभिन्ना छायेव मैत्री खलसज्जनानाम् ।।* *भावार्थ―* दुर्जनों की मैत्री आरम्भ में गहरी होती है, फिर क्रम से क्षय (घटती) हो जाती है। सज्जनों की मैत्री आरम्भ में अल्प और बाद में वृद्धि को प्राप्त होने वाली होती है―दिन के पूर्वार्ध के समान, जो दिन के परार्ध से भिन्न है, अर्थात् जो बढ़ती है, घटती नहीं तथा छाया के समान साथ देने वाली होती है। दुर्दिन में जो साथ दे वही सच्चा मित्र है। समृद्धि की दशा में तो दुर्जन भी मित्र बन जाते हैं। मित्र का दूसरा लक्षण यह है कि सामने आलोचना करे, मित्र की कमियाँ बताए और पीठ-पीछे प्रशंसा करे। जो सामने प्रशंसा करे और पीठ-पीछे बुराइयों की चर्चा करे वह शत्रु होता है। *परोक्षे कार्यहन्तारं प्रत्यक्षे प्रियवादिनम् ।* *वर्जयेत्तादृशं मित्रं विषकुम्भं पयोमुखम् ।।* ―(चाणक्यनीति २/५) *भावार्थ―* पीठ-पीछे कार्य बिगाड़ने वाले या बुराई करने वाले और सामने मीठी-मीठी बातें बनाने वाले मित्र को ऐसे छोड़ देना चाहिए जैसे मुख पर दूध-लगे और भीतर से विष-भरे घड़े को त्याग दिया जाता है। मित्र में तीसरा गुण यह होना चाहिए कि वह मित्र को सत्प्रेरणा प्रदान करे, सन्मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करे, उसमें शुभ गुणों का समावेश कराए और अवगुणों को दूर करे। जो मित्र इसके विपरित, मित्र में अवगुणों का समावेश कराए, वह मित्र नहीं, अपितु शत्रु के तुल्य है। चाणक्य जी ने लिखा है— *दुराचारी च दुर्दृष्टिर्दुराऽऽवासी च दुर्जन: ।* *यन्मैत्री क्रियते पुम्भिर्नर: शीघ्रं विनश्यति ।।* *भावार्थ―* आचारहीन, बुरी दृष्टि वाले, बुरे स्थान में रहने वाले और दुर्जन मनुष्य के साथ यदि मेल-मिलाप किया जाता है तो वह मैत्री करने वाला मनुष्य शीघ्र नष्ट हो जाता है।
नास्तिकों के तर्कों की समीक्षा (Vedic vichar)
11-02-2023
प्रश्न 1. जब संसार बिना बनाये वाले के बन जाता है (बिना ईश्वर के) तो कुम्हार के बिना घड़ा और चित्रकार के बिना चित्र भी बन जाना चाहिए ? प्रश्न 2. जब ईश्वर नाम की कोई चीज नहीं तो जड़ प्रकृति कैसे गतिशील होगी? हमने देखा है कि जो भी प्रकृति से बनी अर्थात् भौतिक वस्तुएँ हैं, उनको अगर मनुष्य गति न दे तो वे एक जगह ही स्थिर रहती हैं। नास्तिकों के अनुसार जब प्रकृति चेतनवत् कार्य करती है (क्योंकि नास्तिकों की दृष्टि में ईश्वर नाम की कोई वस्तु नहीं और प्रकृति ही चेतनवत् कार्य करती है) तो प्रकृति से बनी भौतिक वस्तुओं को भी चेतनवत् कार्य करना चाहिए। अर्थात् कुर्सी को अपने आप चलकर बैठनेवाले के पास जाना चाहिए, भरी हुई या खाली बाल्टी को स्वयं चलकर यथास्थान जाना चाहिए। नल से अपने आप पानी निकलना चाहिए, साइकिल को अपने आप बिना मनुष्य के चलाये चलना चाहिए; लेकिन हम देखते हैं कि बिना मनुष्य के गति दिये कोई भी भौतिक पदार्थ स्वयं गति नहीं करता। फिर प्रकृति चेतन कैसे हुई? प्रश्न 3. जब ईश्वर नाम की कोई सत्ता नहीं तो फिर कर्मों का भी कोई महत्त्व नहीं रह जाता, चाहे कोई अच्छे कर्म करे या बुरे, उसको कोई फल नहीं मिलेगा, वह आजाद है। क्योंकि ईश्वर कर्मफल प्रदाता है लेकिन नास्तिकों के अनुसार ईश्वर है ही नहीं तो फिर जड़ प्रकृति में इतनी सामर्थ्य नहीं कि किसी व्यक्ति को उसके कर्मों का अच्छा या बुरा फल दे सके। इस पर नास्तिक कहते हैं कि जो व्यक्ति दुःख या सुख भोग रहे हैं, वे स्वभाव से भोग रहे हैं। लेकिन यह बात तर्कसंगत नहीं क्योंकि यदि स्वभाव से दुःख, सुख भोगते तो या तो केवल दुःख ही भोगते या सुख; दोनों नहीं क्योंकि स्वभाव बदलता नहीं। और दूसरी बात यह है कि फिर कर्मों का कोई महत्त्व नहीं रह जाता। फिर व्यक्ति चाहे अच्छे कर्म करे या बुरे; उनका कोई फल नहीं मिलेगा क्योंकि सुख-दुःख स्वभाव से हैं। प्रश्न 4. जब नास्तिकों की दृष्टि में ईश्वर नहीं है तो फिर उनको कर्मों के फल का भी कोई डर नहीं रहेगा, चाहे कोई कितने ही पाप करें, कितनी ही दुष्टता करें; किसी का डर ही नहीं। क्योंकि जिसका डर था उसी को वे मानते नहीं और प्रकृति कर्मों के फल दे नहीं सकती। प्रश्न 5. जब व्यक्ति पाप-कर्म (चोरी, जारी आदि) करता है तो उसके अन्तःकरण में भय, शङ्का, लज्जा आदि उत्पन्न होते हैं, ये ईश्वर की प्रेरणा से उत्पन्न होते हैं; इससे भी ईश्वर की सिद्धि होती है। क्योंकि प्रकृति जड़त्व के कारण इन विचारों को मनुष्य के अन्तःकरण में करने में असमर्थ है। क्योंकि ये भाव मनुष्य के अन्दर तभी उजागर होते हैं, जब वह पाप-कर्म करना आरम्भ करता है। इससे सिद्ध होता है कि परमात्मा ही उसके अन्दर ये भाव उजागर करता है। जिससे मनुष्य पाप-कर्म करने से बच जाये। फिर नास्तिक ईश्वर की मान्यता कैसे स्वीकार नहीं करते? प्रश्न 6 जब किसी नास्तिक पर बड़ी आपत्ति या दुःख (रोगादि या अन्य) आता है तो हमने देखा है कि बड़े से बड़ा नास्तिक भी ईश्वर की सत्ता स्वीकार करने को विवश हो जाता है और ईश्वर के प्रति श्रद्धा रखते हुए कहता है कि―"हे ईश्वर! अब तो मेरे दुःख को दूर कर दो, मैंने कौन से बुरे कर्म किये हैं, जिनके कारण मुझे ये दुःख मिला है।" जब नास्तिक ईश्वर को मानता ही नहीं तो दुःख के समय उसे ईश्वर और अपने बुरे कर्म क्यों याद आते हैं। पं० गुरुदत्त विद्यार्थी बड़े नास्तिक थे लेकिन स्वामी दयानन्द की मृत्यु के समय उन्हें भी ईश्वर की याद आई और पक्के आस्तिक बन गये। फिर नास्तिक क्यों ईश्वर को न मानने का ढोल पीटते हैं ? केवल दिखावे के लिए, जबकि परोक्ष रुप से वे ईश्वर की सत्ता स्वीकार करते हैं। प्रश्न 7. जब नास्तिकों से प्रश्न किया जाता है कि मृत्यु को क्यों नहीं रोक लेते हो, तो वे कहते हैं कि "टी.वी. क्यों खराब होती है, जैसे टी.वी. यन्त्रों का बना है ऐसे ही शरीर कोशिकाओं का बना है।" ठीक है कौशिकाओं का बना है तो जब टी.वी. के यन्त्र बदलकर उसको सही कर देते हो तो मृत्यु होने पर शरीर के भी यन्त्र बदल दिया करो। जब टी.वी. खराब हुआ चल जाता है तो शरीर भी तो उसके यन्त्र बदलकर चलाया जा सकता है। लेकिन नहीं, बड़े से बड़ा वैज्ञानिक भी मृत्यु के बाद शरीर को चला नहीं सकता। क्यों? क्योंकि यह ईश्वर का कार्य है, जब टी.वी. आदि भौतिक चीजें खराब होने पर उनके यन्त्र, पुर्जे आदि बदलने पर चल जाता है तो शरीर भी उसके कोशिकाओं को बदलने पर चल जाना चाहिए? क्या कोई वैज्ञानिक शरीर के अन्दर की मशीनरी बना सकता है या प्रकृति मृत्यु के समय शरीर को ठीक क्यों नहीं करती, जब प्रकृति से बना शरीर है तो उसको प्रकृति को ठीक कर देना चाहिए (क्योंकि नास्तिकों के अनुसार प्रकृति ही गर्भ के अन्दर शरीर का निर्माण भी करती है, ईश्वर नहीं करता अर्थात् प्रकृति चेतनवत् कार्य करती है), फिर उस शरीर को अग्नि में क्यों जलाया जाता है? न प्रकृति उसको चला सकती, न वैज्ञानिक फिर नास्तिक क्यों प्रकृति और वैज्ञानिकों की रट लगाते हैं? जबकि सत्य यह है कि शरीर की मृत्यु 'आत्मा और शरीर का वियोग होना' है। इस सत्यता को नास्तिक क्यों नहीं स्वीकार करते? प्रश्न 8. नास्तिक कहते हैं कि ज्ञान-विज्ञान वेदों में नहीं है, प्रत्युत् वैज्ञानिकों ने ही समस्त विज्ञान की रचना की है। मैं नास्तिकों से पूछता हूँ कि प्राचीन काल में ऋषि-मुनि एक से बढ़कर एक आविष्कार करते थे। ऋषि विश्वामित्र ने श्रीराम व लक्ष्मण को ब्रह्मास्त्र जैसे अनेक अस्त्र-शस्त्रों की शिक्षा दी थी। और उनका अनुसन्धान ऋषि-मुनि करते थे। क्योंकि उनके पास वेदों का ज्ञान-विज्ञान था। नास्तिक वैज्ञानिकों की दुहाई देते हैं, उस समय वैज्ञानिक नहीं थे, उस समय ऋषि-मुनि ही बड़े-बड़े आविष्कार करते थे। ऋषि-मुनि ही उस समय बड़े वैज्ञानिक थे। एक से एक विमान बनाते थे। रावण के पास ऐसा पुष्पक विमान था जो विधवाओं को अपने ऊपर नहीं बिठा सकता था अर्थात् विधवा औरत अगर उस पर विमान पर बैठ जाये तो वह उड़ नहीं सकता था। यह सब विवरण रामायण में 'त्रिजटा व सीता संवाद' में है; जिसका उसके स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती ने वाल्मीकि रामायण के भाष्य में किया है। पूरा विवरण इस प्रकार है―"जब युद्ध हो रहा था तो रावण के पुत्र इन्द्रजित् ने अदृश्य होकर सर्प के समान भीषण बाणों से, शरबन्ध से बाँध दिया और उनको मूर्छित कर दिया और हंसता हुआ अपने राजमहल में आया। रावण ने त्रिजटा-सहित सभी राक्षसियों को अपने पास बुलाया और कहा कि तुम जाकर सीता से कहो कि इन्द्रजित् ने राम और लक्ष्मण को युद्ध में मार डाला है, फिर उसे पुष्पक विमान में बैठाकर रण भूमि में मरे हुए उन दोनों भाइयों को दिखाओ। जिसके बल के गर्व से गर्वित होकर मुझे कुछ नहीं समझती उसका पति भाई सहित युद्ध में मारा गया। दुष्टात्मा रावण के इन वचनों को सुनकर और "बहुत अच्छा" कहकर वे राक्षसियाँ वहाँ गई जहाँ पुष्पक-विमान रखा था। तत्पश्चात् त्रिजटा-सहित सीता को पुष्पक विमान में बैठा वे राक्षसी सीता को राम-लक्ष्मण का दर्शन कराने के लिए ले चलीं। उन दोनों वीर भाइयों को शरशय्या पर बेहोश पड़े देखकर सीता अत्यन्त दु:खी हो, उच्च स्वर से बहुत देर तक विलाप करती रही।तब विलाप करती हुई सीता से त्रिजटा राक्षसी ने कहा―तुम दु:खी मत होओ। तुम्हारे पति मरे नहीं, जीवित हैं। हे देवी ! मैं अपने कथन के समर्थन में तुम्हें स्पष्ट और पूर्व-अनुभूत कारण बतलाती हूँ जिससे तुम्हें निश्चय हो जायेगा कि राम-लक्ष्मण जीवित हैं।― इदं विमानं वैदेहि पुष्पकं नाम नामत: । दिव्यं त्वां धारयेन्नैवं यद्येतौ गतजीवितौ ।। ―(वा० रा०,युद्ध का०,सर्ग २८) भावार्थ―हे वैदेहि ! यदि ये दोनों भाई मर गये होते तो यह दिव्य पुष्पक-विमान तुम्हें बैठाकर नहीं उड़ाता (क्योंकि यह विधवाओं को अपने ऊपर नहीं चढ़ाता।) नोट―बीसवीं शताब्दी को विज्ञान का युग बताया जाता है, परन्तु वैज्ञानिक अब तक ऐसा विमान नहीं बना पाएँ हैं। (स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती)" उस समय ऋषि-मुनियों के काल में ऐसे-ऐसे आविष्कार थे जिनकी नास्तिक कल्पना भी नहीं कर सकते। क्या आजकल वैज्ञानिक पुष्पक विमान जैसा आविष्कार कर लेंगे। कदापि नहीं। फिर नास्तिक क्यों वैज्ञानिकों की दुहाई देते हैं और ये क्यों नहीं मानते कि समस्त ज्ञान-विज्ञान के स्रोत वेद हैं। (इस विषय में एक लेख है मेरे पास―"प्राचीन भारत में विज्ञान की उज्ज्वल परम्परा" वह अवश्य पढ़ें) । प्रश्न 9. अष्टाङ्ग योग द्वारा लाखों योगियों ने उस सृष्टिकर्त्ता का साक्षात्कार किया है। ऋषि ब्रह्मा से लेकर जैमिनी तक अनेकों ऋषि-मुनि तथा राजा-महाराजा भी ईश्वर-उपासना किया करते थे और आज भी अनेकों लोगों की उस परम चेतन सत्ता में श्रद्धा है। वेद-शास्त्रों में भी मनुष्य का प्रथम लक्ष्य ईश्वर-प्राप्ति ही है। प्राचीनकाल में सभी ऋषि-मुनि, योगी, महापुरुष और सन्त लोग ईश्वर में अटूट श्रद्धा रखते थे तथा बिना सन्ध्योपासना किये भोजन भी नहीं करते थे। एक से बढ़कर ब्रह्मज्ञानी थे। उन लोगों वेद-शास्त्रों के अध्ययन से यही निचोड़ निकाला कि बिना ईश्वर-भक्ति के हमारा कल्याण नहीं हो सकता। और घण्टों तक समाधि लगाकर उस ईश्वर का साक्षात्कार किया करते थे और उस परमसत्ता की भक्ति से मिलनेवाले आनन्द में लीन रहते थे। वाकई जो ईश्वर-उपासना से आनन्द मिलता है, उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। तो जब करोड़ों, अरबों लोगों (ईश्वर-भक्तों ) की उस परम चेतनसत्ता में श्रद्धा है तो कुछ तथाकथित नास्तिक कैसे ईश्वर की सत्ता को नकार सकते हैं या उनके न मानने से ईश्वर की सत्ता नहीं होगी ? क्या ये करोड़ों-अरबों (ईश्वर-उपासक) लोग ईश्वर-उपासना में व्यर्थ का परिश्रम कर रहे हैं/रहे थे? इसका भी नास्तिक जवाब दें। प्रश्न 10 नास्तिक कहते हैं कि ईश्वर के बिना ब्रह्माण्ड अपने आप ही बन गया। इसका उत्तर यह है कि बिना ईश्वर के ब्रह्माण्ड अपने आप नहीं बन सकता। क्योंकि प्रकृति जड़ है और ईश्वर चेतन है। बिना चेतन सत्ता के गति दिये जड़ पदार्थ कभी भी अपने आप गति नहीं कर सकता। इसी को न्यूटन ने अपने गति के पहले नियम में कहा है―( Every thing persists in the state of rest or of uniform motion, until and unless it is compelled by some external force to change that state ―Newton's First Law Of Motion ) तो ये चेतन का अभिप्राय ही यहाँ External Force है । इस बात पर नास्तिक कहते हैं― "External Force का अर्थ तो बाहरी बल है तो यहाँ पर आप चेतना का अर्थ कैसे ले सकते हो ?" इसका उत्तर यह है―"क्योंकि "बाहरी बल" किसी बल वाले के लगाए बिना संभव नहीं । तो निश्चय ही वो बल लगाने वाला मूल में चेतन ही होता है । आप एक भी उदाहरण ऐसा नहीं दे सकते जहाँ किसी जड़ पदार्थ द्वारा ही बल दिया गया हो और कोई दूसरा पदार्थ चल पड़ा हो ।
Vedic vichar
11-02-2023
◆ सत्यार्थप्रकाश का प्रयोजन... (ले. पं. गंगाप्रसाद उपाध्याय) ______________________________ ऋषि दयानन्द ने “सत्यार्थप्रकाश” को तीन प्रयोजनों से लिखा था। १. वैदिक धर्म के प्राचीन मन्तव्यों का प्रचार. २. वर्तमान समय के हिन्दुओं में जो नई-नई कुरीतियां, दोष आ गये है तथा जिनके कारण वैदिक धर्म में विकार से अनेक मत मतान्तर हो गये है उनको दूर किया जाये. ३. उन परकीय सम्प्रदाय व सभ्यताओं का सामना किया जावे जिन्होनें वैदिक आर्य सभ्यता संस्कृति पर आक्रमण करके भारत में अपना प्रभुत्व जमा रखा है. इस आक्रमण का सामना करते हुए विजय पाना व आक्रांन्ता को पराभूत करना इसका एक उद्देश्य है. यदि इन तीनों बातों को ध्यान में रखकर "सत्यार्थप्रकाश" का अध्ययन किया जावे तो कहना पडता है कि "सत्यार्थप्रकाश" से बढकर इन तीनों रोगों की और कोई औषधि नहीं है. वैदिक धर्म के प्रेमियों को स्वीकार करना पडेगा कि वैदिक धर्म की जो रूपरेखा स्वामी दयानन्द ने हमारे सम्मुख रखी है उससे उत्तम और इतने विस्तार से आज तक के किसी भी अन्य ग्रन्थ में नहीं पाई जाती है. हिन्दू धर्म के वर्तमान रोगों तथा उनकी औषधि जिस उत्तमता से ऋषि दयानन्द ने इस ग्रन्थ में बतलाई है वह किसी अन्य ग्रन्थ में नहीं मिल सकती. हिन्दुओं के विभिन्न सम्प्रदायों द्वारा ऋषि दयानन्द का अब तक जो विरोध होता रहा है वह केवल उन लोगों के द्वारा ही हुआ है जिनका जीवन ही सम्प्रदायवाद पर निर्भर करता है. जिन लोगों ने स्वयं को सम्प्रदायवाद के दोष से ऊपर उठा लिया उनको सत्यार्थप्रकाश में दोष दिखाई नहीं देता. अब रही परकीय मतों द्वारा सत्यार्थप्रकाश के विरोध की बात. इसका कारण यह है कि यह ग्रन्थ उनके आक्रमण में बाधक बनता है. आर्यसमाज ने इन आक्रमणों का फिर से सामना किया. ये लोग चाहते है कि वे निरन्तर आक्रमण करते रहें तथा लोग चुपचाप कोई प्रतिकार किये बिना सिर झुकाते रहें. आर्यसमाज ऐसा करने के लिए कतई तैयार नहीं. * साभार: “गंगा ज्ञान धारा” भाग-३, * सम्पादक-अनुवादक: प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी * संदर्भ: “सत्यार्थप्रकाश” की रक्षा के आन्दोलन के समय पं. गंगाप्रसाद उपाध्याय का यह लेख साप्ताहिक “रिफार्मर” (उर्दू) के ११ फरवरी १९४५ के अंक में पृष्ठ ३५ पर प्रकाशित हुआ था। ◆ प्रस्तुति: राजेश आर्य, गुजरात
Vedic vichar
11-02-2023
● Maharshi Dayānanda Saraswati – AS A BUILDER OF NATION ● ------------------ - Pandit Ved Mitra Thakore (1915-1999) Dayānanda as a builder of nation was simply majestic, at once magnanimous and magnificent. The earlier preachers like Shankara, Rāmānuja, Madhva, Vallabha, Kabira, Nānaka and modern teachers like Vivekānanda, Rāmatīrtha and others talked tall and gossiped high about Ātmā, Paramātmā and Māyā etc. But they never uttered a single word about the unity of the nation. It was Dayānanda who first of all realized the importance of unity among Hindus. At the time he came in the field of actual work, he saw Hindus divided into so many creeds, sects, methods of worship and gods and goddesses. Dayānanda, therefore, thought very seriously about this particular weakness of the Hindu community and made up his mind to unite all the Hindus in one common string, because unity is a prerequisite to build up a nation. Without unity the task of building up a nation is impossible. And the unity was only possible if there be one God, one religion, one scripture, one caste, one method of worship and one language. Dayānanda, therefore, devised a six-fold scheme and preached it to Hindu community right up to the very close of his valuable life. That six-fold scheme is this: Oh, Hindus! • You have only one God and that is 'Om' (or 'Aum'). • You have only one religion and that is the 'Vedic religion'. • You have only one scripture and that is the 'Veda'. • You have only one caste and that is 'Ārya'. • You have only one method of worship and that is 'Sandhyā'. • You have only one language and that is 'Hindī'. Thus, Dayānanda first of all placed this most practical scheme before the mass and the class. And as such, Dayānanda can rightly be called the father, nay the grandfather of the builders of nation in India. His was the eye of realism rather than idealism. Idealist does not at all help to build up a nation. Hindus today are fallen, disunited, weak and more dead than alive because they have not yet accepted this six-fold scheme of Dayānanda. But, today or tomorrow, Hindus shall have to accept this path, if at all they want to rise once again. There is no way other than this. The more delay they cause, the heavier price they shall have to pay for it. Let us now complete this booklet in the words of that great international fame, Sri Aurobindo, who about Dayānanda says: "May his (Dayānanda's) spirit act in India pure, unspoilt, unmodified and help to give us back that of which our life stands especially in need, pure energy, high clearness, the penetrating eye, the masterful hand, the noble and dominant sincerity." ('Bankim-Tilak-Dayānanda', p. 46) (Source: Dayananda The Great, Chapter-IV)
ईश्वर का स्वरुप (Vedic vichar)
11-02-2023
*प्रश्न―*ईश्वर साकार है या निराकार ? *उत्तर―*ईश्वर निराकार है इसीलिये सब जगह व्याप्त है। यदि वह निराकार और सर्वव्यापक न हो तो सब कुछ कैसे जान सकता है। साकार व्यक्ति एकदेशीय होता है वह व्यापक न होने से सब जगह की बातें नहीं जान सकता। सीमित वस्तु के गुण और स्वभाव भी सीमित ही रहते हैं। ईश्वर को साकार मानने से उसकी सर्वज्ञता और अनन्तता समाप्त हो जाती है। साकार भूख, प्यास, रोग, दोष, जन्म-मरण आदि से युक्त होता है। उसे बनाने वाला भी कोई होता है परन्तु ईश्वर में भूख प्यासादि दोष नहीं है न उसका कोई बनाने वाला है। वह अजन्मा, स्वयं भू और अजर,अमर है। *प्रश्न―*ईश्वर अवतार लेता है या नहीं? *उत्तर―*नहीं। वेदों में ईश्वर को अजन्मा और अज कहा गया है। समस्त ब्रह्माण्ड में व्याप्त ईश्वर एक सीमित आकार में कैसे सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान बना रह सकता है? वह नस नाड़ियों के विकार से पूर्ण होकर कैसे सृष्टि की उत्पत्ति, प्रलय और पालन कर सकता है? अतः वेदों का कथन सत्य है कि ईश्वर अज अर्थात् जन्म न लेने वाला है। *प्रश्न―*क्या राम, कृष्ण आदि ईश्वर के अवतार नहीं थे? *उत्तर―*नहीं। इस प्रकार तो हम सब भी अवतार हैं। जो ईश्वरीय गुणों को अधिक से अधिक पाकर समर्थ बन जाते हैं वे महान् पुरुष तथा मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाते हैं। उनके प्रशंसक और भक्त उन्हें ईश्वर की संज्ञा दे देते हैं। वास्तव में राम-कृष्ण आदि भी ईश्वर की तुलना में सर्वत्र और सर्वशक्तिमान नहीं थे। अतः उन्हें ईश्वर कहना ठीक नहीं। हाँ, आदरणीय महान् पुरुष कहे जा सकते हैं। उन्होंने ऐसे महान् कार्य किये हैं जो हर एक व्यक्ति नहीं कर सकता। जैसे राम जब अयोध्या में थे तब वन में नहीं थे और जब वन में थे तब अयोध्या में या और जगह नहीं थे।इसलिए जब वन में थे तो उन्हें और जगह का पता नहीं था कि कहाँ क्या हो रहा है।और निराकार ईश्वर सब जगह होने से सारे जगत को चला रहा है।जड़ पदार्थों सूर्य आदि में गति दे रहा है।सबके मन की बात जानता है।क्योंकि सबके अन्तःकरण में और बाहर भी है। ये काम साकार कभी नहीं कर सकता।क्योंकि साकार एक जगह ही रहेगा सबके मन की बात नहीं जान सकता। *प्रश्न―*यदि ईश्वर अवतार न ले तो दुष्टों का दमन कैसे हो? *उत्तर―*ईश्वर जब सर्वशक्तिमान् है तो वह जिसके ह्रदय में प्रेरणा भर दे, अलौकिक साहस दे दें, वह समस्त दुष्टों को पल भर में मार सकता है। ऐसा करने के लिए उसे अपने को सीमित आकार में लाने की क्या आवश्यकता है? राम और कृष्ण ने ईश्वरीय प्रेरणा से ही रावण और कंस जैसे समाज द्रोहियों को मारा था।
आर्यसमाज ने जब यवनों से अपहृत लड़की को बचाया। (Vedic vichar)
11-02-2023
अमित सिवाहा 20 अगस्त 1940 की घटना है। सिरसा आर्यसमाज में सरदार करतार सिंह आकर ब्यान देते है कि मेरी लड़की जिसकी आयु 18 वर्ष रंग गेहूंवा, कद मंदरा, विवाहित है। किसी ने इनको वहां सूचना दी की लड़की सिरसा चली गई है। करतार सिंह सरदार अपने बयान में लिखवाते हैं कि मैंने दो नौकर तांगा चलाने के लिए रखे हुए हैं। जिसमें एक सिख है तथा दूसरा मुसलमान है। सिख का गांव गैहर तहसील जिला लुधियाना थाना दांसा है। जिसकी आयु 24 वर्ष है। मुसलमान के कहे से लड़की को भगा कर सिरसा लाया गया है। यह ब्यान सरदार करतार सिंह सिरसा आर्यसमाज में श्री पंडित कृष्ण चन्द्र ( पूर्वनाम काले खां) के सम्मुख लिखवाया। ब्यान दर्ज होते ही आर्यसमाज सिरसा के सभासद हरकत में आए। मुंशी काले खां, बख्तावर सिंह, लछमन दास इत्यादि आर्य सज्जन लड़की की खोजबीन करते हैं। 26 अगस्त को श्री मा. बख्तावर सिंह की रिपोर्ट - - सनातन धर्म भवन के पास कुछ व्यक्ति ठहरे हुए हैं। वहां पर मुसलमान एक लड़की जिसका नाम गोरां मुन्नी को जबरदस्ती उठा कर ले जा रहे थे। वहां मौजूद समाजी सज्जन लछमन दास, धन्ना नायक, पूर्ण नायक गोरां मुन्नी को छुड़ाने का यत्न करने लगे। एकाएक उन चार यवनों ने समाजी सज्जनों पर हमला कर दिया। समाजी सज्जन घायल हो गए। एक सज्जन भागता हुआ समाज मंदिर में पहुंचा ओर सारा वृतांत सुनाया। समाज मंदिर में मौजूद मुंशी काले खां, बख्तावर सिंह, गोपाल खजांची को साथ लेकर पास की कचहरी में पहुंच गये और सारा हाल कह सुनाया। खजांची इनको वकीलों के पास ले जाकर सारी घटना से अवगत कराता है। उसके बाद गोपाल जी उस स्थान पर गए जहाँ यह घटना घटित हुई थी। वहां पहुंच कर देखा तो वहां घायल समाजी सज्जन मिले। यवनों के बारे में जाना तो वो मस्जिद में चले गए। समाजी सज्जनों ने यवनों से जान पर खेलकर गोरां मुन्नी को छुड़ा लिया। इतनी देर में घटनास्थल पर हवलदार भी आ पहुंचा। उन यवनों से जब पूछा कि तुम गोरां मुन्नी को जबरदस्ती क्यों उठाकर ले जा रहे थे। उन्होंने मना कर दिया कि जनाब हम तो कलमा पढ़ाने के लिए लाए हैं। परंतु जब समाजी सज्जनों तथा गोरां मुन्नी से पूछा तो यवनों की क्रूरता दिखाई दी। लछमन दास, धन्ना नायक, पूर्ण नायक जैसे समाजी सज्जनों की वजह से वो लड़की यवनों के चंगुल से बच गई। ये कोई ओर लड़की नहीं थी अपितु सरदार करतार सिंह की लड़की थी। उपरोक्त घटनाक्रम श्री कृष्ण चन्द्र (मुंशी काले खां) द्वारा सिरसा आर्यसमाज के कार्यवाही रजिस्टर में लिखा हुआ है। इसमें 20 अगस्त से 26 अगस्त के मध्य जो भी खोजबीन हुई उस पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। ऐसी घटनाएं केवल सिरसा में ही नहीं होती थी। सभी स्थानों पर होती थी। स्वामी दयानन्द के शिष्य जान हथेली पर लेकर समाज के उद्धार के लिए प्रयासरत रहते थे।
Vedic vichar
11-02-2023
• Greatness of Swami Dayananda Saraswati • √ Swami did what he said, and he said what he felt √ Swami was as blunt in expressing his opinion as he was honest in forming it √ Swami blurted out the truth in its naked form ---------------------------- - L. Dwarkadas M.A. Swami Dayanand Saraswati was a man of very earnest convictions, and his faith in the future of the Hindu face was so large that he never allowed the faintest shadow of a doubt to cross his mind in this respect. His optimism was entirely due to his unshaken belief in the Divine origin of the Vedas. So firmly persuaded was he of the truth of this doctrine that he gave it the first place in his system and looked upon it as the very rock upon which his whole creed was broad-based. His other beliefs were all grouped round this central fact, and they received all their colour and shape from it. The Vedas were to this Archimedes, the lever with which he proposed to lift the Hindus out of the rut of their degeneration, and he had not the least doubt that it was a lever of the right sort. His whole nature was so strongly suffused with the enthusiasm born of this belief that with this as his only weapon, he was willing to fight out the whole religious world single-handed. Swami Dayanand was greatly aided in his work of reform by the life of celibacy and renunciation which he undertook to live when he was hardly out of his teens. It was a purely providential act that determined him to cut off, very early, all his connection with his family and relations. His love for his fellow-beings was too wide and too deep to be satisfied with the scope which the narrow affairs of a small family afforded it. His broad heart took, in its sweep, the whole of mankind, and it was only fit that he should look at them from an entirely disinterested point of view. No personal interests tied him down to any particular line of conduct or opinion, and no bias, arising out of personal relations with others, ever interfered with the free exercise of his unfettered judgment. He did what he said, and he said what he felt. It was not necessary for him to shape and express his opinions in accordance with the wishes or the idiosyncrasies of any person or class of persons. He was perfectly free to form whatever opinions he thought were true and to express them as he realised them. This gave him an independence which formed such a conspicuous part of his character on all occasions. There was no earthly power or consideration, which could either induce or coerce him to swerve, in the least degree, from what he thought to be the truth and its straight course. He stood firm by it like a veritable rock, and the waves of the ocean beat against it in vain. The dictates of what passes as mere policy had no recommendation for him, and he set his face against them as something inconsistent with straightforwardness. He was as blunt in expressing his opinion as he was honest in forming it. He hated shilly-shallying as a mean trick, and his mind was too magnanimous to stoop down to the devices of the cunning. He blurted out the truth in its naked form and he did not care to study whether it was dressed up to suit the tastes of his hearers or not. His standpoint, for this reason, was so much above that of the people, that he spoke to them irrespective of what pleased their sophisticated palates. I would not be true to Swami Dayanand, if I ended without mentioning another and a more important piece of his work. He not only delivered lectures and founded Arya Samajes in various places to continue the work he started, but he has also left behind him a number of writings, some of them of very high merit. The most monumental among them is his translation of the Rig and the Yajur Vedas, to which he devoted a good deal of scholarship and research. It is, by itself, sufficient to place his learning on a par with that of the most learned Rishis who ever lived in this land of sages. Among Sanskrit Pandits, it is regarded as one of the highest flights of scholarship for one to be able to read and understand the Vedas. Swami Dayanand was not only fully acquainted with every text of these most difficult works, but he handled them with an ease and insight which were among the most surprising of his accomplishments. [Source: Swami Dayananda Saraswati, pp. 26-28, Arya Samaj Calicut, 1924, Presented here by: Bhavesh Merja]
Vedic vichar
11-02-2023
"दुर्गते: पितरौ रक्षिते स पुत्र:"। जो माता पिता को दु:खो से, उनकी दुर्गति होने से बचाता है, रक्षा करता है वही पुत्र है।
VEDIC WISDOM (Vedic vichar)
11-02-2023
ON THE BIRTH DAY of MAHARSHI DAYANAND SARASWATI on Falgun Krishan Dashmi. Learning from the life of Maharshi Dayanand Saraswati and leaders of Arya Samaj (Continued) Maharishi Dayanand Saraswati propagated the worship of one and only one GOD as enunciated in Vedas and Upanishads. “EKAM SAD VIPRA BAHUDA VADANTI” – God is one, wise learned persons call him by many names depending upon His attributes and characteristics which are innumerable. His main and prime name is OM or AUM. OM is the manifestation of GOD/EESHWAR. The First Chapter of “Satyarth Prakash – Light of Truth” explains the same in vivid details. Vedas do not preach idol worship. There are three unique entities of God, soul and nature. These are eternal and immortal. God is “SACHIDANAND SWARUP (Self-existent, intelligent and blissful spirit of universe), Soul is existent and intelligent but devoid of eternal bliss, nature is existent. The aim of human life is to attain emancipation of soul from the cycles of births and deaths. Based on Vedas, Arya Samaj does not believe in the re- incarnation of soul i.e. Avtar Vad. Panch Maha Yajnas (Five Great Duties) of Dharma.The main part of prayer and duties of every household have been detailed in “Panch Maha Yajna Vidhi” by Swami ji. These are Braham Yajna (Meditation), Dev Yajna (Agnihotra or Homa), Pitri Yajna (service of living parents, elders, learned persons, teachers), BaliVaishva Yajna (feeding the animals, birds, week and poor who cannot manage the same and they are dependent upon other households) and Atithi Yajna (Guest coming without any date). These Yajnas create a balanced society for the development of all physically, spiritually and mentally as well as purification of environment and nature. Yajna is called the noblest deed in Vedas.
Vedic vichar
11-02-2023
बुरी सलाह देने पर राजा का नाश हो जाता है।अधिक लाड प्यार से सन्तान का नाश हो जाता है।स्वाध्याय न करने से ब्राह्मण का नाश हो जाता है।चरित्रहीन पुत्र से खानदान का नाश हो जाता है।शराब पीने से लज्जा शर्म समाप्त हो जाती है।देखभाल न करने से खेती नष्ट हो जाती है।आलस्य करने से धन का नाश हो जाता है।
निराला दयानन्द (Vedic vichar)
10-02-2023
एक बार उत्तर पश्चिमी प्रदेश के एक प्रसिद्ध नगर मे किसी सज्जन ने ऋषि से पूछा कि स्वामी जी आप तो ऋषि है।उत्तर मे स्वामी जी कहने लगे कि ऋषियो के अभाव मे मुझे ऋषि कह रहे हो परन्तु सत्य जानो यदि मै कणाद ऋषि के समय मे उत्पन्न होता तो उस समय के विद्वानो मे भी कठिनता से गिना जाता ।अठारह घंटे की समाधि लगाने वाला पूर्ण योगी दयानन्द जिसको "धर्म दिवाकर पत्र"के अनुसार लोग परम योगी और जडभरत(एक पूर्ण योगी व महर्षि) का अवतार कहते है,कहीं भी अपने को योगी प्रसिद्ध करने का प्रयास करता।सच्चे गुलाब को बनावट की आवश्यकता नहीं उसकी सुगन्ध ही उसकी पहचान है।बनावटी गुलाब को ही इत्र छिडकने की आवश्यकता होती है।योग और योगसिद्धि के नाम पर लोग संसार को लूटते है,चमत्कार के नाम पर लोगो को ठगते है।योगसिद्धि दिखाने पर लोग गुरु बनकर मूर्खो से चरण पूजवाते है।परन्तु चमत्कार ,तमाशे ,भूत -प्रेत,पाखण्ड को काटने वाला,विद्या की ठेकेदारी और ठगी को अन्धकार के समुद्र मे धक्का देने वाला सच्चा योगी दयानन्द हटयोग,ढोंग और तमाशे के धोखो से लोगो को सावधान करता हुआ राजयोग के सच्चे सिद्धांत व श्रेष्ठ नियमो का प्रकाश करता है।ऋषि उस योग विद्या का प्रतिपादन करता है जो योग की दूसरी विद्या के अनुसार प्रत्येक धार्मिक उन्नति शील मनुष्य का अधिकार है और जिससे मनुष्य वेद रुपी प्रकाश का अनुभव करके मन्त्र दृष्टा ऋषि कहला सकता और उसी साधन से ईश्वर दर्शन करता हुआ मृत्यु को जीत सकता है। योग विद्या जिसमे बहुत आत्मिक शक्ति है यही योग यदि किसी पन्थ संप्रदाय के मनुष्य को लेश मात्र भी आ जाय तो वह इसका तमाशा करके लोगो को ठगता है परन्तु यदि किसी विद्या प्रेमी के पास हो तो वह लोगो को इसे प्राप्त करने के नियम और व्यवहार सिखायेगा।ऋषि योग विद्या के सच्चे आचार्य थे।
क,ख,ग क्या कहता है जरा गौर करें...(Vedic vichar)
02-02-2023
क - क्लेश मत करो ख- खराब मत करो ग- गर्व ना करो घ- घमण्ड मत करो च- चिँता मत करो छ- छल-कपट मत करो ज- जवाबदारी निभाओ झ- झूठ मत बोलो ट- टिप्पणी मत करो ठ- ठगो मत ड- डरपोक मत बनो ढ- ढोंग ना करो त- तैश मे मत रहो थ- थको मत द- दिलदार बनो ध- धोखा मत करो न- नम्र बनो प- पाप मत करो फ- फालतू काम मत करो ब- बिगाङ मत करो भ- भावुक बनो म- मधुर बनो य- यशश्वी बनो र- रोओ मत ल- लोभ मत करो व- वैर मत करो श- शत्रुता मत करो ष- षटकोण की तरह स्थिर रहो स- सच बोलो ह- हँसमुख रहो क्ष- क्षमा करो त्र- त्रास मत करो ज्ञ- ज्ञानी बनो !!
वैदिक धर्म की विशेषताएं (Vedic vichar)
02-02-2023
(१ ) वैदिक धर्म संसार के सभी मतों और सम्प्रदायों का उसी प्रकार आधार है जिस प्रकार संसार की सभी भाषाओं का आधार संस्कृत भाषा है जो सृष्टि के प्रारम्भ से अर्थात् १,९६,०८,५३,१२१ वर्ष से अभी तक अस्तित्व में है।संसार भर के अन्य मत,पन्थ किसी पीर-पैगम्बर,मसीहागुरु,महात्मा आदि द्वारा चलाये गये हैं,किन्तु चारों वेदों के अपौरुषेय होने से वैदिक धर्म ईश्वरीय है,किसी मनुष्य का चलाया हुआ नहीं है। (२) वैदिक धर्म में एक निराकार,सर्वज्ञ,सर्वव्यापक,न्यायकारी ईश्वर को ही पूज्य(उपास्य) माना जाता है,उसके स्थान में अन्य देवी-देवताओं को नहीं। ( ३) ईश्वर अवतार नहीं लेता अर्थात् कभी भी शरीर धारण नहीं करता। ( ४) जीव और ईश्वर(ब्रह्म) एक नहीं हैं बल्कि दोनों की सत्ता अलग-अलग है और मूल प्रकृति इन दोनों से अलग तीसरी सत्ता है।ये तीनों अनादि हैं तीनों ही एक दूसरे से उत्पन्न नहीं होते। ( ५ ) वैदिक धर्म के सब सिद्धान्त सृष्टिक्रम के नियमों के अनुकूल तथा बुद्धि सम्मत हैं।जबकि अन्य मतों के बहुत से सिद्धान्त बुद्धि की घोर उपेक्षा करते हैं। ( ६) हरिद्वार,काशी,मथुरा,कुरुक्षेत्र,अमरनाथ,प्रयाग आदि स्थलों का नाम तीर्थ नहीं है।जो मनुष्यों को दुःख सागर से पार उतारते हैं उन्हें तीर्थ कहते हैं।विद्या,सत्संग,सत्यभाषण,पुरुषार्थ,विद्यादान,जितेन्द्रियता,परोपकार,योगाभ्यास,शालीनता आदि शुभ तीर्थ हैं। ( ७ ) भूत-प्रेत डाकिन आदि के प्रचलित स्वरुप को वैदिक धर्म में स्वीकार नहीं किया जाता है।भूत-प्रेत शब्द आदि तो मृत शरीर के कालवाची शब्द हैं और कुछ नहीं। ( ८) स्वर्ग के देवता अलग से कोई नहीं होते।माता-पिता,गुरु,विद्वान तथा पृथ्वी,जल,अग्नि,वायु आदि ही स्वर्ग के देवता होते हैं,जिन्हें यथावत रखने व यथायोग्य उपयोग करने से सुख रुपी स्वर्ग की प्राप्ति होती है। (९) स्वर्ग और नरक:* स्वर्ग और नरक किसी स्थान विशेष में नहीं होते,सुख विशेष का नाम स्वर्ग और दुःख विशेष का नाम नरक है और वे भी इसी संसार में शरीर के साथ ही भोगे जाते हैं।स्वर्ग-नरक के सम्बन्ध में गढ़ी हुई कहानियों का उद्देश्य केवल कुछ निष्कर्मण्य लोगों का भरण-पोषण करना है। ( १० ) मुहूर्तः जिस समय चित्त प्रसन्न हो तथा परिवार में सुख-शान्ति हो वही मुहूर्त है।ग्रह नक्षत्रों की दिशा देखकर पण्डितों से शादी ब्याह,कारोबार आदि के मुहूर्त निकलवाना शिक्षित समाज का लक्षण नहीं है।,क्योंकि दिनों का नामकरण हमारा किया हुआ है,भगवान का नहीं अतः दिनों को हनुमान आदि के व्रतों और शनि आदि के साथ जोड़ना व्यर्थ है।अर्थात् अवैदिक है। (११) राशिफल एवं फलित ज्योतिष: ग्रह नक्षत्र जड़ हैं और जड़ वस्तु का प्रभाव सभी पर एक सा पड़ता है अलग-अलग नहीं।अतः ग्रह नक्षत्र देखकर राशि निर्धारित करना एवं उन राशियों के आधार पर मनुष्य के विषय में भांति-भांति की भविष्यवाणियां करना नितान्त अवैज्ञानिक है।जन्मपत्री देखकर वर-वधू का चयन करने के बजाए हमें गुण-कर्म-स्वभाव एवं चिकित्सकीय परीक्षण के आधार पर ही रिश्ते तय करने चाहिएं।जन्मपत्रियों का मिलान करके जिनके विवाह हुए हैं क्या वे दम्पति पूर्णतः सुखी हैं?विचार करें राम-रावण व कृष्ण-कंस की राशि एक ही थी। (१२) चमत्कार: दुनिया में चमत्कार कुछ भी नहीं है।हाथ घुमाकर चेन,लाकेट बनाना एवं भभूति देकर रोगों को ठीक करने का दावा करने वाले क्या उसी चमत्कार विद्या से रेल का इंजन व बड़े-बड़े भवन बना सकते हैं?या कैंसर,ह्रदय तथा मस्तिष्क के रोगों को बिना आपरेशन के ठीक कर सकते हैं?यदि वह ऐसा कर सकते हैं तो उन्होंने अपने आश्रमों में इन रोगों के उपचार के लिए बड़े-२ अस्पताल क्यों बना रखे हैं?वे अपनी चमत्कारी विद्या से देश के करोड़ों अभावग्रस्त लोगों के दुःख-दर्द क्यों नहीं दूर कर देते?असल में चमत्कार एक मदारीपन है जो धर्म की आड़ में धर्मभीरु जनता के शोषण का बढ़िया तरीका है। ( १३) गुरु और गुरुडम: जीवन को संस्कारित करने में गुरु का महत्वपूर्ण स्थान है।अतः गुरु के प्रति श्रद्धाभाव रखना उचित है।लेकिन गुरु को एक अलौकिक दिव्य शक्ति से युक्त मानकर उससे 'नामदान' लेना,भगवान या भगवान का प्रतिनिधि मानकर उसका अथवा उसके चित्र की पूजा अर्चना करना ,उसके दर्शन या गुरु नाम का संकीर्तन करने मात्र से सब दुःखों और पापों से मुक्ति मानना आदि गुरुडम की विष-बेल है अर्थात् वैदिक मान्यताओं के विरुद्ध है।अतः इसका परित्याग करना चाहिए। (१४) मृतक कर्म : मनुष्य की मृत्यु के बाद उसके मृत शरीर का दाहकर्म करने के पश्चात् अन्य कोई करणीय कार्य शेष नहीं रह जाता।आत्मा की शान्ति के लिए करवाया जाने वाला गरुड़पुराण आदि का पाठ या मन्त्र जाप इत्यादि धर्म की आड़ लेकर अधार्मिक लोगों द्वारा चलाया जाने वाला प्रायोजित पाखण्ड है अर्थात् वैदिक मान्यताओं के विरुद्ध है। ( १५) राम,कृष्ण,शिव,ब्रह्मा,विष्णु आदि ऐतिहासिक महापुरुष थे न कि वे ईश्वर या ईश्वर के अवतार थे। ( १६ )जो मनुष्य जैसे शुभ या अशुभ (बुरे) कर्म करता है उसको वैसा ही सुख या दुःख रुप फल अवश्य मिलता है।ईश्वर किसी भी मनुष्य के पाप को किसी परिस्थिति में क्षमा नहीं करता है। ( १७) मनुष्य मात्र को वेद पढ़ने का अधिकार है,चाहे वह स्त्री हो या शूद्र। ( १८ ) प्रत्येक राष्ट्र में राष्ट्रोन्नति के लिए गुण-कर्म-स्वभाव के आधार पर चार ही प्रकार के पुरुषों की आवश्यकता है इसीलिए वेद में चार वर्ण स्थापित किये हैं-१.ब्राह्मण,२.क्षत्रिय,३.वैश्य ,४.शूद्र । ( १९ ) व्यक्तिगत उन्नति के लिए भी मनुष्य की आयु को चार भागों में बांटा गया है इन्हें चार आश्रम भी कहते हैं।२४ वर्ष की अवस्था तक ब्रह्मचर्य आश्रम,२५ से ५० वर्ष की अवस्था तक गृहस्थाश्रम,५० से ७५ वर्ष की अवस्था तक वानप्रस्थाश्रम और इसके आगे संन्यासाश्रम माना गया है। ( २०) जन्म से कोई भी व्यक्ति ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य या शूद्र नहीं होता।अपने-अपने गुण-कर्म-स्वभाव से ब्राह्मण आदि कहलाते हैं,चाहे वे किसी के भी घर में उत्पन्न हुए हों। ( २१) भंगी,चमार आदि के घर उत्पन्न कोई भी मनुष्य जाति या जन्म के कारण अछूत नहीं होता।जब तक गन्दा है तब तक अछूत है चाहे वह जन्म से ब्राह्मण हो या भंगी या अन्य कोई। ( २२) वैदिक धर्म पुनर्जन्म को मानता है।अच्छे कर्म अधिक करने पर अगले जन्म में मनुष्य का शरीर और बुरे कर्म करने पर पशु,पक्षी,कीट-पतंग आदि का शरीर,अपने कर्मों को भोगने के लिए मिलता है।जैसे अपराध करने पर मनुष्य को कारागार में भेजा जाता है। ( २३) गंगा-यमुना आदि नदियों में स्नान करने से पाप नहीं धुलते।वेद के अनुसार उत्तम कर्म करने से व्यक्ति भविष्य में पाप करने से बच सकता है।जल से तो केवल शरीर का मल साफ होता है आत्मा का नहीं। ( २४ ) पंच महायज्ञ करना प्रत्येक गृहस्थी के लिए आवश्यक है। ( २५ ) मनुष्य के शरीर,मन तथा आत्मा को संस्कारी(उत्तम) बनाने के लिए गर्भाधान संस्कार से लेकर अन्त्येष्टि पर्यन्त १६ संस्कारों का करना सभी गृहस्थजनों का कर्तव्य है। (२६ ) मूर्तिपूजा,सूतियों का जल विसर्जन,जगराता,कांवड लाना,छुआछूत,जाति-पाति,जादू-टोना,डोरा-गंडा,ताबिज,शगुन,जन्मपत्री,फलित ज्योतिष,हस्तरेखा,नवग्रह पूजा,अन्धविश्वास,बलि-प्रथा,सतीप्रथा,मांसाहार,मद्यपान,बहुविवाह आदि सामाजिक कुरीतियां वैदिक राह से भटक जाने के बाद हिन्दू धर्म के नाम से बनी हुई हैं वेदों में इनका नाम भी नहीं है। ( २७) वेद के अनुसार जब मनुष्य सत्यज्ञान को प्राप्त करके निष्काम भाव से शुभकर्मों को प्राप्त करता है और महापुरुषों की भांति उपासना से ईश्वर के साथ सम्बन्ध जोड़ लेता है।तब उसकी अविद्या (राग-द्वेष आदि की वासनाएं) समाप्त हो जाती है।मुक्ति में जीव ३१ नील,१० खरब,४० अरब वर्ष तक सब दुःखों से छूटकर केवल आनन्द का ही भोग करके फिर लौटकर मनुष्यों में उत्तम जन्म लेता है। (२८) जब-जब मिलें तब-तब परस्पर 'नमस्ते शब्द' बोलकर अभिवादन करें।यही भारत की प्राचीनतम वैदिक प्रणाली है। ( २९) वेद में परमेश्वर के अनेक नामों का निर्देश किया है जिनमें मुख्य नाम 'ओ३म्' है।शेष नाम गौणिक कहलाते हैं अर्थात् यथा गुण तथा नाम।
Vedic vichar
01-02-2023
*"सच्चा मनुष्य बनने में वर्षों लग जाते हैं और पशु बनने में कोई देर नहीं लगती।"* सच्चा मनुष्य बनने में तो इतना परिश्रम करना पड़ता है, जैसे ज़मीन से पहाड़ पर चढ़ना हो। *"पहाड़ पर चढ़ना बहुत कठिन है। इसीलिए सच्चा मनुष्य बनना भी बहुत कठिन है।"* मनुष्य बनने का अर्थ है, *"मनुष्यता को जीवन में लाना।" मनुष्यता क्या है? "मनुष्यता उस व्यवहार को कहते हैं, जो एक मनुष्य, दूसरे मनुष्य से अपने लिए चाहता है।"* यदि आप ऐसा चाहते हैं कि *"दूसरा व्यक्ति आपके साथ सभ्यता पूर्वक व्यवहार करे। न्याय पूर्वक सच्चाई से ईमानदारी से बुद्धिमत्ता से व्यवहार करे, सम्मान पूर्वक व्यवहार करे, तो इसी का नाम मनुष्यता है।" "इन गुणों को जीवन में लाने के लिए बहुत वर्षों तक परिश्रम और सावधानी का प्रयोग करना पड़ता है। तब जाकर कहीं कोई व्यक्ति, 'मनुष्य' बन पाता है।"* परन्तु 'पशु' बनना बहुत आसान है। उसमें कोई देर नहीं लगती। *"थोड़ी सी लापरवाही करते ही व्यक्ति भेड़िए जैसा क्रूर पशु बन जाता है।" "यदि कोई तथाकथित मनुष्य, एकांत स्थान आदि में पाप करे, दूसरे व्यक्ति पर अत्याचार करे, तथा ऊपर बताए सभ्यता नम्रता बुद्धिमत्ता ईमानदारी सच्चाई आदि गुणों को छोड़ दे, तो उसे मनुष्य नहीं कहेंगे, बल्कि 'पशु' कहेंगे।"* अनेक परिस्थितियां और अलंबन ऐसे उपस्थित हो जाते हैं, जहां व्यक्ति को बहुत सावधान रहना पड़ता है। *"यदि वहां वह थोड़ी सी लापरवाही कर जाए, तो तुरंत पशु बन जाता है, और पशुता के व्यवहार करने लगता है। उससे तत्काल उसका जीवन/आचरण/चरित्र नष्ट हो जाता है।"* *"इसलिए सदा सावधान रहें। मनुष्यता को धारण करके सच्चे मनुष्य कहलाएं। दूसरों को सुख दें और अपना जीवन भी सफल बनाएं."*
Vedic vichar
01-02-2023
मै और मेरा इनका आपस मे घनिष्ठ सम्बन्ध है।मै का सबसे अधिक प्रयोग शरीर के सम्बन्ध मे होता है, जैसे मै खाता हूं ,मै पीता हूं ,यह मेरा हाथ है, मेरा सिर है।चाहे बच्चा हो या बूढ़ा सब ऐसा ही कहते है। अब प्रश्न यह है कि मेरा और शरीर इनमे क्या सम्बन्ध है? सम्बन्ध तो अवश्य होगा यदि न होता तो मेरा शब्द ही न होता जिसका प्रयोग हर मनुष्य अनादि काल से करता आया है। अब इस पर विचार करे तो दो बातें सामने आती है ,पहली तो यह कि मै शरीर नहीं हूं ,मेरी सत्ता और शरीर की सत्ता अलग -२ है।दूसरा यह कि शरीर मे मुझे अपना अनुभव होता है शरीर कोई ऐसी वस्तु नहीं जिसका मुझसे सम्बन्ध न हो।अपना स्वरूप जानने के लिए इन दो बातो का ध्यान रखना आवश्यक है। लेकिन कुछ लोग भ्रम के कारण कहते है कि मै और शरीर मे कोई भेद नहीं ,क्योंकि जब मन मे विचार आते है तो वे शरीर से ही सम्बन्धित होते है जब मै सोचता हूं कि मै खाता हू तो यह शरीर की क्रिया है।जब मै सोचता हूं कि मै सोता हू तो यह भी शरीर की क्रिया है।इसलिए मन मे आये सभी विचार शरीर के विषय मे होते है। कोई भी विचार शरीर से अलग नहीं इसलिए शरीर और मै एक ही है।कुछ लोग कहते है कि शरीर की अलग सत्ता नहीं है बल्कि यह शरीर ,इन्द्रिय और अन्त:करण ये आत्मा के भाव है ,शरीर की अलग सत्ता नहीं है। परन्तु ये दोनों बातें ठीक नहीं ।उदाहरण के लिए मै खाता हूं ,तो कौन खाता है ? शरीर या आत्मा ।क्या शरीर खा सकता है ?नहीं ,यदि शरीर खा सकता तो मृत शरीर भी खाता लेकिन ऐसा नहीं होता। तो फिर क्या आत्मा खाता है ? नहीं क्योंकि खाना शरीर की क्रिया है यदि शरीर से अलग आत्मा कोई चेतन वस्तु है तो वह जड़ भोजन कैसे खा सकता है? अब विचार करते है भूख किसे लगती है ?बहुत से लोग कहते है कि शरीर मे भोजन न रहने का नाम भूख है किन्तु यह सच नहीं है ।वास्तव मे शरीर मे भोजन न रहना या कम रहने का नाम भूख नहीं बल्कि भोजन न रहने के अनुभव का नाम भूख है। लोग कहते है कि जिनको भूख नहीं लगती वे रोगी होते है ।यदि भोजन का अंश है और भूख नहीं लगती तो वह रोगी नहीं ।परन्तु भोजन का अंश भी नहीं और उस कमी को अनुभव भी नहीं करता तो ऐसा मनुष्य रोगी होता है।इसप्रकार भूख की अनुभूति के दो भाग है पहला भोजन का शरीर मे न रहना जो शारिरीक क्रिया है ,दूसरा भूख का अनुभव करना जो आत्मिक क्रिया है।इसी प्रकार यदि पेट मे दर्द है तो यह केवल शरीर की क्रिया नहीं ।यदि डाक्टर से इसका कारण पूछे तो कहेगा कि अमुक नस ब्लाक हो गई या अमुक रस बढ गया ।उसकी यह बात पूर्णतः ठीक नहीं ।क्योंकि नस का ब्लाक होना दर्द नहीं कहलाता ।ऐसा भी सम्भव है कि शरीर के कोई अंग काट दिया जाय और दर्द भी न हो। इससे सिद्ध होता है कि दर्द शरीर की घटना के साथ आत्मिक घटना भी है क्योंकि यदि शरीर न होता तो पीड़ा न होती और यदि आत्मा न होता तब भी पीड़ा न होती ।अर्थात् शरीर अलग वस्तु है और मै अलग वस्तु है किन्तु दोनों मे कोई सम्बन्ध अवश्य है।
Vedic vichar
01-02-2023
People speak many words while greeting, like Ram-Ramji, Jai Shri Krishna, Jai Mata Di, Jai Bhim, Saint Shri Akal, Assala Malekum, Good Morning, Omji, Namaste Ji, and Matwala take the name of their Guruji. If you think about all these, then Namaste is the only sentence which respects each other by speaking. Respect is not shown from anyone else. Some say hello is okay, but it is not because hello is a post, noun and hello is a sentence. Namaskar has two words moist and car. These two have made a post which means bowing down, bowing down and greeting. Now I don't know if it is for the person in front of me or for myself. While saying hi sounds ok - well know I'm bowing down to the front. Namaste means Nam: + Te, Nam: - Naman and Te - for you. I salute you, respectful greetings. This expression is not in other words. In the scriptures, this word is in many places. Yajurveda - 04-07, 1973. Rigveda -07-07-2018 Athharvveda -06-07-2019,07-07-07,07-04-2019,04-07-201 8. In Adi and other texts Upanishads, Brahmin books also came. That's why Namaste is the scripture in greeting.
Vedic vichar
01-02-2023
हम परा व अपरा दोनों विद्या को प्राप्त करें, अपराविद्या अर्थात् पदार्थ विद्या के बिना जीवन धारण सम्भव नहीं होगा और पराविद्या ब्रह्म विद्या के अभाव मे जीवन दूषित हो जायेगा क्योंकि हम भोगों मे फंस जायेंगे।--अथर्ववेद--११-३-२६,२७,२८,२९
Vedic vichar
01-02-2023
भोजन के लिए जो कुश का आसन बिछाया जाय वह सुन्दर हो।भोजन करने के समय मन मे कुविचार न हो,इकट्ठे होकर भोजन करें।भोजन ऋतु के अनुकूल हो।--अथर्ववेद-१२-३-३२
Vedic vichar
11-11-2022
विवाह मे विदाई के समय एक पिता सबको नमस्ते करते हुए सबका धन्यवाद कैसे करता है यह इस मन्त्र मे कहा है। सूर्यायै देवेभ्यो मित्राय वरुणाय च। ये भूतस्य प्रचेतसतेभ्य इदमकरं नम:।। अथर्ववेद-१४-२-४६ विदाई के समय सभी भावुक हो जाते है और भावुकता मे आंसू बहने लगते है क्योंकि जिस बेटी को जन्म दिया , पाला पौषा पढ़ाया लिखाया आज वह पितृकुल से सारे बन्धन तोड़कर पतिकुल से बंधने जा रही है ,ऐसे मे एक पिता बेटी को, वर व उसके माता पिता , बारातियो , पितरों देवो को नमस्ते करता है उनका धन्यवाद करता है। सबसे पहले सूर्या अर्थात् पुत्री को कहता है कि हे बेटी तुमसे अलग होने को मन नहीं चाहता लेकिन यह परमपरा तो निभानी है तू मेरे दिल का टुकड़ा है मन कहता है तुझे कुछ उपहार दूं पर सोचता हूँ कि क्या दूं ? कपडे दूं या आभूषण दूं या कुछ ओर। लेकिन बेटी तुम तो जानती हो कि ये सब वस्त्र आभूषण शरीर का सौंदर्य है जो सदा नहीं रहता इसलिए यह भी ठीक नहीं , लेकिन लाड़ली बिटिया को देना तो है तो लो मैं तुझे तेरे मन का आभूषण देता हूं ऐसे आभूषण जो कभी धूमिल नहीं होंगे तेरा जीवन संवार देंगे। बेटे तूने अब तक मेरी इज्जत मेरा सम्मान बनाये रखा है उसे आंच तक नहीं आने दी बिटिया आगे भी यही ध्यान रखना कि मेरे सम्मान को ठेस न पहुँचे। कोई तुझे यह न कहे कि कितने नीच कुल की है।बेटी यदि कोई तेरे सामने किसी की निन्दा करे तो उस समय चुप रहना उस पर ध्यान न देना। हम तेरे नकली माँ बाप थे जो छूट रहे है और तुझे सास ससुर के रूप मे असली माँ बाप मिल रहे है उनकी सेवा करना । ज्येष्ठ भाई को पिता व जेठानी को माता समझना।बेटी देवर व देवरानी बेटा बेटी समझना। बेटी सेवक व सेविका पर दया भाव रखना ।वहाँ जाकर दान आदि धर्म के काम भी करते रहना, मधुमक्खी न बन जाना लेकिन देते समय ध्यान रखना की पात्र उल्टा न हो सुपात्र को देना। बिटिया एक बात ध्यान रखना कि तेरे द्वार से कोई अतिथि भूखा न चला जाय। और वृद्ध साधु संन्यासी को ऐसा भोजन न देना जिसे वे पचा न सके।लाडो अगर किसी बात पर जेठानी या बूढी माँ तुझे डांट दे या हमे बुरा भला कहे तो पलट कर जवाब मत देना नहीं तो घर मे कलह हो जायेंगी ।बिटिया अगर कभी सास गुस्सा होकर कड़वा बोल दे तो उसे कड़वी दवाई सोचकर पी जाना।जैसे कड़वी दवा पीने के बाद आराम करती है ऐसे ही यह चुप रहना करेगी और वही सास तुझे माँ से भी अधिक प्यार व सम्मान देगी तुझे घर की रानी बना देगी। बेटा सबसे मधुर बोलना क्योंकि मीठी वाणी सबको अपना बना लेती है। बेटी अपने पति की तन मन से सेवा करना वही तेरा गुरु है और वह देवता है उसका हर शुभ कर्म मे साथ देना।बेटा अगर ये बाते ध्यान रखेगी तो तेरा घर स्वर्ग बन जायगा ।पिता वर के माता पिता का भी धन्यवाद करता है कहता है कि आपने मेरी बेटी को अपनाकर मुझपे उपकार किया है उस पर अपनी कृपा दृष्टि सदा बनाये रखना कभी माँ बाप की कमी महसूस न होने देना। पिता बारातियो का भी धन्यवाद करता हुआ कहता है कि मैं आपको नमस्कार करता हूँ क्योंकि आप अपना कीमती समय निकाल कर यहाँ आये और मेरे घर की द्वार की शोभा बढाई। मैं सब देवो विद्वानों को भी नमस्कार करता हूं उनको भी धन्यवाद देता हूँ और प्रार्थना करता हूँ कि वे सब भी इन बच्चो पर अपनी कृपा दृष्टि बनाये रखे इनकी रक्षा करे और इनकी समृद्धि का कारण बने ।मैं आप सभी का हृदय से स्वागत सम्मान करता हूँ ।नमस्ते करता हूँ ।
ଆତ୍ମାହିଁ ପ୍ରାଣ ଅଟେ I
01-11-2022
ଆତ୍ମାହିଁ ପ୍ରାଣ ଅଟେ। କିପରି ଏହା ସତ୍ୟ ବୃହଦାରଣ୍ୟକ ଉପନିଷଦ କହନ୍ତି" ତଦେକ ମୟମାତ୍ମାଽଽତ୍ମୋଏକ8 ସନ୍ନେ ତତ୍ ତ୍ରୟଂ ।ତଦେ ତଦମୃତଂ ସତ୍ୟେନ ଛନ୍ନମ୍ ପ୍ରାଣେ। ବା ଅମୃତଂ ନାମ ରୂପେ ସତ୍ୟଂତାଭ୍ୟାମୟମ୍ ପ୍ରାଣଶ୍ଚନ୍ନ।( ୧/୬/୩) ଅର୍ଥାତ୍ ନାମ-ରୂପ-କର୍ମ ଏ ତିନି ଗୋଟି ବ୍ରହ୍ମାଣ୍ଡର ତ୍ରିକ ଅଟନ୍ତି । ସେହିପରି ବାଣୀ_-ଚକ୍ଷୁ-ଆତ୍ମାପିଣ୍ଡର ଏ ତିନି ଗୋଟି ତ୍ରିକ ଅଟନ୍ତି । ଏମାନେ ପୃଥକ ହେଲେ ମଧ୍ୟ ଏକ I ଏ ସବୁ ଆତ୍ମାରେ ସମାହିତ । ଆତ୍ମାହିଁ ଅମର ଅଟେ ଓ ସତ୍ୟ ଅଟେ। ଆତ୍ମାର ଭୌତିକ ରୂପ ହିଁ ପ୍ରାଣ ଅଟେ। ଯେପରି ବାଣୀର ଭୌତିକ ରୂପ ଚକ୍ଷୁ, ଚକ୍ଷୁର ଭୌତିକ ରୂପ ' ରୂପ' ଅଟେ ।ନାମ ଓ ରୂପସତ୍ୟ ଅଟେ। ଯାହା ପ୍ରାଣଦ୍ୱାରା ଅଚ୍ଛାଦିତ । ଅର୍ଥାତ୍ ଯେଉଁଠାରେ ଅମର ପ୍ରାଣ(ଈଶ୍ଵର) ଅଛନ୍ତି ସେଠାରେ ତାଙ୍କ ସହିତ ରଚନା ମଧ୍ୟ ନାମ ରୂପାତ୍ମକ ସତ୍ୟ ରୂପରେ ବିଦ୍ୟମାନ। ଏଠାରେ ପ୍ରାଣକୁ ଆତ୍ମା ତଥା ପରମାତ୍ମାରୂପେ ଋଷି ପ୍ରତିପାଦନ କରିଛନ୍ତି ଏହିପରି ଯେ ଆତ୍ମାହିଁ ସମସ୍ତ କର୍ମର ବ୍ରହ୍ମ ଅଟେ । ଏଠାରେ ବ୍ରହ୍ମ ଅର୍ଥ ନିଜର ବିଶାଳତା ମଧ୍ୟରେ ଧାରଣ କରେ ଆଶ୍ରୟ ପ୍ରଦାନ କରିବା। ଇତି ଓ ୩ମ୍ । Vedic Vichar
ନି ହୋତା ସତ୍ସିବର୍ହିଷି
01-11-2022
ନି ହୋତା ସତ୍ସିବର୍ହିଷି । ଏହି ମନ୍ତ୍ର ସାମ ବେଦର୧/୧/୧/୧/୧ ଆସେ ଏବଂ ଋଗ୍ବେଦ୬/୧୬/୧୦ ମନ୍ତ୍ରରେ ଆସେ କାରଣ ସା+ଅମଃ=ସାମ । ସାଅର୍ଥାତ୍ ସେ ଋକ୍, ଆମଃ ଅର୍ଥାତ୍ ଆଳାପ । ସାମର ଅର୍ଥ ଋଗ୍ବେଦର ମନ୍ତ୍ରକୁ ଆଧାର କରି ଗାନ କରିବା। ଋଗ୍ବେଦର ପାଦବଦ୍ଧ ମନ୍ତ୍ରଗୁଡ଼ିକୁ ଅଭ୍ୟାସ କରି ବେଦ ବିତ୍ ବାଣୀ ସାଧକ ହୁଏ । ପରନ୍ତୁ ପ୍ରାଣସାଧକ ହେବା ପାଇଁ ତାହାକୁ ଗାନମୟ ସାମମନ୍ତ୍ରଗୁଡିକର ଶରଣ ନେବାକୁ ହୁଏ । ସାଧାରଣ ମନୁଷ୍ୟ ନୁହନ୍ତି ଦୁରୁହ ରୋଗରେ ପୀଡିତ ବ୍ୟକ୍ତିମାନେ ମଧ୍ୟ ସାମଗାନ ଶ୍ରବଣ କରି ସୁସ୍ଥ ଓ ପ୍ରସନ୍ନ ହୁଅନ୍ତି । ସମସ୍ତ ପଦାର୍ଥର ପ୍ରଦାନ ଦାତା ଆମର ହୃଦୟ କନ୍ଦର ରେ ଅବସ୍ଥିତ। ଆମେ ଯେଉଁ ଦିନ ଗିରିକନ୍ଦର, ନଦନଦୀ, ମନ୍ଦିର, ଗୀର୍ଜା ଓ ମସଜିଜ୍ ସହିତ ଗୁରୁବାଦରେ ଇଶ୍ଵର ଅଛନ୍ତି ଅନ୍ୟଠାରେନାହାନ୍ତି ବୋଲି ଜ୍ଞାନ କରିବା ସେତେ ଦିନ ପର୍ଯ୍ୟନ୍ତ ପାପ କାର୍ଯ୍ୟର ଅନ୍ତ ହେବନାହିଁ। ଯେଉଁ ଦିନ ଆମର ଦୃଦୟରେବିରାଜନମାନ ଜ୍ଞାନହେବ ସେହି ଦିନଠାରୁ ପାପ କାର୍ଯ୍ୟ ସମାପ୍ତି ହୋଇଯିବ ଓ ଧର୍ମଜ୍ଞାନ ପ୍ରାରମ୍ଭ ହେବ। ଯେବେ ଆମର ହୃଦୟ ଈଶ୍ଵର ଅନୁଭୂତିରେ ଆନନ୍ଦ ବିଭୋର ହୋଇ ଉଠିବ ସେହି ଦିନ ପ୍ରଭୁଦର୍ଶନ ଏହି ହୃଦୟ କନ୍ଦରରେ ହିଁହୋଇଯିବ।ହୃଦୟରେ ପ୍ରଭୁ ପ୍ରକାଶ ହୋଇଗଲେ ଅନ୍ଧକାର ରୂପକ ଅଜ୍ଞାନ ନଷ୍ଟ ହୋଇଯାଏ। ଏହିପରି ହୃଦୟରେ ସନ୍ମାର୍ଗର ପ୍ରେରଣା ମିଳେ ଏବଂ କର୍ମବନ୍ଧନ ଫିଟିଯାଏ । ଯେପରି ବିଦ୍ଵାନ୍ ପୁରୋହିତଯଜ୍ଞାସନରେ ବସିଯଜ୍ଞ କରେ, ରାଜା ,ରାଜସଭାରେ ବସି ରାଷ୍ଟ୍ରର ଉନ୍ନତି କରେ ସେହିପରି ପରମାତ୍ମାରୂପକ ଅଗ୍ନି ଆମରି ହୃଦୟାକ।ଶରେ ରହି ଆମର କଲ୍ୟାଣ କରନ୍ତି ଏଣୁ ଅ।ମେ ସମସ୍ତେ ହୃଦୟରେ ପରମାତ୍ମାଙ୍କୁ ଆବାହନ କରିବା ଉଚିତ୍। ଏହାକୁ ଆମେ ଭୁଲିବା ଉଚିତ୍ ନୁହେଁ। ଜ୍ଞାନ ଏବଂ ଉପାସନାରେ ଯେବେ ଆମେ ପରିପୂର୍ଣ୍ଣ ହୋଇଯାଉ ସେତେବେଳେ ପ୍ରାର୍ଥନାରେ କୋହଉଠେ । ହଁ ବିଶ୍ଵବ୍ରହ୍ମାଣ୍ଡର ରଚୟିତା , ରକ୍ଷକ, ପାଳକ , ପୋଷକ ଓ ନିୟନ୍ତ୍ରକ ପ୍ରଭୁ ହିଁ ଅଟନ୍ତି । ଯେପରି ଅଗ୍ନି ପବିତ୍ର ସେହିପରି ପ୍ରଭୁ ମଧ୍ୟ ପରମ ପବିତ୍ର ଅଟନ୍ତି । ହେ ନିରାକାରୀ, ସର୍ବଜ୍ଞ, ଦୟାଳୁ ପରମେଶ୍ଵର ଆପଣ ମୋମା ଯେପରି ମୋର ପରି ନିକୃଷ୍ଟ ସନ୍ତାନ ପ୍ରତି ସର୍ବଦା ଶୁଭକୃପା ବର୍ଷଣ କରନ୍ତି ଆପଣ ମଧ୍ୟ ସେହିପରି ମୋ ଭଳି ଅଳ୍ପଜ୍ଞ ମନୁଷ୍ୟ ଉପରେ ଆପଣ ମୋ ପରି ଉପାସନା,କୃତଜ୍ଞତା ଜ୍ଞାପନ ନ କରୁଥିବା ପୁତ୍ରକୁ ଅନାଦି କାଳରୁ ଉପକାର ବର୍ଷଣ କରୁ ଆସୁଅଛି। ନଚେତ୍ ଆଜି ମୁଁ ଏପରି କ୍ଷମା ମାଗୁନଥାନ୍ତି। ହେ ସର୍ବଶ୍ରେଷ୍ଠ ପ୍ରଭୁ ମୋର ଆତ୍ମା ସର୍ବଦା ଆପଣଙ୍କ ଅନୁଭୂତି ରହୁ କେବେତ ହେଲେ ଦର୍ଶନ ହୋଇଯିବ ଏହି ଆଶା ପୋଷଣା କରୁ କରୁ ଚକ୍ଷୁ ମୁଦ୍ରିତ ହୋଇଯାଉଅଛି । ଇତି ଓ ୩ମ୍ । Vedic Vichar
सत्यार्थप्रकाश से (Vedic vichar)
30-10-2022
प्रश्न ----जीव शरीर में भिन्न विभु है या परिछिन्न ? उत्तर ---परिछिन्न है ,जो विभु होता तो जाग्रत ,स्वप्न , सुसुप्ति ,जन्म ,मरण , संयोग , वियोग आना, जाना कभी नहीं हो सकता , इसलिए जीव का स्वरुप अल्पज्ञ , अल्प अर्थात सूक्ष्म है और परमात्मा अतीव सूक्ष्म सूक्ष्मात्मसुक्ष्मतर , अनंत , सर्वज्ञ और सर्वव्यापक स्वरुप है l इसलिए जीव और परमेश्वर का व्याप्य -व्यापक सम्बन्ध है l प्रश्न --- जिस जगह में एक वस्तु होती है उस जगह में दूसरी वस्तु नहीं हो सकती l इसलिए जीव और ईश्वर का संयोग सम्बन्ध हो सकता है ,व्याप्य -व्यापक नहीं l उत्तर --यह नियम समान आकार वाले पदार्थों में घट सकता है , असमान आकृति में नहीं l जैसे लोहा स्थूल , अग्नि सूक्ष्म है ,इस कारण लोहे में विद्युत् , अग्नि व्यापक होकर एक ही स्थान में दोनों रहते हैं उसी प्रकार जीव , परमेश्वर से स्थूल है और परमेश्वर जीव से सूक्ष्म होने से परमेश्वर व्यापक और जीव व्याप्य है l जैसे व्याप्य -व्यापक सम्बन्ध जीव और ईश्वर का है वैसे ही सेव्य-सेवक ,आधराधेय , स्वामी -भृत्य ,राजा -प्रजा ,और पिता -पुत्र आदि भी सम्बन्ध हैं l
कम से कम इतना तो जानो ( Vedic vichar)
29-10-2022
प्रश्न:* वेद कितने हैं उनके नाम क्या हैं? *उत्तर:* वेद चार हैं-ऋग्वेद,यजुर्वेद,सामवेद,अथर्ववेद। *प्रश्न:* वेदों का प्रकाश किसने किया? *उत्तर:* परमपिता परमात्मा ने वेदों का प्रकाश किया। *प्रश्न:* वेद का ज्ञान परमात्मा ने किनके द्वारा किया? *उत्तर:* चार ऋषियों के द्वारा-अग्नि,वायु,आदित्य और अंगिरा के द्वारा परमात्मा ने चारों वेदों का प्रकाश किया। *प्रश्न:* वेदों का प्रकाश परमात्मा ने कब किया? *उत्तर:* मानव सृष्टि के प्रारम्भ में परमात्मा ने वेदों का प्रकाश किया। वेदों की उत्पत्ति सृष्टि के आरम्भ में परमात्मा द्वारा लगभग १अरब, ९६ करोड़ , ०८ लाख, ५३ हजार १२१ वर्ष पूर्व हुई थी। प्रश्न:- वेद-ज्ञान के सहायक दर्शन-शास्त्र कितने है? उनके लेखकों के क्या नाम है? उत्तर :- दर्शन-शास्त्र छ: है । १ - न्याय दर्शन - गौतम मुनि २ - वैशेषिक दर्शन - कणाद मुनि ३ - योगदर्शन - पतंजलि ऋषि ४ - मीमांसा दर्शन - जैमिनी ऋषि ५ - सांख्यदर्शन - कपिल मुनि ६ - वेदान्त दर्शन - व्यास ऋषि प्रश्न :- दर्शन- शास्त्रों के विषय क्या है ? उत्तर :- आत्मा, परमात्मा, प्रकृति, जगत की उत्पत्ति, प्रलय, मुक्ति अर्थात् सब प्रकार का भौतिक व आध्यात्मिक ज्ञान-विज्ञान आदि। कुल उपनिषद कितने है ? उत्तर :- प्रमाणिक उपनिषद ११ है। १ - ईश ( ईशावास्योपनिषद) २ - केन ३ - कठिन ४ - प्रश्न ५ - मुंडक ६ - मांडू ७ - ऐतरेय ८ - तैत्तिरीय ९ - छांदोग्य १० - बृहदारण्यक ११ - श्वेताश्वर उपनिषद प्रश्न :- उपनिषदों के विषय कहाँ से लिए गए हैं ? उत्तर :- उपनिषदों के विषय वेदों से लिए गए हैं। प्रश्न :- क्या रामायण भी धर्म शास्त्र है। उतर :- नहीं वे हमारे आदर्श पुरूष भगवान श्री राम का धर्म आधारित जीवन इतिहास है। प्रश्न :- क्या गीता धर्म शास्त्र नहीं है ? उतर :- महाभारत एक इतिहास पुस्तक है और गीता इसका भाग है।जिस में भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को जो उपदेश दिया वह श्रीमद्भगवद्गीता के नाम से जानी जाती है।गीता का स्थान वही है जो उपनिषद् और धर्मसूत्रों का है। हमारे धर्म का व शास्त्रों का मूल वेद हैं इसी लिए तो महाराज मनु ने कहा :- वेदोअखिलो धर्म मूलम् वेद सभी धर्मों का मूल है ।
Vedic Vichar
28-10-2022
ନାରୀର ଅନେକ ରୂପ ରହିଥାଏ । ନାରୀର ମାୟା ବୁଝିବା ଏତେ ମଧ୍ୟ ସହଜ ହୋଇନଥାଏ । ବିଶେଷ କରି ଯେଉଁ ନାରୀ ସୁନ୍ଦର ହେବା ସହ ଚତୁର ହୋଇଥାଏ । ସେଭଳି ନାରୀର ମାୟାରେ ପଡିବା ଜମାରୁ ହିତକର ହୋଇନଥାଏ । କାରଣ ସାଧାରଣ ମନୁଷ୍ୟ କଣ ବଡ ବଡ ବିଦ୍ଵାନ ମୁନୀ ରୁଷି ମଧ୍ୟ ନାରୀ ମୋହରେ ପଡି ବର୍ତ୍ତୀପାରିନାହାନ୍ତି । ସେଥିପାଇଁ ପୁରୁଷମାନେ ସବୁବେଳେ ଅପରିଚିତ ନାରୀ ପ୍ରତି ସତର୍କ ରହିବା ଉଚିତ । ଆଜି ଆପଣମାନେ ଜାଣିବାକୁ ପାଇବେ କେଉଁ ପ୍ରକାର ନାରୀମାନଙ୍କ ଠାରୁ ପୁରୁଷ ମାନଙ୍କୁ ଦୂରେଇ ରହିବା ଉଚିତ ହୋଇଥାଏ । ପ୍ରଥମ ହେଉଛି ଅତି ମଧୁର ବଚନ ବୋଲୁଥିବା ନାରୀ । ଯେଉଁ ନାରୀ ନିଜର କାମ ସମୟରେ କୌଣସି ପୁରୁଷର ଅତି ନିକଟବର୍ତ୍ତୀ ହେବା ପାଇଁ ଚାହିଁଥାଏ । ତା ସହିତ ମିଠା ମିଠା କଥା କହି ତାଠାରୁ କାମ ଆଦାୟ କରିବାକୁ ଇଚ୍ଛା କରିଥାଏ ।ସେପରି ନାରୀଙ୍କ ଠାରୁ ଯେତେ ସମ୍ଭବ ଦୂରେଇ ରହିବା ପୁରୁଷଙ୍କ ପକ୍ଷେ ଅତି ଭଲ ହୋଇଥାଏ । ଦିତୀୟରେ ଛଳନା ପ୍ରକୃତିର ନାରୀଠୁ ପୁରୁଷଙ୍କୁ ଦୂରେଇ ରହିବା ନିହାତି ଆବଶ୍ୟକ ହୋଇଥାଏ । କାରଣ ଏପରି ନାରୀ ମଧ୍ୟ ଅଛନ୍ତି ପୁରୁଷଙ୍କୁ ତାର ରୂପ ଓ ଯୌବନରେ ଆକର୍ଷିତ କରି ତାଠାରୁ ସର୍ବସ୍ଵ ଲୁଟିବା ପାଇଁ ଚାହିଁଥାଏ । ପ୍ରେମର ବାହାନାରେ ଯେଉଁ ନାରୀ ପୁରୁଷ ସହିତ ପ୍ରେମ ରୂପକ ଛଳନା କରୁଥାଏ । ସେପରି ନାରୀଠୁ ପୁରୁଷ ସର୍ବଦା ବଞ୍ଚିକି ରହିବା ଉଚିତ । ନଚେତ ଏପରି ନାରୀଙ୍କ ମୋହରେ ଅନ୍ଧ ହୋଇ ପୁରୁଷ ସଂପୂର୍ଣ୍ଣ ବର୍ବାଦ ହେବାର ସମ୍ଭାବନା ରହିଥାଏ । ତୃତୀୟରେ ପୁରୁଷକୁ କଠୋର ହୃଦୟ ନାରୀ ସହିତ ପ୍ରେମ ସମ୍ପର୍କ ରଖିବା ଆଦ୍ୱା ଉଚିତ ନୁହେଁ । କାରଣ କଠୋର ହୃଦୟ ନାରୀମାନେ କେବେ ମଧ୍ୟ ହୃଦୟରୁ କାହାର ହୋଇପାରିନଥାନ୍ତି । ସେମାନେ ସବୁବେଳେ ନିଜ ସ୍ବାର୍ଥକୁ ହିଁ ଗୁରୁତ୍ଵ ଦେଇଥାନ୍ତି ।ଯେଉଁ ପୁରୁଷ ଏପରି ହୃଦୟ ହୀନ ନାରୀକୁ ଦେଖି ତାକୁ ପସନ୍ଦ କରିଥାଏ କିନ୍ତୁ ସେହି ନାରୀ କେବେ ମଧ୍ୟ ସେହି ପୁରୁଷର ଭଲ ମନ୍ଦ ଜାଣିବା ପାଇଁ ଚେଷ୍ଟା କରିନଥାଏ । ଏହା ସହିତ ପ୍ରେମିକ ପାଇଁ ଯଥା ସମୟ ମଧ୍ୟ କାଢିପାରିନଥାଏ । ସେଭଳି ନାରୀକୁ ପ୍ରେମ କରିବା ପୁରୁଷଙ୍କ ପ୍ରତି ମୁର୍ଖାମୀରୁ କିଛି କମ୍ ହୋଇନଥାଏ । ଚତୁର୍ଥରେ ପୁରୁଷ ମାନଙ୍କୁ ନୂଆ ନୂଆ ବାହାନା ବା ଢଙ୍ଗ ରଚନା କରୁଥିବା ନାରୀଠୁ ସର୍ବଦା ବର୍ତ୍ତିକି ରହିବା ଉଚିତ ।କାରଣ ଯେଉଁ ନାରୀ କଥାରେ କୌଣସି ନା କୌଣସି ନୂଆ ବାହାନା କରି ପୁରୁଷକୁ ତାର ମାୟା ଜାଲରେ ପକାଇ ପୁରୁଷ ଠାରୁ ଫାଇଦା ହାସଲ କରିବା ପାଇଁ ଚାହିଁଥାଏ । ସେଭଳି ନାରୀକୁ ପୁରୁଷ ଭୁଲ୍ ରେ ମଧ୍ୟ ହୃଦୟ ଦେଇ ଭଲ ପାଇବା ଉଚିତ ହୋଇନଥାଏ । ଏପରି ମହିଳା ନିଜର ସୁନ୍ଦର ରୂପରେ ପୁରୁଷମାନଙ୍କୁ ନିଜର ଫାଇଦା ପାଇଁ ତାଙ୍କ ଆଡକୁ ମୋହିତ କରିଥାନ୍ତି । ପ୍ରକୃତରେ ଏହି ନାରୀମାନେ କାହାର ହୋଇପାରିନଥାନ୍ତି । Vedic Vichar
सनातन धर्म के 13 सुत्र. (Vedic vichar)
26-10-2022
1.प्रश्न :- तुम कौन हो? उत्तर :- भारतीय / आर्य । 2. प्रश्न :- तुम्हारा धर्म क्या है? उत्तर :- सत्य सनातन वैदिक धर्म . 3. प्रश्न :- तुम्हारे धर्म ग्रंथ क्या है? उत्तर :- चार वेद, चार उपवेद, चार ब्राह्मण ग्रंथ, छ: वेदांग, ग्यारह उपनिषद, छ: दर्शन शास्त्र, मनुस्मृति, बाल्मिक रामायण, व्यास कृत महाभारत, सत्यार्थ प्रकाश, ऋगवेदादिभाष्यभूमिका। 4. प्रश्न:- तुम्हारे ईश्वर का मुख्य नाम क्या है ? उत्तर :- ईश्वर का मुख्य नाम ओ३म् है 5. प्रश्न :- तुम्हारे धर्म का चिन्ह क्या है? उत्तर :- चौटी और जनेऊ है। 6. प्रश्न :- तुम्हारे धर्म की प्रथम आज्ञा क्या है? उत्तर :- सत्यं वद धर्मं चर स्वाध्यायान्मा प्रमदः । आचारस्य प्रियं धनमाहृत्य प्रजातन्तुं मा व्यवच्छेत्सीः ॥ अर्थात सत्य बोलो, धर्म का आचरण करो, स्वाध्याय ( स्वयं को धर्म पुस्तकों अनुसार पढने में ) में आलस्य मत करो। अपने श्रेष्ठ कर्मों से साधक को कभी मन नहीं चुराना चाहिए। 7. प्रश्न :- तुम्हारे धर्म का मूलमंत्र क्या है? उत्तर:- वेदों का मूल मंत्र गायत्री हैं। ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्। भावार्थ:- उस प्राणस्वरूप, दुःखनाशक, सुखस्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक, देवस्वरूप परमात्मा को हम अन्तःकरण में धारण करें। वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग में प्रेरित करे। 8. प्रश्न :- तुम्हरी जीवन यात्रा क्या है? उत्तर:- योग से मोक्ष तक पहुँचना। 9 प्रश्न :- .तुम्हारे धर्म का कर्म क्या है? उत्तर:- ऋषियों ने ये बोध कराने हेतु पाँच महायज्ञों का विधान किया। १. ब्रह्मयज्ञ = सन्ध्या व वेद स्वाध्याय २. देवयज्ञ = अग्निहोत्र ३. पितृयज्ञ = माता-पिता की सेवा ४. अतिथियज्ञ = घर आए विद्वानों की सेवा ५. बलिवैश्वदेव यज्ञ = सहयोगी प्राणियों पशु आदि की सेवा। 10. प्रश्न :- तुम्हारे धर्म का सिद्धांत क्या है? उत्तर :- वसुधैव कुटुम्बकम्'। सारी पृथ्वी एक कुटुंब/परिवार के समान।” तथा विश्व का कल्याण हो 11. प्रश्न :- तुम्हारे धर्म के लक्षण क्या है? उत्तर :- दस लक्षण हैं।.... धर्ति: क्षमा दमोऽस्तेयं शौचम् इन्द्रियनिग्रह धीविर्द्दया सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्। १.धृति सुख,दुःख ,हानि,लाभ,मान,अपमान मे धैर्य रखना २.क्षमा- शरीर मे सामर्थ्य होने पर भी बुराई का प्रतिकार न करना या बदला न लेना क्षमा है। ३.दम-मन मे अच्छी बातो का चिंतन करना बुरी बातों को दबाना हटाना ४.अस्तेय-बिना दूसरे की आज्ञा के कोई वस्तु न लेना चोरी न करना ५.शौच-शरीर की आत्मिक और शारीरिक शुद्धि रखना ६-इन्द्रियनिग्रह हाथ,पांव,आंख,मुख,नाक आदिको अच्छे कार्यो मे लगाना।इन्द्रियों को संयम में रखना। ७.धी-बुद्धि बढाने हेतू प्रयत्न करना ८.विद्या-ईश्वर द्वारा बनाये गए प्रत्येक पदार्थ का ज्ञान प्राप्त करना तथा उनसे उपयोग लेना ९.सत्य-जो हम जानते है उसको वैसा ही अपने द्वारा कहना मानना सत्य कहलाता है।हमेशा सत्य ही बोलना। १०.अक्रोध-इच्छा से उत्पन्न क्रोध 12.प्रश्न :- तुम्हारे धर्म का उदेश्य क्या है। उत्तर :- कृण्वन्तो विश्वमार्यम्, जिसका अर्थ है - विश्व को आर्य ( श्रेष्ठ /उत्तम) बनाते चलो। 13- प्रश्न:- तुम्हारी धार्मिक नीति क्या है उत्तर :- अहिंसा परमो धर्मः धर्म हिंसा तथैव च: l" अहिंसा सबसे बड़ा धर्म है और धर्म रक्षार्थ हिंसा भी उसी प्रकार श्रेष्ठ है
वैदिक सेवा आश्रम
19-10-2022
वैदिक सेवा आश्रम सिलिगुड़ी का विधिवत उद्घाटन सम्पन्न वैश्य (अग्रवाल) परिवार में जन्में ग्राम देवराला, जिला भिवानी, हरियाणा से जीविकोपार्जन हेतु उत्तर पूर्वांचल के प्रवेश द्वार, सुदूर पश्चिम बंगाल की भूमि के अन्तिम छोर पर , दार्जिलिंग पर्वतीय तलहटी में बसे , धर्मनगरी रूप में सुविख्यात सिलीगुड़ी को अपनी कर्म स्थली बनाने वाले स्मृति शेष श्रीमान जवाहरलाल जी आर्य का वैदिक ज्ञान से निर्जन वन रूपी इस क्षेत्र में आर्य समाज की स्थापना एवं वैदिक धर्म प्रचार प्रसार हेतु तन मन धन से दिया गया प्रमुख योगदान है। आप तथा आपका सम्पूर्ण परिवार वैदिक सिद्धान्तों का अनुगामी तथा समर्पित परिवार था और वर्तमान में भी है। आपकी सन्तति आपकी अनुव्रती होकर वैदिक धर्म प्रचार प्रसार हेतु तन मन धन से अपना योगदान दें रही हैं।आपके ज्येष्ठ सुपुत्र श्रीमान आनन्ददेव जी आर्य, आर्य समाज बड़ाबाजार कोलकाता के ट्रस्टी होकर प्रधान पद को सुशोभित कर रहे हैं। आप वैदिक संसार पत्रिका के संरक्षक सदस्य भी है। छोटे सुपुत्र श्री सत्येन्द्र जी आर्य के द्वारा सिलीगुड़ी में वैदिक विचार मंच की स्थापना की जाकर तन मन धन से समर्पित होकर जन-जन तक वैदिक धर्म सिद्धान्तों को पहुंचाने का प्रशंसनीय कार्य किया जा रहा है। आपके द्वारा वैदिक धर्म प्रचारार्थ विविध लक्ष्य सम्मुख रखकर खुली आंखों से एक स्वप्न संजोया गया। उस स्वप्न को नाम दिया गया " वैदिक सेवा आश्रम " , इस आश्रम के माध्यम से शहरी कोलाहल से दूर शान्त सुरम्य वातावरण में ध्यान साधना केन्द्र, वैदिक धर्म के व्यापक प्रचार प्रसार हेतु वैदिक पुरोहित प्रशिक्षण गुरुकुल, गोपालन, उन्नत तथा सफल गृहस्थ जीवन हेतु समय-समय पर प्रशिक्षण शिविर, नियमित दोनों समय यज्ञ, संध्या उपासना, वानप्रस्थियों, सन्यासियों तथा साधना के इच्छुक अतिथियों के लिए अतिथि आवास गृह आदि लक्ष्य निर्धारित कर सिलीगुड़ी के समीप ग्राम पुटीमारी, फुलवारी में आवासीय बस्ती से दूर चाय बागानों के मध्य लगभग तीन लाख वर्ग फुट भूमि क्रय की गई और लगभग ४ वर्ष की अवधि में स्वयं तथा स्वयं के परिवारजनों के विशिष्ट आर्थिक सहयोग और दानी महानुभावों के भरपूर सहयोग से आश्रम की संकल्पना पूर्ण की गई तथा १४ अक्टूबर २०२२ को आश्रम का विधिवत उद्घाटन किया गया। आश्रम के मुख्य मार्ग पर लगभग ३०० मीटर की दूरी से ठीक ६.४५ बजे शोभायात्रा गणमान्य महानुभावों द्वारा हाथों में वेद लेकर इनके पीछे आश्रम प्रमुख हाथों में ओ३म् ध्वजा लिए और इनके पीछे दो दो की पंक्ति में पीत वस्त्रों में सज्जित महिलाएं कलश धारण किए हुए और अन्त में इस समारोह के साक्षी बनने आए श्रद्धालुजन के साथ प्रारम्भ हुई। शोभायात्रा में पंडित वसुमित्र जी वेदमन्त्रों का वाचन करते हुए चल रहे थे। ठीक ७ बजे आश्रम प्रवेश द्वार पर शोभायात्रा का अभिनन्दन किया गया। सर्वप्रथम आश्रम प्रवेश पश्चात आश्रम उद्घाटन के प्रतीक स्वरूप गणमान्य महानुभावों द्वारा दीप प्रज्वलन किया गया पश्चात स्वामी प्रणवानन्दजी गुरुकुल गौतम नगर,दिल्ली के करकमलों द्वारा ओम ध्वजा का धवजोत्तोलन किया गया। पश्चात आचार्य डॉ महावीर जी, हरिद्वार द्वारा महर्षि दयानन्द जी की भव्य प्रतिमा का अनावरण किया गया।आश्रम उद्घाटनकर्ता के रूप में आमन्त्रित गुजरात राज्य के राज्यपाल महामहिम आचार्य देवव्रत जी अपरिहार्य कारणों से उपस्थित नहीं हो पाए इस कारण आपने वीडियो कॉलिंग के माध्यम से उपस्थितजनों को ठीक ७.१५ पर अपनी अनुपस्थिति हेतु क्षमायाचना करते हुए उपस्थितजनों एवं आश्रम के प्रति अपनी शुभकामनाएं व्यक्त करते हुए अपना उद्बोधन प्रदान किया तथा विश्वास दिलाया कि मैं अतिशीघ्र सपरिवार आश्रम में उपस्थित होने का प्रयास करूंगा। बहन चन्द्रकला जी द्वारा ऋषि दयानन्द महिमा का भावभीना भजन प्रस्तुत किया गया। आश्रम परिसर में निर्मित भव्य यज्ञशाला में आचार्य डॉ महावीर जी के ब्रह्मत्व में मुख्य तथा विशिष्ट यजमानों के द्वारा व यज्ञशाला के समीप बृहद संख्या में यज्ञवेदियों पर आयोजन में पधारे समस्त श्रद्धालुजनों के द्वारा यज्ञ में आहुतियां प्रदान की गई, यजुर्वेद के ४० वें अध्याय के मन्त्रों से भी विशेष आहुतियां प्रदान की गई। यज्ञ की पूर्णाहुति के पश्चात प्रातःराश हेतु अवकाश पश्चात ठीक १० बजे उद्घाटन समारोह कार्यक्रम मुख्य पाण्डाल में प्रारम्भ किया गया। स्वामी प्रणवानन्द जी, आचार्य डॉ महावीर जी, आर्य प्रतिनिधि सभा दिल्ली के मन्त्री विनय जी आर्य, आर्य प्रतिनिधि सभा दिल्ली के उपमन्त्री श्री सुरेन्द्र जी गुप्ता, बी एस एफ के डायरेक्टर श्रीमान मुरारी प्रसाद जी , श्री आनन्ददेव जी, श्री सत्येन्द्र जी को ससम्मान मंचासिन करवाया गया तथा आप सभी का भावभीना अभिनन्दन किया गया। सत्येन्द्र जी की सुपौत्री नन्ही बालिका अद्विका द्वारा गायत्री मन्त्र और उसका अर्थ प्रस्तुत करते हुए बंगाली भाषा में रविंद्रनाथ टैगोर की कविता एकला चालो रे की पंक्तियां सुनाई गई। सत्येन्द्र जी और सहयोगियों के परिवार की १० बहू बेटियों द्वारा मंच पर पंक्तिबद्ध बैठकर ऋषि महिमा का भजन सुना कर उपस्थितजनों को भावविभोर कर दिया गया। गणमान्य महानुभावों ने अपने उद्बोधन में अल्प समय में आश्रम के स्वरूप को साकार करने तथा उत्तम लक्ष्य और व्यवस्था तथा निर्माण आदि को लेकर सत्येन्द्र जी की दूरदृष्टि,समर्पण, कर्मठता, सेवाभावना, जुझारूता की भूरी भूरी प्रशंसा की तथा आश्रम के उज्जवल भविष्य के लिए अपनी शुभकामनाएं व्यक्त करते हुए अपने सुझाव भी प्रदान किए व भविष्य में आश्रम हेतु हर प्रकार के सहयोग का आश्वासन दिया। इस अवसर पर उपस्थित दानी महानुभावों का भी हार्दिक अभिनन्दन किया गया तथा सत्येन्द्र जी के कार्यों में सहयोग करने वाले सेवक महादेव मंडल और अभिन्न सहयोगी विष्णु राय, आर्य समाज सिलीगुड़ी के पुरोहित पंडित वसुमित्र जी का भी पीत वस्त्र पहनाकर प्रशस्ति पत्र प्रदान कर अभिनन्दन किया जाना अत्यन्त ही सराहनीय रहा। इससे सत्येन्द्र जी की समाज के अन्तिम व्यक्ति को भी साथ लेकर चलने की भावना परिलक्षित होती है। पंडित वसुमित्र जी द्वारा कार्यक्रम का संचालन किया गया। आभार प्रदर्शन सत्येन्द्र जी द्वारा माना गया। ठीक १ बजे शान्ति पाठ के साथ आयोजन का समापन हुआ। उत्तम सुस्वादु भोजन ग्रहण करने के पश्चात उपस्थितजनोंं ने प्रस्थान किया। मेरे द्वारा अनेक स्थानों पर समय के साथ ठीक शब्द का प्रयोग किया गया है, ऐसा इसलिए क्योंकि आयोजन पूर्णरूपेण अनुशासित था। सत्येन्द्र जी का अपने आयोजन पर पूर्ण नियन्त्रण था।जो निर्धारित है उससे कोई समझोता नहीं , कोई आए या ना आए यही कारण था कि सिलीगुड़ी से लगभग १७ किलोमीटर दूर होने पर भी ६.४५ बजे समस्त जन पहुंच चुके थे वें चाहे विद्वान हो, अधिकारी हो अथवा परिजन किसी की भी प्रतीक्षा नहीं। वर्तमान समय में विशेष रूप से स्वच्छन्द हो चुकी हिन्दू जाति में इस प्रकार का आदर्श, अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत करना अत्यन्त ही उत्कृष्ट तथा सराहनीय है। दो और विशेषताएं इस आयोजन में देखने को प्राप्त हुई प्रथम तो यह कि सम्पूर्ण परिवारजन वें चाहे प्रथम पीढ़ी के भाई बहन बहुएं हो अथवा द्वितीय पीढ़ी के सभी में स्नेह और साम्यता थी, समस्तजन उपस्थिति थे और आश्रम के कार्यों में कन्धे से कन्धा मिलाकर सत्येन्द्र जी का सहयोग कर रहे थे। दूसरा यह सम्पूर्ण परिवार व्यापार व्यवसाय में संलग्न होकर अत्यन्त प्रतिष्ठापूर्ण सम्पन्न परिवार है इसके उपरान्त सभी पारिवारिक महिलाओं में वर्तमान के फैशन के नाम पर अपने शरीर को धन संग्रहण का माध्यम बना चुकी व्यवसायिक महिलाओं द्वारा जो सीमा से परे सौन्दर्य प्रसाधनों का उपयोग कृत्रिमतायुक्त अर्द्धनग्नता और अश्लीलता परोसी जा रही है उसका अन्धानुकरण देखने में नहीं आया सभी अपनी पारंपरिक वेशभूषा में अपनी शालीनता तथा कुलीनता का परिचय दे रही थी और सब में आतिथ्य सेवाभाव कूट कूट कर भरा हुआ है। विशेष रुप से सत्येन्द्र जी का परिवार दोनों समय का दैनिक अग्निहोत्री आदर्श परिवार है सत्येन्द्र जी की समाजसेवा का आधार उनकी धर्मपत्नी श्रीमती सरला जी है, आपका बहुत ही आतिथ्यपूर्ण , सेवाभावी, विनम्र मृदु व्यवहार है। परमपिता परमेश्वर आपको तथा आपकी भावी पीढ़ी को वैदिक सुपथ पर चलने की प्रेरणा तथा आत्मबल प्रदान करता रहे। जैसा देखा समझा और जाना वह और आयोजन के कुछ चित्र आप समस्त मित्रों को अवलोकनार्थ प्रस्तुत है। Vedic Vichar II VEDIC TV
ଆର୍ଯ୍ୟବର୍ତ୍ତରମାତା କିପରି ନିମାତ୍ରୀ
18-10-2022
ଆର୍ଯ୍ୟବର୍ତ୍ତରମାତା କିପରି ନିମାତ୍ରୀ ଥିଲେ ଆସନ୍ତୁ ଜାଣିବା **""""""""******"""""""" ଆର୍ଯ୍ୟବର୍ତ୍ତ ଭାରତବର୍ଷର ବୈଦିକ ଯୁଗରେ ବହୁ ଯୋଗୀ,ମୁନୀ ,ଋଷି,ମହାପୁରୁଷ ଓ ବୀର, ବୀରା ମାନେ ଭୂମିଷ୍ଠ ହୋଇ ଭାରତ ଭୂମିର ଯଶବାନା ଭଡ଼ାଇ ଯାଇଛନ୍ତି।ଏହାର ପୃଷ୍ଠପୋଷକତାରେ ମାତାର ଭୂମିକା ଏତେ ଉଚ୍ଚକୋଟୀର ଥିଲା ଯେ ସେମାନଙ୍କରଏକାନ୍ତ ନିଷ୍ଠା ଓ ତ୍ୟାଗ ଦେଖାଇ ସୁ ସନ୍ତାନ ନିର୍ମାଣବଳରେ ପୃଥିବୀରସମସ୍ତ ଦେଶ ଭାରତ ମାତା ଚରଣ ବନ୍ଦନାରେ ଶତ ମୁଖର ହୋଇଉଠୁଥିଲେ। ତାହାର ଅନେକଜ୍ଵଳନ୍ତ ଉଦାହରଣ ରୁ ଏହା ଥିଲା ବୀରଭଗତ ସିଂ ମାତା ବିଦ୍ୟାବତୀ, ରାମ ପ୍ରସାଦ ବିସ୍କିଲମାତାମୂଳବତୀ ଭଳି ଅନେକ ମାତା ସେମାନେ ନିଜ ସନ୍ତାନ ମାନଙ୍କୁ ଏପରି ଗଢିଥିଲେ ଯେ ସେମାନେ ଦେଶପାଇଁ ପ୍ରାଣବଳି ଦେଇଥିଲେ ଓ ସେହି ମହାନ ତ୍ୟାଗ ଫଳରେ ମାତାମାନେ ଗର୍ବଗୌରବର ପୁତ୍ର ସାହସିକତା ବିଭୋର ହୋଉ ଥିଲେ। ସେହି ପରି ଆଦର୍ଶ ପତ୍ନି ଓ ମାତା ଭାବେସୀତା, ସାବିତ୍ରୀ, ଅନୁସୂୟା ଓ ଶକୁନ୍ତଳା ଇତ୍ୟାଦି ନାରୀଙ୍କୁ ଦେବୀ, ବିଦୁଷୀ, ବୀରଙ୍ଗନା ,ବୀର ମାତା, ଆଦର୍ଶ ଜନନୀ,ଧର୍ମପତ୍ନି, ସଦ୍ଗୃହିଣୀ , ମାତା ରୂପେ ସମ୍ବୋଧନ କରାଯାଇଅଛି। ଭାରତ ଭୂଖଣ୍ଡରେ ନାରୀମାନଙ୍କୁ ଯେଉଁ ସମ୍ମାନ ପ୍ରଦର୍ଶନ କରାଯାଇଅଛି ତାହା ଅନ୍ୟ କୌଣସି ଦେଶରେ ଶ୍ରବଣ ହୁଏନାହିଁ। ବୈଦିକ ଯୁଗର ଗାର୍ଗୀ, ମୈତ୍ରେୟୀ ଓ ଲୋପାମୁଦ୍ରା ଆଦି ବିଦୂଷୀ ନାରୀ ଯଜ୍ଞ ଓ ବେଦଅଧ୍ୟୟନ କରୁଥିଲେ ଓ ଭାରତ ପୁଣ୍ୟଭୂମିରେ ପୁରୁଷ ସହିତ ନାରୀ ଋଷିକା ମାନେ ବୈଦିକ ସୂକ୍ତିଗାନ କରୁଥିଲେ ସେମାନେ ଥିଲେ ବିଶ୍ଵ ବାରା, ଘୋଷା, ରେମାଶା ଓ ସୂର୍ଯ୍ୟା ଇଦ୍ୟାତି।ଏ ମାନେ ପୁରୁଷମାନଙ୍କର ନମସ୍ୟା ଥିଲେ। ଗୁପ୍ତ ଯୁଗରେ ନାରୀମାନେ ରାଜଦରବାରରେ ମନ୍ତ୍ରୀ ସଖୀ ଓ ପ୍ରିୟ ଶିଷ୍ୟର ସ୍ଥାନ ଅଧିକାର କରିଥିଲେ।ପରବର୍ତ୍ତୀ କାଳରେ ବିଧର୍ମୀ ଯବନ ମାନେ ଆମ ଦେଶକୁ ଶାସନ କଲେ ସେତେବେଳେ ନାରୀମାନଙ୍କର ପଦ ମର୍ଯ୍ୟଦା କ୍ଷୁର୍ଣ୍ଣ ହେବାରେ ଲାଗିଲା। ନାରୀମାନେ ପୁରୁଷର ସାଧନାପଥରେ ସାଥୀନ ହୋଇ ନିମ୍ନ ଭାବରେ ଗଣ୍ୟ ହେଲେ। ନାରୀକୁ ଭୋଗ୍ୟ ବସ୍ତୁ ଭାବେ ସମ୍ଭ୍ରାନ୍ତ ବଂଶ ଯଥା ରାଜା ଓ ଜମିଦାରମାନେ ନାରୀକୁ ଦାସୀ ରୂପେ ବ୍ୟବହାର କରି ଏକାଧିକ ପତ୍ନୀ ଗ୍ରହଣକଲେ । କାଳକ୍ରମେ ନାରୀ ,ନାରୀର ପଦ ମର୍ଯ୍ୟାଦା କୁ କ୍ଷୁର୍ଣ୍ଣ କରି ବସିଲା ଓ ଜଗତ ଗୁରୁ ଶଙ୍କରାଚାର୍ଯ୍ୟ। ସନ୍ଥ କବିତୁଳସୀ ଦାସ ମଧ୍ୟ ନାରୀକୁ ଘୃଣା କରିବାରେ ପଛଘୁଞ୍ଚା ଦେଇ ନଥିଲେ। ସଂପ୍ରତି ଏହି ଆମଦେଶର ନାରୀମାନଙ୍କରମର୍ଯ୍ୟାଦାର ସମାସ୍ୟା ଏତେ ଉତ୍କଟ ହୋଇସାରିଛି ଯେ ନାରୀ ନିଜ ବେଶ ପରିପାଟ୍ଟୀ, ଚାଲିଚଳନ ଉପରେ ନିୟନ୍ତ୍ରଣ କରିପାରୁନାହିଁନ୍ତି।ମାତା କନ୍ୟାକୁ, କନ୍ୟାମାତା କୁଚାହିଁ ଆଶ୍ଚର୍ଯ୍ୟ ହୋଇରହୁଛି ଓ ବାକ୍ ବାଷ୍ପରୁଦ୍ଧ ହୋଇଯାଉଅଛି। କନ୍ୟା ଠାରୁ ମାତା ଅତ୍ୟାଧୁନିକ ହେବାରେ ଲାଗିଚ୍ଛି ଶିକ୍ଷାରେ ନୁହେଁ କଳେବରରେ। ଏପରି କି ପାଶ୍ଚାତ୍ ଇଂରେଜ ସଭ୍ୟତାଠାରୁ ଅତ୍ୟଧିକ ହୋଇଗଲାଣି, ବଜାରରେ ଚ଼ଢି ଓ ଟିସାର୍ଟପିନ୍ଧିକ୍ରୟ ବିକ୍ରୟକରୁଛନ୍ତି। ନାରୀ ଶକ୍ତି ଅଧିକ ଶକ୍ତିଶାଳୀ କରିବାପାଇଁ ଆମର ସରକାର ସେମାନଙ୍କୁ ଏତେଶୀର୍ଷରେ ରଖିଛନ୍ତି ଯେ ସେମାନେ କ'ଣ କରିବା ଉଚିତ୍ ନ କରିବା ତାହାର ହିତାହିତ ଜ୍ଞାନ ହରାଇ ବସିଛନ୍ତି ।ଏପରିକି ପ୍ରତିବାଦ କରନ୍ତି ଆମେ ଆଗକୁ ଗଲେ ପୁରୁଷ ଜାତିଟା ଅସହିଷ୍ଣୁ ହୋଇ ପଡ଼ୁଛନ୍ତି। ତେବେ ପ୍ରତିଦିନ ଧର୍ଷଣ ହୋଇ ରାଜରାସ୍ତାରେ ଧର୍ମଘଟ ଚାଲିଛି ତାହାର ପ୍ରତିରୋଧ ପାଇଁ ନାରୀନେତ୍ରୀମାନେ ନିଦ୍ରାଗଲେ କି? ହଁ ଠିକ୍ ଅଛି ଆମେ ଶିକ୍ଷିତ ଓ ସ୍ଵାଧୀନ ହେବା ତେବେ ଦେଶର ଶାସନ, ନୀତି ଓ ବିଚାର ସେତିକି ପ୍ରଗତି ହୋଇନାହିଁ ଯାହା ଆମ ଜୀବନ ରକ୍ଷାକରିବ ସେଥିପାଇଁ ଆମେସତର୍କ ହେବା କି ନାହିଁ?ଏଣୁ ପରିସ୍ଥିତି ଦେଖି କାର୍ଯ୍ୟ କରିବା ଉଚିତ୍। କ୍ଷମତା ଅପପ୍ରୟୋଗ ଫଳରେ ଆଜି ସ୍ଥିତି ଏତେଗମ୍ଭୀର 6ଯ ଚୋରର ମା କବାଟ କିଳିକ୍ରନ୍ଦନ କରିବାନ୍ୟାୟ ହୋଇଯାଇଅଛି। ସିନେମା ଠାରୁ ଆରମ୍ଭ କରି ଶ୍ରମ ଜୀବୀ ପର୍ଯ୍ୟନ୍ତ ସମସ୍ତ ନାରୀ କର୍ମୀଙ୍କୁ ପୁରୁଷମାନେ ସେମାନଙ୍କ ର ଇଜ୍ଜତ ସହିତ ଅଜବ ପ୍ରକାର ଖେଳ ଖେଳୁଛନ୍ତି। ଏଣୁ ଧରିତ୍ରି ମାତା ଗୁମୁରି ଗୁମୁରି କ୍ରନ୍ଦନ କରୁଛି ତାହାର ଅଭିଶପ୍ତ ରୂପକ ଲୁହରେ କୁନ୍ଦିଲି ଠାରୁ ମମିତା ମେହର ପର୍ଯ୍ୟନ୍ତ ସମସ୍ତେ ନିରିହ ନିଷ୍କପଟ ସରଳା, ତରଳା କନ୍ୟାମାନେ ମାଟିରେଲୋଟି ପଡିଲେ। ଏଠାରେ ସେମାନଙ୍କପିତାମାତାଙ୍କ ଦାୟୀ ନୁହନ୍ତି, ଦାୟୀ ହେଉଛି ଏ ସମାଜ। କାରଣ ଆମେ ସେହିପୁରାତନ କାଳରବିଦୁଷୀମାତାମାନଙ୍କର ଆଦର୍ଶ ଶିକ୍ଷା ଆଜି ଅଭାବ ଯୋଗୁଁ ଆଜିର ସନ୍ତାନ ବା ଆମର ଉଚ୍ଚନେତୃବର୍ଗ ମନ୍ତ୍ରୀ ଓ ଅଫିସର ଭ୍ରଷ୍ଟାଚାରୀ ହୋଇଛନ୍ତି।ମାତା ଯଶୋଦା, ମାତା ସୀତା ସାବିତ୍ରୀ ଓ ଅନୁସୂୟା ଭଳି ମାତା ନାହିଁ କି ଆଦର୍ଶ ବୀର ଜ୍ୟେଷ୍ଠ, ଶ୍ରେଷ୍ଠ ପିତୃପୁରୁଷ ମଧ୍ୟଅଭାବ ହୋଇଛନ୍ତି। ସଂପ୍ରତି ଏକ ଘଟଣାଯାହା ଜଣେ ନାରୀ ଶତଶତ ପୁରୁଷଙ୍କୁ ଆକର୍ଷିତ କରି ଅଜସ୍ର ସମ୍ପତି ସଂଗ୍ରହ କରିପାରିଛି ତେବେ କୁହନ୍ତୁ ଏଠାରେ ପୁରୁଷମାନଙ୍କୁ କ' ଣ ଦାୟୀ ନୁହେଁ ନା ସେମାନଙ୍କୁ ଚରିତ୍ରବାନ୍ କହିବା କି? ଏଠାରେ ନାରୀନେତ୍ରୀ ଅନୁରୋଧ ଦୃଢ ସ୍ଵରଉଠାନ୍ତି ନଚେତ୍ ଆପଣମାନଙ୍କୁ ଆଙ୍ଗୁଳି ନିର୍ଦ୍ଦେଶ କରିବ।ସେହି କୋଟିପତି ସମ୍ଭ୍ରାନ୍ତ, ରାଜ ପୁରୁଷମାନେ ଆଜି ଲଜ୍ଜିତ ମୋର ପ୍ରଶ୍ନସେମାନଙ୍କର ହସ୍ତ ,ଆଙ୍ଗୁଳି,ବାହୁ ଓ ହୃଦୟରେ କ'ଣ ଦେବା ଦେବୀଙ୍କର ଡେଉଁରିଆ ବିଭିନ୍ନ ରଙ୍ଗିନ୍ଫିତା ମୁଦି, ତାବିଜ ଧାରଣ ସେହି ସମୟ ବିବେକକୁ ବାଧା ଦେଲାନାହିଁ। ହଁ ସେଗୁଡିକ କ'ଣ ଏ କୁସଂସ୍କାରରେ ଲିପ୍ତ ଥିବାବେଳେ ରକ୍ଷାକରି ପାରିଲା ନାହିଁକି? ଏଣୁ ପ୍ରଥମେ ଆମେ ଧର୍ମ କ'ଣ ବୁଝିନାହୁଁ। କେବଳ ଅନ୍ଧବିଶ୍ୱାସରେ ସବୁ ଧାରଣ କରିଦେଇଅଛୁ। ଧର୍ମ ତାହା ଯାହା ତାଙ୍କୁ ରକ୍ଷାକରେ । ଧର୍ମଧାରୟତି।ଧର୍ମ ଅର୍ଥ ନୁହେଁ ଶରୀର ଚିହ୍ନ ଓ ପୋଷାକ ଧାରଣ କରିବା, ଧର୍ମ ଅର୍ଥ ଦୟା, କ୍ଷମା ଅହିଂସା, ସତ୍ୟ, ଅକ୍ରୋଧ, ନିର୍ଲୋଭତା,ସରଳ ଓ ନିଷ୍କପଟତାଧାରଣ କରିବା। ହଁଏହି ମହା ସଂକଟରେ ଛନ୍ଦି ହୋଇଥିବା ମହାରଥିମାନେ କେବେ ବୈଦିକ ମାର୍ଗର ପଥିକ ହୋଇଥିବେ କି? ହୋଇଥିଲେ "ନାରୀର ଶରୀର ଭୋଗ୍ୟ ନହୋଇ ସନ୍ତାନ ନିର୍ମଣରକର୍ମଶାଳା ବୋଲି ଜ୍ଞାନ ହୋଇଥାନ୍ତ।'" ବିଭିନ୍ନ ଦୀକ୍ଷା ଅପେକ୍ଷା ଦୀକ୍ଷାରେ କ'ଣ ଶିକ୍ଷାଲାଭକଲ ନିଜକୁ ପ୍ରଶ୍ନ କର। ତେବେ ଜ୍ଞାନହେବ।ଯେଉଁମାନେ ଇଶ୍ଵରଙ୍କୁ ନିଜ ହୃଦୟରେ ନରଖି ମନ୍ଦିର, ଗୀର୍ଜା ଓ ମସ୍ଜିଦ୍ରେ ରଖିବେ ସେମାନଙ୍କ ରଏହି ଭଳି ଆଚରଣ ହେବ। କାରଣ ସେ ଜାଣନ୍ତି ଇଶ୍ଵର ମନ୍ଦିରରେ ଅଛନ୍ତି। କିନ୍ତୁ ଇଶ୍ଵର ତ ସର୍ବବ୍ୟାପୀ, ନ ହେଲେ ସର୍ବଜ୍ଞ ହେବେ କିପରି? ଏଣୁ ଏବେ ଠାରୁସାବଧାନ ହୁଅ ଯେ ଇଶ୍ଵର ଆମ ହୃଦୟରେ ରହି ସବୁ ଦେଖୁଛନ୍ତି। ସବୁଜାଣୁଛନ୍ତି। ତେଣୁ ଦଣ୍ଡବି ପ୍ରଦାନ କରୁଛନ୍ତି। ଇତି ଓ ୩ମ୍ । ରାଜକିଶୋର ଆର୍ଯ୍ୟ ।
ଦୁର୍ଗାପୂଜାର ବିଶେଷତ୍ଵ କ' ଣ?
04-10-2022
ତ୍ଵମ୍ଯେବପିତାଶ୍ଚ ମାତା ତ୍ଵମ୍ୟେବ,ତ୍ଵମ୍ୟେବ ବନ୍ଧୁଶ୍ଚ ସଖା ତ୍ଵମ୍ୟେବ ।ତ୍ୱମ୍ୟେବ ବିଦ୍ୟା ଦ୍ରବଣମ୍ ତ୍ଵମ୍ୟେବେ।ତ୍ୱମ୍ୟେବ ସର୍ବଂ ମମ ଦେବଦେବ । ହେ ସାଧୁସନ୍ଥ ଭଦ୍ର ବିଦ୍ୟାନ୍ବର୍ଗ ଆମେ ଏଠାରେ ଭିନ୍ନଭିନ୍ନ ନାମର ଏକ ମାତ୍ର ଇଶ୍ଵରଙ୍କୁ ପ୍ରାର୍ଥନା କରୁ କିଛି ତାଙ୍କର ଭିନ୍ନଭିନ୍ନ ଗୁଣବା ଶକ୍ତିଭିନ୍ନ ରୂପ ସହିତ ଭିନ୍ନ ତିଥିରେ ଭିନ୍ନ ବର୍ଣ୍ଣ ର ବ୍ୟକ୍ତି ଭିନ୍ନ ପରମ୍ପରାରେ ଆରାଧନା କରିଥାନ୍ତି। କିନ୍ତୁଆମର ଏ ପର୍ବ ଓ ପୂଜାର ଚିନ୍ତନ ଯଦି ଭ୍ରମ ହୁଏ ଫଳ କ'ଣ ଶୁଭଫଳ ମିଳିବ କି? ଏଣୁ ପୂଜାନାମରେ ବ୍ୟଭିଚାର ହତ୍ୟା, ଲୁଣ୍ଠନ ବିକୃତ ଲାଳସା ଓ କାମନା କର୍ମ କ' ଣ ଶୁଭଫଳ ମିଳିବ? ନାନା କଦାପି ନୁହେଁ। ହଁ ଭାରତବର୍ଷ ରେ ବାହାରେ ଯେ ଜନ୍ମଗ୍ରହଣ କରିଛନ୍ତି ସେମାନେ ଆମ ଭଳି କଦାପିଧନ୍ୟ ମଣିଷ ନୁହନ୍ତି। କାରଣ ଶାନ୍ତିର ଦେଶ ହିନ୍ଦୁସ୍ଥାନ ଏଣୁ ନିଶ୍ଚିତ ତାହାର ପୂର୍ବଜନ୍ମର ପୂଣ୍ୟର ଫଳ ଏହା ଅଟେ । ତା ଅର୍ଥ ନୁହେଁ ଏହି ଦେବଭୂମି ପବିତ୍ର ଗୁରୁ ଶିଷ୍ୟ ,ମୁନୀ ଋଷି ମହାତ୍ମାଙ୍କ ପୂଣ୍ୟ ଭୂମିରେ ପୂଜାରେ ବିକୃତ ବା ସ୍ୱଚ୍ଛେଚାରୀ ହୋଇଯିବା। ଏଣୁ ଶାସ୍ତ୍ର କହନ୍ତି " ସ୍ଵଗଚ୍ଛ ଧ୍ଵଂ ସ୍ୱ ବଦ ଧ୍ଵଂ ସଂବୋମନାସି ଜାନାତାମ୍ । ଦେବଭାଗ ୟଥା ପୂର୍ବେ ସଜାନନା ଉପାସତେ" ଅର୍ଥାତ୍ ଆମେ ସମସ୍ତେ ମିଳିମିଶି ଚାଲିବା ଓ ବାର୍ତାଳାପ କରିବା ଯେ ପରି ଆମ ପୂର୍ବପୁରୁଷମାନେ ଜ୍ଞାନପୂର୍ବକ ଆଚରଣ ବା ଉପାସନା କରୁଥିଲେ।" ଆମ ଦେଶ ପରି ସୌଭାଗ୍ୟଶାଳୀ ଦେଶ ସୃଷ୍ଟି ଅନ୍ୟଠାରେ ପରିଦୃଷ୍ଟ ହୁଏନାହିଁ ସତ୍ୟ କିନ୍ତୁ ଆମେ ହତା ଭାଗା ମାନେ ଅବିଦ୍ୟାରେ ବିଶବର୍ତ୍ତୀ ହୋଇ ତାହାକୁ ହାତଛଡା କରିବସିଅଟେ। ଏହି ଭାରତବର୍ଷରେ ଛଅ ୠତୁର ସମାଙ୍ଗମ ହୋଇଥାଏ ଅନତ୍ର ବିରଳ।ଏହି ଛଅ ୠତୁକୁ ନେଇ ଆମେ ଗୋଟିଏ ବର୍ଷ ବା ୧୨ ମାସ ୧୩ପର୍ବ ଅର୍ଥାତ୍ ବିଭିନ୍ନ ପର୍ବ ପାଳନ କରି ଥାଉ ପର୍ବ ଅର୍ଥସମାଜିକ ଉନ୍ନତି ଏକ ପାଵଚ୍ଛ (ପବ) ରୁ ପର୍ବ ଯଥା ଦୁଇ ଥର ନବ ରାତ୍ରିର ପାଳନ କରା ଯାଇଥାଏ।ଗୋଟିଏ ଶାରଦୀୟ ଓ ଅନ୍ୟଟି ଚୈତ୍ର ବା ବସନ୍ତିକ।ଉଭୟ ରେ ମା ଦୁର୍ଗାଙ୍କର ବିଶେଷ ପୂଜା ଅର୍ଚ୍ଚନା କରା ଯାଇଥାଏ।ପ୍ରଶ୍ନ ଉଠେ ସେ ଦୁର୍ଗା କିଏ , ତାହାର ପ୍ରକୃତ ଅର୍ଥ କ'ଣ? ସେ କେଉଁଠି ରହନ୍ତି ଓ ସେ କଣସବୁ କରନ୍ତି? ଆସନ୍ତୁ ଏହା ଉପରେ ବୁଦ୍ଧି ପୂର୍ବକ ବିଚାର କରିବା। କାରଣ ପ୍ରତ୍ୟେକ ଶବ୍ଦ ପଛରେ କିଛି ଅର୍ଥ ଥାଏ । ଈଶ୍ଵରଙ୍କର ଅସଂଖ୍ୟ ନାମ ମଧ୍ୟ ରେ ଦୁର୍ଗା ନାମ ଏକ ବିଶିଷ୍ଟ ମହତ୍ଵ ନାମ ଯାହାଈଶ୍ୱରଙ୍କ ଏକ ଶକ୍ତି ବାଚକ ନାମ ଅଟେ । ଈଶ୍ୱରଙ୍କୁ ଆମେ ମାତା, ପିତା,ବନ୍ଧୁ, ସଖା ଆଦି ନାମରେ ଡାକି ଥାଉ।ଦୁର୍ଗା ସେହି ଶକ୍ତି ଯାହାକି ଦୂର୍ଗୁଣ ଦୂର କରାଏ ଏବଂ ସଜ୍ଗୁଣ କୁ ଜୀବନରେ ଧାରଣ କରିବାପାଇଁ ପ୍ରେରଣୀ ଦିଆଯାଏ।ତେଣୁ ତ କୁହାଯାଏ ଦୁର୍ଗା ଦୁର୍ଗତି ନାଶିନି, ଯାହାକି ଆମର ଦୁର୍ଗୁଣ ଦୁଃବ୍ୟସନବା କ୍ଲେଶକୁ ନଷ୍ଟ କରିବାର କ୍ଷମତା ରଖେ।ତେଣୁ ତ ଈଶ୍ୱରଙ୍କୁ ଦୁର୍ଗା ରୂପରେ ପୂଜା ଅର୍ଚ୍ଚନା କରାଯାଏ। ଆସନ୍ତୁ ଜାଣିବା ଦୁର୍ଗା କେଉଁଠି ରହନ୍ତି ଓ ସେ କିଏ?ମାନବ ଶରୀର ଏକ ଦୁର୍ଗ।ସେହି ଭିତରେ ଥିବା ସୁପ୍ତ ଶକ୍ତିକୁ ଜାଗ୍ରତ କରିବାକୁ ପଡ଼ିଥାଏ।ତାହାହିଁ ଦୁର୍ଗା ଶକ୍ତି।ଆମର ମାନବ ଶରୀର ରେ ହିଁ ସେହି ଦୁର୍ଗା ଶକ୍ତି ବିଦ୍ୟମାନ।ଦୁର୍ଗା ଆମର ଚେତନା ଶକ୍ତିକୁ ରକ୍ଷା କରିଥାଏ।ପୁଣି ନବରାତ୍ର ହିଁ କାହିଁକି? ନବ ଶବ୍ଦ ନୂତନତାର ସୂଚକ।ଆମ ଶରୀର ରୂପକ ଦୁର୍ଗର ଶକ୍ତିକୁ ନୂତନତା ସହ ଜାଗ୍ରତ କରାଇବାର ସଂକଳ୍ପ ନେବାର ପ୍ରକ୍ରିୟା। ଆମ ଶରୀରରେ ଆଠ ଚକ୍ର ଓ ନବ ଦ୍ଵାର ଅଛି।ନବରାତ୍ର ରେ ଏହି ନବ ଦ୍ଵାର କୁ ଶୋଧନ କରି ଆଠ ଚକ୍ର କୁ ଭେଦନ କରିବା ପାଇଁ ସଂକଳ୍ପ ନିଆଯାଏ। ବେଦରେ ଏହି ମାନବ ଶରୀରକୁ ଅଯୋଧ୍ୟା ନଗରୀ କୁହାଯାଏ।ଆଜି ପର୍ଯ୍ୟନ୍ତ କେହି ଏହି ଶରୀରକୁ ଜିତି ପାରି ନାହାଁନ୍ତି।ଏହାକୁ ଅବଧପୁରୀ ବି କହନ୍ତି।ଅର୍ଥାତ୍ ବଧ ଯୋଗ୍ୟ ନୁହେଁ। ବେଦର ମନ୍ତ୍ର କହେ: ଅଷ୍ଟା ଚକ୍ରା ନବ ଦ୍ଵାରା ଦେବାନା ପୂର ଅଯୋଧ୍ୟା। ତସ୍ୟା ମ ହିରଣ୍ୟ କୋଶେ ସ୍ୱର୍ଗେ ଜ୍ୟୋତିଷ।ବୃତଃ ।। ଅର୍ଥାତ୍ ହେ ମନୁଷ୍ୟ ! ତୋର ଏହି ଶରୀର ଆଠ ଚକ୍ର ଓ ନବ ଦ୍ଵାର ରୂପୀ ଅଯୋଧ୍ୟା ନଗରୀ ଅଟେ।ଏହି ଅଯୋଧ୍ୟା ନଗରୀରେ ସେହି ଦେଦୀପ୍ୟମାନ ଜ୍ୟୋତି ସମୁହର ପୁଞ୍ଜ,ଜ୍ୟୋତି ସମୁହର ଜ୍ୟୋତି ପରମ ଜ୍ୟୋତି ପରମ ଶକ୍ତି ବିଦ୍ୟମାନ।ଅତଃ ଏହି ପାବନ ଚୈତ୍ର(ବାସନ୍ତିକ) ଓ ଶାରଦୀୟ ନବରାତ୍ର ରେ ଯେପରି ପ୍ରକୃତି ଭିତରେ ପରିବର୍ତ୍ତନ ହୋଇଥାଏ, ସେହିପରି ଶରୀର ରୂପୀ ପ୍ରକୃତି ରେ ବି ପରିବର୍ତନ ହୋଇଥାଏ।ସେଥିପାଇଁ ଏହି ନବରାତ୍ର ର ପବିତ୍ର ଅବସରରେ ନିଜର ସ୍ଥୂଳ,ସୂକ୍ଷ୍ମ ଓ କାରଣ ଶରୀର ଏବଂ ଆତ୍ମ ତତ୍ୱର ଶୋଧନ କରିବା ଉଚିତ। ସେହି ପରମ ଶକ୍ତି ଆମ ଭିତରେ ଓ ବାହାରେ ବିଦ୍ୟମାନ। ସେହି ଶକ୍ତିକୁ କିପରି ଜାଗ୍ରତ କରିବା ? ଗୋଟିଏ ମାର୍ଗ ହେଉଛି ଯୋଗ ଯାହାକୁ କି ଅଷ୍ଟାଙ୍ଗ ଯୋଗ କୁହାଯାଏ, ଯାହାକି ମହର୍ଷି ପତଞ୍ଜଳୀଙ୍କ ନିର୍ଦ୍ଦେଶ।ଏହି ଆଠ ଅଙ୍ଗ ହେଉଛି ---- ୟମ, ନିୟମ, ଆସନ, ପ୍ରାଣାୟାମ, ପ୍ରତ୍ୟାହାର, ଧାରଣା, ଧ୍ୟାନ ଓ ସମାଧି।ଏହି ଆଠ ଅଙ୍ଗ ଦ୍ଵାରା ଆମେ ଆମର ତିନି ଶରୀର(ସ୍ଥୂଳ, ସୂକ୍ଷ୍ମ, କାରଣ)ର ଶୋଧନ କରି ସେହି ପରମ ଶକ୍ତି, ଅନ୍ତଃ ଶକ୍ତିକୁ ଜାଗ୍ରତ କରିବାର ସଂକଳ୍ପ ଏହି ନବରାତ୍ର ଅଟେ। ଏହି ଅନ୍ତଃ ଶକ୍ତିକୁ ଜଗାଇବା ପାଇଁ ବ୍ରତ ଉପବାସ କରି ୟମ ନିୟମର ପାଳନ ପୂର୍ବକ ଶୋଧନ କରିବା ଉଚିତ।ବ୍ରତର ଅର୍ଥ ସଂକଳ୍ପ।ଏହାର ଅର୍ଥ ନୁହେଁ ନ ଖାଇବା।ଯୋଗର ସିଦ୍ଧି ପ୍ରାପ୍ତ ପାଇଁ ସାତ୍ୱିକ ଖାଦ୍ୟ ଖାଇବା।ଯଥା ଫଳ ଓ ଦୁଗ୍ଧ ଆଦି ସେବନ କରିବା। ଯାହାଦ୍ବାରା ସାଧନା ପାଇଁ ନିଦ୍ରା, ତନ୍ଦ୍ରା ଆଦି ଯେପରି ବାଧକ ନ ହୁଅନ୍ତି।କିନ୍ତୁ ଅଜ୍ଞାନ ବଶତଃ ଲୋକେ ସ୍ଥୂଳ ଅନ୍ନ ତ ଛାଡ଼ି ଦିଅନ୍ତି, କିନ୍ତୁ ଫଳ ସ୍ଥାନରେ ପରଠା, ସୁଜି ଆଦି ଗରିଷ୍ଠ ଆହାର ସେବନ କରନ୍ତି।ଏହା ଠିକ୍ ନୁହେଁ। କମ ଖାଇବା ଓ ସାତ୍ଵିକ ଖାଇବା ଉଚିତ।ସେହିପରି ଉପବାସର ଅର୍ଥ --- ଉପ ଅର୍ଥ ପାଖରେ ଓ ବାସ ଅର୍ଥ ରହିବା,ଅର୍ଥାତ୍ ଈଶ୍ୱରଙ୍କ ପାଖରେ ରହିବା, ଈଶ୍ୱରଙ୍କ ସତ୍ତାକୁ ନିଜ ଭିତରେ ଅନୁଭବ କରିବା।ତେଣୁ ଏହି ସମୟରେ କମ,ସନ୍ତୁଳିତ ତଥା ପ୍ରାକୃତିକ ଆହାର ସେବନ କରି ଈଶ୍ୱରଙ୍କ ଉପାସନା କରିବା ଉଚିତ।ଯାହାଦ୍ବାରା ଆମର ଅନ୍ତଃ ଶକ୍ତି ତଥା ଦୁର୍ଗା ଶକ୍ତି ଜାଗୃତ ହୋଇଯିବ।ଏହି ଦୁର୍ଗା ଶକ୍ତି ଜାଗୃତ ହୋଇଗଲେ ଭିତରେ ଥିବା ଆସୁରିକ ଶକ୍ତି,ନକାରାତ୍ମକ ଶକ୍ତି,ସମସ୍ତ ଦୂର୍ଗଣ,ବ୍ୟସନ,କ୍ଳେଶ, ମମତ୍ଵ,ଲୋଭ ଆଦିକୁ ପ୍ରତିହତ କରିହେବ।ତେବେ ଯାଇ ସେହି ପରମ ଆନନ୍ଦର ଅନୁଭୂତି ଆସିବ।ଏହା ହିଁ ହେଉଛି ଆତ୍ମ ଉତ୍ଥାନ ର ମାର୍ଗ ଓ ଦୁର୍ଗା ଶକ୍ତି ଜାଗୃତ କରିବାର ଉଦ୍ଦେଶ୍ୟ। କିନ୍ତୁ ଆଜି ଆମ ଦେଶର ଦୁର୍ଭାଗ୍ୟ, ପୂଜା ପଦ୍ଧତି ନାମରେ ନାନା ପ୍ରକାର ବିକୃତି ଜନ୍ମ ନେଉଛି ଓ ବଢ଼ି ଚାଲିଛି।ଅନେକ ଦେବୀ ଦେବତାଙ୍କ ନାମରେ ବଡ଼ ବଡ଼ ପେଣ୍ଡାଲ, ବଡ଼ ବଡ଼ ମୂର୍ତ୍ତି, ବଡ଼ ବଡ଼ ସାଜ ସଜା କରି ଜନତାଙ୍କର ଧନର ଦୁରୁପଯୋଗ ହେଉଛି। ବଡ଼ ବଡ଼ କଳାକାର ମାନଙ୍କୁ ଡାକି ଫିଲ୍ମ ଗୀତର ତାଳେ ତାଳେ ରାତି ସାରା ନାଚ ଚାଲୁଛି।ଆମେ ସମାଜକୁ କେଉଁ ଆଡ଼କୁ ନେଇ ଯାଉଛୁ।ଆମର ପିଢ଼ିକୁ କି ଶିକ୍ଷା ଓ ସଂସ୍କାର ଦେଉଛୁ।ଅନ୍ୟ ସମ୍ପ୍ରଦାୟ ମାନଙ୍କରେ ପୂଜା ପାଠ ନାମରେ ଏପରି ଏପରି ଆଡମ୍ବର ଓ ଅପସଂସ୍କୃତି ଦେଖିବାକୁ ମିଳେ ନାହିଁ।ଏହା ଦୁର୍ଗାଙ୍କର ଆରାଧନା ନୁହେଁ ବରଂ ଅପମାନ।ଦୁର୍ଗାପୂଜା ବାସ୍ତବରେ ସୂଚିତା,ପବିତ୍ରତା ଶକ୍ତି ଜାଗରଣ ଓ ସଂଚୟର ସୂଚକ।ଦୁର୍ଗା ମାତାଙ୍କର ସତ୍ୟ ସ୍ବରୂପ କୁ ଧ୍ୟାନରେ ରଖି ସାଳିନତା ସହ ଯୋଗ ସାଧନାର ଅଭ୍ୟାସ କରିବା ଉଚିତ । ତେବେ ଯାଇ ଏହି ପବିତ୍ର ନବରାତ୍ର ରେ ଦୁର୍ଗା ଶକ୍ତିର ପୂଜା ଆରାଧନା ରେ ସଫଳତା ହାସଲ କରି ଜୀବନକୁ ସରସ ସୁନ୍ଦର ଓ ଆନନ୍ଦମୟ କରି ପାରିବା। ଇତ୍ୟୋମ, ରାୟଗଡ଼ ଆର୍ଯ୍ୟ ସମାଜ ସମସ୍ତଙ୍କୁ ସାଦର ନମସ୍ତେ।
Vedic TV
27-09-2022
Vedic TV live www.vedicvichar.com Everyday Evening Vedic Vichar, Vedic culture, Vedic thought, Swami Dayanand Saraswati TV is Vedic TV, Berhampur TV, spritual TV means Vedic TV, Social TV is called Vedic TV, VEDIC TV opened by Vedic Vichar, India's First Spritual TV www.vedicvichar.com, VEDIC Media Means Vedic TV, International Vedic TV available in Vedic Vichar vedicvichar.com, Social TV is Vedic TV, Opened TV today at Vedic Vichar, spritual TV, VEDIC TELIVISION VEDIC TV, OMM TV IS VEDIC TV, KNOWLEDGE TV IS VEDIC TV, KNOW YOUR LIFE IN VEDIC TV, VEDIC TV IS A SPRITUAL AND SOCIAL CULTURAL TV, DAYANAND TV IS VEDIC TV, ARYA TV IS CALLED VEDIC TV, LANGUAGE TV IS CALLED VEDIC TV, GET YOUR CULTURE AT VEDIC TV, GET YOU IN VEDIC TV, VEDICVICHA TV , VICHAR TV IS VEDIC TV OPENED AT VEDIC VICHAR
ପରମାତ୍ମା କିପରି ଲବ୍ଧ ହୁଅନ୍ତି ଓ କାହାକୁ ଲବ୍ଧ ହୁଅନ୍ତି ଓ ହୁଅନ୍ତିନାହିଁ ?
22-09-2022
ପରମାତ୍ମା କିପରି ଲବ୍ଧ ହୁଅନ୍ତି ଓ କାହାକୁ ଲବ୍ଧ ହୁଅନ୍ତି ଓ ହୁଅନ୍ତିନାହିଁ ? ୧.ଯେଉଁ ବ୍ୟକ୍ତି ( ଦୁଶ୍ଚରିତାତ୍ ଅବିରତଃ) ନିଷିଦ୍ଧପାପକର୍ମରୁ ବିରତ ନଥିବା ବ୍ୟକ୍ତି।୨. ଯେ(ଅଶାନ୍ତ8 ଅସମାହିତଃ) ଅସଂଯମୀ,ଚଞ୍ଚଳ ବୃତ୍ତି ସମ୍ପନ୍ନ ୩. ଯେ,( ଅଶା ନ୍ତ ମାନସ ଅପି) ବିତ୍ତ ଏଷଣା, ଲୋକୈଷଣା, ପୁତ୍ର ଏଷଣା ଆଦି ବନ୍ଧନରେ ଆଶାନ୍ତ ରହେ । (ନଏନ ମ୍ ଆପ୍କୁ ୟାତ୍) ସେବ୍ରହ୍ମ ପାପ୍ତ ହୁଏନାହିଁ। ଅର୍ଥାତ୍ (ପ୍ରଜ୍ଞାନେନ)-ନିର୍ମଳ ବୁଦ୍ଧି ଦ୍ଵାରା ବ୍ରହ୍ମ ସାଧକର ଅନ୍ତକରଣରେ ବ୍ରହ୍ମ ଉପଲବ୍ଧ ହୁଅନ୍ତି। ଦର୍ପଣରେ ଯେପରି ମୁଖ ଦର୍ଶନ ନିମନ୍ତେ ଦର୍ପଣ ସ୍ଵଚ୍ଛତା, ଦର୍ପଣର ସ୍ଥିରତ ଓ ନିଜର ମୁଖ ଓ ଦର୍ପଣର ଦୂରତା ମଧ୍ୟରେ କୌଣସି ଆବରଣ ବା ବାଧକ ନ ରହିବା ଆବଶ୍ୟକତା ହୁଏ । ସେହି ପରି ସଦ୍ଜ୍ଞାନ,ଅନ୍ତଃକରଣ ଓ ମନର ଶୁଦ୍ଧତା,ମନର ସ୍ଥିରତା ଓ ନିର ଅହଙ୍କରତା ନ ରହିଲେ ବ୍ରହ୍ମ ଦର୍ଶନ ହୁଅନ୍ତି ନାହିଁ । ଏଣୁ ଶାସ୍ତ୍ରରେ ବ୍ରହ୍ମ ପାପ୍ତି ୪ଟି ଉପାୟ ରହିଅଛି ଯଥା ୧-ଶାସ୍ତ୍ର ପ୍ରତିଷିଦ୍ଧ ହିଂସା, ଚୋରି, ମିଥ୍ୟା କଥନାଦିରୁ ନିବୃତ୍ତି ହେବା ୨-ଇନ୍ଦ୍ରିୟ ବିଷୟରେ ଅନାସକ୍ତି୩- ଅର୍ଥ ଓକାମଦି ରେପୁରୁଷାର୍ଥ ର ଶୁଦ୍ଧତା୪. ବ୍ରହ୍ମ ଚିନ୍ତନରେ ଏକାଗ୍ରତା(ଯାହା ଈଶ୍ଵର ପ୍ରଣି ଧାନ ନାମରେ ନିୟମରେ ଅଛି) ଅର୍ଥ ଶିଶୁଟିଏ ଜନ ଗହଳିରେ ପିତାମାତାଙ୍କୁ ପାଇବାପାଇଁ ଯେପରି ବ୍ୟସ୍ତ ଓ ବିବ୍ରତ ଥାଏ ସେହି ପରି ମନରଅବଶ୍ୟକତା ହୁଏ । ଏ ସବୁ( ଯମ ଓ ନିୟମ ଅଷ୍ଟାଙ୍ଗଯୋଗ ଦ୍ଵାରା ସଫଳ ହୋଇ ଥାଏ । ବହୁ ଶାସ୍ତ୍ର ବ୍ୟାଖ୍ୟାନ ଓ ବ୍ୟବସ୍ଥାରୁ କେହି ବ୍ରହ୍ମ ପ୍ରାପ୍ତି ହୋଇନାହିଁନ୍ତି ଯେ ପର୍ଯ୍ୟନ୍ତ ଶମ ଓ ଦମଦି ଅନୁଷ୍ଠାନ ହୋଇନାହିଁ। ଇତି ଓ ୩ମ୍ ରାଜକିଶୋର ଆର୍ଯ୍ୟ ।
Vedic vichar
12-09-2022
*"कुछ विद्यार्थी बड़े ध्यानपूर्वक अपनी पाठ्य पुस्तकों को पढ़ते हैं। कक्षा में बड़ी सावधानी से गुरुजी की बातों को सुनते हैं। मुख्य मुख्य बातें नोट करते जाते हैं। घर आकर पाठ को फिर से दोहराते हैं, और जो बातें समझ में नहीं आती, उन्हें अगले दिन गुरुजी से पूछते हैं।"* यह तरीका है अच्छी प्रकार से पढ़ाई करने का। जो विद्यार्थी इस प्रकार से पढ़ते हैं। वे पढ़ाई में बहुत अच्छी उन्नति करते हैं। *"जो विद्यार्थी मेरे इस लेख को पढ़ रहे हों, वे पढ़ाई करने का तरीका इस प्रकार से सीख लें, और अपनी पढ़ाई में खूब अच्छी प्रगति करें।" अथवा "जो माता-पिता इस लेख को पढ़ रहे हों, वे अपने बच्चों को इस प्रकार से पढ़ाई करना सिखाएं। ताकि उनके बच्चे भी पढ़ाई में अच्छी उन्नति कर सकें।"* *"कुछ दूसरे विद्यार्थी इस प्रकार के होते हैं, जो कक्षा में गुरुजी से पाठ को ढंग से नहीं पढ़ते। घर आकर पाठ को ठीक से दोहराते भी नहीं। किताब लेकर बैठ जाते हैं, और ऐसे ही पन्ने उलटते पलटते रहते हैं, और यूं ही टाइम पास करते रहते हैं।"* ऐसे विद्यार्थी ठीक प्रकार से विद्या प्राप्त नहीं कर सकते, और अपना समय नष्ट करते रहते हैं। जैसे ये दो प्रकार के विद्यार्थी होते हैं, ऐसे ही संसार में लोग भी दो प्रकार के होते हैं, जो जीवन की पुस्तक को पढ़ते हैं। "पहले प्रकार के लोग, ऊपर बताए पहले विद्यार्थियों के समान जीवन की घटनाओं को बड़े ध्यान से देखकर अनुभव प्राप्त करते हैं। वे हर घटना से कुछ न कुछ सीखते हैं। यदि अच्छी घटना हो, तो सकारात्मक शिक्षा लेते हैं, कि "हम भी ऐसा करेंगे। रात को जल्दी सोएंगे। सुबह जल्दी उठेंगे। व्यायाम करेंगे, इत्यादि।" "यदि नकारात्मक अर्थात हानिकारक घटना हुई हो, तो उससे वे यह शिक्षा लेते हैं, कि हम भविष्य में सावधान रहेंगे, और ऐसी दुर्घटना से बचकर चलेंगे। लड़ाई झगड़ा नहीं करेंगे, क्रोध नहीं करेंगे। झूठ नहीं बोलेंगे, इत्यादि।"* ऐसे लोग बुद्धिमान होते हैं, क्योंकि वे प्रत्येक घटना से कुछ न कुछ अच्छी बात सीखते हैं। *"दूसरे प्रकार के वे लोग होते हैं, जो घटनाओं को बस देखते रहते हैं, और उनसे सीखते कुछ भी नहीं हैं।" "ऐसे लोग जीवन में कोई प्रगति विशेष नहीं कर पाते, और सदा दुखी होते रहते हैं।"* *"अतः प्रथम प्रकार के व्यक्तियों के समान बनें। जीवन की घटनाओं से कुछ न कुछ अच्छी बात सीखें। तभी आप दुखों से बचकर सुखपूर्वक अपना जीवन जी पाएंगे।"*
Vedic vichar
12-09-2022
*"एक सुंदरता तो चेहरे की होती है। और दूसरी सुंदरता होती है, उत्तम आचरण की।"* जो लोग चेहरे से सुंदर दिखते हैं, यह आवश्यक नहीं है, कि वे आचरण से भी सुंदर हों। अर्थात उनका आचरण भी उत्तम हो, ऐसा कोई अनिवार्य नियम नहीं है। *"बहुत से सुंदर चेहरे वाले लोग, दुष्ट आचरण भी करते हैं। इसलिए चेहरे से सुंदर दिखना एक अलग बात है, और उत्तम आचरण होना एक अलग बात है।"* और संसार में ऐसा भी देखा जाता है, कि जो उत्तम आचरण करने वाले लोग होते हैं, वे भी दोनों प्रकार के होते हैं। *"किन्हीं लोगों का चेहरा सुंदर होता भी है, और किन्हीं का चेहरा इतना सुंदर नहीं भी होता। उनका रूप रंग अधिक आकर्षक नहीं होता, फिर भी उनका आचरण बहुत अच्छा होता है, जो लोगों को आकर्षित करता है।" "ऐसे लोग भी अपने उत्तम आचरण के कारण बुद्धिमान लोगों को सुंदर दिखाई देते हैं। वे मन की आंखों से सुंदर दिखते हैं। उनके उत्तम आचरण से जो दूसरों को सुख मिलता है, उसके सामने, सुंदर चेहरे से प्राप्त होने वाला सुख, फीका पड़ जाता है।"* सारी बात का सार यह हुआ, कि *"किसी के चेहरे की सुंदरता को देखकर ऐसा न मान लेवें, कि उसका आचरण भी अच्छा होगा, और वह 'चेहरा एवं आचरण' इन दोनों प्रकार से सुंदर होगा।" और ऐसा भी नहीं है, कि "जिसका आचरण अच्छा हो, उसका चेहरा भी सुंदर अवश्य ही होना चाहिए।"* *"परंतु यदि दोनों की तुलना करें, तो सुंदर चेहरा इतना मूल्यवान नहीं है, जितना कि उत्तम आचरण। कारण यह है, कि उत्तम आचरण ही अधिक सुखदायक है, न कि सुंदर चेहरा।"* *"यदि किसी का चेहरा तो सुंदर हो, परंतु आचरण से वह व्यक्ति दुष्ट हो, चरित्रहीन हो, तो वह व्यक्ति सुखदायक नहीं होगा।" "परंतु यदि किसी का चेहरा अधिक सुंदर न भी हो, और उसका आचरण उत्तम हो, तो वह व्यक्ति सुंदर चेहरे वाले दुष्ट व्यक्ति की तुलना में अधिक सुखदायक होगा।" "इसलिए केवल सुंदर चेहरे की ओर आकर्षित न हों। उत्तम आचरण वाले व्यक्ति की ओर आकर्षित होना चाहिए।"* *"अतः सावधानी का प्रयोग करें। उत्तम आचरण वाले व्यक्ति को ही वास्तविक सुंदर व्यक्ति मानें, और उसके साथ अपना जीवन बिता कर उससे सुख प्राप्त करें।" "यदि उत्तम आचरण वाले व्यक्ति का चेहरा भी सुंदर हो, फिर तो बात ही क्या है! तब तो सोने पर सुहागा।"*
Vedic vichar
12-09-2022
जो भूमि उपजाऊ होती है, वह खूब फसल उत्पन्न करती है, चाहे उसमें अच्छा बीज बोया जाए, चाहे ख़राब। यह तो किसान पर निर्भर करता है, कि वह अपने उपजाऊ खेत में किस प्रकार के बीज बोता है। *"ठीक किसी प्रकार से आपका मन भी एक बहुत उपजाऊ भूमि के समान है। उसमें भी आप जो बीज बोएंगे, वही पनपेगा और उसी की फसल उत्पन्न होकर आप को मिलेगी।"* मन एक ऐसी भूमि है, जिसमें आप संस्कार रूपी बीज बो सकते हैं। *"यदि आप अपने मन में अच्छे संस्कार स्थापित करेंगे, तो अच्छे विचारों की और उत्तम गुणों की फसल होगी, जो कि आपके लिए भविष्य में सुखदायक होगी।"* *"यदि आप मन रूपी भूमि में बुरे संस्कार रूपी बीज बोएंगे, तो ख़राब फसल होगी, जो कि भविष्य में आपके लिए दुखदायक होगी।"* उदाहरण के लिए -- *"यदि आप अपने मन में सेवा नम्रता परोपकार दान दया सभ्यता ईश्वरभक्ति ईमानदारी सच्चाई इत्यादि उत्तम गुणों के संस्कार बोएंगे, तो आपके अंदर ऐसे ही उत्तम विचार विकसित होंगे और आपके गुण कर्म स्वभाव उत्तम बनेंगे। ऐसे उत्तम गुण कर्म स्वभाव आपको जीवन भर, और अगले जन्मों में भी सुख देंगे।"* इसके विपरीत - *"यदि आपने अपने मन में झूठ छल कपट चोरी अन्याय धोखा शोषण हेरा फेरी इत्यादि के बुरे संस्कार बो दिए, तो उसकी फसल भी ख़राब ही होगी। आपके अंदर ये दोष बढ़ते जाएंगे, और भविष्य में आपके लिए दुखदायक होंगे।"* *"ये दोष आपको तो दुख देंगे ही, साथ ही समाज को भी दुख देंगे। फिर ईश्वर की न्याय व्यवस्था से आपको इस जन्म में भी चिंता तनाव रोग आदि के रूप में दुख भोगना पड़ेगा, और अगले जन्मों में पशु पक्षियों की योनि में जाकर इन सब गलतियों का भयंकर दंड/दुख भोगना पड़ेगा।" "अतः अपने मन में उत्तम संस्कारों को ही संगृहीत करें, जो आपके वर्तमान जीवन तथा भविष्य के जन्मों के लिए सुखदायक बनें।"*
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12-09-2022
"फ़र्ज़ और कर्ज़" ये दो शब्द बहुत ही महत्वपूर्ण हैं। माता-पिता अपने बच्चों का बहुत अच्छा लालन-पालन करते हैं। खुद तकलीफें उठा कर भी अपने बच्चों को अच्छी से अच्छी शिक्षा, अच्छे से अच्छा भोजन और अच्छे से अच्छे वस्त्र देकर उनकी छोटी से छोटी खुशी का ध्यान रखते हुए अपना सब कुछ अपने बच्चों पर वार देते हैं। यह उनका अपने बच्चों के लिए प्यार तो था ही यह उनका फ़र्ज़ भी था, जिसे वे भलीभांति पूरा करने की कोशिश भी करते हैं। जब बच्चे बड़े हो जाते हैं तब उनका भी फ़र्ज़ होता है कि वे भी अपने माता-पिता का वैसा ही ध्यान रखें जैसा कि माता-पिता ने उनका रखा था। यह बच्चों का फ़र्ज़ तो है ही, यह उनपर माता-पिता का कर्ज़ भी है। देखने में आता है कि बच्चे अपनी इस जिम्मेदारी को पूरा नहीं करते। जब माता पिता कहते हैं कि हमने कितने कष्ट उठा कर तुम्हारी हर जरूरत को पूरा करने का प्रयास किया। तब कुछ बच्चे यहाँ तो यहाँ तक कह देते हैं कि हम पर कोई अहसान थोड़ी किया था। यह आपका फ़र्ज़ था आपने पूरा किया। हम भी तो अपने बच्चों का पूरा ध्यान रखते हैं। ठीक है, वे अपने बच्चों का ध्यान रखते हैं। लेकिन उनके माता-पिता का ध्यान कौन रखेगा? यह किसकी जिम्मेदारी है? कुछ माता पिता तो बच्चों के मोह में या बच्चों के अनुचित दबाव में अपना सब कुछ बच्चों के नाम कर देते हैं। अक्सर देखने में आता है कि ऐसे माता-पिता का बुढ़ापा वृद्धाश्रमों में ही व्यतीत होता दिखाई देता है। जो बच्चे बुढ़ापे में अपने माता-पिता की सेवा नहीं करते या उनका ध्यान नहीं रखते। उन्हें भी यह नहीं भूलना चाहिए कि एक दिन उनके बच्चे भी उनका ध्यान नहीं रखेंगे। वे भी वही करेंगे जो उन्होंने अपने माता-पिता को उनके दादा दादी के साथ करते देखा है। एक घटना याद आ रही है। एक व्यक्ति जो कि किसी दफ्तर में क्लर्क था। वह नहीं चाहता था कि उसका बेटा भी उसी की तरह एक क्लर्क बन कर रह जाये। इसलिये उसने दिनरात मेहनत करके अपने बच्चे को इंजीनियर बनाया। जब उसके लड़के को एक अच्छी नौकरी मिल गई तो अब वह उसकी शादी के बारे में सोचने लगा। वह इंजीनियर देखने मैं भी बहुत सुन्दर था। वह जिस आफिस में काम करता था उस आफिस के मालिक की एक बहुत सुन्दर और पढ़ी लिखी एक ही लड़की थी, उसका कोई पुत्र नहीं था। एकदिन मालिक ने उसे बुलाया और कहा कि वह अपनी लड़की की शादी उसके साथ करना चाहता है। वह लड़के के पिता से मिला और सबकी सहमति से उनका विवाह हो गया। कुछ दिन तो अच्छे बीत गये। कुछ दिनों बाद उनके घर पुत्र ने जन्म लिया। सभी बहुत प्रसन्न थे। उनका बच्चा अब 7 वर्ष का हो गया था। अब इंजीनियर के पिता रिटायर हो चुके थे और दिन भर घर पर ही रहने लगे थे। इंजीनियर के पिता अब वृद्ध हो चुके थे और थोड़े अस्वस्थ भी रहने लगे थे। अब उसकी पत्नि बार बार यह कहने लगी कि आपके पिता अब अस्वस्थ हो गये हैं, इन्हें वृद्धाश्रम में भेज दो। मगर उसका पति इस बात के लिये तैयार नहीं होता था। तब उसकी पत्नि ने कहा कि ठीक है अगर तुम अपने पिता को वृद्धाश्रम में नहीं छोड़ सकते तो अपने पिता की चारपाई बाहर बालकनी में लगा दो। उसके पति ने सोचा चलो पिता कम से कम घर पर तो रहेंगे। उन्हें घर का भोजन तो मिलता रहेगा। यह सोच कर वह अपनी पत्नि की बात मान गया। गर्मियां बीत गईं अब सर्दियां आ गईं। पिता ने अपने बेटे से कहा रात को ठण्ड बहुत लगती है। तो उसकी पत्नि ने एक पुराना सा कंबल ला कर दे दिया। कुछ दिन जैसे कैसे बीत गये। एक दिन पिता ने अपने बेटे से शिकायत की कि एक तो पहले ही पतला सा कंबल दिया हुवा था, अब तो उसमें से आधा किसी ने फाड़ लिया है। पुत्र को यह सुनकर बहुत क्रोध आया, आखिर वह उसका पिता था। वह तुरन्त अपनी पत्नि के पास पहुँचा और कहा कि एक तो पहले ही एक पतला सा कंबल दिया हुवा था। अब उस में से भी आधा फाड़ लिया है? पत्नि ने कहा मैंने तो ऐसा नहीं किया। तब उसे बड़ा आश्चर्य हुआ कि कंबल किसने फाड़ा? उसने अपने बच्चे को बुलाया और पूछा कि तुम्हें पता है कि तुम्हारे दादा जी का कंबल किसने फाड़ा है? तो बच्चे ने कहा कि वह कंबल तो मैंने ही फाड़ा है। अब तो पिता को बड़ा गुस्सा आया और उसने पूछा कि तुमने वह कंबल क्यों फाड़ा और वह कहाँ है? बच्चे ने उत्तर दिया वह मैंने अलमारी में सम्भाल कर रख दिया है। पिता ने उसे क्रोध करते हुवे पूछा कि तुमने ऐसा क्यों किया है? तब बच्चे ने उत्तर दिया कि जब आप बड़े हो जायेंगे तो यही कंबल मैं आपको दूँगा। इस लिये मैंने वह सम्भाल कर रख लिया है। अब माता और पिता की आंखें खुल गईं और उन्हें अपनी भूल का एहसास हुवा। अब दोनों बहुत ही सम्मान के साथ अपने बूढ़े पिता को घर के अन्दर ले गये और उनका ध्यान रखने लगे। देवियो और सज्जनो अपने माता-पिता की सेवा करना, उनका सम्मान करना यह हमारा फ़र्ज़ तो है ही साथ ही यह उनका हम पर कर्ज़ भी है, जिसे हम कभी भी नहीं चुका सकते। यदि हम चाहते हैं कि हमारे बच्चे हमारे बुढ़ापे में हमारा ध्यान रखें तो आप भी अपने माता-पिता का बहुत सम्मान करें।
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12-09-2022
संचार में एक बहुत बड़ी भ्रांति है, कि *"सत्य मानना, सत्य बोलना दुखदायक है।" "इसलिए लोग सत्य से घबराते हैं। सत्य को ठीक प्रकार से जानना नहीं चाहते। सत्य बोलना नहीं चाहते। सत्य को स्वीकार नहीं करते। जहां भी उन्हें झूठ बोलने में लाभ दिखाई देता है, वहीं पर झूठ बोलते हैं।"* इस बात पर कोई विचार नहीं करते कि *"हम जो झूठ बोल रहे हैं, इससे कितनी बड़ी बड़ी हानियां होंगी।"* अधिकांश लोग झूठ बोलने की हानियों को नहीं जानते। झूठ बोलने से जो तात्कालिक लाभ होता है, बस उसी को ध्यान में रखते हैं। इसलिए बिना संकोच जब भी अवसर आए, तभी झूठ बोल देते हैं। वास्तविकता तो यह है, कि *"सत्य सदा सुखदायक होता है। लोग सत्य बोलने के लाभ नहीं जानते। यदि सत्य बोलने के लाभ समझ लें, और झूठ बोलने की हानियां समझ लें, तो सत्य का ही पालन करेंगे। तब वे सत्य ही जानेंगे, मानेंगे लिखेंगे बोलेंगे और सत्य का ही आचरण करेंगे।" "सत्य बोलने के अनेक लाभ हैं। उनमें से सबसे बड़ा लाभ यह है, कि संसार के लोग उस सत्यवादी पर विश्वास करते हैं। और यदि किसी व्यक्ति पर दूसरे लोग विश्वास करते हैं, तो उसे सब प्रकार से सुख और सहायता देते हैं।" "दूसरी ओर झूठ बोलने वाले का विश्वास समाप्त हो जाता है, और उसे कदम कदम पर दूसरे लोगों से अपमानित होना पड़ता है, और अनेक दुख भोगने पड़ते हैं। कोई उसको सहयोग नहीं देता, इत्यादि।" "परंतु संसार में अज्ञानी लोगों का बहुमत है। उन लोगों ने मिलकर ऐसा खराब वातावरण बना दिया है, जिससे अधिकांश लोग सत्य बोलने से घबराते हैं। अब चारों ओर झूठ का ही प्रचलन हो चुका है।"* संसार में झूठ का प्रचलन हो जाने से झूठे लोगों का बहुमत हो गया है। *"वे ऐसे झूठे अवसरवादी लोग जब चाहे झूठ बोलते हैं, और झूठ बोल बोल कर सत्यवादियों को दुख भी देते हैं। उनकी अनेक प्रकार से हानि भी करते हैं।" "झूठ बोल बोल कर सत्यवादियों को दुख देना, उनका विरोध करना ही उन्हें अच्छा लगता है। इसे मूर्खता नहीं, बल्कि महामूर्खता ही समझना चाहिए। क्योंकि ऐसे लोग ईश्वरीय दंड को नहीं समझ पा रहे। इसलिए वे सत्यवादियों को परेशान करते हैं।"* *"इसी कारण से फिर जो सत्यवादी लोग हैं, वे भी कभी-कभी घबरा जाते हैं। उन्हें घबराना नहीं चाहिए, बल्कि सत्य का लाभ समझकर सत्य को ही धारण करना चाहिए।"* ईश्वर सभी सत्यवादियों का रक्षक है। वह कभी भी उनकी हानि नहीं होने देगा। *"अर्थात् उचित समय आने पर मिथ्यावादियों को भयंकर दंड देगा। और मिथ्यावादियों ने जो तात्कालिक रूप से सत्यवादियों को दुख दिया, उनकी हानि की, ईश्वर उन सब हानियों की पूर्ति कर देगा।"* इस बात में कोई सन्देह नहीं है। यहां इस बात को भी अच्छी तरह से समझ लेना चाहिए, ऐसा नहीं है, कि *"मिथ्यावादियों को हानि करने ही नहीं देगा।"* इस भ्रांति से भी बचें। क्योंकि *"प्रत्येक व्यक्ति कर्म करने में स्वतंत्र है। वह दूसरों की हानि कभी भी कर सकता है। हानि करते समय ईश्वर उस झूठे दुष्ट व्यक्ति का हाथ या ज़बान नहीं पकड़ेगा। परंतु जब फल देने का अवसर आएगा, तब उन मिथ्यावादी दुष्टों को बिल्कुल नहीं छोड़ेगा। उन्हें पूरा पूरा दंड देगा। और उन झूठे दुष्ट लोगों के कारण सत्यवादियों की जो हानि हुई, उसकी पूर्ति ईश्वर अवश्य करेगा।" "इस प्रकार से वेदों के सिद्धांत को समझना चाहिए, और मिथ्या व्यवहार, मिथ्याभाषण आदि पाप कर्मों से बचना चाहिए।"*
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12-09-2022
*"प्रायः लोग वर्ष में एक बार तो अपना जन्मदिन मनाते ही हैं, और बड़े उत्साह के साथ मनाते हैं।"* कुछ मनमौजी धनवान लोग ऐसे भी होते हैं, जो वर्ष में अनेक बार अपना जन्मदिन मनाते हैं। *"उन्हें जन्मदिन मनाने से कोई अधिक प्रयोजन नहीं होता, उन्हें तो नाचने गाने खाने पीने का बहाना चाहिए। जिस दिन भी ऐसा मूड हो, बस वे घोषणा कर देते हैं, कि आज हमारा जन्मदिन है।"* वे अपने मित्रों साथियों को बुला लेते हैं, और अपने घर या होटल में खूब पार्टी बनाकर नाचते गाते खाते पीते हैं।"* यह तो हुई सेठों और धनवानों की बात। अब हम सामान्य लोगों की बात करें। तो *"जो लोग प्रतिवर्ष अपना जन्मदिन मनाते हैं, उनमें से भारत में भी अधिकांश लोग जन्मदिन के अवसर पर केक मंगाकर काटते और बांटते हैं।" "अनेक मनचले लोग तो केक की क्रीम को भी यजमान के मुंह पर बुरी तरह से मल देते हैं, यह कोई बुद्धिमत्ता नहीं है। जन्मदिन खुशी मनाने का अवसर है, उस दिन ऐसी बेहूदा हरकतें करके यजमान को (जिसका जन्मदिन है, उसे) परेशान नहीं करना चाहिए, बल्कि उसे शुभकामनाएं और आशीर्वाद देकर उसकी प्रसन्नता और उत्साह को बढ़ाना चाहिए।"* और आजकल जो लोग जन्मदिन मनाते हैं, उनमें से अधिकांश लोग, भारतीय होते हुए भी विदेशी परंपरा के अनुसार जन्मदिन मनाते हैं। *"केक काटकर बांटते हैं। यह विदेशी परंपरा है।" "जिनका जन्म इंग्लैंड आदि विदेश में हुआ हो, और वे उसी परंपरा में पले बड़े हुए हों, तो मान भी सकते हैं, कि वे केक काटकर अपनी परंपरा के अनुसार अपना जन्मदिन मना रहे हैं।" "परंतु जिन लोगों का जन्म भारत देश में हुआ है, उन्हें तो कम से कम भारतीय परंपरा से अपना जन्मदिन मनाना चाहिए।"* *"भारतीय परंपरा में जन्मदिन के अवसर पर यज्ञ किया जाता है। एक दोष छोड़ने का और एक गुण को धारण करने का संकल्प लिया जाता है।"* ऐसा इसलिए करते हैं, क्योंकि इस दिन व्यक्ति को यह सोचना चाहिए, कि *"मेरा जन्म संसार में क्यों हुआ? मैं इस संसार में क्यों आया हूं? मेरे जीवन का मुख्य लक्ष्य क्या है?"* फिर गंभीरता से विचार करने पर उसे उत्तर यह मिलता है, कि *"मुझे सब दुखों से छूटना है। इस जन्म मरण चक्र से छूटना है। यही मेरे जन्म लेने का मुख्य लक्ष्य है।"* इस लक्ष्य की प्राप्ति का उपाय यह है, कि *"सब दोषों को छोड़कर, सब उत्तम उत्तम गुणों को धारण करना।" तो "मैं अपने मुख्य लक्ष्य की ओर आगे बढ़ूं,' ऐसी भावना लेकर यज्ञ करके, कम से कम किसी एक दोष को छोड़ने तथा एक गुण को धारण करने का संकल्प लेना चाहिए।" "तभी व्यक्ति अपने जीवन के मुख्य लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है, इसके बिना नहीं।"* और इस अवसर पर मिल बैठकर हंसना गाना खाना-पीना भी चाहिए, इसका कोई निषेध नहीं है। ऐसे जन्मदिन के अवसर पर भारतीय मिठाई लड्डू बांटना चाहिए। *"भारतीय मिठाइयों में सबसे पहली मिठाई लड्डू है। क्योंकि जब भी कोई किसी को शिकायत करता है, कि "आपने शादी तो कर ली, परन्तु लड्डू तो खिलाए नहीं। आप कक्षा में प्रथम आए, परंतु लड्डू तो खिलाए नहीं।"* कोई यूं नहीं कहता, कि *"आपने गुलाब जामुन तो खिलाए नहीं। रसगुल्ले तो खिलाए नहीं।" "इससे पता चलता है कि भारतीय मिठाइयों में पहला नंबर लड्डू का है।"* *"लड्डू, बूंदी के दानों को संगठित करके बनाया जाता है। इसलिए यह संगठन का भी संदेश देता है। संगठित रहो, तो आप सुखी रहेंगे, सुरक्षित रहेंगे। इस प्रकार से जन्म दिवस के अवसर पर केक के स्थान पर लड्डू बांटना खाना खिलाना अधिक उचित है।"* *"केक काटना तो विभाजन का संदेश देता है। इससे परस्पर संगठन नहीं होता, बल्कि विभाजन या विघटन का संदेश मिलता है।" "इसलिए कम से कम भारतीय लोग तो लड्डू ही बांटें, खाएं, खिलाएं, और संगठित रहें, जिससे कि उनका भविष्य उत्तम एवं सुखदायक बने।"*
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12-09-2022
संसार में दो प्रकार का सुख मिलता है। *"एक -- इंद्रियों से रूप रस गन्ध आदि विषयों का सुख। इसे भोगों का सुख या भौतिक सुख भी कहते हैं। और दूसरा -- अध्यात्मिक सुख होता है। जो दूसरों की सेवा सहायता परोपकार दान दया ईश्वर की उपासना यज्ञ आदि शुभ कर्मों को करने से व्यक्ति को अपने अंदर से मिलता है। इन दोनों प्रकार के सुखों की व्यवस्था ईश्वर ही करता है।"* *"जो रूप रस गन्ध आदि विषयों का सुख इंद्रियों से भोगा जाता है, वह क्षणिक होता है, और उससे आत्मा को बहुत थोड़ी तृप्ति मिलती है, पूरा संतोष नहीं होता।"* *"परंतु जो दूसरों की सेवा सहायता परोपकार दान दया ईश्वर की उपासना यज्ञ प्राणियों की रक्षा आदि शुभ कर्मों को करने से अंदर से आनंद मिलता है, वह इंद्रियों से भोगे जाने वाले सुख की तुलना में बहुत अधिक अच्छा होता है। उससे अधिक तृप्ति मिलती है, अधिक संतोष होता है। दूसरों की सेवा सहायता आदि करने से जो दूसरे लोगों की शुभकामनाएं मिलती हैं, उससे तो 'अद्भुत ही आनंद' प्राप्त होता है। असली आनंद तो यही है।"* *"संसार में रहते हुए जो लोग सुख भोगना चाहते हैं, वे दूसरों की सेवा सहायता परोपकार दान दया ईश्वर की उपासना यज्ञ प्राणियों की रक्षा आदि शुभ कर्मों को करें। बाहर के सुख की अपेक्षा अंदर वाला सुख भोगने का विशेष प्रयास करें। इससे उनको अधिक तृप्ति का अनुभव होगा।"*
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12-09-2022
इस बात से प्रायः सभी लोग डरते हैं, कि *"लोग क्या कहेंगे", या "लोग क्या सोचेंगे"?* जो कुछ सीधा-साधा व्यक्ति है, लेकिन थोड़ा डरपोक है, वह व्यक्ति अच्छे कामों को भी कभी-कभी नहीं कर पाता। केवल यही सोचकर नहीं कर पाता, कि *"लोग मेरे बारे में क्या सोचेंगे?"* सत्य तो यह है, कि *"लोग तो सोचेंगे ही। आप उनकी सोच पर प्रतिबंध नहीं लगा सकते।"* वे कुछ न कुछ तो सोचेंगे ही। उन्हें सोचने दीजिए। *"वे स्वतंत्र हैं। उन्हें सोचने से कोई भी नहीं रोक सकता। यहां तक कि ईश्वर भी नहीं रोकता। कारण वही है, कि वे कर्म करने में स्वतंत्र हैं।" "जैसे वे स्वतंत्र हैं, ऐसे ही आप भी स्वतंत्र हैं। वे लोग अपने ढंग से सोचते हैं, आप अपने ढंग से सोचिए।" "उनके कुछ भी सोचने से आपको कोई अंतर नहीं पड़ता। मान लीजिए, कोई व्यक्ति आपके बारे में ऐसा सोचे, कि 'आप चोर हैं।' तो क्या आप चोर बन जाएंगे? 'नहीं बनेंगे।' इसी प्रकार से कोई आपके विषय में यह सोचे, कि 'आप अनपढ़ हैं।' तो क्या उसके सोचने से आप अनपढ़ बन जाएंगे? 'नहीं बनेंगे।' फिर उनके सोचने की चिन्ता क्या करनी?" "इसलिए यदि आपको आनंद से जीवन जीना हो, तनाव मुक्त होकर जीवन जीना हो, तो उनकी चिंता न करें, और अपने काम में मस्त रहें।"* *"वे लोग क्या सोचेंगे', इससे अधिक महत्वपूर्ण बात तो यह है, कि 'आप अपने बारे में क्या सोचते हैं!' आप इस बात पर अधिक ध्यान देवें।" "क्योंकि 'आपके विषय में' 'आपके द्वारा सोचने से' आपके ऊपर 'विशेष प्रभाव' पड़ता है।" "आप के गुणों और दोषों को सबसे अधिक आप ही जानते हैं, दूसरे लोग इतना नहीं जानते। यदि आप में दोष हैं, आप बुरे कर्म करते हैं, तो आपको यह सोचना चाहिए, कि "मैं अच्छा व्यक्ति नहीं हूं, मुझे अच्छा बनना चाहिए। मैं अवश्य ही अच्छा व्यक्ति बनूंगा।"* यदि आप में दूसरों की तुलना में गुण कुछ अधिक हैं, तब यह सोचिए, कि *"ये गुण मुझमें ईश्वर की कृपा से हैं।"* यदि आप ऐसा सोचेंगे, कि *"मैंने कितने सारे गुण स्वयं अपने पुरुषार्थ से प्राप्त किए हैं।' तो आपको अभिमान आएगा। वह अभिमान भी आपका विनाश करेगा। तो अभिमान भी नहीं करना है। सभ्यता नम्रता भी बनाए रखनी है, और दूसरों के गलत सोचने की परवाह भी नहीं करनी।"* बस ऐसे ही सोचिए। यही आप के लिए सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। यदि आप अपने विषय में ऐसा सोचेंगे, तो आप निश्चित रूप से अपना सुधार करेंगे। *"इसका परिणाम यह होगा, कि धीरे-धीरे आपके दोष कम होते जाएंगे, और आप में गुण बढ़ते जाएंगे।"* इस प्रकार से आपके जीवन में सुख शांति आनंद बढ़ेगा। *"इसलिए दुनियां जो भी सोचे, सोचती रहे। उससे परेशान न हों। आप तो अपने विषय में सोचें। अपना सुधार करें, और सदा प्रसन्न रहें। यही आपके लिए हितकर है।"*
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12-09-2022
*"किसी भी वस्तु का मूल्य उस वस्तु के नाम से या जन्म से नहीं होता, बल्कि उसके अंदर विद्यमान गुणों के कारण होता है।"* जैसे 10 ग्राम लोहा, और 10 ग्राम सोना। *"इनका मूल्य एक समान नहीं है, अलग-अलग है। क्योंकि इनके गुण एक जैसे नहीं हैं, बल्कि अलग अलग हैं।"* ऐसे ही लोहा और लकड़ी, इनके गुण भी अलग-अलग हैं। इसलिए इन पदार्थों के गुणों के कारण, इनके मूल्य भी अलग अलग हैं। *"इसी प्रकार से दूध दही मक्खन मलाई घी इत्यादि पदार्थ हैं। ये सब पदार्थ यद्यपि एक ही परिवार के हैं, फिर भी इनके गुणों में अंतर होने के कारण इनका मूल्य भी अलग अलग है।"* ऐसे ही मनुष्यों में भी समझना चाहिए। *"भले ही एक परिवार में चार सदस्य हों, माता पिता बेटा और बेटी। इनके भी गुण अलग-अलग होते हैं। और गुणों में अंतर होने के कारण इनका मूल्य भी अलग अलग होता है।"* उदाहरण -- *"कोई वकील का बेटा जन्म से वकील नहीं माना जाता। क्योंकि उसमें पिता (वकील) वाले गुण, जन्म से ही उत्पन्न नहीं हुए हैं। जब वह बच्चा स्वयं पढ़ लिखकर विद्वान बन जाएगा, उसमें वकालत करने के गुण आ जाएंगे, तब उसे वकील माना जाएगा, और तभी उसका मूल्य भी बढ़ेगा।" "इसी प्रकार से डाॅक्टर का बेटा भी जन्म से डॉक्टर नहीं होता। जब तक वह पढ़ लिखकर स्वयं डॉक्टर न बन जाए।"* तो ऐसा ही सब जगह समझना चाहिए। *"कोई भी सैनिक का बेटा, जन्म से सैनिक नहीं है। विद्वान का बेटा, जन्म से विद्वान नहीं है।" "इनको जन्म से सैनिक और विद्वान मानना, तथा बिना योग्यता बनाए ही, उन्हें धन, सम्मान देना अन्याय है।"* ऐसा करना बहुत बड़ी भूल है। *"संसार में यह भूल बहुत स्थानों पर देखी जाती है। इस भूल का सुधार करना चाहिए।"*
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12-09-2022
संसार में दो प्रकार के लोग होते हैं। एक परोपकारी और दूसरे स्वार्थी। *"परोपकारी लोगों में सेवा सभ्यता नम्रता परोपकार दान दया ईश्वरभक्ति देशभक्ति सत्यवादिता ईमानदारी इत्यादि बहुत से गुण होते हैं। जिन गुणों के कारण वे संसार के लोगों को सुख देते हैं।"* ऐसे लोगों के विषय में, आलंकारिक भाषा में कहा जाता है कि *"इनके गुणों की सुगंध संसार में चारों ओर फैलती है, अर्थात संसार में उनकी बहुत प्रशंसा होती है। लोग उन्हें बहुत श्रद्धापूर्वक सम्मानित करते हैं। ऐसे लोगों का जीवन सफल है।"* और दूसरे प्रकार के लोग जो अधिकतर स्वार्थी होते हैं, उन्हें दूसरों के सुख की चिंता कम होती है, और अपनी स्वार्थपूर्ति की चिन्ता अधिक रहती है। *"ऐसे स्वार्थी लोग पहले प्रकार के परोपकारी लोगों को देखकर, उनकी उन्नति को देखकर जलते रहते हैं। वे उन पर झूठे आरोप लगाते रहते हैं। तरह तरह से उन्हें बदनाम करते हैं। छल कपट धोखाधड़ी से उनको नीचा दिखा कर स्वयं को सबके सामने बहुत उत्तम प्रस्तुत करने में पूरा जोर लगाते हैं। वे दूसरों के साथ द्वेष करते हैं।"* ऐसे लोगों के बारे में कहा जाता है, कि *"जो लोग दूसरों के साथ द्वेष करते हैं, वे लोग सदा द्वेष की आग में जलते रहते हैं। ऐसे लोगों का जीवन निष्फल है।"* *"ये स्वार्थी द्वेष की आग में जलने वाले लोग, उन पहले प्रकार के परोपकारी लोगों के साथ, कितना भी अन्याय करें, कितना भी उन्हें बदनाम करने का मिथ्या प्रयास करें, फिर भी उन परोपकारी लोगों का कुछ नहीं बिगड़ता।" "जैसे अगरबत्ती सुगंध देती है, और कोई उसे फूंक मारकर बुझाना चाहे, तो अगरबत्ती बुझती नहीं है, बल्कि और अधिक सुगंध देती है। इसी प्रकार से जो लोग परोपकारी होते हैं, उनका कुछ नहीं बिगड़ता, बल्कि उनकी सुगंध संसार में पहले से भी अधिक बढ़ती रहती है।"* *"परन्तु यदि स्वार्थी एवं द्वेषी लोगों ने अपना द्वेष नहीं छोड़ा, तो वे इस द्वेष की आग में निश्चित रूप से एक दिन पूरे ही जल मरेंगे। जैसे आग जल जल कर अंत में बुझ ही जाती है, वैसे ही वे भी एक दिन जल जल कर आग की तरह बुझ ही जाएंगे, निस्तेज हो जाएंगे, अर्थात सारा जीवन वे दुखी ही होते रहेंगे, और जीवन के अंतिम समय में वे बहुत पछताएंगे।"* *"इसलिए अगरबत्ती के समान सुगन्धित और परोपकारी बनना चाहिए। ऐसा पुरुषार्थ करना आपका कल्याण कर देगा।" "जलती हुई आग के समान स्वार्थी एवं द्वेषी नहीं बनना चाहिए, क्योंकि वह आग तो आपका विनाश ही करेगी।"*
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12-09-2022
जब कोई व्यक्ति आपके साथ या अन्य लोगों के साथ अच्छा व्यवहार नहीं करता, तो आप को उस पर क्रोध आता है। आप मन में सोचते हैं, कि *"यह व्यक्ति मेरे साथ तथा दूसरों के साथ ऐसा दुर्व्यवहार क्यों करता है?"* आपके मन में ऐसा प्रश्न उठना स्वाभाविक है। परंतु ध्यान देने की बात यह है, कि *"यदि मन में ऐसा प्रश्न उठ जाए, तो इसका उत्तर आपको अवश्य मिलना चाहिए। यदि इस प्रश्न का उत्तर आपको नहीं मिला, तो यह प्रश्न आपके मन में घूमता रहेगा, और आपकी शांति को भंग कर देगा। आपका जीवन अस्त-व्यस्त हो जाएगा।"* आपकी शांति भंग नहीं होनी चाहिए। आपका जीवन अस्त-व्यस्त नहीं होना चाहिए। इसलिए इस प्रश्न का उत्तर अवश्य ढूंढें। लीजिए, उत्तर नीचे लिखा है, पढ़ लीजिए। जब ऐसी स्थिति हो, आपके मन में यह प्रश्न उठे, कि *"यह व्यक्ति दूसरों के साथ ऐसा गलत व्यवहार क्यों करता है?"* तो इसका उत्तर है, कि *"वह व्यक्ति कर्म करने में स्वतंत्र है। उसकी इच्छा ऐसी है। उसके संस्कार ऐसे हैं। इसलिए वह ऐसे बुरे कर्म करता है, और दूसरे लोगों को दुख देता है।"* *"उसे ईश्वर ने भी स्वतंत्र छोड़ा है। यदि ईश्वर चाहता, तो वह उसका हाथ रोक लेता। उसकी वाणी को रोक लेता। उसे एक भी बुरा काम नहीं करने देता।"* परन्तु क्योंकि परीक्षा का यह नियम है, कि *"विद्यार्थी 3 घंटे तक परीक्षा में प्रश्नों के उत्तर लिखने में स्वतंत्र है। वह सही लिखे, या गलत लिखे, परीक्षक उसे रोक नहीं सकता। इसी से तो पता चलेगा, कि विद्यार्थी ने क्या सीखा?"* इसीलिए ईश्वर भी अच्छे बुरे कर्म करने वालों को नहीं रोकता। वह भी हम सबकी परीक्षा लेता है। *"जो व्यक्ति अच्छे कर्म करता है, वह परीक्षा में पास हो जाता है। ईश्वर उसे मरने के बाद दोबारा मनुष्य योनि में जन्म देकर सुख देता है।" "और जो व्यक्ति बुरे कर्म करता है, वह ईश्वर की परीक्षा में फेल हो जाता है। ईश्वर उसे दंड देता है, और अगले जन्मों में उसे सांप बिच्छू कुत्ते हाथी बंदर शेर भेड़िया वृक्ष वनस्पति आदि योनियों में भयंकर दुख देता है।"* ईश्वर की इस न्याय व्यवस्था को समझें, और सदा शुभ कर्म करें। बुराइयों से बचें। *"आपके कर्म का फल आपको भोगना है, और दूसरों के कर्मों का फल उनको भोगना है। इसलिए उनके दुष्कर्मों से आप विचलित न हों। उत्तेजित न हों। दुखी न हों। क्रोधित न हों। संयम को न छोड़ें। ऐसे दुष्ट लोगों से लड़ाई झगड़ा द्वेष आदि भी न करें। उनसे अपना बचाव अवश्य करें।" "अपने कर्मों पर अधिक ध्यान देवें। अधिक से अधिक शुभ कर्म करें। अपनी मानसिक शांति बनाए रखें और आनंद से जिएं।"*
Vedic vichar
12-09-2022
संसार में लोगों की एक बहुत बड़ी समस्या है, कि *"हमारा मन हमारे नियंत्रण में नहीं रहता। क्या करें, यह मन हमें भटकाता रहता है। जो काम हम नहीं करना चाहते, वह भी हमसे करवाता है। और जो काम हम करना चाहते हैं, उसे करने नहीं देता।"* इस प्रकार से लोग अपने मन को नियंत्रित न कर पाने के कारण इस समस्या से बहुत परेशान हैं। यह समस्या तभी हल हो सकती है, जब आप मन के विषय में ठीक-ठीक जानकारी करें। *"जैसे कार एक जड़ वस्तु है, ऐसे ही मन भी जड़ वस्तु है। कार स्वयं नहीं चलती। मन भी स्वयं नहीं चलता। कार को चेतन ड्राइवर चलाता है। मन को भी चेतन आत्मा चलाता है। जैसे चेतन ड्राइवर अपनी इच्छा और प्रयत्न से कार को जहां चाहे, वहां ले जाता है। ठीक इसी प्रकार से चेतन आत्मा भी अपनी इच्छा और प्रयत्न से इस जड़ मन को जहां जैसा चलाना चाहे, वैसा चला सकता है।"* परंतु प्रश्न तो यही है "कि जब जड़ कार, चेतन ड्राइवर के नियंत्रण में रहती है, तो जड़ मन, चेतन आत्मा के नियंत्रण में क्यों नहीं रहता?"* उत्तर -- इसलिए नहीं रहता, *"क्योंकि लोगों ने कार को चलाना रोकना सीख लिया, और उसका अभ्यास भी कर लिया। इसलिए वे कार पर पूरी तरह से नियंत्रण कर लेते हैं। परंतु मन को चलाना रोकना लोगों ने सीखा नहीं, उसका अभ्यास नहीं किया। इसलिए मन का नियंत्रण नहीं कर पाते।"* तो इस विषय में ऐसा जानना चाहिए, कि *"आत्मा एक चेतन वस्तु है। चेतन वस्तु में इच्छा, प्रयत्न आदि गुण होते हैं, जो कि जड़ वस्तु में नहीं होते। मन जड़ वस्तु है। अतः मन में अपनी कोई इच्छा और प्रयत्न आदि गुण नहीं हैं। अब आत्मा अपनी इच्छा और प्रयत्न से मन में विचार उठाता है। आत्मा में दोनों प्रकार की इच्छाएं हैं, अच्छी भी और बुरी भी। जब वह कोई अच्छा काम करना चाहता है, या ईश्वर का ध्यान करना चाहता है, तो मन को उस दिशा में ले जाता है। परंतु ज्ञान वैराग्य तथा अभ्यास की कमी के कारण, वह शीघ्र ही अपने अंदर विद्यमान बुरी इच्छा को उठा लेता है, और फिर मन को गलत दिशा में ले जाता है।" बस यही समस्या है। इसी कारण से वह अपने मन पर नियंत्रण नहीं कर पाता। यदि वह इतना समझ ले, कि *"मैं ही अच्छी बुरी इच्छाएं मन में उठाता हूं। मैं ही मन को सही गलत दिशा में ले जाता हूं। अब मैं सही दिशा में मन को ले जाऊंगा और गलत दिशा में मन को नहीं ले जाऊंगा।" *इस प्रकार से यदि व्यक्ति प्रतिदिन अभ्यास करे, लंबे समय = अनेक वर्षों तक अभ्यास करे, तो व्यक्ति, मन का नियंत्रण भी सीख लेगा। और ठीक उसी प्रकार से मन पर पूरा नियंत्रण कर लेगा, जैसे कार को चलाने का उसे ज्ञान और अभ्यास होने से, कार पर उसका पूरा नियंत्रण हो चुका है।"* *"इस प्रकार से अभ्यास करते करते जब व्यक्तित्व का मन पर अच्छा नियंत्रण हो जाता है, तब यह मन एक उत्तम सेवक की तरेह आत्मा के आदेश का पालन करता है, और बहुत सुखदायक होता है।"* परंतु इस विद्या को न जानने के कारण लोगों ने अपने मन को अपना स्वामी (मालिक) बना रखा है, और जैसे नौकर सेठ के आदेश पर इधर-उधर दौड़ता और दुखी होता रहता है। *"ऐसे ही लोग मन के नौकर बनकर संसार में इधर-उधर दौड़ते रहते हैं, और दुखी होते रहते हैं। वे मन के नियंत्रण की इस अध्यात्म विद्या को सीखने और अभ्यास करने का प्रयत्न करें। मन के राजा बन कर इसको अपनी इच्छा अनुसार चलाएं और सुखपूर्वक अपना जीवन जीएं।"*
Vedic vichar
12-09-2022
प्रायः लोग आपस में एक दूसरे की क्रियाओं को देखकर, अपनी अपनी प्रतिक्रिया करते हैं। जी हां, यह बात ठीक है। *"कभी-कभी वे अपनी प्रतिक्रिया को किसी दूसरे व्यक्ति के सामने प्रकट भी करते हैं, और कभी अपने मन तक भी सीमित रखते हैं, किसी को नहीं बताते।"* लोगों के अतिरिक्त ईश्वर भी सबकी क्रियाओं को देखता है। वह भी अपनी प्रतिक्रिया करता है। *"उसकी प्रतिक्रिया सबको समझ में नहीं आती। क्योंकि सब लोग इतने योग्य नहीं हैं, कि वे ईश्वर की प्रतिक्रियाओं को ठीक-ठीक समझ सकें।" "फिर भी जो विशेष बुद्धिमान लोग हैं, सूक्ष्मदर्शी हैं, वेदों का अध्ययन करते हैं, वे ईश्वर की प्रतिक्रियाओं को समझते हैं।"* ईश्वर की प्रतिक्रियाएं इस प्रकार की होती हैं। *"वेदों के अनुसार, दुख आने पर परेशान होना बुद्धिमत्ता नहीं है।"* दुख तो जीवन में आते रहते हैं, और आगे भी आते रहेंगे। *"अब जो दुख आते हैं, उनमें से बहुत सा दुख, आपके कर्मों का फल होता है। और बहुत सा दुख, अन्य लोगों या प्राणियों के अन्याय से भी मिलता है।"* जो भी दुख आपके जीवन में आता है, उसे सहन तो करना ही पड़ेगा। *"अब उस दुख को आप चाहे प्रसन्न होकर भोगें, चाहे परेशान होकर। यदि आपने संसार में जन्म लिया है, तो दुख तो आएगा ही। संसार में जन्म लेने वाला आत्मा दुख से बच जाए, एक भी दुख न भोगे, ऐसा होना असम्भव है।"* अतः वेदों के अनुसार बुद्धिमत्ता इसी बात में है, कि *"जो भी दुख आप के जीवन में आया है, उसके विषय में --- एक बात तो यह है कि - जितनी मात्रा में संभव हो, उसे दूर करने का प्रयत्न करें।" "दूसरी बात - जब तक वह दुख दूर नहीं हो जाता, तब तक यदि उसे भोगना ही पड़े, तो कम से कम प्रसन्नतापूर्वक भोगें। अर्थात उसे प्रसन्नता से स्वीकार करें, परेशान होकर न भोगें।" "क्योंकि परेशान होकर उस दुख को भोगने से वह दुख दोगुना हो जाता है।" "कैसे? मान लीजिए, एक व्यक्ति बुखार से पीड़ित हो गया। एक तो यह शारीरिक दुख है ही। दूसरा - व्यक्ति मन में भी दुखी होता रहता है, "हे भगवान्! क्या मुसीबत है। कहां रोग में फंसा दिया, आदि।" "इस प्रकार से उसका दुख दोगुना बन जाता है। एक शारीरिक बुखार और दूसरा मानसिक क्लेश।"* *"अब आप सोचिए, कि एक दुख को दोगुना कर के भोगना, क्या यह बुद्धिमत्ता है? क्या यह मूर्खता नहीं है?" "जब व्यक्ति शारीरिक रूप से रोगी हो गया, तो एक दुख तो भोगना पड़ ही रहा है। फिर कम से कम मन में तो परेशान न हों। दूसरे मानसिक दुख से तो बचें! यह तो बुद्धिमत्ता है।" "यदि व्यक्ति इस मानसिक दुख से नहीं बचता, और मन में भी दुखी होकर बुखार वाला दुख भोगता है, तो यह निश्चित रूप से मूर्खता है।"* *"ऐसी मूर्खता पर ईश्वर की प्रतिक्रिया यह होती है, कि वह उन मूर्खों पर हंसता है।"* और यह सोचता है, कि *"जब मैंने आपको पाप कर्म करने तथा सकाम कर्म करने से मना किया था, तब तो आपने मेरी बात सुनी नहीं। अब जब उसका दंड भोगने का समय आया है, अब आप रो रहे हैं।" "अब रोना क्यों? अपने कर्मों का फल खुश हो कर भोगो न?" "परंतु लोग खुश हो कर नहीं भोगते। तथा एक दुख को दोगुना कर के भोगते हैं। इसीलिए ईश्वर उनकी इस मूर्खता पर हंसता है।"* *"इसी प्रकार से जब कोई व्यक्ति सुख और दुख दोनों परिस्थितियों में प्रसन्न रहता है, दुखी परेशान नहीं होता। आए हुए दुख को प्रसन्नता से स्वीकार करता है, तो यह बुद्धिमत्ता है। तब ईश्वर उसकी बुद्धिमत्ता पर प्रसन्न होता है।"* *"और जब कोई व्यक्ति ईश्वर की कृपा से दूसरों की सेवा करता है, परोपकार करता है, तब ईश्वर उसे सम्मानित करता है अर्थात उसको बहुत अच्छा सुख देता है।"* इस प्रकार से ईश्वर की प्रतिक्रियाएं होती हैं। *"सब लोगों को ईश्वर की इन प्रतिक्रियाओं को समझना चाहिए और ईश्वर के न्याय संविधान = वेदों के अनुसार ही आचरण करना चाहिए। ताकि लोग मूर्खता करने से बचें और ईश्वर की हंसी का पात्र बनने से भी बचें।"*
Vedic vichar
12-09-2022
*"कोई भी व्यक्ति संसार में हारना नहीं चाहता सभी लोग जीतना चाहते हैं, अर्थात कोई भी व्यक्ति दुखी, अपमानित नहीं होना चाहता, तथा सुखी एवं सम्मानित होना चाहता है।"* परंतु यह परिणाम ऐसे मुफ्त में तो नहीं मिलता। उसके लिए विशेष पुरुषार्थ करना पड़ता है। ईश्वर का यह नियम है, कि *"संसार में कुछ भी मुफ्त में नहीं मिलता।" "जो व्यक्ति जीवन में सुख चाहता हो, उसे विशेष परिश्रम करना होगा, तभी वह सुखी हो पाएगा, तथा दुखों से बच पायेगा।"* वेदों में बताया गया है, कि *"जो अपने जीवन में सदा जीतना चाहे, अर्थात सदा सुखी रहना चाहे, तो वह उत्तम गुणों को धारण करे। पुरुषार्थी बने, सेवाभावी बने, दानी बने, परोपकारी बने। उसमें नम्रता सभ्यता इत्यादि गुण हों, तो वह सदा सब जगह पर जीतेगा, सुखी रहेगा। ये ऐसे सद्गुण हैं, जो आपको कभी हारने नहीं देंगे।"* *"और जो व्यक्ति आलसी होकर लापरवाह बनकर मूर्खतापूर्ण कार्य करेगा, झूठ छल कपट धोखा अन्याय चोरी हेरा फेरी निंदा चुगली व्यभिचार इत्यादि दुर्गुणों को धारण कर लेगा, वह सदा सब जगह पर हारेगा, अर्थात दुखी होगा, अपमानित होगा। हो सकता है, धीरे-धीरे वह डिप्रेशन में भी चला जाए। ये ऐसे दुर्गुण हैं, जो आपको कभी जीतने नहीं देंगे।"* *"इसलिए इस प्रकार की गलतियों से सबको बचना चाहिए और पुरुषार्थी बनकर अपने जीवन में उत्तम गुणों को धारण करना चाहिए।"* मैं वेदों का सन्देश फिर से याद दिलाता हूं, कि *"संसार में मुफ्त में कुछ नहीं मिलता।" और "कहीं पर मुफ्त में मिलता हुआ दिखाई दे, तो समझ लीजिएगा, कि इसमें कुछ न कुछ धोखा है, चालाकी है। उस धोखे चालाकी से सदा सावधान रहें। बुद्धिमत्ता से कार्य करें, तथा अपने जीवन को सुखी एवं सफल बनाएं।"
Vedic vichar
12-09-2022
*"कोई भी व्यक्ति संसार में हारना नहीं चाहता सभी लोग जीतना चाहते हैं, अर्थात कोई भी व्यक्ति दुखी, अपमानित नहीं होना चाहता, तथा सुखी एवं सम्मानित होना चाहता है।"* परंतु यह परिणाम ऐसे मुफ्त में तो नहीं मिलता। उसके लिए विशेष पुरुषार्थ करना पड़ता है। ईश्वर का यह नियम है, कि *"संसार में कुछ भी मुफ्त में नहीं मिलता।" "जो व्यक्ति जीवन में सुख चाहता हो, उसे विशेष परिश्रम करना होगा, तभी वह सुखी हो पाएगा, तथा दुखों से बच पायेगा।"* वेदों में बताया गया है, कि *"जो अपने जीवन में सदा जीतना चाहे, अर्थात सदा सुखी रहना चाहे, तो वह उत्तम गुणों को धारण करे। पुरुषार्थी बने, सेवाभावी बने, दानी बने, परोपकारी बने। उसमें नम्रता सभ्यता इत्यादि गुण हों, तो वह सदा सब जगह पर जीतेगा, सुखी रहेगा। ये ऐसे सद्गुण हैं, जो आपको कभी हारने नहीं देंगे।"* *"और जो व्यक्ति आलसी होकर लापरवाह बनकर मूर्खतापूर्ण कार्य करेगा, झूठ छल कपट धोखा अन्याय चोरी हेरा फेरी निंदा चुगली व्यभिचार इत्यादि दुर्गुणों को धारण कर लेगा, वह सदा सब जगह पर हारेगा, अर्थात दुखी होगा, अपमानित होगा। हो सकता है, धीरे-धीरे वह डिप्रेशन में भी चला जाए। ये ऐसे दुर्गुण हैं, जो आपको कभी जीतने नहीं देंगे।"* *"इसलिए इस प्रकार की गलतियों से सबको बचना चाहिए और पुरुषार्थी बनकर अपने जीवन में उत्तम गुणों को धारण करना चाहिए।"* मैं वेदों का सन्देश फिर से याद दिलाता हूं, कि *"संसार में मुफ्त में कुछ नहीं मिलता।" और "कहीं पर मुफ्त में मिलता हुआ दिखाई दे, तो समझ लीजिएगा, कि इसमें कुछ न कुछ धोखा है, चालाकी है। उस धोखे चालाकी से सदा सावधान रहें। बुद्धिमत्ता से कार्य करें, तथा अपने जीवन को सुखी एवं सफल बनाएं।"
Vedic vichar
12-09-2022
संसार में धन तो बहुत लोग कमाते हैं। और बहुत से लोग इधर उधर से गिफ्ट प्राप्त करके भी बहुत सा धन इकट्ठा कर लेते हैं। *"इस प्रकार से उनके पास बहुत सारा धन जमा हो जाता है। परंतु वे लोग उस धन के असली मालिक नहीं होते।"* आप सोचेंगे, *"जिसके पास धन है, जिसके कब्जे में धन है, फिर वह उस धन का असली मालिक क्यों नहीं है?"* आपके इस प्रश्न का उत्तर यह है, कि *"धन किसलिए कमाया जाता है? जोड़ जोड़ कर रखने के लिए? या उत्तम कार्यों में खर्च करने के लिए?"* वेदादि शास्त्रों का उत्तर यह है कि *"धन उत्तम कार्यों में खर्च करने के लिए कमाया जाता है। भविष्य की सुरक्षा के लिए भी कुछ धन रखना अच्छा है। उसका भी विधान वेदों में है."* आप कहेंगे, *"तो जो लोग धन जमा करके रखते हैं, फिर उन्होंने क्या गलती की? वे धन के असली मालिक क्यों नहीं हैं?"* मेरा उत्तर यह है, कि वेदों का विधान ऐसा है, कि *"जितना धन आपके पास है, उसे उचित/ उत्तम कार्यों में खर्च करें। अपने घर परिवार के लिए जो आवश्यक खर्च हो, उसमें लगाएं। कुछ भविष्य की सुरक्षा के लिए भी रखें। हो सकता है, भविष्य में कोई बीमारी आ जाए, उसकी चिकित्सा में धन खर्च करना पड़े। महंगाई भी बढ़ेगी। यात्राएं भी होंगी। और भोजन आवास आदि के भी खर्चे होंगे। ठीक है, इन सब कार्यों के लिए धन रखें।"* परंतु वेदों का कहना यह भी है, कि *"अपनी सारी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए आपने जो धन कमा लिया, और भविष्य के लिए भी जमा कर लिया, आपकी आवश्यकताओं की पूर्ति भी हो गई। अब उससे अधिक धन, जो आप के पास आ गया है, उसे अपने पास न रखें।" "उसको देश, धर्म, संस्कृति की रक्षा के लिए दान कर दें। इसे ऋषियों ने 'अपरिग्रह' के नाम से कहा है।"* *"आवश्यकता से अधिक धन को, जो आपके किसी काम का नहीं है, यदि आप उसे चाहते हुए भी दान नहीं कर सकते, तो ज़रा सोचिए, आपके उस अधिक धन का क्या होगा? आपकी मृत्यु के बाद, आपके मेहनत से कमाए हुए उस धन का भोग तो कोई दूसरा व्यक्ति ही करेगा। आपके धन का भोग, जब कोई दूसरा व्यक्ति करेगा, तो इस का क्या अर्थ हुआ, कि आप उस धन के मालिक नहीं हैं। आप तो केवल उसके चौकीदार हैं। दूसरों के लिए धन जमा कर कर के केवल उस धन की रक्षा कर रहे हैं।"* *"इसी बात को दूसरे शब्दों में 'धन का नाश' कहा जाता है। क्योंकि आप अपने कमाए हुए धन को स्वयं तो भोग नहीं पाए। आपका धन तो कोई और ही ले गया। अतः यह आपके लिए तो 'धन का नाश' ही है।"* इसलिए वेदों का यह संदेश है, कि *"आवश्यकता से अधिक धन जमा नहीं करना चाहिए, बल्कि देश, धर्म, संस्कृति की रक्षा के लिए दान कर देना चाहिए। इससे आपको पुण्य भी मिलेगा और आप धन के असली मालिक भी कहलाएंगे। क्योंकि आपने उस धन का अपनी इच्छा से उपयोग किया।"* अब जो लोग धन का दान नहीं करते, अपने कब्जे में दबाए रखते हैं, वे दान क्यों नहीं करते? ज़रा इस बात पर भी विचार कर लें। उसके अनेक कारण हो सकते हैं। उनमें से एक कारण यह है, *"उन्हें डर लगता है, कि कहीं भविष्य में धन कम न पड़ जाए!"* इसका उत्तर तो मैंने दे दिया, कि *"जीवन भर के खर्च की गिनती कर लें। उतना धन जमा कर लें।" "उससे अधिक धन तो बांट दें, दान कर दें, उत्तम कार्यों में लगा दें। तभी तो आप उसके मालिक कहलाएंगे! अन्यथा चौकीदार ही बने रहेंगे, और यहीं छोड़कर चले जाएंगे।"* दूसरा कारण यह हो सकता है, कि *"आपके घर परिवार के लोग अपने स्वार्थ के लिए आपको दान नहीं देने देंगे। वे कहेंगे, "क्यों! इतना पैसा दान में क्यों देते हो? हमको दो। हमें भी तो धन की आवश्यकता है।"* यदि उनके दबाव से आप दान नहीं दे पाए, तो तब भी आप अपने धन के असली मालिक नहीं हैं. तीसरा कारण यह भी हो सकता है, कि "जो धन आपकी आवश्यकता से बहुत अधिक आपके पास जमा हो गया है, उसे दान देने पर समाज के कुछ लोग आपके विषय में ऐसा कहेंगे, कि *"यह पागल हो गया है। इतना सारा पैसा दान कर रहा है!"* उनका यह कटाक्ष आपको कष्टदायक लगता है। आप उनका यह कटाक्ष सुनना नहीं चाहते। इस वजह से आप दान नहीं देते। तब भी आप अपने धन के असली मालिक नहीं हैं. इसके अतिरिक्त और भी अनेक कारण हो सकते हैं। कारण जो भी हों। सार की बात तो यही है, कि *"जब आप अपनी इच्छा से उस धन को खर्च नहीं कर सकते, दान नहीं दे सकते, तो आप उस धन के सच्चे मालिक नहीं हैं।"* वेदों का तो यही विधान है। इसलिए विद्वानों ने कहा है, कि *"धन की तीन गतियां होती हैं। दान, भोग और नाश।" "या तो धन का भोग कर लो। या फिर दान दे दो। यदि ये दो काम नहीं किए, तब आप के मेहनत से कमाए हुए धन की तीसरी गति = नाश अवश्य ही होगी, जो कि ठीक नहीं है। धन के नाश से तो बचना ही अच्छा है।"* *"अतः धन का अपने और परिवार के लिए सदुपयोग करें। आवश्यकता से अधिक धन को देश धर्म संस्कृति की रक्षा में दान कर देवें।"*
Vedic vichar
12-09-2022
*"संसार में कुछ कार्य कठिन होते हैं, जैसे कंप्यूटर मास्टर बनना कठिन है। इंजीनियरिंग डॉक्टरी इत्यादि विषयों में ऊंची योग्यता बनाना भी कठिन है।"* *"कुछ कार्य सरल होते हैं, जैसे 10वीं कक्षा पास करना, झाड़ू लगाना, पोंछा लगाना इत्यादि।" "जो सरल कार्य हैं, इन्हें तो लोग प्रायः कर लेते हैं। परंतु जो कठिन कार्य हैं, उनके करने में कष्ट होता है।"* अब इसी बात को अर्थात सरल और कठिन को, एक और दृष्टिकोण से देखिए। एक व्यक्ति को जो कार्य कठिन दिखता है, दूसरे व्यक्ति को वही कार्य सरल दिखता है। इसके पीछे क्या कारण हो सकता है? अनेक कारण हो सकते हैं। जिनमें से एक मुख्य कारण यह है, कि *"यदि व्यक्ति किसी कार्य को करने की तीव्र इच्छा रखता है, उसकी बुद्धि भी तेज़ है, वह उस कार्य को करने की विधि को भी जानता है, और पुरुषार्थी भी है, तो वह कुछ ही समय में कंप्यूटर मास्टर बनने जैसे कठिन कार्य को भी कर लेगा।" "परंतु यदि किसी व्यक्ति में किसी सरल कार्य को करने की भी इच्छा न हो, वह उस कार्य को करने की विधि को भी ठीक से न जानता हो, उसकी बुद्धि का स्तर भी कम हो, और वह आलसी भी हो, तो उसके लिए 10वीं कक्षा पास करने जैसा सरल कार्य भी कठिन हो जाएगा।"* बहुत से लोग कठिन कार्यों से बचने का बहाना ढूंढते रहते हैं। *"भले ही यह सत्य है, कि वह कार्य कठिन है, परंतु असंभव नहीं है।" "उन कठिन कार्यों को करने वाले भी लाखों लोग इस संसार में हैं। जब लाखों लोग उन कठिन कार्यों को कर सकते हैं, तो आप भी कर सकते हैं।"* परन्तु आप क्यों नहीं कर पाते? कारण इतना ही है, कि आपमें ऊपर बताई तीन चार बातों की कमी है। जब तक ये तीन चार कमियां रहेंगी, तब तक कठिन कार्य तो कठिन लगेगा ही, सरल कार्य भी कठिन लगेगा। *"और यदि ये तीन चार कमियां आपने दूर कर दीं, तो धीरे-धीरे कुछ अभ्यास करने के बाद वह कठिन कार्य भी आपके लिए सरल हो जाएगा।"* जैसे सैनिक बनना, इंजीनियर बनना, उच्च स्तर का वकील बनना, वेदों का विद्वान बनना, समाधि लगाना इत्यादि। *"ये सब कार्य कठिन हैं, परंतु असंभव नहीं हैं। ऊपर बताए तीन चार कारणों से इनको करना भी संभव है। और धीरे-धीरे अभ्यास हो जाने के बाद तो ये कठिन कार्य भी आपको सरल लगने लगेंगे।"* *"अतः जो भी कार्य करने आवश्यक हों, अनिवार्य हों, जिनको किए बिना काम नहीं चलता, उनको आप पूरी श्रद्धा और लगन से करें। आप कुछ ही समय बाद उन कठिन कार्यों को करने में सफल हो जाएंगे, और अपने जीवन को आनंद पूर्वक जीएंगे।"*
Vedic vichar
12-09-2022
'शांति आनंद निर्भयता निश्चिंतता इत्यादि गुण कैसे होते हैं,' इस अनुभूति को तो आजकल के लोग प्रायः भूल ही गए हैं। *"क्योंकि दिन भर वे चिंताओं राग द्वेष काम क्रोध लोभ ईर्ष्या अभिमान आदि समस्याओं से घिरे रहते हैं।"* *"सुबह जब से नींद खुलती है, तभी से चिंताएं तनाव इत्यादि आरंभ हो जाता है, और वह रात को सोने के समय तक पूरे दिन चलता है।"* कभी ऐसा अवसर मिलता ही नहीं, जब व्यक्ति ऐसा अनुभव कर सके, कि *"मैं बहुत शांत हूं, मैं प्रसन्न हूं, आनंदित हूं, मैं निर्भय हूं। निश्चिंत हूं।"* ये अच्छी अनुभूतियां क्यों नहीं होती? इसलिए नहीं होती, *"क्योंकि इस प्रकार की उत्तम अनुभूतियां वैदिक ईश्वर के स्वरूप का चिंतन करने से प्राप्त होती हैं। और वैदिक ईश्वर के स्वरूप का चिंतन आज का व्यक्ति करता नहीं।"* वैदिक ईश्वर अर्थात वेदों में ईश्वर का जैसा स्वरूप बताया गया है, वैसे ईश्वर का चिंतन करना चाहिए। *"वेदों में ईश्वर का स्वरूप कैसा बताया गया है? निराकार सर्वशक्तिमान सर्वव्यापक न्यायकारी और आनन्दस्वरूप आदि।" "ऐसे ईश्वर के सही स्वरूप का चिंतन करने से शांति आनंद निर्भयता निश्चिंतता इत्यादि इस प्रकार की अच्छी अनुभूतियां होती हैं।"* परंतु आजकल अधिकतर लोग, न तो वेदों को पढ़ते, न ही वे वैदिक विद्वानों का सत्संग सुनते। इनसे बहुत दूर चले गए। *"इसलिए न तो लोग ईश्वर के वैदिक स्वरूप को जानते, और न ही उस का चिंतन करते। इसीलिए उन्हें सुख शांति आनंद निर्भयता निश्चिंतता इत्यादि अच्छी अनुभूतियां नहीं होती।"* *"दूसरी ओर, सुबह नींद खुलते ही व्यक्ति संसार की चिंताओं में डूब जाता है। पति पत्नी बच्चे भाई बहन माता पिता नौकरी व्यापार खाना पीना फैशन कपड़े मोटर कार इत्यादि वस्तुओं का ही विचार वह उठते ही आरंभ कर देता है। अर्थात् सुबह से रात तक व्यक्ति सांसारिक वस्तुओं का ही चिंतन करता रहता है। जिसका परिणाम यह होता है, कि वह चिंताओं तनाव राग द्वेष काम क्रोध लोभ ईर्ष्या अभिमान आदि समस्याओं से दिन भर घिरा रहता है।"* वेदों के पूर्ण विद्वान ऋषि लोग भी यही कहते हैं, कि *"जितनी देर तक आप वैदिक ईश्वर के स्वरूप का चिंतन करेंगे, उतनी देर तक आपको आनंद निर्भयता सुख शांति आदि का अनुभव होगा।" "और जितनी देर तक आप सांसारिक वस्तुओं का चिंतन करेंगे, उतनी देर तक आपकी चिंताएं बढ़ती जाएंगी। राग द्वेष काम क्रोध लोभ आदि दोष बढ़ते जाएंगे, और आप जीवन में अशांति तनाव आदि का अनुभव करेंगे।"* आज के लोग संसार का ही चिंतन कर रहे हैं, ईश्वर का नहीं। इसलिए पूरा दिन तनाव चिंताओं आदि से ग्रस्त रहते हैं। *"यदि बीच-बीच में कुछ समय निकालकर थोड़ा-थोड़ा ईश्वर का चिंतन भी कर लिया करें, तो इन समस्याओं से बच सकते हैं।"* *"हर घंटे बाद, चाहे एक दो मिनट ही सही, ईश्वर का चिंतन अवश्य करें। इसका परिणाम आप स्वयं ही देख लेंगे, कि "जितने सैकंड / मिनट आप ईश्वर का चिंतन करेंगे, उतने सैकंड / मिनट आपको शांति आनंद निर्भयता इत्यादि का अनुभव होता रहेगा।" "और जितने सैकंड / मिनट आप संसार का चिंतन करेंगे, उतने सैकंड / मिनट आपको अशांति चिंताएं तनाव इत्यादि दुख देंगे।" "अब दोनों रास्ते आपके सामने हैं, जो अच्छा लगे, उस पर चलें।"*
VEDIC TV
12-09-2022
आपको सूचित किया जाता है कि वैदिक विचार संस्था की शुरुआत हुई वैदिक टीवी VEDIC TV प्रतिदिन शाम 7.30 से 8.30 आप यहाँ देख सकते हैं www.vedicvichar.com
Vedic vichar
02-09-2022
प्रायः लोग दूसरों की जो क्रियाएं देखते हैं, बिना प्रमाण और तर्क से परीक्षा किए, उन क्रियाओं को देखकर अनेक बार उनके विषय में बहुत सी भ्रांत मान्यताएं बना लेते हैं। ऐसा करना बहुत हानिकारक होता है। *"क्योंकि किसी दिन किसी व्यक्ति की अपनी शारीरिक मानसिक स्थिति अन्य दिनों की अपेक्षा कुछ अलग हो सकती है। किसी दिन किसी व्यक्ति के द्वारा कोई एक क्रिया करने पर, यदि दूसरा व्यक्ति उसे देख कर ऐसा मान ले, कि यह तो सदा ही ऐसा करता है। तो यह उसके प्रति भ्रांत मान्यता है। क्योंकि वह व्यक्ति प्रतिदिन ऐसा नहीं करता।"* उदाहरण -- एक व्यक्ति ने अपने अतिथि से रात्रि को भोजन के समय पूछा, कि *"आप भोजन में सलाद, मिठाई खाएंगे? अतिथि ने मना कर दिया, कि "नहीं खाऊंगा।" इस घटना से यदि यजमान ऐसा मान ले, कि "यह अतिथि तो सलाद मिठाई कभी नहीं खाता।"* तो यह उसकी भूल है। यह भी तो हो सकता है कि *"उस अतिथि की शारीरिक स्थिति के अनुसार वह दिन में सलाद मिठाई खाता हो, रात को न खाता हो। अथवा केवल उस दिन स्वास्थ्य ठीक न होने से उसने रात्रि भोजन में सलाद और मिठाई खाने से मना किया हो।"* इसलिए प्रमाणों से पूरी परीक्षा किए बिना किसी व्यक्ति के विषय में ऐसी मान्यता बना लेना, कि *"यह व्यक्ति तो सलाद मिठाई खाता ही नहीं।" "और फिर वह दूसरों में इस बात का प्रचार भी कर दे, तो यह अत्यन्त अनुचित व्यवहार है।"* इस छोटे से उदाहरण से आप सभी क्षेत्रों में समझ लेंगे। एक और उदाहरण -- *"किसी व्यक्ति ने अपने कर्मचारी के साथ कुछ कठोर भाषा बोली, क्योंकि कर्मचारी ने कोई अपराध किया था. वह उसको दंडित कर रहा था।"* अब दूसरा व्यक्ति यदि उसको ऐसे कठोर भाषा बोलते हुए पहली बार देखे, और ऐसा मान ले, कि *"यह व्यक्ति तो बड़ा क्रोधी है। अपने कर्मचारियों पर बहुत गुस्सा करता रहता है।" "तो इस प्रकार की एक आध घटना को देखकर प्रमाणों से पूरी परीक्षा किए बिना ही, किसी के विषय में कोई मान्यता बना लेना, अत्यंत अनुचित है।"* ऐसी ग़लत मान्यता बनाकर, फिर व्यक्ति उस का प्रचार दूसरे लोगों में भी कर देता है, कि *"वह व्यक्ति तो सलाद नहीं खाता। वह व्यक्ति तो मिठाई नहीं खाता। वह व्यक्ति तो बहुत क्रोधी है, इत्यादि।"* इस प्रकार की भ्रांतियां फैलाने से बहुत हानियां होती हैं, और *"भ्रांति फैलाने वाले को आगे भविष्य में बहुत सा दंड भी भोगना पड़ता है।"* *"अतः व्यवहार में बहुत ही सावधानी का प्रयोग करें और प्रमाणों से परीक्षा करके ही, दूसरों के विषय में अपनी कोई मान्यता बनावें। इसी में आपका और सबका कल्याण है।"*
Vedic vichar
02-09-2022
*"मनुष्य कितना स्वार्थी है, यह उसकी प्रवृत्ति से पता चलता है।" "एक तो - ईश्वर ने जन्म से ही मनुष्यों को इतनी सारी सुविधाएं बिना मांगे दे रखी हैं।"* और दूसरी बात - आगे भी अवसर दे रखा है, कि *"पढ़ाई करो, बुद्धि का विकास करो, अच्छे काम करो, धन कमाओ और खूब आनंद से जियो."* अब संसार में कुछ लोग तो मेहनत करते हैं। ईश्वर भी उनके कर्म अनुसार उनको फल देता है। *"परंतु कुछ लोग ऐसे आलसी और कामचोर हैं, जो मेहनत करना नहीं चाहते, तथा मुफ्त में खाना पीना भोगना चाहते हैं।"* उनकी यह इच्छा तो ईश्वर के न्याय नियम के विरुद्ध है। इसलिए ईश्वर उनकी यह अनुचित इच्छा पूरी नहीं करता। *"जब ईश्वर न्याय नियम के विरुद्ध उनकी यह अनुचित इच्छा पूरी नहीं करता, तब वे आलसी कामचोर एवं कृतघ्न लोग ईश्वर को बहुत गालियां देते हैं, बहुत बुरा भला कहते हैं।" "कितने दुष्ट हैं, ऐसे आलसी और कृतघ्न लोग, जो ईश्वर का धन्यवाद नहीं करते, कि ईश्वर ने जन्म से ही उनको कितनी सारी वस्तुएं और सुविधाएं बिना मांगे ही दे रखी हैं।" "ऐसे लोगों की प्रवृत्ति से पता चलता है, कि संसार में कितने मूर्ख आलसी कामचोर और कृतघ्न लोग रहते हैं।"* परंतु बुद्धिमान लोग, इन मूर्ख आलसी और कामचोरों की नकल नहीं करते। वे पूरा पुरुषार्थ करके बाद में ही फल की कामना करते हैं। *"इन बुद्धिमान पुरुषार्थी लोगों की तरह से ही, यदि वे आलसी कामचोर और कृतघ्न लोग भी ईश्वर के न्याय नियम का पालन करें, तो ईश्वर उनको भी सारे सुख देगा, इस बात में कोई संशय नहीं है।"* *"अतः बुद्धिमत्ता का प्रयोग करें। ईश्वर द्वारा जन्म से ही बिना मांगे दी हुई, जो सैकड़ों वस्तुएं और सुविधाएं हैं, उनके लिए तो ईश्वर का धन्यवाद करें। और आगे पूर्ण पुरुषार्थ करके फिर फल की कामना करें। ईश्वर पर दोष कभी न लगाएं। इसी में न्याय बुद्धिमत्ता शांति संतोष और जीवन का आनंद है।"*
Vedic vichar
02-09-2022
यजुर्वेद में एक मंत्र है। *गणानां त्वा गणपतिं हवामहे।।* इसका अर्थ है, कि, *हे निराकार सर्वव्यापक सर्वशक्तिमान ईश्वर! आप सभी समुदायों के नेता हैं। सब के अग्रणी हैं। सब के नायक हैं। इसलिए मैं आपको 'गणपति' नाम से स्वीकार करता हूं।* वेदों के अनुसार गणपति -- निराकार सर्वशक्तिमान सर्वव्यापक ईश्वर का नाम है। *वेदों के अनुसार सूंड वाले गणेश जी का नाम 'गणपति नहीं है।'*
Vedic vichar
02-09-2022
*"संसार में कोई भी दो व्यक्ति ऐसे नहीं मिलते, जिनके विचार 100% एक समान हों।"* कहीं न कहीं, कुछ ना कुछ आपस में मतभेद होता ही है, टकराव होता ही है। *"फिर भी हमें आपस में मिल जुल कर रहना पड़ता है, परिवार में भी, समाज में भी, देश में भी और इस पृथ्वी पर भी। फिर कैसे मिल जुल कर रहें? उसका क्या उपाय है?"* उसका उपाय है, कि *"आपस में बैठकर चर्चा करें। जिन जिन बातों में मतभेद हो, उन विषयों पर बैठकर ईमानदारी से, सच्चाई से चर्चा करें। जो बात प्रमाण और तर्क से सत्य सिद्ध हो जाए, उस बात को दोनों व्यक्ति स्वीकार करें, और जो बात ग़लत सिद्ध हो जाए, उसे दोनों व्यक्ति छोड़ दें।"* *"वहां मान अपमान की चिंता न करें। सत्य को स्वीकार करें, असत्य को छोड़ दें। यदि कभी आपका दोष हो और दूसरा व्यक्ति आपसे बड़ा हो, वह आपको डांट भी दे, तो उसकी डांट भी सह लें।" "यदि बार-बार बिना कारण वह आपको डांटे, और बताने पर भी वह अपना दुर्व्यवहार बंद न करे, तब उससे संबंध तोड़ दें। अन्यथा आप डिप्रेशन में चले जाएंगे। यह भी हानिकारक है।" "परंतु संबंध तोड़ने से पहले इतना अवश्य देख लें, कि उसके बिना आप ठीक-ठाक जी लेंगे या नहीं? यदि इतना भरोसा हो, कि उसके बिना, किसी और की सहायता से आप ठीक प्रकार से जी सकते हैं, तभी उससे संबंध तोड़ें। अन्यथा उसकी कुछ बातें आपको जैसे तैसे सहन करनी ही पड़ेंगी, तभी आपका जीवन कुछ ठीक प्रकार से आगे चल पाएगा।"* *"यदि इस व्यवस्था को दोनों व्यक्ति स्वीकार करें, तो वे दोनों व्यक्ति परस्पर प्रेम से, आनंद से मिलकर रह सकते हैं। यही सुख से जीने का सही उपाय है। यही आनंद से जीवन जीने का रहस्य है।"* *"परंतु जब दो व्यक्ति ऐसा व्यवहार नहीं करते, अर्थात बिना प्रमाण और बिना तर्क से परीक्षा किए कुछ भी मानते हैं, या कुछ भी बोलते हैं। पीठ पीछे एक दूसरे की निंदा चुगली करते हैं। अपने हठ दुराग्रह को नहीं छोड़ते, और ईमानदारी से सत्य को स्वीकार नहीं करते। ऐसी स्थिति में उन दोनों का संबंध लंबे समय तक नहीं चल पाता, और कुछ ही समय में टूट जाता है।"* तो सारी बात का सार यह हुआ, कि *"जो व्यक्ति ऊपर बताए तरीके से आपके साथ ईमानदारी से बात करे, सत्य को स्वीकार करे, उसके साथ प्रेम से मिलकर रहें।"* तथा *"जो व्यक्ति हठी क्रोधी दुष्ट छली कपटी बेईमान हो, अति अभिमानी हो, ऐसे व्यक्ति को छोड़ दें। उससे दूर रहें। न तो उसके साथ लड़ाई झगड़ा करें, और न ही उससे कोई संबंध या राग रखें। उसके साथ व्यवहार बंद कर दें। तभी आप सुखपूर्वक जी पाएंगे, अन्यथा नहीं।"*
Vedic vichar
02-09-2022
*"सुख प्राप्त करना कौन नहीं चाहता? सभी चाहते हैं। परंतु अधिकांश लोग चाहते हैं मुफ्त में। यह तो नहीं हो सकता।"* क्योंकि इस संसार का राजा ईश्वर है। यहां उसके कानून चलते हैं। ईश्वर का कानून है, कि *"यदि आप दूसरों को सुख देंगे, तभी आपको ईश्वर सुख देगा, और समाज के लोग भी आपको सुख देंगे। यह सारी व्यवस्था ईश्वर ने बना रखी है।"* *"जो व्यक्ति बुद्धिमान होता है, वह इस व्यवस्था को समझ लेता है, और इसका पालन करके सदा सुखी रहता है।" "जो व्यक्ति इस व्यवस्था को नहीं समझता, हर जगह अपनी मनमानी करता है, हठ अभिमान करता है, दूसरों को दुख देता रहता है, वह व्यक्ति सदा दुखी रहता है।"* अब दोनों रास्ते आपके सामने हैं। *"पहला -- यदि आप सुख चाहते हों, तो दूसरों को सुख देवें।"* और *"दूसरा -- यदि दूसरों को दुख देंगे, तब आपको भी दुख मिलेगा। इसमें कोई सन्देह नहीं है।"* अब निर्णय आपको करना है, कि *"आप दूसरों को सुख देंगे, या दुख देंगे। जो भी देंगे, वही आपको मिलेगा। यही ईश्वर का नियम है।"*
आज का चिन्तन
25-08-2022
जो मनुष्य दूसरों का भला करके भूल जाते हैं उनका हिसाब भगवान स्वयं याद रखा करते है मगर जो मनुष्य आदतन अपने पुण्यों का बहीखाता लिए फिरते हैं। भगवान द्वारा फिर उनके पुण्य कर्मों को विस्मृत कर दिया जाता है। जो भी पुण्य तुम्हारे द्वारा संपन्न किये जाते हैं, सत्य समझ लेना यह भगवान निश्चित ही उन्हें संचित कर देते है और आवश्यकता पड़ने पर तुम्हारी विस्मृति के बावजूद भी उनका यथा योग्य फल अवश्य ही देते है। याद रखना मनुष्य केवल खाता रख सकता है मगर उसका परिणाम घोषित नहीं कर सकता, वह अधिकार तो केवल और केवल भगवान के पास ही सुरक्षित है। अतः भला करो और भूल जाओ उचित समय आने पर भगवान स्वयं पुरुस्कृत कर देंगे । ????️आचार्य धर्मराज
ମନ ,ମୋକ୍ଷ ଓ ବନ୍ଧନର କାରଣ କଣ?
25-08-2022
ଆମ ଅନ୍ତକରଣ ୪ଟି ଅବସ୍ଥାରେ ଥାଏ ଯଥା .ମନ, ବୁଦ୍ଧି ,ଚିତ୍ତ ଓ ଅହଙ୍କାର । ଏମାନଙ୍କ ମଧ୍ୟରୁ ମନ ଉପରେ ବିଶେଷ ଆଲୋଚନା ଆବଶ୍ୟକ ପଡେ, କାରଣ ମନ ଆତ୍ମାକୁ ମୋକ୍ଷପଥରେ ନେଇଯାଏ ଓ ବନ୍ଧନରେ ମଧ୍ୟ ପକାଇଦେଇଥାଏ।" ମନ ଏବ ମନୁଷ୍ୟାଣାମ୍ କାରଣ ବଦ୍ଧ ମୋକ୍ଷ ୟୋ8" ମନ ପ୍ରସନ୍ନତାରେ ସନ୍ତୋଷ ପାପ୍ତ ହୁଏ । ମନ ଅପ୍ରସନ୍ନତାରେ ବ୍ୟକ୍ତି ନଷ୍ଟ ଭଷ୍ଟ୍ର ହୋଇଯାଏ । ଯେ ମନକୁ ଜିତିଯାଏ ସେ ଜଗତଜିତିଯାଏ ଏଣୁ ବିଦ୍ଵାନ୍ ମାନେ କହନ୍ତି" ମନ୍ କା ହାର୍ ହାର, ମନ କା ଜିତ୍ ଜିତ୍ ହେ" ଆମେ ଜାଣୁ ମନ ଜଡ଼କିନ୍ତୁ ତା ମଧ୍ୟ ରେ ଇଶ୍ଵର ଯେଉଁ ଶକ୍ତିପ୍ରଦାନ କରିଛନ୍ତି ସେ କ୍ଷଣ କ୍ଷଣେ ବଦଳିଯାଏ, ମନଠାରୁ ଚଞ୍ଚଳ ବା ତୀବ୍ରଗାମୀ ଯାନ ଆଜିଯାଏଁ ସୃଷ୍ଟି ହୋଇନାହିଁ। ସତ୍ତ୍ଵ, ରଜସ ଓ ତମସ ଏହି ୩ ଗୁଣରେ ଆମ ମନ ୫ଟି ଅବସ୍ଥାରେ ପରିଚାଳିତ ହୁଏ, ଯଥା ମୂଢ ,କ୍ଷିପ୍ତ , ବିକ୍ଷିପ୍ତ,ଏକାଗ୍ର ଓ ନିରୁଦ୍ଧ । ଏଗୁଡ଼ିକ ଲକ୍ଷଣ ନିମ୍ନ ପ୍ରକାରରେ ପ୍ରକାଶ ପାଏ । ୧. ମୂଢ ଅବସ୍ଥାର ମନ ମିଥ୍ୟା, ଚୋରୀ, ଛଳ, କପଟ, ବ୍ୟଭିଚାର, ଜୀବହତ୍ୟା, ବଳକାର, ପରଧନହରଣ ଓ କୁତ୍ସିତ ଖାଦ୍ୟ ଭକ୍ଷଣ କରେ ମାଛ ମାଂସ, ଅଣ୍ଡା, ମଦ୍ୟ ଓ ବିଭିନ୍ନ ନିଶାଦ୍ରବ୍ୟ ସେବନ କରେ ଫଳରେ ଜ୍ଞାନ ଓ ବିଜ୍ଞାନ ଶୂନ୍ୟ ହୋଇ ପଶୁ ପ୍ରବୃତ୍ତି ଆଚରଣ କରେ । ଯେତେବେଳେ ଏ ସବୁ ଖରାପ ଗୁଣ ନିଜ ଭିତରେ ପ୍ରକାଶ ପାଇବା ଜାଣିବ ସେତେବେଳେ ଅନୁଭବ କରିବ ଯେ ମନମୂଢତାପ୍ରାପ୍ତ ହୋଇଅଛି। ଏଥିରୁ ରକ୍ଷାପାଇବାକୁ ହେଲେ ବିଚାର ପୂର୍ବକ ମନକୁ ଉଚିତ୍ ମାର୍ଗକୁ ଆଣିବାକୁ ଚେଷ୍ଟା କରିବ।କ୍ରମଶଃ . . . . ଇତି ଓ ୩ମ୍ । Dr. Yajnya Dutta Nayak, Vedic Vichar, Berhampur, Odisha
କେଉଁ ନାମ ଧରି ଡାକିବି ତୁମକୁ? Vedic thought
25-08-2022
Vedic Vichar ଆମେ ଈଶ୍ଵରଙ୍କୁ କେଉଁ ନାମରେ ଡାକିବା ଏହାର ନିର୍ଣ୍ଣୟରେ ଋଗ୍ 6ବଦ ରେ ସ୍ପଷ୍ଟ ହୁଏ ଯେ" ଇନ୍ଦ୍ରଂ ମିତ୍ରଂ ବରୁଣମଗ୍ନିମାହୁର ଥୋ ଦିବ୍ୟ8 ସ ସପ6ର୍ଣା ଗରୁ ତ୍ମାନ । ଏକଂ ସଦ୍ବିପ୍ରା ବହୁଧା ବଦ_ନ୍ତ୍ଯଗ୍ନିଂ ଯମଂ ମାତରିଶ୍ୱାନମାହୁଃ'( ମଣ୍ଡଳ ୧/ସୂ ୧୬୪/ ମନ୍ତ୍ର୪୬) ଅର୍ଥାତ୍ ବିପ୍ରା - ମେଧାବୀଗଣ, ଏକଂସତ୍_ଏକସନାତନ ପରମାତ୍ମା , ବହୁଧା-ବହୁ ପ୍ରକାର ବଦନ୍ତି -କହନ୍ତି, ଅଗ୍ନି-ପ୍ରକାଶମୟ ପରମାତ୍ମାଙ୍କୁ (ଇନ୍ଦ୍ର, ମିତ୍ର,ବରୁଣ,(ଆହୁ-କହନ୍ତି) ଦିବ୍ୟ ଆଲୌକିକ / ସୁପର୍ଣ୍ଣ8_ଉତ୍ତମ ପାଳକ, ଗରୁତ୍ମାନ_ଗୌରବମୟ ଅଟନ୍ତି, ଯମ-ସର୍ବନିୟନ୍ତା, ସୂକ୍ଷ୍ମାତି ସୂକ୍ଷ୍ମରୂପରେ ସର୍ବତ୍ର ବିଦ୍ୟମାନ୍ ଥିବାରୁ -ମାତିରିଶ୍ୱାନ୍ତି. ବେଦର ଭାଷାନବୁଝିପାରିବା ଲୋକେ କହନ୍ତି ଋଷିମାନେ ପୃଥିକ୍ ପୃଥିକ୍ ଦେବତା ପୂଜା କରନ୍ତି।ସ୍ଵର୍ଗରେ ଦେହ ଧାରୀ ଦେବତା ଅଛନ୍ତି କିନ୍ତୁ ବେଦ ଉଦ୍ଘୋଷ କରନ୍ତି" ଏକଂ ସତ୍_ଅର୍ଥାତ୍ ବ୍ରହ୍ମାଣ୍ଡର ସୃଷ୍ଟ ଏକ ପରନ୍ତୁ ଗୁଣ କର୍ମ ,ଶକ୍ତି ଓ ଲକ୍ଷଣରେ ଅନେକ ଅଟନ୍ତି । ଅନେକ ନାମକୁ ଅନେକ ଇଶ୍ଵର କଳ୍ପନା କରିବା ଅସଙ୍ଗତ ଓ ଅବୈଦିକ ଅଟେ। ସୂକ୍ଷ୍ମଦର୍ଶୀ ଜ୍ଞାନୀମାନେ ସୃଷ୍ଟିକୁ ପର୍ଯ୍ୟାଲୋଚନା କରି ସ୍ରଷ୍ଟା ଙ୍କର ବିବିଧ ଗୁଣରେ ପରିଚୟ ଲାଭ କରିଥାନ୍ତି ଓ ବିବିଧ ନାମରେ ସମ୍ବୋଧନ କରିଥାନ୍ତି। ତାଙ୍କର ଶ୍ରେଷ୍ଠ ଓ ମୁଖ୍ୟ ନାମ ଓ ୩ମ୍ ଅଟେ । ଇତି । ଓ୩ମ୍ ରାଜକିଶୋର ଆର୍ଯ୍ୟ । Vedic Mission
ଭ୍ରମ ଜ୍ଞାନଦିଅନ୍ତୁ ନାହିଁ କାରଣକଥାରେ ଅଛି ଯଦିଚାଷୀ ଫସଲ କୋଡ଼େ ଯେତେ । ତା'ଠାରୁ ଅଧିକ ମାଡ଼େ। ତେବେ କେବଳ ଶ୍ରମ ନଷ୍ଟ ହେବ। ସାର ହୁଏ ।
25-08-2022
ଭ୍ରମ ଜ୍ଞାନଦିଅନ୍ତୁ ନାହିଁ କାରଣକଥାରେ ଅଛି ଯଦିଚାଷୀ ଫସଲ କୋଡ଼େ ଯେତେ । ତା'ଠାରୁ ଅଧିକ ମାଡ଼େ। ତେବେ କେବଳ ଶ୍ରମ ନଷ୍ଟ ହେବ। ସାର ହୁଏ । କିଛିଙ୍କ ମତ ବେଶି ପଠନ, ଲିଖନ ଓ ଶ୍ରବଣ କଲେ ହେବନାହିଁ ତାହା ବ୍ୟବହାର ଓ ଆଚରଣରେ ପ୍ରତିଫଳନ କରିବା ଉଚିତ୍। ଏହା ତ ନିଶ୍ଚିତ। କିନ୍ତୁଏହି ଉଚିତ୍ କହିବା ବ୍ୟକ୍ତିମାନଙ୍କୁ ମୋର ଅନୁରୋଧ ସେମାନେ କିପରି ସବୁ ଏହା ଜାଣିଲେ ? ଏହା ସମସ୍ତେ କହିବା ମଧ୍ୟ ସହଜ ସୁବିଧାହୋଇଛି । କିନ୍ତୁ ମନେ ରଖିବା ଉଚିତ୍ ବିନା ସ୍ୱାଧ୍ୟାୟ ଓ ସତ୍ସଙ୍ଗ ରେ ଜ୍ଞାନ ଚକ୍ଷୁ ଉନ୍ମିଳିତ ହୁଏନାହିଁ।ବେଶି କମ୍ ତ ଉର୍ଦ୍ଧର କଥା। ଶେଷ ରେ ଯଦି ଜଣେ ବେଶି ପଠନ, ଶ୍ରବଣ କରେ ତେବେ ହିଁ ସେ କିଛି ମନନ କରିପାରିବ। ଯେପରି ଆଖି ବନ୍ଦକରି ଦେଲେ ଧ୍ୟାନ ଓ ମନ୍ତ୍ର ପଠନ କଲେ ସନ୍ଧ୍ୟା ହୋଇଯାଏନାହିଁ। ଯେ ଯେତେ ଅଧିକ ଇଶ୍ଵରଙ୍କର ଗୁଣ, କର୍ମ ଓ ସ୍ଵଭାବ ସଂପର୍କରେ ଜ୍ଞାତ ହେବ ସେହି ଜ୍ଞାତବ୍ଯ ବିଷୟରେ ସେ ସେତେ ଅଧିକ ସମୟ ଧ୍ୟାନ ଓ ସନ୍ଧ୍ୟା କରିପାରିବ। ସତ୍ୟଜ୍ଞାନ ଯାହାର ଯେତେ କମ୍ ତାହାର ଧ୍ୟାନ ଶକ୍ତି କମି କମି ଶେଷରେଧ୍ୟାନ ବିଚାର ବିକ୍ଷିପ୍ତ ହୋଇ ଭଙ୍ଗ ହେବ। ଇତି ଓ ୩ମ୍ । -- ରାଜକିଶୋର ଆର୍ଯ୍ୟ । VEDIC VICHAR
आखिर लालकिले से कभी भी महर्षि दयानन्द को वह श्रेय क्यों नहीं दिया गया? जिसके वे हकदार थे। जिम्मेदार कौन?
25-08-2022
एक बात ध्यान रखनी चाहिये। इतिहास से आप बड़ा लाभ उठा सकते हैं लेकिन यह तभी होगा जब आप वर्तमान में भी सक्षम होंगे। एक व्यक्ति सड़क पर पत्थर कूटने की मजदूरी कर रहा था। उससे किसी ने पूछा तू कौन हैं? वह बोलता हैं मेरे पिताजी तहसीलदार थे। उसने फिर अपना प्रश्न दोहराया तू कौन है? अब की बार वह बोला मेरे दादा जी जिलाधिकारी थे। इसने फिर से एक बार पूछा तू कौन है? यह इस बार भी ऐसा ही धमाकेदार उत्तर देता है मेरे परदादा प्रदेश सरकार में मन्त्री थे। क्या यह सब बताने से इस व्यक्ति की कोई बात बनेगी। दैनिक दहाड़ी यदि पांच सौ होगी तो कोई इसे साढ़े पांच सौ दे देगा? नहीं। इसलिये वेदों में पदे पदे बेटे बेटियों के लिये संदेश है अपने पिता पितामह आदि से अधिक परिश्रम करो और उनसे अधिक उन्नति और विकास करो। पिता यदि लैक्चरर थे तो तुम कम से कम प्रोफेसर तो बन जाओ। आजकल बड़ी हलचल है प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लालकिले की प्राचीर से अनेक लोगों के नाम लिये जिन्होंने भारत को आजादी दिलवाने में एक दूसरे से बढ़कर बलिदान दिये लेकिन महर्षि दयानंद सरस्वती का नाम कहीं भी उल्लेख नहीं किया। इससे पहले भी किसी प्रधानमंत्री ने नहीं लिया। पर मोदी जी से एक अलग आशा है। अस्तु! आज हम इस पर आत्म चिन्तन करें। झंड़े उनके गढ़ते हैं जो स्वयं झंड़ा लेकर धमाकेदार तरीक़े से आगे बढ़कर चलते हैं और सावधानी पूर्वक जमाकर स्वयं झंड़ा गाढ़ते हैं। आर्यसमाज का इतिहास बहुत अच्छा है इसमें कोई भी दो राय नहीं है। लेकिन साहब, क्यों भूल जाते है कि जो दिखता है वही बिकता है। वर्तमान में आपके शो रुम में दिख क्या रहा है। वही आपस के लडाई- झगड़े, तू -तू मैं -मैं, मुकदमेवाजी, लाठी डंडे, बन्दकें, खून खराबे, धोखाधड़ी आदि। आर्य समाज की सम्पतियों को खुद ही हड़पना, बेचना, लूट ले जाना। हमने अच्छी खासी बनी बनाई आर्य समाज की संस्थाओं को बरवाद कर दिया। गुरुकुल वृन्दावन अच्छा खासा विश्वविद्यालय था। वहां के स्नातक और परास्नातक अपने ही मौलिक ढ़ंग के धनी थे। डा. विजयेन्द्र स्नातक तो दिल्ली विश्वविद्यालय तक में एक सम्मानित खनक के साथ विभागाध्यक्ष थे। नरदेव स्नातक एम. पी. रहे और रेलवे वोर्ड़ के चेयर मैन भी रहे। लेकिन आज वह विश्वविद्यालय समाप्त है। आज उसकी भूमि बचाना भी मुश्किल हो रहा है। किसने किया उस विश्वविद्यालय को इस तरह बरवाद। गुरुकुल कांगड़ी तो भारतीय शिक्षा विधि का सबसे पहला, सबसे मौलिक और सर्वाधिक सफलतम प्रयोग था। इस आदर्श शिक्षा संस्थान को देखने और दर्शन करने दुनिया के अनेक देशों से लोग आते थे और देखकर भारी हैरान होते थे। कम से कम साधन और भारी से भारी सब प्रकार का विश्वस्तरीय शिक्षा सम्बन्धी सौष्ठव। आज वह विश्वविद्यालय क्या है? देश की आजादी के ७५ वर्ष बाद भी प्रयोग के तौर पर विश्वविद्यालय। जिस गुरुकुल कांगड़ी ने आयुर्वेद को भारत की दृष्टि से उस अन्धेरे युग में भी विश्व स्तर पर अत्यन्त लोक प्रिय बनाया। आज उसका आयुर्वेद महाविद्यालय वर्षों पूर्व उसके हाथ से पूरी तरह निकलकर सरकारी संस्था बन चुका है। यह क्या हो रहा है? यह आर्य समाज विघातक ताण्डव कौन मचा रहा है। हम कर क्या रहे हैं? आर्य समाज के बड़े बड़े कार्यक्रम व्यक्ति के कार्यक्रम बनकर रह जाते है? सती प्रथा के विरोध में राजस्थान में देवराला यात्रा आर्य समाज ने निकाली बहुत साहस का और बहुत बड़ा काम था लेकिन उस इतने बड़े काम को भी हम आर्य समाज वालों ने ही स्वामी अग्निवेश का काम बना कर छोड़ दिया। सन् 1983 में अजमेर में आर्य समाज का बहुत बड़ा सम्मेलन हुआ। क्या उसका श्रेय स्वामी आनंद वोध नहीं ले गये। होड़ल से चण्डीगढ़ शराब बन्दी के विरोध मे़ बहुत हद तक सफल शोभायात्रा निकली किसने उसका श्रेय आर्य समाज को दिया। उसमें इन्द्रवेश, अग्निवेश और उनके साथी ही दिखाई देते थे। आज भी आप देखें, मैने स्वयं एक दिन स्व. श्री राजसिंह जी से पूछा आप दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा के प्रधान हैं। रोहिणी के सफल आर्य महा सम्मेलन ने तो आपको अन्तर्राष्ट्रीय छवि की दृष्टि से एवरेस्ट की चोटी से भी ऊंचा उठा दिया है। अब आपको एक अलग से ऐसे आश्रम की क्या आवश्यकता है जिसे लोग राजसिंह के आश्रम के नाम से ही जाने। राजसिंह जी अब नहीं रहे इसलिये ऐसा कहना शोभा नहीं देता। परन्तु आप विचार कीजिये ऐसी बातों का उत्तर है क्या कोई? आज अखिलेश्वर जी, ब्र. आर्य नरेश जी और और भी कितने नाम है मेरे अनुमान में तो हजारों ही होगें जो आर्य समाज के होते हुये आर्य समाज के नहीं है। व्यक्तियों के हैं और समय पर उनकी कोई ताकत आर्य समाज को नहीं मिलती। बाबा रामदेव जी की तपस्या को कोटि कोटि नमन। पतंजलि जैसा सफल प्रकल्प।अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के प्रकल्प प्रणेता और प्रकल्प प्रबन्धक बाबा जी के कुशल संयोजन, प्रबंधन और कार्य निष्पादन को देखकर भारी हत्प्रभ हैं। लेकिन वह सारा कार्यक्रम क्या आर्य समाज का है। आर्य समाज के हिस्से कुछ भी नहीं। केवल बाबा जी के भावों का खेल है। बाबा जी आज म़ु़ंह फेर ले तो आर्य समाज क्या कर सकता है। आर्य समाज में आज होने को बहुत हो रहा है परन्तु सच यह हैं कि एक बहुत लम्बे समय से कुछ भी नहीं हो रहा। अब कहां हैं वे वार्षिकोत्सव जिसकी भीड़भाड़ देखकर ही अंग्रेजों के छक्के छूट जाते थे। जिनकी भीड़ देखकर महात्मा गांधी जैसे देश विदेश घूमे और दक्षिण अफ्रीका में अंग्रेजों के विरुद्ध सफल आन्दोलन चला चुके व्यक्ति की भी आंखे चकाचौंध होकर विस्फरित हो गई थी। आर्य समाज अद्भुत तरीक़े से जनता जनार्दन से जुड़ा था। लाहौर के सनातन धर्म के लोग आते थे आर्य समाज अनार कली में स्वामी श्रध्दानंद से प्रार्थना करते थे महाराज हम पर कृपा करो। हम भी उत्सव कर रहे है। आप लोगों से कहें तो लोग हमारे यहां भी आयें। आज हम कहाँ खडे़ हैं? यह हमें ही विचार करना पड़ेगा। क्यों हमारे रविवार के सत्संग में लोग नहीं आते है? क्यों हमारे वार्षिकोत्सव बिना श्रोताओं के ऐसे ही या दो चार श्रोताओं से ही सम्पन्न हो जाते है। दिल्ली में श्रध्दानंद बलिदान स्मृति की शोभा यात्रा का मार्ग दिन दिन छोटा क्यों होता जा रहा है। क्यों उसमें लोगों की भीड़ पहले से कम होती जा रही है? पहले उत्सव या कोई दूसरा कार्यक्रम इतने लंगरों के बल पर तो नहीं होते थे। पहले इतने भजनोपदेशकों पर तो हम आश्रित नहीं थे। पहले इतने उपदेशक भी तो हमारे पास नहीं थे। दिल्ली में पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन के सामने कम्पनी बाग में महीनों जमी आर्य समाज की भीड़ का मेला आज भी कई बूढ़ों को भारी रोमांचित करता है। ऐसी भीड़ यहीं तो नहीं होती थी। दिल्ली में कई जगह होती थी और महीनों जमती थी। सदर बाजार म़े लाल किले के सामने और भी कई जगह। आर्य समाज ने किस क्षेत्र में काम नहीं किया। दलित, पशु पक्षी संरक्षण, गरीब अनाथ संरक्षण, राजनीति, व्यापार, उद्योग धन्धे, भाषा, वेशभूषा, भोजन, महिला संरक्षण, शिक्षा, भूमि सुधार, जंगल सुरक्षा, सैना,पुलिस सब जगह। आज सब क्षेत्रों में एक बार फिर से काम करने की जरूरत है। भाइयों! घबराओ मत आर्य समाज के लिये काम करो। महर्षि दयानंद सरस्वती के काम इतने हैं कि यह रुक ही नहीं सकते। आपको याद होगा, महर्षि दयानंद जी महाराज को विष देकर धूर्तता पूर्वक मार दिया। उसके बाद ढ़ाई तीन वर्ष तक आर्य समाज का काम इस तरह रुक गया जैसे कुछ हुआ ही नहीं। आर्य समाज के विरोधी बगलें बजाने लगे। आर्य समाज के प्रति श्रद्धा भाव रखने वालों पर हंसने लगे। कहते थे देख लो आर्य समाज! समाप्त हो गया न! और तब उस घोर अन्धेरे में भी श्रध्देय पं. गुरुदत्त विद्यार्थी उभरे और आर्य समाज इस ढंग से उभरा कि देखने वाले देखते ही रह गये। अंग्रेजों और मुसलमानों की तो सारी चालाकियां ही मिट्टी में मिलती चली गई। खीझे अंग्रेजों ने हमारे लाखों नवयुवकों और दूसरे लोगों को उनके तेज से ड़रकर अकारण ही मार ड़ाला। सोचें अमर शहीद भगत सिंह ने किसका क्या बिगाड़ा था। अपने देश के लिये आजादी की ही बात तो कर रहे थे। उधर दक्षिण में हैदराबाद में आर्य समाजी लोगों ने किसका क्या बिगाड़ा था। जो रजाकारों ने उनको अमानवीय ढंग से और बहुत बुरी तरह से मारा कूटा और उनकी जाने ले ली। हमें तो एक ही बात कहनी हैं। आर्य समाज के लिये निस्वार्थ भाव से काम करो। आर्य समाज ही भविष्य के भारत की सही आशा है। शेष को देश परख चुका है। कुछ को अभी परखा है और कुछ को अब परख रहा है। अभी तक तो किसी में दम दिखा नहीं। इसलिये आप ज्यादा चिन्ता न करें कि मोदी जी ने गड़वड़ कर दी। मोदी जी मोदी जी हैं। आप गड़वड़ न करें। मोदी जी को अपना काम करने दें और यह विचार करें मोदी जी के स्तर का काम करने का मोदी जी का विकल्प क्या है अगर कोई नहीं है तो माहौल खराब न करें। हमारे बोलने से भी लोग भ्रमित हो सकते है। यदि लोग भ्रमित होते हैं तो यह भी हमारे लिये अच्छा नहीं होगा। - - - Vedic Vichar
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24-08-2022
सत्यार्थ प्रकाश का संक्षिप्त परिचय / डॉ. रवीन्द्र अग्निहोत्री (भाग 4) 10.0 दसवें समुल्लास का विषय है आचार, अनाचार, भक्ष्य और अभक्ष्य । 10.1 इसमें एक ओर तो वेद, स्मृति, आदि के अनुकूल सदाचार का पालन करने, अपनी आत्मा के ज्ञान के विरुद्ध आचरण न करने, सत्पुरुषों का संग करने, माता, पिता, आचार्य, अतिथि की सेवा करने, सत्य का आचरण करने, सद्विद्या के ग्रहण में रुचि विकसित करने आदि की चर्चा की गई है, तो दूसरी ओर खानपान और उससे जुड़ी विभिन्न बातों की चर्चा की गई है । 10.2 अपने देश में खानपान के सम्बन्ध में अनेक प्रकार के ‘प्रतिबन्ध’ लगा दिए गए हैं । इसी कारण एक ओर विदेश यात्रा वर्जित कर दी गई क्योंकि अज्ञानी लोगों को यह समझा दिया गया कि विदेश जाने से धर्म भ्रष्ट हो जाता है । स्वामी जी ने इन धारणाओं का खंडन करते हुए कहा है कि अगर हमारा आचरण अच्छा है तो हमें देश - देशान्तर, द्वीप - द्वीपान्तर जाने में कुछ भी दोष नहीं । प्राचीन भारत के इतिहास से उदाहरण देकर भी स्पष्ट किया है कि इस देश के लोग व्यापार, राजकार्य और भ्रमण के लिए पूरे भूमंडल में आते - जाते थे। महाभारत के अनुसार धृतराष्ट्र का विवाह गांधार (वर्तमान कंधार) की राजपुत्री से, पाण्डु का ईरान की राजकन्या माद्री से, और अर्जुन का पाताल (वर्तमान अमरीका) के राजा की कन्या उलोपी से हुआ था । ये विदेश आने-जाने के प्रमाण हैं । आज भी देश- देशान्तर, द्वीप - द्वीपान्तर में राज्य और व्यापार किए बिना स्वदेश की उन्नति नहीं हो सकती । आवश्यक तो यह है कि हम अपने वेदोक्त धर्म को अच्छी तरह जान लें, उसका आचरण करने का अभ्यास कर लें और जो पाखण्ड फैल गए हैं, उनका खंडन करना भी सीख लें ताकि कोई हमें बहका न सके । 10.3 भक्ष्य - अभक्ष्य के सन्दर्भ में स्वामी जी ने सात्विक आहार पर बल दिया है । मांस, मछली, अंडा आदि का निषेध किया है । मांसाहार का विरोध करते हुए उन्होंने दुधारू पशुओं, विशेष रूप से गाय पर आर्थिक दृष्टि से भी विचार किया है और बताया है कि एक गाय अपने जीवन भर के दूध से 24,960 मनुष्यों को एक बार में तृप्त कर सकती है ; और उस गाय की संतति बछड़े - बछड़ी के योगदान पर भी विचार करें तो एक ही पीढ़ी में उनके दूध से 1,24,800 व्यक्ति एक बार में तृप्त हो सकते हैं । जो बैल बनेंगे वे अपने जीवनकाल में पांच हज़ार मन अन्न का उत्पादन कर सकते हैं । इन पशुओं के मल-मूत्र से जो खाद बनेगी, उसके भी आर्थिक पहलू पर विचार किया है । अतः मांस के लालच में इनकी हत्या नहीं करनी चाहिए । (स्वामी जी ने इस विषय पर पृथक से भी एक पुस्तक “ गोकरुणा निधि “ नाम से लिखी है ) । 10.4 हिन्दुओं में छूतछात की बुराई के कारण व्यक्ति हर किसी के हाथ का बना खाना नहीं खाता । उसे यह समझा दिया गया है कि ऐसा करने से उसका धर्म भ्रष्ट हो जाएगा । इसलिए सामान्य हिन्दू यह मानता है कि अपने परिवारी जनों के अलावा खाना या तो वह व्यक्ति बनाए जो जन्म से ब्राह्मण हो , या फिर व्यक्ति अपना खाना स्वयं बनाए । स्वामी जी ने कहा है कि रसोई बनाने और खाने में स्वच्छता का ध्यान रखना चाहिए, न कि जन्मना जाति का । भोजन बनाने के पात्र और स्थान साफ़-सुथरा होना चाहिए तथा भोजन बनाने वाले व्यक्ति भी शरीर, वस्त्र आदि से स्वच्छ रहें । जहां तक छुआछूत का संबंध है, यह समाज की एकता को नष्ट करने वाली ऐसी बुराई है जिसे अविलम्ब दूर करना चाहिए । 10.5 इसके अतिरिक्त, खानपान से संबंधित अन्य प्रश्नों पर भी विचार किया है, जैसे सखरी - निखरी, जूठा खाना, एक साथ खाना, चौके में खाना, चौका लीपना आदि । सभी प्रश्नों पर स्वामी जी की दृष्टि तार्किक है । ग्रन्थ का उत्तरार्ध ग्रन्थ के उत्तरार्ध में चार समुल्लास ( 11, 12, 13, और 14 ) हैं । स्वामी जी ने लिखा है कि लगभग पांच हज़ार साल पहले तक अर्थात महाभारत युद्ध से पहले संसार में वेद मत ही प्रचलन में था, पर बाद में वेदों में अप्रवृत्ति होने से महाभारत युद्ध हुआ । इसी अप्रवृत्ति के परिणामस्वरूप अविद्या फैली और फिर जिसके मन में जैसा आया वैसा मत चलाया । इन मत - मतान्तरों के कारण ही परस्पर विरोध बढ़ा । इस विरोध को दूर करने के लिए सत्य - असत्य का निर्णय करना आवश्यक है । जब विद्वान लोगों में सत्य - असत्य का निश्चय नहीं होता तभी अविद्वानों को महा - अन्धकार में पड़कर बहुत दुःख उठाना पड़ता है । यदि विद्वान लोग ईर्ष्या - द्वेष छोड़कर सत्य असत्य का निर्णय करें तो सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग करना कठिन नहीं है । उन्होंने स्पष्ट किया है कि " मेरा तात्पर्य किसी की हानि या विरोध करने में नहीं, किन्तु सत्यासत्य का निर्णय करने - कराने का है ." उत्तरार्ध के प्रत्येक समुल्लास से पहले उन्होंने अनुभूमिका लिखी है जिसमें उन्होंने पुनः यह दोहराया है कि यह लेख सत्य की वृद्धि और असत्य के ह्रास के लिए लिखा है, न कि किसी को दुःख देने, या हानि करने या मिथ्या दोष लगाने के लिए । उन्होंने सब लोगों से यह अपेक्षा की है कि सबके मत विषयक ग्रंथों को देख - समझ कर अपनी सम्मति प्रीतिपूर्वक मित्र भाव से दें। यदि हम दूसरों के मतों को नहीं जानेंगे तो यथावत संवाद नहीं हो सकता । 11.0 ग्यारहवें समुल्लास में पहले तो स्वामी जी ने भारत के गौरवशाली अतीत का वर्णन किया है, उसके बाद यह बताया है कि उसका पतन कैसे हुआ, और उसके दुष्परिणाम क्या हुए । इसी समुल्लास में स्वामी जी ने उन संप्रदायों की समीक्षा की है जो अपने को हिंदू कहते हैं । 11.1 स्वामी जी ने प्रमाण सहित बताया है कि वैदिक काल में यह देश ज्ञान - विज्ञान, कला - कौशल, व्यापार - वाणिज्य आदि विभिन्न क्षेत्रों में उन्नति के शिखर पर था और राजनीतिक दृष्टि से आर्यों का सार्वभौम चक्रवर्ती राज्य था । प्रायः लोग यह मानते हैं कि बन्दूक, तोप जैसे हथियार आधुनिक युग की ही खोज हैं, प्राचीन काल में इस प्रकार के हथियार नहीं थे । स्वामी जी ने बताया है कि हमारे यहाँ इस प्रकार के और इनसे भी उन्नत किस्म के अस्त्र--शस्त्र थे जिनके नाम आग्नेयास्त्र, वारुणास्त्र, नागपाश, मोहनास्त्र, पाशुपतास्त्र, शतघ्नी, भुशुण्डी आदि थे । उन्होंने पुनः स्पष्ट किया है कि संसार में जो विद्या फैली है, उसका उद्गम भारत से ही हुआ और यहीं से वह क्रमशः मिस्र, यूनान, रोम, यूरोप, अमरीका आदि में फैली । “ बाइबिल इन इंडिया “ के लेखक लुइ जाकोल्यो (Louis Jacolliot) ने भी यह तथ्य स्वीकार किया है । 11.2 वैदिक धर्म का ह्रास होने पर लगभग पांच हजार वर्ष पहले (महाभारत युद्ध के समय) आर्य जाति का पतन होने लगा। जब वेद ज्ञान का लोप होने लगा तो विभिन्न प्रकार के वेद- विरुद्ध मत फैलने लगे, फिर भी वे नाम वेदों का लेते रहे । उन्होंने ' शिव उवाच ', ' भैरव उवाच ‘,' पार्वत्युवाच ' आदि नाम लिखकर तंत्रों का निर्माण किया । इन वाममार्गियों ने धर्म के नाम पर अनेक अनाचार फैलाए, पांच ' मकारों ' ( मद्य, मांस, मत्स्य, मुद्रा, और मैथुन ) जैसे दुष्कर्मों को, तथा “ वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति “ जैसे वाक्य बनाकर यज्ञ में पशु हिंसा आदि को ‘ श्रेष्ठ कर्म ‘ बताया । 11.3 इन्हीं के विरोध में लगभग 2,500 वर्ष पूर्व जैन और बौद्ध मत प्रारम्भ हुए जिन्होंने वेदों का, यज्ञ का, वैदिक वर्ण व्यवस्था आदि का विरोध किया और झूठे त्याग एवं वैराग्य की शिक्षा देकर लोगों में अकर्मण्यता का प्रचार किया ( इनसे ही मूर्तिपूजा शुरू हुई, अन्य प्रकार के कर्मकांड भी पनपने लगे ; बौद्धों के जातक ग्रंथों आदि की नक़ल पर पुराणों की भी रचना होने लगी ) । शंकराचार्य जी ने इन्हीं मतों का खंडन किया (शंकराचार्य जी का समय विवादित है, यह अब से लगभग 1200 से लेकर 2200 वर्ष पूर्व तक माना जाता है ) । जैन / बौद्ध मत निरीश्वरवादी थे, अतः शंकराचार्य जी ने ईश्वर के महत्व पर ही विशेष बल दिया ; परन्तु उन्होंने संसार माया है, जगत मिथ्या है, जैसी बातों का भी प्रचार किया । इसका परिणाम यह हुआ कि देशवासियों में पुरुषार्थ और कर्मठता का अभाव बना रहा । 11.4 एक ओर पुराणों के कारण और दूसरी ओर तथाकथित गुरुओं के कारण विभिन्न प्रकार के संप्रदाय पनपने लगे जिनमें से कोई-कोई अपने को परम्परागत प्राचीन धर्म का अनुयायी सिद्ध करने की दृष्टि से वेद का नाम भी ले लेते हैं, पर व्यवहार में उससे अधिक महत्व किसी अन्य ग्रंथ को, किसी पुराण या किसी "गुरु" के लिखे ग्रंथ आदि को देते हैं। कोई वैदिक संस्कृति में बताए जीवन के अंतिम लक्ष्य " मोक्ष " की भी बात करता है, पर उसकी प्राप्ति के लिए महर्षि पतंजलि के बताए अष्टांग योग के स्थान पर उसने अपने मत का प्रचार करने की दृष्टि से कोई सरल से उपाय अपना लिए हैं । 11.5 मध्यकाल में देश में ऐसे सम्प्रदायों का प्रभुत्व रहा जो शिव, शक्ति ( दुर्गा ), विष्णु के अवतारों , गणेश, सूर्य आदि को देवता मानते थे और उनकी उपासना करते थे । इन्होंने अपने - अपने सम्प्रदायों के अनुरूप किन्हीं क्रियाओं का करना अनिवार्य बताया । जैसे, शैवों ने रुद्राक्ष, त्रिपुंड, भस्म धारण करने को , और मादक द्रव्य सेवन को शिव का प्रसाद प्राप्त करने का साधन बताया । इससे विभिन्न प्रकार के कर्मकांड की वृद्धि हुई और वैदिक उपासना का स्वरूप गायब होता गया । अपने सम्प्रदाय को प्रामाणिक बनाने के लिए इन्होंने समय - समय पर विभिन्न " पुराणों " की रचना की । इन पुराणों में अनेक परस्पर विरोधी बातें हैं । एक ही कथा अलग-अलग रूप में दी है । इसके बावजूद यह प्रचारित किया गया कि इन सब पुराणों का रचनाकार " व्यास " नामक एक ही व्यक्ति है । यह ध्यान रखने योग्य है कि अधिकांश पुराण पिछले लगभग एक हज़ार वर्ष में ही लिखे गए हैं (इस सम्बन्ध में विस्तार से पढ़ें : पौराणिक कोश, लेखक : राणा प्रसाद शर्मा , ज्ञान मंडल, वाराणसी , द्वितीय संस्करण 1986 ; पृष्ठ 312 – 313 ) । 11.6 इन पुराणों के प्रचार से अवतारवाद, मूर्तिपूजा , तीर्थयात्रा , मृतक श्राद्ध , तरह – तरह के व्रत, कीर्तन, जागरण, फलित ज्योतिष आदि की परम्पराएं विकसित हुईं । मानव जीवन के उद्देश्यों ( धर्म , अर्थ, काम और मोक्ष ) की साधना के लिए महर्षि पतंजलि ने तो "अष्टांग योग " का विधान किया था, पर इन संप्रदाय वालों ने यह प्रचारित किया कि तीर्थयात्रा करना और गंगा जैसी नदियों / पुष्कर जैसे सरोवरों आदि में स्नान करना, सम्प्रदाय विशेष में दीक्षा लेकर उसके कर्मकांड का आचरण करना, तिलक, माला, कंठी आदि धारण करना , ईश्वर के किसी विशेष नाम या किसी अवतार / महापुरुष आदि (जैसे, शिव, राम, सीताराम, आदि ) का बार - बार उच्चारण करना , एकादशी – अष्टमी - पूर्णिमा आदि को उपवास करना ही धर्म का पालन करना है और इसी से मुक्ति मिलेगी । 11.7 अब से लगभग पांच - छह सौ वर्ष पूर्व जब इस प्रकार के कर्मकांड का प्रचलन खूब बढ़ रहा था, तब कबीर, दादू, नानक, रैदास आदि अनेक संतों ने '' निराकार ईश्वर " की उपासना की ओर समाज का ध्यान दिलाया । औपचारिक शिक्षा न पाने / अधिक पढ़े - लिखे न होने के बावजूद इन संतों ने तो अवतार, मूर्ति पूजा, जाप, तीर्थ, माला, छाप, तिलक आदि आडम्बरों का विरोध किया ; पर बाद में इन संतों के भी सम्प्रदाय बन गए और विभिन्न देवताओं की मूर्तियों की ही तरह इनकी / इनसे संबंधित वस्तुओं की भी पूजा होने लगी । 11.8 इस समुल्लास में स्वामी जी ने ऐसे ही लगभग 60 सम्प्रदायों के संस्थापकों का और उस सम्प्रदाय की प्रमुख मान्यताओं का परिचय देकर उनकी समीक्षा की है । कुछ सम्प्रदाय ऐसे भी हैं जिन्होंने वेद , उपनिषद आदि के किन्हीं वाक्यों / शब्दों को अपने सम्प्रदाय का आधार तो बताया है, पर उनका मनमाना अर्थ किया है । स्वामी जी ने उन वाक्यों / शब्दों आदि के सन्दर्भ सहित वास्तविक अर्थ बताए हैं । अंत में यह स्पष्ट किया है कि " धर्म " तो वास्तव में एक ही है जिसके मौलिक तत्वों को प्रायः विभिन्न सम्प्रदाय वाले भी स्वीकार करते हैं, पर अपनी विशिष्टता बनाए रखने के लिए वे अपने कर्मकांड को और अपनी संकीर्ण मान्यताओं को प्रमुखता देते हैं । उनके इन कर्मकांडों और मान्यताओं के कारण ही समाज में अंधविश्वास फैल रहे हैं और विरोध उत्पन्न हो रहे हैं ।
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सत्यार्थ प्रकाश का संक्षिप्त परिचय / डॉ. रवीन्द्र अग्निहोत्री (भाग 3 ) 8.1 सृष्टि बनने में प्रमुख भूमिका किन चीज़ों की है - इस सम्बन्ध में हमारे यहाँ प्रायः तीन मत प्रचलित हो गए हैं जिन्हें त्रैतवाद (तीन कारण - ब्रह्म, जीव और प्रकृति ), " द्वैतवाद " ( दो कारण - ब्रह्म और जीव ) तथा " अद्वैतवाद " ( अर्थात दूसरा नहीं, केवल एक कारण "ब्रह्म" ) कहने लगे हैं । स्वामी जी ने वेद मन्त्रों के आधार पर स्पष्ट किया है कि यह सृष्टि ईश्वर, जीव और प्रकृति तीनों कारणों का परिणाम है । ईश्वर " निमित्त " कारण है, अर्थात बनाने वाला है, जीव " साधारण " कारण है अर्थात जिसके लिए सृष्टि बनाई गई है, और प्रकृति " उपादान " कारण है अर्थात जिस सामग्री से सृष्टि बनाई गई । ये तीनों कारण " प्रवाह से अनादि " हैं अर्थात हमेशा से हैं और हमेशा रहेंगे । 8.2 कुछ लोग कहते हैं कि हमारे जो छह आस्तिक दर्शन हैं ( सांख्य, योग, मीमांसा, वैशेषिक, न्याय और वेदान्त ) उनमें इस विषय पर मतभेद है । जैसे, ' सांख्य दर्शन ' केवल प्रकृति की सत्ता मानता है, या ' वेदान्त दर्शन ' केवल ईश्वर की सत्ता मानता है । इस शंका का समाधान करते हुए स्वामी जी ने बताया है कि इन दर्शनों में उन " कारणों " की व्याख्या की गई है जो सृष्टि के निर्माण के लिए आवश्यक हैं । ये छह हैं --(1) कर्म -- ऐसा कोई भी कार्य जगत में नहीं होता जिसके करने में कर्म चेष्टा न की जाए ; अतः मीमांसा में ' कर्म ' की व्याख्या की गई है । (2) काल -- बिना समय लगे कुछ नहीं बनता, अतः वैशेषिक में ' काल ' की व्याख्या है । (3) परमाणु -- उपादान कारण (जिस सामग्री से सृष्टि बनाई गई) न हो तो कुछ भी नहीं बन सकता, अतः न्याय में ' परमाणु ' की विवेचना की गई है । (4) पुरुषार्थ -- विद्या, ज्ञान, विचार न किया जाए तो कुछ नहीं बन सकता, अतः योग में ' पुरुषार्थ ' की विवेचना की गई है । ( 5) प्रकृति – तत्वों का मेल न हो तो भी निर्माण संभव नहीं । अतः सांख्य में ' प्रकृति ' की व्याख्या की गई है । और (6) ब्रह्म -- बनाने वाला न बनाए तो कोई भी पदार्थ उत्पन्न नहीं हो सकता । अतः वेदान्त में ' ब्रह्म ' की विवेचना विस्तार से की गई है । इस प्रकार वास्तव में ये दर्शन एक – दूसरे के विरोधी नहीं, वस्तुतः ' पूरक ' हैं । 8.3 सृष्टि से संबंधित जो अनेक रहस्य आज विज्ञान ने स्पष्ट कर दिए हैं, लगभग वैसे ही स्पष्टीकरण स्वामी जी ने वेद मन्त्रों के आधार पर उस समय दे दिए (जैसे, सूर्य अपनी परिधि में घूमता है, पृथ्वी सूर्य का चक्कर लगाती है, चन्द्रमा सूर्य से प्रकाशित होता है, पृथ्वी न शेषनाग के सिर पर टिकी है और न बैल के सींग पर, वह सौरमंडल के आकर्षण से गति कर रही है, आदि) । 8.4 मानव सभ्यता के प्रसार , आर्य - दस्यु का अंतर, देवासुर संग्राम आदि का अर्थ स्पष्ट करते हुए उन्होंने बताया कि आर्य /दस्यु किन्हीं प्रजातियों का नाम नहीं, बल्कि धार्मिक, विद्वान लोगों को आर्य, और अधार्मिक, अविद्वान लोगों को दस्यु कहते थे । विदेशियों ने बिना किसी प्रमाण के यह प्रचारित किया कि आर्य नामक कोई प्रजाति (Race) थी जिसके लोग कहीं बाहर से आए और यहाँ के मूल निवासियों को विस्थापित कर दिया । विदेशियों की इस मान्यता का सबसे पहली बार स्वामी जी ने ही प्रमाण देकर खंडन किया । 8.5 भारतवासियों के आलस्य, परस्पर की कलह आदि दुष्प्रवृत्तियों के कारण देश पर विदेशियों का अधिकार हो गया था, स्वामी जी ने उसकी निंदा करते हुए " सुराज्य " ( सु + राज्य = अच्छे शासन ) की अपेक्षा स्वराज्य (स्व + राज्य = अपने शासन) को बेहतर बताया है । उन्होंने स्पष्ट शब्दों में लिखा है ," कोई कितना ही करे, परन्तु जो स्वदेशीय राज्य होता है वह सर्वोपरि उत्तम होता है । अथवा मत - मतान्तर के आग्रह रहित, अपने और पराये का पक्षपात शून्य, प्रजा पर पिता - माता के समान कृपा , न्याय और दया के साथ विदेशियों का राज्य कभी भी पूर्ण सुखदायक नहीं होता । " इस प्रकार स्वराज्य की बात करने वाले वे उस युग के एकमात्र, और अपने देश के सर्वप्रथम नेता हैं । 9.0 नवें समुल्लास का विषय है - विद्या - अविद्या, बंधन - मोक्ष । ये पूर्णतया दार्शनिक विषय हैं। सामान्य मनुष्य इस संसार की कतिपय वास्तविकताओं से अनजान बना रहता है । जैसे कोई व्यक्ति तम्बाकू खाकर , सिगरेट पीकर , शराब पीकर ‘ सुख ' अनुभव करता है, जबकि ये वस्तुतः ' दुःख ' देने वाले हैं ; या संतान, माता - पिता , पति -पत्नी यह मान लेते हैं कि वे हमेशा जीवित रहेंगे जबकि वास्तविकता यह है कि जिसका जन्म हुआ है, उसका कभी अंत भी होगा । ये भ्रम अविद्याजन्य हैं । 9.1 इन बातों को स्पष्ट करने के लिए स्वामी जी ने महर्षि पतंजलि के योग दर्शन के आधार पर बताया है कि अनित्य अर्थात जो चीज़ हमेशा नहीं रहती, उसे नित्य मान लेना, जो अशुचि ( अपवित्र ) है उसे शुचि (पवित्र) मान लेना, जो दुःख है उसे सुख मान लेना और जो अनात्म है उसे आत्म मान लेना - यह चार प्रकार का विपरीत ज्ञान ही ' अविद्या ' है । इस अविद्या की वास्तविकता को आत्मसात करके ही मनुष्य ' मोक्ष ' का अधिकारी बनता है । 9.2 मोक्ष प्राप्ति के उपाय समझाते हुए बताया है कि व्यक्ति अधर्म - अविद्या - कुसंग -कुसंस्कार - बुरे व्यसनों से दूर रहे, सच बोले, परोपकार करे, पक्षपात-रहित न्याय करे, धर्म की वृद्धि करे, परमेश्वर की उपासना के लिए महर्षि पतंजलि के बताए अष्टांग योग का अभ्यास करे ( महर्षि पतंजलि ने योग के आठ अंग बताए जिन्हें यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि कहा है ; इन सभी का -- किसी एक का नहीं, विधिवत अभ्यास करना योगाभ्यास कहलाता है ) , स्वयं विद्या प्राप्त करे तथा औरों को विद्या दान करे, धर्मपूर्वक पुरुषार्थ करे, ज्ञान की उन्नति करे, आदि - आदि । इस प्रकार के काम करने से मुक्ति मिलती है, और इनसे विपरीत काम करने से ' बंधन ' होता है । 9.3 मोक्ष से जुड़ा हुआ ' पुनर्जन्म ' का सिद्धांत है । जीव जैसे कर्म करता है, उसका पुनर्जन्म वैसा ही होता है क्योंकि जीव कर्म करने में स्वतंत्र है, फल भोगने में नहीं । इसका अर्थ यही है कि कोई व्यक्ति अच्छे - बुरे जैसे भी कर्म करेगा, उसे वैसा ही फल मिलेगा, उससे बच नहीं सकता ।
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24-08-2022
सत्यार्थ प्रकाश का संक्षिप्त परिचय / डॉ. रवीन्द्र अग्निहोत्री (भाग 2 ) 6.0 छठे समुल्लास में राजनीति और शासन व्यवस्था पर विस्तार से विचार किया गया है । 6.1 स्वामी जी ने वेद तथा स्मृतियों के आधार पर जो शासन व्यवस्था बताई है वह ' जनतंत्र ' पर आधारित है। इसीलिए उन्होंने ' राजा ‘ (अर्थात शासक) का निर्वाचन प्रजा के द्वारा करने, और राजा को निरंकुश ढंग से नहीं, बल्कि प्रजा के द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों के परामर्श से शासन करने की बात कही है । 6.2 इसके लिए आवश्यक है कि राजा तीन सभाएं ( राजार्य सभा, धर्मार्य सभा और विद्यार्य सभा ) बनाकर न्याय व्यवस्था, धर्म व्यवस्था तथा शिक्षा व्यवस्था का संचालन करे । 6.3 सभासद (अर्थात जनता के प्रतिनिधि) वेद, दंड नीति, न्याय व्यवस्था, शास्त्रों आदि के ज्ञाता होने चाहिए। अमात्य (मंत्री ), दूत (राजदूत आदि ), दुर्गपाल ( सेनापति आदि ) के पदों पर योग्य व्यक्तियों की नियुक्ति करने से राजा को अपने कर्तव्य पालन में सहायता मिलती है । 6.4 यह आवश्यक है कि राजा एवं सभासद धार्मिक हों, विद्वान हों , विभिन्न प्रकार के व्यसनों - दुर्गुणों से दूर हों । 6.5 कर वसूली और राजस्व प्राप्त करने के लिए शासक को उसी प्रकार व्यवहार करना चाहिए जैसे भौंरा फूल को कोई हानि पहुंचाए बिना रस ग्रहण कर लेता है । प्रजा से उसकी आय का छठा भाग कर के रूप में लिया जाए और इसे प्रजा के हित में ही व्यय किया जाए । 6.6 शासक के लिए आवश्यक है कि वह अन्याय, अत्याचार और अपराध वृत्ति का उन्मूलन करने के उपाय करे । अपराधियों को दंड अवश्य दिया जाए ताकि एक ओर तो स्वयं अपराधी भविष्य में अपराधों से दूर रहे, दूसरी ओर अन्य लोगों के सामने यह उदाहरण रहे कि अपराध करने पर दंड निश्चित रूप से मिलता है । साथ ही, जो सामान्य लोग हैं वे बिना किसी भय के अपना जीवन यापन कर सकें । 6.7 यदि शासकगण कोई अपराध करें तो उन्हें सामान्य जनता से भी अधिक दंड मिलना चाहिए । इस विषय पर विस्तार से अध्ययन करने के लिए उन्होंने मनुस्मृति, विदुर नीति, शुक्र नीति जैसे ग्रंथों की संस्तुति की है । आगामी तीन समुल्लासों में ईश्वर, वेद, सृष्टि , विद्या – अविद्या आदि दार्शनिक विषयों की चर्चा की गई हैं । 7.0 सातवें समुल्लास में ईश्वर और उसके ज्ञान वेद की चर्चा की गई है। यह विषय दार्शनिक है, अतः विषय और भाषा की दृष्टि से यह समुल्लास थोड़ा कठिन है । इसमें वेद के एकेश्वरवाद की और परमात्मा के गुणों की विवेचना हुई है । 7.1 परमात्मा सर्वव्यापक, निराकार, सर्वशक्तिमान, सर्वाधार, अनादि, अनुपम आदि गुणों से युक्त है । 7.2 उसी की स्तुति ( अर्थात गुणों का कथन ) , प्रार्थना ( अर्थात सहायता की याचना ) और उपासना ( अर्थात उसके निकट पहुँचने की कोशिश ) करनी चाहिए । 7.3 ऐसा करने से मनुष्य की आत्मा का बल बढ़ता है और उसमें निर्भयता का गुण आता है। 7.4 ईश्वर निराकार है, अतः वह “ अवतार ” नहीं लेता । 7.5 कुछ लोग “अहं ब्रह्मास्मि “ कहकर जीव और ईश्वर को एक ही मान लेते हैं । स्वामी जी ने स्पष्ट किया है कि यद्यपि जीव और ईश्वर दोनों चेतन हैं, पर ईश्वर सृष्टि का सर्जक, पालक एवं संहारक भी है, जबकि जीव ये काम नहीं कर सकता । जीव परिच्छिन्न ( सीमित) है जबकि परमात्मा विभु (सर्वव्यापक और सर्व शक्तिमान) है । 7.6 वेद कैसे बने – इस संबंध में स्वामी जी ने बताया है कि सृष्टि के प्रारम्भ में परमात्मा ने मानव जाति के लाभ के लिए ऋग, यजु , साम और अथर्व चार वेद अग्नि , वायु , आदित्य और अंगिरा नामक ऋषियों के अंतःकरण में प्रकट किए । इन्हीं को “ संहिता “ भी कहते हैं । 7.7 वेद में शाश्वत , सर्व जनोपयोगी, सार्वदेशिक ज्ञान निहित है । अतः वह मनुष्यमात्र के लिए ग्राह्य है । 7.8 वेद की भाषा किसी विशेष देश की या विशेष जाति की भाषा नहीं है, वह मानवमात्र की भाषा है । वेद की भाषा से ही विश्व में विभिन्न भाषाएँ विकसित हुई हैं । 7.9 कुछ लोग ब्राह्मण ग्रंथों, आरण्यकों, उपनिषदों आदि को भी वेद कह देते हैं, जबकि ये वेद नहीं, वेदों की व्याख्या में लिखे गए ग्रन्थ हैं । इसीलिए इन ग्रंथों में ऋषियों - राजाओं आदि का इतिहास भी मिलता है , जबकि वेद में कोई इतिहास नहीं । 7.10 वेदों की शाखाओं के संबंध में स्वामी जी ने स्पष्ट किया है कि जब वेदों का पठन-पाठन विभिन्न गुरुकुलों में होने लगा तब अध्ययन की सुविधा के लिए कुछ विद्वानों ने इन मन्त्रों में अपने मत के अनुरूप अनेक परिवर्तन भी किए। ये ही पाठ-परिवर्तन विभिन्न “ शाखाओं “ के नाम से प्रचलित हुए । यही कारण है कि वेद की शाखाएं आश्वलायन आदि ऋषियों के नाम से प्रसिद्ध हैं, जबकि ' मन्त्र संहिता ' परमात्मा के नाम से प्रसिद्ध हैं । इन शाखाओं की संख्या 1127 बताई जाती है, पर अब इनमें से कुछ ही उपलब्ध हैं । ऋग्वेद की शाकल, यजुर्वेद की माध्यन्दिन, साम और अथर्व की शौनक शाखा में ही वेद संहिता का मूल पाठ सुरक्षित है, शेष में ब्राह्मण पाठ का मिश्रण हो गया है । 7.11 वेद का अध्ययन करने के लिए निरुक्त प्रतिपादित यौगिक प्रणाली ही उपयुक्त है । 7.12 प्रत्येक मन्त्र के आरम्भ में ऋषि, देवता. छंद और स्वर लिखा होता है। इनमें से ऋषि तो ऐतिहासिक व्यक्ति है जिसने उस मन्त्र के अर्थ और ज्ञान का प्रसार किया । देवता से यह पता चलता है कि उस मन्त्र में किस विषय का वर्णन किया गया है । छंद और स्वर का ज्ञान उस मन्त्र का सही ढंग से पाठ करने में सहायक होता है । 8.0 आठवें समुल्लास में सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति, उसके पालन और प्रलय के प्रश्न पर विचार किया गया है। ये सभी दार्शनिक प्रश्न हैं, अतः विषय और भाषा की दृष्टि से यह भी थोड़ा कठिन अध्याय है।
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24-08-2022
सत्यार्थ प्रकाश का संक्षिप्त परिचय / डॉ. रवीन्द्र अग्निहोत्री भाग 1 महर्षि स्वामी दयानंद सरस्वती का प्रसिद्ध ग्रंथ “ सत्यार्थ प्रकाश “ हमें हमारी स्वस्थ परम्पराओं से परिचित कराने वाला, अंधविश्वासों से मुक्त कराने वाला, ज्ञान चक्षु खोलने वाला, हमारी सोई हुई चेतना को जगाने वाला और केवल हमारे धर्म की ही नहीं, अपितु विश्व के सभी प्रमुख धर्मों की जानकारी देने वाला, मानव धर्म का स्वरूप प्रस्तुत करने वाला वास्तविक अर्थों में एक अद्वितीय ग्रंथ है । आपकी धार्मिक मान्यताएं जो भी हों, मेरा अनुरोध है कि एक बार इसे अवश्य पढ़ें, और फिर “ अप्प दीपो भव “ अपना रास्ता स्वयं निर्धारित करें । इस ग्रंथ की रचना अब से लगभग डेढ़ सौ वर्ष पूर्व (1875 ई. में) हुई थी । इसने तत्कालीन समाज में वैचारिक क्रांति उत्पन्न कर दी जिससे (1) वेद और वैदिक साहित्य के महत्व को पहचानने, (2) अपने गौरवशाली अतीत को जानने, (3) संस्कारवान - आचारवान बनने, (4) धार्मिक अंधविश्वासों से मुक्त होने, (5) सामाजिक कुरीतियों को दूर करने, (6) विभिन्न संप्रदायों (जिन्हें सामान्य व्यक्ति धर्म कहता है) के प्रति जिज्ञासु बनकर उन्हें ठीक से जानने, उनकी अच्छी बातों को स्वीकार करने एवं अज्ञान / अंधविश्वास पर आधारित बातों को त्यागने, (7) विदेशियों की उपयोगी खोजों को सीखने, (???? स्वभाषा - स्वदेशी वस्तुओं को अपनाने और (9) पराधीनता से मुक्त होने की प्रेरणा मिली । इनमें से केवल एक ही काम (विदेशी शासन से मुक्ति) पूरा हो सका है, शेष काम अभी भी अधूरे हैं क्योंकि उनकी जड़ें बहुत गहरी हैं। अतः उनके लिए अभी भी गंभीर प्रयास करने की आवश्यकता है । इस दृष्टि से यह ग्रंथ आज भी उपयोगी है, प्रासंगिक है क्योंकि इस कालजयी ग्रंथ में हमारी मानसिकता को अनुकूल दिशा में प्रेरित करने की संभावनाएं हैं । तत्कालीन भारत पिछले लगभग एक हजार वर्षों से विदेशियों के चंगुल में फंसे इस देश में 19 वीं शताब्दी में कई महत्वपूर्ण घटनाएं घटीं। इसी शताब्दी में मैकाले का वह नीतिपत्र (1835 ई.) लागू हुआ जिसने शिक्षा का उद्देश्य और स्वरूप ही बदल दिया । विश्व भर में शिक्षा का उद्देश्य होता है व्यक्ति का शारीरिक – मानसिक – बौद्धिक - चारित्रिक आदि विकास करके उसे स्वावलंबी बनाना, पर मैकाले ने उद्देश्य बना दिया विदेशी शासन को चलाने वाले क्लर्क तैयार करना अर्थात नौकरी के लिए शिक्षा प्राप्त करना ; पूरे विश्व में शिक्षा अपनी भाषा में दी जाती है, पर हमारे यहाँ माध्यम हो गया एक विदेशी भाषा अंग्रेजी ; सर्वत्र शिक्षा की विषयवस्तु में प्रमुखता होती है ज्ञान-विज्ञान संबंधी अपनी उपलब्धियों की, पर हमारे यहाँ विषयवस्तु हो गई यूरोपीय ज्ञान-विज्ञान, जिसके साथ अनिवार्य रूप से जोड़ दिया भारतीय ज्ञान-विज्ञान का उपहास। जिन कारणों से यह देश विदेशियों के जाल में फंसा, उनके लिए दूषित राजनीति के साथ-साथ हमारी विभिन्न सामाजिक, धार्मिक, और सांस्कृतिक कुरीतियाँ भी जिम्मेदार थीं। इन कुरीतियों से मुक्त करने के अनेक प्रयास इसी शताब्दी में राजा राममोहन रॉय, द्वारकानाथ टैगोर, देवेन्द्रनाथ टैगोर, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, केशवचन्द्र सेन, स्वामी दयानंद सरस्वती, डा. आत्माराम पांडुरंग, स्वामी विवेकानंद जैसे अनेक महापुरुषों ने किए जिसके फलस्वरूप भारतीय समाज में धार्मिक और सांस्कृतिक हलचल पैदा हुई । इन प्रयासों से एक ओर अनेक लोगों को सुधार की प्रेरणा मिली, तो दूसरी ओर किन्हीं लोगों के मन में लंबे समय से चली आ रही परम्पराओं से चिपटे रहने का मोह भी जागा (जो उक्त महापुरुषों के विचारों का प्रचार कम हो जाने के कारण अब बढ़ता ही जा रहा है) । महर्षि दयानंद की विशेषता : इन महापुरुषों में महर्षि दयानंद सरस्वती का विभिन्न कारणों से प्रमुख और महत्वपूर्ण स्थान है। उनका बाह्य व्यक्तित्व जहाँ विशेष आकर्षित करने वाला था (सवा छह फुट से अधिक लंबा कद, गोरा रंग, ब्रह्मचर्य एवं योगाभ्यास के परिपुष्ट बलिष्ठ शरीर, विलक्षण मेधाशक्ति, ओजस्वी वाणी), वहीँ विशाल वैदिक वाङ्मय के गहन ज्ञान से सम्पन्न, चिंतनशील, तर्कशील, बहु - आयामी और दूरदर्शिता से भरा हुआ निर्भीक आतंरिक व्यक्तित्व विस्मित करने वाला था । संस्कृत के प्रकांड विद्वान होते हुए भी वे उस कूपमंडूकता से कोसों दूर थे जो प्रायः संस्कृत वालों की पहचान मानी जाती है । उस युग के अन्य नेता जहाँ केवल धार्मिक और सामाजिक समस्याओं के समाधान तक, और उसमें भी केवल अपने धर्म तक, सीमित रहे, वहां महर्षि दयानंद ने धार्मिक और सामाजिक के साथ ही दार्शनिक, आर्थिक, राजनैतिक एवं अन्य सांस्कृतिक समस्याओं का भी हल खोजने का प्रयास किया और एक वैज्ञानिक की भांति सभी धर्मों के अंधविश्वासों एवं तर्कहीन मान्यताओं को दूर करने की प्रेरणा दी। उस युग के अन्य नेताओं के सन्दर्भ में उनकी कतिपय विशेषताएं हमारा ध्यान विशेष रूप से आकर्षित करती हैं : ( 1 ) उस युग के अन्य किसी भी नेता ने " स्वराज्य " की बात नहीं की, पर दयानंद ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि जो स्वदेशीय राज्य होता है वही सर्वोपरि उत्तम होता है। प्रजा पर माता - पिता के समान कृपा, न्याय और दया करने पर भी विदेशी राज्य कभी पूर्ण सुखदायी नहीं हो सकता । ( 2 ) वे तत्कालीन भारत के सबसे पहले व्यक्ति थे जिसने राजा के “ चुनाव “ की बात करके राजनीति में जनतांत्रिक व्यवस्था स्थापित करने पर बल दिया । आज लोग इसे यूरोपीय देशों की देन मानने लगे हैं, पर स्वामी जी ने इसे ऋग्वेद में बताई “ सभा “ एवं “ समिति “ के आधार पर वैदिक परम्परा सिद्ध करके वेदों की प्रतिष्ठा बढ़ाई । ( 3) उन्होंने अर्थ व्यवस्था की ओर भी ध्यान दिया, किसान को “ राजाओं का राजा “ कहा और कर - प्रणाली (Tax System ) ठीक करने तथा भारतीय अर्थ व्यवस्था की रीढ़ कृषि एवं गोपालन की व्यवस्था सुधारने के साथ ही कुटीर उद्योगों का विकास करने एवं पश्चिमी देशों में विकसित प्रौद्योगिकी का अध्ययन करने की उपयोगिता बताई । हम लोग महात्मा गाँधी के नमक आन्दोलन (1930 ई.) से तो परिचित हैं,पर यह नहीं जानते कि इससे लगभग छह दशक पहले ही महर्षि दयानंद ने नमक पर कर लगाने और वनों से प्राप्त होने वाले ईंधन पर कर लगाने के लिए अँगरेज़ सरकार की कटु आलोचना करके इस आंदोलन की नींव रख दी थी । साथ ही उन्होंने स्वदेशी वस्तुओं का प्रयोग करने की प्रेरणा दी । ( 4 ) उन्होंने हिंदी के राष्ट्रीय महत्व की ओर तब ध्यान दिया जब हिंदू पंडित उसे तिरस्कारपूर्वक “ भाखा “ कहते थे । मूलतः गुजराती भाषी, और अपने अध्ययन एवं व्यवहार की भाषा संस्कृत होते हुए भी उन्होंने हिंदी को अपने कामकाज की भाषा बनाया। अपने ग्रंथ हिंदी ही में लिखे और हिंदी का प्रचार करना अपना लक्ष्य बनाया । ( 5 ) हिन्दू समाज के सामाजिक, धार्मिक आदि विभिन्न प्रकार के सुधारों के लिए जहाँ अन्य नेता ईसाई धर्म और पश्चिमी समाज की नक़ल कर रहे थे, या केवल तर्क का सहारा लेकर प्रचलित परम्पराओं की निंदा कर रहे थे, वहीँ स्वामी दयानंद ने मानव धर्म के मूल आधार वेदों का सहारा लेकर सामाजिक और धार्मिक सुधार का पथ प्रशस्त किया । इस प्रकार उन्होंने वेदों की और प्राचीन भारत की महिमा उजागर की । (6) जिन वेदों को लोग गए - गुजरे ज़माने की चीज़ समझने लगे थे, गड़रियों के गीत कहने लगे थे, और हिंदू पंडितों ने जिन्हें धार्मिक कर्मकांड तक सीमित कर दिया था, उन्हें स्वामी जी ने “ ज्ञान – विज्ञान का कोष “ बताकर आधुनिक युग के लिए भी उनकी आवश्यकता सिद्ध की । इस प्रकार वेदों की महिमा बढ़ी और लोगों को उनके अध्ययन की प्रेरणा मिली । ( 7 ) देश के हज़ारों वर्ष के इतिहास में वे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने वेदों का अनुवाद सामान्य जन की भाषा हिंदी में किया । ( 8 ) उस युग के अन्य सुधारकों ने जहाँ नए सम्प्रदाय बनाए, वहां महर्षि दयानंद ने कोई नया सम्प्रदाय नहीं बनाया । उन्होंने मानव संस्कृति के मूल आधार ग्रन्थ वेदों में जो कुछ कहा गया है उनमें से उन बातों को स्पष्ट करने का प्रयास किया जिन्हें वेदों के पठन – पाठन की परम्परा नष्ट हो जाने के कारण लोग भूलते चले गए, अज्ञानता के गर्त में गिरते चले गए, कूपमंडूक बनते चले गए, और फिर विभिन्न प्रकार के अंधविश्वासों से घिरते चले गए। स्वामी जी ने बार - बार कहा है कि मेरा प्रयोजन कोई नवीन मत चलाने का नहीं है, बल्कि आदि - सृष्टि से लेकर ब्रह्मा, जैमिनि पर्यंत ऋषिगण जो मानते आए हैं, उपदेश देते आए हैं, उसे ही बताना, जो सत्य है उसे मानना – मनवाना और जो असत्य है उसको छोड़ना - छुड़वाना मुझे अभीष्ट है। सत्यार्थप्रकाश : उनके जिन विचारों के कारण समाज में विभिन्न स्तरों पर चेतना आई उनमें से अधिकांश का परिचय उनके अमर ग्रन्थ " सत्यार्थप्रकाश " से प्राप्त किया जा सकता है। यह एकमात्र ऐसा ग्रंथ है जिससे वैदिक धर्म के साथ ही तत्कालीन भारत में प्रचलित लगभग सभी मत-मतान्तरों का भी परिचय मिल जाता है । इसीलिए इसे धर्मों का विश्वकोश कहा जाता है. । ग्रंथ काफी बड़ा है। उसमें बड़े आकार के लगभग 600 पृष्ठ हैं। स्वामी जी के एक प्रशंसक राजा जयकृष्ण दास डिप्टी कलक्टर थे जो अलीगढ़, वाराणसी, बिजनौर, मुरादाबाद आदि स्थानों पर रहे। उन्हें ब्रिटिश सरकार से C I E की उपाधि भी मिली थी। उन्होंने ही स्वामी जी से यह ग्रन्थ लिखने का अनुरोध किया और पुस्तक के मुद्रण एवं प्रकाशन की जिम्मेदारी स्वयं उठाने का निश्चय किया । इतना ही नहीं, उन्होंने पुस्तक लिखने में स्वामी जी की सहायता करने के लिए पंडित चन्द्रशेखर नामक एक महाराष्ट्रीय व्यक्ति को नियुक्त कर दिया । स्वामी दयानंद ने यह ग्रन्थ बोल-बोल कर लगभग तीन महीने में लिखाया। किसी पुस्तकालय की सुविधा के बिना केवल स्मृति के आधार पर बोल- बोल कर लिखाई पुस्तक में वेदों, ब्राह्मण ग्रंथों, उपनिषदों, स्मृतियों , विभिन्न दर्शन ग्रंथों, सूत्रों, महाभारत आदि 377 ग्रंथों के सन्दर्भ और 1542 वेदमंत्रों / श्लोकों के उद्धरण देख कर स्वामी जी की असाधारण स्मरण शक्ति पर आश्चर्य होता है। इसे 1875 ई. में राजा जयकृष्ण दास ने ही प्रकाशित कराया। यह पहला ग्रंथ है जिसमें दार्शनिक विषय भी हिंदी में समझाए गए हैं । पुस्तक की लोकप्रियता निरंतर बढ़ती गई और न केवल विभिन्न भारतीय भाषाओं में, बल्कि अंग्रेजी, फ्रांसीसी, चीनी, जापानी, अरबी, बर्मी, स्वाहिली आदि विश्व की प्रमुख भाषाओँ में भी इसके अनुवाद हुए । स्वातंत्र्यवीर सावरकर ने इसे ऐसा ग्रंथ बताया जिसकी विद्यमानता में कोई विधर्मी हमें बहका नहीं सकता, तो प्रसिद्ध लेखक आचार्य चतुरसेन शास्त्री ने इसे गोस्वामी तुलसीदास रचित रामचरित मानस के पश्चात हिंदी का सर्वाधिक लोकप्रिय ग्रंथ बताया । पुस्तक में दो भाग हैं - पूर्वार्ध और उत्तरार्ध। पूर्वार्ध में दस अध्याय हैं और उत्तरार्ध में चार। इस प्रकार कुल 14 अध्याय हैं जिन्हें ' समुल्लास ‘ कहा है। पुस्तक के अंत में ' स्व मन्तव्यामन्तव्य प्रकाश " ( मैं कौन सी बातें मानता हूँ, और कौन सी नहीं ) शीर्षक से स्वामी जी ने धर्म से संबंधित 51 ऐसे विषयों की वैदिक मान्यताओं के आधार पर बहुत संक्षेप में व्याख्या की है जिनके बारे में समाज में बहुत भ्रम फैला हुआ है ; जैसे, ईश्वर, सगुण - निर्गुण स्तुति , वेद, तीर्थ, मुक्ति, मुक्ति के साधन, प्रारब्ध (भाग्य ), पुरुषार्थ , गुरु, स्वर्ग, नरक, प्रार्थना, उपासना, आदि। इसे हम इस पुस्तक का परिशिष्ट भी कह सकते हैं, और पूरी पुस्तक का सारांश भी। इसे यदि ठीक से समझ लिया जाए तो महर्षि के मन्तव्य को भी ठीक से समझा जा सकता है। पूर्वार्ध के दस अध्यायों में मानव जीवन का निर्माण करने वाली वैदिक विचारधारा , आश्रम व्यवस्था (अर्थात ब्रह्मचर्य – गृहस्थ – वानप्रस्थ - संन्यास की व्यवस्था), शिक्षा - दीक्षा, राजनीतिक व्यवस्था, दार्शनिक मान्यताओं, साधना पद्धति, भक्ष्य – अभक्ष्य आदि की विवेचना की गई है जो किसी विशेष “ पन्थ “ के अनुयायियों के लिए नहीं, मानव मात्र के स्वीकार करने और आचरण करने योग्य हैं। उत्तरार्ध के चार अध्यायों में भारतवर्ष में प्रचलित विभिन्न सम्प्रदायों, मत-मतान्तरों आदि की ऐसी मान्यताओं की समीक्षा की गई है जिनके कारण समाज में अन्धविश्वास, आलस्य और अज्ञान फैला है। स्वामी जी ने यह समीक्षा पूरी सदाशयता के साथ इस प्रकार की है जिससे अन्धविश्वास दूर करने की सामान्य जन को भी प्रेरणा मिले। उनके जीवनकाल में विभिन्न मतावलंबी उनकी सदाशयता से कितने प्रभावित हुए इसका एक उदाहरण है देश की पहली आर्यसमाज की स्थापना जो मुंबई में एक पारसी सज्जन डा माणेक जी अदेरजी की कोठी में हुई , जिसके प्रधान और मंत्री जैन परिवार के युवक (क्रमशः गिरधरलाल दयालदास कोठारी और पानाचंद आनंदजी पारेख) बने, और जब इस भवन का विस्तार करने का निश्चय किया गया तो सर्वाधिक दान (पांच हजार रु.) एक मुस्लिम व्यापारी (सेठ हाजी अलारखिया रहमतुल्ला सोनावाला) ने दिया । जिन लोगों ने किसी भी कारण से अभी तक यह ग्रंथ नहीं पढ़ा है, उनकी सुविधा के लिए इसके प्रत्येक समुल्लास का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत है । समुल्लासों का परिचय 1.0 भारतीय समाज का सबसे बड़ा अंधविश्वास “बहु-देवतावाद“ है । अतः स्वामी जी ने पहले ही समुल्लास में यह स्पष्ट किया है कि , 1.1 ईश्वर एक है, और उसका सर्वोत्तम एवं सबसे अधिक प्रसिद्ध नाम " ओ३म् " है क्योंकि इस एक शब्द से उसकी अनेक शक्तियों का एक साथ पता चल जाता है। 1.2 वेदों में तथा अन्य वैदिक साहित्य में उसी एक परमात्मा के लिए अग्नि, इन्द्र, मित्र, वरुण, शिव आदि अनेक नामों का प्रयोग किया गया है। इन शब्दों के आम बोलचाल में दूसरे अर्थ भी होते हैं। अतः प्रसंग के अनुसार इनका अर्थ समझना चाहिए । जैसे, " अग्नि " शब्द का प्रयोग जब स्तुति, प्रार्थना, उपासना के प्रसंग में किया जाता है, तब इसका अर्थ " परमात्मा " होता है , पर जब भौतिक पदार्थ के प्रसंग में किया जाता है, तब इसका अर्थ "आग " होता है। 1.3 हम सब जानते हैं कि परमात्मा के गुण और काम असंख्य हैं, इसीलिए उसके नाम भी असंख्य हैं। इन असंख्य नामों में से एक सौ नामों की स्वामी जी ने व्युत्पत्ति (etymology ) बताकर और वेद एवं अन्य वैदिक साहित्य से प्रमाण देकर यह स्पष्ट किया है कि (प्राण, अक्षर, पृथ्वी, अन्न, जल, आकाश, वायु , नारायण, मंगल, शुक्र , ब्रह्मा, गणेश, महादेव, शक्ति, लक्ष्मी, शिव, ज्ञान, निराकार, यम, धर्मराज जैसे) विभिन्न शब्दों का अर्थ वही एक परमात्मा किस प्रकार है। शब्द संस्कृत के हैं, अतः उनकी व्युत्पत्ति बताने के लिए संस्कृत की धातुओं, प्रत्ययों, उपसर्गों , रूपों आदि व्याकरण की बातों का उपयोग किया गया है । इसके अतिरिक्त यह विषय भी दार्शनिक है । इसलिए संस्कृत न जानने वाले लोगों के लिए भाषा और विषय दोनों ही दृष्टियों से यह अध्याय थोड़ा कठिन अवश्य है, पर एक ही परमात्मा के अनेक नाम क्यों हैं, यह समझने के लिए इस अध्याय का विशेष महत्व है। इसके बाद स्वामी जी ने आगामी चार समुल्लासों में मानव जीवन की योजना पर विचार किया है । 2.0 दूसरे समुल्लास में बच्चों की शिक्षा और इस सम्बन्ध में माता, पिता एवं अध्यापक के कर्तव्यों की चर्चा की है । 2.1 स्वामी जी ने बच्चों की शिक्षा का प्रारम्भ गर्भाधान से ही बताया है। अतः आवश्यक है कि माता - पिता गर्भाधान से पूर्व ही अपने भोजन, दिनचर्या, विचारों आदि को सात्विक बनाएं, गर्भावस्था के दौरान गर्भस्थ शिशु और माँ दोनों की शारीरिक - मानसिक स्थिति का ध्यान रखें, जन्म हो जाने पर उन सभी बातों का ध्यान रखें जो स्वास्थ्य रक्षा और आयुर्वेद (अर्थात चिकित्सा विज्ञान) की दृष्टि से आवश्यक हों। 2.2 जब बच्चा बोलना शुरू करे तो स्पष्ट उच्चारण की शिक्षा पर ध्यान दें । 2.3 फिर ठीक से भोजन करने, आचार, व्यवहार , नित्य प्रति के कर्तव्य पालन आदि की शिक्षा दें । 2.4 स्वामी जी ने समझाया है कि भूत - प्रेत आदि की कपोलकल्पित बातों से बच्चों के कोमल मन दूषित नहीं करने चाहिए । 2.5 जन्मपत्री, फलादेश, भविष्य कथन, शकुन विचार जैसे पाखंडों की निस्सारता स्पष्ट करते हुए उन्होंने मारण, मोहन, उच्चाटन , वशीकरण मन्त्र - यंत्र - तंत्र आदि अंधविश्वासों के प्रति भी सावधान किया है। 2.6 बच्चों को अच्छे संस्कार देने , शिष्टाचार की शिक्षा देने, सुभाषित - सूक्तियां याद कराने में उन्होंने माता - पिता और गुरु की भूमिका पर विशेष बल दिया है। साथ ही, उन्होंने वैदिक परम्परा के अनुरूप बच्चों को ' विवेकशील ' बनाने पर बल दिया है ताकि अच्छे - बुरे का निर्णय वे स्वयं कर सकें ( इस दृष्टि से स्वामी जी ने एक पृथक पुस्तक ‘ व्यवहारभानु ‘ नाम से भी लिखी है ) । वैदिक शिक्षा में बल मतारोपण (indoctrination) पर नहीं, बल्कि मेधावी बुद्धि विवेक विकसित करने पर दिया जाता है । इसीलिए गुरु यहाँ तक कहता है कि, " यान्यस्माकं सुचरितानि तानि त्वयोपास्यानि नो इतराणि " ( तैत्तिरीय उपनिषद , 1/ 11 ) अर्थात जो हमारे अच्छे धर्मयुक्त कर्म हैं, उन्हें ही ग्रहण करना ; यदि कोई दुष्ट कर्म हो तो उसे मत अपनाना । माता –पिता के लिए आवश्यक है कि बच्चों के सामने शुरू ही से परमात्मा के सही स्वरूप की चर्चा करें और उसी की उपासना करें । मद्य - मांस आदि के सेवन से दूर रहें। उन्होंने माता - पिता का कर्तव्य कर्म और परम धर्म यही बताया है कि संतान को तन - मन - धन से विद्या, धर्म, सभ्यता और उत्तम शिक्षायुक्त बनाएं। 3.0 तीसरे समुल्लास में शिक्षा की व्यवस्था, शास्त्रों के अध्ययन की विधि आदि पर विचार किया है और प्रत्येक कार्य के लाभों का तार्किक ढंग से विश्लेषण किया है । स्वामी जी ने बताया है कि, 3.1 लड़के - लड़कियों की शिक्षा व्यवस्था अलग - अलग होनी चाहिए । 3.2 शिक्षा सबके लिए अनिवार्य होनी चाहिए और एक समान होनी चाहिए । 3.3 विद्यालय में धन या अन्य किसी आधार पर कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए, सबके साथ एक सा व्यवहार होना चाहिए । 3.4 बच्चों को सबसे पहले गायत्री मंत्र अर्थ सहित याद कराएँ जिसमें कहा गया है कि परमात्मा हमारी बुद्धि को शुभ कर्मों में प्रेरित करे । फिर संध्या करना ( जिसमें प्राणायाम करना भी शामिल है ), अग्निहोत्र ( हवन ) करना आदि सिखाएं । ब्रह्मचर्य का पालन करना सिखाएं। महर्षि पतंजलि के बताए अष्टांग योग के यम ( अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य , अपरिग्रह ) और नियम ( शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर प्रणिधान ) का अभ्यास कराएँ । 3.5 सत्य - असत्य के निर्णय के लिए गौतम ऋषि के न्याय दर्शन एवं अन्य दर्शनों में बताए प्रमाणों ( प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान , शब्द, ऐतिह्य , अर्थापत्ति , संभव, अभाव ) का सहारा लेने का अभ्यास कराएं । 3.6 स्वाध्याय की आदत डालें । 3.7 शिक्षा सभी विषयों की ( ज्ञान, विज्ञान, आयुर्वेद, स्थापत्य, दर्शन, विभिन्न कलाओं - कौशलों आदि की ) होनी चाहिए, केवल कुछ विषयों की नहीं । यह तभी संभव है जब " ऋषियों " के बनाए ग्रंथों से अध्ययन किया जाए क्योंकि ये ग्रन्थ इस प्रकार लिखे गए हैं कि कम समय में अधिकतम लाभ मिल सके । स्वामी जी ने अनेक विषयों के कतिपय ग्रंथों के नाम भी बताए हैं । 3.8 कुछ लोगों ने वेदों के अध्ययन के अधिकार से स्त्रियों और शूद्रों को वंचित कर रखा है, उसका विरोध करते हुए स्वामी जी ने प्रमाण देते हुए बताया है कि सदा से वेद सभी लोगों के लिए रहे हैं और उनका अध्ययन करने का अधिकार सबका है । 4.0 चौथे समुल्लास में गृहस्थ आश्रम के दायित्वों पर विचार किया गया है । 4.1 स्वामी जी ने इस आश्रम को सबसे अधिक महत्वपूर्ण माना है । 4.2 बाल विवाह, अनमेल विवाह , वर - वधू की रुचि के विपरीत विवाह आदि का निषेध करते हुए उन्होंने विवाह के लिए गुण - शील - रूप - आयु आदि की समानता पर बल दिया है । इसे वे इतना महत्वपूर्ण मानते हैं कि कहा है, चाहे लड़के - लड़की जन्म भर कुंवारे रहें, पर असमान गुण - शील - स्वभाव वालों का विवाह कभी नहीं होना चाहिए । साथ ही उन्होंने विवाह के सम्बन्ध में माता - पिता से अधिक महत्व लड़के - लड़की की इच्छा एवं सहमति को देते हुए देश की प्राचीन " स्वयंवर " प्रथा का समर्थन किया है । 4.3 विवाह के संबंध में हमारे समाज में “ जाति “ को विशेष महत्व दिया जाता है, पर स्वामी जी ने मध्य युग में विकसित हुई इस " जन्मना जाति प्रथा " का विरोध किया है और अपने देश की प्राचीन गुण - कर्म – स्वभाव वाली वर्ण व्यवस्था का समर्थन किया है । इस वर्ण व्यवस्था में ही यह संभव है कि जन्म देने वाले माता - पिता का वर्ण और संतान का वर्ण अलग - अलग हो । विभिन्न वर्णों के गुण- कर्मों की चर्चा करते हुए स्पष्ट किया है कि जिसे " द्विजत्व " कहते हैं वह विशिष्ट " संस्कारों " अर्थात गुणों से आता है, किसी परिवार में जन्म लेने से नहीं (ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य वर्ण को " द्विज " भी कहते हैं, और जिन गुणों के कारण इन्हें ' द्विज ' माना जाता है उन्हें द्विजत्व कहते हैं ) । 4.4 संतान का पालन - पोषण करना गृहस्थ का प्रथम कर्तव्य है । इसके लिए समय - समय पर विभिन्न औपचारिक संस्कार भी करने चाहिए क्योंकि ये संस्कार बच्चे को और माता –पिता को अपने दायित्वों की याद दिलाते हैं और उन्हें पूरा करने की प्रेरणा देते हैं । 4.5 बच्चों को सुशिक्षा देनी चाहिए । इसके लिए परिवार में सुख शान्ति का वातावरण होना चाहिए । यह तभी संभव है जब पति-पत्नी एक दूसरे से संतुष्ट हों और स्त्रियों का परिवार एवं समाज में भरपूर सम्मान हो । 4.6 गृहस्थियों को " पंच महायज्ञ " अवश्य करने चाहिए अर्थात ब्रह्मयज्ञ ( संध्या और स्वाध्याय ), देव यज्ञ ( अग्निहोत्र ), पितृ यज्ञ ( माता - पिता आदि की समुचित देखभाल एवं सेवा ), अतिथि यज्ञ और बलिवैश्वदेव यज्ञ ( गृहस्थ पर आश्रित प्राणियों की देखभाल - सेवा ) । गृहस्थियों के सहारे ही अन्य आश्रमवासियों ( ब्रह्मचारी, वानप्रस्थी, संन्यासी ) का जीवन चलता है । अतः गृहस्थियों को अपने दायित्वों का सम्यक ध्यान रखना चाहिए । 5.0 पांचवें समुल्लास में वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम की आवश्यकता और इन आश्रमवासियों के कर्तव्यों की चर्चा करते हुए यह बताया है कि, 5.1 सामान्य रूप से ब्रह्मचर्य और गृहस्थ आश्रम के बाद वानप्रस्थ और फिर संन्यास आश्रम में प्रवेश करना चाहिए, पर जो लोग तीव्र वैराग्यवान हों, सांसारिक सुखों से विमुख हों, लोक मंगल और ईश्वर चिंतन के लिए पूर्णतया समर्पित हों, ब्रह्मचर्य पूर्वक रह सकते हों, वे ब्रह्मचर्य आश्रम के बाद सीधे संन्यास आश्रम में भी प्रवेश कर सकते हैं । 5.2 वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश करने पर व्यक्ति अपने को पुत्रेषणा ( संतान की इच्छा / यौन संतुष्टि) , वित्तेषणा (धन की इच्छा) और लोकेषणा ( समाज में यश-प्रसिद्धि पाने की इच्छा ) से मुक्त करने का प्रयास करे । 5.3 संन्यास आश्रम में तो वही व्यक्ति प्रवेश करे जो इनसे मुक्त हो जाए, जो विद्वान हो, धार्मिक हो,, परोपकार प्रिय हो। संन्यासी का एकमात्र उद्देश्य होना चाहिए- सभी प्राणियों के हित के लिए काम करना, आत्मशुद्धि करना और ईश्वर का चिंतन करना । संन्यासी अपनी इन्द्रियों पर संयम रखे, विद्या और धर्म के प्रचारार्थ सर्वत्र विचरण करे । निंदा - स्तुति, हानि - लाभ, मान - अपमान आदि में समान रहे । मनुस्मृति में बताए धर्म के दस लक्षणों (धैर्य रखना, क्षमा करना, मन पर नियंत्रण रखना, चोरी न करना, स्वच्छ रहना, इन्द्रियों को संयमित रखना, बुद्धिमत्तापूर्वक काम करना, विद्याभ्यास करते रहना, सत्याचरण करना, और क्रोध न करना) का सदा पालन करे । जो लोग यह सोचते हैं कि संन्यासी को कुछ भी नहीं करना है, बस ऐसे ही निरुद्देश्य घूमते रहना है, उसका विरोध करते हुए स्वामी जी ने स्पष्ट किया है कि संन्यासी लोकोपकार के लिए ही अपने को समर्पित करता है । अतः उसे विद्या, धर्म, सत्य और न्याय के लिए निरंतर काम करना चाहिए ।
Vedic vichar
24-08-2022
*वेद मंत्रों में आये परमात्मा के कुछ नाम* : # *ओ३म् खं ब्रह्म ।।* (यजुर्वेद ४०/१७) ओ३म् = सबका रक्षक ब्रह्म परमेश्वर जो आकाश के समान सर्वत्र व्यापक है | # *प्राणाय नमो यस्य सर्वमिदं वशे ।* *यो भूतः सर्वस्य ईश्वरो यस्मिन् सर्वं प्रतिष्ठितम् ।।* (अथर्व ११/४/१) ईश्वर = ऐश्वर्यवान संसार के समस्त पदार्थों का स्वामी | # *तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः ।* *दिवीव चक्षुराततम् ।* (ऋग्वेद १/२/७/२०) विष्णु = सर्वत्र व्यापकशील और सुंदर विशेषणों से युक्त सबको धारण करने वाला परमात्मा | # *अभि प्रियाणि काव्या विश्वा चक्षाणो अर्षति ।* *हरिस्तुञ्जान आयुधा ।।* (ऋग्वेद ९/५७/२) हरि = दुखों को हरने वाला परमात्मा | # *भूतानां ब्रह्मा प्रथमोत जज्ञे तेनार्हति ब्रह्मणा स्पर्धितुं कः ।।* (अथर्ववेद १९/२२/२१) ब्रह्मा = सबसे बड़ा सर्वजनक परमात्मा | # *ब्रह्मणा तेजसा सह प्रति मुञ्चामि मे शिवम् ।* *असपत्ना सपत्नहा सपत्नान मेऽधराँ अकः ।।* (अथर्ववेद १०/६/३०) शिव = सर्वकल्याणकारी मंगलकारी परमेश्वर | # *नमः शम्भवाय च मयोभवाय च नमः शंकराय च मयस्कराय च नमः शिवाय च शिवतराय च ।।* (यजुर्वेद १६/४१) शंकर = सदा धर्मयुक्त कर्मों को प्रेरित करने वाला परमेश्वर | # *त्र्यम्बकं जयामहे सुगन्धिं पुष्टि वर्धनम् ।* *ऊर्वारुरमिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात् ।।* (ऋग्वेद ७/५९/१२) त्र्यम्बकम् = भूत, भविष्य व वर्तमान तीनों कालों के ज्ञाता तथा कार्य जगत, कारण जगत व सब जीवात्माओं का स्वामी परमेश्वर | # *गणानां त्वा गणपतिं हवामहे प्रियाणां त्वा प्रियपतिं हवामहे निधीनां त्वा निधिपतिं हवामहे ।।* (यजुर्वेद २३/१९) गणपति = सब प्रकार के समूहों, समुदायों व मंडलों आदि के स्वामी परमेश्वर | # *सोऽर्यमा स वरुणः स रुद्रः स महादेव ।* *रश्मिर्भिर्तभ आभृतं महेन्द्र एत्यावृतः ।।* (अथर्ववेद १३/४/४) अर्यमा = श्रेष्ठों का मान करने वाला परम पिता परमात्मा | महादेव =देवों का देव महादानी परमात्मा | वरुण = सर्वश्रेष्ठ |
Vedicvichar
24-08-2022
आर्य समाज के बलिदान हुतात्मा सुमेर सिंह आर्य (नया बांस रोहतक) हिंदी रक्षा आंदोलन 1957 देश को स्वतंत्रता दिलाने में असंख्य देशभक्तों का अटूट संघर्ष, त्याग और बलिदान शामिल है। इनमें हरियाणा प्रदेश की पावन मिट्टी में जन्में अनेक वीर स्वतंत्रता सेनानी और बलिदानी भी शामिल थे। राष्ट्र की स्वतंत्रता, अखण्डता और अस्मिता से जुड़े हर मुद्दे पर हरियाणा के वीर सपूतों ने अपना योगदान बढ़चढक़र दिया है। स्वतंत्रता प्राप्ति के समय राष्ट्रभाषा हिन्दी मान-सम्मान का विषय आया तो हरियाणा के महापुरूषों ने ‘हिन्दी आन्दोलन’ छेड़ दिया। उस समय हरियाणा प्रदेश संयुक्त पंजाब का हिस्सा था। तब तत्कालीन मुख्यमंत्री सरदार प्रताप सिंह कैरों की संयुक्त पंजाब सरकार ने हिन्दी की उपेक्षा करते हुए अंग्रेजी और पंजाबी को प्राथमिकता देने और भाषायी आधार पर हरियाणा के लोगों से भेदभाव एवं अन्यायपूर्ण व्यवहार करने की कोशिश की तो हरियाणा के वीर हिन्दी प्रेमियों ने सरकार के खिलाफ बिगुल बजा दिया। हिन्दी के अस्तित्व व अस्मिता के लिए चले इस आन्दोलन को ‘हिन्दी रक्षा आन्दोलन’ के नाम से भी जाना जाता है। ????हिन्दी आन्दोलन???? हिन्दी के मान-सम्मान के लिए हरियाणा प्रदेश के हजारों सत्याग्रहियों ने अटूट संघर्ष किया। उनका असीम त्याग और बलिदान भी स्वतंत्रता सेनानियों की तरह ही स्वर्णिम अक्षरों में अंकित हुआ। हिन्दी रक्षा आन्दोलन मुख्य रूप से आर्यसमाजियों द्वारा सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा दिल्ली और आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब के संयुक्त नेतृत्व में चलाया गया। हिन्दी के मान-सम्मान के लिए हजारों सत्याग्रहियों को जेलों में भयंकर यातनाएं सहनी पड़ीं और हरियाणा के रोहतक जिले के नयाबास गाँव में जन्में वीर सूरमा सुमेर सिंह (टांक-रोहिल्ला राजपूत) सहित 18 वीर सत्याग्रहियों को अपने जीवन का बलिदान भी करना पड़ा। हिन्दी सत्याग्रहियों के बुलन्द हौंसलों को तोडऩे और उन्हें कुचलने के लिए तत्कालीन संयुक्त पंजाब सरकार ने ऐड़ी चोटी का जोर लगा दिया। 50,000 से अधिक हिन्दी सत्याग्रहियों को जेल में डालकर अनेक भयंकर यातनाएं दी गईं, लाखों रूपयों का जुर्माना जबरदस्ती वसूला गया। केवल इतना ही नहीं, सत्याग्रहियों के घर, खेत, पशु तक कुर्क लिए गए। लेकिन, सत्याग्रहियों पर सरकार की दमनकारी नीतियों का तनिक भी असर नहीं हुआ। संयुक्त पंजाब सरकार ने सत्याग्रहियों पर जितने अधिक जुल्म ढ़ाए, सत्याग्रहियों ने उतने ही मुखर होकर अपने साहस और संकल्प का परिचय दिया। हिन्दी सत्याग्रहियों का यह प्रेरणादायी और ऐतिहासिक आन्दोलन 27 दिसम्बर, 1957 तक चला। यह हिन्दी आन्दोलन ही आगे चलकर हरियाणा प्रदेश के निर्माण की नींव बना और 1 नवम्बर, 1966 को भाषायी आधार पर हरियाणा प्रदेश का देश के 17वें राज्य के रूप में उदय हुआ। हिन्दी आन्दोलन और 24 अगस्त, 1957 का काला दिन स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरान्त लंबे समय तक चले हिन्दी रक्षा आन्दोलन में अनेक उतार-चढ़ाए आए। लेकिन, इस दौरान 24 अगस्त, 1957 का वो दिन भी आया, जो भारतीय इतिहास में काले दिन के रूप में दर्ज हुआ। तत्कालीन संयुक्त पंजाब सरकार द्वारा हिन्दी सत्याग्रहियों पर असहनीय अत्याचार और अमानुषिक यातनाओं का दौर चरम पर था। हजारों सत्याग्रही देश-प्रदेश की कई जेलों में अनेक असहनीय जुल्म सह रहे थे। इन्हीं में से एक फिरोजपुर जेल थी, जिसमें बड़ी संख्या में हिन्दी सत्याग्रही कैद करके रखे गए थे। 24 अगस्त, 1957 की शाम सवा चार बजे एकाएक हिन्दी सत्याग्रहियों पर सुनियोजित रूप से लाठीचार्ज करवा दिया गया। जेल में बन्द खुंखार कैदियों को उकसाकर ताबड़तोड़ जानलेवा हमले करवाए गए। जघन्य अपराधियों ने लाठी, डण्डों, लोहे के सरियों और खाटों की मोटी बाहियों से हिन्दी सत्याग्रहियों पर भयंकर धावा बोल दिया। हिन्दी सत्याग्रहियों के हाथ, पैर, सिर और कमर को तोडक़र रख दिया गया। देखते ही देखते चारों तरफ खून से लथपथ, भयंकर दर्दभरी चिख-चिल्लाहट और मरणासन्न अवस्था में पहुंचते सत्याग्रहियों का नारकीय मंजर दिखाई देने लगा। बुखार से तड़पते सत्याग्रही फूल सिंह को भी टाट पर लेटे-लेटे इतनी बुरी तरह से पीटा कि उनकीं तीन पसलियां चकनाचूर हो गईं। एक सत्याग्रही सत्यपाल के गुप्तांगों को बड़ी बेरहमी से कुचल दिया गया। सच्चिदानंद शास्त्री की कमर की हड्डी तोड़ दी गई। अनेक सत्याग्रहियों के सिर फोड़ दिए गए। आर्य समाज के प्रणेता महर्षि दयानंद की अमर रचना सत्यार्थ-प्रकाश टाट पर बैठककर तल्लीनता के साथ पढ़ रहे रोहतक जिले के नया बांस गाँव के युवा वीर सत्याग्रही सुमेर सिंह को तो इतनी बुरी तरह से मारा-पीटा गया कि उनकीं मृत्यु हो गई। ????वीर सत्याग्रही सुमेर सिंह की शहादत???? वीर सत्याग्रही सुमेर सिंह की फिरोजपुर जेल में दी गई शहादत ने तत्कालीन संयुक्त पंजाब सरकार की जड़ों को हिलाकर रख दिया। 25 अगस्त, 1957 को पंजाब की फिरोजपूर जेल में हिन्दी सत्याग्रहियों पर हुए जानलेवा हमलों का समाचार समाचार-पत्रों में प्रमुखता से प्रकाशित हुईं। प्रताप समाचार पत्र में मोटे अक्षरों में लिखा था कि फिरोजपुर जेल में हिन्दी सत्याग्रहियों पर जबरदस्त लाठीचार्ज हुआ, जिसमें गाँव नया बांस के सुमेर सिंह की मौके पर ही मृत्यु हो गई और बहुत लोगों को गम्भीर चोंटें आई हैं। इस समाचार से आम जनता का भी खून खौल उठा। हर कोई शहीद सुमेर सिंह जिन्दाबाद और शहीद सुमेर सिंह अमर रहे आदि नारों के साथ जेली, गंडासे आदि लेकर सडक़ों पर उतर आया। पुलिस प्रशासन को कानून व्यवस्था बनाए रखना असंभव नजर आने लगा। शहीद सुमेर सिंह का शव नया बांस गाँव में पहुंचने से पहले ही पुलिस ने कड़ी नाकेबन्दी कर दी। जब आर्य प्रतिनिधि सभा के अध्यक्ष स्वामी अभेदानन्द जी महाराज गाँव पहुंचे तो उन्हें पुलिस ने हिरासत में ले लिया। दूसरे गाँव के लोगों को नया बांस गाँव में पहुंचने ही नहीं दिया गया। शहीद सुमेर सिंह के भाई मेहर सिंह को भी गाँव के बाहर नाके पर ही रोक लिया गया। लेकिन, जब उन्होंने अपना परिचय दिया तो उन्हें पुलिस अपनी निगरानी में उनके घर तक लेकर गई। इससे ग्रामीणों का आक्रोश चरम पर पहुंच गया। शहीद सुमेर सिंह के परिजनों ने समझदारी दिखाते हुए ग्रामीणों को शांत किया और कोई अन्य अनहोनी घटना न घट जाए, इसके लिए सावधान रहने का आग्रह किया। ????पंचतत्व में विलीन???? 25 अगस्त, 1957 का दिन भी शहीद सुमेर सिंह आर्य के परिजनों के लिए भयंकर पीड़ादायक रहा। देर रात हो चुकी थी। पुलिस सरकार के इशारों पर परिजनों पर रात को ही शहीद सुमेर सिंह के दाहसंस्कार के लिए भारी दबाव बनाए हुए थी और परिजनों को बेहद शर्मनाक धमकियां दे रही थी कि अगर उन्होंने रात को ही दाहसंस्कार नहीं किया तो वे मिट्टी का तेल डालकर शव को जला देंगे। इससे परिजनों और ग्रामीणों का गुस्सा सातवें आसमान पर जा पहुंचा। इन अति संवेदनशील क्षणों में शहीद के परिजनों ने पुलिस से आग्रह किया कि उन्हें आर्य प्रतिनिधि सभा के अध्यक्ष स्वामी अभेदानन्द जी महाराज से मिलवाया जाए, ताकि किसी निर्णय पर पहुंचा जा सके। नाजुक हालत देखते हुए पुलिस ने शहीद के परिजनों को स्वामी अभेदानन्द जी महाराज से मिलवाया। स्वामी जी ने दो टूक कह दिया कि शहीद का अंतिम संस्कार रात्रि में कदापि नहीं होगा, चाहे कुछ भी हो जाए। स्वामी के इस निर्णय को पत्थर की लकीर मानकर शहीद के परिजनों ने भी पुलिस को दो टूक कह दिया कि जैसा स्वामी जी ने कहा है, वैसा ही होगा। पुलिस का भयंकर दबाव परिजनों पर चलता रहा, लेकिन उनके संकल्प के आगे पुलिस को अंतत: झुकना ही पड़ा। अगले दिन, 26 अगस्त, 1957 की सुबह हिन्दी आन्दोलन के अजर-अमर शहीद सुमेर सिंह आर्य का परिजनों ने दाहसंस्कार किया। शहीद सुमेर सिंह आर्य जिन्दाबाद और शहीद सुमेर सिंह आर्य अमर रहे के नारों से आसमान गूंज उठा। शहीद सुमेर सिंह की कुर्बानी रंग लाई और चार महीने बाद ही 27 दिसम्बर, 1957 को हिन्दी रक्षा आन्दोलन कामयाबी का परचम लहराते हुए पूर्ण हो गया। हिन्दी को पूर्ण मान-सम्मान मिला और आगे चलकर संयुक्त पंजाब का बंटवारा हो गया और 1 नवम्बर, 1966 को हरियाणा प्रदेश हिन्दी की गौरवमयी गरिमा के साथ देश के सत्रहवें राज्य के रूप में अस्तित्व में आ गया। ????अजर-अमर शहीद सुमेर सिंह आर्य???? हिन्दी आन्दोलन को कामयाब बनाने के लिए अपने जीवन की कुर्बानी देने वाले क्रांतिवीर सुमेर सिंह आर्य श्रेष्ठ ब्रह्मचारी थे। उनका जन्म हरियाणा में रोहतक जिले के सांपला ब्लॉक में नया बांस गाँव के श्री प्रभु दयाल आर्य जी के घर आदर्श गृहिणी श्रीमती ज्वाला देवी जी की कोख से 10 अगस्त, 1929 को हुआ था। वे पाँच भाई थे और उनकीं दो बहनें थीं। सुमेर सिंह बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि के थे। उन्होंने सांपला के विद्यालय से मिडिल तक उर्दू में शिक्षा ग्रहण की। बालक सुमेर आचार्य श्री भगवान देवी जी (स्वामी ओमानन्द जी) और पंडित बस्ती राम जी के आर्य के प्रचार-प्रसार से प्रभावित होकर देशभक्ति के कार्यों में गहरी रूचि लेने लगा। धीरे-धीरे सुमेर सिंह आर्य समाज की विचारधारा से रंग गए। इस बीच उन्होंने राष्ट्रभाषा हिन्दी में आगे की पढ़ाई करने का संकल्प लिया और राष्ट्रभाषा रत्न एवं प्रभाकर तक की शिक्षा ग्रहण की। इसके बाद पूर्ण रूप से आर्य साहित्य का स्वाध्याय करने लगे। ????श्रेष्ठ ब्रह्चर्य का पालन???? युवा सुमेर सिंह श्रेष्ठ ब्रह्मचर्य का पालन करते थे। संध्या हवन (यज्ञ) भी मौखिक रूप से करवाने लगे। प्रात: चार बजे उठना, व्यायाम-प्राणायाम करना, संध्या करना, सत्यार्थ-प्रकाश, मनुस्मृति, संस्कार विधि, वेद-उपनिषदों आदि का नियमित स्वाध्याय करना उनकीं दिनचर्या थी। आजीविका के रूप में उन्होंने सिलाई (टेलरिंग) की कला में निपुणता हासिल की। इस बीच आर्य समाज की गतिविधियों में बराबर भागीदारी करने के चलते उन्हें आचार्य भगवान देव के आशीर्वाद से आर्य समाज नया बांस शाखा में मंत्री चुन लिया गया। कुछ समय पश्चात सुमेर सिंह आर्य ने खतौली, जिला मुजफ्रनगर में अपने भाई के साथ मिलकर टेललिंग की दुकान खोली। उनके दूसरे भाई ओम प्रकाश आर्य और लक्ष्मण सिंह आर्य भी वहीं काम करते थे। सुमेर सिंह ने खतौली कस्बे के बोंदू सिंह वाल्मिकी अखाड़े में अपने भाई के साथ लाठी, गदका और नंगी तलवार चलाने का प्रशिक्षण लिया। आर्य समाज की गतिविधियों में उनकीं रूचि को देखते हुए उन्हें आर्यवीर दल खतौली शाखा का संचालक नियुक्त कर दिया गया। लेकिन, आर्य समाज की गतिविधियों में गहराई तक रम चुके सुमेर सिंह ने सभी घरेलू कार्य छोड़ दिए और स्वयं को राष्ट्रोत्थान में समर्पित कर दिया। वे बलवान, बुद्धिमान, आत्मविश्वासी और प्रखर वक्ता थे। उन्होंने पूर्ण रूप से और नि:स्वार्थ भावना से आर्य समाज के साथ जोड़ लिया। उन्होंने अपने परिजनों से विवाह बन्धन में बंधने से भी मना कर दिया और आजीवन ब्रह्चर्य का जीवन जीने और समाज व राष्ट्र के उत्थान में अटूट सेवा करने का संकल्प ले लिया। ????हिन्दी आन्दोलन को समर्पित???? स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत तत्काली संयुक्त पंजाब सरकार द्वारा हिन्दी भाषा के साथ किए जाने वाले सौतेले व्यवहार से हिन्दी आन्दोलन का जन्म हुआ। आर्य समाज ने हिन्दी के मान-सम्मान के लिए सरकार के विरूद्ध खुला ऐलान कर दिया। स्वामी आत्मानंद जी महाराज, यमुनानकर के आह्वान पर हिन्दी सत्याग्रह (हिन्दी रक्षा आन्दोलन) का बिगुल फूंक दिया गया। युवा सुमेर सिंह आर्य का भी इस आन्दोलन में कूदना तय ही था। सभी गाँवों से हिन्दी सत्याग्रह से जत्थे निकलने शुरू हुए। सुमेर सिंह आर्य ने अपने नया बांस गाँव के जत्थे का नेतृत्व किया और गुरूकुल झज्जर से ब्रहमचारी बलदेव के जत्थे के साथ मिलकर आचार्य श्री भगवान देव के नेतृत्व में चण्डीगढ़ में डटकर सत्याग्रह किया। पुलिस ने उन्हें अन्य हिन्दी सत्याग्रहियों के साथ गिरफ्तार करके फिरोजपुर जेल में डाल दिया। उन्होंने तीन महीने तक जेल में रहते हुए अनेक यातनाएं सहीं। लेकिन, 24 अगस्त, 1957 को जेल में हुए लाठीचार्ज में वे बुरी तरह से घायल हो गए और अंतत: हिन्दी रक्षा आन्दोलन के शहीदों में उनका नाम स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज हो गया।
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24-08-2022
वेद और देव जेनयू की वाईस चांसलर ने बयान दिया है डॉ अम्बेडकर स्मृति व्याख्यान माला में कहा कि कोई भी देवता ब्राह्मण नहीं थे और शिवजी शूद्र थे। यह तथ्यों के विपरीत बयान एक उच्च पद पर बैठे हुए व्यक्ति द्वारा दिया है। ऐसे विषयों पर केवल विद्वान् लोगों को अपनी प्रतिक्रिया देनी चाहिए। वेद और देव विषय पर इस लेख में वैदिक पक्ष को प्रस्तुत किया गया है। वेदों में देव विषय को लेकर अनेक भ्रांतियां हैं। शंका 1- देव शब्द से क्या अभिप्राय समझते हैं ? समाधान- निरुक्त 7/15 में यास्काचार्य के अनुसार देव शब्द दा, द्युत और दिवु इस धातु से बनता हैं। इसके अनुसार ज्ञान, प्रकाश, शांति, आनंद तथा सुख देने वाली सब वस्तुओं को देव कहा जा सकता हैं। यजुर्वेद[14/20] में अग्नि, वायु, सूर्य, चन्द्र वसु, रुद्र, आदित्य, इंद्र इत्यादि को देव के नाम से पुकारा गया हैं। परन्तु वेदों [ऋग्वेद 6/55/16, ऋग्वेद 6/22/1, ऋग्वेद 8/1/1, अथर्ववेद 2/2/1] में तो पूजा के योग्य केवल एक सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, भगवान ही हैं। देव शब्द का प्रयोग सत्य-विद्या का प्रकाश करने वाले सत्यनिष्ठ विद्वानों के लिए भी होता हैं क्योंकि वे ज्ञान का दान करते हैं और वस्तुओं के यथार्थ स्वरूप को प्रकाशित करते हैं [शतपथ 3/7/3/10, शतपथ 2/2/2/6, शतपथ 4/3/44/4, शतपथ 2/1/3/4, गोपथ 1/6] । देव का प्रयोग जीतने की इच्छा रखने वाले व्यक्तियों विशेषतः वीर, क्षत्रियों, परमेश्वर की स्तुति करने वाले तथा पदार्थों का यथार्थ रूप से वर्णन करने वाले विद्वानों, ज्ञान देकर मनुष्यों को आनंदित करने वाले सच्चे ब्राह्मणों, प्रकाशक, सूर्य, चन्द्र, अग्नि, सत्य व्यवहार करने वाले वैश्यों के लिए भी होता हैं [शतपथ 6/3/1/15,शतपथ 7/5/1/21, शतपथ 7/2/4/26, गोपथ 2/10] । शंका 2- वेदों में 33 देवों होने से क्या अभिप्राय हैं? समाधान- वेदों एवं ब्राह्मण आदि ग्रंथों में 33 देवों का वर्णन मिलता हैं। 33 देवों के आधार पर यह निष्कर्ष प्रायः निकाला जाता हैं की वेद अनेकेश्वरवादी अर्थात एक से अधिक ईश्वर की सत्ता में विश्वास रखते हैं। वेदों में अनेक स्थानों पर 33 देवों का वर्णन मिलता हैं [अथर्ववेद 10/7/13,अथर्ववेद 10/7/27, ऋग्वेद 1/45/27, ऋग्वेद 8/28/1, यजुर्वेद 20/36] । ईश्वर और देव में अंतर स्पष्ट होने से एक ही उपासना करने योग्य ईश्वर एवं कल्याणकारी अनेक देवों में सम्बन्ध स्पष्ट होता हैं। शतपथ ब्राह्मण [4/5/7/2] के अनुसार 33 देवता हैं 8 वसु, 11 रूद्र, 12 आदित्य, द्यावा और पृथ्वी और 34 वां प्रजापति परमेश्वर हैं। इसी बात को ताण्ड्य महाब्राह्मण[ 6/2/5] और ऐतरेय ब्राह्मण[2/18/37] में भी कहा गया है। शतपथ के अनुसार 8 वसु हैं अग्नि, पृथ्वी, वायु, आकाश, अंतरिक्ष, सूर्य, चन्द्रमा और नक्षत्र क्योंकि यह जगत को बसाने वाले हैं। 11 रुद्रों से तात्पर्य 10 प्राण एवं 11 वें आत्मा से है क्योंकि ये शरीर से निकलते हुए प्राणियों को रुलाते है। 12 आदित्य से तात्पर्य वर्ष के 12 मासों से हैं क्योंकि ये हमारी आयु को मानो प्रतिदिन ले जा रहे हैं। 32 वां इंद्र अथवा बिजली हैं एवं 33 वां प्रजापति अथवा यज्ञ है। शंका 3- परमेश्वर और 33 देवों में क्या सम्बन्ध हैं? परमेश्वर और 33 देवों के मध्य सम्बन्ध का वर्णन करते हुए कहा गया है कि ये 33 देव जिसके अंग में समाये हुए हैं उसे स्कम्भ (सर्वाधार परमेश्वर) कहो। वही सबसे अधिक सुख-दाता है। ये 33 देव जिसकी निधि की रक्षा करते है, उस निधि को कौन जानता है? ये देव जिस विराट शरीर में अंग के समान बने हैं, उन 33 देवों को ब्रह्मज्ञानी ही ठीक ठीक जानते हैं, अन्य नहीं ,इत्यादि। इन सभी में पूजनीय तो वह एकमात्र देवों का अधिदेव और प्राण स्वरूप परमेश्वर ही है। वेद में अनेक मन्त्रों के माध्यम से ईश्वर को देवों का पिता, मित्र, आत्मा, जनिता अर्थात उत्पादक, अंतर्यामी, अमरता को प्रदान करने वाला, कष्टों से बचाने वाला, जीवनाधार, देवों अर्थात सत्यनिष्ठ विद्वान का मित्र आदि के रूप में कहा गया हैं। जैसे 1. जो श्रद्धा से देवों के पिता वा पालक उस ज्ञान के स्वामी परमेश्वर की उपासना करता हैं उसका जन्म सफल हो जाता है [ऋग्वेद 2/26/3 ]। 2. परमेश्वर सत्यनिष्ठ विद्वानों (देव) का कल्याणकारी मित्र है[ऋग्वेद 1/31/1]। 3. परमेश्वर देवों का आत्मा है [ऋग्वेद 4/3/7। 4. परमेश्वर सब देवों का अंतर्यामी आत्मा है [ऋग्वेद 10/168/4]। 5. परमेश्वर सब देवों का अधिष्ठाता देव है [ ऋग्वेद 10/121/8]। 6. परमेश्वर सब देवों में बड़ा देव है [ऋग्वेद 1/50/9]। 7. वह परमेश्वर हमारा बंधु है [यजुर्वेद 32/10]। 8. जैसे वृक्ष के तने के आश्रित सब शाखाएं होती हैं, वैसे ही उस परम देव के आश्रय में अन्य सब देव रहते हैं [अथर्ववेद 10/7/38]। शंका 4- स्वामी दयानंद के अनुसार देवता शब्द का क्या अभिप्राय हैं ? स्वामी दयानंद देव शब्द पर विचार करते हुए ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका वेद विषय विचार अध्याय 4 में लिखते है कि दान देने से देव नाम पड़ता है और दान कहते है अपनी चीज दूसरे के अर्थ दे देना। दीपन कहते है प्रकाश करने को, द्योतन कहते है सत्योपदेश को, इनमें से दान का दाता मुख्य एक ईश्वर ही है, जिसने जगत को सब पदार्थ दे रखे है तथा विद्वान मनुष्य भी विद्यादि पदार्थों के देनेवाले होने से देव कहाते हैं। दीपन अर्थात सब मूर्तिमान द्रव्यों का प्रकाश करने से सूर्यादि लोकों का नाम भी देव हैं। तथा माता-पिता, आचार्य और अतिथि भी पालन, विद्या और सत्योपदेशादी के करने से देव कहाते हैं। वैसे ही सूर्यादि लोकों का भी जो प्रकाश करनेवाला हैं, सो ही ईश्वर सब मनुष्यों को उपासना करने के योग्य इष्टदेव हैं, अन्य कोई नहीं। कठोपनिषद [5/15] का भी प्रमाण हैं की सूर्य, चन्द्रमा, तारे, बिजली और अग्नि ये सब परमेश्वर में प्रकाश नहीं कर सकते, किन्तु इस सबका प्रकाश करनेवाला एक वही है, क्योंकि परमेश्वर के प्रकाश से ही सूर्य आदि सब जगत प्रकाशित हो रहा हैं। इसमें यह जानना चाहिये की ईश्वर से भिन्न कोई पदार्थ स्वतन्त्र प्रकाश करनेवाला नहीं हैं , इससे एक परमेश्वर ही मुख्य देव हैं। शंका 5- वेदों में एकेश्वरवाद अर्थात ईश्वर के एक होने के क्या प्रमाण हैं? समाधान- पश्चिमी विद्वान वेदों में बहुदेवतावाद या अनेकेश्वरवाद मानते हैं। जब उन्हें वेदों में उन्होंने यहाँ तक कह डाला की वेदों ने प्रारम्भिक से अनेकेश्वरवाद के क्रमबद्ध तत्व-ज्ञान का विकास प्राकृतिक, एकेश्वरवाद और अद्वैतवाद की मंजिलों से गुजरते हुए किया [1]। यह एक कल्पना मात्र हैं क्योंकि निष्पक्ष रूप से पढ़ने ज्ञात होता हैं की वेदों में अनेक देवताओं का वर्णन मिलता हैं मगर पूजा का विधान केवल देवाधि-देव सभी देवों के अधिष्ठाता एक ईश्वर की ही बताई गई हैं। इंद्र, मित्र, वरुण, अग्नि, यम, मातरिश्वा, वायु, सूर्य, सविता आदि प्रधानतया उस एक परमेश्वर के ही भिन्न-भिन्न गुणों को सुचित करने वाले नाम हैं। वेद मंत्रों में ईश्वर के एक होने के अनेक प्रमाण हैं। जैसे ऋग्वेद 1. जो एक ही सब मनुष्यों का और वसुओं का ईश्वर है [ऋग्वेद 1/7/9]। 2. जो एक ही हैं और दानी मनुष्य को धन प्रदान करता है [ऋग्वेद 1/84/6] । 3. जो एक ही हैं और मनुष्यों से पुकारने योग्य है [ ऋग्वेद 6/22/1] । 4. हे परमेश्वर (इन्द्र), तू सब जनों का एक अद्वितीय स्वामी हैं, तू अकेला समस्त जगत का राजा है [ऋग्वेद 6/36/4] । 5. हे मनुष्य, जो परमेश्वर एक ही हैं उसी की तू स्तुति कर, वह सब मनुष्यों का द्रष्टा है [ऋग्वेद 6/45/16] । 6. तो एक ही अपने पराकर्म से सबका ईश्वर बना हुआ है [ऋग्वेद 8/6/41]। 7. विश्व को रचने वाला एक ही देव हैं, जिसने आकाश और भूमि को जन्म दिया है [ऋग्वेद 10/81/3]। 8. हे दुष्टों को दंड देने वाले परमेश्वर, तुझ से अधिक उत्कृष्ट और तुझ से बड़ा संसार में कोई नहीं हैं, न ही तेरी बराबरी का अन्य कोई नहीं हैं [ऋग्वेद 4/30/1] । 9. एक सत-स्वरूप परमेश्वर को बुद्धिमान ज्ञानी लोग अनेक नामों से पुकारते हैं। उसी को वे अग्नि, यम, मातरिश्वा, इंद्र, मित्र, वरुण, दिव्य, सुपर्ण इत्यादि नामों से याद करते है [ऋग्वेद 1/164/46]। 10. जो ईश्वर एक ही है, हे मनुष्य! तू उसी की स्तुति कर[ऋग्वेद 5/51/16]। 11. ऋग्वेद के 10/121 के हिरण्यगर्भ सूक्त में प्रजापति के नाम से भगवान का स्मरण करते हुए परमेश्वर को चार बार "एक" शब्द का प्रयोग हुआ हैं। इस सूक्त में एकेश्वरवाद का इन स्पष्ट शब्दों में प्रतिपादन हैं की न चाहते हुए भी मैक्समूलर महोदय ने लिखते है "मैं एक और सूक्त ऋग्वेद 10/121 को जोड़ना चाहता हूँ, जिसमें एक ईश्वर का विचार इतनी प्रबलता और निश्चय के साथ प्रकट किया गया हैं की हमें आर्यों के नैसर्गिक एकेश्वरवादी होने से इंकार करते हुए बहुत अधिक संकोच करना पड़ेगा।[2]" ईसाई मत के पूर्वाग्रह से ग्रसित होने के कारण मैक्समूलर महोदय ने एक नई तरकीब निकाली एकेश्वरवाद को सिद्ध करने वाले मन्त्रों को नवीन सिद्ध करने का प्रयास किया[3]। यजुर्वेद 1. वह ईश्वर अचल है, एक है, मन से भी अधिक वेगवान है [यजुर्वेद 40/4]। अथर्ववेद 1. पृथ्वी आदि लोकों का धारण करने वाला ईश्वर हमें सुख देवे, जो जगत का स्वामी है, एक ही है, नमस्कार करने योग्य है, बहुत सुख देने वाला है [अथर्ववेद 2/2/2]। 2. आओ, सब मिलकर स्तुति वचनों से इस परमात्मा की पूजा करो, जो आकाश का स्वामी है, एक है, व्यापक है और हम मनुष्यों का अतिथि है [अथर्ववेद 6/21/1]। 3. वह परमेश्वर एक है, एक है, एक ही है, उसके मुकाबले में कोई दूसरा , तीसरा, चौथा परमेश्वर नहीं है, पांचवां, छठा , सातवाँ नहीं है, आठवां, नौवां, दसवां नहीं है, वही एक परमेश्वर चेतन- अचेतन सबको देख रहा है [अथर्ववेद 16/4/16-20]। इस प्रकार वेदों में दिए गए मंत्रों से यह सिद्ध होता है कि परमेश्वर एक है। वेदों में एक ईश्वर के विभिन्न नाम होने की साक्षी भी दी गयी है जैसे- 1. परमेश्वर एक ही है, ज्ञानी लोग उसे विभिन्न नामों से पुकारते है, उसे इन्द्र कहते है, मित्र कहते है, वरुण कहते है, अग्नि कहते है, और वही दिव्या सुपर्ण और गरुत्मान भी है, उसे ही वे यम और मातरिश्वा भी कहते है [ऋग्वेद 1/164/46]। 2. एक होते हुए भी उस सुपर्ण परमेश्वर को ज्ञानी कविजन बहुत नामों से कल्पित कर लेते है[ ऋग्वेद 10/114/5]। 3. यही भाव ऋग्वेद 3/26/7, ऋग्वेद 10/82/3, यजुर्वेद 32/1, अथर्ववेद 13/4 में भी कहाँ गया है। इस प्रकार से यह सिद्ध होता हैं की वैदिक ईश्वर एक हैं एवं वेद विशुद्ध एकेश्वरवाद का सन्देश देते है। वेदों में बहुदेवतावाद एक भ्रान्ति मात्र है और देव आदि शब्द कल्याणकारी शक्तियों से लेकर श्रेष्ठ मानव आदि के लिए प्रयोग हुआ है एवं उपासना के योग्य केवल एक ईश्वर है। ईश्वर के भी विभिन्न गुणों के कारण अनेक नाम हो सकते है एवं अनेक नाम देवों के भी हो सकते हैं।
Vedic vichar
24-08-2022
*????ईश्वर को न भूलें????* सुभाषिनी आर्य *ओम् वायुरनिलममृतमथेदं भस्मान्तंशरीरम् ।* *ओ३म् क्रतो स्मर क्लिवे स्मर कृतं स्मर ।।* ―(यजुर्वेद 40-15) *शब्दार्थ―*_हे (क्रतो) कर्म करने वाले जीव ! तू शरीर छूटते समय (ओ३म्) इस नाम वाच्य ईश्वर को (स्मर) स्मरण कर (क्लिवे) अपने सामर्थ्य के लिए परमात्मा और अपने स्वरुप का (स्मर) स्मरण कर, (कृतम्) अपने किए का (स्मर) स्मरण कर। इस संसार का (वायुः) धनञ्जयादिरुप वायु (अनिलम्) को, कारण रुप वायु (अमृतम्) अविनाशी कारण को धारण करता (अथ) इसके अनन्तर (इदम्) यह (शरीरम्) नष्ट होने वाला सुखादि का आश्रय शरीर (भस्मान्तम) अन्त में भस्म होने वाला होता है। ऐसा जानो।_ अर्थात्, इस वेद मन्त्र में कहा गया है कि हे कर्मशील जीव तथा प्रगति करने वाले जीवात्मा! तू अनिलम्–वायु अप्राकृत अर्थात् प्रकृति का बना हुआ नहीं है, अपितु अमृत पुत्र अमर आत्मा है और यह जो शरीर है, मरने के बाद राख हो जाने वाला है, इसलिए तू शरीर के त्यागते समय परमात्मा के अनेक नामों में से श्रेष्ठ और प्यारा जो 'ओ३म्' नाम है, उसका वाणी से जाप कर और मन में उस प्रभु का चिन्तन कर, परन्तु अन्त समय में तो तभी स्मरण आएगा जब अपने जीवन काल में ही परमपिता परमात्मा को अपना साथी बनाएंगे और उसके नाम का स्मरण करेंगे। तभी तो आदेश दिया गया है कि पहले तो जीवन भर ईश्वर का स्मरण कर, सामर्थ्य प्राप्ति के लिए, फिर कहा कि "क्रतोस्मर" अर्थात् आगामी जीवन के लिए जो कर्तव्य कर्म करने हैं, उनको भी याद कर और वर्तमान जीवन को सार्थक बना और मंत्र के अन्तिम भाग में कहा है कि तू वर्तमान जीवन मैं कृत कर्मों को भी देख और अपना निरीक्षण कर कि मैं कौन हूँ, कहाँ से आया हूँ, मुझे क्या करना चाहिए था और क्या नहीं करना चाहिए था और प्रतिदिन मेरी क्या दिनचर्या है। यदि मनुष्य रात को सोते समय अपने दिन भर के किए हुए कर्मों की पड़ताल ही कर ले और विचार कर ले कि यह कर्म मेरा कल्याणकारी नहीं था तो अगले दिन से अपने कार्यों में सुधार करता जाएगा और ऐसा करते-करते उसका सारा जीवन ही सुधर जाएगा, पर इसके लिए कड़े अभ्यास और वैराग्य की आवश्यकता है। शास्त्र कहता है कि आत्मा चैतन्य है और यह शरीर जो है, यह योनि कला है, इसके निर्मात्रा हम स्वयं हैं, हमने जो पूर्व जन्मों में अच्छे कर्म किए हैं उनके फलस्वरुप ही हमें यह मनुष्य जन्म और सुन्दर काया मिली है। इसी प्रकार आगामी जीवन के निर्माता हम स्वयं ही हैं। कहा है कि *"तपो राज्य और राज्यो नर्क"* इसका अभिप्राय यह है कि वर्तमान राजा ने अपने पूर्व जन्मों में अच्छे कर्म किए, तपस्वी जीवन व्यतीत किया तो वर्तमान जीवन में राजा बना, यदि इस जीवन में कर्तव्यपरायण होकर और त्याग भावना से व धर्म का पालन करके राज्य करेगा तो मोक्ष का अधिकारी बनेगा और यदि इसके विपरित विषय-वासनाओं में फंसकर स्वार्थ भावना से राज्य करेगा तो उसके लिए नरक का द्वार खुला है। जीव कर्म करने में स्वतन्त्र है पर उसका फल भुगतने के लिए परतन्त्र अर्थात् परमेश्वर के न्याय से उसको फल मिलता है। इसलिए जैसा कर्म करेगा, उसी को अनुसार उसको फल मिलेगा। परमात्मा साक्षी रुप में उसे देख रहा है और सर्वव्यापक होकर हमारे साथ हर समय जुड़ा हुआ है। हम उसको अपने साथ न समझें, यह अलग बात है। बस इस सारे वृत्तांत का यही अभिप्राय है कि हर समय उस प्रभु को अपना सहायक समझें, उसी का स्मरण करें। स्वार्थ भावना को त्याग कर निष्काम भाव से उसी की आज्ञानुसार सब कार्य करें और सदा *'ओ३म्'* नाम का जाप करें। यदि हमारा सारा जीवन ऐसा बीतेगा तो अन्त समय प्रभु स्वयं हमारे सामने प्रकाश की किरण बनकर आएंगे और हम प्रभु का स्मरण करते हुए संसार से विदा हो जाएंगे। जैसा सन्तों का कथन है― *ओ३म् नाम की लूट पड़ी है, लूट सके तो लूट।* *अन्त समय पछताएगा जब प्राण जाएगा छूट।।*
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24-08-2022
*उपकारः परो धर्मःपरोर्थः कर्मनैपुणम्* *पात्रे दानं परः कामः परो मोक्षो वितृष्णता||* अर्थात्- नि:स्वार्थ भाव से लोगों की सहायता करना सर्वोत्तम धार्मिक आचरण है तथा सर्वोत्तम संपत्ति किसी भी प्रकार के कार्य में निपुणता है, सुपात्र व्यक्तियों को दान देना सर्वोत्तम दान है। इसके पश्चात अत्यधिक लालच न करते हुए अपनी इच्छाओं की पूर्ति और अन्ततः मोक्ष की प्राप्ति ही जीवन का सर्वोत्तम् ध्येय है।"
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08-08-2022
कोई भी व्यक्ति सारा दिन खाली नहीं बैठ सकता। वह कुछ न कुछ काम तो करता ही है। अब दो प्रकार के काम हैं। एक अच्छे और दूसरे बुरे। *"व्यक्ति इन दोनों में से ही कुछ न कुछ करेगा। यदि व्यक्ति अच्छा काम करेगा, तो उसे ईश्वर सुख देगा। यदि अच्छा काम नहीं किया, तो फिर बुरा काम करेगा। और यदि बुरा काम करेगा, तो ईश्वर उसे दंड या दुख देगा। क्या आप दंड या दुख भोगना चाहते हैं? नहीं चाहते। तो क्या करना चाहिए? अच्छा काम करना चाहिए।"* अच्छे काम कौन से हैं, और बुरे काम कौन से हैं? इन की क्या पहचान है? इसकी एक मोटी सी पहचान यह है। *"जिस काम को करते समय आपको अपने अंदर भय शंका लज्जा का अनुभव हो, तो समझ लीजिए, वह काम बुरा है। जिस काम को करते समय आपको अपने अंदर आनंद उत्साह और निर्भयता की अनुभूति हो, तो समझ लीजिए, वह काम अच्छा है।"* दूसरी मोटी पहचान -- *"किसी काम को करने से पहले यह सोचें, यदि मेरे इस काम को मेरे माता-पिता देखेंगे, तब वे क्या सोचेंगे, कि मैं अच्छा व्यक्ति हूं या बुरा? यदि वे ऐसा सोचेंगे, कि मैं अच्छा व्यक्ति हूं। तो इसका अर्थ है, कि वह काम अच्छा है। उसे कर सकते हैं।" "यदि मेरे माता पिता मुझे उस काम को करता हुआ देखकर अथवा सुनकर यह सोचेंगे, कि मैं बहुत खराब व्यक्ति हूं। तो समझ लीजिए, कि वह काम बुरा है, मुझे उसे नहीं करना चाहिए।" "फिर भी यदि कहीं संशय रह जाए, तो अंतिम निर्णय वेदों की कसौटी पर होता है। इसके लिए आप वेदों के विद्वानों की सहायता लेकर, अपना संशय दूर कर सकते हैं। इस प्रकार से आप अच्छे बुरे कर्मों की पहचान कर सकते हैं।"* उदाहरण के लिए -- *"यज्ञ करना, ईश्वर का ध्यान करना, कमजोर लोगों की सहायता करना, रोगियों विकलांगों वृद्धों अनाथों आदि को सहयोग देना, प्राणियों की रक्षा करना, शाकाहारी भोजन खाना इत्यादि अच्छे कर्मों के उदाहरण हैं।" "झूठ बोलना, छल कपट करना, धोखा देना, अन्याय करना, दूसरों का शोषण करना, शराब पीना, अंडे मांस खाना इत्यादि बुरे कर्मों के उदाहरण हैं।"* *"अतः अच्छे काम करें, और अपने जीवन को सफल बनाएं। इससे आपका यह जन्म भी अच्छा अर्थात सुखमय होगा और अगला भी।"*
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08-08-2022
*"क्या ऐसा हो सकता है, कि कोई व्यक्ति सदा ही जीते? कभी हारे ही नहीं? किसी से भी न हारे? कहीं भी न हारे?"* *"जी हां। ऐसा हो सकता है, कि वह सदा ही जीते, सदा ही विजय का आनंद मनाए। कभी उसे हार का मुंह देखना न पड़े।" "परन्तु यह तभी हो सकता है, जब वह पूरी तरह से ईश्वर को समर्पित हो।" "वह जो भी सोचे, जो भी बोले, जो भी आचरण व्यवहार करे, यदि वह ईश्वर की आज्ञा के अनुकूल हो, तो वह सदा सब क्षेत्रों में जीतेगा। कभी भी कहीं भी नहीं हारेगा।" "क्योंकि ईश्वर स्वयं ऐसा है, जो कभी भी कहीं भी किसी से भी नहीं हारता। जो ईश्वर की शरण लेगा, वह भी वैसा ही हो जाएगा।"* ऐसी योग्यता कैसे बनेगी? कि वह हर काम ईश्वर को समर्पित होकर करे। ईश्वर की आज्ञा के अनुकूल करे। *"ऐसी योग्यता वेदों को पढ़ने से, वैदिक दर्शन शास्त्रों को पढ़ने से, विशेष रूप से न्याय दर्शन में अत्यधिक परिश्रम करने से, और उन बातों पर आचरण करने से बन सकती है।" "क्योंकि सोचने विचारने बोलने की जो गलतियां हैं, वे सभी 54 प्रकार की गलतियां, न्याय दर्शन में महर्षि गौतम जी ने बताई हैं।" "सत्य और असत्य का निर्णय करने की पद्धति जो न्याय दर्शन में बताई है, वह संसार में किसी पुस्तक में नहीं है।" "अतः न्याय दर्शन या न्याय विद्या को किसी योग्य विद्वान गुरुजी से पढ़ सीख कर, फिर व्यक्ति उन से बचे, तो वह सब जगह जीतेगा। कभी कहीं नहीं हारेगा। वेदों के अनुकूल आचरण करेगा। ईश्वर की आज्ञा का पालन करेगा, और सदा विजय का आनंद मनाएगा।*
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08-08-2022
धन और सुख इन दोनों में बहुत अंतर है। प्रायः लोग इन दोनों का अंतर नहीं समझते। वे समझते हैं कि *"जिस के पास धन अधिक है, वही सुखी है।"* बंधुओ! ऐसा नहीं है। यदि ऐसा होता तो बड़े-बड़े अरबपति खरबपति धनवान सेठ, सब के सब सुखी होते। *"वे लोग धनवान तो हैं, परंतु सुखी नहीं हैं। क्योंकि धन से भूमि भवन मोटर गाड़ी सोना चांदी आदि भौतिक वस्तुएं तो खरीदी जा सकती हैं, सुख नहीं।"* सुख तो मन का विषय है, जो कि वेदों की सत्य विद्या और पुण्य कर्मों से मिलता है। *"इसलिए उन सेठों के पास भौतिक वस्तुएं बहुत होते हुए भी, वे सुखी नहीं हैं।"* बड़े-बड़े सेठ बहुत धन वाले होते हुए भी, हर समय तनाव में रहते हैं। उनको बीसियों प्रकार की चिंताएं लगी रहती हैं। *"राग द्वेष काम क्रोध लोभ अभिमान आदि अनेक समस्याओं से दिनभर घिरे रहते हैं। इन सब के कारण जो उनके मन में तनाव और दुख उत्पन्न होता है, वह धन से प्राप्त होने वाले सुख को भी दबा देता है।"* परिणाम यह होता है, कि वे धन से प्राप्त होने वाले सुख को भी ठीक प्रकार से नहीं भोग पाते। *"जिनके पास आवश्यकता पूर्ति जितना धन और खाने पीने को, रहने को आवश्यक साधन पूरे होते हैं। वही लोग अधिक से अधिक सुखी हैं।"* और जिनके पास खाने पीने जीने के साधन भी पूरे नहीं हैं, वे भी दुखी हैं। *"प्राचीन काल के ऋषि-मुनियों का जीवन आप देखिए। बहुत थोड़े साधनों में बहुत थोड़े धन संपत्ति में वे बड़े प्रसन्न सुखी और आनंदित रहते थे।"* क्या कारण था? *"उनके पास वेदों की विद्या थी, साधना थी, तपस्या थी, उत्तम आचरण था। इन कारणों से वे सुखी थे।" "आज भी यदि कोई सुखी होना चाहे, तो इन्हीं साधनों से सुखी हो पाएगा। इसलिए इन्हीं साधनों को अपनाएं। धन के पीछे अधिक न भागें। जीवन रक्षा के लिए जितना आवश्यक हो, उतना धन अवश्य कमाएं। ईमानदारी और बुद्धिमत्ता और परिश्रम से धन कमाएं।"* *"आजकल लोग झूठ छल कपट धोखा बेईमानी इत्यादि से धन तो कमा लेते हैं। परंतु उनको सुख नहीं मिलता। वे सदा दुखी ही रहते हैं।" "सच्चे व्यक्ति को लोग धोखा बहुत देते हैं, उसे लूट लेते हैं, उसे अनेक प्रकार से अपमानित करते हैं। इन कारणों से वह सच्चा व्यक्ति भले ही कम धन संपत्ति वाला हो, फिर भी वह ईश्वर आज्ञा पालन करते हुए सदा सुखी रहता है।"* *"अतः ईश्वर की भक्ति करें। वेदों का ज्ञान परोपकार सेवा दान दया आदि गुणों को धारण करके ईमानदारी बुद्धिमत्ता और परिश्रम से जीवन को जिएं। आपको जीवन में सदा आनंद रहेगा।"*
Vedic vichar
08-08-2022
*"प्रश्न - आपको जीवन में तनाव चाहिए? या आनंद? उत्तर - आनंद चाहिए।"* *"प्रश्न - कैसे मिलेगा? उत्तर - संसार की चिंताएं छोड़िए। मोह माया छोड़िए। राग द्वेष छोड़िए। ईश्वर से संबंध जोड़िए। फिर देखिए, आपको बहुत आनंद मिलेगा।"* *"व्यक्ति सारा दिन संसार की ओर देखता है। संसार की बातें सोचता है। संसार के लोगों से बातें करता है, और सांसारिक बातें ही करता है। कुछ लोगों के साथ तो सामने बैठकर बातें करता है। और जो लोग दूर होते हैं, उनके साथ फोन पर बातें करता है। दिन भर फोन पर ही लगा रहता है।" "आज का व्यक्ति ऐसा अनुभव करता है, कि वह फोन के बिना आधा घंटा भी नहीं जी सकता।"* आज तो ऐसा लगता है, कि जैसे फोन हाथ पैर की तरह व्यक्ति के शरीर का एक अंग ही हो गया हो। *"यदि एक या दो घंटे तक फोन बंद हो जाए, तो व्यक्ति की स्थिति बिगड़ जाती है। उसकी बेचैनी या अशांति इतनी बढ़ जाती है कि बस, जैसे उसकी दुनिया ही लुट गई हो।"* आज से लगभग 20 वर्ष पहले, जब यह मोबाइल फोन नहीं आया था, तब ऐसा नहीं था। तब भी लोग जीते थे। *"बल्कि तब लोग अधिक शांति से जीते थे। जब से यह मोबाइल फोन आया है, तब से लोगों की अशांति / तनाव बढ़ा ही है, कम नहीं हुआ।"* हम यह नहीं कहते, कि मोबाइल फोन, कम्प्यूटर आदि की साधनों का प्रयोग न करें। हम यह कहना चाहते हैं, कि *"इन साधनों का सीमित प्रयोग करें। अति आवश्यक प्रयोग करें। सदुपयोग करें। इन साधनों का दुरुपयोग न करें। इनसे लाभ उठाएं, न कि इनका प्रयोग करके अपना तनाव/ अशान्ति बढ़ाएं।"* *"इन साधनों के अत्यधिक प्रयोग या दुरुपयोग से व्यक्ति का तनाव चिंता राग द्वेष काम क्रोध लोभ अभिमान आदि दोष बढ़ते जाते हैं। इन दोषों के बढ़ने से उसे अशांति उत्पन्न होती है। जीवन नीरस व्यर्थ और उद्देश्यहीन लगने लगता है, तृप्ति नहीं मिलती। और व्यक्ति ऐसा अनुभव करता है कि जैसे वह एक मशीन बन चुका है। वह संसार के प्रवाह में बस बहता चला जा रहा है। अपनी इच्छा से जीना तो जैसे भूल ही गया है। न व्यायाम, न खेलकूद, न लोगों से त्यौहारों पर मिलने जाना, न रिश्ते निभाना, न ही घरवालों के साथ बैठकर कुछ बातचीत करना। पति पत्नी तक मोबाइल फोन के चक्कर में इतने फंस चुके हैं कि आपस में बैठकर कुछ सुख दुख की बातें तक नहीं कर पाते।"* इसके अतिरिक्त और भी बहुत सी हानियां इस मोबाइल फोन के आने के बाद संसार के लोग अनुभव कर रहे हैं। *"इसके विपरीत यदि व्यक्ति, ईश्वर से संबंध जोड़े, ईश्वर से बातें करे, ईश्वर के विषय में सोचे, लोगों के साथ ईश्वर के संबंध में बातें करे, तो ऊपर बताए सारे दोष दूर हो सकते हैं, और व्यक्ति जीवन में शांति आनंद संतोष तृप्ति का अनुभव कर सकता है।"* सार यह हुआ कि *"जितना अधिक आप संसार का चिंतन करेंगे, संसार से बातें करेंगे, उतना अधिक आपका तनाव बढ़ेगा। और जितना अधिक आप ईश्वर का चिंतन करेंगे, मौन रहकर ईश्वर से बातें करेंगे, उतना ही अधिक आपका आनंद बढ़ेगा।"* *"अब दोनों मार्ग आपके सामने हैं। आप पढ़े लिखे हैं, समझदार हैं, बुद्धिमान हैं। जो मार्ग अच्छा लगे, उस पर चलें। तनाव बढ़ाएं, या आनन्द।"*
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08-08-2022
*"ईश्वर ने मनुष्यों को अनेक इंद्रियां दी हैं। देखने के लिए आंखें, सुनने के लिए कान, बोलने के लिए वाणी इत्यादि।"* ईश्वर ने तो इंद्रियां सदुपयोग करने के लिए ही दी थीं। *"परन्तु मनुष्यों में कुछ सुसंस्कारी लोग होते हैं, जो इन इंद्रियों का सदुपयोग करते हैं। कुछ कुसंस्कारी लोग होते हैं, जो इन इंद्रियों का दुरुपयोग करते हैं।"* जो लोग इन इंद्रियों का सदुपयोग करते हैं, वे इस प्रकार से सुंदर मीठी सरल सुबोध भाषा बोलते हैं, कि बहुत से लोग उनकी बातें, उनके संदेश सुनने को सदा उत्सुक रहते हैं। सदा लालायित रहते हैं, कि *"ये व्यक्ति कब बोलेंगे और कब हम इनको सुनेंगे।"* बोलना भी एक विशेष कला है। *"बोलते समय अपनी बात को पूरे स्पष्ट शब्दों में कहना चाहिए। वक्ता के शब्द सरल हों, सुबोध हों, भाषा मीठी हो, नम्रता एवं सभ्यतापूर्ण हो, ऐसी भाषा बोलनी चाहिए।"* यह कला सबके पास नहीं होती। *"इसी प्रकार से सुनना भी एक कला है। सब लोग सुनना भी नहीं जानते।"* अच्छे श्रोता जब सुनते हैं, तो ऐसे सुनते हैं, कि *"दूसरे लोग अर्थात अच्छे वक्ता भी उन्हें सुनाने को उत्सुक रहते हैं। वे चाहते हैं, कि 'जब हम बोलें, तो हमें इस प्रकार के श्रोता मिलें, जो बड़े ध्यान पूर्वक हमारी बात को सुनें।"* सुनने की कला इस प्रकार से है-- *"जब दूसरा व्यक्ति कुछ बोल रहा हो, तो धैर्य से उसकी बात सुननी चाहिए। पूरी बात सुननी चाहिए। फिर सुनकर उस पर विचार करना चाहिए, कि दूसरे व्यक्ति ने क्या कहा? उसका अभिप्राय क्या है? ठीक ठीक अभिप्राय को समझ कर उसके बाद ही कुछ बोलना चाहिए।"* परंतु जो लोग सुनने की इस कला को नहीं जानते, *"वे दूसरे व्यक्ति की बात पूरी सुने बिना ही बीच में ही उसकी बात काटना शुरू कर देते हैं। उसे टोकना और उसका खंडन करना शुरू कर देते हैं।" "यह बुद्धिमत्ता नहीं है। इस प्रकार से नहीं करना चाहिए। धैर्यपूर्वक पूरी बात सुननी चाहिए।"* *"अतः ईश्वर ने जो आपको ये सब इंद्रियां दी हैं, इनका सही उपयोग करें। अपने जीवन में आप सुखी रहें और दूसरों को भी सुख देवें।"*
Vedic vichar
08-08-2022
आज का व्यक्ति घोर अज्ञान में जी रहा है। यह अज्ञान दो प्रकार का है। "एक क्षेत्र में तो व्यक्ति वास्तव में नहीं जानता, कि सत्य क्या है?" जैसे कि *"आत्मा क्या है, ईश्वर क्या है, पुनर्जन्म होगा या नहीं होगा? कर्मफल ठीक-ठीक मिलेगा या नहीं मिलेगा? पाप कर्मों की माफी होगी या नहीं होगी? मोक्ष होता है या नहीं होता, इत्यादि।"* ये कुछ कठिन विषय हैं, जिनके संबंध में अधिकतर लोग ठीक प्रकार से नहीं जानते, वे अज्ञान में हैं। *"परन्तु दूसरे क्षेत्र में व्यक्ति जानते हुए भी अज्ञानी बना हुआ है। जानबूझकर सच्चाई की उपेक्षा करता रहता है। दूसरे शब्दों में कहें, तो अपने आप को धोखा देता रहता है।"* बुद्धिमान लोगों को इस स्थिति से बाहर निकलना चाहिए। कुछ बुद्धिमान लोग यह समझते हैं, कि *"अंत में सब कुछ यहीं रह जाएगा। कुछ भी साथ में नहीं जाएगा। परंतु फिर भी वे लोग, दिन-रात धन-संपत्ति और अन्य वस्तुएं इकट्ठी करने में लगे हुए हैं, जैसे कि वे हजारों साल यहीं इसी संसार में रहेंगे। कभी संसार छोड़कर नहीं जाएंगे।" "श्री राम जी चले गए। श्री कृष्ण जी चले गए। अर्जुन चले गए। दुर्योधन चले गए। सिकंदर भी चले गए। एक-एक करके सब बड़े-बड़े धुरंधर लोग इस संसार से चले गए। बड़े बड़े राजा विद्वान और ऋषि मुनि भी चले गए। एक न एक दिन सभी को यह संसार छोड़ कर जाना होगा।"* यही जीवन का अपरिहार्य (जिससे बच नहीं सकते, ऐसा) सत्य है। *"इस सत्य को मोटे रूप में जानते हुए भी, वे अज्ञानी लोग इस सत्य से मुंह मोड़ लेते हैं। इस सच्चाई को हृदय से स्वीकार नहीं करते। और इस बात को गंभीरता से जान समझ कर अपने मुख्य लक्ष्य की ओर नहीं बढ़ते। ऐसे लोग अपने दुर्भाग्य को ही बढ़ा रहे हैं।"* आप भी यदि स्वयं को बुद्धिमान समझते हों, तो आप से निवेदन है, कि *"आप कम से कम इस सत्य से मुंह न मोड़ें। इस सच्चाई को बार-बार समझने का प्रयत्न करें, कि साथ में कुछ नहीं जाएगा, सब कुछ यहीं छोड़ कर जाना है।"* अतः जिस उद्देश्य से संसार में आए थे, उसी पर अपना ध्यान अधिक केंद्रित करना चाहिए। वह है - *"सब दुखों से छुटकारा और ईश्वर के उत्तम आनंद की प्राप्ति।"* इन दोनों बातों को यदि एक शब्द में कहें, *"तो मोक्ष।"* अर्थात *"मोक्ष प्राप्ति के लिए संसार में हमने और आपने जन्म लिया था। उसी को मुख्य लक्ष्य बनाकर पूरा परिश्रम करें। तभी आप का जीवन सार्थक होगा। अन्यथा जीवन के अंतिम समय में तो केवल पश्चाताप ही करना पड़ेगा।"*
Vedic vichar
08-08-2022
*"व्यक्ति जो कुछ भी करता है, वह सुख की प्राप्ति तथा दुख की निवृत्ति के लिए करता है। विकास किए बिना व्यक्ति न तो सुख की प्राप्ति कर सकता है, और न ही दुख की निवृत्ति। इसलिए जीवन में व्यक्ति को विकास करना आवश्यक है। इस विकास का आधार है संगठन। यदि परिवार में, समाज में, देश में संगठन नहीं है, तो कोई विकास नहीं होने वाला।"* चलिये, आज युवा पीढ़ी को केंद्र में रखकर परिवार में संगठन की बात करते हैं। *"यदि आपके परिवार में आज संगठन है, और आगे भी यदि बना रहे, तब तो वास्तविक विकास कहलाएगा।"* और ऐसा विकास करना उपयोगी एवं सुखदायक सिद्ध होगा। *यदि तथाकथित विकास करके (देश या विदेश में कुछ पढ़ाई कर के और कुछ धन कमा कर के) आपके परिवार का संगठन टूटता है, परस्पर प्रेम शांति आनंद घट जाता है, दुख समस्याएं और परस्पर दूरियां बढ़ जाती हैं। व्यक्ति एक दूसरे के सुख दुख में काम नहीं आता, तो वह वास्तविक विकास नहीं है। विकास के नाम पर सिर्फ दिखावा है, और केवल स्वार्थ सिद्धि है। आज अधिकतर ऐसा ही हो रहा है।* *"विकास का उद्देश्य ही जब सुख शांति है, सुख की वृद्धि और दुख का क्षय है, तो उस तथाकथित विकास से लाभ क्या हुआ, जिसमें आपके परिवार का संगठन ही टूट जाए, सुख शांति ही खो जाए, आपसी प्रेम ही नष्ट हो जाए। आपस में दूरियां बढ़ जाएं। साथ में आप मिल कर बैठ नहीं पाते, एक दूसरे के साथ अपने सुख दुख बांट नहीं पाते, साथ में बैठकर भोजन नहीं खा पाते। परिवार का कोई सदस्य देश में भी घर से दूर रहता है, कोई विदेश में रहता है। कहीं संपत्ति के नाम पर झगड़े हो जाते हैं, और पारिवारिक संगठन टूट जाते हैं। भाइयों में परस्पर प्रेम नहीं रहता। अनेक बार विवाह के बाद बहुएं आकर परिवार में झगड़े करा देती हैं, आदि आदि किन्हीं भी कारणों से यदि आपका परिवार टूटता या बिखर जाता है, लोग दूर दूर चले जाते हैं, तो परिवार में सुख शांति कैसे हो सकती है? 'वहाँ वास्तविक विकास हुआ,' यह कैसे कह सकते हैं? नहीं कह सकते।"* *"परिवार में वास्तविक विकास तो तभी कहलाता है, जब परिवार के सदस्य एक घर में रहते हों। साथ में बैठकर खाना खाते हों, आपस के सुख-दुख बांटते हों, एक दूसरे की समस्याओं को समझते हों, उन्हें बैठ कर आपस में सुलझाते हों, ऐसे परिवार में उत्साह संगठन सुख शांति समृद्धि एवं आनंद होता है। इसी का नाम वास्तविक विकास है।"* अब बहुत से परिवारों में देखा यह जाता है, कि वहाँ के युवक लगभग 20 वर्ष तक भारत में पढ़ लिख कर विदेश चले जाते हैं। वे वहाँ आगे की पढ़ाई या नौकरी करने के लिए जाते हैं। ऐसे जो युवक विदेश में जाकर रहने लगते हैं, वे वहीं के निवासी बन जाते हैं। कभी कभार 2/3 वर्ष में एक, दो या तीन सप्ताह के लिए भारत आते हैं, फिर वापस विदेश लौट जाते हैं। *"माता-पिता भारत में, बच्चे विदेश में। यह क्या विकास हुआ? यह क्या संगठन हुआ? इस तरह से तो परिवार ही टूट गया. क्या करेंगे ऐसी संपत्ति का, जो परिवार को ही तोड़ दे? आपस का सुख ही समाप्त कर दे? इसका नाम *"विकास नहीं," "विनाश है". अपने परिवार का विनाश न करें।"* जो भारतीय माता-पिता यह सोचते हैं, कि *"हमारे बच्चे विदेश में जाकर खूब धन कमाएंगे और खूब आनंद से जिएंगे, उनका जीवन सफल हो जाएगा। वे बहुत सुखी हो जाएँगे। यह उनकी भ्रांति और भयंकर भूल है।" "वे बच्चे विदेश में अकेले पड़ जाएंगे। आपके बिना वे वहाँ सुखी नहीं हो पाएँगे। क्योंकि आपके जीवन के अनुभव का लाभ उन्हें वहां नहीं मिल पाएगा। आपका सहयोग और आशीर्वाद उन्हें विदेश में नहीं मिल पाएगा।"* *"और न आप यहाँ भारत में सुखी हो पाएँगे। क्योंकि आपके भारतीय बच्चे विदेशों में जाकर धन जरूर कमाएंगे, परन्तु आपके बुढ़ापे में यहां भारत में आपकी सेवा करने के लिए नहीं आएँगे। यदि ऐसा हुआ, (जो कि प्रायः होता ही है), तो आपने क्या कमाया? विदेश भेजकर आपने तो अपने बच्चे ही खो दिए! ???? अपना बुढ़ापा ही बिगाड़ लिया। कृपया ऐसी भूल न करें।"* *"परिवार में सुख तो तब होता है, जब बच्चों को बड़ों के अनुभव का लाभ और आशीर्वाद मिले। तथा बड़ों को बच्चों की ओर से सेवा मिले। तब वह परिवार वास्तव में विकसित सफल और सुखी माना जाता है।"* भारत में भी करोड़ों व्यक्ति रहते हैं, और उन्हें भोजन वस्त्र मकान, खाना-पीना आदि सब सुविधाएं मिलती हैं। *"इसके अतिरिक्त, भारतीय सभ्यता संस्कृति के अंतर्गत जीवन जीना, अधिक चरित्र से युक्त तथा अधिक सुखदायक है।" “जो भारतीय बच्चे विदेश में चले जाते हैं, वे वहां जाकर अधिकतर भोगी विलासी बनते हैं। अपने व्यक्तिगत जीवन का भी नाश करते हैं। वे वहां रहकर भारतीय वैदिक अध्यात्म विद्या से भी वंचित हो जाते हैं, और अपने माता पिता आदि पारिवारिक जनों की सेवा आदि न कर पाने से, माता पिता आदि परिवार जनों के लिए भी कोई विशेष उपयोगी सिद्ध नहीं हो पाते। केवल अपना भौतिक स्वार्थ ही सिद्ध करते रहते हैं।"* *"और एक बात, 20 वर्ष तक भारत में रहकर उन भारतीय बच्चों ने, भारत की जनता तथा अपने माता-पिता की तन मन धन की सेवा ली। अपने माता-पिता का उन्होंने लाखों और एक डेढ़ करोड़ रुपए तक खर्चा भी करवाया। इसलिये उन पर भारत की जनता का भी ऋण होता है, और अपने माता-पिता का भी। भारत के डॉक्टरों किसानों इंजीनियरों अध्यापकों विद्वानों मजदूरों आदि देश भर के करोड़ों व्यक्तियों का ऋण उन बच्चों पर होता है, जिनकी सेवाओं से उन्होंने 20 वर्ष तक भारत में सब प्रकार का लाभ उठाया। और आज योग्य बनने के बाद, जब ऋण चुकाने का अवसर आया, तो वे विदेश चले गए।" "आज उनकी सेवाओं का लाभ भारत की जनता को मिलना चाहिए था, जिसने 20 वर्ष तक अपनी सेवाओं से उन भारतीय बच्चों को लाभ पहुंचाया। विदेश में जाकर रहने से, और भारतीय जनता को उनकी सेवाओं का लाभ न मिलने से, वे बच्चे जीवन भर भारतीय जनता के कर्जदार भी बने रहेंगे। यह दोष भी उनको लगेगा।" "केवल अपने ही थोड़े से भौतिक स्वार्थ को देखना, अपने देशवासियों और माता पिता का ऋण न चुकाना, यह कोई देश भक्ति नहीं है। यह पितृभक्ति नहीं है। यह मनुष्यता नहीं है। ऐसे बच्चों को अगले जन्मों में यह सारा ऋण चुकाना पड़ेगा। ईश्वर उन्हें बैल घोड़ा हाथी आदि प्राणी बनाकर उनसे खूब मजदूरी करवाएगा, और पूरा ऋण वसूल करेगा।"* *"इसलिए भारतीय माता-पिता के लिए, अपने बच्चों को भारत देश में ही रखना और अपने परिवार में ही रखना अधिक विकासयुक्त और सुखदायक है।" "भले ही भारत में अपने परिवार में रहकर बच्चे कुछ कम पढ़ पाएं, धन कुछ कम कमा पाएं, तो भी विदेश जाने और परिवार टूटने से तो यही अच्छा है। इससे कम से कम परिवार संगठित और वास्तव में आनंदित तो रहेगा!"* *"आशा है आप लोग इस विषय में गंभीरतापूर्वक विचार करेंगे।"*
सैद्धान्तिक चर्चा १५
08-08-2022
#सैद्धान्तिक_चर्चा_१५ इतिहास के पृष्ठों पर देखने से ज्ञात हुआ कि भारत में मूर्ति पूजा आज से लगभग २५०० वर्ष पूर्व आरम्भ हुई । महर्षि दयानन्द सरस्वती जी महाराज "सत्यार्थ प्रकाश" में लिखते हैं - ऋषभदेव से लेके महावीर पर्यन्त अपने तीर्थंकरों की बड़ी-बड़ी मूर्त्तियाँ बना कर पूजा करने लगे अर्थात् पाषाणादि मूर्त्तिपूजा की जड़ जैनियों से प्रचलित हुई। परमेश्वर का मानना न्यून हुआ, पाषाणादि मूर्त्तिपूजा में लगे। ऐसा तीन सौ वर्ष पर्यन्त आर्यावर्त्त में जैनों का राज रहा। प्रायः वेदार्थज्ञान से शून्य हो गये थे। इस बात को अनुमान से अढ़ाई सहस्र वर्ष व्यतीत हुए होंगे। बाईस सौ वर्ष हुए कि एक शङ्कराचार्य द्रविड़देशोत्पन्न ब्राह्मण ब्रह्मचर्य से व्याकरणादि सब शास्त्रों को पढ़कर सोचने लगे कि अहह! सत्य आस्तिक वेद मत का छूटना और जैन नास्तिक मत का चलना बड़ी हानि की बात हुई है। इन को किसी प्रकार हटाना चाहिये। शङ्कराचार्य शास्त्र तो पढ़े ही थे परन्तु जैन मत के भी पुस्तक पढ़े थे और उन की युक्ति भी बहुत प्रबल थी। उन्होंने विचारा कि इन को किस प्रकार हटावें? निश्चय हुआ कि उपदेश और शास्त्रार्थ करने से ये लोग हटेंगे। ऐसा विचार कर उज्जैन नगरी में आये। वहां उस समय सुधन्वा राजा था, जो जैनियों के ग्रन्थ और कुछ संस्कृत भी पढ़ा था। वहाँ जाकर वेद का उपदेश करने लगे और राजा से मिल कर कहा कि आप संस्कृत और जैनियों के भी ग्रन्थों को पढ़े हो और जैन मत को मानते हो। इसलिये आपको मैं कहता हूं कि जैनियों के पण्डितों के साथ मेरा शास्त्रार्थ कराइये। इस प्रतिज्ञा पर, जो हारे सो जीतने वाले का मत स्वीकार कर ले। और आप भी जीतने वाले का मत स्वीकार कीजियेगा। यद्यपि सुधन्वा जैन मत में थे तथापि संस्कृत ग्रन्थ पढ़ने से उन की बुद्धि में कुछ विद्या का प्रकाश था। इस से उन के मन में अत्यन्त पशुता नहीं छाई थी। क्योंकि जो विद्वान् होता है वह सत्याऽसत्य की परीक्षा करके सत्य का ग्रहण और असत्य को छोड़ देता है। जब तक सुधन्वा राजा को बड़ा विद्वान् उपदेशक नहीं मिला था तब तक सन्देह में थे कि इन में कौन सा सत्य और कौन सा असत्य है। जब शङ्कराचार्य की यह बात सुनी और बड़ी प्रसन्नता के साथ बोले कि हम शास्त्रार्थ कराके सत्याऽसत्य का निर्णय अवश्य करावेंगे। जैनियों के पण्डितों को दूर-दूर से बुलाकर सभा कराई। उसमें शङ्कराचार्य का वेदमत और जैनियों का वेदविरुद्ध मत था अर्थात् शङ्कराचार्य का पक्ष वेदमत का स्थापन और जैनियों का खण्डन और जैनियों का पक्ष अपने मत का स्थापन और वेद का खण्डन था। शास्त्रार्थ कई दिनों तक हुआ। जैनियों का मत यह था कि सृष्टि का कर्त्ता अनादि ईश्वर कोई नहीं। यह जगत् और जीव अनादि हैं। इन दोनों की उत्पत्ति और नाश कभी नहीं होता। इस से विरुद्ध शङ्कराचार्य का मत था कि अनादि सिद्ध परमात्मा ही जगत् का कर्त्ता है। यह जगत् और जीव झूठा है क्योंकि उस परमेश्वर ने अपनी माया से जगत् बनाया। वही धारण और प्रलय कर्त्ता है। और यह जीव और प्रपञ्च स्वप्नवत् है। परमेश्वर आप ही सब रूप होकर लीला कर रहा है। बहुत दिन तक शास्त्रार्थ होता रहा। परन्तु अन्त में युक्ति और प्रमाण से जैनियों का मत खण्डित और शङ्कराचार्य का मत अखण्डित रहा। तब उन जैनियों के पण्डित और सुधन्वा राजा ने वेद मत को स्वीकार कर लिया। जैनमत को छोड़ दिया। पुनः बड़ा हल्ला गुल्ला हुआ और सुधन्वा राजा ने अन्य अपने इष्ट मित्र राजाओं को लिखकर शङ्कराचार्य से शास्त्रार्थ कराया। परन्तु जैन पराजित होते गये। महर्षि दयानन्द सरस्वती जी महाराज का भी काशी में मूर्ति पूजा पर शास्त्रार्थ हुआ था जिसका वर्णन प्रो० राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने आर्य मन्तव्य में इस प्रकार किया है। शास्त्रार्थ काशी जो सम्वत् १९२६ में स्वामी दयानन्द सरस्वती और काशी के पण्डितों के बीच आनन्द बाग में हुआ था। एक दयानन्द सरस्वती नाम संन्यासी दिगम्बर गंगा के तीर विचरते रहते हैं जो सत् पुरुष और सत्य शास्त्रों के वेत्ता हैं। उन्होंने सम्पूर्ण ऋग्वेद आदि का विचार किया है सो ऐसा सत्य शास्त्रों को देख निश्चय करके कहते हैं कि पाषाणादि मूर्ति पूजन, शैवशाक्त, गणपत और वैष्णव आदि सम्प्रदायों और रुद्राक्ष, तुलसी माला, त्रिपुण्डादि धारण का विधान कहीं भी वेदों में नहीं है। इससे ये सब मिथ्या ही हैं। कदापि इनका आचरण न करना चाहिये क्योंकि वेद विरुद्ध और वेदों में अप्रसिद्ध के आचरण से बड़ा पाप होता है। ऐसी मर्यादा वेदों में लिखी है। इस हेतु से उक्त स्वामी जी हरिद्वार से लेकर सर्वत्र इसका खण्ड़न करते हुए काशी में आकर दुर्गाकुण्ड के समीप आनन्द बाग में स्थित हुए। उनके आने की धूम मची। बहुत से पण्डितों ने वेदों के पुस्तकों में विचार करना आरम्भ किया परन्तु पाषाणादि मूर्तिपूजा का विधान कहीं भी किसी को न मिला। बहुधा करके इसके पूजन में आग्रह बहुतों को है। इससे काशीराज महाराजा ने बहुत से पण्डितों को बुलाकर पूछा कि इस विषय में क्या करना चाहिये। तब सब ने ऐसा निश्चय करके कहा कि किसी प्रकार से दयानन्द स्वामी के साथ शास्त्रार्थ करके बहुकाल से प्रवृत्त आचार को जैसे स्थापना हो सके करना चाहिये। कार्तिक शुद्धि १२ सं. १९२६ मंगलवार को महाराजा काशी नरेश बहुत से पण्डितों को साथ लेकर जब स्वामी जी से शास्त्रार्थ करने के हेतु आए तब दयानन्द स्वामी जी ने महाराजा से पूछा कि आप वेदों की पुस्तक ले आए हैं वा नहीं? तब महाराजा ने कहा कि वेद सम्पूर्ण पण्डितों को कण्ठस्थ हैं। पुस्तकों का क्या प्रयोजन है? तब दयानन्द सरस्वती ने कहा कि पुस्तकों के बिना पूर्वापर प्रकरण का विचार ठीक-ठीक नहीं हो सकता। भला पुस्तक तो नहीं लाए? तो नहीं सही परन्तु किस विषय पर विचार होगा? तब पण्डितों ने कहा कि तुम मूर्तिपूजा का खण्डन करते हो, हम लोग उसका मण्डन करेंगे। पुनः स्वामी जी ने कहा कि जो कोई आप लोगों में मुख्य हो वही एक पण्डित मुझसे संवाद करे। पण्डित रघुनाथ प्रसाद कोतवाल ने भी यह नियम किया कि स्वामी जी से एक-एक पण्डित विचार करे। सबसे पहिले ताराचरण नैयायिक स्वामी जी से विचार के हेतु सन्मुख प्रवृत्त हुए। स्वामी जी ने उनसे पूछा कि आप वेदों का प्रमाण मानते हैं वा नहीं? उन्होंने उत्तर दिया कि जो वर्णाश्रम में स्थित हैं उन सब को वेदों का प्रमाण ही है। इस पर स्वामी जी ने कहा कि कहीं वेदों में पाषाण आदि मूर्तियों के पूजन का प्रमाण है वा नहीं, यदि है तो दिखाइये और जो न हो तो कहिये कि नहीं है। तब पं. ताराचरण ने कहा कि वेदों में प्रमाण है वा नहीं परन्तु जो एक वेदों का ही प्रमाण मानता है औरों का नहीं उसके प्रति क्या कहना चाहिये? स्वामी जी ने कहा कि औरों का विचार पीछे होगा। वेदों का विचार मुख्य है। इस निमित्त इसका विचार पहिले ही करना चाहिये क्योंकि वेदोक्त ही कर्म मुख्य है और मनुस्मृति आदि भी वेद मूलक हैं इससे इनका भी प्रमाण है क्योंकि जो वेद विरुद्ध और वेदों में अप्रसिद्ध है उनका प्रमाण नहीं होता। पं. ताराचरण ने कहा कि मनुस्मृति का वेदों में कहाँ मूल है? स्वामी जी ने कहा कि जो-जो मनु जी ने कहा है सो-सो औषधियों का भी औषध है ऐसा सामवेद के ब्राह्मण में कहा है। विशुद्धानन्द स्वामी ने कहा कि रचना की अनुपत्ति होने से अनुमान प्रतिपाद्य प्रधान जगत् का कारण नहीं। व्यास जी के इस सूत्र का वेदों में क्या मूल है। इस पर स्वामी जी ने कहा कि यह प्रकरण से भिन्न बात है। इस पर विचार करना न चाहिये। फिर विशुद्धानन्द स्वामी ने कहा कि यदि तुम जानते हो तो अवश्य कहो। इस पर स्वामी जी ने यह समझकर कि प्रकरणान्तर में वार्ता जारी रहेगी इससे न कहा और कह दिया कि जो कदाचित् किसी को कण्ठ न हो तो पुस्तक देखकर कहा जा सकता है। तब विशुद्धानन्द स्वामी ने कहा जो कण्ठस्थ नहीं है तो काशी नगर में शास्त्रार्थ करने को क्यों उद्यत हुए। इस पर स्वामी जी ने कहा क्या आपको सब कण्ठाग्र है? विशुद्धानन्द स्वामी ने कहा कि हाँ हमको सब कण्ठस्थ है। इस पर स्वामी जी ने कहा कि कहिये धर्म का क्या स्वरूप है? विशुद्धानन्द स्वामी ने कहा कि जो वेद प्रतिपाद्य फल सहित अर्थ है वही धर्म कहलाता है। इस पर स्वामी जी ने कहा कि यह आपकी संस्कृत है। इसका क्या प्रमाण है। श्रुति वा स्मृति से कहिये। विशुद्धानन्द स्वामी ने कहा जो चोदना लक्षण अर्थ है सो धर्म कहलाता है। यह जैमिनि का सूत्र है। स्वामी जी ने कहा कि यह तो सूत्र है, यहाँ श्रुति वा स्मृति को कण्ठ से क्यों नहीं कहते? और चोदना नाम प्रेरणा का है वहाँ भी श्रुति वा स्मृति कहना चाहिये जहाँ प्रेरणा होती है। जब इसमें विशुद्धानन्द स्वामी ने कुछ भी न कहा तब स्वामी जी ने कहा कि अच्छा आपने जो धर्म का स्वरूप तो न कहा परन्तु धर्म के कितने लक्षण हैं कहिये। विशुद्धानन्द स्वामी ने कहा कि धर्म का एक ही लक्षण है। स्वामी जी ने कहा कि मनुस्मृति में तो धर्म के दस लक्षण हैं- धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रियनिग्रह, धी, विद्या, सत्य, अक्रोध- फिर कैसे कहते हो कि एक ही लक्षण है। तब बाल शास्त्री ने कहा कि हमने सब धर्मशास्त्र देखा है। इस पर स्वामी जी ने कहा कि आप अधर्म का लक्षण कहिये तब बाल शास्त्री जी ने कुछ उत्तर न दिया फिर बहुत से पण्डितों ने इकट्ठे हल्ला करके पूछा कि वेद में प्रतिमा शब्द है वा नहीं? इस पर स्वामी जी ने कहा कि प्रतिमा शब्द तो है। उन लोगों ने कहा कि कहाँ पर है? स्वामी जी ने कहा कि सामवेद के ब्राह्मण में है। फिर उन लोगों ने कहा कि वह कौनसा वचन है। इस पर स्वामी जी ने कहा कि यह है देवता के स्थान कंपायमान होते और प्रतिमा हंसती है इत्यादि। फिर उन लोगों ने कहा कि प्रतिमा शब्द तो वेदों में भी है फिर आप कैसे खण्डन करते हैं। इस पर स्वामी जी ने कहा कि प्रतिमा शब्द से पाषाणादि मूर्ति पूजनादि का प्रमाण नहीं हो सकता है। इसलिए प्रतिमा शब्द का अर्थ करना चाहिये कि इसका क्या अर्थ है। तब उन लोगों ने कहा कि जिस प्रकरण में यह मन्त्र है उस प्रकरण का क्या अर्थ है? इस पर स्वामी जी ने कहा कि यह अर्थ है अथ अद्भुत शान्ति की व्याख्या करते हैं ऐसा प्रारम्भ करके फिर रक्षा करने के लिए इन्द्र इत्यादि सब मूल मन्त्र वहीं सामवेद के ब्राह्मण में लिखे हैं। इनमें से प्रति मन्त्र करके तीन-तीन हजार आहुति करनी चाहिये इसके अनन्तर व्याहृति करके पाँच-पाँच आहुति करनी चाहिये । ऐसा करके सामगान भी करना लिखा है। इस क्रम करके अद्भुत शान्ति का विधान किया है। जिस मन्त्र में प्रतिमा शब्द है सो मन्त्र मृत्यु लोक विषयक नहीं है किन्तु ब्रह्म लोक विषयक है सो ऐसा है कि जब विघ्नकर्ता देवता पूर्व दिशा में वर्तमान होवे इत्यादि मन्त्रों से अद्भुत दर्शन की शान्ति कहकर फिर दक्षिण दिशा पश्चिम दिशा और उत्तर दिशा इसके अनन्तर भूमि की शान्ति कहकर मृत्युलोक का प्रकरण समाप्त कर अन्तरिक्ष की शान्ति कहके इसके अनन्तर स्वर्ग लोक फिर परम स्वर्ग अर्थात् ब्रह्म लोक की शान्ति कही है। इस पर सब चुप रहे। फिर बालशास्त्री ने कहा कि जिस-जिस दिशा में जो-जो देवता है उस-उस की शान्ति करने से अद्भुत देखने वालों के विघ्नों की शान्ति होती है। इस पर स्वामी जी ने कहा कि यह तो सत्य है परन्तु इस प्रकरण में विघ्न दिखाने वाला कौन है? तब बाल शास्त्री ने कहा कि इन्द्रियाँ देखने वाली हैं। इस पर स्वामी जी ने कहा कि इन्द्रियाँ तो देखने वाली हैं, दिखाने वाली नहीं ‘स प्राचीं दिशमन्ववर्तते ’ मन्त्र में ‘स’ शब्द का वाच्यार्थ क्या है? तब बाल शास्त्री जी ने कुछ न कहा, फिर पण्डित शिवसहाय जी ने कहा कि अन्तरिक्ष आदि गमन शान्ति करने का फल इस मन्त्र का अर्थ कहा जाता है। इस पर स्वामी जी ने कहा कि आपने वह प्रकरण देखा है तो किसी मन्त्र का अर्थ तो कहिये। तब शिवसहाय जी चुप ही रहे। फिर विशुद्धानन्द स्वामी ने कहा कि वेद किससे उत्पन्न हुए हैं? इस पर स्वामी जी ने कहा कि वेद ईश्वर से उत्पन्न हुए हैं। विशुद्धानन्द स्वामी ने कहा कि किस ईश्वर से? क्या न्याय शास्त्र प्रसिद्ध ईश्वर से वा योग शास्त्र प्रसिद्ध ईश्वर से अथवा वेदान्त शास्त्र प्रसिद्ध ईश्वर से इत्यादि। इस पर स्वामी जी ने कहा कि क्या ईश्वर बहुत से हैं? तब विशुद्धानन्द स्वामी जी ने कहा कि ईश्वर तो एक ही है परन्तु वेद कौन से लक्षण वाले ईश्वर से प्रकाशित भये हैं? इस पर स्वामी जी ने कहा कि सच्चिदानन्द लक्षण वाले ईश्वर से प्रकाशित भये हैं। फिर विशुद्धानन्द स्वामी जी ने कहा ईश्वर और वेदों में क्या सम्बन्ध है? क्या प्रतिपाद्य प्रतिपादक भाव वा जन्य जनक भाव अथवा समवाय भाव अथवा सेवक स्वामी भाव अथवा तादात्मय सम्बन्ध है इत्यादि। इस पर स्वामी जी ने कहा कार्य्य कारण भाव सम्बन्ध है। फिर विशुद्धानन्द स्वामी जी ने कहा कि जैसे मन में ब्रह्म बुद्धि और सूर्य्य में ब्रह्म बुद्धि करके प्रतीक उपासना कही है वैसे ही सालिग्राम का पूजन भी ग्रहण करना चाहिये। इस पर स्वामी जी ने कहा जैसे ‘मनोब्रह्मेत्युपासीत’ आदित्य ब्रह्मेत्युपासीत इत्यादि वचन वेद में देखने में आते हैं वैसे ‘पाषाणादि ब्रह्मेत्युपासीत’ आदि वचन वेद में कहीं नहीं दीख पड़ते, फिर क्यों कर इसका ग्रहण हो सकता है? तब पण्डित माधवाचार्य ने कहा- ‘उद्बुध्यस्वाग्ने प्रतिजाग्रहि त्वमिष्टापूर्ते इति’ इस मन्त्र में ‘पूर्ते’ शब्द से किसका ग्रहण है? इस पर स्वामी जी ने कहा वायी, कूप, तड़ाग और आराम का ही ग्रहण है। माधवाचार्य ने कहा कि इससे पाषाणादि मूर्तिपूजन क्यों नहीं ग्रहण होता है? इस पर स्वामी जी ने कहा कि पूर्ति शब्द पूर्ति का वाचक है। इससे कदाचित् पाषाणादि मूर्तिपूजन का ग्रहण नहीं हो सकता। यदि शंका हो तो इस मन्त्र का निरुक्त और ब्राह्मण देखिये। तब माधवाचार्य ने कहा कि पुराण शब्द वेदों में है वा नहीं? इस पर स्वामी जी ने कहा कि पुराण शब्द तो बहुत सी जगह वेदों में है पुराण शब्द से ब्रह्म वैवतादिक ग्रन्थों का कदाचित् ग्रहण नहीं हो सकता क्योंकि पुराण शब्द भूतकाल वाची है और सर्वत्र द्रव्य का विशेषण ही होता है। फिर विशुद्धानन्द स्वामी जी ने कहा कि बृहदारण्यकोपनिषद् के इस मन्त्र में कि – ‘‘एतस्य महतो भूतस्य निःश्वसितमेतदृग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोथर्वाङ्गिरस इतिहासः पुराणं श्लोका व्याख्यानुव्याख्यानानीति’’ यह सब जो पठित है इसका प्रमाण है वा नहीं। इस पर स्वामी जी ने कहा कि हाँ प्रमाण है फिर विशुद्धानन्द जी ने कहा कि जो श्लोक का भी प्रमाण है तो सबका प्रमाण आया। इस पर स्वामी जी ने कहा कि सत्य श्लोकों का प्रमाण होता है औरों का नहीं। तब विशुद्धानन्द स्वामी जी ने कहा कि यहाँ पुराण शब्द किस का विशेषण है? इस पर स्वामी जी ने कहा कि पुस्तक लाइये तब इसका विचार हो। पं. माधवाचार्य ने वेदों के दो पत्रे निकाले और कहा कि यहाँ पुराण शब्द किसका विशेषण है? स्वामी जी ने कहा कि कै सा वचन है, पढिये। तब माधवाचार्य ने यह पढ़ा ‘ब्राह्मणानीतिहासान् पुराणानीति’। इस पर स्वामी जी ने कहा कि यहाँ पुराण शब्द ब्राह्मण का विशेषण है अर्थात् पुराने नाम सनातन ब्राह्मण हैं। तब पण्डित बालशास्त्री जी आदि ने कहा कि क्या ब्राह्मण कोई नवीन भी होते हैं? इस पर स्वामी जी ने कहा कि नवीन ब्राह्मण नहीं हैं परन्तु ऐसी शंका भी किसी को न हो इसलिये यहाँ यह विशेषण कहा है। तब विशुद्धानन्द स्वामी जी ने कहा कि यहाँ इतिहास शब्द के व्यवधान होने से कैसे विशेषण होगा। इस पर स्वामीजी ने कहा कि क्या ऐसा नियम है कि व्यवधान से विशेषण नहीं हो सकता और अव्यवधान ही में होता है क्योंकि ‘अजो नित्यश्शाश्वतोऽयम्पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे’ इस श्लोक में दूरस्थ देही का भी विशेषण नहीं है? और कहीं व्याकरणादि में भी यह नियम नहीं किया है कि समीपस्थ ही विशेषण होते हैं, दूरस्थ नहीं। तब विशुद्धानन्द स्वामी जी ने कहा कि यहाँ इतिहास का तो पुराण शब्द विशेषण नहीं है इससे क्या इतिहास नवीन ग्रहण करना चाहिये। इस पर स्वामी जी ने कहा कि और जगह पर इतिहास का विशेषण पुराण शब्द है। सुनिये! इतिहास पुराणः पञ्चमो वेदानां वेदः इत्यादि में कहा है। तब वामनाचार्य आदिकों ने कहा कि वेदों में यह पाठ ही कहीं भी नहीं है। इस पर स्वामी जी ने कहा कि यदि वेदों में यह पाठ न होवे तो हमारा पराजय हो और जो हो तो तुम्हारा पराजय हो। यह प्रतिज्ञा लिखो, तब सब चुप ही रहे। इस पर स्वामी जी ने कहा कि व्याकरण जानने वाले इस पर कहें कि व्याकरण में कहीं कल्मसंज्ञा करी है वा नहीं। तब बालशास्त्री ने कहा कि संज्ञा तो नहीं की है परन्तु एक सूत्र में भाष्यकार ने उपहास किया है। इस पर स्वामी जी ने कहा कि किस सूत्र के महाभाष्य में संज्ञा तो नहीं की और उपहास किया है, यदि जानते हो तो इसके उदाहरण पूर्वक समाधान कहो। बाल शास्त्री और औरों ने कुछ भी न कहा। माधवाचार्य ने दो पत्रे वेदों के निकालकर सब पण्डितों के बीच में रख दिये और कहा कि यहाँ यज्ञ के समाप्त होने पर यजमान दसवें दिन पुराणों का पाठ सुने ऐसा लिखा है। यहाँ पुराण शब्द किसका विशेषण है? स्वामी जी ने कहा कि पढ़ो इसमें किस प्रकार का पाठ है। जब किसी ने पाठ न किया तब विशुद्धानन्द जी ने पत्रे उठा के स्वामी जी के ओर करके कहा कि तुम ही पढ़ो। स्वामी जी- आप ही इसका पाठ कीजिये। तब विशुद्धानन्द स्वामी ने कहा कि मैं ऐनक के बिना पाठ नही कर सकता। ऐसा कहके वे पत्रे उठाकर विशुद्धानन्द स्वामी जी ने दयानन्द स्वामी जी के हाथ में दिये। इस पर स्वामी जी दोनों पत्रे लेकर विचार करने लगे। इसमें अनुमान है कि पांच पल व्यतीत हुए होंगे कि ज्यों ही स्वामी जी यह उत्तर कहा चाहते थे कि ‘‘पुरानी जो विद्या है उसे पुराण विद्या कहते हैं और जो पुराण विद्या वेद है वहीं पुराण विद्या वेद कहाता है, इत्यादि से यहाँ ब्रह्मविद्या ही का ग्राह्य है क्योंकि पूर्व प्रकरण में ऋग्वेदादि चारों वेद आदि का तो श्रवण कहा है परन्तु उपनिषदों का नहीं कहा। इसलिये यहाँ उपनिषदों का ही ग्रहण है औरों का नहीं। पुरानी विद्या वेदों की ही ब्रह्म विद्या है इससे ब्रह्मवैवर्तादि नवीन ग्रन्थों का ग्रहण कभी नहीं कर सकते क्योंकि जो वहाँ ऐसा पाठ होता कि ब्रह्मवैवर्तादि १८ अन्य पुराण है सो तो वेद में कही ऐसा पाठ नहीं है। इसलिये कदाचित् अठारहों का ग्रहण नहीं हो सकता’’ ज्यों ही यह उत्तर कहना चाहते थे कि विशुद्धानन्द स्वामी उठ खड़े हुए और कहा कि हमको विलम्ब होता है। हम जाते हैं। तब सबके सब उठ खड़े हुए और कोलाहल करते हुए चले गए। इस अभिप्राय से कि लोगों पर विदित हो कि दयानन्द स्वामी का पराजय हुआ परन्तु जो दयानन्द स्वामी के चार पूर्वोक्त प्रश्न हैं उनका वेद में तो प्रमाण ही न निकला फिर क्यों कर उनका पराजय हुआ? अर्थात् मूर्ति पूजा का कहीं वेदों में वर्णन नहीं है। क्रमशः ...
Vedic vichar
04-08-2022
जब जीवन में कठिनाइयां आती हैं, व्यक्ति उनके साथ संघर्ष करता है, तो अनेक बार व्यक्ति उन्हें जीत जाता है। और कभी कभी घबरा कर हार भी जाता है। *"चाहे जैसी भी कठिनाई हो, व्यक्ति को घबराना तो कभी भी नहीं चाहिए। क्योंकि घबराने से लाभ कभी नहीं होता, सदा हानि ही होती है।" "यदि व्यक्ति घबरा जाए, अपने धैर्य को खो दे, तो फिर वह नहीं जीत पाएगा। फिर तो हार जाएगा।"* *"परन्तु यदि शांति से उस समस्या का समाधान सोचे, तो कोई न कोई समाधान मिल ही जाएगा, और व्यक्ति का जीवन फिर से उन्नति की ओर बढ़ने लगेगा।"* भारतीय वैदिक परंपरा में आत्मा परमात्मा संबंधी ज्ञान विज्ञान होने से, समस्याओं को सुलझाने और जीवन जीने के तरीके सिखाए जाते हैं, जो कि विदेशी सभ्यता में आध्यात्मिक ज्ञान विशेष न होने से इस प्रकार के तरीके प्रायः नहीं होते। *"इसलिए भारतीय लोग भारतीय वैदिक चिंतन के आधार पर अपनी समस्याओं का हल ढूंढ लेते हैं। विदेशी लोग हल न ढूंढ पाने के कारण अनेक बार आत्महत्या कर लेते हैं।"* आज भारतीय लोग भी अपनी वैदिक संस्कृति सभ्यता को छोड़ते जा रहे हैं, और विदेशी सभ्यता का अंधानुकरण करने लगे हैं। जिसका दुष्परिणाम यह है, कि *"अब भारतीय लोग भी अनेक बार आत्महत्या कर लेते हैं। ऐसा करना अत्यंत ही अनुचित है।" "यह भारतीय संविधान के भी विरुद्ध है, और ईश्वरीय संविधान के भी। अतः ऐसा कभी नहीं करना चाहिए।" "जो लोग मूर्खता या अज्ञानतावश ऐसा कर लेते हैं, उन्हें भविष्य में ईश्वर की ओर से भयंकर दुख भोगने पड़ते हैं।"* सारी बात का सार यह हुआ, कि *"यदि आप जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में जीतना चाहते हैं, तो अपना उत्साह कभी ना खोएं। ईश्वर को साक्षी मानकर पूरी ईमानदारी, बुद्धिमत्ता और मेहनत से सब कार्य करें। आप सभी क्षेत्रों में सफल हो जाएंगे।"*
ମଣିଷକୁ କେଉଁ ପ୍ରକାରର ଭୋଜନ ଖାଇବା ଉଚିତ l
31-07-2022
ମଣିଷକୁ କେଉଁ ପ୍ରକାରର ଭୋଜନ ଖାଇବା ଉଚିତ l ନିଜର ଦୁଇ ପଦ ଦୁଇ ହାତ ଏବଂ ମୁଁହ କୁ ଧୋଇବା ପରେ ହିଁ ଭୋଜନ କରିବା ଉଚିତ ହୋଇଥାଏ | ଏମିତି କରିବା ଦ୍ୱାରା ମନୁଷ୍ୟ ବିଭିନ୍ନ ପ୍ରକାରର ରୋଗରୁ ବଞ୍ଚିଥାଏ | ଏବଂ ମନୁଷ୍ୟ ଦୀର୍ଘାୟୁ ଵନିଯାଏ | ଏବଂ ଖାଇବା ପୂର୍ବରୁ ମନୁଷ୍ୟକୁ ଭଗବାନଙ୍କୁ ଦାନ୍ୟବାଦ ଦେବା ଜରୁରି ହୋଇଥାଏ | ଏବଂ ସଂସାରର ସମସ୍ତ ପ୍ରାଣୀଙ୍କୁ ଭୋଜନ ଦେବା ପାଇଁ ପ୍ରାଥନା କରିବା ଆବଶ୍ବକ ହୋଇଥାଏ | ଯେତେବେଳେ ଜଣେ ମଣିଷ କ୍ରୋଧରେ ଥାଏ ସେତେବେଳେ ତାଙ୍କୁ ଖାଦ୍ୟ ଖାଇବା ଉଚିତ ନୁହେଁ | ଏବଂ କାନ୍ଦିଲା ବେଳେ ଆଉ ହସିଲା ବେଳେ ବି ଖାଦ୍ୟ ଖାଇବା ଉଚିତ ନୁହେଁ | ଏଥିରେ ଶରୀରରେ ବିକ୍ୟର ଉତ୍ପନ ହୋଇଥାଏ | ଚଟାଣରେ ବାସି ଭୋଜନ କରିବା ହିଁ ସବୁଠାରୁ ଶ୍ରେଷ୍ଠ ହୋଇଥାଏ | ସର୍ବପ୍ରଥମେ ଯେଉ ଭୋଜନ କୁ କେହି ଡେଇଁକି ଯାଇଥିବେ ସେହି ଭୋଜନ କଦାପି ଖାଇବା ଉଚିତ ନୁହେଁ | ଯେଉ ଭୋଜନ ଉପରେ କେହି ଗୋଡ଼ ରଖି କିମ୍ଭା କେହି ଡେଇଁ କରି ଚାଲିଯାଇଥାନ୍ତି ସେଇ ଖାଦ୍ୟକୁ କେବେ ବି ଖାଇବା ଉଚିତ ନୁହେଁ | ଏମିତିକା ଭୋଜନ ଅଶୁଦ୍ଧ ହୋଇଯାଇଥାଏ | ଏମିତି ଭୋଜନ କୁ ନଷ୍ଟ ନ କରି ପଶୁ ପାଖିଙ୍କୁ ଖୁଆଇଦେବା ଦରକାର ହୋଇଥାଏ | ଅନ୍ୟ ମାନଙ୍କ ଦ୍ୱାରା ଫିଙ୍ଗା ଯାଇଥିବା ଖାଦ୍ୟ ଖାଇଲେ ମଣିଷର ଆୟୁଷ କମିଯାଇଥାଏ | ଏବଂ ସେହି ମଣିଷର ଶରୀରରେ ଭିନ୍ନ-ଭିନ୍ନ ପ୍ରକାରର ରୋଗ ଉତ୍ପନ ହୋଇଥାଏ | ଦ୍ୱିତୀୟତଃ ଯେଉ ଭୋଜନରୁ କେଶ ବାହାରେ | ଯଦି ଭୋଜନରେ କେଶ ବାହାରେ ତେବେ ସେହି ଖାଦ୍ୟ ଆଉ ଖାଇବା ଉପଯୋଗୀ ହୋଇନଥାଏ | ତୃତୀୟତଃ ଯେଉ ଭୋଜନ ଅନ୍ୟ କହା ପାଇଁ ବଢ଼ା ହୋଇଥାଏ | ଯେ ମଣିଷଙ୍କୁ ଅନ୍ୟ ପାଇଁ ବଢ଼ା ଯାଇଥିବା ଖାଦ୍ୟକୁ ମଧ୍ୟ ଖାଇବା ଉଚିତ ହୋଇନଥାଏ | ଭୋଜନକୁ ଛଡେଇକି ଖାଇଥାଏ ଅଥବା କାହାରିକୁ ନ ଦେଇ ଏକା ହିଁ ସବୁ ଅର୍ଣ୍ଣକୁ ଖାଇବା ଉଚିତ ନୁହେଁ l ଭୋଜନକୁ ସମସ୍ତଙ୍କ ସହ ବାଣ୍ଟିକି ହିଁ ଖାଇବା ଉଚିତ ହୋଇଥାଏ | ଏଥିରେ ଆପଣଙ୍କ ଶରୀରରେ ଥିବା ଉଷ୍ମ ଯାଇ ପୃଥିବୀରେ ପ୍ରବେଶ କରିଥାଏ | ଏବଂ ଭୋଜନ ଅତ୍ୟନ୍ତ ଭଲ ଭାବରେ ହଜମ ହୋଇଯାଏ | ବେଡ଼ରେ ବେଶୀ ଖାଇବା ଦ୍ୱାରା ମଣିଷର ଦେହରେ ରୋଗ ଉତ୍ପାନ ହୋଇଥାଏ | ଏବଂ ତାଙ୍କ ଆୟୁ ମଧ୍ୟ କାମ ହୋଇଯାଏ | ଏହି ସାଥିରେ ଘରର ଏରୁଣ୍ଡି ବନ୍ଦରେ ବାସି ଖାଇବା ମଧ୍ୟ ଅନୁଚିତ ପ୍ରମାଣିତ ହୋଇଥାଏ | - - @ Dr. Yajnya Dutta
Dayananda and an introduction of Aryasamaj
30-07-2022
The life history of Dayananda and an introduction of Aryasamaj# form the basis of the third chapter. It is done SO/ because# Dayananda was the founder of Aryasamaj and the first propagator of the basic tanets and Ideas underlying this institution established for the revival of the Vedic religion. It is inevitable to know the causes responsible for his aphathetic attitude towards his family and the society since his childhood. Subsequently he left home in search of a real Guru and with the passing of time he could find a real Guru and consequently received true knowledge through which he could know that the Veda is the word of God. hence it is the prime duty of everybody to read and to teach Veda. Keeping the Vedas in view Dayananda has formed Aryasamaj• In order to establish and popularise the chief tenets of the Vedas and the Vedic religion, and to dispel the collossal doubts and aspersions of the Western scholars and some Indians in their line, a systematic knowledge of the Vedas was essential. ------ Dr. Yajnya Dutta
Vedic vichar
20-07-2022
कुछ लोग कहते हैं कि *"दूसरों के साथ अपनी तुलना या मूल्यांकन नहीं करना चाहिए।"* यह तो उन विदेशी लोगों का विचार है, जो वैदिक विचारधारा को नहीं जानते। *"वास्तव में यह बात बुद्धिमता पूर्ण नहीं है, और सत्य भी नहीं है। क्योंकि जब तक आप दूसरों से अपनी तुलना नहीं करेंगे, तब तक आपको जीवन में आगे बढ़ने की प्रेरणा भी नहीं मिलेगी।"* *"बच्चे जब स्कूल में किसी दूसरे विद्यार्थी के साथ अपनी तुलना करते हैं, और देखते हैं कि दूसरा विद्यार्थी खूब मेहनत कर रहा है, बहुत अच्छे अंक ला रहा है, तो उस दूसरे विद्यार्थी को देखकर, उस पहले बच्चे को भी आगे बढ़ने की प्रेरणा मिलती है।"* उससे अपनी तुलना करने पर, उस बच्चे में भी उत्साह उत्पन्न होता है, कि *"मैं भी इसके समान पुरुषार्थ करूंगा. मैं भी अच्छे अंक प्राप्त करूंगा."* कुछ मूर्ख बच्चे भी होते हैं, जो दूसरों के साथ अपनी तुलना करके उल्टा सोचते हैं। वे इस प्रकार से सोचते हैं, कि *"यह दूसरा विद्यार्थी मुझसे आगे क्यों बढ़ रहा है? इसकी टांग खींचनी चाहिए। इसको रोकना चाहिए। इसे किसी उपाय से रोगी बना देना है, इसको परेशान करना है, ताकि यह आगे न निकल सके, और मैं इससे आगे निकल जाऊं।" "इस प्रकार की सोच मूर्खों और दुष्टों की होती है। ऐसी सोच बच्चों में ही नहीं, बड़ों में भी पाई जाती है। ऐसी मूर्खता और दुष्टता नहीं करनी चाहिए। बल्कि पहले बच्चे के समान, दूसरे विद्यार्थी को देखकर प्रेरणा लेनी चाहिए, और जीवन में आगे बढ़ना चाहिए।"* इस प्रकार की तुलना या मूल्यांकन तो जीवन के सभी क्षेत्रों में होता है। कदम-कदम पर होता है। उदाहरण के लिए, *"यदि आपको कोई कपड़ा खरीदना है, तो आप दुकान पर जाएंगे, वहाँ 4, 6, 8 कपड़े देखेंगे। उनकी तुलना करेंगे। उनका मूल्यांकन करेंगे, तभी तो आप कोई कपड़ा पसंद कर पाएंगे, और खरीद पाएंगे।"* *"इसी प्रकार से यदि आपको कंप्यूटर खरीदना हो, मोबाइल फोन खरीदना हो, स्कूटर या कार खरीदनी हो, तो आप 2, 4, 6 वैरायटी अवश्य देखेंगे। उन सबका परस्पर मूल्यांकन करेंगे। तभी आप उस वस्तु को चुन पाएंगे, और खरीद पाएंगे।"* इसलिए इस भ्रांति से बचें, कि *"मूल्यांकन या तुलना नहीं करनी चाहिए। अवश्य ही करनी चाहिए। इसके बिना आप जीवन के किसी भी क्षेत्र में आगे नहीं बढ़ पाएंगे। हानियों से बच नहीं पाएंगे, और लाभ प्राप्त कर नहीं पाएंगे।"* *"जो लोग अध्यात्म मार्गी हैं, जो मोक्ष में जाना चाहते हैं, वे भी तुलना करते हैं।" "वे भी ईश्वर और संसार की तुलना करते हैं। इन दोनों का मूल्यांकन करते हैं। तभी वे संसार को हीन तथा ईश्वर को उत्तम स्वीकार कर पाते हैं।" "यदि वे तुलना या मूल्यांकन नहीं करेंगे, तो वे संसार को छोड़ने और मोक्ष प्राप्त करने की इच्छा भी नहीं कर पाएंगे। तब वे मोक्ष के लिए पुरुषार्थ भी नहीं करेंगे। तुलना या मूल्यांकन किए बिना तो वह मोक्ष में भी नहीं जा पाएंगे।"* कभी-कभी व्यक्ति को निराशा आने लगती है, और उसे ऐसा लगता है कि *"मेरे जीवन में कोई उन्नति नहीं हो रही, मेरी प्रगति रुक गई है."* जब ऐसी स्थिति हो, तो *"स्वयं अपने आप से ही अपनी तुलना करनी चाहिए।" अर्थात "आज से 5 वर्ष पहले आपकी कितनी योग्यता थी, और आज कितनी योग्यता हो गई है।" "इस प्रकार से अपने पांच वर्ष पहले के स्तर से, अपनी आज की योग्यता की तुलना करनी चाहिए, तो आपको पता चल जाएगा, कि मेरी प्रगति भले ही धीमी गति से हो रही है, परन्तु बंद नहीं हुई है। इसलिए स्वयं अपने साथ भी तुलना करनी चाहिए।"* *"अतः तुलना और मूल्यांकन तो सदा एवं अवश्य ही करना चाहिए। और ऊपर दिए उदाहरण में पहले बच्चे के समान, अन्यों से प्रेरणा लेकर जीवन में आगे बढ़ना चाहिए। दूसरे बच्चे की तरह मूर्खता से दूसरों से जलना नहीं चाहिए।"*
Vedic vichar
20-07-2022
लोग संसार में कहने को तो अपना अपना जीवन जी रहे हैं, परंतु वास्तव में उन्हें जीवन जीना आता नहीं है। *"केवल सांस लेने का नाम जीवन जीना नहीं है।"* तो फिर? जीवन जीने का अर्थ है, *"आप स्वयं भी सुख से जिएं, और दूसरों को भी सुख से जीने दें।"* यह एक बहुत बड़ी कला है, कि *"व्यक्ति स्वयं भी सुख से जी ले, और दूसरों को भी जीने दे।"* कैसी है वह कला? लीजिए, नीचे लिखी है, पढ़ लीजिए। जब आप दूसरों को उन्नति करता हुआ देखें, और यह देखें कि *"दूसरे लोग अपने पुरुषार्थ से जो प्रगति कर रहे हैं, उसमें वे बड़े प्रसन्न हैं, सुखी हैं, तो उनको सुखी देखकर आप भी सुख का अनुभव करें।"* और ऐसा सोचें, *"कितने सौभाग्य की बात है, कि हमारे मित्र संबंधी पड़ोसी आदि सब लोग सुखी हैं।" आप कहेंगे, "वे लोग सुखी हैं, तो इससे हमें क्या लाभ?" "हमारा उत्तर है, कि लाभ है।"* यदि आप इस ढंग से सोचें, तो आपको लाभ दिखाई देगा। क्या लाभ दिखाई देगा? एक मनोविज्ञान का नियम है कि *"जो व्यक्ति स्वयं सुखी होता है, वह दूसरों को भी सुख देता है। और जो स्वयं दुखी होता है, वह दूसरों को भी दुख ही देता है।"* इस नियम के अनुसार अब ज़रा 'और गंभीरता' से सोचिए, *"यदि आपके संबंधी मित्र पड़ोसी आदि लोग दुखी होंगे, तो वे आपको क्या देंगे? दुख ही देंगे। क्या आप दुख भोगना चाहते हैं? नहीं। तो इससे क्या समझना चाहिए?" यही समझना चाहिए, कि "यदि आप के मित्र संबंधी पड़ोसी लोग सुखी होंगे, तभी वे आपको सुख देंगे, और आपको शांति से जीने देंगे। यदि वे दुखी और परेशान होंगे, तब न तो वे स्वयं ठीक से जी पाएंगे, और न आपको जीने देंगे।"* ईश्वर न्यायकारी है। वह बिना अच्छा कर्म किए किसी को सुख नहीं देता। *"इसलिए यदि 'आप' सुख से जीना चाहते हों, तो आपको ऐसा सोचना और भगवान से प्रार्थना करनी पड़ेगी", कि "हे भगवान! सब लोग अच्छे काम करें। वे स्वयं सुख से जीएं और हमें भी सुख से जीने दें।" "अतः दूसरों के सुख को देखकर आप जलें नहीं, बल्कि आप 'सुख का अनुभव' करें। ऐसा करने से उनका सुख तो बढ़ेगा ही, साथ ही आप भी सुखी रहेंगे।"* *"बस यही सुख से जीवन जीने की असली कला है, जो वेदों के आधार पर ऋषियों ने हमें समझाई है।" "जो व्यक्ति इस कला को जानता है, और इसी कला से अपना जीवन जी रहा है, वही वास्तव में सुख से जी रहा है। 'बाकी लोग तो केवल साँस लेकर अपना टाइम पास कर रहे हैं।" ऊपर बताई इस कला को आप भी अपनाएं, तथा सुख से अपना जीवन जीएं।"*
Vedic vichar
20-07-2022
*"यदि आप लोहे को खींचना चाहते हों, तो उसके लिए साधन चुंबक है।" चुंबक से आप लोहे को खींच सकते हैं। "लेकिन यदि आप किसी मनुष्य को अपनी ओर आकर्षित करना चाहते हैं, तो उसका सबसे बड़ा साधन 'प्रेम' है। प्रेम से मनुष्य से तो क्या, मूक पशु भी आकर्षित हो जाते हैं।"* *"आप गाय हिरण आदि पशुओं को प्रेम दीजिए, उन्हें प्रेम से पुकारिए, थोड़ा सा चारा उन्हें प्रेम से खिला दीजिए, वे आपकी ओर खिंचे चले आएंगे। आपके समर्पित हो जाएंगे।" "जब बहुत कम बुद्धि वाले पशुओं को भी आप प्रेम से अपनी ओर आकर्षित कर सकते हैं, तब मनुष्य तो कितना अधिक बुद्धिमान है! प्रेमपूर्वक व्यवहार करके उसे अपनी ओर आकर्षित क्यों नहीं किया जा सकता! बिल्कुल किया जा सकता है, और किया ही जाता है।" "हां, दुर्योधन और रावण जैसे कुछ मूर्ख दुष्ट और दुरभिमानी लोग इस नियम का अपवाद हैं। वे प्रेम से आकर्षित नहीं होते। उनको सीधा करने का 'दंड' ही एकमात्र उपाय है।"* *"संसार में बहुत से लोगों ने प्रेम से व्यवहार करके मनुष्यों को अपनी ओर आकर्षित कर लिया और अपने अपने संप्रदायों का प्रचार कर लिया। आज वे लाखों-करोड़ों की संख्या में संसार भर में छाए हुए हैं।" "यदि आप भी अपने परिवार के लोगों को, या अड़ोसी पड़ोसी लोगों को अपनी ओर आकर्षित करना चाहते हों, तो उनके साथ प्रेम से व्यवहार करें।"* यदि यह प्रेम से किया गया व्यवहार, सकाम भावना से किया गया हो, तो भी लोग आपकी ओर आकर्षित हो जाएंगे। *"और यदि निष्काम/नि:स्वार्थ भावना से किया गया हो, तब तो बात ही क्या है! लोग आपकी ओर आकर्षित होंगे, आपके संगठन में जुड़ेंगे, आपकी आध्यात्मिक उन्नति भी विशेष होगी, और इससे आपको आनंद भी विशेष होगा।"* *"यदि आप इस प्रकार के लाभ प्राप्त करना चाहते हों, तो अवश्य ही नि:स्वार्थ भाव से सबके साथ प्रेमपूर्वक व्यवहार करें। अपना तथा सबका कल्याण करें।"*
Vedic vichar
20-07-2022
प्रथम पक्ष -- *"कुछ लोग दिनचर्या का पालन ठीक प्रकार से नहीं करते। रात को देर तक जागते हैं, सुबह देर तक सोते हैं। व्यायाम भी नहीं करते। खानपान में संयम नहीं रखते। अंडे मांस खाते हैं। शराब सुल्फा गांजा भांग तंबाकू इत्यादि नशीली वस्तुओं का सेवन करते हैं। ऐसे लोग रोगी हो जाते हैं।" "वे लोग पहले तो उल्टा सीधा भोजन खा कर उसमें धन खर्च करते हैं। फिर रोगी होकर चिकित्सा कराते हैं, उसमें धन खर्च होता है। 5 10 वर्ष अथवा 20 वर्ष भी चिकित्सा में लग जाते हैं। उसमें शारीरिक कष्ट भी उठाना पड़ता है। और रोग ठीक होगा या नहीं होगा, कब ठीक होगा, इस प्रकार का मानसिक तनाव चिंता आदि का कष्ट भी भोगना पड़ता है।"* दूसरे पक्ष में -- *"कुछ लोग दिनचर्या का पालन ठीक करते हैं। रात को जल्दी सोते हैं, सुबह जल्दी उठते हैं, व्यायाम प्रतिदिन नियमित रूप से करते हैं। ईश्वर का ध्यान और प्रतिदिन यज्ञ हवन भी करते हैं। शाकाहारी सात्विक और संतुलित भोजन खाते हैं। जिसमें घी दूध मक्खन मलाई मिठाई दाल सब्जी रोटी चावल फल सलाद आदि पर्याप्त मात्रा में होते हैं। ऐसे लोग स्वस्थ रहते हैं। दीर्घायु होते हैं। वे रोगी न होने के कारण शारीरिक तथा मानसिक कष्ट से भी बच जाते हैं।"* अब थोड़ा विचार कीजिए -- *"इन दोनों पक्षों में धन तो खर्च होता ही है। फिर भी दोनों पक्षों में से, प्रथम पक्ष की अपेक्षा, दूसरा पक्ष अधिक अच्छा है।" "प्रथम पक्ष में व्यक्ति रोगी होकर शरीर के कष्ट भी उठाता है और मानसिक भी। परंतु दूसरे पक्ष में स्वास्थ्य रक्षा के लिए धन भले ही खर्च होता हो, फिर भी रोगी न होने से व्यक्ति शारीरिक कष्ट भोगने से भी बच जाता है, और मानसिक चिंता तनाव आदि से भी।"* अतः दोनों पक्षों की तुलना करने पर यह सार निकला, कि *"प्रथम पक्ष अच्छा नहीं है, दूसरा अच्छा है। उसी के अनुसार अपना जीवन बनाएं, और आनंद से जिएं।"*
Vedic vichar
15-07-2022
*"वर्तमान चिकित्सा पद्धति के अनुसार साढ़े पांच फीट के औसत शरीर का सामान्य भार =65/68 किलो होना चाहिए। यदि किसी व्यक्ति के शरीर का भार उससे दो चार किलो बढ़ जाए, या कम हो जाए, और वह उससे संतुष्ट न हो, लगातार तनाव में रहता हो, उसका खाना पीना जीना ही सब अस्त व्यस्त हो जाए, तो यह उचित नहीं है।"* आज की युवा पीढ़ी में आपको ऐसे बहुत से लोग मिल जाएंगे, जो इन छोटी-छोटी बातों को लेकर बहुत परेशान हैं। ये लोग ऐसा नहीं सोचते, कि *"जो कैंसर टीबी कोरोना अपैंडिक्स पथरी हर्निया आदि रोगों का रोगी है, या किसी को कोई और गंभीर रोग है, वह बेचारा कितना परेशान और दुखी है! वह अपने गंभीर रोगों से छुटकारा पाने के लिए, स्वस्थ होने के लिए तड़प रहा है। वह स्वस्थ हो नहीं पा रहा है। उससे पूछिए, कि रोगी होने का कष्ट क्या होता है?"* और एक आप हैं, कि *"दो चार किलो भार शरीर में घट गया या बढ़ गया, इस छोटी सी बात पर इतना हल्ला मचा रहे हैं?"* हम यह मानते हैं, कि *"शरीर का भार सही स्थिति में होना चाहिए, परंतु जो लोग गंभीर रोगों से बचकर स्वस्थ हैं, उनके शरीर में यदि दो चार किलो भार घट बढ़ भी गया, तो ऐसे अच्छे भले स्वस्थ होते हुए भी, जो लोग अपनी स्थिति से असंतुष्ट हैं, तो ऐसे लोग सदा दुखी ही रहेंगे। ऐसे लोग कभी भी सुखपूर्वक नहीं जी पाएंगे। इसलिए अपनी वर्तमान स्थिति से संतुष्ट भी रहना चाहिए।"* हम यह नहीं कहते, कि स्वास्थ्य का ध्यान न रखें। *"स्वास्थ्य का ध्यान तो रखना ही चाहिए। नियमित रूप से व्यायाम, और भोजन खाने में संयम भी रखना चाहिए। इसमें कोई मतभेद नहीं है।" "परन्तु फिर भी यदि शरीर में दो चार किलो भार कम अधिक हो जाए, तो उसकी इतनी अधिक चिंता भी नहीं करनी चाहिए, कि आप के जीवन की शांति ही खो जाए।" "यदि शरीर में दो चार किलो भार कम या अधिक हो जाए, तो उसको सही स्थिति में लाने के लिए प्रयास तो अवश्य करना चाहिए। परंतु अपने जीवन की शांति नहीं खो देनी चाहिए।" "बस यही विशेष बात हम कहना चाहते हैं।"*
Vedic vichar
15-07-2022
*"व्यक्ति के जीवन में अनेक क्षेत्रों में भार घटता बढ़ता रहता है। बहुत से लोग भार बढ़ने से परेशान हो जाते हैं। जैसे प्रायः धनवान लोग खूब खाते पीते हैं, और व्यायाम सैर आदि शारीरिक परिश्रम बहुत कम करते हैं, जिससे उनके शरीर का भार प्रायः बढ़ जाता है।"* शरीर का भार बढ़ने से, शरीर में अनेक रोग उत्पन्न हो जाते हैं। उन रोगों का इलाज कराने के लिए वे लोग डॉक्टर चिकित्सक के पास जाते हैं। *"फिर चिकित्सक लोग उन्हें अनेक उपाय बताते हैं। लंबे समय तक वे लोग उन उपायों का प्रयोग करते हैं। तब जाकर बड़ी कठिनाई से भार कम हो पाता है, और वे धीरे-धीरे सही स्थिति में आ जाते हैं।"* *"शरीर का भार कम करने के लिए सबसे उत्तम उपाय है, नियमित रूप से प्रतिदिन व्यायाम करना। और भोजन में संयम रखना। समय पर खाना। अपने अनुकूल भोजन खाना। भोजन की मात्रा थोड़ी कम कर देना। ऐसा करने से शरीर का भार धीरे-धीरे कम हो जाएगा, और आप स्वस्थ हो जाएंगे।"* इसी प्रकार से व्यवहार में अनेक लोगों से बातचीत करते समय, या लेनदेन करते समय कुछ प्रतिकूलताएं उत्पन्न हो जाती हैं। *"उन प्रतिकूलताओं से मन का भार बढ़ जाता है, अर्थात मन में चिंता तनाव टेंशन आदि समस्याएं उत्पन्न हो जाती हैं। इसी को अलंकारिक भाषा में 'मन का भार बढ़ना' कहते हैं। यदि मन का भार बढ़ जाए अर्थात तनाव चिंता टेंशन बढ़ जाए, तो उसे दूर करने के लिए ईश्वर का ध्यान करना चाहिए।"* और जब व्यक्ति खूब धन कमाता है, तो उसके पास धन का भार भी बढ़ जाता है। वह बढ़ा हुआ भार भी परेशान करता है। वह भी अनेक समस्याओं को उत्पन्न करता है। यदि धन का भार भी हल्का हो जाए, तो व्यक्ति शांति आनंद प्रसन्नता का अनुभव करता है। धन का भार कम करने के लिए वेदों में बताया है, कि *"व्यक्ति उत्तम कार्यों में धन का दान करे। उससे धन का भार कम हो जाएगा, और व्यक्ति स्वयं को तनावमुक्त, चिंतामुक्त तथा आनंदित अनुभव करेगा।"* *"इस प्रकार से प्रतिदिन व्यायाम, ध्यान और दान करें, आपके तीनों भार हल्के हो जाएंगे और आप अपने जीवन को सुखपूर्वक जी सकेंगे।"*
Vedic vichar
15-07-2022
एक दिन एक बड़े सेठ जी ने (शायद अरबपति होंगे) मुझसे कहा कि, *"महाराज जी, आप बड़े सुखी हैं, हम बहुत परेशान हैं। हमें दुखों और चिंताओं से बचने का कोई रास्ता बताइए।"* फिर उन्होंने आगे कहा, कि *"न तो मुझे ठीक ढंग से भूख लगती है, और न ही अच्छी गहरी नींद आती है। बस यूं ही नींद की गोली खाकर नशे में पड़ा रहता हूं। मैं 24 में से साढ़े 23 घंटे टेंशन में रहता हूं। मुझे बताइए, मैं क्या करूं?"* अब उन सेठ जी की बात पर आप विचार करें, *"जिनके पास अरबों रुपए की संपत्ति है, और सुख इतना भी नहीं, कि ठीक ढंग से खा लें, और ठीक ढंग से नींद ले पाएं। तो बताइए इतनी संपत्ति कमाने से लाभ क्या हुआ?"* मैं धन संपत्ति कमाने का विरोधी नहीं हूं। परंतु इतना अवश्य कहना चाहता हूं, कि *"आप धन अवश्य कमाएं, परन्तु साथ साथ यह विचार भी तो करें, कि आपको सुख से जीने के लिए अर्थात अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिए कितनी संपत्ति चाहिए? उसका निर्धारण करें, और उतनी ही धन संपत्ति कमाएं, उससे अधिक नहीं। यदि आप के पास अधिक धन इकट्ठा हो जाए, तो उस अधिक धन को योग्य पात्रों को दान कर दें। यदि आप अपनी आवश्यकता से अधिक धन आदि वस्तुएं इकट्ठी करेंगे, तो वे आपको सुख नहीं देंगी, बल्कि दुख ही देंगी, और आपका तनाव चिंता राग द्वेष लोभ मोह क्रोध आदि समस्याओं को ही बढ़ाएंगी। जैसे उन सेठ जी की स्थिति हो गई थी।"* तो मैंने उन सेठ जी को उत्तर दिया, कि *"धन संपत्ति से सुख मिलता है, यह बात ठीक है। परन्तु इससे भी अधिक सच्चा सुख तो संतोष का पालन करने से मिलता है। यदि आपने धन संपत्ति बहुत कमा ली, और संतोष का पालन नहीं किया, तो आप सुखी नहीं हो पाएंगे।" "इसलिए धन भले ही थोड़ा कमाएं, परन्तु संतोष का पालन अवश्य करें, अर्थात अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण ज़रूर करें। यही सुख से जीने का उपाय है।"* *"वेद आदि शास्त्रों में बताया गया है कि, धन संपत्ति तो केवल जीवन रक्षा के लिए होती है। यदि आपके पास इतनी संपत्ति हो, कि आपका खाना पीना जीना ठीक प्रकार से चल जाए, और उसके बाद आप अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण कर लें, अर्थात संतोष का पालन कर लें, तो संसार में आप जैसा कोई सुखी नहीं होगा।" "मैं इसीलिए सुखी हूं, क्योंकि मैंने अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण किया हुआ है। मैं संतोष का पालन करता हूं। आप भी यही करें। हम दोनों के लिए एक ही मार्ग है।"* इस घटना से आप भी यह शिक्षा ले सकते हैं, कि *"यदि आप भी संतोष का पालन करें, अर्थात अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण रखें, तो आप भी बहुत सुखी हो सकते हैं और आनंद से अपना जीवन जी सकते हैं।" "ऐसा करने पर ईश्वर आपको सेवा परोपकार दान दया इत्यादि उत्तम उत्तम गुण भी प्रदान करेगा, जिनकी सहायता से आप दूसरों का भी कल्याण कर सकेंगे, अर्थात दूसरों को भी सुख दे सकेंगे।"*
Vedic vichar
15-07-2022
लोग कहते हैं कि *"संसार बहुत बिगड़ गया है."* जी हां। यह सत्य है, कि *"संसार बहुत बिगड़ गया है।"* और कुछ लोग इसके सुधार की चिंता भी बहुत करते हैं। *"वे लोग सुधार के लिए प्रयास भी बहुत करते हैं। परंतु फिर भी परिणाम वैसा नहीं दिखाई दे रहा, जैसा कि वे लोग चाहते हैं, अथवा जैसा सुधार होना चाहिए।"* कारण क्या है? कारण यह है, कि *"वे लोग भावुकतावश सुधार की बातें तो बहुत करते हैं, परन्तु सुधार की वास्तविक प्रक्रिया को नहीं जानते। सुधार की प्रक्रिया को न जानने से, न तो उनका अपना सुधार हो पाता है, और न ही दूसरों का।"* वेदों और वैदिक शास्त्रों में सुधार का वास्तविक उपाय यह बताया गया है, कि *"सबसे पहले 'अपने मन' को शुद्ध बनाएं। फिर ईमानदारी और बुद्धिमत्ता से सत्य को समझने का प्रयत्न करें। यदि आपका मन शुद्ध नहीं होगा, आपका बौद्धिक स्तर ऊंचा नहीं होगा, तो आप सत्य को समझ ही नहीं पाएंगे। बौद्धिक स्तर ऊंचा होने के कारण, यदि कुछ मात्रा में सत्य समझ में आ भी गया, तो मन शुद्ध न होने से आप सत्य को हृदय से स्वीकार नहीं करेंगे। जब तक आप सत्य को हृदय से स्वीकार नहीं करेंगे, तब तक उसको आचरण में नहीं लाएंगे।" "जब तक 'आप स्वयं' अपने आचरण में सत्य को धारण नहीं करेंगे, तब तक 'आप में' कोई सुधार नहीं आएगा। जब आपमें ही सुधार नहीं आएगा, तो आप कितनी भी पुस्तकें लिख लें, छाप दें, बाँट दें, कितने भी प्रवचन कर लें, कितनी भी बड़ी बड़ी बातें कर लें, बड़ी-बड़ी सभाएं कर लें, कोई ठोस परिणाम नहीं आएगा, अर्थात जैसा सुधार आप चाहते हैं, वैसा नहीं होगा, और न ही हो रहा है। क्योंकि आप ऊपर लिखी प्रक्रिया को जानते नहीं, और अपनाते नहीं।"* इसलिए सबसे पहले 'अपने अंदर' सुधार लाएं, जिसकी प्रक्रिया ऊपर लिखी है। *"जब आपके 'अंदर' सुधार आएगा, तभी आपके 'बाह्य आचरण' में भी सुधार आएगा। जब तक आप के 'अंदर सुधार नहीं' आएगा, तब तक आपके 'बाह्य आचरण' में भी कोई परिवर्तन या सुधार नहीं होगा।"* जब आप का बाह्य आचरण सुधर जाएगा, तो उसे देख कर दूसरे बुद्धिमान लोग भी आपके बाह्य आचरण से प्रभावित होंगे। प्रभावित होने के बाद वे भी सोचेंगे, कि *"इस व्यक्ति का विचार वाणी व्यवहार आचरण बहुत उत्तम और सुखदायक है।"* तब जाकर वे सोचेंगे, कि *"हम भी ऐसे बनें।"* इस प्रकार से दूसरों में भी सुधार आने की संभावना है। फिर भी सारे लोग तो नहीं सुधरेंगे। क्यों? उसका कारण यह है, कि *"जो लोग संस्कारी सत्यवादी सत्यग्राही बुद्धिमान होंगे, वे तो अपने जीवन में सुधार ले आएंगे। परंतु जो हठी दुराग्रही और मूर्ख लोग होंगे, वे आपके उत्तम आचरण को देखकर भी अपने अंदर कोई सुधार नहीं लाएंगे।" "जैसे श्रीकृष्ण जी महाराज ने दुर्योधन को समझाने में कोई कसर नहीं छोड़ी, फिर भी वह नहीं माना। आजकल भी दुर्योधन के अनुयाई बहुत लोग हैं। वे आपके समझाने से भी नहीं समझेंगे।" "ऐसे मूर्ख और हठी लोगों की चिंता न करें।" "उनका सुधार आपके प्रेमपूर्ण उपदेश से नहीं होगा, बल्कि राजा के या ईश्वर के दंड से होगा।"* *"अतः पहले अपने जीवन को सुधारें। फिर बाद में दूसरों को भी सुधारने का यथासंभव प्रयत्न करें।" "उसमें भी जबरदस्ती न करें। कठोर भाषा का प्रयोग न करें। उससे कोई अच्छा परिणाम नहीं आएगा, बल्कि हानियां ही होंगी। अतः उन हानियों से बचने के लिए, तथा ठीक ढंग से सत्य का प्रचार करने के लिए, सभ्यतापूर्वक नम्रतापूर्वक मीठी भाषा में लोगों को सत्य बताएं। जो व्यक्ति पूर्व जन्म का संस्कारी होगा, वह सुधर जाएगा।" "मूर्ख और हठी लोग, कठोर भाषा बोलने पर भी नहीं सुधरेंगे, क्योंकि वे सुधरना ही नहीं चाहते।" "बल्कि अब तक के प्रयत्न से 'आपका' जो थोड़ा बहुत सुधार हुआ था, आपके द्वारा कठोर भाषा बोलने और कठोर व्यवहार करने के कारण, वह भी नष्ट हो जाएगा।" "आपकी ही बड़ी हानि हो सकती है। चले थे दूसरों का सुधार करने, और स्वयं ही बिगड़ गए, तो क्या कमाया?"* *"हमारे पूज्य गुरुदेव स्वामी सत्यपति जी महाराज ने हमें समझाया कि, पहले अपना ध्यान रखें। अपना बिगाड़ न करें। अपने जीवन आचरण को सुरक्षित रखते हुए, दूसरों का सुधार करने का यथाशक्ति यथासंभव प्रयत्न करें। इसी में बुद्धिमत्ता है।"* इस स्थिति को प्राप्त करने के लिए पूज्य गुरुदेव जी द्वारा सिखाए हुए दो सूत्र सदा याद रखें, तथा आचरण में लाएं। *"दुनियां सुधरे या न सुधरे, हम ज़रूर सुधरेंगे।" और "दुनियां सुधरे या बिगड़े, हम नहीं बिगड़ेंगे।"*
Vedic vichar
15-07-2022
जीवन में सैकड़ों हज़ारों लोग मिलते हैं, और बिछुड़ते हैं। *"आप के बचपन के मित्र अलग थे। फिर आप कॉलेज में आए, तो मित्र बदल गए। व्यवसाय में आए, तो और बदल गए। इसी प्रकार से प्रौढ़ावस्था तथा वृद्धावस्था में भी नये नये लोग मिलते हैं, और बिछुड़ते रहते हैं।"* शायद ही ऐसे कुछ लोग आपको मिलते होंगे, जो बचपन से वृद्धावस्था तक आपके साथ रहते हैं। आपसे मित्रता बनाए रखते हैं। *"जीवन की परिस्थितियां कब किसको कहां ले जाती हैं, यह कोई पूर्व निर्धारित नहीं है। और न ही सारी परिस्थितियां आपके वश में हैं।"* इतना सब होने पर भी, कुछ 1 या 2 व्यक्ति ऐसे भी अपने जीवन में जोड़ कर रखने चाहिएं, जो शीशे के समान हों। *"जैसे शीशा कभी झूठ नहीं बोलता। ऐसे ही कम से कम 1 या 2 व्यक्ति ऐसे मित्र बना कर अपने साथ रखें, जो कभी झूठ न बोलते हों। आपको कभी भी धोखा न दें। कभी आप की झूठी प्रशंसा न करें। कभी आपके दोषों को गुण न बताएं। और गुणों को दोष न बताएं।"* इसी प्रकार से 1 या 2 व्यक्ति अपने जीवन में ऐसे भी जोड़कर रखें, जो परछाईं की तरह हों। *"जैसे आप प्रकाश में कहीं भी जाएं, तो आपकी परछाईं भी आपके साथ साथ रहती है, वह आपको कभी नहीं छोड़ती। ऐसे ही 1 या 2 व्यक्ति जीवन में ऐसे भी जोड़ कर रखें, जो कभी आपका साथ न छोड़ें। चाहे सुख हो, चाहे दुख हो, हर परिस्थिति में आपका साथ निभाएं। यदि 1 या 2 व्यक्ति भी ऐसे मिल गए, तो आपका जीवन अत्यंत सुखमय होगा।"*
Vedic vichar
15-07-2022
जब दो व्यक्ति झगड़ते हैं, तो अधिकतर वे दोनों ही जानते हैं, कि *"कौन न्याय पक्ष में है, और कौन अन्याय कर रहा है?"* फिर भी वे लोग लंबे समय तक लड़ाई झगड़ा करते हैं। इस का कारण यह है, कि *"वे समझते हैं, कि "हमारी चालाकी और अन्याय को कौन समझता है? कोई नहीं समझता। हम दूसरों को धोखा दे देंगे, किसी पर अन्याय करके, उसका धन संपत्ति छीन कर भी मौज कर लेंगे।"* इस ग़लत सोच के कारण वे लोग लंबे समय तक परिवार समाज और न्यायालय आदि में भी झगड़ते रहते हैं। वे लोग ऊपर से दिखावा अवश्य करते हैं, कि *"हम बड़े सच्चे हैं, हम ईश्वर भक्त हैं, हम सत्यवादी हैं, हम न्यायप्रिय हैं।"* यह सब दिखावा है। क्योंकि वे दोनों ही जानते हैं, कि *"सत्य क्या है, न्याय क्या है, कौन न्याय की बात कर रहा है, और कौन अन्याय कर रहा है?"* यदि झगड़ने वाले वे दोनों व्यक्ति, अथवा अन्याय करने वाला व्यक्ति, ईश्वर को तथा उसकी न्याय व्यवस्था को ठीक-ठीक जानते समझते होते, तो झगड़ा करते ही नहीं। या झगड़ा होने पर सत्य और न्याय को तुरंत स्वीकार कर के शीघ्र ही झगड़ा निपटा देते। परन्तु उनकी सोच तो अधिकतर यह रहती है, कि *"हम परिवार में, समाज में एक दूसरे को मूर्ख बना लेंगे। न्यायालय में न्यायाधीश महोदय को भी धोखा दे कर मूर्ख बना लेंगे, तथा न्यायाधीश महोदय की भी परीक्षा ले लेंगे, कि देखें, वे कैसे और क्या न्याय करते हैं? कहां तक सत्य को समझ पाते हैं?"* झगड़ने वाले उन दोनों में से, जो अन्यायकारी व्यक्ति होता है, वही अधिकतर ऐसा सोचता है, कि *"देखें ये न्यायाधीश महोदय मेरी गलतियां पकड़ पाते हैं, या नहीं? यदि वे मेरी गलतियों को नहीं पकड़ पाए, तो मैं जीत जाऊंगा। अन्याय करके भी मैं मौज करूंगा। और यदि न्यायधीश महोदय ने मेरी गलतियां पकड़ ली, तो भी रिश्वत आदि देकर छूटने की कोशिश करूंगा। यदि बच गया, छूट गया, तो मेरी मौज होगी। अन्यथा थोड़ा बहुत दंड मिलेगा भी, तो देखा जाएगा। जो भी होगा, तब का तब देख लेंगे, अभी तो मौज कर लूं।"* ऐसा सोच कर वह अन्यायकारी व्यक्ति लंबे समय तक भी न्यायालय में लड़ाई करता रहता है। परंतु वह अन्यायकारी व्यक्ति यह नहीं जानता, कि *"ईश्वर तो हम दोनों व्यक्तियों की सच्चाई को जानता ही है। यदि न्यायाधीश महोदय मेरे अन्याय, चालाकी, धोखाधड़ी आदि को नहीं भी जान पाए, तो भी अंतिम निर्णय तो ईश्वर के न्यायालय में ही होगा। वहां तो मैं ईश्वर को धोखा नहीं दे पाऊंगा, और न ही मैं दंड से नहीं बच पाऊंगा। इसलिए न्यायाधीश महोदय को धोखा देने से कोई लाभ नहीं है।"* यदि वह अन्यायकारी व्यक्ति इतना जानता समझता होता, तो झगड़ा नहीं करता। न्यायालय में लंबा केस भी नहीं चलाता। *"वह सत्य को स्वीकार करके अपना दंड भोग कर शीघ्र ही उस झगड़े को समाप्त कर देता।"* सबको स्मरण रहे, कि *"ईश्वर सबसे बड़ा न्यायाधीश है। वह सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान तथा सब घटनाओं का सबसे अंतिम न्यायाधीश है। उसको धोखा देना असंभव है। क्योंकि वह सर्वत्र व्यापक और चेतन = सर्वज्ञ है। वह सब घटनाओं को स्वयं देखता है। स्वयं ही सबका साक्षी है। सर्वज्ञ होने से उसे कभी भ्रांति भी नहीं होती, और कोई संशय भी नहीं होता। वह सर्वथा निष्पक्ष है। इस कारण से वह सदा सबके साथ ठीक ठीक न्याय ही करता है। कभी भी किसी पर अन्याय नहीं करता।"* *"इसलिए ईश्वर को साक्षी मानकर अपना जीवन जीएं। दूसरों पर अन्याय न करें। अन्यथा ईश्वर के न्यायालय में, न्यायकारी एवं अन्यायकारी सब लोगों का ठीक ठीक न्याय हो जाएगा।" "और तब ईश्वर अन्यायकारी लोगों को इस जन्म में चिंता तनाव भय शंका इत्यादि में डालकर जीवन भर तो दुखी करेगा ही, साथ ही साथ अगले जन्मों में भी सूअर कुत्ता हाथी बंदर शेर भेड़िया वृक्ष वनस्पति सांप बिच्छू भैंस बकरी आदि योनियों में दुख देकर खतरनाक दंड देगा।"* *"अतः बुद्धिमत्ता से काम लेवें। किसी के साथ भी लड़ाई झगड़ा न करें। किसी पर अन्याय न करें। सत्य न्याय और सभ्यता से जीवन को जिएं, इसी में सबका कल्याण है।"*
Vedic vichar
15-07-2022
*"वेदों और ऋषियों के शास्त्रों में बताया गया है कि ईश्वर प्राप्ति कैसे होती है? ईश्वर प्राप्ति का अर्थ है, ईश्वर की अनुभूति करना।" "यूं तो ईश्वर सर्वव्यापक है, अर्थात सब जगह उपस्थित है। प्रत्येक जड़ चेतन पदार्थ के अंदर भी है, और बाहर भी है।"* ऐसा वेदों में बताया है। फिर भी आत्माओं को ईश्वर की अनुभूति नहीं हो पा रही। *"ईश्वर की अनुभूति"* हो जावे, बस इसी का नाम *"ईश्वर प्राप्ति"* है। तो ईश्वर प्राप्ति कैसे होगी? वेद आदि सत्य शास्त्रों में बताया है, कि *"इस के लिए यदि आप अपनी अविद्या का नाश करें। अपने काम क्रोध लोभ ईर्ष्या द्वेष राग अभिमान आदि दोषों का नाश करें, तो आप को ईश्वर की अनुभूति हो सकती है।"* *"इन सब दोषों का नाश किसी फोटो मूर्ति वृक्ष कब्र आदि या ईश्वर के सामने सिर झुकाने से नहीं होता, बल्कि ईश्वर के सामने मन को झुकाने से होता है।"* अर्थात वेदों के अनुसार तीन काम करने से इन दोषों का नाश होता है। *"पहला -- वेदों को पढ़ने से," "दूसरा -- सच्चे निराकार सर्वव्यापक सर्वशक्तिमान न्यायकारी आनन्दस्वरूप ईश्वर की उपासना या ध्यान करने से," "तथा तीसरा -- निष्काम भाव से परोपकार आदि कर्म करने से।"* इसलिए ईश्वर की अनुभूति करने के लिए मनुष्यों को ऊपर बताए गए ये तीन कार्य अवश्य करने चाहिएं। *"ऐसा करने से मनुष्यों को ईश्वर की अनुभूति हो सकती है, और उनका जीवन सफल हो सकता है।"* *"आप भी इन 3 कार्यों को करें, और ईश्वर की अनुभूति करने के मार्ग पर आगे बढ़ें। जैसे जैसे आप इन कार्यों को करते जाएंगे, धीरे-धीरे आपकी उन्नति होती जाएगी। और एक दिन आपको ईश्वर की अनुभूति भी हो जाएगी।"
मानव बन (Vedic vichar)
15-07-2022
यह आज की ज्वलंत समस्या है कि लोग संसार में जी तो रहे हैं परन्तु अधिकांष लोगों को ये मालूम नहीं है, कि वे क्यों जी रहे हैं? क्यों खा रहे हैं? क्यों पी रहे हैं? पढ़ रहे हैं, तो क्यों पढ़ रहे हैं? व्यापार कर रहे हैं तो क्यों कर रहे हैं? इस ‘क्यों’ के प्रश्न का उत्तर लगभग लोगों के पास नहीं है। ‘भगवान ने चार विषेष सुविधाएं दीं’’ भगवान ने हम मनुष्यों को चार विषेष सुविधाएं दीं, ये चार विषेष सुविधाएं और प्राणियों को लगभग नहीं दीं। पहली सुविधा है-बुद्धि। जितनी अच्छी बुद्धि मनुष्यों के पास है और मनुष्य पढ़-लिख के अच्छे काम करके, उत्तम कर्मों का आचरण करके जितना अपनी बुद्धि का विकास कर सकता है, इतना विकास और कोई प्राणी नहीं कर सकता। किसी के पास ऐसी बुद्धि नहीं है। दूसरी सुविधा है-बोलने के लिए-भाषा। मनुष्यों के पास भाषा है। हम इस भाषा के माध्यम से अपनी समस्या दूसरों को बता सकते हैं। दूसरे लोग हमारी समस्या को समझ सकते हैं, उसे सुलझा सकते हैं और हम एक-दूसरे के दुखों को दूर कर सकते हैं। कुत्ते के पेट में दर्द होता हो, तो क्या वो बता सकता है कि मुझे क्या समस्या है? नहीं बता सकता। लेकिन मनुष्य को ये सुविधा प्राप्त है। वो बता सकता है, मेरा सिर दुःखता है, पेट दुःखता है, पांव दुःखता है, क्या दिक्कत है? और डाॅक्टर साहब उसकी समस्या को समझ लेते हैं। उसको दो गोली खिलाते हैं और वो ठीक हो जाता है। इस भाषा की सुविधा के कारण हम कितनी ही विधाओं को सीख लेते हैं। और बहुत अच्छी उपलब्धि कर सकते हैं जीवन में। ऐसी भाषा की सुविधा और प्राणियों के पास नहीं है। तीसरी सुविधा-कर्म करने के लिए दो हाथ भगवान ने हमको दो हाथ दिए हैं। ऐसे हमारे जैसे हाथ दो-चार प्राणियों के पास हैं-बंदर के पास हैं, वनमानुष के पास हैं, गोरिल्ला के पास हैं। ऐसे दो चार प्राणी हैं जिनके हमारे जैसे हाथ होंगे बाकियों के तो हाथ भी नहीं हैं। वो कुछ काम नहीं कर पाते। क्रमशः --- (स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक की पुस्तक " गृहस्थ जीवन को सुखी कैसे बनाएं" से.)
ऋषि दयानन्द का भक्तिवाद. (Vedic vichar)
15-07-2022
-स्मृतिशेष डॉ० भवानीलाल भारतीय ऋषि दयानन्द के धार्मिक तथा सामाजिक सुधार कार्य में अधिक समय रहने तथा उनके राष्ट्रीय जागरण के प्रथम पुरोधा होने के कारण अनेक लोगों में यही धारणा बन गई है कि भारत की आध्यात्मिक चेतना को जगाने तथा भगवत् भक्ति के प्रसार में उनका योगदान अल्प है। ऐसा विचार उन लोगों का है जिन्होंने दयानन्द का सूक्ष्म अध्ययन नहीं किया। गहराई से देखें तो पता चलता है कि दयानन्द का गृहत्याग और संन्यास ग्रहण जिस विशिष्ट लक्ष्य को ध्यान में रखकर हुआ था, उसके पीछे अध्यात्म ज्ञान को प्राप्त करने की उनकी तीव्र ललक ही थी। शिवरात्रि-प्रसंग से उन्होंने सीखा कि निखिल विश्व ब्रह्माण्ड का नियन्त्रण करने वाली सत्ता जड़ नहीं हो सकती। वह कल्याणकारी शिव कौन है? तथा कैसा है जिसकी वंदना वेदों में अनेकत्र मिलती है? अपने घर में घटित हुए मृत्यु प्रसंगों ने उन्हें जिन्दगी और मौत के रहस्य को जानने की प्रेरणा दी। संन्यास ग्रहण करने के पश्चात् उन्होंने अपने योग गुरुओं से उस 'राजयोग' का प्रशिक्षण प्राप्त किया जो समाधि सिद्धपूर्वक परमात्मा का साक्षात्कार कराता है। भावी जीवन में परम देव परमात्मा के प्रति उनका प्रणत भाव सदा रहा। अपने महान् कार्यों की पूर्ति में उन्होंने परमात्मा देव की सहायता की याचना की और आजीवन एक आस्तिक भक्ति का जीवन बिताकर अपने आराध्य के प्रति स्वयं को अपर्ण कर दिया। स्वामीजी की धारणा थी कि धर्म, समाज और राष्ट्र को समुन्नत करने का जो महद् अभियान उन्होंने चलाया है उसमें परमात्मा की प्रेरणा तथा सहायता ही सर्वोपरि रही है। वे परमात्मा के अनन्य उपासक थे। समर्पण भाव को लेकर जगन्नाथ के सूत्रधार के सम्मुख आने वाले से एक ऐसे विनम्र सेवक थे जिन्होंने अत्यन्त भाव प्रवण होकर अपने आराध्य देव से कहा था- "आपका तो स्वभाव ही है कि अंगीकृत को कभी नहीं छोड़ते।" शास्त्रार्थ समर में उतरने से पहले दयानन्द दीर्घकाल तक परमात्मा की उपासना करते थे, मानों अपने आराध्य से सत्य पक्ष की विजय दिलाने की प्रार्थना करते हो। लोकहित के अपने सभी कार्यों और अनुष्ठानों में वे परमात्मा को अपना परम सहायक मानते थे। छः दर्शन शास्त्रों की तर्ज पर कालान्तर में नारद और शाण्डिल्य के नाम से भक्ति सूत्र रचे गए। उनमें सूत्र शैली से भक्ति तथा उसके आनुषंगिक प्रसंगों की विस्तृत मीमांसा प्रस्तुत की गई है। आचार्य शाण्डिल्य ने भक्ति को इस प्रकार परिभाषित किया है- या परा अनुरक्ति: ईश्वरे सा भक्ति:। अर्थात् परमात्मा के प्रति पराकोटि की अनुरक्ति (प्रेम) ही भक्ति है। इन ग्रन्थों में नवधा भक्ति का जो उल्लेख मिलता है उससे अनुमान होता है कि भक्ति सूत्रों की रचना उस युग में हुई थी जब पौराणिक मत का प्रचलन हो चुका था तथा जनता में प्रतिमा पूजन, अवतारवाद आदि की धारणाएं चल पड़ी थीं। इन ग्रन्थों में बृज गोपिकाओं के आदि के सन्दर्भ दिए गए हैं, वे इन्हें पुराणों के परवर्ती काल का होना बताते हैं। ऋषि दयानन्द के परमात्मा की भक्ति और व्यक्ति का मनोनिवेश करने वाला एक ग्रन्थ लिखा था 'आर्याभिविनय' उनका विचार था चारों वेद संहिताओं में प्रत्येक से न्यून से न्यून पचास मन्त्रों को लेकर उनकी भगवत्भक्ति से ओतप्रोत भावपूर्ण व्याख्या की जाये। इस ग्रन्थ में प्रथम तथा द्वितीय प्रकाश (ऋग्वेद के ५३ तथा यजुर्वेद की ५५ मन्त्र युक्त) लिखे गए तथा छपे। अवशिष्ठ साम तथा अथर्ववेद के विनय प्रधान मन्त्रों की परमात्मा की स्तुति है या प्रार्थना, इसका संकेत वे मन्त्रारम्भ में कर देते हैं। ग्रन्थारम्भ के स्वरचित श्लोकों में दयानन्द ने परमात्मा की भावपूर्ण स्तुति की है। सर्वात्मा सच्चिदानन्दोऽनन्तो यो न्यायकृच्छुचि:। भूयात्तमां सहायो नो दयालु: सर्वशक्तिमान्। अर्थात् जो परमात्मा सबका आत्मा, सत्, चित्, आनन्दस्वरूप, अनन्त, अज, न्याय करनेवाला, निर्मल, सदा पवित्र, दयालु, सब सामर्थ्य वाला, हमारा इष्टदेव है, वह हमको सहाय नित्य होवे। साथ ही इन श्लोकों में वे यह संकेत देते हैं कि समस्त लोगों के हित तथा परमात्मा के ज्ञान के लिए वे मूल मन्त्रों के साथ-साथ उनको लोक-भाषा में व्याख्यान जन साधारण को बोध कराने के लिए दे रहे हैं। दयानन्द की सम्मति में जो ब्रह्मविमल, सुखकारण, पूर्णकाम, तृप्त, जगत् में व्याप्त है वही वेदों से प्राप्य है। जिसके मन में इस ब्रह्म की प्रकटता (यथार्थ ज्ञान) है, वही मनुष्य ईश्वर का आनन्द का भागी है और वही सदैव सबसे अधिक सुखी है। ऐसे मनुष्य को धन्य मानना चाहिए। इन प्रास्वाविक श्लोकों से हमें दयानन्द के भक्तिवाद को समझने में सहायता मिलती है। आर्याभिविनयम् की रचना केवल ईश्वर भक्ति में लोगों को नियोजन करने के लिए ही की गई हो, ऐसी बात नहीं है। दयानन्द मध्यकाल के अनेक भक्तों की भांति लोगों को भाग्यवाद तथा पुरुषार्थहीनता का पाठ पढ़ाने वाले नहीं थे। यही कारण है कि आर्याभिविनय में एक और प्रभुभक्ति तथा अपने आराध्य के प्रति समर्पण की भावना दिखाई पड़ती है। तो साथ ही उस- 'राजाधिराज परमात्मा' से स्वराज्य तथा आर्यों (सत्पुरुषों) के अखण्ड चक्रवर्ती साम्राज्य की याचना भी की गई है। परमात्मा के प्रति दयानन्द की अनन्य प्रीति को देखना चाहें तो इस ग्रन्थ में सर्वप्रथम व्याख्यात ऋग्वेद के मन्त्र 'शं नो मित्र: शं वरुण:' की व्याख्या के आरम्भ में परमात्मा के प्रति किए गए सम्बोधनों की छटा को देखें। यहां न्यूनातिन्यून २७ सम्बोधनों से दयानन्द ने अपने आराध्य परमात्मा देव को सम्बोधित किया है। इसमें से अनेक सम्बोधनों में अनुप्रास प्रधान शब्दों का सौन्दर्य दर्शनीय है। यथा- विश्वविनोदक, विनियविधीप्रद, विश्वासविलासक तथा निर्मल, निर्सह, निरामय, निरुप्रदव आदि एक ओर यदि परमात्मा को 'सज्जन सुखद' कहा तो साथ ही उसे 'दुष्ट सुताड़न' कहना भी वे नहीं भूले। दयानन्द की दृष्टि में परमात्मा चतुर्विध पुरुषार्थ के प्रदाता हैं- वे यदि धर्म सुप्रापक हैं तो अर्थ-सुधारक तथा सुकामवर्द्धक भी हैं। मोक्ष प्रदाता तो वे हैं ही- यदि वे 'राज्य विधायक' हैं तो 'शत्रु विनाशक' भी हैं। वस्तुतः इस ग्रन्थ को लिखकर दयानन्द ने भारत के भक्ति सिद्धान्तों में एक नूतन क्रान्ति की थी, अतः दयानन्द के भक्तिवाद का तात्त्विक अध्ययन अपेक्षित हैं। इस ग्रन्थ के अन्य मन्त्रों के व्याख्यानों में उन्होंने परमात्मा के लिए जो सम्बोधन सूचक शब्द लिखे हैं, वे भी व्यंजनापूर्ण हैं। जब वे परमात्मा को 'महाराजाधिराज परमेश्वर' कहकर सम्बोधित करते हैं तो उनकी प्रार्थना होती है- 'हमको साम्राज्याधिकारी सद्द: कीजिए'। उनकी विनय है कि हम सुनीतियुक्त हों जिससे कि हमारा स्वराज्य अत्यन्त बढ़े (प्रार्थना सं० १७)। 'वय' जयेम त्वया युजा' (ऋ० १/१०२/४) मन्त्र की व्याख्या के आरम्भ में उन्होंने परमात्मा को 'महाधनेश्वर' (मधवन्) तथा 'महाराजा धिराजेश्वर' कहकर पुकारा तथा उसने चक्रवर्ती राज्य और साम्राज्य (रूपी) धन को प्राप्त कराने की प्रार्थना की। यह ईश्वरभक्त दयानन्द ही है जो परमात्मा से आर्यों के अखण्ड भी विनय करता है कि 'अन्य देशवासी' राजा हमारे देश में कभी न हों तथा हम लोग पराधीन कभी न हों। (यजुर्वेद के मन्त्र ३७/१४ 'इषे पिन्वस्व ऊर्जे पिन्वस्व' की व्याख्या में) सामान्यतया भक्त अपने आराध्य से सुख, सौभाग्य, आरोग्य, धन-धान्य, कीर्ति, ऐश्वर्य आदि की याचना करता है। दयानन्द ने अपने परमात्मा से देश के लिए स्वराज्य तथा शिष्टजनों (आर्यों) के साम्राज्य की याचना के प्रति जो सम्बोधन शब्द प्रयोग किये हैं वे भी विशिष्ट अर्थवता लिये हैं। शतक्रतों (अनन्त कार्येश्वर), महाराजाधिराज परमेश्वर, सौख्य-सौख्य-प्रदेश्वर, सर्वविद्ययम आदि। वस्तुतः अनन्त गुणों वाले परमात्मा के सम्बोधन भी अनन्त ही होंगे। परमात्मा की भक्ति दिखाने की वस्तु नहीं है। मध्यकाल में मूर्तिपूजा, नाम जप, तिलक, कण्ठी-छाप आदि साम्प्रदायिक प्रतीकों के धारण को भक्ति का साधन माना गया था। दयानन्द की सम्मति में परमात्मा के विविध गुणों के वाचक शब्दों के उल्लेखपूर्वक उस परम सत्ता को नमन करना ही उसकी भक्ति का उत्कृष्ट रूप है। यदि हम उनके द्वारा रचित ग्रन्थों के आरम्भ के मंगलसूचक वाक्यों को देखें तो ज्ञान होगा कि स्वामीजी के लिए परमात्मा क्या है? और कैसा है? यहां कुछ ऐसे ही ग्रन्थारम्भ में लिखे गए नमस्कार विषयक वाक्य दिए जा रहे हैं। जो दयानन्द की दृष्टि में परमात्मा के स्वरूप तथा गुणों के ज्ञापक हैं- १. ओ३म् सच्चिदानन्देश्वराय नमो नम: -सत्यार्थप्रकाश २. ओ३म् तत्सत्परब्रह्मणे नम: -आर्याभिविनय ३. ओ३म् ब्रह्मात्मे नम: -वर्णोच्चारण शिक्षा ४. ओ३म् खम्ब्रह्मा -काशी शास्त्रार्थ ५. ओ३म् खम्ब्रह्मा -सत्यधर्म विचार ६. गोकरुणानिधि में परमात्मा का स्मरण इस प्रकार किया गया है। 'ओ३म् नमो विश्वम्भराय जगदीश्वराय' इसमें दयानन्द का भाव यह है कि जो विश्वभर में है वही तो गो आदि उपयोगी प्राणियों का भरण-पोषण करने का भी सामर्थ्य रखता है। जो ईश्वर सर्वशक्तिमान् है उसमें गौ आदि की रक्षा करने का भी सामर्थ्य है। ७. ओ३म् नमो निर्भ्रमाय जगदीश्वराय -अनुभ्रामोच्छेदन वेद के निर्भ्रान्त ज्ञान को देनेवाला परमात्मा स्वयं निर्भ्रम है। ऐसे सार्थक नमस्कार वाक्य लेखन की परमात्मा के प्रति सच्ची भक्ति दर्शाते हैं। [स्त्रोत- आर्य जगत् : आर्य प्रादेशिक प्रतिनिधि सभा का साप्ताहिक पत्र का ८-१४ मार्च, २०२० का अंक; प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ]
Vedic vichar
14-07-2022
*"जीवन में अच्छी परिस्थितियां भी आती हैं, और खराब भी। सुख देने वाली परिस्थितियां भी आती रहती हैं, और दुख देने वाली भी।"* अनेक बार लोग दिन भर तो अपने कार्यों में उलझे रहते हैं। उन्हें समस्याओं पर सोचने विचारने चिंतन करने का उतना समय नहीं मिल पाता। *"और जब रात को वे बिस्तर पर सोने के लिए जाते हैं, तब उन्हें थोड़ा समय मिलता है। तब वे अपने जीवन की परिस्थितियों पर चिंतन करने लगते हैं।" "बहुत से लोग रात्रि में खराब परिस्थितियों पर चिंतन आरंभ कर देते हैं, जो उनके अपने व्यक्तिगत जीवन में होती हैं, परिवार में, समाज में, या देश में होती हैं।" "उन खराब एवं दुखदायक परिस्थितियों पर रात्रि में सोते समय आप चिन्तन न करें। यदि आप रात्रि को सोते समय चिंतन करेंगे, तो आपकी नींद अवश्य ही बिगड़ जाएगी। फिर आपको अच्छी नींद नहीं आएगी। हो सकता है, उसकी चिंता में 1 या 2 घंटे तक नींद आए ही नहीं।" "तब आप की दिनचर्या बिगड़ेगी। ठीक प्रकार से आप का रात्रि का विश्राम भी नहीं हो पाएगा, और अगले दिन सुबह आप स्वस्थ प्रसन्न एवं चुस्त हो कर उठ नहीं पाएंगे।"* इसलिए इस बात का विशेष ध्यान रखें, कि *"रात को सोते समय किसी खराब परिस्थिति या किसी समस्या पर चिंतन न करें, ताकि आप ठीक ढंग से सो पाएं, और पूरा विश्राम करें। गहरी नींद ले कर दिन भर की थकान को दूर कर पाएं।"* *"फिर अगले दिन सुबह स्वस्थ प्रसन्न चुस्त होकर जब आप उठेंगे, तब अपनी दिनचर्या आदि पूरी करके सुबह 9/10 बजे के बाद, अथवा दोपहर में या शाम को, जब भी कभी उचित समय मिले, तब चिंतन करें। तब उस समस्या का समाधान ढूंढ कर उसे दूर करने के लिए पुरुषार्थ करें।"* यदि आप रात को सोते समय चिंतन करेंगे, तब रात में आप परिस्थितियों में कोई सुधार तो कर नहीं पाएंगे, क्योंकि वह तो सोने का समय है। *"फिर रात को चिंतन करने से क्या लाभ? कुछ लाभ नहीं। बल्कि हानि तो हो सकती है, जैसा कि ऊपर बताया है, आपकी नींद बिगड़ेगी।"* *"इसलिए सुबह, दोपहर में या शाम को जब भी अनुकूल समय मिले, तब उन समस्याओं पर चिंतन करें। यदि कुछ समाधान निकल आए, तो दिन में उस पर पुरुषार्थ करें, जिससे कि वह समस्या हल हो जाए। रात को सोते समय तो कोई अच्छा विचार लेकर, फिर 5 मिनट ईश्वर का ध्यान करके सोएं, जिससे कि आपका उत्साह बना रहे और अच्छी नींद आ जाए।"*
Vedic vichar
14-07-2022
*"यह संसार एक धर्मशाला के समान है। जैसे धर्मशाला में लोग आते हैं, 2/4 दिन रहते हैं, और फिर अपनी अगली या वापसी यात्रा पर चल देते हैं।" "इसी प्रकार से लोग संसार में आते हैं, 50/60/80 वर्ष तक यहां पर रहते हैं, और अपनी अगली या वापसी यात्रा पर चल देते हैं, अर्थात संसार छोड़ कर चले जाते हैं।"* *"जैसे लोग धर्मशाला में जाते हैं, 2/4 दिन रहते हैं। वहां अपने पड़ोसियों के साथ लड़ाई झगड़ा नहीं करते। बल्कि उनको कुछ न कुछ सहयोग देते ही हैं। कुछ कुछ सहयोग लेते भी हैं। परंतु वे जो भी व्यवहार करते हैं, प्रेमपूर्वक करते हैं।"* धर्मशाला में रहने वाले वे सभी लोग जानते हैं, कि *"हम यहां 2/4 दिन के अतिथि हैं, स्थाई रूप से यहां नहीं रहेंगे। इस कारण से वे लोग प्रेमपूर्वक रहते हैं, और आपस में लड़ाई झगड़ा नहीं करते।"* यदि संसार में रहने वाले लोग भी, संसार को धर्मशाला के समान स्वीकार कर लें, और ऐसा सोच लें, कि *"कुछ समय तक ही तो यहां रहना है, फिर एक दिन तो यहां से वापस जाना ही है। हमारी वापसी का दिन भले ही निश्चित न हो, फिर भी वापस जाने का टिकट तो कन्फर्म ही है। बस उसकी तारीख निश्चित नहीं है।" "न जाने किस दिन संसार से जाना पड़ जाए। तब सब कुछ यहीं छोड़कर जाना होगा।" "जो हमें यहां धन संपत्ति आदि सुविधाएं मिली हुई हैं, ये सब भी पूर्व जन्म के कुछ कर्मों का फल है। वे कर्म भी हमने केवल अपनी शक्ति से नहीं किए थे, बल्कि ईश्वर के दिए हुए शरीर मन बुद्धि विद्या आदि साधनों से किए थे। इसलिए इन कर्मों के फलस्वरूप प्राप्त हुई इन संपत्तियों पर भी हमारा पूरा स्वामित्व (अधिकार = मालिकी) नहीं है। इन संपत्तियों का "प्रयोग करने का थोड़ा सा अधिकार मात्र" हमें ईश्वर ने दिया है, पूरा स्वामित्व नहीं। न ही हम इन्हें अपने साथ अगले जन्म में ले जा पाएंगे। इसलिए न तो हमारा कुछ है, और न ही दूसरों का। सबको, सब कुछ ईश्वर का दिया हुआ है। तो ईश्वर की दी हुई संपत्तियों पर हम आपस में क्यों झगड़ें? बल्कि ईश्वर से मिली इन सुविधाओं का चुपचाप लाभ ले लेना चाहिए, और शांति से जीवन जीना चाहिए।"* *"बस, इतना यदि संसार के लोग समझ लें, तो आपस के लड़ाई झगड़े ईर्ष्या द्वेष छीन झपट लोभ क्रोध अभिमान आदि सारी समस्याएं दूर हो जाएंगी, और संसार में प्रेममय उत्तम वातावरण बनेगा, जैसा कि धर्मशाला में होता है।"*
Vedic vichar
14-07-2022
*"लोग एक दूसरे की प्रसन्नता के लिए, अपने संबंधों को मजबूत तथा प्रेममय बनाए रखने के लिए, एक दूसरे को अच्छी अच्छी वस्तुएं भेंट (गिफ्ट) में देते हैं। अच्छी-अच्छी महंगी महंगी गिफ्ट देते हैं। ताकि दूसरा व्यक्ति उस गिफ्ट को प्राप्त करके प्रसन्न हो जाए, और गिफ्ट देने वाले के प्रति प्रेमभाव बनाए रखे।"* लोग ऐसा प्रेमभाव क्यों बनाए रखना चाहते हैं? इसका उद्देश्य यही होता है कि *"भविष्य में वे एक दूसरे से सहायता लेते देते रहेंगे।" "यह अच्छी बात है। गिफ्ट देने में कोई बुराई नहीं है, देनी चाहिए। आपस के संबंध मधुर एवं सुदृढ़ होने चाहिएं। यह सब के भविष्य के लिए उत्तम है, सुखदायक है।"* *"बहुत से धनवान लोग ऊंची कीमत की गिफ्ट तो देते हैं, परंतु जब दूसरा व्यक्ति (पति पत्नी, या कोई मित्र आदि) कभी किसी विशेष परिस्थिति में, या दैनिक व्यवहार में भी उनके प्रति प्रेम और सद्भाव की अपनी भावनाएं व्यक्त करता है, तो वे अपने धन एवं अभिमान के नशे में चूर, उसकी भावनाओं का मूल्य नहीं समझते।"* उसको उतना महत्त्व नहीं देते। और केवल इसी बात का महत्त्व समझते हैं, कि *"मैंने इसको इतनी महंगी गिफ्ट दी थी।" "ऐसे लोग भले ही धनवान हों, पठित हों, किसी उच्च पद पर आसीन भी हों, फिर भी वे जीवन व्यवहार में असफल हो जाते हैं।" क्योंकि "जितनी महंगी गिफ्ट आपने दी थी, उस पर आपने केवल पैसा खर्च किया, जिसका मूल्य भावनाओं से कम है।" "यदि आप दूसरे की भावनाओं को भी समझते, जिसका मूल्य धन से अधिक है, और उसी हिसाब से उसको सम्मान देते, तो यह उस महंगी वस्तु से भी बड़ी गिफ्ट होती।" "अब आपने भावनाओं के सम्मान वाली महंगी गिफ्ट तो दी नहीं। ऊंची कीमत वाली वस्तु रूपी सस्ती गिफ्ट दी। इसलिए व्यवहार में आप फेल हो गए।"* *"वेदों और ऋषियों के ग्रंथों के अनुसार वास्तव में धन का मूल्य कम है, और सम्मान का मूल्य अधिक है।" जिन लोगों के पास पैसे कम हैं, इस कारण से वे, सुदामा की तरह, भले ही सस्ती कीमत की साधारण सी वस्तु गिफ्ट में देते हों, परंतु दूसरे की भावनाओं का पूरा सम्मान करते हैं। उनकी भावनाओं को समझ कर उनके साथ उचित व्यवहार करते हैं, वे लोग अपने जीवन में सफल हो जाते हैं।"* *"इसलिए महंगी गिफ्ट की अपेक्षा दूसरे व्यक्ति की भावनाओं को अधिक महत्व दें। दूसरों की भावनाओं को समझें और उन्हें यथायोग्य सम्मान देकर उनके साथ न्यायपूर्ण उचित व्यवहार करें। जैसा श्रीकृष्ण जी महाराज ने किया। वही आपकी सबसे उत्तम भेंट या गिफ्ट मानी जाएगी। इससे आपका संबंध बहुत अधिक मजबूत और सुखदायक बनेगा।"*
Vedic vichar
14-07-2022
*"सही ढंग से सोचना' संसार में सबसे बड़ी कला है। इस कला को सब लोग नहीं जानते।"* बल्कि ऐसा कहना चाहिए कि, *"अधिकांश लोग नहीं जानते। बहुत कम लोग ऐसे हैं, जो सही ढंग से सोचना जानते हैं।"* आप जानना चाहेंगे कि *"सोचने का सही ढंग क्या है?"* इसका उत्तर है *"प्रमाण और तर्क से सोचना।" "जो व्यक्ति प्रमाण और तर्क से संसार की वस्तुओं के विषय में विचार करता है, और उनके गुण कर्म स्वभाव को ठीक-ठीक जान लेता है। वही व्यक्ति ठीक प्रकार से सोच सकता है।"* *"संसार की वस्तुओं में से कुछ वस्तुएं अनित्य अर्थात नाशवान हैं। जैसे अपना शरीर, दूसरों का शरीर, धन संपत्ति पुत्र परिवार मकान मोटर गाड़ी इत्यादि वस्तुएं नाशवान हैं। एक न एक दिन ये नष्ट हो जाएंगी, ये सदा नहीं रहेंगी।" "तथा आत्मा परमात्मा और मूल प्रकृति, ये तीन वस्तुएं नित्य हैं। ये सदा रहेंगी, कभी भी नष्ट नहीं होंगी।"* तो प्रमाण तथा तर्क से पहले यह जान लेना चाहिए, कि कौन सी वस्तु कैसी है, अर्थात कौन सी वस्तु नित्य एवं कौन सी अनित्य है। *"उसे ठीक-ठीक जानकर फिर उस आधार पर ही व्यक्ति को चिंतन करना चाहिए और अपने जीवन को जीना चाहिए।"* यदि कोई व्यक्ति इस कला को सीख ले, तो वह सही ढंग से चिंतन करेगा। *"जो वस्तुएं अनित्य अर्थात नष्ट होने वाली हैं, उनकी रक्षा तो अवश्य करेगा, उन वस्तुओं से लाभ भी उठाएगा, परंतु किसी दिन उनके नष्ट होने पर वह दुखी नहीं होगा।"* हमेशा मन में तैयारी रखेगा, कि *"ये वस्तुएं नाशवान हैं, कभी भी नष्ट हो सकती हैं। यदि किसी दिन नष्ट हो गई, तो मैं दुखी नहीं होऊंगा। क्योंकि इनका स्वभाव ही ऐसा है। इनका नाश होने से इनको कोई बचा नहीं सकता।"* बस यही कला है, सही ढंग से सोचने की। इस कला से सोचिए। *"जिस घटना को आप रोक सकते हैं, उसे रोकने का प्रयास अवश्य कीजिए। सदा सकारात्मक चिंतन रखिए, और जीवन का आनंद लीजिए।" "व्यर्थ की आशंकाएं बार-बार मत कीजिए," कि "कहीं ऐसा न हो, कहीं ऐसा न हो। जिस घटना को आप रोक नहीं सकते, वह तो होगी ही। फिर व्यर्थ में उसकी चिंता कर करके अपना तनाव क्यों बढ़ाते हैं?" "इस गलत पद्धति को छोड़ दें, अन्यथा आप डिप्रेशन में चले जाएंगे।" "ऊपर बताई ठीक पद्धति का अनुसरण करें। अर्थात सदा सकारात्मक चिंतन रखें, पुरुषार्थी बनें। जो सत्य, प्रमाण और तर्क से सिद्ध हो जाए, उसे स्वीकार करें। सावधानी से जीवन जीएं, और सदा प्रसन्न रहें।"*
Vedic vichar
14-07-2022
कितनी सरल सी बात है, सभी जानते हैं कि *"यदि नींव गहरी न हो, तो उस पर मजबूत दीवारें खड़ी नहीं हो सकती। छोटी सी नींव पर यदि दीवारें खड़ी कर भी दें, तो उस पर मजबूत छत नहीं टिक सकती। और जैसे तैसे छत भी बना दें, तो थोड़े से झटके से ही वह छत और दीवारें गिर जाएंगी। परिणाम -- मकान टूट जाएगा।"* *"इसी प्रकार से यदि आपको अपने संबंधों को मजबूत बनाना हो, तो उन संबंधों की नींव भी गहरी और मजबूत होनी चाहिए।"* गहरी और मजबूत नींव का अर्थ है, *"एक दूसरे पर विश्वास रखना।" "चाहे कोई भी दो व्यक्ति हों, पति पत्नी हों, माता पिता हों, भाई-बहन हों, दो भाई हों, दो बहनें हों, दो मित्र हों, दो पड़ोसी हों, ग्राहक और दुकानदार हों अथवा कोई भी दो व्यक्ति हों, उनका संबंध तभी टिक पाएगा, जब उन दोनों में आपस में "एक दूसरे पर विश्वास हो।" "यही संबंध की उत्तम मजबूत गहरी नींव है। इस आपसी विश्वास के बिना कोई संबंध बहुत दिनों तक नहीं टिक पाएगा।"* शुरू शुरू में दो व्यक्तियों में कुछ अधिक परिचय नहीं होता। *"नए-नए परिचय में व्यक्ति अपने अंदर बहुत से गुण होने का दिखावा भी कर लेता है। उस दिखावे के कारण थोड़ा संबंध भी बन जाता है। परंतु कुछ ही समय में दोष भी सामने आने लगते हैं। जैसे जैसे दोष सामने आने लगते हैं, वैसे वैसे परस्पर प्रेम कम होता जाता है। और यदि वे दोनों व्यक्ति अपने अपने दोषों को दूर न करें, सत्य को स्वीकार न करें, झूठा व्यवहार करें, तो उनमें परस्पर विश्वास कम हो जाता है। और कुछ समय बाद वह संबंध टूट जाता है।"* इसलिए यदि कोई भी दो व्यक्ति अपने संबंध को लंबे समय तक टिकाना चाहते हों, तो उनके संबंध की नींव मजबूत होनी चाहिए, अर्थात् उन्हें एक दूसरे पर विश्वास होना चाहिए। *"इस एक दूसरे पर विश्वास करने का आधार है, आपस में सत्यग्राही होना। अतः सत्यग्राही बनें, हठधर्मिता छोड़ें। एक दूसरे का विश्वास जीतें, तभी आपका संबंध लंबे समय टिक पाएगा।"*
Vedic vichar
14-07-2022
*"मनुष्य को भगवान ने बहुत सी वस्तुएं विशेष दी हैं, जो अन्य सब प्राणियों को नहीं दी। उनमें से एक विशेष वस्तु है वाणी, अर्थात बोलने के लिए भाषा।"* *"यदि मनुष्य चाहे, तो इस भाषा अथवा वाणी का सदुपयोग करके सब का मन/हृदय जीत सकता है। और यदि मनुष्य मूर्खता करे, तो इस वाणी का दुरुपयोग करके, सबको अपना शत्रु बना कर, अपना सर्वनाश भी कर सकता है।"* विद्वानों ने कहा है, कि *"यदि आप एक ही कर्म से संसार को अपने वश में करना चाहते हों, तो मीठी एवं सत्य वाणी बोलें।"* और यदि आपने अपनी वाणी पर संयम नहीं किया, कठोर भाषा बोली, झूठ बोला, निंदा चुगली की, तो *"यह उत्तम गुणों से युक्त वाणी ही, कठोर भाषा बोलने पर आपका सर्वनाश कर देगी। आप इस वाणी का दुरुपयोग करके सबको अपना शत्रु बना लेंगे।"* अब आप पढ़े लिखे व्यक्ति हैं। समझदार हैं, छोटे बच्चे नहीं हैं। इस बात को अच्छी प्रकार से समझें। वाणी का सदुपयोग करें। सबका मन जीत लेवें और आनंद से रहें। *"यदि आप अपनी वाणी का, वीणा के समान सुंदर प्रयोग करेंगे, तो आप के और सबके जीवन में संगीत उत्पन्न होगा। यदि इस वाणी का दुरुपयोग करके इसको बाण बना देंगे, तो युद्ध होगा, जिससे आपकी तथा दूसरों की हानि होगी।"* *"और जब आप कठोर वाणी बोलकर दूसरों की हानि करेंगे, तो क्या दूसरे लोग चुपचाप बैठे रहेंगे? वे आपको माफ़ कर देंगे? वे भी आपको नहीं छोड़ेंगे, और वैसा ही उत्तर देंगे।"* इस का परिणाम क्या होगा? *"आपका भी सर्वनाश हो जाएगा। इसलिए अपने विनाश को आमंत्रण न देवें, बल्कि वाणी का सदुपयोग करके अपने और दूसरों के जीवन में संगीत उत्पन्न करें।"*
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14-07-2022
*"कुछ लोग ऐसे होते हैं, जिन्हें कभी भी अपनी परिस्थितियों से संतोष नहीं होता। वे हर परिस्थिति में दुखी रहते हैं। बहुत से लोग अपनी परिस्थितियों से समायोजन करके जैसे तैसे ख़ुशी से अपना जीवन जी लेते हैं।"* *"परंतु कभी-कभी जीवन में ऐसे संयोग भी बन जाते हैं, जब अच्छी भावना वाले, विनम्रता सभ्यता बुद्धिमत्ता सेवा परोपकार दान दया आदि गुणों से युक्त कुछ अच्छे लोग मिल जाते हैं। यदि आपके अंदर भी वैसे ही संस्कार हों, तो आपका उनके साथ तालमेल बैठ जाता है।"* यदि आपको सौभाग्य से ऐसे लोग मिल जाते हैं, जिनके साथ आपके गुण कर्म स्वभाव की समानता हो, तो धीरे धीरे आपकी उनके साथ मित्रता इतनी पक्की हो जाती है, कि फिर वह जीवन भर कभी टूटती नहीं, और सदा चलती रहती है। *"तो आप जैसे लोग बहुत ही प्रसन्न एवं आनन्दित रहते हैं। वास्तव में आप बड़े भाग्यशाली हैं, कि आप को अच्छे लोग मिल गये।"* *"परन्तु दूसरे वर्ग में, कुछ मूर्ख दुष्ट और दुरभिमानी लोग होते हैं, जिन्हें ऊपर बताए गुणों वाले अच्छे लोग मिल तो जाते हैं। लेकिन वे अपनी मूर्खता दुष्टता और दुरभिमान के कारण उन अच्छे लोगों से लाभ नहीं उठा पाते, और सारा जीवन उनसे जलते भुनते और दुखी रहते हैं।"* *"आप भी अपना परीक्षण निरीक्षण करें,कि आप कौन से वर्ग में है। पहले वर्ग में? या दूसरे वर्ग में? यदि आप दूसरे वर्ग में हों, तो अपने गुण कर्म स्वभाव को बदल कर पहले वर्ग में आने का प्रयत्न करें। आपका जीवन सफल हो जाएगा, और अलग ही ढंग से चमकेगा।"*
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14-07-2022
*"अनुकूल तथा प्रतिकूल परिस्थितियां किसके जीवन में नहीं आती? सबके जीवन में आती हैं।" "कभी परिस्थितियां अनुकूल होती हैं, तो कभी प्रतिकूल होती हैं। अनुकूल परिस्थितियां सुख देती हैं, और प्रतिकूल परिस्थितियां दुख देती हैं। निराशा अवसाद चिंता तनाव आदि को उत्पन्न करती हैं।"* *"जब दूसरे लोग आपकी बात को समझते हैं, आपको सहयोग देते हैं, आपको चारों ओर से प्रसन्नता मिलती है, धन संपत्ति एवं सब प्रकार से सुख सामग्री मिलती है, तो ऐसी स्थिति को अनुकूल परिस्थिति कहते हैं।" "और जब इससे उल्टी स्थिति होती है। लोग आपकी बात को समझते नहीं, आपको कोई सहयोग देते नहीं, कोई समर्थन नहीं करता, कोई धन सम्मान नहीं देता, कोई नौकरी नहीं देता, कोई प्रोत्साहन नहीं देता, तो ऐसी स्थिति को प्रतिकूल परिस्थिति कहते हैं।"* अनुकूल परिस्थिति में व्यक्ति प्रसन्न होता है। और जब परिस्थिति प्रतिकूल होती है, तब वह दुखी उदास निराश परेशान होता है। *"आजकल की भाषा में कहें, तो वह टूट जाता है। कोई बात नहीं। आप के जीवन में परिस्थितियां जैसी भी हों, कभी भी उदास निराश नहीं होना चाहिए। क्योंकि उदास निराश होने से तो काम और भी अधिक बिगड़ता है।" "इसलिए जब भी प्रतिकूल परिस्थितियां हों, तो शांत मन से एकांत में बैठकर ईश्वर से शक्ति मांगनी चाहिए। धैर्य और साहस की प्रार्थना करनी चाहिए। ऐसी स्थिति में ईश्वर आपका साथ अवश्य देगा। वह कभी भी साथ नहीं छोड़ता, यदि आप ढीले न हो जाएं तो।" "ये प्रतिकूल परिस्थितियां एक प्रकार से आप की परीक्षा के रूप में हैं। ये प्रतिकूल परिस्थितियां यदि आप को तोड़ती हैं, तो मज़बूत भी बनाती हैं। बस, शर्त इतनी सी है कि आप अपना उत्साह छोड़ न दें।"* *"इसलिए सदा उत्साह बनाए रखें। ईश्वर की शक्ति को अपने साथ जोड़ें। फिर से उत्साह से पुरुषार्थ करें।" "धीरे-धीरे समाज के लोग फिर आपकी स्थिति को समझने लगेंगे। आप को समर्थन देंगे। आपका सहयोग करेंगे। और फिर से परिस्थितियां अनुकूल हो जाएंगी।" "बस इसी का नाम जीवन है। इसमें ऐसे उतार-चढ़ाव सदा आते रहते हैं। इनसे घबराएं नहीं। पूरी शक्ति एवं उत्साह के साथ इनसे संघर्ष करें, आप अवश्य ही जीत जाएंगे।"*
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14-07-2022
मनुष्य अल्पज्ञ और अल्पशक्तिमान है। इसलिए कहीं न कहीं वह गलतियां कर बैठता है। कुछ गलतियां अनजाने में हो जाती हैं, और कुछ गलतियां वह जानबूझकर भी कर देता है। *"क्योंकि उसमें बहुत सा स्वार्थ मूर्खता हठ दुराग्रह क्रोध लोभ ईर्ष्या अभिमान आदि दोष रहते हैं। इन दोषों के कारण वह जाने अनजाने बहुत सी गलतियां करता रहता है।"* प्रायः व्यक्ति अपनी गलतियों को स्वीकार करना नहीं चाहता। *"क्योंकि जब वह अपने अंदर ग़लती देखता है, तो उसे अपमान महसूस होता है। स्वयं को कोई व्यक्ति अपमानित करना नहीं चाहता। इसलिए वह अपने दोषों/गलतियों को प्रायः नहीं देखता। कभी-कभी दोष दिख जाते हैं, तो उनकी उपेक्षा करता है। अनेक बहानों से उनका पोषण करता है।"* वह सोचता है, *"यह तो छोटी सी गलती है. ऐसी तो सभी लोग करते हैं. मैं भी कर लूंगा, तो क्या फर्क पड़ेगा?" "इसलिए वह अपनी गलती को कोई बड़ी गलती नहीं मानता, और उसे दूर नहीं करता।" स्मरण रहे, "गलती छोटी हो या बड़ी, वह सदा दुख ही देगी। किसी भी ग़लती को छोटा न समझें। आज की छोटी गलती कल बड़ी हो जाएगी। और वह कभी न कभी भयंकर दुख देगी।"* एक दिन एक व्यक्ति ने मुझसे पूछा, कि *"मनुष्य चोरी, व्यभिचार, धोखाधड़ी आदि गलतियां क्यों करता है?" मैंने उसे उत्तर दिया, "क्योंकि गलतियां करने में उसे सुख मिलता है। यदि सुख न मिलता होता, तो वह ऐसी या अन्य गलतियां करता ही क्यों?" "यह तो जब बाद में दंड मिलता है, तब वह पश्चाताप करता है," कि "मैंने ऐसी गलती क्यों की! मैं न करता, तो अच्छा होता।" "हां, यह सत्य है। यदि यह निर्णय उसी दिन उसी समय वह कर लेता, तो अच्छा होता। तो उसे आज यह दंड और दुख न भोगना पड़ता। और न ही पश्चाताप करना पड़ता।"* *"परंतु उस समय तो वह अविद्या और अभिमान के नशे में चूर था। इस कारण से तब उसने अपने दोषों से संधि समझौता कर लिया था।" "बस यही उसकी सबसे बड़ी ग़लती थी। उसी समय उसको यह निर्णय करना चाहिए था," कि "मैं जो ग़लती कर रहा हूं, मुझे कभी न कभी इसका दंड भोगना पड़ेगा। मैं दंड भोगना नहीं चाहता। इसलिए मैं आज यह ग़लती नहीं करूंगा।"* *"अब वह स्वयं तो अविद्या और अभिमान आदि दोषों के कारण, अपनी गलतियां देखता नहीं। जब दूसरे लोग उसे उसकी गलतियां बताते हैं, तो वह मानने को तैयार नहीं होता, कि मैं गलती पर हूं। इसलिए उसकी गलतियां सुधरती नहीं।"* *"कृपया आप भी ईमानदारी से अपना आत्म निरीक्षण करें। यदि आपको अपने अंदर गलतियां मिलें, अथवा दूसरे लोग आपको गलतियां बताएं, तो उन्हें स्वीकार करें। उनको दूर करके दंड और पश्चाताप से बचें, तथा आनंद से जीवन को जिएं। अन्यथा जीवन भर दुखी रहेंगे।"*
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14-07-2022
मनुष्य के कुछ कर्तव्य होते हैं, उनका पालन करना चाहिए। जैसे विद्यार्थी का कर्तव्य है, *"वह मन लगाकर पढ़ाई लिखाई करे। प्रतिदिन ईश्वर का ध्यान करे। यज्ञ हवन करे। व्यायाम करे। घर में माता पिता के और गुरुकुल में गुरुजनों के अनुशासन में चले। अपनी मनमानी न करे।"* गृहस्थ के कुछ कर्तव्य होते हैं, *"वह ईमानदारी मेहनत और बुद्धिमत्ता से धन कमाए। अपने परिवार/बच्चों का पालन पोषण करे। अपने बड़े बुजुर्गों की सेवा भी करे।"* इसी प्रकार से वानप्रस्थी के भी कर्तव्य हैं, *"वह घर से दूर वन में किसी आश्रम में रहे। वेदों का स्वाध्याय अध्ययन करे। ईश्वर का ध्यान करे। मोह माया को कम करते हुए वैराग्य को बढ़ावे।"* और इसी प्रकार से संन्यासी के भी कुछ कर्तव्य हैं। *"वह पक्षपात रहित सत्य न्याय का आचरण करे। वेदों का प्रचार करे। सदा सत्य ही बोले। सर्वहित को ध्यान में रखकर सब कार्य करे।"* इस प्रकार से ईश्वर ने चारों आश्रमों के लिए कुछ कर्तव्य बताए हैं। *"इसी प्रकार से गरीबों अनाथों विधवाओं रोगियों की सहायता करना, आपत्ति में फंसे गौ घोड़े आदि प्राणियों और मनुष्यों की मदद करना, धर्मार्थ चिकित्सालय अनाथालय आदि चलाना। ये सब सेवा के कार्य हैं।"* जो लोग इन कर्तव्यों और सेवा के कार्यों को करने में झंझट, बोझ या मुसीबत समझते हैं, वे जीवन का आनंद लेना नहीं जानते। *"इन कर्तव्यों और समाज सेवा के कार्यों को करने से तो व्यक्ति का शरीर स्वस्थ रहता है, मन प्रसन्न रहता है, उसका आनंद बढ़ता है। इन कार्यों को करने में तो अपना सौभाग्य मानना चाहिए, कि आपको पुण्य कमाने का अवसर मिला है।"* *"जो लोग इस दृष्टि से इन सेवाओं और अपने कर्तव्यों का पालन करते हैं, वे बड़े भाग्यशाली हैं। उनका यह जन्म और अगला जन्म दोनों सार्थक हो जाते हैं।" और "जो लोग इन कार्यों को बोझ समझते हैं, वे इस जन्म में भी दुखी रहते हैं, और पुण्य न कमाने के कारण उनका अगला जन्म भी बिगड़ जाता है।"* *"अतः इन कार्यों को बोझ न समझ कर अपना सौभाग्य समझें। तथा श्रद्धा पूर्वक इन कार्यों को करते हुए, पुण्य कमाकर दोनों जन्मों को सार्थक बनाएं।"
Vedic vichar
14-07-2022
मनुष्य स्वभाव से स्वार्थी है। वह हमेशा अपने लाभ की बात सोचता है। *"अपने लाभ की बात सोचना, इतनी बुरी बात भी नहीं है। भले ही आप अपने लाभ की बात सोचें, परन्तु उस सीमा का ध्यान अवश्य रखें, कि अपने लाभ को प्राप्त करने के लिए, दूसरे की हानि न करें। दूसरे का सुख न छीनें। इसी का नाम मनुष्यता है।"* यदि मनुष्यता की सीमा में रहकर सब लोग अपना अपना जीवन जीएं, तो संसार में बहुत सुख शांति बनी रहेगी। जब व्यक्ति अपना लाभ कमाना चाहता है, तो अल्पज्ञ और अल्पशक्तिमान होने से बहुत जगह पर वह ग़लती भी कर बैठता है। *"कोई भी मनुष्य सर्वज्ञ नहीं है। इसलिए उससे छोटी मोटी ग़लती होना स्वभाविक है।" "परंतु संसार में वडील लोग अर्थात बड़े बुजुर्ग लोग, जो अपना बहुत सारा जीवन जी चुके हैं, उनके पास जीवन का बहुत बड़ा अनुभव होता है।"* वे बहुत सी गलतियां कर करके सीख चुके हैं, कि *'यह काम ग़लत है, इसे नहीं करना चाहिए।' "वे बड़े बुजुर्ग चाहते हैं, कि उनके अनुभव से उनके बेटे पोते भी लाभ उठाएं, और उन ग़लतियों को करने से तथा हानियों से बच जाएं। इसलिए वे वडील लोग अपने बेटों पोतों को बड़े अच्छे अच्छे मूल्यवान सुझाव देते हैं, और वह भी मुफ्त में।" "यदि उनके बेटे पोते, अपने बाप दादा की बात मानेंगे, तो बहुत सी गलतियां करने से बच जाएंगे, और बहुत से दुखों को भोगने से भी बच जाएंगे। यदि बड़े बुजुर्गों की बात नहीं मानेंगे, सब जगह अपनी मनमानी करेंगे, तो उसका परिणाम यह होगा, कि आगे चलकर स्वार्थ के कारण बेटे पोतों में लड़ाई झगड़े होंगे, और वे ऐसी समस्याओं में फंस जायेंगे, जिनसे बाहर निकलना कठिन होगा। तब उन्हें वकीलों की सलाह लेनी पड़ेगी। उनमें बहुत से तनाव चिंताएं उत्पन्न हो जाएंगी, और उनका बहुत सा धन संपत्ति (लाखों करोड़ों रूपया) भी खर्च होगा। इन सब हानियों से बचने के लिए अच्छा यही है, कि "पहले ही बड़े बुजुर्गों के मूल्यवान और मुफ्त सुझावों से लाभ लिया जाए।"* *"जो लोग अपने वडीलों अर्थात बड़े बुजुर्गों की मूल्यवान और मुफ्त सलाह मान लेते हैं, वे दुखों से बच जाते हैं। जो वडीलों की सलाह नहीं लेते, फिर उन्हें वकीलों की सलाह लेनी पड़ती है, और बहुत दुख झेलने पड़ते हैं।"* *"अतः हानियों और दुखों से बचने के लिए अपने बड़े बुजुर्गों की मूल्यवान मुफ्त सलाह अवश्य लेवें, और उनकी सलाह का पालन करते हुए अपने जीवन को आनन्दमय बनाएं।"*
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14-07-2022
ओउम् | तन्तुं तन्वन् रजसो भानुमन्विहि ज्योतिष्मतः पथो रक्ष धिया कृतान् | अनुल्बणं वयत जोगुवामपो मनुर्भव जनया दैव्यं जनम् || ऋग्वेद 10|53|6|| शब्दार्थ - रजसः...................संसार का तन्तुम्..................ताना-बाना तन्वम्..................तनता हुआ (भी) भानुम्...................प्रकाश के अनु+इहि...............पीछे जा | धिया...................बुद्धि से कृताऩ्..................बनाये, परिष्कृत किये हुए ज्योतिष्मतः............ज्योतिर्मय, प्रकाशयुक्त पयः रक्ष...............मार्गों की रक्षा कर, जोगुवाम्...............निरन्तर ज्ञान और कर्म का अनुष्ठान करनेवालों के अनुल्बणं...............उलझनरहित अपः....................कर्म्मों को वयत...................विस्तृत कर | (इन उपायों से) मनुः भव...............मनुष्य बन (और) दैव्यम्..................देवों के हितकारी जनम्..................जन को, सन्तान को जनय..................उत्पन्न कर | व्याख्या - संसार को जिसकी आवश्यक्ता रही है और रहेगी, और इस समय भी जिसकी अत्यन्त आवश्यक्ता है, उस तत्व का उपदेश इस मन्त्र में किया गया है | वेद में यदि और उपदेश न होता, केवल यही मन्त्र होता, तब भी वेद का आसन संसार के सभी मतों और सम्प्रदायों से उच्च रहता | वेद कहता है - मनुर्भव - मनुष्य बन - आज का संसार ईसाई बनने पर बल देता है अर्थात् ईसा का अनुकरण करने के लिए यत्नवान् है | संसार का एक बड़ा भाग बौद्ध बनने में लगा हुआ है अर्थात बुद्ध के चरणचिन्हों पर चलता हुआ बुद्धं शरणं गच्छामि का नाद गुँजा रहा है | इसी प्रकार संसार का एक भाग मुहम्मद का अनुगमन करने में तत्पर है | महापुरुषों का अनुगमन प्रशंसनीय है; किन्तु थोड़ा सा विचार करें तो एक विचित्र दृष्य सामने आता है , एक अद्भुत तमाशा देखने को मिलता है | ईसाई ने ईसा का नाम लेकर जो कुछ अपने भाइयों के साथ किया, उसकी स्मृति ही मनुष्य को कँपा देती है | बिल्ली के बच्चे तक की रक्षा करने वाले मुहम्मद की उम्मत का इतिहास भी भाइयों के रक्त से रञ्जित है | आः ! जिसे मनुष्य कहते हैं वह मनुष्यता का वैरी हो रहा है | हमने संकीर्णता के कारण संकुचित दल बना डाले; एक दल दूसरे दल को दलने-मसलने-कुचलने पर तत्पर है | आज मनुष्य, मनुष्य का वैरी हो रहा है, अतः वेद कहता है - मनुर्भव - मनुष्य बन - ईसाई, या बौद्ध या मुसलमान या किसी दूसरे सम्प्रदाय में सम्मिलित होने में वह रस कहाँ जो 'मनुष्य' बनने में है | ईसाई बनने में केवल ईसाइयों को ममत्व से देखूँगा | बौद्ध बनने से और सबको असद्धर्मीं मानूँगा | मुसलमान होकर मोमिनों को ही प्यार का अधिकारी मानूँगा, किन्तु मनुष्य बनने पर तो विश्व=सारा संसार मेरा परिवार होगा, सब पर मेरा एक समान प्यार होगा | वसुधा को कुटुम्ब माना तो सारे कुटुम्ब से प्यार होना चाहिए | कुटुम्ब में ममता का साम्राज्य होता है | विषमता का व्यवहार कुटुम्ब की एकतानता पर वज्रप्रहार है | ममता स्थिर रखने के लिए स्नेही का व्यवहार करना होता है | तभी तो वेद ने कहा - मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे (यजु. 36|18) = सबको मित्र की स्नेहसनी दृष्टि से देखें | यहाँ वेद मनुष्यसीमा से भी आगे निकल गया है | प्यार का अधिकारी केवल मनुष्य ही नहीं रहा, वरन् सब भूत=प्राणी हो गये | यह उचित भी है, क्योंकि 'मनुष्य' शब्द का अर्थ है - मत्वा कर्माणि सीव्यति (निरु. 3|7) जो विचार कर कर्म्म करे | कर्म्म करने से पूर्व जो भली प्रकार विचारे कि मेरे इस कर्म्म का फल क्या होगा ? किस-किस पर इसका क्या-क्या प्रभाव होगा ? यह कर्म्म भूतों के दुःख=प्राणियों की पीड़ा का कारण बनेगा या भूतहित साधेगा ? मनुष्य यदि सचमुच मनुष्य बन जाए तो संसार सुखधाम बन जाए | देखिए, थोडा विचारिए, थोडा सा मनुष्यत्व काम में लाइए | वेद के इस उपदेश के महत्व को ह्रदयङ्गम कीजिए | धार्मिक दृष्टि से विचारें तो मनुष्य समाज के दो बड़े विभाग हो सकते हैं - ईश्वरवादी, तथा अनीश्वरवादी | सभी ईश्वरवादी ईश्वर को 'पिता' मानते हैं | वेद इससे भी आगे जाता है | वह ईश्वर को पिता के साथ माता भी मानता है यथा - त्वं हि नः पिता वसो त्वं माता शतक्रतो बभूविथ | अधा ते सुम्नमीमहे || (ऋ. 8|98|11) अर्थात् सबको ठिकाना देनेवाले ! सचमुच तू हमारा पिता है, जीवों की उत्पत्ति आदि नानाविध कर्म्म करनेवाले परमात्मन् ! तू हमारी माता है, अतः हम तेरा ह्रदय Good wishes चाहते हैं | माता-पिता की शुभाशीशः, शुभकामना सन्तान का कितना कल्याण करती है ! परमपिता दिव्य माता की भव्यभावना हमारा कितना इष्ट कर सकती है इसकी पूरी कल्पना कौन कर सकता है | प्रभु हमारे माता-पिता हैं और हम उनकी सन्तान, किन्तु कुसन्तान, जघन्य सन्तान, अयोग्य सन्तान, विद्रोही सन्तान | हम आपस में लड़ते हैं | भाई भाई की लड़ाई ! भगवान ने कहा था - सं गच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जायताम् (ऋ. 10|191|2) तुम्हारी चाल एक हो, तुम्हारा बोल एक हो, तुम्हारा विचार एक हो | हमारी चाल आज भिन्न-भिन्न ही नहीं, परस्पर विरुद्ध भी है | आज हम संवादी नहीं, विवादी हो गये हैं | आज हम 'संवाच' नही 'विवाच' हो गये हैं | इसका कारण हमारा 'वैमनस्य' =मनोभेद=मतभेद=विचारभेद है | एक चाल=संगति, एक बोल=संउक्ति के लिए 'सौमनस्य'=मन की एकता=मत की अभिन्नता=विचार की समता की आवश्यक्ता है | पिता का आदेश है, माता का संदेश है = सं गच्छध्वं , हम उसके विपरीत चलकर पिता का अधिकार, माता का प्यार कैसे पा सकते हैं ! मानव ! ठहर ! सोच तू कहाँ चला गया ? कहाँ भटक गया ? मैं भटक गया! बहक गया! वज्र भ्रान्ति! ईश्वर ईश्वर कह रहे हो, कहाँ है ईश्वर ? जब ईश्वर ही नहीं, तब उसका माता पिता होना कैसे ? और हम सब मनुष्य भाई-भाई कैसे ? सति कुडूये चित्रम् ! आधार होगा तो चित्र बनेगा ! अच्छा ! ईश्वर को ही जवाब ! जाने दो तुम्हारा मन ईश्वर को नहीं मानता, न सही | भगवान का मानना बड़े भाग्य की बात है | किन्तु भगवान को न मानकर भी मानव मानव का भाई है | कैसे ? सुनो ! सावधान होकर सुनो ! तुम दो की सन्तान हो ना ? घबराने क्यों लगे ? इसमें अचम्भे की बात ही क्या है ? माता और पिता के संयोग से ही मनुष्य की उत्पत्ति होती है | अकेली स्त्री से सन्तान नहीं हो सकती | अकेले पुरुष से कुछ नहीं बनता | सृष्टि चलाने के लिए स्त्री-पुरुष, रवि-प्राण का संयोग आवश्यक है अर्थात् दो मिले तो तुम एक आये अर्थात् तुममें दो का रुधिर आया, और ये दो भी तो दो-दो की सन्तान हैं अर्थात् हममें चार का रुधिर आया | उन चार के जो और सन्तान हुई, उनमें भी उनका रुधिर आया | कहो, वे और तुम सब सपिण्ड हुए या नहीं ? तनिक और आगे चलो, वे चार आठ के सन्तान, वे आठ सोलह के, इस प्रकार ज्यों ज्यों ऊपर को जाओगे, अपने खून का सम्बन्ध बढ़ता हुआ पाओगे | कहो, हम हुए न भाई-भाई ? बताओ, भाई-भाई का व्यवहार कैसा होना चाहिए ? क्या भाई-भाई का गला काटे, यह अच्छा है अथवा भाई के पसीने के बदले अपना खून बहाये यह अच्छा है ? भाई को भाई से भय नहीं होता | भाई को अपने से अभिन्न माना जाता है | डर होता है तो दूसरों से - द्वितियाद्वै भयं भवति - भाई को देखते ही ह्रदय हर्षित हो उठता है | आ ! सारे संसार को भाई बना | भय को भगा | सर्वत्र निर्भय-निष्कण्टक आ और जा | कहो वेद का मनुर्भव कहना कल्याणसाधक है वा नहीं ? निस्सन्देह मनुष्य बनना संसार में शान्ति स्थापन करने का एकमात्र साधन है | सभी मनुष्य मनुष्य बन जाएँ तो यह मार-काट, यह लूट-खसोट उसी क्षण समाप्त हो जाए | निस्सन्देह मनुष्यत्व प्राप्त करना अत्यन्त कठिन है | शङ्कराचार्य जी ने कहा - जन्तूनां नरजन्म दुर्लभम् | सचमुच नरजन्म पाना दुस्साध्य है किन्तु असाध्य नहीं | वेद इससे आगे जाता है - मनुष्य जन्म, नर-तन तो तूने प्राप्त कर लिया, 'मनुष्य भी बन' ! केवल नर-तनधारी ही न रह, नरमनधारी भी बन ! इसीलिए वेद ने कहा मनुर्भव | यद्यपि मनुर्भव कहने में ही सब बात आ गई, किन्तु भगवती श्रुति उसके उपाय भी बता देती है | वैसे तो सारे वेद ही नरतनधारी को मनुष्य बनाने के लिए हैं, किन्तु इस मन्त्र में जो कुछ कहा है, उसपर भी यदि आचरण किया जाए तो अभीष्ट सिद्ध हो जाए | मनुष्य बनने का पहला साधन - तन्तुं तन्वन् रजसो भानुमन्विहि | संसार का ताना-बाना बुनता हुआ भी तू प्रकाश का अनुसरण कर अर्थात तेरे समस्त कर्म्म ज्ञानमूलक होने चाहिएँ | अज्ञान, अन्धकार तो मृत्यु के प्रतिनिधि हैं | अन्धकार से उल्लू को प्रीति हो सकती है, मनुष्य को नहीं | मनुष्य बनने के लिए अन्धकार से परे हटना होगा | ऋषि ठीक ही कहते हैं - तमसो मा ज्योतिर्गमय ! (शत. 14|3|1|30) = अन्धकार से हटाकर मुझे प्रकाश प्राप्त करा | अन्धकार में कुछ नहीं सूझता; सब क्रियाएँ, चेष्टाएँ रुक जाती हैं, अतः वेद कहता है - भानुमन्विहि - प्रकाश के पीछे चल | प्रकाश का अनुसरण करनामात्र ही प्रयाप्त नहीं है, कुछ और भी आवश्यक होता है, प्रकाश के पीछे तभी चला जा सकता है ! जब प्रकाश स्थिर हो | यदि प्रकाश विछच्द्युटा के समान चञ्चल हो तो उसका अनुसरण कैसे हो सकता है | इस आशय को लेकर वेद ने दूसरा उपाय बतलाया है - ज्योतिष्मतः पथो रक्ष धिया कृतान् - प्रकाश के मार्गों की रक्षा कर, उनमें अपनी बुद्धि से परिष्कार कर | संसार के सभी देशों में रोशनी बुझानेवालों के लिए दण्ड का विधान है, किन्तु संसार की गति अति विचित्र है | संसार में ऐसे भी हुए हैं और कदाचित् आज भी ऐसे मनुष्याकारधारी प्राणी हैं, जो प्रकाश का नाश करते रहे और कर रहे हैं | उन्हें क्या कहोगे, जिन्होंने सिकन्दरिया का विशाल पुस्तकालय जला दिया ? उन्हें क्या कहोगे जो वर्षों भारत के ज्ञानभण्डार से हमाम=स्नानागार गरम करते रहे ? उनका क्या नाम धरोगे जिन्होंने चित्रकूट का करोड़ो रुपयों का पुस्तकालय अग्निदेव की भेंट कर डाला ? ये सब नरतनधारी थे, किन्तु क्या ये मनुष्य नाम के भी अधिकारी थे, इसमें सन्देह है | मनुष्य बनाने का साधन नष्ट करनेवाले मनुष्य कैसे ? वे कोई मनुष्यता के वैरी थे | उनको क्या कहोगे जो आज भी ज्ञान भण्डार को जल देवता के अर्पण कर रहे हैं ? उनको क्या कहोगे, जो प्रकाश को दूसरों तक नहीं जाने देते, अपने तक रोक रखते हैं ? ये सब लाखों ज्ञानी ज्ञान अपने साथ ले जाते हैं | वह ज्ञान किस काम का ? वेद कहता है - ज्योतिष्मतः पथो रक्ष - ज्ञान मार्गों की रक्षा कर ! पूर्वजों से प्राप्त ज्ञानराशि की रक्षा कर | मानव ! तू वायुयान में बैठकर आकाश की ओर उड़ जाता है, अन्तरिक्ष की सैर करता है | ज्ञात है यह कैसे सम्भव हो सका ? वेद के अन्तरिक्षे रजसो विमानः की बात नहीं कहूँगा और न ही कहूँगा रामायण के पुष्पक विमान की बात | आज के विमान का वर्णन सुनाउँगा | किसी भद्र के चित्त में किसी पक्षी को उड़ता देख उड़ने की समाई | उसने कृत्रिम पंख लगाकर उड़ने की ठानी | बेचारा गिर पड़ा; उसने अपना मस्तिष्क लगाया | अब सोच मानव ! यदि उस प्रथम त्यागी के ज्ञान को भुला दिया जाता तो नये सिरे से यत्न करना पड़ता; फल क्या होता ? वायुयान न बन पाता, अतः वेद का यह कहना ज्योतिष्मतः पथो रक्ष बहुत ही सारगर्भित है | हाँ, यदि उस उड़नेवाले ने जितना यत्न किया था उतने की ही रक्षा की जाती, उसमें अपना भाग न डाला जाता, तो भी वायुयान न बन पाता | अतः वेद ने ठीक ही कहा - धियाकृतान् - प्रकाश की रक्षा अवश्य कर किन्तु उसमें अपना भाग भी डाल | अन्यथा दीपक बुझ जाएगा | वैदिकों ने इस तत्व को समझकर प्रथम संस्कृति = वेद तथा उसके अङ्गोंपाङ्गों की रक्षा करने में प्राणपण से यत्न किया है | अतः वेद के शब्दों में कहा - नम ऋषिभ्यः पूर्वजेभ्याः | ज्ञान का पर्यवसान कर्म्म में होता है | ज्ञान का अनुसरण करने के लिए ज्ञान के रक्षण और परिवर्धन की नितान्त आवश्यक्ता है | किन्तु ज्ञान का प्रयोजन ? 'ज्ञान ज्ञान के लिए' यह सिद्धान्त प्रमादियों का है | ज्ञान की सफलता कर्म में है | अतः वेद कहता है - अनुल्बणं वयत जोगुवामपः = ज्ञाननुसार कर्म्म करनेवालों के उलझनरहित कर्म्मों को करो | लोकोक्ति है - लोकोSयं कर्म्मबन्धनः कर्म्म बन्धन का कारण है | वेद कहता है कर्म्म तो अनिवार्य है उससे छूट नहीं सकते हो | अतः ऐसे कर्म्म करो जो उलझन को मिटानेवाले हों, न कि उलझन को बढ़ाने वाले | जो कर्म ज्ञानविरहित होंगे,ज्ञान के विपरीत होंगे, वे अवश्य उलझन पैदा करेंगे, अतः ऐसा न कर जिससे संसार की उलझनें और बढ़ें | तू तो पहले ही बहुत उलझा हुआ है | तुझे सूझता नहीं कि कौन सा अनुल्बण है और कौन सा उल्बण ? तुझे कोई अंगुलि पकड़कर बताये | अच्छा जहाँ तू रहता है, वहाँ कोई ब्रह्मनिष्ठ भी है या नहीं ? उन ब्रह्मनिष्ठों का व्यवहार देखना, जो सत्यप्रिय, मधुरभाषी, निष्काम, सर्वहितकारी हों | देख, वे कैसे रहते हैं ? उनका अनुसरण कर, किन्तु ज्ञान को हाथ से न जाने देना, इन साधनों के अनुष्ठान से निस्सन्देह मनुष्यता सुलभ हो जाती है | किन्तु, मनुष्यत्व के साथ वेद ने कर्त्तव्य भी लगा दिया है - जनया दैव्यं जनम् = दैव्य जन पैदा कर | मनुष्य को मनुष्यता की सारी सामग्री समाज से मिलती है, अतः उसे चाहिए कि वह भी समाज को कुछ दे जाए | समाज का सारा कार्य्यभार देवोँ के सहारे चलता है | प्रत्येक मनुष्य का कर्त्तव्य है कि ऐसे सर्वहितकारी देवों का कुछ न कुछ प्रत्युपकार अवश्य करें | इस भाव को लेकर वेद ने कहा - जनया दैव्यं जनम् - दैव्य=देवहितकारी जन को कौन पैदा करेगा ? क्या राक्षस, दस्यु ? कभी नहीं | अतः देवजनहितकारी सन्तान उत्पन्न करने के लिए मनुष्य को स्वयं देव बनना पड़ेगा अर्थात् मनुष्य बनकर जब सन्तान उत्पन्न करने में प्रवृत होने लगे, तब उसके ह्रदय में कुकाम की कुवासना न हो, वरन् जन-समाज, नहीं नहीं, देवसमाज के हित की भावना हो | वेद मनुष्य बनाकर चुपके से देवत्व के मार्ग पर ला खड़ा करता है | यह विशेष मनन करने की बात है | स्वामी वेदानन्दतीर्थ सरस्वती
13 जुलाई/जन्म-दिवस. वेदों के मर्मज्ञ डा. फतह सिंह. (Vedic vichar)
14-07-2022
वेदों के मर्मज्ञ डा. फतह सिंह का जन्म ग्राम भदंेग कंजा (पीलीभीत, उ.प्र.) में आषाढ़ पूर्णिमा 13 जुलाई, 1913 को हुआ था। जब वे कक्षा पांच में थे, तो आर्य समाज के कार्यक्रम में एक वक्ता ने बड़े दुख से कहा कि ऋषि दयानन्द के देहांत से उनका वेदभाष्य अधूरा रह गया। बहुत छोटे होने पर भी फतह सिंह ने मन ही मन इस कार्य को पूरा करने का संकल्प ले लिया। 1932 में हाई स्कूल कर वे काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में आ गये। उस समय वहां वेद पढ़ाने वाला कोई अध्यापक नहीं था; पर कुछ समय बाद विश्वविख्यात डा. एस.के. वैलवेल्कर वहां आ गये। उनके सान्निध्य में फतह सिंह जी ने जर्मन और फ्रेंच भाषा सीखी और वेदों पर संस्कृत भाषा में 500 पृष्ठ का एक शोध प्रबन्ध लिखा। 1942 में उन्हें डी.लिट्. की उपाधि मिली। इस विश्वविद्यालय से संस्कृत में डी.लिट्. लेने वाले वे पहले व्यक्ति थे। डा. वैलवेल्कर वेदों की व्याख्या में विदेशी विद्वानों को महत्त्व देते थे; पर ऋषि दयानन्द के विचारों को वे अवैज्ञानिक कहते थे। अतः डा. फतह सिंह ने ऋषि दयानन्द के अभिमत की प्रामाणिकता के पक्ष में सैकड़ों लेख लिखे, जो प्रतिष्ठित शोध पत्रों में प्रकाशित हुए। इनकी प्रशंसा तत्कालीन विद्वानों डा. गोपीनाथ कविराज, विधुशेखर भट्टाचार्य और डा. गंगानाथ झा आदि ने की। उन्होंने वेदों पर लोकमान्य तिलक के विचारों का भी अध्ययन किया। वेद और बाइबिल का तुलनात्मक अध्ययन उनकी पुस्तक ‘एशियाई संस्कृतियों को संस्कृत की देन’ में समाहित हैं। हिन्दी, अंग्रेजी और संस्कृत में उनकी मौलिक पुस्तकों की संख्या 90 है। इनमें मानवता को वेदों की देन, भावी वेदभाष्य के संदर्भ सूत्र, दयानन्द एवं उनका वेदभाष्य, पुरुष सूक्त की व्याख्या, ढाई अक्षर वेद के.. आदि प्रमुख हैं। इसके साथ ही कामायनी सौंदर्य, साहित्य और सौंदर्य, भारतीय समाजशास्त्र के मूलाधार, भारतीय सौंदर्यशास्त्र की भूमिका, साहित्य और राष्ट्रीय स्व, आभास और सत् आदि साहित्यिक पुस्तकें भी उन्होंने लिखीं। 1965 में डा. फतह सिंह ने 45 अक्षरों को पहचान कर सिन्धु घाटी के उत्खनन में मिली 1,500 मुद्राओं पर लिखे शब्दों को पढ़ा। उनका निष्कर्ष था कि सिन्धु मुद्राओं की लिपि पूर्व ब्राह्मी और भाषा वैदिक संस्कृत है तथा इनमें उपनिषदों के कई विचार चित्रित हैं। इस सभ्यता का विस्तार केवल हड़प्पा और मुअन जो दड़ो तक ही नहीं, अपितु पूरे भारत में था। सिन्धु लिपि चार तरह से लिखी जाती है। तीन प्रकार में बायें से दायें तथा एक प्रकार में दायें से बायें। सिन्धु लिपि पर उनके शोध एवं निष्कर्ष आज भी सर्वाधिक मान्य हैं। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ने उन्हें वर्तमान युग का ऋषि और आधुनिक पाणिनी कहा था। इस विषय पर देश-विदेश के अनेक विश्वविद्यालयों में उनके भाषण हुए। विदेश में तो कई चर्चों ने भी उनके व्याख्यान आयोजित किये। उन्होंने ‘विश्व मानव’ की संकल्पना को प्रतिपादित करते हुए बताया कि वेद ही सभी धर्मों का उद्गम है। भारत पर आर्य आक्रमण को गलत बताते हुए उन्होंने सिद्ध किया कि आर्य और द्रविड़ दोनों वैदिक मूल के निवासी हैं। उ.प्र. और राजस्थान के कई विद्यालयों और विश्वविद्यालयों में उन्होंने 30 वर्ष तक पढ़ाया। ‘विवेकानंद स्मारक’ के पहले सौ जीवनव्रतियों को उन्होंने ही प्रशिक्षित किया था। राजस्थान प्राच्य शोध संस्थान तथा फिर वेद संस्थान, दिल्ली के निदेशक रहते हुए उन्होंने कई प्राचीन संस्कृत पांडुलिपियां प्रकाशित करायीं। उन्होंने वैदिक संदर्भों की व्याख्या कर उस विधि को पुनर्जीवित करने का प्रयास किया, जिसे ईसा से 1000 वर्ष पूर्व यास्क ऋषि ने आरंभ किया था। 1972 में पीलीभीत में सम्पन्न हुए संघ शिक्षा वर्ग में वे सर्वाधिकारी थे। फिर वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, पीलीभीत के जिला संघचालक भी रहे। अपने सब बच्चों के विवाह उन्होंने बिना दहेज सम्पन्न किये। पांच फरवरी, 2008 को 95 वर्ष की भरपूर आयु में वेदों के मर्मज्ञ डा. फतह सिंह का निधन हुआ। (संदर्भ : राष्ट्रधर्म/साहित्य परिक्रमा का विशेषांक 2014)
वेद वाणी (Vedic vichar)
14-07-2022
मा प्र गाम पथो वयं मा यज्ञादिन्द्र सोमिन:|मान्त: स्थुर्नो अरातय:|| (ऋग्वेद १०/५७/०१) (अथर्व ० १३/०१/५९) विनय--- हे इंद्र परमैश्वर्यवान्! हम तुमसे ऐश्वर्य नहीं मांगते/ हमारी तुमसे याचना तो यह है कि हम सदा सन्मार्ग पर चलते जाएं ,इसको कभी ना छोड़े //सन्मार्ग पर चलते हुए हमें जो कुछ ऐश्वर्य मिलेगा वही सच्चा ऐश्वर्य होगा/ जिस किसी प्रकार मिला हुआ 'ऐश्वर्य" ऐश्वर्य नहीं होता-- उसमें ईश्वरत्व नहीं होता --सामर्थ्य नहीं होता //सन्मार्ग से जो कुछ ऐश्वर्य मुझे मिलेगा, उस ऐश्वर्या को तुझसे पाकर हे इंद्र ! मेरी प्रार्थना है कि मैं यज्ञ से कभी विचलित ना होऊं!!यज्ञ करता हुआ --उपकार करता हुआ ही मैं उस तेरे दिए ऐश्वर्य को भोगुं// जो कुछ तुम्हारे द्वारा मुझे मिला है ,,उसे तुम्हें (देवों को )बिना दिए भोगना चोरी है // ऐसा पाप स्वार्थ वश हम कभी ना करें// यज्ञ को , आत्मत्याग को ,परार्थ में आत्म विसर्जन को हम कभी ना भूले //यज्ञ के बिना भोग भोगना विषपान समान है ,,अतः हमारी दूसरी प्रार्थना है कि हम यज्ञ को कभी ना छोड़े// हमारी तुमसे यह प्रार्थना नहीं है कि तुम हमारे शत्रुओं का नाश कर दो //हमारी याचना तो यह है कि हमारे अपने अंदर"अराति"न ठहरे //हमारे अंदर अराति न हों तो बाहर हमारा अराति कोई कैसे हो सकता है! अराति अर्थात् अदानभाव हमारे अंदर क्षण- भर भी न ठहरे, क्षण- भर के लिए भी न आये// अदानभाव होते हुए यज्ञ असंभव है, अतः हमारा एकमात्र शत्रु अदानभाव ही है //यह अंदर का शत्रु ही हमारा शत्रु है !हे प्रभो! इससे हमारी रक्षा करो !!फिर बाहर के किसी शत्रु की हमें कोई परवाह नहीं!!
चमत्कार का इंतजार (Vedic vichar)
14-07-2022
पूरे भारत में हजारों पीर की कब्रे हैं। सब पर जाने वाले और करोड़ों का चढ़ावा चढ़ाने वाले कौन हैं? वही हिन्दू जिसे लगता है कि इसमे दबा हुआ शव जिसे कीड़े खा चुके हैं इनकी मनोकामना पूरी करेगा। प्रत्येक पीर के साथ चमत्कार की कहानियां जोड़ दी गई हैं। सामान्य हिन्दू यह जानने की कोशिश कभी नहीं करता कि चमत्कारी कहानी में कितना सच है। चमत्कार का आरम्भ कैसे होता है? एक कहानी से समझिए- सर्दियों की अंधेरी रात थी। एक रात एक आदमी ने पंसारी की दूकान से चीनी की 2 बोरी चुरा ली. जब वह उन्हें ले जाने लगा तो चौकीदार ने शोर मचाया। कुछ आदमी पीछे भागे. चोर ने पकडे जाने के डर से सोचा- क्यों ना बोरी कुँए में फेंक दूँ। एक तो वह जैसे तैसे रात के अँधेरे में पास वाले कुएँ में फेंकदी, लेकिन जब दूसरी बोरी क़ुए में डालने लगा तो खुद भी बोरी के साथ कुँए में गिर गया। सुबह शोर सुनकर लोग इकट्ठे हो गए। कुएँ में रस्सियाँ डाली गईं। उस आदमी को बाहर निकाल लिया गया. परन्तु सर्दी के कारण और रात भर पानी में रहने से वह कुछ घंटों के बाद मर गया। मरने के बाद दफना दिया गया. दूसरे दिन जब लोगों ने इस्तेमाल के लिए कुएँ में से पानी निकाला तो वह मीठा था। नजदीक की मस्जिद के मौलवी साहब ने इसे चमत्कार बताया. उस आदमी को पीर घोषित किया. उसकी कब्र को आलिशान दरगाह बना दिया. पीर के चमत्कारों की कहानियाँ चारों तरफ फ़ैल गई। हजारों हिन्दू हनुमान जी को छोड़ कर दरगाह पर जाने लगे। उनमे वह पंसारी भी था जिसकी दूकान में चोरी हो गई. हर साल उस दरगाह पर उर्स मनाया जाता है. हिन्दुओं द्वारा करोड़ों का चढ़ावा चढ़ाया जाता हैं। _____ प्रश्न- क्या पीर पर मांगी गई मन्नत पूरी होती है? आप किसी भी पीर पर जाने वाले से पूछोगे तो आधे से अधिक बताएंगे कि उनकी मन्नत पूरी हुई थी। क्या ये सब गलत हैं या इन सभी को भ्रम हुआ है? उत्तर- मन्नत या मनोकामना पूरी होने के पीछे औसत का नियम काम करता है। बेटा पैदा होना, रोग दूर होना, परीक्षा में पास होना आदि। उदाहरण के लिए 1 रुपए लें। उसे 100 बार उछालने पर हेड या टेल आने की सम्भावना 50-50 होती है। बेटा और बेटी पैदा होने की सम्भावना भी इतनी ही है। बस वे लोग चुप रहे जिन्होंने बेटे की मन्नत मांगी और बेटी हुई। परन्तु जिन्होंने बेटा मांगा और बेटा हुआ उन्होंने इसका जोर शोर से प्रचार किया। परीक्षा में पास होने की या रोग दूर होने की सम्भावना तो 66% से अधिक ही होती है। बेटे या बेटी की शादी के लिए दामाद या बहू मिलने की सम्भावना तो लगभग 100% होती है। इनमें से कोई भी सूर्य के पश्चिम से उगने की मन्नत नहीं मांगता। कोई भी मिर्च के बीज से आम या अंगूर उत्पन्न होने की मन्नत नहीं मांगता। कोई भी मई जून में ठण्ड की व जनवरी में गर्मी की मन्नतें नहीं मांगता। केवल वही मन्नतें मांगी जाती हैं जिनके पूरा होने की सम्भावना हो। आज पूरे भारत में कहीं भी पीर की कब्र रातों रात बना दी जाती है। फ्लाईओवर पर भी पीर की कब्र बना दी जाती है। वैसे यह प्रचलन नया नही है। एक ऐतिहासिक भवन में ऊपरी मंजिल पर कब्र बनी हुई है। आश्चर्य है कि छत पर किसी को कैसे दफनाया जा सकता है। बेहद कीमती व्यवसायिक जमीनों पर पीर है। दिल्ली, गुड़गांव में अनेक बहुमूल्य जमीनों पर पीर की कब्र हैं। किसी भी शहर में व्यापारिक केंद्र के पास, रेलवे स्टेशन के पास व बस स्टैंड के पास भी पीर के नाम पर करोड़ों की जगह कब्जाई हुई मिल जाएगी। यहाँ से फिर ज़मीन Jहाद शुरू हो जाता है। कुछ समय बाद उस पीर के कागज वक्क बोर्ड में जाते है। वक्क बोर्ड किसी कोर्ट में जाता है। कोर्ट के माध्यम से नमाजी मोमिन उस पीर की ज़मीन पर कब्जा कर लेते है। आगे दुकान निकाल लेते हैं और पीछे पीर का का चढ़ावा उठाते रहते है। उस चढ़ावे के पैसे से Jहाद चलाते हैं। यही तो है सारा खेल। विश्वास रखिए- इन पीरों के चमत्कार का रहस्य केवल हिंदुओं का चढ़ावा है। आप चढ़ावा बन्द करिए। पीर अपने आप भाग जाएगा।
Vedic vichar
14-07-2022
हे अग्ने ! जो लोग तुम्हारे इस मित्र तेज से मैत्री करते हैं वे संसार में 'आर्य' कहलाते हैं। पर जो इस स्नेह करनेवाले तेरे तेज से द्वेष करते हैं, जिन्हें यह तेरा तेज अच्छा नहीं लगता, वे ही 'दस्यु' नाम से पुकारे जाते हैं।" ***** त्वे असुर्यं वसवो न्यृण्वन क्रतुं हि ते मित्रमहो जुषन्त। त्वं दस्यूँ रोकसो अग्न आज उरु ज्योतिर्जनयन्नार्याय।। -ऋक्०७।५।६ ऋषिः - वसिष्ठः। देवता - वैश्वानरः। छन्द: - त्रिष्टुप्। विनय - हे अग्ने ! तुझमें आश्रय लेकर ये पृथिव्यादि वसु अपने असुर्य को, प्राणवत्व को, सामर्थ्य को प्राप्त कर रहे हैं, तुझमें ही आश्रय पाकर ब्रह्मचारी वसु लोग भी अपने प्राणवत्य और प्रज्ञावत्य (बल और ज्ञान) को प्राप्त कर रहे हैं। ये वसु इस सामर्थ्य को इस लिए पा रहे हैं, बल्कि तेरे आश्रय को भी इसलिए पा रहे हैं, चूँकि ये तेरे 'ऋतु' का सेवन करते हैं। इस संसार में जो तेरा महान् कर्म चल रहा है उसका ये सेवन करते हैं, उसके आचरण करते हैं। तेरे महान् संकल्प व ज्ञान के अनुसार ये अपना व्यवहार, कर्म करते हैं। परन्तु जो लोग तेरे 'ऋतु' का सेवन नहीं करते हैं वे तेरे इस घर से बहिष्कृत हो जाते हैं, विनष्ट हो जाते हैं। हे अग्ने! तुम तो 'मित्रमहः' हो। तुम्हारा तेज मित्र है, स्नेह करनेवाला है। जो लोग तुम्हारे इस मित्र तेज से मैत्री करते हैं वे संसार में 'आर्य' कहलाते हैं। पर जो इस स्नेह करनेवाले तेरे तेज से द्वेष करते हैं, जिन्हें यह तेरा तेज अच्छा नहीं लगता, वे ही 'दस्यु' नाम से पुकारे जाते हैं। क्योंकि, इस तेज से मैत्री करनेवाले ही तेरे इस तेज को, प्रकाश को प्राप्त कर सकते हैं। अत: वे ही तेरा प्रकाश पाकर श्रेष्ठाचरणवाले अर्थात् आर्य बनते हैं। अपने स्वार्थमय क्षुद्र प्रकाश में मस्त रहनेवालों, दूसरे 'दस्यु' लोगों को तेरी विस्तृत ज्योति प्राप्त नहीं होती। दस्यु अर्थात दूसरों का उपक्षय करनेवाले वे इसलिए बनते हैं क्योंकि वे स्वार्थान्ध होते हैं, क्योंकि वे प्रकाश से प्रेम न रखने के कारण तेरी विस्तृत ज्योति को न पाकर अपने में अन्धे होते हैं। अतएव जब तू अपने किसी घर में, किसी लोक में विस्तृत ज्योति को प्रकाशित कर देता है तो वहाँ ये अन्धकारप्रिय दस्यु नहीं ठहर सकते। वहाँ से ये निकल जाते हैं। इस प्रकार, हे मित्रमहः ! तू आर्यों के लिए महान् ज्योति देता हुआ दस्युओं को निकाल रहा है, इस प्रकार तेरे ऋतु का सेवन करनेवालों को अपना सहारा देता हुआ, ऐसा न करनेवालों को इस परम अवलम्बन से वञ्चित रख रहा है और इस प्रकार तू तेरा सहारा लेनेवालों को प्राण व बल देता हुआ दूसरों को विनष्ट कर रहा है। शब्दार्थ - (वसवः) वसु (त्वे) तुझमें [आश्रित हो] (असुर्यं) प्राणवत्व को, सामर्थ्य को (नि ऋण्वन्) प्राप्त कर रहे हैं, (हि) क्योंकि वे (ते) तेरे (ऋतुं) कर्म का (मित्रमहः) हे मित्र तेजवाले ! (जुषन्त) सेवन करते हैं। (अग्ने) हे अग्ने (त्वं) तू (आर्याय) आर्यों, श्रेष्ठों के लिए (उरु) विस्तृत (ज्योतिः) ज्योति को (जनयन्) प्रकाशित करता हुआ (दस्यून्) दस्युओं, दूसरों का उपक्षय करनेवालों को (ओकसः) घर से (आजः) खदेड़ देता है, निकाल देता है। ********** स्रोत - वैदिक विनय। (मार्गशीर्ष १९) लेखक - आचार्य अभयदेव। प्रस्तुति - आर्य रमेश चन्द्र बावा।
YES, WE BELIEVE – DAYANANDA WAS A GREAT RISHI (Vedic vichar)
11-07-2022
Swami Dayananda Saraswati was a Rishi – if he is judged analytically and without any bias. We, his followers, admirers and the members of Arya Samaj call him Great Rishi or Maharshi. But those who are not his followers or those who disagree with his principles may think of him differently. It is their freedom. We should not quarrel with them on this issue. However, we would like to present a few points about Dayananda for further deliberation: (i) When we read Dayananda’s life and his thoughts through his books and biographies, etc., it becomes quite clear that he was a sage, a seer – a drashta – of the highest rank. He was a genuine truth-seeker, who saw the true law of things directly by inner vision. As an inspired seer, he saw the hidden truths and heard the Divine Words. He was a giant spiritual force capable of guiding humanity towards its perfection. (ii) We all understand that man does not create any new or fresh knowledge. He merely discovers it. Therefore, our sciences and discoveries are nothing but re-search. The entire mankind including Rishis can neither create a blade of grass nor a petal of flower. It is not given to them to create a single law. They can merely read and discover for themselves what is written and in operation in the Vedas or in the Nature’s Book. So Vedas say: Devasya pashya kavyam na mamat na jiryati. (Atharva: 10.8.32) Dayananda was also one of such great seers of the eternal truth – rit. Maharshi Yaska says in his Nirukta: Rishi darshanat (2.11). Dayananda had that capacity to see things with a vision of truth. He was a real Darshanik – a Mantrarthvit – a Drashta. He was endowed with keenness of vision. (iii) The word Rishi is derived from Rishi gatau. This means a person is called Rishi if he is a man of extraordinary wisdom, seer of the inner nature of things, knower of the true meaning of the Vedas. Dayananda was having such competence. In Nirukta (13.1.12) it is said: Tarko Rishi i.e. a person having highly developed faculty of reasoning enabling him to reach to truth is called Rishi. Dayananda was highly logical. His ability to use right sort of reasoning and inference evidence was just wonderful and he adopted a process of reasoning in making most difficult and abstruse matters very clear and comprehensible. That shows his Rishitva. The Nirukta further says: Sakshatkritadharman rishiyo babhuvuh – means a person who has realized the basics of righteousness or dharma into his life is a Rishi. Dayananda has exemplified the Vedic principles in his practical life. He visualized and fully understood the meaning of Vedic texts having manifold significations and lived up to the law of dharma. He understood the Vedic laws and engaged himself in the propagation of righteousness and Vedic learning in most adverse times. (iv) Dayananda had a curiosity to know the exact meaning of Veda Mantras. At the time of writing Veda Bhashya he used to ask his intellect such questions as: What can be the meaning of this Mantra? He exercised his intellect and reasoning for completely understanding the meaning of the Mantras. It was not just a scholarly work for him; rather he took it as a spiritual pursuit. He was aware that the Mantras cannot be interpreted in an off-hand manner on hearing them or with the help of reasoning alone. They ought to be explained with due regard to their context, i.e., with reference to what precedes as well as to what follows. This point was taken care of by him in his Veda-Bhashya. (v) From time to time Dayananda was advised by some of his friends to write Veda-Bhashya, but initially he did not agree for it, saying that it demands some extra-ordinary qualifications and powers and as and when he would find himself fit for that, he would venture for the same. After about 1875 it appears that he felt that he had gained that necessary quality and confidence for this great task of interpretation of Vedas. He made himself fully competent to expound the true meaning of the Vedas. In other words, he then acquired the Rishitva (excellence of Rishi), and started for Veda-Bhashya. Otherwise, he believed that a man, who is not a rishi, who has not performed the austerities (Tapas), whose mind is not pure and who does not possess learning, can not realized the meaning of the Mantras. Unless a man is fully acquainted with the context of the mantras, has the necessary qualifications for realizing their presence and is a man of highest erudition, he is not in a position to grasp the true meaning of the Vedic, however good his reasoning may be. (vi) It is described in the Nirukta that once upon a time men saw that they were left without the rishis, i.e., the seers of the Mantras. Thereupon they approached to the learned and asked them as to who should be the rishi among them. The learned gave them reasoning as their rishi, so that by knowing the truth from falsehood they might be able to understand the meaning of the Vedas and told them by way of reply that reasoning would be the rishi among them. By reasoning here it is meant that kind of it whose only solicitude is the elucidation of the meaning of the Vedas and which leads to knowledge of the sense of the Veda Mantras. Dayananda possessed and demonstrated such reasoning faculty. He was a thoroughly learned man, who explained the meaning of the Vedas in such a way that his explanation became the explanation of a rishi. He was not a man of mediocre learning and intellect. He was not at all partial and biased. He wanted his followers and members of Arya Samaj to remain always open to Truth. One can refer principles of the Arya samaj. He studied thousands of Sanskrit books and enriched his stock of knowledge. In a small book named Bhrantinivaran he has declared that after due study and examination, he was of the opinion that starting from Rig Veda up to Purva Mimansa of Jaimini almost three thousand books were found authentic and worthy of acceptance to him. One can imagine his vast learning. Sri K. M. Munshi has rightly said in ‘The Creative Art of Life’ that “Dayananda was learned beyond the measure of man.” At one place in his Rigvedadi Bhashya Bhumika, Dayananda has expressed that his bhashya is of Rishi’s standard. There he has written: “In the Vedic commentary we shall refer to the action portion only in so far as it will be deducible directly from the meaning of the words. We shall not, however, give a detailed description of the acts which ought to be performed in the various yajnas, from the Agnihotra to the Ashvamedha, according to the mantras which have been applied to the action portion. The reason is that the true application of the mantras to the action portion and the details of the observances are given in the Aitareya and Shatapatha Brahmanas, the Purva Mimansa, and the Shrouta Sutras, etc. Their repetition will disfigure this commentary with the faults of tautological repetition and the grinding of a ground meal which disfigure the books not written by Rishis.” It means that he believed that his book should be as superb as that of a Rishi’s book. (vii) Dayananda did not at all wish that his name should be listed in the list of those rishis whose names are mentioned in the Veda Samhitas for remembrance. He was not that ambitious. He was not at all competing with those great rishis of yore. He did not work for that purpose. However, we believe that future generation will definitely evaluate and honor his importance and unique contribution in the field of Vedic study.
स्वामी दयानंद के नारी जाति के उत्थान के विषय में क्या विचार हैं? (Vedic vichar)
11-07-2022
समाधान- स्वामी दयानंद नारी जाति को न केवल शिक्षित करने के पक्षधर थे अपितु नारी जाति को गृह स्वामिनी से लेकर प्राचीनकाल की महान विदुषी गार्गी और मैत्रयी के समान विद्वान बनाना चाहते थे। स्वामी जी के अनुसार नारी ताड़न की नहीं अपितु सम्मान करने योग्य हैं। सत्यार्थ प्रकाश में स्वामी दयानंद क्रान्तिकारी उद्घोष करते हुए लिखते हैं "जन्म से पांचवे वर्ष तक के बालकों को माता तथा छ: से आठवें वर्ष तक पिता शिक्षा करे और नौवें के प्रारंभ में द्विज अपने संतानों का उपनयन करके जहाँ पूर्ण विद्वान तथा पूर्ण विदुषी स्त्री, शिक्षा और विद्या-दान करने वालो हो वहां लड़के तथा लडकियों को भेज दे। " "लड़कों को लड़कों की तथा लड़कियों को लकड़ियों की शाला में भेज देवें, लड़के तथा लड़कियों की पाठशालाएँ एक दुसरे से कम से कम दो कोस की दुरी पर हो। " जो वहां अध्यापिका और अध्यापक अथवा भृत्य, अनुचर हों, वे कन्यायों की पाठशाला में सब स्त्री तथा पुरुषों की पाठशाला में सब पुरुष रहें। स्त्रियों की पाठशाला में पांच वर्ष का लड़का और पुरुषों की पाठशाला में पांच वर्ष की लड़की भी न जाने पाए। जब तक वे ब्रहाम्चारिणी रहे, तब तक पुरुष का दर्शन, स्पर्शन, एकांत सेवन, भाषण, विषय-कथा, परस्पर क्रीरा, विषय का ध्यान और संग इन आठ प्रकार के मैथुनों से अलग रहे। इसमें राजनियम और जाती नियम होना चाहिए कि पांचवे अथवा आठवें वर्ष से आगे अपने लड़के और लड़कियों को घर में न रख सकें, पाठशाला में अवश्य भेज देवें। जो न भेजे वह दंडनीय हो । स्वामी दयानंद नारी शिक्षा के महत्व को यथार्थ में समझते थे क्यूंकि माता ही शिशु की प्रथम गुरु होती हैं इसलिए नारी का शिक्षित होना अत्यंत महत्व पूर्ण होता है। स्वामी जी शिक्षा के प्रबल पक्षधर थे परन्तु सहशिक्षा के पक्षधर नहीं थे इसलिए उन्होंने लड़के लड़कियों की पाठशाला को न केवल अलग होने का सन्देश दिया हैं अपितु उन्हें पढ़ाने वाले शिक्षकों के लिए भी यही नियम बताया था की केवल पुरुष अध्यापक लड़कों को पढ़ाये एवं स्त्री अध्यापिका लड़कियों को पढ़ाये। देखा जाये तो यह नियम समाज में होने वाले दुराचार, बलात्कार, शारीरिक शोषण, चरित्रहीनता आदि से युवक-युवतियों की रक्षा कर उन्हें राष्ट्र के लिए तैयार करने की दूरगामी सोच हैं। स्वामी जी दुराचार की भावना को मनुष्य के लिए विनाशकारी मानते थे इसीलिए उनका मानना था की अगर माता और पिता का चरित्र उज्जवल होगा तभी संतान भी सुयोग्य एवं चरित्रवान होगी। स्वामी जी के चिंतन में अशिक्षित रखने वाले माता-पिता को राजा द्वारा दण्डित करना प्रशंसनीय हैं क्यूंकि अगर देश की अगली पीढ़ी का विकास उचित प्रकार से होगा और उनकी नींव विधिवत रूप से रखी जाएगी तभी वे समाज के लिए जिम्मेदार नागरिक बनेगे। जिसका नींव में ही दोष होगा वह समाज और राष्ट्र के प्रति अपने कर्तव्यों का कैसे निर्वाहन कर पायेगा। आज से 150 वर्ष पूर्व स्वामी दयानंद के विचारों से शिक्षा चेतना का प्रचार हुआ जिसके कारण देश में हज़ारों शिक्षण संस्थाएं खुली, अनेक विद्यालय, गुरुकुल आदि प्रारम्भ हुए जिससे शिक्षा क्षेत्र में अभूतपूर्व प्रगति हुई। यह स्वामी दयानंद के चिंतन का परिणाम था।
वेदा वदन्ति (Vedic vichar)
11-07-2022
सन्देश पीपल के पत्तों का अश्वत्थे वो निषदनं पर्णे वो वसतिष्कृता । यजु-३५-४ अश्वत्थ ( पीपल के वृक्ष ) पर तुम्हारी बैठना है ,पत्ता तुम्हारा वसति:-वास है । You are sitting on अश्वत्थ tree and live on the leaves. हम तनिक अपनी मानसिकता पर विचार करें । हम प्राय: असत्य को सत्य ,चंचल को स्थिर ,जड़ को चेतन ,अनित्य को नित्य ,अपयश को यश ,बुराईको अच्छाई समझते हैं । हम संसार में आकर समझते हैं कि हमें सदैव यहाँ रहना है और मौज मस्ती करनी है । महात्मा युधिष्ठिर से यक्ष ने पूछा - इस संसार में आश्चर्य क्या है ,उन्हों ने जो उत्तर दिया वह त्रिकाल सत्य है ,उन्हों ने कहा - अहन्यहनि गच्छन्ति भूता इह यमालयम् । अन्ये स्थावरमिच्छन्ति किमाश्चर्यमत: परम् ।। प्रतिदिन अर्थियों पर प्राणी श्मशान की ओर जा रहे हैं ,लोग अपने बन्धु बान्धवों को अपने हाथों से चितायें बना बना कर जलारहे हैं । परन्तु उन्हें कभी यह विचार नहीं आता कि उनकी गति भी ऐसी हीहै ।दो पाटन के बीच में ख़ाली रहा न कोय ।इस संसार रूपी चक्की में सभी पिस रहे हैं ।यहाँ कोई भी स्थिर नहीं है ,यहाँ जैसे ही कोई उत्पत्ति होती है उसके साथ ही साथ विनाश भी प्रारम्भ हो जाता है ,संयोगाः विप्रयोगान्ता: , हमारा जन्मदिवस नहीं है परन्तु आयुन्यूनता सूचक दिवस है - हमारी इतनी आयु कम हो गई - यह बताता है ।तब भी अपनी शेष आयु के लिये सावधान नहीं होते , असाध्य को साध्य समझते हुये पूरी जीवन उसी में बिता देते हैं । ये इन्द्रियों के भोग ,विषय ,धन दौलत जीवन को सुचारु रूप से चलाने के लिये साधन हैं ,ये मानव ता के घातक नहीं साधक हैं । किसी भी पदार्थ में जब स्थिरता नहीं है तो फिरहम स्थिरता की कामना ही क्यों करते हैं ? उपरोक्त वेद की सूक्ति स्पष्ट ही हमारी अस्थिरता को बता रही है - वह कहती है अश्वत्थ पर तुम्हारी बैठक है ,अश्वत्थ पीपल का वृक्ष होता है ,यह संस्कृत शब्द बडा ही सार्थक है - य: श्वो न स्थास्यति स: - जो कल नहीं ठहरेगा । भोगापवर्गार्थं दृश्यम् - हम अपने नैतिक जीवन निर्माण के कार्यों को ,परमात्म प्राप्ति के उपायों को ,ज्ञानादि मोक्ष के साधनों को कल पर छोड़ते हुये चले जाते हैं अभी तो समय नहीं है कल कर लेंगे जब कि शुभस्य शीघ्रं होना चाहिये । कौन जानता है कि वह कल आयेगा भी या नहीं ,कल तक रह भी पायेंगे या नहीं । इसका क्या प्रमाण है । अश्वत्थ को चलदल भी कहते हैं ,जिसका अर्थ है चंचल पत्तों वाला । पीपल के पत्ते प्रायः हिलते रहते हैं मानों वे घोषणा कर रहे हैं - पर्णे वो वसतिश्कृता - पत्ते पर तुम्हारा वास है - पता नहीं कब वायु का झोंका आये और वह नीचे गिर जाये जो स्वयं क्षण भंगुर है उसका आश्रय लेने वाला भीनिश्चित ही क्षण भंगुर है । निस्सन्देह यह सब दृश्यमान जगत् अस्थायी है परन्तु इसमें एक अमर तत्त्व भी विद्यमान है जिसे हम संसार के द्वारा ,क्षण भंगुर शरीरके द्वाराही प्राप्तकर सकते हैं । इसी में हमारी कुशलताहै किइस अचेतन तत्त्व से चेतन तत्त्व को प्राप्त करें ,अनित्य सेनित्य चेतन को प्राप्तकरें । महर्षि याज्ञवल्क्य बृहदारण्यक उपनिषद में मैत्रेयी से कहते हैं-य आत्मनि तिष्ठन्नात्मनोन्तरो -जो परमेश्वर - आत्मा अर्थात् जीव में स्थित हो कर भी जीव से भिन्न है , जिसको मूढ़ जीवात्मा नहीं जानता है कि वह परमात्मा मेरे अन्दर व्यापक है ,यदि जानता होता तो वह कभी कुकर्म नहीं करता , मानव बनता। दानव नहीं ,सदाचारी बनता दुराचारी नहीं ,रक्षक बनता भक्षक नहीं ,परमात्मा की वेदोपदिश्ट आज्ञाओं का पालन करके मोक्षाधिकारी बनता ,जन्मजन्मान्तर तक भटकता नहीं ।इस लिये कहा जैसे शरीर में जीव रहता है वैसे ही जीव में परमेश्वर व्यापक है ,उसको तू जान । अन्यत्र कहा - आत्मा वा अरे श्रोतव्यो ,मन्तव्यो ,निदिध्यासितव्य इति एषोपनिषत् ,एषा वेदोपनिषत् । क्षण भंगुर शरीर में रहने वाले जीवों की यही सार्थकता है कि हम उस परमेश्वर को ज्ञान के द्वारा ,योगांगों के द्वारा जानने का प्रयास करें ,जिसके लिये हमारे जन्म जन्मांतर व्यतीत हो जाते हैं ।उसी परमेश्वर के लिये आता है - नित्यो sनित्यानां ,चेतनश्चेतनानाम् , एको बहूनां यो विदधाति कामान् । तमात्मस्थं येsनुपश्यन्ति धीरा: , तमाहुरग्र्यं पुरुषं प्रमाणम् ।। उतो तदद्य विद्याम यतस्तत् परिषिच्यते । वेद । हम सब का कर्तव्य है उस सत्ता को जानें जिससे सबको जीवन मिलता है ।
कब्र पूजा – मुर्खता अथवा अंधविश्वास. (Vedic vichar)
11-07-2022
अजमेर दरगाह के खादिम ने नूपुर शर्मा के विरुद्ध जो बयान दिया है। आप सब उससे परिचित है। यह खादिम कौन होते है? इससे जानना आवश्यक है। खादिम कहते है सेवक को। ये लोग एक वर्ग विशेष के सदस्य है जिनका कार्य अजमेर दरगाह की देख रेख करना और उस पर चढ़ने वाले करोड़ो रुपये को आपस में बाँटना है। अजमेर दरगाह और गरीब नवाज को धर्म विशेष के रूप में इतनी मान्यता दे दी गई है कि देश के प्रधानमंत्री मोदी जी अजमेर में दरगाह शरीफ पर चादर चढ़ाने के लिए बीजेपी के वरिष्ठ नेता मुख्तार अब्बास नक़वी को अजमेर हर वर्ष भेजते हैं। यह समाचार आपने अनेक बार पढ़ा होगा। पूर्व में भी बॉलीवुड का कोई प्रसिद्ध अभिनेता अभिनेत्री अथवा क्रिकेट के खिलाड़ी अथवा राजनेता चादर चढ़ाकर अपनी फिल्म को सुपर-हिट करने की अथवा आने वाले मैच में जीत की अथवा आने वाले चुनावों में जीत की दुआ मांगता रहा हैं। बॉलीवुड की अनेक फिल्मों में मुस्लिम कलाकारों ने अजमेर शरीफ की प्रशंसा में अनेक कव्वालियां गाई हैं जिसमें ए. आर. रहमान की अकबर फ़िल्म का ख्वाजा मेरे ख्वाजा सबसे प्रसिद्ध है। पाठकों को जानकार आश्चर्य होगा की सन 2006 में UPA सरकार द्वारा NCERT बोर्ड के अंतर्गत लगाए गई इतिहास पुस्तक में भी ख्वाजा की चर्चा हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रतीक सूफी संत के रूप में की गई हैं। भारत की नामी गिरामी हस्तियों के दुआ मांगने से साधारण जनमानस में एक भेड़चाल सी आरंभ हो गयी है की अजमेर में दुआ मांगे से बरकत हो जाएगी , किसी की नौकरी लग जाएगी , किसी के यहाँ पर लड़का पैदा हो जायेगा , किसी का कारोबार नहीं चल रहा हो तो वह चल जायेगा, किसी का विवाह नहीं हो रहा हो तो वह हो जायेगा। कुछ प्रश्न हमें अपने दिमाग पर जोर डालने को मजबूर कर रहे हैं जैसे की यह गरीब नवाज़ कौन थे ?कहाँ से आये थे? इन्होंने हिंदुस्तान में क्या किया और इनकी कब्र पर चादर चढ़ाने से हमें सफलता कैसे प्राप्त होती है? गरीब नवाज़ भारत में लूटपाट करने वाले , हिन्दू मंदिरों का विध्वंस करने वाले ,भारत के अंतिम हिन्दू राजा पृथ्वी राज चौहान को हराने वाले व जबरदस्ती इस्लाम में धर्म परिवर्तन करने वाले मुहम्मद गौरी के साथ भारत में शांति का पैगाम लेकर आये थे। पहले वे दिल्ली के पास आकर रुके फिर अजमेर जाते हुए उन्होंने करीब 700 हिन्दुओं को इस्लाम में दीक्षित किया और अजमेर में वे जिस स्थान पर रुके उस स्थान पर तत्कालीन हिन्दू राजा पृथ्वी राज चौहान का राज्य था। ख्वाजा के बारे में चमत्कारों की अनेकों कहानियां प्रसिद्ध है की जब राजा पृथ्वीराज के सैनिकों ने ख्वाजा के वहां पर रुकने का विरोध किया क्योंकि वह स्थान राज्य सेना के ऊँटों को रखने का था तो पहले तो ख्वाजा ने मना कर दिया फिर क्रोधित होकर श्राप दे दिया की जाओ तुम्हारा कोई भी ऊँट वापिस उठ नहीं सकेगा। जब राजा के कर्मचारियों ने देखा की वास्तव में ऊँट उठ नहीं पा रहे है तो वे ख्वाजा से माफ़ी मांगने आये और फिर कहीं जाकर ख्वाजा ने ऊँटों को दुरुस्त कर दिया। दूसरी कहानी अजमेर स्थित आनासागर झील की हैं। ख्वाजा अपने खादिमों के साथ वहां पहुंचे और उन्होंने एक गाय को मारकर उसका कबाब बनाकर खाया। कुछ खादिम पनसिला झील पर चले गए कुछ आनासागर झील पर ही रह गए। उस समय दोनों झीलों के किनारे करीब 1000 हिन्दू मंदिर थे, हिन्दू ब्राह्मणों ने मुसलमानों के वहां पर आने का विरोध किया और ख्वाजा से शिकायत कर दी। ख्वाजा ने तब एक खादिम को सुराही भरकर पानी लाने को बोला। जैसे ही सुराही को पानी में डाला तभी दोनों झीलों का सारा पानी सुख गया। ख्वाजा फिर झील के पास गए और वहां स्थित मूर्ति को सजीव कर उससे कलमा पढ़वाया और उसका नाम सादी रख दिया। ख्वाजा के इस चमत्कार की सारे नगर में चर्चा फैल गई। पृथ्वीराज चौहान ने अपने प्रधान मंत्री जयपाल को ख्वाजा को काबू करने के लिए भेजा। मंत्री जयपाल ने अपनी सारी कोशिश कर डाली पर असफल रहा और ख्वाजा नें उसकी सारी शक्तिओ को खत्म कर दिया। राजा पृथ्वीराज चौहान सहित सभी लोग ख्वाजा से क्षमा मांगने आये। अनेक लोगों ने इस्लाम कबूल किया पर पृथ्वीराज चौहान ने इस्लाम कबूलने इंकार कर दिया। तब ख्वाजा नें भविष्यवाणी करी की पृथ्वी राज को जल्द ही बंदी बना कर इस्लामिक सेना के हवाले कर दिया जायेगा। निजामुद्दीन औलिया जिसकी दरगाह दिल्ली में स्थित हैं ने भी ख्वाजा का स्मरण करते हुए कुछ ऐसा ही लिखा है। बुद्धिमान पाठक गन स्वयं अंदाजा लगा सकते हैं की इस प्रकार के करिश्मों को सुनकर कोई मुर्ख ही इन बातों पर विश्वास ला सकता है। भारत में स्थान स्थान पर स्थित कब्रें उन मुसलमानों की हैं जो भारत पर आक्रमण करने आये थे और हमारे वीर हिन्दू पूर्वजों ने उन्हें अपनी तलवारों से परलोक पहुंचा दिया था। ऐसी ही एक कब्र बहराइच गोरखपुर के निकट स्थित है। यह कब्र गाज़ी मियां की है। गाज़ी मियां का असली नाम सालार गाज़ी मियां था एवं उनका जन्म अजमेर में हुआ था। इस्लाम में गाज़ी की उपाधि किसी काफ़िर यानी गैर मुसलमान को कत्ल करने पर मिलती थी। गाज़ी मियां के मामा मुहम्मद गजनी ने ही भारत पर आक्रमण करके गुजरात स्थित प्रसिद्ध सोमनाथ मंदिर का विध्वंस किया था। कालांतर में गाज़ी मियां अपने मामा के यहाँ पर रहने के लिए गजनी चला गया। कुछ काल के बाद अपने वज़ीर के कहने पर गाज़ी मियां को मुहम्मद गजनी ने नाराज होकर देश से निकला दे दिया। उसे इस्लामिक आक्रमण का नाम देकर गाज़ी मियां ने भारत पर हमला कर दिया। हिन्दू मंदिरों का विध्वंस करते हुए, हजारों हिन्दुओं का कत्ल अथवा उन्हें गुलाम बनाते हुए, नारी जाति पर अमानवीय कहर बरपाते हुए गाज़ी मियां ने बाराबंकी में अपनी छावनी बनाई और चारों तरफ अपनी फौजें भेजी। कौन कहता है की हिन्दू राजा कभी मिलकर नहीं रहे? मानिकपुर, बहराइच आदि के 24 हिन्दू राजाओं ने राजा सोहेल देव के नेतृत्व में जून की भरी गर्मी में गाज़ी मियां की सेना का सामना किया और उसकी सेना का संहार कर दिया। राजा सोहेल देव ने गाज़ी मियां को खींच कर एक तीर मारा जिससे की वह परलोक पहुँच गया। उसकी लाश को उठाकर एक तालाब में फेंक दिया गया। हिन्दुओं ने इस विजय से न केवल सोमनाथ मंदिर के लूटने का बदला ले लिया था बल्कि अगले 200 सालों तक किसी भी मुस्लिम आक्रमणकारी का भारत पर हमला करने का दुस्साहस नहीं हुआ। कालांतर में फ़िरोज़ शाह तुगलक ने अपनी माँ के कहने पर बहराइच स्थित सूर्य कुण्ड नामक तालाब को भरकर उस पर एक दरगाह और कब्र गाज़ी मियां के नाम से बनवा दी जिस पर हर जून के महीने में सालाना उर्स लगने लगा। मेले में एक कुण्ड में कुछ बहरूपिये बैठ जाते है और कुछ समय के बाद लाइलाज बीमारियों को ठीक होने का ढोंग रचते है। पूरे मेले में चारों तरफ गाज़ी मियां के चमत्कारों का शोर मच जाता है और उसकी जय-जयकार होने लग जाती है। हजारों की संख्या में मुर्ख हिन्दू औलाद की, दुरुस्ती की, नौकरी की, व्यापार में लाभ की दुआ गाज़ी मियां से मांगते है, शरबत बांटते है , चादर चढ़ाते है और गाज़ी मियां की याद में कव्वाली गाते है। कुछ सामान्य से 10 प्रश्न हम पाठकों से पूछना चाहेंगे? 1 .क्या एक कब्र जिसमें मुर्दे की लाश मिट्टी में बदल चूकि है वो किसी की मनोकामना पूरी कर सकती है? 2. सभी कब्र उन मुसलमानों की है जो हमारे पूर्वजों से लड़ते हुए मारे गए थे, उनकी कब्रों पर जाकर मन्नत मांगना क्या उन वीर पूर्वजों का अपमान नहीं है जिन्होंने अपने प्राण धर्म रक्षा करते की बलि वेदी पर समर्पित कर दिये थे? 3. क्या हिन्दुओं के राम, कृष्ण अथवा 33 कोटि देवी देवता शक्तिहीन हो चुकें है जो मुसलमानों की कब्रों पर सर पटकने के लिए जाना आवश्यक है? 4. जब गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहाँ हैं की कर्म करने से ही सफलता प्राप्त होती हैं तो मजारों में दुआ मांगने से क्या हासिल होगा? 5. भला किसी मुस्लिम देश में वीर शिवाजी, महाराणा प्रताप, हरी सिंह नलवा आदि वीरों की स्मृति में कोई स्मारक आदि बनाकर उन्हें पूजा जाता है तो भला हमारे ही देश पर आक्रमण करने वालों की कब्र पर हम क्यों शीश झुकाते है? 6. क्या संसार में इससे बड़ी मूर्खता का प्रमाण आपको मिल सकता है? 7.. हिन्दू जाति कौन सी ऐसी अध्यात्मिक प्रगति मुसलमानों की कब्रों की पूजा कर प्राप्त कर रहीं है जिसका वर्णन पहले से ही हमारे वेदों- उपनिषदों आदि में नहीं है? 8. कब्र पूजा को हिन्दू मुस्लिम एकता की मिसाल और सेकुलरता की निशानी बताना हिन्दुओं को अँधेरे में रखना नहीं तो ओर क्या है? 9. इतिहास की पुस्तकों में गौरी – गजनी का नाम तो आता हैं जिन्होंने हिन्दुओं को हरा दिया था पर मुसलमानों को हराने वाले राजा सोहेल देव पासी का नाम तक न मिलना क्या हिन्दुओं की सदा पराजय हुई थी ऐसी मानसिकता को बना कर उनमें आत्मविश्वास और स्वाभिमान की भावना को कम करने के समान नहीं है? 10. क्या हिन्दू फिर एक बार 24 हिन्दू राजाओं की भांति मिल कर संगठित होकर देश पर आये संकट जैसे की आतंकवाद, जबरन धर्म परिवर्तन ,नक्सलवाद, लव जिहाद, बंगलादेशी मुसलमानों की घुसपैठ आदि का मुंहतोड़ जवाब नहीं दे सकते? आशा हैं इस लेख को पढ़ कर आपकी बुद्धि में कुछ प्रकाश हुआ होगा। अगर आप आर्य राजा राम और कृष्ण जी महाराज की संतान हैं तो तत्काल इस मूर्खता पूर्ण अंधविश्वास को छोड़ दे और अन्य हिन्दुओं को भी इस बारे में प्रकाशित करें।
कब्र पूजा – मुर्खता अथवा अंधविश्वास. (Vedic vichar)
11-07-2022
अजमेर दरगाह के खादिम ने नूपुर शर्मा के विरुद्ध जो बयान दिया है। आप सब उससे परिचित है। यह खादिम कौन होते है? इससे जानना आवश्यक है। खादिम कहते है सेवक को। ये लोग एक वर्ग विशेष के सदस्य है जिनका कार्य अजमेर दरगाह की देख रेख करना और उस पर चढ़ने वाले करोड़ो रुपये को आपस में बाँटना है। अजमेर दरगाह और गरीब नवाज को धर्म विशेष के रूप में इतनी मान्यता दे दी गई है कि देश के प्रधानमंत्री मोदी जी अजमेर में दरगाह शरीफ पर चादर चढ़ाने के लिए बीजेपी के वरिष्ठ नेता मुख्तार अब्बास नक़वी को अजमेर हर वर्ष भेजते हैं। यह समाचार आपने अनेक बार पढ़ा होगा। पूर्व में भी बॉलीवुड का कोई प्रसिद्ध अभिनेता अभिनेत्री अथवा क्रिकेट के खिलाड़ी अथवा राजनेता चादर चढ़ाकर अपनी फिल्म को सुपर-हिट करने की अथवा आने वाले मैच में जीत की अथवा आने वाले चुनावों में जीत की दुआ मांगता रहा हैं। बॉलीवुड की अनेक फिल्मों में मुस्लिम कलाकारों ने अजमेर शरीफ की प्रशंसा में अनेक कव्वालियां गाई हैं जिसमें ए. आर. रहमान की अकबर फ़िल्म का ख्वाजा मेरे ख्वाजा सबसे प्रसिद्ध है। पाठकों को जानकार आश्चर्य होगा की सन 2006 में UPA सरकार द्वारा NCERT बोर्ड के अंतर्गत लगाए गई इतिहास पुस्तक में भी ख्वाजा की चर्चा हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रतीक सूफी संत के रूप में की गई हैं। भारत की नामी गिरामी हस्तियों के दुआ मांगने से साधारण जनमानस में एक भेड़चाल सी आरंभ हो गयी है की अजमेर में दुआ मांगे से बरकत हो जाएगी , किसी की नौकरी लग जाएगी , किसी के यहाँ पर लड़का पैदा हो जायेगा , किसी का कारोबार नहीं चल रहा हो तो वह चल जायेगा, किसी का विवाह नहीं हो रहा हो तो वह हो जायेगा। कुछ प्रश्न हमें अपने दिमाग पर जोर डालने को मजबूर कर रहे हैं जैसे की यह गरीब नवाज़ कौन थे ?कहाँ से आये थे? इन्होंने हिंदुस्तान में क्या किया और इनकी कब्र पर चादर चढ़ाने से हमें सफलता कैसे प्राप्त होती है? गरीब नवाज़ भारत में लूटपाट करने वाले , हिन्दू मंदिरों का विध्वंस करने वाले ,भारत के अंतिम हिन्दू राजा पृथ्वी राज चौहान को हराने वाले व जबरदस्ती इस्लाम में धर्म परिवर्तन करने वाले मुहम्मद गौरी के साथ भारत में शांति का पैगाम लेकर आये थे। पहले वे दिल्ली के पास आकर रुके फिर अजमेर जाते हुए उन्होंने करीब 700 हिन्दुओं को इस्लाम में दीक्षित किया और अजमेर में वे जिस स्थान पर रुके उस स्थान पर तत्कालीन हिन्दू राजा पृथ्वी राज चौहान का राज्य था। ख्वाजा के बारे में चमत्कारों की अनेकों कहानियां प्रसिद्ध है की जब राजा पृथ्वीराज के सैनिकों ने ख्वाजा के वहां पर रुकने का विरोध किया क्योंकि वह स्थान राज्य सेना के ऊँटों को रखने का था तो पहले तो ख्वाजा ने मना कर दिया फिर क्रोधित होकर श्राप दे दिया की जाओ तुम्हारा कोई भी ऊँट वापिस उठ नहीं सकेगा। जब राजा के कर्मचारियों ने देखा की वास्तव में ऊँट उठ नहीं पा रहे है तो वे ख्वाजा से माफ़ी मांगने आये और फिर कहीं जाकर ख्वाजा ने ऊँटों को दुरुस्त कर दिया। दूसरी कहानी अजमेर स्थित आनासागर झील की हैं। ख्वाजा अपने खादिमों के साथ वहां पहुंचे और उन्होंने एक गाय को मारकर उसका कबाब बनाकर खाया। कुछ खादिम पनसिला झील पर चले गए कुछ आनासागर झील पर ही रह गए। उस समय दोनों झीलों के किनारे करीब 1000 हिन्दू मंदिर थे, हिन्दू ब्राह्मणों ने मुसलमानों के वहां पर आने का विरोध किया और ख्वाजा से शिकायत कर दी। ख्वाजा ने तब एक खादिम को सुराही भरकर पानी लाने को बोला। जैसे ही सुराही को पानी में डाला तभी दोनों झीलों का सारा पानी सुख गया। ख्वाजा फिर झील के पास गए और वहां स्थित मूर्ति को सजीव कर उससे कलमा पढ़वाया और उसका नाम सादी रख दिया। ख्वाजा के इस चमत्कार की सारे नगर में चर्चा फैल गई। पृथ्वीराज चौहान ने अपने प्रधान मंत्री जयपाल को ख्वाजा को काबू करने के लिए भेजा। मंत्री जयपाल ने अपनी सारी कोशिश कर डाली पर असफल रहा और ख्वाजा नें उसकी सारी शक्तिओ को खत्म कर दिया। राजा पृथ्वीराज चौहान सहित सभी लोग ख्वाजा से क्षमा मांगने आये। अनेक लोगों ने इस्लाम कबूल किया पर पृथ्वीराज चौहान ने इस्लाम कबूलने इंकार कर दिया। तब ख्वाजा नें भविष्यवाणी करी की पृथ्वी राज को जल्द ही बंदी बना कर इस्लामिक सेना के हवाले कर दिया जायेगा। निजामुद्दीन औलिया जिसकी दरगाह दिल्ली में स्थित हैं ने भी ख्वाजा का स्मरण करते हुए कुछ ऐसा ही लिखा है। बुद्धिमान पाठक गन स्वयं अंदाजा लगा सकते हैं की इस प्रकार के करिश्मों को सुनकर कोई मुर्ख ही इन बातों पर विश्वास ला सकता है। भारत में स्थान स्थान पर स्थित कब्रें उन मुसलमानों की हैं जो भारत पर आक्रमण करने आये थे और हमारे वीर हिन्दू पूर्वजों ने उन्हें अपनी तलवारों से परलोक पहुंचा दिया था। ऐसी ही एक कब्र बहराइच गोरखपुर के निकट स्थित है। यह कब्र गाज़ी मियां की है। गाज़ी मियां का असली नाम सालार गाज़ी मियां था एवं उनका जन्म अजमेर में हुआ था। इस्लाम में गाज़ी की उपाधि किसी काफ़िर यानी गैर मुसलमान को कत्ल करने पर मिलती थी। गाज़ी मियां के मामा मुहम्मद गजनी ने ही भारत पर आक्रमण करके गुजरात स्थित प्रसिद्ध सोमनाथ मंदिर का विध्वंस किया था। कालांतर में गाज़ी मियां अपने मामा के यहाँ पर रहने के लिए गजनी चला गया। कुछ काल के बाद अपने वज़ीर के कहने पर गाज़ी मियां को मुहम्मद गजनी ने नाराज होकर देश से निकला दे दिया। उसे इस्लामिक आक्रमण का नाम देकर गाज़ी मियां ने भारत पर हमला कर दिया। हिन्दू मंदिरों का विध्वंस करते हुए, हजारों हिन्दुओं का कत्ल अथवा उन्हें गुलाम बनाते हुए, नारी जाति पर अमानवीय कहर बरपाते हुए गाज़ी मियां ने बाराबंकी में अपनी छावनी बनाई और चारों तरफ अपनी फौजें भेजी। कौन कहता है की हिन्दू राजा कभी मिलकर नहीं रहे? मानिकपुर, बहराइच आदि के 24 हिन्दू राजाओं ने राजा सोहेल देव के नेतृत्व में जून की भरी गर्मी में गाज़ी मियां की सेना का सामना किया और उसकी सेना का संहार कर दिया। राजा सोहेल देव ने गाज़ी मियां को खींच कर एक तीर मारा जिससे की वह परलोक पहुँच गया। उसकी लाश को उठाकर एक तालाब में फेंक दिया गया। हिन्दुओं ने इस विजय से न केवल सोमनाथ मंदिर के लूटने का बदला ले लिया था बल्कि अगले 200 सालों तक किसी भी मुस्लिम आक्रमणकारी का भारत पर हमला करने का दुस्साहस नहीं हुआ। कालांतर में फ़िरोज़ शाह तुगलक ने अपनी माँ के कहने पर बहराइच स्थित सूर्य कुण्ड नामक तालाब को भरकर उस पर एक दरगाह और कब्र गाज़ी मियां के नाम से बनवा दी जिस पर हर जून के महीने में सालाना उर्स लगने लगा। मेले में एक कुण्ड में कुछ बहरूपिये बैठ जाते है और कुछ समय के बाद लाइलाज बीमारियों को ठीक होने का ढोंग रचते है। पूरे मेले में चारों तरफ गाज़ी मियां के चमत्कारों का शोर मच जाता है और उसकी जय-जयकार होने लग जाती है। हजारों की संख्या में मुर्ख हिन्दू औलाद की, दुरुस्ती की, नौकरी की, व्यापार में लाभ की दुआ गाज़ी मियां से मांगते है, शरबत बांटते है , चादर चढ़ाते है और गाज़ी मियां की याद में कव्वाली गाते है। कुछ सामान्य से 10 प्रश्न हम पाठकों से पूछना चाहेंगे? 1 .क्या एक कब्र जिसमें मुर्दे की लाश मिट्टी में बदल चूकि है वो किसी की मनोकामना पूरी कर सकती है? 2. सभी कब्र उन मुसलमानों की है जो हमारे पूर्वजों से लड़ते हुए मारे गए थे, उनकी कब्रों पर जाकर मन्नत मांगना क्या उन वीर पूर्वजों का अपमान नहीं है जिन्होंने अपने प्राण धर्म रक्षा करते की बलि वेदी पर समर्पित कर दिये थे? 3. क्या हिन्दुओं के राम, कृष्ण अथवा 33 कोटि देवी देवता शक्तिहीन हो चुकें है जो मुसलमानों की कब्रों पर सर पटकने के लिए जाना आवश्यक है? 4. जब गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहाँ हैं की कर्म करने से ही सफलता प्राप्त होती हैं तो मजारों में दुआ मांगने से क्या हासिल होगा? 5. भला किसी मुस्लिम देश में वीर शिवाजी, महाराणा प्रताप, हरी सिंह नलवा आदि वीरों की स्मृति में कोई स्मारक आदि बनाकर उन्हें पूजा जाता है तो भला हमारे ही देश पर आक्रमण करने वालों की कब्र पर हम क्यों शीश झुकाते है? 6. क्या संसार में इससे बड़ी मूर्खता का प्रमाण आपको मिल सकता है? 7.. हिन्दू जाति कौन सी ऐसी अध्यात्मिक प्रगति मुसलमानों की कब्रों की पूजा कर प्राप्त कर रहीं है जिसका वर्णन पहले से ही हमारे वेदों- उपनिषदों आदि में नहीं है? 8. कब्र पूजा को हिन्दू मुस्लिम एकता की मिसाल और सेकुलरता की निशानी बताना हिन्दुओं को अँधेरे में रखना नहीं तो ओर क्या है? 9. इतिहास की पुस्तकों में गौरी – गजनी का नाम तो आता हैं जिन्होंने हिन्दुओं को हरा दिया था पर मुसलमानों को हराने वाले राजा सोहेल देव पासी का नाम तक न मिलना क्या हिन्दुओं की सदा पराजय हुई थी ऐसी मानसिकता को बना कर उनमें आत्मविश्वास और स्वाभिमान की भावना को कम करने के समान नहीं है? 10. क्या हिन्दू फिर एक बार 24 हिन्दू राजाओं की भांति मिल कर संगठित होकर देश पर आये संकट जैसे की आतंकवाद, जबरन धर्म परिवर्तन ,नक्सलवाद, लव जिहाद, बंगलादेशी मुसलमानों की घुसपैठ आदि का मुंहतोड़ जवाब नहीं दे सकते? आशा हैं इस लेख को पढ़ कर आपकी बुद्धि में कुछ प्रकाश हुआ होगा। अगर आप आर्य राजा राम और कृष्ण जी महाराज की संतान हैं तो तत्काल इस मूर्खता पूर्ण अंधविश्वास को छोड़ दे और अन्य हिन्दुओं को भी इस बारे में प्रकाशित करें।
महर्षि दयानन्द सरस्वती जी के अमूल्य उपदेश. (Vedic vichar)
11-07-2022
प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ भाग 5 ४१. यही सज्जनों की रीति है कि अपने व पराये दोषों को दोष और गुणों को गुण जानकर गुणों को ग्रहण और दोषों का त्याग करें और हठियों का हठ दुराग्रह न्यून करें करावें। (सत्यार्थप्रकाश अनुभूमिका समुल्लास १४) ४२. पूर्व जन्म के पुण्य पाप के अनुसार वर्तमान जन्म और वर्तमान तथा पूर्व जन्म के कर्मानुसार भविष्यत जन्म होते हैं। (सत्यार्थप्रकाश समुल्लास ९) ४३. जैसे यह पृथ्वी जड़ है वैसे ही सूर्यादि लोक हैं। और वे ताप और प्रकाशादि भिन्न कुछ भी नहीं कर सकते। (सत्यार्थप्रकाश समुल्लास २) ४४. कोई कहे कि माता पिता के बिना सन्तानोत्पत्ति हुई, किसी ने मृतक जिलाये, पहाड़ उठाये, समुद्र में पत्थर तैराये, चन्द्रमा के टुकड़े किये, परमेश्वर का अवतार हुआ, मनुष्य के सींग देखे और वन्ध्या के पुत्र पुत्री का विवाह किया, इत्यादि सब असम्भव है क्योंकि वह सब बातें सृष्टि क्रम के विरुद्ध हैं। (सत्यार्थप्रकाश समुल्लास ३) ४५. "सब मनुष्यों को उचित है कि सब के मत विषयक पुस्तकों को समझ कर कुछ सम्मति वा असम्मति देवें वा लिखें नहीं तो सुना करें।" (सत्यार्थप्रकाश अनुभूमिका समुल्लास १३) ४६. मनुष्य जन्म का होना सत्यासत्य के निर्णय करने कराने के लिए है, न कि वाद विवाद विरोध करने कराने के लिए। (सत्यार्थप्रकाश) ४७. जब सत्पुरुष उत्पन्न होकर सत्योपदेश करते हैं तभी अन्ध परम्परा नष्ट होकर प्रकाश की परम्परा चलती है। (सत्यार्थप्रकाश समुल्लास ११) ४८. विद्वान् आप्तों का यही मुख्य काम है कि उपदेश व लेख द्वारा सब मनुष्यों के सामने सत्यासत्य का स्वरूप समर्पित कर दें। (सत्यार्थप्रकाश भूमिका) ४९. परमात्मा सब के मन में सत्य मत का ऐसा अंकुर डाले कि जिससे मिथ्या मत शीघ्र ही प्रलय को प्राप्त हों। (सत्यार्थप्रकाश समुल्लास १०) ५०. यदि तुमको सत्य मत ग्रहण करने की इच्छा हो तो वैदिक मत को ग्रहण करो। (सत्यार्थप्रकाश समुल्लास १४) ।।ओ३म्।।
महर्षि दयानन्द सरस्वती जी के अमूल्य उपदेश. (Vedic vichar)
11-07-2022
प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ भाग 4 ३१. सन्तानों को उत्तम विद्या, शिक्षा, गुण, कर्म और स्वभाव रूप आभूषणों का धारण कराना माता, पिता, आचार्य और सम्बन्धियों का मुख्य कर्म है। (सत्यार्थप्रकाश समुल्लास ३) ३२. शरीर और आत्मा सुसंस्कृत होने से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को प्राप्त हो सकते हैं और सन्तान अत्यन्त योग्य होते हैं इसलिए संस्कारों को करना मनुष्यों को अति उचित है। (संस्कार विधि) ३३. भला जो पुरुष विद्वान् और स्त्री अविदुषी और स्त्री विदुषी और पुरुष अविद्वान् हों तो नित्यप्रति देवासुर संग्राम घर में मचा रहे फिर सुख कहां? (सत्यार्थप्रकाश समुल्लास ३) ३४. जैसा राजा होता है वैसी ही उसकी प्रजा होती है इसलिए राजा और राजपुरुषों को अति उचित है कि कभी दुष्टाचार न करें किन्तु सब दिन धर्म न्याय से बर्तकर सबके सुधार के दृष्टा बने। (सत्यार्थप्रकाश समुल्लास ६) ३५. संसार का उपकार करना इस समाज का मुख्य उद्देश्य है अर्थात् सामाजिक, आत्मिक और शारीरिक उन्नति करना। (आर्यसमाज का छंठा नियम) ३६. जिस जिस कर्म से तृप्त अर्थात् विद्यमान माता पितादि पितर प्रसन्न हों और प्रसन्न किये जाये उसका नाम तर्पण है। परन्तु यह जीवितों के लिए हैं मृतकों के लिए नहीं। (सत्यार्थप्रकाश समुल्लास ३) ३७. जब तक इस मनुष्य जाति में परस्पर मिथ्यामतान्तर का विरुद्ध वाद न छूटेगा तब तक अन्योऽन्य को आनन्द न होगा। (सत्यार्थप्रकाश उत्तरार्द्ध अनुभूमिका) ३८. सब मनुष्यों को न्याय दृष्टि से वर्त्तना अति उचित है। मनुष्य जन्म का होना सत्यासत्य के निर्णय करने कराने के लिए है न कि वादविवाद विरोध करने कराने के लिए। (सत्यार्थप्रकाश अनुभूमिका) ३९. जिस बात में ये सहस्र एकमत हों वह वेदमत ग्राह्य है और जिसमें परस्पर विरोध हो वह कल्पित झूठा, अधर्म अग्राह्य है। (सत्यार्थप्रकाश समुल्लास ११) ४०. जो कोई दुःख को छुड़ाना और सुख को प्राप्त होना चाहे वह अधर्म को छोड़ धर्म अवश्य करें। क्योंकि दुःख का पापाचरण और सुख का धर्माचरण मूल कारण है। (सत्यार्थप्रकाश समुल्लास ९)
मनुस्मृति में मांसभक्षण निषेध (Vedic vichar)
11-07-2022
(1) योऽहिंसकानि भूतानि हिनस्त्यात्मसुखेच्छया । स जीवंश्च मृतश्चैव न क्वचित्सुखमेधते ।।-(मनु० ५/४५)* अर्थ:-जो जीव वध-योग्य नहीं हैं,उनको जो कोई अपने सुख के निमित्त मारता है,वह जीवित दशा में भी मृतक-तुल्य है,वह कहीं भी सुख नहीं पाता है। (2) यो बन्धनवधक्लेशान्प्राणिनां न चिकीर्षति । स सर्वस्य हितप्रेप्सुः सुखमत्यन्तमश्नुते ।।-(मनु० ५/४६) अर्थ:-जो मनुष्य किसी जीव को बन्धन में रखने,वध करने व क्लेश देने की इच्छा नहीं रखता है,वह सबका हितेच्छु है,अतएव वह अनन्त सुख भोगता है। (3) नाऽकृत्वा प्राणिनां हिंसां मांसमुत्पद्यते क्वचित्। न च प्राणिवधः स्वर्ग्यस्तस्मान्मांसं विवर्जयेत् ।।-(मनु० ५/४८) अर्थ:-जीवों की हिंसा बिना मांस की प्राप्ति नहीं होती और जीवों की हिंसा स्वर्ग-प्राप्ति (सुखविषेश) में बाधक है,अतः मांस-भक्षण कदापि नहीं करना चाहिए। (4) समुत्पत्तिं तु मांसस्य वधबन्धौ च देहिनाम् । प्रसमीक्ष्य निवर्तेत सर्वमांसस्य भक्षणात् ।।-(मनु० ५/४९) अर्थ:-मांस की उत्पत्ति,जीवों का बन्धन तथा उनकी हिंसा-इन बातों को देखकर सब प्रकार से मांस-भक्षण का त्याग करना चाहिए। (5) न भक्षयति यो मांसं विधिं हित्वा पिशाचवत् । स लोके प्रियतां याति व्याधिभिश्च न पीड्यते ।।-(मनु० ५/५०) अर्थ:-जो मनुष्य विधि त्यागकर पिशाच की तरह मांस-भक्षण नहीं करता वह संसार में सर्वप्रिय बन जाता है और विपत्ति के समय कष्ट नहीं पाता। (6) अनुमन्ता विशसिता निहन्ता क्रयविक्रयी । संस्कर्ता चोपहर्ता च खादकश्चैति घातकाः ।।-(मनु० ५/५१) अर्थ:-पशु-हत्या की अनुमति देने वाला,शस्त्र से मांस काटने वाला,मारने वाला,खरीदने वाला,बेचने वाला,पकाने वाला,परोसने वाला और खाने वाला,ये सब घातक अर्थात् कसाई हैं। (7) वर्षे वर्षेऽश्वमेधेन यो यजेत शतं समाः । मांसानि च न खादेद्यस्तयोः पुण्यफलं समम् ।।-(मनु० ५/५३) अर्थ:-जो मनुष्य सौ वर्ष-पर्यन्त प्रत्येक वर्ष एक बार अश्वमेध यज्ञ करता है तथा अन्य पुरुष जो मांसभक्षी नहीं है,इन दोनों के पुण्य का फल समान है। (???? फलमूलाशनैर्मेध्यैर्मुन्यन्नानां च भोजनैः । न तत्फलमवाप्नोति यन्मांसपरिवर्जनात् ।।-(मनु० ५/५४) अर्थ:-मनुष्य को सेब,केला आदि पवित्र फल,गाजर,मूली आदि कन्दमूल और मुनी-अन्न के खाने से वह फल प्राप्त नहीं होता,जो मांस-भक्षण के परित्याग से प्राप्त होता है। =========================== उपर्युक्त श्लोकों से यह ज्ञात होता है कि मनु महाराज मांस-भक्षण के कितने प्रबल विरोधी थे
गधे की मजार. (Vedic vichar)
08-07-2022
(वीरवार के दिन पीरों-मजारों वालों के लिए विशेष रूप से प्रकाशित) एक फकीर किसी बंजारे की सेवा से बहुत प्रसन्न हो गया। और उस बंजारे को उसने एक गधा भेंट किया। बंजारा बड़ा प्रसन्न था गधे के साथ। अब उसे पेदल यात्रा न करनी पड़ती थी। सामान भी अपने कंधे पर न ढोना पड़ता था। और गधा बड़ा स्वामीभक्त था। लेकिन एक यात्रा पर गधा अचानक बीमार पडा और मर गया। दुःख में उसने उसकी कब्र बनायी, और कब्र के पास बैठकर रो रहा था कि एक राहगीर गुजरा। उस राहगीर ने सोचा कि जरूर किसी महान आत्मा की मृत्यु हो गयी है। तो वह भी झुका कब्र के पास। इसके पहले कि बंजारा कुछ कहे, उसने कुछ रूपये कब्र पर चढ़ाये। बंजारे को हंसी भी आई आयी। लेकिन तब तक भले आदमी की श्रद्धा को तोड़ना भी ठीक मालुम न पडा। और उसे यह भी समझ में आ गया कि यह बड़ा उपयोगी व्यवसाय है। फिर उसी कब्र के पास बैठकर रोता, यही उसका धंधा हो गया। लोग आते, गांव-गांव खबर फैल गयी कि किसी महान आत्मा की मृत्यु हो गयी। और गधे की कब्र किसी पहुंच हुए फकीर की समाधि बन गयी। ऐसे वर्ष बीते, वह बंजारा बहुत धनी हो गया। फिर एक दिन जिस सूफी साधु ने उसे यह गधा भेंट किया था। वह भी यात्रा पर था और उस गांव के करीब से गुजरा। उसे भी लोगों ने कहा, "एक महान आत्मा की कब्र है यहां, दर्शन किये बिना मत चले जाना।" वह गया देखा उसने इस बंजारे को बैठा, तो उसने कहा, "किसकी कब्र है यहा, और तू यहां बैठा क्यों रो रहा है ?" उस बंजारे ने कहां, "अब आप से क्या छिपाना, जो गधा आप ने दिया था। उसी की कब्र है। जीते जी भी उसने बड़ा साथ दिया और मर कर और ज्यादा साथ दे रहा है।" सुनते ही फकीर खिल खिलाकर हंसाने लगा। उस बंजारे ने पूछा - "आप हंसे क्यों ?" फकीर ने कहां - "तुम्हें पता है। जिस गांव में मैं रहता हूं वहां भी एक पहूंचे हएं महात्मा की कब्र है। उसी से तो मेरा काम चलता है।" बंजारे ने पूछा - "वह किस महात्मा की कब्र है ?" फकीर ने जवाब दिया- "वह इसी गधे की मां की। शिक्षा- यजुर्वेद में एक मंत्र है - वेदाहमेतं पुरुषं महान्तं. आदित्यवर्णं तमसो परस्तात् । तमेव विदित्वा मृत्युमत्येति. नान्य: पन्था विद्यतेऽयनाय ॥ यजु० ३१।१८ नान्य: पन्था का अर्थ है इसके भिन्न अन्य कोई मार्ग नहीं है। ईश्वर भक्ति का एक ही मार्ग है। जो वेदों ने बताया और प्राचीन ऋषि मुनियों ने अपनाया था। उससे छोड़कर कोई भिन्न मार्ग नहीं है। जो लोग यह कहते हैं कि केवल आस्था से ही ईश्वर की भक्ति संभव है उन्हें यह नहीं मालूम की बिना ज्ञान के आस्था अन्धविश्वास कहलाती हैं।
महर्षि दयानन्द सरस्वती जी के अमूल्य उपदेश (Vedic vichar)
08-07-2022
प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ भाग 3 २१. जो दुष्ट कर्मचारी द्विज को श्रेष्ठ, कर्मकार शूद्र को नीच मानें तो इसके परे पक्षपात् अन्याय, अधर्म दूसरा अधिक क्या होगा। २२. जो विद्यादि सद्गुणों में गुरुत्व नहीं है झूठमूठ कण्ठी, तिलक, वेद विरुद्ध मन्त्रोपदेश करने वाले हैं वे गुरु ही नहीं किन्तु गडरिये हैं। (सत्यार्थप्रकाश समुल्लास ११) २३. "जो धर्मयुक्त उत्तम काम करे, सदा परोपकार में प्रवृत्त हो, कोई दुर्गुण जिसमें न हो, विद्वान् सत्योपदेश से सब का उपकार करे, उसको साधु कहते हैं।" (सत्यार्थप्रकाश समुल्लास ११) २४. जैसे गृहस्थ व्यवहार और स्वार्थ में परिश्रम करते हैं उनसे अधिक परिश्रम परोपकार करने में संन्यासी भी तत्पर रहें तभी सब आश्रम उन्नति पर रहें। (सत्यार्थप्रकाश समुल्लास ११) २५. संन्यासियों का मुख्य कर्म यही है कि सब गृहस्थादि आश्रमों को सब प्रकार के व्यवहारों का सत्य निश्चय करा अधर्म व्यवहारों से छुड़ा सब संशयों का छेदन कर सत्य धर्मयुक्त व्यवहारों में प्रवृत्त करें। (सत्यार्थप्रकाश समुल्लास ५) २६. उत्तम दाता उसको कहते हैं जो देश, काल को जान कर सत्य विद्या धर्म की उन्नति रूप परोपकारार्थ देवे। (सत्यार्थप्रकाश समुल्लास ११) २७. जिसके शरीर में सुरक्षित वीर्य रहता है तब उसको आरोग्य, बुद्धि, बल, पराक्रम बढ़ के बहुत सुख की प्राप्ति होती है। (सत्यार्थप्रकाश समुल्लास २) २८. अनेक प्रकार के मद्य, गांजा, भांग, अफीम आदि- जो-जो बुद्धि का नाश करने वाले पदार्थ हैं उनका सेवन कभी न करें। (सत्यार्थप्रकाश समुल्लास १०) २९. देखो जब आर्यों का राज्य था तब महोपकारक गाय आदि नहीं मारे जाते थे, तभी आर्यावर्त्त व अन्य भूगोल देशों में बड़े आनन्द में मनुष्यादि प्राणी वर्त्तते थे क्योंकि दूध, घी, बैल आदि पशुओं की बहुताई होने से अन्न रस पुष्कल होते थे। (सत्यार्थप्रकाश समुल्लास १०) ३०. इन पशुओं के मारने वालों को सब मनुष्यों की हत्या करने वाले जानियेगा। (सत्यार्थप्रकाश समुल्लास १०)
Vedic vichar
07-07-2022
मख- म -नहीं, ख- छिद्र अर्थात् छिद्ररहितता,त्रुटिरहित। त्रुटि रहित श्रेष्ठतम कर्म -यज्ञ।इसलिए यज्ञ को मख कहते है।
Vedic vichar
07-07-2022
जो मनुष्य पर स्त्री को माता के समान,पराये धन को मिट्टी के ढेले के समान और समस्त प्राणियों को अपनी आत्मा के समान देखता समझता है वस्तुतः वही पंडित होता है।- चाणक्य-१२-१३
Vedic vichar
07-07-2022
जैसे बिच्छू दूसरों को पीडा़ देने वाले विष को पूंछ मे धारण करता है ,वैसे ही जो लोग सामने चापलूसी और पीठ पीछे निन्दा करते हैं वे बिच्छू के समान होते हैं।-अथर्ववेद-७-५६-६
Vedic vichar
07-07-2022
संस्कृत भाषा मे प्रत्येक अक्षर का भी अर्थ होता है। अ -नहीं, आ- अच्छी प्रकार, ई- गति, उ -और ,ऋ-गति ,लृ - गति, क- सुख , ख- आकाश , ग- गति , च-पुनः , ज -उत्पन्न होना ,झ -नाश , त - पार , थ-ठहरना , दा - देना , धा - धारण करना ,न-नहीं , पा-रक्षा करना ,भा - प्रकाश करना ,मा - नापना, य-जो , रा-देना ,ल - लेना , वा - गति, स- साथ और ह - निश्चय होता है।
Vedic vichar
07-07-2022
वेदवाणी को व्यर्थ समझना, अथवा इसे अपने लिए धन प्राप्ति का साधन बनाना मनुष्य के लिए उसके सारे कुल की दरिद्रता का कारण बनता है।-अथर्ववेद-१२-४-३८
Vedic vichar
07-07-2022
धैर्य रखने से दरिद्रता भी कष्टदायक नहीं होती, स्वच्छ रखने से साधारण वस्त्र भी सुन्दर लगते है,बासी भोजन भी गर्म करने पर रुचिकर लगता है और शील स्वभाव से कुरुपता भी सुन्दर लगती है।-चाणक्य-९-१४
Vedic vichar
07-07-2022
कोई भी स्त्री पिता, पति अथवा पुत्रों से सम्बन्ध विच्छेद करके अकेले रहने की इच्छा न करे क्योंकि इससे इस बात की शंका रहती है कि किसी अप्रिय घटना के कारण पिता व पति दोनों कुलो की निन्दा या अपयश हो जाय।-मनु-५-१४९
Vedic vichar
07-07-2022
आजकल व्यापारिक शिक्षा को मुख्य मान लिया गया है ,व्यवहारिक, संस्कारित शिक्षा लुप्त प्रायः हो गई है इस कारण से परिवार टूट रहे हैं ।एकाकी जीवन होने से दुःख बढ रहे हैं।
Vedic vichar
07-07-2022
एकादशी व्रत का अर्थ है मनुष्य को अपनी पांच ज्ञानेन्द्रियों, पांच कर्मेन्द्रियो और ग्यारहवें मन इन्हें अपने वश मे रखना।विषयों मे रमण न होने देने का व्रत, प्रतिज्ञा करना।भूखे प्यासे रहना व्रत नहीं।
Vedic vichar
07-07-2022
दण्डं धर्मं विदुर्बुधाः। मनु विद्वान लोग दण्ड को ही धर्म कहते है।क्योंकि कठोर दण्ड से ही शासन चलता है।और राष्ट्र की सुरक्षा होती है।
Vedic vichar
07-07-2022
जब केवल धन कमाना ही जीवन का उद्देश्य हो जाता है तो मनुष्य पाप की ओर झुक जाता है क्योंकि वह कुटिल मार्ग पर चल कर धन कमाने लगता है।अथर्ववेद-५-११-७
Vedic vichar
07-07-2022
सांप , राजा , शेर , ततैया , बालक , दूसरे का कुत्ता और मूर्ख इन सात सोये हुओं को जगाना नहीं चाहिए-चाणक्य-९-७
Vedic vichar
07-07-2022
राष्ट्रीय सम्पत्ति को नष्ट करना, तोडफ़ोड़, आगजनी करना किसी भी समस्या का समाधान नहीं।ऐसा करना अपने घर में आग लगाने के समान ही है।विरोध सकारात्मक रूप से भी हो सकता है।
Vedic vichar
07-07-2022
विद्या और धर्म बढाने के लिए किसी को भी आलस्य नहीं करना चाहिए। -यजुर्वेद-२०-८९
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07-07-2022
जहाँ भोग हैं वहां रोग है, बचने का उपाय केवल योग है। चित्त की वृत्तियों का निरोध ही योग है।
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07-07-2022
बुद्धिमान लोग दूसरों द्वारा उनकी गलती, कमी बताने पर विचार करके उस त्रुटि को सुधार लेते हैं।जबकि मूर्ख, हट्टी दुराग्रही अपनी कमियों त्रुटियों पर विचार न करके बताने वाले से दुर्व्यवहार, विवाद करते हैं।
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07-07-2022
धर्म की रक्षा सत्य के आचरण से होती है,विद्या की रक्षा उसका अभ्यास करने से होती है,सुंदरता की रक्षा स्वच्छता से होती है और कुल की रक्षा उंचे चरित्र से होती है।
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07-07-2022
जैसे ऊंचे पहाड़ों पर चढने के लिए झुकना पडता है ,वैसे ही जीवन मे उन्नति के लिए आयुवृद्धो और विद्यावृद्धो के सम्मुख झुकना उनका सम्मान करना आवश्यक है।
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07-07-2022
अग्ने नय सुपथा राये अस्मान्विश्वानि देव वयुनानि विद्वान । युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठान्ते नम उक्तिं विधेम।। यह यजुर्वेद का मन्त्र है।यजुर्वेद मे यह चालीस वे, पांचवें और सातवें तीन अध्याय मे आया है।इसमें ईश्वर को अग्निस्वरुप कहा है।ईश्वर प्रकाशस्वरुप है अपने ही प्रकाश से प्रकाशित है ।अग्नि क्रिया का आधार है।बिना अग्नि के ,ऊर्जा के क्रिया नहीं होती ।ईश्वर जगत मे क्रिया का भण्डार है।अग्नि स्थूल को सूक्ष्म मे बदल देती है किन्तु उसका प्रभाव बढा देती है।वह सदैव ऊपर की ओर ही चलती है। मन्त्र मे भक्त कहता है कि हे अग्ने ! आप मुझे सुपथ पर ले चल।कितना आश्चर्य है ईश्वर ने चलने के लिए पैर और सोचने विचार करने के लिए बुद्धि दी है,किन्तु मैं जानता हूं कि इन पैरो से वहाँ नहीं पहुँचा जा सकता जहां मैं जाना चाहता हूं या मुझे जाना चाहिये ।इनसे संसार मे तो भटका जा सकता है, मैं भटक रहा हूं और तब तक भटकता रहूँगा जब तक सुपथ का पता नहीं । इसलिए हे अग्ने मैं आज तक जो भी चला या चलने का ढोंग किया वह तो बेकार है ,न मैं चला और न चल सकता , आप ही ले चलो।आप जहां ले जायेंगे वही सुपथ है।वास्तव मे मैं जिसे सुपथ समझ रहा था वह तो अन्धकूप है ।मेरे अन्दर अहंकार था कि मैं सब जानता हूं इसी अहंकार के कारण मैने जानने की कोशिश नहीं की। परन्तु अब आपको जानकर मैने जाना कि मैं तो कुछ भी नहीं जान पाया और न मुझमे जानने की सामर्थ्य है।संसार मे आकर मुझे अहंकार हो गया कि मेरा सामर्थ्य बहुत है।मैं सब कुछ पा सकता हूं।संसार का सारा सुख ,सारा ऐश्वर्य प्राप्त कर सकता हूं। इसके लिए मैने बहुत प्रयत्न किया कोठी बंगले बनाये गाडी नौकर चाकर आदि रखे सोचा इनमें सुख मिलेगा पर नहीं मिला। फिर गृहस्थ मे परिवार मे सुख ढूँढा सोचा बडा परिवार मे बेटे बहुए बच्चे सुख देंगे लेकिन वहाँ भी नहीं मिला।फिर सोचा शायद समाज मे सुख मिलेगा।खूब नाम कमाया ,सम्मान पाया लेकिन सुख नहीं मिला।अब मैं सोचता हूं कि मैं तो जीवनभर इन ईंट पत्थर को ढोता रहा मैने तो इतना भी नहीं कमाया जितना एक मजदूर दिन भर मेहनत करके शाम को कुछ पाकर सन्तुष्ट हो जाता है।परन्तु अब मैं देखता हूं कि जिसको मैं सुख समझता था वह सुख है ही नहीं ।मेरा तो पथ ही गलत था ,रास्ता ही उल्टा था तो सुख कैसे मिलता ! सुपथ तो वही है जो रयि हो सच्चा सुख हो आप ही उसे जानते है इसलिए हे देव आप ही मुझे सुमार्ग पर ले चलो क्योंकि अब तो मेरा इतना भी सामर्थ्य नहीं कि इस मार्ग से वापस आ सकू , क्योंकि मैं जितना अपने को इससे अलग करता हूँ उतने ही जोर से ये आकर्षण मुझे अपनी ओर खींचते है।विद्वान कहते है कि पाप का मार्ग बहुत टेढा है उसमें आंख मिचौनी है जितना हम आगे बढते है इसका प्रलोभन बढता जाता है और पाप से बचने का मेरा प्रयास बेकार हो जाता है।पता नहीं इस बुराई के टेढे मेढे मार्ग पर चलने की सामर्थ्य मुझ मे कहाँ से आ जाती है। कहते है धर्म का मार्ग सरल है सीधा है फिर पता नहीं लोग इस सीधे सरल मार्ग को छोडकर कुटिल त्रियक मार्ग पर क्यों चलते है।लगता है संसार की रीति ही कुछ ऐसी है कि यहाँ धर्म कठिन और अधर्म आसान ,झूठ सहज और सच कठिन लगता है तभी तो मैं छूट नहीं पाता।इसलिए हे अग्ने आप ही मुझे इस कुटिल मार्ग की कठिनाई से बचाकर पुण्य सहज सरल मार्ग का पथिक बना सकते हो यही मेरी आपसे विनति है।मैं आपकी शरण मे आया हूं ,याचक बनकर मैं नमन करता हूँ और फिर प्रार्थना करता हूं मेरा मुझ मे कुछ नहीं जैसा भी हूँ तेरे अधीन हूं।इसलिए भूयिष्ठान्ते नम उक्तिं विधेम।
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07-07-2022
मांस खाने से आपस मे प्रेम नहीं रहता।भाई परस्पर पैत्रिक संपत्ति पर ही लड़ पडते हैं।यदि अन्याय से बडा लडका दुगुना धन ले भी लेता है, तो वह भी शीघ्रता से धन को दुर्व्यसनों मे समाप्त करके दरिद्र हो जाता है।-अथर्ववेद-१२-२-३५
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07-07-2022
ईश्वर द्वारा सृजित इस सृष्टि मे मनुष्य के अलावा सभी वस्तुएं चाहे जड़ हो या चेतन सब अपनी मर्यादा मे कार्य कर रहे हैं।केवल मनुष्य ही अपनी मर्यादा को तोड़कर पापी होता है, इसलिए सभी विद्याये, शिक्षाए ,आदेश ,निर्देश मनुष्य के लिए ही हैं।
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07-07-2022
संस्कृत किसी भी देश की मातृभाषा नहीं ,किन्तु सब भाषाओं की मातृभाषा है।
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07-07-2022
परोअ् पेहि मनस्पाप किमशस्तानि शंससि। परहि न त्वा कामये वृक्षां वनानि सं चर गृहेषु गोषु मे मन:।। अथर्ववेद ६-४५-१ ।मनुष्य जब पाप से बचना चाहता है तो उसे चाहिये कि जब भी उसके मन मे कोई बुरा विचार आये,पाप वृत्ति आये तो उसे तुरंत उसका विरोध करना चाहिये और कहना चाहिये कि हे बुरे विचार ,मन के पाप तू दूर चला जा ,परे हट जा मै तुम्हें नहीं चाहता तू वृक्षो और वन मे विचर मेरा मन घर और गौवो मे लगा है।वास्तव मे मनुष्य लोभ ,मोह ,स्वार्थ के कारण सोचने लगता है कि ठीक है चोरी करना बुरा है,डाका डालना बुरा है ,रिशवत लेना बुरा है लेकिन जब बीस पच्चीस लाख रु० एक साथ मिलते है तो इससे अपने घर की दशा सुधर सकती है ,कुछ सुख के साधन लिए जा सकते है ,कुछ दान पुण्य किया जा सकता है और इससे हमारा लोक व परलोक दोनों सुधर सकते है।और देने वाला तो अरबपति है दस बीस लाख देने से उस पर कोई असर नहीं पडेगा ।हम कौनसा रोज-२ लेते है।एक बार से क्या अन्तर पडता है?कभी सोचते है शराब ,गुटका और धूम्रपान और व्यभिचार हम कौनसा रोज करते है लेकिन एक दो बार करने मे क्या बुराई है ?यदि स्वास्थ्य थोडा बहुत गिर गया तो सेव बादाम घी दूध पीकर फिर बना लेगे जब हम संसार मेआये है तो इनका भी मजा लेना चाहिये ।आखिर येसब मनुष्य के लिए ही तो है।किसी ने हमे गाली दी या हमारा बुरा किया तो सोचते है इसे तो दुनिया से ही उठा देना चाहिये परन्तु इन विचारो के साथ एक विचार यह भी आता है कि ये सब पाप है ये नहीं करना चाहिए ,ये ईश्वर की आवाज़ है जो तुमको चेतावनी दे रहा है कि ये मत कर ।जैसे एक बच्चा जब गलती करता है तो मां उसे आवाज लगाती है और कहती है कि बेटे आगे मत जा,आगे गड्ढा है उसमे गिर जायेगा चोट लग जायेगी।लेकिन बच्चा नहीं रुकता तो वह थप्पड़ भी मारती है।यदि हम ईश्वर की आवाज सुनकर रूक जाते हैं तो पाप करने से बच जाते हैं किन्तु यदि हम इस आवाज़ ,विचार को दबाकर उस पाप कर्म को कर बैठते है तो इस कर्म के संस्कार चित्त पर बन जाते है और बार -२ वही पाप कर्म करने को मन करता है और धीरे-धीरे- ईश्वर की आवाज़ आना भी बन्द हो जाती है ,और मनुष्य पाप के गड्ढे मे गिरता चला जाता है लेकिन ईश्वर की प्रेरणा फिर भी बन्द नहीं होती वह अब उस पाप का दु:ख रुपी दण्ड देकर कहता है कि ये पाप मत कर नहीं तो फिर दु:ख रुपी दंड मिलेगा। इसलिए मनुष्य को चाहिये कि जब भी उसके मन मे पाप भावना जागे तुरंत उसको दूर भगा दे ।और कहे कि हे मन के पाप तू दूर चला जा मै तुम्हें नहीं चाहता जंगल मे वन मे जा मेरा मन तो अपने परिवार मे गौवो मे लगा है मेरे पास तेरे लिए समय नहीं है ।
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07-07-2022
जड़ पदार्थों(ताश,गोटी, पासा)द्वारा बाजी लगा कर जो खेल खेला जाता हैउसे जुआ कहते हैं ,और जो चेतन प्राणियों(मनुष्य, मुर्गा, बटेर, घोडा)के द्वारा बाजी लगा कर खेल खेला जाता है उसे समाह्वय कहा जाता है।-मनु-९-२२३
महर्षि दयानन्द सरस्वती जी के अमूल्य उपदेश. (Vedic vichar)
07-07-2022
प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ भाग 2 ११. चारों वेदों में ऐसा कहीं नहीं लिखा जिससे अनेक ईश्वर सिद्ध हों किन्तु यह तो लिखा है कि ईश्वर एक है। (सत्यार्थप्रकाश समुल्लास ७) १२. जो परमात्मा उन आदि सृष्टि के ऋषियों को वेद विद्या न पढ़ाता और वे अन्य को न पढ़ाते तो सब लोग अविद्वान् ही रह जाते। (सत्यार्थप्रकाश समुल्लास ७) १३. वेद परमेश्वरोक्त है इन्हीं के अनुसार सब लोगों को चलना चाहिए और जो कोई किसी से पूछे कि तुम्हारा क्या मत है तो यही उत्तर देना कि हमारा मत वेद, अर्थात् जो कुछ वेदों में कहा है हम मानते हैं। (सत्यार्थप्रकाश समुल्लास ७) १४. जो परमात्मा वेदों का प्रकाश न करे तो कोई कुछ भी न बना सके इसलिए वेद परमेश्वरोक्त है इन्हीं के अनुसार सब लोगों को चलना चाहिए। (सत्यार्थप्रकाश समुल्लास ७) १५. जो बाहर भीतर की पवित्रता करनी, सत्यभाषणादि आचरण करना है वह जहां कहीं करेगा आचरण और धर्म भ्रष्ट कभी न होगा और जो आर्यावर्त्त में रह कर दुष्टाचार करेगा वही धर्म और आचार भ्रष्ट कहलायेगा। (सत्यार्थप्रकाश समुल्लास १०) १६. कलियुग नाम काल है, काल निष्क्रिय होने से कुछ धर्माधर्म के काज में साधक बाधक नहीं। (सत्यार्थप्रकाश समुल्लास ११) १७. आपस की फूट से कौरव पाण्डव और यादव का सत्यानाश हो गया। परन्तु अब तक भी वही रोग पीछे लगा है। न जाने यह भयंकर राक्षस कभी छूटेगा या आर्यों को सब सुखों से छुड़ा कर दुःख सागर में डुबा मारेगा? (सत्यार्थप्रकाश समुल्लास १०) १८. पारस मणि पत्थर सुना जाता है, वह बात झूठी है। परन्तु आर्यावर्त्त देश ही सच्चा पारस मणि है कि जिसको लोह रूपी दरिद्र विदेशी छूते के साथ ही सुवर्ण अर्थात् धनाढ्य हो जाते हैं। (सत्यार्थप्रकाश समुल्लास ११) १९. जब लोग वर्तमान और भविष्यत में उन्नतशील नहीं होते तब लोग आर्यावर्त्त और अन्य देशस्य मनुष्यों की बुद्धि नहीं होती। जब बुद्धि के कारण वेदादि सत्य शास्त्रों का पठनपाठन, ब्रह्मचर्य्यादि आश्रमों के यथावत् अनुष्ठान, सत्योपदेश होते हैं तभी देशोन्नति होती है। (सत्यार्थप्रकाश समुल्लास ७) २०. जो ब्राह्मणादि उत्तम करते हैं वे ही ब्राह्मणादि और जो नीच भी उत्तम वर्ण के गुण कर्म स्वभाव वाला होवे तो उसको भी उत्तम वर्ण में और तो उत्तम वर्णस्थ होके नीच काम करे तो उसको नीच वर्ण में गिनना अवश्य चाहिए। (सत्यार्थप्रकाश समुल्लास ४)
ब्राह्मण शब्द को लेकर भ्रांतियां एवं उनका निवारण (Vedic vichar).
07-07-2022
ब्राह्मण शब्द को लेकर अनेक भ्रांतियां हैं। इनका समाधान करना अत्यंत आवश्यक है। क्योंकि हिन्दू समाज की सबसे बड़ी कमजोरी जातिवाद है। ब्राह्मण शब्द को सत्य अर्थ को न समझ पाने के कारण जातिवाद को बढ़ावा मिला है। शंका 1 ब्राह्मण की परिभाषा बताये? समाधान- पढने-पढ़ाने से, चिंतन-मनन करने से, ब्रह्मचर्य, अनुशासन, सत्य भाषण आदि व्रतों का पालन करने से, परोपकार आदि सत्कर्म करने से, वेद, विज्ञान आदि पढने से, कर्तव्य का पालन करने से, दान करने से और आदर्शों के प्रति समर्पित रहने से मनुष्य का यह शरीर ब्राह्मण किया जाता है।-मनुस्मृति 2/28 शंका 2 ब्राह्मण जाति है अथवा वर्ण है? समाधान- ब्राह्मण वर्ण है जाति नहीं। वर्ण का अर्थ है चयन या चुनना और सामान्यतः: शब्द वरण भी यही अर्थ रखता है। व्यक्ति अपनी रुचि, योग्यता और कर्म के अनुसार इसका स्वयं वरण करता है, इस कारण इसका नाम वर्ण है। वैदिक वर्ण व्यवस्था में चार वर्ण है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। ब्राह्मण का कर्म है विधिवत पढ़ना और पढ़ाना, यज्ञ करना और कराना, दान प्राप्त करना और सुपात्रों को दान देना। क्षत्रिय का कर्म है विधिवत पढ़ना, यज्ञ करना, प्रजाओं का पालन-पोषण और रक्षा करना, सुपात्रों को दान देना, धन ऐश्वर्य में लिप्त न होकर जितेन्द्रिय रहना। वैश्य का कर्म है पशुओं का लालन-पोषण, सुपात्रों को दान देना, यज्ञ करना, विधिवत अध्ययन करना, व्यापार करना, धन कमाना, खेती करना। शुद्र का कर्म है सभी चारों वर्णों के व्यक्तियों के यहाँ पर सेवा या श्रम करना। शुद्र शब्द को मनु अथवा वेद ने कहीं भी अपमानजनक, नीचा अथवा निकृष्ट नहीं माना है। मनु के अनुसार चारों वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र आर्य है।- मनु 10/4 शंका 3- मनुष्यों में कितनी जातियां है ? समाधान- मनुष्यों में केवल एक ही जाति है। वह है "मनुष्य"। अन्य की जाति नहीं है। शंका 4- चार वर्णों का विभाजन का आधार क्या है? समाधान- वर्ण बनाने का मुख्य प्रयोजन कर्म विभाजन है। वर्ण विभाजन का आधार व्यक्ति की योग्यता है। आज भी शिक्षा प्राप्ति के उपरांत व्यक्ति डॉक्टर, इंजीनियर, वकील आदि बनता है। जन्म से कोई भी डॉक्टर, इंजीनियर, वकील नहीं होता। इसे ही वर्ण व्यवस्था कहते है। शंका 5- कोई भी ब्राह्मण जन्म से होता है अथवा गुण, कर्म और स्वाभाव से होता है? समाधान- व्यक्ति की योग्यता का निर्धारण शिक्षा प्राप्ति के पश्चात ही होता है। जन्म के आधार पर नहीं होता है। किसी भी व्यक्ति के गुण, कर्म और स्वाभाव के आधार पर उसके वर्ण का चयन होता हैं। कोई व्यक्ति अनपढ़ हो और अपने आपको ब्राह्मण कहे तो वह गलत है। मनु का उपदेश पढ़िए- जैसे लकड़ी से बना हाथी और चमड़े का बनाया हुआ हरिण सिर्फ नाम के लिए ही हाथी और हरिण कहे जाते है वैसे ही बिना पढ़ा ब्राह्मण मात्र नाम का ही ब्राह्मण होता है।-मनुस्मृति 2/157 शंका 6-क्या ब्राह्मण पिता की संतान केवल इसलिए ब्राह्मण कहलाती है कि उसके पिता ब्राह्मण है? समाधान- यह भ्रान्ति है कि ब्राह्मण पिता की संतान इसलिए ब्राह्मण कहलाएगी क्योंकि उसका पिता ब्राह्मण है। जैसे एक डॉक्टर की संतान तभी डॉक्टर कहलाएगी जब वह MBBS उत्तीर्ण कर लेगी। जैसे एक इंजीनियर की संतान तभी इंजीनियर कहलाएगी जब वह BTech उत्तीर्ण कर लेगी। बिना पढ़े नहीं कहलाएगी। वैसे ही ब्राह्मण एक अर्जित जाने वाली पुरानी उपाधि हैं। मनु का उपदेश पढ़िए- माता-पिता से उत्पन्न संतति का माता के गर्भ से प्राप्त जन्म साधारण जन्म है। वास्तविक जन्म तो शिक्षा पूर्ण कर लेने के उपरांत ही होता है। -मनुस्मृति 2/147 शंका 7- प्राचीन काल में ब्राह्मण बनने के लिए क्या करना पड़ता था? समाधान- प्राचीन काल में ब्राह्मण बनने के लिए शिक्षित और गुणवान दोनों होना पड़ता था। मनु का उपदेश देखे- वेदों में पारंगत आचार्य द्वारा शिष्य को गायत्री मंत्र की दीक्षा देने के उपरांत ही उसका वास्तविक मनुष्य जन्म होता है।-मनुस्मृति 2/148 ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य, ये तीन वर्ण विद्याध्यायन से दूसरा जन्म प्राप्त करते हैं। विद्याध्यायन न कर पाने वाला शूद्र, चौथा वर्ण है।-मनुस्मृति 10/4 आजकल कुछ लोग केवल इसलिए अपने आपको ब्राह्मण कहकर जाति का अभिमान दिखाते है क्योंकि उनके पूर्वज ब्राह्मण थे। यह सरासर गलत है। योग्यता अर्जित किये बिना कोई ब्राह्मण नहीं बन सकता। हमारे प्राचीन ब्राह्मण अपने तप से अपनी विद्या से अपने ज्ञान से सम्पूर्ण संसार का मार्गदर्शन करते थे। इसीलिए हमारे आर्यवर्त देश विश्व-गुरु था। शंका 8-ब्राह्मण को श्रेष्ठ क्यों माने? समाधान- ब्राह्मण एक गुणवाचक वर्ण है। समाज का सबसे ज्ञानी, बुद्धिमान, शिक्षित, समाज का मार्गदर्शन करने वाला, त्यागी, तपस्वी व्यक्ति ही ब्राह्मण कहलाने का अधिकारी बनता है। इसीलिए ब्राह्मण वर्ण श्रेष्ठ है। वैदिक विचारधारा में ब्राह्मण को अगर सबसे अधिक सम्मान दिया गया है तो ब्राह्मण को सबसे अधिक गलती करने पर दंड भी दिया गया है। मनु का उपदेश देखे- एक ही अपराध के लिए शूद्र को सबसे दंड कम दंड, वैश्य को दोगुना, क्षत्रिय को तीन गुना और ब्राह्मण को सोलह या 128 गुणा दंड मिलता था।- मनु 8/337 एवं 8/338 इन श्लोकों के आधार पर कोई भी मनु महाराज को पक्षपाती नहीं कह सकता। शंका 9- क्या शूद्र ब्राह्मण और ब्राह्मण शूद्र बन सकता है? समाधान -ब्राह्मण, शूद्र आदि वर्ण क्योंकि गुण, कर्म और स्वाभाव के आधार पर विभाजित है। इसलिए इनमें परिवर्तन संभव है। कोई भी व्यक्ति जन्म से ब्राह्मण नहीं होता। अपितु शिक्षा प्राप्ति के पश्चात उसके वर्ण का निर्धारण होता है। मनु का उपदेश देखे- ब्राह्मण शूद्र बन सकता और शूद्र ब्राह्मण हो सकता है। इसी प्रकार क्षत्रिय और वैश्य भी अपने वर्ण बदल सकते है। -मनुस्मृति 10/64 शरीर और मन से शुद्ध- पवित्र रहने वाला, उत्कृष्ट लोगों के सानिध्य में रहने वाला, मधुर भाषी, अहंकार से रहित, अपने से उत्कृष्ट वर्ण वालों की सेवा करने वाला शूद्र भी उत्तम ब्राह्मण जन्म और द्विज वर्ण को प्राप्त कर लेता है। -मनुस्मृति 9/335 जो मनुष्य नित्य प्रातः: और सांय ईश्वर आराधना नहीं करता उसको शूद्र समझना चाहिए। -मनुस्मृति 2/103 जब तक व्यक्ति वेदों की शिक्षाओं में दीक्षित नहीं होता वह शूद्र के ही समान है।-मनुस्मृति 2/172 ब्राह्मण- वर्णस्थ व्यक्ति श्रेष्ठ–अतिश्रेष्ठ व्यक्तियों का संग करते हुए और नीच- नीचतर व्यक्तियों का संग छोड़कर अधिक श्रेष्ठ बनता जाता है। इसके विपरीत आचरण से पतित होकर वह शूद्र बन जाता है। -मनुस्मृति 4/245 जो ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य वेदों का अध्ययन और पालन छोड़कर अन्य विषयों में ही परिश्रम करता है, वह शूद्र बन जाता है। -मनुस्मृति 2/168 शंका 10. क्या आज जो अपने आपको ब्राह्मण कहते है वही हमारी प्राचीन विद्या और ज्ञान की रक्षा करने वाले प्रहरी थे? समाधान- आजकल जो व्यक्ति ब्राह्मण कुल में उत्पन्न होकर अगर प्राचीन ब्राह्मणों के समान वैदिक धर्म की रक्षा के लिए पुरुषार्थ कर रहा है तब तो वह निश्चित रूप से ब्राह्मण के समान सम्मान का पात्र है। अगर कोई व्यक्ति ब्राह्मण कुल में उत्पन्न होकर ब्राह्मण धर्म के विपरीत कर्म कर रहा है। तब वह किसी भी प्रकार से ब्राह्मण कहलाने के लायक नहीं है। एक उदाहरण लीजिये। एक व्यक्ति यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर है, शाकाहारी है, चरित्रवान है और धर्म के लिए पुरुषार्थ करता है। उसका वर्ण ब्राह्मण कहलायेगा चाहे वह शूद्र पिता की संतान हो। उसके विपरीत एक व्यक्ति अनपढ़ है, मांसाहारी है, चरित्रहीन है और किसी भी प्रकार से समाज हित का कोई कार्य नहीं करता, चाहे उसके पिता कितने भी प्रतिष्ठित ब्राह्मण हो, किसी भी प्रकार से ब्राह्मण कहलाने लायक नहीं है। केवल चोटी पहनना और जनेऊ धारण करने भर से कोई ब्राह्मण नहीं बन जाता। इन दोनों वैदिक व्रतों से जुड़े हुए कर्म अर्थात धर्म का पालन करना अनिवार्य हैं। प्राचीन काल में धर्म रूपी आचरण एवं पुरुषार्थ के कारण ब्राह्मणों का मान था। इस लेख के माध्यम से मैंने वैदिक विचारधारा में ब्राह्मण शब्द को लेकर सभी भ्रांतियों के निराकरण का प्रयास किया हैं। ब्राह्मण शब्द की वेदों में बहुत महत्ता है। मगर इसकी महत्ता का मुख्य कारण जन्मना ब्राह्मण होना नहीं अपितु कर्मणा ब्राह्मण होना है। मध्यकाल में हमारी वैदिक वर्ण व्यवस्था बदल कर जाति व्यवस्था में परिवर्तित हो गई। विडंबना यह है कि इस बिगाड़ को हम आज भी दोह रहे है। जातिवाद से हिन्दू समाज की एकता समाप्त हो गई। भाई भाई में द्वेष हो गया। इसी कारण से हम कमजोर हुए तो विदेशी विधर्मियो के गुलाम बने। हिन्दुओं के 1200 वर्षों के दमन का अगर कोई मुख्य कारण है तो वह जातिवाद है। वही हमारा सबसे बड़ा शत्रु है। आइये इस जातिवाद रूपी शत्रु को को जड़ से नष्ट करने का संकल्प ले।
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07-07-2022
आर्यसमाज के संस्थापक ऋषि दयानन्द भारत के निर्माताओं में प्रमुख स्थान रखते हैं। ये ऐसे महापुरूष हुए हैं जिन्होंने भारत की आत्मा को पुनर्जीवित किया जो १८५७ की असफलता से दुःख और निराशा में डूब चुकी थी। पुनर्जीवन का यह कार्य जितना हिन्दी के माध्यम से सम्भव हो सकता था उतना किसी अन्य माध्यम से नहीं। सारे देश में भ्रमण करते हुए हिन्दी भाषा के महत्व को भलीभांति समझ चुके थे। हिन्दी के प्रचार को वे इतने सजग थे कि अपने जीते जी उन्होंने अपनी किसी पुस्तक के अनुवाद की अनुमति नहीं दी (गोकरूणानिधि को छोड़कर) वे कहते थे कि जिसे मेरे विचारो को जानने की उत्सुकता होगी वो हिन्दी भाषा सीखेगा। महर्षि दयानन्द और आर्यसमाज को पंजाब प्रान्त में हिन्दी का उद्धारक कहा जा सकता है। प्रसिद्ध साहित्यकार विष्णु प्रभाकर तो ऋषिवर को आधुनिक हिन्दी साहित्य का पिता कहते हैं। परन्तु उनके अतिरिक्त देश के सभी जाने माने मूर्धन्य साहित्यकारों ने भी ऋषिवर की मुक्तकंण्ड से प्रशंसा की है। आज उनमें कुछ के विचार आपके सामने रखेंगे। आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी- "मेरे ह्रदय में श्री स्वामी दयानन्दजी सरस्वती पर अगाध श्रद्धा है। वे बहुत बड़े समाज संस्कर्ता, वेदों के बहुत बड़े ज्ञाता तथा समयानुकूल वेदभाष्यकर्ता और आर्य संस्कृति के बहुत बड़े पुरस्कर्ता थे।" मुंशी प्रेमचन्द- आर्यसमाज ने साबित कर दिया है कि समाज सेवा ही किसी धर्म के सजीव होने का लक्षण है। हरिजनों के उद्धार में सबसे पहला कदम आर्यसमाज ने उठाया, लड़कियों की शिक्षा की जरूरत सबसे पहले उसने समझी। वर्ण व्यवस्था को जन्मगत न मानकर कर्मगत सिद्ध करने का सेहरा उसके सिर है| जातिभेद भाव और खानपान के छूतछात और चौके चूल्हे की बाधाओं को मिटाने का गौरव उसी को प्राप्त है। अंधविश्वास और धर्म के नाम पर किये जाने वाले हजारों अनाचारों कब्र उसी ने खोदी। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल- "पैगम्बरी एकेश्वरवाद की ओर नवशिक्षित लोगों को खिंचते देख स्वामी दयानन्द वैदिक एकेश्वरवाद लेकर खड़े हुए और सं० १९२० से घूम-घूम कर व्याख्यान देना आरम्भ किया। स्वामीजी ने आर्यसमाजियों के लिए आर्यभाषा या हिन्दी का पढ़ना आवश्यक ठहराया। संयुक्त प्रान्त और पंजाब में आर्यसमाज के प्रभाव से हिन्दी गद्य का प्रचार बड़ी तेजी से हुआ। आज पंजाब में हिन्दी की पूरी चर्चा इन्हीं के कारण है।" मैथिलीशरण गुप्त- वैष्णव कुल का होने पर भी मैं स्वामी दयानन्द को देश का महापुरूष मानता हूँ। कौन उनके महान कार्य को स्वीकार नहीं करेगा? जो आज वेद ध्वनि गूंजती है। कृपा उन्हीं की यह कूजती है। जयशंकर प्रसाद- महर्षि दयानन्द द्वारा प्रस्थापित आर्यसमाज इन सभी संस्थाओं यथा ब्रह्मसमाज, प्रार्थनासमाज, तथा रामकृष्ण मिशन से अग्रणी रहा क्योंकि इसके द्वारा सैद्धान्तिक उपदेशों के स्थान पर रचनात्मक कार्यों को व्यवहार में लाया गया। भारतीय संस्कृति का प्रचार, बाल विवाह निषेध, विधवा विवाह का समर्थन और गुरूकुलों की स्थापना, आर्यसमाज के प्रमुख कार्य हैं। स्त्री शिक्षा के लिए आर्य कन्या पाठशालाओं की स्थापना का सर्वोत्तम प्रबंध है। स्वामी दयानन्द ने युगनिर्माता की भांति देश के सुप्त मस्तिष्क को प्रबुद्ध करने का प्रयत्न किया। उनका 'सत्यार्थ प्रकाश' इस दिशा में निजी महत्व रखता है। पं० सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला'- "चरित्र, स्वास्थ्य, त्याग, ज्ञान और शिष्टता आदि में जो आदर्श महर्षि दयानन्दजी महाराज में प्राप्त होते हैं, उनका लेशमात्र भी अभारतीय पश्चिमी शिक्षा संभूत नहीं, पुनः ऐसे आर्य में ज्ञान और कर्म का कितना प्रसार रह सकता है, वह स्वयं इसके उदाहरण हैं। मतलब जो लोग कहते हैं कि वैदिक शिक्षा द्वारा मनुष्य उतना उन्नतमना नहीं हो सकता, जितना अंग्रेजी शिक्षा द्वारा होता है, महर्षि दयानन्द इसके प्रत्यक्ष खंडन हैं। महर्षि दयानन्द जी से बढ़कर भी मनुष्य होता है, इसका प्रमाण प्राप्त नहीं हो सकता। यही वैदिक ज्ञान की मनुष्य के उत्कर्ष में प्रत्यक्ष उपलब्धि होती है, यही आदर्श आर्य हमें देखने को मिलता है।" रामधारी सिंह दिनकर- "जैसे राजनीति के क्षेत्र में हमारी राष्ट्रीयता का सामरिक तेज पहले पहल 'तिलक' में प्रत्यक्ष हुआ वैसे ही संस्कृति के क्षेत्र में भारत का आत्माभिमान स्वामी दयानन्द में निखरा। रागरूढ़ हिन्दुत्व के जैसे निर्भीक नेता स्वामी दयानन्द हुए वैसा और कोई भी नहीं। दयानन्द के समकालीन अन्य सुधारक केवल सुधारक थे किन्तु दयानन्द क्रान्ति के वेग से आगे बढ़े। वे हिन्दू धर्म के रक्षक होने के साथ ही विश्वमानवता के नेता भी थे।" महादेवी वर्मा- "स्वामी दयानन्द युग दृष्टा, युग निर्माता थे। मेरे संस्कारों पर ऋषि दयानन्द का प्रर्याप्त प्रभाव है। स्त्रियों को वेदाधिकार दिलाकर उन्होंने महिलाओं में नवीन क्रान्ति का बीजारोपण किया। नारी की स्थिति में सुधार की अनवरत चेष्टा करते रहे। दयानन्दजी ने वेदों की वैज्ञानिक व्याख्यायें प्रस्तुत कर, वैदिक अध्ययन प्रणाली में एक नूतन युग का सूत्रपात किया।" डा० श्यामसुन्दर दास- "गोस्वामी तुलसीदास के ठीक २०० वर्ष पीछे गुजरात प्रदेश में एक महापुरूष का आविर्भाव हुआ जिन्होंने उत्तर भारत को ईसाई और मुसलमान होने से बचा लिया तथा सामाजिक, धार्मिक और राजनैतिक जीवन में जो दुर्बलता आ गयी थी तथा उसमें जो बुराइयाँ घुस गई थीं उनका अत्यन्त दूरदर्शिता पूर्वक निदान का एक ऐसा आदर्श स्थापित किया जो हिन्दी समाज की रक्षाकर उसकी भावी उन्नति का मार्गदर्शन हुआ है। इसमें संदेह नहीं कि स्वामी दयानन्द एक अवतारी पुरूष थे और भारत का परम कर्तव्य है कि उनके प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट कर अपने को धन्य करें।" मिश्र बन्धु- महर्षि दयानन्द सरस्वती ने देश और जाति का जो महान उपकार किया है, उसे यहाँ लिखने की आवश्यकता नहीं है। अनेक भूलों और पाखण्डों में फंसे हुए लोगों को सीधा मार्ग दिखलाकर उन्होंने वह काम किया, जो अपने समय में महात्मा बुद्ध, स्वामी शंकराचार्य, कबीरदास, बाबा नानक, राजा राममोहन राय ठौर-ठौर कर गये। दयानन्दजी ने हिन्दी में सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका इत्यादि अनुपम ग्रन्थ साधु और सरल भाषा में लिखकर उसकी भारी सहायता की। विशेष- महर्षि दयानन्द सत्य कहने में इसकी परवाह नहीं करते थे कि इससे कोई शुभचिंतक रुष्ट हो जायेगा। एक बार ऋषि के सत्संगी प्रसिद्द मुस्लिम विद्वान 'सर सय्यद अहमद खां' ने उर्दू की प्रशंसा करते हुए हिन्दी को 'गंवारू' भाषा कहकर उसका उपहास किया तो ऋषि ने पं० प्रताप नारायण मिश्र, बालकृष्ण भट्ट जैसे साहित्यकारों की मौजूदगी में हिन्दी को 'कुलकमिनी' और उर्दू को वारविलासनी (वेश्या) कहकर उनको सटीक उत्तर दिया।
Vedic vichar
07-07-2022
आर्यसमाज के संस्थापक ऋषि दयानन्द भारत के निर्माताओं में प्रमुख स्थान रखते हैं। ये ऐसे महापुरूष हुए हैं जिन्होंने भारत की आत्मा को पुनर्जीवित किया जो १८५७ की असफलता से दुःख और निराशा में डूब चुकी थी। पुनर्जीवन का यह कार्य जितना हिन्दी के माध्यम से सम्भव हो सकता था उतना किसी अन्य माध्यम से नहीं। सारे देश में भ्रमण करते हुए हिन्दी भाषा के महत्व को भलीभांति समझ चुके थे। हिन्दी के प्रचार को वे इतने सजग थे कि अपने जीते जी उन्होंने अपनी किसी पुस्तक के अनुवाद की अनुमति नहीं दी (गोकरूणानिधि को छोड़कर) वे कहते थे कि जिसे मेरे विचारो को जानने की उत्सुकता होगी वो हिन्दी भाषा सीखेगा। महर्षि दयानन्द और आर्यसमाज को पंजाब प्रान्त में हिन्दी का उद्धारक कहा जा सकता है। प्रसिद्ध साहित्यकार विष्णु प्रभाकर तो ऋषिवर को आधुनिक हिन्दी साहित्य का पिता कहते हैं। परन्तु उनके अतिरिक्त देश के सभी जाने माने मूर्धन्य साहित्यकारों ने भी ऋषिवर की मुक्तकंण्ड से प्रशंसा की है। आज उनमें कुछ के विचार आपके सामने रखेंगे। आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी- "मेरे ह्रदय में श्री स्वामी दयानन्दजी सरस्वती पर अगाध श्रद्धा है। वे बहुत बड़े समाज संस्कर्ता, वेदों के बहुत बड़े ज्ञाता तथा समयानुकूल वेदभाष्यकर्ता और आर्य संस्कृति के बहुत बड़े पुरस्कर्ता थे।" मुंशी प्रेमचन्द- आर्यसमाज ने साबित कर दिया है कि समाज सेवा ही किसी धर्म के सजीव होने का लक्षण है। हरिजनों के उद्धार में सबसे पहला कदम आर्यसमाज ने उठाया, लड़कियों की शिक्षा की जरूरत सबसे पहले उसने समझी। वर्ण व्यवस्था को जन्मगत न मानकर कर्मगत सिद्ध करने का सेहरा उसके सिर है| जातिभेद भाव और खानपान के छूतछात और चौके चूल्हे की बाधाओं को मिटाने का गौरव उसी को प्राप्त है। अंधविश्वास और धर्म के नाम पर किये जाने वाले हजारों अनाचारों कब्र उसी ने खोदी। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल- "पैगम्बरी एकेश्वरवाद की ओर नवशिक्षित लोगों को खिंचते देख स्वामी दयानन्द वैदिक एकेश्वरवाद लेकर खड़े हुए और सं० १९२० से घूम-घूम कर व्याख्यान देना आरम्भ किया। स्वामीजी ने आर्यसमाजियों के लिए आर्यभाषा या हिन्दी का पढ़ना आवश्यक ठहराया। संयुक्त प्रान्त और पंजाब में आर्यसमाज के प्रभाव से हिन्दी गद्य का प्रचार बड़ी तेजी से हुआ। आज पंजाब में हिन्दी की पूरी चर्चा इन्हीं के कारण है।" मैथिलीशरण गुप्त- वैष्णव कुल का होने पर भी मैं स्वामी दयानन्द को देश का महापुरूष मानता हूँ। कौन उनके महान कार्य को स्वीकार नहीं करेगा? जो आज वेद ध्वनि गूंजती है। कृपा उन्हीं की यह कूजती है। जयशंकर प्रसाद- महर्षि दयानन्द द्वारा प्रस्थापित आर्यसमाज इन सभी संस्थाओं यथा ब्रह्मसमाज, प्रार्थनासमाज, तथा रामकृष्ण मिशन से अग्रणी रहा क्योंकि इसके द्वारा सैद्धान्तिक उपदेशों के स्थान पर रचनात्मक कार्यों को व्यवहार में लाया गया। भारतीय संस्कृति का प्रचार, बाल विवाह निषेध, विधवा विवाह का समर्थन और गुरूकुलों की स्थापना, आर्यसमाज के प्रमुख कार्य हैं। स्त्री शिक्षा के लिए आर्य कन्या पाठशालाओं की स्थापना का सर्वोत्तम प्रबंध है। स्वामी दयानन्द ने युगनिर्माता की भांति देश के सुप्त मस्तिष्क को प्रबुद्ध करने का प्रयत्न किया। उनका 'सत्यार्थ प्रकाश' इस दिशा में निजी महत्व रखता है। पं० सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला'- "चरित्र, स्वास्थ्य, त्याग, ज्ञान और शिष्टता आदि में जो आदर्श महर्षि दयानन्दजी महाराज में प्राप्त होते हैं, उनका लेशमात्र भी अभारतीय पश्चिमी शिक्षा संभूत नहीं, पुनः ऐसे आर्य में ज्ञान और कर्म का कितना प्रसार रह सकता है, वह स्वयं इसके उदाहरण हैं। मतलब जो लोग कहते हैं कि वैदिक शिक्षा द्वारा मनुष्य उतना उन्नतमना नहीं हो सकता, जितना अंग्रेजी शिक्षा द्वारा होता है, महर्षि दयानन्द इसके प्रत्यक्ष खंडन हैं। महर्षि दयानन्द जी से बढ़कर भी मनुष्य होता है, इसका प्रमाण प्राप्त नहीं हो सकता। यही वैदिक ज्ञान की मनुष्य के उत्कर्ष में प्रत्यक्ष उपलब्धि होती है, यही आदर्श आर्य हमें देखने को मिलता है।" रामधारी सिंह दिनकर- "जैसे राजनीति के क्षेत्र में हमारी राष्ट्रीयता का सामरिक तेज पहले पहल 'तिलक' में प्रत्यक्ष हुआ वैसे ही संस्कृति के क्षेत्र में भारत का आत्माभिमान स्वामी दयानन्द में निखरा। रागरूढ़ हिन्दुत्व के जैसे निर्भीक नेता स्वामी दयानन्द हुए वैसा और कोई भी नहीं। दयानन्द के समकालीन अन्य सुधारक केवल सुधारक थे किन्तु दयानन्द क्रान्ति के वेग से आगे बढ़े। वे हिन्दू धर्म के रक्षक होने के साथ ही विश्वमानवता के नेता भी थे।" महादेवी वर्मा- "स्वामी दयानन्द युग दृष्टा, युग निर्माता थे। मेरे संस्कारों पर ऋषि दयानन्द का प्रर्याप्त प्रभाव है। स्त्रियों को वेदाधिकार दिलाकर उन्होंने महिलाओं में नवीन क्रान्ति का बीजारोपण किया। नारी की स्थिति में सुधार की अनवरत चेष्टा करते रहे। दयानन्दजी ने वेदों की वैज्ञानिक व्याख्यायें प्रस्तुत कर, वैदिक अध्ययन प्रणाली में एक नूतन युग का सूत्रपात किया।" डा० श्यामसुन्दर दास- "गोस्वामी तुलसीदास के ठीक २०० वर्ष पीछे गुजरात प्रदेश में एक महापुरूष का आविर्भाव हुआ जिन्होंने उत्तर भारत को ईसाई और मुसलमान होने से बचा लिया तथा सामाजिक, धार्मिक और राजनैतिक जीवन में जो दुर्बलता आ गयी थी तथा उसमें जो बुराइयाँ घुस गई थीं उनका अत्यन्त दूरदर्शिता पूर्वक निदान का एक ऐसा आदर्श स्थापित किया जो हिन्दी समाज की रक्षाकर उसकी भावी उन्नति का मार्गदर्शन हुआ है। इसमें संदेह नहीं कि स्वामी दयानन्द एक अवतारी पुरूष थे और भारत का परम कर्तव्य है कि उनके प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट कर अपने को धन्य करें।" मिश्र बन्धु- महर्षि दयानन्द सरस्वती ने देश और जाति का जो महान उपकार किया है, उसे यहाँ लिखने की आवश्यकता नहीं है। अनेक भूलों और पाखण्डों में फंसे हुए लोगों को सीधा मार्ग दिखलाकर उन्होंने वह काम किया, जो अपने समय में महात्मा बुद्ध, स्वामी शंकराचार्य, कबीरदास, बाबा नानक, राजा राममोहन राय ठौर-ठौर कर गये। दयानन्दजी ने हिन्दी में सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका इत्यादि अनुपम ग्रन्थ साधु और सरल भाषा में लिखकर उसकी भारी सहायता की। विशेष- महर्षि दयानन्द सत्य कहने में इसकी परवाह नहीं करते थे कि इससे कोई शुभचिंतक रुष्ट हो जायेगा। एक बार ऋषि के सत्संगी प्रसिद्द मुस्लिम विद्वान 'सर सय्यद अहमद खां' ने उर्दू की प्रशंसा करते हुए हिन्दी को 'गंवारू' भाषा कहकर उसका उपहास किया तो ऋषि ने पं० प्रताप नारायण मिश्र, बालकृष्ण भट्ट जैसे साहित्यकारों की मौजूदगी में हिन्दी को 'कुलकमिनी' और उर्दू को वारविलासनी (वेश्या) कहकर उनको सटीक उत्तर दिया।
महर्षि दयानन्द सरस्वती जी के अमूल्य उपदेश. (Vedic vichar)
06-07-2022
भाग 1 १. जैसे शीत से आतुर पुरुष का अग्नि के पास जाने से शीत निवृत्त हो जाता है वैसे परमेश्वर के समीप प्राप्त होने से सब दोष दुःख छूटकर परमेश्वर के गुण कर्म स्वभाव के सदृश जीवात्मा के गुण कर्म स्वभाव पवित्र हो जाते हैं। (सत्यार्थप्रकाश समुल्लास ७) २. जो परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना नहीं करता वह कृतघ्न और महामूर्ख भी होता है क्योंकि जिस परमात्मा ने इस जगत् के सब पदार्थ सुख के लिए दे रखे हैं उसके गुण भूल जाना ईश्वर ही को न मानना कृतघ्नता और मूर्खता है। (सत्यार्थप्रकाश समुल्लास ७) ३. जैसे कोई अनन्त आकाश को कहे कि गर्भ में आया या मूठी में धर लिया ऐसा कहना कभी सच नहीं हो सकता क्योंकि आकाश अनन्त और सब में व्यापक है। इससे न आकाश बाहर आता और न भीतर जाता वैसे ही अनन्तर सर्वव्यापक परमात्मा के होने से उसका आना कभी नहीं सिद्ध हो सकता। (सत्यार्थप्रकाश समुल्लास ७) ४. जो मनुष्य जिस बात की प्रार्थना करता है उसको वैसा ही वर्तमान करना चाहिए अर्थात् जैसे सर्वोत्तम बुद्धि की प्राप्ति के लिए परमेश्वर की प्रार्थना करे उसके लिए जितना अपने से प्रयत्न हो सके उतना किया करे। अर्थात् अपने पुरुषार्थ के उपरान्त प्रार्थना करनी योग्य है। (सत्यार्थप्रकाश समुल्लास ७) ५. दिन और रात्रि के सन्धि में अर्थात् सूर्योदय और अस्त समय में परमेश्वर का ध्यान और अग्निहोत्र अवश्य करना चाहिए। (सत्यार्थप्रकाश समुल्लास ४) ६. जब तक इस होम का प्रचार रहा तब तक आर्य्यावर्त्त देश रोगों से रहित और सुखों से पूरित था अब भी प्रचार हो तो वैसा ही हो जाये। (सत्यार्थप्रकाश समुल्लास ७) ७. इस प्रत्यक्ष सृष्टि में रचना विशेष आदि ज्ञानादि गुणों के प्रत्यक्ष होने से परमेश्वर का भी प्रत्यक्ष है। (सत्यार्थप्रकाश समुल्लास ७) ८. 'जो इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख और ज्ञानादि गुणयुक्त अल्पज्ञ नित्य है उसी को "जीव" मानता हूँ।' (सत्यार्थ.-स्वमन्त.) ९. क्या पाषाणादि मूर्तिपूजा से परमेश्वर को ध्यान में कभी लाया जा सकता है? नहीं नहीं, मूर्तिपूजा सीढ़ी नहीं किन्तु एक बड़ी खाई है जिसमें गिर कर चकनाचूर हो जाता है। (सत्यार्थप्रकाश समुल्लास ११) १०. जैसे "शक्कर-शक्कर" कहने से मुख मीठा नहीं होता वैसे सत्यभाषणादि कर्म किये बिना "राम-राम" कहने से कुछ भी नहीं होगा। (सत्यार्थप्रकाश समुल्लास ११)
Statement of my belief-Swami Dayanand. (Vedic vichar)
06-07-2022
Now I give below a brief summary of my beliefs. Their detailed exposition has been given in this book in its proper place. Part 5 41. The Soul is a free agent to do deeds, but is subservient to God for reaping the fruits thereof. Likewise, God is free to do His good works. 42. Swarga (Heaven) is the enjoyment of extreme happiness and the attainment of the means thereof. 43. Narka (Hell) is another name for undergoing extreme suffering and possession of the means thereof. 44. Janma (birth), which consists in the soul’s assumption of the gross, visible body, viewed in relation to time is three-fold, viz., past, present and future. 45. Birth is another name for the union of the soul with the body, and death is the dissolution of the link. 46. The acceptance of the hand, through mutual consent, of a person of the opposite sex in a public manner and in accordance with the laws (laid down by the Vedas and Shastras) is called Marriage. 47. Niyoga is the temporary union of a person with another of the opposite sex, both parties may belong to the same Class or the male may belong to a Class higher, for the raising of issue, when marriage has failed to fulfil its legitimate purpose. It is resorted to in extreme cases, either on the death of one’s consort, or when protracted disease has destroyed reproductive power in the husband or in the wife. 48. Stuti (Glorification) consists in praising Divine attributes and power or in hearing them being praised, with the view to fix them in our mind and realize their meaning. Among other things it inspires us with love towards God. 49. Prarthana (Prayer) is praying to God, after one has done his utmost for the gift of highest knowledge and similar (other blessings), which result from union with Him. It creates humility, etc., (in the mind of the devotee). 50. Upasana (Communion) consists in conforming ourselves, as far as possible, in purity and holiness to the Divine Spirit, and in feeling the presence of the Deity in our heart by the realization of His All-pervading nature through the practice of Yoga which enables one to have direct cognition of God. Upasana serves to extend the bounds of our knowledge. 51. Sagun Stuti consists in praising God as possessed of specific attributes which are inherent in Him; while Nirgun Stuti consists in praising God as devoid of attributes which are foreign to His nature. Sagun Prarthana consists in praying to God for the attainment of virtuous qualities; while Nirgun Prarthana consists in imploring the Deity to rid us of all our faults. Sagun Upasana consists in resigning oneself to God and His Will realizing Him as possessed of attributes that are in harmony with His nature; while Nirgun Upasana consists in resigning oneself to God and His Will realizing Him as devoid of attributes that are foreign to his nature.
Statement of my belief-Swami Dayanand. (Vedic vichar)
06-07-2022
Part 4 Now I give below a brief summary of my beliefs. Their detailed exposition has been given in this book in its proper place. 31. An Acharya is one who teaches the sciences of the Vedas as well as their Angas and Upangas, who helps (his pupils) to live righteous lives and keep aloof from bad habits and vices. 32. He alone is a Shishya (pupil) who has the capacity for acquiring knowledge and true culture. Whose moral character is unimpeachable, who is eager to learn, and is devoted to his teacher. 33. By the term Guru is meant father or mother. It also applies to one through whose instrumentality one’s mind is grounded in truth and weaned from falsehood. 34. He is a Prohita who wishes well to his Yajaman, and always preaches truth to him. 35. An Upadhyaya (Professor) is one who can teach certain portions of the Vedas or of the Angas. 36. Shishtachar consists in leading a virtuous life, in acquiring knowledge during the period of Brahmacharya in sifting truth from error by the help of (the eight kinds of) evidence, such as direct cognition and then embracing truth and rejecting error. He who practices shishtachar is called a shishta (gentleman). 37. I believe in the eight kinds of evidence such as direct cognition. 38. I call him alone an Apt who always speaks the truth, is just and upright and labours for the good of all. 39. There are five tests: - (1) The nature, attributes and characteristics of God, and the teachings of the Veda. (2) Eight kinds of evidence such as Direct Cognition. (3) Laws of nature. (4) The practice of Aptas. (5) The purity and conviction of one’s own soul. It behoves all men to sift truth from error with the help of these five tests and to embrace truth and reject error. 40. Propkar (philanthropy) is that which helps to wean all men from their vices and alleviate their sufferings, promote the practice of virtue among them and increase their happiness.
Statement of my belief-Swami Dayanand (Vedic vichar)
06-07-2022
Part 3 Now I give below a brief summary of my beliefs. Their detailed exposition has been given in this book in its proper place. 21. Devapuja consists in showing honor to the wise and the learned, to one’s father, mother and preceptor, to the itinerant preachers of truth, to a just ruler, to those who lead righteous lives, to whom who are chaste and faithful to their husbands, to men who are devoted and loyal to their wives. The opposite of this is called Adevapuja. The worship of the above named persons I hold to be right, while the worship of the dead, inert objects I hold to be wrong. 22. Education (Shiksha) is that which helps one to acquire knowledge, culture, righteousness, self-control and the like virtues; and eradicates ignorance and evil habits. 23. The Puranas are the Brahmana books, such as Aitreya Brahmana written by the great Rishis like Brahma. They are also called Itihas, Kalpa, Gatha, and Narashansi. The Bhagvat and other books of that sort are not true (real) Puranas. 24. Tirtha is that by means of which the ‘ocean of misery’ is crossed. It consists in the practice of truthfulness in speech, in the acquisition of true knowledge, in cultivating the society of the wise and the good, in the practice of yamas and (other stages) of yoga in leading a life of activity, in the diffusion of knowledge and in the performance of the like good works. So - called sacred places on land and water are not tirthas. 25. Activity is superior to Destiny, since the former begets the latter, and also because if the activity is well directed, ends well; but if it is wrongly directed, all goes wrong. 26. I hold that it is commendable for man to feel for others in the same way as he does for his own self, to sympathies with them in their sorrows and losses and to rejoice in their joys and gains; and that it is reprehensible to do otherwise. 27. Sanskar is that which contributes to the physical, mental and spiritual improvement of man. From Conception to Cremation there are sixteen sanskars altogether. I hold their due and proper observance is obligatory on all. Nothing should be done for the departed after the remains have been cremated. 28. I hold that the performance of yajna is most commendable. It consists in showing due respect to the wise and the learned, in the proper applications of the principles of chemistry and of physical and mechanical sciences to the affairs of life, in the dissemination of knowledge and culture, in the performance of Agnihotra which, by contributing to the purification of air and water, rain and vegetables, directly promotes the well-being of all sentient creatures. 29. Gentlemen are called Aryas, while rogues are called Dasyus. 30. This country is called Aryavara because it has been the abode of the Aryas from the very dawn of Creation. It is bounded on the north by the Himalayas, on the south by the Vindhyachala mountains, on the west by the Attok (Indus), and on the east by the Brahmaputra. The land included within these limits is Aryavarta and those that have been living in it from times immemorial are also called Aryas.
Statement of my belief-Swami Dayanand. (Vedic vichar)
06-07-2022
Part 2 Now I give below a brief summary of my beliefs. Their detailed exposition has been given in this book in its proper place. 11. “The earthly bondage (of the soul) has a cause. This cause is ignorance which is the source of sin, as among other things it leads man to worship objects other than God, obscures his intellectual faculties, whereof pain and suffering is the result. Bondage is termed so, because no one desires it but has to undergo it. 12. The emancipation of the soul from pain and suffering of every description and a subsequent career of freedom in the All-pervading God and His immense Creation for a fixed period of time and its resumption of earthly life after the expiration of that period constitute Salvation. 13. The means of salvation are the worship of God, in other words, the practice of yoga, the performance of righteous deeds, the acquisition of true knowledge by the practice of Brahmacharya, the society of the wise and the learned, love of true knowledge, purity of thought, a life of activity and so on. 14. The righteously acquired wealth alone constitutes Artha, while that which is acquired by foul means is called Anarth. 15. The enjoyment of legitimate desires with the helps of honestly acquired wealth constitutes Kama. 16. The Class and Order of an individual should be determined by his merits. 17. He alone deserves the title of a king who is endowed with excellent qualities and a noble disposition, and bears an exalted character, who follows the dictates of equitable justice, who loves and treats his subjects as a father does his own offspring and is ever engaged in promoting their happiness and furthering their advancement. 18. He alone deserves to be called a subject who is possessed of excellent qualities, a noble disposition and a good character, is free from partiality follows the behests of justice, righteousness, and is ever engaged in furthering the happiness of the fellow-subjects as well as that of his sovereign whom he regards in the light of a parent, and is ever loyal. 19. He who always thinks well (before he acts) is ever ready to embrace truth and reject falsehood, who puts down the unjust and helps the just, feels for others in the same way as he does for his own self - even him I call just. 20. Devas are those who are wise and learned: asuras are those who are foolish and ignorant; rakshas are those who are wicked and love sin; and pishachas are those who are filthy in their habits.
Statement of my belief-Swami Dayanand. (Vedic vichar)
06-07-2022
Part 1 Now I give below a brief summary of my beliefs. Their detailed exposition has been given in this book in its proper place. 1. He Who is called Brahma or the most High; who is Paramatma or the Supreme Spirit Who permeates the whole universe; Who is a true personification of Existence, Consciousness and Bliss; Whose nature, attributes and characteristics are Holy; Who is Omniscient Formless, All-pervading, Unborn, Infinite, Almighty, Just and Merciful; Who is the author of the universe and sustains and dissolves it: Who awards all souls the fruits of their deeds in strict accordance with the requirements of absolute justice and is possessed of the like attributes, even Him I believe to be the great God. 2. I hold that the four Vedas - the repository of Knowledge and Religious Truths-are the Word of God. They comprise what is known as the Sanhita-Mantra portion only. They are absolutely free from error, and are an authority unto themselves. In other words, they do not stand in need of any other book to uphold their authority. Just as the sun (or a lamp) by its light, reveals its own nature as well as that of other objects of the universe, such as the earth-even so are the Vedas. The commentaries on the four Vedas, viz., the Brahmanas, the six Angas, the six Upangas, the four Up-Vedas, and the eleven hundred and twenty-seven Shakhas, which are expositions of the Vedic texts by Brahma and other great Rishis - I look upon as works of a dependent character. In other words, they are hold to be authoritative in so far as they conform to the teachings of the Vedas. Whatever passages in these works are opposed to the Vedic injunctions I reject them entirely. 3. The practice of equitable justice together with that of truthfulness in word, deed and thought and the like (virtues) - in a word, that which is in conformity with the Will of God, as embodied in the Vedas - even that I call Dharma (right). But the practice of that which is not free from partiality and injustice as well as that of untruthfulness in word, deed and thought, - in a word, that which is opposed to the Will of God, as embodied in the Vedas - even that I term Adharma (wrong). 4. The immortal, eternal Principle which is endowed with attraction and repulsion, feelings of pleasure and pain, and consciousness, and whose capacity for knowledge is limited - even that I believe to be the soul. 5. “God and the soul are two distinct entities by virtues of being different in nature and of being possessed of dissimilar attributes and characteristics. They are, however, inseparable one from the other, being related to each other as the pervader and the pervaded and have certain attributes in common. Just as a material object has always been and shall always be, distinct from the space in which it exists and as the two have never been, nor shall ever be one and the same, even so are God and the soul to each other. Their mutual relation is that of the pervader and the pervaded, of father and son and the like. 6. I hold three things to be beginningless, namely, God the soul, and prakriti - the material cause of the universe. These are also known as the eternal substrata. Being eternal, their essential nature, their attributes and their characteristics, are also eternal. 7. Substances, properties, and characteristics, which result from combination, cease to exist on the dissolution of that compound. But the power or force, by virtue of which one substance unites with another, or separates from it, is eternally inherent in that substance, and this power will compel it to seek similar unions and disunions in the future. Unions and disunions, Creation and Dissolution (of the world) [and birth and death of the soul] have eternally followed each other in succession. 8. That which results from the combination of different elementary substances in an intelligent manner and in the right proportion and other, - even that, in all its infinite variety, is called Creation. 9. The purpose of Creation is the essential and natural exercise of the creative energy of the Deity. A person one asked another “What is the use of the eyes?” “To see with to be sure,” was the reply. The same is the case here. God’s creative energy can be exercised and the souls can reap the fruits of their deeds only when the world is created. 10. The world is created. Its Creator is the aforesaid God. The existence of design in the universe as well as the fact that the dead inert matter is incapable of molding itself into different ordered forms, such as seeds, proves that it must have a Creator.
Statement of my belief-Swami Dayanand. (Vedic vichar)
06-07-2022
Part 1 Now I give below a brief summary of my beliefs. Their detailed exposition has been given in this book in its proper place. 1. He Who is called Brahma or the most High; who is Paramatma or the Supreme Spirit Who permeates the whole universe; Who is a true personification of Existence, Consciousness and Bliss; Whose nature, attributes and characteristics are Holy; Who is Omniscient Formless, All-pervading, Unborn, Infinite, Almighty, Just and Merciful; Who is the author of the universe and sustains and dissolves it: Who awards all souls the fruits of their deeds in strict accordance with the requirements of absolute justice and is possessed of the like attributes, even Him I believe to be the great God. 2. I hold that the four Vedas - the repository of Knowledge and Religious Truths-are the Word of God. They comprise what is known as the Sanhita-Mantra portion only. They are absolutely free from error, and are an authority unto themselves. In other words, they do not stand in need of any other book to uphold their authority. Just as the sun (or a lamp) by its light, reveals its own nature as well as that of other objects of the universe, such as the earth-even so are the Vedas. The commentaries on the four Vedas, viz., the Brahmanas, the six Angas, the six Upangas, the four Up-Vedas, and the eleven hundred and twenty-seven Shakhas, which are expositions of the Vedic texts by Brahma and other great Rishis - I look upon as works of a dependent character. In other words, they are hold to be authoritative in so far as they conform to the teachings of the Vedas. Whatever passages in these works are opposed to the Vedic injunctions I reject them entirely. 3. The practice of equitable justice together with that of truthfulness in word, deed and thought and the like (virtues) - in a word, that which is in conformity with the Will of God, as embodied in the Vedas - even that I call Dharma (right). But the practice of that which is not free from partiality and injustice as well as that of untruthfulness in word, deed and thought, - in a word, that which is opposed to the Will of God, as embodied in the Vedas - even that I term Adharma (wrong). 4. The immortal, eternal Principle which is endowed with attraction and repulsion, feelings of pleasure and pain, and consciousness, and whose capacity for knowledge is limited - even that I believe to be the soul. 5. “God and the soul are two distinct entities by virtues of being different in nature and of being possessed of dissimilar attributes and characteristics. They are, however, inseparable one from the other, being related to each other as the pervader and the pervaded and have certain attributes in common. Just as a material object has always been and shall always be, distinct from the space in which it exists and as the two have never been, nor shall ever be one and the same, even so are God and the soul to each other. Their mutual relation is that of the pervader and the pervaded, of father and son and the like. 6. I hold three things to be beginningless, namely, God the soul, and prakriti - the material cause of the universe. These are also known as the eternal substrata. Being eternal, their essential nature, their attributes and their characteristics, are also eternal. 7. Substances, properties, and characteristics, which result from combination, cease to exist on the dissolution of that compound. But the power or force, by virtue of which one substance unites with another, or separates from it, is eternally inherent in that substance, and this power will compel it to seek similar unions and disunions in the future. Unions and disunions, Creation and Dissolution (of the world) [and birth and death of the soul] have eternally followed each other in succession. 8. That which results from the combination of different elementary substances in an intelligent manner and in the right proportion and other, - even that, in all its infinite variety, is called Creation. 9. The purpose of Creation is the essential and natural exercise of the creative energy of the Deity. A person one asked another “What is the use of the eyes?” “To see with to be sure,” was the reply. The same is the case here. God’s creative energy can be exercised and the souls can reap the fruits of their deeds only when the world is created. 10. The world is created. Its Creator is the aforesaid God. The existence of design in the universe as well as the fact that the dead inert matter is incapable of molding itself into different ordered forms, such as seeds, proves that it must have a Creator.
ଶ୍ରୀକୃଷ୍ଣ ଗୀତରେ ଅର୍ଜୁନଙ୍କୁ କହିଛନ୍ତି
03-07-2022
ଇଶ୍ଵର ସମସ୍ତ ଭୂତ ମଧ୍ୟରେ ଅଛନ୍ତି ଅର୍ଥ ସମସ୍ତଙ୍କଆତ୍ମାରେ ମଧ୍ୟ ଅଛନ୍ତି କିନ୍ତୁସମସ୍ତ ଆତ୍ମାଈଶ୍ଵର ନୁହେଁ। **""""""""""""**""""*"""""""ଏହି କଥା ଶ୍ରୀକୃଷ୍ଣ ଗୀତରେ ଅର୍ଜୁନଙ୍କୁ କହିଛନ୍ତି " ଈଶ୍ଵର ସର୍ବଭୂତାନାଂ ହୃଦ୍ଦେଶେଽର୍ଜ୍ଜୁନ ତିଷ୍ଠତି।ଭ୍ରାମୟନ୍ ସର୍ବଭୂତାନି ଯନ୍ତ୍ରା ରୂଢାନିମାୟୟା" /(୧୮ ଅ/୬୧ ଶ୍ଳୋକ) କିନ୍ତୁ ଶ୍ଳୋକ ରେ ସେପରି କିଛିକହି ନାହିଁନ୍ତିକି ଅର୍ଥ ହୁଏନାହିଁ ଯେ ଜଡ଼ ପଦାର୍ଥଗୁଡ଼ିକ ଚେତନ ଅଟନ୍ତି । କିନ୍ତୁ କିଛି ଭକ୍ତ ଅତିଭାବାପନ୍ନ ମହାତ୍ମାମାନେ ବହୁବାର ମୁକ୍ତି ପ୍ରକାଶ କରି କହିଥାନ୍ତି ଯେ ସାଧନା କଲେ ଜ୍ଞାତ ହେବ ଜଡ଼ରେ ଚୈତନର ଅନୁଭବ ହୁଏ। କିନ୍ତୁ ମୋ ମତ ଆପଣଙ୍କ ମତ ପ୍ରକାଶ ନ କରି ଶାସ୍ତ୍ରମତକୁ ଯିବାକୁ ପଡିବ ନଚେତ୍ ଜ୍ଞାନ ନାମରେ ଅହଙ୍କାର ବଢିବ । ଏଠାରେ ଶାସ୍ତ୍ର କହନ୍ତି ଯାହା ଯେପରି ଜାଣିବା ତାହାକୁ ସେପରି ଜାଣିବା " ଜ୍ଞାନ", ଯାହା ଯେପରି ନୁହେଁ ତାହାକୁ ସେପରି ଜାଣିବା " ଅଜ୍ଞାନ" ଅଟେ । ଯାହାକି ପୂଜ୍ୟ ମହର୍ଷି ଦୟାନନ୍ଦ ସରସ୍ଵତୀ ସତ୍ୟାର୍ଥ ପ୍ରକାଶରେ ବଜ୍ର ଗମ୍ଭୀର ଭାବେଘୋଷଣା କରି ଯାଇଛନ୍ତି। ହଁ ଆମେ ଏକ ଉଦାହରଣରେ କହିପାରିବା ଯେ କଲମରେ କାଳୀ ଅଛି ତାହା କାଳୀ କଲମ କିନ୍ତୁ କେବଳ କାଳୀ କହିବା ଭ୍ରମ ଅଟେ । ସେହିପରି ଇଶ୍ଵର କାଷ୍ଠ ପ୍ରସ୍ତର, କାଗଜ ଓ ମଳ ମଧ୍ୟରେ ବିଦ୍ୟମାନ୍। କାରଣ ଇଶ୍ଵରଙ୍କର ଏକସର୍ବବ୍ୟାପକତା ଗୁଣ ଏଠାରେ ପ୍ରକାଶ ପାଏ । କିନ୍ତୁତା'ରଅର୍ଥ ନୁହେଁ ସେ ସବୁ ପଦାର୍ଥ ଗୁଡିକଇଶ୍ଵର ଅଟନ୍ତି । ଏଣୁ ତ ଭାଗବତ କାର ଜଗନ୍ନାଥ ଦାସ କହନ୍ତି" କାଷ୍ଠପାଷାଣ ଲୌହ ବେତା । ଏସବୁ ଆଜ୍ଞାନ ଦେବତା।ଏହାଙ୍କ ଦେହେ ଜ୍ଞାନ ନାହିଁ। ଶୁଣ ଉଦ୍ଧବ ମନଦେଇ । ଏମିତି ଦିଅ ଅଛି କାହିଁ । ହସ୍ତ ପ୍ରସାରୀମାଗୁଥାଇ । ଆତ୍ମାକୁ ନ ଚିହ୍ନୁରେ ଅନ୍ଧ । ତୁ କାହିଁପାଇବୁ ଗୋବିନ୍ଦ । ଏଠାରେ କିଛି ଅନ୍ଧଭକ୍ତ ଜୀବନ୍ତ ମଣିଷ କଥାନବୁଝି ଜଗନ୍ନାଥ ହସ୍ତ ପ୍ରସାରଣକଥାକୁ ଚିନ୍ତନ କରିଛନ୍ତି । ଏଣୁ କାହାକୁ କିଏ ବୁଝାଇବ ସମସ୍ତେ ତ ମେଷାନୁ ଶରଣ ହୋଇଯାଇଛନ୍ତି । ଏ ସଂପର୍କରେ ଜନୈକ ସନ୍ୟାସୀ କହିଥିଲେ" ଯାହାକୁ ଯେମିତି ଆସ ରେ ବାବା । ହାତ ଟେକି ଟେକି ନାଚରେ ବାବା । ଭାଇ ନିଜ ନିଜ ମତରେ ଦୃଢ ହୋଇ ସତ୍ୟକୁ ନ ବୁଝି ଭ୍ରମୁଥାଅ। ଶାସ୍ତ୍ରମତକୁ ନଆଜି କିଛି ଗୁରୁବାଦୀ ( ଆମଗୁରୁ ଯାହାକ ହିଛନ୍ତି ତାହା ବେଦର ଗାର) ସେହିପରି କିଛି ଶିଷ୍ୟ ଏବେ ମଧ୍ୟ ଜେଲ୍ରେ ଦୋଷୀ ହେଲେହେଁ ତାଙ୍କର ବାଣୀକୁ ନେଇ ନାଚୁଛନ୍ତି। ତେବେ କିଏ କେତେ ନାଚୁଛି ନାଚୁ। ଆମେ ଶାସ୍ତ୍ରମତପ୍ରକାଶକଲୁ। କାରଣ ଯସ୍ୟ ନାସ୍ତି ସ୍ୱୟଂ ପ୍ରଜ୍ଞା ଶାସ୍ତ୍ର ତସ୍ୟ କିମ୍ କରିଷ୍ୟତି। ଶାସ୍ତ୍ରମତ ଆମେ ସମସ୍ତେ ଗ୍ରହଣ କରିବା ଉଚିତ୍ ନଚେତ୍ ଅହଙ୍କାରୀ ହୋଇ ପତନ ହେବା ସୁନିଶ୍ଚିତ କାରଣ ହେବ। ନିଜସ୍ଵମତପୋଷଣ କରିବା ମନା ନାହିଁକିନ୍ତୁ ଏହା ଅବୈଦିକ ଯାହାକୁ ଅନୈକିତକୁହାଯାଏ। ଇତି ଓ ୩ମ୍ । ରାଜକିଶୋର ଆର୍ଯ୍ୟ ।
Vedic vichar
02-07-2022
इन धर्माचार्यों से पूछना चाहते हैं कि ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद इन चारों संहिताओं में कहीं एक भी मन्त्र या मन्त्रांश ऐसा दिखा दीजिए जो महिलाओं और शूद्रों के वेदाध्ययन का निषेध करता हो?? महिला या पुरुष नहीं अपितु मानवमात्र को वेदाध्ययन का अधिकार है। वेदोद्धारक स्वामी दयानन्द सरस्वती ने यजुर्वेद के २६वें अध्याय के दूसरे मन्त्र का प्रमाण देकर कहा - “यथेमां वाचं कल्याणीमवदानि जनेभ्यः। ब्रह्मराजन्याभ्यां शूद्रायचार्याय च स्वाय चारणाय॥" अर्थात् – परमेश्वर उपदेश करते हैं कि जैसे मैं सब मनुष्यों के लिये इस कल्याणी वेदवाणी का उपदेश करता हूँ वैसे सब मनुष्य किया करें । इसमें प्रजनेभ्यः शब्द तो है ही वैश्य, शूद्र और अति शूद्र आदि की गणना भी आ गई है । यह बड़ा सुस्पष्ट प्रमाण है । आज आर्य समाज द्वारा चल रहे सैंकड़ों कन्या गुरुकुलों में हजारों छात्रायें वेद पढ़ रही हैं और सैकड़ों वेद विद्या की गम्भीर विदुषियाँ, आचार्याएँ वेद पढ़ा रही हैं।इतना ही नहीं सैकड़ों विदुषी स्त्रियाँ यज्ञ / हवन और संस्कार आदि कर्म कांड के लिए पुरोहिताई की भूमिका निभा रही हैं। इन गुरूकुलों में प्रवेश के समय किसी भी ब्रह्मचारी या ब्रह्मचारिणी की जाति नहीं पूछी जाती सब को बग़ैर किसी भेद भाव के पढ़ाया जाता है। महार्षि दयानंद की बदौलत आज भी बहुत सारे वैदिक परिवारों में कन्याओं का उपनयन होता है और स्त्रियाँ यज्ञोपवीत पहनती हैं । सन्ध्या, अग्निहोत्र करती हैं वेदपाठ भी करती हैं । ऋषि दयानन्द जी ने तो आर्य समाज के नियमों में एक नियम ही बना दिया कि वेद का पढ़ना पढ़ाना परम धर्म है। हमारी परम्परा के अनुसार यज्ञ जैसे पुनीत कार्यों की सफलता में पति और पत्नी दोनों की उपस्थिति अपेक्षित है। वेदों में वैदिक मंत्र दृष्टा पुरुष ऋषियों की भांति ही मन्त्र दृष्टा स्त्री ऋषि अर्थात ऋषिकाएं भी हुई हैं, जिन्होंने वेद मन्त्रों के रहस्यों का उद्बोद्धन कर सूक्तों व मन्त्रों के रूप में सूत्रबद्ध करने अर्थात वर्तमान रूप में उनकी रचना करने में महत्वपूर्ण योगदान प्रदान किया है। इतिहास में गार्गी, सुलभा, मैत्रेयी, कात्यायनी आदि विदुषियों के नाम प्रसिद्ध हैं जो बड़े-बड़े ऋषियों एवं मुनियों की शंकाओं का समाधान करती थीं। माता कौशल्या का अग्निहोत्र - अग्निहोत्र में वेदमन्त्र बोले जाते हैं और कौशल्या अग्निहोत्र करती थी बाल्मीकि रामायण में अयोध्या काण्ड अः २०-१५ श्लोक में द्रष्टव्य है - साक्षौमवसना हृष्टा नित्यं व्रतपरायणा। अग्नि जहोतिस्म तदा मन्त्रवत्कृतमज्जला।। कौशल्या रेशमी वस्त्र पहने हुए व्रत पारायण होकर प्रसन्न मुद्रा में मन्त्र पूर्वक अग्निहोत्र कर रही थी। इसी प्रकार अयोध्या काण्ड आ० २५ श्लोक ४६ में कौशल्या के यथाविधि स्वतिवाचन का भी वर्णन है। माता सीता की सन्ध्या - लंका में महाबली हनुमान माता सीता को खोजते हुए अशोक वाटिका में गये किन्तु उन्हें माता सीता न मिली । हनुमान ने वहाँ एक पवित्र जल वाली नदी को देखा । हनुमान जी को निश्चय था कि यदि माता सीता यहाँ होगी तो सन्ध्या का समय आ गया है और व यहाँ सन्ध्या करने के लिये अवश्य आयेंगी। सुन्दरकाण्ड अ० १४, श्लोक ४९ में लिखा है - सन्ध्याकालमनाः श्यामा ध्रुवमेष्यति जानकी। नदींचेमांशुभजला सध्यार्थ वरवर्णिनी॥ अर्थात् वर वर्णिनी सीता इस शुभ जल वाली नदी पर सन्ध्या करने के निमित्ति अवश्य आयेंगी। इस छोटे से प्रयास में हमने साक्षात् वेद वचन उद्धृत करके यह प्रमाण दे दिया है कि वेद मनुष्य मात्र के लिये हैं और 'धर्मजिज्ञासमानानां प्रमाणं परमं श्रुतिः' धर्म के लिये वेद परम प्रमाण हैं । किसी वेद संहिता में या वैदिक ऋषि कृत ग्रन्थ में स्त्रियों के वेद पढ़ने का निषेध नहीं है
Vedic vichar
02-07-2022
*आर्य शब्द के प्रमाण* *_ (1) सृष्टि की समकालीन पुस्तक ऋग्वेद में_:-* * कृण्वन्तो विश्वमार्यम ।* *अर्थ*-सारे संसार को 'आर्य' बनाओ। *_ (2) मनुस्मृति में_:-* *मद्य मांसा पराधेषु गाम्या पौराः न लिप्तकाः।* *आर्या ते च निमद्यन्ते सदार्यावर्त्त वासिनः।।* *अर्थ*-वे ग्राम व नगरवासी जो मद्य, मांस और अपराधों में लिप्त न हों तथा सदा से आर्यावर्त्त के निवासी हैं वे 'आर्य' कहे जाते हैं। *_ (3) वाल्मीकि रामायण में_-* *सर्वदा मिगतः सदिशः समुद्र इव सिन्धुभिः ।* *आर्य सर्व समश्चैव व सदैवः प्रिय दर्शनः ।।-(बालकाण्ड)* *अर्थ*-जिस तरह नदियाँ समुद्र के पास जाती हैं उसी तरह जो सज्जनों के लिए सुलभ हैं वे 'आर्य' हैं जो सब पर समदृष्टि रखते हैं हमेशा प्रसन्नचित्त रहते हैं। *_ (4) महाभारत में_:-* *न वैर मुद्दीपयति प्रशान्त,न दर्पयासे हति नास्तिमेति।* *न दुगेतोपीति करोव्य कार्य,तमार्य शीलं परमाहुरार्या।।(उद्योग पर्व)* *अर्थ*:-जो अकारण किसी से वैर नहीं करते तथा गरीब होने पर भी कुकर्म नहीं करते उन शील पुरुषों को 'आर्य' कहते हैं। *_वशिष्ठ स्मृति में_-* * (5) कर्त्तव्यमाचरन काम कर्त्तव्यमाचरन ।* * तिष्ठति प्रकृताचारे यः स आर्य स्मृतः ।।* *अर्थ*:-जो रंग, रुप, स्वभाव, शिष्ठता, धर्म, कर्म, ज्ञान और आचार-विचार तथा शील-स्वभाव में श्रेष्ठ हो उसे 'आर्य' कहते हैं। *(6) _निरुक्त में यास्काचार्य जी लिखते हैं_-* *आर्य ईश्वर पुत्रः।* *अर्थ―*'आर्य' ईश्वर के पुत्र हैं। *(7) _विदुर नीति में_-* *आर्य कर्मणि रज्यन्ते भूति कर्माणि कुर्वते ।* *हितं च नामा सूचन्ति पण्डिता भरतर्षभ ।।-(अध्याय १ श्लोक ३०)* *अर्थ*:-भरत कुल भूषण! पण्डित जन्य जो श्रेष्ठ कर्मों में रुचि रखते हैं, उन्नति के कार्य करते हैं तथा भलाई करने वालों में दोष नहीं निकालते हैं वही 'आर्य' हैं। *(8) _गीता में_-* *अनार्य जुष्टम स्वर्गम् कीर्ति करमर्जुन।* –(अध्याय २ श्लोक २) *अर्थ*:-हे अर्जुन तुझे इस असमय में यह अनार्यों का सा मोह किस हेतु प्राप्त हुआ क्योंकि न तो यह श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा आचरित है और न स्वर्ग को देने वाला है तथा न कीर्ति की और ही ले जाने वाला है (यहां पर अर्जुन के अनार्यता के लक्षण दर्शाये हैं)। *(9) _चाणक्य नीति में_-* *अभ्यासाद धार्यते विद्या कुले शीलेन धार्यते।* *गुणेन जायते त्वार्य,कोपो नेत्रेण गम्यते।।-(अध्याय ५ श्लोक ८)* *अर्थ*:-सतत् अभ्यास से विद्या प्राप्त की जाती है, कुल-उत्तम गुण, कर्म, स्वभाव से स्थिर होता है,आर्य-श्रेष्ठ मनुष्य गुणों के द्वारा जाना जाता है। *(10) _नीतिकार के शब्दों में_-* *प्रायः कन्दुकपातेनोत्पतत्यार्यः पतन्नपि।* *तथा त्वनार्ष पतति मृत्पिण्ड पतनं यथा।।* *अर्थ*:-आर्य पाप से च्युत होने पर भी गेन्द के गिरने के समान शीघ्र ऊपर उठ जाता है अर्थात् पतन से अपने आपको बचा लेता है,अनार्य पतित होता है तो मिट्टी के ढेले के गिरने के समान फिर कभी नहीं उठता। *(11) _अमरकोष में_:-* *महाकुलीनार्य सभ्य सज्जन साधवः।-(अध्याय२ श्लोक६ भाग३)* *अर्थ*:-जो आकृति,प्रकृति,सभ्यता,शिष्टता,धर्म,कर्म,विज्ञान,आचार,विचार तथा स्वभाव में सर्वश्रेष्ठ हो उसे 'आर्य' कहते हैं। *(12) _कौटिल्य अर्थशास्त्र में_-* *व्यवस्थितार्य मर्यादः कृतवर्णाश्रम स्थितिः।* *अर्थ*:-आर्य मर्यादाओं को जो व्यवस्थित कर सके और वर्णाश्रम धर्म का स्थापन कर सके वही 'आर्य' राज्याधिकारी है। *(13) _पंचतन्त्र में_-* *अहार्यत्वादनर्धत्वाद क्षयत्वाच्च सर्वदा।* *अर्थ*:-सब पदार्थों में उत्तम पदार्थ विद्या को ही कहते हैं। *(14) _धम्म पद में_:-* *अरियत्पेवेदिते धम्मे सदा रमति पण्डितो।* *अर्थ*:-पण्डित जन सदा आर्यों के बतलाये धर्म में ही रमण करता है। *(15) _पाणिनि सूत्र में_:-* *आर्यो ब्राह्मण कुमारयोः।* *अर्थ*:-ब्राह्मणों में 'आर्य' ही श्रेष्ठ है। *(16) _काशी विश्वनाथ मन्दिर के मुख्य द्वार पर_-* *आर्य धर्मेतराणो प्रवेशो निषिद्धः।* *अर्थ*:-आर्य धर्म से इतर लोगों का प्रवेश वर्जित है। *(17) _आर्यों के सम्वत् में_:-* *जम्बू दीपे भरतखण्डे आर्यावर्ते अमुक देशान्तर्गते।* ऐसा वाक्य बोलकर पौराणिक भाई भी संकल्प पढ़ते हैं अर्थात् यह आर्यों का देश 'आर्यावर्त्त' है। *(18) _आचार्य चतुरसेन और आर्य शब्द_:-* उठो आर्य पुत्रो नहि सोओ। समय नहीं पशुओं सम खोओ। भंवर बीच में होकर नायक। बनो कहाओ लायक-लायक।। *अर्थ*:-तुम्हारा जीवन पशुओं के समान निद्रा के वशीभूत होने के लिए निर्माण नहीं हुआ है।यह समय तुम्हें पुरुषार्थ करने का है,यदि जीवन में तुम पुरुषार्थ करोगे तो किसी कहानी के नायक बनकर समाज के आगे उपस्थित होवोगे। *(19) _पं. प्रकाशचन्द कविरत्न के शब्दों में:-_* आर्य-बाहर से आये नहीं, देश है इनका भारतवर्ष। विदेशों में भी बसे सगर्व, किया था परम प्राप्त उत्कर्ष।। आर्य और द्रविड जाति हैं, भिन्नचलें यह विदेशियों की चाल। खेद है कुछ भारतीय भी, व्यर्थ बजाते विदेशियों सम गाल।। *(20) _पं. राधेश्याम कथावाचक बरेली वाले और आर्य शब्द_:–* जब पंचवटी में सूर्पणखा राम के पास मोहित होकर अपना विवाह करने की बात राम से कहती है,तब राम उत्तर देते हैं― हम आर्य जाति के क्षत्रीय हैं, रघुवंशी वैदिक धर्मी हैं। जो करें एक से अधिक विवाह, कहते वेद उन्हें दुष्क. *साभार:* *"आर्य शब्द तर्क की कसौटी पर"* से उद्धृत _{ लेखक: रामेन्द्र कुमार आर्य }_
Vedic vichar
02-07-2022
☘️ *_सनातन धर्म के कथन और हिन्दुओ का भ्रम :जानिए हिंदुओं के मुख्य भ्रम और उनके निवारण:-_* *डॉ राव पी सिंह* भ्रम :- सारी मानवता एक है हम वसुदेव कुटुम्बकम को मानते हैं और सबका सम्मान करते हैं । निवारण :- सारी मानवता एक अवश्य है परन्तु बीच में जो अराजक तत्व पैदा होते हैं उनका समूल नाश भी समय समय पर आवश्यक है और सम्मान केवल उनका करना चाहिए जो सम्मान के योग्य हों । भ्रम :- हमारी संस्कृति हमें किसी से लड़ना नहीं सिखाती । निवारण :- तो क्या हमारी संस्कृति हमें कायरता और नपुंसकता सिखाती है ? उचित स्थान पर युद्ध करना हमारी संस्कृति का एक भाग है । भ्रम :- हमने कभी किसी दूसरे देश पर आक्रमण करके उसपर अधिकार नहीं किया । निवारण :- तो क्या विश्व का चक्रवर्ती शासन आपको विदेशियों ने गिफ्ट में दे दिया था ? अवैदिक मतों का नाश कर वैदिक धर्म का ध्वज लहराने के लिए समय समय पर राज्य की सीमाओं का विस्तार करके चक्रवर्ती शासन करने के लिए वेद का आदेश है और हमारे महापुरुषों ने इसे किया भी है । भ्रम :- हमें सब धर्मों का सम्मान करना चाहिए किसी दूसरे के धर्म का अपमान नहीं करना चाहिए । हमें हमारे शास्त्र ऐसा करना नहीं सिखाते । निवारण :- तो क्या हमारे शास्त्र ये सिखाते हैं कि अपने धर्म की निंदा सुनकर हिजड़ों की तरह शांति का जाप करते रहो और मुस्कुराते रहो ? हमारे न्याय आदि सारे दर्शन ये बलपूर्वक कहते हैं कि तर्क और युक्तियों से असत्य बातों का खंडन करो और सत्य सिद्धान्तों की स्थापना करो । और धर्म केवल वैदिक ही होता है दूसरा कोई धर्म है ही नहीं ।बाक़ी सब संमप्रदाय / मत हैं। धर्म का अर्थ कर्तव्य है। भ्रम :- हमने अपने देश में सभी संस्कृतियों को आश्रय दिया क्योंकि हम अतिथि देवो भव वाली संस्कृति पर विश्वास करते हैं । निवारण :- आपने किसी को आश्रय नहीं दिया बल्कि वे बलपूर्वक आपको रौंदते हुए आपकी जमीनें हथ्याकर आपकी छाती पर चढ़ बैठे हैं जिनको आप अपने देश से निकाल नहीं पाए । और क्या अतिथि देवो भव का ये अर्थ होता है कि आपके घर में कोई अतिथि आए और वो आपके घर की सम्पदा को लूटना शुरू कर दे और आपकी स्त्रियों को दूषित करना शुरू कर दे और उसके बाद आप उसको अपने घर में रहने की अनुमति दे दें ? ये बेशर्मी भरे सिद्धान्त कहाँ से सीखे आपने ? इसलिए आपको आक्रांता और अतिथि में अंतर ही नहीं पता । भ्रम :- हमें हमारे धर्म पूर्ण धैर्य की शिक्षा देता है, इसलिए अपने शत्रु को भी क्षमा करने वाला देवता होता है । निवारण :- तो अपने देवता बनकर करना क्या है ? वैसे भी कायरता और धैर्य में अंतर है, धैर्य हर स्थान पर नहीं कभी कभी शोभा देता है, और शत्रुओं का आक्रमण होता रहे और आप धैर्य को पकड़कर चाटते रहो और कुछ करो ही नहीं तो ये कायरता और नपुंसकता है । शत्रु को क्षमा नहीं बल्कि उसका पूरा ही विनाश करना चाहिए और अपनी प्रजा की रक्षा करनी चाहिए । जब तक एक भी आपका शत्रु जीवित है तबतक सुख से नहीं बैठना चाहिए । भ्रम :- हम राम और कृष्ण की संस्कृति को मानने वाले लोग हैं । निवारण :- केवल मानने मात्र से ही काम चल सकता तो आज राम मंदिर के लिए सैकड़ों वर्ष संघर्ष न करना पड़ता और कृष्ण जन्मभूमि आदि को मस्जिद मुक्त करने का प्रश्न ही नहीं होता । परन्तु राम और कृष्ण की संस्कृति का पालन करने वाले होते तो भारत में एक भी विदेशी विधर्मी आदि न होता । कितने राम के भक्त हैं जो धनुष चलाना जानते हैं ? कितने कृष्ण भक्त हैं जो सुदर्शन चक्र चलाना जानते हैं ? कितने हनुमान भक्त हैं जो गदा चलना जानते हैं ? कितने परशुराम भक्त फरसा चलाना जानते हैं ? तो केवल मानने से ही नहीं पालन करने से बात बनेगी । ऐसे और भी भ्रम हैं जिनका निवारण होते रहना चाहिए । ???????? ???????? भारत माता की जय ???????? जय आर्यावर्त
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02-07-2022
ओ३म् निधाय हृदि विश्वेशं प्रपाल्य भारतीं श्रुतिम्। भोगापवर्गसिध्यर्थं जगत् कृत्स्नं विलोक्यते।। अर्धः-- हृदये जगदाधारं धारयित्वा तस्य कल्याणकारकं वचः पालयित्वा शरीरसुखं मुक्तिसुखं च लब्धुं अस्माभिः विशालं जगत् विलोक्यते। ***ओ३म्***
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02-07-2022
ଓ୩ମ୍ ନିଧାୟ ହୃଦି ବିଶ୍ୱେଶଂ ପ୍ରପାଲ୍ୟ ତସ୍ୟ ଭାରତୀମ୍। ଭୋଗାପବର୍ଗସିଦ୍ଧ୍ୟର୍ଥଂ ଜଗତ୍ କୃତ୍ସ୍ନଂ ବିଲୋକ୍ୟତେ।। ଅର୍ଥ :--ହୃଦୟରେ ଜଗତର ଆଧାରଙ୍କୁ ଧାରଣକରି ଏବଂ ତାଙ୍କର ମଙ୍ଗଳପ୍ରଦାୟକ ବାଣୀ ବେଦର ନିର୍ଦ୍ଦେଶକୁ ପାଳନ କରି ପାର୍ଥିବସୁଖ ଓ ମୁକ୍ତିସୁଖନିମନ୍ତେ ଏହି ବିଶାଳଜଗତକୁ ଅବଲୋକନ କରାଯାଉଛି। *** ଓ୩ମ୍***
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02-07-2022
ଚୈତ୍ରେ ଶୁକ୍ଳେ ପ୍ରଥମଦିବସେ ନବ୍ୟବର୍ଷଂ ମଦୀୟଂ ମାଘେ ମାସେ ନ ଭବତି କଦା ପର୍ବ ତତ୍ ପାଳନୀୟମ୍। ତସ୍ମାଦ୍ ବନ୍ଧୋ ଶୁଭଫଳଯୁତା ମେ ନ ବାର୍ତ୍ତା ପ୍ରଦେୟା ଭାତାଦାଶୁ ସ୍ୱବିମଳଗୁଣଃ ଶୁଦ୍ଧସାରଶ୍ଚିରାୟୁଃ।। ଅର୍ଥ :-- ଚୈତ୍ର ମାସ ଶୁକ୍ଳପକ୍ଷ ପ୍ରତିପଦାତିଥି ହିଁ ମୋର ନବବର୍ଷ ଅଟେ। ମାଘମାସରେ ଏହା କଦାପି ପାଳିତ ହେବା କଥା ନୁହେଁ। ତେଣୁ ହେ ବନ୍ଧୁ ! ମୋତେ ଶୁଭଫଳଯୁକ୍ତ ବାର୍ତ୍ତା ପ୍ରଦାନ କରିବେ ନାହିଁ। ଶୁଦ୍ଧସାର,ଚିରାୟୁ ନିଜର ବିମଳଗୁଣ ଶୀଘ୍ର ଶୋଭା ପାଉ।
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02-07-2022
ମନ୍ତ୍ରତ୍ରୟଂ ବିଜାନୀହି ସଖେ ! ଚେତ୍ତ୍ରାଣମିଚ୍ଛସି। ଦୂରେ ବାସୋ ମୁଖାଚ୍ଛାଦୋ ହସ୍ତପ୍ରକ୍ଷାଳନଂ ସଦା ।। ଅର୍ଥ:-- ହେ ସାଙ୍ଗ! ଯଦି ରକ୍ଷା ପାଇବାକୁ ଇଚ୍ଛା କରୁଥାଅ, ତେବେ ଏହି ମନ୍ତ୍ରତିନୋଟିକୁ ମନେରଖ। ତାହାହେଲା, ଦୂରରେ ବାସକର। ମୁହଁ ରେ ବସ୍ତ୍ରରଖ। ସଦାବେଳେ ହାତ ସଫାକର।
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02-07-2022
ନୌମି ଦେବଂ ଦୟାନନ୍ଦଂ ବେଦସତ୍ୟାର୍ଥବାଚକମ୍। ଯଶ୍ଚାଖିଳଂ ବିଷଂ ପୀତ୍ୱାପ୍ରାୟଚ୍ଛଦମୃତଂ ମହତ୍।। ଅର୍ଥ :--ମୁଁ ବେଦର ସତ୍ୟ-ଅର୍ଥକୁ ପ୍ରଚାରକରିଥିବା ଦିବ୍ୟଗୁଣସମ୍ପନ୍ନ ମହର୍ଷି ଦୟାନନ୍ଦଙ୍କୁ ପ୍ରଣାମ କରୁଅଛି। ଯେ ସମସ୍ତବିଷପାନକରି ବହୁତ ଅମୃତ ପ୍ରଦାନ କରିଯାଇଛନ୍ତି।।
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02-07-2022
ଯଜୁର୍ବେଦ ମୋଟ ମନ୍ତ୍ରସଂଖ୍ୟା-୧୯୭୫ ବ୍ୟାଖ୍ୟାତ ମନ୍ତ୍ର--୨୩/୧୮ ଦୟାନନ୍ଦ ଭାଷ୍ୟ। ମନ୍ତ୍ରାର୍ଥ:-- ମନୁଷ୍ୟକୁ କଣ ଜାଣିବା ଉଚିତ୍। ମନ୍ତ୍ର:-- ଓ୩ମ୍ ପ୍ରାଣାୟ ସ୍ୱାହାପାନାୟ ସ୍ୱାହା ବ୍ୟାନାୟ ସ୍ୱାହା। ଅମ୍ୱେଽଅମ୍ୱିକେଽଅମ୍ୱାଳିକେ ନ ମା ନୟତି କଶ୍ଚନ। ସସସ୍ତ୍ୟଶ୍ୱକଃ ସୁଭଦ୍ରିକାଂ କାମ୍ପୀଲବାସିନୀମ୍। ପଦପାଠ:--ପ୍ରାଣାୟ। ସ୍ୱାହା। ଅପାନାୟ। ସ୍ୱାହା। ବ୍ୟାନାୟ(ବି ଆନାୟ)। ସ୍ୱାହା। ଅମ୍ୱେ । ଅମ୍ୱିକେ। ଅମ୍ୱାଳିକେ। ନ । ମା। ନୟତି। କଃ ଚନ। ସସସ୍ତି। ଅଶ୍ୱକଃ। ସୁଭଦ୍ରିକାମ୍। କାମ୍ପୀଲବାସିନୀମ୍। ପଦାର୍ଥ :--ପ୍ରାଣାୟ--ପ୍ରାଣର ପୋଷଣ ପାଇଁ। ସ୍ୱାହା--ସତ୍ୟ ବାଣୀ। ଅପାନାୟ--ଦୁଃଖଦୂରନିମନ୍ତେ। ସ୍ୱାହା--ସୁଶିକ୍ଷିତ ବାଣୀ। ବ୍ୟାନାୟ--ସମସ୍ତ ଶରୀରରେ ବ୍ୟାପ୍ତ ହୋଇଥିବା ଆତ୍ମାପାଇଁ। ସ୍ୱାହା--ସତ୍ୟବାଣୀକୁ। ଅମ୍ୱେ--ହେ ମାତା। ଅମ୍ୱିକେ--ହେ ପିତାମହି। ଅମ୍ୱାଳିକେ--ହେ ପ୍ରପିତାମହି । ନ-ନାସ୍ତିସୂଚକ ଅବ୍ୟୟ। ମା --ମୋତେ। ନୟତି--ନିଅନ୍ତି/ବଶୀଭୂତ କରନ୍ତି। କଶ୍ଚନ--କେହି। ସସସ୍ତି--ଶୋଇଥାଏ। ଅଶ୍ୱକଃ-ଘୋଡା ଭଳି ଗତିଶୀଳ ଜନ/ଜିତେନ୍ଦ୍ରିୟ। ସୁଭଦ୍ରିକାମ୍--ଅତ୍ୟନ୍ତ କଲ୍ୟାଣକାରିଣୀ। କାମ୍ପୀଲବାସିନୀମ୍--ଲକ୍ଷ୍ମୀଙ୍କୁ। ଅନ୍ୱୟଃ:--ହେ ଅମ୍ୱେ ଅମ୍ୱିକେ ଅମ୍ୱାଳିକେ ! କଶ୍ଚନ ଅଶ୍ୱକଃ (ଯାଂ) କାମ୍ପୀଲବାସିନୀମ୍ ସୁଭଦ୍ରିକାମ୍(ଆଦାୟ) ସସସ୍ତି ନ ମା ନୟତି। (ଅତଃ ଅହଂ)ପ୍ରାଣାୟ ସ୍ୱାହା ଅପାନାୟ ସ୍ୱାହା ବ୍ୟାନାୟ ସ୍ୱାହା (ଚ କରୋମି)। ଅନ୍ୱୟାର୍ଥ:-- ହେ ମାତା, ମାତାମହୀ, ପ୍ରପିତାମହୀପ୍ରଭୃତି ମାତୃଗଣ। କେହି ଅଶ୍ୱପରି ଗତିଶୀଳ ସଂଯମୀ ଜନ କଲ୍ୟାଣକାରିଣୀ ଲକ୍ଷ୍ମୀଙ୍କୁ ନେଇ ଆଳସ୍ୟପରାୟଣ ହୁଏନାହିଁ। ଏଣୁ ମୁଁ ପ୍ରାଣପୋଷଣପାଇଁ, ଦୁଃଖଦୂରୀକରଣପାଇଁ, ଶରୀରର ସର୍ବବ୍ୟାପୀ ଜୀବାତ୍ମାକୁ ସତ୍ୟମୟୀବାଣୀ ସହ ସଂଯୁକ୍ତ କରୁଅଛି। ଭାବାର୍ଥ:--ହେ ମନୁଷ୍ୟ ! ଯେପରି ମାତା, ପିତାମହୀ, ପ୍ରପିତାମହୀ ପ୍ରଭୃତି ମାତୃଗଣ ସନ୍ତାନକୁ ସୁଶିକ୍ଷା ଦେଇଥାନ୍ତି, ସେପରି ତୁମେ ମଧ୍ୟ ସନ୍ତାନକୁ ଶିକ୍ଷିତ କରାଇବା ଉଚିତ୍। ଧନ ମଙ୍ଗଳକାରିଣୀ ସତ, ମାତ୍ର ଯେଉଁ ସ୍ଥାନରେ ଏହା ଏକତ୍ରିତ ହୁଏ, ସେଠାରେ ଆଳସ୍ୟ, କର୍ମହୀନତା ଜାତହୁଏ। ଏଣୁ ଧନଦ୍ୱାରା ମଙ୍ଗଳକର ପୁରୁଷାର୍ଥ କାର୍ଯ୍ୟ କରିବା ଉଚିତ୍। ବ୍ୟାକରଣ:--1)ପ୍ରାଣାୟ:--ପ୍ରାଣିତି ଜୀବୟତୀତି ପ୍ରାଣୋ ହୃଦୟସ୍ଥୋ ବାୟୁଃ, ତସ୍ମୈ। ପ୍ର +ଅନ (ପ୍ରାଣନେ) ଅଦାଦି+କରଣେ ଘଞ୍। 2)ସ୍ୱାହା-- ସତ୍ୟା ବାକ୍। ସୁ ଆହ ପଦୟୋଃ ସମାସେ (ସ୍ତ୍ରିୟାଂ ଟାପ୍)। ସ୍ୱଂ ଦଧାତୀତି ବିଗ୍ରହଃ। ସ୍ୱୋପପଦେ ଆଙ୍-ପୂର୍ବାଦ୍ ଡୁ ଧାଞ୍ ଧାରଣପୋଷଣୟୋଃ(ଜୁ0) ଧାତୋଃ ଛାନ୍ଦସଂ ରୂପମ୍ ଅଥବା ସୁ+ଆଙ୍+ହୁ ଦାନାଦାନୟୋଃ(ଜୁ0) ଧାତୋର୍ଡଃ। ତତଃ ସାତ୍ରିୟାଂ ଟାପ୍। 3) ଅପାନାୟ--ଦୁଃଖନିବାରଣାୟ। ଅପାନୟତି ଦୂରୀକରୋତି ଦୁଃଖାନୀତି। ଅପ+ ଅନ(ପ୍ରାଣନେ)ଅଦାଦି+ କରଣେ ଘଞ୍। 4)ବ୍ୟାନାୟ--ବିବିଧୋତ୍ତମବ୍ୟବହାରାୟ। ଯୋ ବିବିଧେଷୁ ଅଙ୍ଗେଷୁ ଅନିତି ବ୍ୟାପ୍ନୋତୀତି।ବି+ଅନ(ପ୍ରାଣନେ)ଅଦାଦି+ କରଣେ ଘଞ୍। 5) ଅମ୍ୱେ--ମାତଃ। ଅମତି ପ୍ରେମଭାବେନ ପ୍ରାପ୍ନୋତୀତି। ଅମ ଗତ୍ୟାଦିଷୁ (ଭ୍ୱାଦି) ଧାତୋଃ ବାହୁଳକାଦ୍ ବନ୍ ପ୍ରତ୍ୟୟଃ। ଅମ୍ୱ୍ୟତେ ଶବ୍ଦ୍ୟତେ ଇତି-ଅବି ଶବ୍ଦେ ଭ୍ୱାଦିଧାତୋଃ ଅ ପ୍ରତ୍ୟୟୋ ବା । 6)ଅମ୍ୱିକା--ଅମ୍ୱା+କନ୍+ଟାପ୍। 7) ଅମ୍ୱାଳିକା--ଅମ୍ୱାଳା+କ+ଟାପ୍। 8)ନ--ନିଷେଧାର୍ଥକମବ୍ୟୟମ୍। 9)ମା--ମାମ୍-ଅସ୍ମଦ୍ ଶବ୍ଦସ୍ୟ ଦ୍ୱି,ଏକବଚନେ। 10)ନୟତି -ଣୀଞ୍ ପ୍ରାପଣେ ଧାତୋଃ ଲଟ୍। 11)କଶ୍ଚନ--କିମ୍ ଶବ୍ଦାତ୍ ପ୍ରଥମାୟାମ୍ ଚନ। 12)ସସସ୍ତି--ସ୍ୱପିତି-ଷସ ସ୍ୱପ୍ନେ ଅଦାଦି ଲଟି। 13) ଅଶ୍ୱକଃ--ଅଶ୍ୱ ଇବ ଗନ୍ତା ଜନଃ। ଅଶ୍ୱ। ପ୍ରାତିପଦିକାଦ୍ ଇବାର୍ଥେ କନ୍ ପ୍ରତ୍ୟୟଃ। 14) ସୁଭଦ୍ରିକାମ୍--ସୁଷ୍ଠୁ କଲ୍ୟାଣକାରିକାମ୍। ଭଦ୍ରା ପ୍ରାତି - ସ୍ସାର୍ଥେ କନ୍ ସ୍ତ୍ରିୟାଂଟାପ୍ । ଭଦ୍ରା-ଭଦି କଲ୍ୟାଣେ ସୁଖେ ଚ ଧାତୋଃ ଊଣାଦୌ ରନ୍। 15) କାମ୍ପୀଲବାସିନୀମ୍ -- ଲକ୍ଷ୍ମୀମ୍--କଂ ସୁଖଂ ପୀଲତି ବଧ୍ନାତୀତି କମ୍ପୀଲଃ, ସ୍ୱାର୍ଥେ ଅଣ୍ ପ୍ରତ୍ୟୟେ କାମ୍ପୀଲଃ । ତାଂ ବାସୟିତୁଂ ଶୀଳଂ ଅସ୍ୟାସ୍ତାମ୍ ଲକ୍ଷ୍ମୀମ୍। କାମ୍ପୀଲୋପପଦେ ବସ ନିବାସେ ଧାତୋଃ ଣିନି, ସ୍ତ୍ରିୟାଂଙୀପ୍। କାମ୍ପୀଲଃ--କମ୍ (ସୁଖମ୍ ) ଉପପଦେ ପୀଲ ପ୍ରତିଷ୍ଟମ୍ଭେ ଧାତୋଃ ସ୍ୱାର୍ଥେ ଅଣ୍।
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02-07-2022
ନ ବୈ ନାରୀ କଦା ନିନ୍ଦ୍ୟା ନ ବେଦଶାସ୍ତ୍ରବଞ୍ଚିତା। ନାବିଶ୍ୱାସ୍ୟା ନ ଦଣ୍ଡାର୍ହା ସା ମାନ୍ୟା ସା ଗରୀୟସୀ।। ଅର୍ଥ :--ନାରୀ କଦାପି ନିନ୍ଦାଯୋଗ୍ୟ ନୁହେଁ କିମ୍ୱା ସେ ବେଦଶାସ୍ତ୍ରରୁ ବଞ୍ଚିତ ନୁହେଁ। ସେ ଅବିଶ୍ୱାସଯୋଗ୍ୟ ନୁହେଁ କିମ୍ୱା ତାଡନଯୋଗ୍ୟ ନୁହେଁ, ସେ ମାନ୍ୟ ଓ ଗରୀୟସୀ ଅଟେ।।
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02-07-2022
ଯଜୁର୍ବେଦ ଦୟାନନ୍ଦଭାଷ୍ୟ ଓ୩ମ୍ ଗଣାନାଂ ତ୍ୱା ଗଣପତିଂ ହବାମହେ ପ୍ରିୟାଣାଂ ତ୍ୱା ପ୍ରିୟପତିଂ ହବାମହେ ନିଧୀନାଂ ତ୍ୱା ନିଧିପତିଂ ହବାମହେ ବସୋ ମମ ଆହମଜାନି ଗର୍ଭଧଂ ତ୍ୱମଜାସି ଗର୍ଭଧମ୍। ଯଜୁର୍ବେଦ 23/19 ମନ୍ତ୍ର ର ସାରାଂଶ:--ମନୁଷ୍ୟ କେଉଁ ଭଳି ପରମାତ୍ମାଙ୍କୁ ଉପାସନା କରିବା ଉଚିତ୍। ପଦପାଠ:--ଗଣାନାମ୍। ତ୍ୱା। ଗଣପତିମ୍। ହବାମହେ। ପ୍ରିୟାଣାମ୍। ତ୍ୱା। ପ୍ରିୟପତିମ୍। ହବାମହେ। ନିଧୀନାମ୍। ତ୍ୱା। ନିଧିପତିମ୍। ହବାମହେ। ବସୋ। ମମ। ଆ। ଅହମ୍। ଅଜାନି। ଗର୍ଭଧମ୍। ଆ। ତ୍ୱମ୍। ଅଜାସି। ଗର୍ଭଧମ୍। ପଦାର୍ଥ :---ହେ ଜଗଦୀଶ୍ୱର ! ଗଣାନାମ୍-ସମୂହମାନଙ୍କର। ତ୍ୱା-ତୁମକୁ। ଗଣପତିମ୍-ସମୂହପାଳକଙ୍କୁ। ହବାମହେ-ସ୍ୱୀକାରକରୁଅଛୁ। ପ୍ରିୟାଣାମ୍-ପ୍ରିୟମାନଙ୍କର। ତ୍ୱା-ତୁମକୁ।ପ୍ରିୟପତିମ୍-ପ୍ରିୟପାଳନକର୍ତ୍ତାଙ୍କୁ। ହବାମହେ-ପ୍ରଶଂସା କରୁଅଛୁ। ନିଧୀନାମ୍-ବିଦ୍ୟାଦିପଦାର୍ଥର ପୋଷକମାନଙ୍କର। ତ୍ୱା-ତୁମକୁ। ନିଧିପତିମ୍-ବିଦ୍ୟାଦିପଦାର୍ଥର ପାଳକଙ୍କୁ। ହବାମହେ--ସ୍ୱୀକାର କରୁଅଛୁ। ବସୋ-ସମସ୍ତ ପ୍ରାଣିଙ୍କର ଆବାସସ୍ଥାନ। ମମ-ମୋର। ଆ ଅହମ୍ ଅଜାନି- ମୁଁ ଜାଣେ। ଗର୍ଭଧମ୍-ଗର୍ଭରେ ସଂସାର ଓ ପ୍ରକୃତିକୁ ଧାରଣକରୁଥିବା। ଆ ତ୍ୱମ୍ ଅଜାସି-ତୁମେ ପ୍ରାପ୍ତ ହେଉଅଛ। ଗର୍ଭଧମ୍-ପ୍ରକୃତିକୁ। ଅନ୍ୱୟ:--ହେ ଜଗଦୀଶ୍ୱର ! :-- ବୟଂ ଗଣାନାଂ ଗଣପତିଂ ତ୍ୱା ହବାମହେ। ପ୍ରିୟାଣାଂ ପ୍ରିୟପତିଂ ତ୍ୱା ହବାମହେ। ନିଧୀନାଂ ନିଧିପତିଂ ତ୍ୱା ହବାମହେ। ହେ ବସୋ ! ମମ (ନ୍ୟାୟାଧୀଶୋ ଭୂୟାଃ)। ଯଂ ଗର୍ଭଧଂ ତ୍ୱମ୍ ଆଜାସି ତଂ ଗର୍ଭଧମ୍ ଅହମ୍ ଆଜାନି। ଅନ୍ୱୟାର୍ଥ :--ହେ ଜଗଦୀଶ୍ୱର ! ଗଣନୀୟପଦାର୍ଥମାନଙ୍କର ପାଳନକର୍ତ୍ତା ତୁମକୁ ଅର୍ଥାତ୍ ପରମେଶ୍ୱରଙ୍କୁ ପୂଜ୍ୟ ବୁଦ୍ଧିରେ ଗ୍ରହଣ କରୁଅଛୁ। ଯିଏ ଆମମାନଙ୍କର ଇଷ୍ଟ, ମିତ୍ର ଓ ମୋକ୍ଷାଦି ପ୍ରଭୃତିର ଆନନ୍ଦଦାତା ଓ ପାଳନକର୍ତ୍ତା ଅଟନ୍ତି, ସେହି ପରମାତ୍ମାଙ୍କୁ ଆମ୍ଭେ ଏକମାତ୍ର ଉପାସ୍ୟଭାବେ ଗ୍ରହଣକରୁଅଛୁ। ଯିଏ ବିଦ୍ୟା,ମୁକ୍ତି ଓ ସୁଖାଦିର ଅଧିପତି ଅଟନ୍ତି, ସେହି ପରମାତ୍ମାଙ୍କୁ ଆମେ ଆମର ରାଜା ଓ ପ୍ରଭୁ ବୋଲି ସ୍ୱୀକାର କରୁଅଛୁ।ହେ ସକଳ ଜଗତର ଆଧାର ! ଆପଣ ମୋର ନ୍ୟାୟାଧୀଶ ହୁଅନ୍ତୁ। ସକଳଜଗତର ମୂର୍ତ୍ତ ଓ ଅମୂର୍ତ୍ତ ପଦାର୍ଥର ଧାରକହେତୁ ଆପଣ ମୋତେ ସତ୍ପଥରେ ପ୍ରେରଣକରନ୍ତୁ। ଭାବାର୍ଥ:--ହେ ମନୁଷ୍ୟ ! ଯିଏ ସମସ୍ତ ଜଗତର ରକ୍ଷକ, ସମସ୍ତ ସୁଖର ପ୍ରଦାତା, ସମସ୍ତ ଐଶ୍ୱର୍ଯ୍ୟ ର ଧାରଣକର୍ତ୍ତା, ପ୍ରକୃତିର ପାଳନ ଏବଂ ସମସ୍ତ ବୀଜର ବିଧାନକର୍ତ୍ତା ଅଟନ୍ତି। ସେହି ପରମାତ୍ମାଙ୍କୁ ତୁମେମାନେ ଉପାସନା କର। ବ୍ୟାକରଣ:--1)ଗଣାନାମ୍-ଗଣ୍ୟନ୍ତେ ସଂଖ୍ୟାୟନ୍ତେ ଇତି ଗଣାଃ, ତେଷାମ୍। ଗଣ ସଂଖ୍ୟାନେ ଧାତୋରଚ୍। ଘଞର୍ଥେ ବା କଃ। 2) ତ୍ୱା--ଯୁଷ୍ମଦ୍ଦ୍ୱିତୀୟୈକବଚନେ। 3) ଗଣପତିମ୍-ଗଣସ୍ୟ ପତିଃ ତମ୍। ପତିଃ- ପାତି ରକ୍ଷତି ସ ପତିଃ। ପା ଧାତୋଃ ଔଣାଦିକ ଡତି ପ୍ରତ୍ୟୟଃ। ପତ୍ଲୃ ଗତୌ ଧାତୋର୍ବା ଔଣାଦିକ ଇନ୍ ପ୍ରତ୍ୟୟଃ। 4) ହବାମହେ--ଆହ୍ୱୟାମହେ/ ସ୍ତୁମଃ। ହ୍ୱେଞ୍ ସ୍ପର୍ଦ୍ଧାୟାଂ ଶବ୍ଦେ ଚ ଧାତୋର୍ଲେଟ୍ /ହୁ ଦାନାଦନୟୋଃ ଆଦାନେ ଚ ଧାତୋର୍ଲଟ୍।ବହୁଳଂ ଛନ୍ଦସି ସୂତ୍ରେଣ ଶପଃ ସ୍ଥାନେ ଶ୍ଳୋରଭାବଃ। 5)ପ୍ରିୟାଣାମ୍--ପ୍ରୀତ୍ୟୁତ୍ପାଦକାନାମ୍। ଯେ ପ୍ରୀଣନ୍ତି ସୁଖୟନ୍ତି ଇତି ତେ, ତେଷାମ୍। ପ୍ରୀଞ୍ ତର୍ପଣେ କାନ୍ତୌ ଚ ଧାତୋଃ କ ପ୍ରତ୍ୟୟଃ। 6)ପ୍ରିୟପତିମ୍-କମନୀୟଂ ପାଳକମ୍। ପ୍ରିୟଶ୍ଚାସୌ ପତିଶ୍ଚେତି, ତେଷାମ୍। 7)ନିଧୀନାମ୍-- ବିଦ୍ୟାଦିପଦାର୍ଥପୋଷକାଣାମ୍ ଐଶ୍ୱର୍ଯ୍ୟାଣାମ୍। ନିଧୀୟନ୍ତେ ପଦାର୍ଥାଃ ଯସ୍ମିନ୍, ତେଷାମ୍। ନି ପୂର୍ବାଦ୍ ଧାଞ୍ ଧାରଣପୋଷଣୟୋଃ ଧାତୋଃ କିଃ। 8) ନିଧିପତିମ୍ - ଐଶ୍ୱର୍ଯ୍ୟାଣାଂ ପାଳକମ୍। ନିଧୀନାଂ ପତିଃ,ତମ୍ । 9) ବସୋ-ପରମାତ୍ମନ୍। ବସନାତି ଭୂତାନି ଯସ୍ମିନ୍ ସଃ, ସମ୍ୱୁଦ୍ଧୌ। ବସ ନିବାସେ ଧାତୋଃ ଔଣାଦିକଃ ଉଃ। 10) ମମ-ଅସ୍ମଦ୍-ଷଷ୍ଠ୍ୟେକବଚନେ। 11) ଆ-ସମନ୍ତାତ୍ । 12) ଅହମ୍-ଅସ୍ମଦ୍-ପ୍ରଥମୈକବଚନେ। 13) ଅଜାନି-ଜାନୀୟାମ୍। ଅଜ ଗତିକ୍ଷେପଣୟୋଃ ଧାତୋର୍ଲଙ୍। 14) ଗର୍ଭଧମ୍--ଜଗଦୀଶ୍ୱରମ୍। ଯୋ ଗର୍ଭଂ ଦଧାତି, ତମ୍। ଗର୍ଭମ୍ ଉପପଦେ ଡୁ ଧାଞ୍ ଧାରଣପୋଷଣୟୋଃ ଧାତୋଃ କଃ ପ୍ରତ୍ୟୟଃ। ( ଗର୍ଭମ୍- ଗିରତି ଗୃଣାତୀତି, ଗୃ ନିଗରଣେ ଧାତୋଃ ଭନ୍ ପ୍ରତ୍ୟୟଃ।) 15) ଅଜାସି --ପ୍ରାପ୍ନୁୟାଃ। ଅଜଗତିକ୍ଷେପଣୟୋଃ ଧାତୋର୍ଲଟ୍।
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02-07-2022
ଯସ୍ୟାସ୍ତି ମୂର୍ତ୍ତିଃ ସ ହି ବନ୍ଦନୀୟୋ ମୂର୍ତ୍ତିର୍ନ ଯସ୍ୟାସ୍ତି କଥଂ ସ ଯାଜ୍ୟଃ ? ବେଦେଷୁ ନୋକ୍ତା ପ୍ରତିମାସପର୍ଯା ବେଦାଃ ପ୍ରମାଣଂ ସୁଧିୟଶ୍ଚ ଜଜ୍ଞୁଃ।। ଅର୍ଥ :-- ଯାହାର ମୂର୍ତ୍ତି ଥାଏ, ସେ ଅଭିବାଦନଯୋଗ୍ୟ ହୋଇଥାଏ। ଯାହାର ମୂର୍ତ୍ତି ନ ଥାଏ, ସେ କିପରି ପୂଜନୀୟ ହେବ ? ବେଦରେ ପ୍ରତିମାପୂଜା କୁହାଯାଇନାହିଁ। ବେଦକୁ ପ୍ରମାଣ ବୋଲି ଉତ୍ତମଜ୍ଞାନସମ୍ପନ୍ନ ବ୍ୟକ୍ତିମାନେ ଜ୍ଞାନକରୁଥିଲେ।
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02-07-2022
ବ୍ୟାପ୍ନୋତି ଦେବୋ ଭୁବନେଷୁ ଯସ୍ମାତ୍ କରୋତି କର୍ମାଦି ନରଃ ସ୍ୱଶକ୍ତ୍ୟା। ଯଦ୍ୟେବ ଦେବେନ ନିମଜ୍ଜିତଃ ସ୍ୟା ତ୍ତଦାତ୍ମଶକ୍ତ୍ୟା ଲଭତେ ସ ମୁକ୍ତିମ୍।। ଅର୍ଥ :--ଯେହେତୁ ପରମେଶ୍ୱର ଦେବ ଭୁବନସାରା ବ୍ୟାପି ରହିଅଛନ୍ତି, ମନୁଷ୍ୟ ନିଜଶକ୍ତିଅନୁଯାୟୀ କର୍ମାଦି କରିଥାଏ। ଯେତେବେଳେ ସେ ପରମେଶଙ୍କ ସହିତ ମିଶିଯିବ, ସେତେବେଳେ ସେ ଈଶ୍ୱରଙ୍କଶକ୍ତିଦ୍ୱାରା ମୁକ୍ତିଲାଭକରିବ।
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02-07-2022
ଜ୍ଞାନଂ ହି ଭାରଃ କ୍ରିୟୟା ବିହୀନଂ ନ ଶବ୍ଦବେତ୍ତା ସମୁପୈତି ତତ୍ତ୍ୱମ୍। ଜାଲେନ ବଦ୍ଧା ମୃଗୟୋର୍ଭବନ୍ତି ଶୁକା ଯଥା ମୁକ୍ତିପଦାନି ଗୀତ୍ୱା।। ଅର୍ଥ :--- କ୍ରିୟାବିହୀନ ଜ୍ଞାନ ସମସ୍ତଙ୍କ ପାଇଁ ଭାରସଦୃଶ ହୋଇଥାଏ। ଶୁଆମାନେ ଯେପରି ମୁକ୍ତିପଦଗୁଡିକୁ ଗାଇ ଶିକାରୀର ଜାଲରେ ବାନ୍ଧି ହୋଇଥାଆନ୍ତି। ( ଜଣେ ଋଷି ଶୁଆମାନଙ୍କୁ ଜାଲରେ ଶିକାରୀ ଧରିନେଉଥିବାର ଦେଖି ଶୁଆମାନଙ୍କୁ ମୁକ୍ତିର ଉପଦେଶ ଦେଇ କହିଲେ ଯେ, ତୁମେମାନେ ଘୋଷି ମନେରଖ--ଶିକାରୀ ଆସିବ, ଖୁଦ ବୁଣିବ, ଜାଲପକେଇବ ଓ ଖୁଦ ଖାଇଲେ ଆମେ ଜାଲରେ ବାନ୍ଧି ହୋଇଯିବୁ, ତେଣୁ ଖୁଦ ଖାଇବୁ ନାହିଁ। ଶୁଆମାନେ ଘୋଷି ପାଣି କରିଦେଲେ। କିନ୍ତୁ ବ୍ୟବହାର ରେ ଅଜ୍ଞ ଥାଆନ୍ତି। ଥରେ ବ୍ୟାଧ ଆସି ଖୁଦବୁଣି ଜାଲପକାଇଦେଲା। ଶୁଆମାନେ ତାକୁ ଦେଖିଲେ, ଖୁଦ ଖାଇବାକୁ ଓହ୍ଲାଇପଡିଲେ। ଋଷିଙ୍କ ଉପଦେଶକୁ ମନେ ପକାଇ କହୁଥାନ୍ତି, ଶିକାରୀ ଆସିବ, ଖୁଦ ବୁଣିବ, ଜାଲ ପକେଇବ ଓ ଖୁଦ ଖାଇଲେ ଆମେ ବାନ୍ଧି ହୋଇଯିବୁ, ତେଣୁ ଖୁଦ ଖାଇବୁ ନାହିଁ କହି କହି ଖୁଦ ଖାଇ ଶିକାରୀର ଜାଲରେ ବାନ୍ଧି ହୋଇଗଲେ। ଏପରିକି ଜାଲସହ ଶିକାରୀ ସେମାନଙ୍କୁ ନେଇଗଲାବେଳେ ବି ସେହି ଉପଦେଶଗୁଡିକୁ ମନେପକାଇ ଗାଉଥାଆନ୍ତି। ତେଣୁ କ୍ରିୟାବିହୀନ ଜ୍ଞାନ ର ମୂଲ୍ୟ ନ ଥାଏ।)
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02-07-2022
ବୃକ୍ଷେ ଦ୍ୱିଜୌ ଦ୍ୱୌ କୁରୁତୋ ନିବାସଂ ପରସ୍ପରସ୍ନେହନିବଦ୍ଧଚିତ୍ତୌ। କଶ୍ଚିଚ୍ଚ ଭୁଙ୍କ୍ତେ ଫଳମେବ ସାଶୁ ତୟୋରଭୁକ୍ତ୍ୱାଶ୍ରୟତେ ପରସ୍ତୁ।। ଅର୍ଥ :-- ପରସ୍ପର ସହ ସ୍ନେହପାଶରେ ଆବଦ୍ଧ ହୋଇ ଗୋଟିଏ ଗଛରେ ଦୁଇଟି ଚଢେଇ ବାସକରୁଅଛନ୍ତି। ତନ୍ମଧ୍ୟରୁ ଗୋଟିଏ ଚଢେଇ ଶୀଘ୍ର ଫଳ ଭକ୍ଷଣ କରୁଛି ଓ ଅନ୍ୟଟି ନ ଖାଇ ଆଶ୍ରୟକରି ରହିଅଛି।।
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02-07-2022
ସର୍ବଜ୍ଞଞ୍ଚେତନଂ ବ୍ରହ୍ମ ତିଷ୍ଠତେ ସୃଷ୍ଟୟେ ସଦା। ପ୍ରଜାନାଂ ଭୁକ୍ତିମୁକ୍ତ୍ୟର୍ଥଂ ନିର୍ମାତି ପ୍ରକୃତେର୍ଜଗତ୍।। ଅର୍ଥ :-- ସର୍ବଜ୍ଞ, ଚେତନ, ବ୍ରହ୍ମ ସୃଷ୍ଟି ପାଇଁ ସର୍ବଦା ରହିଅଛନ୍ତି। ପ୍ରଜାମାନଙ୍କର ( ଜୀବାତ୍ମାମାନଙ୍କର) ଭୋଗ ଏବଂ ମୁକ୍ତି ନିମନ୍ତେ ସେ ପ୍ରକୃତିଠାରୁ ଜଗତକୁ ସୃଷ୍ଟି କରୁଅଛନ୍ତି।।
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02-07-2022
ଯଜୁର୍ବେଦ ଦୟାନନ୍ଦଭାଷ୍ୟ ମୋଟ ମନ୍ତ୍ରସଂଖ୍ୟା--୧୯୭୫ ବ୍ୟାଖ୍ୟାତ ମନ୍ତ୍ର--୧୩/୪ ହିରଣ୍ୟଗର୍ଭ ଋଷିଃ। ପ୍ରଜାପତିର୍ଦେବତା। ଆର୍ଷୀ ତ୍ରିଷ୍ଟୁପ୍ ଛନ୍ଦଃ। ଧୈବତଃ ସ୍ୱରଃ। ମନ୍ତ୍ରର ସାରାଂଶ--ବ୍ରହ୍ମସ୍ୱରୂପ ନିରୂପଣ। ଓ୩ମ୍ ହିରଣ୍ୟଗର୍ଭଃ ସମବର୍ତ୍ତତାଗ୍ରେ ଭୂତସ୍ୟ ଜାତଃ ପତିରେକ ଆସୀତ୍। ସ ଦାଧାର ପୃଥିବୀଂ ଦ୍ୟାମୁତେମାଂ କସ୍ମୈ ଦେବାୟ ହବିଷା ବିଧେମ।। ଯଜୁଃ 13/4। ପଦପାଠ--ହିରଣ୍ୟଗର୍ଭଃ। ସମ୍ ଅବର୍ତ୍ତତ। ଅଗ୍ରେ। ବିଧେମ। ପଦାର୍ଥ --ହିରଣ୍ୟଗର୍ଭଃ--ସୂର୍ଯ୍ୟପ୍ରଭୃତି ତେଜୋମୟ ପଦାର୍ଥ ଗୁଡିକର ଆଧାର। ସମ୍ ଅବର୍ତ୍ତତ--ଭଲଭାବରେ ରହିଛନ୍ତି । ଅଗ୍ରେ--ସୃଷ୍ଟିର ପୂର୍ବରୁ। ଭୂତସ୍ୟ--ଉତ୍ପନ୍ନ ସଂସାରର। ଜାତଃ--ରଚନା। ପତିଃ--ପାଳନକର୍ତ୍ତା। ଏକଃ--ଏକାକୀ/ସହାୟକହୀନ। ଆସୀତ୍-ଥିଲେ( ଅଛନ୍ତି)। ସଃ--ସେ। ଦାଧାର--ଧାରଣ କରି। ପୃଥିବୀମ୍--ପ୍ରକାଶରହିତ ଓ ବିସ୍ତୃତ। ଦ୍ୟାମ୍ -- ପ୍ରକାଶ ସହିତ ସୂର୍ଯ୍ୟାଦି ଲୋକକୁ। ଉତ-- ଏବଂ। ଇମାମ୍--ଏହି ସଂସାରକୁ ରଚନା କରି। କସ୍ମୈ-ସୁଖସ୍ୱରୂପ ପ୍ରଜାପାଳକ। ଦେବାୟ--ପ୍ରକାଶମାନ ପରମାତ୍ମାଙ୍କୁ। ହବିଷା--ଆତ୍ମାଦି ପଦାର୍ଥଦ୍ୱାରା। ବିଧେମ-- ଧାରଣ କରୁଅଛୁ / ସେବାତତ୍ପର ହେଉଅଛୁ। ଅନ୍ୱୟଃ-- ଭୂତସ୍ୟ ଜାତଃ ପତିଃ ଏକଃ ହିରଣ୍ୟଗର୍ଭଃ ଅଗ୍ରେ ସମବର୍ତ୍ତତ ଆସୀତ୍। ସଃ ଇମାଂ ଉତ ପୃଥିବୀଂ ଦ୍ୟାଂ ଦାଧାର, କସ୍ମୈ ଦେବାୟ ହବିଷା ବିଧେମ। ଅନ୍ୱୟାର୍ଥ -- ହେ ମନୁଷ୍ୟମାନେ ! ଉତ୍ପନ୍ନସଂସାରର ରଚନା ଓ ପାଳନକର୍ତ୍ତା ଏକମାତ୍ର ତେଜୋମୟପଦାର୍ଥର ଧାରଣକର୍ତ୍ତା ପରମାତ୍ମା ସୃଷ୍ଟିପୂର୍ବରୁ ରହିଅଛନ୍ତି। ସେ ଏହି ବିରଚିତ ବିଶାଳପୃଥିବୀକୁ ଏବଂ ସୂର୍ଯ୍ୟାଦି ଲୋକଲୋକାନ୍ରରକୁ ଧାରଣକରିଅଛନ୍ତି। ସୁଖସ୍ୱରୂପ ଦିବ୍ୟଗୁଣଯୁକ୍ତ ଦେବଙ୍କୁ ଆମେ ଆତ୍ମାଦିପଦାର୍ଥଦ୍ୱାରା ଧାରଣକରୁଅଛୁ। ଭାବାର୍ଥ-- ହେ ମନୁଷ୍ୟମାନେ ! ତୁମେମାନେ ଜାଣିବାଉଚିତ୍, ଏହି ପ୍ରସିଦ୍ଧ ସୃଷ୍ଟିର ରଚନାପୂର୍ବରୁ ପ୍ରଥମେ ପରମେଶ୍ୱର ବିଦ୍ୟମାନ ଥିଲେ। ଜୀବାତ୍ମା ଗାଢସୁଷୁପ୍ତିରେ ଲୀନ ହୋଇରହିଥିଲା। ଜଗତ ର କାରଣ( ପ୍ରକୃତି) ସୂକ୍ଷାବସ୍ଥାରେ ଆକାଶପରି ଏକରସ ଓ ସ୍ଥିର ହୋଇଥିଲା। ଯିଏ ସମସ୍ତଜଗତକୁ ରଚନାକରି ଧାରଣକଲେ। ଅନ୍ତ୍ୟସମୟରେ ମଧ୍ୟ ଏହାକୁ ପ୍ରଳୟ କରନ୍ତି। ସେହି ପରମାତ୍ମା କେବଳ ଉପାସନାଯୋଗ୍ୟ ଅଟନ୍ତି। ବ୍ୟାକରଣ--1) ହିରଣ୍ୟଗର୍ଭଃ-- ହିରଣ୍ୟାନି ସୂର୍ଯ୍ୟାଦୀନି ଜ୍ୟୋତୀଂଷି ଗର୍ଭେ ମଧ୍ୟେ ଯସ୍ୟ ସଃ।। ଜ୍ୟୋତିର୍ବୈ ହିରଣ୍ୟମ୍, ଶତପଥ। ହିରଣ୍ୟ ଗର୍ଭପଦୟୋଃ ସମାସଃ। ହର୍ଯ ଗତିକାନ୍ତ୍ୟୋଃ ଧାତୋଃ ଉଣାଦି 5/44 ସୂତ୍ରେଣ କନ୍ୟନ୍ ପ୍ରତ୍ୟୟଃ। ଗିରତି ଗୃଣାତୀତି ବିଗ୍ରହେ ଗୃ ନିଗରଣେ ଧାତୋଃ ଉଣାଦି 3/152 ସୂତ୍ରେଣ ଭନ୍ ପ୍ରତ୍ୟୟଃ। 2)ସମବର୍ତ୍ତତ- ସମ୍ + ବୃତ୍ ( ବର୍ତନେ) ଲଙ୍। 3)ଅଗ୍ରେ- ଆଦୌ। ଅଗି ଗତୌ ଧାତୋଃ ଉଣାଦି 2/28 ସୂତ୍ରେଣ ରନ୍ ପ୍ରତ୍ୟୟଃ। 4) ଭୂତସ୍ୟ-- ଉତ୍ପନ୍ନସ୍ୟ ଜଗତଃ। ଭୂ ସତ୍ତାୟାମ୍ ଧାତୋଃ କ୍ତଃ ପ୍ରତ୍ୟୟଃ। 5) ଜାତଃ--ପ୍ରକଟୀଭୂତଃ। ଜନି ପ୍ରାଦୁର୍ଭାବେ ଧାତୋଃ କ୍ତଃ ପ୍ରତ୍ୟୟଃ। 6) ପତିଃ--ପାଳନକର୍ତ୍ତା। ପା ରକ୍ଷଣେ ଧାତୋଃ ଉଣାଦି 4/57 ସୂତ୍ରେଣ ଡତି ପ୍ରତ୍ୟୟଃ। 7) ଏକଃ--ଅଦ୍ୱିତୀୟଃ। ଇଣ୍ ଗତୌ ଧାତୋଃ ଉଣାଦି 3/43 ସୂତ୍ରେଣ କନ୍ ପ୍ରତ୍ୟୟଃ। 8) ଆସୀତ୍-ଅବର୍ତ୍ତତ। ଅସ ଭୁବି+ଲଙି। 9) ସଃ--ତଦ୍ (ପୁଂ ପ୍ରଥମୈକବଚନେ) 10) ଦାଧାର--ଧୃତବାନସ୍ତି। ଧୃଞ୍ ଧାରଣେ ଧାତୋର୍ଲିଟି। ଅଭ୍ୟାସସ୍ୟ ଦୀର୍ଘତ୍ୱମ୍। 11) ପୃଥିବୀମ୍--ପ୍ରକାଶରହିତଂ ବିସ୍ତୀର୍ଣ୍ଣଂ ଭୂଗୋଲାଦିକମ୍। ପ୍ରଥ ପ୍ରଖ୍ୟାନେ ଧାତୋଃ ଉଣାଦି 1/150 ସୂତ୍ରେଣ ଷିବନ୍ ପ୍ରତ୍ୟୟଃ। 12) ଦ୍ୟାମ୍--ପ୍ରକାଶାତ୍ମକଲୋକାଦୀନାମ୍। ଦ୍ୟୁତ୍ ଦୀପ୍ତୌ ଧାତୋଃ ଉଣାଦି 2/67 ସୂତ୍ରେଣ ଡୋଃ ପ୍ରତ୍ୟୟଃ। ଦ୍ୟୋତନ୍ତେ ଲୋକା ଅସ୍ୟାମ୍ ଇତି ଦ୍ୟୌଃ। 13)ଉତ-- ଅପ୍ୟର୍ଥେ ଅବ୍ୟୟମ୍। 14) କସ୍ମୈ--ସୁଖକାରକାୟ। କଃ କମନୋ ବା, କ୍ରମଣୋ ବା,ସୁଖୋ ବା। ନିଘଣ୍ଟୁ। ଚତୁର୍ଥୈକବଚନେ। 15) ଦେବାୟ- ଦିବ୍ୟଗୁଣଯୁକ୍ତାୟ। ଦିବ୍ୟତି ଇତି ଦେବଃ,ତସ୍ମୈ। ଦିବୁ କ୍ରୀଡା ବିଜିଗୀଷାବ୍ୟବହାର-------"(ଦିବାଦି) ଧାତୋଃ ଅଚ୍ ପ୍ରତ୍ୟୟଃ। 16) ହବିଷା--ଆତ୍ମାଦୀନାଂ ସମର୍ପଣେନ। ହୁ ଦାନାଦାନୟୋଃ ଧାତୋଃ ଉଣାଦି 2/108 ସୂତ୍ରେଣ ଇସିଃ। 17) ବିଧେମ--ପରିଚରେମ। ବି+ ଡୁଧାଞ୍ ଧାରଣପୋଷଣୟୋଃ ଧାତୋର୍ଲଟ୍। ଦ୍ୱିତ୍ୱଂ ନ।
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02-07-2022
ଆସୀଚ୍ଚେୟଂ ସକଳଜଗତୀ ଗାଢକୃଷ୍ଣାନ୍ଧକାରା, ତେଜୋହୀନା ଧ୍ୱନିବିରହିତା ଶୂନ୍ୟରୂପା ତ୍ୱଭୁଜ୍ୟା। ବୋଧାଗମ୍ୟା ବିହତବିଷୟା କଥ୍ୟତେ ନୈବ ବାଣ୍ୟା, ବୀତାପତ୍ୟା ସମଗୁଣଯୁତା ମନ୍ୟତେଽସୌ ସୁଷୁପ୍ତା।। ଅର୍ଥ :---- ପ୍ରଳୟକାଳରେ ଏହି ବିଶାଳ ଚରାଚର ଜଗତ ଗାଢକୃଷ୍ଣ ଅନ୍ଧକାରରେ ଆଚ୍ଛାଦିତ ହୋଇଥିଲା, ଆଲୋକିତ ନ ଥିଲା, କିଛି ଶବ୍ଦ ମଧ୍ୟ ନ ଥିଲା,ସବୁଶୂନ୍ୟ ଥିଲା, ଭୋଗକରିବାପାଇଁ ବି ନ ଥିଲା, କିଛି ଜ୍ଞାନଗମ୍ୟ ନ ଥିଲା। ଇନ୍ଦ୍ରିୟ ଗୁଡିକ ଅନୁଭବକରିବାକୁ ନ ଥିଲେ। ବାଣୀରେ ପ୍ରକାଶ କରିହେଉନଥିଲା। ପ୍ରାଣିମାନେ ମଧ୍ୟ ନ ଥିଲେ। ପ୍ରକୃତି ସମଗୁଣଯୁକ୍ତା ଥିବାରୁ ମନେ କରାଯାଉଥିଲା ଯେ, ସେ ସମସ୍ତେ ସୁଷୁପ୍ତି ଅବସ୍ଥା ରେ ଅଛି।
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02-07-2022
सृष्टिः पूर्णा हृतिरपि पुरुः पूर्णमेवास्ति शून्यं शून्ये पूर्णा निखिलजगतां हेतवः सूक्ष्मकायाः। तस्मान्नैते नयनपथगाः सन्ति नाभावहेतो र्लोपोऽदृष्टिर्मुनिनिगदिते शब्दशास्त्रेऽस्ति सूक्तिः।। ସୃଷ୍ଟିଃ ପୂର୍ଣ୍ଣା ହୃତିରପି ପୁରୁଃ ପୂର୍ଣ୍ଣମେବାସ୍ତି ଶୂନ୍ୟଂ ଶୂନ୍ୟେ ପୂର୍ଣ୍ଣା ନିଖିଳଜଗତାଂ ହେତବଃ ସୂକ୍ଷ୍ମକାୟାଃ। ତସ୍ମାନ୍ନୈତେ ନୟନପଥଗାଃ ସନ୍ତି ନାଭାବହେତୋ ର୍ଲୋପୋଽଦୃଷ୍ଟିର୍ମୁନିନିଗଦିତେ ଶବ୍ଦଶାସ୍ତ୍ରେଽସ୍ତି ସୂକ୍ତିଃ।। ଅର୍ଥ :-- ସୃଷ୍ଟି ପୂର୍ଣ୍ଣ ଅଟେ,ପ୍ରଳୟ ପୂର୍ଣ୍ଣ ଅଟେ,ଶୂନ୍ୟ ମଧ୍ୟ ପୂର୍ଣ୍ଣ ଅଟେ। ଶୂନ୍ୟରେ ସମସ୍ତଜଗତର କାରଣଗୁଡିକ ଅଣୁପରମାଣୁରୂପରେ ପୂର୍ଣ୍ଣ ହୋଇରହିଛନ୍ତି। ସେହି ହେତୁରୁ ଏଗୁଡିକ ଦୃଷ୍ଟିଗୋଚର ହୁଅନ୍ତି ନାହିଁ,ମାତ୍ର ଅଭାବହେତୁରୁ ନୁହେଁ। ପାଣିନିମୁନିକହିଥିବା ଶବ୍ଦଶାସ୍ତ୍ରରେ " ଅଦୃଷ୍ଟର ଲୋପହୁଏ" ବୋଲି ଏକ ସୂତ୍ର ରହିଅଛି।। (ଯେଉଁ ବସ୍ତୁ ସୃଷ୍ଟହୋଇ ରହିନଥାଏ, ଦେଖାଯାଏ ନାହିଁ, ତାହାକୁ ଅଦର୍ଶନ କୁହାଯାଏ ଅର୍ଥାତ୍ ବିଦ୍ୟମାନ ର ଅଦର୍ଶନର ଲୋପସଂଜ୍ଞା ହୁଏ। ଆମେ ତାକୁ ଅଦର୍ଶନ କହିପାରିବା ନାହିଁ, ଯାହା କେବେ ବିଦ୍ୟମାନ ହୋଇ ରହେନାହିଁ।)
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02-07-2022
देवालयं यः कुरुते स्वगेहं न तस्य तीर्थेष्वटनं प्रयोज्यम्। दुःखालयं यो विदधाति गेहं न कापि यात्रा क्षिणुते त्रितापम्।। ଦେବାଳୟଂ ଯଃ କୁରୁତେ ସ୍ୱଗେହଂ ନ ତସ୍ୟ ତୀର୍ଥେଷ୍ୱଟନଂ ପ୍ରଯୋଜ୍ୟମ୍। ଦୁଃଖାଳୟଂ ଯୋ ବିଦଧାତି ଗେହଂ ନ କାପି ଯାତ୍ରା କ୍ଷିଣୁତେ ତ୍ରିତାପମ୍।। ଅର୍ଥ :-- ଯେଉଁ ଲୋକ ନିଜର ଘରକୁ ମନ୍ଦିର କରିଥାଏ, ତାହାର ତୀର୍ଥମାନଙ୍କୁ ଯାତ୍ରାକରିବା ଆବଶ୍ୟକ ହୋଇନଥାଏ। ମାତ୍ର ଯେଉଁଲୋକ ଘରକୁ ଦୁଃଖର ଘର କରିଦିଏ, କୌଣସିପ୍ରକାରର ଯାତ୍ରା ତାହାର ତ୍ରିବିଧତାପକୁ ନାଶକରିପାରେନାହିଁ।
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02-07-2022
ବେଦ ରେ ବହୁତ କୂଟମନ୍ତ୍ର ଅଛି। ସେଗୁଡିକର ଅର୍ଥ ପ୍ରକାଶ କରିବାର ରୀତି ରହସ୍ୟପୂର୍ଣ୍ଣ । ନିମ୍ନୋକ୍ତ ମନ୍ତ୍ରର ଅର୍ଥ ପ୍ରାଚୀନ ମହର୍ଷିଗଣ କିପରି କରିଛନ୍ତି, ତା ଉପରେ ଆଲୋକପାତ କରିବା। ମନ୍ତ୍ରଟି ହେଲା, ଚତ୍ୱାରି ଶୃଙ୍ଗା ତ୍ରୟୋ ଅସ୍ୟ ପାଦା ଦ୍ୱେ ଶୀର୍ଷେ ସପ୍ତହସ୍ତାସୋ ଅସ୍ୟ। ତ୍ରିଧା ବଦ୍ଧୋ ବୃଷଭୋ ରୋରବୀତି ମହୋ ଦେବୋ ମର୍ତ୍ୟାଂ ଆବିବେଶ। ( ଋକ୍ 4/58/03 -ଯଜୁଃ 17/91 ) ଗୋପଥବ୍ରାହ୍ମଣ ------------------ ଚାରିବେଦ ଯାହାର ଚାରୋଟି ଶିଙ୍ଗ, ତିନି ସବନ (ଯଜ୍ଞ ର ଆହୁତି) ତିନୋଟି ପାଦ। ବ୍ରହ୍ମୌଦନ ଓ ପ୍ରବର୍ଗ୍ୟ ଦୁଇଟି ଶିର, ସାତ ଛନ୍ଦ ସାତୋଟି ହାତ। ମନ୍ତ୍ର, କଳ୍ପ ଓ ବ୍ରାହ୍ମଣ ଏହି ତିନି ସ୍ଥାନରେ ବନ୍ଧା, ଏହିପରି ଅତ୍ୟନ୍ତ ବଳବାନ୍ ମହାନ୍ ଦେବ ଅର୍ଥାତ୍ "ଯଜ୍ଞ" ମନୁଷ୍ୟମାନଙ୍କ ମଧ୍ୟରେ ପ୍ରବେଶ କରନ୍ତୁ। ନିରୁକ୍ତରେ ଯାସ୍କାଚାର୍ଯ୍ୟ ---------------------------- ଚାରିବେଦ ଯାହାର ଚାରି ଶିଙ୍ଗ, ତିନି ସବନ ତିନିପାଦ, ପ୍ରାୟଣୀୟ ଓ ଉଦୟନୀୟ ଦୁଇଟି ଶିର, ସପ୍ତ ଛନ୍ଦ ସାତୋଟି ହାତ, ମନ୍ତ୍ର, ବ୍ରାହ୍ମଣ ଓ କଳ୍ପ ଏହି ତିନୋଟି ସ୍ଥାନରେ ବନ୍ଧା। ସେହି ମହାନ୍ ଯଜ୍ଞଦେବ ମନୁଷ୍ୟ ମାନଙ୍କ ମଧ୍ୟରେ ଆସନ୍ତୁ। ମହାମୁନି ପତଞ୍ଜଳି (ବ୍ୟାକରଣ ମହାଭାଷ୍ୟରେ) ---------------------------------------------------- ନାମ, ଆଖ୍ୟାତ(କ୍ରିୟାପଦ),ଉପସର୍ଗ ଓ ନିପାତ ଏହି ଚାରୋଟି ଯାହାର ଶିଙ୍ଗ। ଭୂତ, ଭବିଷ୍ୟତ ଓ ବର୍ତ୍ତମାନ ଏହି ତିନୋଟି ଯାହାର ପାଦ। ନିତ୍ୟ ଏବଂ କାର୍ଯ୍ୟ ଏହି ଦୁଇଟି ଯାହାର ଶିର। ସାତ ବିଭକ୍ତି ଯାହାର ସାତୋଟି ହାତ। ହୃଦୟ, କଣ୍ଠ ଓ ମୂର୍ଦ୍ଧାରେ ଯିଏ ବନ୍ଧା, ସେହି ଶବ୍ଦରୂପୀ ମହାନ୍ ଦେବ ମନୁଷ୍ୟ ମାନଙ୍କ ମଧ୍ୟରେ ପ୍ରବେଶ କରନ୍ତୁ। ଋଗ୍-ବେଦରେ ସାୟଣାଚାର୍ଯ୍ୟ (ସୂର୍ଯ୍ୟ ପରକ ଅର୍ଥ) ---------------------------------------------------------- ଚାରୋଟି ଦିଗ ଯାହାର ଚାରୋଟି ଶିଙ୍ଗ। ପ୍ରାତଃକାଳ,ମାଧ୍ୟନ୍ଦିନ ଓ ସାୟଂକାଳ ଯାହାର ତିନୋଟି ପାଦ। ଦିନ ଓ ରାତି ଦୁଇଟି ଶିର। ସାତ କିରଣ ବା ସାତ ଋତୁ ସାତଟି ହାତ। ଭୂଲୋକ, ଅନ୍ତରୀକ୍ଷ ଓ ଦ୍ୟୁଲୋକରେ ଯିଏ ଆବଦ୍ଧ। ବୃଷ୍ଟି କରୁଥିବା ଏହି ମହାନ୍ ସୂର୍ଯ୍ୟଦେବ ମନୁଷ୍ୟମାନଙ୍କ ମଧ୍ୟରେ ପ୍ରବେଶ କରନ୍ତୁ। ତୈତ୍ତିରୀୟ ଆରଣ୍ୟକ ରେ ସାୟଣାଚାର୍ଯ୍ୟ ----------------------------------------------- ଅ, ଉ, ମ ଓ ଅର୍ଦ୍ଧମାତ୍ରା ଯାହାର ଚାରୋଟି ଶିଙ୍ଗ। ଆଧ୍ୟାତ୍ମିକ, ଆଧିଭୌତିକ ଓ ଆଧିଦୈବିକ/ବିଶ୍ୱ,ତୈଜସ୍ ଓ ପ୍ରାଜ୍ଞ/ବିରାଟ୍, ହିରଣ୍ୟଗର୍ଭ ଓ ଅବ୍ୟାକୃତ ତିନି ପାଦ। ଚିତ୍ ଓ ଅଚିତ୍ ଶକ୍ତି ଦୁଇଟି ଶିର। ସପ୍ତ ବ୍ୟାହୃତି ସାତଟି ହାତ। ବିଶ୍ବ, ତୈଜସ ଓ ପ୍ରାଜ୍ଞ ଆଦି ସ୍ଥାନରେ ଅକାରାଦି ରୂପରେ ବନ୍ଧା। ସେହି ବୃଷଭ ବଳବାନ୍ ଶବ୍ଦରୂପୀ ପ୍ରଣବଦ୍ୱାରା ବାଚ୍ୟ ମହାନ୍ ଦେବ ପରମେଶ୍ବର ମନୁଷ୍ୟମାନଙ୍କ ମଧ୍ୟରେ ପ୍ରବେଶ କରନ୍ତୁ। ଯଜୁର୍ବେଦରେ ମହର୍ଷି ଦୟାନନ୍ଦ -------------------------------------- ( ଯାସ୍କ ଓ ପତଞ୍ଜଳିଙ୍କ ଦୁଇପ୍ରକାର ଅର୍ଥକୁ ମାନିଛନ୍ତି)। ଋଗ୍-ବେଦରେ ମହର୍ଷି ଦୟାନନ୍ଦ ------------------------------------- ଚାରି ବେଦ ଚାରୋଟି ଶିଙ୍ଗ। ଜ୍ଞାନ, କର୍ମ,ଓ ଉପାସନା ତିନୋଟି ପାଦ। ଅଭ୍ୟୁଦୟ(ପାର୍ଥିବ)ନିଃଶ୍ରେୟସ ଦୁଇଟି ଶିର। ପଞ୍ଚ ଇନ୍ଦ୍ରିୟ (ଜ୍ଞାନ କିମ୍ୱା କର୍ମ) ମନ ଓ ଆତ୍ମା ଏହି ସାତୋଟି ହାତ।ଶ୍ରଦ୍ଧା, ପୁରୁଷାର୍ଥ ଓ ଯୋଗାଭ୍ୟାସ ଏହି ତିନୋଟି ଦ୍ୱାରା ବନ୍ଧା। ଏହିପରି ସୁଖକୁ ବର୍ଷଣ କରୁଥିବା ଧର୍ମରୂପୀ ମହାନ୍ ଦେବ ମନୁଷ୍ୟଙ୍କ ମଧ୍ୟରେ ପ୍ରବେଶ କରନ୍ତୁ। ଭିନ୍ନ ଅର୍ଥ ହେଲେ ମଧ୍ୟ ମନ୍ତ୍ରରେ ବିରୋଧ ଭାବିବା ଅନୁଚିତ୍। କାରଣ ଗୋଟିଏ ମନ୍ତ୍ରର ବହୁତପ୍ରକାରର ଅର୍ଥ ହୋଇଥାଏ।
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02-07-2022
पुनर्जन्म का प्रमाण अपानति प्राणिति पुरुषो गर्भे अन्तरा। यदा त्वं प्राण जिन्वस्यथ स जायते पुनः।। अथर्व 11-4-14 ।। अर्थ:-- जीव गर्भ में श्वास लेता है और उच्छ्वास लेता है। हे प्राणप्रद जीवनाधार प्रभो ! जव तु अनुमति देता है तव वह पुनर्जन्म लेता है। ପୁନର୍ଜନ୍ମ ର ପ୍ରମାଣ ଅପାନତି ପ୍ରାଣିତି ପୁରୁଷୋ ଗର୍ଭେ ଅନ୍ତରା। ଯଦା ତ୍ୱଂ ପ୍ରାଣ ଜିନ୍ୱସ୍ୟଥ ସ ଜାୟତେ ପୁନଃ।। ଅଥର୍ବ 11-4-14-।। ଅର୍ଥ :-- ଜୀବ ଗର୍ଭରେ ଶ୍ୱାସପ୍ରଶ୍ୱାସ କାର୍ଯ୍ୟ ସମ୍ପାଦନ କରେ। ହେ ପ୍ରାଣପ୍ରଦାନକାରୀ ଜୀବନାଧାର ପ୍ରଭୋ ! ଯେତେବେଳେ ଆପଣ ଅନୁମତି ଦିଅନ୍ତି, ସେତେବେଳେ ସେ ପୁନର୍ଜନ୍ମ ଗ୍ରହଣକରେ।।
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02-07-2022
द्विःशरान्नानुसंधत्ते रामो द्विर्नाभिभाषते । ରାମଚନ୍ଦ୍ର ଦ୍ୱିତୀୟଥର ଶରସନ୍ଧାନ କରନ୍ତି ନାହିଁ କିମ୍ୱା ଦୁଇପ୍ରକାରର କଥା କୁହନ୍ତି ନାହିଁ।
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02-07-2022
धृत्वा तु गर्भे नवमासमादौ पिपर्ति दुःखेन सुखानि त्यक्त्वा। आजीवनं या लभते स्म दैन्यं गतिश्च मे सा जननी नमस्या ।। ଅର୍ଥ :-- ପ୍ରଥମେ ଯିଏ ମୋତେ ନଅମାସ ଗର୍ଭରେ ଧରି ପରେ ସୁଖ ଛାଡି ଅତିଦୁଃଖରେ ପାଳନକରିଛି, ଯିଏ ଜୀବନତମାମ ଦୀନତା ଲାଭକରିଛି, ସେହି ବନ୍ଦନୀୟା ଜନନୀ ମୋର ଗତି ଅଟନ୍ତି।
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02-07-2022
स्व. शशिभूषण आचारिणां कृते :-- रोरुद्यते बृद्धनिवासगोष्ठी पिपासते तेऽमृतभाषणापः। संघस्थसभ्या विधुरास्तु सन्ति सखे क्व नोऽयाः सुचिरं विहाय।। ଅର୍ଥ :--- ବୃଦ୍ଧାଶ୍ରମର ସମସ୍ତ ଅନ୍ତେବାସୀ ଅତିଶୟଭାବରେ ରୋଦନ କରୁଅଛନ୍ତି, ସେମାନେ ତୁମର ଅମୃତବାଣୀରୁପକ ଜଳ ପାନକରିବାକୁ ଆଗ୍ରହୀ ଅଟନ୍ତି। ସଂଘର ସଦସ୍ୟମାନେ ଅତ୍ୟନ୍ତ ଦୁଃଖରେ ଅଛନ୍ତି। ହେ ବନ୍ଧୁ ! ଆମମାନଙ୍କୁ ସବୁଦିନପାଇଁ ଛାଡି ତୁମେ କୁଆଡେ ଚାଲିଗଲ ?
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02-07-2022
परमेशं प्रति ओ३म् अग्निं मित्रं विराजं रविविधुभदृशं सृष्टिकर्तारमाद्यं प्राज्ञं ध्येयं ह्यनन्तं तनुजहितकरं स्वार्थशून्यं विदेहम्। नित्यं वेदाधिगम्यं प्रकृतिविरहितं जन्मदातारमीशं वन्दे भोगापवर्गप्रवितरणपटुं सच्चिदानन्दरूपम्।। ଅର୍ଥ:-- ଅଗ୍ରଣୀ, ସମସ୍ତଙ୍କର ପ୍ରିୟ, ବିରାଟ, ସୂର୍ଯ୍ୟ ଚନ୍ଦ୍ର ଓ ନକ୍ଷତ୍ରର କାନ୍ତିଭଳି ଚକ୍ଷୁ, ସୃଷ୍ଟିକର୍ତ୍ତା, ସର୍ବପ୍ରଥମ, ବିଦ୍ୱାନ, ଧ୍ୟାନଯୋଗ୍ୟ, ଅନ୍ତହୀନ, ପ୍ରାଣୀମାନଙ୍କ ପ୍ରତି ମଙ୍ଗଳଦାୟକ, ସ୍ୱାର୍ଥଶୂନ୍ୟ, ଶରୀରହୀନ, ନିତ୍ୟ, ବେଦଦ୍ୱାରା ଜ୍ଞାତବ୍ୟ, ପ୍ରକୃତିରୁ ଭିନ୍ନ, ଜନ୍ମଦାତା,ଶାସକ, ଭୋଗ ଏବଂ ଅପବର୍ଗ ପ୍ରଦାନକରିବାରେ ଦକ୍ଷ, ସଚ୍ଚିଦାନନ୍ଦରୂପଙ୍କୁ ବନ୍ଦନା କରୁଅଛି।
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02-07-2022
कल्याणार्थं प्रजानां सृजति स जगतीं सन्ततं सृष्टिकर्त्ता कल्पान्तं वै विधत्ते तदनु स जगतो दृश्यमानस्य चास्य। सृष्ट्यां नित्यं चकास्ति प्रविततधरणी लुप्यते संक्षयेऽसौ क्रीडां चैतां स्वकीयां रचयति महतीं विश्वरूपो महात्मा।। ଅର୍ଥ :-- ସେହି ସୃଷ୍ଟିକର୍ତ୍ତା ପ୍ରଜାମାନଙ୍କର କଲ୍ୟାଣପାଇଁ ବାରମ୍ବାର ଜଗତକୁ ସୃଷ୍ଟି କରନ୍ତି। ତାପରେ ସେ ଏହି ଦୃଶ୍ୟମାନ ଜଗତର ପ୍ରଳୟବିଧାନକରନ୍ତି। ସୃଷ୍ଟିରେ ସର୍ବଦା ଏହି ବିଶାଳଧରଣୀ ଶୋଭମାନ ହୁଏ ଏବଂ ପ୍ରଳୟରେ ଲୋପପାଇଯାଏ। ବିଶ୍ୱରୂପୀ ପରମାତ୍ମା ନିଜର ଏହି ମହତ୍-କ୍ରୀଡାକୁ ରଚନା କରିଥାଆନ୍ତି।
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02-07-2022
वेदब्राह्मी जगदधिपतेर्वक्त्रजा सत्यवाणी पाश्चात्यानामृतविरहिता गोपभाषा तु नैषा। उक्त्वा चेत्थं मुनिजनविधिं यः पुनः संववार नित्यं सोऽयं भुवि विजयतां श्रीदयानन्ददेवः।। ଅର୍ଥ :-- ବେଦବାଣୀ ଜଗଦଧିପତିଙ୍କର ମୁଖନିଃସୃତ ସତ୍ୟବାଣୀ ଅଟେ। ପାଶ୍ଚାତ୍ୟବ୍ୟକ୍ତିମାନଙ୍କର ଏହା ସତ୍ୟଶୂନ୍ୟ ଗୋପଭାଷା ନୁହେଁ, ଏହିପରି କହି ଯେ ମୁନିଜନଙ୍କର ବିଧାନକୁ ପୁନର୍ବାର ବରଣକରିଥିଲେ। ସେହି ଶ୍ରୀ ଦୟାନନ୍ଦଦେବ ପୃଥିବୀରେ ସର୍ବଦା ଜୟଲାଭ କରନ୍ତୁ।
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02-07-2022
सृष्ट्वा विश्वमिदं प्रधानवपुषः संपाल्य तद्यत्नतः यो दत्ते सुकृतां चतुर्विधफलं जीवात्मनां संस्थितौ। संस्रष्टुं च पुनः विशालमपरं विध्वंसते योऽन्तिमे वन्दे तं प्रथमं हिरण्यपुरुषं त्रैलोक्यनाथं विभुम्।१। ଅର୍ଥ :--- ଯିଏ ଏହି ବିଶ୍ୱକୁ ପ୍ରକୃତିର ଶରୀରରୁ ସୃଷ୍ଟିକରି ସ୍ଥିତିସମୟରେ ତାହାକୁ ଯତ୍ନର ସହ ସମ୍ୟକ୍ରୂପେ ପାଳନକରି ପୁଣ୍ୟକୃତ୍ ଜୀବାତ୍ମାମାନଙ୍କୁ ଚତୁର୍ବିଧଫଳ ପ୍ରଦାନକରନ୍ତି ଏବଂ ପୁଣି ଶେଷରେ ଅପର ବିଶାଳବିଶ୍ୱ ନିର୍ମାଣକରିବା- ପାଇଁ ତାହାକୁ ଧ୍ୱଂସକରିଥାନ୍ତି, ମୁଁ ସେହି ତ୍ରିଲୋକର ନାଥ ସର୍ବବ୍ୟାପକ ଆଦିଦେବ ହିରଣ୍ୟକାନ୍ତିଯୁକ୍ତପୁରୁଷଙ୍କୁ ବନ୍ଦନାକରୁଅଛି।
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02-07-2022
जीवात्मतन्वोः सखिता विचित्रा न दृश्यते सेव भुवां कदाचित्। कर्माणि चैकत्र सदा विधत्तः परन्न वित्तो ह्यपरस्य वृत्तिम्।। ଅର୍ଥ :-- ଜୀବାତ୍ମା ଏବଂ ଶରୀରର ମିତ୍ରତା ବଡ ବିଚିତ୍ର, ସଂସାରରେ ତାହାପରି କଦାପି ଦେଖାଯାଏ ନାହିଁ। ସଦାବେଳେ ଏକାଠି ରହି କର୍ମଗୁଡିକୁ କରନ୍ତି, ମାତ୍ର ଦୁହେଁ ଅପରର ବ୍ୟବହାରକୁ ଜାଣିପାରନ୍ତି ନାହିଁ।
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02-07-2022
सृष्टिर्नैव चकास्ति पुष्करतले लोकास्तदा नासते नाकाशो न धनञ्जयो न भुवनं वातो न वा मृत्तिका। नैवायं तपनो ग्रहो नच विधुस्तारा न वोल्कातनुः शून्यं शास्ति सदा तमश्छदयते गाढं विशालं नभः।। ଅର୍ଥ:--- ସେତେବେଳେ ଆକାଶରେ ସୃଷ୍ଟି ନ ଥିଲା, ଭୁବନଗୁଡିକ ନଥିଲା। ଆକାଶ ନ ଥିଲା,ଅଗ୍ନି ନ ଥିଲା, ଜଳ, ପବନ ଓ ମାଟି ନ ଥିଲା। ଏହି ସୂର୍ଯ୍ୟ, ଗ୍ରହ, ଚନ୍ଦ୍ର, ତାରା କିମ୍ୱା ଉଲ୍କା ମଧ୍ୟ ନ ଥିଲେ। ସଦାବେଳେ ଶୂନ୍ୟ ରାଜୁତିକରୁଥାଏ ଏବଂ ବିଶାଳ ଆକାଶକୁ ଗାଢ ଅନ୍ଧକାର ଆଚ୍ଛାଦିତକରି ରଖିଥାଏ।
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02-07-2022
ज्ञानार्थं न विराजते किमपि वा चिह्नं न वा कुत्रचित् ज्ञेयं ज्ञानमिहास्ति नैव सुलभं वेत्ता न वै विद्यते। नो कुत्रापि तदा रराज जगती सृष्टिर्न वा भासते सर्वं शून्यमिवाभिभाति परितः यद्धी तमिस्रावृतम्।। ଅର୍ଥ :--ପ୍ରଳୟକାଳରେ ଜାଣିବାପାଇଁ କିଛି ନଥିଲା। ଚିହ୍ନ କୌଣସିଠାରେ ନ ଥିଲା। ଜ୍ଞେୟ କିମ୍ୱା ଜ୍ଞାନ ସୁଲଭ ନଥିଲା, ଜ୍ଞାତା ମଧ୍ୟ ନଥିଲେ। ସେ ସମୟରେ କୌଣସିଠାରେ ଜଗତ ନଥିଲା କିମ୍ୱା ସୃଷ୍ଟି ମଧ୍ୟ ନଥିଲା। ଚତୁଃପାର୍ଶ୍ଵରେ ସବୁ ଶୂନ୍ୟପରି ଜଣାଯାଉଥାଏ, ଯାହାକି ଅନ୍ଧକାରଦ୍ୱାରା ଆଚ୍ଛାଦିତ ହୋଇଥିଲା।
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02-07-2022
कालोऽयं प्रलयो वदन्ति कवयो हेतौ विलीना गुणाः न व्यक्तं समुपैति यत्र करणं साम्यं सदा तिष्ठति। स्रष्टा याति तदा प्रयत्नरहितो भोक्तापि मूढायते रात्रौ भाति यथा प्रसुप्तनगरी चास्ते तथा संक्षयः।। ଅର୍ଥ :-- କବିମାନେ ଏହି ସମୟକୁ ପ୍ରଳୟ ବୋଲି କହିଥାଆନ୍ତି। ଯେଉଁଠାରେ ସତ୍ତ୍ୱ, ରଜଃ ଓ ତମୋଗୁଣଗୁଡିକ ହେତୁ ( ପ୍ରକୃତି) ରେ ବିଲୀନ ହୁଅନ୍ତି। ଯେଉଁଠାରେ କରଣ( ପ୍ରକୃତି) ପ୍ରକାଶିତ ହୁଏନାହିଁ, ବରଂ ସର୍ବଦା ସାମ୍ୟରୂପରେ ରହିଥାଏ। ସେତେବେଳେ ସ୍ରଷ୍ଟା ପ୍ରୟତ୍ନବିହୀନ ହୁଅନ୍ତି ଓ ଭୋକ୍ତା ଜୀବାତ୍ମାମାନେ ମୋହରୂପରେ ଥାଆନ୍ତି । ରାତ୍ରିରେ ଯେପରି ପ୍ରସୁପ୍ତନଗରୀ ( କୋଳାହଳଶୂନ୍ୟ/ଶାନ୍ତ) ଶୋଭାପାଏ, ଠିକ୍ ସେହିପରି ପ୍ରଳୟକାଳ ରହିଥାଏ।
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02-07-2022
:-- वेद वाणी :-- अग्निं स्तोमेन बोधय। यजुः--२२.१५ ହେ ମନୁଷ୍ୟ ! ଅଗ୍ନି ପରମାତ୍ମାଙ୍କୁ ସ୍ତୁତିମାଧ୍ୟମରେ ଜାଣ।
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02-07-2022
:-- वेदवाणी --: अयं यज्ञो भुवनस्य नाभिः। यजु २३.६२ ଏହି ଯଜ୍ଞ ସଂସାରର କେନ୍ଦ୍ର ଅଟେ।
Vedic vichar
02-07-2022
:--वेदवाणी--: ओ३म् वायुरनिलममृतमथेदं भस्मान्तं शरीरम्। ବାୟୁ ( ପରମାତ୍ମା) ଅନିଳ (ଜୀବାତ୍ମା) ଅବିନାଶୀ ଓ ଚେତନ ତଥା ଶରୀର (ପ୍ରକୃତି) ଭସ୍ମସ୍ୱରୂପ ଅଟନ୍ତି।
Vedic vichar
02-07-2022
--: वेदवाणी :-- यज्ञस्य देवमृत्विजम् ऋग्० १.१.१ ଅଗ୍ନି ଯଜ୍ଞର ଦେବତା ଓ ଋତ୍ୱିକ୍ ଅଟନ୍ତି।
Vedic vichar
02-07-2022
--: वेदवाणी :-- जुहोत प्र च तिष्ठत ऋग्०१.१५.९ ତୁମେ ଯଜ୍ଞକର ଏବଂ ପ୍ରଗତି କର।
Vedic vichar
02-07-2022
रेजे चात्र युगानि विश्वपटले दीर्घं सहस्रं क्षयः शेते स्म प्रविहाय सृष्टिरचनां शान्त्या तदा वै मृडः। जीवास्तु प्रभुणा विनापि गगने मूर्त्तास्तमौ नेरते साम्यासीत्प्रकृतिर्विसृष्टिरहिता घोरान्धकारान्विता।। ଅର୍ଥ :--- ପ୍ରଳୟ ଏହି ବିଶ୍ୱପଟଳରେ ଦୀର୍ଘ ଏକ ସହସ୍ରଯୁଗପର୍ଯ୍ୟନ୍ତ ଶୋଭାପାଇଲା। ସେତେବେଳେ ମଙ୍ଗଳ ଦାୟକ ପରମାତ୍ମା ସୃଷ୍ଟିରଚନାକୁ ତ୍ୟାଗକରି ଶାନ୍ତିରେ ଶୟନ କରୁଥିଲେ। ଗଗନରେ ଜୀବାତ୍ମାମାନେ ପ୍ରଭୁଙ୍କ ବ୍ୟତୀତ ଅନ୍ଧକାରରେ ଅଚେତନଭଳିରହି କୌଣସିକାର୍ଯ୍ୟ କରିପାରୁ ନଥିଲେ। ସୃଷ୍ଟିରହିତ ପ୍ରକୃତି ଘୋର ଅନ୍ଧକାରଯୁକ୍ତହୋଇ ସାମ୍ୟ-ଅବସ୍ଥାରେ ରହିଥିଲା।
Vedic vichar
02-07-2022
ब्रह्माणं समुपेत्य याचकयुगं सार्थौ ययाचे वरौ, गृह्णामीह सदा ददे नहि कदा जन्म प्रदत्तात्तथा। ब्रूतेऽन्यः प्रददामि केवलमितो नेच्छामि नेतुं मनाक् श्रुत्वा वाचमिमां विधिश्च सहसा चक्रे नृपं भिक्षुकम्।। ଅର୍ଥ :---- ଦୁଇଜଣ ଯାଚକ ( ମାଗିବା ଲୋକ) ବ୍ରହ୍ମାଙ୍କ ନିକଟକୁ ଯାଇ ଦୁଇଟି ଯଥାର୍ଥ ବର ମାଗିଥିଲେ। ପ୍ରଥମଜଣକ କହିଲେ, ମୁଁ ସଦାବେଳେ ନେଉଥିବି କିନ୍ତୁ କାହାକୁ କେବେ ଦେଉନଥିବି, ତଦନୁଯାୟୀ ମୋତେ ଜନ୍ମ ଦିଅନ୍ତୁ। ଅନ୍ୟ ଜଣକ କହିଲେ, ମୁଁ କେବଳ ସମସ୍ତଙ୍କୁ ଦେଉଥିବି,କିନ୍ତୁ କାହାଠାରୁ କେବେ କିଛିମଧ୍ୟ ନେଉ ନ ଥିବି। ବ୍ରହ୍ମା ଏହାଶୁଣି ହଠାତ୍ ଜଣକୁ ରାଜା ଏବଂ ଅନ୍ୟ ଜଣକୁ ଭିକାରି କରିଦେଲେ।।
पवित्र वेद और नासमझों का ईश्वर. (Vedic vichar)
02-07-2022
*वेदों के मंत्रों में शिव का अर्थ शैव मत वाले अपने अराध्य शिव को परमात्मा बताकर करते हैं।* *तो* *विष्णु मत वाले अपने अराध्य विष्णु को परमात्मा बताकर करते हैं।* *दोनों में ही परस्पर विरोधाभास रहा है और दोनों ही गलत हैं।* *सर्वव्यापक होने से ईश्वर का एक नाम विष्णु है और कल्याणकारी होने से शिव भी है।* *वेदों में गुण कर्म स्वभावनुसार निराकार ईश्वर के कई नाम बताए गए हैं।* *ब्रह्मा विष्णु शिव गणेश महादेव रूद्र राम आदि गुण कर्म स्वभावनुसार ईश्वर के ही नाम हैं, जगत में इस नाम के बहुत से धर्मात्मा महापुरुष हुए हैं, इसका अर्थ यह नहीं कि वेदों में उनके नाम का उल्लेख है।* *यूं तो ईसाई मत वालों ने भी एक मंत्र में अपने महापुरुष ईसा मसीह लिखा देख लिया, कबीर मत वालों ने कबीर को, मुस्लिमों ने मुहम्मद को, रामभक्त और कृष्णभक्तों ने राम और कृष्ण को लिखा देख लिया तो इसका अर्थ यह नहीं है उनका नाम होने से वे सब परमात्मा हो गए।* *हर कोई मतावलंबी अपने अपने महापुरुषों को वेदों में ढूंढकर परमात्मा मानने लगेगा तो कितने ही परमात्मा हो जाएंगे जबकि परमात्मा तो एक निराकार चेतन अनादि सत्ता है।* *निराकार होने से ही वह सर्वव्यापक है।* *साकार होने से तो वह ऐकदेशीय माना जाएगा।* *वह नस नाड़ी के बंधन से मुक्त सत्ता है।* *मनुष्य की तरह शरीरधारी होने से जीवात्मा और परमात्मा में कोई भेद ही नहीं रह जाएगा।* *वेदों में किसी व्यक्ति, जाति, समुदाय, स्थान के इतिहास का कोई वर्णन नहीं है।* *जो ईश्वर को साकार बताते हैं तो उन स्थानों पर ईश्वर साकार क्यों नहीं होता जहां अधर्म होता है?* *वह वहाँ साकार रूप में साक्षात प्रकट होकर दुष्टों को दण्ड क्यों नहीं देता?* *मंदिरों में और तथाकथित धार्मिक स्थलों पर कितने ही पाप हो रहे हैंं, वहां ईश्वर साकार होकर पापियों का नाश क्यों नहीं करता??* *इन सबका उत्तर कोई दे नहीं सकता, अधर्मी अनार्य वेद मंत्रों के अर्थ का अनर्थ करके परमात्मा को साकार सिद्ध करने का असफल प्रयास करते हैं।* *परम पवित्र चार वेद में निराकार परमेश्वर के स्थान में किसी अन्य पदार्थ को पूजनीय मानने का सर्वथा निषेध किया है।* *अन्धन्तम: प्र विशन्ति येऽसम्भूतिमुपासते।* *ततो भूयऽइव ते तमो यऽउ सम्भूत्यां रताः* *यजुः॰ अ॰ 40। मं॰ 9॥* *जो असम्भूति अर्थात् अनुत्पन्न अनादि प्रकृति कारण की ब्रह्म के स्थान में उपासना करते हैं वे अन्धकार अर्थात् अज्ञान और दुःखसागर में डूबते हैं। और सम्भूति जो कारण से उत्पन्न हुए कार्यरूप पृथिवी आदि भूत पाषाण और वृक्षादि अवयव और मनुष्यादि के शरीर की उपासना, ब्रह्म (परमात्मा) के स्थान में करते हैं वे उस अन्धकार से भी अधिक अन्धकार अर्थात् महामूर्ख चिरकाल घोर दुःखरूप नरक में गिरके महाक्लेश भोगते हैं।*
ईश्वर से प्राथना उपासना क्यूँ और कैसे करे (Vedic vichar)
02-07-2022
*‘उपासना’ शब्द का अर्थ समीपस्थ होना है । अष्टांग योग से परमात्मा के समीपस्थ होने और उसको सर्वव्यापी, सर्वान्तर्यामी रूप से प्रत्यक्ष [करने] के लिये जो-जो काम करना होता है वह-वह सब करना चाहिये ।* *अर्थात् - जो उपासना का आरम्भ करना चाहें उसके लिये यही आरम्भ है कि-वह किसी से वैर न रक्खे, सर्वदा सब से प्रीति करे । सत्य बोले । मिथ्या कभी न बोले । चोरी न करे । सत्य व्यवहार करे । जितेन्द्रिय हो । लम्पट न हो और निरभिमानी हो । अभिमान कभी न करे । ये पांच प्रकार के यम मिल के उपासना-योग का प्रथम अंग है । राग द्वेष छोड़ भीतर और जलादि से बाहर पवित्र रहे । धर्म से पुरुषार्थ करने से लाभ में न प्रसन्नता और हानि में न अप्रसन्नता करे। प्रसन्न होकर आलस्य छोड़ सदा पुरुषार्थ किया करे । सदा दुःख सुखों का सहन और धर्म ही का अनुष्ठान करे, अधर्म का नहीं । सर्वदा सत्य शास्त्रों को पढ़े पढ़ावे । सत्पुरुषों का संग करे और ‘ओ३म्’ इस एक परमात्मा के नाम का अर्थ विचार करे नित्यप्रति जप किया करे अपने आत्मा को परमेश्वर की आज्ञानुकूल समर्पित कर देवे । इन पांच प्रकार के नियमों को मिला के उपासना योग का दूसरा अंग कहाता है ।* *जब उपासना करना चाहें तब एकान्त शुद्ध देश में जाकर, आसन लगा, प्राणायाम कर बाह्य विषयों से इन्द्रियों को रोक, मन को नाभि प्रदेश में वा हृदय, कण्ठ, नेत्र, शिखा अथवा पीठ के मध्य हाड़ में किसी स्थान पर स्थिर कर अपने आत्मा और परमात्मा का विवेचन करके परमात्मा में मग्न हो कर संयमी होवें ।* *जब इन साधनों को करता है तब उसका आत्मा और अन्तःकरण पवित्र होकर सत्य से पूर्ण हो जाता है । नित्यप्रति ज्ञान विज्ञान बढ़ाकर मुक्ति तक पहुंच जाता है।* *जो आठ पहर में एक घड़ी भर भी इस प्रकार ध्यान करता है वह सदा उन्नति को प्राप्त हो जाता है ।वहां सर्वज्ञादि गुणों के साथ परमेश्वर की उपासना करनी सगुण और द्वेष, रूप, रस, गन्ध, स्पर्शादि गुणों से पृथक् मान, अति सूक्ष्म आत्मा के भीतर बाहर व्यापक परमेश्वर में दृढ़ स्थित हो जाना निर्गुणोपासना कहाती है* *इस का फल-जैसे शीत से आतुर पुरुष का अग्नि के पास जाने से शीत निवृत्त हो जाता है वैसे परमेश्वर के समीप प्राप्त होने से सब दोष दुःख छूट कर परमेश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव के सदृश जीवात्मा के गुण, कर्म, स्वभाव पवित्र हो जाते हैं इसलिये परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना अवश्य करनी चाहिये । इस से इसका फल पृथक् होगा परन्तु आत्मा का बल इतना बढ़ेगा, कि पर्वत के समान दुःख प्राप्त होने पर भी न घबरायेगा और सब को सहन कर सकेगा । क्या यह छोटी बात है ?* *और जो परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना नहीं करता वह कृतघ्न और महामूर्ख भी होता है । क्योंकि जिस परमात्मा ने इस जगत् के सब पदार्थ जीवों को सुख के लिये दे रक्खे हैं, उस का गुण भूल जाना, ईश्वर ही को न मानना, कृतघ्नता और मूर्खता है।* *महर्षि दयानंद सरस्वती *
वेद का पढ़ना-पढ़ाना और सुनना-सुनाना सब आर्यों का परम धर्म है। (Vedic vichar)
02-07-2022
आचार्य समावर्तन के समय स्नातक को जो उपदेश वा आदेश देता है, उसमें एक वचन है- 'स्वाध्यायान्मा प्रमदः' अर्थात् स्वाध्याय से प्रमाद मत कर । स्वाध्याय शन्द 'सु+आ+अध्याय' तथा 'स्व(स्य) अध्याय:' इस तरह दो प्रकार से निष्पन्न होता है । इन दोनों का अर्थ निम्न प्रकार है - ◾️१-अच्छा अध्ययन अर्थात् वेदादि सच्छास्त्रों का अध्ययन । ◾️२-अपना अध्ययन, अर्थात् आत्मा तथा शरीर आदि के तत्त्वज्ञान के लिये प्रयत्न। ये स्वाध्याय शब्द के यौगिक अर्थ हैं, किन्तु जहां-जहां स्वाध्याय के लिये शास्त्रकारों ने आदेश दिया है, वहां-वहां केवल यौगिक अर्थ अभिप्रेत नहीं है। 'पङ्कज' आदि शब्दों की तरह वह भी विशेषार्य में नियत है। शतपथ के अथात स्वाध्यायप्रशंसा' नामक ब्राह्मण, तथा मीमांसकों की मीमांसानुसार यह पद केवल वेदाध्ययन के लिये प्रयुक्त होता है। अतः ????‘स्वाध्यायान्मा प्रमदः’ वाक्य का विशिष्ट अर्थ यह हुआ कि 'वेदाध्ययन में प्रमाद मत कर'। इसी प्रकार ????'स्वाध्यायप्रवचनाभ्यां न प्रमदितव्यम्' का अर्थ होगा- वेद के अध्ययन और अध्यापन में प्रमाद मत कर । यहां यह ध्यान में रखना चाहिये कि ये दोनों आदेश एक गृहस्थ में प्रवेश करनेवाले स्नातक के लिए हैं। इसका तात्पर्य यह है कि प्रत्येक गृहस्थी को वेद के अध्ययन और अध्यापन करने का आदेश दिया जा रहा है। भगवान् मनु गृहस्थ धर्म प्रकरण में लिखते हैं - ????नित्यं शास्त्राण्यवेक्षेत निगमांश्चैव वैदिकान्। अर्थात् 'नित्यप्रति वेद और सत्यशास्त्रों का अवलोकन करना चाहिये। तत्तिरीयोपनिषद् (शिक्षावल्ली ९) में लिखा है - ????'तपश्च स्वाध्यायप्रवचने च, दमश्च स्वाध्यायप्रवचने च,…प्रजननं च स्वाध्यायप्रवचने च, प्रजातिश्च स्वाध्यायप्रवचने च'॥ अर्थात् 'तप शम दम अग्निहोत्र आदि तथा धर्मपूर्वक सन्तानादि की उत्पत्ति करते हुए भी स्वाध्याय और प्रवचन करते रहना चाहिये'। स्वाध्याय अर्थात् स्वयं अध्ययन और प्रवचन अर्थात् दूसरे को पढ़ाना। इन वाक्यों का भी तात्पर्य यही है कि- वेद का पढ़ना पढ़ाना प्रत्येक अवस्था में अवश्य करना चाहिये, कभी छूटना नहीं चाहिये। इसीलिये स्वाध्याय और प्रवचन पद प्रत्येक वाक्य में पढ़े गये हैं। इनसे यह भी प्रतीत होता है कि वेद का पढ़ना पढ़ाना प्रतिदिन का आवश्यक कर्म है ।
क्या शूद्र ईश्वर के पैरों से उत्पन्न हुए है? (Vedic vichar)
02-07-2022
*प्रस्तुति - ???? ‘अवत्सार’* ????प्रश्न - वेद का ????‘ब्राह्मणोऽस्य' ( यजुर्वेद - ३१ । ११ ) मंत्र कहता है कि “इस यज्ञपुरुष के मुख से ब्राह्मण हुए और बाहु से क्षत्रिय, ऊरू से वैश्य तथा पैरों से शूद्र उत्पन्न हुए।” ????उत्तर - आपका यह अर्थ सर्वथा अशुद्ध और स्वयं वेद के ही विरुद्ध है, क्योंकि वेद ईश्वर को निराकार, अकाय वर्णन करते हैं जैसे ????‘स पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रणमस्नाविरम्' इत्यादि यजुर्वेद [४०।८] वर्णन करता है कि ‘वह परमात्मा सर्वव्यापक, शीघ्रकारी, अकाय, व्रणरहित, नस तथा नाड़ी के बन्धन से रहित है' जब परमात्मा के शरीर ही नहीं है तो उसके मुख से ब्राह्मण, बाहु से क्षत्रिय, उरू से वैश्य तथा शूद्रों को परमात्मा के पाँवों से पैदा हुआ मानना वन्ध्या के पुत्र के विवाह में मिठाई खाने की भाँति असम्भव तथा उन्मत्तप्रलाप के सिवाय और क्या हो सकता है? इस मन्त्र के वास्तविक अर्थों को जानने के लिए इससे पूर्वमन्त्र के अर्थों का जानना आवश्यक है, जिसमें प्रश्न किया गया है और जिसके उत्तर में यह मन्त्र है। दोनों मन्त्र इस प्रकार हैं ????यत्पुरुषं व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन्। मुखं किमस्यासीत्किं बाहू किमूरू पादा उच्येते ॥१०॥ ????ब्राह्मणोऽस्य मुखामासीद् बाहूराजन्यः कृतः। ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भयाशूद्रोऽजायत॥११॥ -यजुः० ३१।१०-११ भाषार्थ-जिस परमात्मा को कई प्रकार से कल्पना करते हुए पुरुष वर्णन करते हैं, उस पुरुष का मुख क्या है? उसकी भुजा कौन हैं, उसके ऊरू तथा पाँव कौन कहे जाते हैं? ॥ १० ॥ इस मन्त्र में जो परमात्मा को कई प्रकार की कल्पना करके वर्णन करने का ज़िक्र है, वह कल्पना क्या वस्तु है? इसको दूसरे शब्दों में अलंकार भी कहते हैं ????सौन्दर्यमलङ्कारः ॥ ६॥ -काव्यालंकारसूत्रवृत्ति भाषार्थ-किसी बात को सौन्दर्य से वर्णन करने का नाम अलंकार है। अलंकार बहुत प्रकार के होते हैं, उनमें से एक अलंकार का नाम है उपमालंकार । उसका लक्षण यह है- ????उपमानोपमेययोर्गुणलेशतः साम्यमुपमा ॥ १॥ उपमान से उपमेय के गुणों की कुछ समानता का नाम उपमा है। वह उपमा दो प्रकार की है- ????सा पूर्णा लुप्ता च ॥४॥ वह पूर्णा तथा लुप्ता दो प्रकार की है। पूर्णा का लक्षण- ????गुणद्योतकोपमानोपमेयशब्दानां सामग्ये पूर्णा ॥५॥ जिसमें उपमान, उपमेय, उपमावाचक शब्द तथा गुणद्योतक शब्द-ये सारे विद्यमान हों, वह पूर्ण-उपमा है जैसे - ????‘कमलमिव मुखं मनोज्ञमिति' मुख कमल की भाँति सुन्दर है। इस वाक्य में - ▪️कमल-उपमान-जिससे उपमा दी जावे। ▪️मुख–उपमेय-जिसको उपमा दी जावे। ▪️मनोज्ञ-साधारणधर्म, समान गुण जो दोनों में मिलता हो। ▪️इव-उपमा-वचक शब्द, जिनसे समानता बताई जावे। यहाँ उपमा के चारों अङ्ग विद्यमान हैं, अतः यहाँ पूर्ण उपमा है। ????लोपे लुप्ता॥६॥ -काव्यालङ्कारसूत्रवृत्ति ९ । १-६ जिसमें किसी अङ्ग का लोप हो जावे वह लुप्त-उपमा है, जैसे- ▪️ ‘शशीव राजा' 'चाँद-जैसा राजा' इसमें साधारणधर्म, जो गुण दोनों में मिलता है, जिसके कारण राजा को चाँद-जैसा कह गया है, वह लुप्त है, अतः इसका नाम 'धर्मलुप्तोपमा' है। ▪️ 'दूर्वा श्यामेयम्'-'यह स्त्री काली दूब है' यहाँ पर उपमावाचक शब्द का लोप है, जो समानता का वर्णन करता है, अतः इसका नाम 'वाचकलुप्तोपमा' है। ▪️ 'शशिमुखी' ‘चन्द्रमुखी'-यहाँ पर साधारणधर्म और उपमावाचक शब्द दोनों का लोप है, इसको ‘वाचकधर्मलुप्तोपमा' कहते हैं। हम इसके कुछ उदाहरण देते हैं- ????सर्वोपनिषदो गावो दोग्धा गोपालन्दनः। पार्थों वत्सः सुधीभॊक्ता दुग्धं गीतामृतं महत्।। भाषार्थ-सब उपनिषद् गौवें हैं, दोहनेवाले कृष्ण हैं, पीनेवाला बुद्धिमान् अर्जुन बछड़ा तथा महान् अमृत गीता दूध है। यहाँ पर उपनिषदों को गौवों की, कृष्णा को दोहनेवाले की, अर्जुन को बछड़े की तथा गीता को दूध की उपमा दी गई है। यहाँ उपमावाची शब्दों तथा साधारणधर्म का लोप है, अतः यहाँ पर 'वाचकधर्मलुप्तोपमा' है। यहाँ पर गीता को दूध की उपमा ही दी गई है, वास्तव में गीता दूध नहीं है। यदि कोई आदमी इस श्लोक को ठीक रूप से न समझकर गीता को कटोरे में डालकर किसी को कहे कि लीजिए, दुग्धपान कीजिए तो सब लोग उसे मूर्ख ही कहेंगे, बुद्धिमान् नहीं। ????आत्मानदी संयमपुण्यतीर्था सत्योदका शीलतटा दयोर्मिः। तत्राभिषेकं कुरु पाण्डुपुत्र न वारिणा शुद्ध्यति चान्तरात्मा ॥ भाषार्थ-आत्मा नदी है, संयमरूपी पवित्र तीर्थवाली, सत्य जलवाली, शील तट तथा दया लहरोंवाली है। हे युधिष्ठिर! उसमें स्नान कर, जल से आत्मा शुद्ध नहीं होता। इस श्लोक में आत्मा को नदी की उपमा देकर तरंगों को भी उपमा दी गई है, किन्तु आत्मा वास्तव में नदी नहीं है। ????प्रणव धनुः शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते। अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत्तन्मयो भवेत् ॥ भाषार्थ-प्रणव धनुष है, यह आत्मा तीर है, ब्रह्म उसका लक्ष्य है, सावधानी से लक्ष्य को वेधना चाहिए, तीर की भाँति तन्मय हो जावे॥ यहाँ आत्मा को तीर की उपमा दी गई है, परन्तु वास्तव में आत्मा तीर नहीं है। ????आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु । बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च। इन्द्रियाणि हयानाहुर्विषयान् तेषु गोचरान्। आत्मबुद्धिमनोयुक्तः कर्तेति उच्यते बुधैः ।। भाषार्थ-आत्मा को सवार जान, शरीर को रथ समझ, बुद्धि को सारथि जान, मन को लगाम समझ। इन्द्रियों को घोड़े और विषयों को उनकी खुराक कहते हैं। बुद्धि और मन से युक्त आत्मा को बुद्धिमान् लोग कर्ता कहते हैं। यहाँ आत्मा को रथी की उपमा देकर तत्सम्बन्धी वस्तुओं की भी उपमा दी है, किन्तु वास्तव में आत्मा रथी नहीं है। इन सब स्थलों में 'वाचकधर्मलुप्तोपमा' अलंकार हैं, जिनमें उपमावाची शब्द तथा साधारण धर्म का लोप है। इसी प्रकार के अलंकार वेदों में भी हैं, जैसे- ????अजो वा इदमग्रे व्यक्रमत तस्योर इयमभवद् द्यौः पृष्ठम्। अन्तरिक्षं मध्यं दिशः पाश्र्वे समुद्रौ कुक्षी ॥२०॥ ????सत्यं च ऋतं च चक्षुषी विश्वं सत्यं श्रद्धा प्राणो विराट् शिरः। एष वा अपरिमितो यज्ञो यदजः पंचौदनः ॥ २१ ॥ --अथर्व० ९।५ भाषार्थ-यह बकरा आगे आया, इसकी छाती यह पृथिवी, द्यौः पीठ, आकाश पेट, दिशाएँ पाश्र्व=पसवाड़े, समुद्र बगलें, ज्ञान तथा सत्य दोनों आँखें और सम्पूर्ण सत्य और श्रद्धा प्राण तथा ब्राह्मण सिर है, वह यह अपरिमित यज्ञ है, जिसको पञ्चौदन अज कहते हैं। इस मन्त्र में परमात्मा को अज अर्थात् बकरे की उपमा देकर उसके अङ्गों की भी कल्पना करके परमात्मा का वर्णन किया गया है। परमात्मा वास्तव में बकरा नहीं है। बस, इसी प्रकार ????'यत्पुरुषं व्यदधुः' इस मन्त्र में परमात्मा को पुरुष की उपमा देकर पूछा है कि उसके मुख, बाहू, ऊरू तथा पाँव कौन हैं। इसका ही उत्तर अगले मन्त्र में ????‘ब्राह्मणोऽस्य' दिया गया है कि 'ब्राह्मण उसका मुख हैं, भुजा क्षत्रिय, ऊरू वैश्य हैं और पाँव शूद्र' ।। इस मन्त्र में परमात्मा को पुरुष की उपमा देकर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों को उस पुरुष के मुख, बाहू, ऊरू तथा पाँव कल्पना किया गया है। यह पूर्ववत् उपमा अलंकार है। वास्तव में परमात्मा निराकार है, उसके मुखादि अङ्ग नहीं हैं। यहाँ पर परमात्मा को पुरुष की उपमा देकर तथा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र को उसके मुख, बाहू, ऊरू तथा पैर कल्पना करने का यही प्रयोजन है कि मनुष्यसृष्टि में जो लोग मुख के समान सर्वसाधारण से पाँचगुणा ज्ञान रखते हों, लोगों को उलटे रास्ते से हटाकर सीधे रास्ते पर चलावें तथा अपनी पढ़ी विद्या लोगों को पढ़ावें, वे ब्राह्मण कहलाने के योग्य हैं तथा मनुष्यसृष्टि में जो लोग भुजा के समान अपने-आपको संकट में डालकर भी दूसरों की रक्षा करे वे क्षत्रिय कहलाने के योग्य तथा जो लोग पेट के समान राष्ट्र के कच्चे माल को पक्का माल बनाकर उसके व्यापार से जो लाभ हो उससे अपने देश का पालन करें वे वैश्य कहलाने के योग्य हैं। और मनुष्यसृष्टि में जो लोग न दिमाग़ी काम कर सकें, न रक्षा और व्यापार का काम कर सकें, केवल पाँवों के समान बोझ उठाने, अर्थात् कुलीपने का काम जानते हों वे शूद्र कहलाने के अधिकारी हैं। यह मन्त्र वर्ण-व्यवस्था का गुण-कर्म-स्वभाव से प्रतिपादन करता है-जन्म से नहीं, अत: हमारा किया हुआ अर्थ वेदानुकूल तथा आपका अर्थ स्वयं वेद के ही विरुद्ध होने से सर्वथा मिथ्या है। साभार - पंडित मनसारामजी ????वैचारिक क्रांति के लिए “सत्यार्थ प्रकाश” पढ़े???? ???? वेदों की ओर लौटें ???? *प्रस्तुति - ???? ‘अवत्सार’* ॥ ओ३म् ॥
Vedic vichar
02-07-2022
स्वाध्याय' योग का एक अंग है - महर्षि पतञ्जलि ने स्वाध्याय को नियमों के अन्तर्गत माना है। और स्वाध्याय का फल स्वयं बतलाया है ????'स्वाध्यायादिष्टदेवतासंप्रयोगः' (योग २।४४) । अर्थात् ‘स्वाध्याय से इष्टदेव परमात्मा की प्राप्ति होती है।’ महर्षि वेदव्यास ने योग १।२८ सूत्र की व्याख्या में लिखा है - ????स्वाध्यायाद् योगमासीत योगात् स्वाध्यायमामनेत्। स्वाध्याययोगसम्पत्त्या परमात्मा प्रकाशते॥ स्वाध्याय से योग=चित्तवृत्तियों के निरोध की प्राप्ति करे, योग=चित्तवृत्तियों का निरोध करके स्वाध्याय=वेद का अध्ययन करे। स्वाध्याय और योग की सम्मिलित शक्ति से आत्मा में भगवान् स्वयं प्रकाशित हो जाते हैं। यह है स्वाध्याय का महान् फल । महर्षि याज्ञवल्क्य शतपथ के स्वाध्याय के प्रकरण में लिखते हैं- ????‘यदि ह वाभ्यङ्क्तोऽलंकृतः सुखे शयने शयान: स्वाध्यायमधीते, आ हैव नखाग्रेभ्यस्तपस्तप्यते, य एवं विद्वान् स्वाध्यायमधीते।’ शत० ११।५।१।४ अर्थात् 'जो पुरुष अच्छी प्रकार अलंकृत होकर सुखदायक पलङ्ग पर लेटा हुआ भी स्वाध्याय करता है. तो मानो वह चोटी से लेकर एडी पर्यन्त तपस्या कर रहा है । इसलिये स्वाध्याय करना चाहिये।' कई सज्जन कहते हैं कि वेद के स्वाध्याय में मन नहीं लगता। रूखा विषय है, सरस नहीं। यह कहना बहुत अंश में ठीक है, किन्तु इसमें भी दोष हमारा ही है । सरसता प्रत्येक पुरुष की अपनी-अपनी रुचि पर निर्भर होती है। बहुत लोग गणित को शुष्क विषय कहते हैं. किन्तु जो उसके वेत्ता है उन्हें वह विषय इतना प्रिय होता है कि उसमें वे अपनी सुध-बुध भी भूल जाते हैं। इस प्रतीत होता है कि जिन पुरुष की जिस विषय में प्रगति होती है उसके लिये वह विषय सरस है, अन्य के लिए रूक्ष। इस रूक्षता को हटाने का एक मात्र साधन है- निरन्तर अध्ययन। जो पुरुष दो चार दिन पढ़कर आनन्द उठाना चाहते हैं, उन्हें कभी भी लाभ नहीं हो सकता। उसके लिये निरन्तर स्वाध्याय की आवश्यकता है। अतएव प्राचीन महर्षियों ने स्वाध्याय को दैनिक कार्य मानकर नैत्यिक पञ्चमहायज्ञों के अन्तर्गत स्थान दिया है। और इसीलिये इसे संसार का सब से महान् तप कहा है। मनुजी (४।२०) कहते हैं - ????यथा यथा हि पुरुषः, शास्त्राणि समधिगच्छति। तथा तथा विजानाति, विज्ञानं चास्य रोचते॥ "पुरुष जैसे-जैसे अपने शास्त्राध्ययन को बढ़ाता जाता है, वैसे-वैसे उसका ज्ञान बढ़ता है, और उसमें उसे रुचि पैदा होती है, तत्काल नहीं।" महर्षि दयानन्द ने प्रत्येक आर्य के लिये दश आदेश दिये हैं, जिन्हें मानकर ही आर्य समाज का सदस्य बन सकता है। मानने का अभिप्राय सदा तदनुसार कर्म करना होता है। एक सामान्य नियम है कि- ????‘यन्मनसा ध्यायति तद्वाचा वदति, यद् वाचा वदति तत् कर्मणा करोति, यत्कर्मणा करोति तदमिसम्पद्यते।’ 'पुरूष जिस बात को अपने मन से सोचता है, उसे वाणी द्वारा प्रकट करता है। जिसे वाणी द्वारा प्रकट करता है, उसे कर्म द्वारा करता है। जिसे कर्म द्वारा करता है, वैसा ही बन जाता है।' अब हमारे सामने प्रश्न आता है कि जिन नियमों को हम आर्य समाज का सदस्य बनते हुए स्वीकार करते हैं, क्या हमारी वह स्वीकृति हृदय से होती है वा दिखावटी? इसकी कसौटी हमारे कर्म हैं। यदि उन नियमों के अनुसार हमारे कर्म हैं। तो मानना होगा कि हम उन नियमों को हृदय से मानते हैं। अन्यथा यही कहा जाएगा कि सदस्य बनने के लिये दिखावटी स्वीकृति है। महर्षि दयानन्द ने आर्य-समाज के दस नियमों में तीसरा नियम यह लिखा- "वेद सब सत्यविद्याओं का पुस्तक है। वेद का पढ़ना-पढ़ाना और सुनना-सुनाना सब आर्यों का परम धर्म है।" ऋषि ने वेद का पढ़ना अर्थात् स्वाध्याय, पढ़ाना अर्थात् प्रवचन, ये दोनों बातें संगृहीत करते हुए 'सुनना' और 'सुनाना' पद विशेष रखे हैं। यदि ये पद न रखे होते, तो कोई पुरुष यह कह सकता था कि हमें पढ़ना नहीं आता, किन्तु यहां तो यह समस्या पहले ही हल कर दी गई है। जो पढ़ नहीं सकता वह सुने। जो सुनाने में समर्थ हो, उसका भी कर्तव्य है कि वह सुनावे। इस नियम में धर्म शब्द कर्तव्य का वाचक है। अब प्रश्न उठता है कि क्या आर्यसमाज के सदस्य इस नियम को हृदय से मान रहे हैं ? स्पष्टतया कहा जा सकता है कि नहीं। क्योंकि आर्यसमाज के सदस्यों में सम्प्रति स्वाध्याय की रुचि ही नहीं है। आर्य व्यक्तियों से कहते सुना जाता है कि आजकल समाज में पूर्व जैसा उत्साह नहीं। बात सोलह आने सत्य है। पर किसी ने इस बीमारी का निदान भी किया है ? इस बीमारी का कारण है वेद के स्वाध्याय का अभाव। वेद आर्यों का धार्मिक अर्थात् कर्तव्यबोधक ग्रन्थ है। यह आर्य जाति की संस्कृति का आदि-स्रोत तथा केन्द्र है। जब हम उस स्रोत तथा केन्द्र से विमुख हो जाते हैं, तभी हममें शिथिलता उत्पन्न होती है। मुसलमानों में अपने मत के प्रति कितना उत्साह है। उसका प्रमुख कारण कुरान का प्रतिदिन स्वाध्याय है । हिन्दुओं में इतनी हीनता और कुरीतियां क्यों उत्पन्न हुई ? इसका उत्तर भी यही है कि उन्होंने अपने मूलभूत वेदों को छोड़कर साम्प्रदायिक ग्रन्थों और पुराणों को ही अपनाना प्रारम्भ कर दिया। आर्य समाज के प्रारम्भिक आर्यों में जो महान् उत्साह था, उसका कारण धार्मिक ग्रन्थों का अध्ययन ही था। संसार में कठिन कुछ नहीं, मन की पूरी लगन चाहिये, सब काम पूरे हो जाते हैं। कठिन कहना तो अपने आलस्य-दोष को छिपानेमात्र के लिये है। इसलिये आर्यों का परम कर्तव्य है कि यदि वे स्वामी दयानन्द सरस्वती, और उनसे प्राचीन मनु, याज्ञवल्क्य, पतञ्जलि, वेदव्यास आदि के कथन पर थोड़ी भी श्रद्धा रखते हों, तो वेद, उपनिषद्, गीता, षड्दर्शन आदि उत्तमोत्तम ग्रन्थों का नित्य स्वाध्याय करें। जो सज्जन केवलमात्र हिन्दी जानते हैं, वे उक्त ऋषियों के ग्रन्थों का हिन्दी के माध्यम ???? अनुवाद) से स्वाध्याय कर सकते हैं। इससे उन्हें अपनी संस्कृति से प्रेम उत्पन्न होगा। जातीयता का उद्बोधन होगा, और उत्साह की वृद्धि होगी। यदि आर्य जाति संसार में जीवित जागृत रहना चाहती है, तो उसे वेद को आगे करके सब कार्य करने होंगे। इसके विना न कभी 'कृण्वन्तो विश्वमार्यम्' का लक्ष्य सफल हो सकता है, और न अपनी वा अपने देश की उन्नति हो सकती है। अतः प्रत्येक आर्य का कर्तव्य है कि वह प्रति दिन (चाहे समय थोड़ा ही लगावे) वेद का स्वाध्याय अवश्य करे । अतः मेरी प्रत्येक वैदिक मतानुयायी से विनम्र प्रार्थना है कि अपने वा समाज के कल्याण के लिये वा देश के समुत्थान के लिये दैनिक स्वाध्याय का व्रत लें। लेखक - महामहोपाध्याय पण्डित युधिष्ठिर मीमांसक जी प्रस्तुति - ???? ‘अवत्सार’
विश्वशान्ति केवल वेद द्वारा सम्भव. (Vedic vichar)
30-06-2022
आइये वेद के कुछ मन्त्रों का अवलोकन करें,कैसी दिव्य भावनाएं हैं:- अज्येष्ठासो अकनिष्ठास एते सं भ्रातरो वावृधुः सौभाय ।-(ऋग्वेद ५/६०/५) अर्थ:-ईश्वर कहता है कि हे संसार के लोगों ! न तो तुममें कोई बड़ा है और न छोटा। तुम सब भाई-भाई हो। सौभाग्य की प्राप्ति के लिए आगे बढ़ो। ईश्वर इस मन्त्र में मनुष्य-मात्र की समानता का उपदेश दे रहे हैं। इसके साथ साम्यवाद का भी स्थापन कर रहे हैं। अथर्ववेद के तीसरे काण्ड़ के तीसवें सूक्त में तो विश्व में शान्ति स्थापना के लिए जो उपदेश दिये गये हैं वे अद्भूत हैं। इन उपदेशों ऐसे उपदेश विश्व के अन्य धार्मिक साहित्य में ढूँढने से भी नहीं मिलेंगे। वेद उपदेश देता है- सह्रदयं सांमनस्यमविद्वेषं कृणोमि वः । अन्यो अन्यमभि हर्यत वत्सं जातमिवाघ्न्या ।।-(अथर्व० ३/३०/१) अर्थ:-मैं तुम्हारे लिए एकह्रदयता,एकमनता और निर्वेरता करता हूं। एक-दूसरे को तुम सब और से प्रीति से चाहो, जैसे न मारने योग्य गौ उत्पन्न हुए बछड़े को प्यार करती है। वेद हार्दिक एकता का उपदेश देता है। वेद आगे कहता है- ज्यायस्वन्तश्चित्तिनो मा वि यौष्ट संराधयन्तः सधुराश्चरन्तः । अन्यो अन्यस्मै वल्गु वदन्त एत सध्रीचीनान्वः संमनसस्कृणोमि ।।-(अथर्व० ३/३०/५) अर्थ:-बड़ों का मान रखने वाले,उत्तम चित्त वाले,समृद्धि करते हुए और एक धुरा होकर चलते हुए तुम लोग अलग-अलग न होओ, और एक-दूसरे से मनोहर बोलते हुए आओ। तुमको साथ-२ गति वाले और एक मन वाले मैं करता हूं। इस मन्त्र में भी एक-दूसरे से लड़ने का निषेध किया गया है और मिलकर चलने की बात की गई है। और देखिये- सं गच्छध्वं सं वदध्वं सं वो मनांसि जानताम् । देवां भागं यथापूर्वे संजानाना उपासते ।।-(ऋ० १०/१९१/२) अर्थ:-हे मनुष्यो ! मिलकर चलो,परस्पर मिलकर बात करो।तुम्हारे चित्त एक-समान होकर ज्ञान प्राप्त करें।जिस प्रकार पूर्वविद्वान,ज्ञानीजन सेवनीय प्रभु को जानते हुए उपासना करते आये हैं,वैसे ही तुम भी किया करो। इस मन्त्र में भी परस्पर मिलकर चलने,बातचीत करने और मिलकर ज्ञान प्राप्त करने की बात कही गई है। इस मन्त्र में भी वैचारिक और मानसिक एकता की बात कहकर वेद सन्देश देता हैँ- समानी व आकूतिः समाना ह्रदयानि वः । समानमस्तु वो मनो यथा वः सुसहासति ।।-(ऋ०१०/१९१/४) अर्थ:-हे मनुष्यों ! तुम्हारे संकल्प समान हों, तुम्हारे ह्रदय परस्पर मिले हुए हों, तुम्हारे मन समान हों जिससे तुम लोग परस्पर मिलकर रहो। एकता तभी हो सकती है जब मनुष्यों के मन एक हों। वेदमन्त्रों में इसी मानसिक एकता पर बल दिया गया है। संगठन का यह पाठ केवल भारतीयों के लिए ही नहीं, अपितु धरती के सभी मनुष्यों के लिए है। यदि संसार के लोग इस उपदेश को अपना लें तो उपर्युक्त सभी कारण जिन्होंने मनुष्य को मनुष्य से पृथक कर रखा है, वे सब दूर हो सकते हैं, संसार स्वर्ग के सदृश्य बन सकता है। वेद से ही विश्व शान्ति संभव है। संसार का कोई अन्य तथाकथित धर्म-ग्रन्थ इसकी तुल्यता नहीं कर सकता। वेद का सन्देश संकीर्णता, संकुचितता, पक्षपात, घृणा, जातीयता, प्रान्तीयता और साम्प्रदायिकता से कितना ऊंचा है।
Vedic vichar
30-06-2022
स्वामी स्वतंत्रतानन्द जी महाराज (लोहारु कांड ) स्त्रोत :- आर्य समाज हरियाणा का इतिहास लेखक :- डॉ. रणजीत सिंह आर्य समाज के क्षितिज पर स्वामी स्वतंत्रतानन्द का उदय हुआ। सामाजिक और सार्वजनिक रुप से स्वामी जी का कार्यक्षेत्र में अवतरण आर्य समाज सिरसा जिला हिसार में हुआ। सिरसा आर्य समाज की स्थापना सन् १८९२ में हो चुकी थी। स्वामी जी सिरसा आर्य समाज के उत्सव पर दर्शक के रुप में गए थे। परंतु उन्हें वक्ता के रुप में व्याख्यान देना पड़ा। इसका परिणाम यह हुआ की सभा में बोलने का संकोच दूर हो गया। जिला करनाल में संभालका में खुलनेवाले बूचड़खाने के विरोध में जो आर्य समाजी संगठन खड़ा हुआ था उसमे भक्त फुलसिंह और चौधरी पीरुसिंह के साथ मिलकर गोरक्षा हेतु एक सफल आंदोलन चलाया था। स्वामी जी समझते थे, यदि हरियाणा एक बार जाग जाए तो आर्य समाज तो आर्य समाज सदा के लिए अमर रह सकेगा। क्योंकि हरियाणा के लोगों की मनोवृत्ति आर्य समाज के अत्यधिक अनुकूल है। हरियाणा जागृति के लिए स्वामी जी ने अनेक बार हरियाणा का भ्रमण किया। चौधरी छोटूराम जी स्वामी जी के भक्त थे, अत: हरियाणा भ्रमण में स्वामी जी को कोई कठिनाई नहीं हुई। आर्य नेता जगदेव सिंह सिद्धांति और आचार्य भगवान देव जी बारी बारी आपके साथ रहे। इस यात्रा के दौरान स्वामी जी जिला रोहतक के ग्राम भापड़ोदा में भी गये, और लोगों से कहा कि आप सेना भर्ती अपने भाइयों से कहें कि वे अपने भाइयों पर गोली न चलावें। यह बात सन् १९४२ के पास की है। अंग्रेज सरकार को जब यह पता चला कि स्वामी जी सेना में विद्रोह कराना चाहते हैं तो उन्हें पकड़ लिया। लाहौर के किले में बंद कर दिये जाने पर भी स्वामी जी का चौधरी छोटूराम से लगाव रहा। महाशय कृष्ण ने इस लगाव को एक लेख में प्रकट करते हुए कहा है कि " किला के अधिकारी ने स्वामी जी से कहा कि आपके पास बिस्तर नहीं है, बताएं किसके घर से बिस्तर मंगवाएं? इस पर स्वामी जी ने महाशय कृष्ण और दीवान बद्रीदास के नामों के साथ चौधरी छोटूराम का भी नाम लिया। पांच जनवरी १९४७ को जगदेव सिंह सिद्धांति स्वामी जी से दिल्ली में मिले और पुन: हरियाणा में स्वामी जी के भ्रमण का कार्यक्रम बनाया। यह यात्रा राष्ट्रभाषा हिंदी के प्रसार, मांस और शराब आदि व्यसनों को दूर करने के उद्देश्य से की गई। इसी यात्रा के मध्य स्वामी जी ने भाषा और लिपि की समस्या पर एक छोटी सी पुस्तक भी लिखी। इसे हरियाणा के नेताओं ने दस हजार की संख्या में छपवाकर वितरित किया। स्वामी जी संयुक्त पंजाब में हरियाणा की उपेक्षा करने की सरकारी नीति के विरोधी थे। अत: वह समझते थे कि सरकार की भाषानीति हरियाणा को और भी पिछड़ा बना देगी। देशविभाजन के उपरांत रोहतक में दयानंद मठ स्थापित करने के लिए चौधरी माडूसिंह जी और महाशय भरत सिंह आदि महानुभाव स्वामी जी के पास आए। स्वामी जी के आदेश पर १६मार्च १९४८ को स्वामी सोमानंद जी रोहतक गए और वहां लगभग २४ वर्ष कार्य किया। पूज्य स्वामी जी की डायरी से पता चलता है, उन्होने १६ जून १९४९ को दयानंद मठ रोहतक की कार्यकारिणी की एक बैठक की अध्यक्षता थी। लोहारु कांड के आप नायक ही थे। १९४१ ई० में आर्य समाज लोहारु के उत्सव पर स्वामी जी तथा उनके अन्य साथियों पर नवाब ने जानबूझकर आक्रमण करवाय् था। इस अवसर पर विशेष रुप से उन सरकारी कर्मचारियों को लोहारु स्थानांतरित कर दिया गया था, जिन्होने १९३५ ई० के लोहारु "जाट आंदोलन " में ३५ आदमियों को गोलियों का शिकार बना दिया गया। इस आक्रमण में भक्त फुल सिंह और चौधरी न्योनंद सिंह धनखड़ (स्वामी नित्यानंद) भजनोपदेशक बुरी तरह घायल हो गए थे। चौधरी शेर सिंह के पिता चौधरी शिशराम जी स्वामी जी के साथ थे। शीशराम जी ने भाग दौड़ कर गाय का गर्म दूध व हल्दी का प्रबंधन किया। और स्वामी जी को दुध हल्दी पिलाया। राज्य के अधिकारियों के कहने पर स्वामी जी जी के नेतृत्व में जुलूस चला और साथ में ही जमालूद्दीन इंस्पेक्टर के साथ २५ सिपाही भी चले। मंडी से निकलने पर जमालूद्दीन ने जलूस रोका और स्वंय शहर में जाकर थाने के सामने आर्य समाज विरोधियों को इकट्ठा किया। जलूस जब थाने के पास आया तो उसने देखा की इच्छानुसार आगे आदमियों का समूह लाठी, कुल्हाड़ी और भाले लिए खड़ा है। सिपाही बंदूकों की नाल दीवार पर रखकर जलूस की और मुख किये खड़े हैं, कार्यकर्ताओं को परिस्थितियों को देखते ही समझने में देर नहीं लगी। दिन छिप रहा था, इंस्पेक्टर ने कहा स्वामी जी आप ठहरें नमाज का समय है। स्वामी जी ने कहा ठीक है, हमारा भी संध्या का समय है। खड़े होकर सारे जलूस संध्या आरंभ कर दी। संध्या समाप्त होते ही इंस्पेक्टर ने कहा - स्वामी जी आप जलूस को ठाकुरों वाली दूसरी गली में ले जावैं जलूस जब दूसरी गली में मुड़ा तो जमालूद्दीन के इशारे पर भीड़ एकदम जलूस पर टूट पड़ी। वस्तुतः नमाज और संध्या के समय का तो इंस्पेक्टर बहाना बना रहा था। उसकी चाल थी कि अंधेरा और घनेरा हो जाए जिससे जलूस पर आक्रमण करने वाले व्यक्ति गुरिल्ला ढंग से मार भी कर जाएं और पहचाने भी न जाएं। इंस्पेक्टर अपनी नीति में सफल हुआ। आक्रमण का सबसे अधिक जोर स्वामी जी पर था। पहले तो वे प्रत्येक वार को अपने डंडे से रोकते रहे, परंतु जब उनका डंडा टूट गया तो उसके सिर और हाथों पर वार होने लगे। परिणामस्वरूप उनके शरीर पर बहुत अधिक चोटें आई। इनके अतिरिक्त भक्त फुल सिंह चौधरी शीशराम चौधरी गाहड़ सिंह, चौधरी न्योनंद सिंह, और जयप्रकाश धनुर्धर आदि को बहुत सख्त चोटें आई। लोहारु के जिन लोगों पर इस कांड के प्रसंग में अभियोग चलाया गया, उनकी पैरवी का प्रबंध सभा ने किया। २६ अप्रैल १९४१ को बख्शी रामाकृष्ण एडवोकेट हिसार, ला० सुखदेव जी हिसार और ला० सत्यभूषण जी एडवोकेट डेरागाजीखां लोहारु गए। वे वहां अभियुक्तों और रियासतों के दीवान से भी मिले। ला० सत्यभूषण ने सभा को सूचना दी कि दीवान साहेब अभियुक्तों पर से अभियोग वापिस लेने के लिए तैयार हैं और उन्होने शर्त मान ली हैं। लोहारु कांड मुकदमे के बीच में ही स्वामी कर्मानंद जी का आगमन आर्य समाज लोहारु के लिए वरदान सिद्ध हुआ। स्वामी जी ने लोहारु के आर्यो को उत्साहित किया ओर आर्य समाज लोहारु का फिर से चुनाव किया। आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद के आदर्शो की पूर्ती के लिए जहां गुरुकुल खोले, वहां आर्य पाठशालाएं स्थापित की गई। परंतु रियासत द्वारा पाठशालाएं खोलने पर पाबंदी थी लेकिन स्वामी कर्मानंद जी ने भुख हड़ताल कर दी। परिणामस्वरूप लोहारु के दीवान ने पाबंदी उठाली। इस प्रकार लोहारु रियासत में आर्य पाठशालाओं का कार्य आरंभ हो गया। समय समय पर जब भी देश धर्म पर आपत्ति आई है आर्य समाज ने उसका डटकर मुकाबला किया है।
Vedic vichar
30-06-2022
किस वेद में स्त्रियों और शूद्रों के वेदाधिकार का निषेध है? हम बड़ी नम्रतापूर्वक इन धर्माचार्यों से पूछना चाहते हैं कि ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद इन चारों संहिताओं में कहीं एक भी मन्त्र या मन्त्रांश ऐसा दिखा दीजिए जो महिलाओं और शूद्रों के वेदाध्ययन का निषेध करता हो?? महिला या पुरुष नहीं अपितु मानवमात्र को वेदाध्ययन का अधिकार है। मध्यकाल में जब बहुत प्रकार के अनार्ष मिथ्या और साम्प्रदायिक मतवाद प्रचलित होने लगे तो कर्मकाण्ड के अनार्ष ग्रन्थों में 'स्त्री शूद्रौ न वेदमधीयाताम ' और 'स्त्री शूद्रद्विजबन्धूनाम् त्रयी न श्रुतिगोचरा' जैसी उक्तियाँ और विधान प्रचलित हुये । यह भारतीय संस्कृति और वैदिक परम्परा का अन्धकारपूर्ण युग था । वेद मनुष्य मात्र के लिये है । वेद परमेश्वर की वाणी हैं । जैसे पृथ्वी, जल, वायु, सूर्य, आकाश परमेश्वर निर्मित है और मनुष्यमात्र के लिये है, उसी प्रकार वेद भी परमेश्वर की वाणी होने के कारण मनुष्यमात्र के लिये है। प्रसिद्ध वेदोद्धारक स्वामी दयानन्द सरस्वती ने यजुर्वेद के २६वें अध्याय के दूसरे मन्त्र का प्रमाण देकर कहा - “यथेमां वाचं कल्याणीमवदानि जनेभ्यः। ब्रह्मराजन्याभ्यां शूद्रायचार्याय च स्वाय चारणाय॥" अर्थात् – परमेश्वर उपदेश करते हैं कि जैसे मैं सब मनुष्यों के लिये इस कल्याणी वेदवाणी का उपदेश करता हूँ वैसे सब मनुष्य किया करें । इसमें प्रजनेभ्यः शब्द तो है ही वैश्य, शूद्र और अति शूद्र आदि की गणना भी आ गई है । यह बड़ा सुस्पष्ट प्रमाण है । वेद के विद्वानों ने स्वामी दयानन्द सरस्वती के इस अद्भुत प्रमाण का हृदय खोल कर देश और विदेश में स्वागत किया । उस अन्धकार युग में यह वेद का सूर्यवत् प्रकाश था। कलकत्ता विश्वविद्यालय के प्रसिद्ध वेद विद्वान् श्री सत्यव्रत सामश्रमी ने अपने अति सम्मानित ग्रन्थ "ऐतरेयालोचन'' में लिखा है कि स्वामी दयानन्द ने मनुष्य मात्र के वेदाधिकार में साक्षात् वेदमन्त्र का प्रमाण प्रस्तुत कर दिया है । विश्व विख्यात विचारक और समालोचक रोमा रोलाँ ने स्वामी दयानन्द को यह कहकर श्रद्धांजलि दी है कि सचमुच वह दिन भारत के लिये एक नव युग के निर्माण का दिन था जब स्वामी दयानन्द ने एक ब्राह्मण संन्यासी होकर भी सैकड़ों वर्षों से ताला में बन्द वेदों को मनुष्य मात्र के पढ़ने के अधिकार का प्रतिपादन किया। स्वामी दयानन्द जी ने तो आर्य समाज के नियमों में एक नियम ही बना दिया कि वेद का पढ़ना पढ़ाना परम धर्म है। आज के दिन दर्जनों कन्या गुरुकुलों में हजारों छात्रायें वेद पढ़ रही हैं और सैकड़ों वेद विद्या की गम्भीर विदुषियाँ, आचार्याएँ वेद पढ़ा रही हैं। प्राचीन काल में वेद विदुषी महिलाएँ - ऋषि मन्त्रद्रष्टा होते हैं, ऋषिकायें भी मन्त्रद्रष्टा होती हैं । लोपामुद्रा, गार्गी, मैत्रेयी इत्यादि कई इतिहास प्रसिद्ध ऋषिकायें हैं।सोलह ऋषिकाएँ ऋग्वेद में हैं। संस्कारों में स्त्रियाँ मन्त्र पाठ करती थीं “इमं मन्त्रं पत्नी पठेत्” ऐसा कर्मकाण्ड के ग्रन्थों में निर्देश है अतः स्त्री का मन्त्रपाठ स्वतः सिद्ध है। कन्याओं का उपनयन - कन्याओं का भी उपनयन होता था और आज भी बहुत सारे वैदिक परिवारों में कन्याओं का उपनयन होता है और स्त्रियाँ यज्ञोपवीत पहनती हैं । सन्ध्या, अग्निहोत्र करती हैं वेदपाठ भी करती हैं । निर्णय सिन्धु तृतीय परिच्छेद में लिखा है - "पुराकल्पेतु नारीणा नौञ्जीबन्धनमिष्यते। अध्ययनंच वेदानां भिक्षाचर्यं तथैव च॥" इसमें यज्ञोपवीत और वेदों का अध्ययन दोनों का विधान है। हारीत संहिता में दो प्रकार की स्त्रियों का उल्लेख हैं - (१) ब्रह्मवादिनी (२) सद्योवधू । ब्रह्मवादिनी - तत्र ब्रह्मवादिनीनाम् उपनयनं अग्निबधनं वेदाध्ययनं स्वगृहे भिक्षा इति। पराशर संहिता के अनुसार ब्रह्मवादिनी स्त्रियों का उपनयन होता है, वे अग्नि होत्र करती हैं, वेदाध्ययन करती हैं और अपने परिवार में भिक्षावृत्ति करती हैं। सद्योबधू- ‘सद्योबधूनां तू उपस्थिते विवाहे कथंचित् उपनयनं कृत्वा विवाहः कार्यः।' - सद्योवधू वे स्त्रियाँ हैं जिनका विवाह के समय उपनयन करके विवाह कर दिया जाता है। जैसा आजकल पुरुषों के विवाह में कई जगह होता है। वेद में उपनीता स्त्री - ऋग्वेद के मण्डल १० सूक्त १०९ मन्त्र ४ में लिखा है - “भीमा जाया ब्राह्मणस्योपनीता” यहाँ उपनीता जाया बहुत सुस्पष्ट है। आचार्या और उपाध्याया वे स्त्रियाँ है, जो स्वयं पढ़ाती हैं नहीं तो आचार्य की स्त्री आचार्यानी और उपाध्याय की स्त्री उपाध्यायानी कहलाती हैं। शंकर दिग्विजय में मण्डन मिश्र की पत्नी भारती देवी के विषय में लिखा है - 'शास्त्रणि सर्वाणि षडवेदान् काव्यादिकान्वेत्ति यदत्र सर्वम्।' इसमें भारती देवी के षडङ्गवेदाध्ययन की बात सुस्पष्ट है। माता कौशल्या का अग्निहोत्र- अग्निहोत्र में वेदमन्त्र बोले जाते हैं और कौशल्या अग्निहोत्र करती थी बाल्मीकि रामायण में अयोध्या काण्ड अः २०-१५ श्लोक में द्रष्टव्य है - साक्षौमवसना हृष्टा नित्यं व्रतपरायणा। अग्नि जहोतिस्म तदा मन्त्रवत्कृतमज्जला।। कौशल्या रेशमी वस्त्र पहने हुए व्रत पारायण होकर प्रसन्न मुद्रा में मन्त्र पूर्वक अग्निहोत्र कर रही थी। इसी प्रकार अयोध्या काण्ड आ० २५ श्लोक ४६ में कौशल्या के यथाविधि स्वतिवाचन का भी वर्णन है। माता सीता की सन्ध्या - लंका में महाबली हनुमान माता सीता को खोजते हुए अशोक वाटिका में गये किन्तु उन्हें माता सीता न मिली । हनुमान ने वहाँ एक पवित्र जल वाली नदी को देखा । हनुमान जी को निश्चय था कि यदि माता सीता यहाँ होगी तो सन्ध्या का समय आ गया है और व यहाँ सन्ध्या करने के लिये अवश्य आयेंगी। सुन्दरकाण्ड अ० १४, श्लोक ४९ में लिखा है - सन्ध्याकालमनाः श्यामा ध्रुवमेष्यति जानकी। नदींचेमांशुभजला सध्यार्थ वरवर्णिनी॥ अर्थात् वर वर्णिनी सीता इस शुभ जल वाली नदी पर सन्ध्या करने के निमित्ति अवश्य आयेंगी। इस छोटे से प्रयास में हमने साक्षात् वेद वचन उद्धृत करके यह प्रमाण दे दिया है कि वेद मनुष्य मात्र के लिये हैं और 'धर्मजिज्ञासमानानां प्रमाणं परमं श्रुतिः' धर्म के लिये वेद परम प्रमाण हैं । किसी वेद संहिता में या वैदिक ऋषि कृत ग्रन्थ में स्त्रियों के वेद पढ़ने का निषेध नहीं है । वेदों की लोपामुद्रा, गार्गी, भारती आदि स्त्रियाँ विदुषी थीं और वेद पढ़ी थीं। आज भी वेद पढ़ती हैं । - प्रो० उमाकान्त उपाध्याय
Vedic vichar
30-06-2022
*वेद, उपनिषद्, ब्राह्मण ग्रंथ, महाभारत गीता, योगदर्शन, मनुस्मृति में एक "ओंकार का ही स्मरण और जप" करने का उपदेश दिया गया है।* वेदाध्ययन में मन्त्रों के आदि तथा अन्त में ओ३म् शब्द का प्रयोग किया जाता है। यजुर्वेद में कहा है- *ओ३म् क्रतो स्मर ।।-(यजु० ४०/१५)* "हे कर्मशील ! 'ओ३म् का स्मरण कर।" यजुर्वेद के दूसरे ही अध्याय में यह आज्ञा है- *ओ३म् प्रतिष्ठ ।।-(यजु० २/१३)* " 'ओ३म्' में विश्वास-आस्था रख !" *ओ३म् खं ब्रह्म*-(यजु० ४०/१७) अर्थात् "मैं आकाश की तरह सर्वत्र व्यापक और महान् हूं मेरा नाम ओम् है।" आत्मा में विराजमान इस परमात्मा को धीर पुरुष परा विद्या से साक्षात्कार किया करते हैं;क्योंकि यह ओ३म् इन्द्रियातीत है। वह नित्य,विभु,सर्वव्यापक,सूक्ष्म,अव्य तथा सब प्राणियों का कारण है। वह गोत्र,वंश,आंख,कान,हाथ,पांव से रहित है। वह संसार की बीज शक्ति है।वह अशरीर है।वह नाड़ी आदि बन्धनों से जकड़ा नहीं है।वह मलरहित है। पाप उसको बांध नहीं सकते।कोई स्थान उससे रिक्त नहीं। उसका कोई उत्पादक नहीं है। वह सवयं अपना स्वामी है।उसने अपनी सनातन प्रजाओं के लिए पदार्थों का ठीक ठीक रीति से विधान बनाया है। यजु: ४०/८ इन सभी मन्त्रों में ओ३म् नाम के स्मरण करने की ही स्पष्ट आज्ञा है। *** *प्रश्नोपनिषद् में*:-पिप्पलाद ऋषि सत्यकाम को कहते हैं- हे सत्यकाम ! ओंकार जो सचमुच पर और अपर ब्रह्म है (अर्थात्) उसकी प्राप्ति का साधन है जो उपासक उस सर्वव्यापक परमेश्वर का ओ३म् शब्द द्वारा ध्यान करता है,वह ब्रह्म को प्राप्त होता है।जो कृपासिन्धु,परमात्मा,अजर अमर अविनाशी सर्वश्रेष्ठ है,उस सर्वज्ञ अन्तर्यामी परमात्मा को सर्वसाधारण ओंकार के द्वारा प्राप्त होते हैं। *कठोपनिषद -* सभी वेद जिस परमपद का बारंबार प्रतिपादन करते हैं सभी तप जिस पद का लक्ष्य करते हैं , जिसकी इच्छा से ब्रह्मचर्य का पालन होता है - उस परमपद को संक्षेप में "ओ३म्" कहा जा रहा है । अर्थात् यह अक्षर ही ब्रह्म तथा परब्रह्म है । (क्षर अर्थात् नाशवान तथा अक्षर या शाश्वत सनातन ) ओंकार ही परब्रह्म प्राप्ति का श्रेष्ठ आलंबन है। इसके अवलंबन से महान ब्रह्म लोक की प्राप्ति होती है । *माण्डूक्योपनिषद्*:-ओंकार धनुष है,आत्मा तीर है और ब्रह्म उसका लक्ष्य कहलाता है।इसको अप्रमत्त(पूरा सावधान) पुरुष ही बींध सकता है,जब वह तीर के समान तन्मय हो जाता है। *श्वेताश्वतर उपनिषद्*:- अपने देह को अरनी(नीचे की लकड़ी) बनाकर ओ३म् को ऊपर की अरनी बनाओ और ध्यान रुपी रगड़ के अभ्यास से अपने इष्टदेव परमात्मा के दर्शन कर लो।जैसे छिपी हुई अग्नि के रगड़ से दर्शन होते हैं वैसे ही "ओ३म्" द्वारा इस देह में आत्मा का दर्शन किया जा सकता है। *छान्दोग्योपनिषद्*:-छान्दोग्योपनिषद् का भी जो सामवेद के महाब्राह्मण का एक भाग है,यही कथन है कि- "वह साधक जब उसे ब्रह्मलोक को जाना होता है,जिसे उसने उपासना द्वारा जाना है, ओ३म् पर ध्यान जमाता हुआ वहां जाता है" अतः प्रत्येक व्यक्ति को उचित है कि उस अविनाशी स्तुत्य "ओ३म्" नामक ब्रह्म की उपासना करे। *तैत्तिरीयोपनिषद्*:-ओ३म् ब्रह्म का नाम है। ओ३म् ही सार वस्तु है।यज्ञ में इसी को सुनते सुनाते हैं। सामवेदी ओ३म् को ही पाते हैं। ऋग्वेदी भी इसी ओ३म् की ही स्तुति करते हैं। यजुर्वेदी अध्वर्यु भी अपने प्रत्येक वचन में ओंकार का ही बखान करते हैं।ब्रह्मा नामक ऋत्विक् ओंकार द्वारा ही आज्ञा देता है।अग्निहोत्र के लिए ओंकार के द्वारा ही आज्ञा दी जाती है।ब्रह्मवादी ओ३म् के द्वारा ही ब्रह्म को प्राप्त होते हैं। *** *महर्षि पतञ्जलि योगदर्शन-* 1/27 में कहते हैं - तस्य वाचकःप्रणवः । ध्यान दीजिए, तस्य नाम प्रणवः नहीं कह रहे हैं । "ओ३म्" को ही प्रणव कहा गया है ।इसके विधि पूर्वक जप से सभी अभीष्ट सिद्धिया प्राप्त होती हैं तथा चारों पुरुषार्थ संपन्न किया जाता है । *योगी याज्ञवल्क्य*:- जो ब्रह्म दिखाई नहीं देता और जो मन के द्वारा अनुभव नहीं होता,जिसका अस्तित्व सिद्ध है,केवल मनन द्वारा ही पहचाना जाता है।उसी का ओंकार नाम है।उसी के नाम पर आहुति देने से वह प्रसन्न होता है। *** *महाभारत में -* महर्षि वेदव्यास कहते हैं कि जिज्ञासु वेद पढ़ते हुए और ओ३म् का जप करते हुए योग में मग्न और योग समाधि में भी ओ३म् का ध्यान करें। इस जप और योग के द्वारा ही परमात्मा का ज्ञान होता है। *** *गीता*:- हे अर्जुन ! जो मनुष्य इस एकाक्षर ब्रह्म 'ओ३म्' को कहते हुए और उसके द्वारा अन्त समय ब्रह्म को याद करते हुए इस शरीर को त्याग देते हैं,वह परमगति को प्राप्त होते हैं। -(८/१३) यह ओंकार जानने के योग्य और परम पवित्र है इसी प्रकार इस ब्रह्मज्ञान के लिए ऋग्वेद,यजुर्वेद और सामवेद जानने के योग्य हैं।-(९/१७) ओ३म् तत् सत् इन तीनों पदों से ब्रह्म का निरुपण होता है,अतः ब्रह्मवादियों के यज्ञ,दान,तप आदि समस्त शुभ कर्मों का आरम्भ ओ३म् से होता है।-(१७/२३/२४) *** *यजुर्वेद का शतपथ ब्राह्मण*:- सर्वव्यापक सर्वज्ञ सर्वान्तर्यामी सर्वरक्षक 'ओ३म्' ब्रह्म सबसे महान् है।यह सबसे बड़ा है।सबसे प्राचीन तथा सनातन है.वही सबका प्राणदाता है।ओंकार शब्द ही वेदस्वरुप है।इसी ओ३म् के द्वारा समस्त ज्ञेय (जानने योग्य) पदार्थ जाने जा सकते हैं। *सामवेद का ताण्डय् महाब्राह्मण*:-जो कोई यथार्थ रुप से ओंकार को नहीं जानता वह वेद के आश्रित नहीं रहता अर्थात् धर्म के अधीन न रहकर संसार में अधर्म तथा उपद्रव फैलाने वाला हो जाता है,परन्तु जो ओंकार को इस प्रकार से जानता है वह वेद के आश्रित रहकर संसार का उपकार करता है। इसी ब्राह्मण में अलंकार रुप से ओ३म् की महिमा का वर्णन करते हुए यह दर्शाया है कि किस प्रकार ओ३म् के आश्रय में आने और उसके द्वारा ब्रह्म को जानने से दैनिक देवासुर संग्राम में मनुष्य को विजय तथा सफलता प्राप्त होती है। *अथर्ववेद का गोपथ ब्राह्मण* :- गोपथ ब्राह्मण में ओ३म् की महिमा विशेष ध्यान देने योग्य है। यथा श्लोक (गो० 1/22) जिसके अर्थ इस प्रकार हैं- जो ब्रह्मोपासक इस अक्षर 'ओम्' की जिस किसी कामना पूर्ति की इच्छा से तीन रात्रि उपवास रखकर तेज-प्रधान पूर्व दिशा की ओर मुख करके, कुशासन पर बैठकर सहस्र बार जाप करता है उसके सब मनोरथ (शुभ कामनाएं) सिद्ध होते हैं। इस कथन में जप करने के विधान का उपदेश भी किया गया है। आजकल प्रायः सभी जिज्ञासु जप करने की विधि जानना चाहते हैं,उनके लिए यह सुगम विधि है। *** *मनुस्मृति (अध्याय १२, श्लोक- १२२,१२३)-* जो सबको शिक्षा देने हारा, सूक्ष्म से सूक्ष्म, स्वप्रकाशस्वरूप, समाधिस्थ, वृध्दि से जानने योग्य है, उसको परम पुरूष अर्थात परमात्मा जानना चाहिए। और स्वप्रकाश होने से "अग्नि" , विज्ञानस्वरूप होने से "मनु", और सबका पालन करने से "प्रजापति", और परमैश्वर्यवान होने से "इंद्र", सबका जीवनमूल होने से "प्राण" और निरंतर व्यापक होने से परमेश्वर का नाम "ब्रह्मा" है। *** *अन्य मत मतान्तरों में ओ३म्* अन्य मत मतान्तरों में भी ओ३म् की महिमा और ओ३म् का परिवर्तित नाम विद्यमान हैं।मुसलमानो़ में आमीन, यहूदियों का एमन, सिक्खों का एक ओंकार, अंग्रेजों का Omnipresent,Omnipotent,Omniscient । *सम्पूर्ण विश्व में ही नहीं,सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में ओ३म् शब्द की महिमा है।विपत्ति में,मृत्यु में,ध्यान के अन्तिम क्षणों में बस ओ३म् ही शेष रह जाता है,शेष सब मन्त्र, ज्ञान-विज्ञान धूमिल हो जाता है।पौराणिकों की मूर्तियों व मन्दिरों के ऊपर ओ३म्, आरती में ओ३म्, नवजात शिशु के मुख में ओ३म्, सब स्थानों में ओ३म् ही ओ३म् है।*
महर्षि दयानन्द और युगान्तर. (Vedic vichar)
30-06-2022
श्री सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' (हिन्दी के महाकवि) [कवि स्वभाव से ही बागी होता है। काव्य-कला के नियम भी उस पर बन्दिश न लगा पाते हैं। बगावत अगर सत्य की स्वीकृति हो तो कविता का ही दूसरा नाम बन जाती है। भला बगावत के बगैर कविता का चरित्र ही क्या है? कवि के भावों की सजावट कविता है और चरित्र की बगावत कवि-ता। इस लेख में कवि-ता ऋषि को प्रणाम करने आयी है और कविता पुष्प बरसाने। और यह अधिकार मिला है महाकवि निराला को, कि वे अपनी कलम तोड़ दें और दवात फोड़ दें। निस्सन्देह यह अवसर 'निराला' ने हाथ से जाने न दिया। परोपकारी ऋषि के जन्मोत्सव के उपलक्ष्य में यह लेख पाठकों की सेवा में प्रस्तुत करता है। जिसमें एक ओर ऋषि के चरित्र का दर्शन करेंगे तो दूसरी ओर साहित्य का आनन्द भी ले सकेंगे। -डॉ० सुरेन्द्रकुमार] उन्नीसवीं सदी का परार्द्ध भारत के इतिहास का अपर स्वर्ण प्रभात है। कई पावन-चरित्र महापुरुष अलग-अलग उत्तरदायित्व लेकर, इस समय, इस पुण्य भूमि में अवतीर्ण होते हैं। महर्षि दयानन्द सरस्वती भी इन्हीं में एक महाप्रतिभामंडित महापुरुष हैं। हम देखते हैं, हमें इतिहास भी बतलाता है, समय की एक आवश्यकता होती है। उसी के अनुसार धर्म अपना स्वरूप ग्रहण करता है। हम अच्छी तरह जानते हैं, ज्ञान सदा एकरस है, वह काल के बन्धन से बाहर है और चूंकि वेदों में मनुष्य जाति की प्रथम तथा चिरन्तन ज्ञान-ज्योति स्थित है, इसलिए उसके परिवर्तन की आवश्यकता सिद्ध नहीं होती, बल्कि परिवर्तन भ्रमजन्य भी कहा जा सकता है। पर साथ-साथ, इसी प्रकार यह भी कहा जा सकता है कि उच्चतम ज्ञान किसी भी भाषा में हो, वह अपौरुषेय वेद ही है। परिवर्तन उसके व्यवहार-कौशल, कर्म-काण्ड आदि में होता है, हुआ भी है। इसे ही हम समय की आवश्यकता कहते हैं। भाषा जिस प्रकार अर्थ-साम्य रखने पर भी स्वरूपत: बदलती गई है, अथवा भिन्न देशों में, भिन्न परिस्थितियों के कारण अपर देशों की भाषा से बिल्कुल भिन्न प्रतीत होती है। इसी प्रकार धर्म भी समयानुसार जुदा-जुदा रूप ग्रहण करता गया है। भारत के लिए वह विशेष रूप से कहा जा सकता है। बुद्ध, शंकर, रामानुज आदि के धर्म-प्रवर्त्तन सामयिक प्रभाव को ही पुष्ट करते हैं। पुराण इसी विशेषता के सूचक हैं। पौराणिक विशेषता और मूर्तिपूजन आदि से मालूम होता है, देश के लोगों की रुचि अरूप से रूप की ओर ज्यादा झुकी थी। इसीलिए वैदिक अखण्ड ज्ञान राशि को छोड़कर ऐश्वर्ययुगपूर्ण एक-एक प्रतीक लोगों ने ग्रहण किया। इस तरह देश की तरक्की नहीं हुई, यह बात नहीं। पर इस तरह देश ज्ञानभूमि से गिर गया, यह बात भी है। जो भोजन शरीर को पुष्ट करता है, वही रोग का भी कारण होता है। मूर्तिपूजन से इसी प्रकार दोषों का प्रवेश हुआ। ज्ञान जाता रहा। मस्तिष्क से दुर्बल हुई जाति औद्धत्य के कारण छोटी-छोटी स्वतन्त्र सत्ताओं में छँटकर एक दिन शताब्दियों के लिए पराधीन हो गई। उसका वह मूर्तिपूजन-संस्कार बढ़ता गया, धीरे-धीरे वह ज्ञान से बिल्कुल ही रहित हो गई। शासन बदला, अंग्रेज आए। संसार की सभ्यता एक नये प्रवाह से बही। बड़े-बडे पण्डित विश्व-साहित्य, विश्व-ज्ञान, विश्व-मैत्री की आवाज उठाने लगे, पर भारत उसी प्रकार पौराणिक रूप के माया-जाल में भूला रहा। इस समय ज्ञान-स्पर्धा के लिए समय की फिर आवश्यकता हुई और महर्षि दयानन्द का यही अपराजित प्रकाश है। वह अपार वैदिक ज्ञान राशि के आधार-स्तम्भ-स्वरूप अकेले बड़े-बड़े पण्डितों का सामना करते हैं। एक ही आधार से इतनी बड़ी शक्ति का स्फुरण होता है कि आज भारत के युगान्तर साहित्य में इसी की सत्ता प्रथम है, यही जनसंख्या में बढ़ी हुई है। चरित्र, स्वास्थ्य, त्याग, ज्ञान और शिष्टता आदि में जो आदर्श महर्षि दयानन्दजी महाराज में प्राप्त होते हैं, उनका लेशमात्र भी अभारतीय पश्चिमी शिक्षा-संभूत नहीं, पुनः ऐसे आर्य में ज्ञान तथा कर्म का कितना प्रसार रह सकता है, वह स्वयं इसके उदाहरण हैं। मतलब यह है कि जो लोग कहते हैं कि वैदिक अथवा प्राचीन शिक्षा द्वारा मनुष्य उतना उन्नतमना नहीं हो सकता, जितना अंग्रेजी शिक्षा द्वारा होता है, महर्षि दयानन्द सरस्वती इसके प्रत्यक्ष खण्डन हैं। महर्षि दयानन्दजी से बढ़कर भी मनुष्य होता है, इसका प्रमाण प्राप्त नहीं हो सकता। यही वैदिक ज्ञान की मनुष्य के उत्कर्ष में प्रत्यक्ष उपलब्धि होती है, यही आदर्श आर्य हमें देखने को मिलता है। यहाँ से भारत के धार्मिक इतिहास का एक नया अध्याय शुरू होता है, यद्यपि वह बहुत प्राचीन है। हमें अपने सुधार के लिए क्या-क्या करना चाहिए, हमारे सामाजिक उन्नयन में कहाँ-कहाँ और क्या-क्या रुकावटें, हमें मुक्ति के लिए कौन-सा मार्ग ग्रहण करना चाहिए, महर्षि दयानन्द सरस्वती ने बहुत अच्छी तरह समझाया है। आर्यसमाज की प्रतिष्ठा भारतीयों में एक नये जीवन की प्रतिष्ठा है, उसकी प्रगति एक दिव्य शक्ति की स्फूर्ति है। देश में महिलाओं, पतितों तथा जाति-पाँति के भेद-भाव मिटाने के लिए महर्षि दयानन्द तथा आर्यसमाज से बढ़कर इस नवीन विचारों के युग में किसी भी समाज ने कार्य नहीं किया। आज जो जागरण भारत में दीख पड़ता है उसका प्रायः सम्पूर्ण श्रेय आर्यसमाज को है। स्वधर्म में दीक्षित करने का यहां इसी समाज से श्रीगणेश हुआ है। भिन्न जातिवाले बन्धुओं को उठाने तथा ब्राह्मण-क्षत्रियों के प्रहारों से बचाने का उद्यम आर्यसमाज ही करता रहा है। शहर-शहर, जिले-जिले, कस्बे-कस्बे में इसी उदारता के कारण, आर्यसमाज की स्थापना हो गई। राष्ट्रभाषा हिन्दी के भी स्वामीजी एक प्रवर्तक हैं और आर्यसमाज के प्रचार की तो यह भाषा ही रही है। शिक्षण के लिये 'गुरुकुल' जैसी संस्थाएं निर्मित की गईं। एक नया ही जीवन देश में लहराने लगा। स्वामीजी के प्रचार के कुछ पहले ब्रह्मसमाज की कलकत्ता में स्थापना हुई थी। राजा राममोहन राय द्वारा प्रवर्तित ब्राह्म- धर्म की प्रतिष्ठा, वैदान्तिक बुनियाद पर, महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर कर चुके थे। वहाँ इसकी आवश्यकता इसलिये हुई थी कि अंग्रेजी सभ्यता की दीप- ज्योति की ओर शिक्षित नवयुवकों का समूह पतंगों की तरह बढ़ रहा था, पुन: शिक्षा तथा उत्कर्ष के लिये विदेश की यात्रा अनिवार्य थी, इसलिए लौटने पर वे शिक्षित युवक यहाँ ब्राह्मणों द्वारा धर्म-भ्रष्ट कहकर समाज से निकाल दिये जाते थे, इसलिए वे ईसाई हो जाते थे, उन्हें देश के ही धर्म में रखने की जरूरत थी। इसी भावना पर ब्राह्मधर्म की प्रतिष्ठा तथा प्रसार हुआ। विलायत में प्रसिद्धि प्राप्त कर लौटने वाले प्रथम भारतीय वक्ता श्रीयुत केशवचन्द्र सेन भी ब्राह्मधर्म के प्रवर्तकों में एक हैं। इन्हीं से मिलने के लिए स्वामीजी कलकत्ता गये थे। यह जितने अच्छे विद्वान् अंग्रेजी के थे, इतने अच्छे संस्कृत के न थे। इनसे बातचीत में स्वामीजी सहमत नहीं हो सके। कलकत्ता में आज ब्राह्मसमाज मन्दिर के सामने कार्नवालिस स्ट्रीट पर विशाल आर्यसमाज मन्दिर भी स्थित है। किसी दूसरे प्रतिभाशाली पुरुष से और जो कुछ उपकार देश तथा जाति का हुआ हो, सबसे पहले वेदों को स्वामी दयानन्द जी सरस्वती ने ही हमारे सामने रक्खा। हम आर्य हों, हिन्दू हों, ब्राह्मसमाज वाले हों, यदि हमें ऋषियों की सन्तान होने का सौभाग्य प्राप्त है और इसके लिए हम गर्व करते हैं, तो कहना होगा कि ऋषि दयानन्द से बढ़कर हमारा उपकार इधर किसी भी दूसरे महापुरुष ने नहीं किया, जिन्होंने स्वयं कुछ भी न लेकर हमें अपार ज्ञान-राशि वेदों से परिचित कर दिया। देश में विभिन्न मतों का प्रचलन उसके पतन का कारण है, स्वामी दयानन्दजी की यह निर्भ्रान्त धारणा थी। उन्होंने इन मत-मतान्तरों पर सप्रमाण प्रबल आक्षेप भी किये हैं। उनकी इच्छा थी कि इस मतवाद के अज्ञान-पंक से देश को निकालकर वैदिक शुद्ध शिक्षा द्वारा निष्कलंक कर दें। वाममार्ग वाले तान्त्रिकों की मन्द वृत्तियों का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा है कि मद्य, मांस, मीन, मुद्रा, मैथुन आदि वेद-विरुद्ध महाअधर्म कार्यों को वाममार्गियों ने श्रेष्ठ माना है। जो वाममार्गी कलार के घर बोतल पर बोतल शराब चढ़ावें और रात्रि को वारांगना से दुष्कर्म करके उसी के घर सोवें, वह वाममार्गियों में श्रेष्ठ चक्रवर्ती राजा के समान है। स्त्रियों के प्रति विशद कोई भी विचार उनमें नहीं। स्वामीजी देशवासियों को विशुद्ध वैदिक धर्म में दीक्षित हो आत्मज्ञान ही-सा उज्जवल और पवित्र कर देना चाहते थे। स्वामी विवेकानन्द ने भी वामाचार-भक्त देश के लिये विशुद्ध भाव वाले वैदान्तिक धर्म का उपदेश दिया है। आपने गुरु परम्परा को भी आड़े हाथों लिया है। योगसूत्र के 'स पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात्' के अनुसार, आप केवल ब्रह्म को ही गुरु स्वीकार करते हैं। रामानुज जैसे धर्माचार्य का भी मत आपको मान्य नहीं, और बहुत कुछ युक्तिपूर्ण भी जान पड़ता है। आपका कहना है कि लक्ष्मीयुक्त नारायण की शरण जाने का मन्त्र धनाढ्य और माननीयों के लिए बनाया गया- यह भी एक दुकान ठहरी। मूर्ति-पूजन के लिए आपका कथन है कि जैनियों की मूर्खता से इसका प्रचलन हुआ। तांत्रिक तथा वैष्णवों ने भिन्न मूर्तियों तथा पूजनोपचारों से अपनी एक विशेषता प्रतिष्ठित की है। जैनी वाद्य नहीं बजाते थे, ये लोग शंख, घण्टा, घड़ियाल आदि बजाने लगे। अवतार आदि पर भी स्वामीजी विश्वास नहीं करते। 'न तस्य प्रतिमा अस्ति' आदि-आदि प्रमाणों से ब्रह्म का विग्रह नहीं सिद्ध होता, उनका कहना है। ब्राह्मणों की ठग-विद्या के सम्बन्ध में भी स्वामीजी ने लिखा है- आज ब्राह्मणों की हठपूर्ण मूर्खता से अपरापर जातियों को क्षति पहुँच रही है। पहले पढ़े-लिखे होने के कारण ब्राह्मणों ने श्लोकों की रचना कर-करके अपने लिये बहुत काफी गुंजाइश कर ली थी। उसी के परिणामस्वरूप वे आज तक पुजाते चले जा रहे हैं। स्वामीजी एक मन्त्र का उल्लेख करते हैं- दैवाधीनं जगत्सर्वं मन्त्राधीनाश्च देवताः। ते मन्त्रा ब्राह्मणाधीनास्तस्माद् ब्राह्मणदैवतम्।। अर्थात् सारा संसार देवताओं के अधीन है, देवता मन्त्रों के अधीन हैं, वे मन्त्र ब्राह्मणों के अधीन हैं, इसलिये ब्राह्मण ही देवता है। लोगों से पुजाने का यह पाखण्ड बड़ी ही नीच मनोवृत्ति का परिचय है। स्वामीजी ने शैव, शाक्त और वैष्णव आदि मतों की खबर तो ली ही है, हिन्दी-साहित्य के महाकवि कबीर तथा दादू आदि को भी बहुत बुरी तरह फटकारा है। आपका कहना है- पाषाणादि को छोड़ पलंग, गद्दी, तकिये, खड़ाऊं, ज्योति अर्थात् दीप आदि का पूजना पाषाण-मूर्ति से न्यून नहीं। क्या कबीर साहब भुनगा था, वा कली था, जो फूल हो गया? जुलाहे का काम करता था, किसी पण्डित के पास पढ़ने के लिए गया, उसने उसका अपमान किया। कहा, हम जुलाहे को नहीं पढ़ाते। इसी प्रकार कई पण्डितों के पास फिरा, परन्तु किसी ने न पढ़ाया, तब ऊट-पटाँग भाषा बनाकर जुलाहे आदि लोगों को समझाने लगा। तंबूरे लेकर गाता था, भजन बनाता था, विशेष पण्डित, शास्त्र, वेदों की निन्दा किया करता था। कुछ मूर्ख लोग उसके जाल में फँस गये। जब मर गये, तब सिद्ध बना लिया। जो-जो उसने जीते-जी बनाया था, उसको उसके चेले पढ़ते रहे। कान को मूँदकर जो शब्द सुना जाता है, उसको अनहद शब्द सिद्धान्त ठहराया। मन की वृत्ति को सूरति कहते हैं उसको उस शब्द के सुनने में लगाया, उसी को संत और परमेश्वर का ध्यान बतलाते है, वहाँ काल नहीं पहुँचता। बर्छी के समान तिलक और चंदनादि लकड़ी की कंठी बाँधते है। भला विचार के देखो, इसमें आत्मा की उन्नति और ज्ञान क्या बढ़ सकता है? इसी प्रकार नानकजी के सम्बन्ध में भी आपने कहा है कि उन्हें संस्कृत का ज्ञान न था, उन्होंने वेद पढ़ने वालों को तो मौत के मुँह में डाल दिया है और अपना नाम लेकर कहा है कि नानक अमर हो गये- वह आप परमेश्वर है। जो वेदों की कहानी कहता है, उसकी कुल बाते कहानियाँ हैं। मूर्ख, साधु वेदों की महिमा नहीं जान सकते। यदि नानकजी वेदों का मान करते, तो उनका अपना सम्प्रदाय न चलता, न वह गुरु बन सकते थे, क्योंकि संस्कृत नहीं पढ़ी थी, फिर दूसरों को पढ़ाकर शिष्य कैसे बनाते, आदि-आदि। दादू पंथ को भी आप इसी प्रकार फटकारते हैं। शिक्षा, मार्जन तथा अपौरुषेय ज्ञान-राशि वेदों का आपका पक्ष है। मत-मतान्तरों के स्वल्प जल में यह आत्मतर्पण नहीं करते। वहाँ उन्हें महत्ता नहीं दीख पड़ती। पुन: भाषा में अधूरी कविता करके ज्ञान का परिचय देने वाले अल्पाधार साधुओं से पण्डित श्रेष्ठ स्वामीजी तृप्त भी कैसे हो सकते थे? इन अशिक्षित या अल्पशिक्षित साधुओं ने जिस प्रकार वेदों की निन्दा कर-कर मूढ़ जनों में वेदों के प्रतिकूल विश्वास पैदा कर दिया था, उसी प्रकार नव्य युग के तपस्वी महर्षि ने भी उन सबको धता बताया और विज्ञों को ज्ञानमय कोष वेदों की शिक्षा के लिए आमन्त्रित किया। स्वामीनारायण के मत के विषय पर आप कहते हैं- 'यादृशी शीतलादेवी तादृशो वाहन: खरः श्री गुसाईं जी की धन-हरणादि में विचित्र लीला है वैसी ही स्वामीनारायण की भी है।' माध्व मत के संबन्ध में आपका कथन है- जैसे अन्य मतावलम्बी हैं वैसा ही माध्व भी है, क्योंकि ये भी चक्रांकित होते हैं, इनमें चक्रांकितों से इतना विशेष है कि रामानुजीय एक बार चक्रांकित होते हैं, और ये वर्ष-वर्ष फिर-फिर चक्रांकित होते जाते है, वे चक्रांकित कपास में पीली रेखा और माध्व काली रेखा लगाते हैं। एक माधव पण्डित से किसी एक महात्मा का शास्त्रार्थ हुआ था। (महात्मा) तुमने यह काली रेखा और चांदला (तिलक) क्यों लगाया? (शास्त्री) इसके लगाने से हम बैकुण्ठ को जायेंगे और श्रीकृष्ण का भी शरीर श्याम रंग था, इसलिए हम काला तिलक करते हैं। (महात्मा) जो काली रेखा और चांदला लगाने से बैकुण्ठ में जाते हो तो सब मुख काला कर लेओ तो कहाँ जाओगे? स्वामीजी के व्यंग्य बड़े उपदेशपूर्ण हैं। आर्य-संस्कृति के लिए आपने नि:सहाय होकर भी दिग्विजय किया और उसकी समुचित प्रतिष्ठा की। स्वामीजी का सबसे बड़ा महत्त्व यह है कि उन्होंने अपनी प्रतिष्ठा की ओर नहीं देखा, वेदों की प्रतिष्ठा की है। ब्राह्म-समाज और प्रार्थनासमाज के संबन्ध में आपका कहना है- 'ब्राह्म-समाज' और 'प्रार्थना समाज' के नियम सर्वांश में अच्छे नहीं, क्योंकि वेदविद्याहीन लोगों की कल्पना सर्वथा सत्य क्योंकर हो सकती है? जो कुछ ब्रह्म समाज, और प्रार्थना समाजियों ने ईसाई मत में मिलने से थोड़े मनुष्यों को बचाया और कुछ-कुछ पाषाण आदि मूर्तिपूजा से हटाया, अन्य जाल ग्रन्थों के फन्दे से भी कुछ बचाया इत्यादि अच्छी बात है, परन्तु इन लोगों में स्वदेश-भक्ति बहुत न्यून है, ईसाइयों के आचरण बहुत से लिए हैं। खान-पान-विवाहादि के नियम भी बदल गये हैं। अपने देश की प्रशंसा व पूर्वजों की बड़ाई करनी तो दूर रही उसके स्थान में पेट-भर निन्दा करते हैं, व्याख्यानों में ईसाई आदि अंग्रेजों की प्रशंसा भरपेट करते हैं। ब्रह्मादि महर्षियों का नाम भी नहीं लेते प्रत्युत ऐसा कहते हैं कि बिना अंग्रेजों के सृष्टि में आज पर्यन्त कोई भी विद्वान् नहीं हुआ, आर्यवर्ती लोग सदा से मूर्ख चले आये हैं, उनकी उन्नति कभी नहीं हुई। वेदादिकों की प्रतिष्ठा तो दूर रही, परन्तु निन्दा करने से भी पृथक् नहीं रहते, ब्रह्मसमाज के उद्देश्य की पुस्तक में साधुओं की संख्या में ईसा', 'मूसा', 'मुहम्मद', 'नानक' और 'चैतन्य' लिखे हैं, किसी ऋषि-महर्षि का नाम भी नहीं लिखा। आज शिक्षित सभी मनुष्य जानते हैं, भारत के अध:पतन का मुख्य कारण नारी-जाति का पीछे रह जाना है, वह जीवन-संग्राम में पुरुष का साथ नहीं दे सकती, पहले से ऐसी निरवलंब कर दी जाती है कि उसमें कोई क्रियाशीलता नहीं रह जाती। पुरुष के न रहने पर सहारे के बिना तरह-तरह की तकलीफें झेलती हुई वह कभी-कभी दूसरे धर्म को स्वीकार कर लेती है, आदि-आदि। पं० लक्ष्मण शास्त्री द्रविड़ जैसे पुराने और नये पण्डित अनुकूल तर्कयोजना करते हुए, प्रमाण देते हुए यह नहीं जानते कि भारत की स्त्रियाँ उनके पराधीन काल में भी किसी तरह दूसरे देशों की स्त्रियों से उचित शिक्षा, आत्मोन्नति, गार्हस्थ्य सुख-विज्ञान, संस्कृति आदि में घटकर है। इसी तरह धर्म और जाति के संबन्ध में उनकी वाक्यावली, आज के अंग्रेजी शिक्षित युवकों को अधूरी जँचने पर भी, निरपेक्ष समीक्षकों के विचार में मान्य ठहरती है। फिर भी, हमें यहाँ देखना है कि आजकल के नवयुवक समुदाय से महर्षि दयानन्द, अपनी वैदिक प्राचीनता लिए हुए भी, नवीन सहयोग कर सकते हैं या नहीं। इससे हमें मालूम होगा हमारे देश के ऋषि जो हजारों शताब्दियों पहले सत्य-साक्षात्कार कर चुके हैं, आज की नवीनता से भी नवीन है क्योंकि सत्य वह है जो जितना ही पीछे है, उतना ही आगे भी, जो सबसे पहले दृष्टि के सामने है वही सबसे ज्यादा नवीन है। ज्ञान की ही हद में सृष्टि सारी बातें हैं । सृष्टि की अव्यक्त अवस्था भी ज्ञान है। स्वामीजी वेदाध्ययन में अधिकारी-भेद नहीं रखते। वह सभी जातियों की बालिकाओं-विद्यार्थिनियों को वेदाध्ययन का अधिकार देते हैं। यहाँ यह स्पष्ट है कि ज्ञानमय कोष चाहे वह जड़-विज्ञान से संबन्ध रखता हो, धर्म-विज्ञान से- नारियों के लिए युक्त है, वे सब प्रकार से आत्मोन्नति करने की अधिकारणी हैं। इस विषय पर आप 'सत्यार्थप्रकाश' में एक मन्त्र उद्धृत करते हैं- 'यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्यः। ब्रह्मराजन्याभ्यां शूद्राय चार्याय च स्वाय चारणाय।' यजु० अ० २६/२ 'परमेश्वर कहता है कि (यथा) जैसे मैं (जनेभ्यः) सब मनुष्यों के लिये (इमाम्) इस (कल्याणीम्) कल्याण अर्थात् संसार और मुक्ति के सुख देनेहारी (वाचम्) ऋग्वेदादि चारों वेदों की वाणी का (आवदानि) उपदेश करता हूँ, वैसे तुम भी किया करो। यहाँ कोई ऐसा प्रश्न करे कि जन-शब्द से द्विजों का ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि स्मृत्यादि ग्रन्थों में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य ही को वेदों के पढ़ने का अधिकार लिखा है, स्त्री और शूद्रादि वर्णों का नहीं (उत्तर) ब्रह्मराजन्याभ्याम् इत्यादि देखो, परमेश्वर स्वयं कहता है, कि हमने ब्राह्मण, क्षत्रिय, (अर्याय) वैश्य (शूद्रार्य) शूद्र और (स्वाय) अपने भृत्य वा स्त्रियादि (अरणाय) और अति शूद्रादि के लिये भी वेदों का प्रकाश किया है, अर्थात् सब मनुष्य वेदों को पढ़-पढ़ा और सुन-सुनाकर विज्ञान को बढ़ा के अच्छी बातों को ग्रहण और बुरी बातों को त्याग करके दुःखों से छूटकर आनन्द को प्राप्त हों। कहिये, अब तुम्हारी बात मानें या परमेश्वर की? परमेश्वर की बात अवश्य माननीय है । इतने पर भी जो कोई इसको न मानेगा, वह नास्तिक कहावेगा है, क्योंकि 'नास्तिको वेदनिन्दकः' वेदों का निन्दक और न मानने वाला नास्तिक कहाता है। स्वामीजी ने वेद के उद्धरणों द्वारा सिद्ध किया है कि स्त्रियों की शिक्षा, अध्ययन आदि वेदविहित है। उनके लिए ब्रह्मचर्य के पालन का भी विधान है। स्वामीजी की इस महत्ता को देखकर मालूम हो जाता है कि स्त्री समाज को उठाने वाले पश्चिमी शिक्षा-प्राप्त पुरुषों से वह बहुत आगे बढ़े हुए हैं। वह संसार और मुक्ति दोनों प्रसंगों में पुरुषों के ही बराबर नारियों को अधिकार देते हैं। इस एक ही वाक्य से साबित होता है कि किसी भी दृष्टि से वह नारी-जाति को पुरुष-जाति से घटकर नहीं मानते। आपका ही प्रवर्तन आर्यावर्त के अधिकांश भागों में, महिलाओं के अध्ययन के संबन्ध में प्रचलित है। यहाँ स्त्री-शिक्षा-विस्तार का अधिकांश श्रेय आर्यसमाज को दिया जा सकता है। यहाँ की शिक्षा की एक विशेषता भी है। महिलाएँ यहाँ जितने अंशों में देशी सभ्यता की ज्योतिस्वरूपा होकर निकलती हैं, उतने अंशों में दूसरी जगह नहीं। संस्कृति के भीतर से स्त्री के रूप में प्राचीन संस्कृति को ही स्वामीजी ने सामने खड़ा कर दिया है। [स्त्रोत- परोपकारी : महर्षि दयानन्द सरस्वती की उत्तराधिकारिणी परोपकारिणी सभा का मुखपत्र का फरवरी (द्वितीय) २०२० का अंक; प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ]
महर्षि दयानन्द और युगान्तर. (Vedic vichar)
30-06-2022
श्री सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' (हिन्दी के महाकवि) [कवि स्वभाव से ही बागी होता है। काव्य-कला के नियम भी उस पर बन्दिश न लगा पाते हैं। बगावत अगर सत्य की स्वीकृति हो तो कविता का ही दूसरा नाम बन जाती है। भला बगावत के बगैर कविता का चरित्र ही क्या है? कवि के भावों की सजावट कविता है और चरित्र की बगावत कवि-ता। इस लेख में कवि-ता ऋषि को प्रणाम करने आयी है और कविता पुष्प बरसाने। और यह अधिकार मिला है महाकवि निराला को, कि वे अपनी कलम तोड़ दें और दवात फोड़ दें। निस्सन्देह यह अवसर 'निराला' ने हाथ से जाने न दिया। परोपकारी ऋषि के जन्मोत्सव के उपलक्ष्य में यह लेख पाठकों की सेवा में प्रस्तुत करता है। जिसमें एक ओर ऋषि के चरित्र का दर्शन करेंगे तो दूसरी ओर साहित्य का आनन्द भी ले सकेंगे। -डॉ० सुरेन्द्रकुमार] उन्नीसवीं सदी का परार्द्ध भारत के इतिहास का अपर स्वर्ण प्रभात है। कई पावन-चरित्र महापुरुष अलग-अलग उत्तरदायित्व लेकर, इस समय, इस पुण्य भूमि में अवतीर्ण होते हैं। महर्षि दयानन्द सरस्वती भी इन्हीं में एक महाप्रतिभामंडित महापुरुष हैं। हम देखते हैं, हमें इतिहास भी बतलाता है, समय की एक आवश्यकता होती है। उसी के अनुसार धर्म अपना स्वरूप ग्रहण करता है। हम अच्छी तरह जानते हैं, ज्ञान सदा एकरस है, वह काल के बन्धन से बाहर है और चूंकि वेदों में मनुष्य जाति की प्रथम तथा चिरन्तन ज्ञान-ज्योति स्थित है, इसलिए उसके परिवर्तन की आवश्यकता सिद्ध नहीं होती, बल्कि परिवर्तन भ्रमजन्य भी कहा जा सकता है। पर साथ-साथ, इसी प्रकार यह भी कहा जा सकता है कि उच्चतम ज्ञान किसी भी भाषा में हो, वह अपौरुषेय वेद ही है। परिवर्तन उसके व्यवहार-कौशल, कर्म-काण्ड आदि में होता है, हुआ भी है। इसे ही हम समय की आवश्यकता कहते हैं। भाषा जिस प्रकार अर्थ-साम्य रखने पर भी स्वरूपत: बदलती गई है, अथवा भिन्न देशों में, भिन्न परिस्थितियों के कारण अपर देशों की भाषा से बिल्कुल भिन्न प्रतीत होती है। इसी प्रकार धर्म भी समयानुसार जुदा-जुदा रूप ग्रहण करता गया है। भारत के लिए वह विशेष रूप से कहा जा सकता है। बुद्ध, शंकर, रामानुज आदि के धर्म-प्रवर्त्तन सामयिक प्रभाव को ही पुष्ट करते हैं। पुराण इसी विशेषता के सूचक हैं। पौराणिक विशेषता और मूर्तिपूजन आदि से मालूम होता है, देश के लोगों की रुचि अरूप से रूप की ओर ज्यादा झुकी थी। इसीलिए वैदिक अखण्ड ज्ञान राशि को छोड़कर ऐश्वर्ययुगपूर्ण एक-एक प्रतीक लोगों ने ग्रहण किया। इस तरह देश की तरक्की नहीं हुई, यह बात नहीं। पर इस तरह देश ज्ञानभूमि से गिर गया, यह बात भी है। जो भोजन शरीर को पुष्ट करता है, वही रोग का भी कारण होता है। मूर्तिपूजन से इसी प्रकार दोषों का प्रवेश हुआ। ज्ञान जाता रहा। मस्तिष्क से दुर्बल हुई जाति औद्धत्य के कारण छोटी-छोटी स्वतन्त्र सत्ताओं में छँटकर एक दिन शताब्दियों के लिए पराधीन हो गई। उसका वह मूर्तिपूजन-संस्कार बढ़ता गया, धीरे-धीरे वह ज्ञान से बिल्कुल ही रहित हो गई। शासन बदला, अंग्रेज आए। संसार की सभ्यता एक नये प्रवाह से बही। बड़े-बडे पण्डित विश्व-साहित्य, विश्व-ज्ञान, विश्व-मैत्री की आवाज उठाने लगे, पर भारत उसी प्रकार पौराणिक रूप के माया-जाल में भूला रहा। इस समय ज्ञान-स्पर्धा के लिए समय की फिर आवश्यकता हुई और महर्षि दयानन्द का यही अपराजित प्रकाश है। वह अपार वैदिक ज्ञान राशि के आधार-स्तम्भ-स्वरूप अकेले बड़े-बड़े पण्डितों का सामना करते हैं। एक ही आधार से इतनी बड़ी शक्ति का स्फुरण होता है कि आज भारत के युगान्तर साहित्य में इसी की सत्ता प्रथम है, यही जनसंख्या में बढ़ी हुई है। चरित्र, स्वास्थ्य, त्याग, ज्ञान और शिष्टता आदि में जो आदर्श महर्षि दयानन्दजी महाराज में प्राप्त होते हैं, उनका लेशमात्र भी अभारतीय पश्चिमी शिक्षा-संभूत नहीं, पुनः ऐसे आर्य में ज्ञान तथा कर्म का कितना प्रसार रह सकता है, वह स्वयं इसके उदाहरण हैं। मतलब यह है कि जो लोग कहते हैं कि वैदिक अथवा प्राचीन शिक्षा द्वारा मनुष्य उतना उन्नतमना नहीं हो सकता, जितना अंग्रेजी शिक्षा द्वारा होता है, महर्षि दयानन्द सरस्वती इसके प्रत्यक्ष खण्डन हैं। महर्षि दयानन्दजी से बढ़कर भी मनुष्य होता है, इसका प्रमाण प्राप्त नहीं हो सकता। यही वैदिक ज्ञान की मनुष्य के उत्कर्ष में प्रत्यक्ष उपलब्धि होती है, यही आदर्श आर्य हमें देखने को मिलता है। यहाँ से भारत के धार्मिक इतिहास का एक नया अध्याय शुरू होता है, यद्यपि वह बहुत प्राचीन है। हमें अपने सुधार के लिए क्या-क्या करना चाहिए, हमारे सामाजिक उन्नयन में कहाँ-कहाँ और क्या-क्या रुकावटें, हमें मुक्ति के लिए कौन-सा मार्ग ग्रहण करना चाहिए, महर्षि दयानन्द सरस्वती ने बहुत अच्छी तरह समझाया है। आर्यसमाज की प्रतिष्ठा भारतीयों में एक नये जीवन की प्रतिष्ठा है, उसकी प्रगति एक दिव्य शक्ति की स्फूर्ति है। देश में महिलाओं, पतितों तथा जाति-पाँति के भेद-भाव मिटाने के लिए महर्षि दयानन्द तथा आर्यसमाज से बढ़कर इस नवीन विचारों के युग में किसी भी समाज ने कार्य नहीं किया। आज जो जागरण भारत में दीख पड़ता है उसका प्रायः सम्पूर्ण श्रेय आर्यसमाज को है। स्वधर्म में दीक्षित करने का यहां इसी समाज से श्रीगणेश हुआ है। भिन्न जातिवाले बन्धुओं को उठाने तथा ब्राह्मण-क्षत्रियों के प्रहारों से बचाने का उद्यम आर्यसमाज ही करता रहा है। शहर-शहर, जिले-जिले, कस्बे-कस्बे में इसी उदारता के कारण, आर्यसमाज की स्थापना हो गई। राष्ट्रभाषा हिन्दी के भी स्वामीजी एक प्रवर्तक हैं और आर्यसमाज के प्रचार की तो यह भाषा ही रही है। शिक्षण के लिये 'गुरुकुल' जैसी संस्थाएं निर्मित की गईं। एक नया ही जीवन देश में लहराने लगा। स्वामीजी के प्रचार के कुछ पहले ब्रह्मसमाज की कलकत्ता में स्थापना हुई थी। राजा राममोहन राय द्वारा प्रवर्तित ब्राह्म- धर्म की प्रतिष्ठा, वैदान्तिक बुनियाद पर, महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर कर चुके थे। वहाँ इसकी आवश्यकता इसलिये हुई थी कि अंग्रेजी सभ्यता की दीप- ज्योति की ओर शिक्षित नवयुवकों का समूह पतंगों की तरह बढ़ रहा था, पुन: शिक्षा तथा उत्कर्ष के लिये विदेश की यात्रा अनिवार्य थी, इसलिए लौटने पर वे शिक्षित युवक यहाँ ब्राह्मणों द्वारा धर्म-भ्रष्ट कहकर समाज से निकाल दिये जाते थे, इसलिए वे ईसाई हो जाते थे, उन्हें देश के ही धर्म में रखने की जरूरत थी। इसी भावना पर ब्राह्मधर्म की प्रतिष्ठा तथा प्रसार हुआ। विलायत में प्रसिद्धि प्राप्त कर लौटने वाले प्रथम भारतीय वक्ता श्रीयुत केशवचन्द्र सेन भी ब्राह्मधर्म के प्रवर्तकों में एक हैं। इन्हीं से मिलने के लिए स्वामीजी कलकत्ता गये थे। यह जितने अच्छे विद्वान् अंग्रेजी के थे, इतने अच्छे संस्कृत के न थे। इनसे बातचीत में स्वामीजी सहमत नहीं हो सके। कलकत्ता में आज ब्राह्मसमाज मन्दिर के सामने कार्नवालिस स्ट्रीट पर विशाल आर्यसमाज मन्दिर भी स्थित है। किसी दूसरे प्रतिभाशाली पुरुष से और जो कुछ उपकार देश तथा जाति का हुआ हो, सबसे पहले वेदों को स्वामी दयानन्द जी सरस्वती ने ही हमारे सामने रक्खा। हम आर्य हों, हिन्दू हों, ब्राह्मसमाज वाले हों, यदि हमें ऋषियों की सन्तान होने का सौभाग्य प्राप्त है और इसके लिए हम गर्व करते हैं, तो कहना होगा कि ऋषि दयानन्द से बढ़कर हमारा उपकार इधर किसी भी दूसरे महापुरुष ने नहीं किया, जिन्होंने स्वयं कुछ भी न लेकर हमें अपार ज्ञान-राशि वेदों से परिचित कर दिया। देश में विभिन्न मतों का प्रचलन उसके पतन का कारण है, स्वामी दयानन्दजी की यह निर्भ्रान्त धारणा थी। उन्होंने इन मत-मतान्तरों पर सप्रमाण प्रबल आक्षेप भी किये हैं। उनकी इच्छा थी कि इस मतवाद के अज्ञान-पंक से देश को निकालकर वैदिक शुद्ध शिक्षा द्वारा निष्कलंक कर दें। वाममार्ग वाले तान्त्रिकों की मन्द वृत्तियों का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा है कि मद्य, मांस, मीन, मुद्रा, मैथुन आदि वेद-विरुद्ध महाअधर्म कार्यों को वाममार्गियों ने श्रेष्ठ माना है। जो वाममार्गी कलार के घर बोतल पर बोतल शराब चढ़ावें और रात्रि को वारांगना से दुष्कर्म करके उसी के घर सोवें, वह वाममार्गियों में श्रेष्ठ चक्रवर्ती राजा के समान है। स्त्रियों के प्रति विशद कोई भी विचार उनमें नहीं। स्वामीजी देशवासियों को विशुद्ध वैदिक धर्म में दीक्षित हो आत्मज्ञान ही-सा उज्जवल और पवित्र कर देना चाहते थे। स्वामी विवेकानन्द ने भी वामाचार-भक्त देश के लिये विशुद्ध भाव वाले वैदान्तिक धर्म का उपदेश दिया है। आपने गुरु परम्परा को भी आड़े हाथों लिया है। योगसूत्र के 'स पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात्' के अनुसार, आप केवल ब्रह्म को ही गुरु स्वीकार करते हैं। रामानुज जैसे धर्माचार्य का भी मत आपको मान्य नहीं, और बहुत कुछ युक्तिपूर्ण भी जान पड़ता है। आपका कहना है कि लक्ष्मीयुक्त नारायण की शरण जाने का मन्त्र धनाढ्य और माननीयों के लिए बनाया गया- यह भी एक दुकान ठहरी। मूर्ति-पूजन के लिए आपका कथन है कि जैनियों की मूर्खता से इसका प्रचलन हुआ। तांत्रिक तथा वैष्णवों ने भिन्न मूर्तियों तथा पूजनोपचारों से अपनी एक विशेषता प्रतिष्ठित की है। जैनी वाद्य नहीं बजाते थे, ये लोग शंख, घण्टा, घड़ियाल आदि बजाने लगे। अवतार आदि पर भी स्वामीजी विश्वास नहीं करते। 'न तस्य प्रतिमा अस्ति' आदि-आदि प्रमाणों से ब्रह्म का विग्रह नहीं सिद्ध होता, उनका कहना है। ब्राह्मणों की ठग-विद्या के सम्बन्ध में भी स्वामीजी ने लिखा है- आज ब्राह्मणों की हठपूर्ण मूर्खता से अपरापर जातियों को क्षति पहुँच रही है। पहले पढ़े-लिखे होने के कारण ब्राह्मणों ने श्लोकों की रचना कर-करके अपने लिये बहुत काफी गुंजाइश कर ली थी। उसी के परिणामस्वरूप वे आज तक पुजाते चले जा रहे हैं। स्वामीजी एक मन्त्र का उल्लेख करते हैं- दैवाधीनं जगत्सर्वं मन्त्राधीनाश्च देवताः। ते मन्त्रा ब्राह्मणाधीनास्तस्माद् ब्राह्मणदैवतम्।। अर्थात् सारा संसार देवताओं के अधीन है, देवता मन्त्रों के अधीन हैं, वे मन्त्र ब्राह्मणों के अधीन हैं, इसलिये ब्राह्मण ही देवता है। लोगों से पुजाने का यह पाखण्ड बड़ी ही नीच मनोवृत्ति का परिचय है। स्वामीजी ने शैव, शाक्त और वैष्णव आदि मतों की खबर तो ली ही है, हिन्दी-साहित्य के महाकवि कबीर तथा दादू आदि को भी बहुत बुरी तरह फटकारा है। आपका कहना है- पाषाणादि को छोड़ पलंग, गद्दी, तकिये, खड़ाऊं, ज्योति अर्थात् दीप आदि का पूजना पाषाण-मूर्ति से न्यून नहीं। क्या कबीर साहब भुनगा था, वा कली था, जो फूल हो गया? जुलाहे का काम करता था, किसी पण्डित के पास पढ़ने के लिए गया, उसने उसका अपमान किया। कहा, हम जुलाहे को नहीं पढ़ाते। इसी प्रकार कई पण्डितों के पास फिरा, परन्तु किसी ने न पढ़ाया, तब ऊट-पटाँग भाषा बनाकर जुलाहे आदि लोगों को समझाने लगा। तंबूरे लेकर गाता था, भजन बनाता था, विशेष पण्डित, शास्त्र, वेदों की निन्दा किया करता था। कुछ मूर्ख लोग उसके जाल में फँस गये। जब मर गये, तब सिद्ध बना लिया। जो-जो उसने जीते-जी बनाया था, उसको उसके चेले पढ़ते रहे। कान को मूँदकर जो शब्द सुना जाता है, उसको अनहद शब्द सिद्धान्त ठहराया। मन की वृत्ति को सूरति कहते हैं उसको उस शब्द के सुनने में लगाया, उसी को संत और परमेश्वर का ध्यान बतलाते है, वहाँ काल नहीं पहुँचता। बर्छी के समान तिलक और चंदनादि लकड़ी की कंठी बाँधते है। भला विचार के देखो, इसमें आत्मा की उन्नति और ज्ञान क्या बढ़ सकता है? इसी प्रकार नानकजी के सम्बन्ध में भी आपने कहा है कि उन्हें संस्कृत का ज्ञान न था, उन्होंने वेद पढ़ने वालों को तो मौत के मुँह में डाल दिया है और अपना नाम लेकर कहा है कि नानक अमर हो गये- वह आप परमेश्वर है। जो वेदों की कहानी कहता है, उसकी कुल बाते कहानियाँ हैं। मूर्ख, साधु वेदों की महिमा नहीं जान सकते। यदि नानकजी वेदों का मान करते, तो उनका अपना सम्प्रदाय न चलता, न वह गुरु बन सकते थे, क्योंकि संस्कृत नहीं पढ़ी थी, फिर दूसरों को पढ़ाकर शिष्य कैसे बनाते, आदि-आदि। दादू पंथ को भी आप इसी प्रकार फटकारते हैं। शिक्षा, मार्जन तथा अपौरुषेय ज्ञान-राशि वेदों का आपका पक्ष है। मत-मतान्तरों के स्वल्प जल में यह आत्मतर्पण नहीं करते। वहाँ उन्हें महत्ता नहीं दीख पड़ती। पुन: भाषा में अधूरी कविता करके ज्ञान का परिचय देने वाले अल्पाधार साधुओं से पण्डित श्रेष्ठ स्वामीजी तृप्त भी कैसे हो सकते थे? इन अशिक्षित या अल्पशिक्षित साधुओं ने जिस प्रकार वेदों की निन्दा कर-कर मूढ़ जनों में वेदों के प्रतिकूल विश्वास पैदा कर दिया था, उसी प्रकार नव्य युग के तपस्वी महर्षि ने भी उन सबको धता बताया और विज्ञों को ज्ञानमय कोष वेदों की शिक्षा के लिए आमन्त्रित किया। स्वामीनारायण के मत के विषय पर आप कहते हैं- 'यादृशी शीतलादेवी तादृशो वाहन: खरः श्री गुसाईं जी की धन-हरणादि में विचित्र लीला है वैसी ही स्वामीनारायण की भी है।' माध्व मत के संबन्ध में आपका कथन है- जैसे अन्य मतावलम्बी हैं वैसा ही माध्व भी है, क्योंकि ये भी चक्रांकित होते हैं, इनमें चक्रांकितों से इतना विशेष है कि रामानुजीय एक बार चक्रांकित होते हैं, और ये वर्ष-वर्ष फिर-फिर चक्रांकित होते जाते है, वे चक्रांकित कपास में पीली रेखा और माध्व काली रेखा लगाते हैं। एक माधव पण्डित से किसी एक महात्मा का शास्त्रार्थ हुआ था। (महात्मा) तुमने यह काली रेखा और चांदला (तिलक) क्यों लगाया? (शास्त्री) इसके लगाने से हम बैकुण्ठ को जायेंगे और श्रीकृष्ण का भी शरीर श्याम रंग था, इसलिए हम काला तिलक करते हैं। (महात्मा) जो काली रेखा और चांदला लगाने से बैकुण्ठ में जाते हो तो सब मुख काला कर लेओ तो कहाँ जाओगे? स्वामीजी के व्यंग्य बड़े उपदेशपूर्ण हैं। आर्य-संस्कृति के लिए आपने नि:सहाय होकर भी दिग्विजय किया और उसकी समुचित प्रतिष्ठा की। स्वामीजी का सबसे बड़ा महत्त्व यह है कि उन्होंने अपनी प्रतिष्ठा की ओर नहीं देखा, वेदों की प्रतिष्ठा की है। ब्राह्म-समाज और प्रार्थनासमाज के संबन्ध में आपका कहना है- 'ब्राह्म-समाज' और 'प्रार्थना समाज' के नियम सर्वांश में अच्छे नहीं, क्योंकि वेदविद्याहीन लोगों की कल्पना सर्वथा सत्य क्योंकर हो सकती है? जो कुछ ब्रह्म समाज, और प्रार्थना समाजियों ने ईसाई मत में मिलने से थोड़े मनुष्यों को बचाया और कुछ-कुछ पाषाण आदि मूर्तिपूजा से हटाया, अन्य जाल ग्रन्थों के फन्दे से भी कुछ बचाया इत्यादि अच्छी बात है, परन्तु इन लोगों में स्वदेश-भक्ति बहुत न्यून है, ईसाइयों के आचरण बहुत से लिए हैं। खान-पान-विवाहादि के नियम भी बदल गये हैं। अपने देश की प्रशंसा व पूर्वजों की बड़ाई करनी तो दूर रही उसके स्थान में पेट-भर निन्दा करते हैं, व्याख्यानों में ईसाई आदि अंग्रेजों की प्रशंसा भरपेट करते हैं। ब्रह्मादि महर्षियों का नाम भी नहीं लेते प्रत्युत ऐसा कहते हैं कि बिना अंग्रेजों के सृष्टि में आज पर्यन्त कोई भी विद्वान् नहीं हुआ, आर्यवर्ती लोग सदा से मूर्ख चले आये हैं, उनकी उन्नति कभी नहीं हुई। वेदादिकों की प्रतिष्ठा तो दूर रही, परन्तु निन्दा करने से भी पृथक् नहीं रहते, ब्रह्मसमाज के उद्देश्य की पुस्तक में साधुओं की संख्या में ईसा', 'मूसा', 'मुहम्मद', 'नानक' और 'चैतन्य' लिखे हैं, किसी ऋषि-महर्षि का नाम भी नहीं लिखा। आज शिक्षित सभी मनुष्य जानते हैं, भारत के अध:पतन का मुख्य कारण नारी-जाति का पीछे रह जाना है, वह जीवन-संग्राम में पुरुष का साथ नहीं दे सकती, पहले से ऐसी निरवलंब कर दी जाती है कि उसमें कोई क्रियाशीलता नहीं रह जाती। पुरुष के न रहने पर सहारे के बिना तरह-तरह की तकलीफें झेलती हुई वह कभी-कभी दूसरे धर्म को स्वीकार कर लेती है, आदि-आदि। पं० लक्ष्मण शास्त्री द्रविड़ जैसे पुराने और नये पण्डित अनुकूल तर्कयोजना करते हुए, प्रमाण देते हुए यह नहीं जानते कि भारत की स्त्रियाँ उनके पराधीन काल में भी किसी तरह दूसरे देशों की स्त्रियों से उचित शिक्षा, आत्मोन्नति, गार्हस्थ्य सुख-विज्ञान, संस्कृति आदि में घटकर है। इसी तरह धर्म और जाति के संबन्ध में उनकी वाक्यावली, आज के अंग्रेजी शिक्षित युवकों को अधूरी जँचने पर भी, निरपेक्ष समीक्षकों के विचार में मान्य ठहरती है। फिर भी, हमें यहाँ देखना है कि आजकल के नवयुवक समुदाय से महर्षि दयानन्द, अपनी वैदिक प्राचीनता लिए हुए भी, नवीन सहयोग कर सकते हैं या नहीं। इससे हमें मालूम होगा हमारे देश के ऋषि जो हजारों शताब्दियों पहले सत्य-साक्षात्कार कर चुके हैं, आज की नवीनता से भी नवीन है क्योंकि सत्य वह है जो जितना ही पीछे है, उतना ही आगे भी, जो सबसे पहले दृष्टि के सामने है वही सबसे ज्यादा नवीन है। ज्ञान की ही हद में सृष्टि सारी बातें हैं । सृष्टि की अव्यक्त अवस्था भी ज्ञान है। स्वामीजी वेदाध्ययन में अधिकारी-भेद नहीं रखते। वह सभी जातियों की बालिकाओं-विद्यार्थिनियों को वेदाध्ययन का अधिकार देते हैं। यहाँ यह स्पष्ट है कि ज्ञानमय कोष चाहे वह जड़-विज्ञान से संबन्ध रखता हो, धर्म-विज्ञान से- नारियों के लिए युक्त है, वे सब प्रकार से आत्मोन्नति करने की अधिकारणी हैं। इस विषय पर आप 'सत्यार्थप्रकाश' में एक मन्त्र उद्धृत करते हैं- 'यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्यः। ब्रह्मराजन्याभ्यां शूद्राय चार्याय च स्वाय चारणाय।' यजु० अ० २६/२ 'परमेश्वर कहता है कि (यथा) जैसे मैं (जनेभ्यः) सब मनुष्यों के लिये (इमाम्) इस (कल्याणीम्) कल्याण अर्थात् संसार और मुक्ति के सुख देनेहारी (वाचम्) ऋग्वेदादि चारों वेदों की वाणी का (आवदानि) उपदेश करता हूँ, वैसे तुम भी किया करो। यहाँ कोई ऐसा प्रश्न करे कि जन-शब्द से द्विजों का ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि स्मृत्यादि ग्रन्थों में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य ही को वेदों के पढ़ने का अधिकार लिखा है, स्त्री और शूद्रादि वर्णों का नहीं (उत्तर) ब्रह्मराजन्याभ्याम् इत्यादि देखो, परमेश्वर स्वयं कहता है, कि हमने ब्राह्मण, क्षत्रिय, (अर्याय) वैश्य (शूद्रार्य) शूद्र और (स्वाय) अपने भृत्य वा स्त्रियादि (अरणाय) और अति शूद्रादि के लिये भी वेदों का प्रकाश किया है, अर्थात् सब मनुष्य वेदों को पढ़-पढ़ा और सुन-सुनाकर विज्ञान को बढ़ा के अच्छी बातों को ग्रहण और बुरी बातों को त्याग करके दुःखों से छूटकर आनन्द को प्राप्त हों। कहिये, अब तुम्हारी बात मानें या परमेश्वर की? परमेश्वर की बात अवश्य माननीय है । इतने पर भी जो कोई इसको न मानेगा, वह नास्तिक कहावेगा है, क्योंकि 'नास्तिको वेदनिन्दकः' वेदों का निन्दक और न मानने वाला नास्तिक कहाता है। स्वामीजी ने वेद के उद्धरणों द्वारा सिद्ध किया है कि स्त्रियों की शिक्षा, अध्ययन आदि वेदविहित है। उनके लिए ब्रह्मचर्य के पालन का भी विधान है। स्वामीजी की इस महत्ता को देखकर मालूम हो जाता है कि स्त्री समाज को उठाने वाले पश्चिमी शिक्षा-प्राप्त पुरुषों से वह बहुत आगे बढ़े हुए हैं। वह संसार और मुक्ति दोनों प्रसंगों में पुरुषों के ही बराबर नारियों को अधिकार देते हैं। इस एक ही वाक्य से साबित होता है कि किसी भी दृष्टि से वह नारी-जाति को पुरुष-जाति से घटकर नहीं मानते। आपका ही प्रवर्तन आर्यावर्त के अधिकांश भागों में, महिलाओं के अध्ययन के संबन्ध में प्रचलित है। यहाँ स्त्री-शिक्षा-विस्तार का अधिकांश श्रेय आर्यसमाज को दिया जा सकता है। यहाँ की शिक्षा की एक विशेषता भी है। महिलाएँ यहाँ जितने अंशों में देशी सभ्यता की ज्योतिस्वरूपा होकर निकलती हैं, उतने अंशों में दूसरी जगह नहीं। संस्कृति के भीतर से स्त्री के रूप में प्राचीन संस्कृति को ही स्वामीजी ने सामने खड़ा कर दिया है। [स्त्रोत- परोपकारी : महर्षि दयानन्द सरस्वती की उत्तराधिकारिणी परोपकारिणी सभा का मुखपत्र का फरवरी (द्वितीय) २०२० का अंक; प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ]
वर्षा ऋतु और वेद. (Vedic vichar)
30-06-2022
वर्षा ऋतु का आगमन हो गया है। भीष्म गर्मी के पश्चात वर्षा का जल जब तपती धरती पर गिरता है। तो गर्मी से न केवल राहत मिलती है। अपितु चारों ओर जीवन में नवीनता एवं वृद्धि का समागम होता हैं। वेदों में वर्षा ऋतु से सम्बंधित अनेक सूक्त हैं। जैसे पर्जन्य सूक्त ( ऋग्वेद 7/101,102 सूक्त), वृष्टि सूक्त (अथर्ववेद 4/12) एवं प्राणसूक्त (अथर्ववेद 11/4 ) मंडूक सूक्त (ऋग्वेद 7/103 सूक्त)आदि। पर्जन्य सूक्त मेघ के गरजने, सुखदायक वर्षा होने एवं सृष्टि के फलने-फूलने का सन्देश देता हैं। जबकि मंडूक सूक्त वर्षा ऋतु में मनुष्यों के कर्तव्यों का प्रतिपादन करता हैं। इस लेख में हम मंडूक सूक्त के 10 मन्त्रों में बताये गए आध्यात्मिक, सामाजिक और शारीरिक लाभों पर प्रकाश डालेंगे। मंडूक शब्द को लेकर कुछ विदेशी विद्वानों ने परिहास किया हैं। (Brahma und die Brahmanen von Martin Haug,1871) उनका कहना था कि जब सूखा पड़ता है। तब कुछ ब्राह्मण तालाब के निकट एकत्र होकर मेंढक के समान टर्र टर्र कर वेदों के इस सूक्त को पढ़ते हैं। जबकि अनेक विदेशी लेखकों जैसे ब्लूमफील्ड और विंटरनित्ज़ ने इसके व्यवहार अनुकूल व्याख्या करते हैं। विंटरनित्ज़ लिखते है- "ग्रीष्म ऋतू में मेंढक ऐसे निष्क्रिय पड़े रहते हैं जैसे मौन का व्रत किये हुए ब्राह्मण। इसके अनन्तर वर्षा आती है मंडूक प्रसन्नतापूर्वक टर्र टर्र के साथ एक दूसरे का स्वागत करते हैं। जैसे कि पिता पुत्र का। एक मंडूक दूसरे मंडूक की ध्वनि को इस प्रकार दोहराता है, जैसे शिष्य वेदपाठी ब्राह्मण गुरु के मन्त्रों को। मंडूकों के स्वरों के आरोह व अवरोह अनेक प्रकार के होते हैं। जिस जिस सोमयाग में पुरोहित पूर्ण पात्र के साथ ओर बैठकर गाते हैं, ऐसे ही मंडूक अपने गीतों से वर्षा ऋतु के प्रारम्भ मनाते हैं। " (सन्दर्भ-प्राचीन भारतीय साहित्य का इतिहास, हिंदी संस्करण, पृष्ठ 80, (A History Of Indian Literature) विदेशी लेखक ऍम विंटरनिटज M Winternitz) विदेशी लेखक मंडूक से केवल मेंढक का ग्रहण करते है। जबकि आर्य विद्वान् पंडित आर्य मुनि जी मंडूक से वेदानां मण्डयितार: अर्थात वेदों को मंडन करने वाले ग्रहण करते हैं। वर्षा ऋतु के साथ श्रावणी पर्व का आगमन होता है। इस पर्व में मनुष्यों को वेद का पाठ करने का विधान हैं। इस पर्व में वेदाध्ययन को वर्षा आरम्भ होने पर मौन पड़े मेंढक जैसे प्रसन्न होकर ध्वनि करते है। वेद कहते है कि हे वेदपाठी ब्राह्मण वर्षा आरम्भ होने पर वैसे ही अपना मौन व्रत तोड़कर वेदों का सम्भाषण आरम्भ करे। मंडूक सूक्त के प्रथम मन्त्र का सन्देश ईश्वर के महत्त्व गायन से वर्षा का स्वागत करने का सन्देश हैं। इस सूक्त के अगले चार मन्त्रों में सन्देश दिया गया है कि गर्मी के मारे सुखें हुए मंडूक वर्षा होने पर तेज ध्वनि निकालते हुए एक दूसरे के समीप जैसे जाते हैं , वैसे ही हे मनुष्यों तुम भी अपने परिवार के सभी सदस्यों, सम्बन्धियों, मित्रों, अनुचरों आदि के साथ संग होकर वेदों का पाठ करों। जब सभी समान मन्त्रों से एक ही पाठ करेंगे तो सभी की ध्वनि एक से होगी। सभी के विचार एक से होंगे। सभी के आचरण भी श्रेष्ठ बनेंगे। गुरुकुल में विद्यार्थी गुरु के पीछे एक समान मन्त्रों को दोहराये। गृहस्थी पुरोहित के पीछे दोहराये। वानप्रस्थी और सन्यासी भी अपने वेदपाठ द्वारा समाज को दिशानिर्देश दे। इन मन्त्रों का सामाजिक सन्देश समाज का संगतिकरण करना हैं। यह सामाजिक सन्देश आज के समय में टूटते परिवारों के लिए भी अत्यंत आवश्यक हैं। जहाँ पर संवादहीनता एवं स्वार्थ मनुष्यों में दूरियां उत्पन्न कर रहा हैं। वही संगतिकरण का वेदों का सन्देश अत्यंत व्यावहारिक एवं स्वीकार करने योग्य हैं। मंडूक सूक्त का छठा मंत्र वृहद् महत्व रखता है। इस मन्त्र में कहा गया है की मेंढ़कों में कोई गौ के समान ध्वनि करता है। कोई बकरे के समान करता है। कोई मेंढक चितकबरे रंगा का तो कोई हरे रंग का होता है। अनेक रूपों वाला होने के बाद भी सभी मेंढक का नाम एक ही है। सभी मिलकर एक ही वेद वाणी बोलते है। सामाजिक अर्थ चिंतन करने योग्य है। समाज में कोई मनुष्य धनी हैं, तो कोई निर्धन है। सभी के वर्ण भी अलग अलग है। भिन्न भिन्न पृष्ठ्भूमि , भिन्न भिन्न योग्यता ,भिन्न भिन्न व्यवसाय , भिन्न भिन्न वर्ण होने के बाद भी सभी मनुष्य बिना किसी भेदभाव के एकसाथ मिलकर वेदों का पाठ करे। यह सामाजिक सन्देश जातिवाद के विरुद्ध वेदों का अनुपम सन्देश हैं। मंडूक सूक्त के अगले तीन मन्त्रों में मनुष्यों को ईश्वरीय वरदान वर्षा ऋतु का आरम्भ तप करते हुए सोमयाग आदि अग्निहोत्र करने का सन्देश देते हैं। यज्ञ में संगतिकरण के अतिरिक्त इन मन्त्रों के पाठ करते हुए बड़े बड़े होम किये जाये। यह होम एवं आचरण रूपी व्रत एक दिन, चातुर्मास अथवा वर्ष भर भी चल सकते हैं। वेद पाठ के आरम्भ को उपाकर्म कहा जाता है। और व्रत समाप्ति पर किये जाने वाले संस्कार को उपार्जन कहते है। यह वैदिक संस्कार मनुष्य को व्रतों के पालन का सन्देश देते हैं। वर्षा ऋतु में अग्निहोत्र करने का विधान पर विशेष बल इसलिए भी दिया गया है क्यूंकि इस ऋतु में अनेक बीमारियां भी फैलती हैं। इनबीमारियों से बचाव में यज्ञ अत्यंत लाभकारी हैं। पंडित भवानी प्रसाद जी अपनी पुस्तक आर्य पर्व पद्यति में वर्षाकाल में हवन सामग्री में काला अगर, इंद्र जौ, धूपसरल, देवदारु, गूगल, जायफल, गोला, तेजपत्र, कपूर, बेल, जटामांसी, छोटी इलायची, गिलोय बच, तुलसी के बीज, छुहारे, नीम आदि के साथ गौ घृत से हवन करने का विधान लिखते हैं। यह वैदिक विज्ञान आदि काल से ऋषियों को ज्ञात था। इन जड़ी बूटियों के होम में प्रयोग से वे वर्षा ऋतु में फैलनी वाली बिमारियों से अपनी रक्षा करते थे। यह शारीरिक विज्ञान मंडूक सूक्त के सन्देश में समाहित हैं। इस सूक्त का अंतिम मन्त्र एक प्रकार से फलश्रुति है। इस मन्त्र में वेदों के व्रत का पालन करने वाले के लाभ जैसे अनंत शिक्षा का लाभ, ऐश्वर्या और आयु वृद्धि की प्राप्ति का हृदय में प्रभाव, परमात्मा की उपासना का सन्देश आदि बताया गया हैं। वेदव्रती ब्राह्मणों अर्थात मंडूकों से हमें सैकड़ों गौ की प्राप्ति हो अर्थात हमारा कल्याण हो। तुलसीदास रामायण में एक चौपाई मंडूक सूक्त से सम्बन्ध में आती है। दादुर धुनि चहु दिसा सुहाई। बेद पढ़हिं जनु बटु समुदाई॥ नव पल्लव भए बिटप अनेका। साधक मन जस मिलें बिबेका॥ -किष्किन्धा काण्ड अर्थात वर्षा का वर्णन में श्रीराम जी लक्ष्मण को कहते हैं- वर्षा में मेंढको की ध्वनी इस तरह सुनाई देती है जैसे बटुकसमुदाय ( ब्रह्मचारीगण) वेद पढ़ रहे हों। पेड़ों पर नए पत्ते निकल आये है। एक साधक योगी के मन को यह विवेक देने वाला हैं। आईये मंडूक सूक्त से वेदव्रती होने का व्रत वर्षाऋतु में ले और संसार का कल्याण करें। सन्दर्भ ग्रन्थ- ऋग्वेद भाष्य पंडित आर्यमुनि जी ऋग्वेद भाष्य पंडित श्री पाद दामोदर सातवलेकर ऋग्वेद भाष्य- पंडित हरिशरण सिद्धान्तालंकार आर्यपर्व पद्यति- पंडित भवानीप्रसाद वैदिक विनय- आचार्य अभयदेव प्राचीन भारतीय साहित्य का इतिहास- ऍम विंटरनिटज रामचरितमानस -तुलसीदास
धर्म और मत/ मज़हब में अंतर क्या हैं? (Vedic vichar)
30-06-2022
नास्तिकों के एक समूह में दर्शया गया कि इस्लाम, ईसाई,बुद्ध, जैन आदि धर्मों के जन्मदाता तो ज्ञात हैं। मगर हिन्दू धर्म के जन्मदाता का नाम बताये। इस पोस्ट का मुख्य उद्देश्य हिन्दू समाज का उपहास करना था। क्यूंकि साधारण हिन्दू युवक इस पोस्ट से भ्रमित अवश्य हो जायेगा और द्रोही नास्तिक ताली बजाएंगे। मगर इस प्रश्न का उत्तर पढ़ने के पश्चात पाठकों को संसार में धर्म के नाम पर जितने भी विवाद, संघर्ष, विरोध क्यों हो रहे हैं। उसका कारण भी पता चल जायेगा। इस लेख में हम तीन महत्वपूर्ण विषयों पर चर्चा करेंगे। 1. वैदिक धर्म का संस्थापक कौन है? 2. धर्म की परिभाषा क्या है? 3. धर्म और मत में अंतर क्या हैं? सर्वप्रथम तो इस्लाम, ईसाई,बुद्ध, जैन आदि धर्म नहीं अपितु मत हैं। संसार में सभी मत-मतान्तर को चलाने वाले सब मनुष्य है। जबकि धर्म केवल एक है। वैदिक धर्म। जिसे किसी मनुष्य ने नहीं चलाया। सृष्ठि के आरम्भ में ईश्वर द्वारा वेदों का ज्ञान समस्त मनुष्य जाति को मार्गदर्शन हेतु प्रदान किया गया। तभी से वैदिक धर्म चलता आया है। कालांतर में धर्म के स्थान पर बहुत सारे मत प्रचलित हो गए। समाज इन मतों को ही धर्म समझने लगा। यही मत-मतान्तर आपसी झगडे का कारण है। वैदिक धर्म का ज्ञान देने वाले कोई मनुष्य विशेष नहीं अपितु ईश्वर ही है। दूसरा धर्म की परिभाषा को जानना आवश्यक है। धर्म का परिभाषा क्या हैं? 1. धर्म संस्कृत भाषा का शब्द हैं जोकि धारण करने वाली धृ धातु से बना हैं। "धार्यते इति धर्म:" अर्थात जो धारण किया जाये वह धर्म हैं। अथवा लोक परलोक के सुखों की सिद्धि के हेतु सार्वजानिक पवित्र गुणों और कर्मों का धारण व सेवन करना धर्म हैं। दूसरे शब्दों में यहभी कह सकते हैं की मनुष्य जीवन को उच्च व पवित्र बनाने वाली ज्ञानानुकुल जो शुद्ध सार्वजानिक मर्यादा पद्यति हैं वह धर्म हैं। 2. जैमिनी मुनि के मीमांसा दर्शन के दूसरे सूत्र में धर्म का लक्षण हैं लोक परलोक के सुखों की सिद्धि के हेतु गुणों और कर्मों में प्रवृति की प्रेरणा धर्म का लक्षण कहलाता हैं। 3. वैदिक साहित्य में धर्म वस्तु के स्वाभाविक गुण तथा कर्तव्यों के अर्थों में भी आया हैं। जैसे जलाना और प्रकाश करना अग्नि का धर्म हैं और प्रजा का पालन और रक्षण राजा का धर्म हैं। 4. मनु स्मृति में धर्म की परिभाषा धृति: क्षमा दमोअस्तेयं शोचं इन्द्रिय निग्रह: धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणं ६/९ अर्थात धैर्य,क्षमा, मन को प्राकृतिक प्रलोभनों में फँसने से रोकना, चोरी त्याग, शौच, इन्द्रिय निग्रह, बुद्धि अथवा ज्ञान, विद्या, सत्य और अक्रोध धर्म के दस लक्षण हैं। दूसरे स्थान पर कहा हैं आचार:परमो धर्म १/१०८ अर्थात सदाचार परम धर्म है 5. महाभारत में भी लिखा हैं धारणाद धर्ममित्याहु:,धर्मो धार्यते प्रजा: अर्थात जो धारण किया जाये और जिससे प्रजाएँ धारण की हुई है वह धर्म है। 6. वैशेषिक दर्शन के कर्ता महा मुनि कणाद ने धर्म का लक्षण यह किया है यतोअभयुद्य निश्रेयस सिद्धि: स धर्म: अर्थात जिससे अभ्युदय(लोकोन्नति) और निश्रेयस (मोक्ष) की सिद्धि होती हैं, वह धर्म है। 7. स्वामी दयानंद के अनुसार धर्म की परिभाषा जो पक्ष पात रहित न्याय सत्य का ग्रहण, असत्य का सर्वथा परित्याग रूप आचार है, उसी का नाम धर्म और उससे विपरीत का अधर्म हैं।-सत्यार्थ प्रकाश ३ सम्मुलास पक्षपात रहित न्याय आचरण सत्य भाषण आदि युक्त जो ईश्वर आज्ञा वेदों से अविरुद्ध हैं, उसको धर्म मानता हूँ - सत्यार्थ प्रकाश मंतव्य इस काम में चाहे कितना भी दारुण दुःख प्राप्त हो , चाहे प्राण भी चले ही जावें, परन्तु इस मनुष्य धर्म से पृथक कभी भी न होवें।- सत्यार्थ प्रकाश धर्म और मत/मजहब में क्या अंतर हैं? धर्म मनुष्य की उन्नति के लिए आवश्यक है अथवा बाधक है इसको जानने के लिए हमें सबसे पहले धर्म और मजहब में अंतर को समझना पड़ेगा। कार्ल मार्क्स ने जिसे धर्म के नाम पर अफीम कहकर निष्कासित कर दिया था वह धर्म नहीं अपितु मज़हब था। कार्ल मार्क्स ने धर्म ने नाम पर किये जाने वाले रक्तपात, अन्धविश्वास, बुद्धि के विपरीत किये जाने वाले पाखंडों आदि को धर्म की संज्ञा दी थी। जबकि यह धर्म नहीं अपितु मज़हब का स्वरुप था। प्राय:अपने आपको प्रगतिशील कहने वाले लोग धर्म और मज़हब को एक ही समझते हैं। मज़हब अथवा मत-मतान्तर अथवा पंथ के अनेक अर्थ है जैसे वह रास्ता जी स्वर्ग और ईश्वर प्राप्ति का है और जोकि मज़हब के प्रवर्तक ने बताया है। अनेक जगहों पर ईमान अर्थात विश्वास के अर्थों में भी आता है। 1. धर्म और मज़हब समान अर्थ नहीं हैं और न ही धर्म ईमान या विश्वास का प्राय: हैं। 2. धर्म क्रियात्मक वस्तु हैं मज़हब विश्वासात्मक वस्तु हैं। 3. धर्म मनुष्य के स्वाभाव के अनुकूल अथवा मानवी प्रकृति का होने के कारण स्वाभाविक हैं और उसका आधार ईश्वरीय अथवा सृष्टि नियम हैं। परन्तु मज़हब मनुष्य कृत होने से अप्राकृतिक अथवा अस्वाभाविक हैं। मज़हबों का अनेक व भिन्न भिन्न होना तथा परस्पर विरोधी होना उनके मनुष्य कृत अथवा बनावती होने का प्रमाण हैं। 4. धर्म के जो लक्षण मनु महाराज ने बतलाये हैं वह सभी मानव जाति के लिए एक समान है और कोई भी सभ्य मनुष्य उसका विरोधी नहीं हो सकता। मज़हब अनेक हैं और केवल उसी मज़हब को मानने वालों द्वारा ही स्वीकार होते हैं। इसलिए वह सार्वजानिक और सार्वभौमिक नहीं हैं। कुछ बातें सभी मजहबों में धर्म के अंश के रूप में हैं इसलिए उन मजहबों का कुछ मान बना हुआ हैं। 5. धर्म सदाचार रूप हैं अत: धर्मात्मा होने के लिये सदाचारी होना अनिवार्य हैं। परन्तु मज़हबी अथवा पंथी होने के लिए सदाचारी होना अनिवार्य नहीं हैं। अर्थात जिस तरह तरह धर्म के साथ सदाचार का नित्य सम्बन्ध हैं उस तरह मजहब के साथ सदाचार का कोई सम्बन्ध नहीं हैं। क्यूंकि किसी भी मज़हब का अनुनायी न होने पर भी कोई भी व्यक्ति धर्मात्मा (सदाचारी) बन सकता हैं। परन्तु आचार सम्पन्न होने पर भी कोई भी मनुष्य उस वक्त तक मज़हबी अथवा पन्थाई नहीं बन सकता जब तक उस मज़हब के मंतव्यों पर ईमान अथवा विश्वास नहीं लाता। जैसे की कोई कितना ही सच्चा ईश्वर उपासक और उच्च कोटि का सदाचारी क्यूँ न हो वह जब तक हज़रात ईसा और बाइबिल अथवा हजरत मोहम्मद और कुरान शरीफ पर ईमान नहीं लाता तब तक ईसाई अथवा मुस्लमान नहीं बन सकता। 6. धर्म ही मनुष्य को मनुष्य बनाता हैं अथवा धर्म अर्थात धार्मिक गुणों और कर्मों के धारण करने से ही मनुष्य मनुष्यत्व को प्राप्त करके मनुष्य कहलाने का अधिकारी बनता हैं। दूसरे शब्दों में धर्म और मनुष्यत्व पर्याय हैं। क्यूंकि धर्म को धारण करना ही मनुष्यत्व हैं। कहा भी गया हैं- खाना,पीना,सोना,संतान उत्पन्न करना जैसे कर्म मनुष्यों और पशुयों के एक समान हैं। केवल धर्म ही मनुष्यों में विशेष हैं जोकि मनुष्य को मनुष्य बनाता हैं। धर्म से हीन मनुष्य पशु के समान हैं। परन्तु मज़हब मनुष्य को केवल पन्थाई या मज़हबी और अन्धविश्वासी बनाता हैं। दूसरे शब्दों में मज़हब अथवा पंथ पर ईमान लेन से मनुष्य उस मज़हब का अनुनायी अथवा ईसाई अथवा मुस्लमान बनता हैं नाकि सदाचारी या धर्मात्मा बनता हैं। 7. धर्म मनुष्य को ईश्वर से सीधा सम्बन्ध जोड़ता हैं और मोक्ष प्राप्ति निमित धर्मात्मा अथवा सदाचारी बनना अनिवार्य बतलाता हैं परन्तु मज़हब मुक्ति के लिए व्यक्ति को पन्थाई अथवा मज़हबी बनना अनिवार्य बतलाता हैं। और मुक्ति के लिए सदाचार से ज्यादा आवश्यक उस मज़हब की मान्यताओं का पालन बतलाता हैं। जैसे अल्लाह और मुहम्मद साहिब को उनके अंतिम पैगम्बर मानने वाले जन्नत जायेगे चाहे वे कितने भी व्यभिचारी अथवा पापी हो जबकि गैर मुसलमान चाहे कितना भी धर्मात्मा अथवा सदाचारी क्यूँ न हो वह दोज़ख अर्थात नर्क की आग में अवश्य जलेगा क्यूंकि वह कुरान के ईश्वर अल्लाह और रसूल पर अपना विश्वास नहीं लाया हैं। 8. धर्म में बाहर के चिन्हों का कोई स्थान नहीं हैं क्यूंकि धर्म लिंगात्मक नहीं हैं -न लिंगम धर्मकारणं अर्थात लिंग (बाहरी चिन्ह) धर्म का कारण नहीं है। परन्तु मज़हब के लिए बाहरी चिन्हों का रखना अनिवार्य हैं जैसे एक मुस्लमान के लिए जालीदार टोपी और दाड़ी रखना अनिवार्य हैं। 9. धर्म मनुष्य को पुरुषार्थी बनाता हैं क्यूंकि वह ज्ञानपूर्वक सत्य आचरण से ही अभ्युदय और मोक्ष प्राप्ति की शिक्षा देता हैं परन्तु मज़हब मनुष्य को आलस्य का पाठ सिखाता हैं क्यूंकि मज़हब के मंतव्यों मात्र को मानने भर से ही मुक्ति का होना उसमें सिखाया जाता है। 10. धर्म मनुष्य को ईश्वर से सीधा सम्बन्ध जोड़कर मनुष्य को स्वतंत्र और आत्म स्वालंबी बनाता हैं क्यूंकि वह ईश्वर और मनुष्य के बीच में किसी भी मध्यस्थ या एजेंट की आवश्यकता नहीं बताता। परन्तु मज़हब मनुष्य को परतंत्र और दूसरों पर आश्रित बनाता हैं क्यूंकि वह मज़हब के प्रवर्तक की सिफारिश के बिना मुक्ति का मिलना नहीं मानता। 11. धर्म दूसरों के हितों की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति तक देना सिखाता है जबकि मज़हब अपने हित के लिए अन्य मनुष्यों और पशुयों की प्राण हरने के लिए हिंसा रुपी क़ुरबानी का सन्देश देता है। 12. धर्म मनुष्य को सभी प्राणी मात्र से प्रेम करना सिखाता हैं जबकि मज़हब मनुष्य को प्राणियों का माँसाहार और दूसरे मज़हब वालों से द्वेष सिखाता हैं। 13. धर्म मनुष्य जाति को मनुष्यत्व के नाते से एक प्रकार के सार्वजानिक आचारों और विचारों द्वारा एक केंद्र पर केन्द्रित करके भेदभाव और विरोध को मिटाता हैं तथा एकता का पाठ पढ़ाता हैं। परन्तु मज़हब अपने भिन्न भिन्न मंतव्यों और कर्तव्यों के कारण अपने पृथक पृथक जत्थे बनाकर भेदभाव और विरोध को बढ़ाते और एकता को मिटाते हैं। 14. धर्म एक मात्र ईश्वर की पूजा बतलाता हैं जबकि मज़हब ईश्वर से भिन्न मत प्रवर्तक/गुरु/मनुष्य आदि की पूजा बतलाकर अन्धविश्वास फैलाते हैं। धर्म और मज़हब के अंतर को ठीक प्रकार से समझ लेने पर मनुष्य अपने चिंतन मनन से आसानी से यह स्वीकार करके के श्रेष्ठ कल्याणकारी कार्यों को करने में पुरुषार्थ करना धर्म कहलाता हैं इसलिए उसके पालन में सभी का कल्याण है।
Vedic vichar
30-06-2022
एक विस्मृत वैदिक ऋषि-भक्त शास्त्रार्थ महारथीः पं. गणपति शर्मा’ (27 जून को स्मृति दिवस पर प्रकाशित) पं. गणपति शर्मा जी का जन्म राजस्थान के चुरु नामक नगर में सन् 1873 में श्री भानीराम वैद्य जी के यहां हुआ था। आप पाराशर गोत्रीय पारीक ब्राह्मण थे। आपके पिता ईश्वर के सच्चे भक्त व उपासक थे। पिता का यही गुण उनके पुत्र गणपति शर्मा में भी सर्वत्र दृष्टिगोचर होता है। आपकी शिक्षा कानपुर व काशी आदि स्थानों पर हुई। अपने जीवन के प्रथम 22 वर्षों में आपने संस्कृत व्याकरण एवं दर्शन ग्रन्थों का अध्ययम किया। शिक्षा पूरी कर आप अपने पितृ नगर चुरु आ गये। राजस्थान के अनेक नगरों में स्वामी दयानन्द के शिष्य पं. कालूराम जोशी ने वैदिक धर्म प्रचार की धूम मचा रखी थी। आप उनके सम्पर्क में आये और उनके विचारों व उपदेश आदि से प्रभावित होकर ऋषि दयानन्द के भक्त और आर्यसमाज के सदस्य बन गये। आर्यसमाजी बनकर पं. गणपति शर्मा जी ने वैदिक धर्म से संबधित आर्यसमाज के साहित्य का अध्ययन व मनन किया और आर्यसमाज का प्रचार आरम्भ कर दिया। सन् 1905 में गुरुकुल कांगड़ी, हरिद्वार शिक्षा संस्थान का वार्षिक उत्सव हुआ जिसमें आप सम्मिलित हुए। उन दिनों गुरुकुल कांगड़ी पूरे देश में विख्यात हो चुका था और इसके उत्सव में पूरे देश भर से ऋषि भक्त आर्यसमाजी सम्मिलित होते थे। गुरुकुल कांगड़ी के इस उत्सव में 15 हजार लोगों की श्रोतृ मण्डली के सम्मुख आपने वैदिक विषयों पर अपने प्रभावशाली व्याख्यान दिये। आपके व्याख्यानों को सुनकर आर्य जनता सहित अन्य विद्वानों पर आपकी धाक जम गई। आर्यजगत के सभी छोटे व बड़े विद्वानों का ध्यान आपकी ओर आकर्षित हुआ। उन्हें लगा कि यह विद्वान वैदिक धर्म को बुलन्दियों तक पहुंचा सकता है। इस घटना के बाद आप शेष जीवन भर आर्यसमाज के शीर्षस्थ विद्वानों में सम्मिलित रहे। गुरुकुल के वार्षिकोत्सव में मियां अब्दुल गफ्फूर से शुद्ध होकर वैदिक धर्मी बने सज्जन पं. धर्मपाल भी मौजूद थे। उत्सव के बाद गुरुकुल के आयोजन पर अपने विस्तृत लेख में उन्होंने पं. गणपति शर्मा के व्याख्यान की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए लिखा कि वह उनके व्यक्तित्व के विषय में शब्दों में कुछ कहने में असमर्थ हैं। उन्होंने पाठकों को कहा कि पं. गणपति शर्मा की ज्ञान प्रसूता वाणी की महत्ता का अनुमान उसे स्वयं सुनकर ही लगाया जा सकता है, शब्दों में उसको बता पाना सम्भव नहीं। पं. गणपति शर्मा जी की एक विशेषता यह भी थी कि वह बिना लाउडस्पीकर के 15-15 हजार की संख्या में 4-4 घंटों तक धाराप्रवाह व्याख्यान करते थे। उनकी विद्वता एवं व्याख्यान कला में रोचकता के कारण श्रोता उनका व्याख्यान सुनकर थकते नहीं थे। पंडित जी का व्यक्तित्व व जीवन महान था जिसके कारण प्रत्येक श्रोता उनके प्रति श्रद्धा का भाव रखता था और उनका एक-एक शब्द उसके हृदय को प्रभावित व आनन्दित करता था। गुरुकुल कांगड़ी के संस्थापक, अपने समय के देश और आर्यसमाज के प्रसिद्ध नेता, सुधारक और शिक्षा जगत की महान विभूति स्वामी श्रद्धानंद ने उनके विषय में लिखा है कि लोगों में पंडित गणपति शर्मा जी के प्रति अगाध श्रद्धा का कारण उनकी केवल मात्र विद्वता एवं व्याख्यान कला ही नहीं अपितु उनका शुद्ध एवं उच्च आचरण, सेवाभाव व चरित्र है। उनके इन व्यक्तिगत गुणों का ही प्रभाव था कि वह जिस विपक्षी विद्वान से शास्त्रार्थ व चर्चा करते थे, वह उनका सुहृद मित्र वा प्रशंसक बन जाता था। सन् 1904 में अविभाजित भारत के पश्चिमी पंजाब के पसरूर नगर में पादरी ब्राण्डन ने एक सर्व धर्म सम्मेलन का आयोजन किया। आर्यसमाज की ओर से इस कार्य में पं. गणपति शर्मा सम्मलित हुए। पंडित जी की विद्वता एवं सद्व्यवहार का पादरी ब्राण्डन पर गहरा प्रभाव पड़ा और वह पं. जी के मित्र एवं प्रशंसक हो गये। इसके बाद उन्होंने जब भी कोई आयोजन किया वह आर्यसमाज जाकर पं. गणपति को भेजने का आग्रह करते थे। ऐसे ही अनेक उदाहरण और हैं जब प्रतिपक्षी विद्वान शास्त्रार्थ में पराजित होने पर भी उनके सद्व्यवहार की प्रशंसा करते थे। एक ओर जहां पंडित जी के व्यक्तिगत आचरण में सभी मतों के व्यक्तियों के प्रति आदर का भाव था, वहीं धर्म प्रचार में भी वह सदैव तत्पर रहते थे। सन् 1904 में उनके पिता एवं पत्नी का अवसान हुआ। पिता की अन्त्येष्टि सम्पन्न कर आप धर्म प्रचार के लिए निकल पड़े और चुरू से कुरुक्षेत्र आ गये जहां उन दिनों सूर्यग्रहण पर मेला लगा था। अन्य मतावलम्बियों ने भी यहां धर्म प्रचार कि अपने-अपने शिविर लगाये थे। इस मेले पर ‘पायनियर’ पत्रिका में एक योरोपियन लेखक का लेख छपा जिसमें उसने स्वीकार किया कि मेले में आर्यसमाज का प्रभाव अन्य प्रचारकों से अधिक था। इसका श्रेय भी पं. गणपति शर्मा को है जो यहां वैदिक धर्म प्रचार के प्राण थे। धर्म प्रचार की धुन के साथ पण्डित जी त्याग-वृति के भी धनी थे। इसका उदाहरण उनके जीवन में तब देखने को मिला जब पत्नी के देहान्त हो जाने पर उसके सारे आभूषण लाकर गुरुकुल महाविद्यालय, ज्वालापुर को दान कर दिए। पंडित जी ने देश भर में पौराणिक, ईसाई, मुसलमान और सिखों से अनेक शास्त्रार्थ किये एवं वैदिक धर्म की मान्यताओं को सत्य सिद्ध किया। 12 सितम्बर, 1906 को श्रीनगर (कश्मीर) में महाराजा प्रताप सिंह जम्मू कश्मीर की अध्यक्षता में पं. गणपति शर्मा ने पादरी जानसन से शास्त्रार्थ किया। पादरी जानसन संस्कृत भाषा एवं दर्शनों का विद्वान था। उसने कश्मीरी पण्डितों को शास्त्रार्थ की चुनौती दी थी परन्तु जब कोई तैयार नहीं हुआ तो पादरी महाराजा प्रताप सिंह जी के पास गया और कहा कि आप राज्य के पण्डितों से मेरा शास्त्रार्थ कराईये अन्यथा उसे विजय पत्र दीजिए। महाराज के कहने पर भी राज्य का कोई सनातनी पौराणिक पण्डित शास्त्रार्थ के लिए तैयार नहीं हुआ, कारण उनमें वेदादि शास्त्रों का ज्ञान व योग्यता न थी। इस स्थिति धर्म विश्वासी महाराजा चिन्तित हो गए। इसी बीच महाराजा को कहा गया कि एक आर्यसमाजी पंडित श्रीनगर में विराजमान है। वह पादरी जानसन का दम्भ चूर करने में सक्षम हैं। राज्य पण्डितों ने पं. गणपति शर्मा का आर्य समाजी होने के कारण विरोध किया जिस पर महाराजा ने पण्डितों को लताड़ा और शास्त्रार्थ की व्यवस्था कराई। पं. गणपति शर्मा को देख कर पादरी जानसन घबराया और बहाने बनाने लगा परन्तु महाराजा की दृणता के कारण उसे शास्त्रार्थ करना पड़ा। शास्त्रार्थ में पण्डित जी ने पादरी जानसन के दर्शन पर किए गए प्रहारों का उत्तर दिया और उनसे कुछ प्रश्न किए। शास्त्रार्थ संस्कृत में हुआ। सभी राज पण्डित शास्त्रार्थ में उपस्थित थे। पण्डित गणपति शर्मा के शास्त्रार्थ में किये गये पादरी के प्रश्नों के समाधानों और पंडित जी के पादरी जानसन द्वारा अनुत्तरित प्रश्नों से राज पण्डित विस्मित हुए। उन्हें जहां पण्डित गणपति शर्मा के प्रगाढ़ शास्त्र ज्ञान की जानकारी हुई वहीं अपनी अज्ञता पर दुःख व लज्जा का भी अनुभव हुआ। अगले दिन 13 सितम्बर को भी शास्त्रार्थ जारी रहना था परन्तु पादरी जानसन चुपचाप खिसक गये। इस विजय से पण्डित गणपति शर्मा जी की कीर्ति पूरे देश में फैल गई। महाराज प्रताप सिंह जी को भी इससे राहत मिली। उन्होंने पंडित जी का यथोचित आदर सत्कार कर उन्हें कश्मीर आते रहने का निमन्त्रण दिया। वृक्षों में मनुष्य के समान सत्-चित् जीवात्मा है या नहीं, इस विषय पर पंडित गणपति शर्मा जी का आर्यजगत के सुप्रसिद्ध विद्वान, शास्त्रार्थ महारथी और गुरुकुल महाविद्यालय के संस्थापक स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती से 5 अप्रैल सन् 1912 को गुरुकुल महाविद्यालय, ज्वालापुर में शास्त्रार्थ हुआ था। दोनों विद्वानों में परस्पर मैत्री सम्बन्ध थे। यद्यपि इस शास्त्रार्थ में हार-जीत का निर्णय नहीं हुआ फिर भी दोनों ओर से जो प्रमाण, युक्तियां एवं तर्क दिये गये, वह महत्वपूर्ण थे एवं जिज्ञासु व स्वाध्यायशील श्रोताओं के लिए उपयोगी एवं ज्ञानवर्धक थे। पंडित गणपति शर्मा जी का जीवन मात्र 39 वर्ष का रहा। वह चाहते थे कि वह व्याख्यान शतक नाम से पुस्तकों की एक श्रृखला तैयार करें। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने मस्जिद मोठ में एक मुद्रण प्रेस भी स्थापित किया था। वेद प्रचार कार्यों में अत्यन्त व्यस्त रहने व अवकाश न मिलने के कारण वह मात्र एक पुस्तक ही लिख सके जिसका नाम है ‘ईश्वर भक्ति विषयक व्याख्यान।’ काश उनका जीवन कुछ लम्बा होता और वह कुछ अधिक ग्रन्थ हमें दे पाते। विद्वानों की अल्पकाल व अल्पायु में मृत्यु का ईश्वरीय विधान समझना असम्भव है। पंडित जी ने देश भर में घूम कर वैदिक धर्म का प्रचार किया। 103 डिग्री ज्वर होने की स्थिति में भी आप व्याख्यान दिया करते थे। जीवन में रोग होने पर आप कभी विश्राम नहीं करते थे। इसका परिणाम आपके अपने और देश व समाज के हित में अच्छा नहीं हुआ। ऐसी परिस्थितियों में जिस अनहोनी की आशंका होती है वही हुई। 27 जून सन् 1912 को मात्र 39 वर्ष की आयु में आपका निधन हो गया। पण्डित जी ने अपने जीवन में लोक, पुत्र व वित्त एषणाओं को त्याग कर स्वयं को वैदिक धर्म के प्रचार के लिए समर्पित किया था। लेख को विराम देते हुए पं. नाथूराम शंकर शर्मा की निम्न प्रेरक पंक्तियां प्रस्तुत हैं: “भारत रत्न भारती का बड़़भागी भक्त, शंकर प्रसिद्ध सिद्ध सागर सुमति का। मोहतम हारी ज्ञान पूषण प्रतापशील, दूधन विहीन शिरो भूषण विरितिका।। लोकहितकारी पुण्य कानन विहारी वीर, वीर धर्मधारी अधिकारी शुभगति का। देख लो विचित्र चित्र वांच लो चरित्र मित्र, नाम लो पवित्र स्वर्गगामी ‘गणपति’ का।।” -मनमोहन कुमार आर्य
श्रीकृष्ण की ईश्वर भक्ति. (Vedic vichar)
30-06-2022
श्रीकृष्ण ईश्वरोपासक थे। वे नित्यप्रति सन्ध्या, हवन और गायत्री-जाप करते थे। यदि वे स्वयं ईश्वर थे तो क्या ईश्वर अपनी उपासना करेगा? दूतकर्म पर जाते समय मार्ग में सूर्यास्त के समय उन्होंने रथ रुकवाकर सन्ध्या की। *अवतीर्य रथात् तूर्णं कृत्वा शौचं यथाविधि ।* *रथमोचनमादिश्य सन्ध्यामुपविवेश ह ।।* ―(महा० उद्योग० ८४/२१) *भावार्थ―*_जब सूर्यास्त होने लगा तब श्रीकृष्ण ने शीघ्र ही रथ से उतरकर रथ खोलने का आदेश दिया और पवित्र होकर सन्ध्योपासना में लग गये।_ विदुर जी के घर पर भी उनके सन्ध्या-वदन करने का वर्णन मिलता है― *कृतोदकानुजप्यः स हुताग्निः समलङ्कृतः ।* *ततश्चादित्यमुद्यन्तमुपातिष्ठत् माधवः ।।* *भावार्थ―*_स्नान, सन्ध्या तथा जप करने के पश्चात् अग्निहोत्र करके श्रीकृष्ण ने समलङ्कृत होकर सूर्य का उपस्थान किया।_ भागवत पुराण में भी उनकी ईश्वरभक्ति की ओर सङ्केत किया गया है― *ब्राह्ममुहूर्त्ते उत्थाय वायुं पस्पृश्य माधव ।* *दध्यौ प्रसन्नकरण आत्मानं तमसः परम् ।।* ―(भागवत १०/७०/४) *भावार्थ―*_श्रीकृष्ण ब्राह्ममुहूर्त में उठकर पवित्र जल से हाथ-मुँह धोकर अत्यन्त प्रसन्न हो ह्रदय में प्रकृति से परे ज्योतिःस्वरुप ब्रह्म का ध्यान करने लगे।_ *अथाप्लुतोऽम्भस्यमले यथाविधि क्रियाकलापं परिधाय वाससी ।* *चकार सन्ध्योपगमादि तत्तमो हुतानलो ब्रह्म जजाप वाग्यतः ।।* ―(भागवत १०/७०/६) *भावार्थ―*_भगवान् श्रीकृष्ण ने स्वच्छ एवं पवित्र जल में डुबकी लगाकर स्नान किया फिर स्वच्छ धोती पहनकर एवं दुपट्टा ओढ़कर बड़ी श्रद्धा ओर कुशलता के साथ विधिपूर्वक सन्ध्योपासनादि नित्यकर्म किया।
बकरी को शेर कैसे बनाए? (Vedic vichar)
30-06-2022
मोहन गुप्ता पौराणिक हिन्दू परिवार से थे। आप पेशे से कंप्यूटर इंजीनियर थे। आपका मूर्ति पूजा एवं पौराणिक देवी देवताओं की कथाओं में अटूट विश्वास था। आप बहुराष्ट्रीय कंपनी में कार्यरत थे। आपको अनेक बार कंपनी की ओर से विदेश में कई महीनों के लिए कार्य के लिए जाना पड़ता था। एक बार आपको अफ्रीका में केन्या कुछ महीनों के लिए जाना पड़ा। केन्या की राजधानी नैरोबी में आपको कंपनी की ओर से मकान मिला। आपकी कंपनी द्वारा हैदराबाद से एक अन्य इंजीनियर भी आया था जिसके साथ आपको मकान साँझा करना था। हैदराबाद से आया हुआ इंजीनियर कट्टर मुसलमान, पाँच वक्त का नमाज़ी और बकरे जैसे दाढ़ी रखता था। उसने आते ही मोहन गुप्ता से धार्मिक चर्चा आरम्भ कर दी। मोहन गुप्ता से कभी वह पूछता आपके श्री कृष्ण जी ने नहाती हुई गोपियों के कपड़े चुराये थे। क्या आप उसे सही मानते है। कभी कहता आपके इंद्र ने वेश बदलकर अहिल्या के साथ शारीरिक सम्बन्ध बनाया था। क्या आप ऐसे इंद्र को देवता मानेंगे? मोहन गुप्ता के लिए यह अनुभव बिलकुल नवीन था। उन्होंने अपने जीवन में धर्म का अर्थ मंदिर जाना, मूर्ति पूजा करना, भोग लगाना, ब्राह्मणों को दान-दक्षिणा देना, तीर्थ यात्रा करना ही समझा था। धर्म ग्रंथों में क्या लिखा है। यह तो पंडित लोगों का विषय है। यह संस्कार उन्हें अपने घर में मिला था। उनका मज़हबी साथी आते-जाते इस्लाम का बखान और पुराणों पर आक्षेप करने में कोई कसर नहीं छोड़ता था। तंग आकर उन्होंने अपने ऑफिस में एक भारतीय जो हिन्दू था से अपनी समस्या बताई। उस भारतीय ने कहा यहाँ नैरोबी में हिन्दू मंदिर है। उसमें जाकर पंडितों से अपनी समस्या का समाधान पूछिए। मोहन गुप्ता अत्यन्त श्रद्धा और विश्वास के साथ स्थानीय हिन्दू मंदिर गए। मंदिर के पुजारी को अपनी समस्या बताई। पुजारी पहले तो अचरज में आया फिर हरि ओम कह चुप हो गया। मोहन निराश होकर भारी क़दमों से वापिस लौट आये। हताशा और भारी क़दमों के साथ वह लौट रहे थे कि उन्हें नैरोबी का आर्यसमाज मंदिर दिखा। उन्होंने मंदिर में प्रवेश किया तो अग्निहोत्र चल रहा था। उन्होंने अग्निहोत्र के पश्चात प्रवचन सुना और उससे स्वामी दयानन्द, वेद और सत्यार्थ प्रकाश के विषय में उन्हें जानकारी मिली। प्रवचन के पश्चात उन्होंने अपनी समस्या से समाज के अधिकारियों को अवगत करवाया। समाज के प्रधान ने उन्हें स्वामी दयानन्द कृत सत्यार्थ प्रकाश देते हुए कहा- आपकी समस्या का समाधान इस पुस्तक में है। 14 वें समुल्लास में आपको आपकी सभी शंकाओं का समाधान मिल जायेगा। मोहन गुप्ता धन्यवाद देते हुए लौट गए। अगले एक सप्ताह तक उन्होंने सत्यार्थ प्रकाश का स्वाध्याय किया। 14 वें समुल्लास को पढ़ते ही उनके निराश चेहरे पर चमक आ गई। बकरी अब शेर बन चुकी थी। शाम को उनके साथ कार्य करने वाले मुस्लिम इंजीनियर वापिस आये। मुस्लिम इंजीनियर ने आते ही मोहन गुप्ता से पूछा आपको मेरे प्रश्नों का उत्तर नहीं मिला तो इस्लाम स्वीकार कर लो। अब मोहन गुप्ता की बारी थी। उन्होंने सत्यार्थ प्रकाश के 14 वें समुल्लास के आधार पर क़ुरान के विषय पर प्रश्न पूछने आरम्भ कर दिए। मजहबी मुसलमान के होश उड़ गए। उसने पूछा तुम्हें यह सब किसने बताया। मोहन ने उसे सत्यार्थ प्रकाश के दर्शन करवाए। देखते ही मजहबी मुसलमान के मुंह से निकला। इस किताब ने तो हमारे सारे मंसूबों पर पानी फेर दिया। नहीं तो अभी तक हम सारे हिन्दुओं को मुसलमान बना चुके होते। मोहन ने अपने ह्रदय से स्वामी दयानन्द और आर्यसमाज का धन्यवाद किया। भारत वापिस आकर वह सदा के लिए आर्यसमाज से जुड़ गए एवं आर्यसमाज के समर्पित कार्यकर्ता बन गए। (सत्य इतिहास पर आधारित) वीर सावरकर के शब्दों में स्वामी दयानन्द कृत सत्यार्थ प्रकाश ने हिन्दू जाति की ठंडी पड़ी रगों में उष्णता का संचार कर दिया। अगर समस्त हिन्दू समाज स्वामी दयानन्द कृत सत्यार्थ प्रकाश के उपदेश को मानने लग जाये तो हिन्दू (आर्य) जाति संसार में फिर से विश्व गुरु बन जाये।
गौतम बुद्ध यज्ञ समर्थक थे. (Vedic vichar)
30-06-2022
- कार्तिक अय्यर ।।ओ३म्।। गुजरात सरकार ने वर्षा की कामना हेतु वृष्टि यज्ञ करवाने का निर्णय किया है। हम उनके निर्णय का स्वागत करते है बनिस्पत यज्ञ पूर्ण वैदिक रीति से होना चाहिए। अपनी आदत के मुताबिक कुछ अंबेडकरवादी अग्निहोत्र आदि यज्ञों को पाखंड कह कर उपहास कर रहे हैं। परंतु इन्हें यह तक नहीं मालूम कि गौतम बुद्ध पूर्ण रूप से अग्निहोत्र के समर्थक थे। हम बुद्धों के ग्रन्थ सुत्तनिपात से कुछ प्रमाण रखते हैं, जिससे हमारा दावा सिद्ध होगा। सुंदरिकभारद्वाज सुत्त, सुत्तनिपात (३,४) में सुंदरिक नामक ब्राह्मण गौतम बुद्ध को श्रेष्ठ ब्राह्मण समझकर उनको यज्ञशेष भेंट करता है। बुद्ध जी बड़े प्रेम से उसे ग्रहण करते हैं। उनके संवाद के कुछ अंश संक्षेप में लिखते हैं। हमने डॉ भिक्षु धर्मरक्षित की सुत्तनिपात हिंदी टीका का अनुसरण किया है। (क):- यज्ञ में किसको दक्षिणा दें, इस विषय पर बुद्ध का उपदेश:- ब्राह्मण:- इस संसार मे ऋषियों,मनुष्यों, क्षत्रियों और ब्राह्मणों ने किस कारण यज्ञ किये थे? भगवान बुद्ध:- यज्ञ में पारंगत किसी ज्ञानी को आहुति मिल जाये तो वो यज्ञ सफल होता है, ऐसा मैं कहता हूं। ब्राह्मण:- मेरा यज्ञ अवश्य सफल होगा क्योंकि मैंने आप जैसे ज्ञानी के दर्शन पाये। कृपया बतायें, मैं यज्ञ करना चाहता हूं। मेरा यज्ञ कैसे सफल होगा? भगवान बुद्ध:- जो ब्राह्मण पुण्य की कामना से यज्ञ की कामना करता है, उसे चाहिए कि सत्य , इंद्रिय दमन, ज्ञान पारंगत व ब्रह्मचर्य वास समाप्त मुनि को समयानुसार हव्य प्रदान करे। जो कामभोगों को छोड़कर बेघर होकर रह रहा है, ऐसे मुनि को समयानुसार हव्य प्रदान करे। जो राग रहित संयमी मुनि है, उसे हवि प्रदान करे। जो सदा स्मृतिमान् हो, ममत्व को छोड़कर संसार में अनासक्त होकर विचरण करता है, उसे हवि प्रदान करें। जिसने जन्म मृत्यु का अंतर जान लिया, जो गंभीर जलाशय की तरह तथागत है, उसे पूड़ी और चिउरा के योग्य जानें। जिसने क्रोध को शांत कर दिया, लोक परलोक का ज्ञान रखने वाला हो,जो मोहरहित हो, जो अंतिम शरीर धारण करने वाला हो, वो यज्ञ की पूड़ी व चिउरा खाने का अधिकारी है। इत्यादि। ब्राह्मण:- हे पूज्य! आप साक्षात् ब्रह्म ही हैं। आप मेरा पूड़ी व चिउरा ग्रहण करें। बुद्ध जी:- धर्मोपदेश से प्राप्त भोजन मुझे त्याज्य है। ब्राह्मण:- तो फिर मेरी दक्षिणा कौन ग्रहण करेगा? बुद्ध जी:- जो अहिंसक, परिशुद्ध , कामभोगों व वासनाओं से मुक्त हो, जो मौनेय व्रत धारी मुनि हो, उसके यज्ञ में आने पर आंखे नीची करके अन्न व पेय से उसकी पूजा करो। इस प्रकार दक्षिणा सफल होगी। ब्राह्मण;- आप बुद्ध पूड़ी और चिउरा के योग्य हैं आप उत्तम पुण्य क्षेत्र हैं। सारे संसार में पूज्य हैं। आपही को देना महाफलदायी है। आपने अनेक प्रकार से धर्म प्रकाशित किया है। इसलिये मैं आपकी शरण में आ रहा हूं। (ख):- गौतम बुद्ध केवल हिंसामय यज्ञों का खंडन करते थे:- बुद्ध जी सुत्तनिपात, ब्राह्मणधम्मिक सुत्त (२,७) में प्राचीन ब्राह्मणों, ऋषि मुनियों के प्रति बहुत ऊंचे विचार प्रकट करचे हैं। वे कहते हैं:- ब्राह्मणों ने प्राचीन ब्रह्मचर्य, शील व क्षमा की प्रशंसा की।।१०।। उन्होंने धार्मिक रीति से चावल,शयन, वस्त्र, घी और तेल की याचना करके यज्ञ का संविधान किया।।१२।। गौएं माता पिता के समान हैं, इनसे औषधियां उत्पन्न होती हैं। ये अन्न,बल,वर्ण, तथा सुख देने वाली है। उन ब्राह्मणों ने कभी गौओं की हत्या नहीं की।।१३,१४।। गौतम बुद्ध यह भी कहते हैं कि कुछ स्वार्थी ब्राह्मणों ने यज्ञ में पशुबलि आरंभ कर दी, पर पहले के ब्राह्मण अहिंसक यज्ञ करते थे। निर्दोष पशुओं को कटता देख देव,असुर,नाग,मानव आदि सब अधर्म मानकर आश्चर्यचकित हो गये। ये पशुबलि का पाप तब से अब तक चलता आ रहा है। इसे बंद होना चाहिए, ऐसा बुद्ध का मत है। यहां जान लेना चाहिए कि बुद्ध जी ने स्पष्ट रूप से चावल,घी,तेल आदि से यज्ञ का समर्थन किया है, और हिंसक यज्ञ का खंडन। बुद्ध को अहिंसक= अध्वर यज्ञ से कोई दिक्कत नहीं थी। (ग):- अग्निहोत्र यज्ञों का मुख है:- सेल सुत्त (३,७) में आया है कि बिंबसार राजा नेे एक महायज्ञ का आयोजन किया था। उसमें बुद्ध जी साढ़े बारह सौ शिष्यों को लेकर आमंत्रित होते। ( सुत्तनिपात पेज १४७) इससे पता चलता है कि बुद्ध जी को यज्ञ में आने जाने में कोई दिक्कत न थी। इसी सेल सुत्त में आगे कहते हैं:- "अग्गिहुत्तमुखा यञ्ञा , सावित्ती छंदसो मुखं।" अर्थात छंदो मे सावित्री छंद(गायत्री मंत्र ) मुख्य है ओर यज्ञों में अग्निहोत्र मुख्य है।।२१ वीं गाथा।। अत: निम्न बातो से निष्कर्ष निकलता है कि बुध्द वास्तव मे यज्ञ विरोधी नही थे बल्कि यज्ञ मे जीव हत्या करने वाले के विरोधी थे। इसलिये गौतम बुद्ध को अपना आदर्श करने वाले अंबेडकरवादियों को अहिंसक यज्ञ का विरोध नहीं करना चाहिए, अपितु यज्ञ का समर्थन व स्वयं अग्निहोत्र करना चाहिए। । ।।धन्यवाद।।
Vedic vichar
30-06-2022
‘प्रसिद्ध राजनीतिज्ञ बलराज मधोक के पिता श्री जगन्नाथ जी का आर्यसमाज विषयक प्रेरणादायक संस्मरण’ मनमोहन कुमार आर्य प्रोफेसर बलराज मधोक के पिता का नाम श्री जगन्नाथ था। आप क्षत्रिय वर्ण के थे। आप आर्यसमाज, हजूरीबाग, श्रीनगर, कश्मीर के मंत्री रहे। देश की आजादी से पूर्व जिन दिनों आप युवा थे, आपने नौकरी के लिए डाकतार विभाग में इंस्पैक्टर के पद पर नियुक्ति के लिए आवेदन किया था। इस पद की लिखित परीक्षा में आप सफल हो गये थे और अब एक साक्षात्कार के बाद सफल होने पर आपको यह पद मिलना था। आपको साक्षात्कार के लिए बुलाया गया। आपका साक्षात्कार एक अंग्रेज अधिकारी ने लिया। साक्षात्कार में उसने आप से पूछा कि आप किस महापुरूष और ग्रन्थ को अपना आदर्श मानते हैं और आपकी विचारधारा क्या है? श्री जगन्नाथ जी ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि मैं ऋषि दयानन्द जी और उनके ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश को मानता हूं और मेरी विचारधारा आर्यसमाजी है। आपका यह उत्तर सुनकर अंग्रेज अधिकारी ने सर्वथा योग्य होते हुए भी आपका चयन नहीं किया। कारण आपको अंग्रेज अधिकारी के व्यवहार से ज्ञात हो चुका था। यह कारण आपका ऋषि दयानन्द का अनुयायी होना और सत्यार्थ प्रकाश का अध्ययन करना था। कारण का ज्ञान होने पर श्री जगन्नाथ जी ने निर्णय किया कि उन्हें जीवन में सरकारी नौकरी नहीं करनी है। यह संस्मरण श्री बलराज मधोक ने अपनी आत्मकथा में दिया है। आर्यों ने देश, धर्म और जाति की रक्षा के लिए अनगिनत बलिदान दिए। यह इतिहासिक सत्य है। हम आशा करते हैं कि आर्यसमाज के लिए अपना जीवन दांव पर लगाने वाले श्री जगन्नाथ जी को आर्यसमाजी बन्धु सादर श्रद्धापूर्वक स्मरण करेगें और इस प्रभावपूर्ण घटना का प्रचार करेंगे। (धन्य है देव दयानन्द जिनके बताये मार्ग पर चलने के लिए सच्चे आया सदा तत्पर रहते है। )
Vedic vichar
30-06-2022
कठोपनिषद से यम नचिकेता संवाद विषय- जीवात्मा की चार अवस्थाएं जीवात्मा के विकास की चार अवस्थाएं हैं। जीवात्मा 'हंस' है, 'वसु' है, 'होता' है, 'अतिथि' है। जब जीवात्मा उत्तरोत्तर विकास करता जाता है तव ये अवस्थाएं प्राप्त होती जाती हैं। जीवात्मा जब हंस की तरह जीवन व्यतीत करता है, जैसे हंस पानी में रहकर पानी में नहीं भीगता है उसी प्रकार से जीवात्मा संसार में रहकर संसार में लिप्त न हो यह पहली विकसित अवस्था है। इस तरह का अभ्यास करने वाले को कहा जाता है कि वह नर देह में वास कर रहा है, इससे नीचा तो पशु समान है, यह ब्रह्मचर्य की अवस्था है। इसके बाद दूसरी अवस्था आती है 'वसु' की अवस्था। यह वो अवस्था है जब मनुष्य वसु की तरह अपना जीवन व्यतीत करता है, अर्थात् स्वयं भी वसता है तथा दूसरों को भी बसाता है, दूसरों की हर संभव मदद करता है वह मानो नर देह से उत्तम शरीर में वास कर रहा है, इसे वर देह भी कहते हैं। यह गृहस्थ की अवस्था है। तीसरी विकसित अवस्था 'होता' की आती है। जिस प्रकार से हवन करते समय सामग्री को हवन में अर्पित किया जाता है, इसी प्रकार से जब मनुष्य अपने आप को समाज के लिए अर्पित कर दे। अब उसका अपना कुछ नहीं है, अपना सर्वस्व दूसरों के उपकार के लिए समर्पित करने लगे। वह प्रत्येक वस्तु को अपना न समझ कर परमात्मा की समझता है और त्याग भावना अपनाकर जीवन जीता है।। यह ऋत देह अवस्था भी कहलाती है। ऋत अर्थात निरपेक्ष सत्य। इस अवस्था में वह समझ जाता है कि संसार के विषय ऋत नहीं हैं, सिर्फ परमात्मा ही ऋत है, निरपेक्ष सत्य वही परमात्मा है। इस अवस्था को वानप्रस्थ की अवस्था भी कहते हैं। इससे और अधिक विकसित चौथी अवस्था 'अथिति' है। जब मनुष्य इस देह के वास को अथिति की तरह समझने लग जाता है। अब मनुष्य अपने ज्ञानरूपी धन से समाज का घूम-घूम कर उपकार करता है कहीं भी स्थायी रूप से नहीं रहता और पूर्ण रूप से परमात्मा को समर्पित हो जाता है, वह अत्यंत ऊँचा उठ जाता है, इसे व्योमदेह भी कहते हैं। वास्तव में यह अवस्था संन्यास की अवस्था है। इस प्रकार से जो अपनी आत्मा को रथी और देह को रथ समझकर तथा जीवन को आश्रमों की यात्रा मानकर इस यात्रा को निभाता है, वह 'ज्ञानात्मा' से 'महानात्मा' और फिर 'महानात्मा' से -- 'शान्तात्मा' हो जाता है। उसी में तीनों नचिकेत अग्नियां प्रदीप्त होती हैं, और वही 'ब्रह्मयज्ञ' के वास्तविक अर्थ को समझता है।
फूलों का चित्र और भौंरा. (Vedic vichar)
30-06-2022
-महात्मा आनन्द स्वामी सरस्वती एक भव्य महल के सजे हुए कमरे में एक सुन्दर युवक अकेला बैठा है। वह कमरे में लगे हुए चित्रों को ध्यानपूर्वक देख रहा है। दीवारों पर विभिन्न प्राकृतिक दृश्यों, उद्यानों, गुलदस्तों-फूलों के गुच्छों, युद्धों और नाना प्रकार के दृश्यों के चित्र हैं। देखते-देखते उसकी दृष्टि एक पुष्प के चित्र पर रुक गई। चित्रकार ने उस फूल का चित्र बनाने में कमाल किया था। पंखुड़ियों में वैसी ही सुर्खी थी। नीला और हरापन भी उसी मात्रा में दिखाई देते थे। दण्डी और उसके साथ लगे हुए कांटे तथा पत्ते भी वैसे ही दिखाई देते थे। लड़का चित्रकार की चित्रकला पर चकित हो रहा था और मन-ही-मन सोच रहा था कि सचमुच इस फूल के असली और नकली होने का विवेक करना तनिक कठिन है। इतने में उसने देखा कि एक भौंरा उड़ता हुआ कमरे में आया। उसने सारे कमरे में चक्कर लगाया और बड़ी व्याकुलता से फूल के चित्र पर बैठ गया, परन्तु वह शीघ्र ही फिर उड़ा और फूल के चित्र के इधर-उधर घूमने लगा। भौंरा एक बार पुनः चित्र पर बैठा, परन्तु बैठते ही फिर उड़ा। उसकी उड़ान और उसकी चेष्टाएं स्पष्ट बताती हैं कि उसका मन बेचैन हो रहा है। वह बेचैनी और घबराहट का शिकार हुआ है। उसे किसी करवट चैन नहीं आता। भौंरा अब उड़कर कमरे से बाहर निकलना चाहता है, परन्तु फिर पलटा और आकर बड़ी बेचैनी से चित्र पर बैठ गया, परन्तु इस बार वह घबराकर उड़ा। उसके नन्हें-नन्हें पंखों से एक विचित्र-सी आवाज निकली, जिस आवाज ने हृदय में उतरते ही शब्दों का रूप धारण कर लिया और उन शब्दों का एक वाक्य बन गया। वही वाक्य युवक के मुख से एकदम फूट पड़ा- हे पुष्प के चित्र! तू सुन्दर है। तेरा रंग निःसन्देह धोखा देने वाला है, परन्तु तुझमें न असली फूल की-सी कोमलता है और न सुगन्ध है। मुझे शहद की आवश्यकता थी, जो तू मुझे नहीं दे सकता। तू किसी की आंखों को तनिक-सी प्रसन्नता देने के काम आ सकता है, परन्तु जो तुझसे धोखा खाकर तुझपर विश्वास करके तेरे सहारे आकर बैठते हैं, तू उन्हें न सुगन्ध देता है, न शहद। संसार में वे लोग भी उस फूल के चित्र के समान हैं, जिनका शरीर सुन्दर है, जो धनी हैं, परन्तु संसारवालों के कुछ काम नहीं आते। आवश्यकता वाले उनके पास आते हैं, परन्तु निराश जाते हैं। अनाथ इनके डर सर कांपते और झिड़कियाँ खाते हुए निकलते हैं। ऐसे मनुष्य वास्तविक मनुष्य नहीं होते प्रत्युत नकली मनुष्य होते हैं। वास्तविक मनुष्य वे हैं जो फूलों की भांति संसार को सुगन्धित कर देते हैं, शहद देते हैं, जिनकी पंखुड़ियां दूसरों को सुख-शान्ति पहुंचाने के काम आती हैं, जिनके जीवन का एक-एक क्षण दूसरों के लिए समर्पित होता है। पाठक! बतलाओ आप संसार के भीतर रहकर धोखा देनेवाले नकली फूल बनना चाहते हो, या असली। इस प्रश्न को मन में विचारो और उत्तर दो। [स्त्रोत- पवमान मासिक का अप्रैल २०२० का अंक; प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ]
ईश्वर कौन है ?
24-06-2022
कौन चलाता है यह दुनियां को ??? कहाँ है ईश्वर?? तुम माँ के पेट में थे नौ महीने तक, कोई दुकान तो चलाते नहीं थे, फिर भी जिए। हाथ—पैर भी न थे कि भोजन कर लो, फिर भी जिए। श्वास लेने का भी उपाय न था, फिर भी जिए। नौ महीने माँ के पेट में तुम थे, कैसे जिए? तुम्हारी मर्जी क्या थी? किसकी मर्जी से जिए? फिर माँ के गर्भ से जन्म हुआ, जन्मते ही, जन्म के पहले ही माँ के स्तनों में दूध भर आया, किसकी मर्जी से? अभी दूध को पीनेवाला आने ही वाला है कि दूध तैयार है, किसकी मर्जी से? गर्भ से बाहर होते ही तुमने कभी इसके पहले साँस नहीं ली थी माँ के पेट में तो माँ की साँस से ही काम चलता था— लेकिन जैसे ही तुम्हें माँ से बाहर होने का अवसर आया, तत्क्षण तुमने साँस ली, किसने सिखाया? पहले कभी साँस ली नहीं थी, किसी पाठशाला में गए नहीं थे, किसने सिखाया कैसे साँस लो? किसकी मर्जी से? फिर कौन पचाता है तुम्हारे दूध को जो तुम पीते हो, और तुम्हारे भोजन को? कौन उसे हड्डी—मांस—मज्जा में बदलता है? किसने तुम्हें जीवन की सारी प्रक्रियाएँ दी हैं? कौन जब तुम थक जाते हो तुम्हें सुला देता है? और कौन जब तुम्हारी नींद पूरी हो जाती है तुम्हें उठा देता है? कौन चलाता है इन चाँद—सूर्यों को? कौन इन वृक्षों को हरा रखता है? कौन खिलाता है फूल अनंत—अनंत रंगों के और गंधों के? इतने विराट का आयोजन जिस स्रोत से चल रहा है, एक तुम्हारी छोटी—सी जिंदगी उसके सहारे न चल सकेगी? थोड़ा सोचो, थोड़ा ध्यान करो। अगर इस विराट के आयोजन को तुम चलते हुए देख रहे हो, कहीं तो कोई व्यवधान नहीं है, सब सुंदर चल रहा है, सुंदरतम चल रहा है; ईश्वर दिखता नही बल्कि दिखाता है ईश्वर सुनता नही बल्कि सुनने की शक्ति देता है संसार में कोई भी वस्तु बिना बनाये नही बनती अतः संसार भी किसी ने अवश्य बनाया है यही तो ईश्वर है। - Vedic Vichar
*जिन्नाह महान सावरकर गद्दार: भ्रम का निवारण*. (Vedic Vichar)
21-06-2022
हमारे देश में एक विशेष जमात यह राग अलाप रही है कि जिन्नाह अंग्रेजों से लड़े थे इसलिए महान थे। जबकि वीर सावरकर गद्दार थे क्यूंकि उन्होंने अंग्रेजों से माफ़ी मांगी थी। वैसे इन लोगों को यह नहीं मालूम कि जिन्नाह इस्लाम की मान्यताओं के विरुद्ध सारे कर्म करते थे। जैसे सूअर का मांस खाना, शराब पीना, सिगार पीना आदि। वो न तो पांच वक्त के नमाजी थे। न ही हाजी थे। न ही दाढ़ी और टोपी में यकीन रखते थे। जबकि वीर सावरकर। उनका तो सारा जीवन ही राष्ट्र को समर्पित था। पहले सावरकर को जान तो लीजिये। 1. वीर सावरकर पहले क्रांतिकारी देशभक्त थे जिन्होंने 1901 में ब्रिटेन की रानी विक्टोरिया की मृत्यु पर नासिक में शोक सभा का विरोध किया और कहा कि वो हमारे शत्रु देश की रानी थी, हम शोक क्यूँ करें? क्या किसी भारतीय महापुरुष के निधन पर ब्रिटेन में शोक सभा हुई है.? 2. वीर सावरकर पहले देशभक्त थे जिन्होंने एडवर्ड सप्तम के राज्याभिषेक समारोह का उत्सव मनाने वालों को त्र्यम्बकेश्वर में बड़े बड़े पोस्टर लगाकर कहा था कि गुलामी का उत्सव मत मनाओ... 3. विदेशी वस्त्रों की पहली होली पूना में 7 अक्तूबर 1905 को वीर सावरकर ने जलाई थी... 4. वीर सावरकर पहले ऐसे क्रांतिकारी थे जिन्होंने विदेशी वस्त्रों का दहन किया, तब बाल गंगाधर तिलक ने अपने पत्र केसरी में उनको शिवाजी के समान बताकर उनकी प्रशंसा की थी जबकि इस घटना की दक्षिण अफ्रीका के अपने पत्र 'इन्डियन ओपीनियन' में गाँधी ने निंदा की थी... 5. सावरकर द्वारा विदेशी वस्त्र दहन की इस प्रथम घटना के 16 वर्ष बाद गाँधी उनके मार्ग पर चले और 11 जुलाई 1921 को मुंबई के परेल में विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार किया... 6. सावरकर पहले भारतीय थे जिनको 1905 में विदेशी वस्त्र दहन के कारण पुणे के फर्म्युसन कॉलेज से निकाल दिया गया और दस रूपये जुर्माना लगाया ... इसके विरोध में हड़ताल हुई... स्वयं तिलक जी ने 'केसरी' पत्र में सावरकर के पक्ष में सम्पादकीय लिखा... 7. वीर सावरकर ऐसे पहले बैरिस्टर थे जिन्होंने 1909 में ब्रिटेन में ग्रेज-इन परीक्षा पास करने के बाद ब्रिटेन के राजा के प्रति वफादार होने की शपथ नही ली... इस कारण उन्हें बैरिस्टर होने की उपाधि का पत्र कभी नही दिया गया... 8. वीर सावरकर पहले ऐसे लेखक थे जिन्होंने अंग्रेजों द्वारा ग़दर कहे जाने वाले संघर्ष को '1857 का स्वातंत्र्य समर' नामक ग्रन्थ लिखकर सिद्ध कर दिया... 9. सावरकर पहले ऐसे क्रांतिकारी लेखक थे जिनके लिखे '1857 का स्वातंत्र्य समर' पुस्तक पर ब्रिटिश संसद ने प्रकाशित होने से पहले प्रतिबन्ध लगाया था... 10. '1857 का स्वातंत्र्य समर' विदेशों में छापा गया और भारत में भगत सिंहने इसे छपवाया था जिसकी एक एक प्रति तीन-तीन सौ रूपये में बिकी थी... भारतीय क्रांतिकारियों के लिए यह पवित्र गीता थी... पुलिस छापों में देशभक्तों के घरों में यही पुस्तक मिलती थी... 11. वीर सावरकर पहले क्रान्तिकारी थे जो समुद्री जहाज में बंदी बनाकर ब्रिटेन से भारत लाते समय आठ जुलाई 1910 को समुद्र में कूद पड़े थे और तैरकर फ्रांस पहुँच गए थे... 12. सावरकर पहले क्रान्तिकारी थे जिनका मुकद्दमा अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय हेग में चला, मगर ब्रिटेन और फ्रांस की मिलीभगत के कारण उनको न्याय नही मिला और बंदीबनाकर भारत लाया गया... 13. वीर सावरकर विश्व के पहले क्रांतिकारी और भारत के पहले राष्ट्रभक्त थे जिन्हें अंग्रेजी सरकार ने दो आजन्म कारावास की सजा सुनाई थी... 14. सावरकर पहले ऐसे देशभक्त थे जो दो जन्म कारावास की सजा सुनते ही हंसकर बोले- "चलो, ईसाई सत्ता ने हिन्दू धर्म के पुनर्जन्म सिद्धांत को मान लिया." 15. वीर सावरकर पहले राजनैतिक बंदी थे जिन्होंने काला पानी की सजा के समय 10 साल से भी अधिक समय तक आजादी के लिए कोल्हू चलाकर 30 पौंड तेल प्रतिदिन निकाला... 16. वीर सावरकर काला पानी में पहले ऐसे कैदी थे जिन्होंने काल कोठरी की दीवारों पर कंकड़ और कोयले से कवितायें लिखी और 6000 पंक्तियाँ याद रखी... 17. वीर सावरकर पहले देशभक्त लेखक थे, जिनकी लिखी हुई पुस्तकों पर आजादी के बाद कई वर्षों तक प्रतिबन्ध लगा रहा... 18. आधुनिक इतिहास के वीर सावरकर पहले विद्वान लेखक थे जिन्होंने हिन्दू को परिभाषित करते हुए लिखा कि-'आसिन्धु सिन्धुपर्यन्ता यस्य भारत भूमिका.पितृभू: पुण्यभूश्चैव स वै हिन्दुरितीस्मृतः.'अर्थात समुद्र से हिमालय तक भारत भूमि जिसकी पितृभू है जिसके पूर्वज यहीं पैदा हुए हैं व यही पुण्य भू है, जिसके तीर्थ भारत भूमि में ही हैं, वही हिन्दू है... 19. वीर सावरकर प्रथम राष्ट्रभक्त थे जिन्हें अंग्रेजी सत्ता ने 30 वर्षों तक जेलों में रखा तथा आजादी के बाद 1948 में नेहरु सरकार ने गाँधी हत्या की आड़ में लाल किले में बंद रखा पर न्यायालय द्वारा आरोप झूठे पाए जाने के बाद ससम्मान रिहा कर दिया... देशी-विदेशी दोनों सरकारों को उनके राष्ट्रवादी विचारोंसे डर लगता था... 20. वीर सावरकर पहले क्रांतिकारी थे जब उनका 26 फरवरी 1966 को उनका स्वर्गारोहण हुआ तब भारतीय संसद में कुछ सांसदों ने शोक प्रस्ताव रखा तो यह कहकर रोक दिया गया कि वे संसद सदस्य नही थे जबकि चर्चिल की मौत पर शोक मनाया गया था... 21.वीर सावरकर पहले क्रांतिकारी राष्ट्रभक्त स्वातंत्र्य वीर थे जिनके मरणोपरांत 26 फरवरी 2003 को उसी संसद में मूर्ति लगी जिसमे कभी उनके निधनपर शोक प्रस्ताव भी रोका गया था.... 22. वीर सावरकर ऐसे पहले राष्ट्रवादी विचारक थे जिनके चित्र को संसद भवन में लगाने से रोकने के लिए कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गाँधी ने राष्ट्रपति को पत्र लिखा लेकिन राष्ट्रपति डॉ. अब्दुल कलाम ने सुझाव पत्र नकार दिया और वीर सावरकर के चित्र अनावरण राष्ट्रपति ने अपने कर-कमलों से किया... 23. वीर सावरकर पहले ऐसे राष्ट्रभक्त हुए जिनके शिलालेख को अंडमान द्वीप की सेल्युलर जेल के कीर्ति स्तम्भ से UPA सरकार के मंत्री मणिशंकर अय्यर ने हटवा दिया था और उसकी जगह गांधी का शिलालेख लगवा दिया...वीर सावरकर ने दस साल आजादी के लिए काला पानी में कोल्हू चलाया था जबकि गाँधी ने कालापानी की उस जेल में कभी दस मिनट चरखा नही चलाया.... 24. महान स्वतंत्रता सेनानी, क्रांतिकारी-देशभक्त, उच्च कोटि के साहित्य के रचनाकार, हिंदी-हिन्दू-हिन्दुस्थान के मंत्रदाता, हिंदुत्व के सूत्रधार वीर विनायक दामोदर सावरकर पहले ऐसे भव्य-दिव्य पुरुष, भारत माता के सच्चे सपूत थे, जिनसे अन्ग्रेजी सत्ता भयभीत थी, आजादी के बाद नेहरु की कांग्रेस सरकार भयभीत थी... 25. वीर सावरकर माँ भारती के पहले सपूत थे जिन्हें जीते जी और मरने के बाद भी आगे बढ़ने से रोका गया... पर आश्चर्य की बात यह है कि इन सभी विरोधियों के घोर अँधेरे को चीरकर आज वीर सावरकर के राष्ट्रवादी विचारों का सूर्य उदय हो रहा है.. ।।वन्देमातरम।। #VeerSavarkar #VeerSavarkarJayanti
★★ [11]अथ वेदारम्भसंस्कारविधिर्विधीयते★★. (Vedic Vichar)
21-06-2022
‘वेदारम्भ’ उस को कहते हैं—‘जो गायत्री मन्त्र से लेके साङ्गोपाङ्ग* चारों वेदों के अध्ययन करने के लिये नियम धारण करना। [*अङ्ग—शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द, ज्योतिष। उपाङ्ग—पूर्वमीमांसा, वैशेषिक, न्याय, योग, सांख्य और वेदान्त। उपवेद—आयुर्वेद, धनुर्वेद, गान्धर्व- वेद और अर्थवेद अर्थात् शिल्पशास्त्र। ब्राह्मण—ऐतरेय, शतपथ, साम और गोपथ। वेद—ऋक्, यजुः, साम और अथर्व इन सब को क्रम से पढ़े।] समय—जो दिन उपनयन-संस्कार का है, वही वेदारम्भ का है। यदि उस दिवस में न हो सके, अथवा करने की इच्छा न हो तो दूसरे दिन करे। यदि दूसरा दिन भी अनुकूल न हो तो एक वर्ष के भीतर किसी दिन करे। विधि—जो वेदारम्भ का दिन ठहराया हो, उस दिन प्रातःकाल शुद्धोदक से स्नान कराके, शुद्ध वस्त्र पहिना, पश्चात् कार्यकर्त्ता अर्थात् पिता, यदि पिता न हो तो आचार्य बालक को लेके उत्तमासन पर वेदी के पश्चिम पूर्वाभिमुख बैठे। तत्पश्चात् पृष्ठ 4-11 तक ईश्वरस्तुति,* प्रार्थनोपासना, स्वस्तिवाचन, शान्तिकरण करके, [*जो उपनयन किये पश्चात् उसी दिन वेदारम्भ करे, उस को पुनः वेदारम्भ के आदि में ईश्वरस्तुति, प्रार्थनोपासना, स्वस्तिवाचन और शान्तिकरण करनाआवश्यक नहीं।] पृष्ठ 18-19 में (भूर्भुवः स्वः॰) इस मन्त्र से अग्न्याधान, (ओं अयन्त इध्म॰) इत्यादि 4 चार मन्त्रों से समिदाधान, पृष्ठ 20 में (ओम् अदितेऽनुमन्यस्व॰) इत्यादि 3 तीन मन्त्रों से कुण्ड के तीनों ओर और (ओं देव सवितः॰) इस मन्त्र से कुण्ड के चारों ओर जल छिटकाके पृ॰ 19 में (उद्बुध्यस्वाग्ने॰) इस मन्त्र से अग्नि को प्रदीप्त करके, प्रदीप्त समिधा पर, पृष्ठ 20-21 में आघारावाज्यभागाहुति 4 चार, व्याहृति आहुति 4 चार और पृष्ठ 22-23 में आज्याहुति 8 आठ मिलके 16 सोलह आज्याहुति देने के पश्चात् प्रधान* होमाहुति दिलाके, पश्चात् पृष्ठ 21 में व्याहृति आहुति 4 चार और स्विष्टकृद् आहुति 1 एक, तथा पृष्ठ 21 में प्राजापत्याहुति 1 एक मिलकर छह आज्याहुति बालक के हाथ से दिलानी। [*‘प्रधान होम’ उस को कहते हैं, जो संस्कार में मुख्य करके किया जाता हो।] तत्पश्चात्— ओम् अग्ने सुश्रवः सुश्रवसं मां कुरु। यथा त्वमग्ने सुश्रवः सुश्रवा असि। एवं मां सुश्रवः सौश्रवसं कुरु। यथा त्वमग्ने देवानां यज्ञस्य निधिपा असि। एवमहं मनुष्याणां वेदस्य निधिपो भूयासम्॥ इस मन्त्र से वेदी के अग्नि को इकट्ठा करना। तत्पश्चात् बालक कुण्ड की प्रदक्षिणा करके, पृष्ठ 20 में लिखे प्रमाणे (अदितेऽनुमन्यस्व॰) इत्यादि 4 मन्त्रों से कुण्ड के सब ओर जलसिञ्चन करके, बालक कुण्ड के दक्षिण की ओर उत्तराभिमुख खड़ा रहकर, घृत में भिजोके एक समिधा हाथ में ले— ओम् अग्नये समिधमाहार्षं बृहते जातवेदसे। यथा त्वमग्ने समिधा समिध्यसऽएवमहमायुषा मेधया वर्चसा प्रजया पशुभिर्ब्रह्मवर्चसेन समिन्धे जीवपुत्रो ममाचार्यो मेधाव्यहमसान्यनिराकरिष्णुर्यशस्वी तेजस्वी ब्रह्मवर्चस्व्यन्नादो भूयासं स्वाहा॥ समिधा वेदीस्थ अग्नि के मध्य में छोड़ देना। इसी प्रकार दूसरी और तीसरी समिधा छोड़े। पुनः ऊपर दिये प्रमाणे (ओम् अग्ने सुश्रवः सुश्रवसं॰) इस मन्त्र से वेदीस्थ अग्नि को इकट्ठा करके पृष्ठ 20 में लिखे प्रमाणे (ओम् अदितेऽनुमन्यस्व॰) इत्यादि 4 चार मन्त्रों से कुण्ड के सब ओर जलसेचन करके बालक वेदी के पश्चिम में पूर्वाभिमुख बैठके, वेदी के अग्नि पर दोनों हाथों को थोड़ा सा तपाके हाथ में जल लगा— ओं तनूपा अग्नेऽसि तन्वं मे पाहि॥1॥ ओम् आयुर्दा अग्नेऽस्यायुर्मे देहि ॥2॥ ओं वर्चोदा अग्नेऽसि वर्चो मे देहि॥3॥ ओम् अग्ने यन्मे तन्वाऽ ऊनं तन्म आपृण॥4॥ ओं मेधां मे देवः सविता आदधातु॥5॥ ओं मेधां मे देवी सरस्वती आदधातु॥6॥ ओं मेधामश्विनौ देवावाधत्तां पुष्करस्रजौ॥7॥ इन सात मन्त्रों से सात वार किञ्चित् हथेली उष्ण कर, जल स्पर्श करके मुख स्पर्श करना। तत्पश्चात् बालक— ओं वाक् च म आप्यायताम्॥ —इस मन्त्र से मुख। ओं प्राणश्च म आप्यायताम्॥ —इस मन्त्र से नासिका द्वार। ओं चक्षुश्च म आप्यायताम्॥ —इस मन्त्र से दोनों नेत्र। ओं श्रोत्रञ्च म आप्यायताम्॥ —इस मन्त्र से दोनों कान। ओं यशो बलञ्च म आप्यायताम्॥ —इस मन्त्र से दोनों बाहुओं को स्पर्श करे। ओं मयि मेधां मयि प्रजां मय्यग्निस्तेजो दधातु। मयि मेधां मयि प्रजां मयीन्द्र इन्द्रियं दधातु। मयि मेधां मयि प्रजां मयि सूर्यो भ्राजो दधातु। यत्ते अग्ने तेजस्तेनाहं तेजस्वी भूयासम्। यत्ते अग्ने वर्चस्तेनाहं वर्चस्वी भूयासम्। यत्ते अग्ने हरस्तेनाहं हरस्वी भूयासम्॥ इन मन्त्रों से बालक परमेश्वर का उपस्थान करके कुण्ड की उत्तरबाजू की ओर जाके, जानू को भूमि में टेकके पूर्वाभिमुख बैठे। और आचार्य बालक के सम्मुख पश्चिमाभिमुख बैठे। बालकोक्तिः—अधीहि भूः सावित्रीम् भो अनुब्रूहि॥ अर्थात् आचार्य से बालक कहे कि—‘हे आचार्य ! प्रथम एक ओंकार, पश्चात् तीन महाव्याहृति, तत्पश्चात् सावित्री—ये त्रिक अर्थात् तीनों मिलके परमात्मा के वाचक मन्त्र को मुझे उपदेश कीजिये’। तत्पश्चात् आचार्य एक वस्त्र अपने और बालक के कन्धे पर रखके अपने हाथ से बालक के दोनों हाथों की अञ्जलि को पकड़के नीचे लिखे प्रमाणे बालक को तीन वार करके गायत्री मन्त्रोपदेश करे। प्रथम वार— ओ३म् भूर्भुवः स्वः। तत्सवितुर्वरेण्यम्। इतना टुकड़ा एक-एक पद का शुद्ध उच्चारण बालक से कराके, दूसरी वार— ओ३म् भूर्भुवः स्वः। तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। एक-एक पद से यथावत् धीरे-धीरे उच्चारण करवाके, तीसरी वार— ओ३म् भूर्भुवः स्वः। तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रचोदयात्॥ धीरे-धीरे इस मन्त्र को बुलवाके, संक्षेप से इसका अर्थ भी नीचे लिखे प्रमाणे आचार्य सुनावे— अर्थ—(ओ३म्) यह मुख्य परमेश्वर का नाम है, जिस नाम के साथ अन्य सब नाम लग जाते हैं। (भूः) जो प्राण का भी प्राण, (भुवः) सब दुःखों से छुड़ानेहारा, (स्वः) स्वयं सुखस्वरूप और अपने उपासकों को सब सुख की प्राप्ति करानेहारा है, (तत्) उस (सवितुः) सब जगत् की उत्पत्ति करनेवाले, सूर्यादि प्रकाशकों के भी प्रकाशक, समग्र ऐश्वर्य के दाता, (देवस्य) कामना करने योग्य, सर्वत्र विजय करानेहारे परमात्मा का जो (वरेण्यम्) अतिश्रेष्ठ ग्रहण और ध्यान करनेयोग्य (भर्गः) सब क्लेशों को भस्म करनेहारा, पवित्र शुद्ध स्वरूप है, (तत्) उस को हम लोग (धीमहि) धारण करें। (यः) यह जो परमात्मा (नः) हमारी (धियः) बुद्धियों को उत्तम गुण, कर्म, स्वभावों में (प्रचोदयात्) प्रेरणा करे। इसी प्रयोजन के लिए इस जगदीश्वर ही की स्तुतिप्रार्थनोपासना करना और इस से भिन्न किसी को उपास्य, इष्टदेव, उस के तुल्य वा उस से अधिक नहीं मानना चाहिए। इस प्रकार अर्थ सुनाये। पश्चात्— ओं मम व्रते हृदयं ते दधामि मम चित्तमनुचित्तं ते अस्तु। मम वाचमेकव्रतो जुषस्व बृहस्पतिष्ट्वा नियुनक्तु मह्यम्॥ इस मन्त्र से बालक और आचार्य पूर्ववत् दृढ़ प्रतिज्ञा करके— ओम् इयं दुरुक्तं परिबाधमाना वर्णं पवित्रं पुनती म आगात्। प्राणापानाभ्यां बलमादधाना स्वसा देवी सुभगा मेखलेयम्॥ इस मन्त्र से आचार्य सुन्दर, चिकनी, प्रथम बनाके रखी हुई मेखला* को बालक की कटि में बांधके— [*ब्राह्मण को मुञ्ज वा दर्भ की, क्षत्रिय को धनुषसंज्ञक तृण वा वल्कल की और वैश्य को ऊन वा शण की मेखला होनी चाहिए।] ओं युवा सुवासाः परिवीत आगात् स उ श्रेयान् भवति जायमानः। तं धीरासः कवय उन्नयन्ति स्वाध्यो3 मनसा देवयन्तः॥ इस मन्त्र को बोलके दो शुद्ध कोपीन, दो अंगोछे और एक उत्तरीय और दो कटिवस्त्र ब्रह्मचारी को आचार्य देवे और उन में से एक कोपीन, एक कटिवस्त्र और एक उपन्ना बालक को आचार्य धारण करावे। तत्पश्चात् आचार्य दण्ड* हाथ में लेके सामने खड़ा रहे और बालक भी आचार्य के सामने हाथ जोड़— [* ब्राह्मण के बालक को खड़ा करके भूमि से ललाट के केशों तक पलाश वा बिल्व वृक्ष का, क्षत्रिय को वट वा खदिर का ललाट भ्रू तक, वैश्य को पीलू अथवा गूलर वृक्ष का नासिका के अग्रभाग तक दण्ड प्रमाण है। और वे दण्ड चिकने सूधे हों, अग्नि में जले, टेढ़े, कीड़ों के खाये हुए न हों। और एक-एक मृगचर्म उनके बैठने के लिए, एक-एक जलपात्र, एक-एक उपपात्र और एक-एक आचमनीय सब ब्रह्मचारियों को देना चाहिए।] ओं यो मे दण्डः परापतद्वैहायसोऽधिभूम्याम्। तमहं पुनरादद आयुषे ब्रह्मणे ब्रह्मवर्चसाय॥ इस मन्त्र को बोलके बालक आचार्य के हाथ से दण्ड ले लेवे। तत्पश्चात् पिता ब्रह्मचारी को ब्रह्मचर्याश्रम का साधारण उपदेश करे— ब्रह्मचार्यसि असौ*॥1॥ (*‘असौ’ इस पद के स्थान में ब्रह्मचारी का नाम सर्वत्र उच्चारण करे। ) अपोऽशान॥2॥ कर्म कुरु॥3॥ दिवा मा स्वाप्सीः॥4॥ आचार्याधीनो वेदमधीष्व॥5॥ द्वादश वर्षाणि प्रतिवेदं ब्रह्मचर्यं गृहाण वा ब्रह्मचर्यं चर॥6॥ आचार्याधीनो भवान्यत्राधर्माचरणात्॥7॥ क्रोधानृते वर्जय॥8॥ मैथुनं वर्जय॥9॥ उपरि शय्यां वर्जय॥10॥ कौशीलवगन्धाञ्जनानि वर्जय॥11॥ अत्यन्तं स्नानं भोजनं निद्रां जागरणं निन्दां लोभमोहभयशोकान् वर्जय॥12॥ प्रतिदिनं रात्रेः पश्चिमे यामे चोत्त्थायावश्यकं कृत्वा दन्तधावनस्नान-सन्ध्योपासनेश्वरस्तुति-प्रार्थनोपासना-योगाभ्यासान्नित्यमाचर॥13॥ क्षुरकृत्यं वर्जय॥14॥ मांसरूक्षाहारं मद्यादिपानं च वर्जय॥15॥ गवाश्वहस्त्युष्ट्रादियानं वर्जय॥16॥ अन्तर्ग्रामनिवासोपानच्छत्रधारणं वर्जय॥17॥ अकामतः स्वयमिन्द्रियस्पर्शेन वीर्यस्खलनं विहाय वीर्यं शरीरे संरक्ष्योर्ध्वरेताः सततं भव॥18॥ तैलाभ्यङ्गमर्दनात्यम्लातितिक्त-कषायक्षाररेचनद्रव्याणि मा सेवस्व॥19॥ नित्यं युक्ताहार-विहारवान् विद्योपार्जने च यत्नवान् भव॥20॥ सुशीलो मितभाषी सभ्यो भव॥21॥* मेखलादण्डधारणभैक्ष्यचर्यसमिदाधानोदकस्पर्शनाचार्यप्रियाचरण-प्रातःसायमभिवादन-विद्यासञ्चयजितेन्द्रियत्वादीन्येते ते नित्यधर्माः॥22॥ अर्थ—तू आज से ब्रह्मचारी है॥1॥ नित्य सन्ध्योपासन भोजन के पूर्व शुद्ध जल का आचमन किया कर॥2॥ दुष्ट कर्मों को छोड़ धर्म किया कर॥3॥ दिन में शयन कभी मत कर॥4॥ आचार्य के आधीन रहके नित्य सागेपाग् वेद पढ़ने में पुरुषार्थ किया कर॥5॥ एक-एक सागेपाग् वेद के लिये बारह-बारह वर्ष पर्यन्त ब्रह्मचर्य अर्थात् 48 वर्ष तक वा जब तक सागेपाग् चारों वेद पूरे होवें, तब तक अखण्डित ब्रह्मचर्य कर॥6॥ आचार्य के आधीन धर्माचरण में रहा कर। परन्तु यदि आचार्य अधर्माचरण वा अधर्म करने का उपदेश करे, उस को तू कभी मत मान, और उस का आचरण मत कर॥7॥ क्रोध और मिथ्याभाषण करना छोड़ दे॥8॥ आठ* प्रकार के मैथुन को छोड़ देना॥9॥ [*स्त्री का ध्यान, कथा, स्पर्श, क्रीड़ा, दर्शन, आलिग्न, एकान्तवास और समागम, यह आठ प्रकार का मैथुन कहाता है, जो इन को छोड़ देता है, वही ब्रह्मचारी होता है।] भूमि में शयन करना, पलङ्ग आदि पर कभी न सोना॥10॥ कौशीलव अर्थात् गाना, बजाना तथा नृत्य आदि निन्दित कर्म, गन्ध और अञ्जन का सेवन मत कर॥11॥ अति स्नान, अति भोजन, अधिक निद्रा, अधिक जागरण, निन्दा, लोभ, मोह, भय, शोक का ग्रहण कभी मत कर॥12॥ रात्रि के चौथे पहर में जाग, आवश्यक शौचादि, दन्तधावन, स्नान, सन्ध्योपासन, ईश्वर की स्तुति प्रार्थना और उपासना, योगाभ्यास का आचरण नित्य किया कर॥13॥ क्षौर मत करा॥14॥ मांस, रूखा शुष्क अन्न मत खावे और मद्यादि मत पीवे॥15॥ बैल, घोड़ा, हाथी, ऊंट आदि की सवारी मत कर॥16॥ गाम में निवास, जूता और छत्र का धारण मत कर॥17॥ लघुशङ्का के विना उपस्थ इन्द्रिय के स्पर्श से वीर्यस्खलन कभी न करके, वीर्य को शरीर में रखके निरन्तर ऊर्ध्वरेता अर्थात् नीचे वीर्य को मत गिरने दे, इस प्रकार यत्न से वर्ता कर॥18॥ तैलादि से अग्मर्दन, उबटना, अतिखट्टा इमली आदि, अतितीखा लालमिर्ची आदि, कसेला हरडे़ं आदि, क्षार अधिक लवण आदि और रेचक जमालगोटा आदि द्रव्यों का सेवन मत कर॥19॥ नित्य युक्ति से आहार-विहार करके विद्या ग्रहण में यत्नशील हो॥20॥ सुशील, थोड़ा बोलनेवाला, सभा में बैठनेयोग्य गुण ग्रहण कर॥21॥ मेखला और दण्ड का धारण, भिक्षाचरण, अग्निहोत्र, स्नान, सन्ध्योपासन, आचार्य का प्रियाचरण, प्रातःसायं आचार्य को नमस्कार करना ये तेरे नित्य करने के कर्म, और जो निषेध किये वे नित्य न करने के हैं॥22॥ जब यह उपदेश पिता कर चुके, तब बालक पिता को नमस्कार कर, हाथ जोड़ के कहे कि—‘जैसा आपने उपदेश किया, वैसा ही करूँगा।’ तत्पश्चात् ब्रह्मचारी यज्ञकुण्ड की प्रदक्षिणा करके, कुण्ड के पश्चिम भाग में खड़ा रहके, माता-पिता, भाई-बहिन, मामा, मौसी, चाचा आदि से लेके जो भिक्षा देने में नकार न करें, उन से भिक्षा** मांगे और जितनी भिक्षा मिले, उसे आचार्य के आगे धर देनी। [** ब्राह्मण का बालक यदि पुरुष से भिक्षा मांगे तो "भवान् भिक्षां ददातु", और जो स्त्री से मांगे तो "भवती भिक्षां ददातु", और क्षत्रिय का बालक "भिक्षां भवान् ददातु" और स्त्री से "भिक्षां भवती ददातु", वैश्य का बालक "भिक्षां ददातु भवान्" और "भिक्षां ददातु भवती" ऐसा वाक्य बोले।] तत्पश्चात् आचार्य उस में से कुछ थोड़ा सा अन्न लेके वह सब भिक्षा बालक को दे देवे। और वह बालक उस भिक्षा को अपने भोजन के लिये रख छोड़े। तत्पश्चात् बालक को शुभासन पर बैठाके पृष्ठ 23-24 में लिखे प्रमाणे वामदेव्यगान को करना। तत्पश्चात् बालक पूर्व रक्खी हुई भिक्षा का भोजन करे। पश्चात् सायंकाल तक विश्राम और गृहाश्रम-संस्कार में लिखा सन्ध्योपासन आचार्य बालक के हाथ से करावे। और पश्चात् ब्रह्मचारी सहित आचार्य कुण्ड के पश्चिम भाग में आसन पर पूर्वाभिमुख बैठे और स्थालीपाक अर्थात् पृष्ठ 13 में लिखे प्रमाणे भात बना, उस में घी डाल पात्र में रख पृष्ठ 19 में लिखे प्रमाणे समिदाधान कर, पुनः समिधा प्रदीप्त कर आघारावाज्यभागाहुति 4 चार और व्याहृति आहुति 4 चार, दोनों मिलके 8 आठ आज्याहुति देनी। तत्पश्चात् ब्रह्मचारी खड़ा होके पृष्ठ 71 में लिखे प्रमाणे (ओम् अग्ने सुश्रवः) इस मन्त्र से 3 तीन समिधा की आहुति देवे। तत्पश्चात् बालक बैठके यज्ञकुण्ड के अग्नि से अपना हाथ तपा, पृष्ठ 18 में लिखे प्रमाणे पूर्ववत् मुख का स्पर्श करके अङ्गस्पर्श करना। तत्पश्चात् पृष्ठ 13 में लिखे प्रमाणे बनाये हुए भात को बालक आचार्य को होम और भोजन के लिए देवे। पुनः आचार्य उस भात में से आहुति के अनुमान भात को स्थाली में लेके, उस में घी मिला— ओं सदसस्पतिमद्भुतं प्रियमिन्द्रस्य काम्यम्। सनिं मेधामयासिषं स्वाहा॥ इदं सदसस्पतये इदन्न मम॥1॥ ओं तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रचोदयात् स्वाहा॥ इदं सवित्रे इदन्न मम॥2॥ ओम् ऋषिभ्यः स्वाहा॥ इदम् ऋषिभ्यः इदन्न मम॥3॥ इन 3 तीन मन्त्रों से तीन और पृष्ठ 21 में लिखे प्रमाणे (ओं यदस्य कर्मणो॰) इस मन्त्र से चौथी आहुति देवे। तत्पश्चात् पृष्ठ 21 में लिखे प्रमाणे व्याहृति आहुति 4 चार और पृष्ठ 22-23 में (ओं त्वन्नो॰) इन 8 आठ मन्त्रों से 8 आठ आज्याहुति मिलके 12 बारह आज्याहुति देके ब्रह्मचारी शुभासन पर पूर्वाभिमुख बैठके, पृष्ठ 23-24 में लिखे प्रमाणे वामदेव्यगान आचार्य के साथ करके— ‘अमुकगोत्रोत्पन्नोऽहं भो भवन्तमभिवादये॥’ ऐसा वाक्य बोलके आचार्य का वन्दन करे। और आचार्य— ‘आयुष्मान् विद्यावान् भव सौम्य॥’ ऐसा आशीर्वाद देके, पश्चात् होम से बचे हुए हविष्य अन्न और दूसरे भी सुन्दर मिष्टान्न का भोजन आचार्य के साथ अर्थात् पृथक्-पृथक् बैठके करें। तत्पश्चात् हस्त मुख प्रक्षालन करके, संस्कार में निमन्त्रण से जो आये हों, उन्हें यथायोग्य भोजन करा, तत्पश्चात् स्त्रियों को स्त्री और पुरुषों को पुरुष प्रीतिपूर्वक विदा करें और सब जने बालक को निम्नलिखित— ‘हे बालक ! त्वमीश्वरकृपया विद्वान् शरीरात्मबलयुक्तः कुशली वीर्यवान् अरोगः सर्वा विद्या अधीत्याऽस्मान् दिदृक्षुः सन्नागम्याः॥’ ऐसा आशीर्वाद देके अपने-अपने घर को चले जायें। तत्पश्चात् ब्रह्मचारी 3 तीन दिन तक भूमि में शयन, प्रातः सायं पृष्ठ 71 में लिखे प्रमाणे (अग्ने सुश्रवः॰) इस मन्त्र से समिधा होम और पृष्ठ 18 में लिखे प्रमाणे मुख आदि अङ्गस्पर्श आचार्य करावे तथा 3 तीन दिन तक (सदसस्पति॰) इत्यादि पृष्ठ 76 में लिखे प्रमाणे 4 चार स्थालीपाक की आहुति पूर्वोक्त रीति से ब्रह्मचारी के हाथ से करवावे और 3 तीन दिन तक क्षार-लवणरहित पदार्थ का भोजन ब्रह्मचारी किया करे। तत्पश्चात् पाठशाला में जाके गुरु के समीप विद्याभ्यास करने के समय की प्रतिज्ञा करे तथा आचार्य भी करे। आचार्य उपनयमानो ब्रह्मचारिणं कृणुते गर्भमन्तः। तं रात्रीस्तिस्र उदरे बिभर्ति तं जातं द्रष्टुमभिसंयन्ति देवाः॥1॥ इयं समित्पृथिवी द्यौर्द्वितीयोतान्तरिक्षं समिधा पृणाति। ब्रह्मचारी समिधा मेखलया श्रमेण लोकाँस्तपसा पिपर्ति॥2॥ ब्रह्मचार्येति समिधा समिद्धः कार्ष्णं वसानो दीक्षितो दीर्घश्मश्रुः। स सद्य एति पूर्वस्मादुत्तरं समुद्रं लोकान्त्संगृभ्य मुहुराचरिक्रत्॥3॥ ब्रह्मचर्येण तपसा राजा राष्ट्रं वि रक्षति। आचार्यो ब्रह्मचर्येण ब्रह्मचारिणमिच्छते॥4॥ ब्रह्मचर्येण कन्या3 युवानं विन्दते पतिम्॥5॥ ब्रह्मचारी ब्रह्म भ्राजद् बिभर्ति तस्मिन् देवा अधि विश्वे समोताः। प्राणापानौ जनयन्नाद् व्यानं वाचं मनो हृदयं ब्रह्म मेधाम्॥6॥ —अथर्व॰ कां॰ 11। सू॰ 5॥ संक्षेप से भाषार्थः—आचार्य ब्रह्मचारी को प्रतिज्ञापूर्वक समीप रखके 3 तीन रात्रिपर्यन्त गृहाश्रम के प्रकरण में लिखे सन्ध्योपासनादि सत्पुरुषों के आचार की शिक्षा कर, उस के आत्मा के भीतर गर्भरूप विद्या स्थापन करने के लिये उस को धारण कर और उस को पूर्ण विद्वान् कर देता और जब वह पूर्ण ब्रह्मचर्य और विद्या को पूर्ण करके घर को आता है, तब उस को देखने के लिए सब विद्वान् लोग सम्मुख जाकर बड़ा मान्य करते हैं॥1॥ जो यह ब्रह्मचारी वेदारम्भ के समय तीन समिधा अग्नि में होम कर, ब्रह्मचर्य के व्रत का नियमपूर्वक सेवन करके, विद्या पूर्ण करने को दृढोत्साही होता है, वह जानो पृथिवी सूर्य और अन्तरिक्ष के सदृश सब का पालन करता है। क्योंकि वह समिदाधान मेखलादि चिह्नों का धारण और परिश्रम से विद्या पूर्ण करके, इस ब्रह्मचर्यानुष्ठानरूप तप से सब लोगों को सद्गुण और आनन्द से तृप्त कर देता है॥2॥ जब विद्या से प्रकाशित और मृगचर्मादि धारण कर दीक्षित होके (दीर्घश्मश्रुः=) 40 वर्ष तक दाढ़ी, मूंछ आदि पञ्च केशों का धारण करनेवाला ब्रह्मचारी होता है, वह पूर्व समुद्ररूप ब्रह्मचर्यानुष्ठान को पूर्ण करके गुरुकुल से उत्तर समुद्र अर्थात् गृहाश्रम को शीघ्र प्राप्त होता है। वह सब लोकों का संग्रह करके वारंवार पुरुषार्थ और जगत् को सत्योपदेश से आनन्दित कर देता है॥3॥ वही राजा उत्तम होता है, जो पूर्ण ब्रह्मचर्यरूप तपश्चरण से पूर्ण विद्वान् सुशिक्षित, सुशील, जितेन्द्रिय होकर राज्य का विविध प्रकार से पालन करता है और वही विद्वान् ब्रह्मचारी की इच्छा करे और आचार्य हो सकता है, जो यथावत् ब्रह्मचर्य से सम्पूर्ण विद्याओं को पढ़ता है॥4॥ जैसे लड़के पूर्ण ब्रह्मचर्य और पूर्ण विद्या पढ़, पूर्ण जवान होके ही अपने सदृश कन्या से विवाह करें, वैसे कन्या भी अखण्ड ब्रह्मचर्य से पूर्ण विद्या पढ़, पूर्ण युवति हो, अपने तुल्य पूर्ण युवावस्थावाले पति को प्राप्त होवे॥5॥ जब ब्रह्मचारी ब्रह्म अर्थात् सागेपाग् चारों वेदों को शब्द, अर्थ और सम्बन्ध के ज्ञानपूर्वक धारण करता है, तभी प्रकाशमान होता, उस में सम्पूर्ण दिव्यगुण निवास करते और सब विद्वान् उस से मित्रता करते हैं। वह ब्रह्मचारी ब्रह्मचर्य ही से प्राण, दीर्घजीवन, दुःख क्लेशों का नाश, सम्पूर्ण विद्याओं में व्यापकता, उत्तम वाणी, पवित्र आत्मा, शुद्ध हृदय, परमात्मा और श्रेष्ठ प्रज्ञा को धारण करके, सब मनुष्यों के हित के लिए सब विद्याओं का प्रकाश करता है॥6॥ ब्रह्मचर्यकालः इस में छान्दोग्योपनिषत् के तृतीय प्रपाठक के सोलहवें खण्ड का प्रमाण— मातृमान् पितृमानाचार्यवान् पुरुषो वेद॥1॥ पुरुषो वाव यज्ञस्तस्य यानि चतुर्विंशतिवर्षाणि तत् प्रातःसवनं चतुर्विंशत्यक्षरा गायत्री गायत्रं प्रातःसवनं तदस्य वसवोऽन्वायत्ताः प्राणा वाव वसव एते हीदं सर्वं वासयन्ति॥2॥ तं चेदेतस्मिन् वयसि किञ्चिदुपतपेत् स ब्रूयात् प्राणा वसव इदं मे प्रातःसवनं माध्यन्दिनं सवनमनुसन्तनुतेति माहं प्राणानां वसूनां मध्ये यज्ञो विलोप्सीयेत्युद्धैव तत एत्यगदो ह भवति॥3॥ अथ यानि चतुशत्वारिंशद्वर्षाणि तन्माध्यन्दिनं सवनं चतुश्चत्वारिंशदक्षरा त्रिष्टुप् त्रैष्टुभं माध्यन्दिनं सवनं तदस्य रुद्राः अन्वायत्ताः प्राणा वाव रुद्रा एते हीदं सर्वं रोदयन्ति॥4॥ तं चेदेतस्मिन् वयसि किञ्चिदुपतपेत् स ब्रूयात् प्राणा रुद्रा इदं मे माध्यन्दिनं सवनं तृतीयसवनमनुसन्तनुतेति माहं प्राणानां रुद्राणां मध्ये यज्ञो विलोप्सीयेत्युद्धैव तत एत्यगदो ह भवति॥5॥ अथ यान्यष्टाचत्वारिंशद्वर्षाणि तत् तृतीयसवनमष्टा-चत्वारिंशदक्षरा जगती जागतं तृतीयसवनं तदस्यादित्या अन्वायत्ताः प्राणा वावादित्या एते हीदं सर्वमाददते॥6॥ तं चेदेतस्मिन् वयसि किञ्चिदुपतपेत् स ब्रूयात् प्राणा आदित्या इदं मे तृतीयसवनमायुरनुसन्तनुतेति माहं प्राणानामादित्यानां मध्ये यज्ञो विलोप्सीयेत्युद्धैव तत एत्यगदो हैव भवति॥7॥ अर्थ—जो बालक को 5 पांच वर्ष की आयु तक माता, 5 पांच से 8 आठ तक पिता, 8 आठ से 48 अड़तालीस, 44 चवालीस, 40 चालीस, 36 छत्तीस, 30 तीस तक अथवा 25 पचीस वर्ष तक तथा कन्या को 8 आठ से 24 चौबीस, 22 बाईस, 20 बीस, 18 अठारह, अथवा 16 सोलह वर्ष तक आचार्य की शिक्षा प्राप्त हो, तभी (पुरुष वा स्त्री) विद्यावान् होकर धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के व्यवहारों में अतिचतुर होते हैं॥1॥ यह मनुष्य देह यज्ञ अर्थात् अच्छे प्रकार इस को आयु बल आदि से सम्पन्न करने के लिये छोटे से छोटा यह पक्ष है कि 24 चौबीस वर्षपर्यन्त ब्रह्मचर्य पुरुष और 16 वर्ष तक स्त्री ब्रह्मचर्याश्रम यथावत् पूर्ण, जैसे 24 चौबीस अक्षर का गायत्री छन्द होता है, वैसे करे, वह प्रातःसवन कहाता है। जिस से इस मनुष्य देह के मध्य वसुरूप प्राण प्राप्त होते हैं, जो बलवान् होकर सब शुभ गुणों को शरीर आत्मा और मन के बीच वास कराते हैं॥2॥ जो कोई इस 25 पच्चीस वर्ष के आयु से पूर्व ब्रह्मचारी को विवाह वा विषयभोग करने का उपदेश करे, उस को वह ब्रह्मचारी यह उत्तर देवे कि—देख, यदि मेरे प्राण मन और इन्द्रिय 25 पच्चीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य से बलवान् न हुए तो मध्यम सवन जो कि आगे 44 चवालीस वर्ष तक का ब्रह्मचर्य कहा है, उस को पूर्ण करने के लिये मुझ में सामर्थ्य न हो सकेगा किन्तु प्रथम कोटि का ब्रह्मचर्य मध्यम कोटि के ब्रह्मचर्य को सिद्ध करता है। इसलिये क्या मैं तुम्हारे सदृश मूर्ख हूं कि जो इस शरीर प्राण अन्तःकरण और आत्मा के संयोगरूप सब शुभ गुण, कर्म और स्वभाव के साधन करनेवाले इस संघात को शीघ्र नष्ट करके अपने मनुष्य देह धारण के फल से विमुख रहूं ? और सब आश्रमों के मूल, सब उत्तम कर्मों में उत्तम कर्म, और सब के मुख्य कारण ब्रह्मचर्य को खण्डित करके महादुःखसागर में कभी डूबूं ? किन्तु जो प्रथम आयु में ब्रह्मचर्य करता है, वह ब्रह्मचर्य के सेवन से विद्या को प्राप्त होके निशित रोगरहित होता है। इसलिये तुम मूर्ख लोगों के कहने से ब्रह्मचर्य का लोप मैं कभी न करूंगा॥3॥ और जो 44 चवालीस वर्ष तक अर्थात् जैसा 44 चवालीस अक्षर का त्रिष्टुप् छन्द होता है, तद्वत् जो मध्यम ब्रह्मचर्य करता है, वह ब्रह्मचारी रुद्ररूप प्राणों को प्राप्त होता है, कि जिस के आगे किसी दुष्ट की दुष्टता नहीं चलती। और वह सब दुष्ट कर्म करनेवालों को सदा रुलाता रहता है॥4॥ यदि मध्यम ब्रह्मचर्य के सेवन करनेवाले से कोई कहे कि तू इस ब्रह्मचर्य को छोड़ विवाह करके आनन्द को प्राप्त हो, उस को ब्रह्मचारी यह उत्तर देवे कि—जो सुख अधिक ब्रह्मचर्याश्रम के सेवन से होता, और विषय-सम्बन्धी भी अधिक आनन्द होता है, वह ब्रह्मचर्य को न करने से स्वप्न में भी नहीं प्राप्त होता। क्योंकि सांसारिक व्यवहार, विषय और परमार्थ सम्बन्धी पूर्ण सुख को ब्रह्मचारी ही प्राप्त होता है, अन्य कोई नहीं। इसलिए मैं इस सर्वोत्तम सुख-प्राप्ति के साधन ब्रह्मचर्य का लोप न करके विद्वान्, बलवान्, आयुष्मान्, धर्मात्मा होके सम्पूर्ण आनन्द को प्राप्त होऊंगा। तुम्हारे निर्बुद्धियों के कहने से शीघ्र विवाह करके स्वयम् और अपने कुल को नष्ट-भ्रष्ट कभी न करूंगा॥5॥ अब 48 अड़तालीस वर्ष पर्यन्त, जैसा कि 48 अड़तालीस अक्षर का जगती छन्द होता है, वैसे इस उत्तम ब्रह्मचर्य से पूर्ण विद्या, पूर्ण बल, पूर्णप्रज्ञा, पूर्ण शुभ गुण, कर्म, स्वभावयुक्त, सूर्यवत् प्रकाशमान होकर ब्रह्मचारी सब विद्याओं को ग्रहण करता है॥6॥ यदि कोई इस सर्वोत्तम धर्म से गिराना चाहे, उस को ब्रह्मचारी उत्तर देवे कि—अरे छोकरों के छोकरे ! मुझ से दूर रहो। तुम्हारे दुर्गन्ध रूप भ्रष्ट वचनों से मैं दूर रहता हूं। मैं इस उत्तम ब्रह्मचर्य का लोप कभी न करूंगा। इस को पूर्ण करके सर्व रोगों से रहित, सर्वविद्यादि शुभ गुण, कर्म, स्वभाव सहित होऊंगा। इस मेरी शुभ प्रतिज्ञा को परमात्मा अपनी कृपा से पूर्ण करे। जिस से मैं तुम निर्बुद्धियों को उपदेश और विद्या पढ़ाके विशेष तुम्हारे बालकों को आनन्दयुक्त कर सकूं॥7॥ चतस्रोऽवस्थाः शरीरस्य वृद्धिर्यौवनं सम्पूर्णता किञ्चित् परिहाणिश्चेति। तत्राषोडशाद् वृद्धिः। आपञ्चविंशतेर्यौवनम् आ चत्वारिंशतस्सम्पूर्णता। ततः किञ्चित्परिहाणिश्चेति॥1॥ पञ्चविंशे ततो वर्षे पुमान्नारी तु षोडशे। समत्वागतवीर्यौ तौ जानीयात् कुशलो भिषक्॥2॥ —यह धन्वन्तरि जी कृत सुश्रुतग्रन्थ का प्रमाण है॥ अर्थ—इस मनुष्य देह की 4 चार अवस्था हैं—एक वृद्धि, दूसरी यौवन, तीसरी सम्पूर्णता, चौथी किञ्चित् परिहाणि करनेहारी अवस्था है। इन में 16 सोलहवें वर्ष से आरम्भ 25 पच्चीसवें वर्ष में पूर्ति वाली वृद्धि की अवस्था है। जो कोई इस वृद्धि की अवस्था में वीर्यादि धातुओं का नाश करेगा, वह कुहाड़े से काटे वृक्ष वा दण्डे से फूटे घड़े के समान अपने सर्वस्व का नाश करके पश्चात्ताप करेगा। पुनः उस के हाथ में सुधार कुछ भी न रहेगा। दूसरी जो युवावस्था उस का आरम्भ 25 पच्चीसवें वर्ष से और पूर्ति 40 चालीसवें वर्ष में होती है। जो कोई इस को यथावत् संरक्षित न कर रक्खेगा, वह अपनी भाग्यशालीनता को नष्ट कर देवेगा। और तीसरी पूर्ण युवावस्था 40 चालीसवें वर्ष में होती है। जो कोई ब्रह्मचारी होकर पुनः ऋतुगामी, परस्त्रीत्यागी, एकस्त्रीव्रत, गर्भ रहे पश्चात् एक वर्षपर्यन्त ब्रह्मचारी न रहेगा, वह भी बना-बनाया धूल में मिल जाएगा और चौथी 40 चालीसवें वर्ष से यावत् निर्वीर्य न हो, तावत् किञ्चित् हानिरूप अवस्था है। यदि किञ्चित् हानि के बदले वीर्य की अधिक हानि करेगा, वह भी राजयक्ष्मा और भगन्दरादि रोगों से पीड़ित हो जाएगा और जो इन चारों अवस्थाओं को यथोक्त सुरक्षित रक्खेगा, वह सर्वदा आनन्दित होकर सब संसार को सुखी कर सकेगा॥1॥ अब इस में इतना विशेष समझना चाहिए कि स्त्री और पुरुष के शरीर में पूर्वोक्त चारों अवस्थाओं का एक-सा समय नहीं है, किन्तु जितना सामर्थ्य 25 पच्चीसवें वर्ष में पुरुष के शरीर में होता है, उतना सामर्थ्य स्त्री के शरीर में 16 सोलहवें वर्ष में हो जाता है। यदि बहुत शीघ्र विवाह करना चाहें तो 25 वर्ष का पुरुष और 16 वर्ष की स्त्री दोनों तुल्य सामर्थ्यवाले होते हैं। इसलिए इस अवस्था में जो विवाह करना, वह अधम विवाह है॥2॥ और जो 17 सत्रह वर्ष की स्त्री और 30 वर्ष का पुरुष, 18 अठारह वर्ष की स्त्री और 36 वर्ष का पुरुष, 19 उन्नीस वर्ष की स्त्री और 38 वर्ष का पुरुष विवाह करे तो इस को मध्यम समय जानो। और जो 20 बीस, 21 इक्कीस, 22 बाईस, 23 तेईस वा 24 चौबीस वर्ष की स्त्री और 40 चालीस, 42 बयालीस, 44 चवालीस, 46 छयालीस और 48 अड़तालीस वर्ष का पुरुष होकर विवाह करे, वह सर्वोत्तम है। हे ब्रह्मचारिन् ! इन बातों को तू ध्यान में रख, जो कि तुझ को आगे के आश्रमों में काम आवेंगी। जो मनुष्य अपने सन्तान, कुल, सम्बन्धी और देश की उन्नति करना चाहें, वे इन पूर्वोक्त और आगे कही हुई बातों का यथावत् आचरण करें॥ श्रोत्रं त्वक् चक्षुषी जिह्वा नासिका चैव पञ्चमी। पायूपस्थं हस्तपादं वाक् चैव दशमी स्मृता॥1॥ बुद्धीन्द्रियाणि पञ्चैषां श्रोत्रादीन्यनुपूर्वशः। कर्मेन्द्रियाणि पञ्चैषां पाय्वादीनि प्रचक्षते॥2॥ एकादशं मनो ज्ञेयं स्वगुणेनोभयात्मकम्। यस्मिन् जिते जितावेतौ भवतः पञ्चकौ गणौ॥3॥ इन्द्रियाणां विचरतां विषयेष्वपहारिषु । संयमे यत्नमातिष्ठेद् विद्वान् यन्तेव वाजिनाम्॥4॥ इन्द्रियाणां प्रसङ्गेन दोषमृच्छत्यसंशयम्। संनियम्य तु तान्येव ततः सिद्धिं नियच्छति॥5॥ वेदास्त्यागश्च यज्ञाश्च नियमाश्च तपांसि च। न विप्रभावदुष्टस्य सिद्धिं गच्छन्ति कर्हिचित्॥6॥ वशे कृत्वेन्द्रियग्रामं संयम्य च मनस्तथा। सर्वान् संसाधयेदर्थानक्षिण्वन् योगतस्तनुम्॥7॥ यमान् सेवेत सततं न नियमान् केवलान् बुधः। यमान् पतत्यकुर्वाणो नियमान् केवलान् भजन्॥8॥ अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः । चत्वारि तस्य वर्द्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम्॥9॥ अज्ञो भवति वै बालः पिता भवति मन्त्रदः। अज्ञं हि बालमित्याहुः पितेत्येव तु मन्त्रदम्॥10॥ न हायनैर्न पलितैर्न वित्तेन न बन्धुभिः। ऋषयश्चक्रिरे धर्मं योऽनूचानः स नो महान्॥11॥ न तेन वृद्धो भवति येनास्य पलितं शिरः। यो वै युवाप्यधीयानस्तं देवाः स्थविरं विदुः॥12॥ यथा काष्ठमयो हस्ती यथा चर्ममयो मृगः। यश्च विप्रोऽनधीयानस्त्रयस्ते नाम बिभ्रति॥13॥ सम्मानाद् ब्राह्मणो नित्यमुद्विजेत विषादिव। अमृतस्येव चाकाङ्क्षेदवमानस्य सर्वदा॥14॥ वेदमेव सदाभ्यस्येत् तपस्तप्स्यन् द्विजोत्तमः। वेदाभ्यासो हि विप्रस्य तपः परमिहोच्यते॥15॥ योऽनधीत्य द्विजो वेदमन्यत्र कुरुते श्रमम्। स जीवन्नेव शूद्रत्वमाशु गच्छति सान्वयः॥16॥ यथा खनन् खनित्रेण नरो वार्यधिगच्छति। तथा गुरुगतां विद्यां शुश्रूषुरधिगच्छति॥17॥ श्रद्दधानः शुभां विद्यामाददीतावरादपि । अन्त्यादपि परं धर्मं स्त्रीरत्नं दुष्कुलादपि॥18॥ विषादप्यमृतं ग्राह्यं बालादपि सुभाषितम्। विविधानि च शिल्पानि समादेयानि सर्वतः॥19॥ —मनु॰॥ अर्थ—कान, त्वचा, नेत्र, जीभ, नासिका, गुदा, उपस्थ (मूत्र का मार्ग) हाथ, पग, वाणी—ये 10 इन्द्रियां इस शरीर में हैं॥1॥ इनमें कान आदि पांच ज्ञानेन्द्रिय और गुदा आदि पांच कर्मेन्द्रिय कहाते हैं॥2॥ ग्यारहवां इन्द्रिय मन है। वह अपने स्मृति आदि गुणों से दोनों प्रकार के इन्द्रियों से सम्बन्ध करता है, कि जिस मन के जीतने में ज्ञानेन्द्रिय तथा कर्मेन्द्रिय दोनों जीत लिये जाते हैं॥3॥ जैसे सारथि घोड़े को कुपथ में नहीं जाने देता, वैसे विद्वान् ब्रह्मचारी आकर्षण करनेवाले विषयों में जाते हुए इन्द्रियों को रोकने में सदा प्रयत्न किया करे॥4॥ ब्रह्मचारी इन्द्रियों के साथ मन लगाने से निःसन्देह दोषी हो जाता है और उन पूर्वोक्त 10 दश इन्द्रियों को वश में करके ही पश्चात् सिद्धि को प्राप्त होता है॥5॥ जिस का ब्राह्मणपन (सम्मान नहीं चाहना वा इन्द्रियों को वश में रखना आदि) बिगड़ा वा जिस का विशेष प्रभाव (वर्णाश्रम के गुण, कर्म) बिगड़े हैं, उस पुरुष के वेद पढ़ना, त्याग (संन्यास) लेना, यज्ञ (अग्निहोत्रादि) करना, नियम (ब्रह्मचर्य्याश्रम आदि) करना, तप (निन्दा-स्तुति और हानि-लाभ आदि द्वन्द्व का सहन) करना आदि कर्म कदापि सिद्ध नहीं हो सकते। इसलिए ब्रह्मचारी को चाहिए कि अपने नियम-धर्मों का यथावत् पालन करके सिद्धि को प्राप्त होवे॥6॥ ब्रह्मचारी पुरुष सब इन्द्रियों को वश में कर, और आत्मा के साथ मन को संयुक्त करके योगाभ्यास से शरीर को किञ्चित् किञ्चित् पीड़ा देता हुआ अपने सब प्रयोजनों को सिद्ध करे॥7॥ बुद्धिमान् ब्रह्मचारी को चाहिये कि यमों का सेवन नित्य करे, केवल नियमों का नहीं। क्योंकि यमों* को न करता हुआ और केवल नियमों** का सेवन करता हुआ भी अपने कर्त्तव्य से पतित हो जाता है। इसलिए यम सेवनपूर्वक नियमसेवन नित्य किया करे॥8॥ [*अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः। निर्वैरता, सत्य बोलना, चोरीत्याग, वीर्यरक्षण और विषयभोग में घृणा—ये 5 पांच यम हैं। **शौचसन्तोषतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः। शौच, सन्तोष, तपः (हानि-लाभ आदि द्वन्द्व का सहना), स्वाध्याय (वेद का पढ़ना), ईश्वरप्रणिधान (सर्वस्व ईश्वरार्पण)—ये 5 पांच नियम कहाते हैं।] अभिवादन करने का जिसका स्वभाव, और विद्या वा अवस्था में वृद्ध पुरुषों का जो नित्य सेवन करता है, उस की अवस्था विद्या, कीर्ति और बल इन चारों की नित्य उन्नति हुआ करती है। इसलिए ब्रह्मचारी को चाहिए कि आचार्य, माता-पिता, अतिथि, महात्मा आदि अपने बड़ों को नित्य नमस्कार और सेवन किया करे॥9॥ अज्ञ अर्थात् जो कुछ नहीं पढ़ा, वह निश्चय करके बालक होता, और जो मन्त्रद अर्थात् दूसरे को विचार देनेवाला, विद्या पढ़ा, विद्याविचार में निपुण है, वह पिता स्थानीय होता है। क्योंकि जिस कारण सत्पुरुषों ने अज्ञ जन को बालक कहा, और मन्त्रद को पिता ही कहा है। इस से प्रथम ब्रह्मचर्याश्रम सम्पन्न होकर ज्ञानवान्, विद्यावान् अवश्य होना चाहिए॥10॥ धर्मवेत्ता ऋषिजनों ने न वर्षों, न पके केशों वा झूलते हुए अगें, न धन और न बन्धुजनों से बड़प्पन माना। किन्तु यही धर्म निश्चय किया कि जो हम लोगों में वाद-विवाद में उत्तर देनेवाला अर्थात् वक्ता हो, वह बड़ा है। इस से ब्रह्मचर्याश्रम-सम्पन्न होकर विद्यावान् होना चाहिए। जिस से कि संसार में बड़प्पन, प्रतिष्ठा पावें और दूसरों को उत्तर देने में अति निपुण हों॥11॥ उस कारण से वृद्ध नहीं होता कि जिस से इस का शिर झूल जाय, केश पक जावें, किन्तु जो जवान भी पढ़ा हुआ विद्वान् है, उस को विद्वानों ने वृद्ध जाना और माना है। इस से ब्रह्मचर्याश्रम सम्पन्न होकर विद्या पढ़नी चाहिये॥12॥ जैसे काठ का कठपुतला हाथी वा जैसे चमड़े का बनाया हुआ मृग हो, वैसे बिना पढ़ा हुआ विप्र अर्थात् ब्राह्मण वा बुद्धिमान् जन होता है। उक्त वे हाथी, मृग और विप्र तीनों नाममात्र धारण करते हैं। इस कारण ब्रह्मचर्याश्रम-सम्पन्न होकर विद्या पढ़नी चाहिए॥13॥ ब्राह्मण विष के समान उत्तम मान से नित्य उदासीनता रक्खे और अमृत के समान अपमान की आकांक्षा सर्वदा करे। अर्थात् ब्रह्मचर्यादि आश्रमों के लिये भिक्षामात्र मांगते भी कभी मान की इच्छा न करे॥14॥ द्विजोत्तम अर्थात् ब्राह्मणादिकों में उत्तम सज्जन पुरुष सर्वकाल तपशर्या करता हुआ वेद ही का अभ्यास करे। जिस कारण ब्राह्मण वा बुद्धिमान् जन को वेदाभ्यास करना इस संसार में परम तप कहा है, इस से ब्रह्मचर्याश्रम सम्पन्न होकर अवश्य वेदविद्याध्ययन करे॥15॥ जो ब्राह्मण-क्षत्रिय और वैश्य वेद को न पढ़कर अन्य शास्त्र में श्रम करता है, वह जीवता ही अपने वंश के साथ शूद्रपन को प्राप्त हो जाता है। इस से ब्रह्मचर्याश्रम-सम्पन्न होकर वेदविद्या अवश्य पढ़े॥16॥ जैसे फावड़ा से खोदता हुआ मनुष्य जल को प्राप्त होता है, वैसे गुरु की सेवा करनेवाला पुरुष गुरुजनों ने जो पाई हुई विद्या है, उस को प्राप्त होता है। इस कारण ब्रह्मचर्याश्रम-सम्पन्न होकर गुरुजन की सेवा कर उन से सुने और वेद पढ़े॥17॥ उत्तम विद्या की श्रद्धा करता हुआ पुरुष अपने से न्यून से भी विद्या पावे तो ग्रहण करे। नीच जाति से भी उत्तम धर्म का ग्रहण करे। और निन्द्य कुल से भी स्त्रियों में उत्तम स्त्रीजन का ग्रहण करे, यह नीति है। इस से गृहस्थाश्रम से पूर्व-पूर्व ब्रह्मचर्याश्रम सम्पन्न होकर कहीं से न कहीं से उत्तम विद्या पढ़े, उत्तम धर्म सीखे। और ब्रह्मचर्य के अनन्तर गृहाश्रम में उत्तम स्त्री से विवाह करे। क्योंकि॥18॥ विष से भी अमृत का ग्रहण करना, बालक से भी उत्तम वचन को लेना और नाना प्रकार के शिल्प काम—सब से अच्छे प्रकार ग्रहण करने चाहिएँ। इस कारण ब्रह्मचर्याश्रम-सम्पन्न होकर देश-देश पर्यटन कर उत्तम गुण सीखे॥19॥ यान्यनवद्यानि कर्माणि तानि सेवितव्यानि, नो इतराणि। यान्यस्माकं सुचरितानि तानि त्वयोपास्यानि, नो इतराणि। ये के चास्मच्छ्रेयांसो ब्राह्मणाः, तेषां त्वयासनेन प्रश्वसितव्यम्॥1॥ —तैत्तिरी॰ प्रपा॰ 7। अनु॰ 11॥ ऋतं तपः सत्यं तपः श्रुतं तपः शान्तं तपो दमस्तपश्शमस्तपो दानं तपो यज्ञस्तपो ब्रह्म भूर्भुवः सुवर्ब्रह्मैतदुपास्वैतत्तपः॥2॥ —तैत्तिरी॰ प्रपा॰ 10। अनु॰ 8॥ अर्थ—हे शिष्य ! जो आनन्दित, पापरहित अर्थात् अन्याय अधर्माचरण-रहित, न्याय धर्माचरणसहित कर्म हैं, उन्हीं का सेवन तू किया करना, इन से विरुद्ध अधर्माचरण कभी मत करना। हे शिष्य ! जो तेरे माता-पिता आचार्य आदि हम लोगों के अच्छे धर्मयुक्त उत्तम कर्म हैं, उन्हीं का आचरण तू कर। और जो हमारे दुष्ट कर्म हों, उनका आचरण कभी मत कर। हे ब्रह्मचारिन् ! जो हमारे मध्य में धर्मात्मा श्रेष्ठ ब्रह्मवित् विद्वान् हैं, उन्हीं के समीप बैठना, सङ्ग करना, और उन्हीं का विश्वास किया कर॥1॥ हे शिष्य ! तू जो यथार्थ का ग्रहण, सत्य मानना, सत्य बोलना, वेदादि सत्यशास्त्रों का सुनना, अपने मन को अधर्माचरण में न जाने देना, श्रोत्रादि इन्द्रियों को दुष्टाचार से रोक श्रेष्ठाचार में लगाना, क्रोधादि के त्याग से शान्त रहना, विद्या आदि शुभ गुणों का दान करना, अग्निहोत्रादि और विद्वानों का सग् कर। जितने भूमि, अन्तरिक्ष और सूर्यादि लोकों में पदार्थ हैं, उन का यथाशक्ति ज्ञान कर। और योगाभ्यास, प्राणायाम, एक ब्रह्म परमात्मा की उपासना कर। ये सब कर्म करना ही तप कहाता है॥2॥ ऋतञ्च स्वाध्यायप्रवचने च। सत्यञ्च स्वाध्यायप्रवचने च। तपश्च स्वाध्या॰। दमश्च स्वाध्या॰। शमश्च स्वाध्या॰। अग्नयश्च स्वाध्या॰। अग्निहोत्रं च स्वाध्या॰। सत्यमिति सत्यवचा राथीतरः। तप इति तपोनित्यः पौरुशिष्टिः। स्वाध्यायप्रवचने एवेति नाको मौद्गल्यः। तद्धि तपस्तद्धि तपः॥3॥ —तैत्तिरी॰ प्रपा॰ 7। अनु॰ 9॥ अर्थ—हे ब्रह्मचारिन् ! तू सत्य धारण कर, पढ़ और पढ़ाया कर और सत्योपदेश करना कभी मत छोड़। सदा सत्य बोल पढ़ और पढ़ाया कर। हर्ष-शोकादि छोड़, प्राणायाम योगाभ्यास कर तथा पढ़ और पढ़ाया भी कर। अपने इन्द्रियों को बुरे कामों से हटा अच्छे कामों में चला, विद्या का ग्रहण कर और कराया कर। अपने अन्तःकरण और आत्मा को अन्यायाचरण से हटा न्यायाचरण में प्रवृत्त कर और करा तथा पढ़ और सदा पढ़ाया कर। अग्निविद्या के सेवनपूर्वक विद्या को पढ़ और पढ़ाया कर। अग्निहोत्र करता हुआ पढ़ और पढ़ाया कर। ‘सत्यवादी होना तप’—सत्यवचा राथीतर आचार्य; ‘न्यायाचरण में कष्ट सहना तप’—तपोनित्य पौरुशिष्टि आचार्य; ‘और धर्म में चलके पढ़ना-पढ़ाना और सत्योपदेश करना ही तप है’ यह नाक मौद्गल्य आचार्य का मत है। और सब आचार्यों के मत में यही पूर्वोक्त तप, यही पूर्वोक्त तप है, ऐसा तू जान॥3॥ इत्यादि उपदेश तीन दिन के भीतर आचार्य वा बालक का पिता करे। तत्पश्चात् घर को छोड़ गुरुकुल में जावे। यदि पुत्र हो तो पुरुषों की पाठशाला और कन्या हो तो स्त्रियों की पाठशाला में भेजें। यदि घर में वर्णोच्चारण की शिक्षा यथावत् न हुई हो तो आचार्य बालकों को और कन्याओं को स्त्री, पाणिनिमुनिकृत वर्णोच्चारणशिक्षा 1 एक महीने के भीतर पढ़ा देवें। पुनः पाणिनिमुनिकृत अष्टाध्यायी का पाठ पदच्छेद अर्थसहित 8 आठ महीने में, अथवा 1 एक वर्ष में पढ़ा कर, धातुपाठ और 10 दश लकारों के रूप सधवाना तथा दश प्रक्रिया भी सधवानी। पुनः पाणिनिमुनिकृत लिगनुशासन और उणादि, गणपाठ तथा अष्टाध्यायीस्थ ण्वुल् और तृच् प्रत्ययाद्यन्त सुबन्तरूप छः 6 महीने के भीतर सधवा देवें। पुनः दूसरी वार अष्टाध्यायी पदार्थोक्ति समास शङ्का-समाधान उत्सर्ग अपवाद* अन्वयपूर्वक पढ़ावें। और संस्कृतभाषण का भी अभ्यास कराते जायें। 8 आठ महीने के भीतर इतना पढ़ना-पढ़ाना चाहिए। [*जिस सूत्र का अधिक विषय हो वह उत्सर्ग और जो किसी सूत्र के बड़े विषय में से थोड़े विषय में प्रवृत्त हो वह अपवाद कहाता है।] तत्पश्चात् पतञ्जलि मुनिकृत महाभाष्य, जिस में वर्णोच्चारणशिक्षा, अष्टाध्यायी, धातुपाठ, गणपाठ, उणादिगण, लिगनुशासन इन 6 छः ग्रन्थों की व्याख्या यथावत् लिखी है, डेढ़ वर्ष में अर्थात् 18 अठारह महीने में इस को पढ़ना-पढ़ाना। इस प्रकार शिक्षा और व्याकरणशास्त्र को 3 तीन वर्ष 5 पांच महीने वा नौ महीने, अथवा 4 वर्ष के भीतर पूरा कर सब संस्कृतविद्या के मर्मस्थलों को समझने के योग्य होवे। तत्पश्चात् यास्कमुनिकृत निघण्टु, निरुक्त तथा कात्यायनादि मुनिकृत कोश 1॥ डेढ़ वर्ष के भीतर पढ़के, अव्ययार्थ आप्तमुनिकृत वाच्यवाचक सम्बन्ध रूप * यौगिक, योगरूढ़ि और रूढ़ि तीन प्रकार के शब्दों के अर्थ यथावत् जानें। [*यौगिक—जो क्रिया के साथ सम्बन्ध रक्खे। जैसे पाचक याजकादि। योगरूढ़ि—जैसे पटजादि। रूढ़ि—जैसे धन, वन इत्यादि।] तत्पश्चात् पिग्लाचार्यकृत पिग्लसूत्र छन्दोग्रन्थ भाष्यसहित 3 तीन महीने में पढ़ और 3 तीन महीने में श्लोकादिरचनविद्या को सीखें। पुनः यास्कमुनिकृत काव्यालङ्कारसूत्र, वात्स्यायनमुनिकृत भाष्यसहित आकाङ्क्षा, योग्यता, आसत्ति और तात्पर्यार्थ अन्वयसहित पढ़के, इसी के साथ मनुस्मृति, विदुरनीति और किसी प्रकरण में से 10 सर्ग वाल्मीकीय रामायण के, ये सब 1 एक वर्ष के भीतर पढ़ें और पढ़ावें। तथा 1 एक वर्ष में सूर्यसिद्धान्तादि में से कोई 1 एक सिद्धान्त से गणितविद्या, जिस में बीजगणित, रेखागणित और पाटीगणित, जिस को अङ्कगणित भी कहते हैं, पढ़ें और पढ़ावें। निघण्टु से लेके ज्योतिष पर्यन्त वेदागें को 4 चार वर्ष के भीतर पढ़ें। तत्पश्चात् जैमिनिमुनिकृत सूत्र पूर्वमीमांसा को व्यासमुनिकृत व्याख्यासहित, कणादमुनिकृत वैशेषिकसूत्ररूप शास्त्र को गौतममुनिकृत प्रशस्तपादभाष्यसहित, वात्स्यायनमुनिकृत भाष्यसहित गौतममुनिकृत सूत्ररूप न्यायशास्त्र, व्यासमुनि कृतभाष्यसहित, पतञ्जलिमुनिकृत योगसूत्र योगशास्त्र, भागुरिमुनिकृत भाष्ययुक्त कपिलाचार्यकृत सूत्रस्वरूप सांख्यशास्त्र, जैमिनि वा बौद्धायन आदि मुनिकृत व्याख्यासहित व्यासमुनिकृत शारीरकसूत्र तथा ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, माण्डूक्य, ऐतरेय, तैत्तिरीय, छान्दोग्य और बृहदारण्यक 10 दश उपनिषद्, व्यासादिमुनिकृत व्याख्यासहित वेदान्तशास्त्र, इन 6 छः शास्त्रों को 2 दो वर्ष के भीतर पढ़ लेवें। तत्पश्चात् बह्वृच् ऐतरेय ऋग्वेद का ब्राह्मण, आश्वलायनकृत श्रौत तथा गृह्यसूत्र* और कल्पसूत्र पदक्रम और व्याकरणादि के सहाय से छन्दः, स्वर, पदार्थ, अन्वय, भावार्थसहित ऋग्वेद का पठन 3 तीन वर्ष के भीतर करें। इसी प्रकार यजुर्वेद को शतपथब्राह्मण और पदादि के सहित 2 दो वर्ष तथा सामब्राह्मण और पदादि तथा गान सहित सामवेद को 2 दो वर्ष तथा गोपथ ब्राह्मण और पदादि के सहित अथर्ववेद को 2 दो वर्ष के भीतर पढ़ें और पढ़ावें। सब मिलके 9 नौ वर्षों के भीतर 4 चारों वेदों को पढ़ना और पढ़ाना चाहिए। [*ब्राह्मण वा जो सूत्र वेदविरुद्ध हिंसापरक हो, उस का प्रमाण न करना।] पुनः ऋग्वेद का उपवेद आयुर्वेद, जिस को वैद्यकशास्त्र कहते हैं, जिस में धन्वन्तरि जी कृत सुश्रुत और निघण्टु तथा पतञ्जलि मुनिकृत चरक आदि आर्षग्रन्थ हैं, इन को 3 तीन वर्ष के भीतर पढ़ें। जैसे सुश्रुत में शस्त्र लिखे हैं, बनाकर शरीर के सब अवयवों को चीर के देखें तथा जो उस में शारीरिकादि विद्या लिखी है, साक्षात् करें। तत्पश्चात् यजुर्वेद का उपवेद धनुर्वेद, जिस को शस्त्रास्त्रविद्या कहते हैं, जिसमें अङ्गिरा आदि ऋषिकृत ग्रन्थ हैं, जो इस समय बहुधा नहीं मिलते, 3 तीन वर्ष में पढ़ें और पढ़ावें। पुनः सामवेद का उपवेद गान्धर्ववेद, जिस में नारदसंहितादि ग्रन्थ हैं, उन को पढ़के स्वर, राग, रागिणी, समय, वादित्र, ग्राम, ताल, मूर्च्छना आदि का अभ्यास यथावत् 3 तीन वर्ष के भीतर करें। तत्पश्चात् अथर्ववेद का उपवेद अर्थवेद, जिस को शिल्पशास्त्र कहते हैं, जिस में विश्वकर्मा त्वष्टा और मयकृत संहिता ग्रन्थ हैं, उन को 6 छः वर्ष के भीतर पढ़के विमान, तार, भूगर्भादि विद्याओं को साक्षात् करें। ये शिक्षा से लेके आयुर्वेद तक 14 चौदह विद्याओं को 31 इकत्तीस वर्षों में पढ़के महाविद्वान् होकर अपने और सब जगत् के कल्याण और उन्नति करने में सदा प्रयत्न किया करें। ( महर्षि दयानंद सरस्वती कृत संस्कारविधिः) ॥ इति वेदारम्भसंस्कारविधिः समाप्तः॥
हाय हैलो छोड़ो नमस्ते नमस्ते जी बोलो. (Vedic Vichar)
21-06-2022
सृष्टि के आदि से लेकर महाभारत पर्यन्त सब मनुष्य परस्पर में नमस्ते ही करते थे। उनके पश्चात् जब अनेक मत मतान्तर और अनेक मजहब दुनियाँ में फैले, तो उधर सबने अलग-२ शब्द नियत किये। 'गुड मार्निंग' 'गुड नाइट', 'अस्लाम वालेकम, 'आदाब अर्ज', आदि-२ अनेक शब्द विधर्मियों और विदेशियों ने कल्पित किए। जय शिव, जय हरी, जय गोविन्द, राधे राधे, राम राम जी, जय कृष्ण जी, प्रणाम, आदि अनेक प्रयोग जारी किये। इन शब्दों द्वारा एक दुसरे के प्रति सम्मान की कोंई भावन नही दिखाई देती। महाभारत से पहले भू-मण्डल पर आर्य लोगों का अखण्ड राज्य था लोग वैदिक धर्मी थे। परस्पर में नमस्ते ही किया करते थे। नमस्ते का अर्थ है―'मैं तुम्हें नमन करता हूँ, आदर करता हूँ।'नमस्ते : नम और स्ते अर्थात नमन झुकना तुम्हारे सत्कार में । मैं आप के सत्कार मैं झुकता हूँ आज भारत को नमस्ते से ही विदेशों में जाना जाता है लेकिन हम भारतीय अपने अलग अलग अभिवादन के शब्द बोल कर अपसी भिन्नता को प्रदर्शित कर रहे है। सभी नमस्ते बोल कर एक शब्द से ही एकता के सूत्र में बंध जाते है। नमस्ते के पीछे छुपा वैज्ञानिक तर्क- जब सभी उंगलियों के शीर्ष एक दूसरे के संपर्क में आते हैं और उन पर दबाव पड़ता है। एक्यूप्रेशर के कारण उसका सीधा असर हमारी आंखों, कानों और दिमाग पर होता है, ताकि सामने वाले व्यक्ति को हम लंबे समय तक याद रख सकें। नमस्ते करने का सही तरीका- सीधे खड़े हो जाइये, दोनों हाथों को एक सीध पर ला कर जोड़िये। उंगलियां एक साथ जुड़नी चाहिये और अंगूठा थोड़ी दूर पर होना चाहिये। धीरे से अपने जुडे़ हुए हाथों को अपने सीने के पास लाइये। नमस्ते बोलते वक्त अपने सिर को हल्का सा नीचे कीजिये। जब हम छाती के पास हाथ जोड़ कर नमस्ते करते हैं तो उस का मतलब है कि मैं आपने दिल व आत्मा से आपके प्रति समर्पित हो कर आप के सत्कार में झुकता हूँ । अब अर्थ जानने के बाद जब आप नमस्ते करेंगे तो आप में और दुसरे में आत्मीय सम्बन्ध स्थापित होंगे । अलग अलग अभिवादन के शब्दों को छोड़ कर मिलने पर नमस्ते करें यह अति उत्तम है तथा इससे सभी में प्यार व एकता भी स्थापित होगी । नमस्ते शब्द वैदिक है तथा यौगिक भी है यौगिक शब्द रुड़वादी नहीं होता न ही सम्प्रदायीक
Vedic Vichar
21-06-2022
*यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत,* *अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।* प्रश्न -- गीता के उक्त श्लोक का अर्थ व भाव क्या है ? उत्तर-- इस श्लोक को कुछ लोगों ने समझने में थोड़ी सी भूल की है। यहां श्री कृष्ण जी का कहने का तात्पर्य ईश्वर से नहीं है। उनका कहने का भाव यह था कि सामान्यता यह देखा गया है कि जब जब इस धरती पर अन्याय अत्याचार होते हैं तब तब कोई ना कोई महापुरुष या वीर पुरुष इस धरती पर जन्म लेता है और इन अन्याय और अत्याचारों को मिटाता है। यहाँ 'अहम' से तात्पर्य मनुष्य व महापुरुष से है, परमात्मा से नहीं। इस श्लोक को यदि ईश्वर से जोड़ेंगे या इसका भाव ईश्वर लगाएंगे तो अर्थ का अनर्थ हो जाएगा, ईश्वर के सारे मौलिक गुण तितर बितर हो जाएंगे, ईश्वरीय व्यवस्था डगमगा जाएगी। ईश्वर निराकार, सर्वव्यापक और एकरस है। वह निराकार से साकार नहीं हो सकता। यह अवतारवाद की थिओरी कोरी कल्पना है और कुछ नहीं। अवतार शब्द का अर्थ होता है उतरना। उतरने चढ़ने का व्यवहार एकदेसीय अर्थात एक स्थान पर रहने वाले पदार्थ/व्यक्ति में हो सकता है, सर्वव्यापक में नहीं। सर्व व्यापक का आना-जाना, चढ़ना उतरना सर्वथा असंभव है। जो सब जगह है, पहले से ही मौजूद है वह कहां से आएगा और कहां आएगा ? जो ईश्वर सर्वव्यापक होने के कारण पहले से ही धरती पर विद्यमान है वह पुनः क्यों अवतरित होगा ? अब रही बात कि कंस को मारने के लिए ईश्वर का अवतार हुआ। जो ईश्वर बिना शरीर के अर्थात बिना शरीर धारण किए मनुष्यों के शरीर उत्पन्न कर सकता है, क्या वह बिना शरीर के शरीर को खत्म नहीं कर सकता ? ईश्वर बिना शरीर धारण करके, बिना अवतार लिए सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति और विनाश कर रहा है। एक ही तूफान आता है तो हजारों व्यक्ति डूब जाते हैं। एक छोटे से कोरोना रूपी वायरस से इस धरती पर लाखों व्यक्ति मर जाते हैं। इनसे हमें बचाने के लिए तो कोई अवतार नहीं आया। इतने सारे लोगों को मारने के लिए यदि ईश्वर को अवतरित होने की आवश्यकता नहीं पड़ी तो एक तुच्छ से कंस का वध करने के लिए उसको जन्म लेने की क्या आवश्यकता है ? यदि ईश्वर को अवतार लेकर कंस को मारना ही था तो उसे जन्म ही न दिलाता अथवा उसे माता के गर्भ में ही मार देता। फिर भला ईश्वर को कृष्ण के रूप में जन्म लेकर, फिर बड़ा होकर और फिर उससे युद्ध करके मारने की क्या ज़रूरत थी ? इस श्लोक में कहा गया है जब जब धर्म की ग्लानि होती है तब तब वह आता है। पर देखने में तो यह आता है कि धर्म पर सदा ही प्रहार होते रहते हैं। यदि ध्यान से देखें तो पता चलेगा कि आजकल धर्म की अत्यधिक हानि हो रही है अतः आजकल हमें ईश्वर की अधिक आवश्यकता है पर आजकल कोई अवतार दिखाई नहीं दे रहा। इस संसार में धर्म व अधर्म दोनों सदा विद्यमान रहते हैं। धर्म पर चलना व उसकी रक्षा करना हम मनुष्यों का कर्तव्य है। हम अपने कर्तव्यों से विमुख हो जाते हैं अथवा तनिक भी पुरुषार्थ व पराक्रम करना नहीं चाहते और इस कार्य को अथवा हर कठिन कार्य को ईश्वर की ओर घकेल देते हैं। यदि ईश्वर ही धर्म की रक्षा करेगा तो मनुष्यों की श्रेष्ठ बुद्धि व बल कब काम आएगा ? एक बात और भी विचारणीय है कि जिस प्रकार हम ईश्वर के कार्यों व क्षेत्रों में हस्तक्षेप नहीं कर सकते उसी प्रकार ईश्वर भी मनुष्यों के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करता। माना पाकिस्तान और चीन अधर्म को फैला रहे हैं तो धर्म की रक्षा के लिए क्या ईश्वर के अवतार की कल्पना व इच्छा की जाए ? यदि ईश्वर ही धर्म की रक्षा के लिए उतरेगा तो भारत को इतनी विशाल सेना रखना की आवश्यकता ही क्या थी। ईश्वर स्वयं उनसे निपट लेगा। इस सृष्टि के अपने नियम हैं और उनका हम उल्लंघन नहीं कर सकते उसी प्रकार ईश्वर के भी अपने नियम हैं और वह स्वयं इन नियमों में बंधा हुआ है और वह चाह कर भी इन नियमों को नहीं तोड़ सकता अर्थात ईश्वर अपने नियम के अनुसार ही कार्य करता है। ईश्वर का एक नियम यह भी है कि उसके टुकड़े नहीं हो सकते और उसके सर्वव्यापकता गुण नष्ट नहीं हो सकते। अवतारवाद को मानते ही ईश्वर का सर्वव्यापकता का गुण नष्ट हो जाता है। दूसरी बात ईश्वर के अवतारवाद को मानने से हमें उसे साकार मानना पड़ेगा जो कि सिद्धांत के विरुद्ध है। साकार मानते ही ईश्वर के सर्वव्यापक सर्वशक्तिमान सृष्टिकर्ता अजर अमर आदि समस्त गुण स्वमेव समाप्त हो जाएंगे। जिसे समाप्त करने का हमें कोई अधिकार नहीं है। ईश्वर के ये मौलिक गुण कभी भी नष्ट नहीं होते, ना ही उन्हें कोई परिवर्तन आता है। अतः ईश्वर के जो गुण है वे अटल है और सदा एकरस है। अवतारवाद के सिद्धांत को मानने से व्यक्ति अज्ञानता के अंधकार में चला जाता है, ईश्वर के आगमन की प्रतीक्षा में वह स्वयं भाग्य के भरोसे बैठने वाला बनकर पुरुषार्थहीन, आलसी, निकम्मा व निठल्ला बन जाता है। इसीलिए अवतारवाद मानना अवैदिक है, अवैज्ञानिक है, अविवेकपूर्ण है और असत्य है।
*ब्राह्मण कौन ?*. (Vedic Vichar)
21-06-2022
????*शूद्रो ब्राह्मणतामेति ब्राह्मणश्चैति शूद्रताम्। क्षत्रियाज्जातमेवं तु विद्याद्वैश्यात्तथैव च।।* *(मनु. १०/६५)* *अर्थात् श्रेष्ठ श्रेष्ठ कर्मों के अनुसार शूद्र ब्राह्मण और ब्राह्मण शूद्र हो जाता है ।* ????यास्क मुनि के अनुसार- *जन्मना जायते शूद्रः संस्कारात् भवेत द्विजः।* *वेद पाठात् भवेत् विप्रःब्रह्म जानातीति ब्राह्मणः।।* अर्थात – व्यक्ति जन्मतः शूद्र है। संस्कार से वह द्विज बन सकता है। वेदों के पठन-पाठन से विप्र हो सकता है। किंतु जो ब्रह्म को जान ले, वही ब्राह्मण कहलाने का सच्चा अधिकारी है। ????महर्षि मनु के अनुसार - *विधाता शासिता वक्ता मो ब्राह्मण उच्यते।* *तस्मै नाकुशलं ब्रूयान्न शुष्कां गिरमीरयेत्॥* अर्थात- शास्त्रो का रचयिता तथा सत्कर्मों का अनुष्ठान करने वाला, शिष्यादि की ताडनकर्ता, वेदादि का वक्ता और सर्व प्राणियों की हितकामना करने वाला ब्राह्मण कहलाता है। अत: उसके लिए गाली-गलौज या डाँट-डपट के शब्दों का प्रयोग उचित नहीं” (मनु; 11-35) ????-महाभारत के कर्ता वेदव्यास और नारदमुनि के अनुसार “जो जन्म से ब्राह्मण है किन्तु कर्म से ब्राह्मण नहीं है उसे शुद्र (मजदूरी) के काम में लगा दो” (सन्दर्भ ग्रन्थ – महाभारत) ????-महर्षि याज्ञवल्क्य व पराशर व वशिष्ठ के अनुसार “जो निष्कारण (कुछ भी मिले ऐसी आसक्ति का त्याग कर के) वेदों के अध्ययन में व्यस्त है और वैदिक विचार संरक्षण और संवर्धन हेतु सक्रीय हे वही ब्राह्मण है।” (सन्दर्भ ग्रन्थ – शतपथ ब्राह्मण, ऋग्वेद मंडल १०, पराशर स्मृति) ????-भगवद गीता में श्री कृष्ण के अनुसार “शम, दम, करुणा, प्रेम, शील (चारित्र्यवान), निस्पृही जेसे गुणों का स्वामी ही ब्राह्मण है” और “चातुर्वर्ण्य माय सृष्टं गुण कर्म विभागशः” (भ.गी. ४-१३) इसमे गुण कर्म ही क्यों कहा भगवान ने जन्म क्यों नहीं कहा? ????-जगद्गुरु शंकराचार्य के अनुसार “ब्राह्मण वही है जो “पुंस्त्व” से युक्त है, जो “मुमुक्षु” है, जिसका मुख्य ध्येय वैदिक विचारों का संवर्धन है,जो सरल है, जो नीतिवान है, वेदों पर प्रेम रखता है, जो तेजस्वी है, ज्ञानी है, जिसका मुख्य व्यवसाय वेदो का अध्ययन और अध्यापन कार्य है, वेदों/उपनिषदों/दर्शन शास्त्रों का संवर्धन करने वाला ही ब्राह्मण है” (सन्दर्भ ग्रन्थ – शंकराचार्य विरचित विवेक चूडामणि, सर्व वेदांत सिद्धांत सार संग्रह,आत्मा-अनात्मा विवेक) किन्तु जितना सत्य यह है कि केवल जन्म से ब्राह्मण होना संभव नहीं है, कर्म से कोई भी ब्राह्मण बन सकता है यह भी उतना ही सत्य है। इसके कई प्रमाण वेदों और ग्रंथो में मिलते हैं- (1) ऐतरेय ऋषि दास अथवा अपराधी के पुत्र थे| परन्तु उच्च कोटि के ब्राह्मण बने और उन्होंने ऐतरेय ब्राह्मण और ऐतरेय उपनिषद की रचना की| ऋग्वेद को समझने के लिए ऐतरेय ब्राह्मण अतिशय आवश्यक माना जाता है| (2) ऐलूष ऋषि दासी पुत्र थे | जुआरी और हीनचरित्र भी थे | परन्तु बाद में उन्होंने अध्ययन किया और ऋग्वेद पर अनुसन्धान करके अनेक अविष्कार किये| ऋषियों ने उन्हें आमंत्रित कर के आचार्य पद पर आसीन किया | (ऐतरेय ब्राह्मण२.१९) (3) सत्यकाम जाबाल गणिका (वेश्या) के पुत्र थे परन्तु वे ब्राह्मणत्व को प्राप्त हुए | (4) राजा दक्ष के पुत्र पृषध शूद्र होगए थे, प्रायश्चित स्वरुप तपस्या करके उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया | (विष्णु पुराण ४.१.१४) (5) राजा नेदिष्ट के पुत्र नाभाग वैश्य हुए| पुनः इनके कई पुत्रों ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया | (विष्णु पुराण ४.१.१३) (6) धृष्ट नाभाग के पुत्र थे परन्तु ब्राह्मण हुए और उनके पुत्र ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया | (विष्णु पुराण ४.२.२) (7) आगे उन्हीं के वंश में पुनः कुछ ब्राह्मण हुए| (विष्णु पुराण ४.२.२) (8) भागवत के अनुसार राजपुत्र अग्निवेश्य ब्राह्मण हुए | (9) विष्णुपुराण और भागवत के अनुसार रथोतर क्षत्रिय से ब्राह्मण बने | (10) हारित क्षत्रियपुत्र से ब्राह्मणहुए | (विष्णु पुराण ४.३.५) (11) क्षत्रियकुल में जन्में शौनक ने ब्राह्मणत्व प्राप्त किया | (विष्णु पुराण ४.८.१) वायु, विष्णु और हरिवंश पुराण कहते हैं कि शौनक ऋषि के पुत्र कर्म भेद से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण के हुए| इसी प्रकार गृत्समद, गृत्समति और वीतहव्यके उदाहरण हैं | (12) मातंग चांडालपुत्र से ब्राह्मण बने | (13) ऋषि पुलस्त्य का पौत्र रावण अपने कर्मों से राक्षस बना | (14) राजा रघु का पुत्र प्रवृद्ध राक्षस हुआ | (15) त्रिशंकु राजा होते हुए भी कर्मों से चांडाल बन गए थे | (16) विश्वामित्र के पुत्रों ने शूद्रवर्ण अपनाया | विश्वामित्र स्वयं क्षत्रिय थे परन्तु बाद उन्होंने ब्राह्मणत्व को प्राप्त किया | (17) विदुर दासी पुत्र थे | तथापि वे ब्राह्मण हुए और उन्होंने हस्तिनापुर साम्राज्य का मंत्री पद सुशोभित किया | *ब्राह्मण की यह कल्पना व्यावहारिक है या नहीं यह अलग विषय हे किन्तु भारतीय सनातन संस्कृति के हमारे पूर्वजो व ऋषियो ने ब्राह्मण की जो व्याख्या दी है उसमे काल के अनुसार परिवर्तन करना हमारी मूर्खता मात्र होगी।* *वेदों-उपनिषदों से दूर रहने वाला और ऊपर दर्शाये गुणों से अलिप्त व्यक्ति चाहे जन्म से ब्राह्मण हों या ना हों लेकिन ऋषियों को व्याख्या में वह ब्राह्मण नहीं हे. अतः आओ हम हमारे कर्म और संस्कार तरफ वापस बढ़ें।* ????????????????????????????????????????????
Vedic Vichar
21-06-2022
????अंधविश्वास :- इतनें लोग मन्दिरों में जाते हैं, क्या वे सभी अंधविश्वासी -- अंधश्रद्धालु है? ---------------------------------------- ????निर्मुलन : मंन्दिरों में जाने वाले सभी अंधविश्वासी या अंधश्रद्धालु नहीं होते । ये सब दर्शनीय स्थान है जहाँ सभी प्रकार के लोग जाते हैं । ईश्वर में आस्था रखने वाले लोग मंन्दिर जायें या नहीं जायें - इससे ईश्वर को कोई फर्क नहीं पड़ता ।जो लोग ईश्वर में विश्वास करते हैं तथा श्रद्धा रखते है ,वे कही भी ईश्वर की स्तुति प्रार्थना उपासना कर सकते हैं ।जहाँ मन्दिर नहीं होते, क्या वहां लोग ईश्वर की भक्ति नहीं करते ? पूरे विश्व में Lockdown में सभी मंदिर और सभी धार्मिक संस्थाएं बंद थे तो क्या अब श्रद्धालु और ईश्वर भक्तों ने ईश्वर की भक्ति करना छोड़ दिया था ? वैदिक काल में कहीं भी प्रतिमायुक्त मन्दिरों का वर्णन नहीं है, अपितु यजुर्वेद में इसका प्रमाण है कि " न तस्य प्रतिमा अस्ति " अर्थात उस परमात्मा की को प्रतिमा नहीं है । भारतवर्ष में लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व से ही जैनियों तथा बौद्धों ने मूर्ति वाले मन्दिरों की स्थापना की ।तब से हीं देखा देखी में हिन्दुओं ने भी अपने देवी- देवताओं की प्रतिमाएँ बनाकर मंन्दिरो में स्थापित की और मूर्ति पूजा आरम्भ की। मन्दिर तो कलाकार की कलाकृति का प्रदर्शन है उसको देखने कोई भी जाय तो रोक - टोक नहीं है । लोगों ने इसे व्यापार बना रखा है - यह गलत है । जो परमपिता परमेश्वर सारे संसार को खिलाता- पिलाता है, क्या उसको हम खिला- पिला सकते है? कदाचित नही ।जो सारे विश्व को प्रकाशित करता है, क्या उसे हम दीपक दिखाकर अपमानित नहीं करते? जो इस ब्रह्माण्ड को रचकर शुद्ध - पवित्र बनाए रखता है, क्या हम उसे एक फूल भेंट कर और अगरबत्ती जलाकर सुगंधित करना चाहते हैं? भक्ति क्या है? भक्त किसे कहते हैं? इसको भी जान लेना आवश्यक हैं ।धूप - अगरबत्ती जलाने से कोई भक्त नहीं बनता नारियल तोड़ कर खाने वाला भी भक्त नहीं कहलाता । ईश्वर का सच्चा भक्त वही है जो ईश्वर की आज्ञा का पालन करता है, सबसे प्रीति पूर्वक व्यवहार करता है,सबसे प्रेम करता है, जो वस्तु जैसी है उसको वैसा ही जानता, मानता,और व्यवहार में लाता है। वही ईश्वर का सच्चा भक्त है । ईश्वर की आज्ञा है कि मनुष्य अधिक से अधिक ज्ञान प्राप्त करें और उसी के अनुसार कर्म करें ।इसी से सब प्रकार के दुखों से निवृत्ति तथा आनन्द की प्राप्ति संभव है । ईश्वर की आज्ञा का पालन करना ही सच्चे अर्थों में ईश्वर की भक्ति करना है। ईश्वर का भक्त बनने के लिए सभी जिज्ञासुओं को वेदों का अध्ययन करना चाहिए - यही मनुष्य मात्र के धर्म- ग्रन्थ है । जिन मंन्दिरो में वेदपाठ होता है -- संध्या -- हवन -- यज्ञादि सत्कर्म होते है, उन मंन्दिरों में अवश्य जाना चाहिए । जिन मंन्दिरो में पाषाण मूर्ति पूजा नहीं होती -- निराकार परमात्मा की पूजा होती है, वहाँ अवश्य जाना चाहिए ।
*वेद ईश्वर द्वारा प्रकाशित *. (Vedic Vichar)
21-06-2022
यस्मादृचो अपातक्षन् यजुर्यस्मादपाकषन्। समानि यस्य लोकमान्यथर्वांगिरसो मुखम्। स्कम्भन्तं ब्रूहि कतमः स्विदेव सः।। अथर्ववेद १०/७/२० *भावार्थ -जो परमात्मा सबको उत्पन्न करके धारण कर रहा है, उसी परमात्मा से ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद उत्पन्न हुए हैं। *???? वेदवाणी कल्याणकारी और मोक्ष दायिनी*???? ओं स्तुता माया वरदा वेदमाता प्र चोदयन्ता पावमीनी द्विजानाम्। आयु प्राणं प्रजां कीर्ति द्रविणं ब्रह्मवर्चसम्। मह्मं दत्त्वा व्रजत ब्रह्मलोकम्। अथर्ववेद १९/७१/१ *भावार्थ -ईश्वर उपदेश देते हैं कि हे मनुष्यो ! इष्टफल देनेवाली , ज्ञानमयी वेदवाणी मेरे द्वारा प्रकाशित की गई है। हे विद्वान लोगों ! यह वेद वाणी द्विजों को पवित्र करने वाली है। आयु प्राण सुप्रजा , गौ आदि पशु, कीर्ति, धन और वेदाभ्यास के तेज वाली है, इसको द्विजों में आगे प्रचारित करो। इसके द्वारा प्राप्त शुभ कर्मों को मेरे अर्पण करके तुम ब्रह्मलोक को प्राप्त करो। *???? वेदों प्रचार और परोपकार करो *???? *ओ३म् ये पायवो मामतेयं ते अग्ने पश्यन्तो अन्धं दुरितादरक्षन्।ररक्ष तान्त्सुकृतो विश्ववेदा दिप्सन्त इद्रिपवो नाह देभुः।। ( ऋग्वेद1/147/3 )* *भावार्थ- परोपकार, परमार्थ, वेदप्रचार, पाखंड खण्डन आदि के कार्यों में निंदा उपहास आदि का भय नहीं करना चाहिए । ऐसे मनुष्यों की रक्षा स्वयं परमात्मा करता है अतः निश्चिन्त होकर लोक कल्याण में लगे रहना चाहिए।* *???? वेद प्रचार और यज्ञ करने वाले सौभाग्यशाली *???? उत्तिष्ठ ब्रह्मणस्पते देवान्यज्ञेन बोधय ! आयुः प्राणं प्रजां पशुं कीर्तिं यज्ञमानं च वर्धय !!(अथर्व वेद :-१९-६३-१) *भावार्थ -विद्वान पुरूषों का कर्तव्य है कि दूसरे विद्वानों से मिल कर वेदों का और यज्ञादिक उत्तम कर्मो का प्रचार करें जिससे यज्ञादिक कर्म करने वाले यज्ञमान चिरंजीवी बनकर आत्मिक बल ,पुत्रादि संतान और गौ -घोड़े आदि सुखदायक पशु और यश को प्राप्त होकर अपनी और अपने देश की उन्नति करें ! *???? धरती से अज्ञान को मिटाओ *???? *इन्द्रासोमा महि तद्वां महित्वं युवं महानि प्रथमानि चक्रथुः।* *युवं सूर्यं विविदथुर्युवं स्वर्विश्वा तमांस्यहतं निदश्च॥ ऋग्वेद ६-७२-१॥ *भावार्थ -जिस प्रकार सूर्य से चंद्रमा और अन्य लोक प्रकाशित होते हैं। उसी प्रकार शिक्षक और उपदेशक ज्ञान रूपी सूर्य हैं। जिससे हमें उनका ज्ञान रूपी प्रकाश प्राप्त कर संसार से अविद्या के अंधकार को हटाना चाहिए। संसार से अन्याय को दूर करने का प्रयास करना चाहिए।???? *???? धार्मिक और परोपकारी ईश्वर का प्रिय *???? न तं जिनन्ति बहवो न दभ्रा उर्वस्मा अदितिः शर्म यंसत्। प्रियः सुकृत्प्रिय इन्द्रे मनायुः प्रियः सुप्रावीः प्रियो अस्य सोमी॥ ऋग्वेद ४-२५-५॥ *भावार्थ -शत्रु संख्या में कम हो या अधिक वे उस मनुष्य को नहीं जीत सकते जो उत्तम कर्म करता है, जो लोगों का हित करता है और जो उत्तम मार्ग पर चलता है। ऐसा मनुष्य प्रभु का प्रिय होता है। (ऋग्वेद ४-२५-५ *????पवित्र वेदो को पढ़ने के अधिकार सभी को है*???? *यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्यः।* *ब्रह्मराजन्याभ्या शूद्राय चार्याय च स्वाय चारणाय ।।* *(यजुर्वेद 26.2 )* *भावार्थ -परमेश्वर स्वयं कहता है कि मैने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, अपने भृत्य वा स्त्रियादि के लिये भी वेदों का प्रकाश किया है; अर्थात् सब मनुष्य वेदों को पढ़ - पढ़ा और सुन - सुना कर विज्ञान को बढ़ा के अच्छी बातों का ग्रहण और बुरी बातों का त्याग करके दुःखों से छूट कर आनन्द को प्राप्त हों। *???? हे मनुष्य तू जड़ प्रकृति और मूर्ति पूजा मत कर :- *???? अन्धन्तम: प्र विशन्ति येsसम्भूति मुपासते ततो भूयsइव ते तमो यs उसम्भूत्या-रता: ( यजुर्वेद अध्याय 40 मंत्र 9 ) *भावार्थ -जो लोग ईश्वर के स्थान पर जड़ प्रकृति या उससे बनी मूर्तियों की पूजा उपासना करते हैं । वह लोग घोर अंधकार ( दुख ) को प्राप्त होते हैं। ,
आर्यावर्त्त (Vedic Vichar)
21-06-2022
प्रश्न : हमारे देश का सबसे पुराना नाम क्या है? उत्तर :आर्यावर्त्त प्रश्न :क्या आर्य बाहर से आये हैं? उत्तर :नहीं ! आर्य भारत के मूल निवासी थे। "ऋग्वेद में आर्य शब्द का प्रयोग 37 बार आया है।" आर्य बाहर से नहीं बल्कि यहीं के मूल निवासी हैं।वेद में परमात्मा कहता है-"मैंने यह भूमि आर्यों को दी है।" वेदों में भारत की नदियों तक को मेरी मां कहकर सम्बोधित किया गया है,कोई भी विदेशी दूसरे देश की नदियों को मेरी मां का सम्बोधन नहीं दे सकता। प्रश्न :आर्य संस्कृति क्या है? उत्तर :श्रेष्ठ कर्मों की संस्कृति ही आर्य संस्कृति है। प्रश्न :श्रेष्ठ कर्म क्या है? उत्तर :जिन कर्मों से सृष्टि (संसार) के जड़ चेतन का भला हो,परोपकार हो,वही श्रेष्ठ कर्म है,वेदों,उपनिषदों,स्मृति शास्त्रों में प्रतिपादित कर्म श्रेष्ठ कर्म हैं। प्रश्न :आर्य कौन हैं? उत्तर :जो ज्ञान,विज्ञान,नीति व श्रेष्ठ कर्मों से संस्कारित है वही आर्य है। प्रश्न :समाज किसको कहते हैं? उत्तर :किसी काम को करने के लिए इकट्ठे हुए मनुष्यों को 'समाज' कहते हैं। प्रश्न :आर्य समाज किसे कहते हैं? उत्तर :आर्यों के समाज को आर्यसमाज कहते हैं। प्रश्न :आर्यों का राज्य कब था? उत्तर :सृष्टि के आरम्भ से लेकर अब से लगभग 5000 वर्ष पूर्व तक आर्यों का चक्रवर्ती राज्य था। प्रश्न : मानव सृष्टि की उत्पत्ति कहाँ हुई? उत्तर :त्रिविष्टुप अर्थात् तिब्बत में हुई। प्रश्न :पारसमणि पत्थर क्या है? उत्तर :महर्षि दयानन्द के शब्दों में "जो पारसमणि पत्थर सुना जाता है वह झूठी बात है।परन्तु यह आर्यावर्त्त देश ही सच्चा पारसमणि पत्थर है। प्रश्न :भूगोल में विद्या कहाँ से फैली? उत्तर :महर्षि दयानन्द के शब्दों में "जितनी विद्या भूगोल में फैली है सब आर्यावर्त्त देश से मिश्र वालों में,उनसे यूनान,रोम,यूरोप,अमेरिका आदि में फैली है। प्रश्न : आर्यसमाज के बारे में पं. मदन मोहन मालवीय के क्या विचार थे? उत्तर :मालवीय जी ने कभी कहा था-जब आर्य समाज दौड़ता है तो हिन्दू समाज चलता है।जब आर्यसमाज बैठ जाता है,तो हिन्दू समाज सो जाता है,यदि आर्यसमाज सो गया तो हिन्दू समाज मर जाएगा।
Vedic Vichar
21-06-2022
*प्र०- देवता किसे कहते है?* उ०-देवो दानाद्वा, दीपनाद्वा द्योतनाद्वा , द्युस्थानो भवतीति वा । दान देने वाले देव कहाते हैं दीपन अर्थात विद्या रुपी प्रकाश करने वाले देव कहाते हैं । द्योतन अर्थात सत्योपदेश करने वाले देव कहाते हैं ।विद्वान भी विद्या आदि का दान करने से देव कहाते हैं विद्वानसो ही देवा । सब मूर्ति मान पदार्थों का प्रकाश करने से सूर्य आदि को भी देवता कहते हैं । देव देवी देवता- इन सबका एक ही अर्थ है । प्र०- देवता कितने प्रकार के होते है? उ०- देवता दो प्रकार के होते हैं- जड देवता और चेतन देवता । प्र०- चेतन देवता कौन से है? उ०- माता , पिता , गुरु , आचार्य , अतिथि , पति पत्नी ये सब चेतन देवता है। प्र०- क्या चेतन देवों की पूजा करनी चाहिये और करे तो कैसे ? उ०- हां करनी चाहिये क्योंकि ये हमारा पालन पौषण करते हैं, हमारी रक्षा करते हैं, हमे ज्ञान देकर मनुष्य बनाते हैं । और पूजा का अर्थ है सत्कार करना, इन सबका सम्मान करना इनकी आज्ञा का पालन करना , इनकी आवश्यकता पूरी करना यही इनकी पूजा है ।और जो ऐसा नहीं करता उसे कृत्घ्नता का पाप लगता है। प्र०- क्या यदि माता पिता उल्टी गलत शिक्षा दे तो उसे भी मानना चाहिये ? उ०- नहीं, उनकी गलत बात बिल्कुल न माने । यदि वे पशुबलि, पाषाण पूजा, शिवलिंग पूजा, ग्रहपूजा, महूर्त, जन्मपत्री , मिथ्याभाषण, चोरी, मद्यपान आदि की बुरी सलाह दे तो उसको न माने लेकिन सेवा फिर भी करे। प्र०- पौराणिक लोग कहते हैं कि तैंतीस करोड़ देवता हैं , क्या यह सच है ? उ०- नहीं , कोटि शब्द के दो अर्थ हैं, पहला कोटि का अर्थ करोड़ और दूसरा कोटि का अर्थ प्रकार । जड देवता तैंतीस प्रकार के है। प्र०- जड़ देवता कौन से है? उ०- आठ वसु- अग्नि पृथ्वी वायु अन्तरिक्ष आदित्य द्यौ चन्द्रमा और नक्षत्र, इन्हें वसु इसलिए कहते हैं कि सब पदार्थ इन्हीं में वसते हैं । ग्यारह रुद्र - प्राण अपान व्यान उदान समान नाग कूर्म कृकल देवदत्त धनञ्जय और जीवात्मा क्योंकि जब ये शरीर से निकलते हैं तो मरण होने से सब सम्बन्धी रोते हैं इसलिए इन्हें रुद्र कहते हैं । आदित्य बारह महिनों को कहते हैं क्योंकि सब जगत के पदार्थों का ये आदान करते हैं और सबकी आयु को ग्रहण करते हैं । इन्द्र बिजली को कहते हैं क्योंकि सब ऐश्वर्य की विद्या का आधार वही है। यज्ञ को प्रजापति इसलिए कहते हैं क्योंकि सब वायु और वृष्टिजल की शुद्धि द्वारा प्रजा का पालन होता है, पशुओं को भी यज्ञ कहते है क्योंकि उनसे भी प्रजा का पालन होता है। ये तैंतीस देव कहाते हैं । इनके अतिरिक्त तीन देव स्थान नाम जन्म को कहते हैं और अन्न व प्राण को भी देव कहते हैं । प्र०- क्या इन जड देवो की पूजा करनी चाहिये और कैसे? उ०- जी हां, ईश्वर द्वारा दिये जड पदार्थों का अपने व दूसरे के सुख के लिए सदुपयोग करना ही जड पूजा है। ईश्वर द्वारा बनाये पदार्थों की रक्षा करना उन्हें गन्दा न करना ही पूजा है क्योंकि ये अमूल्य है । प्र०- क्या ये सारे देव उपास्य है? उ०- नहीं । ईश्वर सब देवो का देव होने से महादेव कहाता है और केवल वही उपास्य है दूसरा नहीं। प्र०- वेद मन्त्रों के साथ देवता लिखा होता है क्यों ? उ०- जिस मन्त्र का जो विषय जिस ऋषि ने समाधि अवस्था मे बैठकर साक्षात्कार किया उस मन्त्र का वही देवता व ऋषि होता है।
मांसाहार (Vedic Vichar)
21-06-2022
_*अग्नि* पर जब फल, फूल, अनाज, दूध, दही, घी, तेल डाला जाता है तो वो *यज्ञ* बन जाता है और उसी अग्नि पर जब मुर्दा, हड्डी, मांस का शरीर रखा जाता है फिर वो पूरा हो या कटा हुआ हो तो वो *चिता* बन जाती है.._ _हमें भी जब भूख लगती है तो कहा जाता है कि हमारे भीतर *जठराग्नि* प्रज्जवलित हुई है और वो भी अग्नि है और जब ये जठराग्नि प्रज्जवलित होती है तब हम उस में भी कुछ ना कुछ डालते हैं.. अगर हम उस में चिकन, मटन या मांस का कुछ भी डालते हैं तो वो *चिता* बन जाती है और अगर हम उसमें फल, फूल, अनाज, दूध, दही, घी, तेल डालते हैं तो वो *यज्ञ* बन जाता है.._ *_अब आप के भीतर 'चिता' हो या 'यज्ञ' हो, ये निर्णय आप को करना है.._* 〰〰〰〰???????? प्रश्न :- वृक्षों में जब जीव हैं तो फिर अन्न ,फल व वनस्पतियों का सेवन करना क्या जीव हिंसा और पाप नहीं है? उत्तर :- अन्न फल व वनस्पतियों को खाना पाप नहीं है।यह वेदों की आज्ञा के अनुसार है।मांसाहार इस लिए पाप है कि इस से जानवरों को पीड़ा और दुःख होता है।वृक्षों में जीव सुषुप्तावस्था में होते हैं ( unconscious Ness state of mind in plant).अतः वृक्षों को पीड़ा का अनुभव नहीं होता है।हमे कांटा चुभ जाए तो सारा शरीर तड़प उठता है। किसी भी अंग पर चोट लगे तो सारा शरीर सिहर उठता है।पौधौ से फूल तोड़ो या वृक्ष की दो -चार शाखाएं काटो तो शेष फूलों व वृक्षों में कोई प्रभाव नहीं पड़ता ।फूल तोड़कर देखिए पौधे मुरझाते नहीं है।फल तोड़कर देखिए फिर से उसमें नये फल लगते हैं।जानवरों में भी वही आत्माएं है जो हम मनुष्यों में है। जानवरों को भी उसी परमेश्वर ने बनाया जिसने हमें बनाया। मनुष्य का पशु पक्षी का कोई अंग काटो तो फिर नया हाथ,पैर,भुजा नहीं उगता,परन्तु वृक्षों की शाखाएं फिर फूट आती है।इससे यह सिद्ध हुआ कि वनस्पतियों और वृक्षों में जीव और जान तो है,परन्तु वृक्षों की योनि को स्थावर योनि कहते हैं जो कि मनुष्य योनि से बिल्कुल ही भिन्न है।अतः वृक्षों को पीड़ा नहीं होती। अतः फल फूल और सब्जियों एवं वनस्पतियों को खाना हिंसा और पाप की श्रेणी में नहीं आता।अगर वृक्षों से फूल न तोड़ी जाए तो कुछ समय के बाद वह खुद पक कर गिर पड़ती है।खेतों में भी अधिकांश वनस्पतियों को झाड़ सहित नहीं उखाड़ा जाता । अतः सब्जियों को खाना हिंसा और पाप नहीं है।
ईश्वर (Vedic Vichar)
21-06-2022
प्र. 1: ईश्वर का मुख्य नाम क्या है ? उत्तर: ईश्वर का मुख्य नाम ‘ओ3म्’ है। प्र. 2: ईश्वर के कुल कितने नाम हैं ? उत्तर: ईश्वर के असंख्य नाम हैं। प्र. 3: ईश्वर के नामों से हमें क्या पता चलता है ? उत्तर: ईश्वर के नामों से हमें उसके गुण, कर्म और स्वभाव का पता चलता है। प्र. 4: ईश्वर एक है या अनेक ? उत्तर: ईश्वर एक ही है उसके नाम अनेक हैं। प्र. 5: क्या ईश्वर कभी जन्म लेता है ? उत्तर: नहीं, ईश्वर कभी जन्म नहीं लेता। वह अजन्मा है। प्र. 6: स्तुति, प्रार्थना, उपासना किसकी करनी चाहिए ? उत्तर: स्तुति, प्रार्थना, उपासना केवल ईश्वर की ही करनी चाहिए। प्र. 7: ईश्वर से अध्कि सामर्थ्यशाली कौन है ? उत्तर: ईश्वर से अध्कि सामर्थ्यशाली और कोई नहीं है। वह सर्वशक्तिमान् है। प्र. 8: ‘इन्द्र’ नाम किसका है ? उत्तर: जिसमें सबसे अधिक ऐश्वर्य होता है उसे इन्द्र कहते हैं अर्थात् ‘इन्द्र’ ईश्वर का नाम है। प्र. 9: दुःख कितने प्रकार के और कौन-कौन से होते हैं ? उत्तर: दुःख तीन प्रकार के होते हैं - (1) आध्यात्मिक, (2) आधिभौतिक, (3) आधिदैविक दुःख। प्र. 10: आध्यात्मिक दुःख किसे कहते हैं ? उत्तर: अविद्या, राग-द्वेष, क्लेश मोह इत्यादि से होने वाले दुःख को आध्यात्मिक दुःख कहते हैं। प्र. 11: आधिभौतिक दुःख किसे कहते हैं ? उत्तर: मनुष्य, पशु-पक्षी, कीट-पतंग, मक्खी-मच्छर, सांप रोग इत्यादि से होने वाले दुःख को आधिभौतिक दुःख कहते हैं। प्र. 12: आधिदैविक दुःख किसे कहते हैं ? उत्तर: अधिक सर्दी-गर्मी-वर्षा, भूख-प्यास भूकम्प बाढ़ से होने वाले दुःख को आधिदैविक दुःख कहते हैं। प्र. 13: ईश्वर के कोई दस नाम बताइए। उत्तर: (1) विष्णु, (2) वरुण, (3) परमात्मा, (4) पिता, (5) अनन्त, (6) शुद्ध, (7) निराकार, (8) सरस्वती, (9) न्यायकारी, (10) भगवान्। प्र. 14: ईश्वर के तीन गुण बताइए। उत्तर: ईश्वर के तीन गुण हैं - न्याय, दया और ज्ञान। प्र. 15: ईश्वर के तीन कर्म बताइए। उत्तर (1) ईश्वर सृष्टी की रचना करता है। (2) ईश्वर वेदों का उपदेश करता है। (3) ईश्वर कर्मों का फल देता है। प्र. 16: ‘अनन्त’ का अर्थ क्या है ? उत्तर: जिसका कभी अन्त नहीं होता उसे अनन्त कहते हैं। ईश्वर अनन्त है। प्र. 17: क्या ‘गणेश’ ईश्वर का नाम है? क्यों ? उत्तर: हाँ, क्योंकि वह पूरे संसार का स्वामी है और सबका पालन करता है। प्र. 18: ‘सरस्वती’ से आप क्या समझते हैं ? उत्तर ‘सरस्वती’ ईश्वर का एक नाम है। संसार का पूर्ण ज्ञान जिसे होता है, उसे सरस्वती कहते हैं। प्र. 19: ईश्वर को ‘निराकार’ क्यों कहते हैं ? उत्तर: ईश्वर का कोई आकार, रुप, रंग, मूर्ति नहीं है। अतः उसे निराकार कहते हैं । प्र. 20: क्या राहु और केतु ग्रहों के नाम हैं। उत्तर: नहीं, इस नाम के कोई ग्रह नहीं होते। ये दोनों नाम ईश्वर के हैं। प्र. 21: ईश्वर के किन्हीं दो नामों की व्याख्या कीजिए। उत्तर (क) ब्रह्मा - ईश्वर जगत् को बनाता है इसलिए उसे ब्रह्मा कहते हैं। (ख) विष्णु - समस्त जगत में व्यापक प्र. 22: ‘सत्यार्थ प्रकाश’ नामक ग्रन्थ की रचना किसने की थी ? उत्तर: ‘सत्यार्थ प्रकाश’ नामक ग्रन्थ की रचना महर्षि दयानन्द ने की थी।
आर्यो का आत्म मन्थन- (Vedic Vichar)
21-06-2022
जहां हमें दुष्ट यवनों और मलेच्छों से लड़ना है वहां हमें हिन्दूओ में धर्म के नाम पर आई कुरितियों अन्धविश्वासों व पाखंड को भी दूर करना है | गत लगभग दो हजार वर्षों से बहुत कूडा कर्कट आस्था के नाम पर हिन्दूओं ने इकट्ठा कर लिया है | जब तक हिन्दू इस कूडे को ढोते रहेंगे कभी भी यवनों मुग़लों का सामना छाती तान कर नहीं कर सकेगें | ऋषि दयानंद जी ने इस बात को समझा और सबसे पहले उन्होंने हमारे अपने धर्म में आई कुरितियों का जम कर खण्डन किया पश्चात यवनों व मलेच्छों की धुलाई की | परन्तु उनकी विरोद्धता करने और विष देकर मारने वालों में सबसे आगे हिन्दू ही थे क्योंकि हिन्दू चाहते थे कि यवनों व मलेच्छों का तो खण्डन किया जाये पर उनका न किया जाये | उनके जाने के बाद भी स्थिति जस की तस बनी हुई है आज भी हिन्दू आर्य समाज को समझ ही नहीं पा रहा वह समझता है कि आर्यजन उनकी आस्थाओं पर चोट कर उनको आपस में लडा रहा है ! जबकि वास्तविकता इससे बिल्कुल विपरित है आर्य समाज सबके धर्म के नाम पर चल पड़े सब अन्धविश्वास व पाखंड को दूर करके ख़ुशहाल और मजबूत समाज बनाना चाहता है | आज जब हम कुराण बाईबल आदि की दकियानूसी अवैज्ञानिक बातों का खण्डन करते हैं तो वे हमारे पुराणों में लिखी कपोल कल्पित हास्यास्पद गाथाओं को लेकर बैठ जाते हैं, गली मुहल्लों में दो दो रुपयों में बिकने वाले भगवानों को लेकर बैठ जाते हैं,हमें हजार वर्ष तक गुलाम बनाये रखने की शेखी मारने लगते हैं | भांति भांति की मूर्तियों व भांति भांति के भगवानों की पूजा हमारी लम्बी दास्ता का मुख्य कारण रहा है | आर्य समाज कोई मजहव नहीं वह तो एक आंदोलन है जो सब मज़हबों की दीवारों को तोड़ना चाहता है और विश्वबन्धुत्व, कृण्वन्तोविश्वार्यम, मनुर्भव - सब मनुष्य बने जैसे वेद सन्देशों को साकार करना चाहता है | आर्य समाज के दीवाने अपने गुरु ऋषि दयानंद की तरह विष पीकर अमृत पिलाने में विश्वास रखते हैं । ऋषि दयानंद जी का मानना था कि जब तक भिन्न भिन्न मतमतान्तरों का विरुद्धावाद नहीं छूटेगा विश्व में एकता व शान्ति नहीं हो सकती | जब तक हिन्दू ऋषि दयानंद की एक एक बात को स्वीकार कर उसे आत्मसात नहीं करेगा तब तक वह दुष्ट यवनों व मलेच्छों का डट कर सामना नहीं कर सकेगा । पता नहीं कब यह बात हिन्दू भाईयों को समझ लगेगी ,कब वे आर्यों को अपना असली मित्र व शुभचिंतक समझेगें ? कब वे सब अन्धपरम्पराओं का परित्याग कर वेद यज्ञ व योग को अपनी दिनचर्या का अंग बनायेंगे ? पाषाण पूजा ,पशुबलि ,मांस भक्षण ,अवतारवाद ,जातिवाद,अद्वैतवाद ,राशिफल आदि वेदविरुद्ध मान्यताओं को छोड़ना ही होगा | निर्मल बाबा , रामरहीम, रामपाल, राधे मां मुरारी बापू चित्रलेखा जैसे क्था व्यापारी पाखंडी गुरुओं और विभिन्न चैनलों पर सुबह सुबह लोगों का भविष्य व दु;ख दूर करने के टोटके बताने वाले मूर्खों के विरुद्ध आवाज उठानी ही होगी वरणा एक और लम्बी दास्ता को झेलना पड सकता है । सब प्रकार की शंकाओं के निवारण व धर्म कर्म की सही सही जानकारी के लिये महर्षि दयानंद कृत सत्यार्थप्रकाश का स्वाध्याय बहुत सहायक है ।
"धर्म क्या है ?*. * what is dharma* (Vedic Vichar)
21-06-2022
*किसी भी वस्तु के स्वाभाविक गुणों को उसका धर्म कहते है जैसे अग्नि का धर्म उसकी गर्मी और तेज है। गर्मी और तेज के बिना अग्नि की कोई सत्ता नहीं। अत: मनुष्य का स्वाभाविक गुण मानवता है। यही उसका धर्म है।** *कुरान कहती है – मुस्लिम बनो।* *बाइबिल कहती है – ईसाई बनो।* *किन्तु वेद कहता है – मनुर्भव अर्थात मनुष्य बन जावो (ऋग्वेद 10-53-6)।* *अत: वेद (Ved) मानवधर्म का नियम शास्त्र है। जब भी कोई समाज, सभा या यंत्र आदि बनाया जाता है तो उसके सही संचालन के लिए नियम पूर्व ही निर्धारित कर दिये जाते है परमात्मा (god) ने सृष्टि के आरंभ में ही मानव कल्याण के लिए वेदों के माध्यम से इस अद्भुत रचना सृष्टि के सही संचालन व सदुपयोग के लिए दिव्य ज्ञान प्रदान किया। अत: यह कहना गलत है कि वेद केवल आर्यों (हिंदुओं) के लिए है, उन पर जितना हक हिंदुओं का है उतना ही मुस्लिमों ईसाईयो जैन बौद्ध का भी है।* अर्थात सभी मानवों के लिए हैं। *मानवता का संदेश देने वाले वैदिक धर्म (vedic religion) के अलावा दूसरे अन्य धर्म किसी व्यक्ति विशेष द्वारा चलाये गए। धर्म चलते समय उन्होने अपने को ईश्वर का दूत व ईश्वर पुत्र बताया, ताकि लोग उनका अनुसरण करें। जैसे – इस्लाम धर्म पैगंबर मुहम्मद (Prophet Muhammad) द्वारा, ईसाई धर्म ईसा-मसीह (Jesus-Christ) द्वारा और बौद्ध धर्म महात्मा बुद्ध (Buddha) द्वारा आदि। क्योंकि सभी अनुयायियों को धर्म के चलाने वाले पर विश्वास लाना आवश्यक है। अत: ये धर्म नहीं, मत है सम्प्रदाय कहलाते है। ये सब मत वैज्ञानिक (scientific) भी नहीं है, जबकि धर्म और विज्ञान का आपस में अभिन्न संबंध है। जहाँ धर्म है वहाँ विज्ञान है। अत: जो मत विज्ञान की कसौटी पर खरे नहीं उतरते, वे धर्म भी नहीं है। गीता में श्रीकृष्ण जी कहते है कि ‘यतो धर्मस्ततो जय:’ अर्थात जहाँ धर्म है वहाँ विजय है आगे आता है कि ‘वेदोsखिलो धर्ममुलं’ अर्थात वेद धर्म का मूल है।* *वेदों के आधार पर महर्षि मनु (manu) ने धर्म के 10 लक्षण बताए है ???? *धृति क्षमा दमोsस्तेयं शौचमिन्द्रिय निग्रह:,* *धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणमं ॥* *(1) धृति :- धैर्य रखना कठिनाइयों से न घबराना।* *(2) क्षमा :- शक्ति होते हुए भी दूसरों को माफ करना।* *(3) दम :- मन को वश में करना (समाधि के बिना यह संभव नहीं) ।* *(4) अस्तेय :- चोरी न करना। मन, वचन और कर्म से किसी भी परपदार्थ या धन का लालच न करना।* *(5) शौच :- शरीर, मन एवं बुद्धि को पवित्र रखना।* *(6) इंद्रिय-निग्रह :- इंद्रियों अर्थात आँख, वाणी, कान, नाक और त्वचा को अपने वश में रखना और वासनाओं से बचना।* *(7) धी :- बुद्धिमान बनना अर्थात प्रत्येक कर्म को सोच-विचारकर करना और अच्छी बुद्धि धारण करना।* *(8) विद्या :- सत्य वेद ज्ञान ग्रहण करना।* *(9) सत्य :- सच बोलना, सत्य का आचरण करना।* *(10) अक्रोध :- क्रोध न करना। क्रोध को वश में करना।* *इन दश नियमों का पालन करना धर्म है। यही धर्म के दस लक्षण है। यदि ये गुण या लक्षण किसी भी व्यक्ति में है तो वह धार्मिक है। मनुष्य बिना सिखाये अपने आप कुछ नहीं सीखता है। जबकि ईश्वर ने अन्य जीवों को कुछ स्वाभाविक ज्ञान दिया है जिससे उनका जीवन चल जावे। जैसे :- मनुष्य को बिना सिखाये न चलना आवे, न बोलना, न तैरना और न खाना आदि। जबकि हिरण का बच्चा पैदा होते ही दौड़ने लगता है, तैरने लगता है। यही बात अन्य गाय, भैंस, शेर, मछली, सर्प, कीट-पतंग आदि के साथ है। अत: ईश्वर ने मनुष्य के सीखने के लिए भी तो कोई ज्ञान दिया होगा जिसे धर्म कहते है। जैसे भारत के संविधान को पढ़कर हम भारत के धर्म, कानून, व्यवस्था, अधिकार आदि को जानते है वैसे ही ईश्वरीय संविधान वेद को पढ़कर ही हम मानवता व इस ईश्वर की रचना सृष्टि को जानकर सही उन्नति को प्राप्त कर सकते है। आर्यसमाज निरंतर इसी वेद प्रचार के विश्व शांति व उन्नति के कार्य में यथासामर्थ्य लगा हुआ है। यदि विश्व के किसी भी कोने के मनुष्य को वेदों को समझने के लिए आर्यसमाज का सहयोग लेना ही होगा अन्यथा गलत व्याख्या रूप में आपको मेक्समूलर आदि के किए ग्वारु भाष्य वाले वेद ही मिलेंगे । पूर्ण वैज्ञानिक वैदिक ज्ञान के लिए प्रयत्नशील सभी मनुष्य कृपया आर्यसमाज में जावे ओर अपनी, अपने राष्ट्र की व सारे विश्व की उन्नति के लिए वैदिक धर्म को यथास्वरूप अपनावे।*
Vedic Vichar
21-06-2022
अमेरिका के कृषि विभाग द्वारा प्रकाशित हुई पुस्तक ”जरूर पढ़े और आगे शेयर करें ... "THE COW IS A WONDERFUL LABORATORY ” के अनुसार प्रकृति ने समस्त जीव-जंतुओं और सभी दुग्धधारी जीवों में केवल गाय ही है जिसे ईश्वर ने 180 फुट (2160 इंच ) लम्बी आंत दी है जिसके कारण गाय जो भी खाती-पीती है वह अंतिम छोर तक जाता है | लाभ :- जिस प्रकार दूध से मक्खन निकालने वाली मशीन में जितनी अधिक गरारियां लगायी जाती है उससे उतना ही वसा रहित मक्खन निकलता है , इसीलिये गाय का दूध सर्वोत्तम है। गो वात्सल्य :- गौ माता बच्चा जनने के 18 घंटे तक अपने बच्चे के साथ रहती है और उसे चाटती है इसीलिए वह लाखो बच्चों में भी वह अपने वच्चे को पहचान लेती है जवकि भैंस और जरसी अपने बच्चे को नहीं पहचान पायेगी | गाय जब तक अपने बच्चे को अपना दूध नहीं पिलाएगी तब तक दूध नहीं देती है , जबकि भैस , जर्सी होलिस्टयन के आगे चारा डालो और दूध दुह लो | बच्चो में क्रूरता इसीलिए बढ़ रही है क्योकि जिसका दूध पी रहे है उसके अन्दर ममता नहीं है। खीस :- बच्चा देने के बाद गाय के स्तन से जो दूध निकलता है उसे खीस, चाका, पेवस, कीला कहते है , इसे तुरंत गर्म करने पर फट जाता है | बच्चा देने के 15 दिनों तक इसके दूध में प्रोटीन की अपेक्षा खनिज तत्वों की मात्रा अधिक होती है , लेक्टोज , वसा ( फैट ) एवं पानी की मात्रा कम होती है | खीस वाले दूध में एल्व्युमिन दो गुनी , ग्लोव्लुलिन 12-15 गुनी तथा एल्युमीनियम की मात्रा 6 गुनी अधिक पायी जाती है | लाभ:- खीस में भरपूर खनिज है यदि काली गौ का दूध ( खीस) एक हफ्ते पिला देने से वर्षो पुरानी टी.बी. (T.B.) ख़त्म हो जाती हैl सींग :- गाय की सींगो का आकर सामान्यतः पिरामिड जैसा होता है , जो कि शक्तिशाली एंटीना की तरह आकाशीय उर्जा ( कॉस्मिक एनर्जी ) को संग्रह करने का कार्य सींग करते है। गाय का ककुद्द (डील) : गाय के कुकुद्द में सूर्यकेतु नाड़ी होती है जो सूर्य से अल्ट्रावायलेट किरणों को रोकती है , गाय के 40 मन दूध में लगभग 10 ग्राम सोना पाया जाता है जिससे शरीर की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है। इसलिए गाय का घी हलके पीले रंग का होता है। गाय का दूध :- गाय के दूध के अन्दर जल 87 % वसा 4 %, प्रोटीन 4% , शर्करा 5 % , तथा अन्य तत्व 1 से 2 % प्रतिशत पाया जाता है | गाय के दूध में 8 प्रकार के प्रोटीन , 11 प्रकार के विटामिन्स , गाय के दूध में ‘ कैरोटिन ‘ नामक प्रदार्थ भैस से दस गुना अधिक होता है। भैस का दूध गर्म करने पर उसके पोषक तत्व ज्यादातर ख़त्म हो जाते है परन्तु गाय के दूध के पोषक तत्व गर्म करने पर भी सुरक्षित रहता है। गाय का गोमूत्र : गाय के मूत्र में आयुर्वेद के अनुसार स्वास्थ्य का खजाना है , इसके अन्दर ‘ कार्बोलिक एसिड ‘ होता है जो कीटाणु नाशक है। ताजी गौमूत्र काँच की बोतल में भरकर चाहे जितने दिनों तक रखे ख़राब नहीं होता है । गौ मूत्र में कैसर को रोकने वाली "करक्यूमिन " पायी जाती है। गौ मूत्र में नाइट्रोजन ,फास्फेट, यूरिक एसिड , पोटेशियम , सोडियम , लैक्टोज , सल्फर, अमोनिया, लवण रहित विटामिन ए बी सी डी ई , एन्जाईम , खनिज मिनरल कुल १०८ प्रकार के रसायन तत्त्व मौजूद है जो स्वास्थ कर है। देसी गाय के गोबर-मूत्र-मिश्रण से "प्रोपिलीन ऑक्साइड” नामक गैस उत्पन्न होती है जो बारिस लाने में सहायक होती है | इसी के मिश्रण से ‘ इथिलीन ऑक्साइड ‘ गैस निकलती है जो ऑपरेशन थियटर में काम आता है | गौ मूत्र में मुख्यतः 16 खनिज तत्व पाये जाते है जो शरीर की प्रतिरोधक क्षमता बढाता है। आपको मालूम होना चाहिये- गोमूत्र अर्क को अमेरिका एवं चीन ने पेटेंट करा रखा है कुल छ: अंतर्राष्ट्रीय पेटेंट मिला है गौ मूत्र को। कैंसर निवारक सहित एंटी फंगल, एंटी बैक्टीरियल , एंटीबायोटिक, बायो एन्हेंसर, इम्यूनिटी बुस्टर, रक्त शोधक , सर्दी , जुकाम एवं खाँसी आदि को नष्ट करने में सर्वथा उपयोगी हेतु । गाय का शरीर : गाय के शरीर से पवित्र गुग्गल जैसी सुगंध आती है जो वातावरण को शुद्ध और पवित्र करती है। जननी जनकर दूध पिलाती , केवल साल छमाही भर। गोमाता पय-सुधा पिलाती , रक्षा करती जीवन भर ॥ पंचगव्य : गौ माता के दूध ,दही ,घी, गोबर एवं गौमूत्र को मिलाकर पंचगव्य बनता हैं। अनेकों प्रकार के असाध्य रोगों को पंचगव्य चिकित्सा द्वारा पूर्णतः ठीक किया जा चुका है। पंचगव्य से पाप -ताप संताप मिट कर मन की शांति एवं प्रसन्नता बढ़ती है । गोबर गोमूत्र से कृषि : एक गाय के गोबर गोमूत्र से ३० एकड़ कृषि भूमि के लिए खाद मिलता है। जैविक खेती के लिए १गाय = ३० एकड़ खेती पर्याप्त है। जहर मुक्त कृषि अपनाये। जीवन को रोगमुक्त बनाये ॥ गौ ईश्वर का मनुष्य के लिए अमूल्य उपहार है
अंतराष्ट्रीय योग दिवस के उपल्क्ष में (Vedic Vichar)
21-06-2022
योग का अर्थ आत्मा को परमात्मा के साथ मिलाना है,इसी संयोग कि अवस्था को समाधि की संज्ञा दी गई है, जो कि जीवात्मा और परमात्मा की समता होती है। सामान्यतः आसन प्राणायाम को योग मान लिया जाता है जबकि आसन प्राणायाम तो अष्टांग योग का भाग मात्र ही है पूर्ण योग नही है । जाने पूर्ण योग क्या है :- महर्षि पतञ्जलि ने योग को 'चित्त की वृत्तियों के निरोध' (योगः चित्तवृत्तिनिरोधः) के रूप में परिभाषित किया है। अर्थात् चित्त की वृत्तियों का निरोध करना ही योग है। चित्त का तात्पर्य, अन्त:करण से है। बाह्मकरण ज्ञानेन्द्रियां जब विषयों का ग्रहण करती है, मन उस ज्ञान को आत्मा तक पहुँचाता है। आत्मा साक्षी भाव से देखता है। बुद्धि व अहंकार विषय का निश्चय करके उसमें कर्तव्य भाव लाते है अर्थात विष्य को कार्य रूप देते हैं। इस सम्पूर्ण क्रिया से चित्त में जो प्रतिबिम्ब बनता है, वही वृत्ति कहलाता है। यह चित्त का परिणाम है। चित्त दर्पण के समान है। अत: विषय उसमें आकर प्रतिबिम्बत होता है अर्थात् चित्त विषयाकार हो जाता है , चित विष्यो में खो जाता है। इस चित्त को विषयाकार होने से रोकना ही योग है। महर्षि पतञ्जलि ने 'योगसूत्र' नाम से योगसूत्रों का एक संकलन किया है, जिसमें उन्होंने पूर्ण कल्याण तथा शारीरिक, मानसिक और आत्मिक शुद्धि के लिए तथा आत्मा से प्रमात्मा तक जुड़ने के लिए आठ अंगों वाले योग का एक मार्ग विस्तार से बताया है। योग के ये आठ अंग हैं:- १) यम, २) नियम, ३) आसन, ४) प्राणायाम, ५) प्रत्याहार, ६) धारणा ७) ध्यान ८) समाधि सधारण लोग आसन प्राण़ायाम करने मात्र से स्वयं को योगी मान लेते है लेकिन यह तो योग का अंग भाग मात्र ही है पूर्ण योग तो व्यक्ति को समाधी तक लेकर जाता है । यह कैसे सम्भव है ? इस स्थिती को पाने के लिए मनुष्य को पाँच यमो और पाँच नियमों का पालन करना और उन पर चलना चाहिए यम :-1. अहिंसा 2.सत्य 3.अस्तेय (चोरी त्याग ) 4. ब्रह्मचर्य 5. अपरिग्रह ( आवश्यकता से अधिक धन सम्पत्ति इक्ठी न करना )। पाँच नियम :-1. शौच (पवित्रता भीतर और बाहर से) 2. संतोष 3.तप (मन व इन्द्रियों को बल से बुराई से रोकना )4. स्वाध्याय ( वेद आदी धार्मिक किताबें पढ़ना ) 5. ईश्वर-प्रणिधान (मन आत्मा कर्मों को ईश्वर को समर्पित करना) इन गुणों को कैसे पायें ? इन गुणों को पाने के लिए आसन - प्रणायाम योग का अभ्यास करें । योग का लगातार अभ्यास करते हुए ,मनुष्य प्रत्याहार की स्थिति को प्राप्त करता है अर्थात मन इन्द्रियाँ वंश में आ जाती है । फिर धारणा की स्थिती अरम्भ होती है अर्थात ईश्वर के गुणों व कृपा का विचार करते हुए ओ३म/ओंकार का जाप करना । फिर ध्यान अर्थात निराकार ईश्वर के गुणों व कृपा का विचार करते हुए ध्यान लगाने का अभ्यास करना चाहिए । निरंतर अभ्यास से व्यक्ति समाधि की स्थिति को प्राप्त कर सकता है और जीवन में सुख प्राप्त करता हुआ मोक्ष को प्राप्त करता है । यही सभी मनुष्यों का धर्म है तथा इसी से आत्मीय सुख को प्राप्त किया जा सकता है । यही मनुष्य जीवन का एक मात्र लक्ष्य भी है । योग धर्म की पहली सीढ़ी है । वास्तव में योग आध्यात्म के बिना सिद्ध नहीं होता । इसलिए योग आध्यात्मिक ही है, आसन एक पड़ाव है। यम, नियम, आसन, प्रणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और फिर समाधि ये योग के चरण हैं। जिन्होंने भी योग प्रस्तुत किया सब समाधि तक अपनी बात को ले गए। तो योग शरीर की यात्रा करते हुए समाधि तक ले जाता है। सबसे पहले आचरण में सुधार अवशयक है , इसलिए यम की स्थापना करे । फिर नियम में व्रत को धारण करना है, जिससे हमारी दिनचर्या दुरुस्त रहे। इसी तरह आसन से हम अपने तन-मन को साधते हैं। फिर इसी तरह हम क्रमशः प्रणायाम, प्रत्याहार, धारणा और ध्यान के माध्यम से समाधि में विलीन होते हैं। तो ये सब पड़ाव पार कर पाना बिना आध्यात्म के सम्भव ही नहीं है।योग से ही हमें आत्मबोध हो पाता है। पूरी दुनिया में आज लोगों ने माना है कि आध्यात्म के बिना न मन में शान्ति हो सकती है और न हमें लक्ष्य का पता चल सकता है। इसीलिए सभी धर्मों और संप्रदायों ने आध्यात्म को स्वीकार किया है बेशक इसे नज़रअन्दाज़ किया गया । अध्यात्मीकता को वास्तविक मायने में योग ने पूर्ण किया है। आप देखिए, योग ने हमें जो दिया है वह एक सम्प्रदाय-मुक्त योग दिया है। योग भारतीय-संस्कृति का हो सकता है किसी सम्प्रदाय का नहीं और इतनी स्वच्छंदता आध्यात्म के अलावा पूरे ब्रह्माण्ड में कहीं और नहीं है।योग धर्म की अध्यात्मीक यात्रा है और समाधि से मोक्ष प्राप्त करना जीवन का लक्षय । --- श्रुति—-
योग के कुल आठ अंग हैं--. (Vedic Vichar)
21-06-2022
यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि । यम और नियमों को जाने और अपनाये बिना योग का आरम्भ नहीं हो सकता लेकिन आज अधिकतर योग शिक्षक या तो इनके बारे अनजान है या बताते नहीं है क्योंकि वे स्वयं इन यम - नियमों का पालन नहीं करते।आसन और प्राणायाम करना आसान है लेकिन यम और नियमों पर चलना कठिन है लेकिन इनको साधे बिना योग पूर्ण नहीं हो सकता। योगश्चित्तवृत्ति निरोध: । अर्थात्- चित्त की वृत्तियों के निरोध को योग कहा जाता है। चित व मन पर पड़े कुसंस्कारों को हटाना योग का प्रथम चरण है। ????सर्वप्रथम यमों क्या हैं और क्या है इनका फल लिखते हैं― ------------------------------- १. अहिंसा– अहिंसा धर्म का पालन करने वाले व्यक्ति के मन से समस्त प्राणियों के प्रति वैर भाव (द्वेष) छूट जाता है, तथा उस अहिंसक के सत्सङ्ग एवं उपदेशानुसार आचरण करने से अन्य व्यक्तियों का भी अपनी अपनी योग्यतानुसार वैर-भाव छूट जाता है। २. सत्य– जब मनुष्य निश्चय करके मन, वाणी तथा शरीर से सत्य को ही मानता, बोलता तथा करता है तो वह जिन-जिन उत्तम कार्यों को करना चाहता है, वे सब सफल होते हैं। ३. अस्तेय– मन, वाणी तथा शरीर से चोरी छोड़ देने वाला व्यक्ति, अन्य व्यक्तियों का विश्वासपात्र और श्रद्धेय बन जाता है। ऐसे व्यक्ति को आध्यात्मिक एवं भौतिक उत्तम गुणों व उत्तम पदार्थों की प्राप्ति होती है। ४. ब्रह्मचर्य– मन, वचन तथा शरीर से संयम करके, ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले व्यक्ति को, शारीरिक तथा बौद्धिक बल की प्राप्ति होती है। ५. अपरिग्रह– अपरिग्रह धर्म का पालन करने वाले व्यक्ति में आत्मा के स्वरुप को जानने की इच्छा उत्पन्न होती है, अर्थात् उसके मन में 'मैं कौन हूँ, कहाँ से आया हूँ, कहाँ जाऊँगा, मुझे क्या करना चाहिये, मेरा क्या सामर्थ्य है', इत्यादि प्रश्न उत्पन्न होते हैं। ????अब नियमों का फल लिखते हैं― ------------------------------- १. शौच– बार-बार शुद्धि करने पर भी जब साधक व्यक्ति को अपना शरीर गन्दा ही प्रतीत होता है तो उसकी अपने शरीर के प्रति आसक्ति नहीं रहती और वह दूसरे व्यक्ति के शरीर के साथ अपने शरीर का सम्पर्क नहीं करता। आन्तरिक शुद्धि से साधना की बुद्धि बढ़ती है, मन एकाग्र तथा प्रसन्न रहता है, इन्द्रियों पर नियन्त्रण होता है तथा वह आत्मा-परमात्मा को जानने का सामर्थ्य भी प्राप्त कर लेता है। २. संतोष– संतोष को धारण करने पर व्यक्ति की विषय भोगों को भोगने की इच्छा नष्ट हो जाती है और उसको शांति रुपी विशेष सुख की अनुभूति होती है। ३. तप– तपस्या का अनुष्ठान करने वाले व्यक्ति का शरीर, मन तथा इन्द्रियाँ, बलवान तथा दृढ़ हो जाती हैं तथा वे उस तपस्वी के अधिकार में आ जाती हैं। ४. स्वाध्याय― स्वाध्याय करने वाले व्यक्ति की आध्यात्मिक पथ पर चलने की श्रद्धा, रुचि बढ़ती है तथा वह ईश्वर के गुण, कर्म, स्वभावों को अच्छी प्रकार जानकर ईश्वर के साथ सम्बन्ध भी जोड़ लेता है। ५. ईश्वर–प्रणिधान– ईश्वर को अपने अन्दर–बाहर उपस्थित मानकर तथा ईश्वर मेरे को देख, सुन, जान रहा है, ऐसा समझने वाले व्यक्ति की समाधि शीघ्र ही लग जाती है।
योग चित्त वृत्ति निरोधः-महार्षि पतंजलि (vedic vichar)
21-06-2022
इसका अर्थ है मन में आने वाले सभी बदलाव रुक जाने पर योग की स्थिति प्राप्त होती है। जिसका मतलब है कि जब मन के भीतर के सारे बदलाव खत्म हो जाएं तो वही योग है। तभी आप हर चीज को ठीक वैसा ही देखेंगे, जैसी वह है।मन में हलचल और अतीत का प्रभाव नहीं होना चाहिए आप जब किसी वस्तु या व्यक्ति को देखते हैं तो आपके मन में अतीत की हजार चीजें चलने लगती हैं। अगर आप चीजों को सहज रूप से देखना सीख लें, बिना यह पहचाने या भेद किए कि वह स्त्री है या पुरुष, कोई पेड़ है या जानवर है या फिर कोई पत्थर तो आप पाएंगे कि आप हर चीज को बिलकुल वैसा ही देखेंगे, जैसी वह है। इसके लिए किसी कोशिश की जरूरत नहीं है। किसी को किसी खास रूप में याद रखने या पहचानने के लिए काफी कोशिश करनी पड़ती है। लेकिन जो जैसा है, उसे वैसा ही देखने के लिए किसी कोशिश या मेहनत की जरूरत नहीं होती। पतंजलि ने योग को ‘चित्त वृत्ति निरोध’ कहा है। इसका मतलब है कि अगर आप मन की चंचलता या गतिविधियों को स्थिर कर सकते हैं, तो आप योग को प्राप्त कर सकते हैं। आपकी चेतनता में सब कुछ एक हो जाता है। योग में मन को स्थिर करने के लिए अनेक उपकरण और उपाय हैं। संक्षेप में योग दर्शन का मत यह है कि मनुष्य को अविद्या, अस्मिता(अहंकार), राग, द्वेष और अभिनिवेश (विषय विचार में खो जाना ) ये पाँच प्रकार के क्लेश होते हैं, और उसे कर्म के फलों के अनुसार जन्म लेकर आयु व्यतीत करनी पड़ती है तथा भोग भोगना पड़ता है। पतंजलि ने इन सबसे बचने और मोक्ष प्राप्त करने का उपाय योग बतलाया है और कहा है कि क्रमशः योग के अंगों का साधन करते हुए मनुष्य सिद्ध हो जाता है और अंत में मोक्ष प्राप्त कर लेता है। ईश्वर के संबंध में पतंजलि का मत है कि वह नित्यमुक्त, एक, अद्वितीय और तीनों कालों से अतीत है और देवताओं तथा ऋषियों आदि को उसी से ज्ञान प्राप्त होता है। योगदर्शन में संसार को दुःखमय और हेय माना गया है। पुरुष या जीवात्मा के मोक्ष के लिये वे योग को ही एकमात्र उपाय मानते हैं।
शिक्षाबाल ( Vedic Vichar)
20-06-2022
प्र. 1: शिक्षक कितने और कौन-कौन से होते हैं ? उत्तर: शिक्षक तीन होते हैं - (1) माता (2) पिता (3) गुरु। प्र. 2: माता को सबसे उत्तम शिक्षक क्यों कहते हैं ? उत्तर: संतानों के लिए प्रेम, हित की भावना सबसे अध्कि माता में होती है । इसलिए वह सर्वोत्तम शिक्षक है। प्र. 3: संतानों के प्रति माता के क्या कर्त्तव्य हैं ? उत्तर: संतानों के प्रति माता के निम्न कर्त्तव्य हैं- (1) शुद्ध उच्चारण सिखलाना, (2) संतानों को उत्तम गुणों से युक्त करना, (3) छोटे-बड़ों से व्यवहार करना सिखलाना, (4) धर्म की शिक्षा देना। प्र. 4: क्या भूत-प्रेत वास्तव में होते हैं ? उत्तर: नहीं, भूत-प्रेत नहीं होते, उनको मानना अंध्विश्वास है। प्र. 5: संसार में बहुत से लोग भूत-प्रेत क्यों मानते हैं ? उत्तर: अविद्या, कुसंस्कार, भय, आशंका, मानसिक रोग, ध्ूर्तों के बहकाने से लोग भूत-प्रेत मानने लग जाते हैं। प्र. 6: हम मरने के बाद कहाँ जाते हैं ? उत्तर: मरने के बाद हम पाप-पुण्य का फल भोगने के लिए पिफर से जन्म लेते हैं। प्र. 7: हमें दूसरे जन्म में कौन भेजता है ? उत्तर: हमें दूसरे जन्म में ईश्वर भेजता है। प्र. 8: क्या मन्त्र-फूंकने से किसी रोग की चिकित्सा होती है ? उत्तर: नहीं, मन्त्र फंूकने से किसी रोग की चिकित्सा नहीं होती है। प्र. 9: हमारे जीवन में सुख-दुःख क्या ग्रहों के कारण हैं ? उत्तर: नहीं, हमारे जीवन में सुख-दुःख ग्रहों के कारण नहीं है। प्र. 10: मंगल, शनि आदि ग्रहों का हमारे कर्मों पर कोई प्रभाव पड़ता है ? उत्तर: नहीं, हमारे कर्मों पर इनका कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। प्र. 11: जन्म-पत्रा में लिखी गई बातें क्या सच होती है ? उत्तर: हमारे भविष्य की बातें कोई नहीं जान सकता, इसलिए जन्म-पत्रा की बातें सच नहीं होती हैं। प्र. 12: छल-कपट किसे कहते हैं ? उत्तर: दूसरों की हानि पर ध्यान न देकर केवल अपना स्वार्थ सिद्ध करना छल-कपट कहलाता है। प्र. 13: विद्यार्थी का मुख्य कर्त्तव्य क्या है ? उत्तर: विद्यार्थी को अपनी विद्या और शरीर का बल सदैव बढाते रहना चाहिए। प्र. 14: माता-पिता, गुरु हमें दण्ड क्यों देते हैं ? उत्तर: हमारे जीवन से बुराइयों को हटाने के लिए माता-पिता, गुरु हमें दण्ड देते हैं। प्र. 15: दण्ड प्राप्त होने पर क्या विचारना चाहिए ? उत्तर: दण्ड प्राप्त होने पर हमें विचारना चाहिए कि मेरे सुधर के लिए दण्ड दिया गया है। क्रोध न करते हुए सुधरने का प्रयास करना चाहिए। प्र. 16: सदाचार के तीन उदाहरण दीजिए ? उत्तर: (1) शान्त, मधुर और सत्य बोलना, (2) बड़ों को नमस्ते करना, (3) माता, पिता, गुरु की सेवा करना। प्र. 17: माता-पिता का परम कर्त्तव्य क्या है ? उत्तर: अपने संतानों को विद्या, धर्म, श्रेष्ठ आचरण, उत्तम संस्कारों से युक्त करना ही माता-पिता का परम धर्म है ।
ओ३म् अध्ययन - अध्यापन. (Vedic Vichar)
20-06-2022
प्र. 1: किन बातों से मनुष्य सुशोभित होता है ? उत्तर: विद्या, संस्कार, उत्तम गुण, कर्म और स्वभाव से मनुष्य सुशोभित होता है। प्र. 2: श्रेष्ठ मनुष्य बनने के लिए क्या आवश्यक है ? उत्तर: श्रेष्ठ मनुष्य बनने के लिए निम्न बातों का होना आवश्यक है - (1) विद्या प्राप्ति (2) अभिमान न होना (3) विन्य़ीलता (4)दूसरों का सहयोग। प्र. 3: अध्यापक कैसे होने चाहिए ? उत्तर: अध्यापक पूर्ण विद्वान् व धर्मिक होने चाहिए। प्र. 4: वैदिक नियम के अनुसार शिक्षा व्यवस्था कैसी होनी चाहिए ? उत्तर: वैदिक नियम के अनुसार शिक्षा व्यवस्था इस प्रकार होनी चाहिए - (1) विद्यालय नगर से दूर, शान्त, एकान्त स्थान में होने चाहिए। (2) लड़के व लड़कियों के विद्यालय अलग-अलग होने चाहिए। (3) विद्यार्थी का जीवन तपस्वी, संयमी होना चाहिए। (4) सभी विद्यार्थियों की सुविधएँ एक समान होनी चाहिए। प्र. 5: गायत्री मंत्र कौन सा है ? उत्तर: गायत्री मंत्र निम्न है - ओ३म् भूर्भुवः स्वः। तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि । धियो यो नः प्रचोदयात्। प्र. 6: गायत्री मन्त्र का संक्षिप्त अर्थ बताइए। उत्तर: गायत्री मन्त्र का संक्षिप्त अर्थ इस प्रकार है - हे संपूर्ण जगत् के निर्माता, शुद्धस्वरुप, सुखों को प्रदान करने वाले परमपिता परमेश्वर! कृपा करके हमारी बुद्धि को श्रेष्ठ मार्ग में प्रेरित करें। प्र. 7: प्रतिदिन स्नान क्यों करना चाहिए ? उत्तर: स्नान करने से शरीर शुद्ध तथा स्वस्थ रहता है, इसलिए प्रतिदिन स्नान करना चाहिए। प्र. 8: मन की शुद्धि कैसे होती है ? उत्तर: मन की शुद्धि सत्य के आचरण से होती है। प्र. 9: प्राणायाम के क्या लाभ हैं ? उत्तर: प्राणायाम के निम्न लाभ हैं - (1) स्मृति शक्ति का बढ़ना, (2) ज्ञान की प्राप्ति, (3) बल का बढ़ना, (4) सूक्ष्म बुद्धि की प्राप्ति। प्र. 10: ईश्वर का ध्यान कब करना चाहिए ? उत्तर: ईश्वर का ध्यान प्रतिदिन प्रातः व सायंकाल करना चाहिए। प्र. 11: क्या ईश्वर का ध्यान करना आवश्यक है ? उत्तर: हाँ, ईश्वर का ध्यान करना आवश्यक है। प्र. 12: वायु की शुद्धि का क्या उपाय है ? उत्तर: वायु की शुद्धि के लिए प्रतिदिन हवन करना चाहिए। प्र. 13: हवन करना क्यों आवश्यक है ? उत्तर: हवन करने से अनेक प्राणियों का उपकार, वायु-जल-अन्न की शुद्धि, रोगों का दूर होना इत्यादि अनेक लाभ होते हैं। प्र. 14: ब्रह्मचर्य के पालन से क्या लाभ हैं ? उत्तर: ब्रह्मचर्य के पालन से शारीरिक व मानसिक विकास, शुभ गुणों की प्राप्ति, दीर्घायु, उत्तम स्वास्थ, कुशाग्र बुद्धि की प्राप्ति होती है। प्र. 15: यम कितने प्रकार के व कौन-कौन से हैं ? उत्तर: यम पाँच प्रकार के होते हैं । वे निम्न हैं - (1) अहिंसा, (2) सत्य, (3) अस्तेय, (4) ब्रह्मचर्य, (5) अपरिग्रह। प्र. 16: आयु, विद्या, यश और बल बढ़ाने का उपाय क्या है ? उत्तर: माता-पिता, गुरु, वृद्धजनों की सेवा, आदर और उनकी आज्ञाओं का पालन करने से आयु, विद्या, यश और बल बढ़ते हैं। प्र. 17: विद्यार्थी को कौन से कार्य नहीं करने चाहिए ? उत्तर: विद्यार्थी को निम्न कार्य नहीं करने चाहिए - (1) ईर्ष्या, द्वेष, लोभ, मोह, झूठ बोलना। (2) अंडे, मांस का सेवन। (3) आलस्य, प्रमाद। (4) दूसरों की हानि करना। प्र. 18 : संपूर्ण सुख किसे प्राप्त होता है ? उत्तर: जो व्यक्ति विद्या प्राप्त कर धर्म कर आचरण करता है वही संपूर्ण सुख को प्राप्त करता है । प्र. 19: धर्म किसे कहते हैं ? उत्तर: श्रेष्ठ कर्मों के आचरण को धर्म कहते हैं । प्र. 20: धर्म का ज्ञान कहाँ से होता है ? उत्तर: धर्म का ज्ञान वेद, ऋषियों के ग्रन्थ, महापुरुषों के आचरण से होता है। प्र. 21: सत्य-असत्य की परीक्षा किस प्रकार की जाती है ? उत्तर: सत्य वह होता है जो - (1) वेद के अनुकूल हो, (2) सृष्टि नियम से विपरीत न हो, (3) धर्मिक विद्वानों द्वारा कहा गया हो, (4) आत्मा के अनुकूल हो, (5) प्रमाणों से जांचा गया हो। प्र. 22: प्रमाण कितने प्रकार के होते हैं ? उत्तर: प्रमाण 8 प्रकार के होते हैं। प्र. 23: किन्हीं 4 प्रमाणों के नाम बताइए । उत्तर: ये चार प्रकार के प्रमाण हैं - (1) प्रत्यक्ष, (2) अनुमान, (3) शब्द, (4) उपमान प्रमाण। प्र. 24: प्रत्यक्ष प्रमाण किसे कहते हैं ? उत्तर: देखने, सुनने, गंध लेने, स्पर्श व स्वाद की अनुभूति से जो वास्तविक ज्ञान होता है, उसे प्रत्यक्ष प्रमाण कहते हैं। प्र. 25: असंभव बातों के 5 उदाहरण दीजिए । उत्तर: असंभव बातों के 5 उदाहरण निम्न हैं - (1) पहाड़ उठाना, (2) समुद्र में पत्थर तैराना, (3) चन्द्रमा के टुकड़े करना, (4) परमेश्वर का अवतार लेना, (5) मनुष्य के सींग होना। प्र. 26: आत्मा के गुण कौन-कौन से हैं ? उत्तर: इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख, दुःख और ज्ञान आत्मा के गुण हैं। प्र. 27: 6 दर्शन शास्त्रों के नाम बताइए। उत्तर: 6 दर्शन शास्त्रों के नाम इस प्रकार हैं - (1) योग दर्शन, (2) सांख्य दर्शन, (3) वैशेषिक दर्शन, (4) न्याय दर्शन, (5) मीमांसा दर्शन, (6) वेदान्त दर्शन। प्र. 28: सर्वश्रेष्ठ दान कौन सा है ? उत्तर: विद्या का दान सर्वश्रेष्ठ दान है। प्र. 29: वेद पढ़ने का अध्किार किसे है ? उत्तर: सभी मनुष्यों को वेद पढ़ने का अधिकार है। प्र. 30: देश की उन्नति के लिए तीन उपाय बताइए। उत्तर: देश की उन्नति के लिए (1) ब्रह्मचर्य, (2) विद्या और (3) धर्म का प्रचार आवश्यक है।
Vedic Vichar
20-06-2022
ऋषि दयानंद ने जीवन भर सत्य का प्रचार किया और धर्म के नाम पर पाखंड अंधविश्वासों की अलोचना की और लोगों को एक निराकार ईश्वर की उपासना का वेद मार्ग बताते रहे लेकिन पाखंडी और धर्म का व्यवसाय करने वाले उन्हें अपना शत्रु समझते रहे और उन पर पत्थर फैंके गालीयाँ बकते रहे 16 बार ज़हर देकर मारने के प्रयास किये और आख़िर हत्या करने में सफल रहे। आज भी अज्ञानी पाखंडी लोग ऋषि दयानंद और उनकी संस्था आर्य समाज की विरोधता करते हैं। हे ! पाखंडियों अंधविश्वासीयो धर्मांधता में मनुष्यों को लड़ाने और हिंसा करने वाले ऋषि के निंदकों पढ़ो एक संन्यासी की अंतर आत्मा की कल्याणकारी भावना। ???? "मैं संन्यासी हूं और मेरा कर्तव्य यही है कि जो आप लोगों का अन्न खाता हूं, इसके बदले जो सत्य समझता हूं, उसका निर्भयता से उपदेश करता हूं। मैं कुछ कीर्ति का रागी नही हूं। चाहे कोई मेरी स्तुति करे या निन्दा करे, मैं अपना कर्तव्य समझ के धर्म-बोध कराता हूं।" -ऋषि दयानान्द
* क्या मूर्ति-पूजा से ईश्वर का ध्यान हो सकता है *. (Vedic Vichar)
20-06-2022
*(१)* मूर्ति पूजा से बड़ी हानि यह होती है कि मूर्तिपूजा करने वाले का मन कभी एकाग्र नहीं हो सकता है। मूर्ति को देखते ही मन उसके रुप आदि में भटकता रहेगा। सांख्य दर्शन में महर्षि कपिल कहते हैं-ध्यानं निर्विषय मन: । मन का निर्विषय होना ही ध्यान है। विषय पाँच हैं-कान का विषय शब्द,त्वचा का विषय स्पर्श,आँख का विषय रुप,जीभ का विषय रस और नासिका का विषय गन्ध।मूर्ति इन विषयों से पृथक् नहीं है।अतः उसके द्वारा ध्यान कदापि नहीं हो सकता। परमेश्वर निर्विषय है- *"अशब्दमस्पर्शमरुपमव्ययं तथा रसं नित्यमगन्धवच्च यत् अनाद्यनन्तं मरुतः पर ध्रुवं निचाय्य तं मृत्यु मुखात्प्रमुच्यते"।।कठो०वल्ली ४।१५।।* वह परमेश्वर अशब्द है,अस्पर्श है,रुप-रस रहित और अगन्ध है।इसलिए जब मन निर्विषय होगा तभी परमेश्वर में लगेगा। सिद्ध हुआ कि मूर्ति-पूजक मनुष्य कभी भी ईश्वर में ध्यान नहीं लगा सकता है,वह सदा ईश्वर से विमुख ही रहेगा। एक बात यह भी विचारणीय है कि यदि साकार वस्तुओं से बुद्धि एकाग्र हो सकती होती तो सबकी हो गई होती क्योंकि साकार पदार्थों को तो सभी सदा देखते हैं और मनुष्य ही नहीं पशु-पक्षी भी सदा देखते हैं तब सभी एकाग्रचित्त और ध्यानावस्थित हो जाते। *(२)*मूर्तिपूजा से दूसरी बड़ी हानि ये है कि मूर्तिपूजक को पाप करने की छूट मिल जाती है,इस कारण वह बड़े-बड़े पापकर्मों को भी कर सकता है।इस छूट के कारण दो हैं-एक यह कि वह समझने लगता है कि ईश्वर मन्दिर में ही है अन्यत्र नहीं।ऐसा प्रत्यक्ष देखने में भी आता है कि मूर्तिपूजक मनुष्य मन्दिर के सम्मुख आकर सिर झुकाता है,अन्यत्र नहीं।वहीं प्रणाम करता है और जब किसी को सच्चाई की शपथ उठानी होती है उसको उस मन्दिर या उस मूर्ति के सम्मुख ले जाने का यत्न किया जाता है जिसकी वह पूजा करता है।इससे स्पष्ट है कि मूर्ति पूजकों का यह विश्वास दृढ़ हो जाता है कि भगवान् इस मन्दिर में ही हैं और मन्दिर में भी सारे में बाहर भीतर नहीं केवल मूर्ति में हैं।इसके सम्मुख झूठ नहीं बोलना है अन्यत्र सारा देश झूठ बोलने और पाप करने के लिए खुला है। दूसरा कारण मूर्तिपूजक को पाप की छूट मिलने का यह है कि वह विश्वास करता है कि मैं चाहे कैसा ही बड़ा पाप कर लूं वह सारा का सारा भगवान् की मूर्ति का दर्शन करने,उनका चरणामृत पीने,उन पर जल वा कुछ पदार्थ चढ़ा देने मात्र से ही नष्ट हो जायेगा।उस पाप का फल कभी भी नहीं मिलेगा।यथा- *अकालमृत्युहरणं सर्वव्याधिविनाशनम् ।* *विष्णुपादोदकं पीत्वा पुनर्जन्म न विद्यते ।।* *आदि*....... *(३)* तीसरी बड़ी हानि मूर्तिपूजा से यह होती है कि मूर्तिपूजक की अपने अन्दर गुण उत्पन्न करने की प्रवृत्ति नहीं रहती,वह सर्वथा नष्ट हो जाती है।वह इस पर विश्वास करने लगता है कि- *"भगवान भक्ति से प्रसन्न होते हैं,गुणों से नहीं।उन्होंने व्याध कसाई का आचरण नहीं देखा,ध्रुव की आयु नहीं देखी,गज और ग्राह की लड़ाई में गज की रक्षा की उसकी क्या विद्या थी? यादवों के राजा कंस के पिता उग्रसेन का क्या पौरुष था?कुब्जा कुबड़ी का क्या कमनीय रुप था?भगवान गुण नहीं देखते भक्ति और आस्था ही देखते हैं। और भी देखो- *अति चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् ।* *साधुरेव स मन्तव्यः सम्यक् व्यवसितो हि सः ।।* 'जो मेरी अनन्य भाव से सेवा करता है,जो भक्त है,चाहे दुराचारी ही हो उसको साधु ही मानना चाहिए।' इसी कारण सारे सन्यासी और महन्त और सारे पण्डे-पुजारी,चाहे उनमें कितने ही पापी और दुराचारी हों वह सब पूजनीय ही माने जाते हैं और उनको भंग सुल्फा आदि-२ साधन भी दिये जाते हैं।फलतः दुराचार में वृद्धि होती है। अतः सोने,चांदी,पत्थर,मिट्टी,धातु आदि कई बनी किसी भी प्रकार की मूर्ति में चेतन के समान सच्चिदानन्द,सर्वव्यापक ईश्वर की भावना करना न केवल भ्रम है बल्कि ईश्वर की सत्ता को कम करना है।हमारे पूर्वज महापुरुष राम-कृष्ण आदि जिनकी मूर्तियाँ हम ईश्वर के समान पूजते हैं वे स्वयं भी ईश्वर भक्ति,यज्ञादि करके अपने जीवन को कल्याणकारी बनाते थे।बाल्मीकि रामायण और महाभारत में इस बात के अनेक प्रमाण हैं।
हर मनुष्य यज्ञ करे :- (Vedic Vichar)
20-06-2022
यह ॠग्वेद का आदेश है कि ‘सब बलवान और उत्साही मनुष्यों का यह कर्तव्य है कि वे अपनी और समाज की उन्नति और कल्याण के लिए यज्ञकर्म किया करें’| वेदों में परम पिता परमात्मा को ‘आनंदस्वरूप’ कहा है क्योंकि परमात्मा आनंद का स्त्रोत है और जो उनके सान्निध्य में रहता है वह भी आनंदमय हो जाता है| परमात्मा को यज्ञस्वरूप भी कहते है क्योंकि उसके समस्त कार्य यज्ञमय (परोपकारार्थ) होते हैं अर्थात् सब जीवों के हितार्थ होते हैं| प्राचीन काल से ‘यज्ञ’ भारतीय संस्कृति और सभ्यता का एक अभिन्न अंग/चिन्ह् रहा है इसलिये भारतीय संस्कृति में हर शुभ कार्य करने से पूर्व ‘यज्ञकर्म’ अग्नि होत्र करने का विधान है| प्रत्येक परोपकारी कार्य को भी ‘यज्ञ’ कहते है| यज्ञ (अग्निहोत्र/हवन) एक प्रकार का कर्मकांड है, सर्वश्रेष्ठ गुणों का प्रतीक है, जिससे याज्ञिक (यज्ञकर्ता) अनेक बातें सीख सकता है| अग्नि :- अग्नि प्रकाश का प्रतीक है, अग्नि से प्रकाश मिलता है जिससे व्यक्ति को ज्ञानमय होकर ज्ञान का प्रकाश करना चाहिए तथा उसकी ज्वालाएँ ऊपर की ओर जाती है अतः वे हमें सिखाती है कि मनुष्य को अपने जीवन में सदा प्रकाश अर्थात् ज्ञान की प्राप्ति करते रहना चाहिए जिससे वह सदैव ऊपर अर्थात् प्रगति के मार्ग पर अग्रसर रहे! घी :-घी स्नेह और मित्रता का प्रतीक है|घी रूपी मित्रता से अग्नि अधिक प्रज्वलित होती है इस लिए व्यक्ति को सभी से जीवन में मित्र भाव रखकर उन्नति करनी चाहिए। समग्री :- सामग्री संगठन का प्रतीक है। संगठित समाज से सुख कल्याण की प्राप्ति होती है अकेला मनुष्य समाज में निर्रथक जीवन ही पाता है। समीधा :- अर्थात लकडीयां /समिधा समर्पण का प्रतीक है|हर मनुष्य को अपने कार्य के प्रति समर्पण, तप ,निष्काम भावना रखनी चाहिए। स्वाह :- ‘स्वाहा’ यज्ञ का आत्मा है अर्थात् समर्पण ‘स्वाहा’ के बिना यज्ञ करना निरर्थक है! अर्थात यज्ञ कर्ता स्वय को ईशवर के प्रति अपने प्रत्येक कार्य को समर्पित करने की भावन रख कर यज्ञ करे।मन में यह भाव रखे की जो कुछ भी जीवन में कर रहा हूँ या पा रहा हूँ वे ईशवर तुम्हारी कृपा से मिल रहा है मैं तो केवल निमित हूँ यह भाव ही ” स्वाह ” है इदं न मम:- ‘इदं न मम’ यज्ञ के प्राण हैं अर्थात जो कुछ अग्नि में भेंट कर रहा हूँ वे मेरा नही ईशवर का ही बनाया हुआ है और ईशवर का ही दिया है।यज्ञ अंहकार को मिटाता है। यज्ञ का बहुत व्यापक अर्थ है। यदि आप निष्काम कर्म की भावना से यज्ञ करते है तो वह सब यज्ञकर्म कहलाता है! अगर आप किसी प्यासे प्राणी (मनुष्य, पशु-पक्षी इत्यादि) को जल पिलाते हैं, भूखे व्यक्ति या पशु को भोजन खिलाते हैं, किसी दुःखी व्यक्ति के दुःख को कम करने का प्रयास करते हैं, किसी जरूरतमंद गरीब रोगी को औषधि दिलाते हैं, कमजोर वर्ग के बच्चे को पढ़ाते है या उसकी पढ़ाई के लिये प्रबंध करते हैं, रोते बच्चे को हँसाते हैं इत्यादि अनेक कार्य हैं ये सभी यज्ञ कर्म कहाते है! यदि आपकी कमाई का दान सुपात्र को जाता है, अस्पतालों में रोगियों के इलाज के लिए जाता है, अनाथालयों में जाता है, वृद्धाश्रमों में जाता है, वैदिक गुरुकुलों में जाता है इत्यादि और भी अनेक संस्थाओं में जाता है तो ये सब यज्ञकर्म हैं| इससे आपके धन का सदुपयोग होता है! यही निष्काम कर्म है और यही यज्ञकर्म है| यज्ञ करने से ईश्वर के प्रति ‘श्रद्धा और प्रेम’ उजागर होता है, मन में शांति और एकाग्रता आती है, आपसी मित्रता बढ़ती है, प्रदूषण की निवृत्ति होती है| तभी तो कहा है यज्ञों वै श्रेष्ठतर कर्म अर्थात सभी कर्मो में यज्ञ सब से उत्तम कर्म है।
माता भूमि पुत्रो अहं पृथव्या:अथर्ववेद. (Vedic Vichar)
20-06-2022
ये धरती हमारी माता है और हम इसके पुत्र है।धरती माता हमारे जीवन के अस्तित्व का एक प्रमुख आधार है, हमारा पोषण करती है। इसलिए वेद आगे कहते है --- "उप सर्प मातरं भूमिम् " -- हे मनुष्यो मातृभूमि की सेवा करो और अपनी मातृभूमि के प्रति श्रद्धा व प्रेमभाव रखे। ऐसे भाव केवल और केवल "सनातन वैदिक धर्म " ही प्रकट करता है। धरती को माता इस लिए कहा जाता है क्योकि सभी जीवों जलचरों और वनस्पतियों की प्रथम उतपति धरती से ही हुई है। ईशवर ने मनुष्य की उत्पति से पहले ही पेड़ पौधे आदि वनस्पतियाँ बनाऐ ताकि मनुष्य का पोष्ण हो सके।सृष्टी रचना के समय ईश्वर ने जिस तरह पेड़ों पक्षियो जानवरों जलचरों को उत्पन्न किया वैसे ही मनुष्यो की उतपति भी धरती से की। अब कुछ लोग के लिए यह सम्भव नही हो सकता है।उनको बताना चाहूँगा कि जैसे गर्भ रूपी अंडे से पक्षी निकलते है और बीज गर्भ रूपी धरती से पेड़ पौधे वनस्पतियाँ उगती है। वैसे ही मनुष्य को भी धरती के गर्भ से बनाया।गर्भ रूपी धरती की विशेष स्थिती में नर मादा मनुष्यों को हज़ारों की संख्या में पैदा किया।धरती अगर माता है तो पिता कौन ? पिता ईश्वर है जो बीज रूप जीवात्मा को भेजता है और धरती के गर्भ में डालकर पहले मनुष्यो की उत्पति करता है। जो ईश्वर सारी सृष्टी की रचना कर सकता है उसके लिए मनुष्य आदि जीव बनाने असम्भव नही है।जो लोग ऐडम ईव की कहानियाँ सुनाते है और आकाश से प्रथम स्त्री पुरूष के उतरने की बात करते है वे झूठ और अज्ञानता है। जन्म के बाद माता की गोद से उत्तर कर हर मनुष्य धरती की गोद में ही सारा जीवन व्यतीत करता और उसका भोजन और पोष्ण धरती ही करती है।इस लिए जन्म देने वाली माता के साथ साथ धरती को भी माता का दर्जा दिया गया है। इस लिए जो पालन करे उसका माता के रूप में सत्कार करना चाहिए।पिता की देखभाल के बिना भी बच्चा जन्म ले कर बड़ा हो सकता है लेकिन माता के बिना नही।पिता का कार्य गर्भ स्थापना पर पूर्ण हो जाता है लेकिन बच्चे का गर्भ से लेकर पालन तक माँ की ही भूमिका होती है। आज कुछ संगठनों ने भारत माता की मूर्ति बना कर बहुत बड़ी मूर्खता कर दी यह कुछ मूर्ति पूजको की मानसिकता है, जिन्होंने ईशवर की भी मूर्तियों बना कर पूजना अरम्भ कर दिया।धरती का सत्कार छ: बाज़ू वाली माता का रूप बना कर पूजने से नही हो सकता बल्कि धरती को गंदगी और प्रदूष्ण से मुक्त करने से ही होगा। माता भावनात्मक शब्द है अगर हम भारत में जन्म लेकर रह रहे है तो भारत की धरती हमारी माता ही कहलायेगी। किसी अन्य देश में हम जा कर रह नही सकते न ही कोई देश हमें वहाँ घुसने देगा ,क्यो कि धरती का बँटवारा देशों सीमाओं से हो रखा है।अगर सारे विश्व की धरती को सभी देशो के लोग माता मान लें तो आपसी झगड़े ही समाप्त हो जायें और जन्नत के नाम पर धरती पर हिंसा भी बंद हो जाऐ।तभी वेद का व्यापक अादेश “माता भूमि पुत्रो अहं पृथव्या:”हक़ीक़त में दिखाई देगा और सभी मनुष्य पुकार उठेगें धरती हमारी माता है और हम इसके पुत्र है। अगर इसके साथ वसुधैव कुटुम्बकम् अर्थात सारा विश्व एक परिवार है ,की भावना भी जुड़ जाऐ और इन दोनों वाक्यों पर सारा संसार एक मत हो जाऐ तो देशो के सीमा विवाद समाप्त होकर धरती स्वर्ग बन जाऐ।
*महा मृत्युजय मंत्र*. (Vedic Vichar)
20-06-2022
ओ३म् त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्। उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात् || यह ऋग्वेद 7.59.12 का मंत्र है, इसमे भक्त ईश्वर से प्रार्थना करता है कि -" हे ईश्वर ! आप निराकार, सर्वव्यापक, तीनों लोकों के स्वामी, सर्वज्ञ और सब जगत को पुष्टि प्रदान करने वाले हो, सबके पालनहार हो । इस मंत्र मे अपना देकर समझाया गया है कि जिस प्रकार खरबूजा सुगन्धि व रस से पक कर बेल रुपी बन्धन से स्वत: ही अलग हो जाता है उसी प्रकार हम भी आपकी भक्ति द्वारा ज्ञान बल व आनन्द में परिपक्व होकर इस संसार रुपी बन्धन से छूट कर मोक्ष (मुक्ति)को प्राप्त हो जावें !" स्मरण रहे कि - 1.इस मंत्र का शिवलिंग, महाकाल वा ज्योतिर्लिंग से दूर दूर का भी कोई वास्ता नहीं । इस मंत्र के उल्टे पुल्टे अर्थ करके कुछ पण्डे पुजारियों ने अपना स्वार्थ सिद्ध करने का प्रयास किया है । 2.गायत्री मंत्र की तरह यह मंत्र भी परमात्मा की स्तुति प्रार्थना व उपासना का मंत्र है। 3.महामृत्युंजय मंत्र में किसी ने 'जय श्री महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग नमो नम:' वाली लाईन अपनी ओर से जोड़ दी है, ये भस्माती श्रंगार दर्शन कोरा पाखंड है, वेदों में कहीं भी ऐसी बात नहीं कही गई है। 4.पण्डे पुजारियों की ये मनघडंत बातें हैं। भला परमात्मा को हार श्रंगार की क्या आवश्यकता है ? पूरी सृष्टि ही उसका श्रंगार है।रात्रि को चांद तारों से सजे आकाश को देखो ! कल कल करती बहती नदियों को देखो ! हिम से ढकी पर्वत मालाओं को देखो ! रिमझिम वर्षा करते बादलों को देखो ! ये सब अनगिनत श्रंगार ही तो हैं। हम तुच्छ जीव क्या उसका श्रंगार करेंगे ? 5.महाकाल की भद्दी सी शक्ल बना कर उसका श्रंगार करना पागलपन नहीं तो क्या है ? वेदानुकूल आचरण करो, सब जीवों से प्रेम करो, गायत्री मंत्र का अर्थ सहित जप करो, गायत्री मंत्र से यज्ञ करो | 6.इस मंत्र जाप से मोक्ष मिलना या पाप कर्म माफ़ होना सम्भव नहीं है जैसा करोगे वैसा भुगतना पड़ेगा. पूजा पाठ आत्म शुद्धि के लिए होता है ताकि हम अच्छी संगति मे रहे और ईश्वर को साक्षी मानकर अच्छे कार्य करे. वैचारिक क्रांति व आत्मा परमात्मा की सही सही जानकारी के लिए महर्षि दयानन्द कृत सत्यार्थप्रकाश (Light of Truth) का स्वाध्याय अवश्य करें |
Vedic Vichar
20-06-2022
#वेदों को छोड़ कर #पुराणों में विश्वास करने का परिणाम (सही है या नहीं) स्वयं निर्णय करें। १. अवतारवाद मिला (केवल भारत में - अन्य कहीं नहीं) २. मूर्तिपूजा का प्रचलन हुआ और निराकार ईश्वर से दूरी बनाई ३. सत्य ईश्वरीय ज्ञान वेदों से विमुख हुए। ४. जातिवाद को पोषित किया और वैदिक वर्ण व्यवस्था भुला दी गई। ५.पाखण्ड और अंधविश्वास बढ़ा और वैदिक संस्कार भूल गए ६.आपसी फूट बढ़ी, विदेशियों के ग़ुलाम बने और स्वदेशी गौरव नष्ट हुआ। ७. हिंदू महान शक्ति छोटे छोटे मत मतांतरों में बिखर गई और हम को ग़ुलामी मिली। ८. बलि प्रथा चली और बलिवैश्वदेव यज्ञ छूटा ९.कल्पित देवी -देवताओ की लीलाएं शुरू हुईं और महान आत्माओं का त्रिस्कार हुआ। १०. अवैदिक फलित ज्योतिष का प्रचलन हुआ, कर्म फल व्यवस्था पर विश्वास कम हुआ, परिश्रम में विश्वास करना कम हुआ और विज्ञान से दूर होते गए। ११ मांसाहार का सेवन बढ़ा और सात्विकता समाप्त हुई। ११. कुरान और बाइबिल का प्रचलन बढ़ा और सत्य सनातन वैदिक धर्म की मान्यताओं में आस्था कम होने लगी। १२. धर्म परिवर्तन को बढ़ावा मिला। जातिवाद को बढ़ावा मिला। १३. धर्मनिरपेक्षता वढ़ी और वैदिक संस्कृति व मानवतावाद का त्याग होता गया। १४. अश्लीलता बढ़ी और सदाचार कम होता गया। १५. जगत को मिथ्या कहा और सच्चे ईश्वर, प्रकृति और आत्मा के गुण कर्म स्वभाव को भूलते गए। १६. काल्पनिक स्वर्ग नरक का आविष्कार हुआ और वैदिक सुख-दुःख से अनजान हो गए। १७. परस्पर राग, द्वेष, घृणा, ईर्ष्या अहंकार आदि बढ़ा, धर्म के १० लक्षण और यम नियम भूल गए, और वेदों व योग दर्शन के अनुसार सर्वशक्तिमान सर्व व्यापक परमात्मा की स्तुति प्रार्थना उपासना करना छोड़ दिया। १८. अपने ऋषीयों व महापुरुषों की आज्ञाओं और विचारों की अवहेलना हुई और हिंदू समाज छोटे छोटे समुदायों में बंटता गया। कमजोर हो गया। १९. भ्रस्टाचार, अंध विश्वास, फलित ज्योतिष और मूर्ति पूजा बढ़ी और राष्ट्र की अवनति हुई। २०. अपने आर्ष ग्रंथ, दर्शन और संस्कृति को भूल गए और वैदिक संस्कारो को छोड़ दिया। #नोट :.. १. पुराणों की रचना महाभारत काल के बाद हुई है। २. इनकी रचना ऋषि वेद व्यास द्वारा नहीं की गई है जैसी की समाज में भाँति फैली हुई है। ३. यह भ्रांति कुछ स्वार्थी मनुष्यों के द्वारा जानकर फैलाई गई है ताकि उनकी जीविका आसानी से, बिना परिश्रम किये, चलती रहे। ४. पुराणों में अधिकतर बातें वेद विरुद्ध पाई जाती हैं। ५. ऋषि दयानंद सरस्वती वेदों के महान ज्ञाता थे। इस बात को भारतीय व विदेशी - सभी विद्वान मानते हैं। ६. #ऋषि_दयानंद_जी और #स्वामी_ब्रह्मानंद_जी ने भी पुराणों को मान्यता नहीं दी है। उन्होंने पुराणों की उसी बात को माना है जो वेदानुसार है, प्रकृति और सृष्टि के नियमों के अनुसार है। ???? ।। एक विनम्र निवेदन ।।???? मित्रों। यदि आप उपरोक्त विचारों से सहमत हैं तो: वैदिक संस्कृति, हिंदू समाज और राष्ट्र हित में वेदों की शरण में आइए। पूरे विश्व में भारत का और अपना गौरव बढाइए। #ॐ_तत्सत्त #जय_आर्य_जय_आर्यावर्त
#वेदों-की-ओर-लौटो प्रश्नोत्तरी ( अवतारवाद विषय ) :-. (Vedic Vichar)
20-06-2022
(1) प्रश्न :- अवतारवाद क्या है ?क्या ईश्वर अवतार लेता है?? उत्तर :- जब जीवात्माएँ पुनर्जन्म के अनुसार शरीर परिवर्तन करती हैं तो यह उनका अवतार लेना कहा जाता है । (2) प्रश्न :- क्या ईश्वर अवतार लेता है ? उत्तर :- नहीं ईश्वर कभी भी अवतार नहीं लेता । (3) प्रश्न :- ईश्वर का अवतार क्यों नहीं होता ? उत्तर :- ईश्वर विराट और अनन्त है वह सीमित होकर एक छोटे से शरीर में नहीं आ सकता । (4) प्रश्न :- लेकिन ईश्वर तो सर्वशक्तिमान है वह तो कुछ भी कर सकता है, फिर अवतार क्यों नहीं ले सकता ? उत्तर :- सर्वशक्तिमान का अर्थ ये नहीं है कि वह कुछ भी कर जाना । ईश्वर वही करता है जो उसके स्वभाव में है । अपने स्वभाव के विरुद्ध वह कुछ नहीं करता और उसका स्वभाव अवतार लेने का नहीं है । (5) प्रश्न :- ईश्वर का स्वभाव अवतार लेने का क्यों नहीं है ? उत्तर :- इसमें यह बातें सोचने की हैं कि कोई पदार्थ जब परिवर्तित होता है तो या तो वह अपनी पहली अवस्था से या तो बेहतर होगा या कमतर होगा । तो ऐसे में :- (१) अगर ईश्वर अवतार लेकर ही सम्पूर्ण हुआ, तो क्या यह सृष्टि की रचना करने वाला वह ईश्वर अवतार लेने से पहले सम्पूर्ण नहीं था ? (२) यदि वह ईश्वर अवतार लेने के बाद सम्पूर्णता से थोड़ा कम हुआ है तो फिर तो वह बिना अवतार लिए ही ठीक था । इससे ईश्वर का ही अपमान हुआ । (6) प्रश्न :- हम मानते हैं कि लोगों में आदर्श स्थापित करने के लिए ही ईश्वर मनुष्य रूप में अवतार लेता है ताकि वह लोगों को शिक्षा दे सके तो क्या ये बात गलत है ? उत्तर :- वेदों में ऐसी कौन सी शिक्षा है जो ईश्वर ने पहले से नहीं दी ? जो उसे दुबारा शरीर लेकल संसार में आना पड़ा ? यदि ये कहो कि ईश्वर हमारे सामने ये आदर्श रखने आया कि एक मनुष्य कैसे वैदिक मर्यादाओं का पालन किया जाए ? तो फिर ये कोई बड़ी बात नहीं हुई । क्योंकि ईश्वर अपने ही बनाए नियमों को पालन करे तो यह बड़ी बात है या कि कोई मनुष्य उन नियमों का पालन करके आदर्श स्थापित करके दिखाए तब बड़ी बात है ? उदहारण लें कि कोई बाहरवीं की श्रेणी का विद्यारथी , किसी दूसरी श्रेणी की पुस्तक का प्रश्न हल करे तो यह कोई बड़ी बात नहीं है । परंतु यदि कोई आठवीं श्रेणी का विद्यार्थी यदि बाहरवीं कीपुस्तक का प्रश्न हल करे तो बहुत बड़ी बात है । ठीक ऐसे ही वेदों की मर्यादाओं का पालन यदि कोई मनुष्य ही पालन करे तो वही सबके लिए आदर्श होगा न कि ईश्वर के मनुष्य शरीर में आने पर । (7) प्रश्न :- तो क्या अयोध्या पति श्रीराम और देवकीनन्दन श्रीकृष्ण जी ईश्वर का अवतार नहीं हैं ? उत्तर :- नहीं ये मनुष्य ही थे और अपने वैदिक कर्तव्यों का पालन करने के कारण ये महामानव बने, ऋषि बुद्धि के हुए । पर वे कभी भी ईश्वर का अवतार नहीं थे । (8) प्रश्न :- श्रीकृष्ण जी ने गीता में कहा है " यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारतः अभ्युत्थानम् अधर्मस्य तदात्मानम् सुर्जाम्यहम् ...... " जिसमें वो कहते हैं जब जब धर्म की हानी होगी वो धर्म और साधुओं का उद्धार करने के लिए बारा बार अवतार लेंगे, तो आप इसे कैसे झुठला सकते हो ? उत्तर :- प्रथम तो अगर आपकी संस्कृत अच्छी है तो ये बतायें कि इस पूरे श्लोक में कहीं भी अवतार शब्द कहाँ आया? यदि नहीं तो फिर अवतार होना कैसे सिद्ध हुआ ? और दूसरी बात इस श्लोक में भारत लिखा हुआ है । यदि ये मानें कि भारत में वो अवतार लेते रहेंगे तो क्या बाकी दुनिया अरब, ईराक, ईरान, फ्रांस, टर्की, जर्मनी, अमरीका आदि में धर्म की हानी नहीं होगी ?? तो ये तो साफ श्लोक का अर्थ करने वाले की मूर्खता है, एक ओर भारत को पुन्य भूमी बोलता है और दूसरी ओर बोलता है कि यहाँ पाप बढ़ता है जिस कारण ईश्वर को बार बार अवतार लेना पड़ता है । इससे यह भारत पुण्य भूमी की बजाए पाप भूमी सिद्ध हुआ जहाँ बार बार ईश्वर को अवतार लेना पड़ता है । पुण्य भूमी तो बाकी कि दुनिया को बोलना पड़ेगा जहाँ ईश्वर को अवतार नहीं लेना पड़ रहा । तीसरी बात ये है कि इसी श्लोक को आधार बना कर पाखंडी लोग अपने आप को ईश्वर या कृष्ण, विष्णु आदि का अवतार सिद्ध करते हुए दिखाई देते हैं । और लोगों से पैसे ऐंठते रहते हैं और मूर्ख लोग भेड़ चाल की भांती एक दूसरे के पीछे इन नये नये भगवानों को सिर पर चढ़ा लेते हैं । चौथी मज़े की बात ये है कि ये नये भगवान केवल कृष्ण के अवतार ही बन बैठते हैं और उनकी भांती रासलीला रचाने का ढोंग करके ( स्त्रीयों का मेला ) अपने आश्रमों में लगाते हैं । लेकिन अजीब बात तो ये है कि कोई पाखंडी राम या हनुमान जी का अवतार बनने की सोचता भी नहीं क्योंकि राम या हनुमान बन कर तो ब्रह्मचर्य की मर्यादा का पालन करना पड़ेगा और उस स्थिती में ये पंडे स्त्रीयों का आनन्द कैसे ले पाएँगे ? (9) प्रश्न :- तो क्या भगवान विष्णु के जो दस अवतार कहे गए हैं, क्या वो झूठ है ? उत्तर :- अगर आपके गणित को मानें तो सत्युग में पाप नहीं होता, तो त्रेता, द्वापर और कलियुग आते आते पाप बढ़ता जाता है । लेकिन आपके अवतार क्यों कम होते जाते हैं ? सत्युग में मोहिनी, मत्सय, कुर्म, वराह अवतार हुए हैं । त्रेतायुग में वामन, राम, परशुराम । द्वापरयुग में कृष्ण, कपिल, वशिष्ट । कलियुग में बुद्ध और कल्कि । होना तो यह चाहिए था कि ये अवतार कलियुग आते आते यह अवतार बढ़ने चाहिए थे । पर ये यहाँ पौराणिकों की उल्टी गंगा कैसे बह रही है भाई ?? ये तो सरासर ही मूर्खता है । (10) प्रश्न :- पर अवतारवाद का तो स्पष्ट वर्णन वेदों में है, तो आप क्यों नहीं मानते ? उत्तर :- वेदों में ईश्वर के कई नाम हैं, जिनके आधार पर ही संसार में लोगों के नाम रखे जाते रहे हैं , नाकि वेदों में अवतार का वर्णन है । जैसे किसी का नाम विष्णु है तो ये विष्णु नाम वेदों से लिया गया है, जो निराकार परमेश्वर सर्व सुंदर विशेषणों से युक्त है उसे ही विष्णु कहा जाता है । इसका अर्थ ये नहीं कि वो विष्णु नामक व्यक्ति वेदों का विष्णु भगवान है , किसी का नाम ओम् प्रकाश है तो ये नहीं कि ये व्यक्ति वेदों में कहे गए ओम् का अवतार है । अपनी बुद्धि को खोलिए । (11) प्रश्न :- आपके तर्क ठीक हो सकते हैं, परंतु हम यह मानते हैं कि ईश्वर हमारी रक्षा करने के लिए शरीर रूप में आता है, यदि हम उसे प्रेम से भक्ति भाव से पुकारें तो ? उत्तर :- यदि ऐसी बात है तो भारत पिछले १००० वर्ष तक विदेषीयों का गुलाम रहा है जिसमें असंख्य अत्याचार प्रजा पर हुए हैं । जैसे मुसलमान शासक के काल में :- गर्भवती स्त्रीयों के पेट फाड़ डाले जाते थे । मुसलमान सैनिक सुंदर लड़कियों को उठा ले जाते थे और गज़नी के बाज़ार में बेच देते थे । हिन्दुओं के मूँह पर थूक दिया जाता था । पाकिस्तान बनते समय हिन्दू सिक्खों के बच्चों को पका पका कर खाया गया, उनकी स्त्रीयों से सामूहिक बलात्कार हुए उनके स्तन काटे गए । तो ऐसे असंख्य अत्याचारों से मुक्ति दिलाने के लिए ईश्वर ने अवतार क्यों नहीं लिया ? कहाँ थे आपते चतुर्भुज विष्णु ? तो जब विदेशी आपके बहु बेटियों, माओं बहनों की और आपके देश, आपकी संस्कृति की अस्मत लूटते रहे तब आपराम राम, कृष्ण कृष्ण की तोता रट लगाते रहे और ये आशा करते रहे कि कोई कल्कि कोई कृष्ण आपकी रक्षा के लिए आयेगा । ये आपकी नपुंसकता नहीं तो क्या है ? (12) प्रश्न :- अवतारवाद के मानने से क्या हानी है ? उत्तर :- अवतारवाद के मानने से :- (१) पुरूषार्थ छोड़ मनुष्य भाग्यवादी हो जाता है । वो सोचता है कि मेरी रक्षा आकर कोई अवतार ही करेगा । (२) समाज अनेकों ईश्वरों में बंट जाता है जिससे की राष्ट्र कमज़ोर हो जाता है । (३) अनेकों पाखंड चलने लगते हैं कई मनुष्य भगवान के अवतार बनकर जनता को ठगते हैं और उनका शोषण करते हैं । और लोगों को अवतार के भरोसे बैठ कर नपुंसक बनाते रहते हैं । (४) निर्बल हुए धर्म समाज पर अनेकों विदेशी ईसाई और मुसलमान मत परिवर्तन का गंदा खेल खेलते हैं । (५) अनेकों मत होने से देश टूटने लगता है । ????????????????????????????????????????
#सनातन_धर्म_क्या_है। (Vedic Vichar)
20-06-2022
#सनातन का अर्थ है:- #शाश्वत या हमेशा बना रहने वाला अर्थात् जिसका न आदि है न अन्त। #सनातन_धर्म मूलत: #भारतीय #धर्म है, जो किसी ज़माने में पूरे वृहत्तर भारत तक व्याप्त रहा है। जिस बातों का शाश्वत महत्व हो वही सनातन कही गई है। जैसे #सत्य सनातन है, #ईश्वर ही सत्य है, #आत्मा ही सत्य है, #मोक्ष ही सत्य है और इस सत्य के मार्ग को बताने वाला सनातन धर्म भी सत्य है। वह सत्य जो अनादि काल से चला आ रहा है और जिसका कभी भी अंत नहीं होगा। वह ही सनातन या शाश्वत है। जिनका न प्रारंभ है और जिनका न अंत है उस सत्य को ही सनातन कहते हैं। यही सनातन धर्म का सत्य है। #वैदिक या #हिंदू धर्म को इसलिये सनातन धर्म कहा जाता है क्योंकि यही एकमात्र धर्म है जो ईश्वर, आत्मा और मोक्ष को तत्व और ध्यान से जानने का मार्ग बताता है। आप ऐसा भी कह सकते हो कि मोक्ष का कांसेप्ट इसी धर्म की देन है। एकनिष्ठता, योग, ध्यान, मौन और तप सहित यम-नियम के अभ्यास और जागरण मोक्ष का मार्ग है। अन्य कोई मोक्ष का मार्ग नहीं है। मोक्ष से ही आत्मज्ञान और ईश्वर का ज्ञान होता है। यही सनातन धर्म का सत्य है। सनातन धर्म के मूल तत्व सत्य, अहिंसा, दया, क्षमा, दान, जप, तप, यम-नियम हैं, जिनका शाश्वत महत्व है। अन्य प्रमुख धर्मों के उदय के पूर्व वेदों में इन सिद्धान्तों को प्रतिपादित कर दिया गया था:- "असतो मा सदगमय, तमसो मा ज्योर्तिगमय, मृत्योर्मा अमृतं गमय" अर्थात्:- हे ईश्वर, मुझे असत्य से सत्य की ओर ले चलो, अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो, मृत्यु से अमृत की ओर ले चलो। जो लोग उस परम तत्व #परब्रह्म #परमेश्वर को नहीं मानते हैं वे असत्य में गिरते हैं। असत्य से जीव मृत्युकाल में अनंत अंधकार में पड़ जाता है। उनके जीवन की गाथा भ्रम और भटकाव की ही गाथा सिद्ध होती है। वे कभी अमृत्व को प्राप्त नहीं होते। मृत्यु आये इससे पहले ही सनातन धर्म के सत्य मार्ग पर आ जाने में ही भलाई है। अन्यथा अनंत योनियों में भटकने के बाद प्रलयकाल के अंधकार में पड़े रहना पड़ता है। सत्य सत् और तत् से मिलकर बना है। सत का अर्थ यह और तत का अर्थ वह। दोनों ही सत्य है। "अहं ब्रह्मास्मी और तत्वमसि" यानी मैं ही ब्रह्म हूँ और तुम भी ब्रह्म हो। यह संपूर्ण जगत ब्रह्ममय है। ब्रह्म पूर्ण है। यह जगत् भी पूर्ण है। पूर्ण जगत् की उत्पत्ति पूर्ण ब्रह्म से हुई है। पूर्ण ब्रह्म से पूर्ण जगत् की उत्पत्ति होने पर भी ब्रह्म की पूर्णता में कोई न्यूनता नहीं आती। वह शेष रूप में भी पूर्ण ही रहता है। यही सनातन सत्य है। जो तत्व सदा, सर्वदा, निर्लेप, निरंजन, निर्विकार और सदैव स्वरूप में स्थित रहता है उसे सनातन या शाश्वत सत्य कहते हैं। #वेदों का ब्रह्म और #गीता का स्थितप्रज्ञ ही शाश्वत सत्य है। जड़, प्राण, मन, आत्मा और ब्रह्म शाश्वत सत्य की श्रेणी में आते हैं। सृष्टि व ईश्वर (ब्रह्म) अनादि, अनंत, सनातन और सर्वविभु हैं। जड़ पाँच तत्व से दृश्यमान है:- आकाश, वायु, जल, अग्नि और पृथ्वी। यह सभी शाश्वत सत्य की श्रेणी में आते हैं। यह अपना रूप बदलते रहते हैं किंतु समाप्त नहीं होते। प्राण की भी अपनी अवस्थायें हैं। प्राण, अपान, समान और यम, उसी तरह आत्मा की अवस्थायें हैं:- जाग्रत, स्वप्न, सुसुप्ति और तुर्या। ज्ञानी लोग ब्रह्म को निर्गुण और सगुण कहते हैं। उक्त सारे भेद तब तक विद्यमान रहते हैं जब तक कि आत्मा मोक्ष प्राप्त न कर ले। यही सनातन धर्म का सत्य है। ब्रह्म महाआकाश है तो आत्मा घटाकाश। आत्मा का मोक्ष परायण हो जाना ही ब्रह्म में लीन हो जाना है। इसीलिये भाई-बहनों, कहते हैं कि ब्रह्म सत्य है और जगत मिथ्या। यही सनातन सत्य है और इस शाश्वत सत्य को जानने या मानने वाला ही सनातनी कहलाता है। विज्ञान जब प्रत्येक वस्तु, विचार और तत्व का मूल्यांकन करता है तो इस प्रक्रिया में धर्म के अनेक विश्वास और सिद्धांत धराशायी हो जाते हैं। विज्ञान भी सनातन सत्य को पकड़ने में अभी तक कामयाब नहीं हुआ है किंतु वेदांत में उल्लेखित जिस सनातन सत्य की महिमा का वर्णन किया गया है उससे विज्ञान धीरे-धीरे उससे सहमत होता नजर आ रहा है। हमारे ऋषि-मुनियों ने ध्यान और मोक्ष की गहरी अवस्था में ब्रह्म, ब्रह्मांड और आत्मा के रहस्य को जानकर उसे स्पष्ट तौर पर व्यक्त किया था। वेदों में ही सर्वप्रथम ब्रह्म और ब्रह्मांड के रहस्य पर से पर्दा हटाकर 'मोक्ष' की धारणा को प्रतिपादित कर उसके महत्व को समझाया गया था, मोक्ष के बगैर आत्मा की कोई गति नहीं इसीलिये ऋषियों ने मोक्ष के मार्ग को ही सनातन मार्ग माना है। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष में मोक्ष अंतिम लक्ष्य है। यम, नियम, अभ्यास और जागरण से ही मोक्ष मार्ग पुष्ट होता है। जन्म और मृत्यु मिथ्या है। जगत भ्रमपूर्ण है। ब्रह्म और मोक्ष ही सत्य है। मोक्ष से ही ब्रह्म हुआ जा सकता है। इसके अलावा स्वयं के अस्तित्व को कायम करने का कोई उपाय नहीं। ब्रह्म के प्रति ही समर्पित रहने वाले को #ब्राह्मण और ब्रह्म को जानने वाले को #ब्रह्मर्षि और ब्रह्म को जानकर #ब्रह्ममय हो जाने वाले को ही #ब्रह्मलीन कहते हैं। सनातन धर्म के सत्य को जन्म देने वाले अलग-अलग काल में अनेक #ऋषि हुयें हैं। उक्त ऋषियों को दृष्टा कहा जाता है अर्थात जिन्होंने सत्य को जैसा देखा, वैसा कहा, इसीलिये सभी ऋषियों की बातों में एकरूपता है और जो ऋषियों की बातों को नहीं समझ पाते वही उसमें भेद करते हैं। भेद भाषाओं में होता है, अनुवादकों में होता है, संस्कृतियों में होता है, परम्पराओं में होता है, सिद्धांतों में होता है, लेकिन सत्य में नहीं। वेद कहते हैं ईश्वर अजन्मा है, उसे जन्म लेने की आवश्यकता नहीं, उसने कभी जन्म नहीं लिया और वह कभी जन्म नहीं लेगा। ईश्वर तो एक ही है। यही सनातन सत्य हैं। सत्य को धारण करने के लिये प्रात: योग और प्राणायाम करें तथा दिनभर कर्मयोग करें। वेद-पुराणों को समझें, गौ माता और ब्राह्मण को सम्मान दें। ऋषि परंपराओं को जीवन में अपनायें यही सनातनी जीवन हैं। #जय_श्रीमन्_नारायण।।।।
Vedic Vichar
20-06-2022
#वेदों को छोड़ कर #पुराणों में विश्वास करने का परिणाम (सही है या नहीं) स्वयं निर्णय करें। १. अवतारवाद मिला (केवल भारत में - अन्य कहीं नहीं) २. मूर्तिपूजा का प्रचलन हुआ और निराकार ईश्वर से दूरी बनाई ३. सत्य ईश्वरीय ज्ञान वेदों से विमुख हुए। ४. जातिवाद को पोषित किया और वैदिक वर्ण व्यवस्था भुला दी गई। ५.पाखण्ड और अंधविश्वास बढ़ा और वैदिक संस्कार भूल गए ६.आपसी फूट बढ़ी, विदेशियों के ग़ुलाम बने और स्वदेशी गौरव नष्ट हुआ। ७. हिंदू महान शक्ति छोटे छोटे मत मतांतरों में बिखर गई और हम को ग़ुलामी मिली। ८. बलि प्रथा चली और बलिवैश्वदेव यज्ञ छूटा ९.कल्पित देवी -देवताओ की लीलाएं शुरू हुईं और महान आत्माओं का त्रिस्कार हुआ। १०. अवैदिक फलित ज्योतिष का प्रचलन हुआ, कर्म फल व्यवस्था पर विश्वास कम हुआ, परिश्रम में विश्वास करना कम हुआ और विज्ञान से दूर होते गए। ११ मांसाहार का सेवन बढ़ा और सात्विकता समाप्त हुई। ११. कुरान और बाइबिल का प्रचलन बढ़ा और सत्य सनातन वैदिक धर्म की मान्यताओं में आस्था कम होने लगी। १२. धर्म परिवर्तन को बढ़ावा मिला। जातिवाद को बढ़ावा मिला। १३. धर्मनिरपेक्षता वढ़ी और वैदिक संस्कृति व मानवतावाद का त्याग होता गया। १४. अश्लीलता बढ़ी और सदाचार कम होता गया। १५. जगत को मिथ्या कहा और सच्चे ईश्वर, प्रकृति और आत्मा के गुण कर्म स्वभाव को भूलते गए। १६. काल्पनिक स्वर्ग नरक का आविष्कार हुआ और वैदिक सुख-दुःख से अनजान हो गए। १७. परस्पर राग, द्वेष, घृणा, ईर्ष्या अहंकार आदि बढ़ा, धर्म के १० लक्षण और यम नियम भूल गए, और वेदों व योग दर्शन के अनुसार सर्वशक्तिमान सर्व व्यापक परमात्मा की स्तुति प्रार्थना उपासना करना छोड़ दिया। १८. अपने ऋषीयों व महापुरुषों की आज्ञाओं और विचारों की अवहेलना हुई और हिंदू समाज छोटे छोटे समुदायों में बंटता गया। कमजोर हो गया। १९. भ्रस्टाचार, अंध विश्वास, फलित ज्योतिष और मूर्ति पूजा बढ़ी और राष्ट्र की अवनति हुई। २०. अपने आर्ष ग्रंथ, दर्शन और संस्कृति को भूल गए और वैदिक संस्कारो को छोड़ दिया। #नोट :.. १. पुराणों की रचना महाभारत काल के बाद हुई है। २. इनकी रचना ऋषि वेद व्यास द्वारा नहीं की गई है जैसी की समाज में भाँति फैली हुई है। ३. यह भ्रांति कुछ स्वार्थी मनुष्यों के द्वारा जानकर फैलाई गई है ताकि उनकी जीविका आसानी से, बिना परिश्रम किये, चलती रहे। ४. पुराणों में अधिकतर बातें वेद विरुद्ध पाई जाती हैं। ५. ऋषि दयानंद सरस्वती वेदों के महान ज्ञाता थे। इस बात को भारतीय व विदेशी - सभी विद्वान मानते हैं। ६. #ऋषि_दयानंद_जी और #स्वामी_ब्रह्मानंद_जी ने भी पुराणों को मान्यता नहीं दी है। उन्होंने पुराणों की उसी बात को माना है जो वेदानुसार है, प्रकृति और सृष्टि के नियमों के अनुसार है। ???? ।। एक विनम्र निवेदन ।।???? मित्रों। यदि आप उपरोक्त विचारों से सहमत हैं तो: वैदिक संस्कृति, हिंदू समाज और राष्ट्र हित में वेदों की शरण में आइए। पूरे विश्व में भारत का और अपना गौरव बढाइए। #ॐ_तत्सत्त #जय_आर्य_जय_आर्यावर्त
इस्काँन_वालों_का_कुतर्क. (Vedic Vichar)
20-06-2022
इस्काँन वालों से कोई पूछता है कि वेद पढें या गीता ? तो उनका उत्तर होता है कि #श्रीमद्भग्वद्गीता वेदों का ही निचोड है, गीता वेदों का ही सार है इसीलिए गीता पढो । जैसे गन्ने से रस निकाल कर गन्ने को फेंक देते हैं और रस को पात्र में ले लेते हैं वैसे ही #वेदों के रस को निकालकर गीता में डाल दिया गया है, शेष छोड दिया गया है। इतने से ही मुक्ति हो जाती है तो व्यर्थ क्यों पढें..? अब इसमें पहले तो सोचने वाली यह बात है कि जैसे रस निकालने के बाद गन्ना व्यर्थ बचता है वैसे ही क्या वेदों में भी कुछ व्यर्थ है ? वास्तव में वेद गन्ने की भाँति नहीं रस की भाँति है जो कि पूरा का पूरा ही रस है अब रस में से रस कैसे निकालोगे ?और यही नहीं यदि देखा जाए तो वेद स्वयं ही अति संक्षेप में हैं इससे संक्षेप में मनुष्य के लिए कुछ हो ही नहीं सकता इसमें से हम एक मंत्र भी नहीं हटा सकते । यदि #अभ्युपगम_सिद्धांत से मान भी लिया जाए कि गीता वेदों का सार है तो क्या हम गीता का भी सार निकाल सकते हैं ? जैसे रस से भी आगे की प्रक्रिया से #गुड बनता है और उस रस में से कचरा निकाल दिया जाता है वैसे ही गीता का और सार निकाल सकते हैं हम ???? यदि सार निकालें तो यही बचेगा कि,, क्या लेकर आए थे, क्या लेकर जाओगे, क्या तुम्हारा था, क्या तुम्हारा खो गया, क्या तुम्हारा होगा, किसके लिए रोते हो, जो कल किसी और का था वह आज किसी और का है और कल किसी और का होगा! आत्मा तो अमर है, कौन जीवित है जिसे तुम मार रहे हो,, हे पार्थ ! व्यर्थ की चिंता ना करो गीता सार की पुस्तकों में भी ऐसा ही कुछ मिलता है। तो क्या गीता को छोडकर यही गीता सार पढ लेना चाहिए ? अभी भी प्रमादियों के लिए अधिक हो गया हो तो हम इसका भी सार निकाल सकते हैं और वह सार होगा - #सब_मोह_माया_है ???????? तो इसी वक्तव्य को अपनी दीवार, मकान, दुकान, और डायरी आदि में लिख लो वहीं से पढ लो, यदि इसे स्मरण करलो तो वहाँ से लिखा हुआ भी हटा दो। गीता छपवाने की खरीदने बेचने और उसके उपदेश की कोई आवश्यकता ही नहीं रहेगी। यदि आप मुझे पूछोगे कि इस वाक्य में सम्पूर्ण गीता का ज्ञान कैसे समाहित हो सकता है ? तो मेरा भी यही प्रश्न होगा कि यह वाक्य सम्पूर्ण गीता को प्रदर्शित नहीं कर सकता तो फिर श्रीमद्भग्वद्गीता वेदों के सम्पूर्ण ज्ञान को कैसे प्रदर्शित कर सकती है, चारों वेद इस छोटी सी गीता में कैसे समा सकते हैं ..? यदि ऐसा आपके लिए संभव है तो फिर आप भी वही वाक्य दोहराओ #सब_मोह_माया_है सारी झंझट समाप्त ???? यद्यपि श्रीमद्भग्वद्गीता भी एक आध्यात्मिक और क्रांतिकारी ग्रंथ है इसका भी अध्ययन करना चाहिए, किन्तु यह कहना कि वह वेदों से भी ऊपर है तो यह परमात्मा के द्वारा दिये गए उपदेश का अनादर ही है होगा, अन्य कुछ नहीं । #दार्शनिक_विचार ????????
प्रमाण किसको माने? (Vedic Vichar)
20-06-2022
हिन्दुओ के सभी ग्रन्थ वेदो को अंतिम प्रमाण मानते है , कहते है वेद की निंदा करने वाला नास्तिक है। परन्तु वेद के किस भाष्य को प्रमाणित माने ? कौन सी रामायण प्रमाणित माने ? कौन सी गीता प्रमाणित माने ? कोन सी मनुस्मृति प्रमाणित माने? उत्तर सीधा व् सरल है परंतु हिन्दू समाज द्वेष दुराग्रह से पीड़ित है इस लिये हर बार अपना विनाश ही चुनता है विज्ञान व् चमत्कार में से किसे चुनना चाहिए ? हिन्दू अंधश्रद्धावश हर बार चमत्कारों को चुनता है और हर बार गुलामी की दल दल में एक कदम और बढ़ जाता है। वेदो का भाष्य चुनेगा तो सायण और महीधर का जो गौमांस की शिक्षा देता है।जो वर्ण व्यवस्था की अपेक्षा जाति जन्म से लिखते हैं। रामायण चुनेगा तो वो जिसमे विज्ञान का नामोनिशान नही , हनुमान को बन्दर, जटायु को पंछी और राम को माँ सीता की परीक्षा लेने वाला बताया जाता है। जिसमे राम को संभुक ऋषि का हत्यारा कहा जाता है , जिसमे उन पर माँ सीता का त्याग करने व् अग्निपरीक्षा का आरोप है । और सत्य यह है कि उपरोक्त सभी मिलावट है। मनुस्मृति भी वही चुनेगा जो वाम मार्गियों ने प्रस्तुत की। गीता भी वही उत्तम मानेगा जो अवतारवाद व् भाग्यवाद की शिक्षा देगी। हद तो तब हो गयी जब हमारे समाज ने क्रष्ण को चोर व्याभिचारी कहे जाने वाले ग्रन्थों को सर् माथे लगा लिया। शिव को कामी और भांगखोर कहे जाने वाले ग्रन्थों को बिना शोधित किये स्वीकार कर लिया और आज इसी गन्दिगी पर गर्व अनुभव करता है। हिन्दू समाज की ऐसी भयानक दुर्गति हुई गुलामी के समय में की इसने गुलामी को मानसिक रूप से स्वीकार कर लिया । इस गुलामी के काल में एक व्यक्ति ने हमारे अनेको ग्रन्थों की मिलावट को बुद्धिपूर्वक छाँट कर अलग किया। जिसने व्याकरण की उच्च कोटि की योग्यता अर्जित की और हमे बताया कि यह मिलावट अधिकाँश मुल्लो और ईसाइयों की साजिश है. जिसने २००० साल की गुलामी को चीरते हुए इस्लाम और ईसाइयत की धज्जियां उड़ा दी ।ईसाइयत के राज में ही अंग्रेज़ो के सामने बाइबल के धुर्रे उड़ा दिए । जिसने हिन्दू ग्रन्थों से जादू टोना मिटा कर विज्ञान को प्रदर्शित किया जिसके ज्ञान के आगे हजारों मुल्लो ईसाइयों और पाखंडी पंडो की हार हुई जिसने वेदो की गरिमा को पुनः स्थापित किया और विवेकानंद मेक्समूलर और सायण जैसे लोगो के वेद विरुद्ध प्रचार का विरोद्ध किया । इन तथाकथित संतो ने जिस प्रकार वेदो में गौमांस का झुठा प्रचार किया , उन सभी को झूठा सिद्ध किया और वेदो के विज्ञान को पुनः प्रचारित किया । यह कोई और नही स्वामी दयानन्द जी थे । इनका वेद भाष्य विज्ञान और विवेक से कूट कूट कर भरा है।इन्होंने घोषणा की के वेद ही सत्य विद्या की पुस्तक है और सभी धर्मों का मूल है। साहस नही किसी विधर्मी और अधर्मी का जो इनके भाष्य पर प्रश्न उठा सके । इन्ही के कारण आज हिन्दू समाज के बीच वेद उपनिषद गीता मनुस्मृति रामायण आदि अदि ग्रन्थ सम्मान रूप में सुरिक्षित है ???? कृण्वन्तोविश्वमार्यम???? ????जय आर्यावर्त???? ????????जय भारत????????
Vedic Vichar
20-06-2022
*सनातन क्या है ?* सनातन अर्थात जो सदा से है, जो सदा रहेगा, जिसका अंत नहीं है और जिसका कोई आरंभ नहीं, वही सनातन है। यीशु से पहले ईसाई मत नहीं था, मुहम्मद से पहले इस्लाम मत नहीं था, महावीर से पहले जैन मत न था, बुद्ध से पहले बुद्ध मत न था, नानक से पहले सिख मत न था, कृष्ण से पहले गीता न थी, राम से पहले रामायण न थी, समुद्र मंथन से पहले लक्ष्मी न थी, गणेश से पहले गणेश पूजा न थी, तो ये सब सनातन कैसे हुए ? शिव पुराण के अनुसार शिव ने विष्णु व ब्रह्मा को बनाया तो विष्णु भक्ति व ब्रह्मा भक्ति सनातन नहीं हैं। विष्णु पुराण के अनुसार विष्णु ने शिव और ब्रह्मा को बनाया तो शिव भक्ति और ब्रह्मा भक्ति सनातन नहीं। ब्रह्म पुराण के अनुसार ब्रह्मा ने विष्णु और शिव को बनाया तो विष्णु भक्ति और शिव भक्ति सनातन नहीं । देवी पुराण के अनुसार देवी ने ब्रह्मा, विष्णु और शिव को बनाया तो यहाँ से तीनों की भक्ति सनातन नहीं रही । ये सभी ग्रन्थ एक दूसरे से बिलकुल उल्टी बात कर रहें हैं। *फिर सनातन क्या है ?* ऐसा सनातन तो परमात्मा व उसकी वाणी 'वेद' ही है। आप किसी मुस्लमान से पूछिए, परमात्मा ने ज्ञान कहाँ दिया है ? वो कहेगा कुरान में। आप किसी ईसाई से पूछिए परमात्मा ने ज्ञान कहाँ दिया है ? वो कहेगा बाईबल में । लेकिन आप किसी हिंदू से पूछिए परमात्मा ने मनुष्य को ज्ञान कहाँ दिया, तो वह निरुतर हो जाएगा। आज अधिकांश हिंदू ये भी नहीं बता पाता कि परमात्मा ने ज्ञान कहाँ दिया, कब दिया ? कुछ हनुमान चालीसा का, कुछ गीता का, कुछ पुराणों का , कुछ उपनिषदों का नाम ले लेते हैं। परन्तु परमात्मा का ज्ञान तो उस से पहले भी था जो राम व कृष्ण ने गुरुचरणों में बैठ कर पर्याप्त किया। वेद ही सनातन हैं, परमात्मा की वाणी है, जो परमात्मा ने मनुष्यों को सृष्टि के प्रारंभ में दिए। "गुरु बिना ज्ञान नहीं", तो संसार का आदि गुरु कौन था? वह परमात्मा ही था | उस परमपिता परमात्मा ने ही सब मनुष्यों के कल्याण के लिए वेदों का प्रकाश सृष्टि के आरंभ में किया। जैसे जब हम नया मोबाइल लाते हैं तो साथ में एक गाइड मिलती है, तो उसी प्रकार जिस परमपिता ने हमें ये मानव तन दिए तथा ये संपूर्ण सृष्टि रच कर दी, तब क्या उसने हमे यूं ही बिना किसी ज्ञान और निर्देशों के भटकने को छोड़ दिया ? जी नहीं, उसने हमें साथ में एक गाइड दी कि सृष्टि को किस प्रकार वर्तें,तन से क्या करें, मन से क्या विचारें, नेत्रों से क्या देखें, कानो से क्या सुनें, हाथो से क्या करें आदि। उसी का नाम वेद है। वेद का अर्थ है ज्ञान । परमात्मा के उस ज्ञान को आज हमने लगभग भुला दिया है | *वेदों में क्या है ?* वेदों में कोई कथा कहानी नहीं है। न तो कृष्ण की, न राम की । वेद में तो तिनके से लेकर परमेश्वर पर्यंत सब ज्ञान विद्यमान है जो मनुष्यों को जीवन में आवश्यक है। मैं कौन हूँ ? मुझमें ऐसा क्या है जिससे मुझे में “मैं” की भावना है ? मेरे हाथ, मेरे पैर, मेरा सिर, मेरा शरीर, पर मैं कौन हूँ ? मैं कहाँ से आया हूँ ? मेरा तन तो यहीं रहेगा, तो मैं कहाँ जाऊंगा, परमात्मा क्या करता है ? मेरा लक्ष्य क्या है ? मुझे यहाँ क्यूँ भेजा गया ? इन सबका उत्तर तो केवल वेदों में ही मिलेगा | रामायण व महाभारत आदि तो ऐतिहासिक घटनाएं है, जिनसे हमे सीख लेनी चाहिए और उन जैसे महापुरुषों के दिखाए सन्मार्ग पर चलना चाहिए । लेकिन उनको ही परमात्मा मान लेना वा उनकी मूर्तियां बना कर पूजना सनातन नहीं है।
इस्काँन_वालों_का_कुतर्क. (Vedic vichar)
19-06-2022
Someone asks the people of ISKCON whether they read Vedas or Gita? So their answer is that #ShrimadBhagwadGita is the squeeze of Vedas, Geeta is the essence of Vedas so read Gita. Just like extracting juice from sugarcane and throwing sugarcane into the pot, similarly #Vedas juice has been extracted and put in the Geeta, the remaining has been left. If you get liberated from this much, then why should you read it in vain..? Now it is a thing to think before this that as sugarcane remains wasted after extracting juice, is there anything waste in Vedas? Actually Veda is not like sugarcane, it is like juice, which is the whole juice, now how will you extract juice from the juice? And if it is not seen, the Vedas themselves are in very brief. In a nutshell, nothing can happen to man in a nutshell. We cannot remove even a mantra from it. Even if it is accepted by #Abhyupagam_principle that Geeta is the essence of Vedas, can we find out the essence of Geeta too? Just like the process ahead of the juice makes #good and garbage is removed from that juice, we can extract more essence of the Geeta ???? If you take out the essence, only this will remain that,, What did you bring, what will you take, What was yours, what was yours lost, What will be yours, for whom do you cry, Who belonged to someone else yesterday belongs to someone else today and tomorrow will be someone else's! The soul is immortal,who is alive that you are killing,, Hey Parth! Don't worry about the vain Something similar is found in the books of Geeta Sar. So should we read this Gita essence instead of Geeta? If there is still too much for proofs then we can summarize it and that will be the essence - #सब_मोह_माया_है ???????? So write this statement in your wall, house, shop, and diary etc. Read from there, If you remember this then remove what is written from there. There will be no need for buying, selling and advising of Geeta printing. If you ask me how can this sentence contain the knowledge of the entire Gita? So my question will be that this sentence cannot present the complete Geeta then how can Shrimadbhagwadgita demonstrate the complete knowledge of the Vedas, how can the four Vedas be included in this small Geeta..? If it is possible for you then repeat the same sentence #sab_moh_maya_hai All the hassles over ???? Although Srimadbhagwadgita is also a spiritual and revolutionary book it should also be studied, but to say that it is above the Vedas then it would be disrespectful to the preaching given by God, nothing else. #दार्शनिक_विचार
Who is the proof to believe? (Vedic vichar)
19-06-2022
All the books of Hindus consider Vedas as the final proof, it is said that the one who condemns Vedas is an atheist. But which language of Vedas should be considered as certified? Which Ramayana is considered certified? Which Geeta is considered certified? Which Manusmriti was considered certified? The answer is simple and simple but Hindu society is suffering from hatred, so every time it chooses its own destruction. Which one should choose between science and miracle? Hindu superstition chooses miracles every time and every time slavery takes one step more in party. If you choose the language of Vedo, then it will be of Sayan and Mahidhar who teaches beef. Those who write caste by birth rather than caste system. Ramayana will be chosen in which there is no sign of science, Hanuman is considered as monkey, Jatayu is a bird and Ram is the one who takes the exam of Mother Sita. In which Ram is called the murderer of the sage, he is accused of abandoning Maa Sita and testing the fire. And the truth is all of the above is adulteration. Manusmriti will also choose what leftists presented. Geeta will also be considered best who will teach incarnation and fate. The limit has been crossed when our society has put the books called Krishna as thief and adultery. Shiva accepted the texts called Kami and Bhangkhor without research and today feels proud of the same mess. Such a terrible misery of Hindu society happened during the time of slavery that it accepted slavery mentally. In this time of slavery one person cleverly sorted out the adulteration of our many texts. Who earned high quality of grammar and told us that this adulteration is a conspiracy of most Muslims and Christians. The one who ripped off Islam and Christianity by ripping the slavery of 10 years. In the rule of Christianity, the Bible was blown in front of the British. Who erased witchcraft from Hindu texts and exhibited science Before whose knowledge thousands of Muslims, Christians and hypocrite Pandas were defeated Who restored the dignity of Vedas and opposed the propaganda against Vedas by people like Vivekananda Maxmuller and Sayan. These so called saints proved all false propaganda of beef in Vedos and reproduced the science of Vedos. He was no one else, Swami Dayanand ji. Their Vedas is full of science and discretion. He declared that Vedas are the book of Satya Vidya and the root of all religions. No heir and unrighteous person has the courage to question their language. Because of these, today Veda Upanishad Geeta Manusmriti Ramayana etc. books are preserved among Hindu society as respect.
Vedic vichar
14-06-2022
क्या विवाह के समय श्री राम चन्द्र जी की आयु 15 वर्ष और सीता जी की आयु 6 वर्ष थी? इस शंका को उठाने वालों में मुख्य रूप से वो लोग हैं जो मुहम्मद साहिब और आयशा के विवाह के समय आयशा की आयु जो उस समय केवल मात्र 6 वर्ष थी को सही मानने का प्रयास करते हैं। हमारा उद्देश्य इस लेख में इस शंका का समाधान करना हैं की वास्तव में क्या विवाह के समय श्री राम चन्द्र जी की आयु 15 वर्ष और सीता जी की आयु 6 वर्ष थी? प्रथम तो सीता जी की विवाह के समय 6 वर्ष आयु मानने का कारण वाल्मीकि रामायण में दिया गया एक श्लोक हैं जिसे अरण्य कांड 47/4,10 में सीता रावण को अपना परिचय देते हुए कहती हैं की मेरी आयु इस समय 18 वर्ष हैं , मैं 12 वर्ष ससुराल में रहकर, समस्त भोगों का उपभोग करके मैं राम-लक्ष्मण के साथ वन में आई हूँ। अर्थात विवाह के समय सीता जी की आयु केवल 18-12=6 वर्ष ही थी। इस श्लोक को आधार बनाकर सीता जी की विवाह के समय आयु 6 वर्ष सिद्ध करने को हम रामायण आदि शास्त्रों से परीक्षा करेंगे। 1. जब ऋषि विश्वामित्र श्री राम और श्री लक्ष्मण को लेकर जनक राज के समक्ष पधारे तो उन्हें देखकर राजा जनक ने आश्चर्यचकित हो हाथ जोड़कर विश्वामित्र से पूछा – हे मुनिवर! गज और सिंह के समान चल वाले, देवताओं के समान पराक्रमी तथा अश्विनी कुमारों के समान सुन्दर, यौवन को प्राप्त कुमार कौन हैं। सन्दर्भ – बालकाण्ड 50/17-19 इसी बालकाण्ड में सर्ग 48 राजा सुमति ने भी राम और लक्ष्मण को देखकर यौवन से भरपूर सुन्दर हथियार धारण किया हुआ कहा हैं। (यहाँ श्री राम जी और श्री लक्ष्मण जी को कहाँ गया हैं। ऐसी अवस्था सुश्रत संहिता के अनुसार युवकों की 25 वर्ष और युवतियों की 16 वर्ष की आयु में ही होती हैं) 2. जब विश्वामित्र ने राजकुमारों की धनुष देखने की इच्छा व्यक्त की तो जनक ने सीता के विवाह के सन्दर्भ में धनुष भंग की चर्चा करते हुए कहा- जब मेरी कन्या सीता ‘वर्द्धमाना‘=प्राप्तयौवना हुई तो बहुत से राजा उसका हाथ माँगने आने लगे। पर सब असफल रहे। सन्दर्भ – बालकाण्ड 66/15 (यहाँ सीता को यौवन प्राप्त युवती कहा गया हैं) 3. सीता ने अनसूया से कहा- पिता ने जब मेरी पति संयोग सुलभ अवस्था देखी तो उनको बड़ी चिंता हुई। मेरे पिता को वैसी ही चिंता हुई जैसा किसी दरिद्र के धन का नाश होने पर होती हैं। सन्दर्भ- अयोध्या काण्ड118/34 (किसी भी पिता के मन में अपनी बेटी के विवाह की चिंता जब वह 6 वर्ष की होती हैं तब उत्पन्न होने का प्रश्न ही नहीं हैं) 4. अयोध्या पहुँचने पर सबसे मिलने- जुलने के बाद चारों राजकुमार अपनी अपनी पत्नियों को लेकर अपने अपने महल में रमण करने लगे।-अयोध्या काण्ड- 7/52 (6 वर्ष की राजकुमारी महलों में खेलने लायक होती हैं, न की पति के साथ रमण करने लायक!) 5. बालकाण्ड 6/29-31 में सीता की शारीरिक अवस्था को सम्पूर्ण युवती वाला बताया गया हैं। 6. तुलसी कृत रामचरितमानस में भी कहीं पर भी सीता जी की विवाह के समय आयु 6 वर्ष नहीं लिखी हैं। 7. रावण सीता जी का अपहरण करने के उद्देश्य से आया था। भगवान श्रीराम और पूज्य श्री लक्ष्मण जी को छल से दूर भेज दिया था। श्रीराम और श्री लक्ष्मण के आने पर यह कार्य सम्भव नही था। इसलिए वह जल्द से जल्द अपहरण करके वहाँ से जाना चाहता था। इसलिए सीता जी और रावण के बीच में लम्बी बातचीत की सम्भावना नहीं है। इन सब से सिद्ध होता हैं की यह श्लोक मिलावटी हैं। विवाह के समय श्री राम चन्द्र जी की आयु 15 वर्ष और सीता जी की आयु 6 वर्ष नहीं थी?
Vedic vichar
14-06-2022
"निःसंदेह हे आत्मन ! इस संसार में जो दानशील, स्वार्थ-त्यागी, उदार पुरुषों को सब रमणीय धन मिल रहे हैं, यह सब, हे विशुद्ध आत्मन् ! तुम्हारा ही दान है, तुम्हारी ही विशुद्धता का प्रताप है।" ***** इन्द्र शुद्धो हि नो रयिं शुद्धो रत्नानि दाशुषे। शुद्धो वृत्राणि जिघ्नसे शुद्धो वाजं सिषाससि॥ -ऋ० ८।९५।९ ऋषिः - तिरश्ची। देवता - इन्द्रः। छन्दः - अनुष्टुप्। विनय - हे आत्मन् ! तुम परमैश्वर्यवाले हो। हे इन्द्र ! तुम हमें सब प्रकार का ऐश्वर्य दे सकते हो। हम यूँ ही बाहर भटकते हैं, बाहर की वस्तुओं का आसरा देखते हैं, जबकि सब अनिष्टों को हटा सकनेवाले और सब अभीष्टों के दे सकनेवाले, हे मेरे आत्मन ! तुम हमारे अन्दर विद्यमान हो। पर तो भी, जो हममें तुम्हारी यह शक्ति अभी प्रकट नहीं होती है इसका कारण यह है कि हमने अपने अन्दर तुम्हें शुद्ध नहीं किया है, हमने आत्म-विशुद्धि नहीं प्राप्त की है। जिनका आत्मा शुद्ध हो जाता है, जो तपश्चर्या द्वारा व निष्काम कर्म की साधना द्वारा या पवित्र सामोपासना द्वारा अपने राग-द्वेष की मलिनताओं को, नानाविध विषय-वासनाओं की अशुद्धि को और अज्ञान-मल को हटाकर आत्मा को विशुद्ध कर लेते हैं, वे आत्माराम हो जाते हैं। वे अपनी विशुद्धात्मा को पाकर फिर अन्य किसी भी बाह्य वस्तु की अपेक्षा नहीं रखते। तब वे अपनी विशुद्ध आत्मा से जो कुछ माँगते हैं वह सब-कुछ उन्हें मिल जाता है, मिलता रहता है। निःसंदेह हे आत्मन ! तुम शद्ध हुए हमें सर्वविध ऐश्वर्य दिया करते हो। संसार में जो दानशील, स्वार्थ-त्यागी, उदार पुरुषों को सब रमणीय धन मिल रहे हैं, जो अस्तेयव्रतियों को सर्वरत्नोपस्थान' हो रहा है यह सब, हे विशुद्ध आत्मन् ! तुम्हारा ही दान है, तुम्हारी ही विशुद्धता का प्रताप है। विशुद्ध हुए तुम तो सब विघ्न-बाधाओं को भी मार भगाते हो, सब पापों का नाश कर देते हो, सब वृत्रों का हनन कर देते हो, सब रुकावटों को दूर कर देते हो। और अन्त में. हे शुद्ध इन्द्र ! तुम हमें सर्वश्रेष्ठ ऐश्वर्य को, 'वाज' को भी देते हो। इसलिए भाइयो ! आओ, अब जब कभी हम अनैश्वर्य से पीड़ित हों या रमणीय धनों को प्राप्त करना चाहें तो हम अपनी आत्मा को शुद्ध करने में लग जायँ; जब कभी वृत्र के प्रहारों से आक्रान्त हों तो इस आत्मविशुद्धि के हथियार को पकड़ लेवें, और जब कभी सर्वोच्च ज्ञानबल की आवश्यकता अनुभव करें तो भी आत्मशुद्धि की ही शरण में जायँ, आत्मशुद्धि का ही आश्रय ग्रहण करें। शब्दार्थ - (इन्द्र) हे आत्मन् ! (शुद्धः हि) शुद्ध हुए-हुए ही तुम (नः) हमें (रयिं) ऐश्वर्य देते हो, (शुद्ध) हुए-हुए तुम (दाशुषे) दानशील के लिए (रत्नानि) रत्नों को, रमणीय धनों को देते हो। (शुद्धः) शुद्ध हुए हुए तुम (वृत्राणि) वृत्रों को, पापों को, बाधाओं को (जिघ्नसे) हनन करते हो और (शुद्धः) शुद्ध हुए-हुए तुम (वाजं) ज्ञान-बल को (सिषाससि) देना चाहते हो, देते हो। ********** स्रोत - वैदिक विनय। (कार्तिक १८) लेखक - आचार्य अभयदेव। प्रस्तुति - आर्य रमेश चन्द्र बावा।
Vedic vichar
14-06-2022
• Maharshi Dayananda's letter showing his self confidence for regeneration of India through Vedas • ------------------------- • Willing to Translate White Yajurveda [along with Rigveda]• (From letter to Gopal Rao Hari Deshmukh dated 6th June, 1877 - Original letter in english) I am willing to follow your advice, and ready to translate white Yajur Veda as you wish. But in this case I will stand in need of two pandits more and the printing charges will also get increased for the double issue of the work every month. Therefore you can yourself think over the matter properly and inform me of your final opinion on the matter so that I may employ two more writers and start to translate the work with certainty. I have every reason to believe that the darkness of ignorance in India, which has reduced the people to such a low condition in which they seem still careless will one day be banished away, if the sun of civilization shines and the true knowledge of Vedas is diffused over the country. Noble and high spirited persons like you and your companions only can be expected to undertake this mighty work for the public good and though such souls are few in number but their rarity is better than their abundance. I wish that Shyamji Krishna Varma should come to me for some time before starting for Oxford. I wish to give him some of the most important hints on Vedas which are necessarily required for him. He must not care for his expenses or anything else and I will furnish him with all necessities indeed. In my opinion his going to England is very useful for him but let me know what is your opinion about the matter. I will also write directly to him. [Source: Selected Letters of Maharshi Dayananda Saraswati, p.9, presented by: Bhavesh Merja]
जय भीम जय मीम (vedic vichar)
14-06-2022
कबीर दास इस्लामिक सुन्नत, रोजा, नमाज़, कलमा, काबा, बांग और ईद पर क़ुरबानी का स्पष्ट खंडन करते थे। सिखों के प्रसिद्ध ग्रन्थ गुरु ग्रन्थ साहिब में कबीर साहिब के इस्लाम संबंधी चिंतन को यहाँ पर प्रस्तुत किया जा रहा है। 1. सुन्नत का खंडन काजी तै कवन कतेब बखानी ॥ पदत गुनत ऐसे सभ मारे किनहूं खबरि न जानी ॥१॥ रहाउ ॥ सकति सनेहु करि सुंनति करीऐ मै न बदउगा भाई ॥ जउ रे खुदाइ मोहि तुरकु करैगा आपन ही कटि जाई ॥२॥ सुंनति कीए तुरकु जे होइगा अउरत का किआ करीऐ ॥ अरध सरीरी नारि न छोडै ता ते हिंदू ही रहीऐ ॥३॥ छाडि कतेब रामु भजु बउरे जुलम करत है भारी ॥ कबीरै पकरी टेक राम की तुरक रहे पचिहारी ॥४॥८॥ सन्दर्भ- राग आसा कबीर पृष्ठ 477 अर्थात कबीर जी कहते हैं ओ काजी तो कौनसी किताब का बखान करता है। पढ़ते हुऐ, विचरते हुऐ सब को ऐसे मार दिया जिनको पता ही नहीं चला। जो धर्म के प्रेम में सख्ती के साथ मेरी सुन्नत करेगा सो मैं नहीं कराऊँगा। यदि खुदा सुन्नत करने ही से ही मुसलमान करेगा तो अपने आप लिंग नहीं कट जायेगा। यदि सुन्नत करने से ही मुस्लमान होगा तो औरत का क्या करोगे? अर्थात कुछ नहीं और अर्धांगि नारी को छोड़ते नहीं इसलिए हिन्दू ही रहना अच्छा है। ओ काजी! क़ुरान को छोड़! राम भज१ तू बड़ा भारी अत्याचार कर रहा है, मैंने तो राम की टेक पकड़ ली हैं, मुस्लमान सभी हार कर पछता रहे है। 2. रोजा, नमाज़, कलमा, काबा का खंडन रोजा धरै निवाज गुजारै कलमा भिसति न होई ॥ सतरि काबा घट ही भीतरि जे करि जानै कोई ॥२॥ सन्दर्भ- राग आसा कबीर पृष्ठ 480 अर्थात मुसलमान रोजा रखते हैं और नमाज़ गुजारते है। कलमा पढ़ते है। और कबीर जी कहते हैं इन किसी से बहिश्त न होगी। इस घट (शरीर) के अंदर ही 70 काबा के अगर कोई विचार कर देखे तो। कबीर हज काबे हउ जाइ था आगै मिलिआ खुदाइ ॥ सांई मुझ सिउ लरि परिआ तुझै किन्हि फुरमाई गाइ ॥१९७॥ सन्दर्भ- राग आसा कबीर पृष्ठ 1375 अर्थात कबीर जी कहते हैं मैं हज करने काबे जा रहा था आगे खुदा मिल गया , वह खुदा मुझसे लड़ पड़ा और बोला ओ कबीर तुझे किसने बहका दिया। 3. बांग का खंडन कबीर मुलां मुनारे किआ चढहि सांई न बहरा होइ ॥ जा कारनि तूं बांग देहि दिल ही भीतरि जोइ ॥१८४॥ सन्दर्भ- राग आसा कबीर पृष्ठ 1374 अर्थात कबीर जी कहते हैं की ओ मुल्ला। खुदा बहरा नहीं जो ऊपर चढ़ कर बांग दे रहा है। जिस कारण तू बांग दे रहा हैं उसको दिल ही में तलाश कर। 4. हिंसा (क़ुरबानी) का खंडन जउ सभ महि एकु खुदाइ कहत हउ तउ किउ मुरगी मारै ॥१॥ मुलां कहहु निआउ खुदाई ॥ तेरे मन का भरमु न जाई ॥१॥ रहाउ ॥ पकरि जीउ आनिआ देह बिनासी माटी कउ बिसमिलि कीआ ॥ जोति सरूप अनाहत लागी कहु हलालु किआ कीआ ॥२॥ किआ उजू पाकु कीआ मुहु धोइआ किआ मसीति सिरु लाइआ ॥ जउ दिल महि कपटु निवाज गुजारहु किआ हज काबै जाइआ ॥३॥ सन्दर्भ विलास प्रभाती कबीर पृष्ठ 1350 अर्थात कबीर जी कहते है ओ मुसलमानों। जब तुम सब में एक ही खुद बताते हो तो तुम मुर्गी को क्यों मारते हो। ओ मुल्ला! खुदा का न्याय विचार कर कह। तेरे मन का भ्रम नहीं गया है। पकड़ करके जीव ले आया, उसकी देह को नाश कर दिया, कहो मिटटी को ही तो बिस्मिल किया। तेरा ऐसा करने से तेरा पाक उजू क्या, मुह धोना क्या, मस्जिद में सिजदा करने से क्या, अर्थात हिंसा करने से तेरे सभी काम बेकार हैं। कबीर भांग माछुली सुरा पानि जो जो प्रानी खांहि ॥ तीरथ बरत नेम कीए ते सभै रसातलि जांहि ॥२३३॥ सन्दर्भ विलास प्रभाती कबीर पृष्ठ 1377 अर्थात कबीर जी कहते हैं जो प्राणी भांग, मछली और शराब पीते हैं, उनके तीर्थ व्रत नेम करने पर भी सभी रसातल को जायेंगे। रोजा धरै मनावै अलहु सुआदति जीअ संघारै ॥ आपा देखि अवर नही देखै काहे कउ झख मारै ॥१॥ काजी साहिबु एकु तोही महि तेरा सोचि बिचारि न देखै ॥ खबरि न करहि दीन के बउरे ता ते जनमु अलेखै ॥१॥ रहाउ ॥ सन्दर्भ रास आगा कबीर पृष्ठ 483 अर्थात ओ काजी साहिब तू रोजा रखता हैं अल्लाह को याद करता है, स्वाद के कारण जीवों को मारता है। अपना देखता हैं दूसरों को नहीं देखता हैं। क्यों समय बर्बाद कर रहा हैं। तेरे ही अंदर तेरा एक खुदा हैं। सोच विचार के नहीं देखता हैं। ओ दिन के पागल खबर नहीं करता हैं इसलिए तेरा यह जन्म व्यर्थ है। इसके ठीक विपरीत कबीर साहिब श्री राम के गुणगान करते और गौसेवा के लिए प्रेरणा देते मिलते है। प्रमाण देखिये- कबीर कूता राम का, मुतिया मेरा नाऊँ।गले राम की जेवडी ज़ित खैंचे तित जाऊँ।।” कबीर निरभै राम जपि, जब लग दीवै बाती।तेल घटया बाती बुझी, सोवेगा दिन राति।।” ” जाति पांति पूछै नहिं कोई। हरि को भजै सो हरि का होई।।” साधो देखो जग बौराना,सांची कहौं तो मारन धावै,झूठे जग पतियाना। अब मोहि राम भरोसा तेरा, जाके राम सरीखा साहिब भाई, सों क्यूँ अनत पुकारन जाई॥ जा सिरि तीनि लोक कौ भारा, सो क्यूँ न करै जन को प्रतिपारा॥ कहै कबीर सेवौ बनवारी, सींची पेड़ पीवै सब डारी॥114॥ कस्तूरी कुंडल बसे, मृग ढूँढत बन माहि !! !! ज्यो घट घट राम है, दुनिया देखे नाही !! श्री राम जी के गुणगान के अनेक प्रमाण कबीर रचनावली में मिलते है। बहुत कम लोग जानते है कि कबीर दास ने गौरक्षा के लिए अपना विवाह करवाने से मना कर दिया था। उनके वधुपक्ष वाले उनके विवाह में गोमांस परोसने की योजना बना रहे थे। कबीर दास गौप्रेमी थे। उन्होंने स्पष्ट कह दिया। अगर गौमाता कटी तो वह विवाह नहीं करेंगे। अंत में कबीर दास ने वह गौ एक ब्राह्मण को दे दी। तब जाकर उनका विवाह संपन्न हुआ। इन सभी प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि दलित संत वेद, तीर्थ, जप, राम-कृष्ण,यज्ञपवीत, गौरक्षा आदि वैदिक परम्पराओं में अटूट विश्वास रखते थे एवं इस्लाम की मान्यताओं के कटु आलोचक थे।
एक व्यक्ति एक मिशन (Vedic vichar )
14-06-2022
स्वामी इन्द्रवेश महाराज (पुण्यतिथि पर विशेष) लेखक :- श्री सुरेन्द्र सिंह कादियान प्रस्तुति :- अमित सिवाहा जितने विकट संकटों में है, जिनका जीवन-सुमन खिला । गौरव-गन्ध उन्हें उतना ही, यत्र-तत्र-सर्वत्र मिला ॥ मैथिलीशरण गुप्त जी की ये पंक्तियां स्वामी इन्द्रवेश जी के भव्य व्यक्तित्व और कृतित्व पर जितनी सटीक बैठती हैं, शायद ही आर्यसमाज के गत पचास वर्षों के काल-खण्ड में सक्रिय रहे किसी अन्य आर्य नेता पर सटीक बैठती हों । आर्यसमाज में निश्चय ही उनसे अधिक विद्वान, मनीषी, वाक्चातुर्य में निपुण, साहित्य रचयिता, वेदभाष्यकार, शास्त्रार्थ महारथी, कुशल राजनीतिज्ञ, महावक्ता, संगठन में वर्चस्वी नायक कोई भले रहा हो जिसने आर्यसमाज के कीर्तिध्वज को व्योम या क्षितिज पर लहराया हो और लोकैषणा के अन्तिम छोर को जा छूआ हो । लेकिन स्वामी इन्द्रवेश जी को इस दृष्टि से मूर्धन्य माना जायेगा । तपस्वी, वचस्वी, तेजस्वी, मनस्वी और यशस्वी माना जायेगा कि उन्होंने जीवन-भर चुनौतियों का सामुख्य किया, आँधियों को झेला, काँटों भरा रास्ता चुना, खुद को संघर्ष का पर्याय बनाकर जीवन में चरैवेति-चरैवेति के आदर्श को मूर्तिमत किया । ऐसी महान् आत्मा का मूल्यांकन उनकी उपलब्धियों को दृष्टिगत करके नहीं किया जाता बल्कि गतिविधियों क आधार पर, जीवट के आधार पर, जिजीविषा के आधार पर, मौलिकता के आधार पर और पहल करने के सोत्साह पर किया जाता है । इस सोच का विरला ही कोई सुमन सदियों बाद चमन में खिलता है जो वातावरण को अपनी महक से सुवासित रखता है, अतः वर्तमान उसके होने का मूल्यांकन इतना नहीं कर पाता जितना कि भविष्य उसके जाने का मूल्यांकन और उसके न होने का गम महसूस करता है । निश्चय ही ऐसी वीरात्मा को परमात्मा फुर्सत के वक्त गढ़ कर ही इस संसार में भेजता होगा । ऐसे संघर्षशील व्यक्ति का भले ही दौर-ए-जमाना दुश्मन रहा हो लेकिन वह खुद किसी का दुश्मन न होकर जमाने से दोस्ती निभाता है । ऐसे अजातशत्रु रहे स्वामी इन्द्रवेश जी वस्तुतः खुद में एक व्यक्ति न रह कर एक मिशन बन गये थे । एक ऐसा मिशन जिसमें सबकी भलाई, सबका कल्याण, सबकी शान्ति निहित हो । अपने जीवन की संध्याबेला में उन्होंने सात पुष्प खिलाकर अपने जीवन का मकसद स्पष्ट कर दिया था । ये सात फूल थे सप्त-क्रान्ति के सात सूत्र जिनके बिना हमारा वैयक्तिक, सामाजिक और राष्ट्रीय जीवन निरुद्देश्य है, निरर्थक है, अधूरा है । साम्प्रदायिकता, जातिवाद, भ्रष्टाचार, नशाखोरी, पाखण्ड, शोषण और नारी-उत्पीड़न की दीमक जब तक हमारी प्रवृत्ति को, हमारी वाणी व लेखनी को, हमारे आचरण को चाटती रहेगी तब तक इस जीवन का न कोई अर्थ है और न ही कोई औचित्य । इसी सोच को लेकर स्वामी इन्द्रवेश जी जिये और मरे । इन बुराइयों के विरुद्ध एक सतत संघर्ष के रूप में, एक अनवरत मिशन के रूप में वे हमारे बीच रहे । इस संघर्ष और मिशन को दृष्टिगत रखते हुए उनका मूल्यांकन आज किया जा सकता है, भले ही उनका जीवन ऐसे आकलन को चाहे सदा ही क्यों न नकारता रहा हो । वस्तुतः दीपशिखा की भाँति अहरह जलती मशाल बनकर वह अपनी पीढी को रास्ता दिखाते रहे, लोकचेतना के संवाहक बनकर एक पथ-प्रदर्शक की भूमिका निभाते रहे और अध्यात्म की अन्तःसलिला धारा के स्नातक होकर असंख्य आत्माओं को प्रकाशित करते रहे लेकिन फिर भी इसका श्रेय लेने की कभी इच्छा नहीं रखी । यदि उनकी अपनी कोई इच्छा थी, अपनी कोई ऐषणा थी, अपना कोई निहितार्थ था तो यही था कि जिस मिशन को लेकर वे उठे हैं उसी मिशन के प्रति सजग, सक्रिय और समर्पित होकर जियें व मरें । उनके समूचे जीवन का सिंहावकोकन करते हुए यदि हम किसी निष्कर्ष पर पहुँचने का प्रयास करें तो जयशंकर प्रसाद के इन शब्दों से ही उनका एक रेखाचित्र तैयार होता है – मत कर पसार, निज पैरों पर चल चलने की जिसको रहे झोंक, उसको कब कोई सका रोक आर्यसमाज के शीर्ष नेतृत्व ने जिसे एक बार नहीं, तीन बार फांसी चढ़ाया हो लेकिन जो फिर भी जीवित रहकर अपने मिशन पर अडिग ही चलता रहा हो, अपने डगर पर बढ़ता रहा हो, अपनी मंजिले-मकसूद को सदैव याद रखता रहा हो, भला उसे क्या कभी मारा जा सकता था ? निश्चय ही उसकी पीढी की यह भूल रही है, खामख्याली रही है जिसे कल का इतिहास क्षमा नहीं करेगा । कल का इतिहासकार किस कलम से उनका मूल्यांकन करेगा आज भविष्यवाणी करना जल्दबाजी होगी क्योंकि उनसे प्रेरित, उनका सानिध्य प्राप्त किये, उनके साथ कदम से कदम बढ़ाकर चलने वाले जीवनदानियों की पीढ़ी अभी इतिहास न बनकर इतिहास का निर्माण कर रही है । इतिहास के इस अध्याय का समापन होने पर ही स्वामी इन्द्रवेश जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व का मूल्यांकन अधिक तटस्थता, निष्पक्षता और ईमानदारी से कल का इतिहासकार कर सकेगा । अतः अपने सहयोगियों, आत्मीयों, स्वजनों के समक्ष स्वामी इन्द्रवेश जी खुद एक चुनौति, एक कसौटी बनकर आ खड़े हुए हैं । इस चुनौति को कितना समझा व स्वीकारा जायेगा और इस कसौटी पर अपने को कितना खरा व खोटा सिद्ध किया जायेगा, यह प्रश्न अनुत्तरित है । इसी दिशा में आगे बढ़ते हुए उनके जीवन के कुछ पड़ावों का अवलोकन करते हुए हम स्वामी इन्द्रवेश जी, उनकी सोच व उनकी योजना का आकलन यहाँ करेंगे । माँ का सानिध्य 13 मार्च 1937 को ग्राम सुण्डाना, जिला रोहतक (हरयाणा) में माता पतोरी देवी की कोख से जन्मे एक शिशु ने जब चौ. प्रभुदयाल के घर में पहली किल्कारी भरी तो सबने आनन्दित होकर ईश्वर का उपकार माना । कुल छह भाई-बहनों में यह शिशु चूँकि ज्येष्ठ था अतः माता-पिता के इस आनन्द की सहज कल्पना की जा सकती है । इस ज्येष्ठता में ही इस शिशु की अग्रता, नेतृत्व क्षमता, पहल आगे चलकर देखने को मिलती है । प्रथम सन्तान होने के कारण माता-पिता का लाड़-प्यार सबसे अधिक उनको ही मिला । माँ के प्रति उनकी आसक्ति, आत्मीयता, श्रद्धा और सम्मान की भावना अधिक थी । बचपन से ही जब से उन्होंने होश संभाला यद्यपि वे सहज रहते थे लेकिन उनका गम्भीर व अन्तर्मुखी रहना प्रायः पिताजी को आशंकित किये रहता था । पढ़ाई के प्रति प्रारम्भ से ही उनकी रुचि थी । वे छरहरे शरीर के थे अतः तगड़ा होने के उपाय अपने ही गांव के परमा पहलवान से पूछा करते थे । शरीर को स्वस्थ, परिपुष्ठ और आकर्षक बनाने का यह शौक उनका बाद में इतना बढ़ गया कि एक-एक हजार दण्ड-बैठक लगाने लगे थे और सर्दियों में भी उनके शरीर से पसीना बहने लगता था । स्वाभाविक है कि उनकी यह लगन उनको बाद में ब्रह्मचर्य और योग के प्रशस्त पथ पर भी ले गई । शिक्षा के प्रति भी उनकी रुचि इतनी अधिक थी कि रात को वे स्कूल में ही सोया करते थे । उस युग के स्कूलों में एक अघोषित प्रतियोगिता चला करती थी कि परिणाम में अव्वल रहना है । क्लास टीचर्स भी अपनी क्लास का अच्छा से अच्छा रिजल्ट लाने के प्रति गम्भीर रहते थे । तब ट्यूशन का रिवाज बहुत की कम, न के बराबर था, लेकिन अध्यापक अतिरिक्त क्लास लेकर या रात्रि में विद्यार्थियों से अपने ही संरक्षण में अच्छी तैयारी कराया करते थे । अध्यापकों को पैसे की नहीं अपने विद्यार्थियों के बहतर परीक्षा परिणाम की चिन्ता रहती थी जिससे कि उनका यश, लोकप्रियता और विश्वसनीयता में इजाफा हो । ऐसे अध्यापकों का संरक्षण प्राप्त कर इन्द्रसिंह नाम का यह बालक आठवीं तक पढ़ गया । आठवीं में उसका वजीफा आ गया था । आगे पढ़ने के उसके मंसूबे बढ़े-चढ़े थे लेकिन घर की आर्थिक स्थिति आड़े आ गई । इन्द्रसिंह का जैसे ही आठवीं का परीक्षा परिणाम घोषित हुआ, उनके ताऊ जी ने कहा - इन्द्र ! कल से खेत में जाना शुरू कर दो । संयुक्त परिवार में ताऊजी के ऐसे आदेश का अर्थ इन्द्र जी भली-भाँति समझते थे । यह आदेश उनके मंसूबों पर वज्रपात था लेकिन उस जमाने में बच्चा अपने से बड़ों के सामने न तो सिर ऊँचा करके खड़ा हो सकता था और न ही जुबान लड़ा सकता था । यह हरयाणा की ग्रामीण पृष्ठभूमि के संस्कार थे जो बच्चे को जन्म-घुट्टी में ही पिला दिये जाते थे । इन्द्र जी बचपन में वैसे ही संकोची, शर्मीले व गम्भीर स्वभाव के थे अतः ताऊजी को जवाब कैसे दे सकते थे । लेकिन माँ उसके दर्द को समझ सकती थी, उसने समझा भी और जेठ के इस आदेश का विरोध किया । आर्यसमाज के प्रचार प्रसार के कारण सुदूर देहात में भी शिक्षा का महत्व समझा जाने लगा था । पुत्र जब वजीफा लेकर अपनी प्रतिभा का परिचय दे तो माता-पिता कैसे उसकी पढ़ाई पर प्रतिबन्ध लगा सकते थे । माता जी का यह विरोध इतना तूल पकड़ गया कि ताऊ जी भी अपनी मूँछ झुकाने को तैयार न हुए । परिणाम यह निकला कि नौबत घर के बँटवारे की आ गई और वह होकर रहा । अपने पुत्र के हित के लिए एक माँ कहाँ तक आगे जा सकती है यह इन्द्र जी ने पहली बार महसूस किया । लेकिन इस बँटवारे को भी वह सहजता से न ले सके । इस तरह के चलते विरोध से वे खिन्न अवश्य हुए । लेकिन उनकी माँ ने जिस साहस से अपने जेठ का विरोध किया उससे उनके बाल मन पर यह प्रभाव भी अंकित हुआ कि गलत बात के आगे मनुष्य को झुकना नहीं चाहिए और एक शुभ कार्य में विरोध चाहे किसी का भी हो उसका सामना साहस के साथ करना चाहिए । माँ के इस हृदय और साहस को उन्होंने अपने संस्कारों की पोटली में बाँधकर रख लिया । गुरुकुल झज्जर में प्रवेश गृहकन्या जैसे एक दिन वियोग की व्यथा तथा संयोग की सुखद अनुभूति का मिश्रित भाव लेकर बाबुल का घर छोड़कर ससुराल जाती है वैसे ही भाव-भावना के साथ इन्द्र जी अपने ही परिवार के हरके मास्टर के साथ माता-पिता से विदाई लेकर गुरुकुल झज्जर गये । इस बार का छूटा घर कभी फिर स्थायी निवास से लिए उन्हें नसीब नहीं होगा, इसका अनुमान सिवाय नियति के और कौन उस समय लगा सकता था । गुरुकुल में रहते हुए इन्द्र जी को दिन भर दवाइयाँ कूटनी पड़ती थीं जिसके लिए उन्हें कुछ वेतन भी मिलता था । प्रायः वे रविवार को माता-पिता से मिलने आते रहते थे । माता का दामन (घाघरा) उन्हें पसन्द नहीं था अतः सलवार पहनने और हिन्दी सीखने के लिए वे उनसे बराबर आग्रह करते रहते थे । घर जाते ही पिता जी के कार्य में हाथ बँटाना शुरू कर देते थे, घर-परिवार की जिम्मेदारी समझने व निभाने में वे अब भी कोई कोताही नहीं दिखाते थे । छोटे भाई ईश्वर सिंह को भी गुरुकुल की फार्मेसी में ले गये । उनके जहन में आयुर्वेद की एक बड़ी फार्मेसी लगाने का विचार उठ रहा था जिसके लिए वे ईश्वर सिंह को तैयार करना चाहते थे । गुरुकुलीय वातावरण का उन पर यथेष्ठ प्रभाव पड़ा । वे जब भी गाँव आते तो पूरे गाँव का चक्कर लगाकर बुजुर्गों से आशीर्वाद लेते और बच्चों पर स्नेह लुटाते । समवयस्कों को अच्छे संस्कार ग्रहण कर आर्यसमाज के लिए काम करने को प्रेरित करते । शुरू में इनके पिताजी हुक्का पिया करते थे । इन्द्र जी ने अपने पिताजी को भी धूम्रपान से होने वाली शारीरिक व्याधियों का उल्लेख इस ढ़ंग से किया कि उन्होंने भी हुक्का पीना छोड़ दिया । आज तो हालत यह है कि बाप और बेटा एक ही मेज पर बैठकर शराब की बोतल खोलते हुए नहीं लजाते । माता के साथ बैठकर अन्तरंग बातें करना, परिवार की समस्याओं का समाधान ढूंढना व भविष्य की योजना बनाना इन सबमें उनकी रुचि अभी तक बनी हुई थी जिससे कि इनकी माता परिवार में उनकी अनुपस्थिति को लेकर विचलित न हो । गुरुकुल फार्मेसी में कार्यरत रहते हुए ही उन्होंने आयुर्वेद की सभी परीक्षायें दिल्ली से उत्तीर्ण कीं, जिससे उनकी लगन, कुशाग्रबुद्धि व परिश्रमी स्वभाव का अनुमान लगाया जा सकता है । भविष्य के प्रति एक सार्थक आर्थिक दृष्टिकोण लेकर वे आगे बढ़ रहे थे । अपनी बहन राममूर्ति की सगाई उन्होंने ही की । इसी बीच इन्द्र जी का विवाह भी हो गया लेकिन गौपों की रस्म अभी नहीं हुई थी । तब अचानक एक ऐसी घटना घटी कि उनके भावी जीवन का काँटा ही बदल गया । मौत का साक्षात्कार - वैराग्य का प्रादुर्भाव अपने जीवन को मोड़ देने वाली इस घटना का उल्लेख स्वामी इन्द्रवेश जी अन्तरंग भेंट में यदा-कदा अपने आत्मीय जनों से कर दिया करते थे, अतः उनके ही शब्दों में इस घटना का उल्लेख करना अधिक सार्थक लगता है । उनके अपने शब्दों में - "एक दिन जब मैं औषधालय का कार्य निपटाकर गुरुकुलीय निवास पर शयन के लिए पहुँचा तो अचानक मेरा एक रूम-पार्टनर तख्त से नीचे गिर गया । उसके मुख से रक्त की अविरल धारा बहने लगी । हमारी समझ में नहीं आ रहा था कि तख्त से गिरने मात्र से किसी की ऐसी दयनीय अवस्था कैसे हो सकती है । उस समय जो भी सम्भव था उसे प्राथमिक उपचार दिया गया लेकिन खून का बहना बन्द नहीं हुआ । शायद उसके दोनों फेफड़े अन्दर से फट गये थे । तड़प-तड़प कर लगभग दो-ढ़ाई घण्टे में उसी कमरे में उसने प्रिय प्राण त्याग दिये । यह बीभत्स दृश्य देखकर मैं विचलित हो उठा । मेरे चित्त पर अंकित यह दृश्य मुझे गहराई तक साल गया । सचमुच मैं मृत्यु से भयभीत रहने लगा । मौत को लेकर न जाने कितने प्रश्न, शंकाएँ व जिज्ञासायें मुझे भीतर ही भीतर कुरेदने लगीं । मेरा उद्वेलित मन मौत पर गहन चिन्तन करने लगा । मनुष्य कहाँ से आता है, मत्यु क्यों आती है ? मृत्यु उपरान्त व्यक्ति कहाँ जाता है - इस तरह के ढ़ेर सारे प्रश्न मुझ पर दबाव बनाने लगे । इसे लेकर मानसिक रूप से अस्वस्थ रहने लगा ।" इन्द्र जी की इस समस्या को लेकर जब मनोचिकित्सकों का परामर्श लिया गया तो उन्होंने यह राय दी कि अधिक से अधिक मौत के दृश्य, अर्थी या चिता के दर्शन उन्हें कराये जायें । गुरुकुल झज्जर के निकटवर्ती क्षेत्र में जब भी कोई मौत होती तो इन्द्र जी को तत्काल सूचित किया जाता । उन दिनों सैंकड़ों मौतों के द्रष्टा इन्द्र जी रहे । मौत का दर्शन सहज होने के बजाय विवेक में परिवर्तित होता चला गया । प्रारब्ध एवं संचित कर्मों की श्रंखला ने इस घटना को उनके अन्तर मन में वैराग्य प्रादुर्भाव का ठोस आधार बना दिया । विचार उठा कि एक दिन मुझे भी मौत के इसी माध्यम से इस दुनिया से विदा होना होगा । यह भाव प्रबल होकर जीवन का लक्ष्य सामने आकर खड़ा हो गया । उन्हीं दिनों उनको कुछ विचित्र अनुभूतियाँ भी होने लगीं थीं जिसका उल्लेख करते हुए वे बताते थे कि इस घटना से कुछ पूर्व ही मुझे पूर्व जन्मों की झलक महसूस होने लगी थी, अतः इस घटना ने उन्हें और तीव्र एवं प्रभावी बनाने की भूमिका निभाई । इन्द्र जी इस सम्बन्ध में अपने स्थिति स्पष्ट करते हुए बतलाते हुए कहते थे - "मुझे ऐसा आभास होने लगा था कि ये सारी धरती, जमीन अब अपनी है । क्यों लोग अलग-अलग इसके बँटवारे में पड़े हुए हैं । मेरे कुछ साथी हैं ये बिछुड़ गये हैं लेकिन कहां गये मालूम नहीं । ये दो बातें यों तो मुझे बचपन से ही महसूस होती आ रही थीं लेकिन रूम पार्टनर की आकस्मिक मृत्यु ने उनका रंग और गहरा कर दिया था । मैं अब और अधिक स्पष्टता से समझने लगा था कि दुनिया का यह झमेला, रिश्ते-नाते, उठा-पटक सब व्यक्ति को उलझाये रखने के हेतु हैं । यह जीवन क्षणभंगुर है, नश्वर है, पानी का बुलबुला है और कहाँ, कब फट जाये कोई नहीं जानता । जीवन की डोर भले ही कितनी लम्बी हो लेकिन उसमें अनिश्चितता की गाँठें इतनी अधिक हैं कि कौन सी गाँठ कब खुल कर हमें मौत की नींद सुला दे, कुछ नहीं कहा जा सकता ।" उनके इन विचारों की आध्यात्मिक व्याख्या अथवा दार्शनिक मीमांसा करना भले ही सामान्य पाठक के लिए कठिन हो लेकिन इतना तो साफ है कि उनके रूम पार्टनर की यह नैमित्तिक घटना उनके पूर्वजन्म की पृष्ठभूमि को अवश्य दर्शाती है । जीवन में घटित मामूली-सी घटनाएँ जब व्यक्ति के जीवन का काँटा ही बदलकर रख दें तो निश्चय ही वे अदृश्य रूप में, अप्रत्यक्ष रूप में अवचेतन मन अथवा आत्मा पर पड़े पूर्वजन्मों के संस्कारों की भूमिका को दर्शाती हैं । सामान्य सी घटना का क्रान्तिकारी प्रभाव निश्चय ही पूर्वजन्मों के संचित कर्मों का आभास दिलाता है । रूम-पार्टनर की मौत के बाद इन्द्र जी ने सैंकड़ों लोगों को मरते देखा तब रूम पार्टनर की मौत ही उनकी मन-स्थिति को, उनके दृष्टिकोण को, उनकी सोच को ऐसे कैसे बदल गई कि परिवार के प्रति उनकी लगन, माता-पिता के प्रति उनका मोह, भाई-बहनों के प्रति उनकी जिम्मेदारी - इन सबके प्रति वे अनासक्ति भाव से एक ओतप्रोत कैसे हो गए? गुरुकुल में अन्य ब्रह्मचारियों की तरह वे भी वेद और उपनिषद् पढ़ते थे लेकिन विवेक-वैराग्य का उदय अचानक उनमें ही क्यों हुआ ? निश्चय ही प्रारब्ध और पूर्वजन्मों के संस्कार उन्हें एक जानी-पहचानी राह पर ले रहे थे और वे बिना किसी प्रतिरोध के कागज की नाव की तरह इस प्रवाह में बहते जा रहे थे । नैष्ठिक दीक्षा से पूर्व वैराग्य जगने पर इन्द्र जी अपने एक अभिन्न मित्र बलदेव के साथ एक दिन बिना किसी से बताये गुरुकुल से विलुप्त हो गए । घरवालों ने इधर-उधर काफी तलाश किया लेकिन उनका कुछ पता नहीं चला । चूँकि तब तक इन्द्र जी की शादी हो चुकी थी इसलिए पारिवारिक-जनों की चिन्ता स्वाभाविक थी । मां के प्रति उनका लगाव गहरा था, मां का न तो वे कहना टालते थे और न कभी उसे दुःखी देख सकते थे । लेकिन वैराग्य भावना, विवेक और अध्यात्म ने उनका यह आसक्ति भाव ही नष्ट कर दिया था । शायद जानबूझकर उन्होंने खुद को इस अग्नि-परीक्षा में डाला था जो उनके भवितव्य का संकेत देती है । इन्द्र जी ने बलदेव जी के साथ यह गुप्त अवधि बेरी के एक मन्दिर में एक विद्वान ब्राह्मण के पास विद्या अध्ययन और संस्कृत व्याकरण के निमित्त व्यतीत की थी । कुछ काल उपरान्त जब बलदेव जी इन्द्र जी के साथ गुरुकुल झज्जर लौट आये तो उनके लौटने की सूचना पिता जी को मिली । उनके लौटने से परिवार में भी खुशी लौट आई और उनके बारे में उठी शंकायें शनैः-शनैः स्वतः ही नष्ट होने लगीं । एक दिन जब इन्द्र जी गुरुकुल झज्जर की यज्ञशाला के निकट बैठे संध्या कर रहे थे तो उनके पिताजी ने उन्हें जा दबोचा और गृहस्थी का कर्त्तव्य बोध कराया । उन्होंने पुत्र को समझाया - इन्द्र ! तेरी शादी हो चुकी है, बहू का गौणा होने वाला है, घर लौट चलो । उन्होंने यहाँ तक कहा कि तुम्हारी बहू भी किसी की बेटी या बहन है और ऐसा वय्वहार कोई हमारी बेटी या बहन के साथ करे तो हमें कैसा लगेगा । अपने को या हमें इस धर्मसंकट में न डालो और घर लौट चलो । पिता और पुत्र के बीच पैदा हुए दुविधा के इन कठिन क्षणों की याद ताजा करते हुए एक बार स्वामी इन्द्रवेश जी ने बताया था - "मैं पिताजी का हृदय से सम्मान करता था । जब भी मिलते उनके चरण-स्पर्श करता था । आज भी संध्या से उठते ही उनके चरण स्पर्श किये । उनकी परेशानी को मैं समझ सकता था लेकिन मैं बहुत दूर निकल आया था अतः उनकी बातों को स्मित मुस्कान के साथ सुनता रहा, सहता रहा । मेरी दुविधा यही थी कि जो निर्णय मैं अपने भावी जीवन को लेकर ले चुका था उस निर्णय को सुनकर पिताजी को कष्ट होगा क्योंकि मैं उनका ज्येष्ठ पुत्र था और गृहस्थी की गाड़ी को खींचने के लिए उन्होंने मुझसे कई अपेक्षाएं रखी हुई थीं । उन अपेक्षाओं पर वज्राघात होते देख उनके दिल पर क्या बीतेगी इसी बात को लेकर मेरी चिन्ता बढ़ गई थी । यही कारण था कि उनका सामुख्य करने का साहस मैं नहीं बटोर पा रहा था । गौतम बुद्ध ने अपने पारिवारिक जनों का परित्याग तब किया था जब वे गहन निद्रा में सो रहे थे और आर्थिक रूप से सम्पन्न थे । लेकिन मेरे सामने एक लाचार पिता साक्षात् रूप में खड़ा था और निराश करने का मुझे अधिकार नहीं था लेकिन फिर न जाने साहस का झोंका मन के किस कोने से उठा और मैं पहली बार पिताजी के सामने तन कर खड़ा हो गया और यह कहते हुए मुझे तनिक भी संकोच या लज्जा का अनुभव न हुआ - पिताजी ! गृहस्थ का परित्याग कर नैष्ठिक ब्रह्मचर्य का जीवन जीने का मैंने जो फैसला लिया है वह मेरा अपना फैसला है जिसमें प्रारब्ध की अथवा पूर्व जन्म के संस्कारों की कोई भूमिका हो या नहीं लेकिन किसी अन्य व्यक्ति के कहने-सुनने या प्रेरित करने से मैंने यह फैसला नहीं लिया है । न जाने क्यों मुझे यह अहसास होता रहा है कि गृहस्थ-जीवन की कारागार में रहकर मैं वह सब कुछ नहीं कर सकता जो मुझे करना है । मुझे क्या करना है यद्यपि मुझे इसका कोई परिज्ञान नहीं है लेकिन जो राह मैने पकड़ी है वही मेरे जीवन को सार्थक बना सकती है इसकी गवाही मेरा दिल मुझे बार-बार दे रहा है । जिस अवस्था को मैं पार कर आया हूँ उसमें मुझे धकेलने से न आपको इष्ट की उपलब्धि होगी न मुझे । अतः जो आशा आप मुझसे रखे हुए हैं वह शेष भाईयों से पूरी कर सकते हैं । देश और समाज की सेवा के लिए यदि आप मेरा मोह छोड़ दें तो मुझे जन्म देने के बाद आपका यह मुझ पर दूसरा बड़ा ऋण होगा । पिताजी ! मैं यह कहने को विवश हूँ कि भले ही आप चाहें तो मेरी गरदन उतार कर ले जा सकते है लेकिन आपके साथ अब मेरा घर लौटना असम्भव है ।" स्वामी जी बतलाते हैं - "एक पुत्र का ऐसा कठोर उत्तर सुनकर पिताजी को पहली बार मैंने निराश व आशाहीन देखा । यह सब भ्रम और आसक्ति का ही परिणाम था । इससे मुझे एक प्रेरणा मिली कि यदि हम आध्यात्मिक जीवन जीना चाहते हैं तो हमें अपने किसी अभिन्न और आत्मीय जन से इतनी उपेक्षायें न रखनी चाहियें जिनके पूरा न होने पर हम भग्न-हृदय हो जायें और हमारी स्थिति बीच भंवर में फंसी बिना चप्पुओं वाली नाव जैसी हो जाये । पिताजी की स्थिति को मैं समझ सकता था कि उनकी मनोदशा युवा-पुत्र को शमशान की चिता पर छोड़ आये एक पिता तुल्य थी लेकिन मुझे इस बात पर सन्तोष था कि यह संसार में अपने ढ़ंग की पहली घटना नहीं थी । इससे पूर्व ऐसी असंख्य घटनाओं का साक्षी हमारा इतिहास रहा है । उस रात मैंने ऐसा महसूस किया कि जैसे मैं आकाश में स्वछंद उड़ रहा हूँ क्योंकि सत्य की राह पर चलने का संकल्प पहली बार जमीनी असलीयत बन सका था ।" पिताजी के इस प्रकार निराश लौटने से घर में शोक सा छा गया था । घर के किसी भी सदस्य ने ऐसी उम्मीद नहीं की थी कि परिवार पर हमेशा अपनी छत्रछाया रखने वाला इन्द्र इतना निर्मोही और उदासीन होकर इस प्रकार अपने पिताजी को निराश करेगा । इन्द्र में आये इस परिवर्तन को मां भी नहीं समझ पा रही थी अतः उसे अब भी यह विश्वास था कि वह घर लौट आयेगा । इसी ऊहापोह में उनके ताऊजी ने खुद गुरुकुल जाकर उसे घर लिवा लाने का प्रयास किया लेकिन दृढ़ता ने उन्हें भी बैरंग लौटा दिया । इस प्रकार ब्रह्मचारी इन्द्रसिंह ने पुत्रैषणा एवं वित्तैषणा का पथ प्रशस्त कर नैष्ठिक ब्रह्मचर्य का जीवन जीने का फैसला लिया । महाशय प्रभुदयाल जी जब इतने अस्वस्थ हो गये कि उनके अधिक दिन जीवित रहने की कोई आशा नहीं रही तो इन्द्र सिंह को, जो आचार्य भगवानदेव से नैष्ठिक ब्रह्मचर्य की दीक्षा लेकर इन्द्रदेव मेधार्थी कहलाने लगे थे, उनके मरणासन्न होने का समाचार दिया गया । मेधार्थी जी ने तुरन्त साईकिल उठाई और सांझ होते-होते गुरुकुल झज्जर से अपने गांव सुण्डाना पहुँचे । पिताजी ने गर्वोन्मत्त होकर अपने पुत्र को नैष्ठिक ब्रह्मचारी के रूप में देखा और बोले - "बेटा ! अब तूने यह लाइन पकड़ ही ली है तो अब इसको दृढ़मना होकर निभाना है । हमें कहीं तू बदनाम मत कर देना ।" मेधार्थी जी ने अपने पिताजी को आश्वस्त करते हुए कहा - "नहीं पिताजी, आप निश्चिन्त होकर प्रस्थान करें । मैंने यह रास्ता स्वेच्छा से, दृढ़ संकल्प होकर अपनी आत्मा की आवाज से चुना है किसी के कहने से अथवा किसी लोभ से प्रेरित होकर नहीं चुना । मैं आपको कभी बदनाम नहीं होने दूँगा ।" पिता और पुत्र की यह अन्तिम भेंट थी । उसी रात महाशय प्रभुदयाल जी ब्रह्मलीन होकर इस संसार से विदा हो गये । यह अन्तिम भेंट भी शायद किसी निहितार्थ का संकेत कर रही थी जिसे मेधार्थी जी ने समझने का प्रयास किया । यज्ञ वेदी पर दीक्षा लेते हुए भले ही उन्होंने कुछ संकल्प लिये होंगे, इस अन्तिम भेंट में पिताजी को जो आश्वस्ति उन्होंने दी उसका एक अलग ही महत्त्व था । पिता-पुत्र की इस अन्तिम भेंट की वचनबद्धता इन्द्र की को आजीवन स्मरण रही और वे दृढ़ता से अपने पथ पर आरूढ़ रहे । नैष्ठिक ब्रह्मचर्य की दीक्षा लेने के पश्चात् इन्द्रदेव मेधार्थी गुरुकुल झज्जर में ही अध्यापन कार्य कराने लगे थे । आचार्य भगवानदेव के प्रिय व विश्वासपात्र शिष्यों में एक वह भी थे अतः गुरुकुल के प्रधानाचार्य का पद भी उन्हें सौंप दिया गया था । सन् 1964-66 की यह अवधि रही थी । पारिवारिक सदस्य वर्ष में दो बार उनसे मिलने गुरुकुल में अवश्य आते थे । इनमें माता जी के साथ उनके छोटे भाई-बहन भी होते थे । स्वामी जी इस तरह की मुलाकात को स्वभावतः पसन्द नहीं करते थे लेकिन माँ विधवा हो चुकी थी और भाई-बहन छोटे थे इसलिए यह सोचते हुए कि मुझसे मिलकर उन्हें कुछ उत्साह, ऊर्जा और सन्तुष्टि मिलती है, उन्होंने नापसन्दगी कभी जाहिर नहीं होने दी । उस समय गुरुकुल के वार्षिकोत्सव पर मेधार्थी जी गज मोड़ना, गाड़ी रोकना, शीशे हाथों से रगड़ना आदि व्यायाम प्रदर्शन भी किया करते थे जिन्हें देखकर सैंकड़ों दर्शकों के साथ-साथ उनके पारिवारिक जन भी आल्हादित होते थे । ऐसे ही किसी अवसर पर माता जी अपने पुत्र के लिए गुलगुले और सुहाली बनाकर लाई जो उनकी विशेष पसन्द थी । हमेशा की तरह रात को जब मेधार्थी जी माता जी से मिलने अतिथिशाला में पहुँचे तो मां ने अपनी पोटली खोलकर बेटे के सामने रख दी । मां के इस प्यार पर तो वे मुग्ध हुए लेकिन उन्होंने इन व्यंजनों को मात्र चख कर पोटली बांध कर वापस लौटा दी । मां ने पूछा - क्या स्वाद नहीं है ? मेधार्थी ने उत्तर दिया - मां के हाथ की बनी चीज अच्छी न बने ये तो कभी हो ही नहीं सकता । लेकिन मां ! गुरुकुल के नियमानुसार मैं इन्हें खा तो नहीं सकता । फिर मां, तू रोजाना तो यहां आयेगी नहीं और फिर जीभ दोबारा गुलगुले मांगेगी तो मुश्किल होगा । माता को इतने प्यार से समझाकर भी उन्होंने उसे निराश नहीं किया और वह पोटली पाकशाला में ले गये जिससे ब्रह्मचारी इकटठे बैठकर इनका रसास्वादन कर सकें । इस स्नेहमयी माता का वरदहस्त हमेशा इन्द्र जी के सिर पर रहा भले ही उन्होंने नैष्ठिक ब्रह्मचर्य की दीक्षा ली हो या फिर संन्यस्त जीवन की दीक्षा । पुत्र का रूप चाहे जो हो मां की ममता तो उसे एक ही पैमाने से नापती है । माता जी जब अन्तिम बार बीमार पड़ी तो उसने पुत्र से मिलने की इच्छा प्रकट की । तब इन्द्र जी रोहतक जेल में थे । बहन वीरमति और भाई राजपाल माता जी को लेकर जेल पहुँचे । रास्ते में उसे समझाते रहे कि भाई से मिलकर रोना नहीं, हमें भी कष्ट होगा और उनको भी । देश और समाज के लिए वे बढ़िया काम कर रहे हैं, बड़े-बड़े नेताओं के बीच बैठते हैं, अखबारों में खूब नाम आता है । पुत्र से मां की जब मुलाकात हुई तो मां और बेटे दोनों के नेत्र बरबस सजल हो उठे । मां बोली - इन्द्र ! पता नहीं अब जीऊंगी या नहीं इसलिए मिलने चली आई । तेरा बड़ा नाम है बेटे, यह सुनकर मेरी छाती सवाई हो जाती है । तेरे काम को अब मैंने समझ लिया है, तू दूसरों के लिए जी रहा है और अच्छा काम कर रहा है । मैं बहुत खुश हूँ और चाहती हूँ तू मेरे मन से इस काम को करता रह ।" मां के इन बोलों से इन्द्र जी भी गदगद हो गये और मां से लिपट कर उन्हें ऊपर गोद में उठा लिया और कहा - 'देख मेरी मां, आज तूने कितनी बड़ी बात कह दी, बहुत बढ़िया मां, बहुत बढ़िया । आज मैं दुनिया का सबसे खुशनसीब आदमी हूँ ।' मां और बेटे की यह भेंट अन्तिम सिद्ध हुई जैसी कि मां ने आशंका प्रकट की थी । कुछ समय पश्चात् उनका निधन हो गया । मां के निधन की सूचना देने उनका भाई राजपाल ही रोहतक आया था । उस समय स्वामी इन्द्रवेश जी सुभाष नगर कार्यालय रोहतक में अग्निवेश जी, आदित्यवेश जी, शक्तिवेश जी आदि के साथ अन्तरंग बैठक में बैठे थे । स्वामी इन्द्रवेश जी को जगवीर जी के द्वारा बाहर बुलाया गया तो भाई राजपाल ने रोते हुए सूचना दी - माता जी चल बसी है । स्वामी जी ने भाई को ढ़ांढस बंधाते हुए कहा - 'जाना तो एक दिन हम सबने है । माता जी भरा-पूरा परिवार छोड़कर गई है । अरे तुम तो बहुत बहादुर हो । अपनी पढ़ाई में मन लगाना । माता जी बहुत बड़ी आत्मा थी । मेहनती और समझदार थी । बीमारी की वजह से अब उनका समय आ गया था ।' इतना कहकर स्वामी इन्द्रवेश जी तुरन्त भीतर जाकर बैठक में जा बैठे, जैसे कुछ हुआ ही नहीं था । स्वामी इन्द्रवेश जी की इस उदासीनता और बेरुखी ने भाई राजपाल को निराश नहीं किया क्योंकि वे पहले भी इसके भुक्तभोगी रह चुके थे । तब वे गुरुकुल झज्जर के ब्रह्मचारी थे । आचार्य बलदेव जी प्रायः इन्द्र जी के परिवार में जाते रहते थे और एक-एक महीना भी वहां रह आया करते थे । उनके माध्यम से ही पारिवारिक जनों की इन्द्र जी से भेंट हुआ करती थी । उनकी प्रेरणा से भाई राजपाल गुरुकुल झज्जर में पढ़ने आये थे । तब इन्द्र जी गुरुकुल छोड़ चुके थे । हाँ, वे प्रायः गुरुकुल में आया करते थे । उस समय उनके पास जीप-गाड़ी नहीं थी । पैदल ही पीठ पर खाखी रंग का थैला लटकाये वे गुरुकुल आया करते थे । उनके आते ही रौनक सी लौट आती थी । ब्र. राजपाल नया-नया गुरुकुल में आया था । जब वह इन्द्र जी से मिलता तो वे तपाक से कहा करते थे - ब्रह्मचारी जी का क्या हाल है, और जोर से हँसते थे । एक दिन प्रातः ही जब अन्तेवासियों से विदा होकर वे मुख्य द्वार पर पहुँचे तो बालक राजपाल को, जब उनकी आयु 10-11 वर्ष की रही होगी, न जाने क्या सूझी कि वह शोर मचाते मुख्य द्वार की ओर भागने लगा । उसके पीछे गुरुकुल के मुख्याध्यापक आचार्य यशपाल जी भागे । इन्द्र जी को पकड़ कर राजपाल ने कहा - मैं भी आपके साथ चलूंगा । यह भ्रातृभाव की आसक्ति थी अथवा खून का रिश्ता, कोई भी समझ नहीं पा रहा था । इन्द्र जी ने पांच मिनट अपने अनुज से संवाद किया और कहा - 'मुझे तो खुद नहीं मालूम मैं आज कहाँ जाऊँगा । मैं घर थोड़े ही जा रहा हूँ ।' फिर उन्होंने पूछा - मां कब-कब आती है और घर से और कौन-कौन आते हैं । प्यार से उन्होंने अपने अनुज को ऐसा समझाया कि उसका मन गुरुकुल में रम गया । समझाने की उनकी शैली में इतनी सरलता, स्निग्घता और सात्विकता थी कि उसी साल राजपाल ने अष्टाध्यायी को कण्ठस्थ कर सुनाया जो कठिन कार्य था । इन्द्र जी के इस बल का लोहा परिवार वाले भी मानते थे कि सरलता और आत्मीयता से वह इंसान का पानी बना देते थे लेकिन अगले ही क्षण वे उदासीन भाव लिये, विरक्ति लिये अपने को झट से विलग कर लिया करते थे और उनकी आंखें दूर क्षितिज में कुछ ढूंढने का प्रयास करतीं दिखने लगती थीं । गुरुकुल झज्जर में प्रो. श्यामराव इन्द्रदेव मेधार्थी जी के जीवन में एक नया मोड़ तब आया जब प्रो. श्यामराव जी व उनकी भेंट गुरुकुल झज्जर के परिसर में सन् 1966 में पहली बार हुई । प्रो. श्यामराव कलकत्ता के जेवियर कालेज में कामर्स एवं बिजनेस मैनेजमैन्ट के प्राध्यापक थे । मेधार्थी जी उन दिनों गुरुकुल झज्जर के प्रधानाचार्य थे । यह भेंट पूर्व निर्धारित नहीं थी और न ही इन दोनों में पहले कभी पत्राचार ही हुआ था । इन दोनों की भेंट मणि-कांचन का संयोग अथवा सोने पर सुहागा इस लोकोक्ति को सिद्ध कर गया । यदि यह भेंट न होती तो प्रो. श्यामराव और इन्द्रदेव मेधार्थी हजारों गुमनाम आर्यसमाजी बुद्धिजीवियों की तरह गुमनामी के अंधेरे में पड़े इस संसार से विदा हो जाते । इस भेंट के कारण न केवल इन दोनों के जीवन का काँटा बदल गया बल्कि आर्य समाज के इतिहास में आगे चलकर एक नया अध्याय ही रच गया । जिस तरह से यह भेंट हुई उसे जान कर ऐसा लगता है कि यह सब परमात्मा और नियति का ही रचा हुआ एक खेल था अन्यथा कहाँ कलकत्ता और कहां झज्जर, कहां कलकत्ता का कालेज और कहां गुरुकुल झज्जर, कहाँ एक अंग्रेजी में धाराप्रवाह बोलने वाला प्रोफेसर और कहाँ एक गुरुकुल का आचार्य, कहां कोट-पैंट और कहां कटि-वस्त्र, न भाषा का मेल और न संस्कारों का मेल । तब यह कैसे सम्भव हुआ कि इन दोनों में इतनी प्रगाढ़ मैत्री हो गई कि आग और पानी इकट्ठा हो गये, गांव और शहर में एका हो गया, पैंट और कटि वस्त्रों का भेद मिट गया । अंग्रेजी और संस्कृत का राम-भरत मिलन हो गया । न जाने कितनी भविष्यवाणी, जो इन दोनों को लेकर की जाती रहीं, एक-एक कर झूठी सिद्ध होती रही लेकिन फिर भी ये दो आत्माएं जुदा न हुईं, कभी दोनों में खटास पैदा नहीं हुई, दो रेलवे लाइनों की तरह समानान्तर भूमिका में रहते हुए भी कभी एक-दूसरे से दूर नहीं हुए बल्कि एक-दूसरे का पूरक बनकर एक ने दूसरे से बढ़कर आर्यसमाज के इस नये अध्याय का सूत्रपात किया । निश्चय ही यह कहानी न केवल रोचक है बल्कि प्रेरणा-दायक और अनुकरणीय भी है । विशेषतः उन लोगों के लिए, उन नेताओं के लिए, उन सामाजिक कार्यकर्त्ताओं के लिए जो छोटे-छोटे स्वार्थों को लेकर, नेतागिरि को लेकर, पदों को लेकर, वर्चस्व को लेकर न केवल रातों-रात पाला बदल लेते हैं, न केवल एक-दूसरे के विरोध में आमने-सामने आ खड़े होते हैं, बल्कि एक-दूसरे की कड़ी भर्त्सना करने और एक-दूसरे का अस्तित्व तक मिटा देने तक की स्थिति में भी आ जाते हैं । इन दोनों के स्वभाव में, प्रकृति में, इतना अन्तर था कि एक तेजाब में बुझा हुआ था तो दूसरा गोमुख से निकली जलधारा के समान शीतल । लेकिन फिर भी इनमें मैत्री हो सकी, मधुर पारस्परिक सम्बन्ध आजीवन बने रह सके, लम्बे सार्वजनिक जीवन में कभी दरार या कटुता न आ सकी तो इसे नियति के विचित्र खेल की संज्ञा ही दी जा सकती है, पूर्व जन्म के संस्कारों का उदय होना भी माना जा सकता है । इन दोनों के संबन्धों की तह में जाकर यदि अध्ययन किया जाये तो निष्कर्ष यह निकलता है कि इस अटूट रिश्ते की बुनियाद समान ध्येय पर टिकी हुई थी और वह ध्येय था आर्यसमाज के यश व कीर्ति को बढ़ाना, उसे यथायस्थितिवाद से मुक्त कराना, उसे चारदीवारी की कैद से मुक्त कराकर समाज से जोड़ना, उसे बजाय एक जीवन-शैली बनाने के चहुँमुखी क्रान्ति का आधार बनाना, उसे बजाय सम्प्रदाय बनाये रखने के एक सजीव आन्दोलन का स्वरूप प्रदान करना, उसे बजाय यज्ञ-संध्या तक सीमित रखने के एक ऐसी समग्रता प्रदान करना, एक ऐसी पूर्णता प्रदान करना जिससे देश-विदेश का हर नागरिक न केवल प्रभावित हो बल्कि उसे आत्मसात भी कर सके । प्रश्न यह नहीं उठता कि इस दिशा में वे सफल कितने हुए बल्कि देखना यह है कि इस दिशा में वे कहीं भटके तो नहीं, उनकी ईमानदारी व निष्ठा में कहीं कोई कमी तो नहीं आई, उनके स्वार्थ कहीं आपस में टकरे तो नहीं । इस प्रश्न का उत्तर हमें तब मिला जब 12 जून 2006 को स्वामी इन्द्रवेश जी का अंत्येष्टि संस्कार खुद स्वामी अग्निवेश जी ने भरे मन और सजल नेत्रों से उनकी चिता को मुखाग्नि देते हुए स्वयं कराया । चालीस वर्षों के सार्वजनिक जीवन यह सुखद अंत निश्चय ही निराला था, विरल था, आदरणीय था, गौरवशाली था । आर्यसमाज के इतिहास का यह ऐसा अध्याय है जो न केवल सदियों तक याद रखा जायेगा । बल्कि आने वाली पीढ़ियाँ उनसे सबक भी लेती रहेंगी । इसलिए इस अध्याय का अध्ययन पाठकों को तटस्थ रह कर करना होगा । ईमानदारी से करना होगा, नीर-क्षीर विवेक से करना होगा जिससे कि आर्य समाज की नींव को मजबूती मिल सके, उसकी कमजोर दीवारों को सहारा मिल सके, उसके धूल खाये कलश को चमक मिल सके । स्वामी इन्द्रवेश और स्वामी अग्निवेश की जोड़ी को जिन लोगों ने आलोचक भाव से जानने या समझने का प्रयास किया, उन्होंने निश्चय ही न केवल खुद धोखा खाया है बल्कि दूसरों को भी धोखा देने की कौशिश की है । इन आलोचक महानुभावों ने उनके भीतर झांकने का कभी प्रयास नहीं किया क्योंकि वे खुद इस योग्य कभी रहे नहीं कि तटस्थ रह कर ऐसा कर सकें । उन्होंने उस पृष्ठभूमि को भी समझने का प्रयास नहीं किया जिन्होंने इन दो शरीरों को एक आत्मा बनाये रखा । उनके मंसूबों को समझने का ईमानदाराना प्रयास वे नहीं कर सके । आर्यसमाज के माध्यम से जिस समग्र क्रान्ति का स्वप्न संजोकर उन्होंने संकल्प लिया था वह संकल्प यदि पूरा न हो सका तो इसमें दोष उनका नहीं है बल्कि उनका है जो जीवन भर उनसे विरोध जताते रहे, उनके रास्ते में काँटे बिछाते रहे, उनके सामने दीवार बनकर खड़े होते रहे महज इस कारण कि उनकी नेतागिरी पर आँच न आये, उनके नीचे से कहीं उनकी कुर्सी न खिसक जाये, उनकी गुटबन्दी का कहीं शिराजा न बिखर जाये । जिन उद्देश्यों को लेकर वे आर्यसमाज में आये हैं वे कहीं धराशायी न हो सकें । जो पाठक इस औंधी सोच के कभी शिकार नहीं रहे वे निश्चय ही उस अध्याय पर गर्व कर सकेंगे जो इन दो तेजस्वी आत्माओं ने अपने खून और पसीने से लिखा है । सामाजिक जीवन की शुरुआत दोनों ही नेताओं ने एक दूसरे का पूरक बनकर अपने सामाजिक दायित्व को निभाया । सन् 1967 में सार्वदेशिक आर्य युवक परिषद के नाम से युवकों का संगठन बनाकर कार्य प्रारम्भ किया । उनके साथ उसी समय स्वामी आदित्यवेश (पूर्व नाम आचार्य रामानन्द), स्वामी शक्तिवेश (पूर्व डॉ. कृष्णदत्त), ब्र. कर्मपाल, प्रो. उमेदसिंह, प्रो. बलजीत सिंह आर्य, मा. धर्मपाल आर्य, ओमप्रकाश पत्रकार, स्वामी विवेकानन्द, स्वामी योगानन्द, मनुदेव आर्य, राजसिंह आर्य आदि अनेक युवक कार्यक्षेत्र में उतरे तथा आर्य जगत में युवक क्रान्ति अभियान के नाम से एक नया अध्याय शुरू हो गया । फिर 1968 में आपने युवक क्रान्ति अभियान के शंखनाद के रूप में राजधर्म नाम से पाक्षिक पत्र भी उसी समय प्रारम्भ कर दिया जो अभी तक निरन्तर निकल रहा है । युवकों को संगठित करने एवं जनसामान्य तक अपनी बात पहुँचाने के लिए 1967 में गुरुकुल झज्जर को छोड़ दिया तथा कुरुक्षेत्र से दिल्ली तक की पदयात्रा का ऐतिहासिक आयोजन किया । यह यात्रा सैंकड़ों गांवों, कस्बों व नगरों से होती हुई पन्द्रह दिन बाद दिल्ली के ऐतिहासिक लालकिले के समक्ष जलती मशाल हाथों में लेकर आर्य राष्ट्र की स्थापना के संकल्प के साथ सम्पन्न हुई । सन् 1969 में हरयाणा की जनता के द्वारा छेड़े गए चण्डीगढ़ आन्दोलन में युवावर्ग का नेतृत्व करते हुये स्वामी इन्द्रवेश व उनके साथी जेल गये । रोहतक सेन्ट्रल जेल में ही उन्होंने अपने अभिन्न साथी स्वामी अग्निवेश के साथ सन्यास लेने का संकल्प लिया । 7 अप्रैल 1970 को दयानन्द मठ रोहतक में स्वामी इन्द्रवेश जी ने स्वामी अग्निवेश एवं स्वामी सत्यपति के साथ वेदों के प्रकाण्ड विद्वान स्वामी ब्रह्ममुनि जी से सन्यास की दीक्षा ली । उसी दिन स्वामीद्वय ने आर्य राष्ट्र के निर्माण का संकल्प लेते हुए आर्यसभा नाम से राजनैतिक पार्टी की भी स्थापना कर ली तथा सक्रिय राजनीति में उतर गये । 1972 में विधानसभा के चुनावों में आर्यसभा के दो विधायक चुने गये तथा आर्यसभा हरयाणा की सर्वाधिक वोट प्राप्त करने वाली विपक्षी पार्टी बन गई । सन् 1973 में किसान संघर्ष समिति का गठन करके गेहूँ के भाव को लेकर जबरदस्त आन्दोलन शुरू किया । गेहूँ का भाव बढ़वाने के लिये दिल्ली के बोट क्लब पर संसद के समक्ष आमरण अनशन किया तथा गेहूँ का भाव 76 रुपये से 105 रुपये करवाने में सफलता प्राप्त की । सन् 1974 में आर्यसमाज की सर्वाधिक सशक्त सभा आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब जिसमें दिल्ली, हरयाणा, पंजाब की आर्य समाजें, शिक्षण संस्थायें व गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय, कन्या गुरुकुल देहरादून, गुरुकुल काँगड़ी फार्मेसी आदि सम्मिलित थीं, के चुनाव में प्रधान चुने गये तथा गुरुकुल कांगड़ी के कुलाधिपति बने । यह चुनाव हाईकोर्ट की देखरेख में संपन्न हुआ था । सन् 1975 में लोकनायक जयप्रकाश नारायण द्वारा छेड़े गये आन्दोलन में हरयाणा जनसंघर्ष समिति के अध्यक्ष के रूप में जे. पी. ने स्वामी जी को आन्दोलन की बागडोर सौंपी । इस समिति में चौ. देवीलाल, स्वामी अग्निवेश, डा. मंगलसेन, मनीराम बागड़ी, चौ. शिवराम वर्मा, बलवन्तराय तायल, पं. श्रीराम शर्मा, चौ. चाँदराम, चौ. मुखत्यारसिंह, चौ. धर्मसिंह राठी आदि हरयाणा के समस्त दिग्गज नेता सदस्य थे । सन् 1975 में आपातकाल के दौरान मीसा के अन्तर्गत नजरबंद किये गये । इमरजेंसी के बाद आर्यसभा का अन्य सभी पार्टियों की तरह जनता पार्टी में विलय कर दिया गया तथा सन् 1980 के लोकसभा चुनाव में आप रोहतक से लोकदल के टिकट पर सांसद चुने गये । सन् 1986 में राजीव-लोंगोवाल समझौते एवं पंजाब में फैल रहे उग्रवाद के खिलाफ छोटूराम पार्क रोहतक में आपने 21 दिन की भूख हड़ताल की । अनशन समाप्ति पर तत्कालीन आर्यनेता लाला रामगोपाल शालवाले जूस पिलाने के लिए पधारे । सन् 1992 में शराबबन्दी आन्दोलन की शुरुअत की तथा पूर्ण शराबबन्दी लागू होने तक सफलता के साथ नेतृत्व किया । सन् 1993 में दिल्ली से हिसार की शराबबन्दी पदयात्रा का नेतृत्व किया । इस यात्रा में लगभग पांच हजार स्त्री-पुरुष सम्मिलित हुये जो सूदूर महाराष्ट्र व गुजरात तक से आये थे । यात्रा के विराट रूप को भांप कर हरयाणा सरकार कांप उठी थी । सन् 2001 में आर्य प्रतिनिधि सभा हरयाणा के प्रधान निर्वाचित हुये । वर्तमान में आप आर्य विद्यासभा गुरुकुल कांगड़ी के प्रधान पद को सुशोभित कर रहे थे । विविध गतिविधियाँ 1. अपने जीवन की विशेष योजना को मूर्तरूप देते हुए स्वामी जी ने सैंकड़ों लोगों को सन्यास, वानप्रस्थ एवं नैष्ठिक ब्रह्मचर्य की दीक्षायें दीं तथा हजारों योग्य एवं शिक्षित युवकों को आर्यसमाज में दीक्षित किया । 2. ब्रह्मचर्य, व्यायाम प्रशिक्षण एवं युवानिर्माण शिविरों के माध्यम से पूरे देश में युवक क्रान्ति अभियान चलाया त्था आर्यसमाज में नया जीवन फूँका । शिविरों के माध्यम से लाखों युवकों को आर्यसमाज से जोड़ा । 3. पदयात्राओं, शिविरों, व्यायाम-प्रदर्शनों व जनचेतना यात्राओं के माध्यम से आर्य समाज का प्रचार करने की परम्परा उन्होंने ही प्रारम्भ की । 4. गुरुकुल मटिण्डू (सोनीपत) के वे बहुत लम्बे समय तक प्रधान रहे तथा आचार्य यशपाल प्रधानाचार्य रहे । इसी प्रकार सन् 1978 से 1985 तक गुरुकुल सिंहपुरा-सुन्दरपुर जिला रोहतक का संचालन कर संस्था को चार चाँद लगाये जो हरयाणा की समस्त आर्यसामाजिक गतिविधियों का केन्द्र बना हुआ था । गुरुकुल सिंहपुरा-सुन्दरपुर (रोहतक) में महर्षि दयानन्द साधु आश्रम एवं गोशाला के भवन का निर्माण कराया एवं गुरुकुल को उन्नति के शिखर पर पहुँचाया । उस समय गुरुकुल के आचार्य स्वामी चन्द्रवेश जी, व्यवस्थापक श्री जगवीर सिंह तथा प्रधान चौ. रघुवीर सिंह सिंहपुरा थे । 5. उत्तरप्रदेश के केवलानन्द निगमाश्रम गंज बिजनौर में छह सौ बीघा भूमि एवं विशाल आश्रम है । आश्रम के अन्तर्गत संस्कृत महाविद्यालय, बी. एड. तथा नर्सिंग कालेज, विशाल गऊशाला एवं खेल स्टेडियम आदि संस्थान संचालित हो रहे हैं । यह आश्रम स्वामी सुखानन्द जी महाराज ने सन् 1986 में स्वामी इन्द्रवेश जी को सौंप दिया था, जिसका संचालन पूज्य स्वामी इन्द्रवेश जी अभी तक कर रहे थे । इसी आश्रम की एक शाखा गंगा डेरा छींटावाला (पटियाला) पंजाब में स्थित है जो आपके निर्देशन में स्वामी ब्रह्मवेश चला रहे हैं । केवलानन्द निगमाश्रम के विशाल संस्थान का संचालन आपके कर्मठ एवं सुयोग्य शिष्य स्वामी ओमवेश जी कुशलता के साथ कर रहे हैं । 6. महर्षि दयानन्द धाम अमृतसर (पंजाब), महर्षि दयानन्द धाम मिर्जापुर (फरीदाबाद), महर्षि दयानन्द प्राकृतिक एवं योग चिकित्सा आश्रम जीन्द, महर्षि दयानन्द धाम बरगड़ (उड़ीसा) आदि केन्द्र स्वामी इन्द्रवेश जी की प्रेरणा से अपने अपने क्षेत्र में वेद प्रचार एवं सेवा का ठोस कार्य कर रहे हैं । 7. स्वामी जी की अध्यक्षता में गठित वेदप्रचार आयोजन समिति के तत्वाधान में वर्ष 1986 में कुम्भमेला हरद्वार में चालीस दिन का वेदप्रचार शिविर लगाया गया जिसमें गाय के घी से चतुर्वेद पारायण यज्ञ, विभिन्न सम्मेलन, योग शिविर, ऐतिहासिक शोभायात्रा एवं शास्त्रार्थ की चुनौति देकर पौराणिक जगत् में हलचल पैदा की, 1986 के वेदप्रचार शिविर से पूर्व कुम्भ मेले में आर्य समाज का शिविर लगभग 60 साल पहले लगा था । स्वामी जी द्वारा प्रारम्भ किये गये उक्त क्रान्तिकारी कार्यक्रम को अभी तक प्रत्येक कुम्भ मेले में चलाया जा रहा है । सन् 1986 के कुम्भ मेले पर स्वामी प्रकाशानन्द व स्वामी योगानन्द सहित दस सन्यासी बने थे । 8. हरयाणा में आर्यसमाज की छावनी के रूप में विख्यात दयानन्द मठ रोहतक के प्रधान बनाये जाने के बाद आपने 1999 से मासिक सत्संग का अनोखा कार्यक्रम प्रारम्भ किया तथा जीवन के अन्तिम क्षण तक बखूबी निभाया । आखिरी सत्संग 4 जून 2006 को हुआ जो 81वां था । उनकी प्रेरणा से श्री सन्तराम आर्य उक्त सत्संग का संयोजन सफलता के साथ कर रहे हैं । 9. वैदिक धर्म के प्रचारार्थ स्वामी जी देश एवं विदेश में निरन्तर भ्रमण करते थे । सन् 1983 में महर्षि दयानन्द बलिदान शताब्दी समारोह दिल्ली की तैयारी हेतु आप व स्वामी अग्निवेश जी हालैंड, जर्मनी, अमेरिका आदि देशों में आर्यजनों को प्रेरित करने पहुँचे । इसी तरह सन् 1997 में स्वामी जी श्री विरजानन्द जी महामन्त्री सार्वदेशिक आर्य युवक परिषद को साथ लेकर अमेरिका गये, जहां उन्होंने अनेक शहरों में वेदप्रचार के लिए व्याख्यान दिये । उसी दौरान वे हालैण्ड आदि देशों में भी गये । वर्ष 2000 में पुनः परिषद के प्रधान श्री जगवीर सिंह को सथ लेकर पहले अमरीका व कनाडा गये तथा बाद में हालैंड, जर्मनी व इंग्लैंड भी गये । इसी वर्ष आर्य समाज नैरोबी (केनिया) में आर्यसमाज के कार्यक्रम के लिए लगभग पन्द्रह दिन लगाकर आये । इस साल जुलाई 2006 में भी उनका कार्यक्रम अमेरिका जाने का बना हुआ था किन्तु 12 जून 2006 को उनका देहावसान हो गया । अमेरिका में उनकी प्रेरणा से एक आश्रम के निर्माण की तैयारी थी । अमेरिका में स्वामी जी के बहुत सारे सहयोगी हैं जिनसे सम्पर्क का माध्यम श्री चन्द्रभान आर्य एवं लक्ष्मी आर्य हैं । सन् 1983 में अन्तर्राष्ट्रीय महर्षि दयानन्द बलिदान शताब्दी समारोह रामलीला मैदान, नई दिल्ली में आयोजित किया गया जिसकी अध्यक्षता स्वामी इन्द्रवेश जी ने की । इस अवसर पर स्वामी ओमवेश व स्वामी दिव्यानन्द सहित लगभग चौदह लोगों ने वानप्रस्थ एवं सन्यास की दीक्षा ली थी । पांच अन्तर्जातीय शादियाँ भी सम्पन्न कराई गई थी जिन्हें पूर्व प्रधानमन्त्री चौ. चरणसिंह जी ने प्रमाणपत्र एवं सम्मान प्रदान किया था । सन् 1987 में रूपकंवर को जबरन सती करने के विरुद्ध दिल्ली से देवराला की ऐतिहासिक पदयात्रा जो स्वामी अग्निवेश जी के नेतृत्व में निकाली गई थी, में भी स्वामी इन्द्रवेश जी की विशेष प्रेरणा रही । सन् 1987 में ही दिल्ली से पुरा महादेव (मेरठ) तक आयोजित पदयात्रा का संरक्षण स्वामी इन्द्रवेश जी ने किया । यह यात्रा भी पुरी के शंकराचार्य निरंजन देव तीर्थ को सती के सवाल पर शास्त्रार्थ की चुनौति देने के लिए आयोजित की गई थी । इस कार्य में पूरे आर्य जगत में नई ऊर्जा पैदा हुई थी । बागपत में मायात्यागी काण्ड के बाद ग्यारह सौ सत्याग्रहियों के साथ सत्याग्रह करके एक महीने तक बरेली जेल में रहे तथा बाद में हरयाणा लोक संघर्ष समिति के माध्यम से हरयाणा में जोरदार जेल भरो आन्दोलन चलाया । विदित हो कि मायात्यागी को पुलिस ने भरे बाजार में नंगा करके घुमाया तथा अपमानित किया था जो महिलाओं पर किये जाने वाले अत्याचार का ज्वलन्त उदाहरण था । 10. स्वामीजी के स्वास्थ्य में निरन्तर गिरावट आने के बावजूद वे आर्यसमाज के समस्त कार्यक्रमों में अपनी भागीदारी करते थे । सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा का प्रधान चुने जाने के पशचात् स्वामी अग्निवेश जी को सभा मुख्यालय, दयानन्द भवन, रामलीला मैदान नई दिल्ली में ले जाने का अभियान स्वामी जी महाराज के नेतृत्व में ही सम्पन्न हुआ । 11. उनकी प्रेरणा से जिन महानुभावों ने सन्यास अथवा नैष्ठिक की दीक्षा ली तथा अपने आपको सामाजिक कार्य में लगाया उनमें मुख्यतया पूज्य स्वामी अग्निवेश जी, स्वामी आदित्यवेश जी, स्वामी शक्तिवेश जी, स्वामी वरुणवेश जी, स्वामी चन्द्रवेश जी, स्वामी ओमवेश जी, स्वामी क्रान्तिवेश जी, स्वामी ब्रह्मवेश, स्वामी रुद्रवेश, स्वामी कर्मपाल, स्वामी देवव्रत, स्वामी धर्ममुनि (बहादुरगढ़), स्वामी सोमवेश (उड़ीसा), स्वामी सूर्यवेश (उत्तर प्रदेश), स्वामी आनन्दवेश (शुक्रताल), स्वामी कर्मवेश (मुजफ्फनगर), स्वामी श्रद्धानन्द (उत्तर प्रदेश), स्वामी महानन्द (शुक्रताल), स्वामी योगानन्द (मीरापुर), स्वामी महेशानन्द (बिजनौर), स्वामी धर्मवेश (अलवर), स्वामी शिवानन्द (धरारी), स्वामी प्रकाशानन्द (पिपराली), स्वामी सिंहमुनि (पलवल), स्वामी सत्यवेश (गाजियाबाद), स्वामी दिव्यानन्द (हरद्वार) आदि सन्यासियों एवं श्री रामधारी शास्त्री, आचार्य जयवीर आर्य, आचार्या कलावती, जगवीर सिंह, आचार्य हरिदेव, ब्र. विनय नैष्ठिक, प्रो. विट्ठलराव (आन्ध्रप्रदेश), सुधीर कुमार शास्त्री (उड़ीसा), प्रेमपाल शास्त्री (दिल्ली), शिवराम विद्यावाचस्पति (पलवल), सन्तराम आर्य (रोहतक), ब्र. सहन्सरपाल (मु. नगर), कु. पूनम आर्या, कु. प्रवेश आर्या (रोहतक) आदि नैष्ठिकों के नाम उल्लेखनीय हैं । 12. स्वामी जी की प्रेरणा से ही जिन महानुभावों ने राजनैतिक गतिविधियों में भाग लेना शुरू किया तथा ख्याति अर्जित की उनमें सर्वश्री स्वामी अग्निवेश पूर्व शिक्षामन्त्री, स्वामी आदित्यवेश पूर्व विधायक एवं चेयरमैन एग्रो., स्वामी ओमवेश गन्ना विकास मंत्री उत्तर प्रदेश, प्रो. उमेदसिंह पूर्व विधायक (महम), मा. श्यामलाल पूर्व विधायक (पलवल), श्री राजेन्द्रसिंह बीसला पूर्व विधायक (बल्लभगढ़), श्री भवानीसिंह पूर्व विधायक (राजस्थान), श्री गंगाराम पूर्व विधायक (गोहाना), डॉ. महासिंह पूर्व मन्त्री (सोनीपत), श्री रोशनलाल आर्य पूर्व विधायक (यमुना नगर), चौ. वीरेन्द्रसिंह पूर्वमन्त्री (नारनौद), चौ. टेकचन्द नैन पूर्व विधायक (नरवाना), चौ. अजीतसिंह पूर्व विधायक (बेरी), श्री विरजानन्द आदि के नाम उल्लेखनीय हैं । स्वामी इन्द्रवेश जी ने अपने जीवन का एक-एक क्षण समाज परिवर्तन के लिए लगाया । उनके तेजस्वी व्यक्तित्व से प्रभावित होकर अनेक लोगों ने अपना जीवन समाज सेवा में अर्पित किया । उनकी पुण्यतिथि पर हमें एक ही संकल्प लेना चाहिये कि जिस पवित्र निष्ठा के साथ स्वामी जी ने महर्षि दयानन्द के मिशन को आगे बढ़ाने के लिए अपने जीवन की आखिरी सांस तक संघर्ष किया उसी प्रकार हम सब सप्तक्रान्ति अर्थात् जातिमुक्त, साम्प्रदायिकतामुक्त, नशामुक्त, पाखण्डमुक्त, भ्रष्टाचारमुक्त, नारी उत्पीड़नमुक्त एवं शोषणमुक्त समाज की स्थापना के लिए कृतसंकल्प रहेंगे । हम आपस के सभी भेदभाव मिटाकर इस मिशन में जुटें, यही स्वामी जी की अन्तिम इच्छा थी । स्वामी इन्द्रवेश जी का जीवन विशद एवं खुली किताब है जिस पर विहंगम दृष्टिपात करने से निम्न तथ्य उभर कर सामने आये हैं - आर्यसमाज में एकता के प्रयास स्वामी इन्द्रवेश जी ने सन् 1969, 1974, 1995, 1998, 2001, 2005 तथा 12 जून 2006 को जीवन के अन्तिम दिन भी जारी रखे । पंचायतों में स्वामी इन्द्रवेश समय-समय पर विभिन्न पंचायतों में स्वामी जी को ससम्मान बुलाया गया जिनका विवरण निम्न प्रकार है । 1. महम चौबीसी की पंचायत - 1967, 1972, 1975 2. दहिया खाप की पंचायत – 2005 3. विनायन खाप की पंचायत 4. सर्वखाप पंचायत 5. सर्वखाप 360 पंचायत पालम संघर्ष एवं आन्दोलन स्वामी जी ने जिन आन्दोलनों में सक्रिय भूमिका निभाई वे इस प्रकार हैं - 1. शराबबन्दी आन्दोलन - 1968 2. हिन्दी सत्याग्रह – 1957 3. गौरक्षा आन्दोलन – 1966 4. चण्डीगढ़ आन्दोलन – 1969 5. किसान आन्दोलन – 1973 6. अध्यापक आन्दोलन – 1973 7. बीड़छूछक हरिजन आन्दोलन – 1972 8. जे.पी. आन्दोलन – 1975 9. मायात्यागी काण्ड आन्दोलन – 1984 10. आतंकवाद विरोधी आन्दोलन - 1983-84 एवं 1986 11. शराबबन्दी आन्दोलन – 1992 12. शंकराचार्य के विरुद्ध सतीप्रथा विषयक आन्दोलन – 1987 13. कन्याभ्रूर्ण हत्या विरोधी आन्दोलन - 2005 संस्थाओं का संचालन स्वामी जी ने निम्नलिखित संस्थाओं के संचालन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई - गुरुकुल झज्जर, गुरुकुल मटिण्डू, गुरुकुल सिंहपुरा, शहीद स्मारक गुलकनी, केवलानन्द आश्रम गंज बिजनौर, महर्षि दयानन्दधाम अमृतसर, गुरुकुल इन्द्रप्रस्थ, गुरुकुल कुरुक्षेत्र, गुरुकुल कांगड़ी, गुरुकुल खेड़ा खुर्द और गुरुकुल टटेसर । सहयोग एवं मार्गदर्शन जिन संस्थाओं के संचालन में तथा मार्गदर्शन में स्वामी जी की विशेष भूमिका रही वे इस प्रकार हैं - गुरुकुल ततारपुर, गुरुकुल धीरणवास, गुरुकुल खरल, गुरुकुल थुम्भाखेड़ा, गुरुकुल कालवा, गुरुकुल सिरसागंज, गुरुकुल शुक्रताल, कन्या गुरुकुल लोवाकलां, गुरुकुल गौतमनगर । आर्यसमाज के आश्रम निम्नलिखित आश्रमों के संचालन में स्वामी जी का सकारात्मक सहयोग रहा - (1) योगधाम ज्वालापुर (2) प्रेमानन्द वैदिक आश्रम हस्तिनापुर (3) शम्भुदयाल आर्य सन्यास एवं वानप्रस्थ आश्रम गाजियाबाद (4) महर्षि दयानन्द योग एवं प्राकृतिक चिकित्सा आश्रम, जीन्द (5) प्रभु भक्ति आश्रम गोड़भगा, सम्भलपुर, उड़ीसा । उदघाटन निम्नलिखित संस्थाओं का उदघाटन स्वामी जी के करकमलों द्वारा हुआ । (1) पं. नरेन्द्र भवन हैदराबाद - 2004 (2) महर्षि दयानन्द धाम अमृतसर - 1994 (3) आर्य विद्यापीठ गंगाना - 2002 (4) महर्षि दयानन्द योग चिकित्सा आश्रम जीन्द - 1990 । जनान्दोलन एवं अभियान 1. शराबबन्दी - युवक क्रान्ति अभियान – 1968 2. कुरुक्षेत्र से दिल्ली पदयात्रा – 1968 3. कुण्डली बूचड़खाना – 1969 4. हिसार से सोनीपत की शराबबन्दी पद यात्रा -1981 5. आतंकवाद के विरुद्ध मोटरसाइकिल यात्रा 1982 6. शराबबन्दी अभियान (हरयाणा, उत्तरप्रदेश) एवं शराबबन्दी पदयात्रा - 1992, 1994 7. कन्या भ्रूर्णहत्या विरोधी यात्रा (2005), टंकारा से अमृतसर, नरवाना से रोहतक (2006) 8. दिल्ली से पुरामहादेव सती प्रथा विरोधी यात्रा – 1987 महासम्मेलन 1. आर्यसभा महासम्मेलन, [[Jind}जीन्द]] - 22 नवम्बर 1970 2. किसान सम्मेलन रोहतक – 1973 3. आर्यसमाज शताब्दी सम्मेलन (रोहतक, मुजफ्फरनगर, जयपुर) – 1976 4. महर्षि दयानन्द बलिदान शताब्दी सम्मेलन – 1983 5. राष्ट्रीय आर्य महासम्मेलन, नई दिल्ली - 1994 6. आर्य महासम्मेलन अमृतसर – 1987 7. आर्य महासम्मेलन सासरौली – 1998 8. आर्य महासम्मेलन रोहतक – 1969 9. सन्यास दीक्षा सम्मेलन – 1970 10. आर्य महासम्मेलन न्यूयार्क – 2000 11. राष्ट्रीय आर्य महासम्मेलन जोधपुर – 1998 12. राष्ट्रीय कार्यकर्त्ता सम्मेलन तालकटोरा स्टेडियम, नई दिल्ली – 2005 विदेशों में स्वामी जी के प्रमुख सहयोगी अमेरिका - डा. भूपेन्द्र गुप्त, श्री चन्द्रभान आर्य व लक्ष्मी आर्या, राज एवं मंजू मल्होत्रा, डा. विजय आर्य, श्री नारी टंडन, श्री सुशील मड़िया, श्री बालेन्द्र कुण्डू, श्री बलदेव नारायण, श्री वेदश्रवा, श्री यशपाल आर्य, श्रीमती आशा चौहान, श्री वीरसेन मुखी, डा. सतीश प्रकाश, श्री सुभाष सहगल, श्री सुभाष अरोड़ा, डा. वीरेन्द्र सिंह, डा. राजेन्द्र गांधी, पूर्णिमा देसाई आदि न्यूयार्क में । श्री विपिन गुप्ता, डा. देवकेतु, डा. रमेश चन्द्रा, चौ. फूलसिंह, श्री वीरेश्वरसिंह, श्री देव डबास, श्री चक्रधारी, श्री धर्मजित जिज्ञासु आदि न्यूजर्सी में । श्री राजपाल दलाल, श्री राजेन्द्र दहिया, डा. सुखदेव सोनी, डा. महिपाल पोरिया, डा. दिलीप वेदालंकार आदि शिकागो, तथा डा. शंकरलाल गर्ग बोस्टन, डा. राम उपाध्याय आदि । हालैंड - श्री गंगाराम कल्पू, डा. आनन्द कुमार बिरजा, श्री नरदेव यजुर्वेदी, श्री भगवान देव आर्य । इसी तरह श्री अनिल कपिला व डा. राजेन्द्र सैनी, देवेन्द्र भल्ला, श्री रमेश राणा, श्री रामकृष्ण शर्मा व श्री यशपाल अंगिरा, श्री ओ.पी नारंग केनिया में मुख्य सहयोगी एवं शुभचिन्तक हैं । आर्य विद्वानों में - श्री वेदप्रकाश श्रोत्रीय, डा. वेदप्रताप वैदिक, श्री शिवकुमार शास्त्री, प्रो. जयदेव वेदालंकार, प्रो. अनूप सिंह, प्रो. उमाकान्त उपाध्याय, श्री रामनारायण शास्त्री पटना, वेदप्रकाश शास्त्री बिजनौर, विश्वबन्धु शास्त्री, प्रि. कृष्ण सिंह आर्य, डा. जोगेन्द्र सिंह यादव, प्रो. रामविचार, प्रि. एन. डी. ग्रोवर, डा. सुदर्शन देव, प्रो. चन्द्र प्रकाश सत्यार्थी, प्रो. जयदेव आर्य, आचार्य भद्रसेन, डा. धर्मवीर शास्त्री, डा. सोमदेव शास्त्री, पं. गोपदेव शास्त्री, डा. के. सी. यादव, डा. सत्यकेतु विद्यालंकार, डा. तुलसीराम, डा. धर्मपाल पूर्व कुलपति । भजनोपदेशकों में - सर्वश्री पृथ्वी सिंह बेधड़क, श्री वीरेन्द्र सिंह वीर, श्री शोभाराम प्रेमी, श्री बेगराज आर्य, श्री खेमचन्द आर्य, महाशय प्यारेलाल, महाशय नरसिंह, पं. प्रभुदयाल आर्य, पं. ताराचन्द वैदिक तोप, महाशय फतहसिंह महाशय रत्न सिंह, महाशय जोहरी सिंह, महाशय नत्था सिंह, श्री ओमप्रकाश वर्मा, पं. चिरन्जीलाल, पं. चन्द्रभान, स्वामी रुद्रवेश, श्री लक्षमणसिंह बेमोल, श्री बृजपाल कर्मठ, श्री अभयराम शर्मा, श्री मामचन्द पथिक, श्री सहदेव बेधड़क, श्री राम निवास आर्य, श्री कुलदीप आर्य, श्री रामरिख आर्य, श्री सुमेरसिंह आर्य, श्री जयपाल आर्य, श्री खेमसिंह आर्य, श्री भजनलाल आर्य, श्री चूनीलाल आर्य, श्री दूलीचन्द आर्य, श्री नारायण सिंह आर्य, श्री बनवारी लाल हितैषी, श्री नरदेव आर्य, श्री तेजवीर आर्य, श्री जगदीश आर्य, श्री रामकुमार आर्य, कंवर सुखपाल । कर्मठ कार्यकर्ताओं में - सर्वश्री ओमप्रकाश आर्य, प्रेमपाल शास्त्री, डा. नरेन्द्र वेदालंकार, डा. जयेन्द्र आचार्य, श्री शिवराज शास्त्री, आचार्य अजीत कुमार शास्त्री, श्री जगवीर सिंह शास्त्री, श्री ओम सपरा, श्री अनिल आर्य, डा. श्री वत्स, श्री देव शर्मा, आचार्य सुभाष, श्री रमेश आर्य, श्री विजय चौधरी, श्रीमती प्रवीण सिंह, श्रीमती वेदकुमारी, श्री मेघश्याम शास्त्री, श्री रामनिवास एडवोकेट, श्री सुरेश गोयल, श्री मधुरप्रकाश, श्री अभयदेव शास्त्री, श्री रमेशचन्द शास्त्री, श्री भूदेव आर्य, श्री नरेन्द्र गुप्ता, श्री बृजमोहन शंगारी, श्री वेदपाल शास्त्री, श्री विजय आर्य, मा. पूर्ण सिंह आर्य, डा. मथुरा सिंह, श्री विजय कुमार आर्य अमृतसर, श्री प्रवीण आर्य अमृतसर, श्री तरसेमलाल आर्य बरनाला, श्री बृजेन्द्र भण्डारी लुधियाना, श्री सन्तकुमार आर्य लुधियाना, श्री सुदेश कुमार आर्य लुधियाना, श्री रूपलाल आर्य लुधियाना, श्री सुरेन्द्रमोहन शर्मा अमृतसर, श्री यशवन्त राय साथी, श्री अजयसूद मोगा, श्री बलदेव कृष्ण आर्य रामामण्डी, श्री श्यामलाल आर्य कैथल, श्री इन्द्रपाल आर्य अमृतसर, डा. नवीन आर्य एवं डा. मंजू आर्या अमृतसर, सोमदेव शास्त्री, मेजर विजय आर्य, राजकुमार गुप्ता, मनोहरलाल आर्य चण्डीगढ़ । स्वामी जी की प्रेरणा से जो सन्यासी बने - स्वामी वरुणवेश, स्वामी चन्द्रवेश, स्वामी रुद्रवेश, स्वामी धर्मानन्द उड़ीसा, स्वामी धर्मानन्द रोहतक, स्वामी शिवानन्द, स्वामी सिंहमुनि, स्वामी सत्यवेश जुलाना, स्वामी दिव्यानन्द हरद्वार । विदेश यात्रा - हालैंड, इंग्लैंड, अमेरिका (1983), अमेरिका हालैंड (1998), अमेरिका, कनाडा, हालैंड (2000), अमेरिका, इंग्लैंड (2003), नैरोबी, केनिया (2002) पदाधिकारी के रूप में सार्वदेशिक आर्य युवक परिषद के प्रधान आर्य सभा के प्रधान (1970) जनसंघर्ष समिति के प्रधान (1975) भारतीय आर्य प्रतिनिधि सभा के प्रधान (1990, 1992) किसान संघर्ष समिति के प्रधान (1973) लोक संघर्ष समिति के प्रधान (1982) बंधुआ मुक्ति मोर्चा के वरिष्ठ उपप्रधान (1995 से 2005 तक) महर्षि दयानन्द धाम अमृतसर के प्रधान (1994-2006) केवलानन्द निगमाश्रम गंज बिजनौर के प्रधान (1986-2006) गुरुकुल मटिण्डू के प्रधान (1972-78) आत्मशुद्धि आश्रम के प्रधान संस्थापक (1967) आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब के प्रधान (1973) आर्य प्रतिनिधि सभा हरयाणा (2001) दयानन्द मठ रोहतक के प्रधान (1998-2006) साहित्य लेखन 1. प्रकाशक व मुद्रक राजधर्म पत्रिका 2. सम्पादक, सुधारक (गुरुकुल झज्जर) - 1965 से 1967 3. नेताजी सुभाष चन्द्र बोस 4. आर्य राष्ट्र 5. आर्य समाज और राजनीति 6. प्राणायाम (ब्रह्मचर्य के साधन) 7. आसन-प्राणायाम 8. पुनर्जन्म मीमांसा सानिध्य स्वामी इन्द्रवेश जी को जिन महान आत्माओं का विशेष सानिध्य मिला उनमें उल्लेखनीय नाम निम्न प्रकार से हैं – धार्मिक नेता - 1. पूज्य स्वामी ओमानन्द जी महाराज 2. स्वामी ब्रह्मानन्द जी महाराज 3. स्वामी आत्मानन्द जी 4. स्वामी समर्पणानन्द जी 5. स्वामी भीष्म जी 6. स्वामी ब्रह्ममुनि जी 7. स्वामी सच्चिदानन्द जी योगी 8. स्वामी नित्यानन्द जी 9. महात्मा आनन्द भिक्षु जी 10. स्वामी रामेश्वरानन्द सरस्वती 11. स्वामी सुखानन्द जी 12. पं. ब्रह्मदत्त जिज्ञासु 13. डा. सत्यकेतु विद्यालंकार 14. डा. सत्यव्रत सिद्धान्तालंकार 15. श्री जगदेव सिंह सिद्धान्ती 16. पं. शंकरदेव जी 17. पं. युधिष्ठिर मीमांसक 18. डा. गोवर्धन लाल दत्त 19. आचार्य रामप्रसाद 20. आचार्य सुदर्शन देव 21. पण्डित राजवीर शास्त्री 22. डा. महावीर मीमांसक
मयीदमिन्द्र इन्द्रियं दधात्वस्मान् (vedic vichar)
14-06-2022
रायो मघवा नः सचन्ताम्। अस्माकं सन्त्वाशिषः सत्या नः सन्त्वाशिषः॥ -य॰ अ॰ 2। मं॰ 10॥ यां मेधां देवगणाः पितरश्चोपासते। तया मामद्य मेधयाग्ने मेधाविनं कुरु स्वाहा॥ -य॰ अ॰ 32। मं॰ 14॥ (मयीदमिन्द्र॰) हे उत्तम ऐश्वर्ययुक्त परमेश्वर! आप अपनी कृपा से श्रोत्र आदि उत्तम इन्द्रिय और श्रेष्ठ स्वभाववाले मन को मुझ में स्थिर कीजिए अर्थात् हम को उत्तम गुण और पदार्थों के सहित सब दिन के लिये कीजिये। (अस्मान् रा॰) हे परमधनवाले ईश्वर! आप उत्तम राज्य आदि धन वाले हम को सदा के लिए कीजिये। (सचन्तां॰) मनुष्यों के लिये ईश्वर की यह आज्ञा है कि हे मनुष्यो! तुम लोग सब काल में सब प्रकार से उत्तम गुणों का ग्रहण और उत्तम ही कर्मों का सेवन सदा करते रहो। (अस्माकं स॰) हे भगवन्! आपकी कृपा से हम लोगों की सब इच्छा सर्वदा सत्य ही होती रहें तथा सदा सत्य ही कर्म करने की इच्छा हो किन्तु चक्रवर्ती राज्य आदि बड़े-बड़े काम करने की योग्यता हमारे बीच में स्थिर कीजिए॥ (यां मेधां॰) इस मन्त्र का यह अभिप्राय है कि- हे परमात्मन्! आप अपनी कृपा से, जो अत्यन्त उत्तम सत्यविद्यादि शुभ गुणों को धारण करने के योग्य बुद्धि है, उस से युक्त हम लोगों को कीजिये कि जिस के प्रताप से देव अर्थात् विद्वान् और पितर अर्थात् ज्ञानी होके हम लोग आप की उपासना सब दिन करते रहें। (स्वाहा॰) इस शब्द का अर्थ निरुक्तकार यास्कमुनि जी ने अनेक प्रकार से कहा है। सो लिखते हैं कि- (सु आहेति वा) सब मनुष्यों को अच्छा, मीठा, कल्याण करने वाला और प्रिय वचन सदा बोलना चाहिए। (स्वा वागाहेति वा) अर्थात् मनुष्यों को यह निश्चय करके जानना चाहिए, कि जैसी बात उनके ज्ञान के बीच में वर्त्तमान हो, जीभ से भी सदा वैसा ही बोलें, उस से विपरीत नहीं। (स्वं प्राहेति वा) सब मनुष्य अपने ही पदार्थ को अपना कहें, दूसरे के पदार्थ को कभी नहीं अर्थात् जितना जितना धर्मयुक्त पुरुषार्थ से उन को पदार्थ प्राप्त हो, उतने ही में सदा सन्तोष करें। (स्वाहुतं ह॰) अर्थात् सर्व दिन अच्छी प्रकार सुगन्धादि द्रव्यों का संस्कार करके सब जगत् के उपकार करने वाले होम को किया करें और 'स्वाहा' शब्द का यह भी अर्थ है कि सब दिन मिथ्यावाद को छोड़ के सत्य ही बोलना चाहिए॥
"कर्म का रहस्य" (vedic vichar)
11-06-2022
कर्म क्या है? उसकी परिभाषा क्या है? यह ऐसे गूढ़ प्रश्न हैं, जिन्हें जानना मनुष्य मात्र के लिए नितान्त आवश्यक है। कर्म के विषय मे सत्य शास्त्र वेद, उपनिषद, स्मृतियां, दर्शन व गीता आदि में विस्तृत विवेचन किया गया है किन्तु कर्म की गूढ़ता के रहस्य को योगेश्वर श्रीकृष्ण जी ने गीता में बहुत ही स्पष्टरूप में और विस्तार पूर्वक समझाया है। योगेश्वर श्रीकृष्ण जी गीता में कर्म की परिभाषा की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि- "शरीरवांगनोभिर्यत्कर्म" अर्थात "शरीर, वाणी और मन से की गयी समस्त क्रियाएँ कर्म हैं"। इसी कर्म की परिभाषा को ध्यान में रखते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं कि- "न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत। कार्यते ह्यवशः कर्म सर्व: प्रकृतिजैर्गुणैः।।"३/५ अर्थात कोई भी मनुष्य किसी भी काल में, किसी भी अवस्था में क्षणमात्र भी बिना कर्म किये नहीं रह सकता क्योंकि हर क्षण मनुष्य मन, वाणी और शरीर से कुछ न कुछ करता ही रहता है। मनुष्य अपने जीवन में जो कुछ भी करता है वह सब कर्म है। इस कर्म को जानने की गम्भीरता पर महाभारत वनपर्व ३२.९ में कहा है कि- "कृतं हि योभिजानाति सहस्रे सोस्ति नास्ति च" अर्थात हजारों में कोई एक ही होगा जो कर्म को ठीक-ठीक जानता हो"। इस कर्म के गूढ़ रहस्य को ठीक-ठीक जानने के लिए योगेश्वर ने बहुत ही सटीक व्याख्यान दिया है। "किं कर्म किमकर्मेति कवयोप्यत्र मोहिताः। तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्षसेशुभात।।" (४/१६,१७,१८) अर्थात योगेश्वर श्रीकृष्ण जी कहते हैं कि हे अर्जुन! कर्म क्या है? अकर्म क्या है? इस प्रकार इसका निर्णय करने में बुद्धिमान पुरुष भी मोहित (दिग्भ्रमित) हो जाते हैं। इसलिए वह कर्मतत्व (कर्म का गूढ़ रहस्य) मैं तुम्हें भलीभाँति कहूँगा, क्योंकि कर्म की गति बहुत ही गहन है, इसलिए कर्म, अकर्म और विकर्म के विषय में जानना बहुत आवश्यक है। जो व्यक्ति कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म को देख लेता है, वह मनुष्यों में बुद्धिमान है, वही योगयुक्त है और वही सब कर्मों को कर सकने में समर्थ है। कर्म वे हैं जिन्हें करने का विधान हमारे वेदादि सत्यशास्त्रों में किया गया है। व्यक्ति के लिए वे ही कर्म करणीय हैं। अकर्म वे हैं जिन्हें करने का वेदादि शास्त्रों में निषेध किया गया है। वे सभी कर्म अकरणीय हैं। स्मृतिकारों के अनुसार यही विहित कर्म और निषिद्ध कर्म हैं। इस प्रकार हमारे शास्त्रों में जिन-जिन बातों को करने का विधान है वे सब 'कर्म' हैं, तथा जिन-जिन बातों को करने का निषेध है, वे सब 'अकर्म' हैं। किन्तु कर्म की गति तब गहन हो जाती है, जब व्यक्ति के सामने कई बार ऐसी परिस्थितियाँ आ जाती हैं कि उसे यही पता नहीं चल पाता कि वास्तव में कर्म क्या है और अकर्म क्या है? इस दृष्टिकोण से कर्म तथा कर्मों की गति बहुत गहन बताई गई है। कई बार व्यक्ति अपनी अल्पज्ञता तथा अज्ञानता के कारण कर्म को ही अकर्म और अकर्म को ही कर्म समझ कर करता रहता है। इन कर्म और अकर्म को समझने के लिए ज्ञान और विवेक की आवश्यकता होती है। जो व्यक्ति कर्म और अकर्म को भलीभाँति समझने में समर्थ हो जाता है वह विकर्म के रहस्य को भी जान जाता है। विकर्म का अर्थ है स्थिति-विशेष पर कहाँ कर्म ही अकर्म तथा अकर्म ही कर्म हो जाता है-इस बात को जानना। इस तत्त्वबोध का नाम ही विकर्म है। इस तत्त्वबोध के साथ जो कर्म किया जाता है वह 'विशेष कर्म' हो जाता है अर्थात विकर्म को ही विशेष कर्म कहते हैं। कर्म, अकर्म और विकर्म को उदाहरण सहित समझिए- शास्त्रानुसार अहिंसा कर्म है और हिंसा अकर्म, किन्तु यदि कोई दुष्ट चोरी, व्यभिचार आदि कर रहा हो या किसी प्रकार का अन्य पाप कर रहा हो तो प्रसंग उल्टा हो जाएगा। उस समय उसे दण्ड देना अर्थात हिंसा करना कर्म हो जाएगा और अहिंसा अकर्म हो जाएगा। यदि आप संध्योपासना कर रहे हैं और उसी समय आप पर कोई आक्रमण कर देता है तो उस समय आपको उससे अपनी रक्षा करना अनिवार्य है, तथा इस स्थिति में भी कर्म व अकर्म की स्थिति बदल जाएगी। अतएव जो व्यक्ति इस प्रकार की विषम परिस्थितियों में भी कर्म और अकर्म का तत्त्वबोध रखता है वही ज्ञानी है। इसी कर्म के प्रसंग को आगे बढ़ाते हुए महर्षि पतञ्जलि कर्मो का वर्गीकरण इस प्रकार करते हैं कि- "कर्माशुक्लाकृष्णं योगिनस्त्रिविधमितरेषाम" योगी और अयोगी के कर्मों को वर्गीकृत करते हुए ऋषि कहते हैं कि योगी के कर्म पाप-पुण्य से रहित अर्थात निष्काम कर्म होते हैं तथा अयोगी व्यक्तियों के कर्म पुण्यात्मक, अपुण्यात्मक व पुण्य-पापात्मक अर्थात मिश्रित इन तीन प्रकार का होते हैं। अब प्रश्न उठता है कि मनुष्य को कौन से कर्म करने चाहिए तो इसका उत्तर देते हुए योगेश्वर श्री कृष्ण कहते हैं कि- "नियतं कुरु कर्म त्वं" अर्थात "तू शास्त्रविहित कर्तव्यकर्म कर"। भगवान योगेश्वर श्रीकृष्ण जी और विस्तार से समझाते हुए कहते हैं कि- " तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचार। असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुषः।।" अर्थात योगेश्वर कहते हैं कि तू निरन्तर आसक्ति से रहित होकर सदा कर्तव्यकर्म को भलीभाँति करता रह। क्योंकि आसक्ति से रहित होकर कर्म करता हुआ मनुष्य परमात्मा को प्राप्त हो जाता है। परमात्म प्राप्ति का एक ही मार्ग है निष्काम कर्म। कर्म के सन्दर्भ में वेद घोषणा करते हैं कि- "कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः" अर्थात हे मनुष्य! तू शास्त्रविहित कर्म करते हुए सौ वर्ष तक जीने की इच्छा कर। जब मनुष्य अनासक्तभाव से कर्मों को पूजा बना लेता है, तब वह मनुष्य कर्म करता हुआ भी कर्मो के बन्धन में नहीं फसता यही मुक्ति का मार्ग है। इसलिए सम्पूर्ण कर्मों के रहस्य को जानने के इच्छुक व्यक्तियों को गीता का स्वाध्याय अवश्य करना चाहिए। इदम ब्रह्म इदं मम।। ओ३म् शान्ति!
मूर्ति पूजा क्यों त्याज्य है (vedic vichar)
11-06-2022
एक व्यक्ति ने स्वामी जी महाराज से पूछा कि मूर्तिपूजा मे क्या दोष है ??? स्वामी जी महाराज ने कहा कि वेदों की आज्ञा पर चलना ही धर्म है, वेदों में कही मूर्तिपूजा की आज्ञा नहीं है । जो यह कहते हैं कि भावना का फल होता है तो यह भी ठीक नहीं है । यदि तुम घर में बैठे हुए चक्रवर्ती राजा बनने की भावना किये जाओ तो क्या बन जाओगे ? एक दिन एक साधु ने स्वामी जी महाराज से लोटा माँगा । उन्होंने पूछा कि क्या करेगा ??? उसने कहा कि शिवजी पर जल चढाऊँगा । स्वामी जी महाराज ने कहा कि तेरे पास लोटा है, उससे जल क्यों नहीं चढाता ??? मुख में पानी भरकर कुल्ले कर दो । एक दिन महाराज ने विनोद में कहा कि लोग आधे-आधे मन्त्र देकर गुरु बन जाते हैं, परन्तु हम सैकडों मन्त्र देते हैं तो भी हम गुरु नहीं बन सकते ॥ सन्दर्भ :---- ========= यह घटना आषाढ़ विक्रमी संवत् १९२६ तदनुसार जुलाई १८६९ ई सन् की है जब स्वामी जी महाराज कानपुर पधारे थे । (अध्याय सप्तम, अन्तिम भाग ) महर्षि दयानन्द जीवन चरित लेखक श्री देवेन्द्रनाथबाबू मुखोपाध्याय (पृष्ठ संख्या १७२)
जीवन का रहस्य क्या है ? (Vedic vichar)
11-06-2022
महाभारत का युद्ध समाप्त हो गया। कौरव हार गये और पाण्डव जीत कर राज सिंहासन के स्वामी हो गये। युधिष्ठिर ने राज्य करना आरम्भ किया। परन्तु उनके मन में न सुख था, न शान्ति। रह-रह कर उनको इस बात का ध्यान आता था कि यह विजय उनको कितनी महंगी पड़ी है। जो राज्य सम्बन्धियों और निर्दोष मनुष्यों का रक्त बहा कर प्राप्त किया जावे, वह किस काम का? कृष्ण ने युधिष्ठिर से कहा :—”तुम्हारे मन में अशान्ति है। तुम भीष्म जी के पास जाओ और अपनी कठिनाई का वर्णन करो। वे तुम्हें अन्धकार से प्रकाश की ओर ले जायेंगे। धर्म का ज्ञान रखने वालों में भीष्म सबसे श्रेष्ठ हैं। जब वे नहीं रहेंगे तो संसार ऐसा तमोमय हो जायगा, जैसे चन्द्रमा के न रहने से रात्रि हो जाती है। भीष्म जीवन और मृत्यु के बीच लटक रहे हैं। जाओ, उनसे जो कुछ पूछना है, पूछ लो।” युधिष्ठिर कृष्ण, कृप और पाण्डवों के साथ कुरुक्षेत्र में पहुँचे। मृत्यु शय्या पर पड़े हुए भीष्म ने जो उपदेश उस समय दिये, उनमें से कुछ नीचे दिये जाते हैं जीवन का रहस्य जैसा इसे भीष्म ने समझा था, इन उपदेशों में वर्णन किया गया है :— “सत्य धर्म सब धर्मों से उत्तम धर्म है। ‘सत्य’ ही सनातन धर्म है। तप और योग, सत्य से ही उत्पन्न होते हैं। शेष सब धर्म, सत्य के अंतर्गत ही हैं।” “सत्य बोलना, सब प्राणियों को एक जैसा समझना, इन्द्रियों को वश में रखना, ईर्ष्या द्वेष से बचे रहना क्षमा, शील, लज्जा, दूसरों को कष्ट न देना, दुष्कर्मों से पृथक रहना, ईश्वर भक्ति, मन की पवित्रता, साहस, विद्या-यह तेरह सत्य धर्म के लक्षण हैं। वेद सत्य का ही उपदेश करते हैं। सहस्रों अश्वमेध यज्ञों के समान सत्य का फल होता है।” ‘सत्य ब्रह्म है, सत्य तप है, सत्य से मनुष्य स्वर्ग को जाता है। झूठ अन्धकार की तरह है। अन्धकार में रहने से मनुष्य नीचे गिरता है। स्वर्ग को प्रकाश और नरक को अन्धकार कहा है।” “ऐसे वचन बोलो जो, दूसरों को प्यारे लगें। दूसरों को बुरा भला कहना, दूसरों की निन्दा करना, बुरे वचन बोलना, यह सब त्यागने के योग्य हैं। दूसरों का अपमान करना, अहंकार और दम्भ, यह अवगुण है।” “इस लोक में जो सुख कामनाओं को पूरा करने से मिलता है और जो सुख परलोक में मिलता है, वह उस सुख का सोलहवाँ हिस्सा भी नहीं है जो कामनाओं से मुक्त होने पर मिलता है।” “जब मनुष्य अपनी वासनाओं को अपने अन्दर खींच लेता है, जैसे कछुआ अपने सब अंग भीतर को खींच लेता है, तो आत्मा की ज्योति और महत्ता दिखाई देती है।” “मृत्यु और अमृतत्व—दोनों मनुष्य के अपने अधीन हैं। मोह का फल मृत्यु और सत्य का फल अमृतत्व है।” “संसार को बुढ़ापे ने हर ओर से घेरा है। मृत्यु का प्रहार उस पर हो रहा है। दिन जाता है, रात बीतती है। तुम जागते क्यों नहीं? अब भी उठो। समय व्यर्थ न जाने दो। अपने कल्याण के लिए कुछ कर लो। तुम्हारे काम अभी समाप्त नहीं होते कि मृत्यु घसीट ले जाती है।” “स्वयं अपनी इच्छा से निर्धनता का जीवन स्वीकार करना सुख का हेतु है। यह मनुष्य के लिए कल्याणकारी है। इससे मनुष्य क्लेशों से बच जाता है। इस पथ पर चलने से मनुष्य किसी को अपना शत्रु नहीं बनाता। यह मार्ग कठिन है, परन्तु भले पुरुषों के लिए सुगम है। जिस मनुष्य का जीवन पवित्र है और इसके अतिरिक्त उसकी कोई सम्पत्ति नहीं, उसके समान मुझे दूसरा दिखाई नहीं देता। मैंने तुला के एक पल्ले में ऐसी निर्धनता को रक्खा और दूसरे पल्ले में राज्य को। अकिंचनता का पल्ला भारी निकला। धनवान पुरुष तो सदा भयभीत रहता है, जैसे मृत्यु ने उसे अपने जबड़े में पकड़ रखा है।” “त्याग के बिना कुछ प्राप्त नहीं होता। त्याग के बिना परम आदर्श की सिद्धि नहीं होती। त्याग के बिना मनुष्य भय से मुक्त नहीं हो सकता। त्याग की सहायता से मनुष्य को हर प्रकार का सुख प्राप्त हो जाता है।” “वह पुरुष सुखी है, जो मन को साम्यावस्था में रखता है, जो व्यर्थ चिन्ता नहीं करता। जो सत्य बोलता है। जो साँसारिक पदार्थों के मोह में फँसता नहीं, जिसे किसी काम के करने की विशेष चेष्टा नहीं होती।” “जो मनुष्य व्यर्थ अपने आपको सन्तप्त /दुखी करता है, वह अपने रूप रंग, अपनी सम्पत्ति, अपने जीवन और अपने धर्म को भी नष्ट कर देता है। जो पुरुष शोक से बचा रहता है, उसे सुख और आरोग्यता, दोनों प्राप्त हो जाते हैं।” “सुख दो प्रकार के मनुष्यों को मिलता है। उनको जो सबसे अधिक मूर्ख हैं, दूसरे उनको जिन्होंने बुद्धि के प्रकाश में तत्व को देख लिया है। जो लोग बीच में लटक रहे हैं, वे दुखी रहते हैं।” “श्रेष्ठ और सज्जन पुरुष का चिह्न यह है कि वह दूसरों को धनवान देख कर जलता नहीं। वह विद्वानों का सत्कार करता है और धर्म के सम्बन्ध में प्रत्येक स्थान से उपदेश सुनता है।” “जो पुरुष अपने भविष्य पर अधिकार रखता है (अपना पथ आप निश्चित करता है, दूसरों की कठपुतली नहीं बनता) जो समयानुकूल तुरन्त विचार कर सकता है और उस पर आचरण करता है, वह पुरुष सुख को प्राप्त करता है। आलस्य मनुष्य का नाश कर देता है।” “जो पुरुष अपने आपको वश में करना चाहता है उसे लोभ और मोह से मुक्त होना चाहिए।” “दम के समान कोई धर्म नहीं सुना गया है। दम क्या है? क्षमा, धृति, वैर-त्याग, समता, सत्य, सरलता, इन्द्रिय संयम, कर्म करने में उद्यत रहना, कोमल स्वभाव, लज्जा, बलवान चरित्र, प्रसन्नचित्त रहना, सन्तोष, मीठे वचन बोलना, किसी को दुख न देना, ईर्ष्या न करना, यह सब दम में सम्मिलित हैं।” “कामनाओं को त्याग देना; उन्हें पूरा करने से श्रेष्ठ है। आज तक किस मनुष्य ने अपनी सब कामनाओं को पूरा किया है? इन कामनाओं से बाहर जाओ। पदार्थ के मोह को छोड़ दो। शान्त चित्त हो जाओ।
भाग्य और पुरुषार्थ सफलता रूपी नौका के दो चप्पू । (vedic vichar)
11-06-2022
बहुत लोग सफलता को भाग्य और भाग्य रेखाओं से मानते है। कुछ ऐसे हैं जो केवल पुरुषार्थ अर्थात् कड़ी मेहनत को सफलता की कुंजी मानते है।जबकि सफलता के लिए भाग्य और पुरुषार्थ दोनों का होना आवश्यक है।जो कर्म हमने पिछले जन्म में या अतीत में किये वे हमारा वर्तमान जन्म या समय में भाग्य बना और जो कर्म या पुरूषार्थ हम वर्तमान समय कर रहे हैं वे हमारा कल का भाग्य बनेगा। केवल धन प्राप्ति ही भाग्य या सफलता नहीं है।क्योंकि एक विद्यार्थी की सफलता अच्छे अंक प्राप्त करके अच्छी नौकरी प्राप्त करना है एक खिलाड़ी की सफलता प्रतिद्वंदी को हराने में है एक नेता की सफलता या अच्छा भाग्य चुनाव जीतने में है।इस तरह व्यक्ति की कामनाओं की पूर्ति को ही अच्छा भाग्य और सफलता कहा जाता है जिसके पीछे कड़ी महन्त या पुरुषार्थ अवश्य होता है। इसको हम इस तरह भी समझ सकते हैं जैसे कि हम किसी स्थान पर जाते हैं और बहुत भूख लगी है वहाँ भाग्य से भोजन के लिए सारा समान पड़ा है अब हम पुरुषार्थ करेंगे और खाना बनाएँगे तो ही हमारी भूख शांत होगी। ???? बहुत लोग सफलता प्राप्ति के लिए अलग अलग मन्दिरों गुरूओं पंडितों दरगाहों पर जा कर मन्नत माँगते है।किसी की वे कामना पूरी होती है किसी की नहीं। इसका कारण है कि कोई वस्तु परमात्मा से मांगने से पहले उस वस्तु को प्राप्त करने के लिए उसके अनुसार प्रयत्न करना आवश्यक है ।विधार्थी परमात्मा से प्रार्थना करे कि वह उसे परीक्षा में पास कर दे , तो विधार्थी का कर्तव्य है कि वह परीक्षा की तैयारी पूरी मेहनत से करे । हम ईशवर से प्रार्थना करे कि वह हमें तीक्ष्ण बुद्धि दे तो उस के लिए हमें भी ऐसे यत्न करने चाहिए जिससे बुद्धि तीक्ष्ण हो - खान, पान, अच्छी- अच्छी पुस्तकों का पढ़ना और तप आदि करें ।व्यापारी चाहता है कि वे धन का स्वामी बने उसके लिए उसे समय अनुसार सोच विचार कर कड़ी मेहनत भी करनी होगी और जो साधन उसके पास होंगे वे उसका पिछला भाग्य कहलाता है और पुरुषार्थ आगे का भाग्य बनाता है। यदि हम स्वयं प्रयत्न न करे और ईशवर से मांगते रहें तो हमें कुछ नहीं मिलेगा । जो ईशवर के सहारे आलसी बन कर बैठे रहते है , और भाग्य का ही इन्तज़ार करते है उन्हें कुछ प्राप्त नहीं होता , क्योंकि ईशवर की पुरूषार्थ करने की आज्ञा है ।ईशवर उसी की सहायता करता है जो अपनी सहायता आप करता है कई बार लोग ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि हे ईश्वर मेरी मनोकामना पूरी हो जाए। आपने देखा होगा कि कई बार उनकी मनोकामनाएं पूरी भी हो जाती है। तो अब सवाल उठता है क्या ईश्वर स्वयं आकर उनकी मनोकामनाएं पूरी करता है या कोई और बात है। ????एक समय की बात है कि कोई सेनानायक अपनी सेना को लेकर रणक्षेत्र की ओर कूच कर रहा था। उसने अभी आधा ही रास्ता तय किया था कि रास्ते में गुप्तचर ने आकर कहा कि महाराज हमारी सेना में एक हजार ही सिपाही हैं जबकि दुश्मन कि सेना में दस हजार सिपाही है। तो महाराज हमारे लिए यही उचित होगा कि हम आत्मसमर्पण कर दे। यह सूचना पाते ही सारी सेना का हौसला पस्त हो गया। तब सेनापति ने अपनी सेना से कहा कि चलो सामने मंदिर में चल कर हम फैसला करते हैं। उचित सलाह मशविरा करते हैं। मंदिर पहुंचकर सेनापति ने संबोधित किया- मेरे प्यारे साथियों हमारे सामने एक जबरदस्त सवाल है। क्या हम इतने कम सैनिकों के साथ उस विशाल शत्रु का सामना कर सकते हैं? मेरा सुझाव है कि हम इस प्रश्न का उत्तर क्यों ना देवी मां से ही मांग ले। देखिए मैं देवी मां के सम्मुख अपने हाथ में रखे इस सिक्के को उछालता हूं। यदि यह सिक्का पट गिरता है तो इसका अर्थ है देवी माँ की अनुमति है कि हम शत्रु से लड़ाई के लिए आगे बढ़े। और यदि यह चित्त गिरता है तो इसका मतलब है कि हम वापस लौट जायें। बताइए आपकी क्या सलाह है? सभी ने समवेत स्वर से इसके लिए समर्थन व्यक्त किया। अब सेनापति ने सिक्के को ऊपर की ओर उछाला तो सिक्का पट गिरा। यह देखते ही सारे सेना में हर्षोल्लास की ध्वनि गूंज उठी। सभी ने मिलकर दुगने उत्साह से जोरदार ढंग से शत्रु की सेना पर आक्रमण किया। परिणाम स्वरूप दुश्मन को हराकर उन्होंने विजय प्राप्त की। विजय पताका फहराते हुए वे लौटते समय जब देवी मां के मंदिर के पास धन्यवाद देने के लिए कुछ देर के लिए रुके। सेनापति ने तब अपनी जेब से वही सिक्का निकाल कर दिखाया। सिक्के के दोनों तरफ पट ही छपा था। पट आने पर जवानों ने उसे देवी मां की आज्ञा मान लिया था और पूर्ण रुप से विश्वास कर लिया था कि हमारी तो जीत होगी ही होगी। और उन्होंने जीत को प्राप्त किया। क्योंकि उन्होंने सकारात्मक सोचा। उनके अंदर नकारात्मक विचार उठे ही नहीं। जब विचार सकारात्मक होते हैं तो कार्य करने में एक हौसला सा उतपन्न होता है और यही हौसला आपको कामयाबी भी दिलवाता है। यदि हम करने पर उतारू हो जाएं तो कोई भी काम छोटा या बड़ा नही होता। छोटी या बड़ी होती है आपकी दृष्टि। वैसे छोटा या बड़ा कोई भी काम शुरू करने के पहले क्या गुरू के पास या मंदिर में जाकर सिर्फ प्रार्थना करने मात्र से सारे काम सफल हो सकते हैं? क्या हमारे मन में ईश्वर के प्रति पूर्ण अडिग विश्वास है। छल कपट से रहित उसी मनोभाव की उपस्थिति में यदि नकारात्मक विचार सर नहीं उठाएंगे तो निसन्देह वांछित मनोरथ पूर्ण होंगे। लेकिन यदि आप सोचते हैं कि प्रार्थना के समय बात तो ईश्वर से कर रहे हैं लेकिन मन में भय और शंका पाल रखी है तो अपने इष्ट देव के साथ नाता जोड़ना कहां संभव है। इस तरह तो आप आस्था के नाम पर स्वयं को ही ठग रहे हैं। ऐसी झूठी आस्था कार्यों की सिद्धि में कभी भी सहायक नहीं होती। कार्यों की सिद्धि के लिए तो उचित कर्म जो भय शंका लज्जा के डर से दूर हो वही करना पड़ता है तभी भाग्य के रूप में ईश्वर पुरुषार्थ को सफलता देता है। —श्रुति
भाग्य और पुरुषार्थ सफलता रूपी नौका के दो चप्पू । (vedic vichar)
11-06-2022
बहुत लोग सफलता को भाग्य और भाग्य रेखाओं से मानते है। कुछ ऐसे हैं जो केवल पुरुषार्थ अर्थात् कड़ी मेहनत को सफलता की कुंजी मानते है।जबकि सफलता के लिए भाग्य और पुरुषार्थ दोनों का होना आवश्यक है।जो कर्म हमने पिछले जन्म में या अतीत में किये वे हमारा वर्तमान जन्म या समय में भाग्य बना और जो कर्म या पुरूषार्थ हम वर्तमान समय कर रहे हैं वे हमारा कल का भाग्य बनेगा। केवल धन प्राप्ति ही भाग्य या सफलता नहीं है।क्योंकि एक विद्यार्थी की सफलता अच्छे अंक प्राप्त करके अच्छी नौकरी प्राप्त करना है एक खिलाड़ी की सफलता प्रतिद्वंदी को हराने में है एक नेता की सफलता या अच्छा भाग्य चुनाव जीतने में है।इस तरह व्यक्ति की कामनाओं की पूर्ति को ही अच्छा भाग्य और सफलता कहा जाता है जिसके पीछे कड़ी महन्त या पुरुषार्थ अवश्य होता है। इसको हम इस तरह भी समझ सकते हैं जैसे कि हम किसी स्थान पर जाते हैं और बहुत भूख लगी है वहाँ भाग्य से भोजन के लिए सारा समान पड़ा है अब हम पुरुषार्थ करेंगे और खाना बनाएँगे तो ही हमारी भूख शांत होगी। ???? बहुत लोग सफलता प्राप्ति के लिए अलग अलग मन्दिरों गुरूओं पंडितों दरगाहों पर जा कर मन्नत माँगते है।किसी की वे कामना पूरी होती है किसी की नहीं। इसका कारण है कि कोई वस्तु परमात्मा से मांगने से पहले उस वस्तु को प्राप्त करने के लिए उसके अनुसार प्रयत्न करना आवश्यक है ।विधार्थी परमात्मा से प्रार्थना करे कि वह उसे परीक्षा में पास कर दे , तो विधार्थी का कर्तव्य है कि वह परीक्षा की तैयारी पूरी मेहनत से करे । हम ईशवर से प्रार्थना करे कि वह हमें तीक्ष्ण बुद्धि दे तो उस के लिए हमें भी ऐसे यत्न करने चाहिए जिससे बुद्धि तीक्ष्ण हो - खान, पान, अच्छी- अच्छी पुस्तकों का पढ़ना और तप आदि करें ।व्यापारी चाहता है कि वे धन का स्वामी बने उसके लिए उसे समय अनुसार सोच विचार कर कड़ी मेहनत भी करनी होगी और जो साधन उसके पास होंगे वे उसका पिछला भाग्य कहलाता है और पुरुषार्थ आगे का भाग्य बनाता है। यदि हम स्वयं प्रयत्न न करे और ईशवर से मांगते रहें तो हमें कुछ नहीं मिलेगा । जो ईशवर के सहारे आलसी बन कर बैठे रहते है , और भाग्य का ही इन्तज़ार करते है उन्हें कुछ प्राप्त नहीं होता , क्योंकि ईशवर की पुरूषार्थ करने की आज्ञा है ।ईशवर उसी की सहायता करता है जो अपनी सहायता आप करता है कई बार लोग ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि हे ईश्वर मेरी मनोकामना पूरी हो जाए। आपने देखा होगा कि कई बार उनकी मनोकामनाएं पूरी भी हो जाती है। तो अब सवाल उठता है क्या ईश्वर स्वयं आकर उनकी मनोकामनाएं पूरी करता है या कोई और बात है। ????एक समय की बात है कि कोई सेनानायक अपनी सेना को लेकर रणक्षेत्र की ओर कूच कर रहा था। उसने अभी आधा ही रास्ता तय किया था कि रास्ते में गुप्तचर ने आकर कहा कि महाराज हमारी सेना में एक हजार ही सिपाही हैं जबकि दुश्मन कि सेना में दस हजार सिपाही है। तो महाराज हमारे लिए यही उचित होगा कि हम आत्मसमर्पण कर दे। यह सूचना पाते ही सारी सेना का हौसला पस्त हो गया। तब सेनापति ने अपनी सेना से कहा कि चलो सामने मंदिर में चल कर हम फैसला करते हैं। उचित सलाह मशविरा करते हैं। मंदिर पहुंचकर सेनापति ने संबोधित किया- मेरे प्यारे साथियों हमारे सामने एक जबरदस्त सवाल है। क्या हम इतने कम सैनिकों के साथ उस विशाल शत्रु का सामना कर सकते हैं? मेरा सुझाव है कि हम इस प्रश्न का उत्तर क्यों ना देवी मां से ही मांग ले। देखिए मैं देवी मां के सम्मुख अपने हाथ में रखे इस सिक्के को उछालता हूं। यदि यह सिक्का पट गिरता है तो इसका अर्थ है देवी माँ की अनुमति है कि हम शत्रु से लड़ाई के लिए आगे बढ़े। और यदि यह चित्त गिरता है तो इसका मतलब है कि हम वापस लौट जायें। बताइए आपकी क्या सलाह है? सभी ने समवेत स्वर से इसके लिए समर्थन व्यक्त किया। अब सेनापति ने सिक्के को ऊपर की ओर उछाला तो सिक्का पट गिरा। यह देखते ही सारे सेना में हर्षोल्लास की ध्वनि गूंज उठी। सभी ने मिलकर दुगने उत्साह से जोरदार ढंग से शत्रु की सेना पर आक्रमण किया। परिणाम स्वरूप दुश्मन को हराकर उन्होंने विजय प्राप्त की। विजय पताका फहराते हुए वे लौटते समय जब देवी मां के मंदिर के पास धन्यवाद देने के लिए कुछ देर के लिए रुके। सेनापति ने तब अपनी जेब से वही सिक्का निकाल कर दिखाया। सिक्के के दोनों तरफ पट ही छपा था। पट आने पर जवानों ने उसे देवी मां की आज्ञा मान लिया था और पूर्ण रुप से विश्वास कर लिया था कि हमारी तो जीत होगी ही होगी। और उन्होंने जीत को प्राप्त किया। क्योंकि उन्होंने सकारात्मक सोचा। उनके अंदर नकारात्मक विचार उठे ही नहीं। जब विचार सकारात्मक होते हैं तो कार्य करने में एक हौसला सा उतपन्न होता है और यही हौसला आपको कामयाबी भी दिलवाता है। यदि हम करने पर उतारू हो जाएं तो कोई भी काम छोटा या बड़ा नही होता। छोटी या बड़ी होती है आपकी दृष्टि। वैसे छोटा या बड़ा कोई भी काम शुरू करने के पहले क्या गुरू के पास या मंदिर में जाकर सिर्फ प्रार्थना करने मात्र से सारे काम सफल हो सकते हैं? क्या हमारे मन में ईश्वर के प्रति पूर्ण अडिग विश्वास है। छल कपट से रहित उसी मनोभाव की उपस्थिति में यदि नकारात्मक विचार सर नहीं उठाएंगे तो निसन्देह वांछित मनोरथ पूर्ण होंगे। लेकिन यदि आप सोचते हैं कि प्रार्थना के समय बात तो ईश्वर से कर रहे हैं लेकिन मन में भय और शंका पाल रखी है तो अपने इष्ट देव के साथ नाता जोड़ना कहां संभव है। इस तरह तो आप आस्था के नाम पर स्वयं को ही ठग रहे हैं। ऐसी झूठी आस्था कार्यों की सिद्धि में कभी भी सहायक नहीं होती। कार्यों की सिद्धि के लिए तो उचित कर्म जो भय शंका लज्जा के डर से दूर हो वही करना पड़ता है तभी भाग्य के रूप में ईश्वर पुरुषार्थ को सफलता देता है। —श्रुति
*ईश्वर की भक्ति* (vedic vichar)
11-06-2022
*प्रश्न:― कृपया बताईये कि भक्ति किसे कहते हैं और उसका स्वरुप क्या है?* *उत्तर:―*जिन साधनों से ईश्वर का साक्षात्कार होता है, उसे भक्ति कहते हैं। उस भक्ति के तीन भाग हैं―स्तुति, प्रार्थना, उपासना। *स्तुति:―*स्तुति का अर्थ है ईश्वर के गुण गान करना, उसके गुणों का चिन्तन करना और उन्हें अपने जीवन में धारण करना, तथा जीवन में उन गुणों को धारण कर उनसे लाभ उठाना। मनुष्य का यह स्वाभाविक गुण है कि वह प्रत्येक वस्तु के गुणों को जानना चाहता है, छोटा बच्चा भी जब किसी वस्तु को देखता है, तो पूछता है कि यह क्या है, ऐसी क्यों है, इसका नाम क्या है इत्यादि। *प्रार्थना:―*प्रार्थना का अर्थ है, किसी वस्तु के गुण जानने के पश्चात् उस वस्तु को पाने की प्रबल इच्छा का उत्पन्न हो जाना। यह स्वाभाविक ही है। प्रार्थना का सीधा अर्थ है, किसी से कुछ मांगना, ईश्वर से कुछ मांगने का नाम प्रार्थना है। यह तीन प्रकार की है। यथा― *(१) प्रथम उत्तम प्रार्थना―*जिससे संसार के प्राणी मात्र का भला हो ऐसी प्रार्थना करना उत्तम प्रार्थना है। यथा― *निस्सन्तान संतानयुक्त हों, सन्तान वाले पुत्र पौत्रों से युक्त हों, निर्धन धन सम्पन्न हों, तथा सब लोग सौ वर्ष की दीर्घायु को देखें। समय-समय पर वर्षा हो। पृथिवी माता हरे भरे अन्नों से सुशोभित हो, सारा देश क्षोभ से रहित हो। देश के ज्ञानी, विज्ञानी, ब्राह्मण निर्भय होकर विचरें। संसार के सब प्राणी सुखी हों, कोई भी दुःखी दृष्टि गोचर न हो। सब रोग रहित होकर भद्र को देखें।* *(२) द्वितीय मध्यम प्रार्थना―*जिसमें आत्म कल्याण और आत्महित की भावना हो यथा ― *हे प्रभो ! मेरा जीवन शुद्ध और पवित्र हो, बल, बुद्धि, यश, तेज, सत्यता, उदारता आदि शुभ गुणों का मेरे जीवन में वास हो। मैं विषयों, व्यसनों, दुर्गुणों एवं मृत्यु से पृथक् होकर मोक्षानन्द का लाभ करूँ।मृत्यु र्मुक्षीय माऽमृतात्"* *(३) तृतीय निकृष्ट प्रार्थना:―*जिसमें अपना स्वार्थ और अन्यों के बुरे की भावना भरी हो। यथा मुझे धन, पशु, सन्तान, सुख की प्राप्ति हो जाय और मेरे शत्रु इन वस्तुओं से रहित होकर दुःख, दारिद्रय, और रोगों को प्राप्त कर मौत के दर्शन करें। ऐसी प्रार्थना ईश्वर कभी स्वीकार नहीं करते। *उपासना:―*भक्ति का तीसरा अंग उपासना है इसका अर्थ है ईश्वर के समीप बैठना, ईश्वर के गुणों को अपने में धारण करके उस जैसा हो जाना। इस अवस्था को प्राप्त कर भक्त कह उठता है, *अहं ब्रह्माऽस्मि"* मैं ब्रह्मस्थ हो गया हूँ। जीव किसी अवस्था में भी ब्रह्म नहीं हो सकता। हाँ, समाधि अवस्था में कुछ समय के लिए वह अपने को ब्रह्म समान समझने लगता है जैसे लोहा, आग में पड़कर आग के समान हो जाता है। परन्तु आग नहीं बन जाता, आग से पृथक् होने पर पुनः लोहा ही रहता है।इसी प्रकार भक्ति द्वारा ईश्वर के कुछ गुण उपासक में आ जाते हैं
#मनुष्य कौन ?? (Vedic vichar)
11-06-2022
मनुष्य उसी को कहना जो मननशील /विचारशील होकर स्वात्मवत् [अपनी आत्मा के समान] अन्यों के सुख-दुख और हानि-लाभ को समझे। अन्यायकारी बलवान से भी न डरे और धर्मात्मा निर्बल से भी डरता रहे। इतना ही नहीं किन्तु अपने सर्व सामर्थ्य से धर्मात्माओं- कि चाहे वे महा अनाथ, निर्बल और गुणरहित क्यों न हों- उनकी रक्षा, उन्नति, प्रियाचरण और अधर्मी चाहे चक्रवर्ती महाबलवान और गुणवान भी हो तथापि उसका नाश, अवनति और अप्रियाचरण सदा किया करे अर्थात् जहां तक हो सके वहां तक अन्यायकारियों के बल की हानि और न्यायकारियों के बल की उन्नति सर्वदा किया करें। इस काम में चाहे कितना ही दारुण दु:ख प्राप्त हो, चाहे प्राण भी भले ही जावें परन्तु इस मनुष्यपनरूप धर्म से पृथक कभी न होवे। - " ऋषि दयानन्द "
*ऐसी मूर्खता आप नहीं करें |* (vedic vichar)
11-06-2022
पौराणिक कहते हैं कि, आर्य समाजी अपने ग्रंथों (मिलावटी ग्रंथ) में सदैव न्यूनताऐं और दोष क्यों खोजते रहते हैं ? क्या आपने कभी किसी मुसलमान को अपनी कुरान, हदीश और मौलानाओं पर प्रश्नचिह्न खडे़ करते देखा है ? मैं अपने पौराणिकों से कहना चाहूँगा कि, वे ऐसा नहीं करतें हैं, इसीलिए वे हम लोगों के तर्कों के समक्ष आदम हव्वा ,हलाला, अल्ला,तीन तलाक, सातवाँ आसमान,और जन्नत , ७२ हुरों तथा गिलमों कुँवारी के गर्भ ठहरना ,ईश्वर का बेटा , पृथ्वी के चार कोने हैं*और खम्बों पर खडी है पशु बली ,बेटियों से सम्भोग जैसे विषयों पर फंसकर निरुत्तर हो जाते हैं | और जहन्नम और पाप फल का भय दिखाकर या काफिर कह कर पल्ला झाड़ लेते हैं | क्या इस्लाम और ईसाईयत को मानने वाले लोग परमात्मा तक पहुँचे हैं ? क्या वे योग ध्यान और साधना को समझ पाए हैं ? क्या वे विज्ञान को समझ पाते हैं ? आज भी उनके लिए पृथ्वी चपटी ही है और आकाश में फटक लगे हैं सूर्य घुमता है धरती खड़ी है। कुरान के कितने विशेषज्ञ नासा में कार्य करते हैं ? इस्लाम को मानने वालों ने कौन सा अविष्कार किया ? धर्म और विज्ञान को वही समझ सकता है, जो तर्क करेगा, प्रश्न उठाएगा | न्याय दर्शन तो कहता है कि आप जितना अधिक तर्क करेगें, धर्म को समझने में आसानी होगी | यदि कोई पुराणों की विसंगतियों और मनुस्मृति, रामायण और महाभारत आदि ग्रन्थों के मिलावटी भाग पर और श्री कृष्ण व श्री राम के जीवन पर कुछ शंका करते हैं, तो हम भी निरुत्तर हो जाते हैं ? हम भी यही उत्तर देते हैं कि सब भगवान की लीला है | आप नहीं समझ सकते हैं । इससे अधिक कुछ नहीं बता पायेगें । जो प्रश्न पूछने पर आपत्ति करे, और उतर देने में असमर्थ हो उसका नाम पौराणिक, इस्लाम और ईसाईयत है और जो प्रश्न पूछने की अनुमति दे उसका नाम वैदिक धर्म है, यही हमारी सबसे बडी़ विशेषता है । तर्क से ही हमारे विचार शुद्ध होते हैं ज्ञान बढ़ता है | इस्लाम और ईसाई कहता है कि, सोचो मत, कुरान, बाईबल के कहे अनुसार चलो, नहीं तो जहन्नम में जाओगे, पापी कहलाओगे, योहवा दंड देगा इसीलिए वे अशांत रहते है परन्तु अपनी मूर्खता पर कभी नहीं सोचते हैं । अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए हमारे कुछ तथाकथित गुरुओं ने भी कहा कि गुरू जो भी कहे, आप वैसा ही करें गुरू के बग़ैर मुक्ति नहीं मुसलमान और ईसाई भी हर बात मौलानाओ और पादरियों से पूछते हैं और उसी अनुसार चलते हैं बुद्धी का तर्क का इस्तेमाल नहीं करते और इसी दर्शन के कारण, आज इतना पाखण्ड धर्म के नाम पर फैला है । वैदिक धर्म को विश्व में जो सम्मान मिलता है, वह उसकी प्रामाणिकता पर ही मिलता है, ना कि अन्धविश्वास पर | आज विश्व वेदों योग यज्ञ आयुर्वेद कि ओर चलने लगा है यह परिवर्तन तर्क सत्य विज्ञान और सृष्टि नियमों के अनुरूप वैदिक धर्म की प्रमाणिकता के कारण हो रहा है। यदि अपने धर्म और संस्कृति से प्रेम है, तो प्रामाणिक बनो! अंधविश्वासी नहीं ! तर्कशील बने ! जड़ बुद्धी नहीं। .......... वैदिक विचार |
*मोक्ष - जीवन का परम लक्ष्य* (vedic vichar)
11-06-2022
*मोक्ष का अर्थ क्या है ?* उत्तर-मोक्ष का अर्थ है, समस्त दुःख, भय चिंता, रोग, शोक, पीड़ा जन्म-मरण के बंधन से छूटकर परमपिता परमात्मा के परम आनन्द को प्राप्त करना तथा बिना शरीर के भी इच्छानुसार स्वतंत्रता पूर्वक समस्त लोक-लोकान्तरों में भ्रमण करना। *मोक्ष कितनी अवधि का होता है?* उत्तर - मोक्ष की समय अवधि है - 36 हजार बार सृष्टि की उत्पत्ति व विनाश होने तक अर्थात् 31 नील 10 खरब 40 अरब वर्षों तक ईश्वर के आनंद मे मग्न रहना । *मोक्ष क्यों होना चाहिये ?* उत्तर- समस्त दुःखों से छूटने के लिए मोक्ष चाहिए। *मोक्ष कब और किसे मिलेगा ?* उत्तर- अष्टाङ्ग योग का अनुष्ठान करते हुए समाधि लगाकरके राग-द्वेषादि समस्त क्लेशों को विनष्ट करने वाले योगी को शरीर छोड़ने के बाद मोक्ष मिलता है। *मोक्ष कैसे होगा अर्थात मोक्ष प्राप्ति के साधन कौन-कौन से हैं ?* उत्तर- (1) स्वाध्याय-स्वतसंग, साधना के माध्यम से विवेक-वैराग्य को उत्पन्न करना। (2) यम-नियम आसन प्राणायाम, प्रत्यहार ध्यान धारणा आदि अष्टाङ्ग योग का अभ्यास करना। (3)- पुत्रैषणा वित्तेषणा और लोकेषणा को नष्ट करना। (4) ईश्वर प्रणिधान पूर्वक निष्काम भाव से अर्थात ईश्वर को प्राप्त करने और कराने के लिए ही सब कार्य करना । (5)- सभी जीवों में और संसार के प्रत्येक पदार्थ में ईश्वर को देखना। (6)- षड्सम्पत्ति को अर्जित करना जैसे कि A- *शम* :- मन का शमन करने अर्थात मन को वश में रखना। B- *दम* :- इंद्रियों का दमन करना अर्थात इंद्रियों को अपने नियंत्रण में रखना। C- *तितिक्षा* :- सर्दी गर्मी, मान-अपमान हानि लाभ इन सबसे विचलित न होकरके इनको सहन करते हुए योग पथ में बढते रहना। D- *उपरति* ::- दुर्जनो और दुष्टकर्मों से पृथक रहना । E- *श्रद्धा* :- ईश्वर, वेद, गुरु-आचार्य के उपदेशों पर पूर्ण विश्वास रखना और निष्ठापूर्वक वेदानुकूल आचरण करना। F- *समाधान* :- चित्त को ईश्वर के ध्यान में एकाग्र करके समाधि अवस्था को प्राप्त करना । (7) *मुमुक्षुत्व* की स्थिति को धारण करना अर्थात सुबह उठने से ले करके रात्रि में सोने पर्यन्त हर कार्य को करते हुए मोक्ष प्राप्त करने की तीव्र इच्छा मन मे बनाये रखना। (8) रात्रि में सोने से पहले *आत्मनिरीक्षण* करना कि मैंने दिनभर में ईश्वर के जप ध्यान में कितना समय लगाया और आगे इसकी वृद्धि के लिए संकल्प करना । इस प्रकार जपमय-तपमय- संकल्पमय जीवन बनाना। (9) *श्रवण चतुष्टय* :- अर्थात गुरुजनों अथवा मोक्ष शास्त्र के उपदेशों को ध्यान से सुनना-पढ़ना, मनन- सुने हुए व पढ़े हुए आध्यात्मिक विषयो पर गहराई से चिंतन करना । निदिध्यासन-चिंतन किए हुए विषयों पर निर्णय करना । साक्षात्कार- निर्णय किये हुए कर्तव्य कर्म को आचरण में लाना और अविहित कर्मों का परित्याग कर देना। (10) संसार और सांसारिक विषयों के प्रति आसक्ति= *रागद्वेषादिअविद्या* को नष्ट करना। -स्वामी शान्तानन्द सरस्वती जी स्थल:- "आत्मसाधना शिविर" दर्शनयोग महाविद्यालय सुंदरपुर, रोहतक
*मोक्ष - जीवन का परम लक्ष्य* (vedic vichar)
11-06-2022
*मोक्ष का अर्थ क्या है ?* उत्तर-मोक्ष का अर्थ है, समस्त दुःख, भय चिंता, रोग, शोक, पीड़ा जन्म-मरण के बंधन से छूटकर परमपिता परमात्मा के परम आनन्द को प्राप्त करना तथा बिना शरीर के भी इच्छानुसार स्वतंत्रता पूर्वक समस्त लोक-लोकान्तरों में भ्रमण करना। *मोक्ष कितनी अवधि का होता है?* उत्तर - मोक्ष की समय अवधि है - 36 हजार बार सृष्टि की उत्पत्ति व विनाश होने तक अर्थात् 31 नील 10 खरब 40 अरब वर्षों तक ईश्वर के आनंद मे मग्न रहना । *मोक्ष क्यों होना चाहिये ?* उत्तर- समस्त दुःखों से छूटने के लिए मोक्ष चाहिए। *मोक्ष कब और किसे मिलेगा ?* उत्तर- अष्टाङ्ग योग का अनुष्ठान करते हुए समाधि लगाकरके राग-द्वेषादि समस्त क्लेशों को विनष्ट करने वाले योगी को शरीर छोड़ने के बाद मोक्ष मिलता है। *मोक्ष कैसे होगा अर्थात मोक्ष प्राप्ति के साधन कौन-कौन से हैं ?* उत्तर- (1) स्वाध्याय-स्वतसंग, साधना के माध्यम से विवेक-वैराग्य को उत्पन्न करना। (2) यम-नियम आसन प्राणायाम, प्रत्यहार ध्यान धारणा आदि अष्टाङ्ग योग का अभ्यास करना। (3)- पुत्रैषणा वित्तेषणा और लोकेषणा को नष्ट करना। (4) ईश्वर प्रणिधान पूर्वक निष्काम भाव से अर्थात ईश्वर को प्राप्त करने और कराने के लिए ही सब कार्य करना । (5)- सभी जीवों में और संसार के प्रत्येक पदार्थ में ईश्वर को देखना। (6)- षड्सम्पत्ति को अर्जित करना जैसे कि A- *शम* :- मन का शमन करने अर्थात मन को वश में रखना। B- *दम* :- इंद्रियों का दमन करना अर्थात इंद्रियों को अपने नियंत्रण में रखना। C- *तितिक्षा* :- सर्दी गर्मी, मान-अपमान हानि लाभ इन सबसे विचलित न होकरके इनको सहन करते हुए योग पथ में बढते रहना। D- *उपरति* ::- दुर्जनो और दुष्टकर्मों से पृथक रहना । E- *श्रद्धा* :- ईश्वर, वेद, गुरु-आचार्य के उपदेशों पर पूर्ण विश्वास रखना और निष्ठापूर्वक वेदानुकूल आचरण करना। F- *समाधान* :- चित्त को ईश्वर के ध्यान में एकाग्र करके समाधि अवस्था को प्राप्त करना । (7) *मुमुक्षुत्व* की स्थिति को धारण करना अर्थात सुबह उठने से ले करके रात्रि में सोने पर्यन्त हर कार्य को करते हुए मोक्ष प्राप्त करने की तीव्र इच्छा मन मे बनाये रखना। (8) रात्रि में सोने से पहले *आत्मनिरीक्षण* करना कि मैंने दिनभर में ईश्वर के जप ध्यान में कितना समय लगाया और आगे इसकी वृद्धि के लिए संकल्प करना । इस प्रकार जपमय-तपमय- संकल्पमय जीवन बनाना। (9) *श्रवण चतुष्टय* :- अर्थात गुरुजनों अथवा मोक्ष शास्त्र के उपदेशों को ध्यान से सुनना-पढ़ना, मनन- सुने हुए व पढ़े हुए आध्यात्मिक विषयो पर गहराई से चिंतन करना । निदिध्यासन-चिंतन किए हुए विषयों पर निर्णय करना । साक्षात्कार- निर्णय किये हुए कर्तव्य कर्म को आचरण में लाना और अविहित कर्मों का परित्याग कर देना। (10) संसार और सांसारिक विषयों के प्रति आसक्ति= *रागद्वेषादिअविद्या* को नष्ट करना। -स्वामी शान्तानन्द सरस्वती जी स्थल:- "आत्मसाधना शिविर" दर्शनयोग महाविद्यालय सुंदरपुर, रोहतक
याद रखें! ये इतिहास पुराना नहीं (vedic vichar)
11-06-2022
हर दिन लोहे के मोटे चिमटे गर्म कर मांस नोंचने की प्रताड़ना को सहते हुए भी अपने धर्म पर अडिग रहने वाले महान योद्धा वीर बंदा वैरागी ने इस्लाम नहीं अपनाया... हर सुबह ऐसे ही होती थी कि, उनको और उनके साथियों को इस्लाम स्वीकार करने को कहा जाता था,, मना करने पर उनके साथियों की गर्दन काट दी जाती थीं और वीर बंदा वैरागी का मांस नोचा जाता था.. सारी क्रूरता पार करके.. एक दिन जिहादियों ने बंदा वैरागी के पाँच वर्षीय पुत्र अजय को उनकी गोद में लेटाकर बन्दा के हाथ में छुरा देकर उस अबोध बालक को मारने को कहा। वीर बन्दा वैरागी ने ऐसा करने से मना कर दिया। लेकिन तभी जेहादियों की तलवार ने बड़ी ही निर्ममता से उस बच्चे के टुकड़े कर दिए,, उस छोटे से बालक को चीरकर उसके दिल का माँस जंजीरों मे जकडे वीर बंदा वैरागी के मुँह में जबरदस्ती ठूँस दिया... कल्पना करके भी आज आत्मा कांप उठती है कि,, कितना भीषण दृश्य रहा होगा, एक पिता के मुंह में उसके छोटे से पुत्र का हृदय निकालकर मुंह में ठूस दिया गया था.. किन्तु फिर भी इस्लाम को नहीं अपनाया ,, योद्धाओं ने हमारे सनातन धर्म की रक्षा के लिए कितना बलिदान दिया, देश और धर्म के लिए हर प्रकार की प्रताड़ना सहन की और बलिदान हो गए... नकली इतिहासकार यदि इनकी चर्चा करते तो खतरे में पड़ जाता उनका सेक्युलरिज्म,, इनके बारे में बताते तो उनके आका नाराज हो जाते जिनकी चाटुकारिता के उन्हें पैसे मिलते थे .. यदि इनकी वीरगाथा हर सनातन धर्मी को पता चल जाती तो न लव जिहाद होता, और न ही धर्मांतरण .. और ये सब यदि नहीं हो सकता तो, भारत को भविष्य में इस्लामिक राष्ट्र बनाने का इनका सपना कैसे पूरा हो सकता.. इसीलिए भारत के इतिहास को विकृत करने वाले चाटुकार इतिहासकारो के किये पाप का नतीजा है कि धर्म के लिए सर्वोच्च बलिदान देने वाले बंदा बैरागी का आज बलिदान दिवस है जिसे बहुत कम भारतीय जानते हैं... उस एक योद्धा बंदा वैरागी को हर तरह की यातनाएं दी गईं... गरम चिमटों से माँस नोचे जाने के कारण उनके शरीर में केवल हड्डियाँ शेष थी। किंतु फिर भी, जब उनके सामने इस्लाम कुबूल करने को कहा जाता,, तब भी उनके मुख से "ना" शब्द ही निकलता था आज ही के दिन अर्थात 9 जून, 1716 को उस वीर को आखिरी बार पिंजरे से बाहर लाया गया, और एक बार फिर इस्लाम अपनाने को कहा गया,, किन्तु उनका वही उत्तर था, "ना" थोड़ी देर में उन्हें हाथी से कुचलवा दिया गया। और इतिहास का ऐसा पराक्रमी योद्धा जिसका नाम सुनने मात्र से जिहादी भयभीत हो भाग उठते थे... जिधर उस योद्धा की तलवार मुड़ी उधर ही मुग़ल जिहादियों का सर्वनाश हो जाता था,, ऐसे लक्ष्मणदास से बंदा वैरागी बने महान योद्धा को इस भारतवर्ष ने अपने ही गद्दारो के कारण खो दिया... किन्तु दुर्भाग्य है कि स्कूलों के पाठ्यक्रम में ऐसे महान योद्धाओं की वीरता को पढ़ाने के स्थान पर, बाबर और अकबर जैसे जिहादियों और अरबी टट्टुओं की कहानियाँ पढ़ाई जाती हैं... टीपू सुल्तान जैसे दरिंदे को नायक बनाकर इतिहास में पढाया गया, जिस पर एक डरपोक खान फिल्म बना कर रीलिज करने वाला है ताकि सनातन धर्म के बच्चों के मन में अच्छी तरह इस्लामिक शासकों का महिमामंडन व साफ छवि बना कर लव जेहाद को ओर गति दी जा सके.. जिस दिन भारतवर्ष के सनातन धर्मी बच्चे वीर बंदा बैरागी जैसे बलिदानी योद्धाओं के चरित्र को पढ़ने और जानने लगेंगे,, निश्चित ही उस दिन से जिहादियों के सारे षड्यंत्र असफल होंगे... ✍️आचार्य लोकेन्द्र:
वैदिक धर्म-एक -- संक्षिप्त परिचय!!! (Vedic vichar)
11-06-2022
????एक समय वह भी था जब सारे संसार का एक ही धर्म था-वैदिक धर्म।एक ही धर्मग्रन्थ था वेद।एक ही गुरु मंत्र था-गायत्री।सभी का एक ही अभिवादन था-नमस्ते।एक ही विश्वभाषा थी-संस्कृत।और एक ही उपास्य देव था-सृष्टि का रचयिता परमपिता परमेश्वर,जिसका मुख्य नाम ओ३म् है।तब संसार के सभी मनुष्यों की एक ही संज्ञा थी-आर्य।सारा विश्व एकता के इस सप्त सूत्रों में बँधा,प्रभु का प्यार प्राप्त कर सुख शान्ति से रहता था।दुनिया भर के लोग आर्यावर्त कहलाने वाले इस देश भारत में विद्या ग्रहण करने आते थे।अध्यात्म और योग में इसका कोई सानी नहीं था। किन्तु महाभारत युद्ध के पश्चात् ब्राह्मण वर्णीय जनों के 'अनभ्यासेन वेदानां' अर्थात् वेदों के अनभ्यास तथा आलस्य और स्वार्थ बुद्धि के कारण स्थिति बदली और क्षत्रियों में "जिसकी लाठी उसकी भैंस" वाली एकतांत्रिक सामन्तवादी प्रणाली चल पड़ी।धर्म के नाम पर पाखंडियों अर्थात् वेदनिन्दक ,वेदविरुद्ध आचरण करने वालों की बीन बजने लगी,यह विश्वसम्राट् एवं जगतगुरु भारत विदेशियों का क्रीतदास बनकर रह गया।जो जगतगुरु सबका सरताज कहलाने वाला था उसे मोहताज बना दिया गया। दासता की इन्हीं बेड़ियों को काटने और धर्म का वास्तविक स्वरुप बताने के लिए युगों-युगों के पश्चात् इस भारत भूमि गुजरात प्रान्त के टंकारा ग्राम की मिट्टी से एक रत्न पैदा हुआ जिसका नाम मूलशंकर रखा गया।जो बाद में'महर्षि दयानन्द सरस्वती' के नाम से विश्वविख्यात् हुआ।जब उसने धर्म के नाम पर पल रहे घोर अधर्म,अन्धविश्वास,रुढ़िवाद,गुरुड़मवाद,जन्मगत मिथ्या जात्याभिमान,बहुदेववाद,अवतारवाद,फलित ज्योतिष,मृतक श्राद्ध और मूर्ति पूजा आदि बुराइयों के विरुद्ध पाखण्ड-खण्डिनी पताका को फहराते हुए निर्भय नाद किया तो सारा भूमंडल टंकारा वाले ऋषि की जय जयकार कर उठा। उसकी इस विजय के पीछे सबसे बड़ा कारण चिरकाल से सोई हुई मानव जाति को उसके वास्तविक धर्म से परिचित कराना था।महर्षि ने धर्म के नाम पर लुटती मानवता को अज्ञान अन्धकार से बाहर निकालकर सत्य सनातन वैदिक धर्म में पुनः स्थापित किया।आज यदि हम निष्पक्ष होकर तुलना करें कि वैदिक सम्पत्ति को हमारे समक्ष किसने प्रस्तुत किया तो वह मुक्तात्मा देव दयानन्द है,जिसके ऋण से उऋण हम तभी हो सकते हैं जब वैदिक धर्म को भली-भाँति समझकर अपने जीवन को उसके प्रकाश से आलोकित करें। वैदिक धर्म संसार के सभी मतों और सम्प्रदायों का उसी प्रकार आधार है जिस प्रकार संसार की समस्त भाषाओं का आधार संस्कृत भाषा है जो सृष्टि के प्रारम्भ से अभी तक अस्तित्व में है।संसार भर के अन्य मत ,पन्थ किसी पीर-पैगम्बर,मसीहागुरु,महात्मा आदि द्वारा चलाये गये हैं,किन्तु चारों वेदों के अपौरुषेय होने से वैदिक धर्म ईश्वरीय है,किसी मनुष्य का चलाया हुआ नहीं है। वैदिक धर्म में एक निराकार,सर्वज्ञ,सर्वव्यापक,न्यायकारी ईश्वर को ही पूज्य माना जाता है,उसी की उपासना की जाती है,उसके स्थान पर अन्य देवी-देवताओं की नहीं। धर्म की परिभाषा : - जिसका स्वरुप ईश्वर की आज्ञा का यथावत पालन और पक्षपातरहित न्याय सर्वहित करना है,जो प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सुपरीक्षित और वेदोक्त होने से सब मनुष्यों के लिए मानने योग्य है ,उसे धर्म कहते हैं। उत्तम मानवीय गुण-कर्म-स्वभाव को धारण करना ही धर्म की सार्थकता को सिद्ध करता है।
*रामप्रसाद बिस्मिल जी के जीवन के कुछ संस्मरण।* (vedic vichar)
11-06-2022
(११ जुन जन्म दिवस पर विशेष) *नशा छोड़ राष्ट्र भक्त कैसे बनें* पं० रामप्रसाद बिस्मिल जी का जन्म उत्तरप्रदेश में स्थित शाहजहांपुरा में 11 जून 1897 ई. को हुआ था। इनके पिता का नाम मुरलीधर तथा माता का नाम मूलमती था। इनके घर की आर्थिक अवस्था अच्छी नहीं थी। बालकपन से ही इन्हें गाय पालने का बड़ा शौक था। बाल्यकाल में बड़े उद्दंड थे। पांचवी में दो बार अनुत्तीर्ण हुए। थोड़े दिनों बाद घर से चोरी भी करने लगे तथा उन पैसों से गंदे उपन्यास खरीदकर पढ़ा करते थे, भंग भी पीने लगे। रोज़ाना 40-50 सिगरेट पीते थे। एक दिन भांग पीकर संदूक से पैसे निकाल रहे थे, नशे में होने के कारण संदूकची खटक गई। माता जी ने पकड़ लिया व चाबी पकड़ी गई। बहुत से रूपये व उपन्यास इनकी संदूक से निकले। किताबों से निकले उपन्यासादि उसी समय फाड़ डाले गए व बहुत दण्ड मिला। ( परमात्मा की कृपा से मेरी चोरी पकड़ ली गई, नहीं तो दो-चार साल में न दीन का रहता न दुनिया का –आत्मचरित्र) परंतु विधि की लीला और ही थी। एक दिन शाहजहांपुरा में आर्यसमाज के एक बड़े सन्यासी स्वामी सोमदेव जी आए। बिस्मिल जी का उनके पास आना-जाना होने लगा। इनके जीवन ने पलटा खाया, बिस्मिल जी आर्यसमाजी बन गए और ब्रह्मचर्य का पालन करने लगे। प्रसिद्ध क्रांतिकारी भाई परमानन्द जी की लिखी पुस्तक तवारीखे हिन्द को पढ़कर बिस्मिल जी बहुत प्रभावित हुए। पं० रामप्रसाद ने प्रतिज्ञा की कि ब्रिटिश सरकार से क्रांतिकारियों पर हो रहे अत्याचार का बदला लेकर रहूँगा। *गुरु कौन था?* फाँसी से पुर्व बिस्मिल जी नित्य जेल में वैदिक हवन करते थे। उनके चेहरे पर प्रसन्नता व संतोष देखकर जेलर ने पूछा की तुम्हारा गुरु कौन है? बिस्मिल जी ने कहा कि जिस दिन उसे फाँसी दी जाएगी, उस दिन वह अपने गुरु का नाम बताएगा, और हुआ भी ऐसा ही। फाँसी देते समय जेलर ने जब अपनी बात याद दिलाई तो बिस्मिल जी ने कहा कि मेरा गुरु है स्वामी दयानन्द। *आर्य समाज के कट्टर अनुयायी और पिता से विवाद* स्वामी दयानंद जी की बातों का राम प्रसाद पर इतना गहरा प्रभाव पड़ा कि ये आर्य समाज के सिद्धान्तों को पूरी तरह से अनुसरण करने लगे और आर्य समाज के कट्टर अनुयायी बन गये। इन्होंने आर्य समाज द्वारा आयोजित सम्मेलनों में भाग लेना शुरु कर दिया। इन सम्मेलनों में जो भी सन्यासी महात्मा आते रामप्रसाद उनके प्रवचनों को बड़े ध्यान से सुनकर उन्हें अपनाने की पूरी कोशिश करते। बिस्मिल का परिवार सनातन धर्म में पूर्ण आस्था रखता था और इनके पिता कट्टर पौराणिक थे। उन्हें किसी बाहर वाले व्यक्ति से इनके आर्य समाजी होने का पता चला तो उन्होंने खुद को बड़ा अपमानित महसूस किया। क्योंकि वो रामप्रसाद के आर्य समाजी होने से पूरी तरह से अनजान थे। अतः घर आकर उन्होंने इनसे आर्य समाज छोड़ देने का लिये कहा। लेकिन बिस्मिल ने अपने पिता की बात मानने के स्थान पर उन्हें उल्टे समझाना शुरु कर दिया। अपने पुत्र को इस तरह बहस करते देख वो स्वंय को और अपमानित महसूस करने लगे। उन्होंने क्रोध में भर कर इनसे कहा – *“या तो आर्य समाज छोड़ दो या मेरा घर छोड़ दो।”* इस पर बिस्मिल ने अपने सिद्धान्तों पर अटल रहते हुये घर छोड़ने का निश्चय किया और अपने पिता के पैर छूकर उसी समय घर छोड़कर चले गये। इनका शहर में कोई परिचित नहीं था जहाँ ये कुछ समय के लिये रह सके, इसलिये ये जंगल की ओर चले गये। वहीं इन्होंने एक दिन और एक रात व्यतीत की। इन्होंने नदी में नहाकर पूजा-अर्चना की। जब इन्हें भूख लगी तो खेत से हरे चने तोड़कर खा लिये। दूसरी तरफ इनके घर से इस तरह चले जाने पर घर में सभी परेशान हो गये। मुरलीधर को भी गुस्सा शान्त होने पर अपनी गलती का अहसास हुआ और इन्हें खोजने में लग गये। दूसरे दिन शाम के समय जब ये आर्य समाज मंदिर पर स्वामी अखिलानंद जी का प्रवचन सुन रहे थे इनके पिता दो व्यक्तियों के साथ वहाँ गये और इन्हें घर ले आये। तब से उनके पिता ने उनके क्रांतिकारी विचारों का विरोध करना बन्द कर दिया। *फाँसी का दिन* 19 दिसंबर को फाँसी वाले दिन प्रात: 3 बजे बिस्मिल जी उठते है। शौच, स्नान आदि नित्य कर्म करके यज्ञ किया। फिर ईश्वर स्तुति करके वन्देमातरम् तथा भारत माता की जय कहते हुए वे फाँसी के तख्ते के निकट गए। तत्पश्चात् उन्होने कहा – *“मै ब्रिटिश साम्राज्य का विनाश चाहता हूँ।”* फिर पं. रामप्रसाद बिस्मिल जी तख्ते पर चढ़े और ‘विश्वानिदेव सवितर्दुरितानि...’वेद मंत्र का जाप करते हुए फंदे से झूल गए। ऐसी शानदार मौत लाखों में दो-चार को ही प्राप्त हो सकती है। स्वातंत्र्य वीर पं. रामप्रसाद बिस्मिल जी के इस महान बलिदान ने भारत की आजादी की क्रांति को और तेज़ कर दिया। बाद में चन्द्रशेखर आजाद, भगतसिंह, राजगुरु व सुखदेव जैसे हजारों देशभक्तों ने उनकी लिखी अमर रचना ‘सरफ़रोशी की तमन्ना’ गाते हुए अपने बलिदान दिये। पं रामप्रसाद बिस्मिल आदर्श राष्ट्रभक्त तथा क्रांतिकारी साहित्यकार के रूप में हमेशा अमर रहेंगे। दुखद है आज भारत के आधिकांश लोगो ने उन्हें और उनके प्रेरणा स्त्रोत दोनों को भूला दिया है। *परन्तु जब तक हमारे जैसे कुछ परवाने हैं उनको कैसे भूलने देंगे। आखिर हम भी तो आर्यसमाज की ही देन है।*
*रामप्रसाद बिस्मिल जी के जीवन के कुछ संस्मरण* (vedic vichar)
11-06-2022
(11 जून को अमर बलिदानी रामप्रसाद जी के जन्मदिवस पर विशेष रूप से प्रचारित) ????नशा छोङ राष्ट्र भक्त कैसे बने???? पं० रामप्रसाद बिस्मिल जी का जन्म उत्तरप्रदेश में स्थित *शाहजहांपुरा* में 11 जून 1897 ई. को हुआ था। इनके पिता का नाम *मुरलीधर* तथा माता का नाम *मूलमती* था। इनके घर की आर्थिक अवस्था अच्छी नहीं थी। बालकपन से ही इन्हें गाय पालने का बड़ा शौक था। बाल्यकाल में बड़े उद्दंड थे। पांचवी में दो बार अनुत्तीर्ण हुए। थोड़े दिनों बाद घर से चोरी भी करने लगे तथा उन पैसों से गंदे उपन्यास खरीदकर पढ़ा करते थे, भंग भी पीने लगे। रोज़ाना 40-50 सिगरेट पीते थे। एक दिन भांग पीकर संदूक से पैसे निकाल रहे थे, नशे में होने के कारण संदूकची खटक गई। माता जी ने पकड़ लिया व चाबी पकड़ी गई। बहुत से रूपये व उपन्यास इनकी संदूक से निकले। किताबों से निकले उपन्यासादि उसी समय फाड़ डाले गए व बहुत दण्ड मिला। ( _परमात्मा की कृपा से मेरी चोरी पकड़ ली गई, नहीं तो दो-चार साल में न दीन का रहता न दुनिया का_ –आत्मचरित्र) परंतु विधि की लीला और ही थी। एक दिन शाहजहांपुरा में *आर्यसमाज* के एक बड़े सन्यासी *स्वामी सोमदेव* जी आए। बिस्मिल जी का उनके पास आना-जाना होने लगा। इनके जीवन ने पलटा खाया, *बिस्मिल जी आर्यसमाजी बन गए और ब्रह्मचर्य का पालन करने लगे।* प्रसिद्ध क्रांतिकारी भाई परमानन्द जी की लिखी पुस्तक *तवारीखे हिन्द* को पढ़कर बिस्मिल जी बहुत प्रभावित हुए। पं० रामप्रसाद ने प्रतिज्ञा की कि ब्रिटिश सरकार से क्रांतिकारियों पर हो रहे अत्याचार का बदला लेकर रहूँगा। ????गुरु कौन था????? फाँसी से पुर्व *बिस्मिल जी नित्य जेल में वैदिक हवन करते थे।* उनके चेहरे पर प्रसन्नता व संतोष देखकर *जेलर ने पूछा की तुम्हारा गुरु कौन है?* बिस्मिल जी ने कहा कि *जिस दिन उसे फाँसी दी जाएगी, उस दिन वह अपने गुरु का नाम बताएगा*, और हुआ भी ऐसा ही। फाँसी देते समय जेलर ने जब अपनी बात याद दिलाई तो बिस्मिल जी ने कहा कि *मेरा गुरु है स्वामी दयानन्द।* ???? *आर्य समाज के कट्टर अनुयायी और पिता से विवाद*???? *स्वामी दयानंद जी की बातों का राम प्रसाद पर इतना गहरा प्रभाव पड़ा कि ये आर्य समाज के सिद्धान्तों को पूरी तरह से अनुसरण करने लगे* और आर्य समाज के कट्टर अनुयायी बन गये। इन्होंने आर्य समाज द्वारा आयोजित सम्मेलनों में भाग लेना शुरु कर दिया। इन सम्मेलनों में जो भी सन्यासी महात्मा आते रामप्रसाद उनके प्रवचनों को बड़े ध्यान से सुनकर उन्हें अपनाने की पूरी कोशिश करते। बिस्मिल का परिवार सनातन धर्म में पूर्ण आस्था रखता था और इनके पिता कट्टर पौराणिक थे। *उन्हें किसी बाहर वाले व्यक्ति से इनके आर्य समाजी होने का पता चला तो उन्होंने खुद को बड़ा अपमानित महसूस किया।* क्योंकि वो रामप्रसाद के आर्य समाजी होने से पूरी तरह से अनजान थे। अतः घर आकर उन्होंने इनसे आर्य समाज छोड़ देने का लिये कहा। लेकिन बिस्मिल ने अपने पिता की बात मानने के स्थान पर उन्हें उल्टे समझाना शुरु कर दिया। अपने पुत्र को इस तरह बहस करते देख वो स्वंय को और अपमानित महसूस करने लगे। उन्होंने क्रोध में भर कर इनसे कहा – *“या तो आर्य समाज छोड़ दो या मेरा घर छोड़ दो।”* इस पर बिस्मिल ने अपने सिद्धान्तों पर अटल रहते हुये घर छोड़ने का निश्चय किया और *अपने पिता के पैर छूकर उसी समय घर छोड़कर चले गये।* इनका शहर में कोई परिचित नहीं था जहाँ ये कुछ समय के लिये रह सके, इसलिये ये जंगल की ओर चले गये। वहीं इन्होंने एक दिन और एक रात व्यतीत की। इन्होंने नदी में नहाकर पूजा-अर्चना की। जब इन्हें भूख लगी तो खेत से हरे चने तोड़कर खा लिये। दूसरी तरफ इनके घर से इस तरह चले जाने पर घर में सभी परेशान हो गये। *मुरलीधर को भी गुस्सा शान्त होने पर अपनी गलती का अहसास हुआ* और इन्हें खोजने में लग गये। दूसरे दिन शाम के समय जब ये आर्य समाज मंदिर पर स्वामी अखिलानंद जी का प्रवचन सुन रहे थे *इनके पिता दो व्यक्तियों के साथ वहाँ गये और इन्हें घर ले आये।*तब से उनके पिता ने उनके क्रांतिकारी विचारों का विरोध करना बन्द कर दिया। ????फाँसी का दिन???? 19 दिसंबर को फाँसी वाले दिन प्रात: 3 बजे बिस्मिल जी उठते है। शौच , स्नान आदि नित्य कर्म करके यज्ञ किया। फिर ईश्वर स्तुति करके वन्देमातरम् तथा भारत माता की जय कहते हुए वे फाँसी के तख्ते के निकट गए। तत्पश्चात् उन्होने कहा – *“मै ब्रिटिश साम्राज्य का विनाश चाहता हूँ।”* फिर पं. रामप्रसाद बिस्मिल जी तख्ते पर चढ़े और _‘विश्वानिदेव सवितर्दुरितानि...’_ वेद मंत्र का जाप करते हुए फंदे से झूल गए। ऐसी शानदार मौत लाखों में दो-चार को ही प्राप्त हो सकती है। स्वातंत्र्य वीर पं. रामप्रसाद बिस्मिल जी के इस महान बलिदान ने भारत की आजादी की क्रांति को और तेज़ कर दिया। बाद में चन्द्रशेखर आजाद, भगतसिंह, राजगुरु व सुखदेव जैसे हजारों देशभक्तों ने उनकी लिखी अमर रचना *‘सरफ़रोशी की तमन्ना’* गाते हुए अपने बलिदान दिये। पं रामप्रसाद बिस्मिल आदर्श राष्ट्रभक्त तथा क्रांतिकारी साहित्यकार के रूप में हमेशा अमर रहेंगे। दुखद है आज भारत के आधिकांश लोगो ने उन्हें और उनके प्रेरणा स्त्रोत दोनों को भूला दिया है। #RamPrasadBismil #नमन_रामप्रसादबिस्मिल
नारी अधिकारों की तुलना (vedic vichar)
11-06-2022
बाइबिल, कुरान और मनुस्मृति में नारी की स्थिति आज महर्षि मनु को नारी विरोधी बताया जा रहा है मुस्लिम उलेमा कहते हैं कि कुरआन में औरत का दर्जा ऊँचा है. आइए तुलनात्मक रूप से देखें. बाइबल और कुरआन दोनों ही महिला की कीमत पुरुष से लगभग आधी है. यहाँ बाइबल का क्या कहना है।(सन्दर्भ लैव्यव्यवस्था 27: 3-7 ) और तेरा अनुमान पुरुष के बीस वर्ष से लेकर साठ साल की उम्र तक का होगा, यहां तक कि तेरा अनुमान पचास शेकेल चांदी का होगा .... और अगर यह एक महिला है, तो तेरा अनुमान तीस शेकेल होगा। और यदि यह पाँच वर्ष से लेकर बीस वर्ष की आयु तक भी हो, तो तेरा अनुमान पुरुष के बीस शेकेल और स्त्री के दस शेकेल के लिए होगा। और यदि यह एक महीने की उम्र से लेकर पाँच साल की उम्र तक का है, तो तेरा अनुमान पुरुष के पाँच शेकेल चाँदी का होगा, और मादा के लिए तेरा अनुमान चाँदी के तीन शेकेल का होगा। और अगर यह साठ साल की उम्र और ऊपर से हो; यदि वह नर है, तो तेरा अनुमान पंद्रह शेकेल और मादा दस शेकेल के लिए होगा। - तो, उनकी उम्र के आधार पर, महिलाओं का मूल्य 1/2 से 2/3 है, जितना कि पुरुषों में। कुरान क्या कहता है? अल्लाह तुम्हारी सन्तान के विषय में तुम्हें आदेश देता है कि दो बेटियों के हिस्से के बराबर एक बेटे का हिस्सा होगा; और यदि दो से अधिक बेटियाँ ही हो तो उनका हिस्सा छोड़ी हुई सम्पत्ति का दो तिहाई है। और यदि वह अकेली हो तो उसके लिए आधा है। - कुरान 4:11 अगर कोई ऐसा शख्स मर जाए कि उसके न कोई लड़का बाला हो (न मॉ बाप) और उसके (सिर्फ) एक बहन हो तो उसका तर्के से आधा होगा । - कुरान 4: 176 और कुरान हमें बताता है कि हमें एक महिला की गवाही पर कितना भरोसा करना चाहिए: यह एक आदमी के आधे लायक है। अपने लोगों में से जिन लोगों को तुम गवाही लेने के लिये पसन्द करो (कम से कम) दो मर्दों की गवाही कर लिया करो फिर अगर दो मर्द न हो तो (कम से कम) एक मर्द और दो औरतें (क्योंकि) उन दोनों में से अगर एक भूल जाएगी तो एक दूसरी को याद दिला देगी, - कुरान 2: 282 --------- मनुस्मृति में नारी जाति पिता, भाई, पति या देवर को अपनी कन्या, बहन, स्त्री या भाभी को हमेशा यथायोग्य मधुर-भाषण, भोजन, वस्त्र, आभूषण आदि से प्रसन्न रखना चाहिए और उन्हें किसी भी प्रकार का क्लेश नहीं पहुंचने देना चाहिए। -मनुस्मृति 3/55 अर्थात जिस समाज या परिवार में स्त्रियों का सम्मान होता है, वहां देवता अर्थात् दिव्यगुण और सुख़- समृद्धि निवास करते हैं और जहां इनका सम्मान नहीं होता, वहां अनादर करने वालों के सभी काम निष्फल हो जाते हैं। मनुस्मृति 3/56 जिस कुल में स्त्रियां अपने पति के गलत आचरण, अत्याचार या व्यभिचार आदि दोषों से पीड़ित रहती हैं। वह कुल शीघ्र नाश को प्राप्त हो जाता है और जिस कुल में स्त्री-जन पुरुषों के उत्तम आचरणों से प्रसन्न रहती हैं, वह कुल सर्वदा बढ़ता रहता है। -मनुस्मृति 3/57 जो पुरुष, अपनी पत्नी को प्रसन्न नहीं रखता, उसका पूरा परिवार ही अप्रसन्न और शोकग्रस्त रहता है और यदि पत्नी प्रसन्न है तो सारा परिवार प्रसन्न रहता है। - मनुस्मृति 3/62 पुरुष और स्त्री एक-दूसरे के बिना अपूर्ण हैं, अत: साधारण से साधारण धर्मकार्य का अनुष्ठान भी पति-पत्नी दोनों को मिलकर करना चाहिए।-मनुस्मृति 9/96 ऐश्वर्य की कामना करने हारे मनुष्यों को योग्य है कि सत्कार और उत्सव के समयों में भूषण वस्त्र और भोजनादि से स्त्रियों का नित्यप्रति सत्कार करें। मनुस्मृति पुत्र-पुत्री एक समान। आजकल यह तथ्य हमें बहुत सुनने को मिलता है। मनु सबसे पहले वह संविधान निर्माता है जिन्होंने जिन्होंने पुत्र-पुत्री की समानता को घोषित करके उसे वैधानिक रुप दिया है- ‘‘पुत्रेण दुहिता समा’’ (मनुस्मृति 9/130) अर्थात्-पुत्री पुत्र के समान होती है। पुत्र-पुत्री को पैतृक सम्पत्ति में समान अधिकार है। 9/130 9/192 पुरुषों को निर्देश है कि वे माता, पत्नी और पुत्री के साथ झगडा न करें। मनुस्मृति 4/180 इन पर मिथ्या दोषारोपण करनेवालों, इनको निर्दोष होते हुए त्यागनेवालों, पत्नी के प्रति वैवाहिक दायित्व न निभानेवालों के लिए दण्ड का विधान है। मनुस्मृति 8/274, 389,9/4 मनु की एक विशेषलेषण से हमें यह स्पष्ट होता है कि मनुस्मृति की व्यवस्थाएं स्त्री विरोधी नहीं हैं। वे न्यायपूर्ण और पक्षपातरहित हैं। मनु ने कुछ भी ऐसा नहीं कहा जो निन्दा अथवा आपत्ति के योग्य हो।नी देते हुए सचेत किया है कि वे स्वयं को पिता, पति, पुत्र आदि की सुरक्षा से अलग न करें, क्योंकि एकाकी रहने से दो कुलों की निन्दा होने की आशंका रहती है। मनुस्मृति 5/149, 9/5- 6 इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि मनु स्त्रियों की स्वतन्त्रता के विरोधी है| इसका निहितार्थ यह है कि नारी की सर्वप्रथम सामाजिक आवश्यकता है -सुरक्षा की। वह सुरक्षा उसे, चाहे शासन-कानून प्रदान करे अथवा कोई पुरुष या स्वयं का सामर्थ्य। उपर्युक्त विश्लेषण से हमें यह स्पष्ट होता है कि मनुस्मृति की व्यवस्थाएं स्त्री विरोधी नहीं हैं। वे न्यायपूर्ण और पक्षपात रहित हैं। मनु ने कुछ भी ऐसा नहीं कहा जो निन्दा अथवा आपत्ति के योग्य हो।
Vedic vichar
11-06-2022
नारी अधिकारों की तुलना बाइबिल, कुरान और मनुस्मृति में नारी की स्थिति आज महर्षि मनु को नारी विरोधी बताया जा रहा है मुस्लिम उलेमा कहते हैं कि कुरआन में औरत का दर्जा ऊँचा है. आइए तुलनात्मक रूप से देखें. बाइबल और कुरआन दोनों ही महिला की कीमत पुरुष से लगभग आधी है. यहाँ बाइबल का क्या कहना है।(सन्दर्भ लैव्यव्यवस्था 27: 3-7 ) और तेरा अनुमान पुरुष के बीस वर्ष से लेकर साठ साल की उम्र तक का होगा, यहां तक कि तेरा अनुमान पचास शेकेल चांदी का होगा .... और अगर यह एक महिला है, तो तेरा अनुमान तीस शेकेल होगा। और यदि यह पाँच वर्ष से लेकर बीस वर्ष की आयु तक भी हो, तो तेरा अनुमान पुरुष के बीस शेकेल और स्त्री के दस शेकेल के लिए होगा। और यदि यह एक महीने की उम्र से लेकर पाँच साल की उम्र तक का है, तो तेरा अनुमान पुरुष के पाँच शेकेल चाँदी का होगा, और मादा के लिए तेरा अनुमान चाँदी के तीन शेकेल का होगा। और अगर यह साठ साल की उम्र और ऊपर से हो; यदि वह नर है, तो तेरा अनुमान पंद्रह शेकेल और मादा दस शेकेल के लिए होगा। - तो, उनकी उम्र के आधार पर, महिलाओं का मूल्य 1/2 से 2/3 है, जितना कि पुरुषों में। कुरान क्या कहता है? अल्लाह तुम्हारी सन्तान के विषय में तुम्हें आदेश देता है कि दो बेटियों के हिस्से के बराबर एक बेटे का हिस्सा होगा; और यदि दो से अधिक बेटियाँ ही हो तो उनका हिस्सा छोड़ी हुई सम्पत्ति का दो तिहाई है। और यदि वह अकेली हो तो उसके लिए आधा है। - कुरान 4:11 अगर कोई ऐसा शख्स मर जाए कि उसके न कोई लड़का बाला हो (न मॉ बाप) और उसके (सिर्फ) एक बहन हो तो उसका तर्के से आधा होगा । - कुरान 4: 176 और कुरान हमें बताता है कि हमें एक महिला की गवाही पर कितना भरोसा करना चाहिए: यह एक आदमी के आधे लायक है। अपने लोगों में से जिन लोगों को तुम गवाही लेने के लिये पसन्द करो (कम से कम) दो मर्दों की गवाही कर लिया करो फिर अगर दो मर्द न हो तो (कम से कम) एक मर्द और दो औरतें (क्योंकि) उन दोनों में से अगर एक भूल जाएगी तो एक दूसरी को याद दिला देगी, - कुरान 2: 282 --------- मनुस्मृति में नारी जाति पिता, भाई, पति या देवर को अपनी कन्या, बहन, स्त्री या भाभी को हमेशा यथायोग्य मधुर-भाषण, भोजन, वस्त्र, आभूषण आदि से प्रसन्न रखना चाहिए और उन्हें किसी भी प्रकार का क्लेश नहीं पहुंचने देना चाहिए। -मनुस्मृति 3/55 अर्थात जिस समाज या परिवार में स्त्रियों का सम्मान होता है, वहां देवता अर्थात् दिव्यगुण और सुख़- समृद्धि निवास करते हैं और जहां इनका सम्मान नहीं होता, वहां अनादर करने वालों के सभी काम निष्फल हो जाते हैं। मनुस्मृति 3/56 जिस कुल में स्त्रियां अपने पति के गलत आचरण, अत्याचार या व्यभिचार आदि दोषों से पीड़ित रहती हैं। वह कुल शीघ्र नाश को प्राप्त हो जाता है और जिस कुल में स्त्री-जन पुरुषों के उत्तम आचरणों से प्रसन्न रहती हैं, वह कुल सर्वदा बढ़ता रहता है। -मनुस्मृति 3/57 जो पुरुष, अपनी पत्नी को प्रसन्न नहीं रखता, उसका पूरा परिवार ही अप्रसन्न और शोकग्रस्त रहता है और यदि पत्नी प्रसन्न है तो सारा परिवार प्रसन्न रहता है। - मनुस्मृति 3/62 पुरुष और स्त्री एक-दूसरे के बिना अपूर्ण हैं, अत: साधारण से साधारण धर्मकार्य का अनुष्ठान भी पति-पत्नी दोनों को मिलकर करना चाहिए।-मनुस्मृति 9/96 ऐश्वर्य की कामना करने हारे मनुष्यों को योग्य है कि सत्कार और उत्सव के समयों में भूषण वस्त्र और भोजनादि से स्त्रियों का नित्यप्रति सत्कार करें। मनुस्मृति पुत्र-पुत्री एक समान। आजकल यह तथ्य हमें बहुत सुनने को मिलता है। मनु सबसे पहले वह संविधान निर्माता है जिन्होंने जिन्होंने पुत्र-पुत्री की समानता को घोषित करके उसे वैधानिक रुप दिया है- ‘‘पुत्रेण दुहिता समा’’ (मनुस्मृति 9/130) अर्थात्-पुत्री पुत्र के समान होती है। पुत्र-पुत्री को पैतृक सम्पत्ति में समान अधिकार है। 9/130 9/192 पुरुषों को निर्देश है कि वे माता, पत्नी और पुत्री के साथ झगडा न करें। मनुस्मृति 4/180 इन पर मिथ्या दोषारोपण करनेवालों, इनको निर्दोष होते हुए त्यागनेवालों, पत्नी के प्रति वैवाहिक दायित्व न निभानेवालों के लिए दण्ड का विधान है। मनुस्मृति 8/274, 389,9/4 मनु की एक विशेषलेषण से हमें यह स्पष्ट होता है कि मनुस्मृति की व्यवस्थाएं स्त्री विरोधी नहीं हैं। वे न्यायपूर्ण और पक्षपातरहित हैं। मनु ने कुछ भी ऐसा नहीं कहा जो निन्दा अथवा आपत्ति के योग्य हो।नी देते हुए सचेत किया है कि वे स्वयं को पिता, पति, पुत्र आदि की सुरक्षा से अलग न करें, क्योंकि एकाकी रहने से दो कुलों की निन्दा होने की आशंका रहती है। मनुस्मृति 5/149, 9/5- 6 इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि मनु स्त्रियों की स्वतन्त्रता के विरोधी है| इसका निहितार्थ यह है कि नारी की सर्वप्रथम सामाजिक आवश्यकता है -सुरक्षा की। वह सुरक्षा उसे, चाहे शासन-कानून प्रदान करे अथवा कोई पुरुष या स्वयं का सामर्थ्य। उपर्युक्त विश्लेषण से हमें यह स्पष्ट होता है कि मनुस्मृति की व्यवस्थाएं स्त्री विरोधी नहीं हैं। वे न्यायपूर्ण और पक्षपात रहित हैं। मनु ने कुछ भी ऐसा नहीं कहा जो निन्दा अथवा आपत्ति के योग्य हो।
Vedic vichar
11-06-2022
"प्रकृति के समझे जानेवाले ये बड़े-से-बड़े ऐश्वर्य तथा प्रकृति के दिव्य-से-दिव्य भोग दे सकनेवाले ये अनगिनत पदार्थ सर्वथा आनन्द और ज्ञान- प्रकाश से शून्य हैं। आनन्द की प्राप्ति तो केवल सच्चिदानन्दस्वरूप परमात्मा से ही हो सकती है।" ***** बालादेकमणीयस्कमुतैकं नेव दृश्यते। ततः परिष्वजीयसी देवता सा मम प्रिया।। --अथर्व० १०।८।२५ ऋषिः - कुत्सः। देवता - आत्मा। छन्दः - अनुष्टुप्। विनय - मुझमें प्रेमशक्ति किस प्रयोजन के लिए है ? मेरे प्रेम का असली भाजन कौन है ? यह खोजता हुआ जब मैं संसार को देखता हूँ तो इस संसार में केवल तीन तत्त्व ही पाता हूँ, तीन तत्त्वों में ही यह सब-कुछ समाया हआ देखता हूँ। इनमें से पहला तत्त्व बाल से भी अधिक सूक्ष्म है। बाल के अग्रभाग के सैकड़ों टुकड़े करते जायें तो अन्त में जो अविभाज्य टुकड़ा बचे उस अणु, परम अणुरूप यह तत्त्व है। प्रकृति के इन्हीं परमाणओं से यह सब दृश्य जगत् बना है। इससे भी सूक्ष्म दूसरा तत्त्व है। पर इसकी सूक्ष्मता दूसरे प्रकार की है। इसकी सूक्ष्मता की किसी भौतिक वस्तु से तुलना नहीं की जा सकती। यह तत्त्व ऐसा अद्भुत है कि यह नहीं के बराबर है। यह है, किन्तु नहीं-जैसा है। इस दूसरे तत्त्व से परे और इससे सूक्ष्म और इसे सब तरफ से आलिङ्गन किए हुए, व्यापे हुए, एक तीसरा तत्त्व है, तीसरी देवता है। यही देवता मुझे प्रिय है। पहली प्रकृति देवता जड़ और निरानन्द होने के कारण मुझे प्रिय नहीं हो सकती। दूसरी वस्तु मैं ही हूँ, मेरी आत्मा है। मैं तो स्वयं देखनेवाला हूँ, तो मैं कैसे दीखंगा? अतः मैं नहीं के बराबर हूँ। मैं तो प्रेम करनेवाला हूँ, अतः प्रेम का विषय नहीं बन सकता। अतएव मेरे सिवाय मेरे सामने दो ही वस्तुएँ रह जाती हैं, यह प्रकृति और वह सच्चिदानन्दरूपिणी परमात्म-देवता। इनमें से चित्स्वरूप मुझे यह चैतन्य और आनन्द से शून्य प्रकृति कैसे प्रिय हो सकती है ? मेरा प्यारा तो स्वभावतः वह दूसरा देवता है जो कि मेरी आत्मा की आत्मा है, जो कि मेरी आत्मा से परिष्वक्त हुआ इसमें सदा व्यापा हुआ है और जो कि मुझे आनन्द दे सकता है। मैं तो स्पष्ट देख रहा हूँ कि प्रकृति के समझे जानेवाले ये बड़ेसे-बड़े ऐश्वर्य तथा प्रकृति के दिव्य-से-दिव्य भोग दे सकनेवाले ये अनगिनत पदार्थ सर्वथा आनन्द और ज्ञान-प्रकाश से शून्य हैं, अतः मैं तो प्रकृति से हटके अपने उस प्यारे परमात्मा की तरफ दौड़ता हूँ। मैं स्पष्ट देखता हूँ कि अपने प्रेम द्वारा उसे पा लेने पर मेरी भटकती हुई प्रेमशक्ति अपने प्रयोजन को पा लेगी, उसे पा लेने पर मेरा सम्पूर्ण प्रेम चरितार्थ और कृतकृत्य हो जायेगा। शब्दार्थ - (एकं) एक बालात् बाल से भी (अणीयस्कं) बहुत अधिक सूक्ष्म, अणु है (उत) और (एकं) एक (न इव) नहीं की तरह (दृश्यते) दीखता है। (ततः) उससे परे (परिष्वजीयसी) उसे आलिंगन किये हुए, उसे व्यापे हुए (देवता) जो देवता है (सा) वह (मम) मुझे (प्रिया) प्यारी है। ********** स्रोत - वैदिक विनय। (कार्तिक १४) लेखक - आचार्य अभयदेव। प्रस्तुति - आर्य रमेश चन्द्र बावा।
आर्यसमाज और हैदराबाद सत्याग्रह (vedic vichar)
10-06-2022
[योगी आदित्यनाथ और ओवैसी के मध्य चुनावी भाषण में हैदराबाद के पूर्व निज़ाम का उल्लेख हुआ। आज की हिन्दू युवा पीढ़ी को यह मालूम ही नहीं है कि हैदराबाद के निज़ाम ने हिन्दुओं पर अपनी मज़हबी मानसिकता के चलते कितने अत्याचार किये थे। हैदराबाद रियासत में रहने वालों 95%हिन्दू थे और 5% मुसलमान। जबकि इसके विपरीत सभी सरकारी नौकरियों, फौज, पुलिस आदि में 95% मुसलमानों की भर्ती की गई थी जिनमें प्रजा पर अत्याचार करने के लिए रखा गया था। इन्हें रज़ाकार भी कहा जाता था। हिन्दुओं का दबाव और प्रलोभन से धर्मान्तरण, उत्पीड़न , बलात्कार, पिटाई आदि आम बात थी। हिन्दुओं को धार्मिक जुलुस, त्यौहार आदि बनाने की अनुमति नहीं मिलती थी।हिन्दुओं को पुलिस और कोर्ट में कोई न्याय नहीं मिलता था। कोई सुनाई करने वाला नहीं था। हिन्दू मंदिरों की मरम्म्मत अथवा नवीनीकरण की भी अनुमति न थी। जो कोई प्रेस हैदराबाद स्टेट में हिन्दुओं पर अत्याचार की बात करता उसका प्रेस जब्त कर, संपादक को जेल भेज दिया जाता। आर्यसमाज के प्रचारकों को रियासत में प्रवेश पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। यहाँ तक की हिन्दू अखाड़ों पर भी प्रतिबन्ध लगा दिया गया। निज़ाम चूँकि अंग्रेजों का पिट्ठू था इसलिए अंग्रेज उससे कुछ नहीं कहते थे। कुल मिलकर इसे शरिया के अनुसार काफिरों पर अत्याचार करने की मानसिकता का ज्वलंत उदहारण कह सकते हैं। ऐसे माहौल में आर्यसमाज ने हिन्दू समाज के धर्मरक्षक और प्रहरी के रूप में अपने कर्त्तव्य का निर्वाहन करने का निर्णय लिया। महात्मा नारायण स्वामी के नेतृत्व और स्वामी स्वतन्त्रानन्द के कुशल सञ्चालन में आर्यसमाज ने हैदराबाद आंदोलन की शुरुआत की। इसे हैदराबाद आंदोलन के नाम से जाना जाता है। आर्यसमाज ने दो दर्जन से अधिक आर्यवीरों का बलिदान देकर हिन्दू समाज के लिए धार्मिक अधिकारों को प्राप्त किया। महात्मा कहे जाने वाले गाँधी ने आर्यसमाज के इस अहिंसात्मक आंदोलन का पुरजोर विरोध किया जबकि वीर सावरकर ने इसे पूरा सहयोग दिया। ओवैसी के पूर्वजों और निज़ाम के रजाकारों ने मजलिस के माध्यम से आर्यसमाज के इस आंदोलन क पुरजोर विरोध किया। इस लेख के माध्यम से हम अपने गौरवशाली इतिहास को पुन: स्मरण करेंगे- डॉ विवेक आर्य] ============== आज से 70 वर्ष पूर्व 17 सितंबर 1948 हैदराबाद राज्य (वर्तमान का हैदराबाद शहर और कर्नाटक राज्य) का विलय भारतीय संघ मे हुआ था। तत्कालीन हैदराबाद राज्य में बहुमत जनता हिन्दू थी पर राज्य मुसलमान था। निजाम अपनी रियासत को पाकिस्तान मे मिलाने चाहता था और 1930 से ही हिन्दूओ को इस्लाम कबुलने के लिए तरह तरह दबाव बनाया करता था। हैदराबाद शहर मे प्रथम आर्य समाज की स्थापना 1892 मे स्थापना हुई। 1938 तक तत्कालीन हैदराबाद राज्य मे 250 से ज्यादा आर्य समाज के केंद्र खुल गए थे। इसी के साथ आर्य समाज ने बहुसंख्यक हिन्दूओ हित मे आर्य समाज मे अपनी आवाज बुलंद करनी शुरू कर दी थी। जिन्हें दबाव से मुसलमान बनाया गया था उनके लिए शुद्धि आंदोलन चलाया गया। *घर वापसी मे प्रख्यात विद्वान पंडित रामचंद्र देहलवी जी के भाषणो का महत्वपूर्ण योगदान रहता था। आर्य समाज को हैदराबाद को इस्लामिक राज्य बनाने मे सबसे बङा रोङा मानते हुए, निजाम ने संगठन पर कङे प्रतिबंध लगाने के आदेश दिए। इसमे सम्मेलन करने, किसी नई जगह पर हवन करने पर भी प्रतिबंध था। यहां तक ओ३म् का भगवा झंडा लहराने पर भी जेल भेज दिया जाता था। 9 अक्टूबर 1938 को आर्य समाज ने महात्मा नारायण स्वामी के नेतृत्व मे निजाम के विरूद्ध पहला सत्याग्रह किया। इसके बाद करीब 6 और सत्याग्रह हुए।12000 सत्याग्रहियो मे से 7000 हैदराबाद राज्य के बाहर से थे। इसमे बङी संख्या गुरुकुल कांगङी हरिद्वार के ब्रह्मचारीयो की थी।सैकड़ों कार्यकर्ताओ जेल में डाला गया जिसमे से कुछ ने अनशन के दौरान अपने प्राण त्याग दिए। आज देश का दुर्भाग्य है कि जीन लोगों ने कभी इतिहास पढा नही वह इतिहास बदलने की बात करते हैं......संसार के सम्मानित राष्ट्रों का इतिहास उन व्यक्तियों के चरित्रों से सदा भरपूर रहा है, जिन्होंने उच्च एवं पवित्र उद्देष्यों की पूर्ति के लिए महान् से महान् त्याग किया और समय पड़ने पर इस संघर्ष में अपने जीवन को न्योछावर कर दिया और पीछे बलिदानों के अवषेश रख गए, जो अनुगामियों का पथ प्रदर्शन कर सकते हैं शहीदों को मृत्यु कभी स्पर्श नहीं करती अपितु वे स्वयं मर कर अमर हो जाते हैं। इतिहास साक्षी है। ऐसी महान् आत्माओं का रक्त कदापि व्यर्थ नहीं गया अपितु समय आने पर एक ऐसे प्रखर प्रचंड रूप में प्रवाहित हो निकला जिसमें हिंसा, अत्याचार और पाशविकता के दल स्वतः निमग्न हो गए। ये व्यक्ति धर्म-प्रचार, सदुपदेश, प्रजावाद की प्रस्थापना, शांति और प्रेम एवं सत्य को साधारण व्यक्तियों तक पहुंचाने के लिये अपने जीवन-लक्ष्य की कठिनाईयों को पार कर आगे बढ़ते ही रहे। इन्होंने सदा पराक्रान्तों का साथ दिया और मानवता के उच्च आदर्शो के रक्षक हुए और इन हेतुओं से निज तन-मन-धन की बलि देकर स्पष्ट कर दिया कि इनका सेवा कार्य में कितना उत्साह था तथा बलिवेदी से कितना ऊंचा प्रेम था। आर्य समाज के शहीद मरने के बाद अमर हो गये और इन हुतात्माओं के रक्त से हैदराबाद में वैदिक धर्म का जो चमन सींचा गया, वह अब एक विस्तृत उद्यान बन गया है और रियासत में वैदिक धर्म का नव सन्देश दे रहा है। यहां हम कुछ आर्य समाजी शहीदों का संक्षिप्त परिचय दे रहे हैं जो वर्तमान में संसार में उपस्थित तो नहीं हैं पर वे सबके ह्रदयों में स्मरण रहेंगे और ऐसा प्रतीत होता है कि हम इन्हें कभी भूल नहीं सकेंगे। 1. वेद प्रकाश जी वेद प्रकाष जी का पूर्व नाम दासप्पा था। दासप्पा संवत् 1827 में गुजोटी में पैदा हुए। इनकी माता का नाम रेवती बाई और पिताश्री का नाम रामप्पा था। गरीब माता-पिता को इसकी क्या सूचना थी कि उनका बेटा बड़ा होकर हुतात्मा बनेगा और वैदिक धर्म के मार्गं में शहीद होकर अमर हो जाएगा। दासप्पा ने मराठी माध्यम से आठवीं श्रेणी तक षिक्षा ग्रहण की। जैसे-जैसे ये बढ़ते गये वैसे-वैसे वे धर्म की ओर आकर्षित होते गये। वे आर्य समाज के सत्संगों में बराबर सम्मिलित होते थे। वैदिक धर्म के आकर्षण ने इन्हें महर्शि दयानन्द का पक्का भक्त बना दिया। आर्य समाजी बनने के बाद यह वेद प्रकाश कहलाने लगे थे। इनका आर्य समाज में असाधारण प्रेम एवं निश्ठा के ही कारण गुंजोटी में आर्य समाज की नींव डाली गयी पर स्थानीय इर्स्यालू यवन इन्हें देखकर जलने लगे थे। वेद प्रकाश जी सुगठित शरीर एवं सद्गुण रखते थे और लाठी-तलवार चलाने की विद्या में पर्याप्त दक्ष थे। इनकी यह दक्षता कई भयंकर संकटों के समय इनकी सहायक सि( हुई। कई बार विरोधी दल ने इन पर आक्रमण किये और ये अपने आपको सुरक्षित रखने में सफल हुए। गुंजोटी का छोटे खां नाम का एक पठान स्त्रियों को गलत निगाहों से देखता था। एक दिन वेद प्रकाश जी ने इसे ऐसा करने से रोका और सावधान किया कि भविष्य में इस प्रकार कुद्रष्टि मातसमाज पर न डालें। यह बात गुण्डों को हृदयग्राही न थी और सब इनके शत्रु हो गए। वेद प्रकाश जी ने गुंजोटी में हिन्दुओं के लिये पान की एक दुकान खोल दी और चांद खान पान का एक व्यापारीद्ध इनका शत्रु हो गया और भीतर ही भीतर इनके विरुद्ध षड्यंत्र रचने लगा। एक दिन यवनों ने स्थानीय आर्य समाज के मन्त्री के मकान पर अकस्मात् धावा बोल दिया, इसकी सूचना वेद प्रकाश जी को मिली, वे इन आक्रमणकारियों को रोकने के लिए निःशस्त्र ही चले गये। मन्त्री के मकान के समीप दो-तीन मुसलमानों ने इन्हें पकड़ लिया और आठ-नौ व्यक्तियों ने इन्हें नीचे गिरा कर हत्या कर दी। विषेश उल्लेखनीय बात यह है कि उस दिन पुलिस ने वहां के प्रतिष्ठित हिन्दुओं को थाने में बुलाकर बैठा रखा था। आक्रमकत्र्ताओं और हत्यारों को पहचान लिया गया और न्यायालय में गवाह भी उपस्थित किये, पर फिर भी हत्यारों को निर्दोश घोषित कर दिया गया। वेद प्रकाश जी का रक्त हैदराबाद में पहला रक्त था जो बड़ी निर्दयता के साथ बहाया गया था और इसके बाद वीर आर्यों के बलिदानों का एक सिलसिला सा चल पड़ा। 2. धर्म प्रकाश जी धर्म प्रकाश जी का पूर्व नाम नागप्पा था। नागप्पा जी का जन्म कल्याणी में संवत् 1839 में हुआ था। इनके पिताश्री का नाम सायन्ना था। इनका पदार्पण जब आर्य समाज में हुआ तब से ये धर्म प्रकाश कहलाने लगे। कल्याणी एक मुस्लिम नवाब की जागीर थी। वहां मुसलमानों का अत्याचार नंग-नाच कर रहा था। मुसलमानो के अत्याचारों को देखकर धर्म प्रकाश इसकी रोक-थाम की तैयारी में लग गये। हिन्दुओं को शस्त्र विद्या सिखाने लगे। कल्याणी के मुसलमान हिन्दुओं के शारीरिक अभ्यास से रुस्ठ हो गये और उन्होंने इनकी हत्या करने की कमर कस ली। कल्याणी के इस धर्मवीर पर कई बार आक्रमण किये गये पर आक्रमकारियों को सफलता नहीं मिली। कल्याणी के खाकसार इनकी हत्या की ताक में रहने लगे। 27 जून 1837 ई. की रात को धर्म प्रकाश आर्य समाज कल्याणी के सत्संग से अपने घर वापस जा रहे थे कि खाकसारों ने इन्हें एक गली में घेर कर बरछों और भालों की सहायता से मार डाला। वेद प्रकाश की हत्या से आर्य समाज में शोक व दुःख की लहर दौड़ गयी। इस हत्याकाण्ड के हत्यारे भी न्यायालय से निर्दोष छोड़ दिये गये। 3. महादेव जी महादेव जी अकोलगा के रहने वाले थे। साकोल आर्य समाज के सत्संगों में जब इन्हें कई बार सम्मिलित होने का अवसर मिला, तब वैदिक धर्म का जादू इन पर चढ़ गया। इनके मन और मस्तिक्ष पर इतना गहरा प्रभाव पड़ा कि आर्य समाजी बन जाने के बाद वैदिक धर्म के प्रचार की धुन लग गयी। तरुणोत्साह और साहस इन्हें इस मार्ग पर आगे बढ़ाता ही रहा। महादेव जी की मुखाकष्ति पर तेज था। भाषण देते समय इनके मुख से जो वाक्य निकलते, उन्हें लोग बड़ी तन्मयता और रुचि से सुनते और एक तरुण आर्य युवक को प्रचार के काम में इस प्रकार तल्लीन देखकर लोगों को भी इच्छा होती थी कि वे भी इसी प्रकार बनें। महादेव जी के प्रचार का काम जब प्रगति पर था उस समय मुसलमान इनके अकारण षत्रु बन गये। कई बार इन पर इस द्रष्टि से आक्रमण हुए कि वे सदा के लिए मौन हो जाए पर वे बचते ही रहे। एक दिन की घटना है कि महादेव जी अपने प्रिय धर्म प्रचारार्थ कहीं जा रहे थे कि रास्ते में किसी अज्ञात व्यक्ति ने पीछे से आकर छुरा घोंप दिया और 14 जुलाई 1938 के दिन यह आर्य युवक 25 वर्ष की आयु में सदा के लिए इस संसार से बिदा हो गया। 4. श्याम लाल जी धर्मवीर श्याम लाल जी का जन्म 1903 ई. भालकी में हुआ था। इनके पिताश्री का नाम भोला प्रसाद और माता का छोटूबाई था। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा मराठी में हुई। ये एक पौराणिक परिवार से थे। इनके एक मामा आर्य समाजी थे, जिनके प्रभाव से श्याम लाल जी के ज्येश्ठ भ्राता बंसीलाल जी वैदिक धर्म के अनुयायी और स्वामी दयानन्द के अन्तःकरण के भक्त बन गये और आर्य समाज के सर्वप्रिय नेता भी कहलाने लगे। गुलबर्गा में आपके ही प्रयासों से आर्य समाज की स्थापना हुई। वे स्वयं इस समाज के मन्त्री बनकर कार्य संचालन करते रहे। 1925 ई. में वकील बने और उदगीर में वकालत करने लगे। निजी जीविकोपयोगी कार्य करते हुए आर्य समाज का प्रचार भी करते थे। 1926 ई. में इन्हें चर्म रोग लग गया और वह इतना बढ़ा कि पूरा शरीर फूल गया। रोग निवारणार्थ आप लाहौर गये। अभी आप लाहौर में ही थे कि 1926 ई. में स्वामी श्रद्धानन्द जी शहीद हो गये। स्वामी जी के इस बलिदान का प्रभाव इन पर अत्यधिक पड़ा। लाहौर से वापस आकर उदगीर में आर्य समाज की स्थापना की और प्रतिज्ञा की कि आजीवन वैदिक धर्म का प्रचार करेंगे। उदगीर के तात्कालीन मुसलमान तहसीलदार ने स्थानीय मुसलमानों को प्रेरित कर इनके मकान पर आक्रमण करवा दिया, परन्तु यह आक्रमण विफल रहा। आर्य समाज उदगीर की स्थापना के बाद आपके अथक प्रयासों से विजय दशमी के अवसर पर प्रथम बार जुलूस निकाला गया। होली के जुलूस के अवसर पर आप पर पुनः आक्रमण हुआ पर इस बार भी आप बच गये। श्याम लाल जी ने अछूतों के लिए एक पाठशाला, एक व्यायाम शाला तथा एक निःशुल्क चिकित्सालय भी स्थापित किया। 1928 ई. में उदगीर आर्य समाज का वार्षिकोत्सव हुआ और इसी के बाद पुलिस आपका पीछा करने लगी। इसी वर्ष धारा 104 के अधीन आप पर झूठा मुकद्दमा चलाया गया और आपसे दो हजार की जमानत और मुचलका लिया गया। श्याम लाल जी उदगीर से बाहर निकलकर भालकी, कल्याणी, औराद, शाहजहानी, लातूर तथा औसा आदि स्थानों पर प्रचार करने लगे। कई बार मुसलमानों ने आप पर आक्रमण किया और कई ऐसे अवसर आये जब कि हिन्दुओं ने आपको अपने पास आश्रय देना अस्वीकार किया। आपने कई रातें मार्ग पर चलते हुए बितायीं और दिन में फिर प्रचार कार्य किया। 1935 ई. में माणिक नगर की यात्रा के अवसर पर मुसलमानों ने आप पर छुरा घोंप देने का प्रयत्न किया पर एक नवयुवक बीच में आया, स्वयं जख्मी हुआ और इन्हें बचा लिया। 1938 ई. में इन पर पुलिस ने एक झूठा मुकद्दमा चलाया और न्यायालय ने इन्हें दीर्घकालिक दण्ड दिया। अभी आप कारावास में दंड भोग रहे थे कि आपका देहांत हो गया। पं. श्याम लाल जी का नाम हैदराबाद आर्य समाज के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में लिखा रहेगा क्योंकि ये अपने अथक प्रयत्नों, संघर्ष और श्रद्धा से आर्य समाज को शक्तिषाली और विस्तृत करने की चिन्ता अन्तिम श्वास तक करते रहे। 5. व्यंकटराव जी व्यंकटराव जी कंधार जिला नांदेड़ के रहने वाले थे। इन्होंने स्टेट कांग्रेस द्वारा संचालित सत्याग्रह में भाग लिया और दण्ड भोगते रहे। कारावास के अधिकारियों द्वारा मार-पीट के कारण 18 अप्रैल 1938 ई. में आप परलोक सिधार गये। 6. विष्णु भगवान् जी विष्णु भगवान् जी ताण्डूर ;गुलबर्गाद्ध के रहने वाले थे। इन्होंने गुलबर्गा में ही सत्याग्रह किया और वहीं इन्हें कारावास का दण्ड दिया गया। आपको गुलबर्गा से औरंगाबाद और फिर हैदराबाद जेल में रखा गया और यहां दूसरे सत्याग्रहियों के साथ इन्हें इतना पीटा गया कि ये सहन न कर सके और 2 मई 1939 ई. में आपने 30 वर्ष की आयु में अपना शरीरान्त किया। 7. माधवराव सदाशिवराव जी आप लातूर के रहने वाले थे। आपने 30 वर्ष की आयु में आर्य सत्याग्रह में भाग लिया और गुलबर्गा जेल में बन्द कर दिये गए। 26 मई 1939 ई. के दिन कड़कती धूप में नंगे पैर जेल में कठिन परिश्रम करने से रोगग्रस्त हो गए। चिकित्सा का कोई प्रबन्ध नहीं किया गया और आप इस प्रकार निजाम सरकार की क्रूरता के कारण देहावसान कर गये। माधव राव सदाशिवराव के देहान्त की सूचना पाकर असंख्य नर-नारी इनके अन्तिम दर्शन करने गए पर पुलिस ने रोक दिया और जेल में ही इनका शव अग्नि की भेंट कर दिया गया। 8. पाण्डुरंग जी उस्मानाबाद के रहने वाले युवा आर्य सत्याग्रही को सत्याग्रह के कारण ही कारावास का दंड दिया गया था। गुलबर्गा जेल में इन पर इन्फुएंजा का आक्रमण हुआ पर चिकित्सा का कोई प्रबन्ध न किया गया। हालत चिन्ताजनक होती गई। 25 मई 1939 के दिन इन्हें नागरिक औषधालय में भेजा गया और वहीं 27 मई को इनका देहान्त हो गया। असंख्य नर-नारी इनके अन्तिम दर्शन को आए पर पुलिस ने इन्हें वापस जाने पर विवश कर दिया और पुलिस द्वारा ही इनका अन्तिम संस्कार किया गया। 9. राधाकृष्ण जी राधाकृष्ण जी निजामाबाद के एक राजस्थानी थे। 1903 ई. में आपका जन्म हुआ था। आपके पिता का नाम जीतमल था। 1934 ई. में आप आर्य समाजी बने और तभी से इसके प्रचार की धुन लग गई। इन्होंने ही निजामाबाद में आर्य समाज की स्थापना की थी। इसी कारण आप पुलिस की वक्रद्रष्टि में खटने लगे। मुहर्रम के दिनों में आप पर मुकद्दमा चलाया गया और इनसे एक साल के लिए दो हजार रुपये का मुचलका लेकर छोड़ा गया। आर्य सत्याग्रह के समय आप बड़े उत्साह के साथ चन्दा एकत्रित करने में जुटे थे। 2 सितम्बर 1931 ई. के दिन एक अरबी ने छुरा घोंप कर मार डाला और यह बात सर्व विदित हो गई कि इनकी हत्या के षड्यंत्र में पुलिस का हाथ था। 10. लक्ष्मण राव जी आपने धार्मिक अधिकारों की प्राप्ति के लिए सत्याग्रह किया। जेल के कठोर व्यवहार को सहन न कर सकने के कारण 3 अगस्त 1939 ई. को हैदराबाद जेल में आपका देहान्त हो गया। 11. शिवचन्द्र जी आपका जन्म 3 मार्च 1916 ई. में दुबलगुण्डी में हुआ था। आपके पिताश्री का नाम अन्नपक्षप्पा था। 1935 ई. में मैट्रिक परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की थी। सरकार की ओर से आपको छात्रवष्त्ति भी प्राप्त हुई थी। आप हुमनाबाद की एक पाठशाला में अध्यापक हो गये थे। पाठशाला के अवकाष के समय आप आर्य समाज के साहित्य का अध्ययन किया करते थे। आर्य समाज के लिए आपने बड़े उत्साह और श्रद्धा से काम किया। शोलापुर से आप सत्याग्रहियों को हैदराबाद लाते थे और सत्याग्रह के समाचार हैदराबाद से बाहर भेजते थे। 3 मार्च 1942 ई. के दिन होली में जुलूस के अवसर पर मुसलमानों ने आक्रमण कर दिया, फलस्वरूप आप शहीद हो गए। आप के साथ आपके साथी लक्ष्मण राव जी, राम जी अगडे़ और नरसिंह राव जी गोलियों का निषाना बने थे। 12. राम कृष्ण जी राम कृष्ण जी का जन्म लावसी ग्राम में एक ब्राह्मण कुल में हुआ था और यह शहीद होने से केवल दो सप्ताह पूर्व ही आर्य समाजी बने थे। एक दिन पठानों ने घोषणा की थी कि ‘उस दिन वे मन्दिर को तोड़ेंगे, जिसे धर्म पर विश्वास हो वे आकर उन मन्दिरों को उनके हाथों से बचा लें।’ सब हिन्दू घबरा कर अपने-अपने मकानों में बैठ गये किन्तु जब राम ने यह घोषणा सुनी तो वे क्रोधाग्नि से जल उठे। पुजारियों ने कभी इन्हें मन्दिर में प्रवेश होने नहीं दिया था और फिर आर्य समाजी होने के कारण इन्हें मन्दिर और इन मन्दिरों की मूर्तियों से क्या रुचि, परन्तु पठानों की इस घोषणा को इन्होंने सम्पूर्ण हिन्दू जाति के लिए एक चैलेंज समझा और जाति की मान रक्षा हेतु मन्दिर द्वार पर अपना डेरा डाला। यहाँ इन पर गोलियों की वर्षा हुई, घायल होने पर भी आपने पठानों को मार भगाया और हिन्दू जाति की लाज रख ली। स्वयं शहीद होकर इन्होंने मन्दिर की रक्षा की और जिस जाति में वे पैदा हुए थे, उसकी प्रतिष्टा रख ली। 13. भीम राव जी आप हिपला उदगीरद्ध के रहने वाले थे। इनके मित्र माणिक राव की बहन को मुसलमानों ने मुसलमान बना लिया था। भीमराव ने उसे शुद्ध कर लिया था। इस कारण मुसलमानों ने क्रोधित होकर इनके घर को आग लगा दी और इन्हें मार कर इनके हाथ-पांव काट डाले और इन्हें आग में जला दिया। 14. माणिक राव जी यह भी हिपला उदगीरद्ध के रहने वाले थे। इनकी बहन को मुसलमान बना लिया गया था। जब इनकी बहन को शुद्ध कर लिया गया तो मुसलमानों ने माणिक राव जी को गोलियों का निशाना बना दिया था। 15. सत्य नारायण जी आप अम्बोलगा ;वीदरद्ध के रहने वाले थे। आर्य समाज का काम बड़े जोष के साथ करते थे, इसीलिए मुसलमान इनके शत्रु हो गए। मुहर्रम के दिनों में वे बाजार से जा रहे थे कि एक मुसलमान ने पीछे से तलवार से हमला कर दिया। वे तुरन्त ही चिकित्सालय पहुंचाए गये पर वहां जाते ही परलोक सिधार गये। 16. महादेव जी यह तिवाड़े के रहने वाले थे। गुलबर्गा में ही सत्याग्रह करने के कारण जेल में डाल दिए गये थे। जेल वालों के अत्याचार से 1939 ई. में ही चल बसे। 17. अर्जुन सिंह जी आप आर्य समाज के एक नर-रत्न थे। आप तालुका कन्नड़ औरंगाबाद में पैदा हुए थे। बचपन से ही आप हैदराबाद में रहने लगे थे। अपने उत्साह और निष्ठां के कारण आप हैदराबाद दयानन्द मुक्ति दल के सेनापति बनाए गए थे। सम्वत् 1861 में जंगली विठ्ठोबा की यात्रा में कुषल प्रबन्ध करने के बाद घर वापस लौट रहे थे कि मार्ग में कुछ सशस्त्र मुसलमानों ने आप पर आक्रमण कर दिया, तुरन्त ही उस्मानिया दवाखाना भेजे गए पर दूसरे ही दिन परलोक सिधार गये। 18. गोविन्द राव जी आप निलंगा जिला बीदर के रहने वाले थे। सत्याग्रह करके जेल गये। पर वहां के अत्याचारों को सहन न कर सकने के कारण देहावसान कर गये। 19. गोन्दिराव जी, लक्ष्मण राव जी इन दोनों ने सत्याग्रह में अपनी जान की बाजी लगा दी। आर्य समाजी शहीदों का यह बहुत ही संक्षिप्त परिचय है। जिसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि हैदराबाद में वे निजाम सरकार और मुसलमानों के अत्याचारों का किस प्रकार निषाना बने और वैदिक पताका को ऊॅंचा रखने के लिए किस प्रकार इन्होंने अपना अन्तिम रक्त बिन्दु तक बहा दिया। अनेक आर्यवीर अपने घरों को लौटकर बीमारी से बलिदानी हुए। इन सभी महान धर्मरक्षक आत्माओं को विनम्र श्रद्धांजलि।
Vedic vichar
10-06-2022
महान वीर योद्धा 'तक्षक' वीर तक्षक की गाथा जितनी बार भी पढ़े हम हर बार नयी ही लगती हमे प्रेरित ही करती है । वीर तक्षक गुर्जर प्रतिहार वंश के राजा नागभट्ट द्वितीय का अंगरक्षक था । .प्राचीन भारत का पश्चिमोत्तर सीमांत! मोहम्मद बिन कासिम के आक्रमण से एक चौथाई सदी बीत चुकी थी। तोड़े गए मन्दिरों, मठों और चैत्यों के ध्वंसावशेष अब टीले का रूप ले चुके थे, और उनमे उपजे वन में विषैले जीवोँ का आवास था। यहां के वायुमण्डल में अब भी कासिम की सेना का अत्याचार पसरा थl.... जैसे बलत्कृता कुमारियों और सरकटे युवाओं का चीत्कार गूंजता था। कासिम ने अपने अभियान में युवा आयु वाले एक भी व्यक्ति को जीवित नही छोड़ा था, अस्तु अब इस क्षेत्र में हिन्दू प्रजा अत्यल्प ही थी। संहार के भय से इस्लाम स्वीकार कर चुके कुछ निरीह परिवार यत्र तत्र दिखाई दे जाते थे, पर कहीं उल्लास का कोई चिन्ह नही था। कुल मिला कर यह एक शमशान था।.... जो कासिम के अभियान के समय मात्र आठ वर्ष का था, वह इस कथा का मुख्य पात्र है। उसका नाम था तक्षक। मुल्तान विजय के बाद कासिम के सम्प्रदायोन्मत्त मुस्लिम आतंकवादियों ने गांवो शहरों में भीषण रक्तपात मचाया था। हजारों स्त्रियों की छातियाँ नोची गयीं, और हजारों अपनी शील की रक्षा के लिए कुंए तालाब में डूब मरीं। लगभग सभी युवाओं को या तो मार डाला गया या गुलाम बना लिया गया। अरब ने पहली बार भारत को अपना ""इस्लाम धर्म "" दिखlया था, और भारत ने पहली बार मानवता की हत्या देखी थी।... तक्षक के पिता सिंधु नरेश दाहिर के सैनिक थे जो इसी कासिम की सेना के साथ हुए युद्ध में वीरगति पा चुके थे। लूटती अरब सेना जब तक्षक के गांव में पहुची तो हाहाकार मच गया। स्त्रियों को घरों से खींच खींच कर उनकी देह लूटी जाने लगी। भय से आक्रांत तक्षक के घर में भी सब चिल्ला उठे। तक्षक और उसकी दो बहनें भय से कांप उठी थीं। तक्षक की माँ पूरी परिस्थिति समझ चुकी थी, उसने कुछ देर तक अपने बच्चों को देखा और... जैसे एक निर्णय पर पहुच गयी। .... माँ ने अपने तीनों बच्चों को खींच कर छाती में चिपका लिया और रो पड़ी। फिर देखते देखते उस क्षत्राणी ने म्यान से तलवार खीचा और अपनी दोनों बेटियों का सर काट डाला। उसके बाद "काटी जा रही गाय की तरह" बेटे की ओर अंतिम दृष्टि डाली, और तलवार को "अपनी" छाती में उतार लिया।... आठ वर्ष का बालक "एकाएक" समय को पढ़ना सीख गया था, उसने भूमि पर पड़ी मृत माँ के आँचल से अंतिम बार अपनी आँखे पोंछी, और घर के पिछले द्वार से निकल कर खेतों से होकर जंगल में भागा.............. पचीस वर्ष बीत गए। तब का अष्टवर्षीय तक्षक अब बत्तीस वर्ष का पुरुष हो कर कन्नौज के प्रतापी शासक नागभट्ट द्वितीय का मुख्य अंगरक्षक था। वर्षों से किसी ने उसके चेहरे पर भावना का कोई चिन्ह नही देखा था। वह न कभी खुश होता था न कभी दुखी, उसकी आँखे सदैव अंगारे की तरह लाल रहती थीं। उसके पराक्रम के किस्से पूरी सेना में सुने सुनाये जाते थे। अपनी तलवार के एक वार से हाथी को मार डालने वाला तक्षक सैनिकों के लिए "आदर्श " था। कन्नौज नरेश नागभट्ट अपने अतुल्य पराक्रम, विशाल सैन्यशक्ति और अरबों के सफल प्रतिरोध के लिए ख्यात थे। सिंध पर शासन कर रहे अरब कई बार कन्नौज पर आक्रमण कर चुके थे, पर हर बार योद्धा राजपूत उन्हें खदेड़ देते। युद्ध के ""सनातन नियमों का पालन करते "" नागभट्ट कभी उनका पीछा "नहीं " करते, जिसके कारण बार बार वे मजबूत हो कर पुनः आक्रमण करते थे। ऐसा पंद्रह वर्षों से हो रहा था।... आज महाराज की सभा लगी थी।... कुछ ही समय पुर्व गुप्तचर ने सुचना दी थी, कि अरब के खलीफा से सहयोग ले कर सिंध की विशाल सेना कन्नौज पर आक्रमण के लिए प्रस्थान कर चुकी है, और संभवत: दो से तीन दिन के अंदर यह सेना कन्नौज की सीमा पर होगी।... इसी सम्बंध में रणनीति बनाने के लिए महाराज नागभट्ट ने यह सभा बैठाई थी। नागभट्ट का सबसे बड़ा गुण यह था, कि वे अपने सभी सेनानायकों का विचार लेकर ही कोई निर्णय करते थे। आज भी इस सभा में सभी सेनानायक अपना विचार रख रहे थे। अंत में तक्षक उठ खड़ा हुआ और बोला- महाराज, हमे इस बार वैरी को उसी की शैली में उत्तर देना होगा। महाराज ने ध्यान से देखा अपने इस अंगरक्षक की ओर, बोले- अपनी बात खुल कर कहो तक्षक, हम कुछ समझ नही पा रहे। - महाराज, अरब सैनिक महा बर्बर हैं, उनके साथ सनातन नियमों के अनुरूप युद्ध करके हम अपनी प्रजा के साथ घात ही करेंगे। उनको "उन्ही की शैली" में हराना होगा।... महाराज के माथे पर लकीरें उभर आयीं, बोले- किन्तु हम धर्म और मर्यादा नही छोड़ सकते सैनिक। तक्षक ने कहा- "मर्यादा का निर्वाह" उसके साथ किया जाता है जो मर्यादा का "अर्थ" समझते हों। ये बर्बर धर्मोन्मत्त राक्षस हैं महाराज। इनके लिए हत्या और बलात्कार ही धर्म है। - पर यह हमारा धर्म नही हैं बीर,.... - राजा का केवल "एक ही धर्म" होता है महाराज, और वह है प्रजा की रक्षा। देवल और मुल्तान का युद्ध याद करें महाराज, जब कासिम की सेना ने दाहिर को पराजित करने के पश्चात प्रजा पर कितना अत्याचार किया था। ईश्वर न करे, यदि हम पराजित हुए तो बर्बर अत्याचारी अरब हमारी स्त्रियों, बच्चों और निरीह प्रजा के साथ कैसा व्यवहार करेंगे, यह महाराज जानते हैं।.... महाराज ने एक बार पूरी सभा की ओर निहारा, सबका मौन तक्षक के तर्कों से सहमत दिख रहा था। महाराज अपने मुख्य सेनापतियों मंत्रियों और तक्षक के साथ गुप्त सभाकक्ष की ओर बढ़ गए।... अगले दिवस की संध्या तक कन्नौज की पश्चिम सीमा पर दोनों सेनाओं का पड़ाव हो चूका था, और आशा थी कि अगला प्रभात एक भीषण युद्ध का साक्षी होगा।... आधी रात्रि बीत चुकी थी अरब सेना अपने शिविर में निश्चिन्त सो रही थी। अचानक तक्षक के संचालन में कन्नौज की एक चौथाई सेना अरब शिविर पर टूट पड़ी। अरबों को किसी "हिन्दू शासक से " रात्रि युद्ध की आशा "न" थी। वे उठते,सावधान होते और हथियार सँभालते इसके पुर्व ही आधे अरब गाजर मूली की तरह काट डाले गए। इस भयावह निशा में तक्षक का शौर्य अपनी पराकाष्ठा पर था। वह घोडा दौड़ाते जिधर निकल पड़ता उधर की भूमि शवों से पट जाती थी। उषा की प्रथम किरण से पुर्व अरबों की दो तिहाई सेना मारी जा चुकी थी। सुबह होते ही बची सेना पीछे भागी,.... किन्तु आश्चर्य! महाराज नागभट्ट अपनी शेष सेना के साथ उधर तैयार खड़े थे। दोपहर होते होते समूची अरब सेना काट डाली गयी। अपनी बर्बरता के बल पर विश्वविजय का स्वप्न देखने वाले आतंकियों को ""पहली बार"" किसी ने ऐसा उत्तर दिया था।... विजय के बाद महाराज ने अपने सभी सेनानायकों की ओर देखा, उनमे तक्षक का कहीं पता नही था। सैनिकों ने युद्धभूमि में तक्षक की खोज प्रारंभ की तो देखा- लगभग हजार अरब सैनिकों के शव के बीच तक्षक की मृत देह दमक रही थी। उसे शीघ्र उठा कर महाराज के पास लाया गया। कुछ क्षण तक इस अद्भुत योद्धा की ओर चुपचाप देखने के पश्चात महाराज नागभट्ट आगे बढ़े और.... तक्षक के चरणों में अपनी तलवार रख कर उसकी मृत देह को प्रणाम किया।... युद्ध के पश्चात युद्धभूमि में पसरी नीरवता में ... भारत का वह महान सम्राट ""गरज"" उठा- """"आप आर्यावर्त की वीरता के शिखर थे तक्षक."""... भारत ने "अबतक" मातृभूमि की रक्षा में प्राण ""न्योछावर करना"" सीखा था,... आप ने मातृभूमि के लिए प्राण """"लेना"""" सिखा दिया। भारत युगों युगों तक आपका आभारी रहेगा।.... इतिहास साक्षी है, इस युद्ध के बाद अगले तीन शताब्दियों तक अरबों में भारत की तरफ आँख उठा कर देखने की हिम्मत नही हुई।.... नमन हे "तक्षक" आपसे प्रेरणा लेता हूँ । आपसे भी आग्रह है की दुष्टों की दुष्टता ओर इतिहास से सबक़ लेते हुये अब रक्षात्मक की जगह आक्रामकता से लड़े , नही तो अपने मासूम बच्चों ,निर्दोष महिलाओं के साथ होने वाले पाशविक बर्बरता के ज़िम्मेदार आप स्वयं ही होगे। जय वैदिक सत्य सनातन जय आर्यवर्त।।
Vedic vichar
10-06-2022
मैं ऋषि दयानन्द का आदर क्यों करता हूँ? - श्री जहूर बख्श हिंदी कोविद (हिंदी के प्रसिद्ध बाल साहित्य के प्रणेता तथा कहानी-लेखक) _________________________________________ "ऋषि दयानन्द के चरित्र में अनेक सद्गुणों का विकास इस प्रकार हुआ है कि वह मुझे बरबस अपनी ओर आकृष्ट कर लेता है। कुछ लोग महर्षि के जिस गुण को एवं उसके विकास को दोष समझते हैं, उसे ही मैं एक महत्वपूर्ण और आवश्यक गुण समझता हूँ। बालक मूलशंकर की शिवरात्रि संबंधी घटना से लेकर ऋषि दयानन्द की पुराण, कुरान, बाइबल आदि की स्वतंत्र आलोचना तक, लोग उस पर विचार स्वातंत्र्य और अन्य धर्मों की ओर घृणात्मक दृष्टि का लांछन लगाते हैं। परंतु उसने कब और कहाँ अन्य धर्मों पर घृणात्मक दृष्टि की है, मुझे तो इसका पता नहीं चलता। उसने यह तो कहीं नहीं कहा कि अमुक धर्म बूरा व घृणा योग्य है, अतः उस धर्म के अनुयायी उसे मानना छोड़ दें। उसने 'सत्यार्थप्रकाश' में अन्य धर्म संबंधी जिन ग्रंथों की आलोचना की है, वह उसके विचार स्वातंत्र्य का सुंदर उदाहरण है। स्मरण रखना चाहिए कि विचार स्वातंत्र्य कोई भयंकर वस्तु नहीं है। उसी से युगान्तर उपस्थित हो सकता है। वही संसार को उत्थान के मंच पर ले जाता है। विचार स्वातंत्र्य से घबराना कोरी कायरता है। यदि ऋषि ने 'सत्यार्थप्रकाश' में अन्य धर्मों की स्वतंत्र आलोचना की है तो पुण्यकर्म ही किया है। अन्य धर्म वालों को उससे न तो घबराना चाहिए, न ही चिढ़ना ही चाहिए। उनका कर्तव्य है कि वे स्थिर चित्त से उस पर विचार करें और उन्हें यदि ऋषि के बतलाये हुए दोष ठीक जचें तो प्रसन्नतापूर्वक अपने धर्म का संस्कार करें। इससे तो उन्नति ही होगी। अतः ऋषि की विचार स्वतंत्रता पुण्य वस्तु है। संसार उससे लाभ उठा सकता है। क्या ऋषि का यह गुण सम्मान योग्य नहीं है?" ● स्रोत : महर्षि दयानन्द: हिंदी साहित्यकारों की दृष्टि में (पृ.४२) ● संपादक : डॉ.भवानीलाल भारतीय ● प्रस्तुति : राजेश "आर्य"
Vedic vichar
10-06-2022
बॉलिवुड जिहाद सलीम जावेद लिखित फिल्म में शोले फिल्म में वृद्ध मुसलमान (ए के हंगल) को बेटे की मौत पर नमाज के लिए जाते दिखाते हैं तो नायक वीरू (धर्मेन्द्र) को शिव मन्दिर में लडकी छेड़ते हुए दिखाना. बालीवुड और टीवी सीरियल के नजरिए से हिन्दू को कैसे देखा जाता है एक झलक:---- *ब्राह्मण* - ढोंगी पंडित, लुटेरा, राजपूत* - अक्खड़, मुच्छड़, क्रूर, बलात्कारी *वैश्य या साहूकार* - लोभी, कंजूस, *गरीब हिन्दू* - कुछ पैसो या शराब की लालच में बेटी को बेच देने वाला चाचा या झूठी गवाही देने वाला *जबकि दूसरी तरफ* *मुस्लिम* - अल्लाह का नेक बन्दा, नमाजी, साहसी, वचनबद्ध, हीरो-हीरोइन की मदद करने वाला टिपिकल रहीम चाचा या पठान। *ईसाई* - जीसस जैसा प्रेम, अपनत्व, हर बात पर क्रॉस बना कर प्रार्थना करते रहना। ये बॉलीवुड इंडस्ट्री, सिर्फ हमारे धर्म, समाज और संस्कृति पर घात करने का सुनियोजित षड्यंत्र है और वह भी हमारे ही धन से । सलीम - जावेद की जोड़ी की लिखी हुई फिल्मो को देखे, तो उसमे आपको अक्सर बहुत ही चालाकी से हिन्दू धर्म का मजाक तथा मुस्लिम / इसाई / साईं बाबा को महान दिखाया जाता मिलेगा. इनकी लगभग हर फिल्म में एक महान मुस्लिम चरित्र अवश्य होता है और हिन्दू मंदिर का मजाक तथा संत के रूप में पाखंडी ठग देखने को मिलते है. "दीवार"* का अमिताभ बच्चन नास्तिक है और वो भगवान् का प्रसाद तक नहीं खाना चाहता है, लेकिन 786 लिखे हुए बिल्ले को हमेशा अपनी जेब में रखता है और वो बिल्ला भी बार बार अमिताभ बच्चन की जान बचाता है. जंजीर"* में भी अमिताभ नास्तिक है और जया भगवान से नाराज होकर गाना गाती है लेकिन शेरखान एक सच्चा इंसान है. फिल्म *"शान"* में अमिताभ बच्चन और शशिकपूर साधू के वेश में जनता को ठगते है लेकिन इसी फिल्म में "अब्दुल" जैसा सच्चा इंसान है जो सच्चाई के लिए जान दे देता है. क्या आपको बालीवुड की वे फिल्मे याद हैं जिनमे फादर को दया और प्रेम का मूर्तिमान स्वरूप दिखाया जाता था तो हिन्दू सन्यासियों को अपराधी. जो मिडिया आशाराम पर पागल हो गया था वह आज चुप है. बॉलीवुड प्राय: सदा फिल्मों में हिन्दू पात्रों के नाम वाले कलाकारों को किसी इस्लामिक मज़ार या चर्च में प्रार्थना करते दिखाता हैं। किसी मुसलिम या ईसाई पात्र को कभी किसी हिन्दू मंदिर में जाकर प्रार्थना करता दिखाना तो बहुत दूर की बात हैं। इसके विपरीत वह सदा हिन्दू मान्यताओं का परिहास जैसे पंडित को या भगवान की मूर्ति को रिश्वत देना, शादी के फेरे जल्दी जल्दी करवाना, मंदिर में लड़कियाँ छेड़ना, हनुमान जी अथवा श्री कृष्णा जैसे महान पात्रों के नाम पर चुटकुले छोड़ना आदि आदि दिखाता हैं। परिणाम यह निकलता है कि हिन्दुओं के लड़के लड़कियां हिन्दू धर्म को ही कभी गंभीरता से लेना बंद कर देते है। 25 साल पहले गुलशन कुमार सरे आम गोलियों से मार दिया गया क्योंकि इन्होंने दाऊद जैसे गुण्डो के आगे झुकने से मना कर दिया था। ये बॉलीवुड के इस्लामी करण में बहुत बड़ी बाधा थे। यह वह हिन्दू व्यापारी था जो अपना आयकर भरता था। कुछ वर्ष तक भारत का सबसे बड़ा आयकर देने वाला व्यक्ति रहा । क्योकि इसने दाऊद के आगे घुटने टेकने से इंकार कर दिया था इसलिए इसे जान से मार दिया गया। परंतु न तो भारत सरकार इसके कत्ल के आरोपी नदीम को भारत ला पाई और न ही इसके परिवार को न्याय मिला। गुलशन कुमार की हत्या के ठीक 6 महीने बाद 1998 में साईं नाम के एक नए भगवान् का अवतरण हुआ, इसके कुछ समय बाद 1999 में बीवी नंबर 1 फिल्म आई जिसमे साईं के साथ पहली बार राम को जोड़कर ॐ साईं राम गाना बनाया था, न किसी हिन्दू संगठन का इस पर ध्यान गया और न किसी ने इस पर आपत्ति की, पहला षड्यंत्र कामयाब इस नए भगवान् की एक खासियत थी, इसे लोग धर्मनिरपेक्ष अवतार कहते थे, जिसने हिन्दू मुस्लिम एकता को बढ़ावा दिया था, वो अलग बात है की उसी चिलम बाबा उर्फ़ साईं बाबा के समय में कई दंगे हुए, बंगाल विभाजन हुआ, मोपला दंगे हुए, मालाबार में हजारो हिन्दुओ को काटा और साईं के अल्लाह का भक्त बना दिया गया, अब इस नए भगवान् की एक और खासियत थी, नाम हिन्दुओ का प्रयोग हो रहा था और जागरण में अल्लाह अल्लाह गाया जा रहा था हिन्दुओं की संतानों की स्थिति अर्ध नास्तिक जैसी हो जाती है। जो केवल नाममात्र का हिन्दू बचता है। परन्तु उसका हिन्दू समाज की मान्यताओं एवं धर्मग्रंथों में कोई श्रद्धा नहीं रहती। ऐसी ही संतानें लव जिहाद और ईसाई धर्मान्तरण का शिकार बनती हैं। क्या इसे हम बॉलीवुड जिहाद कहे तो कैसा रहेगा? #StopBollywoodJihad
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10-06-2022
*गुरु, आचार्य, पुरोहित, पंडित और पुजारी का फर्क, जानिए....* मधुलिका आर्य अक्सर लोग पुजारी को पंडितजी या पुरोहित को आचार्य भी कह देते हैं और सुनने वाले भी उन्हें सही ज्ञान नहीं दे पाता है। यह विशेष पदों के नाम हैं जिनका किसी जाति विशेष से कोई संबंध नहीं। आओ हम जानते हैं कि उक्त शब्दों का सही अर्थ क्या है ताकि आगे से हम किसी पुजारी को पंडित न कहें। *गुरु*: गु का अर्थ अंधकार और रु का अर्थ प्रकाश। अर्थात जो व्यक्ति आपको अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाए वह गुरु होता है। गुरु का अर्थ अंधकार का नाश करने वाला। अध्यात्मशास्त्र अथवा धार्मिक विषयों पर प्रवचन देने वाले व्यक्तियों में और गुरु में बहुत अंतर होता है। गुरु आत्म विकास और परमात्मा की बात करता है। प्रत्येक गुरु संत होते ही हैं; परंतु प्रत्येक संत का गुरु होना आवश्यक नहीं है। केवल कुछ संतों में ही गुरु बनने की पात्रता होती है। गुरु का अर्थ ब्रह्म ज्ञान का मार्गदर्शक। *आचार्य* : आचार्य उसे कहते हैं जिसे वेदों और शास्त्रों का ज्ञान हो और जो गुरुकुल में विद्यार्थियों को शिक्षा देने का कार्य करता हो। आचार्य का अर्थ यह कि जो आचार, नियमों और सिद्धातों आदि का अच्छा ज्ञाता हो और दूसरों को उसकी शिक्षा देता हो। वह जो कर्मकाण्ड का अच्छा ज्ञाता हो और यज्ञों आदि में मुख्य पुरोहित का काम करता हो उसे भी आचार्य कहा जाता था। आजकल आचार्य किसी महाविद्यालय के प्रधान अधिकारी और अध्यापक को कहा जाता है। *पुरोहित* : पुरोहित दो शब्दों से बना है:- 'पर' तथा 'हित', अर्थात ऐसा व्यक्ति जो दुसरो के कल्याण की चिंता करे। प्राचीन काल में आश्रम प्रमुख को पुरोहित कहते थे जहां शिक्षा दी जाती थी। हालांकि यज्ञ कर्म करने वाले मुख्य व्यक्ति को भी पुरोहित कहा जाता था। यह पुरोहित सभी तरह के संस्कार कराने के लिए भी नियुक्त होता है। प्रचीनकाल में किसी राजघराने से भी पुरोहित संबंधित होते थे। अर्थात राज दरबार में पुरोहित नियुक्त होते थे, जो धर्म-कर्म का कार्य देखने के साथ ही सलाहकार समीति में शामिल रहते थे। *पुजारी* : जैसा कि नाम से विदित है पूजा का जो शत्रु हो वह पुजारी कहा जाता है। जैसे (पूजा +अरि) यहां अरि का अर्थ शत्रु अथवा दुश्मन) से ही है। अर्थात पूजा का दुश्मन ही पुजारि कहलाता है। लेकिन कई मूढ़ लोगों ने पुजारी नाम के अर्थ का अनर्थ कर दिया है। उन मूर्खों के अनुसार जो मंदिर या अन्य किसी स्थान पर किसी देवी - देवता की मूर्ति या प्रतिमा की पूजा पाठ करता हो वह पुजारी कहलाता है। सभी लोगों ने बिना विचारे इसका यही सही अर्थ मान लिया है। वस्तुतः प्राचीन काल में यह पुजारी द्वारा दीपक प्रज्वलित कर प्रस्तरवान मूर्ति के सामने ऊपर से नीचे सात बार ले जाकर किसी मूर्ख अंधभक्त, मूर्तिपूजक को सिखाया जाने वाला पाठ है। वह इस अज्ञानी भक्त को यह करते हुए अपनी मौन भाषा में ही संकेत देता है कि "ध्यान से देखो यह पाषाण से बनी एक मूर्ति है जो जड़ है। ईश्वर तो कण कण में है, इस मूर्ति में भी लेकिन यह मूर्ति ईश्वर नहीं।" और भक्त हाथ जोड़कर पुजारी की बात का समर्थन कर रहा है। पुजारि ने सभी अंधविश्वासियों को यही समझाने का प्रयास किया है लेकिन दुर्भाग्य है कि अर्थ का अनर्थ कर कुछ और ही क्रियान्वयन होने लगा है। *पंडित* : पंडः का अर्थ होता है विद्वता। किसी विशेष ज्ञान में पारंगत होने को ही पांडित्य कहते हैं। पंडित का अर्थ होता है किसी ज्ञान विशेष में दश या कुशल। इसे विद्वान या निपुण भी कह सकते हैं। किसी विशेष विद्या का ज्ञान रखने वाला ही पंडित होता है। प्राचीन भारत में, वेद शास्त्रों आदि के बहुत बड़े ज्ञाता को पंडित कहा जाता था। इस पंडित को ही पाण्डेय, पाण्डे, पण्ड्या कहते हैं। आजकल यह नाम ब्रह्मणों का उपनाम भी बन गया है। कश्मीर के ब्राह्मणों को तो कश्मीरी पंडितों के नाम से ही जाना जाता है। पंडित की पत्नी को देशी भाषा में पंडिताइन कहने का चलन है। *ब्राह्मण* : ब्राह्मण शब्द ब्रह्म से बना है। जो ब्रह्म (ईश्वर) को छोड़कर अन्य किसी को नहीं पूजता, वह ब्राह्मण कहा गया है। जो पुरोहिताई करके अपनी जीविका चलाता है, वह ब्राह्मण नहीं, याचक है। जो ज्योतिषी या नक्षत्र विद्या से अपनी जीविका चलाता है वह ब्राह्मण नहीं, ज्योतिषी है। पंडित तो किसी विषय के विशेषज्ञ को कहते हैं और जो कथा बांचता है वह ब्राह्मण नहीं कथावाचक है। इस तरह वेद और ब्रह्म को छोड़कर जो कुछ भी कर्म करता है वह ब्राह्मण नहीं है। जिसके मुख से ब्रह्म शब्द का उच्चारण नहीं होता रहता, वह ब्राह्मण नहीं। स्मृतिपुराणों में ब्राह्मण के 8 भेदों का वर्णन मिलता है- मात्र, ब्राह्मण, श्रोत्रिय, अनुचान, भ्रूण, ऋषिकल्प, ऋषि और मुनि। 8 प्रकार के ब्राह्मण श्रुति में पहले बताए गए हैं। इसके अलावा वंश, विद्या और सदाचार से ऊंचे उठे हुए ब्राह्मण ‘त्रिशुक्ल’ कहलाते हैं। ब्राह्मण को धर्मज्ञ विप्र और द्विज भी कहा जाता है जिसका किसी जाति या समाज से कोई संबंध नहीं।
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10-06-2022
A Rajputra who built the Sikh Empire: Veer Bairagi Banda Bahadur Martyrdom Anniversary of Banda Bairagi falls today on 9th June,2022 Before reading about Banda Bairagi, just ask your self that have you ever heard before this name. After reading this Chapter, think that whose fault is this that you are unaware about the name of the Man whose greatness is much bigger than Napoleon of France, Hannibal first Caesar of Rome, Alfred of England and any other European conqueror. The place of District punch city, Rajauri and region was kashyap or Kundal van (now Kashmir). A child was born at this place on 1727 samvat (17/10/1670 A.D.) in a Dogra Rajput family. He was named as Lakshaman Dev. But, destiny has decided his name as Veer Banda Bahadur. His father’s name was Ramdev. He was totally different from the boys of his age. He was determined for his aim. Till he reached the age of 16 he took an expertise on Archery, Sword Playing ,Spear throwing and was acquainted with all kind of military training which are need to be known by a Rajputra. One day when he was on a Hunting trip in a jungle when an incident changed his whole life. We had already read in past, how incidents changed lives of Prince Siddhartha to Mahatma Gautama, Kali to scholar Kalidas, Rambola to Saint Tulsidas, a Robber Ratnakar to Maharishi Valmiki and Mool Shankar to Maharishi Dayananda. This was time of Laksman Dev to Veer Banda Vairagi. The enthusiastic Lakshaman was on his hunting expedition in the forest and he saw a Deer. He started chasing the deer. Deer tried to flee but could not save from Lakshaman dev. Soon, the arrow from the bow of Lakshaman pierced through the stomach of the deer. The baby of the deer died in front of eyes of Lakshaman dev. The scene was so painful for Lakshaman that he decided to leave hunting. The Vairagya was awakened inside him. No one saw the Lakshaman Dev after that day. Islamic atrocities were at the peak in those days. Mughals forgot the words of Babar which he taught to Humayun that “…do not interfere in the traditions of Hindus if you want to stay here in Hindustan”. There is always a Hero for a villains to overcome .heroes like Marathas from the south, Sikhs from the North, descendents of Maharana Sanga & Maharana Pratap, Rana Raj Singh from West & Chatrashal from the east challenged barbarians. Guru Govind Singh was the tenth Guru of Sikhs. He raised sword against Mughals. Guru Govind Singh’s father Guru Teg Bahadur was brutally murdered along with his 700 followers by Aurangzeb as he refused to accept Islam. Guru Govind Singh was an excellent policy maker and learned scholar of Veda Shastras. He understood that if he really wants to eradicate the tyrant rule of Mughals from the holy land of Aryavarta he needs army of kshatriyas who think that their only Dharma is to fight with these Islamic barbarians. So, he established Khalsa (means pure i.e., Arya) in 1699. He set five standards of “K” in order to make his Khalsa army undisturbed from their enemy. Guru Govind Singh first tried to convince the rulers of hilly areas. At that time Himanchal was a composition of 22 Hindu kings who were taxpayers of Mughals. The rulers of Himanchal refused to fight against Mughals to make the Nation free from Demons. Guru Govind Singh understood that they will not follow his kind words unless they won’t be treated as Mughals supporters. Battle of Bhagani took place between Guru Govind Singh and 22 Himanchal rulers. Guru ji tasted the victory & he forgiven the Hindu kings as they are now ready to fight against the Mughals. Aurangzeb was keeping an eye on Guru ji activities he soon sent an army leaded by his son Muazam, when his son was failed to win, troops from the Lohagarh (Lahore) was sent. The Himanchal rulers were frightened after the Naden battle. The battle of khandrawa took place in 1706 A.D. After that Guru ji turned towards Anandpur sahib. After the Battle of Chamkaur, Guru Ji lost all his family. All four of his sons were killed in which two sons Ajit Singh (16 years) & Jujhar Singh (14 years) gave their sacrifice in battlefield. Two sons Fateh Singh and Jorawar Singh (9 yr & 7 yrs) were buried alive inside the wall of sir hind fort. Guru Ji Mother Mata Gujri jumped from the building and died in sorrow of her grandsons. Guru ji two wives Sundari & Sahab Devi were remained captured by Mughals. Guru Govind Singh was having hard time. He shifted towards South to take help from Marathas. While in the way a Sadhu Narayana Das told him about a reknown Sadhu of Maharashtra Sadhu Madhavdas. This Sadhu was non other than Lakshaman dev. fortunately; Lakshmandas met with a Sadhu Vairagi Jankidas whom he served very well. Vairagi Jankidas was pleased with Lakshamandev and taught him Yog vidya. Soon, Lakshamandev became a famous Yogi Madhavdas by his utmost labour. When Guru Govind Singh & Madhavdas met each other in Nader (in Maharashtra), both the souls identified each other. Guru ji saw the physique of Banda Vairagi & Vairagi was so pleased to see the Guru Govind Singh. Then, Guru Govind Singh asked him who are you he replied “I am your servant (Banda)”. Guru ji embraced him & said we all are the servants (Banda) of eternal God. Then Guru Ji explained about the tyranny of Mughals. He explained that a Vairagi burns not only his sins but eradicate injustice & sufferings. Guru Ji explained him about the social conditions in India. Banda Vairagi accepted the kind words of Guru Govind Singh. Guru ji gave him 50 arrows and 50 Sikhs & went ahead. He died later in 1708 A.D. Banda Vairagi went towards the Punjab. As Vairagi was back in Kshatriya dharma he was determined to follow the Gita rule “Vinashaye cha dush kritam.”. The fort of Sir Hind was on the top of the list as it was the same forts where the young sons of Guru Govind Singh were buried alive inside the wall. Banda made a strategy in order of his strength. He followed the rules of Acharya Chanakya & start attacking on small bases of Mughals. When Banda achieved some strength from Rajasthan & Haryana. He first attacked on Garhi. Garhi was a base of Islamic Butchers like Ali Hasan (who deceived Guru Govind Singh) & Jallaluddin who killed Guru Teg Bahadur also belong to this place. Ali Hasan led the Shahi army of Mughals to fight with Banda Bahadur & his small army. But, Victory follows zeal, strategy & Gallantry. Happens the same, Ali Hasan was cut to pieces along with his whole army. All the military requirements were taken & the evil Muslims residing in the state were punished. This expedition continued for three days. Tit for Tat, it’s the best politician decision. No mercy for evils. Hearing this Victory of Banda Vairagi, all the Hindu population got excited. Young men started joining his army. Sikhs who were hiding in jungles joined him. Without wasting time Banda captured Ambala. After that he get victory every day Sifabad, jhambaru, dhamal, kaithal, kunjpura where ever he goes victory welcomed him. It seemed that Parashuram was back on earth. He heard that Cow slaughtering was very common in basti Pathana. A village hariya were the rangan Muslims of criminal mentality harassed the Hindu population. One day two of his sepoys captured Muslims who were slaughtering cows. The sepoys fought & sacrificed their life. When Banda heard about the culprits he surrounded the village & burned it to ashes. Not a single cow killer got any chance to escape. Soon he targeted a similar village Sandaura whose head Asman khan was engaged in temples devastations, capturing of Hindu girls, cow killing etc he also received same fate as others. Hindus started respecting Banda as an incarnation of God, some called him next Guru. His fame spreaded all over Punjab. Hindus came from different parts of the region to request him to save their lives from Muslims. Some Brahmans came from balod village and complained about the Head of the Village Manne Khan. Hearing about the sufferings of the Villager Banda’s blood boiled. He attacked the Village. The culprits were burned in fire. Those who want to come out were cut like vegetables. Many Hindu may ask the question that was this justice. So, we should keep remember that Banda was a Saint who spend his several years to know the truth & two learn the difference between right & wrong. He knows very well to cure the disease from its root. Cancer cannot be cured if even a single infected cell remains inside the body. Shri Krishna gave his huge army to kauravs though his army has nothing to do with insult of Draupadi. Social & Political Justice is the ability of highly learned men. Banda was one of them. Live & let live is our culture. Banda boasted the morals of Hindus which was very necessary at that time. Any Muslim could kidnap a Hindu girl; he could insult Hindu gods/goddess idols. Governing post for Hindus was a big dream; Hindus had to pay tax (jijya) to remain Hindu. In fact, being a Hindu is a crime in Islamic India. Veer Haqiqat Rai event took place in the same time. Guru Arjun Dev Guru Teg Bahadur & his 700 supporters including Bhai Matidas who was ripped in two parts by a saw were all brutally murdered. It was Hindu who suffered all tortures to save his Vedic religion. Banda do not keep any thing for him self, he distribute all the goods among his army men. He also gives the commands of regions to his able officers. Nawabs of Sir Hind send his troops of 5000 men hearing that Banda was going to attack him. The conflict took place in Ropad city. The Banda did not have the cannons which Sir Hind troops were loaded with heavy armory. Banda was an excellent archer he aim especially to the cannon masters and killed many officers of sir hind army. The Islamic troops of sir Hind were badly terrified by the Banda Bahadur. They had never seen such a great warrior. They lost courage to face Banda again. But soon Banda attacked them; the army in fear of Banda left Nawab and ran from the battlefield. Now Banda forwarded towards Sir Hind fort after winning the Ropad war. Sir Hind was the place for which he was awaiting from the start of his strives. In Samvat 1765(1708 A.D) he addressed his army & told them that a race who cannot defend its belief & traditions don’t have right to live. Devastate this fort, as this fort is responsible for all the evils that took place in the vast region of Punjab. Sardar Baaj Singh from North & Vinod Singh confronted from the south. Wazir Khan commanding in charge of Sir Hind was terrified by the Banda as he had heard enough about the invincible gallant of Rajput warrior, even though he was having ten times more army then Banda. War was going on but the cannons from the fort are sweeping the Sikhs on large scale. Sardar Vinod Singh reached towards Banda Bahadur & told him about their condition of Khalsa in war. Banda opened his eyes, & marched towards the battlefield with anger. People who called him a magician whose presence just turned the tables. The Khalsa started dominating as he reached on ground. Soon, the dominance was out of control of Wazir khan. Banda Bahadur challenged Wazir khan that he was a Rajput & you are a Pathan. Let’s see who will keep the respect of mother’s milk but Wazir khan was trembling with fear. He tried to escape but captured. Saffron flag was brought up on Sir Hind fort. It was the big victory of Khalsa army because of Banda Bahadur Militia skills. The sir hind was cleaned in next seven days. The temples that were made into mosques were returned into temples. Court was established & Wazir Khan was brought their. He was asked that why he buried the sons of a Great Soul Guru Govind Singh alive. Wazir Khan was burnt alive in fire. After Sir Hind he marched to Doaba. Pamal, Maler Kotla. They areas which lie in between Doaba excluding some part of Ludhiana were captured without much bloodshed. After that he undertook Panipat & Karnal and disconnected the communication & transportation between the Delhi & Lahore. It was well planned strategy to get to Lahore as after Lahore was second base of Mughals after Delhi. Banda was in full mood to eradicate Mughals from Northern part of India. He reached Phagwada & called Jaladhar Nawab to fight but Nawab was so frightened that he surrendered without war and asked to serve him. Crossing the Beas River he reached Manjha (Amritsar). This area belonged to Hindu majority so he was warmly welcomed. He marched towards Hoshiarpur where all Islamic armies gathered to fight with him. At Baijwada the armies conflicted with each other but as the dusk came Muslims start retreating. Next day again the Muslim army attacked Hindus. But soon the commander of their army was killed by Banda Bahadur. His death made the Khalsa gave the victory in their hand. All the area between Yamuna & Sutlej came under the Banda command which he gave to Baba Vinod Singh. Sardar Baaj Singh & Fateh Singh was given command to undertake all captured & uncaptured area. Within two years from Karnal-Panipat to hissar,hansi,tarawadi,kaithal,jind,sirsa,firozpur,chuniya,kasur,gurdaspur,pathankot & Kangda all the regions were under the Saffron flag. Really it was a miracle. No one had before conquered such vast area ever during Mughals rule. Muslim were so terrified by him Name of Banda was more than enough to get victory. For Muslim he was supposed to be Jinn (ghost) whom they can never won by force. He was invincible till date. Banda now concentrated towards hilly areas. Nalagarh Nahan ruler happily accepted to serve Banda. His rule was now from Yamuna to Ravi. But some regions were still uncaptured. So, Banda wrote a letter to the ruler of Jejo kailore Ajmer chand to unite for nation. But, the arrogant king replied insulting him and Guru Govind Singh. Banda had utmost respect for Guru Govind Singh. He was doing all this because of his inspiration. Banda replied him that his sin is unforgiven as he insulted Guru Govind Singh so he marched toward Kailore where the armies of 22 kings were awaiting for his attack. Ajmer chand was slaughtered in the war as he died all the remaining kings accepted the Governance of Banda Bairagi. People not only respected him as a warrior but also as a saint. The king of Mandi was a great fan of Bairagi he insisted him to come to his kingdom. Banda stayed there for a year. In 1707 Aurangzeb died in Maharashtra in Aurangabad (some people say he was killed by Marathas). Bahadur Shah was the successor but he was totally horrified with the stories of Banda Bahadur. When he went to Ajmer Sharif he put his sword in front of his supporter and asked them to pick it if they wanted to fight against Banda. No, one came forward. In between Banda was not in Punjab. It was taken as the right time to attack by Mughals. Behind him Mughals started killing Sikhs again. Rumors about Bairagi had fled, died etc among the people. Delhi sent a heavy army towards Panipat & sir hind. Baba Vinod Singh get feared from this heavy army and reached the sir hind fort. At Aminabad Sikhs & Mughals fought but Sikhs were butchered. Sikhs were beaten by tying their hairs on tree till death. Atrocities were on extreme. Soon, Sir Hind was taken by Manin Khan. The Hindu oppression was started again. Aslam khan marched towards Lahore. When Banda Bahadur heard this news in kullu he at once marched towards Hoshiarpur. As he reached their Hindus & Sikhs got full of zeal. He started his winning campaign again. He took back sir hind again. He reconquered all the areas & taken the revenge of atrocities on Sikhs & Hindus. He distributed areas to his able commanders. Now, Banda marched towards Uttar Pradesh. He looked over Saharanpur where Ali Muhammad khan rules. Ali Muhammad khan was raising his army on the name of jihad. This jihad was accepted by Banda Bairagi & he called his army for crusade. As for Hindus Rashtra & Dharma are inseparable. Ali Muhammad khan was very frightened from inside so he gave the command to Sardar Galib Khan & ran away. Galib Khan fought gallantly but was finally killed, Muslims faced defeat after defeat. Then Banda turned to Najimabad, the Pathan ruler Shahnawaj khan was soon sent to hell by Banda. After that a troop towards Jalalabad was sent. Pathan Jalal khan was brave so he blocked Banda’s army for long time but as the Banda reached their again victory came as it is made for him. Pathans & Sheikhs were cleaned from that fort. He came back to Lohagarh after these victories in U.P. & declared Amritsar as a free state. He reached Gurdaspur & ordered to make a fort between Gurudas nangal & Sohal (Dhariwal). Jabardast khan the Governor of Jammu can’t tolerate a Hindu fort in Gurdaspur. He attacked on fort resulting that Muslims were killed in a large number. Jabardast khan retreated leaving his men though he was killed later. Lahore Governor Hamid khan marched towards Sialkot. Large number of Sikh/Hindus & Muslims were killed in this battle. A sepoy named kehar Singh of Banda’s army caught Hamid Khan and he cut his head & presented to Banda Bahadur. Soon, the Banda’s army got the victory. Sepoys were rewarded heavily. And Kehar Singh was declared as the man behind this victory. Bahadur Shah was horrified with Banda’s continuous victories. Some historians write that he wrote him letter for peace. But as Bahadur Shah get acknowledged that he is again in hilly areas. He sent his veteran commanders Asgar Khan, Samand Khan, Samand Khan, Abdulla Khan & Noor Khan. The Mughals army captured talwadi. Then, they reached towards Lohagarh. As the Mughals start retreating Rajput army came to help them & the table turned. The only reason for our defeat is our selfish nature of Rajput who compromised with Mughals never thought about country and religion. Coming to the war Banda also reached the fort of Lohagarh. Both armies fought in Kot ambu kha. The Mughals were nearly 1 lakh & the Sikhs/Hindus were nearly 15-20,000 which are reducing. The army of Banda had to leave the place as the cannons are uncontrollable in the field. Banda himself had to leave the place. Banda reached Lohagarh some how. Where the army was still safe. The fort was surrounded by Mughals army and was disconnected with the rest of the world. At the night Sikhs went out of the fort in search of food, many lost their lives. Banda knew things couldn’t go like this so far. So, Banda planned a duplicate Gulab Singh to bluff Mughals army & escaped from the fort. When Bahadur Shah heard that Banda is captured he was rejoiced with pleasure but soon his bubble was busted when he knew that the prisoner is his Duplicate, Mughal King was so feared, he thought that some kind of jinn’s were helping him to get out. Mughal king left Delhi for Lahore where he died in 1713. For two three years Mughal rule was unstable because of as usual fight for throne among Mughals for throne. Banda took advantage of mughal throne divergence, he came in light again the Sikh/Hindus started assembling in the shed of Saffron flag. This time war took place at Basigauv where Hindu army got victory in spite of being out numbered by Mughal forces. Banda forwarded to Kartarpur & then Sir Hind (Bhind). Ameen Khan was badly defeated here & he accepted the Saffron flag. Jaladhar ruler Faizali Khan & Saifulla Khan also accepted Banda’s Governance. Banda again saffronised Haridwar. Farukhusear became ruler of Mughals throne after Bahadur Shah. He was a cunning man, and he knew that Banda is invincible by armed forces. He used the theory of divide and rule. He wrote a letter & conveyed it by a Hindu Ram Dayal to the wife of Guru Govind Singh Sundari Devi that he want peace & Banda is blood thirsty of Mughals. Punjab & Mughals will live peacefully. Sundari accepted his proposal and wrote a letter to Banda to accept this proposal. Banda knew very well the aim of Guru Govind Singh to establish Khalsa. So, when Banda read her letter he was surprised and wrote back that this is just a trick to divide us. Didn’t she remember that they bluffed Guru Govind Singh & brutally murdered his sons. He couldn’t forget the sacrifice of Guru Teg Bahadur & Guru Arjun Dev. Sikhs & Hindus had suffered so much under cruel hands of that it’s not wise to forgive them. He is following Guru Govind Singh orders will continue following it. This reply made Sundari annoyed; she ordered all Sikhs not to support Banda as he is arrogant and insulted her and did not followed her orders. Those who will support Banda will be considered out of Sikhism. The jealous elements got a big chasm to cut this huge mountain. In Baisakhi of 1717 A.D, when Banda sat on the throne of the assembly, Baba Kahan Singh & Vinod Singh asked him to stand up. Whole assembly was divided into two parts as divided Khalsa. One was called Tat Khalsa & another was called Bandai Khalsa. Tat Khalsa Sikhs went under Mughals flag. Now, only few Sikhs were left with Banda. To increase his strength Banda started recruiting Vaishya & Brahmans in his army from Hindu society. Vaishya left balances & Brahmans left books both picked sword to save the Vedic Dharma. Soon, he trained his army but his army was not so strong as earlier. Now, the Hindu army few Sikhs of Banda fought with Mughals at Nanokot. It was a crusade for both the armies. Jai Dharma, Jai Bharat, Jai Shri Ram, Jai Maa Kali, Har Har Mahadev & Allaha hu Akbar Nara e tadbir slogans were raising from both sides of the armies. A heavy slaughter took place. Historians wrote that Banda Bahadur fought continually three days by sitting on the back of horse. Though, a heavy loss was beared by Hindu army but finally the victory goes to Banda & his army. Again, Banda’s glory was all around. Without wasting time Banda wanted to march towards Lahore from Gurdaspur Fort. As his army reached Batala. Lahore & Delhi coalition forces was there to stop him. Mughals was badly frightened because they knew if they loose Lahore then they will have limited breath in Delhi & in India. Both the armies fought bravely but victory goes to Banda again. Banda reached Gurdaspur & ordered his army to prepare for Lahore. Banda reached Bagvanpure of Lahore city. Aslam Khan Governor of Lahore attacked on him with his 10,000 men. Banda captured the eastern zone till the end of day & start waiting for dawn. But, the next day dawn was full of darkness for Banda his army & for Punjab for next 70-80 years. What Banda saw at the field that to fight with him no Mughals or Pathan is in front of him. It’s the 5000 Sikhs of tat Khalsa leaded by Meer Singh Khalsa in the harwal brigade of Mughals who are ready to fight with him on the shed of Islamic green flag. Banda was shocked. Banda picked the sword to take revenge for the children of Guru Govind Singh & to defend Khalsa panth of Guru Govind Singh. How can he raise sword on his own people. Banda took his feet back. If that day those 5000 Sikhs didn’t supported Mughals Lahore would have been under Banda’s rule. No Nadir Shah Ahmad Shah could have tortured Sikhs in future. Millions of Sikhs and Hindus lives could have been saved. Banda wrote letter to tat Khalsa head. He explained him that in Mahabharata though Kauravs & Pandav fought but Yuddhishtir said we are 106 when the outer forces come to our door to fight with us. Banda letter was read in they tat Khalsa community some supported him but final verdict was against him. A young Sikh said Mughals are not betraying us its Banda who is doing so. The Sikh community kept his conditions to accept Khalsa, not to wear royal clothes, and accept all the decision of community. It was Banda who knew that to do a Khalsa work you don’t need to be a Khalsa by name. Bairagi was a man of infinite potential. He never gave up his high morale. He marched towards kalanaur from Gurdaspur. The Nawab Fatedeen surrendered. Then, Sialkot was taken without any bloodshed because the Nawab ran away. Banda then took Wajirabad & Gujarat like small cities. He then captured pothothar (now Islamabad). As Farukhusear heard about his victories, he send a war veteran Abdul Samand with a troop of 30,000 men towards Gurdaspur. Banda instantly marched towards Gurdaspur. Abdul Samand wrote a letter that he did not wish to fight with him soon he will leave the place. But in 1718 A.D Banda was badly surrounded by Mughals. Banda was having 10-12 thousand men but he could not fight for long without water and food. All the army inside the fort was starving and Banda himself became so thin that his bones could be seen. Finally After four months fort gate was open to welcome the death. Mughals started slaughtering & capturing of Banda’s army. But, no one had courage to go near this Lion Banda Bahadur. Banda peaked from a window and signed Pathans to capture him. The man who was another name of fear over last 14 years was now taken in shackles & then inside a cage. He was treated like animals. He was sent towards delhi.In the way where ever his cage is passed through Muslim areas rotten food & vegetables are thrown over him. Muslims distributed sweets while Hindus wept in their houses. When Banda in the cage reached Kashmiri gate of Delhi with his 740 men including his general Baaj Singh, Farukhusear came to greet Abdul Samand. Samand was awarded the Governance of Lahore. It is said that at Gurdaspur 1000 men were captured but when they reached Delhi only 740 remained alive. Banda’s face was painted with black and he was covered with the sheep skin, his exhibition was kept for three days. Farukhusear asked Banda why he revolted against his empire. So, he replied that an empire without justice is not considered as an empire. Farukhusear asked him that why he killed Muslims, Banda replied that tit for tat is the only way to overcome from the unjust rule. Muslims supported Mughals in their injustice. Guilty must be punished so he did the same. Farukhusear ordered Qazi to start the Islamic court. Qazi put his condition that Banda’s life can be spared if he accepted Islam. Otherwise, his body will cut one by one. Banda replied your Allaha is biased because all the blames which are imposed on him will remain no more as he will accept Islam. A biased God is no God, I refuse to accept Islam. 100 men were slaughtered by Butchers every day after Seventh day Banda was asked again will he accept Islam. Banda spit aside and said “NO”. After that Qazi ordered butchers to get the extreme of brutality. His young son was killed in front of him and his heart was forcibly inserted in his mouth by butchers. Red hot pliers were inserted inside the body of Banda again & again and flesh was taken away each time. Banda didn’t cry during the whole torture. He raised slogans of Jai Dharma again & again. When no flesh remained inside his body, his body was tied behind the elephant and dragged. Finally, he was slaughtered into pieces. We just sing the lines “Purja Purja Kat mare Kabahu na chade khet” cut to pieces but never leave your believe but Banda did it. He had a pious soul otherwise he could have accepted Islam to take the revenge with the Sikhs who betrayed him. He could commit suicide inside the fort Gurdaspur but to open the eyes of tat Khalsa he accepted the insult & this painful death. Soon, the treaty was broken. Farukhusear started usual tortures on Sikhs. Imagine the next 14 years of history without Banda Bahadur. After the death of Guru Govind it was he who looked for justice in Punjab. if Banda would have been supported by Sikhs he would have uprooted Islamic rule from Aryavarta and expanded the Hindu rule up to Kandahar in Afghanistan. It was his firm base that helped Maharaja Ranjeet Singh to establish his rule in later years. Banda lived for the Dharma. We all should feed babies with stories of gallant and bravery of Banda bahadur so that each Hindu must learn lesson of protection of Vedic dharma. If we forget such great souls then it is shame for our race & on our patriotism.
Vedic vichar
10-06-2022
श्रीगुरु जी और बन्दा बहादुर का मिलन (इतिहास निर्माण करने वाली घटना) राजिंदर सिंह गुरु गोविन्द सिंह एक ऐसे सामर्थ्यवान् व्यक्ति की खोज करने लगे जिसको वे भावी नेतृत्व सौंप सकें। अपने दीवानों और सभासदों से विचार-विमर्श करने के बाद उन्होंने नान्देड़ के एक आश्रम में वर्षों से रह रहे वैरागी माधोदास को नेतृत्व सौंपने का मन बना लिया। भट्ट स्वरूप सिंह कोशिश बताते हैं : "सम्वत् १७६५ विक्रमी आश्विन प्रविष्टे तृतीया (सितम्बर १७०८ ईसवी) के दिन सूर्यग्रहण पर लगे मेले पर गुरु जी साथी सिक्खों समेत माधोदास वैरागी के डेरे पर गए। मेला गोदावरी नदी के किनारे लगा हुआ था परन्तु माधोदास डेरे में उपस्थित नहीं था" (गुरू कीआं साखीआं, १८४७ विक्रमी, प्रो• प्यारा सिंह पदम द्वारा सम्पादित, सिंह ब्रदर्ज़, अमृतसर, पांचवां संस्करण, २००३ ईसवी, साखी ११०, पृष्ठ १९७)। जब सांझ को वैरागी माधोदास गोदावरी नदी में स्नान करने बाद अपने डेरे पर लौटा तो उसके चेलों ने बताया कि प्रमुख अतिथि के सिक्खों ने डेरे के एक हिरन तथा एक बकरी और उसके दो लेलों को झटका कर अपने लिए भोजन तैयार कर लिया है। यहां यह उल्लेखनीय है कि पूर्ववर्ती जीवन में जम्मू में रहने वाले लक्ष्मणदास को अपने हाथों शिकार में घायल हुई एक गर्भवती हिरनी की दयनीय अवस्था ने राजपूत से एक वैरागी बना दिया था। तब से वह वैराग्य को धारण करके अनेक स्थानों से होता हुआ अन्ततः नान्देड़ में आ बसा था। अब अपने आश्रम के चार प्राणियों के झटकाए जाने की बात सुनकर वह रोष से भर उठा और उसी भाव से श्रीगुरु जी के पास आया तो वैरागी का मनो-भाव जानकर वे अर्थपूर्ण मुस्कान के साथ बोले : "माधोदास ! हम तुम्हें मिलने आए हैं, तुम कहां गए हुए थे।" वैरागी ने रोष भरे शब्दों में उत्तर दिया : ग़रीब नवाज़ ! मैं आपको नहीं जानता, आप कहां से आए हैं। यदि आप मुझे जानते थे तो मेरी प्रतीक्षा कर लेनी थी। ये प्राणी क्योंकर मारने थे, यह डेरा वैष्णव साधुओं का है !! श्रीगुरु जी ने प्रत्युत्तर में कहा : माधोदास ! हमारे से तुम्हारी पहचान एक बार ऋषिकेश-हरिद्वार में हुई थी, उस समय तुम एक साधु-मण्डली में थे जिसका मुखिया औघड़नाथ योगी नासिक वाला था। इस पर वैरागी बोला : महाराज ! आप गुरु गोविन्द राय जी हो जिनके पिता ने दिल्ली में जाकर अपना शीश बलिदान किया था !! वैरागी का रोष कम होने लगा था। तब श्रीगुरु जी ने हां में उत्तर देते हुए आगे कहा : माधोदास ! तुमने पूछा है कि यह डेरा वैष्णव साधुओं का है जहां ये प्राणी क्योंकर मारने थे, यह शंका मेरी निवृत्त करें। माधोदास ! मुझे पता था, इसीलिए ये प्राणी मारे हैं, वरना इन्हें मारने की क्या ज़रूरत थी !! मैं तुम्हें जगाने के लिए आया हूं, वरना यहां चल कर आने की क्या ज़रूरत थी !! अन्त में गुरु गोविन्द सिंह ने अपने आने का उद्देश्य स्पष्ट करते हुए कहा : देखो माधोदास ! इन तीन-चार जानवरों के मारने से तो तेरा आश्रम भ्रष्ट हो गया, तम्हें इस विशाल आश्रम हिन्दुस्तान का पता कैसे नहीं जहां मुस्लिम-सत्ता द्वारा सैंकड़ों-हज़ारों मज़लूम निर्दोष हिन्दू नित्य मारे जा रहे हैं। मैं केवल तेरा ध्यान दिलाने के लिए यहां तुम्हारे आश्रम में आया हूं। वैरागी की अपने आश्रम के प्राणियों के प्रति व्यक्त की गई व्यक्तिगत-पीड़ा श्रीगुरु जी के इस एक वाक्य के प्रभाव से पलक झपकते ही राष्ट्रगत-पीड़ा में परिणत हो गई। वैरागी द्रवित होकर बोला : मैं आज से दिल-ओ-जान से आपका बन्दा हूं, मुझे आगे के लिए कारसेवा बताएं (गुरू कीआं साखीआं, साखी ११०, पृष्ठ १९७-१९८)। इस प्रकार वैरागी पहले वाला माधोदास नहीं रहा। वह अपना मान-ताण त्यागकर श्रीगुरु जी का सही बन्दा बन गया। तब से वह "बन्दा वैरागी" कहलाने लगा। भाई केसर सिंह छिब्बर अपनी रचना बंसावलीनामा दसां पातशाहीआं का (१८२६ विक्रमी, प्रो• प्यारा सिंह पदम द्वारा सम्पादित, सिंह ब्रदर्ज़, अमृतसर, १९९७ ईसवी) १०/६२३-६२५ में बताते हैं : "उसके बाद श्रीगुरु जी ने अपने पास से सब आदमी दूर कर दिए। दोनों ने परस्पर मिल-बैठ कर गुप्त वार्ता-लाप किया। अन्ततः वैरागी गुरु जी के चरण आ लगा। पाहुल=दीक्षा लेकर गुरु का दृढ़-निश्चयी सिंह बन गया। उसने गुरु साहिब से कहा : मैं आपका बन्दा हूं। आप हैं पूर्ण सत्गुरु और मेरे रक्षक। इस प्रकार श्रीगुरु जी भावी नेतृत्व का भार उसे सौंप कर वहां से चले आए। वह आश्रम के बाहरी द्वार तक श्रीगुरु जी को विदा करने आया और फिर मुड़ गया। मुड़ते हुए उसने श्रीगुरु जी से पूछा : कितनी मुद्दत तक बात पर्दे में रखनी है ! तब गुरु जी ने कहा : नौ मास दस दिन तक। इसके बाद जितना ठीक समझो।" इसके कुछ दिनों बाद वैरागी माधोदास = बन्दा वैरागी ने श्रीगरु जी की आज्ञा के अनुरूप अपना आश्रम हरि दास दक्खनी को सौंप कर स्वयं उनके निवास स्थान पर आ पहुंचा। दूसरे दिन भाई दया सिंह ने माधोदास से कहा : सन्त जी ! तैयारी करें, अापको खाण्डे की पाहुल देनी है। इसके बाद श्रीगुरु जी ने उसे अपने पावन हाथों से विधिपूर्वक खाण्डे की पाहुल देकर वैरागी से सिंह सजा दिया (गुरू कीआं साखीआं, साखी १११, पृष्ठ १९९)। भट्ट स्वरूप सिंह कोशिश आगे बताते हैं : "सम्वत् १७६५ विक्रमी की कार्त्तिक शुक्ला तृतीया के दिन वैरागी माधोदास=बन्दा सिंह को पन्थ का जत्थेदार बनाकर श्रीगुरु जी ने उसे नायक भगवन्त सिंह बंगेश्वरी के टांडे में मद्रदेश (पंजाब का प्राचीन नाम) जाने का आदेश दिया। उसके हमराह भाई भगवन्त सिंह, कोइर सिंह, बाज़ सिंह, विनोद सिंह और काहन सिंह - ये पांच प्रमुख सिक्ख भेजे गए। श्रीगुरु जी ने बन्दा सिंह को एक कृपाण, एक मुहर, पांच तीर और एक निशान साहिब देकर पंजाब की ओर विदा किया (गुरू कीआं साखीआं, १८४७ विक्रमी, साखी १११, पृष्ठ २००)। श्रीगुरु गोविन्द सिंह से प्रेरणा पाकर शूरवीर बन्दा वैरागी ने लगभग नौ मास के भीतर गुप्त रूप से एक बलिष्ठ सैनिक संगठन खड़ा कर लिया और उसके बाद मुग़लों को पराजित करना प्रारम्भ कर दिया। फिर उस शूरवीर ने श्रीगुरु जी के पिता, माता और पुत्रों के दोषी मुस्लिमों को समुचित दण्ड देते हुए सरहिन्द की ईंट से ईंट बजा दी।
Vedic vichar
10-06-2022
बिरसा मुण्डा के बलिदान दिवस पर पुण्य स्मरण - धर्मरक्षक बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवम्बर 1875 को खूंटी जिले के अडकी प्रखंड के उलिहातु गाँव में हुआ था। उस समय ईसाई स्कूल में प्रवेश लेने के लिए ईसाई धर्म अपनाना जरूरी हुआ करता था। तो बिरसा ने धर्म परिवर्तन कर अपना नाम बिरसा डेविड रख दिया गया। उस समय ईसाई पादरी आदिवासियों की जमीन पर मिशन का कब्जा करने की कोशिश करते थे। बिरसा ने इसका विरोध किया जिस कारण वो स्कूल से निकाल दिए गये। ईसाइयों द्वारा प्रलोभन एवं छल-कपट से वनवासियों का धर्मांतरण करने के दुष्चक्र को देखकर अत्यंत व्यथित हुए। उन्होंने ईसाई मिशनरी का विरोध करना आरम्भ कर दिया। 1890-91 से करीब पाँच साल तक वैष्णव संत आनन्द पांडे से वैष्णव आचार-विचार का ज्ञान प्राप्त किया और व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन पर धर्म के प्रभाव पर मनन किया। परम्परागत धर्म की ओर उनकी वापसी हुई और उन्होंने धर्मोपदेश देना तथा धर्माचरण का पाठ पढाना शुरू किया। ईसाई छोड़ने वाले सरदार सरदार बिरसा के अनुयायी बनने लगे। बिरसा का पंथ मुंडा जनजातीय समाज के पुनर्जागरण का जरिया बना। उनका धार्मिक अभियान कालांतर में आदिवासियों को अंग्रेजी हुकूमत और ईसाई मिशनरियों के विरोध में संगठित होकर आवाज बुलंद करने को प्रेरित करने लगा। उन्होंने मुंडा समाज में व्याप्त अन्धविश्वास और कुरीतियों पर जमकर प्रहार किया। वह जनेऊ ,खडाऊ और हल्दी रंग की धोती पहनने लगे। उन्होंने कहा की ईश्वर एक है। भुत-प्रेत की पूजा और बलि देना निरर्थक है। सार्थक जीवन के लिए सामिष भोजन और मांस -मछली का त्याग करना जरूरी है। हंडिया पीना बंद करना होगा। अंग्रेजों द्वारा गौहत्या को देखकर बिरसा मुंडा बहुत व्यथित हुए। उन्होंने इसे सरासर अत्याचार बताया। अंग्रेजों द्वारा विदेशी पहनावा, विदेशी विचार भोले भाले वनवासियों पर लादने का भी बिरसा ने विरोध किया। उनके अनुसार ईसाइयत का कार्य भारतवासियों को अपनी ही जड़ों से दूर करने जैसा हैं। बिरसा मुंडा ने वनवासियों को एकत्र कर अपनी सेना बनाई और अंग्रेजों से लोहा लिया। नींद में सोते हुए उन्हें अपनी सेना के साथ पकड़ कर जेल भेज दिया गया। जहाँ उनकी केवल 25 वर्ष की आयु में मृत्यु हैजा से हुई। । बिरसा मुंडा के लक्ष्य को पूरा करने के लिए झारखंड सरकार ने धर्मांतरण विरोधी कानून बनाया है। इस कानून के अंतर्गत झूठ,फरेब और प्रलोभन से ईसाई धर्मान्तरण को क़ानूनी रूप से दंडनीय बताया गया है। यह कानून ही भगवान बिरसा मुण्डा को सच्ची श्रद्धांजलि है। बिरसा मुंडा गोरक्षक, स्वदेशी जागरण के उद्घोषक, प्राचीन मान्यताओं एवं धार्मिक परम्पराओं के समर्थक, अंग्रेजों के शत्रु, ईसाई धर्मान्तरण के घोर विरोधी थे। खुद को मूल निवासी और अम्बेडकरवादी कहने वाले लोग बिरसा मुंडा का केवल वोट के लिए नाम लेते हैं। उनके चिंतन और जीवन के उद्देश्य को वे किसी भी प्रकार से नहीं मानते। उलटा उसके विपरीत चलते है। अम्बेडकरवादी वनवासी क्षेत्र में ईसाइयों द्वारा चलाये जा रहे धर्मान्तरण का कभी विरोध नहीं करते। अम्बेडकरवादी न ही कभी गौहत्या का विरोध करते है। उलटे गौहत्या करने वालों की पीठ थपथपाते है। अम्बेडकरवादी यज्ञ, जनेऊ और वेद को अन्धविश्वास बताते है और बाइबिल को धर्म पुस्तक कहकर उसकी प्रशंसा करते हैं। अम्बेडकरवादी केवल मनुवाद और ब्राह्मणवाद चिल्ला कर वनवासियों के वोट लेकर अपनी तुच्छ राजनीति चमकाते हैं। वनवासियों के जीवन में सुधार कार्य करने में उनकी कोई रुचि नहीं हैं। अम्बेडकरवादी विदेशी NGO के माध्यम से वनवासी क्षेत्र में कोई भी विकास कार्य नहीं चलने देते। पर्यावरण प्रदूषण और जमीन अधिग्रहण के नाम पर कोर्ट में याचिकाएं डालकर किसी भी बड़े कारखाने को खुलने से रोकते हैं। क्योंकि अगर वनवासी निर्धन रहेंगे तो ईसाइयों के धर्मान्तरण का आसानी से शिकार बनेंगे।
Vedic vichar
10-06-2022
महान बलिदानी- बंदा बैरागी 9 जून/बलिदान-दिवस आज बन्दा बैरागी का बलिदान दिवस है। कितने हिन्दू युवाओं ने उनके अमर बलिदान की गाथा सुनी है? बहुत कम। क्योंकि वामपंथियों द्वारा लिखे गए पाठ्यक्रम में कहीं भी बंदा बैरागी का भूल से भी नाम लेना उनके लिए अपराध के समान है। फिर क्या वीर बन्दा वैरागी का बलिदान व्यर्थ जाएगा ?क्या हिन्दू समय रहते जाग पाएगा ?क्या आर्य हिन्दू जाति अपने पुर्वजों का ऋण उतारने के लिये संकल्पित होगी ? इस लेख के माध्यम से जाने बंदा बैरागी के अमर बलिदान की गाथा। बन्दा बैरागी का जन्म 27 अक्तूबर, 1670 को ग्राम तच्छल किला, पुंछ में श्री रामदेव के घर में हुआ। उनका बचपन का नाम लक्ष्मणदास था। युवावस्था में शिकार खेलते समय उन्होंने एक गर्भवती हिरणी पर तीर चला दिया। इससे उसके पेट से एक शिशु निकला और तड़पकर वहीं मर गया। यह देखकर उनका मन खिन्न हो गया। उन्होंने अपना नाम माधोदास रख लिया और घर छोड़कर तीर्थयात्रा पर चल दिये। अनेक साधुओं से योग साधना सीखी और फिर नान्देड़ में कुटिया बनाकर रहने लगे। इसी दौरान गुरु गोविन्द सिंह जी माधोदास की कुटिया में आये। उनके चारों पुत्र बलिदान हो चुके थे। उन्होंने इस कठिन समय में माधोदास से वैराग्य छोड़कर देश में व्याप्त मुस्लिम आतंक से जूझने को कहा। इस भेंट से माधोदास का जीवन बदल गया। गुरुजी ने उसे बन्दा बहादुर नाम दिया। फिर पाँच तीर, एक निशान साहिब, एक नगाड़ा और एक हुक्मनामा देकर दोनों छोटे पुत्रों को दीवार में चिनवाने वाले सर हिन्द के नवाब से बदला लेने को कहा। बन्दा हजारों सिख सैनिकों को साथ लेकर पंजाब की ओर चल दिये। उन्होंने सबसे पहले श्री गुरु तेगबहादुर जी का शीश काटने वाले जल्लाद जलालुद्दीन का सिर काटा। फिर सरहिन्द के नवाब वजीरखान का वध किया। जिन हिन्दू राजाओं ने मुगलों का साथ दिया था, बन्दा बहादुर ने उन्हें भी नहीं छोड़ा। इससे चारों ओर उनके नाम की धूम मच गयी। उनके पराक्रम से भयभीत मुगलों ने दस लाख फौज लेकर उन पर हमला किया और विश्वासघात से 17 दिसम्बर, 1715 को उन्हें पकड़ लिया। उन्हें लोहे के एक पिंजड़े में बन्दकर, हाथी पर लादकर सड़क मार्ग से दिल्ली लाया गया। उनके साथ हजारों सिख भी कैद किये गये थे। इनमें बन्दा के वे 740 साथी भी थे, जो प्रारम्भ से ही उनके साथ थे। युद्ध में वीरगति पाए सिखों के सिर काटकर उन्हें भाले की नोक पर टाँगकर दिल्ली लाया गया। रास्ते भर गर्म चिमटों से बन्दा बैरागी का माँस नोचा जाता रहा। काजियों ने बन्दा और उनके साथियों को मुसलमान बनने को कहा; पर सब ने यह प्रस्ताव ठुकरा दिया। दिल्ली में आज जहाँ हार्डिंग लाइब्रेरी है,वहाँ 7 मार्च, 1716 से प्रतिदिन सौ वीरों की हत्या की जाने लगी। एक दरबारी मुहम्मद अमीन ने पूछा - तुमने ऐसे बुरे काम क्यों किये, जिससे तुम्हारी यह दुर्दशा हो रही है ? बन्दा ने सीना फुलाकर सगर्व उत्तर दिया - मैं तो प्रजा के पीड़ितों को दण्ड देने के लिए परम पिता परमेश्वर के हाथ का शस्त्र था। क्या तुमने सुना नहीं कि जब संसार में दुष्टों की संख्या बढ़ जाती है, तो वह मेरे जैसे किसी सेवक को धरती पर भेजता है। बन्दा से पूछा गया कि वे कैसी मौत मरना चाहते हैं ? बन्दा ने उत्तर दिया, मैं अब मौत से नहीं डरता; क्योंकि यह शरीर ही दुःख का मूल है। यह सुनकर सब ओर सन्नाटा छा गया। भयभीत करने के लिए उनके पाँच वर्षीय पुत्र अजय सिंह को उनकी गोद में लेटाकर बन्दा के हाथ में छुरा देकर उसको मारने को कहा गया। बन्दा ने इससे इनकार कर दिया। इस पर जल्लाद ने उस बच्चे के दो टुकड़े कर उसके दिल का माँस बन्दा के मुंह में ठूँस दिया; पर वे तो इन सबसे ऊपर उठ चुके थे। गरम चिमटों से माँस नोचे जाने के कारण उनके शरीर में केवल हड्डियाँ शेष थी। फिर 9 जून, 1716 को उस वीर को हाथी से कुचलवा दिया गया। इस प्रकार बन्दा वीर बैरागी अपने नाम के तीनों शब्दों को सार्थक कर बलि पथ पर चल दिये। बंदा बैरागी जैसे महान वीरों ने हमारे धर्म की रक्षा के लिए अपने प्राणों का बलिदान कर दिया। खेदजनक बात यह है कि उनकी बलिदान से आज की हमारी युवा पीढ़ी अनभिज्ञ है। यह एक सुनियोजित षड़यंत्र है कि जिन जिन महापुरुषों से हम प्रेरणा ले सके उनके नाम तक विस्मृत कर दिए जाये। इस लेख को इतना शेयर कीजिये कि भारत का बच्चा बच्चा बंदा बैरागी के महान बलिदान से प्रेरणा ले सके।
Vedic vichar
10-06-2022
तेजोऽसि तेजो मयि धेहि वीर्य्यमसि वीर्यं मयि धेहि बलमसि बलं मयि धेहि। ओजोऽस्योजो मयि धेहि मन्युरसि मन्युं मयि धेहि सहोऽसि सहो मयि धेहि॥ -य॰ अ॰ 19। मं॰ 9॥ (तेजोऽसि॰) अर्थात् हे परमेश्वर! आप प्रकाशरूप हैं, मेरे हृदय में भी कृपा से विज्ञानरूप प्रकाश कीजिए। (वीर्यमसि॰) हे जगदीश्वर! आप अनन्त पराक्रम वाले हैं, मुझ को भी पूर्ण पराक्रम दीजिए। (बलमसि॰) हे अनन्त बलवाले महेश्वर! आप अपने अनुग्रह से मुझ को भी शरीर और आत्मा में पूर्ण बल दीजिए। (ओजो॰) हे सर्वशक्तिमन्! आप सब सामर्थ्य के निवासस्थान हैं, अपनी करुणा से यथोचित सामर्थ्य का निवासस्थान मुझ को भी कीजिये। (मन्युरसि॰) हे दुष्टों पर क्रोध करनेहारे! आप दुष्ट कामों और दुष्ट जीवों पर क्रोध करने का स्वभाव मुझ में भी रखिये। (सहोऽसि॰) हे सब के सहन करनेहारे ईश्वर! आप जैसे पृथिवी आदि लोकों के धारण और नास्तिकों के दुष्टव्यवहारों को सहते हैं, वैसे ही सुख, दुःख, हानि, लाभ, सरदी, गरमी, भूख, प्यास और युद्ध आदि का सहने वाला मुझ को भी कीजिये अर्थात् सब शुभ गुण मुझ को देके अशुभ गुणों से सदा अलग रखिये॥
Vedic vichar
10-06-2022
अज्ञात योद्धा पं० जगतराम हरियाणवी लेखक :- स्वामी ओमानन्द सरस्वती प्रस्तुति :- अमित सिवाहा पं० जगतराम का जन्म हरयाणा जिला होशियारपुर के नगमापरू नाम के कस्बे में हुआ। आप सदैव प्रसन्नवदन और मस्त रहते थे। मैट्रिक पास करके दयानन्द कालेज लाहौर में प्रविष्ट हुए , किन्तु परीक्षा देने से पूर्व आप उच्च शिक्षा प्राप्त करने के विचार से अमेरिका पहुंच गए। वहां पहुंचने पर देशभक्त ला० हरदयाल से आपकी भेंट हो गई। दोनों के हृदय में देशभक्ति की आग पहले ही विद्यमान थी। दोनों के मिलते ही और गुल खिल गया। दोनों में घनिष्ठ सम्बन्ध हो गया और दोनों मिलकर व्याख्यान तथा लेख द्वारा प्रचार करने लगे। अमेरिका में निवास करने वाले भारतीयों में देशभक्ति की आग लगा दी। कुछ दिन पश्चात् पं० जगत राम जी की यह धारणा हो गई कि भारत की सेवा में रहकर अच्छी हो सकती है। इसी विचार से वे अमेरिका से अपने देश - बन्धुनों से विदाई लेकर भारत को चल दिए। भारत में आकर अपने विचार के कुछ युवकों का सङ्गठन बनाया और कार्य प्रारम्भ कर दिया। सन् १९१४ में पुलिस ने लाहौर षड्यन्त्र का केस पंजाब के अनेक नवयुवकों पर चलाया , इनमें पं० जगतराम भी थे। एक दिन पेशावर जाते हुए रावलपिण्डी में गिरफ्तार कर लिए गए। आप पर हत्या आदि का अभियोग चलाकर अदालत ने आपको फांसी का दण्ड दिया। आपने हंसते - हंसते फांसी का दण्ड सुना। इस समय एक बड़ी कारुणिक घटना घटी। इनके पिता और पत्नी दोनों दुःखी होकर अन्तिम भेंट करने जेल में आये। पण्डित जी जेल में भी बड़े प्रसन्न रहते थे। अपने पिता जी को देखकर बोले - पिता जी क्या आप मुझ से प्रसन्न हैं ? पिता जी की प्रांखों से अश्रुधारा बह निकली और कहने लगे - " पुत्र ! कल तुम फांसी के तख्ते पर लटकने जाते हो । मेरी आशाओं पर वज्रप्रहार होने वाला है। मेरा सर्वस्व लुट रहा है और तुम मुझ से ऐसा प्रश्न कर रहे हो। " पं० जगतराम ने उसी प्रकार प्रसन्नतापूर्वक कहा " क्या आपने गुरु गोविन्दसिंह के पुत्रों की बलिदान की कथा नहीं पढ़ी ? ऐसे वीरों के लिये क्या आपके मुख से वाह ! वाह ! नहीं निकलता ? फिर आप आज रो क्यों रहे हैं ? यह वही नाटक तो है जो आपके ही घर खेला जा रहा है। इस पर तो आपको प्रसन्न होना चाहिए। मैं अपना यौवन मातृभूमि के चरणों पर अर्पण करने जा रहा हूं। क्या यह आपके लिये प्रसन्नता की बात नहीं है ? " यह बातें सुनकर उनके पिता जी मौनभाव से पुत्र के मुख की ओर देखते रहे। वृद्ध पिता के अत्यन्त आग्रह करने पर पंडित जी ने हाईकोर्ट में अपील की। अपील में फांसी का दण्ड कालापानी के रूप में बदल दिया। पंडित जी की हजारों रुपये की सम्पत्ति जब्त कर ली गई। परिवार वालों को कहीं खड़े होने को स्थान नहीं था। पंडित जी का स्वास्थ्य सर्वथा नष्ट हो रहा था। आपकी चिकित्सा के लिए डा० अन्सारी , डा० खानचन्द्रदेव और डा० गोपीचन्द आदि को गुजरात के जेलखाने तक जाना पड़ा। रोग से छुटकारा पाने पर अधिकारियों की कृपादृष्टि आप पर हुई और कई वर्षों तक लगातार जेल की अन्धेरी कोठरी में ' डण्डे गारद ' में रखे गये। यहां तक कि छः वर्ष तक दीपक का प्रकाश भी देखने को नहीं मिला। सात वर्षों तक पहनने को जुता नहीं मिला , जिससे बिवाई फटने से आपको असह्य पीड़ा सहनी पड़ी। इस प्रकार से नाना कष्ट आपको सहने पड़े । किन्तु इन भयङ्कर कष्टों का पंडित जी के मन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। इन कण्टों को अपना तप समझकर पंडित जी मस्त रहते थे। ज्यों - ज्यों आपको कष्ट दिये गये त्यों - त्यों आपका तपोबल बढ़ता गया। जिस जेलखाने में आप आते उसी के कैदी पंडित जी की ओर खिंचे चले आते थे। पंडित जी के व्यक्तित्व में महान आकर्षण था। सभी कैदी आपके शिष्य बन जाते थे। आपके जीवन और उपदेशों का प्रभाव ऐसा पड़ता था कि कैदियों के जीवन में परिवर्तन होकर धार्मिकता आती थी। पंडित जी कैदियों के चरित्र को सुधारने का सदैव यत्न करते थे। जो उनको सदाचार का महत्त्व समझाया करते थे। जो कैदी रोगी हो जाते थे उनकी आप बडी लगन से सेवा किया करते। पीछे तो आपके इस व्यवहार से जेल के अधिकारी भी सदैव आप से प्रसन्न रहते थे। यह गुण उनमें आर्यसमाज की कृपा से आये थे। यह दयानन्द कालिज के छात्र रह चुके थे। स्वामी दयानन्द सरस्वती के उपदेशों का आपके मानस पट पर गहरा प्रभाव पड़ा था। स्वामी विवेकानन्द ओर रामतीर्थ में भी आप श्रद्धा रखते थे। किन्तु आर्यसमाज की शिक्षा ने आपकी काया पलट दी थी। इसी कारण आपका चरित्र बड़ा उच्च और व्यक्तित्व बड़ा ही प्रभावशाली था। आप में प्रचार और सेवा की लगन थी। आप मनुष्यमात्र से प्रेम करते थे। सब को अपने सगे भाई के समान देखते थे। आपका मानस द्वेषरहित था। पंडित जी श्रमद्भगवद्गीता से भी प्रेम रखते थे। आपने जेल में ही संस्कृत , गुरुमुखी और हिन्दी भाषा का अभ्यास किया था। आप इन भाषाओं में सुन्दर गद्य और पद्य लिख लेते थे। आप अपने उपदेशों में गीता के उद्धरणों का प्रयोग किया करते थे। गुजरात जेल में खान अब्दुल गफ्फार खां , डा० अन्सारी साहब , मौलवी मुफती किफायत , उल्ला साहब , खानचन्द्रदेव , डा. गोपीचन्द जी और चौधरी कृष्ण गोपाल आदि विद्वान आपका गीतोपदेश सुनकर मुग्ध हो जाते थे। अब्दुल गफ्फार खां साहब तो आपकी गीता की व्याख्या पर इतने मुग्ध रहते थे कि प्रतिदिन एक घण्टा आप से गीता की व्याख्या सुना करते थे। आज आप जीवित हैं वा नहीं यह कोई नहीं जानता। उधर पंजाब में भयंङ्कर हत्याकाण्ड हो जाने से बहुत प्रयत्न करने पर भी उनका पता नहीं चला। पंडित जी की एक कविता जो अधूरी है , दी जाती है। उनका “ खाको " उपनाम तखुलुस था। गर मैं कहूं तो क्या कहूं कुदरत के खेल को। हैरत से तकती है मुझे दीवार जेल की।। हम जिन्दगी से तंग हैं तिस पर भी आशना कहते हैं और देखियेगा धार तेल की। जकड़े गये हैं किस तरह हम गम में क्या कहें , बल खा के हम पे चढ़ गया , मानिन्द बेल की ।। ' खाकी ' को रिहाई तु दोनों जहां से दे। आ ऐ आञ्जल तू फांद के दीवार जेल की।।
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10-06-2022
बाजार में एक चिड़ीमार तीतर बेच रहा था... उसके पास एक बडी जालीदार टोकरी में बहुत सारे तीतर थे..! और एक छोटी जालीदार टोकरी में सिर्फ एक ही तीतर था..! एक ग्राहक ने पूछा एक तीतर कितने का है..? "40 रूपये का..!" ग्राहक ने छोटी टोकरी के तीतर की कीमत पूछी। तो वह बोला, "मैं इसे बेचना ही नहीं चाहता..!" "लेकिन आप जिद करोगे, तो इसकी कीमत 500 रूपये होगी..!" ग्राहक ने आश्चर्य से पूछा, "इसकी कीमत इतनी ज़्यादा क्यों है..?" "दरअसल यह मेरा अपना पालतू तीतर है और यह दूसरे तीतरों को जाल में फंसाने का काम करता है..!" "जब ये चीख पुकार कर दूसरे तीतरों को बुलाता है और दूसरे तीतर बिना सोचे समझे ही एक जगह जमा हो जाते हैं फिर मैं आसानी से सभी का शिकार कर लेता हूँ..!" बाद में, मैं इस तीतर को उसकी मनपसंद की 'खुराक" दे देता हूँ जिससे ये खुश हो जाता है..! "बस इसीलिए इसकी कीमत भी ज्यादा है..!" उस समझदार आदमी ने तीतर वाले को 500 रूपये देकर उस तीतर की सरे आम बाजार में गर्दन मरोड़ दी..! किसी ने पूछा, "अरे, ज़नाब आपने ऐसा क्यों किया..? उसका जवाब था, "ऐसे दगाबाज को जिन्दा रहने का कोई हक़ नहीं है जो अपने मुनाफे के लिए अपने ही समाज को फंसाने का काम करे और अपने लोगो को धोखा दे..!" हमारी सामाजिक व्यवस्था में भी 500 रू की क़ीमत वाले बहुत से तीतर हैं..! 'जिन्हें सेक्युलर, लिबरल, वामपंथी, कम्युनिस्ट, धर्मनिरपेक्ष, विपक्षी, जातिवादी, परिवारवादी आदि दलों के नाम से जानते हैं. जो अपनी वर्तमान राजनीति के चक्कर में भारत को बहुत ज्यादा नुकसान पहुंचा रहे हैं। धोखेबाजों से सावधान रहें..!!
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10-06-2022
*????जीवन और मृत्यु का अधिष्ठाता????* *ईशावास्य मिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्।* *तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम्।।* ―(यजुर्वेद 49/1) _मन्त्र में बताया है कि यह परिवर्तनशील सम्पूर्ण संसार का एक स्वामी (ईश) है। *ज+गत्=जगत्।* ज का अर्थ है जन्म लेना और गत् का अर्थ है चले जाना। जहाँ प्राणी जन्म लेता और अन्ततः चला जाता है। इस जन्म और मृत्यु का नियन्ता, अधिष्ठाता भी वही परमात्मा है।.उसी के नियम, व्यवस्था या विधान के अन्तर्गत प्राणी जन्म लेता और मृत्यु को प्राप्त होता है। (तेन त्यक्तेन, भुञ्जजीथाः) उस प्रभुदेव के द्वारा प्रदत्त इस संसार के पदार्थों का त्याग पूर्वक उपभोग करो (मागृधः) इसमें आसक्त मत होओ, इन पदार्थों को अपना मानने का लोभ मत करो। (कस्य स्विद्धनम्) यह धन किसका है? अर्थात् यह धन किसी का नहीं हुआ, इन धनादि पदार्थों का स्वामी वही ईश्वर है।_ बड़े से बड़े दुःख, बड़ी से बड़ी मुसीबतें और कष्ट, करुणा-निधान, करुणाकर प्रभु के स्मरण से कम होते हैं और जाते रहते हैं। वही असहायों का सहाय, निराश्रितों का आश्रय और निरवलम्बों का अवलम्ब है। दुनियाँ के बड़े-बड़े वैद्य, डाक्टर, राजा महाराजा और साहूकार प्रसन्न होने पर केवल शारीरिक कल्याण का कारण बन सकते हैं, परन्तु मानसिक व्यथा से व्यथित नर-नारी की शान्ति के कारण तो वही प्रभु हैं, जो इस ह्रदय मन्दिर में विराजमान हैं। दुनियाँ के और लोगों की तरह उसका सम्बन्ध मनुष्यों से शारीरिक नहीं, किन्तु मानसिक और आत्मिक है, वही है जो गर्भ में तथा ऐसी जगहों में जीवों की रक्षा करता है, जहाँ मनुष्यों की बुद्धि भी नहीं पहुँच सकती। एक पहाड़ का भाग सुरंग से उड़ाया जाता है, पहाड़ के टुकड़े-2 हो जाते हैं, एक टुकड़े के भीतर देखते हैं एक तुच्छ कीट है जिसके पास कुछ अन्न के दानें पड़े हैं। बुद्धि चकित हो जाती है, तर्क काम नहीं देता, मन के संकल्प विकल्प थक जाते हैं, यह कैसा चमत्कार है, हम स्वप्न तो नहीं देख रहे हैं। भला इस कठोर ह्रदय पत्थर के भीतर यह कीट पहुँचा कैसे? और उसको वहाँ ये दाने मिले तो मिले कैसे ! वह आश्चर्य के समुद्र में डुबकियाँ लगाने लगता है। अन्त में तर्क और बुद्धि का हथियार डालकर मनुष्य बेसुध-सा हो जाता है। अनायास उसका ह्रदय श्रद्धा और प्रेम से पूरित हो गया, ईश्वर की इस महिमा के सामने सिर झुक गया और ह्रदय से निकल पड़ा कि हे प्रभो! आप विचित्र हो आपके कार्य भी विचित्र हैं। आपकी महिमा समझने में बुद्धि निकम्मी व मन निकम्मा बन रहा है, आप ही अन्तिम ध्येय और आश्रय हो, नाथ ! आपके ही आश्रय में आने से दुःख-दुःख नहीं रहते, कष्ट-कष्ट नहीं प्रतीत होते। प्रस्तुति- पंकज शाह
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10-06-2022
न्यायात् पथः प्रविचलन्ति पदं न धीरा: महर्षि दयानन्द ने अपने ५९ साल के अल्पकालीन जीवन में धर्म की उन्नती के लिए बहुत बड़ा कार्य कर दिखाया। उनमें कार्य करने की अद्भुत क्षमता थी। असीम शक्ति थी। वे निडर और साहसी थे। कर्मठ थे। कार्य करते हुए थकते नहीं थे। अपने लक्ष्य की ओर बिना रुके बढ़े जाते थे। अपने पथ से विचलित हुए बिना लगातार अपने लक्ष्य पथ पर बढ़ते रहने की शक्ति का स्रोत उनके हृदय में निरन्तर बहता रहता था। ऐसी शक्ति उन्होंने कहाँ से प्राप्त की थी? अवश्य ही वेदों के अध्ययन द्वारा उनको यह शक्ति प्राप्त हुई थी। जैसा कि सभी जानते हैं महर्षि दयानन्द वेदों के अप्रतिम विद्वान थे। उन्होंने विधिवत् वेद का अध्ययन किया था। उनका पूर्ण जीवन ही वेद के अध्ययन के फल स्वरूप अद्भुत आभा से चमकता रहा। अतः वेदों के अध्ययन द्वारा उनको निश्चय ही ऐसी दृढ़ कार्य शक्ति प्राप्त हुई होगी जिसके रहते वे अपने लक्ष्य पथ पर निरंतर बढ़ते रहे। वेद के स्वाध्याय ने ही उनके हृदय में धर्मोन्नति की भावना का संचार किया था। यह तो है ही इसके साथ ही कुछ नीति वाक्य भी उनके कार्य शक्ति को अवश्य ही बल देते होंगे। पिछले दिनों एक पुस्तक देखने को मिली "महर्षि दयानन्द सरस्वती के पत्र और विज्ञापन"। इसमें महर्षि के पत्रों और विज्ञापनों का सुन्दर संकलन किया गया है। महर्षि दयानन्द के पत्रों में, एक से अधिक पत्रों में नीति का एक श्लोक मिलता है - जिसमें कर्मठ पुरुषों के बारे में अपने जीवन में निरंतर कार्य करते हुए सफलता प्राप्त करने वाले धीर पुरुषों के, महान पुरुषों के लक्षण बताए गए है। महर्षि दयानन्द अकसर अपने प्रिय जनों को धर्म पथ पर आरूढ़ रहने की प्रेरणा देते हुए उस श्लोक को उद्घृत करते थे। वह नीति वाक्य, श्लोक अवश्य ही हमारे लिए ज्ञानवर्धक और प्रेरणाप्रद होगा। श्लोक है - निन्दन्तु नीति निपुणाः यदि वास्तुवन्तु, लक्ष्मीः समा विशतु गच्छतु वा यथेष्टम्। अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा, न्यायात् पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः।। (निन्दन्तु) अर्थात् निंदा करें, (नीति निपुणाः) - नीति में चतुर लोग जो लोग व्यवहार कुशल हैं, (स्तुवन्तु) अर्थात् स्तुति करें गुण गाएं। (लक्ष्मी) अर्थात धन-दौलत रुपया पैसा, (समाविशतु) - प्राप्त हो, (लक्ष्मीः समाविशतु) - धन दौलत रुपया पैसा प्राप्त हो - कितना? (यथेष्टम्) - जितनी इच्छा हो, जितना चाहें उतना धन दौलत मिल जाए। (वा गच्छतु) - या चली जाए। या धन दौलत अपने हाथ से निकल जाए। धन की हानि हो जाए। (अद्य एव) - आज ही - (अद्यैव वा मरणमस्तु) - चाहे आज ही मरना पड़ जाए - चाहे आज ही मृत्यु हो जाए। (युगान्तरे वा) - या कई युगों के पश्चात मृत्यु हो। (न्यायात् पथः) न्याय के रास्ते से, सही रास्ते से, उचित कार्य से - (न प्रविचलन्ति) - विचलित नहीं होते हैं - नहीं हटते हैं - (पदं) - अर्थात् एक पग भी। (धीराः) अर्थात् धीर पुरुष, विद्वान पुरुष, उत्तम पुरुष, धर्म पर चलने वाले लोग। अर्थ है नीति निपुण लोग निन्दा करें या स्तुति करें, चाहे खूब अधिक धन मिल जाए या अपने पास का धन भी चला जाए, नष्ट हो जाए, चाहे आज ही मृत्यु हो जाए या कई युगों बाद मृत्यु हो, धीर पुरुष, न्याय के पथ से कभी भी, एक कदम भी विचलित नहीं होते हैं। नहीं हटते हैं। निन्दन्तु नीति निपुणाः - नीति में निपुण लोग, व्यवहार कुशल लोग, चतुर लोग क्या करते है? कार्य की सिद्धि को देखते हुए व्यवहार करते है। जिस व्यवहार से अपना पक्ष सिद्ध हो, अपना काम निकले वैसा व्यवहार करते है। उचित और अनुचित का विचार किए बिना कुछ लोग अपने स्वार्थ की सिद्धि के लिए अच्छे को बुरा और बुरे को अच्छा कहने लगते हैं। ऐसे लोग बड़ी चतुराई से सही को गलत और गलत को सही प्रमाणित कर देते हैं। साधारण लोग उनकी बातों में आ जाते हैं और उनकी गलत बातों को भी सही मानने लगते हैं। निन्दन्तु नीति निपुणाः यदि वास्तुवन्तु - चतुर लोग अपने स्वार्थ से ही किसी की स्तुति करते हैं जिससे अपने स्वार्थ पूरे न हों उसकी निन्दा करते हैं। अतः ऐसे पुरुषों की निन्दा और स्तुति, किसी का भी कोई महत्व नहीं होता हैं। जब उनका काम पड़ेगा तब स्तुति करेंगे और जब काम निकल जाएगा निन्दा करेंगे। ऐसे व्यक्ति धर्म और अधर्म का विचार नहीं करते। उचित अनुचित का विचार नहीं करते। केवल अपने स्वार्थ का विचार करते है। अतः ऐसे स्वार्थी व्यक्तियों की निन्दा से घबड़ाना नहीं चाहिए और ऐसे व्यक्तियों की स्तुति का भी प्रभाव अपने पर नहीं पड़ने देना चाहिए, संयम धारण करना चाहिए। दुष्ट विचार के व्यक्ति भी अपनी ओछी विचार धारा के कारण किसी सज्जन पुरुष की निन्दा बड़ी चतुराई से करने लगते हैं। ऐसे चतुर लोग चाहे निन्दा करें चाहे गुण गाएं, स्तुति करें, न्याय पथ पर चलने वाले लोग, धर्म पर स्थिर रहने वाले लोग, उनके द्वारा निन्दा की बातें सुन कर या स्तुति गुणगान सुन कर घबड़ाते नहीं है। संयम नहीं खोते है। वे पहले की तरह ही न्याय पथ पर धर्म के रास्ते पर चलते रहते हैं। जो व्यक्ति निन्दा और स्तुति से परे हो जाता है, निन्दा और स्तुति पर ध्यान नहीं देता है, अपने कार्य अपने लक्ष्य की ओर बढ़ता जाता है - वही अपने कार्य में सफल होता है। महर्षि दयानन्द के जीवन को देखें तो वे ऐसे ही महान पुरुष थे जो निन्दा और स्तुति से उपर उठ चुके थे। कोई उनकी निन्दा करें वे दुखी नहीं होते थे। कोई उनकी प्रशंसा करें संयम नहीं खोते थे। धर्म पथ पर चले चलते थे। धर्म पथ से विचलित नहीं होते थे। महर्षि दयानन्द पूना पहुँचे। उनके प्रवचन की धूम थी। बड़े बड़े विद्वान उनके प्रवचन सुनने के लिए आते थे। अज्ञान मिट रहा था। ज्ञान का प्रकाश फैल रहा था। धर्म और जाति से प्रेम करने वाले लोग महर्षि के उपदेश से लाभान्वित होकर प्रसन्न थे। परन्तु जैसे उल्लू को दिन का प्रकाश अच्छा नहीं लगता है, चोर को पूनम की रात अच्छी नहीं लगती है उसी प्रकार दुष्ट लोगों को सत्य ज्ञान का उपदेश अच्छा नहीं लगता हैं।उनको डर लगता है कि सत्य ज्ञान के उपदेश से उनके स्वार्थ पर कुठारा घात होगा। यदि सत्य ज्ञान का प्रकाश फैल जाएगा तो लोगों को धर्म के नाम पर मूर्ख बना कर अपनी कमाई नहीं कर पाएंगे।अतः उन्होंने महर्षि को अपमानित करने की योजना बनाई। महर्षि दयानन्द बैठे थे। तभी एक भक्त दौड़ा-दौड़ा आया और बोला - स्वामी जी अनर्थ हो गया। स्वामी जी ने पूछा - क्या हुआ? वह बोला - स्वामी जी कैसे कहें कि क्या हुआ? लोग आप को बहुत अपमानित कर रहे हैं। महर्षि ने पूछा कुछ कहो तो जानें क्या कर रहे है? वह बोला - महाराज क्या बताएँ। एक व्यक्ति को स्वामी दयानन्द बना दिया गया है।उसके गले में जूतों की माला डाल दी गई है। गधे पर बैठा दिया गया है। उसे नगर में घुमा रहे हैं। चारों ओर से लोगों-बच्चों की भीड़ ताली पीटती हुई जा रही है। महाराज बड़ा अपमान हो रहा है। निन्दा और स्तुति से उपर उठे महर्षि ने स्वाभाविक सरल भाव में कहा - यह तो उचित ही है। जो व्यक्ति नकली दयानन्द बनेगा उसकी यही गति होनी चाहिए। असली दयानन्द तो यहाँ बैठा है। इसका अपमान करने की शक्ति किसी में भी नही है। जो बिना वेद पढ़े दयानन्द बनना चाहेगा उसे तो लोग अपमानित करेंगे ही। जूतों की माला डाल कर, लोग गधे पर बैठाएंगे। नगर में घुमाएंगे ही। ऐसे थे स्वामी दयानन्द सरस्वती। निन्दा का, सार्वजनिक रूप से निन्दा करने का भी उन पर लेश मात्र भी प्रभाव नहीं पड़ा। आप जानते हैं, काशी में शास्त्रार्थ हुआ। एक ओर दयानन्द अकेले, परन्तु वेदों के महान पण्डित। ऐसे विद्वान जैसा कि इधर पाँच हजार वर्षों में कोई नहीं हुआ। दूसरी ओर वैदिक ज्ञान से हीन तथिकथित पंडितों का झुण्ड। शास्त्रार्थ हुआ। वेद ज्ञान से रहित पंडितों का समूह स्वामी दयानन्द सरस्वती का सामना नहीं कर सका तो उन्होंने छल से काम लिया। अकारण ही "दयानन्द हार गया - दयानन्द हार गया" का शोर करने लगे। इस छल में काशी नरेश ने भी उनका साथ दिया।उन्होंने भी स्वामी दयानन्द के पराजय की बात कह कर शोर करने वालों का समर्थन किया। शास्त्रार्थ सभा बिखर कर समाप्त हो गई। नगर कोतवाल रघुनाथ प्रसाद सावधानी पूर्वक स्वामी दयानन्द को उस भीड़ में से निकाल ले गए। महर्षि दयानन्द पर इस पक्षपात पूर्ण व्यवहार का क्या असर पड़ा है यह देखने के लिए पंडित ईश्वरसिंह नाम के एक निर्मला साधु उनके पास गए। वे जानना चाहते थे कि इस दुखद घटना से महर्षि दयानन्द कितने दुखी हैं। परन्तु उन्होंने देखा स्वामी दयानन्द के मुख मंडल पर दुख की, विषाद की, ग्लानि की, कोई रेखा तो दूर छाया तक नहीं है। वे शान्त भाव से आसन पर विराजमान थे। तब उस साधू ने कहा - मैं अब तक आपको वेद का अद्वितीय विद्वान ही समझता था। परन्तु मुझे अब यह विश्वास हो गया कि आप वीतराग स्थितप्रज्ञ महात्मा भी हैं। काशी नरेश ने स्वामी दयानन्द को अपमानित करने में अपनी ओर से पूरा प्रयास किया। परन्तु विद्वानों, बुद्धिमानों को वास्तविकता का ज्ञान था। वे अच्छी तरह जानते थे कि दयानन्द की हार नहीं, जीत हुई है। जब महर्षि दयानन्द दूसरी बार काशी पधारे काशी नरेश ने उन्हें आमन्त्रित किया।काशी नरेश के प्रतिनिधि ने महर्षि दयानन्द से निवेदन किया - काशी नरेश आप का दर्शन करना चाहते हैं। मैं आप को लिवा जाने के लिए आया हूँ। महर्षि दयानन्द काशी नरेश के महल में गए। काशी नरेश ने उन्हें सोने के सिंहासन पर बैठाया। स्वयं स्वामी जी के पैरों के पास बैठ गए।उन्होंने स्वामी जी से निवेदन किया - महाराज जब पिछली बार आप काशी आए थे। मुझसे आप का अपमान हो गया था। मैं आप से क्षमा चाहता हूँ। महर्षि दयानन्द ने सरल भाव से उत्तर दिया - "राजन पिछली बातों का मेरे मन पर कोई संस्कार नहीं है"। काशी नरेश ने महर्षि दयानन्द का भव्य आतिथ्य किया। बाद में भी उनके लिए फल मिष्ठान आदि भिजवाए। स्वामी दयानन्द का सामूहिक रूप से अपमान करने का प्रयास किया जाए या स्वर्ण सिंहासन पर बैठा कर स्तुति की जाए - इसका प्रभाव उन पर नहीं पड़ता था। वे न तो अपमान का अनुभव कर दुखी हुए और न ही स्वागत सत्कार पा कर, स्तुति सुन कर प्रसन्न हुए - वे निन्दा और स्तुति दोनों से उपर उठ चुके थे। इनके चक्कर में पड़ कर अपने पथ से विचलित होने वाले नहीं थे। यदि उनके मन में काशी नरेश का अशिष्ट व्यवहार घर कर लिया होता तो वे काशी नरेश के निमन्त्रण पर उनके महल में कदापि न जाते। निन्दन्तु नीति निपुणाः यदि वास्तुवन्तु
ओ३म् का जाप सर्वश्रेष्ठ (vedic vichar)
10-06-2022
वेदाध्ययन में मन्त्रों के आदि तथा अन्त में ओ३म् शब्द का प्रयोग किया जाता है। मनुस्मृति में आया है कि मन्त्रों के आदि तथा अन्त में ओ३म् शब्द का उच्चारण करना चाहिए। क्योंकि आदि में ओ३म् शब्द का उच्चारण न करने से अध्ययन धीरे धीरे नष्ट हो जाता है तथा अन्त में ओ३म् शब्द न कहने से वह स्थिर नहीं रहता है। २/७४ ।। कठोपनिषद में नचिकेता की कथा आती है।नचिकेता ने यम ऋषि से पूछा- हे ऋषि,मुझे यह बताइये कि संसार में सार वस्तु क्या है? इस पर ऋषि ने उत्तर दिया,सब वेद जिस नाम के संबंध में वर्णन करते हैं,सभी तपस्वी जिसके विषय में कहते हैं,जिसकी प्राप्ति की इच्छा करते हुए ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं,उस नाम के संबंध में मैं तुझे संक्षेप में बताता हूं-वह ओ३म् नाम(शब्द) ही परमात्मा का श्रेष्ठतम नाम है। यजुर्वेद में आया है कि मृत्यु को जीतने और मोक्ष को प्राप्त करने के लिए ओ३म् के अतिरिक्त और कोई भी मार्ग नहीं है। यमाचार्य ने तो नचिकेता को ओ३म् का महत्व बताते हुए यहां तक कह दिया है कि यह ओ३म् अक्षर निश्चय ब्रह्म है।यह ही अक्षर ब्रह्म के सब नामों में श्रेष्ठतम है। इस अक्षर को जान लेने के बाद जापक जो इच्छा करता है उसकी वह इच्छा निश्चयपूर्ण हो जाती है।। कठोपनिषद २/१६ ।। ऋग्वेद ने इसे स्पष्ट करते हुए कहा है-हे वीर प्रभो,आपकी मित्रता कठिनाई से नष्ट होने वाली है।अर्थात आपकी मित्रता स्थाई तथा विश्वसनीय है। आप गाय चाहने वाले के लिए गाय हैं(देने वाले हैं) तथा घोडा चाहने वाले के लिए घोडा है ।।६/४५/२६ ।। प्रश्नोपनिषद् में तो पिप्पलाद ऋषि ने यहां तक कह दिया है कि जो निरन्तर इस तीन मात्राओं वाले ओ३म् अक्षर के द्वारा परब्रह्म का ध्यान करता है वह तेज में सूर्य के समान सम्पन्न हो जाता है ।।५/५ ।। छान्दोग्य उपनिषद् के अनुसार देवता भी इस अविनाशी ,अमर तथा अभय ओ३म् अक्षर का सहारा लेकर अमर तथा अभय हो गये ।।२/४/४ ।। गीता में श्रीकृष्ण इस ओ३म् अक्षर का महत्व बताते हुए अर्जुन से कहते हैं- इस एकाक्षर ब्रह्म स्वरुप ओ३म् का स्मरण करता हुआ जो मनुष्य इस शरीर का परित्याग करता है वह परमगति(मोक्ष) को प्राप्त होता है ।।८/१३ ।। मुण्डकोपनिषद् ओ३म् की महिमा के वर्णन में कहता है-ओ३म् का जाप करने से ह्रदयग्रन्थि (सूक्ष्म शरीर) टूट जाती है।सब प्रकार के संशय नष्ट हो जाते हैं।उसके सब कर्म क्षीण हो जाते हैं।उस इन्द्रियातीत ओ३म् के दर्शन करने मात्र से ही ।। २/२८ ।। कठोपनिषद में आगे कहा है-ओ३म् अनित्यों में एक नित्य है।अनेकों में वही एक है।श्रेष्ठ कामनाओं का वही एक पूरक है।जो धीर पुरुष इस ओ३म् को अपनी आत्मा में देखते हैं केवल उन्हें ही परम शान्ति प्राप्त होती है,अन्यों को नहीं ।।५/१३ ।। आत्मा में विराजमान इस परमात्मा को धीर पुरुष परा विद्या से साक्षात्कार किया करते हैं;क्योंकि यह ओ३म् इन्द्रियातीत है। वह नित्य,विभु,सर्वव्यापक,सूक्ष्म,अव्यय तथा सब प्राणियों का कारण है। वह गोत्र,वंश,आंख,कान,हाथ,पांव से रहित है। वह संसार की बीज शक्ति है।वह अशरीर है।वह नाडी आदि बन्धनों से जकडा नहीं है।वह मलरहित है। पाप उसको बांध नहीं सकते।कोई स्थान उससे रिक्त नहीं। उसका कोई उत्पादक नहीं है। वह सवयं अपना स्वामी है।उसने अपनी सनातन प्रजाओं के लिए पदार्थों का ठीक ठीक रीति से विधान बनाया है। यजु: ४०/८ ।
Vedic vichar
06-06-2022
"सचमुच, स्वार्थशून्य पवित्र पुरुषों पर आये हुए कष्ट, दु:ख, आपत् सब क्षणिक होते हैं।" ***** यद् अंग दाशुषे त्वमग्ने भद्रं करिष्यसि । तवेत् तत् सत्यमगिरः॥ -ऋ० ११।६ ऋषिः - मधुच्छन्दा। देवता - अग्निः। छन्दः - गायत्री। विनय - हे प्रकाशमय देव ! यह सच है कि स्वार्थत्यागी का कल्याण ही होता है, पर दुनिया में ऐसा दिखाई नहीं देता। दुनिया में तो दीखता है कि स्वार्थमग्न लोग ही आनन्द-मौज उड़ा रहे हैं और स्वार्थत्यागी दुःख भोग रहे हैं। स्वार्थी विजय-पर-विजय पा रहे हैं, दूसरों पर जुल्म कर रहे हैं और स्वार्थत्यागी पुरुष सताये जा रहे हैं परन्तु हे मेरे प्यारे देव ! हे मेरे जीवनसार ! आज मैं तेरी परम कृपा से सूर्य की तरह यह साफ देख रहा हूँ कि आत्म-बलिदान करनेवाले का तो सदा कल्याण ही होता है। इसमें कुछ संशय नहीं रहा; यह अटल है, बिल्कुल स्पष्ट है। दुनिया की ये प्रतिदिन की उल्टी दिखाई देने वाली घटनायें भी आज मेरी खुली आँखों के सामने से इस प्रकाशमान सत्य को छिपा नहीं सकती हैं कि आत्मसमर्पण करनेवाले के लिए कल्याण-ही-कल्याण है। मैं देखता हूँ कि दुनिया में चाहे कभी सूर्य टल जाय, ऋतुएँ बदल जायँ, पृथिवी उलटी घूमने लग जाय और सब असम्भव सम्भव हो जाय, पर यह तेरा सत्य अटल है कि आत्म-बलिदान करनेवाले का अकल्याण कभी नहीं हो सकता - "नहि कल्याणकृत् कश्चित् दुर्गति तात गच्छति" ["हे प्यारे ! कल्याण करनेवाला कभी दुर्गति को नहीं प्राप्त होता"] — कृष्ण भगवान् के गाये हुए ये सान्त्वनामय शब्द परम सच्चे हैं। हे जीवन के जीवन ! जब मनुष्य स्वार्थ को त्यागता है, आत्म-बलिदान करता है तो उस त्याग व बलिदान द्वारा हे कल्याणस्वरूप ! वह केवल तेरे और अपने बीच की रुकावट का ही त्याग करता है, निवारण करता है और तेरे कल्याणस्वरूप को पाता है। भला, आत्मबलिदान में अकल्याण की गुंजाइश ही कहाँ है ? सचमुच, स्वार्थशून्य पवित्र पुरुषों पर आये हुए कष्ट, दु:ख, आपत् सब क्षणिक होते हैं। उनके सम्बन्ध में जो अक्षणिक है, सत्य है, अटल है, वह तो उनका कल्याण है। शब्दार्थ - (अंग) हे प्यारे ! (अंगिरः) मेरे जीवनसार (अग्ने) प्रकाशक देव ! (यत् त्वं) जो तू (दाशुषे) आत्म-बलिदान करनेवाले का (भद्रं) कल्याण (करिष्यसि) करता है (तत्) वह (तव) तेरा (सत्यं इत्) सच्चा, न टलनेवाला नियम है। ********** स्रोत - वैदिक विनय। (चैत्र ४) लेखक - आचार्य अभयदेव। प्रस्तुति - आर्य रमेश चन्द्र बावा।
धर्म और अधर्म (vedic vichar)
06-06-2022
????व्याख्याता - शास्त्रार्थ महारथी पं॰ रामचंद्र देहलवी जी प्रस्तुति - ???? ‘अवत्सार’ धर्म-जिसका स्वरूप ईश्वर की आज्ञा का यथावत पालन और पक्षपात-रहित न्याय सर्वहित करना है, जो कि प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सुपरीक्षित और वेदोक्त होने से सब मनुष्यों के लिए यही एक मानने योग्य है, उसको धर्म कहते हैं। आइये, हम धर्म और अधर्म के स्वरूप पर विचार करें और सदैव धर्माचरण करने का निश्चय करें। श्री स्वामी दयानन्द जी महाराज ने धर्म का लक्षण करते हुए सबसे पूर्व ईश्वर की आज्ञा का यथावत पालन करना आवश्यक समझा, जिससे ईश्वर का मानना स्वतः सिद्ध है। उस ईश्वर को न मानने वाला इस लक्षण के अनुकल धर्मात्मा नहीं समझा जा सकता। बहुधा ऐसे मनुष्य दुनिया में मिलेंगे, जिनका ईश्वर में विश्वास नहीं, परन्तु वे भी सृष्टि नियमों को मानते हैं और उन पर चलते हैं । ऐसे पुरुष पूर्ण धर्मात्मा नहीं कहे जा सकते, चूकि उन्होंने नियामक के आवश्यक अंग को नहीं माना जिसके बिना, किसी भी नियम का निर्माण होना असम्भव है । अनुमान-प्रमाण विशेषकर मनुष्य के लिए ही है, जो कारण से कार्य और कार्य से कारण का अनुमान करके अपने कार्यों की सिद्धि करता है। प्रत्येक समय यह आवश्यक नहीं कि कार्य और कारण दोनों की प्रतीति एक ही साथ हो । यदि दुनिया में कहीं ऐसा नियम होता कि दोनों एक ही साथ होते तो अनुमान प्रमाण की आवश्यकता ही न होती। जैसे बादलों को देखकर होने वाली वर्षा का और हुई वर्षा को देखकर उसके कारण रूप बादलों का अनुमान होता है, इसी प्रकार दु:ख को देखकर पाप-कर्मों का, और पापकर्मों को देखकर दुःखों का अनुमान होता है । यदि कोई दुःखों को देखकर पाप-कर्मों का अनुमान करे, या सन्तान को देखकर माता-पिता का, तो उसको पूर्ण ज्ञानी नहीं कह सकते । इसी प्रकार यदि कोई सृष्टि नियमों को देख कर और स्वीकार करके भी उनके नियामक को स्वीकार न करे, तो वह भी पूर्ण ज्ञानी न समझा जायेगा। और जो पूर्ण ज्ञानी ही नहीं, वह पूर्ण धर्मात्मा ही कैसे हो सकता है ? चूकि धर्मात्मा के लिए ज्ञानपूर्वक कर्मों की हो तो प्रधानता है। यदि कोई यह शंका करे कि ईश्वर ने कानून तो बना दिया, पर वह अब कुछ नहीं करता और न आगे करने की आवश्यकता है। प्रत्येक कार्य उस ही नियम के अनुसार होता चला आ रहा है। और आगे भी होता रहेगा, तो क्या हानि ? इसका उत्तर यह है कि कानून स्वयं कुछ नहीं कर सकता जब तक कि चेतनकर्ता उसको अमल में न लाते, जैसे कि ताजीरात हिन्द किसी अपराधो का कुछ नहीं कर सकती, जब तक कि पुलिस उसको पकड़ कर जज के सामने पेश न करे और जज उसको उसके अपराध के अनुसार दण्ड न देदे । इसी प्रकार परमात्मा का कानून भी ईश्वर के स्वयं अमल में लाए बिना कुछ नहीं कर सकता। जो ईश्वर को कानून का बनाने वाला तो मानता है लेकिन चलाने वाला नहीं मानते, उनको यह विचारना चाहिए कि जिस बुद्धि ने कानून का निर्माण किया है, वह ही बुद्धि उसको चला सकती है। प्रकृति जड़ होने से स्वयं न कोई कानून (नियम) बना सकती है और न किसी के बनाये नियम पर स्वयं स्वतन्त्रता से चल सकती है। जीवात्मा भी अल्पज्ञ होने से बिना ईश्वर से शरीर तथा ज्ञान प्राप्त किए न कोई नियम बना सकता है, न चल तथा चला सकता है। जीवात्मा इस प्रकार की ईश्वरीय सहायता प्राप्त करके भी, जो नियम बनाता या चलाता है, उसको भी वह अन्य पुरुषों की सहायता से ही कार्यरूप में परिणत करता है। कई स्थानों पर स्वयं अल्पज्ञ और अल्पशक्ति होने के कारण, अपनी इच्छा के विरुद्ध फल की प्राप्ति और असफलता का पात्र बनता है। जैसे आपने देखा होगा कभी-कभी बिना किसी इच्छा के स्वयं ठोकर लग जाती है तथा भोजन करते समय दांतों के तले जीभ कटकर कष्ट देती है। जिससे कि यह सिद्ध है कि कभी-कभी जीवात्मा अपने शरीर पर भी पूर्ण अधिकार नहीं रख पाता। पर परमात्मा सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान् होने के कारण इकला ही सब नियमों को बनाता और स्वयं उन्हें चलाता है, यह हममें और परमात्मा में भेद है। अब प्रश्न उठता है कि ईश्वर की आज्ञा कौन सी मानी जाय ? मुसलमान भाई कहते हैं कि कुरान ईश्वर का हुक्म है। ईसाई भाई बाईबिल को खुदा की पुस्तक बतलाते हैं, इस ही तरह अन्य मजहब भी। परन्तु इन सबको पुस्तकों में परस्पर भेद और विरोध होने के कारण सबकों ईश्वर की आज्ञा नहीं कहा जा सकता। ईश्वर आज्ञा वह ही हो सकती है जो ईश्वर की भांति सार्वभौम हो, एकदेशी न हो । अर्थात् सब मनुष्यों के लिए हितकर हो, किसी विशेष देश या जाति का पक्षपात न हो तथा उसके दया, न्यायादि गुणों के विरुद्ध न हो, अर्थात् वेदानुकूल हो। ◼️पक्षपात रहित न्याय - यह बहुत कम देखा जाता है कि मनुष्य न्याय करे और वह पक्षपात रहित हो । मनुष्य अल्पज्ञ और अल्पशक्तिमान होने के कारण कई दोषों से युक्त होता है । धन का लालच, रिश्तेदारी मित्रता, दूसरे का भय और मोह आदि उसको पूर्ण न्याय नहीं करने देते। ईश्वर इन त्रुटियों से रहित होने के कारण पक्षपात रहित न्याय करता है । अतः जो पुरुष ईश्वरीय गुणों के अनुकूल अपने गुण बनाकर संसार में कार्य करता और अपने जीवन को व्यतीत करता है वह एक समय पूर्वोक्त सम्पूर्ण दोषों से युक्त होकर पक्ष-पापरहित न्याय करने लग जाता है। पक्षपाती पुरुष अपना दायरा अत्यन्त संकुचित रखता है। यह केवल अपने में या जिसके साथ वह पक्षपात करता है, उस ही तक सीमित रहता है। परन्तु पक्षपात रहित कर्म करने वाला यजुर्वेद के - ????यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्नेवानुपश्यति। सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न वि चिकित्सति ॥ (यजु० ४० मन्त्र ६) अनुसार अपने को सब प्राणियों में और सब प्राणियों को अपने में समझता है । एक देशी जीवात्मा के लिए यह असम्भव है कि वह ईश्वर की तरह सब वस्तुओं में व्याप्त हो जाय । उसके लिए एक यह ही प्रकार है कि वह अपने को "सर्वप्रिय" "सर्वहितकारी" बना सके, यह ही इसकी सर्वव्यापकता है। ◼️सर्वहित - जिस न्याय में किसी का अहित न हो, वह पक्षपात रहित न्याय है। इसका दूसरा नाम सर्वहित है । ईश्वर इतना गम्भीर है कि दिन-रात सबका न्याय करता हुआ भी प्रत्येक जीव के हित को लक्ष्य से रख एक जीव के बुरे कर्मों को दूसरे पर प्रकट नहीं करता, चूकि वह जानता है कि बुराई के छुड़ाने में ऐसी बात साधक नहीं होती, अपितु बाधक होती है । जो जीव धर्म का आचरण करना चाहे, उसको “सर्वहितकारी" अवश्य होना चाहिए । प्रायः देखा जाता है कि मनुष्य एक दूसरे की निन्दा करने के लिए घर-घर मारे-मारे फिरते हैं और उनको तब तक चैन नहीं पड़ता, जब तक दस-बीस स्थानों पर किसी की निन्दा न कर आवें । परन्तु वे यह नहीं विचारते कि ऐसा करने से किसी का भी कोई हित नहीं होता, बल्कि अपनी ही आदत खराब होती है, और परस्पर रागद्वेष की वृद्धि होकर वैमनस्य बढ़ता है। स्वार्थी पुरुष भी पूर्ण न्याय या सर्वहित नहीं कर सकता। वह अन्यों के लाभ की अपेक्षा स्वार्थ को अधिक मूल्यवान समझता है और दूसरे के बड़े-बड़े लाभ को अपने तुच्छ से तुच्छ लाभ पर कुर्बान कर देता है । बहुत से मतों के प्रवर्तकों ने अपने मान और प्रतिष्ठा के लिए अपनी न्यूनताओं (कमजोरियों) को भी अपने अनुयायियों का एक धार्मिक नियम बना दिया और कोम की आगे होने वाली उन्नति में एक जबर्दस्त रोड़ा अटकाया जिसके फलस्वरूप आज कुछ लोग "शारदा एक्ट" जैसे आवश्यक और अत्युपयोगी कानून को भी अपने मजहब के विरुद्ध मानकर उसका विरोध करते और कहते हैं कि हमारे पूर्वज इस प्रकार की कम उम्र वाली कन्याओं से शादी कर गये हैं, अतः यह कानून उनके विरुद्ध होगा, इसलिए हम नहीं मान सकते। इसके विरुद्ध ऋषि लोग ईश्वरभाव से प्रेरित हो तथा सर्वहित को लक्ष्य में रखकर जो कुछ कार्य कर गये, वह उन सम्पूर्ण दोषों से रहित था, जिनसे सामान्य पुरुष प्रायः शीघ्र मुक्त नहीं हो पाते। ◼️प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सुपरीक्षित - प्रत्यक्षादि प्रमाण जो आगे आयेंगे, उनकी व्याख्या वहां की जावेगी। यहां केवल यह ध्यान रखना चाहिए कि किसी चीज के लिए परीक्षा द्वार बन्द नहीं। किसी भी काम को खूब सोच समझ और परीक्षा करके करना चाहिए । यदि हम उन परीक्षाओं में ठीक और यथार्थ उतरे, तो धर्म और यदि न उतरे तो उसे अधर्म (अकर्तव्य) समझना चाहिए। इसलिए कि प्रत्येक व्यक्ति अपने कर्म का स्वयं उत्तरदाता हो, स्वयं परीक्षा करके ही प्रत्येक कार्य को करने की आज्ञा दी गई है। चाहे रेलवे का प्रबन्ध इन्जीनियरिंग के अधीन रखा गया है ओर आदमी दिन रात लाइन ओर पुलों की देखभाल करते रहते हैं, पर फिर भी ड्राइवर को सर्च लाइट और अपनी आंखों से देखकर चलाने की आज्ञा दी जाती है ताकि उसका वैयक्तिक उत्तरदायित्व उसके कार्य के साथ रहे। ◼️वेदोक्त - वेद जो कि "विद् सत्तायाम, विद ज्ञाने, विद विचारणे" तथा "विदललाभे" इन धातुओं से सिद्ध होता है जिनका अर्थ हुआ कि जो सत्ता ज्ञान विचार और लाभ के सहित हो अर्थात् सर्वप्रथम वेद द्वारा हमें प्रत्येक वस्तु की सत्ता का उपदेश होता है, तत्पश्चात उन वस्तुओं तथा उनके गुण और व्यवहारादि का ज्ञान होता है । ज्ञान होने के अनन्तर ही हम उसके सूक्ष्म विषयों पर विचार करने में समर्थ हो पाते हैं, अन्त में इसी क्रम से हमें उस ज्ञान और विचार के अनरूप लाभ की प्राप्ति होती है। इस प्रकार उस वेद से उपदिष्ट कर्मों को जो कि मोटे शब्दों में ज्ञानानुकूल और विचार पूर्वक हों उन्हें धर्म कहा जाता है । इस ही लिए महात्मा मनु ने अपनी स्मृति में- ????"वेदोअखिलो धर्म मूलम्" तथा ????"धर्म जिज्ञासासमानानां प्रमाणं परमं श्रुतिः" कहा अतएव प्रत्येक व्यक्ति को इस प्रकर के वेदोक्त कर्मों को करना ही अपना धर्म समझना और उसका अनुष्ठान करना चाहिए। ◼️अधर्म - जिसका स्वरूप ईश्वर की आज्ञा को छोड़कर और पक्षपात सहित अन्यायी होकर बिना परीक्षा करके अपना हित करना है जो अविद्या, हठ, अभिमान, क्रूरतादि दोषों से युक्त होने के कारण वेद विद्या से विरुद्ध है और सब मनुष्यों को छोड़ने के योग्य है, वह अधर्म कहाता है। यद्यपि किसी विशेष व्याख्या की आवश्यकता नहीं चूकि धर्म समझ लेने के बाद सिर्फ इतना विशेष याद रखना चाहिए कि जो धर्म से विपरीत अर्थात उल्टा हो उसे अधर्म कहते हैं। ऋषि दयानन्द ने मत-मतान्तरों को इसी कसौटी पर कस उन्हें मत-मतान्तर के नाम से निर्देश किया या मजहब बतलाया। चूकि उन सम्पूर्ण मजहबों में जो कि अपने को धर्म के नाम से पुकारते थे, उपयुंक्त दोष थे, जैसे कोई ईश्वर की सत्ता को ही न मानते थे, अर्थात् नास्तिक थे। जब वे ईश्वर ही को न मानते थे तो फिर ईश्वर की आज्ञा को ही कैसे मानते । लिहाजा ऋषि ने उन्हें भी कहा कि तुम्हारा मत धर्म नहीं कहा जा सकता कि वह धर्म के एक आवश्यक अंग से रहित है, अतः वह मजहब है। इस ही प्रकार जो लोग ईश्वर की सत्ता को मानते थे पर उसको आज्ञाओं में पक्ष-पात मानकर किसी एक देश या जाति के लोगों से पक्षपात या प्रेम और दूसरों से नफरत प्रकट करते थे, या ईश्वर के नाम पर यज्ञों में अथवा देवो-देवताओं के सामने पशु हत्या आदि करके अपनी क्रूरता और मूर्ति पूजा आदि करके जड़ में चेतना को मानकर अपनी अविद्याप्रियता का परिचय देते थे, उन्हें तथा जिनके ग्रन्थों में निरी असम्भव और विश्वास न करने लायक बातें भरी पाई, ऋषि ने कहा कि तुम्हारा मत भी सिर्फ मत यानी मजहब है । वह धर्म का स्थान नहीं ले सकता । इसीलिए वह सम्पूर्ण मनुष्य के लिए मान्य न होकर सिर्फ तुम लोगों ही की स्वार्थ पूर्ति के लिए हो सकता है । अतः प्रत्येक समझदार मनुष्य को इस प्रकार मजहबों या मत-मतान्तरों को दूर से ही प्रणाम करके छोड देना चाहिए जिससे कि उसका जीवन व्यर्थ बर्बाद न हो। ????व्याख्याता - शास्त्रार्थ महारथी पं॰ रामचंद्र देहलवी जी प्रस्तुति - ???? ‘अवत्सार’ ॥ओ३म्॥
गुरु नानक देव जी तथा धर्म का स्वरूप (vedic vichar)
06-06-2022
(गुरुपर्व पर विशेष रूप से प्रकाशित) स्वर्गीय राजेंदर सिंह गुरु गोविन्द सिंह जी अपनी आत्मकथा विचित्र नाटक मे लिखते है - बाबा नानक जी वेदी कुल मे उत्पन्न हुए थे। इनके कुल मे वेदों का पाठ होता था। गुरु जी के एक पूर्वज ने अयोध्या के राजा को सामवेद सुनाया था। गुरू ग्रन्थ साहिब के पृ्ष्ठ 721 ੴ सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु अकाल मूरति अजूनी सैभं गुर प्रसादि ॥ हिन्दी अर्थ – ੴ=1 ॐकार, सति नामु= जिसका नाम सत्य है, करता= कर्ता/संसार को बनाने वाला, पुरूखु=परमपुरूष, निरभउ= निर्भय, निरवैरू = वैर रहित (अर्थात सब का मित्र), अकाल मूरति= अमरत्व का प्रतीक, अजुनी= जिसकी कोई योनि (जैसे मनुष्य/पशु/पक्षी/कीट आदि)नहीं है, सैभं= स्वयंभू , गुर प्रसादि = गुरू के समान कृपा करने वाला या गुरू की कृपा से। हका कबीर करीम तू बेऐब परवदगार हका=सत्य स्वरूप, कबीर=महान, करीम=दयालु,बेएब=निष्पाप,परवरदगार=सबसे प्रेम करने वाला ( गुरू ग्रन्थ 929-30) ੴ ਸਤਿਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ ॥ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ ओअंकारि ब्रहमा उतपति ॥ ॐकार से ब्रह्मा जी का जन्म होता है। ओअंकारु कीआ जिनि चिति ॥ ब्रह्मा जी ने ॐकार को चितंन(मनन) किया। ओअंकारि सैल जुग भए ॥ ॐकार ने पर्वत बनाए। ओअंकारि बेद निरमए ॥ ॐकार ने वेदों को बनाया अर्थात आदि सृष्टि मे मनुष्यो को वेद का ज्ञान दिया। ओअंकारि सबदि उधरे ॥ ॐकार ने मनुष्य को वाणी दी। ओअंकारि गुरमुखि तरे ॥ ॐकार को गुरू के उपदेश से जानकर मनुष्य संसार सागर से पार हो जाता है ओनम अखर सुणहु बीचारु ॥ अक्षर (अ+क्षर)अर्थात नाश रहित ओम् को सुनो और विचार करो। ओनम अखरु त्रिभवण सारु ॥१॥ ओम् अक्षर मे त्रिभुवन का सार है या ओम् अक्षर ज्ञान, कर्म और उपासना का सार है। गुरू ग्रन्थ साहिब पृष्ठ 874॥ प्रणवै नामा ऐसो हरी ॥ (प्रणव= ओम्) हरी अर्थात ईश्वर का नाम ओम् है। योगदर्शन मे भी लिखा है- तस्य वाचकः प्रणवः (समाधिपाद सूत्र 27) उस ईश्वर का वाचक ओम् है। योगदर्शन पर भोजवृति मे भी प्रणव का अर्थ ओम ही लिखा है। जासु जपत भै अपदा टरी ॥४॥१॥५॥ उस प्रणव अर्थात ॐ का जाप करने से आपदाएं दूर हो जाती हैं। प्रणवै नामा इउ कहै गीता ॥५॥२॥६॥ परमात्मा का नाम प्रणव (ॐ) है यह गीता कहती है। सभी को प्राचीन वैदिक धर्म का सन्देश सुनाने वाले गुरु नानक जी के गुरुपर्व की शुभकामनाये
रामायण का सच (vedic vichar)
06-06-2022
श्रीराम के विषय में उठने वाले प्रश्नों के उत्तर. श्रीराम जी पर लगाए जाने वाले आरोप कितने सही हैं ? क्या श्रीराम जी शूद्र विरोधी थे ? क्या उन्होने शंबूक का वध किया था ? क्या उन्होने गर्भवती सीता को छोड़ दिया था ? क्या उनका या उनके भाइयों का लवकुश से युद्ध हुआ था ? क्या सीता जी धरती में समा गई थी ? इस लेख में इन सब प्रश्नों का उत्तर दिया जाएगा। ** आजकल 2 पुस्तकें रामायण के नाम से जानी जाती हैं. 1- वाल्मीकि रामायण. 2- तुलसीदास जी की रामचरित मानस। इसमें से वाल्मीकि रामायण श्रीराम जी के समय में लिखी गई है। आजकल प्राप्त वाल्मीकि रामायण में 7 काण्ड (Chapter) हैं। अंतिम काण्ड उत्तर काण्ड है। तपस्वी शंबूक का वध , लवकुश से युद्ध तथा गर्भवती माता सीता जी का त्याग दोनों इसी काण्ड में आते हैं l * परंतु सच्चाई यह है कि महर्षि वाल्मीकि ने जो रामायण लिखी थी उसमे 6 काण्ड ही थे। सातवाँ उत्तर काण्ड बाद में (17 वी -18 वी शताब्दी में ) मिलाया गया है। क्योकि उत्तर काण्ड महर्षि वाल्मीकि जी की रचना नहीं है इसलिए श्रीराम जी को तपस्वी शम्बूक का हत्यारा नहीं कहा जा सकता. उन्हें गर्भवती स्त्री माता सीता जी के त्याग का अपराधी भी नहीं कहा जा सकता. अतः सनातन धर्म के आदर्श मर्यादा पुरूषोंत्तम श्रीराम जी को बदनाम करने के लिए किसी दुष्ट ने ये उत्तर काण्ड बाद में मिलाया है. इसके निम्नलिखित प्रमाण हैं। *** 1- “THE ILIAD OF THE EAST” “दी इलियड ऑफ दी ईस्ट” रामायण का इंगलिश में संक्षिप्त अनुवाद है जो FREDERIKA RICHARDSON ने किया था। इसे MACMILLAN AND CO ने 1870 में प्रकाशित किया था। इसमें केवल पहले 6 काण्डों का ही विवरण है। यदि इस अनुवादक के सामने उत्तरकाण्ड होता तो क्या वह उत्तरकाण्ड का अनुवाद न करता। *** 2 RALPH T. H. GRIFFITH ने 1874 में रामायण का इंगलिश में अनुवाद किया है। इसे लंदन मे TRUBNER AND CO ने तथा भारत मे बनारस में Lazarus And Co ने छापा था। इसमे भी पहले 6 भागों का अनुवाद है। युद्धकाण्ड के अंत में अनुवादक उत्तरकाण्ड के विषय में लिखता है – The Ramayan ends epically complete, with the triumphant return of Rama and his rescued queen to Ayodhya and his consecration and coronation in the capital of his forefathers. Even if the story were not complete, the conclusion of the last canto of the sixth Book evidently the work of a later hand than Valmiki’s, which speaks of Rama’s glorious and happy reign and promises blessings to those who read and hear the Ramayan, would be sufficient to show that, when these verses were added, the poem was considered to be finished. अर्थात एक महाकाव्य के रूप में रामायण विजयी राम की अपनी रानी को बचाने और अपने पूर्वजो की राजधानी में राज्याभिषेक के साथ पूरी हो जाती है। छठे अध्याय के अंतिम खंड में वाल्मीकि राम के गौरवशाली और खुशहाल शासन की बात करते हैं और उनके लिए आशीर्वचन कहते हैं जो रामायण को पढ़ते और सुनते हैं। इससे यह निश्चित हो जाता है कि महाकाव्य यहाँ समाप्त हो जाता है। उत्तरकाण्ड बाद की रचना है जो किसी दूसरे द्वारा लिखी गई है। *** 3 – वाल्मीकि रामायण की संस्कृत में 3 टीका मिलती हैं. उसमें से सबसे मुख्य तथा पुरानी टीका श्री गोविन्दराज जी की है. गोविन्दराज जी ने अपना व अपने गुरु का परिचय बालकाण्ड में रामायण के आरम्भ में तथा युद्ध काण्ड के अंत में दिया है. बीच में कहीं पर ही अपना परिचय नहीं दिया है. यदि गोविन्दराज जी के सामने उत्तर काण्ड होता तो वह अपना परिचय युद्ध काण्ड ने न देकर उत्तर काण्ड में देते...सन 1900 के आसपास तक जो भी गोविन्दराज की टीका सहित वाल्मीकि रामायण छपी हैं उनमें उत्तरकाण्ड की टीका नहीं है. परन्तु 1930 के संस्करण में गोविन्दराज की उत्तर काण्ड पर टीका मिलती है. उसके उत्तर काण्ड पर जो टीका दी गई है वह पिछले 6 काण्डों की टीका से बिलकुल अलग है और उत्तर काण्ड को रामायण का हिस्सा दिखाने के लिए बनाई है. *** क्षेत्रीय भाषाओं में मिलने वाली रामायण और उत्तर काण्ड * भारत में वाल्मीकि रामायण को आधार बना कर कई प्रादेशिक भाषाओं में रामायण लिखी गई है. जैसे कम्ब रामायण (तमिल में), रंगनाथ तेलुगु (तेलुगु में), तोरवे रामायण (कन्नड़ में) तथा तुलसीदास जी की रामचरित मानस (अवधि में ). अब हम क्रम से इन पर विचार करते हैं.5- कम्ब रामायण – इसका रचना काल लगभग बारहवीं शताब्दी है. संस्कृत से भिन्न उपलब्ध भाषाओं में यह सबसे पुरानी रामायण है. इसके लेखक महाकवि कम्बन हैं. इसकी मूल भाषा तमिल है. अब तक इसके हिन्दी में (पहला अनुवाद 1962 में बिहार राजभाषा परिषद् ) कई अनुवाद हो चुके हैं. इसमें भी बालकाण्ड से लेकर युद्धकाण्ड तक 6 ही काण्ड हैं. यह भी भगवान् श्रीराम जी के राज्य अभिषेक व श्री राम जी द्वारा दरबार में सभी के लिए प्रशंसा वचन के साथ पूरी होती है. यह बहुत अधिक वाल्मीकि रामायण से मिलती है. यदि महाकवि कम्बन जी के सामने वाल्मीकि रामायण में उत्तर काण्ड होता तो वह इसका वर्णन जरुर करते. परन्तु उनके सामने जो वाल्मीकि रामायण उपलब्ध थी उसमे 6 काण्ड ही थे. ** 6- रंगनाथ रामायण – इसका रचना काल लगभग 1380 इस्वी है. इसकी भाषा तेलुगु है परन्तु अब इसका हिंदी में अनुवाद (1961 में बिहार राजभाषा परिषद द्वारा) चुका है. यह रामायण श्रीराम जी के राज्याभिषेक व दरबार के दृश्य के साथ पूरी हो जाती है . इसमें बालकाण्ड से लेकर युद्ध काण्ड तक 6 काण्ड हैं. यदि इसके रचियता के सामने उपलब्ध वाल्मीकि रामायण में उत्तर काण्ड होता तो वह अवश्य ही उसका उल्लेख करते परन्तु उनके सामने जो वाल्मीकि रामायण उपलब्ध थी उसमें 6 काण्ड ही थे. ** 7-- तोरवे रामायण – इसका रचना काल लगभग 1500 इस्वी है. इसकी मूल भाषा कन्नड़ है परन्तु अब इसका हिंदी में अनुवाद चुका है. इसके लेखक तोरवे नरहरी जी हैं. यह रामायण श्रीराम जी के राज्य अभिषेक, सुग्रीव आदि को विदा करना, रामराज्य में सुख शान्ति, दरबार के दृश्य तथा रामायण पढने के लाभ के वर्णन के साथ पूरी हो जाती है . इसमें बालकाण्ड से लेकर युद्ध काण्ड तक 6 काण्ड हैं. यदि इसके रचियता के सामने उपलब्ध वाल्मीकि रामायण में उत्तर काण्ड होता तो वह अवश्य ही उसका उल्लेख करते परन्तु उनके सामने जो वाल्मीकि रामायण उपलब्ध थी उसमे 6 काण्ड ही थे. ** 8-- रामचरित मानस -- गोस्वामी तुलसीदास जी की राम चरित मानस में उत्तर काण्ड है। परंतु उसकी विषय वस्तु वाल्मीकि जी के उत्तरकाण्ड से पूरी तरह अलग है। इसमें ना तो शंबूक है, ना लव कुश है, ना सीता को वनवास भेजने का विवरण है। अतः तुलसीदास जी के समय भी यह उत्तरकाण्ड रामायण का हिस्सा नहीं था। श्रीराम जी के राज्याभिषेक का वर्णन वाल्मीकि जी छठे काण्ड में करते हैं तो तुलसीदास जी सातवें काण्ड में। ** 9- वाल्मीकि रामायण में फलश्रुति (रामायण पढ़ने के लाभ) युद्ध काण्ड के अन्त में है। यदि महर्षि वाल्मीकि जी ने उत्तरकाण्ड लिखा होता तो वह इसे उत्तर काण्ड के अन्त में देते। ** 10- संस्कृत के सभी ग्रन्थों में समय समय पर मिलावट की जाती रही है। आज रामायण के 4-5 अलग अलग संस्करण मिलते हैं जिसमे एक दूसरे से पूरी तरह अलग श्लोक मिलते हैं। कुल श्लोकों की संख्या भी संस्करणों में अलग अलग है। इससे अनुमान होता है कि स्वार्थी लोग समय पर इन पुस्तकों में से श्लोक हटाते भी रहे और मिलाते भी रहे। इन मिलावटी श्लोकों के कारण ही सनातन धर्म के महापुरुषों का अपमान होता रहा है। उदाहरण के तौर पर कम्युनिष्ट लेखिका मृणाल पाण्डे ने एक बार अखबार में एक लेख लिखा जिसमें माता सीता द्वारा( पूजा के तौर पर ) गंगा नदी में शराब के घड़े डालने का डालने की बात लिखी थी। बाद में ढूँढने पर पाया कि यह श्लोक केवल एक संस्करण में है जो किसी शराब पीने वाले ने मिलाया है। इसी तरह केवल एक संस्करण में सीता द्वारा घूँघट करने का जिक्र मिलता है जो साफ साफ बाद में मिलाया गया है।
ईश्वर (vedic vichar)
06-06-2022
प्र. 1: ईश्वर का मुख्य नाम क्या है ? उत्तर: ईश्वर का मुख्य नाम ‘ओ३म्’ है। प्र. 2: ईश्वर के कुल कितने नाम हैं ? उत्तर: ईश्वर के असंख्य नाम हैं। प्र. 3: ईश्वर के नामों से हमें क्या पता चलता है ? उत्तर: ईश्वर के नामों से हमें उसके गुण, कर्म और स्वभाव का पता चलता है। प्र. 4: ईश्वर एक है या अनेक ? उत्तर: ईश्वर एक ही है उसके नाम अनेक हैं। प्र. 5: क्या ईश्वर कभी जन्म लेता है ? उत्तर: नहीं, ईश्वर कभी जन्म नहीं लेता। वह अजन्मा है। प्र. 6: स्तुति, प्रार्थना, उपासना किसकी करनी चाहिए ? उत्तर: स्तुति, प्रार्थना, उपासना केवल ईश्वर की ही करनी चाहिए। प्र. 7: ईश्वर से अध्कि सामर्थ्यशाली कौन है ? उत्तर: ईश्वर से अध्कि सामर्थ्यशाली और कोई नहीं है। वह सर्वशक्तिमान् है। प्र. 8: ‘इन्द्र’ नाम किसका है ? उत्तर: जिसमें सबसे अधिक ऐश्वर्य होता है उसे इन्द्र कहते हैं अर्थात् ‘इन्द्र’ ईश्वर का नाम है। प्र. 9: दुःख कितने प्रकार के और कौन-कौन से होते हैं ? उत्तर: दुःख तीन प्रकार के होते हैं - (1) आध्यात्मिक, (2) आधिभौतिक, (3) आधिदैविक दुःख। प्र. 10: आध्यात्मिक दुःख किसे कहते हैं ? उत्तर: अविद्या, राग-द्वेष, रोग इत्यादि से होने वाले दुःख को आध्यात्मिक दुःख कहते हैं। प्र. 11: आधिभौतिक दुःख किसे कहते हैं ? उत्तर: मनुष्य, पशु-पक्षी, कीट-पतंग, मक्खी-मच्छर, सांप इत्यादि से होने वाले दुःख को आधिभौतिक दुःख कहते हैं। प्र. 12: आधिदैविक दुःख किसे कहते हैं ? उत्तर: अधिक सर्दी-गर्मी-वर्षा, भूख-प्यास, मन की अशान्ति से होने वाले दुःख को आधिदैविक दुःख कहते हैं। प्र. 13: ईश्वर के कोई दस नाम बताइए। उत्तर: (1) विष्णु, (2) वरुण, (3) परमात्मा, (4) पिता, (5) ब्रह्मा, (6) महादेव, (7) महेश, (8) सरस्वती, (9) शिव, (10) गणेश। यह नाम ईश्वर के गुणवाचक हैं इन नामों के चित्र नहीं बन सकते। प्र. 14: ईश्वर के तीन गुण बताइए। उत्तर: ईश्वर के तीन गुण हैं - न्याय, दया और ज्ञान। प्र. 15: ईश्वर के तीन कर्म बताइए। उत्तर (1) ईश्वर संसार को बनाता है। (2) ईश्वर वेदों का उपदेश करता है। (3) ईश्वर कर्मों का फल देता है। प्र. 16: ‘अनन्त’ का अर्थ क्या है ? उत्तर: जिसका कभी अन्त नहीं होता उसे अनन्त कहते हैं। ईश्वर अनन्त है। प्र. 17: क्या ‘गणेश’ ईश्वर का नाम है? क्यों ? उत्तर: हाँ, क्योंकि वह पूरे संसार का स्वामी है और सबका पालन करता है। प्र. 18: ‘सरस्वती’ से आप क्या समझते हैं ? उत्तर ‘सरस्वती’ ईश्वर का एक नाम है। संसार का पूर्ण ज्ञान जिसे होता है, उसे सरस्वती कहते हैं। प्र. 19: ईश्वर को ‘निराकार’ क्यों कहते हैं ? उत्तर: ईश्वर का कोई आकार, रुप, रंग, मूर्ति नहीं है। अतः उसे निराकार कहते हैं । प्र. 20: क्या राहु और केतु ग्रहों के नाम हैं। उत्तर: नहीं, इस नाम के कोई ग्रह नहीं होते। ये दोनों नाम ईश्वर के हैं। प्र. 21: ईश्वर के किन्हीं दो नामों की व्याख्या कीजिए। उत्तर (क) ब्रह्मा - ईश्वर जगत् को बनाता है इसलिए उसे ब्रह्मा कहते हैं। (ख) शुद्ध - राग-द्वेष, छल-कपट, झूठ इत्यादि समस्त बुराइयों से वह दूर है। उसका स्वभाव पवित्र है। प्र. 22: ‘सत्यार्थ प्रकाश’ नामक ग्रन्थ की रचना किसने की थी ? उत्तर: ‘सत्यार्थ प्रकाश’ नामक ग्रन्थ की रचना महर्षि दयानन्द ने की थी।
कृपा करो हे नाथ (vedic vichar)
06-06-2022
विनय सुनो हे नाथ जी , दीनबन्धु भगवान् । जो आए तुम्हरी शरण , उसका हो कल्याण । तुम हो अभय दान के दाता । तुम हो भवसागर के त्राता । तुम हो सन्तन - सुख , शुभ रूपा । रवि शशि सबके तुम हो भूपा। रात - दिना ये सब - कुछ तुमसे । गर्मी सर्दी वर्षा तुमसे । फूल यहाँ पर , वृक्ष वहाँ पर । तेरी महिमा कहाँ - कहाँ पर । चन्दा में मुस्काने वाले ! बादल में ओ गाने वाले । सूरज में प्रकाश तुही है । जल - थल अग्निप्रकाश तुही है । रूप तेरा है कण - कण अन्दर । सारा जग है तेरा मन्दर । भीतर बाहर सब जगह , तेरा ही विस्तार । नाम तेरा ही गूंजता , विश्वरूप करतार ॥१॥ नदियाँ तेरा गीत सुनातीं । ‘ पार न पाया ' कहती जातीं । घोर घटा जब नभ में प्राती । गरज - गरज तव नाम सुनाती । लहरों के सौ हाथ उठाकर । ‘ तूही - तूही ' _ कहता सागर । भौंरा फलों के कानों में । कहता नाम मधुर तानों में । और ये आँधी और बवण्डर । करते फिरते हर हर हर हर । उछल - उछलकर चलती ज्वाला । कर में लेकर भक्ति प्याला । कहती - पी ले , प्रीतम प्यारे ! जग है सारा तेरे सहारे । जल थल पवन प्राकाश में , परम पूण्य सुखधाम । गूँज रहा है हर जगह , छिन - छिन तेरा नाम ॥२॥ सागर उछलें बल से तेरे । सूरज चन्द चाकर तेरे । नदियों से तूफ़ान उठाता । गिरि - गह्वर में ज्वाल जलाता । तेरे बल का पार न पाया । सारा जग है तेरी माया । धनियों का धन तू ही तो है । बलियों का बल तू ही तो है । निर्भर बनकर झर - झर करता । दानी बनकर झोली भरता । शैशव में मुस्काता तू है । यौवन मस्त बनाता तू है । फूलों , शूलों , धूलों में तू । वृक्षों , पत्तों , नदियों में तू । जल थल और आकाश में , तेरा है प्रभु वास । तू ही तो करुणानिधि , सर्व जगत् की आस ॥३॥ तुमको ही करुणाकर कहते । तुझे दया का सागर कहते । तैरी करुणा अकथ कहानी । दया तेरी से जीये प्राणी । तेरी दया से दीनदयाला । शीतल होती है अघ - ज्वाला । सर्व जगत में तव करुणाई । दया , कृपा , माया , प्रभुताई । माँ की मधुमय ममता तू है । त्राता सारे जग में तू है । दीनशरण तू दीनदयाला । करुण चरण तव परमकृपाला । करुणा का तव लिये सहारा । पंगु पाते पार किनारा । अशरण - शरण हे पुण्यचरण , दीनबन्धु भगवान् ! करुणा करके राखिये , दास आपनो जान ॥४॥ तुझ बिन अपना कौन सहारा ? तुझ बिन भव को कौन सहारा ? मात , पिता , प्रिय बन्धू तू है । मीत हमारा केवल तू है । रात - दिना हम तेरे सहारे । रात - दिना तू साथ हमारे । छोड़ तुझे अब जग के नाथा ! कहाँ झुकायें अपना माथा ? किसे सुनायें विपदा अपनी ? किसे दिखायें पीड़ा अपनी ? तुझ बिन और नहीं जगनाथा ! जिसे सुनायें अपनी गाथा । सुनने वाला तू ही तो है । और हमारा जग में को है ? करुणानिधि करुणा करो , अपना किंकर जान । मात - पिता सम राखियो , तेरी हैं । सन्तान ॥५॥ हमको दीजे प्रभु धन - धाना । यश - बल दीजै औ ’ सुख नाना । देना हमको मान सुहाना । निज बल से बलवान् बनाना । रोग , शोक , भय , निर्धनताई । दूर रहे हमसे कठिनाई । भरा - भरा यह घर हो सारा । गूंजे इसमें नाम तिहारा । याचक दुखिया जो कोई आए । अपने मन की आशा पाए । सुख की वर्षा नित हो यहाँ पर । न हो दु : ख का नाम यहाँ पर । रात - दिना हम बढ़ते जाएँ । धन , यश - कीरत , सुख , मुस्काए । धनबल , यशबल , कीर्तिबल , भरे - भरे भण्डार । तेरी करुणा से मिलें , हमको हे कर्तार ॥६॥ हमको अपनी राह चलाना । करुणामय निज रूप दिखाना । गूंजे हरदम नाम तिहारा । रिक्त न हो यह कोष हमारा । गीत तेरे हों मन में अपने । तेरे ही बस देखें सपने । राह तेरी से हट ना जायें । चाहे कष्ट हज़ारों आयें । जग के धन्धे पूरे करके । पहुँचे पास तेरे भव तरके । अन्त समय जब आय हमारा । अधरों पर हो नाम तिहारा । जब यह टूटे प्रभु , जग - माया । तेरे चरण की पायें छाया । सुखद चरण तेरे प्रभो ! मेरा नत यह माथ । शरण पड़े की लाज को , राखो दीनानाथ II७॥ ॥ ओ३म् ॥ प्रस्तुति - ???? अवत्सार
धर्मग्रंथों पर धारणा की चोट (vedic vichar)
06-06-2022
शिकागो विश्वविद्यालय की प्रोफेसर वेंडी डोनीजर की लिखी पुस्तक 'द हिंदूज: ऐन अल्टरनेटिव हिस्ट्री' आजकल चर्चा में है। पुस्तक के चर्चा में आने की वजह कोई स्तरीय या शोधपरक लेखन नहीं, बल्कि हिंदू धर्मग्रंथों और आख्यानों के चुने हुए प्रसंगों की व्याख्या काम भाव की दृष्टि से किया जाना है। उदाहरण के लिए, इस पुस्तक में लिखा गया है कि रामायण में उल्लिखित राजा दशरथ कामुक प्रवृत्ति के व्यक्ति थे और बुढ़ापे में भी कैकेयी जैसी जवान पत्नी के साथ वह रंगरेलियों में डूबे रहते थे। इसमें लिखा गया है कि कैकेयी के इशारे पर ही राजा दशरथ ने अपने बेटे राम को जंगल में भेज दिया ताकि कोई रुकावट न रहे। पुस्तक के मुताबिक राम और लक्ष्मण दोनों ने ही अपने पिता को कामुक बूढ़ा कहा था। वेंडी ने लिखा है कि जंगल में रहते हुए लक्ष्मण के मन में भी सीता के प्रति कामभावना पैदा हुई थी और राम ने इस बारे में लक्ष्मण से सवाल भी किया था। इसी तरह महाभारत की कथा के बारे में भी वेंडी ने अपने मनमुताबिक व्याख्या दी है। जैसे कुंती द्वारा सूर्य के साथ नियोग से प्राप्त पुत्र के बारे में लिखा गया है कि सूर्य देवता ने कुंती के साथ बलात्कार किया, जिससे 'कर्ण' नामक अवैध संतान पैदा हुई। पुस्तक में भारतीय धर्मग्रंथों के कुछ चुने हुए प्रसंगों की कामुक व्याख्या करके एक "वैकल्पिक" इतिहास लिखने की कोशिश की गई है। यह केवल प्राचीन ग्रंथों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि इसमें राजनीतिक घटनाक्रमों को भी कुछ इसी तरह घसीटा गया है। गांधी की रामराज्य की कल्पना को भारत में मुसलमानों और ईसाइयों से छुटकारा पाने और हिंदू राज्य की स्थापना से जोड़ा गया है। वेंडी ने ऐसा लेखन पहली बार नहीं किया है। हिंदू चिंतन, मनीषा और इतिहास पर वह पिछले तीन दशक से इसी तरह का लेखन करती रही हैं। हमारे बुद्धिजीवियों को भी पश्चिमी भक्ति के कारण पर्याप्त आदर और सम्मान मिलता रहा है। जिस लेखन को किसी अन्य धर्म अथवा मत के लोग घृणा या क्षोभ से देखते हैं उसे पश्चिम के रेडिकल प्रोफेसर एक नई व्याख्या के रूप में सम्मान देते हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि ऐसा लेखन यदि इस्लामी प्रसंगों पर कोई करे तो उसे एंटी-मुस्लिम और घोर साप्रदायिक कहकर प्रतिबंधित करने की मांग की जाती है। विडंबना यह है कि यह लोग भी वही होते हैं जो जो हिंदू ग्रंथों और महापुरुषों पर कालिख पोतने का हर तरीके से समर्थन करते हैं। यह कार्य केवल बयान तक सीमित नहीं रहता, बल्कि जुलूस और प्रदर्शन तक किए जाते है। जेम्स लेन की पुस्तक में छत्रपति शिवाजी के गंदे चित्रण का समर्थन करते हुए यही किया गया था। सच्चाई तो यही है कि वेंडी डोनीजर या जेम्स लेन जैसे लेखक भारत में भी हैं। इतिहासकार डी. एन. झा ने लिखा है कि कृष्ण का चाल-चलन अच्छा नहीं था। साहित्यकार राजेंद्र यादव ने राम को युद्धलिप्साग्रस्त साम्राज्यवादी तथा हनुमान को पहला आतंकवादी तक बताया। रोमिला थापर ने सनातन हिंदू धर्म को नकारते हुए इसे ब्राह्मणवाद घोषित करते हुए व्याख्या दी कि यह निम्न जातियों के शोषण और दमन करने की विचारधारा है। इधर एक नेता ने उसी भाव से "द्रौपदी" नामक उपन्यास लिखा। ऐसे अधिकाश लेखक हिंदू परिवारों में ही पैदा हुए, लेकिन वास्तव में यह धर्महीन हो चुके लेखक ही हैं। इनका मुख्य लक्ष्य हिंदू धर्म चिंतन और महापुरुषों को लाछित करके नाम कमाना है। विडंबना यह है कि इन सबको भारत में मान-सम्मान भी मिलता रहा है। यह एक सच्चाई है कि आजाद भारत में हिंदू मनीषा के साथ दोहरा अन्याय होता रहा है। वेद, उपनिषद, पुराण, रामायण, महाभारत आदि ग्रंथों को उतना सम्मान नहीं मिल पाया जितना मिलना चाहिए था। यदि इन्हें कुरान, बाइबिल की तरह धर्म-पुस्तक माना गया होता तो इस तरह घृणा फैलाने का दुस्साहस शायद ही कोई करता। तब राम, कृष्ण को केवल ईश्वरीय आदर दिया जाता, जैसा कि पैगंबर मुहम्मद या ईसा मसीह को दिया जाता है। उपनिषद दर्शनशास्त्र का विश्वकोष है, किंतु भारत में दर्शनशास्त्र का विद्यार्थी अरस्तू, काट, मार्क्स, फूको, देरिदा आदि को ही पढ़ता है। महाभारत राजनीति और नैतिकता की अद्भुत पुस्तक होने के बावजूद औपचारिक शिक्षा से बहिष्कृत है। यह सब "धर्मनिरपेक्षता" के नाम पर किया जाता है। तर्क दिया जाता है कि यदि इन्हें पाठ्य-क्रमों का हिस्सा बनाया जाएगा तो बाइबिल, कुरान, हदीस को भी शामिल करना पड़ेगा। जब वेद, उपनिषद, रामायण, महाभारत, नीतिशतक को धर्मपुस्तक का आदर देने की बात हो तो इन्हें गल्प साहित्य मानकर मनमाने आलोचना का शिकार बनाया जाता है। अपनी मूल्यवान थाती का ऐसा निरादर शायद ही दुनिया में कहीं और हुआ हो। भारत में हिंदू ग्रंथों के साथ हो रहे इस दोहरे अन्याय को ईसाइयत के उदाहरण से अच्छी तरह समझा जा सकता है। सुपरस्टार के रूप में जीसस क्राइस्ट और द विंसी कोड जैसे उदाहरणों से स्पष्ट है यूरोपीय अमेरिकी समाज बाइबिल और ईसाई कथा-प्रसंगों की आलोचनात्मक व्याख्या सहता है, साथ ही ईसाइयत का पूरा चिंतन, चर्च और वेटिकन के विचार-भाषण-प्रस्ताव आदि यूरोप की शिक्षा प्रणाली का अभिन्न अंग भी हैं और वह औपचारिक शिक्षा की प्रणाली से बाहर नहीं है। ईसाइयत संबंधी धर्मशिक्षा पश्चिम में उसी तरह स्थापित हैं जैसे भौतिकी, रसायन या अर्थशास्त्र आदि हैं। इन्हें पढ़कर हजारों युवा उसी तरह वहां के कालेजों, विश्वविद्यालयों से हर वर्ष स्नातक होते हैं जैसे कोई अन्य विषय पढ़कर। तदनुरूप उनकी विशिष्ट पत्र-पत्रिकाएं, सेमिनार सम्मेलन आदि भी होते हैं। ईसाइयत संबंधी विमर्श, शोध, चिंतन के अकादमिक जर्नल्स आक्सफोर्ड और सेज जैसे प्रमुख अकादमिक प्रकाशनों से प्रकाशित होते हैं। ऐसा इक्का-दुक्का नहीं, बल्कि अनगिनत होता है। यदि यूरोपीय जगत ईसा और ईसाइयत की कथाओं और ग्रंथों की आलोचनात्मक व्याख्या को स्थान देता है तो साथ ही धर्मग्रंथों के संपूर्ण अध्ययन को एक विषय के रूप में सम्मानित आसन भी देता है। स्वयं वेंडी डोनीजर शिकागो विश्वविद्यालय के "डिविनिटी स्कूल" में प्रोफेसर हैं। हालांकि भारतीय विश्वविद्यालयों में ऐसा कोई विभाग ही नहीं होता। भारत में इसके ठीक विपरीत धर्म और उसके नाम पर सभी हिंदू ग्रंथों और चिंतन के अगाध भंडार को औपचारिक शिक्षा से बाहर रखा गया है। यहां यह जानने योग्य है कि मैक्सवेबर जैसे महान विद्वान ने भी भगवद्गीता को राजनीति और नैतिकता के अंत:संबंध पर पूरे विश्व में एकमात्र सुसंगत पाठ्यसामग्री माना है, किंतु क्या मजाल कि भारत में राजनीतिशास्त्र के विद्यार्थियों को इसे पढ़ाने की अनुमति दी जाए। यह तो एक उदाहरण है। वास्तव में यहूदी, ईसाइयत और इस्लाम की तुलना में हिंदू चिंतन कहीं ज्यादा गहन है। समाज विज्ञान का कोई भी ऐसा विषय नहीं है जिसके समुचित अध्ययन के लिए हमें हिंदू ग्रंथों से मदद न मिल सके। इस सबके बावजूद समाज विज्ञान विभागों में या फिर अलग विधा के विषय के रूप में भारत में कोई अकादमिक संस्थान या स्थान नहीं बनाया गया है। यही कारण है कि गीता प्रेस, गोरखपुर के संपूर्ण कार्यो को अकादमिक जगत उपेक्षा से देखता है। मानो वह आधुनिक समाज से कटे हुए वृद्ध पुरुषों-महिलाओं और अशिक्षितों के पढ़ने के लिए सतही व अंधविश्वासी चीजें हों। यदि इन बातों पर सगग्रता में विचार किया जाए तो पाएंगे कि आजाद भारत में हिंदू मनीषा के साथ किस तरह दोहरा अन्याय हुआ है। यहां यह कहना गलत न होगा कि ऐसा करने के लिए आजाद भारत के शासकों और नीति-निर्माताओं ने जनता से कभी कोई जनादेश तो लिया नहीं है। यह सब चुपचाप एक चिरस्थापित औपनिवेशिक मानसिकता के तहत अभी तक चल रहा है। भारतीयों पर यह मानसिकता हजारों वर्षो की गुलामी में विदेशी शासकों ने जबरन थोपी। जिसमें हर स्वदेशी चीज खराब मानी जाती है और हर पश्चिमी चीज अच्छी। पश्चिमी लेखक वेंडी डोनीजर को सम्मान और भारतीय हनुमान प्रसाद पोद्दार का बहिष्कार इसका स्पष्ट प्रमाण है। लेखक : डॉ० शंकर शरण नोट- गीता प्रेस का कार्य विशेष रूप से पुराणों तक सीमित है। जबकि आर्यसमाज द्वारा वैदिक वांग्मय के सम्बन्ध में पिछले 140 वर्षों में हज़ारों पुस्तकों का लेखन हुआ हैं। स्वामी दयानन्द के वेद भाष्य, पंडित भगवत दत्त के वैदिक वांग्मय के इतिहास , पंडित युधिष्ठिर मीमांसक जी के वैदिक व्याकरण सम्बंधित दृष्टीकौन को आज किसी विश्वविद्यालय में नहीं पढ़ाया जाता। क्यूंकि शिक्षा का पाठयक्रम साम्यवादियों द्वारा निर्धारित होता हैं। यह एक प्रकार का सुनियोजित षड़यंत्र है।
Vedic vichar
06-06-2022
शंका- आर्य (हिंदी) भाषा कि वर्ण एवं लिपि का आरम्भ कब हुआ? समाधान- आर्य (हिंदी) भाषा की लिपि देवनागरी हैं। देवनागरी को देवनागरी इसलिए कहा गया हैं क्यूंकि यह देवों की भाषा हैं। भाषाएँ दो प्रकार की होती हैं। कल्पित और अपौरुषेय। कल्पित भाषा का आधार कल्पना के अतिरिक्त और कोई नहीं होता। ऐसी भाषा में वर्णरचना का आधार भी वैज्ञानिक के स्थान पर काल्पनिक होता हैं। अपौरुषेय भाषा का आधार नित्य अनादि वाणी होता हैं। उसमें समय समय पर परिवर्तन होते रहते हैं परन्तु वह अपना मूल आधार अनादि अपौरुषेय वाणी को कभी नहीं छोड़ती। ऐसी भाषा का आधार भी अनादि विज्ञान ही होता हैं। वैदिक वर्णमाला में मुख्यतः १७ अक्षर हैं। इन १७ अक्षरों में कितने अक्षर केवल प्रयत्नशील अर्थात मुख और जिव्हा की इधर-उधर गति आकुंचन और प्रसारण से बोले जाते हैं और किसी विशेष स्थान से इनका कोई सम्बन्ध नहीं होता। उन्हें स्वर कहते हैं। जिनके उच्चारण में स्वर और प्रयत्न दोनों की सहायता लेनी पड़ती हैं उन्हें व्यंजन कहते हैं। कितने ही अवांतर भेद हो जाने पर हमारी इस वर्णमाला के अक्षर ६४ हो जाते हैं। यजुर्वेद में इन्हीं १७ अक्षरों की नीचे के मंत्र द्वारा स्पष्ट गणना हैं- अग्निरेकाक्षरेण, अश्विनौ द्व्यक्षरेण, विष्णु: त्र्यक्षरेण, सोमश्चतुरक्षेण, पूषा पंचाक्षरेण, सविता षडक्षरेण, मरुत: सप्ताक्षरेण, बृहस्पति अष्टाक्षरेण, मित्रो नवाक्षरेण, वरुणो दशाक्षरेण, इन्द्र एकादशाक्षरेण, विश्वदेवा द्वादशाक्षरेण, वसवस्त्रयोदशाक्षरेण,रुद्रश्चतुर्दशाक्षरेण, आदित्या: पंचदशाक्षरेण, अदिति: षोडशाक्षरेण, प्रजापति: सप्तदशाक्षरेण। (यजुर्वेद ९-३१-३४) इस प्रकार यह मूलरूप से १७ अक्षरों की और विस्तार में १७ अक्षरों की वर्णमाला वैदिक होने से अनादि और अपौरुषेय हैं। वर्णमाला के १७ अक्षरों का मूल एक ही अकार हैं। यह अकार ही अपने स्थान और प्रयत्नों के भेद से अनेक प्रकार का हो जाता हैं। ओष्ठ बंद करके यदि अकार का उच्चारण किया जाए तो पकार हो जावेगा और यदि अकार का ही कंठ से उच्चारण करें तो ककार सुनाई देगा। इस प्रकार से सभी वर्णों के विषय में समझ लेना चाहिये। अकार प्रत्येक उच्चारण में उपस्थित रहता हैं, बिना उसकी सहायता के न कोई वर्ण भलीभांति बोला जा सकता हैं और न सुनाई देता हैं। इसलिए अकार के निम्न अनेक अर्थ हैं- सब, कुल, पूर्ण, व्यापक, अव्यय, एक और अखंड आदि अकार अक्षर के ही अर्थ हैं। इन अर्थों को देखकर अकार अक्षर व्यापक और अखंड प्रतीत होता हैं। क्यूंकि शेष अक्षर उसी में प्रविष्ट होने से इन्हीं के रूप में ही प्रतीत होते हैं। उपनिषद् में ब्राह्मण कम् और खम् दो अर्थ हैं। इसलिए इस अपौरुषेय वर्णमाला का उच्चारण करते समय हम एक प्रकार से ब्रह्मा की उपासना कर रहे होते हैं। वर्णों के शब्द बनते हैं और शब्दों का समुदाय भाषा हैं। इस प्रकार से हिंदी भाषा को 'ब्रह्मवादिनी' भी कह सकते हैं। इस प्रकार देवनागरी लिपि में प्रत्येक अक्षर का उच्चारण करते समय हम ब्रह्मा की उपासना कर रहे होते हैं। इसलिए देवनागरी हमारी संस्कृति का प्रतीक हैं। हमारी संस्कृति वैदिक हैं। वैदिक संस्कृति वेद द्वारा भगवान की देन हैं और वेदों के अनादि होने से हमारी संस्कृति और हमारी भाषा भी अनादि और अपौरुषेय हैं। एक और तथ्य यह हैं कि हमारी भाषा में सभी भाषाओँ के शब्द लिखे और पढ़े जा सकते हैं क्यूंकि इसके ६४ अक्षर किसी भी शब्द की तथा उच्चारण की किसी भी न्यूनता को रहने नहीं देते। देवनागरी लिपि के विकास की जहाँ तक बात हैं तो स्वामी दयानंद पूना प्रवचन के नौवें प्रवचन में लिखते हैं कि इक्ष्वाकु यह आर्यावर्त का प्रथम राजा हुआ। इक्ष्वाकु के समय अक्षर स्याही आदि से लिखने की लिपि का विकास किया। ऐसा प्रतीत होता हैं। इक्ष्वाकु के समय वेद को कंठस्थ करने की रीती कुछ कम होने लगी थी । जिस लिपि में वेद लिखे गए उसका नाम देवनागरी हैं। विद्वान अर्थात देव लोगों ने संकेत से अक्षर लिखना प्रारम्भ किया इसलिए भी इसका नाम देवनागरी हैं। इस प्रकार से आर्य भाषा अपौरुषेय एवं वैदिक काल की भाषा हैं जिसकी लिपि का विकास भी वैदिक काल में हो गया था। सन्दर्भ- उपदेश मंजरी- स्वामी दयानंद पूना प्रवचन एवं स्वामी आत्मानंद सरस्वती पत्र व्यवहार-२०९ (अप्रकाशित)
ईश्वर से प्रार्थना क्यों? (Vedic vichar)
06-06-2022
सर्व-प्रथम तो यह जानने की बात है कि 'प्रार्थना' किसे कहते हैं,तथा प्रार्थना कब करनी चाहिए।जो व्यक्ति प्रार्थना की परिभाषा व लक्षण को नहीं जानते,वे ही ऐसी शंकाएं किया करते हैं। ऋषि दयानन्द ने 'प्रार्थना' का स्वरुप निम्न प्रकार दर्शाया है-"अपने पूर्ण पुरुषार्थ के उपरान्त,उत्तम-कर्मों की सिद्धि के लिए परमेश्वर वा किसी सामर्थ्य वाले मनुष्य का सहाय लेने को 'प्रार्थना' कहते हैं"- आर्योद्देश्यरत्नमाला संख्या-२४,लेखक स्वामी दयानन्द सरस्वती । जैसे कोई कुली या भार ढोने वाला मजदूर स्वयं कुछ भी परिश्रम न करता हुआ,हाथ पर हाथ धरे खड़ा रहे और अन्यों से ये कहे कि यह भार मेरे सिर पर रखवा दो तो कोई भी उसकी सहायता करने को उद्यत नहीं होगा।जैसे एक विद्यार्थी अपने अध्यापक द्वारा पढ़ाये गये पाठ को न तो ध्यानपूर्वक सुनता है,न लिखता है,न स्मरण करता है और न ही अध्यापक की अन्य अच्छी-अच्छी बातों का पालन करता है,किन्तु जब परिक्षा का काल निकट आता है,तो गुरुजी,गुरुजी,की रट लगाकर अपने अध्यापक से कहता है कि मुझे उत्तीर्ण कर दो।ऐसी स्थिति में कौन बुद्धिमान,न्यायप्रिय अध्यापक उस विद्यार्थी को,जिसने,परिक्षा के लिए कोई पुरुषार्थ नहीं किया,अंक देकर उत्तीर्ण कर देगा ?कोई भी नहीं। ठीक ऐसे ही ईश्वर,प्रार्थना करने वाले व्यक्ति की सहायता करने से पूर्व कुछ बातों की अपेक्षा करता है।ईश्वर ने धन,बल,स्वास्थय,दीर्घायु,पुत्र आदि की प्राप्ति के लिए तथा अन्य कामनाओं की सफलता हेतु वेद में विधि का निर्देश किया है।जो व्यक्ति उन विधिनिर्देशों को ठीक प्रकार से जाने बिना और उनका व्यवहार काल में आचरण किये बिना ही प्रार्थना करते हैं,उनकी स्थिति पूर्वोक्त कुली या विद्यार्थी की तरह ही होती है।विधिरहित-पुरुषार्थहीन प्रार्थना को सुनकर अध्यापक-रुपी ईश्वर प्रार्थी की कामनाओं को पूरा नहीं करता,क्योंकि ईश्वर तो महाबुद्धिमान् तथा परमन्यायप्रिय है। शुद्ध ज्ञान और शुद्ध कर्म के बिना की गयी प्रार्थना एकांगी है।वेदादि सत्यशास्त्रों को यथार्थरुप से पढ़कर समझे बिना तथा तदनुसार आचरण किये बिना कितनी ही प्रार्थना की जाय,वह प्रार्थना,'प्रार्थना' की कोटि में नहीं आती। जो ईश्वरभक्त 'प्रार्थना' को केवल मन्दिर में जाने,मूर्ति का दर्शन करने,उसके समक्ष सिर झुकाने,तिलक लगाने,चरणामृत पीने,पत्र-पुष्पादि चढ़ाने,कुछ खाद्य पदार्थों को भेट करने,कोई नाम स्मरण करने,माला फेरने,दो भजन गा-लेने,किसी तीर्थ पर जाकर स्नान करने,कुछ दान-पुण्य करने तक ही सीमित रखते हैं,उनकी भी प्रार्थना सफल नहीं होती।ऐसे प्रार्थी,प्रार्थना के साथ सुकर्मों का सम्बन्ध नहीं जोड़ते,व्यवहार काल में ईश्वर-जैसा पुरुषार्थ,प्रार्थना करने वालों से चाहता है,वैसा व्यवहार वे नहीं करते हैं।यह प्रार्थना की असफलता में कारण बनता है। आश्चर्य तो इस बात पर होता है कि जिन हिंसा,झूठ,चोरी,व्यभिचार,मद्यपान,असंयम आलस्य,प्रमाद,आदि बुरे कर्मों से अशान्ति,रोग,भय,शोक,अज्ञान,मृत्यु,अपयश आदि दुःखों की प्राप्ति होती है,उन्हीं बुरे कर्मों को करता हुआ 'प्रार्थी' सुख,शान्ति,निर्भयता,स्वास्थय,दीर्घ आयु,बल,पराक्रम,ज्ञान,यश आदि सुखों को ईश्वर से चाहता है,यह कैसे सम्भव है?कदापि नहीं। पूर्ण पुरुषार्थ के पश्चात् की गयी प्रार्थना यदि सफल नहीं होती,तो शास्त्रीय सिद्धान्त के अनुसार तीन कारण हो सकते हैं।वे हैं कर्म,कर्त्ता और साधन।देखें न्याय-दर्शन २-१-५८वाँ सूत्र (न कर्मकर्त्तसाधनवैगुण्यात् ।।) जब ये तीनों (=कर्म,कर्त्ता और साधन)अपने गुणों से युक्त होते हैं,तो प्रार्थना अवश्य सफल होती है,इसके विपरित इन तीनों में से किसी भी एक कारण में न्यूनता रहती है तो प्रार्थना कितनी ही क्यों न की जाये,प्रार्थी की प्रार्थना सफल नहीं होती। उदाहरण के लिए एक रोगी व्यक्ति,अपने रोग से विमुक्त होने के लिए किसी कुशल वैद्य के पास जाता है और वैद्य से कहता है कि मुझे स्वस्थ बनाइये।इस पर वैद्य उसके रोग का परीक्षण करके रोगी को निर्देश करता है कि अमुक ओषधि,इस विधि से,दिन में इतनी बार इतनी मात्रा में खाओ तथा पथ्यापथ्य को भी बताता है कि यह वस्तु खानी है और यह वस्तु नहीं खानी है,इसके साथ ही रोगी को दिनचर्या,व्यवहार आदि के विषय में भी निर्देश करता है। इतना निर्देश करने पर भी यदि रोगी,जो औषधि,जब जब जितनी मात्रा में,जितनी बार लेनी होती है,वैसा नहीं करता तो कर्म का दोष होता है।औषधि विषयक कार्यों को ठीक प्रकार से सम्पन्न करे,किन्तु रोगी-क्रोध,आलस्य,प्रमाद,चिन्ता,भय,निराशादि से युक्त रहता है,तो यह कर्त्ता का दोष है।रोगी स्वयं कितना ही निपुण क्यों न हो,औषधि नकली है,घटिया है,थोड़ी है,तो यह साधन का दोष है। ठीक इसी तरह ,किसी प्रार्थना करने वाले ईश्वरभक्त आस्तिक व्यक्ति की प्रार्थना सफल नहीं होती और उसके दुःख दूर नहीं होते तो यह नहीं मान लेना चाहिए कि ईश्वर की सत्ता नहीं है।किन्तु ऐसी स्थिति में यह अनुमान लगाना चाहिए कि उसके पुरुषार्थ में कुछ कमी है अर्थात् कर्म,कर्त्ता,साधनों में कहीं ना कहीं न्यूनता या दोष है।उन न्यूनताओं व दोषों को जानकर उनको दूर करना चाहिए।ऐसा करने पर प्रार्थी की प्रार्थना अवश्य सफल होगी। इसलिए उपर्युक्त विवरण से यह सिद्ध होता है कि ईश्वर की सत्ता है और वह दुःखों को दूर भी करता है,किन्तु सभी प्रार्थना करने वाले भक्तों के दुःखों को दूर नहीं करता केवल उन्हीं भक्तों के दुःखों को दूर करता है जो पुरुषार्थ सहित सच्ची विधि से ईश्वर की प्रार्थना करते हैं। [ साभार: आचार्य ज्ञानेश्वरार्य जी, 'ईश्वर की सिद्धि' से ]
Chanakya's most popular quotes (vedic vichar)
06-06-2022
Chanakya on Lust There is no disease so destructive as lust. There is no disease so destructive as lust. Chanakya described lust as the biggest barrier in a man's growth. Lusty individual would never be able to concentrate of other requisites of life. However, Chanakya was not against sex. Chanakya on Self Improvement.. Before you start some work, always ask yourself three questions : 1. Why am I doing it. 2. What the results might be and 3. Will I be successful. Only when you think deeply and find satisfactory answers to these questions, go ahead. Chanakya on Family He who is overly attached to his family members experiences fear and sorrow, for the root of all grief is attachment. Thus one should discard attachment to be happy. Chanakya on Kingdom If the king is pious, the subjects become so; but if the king is vicious, the subjects become the same. If he be indifferent to both (virtue and vice), then they too bear the same character. In short, as is the king so are his subjects. Chanakya on Failures Once you start a working on something, don't be afraid of failure and don't abandon it. People who work sincerely are the happiest." Chanakya on Education Education is the best friend. An educated person is respected everywhere. Education beats the beauty and the youth Chanakya on Good Person The fragrance of flowers spreads only in the direction of the wind. But the goodness of a person spreads in all directions. Chanakya on Parenting For five years one’s son should be pampered, the next ten years he should be beaten (meaning he must be disciplined) and once he turns sixteen he should be treated as a friend. Chanakya on Dharma For one in an alien land learning is friend, for one staying at home mother is friend , for one suffering from illness medicine is friend and for the departed souls dharma is friend. Chanakya on Kids What is the purpose of having a son who is neither learned nor devoted to God? It is useless to have a blind eye which will only result in eye-ache. Chanakya on Generations Even as a single good tree with fragrant flowers can spread the fragrance in the entire forest, so also the entire family (or clan) shines by a son possessing good qualities. Chanakya on Scholars Scholarship and kingship can never be equated. A king is respected in his own kingdom whereas a scholar is respected everywhere. Chanakya on Fool men A wise man has all qualities in him, a fool has only faults. Therefore a single wise person is better than a thousand fools
Vedic vichar
06-06-2022
ओ३म् *????महाभारत की विशेष शिक्षाएँ????* *(वैराग्य―संस्थान)* *धन को मनुष्य या मनुष्य को धन छोड़ देता है―* *धनं वा पुरुषो राजन् पुरुषं वा पुनर्धनम्।* *अवश्यं प्रजहात्येव तद्विद्वाम् कोऽनुसंज्वरेत्।।* ―(महा०, शान्तिप० राजधर्म० अ० 104/45) *भावार्थ―*राजन्! एक दिन धन को मनुष्य छोड़ देता है या धन मनुष्य को अवश्य छोड़ देता है ऐसा जानने वाला जन धन के नाश में दु:खी नहीं होता। *मरने पर धन को दूसरे भोगते हैं―* *अन्यो धनं प्रेतस्य भुंक्ते वयांसि चाग्निश्च शरीरधातून्।* *द्वाभ्यामयं सह गच्छत्यमुत्र पुण्येन पापेन च वेध्यमाना:।।* ―(महा०, उद्योगप० प्रजा० अ० 40/16) *भावार्थ―*मरे हुए मनुष्य का धन तो दूसरे जन भोगते हैं और शरीर की धातुओं को पक्षी खा जाते हैं या अग्नि भस्म कर देती है, केवल पुण्य और पाप से संयुक्त हुआ इन दो के साथ ही परलोक पुनर्जन्म या मोक्ष को प्राप्त होता है। *सञ्चय क्षयान्त आदि―* *सञ्चये च विनाशान्ते मरणान्ते च जीविते।* *संयोगे व वियोगान्ते को नु विप्रणयेन्मन:।।* ―(महा०, शान्तिप० राजधर्म० अ० 104/44) *भावार्थ―*अन्त में विनष्ट होने वाले सञ्चय में, अन्त में मरने वाले जीवन में और अन्त में वियोग वाले संयोग में कौन मन को फँसावे। *विविध दु:खमय संसार―* *सन्ति पुत्रा: सुबहवो दरिद्राणामनिच्छताम्।* *नास्ति पुत्र: समृद्धानां विचित्रं विधिचेष्टितम्।।24।।* *दृश्यते हि युवैवेह विनश्यन् वसुमान् नर:।* *दरिद्रश्च परिक्लिष्ट: शतवर्षो जरान्वित:।।27।।* *प्रायेण श्रीमतां लोके भोक्तुं शक्तिर्न विद्यते।।29।।* ―(महा०, शान्तिप० राजध० अ० 28) *भावार्थ―*न चाहते हुए भी दरिद्रों के बहुत पुत्र हैं और समृद्धों धनिकों का एक भी पुत्र नहीं, यह विचित्र है। धनवान् युवा जन भी मरा हुआ देखा जाता है और दरिद्र जन क्लेश पाता हुआ भी बुढ़ापे तक सौ वर्ष जीता है। प्राय: धनवानों की भोगने की शक्ति नहीं होती। *मित्र और शत्रु स्थिर नहीं, किन्तु प्रयोजन वश होते हैं―* *नास्ति मैत्री स्थिरा नाम न च ध्रुवमसौह्रदम्।* *अर्थयुक्त्यानुजायन्ते मित्राणि रिपवस्तथा।।* ―(महा०, शान्तिप० मोक्ष० अ० 138/41) *भावार्थ―*मैत्री स्थिर नहीं और न शत्रुता स्थिर है किन्तु प्रयोजन वश मित्र और शत्रु हो जाते हैं।
Vedas and Shudras (vedic vichar)
06-06-2022
There is a quite common doubt regarding the Vedas that they discriminate Shudras from upper castes. This doubt needs urgent clarification because there are many lobbies working day and night to misguide the Dalits of our country. First of all it is wrong to consider the term Shudras as equivalent to Dalits. The word Dalit means any person whose rights have been suppressed. Following this definition the whole Hindu community is Dalit. Since last 1200 Years Hindus have been facing continuous persecution and forcible conversion by Islamic/Christian invaders. Their rights were suppressed and they faced all sorts of tortures. So, all Hindus are Dalits. Now we come to word Shudra. Vedic philosophy believes in Varna Vyavastha. A system of four class division based on qualities of a person. The four classes were Brahman (learned/scholar), Kshatriya ( ruler/defending warrior), Vaishya (business class) and Shudra (worker). A shudra was a class of person whose duty was to help all three class in their respective duties. This class was assigned to any person who was unable to read, unable to govern and unable to bring prosperity. It is entirely different from caste system. Caste system became popular in middle ages. It is based on the basis of birth order. Varna is decided after completion of studies while Caste is decided with birth. Varna is issued by the teacher of a student. Caste system is decided by the family caste. The motive of Varna is issuing right job to right person. The side effect of Caste system is to ignore the qualities and appoint an unfit person on an important job.The caste system paralyzed the whole Hindu society. It divided them, weakened their social architecture, ignored the talented persons and thus ruined it completely. This was the main reason why Hindus in-spite of large number fell like an easy prey in front of the invaders. Varna system permitted equal opportunities for everyone while caste system forbid equal rights. Caste system favored birth based Brahmans and ignored the rights of Shudras. In similar way Caste system also denied the reading of the Vedas by Shudras. This idea became popular in middle ages. The priesthood class completely denied the teachings of the Vedas to all four Varna and restricted Vedas only to their families. Interestingly they even ignored the message of the Vedas. Readers will feel pride when they learn the truth. The Vedas permit equal opportunity to read for everyone including Shudras. The middle age Acharyas like Sayana, Mahidhara were orthodox in their approach. They didn’t propagate the message of equality in the Vedas. Only Swami Dayanand the famous commentator of Vedas propagated the rights of Shudras in the Vedas.The word Shudras is mentioned in Vedas for about 20 times. Its nowhere mentioned in denigrating and inferior way. The Vedas no where deny Shudras the right to read Vedas. The Vedas no where consider Shudras as untouchables. The Vedas no where consider Shudras as inferior. The self testimony of the Vedas will prove my stand. Yajurveda 26 /2 God says O! Humans i gift you with this blissful knowledge of Vedas for all Brahman, Kshatriya, Vaishya as well as Shudra. This knowledge is for benefit of everyone. [God do not deny the knowledge of Vedas for Shudras. Shudras enjoys equal right to read Vedas as a Brahman. ] Atharveda 19/62/1 I pray to God that O God! Let all Brahmans, Kshatriyas, Vaishyas and Shudras glorify me. [Vedas do not discriminate between different classes.They consider everyone as equal.] Yajurveda 18/46 says that O God make me so gentle that all Brahmans, Kshatriyas, Vaishyas and Shudras have affection for me. [Vedas speak of good relations with all four classes] Rigveda 5/60/5 says There is no one superior or inferior in the Vedas. All are equal just like brothers.All should help each other to attain the pleasures of this as well as the other world. [This mantra considers all humans as equal irrespective of their duties.] These are few Vedic mantra from the Vedas which prove that Vedas do permit Shudras the right to Read, Learn and Propagate.
Vedic vichar
06-06-2022
ओ३म्! या ते जिह्वा मधुमती सुमेधा अग्ने देवेषूच्यत उरूची | तयेह विश्वाँ अवसे यजत्राना सादय पापया चा मधूनि || ऋग्वेद 3|57|5 शब्दार्थ अग्ने............ पुरोहित या...............जो ते................तेरी मधुमति..........मीठी सुमेधा:...........उत्तम मेधायुक्त अर्थात सुबुद्धिपूर्वक उरूची............विशाल अर्थों का ज्ञान कराने वाली जिह्वा............वाणी देवेषु.............देवौं में, विद्वानो में उच्यते............कही जाती है, प्रसिद्ध है तया.............उसके द्वारा अवसे............प्रीति के लिए, प्रयोजन सिद्धि के लिए विश्वाऩ्...........सब यजत्राऩ्..........याज्ञिकों को इह..............यहाँ आ+सादय........ला बिठा और मधूनि............मधुर पदार्थ पायल............पिला | व्याख्या - बहुत से लोग एक विशेष समुदाय के साथ मधुरता का व्यवहार करते हैं | वेद संकेत कर रहा है कि भाई! तू सबके साथ मीठी वाणी बोल | ऋषि ने इसी का अनुकरण करते हुए कहा है - सबसे प्रीतिपूर्वक, धर्मानुसार यथायोग्य व्यवहार करना चाहिए | अथर्ववेद 16/2/2 में कहा है - मधुमतीस्थ मधुमतीं वाचमुदेयम् - हे प्रजाओ! तुम मिठासयुक्त होओ, मैं मिठासयुक्त वाणी बोलूँ अर्थात जो चाहता है कि लोग उसके साथ मीठा व्यवहार करें, उसे दूसरों के साथ स्वयं मीठा व्यवहार करना चाहिए | भगवान ने उपदेश किया है कि सृष्टि के सारे पदार्थ मधुरता का व्यवहार कर रहे हैं, तू भी मधुरता का व्यवहार कर | देखिए, कितने मधुरमान्=मधुर हैं ये मन्त्र ! मधु वाता ऋतायते मधु क्षरन्ति सिन्धवः | माध्वीर्नः सन्त्वोषधीः ||.....ऋग्वेद 1/90/6 सृष्टि नियम की अनुकूलता से चलनेवाले के लिए वायु मिठास लाती है, नदियाँ मिठास बहाती हैं, औषधियाँ हमारे लिए मीठी हों | मधु नक्तमुतोषसो मधुमत्पार्थिवं रजः | मधु द्यौरस्तु नः पिता ||.......ऋग्वेद 1/90/7 रात मीठी है, प्रभात मीठे हैं, पृथिवी की धूलि या पृथिवीलोक भी मीठा है, पिता द्यौ भी हमारे लिए मधुर हो | मधुमान्नो वनस्पतिर्मधुमाँ अस्तु सूर्यः | माध्वीर्गावो भवन्तु नः ||......ऋग्वेद 1/90/8 वनस्पति हमारे लिए मीठी हो, सूर्य्य भी हमारे लिए मधुमान् हो | हमारी गौवें माध्वी=मिठासवाली होंवे | यह सब मिठास ऋतानुसारी के लिए है | ऋत कहते हैं सरल सीधे, सृष्टिनियमानुकूल व्यवहार को | प्रकृत मन्त्र में वाणी को मधुमती के साथ सुमेधाः भी कहा गया है | मीठा बोलो, किन्तु बुद्धि के साथ बोलो | बुद्धिरहित मीठा भाषण किस काम का | मीठे वचन को बुद्धियुक्त कहने का प्रयोजन है, यदि वक्ता में बुद्धि हो, तो वह अप्रिय सत्य को भी प्रिय बना लेगा | स्मृतिकार कहते हैं - सत्यं ब्रूयात्प्रियं ब्रूयान्न ब्रूयात्सत्यमप्रियम् | सच बोले, किन्तु अप्रिय सत्य न बोले | बड़ी उलझन है | क्या चुप रहा जाए ? नहीं. यही मनु महाराज कहते हैं - मौनात्सत्यं विशिष्यते - चुप रहने से सत्य बोलना अच्छा है | वेद भी यही कहता है - वदन् ब्रह्माSवदतो वनीयान् - बोलनेवाला ज्ञानी न बोलने वाले से अधिक पूज्य है, अर्थात सत्य तो अवष्य बोलना है, चुप नहीं रहना | हाँ उसे अप्रिय भी नहीं रहने दें | प्रिय बनाने के लिए बुद्धि चाहिए | इसी कारण वेद ने कहा या ते जिह्वा मधुमती सुमेधाः - जो तेरी मीठी सुबुद्धियुक्त वाणी है, उस सुबुद्धियुक्त वाणी से सब जनो को इकट्ठा कर और मिठास पिला | सबसे मीठा वेद है, उन्हे वह पिला | बता, तू वेद का मधुरपान दूसरों को पिलाता है ? या नहीं पिलाता, अब तो पिला | वेद बहुत मीठा है | एक बार स्वयं पी, फिर तू बार बार पिएगा, और विवश होकर दूसरों को भी पिलाएगा | स्वामी वेदानन्दतीर्थ सरस्वती (स्वाध्याय सन्दोह से साभार)
विद्या" - 'धर्म का आठवाँ लक्षण (vedic vichar)
06-06-2022
दयानन्द ने विद्या प्राप्त करने की प्रेरणा अनेक स्थलों पर दी है। - अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि करनी चाहिए। - विद्या का जो पढ़ना-पढ़ाना है यही सबसे उत्तम है। - स्वाध्याय (पढ़ना) और प्रवचन (पढ़ाना) का त्याग कभी नहीं करना चाहिए। - विद्यादि शुभ गुणों को प्राप्त करने के प्रयत्न में अत्यंत पुरुषार्थ की इच्छा ही मन का संकल्प है। - संतानों को उत्तम विद्या, शिक्षा, गुण, कर्म और स्वभाव-रूप आभूषणों का धारण कराना माता, पिता, आचार्य और संबंधियों का मुख्य कर्म है। सोने, चांदी, माणिक, मोती, मूंगा आदि रत्नों से युक्त आभूषणों के धारण कराने से मनुष्य का आत्मा सुभूषित कभी भी नहीं हो सकता, क्योंकि आभूषणों के धारण करने से केवल देहाभिमान, विषयासक्ति और चोर आदि का भय तथा मृत्यु भी संभव है। - अन्य सब कोष व्यय करने से घट जाते हैं, और दायभागी भी निजभाग लेते हैं। विद्या-कोष का चोर वा दायभागी कोई नहीं हो सकता। - जब मनुष्य लोग सत्य विद्या को पढ़ेंगे, तभी सदा सुख में रहेंगे। क्योंकि, सभी गुणों में विद्या ही उत्तम गुण है। - धर्म का रक्षक विद्या ही है, क्योंकि विद्या से ही धर्म और अधर्म का बोध होता है। उनसे सब मनुष्यों को हिताहित का बोध होता है। दयानन्द लिखते हैं कि स्वाध्याय और प्रवचन का उपदेश इसलिए किया जाता है कि इनसे ही पूर्वोक्त धर्म के लक्षणों की प्राप्ति होती है। विद्या के बिना किसी भी वस्तु का स्वरूप स्पष्ट नहीं होता; विद्या से ही उसके स्वरूप को स्पष्ट करके उसे हम ग्रहण अथवा न ग्रहण करने का निश्चय करते हैं। दयानन्द ने विद्या के ही प्रसंग में इस बात को भी बारंबार कहा है कि कोरा ज्ञान ही विद्या नहीं है। वस्तुओं के स्वरूप को ठीक-ठीक जान लेना ही विद्या नहीं है, वरन् विद्या का जीवन में उपयोग भी हो। वे कहते हैं कि विद्या का यही फल है कि जो मनुष्य को धार्मिक होना आवश्यक है। जिसने विद्या के प्रकाश से अच्छा जानकर न किया और बुरा मान कर न छोड़ा तो क्या वह चोर के समान नहीं है ? यहां इस बात का उल्लेख करना अनिवार्य है कि यद्यपि 'विद्या' धर्म का एक लक्षण है, किंतु फिर भी जो मनुष्य विद्या पढ़ने की सामर्थ्य नहीं रखते, वे यदि धर्माचरण करना चाहें तो विद्वानों के संग और अपनी आत्मा की पवित्रता एवं अविरुद्धता से धर्मात्मा अवश्य हो सकते हैं। यह सत्य है कि सब मनुष्यों का विद्वान होना संभव नहीं है, किंतु धार्मिक होना सभी के लिए संभव है। जो मनुष्य विद्या कम भी जानता हो, परंतु दुष्ट व्यवहारों को छोड़कर, धार्मिक होके खाने, पीने, बोलने, सुनने, बैठने, लेने, देने आदि व्यवहार सत्य से युक्त यथायोग्य करता है, वह कहीं भी कभी दुख को प्राप्त नहीं होगा। जो संपूर्ण विद्या पढ़के उत्तम व्यवहारों को छोड़के दुष्ट कर्मों को करता है, वह कभी सुख को प्राप्त नहीं हो सकता। ऐसी स्थिति में विद्या को धर्म के लक्षणों में स्थान देने का कारण है सभी को विद्या प्राप्त करने की प्रेरणा देना। वस्तुतः दयानन्द उस व्यक्ति को विद्वान मानते ही नहीं हैं, जो कि अधर्मयुक्त आचरण करे। विद्या शेष सभी धर्म के लक्षणों को जीवन में धारणकर सुखी रहना सिखाती है। यदि कोई व्यक्ति पढ़कर भी सुखी नहीं रह पाता, आधुनिक शब्दावली में वह तनावमुक्त नहीं हो पाता तो वह विद्वान कहलाने का अधिकारी नहीं है। केवल दो तरह के लोग सुखी और तनावमुक्त होते हैं - बिल्कुल ही मूर्ख, और जो अपने से ऊपर उठ जाते हैं - वह अपने मस्तिष्क का अतिक्रमण कर ज्ञानावस्था (विद्या) को प्राप्त कर लेते हैं। अन्य लोग अनेक प्रकार के तनावों और दुःखों में ही जीते हैं। मूर्ख की तनाव-मुक्ति और विद्वान की तनाव-मुक्ति में महान अंतर है। मूर्ख की तनाव मुक्ति जड़तावश है जबकि विद्वान की तनाव-मुक्ति उसके चैतन्य को प्रकट करती है। अतः व्यक्ति को विद्या प्राप्त कर तनाव-मुक्त रहने का प्रयत्न करना चाहिए। ********** स्रोत - धर्म का स्वरूप। लेखक - प्रशान्त वेदालंकार। प्रस्तुति - आर्य रमेश चन्द्र बावा।
वेदों में पर्यावरण विज्ञान (vedic vichar)
06-06-2022
लेखक- स्वर्गीय डॉ रामनाथ वेदालंकार प्रस्तोता- प्रियांशु सेठ (आज 5 जून "विश्व पर्यावरण दिवस" पर विशेष रूप से प्रकाशित) वेद का सन्देश है कि मानव शुद्ध वायु में श्वास ले, शुद्ध जल को पान करे, शुद्ध अन्न का भोजन करे, शुद्ध मिट्टी में खेले-कूदे, शुद्ध भूमि में खेती करे। ऐसा होने पर ही उसे वेद-प्रतिपादित सौ वर्ष या सौ से भी अधिक वर्ष की आयु प्राप्त हो सकती है। परन्तु आज न केवल हमारे देश में, अपितु विदेशों में भी प्रदूषण इतना बढ़ गया है कि मनुष्य को न शुद्ध वायु सुलभ है, न शुद्ध जल सुलभ है, न शुद्ध अन्न सुलभ है, न शुद्ध मिट्टी और शुद्ध भूमि सुलभ है। कल-कारखानों से निकले अपद्रव्य, धुओं, गैस, कूड़ा-कचरा, वन-विनाश आदि इस प्रदूषण के कारण हैं। प्रदूषण इस स्थिति तक पहुंच गया है कि कई स्थानों पर तेजाबी वर्षा तक हो रही है। 18 जुलाई, 1983 के दिन भारत के बम्बई शहर में तेजाबयुक्त वर्षा हो चुकी है। यदि प्रदूषण निरन्तर बढ़ता गया तो वह दिन दूर नहीं जब यह भूमि मानव तथा अन्य प्राणियों के निवासयोग्य नहीं रह जायेगी। पर्यावरण-प्रदूषण की चिन्ताजनक स्थिति को देखकर 5 जून, 1972 को बारह संयुक्त राष्ट्रों की एक बैठक इस विषय पर विचार करने के लिए स्टाकहोम (स्वीडन) में आयोजित हुई थी, जिसके फलस्वरूप विभिन्न राष्ट्रों द्वारा पर्यावरण-सुरक्षा हेतु प्रभावशाली कदम उठाए गए। उक्त गोष्ठी में भारत की तीसरी प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने भी 'पर्यावरण की बिगड़ती स्थिति एवं उसका विश्व के भविष्य पर प्रभाव' विषय पर भाषण दिया था। उसके पश्चात् भारत में पर्यावरण-प्रदूषण का अध्ययन करने, उसे रोकने के उपाय सुझाने एवं उनके क्रियान्वयन करने हेतु अनेक सरकारी तथा व्यक्तिगत या जनता की ओर से सामूहिक प्रयास होते रहे हैं तथा आज भी अनेक संस्थाएं इस दिशा में कार्यरत हैं। प्रस्तुत लेख में हम यह दर्शायेंगे कि वेद का पर्यावरण के सम्बन्ध में क्या विचार है! 1. वायु- स्वच्छ वायुमण्डल का महत्त्व स्वच्छ वायु का सेवन ही प्राणियों के लिए हितकर है यह बात वेद के निम्न मन्त्रों से प्रकट होते हैं- वात आ वातु भेषजं शम्भु मयोभु नो हृदे। प्र ण आयूंषि तारिषत्।। -ऋ० १०/१८६/१ वायु हमें ऐसा ओषध प्रदान करे, जो हमारे हृदय के लिए शांतिकर एवं आरोग्यकर हो, वायु हमारे आयु के दिनों को बढ़ाए। यददो वात ते गृहेऽमृतस्य निधिर्हित:। ततो नो देहि जीवसे।। -ऋ० १०/१८६/३ हे वायु! जो तेरे घर में अमृत की निधि रखी हुई है, उसमें से कुछ अंश हमें भी प्रदान कर, जिससे हम दीर्घजीवी हों। यह वायु के अन्दर विद्यमान अमृत की निधि ओषजन या प्राणवायु है, जो हमें प्राण देती है तथा शारीरिक मलों को विनष्ट करती है। उक्त मन्त्रों से यह भी सूचित होता है कि प्रदूषित वायु में श्वास लेने से मनुष्य अल्पजीवी तथा स्वच्छ वायु में कार्बन-द्विओषिद की मात्रा कम तथा ओषजन की मात्रा अधिक होती है। उसमें श्वास लेने से हमें लाभ कैसे पहुंचता है, इसका वर्णन वेद के निम्नलिखित मन्त्रों में किया गया है- द्वाविमौ वातौ वात आ सिन्धोरा परावत:। दक्षं ते अन्य आ वातु परान्यो वातु यद्रप:।। आ वात वाहि भेषजं वि वात वाहि यद्रप:। त्वं हि विश्वभेषजो देवानां दूत ईयसे।। -ऋ० १०/१३७/२,३ अथर्व० ४/१३/२,३ ये श्वास-निःश्वास रूप दो वायुएँ चलती हैं, एक बाहर से फेफड़ों के रक्त-समुद्र तक और दूसरी फेफड़ों से बाहर के वायुमंडल तक। इनमें से पहली, हे मनुष्य तुझे बल प्राप्त कराए और दूसरी रक्त में जो दोष है उसे अपने साथ बाहर ले जाये। हे शुद्ध वायु, तू अपने साथ ओषध को ला। हे वायु, शरीर में जो मल है उसे तू बाहर निकाल। तू सब रोगों की दवा है, तू देवों का दूत होकर विचरता है। वनस्पतियों द्वारा वायु-शोधन- कार्बन-द्विओषिद की मात्रा आवश्यकता से अधिक बढ़ने पर वायु प्रदूषित हो जाता है। वैज्ञानिक लोग बताते हैं कि प्राणी ओषजन ग्रहण करते हैं तथा कार्बन-द्विओषिद छोड़ते हैं, किन्तु वनस्पतियां कार्बन-द्विओषिद ग्रहण करती हैं तथा ओषजन छोड़ती हैं। वनस्पतियों द्वारा ओषजन छोड़ने की यह प्रक्रिया प्रायः दिन में ही होती है, रात्रि में वे भी ओषजन ग्रहण करती तथा कार्बन-द्विओषिद छोड़ती हैं। पर कुछ वनस्पतियां ऐसी भी हैं जो रात्रि में भी ओषजन ही छोड़ती हैं। कार्बन-द्विओषिद को चूसने के कारण वनस्पतियां वायु-शोधन का कार्य करती हैं। वायु-प्रदूषण से बचाव के लिए सबसे कारगर उपाय वनस्पति-आरोपण है। वेद भगवन् का सन्देश है "वनस्पति वन आस्थापयध्वम् अर्थात् वन में वनस्पतियाँ उगाओ -ऋ० १०/१०१/११"। यदि वनस्पति को काटना भी पड़े तो ऐसे काटें कि उसमें सैकड़ों स्थानों पर फिर अंकुर फूट आएं। वेद का कथन है- अयं हि त्वा स्वधितिस्तेतिजान: प्रणिनाय महते सौभगाय। अतस्त्वं देव वनस्पते शतवल्शो विरोह, सहस्रवल्शा वि वयं रुहेम।। -यजु० ५/४३ हे वनस्पति, इस तेज कुल्हाड़े ने महान सौभाग्य के लिए तुझे काटा है, तू शतांकुर होती हुई बढ़, तेरा उपयोग करके हम सहस्रांकुर होते हुए वृद्धि को प्राप्त करें। अथो त्वं दीर्घायुर्भूत्वा शतवल्शा विरोहतात्। -यजु० १२/१०० हे ओषधि, तू दीर्घायु होती हुई शत अंकुरों से बढ़। वेद सूचित करता है कि सूर्य और भूमि से वनस्पतियां में मधु उत्पन्न होता है, जिससे वे हमारे लिए लाभदायक होती हैं- मधुमान्नो वनस्पतिर्मधुमाँ अस्तु सूर्य्य:। माध्वीर्गावो भवन्तु न:।। -यजु० १३/२९ वनस्पति हमारे लिए मधुमान हो, सूर्य हमारे लिए मधुमान् हो, भूमियाँ हमारे लिए मधुमती हों। फूलों-फलों से लदी हुई ओषधियां नित्य भूमि पर लहलहाती रहें, ऐसा वर्णन भी वेद में मिलता है- "ओषधी: प्रतिमोदध्वं पुष्पवती: प्रसूवरी: -ऋ० १०/९७/३"। वेद यह भी कहता है "मधुमन्मूलं मधुमदग्रमासां मधुमन्मध्यं वीरुधां बभूव। मधुमत्पर्णं मधुमत्पुष्पमासां अर्थात् ओषधियों का मूल, मध्य, अग्र, पत्ते, फूल सभी कुछ मधुमय हों -अथर्व० ८/७/१२"। वेद मनुष्य को प्रेरित करता है "मापो मौषधीहिंसी: अर्थात् तू जलों की हिंसा मत कर, ओषधियों की हिंसा मत कर -यजु० ६/२२"। जलों की हिंसा से अभिप्राय है उन्हें प्रदूषित करना तथा ओषधियों की हिंसा का तात्पर्य है उन्हें विनष्ट करना। अथर्ववेद के एक मन्त्र में ओषधियों के पांच वर्ग बताए गए हैं तथा यह भी कहा गया है कि ये हमें प्रदूषण (अहंस्) से छुड़ाए- पञ्च राज्यानि वीरूधां सोमश्रेष्ठानि ब्रूम:। दर्भो भङ्गो यव: सहस्ते नो मुञ्चन्त्वंहस:।। -अथर्व० ११/६/१५ 'सोम, दर्भ, भंग, यव, सहस्' आदि ओषधियों का ज्ञानपूर्वक प्रयोग करते हुए हम रोगों का समूल विनाश करते हैं। वेद में घरों के समीप कमल-पुष्पों से अलंकृत छोटे-छोटे सरोवर बनाने का विधान मिलता है- उप त्वा तिष्ठन्तु पुष्करिणी: समन्ता: -अथर्व ४/३४/५,-७। फव्वारों का विधान इस हेतु किया गया प्रतीत होता है कि ऊपर उठती तथा चतुर्दिक् फैलती जल-धाराओं पर जब सूर्य-किरणें पड़ती हैं, तब उनमें प्रदूषण को हरने की विशेष शक्ति आ जाती है। अथर्ववेद के भूमिसूक्त में भूमि को कहा गया है, "अरण्यं ते पृथिवी स्योनमस्तु अर्थात् तेरे जंगल हमारे लिए सुखदाई हों। -अथर्व० १२/१/११,१७"। 2. शुद्ध जलों का महत्त्व वेद का कथन है "अप्स्वन्तरमृतम् अप्सु भेषजम् अर्थात् शुद्ध जलों के अन्दर अमृत होता है, ओषध का निवास रहता है -ऋ० १/२३/१९"। "आपो अद्यान्वचारिषं रसेन समगस्महि अर्थात् शुद्ध जल के सेवन से मनुष्य रसवान् हो जाता है -ऋ० १/२३/२३"। "उर्जं वहन्तीरमृतं घृतं पय: कीलालं परिस्त्रुतम् अर्थात् शुद्ध जलों में ऊर्जा, अमृत, तेज एवं पोषक रस का निवास होता है -यजु० २/३४"। "शुद्ध जल पान किये जाने पर पेट के अंदर पहुंचकर पाचन-क्रिया को तीव्र करते हैं। वे दिव्यगुणयुक्त, अमृतमय, स्वादिष्ट जल रोग न लानेवाले, रोगों को दूर करनेवाले, शरीर के प्रदूषण को दूर करनेवाले तथा जीवन-यज्ञ को बढ़ानेवाले होते हैं -यजु० ४/१२"। आपो हि ष्ठा मयोभुवस्ता न ऊर्जे दधातन। महे रणाय चक्षसे।। -ऋ० १०/९/१ शुद्ध जल आरोग्यदायक होते हैं, शरीर में ऊर्जा उत्पन्न करते हैं, वृद्धि प्रदान करते हैं, कण्ठस्वर को ठीक करते हैं तथा दृष्टि-शक्ति बढ़ाते हैं। शन्नो देवीरभिष्टय आपो भवन्तु पीतये। शं योरभि स्त्रवन्तु न:।। -ऋ० १०/९/४ शुद्ध जलों का पान करके एवं उन्हें अपने चारों ओर बहाकर अर्थात् उनमें डुबकी लगाकर या कटि-स्नान करके हम अपना स्वास्थ्यरूप अभीष्ट प्राप्त कर सकते हैं। जलों के प्रकार- वेदों में जल कई प्रकार के वर्णित किये गए हैं और उनके सम्बन्ध में यह कहा गया है कि वे सबके लिए प्रदूषणशामक एवं रोगशामक हों: शं त आपो हैमवती: शमु ते सन्तूत्स्या:। शं ते सनिष्यदा आप: शमु ते सन्तु वर्ष्या:।। शं त आपो धन्वन्या: शं ते सन्त्वनूष्या:। शं ते खनित्रिमा आप: शं या: कुम्भेभिराभृता:।। -अथर्व० १९/२/१-२ इन मन्त्रों में जलों के निम्नलिखित प्रकारों का उल्लेख हुआ है: १. हिमालय के जल (हेमवती: आप:)- ये हिमालय पर बर्फ-रूप में रहते हैं अथवा चट्टानों के बीच में बने कुंडों में भरे रहते हैं, अथवा पहाड़ी झरनों के रूप में झरते रहते हैं। २. स्त्रोतों के जल (उत्स्या: आप:)- ये पहाड़ी या मैदानी भूमि को फोड़कर चश्मों के रूप में निकलते हैं। कई चश्मों में गन्धक होता है, गन्धक का एक चश्म देहरादून के समीप सहस्रधारा में है। ३. सदा बहते रहनेवाले जल (सनिष्यदा: आप:)- ये सदा बहते रहने के कारण अधिक प्रदूषित नहीं हो पाते हैं। ४. वर्षाजल (वर्ष्या: आप:)- वर्षा से मिलनेवाले जल शुद्धि तथा ओषधि-वनस्पतियों एवं प्राणियों को जीवन देनेवाले होते हैं। अथर्ववेद के प्राण-सूक्त (११/४/५) में कहा है कि जब वर्षा के द्वारा प्राण पृथिवी पर बरसता है तब सब प्राणी प्रमुदित होने लगते हैं। ५. मरुस्थलों के जल (धन्वन्या: आप:)- मरुस्थलों की रेती में अभ्रक, लोहा आदि पाए जाते हैं, उनके सम्पर्क से वहां के जलों में भी ये पदार्थ विद्यमान होते हैं। ६. आर्द्र प्रदेशों के जल (अनूप्या: आप:)- जहां जल की बहुतायत होती है वे प्रदेश अनूप कहलाते हैं, तथा उन प्रदेशों में होनेवाले जल अनूप्य। यहां के जल कृमि-दूषित भी हो सकते हैं। ७. भूमि खोदकर प्राप्त किये जल (खनित्रिमा: आप:)- कुएं, हाथ के नलों आदि के जल इस कोटि में आते हैं। ८. घड़ों में रखे जल (कुम्भेभि: आभृता: आप:)- घड़े विभिन्न प्रकार की मिट्टी के तथा सोना, चांदी, तांबा आदि धातुओं के भी हो सकते हैं। जल-शोधन- जलों को प्रदूषित न होने देने तथा प्रदूषित जलों को शुद्ध करने के कुछ उपायों का संकेत भी वेदों में मिलता है। यासु राजा वरुणो यासु सोमो विश्वेदेवा यासूर्जं मदन्ति। वैश्वानरो यास्वग्नि: प्रविष्टस्ता आपो देवीरिह मामवन्तु।। -ऋ० ७/४९/४ वे दिव्य जल हमारे लिए सुखदायक हों, जिनमें वरुण, सोम, विश्वेदेवा: तथा वैश्वानर अग्नि प्रविष्ट हैं। यहां वरुण शुद्ध वायु या कोई जलशोधक गैस है, सोम चन्द्रमा या सोमलता है, विश्वेदेवा: सूर्यकिरणें हैं तथा वैश्वानर अग्नि सामान्य आग या विद्युत् है। ऋग्वेद में लिखा है "यन्नदीषु यदोषधीभ्य: परि जायते विषम्। विश्वेदेवा निरितस्तत्सुवन्तु अर्थात् यदि नदियों में विष उत्पन्न हो गया है तो सब विद्वान् जन मिलकर उसे दूर कर लें -ऋ० ७/५०/३"। 3. भूमि भूमि को वेद में माता कहा गया है "माता भूमि: पुत्रो अहं पृथिव्या: -अथर्व० १२/१/१२", "उपहूता पृथिवी माता -यजु० २/१०"। वेद कहता है- यस्यामाप: परिचरा: समानीरहोरात्रे अप्रमादं क्षरन्ति। सा नो भूमिर्भूरिधारा पयो दुहामथो उक्षतु वर्चसा।। -अथर्व० १२/१/९ जिस भूमि की सेवा करनेवाली नदियां दिन-रात समान रूप से बिना प्रमाद के बहती रहती हैं वह भूरिधारा भूमिरुप गौ माता हमें अपना जलधार-रूप दूध सदा देती रहें। भूमि की हिंसा न करें वेद मनुष्य को प्रेरित करते हुए कहता है "पृथिवीं यच्छ पृथिवीं दृंह, पृथिवीं मा हिंसी: अर्थात् तू उत्कृष्ट खाद आदि के द्वारा भूमि को पोषक तत्त्व प्रदान कर, भूमि को दृढ़ कर, भूमि की हिंसा मत कर"। भूमि की हिंसा करने का अभिप्राय है उसके पोषक तत्वों को लगातार फसलों द्वारा इतना अधिक खींच लेना कि फिर वह उपजाऊ न रहे। भूमि पोषकतत्त्वविहीन न हो जाये एतदर्थ एक ही भूमि में बार-बार एक ही फसल को न लगाकर विभिन्न फसलों को अदल-बदलकर लगाना, उचित विधि से पुष्टिकर खाद देना आदि उपाय हैं। आजकल कई रासायनिक खाद ऐसे चल पड़े हैं, जो भूमि की उपजाऊ-शक्ति को चूस लेते हैं या भूमि की मिट्टी को दूषित कर देते हैं। भूमि में या भूतल की मिट्टी में यदि कोई कमी आ जाये तो उस कमी को पूर्ण किये जाने की ओर भी वेद ने ध्यान दिलाया है "यत्त ऊनं तत्त आ पूरयाति प्रजापति: प्रथमजा ऋतस्य अर्थात् प्रजापति राजा विभिन्न उपायों द्वारा उस कमी को पूरा करे -अथर्व० १२/१/६१"। यजुर्वेद के एक मन्त्र में कहा गया है "सं ते वायुर्मातरिश्वा दधातु उत्तानाया हृदयं यद् विकस्तम् अर्थात् उत्तान लेटी हुई भूमि का हृदय यदि क्षतिग्रस्त हो गया है तो मातरिश्वा वायु उसमें पुनः शक्ति-संधान कर दे -यजु० ११/३९"। मातरिश्वा वायु का अर्थ है अंतरिक्षसंचारी पवन, जो जल, तेज आदि अन्य प्राकृतिक तत्त्वों का भी उपलक्षक है। परन्तु यदि जल, वायु आदि ही प्रदूषित हो गए हों तो उनसे भूमि की क्षति-पूर्ति कैसे हो सकेगी? 4. अग्निहोत्र द्वारा पर्यावरण-शोधन वैदिक संस्कृति में अग्निहोत्र या यज्ञ का बहुत महत्त्व है। प्रत्येक गृहस्थ एवं वानप्रस्थ के करने योग्य पंच यज्ञों में अग्निहोत्र का भी स्थान है, जिसे देवयज्ञ कहा जाता है। अग्निहोत्र यज्ञाग्नि में शुद्ध घृत एवं सुगन्धित, वायुशोधक, रोगनिवारक पदार्थों की आहुति द्वारा सम्पन्न किया जाता है। एक अग्निहोत्र वह है जो धार्मिक विधि-विधानों के साथ मन्त्रपाठपूर्वक होता है, दूसरे उसे भी अग्निहोत्र कह सकते हैं जिसमें मन्त्रपाठ आदि न करके विशुद्ध वैज्ञानिक या चिकित्साशास्त्रीय दृष्टि से अग्नि में वायुशोधक या रोगकृमिनाशक पदार्थों का होम किया जाता है। आयुर्वेद के चरक, बृहन्निघन्टुरत्नाकर, योगरत्नाकर, गदनिग्रह आदि ग्रन्थों में ऐसे कई योग वर्णित हैं, जिनकी आहुति अग्नि में देने से वायुमण्डल शुद्ध होता है तथा श्वास द्वारा धूनी अन्दर लेने से रोग दूर होते हैं। वेद में अनेक स्थानों पर अग्नि को पावक, अमीवचातन, पावकशोचिष्, सपत्नदंभन आदि विशेषणों से विशेषित करके उसकी शोधकता प्रदर्शित की गई है। यज्ञ का फल चतुर्दिक् फैलता है (यज्ञस्य दोहो वितत: पुरुत्रा) -यजु० ८/६२। अग्निहोत्र ओषध का काम करता है (अग्निष्कृणोतु भेषजम्) -अथर्व० ६/१०६/३। अग्निहोत्र से शरीर की न्यूनता पूर्ण होती है (अग्ने यन्मे तत्त्वा ऊनं तन्म आपृण) -यजु० ३/१७। अग्नि वायुमण्डल से समस्त दूषक तत्त्वों का उन्मूलन करता है (अग्निर्वृत्राणि दयते पुरुणि) -ऋ० १०/८०/२। वेद मनुष्यों को आदेश देता है "आ जुहोता हविषा मर्जयध्वम् अर्थात् तुम अग्नि में शोधक द्रव्यों की आहुति देकर वायुमण्डल को शुद्ध करो -साम० ६३"। अग्निहोत्र की अवश्यकर्तव्यता की ओर संकेत करते हुए वेद कहते हैं- स्वाहा यज्ञं कृणोतन अर्थात् स्वाहापूर्वक यज्ञ करो -ऋ० १/१३/१२, सुसमिद्धाय शोचिषे घृतं तीव्रं जुहोतन अर्थात् सुसमिद्ध अग्निज्वाला पर पिघले घी की आहुति दो -यजु० ३/२, अग्निमिन्धीत मर्त्य: अर्थात् मनुष्य को चाहिए कि वह अग्नि प्रज्वलित करे -साम० ८२, सम्यञ्चोऽग्निं सपर्यत अर्थात् सब मिलकर अग्निहोत्र किया करो -अथर्व० ३/३०/६। सायं सायं गृहपतिर्नो अग्नि: प्रातः प्रातः सौमनसस्य दाता। प्रातः प्रातः गृहपतिर्नो अग्नि: सायं सायं सौमनसस्य दाता।। -अथर्व० १९/५५/३-४ अग्निहोत्र का समय सायं और प्रातः है। सायं किया हुआ अग्निहोत्र प्रातःकाल तक वायुमण्डल को प्रभावित करता रहता है और प्रातः किये गए अग्निहोत्र का प्रभाव सायंकाल तक वायुमण्डल पर पड़ता है। सुत्रामाणं पृथिवीं द्यामनेहसं सुशर्माणमदितिं सुप्रणीतिम्। दैवीं नावं स्वरित्रामनागसमस्त्रवन्तीमा रुहेमा स्वस्तये।। -यजु० २१/६ अग्निहोत्र ऐसी विशाल, दिव्य, दीप्तिमयी, निश्छिद्र, कल्याणदायिनी, अखण्डित, निश्चित रूप से आगे ले जानेवाली, विधिविधानरूप सुन्दर चप्पुओं वाली, निर्दोष, न चूनेवाली नौका है जो सदा यजमान की रक्षा ही करती है। आयुर्यज्ञेन कल्पतां, प्राणो यज्ञेन कल्पतां, चक्षुर्यज्ञेन कल्पतां, श्रोत्रंयज्ञेन कल्पतां, वाग् यज्ञेन कल्पतां, मनो यज्ञेन कल्पतामात्मा यज्ञेन कल्पताम्।। -यजु० १८/२९ अग्निहोत्र-रूप यज्ञ से आयु बढ़ती है, प्राण सबल होता है, चक्षु सशक्त होती है, श्रोत्र और वाणी सामर्थ्ययुक्त होते हैं, मन और आत्मा बलवान् बनते हैं। ऋग्वेद में कहा है- सो अग्ने धत्ते सुवीर्यं स पुष्यति अर्थात् जो अग्निहोत्र करता है उसे सुवीर्य प्राप्त होता है, वह पुष्ट होता है -ऋ० ३/१०/३। 5. आंधी, वर्षा और सूर्य द्वारा पर्यावरण-शोधन प्राकृतिक रूप से आंधी, वर्षा और सूर्य द्वारा कुछ अंशों में स्वतः प्रदूषण-निवारण होता रहता है। वातस्य नु महिमानं रथस्य रुजन्नेति स्तनयन्नस्य घोष:। दिविस्पृग् यात्यरुणानि कृण्वन्नुतो एति पृथिव्या रेणुमस्यन्।। -ऋ० १०/१६८/१ वायु-रथ की महिमा को देखो। यह बाधाओं को तोड़ता-फोड़ता हुआ चला आ रहा है। कैसा गरजता हुआ इसका घोष है! आकाश को छूता हुआ, दिक्प्रांतों को लाल करता हुआ, भूमि की धूल को उड़ाता हुआ वेग से जा रहा है। मानसून पवन रूप मरुत् मेह बरसाते हैं - वपन्ति मरुतो मिहम् -ऋ० ८/७/४। ये वर्षा द्वारा प्रदूषण को दूर करते हैं। आ पर्जन्यस्य वृष्ट्योदस्थामामृता वयम्। व्यहं सर्वेण पाप्मना वि यक्ष्मेण समायुषा।। -अथर्व० ३/३१/१ बदल की वृष्टि से हम उत्कृष्ट स्थिति को पा लेते हैं, सब पेड़-पौधे, पर्वत, भूप्रदेश धुलकर स्वच्छ हो जाते हैं, रोग दूर हो जाते हैं, प्राणियों की आयु लम्बी हो जाती है। उभाम्यां देव सवित: पवित्रेण सवेन च। मां पुनीहि विश्वत:।। -यजु० १९/४३ प्रकृति में सूर्य भी प्रदूषण का निवारक है। वह अपने रश्मिजाल से तथा अपने द्वारा की जानेवाली वर्षा से पवित्रता प्रदान करता है। येन सूर्य ज्योतिषा बाधसे तमो जगच्च विश्वमुदियर्षि भानुना। तेनास्मद् विश्वामनिरामनाहुतिमपामीवामप दुष्वप्न्यं सुव।। -ऋ० १०/३७/४ सूर्य अपनी ज्योति से अन्धकार को बांधता है, समस्त अन्नाभाव को, अन्नाहुति को, रोग को और दुःस्वप्न को दूर करता है। वेद में कहा है "सा घा नो देवः सविता साविषदमृतानि भूरि अर्थात् सूर्य अमृत बरसाता है -अथर्व० ६/१/३", "सूर्य यत् ते तपस्तेन तं प्रति तप। योऽस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्म: अर्थात् हे सूर्य, जो तेरा ताप है उससे तू उसे तपा डाल जो हमसे द्वेष करता है और जिससे हम द्वेष करते हैं -अथर्व० २/२१/१"। अंत में उपसंहार-रूप में हम कह सकते हैं कि वायु, जल, भूमि, आकाश, अन्न आदि पर्यावरण के सभी पदार्थों की शुद्धि के लिए वेद भगवन् हमें जागरूक करते हैं तथा आई हुई अस्वच्छता को दूर करने का आदेश देते हैं। पर्यावरण की शुद्धि के लिए वेद भगवन् वनस्पति उगाना, अग्निहोत्र करना, विद्युत, अग्नि, सूर्य एवं ओषधियों का उपयोग करना आदि उपायों को सुझाते हैं। ।।आओ लौटें वेदों की ओर।।
ईश्वर स्तुति प्रार्थना उपासना मंत्र व भावार्थ (?vedic vichar)
06-06-2022
१. ओ३म् विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव। यद् भद्रं तन्न आसुव।। यजुर्वेद-३०.३ तू सर्वेश सकल सुखदाता शुद्धस्वरूप विधाता है। उसके कष्ट नष्ट हो जाते शरण तेरी जो आता है।। सारे दुर्गुण दुर्व्यसनों से हमको नाथ बचा लीजै। मंगलमय गुण कर्म पदार्थ प्रेम सिन्धु हमको दीजै २.ओ३म् हिरण्यगर्भः समवर्त्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत्। स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम।। यजुर्वेद-१३.४ तू स्वयं प्रकाशक सुचेतन, सुखस्वरूप त्राता है सूर्य चन्द्र लोकादिक को तो तू रचता और टिकाता है।। पहिले था अब भी तू ही है घट-घट में व्यापक स्वामी। योग, भक्ति, तप द्वारा तुझको, पावें हम अन्तर्यामी।। ३.ओ३म् य आत्मदा बलदा यस्य विश्व उपासते प्रशिषं यस्य देवाः। यस्यच्छायामृतं यस्य मृत्युः कस्मै देवाय हविषा विधेम।। यजुर्वेद-२५.१३ तू आत्मज्ञान बल दाता, सुयश विज्ञजन गाते हैं। तेरी चरण-शरण में आकर, भवसागर तर जाते हैं।। तुझको जपना ही जीवन है, मरण तुझे विसराने में। मेरी सारी शक्ति लगे प्रभु, तुझसे लगन लगाने में।। ४. ओ३म् यः प्राणतो निमिषतो महित्वैक इद्राजा जगतो बभूव। य ईशेsअस्य द्विपदश्चतुश्पदः कस्मै देवाय हविषा विधेम।। यजुर्वेद-२६.३ तूने अपनी अनुपम माया से जग ज्योति जगाई है। मनुज और पशुओं को रचकर निज महिमा प्रगटाई है।। अपने हृदय सिंहासन पर श्रद्धा से तुझे बिठाते हैं। भक्ति भाव की भेंटें लेकर शरण तुम्हारी आते हैं।। ५.ओ३म् येन द्यौरुग्रा पृथिवी च दृढा येन स्वः स्तभितं येन नाकः।। योsअन्तरिक्षे रजसो विमानः कस्मै देवाय हविषा विधेम।। यजुर्वेद -३२.६ तारे रवि चन्द्रादि रचकर निज प्रकाश चमकाया है धरणी को धारण कर तूने कौशल अलख जगाया है।। तू ही विश्व-विधाता पोषक, तेरा ही हम ध्यान धरें। शुद्ध भाव से भगवन् तेरे भजनामृत का पान करें।। ६.ओ३म् प्रजापते न त्वदेतान्यन्यो विश्वा जातानि परिता बभूव। यत्कामास्ते जुहुमस्तन्नोsअस्तु वयं स्याम पतयो रयीणाम्।। ऋग्वेद-१०.१२१.१० तूझसे बडा न कोई जग में, सबमें तू ही समाया है। जड चेतन सब तेरी रचना, तुझमें आश्रय पाया है।। हे सर्वोपरि विभो! विश्व का तूने साज सजाया है। शक्ति भक्ति भरपूर दूजिए यही भक्त को भाया है ७.ओ३म् स नो बन्धुर्जनिता स विधाता धामानि वेद भुवनानि विश्वा। यत्र देवा अमृतमानशानास्तृतीये धामन्नध्यैरयन्त।। यजुर्वेद-३२.१० तू गुरु प्रजेश भी तू है, पाप-पुण्य फलदाता है। तू ही सखा बन्धु मम तू ही, तुझसे ही सब नाता है।। भक्तों को इस भव-बन्धन से, तू ही मुक्त कराता है तू है अज अद्वैत महाप्रभु सर्वकाल का ज्ञाता है।। ८. ओ३म् अग्ने नय सुपथा राये अस्मान् विश्वानि देव वयुनानि विद्वान्। युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठान्ते नम उक्तिं विधेम ।। यजुर्वेद -४०.१६ तू स्वयं प्रकाश रूप प्रभो सबका सिरजनहार तू ही रसना निश दिन रटे तुम्हीं को, मन में बसना सदा तू ही।।कुटिल पाप से हमें बचाते रहना हरदम दयानिधान । अपने भक्त जनों को भगवन, दिजे यही विशद वरदान ।।
Environmental Ethos In Vedic Times (vedic vichar)
06-06-2022
Published on the occasion of World Enviornment Day. Kamla Nath Sharma Today , the natural resources of the earth are being mindlessly exploited globally far beyond need, resulting in a poor state of their regeneration and causing irreversible damage to the planet.This year's World Environment Day theme `Seven billion dreams. One planet. Consume with care' therefore, is highly relevant. Starting from space, a Vedic mantra, `prithivy apah tejah vayuh akashat' depicts sequential primal appearance of the five basic gross substances, called `panch mahabhuta' namely , space, air, fire or energy , water and earth from which all universal matter is created. Water has enjoyed the highest social and religious status in ancient Indic culture.Prayers in all four main Vedas refer to water as nectar, honey , source of life, protector of earth and environment, cleanser of sins, generator of prosperity , and ambrosia.Sages in Yajur Veda pray thus, “O Water, thou art the reservoir of welfare and propriety , sustain us to become strong. We look up to thee to be blessed by thy kind ambrosia on this earth. O water, we approach thee to get rid of our sins.“ Rivers were considered divine and worshipped as goddesses and people were ordained to use their life-sustaining waters most judiciously and with greatest reverence. Today , we have lost sight of the fact that the resources are finite. Of all of earth's water, only 0.007% is accessible for human use.Today , globally more than 1.1 billion people have inadequate availability of water. In Vedic cosmology, Prithvi or earth symbolises material base as mother and the Dyaus, upper sky or heaven, symbolises the unmanifested immortal source as father, which together and between them, provide paryav aran, the environment. An Atharva Veda hymn says, “Mata bhoomih putroham prithivyaah,“ reminding us of our responsibility not only towards our motherland but also to Planet Earth. The mantra refers to earth differently as `bhoomi' and `prithvi' implying that while my motherland is my mother, i am also a child of Planet Earth. The Yajur Veda addresses Prithvi as a guardian, praised for being benevolent to humankind, and is prayed to for continued protection: “O Earth! Fill up your broad heart with the vital healing air, waters and flora. May the benevolent lifegiving air circulate for a bountiful Earth.“ Another prayer says, “Pleasant be you to us, O Earth, without a thorn be our habitation.May your development grant us bliss and sustenance.“ In hymns of the Rig Veda, seers seek blessings of the sun and wish every part of the earth to be prosperous and mountains, waters, and rivers to be propi tious. The importance of vital healing air, fresh unpolluted waters and healthy flora on earth was recognised and wished for in the hymns of the Atharva Veda. Nature and its seasons are governed cosmic laws of integration and balance, called `Rit' in the vedas. Keeping an eye on Rit, human activities can be directed to global sustainable development.A hymn of the Yajur Veda says, “O learned people, fully realise your conduct towards different objects of the universe.“ But, in today's world we are misusing scientific and technological breakthroughs to indiscreetly and greedily exploit natural resources, thereby causing imbalances that make it difficult to maintain natural harmony . Ancient Indic philosophy always wished for everyone to be happy and free from ailments, “Sarve bhavantu sukhinah, sarve santu niraamayaah“ Let everyone be well and happy and pleaded for an all-inclusive holistic development on the planet for harmony , “Saa no bhoomirvardhayad vardhamaanaa“ as in the `Bhumi Sukta' of Atharva Veda. (The writer is chairman, Aqua Wisdom and was formerly secretary , International Commission on Irrigation and Drainage (ICID), New Delhi)
सन्ध्या (vedic vichar)
06-06-2022
स्नान के पश्चात् सन्ध्या करके प्रभु का चिन्तन करना भी मनुष्य को अपनी दिनचर्या का एक मुख्य अंग बना लेना चाहिए। प्रभु–भक्ति आत्मिक भोजन तो है ही, किन्तु इससे शरीर भी स्वस्थ, बलवान् और निरोग बनता है। उस सर्वशक्तिमान ईश्वर का एकाग्र चित्त होकर चिन्तन करने से साधक को शारीरिक, मानसिक तथा आत्मिक–शक्ति प्राप्त होगी, इसमें कुछ भी संदेह नहीं। ईश्वर–भक्ति के द्वारा जो मनुष्य को एक अलौकिक आनन्द और अद्भुत शक्ति प्राप्त होती है, उसका शरीर के ऊपर भी बहुत गहरा असर पड़ता है। शरीर की सब धातुओं उपधातुओं की विषमता दूर होकर उसमें समता व शक्ति का संचार होता है। संत महात्मा तथा योगी जनों के स्वस्थ, बलवान् और दीर्घजीवी होने का ईश्वर भक्ति ही एक मुख्य कारण है। महाभारत में लिखा है– 'ऋषयः दीर्घसन्ध्यत्वाद् दीर्घमायुरवाप्नुयुः।' अर्थात् ऋषियों ने दीर्घकाल तक सन्ध्या अर्थात् ईश्वर भक्ति करने से ही दीर्घ (लम्बी) आयु को प्राप्त किया है। महर्षि मनु ने कहा है– ऋषयो दीर्घ सन्ध्यत्वाद् दीर्घमायुरवाप्नुयुः। प्रज्ञां यशश्च कीर्तिं च ब्रह्यवर्चसमेव च।। ―(मनु० 9/94) भावार्थ―ऋषियों ने दीर्घ जप करके अर्थात् लम्बे समय तक सन्ध्या की, उसी के अनुसार दीर्घायु प्राप्त की, बुद्धि और यश प्राप्त किया और मरने के पश्चात् अमर कीर्ति प्राप्त की, और दीर्घकालीन जप से ब्रह्मतेज भी प्राप्त किया। गायत्री के जप करने का स्थान अपां समापे नियतो नैत्यिकं विधिमास्थितः। सावित्रीमप्यधीयीत गत्वाऽरण्यं समाहितः।। भावार्थ-जङ्गल में अर्थात् एकान्त देश में सावधान होकर जल के समीप स्थित होकर नित्यकर्म को करता हुआ सावित्री अर्थात् गायत्री मन्त्र का उच्चारण, अर्थज्ञान और उसके अनुसार अपने चाल चलन को करे, परन्तु यह जप मन से करना उत्तम है। ओ३म् का स्मरण ओं क्रतो स्मर (यजु० 40/15) अर्थात्―हे जीव! तू ओ३म् का स्मरण कर।
भारतीय शिक्षा का सर्वनाश (vedic vichar)
04-06-2022
अंग्रेजों के भारत आने से पूर्व योरूप के किसी भी देश में इतना शिक्षा का प्रचार नहीं था जितना कि भारत वर्ष में था। भारत विद्या का भण्डार था। सार्वजनिक शिक्षा की दृष्टि से भारत सब देशों का शिरोमणि था। उस समय असंख्य ब्राह्मण प्राचार्य अपने - अपने कुल में शिष्यों को शिक्षा देते थे। मुख्य - मुख्य नगरों में विद्यापीठे स्थापित थीं। छोटे बालकों की शिक्षा के लिए प्रत्येक ग्राम में पाठशालायें थीं , जिनका संचालन पंचायतों की ओर से किया जाता था। इङ्गलिस्तान पालियामेंट के सदस्य केर हार्डी ने अपनी पुस्तक ' इण्डिया ' में लिखा है " मैक्समूलर ने , सरकारी उल्लेखों और मिशनरी की रिपोर्ट के आधार पर जो बंगाल पर कब्जा होने से पूर्व वहाँ की शिक्षा की अवस्था के सम्बन्ध में लिखी गई थी , लिखा कि उस समय बंगाल में ८० हजार पाठशालाएं थीं। " सन् १८२३ ई ० की ' कम्पनी ' की एक सरकारी रिपोर्ट में लिखा है- " शिक्षा की दृष्टि से संसार के किसी भी अन्य देश में किसानों की अवस्था इतनी ऊची नहीं है जितनी ब्रिटिश भारत के अनेक भागों में। " भारत के जिस - जिस प्रान्त में ' कम्पनी ' का राज्य स्थापित होता गया उस उस प्रान्त में सहस्रों वर्ष पुरानी शिक्षा प्रणाली सदा के लिए मिटती चली गई। ग्राम पंचायतों और देशी रियासतों के साथ साथ पाठशालाओं का भो लोप होता गया। क्योंकि ग्राम पंचायतें पाठशालाओं का प्रबन्ध करना अपना कर्तव्य समझती थीं और देशी रियासतों के राजाओं की आय का बहुत बड़ा भाग शिक्षा प्रचारार्थ पाठशालाओं को दिया जाता था। यह सहायता मासिक और वार्षिक बंधी हुई थी। हमारे प्राचीन इतिहास और साहित्य को नष्ट कर उसके स्थान में मिथ्या इतिहास लिखवाकर भारतीय स्कूलों में पढ़ाना प्रारम्भ किया गया , सखेद लिखना पड़ता है कि वही मिथ्या इतिहास स्व तन्त्र भारत में आज भी पढ़ाया जा रहा है। सम् १७५७ से लेकर १८५७ तक निरन्तर एक शताब्दी तक यह विवाद रहा कि भारतीयों को शिक्षा देना अंग्रेजों की राज्य सत्ता के लिए हितकर है या अहितकर। प्रारम्भ में प्रायः सभी अंग्रेज शासक भारतीयों को शिक्षा देने के कट्टर विरोधी थे। जे० सी० मार्शमैन ने १५ जून १८५३ ई ० को पालियामेंट की सिलेक्ट कमेटी के सन्मुख साक्षी देते हुए कहा था। " भारत में अंग्रेजी राज्य के कायम होने के बहुत दिन बाद तक भारतवासियों को किसी प्रकार को भी शिक्षा देने का प्रबल विरोध किया जाता रहा। " भारतीयों में शिक्षा का ह्रास हो गया। अंग्रेज शासकों को सरकारी विभागों में हिन्दुस्तानी कर्मचारियों की आवश्यकता अनुभव हुई , क्योंकि इनके बिना उनका काय चल सकना सर्वथा असम्भव था। १८ वीं शताब्दी के अन्त में अंग्रेज शासकों के विचारों में परिवर्तन हुआ। उन्होंने अपनी आवश्यकता पूर्ति के लिए ऐसी शिक्षा प्रणाली प्रचलित की जिससे लेखक ( कलर्क ) तैयार किये जा सके। डायरेक्टरो ने ५ सितम्बर , १८२७ के पत्र में गवर्नर जनरल को लिखा कि इस शिक्षा का धन “ उच्च और मध्यम श्रेणी के उन भारतवासियों पर व्यय किया जाये , जिनमें से कि आपको अपने शासन के कार्यों के लिए सबसे अधिक योग्य देशी एजेन्ट मिल सकते हैं और जिनका अपने देश वासियों के ऊपर सबसे अधिक प्रभाव है। इस प्रकार अंग्रेजों ने भारत की प्राचीन शिक्षा प्रणाली को नष्ट कर दिया। जिससे भारत में विद्वानों का अभाव होता गया और क्लर्कों की वृद्धि होती गईं। क्योंकि शिक्षित भारतीयों से अंग्रेज बहुत डरते थे। अंग्रेजों का अतीत काल इतना प्रभावशाली न था जितना भारतीयों का। भारत वासियों को ज्यों - ज्यों ब्रिटिश भारतीय इतिहास के आन्तरिक वृत्तान्त का ज्ञान होता है , त्यों - त्यों उनके चित्त में यह विचार उत्पन्न होता है कि भारत जैसे विशाल देश पर मुट्ठी भर विदेशियों का आधिपत्य होना बड़ा भारी अन्याय है। अत एव उनकी इच्छा हो जाती है कि वे अपने देश को इस विदेशी शासन से स्वतन्त्र कराने में सहायक हों। यह मैं ही नहीं लिख रहा अपितु एक अनुभवी अंग्रेज मेजर रालेण्डसन जो वहां की शिक्षा - कमेटी का मन्त्री भी रह चुका है , उसने ४ अगस्त १८५३ ई० में पार्लियामेंट कमेटी के सम्मुख ऐसी सम्मति प्रकट की थी। इसीलिए अंग्रेजों ने हमारे इतिहास , साहित्य और शिक्षा प्रणाली का सर्वनाश कर डाला। लेखक :- स्वामी ओमानन्द सरस्वती गुरुकुल झज्जर
Vedic vichar
04-06-2022
यन्मे छिद्रं चक्षुषो हृदयस्य मनसो वातितृण्णं बृहस्पतिर्मे तद्दधातु । शन्नो भवतु भुवनस्य यस्पतिः ।। यजुर्वेद ३६/२ भावार्थ - हे जीवन दाता ! मैंने गीता , रामायण , दर्शन , उपनिषद् , वेद आदि ग्रन्थों को पढ़ा , किन्तु मन की पुस्तक को तो कभी खोलकर देखा ही नहीं । मन में उठने वाली अनिष्ट पापवृत्तियों की ओर तो मैंने कभी दृष्टि ही नहीं डाली । अन्तःकरण में कितने बुरे-बुरे विचार उत्पन्न होते हैं । इनकी पूरी गणना कभी की ही नहीं । हे देव ! मैं न देखने योग्य को देखता हूँ , न सुनने योग्य को सुनता हूँ , न खाने योग्य को खाता हूँ , न भोगने योग्य को भोगता हूँ , न विचारने योग्य को विचारता हूँ । न जाने इस जीवन में कितने घण्टे , कितने दिन , कितने सप्ताह , कितने वर्ष तक इन क्लिष्ट वृत्तियों को उठाता रहा हूँ । न जाने कितना पाप संग्रह कर लिया है । जब इन सबका आंकलन कर रहा हूँ तो शरीर काँप उठता है , मन घबराने लगता है और मेरी आत्मा अशान्त हो जाती है । शान्त एकान्त स्थान में आँखें बन्द करके अन्तःकरण में झाँकता हूँ तो पापों की गठड़ियाँ भरी हुई प्रतीत होती हैं । इन पापवृत्तियों ने कुसंस्कारों के चट्टानों की कितनी ऊँची तह जमा दी है और ये चट्टानें इतनी सुदृढ़ हो गयी हैं कि सामान्य सत्संग , उपदेश , स्वाध्याय , आत्मचिन्तन व निदिध्यासन से किञ्चित् मात्र भी उखड़ती हुई प्रतीत नहीं होती हैं । हे जीवन के स्वामी प्रभुदेव ! इन अविद्या , अनीति , कुसंस्कारों के पहाड़ों व चट्टानों को बनाने वाला मैं ही हूँ । मैंने ही इन संस्कारों की प्रवृद्धि की , इनको पाला-पोषा है , इनकी रक्षा की है । इनसे अधर्म , अन्याय , अत्याचार करता रहा हूँ और सतत् जीवन में भय , चिन्ता , असन्तोष , बन्धन , दुःखों की अनुभूति करता रहा हूँ । किन्तु अब मैं इस कुप्रवृत्तियों वाले जीवन से ऊब गया हूँ । प्रभो ! अब सच्ची श्रद्धा , आस्था , विश्वास के साथ आपकी शरण में आया हूँ । आज से मैं सर्वात्मा समर्पण करता हूँ और गद्-गद् होकर आपसे विनती करता हूँ कि बुरा देखने , बुरा सुनने , बुरा विचारने की जो विषैली पापवृत्तियाँ हैं उनको समाप्त कर दो । जब मैं एकान्त में जाकर आत्मनिरीक्षण करता हूँ तो पाता हूँ कि कैसे मैं मूढ़ , छल , कपट का आश्रय लेकर अपने स्वार्थ के लिए औरों को छलता रहा हूँ , उन्हें धोखा देता रहा हूँ । जो मुझे अपना हितैषी मानते हैं , मुझे भला व्यक्ति समझते हैं , अपना आत्मीय मानते हैं , सच्चा मित्र , भाई , सहयोगी , पवित्र , श्रेष्ठ , सज्जन , परोपकारी मानते हैं , उन्हीं को मैं धोखा देता रहा हूँ । प्रभो ! मैं अन्दर से ऐसा नहीं हूँ जैसा लोग मानते हैं , समझते हैं । मैं तो उनके विचारों , मान्यताओं से विपरीत बुरा हूँ , स्वार्थी हूँ , ढोंगी हूँ , पाखण्डी हूँ , बहरुपिया हूँ । हे अन्तर्यामी ! आप तो जानते ही हैं कि मैं इन सब को धोखा देता आया हूँ । आपसे क्या छिपा हुआ है । किन्तु अब मैं इन सब दुष्ट प्रवृत्तियों और अनिष्ट कुवासनाओं के परिणामों , प्रभावों व फलों का अनुमान लगाकर सिहर जाता हूँ । अब इन समस्त चेष्टाओं को एकदम समाप्त करना चाहता हूँ । इनके उद्गम कारणों को समूल उखाड़ देना चाहता हूँ । हे महान् ! गुणधर्म स्वभाव के सागर ! हे जगत् पिता ! आपसे विनम्र प्रार्थना है कि नेत्र , श्रोत्र , मन , वाणी , हस्त , पाद , उपस्थ आदि समस्त ज्ञानेन्द्रियों व कर्मेन्द्रियों की कुप्रवृत्तियों को अवरुद्ध करने का साहस बल , परिश्रम मेरे में उत्पन्न कर दो । कोई भी विचार , वाणी , कर्म की वृत्ति अशुभ न हो , अहितकर न हो । यह सब आपकी सहायता के बिना असम्भव है । अतः आपसे प्रार्थना है कि तत्काल इतना ज्ञान-विज्ञान , बल साहस , पराक्रम मुझे प्रदान करें कि मैं इन न्यूनताओं , दोषों , त्रुटियों , पाप वासनाओं को समाप्त कर दूँ और पवित्र बनाकर आपके दर्शन के पात्र बन जाऊँ । यही आपसे विनम्र प्रार्थना है । इसे आप अपनी कृपा से ही शीघ्र पुरी करो । भावार्थकर्ता -- आचार्य ज्ञानेश्वरार्य ** स्रोत -- वेद प्रार्थना प्रकाशक -- वानप्रस्थ साधक आश्रम प्रस्तुतकर्ता -- सुनीत
QUOTES FROM SATYARTH PRAKASH (vedic vichar)
04-06-2022
ON VEDAS: “They were made known to them (Rishis) by God, and whenever great Sages, who were yogis, imbued with piety, and with the desire to understand the meanings of certain mantras and whose minds possessed the power of perfect concentration, entered the superior condition, called Samaadhi, in contemplation of Deity. He made known unto them the meanings of the desired mantras. When the Vedas were thus revealed to many Rishis, they made expositions with historical illustrations of the Vedic mantras and embodied them in” – p. 239 ON MOKSHA: “Virtuous acts, the worship of one true God and correct knowledge lead to Emancipation, whilst an immoral life, the worship of idols (or other things or persons in place of God), and false knowledge are the cause of the Bondage of the soul. No man can ever, for a single moment be, free from actions, thoughts and knowledge. Performance or righteous acts, as truthfulness in speech, and the renunciation of sinful acts, as untruthfulness, alone are the means of Salvation.” – p. 274 “It is the voice of the Omniscient Divine spirit – the Inward Controller of all from within. Verily he alone who follows this voice and acts accordingly – enjoys the bliss of Emancipation. Whosoever goes against the dictates of this voice suffers from misery and pain – the result of bondage.” – p.290 ON STATE OF MOKSHA: “The emancipated soul roams about in the Infinite all-pervading God as it desires, sees all nature through pure knowledge, meets other emancipated souls, sees all the laws, of nature in operation, goes about in all the worlds visible and invisible, sees all objects that it comes across, the more its knowledge increases the happier it feels. Being altogether pure, the soul acquires perfect knowledge of all hidden things in the state of Emancipation. This extreme bliss alone is called Heaven (swarga), while pursuit of worldly desires and consequent pain and suffering are called Hell (naraka). Swarga literally means happiness. The ordinary happiness id called worldly happiness. Whilst the extreme happiness born of the realization of God is called Extraordinary happiness or Heaven (Swarga).” –p. 301-302 ON DEATH: “The separation of the soul from the body is called death, whist its union with the body is called birth. When the soul leaves the body, it lives in the atmosphere (yama), because it is said in the Veda, “Yama*, is another name for air.” Thereafter the Great Judge – God – embodies that soul according to the nature of its deeds done in the previous life. Guided by God it enters the body of some living creature with air, water, food, drink or through any one of the openings of the body. Having entered it, it gradually reaches the reproductive element, the thereby establishes itself in the womb, and is thus invested with a body and eventually born. It is clothed with a male or a female body, just as it merits a male or a female one; whilst a hermaphrodite is formed by the union of the male and the female reproductive elements in equal proportions at the same time of conception. The soul is continually chained down to this wheel of births and deaths till by the practice of the highest virtue and complete absorption into Divine contemplation and the acquisition of the highest knowledge it obtains Emancipation. By the practice of deeds of the highest virtue, etc., it is born as a good and great personage among men; and being freed from births and deaths and the consequent pain and suffering, it enjoys perfect bliss in Emancipation till the end of the Grand-Dissolution.” – p. 300 *Yama. Hindus consider Yama the god of death. ON UPASANA: “When a man desires to engage in Upaasanaa (communion), let him resort to a solitary, clean place and get comfortably seated, practise Praanaayaama (control of breath) restrain the senses from the pursuit of outward objects, fix his mind on one of the following places:- the navel, the heart, the throat, eyes, the top of the head or the spine. Let him, then, discriminate between his own soul and the Supreme Spirit, get absorbed in contemplation of the latter and commune with Him. When a man follows these practices his mind as well as the soul becomes pure and imbued with righteousness. His knowledge and wisdom advance day by day till he obtains salvation. He who contemplated the Deity in this way for even one hour out of the twenty-four hours always continues to advance spiritually.” – p.215 ON IMAGES AND WORSHIP: “If you believe Him to Omnipresent, why do you pluck flowers from the garden and offer them to the idol, make a thin paste of Sandal wood and apply this to it, burn incense, beat drums and cymbals, and blow trumpets before it? He pervades your hands why do you then stand before it with folded palms? He is in your head why should you then prostrate yourself before the image? He is in food and drinks, why should you then offer them to it? He is in water, why, should you the bathe it? God pervades all these things. What do you worship, the pervader or the pervaded? If the former, why do you then offer flowers, etc., to images made of stone or wood? If the latter, why do you then lay a false claim to the worship of God? Why don’t you say that you worship stalks and stones etc., which is the bare truth? Now tell us, whether your faith is always right or not?” – p. 373-374
'आर्य सन्यासी स्वामी वेदानन्द का काशी में पादरी से नोक झौंक का प्रसंग’ (vedic vichar)
03-06-2022
स्वामी वेदानन्द तीर्थ ऋषि दयानन्द के प्रमुख भक्तों में से एक थे। आपने स्वाध्याय सन्दोह एवं स्वाध्याय सन्दीप आदि उच्च कोटि के ग्रन्थों की रचना की है। काशी में उनके साथ घटी प्रेरक घटना प्रस्तुत कर रहे है जिसे स्वामी जी के शिष्य और जीवनी लेखक पं. सत्यानन्द शास्त्री जी ने उनकी ‘जीवन झांकियां’ के अंक 2 में प्रस्तुत किया है। पं. सत्यानन्द शास्त्री जी लिखते हैं कि ‘‘डेढ़ सौ वर्ष पहले की बात है। विद्वानों की नगरी काशी में साहित्य शिरोमणि पण्डित नीलकण्ठ शास्त्री निवास करते थे। विद्वन्मण्डली में उनकी बड़ी प्रतिष्ठा थी। लोग भी उन्हें संस्कृत साहित्य का पारंगत पण्डित मानते थे। एक दिन पण्डित नीलकण्ठ शास्त्री तीव्र गति से अपनी पीठिका की ओर जा रहे थे। रास्ते में उन्हें एक परिचित भंगी और उसकी पत्नी सड़क की सफाई करते हुए दिखाई पड़े। उनका नन्हा बच्चा पास खड़ा चीखोपुकार कर रहा था। थोड़ी देर बाद वहां भगदड़ मच गई। एक इक्के का घोड़ा काबू से बाहर हो बेतहाशा दौड़ने लगा। इक्केवाले ने शोर मचाया--‘बचो-बचो, घोड़ा काबू से बाहर हो गया है’। सहमे हुए लोग रास्ता छोड़ सड़क के किनारे हो गए। काबू से बाहर हुआ घोड़ा सरपट दौड़ता आगे ही आगे बढ़ा चला जा रहा था। इक्केवाला बागें खैंच रोकने की सरतोड़ कोशिश कर रहा था। घोड़ा रुकता ही न था, दौड़ता ही चला आ रहा था। भंगी का नन्हा मासूम बच्चा भी मां-बाप को पास न पा रोता हुआ सरकता सरकता उस समय सड़क के ऐन बीच आ खड़ा हुआ। पास से गुजर रहे पण्डित नीलकण्ठ शास्त्री को लगा कि बच्चा घोड़े के पैरों तले कुचला जायेगा। उनके मन में दया आई। आगे बढ़कर उन्होंने बच्चे को उठाना चाहा, किन्तु अन्त्यज भंगी के बच्चे को छूने से धर्म भ्रष्ट होने के भय से हिचकिचा पीछे हट गए। उनके मन में पुनः दया ने जोर मारा। वह कभी बच्चे को उठाने के लिए आगे बढ़ते और फिर पातक लग जाने के डर से घबराकर पीछे हट जाते। धर्मसंकट में पड़ी बुद्धि निश्चय न कर पा रही थी। इतने में काबू से बाहर हुआ सरपट दौड़ता घोड़ा बच्चे के बिल्कुल समीप आ पहुंचा। दयाभाव से प्रेरित पण्डित नीलकण्ठ शास्त्री बच्चे को उठाऊं या न उठाऊं, इस द्विविधा में अभी भी उलझे हुए थे। इससे पहले कि घोड़ा आगे बढ़ कर बच्चे को पैरों तले रौंद देता, सड़क की दूसरी ओर से दयाद्रवित एक पादरी आगे बढ़ा। झपटा मार उसने बच्चे को अपनी ओर खैंच लिया। बच्चा और भी अधिक चीख पुकार करने लगा। घोड़ा तांगा आनन-फानन उनके सामने से होकर गुजर गया। बच्चे को सही सलामत देख पण्डित नीलकण्ठ शास्त्री बहुत प्रसन्न हुए। किन्तु उनकी यह प्रसन्नता अधिक समय तक स्थिर न रहे सकी। शीघ्र ही उन्हें आत्मग्लानि ने आ दबाया। उन्हें लगा कि वह अपना कर्तव्य निभा नही पाए। बच्चे को बचाने के लिए बार-बार मन में उठी सच्ची धर्मभावना को अपनी झूठी धर्मभीरुता के कारण तिरस्कृत कर उन्हेांने घोर पाप किया है। पश्चाताप के कारण रात भर उन्हें नींद नहीं आई। इसी उधेड़-बुन में वह सारी रात लगे रहे कि इस पाप का कैसे प्रायश्चित किया जाये। सवेरा होते ही वह र्बिस्तर से उठे। नहा-धो सीधे गिरजाघर पहुंचे और वहां पादरी से बपतस्मा ले ईसाई बन गए। दिल में बैठे पाप-ताप से छुटकारा पाने के लिए उन्होंने जो पहला काम किया वह सुललित सुबोध संस्कृत में पवित्र बाइबल का अनुवाद था। पण्डित नीलकण्ठ शास्त्री द्वारा अनुदित बाइबल का यह संस्कृत संस्करण जब छपकर दुनियां के सामने आया तो आधुनिक संस्कृत साहित्य की उत्कृष्टतम कृति के रूप में सर्वत्र इसका अभिनन्दन हुआ। आज भी ईसाई लोग इस संस्कृत बाइबल की प्रतियां संस्कृतज्ञों तक पहुंचाना अपना धार्मिक कर्तव्य मानते हैं। उपर्युक्त घटना के सौ वर्ष बाद एक दिन अपने धार्मिक कर्तव्य को निभाने की मंशा से एक पादरी साहित्य शिरोमणि पण्डित देवी प्रसाद शुक्ल की पीठिका पर आया। उसके पास झोले में पण्डित नीलकण्ठ शास्त्री द्वारा अनुदित ‘संस्कृत बाइबल’ की कुछ प्रतियां थी। वह ‘संस्कृत बाइबल’ की एक प्रति शुक्ल जी को भेंट कर पुण्यार्जन करना चाहता था। दैवयोग से स्वामी दयानन्द तीर्थ (स्वामी वेदानन्द तीर्थ जी) भी प्रवत्र्तमान पाठों को श्रवण करने के उद्देश्य से कुछ क्षण पहले वहां पहुंचे थे। ‘संस्कृत बाइबल’ भेंट करते समय बातचीत के दौरान इस पादरी के मुख से योगिराज कृष्ण के संबंध में अनायास कुछ ऐसे शब्द निकल गए जो शुक्ल जी को अप्रिय लगे। इन शब्दों को सुन पास खडे़ स्वामी वेदानन्द तीर्थ जी को क्रोध आ गया। आग बबूला हो वह कड़ककर बोले--‘‘पादरी महोदय श्री कृष्ण जी की शान में ऐसी हल्की बात तुम्हें नहीं करनी चाहिए। पाश्चात्य लोगों का अनुकरण करने वाले तुम ईसाई लोग भगवान कृष्ण की महिमा को क्या जानो? कृष्ण भगवान् कितने ऊंचे इंसान थे, कान खोलकर सुनो। महाराज युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ के आरम्भ में जब प्रश्न उठा कि सर्वश्रेष्ठ और सर्वपूज्य व्यक्ति कौन है जिसे अर्घ दिया जाये, पता है कुरु-कुल-श्रेष्ठ भीष्म पितामह ने उस समय क्या कहा था? पितामह की दो टूक राय थी-‘‘निश्चय ही श्री कृष्ण जी दान, दक्षता, शास्त्रज्ञान, शूरता, शालीनता कीर्ति, बुद्धि, विनम्रता, शोभा, धैर्य, सन्तोष और शारीरिक बल में संसार भर के पुरुषों में सबसे बढ़कर हैं। कौन है जो उनकी बराबरी कर सके? अतः उनसे बढ़कर इस सत्कार के योग्य और कोई दूसरा है ही नहीं।” ऐसे सिरमौर महापुरुष की शान में गुस्ताखी से पेश आते समय तुम्हें शर्म आनी चाहिए।” स्वामी जी द्वारा की गई कड़ी आलोचना का उत्तर देने के लिए पादरी ने मुंह खोल कहना आरम्भ किया - ‘‘स्वामी साहिब क्या कृष्ण जी द्वारा युवा गोपियों के साथ रासलीला रचाना तुम ठीक समझते हो और ................।” पादरी अपना वाक्य अभी पूरा भी न कर पाया था कि स्वामी जी उसे घूरते हुए तमककर पुनः बोले--‘‘अरे छाज तो बोले छालनी भी क्या बोले जिसमें नौ सौ छेद? तनिक बताओ तो सही, आज के वैज्ञानिक युग में तुम्हारे धर्म के अतिरिक्त क्या कोई कुमारी स्त्री के पेट से पति के साथ संयोग के बिना बच्चा पैदा होने की बात सोच भी सकता है? और तुम हो कि असंभव बात को तथ्य मानकर उस बालक को बांस पर चढ़ा खुदा का बेटा बता रहे हो और फिर हमाकत यह कि हर खासो-आम को उस अबोध बालक पर यकीन लाने के लिए उकसा रहे हो। जरा बताओं तो क्या खुदा दुनिया से उठ गया है जो उसके तथाकथित बेटे ‘ईसामसीह’ पर विश्वास लाया जाये। हिन्दुस्तान में तो बाप के मरने के बाद ही बेटे पर विश्वास लाया जाता है, जीते जी नहीं”। स्वामी वेदानन्द तीर्थ जी की इस भर्त्सना को सुन बिचारा पादरी सहम गया। स्वामी जी की खरी खरी बेबाक बातों का उत्तर देने की भला उसमें ताब कहां? भौचक्का सा हो मुंह बाय वह कुछ देर वहां खड़ा रहा और फिर मौका पा दुम दबा कर भाग निकला। पादरी महोदय का खिसियाना और उसे नौ दो ग्यारह होते देख साहित्य शिरोमणी पण्डित देवी प्रसाद अति प्रसन्न हुए। पीठ थपथपाते हुए उन्होने स्वामी जी को भूरि-भूरि साधुवाद कहा।
चार वेद -चार वाक्य (vedic vichar)
03-06-2022
ब्रह्म की विद्या 'ब्रह्म' अर्थात् वेद ही है। चार वेद ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद एवं अथर्ववेद इनमें चार विषय क्रमशह्न ज्ञान, कर्म, उपासना एवं विज्ञान हैं। यहां एक-एक वेद से एक-एक वाक्य प्रस्तुत किया जा रहा है- 1. मनुर्भव जनया दैव्यं जनम् (ऋग्वेद 10.53.6)-ऋग्वेद तृण से लेकर परमब्रह्म तक का ज्ञान कराता है। उसके ज्ञान का मूलभूत सारतत्व यही है कि हे मनुष्य तू स्वयं सच्च मनुष्य बन तथा दिव्य गुणयुक्त सन्तानों को जन्म दे अर्थात् सुयोम्य मानवों के निर्माण में सतत प्रयत्नशील रह। मनुष्य, मनुष्य तभी बन सकता है, जब उसमें पशुताओं का प्रवेश न हो। आकार, रूप, रंग से कोई प्राणी मनुष्य दिखाई देता है, किन्तु उसके अन्दर भेड़िया, श्वान, उल्लू गृद्ध आदि आकर अपना डेरा जमा लेते हैं। ऋग्वेद हमें वह सब ज्ञान प्रदान करता है, जिससे व्यक्ति एक प्रबुद्ध मानव रहता है, वह न पशु और न दानव बनने पाता है। 2. आयुर्यज्ञेन कल्पताम् (यजुर्वेद 18.29)- तांबे का कोई भी तार प्रकाश नहीं कर सकता है, किन्तु जब उसमें विद्युत का प्रवाह होने लगता है तो उससे प्रकाश, गति, उर्जा ओर ध्वनि सभी प्राप्त होने लगते हैं। देखने में तार पहले जैसा ही लगता है। इसी प्रकार देखने में सभी मनुष्य एक से लगते हैं, किन्तु जिनमें यज्ञरूपी विद्युत का प्रवाह हो जाता है, वही दिव्य हो जाते हैं। पंच महायज्ञ की बात तो पृथक ही है। सामान्यतया यज्ञ से तीन कर्मों का बोध प्राप्त होता है-देवपूजा, संगतिकरण और दान। सभी सच्च्े जड़-चेतन देवताओं के प्रति पूजा-भाव रखते हुए समाज में समन्वय-संगति बनाये रखने के लिए सर्वसुलभ संपदाओं को सुविधानुसार दान करना और कराना, यही सब कार्य यज्ञ कहलाते हैं। यही कर्म मनुष्य को महामानव बना देते हैं। आहार, निद्रा, भय व मैथुन तो हर पशु तथा मानव की आवश्यकता है। पशु केवल इन्हीं के लिए जीता है। किन्तु मनुष्य इनसे ऊपर उठता है। इनको भी धर्म के कर्म अर्थात् यज्ञ का रूप प्रदान करता हुआ जीता भी है और बलिदान भी हो जाता है। अगर हमने किसी को प्रेम नहीं दिया, किसी की सेवा नहीं की, किसी की पीठ नहीं थपथपाई, किसी को सहारा नहीं दिया, किसी को सान्त्वना नहीं दी, तो हमारा जीवन व्यर्थ है, निरर्थक है, एक व्यथा है। अयोग्य हैं हम। केवल अपने लिए जी रहे हैं, यह तो पशु का जीवन है। यही पशु प्रवृत्ति है कि केवल अपना ही ध्यान रखे । वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे। 3. सदावृधः सखा (सामवेद 169-682) - इस यज्ञ भावना, कामना एवं कर्मणा को हम सामवेद के इस उपासना परक मन्त्र से प्राप्त कर सकते हैं। हम सदैव उन व्यक्तियों को अपना मित्र बनायें, जो अपने क्षेत्र में बढे हुए हैं, वृद्ध हैं। उनकी सदसंगति से, उनके वचन व उनके अनुकरण से पढे-बेपढे सभी को सद्ज्ञान-सद्कर्म की प्रेरणा प्राप्त होती रहेगी। उनके समीप बने रहने से मानव में यज्ञ की विद्युत का प्रवाह संचार करता रहेगा, जो इस लोक में तो उपयोगी होगा ही, परलोक में भी 'सदावृधः' जो आदि से ही सर्व वृद्धिपूर्ण परमब्रह्मा है, उसका भी सखा बना देगा, समान ख्याति का अधिकारी बना देगा। बड़ों की समीपता व उनका सम्मान सदैव आयु, विद्या, यश एवं बल का स्त्रोत होता है। इससे कोई वंचित न हो, अपितु सब सिंचित हों। यही वेद का मधुर सामगान है। 4. माता भूमि पुत्रोहम् पृथिव्याः (अथर्ववेद 12.1.12)- ज्ञान, कर्म, उपासना इन अवयवों के समन्वित रूप से निर्मित रसायन ही अथर्ववेद का विज्ञान है। पश्चिम प्रभावित विज्ञान अपने आविष्कारों से अति विचित्र यन्त्र-उपकरणों का निर्माण कर सकता है। कम्प्यूटर, दूरदर्शन,दूरभाष, इण्टरनेट और न जाने क्या क्या। इन सबसे भौतिक सुख समृद्धि का विस्तार तो होता दिखाई देता है, किन्तु आन्तरिक शान्ति तिरोहित हो जाती है। आविष्कार तो अत्यन्त विस्यमकारक अदभुत लगते हैं, किन्तु इन सबका प्रारम्भ प्रीतिकर, किन्तु परिणाम प्राणहर सिद्ध होता है। आधुनिक भोगवादी विज्ञान के चमत्कार चीत्कार में नित्य परिणत होते देखे जाते हैं। इनमें सर्वाधिक स्थूल पृथ्वी है, जो सम्पूर्ण प्रकृति का प्रत्यक्ष प्रतिनिधित्व करती है। वेद के अनुसार यह हमारी सृजन-पालन व आधार देने वाली माता है, साथ ही हम इसके पुत्र हैं। इसके साथ हमारा व्यवहार माता-पुत्र की भांति होना चाहिए। माता यदि जन्म देकर सन्तान का पालन पोषण करती है, तो सन्तान भी माता का सम्मान और उसकी सेवा में अपने जीवन की बाजी लगाने को प्रस्तुत रहती है। आज की भांति सागर, धरातल, पर्वत, आकाश में पाये जाने वाले पदार्थ यथा रत्न, राशि, जल, वृक्ष-वनस्पति, पत्थर, वायु सभी का भरपूर दोहन करना ही मानव का उद्देश्य नहीं होना चाहिए। दोहन भी ऐसा कि इन प्राकृतिक पदार्थों का समूल विनाश होता चला जाये तथा पर्यावरण भयंकर रूप से प्रदूषित हो जाए प्रतिदिन सोने का एक अण्डा देने वाली मुर्गी से सन्तुष्ट न होकर एक बार में ही मुर्गी के पेट को फाड़कर सोने के सारे अण्डे एक साथ निकालने वालों को सोना तो मिलता ही नहीं, मुर्गी से भी हाथ धोना पड़ता है। भूमि की भांति मानव की अन्य मातायें भी हैं। उनमें से एक माता गाय भी है। उसके पोषणकारी स्वर्णिम दुग्ध से जब जी न भरा तो मानव ने उसके मांस को ही खाना प्रारम्भ कर दिया। कृत्रिम विषैले दूध से मानव सन्तान इधर रोग ग्रस्त होती है, उधर हजारों वधशालाओं में गौओं की हत्या करके गोमांस को भारत से निर्यात किया जाता है। दैनिक जागरण (23.07.2000) के अनुसार दिल्ली के भोजन गृहों में गोमांस परोसे जाने के विरोध में जन्तर-मन्तर पर प्रदर्शन किया गया, वह भी मुस्लिम समुदाय के जागरूक व्यक्तियों के द्वारा। अमर उजाला दिनांक (24.07.2000) के अनुसार अमेरिका में शेर के मांस को परोसे जाने पर लोगों द्वारा आपत्ति की गई। यह तो समझ में आता है कि गाय को अंगूर, अन्न, मेवा खिलाकर अधिक गुणवत्ता पूर्ण दुग्ध प्राप्त किया जाए, किन्तु यह समझ में नहीं आता है कि शाकाहारी पशु गाय के अधिक मांस को प्राप्त करने के लिए उसे धोखे से चारे में मांस मिला कर खिला दिया जाये। इस अस्वाभाविक क्रियाकलाप से जब 'मैडकाव' बीमारी से मनुष्य प्रभावित हुए, तो बड़ी संख्या में उन गायों को मार कर अपनी जान बचायी। इतना भोगते हुए भी वनस्पतियों की स्वाभाविक प्रोटीन से अतृप्त मानव इनके जनन गुण सूत्र (जीन्स) में जन्तुओं की प्रोटीन प्रविष्ट करके न जाने और कौन सी असाध्य व्याधि बुलाना चाहता है। यह है कभी न पूरी होने वाली मनुष्य की हत्यारी हवश ! अथर्ववेद इस हवश पर नियन्त्रण करके 'वरदा वेदमाता' के ऐसे विज्ञान की प्रेरणा देता है, जिससे मानव को जीते जी आयु, प्राणश्क्ति, प्रजा, पशु, कीर्ति एवं ब्रह्मवर्चस्व तो मिलें ही, मरने के बाद ब्रह्मलोक का दिव्य आनन्द भी मिले। ऋग्वेद के ज्ञान के पदों से धर्म का बोध होता है। यजुर्वेद के कर्म सृजित अर्थ से मिलकर पद से पदार्थ बन जाते हैं। सामवेद की सात्विक कामनाओं से यह पदार्थ जगहितार्थ समर्पित हो जाते हैं। यही समर्पण अथर्ववेद के विज्ञान द्वारा मानव को मोक्ष की ओर अग्रसर कर देता है। इस प्रकार मानव ''धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष'' रूपी पुरूषार्थ चतुष्टय के अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है। ज्ञान, कर्म, उपासना एवं विज्ञान-चार वेदों के ये प्रधान चार विषय हैं, किन्तु सामान्य रूप से चारों वेदों के प्रत्येक मन्त्र में इन विषयों का अनुपम सामंजस्य रहता है। बिना किसी भेदभाव के मनुष्य मात्र स्वसामर्थ्यानुसार ''वेद का पढ़ना-पढ़ाना, सुनना-सुनाना'' परमधर्म का अनुगमन कर अपने जीवन को देदीप्यमान कर सकता है तथा वेद की 'मनुर्भव' भावना का जीवन्त स्वरूप बन सकता है। लेखक- पं. देवनारायण भारद्वाज
नए जमाने के भगवान ( Vedic vichar )
03-06-2022
हिंदुओं को हर कुछ साल मे नए भगवान कि जरूरत पड़ती है। चमत्कार के पीछे पागल होकर भागते हैं। निर्मल बाबा, राधे माँ, राम रहीम, रामपाल और न जाने कितने चमत्कारिक नौटंकीबाज इस तरह हमे मूर्ख बनाते हैं। गुजरात मे इसाइयों ने उंटेश्वरी माता का मन्दिर बना दिया और उसमे अविवाहित मैरी (Virgin Mary) की मूर्ति लगवा दी। हमारी इसी भेड़चाल से हम बर्बाद होते आए हैं और होते रहेंगे। धर्म और अध्यात्म शिक्षण सिनेमा, टेलीविज़न और चमत्कार के अधीन हो गया। आज से 40 साल पहले कोई साईं का नाम तक न जानता था तब एक नया चलन सामने आया था कुछ लोग जो की साईं की मार्केटिंग कागज़ के पर्चे छपवा कर करते थे …उन पर लिखा होता था की अगर आप इस पर्चे को पढने के बाद छपवा कर लोगों में बांटेंगे तो दस दिन के अन्दर आपको लाखों रूपये का धन अचानक मिलेगा । ….फलाने ने झूठ माना तो उसका सारा कारोबार ..खत्म हो गया और भिखारी हो गया 1980 - 1990 के दशक यह बहुत चला था उसके बाद टी वी पर आने लगा, सीरियल बनाए जाने लगे ..फिल्में बनने लगी …..अमर अकबर अन्थोनी में सबसे पहले साईं के नाम अक गाना आया जिसमे साईं की एक झूठी कहानी बना कर एक बुढिया की आँखों कि रौशनी ठीक साईं के सामने ठीक हो जाती है इसके बाद साईं की मार्केटिंग करने वालो ने फिल्म बना ली जिसका परिणाम कई सालो बाद यह हुआ कि साईं मंदिरों में बैठ चूका था जब चैनल आये तब 2003 के बाद साईं के एक सीरियल आया जिसके बाद साईं की प्रसिद्धि बढ़ गयी, इस सीरियल में साईं की कई झूठी कहानियो का प्रचार करके साईं को प्रसिद्ध किया गया था। इस प्रचार का प्रभाव यह हुआ कि शिरडी का साई मन्दिर आय कि दृष्टि से भारत के मुख्य 10 मंदिरों मे गिना जाने लगा। 1975 में बॉलीवुड की एक फ़िल्म रिलीज़ हुई थी, नाम था जय संतोषी माँ। 15 लाख की लागत से बनी इस फ़िल्म नें बॉक्स ऑफिस पर उस वक्त के भारत मे पाँच से छः करोड़ रुपए कमाए थे। अपने समय में ये शोले के बाद सबसे ज्यादा कमाई करने वाली फिल्म थी। इस फ़िल्म को देखने के लिए लोग सिनेमा हॉल तक बैलगाड़ियों में मीलों की यात्रा करते थे। दर्शक हॉल की सिनेमा स्क्रीन पर फूल औऱ सिक्के फेंकते थे। कई सारे थिएटर, जहां ये फ़िल्म लगी थी, मन्दिर कहलाये जाने लगे थे। जैसे शारदा टॉकीज को शारदा मन्दिर कहा जाने लगा था औऱ बन्द होने तक इस सिनेमा हॉल का नाम यही रहा। फ़िल्म देखने आने वाले लोग थिएटर के बाहर जूते चप्पल उतारते थे। दिलचस्प बात ये है कि सन 1975 में जब ये फ़िल्म रिलीज़ हुई थी तो उससे पहले तक तमाम लोगों ने इन देवी के बारे में सुना तक नहीं था। सन्तोषी माता का जिक्र पुराणों में कहीं भी नहीं है। सन्तोषी माता दरअसल भारत के कुछ गांवों में पूजी जाने वाली ग्राम देवी थीं जिनकी मान्यता रोगों के उपचार के लिए थी। सम्भवतः सन 1960 में भीलवाड़ा में सन्तोषी माता का पहला मन्दिर बना था, जो कुछ हद तक प्रचलित था। इसके अलावा उनके कुछ छोटे छोटे मन्दिर रहे होंगे, पर वो आबादी के बहुत ही छोटे हिस्से तक सीमित थे।
Vedic vichar
29-05-2022
आज परोपकारिणी सभा के भूतपूर्व प्रधान और भूतपूर्व प्रधानमंत्री श्री चरण सिहं जी की पैंतीसवी पुण्यतिथि है। उनका जन्म २३ दिसम्बर १९०२ को नूरपुर हापुड़़ मे हुआ ।उन्होने आगरा विश्वविद्यालय से बी.एस.सी. एम.ए.और वक़ालत की डिग्री प्राप्त की। उन्होने सत्याग्रह आन्दोलन मे भाग लिया वे कई बार जेल गये । सन १९३७ मे वे पहली बार उत्तर प्रदेश विधान सभा के सदस्य चुने गये ।जमींदारी उन्मूलन मे उनका अभूतपूर्व योगदान रहा उनकी अध्यक्षता मे बनी समिति की सिफ़ारिश के आधार पर ही २४ जौलाई सन् १९५२ को उ०प्र० मे जमीदारी प्रथा समाप्त हुई ।भूमि सुधार के क्रम मे उन्होने सन् १९५३ मे चकबन्दी कानून पारित कराया जो अगले वर्ष लागू हुआ । चौधरी साहब ने १९७९ मे केन्द्र मे उपप्रधान मन्त्री रहते हुए राष्ट्रीय एवं ग्रामीण विकास बैंक की स्थापना की।उनकी प्रशासनिक दृढता अद्भुत थी। १९५३ मे अपनी अपनी मांगो को लेकर पटवारियों ने हडताल कर दी ।उनमे एक मांग लैण्ड रिकार्ड मैनुअल वापस लेने की थी जिसमें पटवारियों के अधिकार सीमित किये गये थे। चौधरी साहब दूसरी मांगो पर तो सहमत थे लेकिन यह नहीं मानी।पटवारियों ने सामुहिक त्याग पत्र दे दिये। केवल २७०० ने नहीं दिये और २५०० ने वापस ले लिए । और शेष २१८०० के त्याग पत्र ५ फरवरी १९५३ को स्वीकार कर लिए गये ।उन्होने किसी की बात नहीं सुनी यहाँ तक पं जवाहर लाल नेहरू जो प्रधानमंत्री थे उनकी भी नहीं ।यह उनकी दृढ इच्छा शक्ति का ही परिणाम था कि अगले तेरह वर्षो तक कोई हडताल नहीं हुई। वे मितव्ययी थे।उन्होने १९५४ मे मन्त्रियों का वेतन घटाकर १०००/ माह कर दिया। इतिहास मे मन्त्रियों का वेतन घटाने की यह एक मात्र घटना है। केंद्र मे मन्त्री रहते हुए भी केवल एक घडी बांधते थे दरी पर बैठकर काम करते थे। सहकारी खेती के जवाहर लाल नेहरू के प्रस्ताव का जोरदार ढंग से विरोध करने वाले वे एक मात्र नेता थे। वे पक्के आर्य समाजी थे।अपनी बात पर दृढ रहना ,सिद्धांत से समझोता न करना और सत्य का पालन करना यह उनकी विशेषता थी।एक बार उन्होने आर्य समाज छपरोली मे कहा था " मैं दयानंदी पहले हूं।आर्य समाजी बाद मे।२६ नवम्बर १९८३ को ऋषि बलिदान की शताब्दी समारोह मे दिल्ली मे उन्होने एक बहुत ही मार्मिक भाषण आर्य समाज के सुधार पर दिया था। ऐसे महान व्यक्तित्व के धनी चौधरी साहब को कोटि-२ नमन।
Vedic vichar
28-05-2022
सृष्टि के पदार्थों में सन्तुलन बनाए रखने का उपदेश यजुर्वेद के एक मन्त्र में !!! ओ3म् द्यौः शान्तिरन्तक्षं शान्तिः पृथिवी शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्ति। वनस्पतयः शान्तिर्विश्वेदेवाः शान्तिर्बह्म शान्तिः सर्वं शान्तिः शान्तिरेव शान्तिः सा मा शान्तिरेधि।। यजु. ३६ .१७ । इस मन्त्र में मानव को प्राकृतिक पदार्थों में शान्ति अर्थात् संतुलन बनाए रखने का उपदेश किया गया है। यजुर्वेद के इस मन्त्र में पर्यावरण समस्या के प्रति मानव को सचेत किया गया है। पृथ्वी, जल, औषधि, वनस्पति आदि में शान्ति का अर्थ है- इनका संतुलन बने रहना। जब इनका संतुलन बिगड़ जाएगा, तभी इनमें विकार उत्पन्न हो जाएगा। वेद में पृथ्वी के पर्यावरण को परिष्कृत करने के साधन सार्वलौकिक तथा सार्वभौम हैं। दूषित पर्यावरण से विभिन्न संक्रामक रोग उत्पन्न होकर मानव के शरीर एवं मस्तिष्क में असाध्य रोग पैदा कर देते हैं। यह भी देखा जाता है कि कभी-कभी स्वतः नैसर्गिक प्रकुपित वायु, सूर्य, वर्षा तथा विद्युत के कारण भी पृथ्वी के पर्यावरण में अन्तर आ जाता है। इन्हीं को शमन करने का उल्लेख यजुर्वेद के "शान्तिकरण' मन्त्रों में पाया जाता है |
वैदिक उदात्त भावना (vedic vichar)
20-05-2022
????विश्व-कल्याण: यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तस्य त्वं प्राणेना प्यायस्व । आ वयं प्यासिषीमहि गोभिरश्वै: प्रजया पशुभिर्गृहैर्धनेन ।। ―(अथर्व० ७/८१/५) भावार्थ―हे परमात्मन् ! जो हमसे वैर-विरोध रखता है और जिससे हम शत्रुता रखते हैं तू उसे भी दीर्घायु प्रदान कर। वह भी फूले-फले और हम भी समृद्धिशाली बनें। हम सब गाय, बैल, घोड़ों, पुत्र, पौत्र, पशु और धन-धान्य से भरपूर हों। सबका कल्याण हो और हमारा भी कल्याण हो। ????विश्व-प्रेम: वेद हमें घृणा करनी नहीं सिखाता। वेद तो कहता है― उत देवा अवहितं देवा उन्नयथा पुन: । उतागश्चक्रुषं देवा देवा जीवयथा पुन: ।। ―(अथर्व० ४/१३/१) भावार्थ―हे दिव्यगुणयुक्त विद्वान् पुरुषो ! आप नीचे गिरे हुए लोगों को ऊपर उठाओ। हे विद्वानो ! पतित व्यक्तियों को बार-बार उठाओ। हे देवो ! अपराध और पाप करनेवालों को भी ऊपर उठाओ। हे उदार पुरुषो ! जो पापाचरणरत हैं, उन्हें बार-बार उद्बुद्ध करो, उनकी आत्मज्योति को जाग्रत् करो। यस्मिन्त्सर्वाणि भूतान्यात्मैवाभूद्विजानत: । तत्र को मोह: क: शोक एकत्वमनुपश्यत: ।। ―(यजु० ४०/७) भावार्थ―ब्रह्मज्ञान की अवस्था में जब प्राणीमात्र अपनी आत्मा के तुल्य दीखने लगते हैं तब सबमें समानता देखने वाले आत्मज्ञानी पुरुष को उस अवस्था में कौन-सा मोह और शोक रह जाता है, अर्थात् प्राणिमात्र से प्रेम करनेवाले, प्राणिमात्र को अपने समान समझनेवाले मनुष्य के सब शोक और मोह समाप्त हो जाते हैं। अद्या मुरीय यदि यातुधानो अस्मि यदि वायुस्ततप पूरुषस्य । ―(अथर्व० ८/४/१५) भावार्थ―यदि मैं प्रजा को पीड़ा देनेवाला होऊँ अथवा किसी मनुष्य के जीवन को सन्तप्त करुँ तो आज ही, अभी, इसी समय मर जाऊँ। यथा भूमिर्मृतमना मृतान्मृतमनस्तरा । यथोत मम्रुषो मन एवेर्ष्योर्मृतं मन: ।। ―(अथर्व० ६/१८/२) भावार्थ―जिस प्रकार यह भूमि जड़ है और मरे हुए मुर्दे से भी अधिक मुर्दा दिल है तथा जैसे मरे हुए मनुष्य का मन मर चुका होता है उसी प्रकार ईर्ष्या, घृणा करनेवाले व्यक्ति का मन भी मर जाता है, अत: किसी से भी घृणा नहीं करनी चाहिए। ????ब्रह्म और क्षात्रशक्ति: यत्र ब्रह्म च क्षत्रं च सम्यञ्चौ चरत: सह । तं लोकं पुण्यं प्रज्ञेषं यत्र देवा: सहाग्निना ।। ―(यजु० २०/२५) भावार्थ―जहाँ, जिस राष्ट्र में, जिस लोक में, जिस देश में, जिस स्थान पर, ज्ञान और बल, ब्रह्मशक्ति और क्षात्रशक्ति, ब्रह्मतेज और क्षात्रतेज संयुक्त होकर साथ-साथ चलते हैं तथा जहाँ देवजन=नागरिक राष्ट्रोन्नति की भावनाओं से भरपूर होते हैं, मैं उस लोक अथवा राष्ट्र को पवित्र और उत्कृष्ट मानता हूँ। ????चरित्र-निर्माण: प्र पदोऽव नेनिग्धि दुश्चरितं यच्चचार शुद्धै: शपैरा क्रमतां प्रजानन् । तीर्त्वा तमांसि बहुधा विपश्यन्नजो नाकमा क्रमतां तृतीयम् ।। ―(अथर्व० ९/५/३) भावार्थ―हे मनुष्य ! तूने जो दुष्ट आचरण किये हैं उन दुष्ट आचरणों को अच्छी प्रकार दो डाल। फिर शुद्ध निर्मल आचरण से ज्ञानवान् होकर आगे बढ़। पुन: अनेक प्रकार के पापों और अन्धकारों को पार करके ध्यान एवं योग-समाधि द्वारा अजन्मा ब्रह्म के दर्शन करता हुआ शोक और मोह आदि से पार होकर परम आनन्दमय मोक्षपद पर आरुढ़ हो। ????प्रभु-प्रेम: महे चन त्वामद्रिव: परा शुल्काय देयाम् । न सहस्राय नायुताय वज्रिवो न शताय शतामघ ।। ―(ऋ० ८/१/५) भावार्थ―हे अविनाशी परमात्मन् ! बड़े-से-बड़े मूल्य व आर्थिकलाभ के लिए भी मैं कभी तेरा परित्याग न करुँ। हे शक्तिशालिन् ! हे ऐश्वर्यों के स्वामिन् ! मैं तुझे सहस्र के लिए भी न त्यागूँ, दस सहस्र के लिए भी न बेचूँ और अपरमित धनराशि के लिए भी तेरा त्याग न करुँ। ????सुपथ-गमन: मा प्र गाम पथो वयं मा यज्ञादिन्द्र सोमिन: । मान्य स्थुर्नो अरातय: ।। ―(अथर्व० १३/१/५९) भावार्थ―हे इन्द्र ! परमेश्वर ! हम अपने पथ से कभी विचलित न हों। शान्तिदायक श्रेष्ठ कर्मों से हम कभी च्युत न हों। काम, क्रोध आदि शत्रु हमपर कभी आक्रमण न करें। ????मधुर-भाषण: वाचं जुष्टां मधुमतीमवादिषम् । ―(अथर्व० ५/७/४) हम अतिप्रिय और मीठी वाणी बोलें। होतरसि भद्रवाच्याय प्रेषितो मानुष: सूक्तवाकाय सूक्ता ब्रूहि । ―(यजु० २१/६१) भावार्थ―हे विद्वन् ! उपदेष्ट: ! तू कल्याणकारी उपदेश के लिए भेजा गया है। तू मननशील मनुष्य बनकर भद्रपुरुषों के लिए उत्तम उपदेश कर। ????दिव्य-भावना: यो न: कश्चिद्रिरिक्षति रक्षस्त्वेन मर्त्य: । स्वै: ष एवै रिरिषीष्ट युर्जन: ।। ―(ऋ० ८/१८/१३) भावार्थ―जो मनुष्य अपने हिंसक स्वभाव के वशीभूत होकर हमें मारना चाहता है वह दु:खदायी जन अपने ही आचरणों से―अपनी टेढ़ी चाल और बुरे स्वभाव से स्वयं ही मर जाता है, फिर मैं किसी को क्यों मारूँ। पाठकगण ! उपर्युक्त मन्त्रों में कितनी उच्च और उदात्त भावनाएँ हैं। संसार के सारे साहित्य को पढ़ लीजिए, इनसे सुन्दर और मनोरम विचार आपको कहीं नहीं मिलेंगे। साभार: 'वैदिक उद्यात भावनाएँ' (स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती) प्रस्तुतकर्ता: भूपेश आर्य
Vedic vichar
16-05-2022
प्रायश्चित्त क्या है मनु महाराज कहते है- प्रायो नाम तप: चित्तं निश्चय उच्यते , तपो निश्चयसंयुक्तं प्रायश्चित्तमिति स्मृतम्. प्राय: तप को कहते है और चित्त निश्चय को कहते है .तप और निश्चय का संयोग होना प्रायश्चित्त कहलाता है. अर्थात् किये हुए बुरे कर्मो के प्रति मन मे ग्लानि ,खिन्नता और दु:ख का अनुभव करना तथा ऐसे कर्मो को आगे भविष्य मे न करने की दृढ प्रतिज्ञा करना प्रायश्चित्त कहलाता है।
प्रश्न :- - क्या सब कुछ ब्रह्म है ? (Vedic vichar)
09-05-2022
उत्तर :- - नहीं ऐसा नहीं है , सभी कुछ ब्रह्म नहीं है । लेकिन कुछ लोग कहते हैं - - 'सर्व खल्विदं ब्रह्म ' ---- अर्थात यह सब कुछ ब्रह्म है , इस मत के मानने वाले आत्मा की स्वतन्त्र सत्ता को नहीं मानते हैं , लेकिन उनका यह मत सत्य नहीं है । क्योंकि - - - ( 1 ) जीवात्मा और प्रकृति की स्वतन्त्र सत्ता न मानना उचित नहीं है । यह संम्पूर्ण जगत तीन अनादि कारणों से बना है । ( ए ) जिसने जगत बनाया वह ईश्वर , (बी ) जिसके लिए जगत बनाया गया वह आत्मा , ( सी ) जिससे यह जगत बनाया वह प्रकृति । ये तीनों तत्व -- ईश्वर , आत्मा और प्रकृति अनादि हैं और अपने अपने स्थान पर महान हैं । ( 2 ) अगर हम यह मान भी लें कि सब कुछ ब्रह्म ही है तो इस संसार की साड़ी बुराइयों को भी ब्रह्म में मानना पड़ेगा , और वह ब्रह्म -- चोर डाकू , अत्याचारी , दुराचारी , झूठे , लम्पट भी माना जावेगा । लेकिन ब्रह्म तो परम शुद्ध और पवित्र है । ( 3 ) यह संसार तो परिवर्तन शील है , अगर सब कुछ ब्रह्म है ऐसा मानें तो ब्रह्म को भी परिवर्तनशील मानना पड़ेगा अर्थात विनाशी । जबकि ब्रह्म परिवर्तनशील नहीं है । ईश्वर , जीव ,और प्रकृति की स्वतन्त्र सत्ता के बारे में वेदों बताया गया है - - - द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परी षस्वजायते । तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्रत्रन्यो अभि चाकशीत ॥ [ ऋग्वेद - १ / १६४ / २० ] एक वृक्ष पर सुन्दर पंखों वाले दो पक्षी बैठे हैं , उनमे से एक पक्षी तो उस वृक्ष के फल खाता है और उस फल के द्वारा सुख दुःख भोगता है , उधर दूसरा पक्षी उस वृक्ष के फल को नहीं खाता है और पहले वाले पक्षी को देखता रहता है । यहां पर वृक्ष तो प्रकृति है , पहला पक्षी आत्मा है और दूसरा पक्षी ईश्वर है । तीनों की सत्ता अलग है । ' अनच्छये तुरगातु जीवमेजदधुवं मध्य आ पस्त्यानाम । जीवो मृतस्य चरति स्वधाभिरमर्त्यो मर्त्येना सयोनिः ॥ ' (ऋग्वेद -१ /१६४ /३० ] वह ब्रह्म जीवों को फल देता हुआ सब जड़ और चेतन पदार्थों में विराजमान है , जीव भी अनादि और अविनाशी है यह जीव उस शरीर में रहता है जो परिवर्तनशील या अपने तत्त्वों में बदल जाता है और परिवर्तनशील जगत के बीच आचरण करता है । वेदों में और भी मन्त्र हैं , उपनिषदों में भी मन्त्र हैं जो यह कहते हैं कि ब्रह्म , जीव (आत्मा ) और प्रकृति की अलग अलग सत्ता है । ब्रह्म निमत्त कारण है , प्रकृति उपादान कारण है और जीव के लिए यह जगत बनाया गया है ।
कार्ल मार्क्स और धर्म (vedic vichar)
05-05-2022
5 मई को कार्ल मार्क्स का जन्मदिन बनाया गया। अनेक कम्युनिस्ट धर्म को अफीम कह रहे थे। इस लेख से जानिए कि क्या धर्म अफीम है? नहीं। तो फिर अफीम क्या है? कार्ल मार्क्स के वचन पढ़िए 1.) Religion is the opium of the masses अर्थात रिलिजन लोगों का अफीम है ! 2.) The first requisite for the happiness of the people is the abolition of religion अर्थात लोगों की ख़ुशी के लिए पहली आवश्यकता रिलिजन का अंत है ! तथा 3.) Religion is the impotence of the human mind to deal with occurrences it cannot understand अर्थात रिलिजन मानव मस्तिष्क जो न समझ सके उससे निपटने की नपुंसकता है . सत्य यह है कि कार्ल मार्क्स धर्म और मज़हब में अंतर नहीं कर पाए। अंग्रेजी में धर्म शब्द का कोई भी पर्यायवाची नहीं है। Religion शब्द का प्रयोग मजहब के लिए हुआ है। प्राय:अपने आपको प्रगतिशील कहने वाले लोग धर्म और मज़हब को एक ही समझते हैं। मज़हब अथवा मत-मतान्तर अथवा पंथ के अनेक अर्थ हैं जैसे वह रास्ता जी स्वर्ग और ईश्वर प्राप्ति का हैं और जोकि मज़हब के प्रवर्तक ने बताया हैं। अनेक जगहों पर ईमान अर्थात विश्वास के अर्थों में भी आता हैं। धर्म और मजहब (रिलिजन} में अंतर १. धर्म और मज़हब समान अर्थ नहीं हैं और न ही धर्म ईमान या विश्वास का प्राय: हैं। २. धर्म क्रियात्मक वस्तु हैं मज़हब विश्वासात्मक वस्तु हैं। ३. धर्म मनुष्य के स्वाभाव के अनुकूल अथवा मानवी प्रकृति का होने के कारण स्वाभाविक हैं और उसका आधार ईश्वरीय अथवा सृष्टि नियम हैं। परन्तु मज़हब मनुष्य कृत होने से अप्राकृतिक अथवा अस्वाभाविक हैं। मज़हबों का अनेक व भिन्न भिन्न होना तथा परस्पर विरोधी होना उनके मनुष्य कृत अथवा बनावती होने का प्रमाण हैं। ४. धर्म के जो लक्षण मनु महाराज ने बतलाये हैं वह सभी मानव जाति के लिए एक समान है और कोई भी सभ्य मनुष्य उसका विरोधी नहीं हो सकता। मज़हब अनेक हैं और केवल उसी मज़हब को मानने वालों द्वारा ही स्वीकार होते हैं। इसलिए वह सार्वजानिक और सार्वभौमिक नहीं हैं। कुछ बातें सभी मजहबों में धर्म के अंश के रूप में हैं इसलिए उन मजहबों का कुछ मान बना हुआ हैं। ५. धर्म सदाचार रूप हैं अत: धर्मात्मा होने के लिये सदाचारी होना अनिवार्य हैं। परन्तु मज़हबी अथवा पंथी होने के लिए सदाचारी होना अनिवार्य नहीं हैं। अर्थात जिस तरह तरह धर्म के साथ सदाचार का नित्य सम्बन्ध हैं उस तरह मजहब के साथ सदाचार का कोई सम्बन्ध नहीं हैं। क्यूंकि किसी भी मज़हब का अनुनायी न होने पर भी कोई भी व्यक्ति धर्मात्मा (सदाचारी) बन सकता हैं। परन्तु आचार सम्पन्न होने पर भी कोई भी मनुष्य उस वक्त तक मज़हबी अथवा पन्थाई नहीं बन सकता जब तक उस मज़हब के मंतव्यों पर ईमान अथवा विश्वास नहीं लाता। जैसे की कोई कितना ही सच्चा ईश्वर उपासक और उच्च कोटि का सदाचारी क्यूँ न हो वह जब तक हज़रात ईसा और बाइबिल अथवा हजरत मोहम्मद और कुरान शरीफ पर ईमान नहीं लाता तब तक ईसाई अथवा मुस्लमान नहीं बन सकता। ६. धर्म ही मनुष्य को मनुष्य बनाता हैं अथवा धर्म अर्थात धार्मिक गुणों और कर्मों के धारण करने से ही मनुष्य मनुष्यत्व को प्राप्त करके मनुष्य कहलाने का अधिकारी बनता हैं। दूसरे शब्दों में धर्म और मनुष्यत्व पर्याय हैं। क्यूंकि धर्म को धारण करना ही मनुष्यत्व हैं। कहा भी गया हैं- खाना,पीना,सोना,संतान उत्पन्न करना जैसे कर्म मनुष्यों और पशुयों के एक समान हैं। केवल धर्म ही मनुष्यों में विशेष हैं जोकि मनुष्य को मनुष्य बनाता हैं। धर्म से हीन मनुष्य पशु के समान हैं। परन्तु मज़हब मनुष्य को केवल पन्थाई या मज़हबी और अन्धविश्वासी बनाता हैं। दूसरे शब्दों में मज़हब अथवा पंथ पर ईमान लेन से मनुष्य उस मज़हब का अनुनायी अथवा ईसाई अथवा मुस्लमान बनता हैं नाकि सदाचारी या धर्मात्मा बनता हैं। ७. धर्म मनुष्य को ईश्वर से सीधा सम्बन्ध जोड़ता हैं और मोक्ष प्राप्ति निमित धर्मात्मा अथवा सदाचारी बनना अनिवार्य बतलाता हैं परन्तु मज़हब मुक्ति के लिए व्यक्ति को पन्थाई अथवा मज़हबी बनना अनिवार्य बतलाता हैं। और मुक्ति के लिए सदाचार से ज्यादा आवश्यक उस मज़हब की मान्यताओं का पालन बतलाता हैं। जैसे अल्लाह और मुहम्मद साहिब को उनके अंतिम पैगम्बर मानने वाले जन्नत जायेगे चाहे वे कितने भी व्यभिचारी अथवा पापी हो जबकि गैर मुसलमान चाहे कितना भी धर्मात्मा अथवा सदाचारी क्यूँ न हो वह दोज़ख अर्थात नर्क की आग में अवश्य जलेगा क्यूंकि वह कुरान के ईश्वर अल्लाह और रसूल पर अपना विश्वासनहीं लाया हैं। ८. धर्म में बाहर के चिन्हों का कोई स्थान नहीं हैं क्यूंकि धर्म लिंगात्मक नहीं हैं -न लिंगम धर्मकारणं अर्थात लिंग (बाहरी चिन्ह) धर्म का कारण नहीं हैं। परन्तु मज़हब के लिए बाहरी चिन्हों का रखना अनिवार्य हैं जैसे एक मुस्लमान के लिए जालीदार टोपी और दाड़ी रखना अनिवार्य हैं। ९. धर्म मनुष्य को पुरुषार्थी बनाता हैं क्यूंकि वह ज्ञानपूर्वक सत्य आचरण से ही अभ्युदय और मोक्ष प्राप्ति की शिक्षा देता हैं परन्तु मज़हब मनुष्य को आलस्य का पाठ सिखाता हैं क्यूंकि मज़हब के मंतव्यों मात्र को मानने भर से ही मुक्ति का होना उसमें सिखाया जाता हैं। १०. धर्म मनुष्य को ईश्वर से सीधा सम्बन्ध जोड़कर मनुष्य को स्वतंत्र और आत्म स्वालंबी बनाता हैं क्यूंकि वह ईश्वर और मनुष्य के बीच में किसी भी मध्यस्थ या एजेंट की आवश्यकता नहीं बताता। परन्तु मज़हब मनुष्य को परतंत्र और दूसरों पर आश्रित बनाता हैं क्यूंकि वह मज़हब के प्रवर्तक की सिफारिश के बिना मुक्ति का मिलना नहीं मानता। ११. धर्म दूसरों के हितों की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति तक देना सिखाता हैं जबकि मज़हब अपने हित के लिए अन्य मनुष्यों और पशुयों की प्राण हरने के लिए हिंसा रुपी क़ुरबानी का सन्देश देता हैं। १२. धर्म मनुष्य को सभी प्राणी मात्र से प्रेम करना सिखाता हैं जबकि मज़हब मनुष्य को प्राणियों का माँसाहार और दूसरे मज़हब वालों से द्वेष सिखाता हैं। १३. धर्म मनुष्य जाति को मनुष्यत्व के नाते से एक प्रकार के सार्वजानिक आचारों और विचारों द्वारा एक केंद्र पर केन्द्रित करके भेदभाव और विरोध को मिटाता हैं तथा एकता का पाठ पढ़ाता हैं। परन्तु मज़हब अपने भिन्न भिन्न मंतव्यों और कर्तव्यों के कारण अपने पृथक पृथक जत्थे बनाकर भेदभाव और विरोध को बढ़ाते और एकता को मिटाते हैं। १४. धर्म एक मात्र ईश्वर की पूजा बतलाता हैं जबकि मज़हब ईश्वर से भिन्न मत प्रवर्तक/गुरु/मनुष्य आदि की पूजा बतलाकर अन्धविश्वास फैलाते हैं। धर्म और मज़हब के अंतर को ठीक प्रकार से समझ लेने पर मनुष्य अपने चिंतन मनन से आसानी से यह स्वीकार करके के श्रेष्ठ कल्याणकारी कार्यों को करने में पुरुषार्थ करना धर्म कहलाता हैं इसलिए उसके पालन में सभी का कल्याण हैं।
कार्ल मार्क्स- शैतान पूजा से साम्यवाद तक ! (Vedic vichar)
05-05-2022
(5 अप्रैल को कार्लमार्क्स का जन्मदिन कम्युनिस्टों ने महान कहकर बनाया। कम्युनिस्टों की एक खास पहचान हैं। ये खुद भी अँधेरे में रहते है और अन्यों को भी अँधेरे में रखते हैं। मार्क्स के जीवन के अज्ञात कर्मों को इस लेख के माध्यम से पढ़कर सोचिये क्या कार्लमार्क्स वाकई में महान था?) " जीसस के प्रेम के जरिये हम अपने ह्रदय को अपने अंतर्मन से जुड़े भाइयों की तरफ ले जाते हैं जिनके लिये जीसस ने अपना जीवन बलिदान किया।" युवा मार्क्स ने अपने प्रथम लेख ' यूनियन औफ द फेथफुल विद क्राइस्ट ' में एक सच्चे ईसाई की तरह लिखा। लगभग इसी समय उसने 'कंसिडेरेशन औफ अ यंग मैन औन चूज़िंग हिस करियर' में लिखा , "... अगर हम तय कर लें कि सब कुछ जीसस के लिये ही करेंगे तो हम कभी किसी भार से कुचले नहीं जा सकते...।" फिर तुरंत मार्क्स ने परीक्षा में छ: बार लगातार लिखा , " डिस्ट्राय " जैसा किसी भी अन्य छात्र ने नहीं लिखा था।फलस्वरूप उसका उपनाम पड़ गया 'डिस्ट्राय'। और यहीं से शैतान उसके अंदर प्रवेश कर गया । पूरी मानवता को नष्ट करने की योजना उसके अद्भुत मस्तिष्क में पनपने लगी जो उसकी मृत्यु तक साम्यवाद यानी वामपंथ में बदल गयी। उसने संपूर्ण मानवता को "कबाड़" और "दुष्टों का समूह" कहा। परीक्षा पास करने के तुरंत बाद शैतान ने उससे एक कविता ' इनवोकेशन औफ वन इन डेस्पेयर' में लिखवाया , " मैं बदला लेना चाहता हूं उससे जो ऊपर बैठा हम सब पर राज करता है।" ऐसा कहते उसने यह भी मान लिया कि ऊपर भगवान बैठा है । भगवान को मानना और उसे गालियां देते हुये धर्म को अफीम कहने का सिलसिला भी एक साथ चलने लगा। यानी उसपर हावी शैतान और भगवान के बीच संघर्ष शुरू हो गया और यह शैतान अंत तक भगवान पर हावी रहा।आज भी हावी है और रहेगा भी अगर हम जेएनयू जैसे मुद्दों पर अपनी ऊर्जा जाया करते रहे बजाय यह समझने के कि मार्क्सवाद असल में है क्या। कुछ-कुछ अच्छा भी है इसमें शेष शैतानियत है।ऐसा मिश्रण होना पूरा अच्छा या पूरा शैतानियत से भरा होने से ज्यादा खतरनाक है।पूरा अच्छा है तो विरोध समाप्त हो जाता है और अगर पूरा शैतानियत से भरा है तो इससे हम लड़ सकते हैं।नयी पीढ़ी को बता सकते हैं कि यह गलत है।लेकिन मिश्रण होने के कारण नयी पीढ़ी साम्यवाद के नाम से प्रदूषित ही होती रहेगी।कन्हैया पैदा होते रहेंगे। यहां यह भी ध्यान देने की बात है कि शुरूआती दिनों में मार्क्स की वही मनस्थिति थी जो इस्लाम के आखिरी रसूल की थी।दोनों पर शैतान हावी था , दोनों अपनी अपनी जमात को छोड़कर बाकी समस्त इंसानियत के दुश्मन थे , उन्हें बरबाद और कत्ल कर देना चाहते थे और यही एकमात्र कारण है कि वामपंथ इस्लाम के पक्ष में हरदम खड़ा रहता है। इस लेख का उद्देश्य ना तो मार्क्स के आर्थिक और राजनीतिक सिध्दांतो को लेकर उबाऊ बहस में उलझना है और नाही हिंदुस्तान के वामपंथियों ने कैसे कैसे आजादी के आंदोलन में गद्दारी की इसपर चर्चा करनी है।उद्देश्य बस इतना है कि मार्क्स को महान से कैसे शैतान पूजक उसके, उसके परिवार और साथियों के शब्दों से साबित किया जा सके।उसका पाखंड उजागर किया जा सके। शैतान ने मार्क्स से उसकी एक और कविता में कहलवाया , " ईश्वर ने मेरा सब कुछ छीन लिया है और अब उससे बदला लेना ही बाकी है।मैं अपना सिंहासन ऊपर आसमान में बनाऊंगा।" प्रश्न यह है कि शैतान ने मार्क्स के लिये ऊपर सिंहासन क्यों चाहा ? क्या अल्लाह से दुश्मनी रखने वाला अरबिक शैतान मार्क्स को नया अल्लाह बनाना चाहता था ? गौर करने की बात है कि मार्क्स का बचपन अभावों मे नहीं बीता था।सब कुछ था उसके पास। इसलिये मानने का सवाल नहीं कि उसने खुद ही कहा होगा कि ईश्वर ने उसका सबकुछ छीन लिया।यह बात शैतान ने ही उससे कहलवाई। मार्क्स ने सिंहासन क्यों चाहा इसका जवाब उसी के लिखे नाटक ' Oulanem ' में छुपा है जिसे कम ही लोग जानते हैं।इसे समझने के लिये कुछ और बात जानना जरूरी है। शैतानिक चर्च का आधी रात को किया जाना कर्मकांड चर्चित है जहां शैतानिक पादरी सब कुछ उलटा करता है।काली मोमबत्तियां उलटी लगाई जाती हैं , पादरी अपने लबादे का अंदर वाला भाग बाहर पलटकर पहनता है , धार्मिक ग्रंथ का पाठ अंत से शुरूआत की तरफ करता है , क्रौस उलटा लटकाया जाता है । ईश्वर , जीसस और मैरी को उलटा पढ़ा जाता है।एक नग्न स्त्री का शरीर पूजा की बेदी बनाया जाता है , पवित्र किये किसी वस्त्र को चर्च से चुराकर इसपर शैतान का नाम लिखकर बाईबिल जलाई जाती है।इस ब्लैक मास में शामिल सभी शैतान पूजक सात घातक पाप करने की कसम खाते हैं।अंत में खुलेआम काम वासना और नशे का खेल चलता है। रहस्यमयी बात है कि Oulanem उलटा नाम है Emmanuel का जो जीसस का एक बाइबिल नाम ही है।इसका हिब्रू में अर्थ है 'ईश्वर हमारे साथ है'। नामों को उलटा कर पढ़ना काले जादू में असरदार माना जाता है। Oulanem नाटक को और समझने के लिये हमें मार्क्स की लिखी एक और कविता ' द प्लेयर ' में उसका यह कुबूलनामा समझना पड़ेगा , " उठती हुयी दोजखी धुंध मेरे दिमाग को भर देती है।जबतक मैं पागल होकर मेरा दिमाग पूरा नहीं बदल जाता।यह तलवार देखी ? इसे अंधकार की रानी ने मुझे बेचा है। और मैं मृत्यु का नृत्य करता हूं।" इसी तरह नये शिष्य को शैतानिक कल्ट में विधिवत शामिल कर लिया जाता है।मार्क्स भी अपने युवाकाल में इसमें शामिल हो गया था। अब यह समझना आसान है कि एक युवा ईसाई को ऐसा क्या हो गया कि उसे ईश्वर से दुश्मनी हो गई । कट्टर ईसाई होने के बावजूद भी मार्क्स की जिंदगी व्यवस्थित नहीं रही।पिता के साथ उसका पत्र व्यवहार बताता है कि वो ऐय्याशी पर अत्यधिक धन खर्च करता था और बात बात पर अपने पिता से लड़ता झगड़ता था। फिर वह अति गोपनीय शैतानिक चर्च में दीक्षित होकर इसमें रम गया और शैतान का भोंपू बन गया। यही कारण है कि मार्क्स दुनिया का अकेला लेखक है जिसने अपनी ही रचनाओं को "मल" और "सूवराना किताबें" कह डाला। आश्चर्य नहीं कि मार्क्स की इसी बात से प्रेरित होकर रोमानिया और मोजांबीक के उसके वामपंथी अनुयायियों ने लाखों विरोधियों को जबरदस्ती उन्हीं का मलमूत्र खिलाया। मार्क्स 18 साल तक कट्टर ईसाई रहा और इसी समय उसका अपने पिता से पत्रव्यवहार संकेतों में उसके शैतान पूजक होने का सबूत देता है। बेटे ने लिखा " पर्दा गिर गया था और पवित्रतम् चकनाचूर हो गया।नये ईश्वर को प्रतिष्ठापित होना है।" ये शब्द नवंबर 10 , 1837 में लिखे गये थे जबतक वह ईसाई था और जब उसने घोषणा भी की थी कि ईसा उसके दिल में है। परंतु अब ऐसा नहीं था। किस नये ईश्वर ने उसके दिल में जगह बनाई ? पिता ने पत्र का जवाब दिया , " मैं तुमसे इस संबंध में कोई भी स्पष्टीकरण मांगने से खुद को अलग करता हूं जो एक रहस्यमय बात है।लेकिन यह अत्यधिक शक के घेरे में है।" वो 'रहस्यमय बात' क्या थी आजतक कोई भी मार्क्सवादी नहीं बता पाया है। मार्च 2 , 1837 के दिन उसके पिताने फिर पत्र में लिखा, " यदि तुम्हारा ह्रदय शुध्द होकर मानवता के लिये ही धड़कता रहे और कोई भी शैतान तुम्हारे ह्रदय को सद्भावनाओं से दूर न कर सके तो ही मुझे खुशी होगी।" मार्क्स , हिटलर और मोहम्मद शुरूआती कवि थे। कविताओं में असफल होकर अपने अपने कारणों से मानवता की भलाई के नाम पर शैतान पूजक बन गये। मार्क्स के पिता के उसपर शंका करने के दो साल बाद उसने 1839 में उसने पहली बार ' The difference Between Democritus' aid Epicures' Philosophy of Nature' की प्रस्तावना में लिखा , " मुझे पृथ्वी और स्वर्ग के सभी ईश्वरों से घृणा है और मैं मानव चेतना की सर्वोच्च सत्ता से इनकार करता हूं।" मार्क्स की सबसे छोटी बेटी जेनी के मुताबिक उसके पिता उसको और उसकी बहनों को चुड़ैल हंस रौकल की कभी न खत्म होने वाली डरावनी कहानियां सुनाया करते थे।इतना ही नहीं मार्क्स के शुरूआती सभी घनिष्ठ मित्र जैसे Moses Hess , George Jung , Bakunin, Proudhan आदि शैतान पूजक ही थे जिन्होंने उसे सभी ईश्वरों को स्वर्ग से खदेड़ कर सर्वहारा के नाम पर इस संप्रदाय में दीक्षित होने की प्रेरणा दी।हर शैतान पूजक चाहता है ईश्वरों को खदेड़ दिया जाये। दीक्षित होने के बाद मार्क्स ने ईश्वर को हटाकर उसकी जगह शैतान को प्रतिष्ठापित कर दिया।इसप्रकार मार्क्सवाद की नींव पड़ी जिसका ईश्वर शैतान है। मार्क्स और उसके समस्त शैतान पूजक गिरोह की सोच समान थी। Lunatcharski , एक प्रमुख दार्शनिक जो सोवियत यूनियन का शिक्षा मंत्री भी था , ने ' समाजवाद और धर्म ' पर लिखते हुये विचार व्यक्त किये , " मार्क्स ने ईश्वर से सारे संबंध तोड़कर सर्वहारा दस्ते के आगे शैतान को खड़ा कर दिया ।" इसीलिए जेऐनयू जैसे अड्डों पर सेक्स , नशा , अनैतिकता की शैतानी पूजा वामपंथ के नामपर चलती है। मार्क्स ने तीव्र मानसिक अंतर्द्वन्द के बाद शैतानवाद स्वीकार किया।इसका सबसे बड़ा सबूत यह है कि मार्क्स के उसके लिखे 100 खंडों की पांडुलिपियों में से मात्र 13 ही आजतक प्रकाशित हुई हैं।शेष पांडुलिपियां आज भी रुस के मौस्को स्थित 'मार्क्स इंस्टीट्यूट' में सुरक्षित रखी हैं।फ्रेंच लेखक ऐलबर्ट कैमस ने इंस्टीट्यूट के डायरेक्टर ऐम.मेचेद्लोव को 1980 में इस सदर्भ में पत्र लिखा तो हास्यास्पद जवाब आया कि द्वितीय महायुध्द के चलते प्रकाशन कार्य बंद रखना पड़ा था। यानी युध्द समाप्त होने के 35 वर्ष बाद भी प्रकाशन कार्य शुरु नहीं किया जा सका।जबकि धन की कोई कमी नहीं थी। मार्क्स इन अनछपी रचनाओं में ऐसा क्या है जिसका डर वामपथियों को है ? ये रचनायें विस्तार से शैतान पूजा पर ही हैं ऐसा ठोस अनुमान मार्क्स को जानने वालों का है।इनके प्रकाशित होने पर वामपंथ तारतार होकर शैतानपंथ में ना बदल जाये इसीलिये इनका प्रकाशन नहीं किया गया है।येचुरी कहीं आज के हिंदुस्तान में कामरेड से सर्वोच्च शैतान पूजक न बन जाये ऐसा भय भी है। महान क्रांतिकारी मार्क्स के चरित्र में इससे भी गंदा दाग था।जर्मन अखबार Reichsruf ने (जनवरी 9 , 1960) लिखा कि जब आस्ट्रिया के चांसलर ने तत्कालीन सोवियत यूनियन के निदेशक निकिता ख्रुश्चेफ को मार्क्स का एक मूल पत्र सौंपा तो ख्रुश्चेफ को पत्र का विषय नागवार गुजरा। ऐसा इसलिये कि पत्र ने साबित कर दिया कि मार्क्स आस्ट्रिया पोलीस का वेतनभोगी मुखबिर था जो क्रांतिकारियों की जासूसी करता था।यह पत्र संयोगवश राष्ट्रीय अभिलेखागार में मिला था।इस पत्र से खुलासा हुआ कि लंदन में निर्वासित जीवन बिताते समय मार्क्स अपने कामरेड साथियों की हर एक सूचना पोलीस तक पहुंचाने का 25 डालर लेता था।अपने निकटतम साथी रूज़ की भी उसने मुखबरी की। पैसे का लालच यहीं नहीं खत्म हुआ।आंखे पैतृक संपत्ति पर भी गड़ी थीं।जब उसका चाचा बीमार था तो मार्क्स ने अपने मित्र एंगेल को लिखा , " यदि यह कुत्ता मर जाता है तो मैं विपत्ति से बाहर निकल जाऊंगा।" जिसका जवाब एंगेल ने यह लिखकर दिया, " वसीयत की बाधा की मौत के लिये मैं तुम्हें बधाई देता हूं।आशा करता हूं यह दिन शीघ्र आये।" चाचा की मौत पर मार्क्स ने मार्च 8 , 1855 में लिखा , " कुत्ता मर गया है।खुशी का दिन ! " अपनी सगी मां के लिये भी मार्क्स के दिल में कोई संवेदना नहीं थी।मां से उसका बोलचाल का भी रिश्ता नहीं था।दिसंबर 1863 में उसने फिर एंगेल को लिखा, " दो घंटे पहले मां की मृत्यु का तार मिला।जरुरी था भाग्य घर के एक सदस्य की जान ले।मेरे पैर भी कब्र में हैं।उस बुढ़िया से मुझे पैसों की ज्यादा जरूरत है।जा रहा हूं वसीयत संभालने।" मार्क्स के अपनी पत्नी से सबंध भी खराब थे।पत्नी ने उसे दो बार छोड़ा भी।जब पत्नी की मौत हुई तो मार्क्स उसके अंतिम संस्कार में भी नही गया। एक अमरीकी कमांडर सरजिस रीस मार्क्स का भक्त था। मार्क्स की लंदन में मौत के बाद कमांडर दुखी मन से उसके घर गया।परिवार जा चुका था और उसे घर की पुरानी नौकरानी हेलन मिली।हेलेन ने बहुत आश्चर्य जनक बात कही , " वह ( मार्क्स) अत्यधिक धर्मभीरु व्यक्ति था।बीमार होने पर जलती हुयी मोमबत्तियों के सामने सर पर पट्टी बांधे प्रार्थना किया करता था।" यह शैतान पूजा थी। मार्क्स के पुत्र ने मार्च 31 , 1854 को लिखे पत्र में अपने पिता को " मेरे प्रिय शैतान " कह संबोधित किया। मार्क्स की पत्नी ने उसे 1844 में लिखे पत्र में कहा , " तुम्हारे आध्यात्मिक पत्र , हे उच्च पादरी और आत्माओं के पादरी , ने पुन: तुम्हारी बेचारी भेड़ों को विश्राम और शांति दी है।" शैतान का पुजारी बुरी स्थिति में मौत को प्राप्त हुआ। मई 25 , 1883 को उसने अपने मित्र एंगेल को लिखा , " जिंदगी कितनी सारहीन और खाली है।फिर भी चाहत भरी !" क्या साम्यवाद कत्ल करता है ? हां करता है। क्यों ? क्योंकि शैतान ने मार्क्स से ऐसा कहलवाया।आंकड़े इसबात की पुष्टि करते हैं।अमरीकी सिनेट की आंतरिक सुरक्षा उपसमिति की एक जांच रिपोर्ट के अनुसार साढ़े तीन करोड़ से लेकर साढ़े चार करोड़ लोग सोवियत रुस में और साढ़े तीन करोड़ से साढ़े छ: करोड़ लोग चीन में शैतानी साम्यवाद ने कत्ल किये। सोवियत यूनियन मामलों के विशेषज्ञ सोलज़ेनेत्सिन और ऐंटोनोफ ने इन आंकड़ों को बहुत कम माना है।ऐंटोनोफ के पिता , जिनके नेतृत्व में बोलशिविक क्रांति के दौरान 1917 में विंटर प्लेस पर धावा किया था , ने अपनी पुस्तक ' द टाइम औफ स्टालिन- पोर्ट्रेट औफ टिरनी' में गणना कर बताया है कि शैतानी साम्यवाद ने देश में दस करोड़ लोगों का बेरहमी से कत्ल किया।अत: इस सीधे सवाल कि क्यों साम्यवाद कत्ल करता है का सीधा जवाब है कि मार्क्स ने 1848 में लिखे कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो में साफ साफ लिखा कि साम्यवाद के मूलभूत उद्देश्यों को हासिल करने के लिये आबादी एक बड़े हिस्से को कत्ल कर दिया जाये।इसीकारण दुनियाभर के साम्यवादी , चाहें किसी भी मुखौटे के पीछे छिपे हों , कत्ल को अपना दायित्व मानते हैं।चूंकि मार्क्स दुनिया की हर वस्तु को मात्र गतिमान पदार्थ ही मानता है इसलिये नैतिकता , भावनाओं , शील , संस्कार का इसके लिये कोई महत्व नही है।मार्क्स का मानना था कि विचार और भावनायें पदार्थ की यानी मस्तिष्क की उपज हैं इसलिये इन्हें नियंत्रित करने के लिये जरूरी है कि मस्तिष्क को वश में कर लिया जाये।मार्क्स का यही पदार्थवाद है जो मनुष्य के विचार और प्रवित्ति को वश में कर उसके स्वभाव को गुलाम बना लेना चाहता है।देश और दुनियाभर में युवाओं को इसीलिये गुमराह किया जाता रहा है। यही शैतान पूजा के भी नियम और कार्यविधि है। साम्यवाद तक पहुंचने के छ: चरण हैं। 1- क्रांति : इस प्रथम चरण में हिंसक क्रांति के जरिये पूंजीवाद को नष्ट करना आवश्यक है। 2-सर्वहारा की तानाशाही : क्रांति का उद्देश्य है कि वर्तमान बोर्जुआ व्यवस्था को उखाड़ कर असीमित तानाशाही के जरिये सर्वहारा की तानाशाही कायम की जाये।ऐसा होने पर सर्वहारा तो बस नाम भर का रह जाता है वास्तविक तानाशाह साम्यवादी नेतृत्व बन जाता है। 3- पूंजीवदी राज्य सत्ता का विध्वंश : सफल क्रांति के बावजूद अनेक पूंजीवादी संस्थायें बची रह जाती हैं जैसे सेना ,पोलीस, न्यायालय , नौकरशाही और शिक्षा तंत्र।अगर इनको रहने दिया जाये तो ये प्रतिक्रांति द्वारा सर्वहारा की तानाशाही के लिये खतरा बन सकती हैं।इसलिये इस चरण में इन सबका ( मध्यम वर्ग का) संपूर्ण विध्वंश जरूरी है। सेना को समाप्त कर लाल सेना कायम करना ही उचित है। इसी वजह से वामपंथी सेना के खिलाफ जहर उगलते हुये इसे बलात्कारी और न्यायालय को कातिल कहते हैं। 4- संपूर्ण मध्यम वर्ग का खात्मा : मार्क्स का मानना था कि सफल क्रांति के बाद भी यह वर्ग बड़ी संख्या में बचा रह जाता है और इसका खात्मा साम्यवाद की प्राप्ति के लिये अनिवार्य है।इसीलिये वामपंथी कत्ल करते हैं। इस चरण में पहुंचते ही कंबोडिया के वामपंथियों ने 24 घंटों के अंदर शहर.के.शहर खाली करवा दिये और करोडों लोगों को मौत के घाट उतार दिया। 5- समाजवाद का सृजन : साम्यवाद के अंतिम आदर्श लक्ष को प्राप्त करने से पहले इस चरण से गुजरना जरुरी है। 6- साम्यवाद : यह एक काल्पनिक चरण है और इसमें शैतान पूजक ने मुंगेरीलाल के हसीन सपनो का वादा किया है।व्यक्ति अपनी सारी कमजोरियों लालच , द्वेष आदि से मुक्त हो जाता है।इस चरण में कोई भी देश आजतक नहीं पहुंच पाया है। साम्यवाद एक झुनझुना ही साबित हुआ है। अभी हिंदुस्तान में प्रथम चरण में ही वामपंथी उलझकर हजारों लोगों की हत्या में नित्य जुटे हैं।इनकी कल्पना है कि चौथे चरण तक पहुंचते हुये देश की आधी आबादी को कत्ल कर दिया जाये एक शैतान पूजक के नाम पर। क्या हम आप इसके लिये तैयार हैं ? संदर्भ : 1-Marx and Satan-Richard Wurmbrand 2- Communist Manifesto- Marx and Engels 3- The Schwarz Report- Essays 4- Why Communism Kills: The Legacy of Karl Marx.- Dr Fred C Schwarz - अरुण लवानिया
सदा मधुर वाणी बोलनी चाहिए (vedic vichar)
05-05-2022
एक राजा अपने घुड़सवारों के साथ जंगल से गुजर रहे थे। राह में रास्ता भटक गए। प्यास लगने पर पानी की खोज में उन्होंने अपने घुड़सवारों को चारों दिशाओं में भेजा। एक सैनिक एक पानी के घड़े रखे हुए अंधे व्यक्ति के पास पहुँचता है और उससे पानी मांगने के लिए कहता है,"ए अंधे! देख नहीं रहा मैं प्यासा मर रहा हूँ। मुझे पानी दे।" अंधे व्यक्ति ने सैनिक की बात को सुनकर अनसुना कर दिया। पीछे से राजा का सेनापति भी उस अंधे व्यक्ति के पास पहुँचता है और उससे पानी मांगने के लिए कहता है, अंधे बाबा! मुझे प्यास लगी हैं। मुझे पानी दो। अंधे व्यक्ति ने सेनापति की बात को सुनकर भी अनसुना कर दिया। पीछे से राजा भी उस अंधे व्यक्ति के पास पहुँचता है और उससे पानी मांगने के लिए कहता है, बाबा जी! मेरे प्राण प्यास के कारण निकले जाते है। कृपया मुझे पानी देकर मेरी प्राण रक्षा कीजिये। अंधे व्यक्ति ने राजा की बात को सुनकर उन्हें सहर्ष पानी पिला कर तृप्त कर दिया। राजा ने बाकि लोगों को पानी पिलाने का कारण उस अंधे व्यक्ति से पूछा। अंधे व्यक्ति ने उत्तर दिया। आपका सैनिक अपने सैनिक होने के अभिमान से ग्रस्त था। वह अन्य प्राणियों को अपने से नीचा समझता हैं। वह सहायता करने लायक नहीं है। आपके सेनापति के मन में कपट है। वह चापलूसी करके अपना काम निकालना जानता है। उससे अधिक अपेक्षा नहीं रखनी चाहिए क्योंकि वह अपने लाभ के लिए किसी का भी अहित कर सकता है। और आप राजन सभी प्राणी मात्र को एक सम दृष्टि से देखते इसलिए आपकी भाषा में मधुरता, सौम्यता और मीठापन हैं। राजा उस अंधे व्यक्ति की बात सुनकर तृप्त हुए। हर व्यक्ति अपने लिए दूसरे मनुष्य द्वारा मीठी वाणी का उपयोग करने की अपेक्षा रखता है। मीठी वाणी से मनुष्य को सौ कार्य भी सिद्ध हो जाते है। कटु बोलने से बनते काम बिगड़ जाते है। वेद सामान्य जीवन में हर मानव को न केवल अन्य मनुष्य के लिए मीठी वाणी का उपयोग करने का सन्देश देते है अपितु ईश्वर के लिए भी स्तुति करते समय मधुर वाणी से स्मरण करने का सन्देश देते है। अथर्ववेद 20/65/2 में सन्देश दिया गया है कि है कि, "हे मनुष्यो दिव्य प्रकाश की किरणों के स्रोत्र, ज्ञान इन्द्रियों एवं कर्म इन्द्रियों को शक्ति देने वाले, आलोक में निवास कराने वाले, पापों और तापों के नाशक इन्द्र (ऐश्वर्या के स्वामी) रूपी ईश्वर के लिए घृत और मधु से भी अधिक स्वादु स्तुति वचनों का प्रयोग करो"। मनुष्य परमेश्वर को कब कब स्मरण करता है? एक जब वह सुख में हो, एक जब वह विपत्ति में हो। जब सुख में होता है तब बेमन से, माला फेरते हुए, ध्यान कहीं ओर रखकर ईश्वर का जाप करता है। और जब दुःखी हो तो आपत्ति के उपाय के लिए अथवा कभी कभी कटु वचनों से ईश्वर का स्मरण करता हैं। ऐसी स्तुति फलदायक नहीं है। अपने मन को बाह्य जगत से हटाकर मधुर वाणी से ईश्वर के गुण गाओ। मधुर वाणी में ईश्वर की स्तुति करने वाले मनुष्य के गुण भी ईश्वर के समान दयालु और कल्याणकारी हो जाते हैं। इसलिए सदा मधुर वाणी बोलनी चाहिए।
Vedic vichar
05-05-2022
आर्यसमाज के विस्मृत भजनोपदेशक ठाकुर उदय सिंह 'ठाकुर कवि' लेखक - डॉ. भवानीलाल भारतीय जी प्रस्तुति - अमित सिवाहा सहयोगी - प्रियांशु सेठ आर्यसमाज के मूर्धाभिषिक्त भजनोपदेशक भ्रातातुल्य पं० ओमप्रकाश वर्मा के मुख से अनेक बार ठाकुर कवि के पद्य तथा सुन्दर सूक्ति - सुमनों को सुनने का अवसर मिला तो इस कवि के बारे में जानने की जिज्ञासा हुई। अवसर आया आर्यसमाज बडाबाजार सोनीपत के वार्षिकोत्सव के अवसर पर जब मैं और वर्माजी साथ ही आमंत्रित थे । उसके बाद जो जानकारी उनसे मिली और कवि ठाकुर की सरस काव्य रचना के कुछ नमूने उनके स्मृतिकोश से प्राप्त किये उन्हें यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है । कवि ठाकुर का वास्तविक नाम ठाकुर उदय सिंह था और वे अलीगढ़ के प्रेमपुर ग्राम के निवासी थे । उनका जन्म १८९२ में हुआ और ९० वर्ष की आयु प्राप्त कर १९८२ मे दिवंगत हुए । उनका अध्ययन तो शायद दसवीं श्रेणी तक हुआ था किंतु हिन्दी , उर्दू , तथा अंग्रेजी का उनका ज्ञान पर्याप्त था । आर्यसमाज के प्रारंभिक काल में अधिकांश भजनोपदेशक उत्तरप्रदेश के मेरठ , अलीगढ , सहारनपुर , मुजफ्फरनगर तथा बुलन्दशहर आदि जिलो में ही हुए हैं । उन्होने मध्यकालीन इतिहास की अमरकथाओं को काव्य का रूप दिया । इनमें कुछ थी - महाराणाप्रताप , चन्द्रहास , रणसिंह और कुंवरदेवी आदि । लगभग पचास वर्ष तक वे आर्यप्रतिनिधिसभा पंजाब के अंतर्गत वैदिकधर्म का प्रचार करते रहे । यहां उनकी कुछ काव्य रचनाओं को उद्धृत किया जा रहा है । इससे उनके काव्य रचना कौशल का अच्छा परिचय मिल सकेगा । ऋषि दयानन्द की महिमा में लिखी गई उनकी उर्दू गजल का मुलाहिजा फरमाये - बताए हम तुम्हे दयानन्द क्या था,वो दस्ते कुदरत का एक मौजिजा था । ( प्रकृति के हाथ का एक आश्चर्य था ) सुनाता था अहकाम वो आसमानी , इसी वास्ते वो रसूले खुदा था। ( ईश्वरीय सदेश सुनाने के कारण उसे ईश्वर का दूत कहा जा सकता है ) लुटाता था वैदिकधर्म का खजाना! महादानी दानी करण से सवा ( सवाया उत्कृष्ट ) था। आदित्य ब्रह्मचारी बन कर रहा वो कलियुग का वो मिस्ले ( तुल्य ) भीष्म पिता था । उसे याद करते हैं सब दोस्त दुश्मन । कहो क्यो न ' ठाकुर ' कि वह औलिया ( उच्च कोटि का साधु ) था । भारत के कतिपय देशभक्तो तथा प्रतिभावान् पुरुषों में दयानन्द की आत्मा का प्रकाश दिखाई देता है । उस भाव को कवि ने इस प्रकार व्यक्त किया है - कोकिला न कूके काहू देश मे सरोजिनी सी , कोविद कवीन्द्र में रवीन्द्र ही सितारो है । काहू देश कोश मे मिले न जगदीश बोस , गामा ( पहलवान ) जगजीत को जीत न अखारो है।. मोती अक जवाहर ( नेहरू ) मिले न रत्नाकर में , साधु न मिलेगा जैसा ये लगोटी वालो ( गाँधी ) है । कहे कवि ठाकुर मानो चाहे मत मानो सबकी आत्मा में दयानन्द को उजारो है । यदि स्वामी दयानन्द का धराधाम पर अवतरण पर नहीं होता तो कैसी स्थिति हो जाती इसे कवि ने निम्न सवैया मे बताया है । कवि भूषण ने शिवाजी महाराज की प्रशसा ऐसे ही भाव व्यक्त किये हैं जो शिवाजी न होतो तो सुनत होती सबकी ' जैसे वाक्यो मे व्यक्त हुए हैं । दयानन्द महिमा का ठाकुरकृत पद्य में - वेद के भेद कहा खुलते अरु पुरानन की प्रति मोटी होती तुलती ही गप्पो की तोल घडाघड,सोटे सरे की कसौटी न होती। हिन्दू न हिन्दी न हिन्द रहे थे , अग में फाटी लगोटी न होती । 'ठाकुर' राम के वंशज कर गो बोटी तो होती,पर चोटी न होती।। भौतिकता को प्रधानता देने वाले वर्तमान युग की विडम्बना को कवि ने निम्न कवित्त में चमत्कारपूर्ण शैली में व्यक्त किया है - सोचो ले जाया जाय पार किस तरह धर्म की नैया को । जब लगा पूजने जग सारा ईश्वर की जगह रुपैया को। वेदो की कथा को सुनने को आये तो आये चार जना । लाखो की जनता टूट पड़ी सुनने ताता थैया(विश्या-नृत्य)को। बाबू साहब के कुत्ते भी यहा दूध सूध कर हट जाते हैं । ख़ल(गो का साथ) का टुकड़ा दिया नहीं भारत की गैया मैया को। हो एक बात तो बतलाऊ ' ठाकुर ' इस पागलखाने की । जब राष्ट्रपति को दस हजार मिलता दस लाख सुरैया ( अभिनेत्री ) को ।। सृष्टि रचयिता की रचना तो बुद्धिपूर्वक ही हुई है , चाहे हम अल्पज्ञो को उसका रहस्य समझ में न आये , यह भाव इस कविता में देखें - दुनिया बनानेवाले दुनिया बनाई , रचना समझ मे मेरे न आई । निर्जन वन मे फूल खिलाये सोने मे क्यो न सुगध समाई । गन्ने में फल भी लगाया तो होता,चदन में क्यो न कलिया खिलाई। काबुल में किशमिश ब्रज में है टैंटी ( करील के फल ) । पशुओं में कैसी कस्तूरी जमाई। यदि कोई और होता ठाकुर कविजी , उसे मूरख बनाती सारी खुदाई । सांसारिक विषयों में तल्लीन जीव को प्रबोधन देता कवि कहता है - विषयों में फसकर ए मूरख , भगवान् भजन क्यो छोड़ दिया । है शोक ऋषि और मुनियों के सब चाल - चलन को छोड़ दिया । यहां बडे - बडे मतिवाते भी माया मे हुए मतवाले , पापन के कटीले काटो मे गुलजार चमन(प्रफुल्लित उद्यान)को छोड़ दिया । स्वार्थ के इन टुकडो पर तू कुत्तो की तरह दर - दर भटका , दो रोटी के बदते हमने सध्या हवन को छोड़ दिया । तेरे प्रेम का चस्का लगते ही देखा राजा महाराजों को देही पर भस्म रमा बैठे और तख्ते वतन को छोड़ दिया । तेरे अनुराग के दीपक पर मेरा मन जब पलग बना , तब फर हुआ भवसागर से आवागमन को छोड़ दिया । ' ठाकुर ' जिस पर तूने तन मन धन सब वारा या उसने श्मशान में जाकर के चार हाथ कफन को छोड़ दिया । जिस दीपवली के दिन महावीर स्वामी रामतीर्थ तथा ऋषि दयानन्द ने महाप्रस्थान किया उसे उलाहना देते हुए कवि ने लिखा - जैन अचारी ( आचार्य ) गुणधारी तपी ब्रह्मचारी महावीर स्वामी की जोत बुझाई है । भक्ति रससना मस्ताना ' स्वामी रामतीर्थ उसकी छटा तूने गंगा में डुबोई है । जगहितकारी वेद धर्म के प्रचारी दयानन्द ब्रह्मचारी को अनन्त में विलाई है । कहे कवि ' ठाकुर ' ऐते अधम अमन ( पाप ) कर कारे मुखवारी तू दिवाली फिर आई है । यहां इस प्रतिभाशाली कवि ठाकुर के रससिक्त काव्य की एक झलक ही दी जासकी है । हमारा प्रयत्न होना चाहिये कि आर्यसमाज से जुड़े इन दिवंगत कवियों , गायकों और भजनोपदेशकों के जीवन और कृतित्व का लेखा - जोखा एक बार पुन लिया जाये. -८/४२३ नन्दन वन जोधपुर । नोट :- सन् १९७६ मे सुदर्शनदेव आचार्य के द्वारा ठाकुर उदय सिंह प्रेमपुरी की हस्तलिखित पुस्तक " ठाकुर सर्वस्व मेरे पास प्रेस में छपने के लिए आई थी । विगत २६ वर्षों के अन्तराल में इसके लेखक और प्रकाशक भी दिवंगत होचुके हैं । यदि कोई सज्जन इस पुस्तक के प्रकाशन का व्यय वहन करना चाहे तो उसका परिचय भी चित्रसहित इस पुस्तक के साथ प्रकाशित कर दिया जायेगा । कवि की १ उदयप्रकाश , २ चन्द्रहास ३ छत्रपति शिवाजी ४ महाराणा प्रताप , ५ योद्धा छत्रसाल , ६ ठाकुर तरग , ७ ठाकुर विलास , ८ वेद और कुर्बान के दो - दो हाथ आदि अन्य रचनाये भी हैं । उपदेशकों की दशा का वर्णन ठाकुर कवि ने इस प्रकार किया है - शीष पर बिस्तर और बगल मे छतरी लगी , एक हाथ बैग दूजे बालटी संभाली है । दिन गया धक - धक में रात गई बक बक में , कभी है अपच और कभी पेट खाली है । जंगल में सलूना और सड़क पे दशहरा मना , मोटर में होली और रेल में दिवाली है । पुत्र मरा सावन मे और पत्र मिला फागुन मे , ' ठाकुर ' इन उपदेशकों की दशा भी निराली है ।। -वेदव्रत शास्त्री
वैदिक विनयĺ (vedic vichar)
05-05-2022
अनुत्तमा ते मघवन्न किर्नु, न त्वावाँ अस्ति देवता विदानः। न जायमानो नशते न जातो, यानि करिष्या कृणुहि प्रवृद्ध।। -ऋ० १।१६५।९ विनय - हे सर्वैश्वर्यशालिन् ! मैं आज देख रहा हूँ कि इस विश्व का सब-कुछ--छोटे-से छोटा और बड़े-से-बड़ा-तेरे हिलाये हिल रहा है। ऐसी कोई भी वस्तु नहीं है जो कि तेरी प्रेरणा से प्रेरित नहीं हो रही है। इस ब्रह्माण्ड-सागर की क्षुद्र-से-क्षुद्र और महान्-से-महान् सब लहरें तू ही पैदा कर रहा है। जगत् के अनन्तों परमाणुओं में जो एक-एक परमाणु प्रतिक्षण गतिशील है, चींटी से कुंजर तक जो सब प्राणी चेष्टा कर रहे हैं, मनुष्य के वैयक्तिक जीवन और मनुष्य-संघ के समष्टि जीवन में जो नित्य छोटे-बड़े परिवर्तन हो रहे हैं, भूकम्प, वर्षा, वायु, अग्नि, ऋतु आदि रूप से जो आधिदैविक जगत् निरन्तर बदल रहा है यह एक जगत् क्या, ऐसे-ऐसे जो कोटि-कोटि अनन्त जगत्, जो असंख्यात सूर्य और पृथिवियाँ, इस महाकाश में चक्कर लगा रहे हैं ये सब-के-सब, तेरी ही दी हुई गति से, तेरी ही प्रेरणा से चल रहे हैं। तू अपनी पूर्ण ज्ञानमयी ठीक-ठीक गति देकर इस सब संसार को नचा रहा है। हम मनुष्य क्या, बड़े-से-बड़े ज्ञानी देव भी तेरे असीम ज्ञान का पार नहीं पा सकते। ये सब तेरे ज्ञान को असीमअनन्त कह-कहकर अपनी अज्ञानता को ही प्रकाशित करते हैं। ज्यों-ज्यों हमारा ज्ञान बढ़ता जाता है त्यों-त्यों पता लगता जाता है कि तू कितना-कितना महान् है ! हे महान् ! हे परम महान् !! तेरी महत्ता के आकाश का अन्त हमारा कल्पना-पक्षी अपनी ऊँची-से-ऊँची उड़ान से भी नहीं पा सकता; वह हार मानकर, थक-थककर, शान्त हो जाता है। तब हम तेरी महत्ता को अनन्त मानकर और तेरी लीला को अगम्य कहकर चुप हो जाते हैं। इतना ही कह सकते हैं कि इस जगत् में जो कुछ पैदा हुआ है, हो रहा है या होगा, उनमें से किसी में भी ऐसी शक्ति नहीं है जो तेरी लीला को समझ सके, जो तेरे द्वारा की जानेवाली या की जा रही लीला के किसी ओर-छोर को पा सके। जो तेरी लीला की अधिक-से-अधिक सच्ची, नज़दीकी और पूरी खबर लाता है तो वह यही खबर लाता है कि तेरी लीला अगम्य है, तेरी लीला अगम्य है। शब्दार्थ -- (आ) ओह, सच है कि (मघवन्) हे सर्वैश्वर्ययुक्त ! (नु ते अनुत्तम् न किः) निस्सन्देह ऐसी कोई वस्तु नहीं है जो कि तुझसे अप्रेरित है जो कि तुझसे प्रेरित नहीं है, (त्वावान् विदानः देवता न अस्ति) तेरे समान ज्ञानवाला कोई देवता भी नहीं है, (प्रवृद्ध) हे परम महान् ! (न जायमानः न जातः) न तो कोई उत्पन्न होनेवाली और न कोई उत्पन्न हुई वस्तु है [तानि] (नशते) जो तेरे उन कर्मों तक पहुँचती है (यानि करिष्या, कृणुहि) जिन कर्मों को तू करेगा या कर रहा है।
आर्यो को सेवा ,सुरक्षा ,और संघर्ष के कार्य क्रम को अपनाना होगा। (vedic vichar)
03-05-2022
चलो हिन्दुओ की तो मान लें की वह अलग अलग पाखण्डों में लिप्त है और संगठन में रहना पसंद नहीं करते। लेकिन आर्यों को क्या हुआ? वे संगठित क्यों नहीं हैं। संगठन के लिए अपने हितों और अपने लाभों को दांव पर लगाना पड़ता है क्योंकि लक्ष्य सर्वोपरी होता है तुच्छ झगड़े छोड़ कर संगठित होना पड़ता है। हमारे ऋषि दयानन्द के स्वपन का क्या हुआ। ? जो उन्होंने आर्यावर्त बनाने का देखा था। क्या छोड़ दें उस स्वपन को? केवल आर्यावर्त निर्माण ही ऋषि का स्वप्न नहीं है अपितु कृण्वन्तो विश्वमार्यम आज्ञा है वेदों की। क्या एक व्यक्ति को कार्य सौंप कर और एक राजनैतिक पार्टी को अपना शुभचिन्तक मान लिए जाए और उस वेद की आज्ञा को छोड़ दें? विकास विकास का जो शोर मचा रहे है बताएँ कि कौन सा विकास इस देश का हो रहा है ? क्या हमारे बालक अभी आस्तिक हो गए? क्या उनमे नैतिकता आ गई? क्या वह चरित्रवान बन गए? क्या आज कॉलेज में बालक व्यसनों से छूट गए? क्या मातृ शक्ति निर्भय और सुरक्षित है। क्या देश में सबको न्याय व सुरक्षा उपल्बध है। क्या भ्रष्टाचार ख़त्म हो गया। क्या राष्ट्र की अखण्डता सुरक्षित है। क्या देश के नागरिकों को सम्मान व भय मुक्त होकर जीने का अधिकार है।क्या लोग दुखों और पीड़ा में आत्महत्या नही कर रहे। .............?”उत्तर न ही मिलेगा। हमें तो विचार प्रतिपल यह रहना चाहिए की आर्यावर्त निर्माण कैसे हो। चरित्रवान धार्मिक सत्य न्याय प्रिय वीर पुरूषों का राज्य कैसे स्थापित हो। मा वा स्तेन ईशत यजुर्वेद 1/1 हम पर बुरे लोगो का शासन नही होना चाहिए। उसके लिए अनथक प्रयास की आवश्यकता है अन्यथा यह अंतिम क्षण हैं जीने या मर मिटने का उसके बाद हमारी पीढियां क्या बनेंगी सोच कर ही चिन्ता हो रही है। अगर आज भी आर्यो ने स्वयं पुरुषार्थ नहीं किया तो पहले महाभारत काल का पाप ढोया फिर ऋषि ह्त्या का पाप ढोया फिर कांग्रेस को आगे करके राजनीति से दूर रहकर पाप ढोया और इस बार तो हिन्दूवादीयो को आगे रख कर महापाप भोगोगे। आख़िर मरना तो पड़ेगा चाहे घर बैठे निठ्टले मरो या कुछ कर के देश व धर्म के लिए मरो। क्योकि इस शरीर की मृत्यु होकर यह इसी व्यवस्था में फिर आयेगा जैसा वातावरण हम छोड़ कर जाएंगे वैसा ही फिर से भोगेंगे। यह तो ईश्वर का न्याय है। यह संदेश किसी एक व्यक्ति के लिए नहीं अपितु स्वयं को आर्य कहने वाले हर उस व्यक्ति के लिए है जो संघर्ष से दूर भाग रहा है। लेकिन उनमें मैं नही हूँ शायद उसमें तुम भी हो सकते हो । आँखें खोलो भाइयो अन्यथा यह 100 करोड़ हिन्दू ही खुद तो डूबेगा तुम्हे भी ले डूबेगा। क्योकि जिसका कोई सिद्धान्त नहीं होता वो सिद्धांतियो को भी नहीं बख़्शता । हमारे लिए हिन्दू बौद्ध जैन सिख मुस्लिम ईसाई सब एक सी सम्प्रदायक मानसिकता वाले लोग है।हमें तो इन सबसे उपर उठ कर आर्य राष्ट्र बनाना है। यह सब तभी हो सकता है जब प्रत्येक आर्य आपने साथी आर्यों को हर क्षेत्र में सहयोग देंगे चाहे यह उनका व्यक्तिगत लाभ का या सहायता का मामला ही क्यों न हो। आर्य समाज एक परिवार है और परिवार के हर व्यक्ति की उन्नती में ही आर्य समाज की उन्नती है।हमें सबकी उन्नती से पहले आर्यो कि उन्नती में ही आपनी उन्नती समझनी चाहिए यह वर्तमान समय कि अवशयकता है । जो आर्य सज्जन कमज़ोर है वृद्ध है बिमार है निर्धन है मुसिबत में है सर्व प्रथम उसकी धन व बल से सहायता और सेवा करें। कोई भी आर्य इस विरोद्ध भरे समाज में स्वयं को अकेला न समझे।अगर किसी आर्य को सरकार द्वारा या प्रशासन द्वारा या पुलिस द्वारा पड़ताडि़त किया जा रहा है तो सभी संगठित होकर उनकी सेवा व सुरक्षा करो, आप को देख कर अन्य लोग भी आपके साथी सहयोगी बनेंगे और आपके साथ जुड़ कर आर्य बनते जाएँगे। यह कार्य तभी सम्भव है जब आप आपने स्वार्थ और अभिमान को छोड़ कर ऋषि कार्य को सर्वोपरी मानोगे और संगठित होगें। जब आप धर्म व राष्ट्र रक्षा में सब कुछ निशावर करने को उद्धत होगें।तब आपसी मत भेदो का कहीं स्थान नही होगा। ऋषि दयानंद ने तो सब कुछ स्पष्ट कर आपना संदेश लिख दिया है ✒"आपस की फूट से कौरव पांडवों और यादवों का सत्यानाश हो गया सो तो होगया परंतु अब तक भी वही रोग पीछे लगा है । न जाने यह भयंकर राक्षस कभी छूटेगा वा आर्यों को सब सुखों से छुडाकर दुखसागर में डुबा मारेगा ?उसी दुष्ट दुर्योधन गोत्र हत्यारे ,स्वदेश विनाशक, नीच के दुष्ट मार्ग में आर्य लोग अब तक भी चलकर दुख बढा रहें है ।परमेश्वर कृपा करे की यह राजरोग हम आर्यों में से नष्ट हो जाय ।” हम न्याय प्रिय हैं हम शांति प्रिय है हमारे पास उच्च कोटी का वैदिक ज्ञान है हमारे उच्च आदर्श है यह बातें हमें दुनिया में महान नही बना रही हमारी महानता हमारी सफलता पर निर्भर है क्या हम वेद का ज्ञान जन जन तक पहुचा पाये ? क्या भारत को आर्य राष्ट्र बना पाये ? क्या हम विश्व को आर्य बनाने की ओर बड़ रहे है ? अगर उत्तर न है तो यह हमारी किसी तरह भी महानता नहीं होगी। हमारा सफल और महान इतिहास हमें अधिक देर तक शोभायमान नही रख सकता। इस सब को पाने के लिए संघर्ष करना होगा। हमें देश को अज्ञानता अशिक्षा पाखण्ड अधर्म अन्याय भ्रष्टाचार उत्पीड़न भय से समाज को मुक्त करने के लिए पुरज़ोर संघर्ष करना होगा। सारा समाज आशा भरी नज़रों से आपको देखेगा। आज हम थोड़े से आर्यों को ही क्रांतिकारी बन कर समाज में निकलना होगा। सारा समाज हमसे जुड़ कर कार्य क्षेत्र में अवश्य उतारेगा। यही संघर्ष हमारी सफलता निश्चित करेगा यही हमारा कल का इतिहास होगा। अब निर्णय आपको करना है। अब आप देखिये आपको कैसा देश चाहिए सुसंस्कारी या कूसंस्कारी। —-श्रुति
Vedic vichar
03-05-2022
*????यज्ञ का महत्व - यज्ञ किसे कहते हैं ?* *????वांच्छित कामनाओं को पूर्ण करने वाले कर्म को यज्ञ कहते हैं।* *????१. यज्ञ औषधि रूप है क्योंकि ऋतु संधियों में जो रोग उत्पन्न होते हैं उसका नाश करता है।* *????२. यज्ञ से जीवन संयमित हो जाता है।* *????३. यज्ञ से समस्त वायुमण्डल शुद्ध होता है।* *????४. यज्ञ मनुष्य में त्याग की भावना उत्पन्न करता है, क्योंकि स्वाहा शब्द कह रहा है - स्व का त्याग।* *????५. यज्ञ से किसी दूसरे के पदार्थों को अपना समझने की प्रवृत्ति नष्ट हो जाती है।* *????६. यज्ञ के द्वारा मनुष्य उन्नत अर्थात् ऊँचा उठता है।* *प्रज्ज्वलित अग्नि की ज्वालाओं को ऊपर उठता देखकर मनुष्य के हृदय में उन्नति की प्रेरणा प्राप्त होती है, तथा उसकी प्रसुप्त भावनाएं जागृत हो जाती हैं।* *????७. यज्ञ से शरीर स्वस्थ एवं मनुष्य दीर्घायु होता है।* *????८. यज्ञ इस समस्त संसार की नाभि या केन्द्र है। यज्ञ सर्व श्रेष्ठतम कर्म है।* *????१०. यज्ञ से पाप करने की प्रवृत्ति नष्ट हो जाती है।* *????११. यज्ञ से शरीर, इन्द्रिय, मन एवं आत्मा शुद्ध होते हैं।* *????१२. यज्ञ से वैर-भाव की प्रवृत्ति नष्ट एवं मित्र भाव की प्रवृत्ति पैदा हो जाती है।* *????१३. यज्ञ से प्रलोभन, आत्मश्लाधा के आकर्षण से मनुष्य सर्वथा पृथक हो जाता है।* *????१४. यज्ञ से मनुष्य ईश्वर पर पूर्ण विश्वास रखता है।* *????१५. यज्ञ से सतत् पुरुषार्थ करने के पश्चात जो फल प्राप्त होता है उससे मनुष्य संतुष्ट रहता है।* *????१६. यज्ञ से मनुष्य आत्म निरीक्षण करना चालू कर देता है, यानि अपनी बुराई भलाई पर सूक्ष्म दृष्टि रखता है, उसका अवलोकन करता है तथा परनिन्दा से यथाशक्ति पृथक रहता है।* *????१७. यज्ञ से आत्मा को परमात्मा का सान्निध्य प्राप्त होता है और शरीर ब्रह्म प्राप्ति के योग्य किया जाता है।* *????१८. यज्ञ से मनुष्य सर्वहित में अपना हित समझने लगता है।* *????१६. यज्ञ मानव को दानशील बनाता है, दूसरों को देना सिखाता है।*
Vedic vichar
03-05-2022
क्या संसार में मनुष्यों के ज्ञान धन सुख में भिन्नता ईशवरिय अन्याय है ? वेद मंत्र :---उदसौ सूर्यों अगादुदयं मामको भगः। अहं तद्विद्वला पतिमयसाक्षि विषासहिः।। – ऋक्. 10/159/1 वैदिक धर्म का मूलवेद है। वेद के सिद्धान्त को जानने-मानने वाले को, उस विचार को व्यवहार में लाना होता है, उसपर आचरण करना होता है। हम कितना भी अच्छा क्यों न सोचते हों, हमारी अल्पशक्ति, अल्पबुद्धि कुछ-न-कुछ अनुचित ग़लत कर बैठती है। यदि मनुष्य के पास पूर्ण ज्ञान और सामर्थ्य होता तो संसार में न तो ईश्वर की आवश्यकता होती और न ही संसार की। मनुष्य की अल्पज्ञता/ सीमित ज्ञान ही संसार और ईश्वर की आवश्यकता महसूस कराता है। ईश्वर एक है, और सबको ज्ञान, सामर्थ्य, ऐश्वर्य का देने वाला है, तो उसके ज्ञान के देने में अन्याय या पक्षपात की बात कैसे सभव है। संसार में मनुष्यों को, प्राणियों को देखकर हमें ऐसा लगता है, जैसे परमेश्वर सबको अलग-अलग ज्ञान व सुख देकर अन्याय कर रहा है, परन्तु हम भूल जाते हैं कि देने वाला एक है, उसका देने का प्रकार भी एक ही होगा, अन्तर तो भिन्नता की ओर से होता है, प्राप्त करने वाले मनुष्य पृथक् हैं, अतः देने वाले के दृष्टि में सब एक हैं, परन्तु लेने वाले भिन्न और अनेक हैं, अतः ग्रहण करने के सामर्थ्य में भिन्नता दिखती है। इतना मान लेने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि परमेश्वर द्वारा सबके साथ समान व्यवहार ही हो रहा है, फिर चाहे स्त्री हो, पुरुष हो या कुछ और भी हो, जैसे ईश्वर की सत्ता सर्वत्र है, व चेतन है । उसी प्रकार एक चेतन मनुष्य उसकी सत्ता को अपने ज्ञान और योग्यता के अनुसार ही देख पाता है, अनुभव कर सकता है, दूसरा ज्ञान के अभाव से ऐसा करने में समर्थ नहीं हो पाता। यह अन्तर संसार में देखने में आता है, संसार का सारा व्यापार व्यवहार व्यक्ति पर अधारित है, परमेश्वर सबको यथावत जानता है, अतः सबको उचित ज्ञान और सामर्थ्य देता है। लेकिन सब मनुष्यों में सामर्थ्य बुद्धि कम -अधिक है जिस कारण ईश्वर का योग्य पात्र नहीं बन पाता । और योग्यता भी मनुष्य के कर्मों व तप पर अधारित होती है । आज इस मनुष्य संसार में स्त्री-पुरुष को लेकर जो जैसा व्यवहार दिखाई दे रहा है, वह सारा मनुष्य बुद्धि का परिणाम है। परमेश्वर सभी मनुष्यों का कल्याण चाहता है। और उनका उपकार करता है। जिस प्रकार एक माता-पिता अपने पुत्र और पुत्री का समान हित चाहते हैं। उसी प्रकार स्त्री पुरुष भी परमेश्वर की पुत्र-पुत्रियाँ हैं वह उनमें भेद और पक्षपात कैसे कर सकता है? यह तो हम पर निर्भर करता है कि हम उसकी कृपा के योग्य पात्र बने वे तो बिन माँगे ही हमे सुख सफलता बल धन एेशवरय आयु बुद्धि का प्रसाद प्रदान करता है । !!ओ३म् !!
Vedic vichar
03-05-2022
प्रश्न:- क्या मूर्तिपूजा सीढ़ी है ??? उत्तर :- जी हाँ !! बिलकुल यह सत्य है | मूर्तिपूजा सीढ़ी ही है | देखिये, किस प्रकार एक मूर्तिपूजक सीढ़ी-दर-सीढ़ी आगे ही आगे बढ़ता है और कभी पीछे हटता नहीं है | 1. महाभारत से पहले इस देश में कोई मूर्ति नहीं पूजी जाती थी, सब केवल एक निर्गुण-सगुण-निराकार ईश्वर "ओ३म्" की ही पूजा करते थे, सारे शास्त्र इसकी गवाही/ प्रेरणा/ आदेश/निर्देश दे रहे हैं 2. उसके बाद हमारे पूर्वज योगियों की मूर्ति बना कर पूजने लगे जैसे महावीर स्वामी, शिव जी, महात्मा बुद्ध 3. उसके बाद लोगों ने तपस्वी, वेद धर्म की रक्षा करने वालों की मूर्ति बनानी शुरू की जैसे रामचंद्र जी, श्रीकृष्ण जी आदि 4. पहले के समय में केवल जनेऊधारी पूज्यजनों की ही मूर्तियां पूजी जाती थीं 5. पहले के समय में केवल वही मूर्ति पूजी जाती जिसके एक हाँथ में शास्त्र होता था तो दूसरे हाँथ में शस्त्र क्यों की वेद का आदेश है "यत्र ब्रह्म च क्षत्रं च सम्यञ्चौ चरतः सह, तं लोकं पुण्यं प्रज्ञेषं यत्र देवाः सहाग्निना (यजुर्वेद 20/25) | समाज में शांति स्थापना के लिए शास्त्र और शस्त्र दोनों का समन्वय आवश्यक है, ऐसा सन्देश देने के लिए यह मूर्तियां बनाई जाती थीं | 6. आगे चल कर ब्रह्मचारी ज्ञान-गुण-सागर हनुमान जी की मूर्ति बना कर पूजने लगे 7. मातृ-स्वरूपा अम्बे, दुर्गा की पूजा करने लगे 8. फिर भी मन नहीं माना तो अज्ञानता के प्रतीक काले शनि को, काली माता को पूजने लगे 9. शराब भोगी काल भैरव को पूजने लगे 10. श्मशान की राख लपेटने वाले अघोरी महाकाल को पूजने लगे 11. ये भी कम पड़ गया तो ईसा-मसीह के क्रूस पर चढ़ी मूर्ति या मरियम की गोद में बैठे ईसा को पूजने लगे 12. इतना सब करने पर भी मन प्यासा रहा तो अजमेर जा कर या नगर-नगर, डगर-डगर बने मुर्दों, कब्रों, दरगाहों को पूजने लगे 13. इतना सब करने के बाद भी कमी रह गयी थी इसलिए 9 गज की कब्र पूजने लगे, फिर 72 गज की कबर पूजने लगे 14. इसके बाद भी मन में असंतोष रहा तो विधर्मी, जनेऊ-विहीन, शास्त्र-शस्त्र-शून्य साईं को लेकर आये और उसकी बड़ी-बड़ी मूर्ति बना कर पूजने लगे 15. इतना करने के बाद भी मन नहीं भरा तो देश में कई कुत्तों के मंदिर हैं, गधों से लेकर गाय तक की कबर बना कर पूजी जाने लगी 16. व्यक्ति तो छोड़िये अब तो वाहन भी पूजे जाते हैं | राजस्थान में एक मोटर बाइक की पूजा होती है | एक बार ओम्-बन्ना नामक व्यक्ति की मृत्यु, दुर्घटना में हो गयी, कहते हैं उसकी बाइक को पुलिस वाले थाने ले गए, और बार-बार ले गए लेकिन बाइक खुद चल कर वापस अपने मूल स्थान पर स्वयं आ जाती थी इसलिए लोगों ने उसे शक्तिशाली मान कर पूजने लगे | वहाँ शराब और नारियल चढ़ाया जाता है लेकिन कोई यह प्रश्न नहीं करता की इसमें कितना सत्य है और किस विद्या / शक्ति से बाइक वापस अपने स्थान पर आ जाती थी क्यों न उस विद्या/शक्ति का प्रयोग गायों के ऊपर चलने वाले छुरे पर किया जाये ताकि गाय कटने से बच जाए…….. कितना ही अच्छा हो यदि उस विद्या/शक्ति का प्रयोग पाकिस्तान से चलने वाली गोली को वापस लौटने में किया जाए ताकि हमारे सैनिक अपनी जान बचा पाएं……… लेकिन लोगों ने बाइक को पूजना ही उत्तम माना 17. देश भर में कई-कई अनपढ़, गांजा पीने वाले बाबाओं की कबर (महा-समाधि) बनी हुई है .... ....बेचारे कुमारिल भट्ट जी से पाणिनि, गार्गी, याज्ञवल्क्य आदि किसी ने महासमाधि नहीं ली लेकिन अनपढ़ गांजा पीने वाले कब्र बना-बना कर पूजने / पुजवाने लगे 18. किसी-किसी मंदिर में मूर्तियों को छोड़ कर गुरुओं के उपयोग में लिए गए पलंग, गद्दी, तकिये, खड़ाऊं, ज्योति अर्थात् दीप आदि को पूजा जाता है 19. कहीं-कहीं तो गुरु के दाँत, बाल की पूजा होती है 20. वृक्ष और पुस्तक भी पूजे जाने लगे 21. अभी आगे और मूर्तियाँ आएँगी, इसलिए सीढ़ी का अंतिम कदम/ पायदान कहा नहीं जा सकता इसलिए कहता हूँ मूर्ति पूजा सीढ़ी है | ये सीढ़ी ऐसी है जो व्यक्ति को कभी पीछे नहीं हटाती, हमेशा आगे ही आगे बढाती है, कभी हार नहीं मनवाती, व्यक्ति जीवन भर विविध स्वरुप में मूर्तिपूजा करता है, पर थकता कभी नहीं है | ये ऐसी सीढ़ी है जो व्यक्ति को आध्यात्म के क्षेत्र में ऊपर की ओर नहीं परन्तु नीचे को ओर, गहरी खाई में ले जाती है और व्यक्ति जीवन भर अंतहीन मूर्ति-पूजा में लगा रहता है | इन सब विविध-स्वरूपों पर यदि कोई प्रश्न चिह्न लगाए तो कहते हैं की ये सब हैं तो अलग लेकिन मूल में एक ही हैं लेकिन हैं अलग-अलग फिर कहते हैं मार्ग अलग-अलग हो सकते हैं लेकिन हैं सब एक ही, सब एक ही मंजिल पर ले जाते हैं, लक्ष्य एक ही है मूर्तिपूजा करने वाला व्यक्ति अनन्त-यात्रा पर तो जा सकता है लेकिन मूर्ति-पूजा का अन्त कोई नहीं पा सकता इसलिए ये सीढ़ी ही है ऐसा अब आप मान लीजिये बेशक यह सीढ़ी गहरी खाई में गिरा रही जहाँ से बाहर निकलना असम्भव है। |
पुनर्जन्म से सम्बंधित चालीस प्रश्नों को उत्तर सहित पढ़े?? (Vedic vichar)
03-05-2022
(1) प्रश्न :- पुनर्जन्म किसको कहते हैं ? उत्तर :- जब जीवात्मा एक शरीर का त्याग करके किसी दूसरे शरीर में जाती है तो इस बार बार जन्म लेने की क्रिया को पुनर्जन्म कहते हैं । (2) प्रश्न :- पुनर्जन्म क्यों होता है ? उत्तर :- जब एक जन्म के अच्छे बुरे कर्मों के फल अधुरे रह जाते हैं तो उनको भोगने के लिए दूसरे जन्म आवश्यक हैं । (3) प्रश्न :- अच्छे बुरे कर्मों का फल एक ही जन्म में क्यों नहीं मिल जाता ? एक में ही सब निपट जाये तो कितना अच्छा हो ? उत्तर :- नहीं जब एक जन्म में कर्मों का फल शेष रह जाए तो उसे भोगने के लिए दूसरे जन्म अपेक्षित होते हैं । (4) प्रश्न :- पुनर्जन्म को कैसे समझा जा सकता है ? उत्तर :- पुनर्जन्म को समझने के लिए जीवन और मृत्यु को समझना आवश्यक है । और जीवन मृत्यु को समझने के लिए शरीर को समझना आवश्यक है । (5) प्रश्न :- शरीर के बारे में समझाएँ ? उत्तर :- हमारे शरीर को निर्माण प्रकृति से हुआ है । जिसमें मूल प्रकृति ( सत्व रजस और तमस ) से प्रथम बुद्धि तत्व का निर्माण हुआ है । बुद्धि से अहंकार ( बुद्धि का आभामण्डल ) । अहंकार से पांच ज्ञानेन्द्रियाँ ( चक्षु, जिह्वा, नासिका, त्वचा, श्रोत्र ), मन । पांच कर्मेन्द्रियाँ ( हस्त, पाद, उपस्थ, पायु, वाक् ) । शरीर की रचना को दो भागों में बाँटा जाता है ( सूक्ष्म शरीर और स्थूल शरीर ) । (6) प्रश्न :- सूक्ष्म शरीर किसको बोलते हैं ? उत्तर :- सूक्ष्म शरीर में बुद्धि, अहंकार, मन, ज्ञानेन्द्रियाँ । ये सूक्ष्म शरीर आत्मा को सृष्टि के आरम्भ में जो मिलता है वही एक ही सूक्ष्म शरीर सृष्टि के अंत तक उस आत्मा के साथ पूरे एक सृष्टि काल ( ४३२००००००० वर्ष ) तक चलता है । और यदि बीच में ही किसी जन्म में कहीं आत्मा का मोक्ष हो जाए तो ये सूक्ष्म शरीर भी प्रकृति में वहीं लीन हो जायेगा । (7) प्रश्न :- स्थूल शरीर किसको कहते हैं ? उत्तर :- पंच कर्मेन्द्रियाँ ( हस्त, पाद, उपस्थ, पायु, वाक् ) , ये समस्त पंचभौतिक बाहरी शरीर । (8) प्रश्न :- जन्म क्या होता है ? उत्तर :- जीवात्मा का अपने करणों ( सूक्ष्म शरीर ) के साथ किसी पंचभौतिक शरीर में आ जाना ही जन्म कहलाता है । (9) प्रश्न :- मृत्यु क्या होती है ? उत्तर :- जब जीवात्मा का अपने पंचभौतिक स्थूल शरीर से वियोग हो जाता है, तो उसे ही मृत्यु कहा जाता है । परन्तु मृत्यु केवल सथूल शरीर की होती है , सूक्ष्म शरीर की नहीं । सूक्ष्म शरीर भी छूट गया तो वह मोक्ष कहलाएगा मृत्यु नहीं । मृत्यु केवल शरीर बदलने की प्रक्रिया है, जैसे मनुष्य कपड़े बदलता है । वैसे ही आत्मा शरीर भी बदलता है । (10) प्रश्न :- मृत्यु होती ही क्यों है ? उत्तर :- जैसे किसी एक वस्तु का निरन्तर प्रयोग करते रहने से उस वस्तु का सामर्थ्य घट जाता है, और उस वस्तु को बदलना आवश्यक हो जाता है, ठीक वैसे ही एक शरीर का सामर्थ्य भी घट जाता है और इन्द्रियाँ निर्बल हो जाती हैं । जिस कारण उस शरीर को बदलने की प्रक्रिया का नाम ही मृत्यु है । (11) प्रश्न :- मृत्यु न होती तो क्या होता ? उत्तर :- तो बहुत अव्यवस्था होती । पृथ्वी की जनसंख्या बहुत बढ़ जाती । और यहाँ पैर धरने का भी स्थान न होता । (12) प्रश्न :- क्या मृत्यु होना बुरी बात है ? उत्तर :- नहीं, मृत्यु होना कोई बुरी बात नहीं ये तो एक प्रक्रिया है शरीर परिवर्तन की । (13) प्रश्न :- यदि मृत्यु होना बुरी बात नहीं है तो लोग इससे इतना डरते क्यों हैं ? उत्तर :- क्योंकि उनको मृत्यु के वैज्ञानिक स्वरूप की जानकारी नहीं है । वे अज्ञानी हैं । वे समझते हैं कि मृत्यु के समय बहुत कष्ट होता है । उन्होंने वेद, उपनिषद, या दर्शन को कभी पढ़ा नहीं वे ही अंधकार में पड़ते हैं और मृत्यु से पहले कई बार मरते हैं । (14) प्रश्न :- तो मृत्यु के समय कैसा लगता है ? थोड़ा सा तो बतायें ? उत्तर :- जब आप बिस्तर में लेटे लेटे नींद में जाने लगते हैं तो आपको कैसा लगता है ?? ठीक वैसा ही मृत्यु की अवस्था में जाने में लगता है उसके बाद कुछ अनुभव नहीं होता । जब आपकी मृत्यु किसी हादसे से होती है तो उस समय आमको मूर्छा आने लगती है, आप ज्ञान शून्य होने लगते हैं जिससे की आपको कोई पीड़ा न हो । तो यही ईश्वर की सबसे बड़ी कृपा है कि मृत्यु के समय मनुष्य ज्ञान शून्य होने लगता है और सुषुुप्तावस्था में जाने लगता है । (15) प्रश्न :- मृत्यु के डर को दूर करने के लिए क्या करें ? उत्तर :- जब आप वैदिक आर्ष ग्रन्थ ( उपनिषद, दर्शन आदि ) का गम्भीरता से अध्ययन करके जीवन,मृत्यु, शरीर, आदि के विज्ञान को जानेंगे तो आपके अन्दर का, मृत्यु के प्रति भय मिटता चला जायेगा और दूसरा ये की योग मार्ग पर चलें तो स्वंय ही आपका अज्ञान कमतर होता जायेगा और मृत्यु भय दूर हो जायेगा । आप निडर हो जायेंगे । जैसे हमारे बलिदानियों की गाथायें आपने सुनी होंगी जो राष्ट्र की रक्षा के लिये बलिदान हो गये । तो आपको क्या लगता है कि क्या वो ऐसे ही एक दिन में बलिदान देने को तैय्यार हो गये थे ? नहीं उन्होने भी योगदर्शन, गीता, साँख्य, उपनिषद, वेद आदि पढ़कर ही निर्भयता को प्राप्त किया था । योग मार्ग को जीया था, अज्ञानता का नाश किया था । महाभारत के युद्ध में भी जब अर्जुन भीष्म, द्रोणादिकों की मृत्यु के भय से युद्ध की मंशा को त्याग बैठा था तो योगेश्वर कृष्ण ने भी तो अर्जुन को इसी सांख्य, योग, निष्काम कर्मों के सिद्धान्त के माध्यम से जीवन मृत्यु का ही तो रहस्य समझाया था और यह बताया कि शरीर तो मरणधर्मा है ही तो उसी शरीर विज्ञान को जानकर ही अर्जुन भयमुक्त हुआ । तो इसी कारण तो वेदादि ग्रन्थों का स्वाध्याय करने वाल मनुष्य ही राष्ट्र के लिए अपना शीश कटा सकता है, वह मृत्यु से भयभीत नहीं होता , प्रसन्नता पूर्वक मृत्यु को आलिंगन करता है । (16) प्रश्न :- किन किन कारणों से पुनर्जन्म होता है ? उत्तर :- आत्मा का स्वभाव है कर्म करना, किसी भी क्षण आत्मा कर्म किए बिना रह ही नहीं सकता । वे कर्म अच्छे करे या फिर बुरे, ये उसपर निर्भर है, पर कर्म करेगा अवश्य । तो ये कर्मों के कारण ही आत्मा का पुनर्जन्म होता है । पुनर्जन्म के लिए आत्मा सर्वथा ईश्वराधीन है । (17) प्रश्न :- पुनर्जन्म कब कब नहीं होता ? उत्तर :- जब आत्मा का मोक्ष हो जाता है तब पुनर्जन्म नहीं होता है । (18) प्रश्न :- मोक्ष होने पर पुनर्जन्म क्यों नहीं होता ? उत्तर :- क्योंकि मोक्ष होने पर स्थूल शरीर तो पंचतत्वों में लीन हो ही जाता है, पर सूक्ष्म शरीर जो आत्मा के सबसे निकट होता है, वह भी अपने मूल कारण प्रकृति में लीन हो जाता है । (19) प्रश्न :- मोक्ष के बाद क्या कभी भी आत्मा का पुनर्जन्म नहीं होता ? उत्तर :- मोक्ष की अवधि तक आत्मा का पुनर्जन्म नहीं होता । उसके बाद होता है । (20) प्रश्न :- लेकिन मोक्ष तो सदा के लिए होता है, तो फिर मोक्ष की एक निश्चित अवधि कैसे हो सकती है ? उत्तर :- सीमित कर्मों का कभी असीमित फल नहीं होता । यौगिक दिव्य कर्मों का फल हमें ईश्वरीय आनन्द के रूप में मिलता है, और जब ये मोक्ष की अवधि समाप्त होती है तो दुबारा से ये आत्मा शरीर धारण करती है । (21) प्रश्न :- मोक्ष की अवधि कब तक होती है ? उत्तर :- मोक्ष का समय ३१ नील १० खरब ४० अरब वर्ष है, जब तक आत्मा मुक्त अवस्था में रहती है । (22) प्रश्न :- मोक्ष की अवस्था में स्थूल शरीर या सूक्ष्म शरीर आत्मा के साथ रहता है या नहीं ? उत्तर :- नहीं मोक्ष की अवस्था में आत्मा पूरे ब्रह्माण्ड का चक्कर लगाता रहता है और ईश्वर के आनन्द में रहता है, बिलकुल ठीक वैसे ही जैसे कि मछली पूरे समुद्र में रहती है । और जीव को किसी भी शरीर की आवश्यक्ता ही नहीं होती। (23) प्रश्न :- मोक्ष के बाद आत्मा को शरीर कैसे प्राप्त होता है ? उत्तर :- सबसे पहला तो आत्मा को कल्प के आरम्भ ( सृष्टि आरम्भ ) में सूक्ष्म शरीर मिलता है फिर ईश्वरीय मार्ग और औषधियों की सहायता से प्रथम रूप में अमैथुनी जीव शरीर मिलता है, वो शरीर सर्वश्रेष्ठ मनुष्य या विद्वान का होता है जो कि मोक्ष रूपी पुण्य को भोगने के बाद आत्मा को मिला है । जैसे इस वाली सृष्टि के आरम्भ में चारों ऋषि विद्वान ( वायु , आदित्य, अग्नि , अंगिरा ) को मिला जिनको वेद के ज्ञान से ईश्वर ने अलंकारित किया । क्योंकि ये ही वो पुण्य आत्मायें थीं जो मोक्ष की अवधि पूरी करके आई थीं । (24) प्रश्न :- मोक्ष की अवधि पूरी करके आत्मा को मनुष्य शरीर ही मिलता है या जानवर का ? उत्तर :- मनुष्य शरीर ही मिलता है । (25) प्रश्न :- क्यों केवल मनुष्य का ही शरीर क्यों मिलता है ? जानवर का क्यों नहीं ? उत्तर :- क्योंकि मोक्ष को भोगने के बाद पुण्य कर्मों को तो भोग लिया , और इस मोक्ष की अवधि में पाप कोई किया ही नहीं तो फिर जानवर बनना सम्भव ही नहीं , तो रहा केवल मनुष्य जन्म जो कि कर्म शून्य आत्मा को मिल जाता है । (26) प्रश्न :- मोक्ष होने से पुनर्जन्म क्यों बन्द हो जाता है ? उत्तर :- क्योंकि योगाभ्यास आदि साधनों से जितने भी पूर्व कर्म होते हैं ( अच्छे या बुरे ) वे सब कट जाते हैं । तो ये कर्म ही तो पुनर्जन्म का कारण हैं, कर्म ही न रहे तो पुनर्जन्म क्यों होगा ?? (27) प्रश्न :- पुनर्जन्म से छूटने का उपाय क्या है ? उत्तर :- पुनर्जन्म से छूटने का उपाय है योग मार्ग से मुक्ति या मोक्ष का प्राप्त करना । (28) प्रश्न :- पुनर्जन्म में शरीर किस आधार पर मिलता है ? उत्तर :- जिस प्रकार के कर्म आपने एक जन्म में किए हैं उन कर्मों के आधार पर ही आपको पुनर्जन्म में शरीर मिलेगा । (29) प्रश्न :- कर्म कितने प्रकार के होते हैं ? उत्तर :- मुख्य रूप से कर्मों को तीन भागों में बाँटा गया है :- सात्विक कर्म , राजसिक कर्म , तामसिक कर्म । (१) सात्विक कर्म :- सत्यभाषण, विद्याध्ययन, परोपकार, दान, दया, सेवा आदि । (२) राजसिक कर्म :- मिथ्याभाषण, क्रीडा, स्वाद लोलुपता, स्त्रीआकर्षण, चलचित्र आदि । (३) तामसिक कर्म :- चोरी, जारी, जूआ, ठग्गी, लूट मार, अधिकार हनन आदि । और जो कर्म इन तीनों से बाहर हैं वे दिव्य कर्म कलाते हैं, जो कि ऋषियों और योगियों द्वारा किए जाते हैं । इसी कारण उनको हम तीनों गुणों से परे मानते हैं । जो कि ईश्वर के निकट होते हैं और दिव्य कर्म ही करते हैं । (30) प्रश्न :- किस प्रकार के कर्म करने से मनुष्य योनि प्राप्त होती है ? उत्तर :- सात्विक और राजसिक कर्मों के मिलेजुले प्रभाव से मानव देह मिलती है , यदि सात्विक कर्म बहुत कम है और राजसिक अधिक तो मानव शरीर तो प्राप्त होगा परन्तु किसी नीच कुल में , यदि सात्विक गुणों का अनुपात बढ़ता जाएगा तो मानव कुल उच्च ही होता जायेगा । जिसने अत्यधिक सात्विक कर्म किए होंगे वो विद्वान मनुष्य के घर ही जन्म लेगा । (31) प्रश्न :- किस प्रकार के कर्म करने से आत्मा जीव जन्तुओं के शरीर को प्राप्त होता है ? उत्तर :- तामसिक और राजसिक कर्मों के फलरूप जानवर शरीर आत्मा को मिलता है । जितना तामसिक कर्म अधिक किए होंगे उतनी ही नीच योनि उस आत्मा को प्राप्त होती चली जाती है । जैसे लड़ाई स्वभाव वाले , माँस खाने वाले को कुत्ता, गीदड़, सिंह, सियार आदि का शरीर मिल सकता है , और घोर तामसिक कर्म किए हुए को साँप, नेवला, बिच्छू, कीड़ा, काकरोच, छिपकली आदि । तो ऐसे ही कर्मों से नीच शरीर मिलते हैं और ये जानवरों के शरीर आत्मा की भोग योनियाँ हैं । (32) प्रश्न :- तो क्या हमें यह पता लग सकता है कि हम पिछले जन्म में क्या थे ? या आगे क्या होंगे ? उत्तर :- नहीं कभी नहीं, सामान्य मनुष्य को यह पता नहीं लग सकता । क्योंकि यह केवल ईश्वर का ही अधिकार है कि हमें हमारे कर्मों के आधार पर शरीर दे । वही सब जानता है । (33) प्रश्न :- तो फिर यह किसको पता चल सकता है ? उत्तर :- केवल एक सिद्ध योगी ही यह जान सकता है , योगाभ्यास से उसकी बुद्धि । अत्यन्त तीव्र हो चुकी होती है कि वह ब्रह्माण्ड एवं प्रकृति के महत्वपूर्ण रहस्य़ अपनी योगज शक्ति से जान सकता है । उस योगी को बाह्य इन्द्रियों से ज्ञान प्राप्त करने की आवश्यकता नहीं रहती है वह अन्तः मन और बुद्धि से सब जान लेता है । उसके सामने भूत और भविष्य दोनों सामने आ खड़े होते हैं । (34) प्रश्न :- यह बतायें की योगी यह सब कैसे जान लेता है ? उत्तर :- अभी यह लेख पुनर्जन्म पर है, यहीं से प्रश्न उत्तर का ये क्रम चला देंगे तो लेख का बहुत ही विस्तार हो जायेगा । इसीलिये हम अगले लेख में यह विषय विस्तार से समझायेंगे कि योगी कैसे अपनी विकसित शक्तियों से सब कुछ जान लेता है ? और वे शक्तियाँ कौन सी हैं ? कैसे प्राप्त होती हैं ? इसके लिए अगले लेख की प्रतीक्षा करें... (35) प्रश्न :- क्या पुनर्जन्म के कोई प्रमाण हैं ? उत्तर :- हाँ हैं, जब किसी छोटे बच्चे को देखो तो वह अपनी माता के स्तन से सीधा ही दूध पीने लगता है जो कि उसको बिना सिखाए आ जाता है क्योंकि ये उसका अनुभव पिछले जन्म में दूध पीने का रहा है, वर्ना बिना किसी कारण के ऐसा हो नहीं सकता । दूसरा यह कि कभी आप उसको कमरे में अकेला लेटा दो तो वो कभी कभी हँसता भी है , ये सब पुराने शरीर की बातों को याद करके वो हँसता है पर जैसे जैसे वो बड़ा होने लगता है तो धीरे धीरे सब भूल जाता है...! (36) प्रश्न :- क्या इस पुनर्जन्म को सिद्ध करने के लिए कोई उदाहरण हैं...? उत्तर :- हाँ, जैसे अनेकों समाचार पत्रों में, या TV में भी आप सुनते हैं कि एक छोटा सा बालक अपने पिछले जन्म की घटनाओं को याद रखे हुए है, और सारी बातें बताता है जहाँ जिस गाँव में वो पैदा हुआ, जहाँ उसका घर था, जहाँ पर वो मरा था । और इस जन्म में वह अपने उस गाँव में कभी गया तक नहीं था लेकिन फिर भी अपने उस गाँव की सारी बातें याद रखे हुए है , किसी ने उसको कुछ बताया नहीं, सिखाया नहीं, दूर दूर तक उसका उस गाँव से इस जन्म में कोई नाता नहीं है । फिर भी उसकी गुप्त बुद्धि जो कि सूक्ष्म शरीर का भाग है वह घटनाएँ संजोए हुए है जाग्रत हो गई और बालक पुराने जन्म की बातें बताने लग पड़ा...! (37) प्रश्न :- लेकिन ये सब मनघड़ंत बातें हैं, हम विज्ञान के युग में इसको नहीं मान सकते क्योंकि वैज्ञानिक रूप से ये बातें बेकार सिद्ध होती हैं, क्या कोई तार्किक और वैज्ञानिक आधार है इन बातों को सिद्ध करने का ? उत्तर :- आपको किसने कहा कि हम विज्ञान के विरुद्ध इस पुनर्जन्म के सिद्धान्त का दावा करेंगे । ये वैज्ञानिक रूप से सत्य है , और आपको ये हम अभी सिद्ध करके दिखाते हैं..! (38) प्रश्न :- तो सिद्ध कीजीए ? उत्तर :- जैसा कि आपको पहले बताया गया है कि मृत्यु केवल स्थूल शरीर की होती है, पर सूक्ष्म शरीर आत्मा के साथ वैसे ही आगे चलता है , तो हर जन्म के कर्मों के संस्कार उस बुद्धि में समाहित होते रहते हैं । और कभी किसी जन्म में वो कर्म अपनी वैसी ही परिस्थिती पाने के बाद जाग्रत हो जाते हैं इसे उदहारण से समझें :- एक बार एक छोटा सा ६ वर्ष का बालक था, यह घटना हरियाणा के सिरसा के एक गाँव की है । जिसमें उसके माता पिता उसे एक स्कूल में घुमाने लेकर गये जिसमें उसका दाखिला करवाना था और वो बच्चा केवल हरियाणवी या हिन्दी भाषा ही जानता था कोई तीसरी भाषा वो समझ तक नहीं सकता था । लेकिन हुआ कुछ यूँ था कि उसे स्कूल की Chemistry Lab में ले जाया गया और वहाँ जाते ही उस बच्चे का मूँह लाल हो गया !! चेहरे के हावभाव बदल गये !! और उसने एकदम फर्राटेदार French भाषा बोलनी शुरू कर दी !! उसके माता पिता बहुत डर गये और घबरा गये , तुरंत ही बच्चे को अस्पताल ले जाया गया । जहाँ पर उसकी बातें सुनकर डाकटर ने एक दुभाषिये का प्रबन्ध किया । जो कि French और हिन्दी जानता था , तो उस दुभाषिए ने सारा वृतान्त उस बालक से पूछा तो उस बालक ने बताया कि " मेरा नाम Simon Glaskey है और मैं French Chemist हूँ । मेरी मौत मेरी प्रयोगशाला में एक हादसे के कारण ( Lab. ) में हुई थी । " तो यहाँ देखने की बात यह है कि इस जन्म में उसे पुरानी घटना के अनुकूल मिलती जुलती परिस्थिति से अपना वह सब याद आया जो कि उसकी गुप्त बुद्धि में दबा हुआ था । यानि की वही पुराने जन्म में उसके साथ जो प्रयोगशाला में हुआ, वैसी ही प्रयोगशाला उस दूसरे जन्म में देखने पर उसे सब याद आया । तो ऐसे ही बहुत सी उदहारणों से आप पुनर्जन्म को वैज्ञानिक रूप से सिद्ध कर सकते हो...! (39) प्रश्न :- तो ये घटनाएँ भारत में ही क्यों होती हैं ? पूरा विश्व इसको मान्यता क्यों नहीं देता ? उत्तर :- ये घटनायें पूरे विश्व भर में होती रहती हैं और विश्व इसको मान्यता इसलिए नहीं देता क्योंकि उनको वेदानुसार यौगिक दृष्टि से शरीर का कुछ भी ज्ञान नहीं है । वे केवल माँस और हड्डियों के समूह को ही शरीर समझते हैं , और उनके लिए आत्मा नाम की कोई वस्तु नहीं है । तो ऐसे में उनको न जीवन का ज्ञान है, न मृत्यु का ज्ञान है, न आत्मा का ज्ञान है, न कर्मों का ज्ञान है, न ईश्वरीय व्यवस्था का ज्ञान है । और अगर कोई पुनर्जन्म की कोई घटना उनके सामने आती भी है तो वो इसे मानसिक रोग जानकर उसको Multiple Personality Syndrome का नाम देकर अपना पीछा छुड़ा लेते हैं और उसके कथनानुसार जाँच नहीं करवाते हैं...! (40) प्रश्न :- क्या पुनर्जन्म केवल पृथिवी पर ही होता है या किसी और ग्रह पर भी ? उत्तर :- ये पुनर्जन्म पूरे ब्रह्माण्ड में यत्र तत्र होता है, कितने असंख्य सौरमण्डल हैं, कितनी ही पृथीवियाँ हैं । तो एक पृथीवी के जीव मरकर ब्रह्माण्ड में किसी दूसरी पृथीवी के उपर किसी न किसी शरीर में भी जन्म ले सकते हैं । ये ईश्वरीय व्यवस्था के अधीन है... परन्तु यह बड़ा ही अजीब लगता है कि मान लो कोई हाथी मरकर मच्छर बनता है तो इतने बड़े हाथी की आत्मा मच्छर के शरीर में कैसे घुसेगी..? यही तो भ्रम है आपका कि आत्मा जो है वो पूरे शरीर में नहीं फैली होती । वो तो हृदय के पास छोटे अणुरूप में होती है । सब जीवों की आत्मा एक सी है । चाहे वो व्हेल मछली हो, चाहे वो एक चींटी हो।
आर्यों के विमर्श के लिए... (vedic vichar)
03-05-2022
योग और योगासन - एक चिन्तन आसनों के अत्यधिक महत्त्व से योग का लक्ष्य ही लुप्त हो जाएगा ये श्रद्धा-स्थल अन्धश्रद्धा-स्थल न बन जाएं --------------------------- - आचार्य सत्यदेव विद्यालंकार आर्य समाज के विद्वानों को प्राचीन साहित्य का तर्क सम्मत तथा ऋषि दयानन्द की धारणाओं के अनुकूल रूप उपस्थित करना होगा। ऐसा न हुआ तो पुरानी रूढ़ियां दूर न हो सकेंगी। इसी तरह प्राचीन चिन्तन का एक क्षेत्र यज्ञ और योग का भी है। मैं दूरदर्शन पर योगासन देख रहा था। योगिराज कुछ योगासन और योगमुद्रा का रूप समझा रहे थे, युवा तथा युवती आसन करके दिखा रहे थे। योगिराज ने आसनों द्वारा अनेक शारीरिक रोगों के दूर करने के उपाय समझाए। आजकल योग एक व्यापक रोग-चिकित्सा पद्धति के रूप में विकसित हो रहा है। अंग्रेजी पढ़े लिखे योग को 'योगा' कहते हैं। कभी-कभी शंका होती है कि यदि योग द्वारा रोगों का उपाय सम्भव है तो स्वामी दयानन्द तो परम योगी थे, उनका इलाज डा० अली मर्दान खान तथा डा० लक्ष्मण दास द्वारा क्यों कराया गया, किसी योगिराज को क्यों न बुला लिया गया। स्वा० स्वतन्त्रानन्द जी की मृत्यु कैंसर रोग से आपरेशन टेबल पर हुई। आनन्द स्वामी जी ने प्रोस्टेट ग्लैंड का आपरेशन करवाया। स्वा० सुधानन्द जी और स्वा० सत्यानन्द जी आदि का देहावसान डाक्टरी इलाज के बाद हुआ। ऋषि दयानन्द ने 'ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका' के उपासना प्रकरण में पातंजल योग शास्त्र के उद्धरणों से योग के रूप को स्पष्ट किया है। कहीं भी रोग दूर करने की बात नहीं लिखी। योगासन हठयोग की क्रियाओं के अन्तर्गत हैं। ऋषि दयानन्द पातंजल योग शास्त्र को ही प्रमाण मानते हैं। नाथ पन्थ के हठ योग को नहीं। मैं यह नहीं कहता कि आसनों का लाभ नहीं। केवल इतना कहना है कि आसन एक व्यायाम की विधा है। पर व्यायाम शरीर स्वास्थ्य के लिए उपयोगी है। सब मानते हैं। पर व्यायाम चिकित्सा शास्त्र नहीं बन सकता। आयुर्वेद एक अलग शास्त्र है। उसका क्षेत्र अलग है। रोगों के सैकड़ों भेद हैं। उनका अध्ययन, शरीर का अध्ययन, उपायों का चयन तथा विशाल औषध भण्डार का ज्ञान, ये सब आयुर्वेद के अंग हैं। इनके गहरे ज्ञान के बिना चिकित्सा संभव ही नहीं। केवल आसनों का अभ्यासी रोगों का इलाज कैसे कर सकता है? पातंजल योग में तो आसन का स्वरूप केवल 'स्थिर सुखमासनम्' ऐसा है। अर्थात् वह ढंग जिससे ठीक मुद्रा में अधिक से देर तक आराम से बैठा जाय। यही उपयोग ऋषि दयानन्द को मान्य है। आसन अष्टांग की एक प्रारम्भिक वस्तु है। उसका इतना महत्त्व नहीं जितना आजकल बताया जाता है। इस महत्त्व से योग का लक्ष्य ही लुप्त हो गया। आजकल तो' योगा' वे भी करते हैं जो नाश्ते में आधा दर्जन अण्डे खाते हैं और खाने में मांस और मदिरा से परहेज नहीं करते, ब्रह्मचर्य का जिनसे नजदीक और दूर का कोई रिश्ता नहीं। क्या यही भारतीय परम्परा है? पातंजल योग शास्त्र में योग शास्त्र का अर्थ समाधि है। युज्-समाधौ-दिवादि गणी। युजिरयोगे-समाधौ-रूधादि गणी। युज्-संयमने चुरादिगणी। पहले ही समाधि पाद में ऋषि ने स्पष्ट किया है - चित्त की पांच वृत्तियां हैं। क्षिप्त, मूढ़, विक्षिप्त, एकाग्र और निरुद्ध। [एकाग्र और निरुद्ध] चित्त वृत्ति के होने पर ही योग सम्भव है। अन्य वृत्तियों में नहीं। कहने का अभिप्राय यह है कि वस्तुतः योग का जो क्षेत्र है आजकल उससे दूर ही बातें हो रही हैं। मैं यह नहीं कहता कि योग की क्रियाओं से स्वास्थ्य पर प्रभाव नहीं पड़ता। मनुस्मृति में छठे अध्याय में लिखा है - 'प्राणयामैर्दहेद्दोषान् ।' तथा 'तथेन्द्रियाणां दह्यन्ते दोषा:।' - अर्थात् प्राणायाम से शरीर की धातुओं के मल नष्ट हो जाते हैं - शरीर स्वस्थ होता है। पर यह बात सामान्य स्वास्थ्य के विषय में है। किसी विशेष रोग का यहां उल्लेख नहीं। आजकल नए योगाचार्य न केवल रोगों की निवृत्ति के लिए ही योग की प्रक्रियाओं को बतलाते हैं, अपितु विषय भोग की सामर्थ्य बढ़ाने के लिए भी योग का उपदेश देते हैं। इसीलिए आजकल योगियों के दर्शन धनवानों अथवा राजनीतिक महत्त्व के लोगों की कोठियों में ही प्रायः होते हैं। पर योग का यह रूप न ऋषि दयानन्द को मान्य है न आर्य समाज को, न शास्त्र को। मैं कहना चाहता हूं कि - (1) योग शास्त्र तथा आयुर्वेद विज्ञान दोनों का क्षेत्र बिल्कुल अलग-अलग है। दोनों का लक्ष्य, विचार और कार्य पद्धति भिन्न है। (2) यह ठीक है कि योग साधना के लिए शरीर स्वस्थ होना चाहिए। यह भी ठीक है कि प्राणायाम आदि की प्रक्रिया द्वारा शरीर के स्वास्थ्य पर अच्छा प्रभाव पड़ता है। यह भी ठीक है कि मानसिक स्थिरता और शान्ति का स्वास्थ्य पर बहुत अच्छा प्रभाव होता है। पर इन सब तथ्यों के होते हुए भी योग साधना आयुर्वेद का स्थान नहीं ले सकती। योग के साधक रोग निदान के सम्बन्ध में वैद्य या डाक्टर का स्थान नहीं ले सकते। प्रयत्न करें भी तो वे असफल होंगे। (3) आर्य समाज तथा ऋषि दयानन्द की दृष्टि से 'पातंजल योग शास्त्र' ही योग का प्रामाणिक ग्रन्थ है। (4) विविध आसन योग के अंग नहीं व्यायाम की भिन्न-भिन्न पद्धतियों का एक भाग हैं। इनकी उपयोगिता उसी दृष्टि से जांचनी चाहिए। (5) योग का अर्थ ही चित्त वृत्तियों को निरोधावस्था में जाना है। इसी से योग सम्बन्धी विचार को मुख्यता देनी चाहिए। शारीरिक कमी के लिए तो प्रत्येक प्राणी को आयुर्वेद का आश्रय लेना ही पड़ता है। यज्ञ, योग तथा वेद - ये तीन आर्य समाज के मुख्य श्रद्धा स्थल हैं। इनका विवेचन इसलिए आवश्यक है कि ये श्रद्धा स्थल अन्ध श्रद्धा स्थल न बन जायें। तर्क संगत श्रद्धा स्थल रहें। नहीं तो ऋषि दयानन्द का सनातन वैदिक धर्म परिष्कार सम्बन्धी सारा प्रयत्न निष्फल हो जायेगा। [स्रोत : टंकारा आकर्षण - आध्यात्मिक अनुभव, पृ. 60-62, 1995 संस्करण, प्रस्तुति : भावेश मेरजा]
Vedas and Shudras (vedic vichar)
03-05-2022
There is a quite common doubt regarding the Vedas that they discriminate Shudras from upper castes. This doubt needs urgent clarification because there are many lobbies working day and night to misguide the Dalits of our country. First of all it is wrong to consider the term Shudras as equivalent to Dalits. The word Dalit means any person whose rights have been suppressed. Following this definition the whole Hindu community is Dalit. Since last 1200 Years Hindus have been facing continuous persecution and forcible conversion by Islamic/Christian invaders. Their rights were suppressed and they faced all sorts of tortures. So, all Hindus are Dalits. Now we come to word Shudra. Vedic philosophy believes in Varna Vyavastha. A system of four class division based on qualities of a person. The four classes were Brahman (learned/scholar), Kshatriya ( ruler/defending warrior), Vaishya (business class) and Shudra (worker). A shudra was a class of person whose duty was to help all three class in their respective duties. This class was assigned to any person who was unable to read, unable to govern and unable to bring prosperity. It is entirely different from caste system. Caste system became popular in middle ages. It is based on the basis of birth order. Varna is decided after completion of studies while Caste is decided with birth. Varna is issued by the teacher of a student. Caste system is decided by the family caste. The motive of Varna is issuing right job to right person. The side effect of Caste system is to ignore the qualities and appoint an unfit person on an important job.The caste system paralyzed the whole Hindu society. It divided them, weakened their social architecture, ignored the talented persons and thus ruined it completely. This was the main reason why Hindus in-spite of large number fell like an easy prey in front of the invaders. Varna system permitted equal opportunities for everyone while caste system forbid equal rights. Caste system favored birth based Brahmans and ignored the rights of Shudras. In similar way Caste system also denied the reading of the Vedas by Shudras. This idea became popular in middle ages. The priesthood class completely denied the teachings of the Vedas to all four Varna and restricted Vedas only to their families. Interestingly they even ignored the message of the Vedas. Readers will feel pride when they learn the truth. The Vedas permit equal opportunity to read for everyone including Shudras. The middle age Acharyas like Sayana, Mahidhara were orthodox in their approach. They didn’t propagate the message of equality in the Vedas. Only Swami Dayanand the famous commentator of Vedas propagated the rights of Shudras in the Vedas.The word Shudras is mentioned in Vedas for about 20 times. Its nowhere mentioned in denigrating and inferior way. The Vedas no where deny Shudras the right to read Vedas. The Vedas no where consider Shudras as untouchables. The Vedas no where consider Shudras as inferior. The self testimony of the Vedas will prove my stand. Yajurveda 26 /2 God says O! Humans i gift you with this blissful knowledge of Vedas for all Brahman, Kshatriya, Vaishya as well as Shudra. This knowledge is for benefit of everyone. [God do not deny the knowledge of Vedas for Shudras. Shudras enjoys equal right to read Vedas as a Brahman. ] Atharveda 19/62/1 I pray to God that O God! Let all Brahmans, Kshatriyas, Vaishyas and Shudras glorify me. [Vedas do not discriminate between different classes.They consider everyone as equal.] Yajurveda 18/46 says that O God make me so gentle that all Brahmans, Kshatriyas, Vaishyas and Shudras have affection for me. [Vedas speak of good relations with all four classes] Rigveda 5/60/5 says There is no one superior or inferior in the Vedas. All are equal just like brothers.All should help each other to attain the pleasures of this as well as the other world. [This mantra considers all humans as equal irrespective of their duties.] These are few Vedic mantra from the Vedas which prove that Vedas do permit Shudras the right to Read,Learn and Propagate.
आस्तिकता और चमत्कार (vedic vichar)
03-05-2022
सहदेव समर्पित संपादक-शांतिधर्मी मासिक पत्रिका,जींद, हरियाणा एक विदेशी विचारक ने कहा था कि दुनिया मेें और कहीं हो न हो भारत में भगवान अवश्य है। क्योंकि कोई भी इस देश को बसाना नहीं चाहता, फिर भी यह बसा हुआ है; यह किसी चमत्कार से कम नहीं है। नास्तिक विचार वाले लोग भगवान के बारे में जो मरजी कह देते हैं। उनकी भगवान से सबसे बड़ी शिकायत यह होती है कि इतनी गड़बड़ हो रही है फिर भी भगवान कुछ करता क्यों नहीं। इस ब्रह्माण्ड में इतना कुछ हो रहा है जो मनुष्य कर नहीं सकता फिर भी उन्हें यह सब दिखाई नहीं देता। लेकिन जो काम मनुष्य कर सकता है, मनुष्य को ही करने चाहिएँ, मनुष्यों के करने से ही उन कार्यों की सार्थकता है, उन कार्यों के लिए भगवान को दोष देता रहता है, और फिर एक नाजुक बच्चे की तरह कह देता है कि जा भगवान मैं तुझे नहीं मानता। तू है ही नहीं। भगवान को इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता है कि कोई उसे मानता है या नहीं। कोई उससे बात करे (उपासना) तो इससे उसको कोई लाभ नहीं होता। जो उससे बात करता है, वही इससे लाभ उठाता है। नास्तिक भी दुःख होने पर रोते बिलखते हैं, सुख होने पर खुश होते हैं। कोई गलत कार्य करते समय उनको भी कोई रोकने की प्रेरणा सी करता अनुभव होता है। अच्छा कार्य करने पर उनको भी आत्म-संतुष्टि मिलती है। आज लगता है कि आस्तिक लोग नास्तिकों से ज्यादा नास्तिक हैं। उसे ईश्वर की सत्ता के स्पष्ट दिखाई देने वाले लक्षणों, युक्तियों, प्रमाणों से कुछ लेना देना नहीं है। उसे तो वह चमत्कार चाहिए जिसे वह चमत्कार समझता है। यह विराट् ब्रह्माण्ड, यह अद्भुत व्यवस्था, प्रकृति के नियम, कर्म-फल व्यवस्था, यह सृष्टि रचना-- उसे चमत्कार नहीं लगता। ये तथाकथित आस्तिक लोग समोसे खाकर धन प्राप्ति या नौकरी मिलने को चमत्कार मानते हैं। कादियानी पैगम्बर ने भविष्यवाणी की थी किसी के मरने की। कई वर्ष बाद उस महापुरुष (पंडित लेखराम) को छुरे से मार दिया गया। आज तक वे इसी को चमत्कार प्रचारित कर रहे हैं। आस्तिक कहलाए जाने वाले लोग अविवाहित स्त्री से संतान होना, मुरदे का जी उठना आदि चमत्कारों पर आधारित हैं। ये चमत्कार न हों तो उनकी आस्तिकता का आधार ही समाप्त हो जाता है। आप धार्मिक चैनल देखें। कोई गुरु, कोई भगवान? अपने आप को पूरा भगवान सिद्ध करने के लिए अपने अनुयायियों के अनुभव सुनवाने पर पर्याप्त समय खर्च करता है। आध्यात्मिक कही जाने वाली पत्रिकाओं में अनेक पृष्ठ इसी कार्य के लिए होते हैं। चेलों के जो अनुभव होते हैं वे इस तरह के नहीं कि हमारी इस तरह से आत्मिक उन्नति हो गई, हमने योग मेें यह गति प्राप्त कर ली, बल्कि चमत्कारों की साक्षियाँ होती हैं। असाध्य रोग ठीक हो गया, नौकरी मिल गई। व्यापार में लाभ हो गया-- । यह आस्तिकता तो नास्तिकता से भी ज्यादा हानिकारक है। आस्तिकता जीवन की आधारशिला है और आस्तिकता की आधारशिला है परमेश्वर की सर्वव्यापकता और न्याय व्यवस्था को जानना और मानना। अच्छी प्रकार जानकर ही मानने से कुछ लाभ हो सकता है। जो यह मानते और जानते हैं कि परमेश्वर न्यायकारी है, वह कर्मों का फल पूरा-पूरा देता है, और यह जानकर परमेश्वर की आज्ञा के अनुसार आचरण करते हैं वे ही सच्चे आस्तिक हैं। वह परमेश्वर का भक्त और प्रशंसक भी है। जो यह सोचता है कि किसी व्यक्ति विशेष की सिफारिश से परमेश्वर हमारे पापकर्मों का फल नहीं देगा या पापों के बदले में सुख देगा-- वह वास्तव में परमेश्वर का सबसे बड़ा निन्दक और नास्तिक है। आप्त पुरुषों के उपदेश से और परमात्मा की उपासना करने से हम आगे पाप करने से हट जाते हैं यह क्या कोई छोटा चमत्कार है। यदि आस्तिक होने के बाद भी व्यक्ति के कर्म में सुधार नहीं आया तो आस्तिक होने का कोई अर्थ नहीं है। इसलिए आस्तिकता का मूल आधार है परमेश्वर की सर्वव्यापकता। परमेश्वर संसार के कण-कण में व्यापक है। हमारे हृदय में भी। वह किसी भी कार्य को करने से पहले, हमारे मन में संकल्प आते ही जान लेता है। वह हमारे अच्छे बुरे कर्मों को ठीक प्रकार से जानता है। उससे छुपकर कोई पाप नहीं किया जा सकता और पाप करने के बाद उसके दुःख रूप फल से किसी भी प्रकार से बचा नहीं जा सकता। -- यही आस्तिकता की आधारशिला है। किसी चौथे, सातवें आसमान या किसी सतलोक में बैठा हुआ भगवान न तो हमारे कर्मों को जान सकता है और न फल दे सकता है। उसको वहाँ बैठाकर फिर हमें उसके संदेश वाहकों की कहानी बनानी पड़ती है। फिर इसकी जांच का चक्कर-- कि कौन संदेशवाहक झूठा है कौन सच्चा? फिर इसके प्रमाण के लिए चमत्कार!! और ‘चमत्कार’ तो सारे ही करना जानते हैं। संभवतः उस विदेशी विचारक ने ठीक ही कहा कि इस देश में कोई भगवान अवश्य है। कोई भगवान का दूत बनकर खा रहा है। अपने अपने अलग अलग भगवान् बनाकर खा रहे हैंे। कोई भगवान को गाली देकर खा रहा है। भगवान की भक्ति से मिलने वाले आत्मिक आनन्द को प्राप्त करने के बारे में भी कोई सोचे तो सचमुच में चमत्कार हो जाए।
आत्मदर्शी दयानन्द (vedic vichar)
03-05-2022
लेखक – पंडित चमूपति एम॰ए० ऋषि दयानन्द का जन्म एक भ्रान्ति-प्रधान युग में हुआ था। कोई ऐसी असम्भव बात न थी जिसे योग की सिद्धि के नाम पर सम्भव न समझा जाता हो । योगियों की विशेषता ही चमत्कार था । धार्मिक नेताओं का गौरव ही उनके आलौकिक कारनामों के कारण था। धर्म की इस प्रवृत्ति को आर्यसमाज ने अन्धविश्वास समझा और इसका घोर खण्डन किया। परिणाम यह हुआ कि आर्यसमाज की श्रद्धा विभूति मात्र से उड़ गई। सौभाग्यवश आर्यसमाज का अपना ऋषि मूर्त सदाचार था। ऋषि की इस विभूति को आर्यसमाज के प्रचारकों ने हाथों हाथ उठा लिया और इसी चमत्कार की कसौटी पर संसार भर के सिद्धों के जीवन परखे जाने लगे। भला इस क्षेत्र में किसी की ताव थी कि दयानन्द से लोहा लेता? दयानन्द का निष्पाप कुन्दन-सा जाज्वल्यमान उज्ज्वल चरित्र आर्यसमाज का वह अमोघ हथियार था जिसके आगे विरोधी चारों खाने चित्त थे। आर्यसमाज को अपने मन्तव्यों के गौरव की स्थापना के लिए किसी आलौकिक कारनामे का आश्रय लेना ही नहीं पड़ा। तो क्या अलौकिक कारनामों की कथाएँ वस्तुत: मिथ्या हैं? क्या संसार की सम्पूर्ण घटनाओं के संचालक केवल भौतिक नियम तथा भौतिक शक्तियाँ ही हैं? या क्या आत्मा भी कोई सचमुच की वस्तु है- ऐसी वस्तु जिसके अस्तित्व का संसार के जीवन पर मूर्त-अनुभव में आने वाला-प्रभाव पड़ता हो? उन्नीसवीं शताब्दी के आरम्भ का विज्ञान प्रधान यूरोप आत्मा तथा परमात्मा की सत्ता को ही जवाब दे चुका था। जब विश्वचक्र की सभी घटनाओं का समाधान प्राकृतिक नियमों के द्वारा हो जाता है तो अप्राकृतिक सत्ताओं को स्वीकार करने की आवश्यकता ही क्या है? उन दिनों विज्ञान का अर्थ ही प्राकृतिक समझा जाता था। मनोविज्ञान का भी एक ऐसा रूप निकल आया जिसका नाम ही पड़ा मनः शरीर-शास्त्र(psychophysics)। इसके द्वारा मानसिक घटनाओं की व्याख्या शारीरिक-तन्तुओं (nerves) ही की-परिभाषा में की जाने लगी। परन्तु विज्ञान का तो काम ही गवेषणा करना है। मानव जीवन का मानसिक पहलु वैज्ञानिक अन्वेषण के लिए एक विशेष क्षेत्र पेश करता है। इस क्षेत्र की साधारण घटनाओं की व्याख्या भी भौतिक नियमों द्वारा करनी असम्भव है। परन्तु साधारण घटनायें फिर साधारण थीं, इनकी ओर अन्वेषणकर्ताओं का विशेष ध्यान क्यों जाता? आँख देखती क्यों है? जिन भौतिक अंशों के संयोग से यह बनी है उन्हें कोई रासायनिक अब मिला देखे। एक कृत्रिम चक्षु बन जाएगा, परन्तु वह देख नहीं सकेगा। भूख का रूप भौतिक भोजनाभाव के अतिरिक्त एक विशेष प्रकार की मानसिक वेदना का है। उसकी भौतिक व्याख्या करना असम्भव है। अन्वेषणकर्ता आश्चर्यचकित तब हुए जब सैकड़ों मील की दूरी पर हो रही घटनाओं का साक्षात्कार कई मनुष्यों ने इस प्रकार किया मानो वे घटनायें उनकी आँखों के सामने हो रही हैं । बरसों बाद होने वाली बात इसी वर्तमान क्षण में मूर्त होकर दृष्टि के सामने आ गई। एक हृदय में उद्बुद्ध हो रही भावना, दूसरे हृदय में झट संचारित हो गई। विचार का संचार बिना किसी भौतिक बिजली के तार के किया गया। इन विचित्र कार्यों की भौतिक व्याख्या क्या हो सकती थी? आज विज्ञान किसी अप्राकृतिक सत्ता होने का विरोध नहीं करता और यद्यपि सदाचार का पक्का भौतिक आधार किसी अलौकिक सत्ता की अनुभूति ही हो सकती है-बिना आध्यात्मिक विचार के, सदाचार युक्ति के क्षेत्र में ठहर ही नहीं सकता-तो भी सदाचार के नियमों का क्रियात्मक पालन बिना इस अनुभूति के भी भली प्रकार होता रहा है। मानव समाज के कई अद्वितीय सेवक नास्तिक-कट्टर निरीश्वरवादी-हुए हैं। यह सच है कि बिना सदाचार के धर्म का कोई रूप नहीं बनता। किसी पुरुष में आध्यात्मिक विभूतियाँ चाहे कितनी भी स्पष्ट क्यों न हों, यदि उसके आचार पर उन विभूतियों का कोई विशेष रंग नहीं चढ़ा तो धर्म के क्षेत्र में वह पुरुष पाँव नहीं रख रहा, किन्तु दुलत्ति चलाने की चेष्टा मात्र कर रहा है। आध्यात्मिक अनुभूति की पूर्ण परिणति सन्त स्वभाव युक्त सदाचार में ही है। इसी सन्त-स्वभाव को आधुनिक मनोवैज्ञानिक धर्म कहते हैं। सदाचार ही धर्म का बाह्य अंग है, परन्तु इसमें आन्तरिक मधुरता-अलौकिक संजीवनी का सा रस- आध्यात्मिक भावना से ही आता है। ऋषि दयानन्द में सदाचार की पराकाष्ठा है, परन्तु क्या इनके इस सदाचार का आधार कोई आध्यात्मिक अनुभूति थी? वे तर्क के पुतले थे, परन्तु क्या वह तर्क नीरस था? या उसमें रसपूर्ण भावना का भी एक प्रबल पुट था? तर्क ने उनकी भक्ति को आँख मींचकर ‘बाबा वाक्यं प्रमाणम्’ की प्रवृत्ति से दूर ही रखा, परन्तु उनके महत्व की इतिश्री इसी में हो जाती है कि उन्हें तर्क के क्षेत्र में धोखा नहीं दिया जा सकता था। ‘साक्षात् कृत धर्माण ऋषयोबभूव:’-यास्क की इस उक्ति के अनुसार ऋषि कहते ही उस पुरुष को हैं जिसने धर्म का अर्थात् उस शक्ति का जो समस्त सत् पदार्थों को धारण करती है, साक्षात्कार किया हो । भौतिक संसार की आधारभूत एक आध्यात्मिक सत्ता है। सदाचार का वास्तविक मूल यही है। ऋषि अपने आध्यात्मिक नेत्रों से उसका दर्शन करता है। इसी में उसका ऋषित्व है। दूसरे शब्दों में हमारे प्रश्न का एक और रूप यह हो जाएगा कि क्या स्वामी दयानन्द ऋषि थे? । इस प्रश्न का उत्तर किसी और की साक्षी से दे सकना असम्भव है। सन्तों के जीवन में कुछ ऐसे बाह्य गुण पाये जाते हैं, जिनसे वे प्राणिमात्र को अपनी ओर खींच लेते हैं। उनसे उनका आत्मसाक्षात्कार प्रमाणित होता है, परन्तु बाह्य लक्षण फिर भी बाहर ही वस्तु है। उसके सम्बन्ध में भ्रान्ति हो सकती है। अपने आन्तरिक अनुभव को अन्तिम गवाह तो प्रत्येक पुरुष अपने आप ही हो सकता है। विभु परमेश्वर का सम्बन्ध प्रत्येक आत्मा से उसके हृदय की गुफा में ही होता है। वेदों तथा उपनिषदों में इन आध्यात्मिक अनुभूतियों के मुँह बोलते चित्र मिलते हैं, यद्यपि किसी उपनिषत्कार ने अपने वैयक्तिक अनुभव का वर्णन अपने नाम के साथ जोड़कर नहीं किया। फिर वेद तो है ही वेद, उनमें नामों का क्या काम? यद्यपि ऋषि दयानन्द ने भी इस विषय में मौनावलम्बन किए रहने की प्राचीन ऋषियों की शैली का पूर्णतया अनुसरण किया है तो भी कई स्थानों पर उनकी आध्यात्मिक अनुभूति की अनायास झाँकी सी मिल जाती है। हम नीचे कतिपय उक्तियों और घटनाओं का उल्लेख करेंगे, जिनमें ऋषि के जीवन के इस पहलु पर प्रकाश पड़ सके। ऋषि दयानन्द के योग-प्रत्यक्ष का पहला उल्लेख उनकी आत्मकथा ही में मिलता है। ऋषि लिखते हैं- ???? फिर एक मास के पश्चात् मैं भी उनकी आज्ञा के अनुसार दूधेश्वर-महादेव के मन्दिर में उनसे जाकर मिला। वहाँ उन्होंने योगविद्या के अन्तिम रहस्य और उसकी प्राप्ति की विधि बताने की प्रतिज्ञा की थी सो उन्होंने भी अपना वचन पूरा किया और कथनानुसार-मुझको भी निहाल कर दिया । ऋषि ने भौतिक क्षेत्र में भी प्रत्यक्ष ही की साक्षी का अवलम्बन किया था। यह बात उनके अपने हाथ से शवछेदन की क्रिया करने से प्रकट होती है। आध्यात्मिक क्षेत्र में भी उनकी यही अवस्था थी। सुनी-सुनाई पर विश्वास कर लेना उनकी प्रकृति के सर्वथा प्रतिकूल था। उनके एक पत्र में नीचे लिखी सारगर्भित उक्ति ध्यान देने योग्य है – ???? बहूनामार्याणां वेदशास्त्र बोध समाधि योग विचाराभ्याम्। जीव स्वरूप ज्ञानं बभूव भवति भविष्यति वेति॥ (ऋषि दयानन्द के पत्र और विज्ञापन भा० १ पृ० ५७ ) इस वाक्य में भवति शब्द ध्यान देने योग्य है। कुछ समय महर्षि केवल समाधि ही का आनन्द लेते रहे थे। तत्पश्चात् वे देशसुधार का कार्य करने लगे। वे लिखते हैं – ???? हमने केवल परमार्थ और स्वदेशोन्नति के कारण समाधि और बह्मानन्द को छोड़ कर यह कार्य ग्रहण किया है।( पत्र और विज्ञापन भाग ४ पृ० १८ ) आर्याभिविनय में ऋषि दयानन्द के हृदय के आन्तरिक उद्गार प्रकट हुए हैं। परमेश्वर को सम्बोधित कर कहते हैं – ???? ‘हम से अलग आप कभी मत हों ।'( पृ० ११० ) ???? ‘आप (स्वमुख) स्वशक्ति से सब जीवों के हृदय में सत्योपदेश नित्य ही कर रहे हो।'(पृ० ८७ ) ???? ‘आप साम को सदा गाते हो, वैसे ही हमारे हृदय में सब विद्या का प्रकाशित गान करो।'(पृ० ११८ ) ???? जैसे सूर्य की किरण, विद्वानों का मन और गाय, पशु अपने-अपने विषय और घासादी में रमण करते हैं व जैसे मनुष्य अपने घर में रमण करता है वैसे ही आप स्वप्रकाशयुक्त हमारे हृदय (आत्मा) में रमण कीजिए।( पृ० ८४ ) परमेश्वर से ऋषि दयानन्द का सम्बन्ध साक्षात् था। सदा उसे अपने अंग संग पाते थे और उससे अलग न होने का आग्रह करते थे। प्रभु के मधुर आलाप को सुनते थे और उसके अति रमणीय रमण का आनन्द लेते-लेते स्वयं भी उसी में रत हो जाते थे। इस सम्बन्ध के परिणामस्वरूप कुछ विशेष मानसिक शक्तियाँ योगी को अनायास प्राप्त हो जाती हैं। उन्हें सिद्धि कहा जाता है। योगी इन शक्तियों की आकांक्षा नहीं करती। उनमें आसक्त हो जाने से समाधि के रास्ते में बाधा खड़ी हो जाने की सम्भावना है।ऋषि अपने विषय में लिखते हैं – ???? मैं इन तमाशों की बातों को देखना दिखलाना उचित नहीं समझता। चाहे वे हाथ की चालाकियों से हों चाहे योग की रीति से हों, किन्तु कोई चाहे तो उसको योग की रीति सिखला सकता हूँ कि जिसके अनुष्ठान करने से वह स्वयं सिद्धि को प्राप्त हो जाए।( पत्र और विज्ञापन भाग १ ) ???? एक और स्थान पर लिखा है-देखो पूर्वकाल में हमारे ऋषि मुनियों को कैसी पदार्थ विद्या आती थी कि जिससे आत्मा के बल से सब अन्त:करण के भेद को शीघ्र ही जान लिया करते थे-भीतर के पदार्थों के योग से योगी लोग अपने अद्भुत कर्म कर सकते थे।( पत्र विज्ञापन भाग २ पृ० २० ) इन दो उद्धरणों को मिलाने से स्पष्ट हो जाएगा कि ऋषि दयानन्द जब किसी मानसिक तथ्य का वर्णन सामान्य संज्ञा द्वारा ऋषियों की सम्पूर्ण श्रेणी के विषय में करते हैं तो वह तथ्य उनका अपना अनुभूत होता है। जीवन-स्वरूप-ज्ञान के सम्बन्ध में जो एक संस्कृत वाक्य ऊपर उद्धृत किया गया है उसका निर्देश ऋषि को अपनी ओर होने में अब कोई सन्देह नहीं रहेगा। ऋषि दयानन्द को दूर देश तथा भविष्य काल की घटनाओं का साक्षात्कार हो जाने के अनेक उदाहरण उनके जीवन चरित्र में मिलते हैं। ऋषि ने एक नवयुवक को एक विशेष अवधि तक विवाह करने से रोक दिया था। अवधि के समाप्त होते ही उसका देहान्त हो गया। ऋषि की योग दृष्टि ने एक आर्यबाला को उम्र भर के वैधव्य से बाल-बाल बचा लिया। एक भक्त दूध लाया। ऋषि ने पूछा-क्या रास्ते में साँप देखा था? वह आश्चर्यचकित था- ऋषि को इस घटना का ज्ञान कैसे हुआ इत्यादि। आध्यात्मिक अनुभूति का एक फल यह भी प्राप्त होता है कि जब वह अनुभूति किसी को प्राप्त हो जाती है तो लोगों के हृदय में उसके लिए अनायास भक्ति का भाव उमड़ने लगता है। यह बात यहाँ तक पहुँचती है कि भक्त जन जब कभी आँखे मींचते हैं उनके सामने गुरुदेव का चित्र सा आ जाता है और वे चाहते हैं कि गुरुदेव हमेशा उनके अंगसंग रहें। गुरु से सम्बन्ध रखने वाली प्रत्येक वस्तु में भी एक विशेष भक्ति का भाव पैदा हो जाता है। ऋषि दयानन्द के जीवन में यह बात जगह-जगह पर उल्लिखित है। हम केवल दो उदाहरणों का उल्लेख करेंगे – ऋषि की सेवा में ईश्वरानन्द सरस्वती का एक पत्र मिलता है जिसमें लिखा है- ???? मेरे पर भगवचरणों की धूरी स्वप्न में वर्षी है सो मैंने खूब स्नान किया।( पत्र व्यवहार पृ २० ) जोशी लालजी कल्याणजी एक पत्र में लिखते हैं – ???? आपके हस्ताक्षर कुं बोहोत प्रेम में दण्डवत किया।( पत्र व्यवहार पृ २९५) ऋषि के प्रति राजस्थान के राजाओं, उच्च अधिकारियों तथा सर्वसाधारण-यहाँ तक कि एक पापताप से सन्तप्त दुखिया देवी के भाव अत्यन्त भक्तिपूर्ण थे। यह बात मैं ऋषि के पत्र व्यवहार की ही साक्षी से “आर्य” की किसी पूर्व संख्या में सिद्ध कर चुका हूँ। मेरे इस लेख का प्रयोजन केवल यह दिखाना है कि ऋषि दयानन्द सचमुच ऋषि थे, उन्होंने आध्यात्मिक अनुभूति तथा उससे सम्बन्ध रखने वाली सिद्धियाँ प्राप्त की थीं। उसी अनुभूति का चमत्कार उनका निष्कलंक सच्चरित्र-सम्पन्न जीवन था। उनकी सर्वस्व स्वाहा करने वाली असीम परोपकार की प्रवृत्ति, उनके प्राणिमात्र के लिए उन्नत दयाभावे, उनका जगत् के उद्वारार्थ अनथक अविरल परिश्रम, आपत्तियों की उमड़ रही बाढ़ के सामने उनकी अदम्य अटल धैर्य, अपने उद्देश्य की सफलता में उनका निरपेक्ष विश्वास, ये सब उसी एक अनुभूति के परिणाम थे। ऋषि ब्रह्म का ध्यान करते-करते ब्रह्ममय हो गये थे। उनसे ब्रह्म अलग न था। वे ब्रह्म में रम रहे थे और ब्रह्म उनमें । कहने को तो उन्होंने ब्रह्मानन्द को छोड़कर परोपकार का कार्य आरम्भ किया था, परन्तु ब्रह्मानन्द ने एक क्षण भी उनका पल्ला नहीं छोड़ा। किसी भक्त के प्रश्न का उत्तर देते हुए उन्होंने स्वयं भी तो यही कहा था कि यह महान् कार्य मैं बिना किसी योग सिद्धि के नहीं कर रहा हूँ। ऋषि का योग की सिद्धि उनका आत्मदर्शन था। ✍???? लेखक – पंडित चमूपति एम॰ए० प्रस्तुति – ???? अवत्सार
सेक्युलर लिबरल गैंग का दोहरा चेहरा (vedic vichar)
03-05-2022
आपने इन्हें मनुस्मृति, रामायण और गीता के विरुद्ध बोलते सुना होगा। क्या कभी इन्होंने बाइबिल या कुरान के नरसंहार के उपदेशों पर एक शब्द भी बोला है? बाइबल और कुरान दोनो गुलामी, स्त्री उत्पीड़न और दूसरे मत पंथ वालों के संहार का उपदेश देते हैं। 3 मई 2020 को भोपाल में सीताराम येचुरी ने कहा कि रामायण और महाभारत भी हिंसा और लड़ाई के उदाहरणों से भरे हैं. ये कम्यूनिष्ट हमेशा हिन्दू को ही कोसते हैं. हिंसा क्या है यह आज बाइबिल से देखें. बाइबल में शैतान द्वारा मारे गए या मरवाए गए लोगो की संख्या 10 है. अय्यूब अध्याय 1 में अयूब के 7 बेटों और 3 बेटियों के मारे जाने का विवरण है. अब ईश्वर द्वारा मरे गए लोगों का एक संक्षिप्त विवरण देखते हैं.अब बाइबिल में भगवान यहोवा द्वारा की गई हत्याओं का विवरण देखते हैं. यह संख्या लाखों में है. महासंहार: नरसंहार के बाद नरसंहार 1 यहोशू 6: 20-21 में , भगवान यहोवा ने इसराएलियों को यरीहो को नष्ट करने में मदद करता है, जिससे "पुरुष और महिलाएं, युवा और बूढ़े, मवेशी, भेड़ और गधे" मारे जाते हैं। 2 व्यवस्थाविवरण 2: 32-35 में , भगवान यहोवा ने हेशबोन नगर के स्त्रियों और बाल-बच्चों समेत सभी को मारा 3 .गिनती 31: 7-18 में , इस्राएलियों ने 32000 अविवाहित लड़कियों को छोड़कर सभी मिद्यानियों को मार डाला क्योंकि इस्राएली अविवाहित लडकियों को युद्ध के लूट के रूप में लेते हैं। 4 1 शमूएल 15: 1-9 में, भगवान यहोवा इस्राएलियों से कहता है कि वे सभी अमालेकियों - पुरुषों, महिलाओं, बच्चों, शिशुओं और उनके मवेशियों को मार डालें 5 उत्पत्ति 7: 21-23 में , भगवान यहोवा पृथ्वी की पूरी आबादी को डुबो देता है: पुरुष, महिलाएं, बच्चे, भ्रूण .केवल एक ही परिवार बचता है। भगवान यहोवा 5 लाख लोगों को मारते हैं। 6 2 इतिहास 13: 15-18 में , भगवान यहोवा ने अबिय्याह और यहूदा के साम्हने, यारोबाम और सारे इस्राएलियों को मारा। यहां तक कि इस्राएल में से पांच लाख पुरुष मारे गए। 7 भगवान यहोवा मिस्र के सभी पहले नवजात बच्चों का वध करता है। निर्गमन 12:29 में , सभी मिस्र के निवासियों के पहले नवजात बच्चों को (firstborn} और मवेशियों के नवजात बच्चो (firstborn} को मार डालता है क्योंकि उनका राजा जिद्दी था। 8 भगवान यहोवा 14,700 लोगों को शिकायत के लिए मारता है कि भगवान यहोवा उन्हें मारता रहता है। 9 गिनती 16: 41-49 में , इस्राएलियों की शिकायत है कि भगवान यहोवा उनमें से कई को मार रहा है। तो, भगवान यहोवा एक प्लेग भेजता है जो उनमें से 14,700 को मारता है। 10 भगवान यहोवा ने दो शहरों को जलाकर मार डाला। उत्पत्ति 1: 9-24 में, भगवान यहोवा ने सदोम और अमोरा दो शहरों में सभी को आकाश से आग से मार दिया। 11 भगवान यहोवा के 2 मादा भालू 42 बच्चों को फाड़ देते हैं. 2 राजा 2: 23-24 में, कुछ बच्चे भविष्यवक्ता अलीशा को चिढ़ाते हैं, और भगवान यहोवा की प्रेरणा से जंगल में से 2 मादा भालू 42 बच्चों को फाड़ डालती हैं, 12 एक जनजाति का वध किया गया और उपस्थिति पर नहीं दिखाने के लिए उनके अविवाहित लड़कियों का शील भंग किया। न्यायियों 21: 1-23 में, इस्राएलियों की बिन्यामीन जाति को बहिष्कृत कर दिया., इसलिए अन्य इस्राएलियों ने बिन्यामीन जाति की अविवाहित लड़कियों को छोड़कर उन सभी को मार दिया, । 13 3,000 विरोधी कुचल कर मारे गए। न्यायियों 16: 27-30 में , भगवान यहोवा ने शिमशोन को एक विरोधी जनजाति के 3,000 सदस्यों को कुचलने के लिए एक इमारत को नीचे लाने की शक्ति दी। 14 भगवान यहोवा के लिए निर्दोष अविवाहित बेटी की हत्या न्यायियों 11: 30-39 में , यिप्तह ने अपनी अविवाहित बेटी को अम्मोनियों को मारने में भगवान यहोवा के अनुग्रह के लिए बलिदान के रूप में जिंदा जला दिया। ----- यह केवल नमूना है. बाइबिल बेकसूरों की हत्याओं से भरी हुई है.
स्वाध्याय सन्दोह (vedic vichar)
03-05-2022
ओ३म्! या ते जिह्वा मधुमती सुमेधा अग्ने देवेषूच्यत उरूची | तयेह विश्वाँ अवसे यजत्राना सादय पापया चा मधूनि || ऋग्वेद 3|57|5 शब्दार्थ अग्ने............ पुरोहित या...............जो ते................तेरी मधुमति..........मीठी सुमेधा:...........उत्तम मेधायुक्त अर्थात सुबुद्धिपूर्वक उरूची............विशाल अर्थों का ज्ञान कराने वाली जिह्वा............वाणी देवेषु.............देवौं में, विद्वानो में उच्यते............कही जाती है, प्रसिद्ध है तया.............उसके द्वारा अवसे............प्रीति के लिए, प्रयोजन सिद्धि के लिए विश्वाऩ्...........सब यजत्राऩ्..........याज्ञिकों को इह..............यहाँ आ+सादय........ला बिठा और मधूनि............मधुर पदार्थ पायल............पिला | व्याख्या - बहुत से लोग एक विशेष समुदाय के साथ मधुरता का व्यवहार करते हैं | वेद संकेत कर रहा है कि भाई! तू सबके साथ मीठी वाणी बोल | ऋषि ने इसी का अनुकरण करते हुए कहा है - सबसे प्रीतिपूर्वक, धर्मानुसार यथायोग्य व्यवहार करना चाहिए | अथर्ववेद 16/2/2 में कहा है - मधुमतीस्थ मधुमतीं वाचमुदेयम् - हे प्रजाओ! तुम मिठासयुक्त होओ, मैं मिठासयुक्त वाणी बोलूँ अर्थात जो चाहता है कि लोग उसके साथ मीठा व्यवहार करें, उसे दूसरों के साथ स्वयं मीठा व्यवहार करना चाहिए | भगवान ने उपदेश किया है कि सृष्टि के सारे पदार्थ मधुरता का व्यवहार कर रहे हैं, तू भी मधुरता का व्यवहार कर | देखिए, कितने मधुरमान्=मधुर हैं ये मन्त्र ! मधु वाता ऋतायते मधु क्षरन्ति सिन्धवः | माध्वीर्नः सन्त्वोषधीः ||.....ऋग्वेद 1/90/6 सृष्टि नियम की अनुकूलता से चलनेवाले के लिए वायु मिठास लाती है, नदियाँ मिठास बहाती हैं, औषधियाँ हमारे लिए मीठी हों | मधु नक्तमुतोषसो मधुमत्पार्थिवं रजः | मधु द्यौरस्तु नः पिता ||.......ऋग्वेद 1/90/7 रात मीठी है, प्रभात मीठे हैं, पृथिवी की धूलि या पृथिवीलोक भी मीठा है, पिता द्यौ भी हमारे लिए मधुर हो | मधुमान्नो वनस्पतिर्मधुमाँ अस्तु सूर्यः | माध्वीर्गावो भवन्तु नः ||......ऋग्वेद 1/90/8 वनस्पति हमारे लिए मीठी हो, सूर्य्य भी हमारे लिए मधुमान् हो | हमारी गौवें माध्वी=मिठासवाली होंवे | यह सब मिठास ऋतानुसारी के लिए है | ऋत कहते हैं सरल सीधे, सृष्टिनियमानुकूल व्यवहार को | प्रकृत मन्त्र में वाणी को मधुमती के साथ सुमेधाः भी कहा गया है | मीठा बोलो, किन्तु बुद्धि के साथ बोलो | बुद्धिरहित मीठा भाषण किस काम का | मीठे वचन को बुद्धियुक्त कहने का प्रयोजन है, यदि वक्ता में बुद्धि हो, तो वह अप्रिय सत्य को भी प्रिय बना लेगा | स्मृतिकार कहते हैं - सत्यं ब्रूयात्प्रियं ब्रूयान्न ब्रूयात्सत्यमप्रियम् | सच बोले, किन्तु अप्रिय सत्य न बोले | बड़ी उलझन है | क्या चुप रहा जाए ? नहीं. यही मनु महाराज कहते हैं - मौनात्सत्यं विशिष्यते - चुप रहने से सत्य बोलना अच्छा है | वेद भी यही कहता है - वदन् ब्रह्माSवदतो वनीयान् - बोलनेवाला ज्ञानी न बोलने वाले से अधिक पूज्य है, अर्थात सत्य तो अवष्य बोलना है, चुप नहीं रहना | हाँ उसे अप्रिय भी नहीं रहने दें | प्रिय बनाने के लिए बुद्धि चाहिए | इसी कारण वेद ने कहा या ते जिह्वा मधुमती सुमेधाः - जो तेरी मीठी सुबुद्धियुक्त वाणी है, उस सुबुद्धियुक्त वाणी से सब जनो को इकट्ठा कर और मिठास पिला | सबसे मीठा वेद है, उन्हे वह पिला | बता, तू वेद का मधुरपान दूसरों को पिलाता है ? या नहीं पिलाता, अब तो पिला | वेद बहुत मीठा है | एक बार स्वयं पी, फिर तू बार बार पिएगा, और विवश होकर दूसरों को भी पिलाएगा |
???? *आज का वैदिक भजन* ???? (vedic vichar)
02-05-2022
ओ३म् भूर्भुव॒: स्व॒: तत्स॑वि॒तुर्वरे॑ण्यं॒ भर्गो॑ दे॒वस्य॑ धीमहि । धियो॒ यो न॑: प्रचो॒दया॑त् यजुर्वेद 36/3 ओ३म् यस्य भूमिः प्रमान्तरिक्षमुतोदरम् । दिवं यश्चक्रे मूर्धानं तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नमः ॥ अथर्ववेद 10/7/32 चुपके-चुपके जो कोई, ईश्वर से दुआ करता है उसकी यकीनन वो पिता, सुना करता है उसके डर से मायूस मत होना कभी तू तो इन्सान है, वो चींटी की सुना करता है दुआ मञ्जूर होती है, यदि वो दिल से होती है मगर मुश्किल तो ये है कि वो बड़ी मुश्किल से होती है मिलने की आरजू है, तो खुद को मिटा के देख पर्दानशीं गर है तो पर्दे में आकर देख फिर कौन कहता है कि मुलाकात नहीं होती हर रोज मिलते हैं मगर, प्रभु से बात नहीं होती ले चल तू उस ओर, रे साथी !!! ले चल तू उस ओर, रे मनवा !!! ले चल तू उस ओर, रे साथी !!! मार रहा होऽऽऽऽ प्रभु मिलन का सागर मस्त हिलोर ले चल तू उस ओर, रे मनवा !!! ले चल तू उस ओर दो हृदयों का मधुर मिलन हो जहाँ शान्ति के खिले सुमन हों दो बिछुड़ों का मधुर मिलन हो जहाँ शान्ति के खिले सुमन हों जहाँ न होता विरह व्यथा से व्याकुल हृदय चकोर रे मनवा !!! ले चल तू उस ओर, रे माँझी !!! ले चल तू उस ओर ले चल तू उस ओर, रे मनवा !!! जहाँ वैर का नाम नहीं हो छ्ल प्रपञ्च का काम नहीं हो जहाँ न करता हो कोमल मन तो ये कुटिल कठोर रे मनवा !!! ले चल तू उस ओर ले चल तू उस ओर, रे मनवा !!! ले चल तू उस ओर मार रहा होऽऽऽऽ प्रभु मिलन का सागर मस्त हिलोरे मार रहा होऽऽऽऽ ईश मिलन का सागर मस्त हिलोरे ले चल तू उस ओर, रे मनवा !!! ले चल तू उस ओर आज जगत् में प्यार नहीं है शुद्ध सच्चा व्यवहार नहीं है बिछे हुए जीवन पथ पर पग-पग संकट घोर रे मनवा !!! ले चल तू उस ओर, रे साथी !!! ले चल तू उस ओर जब तू है मेरा चिर-सङ्गी तो मुझको किस बात की तङ्गी वो बादल बन-बन बरसेगा नाचेगा मन मोर रे मनवा !!! ले चल तू उस ओर, रे मनवा !!! ले चल तू उस ओर ले चल तू उस ओर, रे साथी !!! ले चल तू उस ओर मार रहा होऽऽऽऽ प्रभु मिलन का सागर मस्त हिलोरे ले चल तू उस ओर, रे मनवा !!! ले चल तू उस ओर ले चल तू उस ओर, रे साथी !!! ले चल तू उस ओर
Vedic vichar
29-04-2022
अभिवादन के लिए उत्तम शब्द *नमस्ते जी*. “नमस्ते” शब्द संस्कृत भाषा का है। इसमें दो पद हैं – नम:+ते । इसका अर्थ है कि ‘आपका मान करता हूँ।’ संस्कृत व्याकरण के नियमानुसार “नम:” पद अव्यय (विकाररहित) है। इसके रूप में कोई विकार=परिवर्तन नहीं होता, लिङ्ग और विभक्ति का इस पर कुछ प्रभाव नहीं। नमस्ते का साधारण अर्थ सत्कार = सम्मान होता है। अभिवादन के लिए आदरसूचक शब्दों में “नमस्ते” शब्द का प्रयोग ही उचित तथा उत्तम है। नम: शब्द के अनेक शुभ अर्थ हैं। जैसे - दूसरे व्यक्ति या पदार्थ को अपने अनुकूल बनाना, पालन पोषण करना, अन्न देना, जल देना, वाणी से बोलना, और दण्ड देना आदि। नमस्ते namaste शब्द वेदोक्त है। वेदादि सत्य शास्त्रों और आर्य इतिहास (रामायण, महाभारत आदि) में ‘नमस्ते’ शब्द का ही प्रयोग सर्वत्र पाया जाता है। सब शास्त्रों में ईश्वरोक्त होने के कारण वेद का ही परम प्रमाण है, अत: हम परम प्रमाण वेद से ही मन्त्रांश नीचे देते है :- नमस्ते namaste परमेश्वर के लिए 1. - दिव्य देव नमस्ते अस्तु॥ – अथर्व० 2/2/1 हे प्रकाशस्वरूप देव प्रभो! आपको नमस्ते होवे। 2. - विश्वकर्मन नमस्ते पाह्यस्मान्॥ – अथर्व० 2/35/4 3. - तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नम: ॥ – अथर्व० 10/7/32 सृष्टिपालक महाप्रभु ब्रह्म परमेश्वर के लिए हम नमन=भक्ति करते है। 4. - नमस्ते भगवन्नस्तु ॥ – यजु० 36/21 हे ऐश्वर्यसम्पन्न ईश्वर ! आपको हमारा नमस्ते होवे। बड़े के लिए 1. - नमस्ते राजन् ॥ – अथर्व० 1/10/2 हे राष्ट्रपते ! आपको हम नमस्ते करते हैं। 2. - तस्मै यमाय नमो अस्तु मृत्यवे ॥ – अथर्व० 6/28/3 पापियों के लिए मृत्युस्वरूप दण्डदाता न्यायाधीश के लिए नमस्ते हो। 3. - नमस्ते अधिवाकाय ॥ – अथर्व० 6/13/2 उपदेशक और अध्यापक के लिए नमस्ते हो। देवी (स्त्री) के लिए 1. - नमोsस्तु देवी ॥ – अथर्व० 1/13/4 हे देवी ! माननीया महनीया माता आदि देवी ! तेरे लिए नमस्ते हो। 2 - नमो नमस्कृताभ्य: ॥ – अथर्व० 11/2/31 पूज्य देवियों के लिए नमस्ते। बड़े, छोटे बराबर सब को 1- नमो महदभयो नमो अर्भकेभ्यो नमो युवभ्य: ॥ – ऋग० 1/27/13. बड़ों बच्चों जवानों सबको नमस्ते । 2 - नमो ह्रस्वाय नमो बृहते वर्षीयसे च नम: ॥ – यजु० 16/30. छोटे, बड़े और वृद्ध को नमस्ते । 3 - नमो ज्येष्ठाय च कनिष्ठाय च नम: ॥ – यजु० 16/32 सबसे बड़े और सबसे छोटे के लिए नमस्ते। ????वैज्ञानिक महत्व: हाथ के तालु में कुछ विशेष अंश हमारे मस्तिष्क और हृदय के साथ सुक्ष्म स्नायु माध्यम द्वारा संयुक्त है। दोनो हाथ जब प्रणाम मुद्रा में आते हैं, तो उन विशेष अंश में उद्दीपन होते हैं, जो कि हृदय एवं मस्तिष्क के लिए लाभदायक है। तो यही है नमस्ते की परम्परा। इसलिए जब भी आप एक दूसरे का अभिवादन करना चाहें, तो ऋषियों के अनुसार चार कार्य करने चाहिएँ।। पहला - सिर झुकाना। दूसरा - हाथ जोड़ना। तीसरा - मुंह से *नमस्ते जी* बोलना। और चौथा - बड़ों का पांव छूना। यदि सामने वाला व्यक्ति आप से बड़ा नहीं है, धन में बल में विद्या में बुद्धि में अनुभव में किसी भी चीज में बड़ा नहीं है, बराबर का है, अथवा छोटा है, तो आप 4 में से चौथी क्रिया = (पांव छूने वाली क्रिया) छोड़ सकते हैं। बाकी तीन क्रियाएं तो करनी ही चाहिएँ। तभी दूसरे का सम्मान ठीक प्रकार से हुआ, ऐसा माना जाता है। सबको हमारा नमस्ते???????????? - *स्वामी विवेकानंद परिव्राजक*
Vedic vichar
29-04-2022
भारतीय दर्शन और महर्षि दयानन्द का दृष्टिकोण लेखक- आचार्य श्री उदयवीर जी शास्त्री भारतीय दर्शन साधारण रूप से दो भागों में विभक्त हैं- आस्तिक दर्शन और नास्तिक दर्शन। आस्तिक दर्शनों में इन छह दर्शनों की गणना की जाती है- सांख्य, वैशेषिक, योग, न्याय, वेदान्त, मीमांसा। नास्तिक दर्शनों में चार्वाक दर्शन, बौद्ध दर्शन तथा जैन दर्शन माने जाते हैं। आस्तिक-नास्तिक दर्शनों का भेद वेदों की मान्यता एवं अमान्यता पर आधारित है। फलतः सभी आस्तिक दर्शन वेदों को न केवल प्रमाण, अपितु 'स्वतः प्रमाण' स्वीकार करते हैं; जबकि नास्तिक दर्शनों को वेदों का किसी प्रकार का प्रमाण तक भी स्वीकार नहीं। इसलिए आस्तिक-नास्तिक दर्शनों के प्रतिपाद्य सिद्धान्तों में अनेकत्र भेद का होना स्वाभाविक है; परन्तु जब आस्तिक दर्शनों में भी परस्पर भेदमूलक मान्यताएं सम्मुख आती हैं, तो यह बड़ा असमंजस-सा प्रतीत होता है। महर्षि दयानन्द को अपने काल में सर्वसाधारण समाज की तथा समाज में मूर्द्धन्य समझे जाने वाले विशिष्ट अंगों की भी गिरती हुई दशा को सुधार की ओर परिवर्तित करने के लिए सभी तरह के व्यक्तियों के साथ जूझना पड़ा, उसने देखा, कि शास्त्रीय चर्चाओं में विद्वान् समझे जाने वाले व्यक्ति भी बाद आदि कथाओं में दार्शनिक पद्धति की कितनी उच्छृंखलता के साथ अवहेलना करते हैं। दार्शनिक तथ्यों को अपने निराधार मनघड़न्त विचारों के अनुसार तोड़-मरोड़ कर निर्लज्जता से जनता के सम्मुख प्रस्तुत करते हैं। मूल दर्शनों की संस्थापना करने वालों को भी एक दूसरे का विरोधी बताते हैं, क्या साक्षात्कृतधर्मा ऋषि-मुनियों का कथन परस्पर विरुद्ध माना जा सकता है? सत्य सदा एक होता है, सत्य के दो रूप नहीं हो सकते, तब क्या दर्शनों में उन ऋषि-मुनियों ने सत्य का उत्पादन न कर असत्य को प्रस्तुत किया जाए? ऋषि ने दर्शनों की इस दुर्दशा को गहराई के साथ अन्तर्दृष्टि से देखा-परखा और एक सूत्र खोज निकाला, जिसमें सब दर्शन-माला में मोतियों के समान गुंथे हुए हैं। सभी दर्शनों का मुख्य प्रतिपाद्य विषय सृष्टि प्रक्रिया का विवरण प्रस्तुत करना है। निश्चित है, सृष्टि (जगत्=विश्व) की रचना का प्रकार एक ही हो सकता है। ऐसी कल्पना सर्वथा निराधार होगी, सर्गादिकाल में अपने अव्यक्त कारणों से विश्व की रचना के प्रकार अनेक हों, और एक-दूसरे से भिन्न हों। इसलिए दर्शनों के जिन व्याख्याकारों ने दर्शनों में विश्व के विभिन्न उपादान कारणों का एवं उनसे उत्पाद्यमान विश्व की विभिन्न रचना-प्रक्रिया का उल्लेख उभारा है, वह संगत नहीं कहा जा सकता है। इसको वास्तविक रूप से समझने और इसके समन्वय के लिए ऋषि ने अपने अमर-ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में वह सूत्र इस प्रकार प्रस्तुत किया है- "(पूर्वपक्ष) जैसे सत्यासत्य और दूसरे ग्रन्थों का परस्पर विरोध है वैसे अन्य शास्त्रों में भी है। जैसा सृष्टिविषय में छह शास्त्रों का विरोध है। मीमांसा कर्म, वैशेषिक काल, न्याय परमाणु, योग पुरुषार्थ, सांख्य प्रकृति और वेदान्त ब्रह्म से सृष्टि की उत्पत्ति मानता है; क्या यह विरोध नहीं है? (उत्तरपक्ष) प्रथम तो बिना सांख्य और वेदान्त के दूसरे शास्त्रों में सृष्टि की उत्पत्ति प्रसिद्ध नहीं लिखी और इनमें विरोध नहीं, क्योंकि तुमको विरोधाविरोध का ज्ञान नहीं। मैं तुमसे पूछता हूं कि विरोध किस स्थल में होता है? क्या एक विषय में अथवा भिन्न-भिन्न विषयों में? (पूर्वपक्ष) एक विषय में अनेकों का परस्पर विरुद्ध कथन हो, उसको विरोध कहते हैं, यहां भी सृष्टि का एक ही विषय है। (उत्तरपक्ष) क्या विद्या एक या दो? (पूर्वोपक्ष) एक है। (उत्तरपक्ष) जो एक है तो व्याकरण, वैद्यक, ज्योतिष आदि का भिन्न-भिन्न क्यों है? जैसा एक विद्या में अनेक अवयवों का एक-दूसरे से भिन्न प्रतिपादन होता है, वैसे ही सृष्टि विद्या के भिन्न-भिन्न छह अवयवों का शास्त्रों में प्रतिपादन करने से इनमें कुछ भी विरोध नहीं। जैसे घड़े के बनाने में कर्म, समय, मिट्टी, विचार, संयोग-वियोग आदि का पुरुषार्थ, प्रकृति के गुण और कुम्मार कारण है; वैसे ही सृष्टि का जो कर्म कारण है, उसकी व्याख्या मीमांसा में, समय की व्याख्या वैशेषिक में, उपादान कारण की व्याख्या न्याय में, पुरुषार्थ की व्याख्या योग में, तत्त्वों के अनुक्रम से परिगणन की व्याख्या सांख्य में और निमित्तकारण जो परमेश्वर है उसकी व्याख्या वेदान्त शास्त्र में है। इससे कुछ भी विरोध नहीं। जैसे वैद्यक शास्त्र में निदान, चिकित्सा, औषधिदान और पथ्य के प्रकरण भिन्न-भिन्न कथित हैं, परन्तु सबका सिद्धान्त रोग की निवृत्ति है, वैसे ही सृष्टि के छह कारण हैं। इनमें से एक-एक कारण की व्याख्या एक-एक शास्त्रकार ने की है। इसलिए इनमें कुछ भी विरोध नहीं। इसकी विशेष व्याख्या सृष्टि प्रकरण में कहेंगे।" एवमेव पूर्व निर्देशानुसार इस विषय को अष्टम समुल्लास के सृष्टि प्रकरण-प्रसंग में इस प्रकार बताया है- "(पूर्वपक्ष) सृष्टि विषय में वेदादि शास्त्रों का अवरोध है व विरोध? (उत्तरपक्ष) अविरोध है। (पूर्वपक्ष) जो अविरोधी है तो- तस्माद्वा एत्तस्मादात्मन आकाश: सम्भूत:, आकाशाद्वायु:, वायोरग्नि:, अग्नेराप:, अद्भ्यः पृथिवी, पृथिव्या ओषधयः, ओषधिभ्योऽन्नम्, अन्नाद्रेतः रेतसः पुरुषः स वा एष पुरुषोऽन्नरसमयः।। यह तैत्तिरीय उपनिषद् (ब्रह्मानन्द वल्ली) का वचन है। उस परमेश्वर और प्रकृति से आकाश अवकाश अर्थात् जो कारणरूप द्रव्य सर्वत्र फैल रहा था उस को इकट्ठा करने से अवकाश उत्पन्न सा होता है। वास्तव में आकाश की उत्पत्ति नहीं होती क्योंकि विना आकाश के प्रकृति और परमाणु कहां ठहर सकें? आकाश के पश्चात् वायु, वायु के पश्चात् अग्नि, अग्नि के पश्चात् जल, जल के पश्चात् पृथिवी, पृथिवी से ओषधि, ओषधियों से अन्न, अन्न से वीर्य, वीर्य से पुरुष अर्थात् शरीर उत्पन्न होता है। यहां आकाशादि क्रम से और छान्दोग्य में अग्न्यादि; ऐतरेय में जलादि क्रम से सृष्टि हुई। वेदों में कहीं पुरुष, कहीं हिरण्यगर्भ आदि से मीमांसा में कर्म, वैशेषिक काल, न्याय में परमाणु, योग में पुरुषार्थ, सांख्य में प्रकृति और वेदान्त में ब्रह्म से सृष्टि की उत्पत्ति मानी है। अब किसको सच्चा और किसको झूठा मानें? (उत्तरपक्ष) इसमें सब सच्चे, कोई झूठा नहीं। झूठा वह है जो विपरीत समझता है, क्योंकि परमेश्वर निमित्त और प्रकृति जगत् का उपादान कारण है।... छह शास्त्रों में अविरोध देखो इस प्रकार है। मीमांसा में- 'ऐसा कोई भी कार्य जगत् में नहीं होता कि जिस के बनाने में कर्मचेष्टा न की जाय।' वैशेषिक में- 'समय न लगे विना बने ही नहीं।' न्याय में- 'उपादान कारण न होने से कुछ भी नहीं बन सकता।' योग में- 'विद्या, ज्ञान, विचार न किया जाय तो नहीं बन सकता।' सांख्य में- 'तत्त्वों का मेल न होने से नहीं बन सकता।' और वेदान्त में- 'बनाने वाला न बनावे तो कोई भी पदार्थ उत्पन्न हो न सके।' इसलिये सृष्टि छह कारणों से बनती है; उन छह कारणों की व्याख्या एक-एक की एक-एक शास्त्र में है, इसलिए उनमें विरोध कुछ भी नहीं?" [सत्यार्थप्रकाश, अष्टम समुल्लास; पृष्ठ १८९-१९०, उक्त संस्करण] उक्त सन्दर्भों द्वारा भारतीय दर्शनों में अविरोध प्रकट करने के लिए ऋषि ने जो सूत्र सुझाया, उसका तात्पर्य केवल इतना है कि दर्शनों के मुख्य प्रतिपाद्य विषय-सृष्टि प्रक्रिया अर्थात् सर्ग रचना के विभिन्न कारण रूप अंगों का उत्पादन एक-एक दर्शन में हुआ है; इसलिए प्रत्येक दर्शन परस्पर विरोधी न होकर एक-दूसरे के पूरक हैं। सर्ग रचना रूप एक ही अर्थ का विवरण प्रस्तुत करने में सबका तात्पर्य है। सर्ग रचना के प्रसंग से सर्ग के स्त्रष्टा परमात्मा का तथा भोक्ता जीवात्मा का विशद वर्णन भी दर्शनों के प्रतिपाद्य विषय में आ जाता है। इसी क्रम से भोक्ता जीवात्मा के भोग साधन देह इन्द्रिय आदि का विवरण प्रसंगानुसार दर्शनों में प्रस्तुत किया गया है। मीमांसा- शास्त्र में कर्मों का वर्णन है। ये कर्म ऐहिक एवं पारलौकिक फलों के उत्पादक हैं। सामाजिक अथवा मानवीय दृष्टि से यह कर्म यज्ञा-अनुष्ठान रूप हैं और मानव के एवं प्राणिमात्र के अभ्युदय तथा सुख-सुविधा व अनुकूलता का साधन समझा जाता है। गहन शास्त्रीय दृष्टि से विचारने से प्रतीत होता है, यह कर्म समस्त विश्व में अनुस्यूत हैं; उस कर्म व क्रिया को प्रतीक रूप में प्राणी के अभ्युदय के लिए प्रस्तुत शास्त्र में संकलित किया गया। इससे पूर्व भी यह सब अनुष्ठान ऋषियों द्वारा बोधित मानव समाज में क्रमानुक्रमपूर्वक चले आते हैं। सृष्टि-रचना में इनके अनुषक्त होने की भावना शास्त्र द्वारा अनेक प्रकार से प्रकट हो गई है। इस रूप में जगत्स्त्रष्टा की भावना को उपनिषद् यह कहकर प्रकट करते हैं- "आत्मा वा इदमेक एवाग्र आसीत्, नान्यत् किञ्चन भिषत्। स ईक्षत लोकान्नु सृजा इति। स इमांल्लोका नष्टजत।" [ऐतरेय उपनिषद्, प्रारम्भिक भाग] सर्ग से पूर्व एक आत्मा ही था; अन्य कोई पदार्थ व्यापार या क्रिया करता हुआ न था। क्योंकि तब यह समस्त विश्व अपने मूल उपादान कारण में लीन था। उस ब्रह्म रूप आत्मा ने ईक्षण किया- मैं लोकों का निर्माण करूँ। उसने इन सब लोकों को बनाया। उसी को अन्यत्र 'स्वाभाविकी ज्ञान बल क्रिया च' कहा है। उस जगत्स्त्रष्टा में अनन्त ज्ञान, बल, क्रिया सम्भव है। वह उपादान तत्त्वों को अपनी अनन्त शक्ति से ज्ञानपूर्वक प्रेरित कर जगत् की रचना करता है। परमात्मा के 'प्रेरणा रूप, कर्म अथवा क्रिया के प्रतीक रूप में मीमांसा शास्त्र द्वारा यज्ञादि कर्म का वर्णन किया गया है।' वैशेषिक- के लिए कहा गया, वह कालरूप कारण का वर्णन करता है। प्रत्येक कार्य के होने में काल अवश्य कारण रहता है इस शास्त्र के व्याख्याकारों ने कहा है- 'जन्यानां जनक: कालो जगतामाश्रयो मत:।' समस्त उत्पन्न होने वाले पदार्थों का काल कारण होता है। इसी मान्यता को स्वीकार करते हुए महाभारत आदि में कहा गया है- काल: सृजति भूतानि काल: संहरते प्रजा:। वस्तुमात्र की उत्पत्ति और संहार आदि में सर्वत्र काल की कारणता निर्बाध स्वीकार की जाती है। इस आधार पर श्वेताश्वतर उपनिषद् की प्रारम्भिक दूसरी कण्डिका में विश्व के कारणों का विवरण देने की भावना से उपनिषद्कार 'काल' का सर्वप्रथम उल्लेख किया है। इस मान्यता का मूल आधार वैशेषिक का यह सूत्र है- नित्येष्वभावादनित्येषु भावात् कारणे कालारख्येति। [२/२/९] देर, जल्दी, एक साथ, पर, ऊपर, छोटा, बड़ा आदि व्यवहार नित्य पदार्थों में नहीं होता, अनित्यों में होता है, इससे सिद्ध है- कार्यमात्र के कारण रूप में 'काल' का नाम लिया जाता है। यह विवरण वैशेषिक दर्शन प्रस्तुत करता है। न्याय शास्त्र- के विषय में कहा गया- वह उपादान कारण का दर्शन कराता है। विचारणीय है- न्यायदर्शन में जिस प्रकार तत्त्वों का निरूपण किया गया है, उसका उल्लेख दर्शन के प्रथम सूत्र में है; पर वहां परमाणु या किसी मूल कारण तत्त्व का नाम तक नहीं। सत्यार्थप्रकाश में यह बात न्याय-दर्शन के किस विवरण के आधार पर लिखी गई है, यह ऋषि के गम्भीर अध्ययन एवं तत्त्वविवेचन के सूक्ष्मेक्षण को अभिव्यक्त करता है। शरीरादि-उत्पत्ति के प्रसंगवश चौथे अध्याय के प्रथम आह्निक में इसका स्पष्ट विवरण उपलब्ध होता है। वहां तीन सूत्र [११ से १३] द्रष्टव्य है। उनका संक्षिप्त सार केवल इतना है, कि परम सूक्ष्म पृथिव्यादि परमाणुओं से स्थूल पृथिव्यादि तथा देहादि की उत्पत्ति होती है। वे परमाणु अतीन्द्रिय होते हुए भी व्यक्त हैं। व्यक्त जगत् अपने समानजातीय व्यक्त परमाणुओं से उत्पन्न हो सकता है। परमाणु से जगदुत्पत्ति का इतना स्पष्ट निर्देश अन्य किसी दर्शन में नहीं है। यद्यपि यह तथ्य ऋषि की दृष्टि से ओझल नहीं था कि न्यायदर्शन का मुख्य प्रतिपाद्य विषय जगत् के उपादान कारण का विवरण प्रस्तुत करना नहीं है; यह बात तृतीय समुल्लास के इस प्रसंग के प्रश्न का उत्तर देते हुए ऋषि ने लिखी है। वहां का लेख है- "प्रथम तो बिना सांख्य और वेदान्त के दूसरे चार शास्त्रों में सृष्टि की उत्पत्ति प्रसिद्ध नहीं लिखी।" इसका स्पष्ट तात्पर्य यही है, कि सृष्टि की उत्पत्ति के मुख्य कारण उपादान और निमित्त का केवल दो शास्त्रों में वर्णन किया गया है, सांख्य और वेदान्त में। सांख्य में उपादान कारण का विस्तृत विवरण है, तथा वेदान्त में निमित्त कारण का। जगत् का उपादान कारण प्रकृति और निमित्त कारण ब्रह्म है। शेष चार शास्त्रों में इन्हीं के अंगभूत तत्त्वों का विवेचन हुआ है; इसलिए इन सब में विरोध की आशंका सर्वथा निर्मूल है। यह स्पष्ट है- ऋषि ने परमाणु को अनित्य माना है और उसे अव्यक्त नित्य प्रकृति से उत्पन्न हुआ बताया है। अष्टम समुल्लास के इस प्रसंग में ऋषि ने संस्कृत-सन्दर्भ इस प्रकार लिखा है- "नित्यायाः सत्त्वरजस्तमसां साम्यावस्थायाः प्रकृतेरुत्पन्नानां परमसूक्ष्माणां पृथक् पृथग्वर्त्तमानानां तत्त्वपरमाणूनां प्रथमः संयोगारम्भः संयोगविशेषादवस्थान्तरस्य स्थूलाकारप्राप्तिः सृष्टिरुच्यते।।" यह संस्कृत सन्दर्भ ऋषि का अपना लिखा प्रतीत होता है। परन्तु इसका मूल योगदर्शन [१/४४ सूत्र] के व्यासभाष्य की वाचस्पति मिश्रकृत टीका-तत्त्ववैशादी में उपलब्ध है। ऋषि ने इन्हीं आधारों पर उपादान कारण के रूप में परमाणु के साथ प्रकृति का प्रायः सर्वत्र प्रथम निर्देश किया है। तात्पर्य यह है कार्यमात्र समस्त विश्व का मूल उपादान कारण प्रकृति है; तथा स्थूल जगत् की उत्पत्ति से पूर्व का कारण पृथिव्यादि परमाणु हैं। इसी कारण उक्त सन्दर्भ के अन्त में 'संयोगविशेषाद-वस्थान्तरस्य स्थूलाकार प्राप्ति:' पद दिए गए हैं। इस प्रकार उक्त पंक्तियों द्वारा यह स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है कि न्याय में उपादान कारण के विवरण की वास्तविकता क्या है और उसके रहते शास्त्र के अविरोध एवं समन्वय का स्वरूप क्या हो सकता है। योग- में "पुरुषार्थ एवं विद्या, ज्ञान, विचार न किया जाये, तो नहीं बन सकता।" मानव द्वारा की गई प्रत्येक रचना में उक्त सभी बातों की आवश्यकता रहती है। इसी के अनुरूप सर्ग रचना में इनका अनुमान किया जाता है। योगशास्त्र आत्मज्ञान अथवा तत्त्वसाक्षात्कार एवं आत्माऽनात्मविवेक की प्रयोगात्मक पद्धति का विवरण प्रस्तुत करता है। अभ्यास अथवा प्रयोग के लिए आचरण में आने वाले विनिय अंगों का एक विशेष अनुक्रम रहता है। यदि उसी प्रकार अभ्यास या प्रयोग किया जाता है, तो सिद्धि रचना की सफलता सम्भावित रहती है। प्रयोगात्मक पद्धति की इसी विशेषता का निर्देशन योगशास्त्र करता है, जो रचनामात्र में अपेक्षित है। इसका विरोध किसी के साथ सम्भव नहीं, न इसकी उपेक्षा की कहीं सम्भावना है। सर्ग रचना के इसी अंश का अभिव्यञ्जन योगशास्त्र करता। सांख्य- में "तत्वों का मेल न होने से नहीं बन सकता।" 'तत्वों का मेल' इन पदों से केवल संयोग मात्र अपेक्षित नहीं है। कार्य मात्र के मूलभूत तत्व सत्त्व, रजस्, तमस् का परस्पर एक दूसरे में मिथुनीभूत हो जाना 'मेल' का तात्पर्य है। इन गुणों का ऐसा मेल तत्त्वों की एक भिन्न अवस्था को अभिव्यक्त करने में समर्थ होता है। परस्पर नितान्त विजातीय इन गुणों (प्रकृति रूप मूल तत्त्वों) के मिथुनीभूत होने के प्रकार की कोई सीमा नहीं है, इसी कारण ये गुण मिथुनीभाव की प्रक्रिया से अनन्त प्रकारों में परिणत हो जाते हैं, जिसे विश्व के रूप में क्रान्तदर्शी मानव देखने का प्रयास करता रहता है। सत्त्व रजस्तमो रूप मूल प्रकृति के विविध परिणामों की प्रक्रिया का विवरण सांख्यदर्शन प्रस्तुत करता है। इस प्रकार वास्तविक तथ्य के रूप में विश्व का उपादान कारण त्रिगुणात्मक प्रकृति है। ऋषि ने इसी मान्यता को आदर दिया है, जैसा कि इसी लेख में प्रथम निर्देश किया गया है। वेदान्त- में 'बनाने वाला न बनावे तो कोई भी पदार्थ उत्पन्न न हो सके।' यह अत्यन्त स्पष्ट एवं निर्विवाद तथ्य है, कि वेदान्त दर्शन जगत्स्त्रष्टा ब्रह्म का सर्वांग पूर्ण विवरण प्रस्तुत करता है। इस प्रकार छहों दर्शन सृष्टि रचना सम्बन्धी अपेक्षित विविध साधनांगों का निरूपण करते हैं, जो एक-दूसरे के पूरक हैं। यदि ऋषि के द्वारा सुझाये गये दार्शनिक समन्वय के इस सिद्धान्त को गम्भीरता एवं उदारतापूर्वक लिया जाये, तो तथाकथित नास्तिक दर्शनों के साथ भी समन्वय के मार्ग में कोई भारी अनिवार्य रुकावट दिखाई नहीं देती। तब ऐसा प्रतीत होता है, कि विभिन्न आचार्यों ने अपने काल में तत्त्व जिज्ञासा की पूर्ति के लिए जिस अंश व अंग का तात्कालिक अभ्युदय एवं अन्य सामाजिक सुविधाओं व अनुकूलताओं के लिए अधिक उपयोगी समझा, उसका सुझाव दिया, जिसकी कालान्त में स्वार्थी अखाड़ेबाजों ने अपनी संकुचित सिद्धि के लिए साधन बना डाला, मूल आचार्य का सद्भावना पूर्ण लक्ष्य सर्वथा तिरोहित कर दिया गया। आइये, इस पर विचार करें। चार्वाक- दर्शन चेतन-अचेतन रूप में तत्त्वों का विवेचन प्रस्तुत करता है। चार्वाक दर्शन की इस मान्यता को जब विचार-कोटि में लाया जाता है, कि इस समस्त चर-अचर एवं जड़-चेतन जगत् का मूल आधार तत्त्व केवल जड़ है, तब उसका तात्पर्य केवल इतने अर्थ के प्रतिपादन में समझना चाहिए, कि इस लोक में मानव मात्र की सुख-सुविधा- और सब प्रकार के अभ्युदय के लिए सर्वप्रथम तथाकथित जड़तत्त्व की यथार्थता और उसकी प्राणि-कल्याणकारी उपयोगिता को जानना परम आवश्यक है। उसकी उपेक्षा कर संसार में हमारा सुखी रहना सम्भव न होगा। चार्वाक दर्शन के सामने जब यह जिज्ञासा की जाती है कि क्या जड़ तत्त्व से अतिरिक्त चेतन तत्त्व का नित्य अस्तित्व नहीं माना जाना चाहिए? तब समाधान रूप में चार्वाक दर्शन का यही कहना है, कि चेतन के अस्तित्व से उसे कोई इन्कार नहीं है, पर वह नित्य है, या कैसा है, कहां से आता है, कहां जाता है? संसार को बनाने वाला कौन है? इत्यादि विचार-मन्थन उस समय तक अनपेक्षित है, जब तक उन तत्त्वों की यथार्थता व उपयोगिता को नहीं जान लिया जाता, जिन पर हमारा वर्तमान अस्तित्व निर्भर है। मरने के बाद क्या होगा? इसकी अपेक्षा यह अधिक आवश्यक है, कि हम जीवित कैसे रह सकते हैं। जैनबौद्धदर्शन- ये दर्शन जड़ तत्त्व से अतिरिक्त चेतन तत्त्व के स्वतन्त्र अस्तित्व का उपदेश करते हैं। जैनदर्शन चेतन (आत्म) तत्त्व को जहां संकोच विकासशील बताता है, दूसरा उसे ज्ञानस्वरूप मानकर क्षणिक कहता है, और उसके निर्विकार भाव को अक्षुण्ण बनाये रखना चाहता है। बौद्ध-दर्शन में विभिन्न अधिकारी-स्तर की भावना से ज्ञान-रूप (अथवा विज्ञान रूप) चेतनतत्त्व का विवेचन उस स्थिति तक पहुंचा दिया गया है, जहां यह प्रतिपादन किया जाता है कि समस्त चराचर जड़-चेतन जगत् उस विज्ञान का ही आभास है। बाह्य का स्वतन्त्र अस्तित्व कुछ नहीं। ये सब तत्त्व विचार के विभिन्न स्तर हैं। फलतः चेतन-अचेतन के विभिन्न प्रकार के विवेचन में परस्पर विरोध की न होकर जिज्ञासु अधिकारी के कल्याण की भावना अधिक है। इस प्रसंग में वस्तुभूत तथ्य यह ज्ञात होता है, कि तथाकथित नास्तिक दर्शन के मूल प्रवक्ताओं ने ईश्वर- अथवा ऐसी परमशक्ति, जो समस्त विश्व का नियन्त्रण करती है उसके अस्तित्व का निषेध नहीं किया। उन्होंने किन्हीं विशेष परिस्थितियों से बाधित होकर वैसा प्रवचन किया। वे परिस्थितियां चाहे जिज्ञासु जनों की योग्यता पर आधारित रही हों, प्रतीत होता है- उस-उस काल के लोक कर्त्ता व्यक्तियों ने ईश्वर या तत्सम्बन्धी मान्यताओं को अवाञ्छनीय सामाजिक संघर्ष का अनवेक्षित कारण समझकर लोगों को सुझाया हो, कि अरे भाई! इन अदृश्य तत्त्वों को थोड़े समय के लिए एक ओर रहने दो, अपने वर्तमान जीवन को सुधारो, सबके कल्याण के लिए, सदाचार पर ध्यान दो, परस्पर सहानुभूति से रहना सीखो, उससे हमारा यह लोक सुखमय होगा, और परलोक भी। ऐसे आचरणों से ईश्वर तक भी पहुंचा जा सकता है। उन्होंने समाज के सदाचार पर अधिक बल दिया। इसकी तब अपेक्षा रही होगी। वस्तुतः इसकी अपेक्षा सदा रहती है। उन प्रवक्ताओं का तात्पर्य ईश्वर के अस्तित्व तथा वेदों की मान्यता के नकार में नहीं समझना चाहिए तब ऐसे विरोध की भावना इन दर्शनों के मूल में कहां रह जाती है? आदि प्रवक्ताओं के जन कल्याणकारी लक्ष्य विभिन्न विचारों की इन काली-पीली आंधियों में तिरोहित हो चुके हैं। तत्त्व की खोज में यही भावना जिज्ञासु को सच्चाई के अन्तिम लक्ष्य तक पहुंचा सकती है, कि सृष्टि के इस अनवरत प्रवाह में वे सब विचार अपने स्थान व अपने स्तर पर ठीक हैं, सत्य से अधिचारित हैं। उनमें छिपे यथार्थ को उभार लाने के लिए आज तक जो सफल प्रयास किये गए हैं, उनसे दार्शनिक तत्त्वों के यथार्थ स्वरूप को समझने में पूरा सहयोग प्राप्त हुआ है। इस लघुकाय लेख में, प्रकट किए विचार दिग्दर्शनमात्र हैं। आर्य विद्वान् इस पर गम्भीर विचार कर उपयुक्त सुझाव देंगे, तो बड़ा कार्य होगा। [स्त्रोत- आर्य मर्यादा : आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब का प्रमुख पत्र का मार्च २०२० का अंक; प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ]
कुँवर सुखलाल आर्य मुसाफिर अरनियां बुलंदशहर (उ0 प्रदेश) ()कुँवर सुखलाल आर्य मुसाफिर अरनियां बुलंदशहर (उ0 प्रदेश)
29-04-2022
तू ही इष्ट मेरा तू ही देवता है। तू ही बंधु मेरा, तू माता पिता है। जहालत से हम तुझको देखे न देखे। मगर तू हमें देखता है। पता पत्ता - पत्ता तेरा दे रहा है। सरासर गलत है कि तू लापता है। "मुसाफ़िर" जरा इस मुसाफिर से पूछो। कहां से चला ओर कहां जा रहा है।। गंगा और यमुना के मध्य जिला बुलंदशहर में जी. टी. रोड़ पर बुलंदशहर से 20 और खुर्जा से 9 मील पूर्व, अलीगढ़ से 21 मील पश्चिम में एक छोटा सा गांव अरनियां है। भारत के अंतिम सम्राट पृथ्वी सिंह चौहान (राय पिथौरा) के वंशज इस ग्राम में निवास करते हैं। ग्राम पर अंग्रेजों की क्रूर दृष्टि सन् 1857 के गद्दर के समय इस गांव के लोगों ने दो अंग्रेजों को मार कर भूमि में दबा दिया था। इस गांव से बाहर एक फर्लांग की दूरी पर अंग्रेजों का बंगला था। उसी बंगले में स्त्रियों और बच्चों सहित वह रहते थे तथा गांव अरनियां के लोगों तथा आसपास के वासियों को अंग्रेज भक्त बने रहने का उपदेश देते रहते थे। साथ में डराते धमकाते थे। गांव अरनियां वासियों ने उन दोनों अंग्रेजों को मारकर दबा दिया तथा उनके बच्चों को अपनी सवारी में बैठाकर मेरठ छावनी में पहुंचा दिया। छावनी के कमांडर ने उन्हें वफादारी का परवाना लिखकर दे दिया। दो अंग्रेजों के मरने की सूचना पाकर अंग्रेजों ने अरनियां के पास दो तोपें लगा दी। गांव को तोपों से उड़ाया जाना था। यह सूचना पाकर दूसरी अरनियां के जमींदार ठाकुर पदमसिंह जी जो 28 गांव के मालिक थे, इस अरनियां में आये और इस गांव को उड़ाये जाने से बचा लिया। वो अंग्रेजो के वफादार माने जाते थे। गांव तो बच गया, किंतु गांव पर गोरों की क्रूर दृष्टि बनी रही। ????जन्म???? कुंवर सुखलाल आर्य मुसाफिर जी का जन्म इसी ग्राम में सन् 1890 ई0 में हुआ। इनके पिता जी ठाकुर भीमसिंह तथा माता जी धर्म देवी था। मुसाफिर जी दो भाई थे। बड़े भाई स्वर्ण सिंह जी तथा छोटे थे कुंवर सुखलाल जी। ????शिक्षा???? अरनियां से एक मील की दूरी पर गांव कैरोला में प्राइमरी स्कूल था, उसमें मास्टर सरदार खां थे, जो मुसलमान होते भी रहन सहन व्यवहार से हिंदु थे। कुँवर साहब उनके श्रेष्ठतम शिष्यों में से थे। ????गायन ???? कंठ बहुत ही सुरीला था ठाकुर नारायण सिंह जी जो संबंध से इनके चाचा थे। वह गायक थे स्वयं ही गीत बनाते जाते थे, साथ ही गाते जाते थे। उनके साथ ही कुँवर साहब गाने लगे। ????आर्य समाज में प्रवेश???? चान्दौख जिला - बुलंदशहर के ठाकुर महावीर सिंह जी और ठाकुर गिरवर सिंह जी महर्षि दयानंद जी के शिष्य थे। उनके प्रभाव से अरनियां गांव में 20वीं शताब्दी के आरंभ में आर्य समाज की स्थापना हुई। ठाकुर बलवंत सिंह, और मुंशीराम सांवल सिंह जी यहां आर्य समाज के कर्णधार थे। मुंशी सांवल जी आदि प्रति मास शुक्ल पक्ष में अपनी बैलगाड़ी जोड़कर निकट के गांवों में रात्री प्रचार के लिए जाया करते थे। प्रचार में ठाकुर नारायण, कुं. साहब तथा सरदार सिंह जी के भजन तथा व्याख्यान होते थे। सुखलाल जी की आवाज अच्छी होने केे कारण इनके भजन सुने जाते थे। उन दिनों खड़ताल बजाकर चौधरी तेजसिंह जी के ये भजन गाया करते थे। कुछ ही दिन में कुंवर साहब इस क्षेत्र में काफी लोकप्रिय हो गए। कुछ समय बाद कुँवर साहब गुरुकुल सिकंदाराबाद से जा जुड़े। वहीं पर कुंवर साहब ने हारमोनियम बजाना सीख लिया। फिर हारमोनियम पर गाने बजाने लगे धीरे धीरे कुंवर साहब बाहर जिलो में भी प्रसिद्ध हो गए। ????आर्य मुसाफ़िर मिशन से जुड़ाव ???? आर्य मुसाफिर पंडित लेखराम जी के निधन के पश्चात पंडित भोजदत्त (जानसठ - मुजफ्फरनगर) ने आगरे में " आर्य मुसाफिर मिशन की स्थापना" करके प्रचार कार्य आरंभ कर दिया " श्री पंडित लेखराम जी यादगार रुप - "आर्य मुसाफिर उपदेशक विद्यालय खोल दिया" । श्री पंडित भोजदत्त जी आर्य मुसाफिर, जो बड़े रत्न पारखी थे। उन्होने कुंवर सुखलाल जी को ढूंढ लिया। उनके सुयोग्य पुत्र थे डॉक्टर लक्ष्मीदत्त जी ओर पंडित ताराचंद आर्य मुसाफिर, श्री पं. भोजदत्त जी ने कुंवर साहब को आर्य मुसाफिर नाम देकर अपना तीसरा पुत्र बना लिया। इनके दोनों बेटों ने कुंवर साहब को अपना भाई मान लिया। कुंवर साहब ने स्वंय परिश्रम करके अंग्रेजी सीख ली, उर्दू, फारसी, और कुरान भी पढ़ लिया। थोड़े ही समय बाद श्री कुंवर साहब पुरे देश में प्रसिद्ध हो गए। सन् 1914 में कुंवर साहब आगरा से प्राचार्थ पेशावर गये थे। अपने व्याख्यानों में आर्य समाज के सिद्धांतों का तो प्रचार करते ही थे पर हिंदु संगठन ,पतितों की शुद्धि और अछूतोद्धार पर सदा अधिक बल देते थे। पेशावर में इनके भाषण में से सी. आई डी वालों ने यह वाक्य शिकायत के रुप में लिखा की ----- हिंदु लोग कुत्तों और बिल्लियों से तो प्यार करते हैं पर अपने भाइयों को अछूत बताते और उनसे घृणा करते हैं। रिपोर्ट देने वालों ने मूर्खता या धूर्तता से कुत्तों, बिल्लियों इन शब्दों का अर्थ ईसाई व मुसलमानों के लिए अपशब्द बोलने और नफरत फैलाने का दोष लगाया। ????गिरफ्तारी???? पुलिस ने कुंवर साहब को गिरफ्तार कर लिया और तौहिन मजहब कर अभियोग बनाकर अंग्रेज डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट की अदालत में पेश कर दिया। पेशावर में इनकी पैरवी करने के लिए कोई वकील तैयार नहीं हुआ। कुंवर साहब ने कहा मैं खुद जिरह करूंगा। जब एक गवाह ने कहा कि - मेरे सामने इन्होने यह कहा था कि हिंदु लोग, कुत्तें और बिल्ली से मोहब्बत करते हैं,"" कुत्ता बिल्ली"", इन्होने मुसलमानों और ईसाईयों को कहा था। कुंवर साहब ने गवाह से पूछा की - जब मैने यह कहा की हिंदु लोग कुत्तों और बिल्लियों से मोहब्बत करते हैं, तब इस फिकरे के साथ मैं हारमोनियम बजा रहा था कि नहीं ? गवाह ने बोला हां! आप हारमोनियम बजा रहे थे। और ढ़ोलकवादक ढो़लक बजा रहा था। कुंवर साहब ने कहा कि - जनाब मजिस्ट्रेट साहब! यह फिकरा जो मेरे नाम पर लगाया गया है, यह लेक्चर में कहा जा सकता है। म्यूजिक में नहीं और हारमोनियम ढोलक म्यूजिक में बजते हैं लेक्चर में नहीं। इससे साफ होता है मैं निर्दोष हूं। अंग्रेज मजिस्ट्रेट ने कहा - मिस्टर सुखलाल हम तुमको बरी करता है पर यह पूछता है की आगरा यहां से सैंकड़ो मील दूर है। तूम यहां इतनी दूर क्यों आया है ?? कुंवर साहब बोले मजिस्ट्रेट साहिब। पेशावर ओर आगरा हिंदुस्तान में हैं! आपके ईसाई पादरी तो समुद्रों को पार करके गैर मुल्कों से हिंदुस्तान में प्रचार करने आते हैं। मैं तो अपने ही देश में गाता बजाता हूं। तब मजिस्ट्रेट ने कुंवर साहब को पुलिस द्वारा घर पहुंचा दिया। ऐसे ही कुंवर साहब की दुसरी गिरफ्तारी 1914 में मुल्तान में हुई। वहां भी इनके प्रचार को आपत्तिजनक समझा गया। वहां से भी इनको प्रचार करके सुरक्षित आगरा पहुंचा दिया। ????मुसलमानों द्वारा घातक आक्रमण ???? कोंच जिला जालोन उ0.प्र0 में एक मुसलमान प्रचारक ब्रह्मचारी कुतुबुद्दीन नामी आर्य समाज तथा हिंदुवो के विरुद्ध प्रचार करता था, पैरों में खड़ाऊ पहनता, गेरुवो कपड़े पहनता और शिर पर जटाएं रखता था। कोंच आर्य समाज के उत्सव में कुंवर साहब का अति प्रभावशाली भाषण हुआ। रात्रि को 12 बजे उत्सव समाप्त हुआ। सब उपदेशक आर्य समाज के अधिकारियों के साथ अपने निवास स्थान को जा रहे थे। कुछ मुसलमानों ने उसी ब्रह्मचारी कुतुबुद्दीन के भड़काने से इन लोगों पर भंयकर आक्रमण कर दिया। मुसाफिर अखबार आगरा के मैनेजर बहादुर सिंह का चेहरा लोहे का पंजा मारकर बिगाड़ दिया, कुंवर साहिब का सिर फाड़ दिया। कुंवर साहब बेहोश होकर गिर पड़े। मुसलमानों ने सोचा की मर गए। गिरफ्तारी के भय से उनको पड़ा छोड़कर भाग गए। आर्य समाज के अधिकारी भी भाग गए। कुंवर साहिब अकेले पड़े रह गए। इस आक्रमण की सूचना पाकर डॉ लक्ष्मीदत्त जी आर्य मुसाफिर भी आगरा से कोंच पहुंचे। कुछ दिनों इलाज होने के पीछे सिर पर पट्टी बांधे कुंवर साहिब ने बड़ी सभा में बैठकर वीरतायुक्त भाषण दिया और गीत गाया ---- "शीष जिनके धर्म पै चढ़े हैं, झंडे दुनियां में उनके गडे हैं। एक लड़का हकीकत था नामी, सार जिसने धर्म की थी जानी। जगमें अब तक है उसकी निशानी, शीश कटवाने को खुश जो खड़े हैं ""। उस सभा में कोंच का हिंदु बच्चा बच्चा उपस्थित था।। कुंवर साहिब का भाषण सुनकर सैंकड़ो लोगों से अश्रु धारा बह रही थी। ????हैदराबाद सत्याग्रह???? सन् 1939 में हैदराबाद सत्याग्रह हुआ। श्री अमर स्वामी परिव्राजक जी अमुक तिथि को लाहौर से जत्था लेकर हैदराबाद सत्याग्रह के लिए जा रहे थे। ऐसा उनको समाचार पत्रों द्वारा ज्ञात हुआ। उनको विदाई देने पहुंच गए ओर रो पड़े। कहा कि मैं इस सत्याग्रह के पक्ष में नहीं था पर भाई साहब जा रहे हैं तो मैं भी नहीं रुकुंगा!! हे पाठकों ये होती है मित्रता। आज किसी किसी आर्य जन में बची है। कुंवर साहब बोले भाई साहब में भी चलुंगा। आप चलिये! मैं भी आ रहा हूं। स्वामी जी लाहौर रेलमार्ग से 30 सत्याग्रहियों के साथ मुम्बई पहुंच गए। कुंवर साहब कराची गए। और वहां से जत्था बनाकर जलमार्ग से मुम्बई पहुंच गए। दोनों जत्थे मिलकर एक जत्था हो गया। शोलापुर पहुंचकर पं. धीरेन्द्र जी शास्त्री सर्वाधिकारी के साथ 528 सत्याग्रहियों सहित शोलापुर से गुलवर्गा तक स्पेशल ट्रेन द्वारा पहुंचे। और वहां सत्याग्रह करके जेल में गए। इस जेल में रहते हुवे कुंवर साहब ने कई गजले बनाई। जिनमें से एक इस प्रकार थी ---- यह कैसा फसाना है, यह कैसी कहानी है सुनकर जिसे महफिल की हर आंख में पानी है इसका आखिरी मिसरा यह था - क्या खाक लिखे, जबकि - महबस में मुसाफिर को दो ज्वार की रोटी हैं और दाल का पानी है। निजाम की जेलों में ज्वार की दो दो रोटियां और बहुत पतली दाल सबको मिलती थी। दाल रोटी के टुकड़े पर चढ़ नहीं सकती थी। इस कारण सभी सत्याग्रही रोटी को मोड़कर मिलाते ओर खाते थे। कुंवर साहब को भाषण में हंसाना ओर रुलाना सर्वथा उनके वश में था। ????एक कुशल वक्ता ???? संगीतज्ञ, निष्णात गायक तो थे ही, उत्कृष्ट कोटि के कवि भी थे। उनकी कविता सरल हिंदी तथा सरल उर्दू दोनों भाषाओं में उपलब्ध होती है। प्राचीन भक्त कवियों की पद शैली का प्रयोग करते हुए उन्होने अनेक भजन लिखे हैं। सुखलाल जी के कवित्तो में यत्र तत्र ब्रज भाषा का माधुर्य तो है ही, सुहावरेदानी तथा वाग्विदग्धता भी कम नहीं है। भारत के प्रति दयादृष्टि करने की प्रार्थना करता हुआ कवि भगवान से विनय करता है --- दासता की किच बीच भारत निवासी फंसे करुणा निधान दया दृष्टि सों निहारियो। भक्त नहीं तो भक्तन के पूत हैं यह नाती है निहारो नेह, नाती न बिसारियो। सुना है कि सदा तुम निर्बलो के साथ रहे हम हैं निर्बल अब हम हूं को तारिये ?? अर्जी हमारी आगे मर्जी तुम्हारी एक बात की है बात, बात कीजिये कि हारिये मुसाफिर की गजले आर्य समाज के उर्दू काव्य का श्रंगार है। उठ खड़े हो हिंदुवो काफी जलालत हो चूकी। बुजदिलों मरदानगी सीखो नजाकत हो चूकी।। लाल लाखों कौम के गैरों को अब तक दे चूके। क्या गजब करते हो रहने दो सखावत हो चूकी।। इस कविता में कवि ने महात्मा गांधी जी को अपने व्यंग्य बाणों का निशाना बनाया। कारण स्पष्ट है। मुसलमान मौलवियों द्वारा की जाने वाले तबलीक का प्रतिरोध करने तथा जातियो को इस्लाम की दावत को कबूल करने का आग्रह करने वालों को शुद्धि का संखनाद कर, मुंह तोड़ उत्तर देने वाले आर्य समाज को भी महात्मा गांधी ने गलत ठहरा दिया। निजाम चाहते थे की चूड़ी बेचने वाले, फेरी वाले, कुंजड़े और हर किस्म के लोग इस्लाम के प्रचार के ध्वजवाहक बन जाए। फिर भला वे मंगला मुखियो को यह पाक काम क्यों न सौंपते। तभी मुसाफिर जी को लिखना पड़ा। रंडियो को काम जब सौंपा गया तबलीक का, उड़ गई तौहिद हजरत की रसातल हो चूकी। कुंवर साहब जैसे निर्भिक वैदिक मिशनरी उपदेशकों व कवियों ने आर्य समाज व वैदिक धर्म की ज्योति विश्व में गुंजायमान कर दी। 2 जनवरी 1981 को 92 वर्ष की आयु में कुंवर साहब का निधन हुआ। कुंवर सुखलाल जी के पुरे जीवन पर एक ग्रंथ तैयार हो जाए। जैसी जानकारी मिली वो प्रस्तुत हैं। कुंवर सुखलाल आर्य मुसाफिर को शत शत नमन। लेखक :- अमर स्वामी परिव्राजक पुस्तक :- सिंह गर्जना (ऐतिहासिक भाषण एवं क्रांति गीत सम्पादक :- ठाकुर विक्रम सिंह प्रस्तुती :- अमीत सिवाहा
Ii अथ अग्निहोत्रमंत्र:॥ (vedicvichar)
29-04-2022
» जल से आचमन करने के 3 मंत्र ॐ अमृतोपस्तरणमसि स्वाहा ॥१॥ ॐ अमृतापिधानमसि स्वाहा ॥२॥ ॐ सत्यं यश: श्रीर्मयि श्री: श्रयतां स्वाहा ॥३॥ मंत्रार्थ – हे सर्वरक्षक अमर परमेश्वर! यह सुखप्रद जल प्राणियों का आश्रयभूत है, यह हमारा कथन शुभ हो। यह मैं सत्यनिष्ठापूर्वक मानकर कहता हूँ और सुष्ठूक्रिया आचमन के सदृश आपको अपने अंत:करण में ग्रहण करता हूँ॥1॥ हे सर्वरक्षक अविनाशिस्वरूप, अजर परमेश्वर! आप हमारे आच्छादक वस्त्र के समान अर्थात सदा-सर्वदा सब और से रक्षक हों, यह सत्यवचन मैं सत्यनिष्ठापूर्वक मानकर कहता हूँ और सुष्ठूक्रिया आचमन के सदृश आपको अपने अंत:करण में ग्रहण करता हूँ॥2॥ हे सर्वरक्षक ईश्वर सत्याचरण, यश एवं प्रतिष्ठा. विजयलक्ष्मी, शोभा धन-ऐश्वर्य मुझमे स्थित हों, यह मैं सत्यनिष्ठापूर्वक प्रार्थना करता हूँ और सुष्ठूक्रिया आचमन के सदृश आपको अपने अंत:करण में ग्रहण करता हूँ॥3॥ » जल से अंग स्पर्श करने के मंत्र इसका प्रयोजन है-शरीर के सभी महत्त्वपूर्ण अंगों में पवित्रता का समावेश तथा अंतः की चेतना को जगाना ताकि यज्ञ जैसा श्रेष्ठ कृत्य किया जा सके। बाएँ हाथ की हथेली में जल लेकर दाहिने हाथ की उँगलियों को उनमें भिगोकर बताए गए स्थान को मंत्रोच्चार के साथ स्पर्श करें । इस मंत्र से मुख का स्पर्श करें ॐ वाङ्म आस्येऽस्तु ॥ इस मंत्र से नासिका के दोनों भाग ॐ नसोर्मे प्राणोऽस्तु ॥ इससे दोनों आँखें ॐ अक्ष्णोर्मे चक्षुरस्तु ॥ इससे दोनों कान ॐ कर्णयोर्मे श्रोत्रमस्तु ॥ इससे दोनों भुजाऐं ॐ बाह्वोर्मे बलमस्तु ॥ इससे दोनों जंघाएं ॐ ऊर्वोर्म ओजोऽस्तु ॥ इससे सारे शरीर पर जल का मार्जन करें ॐ अरिष्टानि मेऽङ्गानि तनूस्तन्वा में सह सन्तु ॥ मंत्रार्थ – हे रक्षक परमेश्वर! मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ कि मेरे मुख में वाक् इन्द्रिय पूर्ण आयुपर्यन्त स्वास्थ्य एवं सामर्थ्य सहित विद्यमान रहे। हे रक्षक परमेश्वर! मेरे दोनों नासिका भागों में प्राणशक्ति पूर्ण आयुपर्यन्त स्वास्थ्य एवं सामर्थ्यसहित विद्यमान रहे। हे रक्षक परमेश्वर! मेरे दोनों आखों में दृष्टिशक्ति पूर्ण आयुपर्यन्त स्वास्थ्य एवं सामर्थ्यसहित विद्यमान रहे। हे रक्षक परमेश्वर! मेरे दोनों कानों में सुनने की शक्ति पूर्ण आयुपर्यन्त स्वास्थ्य एवं सामर्थ्यसहित विद्यमान रहे। हे रक्षक परमेश्वर! मेरी भुजाओं में पूर्ण आयुपर्यन्त बल विद्यमान रहे। हे रक्षक परमेश्वर! मेरी जंघाओं में बल-पराक्रम सहित सामर्थ्य पूर्ण आयुपर्यन्त विद्यमान रहे। हे रक्षक परमेश्वर! मेरा शरीर और अंग-प्रत्यंग रोग एवं दोष रहित बने रहें, ये अंग-प्रत्यंग मेरे शरीर के साथ सम्यक् प्रकार संयुक्त हुए सामर्थ्य सहित विद्यमान रहें। » ईश्वर की स्तुति – प्रार्थना – उपासना के मंत्र ॐ विश्वानी देव सवितर्दुरितानि परासुव । यद भद्रं तन्न आ सुव ॥१॥ मंत्रार्थ – हे सब सुखों के दाता ज्ञान के प्रकाशक सकल जगत के उत्पत्तिकर्ता एवं समग्र ऐश्वर्ययुक्त परमेश्वर! आप हमारे सम्पूर्ण दुर्गुणों, दुर्व्यसनों और दुखों को दूर कर दीजिए, और जो कल्याणकारक गुण, कर्म, स्वभाव, सुख और पदार्थ हैं, उसको हमें भलीभांति प्राप्त कराइये। हिरण्यगर्भ: समवर्त्तताग्रे भूतस्य जात: पतिरेक आसीत् । स दाघार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥२॥ मंत्रार्थ – सृष्टि के उत्पन्न होने से पूर्व और सृष्टि रचना के आरम्भ में स्वप्रकाशस्वरूप और जिसने प्रकाशयुक्त सूर्य, चन्द्र, तारे, ग्रह-उपग्रह आदि पदार्थों को उत्पन्न करके अपने अन्दर धारण कर रखा है, वह परमात्मा सम्यक् रूप से वर्तमान था। वही उत्पन्न हुए सम्पूर्ण जगत का प्रसिद्ध स्वामी केवल अकेला एक ही था। उसी परमात्मा ने इस पृथ्वीलोक और द्युलोक आदि को धारण किया हुआ है, हम लोग उस सुखस्वरूप, सृष्टिपालक, शुद्ध एवं प्रकाश-दिव्य-सामर्थ्य युक्त परमात्मा की प्राप्ति के लिये ग्रहण करने योग्य योगाभ्यास व हव्य पदार्थों द्वारा विशेष भक्ति करते हैं। य आत्मदा बलदा यस्य विश्व उपासते प्रशिषं यस्य देवा: । यस्य छायाऽमृतं यस्य मृत्यु: कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥३॥ मंत्रार्थ – जो परमात्मा आत्मज्ञान का दाता शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक बल का देने वाला है, जिसकी सब विद्वान लोग उपासना करते हैं, जिसकी शासन, व्यवस्था, शिक्षा को सभी मानते हैं, जिसका आश्रय ही मोक्षसुखदायक है, और जिसको न मानना अर्थात भक्ति न करना मृत्यु आदि कष्ट का हेतु है, हम लोग उस सुखस्वरूप एवं प्रजापालक शुद्ध एवं प्रकाशस्वरूप, दिव्य सामर्थ्य युक्त परमात्मा की प्राप्ति के लिये ग्रहण करने योग्य योगाभ्यास व हव्य पदार्थों द्वारा विशेष भक्ति करते हैं। य: प्राणतो निमिषतो महित्वैक इन्द्राजा जगतो बभूव। य ईशे अस्य द्विपदश्चतुष्पद: कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥४॥ मंत्रार्थ – जो प्राणधारी चेतन और अप्राणधारी जड जगत का अपनी अनंत महिमा के कारण एक अकेला ही सर्वोपरी विराजमान राजा हुआ है, जो इस दो पैरों वाले मनुष्य आदि और चार पैरों वाले पशु आदि प्राणियों की रचना करता है और उनका सर्वोपरी स्वामी है, हम लोग उस सुखस्वरूप एवं प्रजापालक शुद्ध एवं प्रकाशस्वरूप, दिव्यसामर्थ्ययुक्त परमात्मा की प्रप्ति के लिये योगाभ्यास एवं हव्य पदार्थों द्वारा विशेष भक्ति करते हैं। येन द्यौरुग्रा पृथिवी च द्रढा येन स्व: स्तभितं येन नाक: । यो अन्तरिक्षे रजसो विमान: कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥५॥ मंत्रार्थ – जिस परमात्मा ने तेजोमय द्युलोक में स्थित सूर्य आदि को और पृथिवी को धारण कर रखा है, जिसने समस्त सुखों को धारण कर रखा है, जिसने मोक्ष को धारण कर रखा है, जो अंतरिक्ष में स्थित समस्त लोक-लोकान्तरों आदि का विशेष नियम से निर्माता धारणकर्ता, व्यवस्थापक एवं व्याप्तकर्ता है, हम लोग उस शुद्ध एवं प्रकाशस्वरूप, दिव्यसामर्थ्ययुक्त परमात्मा की प्रप्ति के लिये ग्रहण करने योग्य योगाभ्यास एवं हव्य पदार्थों द्वारा विशेष भक्ति करते हैं। प्रजापते न त्वदेतान्यन्यो विश्वा जातानि परिता बभूव । यत्कामास्ते जुहुमस्तनो अस्तु वयं स्याम पतयो रयीणाम् ॥६॥ मंत्रार्थ – हे सब प्रजाओं के पालक स्वामी परमत्मन! आपसे भिन्न दूसरा कोई उन और इन अर्थात दूर और पास स्थित समस्त उत्पन्न हुए जड-चेतन पदार्थों को वशीभूत नहीं कर सकता, केवल आप ही इस जगत को वशीभूत रखने में समर्थ हैं। जिस-जिस पदार्थ की कामना वाले हम लोग अपकी योगाभ्यास, भक्ति और हव्यपदार्थों से स्तुति-प्रार्थना-उपासना करें उस-उस पदार्थ की हमारी कामना सिद्ध होवे, जिससे की हम उपासक लोग धन-ऐश्वर्यों के स्वामी होवें। स नो बन्धुर्जनिता स विधाता धामानि वेद भुवनानि विश्वा। यत्र देवा अमृतमानशाना स्तृतीये घामन्नध्यैरयन्त ॥७॥ मंत्रार्थ – वह परमात्मा हमारा भाई और सम्बन्धी के समान सहायक है, सकल जगत का उत्पादक है, वही सब कामों को पूर्ण करने वाला है। वह समस्त लोक-लोकान्तरों को, स्थान-स्थान को जानता है। यह वही परमात्मा है जिसके आश्रय में योगीजन मोक्ष को प्राप्त करते हुए, मोक्षानन्द का सेवन करते हुए तीसरे धाम अर्थात परब्रह्म परमात्मा के आश्रय से प्राप्त मोक्षानन्द में स्वेच्छापूर्वक विचरण करते हैं। उसी परमात्मा की हम भक्ति करते हैं। अग्ने नय सुपथा राय अस्मान् विश्वानि देव वयुनानि विद्वान। युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठां ते नम उक्तिं विधेँम ॥८॥ मंत्रार्थ – हे ज्ञानप्रकाशस्वरूप, सन्मार्गप्रदर्शक, दिव्यसामर्थयुक्त परमात्मन! हमें ज्ञान-विज्ञान, ऐश्वर्य आदि की प्राप्ति कराने के लिये धर्मयुक्त, कल्याणकारी मार्ग से ले चल। आप समस्त ज्ञानों और कर्मों को जानने वाले हैं। हमसे कुटिलतायुक्त पापरूप कर्म को दूर कीजिये । इस हेतु से हम आपकी विविध प्रकार की और अधिकाधिक स्तुति-प्रार्थना-उपासना सत्कार व नम्रतापूर्वक करते हैं। » दीपक जलाने का मंत्र ॐ भूर्भुव: स्व: ॥ मंत्रार्थ – हे सर्वरक्षक परमेश्वर! आप सब के उत्पादक, प्राणाधार सब दु:खों को दूर करने वाले सुखस्वरूप एवं सुखदाता हैं। आपकी कृपा से मेरा यह अनुष्ठान सफल होवे। अथवा हे ईश्वर आप सत,चित्त, आनन्दस्वरूप हैं। आपकी कृपा से यह यज्ञीय अग्नि पृथिवीलोक में, अन्तरिक्ष में, द्युलोक में विस्तीर्ण होकर लोकोपकारक सिद्ध होवे। » यज्ञ कुण्ड में अग्नि स्थापित करने का मंत्र ॐ भूर्भुव: स्वर्द्यौरिव भूम्ना पृथिवीव वरिम्णा । तस्यास्ते पृथिवि देवयजनि पृष्ठेऽग्निमन्नादमन्नाद्यायादधे ॥ मंत्रार्थ – हे सर्वरक्षक सबके उत्पादक और प्राणाधार दुखविनाशक सुखस्वरूप एवं सुखप्रदाता परमेश्वर! आपकी कृपा से मैं महत्ता या गरिमा में द्युलोक के समान, श्रेष्ठता या विस्तार में पृथिवी लोक के समान हो जाऊं । देवयज्ञ की आधारभूमि पृथिवी! के तल पर हव्य द्रव्यों का भक्षण करने वाली यज्ञीय अग्नि को, भक्षणीय अन्न एवं धर्मानुकूल भोगों की प्राप्ति के लिए तथा भक्षण सामर्थ्य और भोग सामर्थ्य प्राप्ति के लिए यज्ञकुण्ड में स्थापित करता हूँ। » अग्नि प्रदीप्त करने का मंत्र ॐ उद् बुध्यस्वाग्ने प्रतिजागृहित्व्मिष्टापूर्ते सं सृजेथामयं च । अस्मिन्त्सधस्थे अध्युत्तरस्मिन् विश्वे देवा यजमानश्च सीदत ॥ मंत्रार्थ – मैं सर्वरक्षक परमेश्वर का स्मरण करता हुअ यहाँ कामना करता हूँ कि हे यज्ञाग्ने ! तू भलीभांति उद्दीप्त हो, और प्रत्येक समिधा को प्रज्वलित करती हुई पर्याप्त ज्वालामयी हो जा। तू और यह यजमान इष्ट और पूर्त्त कर्मों को मिल्कर सम्पादित करें। इस अति उत्कृष्ट, भव्य और अत्युच्च यज्ञशाला में सब विद्वान और यज्ञकर्त्ता जन मिलकर बैठें। » घृत की तीन समिधायें रखने के मंत्र इस मंत्र से प्रथम समिधा रखें। ॐ अयन्त इध्म आत्मा जातवेदस्तेनेध्यस्व वर्द्धस्व चेद्ध वर्धयचास्मान् प्रजयापशुभिर्ब्रह्मवर्चसेनान्नाद्येन समेधय स्वाहा । इदमग्नेय जातवेदसे – इदं न मम ॥१॥ मन्त्रार्थ- मैं सर्वरक्षक परमेश्वर का स्मरण करता हुआ कामना करता हूँ कि हे सब उत्पन्न पदार्थों के प्रकाशक अग्नि! यह समिधा तेरे जीवन का हेतु है ज्वलित रहने का आधार है।उस समिधा से तू प्रदीप्त हो, सबको प्रकाशित कर और सब को यज्ञीय लाभों से लाभान्वित कर, और हमें संतान से, पशु सम्पित्त से बढ़ा।ब्रह्मतेज ( विद्या, ब्रह्मचर्य एवं अध्यात्मिक तेज से, और अन्नादि धन-ऐश्वयर् तथा भक्षण एवं भोग- सामथ्यर् से समृद्ध कर। मैं त्यागभाव से यह समिधा- हवि प्रदान करना चाहता हूँ | यह आहुति जातवेदस संज्ञक अग्नि के लिए है, यह मेरी नही है ॥1॥ » इन दो मन्त्रों से दूसरी समिधा रखें ओं समिधाग्निं दुवस्यत घृतैर्बोधयतातिथम् । आस्मिन हव्या जुहोतन स्वाहा । इदमग्नये इदन्न मम ॥२॥ मन्त्रार्थ- मैं सर्वरक्षक परमेश्वर का स्मरण करते हुए वेद के आदेश का कथन करता हूँ कि हे मनुष्यो! समिधा के द्वारा यज्ञाग्नि की सेवा करो -भक्ति से यज्ञ करो।घृताहुतियों से गतिशील एवं अतिथ के समान प्रथम सत्करणीय यज्ञाग्नि को प्रबुद्ध करो, इसमें हव्यों को भलीभांति अपिर्त करो।मैं त्यागभाव से यह समिधा- हवि प्रदान करना चाहता हूँ। यह आहुति यज्ञाग्नि के लिए है, यह मेरी नहीं है ॥२॥ सुसमिद्धाय शोचिषे घृतं तीव्रं जुहोतन अग्नये जातवेदसे स्वाहा। इदमग्नये जातवेदसे इदन्न मम ॥३॥ मन्त्रार्थ- मैं सर्वरक्षक परमेश्वर के स्मरणपूर्वक वेद के आदेश का कथन करता हूँ कि हे मनुष्यों! अच्छी प्रकार प्रदीप्त ज्वालायुक्त जातवेदस् संज्ञक अग्नि के लिए वस्तुमात्र में व्याप्त एवं उनकी प्रकाशक अग्नि के लिए उत्कृष्ट घृत की आहुतियाँ दो . मैं त्याग भाव से समिधा की आहुति प्रदान करता हूँ यह आहुति जातवेदस् संज्ञक माध्यमिक अग्नि के लिए है यह मेरी नहीं॥३॥ इस मन्त्र से तीसरी समिधा रखें। तन्त्वा समिदि्भरङि्गरो घृतेन वर्द्धयामसि । बृहच्छोचा यविष्ठय स्वाहा॥इदमग्नेऽङिगरसे इदं न मम ॥४॥ मन्त्रार्थ – मैं सर्वरक्षक परमेश्वर का स्मरण करते हुए यह कथन करता हूँ कि हे तीव्र प्रज्वलित यज्ञाग्नि! तुझे हम समिधायों से और धृताहुतियों से बढ़ाते हैं।हे पदार्थों को मिलाने और पृथक करने की महान शक्ति से सम्पन्न अग्नि ! तू बहुत अधिक प्रदीप्त हो, मैं त्यागभाव से समिधा की आहुति प्रदान करता हूँ ।यह अंगिरस संज्ञक पृथिवीस्थ अग्नि के लिए है यह मेरी नहीं है। » नीचे लिखे मन्त्र से घृत की पांच आहुति देवें ओम् अयं त इध्म आत्मा जातवेदस्तेनेध्यस्व वद्धर्स्व चेद्ध वधर्य चास्मान् प्रजयापशुभिब्रह्मवर्चसेनान्नाद्येन समेधय स्वाहा।इदमग्नये जातवेदसे – इदं न मम॥१॥ मन्त्रार्थ- मैं सर्वरक्षक परमेश्वर का स्मरण करता हुआ कामना करता हूँ कि हे सब उत्पन्न पदार्थों के प्रकाशक अग्नि! यह धृत जो जीवन का हेतु है ज्वलित रहने का आधार है। उस धृत से तू प्रदीप्त हो और ज्वालाओं से बढ़ तथा सबको प्रकाशित कर = सब को यज्ञीय लाभों से लाभान्वित कर और हमें संतान से, पशु सम्पित्त से बढ़ा। विद्या, ब्रह्मचर्य एवं आध्यात्मिक तेज से, और अन्नादि धन ऐश्वर्य तथा भक्षण एवं भोग सामर्थ्य से समृद्ध कर। मैं त्यागभाव से यह धृत प्रदान करता हूँ ।यह आहुति जातवेदस संज्ञक अग्नि के लिए है, यह मेरी नहीं है ॥१॥ » जल – प्रसेचन के मन्त्र इस मन्त्र से पूर्व में ओम् अदितेऽनुमन्यस्व॥ मन्त्रार्थ- हे सर्वरक्षक अखण्ड परमेश्वर! मेरे इस यज्ञकर्म का अनुमोदन कर अर्थात मेरा यह यज्ञानुष्ठान अखिण्डत रूप से सम्पन्न होता रहे।अथवा, पूर्व दिशा में, जलसिञ्चन के सदृश, मैं यज्ञीय पवित्र भावनाओं का प्रचार प्रसार निबार्ध रूप से कर सकूँ, इस कार्य में मेरी सहायता कीजिये। इससे पश्चिम में ओम् अनुमतेऽनुमन्यस्व॥ मन्त्रार्थ- हे सर्वरक्षक यज्ञीय एवं ईश्वरीय संस्कारों के अनुकूल बुद्धि बनाने में समर्थ परमात्मन! मेरे इस यज्ञकर्म का अनुकूलता से अनुमोदन कर अर्थात यह यज्ञनुष्ठान आप की कृपा से सम्पन्न होता रहे।अथवा, पश्चिम दिशा में जल सिञ्चन के सदृश मैं यज्ञीय पवित्र भावनाओं का प्रचार-प्रसार आपकी कृपा से कर सकूं, इस कार्य में मेरी सहायता कीजिये। इससे उत्तर में ओम् सरस्वत्यनुमन्यस्व॥ मन्त्रार्थ – हे सर्वरक्षक प्रशस्त ज्ञानस्वरूप एवं ज्ञानदाता परमेश्वर! मेरे इस यज्ञकर्म का अनुमोदन कर अर्थात आप द्वारा प्रदत्त उत्तम बुद्वि से मेरा यह यज्ञनुष्ठान सम्यक विधि से सम्पन्न होता रहे।अथवा, उत्तर दिशा में जलसिञ्चन के सदृश मैं यज्ञीय ज्ञान का प्रचार-प्रसार आपकी कृपा से करता रहूँ, इस कार्य में मेरी सहायता कीजिये। और – इस मन्त्र से वेदी के चारों और जल छिड़कावें। ओं देव सवितः प्रसुव यज्ञं प्रसुव यज्ञपतिं भगाय।दिव्यो गन्धर्वः केतपूः केतं नः पुनातु वाचस्पतिर्वाचं नः स्वदतु॥ मन्त्रार्थ – हे सर्वरक्षक दिव्यगुण शक्ति सम्पन्न सब जगत के उत्पादक परमेश्वर! मेरे इस यज्ञ कर्म को बढाओ । आनन्द, ऐश्वर्य आदि की प्राप्ति के लिए याग्यकर्त्ता को यज्ञकर्म की अभिवृद्धि के लिए और अधिक प्रेरित करो।आप विलक्षण ज्ञान के प्रकाशक हैं पवित्र वेदवाणी अथवा पवित्र ज्ञान के आश्रय हैं, ज्ञान-विज्ञान से बुद्धि मन को पवित्र करने वाले हैं, अतः हमारे बुद्धि-मन को पवित्र कीजिये।आप वाणी के स्वामी हैं, अतः हमारी वाणी को मधुर बनाइये। अथवा, चारों दिशायों में जल सिञ्चन के सदृश मैं यज्ञीय पवित्र भावनाओं का प्रचार-प्रसार कर सकूँ, इस कार्य के लिए मुझे उत्तम ज्ञान, पवित्र आचरण और मधुर-प्रशस्त वाणी में समर्थ बनाइये। » चार घी की आहुतियाँ इस मन्त्र से वेदी के उत्तर भाग में जलती हुई समिधा पर आहुति देवें। ओम् अग्नये स्वाहा | इदमग्नये – इदं न मम॥ मन्त्रार्थ- सर्वरक्षक प्रकाशस्वरूप दोषनाशक परमात्मा के लिए मैं त्यागभावना से धृत की हवि देता हूँ।यह आहुति अग्निस्वरूप परमात्मा के लिए है, यह मेरी नहीं है।अथवा, यज्ञाग्नि के लिए यह आहुति प्रदान करता हूँ। इस मन्त्र से वेदी के दक्षिण भाग में जलती हुई समिधा पर आहुति देवें। ओम् सोमाय स्वाहा | इदं सोमाय – इदं न मम॥ मन्त्रार्थ – सर्वरक्षक, शांति -सुख-स्वरूप और इनके दाता परमात्मा के लिए त्यागभावना से धृत की आहुति देता हूँ ।अथवा, आनन्दप्रद चन्द्रमा के लिए यह आहुति प्रदान करता हूँ। » इन दो मन्त्रों से यज्ञ कुण्ड के मध्य में दो आहुति देवें। ओम् प्रजापतये स्वाहा | इदं प्रजापतये – इदं न मम॥ मन्त्रार्थ- सर्वरक्षक प्रजा अर्थात सब जगत के पालक, स्वामी, परमात्मा के लिए मैं त्यागभाव से यह आहुति देता हूँ।अथवा, प्रजापति सूर्य के लिए यह आहुति प्रदान करता हूँ। ओम् इन्द्राय स्वाहा | इदं इन्द्राय – इदं न मम॥ मन्त्रार्थ- सर्वरक्षक परमऐश्वर्य-सम्पन्न तथा उसके दाता परमेश्वर के लिए मैं यह आहुति प्रदान करता हूँ।अथवा ऐश्वयर्शाली, शक्तिशाली वायु व विद्युत के लिए यह आहुति प्रदान करता हूँ। » दैनिक अग्निहोत्र की प्रधान आहुतियां – प्रातः कालीन आहुति के मन्त्र इन मन्त्रों से घृत के साथ साथ सामग्री आदि अन्य होम द्रव्यों की भी आहुतियां दें। ओम् ज्योतिर्ज्योति: सूर्य: स्वाहा॥१॥ ओम् सूर्यो वर्चो ज्योतिर्वर्च: स्वाहा॥२॥ ओम् ज्योतिः सूर्य: सुर्योज्योति स्वाहा॥३॥ ओम् सजूर्देवेन सवित्रा सजूरूषसेन्द्रव्यता जुषाणः सूर्यो वेतु स्वाहा॥४॥ मन्त्रार्थ- सर्वरक्षक, सर्वगतिशील सबका प्रेरक परमात्मा प्रकाशस्वरूप है और प्रत्येक प्रकाशस्वरूप वस्तु या ज्योति परमात्ममय = परमेश्वर से व्याप्त है।उस परमेश्वर अथवा ज्योतिष्मान उदयकालीन सूर्य के लिए मैं यह आहुति देता हूं॥१॥ मन्त्रार्थ- सर्वरक्षक, सर्वगतिशील और सबका प्रेरक परमात्मा तेजस्वरूप है, जैसे प्रकाश तेजस्वरूप होता है, उस परमात्मा अथवा तेजःस्वरूप प्रातःकालीन सूर्य के लिए मैं यह आहुति देता हूं॥२॥ मन्त्रार्थ- सर्वरक्षक, ब्रह्मज्योति =ब्रह्मज्ञान परमात्ममय है परमात्मा की द्योतक है परमात्मा ही ज्ञान का प्रकाशक है।मैं ऐसे परमात्मा अथवा सबके प्रकाशक सूर्य के लिए यह आहुति प्रदान करता हूं॥३॥ मन्त्रार्थ- सर्वरक्षक, सर्वव्यापक, सर्वत्रगतिशील परमात्मा सर्वोत्पादक, प्रकाश एवं प्रकाशक सूर्य से प्रीति रखने वाला, तथा ऐश्वयर्शाली = प्रसन्न्ता, शक्ति तथा धनैश्वर्य देने वाली प्राणमयी उषा से प्रीति रखनेवाला है अर्थात प्रीतिपूर्वक उनको उत्पन्न कर प्रकाशित करने वाला है, हमारे द्वारा स्तुति किया हुआ वह परमात्मा हमें प्राप्त हो = हमारी आत्मा में प्रकाशित हो।उस परमात्मा की प्राप्ति के लिए मैं यज्ञाग्नि में आहुति प्रदान करता हूं।अथवा सबके प्रेरक और उत्पादक परमात्मा से संयुक्त और प्रसन्नता, शक्ति, ऐश्वयर्युक्त उषा से संयुक्त प्रातःकालीन सूर्य हमारे द्वारा आहुतिदान का सम्यक् प्रकार भक्षण करे और उनको वातावरण में व्याप्त कर दे, जिससे यज्ञ का अधिकाधिक लाभ हो॥४॥ » प्रातः कालीन आहुति के शेष समान मन्त्र ओम् भूरग्नये प्राणाय स्वाहा। इदमग्नये प्राणाय – इदं न मम॥१॥ ओम् भुवर्वायवेऽपानाय स्वाहा। इदं वायवेऽपानाय -इदं न मम॥२॥ ओम् स्वरादित्याय व्यानाय स्वाहा। इदमादित्याय व्यानाय -इदं न मम॥३॥ ओम् भूभुर्वः स्वरिग्नवाय्वादित्येभ्यः प्राणापानव्यानेभ्यः स्वाहा। इदमग्निवाय्वादित्येभ्यः प्राणापानव्यानेभ्यः – इदं न मम॥४॥ मन्त्रार्थ- सर्वरक्षक, सबके उत्पादक एवं सतस्वरूप, सर्वत्र व्यापक, प्राणस्वरूप परमात्मा की प्राप्ति के लिए मैं यह आहुति देता हूं।यह आहुति अग्नि और प्राणसंज्ञक परमात्मा के लिए है।यह मेरी नही है।अथवा परमेश्वर के स्मरणपूर्वक, पृथिवीस्थानीय अग्नि के लिए और प्राणवायु की शुद्धि के लिए मैं यह आहुति प्रदान करता हूँ॥१॥ मन्त्रार्थ- सर्वरक्षक, सब दुखों से छुड़ाने वाले और चित्तस्वरूप सर्वत्र गतिशील दोषों को दूर करने वाले परमात्मा की प्राप्ति के लिए मैं आहुति प्रदान करता हूँ।यह आहुति वायु और अपान संज्ञक परमात्मा के लिए है।यह मेरी नहीं है।अथवा परमेश्वर के स्मरणपूर्वक अन्तिरक्षस्थानीय वायु के लिए और अपान वायु की शुद्धि के लिए मैं यह आहुति प्रदान करता हूँ॥२॥ मन्त्रार्थ- सर्वरक्षक, सुखस्वरूप एवं आनन्दस्वरूप अखण्ड और प्रकाशस्वरूप सर्वत्र व्याप्त परमात्मा की प्राप्ति के लिए मैं यह आहुति प्रदान करता हूँ। यह आहुति आदित्य और व्यान संज्ञक परमात्मा के लिए है।यह मेरी नहीं है।अथवा सर्वरक्षक परमात्मा के स्मरणपूवर्क, द्युलोकस्थानीय सूर्य के लिए और व्यान वायु की शुद्धि के लिए यह आहुति प्रदान करता हूँ।यह आहुति आदित्य और व्यान वायु के लिए है, यह मेरी नही है॥३॥ मन्त्रार्थ- सर्वरक्षक, सबके उत्पादक एवं सतस्वरूप दुखों को दूर करने वाले एवं चित्तस्वरूप सुख-आनन्द स्वरूप सर्वत्र व्याप्त गतिशील प्रकाशक, सबके प्राणाधार, दोषनिवारक व्यापक स्वरूपों वाले परमात्मा के लिए मैं यह आहुति पुनः प्रदान करता हूं। यह आहुति उक्तसंज्ञक परमात्मा के लिए है , मेरी नहीं है।अथवा परमेश्वर के स्मरणपूवर्क, पृथिवीअन्तिरक्षद्युलोकस्थानीय अग्नि वायु और आदित्य के लिए तथा प्राण, अपान और व्यान संज्ञक प्राणवायुओं की शुद्धि के लिए मैं यह आहुति पुनः प्रदान करता हूं॥४॥ ओम् आपो ज्योतीरसोऽमृतं ब्रह्म भूभुर्वः स्वरों स्वाहा॥५॥ मन्त्रार्थ- हे सर्वरक्षक परमेश्वर आप सर्वव्यापक, सर्वप्रकाशस्वरूप एवं प्रकाशक, उपासकों द्वारा रसनीय, आस्वादनीय, आनन्द हेतु उपासनीय, नाशरिहत, अखण्ड, अजरअमर, सबसे महान, प्राणाधार और सतस्वरूप, दुखों को दूर करने वाले और चितस्वरूप, सुखस्वरूप एवं सुखप्रदाता और आनन्दस्वरूप, सबके रक्षा करनेवाले हैं।ये सब आपके नाम हैं, इन नामों वाले आप परमेश्वर की प्राप्ति के लिए मैं आहुति प्रदान करता हूँ॥ ओम् यां मेधां देवगणाः पितरश्चोपासते।तया मामद्य मेधयाऽग्ने मेधाविनं कुरू स्वाहा॥६॥ मन्त्रार्थ- हे सर्वरक्षक ज्ञानस्वरूप परमेश्वर ! जिस धारणावती = ज्ञान, गुण, उत्तम विचार आदि को धारण करने वाली बुद्धि की दिव्य गुणों वाले विद्वान और पालक जन माता-पिता आदि ज्ञानवृद्ध और वयोवृद्ध जन उपासना करते हैं अर्थात चाहते हैं और उसकी प्राप्ति के लिये यत्नशील रहते हैं उस मेधा बुद्धि से मुझे आज मेधा बुद्धि वाला बनाओ।इस प्रार्थना के साथ मैं यह आहुति प्रदान करता हूँ॥ ओम् विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव।यद भद्रं तन्न आ सुव स्वाहा ॥७॥ मन्त्रार्थ- हे सर्वरक्षक दिव्यगुणशक्तिसम्पन्न, सबके उत्पादक और प्रेरक परमात्मन्! आप कृपा करके हमारे सब दुगुर्ण, दुव्यर्सन और दुखों को दूर कीजिए और जो कल्याणकारक गुण, कर्म, स्वभाव हैं उनको हमें भलीभांति प्राप्त कराइये॥ अग्ने नय सुपथा राय अस्मान विश्वानि देव वयुनानि विद्वान। युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठां ते नम उक्ति विधेम स्वाहा॥८॥ मन्त्रार्थ- हे ज्ञानप्रकाशस्वरूप, सन्मार्गप्रदर्शक दिव्यसामर्थ्ययुक्त परमात्मन् ! हमको ज्ञानविज्ञान, ऐश्वर्य आदि की प्राप्ति के लिए धमर्युक्त कल्याणकारी मार्ग से ले चल। आप समस्त ज्ञानविज्ञानों और कर्मों को जानने वाले हैं हमसे कुटिलतायुक्त पापरूप कर्म को दूर कीजिये। इस हेतु से हम आपकी विविध प्रकार की और अधिकाधिक स्तुतिप्रार्थनाउपासना, सत्कार नम्रतापूर्वक करते हैं। » सायं कालीन आहुति के मन्त्र ओम् अग्निर्ज्योतिर्ज्योतिरग्नि: स्वाहा॥१॥ ओम् अग्निवर्चो ज्योतिर्वर्च: स्वाहा॥२॥ इस तीसरे मन्त्र को मन मे उच्चारण करके आहुति देवें ओम् अग्निर्ज्योतिर्ज्योतिरग्नि: स्वाहा॥३॥ ओम् सजूर्देवेन सवित्रा सजुरात्र्येन्द्रवत्या जुषाणो अग्निर्वेतु स्वाहा॥४॥ मन्त्रार्थ- सर्वरक्षक, सर्वत्र व्यापक, दोषनिवारक परमात्मा ज्योतिस्वरूप = प्रकाशस्वरूप है, और प्रत्येक ज्योति या ज्योतियुक्त पदार्थ अग्निसंज्ञक परमात्मा से व्याप्त है। मैं उस परमात्मा की प्राप्ति के लिए अथवा ज्योतिःस्वरूप अग्नि के लिए आहुति प्रदान करता हूँ॥१॥ मन्त्रार्थ- सर्वरक्षक, सर्वत्र व्यापक, दोषनिवारक परमात्मा तेजस्वरूप है, जैसे प्रत्येक प्रकाशयुक्त वस्तु या प्रकाश तेजस्वरूप होता है, मैं उस परमात्मा की प्राप्ति के लिए अथवा तेजःस्वरूप अग्नि के लिए आहुति प्रदान करता हूँ॥२॥ मन्त्रार्थ- सर्वरक्षक, सर्वत्र व्यापक, दोषनिवारक परमात्मा ब्रह्मज्योति और ज्ञानविज्ञानस्वरूप है ब्रह्मज्योति और ज्ञानविज्ञान अग्निसंज्ञक परमात्मा से उत्पन्न अथवा उसका द्योतक है मैं उस परमात्मा की प्राप्ति हेतु और सबको प्रकाशित करने वाले अग्नि के लिए आहुति प्रदान करता हूँ॥३॥ मन्त्रार्थ- सर्वरक्षक, सर्वत्र व्यापक, दोषनिवारक, प्रकाशस्वरूप परमात्मा प्रकाशस्वरूप एवं प्रकाशक सूर्य से प्रीति रखने वाला तथा प्राणमयी एवं चंद्रतारक प्रकाशमयी रात्रि से प्रीति रखने वाला है अर्थांत प्रीतिपूवर्क उनको उत्पन्न कर, प्रकाशित करने वाला है, हमारे द्वारा स्तुति किया जाता हुआ वह परमात्मा हमें प्राप्त हो- हमारी आत्मा में प्रकाशित हो। उस परमात्मा की प्राप्ति के लिए मैं यज्ञाग्नि में आहुति प्रदान करता हूँ॥ अधिदैवत पक्ष मे – सबके प्रकाशक सूर्य से और सबके प्रेरक और उत्पादक परमात्मा से संयुक्त और प्राण एवं चंद्रतारक प्रकाशमयी रात्रि से संयुक्त भौतिक अग्नि हमारे द्वारा आहुतिदान से प्रशंसित किया जाता हुआ हमारी आहुतियों का सम्यक प्रकार भक्षण करे और उन्हे वातावरण में व्याप्त कर दे जिससे यज्ञ का अधिकाधिक लाभ पहुंचे॥४॥ » सायं कालीन आहुति के शेष समान मन्त्र ओम् भूरग्नये प्राणाय स्वाहा।इदमग्नये प्राणाय – इदं न मम॥१॥ ओम् भुवर्वायवेऽपानाय स्वाहा।इदं वायवेऽपानाय -इदं न मम॥२॥ ओम् स्वरादित्याय व्यानाय स्वाहा।इदमादित्याय व्यानाय -इदं न मम॥३॥ ओम् भूर्भुवः स्वरिग्नवाय्वादित्येभ्यः प्राणापानव्यानेभ्यः स्वाहा। इदमग्निवाय्वादित्येभ्यः प्राणापानव्यानेभ्यः – इदं न मम॥४॥ ओम् आपो ज्योतीरसोऽमृतं ब्रह्म भूर्भुवः स्वरों स्वाहा॥५॥ ओम् यां मेधां देवगणाः पितरश्चोपासते।तया मामद्य मेधयाऽग्ने मेधाविनं कुरू स्वाहा॥६॥ ओम् विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव।यद भद्रं तन्न आ सुव स्वाहा ॥७॥ अग्ने नय सुपथा राय अस्मान विश्वानि देव वयुनानि विद्वान। युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठां ते नम उक्तिं विधेम स्वाहा॥८॥ इनका अर्थ प्रातःकालीन मन्त्रों में किया जा चुका है। » गायत्री मन्त्र अब तीन बार गायत्री मन्त्र से आहुति देवें ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रचोदयात् स्वाहा॥ उस प्राणस्वरूप, दुःखनाशक, सुखस्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक, देवस्वरूप परमात्मा को हम अन्तःकरण में धारण करें । वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग में प्रेरित करे। » पूर्णाहुति इस मन्त्र से तीन बार घी से पूर्णाहुति करें ओम् सर्वं वै पूर्णं स्वाहा॥ मन्त्रार्थ- हे सर्वरक्षक, परमेश्वर! आप की कृपा से निश्चयपूर्वक मेरा आज का यह समग्र यज्ञानुष्ठान पूरा हो गया है मैं यह पूर्णाहुति प्रदान करता हूँ। पूर्णाहुति मन्त्र को तीन बार उच्चारण करना इन भावनाओं का द्योतक है कि शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक तथा पृथिवी, अन्तिरक्ष और द्युलोक के उपकार की भावना से, एवं आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक सुखों की प्राप्ति हेतु किया गया यह यज्ञानुष्ठान पूर्ण होने के बाद सफल सिद्ध हो।इसका उद्देश्य पूर्ण हो। ॥इति अग्निहोत्रमन्त्राः॥
वही कहानी, वही तरीका केवल नाम भेद: हिन्दुओं तुम कब सीखोगे (vedic vichar)
25-04-2022
स्थान-हज़रत सैयद अली मीरा दातार दरगाह, उनावा ग्राम, जिला मेहसाणा, गुजरात पात्र- सय्यद अली उर्फ़ हज़रत सैयद अली मीरा दातार पूर्वज- बुखारा से दादा और पिता भारत इस्लाम का प्रचार करने आये थे जन्म- रमजान महीने की 29 तारीख,अहमदाबाद कार्य- गुजरात के सुलतान अहमद की सेना में सिपाहसालार मृत्यु- हिन्दू राजा मेहंदी ने जो मांडगाव की छोटी से रियासत जिसके अंतर्गत 12 ग्राम थे से युद्ध में सय्यद अली का सर अपनी तलवार से काट दिया था। मृत्यु के पश्चात गुजरात के सुल्तान ने इस स्थान पर उसकी दरगाह बनवा दी। चमत्कारों की सूची- १. सय्यद अली की माँ की अकाल मृत्यु हो गई। उसकी दूसरी माता को दूध नहीं था। सैयद अली ने चमत्कार किया। उससे दूध आने लगा। २. हिन्दू राजा के सर काटने के बाद भी उसका धड़ बिना सर के तलवार चलाता रहा और उसने राजा का काम तमाम कर दिया। ३. इसकी दरगाह में मन्नत मांगने वालों को संतान पैदा हो जाती है। दूर दूर से लोग अपने पारिवारिक मनोरोगी सदस्यों को दरगाह में लाते हैं। इसे भूत भगाने वाली दरगाह के नाम से भी जाना जाता है। दरगाह के चमत्कार से अनेकों के मनोरोग, पथरी, कोढ़ आदि बीमारियां दूर हो गई। दरगाह में मन्नत मांगने वाले अधिकांश हिन्दू है जो गुजरात के अनेक जिलों से प्रतिदिन आते हैं। साबरकांठा आदि जिलों से हिन्दू भील समुदाय के लोग भी आते हैं। दरगाह का संचालन मुस्लिम खादिमों द्वारा होता है। जिनके परिवार इसी ग्राम में रहते हैं। वही यक्ष प्रश्न- कुछ सामान्य से 10 प्रश्न हम पाठकों से पूछना चाहेंगे? 1 .क्या एक कब्र जिसमें मुर्दे की लाश मिट्टी में बदल चूंकि है वो किसी की मनोकामना पूरी कर सकती है? 2. सभी कब्र उन मुसलमानों की है जो हमारे पूर्वजों से लड़ते हुए मारे गए थे, उनकी कब्रों पर जाकर मन्नत मांगना क्या उन वीर पूर्वजों का अपमान नहीं है जिन्होंने अपने प्राण धर्म रक्षा करते की बलि वेदी पर समर्पित कर दिये थे? 3. क्या हिन्दुओं के राम, कृष्ण अथवा 33 कोटि देवी देवता शक्तिहीन हो चुकें है जो मुसलमानों की कब्रों पर सर पटकने के लिए जाना आवश्यक है? 4. जब गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहाँ हैं की कर्म करने से ही सफलता प्राप्त होती हैं तो मजारों में दुआ मांगने से क्या हासिल होगा? 5. भला किसी मुस्लिम देश में वीर शिवाजी, महाराणा प्रताप, हरी सिंह नलवा आदि वीरों की स्मृति में कोई स्मारक आदि बनाकर उन्हें पूजा जाता है तो भला हमारे ही देश पर आक्रमण करने वालों की कब्र पर हम क्यों शीश झुकाते है? 6. क्या संसार में इससे बड़ी मूर्खता का प्रमाण आपको मिल सकता है? 7.. हिन्दू जाति कौन सी ऐसी अध्यात्मिक प्रगति मुसलमानों की कब्रों की पूजा कर प्राप्त कर रहीं है जिसका वर्णन पहले से ही हमारे वेदों- उपनिषदों आदि में नहीं है? 8. कब्र पूजा को हिन्दू मुस्लिम एकता की मिसाल और सेकुलरता की निशानी बताना हिन्दुओं को अँधेरे में रखना नहीं तो ओर क्या है? 9. इतिहास की पुस्तकों में गौरी – गजनी का नाम तो आता हैं जिन्होंने हिन्दुओं को हरा दिया था पर मुसलमानों को हराने वाले राजा सोहेल देव पासी का नाम तक न मिलना क्या हिन्दुओं की सदा पराजय हुई थी ऐसी मानसिकता को बना कर उनमें आत्मविश्वास और स्वाभिमान की भावना को कम करने के समान नहीं है? 10. इस्लामिक देशों में पैदा हुए प्रचारकों का भारत की धरती पर आने का प्रयोजन समझने में हिन्दुओं को कितना समय लगेगा? हिन्दुओं यह आपके लिए आत्मचिंतन का समय है। जागो।
Vedic vichar
25-04-2022
???? ओ३म् ???? यमाचार्य नचिकेता संवाद [ आध्यात्मिक ज्ञान-खजाना ] नचिकेता यमाचार्य से अध्यात्मविद्या की शिक्षा लेने गया। यमाचार्य ने ब्रह्मविद्या की महत्ता को सुरक्षित रखने के लिए और नचिकेता की इस विद्या के प्रति पात्रता जाँचने के लिए उसे कई प्रकार के प्रलोभन दिये। यमाचार्य ने नचिकेता को कहा― शतायुषः पुत्रपौत्रान् वृणीष्व बहून् पशून् हस्तिहिरण्यमश्वान् । भूमेर्महदायतनं वृणीष्व स्वयं च जीव शरदो यिवदिच्छसि ।। ये ये कामा दुर्लभा मर्त्यलोके सर्वान् कामान् छन्दतः प्रार्थयस्व । इमा रामाः सरथाः सतूर्या न हीदृशा लम्भनीया मनुष्यैः । आभिर्मत्प्रत्ताभि परिचारयस्व नचिकेतो मरणं मानुप्राक्षीः ।। ―कठो० १.२३-२५ अर्थात् तू सौ वर्षों की आयुवाले पुत्रों और पौत्रों को माँग ले, बहुत-से पशुओं अर्थात् हाथी-घोड़ों को माँग ले। जितने वर्ष तू जीवित रहना चाहे जीवित रहने का वर माँग ले, परन्तु इस अध्यात्मविद्या के विषय में मत पूछ। यदि तू चाहता है तो धन और चिरकालीन आजीविका माँग ले। संसार में जो दुर्लभ कामनाएँ हैं तू उन्हें माँग ले। मेरे द्वारा दी गई सुन्दर स्त्रियों से तू सेवा करा और निश्चितरूप से तुझे ऐसी स्त्रियाँ नहीं मिलेंगी। हे नचिकेता! तू मृत्यु की बात को मुझसे मत पूछ। यम ने नचिकेता को बहुत-से प्रलोभन दिये, परन्तु नचिकेता की आध्यात्मिकता के प्रति दृढ़ निष्ठा थी। उसे ये सब प्रलोभन अपनी ओर आकृष्ट नहीं कर सके। उसने उत्तर दिया― श्वोभावा मर्त्यस्य यदन्तकैतत् सर्वेन्द्रियाणां जरयन्ति तेजः । अपि सर्वं जीवितमल्पमेव तवैव वाहास्तव नृत्यगीते ।। न वित्तेन तर्पणीयो मनुष्यो लप्स्यामहे वित्तमद्राक्ष्म चेत्त्वा । जीविष्यामो यावदीशिष्यसि त्वं वरस्तु मे वरणीयः स एव ।। ―कठो० १.२६-२७ अर्थात् ये विषय-विकार और संसार के पदार्थ कल-ही-कल रहनेवाले हैं और सब इन्द्रियों के तेज को नष्ट कर देते हैं। यह जीवन कोई लम्बे समय का नहीं है, अत्यन्त संक्षिप्त है। ये सब वाहन और नृत्य एवं गीत आपको ही मुबारक हों। मनुष्य धन से तृप्त नहीं होता। तुझे देखकर क्या हम धन को माँगेंगे। जबतक तू चाहेगा, हम जिएँगे। इसलिए मुझे वर [ मृत्यु के पश्चात् आत्मा रहता है कि नहीं ] तो वही माँगना है। [ "वेद सन्देश" से, लेखक: प्रा. रामविचार एम ए ]
हे मनुष्य जुआ मत खेल! खेती कर! (Vedic vichar)
25-04-2022
महाभारत में द्रौपदी चीर-हरण का प्रसारण हुआ। हम महाभारत के यक्ष-युधिष्ठिर संवाद आदि का अवलोकन करते हैं, तो युधिष्ठिर एक बुद्धिमान व्यक्ति के रूप में प्रतीत होते हैं। जब महाभारत में उन्हें जुआ खेलता पाते हैं, तो एक बुद्धिमान व्यक्ति को एक ऐसे दोष से ग्रसित पाते हैं जिसने न जाने कितने परिवारों को सदा के लिए नष्ट कर दिया। महाभारत का युद्ध पांडवों और कौरवों के मध्य भी इसी जुए की लत के कारण हुआ था। जिससे देश को अत्यंत हानि हुई थी। स्वामी दयानन्द सत्यार्थ प्रकाश में स्पष्ट रूप से यही लिखते है कि देश में वैदिक धर्म के लोप का काल महाभारत के काल से काल पहले आरम्भ हुआ था। यह जुआ कांड और भाई भाई का वैमनस्य उसी का प्रतीक है। ईश्वरीय वाणी वेदों में जुआ खेलने को स्पष्ट रूप से निषेध किया गया है। ऋग्वेद के 10 मंडल के 34 वें सूक्त को "कितव" सूक्त के नाम से जाना जाता है। इस सूक्त में कर्मण्य जीवन का उपदेश दिया गया है। वेद इस सूक्त के माध्यम से मनुष्य को आंतरिक दुर्बलताओं और अधोगामी सामाजिक प्रवृतियों से लड़ने का उपदेश भी देते हैं। कितव का अर्थ होता है जुआरी। इस सूक्त के प्रथम 14 मन्त्रों में वेद एक जुआरी की व्यक्तिगत हीन, दयनीय पारिवारिक दशा का, उसकी पराजय मनोवृति का बड़ा ही प्रेरणादायक चित्रण किया है। प्रथम मंत्र में जुआरी कहता है कि चौसर के फलक पर बार बार नाचते हुए ये जुएं के पासे मेरे मन को मादकता से भर देते हैं। जिसके कारण बार-बार इच्छा होते हुए भी मैं यह व्यसन छोड़ नहीं पाता। पासों के शोर को सुनकर स्वयं को रोक पाना मेरे लिए कठिन है। मंत्र 2 में आया है कि एक जुआरी सब कुछ छोड़ सकता है। यहाँ तक की अपनी सेवा करने वाली गुणवान और प्रिय पत्नी तक को छोड़ देता है। मगर यह जुआ उससे नहीं छूटता। जब जुएं का नशा उतरता है, तब अपनी पत्नी के परित्याग का उसे पश्चाताप होता है। जुआ खेलने के कारण परिवार में उसका कोई सम्मान नहीं करता। उसकी हेय दशा इसी जुएं के कारण हुई है। तीसरे मन्त्र में एक जुआरी अपने किये पर पश्चाताप करता हुआ सोचता है कि उसकी सास उसकी निंदा करती है। पत्नी घर में घुसने नहीं देती। आवश्यकता होने पर भी कोई रिश्तेदार या सम्बन्धी मुझे धन नहीं देता। लोग सहायता न देने के लिए अलग अलग बहाने बनाते हैक क्योंकि सभी यह सोचते है कि यह धन जुआ खेलने में लगा देगा। वृद्ध मनुष्य का बाज़ार में जैसे कोई लाभ नहीं रहता वैसी ही हालत एक जुआरी की होती है। चौथे मंत्र में आया है कि जुआरी के साथ साथ उसकी पत्नी का भी मान चला जाता हैं। जुएं में हारने पर आखिर में एक जुआरी अपनी पत्नी को दाव पर लगा देता है, तो उसकी पत्नी का भी अन्य लोग अपमान करते हैं। इस सूक्त के नौवें मन्त्र में जुएं के पासों का सजीव और काव्यात्मक चित्रण है। इसमें लिखा है कि यद्यपि पासे नीचे चौसर पर रहते है, पर उछलते हैं। तब अपना प्रभाव दिखाते हैं। जुआरियों के हृदय में हर्ष-विवाद आदि भावों की सृष्टि करते हैं। उनके मस्तक को जितने पर ऊँचा कर देते हैं और हारने पर झुका देते हैं। ये बिना हाथ वाले हैं। फिर भी हाथ वालों को पराजित कर देते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि ये पासें अंगारे है जिन्हें कभी बुझाया नहीं जा सकता। ये शीतल होते हुए भी पराजित जुआरी के हृदय को दग्ध कर देते हैं। इस सूक्त के दसवें मंत्र में जुआरी के परिवार की दशा का अत्यंत मार्मिक वर्णन है। धन आदि साधनों से वंचित और पति द्वारा उपेक्षित जुआरी की पत्नी दुःखी रहती है। वह अपनी और अपनी संतान की दशा पर विलाप करती हैं। ऋण के भोझ तले दबा जुआरी आय से वंचित होकर कर्ज चुकाने के लिए रात में अन्यों के घरों में चोरी करने लगता है। 10वें मंत्र में आया है कि दूसरे के घर में सजी-धजी और सुख संपन्न स्त्रियों को देखकर और अपनी हीन-दुःखी स्त्री और टूटे फूटे घर की अवस्था देखकर जुआरी का चित व्यथित हो उठता है। वह निश्चय करता है कि अब मैं प्रात:काल से पुरुषार्थ से जीवन यापन करूँगा। सही मार्ग पर चलकर अपने पारिवारिक जीवन को सुख और समृद्धि से युक्त करूँगा। यही संकल्प लेकर वह प्रातः: कर देता है कि वह आज से कभी जुआं नहीं खेलेगा। क्योंकि जो जूए को खेलेगा, उसकी यह प्रवृति उसे नकारा और निकम्मा बना देती है और अंतत उसे पतन का कारण बनती है। इसीलिए 13 मन्त्र में इस सूक्त की फलश्रुति अर्थात जूए के त्याग के लाभ का ऋषि वर्णन करते हैं- हे मनुष्य जुआ मत खेल! खेती कर! परिश्रम और श्रम से कमाये गए धन को सब कुछ मान। उसी में संतोष और सुख का अनुभव कर। पुरुषार्थ से तुम्हें अमृतत्तुल्य दूध देने वाली गौ मिलेगी। पति परायणा सेवा करने वाली पत्नी मिलेगी। परमात्मा भी उसके अनुकूल सुख देगा। न युधिष्ठिर ने जुआ खेला होता। न महाभारत का युद्ध होता। न देश का पतन होता। इसलिए हे देशवासियों जुआ, क्रिकेट सट्टा आदि दोषों से सदा दूर रहिये। अंतिम 14 वें मंत्र में जुआ छोड़ने के पश्चात् अपने अन्य जुआरी मित्रों को भी जुए के त्याग के लिए प्रेरित करे, ऐसा सन्देश दिया गया है। हमारे समाज में हम चारों ओर देखे तो हम पाएंगे कि संसार में जो भी दशा एक जुआरी की, उसके परिवार की बताई गई है। वह नितांत सत्य है। एक राजा का कर्तव्य समाज की नशा, दुर्व्यसन आदि से रक्षा करना भी है। इसलिए वेदों की अत्यंत मार्मिक अपील को दरकिनार कर सरकार को जुआ, सट्टेबाजी आदि से समाज की रक्षा करनी चाहिए।
Vedic vichar
25-04-2022
डॉ अम्बेडकर: क्या आर्य विदेशी है? कई दिनों से देख रहा हु कुछ अम्बेडकरवादी लोग आर्यों को विदेशी कह रहे है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, जाट, अहीर, गुर्जर सभी विदेशी है इन अम्बेडकरवादियो के अनुसार। इस विषय पर कई बार लिखना चाहता था पर समय के आभाव में नहीं हो पा रहा था। खैर जो भी हो। अब आते है टॉपिक पर कि क्या आर्य विदेशी है? अगर मैं आर्यों को स्वदेशी इसी भारत देश का कहूँगा डीएनए रिपोर्ट अनुसार या किसी अन्य विद्वानों के अनुसार तो शायद तथाकथित अम्बेडकरवादी लोगों को परेशानी होगी और पेट दर्द होगा इस बात को पचाने में। इसलिए मैं बाबा भीमराव अम्बेडकर जी के ही विचार रखूंगा जिससे ये प्रूफ होगा की आर्य देशी है। 1) डॉक्टर अम्बेडकर राइटिंग एंड स्पीचेस खंड 7 पृष्ठ में अम्बेडकर जी ने लिखा है कि आर्यों का मूल-स्थान (भारत से बाहर) का सिद्धांत वैदिक साहित्य से मेल नहीं खाता। वेदों में गंगा, यमुना, सरस्वती, के प्रति आत्मीय भाव है। कोई विदेशी इस तरह नदी के प्रति आत्म स्नेह सम्बोधन नहीं कर सकता। 2) डॉ अम्बेडकर ने अपनी पुस्तक "शुद्र कौन"? Who were shudras? में स्पष्ट रूप से विदेशी लेखकों की आर्यों के बाहर से आकर यहाँ पर बसने सम्बंधित मान्यताओं का खंडन किया है। डॉ अम्बेडकर लिखते है-- 1) वेदों में आर्य जाति के सम्बन्ध में कोई जानकारी नहीं है। 2) वेदों में ऐसा कोई प्रसंग उल्लेख नहीं है जिससे यह सिद्ध हो सके कि आर्यों ने भारत पर आक्रमण कर यहाँ के मूल-निवासियों, दासों, दस्युओं को विजय किया। 3) आर्य, दास और दस्यु जातियों के अलगाव को सिद्ध करने के लिए कोई साक्ष्य वेदों में उपलब्ध नहीं है। 4) वेदों में इस मत की पुष्टि नहीं की गयी कि आर्य, दास और दस्युओं से भिन्न रंग के थे। 5) डॉ अम्बेडकर ने स्पष्ट रूप से शुद्रो को भी आर्य कहा है(शुद्र कौन? पृष्ठ संख्या 80) अगर अम्बेडकरवादी सच्चे अम्बेडकर को मानने वाले है तो अम्बेडकर जी की बातों को माने। वैसे अगर वो बुद्ध को ही मानते है तो महात्मा बुद्ध की भी बात को माने। महात्मा बुद्ध भी आर्य शब्द को गुणवाचक मानते थे। वो धम्मपद 270 में कहते है प्राणियों की हिंसा करने से कोई आर्य नहीं कहलाता। सर्वप्राणियो की अहिंसा से ही मनुष्य आर्य अर्थात श्रेष्ठ व धर्मात्मा कहलाता है। यहाँ हम धम्मपद के उपरोक्त बुध्वचन का maha bodhi society, banglore द्वारा प्रमाणित अनुवाद देना आवश्यक व् उपयोगी समझते है। वैसे वेद भी आर्य शब्द को गुणवाचक मानते है। जो श्रेष्ठता को बताता है। देखे ऋग्वेद 10/64/1 को जिसके अनुसार आर्य वो कहलाते है जो भूमि पर सत्य, अहिंसा, पवित्रता, परोपकार आदि व्रतों को विशेष रूप से धारण करते है। नोट: स्वामी दयानंद सरस्वती रचित सत्यार्थ प्रकाश अवश्य पढ़े। चलो वेदों की ओर। ओउम्। नमस्ते।
'ओ३म्' ईश्वर का निज नाम है!
25-04-2022
प्रश्न-उपनिषद् में एक कथा आती है। शैव्य सत्यकाम ने पिप्पलाद से पूछा- "हे भगवन्! यदि कोई मनुष्य मरण-पर्यन्त सारी आयु ओंकार का ही ध्यान करे, तो वह किस लोक को जीतता है?" इसके उत्तर में पिप्लाद ने कहा- "हे सत्यकाम! यह सचमुच पर और अपर ब्रह्म है,जो ओंकार है।" निस्सन्देह 'ओ३म्' ईश्वर के प्राप्ति का असंदिग्ध और निश्चित साधन है। इसलिए पूरे निश्चय के साथ ऋषि ने कहा- "यह सचमुच पर और अपर-ब्रह्म ही है, जो ओंकार है।" ऋषि पिप्पलाद फिर आदेश करते हैं- ऋग्भिरेतं यजुर्भिरन्तरिक्षं सामभिर्यत्तत्कवयो वेदयन्ते।तमोंकारेणैवायतनेनान्वेति विद्वान् यत्तच्छान्तमजरममृतमभयं परं चेति।। -प्रश्न० ५/७ "ओ३म् की (एक मात्र की) उपासना से उपासक ऋग्मन्त्रों द्वारा इस मनुष्य-लोक में (पहुँचाया जाता है); (ओम् की दो मात्राओं की उपासना से) यजुर्वेद-मन्त्रों द्वारा अन्तरिक्ष में (चन्द्रलोक तक पहुँचाया जाता है); पूर्णरूप से 'ओ३म्' की उपासना करने वाला उस ब्रह्म-लोक में (पहुँचाया जाता है) जिसको ज्ञानी जन जानते हैं। विवेकशील साधक केवल ओ३म् के अवलम्बन (सहारे) के द्वारा ही उस पर-ब्रह्म ईश्वर को पा लेता है, जो परम शान्त है, जो न बूढ़ा होता है, न वहाँ मृत्यु है, न भय है, वह सर्वश्रेष्ठ है।"
पेरियार लिखित सच्ची रामायण-जुठ का पुलिंदा (vedic vichar)
22-04-2022
कार्तिक अय्यर तमिलनाडु से एक खबर मिली है। कुछ लोगों ने सड़कों पर प्रदर्शन करने निकले और उन्होंने श्री राम जी के चित्र को जूते लगाए। यह दुर्भाग्यपूर्ण घटना है जो पूर्ण रूप से विघटनकारी राजनीती से प्रेरित है। तमिलनाडु के दिवंगत नेता पेरियार को इस विघटनकारी मानसिकता का जनक कहा जाये, तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। पेरियार ने दलित वोट-बैंक को खड़ा करने के लिए ऐसा घृणित कार्य किया था। ये लोग भी अपनी राजनीतिक हितों को साधने के लिए उन्हीं का अनुसरण कर रहे है। पेरियार ने अपने आपको सही और श्री राम जी को गलत सिद्ध करने के लिए एक पुस्तक भी लिखी थी जिसका नाम था सच्ची रामायण। सच्ची रामायण पुस्तक वाल्मीकि रामायण की समान कोई जीवन चरित्र नहीं है। बल्कि हम इसे रामायण की आलोचना में लिखी गयी एक पुस्तक कह सकते है। इस में रामायण के हर पात्र के बारे में अलग अलग लिखा गया है। उनकी यथासंभव आलोचना की गई है। इस में राम ,सीता ,दशरथ हनुमान आदि के बारे में ऐसी ऐसी बाते लिखी गई है। जिनका वर्णन करने में लेखनी भी इंकार कर दे। सब से बड़ी बात सच्ची रामायण में पेरियार ने जबरन कुछ पात्रों को दलित सिद्ध करने का प्रयास किया है। इन (स्वघोषित) दलित पात्रों का पेरियार ने जी भरकर महिमामंडन किया। यहाँ तक की रावण की इस पुस्तक में बहुत प्रशंसा की गई है। यहाँ तक कहा गया है कि राम उसे आसानी से हरा नहीं सकते थे। इसलिए उसे धोखे से मार गया। इसी पुस्तक में लिखा है के सीता अपनी इच्छा से रावण के साथ गयी थी क्यों के उन्हें राम पसंद नहीं थे। पेरियार श्री राम के विषय में लिखते है कि तमिलवासियों तथा भारत के शूद्रों तथा महाशूद्रों के लिये राम का चरित्र शिक्षा प्रद एवं अनुकरणीय नहीं है। राम इस कल्पना के विपरीत है। रामायण का प्रमुख पात्र राम मनुष्य रूप में आदर्श और मर्यदापुर्षोत्तम थे। इसलिए वाल्मीकि ने स्पष्ट लिखा है कि श्री राम विश्वासघात, छल, कपट, लालच, कृत्रिमता, हत्या,आमिष-भोज,और निर्दोष पर तीर चलाने की साकार मूर्ति थे। *एतदिच्छाम्यहं श्रोतु परं कौतूहलं हि मे।महर्षे त्वं समर्थो$सि ज्ञातुमेवं विधं नरम्।।* (बालकांड सर्ग १ श्लोक ५) आरंभ में वाल्मीकि जी नारदजी से प्रश्न करते है कि “हे महर्षि ! ऐसे सर्वगुणों से युक्त व्यक्ति के संबंध में जानने की मुझे उत्कट इच्छा है,और आप इस प्रकार के मनुष्य को जानने में समर्थ हैं। महर्षि वाल्मीकि ने श्रीरामचंद्र को *सर्वगुणसंपन्न* कहा है। *अयोध्याकांड प्रथम सर्ग श्लोक ९-३२ में श्री राम जी के गुणों का वर्णन करते हुए वाल्मीकि जी लिखते है। *सा हि रूपोपमन्नश्च वीर्यवानसूयकः।भूमावनुपमः सूनुर्गुणैर्दशरथोपमः।९।कदाचिदुपकारेण कृतेतैकेन तुष्यति।न स्मरत्यपकारणा शतमप्यात्यत्तया।११।* अर्थात्:- श्रीराम बड़े ही रूपवान और पराक्रमी थे।वे किसी में दोष नहीं देखते थे।भूमंडल उसके समान कोई न था।वे गुणों में अपने पिता के समान तथा योग्य पुत्र थे।९।।कभी कोई उपकार करता तो उसे सदा याद करते तथा उसके अपराधों को याद नहीं करते।।११।। आगे संक्षेप में इसी सर्ग में वर्णित श्रीराम के गुणों का वर्णन करते हैं।देखिये *श्लोक १२-३४*।इनमें श्रीराम के निम्नलिखित गुण हैं। १:-अस्त्र-शस्त्र के ज्ञाता।महापुरुषों से बात कर उनसे शिक्षा लेते। २:-बुद्धिमान,मधुरभाषी तथा पराक्रम पर गर्व न करने वाले। ३:-सत्यवादी,विद्वान, प्रजा के प्रति अनुरक्त;प्रजा भी उनको चाहती थी। ४:-परमदयालु,क्रोध को जीतने वाले,दीनबंधु। ५:-कुलोचित आचार व क्षात्रधर्मके पालक। ६:-शास्त्र विरुद्ध बातें नहीं मानते थे,वाचस्पति के समान तर्कशील। ७:-उनका शरीर निरोग था(आमिष-भोजी का शरीर निरोग नहीं हो सकता),तरूण अवस्था।सुंदर शरीर से सुशोभित थे। ८:-‘सर्वविद्याव्रतस्नातो यथावत् सांगवेदवित’-संपूर्ण विद्याओं में प्रवीण, षडमगवेदपारगामी।बाणविद्या में अपने पिता से भी बढ़कर। ९:-उनको धर्मार्थकाममोक्ष का यथार्थज्ञान था तथा प्रतिभाशाली थे। १०:-विनयशील,गुरुभक्त,आलस्य रहित थे। ११:- धनुर्वेद में सब विद्वानों से श्रेष्ठ। कहां तक वर्णन किया जाये? वाल्मीकि जी ने तो यहां तक कहा है कि *लोके पुरुषसारज्ञः साधुरेको विनिर्मितः।*( वही सर्ग श्लोक १८) अर्थात्:- *उन्हें देखकर ऐसा जान पड़ता था कि संसार में विधाता ने समस्त पुरुषों के सारतत्त्व को समझनेवाले साधु पुरुष के रूपमें एकमात्र श्रीराम को ही प्रकट किया है।* अब पाठकगण स्वयं निर्णय कर लेंगे कि श्रीराम क्या थे? लोभ,हत्या,मांसभोज आदि या सदाचार और श्रेष्ठतमगुणों की साक्षात् मूर्ति। श्री राम तो रामो विग्रहवान धर्मः अर्थात धर्म के मूर्त रूप है। पेरियार जैसे लोग श्री राम के चरित्र को क्या जाने। इनका उद्देश्य तो केवल जुठ फैला कर अपना राजनीतिक हित सिद्ध करना है।
अर्थ डे और वेद (vedic vichar)
22-04-2022
भूमि को वेद में माता कहा गया है "माता भूमि: पुत्रो अहं पृथिव्या: -अथर्व० १२/१/१२", "उपहूता पृथिवी माता -यजु० २/१०"। वेद कहता है- यस्यामाप: परिचरा: समानीरहोरात्रे अप्रमादं क्षरन्ति। सा नो भूमिर्भूरिधारा पयो दुहामथो उक्षतु वर्चसा।। -अथर्व० १२/१/९ जिस भूमि की सेवा करनेवाली नदियां दिन-रात समान रूप से बिना प्रमाद के बहती रहती हैं वह भूरिधारा भूमिरुप गौ माता हमें अपना जलधार-रूप दूध सदा देती रहें। भूमि की हिंसा न करें वेद मनुष्य को प्रेरित करते हुए कहता है "पृथिवीं यच्छ पृथिवीं दृंह, पृथिवीं मा हिंसी: अर्थात् तू उत्कृष्ट खाद आदि के द्वारा भूमि को पोषक तत्त्व प्रदान कर, भूमि को दृढ़ कर, भूमि की हिंसा मत कर"। भूमि की हिंसा करने का अभिप्राय है उसके पोषक तत्वों को लगातार फसलों द्वारा इतना अधिक खींच लेना कि फिर वह उपजाऊ न रहे। भूमि पोषकतत्त्वविहीन न हो जाये एतदर्थ एक ही भूमि में बार-बार एक ही फसल को न लगाकर विभिन्न फसलों को अदल-बदलकर लगाना, उचित विधि से पुष्टिकर खाद देना आदि उपाय हैं। आजकल कई रासायनिक खाद ऐसे चल पड़े हैं, जो भूमि की उपजाऊ-शक्ति को चूस लेते हैं या भूमि की मिट्टी को दूषित कर देते हैं। भूमि में या भूतल की मिट्टी में यदि कोई कमी आ जाये तो उस कमी को पूर्ण किये जाने की ओर भी वेद ने ध्यान दिलाया है "यत्त ऊनं तत्त आ पूरयाति प्रजापति: प्रथमजा ऋतस्य अर्थात् प्रजापति राजा विभिन्न उपायों द्वारा उस कमी को पूरा करे -अथर्व० १२/१/६१"। यजुर्वेद के एक मन्त्र में कहा गया है "सं ते वायुर्मातरिश्वा दधातु उत्तानाया हृदयं यद् विकस्तम् अर्थात् उत्तान लेटी हुई भूमि का हृदय यदि क्षतिग्रस्त हो गया है तो मातरिश्वा वायु उसमें पुनः शक्ति-संधान कर दे -यजु० ११/३९"। मातरिश्वा वायु का अर्थ है अंतरिक्षसंचारी पवन, जो जल, तेज आदि अन्य प्राकृतिक तत्त्वों का भी उपलक्षक है। परन्तु यदि जल, वायु आदि ही प्रदूषित हो गए हों तो उनसे भूमि की क्षति-पूर्ति कैसे हो सकेगी?
ऋषिभक्त आचार्य भ्रदसेन जी की धर्मपत्नी माता सौभाग्यवती जी की हृदय को छू लेने वाली उनके अन्तिम समय की घटना
22-04-2022
ओ३म् - आचार्य भद्रसेन जी आर्यसमाज के उच्चकोटि के विद्वान एवं ऋषिभक्त थे। आपके सुपुत्र कैप्टन देवरत्न आर्य जी आर्यसमाज के प्रति पूर्णतया समर्पित होने सहित आर्यसमाज को आगे बढ़ाने वाले प्रशंसनीय नेता एवं विद्वान थे। वह सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा, दिल्ली के प्रधान भी रहे। कैप्टन देवरत्न आर्य जी ने आर्यजगत में शीर्ष विद्वानों के सम्मान की एक अनूठी योजना आरम्भ की थी। इसके अन्तर्गत स्वामी विद्यानन्द सरस्वती जी, स्वामी ओमानन्द सरस्वती जी आदि अनेक विद्वानों का सत्कार किया गया था। स्वामी विद्यानन्द सरस्वती जी का सत्कार व सम्मान सन् 1995 में किया गया था। उन्हें इकतीस लाख रुपये की धनराशि सम्मानस्वरूप प्रदान की गई थी। उन दिनों आर्यसमाज में किसी विद्वान का इतनी अधिक धनराशि देकर सम्मान करना अनूठी घटना थी। यह सब कैप्टन देवरत्न आर्य जी के अपने निजी प्रयासों से ही सम्भव हुआ था। यह भी बता दें कि यह समस्त धनराशि स्वामी विद्यानन्द सरस्वती जी ने सत्यार्थप्रकाश न्यास को वेद प्रचार एवं विकास कार्यों के लिए दान कर दी थी। सुप्रसिद्ध वैदिक विद्वान आचार्य पं. रामनाथ वेदालंकार जी ने उच्च कोटि के विप्र संन्यासी स्वामी विद्यानन्द सरस्वती जी को उदयपुर के अभिनन्दन समारोह में समर्पित किये जाने वाले अभिनन्दन पत्र को बनाया था जिसके लिए हमने उनसे प्रार्थना की थी और इस कार्य में कुछ सहयोग हमने भी किया था। इस अभिनन्दन पत्र को तैयार करने की प्रेरणा हमें कैप्टन देवरत्न आर्य जी ने की थी। सार्वदेशिक सभा के कार्यालय का नवीनीकरण वा आधुनिकीकरण भी कैप्टन देवरत्न आर्य जी ने ही किया व कराया था। आज हम श्री देवरत्न आर्य जी के पिता आचार्य भद्रसेन जी के एक जीवन प्रसंग को प्रस्तुत कर रहे हैं जो देवरत्न आर्य जी की माता सौभाग्यवती जी के अन्तिम क्षणों से सम्बन्धित है। यह पंक्तियां आर्य विद्वान प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने लिखी हैं। हमने यह पंक्तियां प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी की पुस्तक ‘भक्तहृदय आचार्य भ्रदेसन’ पुस्तक से ली हैं। घटना का वृतान्त इस प्रकार है। सन् 1957 ई. का वर्ष आचार्य भद्रसेन जी के लिए अत्यन्त कष्टप्रद रहा। इस वर्ष उनकी धर्मपत्नी श्रीमति सौभाग्यती रोग-ग्रस्त हो गईं। रोग भी कोई साधारण नहीं था। डाक्टरों ने उन्हें कैंसर बतलाया था। यह रोग आज भी जानलेवा है, तब तो और भी भयानक माना जाता था। एक निर्धन विद्वान् इस रोग से पीड़ित अपनी पत्नी के इलाज के लिए तब कर ही क्या सकता था? फिर भी आदर्श गृहस्थी व पूजनीय वैदिक विद्वान् आचार्य भ्रदेसन जी ने अपनी जीवनसंगिनी की प्राणरक्षा के लिए घर फूंक तमाशा देखा। अपने सर्वसामथ्र्य से देवी जी की सेवा-शुश्रूषा की। चिकित्सा के लिए बम्बई भी लेकर गए। उस समय आचार्य भद्रसेन जी का कोई भी पुत्र पांव पर खड़ा न हो पाया था। उनका घर अभावों की बस्ती थी। अभावग्रस्त होते हुये भी अपने पवित्र वैदिक भावों के कारण आचार्य जी आदर्श गृहस्थी थे। धन-सम्पदा साधनों से ही तो घर-गृहस्थी नहीं बनती। धन-सम्पदा आवश्यक है परन्तु सद्भावना तथा हृदय की निर्मलता का इससे भी कहीं अधिक महत्व है। आचार्य भद्रसेन जी ने इस लम्बी बीमारी में अपने जीवनसाथी की जो सेवा की, वह उनके व्यक्तितत्व व विद्वता के अनुरूप ही थी। जब बम्बई में चिकित्सा से कुछ लाभ न हुआ तो आचार्य जी घर जाने को विवश हो गये। दिनांक 5-12-1957 की रात थी। बारह बजे श्रीमति सौभाग्यवती जी ने आचर्य जी को आवाज देकर कहा ‘‘पण्डित जी अब समय आ गया है”। अब देवी जी को रोग की पीड़ा न थी। पीड़ा का स्थान प्रसन्नता ने ले लिया था। आपने आचार्य जी से कहा, ‘मेरे बच्चों को जगाओ। सब मेरे सामने आ जावें। सबसे बड़े पुत्र वेदरत्न जी की आयु 18 वर्ष थी। देवरत्न जी मात्र 16 वर्ष के थे। सब से छोटा बालक केवल 6 मास का था। सब बच्चे मां की चारपाई के चारों ओर बैठ गये। माता ने ममता से भरी दृष्टि संतानों पर डाली। बड़े पुत्र वेदरत्न से कहा, ‘‘मैं कहती थी कि तू विवाह कर ले। मैं एक भी बच्चे की शादी न देख पाई।” वेदरत्न जी ने कहा, ‘‘मैं तैयार हूं।” इस पर मां ने कहा, ‘‘अब समय निकल गया है।” देवरत्न को माता ने अन्तिम आदेश दिया कि तुम्हीं ने भाइयों का तथा बहिनों का ध्यान रखना है। मैं यह भार तुम्हें ही सौंपती हूं। आज्ञाकारी पुत्र ने माता को वचन दिया और सब जानकार जानते हैं कि पुत्र ने इस वचन को ऐसी सुन्दर रीति से निभा कर दिखाया है कि इतिहास में वर्णित भाइयों की पंक्ति में यदि देवरत्न जी का उल्लेख किया जावे तो इसमें तनिक भी अत्युक्ति नहीं होगी। आचार्य जी का कुल व सम्पूर्ण आर्यजगत् कैप्टन देवरत्न जी आर्य के इस व्यवहार पर जितना भी गर्व करे, कम है। जब देवी जी ऐसी-ऐसी बातें कर रही थीं तो गम्भीर विद्वान् आचार्य भद्रसेन सब समझ गये कि जीवनसंगिनी अब जीवन लीला समाप्त करने वाली है तथापि लोक-व्यवहार की दृष्टि से कहा, ‘‘क्या हो गया है आपको? प्रकृति ठीक तो है?’’ सौभाग्यवती जी ने कहा, ‘‘सर्वथा स्वस्थ हूं। मुझे कोई कष्ट व पीड़ा नहीं। अब मैं अपने परमदेव परमेश्वर के पास जा रही हूं।” सौभाग्यवती जी की माता जी भी पास ही थीं। सब बच्चों के सिर पर मोहमयी मां ने अन्तिम बार हाथ फेरा और पति-प्रेम की दीवानी देवी भाव-विभोर होकर बच्चों से बोली, ‘‘तुम्हारे पिता जी बाल-काल में ही अनाथ हो गये। घरबार छोड़कर-बड़ी आयु में कष्ट सहते हुए विद्या प्राप्त की, फिर आर्यसमाज के लिए समर्पित हो गये। घर-गृहस्थी का बोझा ढोते हुये कठोर परिश्रम करना पड़ा। मैं सोचती थी कि तुम जब बड़े हो जाओगे, कुछ कमाओगे तो मैं तुम्हारे पिता जी की जी-भर सेवा करुंगी। अब मैं तो जा रही हूं। तुम वृद्धावस्था में इनकी सेवा करना। इतनी सेवा करना कि यह मुझे भूल जावें। जीवन-भर इन्होंने दरिद्रता और निर्धनता की चक्की में पिसते हुये आर्यसमाज की सेवा की है। आप इन्हें कभी सुख के दिन दिखा देना।” सन्तान के नाम यह अन्तिम सन्देश-आदेश देकर उस सौभाग्यवती माता ने प्रातः साढ़े चार बजे ‘प्रभु तेरी इच्छा पूर्ण हो, पूर्ण हो’ इन आर्ष वचनों का उच्चारण करते हुये नश्वर-देह का परित्याग 6 दिसम्बर को कर दिया। देह का परित्याग करते हुए पत्नी ने पतिदेव आचार्य भद्रसेन जी को सम्बोधित करते हये भावभरित हृदय से कहा, ‘‘पण्डित जी मुझ अभागिन को क्षमा करना। जब सेवा करने का समय आया, मैं आपको छोड़ कर जा रही हूं। ये बच्चे आपकी सेवा करेंगे। मेरी भूलों की ओर ध्यान न देना।” श्रीमती सौभाग्यवती जी के अन्तिम वेला के सारे वार्तालाप से तीन बातें स्पष्ट हैं:- (1) वह एक दृढ़ आस्तिक आर्य महिला थीं। ईश्वरेच्छा को शिरोधार्य करते हुये उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक शरीर छोड़ा। (2) उनको अपनी सन्तान से कुछ विशेष आशायें थीं। प्रभु ने उनकी आशाओं को पूर्ण किया। सन्तान ने उनके आदेश का पूरा-पूरा पालन किया। (3) यद्यपि गृहस्थ जीवन में उनको आचार्य भद्रसेन जी की सतत् साधना में भागीदार होने के कारण आर्थिक दृष्टि से बड़े कष्ट सहने पड़े तथापि आचार्य जी के महान् व्यक्तिव को वह समझती थीं और उस धर्मपरायणा तपस्विनी देवी के हृदय में आचार्य जी के लिए ऐसा स्थान था जिसका वर्णन शब्दों में नहीं किय जा सकता। आचार्य जी के लिए धर्मपत्नी का वियोग एक असह्य धक्का था। उनकी पत्नी की आयु तब केवल 36 वर्ष ही थी। कोई भी बच्चा अभी काम-धंघे पर न लगा था। उसके अतिरिक्त भी पत्नी की रुग्णता व निधन, आचार्य जी के लिए एक और दृष्टि से बहुत दुखदायी थी। 1957 में पंजाब में आर्यसमाज ने हिन्दी की रक्षा के लिए प्रचण्ड सत्याग्रह किया था। देशभर से हिन्दी प्रेमियों ने इस सत्याग्रह में भाग लिया। सहृदय पाठक तनिक कल्पना करके अनुमान लगावें कि जब देश के ओर छोर से आबाल-वृद्ध आर्य पंजाब में जेलें भरने के लिए आ रहे थे तब पंजाब में ही जन्मे इस आर्य विद्वान्, साहित्यकार व हिन्दी भाषा के महान् सेवी के हृदय पर क्या बीत रही होगी? वह भद्रसेन जिसने गृहस्थ में प्रवेश करते ही, हैदराबाद का आर्य सत्याग्रह छिड़जाने पर अपनी सेवायें आर्य सत्याग्रह समिति को भेंट कर दी थीं, अब हिन्दी रक्षा के लिए छेड़े गये आर्य सत्याग्रह के समय जेल जाने के लिए कितना तड़प रहा होगा? परन्तु, वह कर भी क्या सकते थे? एक ओर राष्ट्रीय व सामाजिक कर्तव्य पुकार रहे थे और उधर देश-धर्म की सेवा में पग-पग पर उनका साथ देने वाली जीवन संगिनी का कैंसर से रुग्ण होना। बच्चे सभी अबोध। किसके भरोसे देवी को छोड़ कर वह सत्याग्रह कें भाग लेते? आचार्य जी छटपटाते रह गये। विधाता ने अच्छी परीक्षा ली। निश्चय ही तब वह अपने आपको दयनीय स्थिति में समझ रहे थे। उनके लिए कोई और विकल्प था ही नहीं। देवी की सेवा करना ही तब उनका कर्तव्य बनता था और उन्होंने इस कर्तव्य को शान से निभाया। जीवन में पग-पग पर उन्होंने दुःख व कष्ट झेले परन्तु यह दुःख ऐसा था जिसे सह पाना उनके लिए अति कठिन था। ईश्वर के अटल विश्वास से इसे भी झेला। एक दिन ध्यान में बैठे हुये अपने प्रभु से यह कहते हुये सुने गये कि प्रभु जी! यह स्वस्थ हो जावें तो मैं शेष जीवन तेरी भक्ति में ही लगा देना चाहता हूं। विधाता के विधि-विधान को कौन जानता है? उसकी दया व उसका न्याय पर्याय है। उसके आगे सिर झुकाना ही पड़ता है सो आचार्य जी ने भी विधि के विधान को स्वीकार किया। उर्दू के एक कवि का यह पद्य उन पर पूरा चरितार्थ होता हैः- घर से चले थे हम तो खुशी की तलाश में, गम राह में खड़े थे सभी साथ हो लिए। जब पुत्र जवान हुये। दुःख-दारिद्रय दूर होने के दिन निकट आये तो देवी जी के वियोग का वाण ऐसा चला कि परिवार देर तक इस घाव की पीड़ा से तड़पता रहा। (यहां पर प्राध्यापक राजेन्द्र जिज्ञासु जी द्वारा लिखा वृतान्त समाप्त होता है।) हमारा (मनमोहन आर्य) सौभाग्य रहा कि हमारे कैप्टन देवरत्न आर्य जी से निकट सम्बन्ध रहे। हमारा कई वर्षों तक उनसे पत्राचार होता रहा। सभी सुविधायें होते हुए भी कैप्टन देवरत्न जी हमें हस्तलिखित पत्र ही भेजते थे। पत्रों की संख्या लगभग 50 है। कैप्टन देवरत्न आर्य जी ने ही हमें अपने पिता आचार्य भद्रसेन जी की जीवनी आर्यसमाज सान्ताक्रूज मुम्बई के मंत्री श्री संगीत आर्य जी के द्वारा हमारे निवास पर फरवरी, 1997 में भिजवाई थी और इस पर सप्रेम भेंट लिख कर अपने हस्ताक्षर एवं तिथि 8 फरवरी 1997 अंकित की थी। उन्होंने इस भंेट में हमें सम्बोधित करते हुए लिखा है ‘आदरणीय श्री मन मोहन कुमार आर्य की सेवा में’। आर्यसमाज के एक उच्च कोटि के विद्वान पुत्र जो स्वयं एक विद्वान एवं आर्यसमाज के अपने समय के प्रमुख नेता थे, उनके इस सम्बोधन व सद्व्यवहार के लिए हम उनके अत्यन्त कृतज्ञ एवं ऋणी हैं। हिण्डोनसिटी, उदयरपुर तथा दिल्ली आदि अनेक स्थानों पर हमारी उनसे भेंटे हुई थी। उदयपुर में सत्यार्थप्रकाश महोत्सव में दिनांक 28-2-1997 को उन्होंने हमारा सम्मान भी कराया था। यह अवसर था सत्यार्थप्रकाश न्यास, उदयपुर द्वारा स्वामी विद्यानन्द सरस्वती जी के सम्मान का। मंच पर देश के उपराष्ट्रपति माननीय भैरोंसिंह शेखावत जी विद्यमान थे। हमारा सौभाग्य था कि उन दिनों हमने आचार्य भद्रसेन जी पर कई लेख लिखे थे। हमने भक्तहृदय आचार्य भद्रसेन जी पुस्तक को आद्योपान्त पढ़ा है। यह जीवनी सम्भवतः दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा, दिल्ली के पुस्तक विक्रय केन्द्र में उपलब्ध है। वहां से इसे प्राप्त किया जा सकता है। इस जीवनी को पढ़कर हम जान सकते हैं कि कैसे एक सामान्य परिवार का व्यक्ति अपने पुरुषार्थ से वैदिक धर्म को अपनाकर ज्ञान प्राप्ति कर साधना करते हुए यशस्वती होकर सात्विक जीवन के शिखर पर पहुंचा था। हम माता सौभाग्यवती जी को श्रद्धांजलि देते हैं। माता जी की मृत्यु मात्र 36 वर्ष की आयु में हुई थी। इससे आचार्य भद्रसेन जी व उनके परिवार पर कितनी कठिनाईयां आईं होंगी, इस पर विचार कर दुःख होता है। हम आचार्य भद्रसेन जी के परिवारजनों की अध्यात्मिक एवं भौतिक उन्नति की कामना करते हुए आशा करते हैं कि वह आचार्य भद्रसेन जी के मार्ग पर चलकर समाज सहित स्वयं को लाभान्वित करेंगे। ओ३म् शम्। -Vedic Vichar
गुरुद्वारा शीशगंज की स्थापना कैसे हुई? (Vedic vichar)
21-04-2022
प्रधानमन्त्री मोदी जी गुरु तेग बहादुर जी के 400 वें प्रकाश पर्व के अवसर पर दिल्ली के लाल किला से देश की जनता को सम्बोधित करेंगे। लाल किले में बैठकर औरंगजेब ने गुरु जी के सर को इस्लाम स्वीकार न करने पर काट देने का आदेश दिया था। चांदनी चौक में लाल किले की ठीक सामने गुरुद्वारा शीशगंज गुरु जी की स्मृति में बना हुआ हैं। यह स्वयं एक महान गुरु और सच्चे नेता को मतान्धता के विरुद्ध अपने प्राण न्यौछावर करने के लिए दी गयी श्रद्धांजलि की यादगार है। उस बलिदान को भुला देना कृतघ्नता की पराकाष्ठा है। गुरूजी के बलिदान की महिमा को शब्दों में वर्णित करना असम्भव है। इस्लामिक कट्टरवाद के कारण आलमगीर का ओहदा जिसके नाम के साथ लगा था, जिसने अपने सगे भाइयों को सत्ता के लिए मरवा दिया और अपने बूढ़े बाप को बंदी बनवा दिया था, जिसके केवल एक बार के दौरे में पंजाब की धरती लहूलुहान हो गई थी, जो गैर मुसलमानों से इस हद तक नफरत करता था कि उनकी शक्ल तक देखना हराम समझता था, जो अपने आपको मुल्ला-मौलवियों के सामने सच्चा मुसलमान सिद्ध करना चाहता था, जिसने अपने पूर्वज अकबर की बनाई राजपूत सन्धि को तार-तार कर दिया था, जिसके लिए हिन्दुओं के मंदिर तोड़ना, ब्राह्मणों के जनेऊ तोड़ना, हिन्दुओं को पकड़कर उनकी सुन्नत कर कलमा पढ़वाना दीन के सेवा था, जो अपनी खुद के पुत्रों पर कभी विश्वास नहीं करता था क्योंकि वह सोचता था कि कहीं वे भी उसे न मरवा दे, जो हिन्दुओं की तीर्थ यात्रा में जाने वाले साधुओं तक से कर वसूलता था, जिसके लिए होली-दिवाली जैसे त्यौहार हराम थे, उस औरंगजेब के सताए कश्मीरी हिन्दुओं की धर्मरक्षा के लिए अपने प्राणों को आहूत करने वाले गुरु तेग बहादुर को हिन्द-की-चादर के नाम से श्रद्धा वश सुशोभित किया जाता है। ऐसे नरपिश्चाच औरंगज़ेब को खुली चुनौती देना कि उससे कहो मेरा धर्म परिवर्तन करके दिखा दे। खुलम-खुल्ला मृत्यु को दावत देना था। कुछ भटके हुए लोग औरंगज़ेब और गुरु साहिबान के संघर्ष को राजनीतिक संघर्ष कहते हैं। अगर यह संघर्ष विशुद्ध रूप से राजनीतिक होता तो औरंगजेब उनके सामने दो ही विकल्प क्यों रखता? एक इस्लाम स्वीकार करो और दूसरा सर कटवाओ। गुरु जी ने अपने पूर्वजों की धर्म मर्यादा का सम्मान करना स्वीकार दिया और प्राण दान दे दिया। वो जानने थे कि उनके बलिदान की प्रेरणा से यह भारत भूमि ऐसे महान सपूतों को जन्म देगी जो आततायी औरंगजेब के क्रूर शासन की ईंट से ईंट बजा देंगे। इतिहास इस बात का साक्षी है कि यही हुआ। संसार का सबसे शक्तिशाली शासक औरंगज़ेब अपने कुशासन से इतनी चुनौतियों से घिर गया कि बुढ़ापे में उसे अपने साम्राज्य के टूटने की आहत महसूस होने लगी। ऐसा उसने अपने बेटों को लिखे खत में दर्शाया है। पंजाब से सिखों और खत्रियों, संयुक्त प्रान्त और प्राचीन हरियाणा से जाटों, राजपूताना से राजपूतों , बुंदेलखंड से बुंदेलों, असम से अहोम, मालवा से सिंधियाँ-होलकरों, महाराष्ट्र से मराठों आदि वीर क्षत्रियों की ऐसी सशस्त्र क्रांति की ज्वाला उठी। उस ज्वाला ने मुग़लों के करीब दो सदी पुराने शासन की नींवें ऐसी हिलाई कि उसका सूर्य सदा के लिए अस्त होकर दिल्ली की चारदीवारियों में कैद हो गया। ऐसे महान गुरु तेग बहादुर को हम नमन करते है। औरंगज़ेब के आदेश पर गुरु जी का कोतवाली के सामने चाँदनी चौक में जल्लाद ने 11 नवंबर 1675 को सर कलम कर दिया। जिस स्थान पर यह पाप हुआ। आज वहां गुरु द्वारा शीश गंज बना हुआ है। उनके धड़ को हिन्दू लखी बंजारा अपनी जान को खतरे में डालकर उठा लाया और अपने घर में रखकर उसने आग लगा दी। इस प्रकार से गुरूजी का अंतिम संस्कार का किया गया। गुरु जी के सर को भाई जैता जी लेकर आनन्दपुर साहिब किसी प्रकार पहुंचे और उनके सर का अंतिम संस्कार उनके पुत्र गुरु गोविन्द राय द्वारा किया गया। इस घटना के 100 वर्ष बाद 1783 में सिख जनरल बघेल सिंह के नेतृत्व में का दिल्ली पर कब्ज़ा हो गया। उसने तेलीवाड़ा में माता सुंदरी और माता साहिब की स्मृति में प्रथम गुरुद्वारा बनवाया। दूसरा गुरुद्वारा जयपुर के महाराज जय सिंह के बंगले के स्थान पर बनाया गया जहाँ गुरु हरी किशन जी कभी रुके थे। चार अन्य गुरुद्वारे यमुना के घाटों के समीप बनाये गए थे। मजनू का टीला और मोतीबाग में भी दो गुरूद्वारे बनवाये और उनके साथ स्थिर आय वाली संपत्ति भी जोड़ी। गुरु तेग बहादुर जी की स्मृति से जुड़े दो स्थल दिल्ली में थे। एक कोतवाली जहाँ गुरु जी का बलिदान हुआ था दूसरा रकाबगंज जहाँ लखी बंजारा और उनके लड़के ने जान पर खेलकर उनके सर विहीन शव का अंतिम संस्कार किया था। इन दोनों स्थानों पर मुसलमानों ने मस्जिद बना ली थी। बघेल सिंह ने पहले रकाबगंज पर अपना ध्यान लगाया। स्थानीय मुसलमानों में मस्जिद हटाने की भीषण प्रतिक्रिया हुई। उन्होंने मुग़ल बादशाह से इसके विरुद्ध याचिका डाली। उनका प्रस्ताव था कि चाहे पूरी दिल्ली जल कर खाक हो जाये पर ये मस्जिद नहीं हटनी चाहिए। मुग़ल बादशाह ने कहा की उन्हें यह प्रस्ताव पहले लेकर आना चाहिए था और वो सिख जनरल से इस विषय में चर्चा करेंगे। बघेल सिंह के अधिकारी ने सूचना दी कि 1 अक्तूबर 1778 को मुसलमानों ने बादशाह को विश्वास में लेकर गुरुद्वारा को तोडा था। बघेल सिंह ने मिलने के लिए मुसलमानों के समूह को बुलाया जिसमें मुल्ला-मौलवी शामिल थे। उन सभी की सूची बनवाई। उनकी सब की सम्पत्तियों की सूची बनवाई और उन्हें जब्त करने के लिए अपने घुड़सवार भेज दिए। उन्हें एक हफ्ते बाद मिलने के लिए बुलाया। उन्हें जब अपनी गंगा के दोआब में स्थित संपत्ति पर बघेल के घुड़सवार चढ़ते दिखे तो उनके होश उड़ गए। वे भागे भागे बघेल जनरल से समझौता करने आये। बघेल सिंह ने उनसे लिखित रूप में मस्जिद हटाने का प्रस्ताव ले लिया। उस प्रस्ताव को बादशाह के पास भेज दिया और मस्जिद तोड़ने के लिए अपने योद्धा भेज दिए। आधे दिन में 2000 घुड़सवारों ने मस्जिद की एक ईंट भी वहां न छोड़ी। गुरुद्वारा की नींव रखी गई ,गुरुबाणी का पाठ हुआ और कड़ा प्रसाद का वितरण हुआ। अब गुरुद्वारा शीशगंज की बारी थी। बघेल सिंह ने सिखों को एकत्र किया। मुस्लिम जनसमूह बादशाह और मुल्ला मौलवियों को दरकिनार कर इकट्ठा हो गया। उन्होंने सिखों से लोहा लेने का मन बना लिया था। एक पानी पिलाने वाली मशकन ने वह स्थान बघेल सिंह को बताया जहाँ पर गुरु जी का बलिदान उसके पिता के सामने हुआ था। उसके अनुसार हिन्दू फकीर पूर्व दिशा की ओर मुख किये मस्जिद की चारदीवारी के भीतर एक चौकी पर विराजमान थे। जब जल्लाद ने उन पर अत्याचार किया था। बादशाह के अधिकारी भी आ गए। उन्होंने मुसलमानों को यह विश्वास दिलाया कि मस्जिद को कोई नुकसान नहीं पहुंचाया जायेगा। केवल उसकी चारदीवारी को तोड़ा जायेगा। वही हुआ। चारदीवारी गिराई गई। मस्जिद के प्रांगण में गुरुद्वारा की स्थापना हुई। यही गुरुद्वारा आजकल गुरुद्वारा शीशगंज कहलाता हैं। जनरल बघेल सिंह ने इतिहास में वो कारनामा कर दिखाया। जो कोई नहीं कर पाया। सिख संगत जनरल बघेल सिंह की दिल्ली विजय की बात तो करती है पर उनकी इस कूटनीतिक और रणनीतिक विजय की कोई चर्चा नहीं की जाती। क्यों? (यह लेख सिख इतिहास के महान और प्रामाणिक इतिहासकार हरीराम गुप्ता द्वारा लिखित History of the Sikhs , भाग 3, पृ. 168-169 के आधार पर लिखा गया है) #GuruTeghBahadur #gurugobindsinghji #AmritMahotsav #400yearsGuruParv
विज्ञापन का मायाजाल (vedic vichar)
21-04-2022
अधिकाँश लोग मानते हैं कि परदे पर दिखाई देने वाला अभिनेता सच में भी इतना अधिक शक्तिशाली होगा जैसा वह फिल्म में दिखाया जाता है.उनका मानना है कि फिल्म के हीरो हिरोइन सच में उतने ही इमानदार/ दयालु/ बुद्धिमान व चरित्रवान होते हैं जितने कि उन्हें परदे पर दिखाया गया है. फिल्मो केसितारे निजी जिन्दगी में हीरो नहीं होते. अमरीशपुरी, प्रेम चोपड़ा या शक्ति कपूर वास्तविक जीवन मे अपराधी नहीं होते। परन्तु सामान्य व्यक्ति यही मानता है। इसलिए कभी किसी खलनायक को विज्ञापन में नहीं लिया जाता। पद्म श्री से सम्मानित फिल्मी हीरो यह बताने के 5 10-करोड़ रूपए लेता है कि आपके 10 रूपए के विमल पान मसाला मे 3 लाख रूपए किलो का केसर है। मैगी का सैम्पल फेल होने पर एक हीरोइन ने कहा कि हमारे घर में कोई लैब नही लगी है। सच यह है कि आपको उल्लू बना हैं। फेयर एंड लवली से कोई गोरा नहीं हुआ। गोरेपन की क्रीम में कभी काली हीरोइन नहीं ली जाती। होर्लिक्स और कोम्प्लान आदि से कोई लम्बा नहीं होता। थम्सअप (Thums UP) में कोई तूफ़ान नहीं होता जैसा सलमान खान बताता है. ड्यू पीने से डर नहीं भागता. स्प्राईट पीने से कोई स्मार्ट नहीं होता. मेन्टोस से दिमाग की बत्ती नहीं जलती. नजर रक्षा कवच, लक्ष्मी कुबेर यन्त्र और हनुमान यन्त्र केवल प्लास्टिक व धातु के टुकड़े हैं. निर्मल बाबा की तीसरी आँख नहीं होती. आतंकवादी बिलकुल भी मासूम नहीं होते जैसा कई फिल्मो में दिखाया जाता है. इच्छाधारी नाग नागिन नहीं होते. कृष और शक्तिमान केवल परदे पर ही चमत्कार करते हैं. कभी तम्बाकू वाले पान मसाले को ऊंचे लोग ऊंची पसंद बताया जाता है तो कुछ खास सिगरेट पीने वालों की बात ही कुछ और बताई जाती है। एक बार एक गांव से गरीब आदमी शहर में मेला देखने गया। उसकी जेब कट गई। वापिस आया तो लोगों ने पूछा कि मेले में क्या था। उसने कहा कि कुछ खास नहीं बस भले आदमियों के कपड़ों में जेब कतरे घूम रहे थे। इसी तरह के जेब कतरे विज्ञापन की दुनिया में हैं जो आपको मूर्ख बना रहे हैं। दुनिया के किसी भी तेल में कोलेस्ट्रॉल नहीं होता। कोलेस्ट्रॉल का निश्चित स्रोत पशुओं से प्राप्त भोजन जैसे घी या मांस या अंडा है। वनस्पति तेल में केवल ट्राइग्लिसराइड्स होते हैं। इसके बाद भी कोलेस्ट्रॉल रहित कह कर तेल का विज्ञापन किया जाता है। यहाँ मैं सिनेमा विज्ञापन के इतिहास की एक रोचक जानकारी देता हूँ. सिनेमा हाल के शुरूआती दिनों में योरूप के सिनेमा में सिगरेट का विज्ञापन दिखाया जाता. उस विज्ञापन में एक घुड़सवार घोड़े पर पर बैठा है. घोड़ा भी बहुत मन्द मन्द चल रहा है और सवार भी सुस्त दिखाई देता है. तभी घुड़सवार सिगरेट जलाता है. सिगरेट का कश लगाते ही घुड़सवार तन कर बैठ जाता है और घोड़ा तेजी से दौड़ने लगता है. इस विज्ञापन ने रातों रात सिगरेट की बिक्री कई गुना बढ़ गई. अधिकाँश लोग विज्ञापन को देख कर ही खरीदते हैं. दवाई की दूकान पर एक टॉफी बहुत अधिक बिकतीहै जिसमे ग्लूकोज व आयरन है. जब तक हर 15 मिनट में विज्ञापन आता था वह बिकती रही. जैसे ही विज्ञापन बन्द बिक्री बन्द. यह सब गाँव में नहीं चंडीगढ़ व दिल्ली के उन स्थानों में देखा जहाँ लोग बहुत अधिक पढ़े लिखे हैं.विज्ञापन का मायाजाल इतना भयंकर है कि दवाई की दूकान पर आकर युवतियां बिना परेशानी के I-Pill मांगती हैं. लोग भी मानते हैं कि टीवी में दिखाई बात तो कभी गलत हो ही नहीं सकती. बहुत से लोगों को लगता है कि कोम्प्लान पिलाने से बच्चे सच में लम्बे बनते हैं. कई मानते हैं कि इतनी बड़ी कंपनी ने जरुर कुछ ख़ास डाला होगा. यह सब मानते हैं कि गोरेपन की क्रीम से आजतक एक भी व्यक्ति गोरा नहीं हुआ. परन्तु फिर भी इस वहम में खरीदते हैं कि महीने का 300 रूपए ही लगते हैं. हो सकता है कि कोई चमत्कार हो जाए और मेरा रंग गोरा हो जाए. यदि गोरा ना भी हुआ तो क्या इस्तेमाल करने पर कुल 300 रूपए ही खर्च होंगे. इसी वहम में लोग इस्तेमाल कर रहे हैं और कंपनी 30 साल विज्ञापन दे रही है. यही हाल हैल्थ सप्लीमेंट्स का है. यहाँ मैं एक बात की और ध्यान दिलाना चाहता हूँ. आपको सब प्रसिद्ध अभिनेता शाहिद कपूर को तो जानते हीं होंगे. यह जब बच्चा था तब कोम्पालन के विज्ञापन में आता था. अब कोम्प्लान के दावे को सही माने तो शाहिद कपूर की लम्बाई अमिताभ बच्चन या खली के बराबर होनी चाहिए थी. जबकि दुनिया के 100 लम्बे आदमियों में से एक ने भी कोम्प्लान बचपन में कोम्प्लान नहीं पीया. ओलम्पिक में दौड़ने वाले कभी बूस्ट पी कर अपना स्टेमिना नहीं बढाते. यह केवल विज्ञापन का मायाजाल है जो भीड़ के मनोविज्ञान का फायदा उठाता है. बॉडी बिल्डिंग, वजन बढ़ाने की या स्टेमिना बढाने की अधिकांश दवाइयों में एनाबोलिक स्टिरॉयड मिलाए जाते हैं जो अत्यंत हानिकारक होते हैं। लम्बाई बढाने वाले, वजन घटाने वाले या पुरुषत्व बढाने वाले विज्ञापन केवल ठगी हैं। मैंने वर्षों आयुर्वेद का अध्ययन किया है। आज तक मुझे ऐसी कोई औषधि नही मिली जो रातोरात चमत्कार दिखाए। घुटने के दर्द के लिए स्टिरॉयड बिकते देखे हैं। लगातार विज्ञापन के कारण लोग लाल पीले टॉनिक के सिरप/कैप्सूल/ पाउडर लेते रहते हैं. फिर भी भारत में अधिकाँश स्कूली बच्चों में खून की कमी पाई जाती है. आप डेंटिस्ट के यहाँ जाए. अधिकाँश रोगी विज्ञापन वाला टूथपेस्ट प्रयोग करते है. (उन कुछ लोगों को छोड़ दे जो किसी अन्य रोग के कारण दांतों की समस्या से ग्रस्त है). अब टूथपेस्ट विज्ञापन की माने तो किसी के दांत खराब नहीं होने चाहिए. परन्तु विज्ञापन में जनता को मुर्ख बनाया जाता है. आपको विज्ञापन याद होगा जिसमे एक समुद्री सीप (Shell) के ऊपर टूथ्पेस्ट लगाते हैं और दूसरी को बिना पेस्ट के और उन्हें कैमिकल (ACID) में डुबाने पर पेस्ट वाला सीप खराब हो जाता है. क्योंकि उस सीप पर लगा पेस्ट क्रिया को रोक देता है. अधिकाँश स्थानों पर विज्ञापनों में गलत जानकारी दी जाती है.
जीवनभक्षी दो गीध (vedic vichar)
21-04-2022
लेखक- श्री प्रोफेसर विश्वनाथजी विद्यालंकार प्रस्तोता- प्रियांशु सेठ अथर्ववेद ७/९५/१-३, तथा ७/९६/१ में दो गीधों का वर्णन मिलता है। गीध-पक्षियों का काम है मांस भक्षण, मुर्दे के मांस को खाना। अथर्ववेद के इन दो सूक्तों में दो आध्यात्मिक गीधों का वर्णन है। गीधों को इन मन्त्रों में "गृध्रौ" कहा है। ये गृध्र गर्धा के साथ सम्बन्ध रखते हैं। यजुर्वेद अध्याय ४० के प्रथम मन्त्र में कहा है कि "मा गृध: कस्यस्विद् धनम्" इस मन्त्र में "गृध:" पद पठित है। अभिप्राय यह है कि "हे मनुष्य! तू गर्धा मत कर, उग्र अभिकांक्षा मत कर, लालच-लोभ मत कर"। इस प्रकार गृध् का अर्थ है लोभ, लालच। हमारे जीवनों में लोभ-लालच हमें बहुत तंग करता है। यह लोभ-लालच गृध्र है। आध्यात्मिक दृष्टि से हम देखें तो हमें ज्ञात होगा कि एक तो लोभ का संस्कार होता है, और दूसरा वृत्ति रूप में लोभ होता है। लोभ के संस्कारों को 'नरगृध्र' कहा गया है, और लोभ की वृत्ति को 'मादागृध्र' कहा है। संस्कार और वृत्ति में अन्तर यह है कि संस्कार तो मानो दबी हुई आग है, और वृत्ति मानो प्रकट हुई आग है। संस्कार जड़ है वृत्ति की, और वृत्ति अंकुर है संस्कार का। अथर्ववेद के वे मन्त्र निम्नलिखित हैं- उदस्य श्यावौ विथुरौ गृध्रौ द्यामिव पेततु:। उच्छोचनप्रशोचनावस्योच्छोचनौ हृद:।।१।। अहमेनावुदतिष्ठिपं गावौ श्रान्तसदाविव। कुर्कुराविव कूजन्तावुदवन्तौ वृकाविव।।२।। आतोदिनौ नितोदिनावथो संतोदिनावुत। अपि नह्याम्यस्य मेढ्रं य इत: स्त्री पुमान् जभार।।३।। असदन् गाव: सदनेऽपप्तद् वसतिं वय:। आस्थाने पर्वता अस्थु: स्थाम्नि वृक्कावतिष्ठिपम्।।१।। इन चार मन्त्रों का अभिप्राय निम्नलिखित है- "इस व्यक्ति के दो गृध्र हैं, जो कि काले हैं, और व्यथा देने वाले हैं, वे हृदयाकाश में उड़ते हैं, जैसे कि गीध-पक्षी आकाश में उड़ते हैं। इनके नाम हैं उच्छोचन और प्रशोचन। ये दोनों हृदय में आग लगा देते हैं।।१।। मैं इन दोनों को अपने जीवन में से उठा देता हूं, जैसे कि थक कर बैठी गौओं को उठाया जाता है। ये कुरकुराने वाले पक्षियों की न्याई कुर-कुर करते रहते हैं, और भेड़ियों की न्याई इनके मुख से लार टपकती है।।२।। ये दोनों सम्पूर्ण जीवन को व्यथा वाला बना देते हैं, निश्चित रूप में व्यथा वाला बना देते हैं, और गहरी व्यथा वाला बना देते हैं। इनकी शक्तियों को मैं बांध देता हूं। इनमें एक तो नर है और दूसरी मादा है। ये जीवन शक्ति का हरण करते हैं।।३।। गौवें थक कर जैसे गौशाला में आ बैठती हैं, पक्षी थक कर जैसे अपनी वसति में अर्थात् निवास स्थान में उड़ आते हैं, पर्वत जैसे अपने अपने स्थानों में स्थित हैं, वैसे ही इन दो गृध्रों को जो कि वृक्क है उनके अपने स्थान में स्थित करता हूं"।।१।। (श्यावौ)- इन मन्त्रों में गृध्रों को श्याव कहा गया है। लोभ के संस्कार तथा लोभ से जागृतरूपा वृत्ति ये दो गृध्र हैं, गर्धा या लोभ काला है, चूंकि वह तामसिक है, तमोगुण से उत्पन्न होता है। गर्धा वाले या लोभवृत्ति वाले लोग तमोगुणी होते हैं। लोभ रागवर्गी है। राग का ही एक प्रकार लोभ है। गीता में लिखा है कि राग और लोभ रजोगुणी है। यथा- लोभ: प्रवृत्तिरारम्भ: कर्मणामशम: स्पृहा। रजस्येतानि जायन्ते विवृद्धे भरतर्षभ।।१४/१२।। अर्थात् लोभ, प्रवृत्ति, कर्मों का आरम्भ, अशान्ति, चाहना, - ये रजोगुण के परिणाम हैं। गीता की दृष्टि में लोभ रजोगुणी है, तमोगुणी नहीं। तो इन मन्त्रों में लोभ को या गर्धा को श्याव क्यों कहा? इसलिए कहा कि राग में जब तमोगुण उचित मात्रा से अधिक हो जाता है तब लोभ का स्वरूप बनता है। वस्तुतः राग को लोभ में परिवर्तित करने वाला तमोगुण ही है। इसलिए लोभ श्याव है। (विथुरौ)- लोभ-संस्कार और लोभ-वृत्ति विथुर हैं, व्यथा देने वाले हैं। व्यक्ति लोभ से प्रेरित होकर उचित समय से अधिक समय के लिए व्यापार में लगा रहता है, धन कमाता रहता है, उसका संग्रह करता रहता है। इस प्रकार धनविभाग में विषमता पैदा हो जाती है। धन पर धन कमाते जाना और अपने गरीब साथियों के भाग को हड़प जाना लोभ का परिणाम है। इससे हमारे सामाजिक, राष्ट्रीय, तथा अन्तर्राष्ट्रीय जीवन व्यथामय बन गए हैं। सम्पत्तिवाद और साम्यवाद, मालिक और धनी, मजदूर और गरीब का झगड़ा शान्त हो जाय यदि धन संग्रह की लोभ वृत्ति का बहिष्कार कर दिया जाय। इस प्रकार लोभ-संस्कार और लोभ-वृत्ति व्यथा पैदा करने वाले हैं। (द्यामिव)- गीध-पक्षी आकाश में उड़ान लेते हैं और आध्यात्मिक गीध हृदयाकाश में उड़ान लेते हैं। (उच्छोचनप्रशोचनौ)- लोभ-संस्कार और लोभ-वृत्ति हृदय में अन्तर्दाह उत्पन्न करने वाले हैं। उच्छोदन = उत् + शोचन्। शुच् का अर्थ है दाह या शोक। शोक भी एक प्रकार का अन्तर्दाह है, हृदय की जलन है। (उदतिष्ठिपम्)- व्यक्ति जब यह जान जाता है कि लोभ-संस्कार और लोभ-वृत्ति तामसिक रचनाएं हैं, और ये जीवन में व्यथा देने वाले हैं, तथा हृदय में अन्तर्दाह उत्पन्न करने वाले हैं, तब वह इनको हटाने का संकल्प करता है और वह कहता है कि इन दो गीधों ने जो मुझमें आश्रय रखा है मैं इस आश्रय से इन्हें उठा देता हूं, उड़ा देता हूं। इसमें वह दृष्टान्त देता है थक कर बैठ हुई गौओं का। गौएं थक कर जब बैठती हैं तो वे उठना नहीं चाहतीं, इसी प्रकार आध्यात्मिक दो गीध भी हमारे जीवनों में जम कर बैठे हुए हैं। तब भी जैसे थक कर बैठी गौओं को कार्यवश उठा दिया जा सकता है वैसे ही अनुभवी व्यक्ति इन दो गीधों को भी अपने हृदय से उठा देने का संकल्प करता है। वह अनुभव करता है कि ये गीध सदा उसके जीवन में कुरकुराते रहते हैं, सदा उसे चोरी या अन्य अनुचित धन-संग्रह के उपायों में प्रेरित करते रहते हैं। इन दो गीधों को वृक भी कहा है। वृक अर्थात् भेड़ियों की जबान सदा लपलपाती रहती है, इसी प्रकार लोभ-संस्कार और लोभ-वृत्ति भी सदा लपलपाते रहते हैं। उदवन्तौ = उद (उदक) वन्तौ। लोभ के कारण मुख में पानी आ जाना, लार का स्त्राव हो जाना। (आतोदिनौ)- ये गीध व्यथा देने वाले हैं, तुद् = व्यथने। ऊपर विथुरौ का भी यही अभिप्राय है। यहां व्यथा की गहराई और विस्तार का वर्णन किया है। आतोदिनौ का अर्थ है व्यापक व्यथा देने वाले। आ = व्याप्ति। लोभवृत्ति समग्र जीवन को व्यथामय बना देती है। नितोदिनौ का अर्थ है निश्चित रूप में व्यथा देने वाले, यह नियम है और निश्चित है कि लोभ अवश्य व्यथा देगा। संतोदिनौ का अर्थ है गहरी व्यथा देने वाले। लोभ से जीवन तक को खतरे में डाल दिया जाता है। लोभ के कारण पक्षी जाल में आ फँसते हैं। लोभ के कारण मीन अर्थात् मछली अन्न लगे काँटे तक को निगल जाती है। लोभी व्यक्ति धन-संग्रह के लिए अपने जीवन तक को संकट में डाल देता है। (स्त्री-पुमान्)- लोभ-संस्कार पुल्लिंग है और लोभ-वृत्ति स्त्रीलिंग है। इसलिए इन्हें स्त्री और पुमान् कहा है। ये शक्तिशाली हैं। ये लोभी के जीवन में अपने ढंग की शक्ति का सेचन कर देते हैं (मेढ्र = मिह सेचने)। इस शक्तिसेचन से लोभी शक्ति पाकर जगह-जगह भटकता है और धन-संग्रह करता रहता है। (असदन्)- समझदार व्यक्ति यह अनुभव करता है कि लोभ दुःखदायी अवश्य है। वह तब तक दुःखदायी है जब तक कि वह असंयत अवस्था में है। संयत अवस्था का लोभ दुःखदायी नहीं रहता। संयत अवस्था में रह कर यह जीवन के लिए सुखदायी रूप धारण कर लेता है। जैसे असंयत अवस्था की काम-वासना व्यभिचार की ओर प्रेरित करती है, परन्तु संयत अवस्था की कामवासना गृहस्थधर्म का रूप धारण करती है। महात्मा बुद्ध, महर्षि दयानन्द, महात्मा गांधी आदि नररत्न भी तो काम वासना के ही परिणाम हैं। इसी प्रकार लोभ के सम्बन्ध में भी समझना चाहिए। काम, क्रोध, लोभ, मोह, राग, द्वेष आदि भावनाएं विधाता की हैं। इनका जीवन में गहरा तात्पर्य है। इनकी जड़ उखाड़ देने के प्रयत्न के स्थान में इनको जीवन में नियन्त्रित अवस्था में रखना यह ही स्वाभाविक स्थिति है। जिसने इस सिद्धान्त को समझ लिया, उसने जीवन की शक्तियों के सदुपयोग का ढंग समझ लिया। फिर ये शक्तियां उसके लिए सुखधारा के स्त्रोत बन जाती हैं। जिसने शक्तियों के सदुपयोग के सिद्धान्त को समझ लिया है वह कहता है कि "मैं लोभ-संस्कार और लोभ-वृत्ति को उसके अपने नियत स्थान (स्थिति) में स्थापित करता हूं।" वह संसार में देखता है कि पशु, पक्षी, तथा जड़ जगत् अपने-अपने नियत स्थानों में परिस्थित तथा सीमित हैं। इसी प्रकार वह अपने जीवन की शक्तियों को उनके अपने-अपने स्थानों में, अपने-अपने घेरे और सीमा में नियत कर देने का संकल्प करता है। यही जीवन का दर्शन है, जीवन का तत्त्व है, जीवन की फिलॉसफी है। मन्त्र ७/९५/२ में लोभ-संस्कार और लोभ-वृत्ति को वृकौ कहा है, और मन्त्र ७/९६/१ में वृक्कौ कहा है। दोनों वृक् धातु के रूप हैं। वृक् धातु का अर्थ है 'खाना'। कुक् वृक् अदने। वृकौ पद इसी वृक् धातु से बना है। वृक्कौ में "वृक् + क" इस प्रकार छेद करना चाहिए। वृक् = खाना, + क= करने वाले (कृ धातु)। अर्थात् खाने का काम करने वाले। इस प्रकार वृकौ और वृक्कौ का अभिप्राय एक ही है। लोभ-संस्कार और लोभ-वृत्ति असंयतावस्था में रह कर जीवन का अशन अर्थात् भक्षण करते हैं, जीवन भक्षी बन जाते हैं। इस प्रकार वृक् धातु का अर्थ सार्थक होता है। मन्त्रों में जो गृध्रौ प्रयोग है, वह स्त्री और पुमान् का एक शेष है। इस प्रकार गृध्रौ प्रयोग द्वारा पुमान्-गृध्र और स्त्री-गृध्र इन दोनों का बोध होता है। लोभ-संस्कार पुमान्-गृध्र है और लोभ-वृत्ति स्त्री-गृध्र है। इन्हें ७/९५/३ में स्त्री और पुमान् इसी दृष्टि से कहा है। -'वेदवाणी' १९५४ के वेदांक से साभार
*"ओ३म्"* *सत्यार्थप्रकाशः क्यों पढ़ें ?* इसका उत्तर निम्नलिखित है (vedic vichar)
21-04-2022
१. जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त (तक) मानव जीवन की लौकिक - परालौकिक समस्त समस्याओं को सुलझाने के लिए यह ग्रन्थ एक मात्र अमूल्य ज्ञान का भण्डार है | २. यह एक ऐसा ग्रन्थ है, जो पाठकों को इस ग्रन्थ में प्रतिपादित सर्वतंत्र, सार्वजनीन, सनातन मान्यताओं के परीक्षण के लिए आह्वान करता है | ३. इस ग्रन्थ में ब्रह्मा से लेकर जैमिनी मुनि पर्यन्त ऋषि मुनियों के वेद प्रतिपादित सारभूत विचारों का संग्रह है | ४. अल्पविद्यायुक्त स्वार्थी, दुराग्रही लोगों ने जो वेदादि सत्य शास्त्रों के मिथ्या अर्थ करके उन्हें कलंकित करने का दुःसाहस किया था, उनके मिथ्या अर्थों का खण्डन और सत्यार्थ (सत्य अर्थों) का प्रकाश अकाट्य युक्तियों और प्रमाणों से इस ग्रन्थ में किया गया है | किसी नवीन मत की कल्पना इस ग्रन्थ में लेशमात्र भी नहीं है | ५. वेदादि सत्य शास्त्रों के अध्ययन के बिना सत्य ज्ञान की प्राप्ति सम्भव नहीं | उनको समझने के लिए यह ग्रन्थ कुञ्जी का काम करता है | इस ग्रन्थ के अध्ययन करने से वेदादि सत्य शास्त्रों का सत्य - सत्य अर्थ समझना सरल हो जाता है | ६. अत्यन्त समृद्धिशाली, सर्वदेश शिरोमणि भारत देश का पतन किस कारण से हुआ एवं पुनः उत्थान कैसे हो सकता है, इस विषय पर पूर्ण प्रकाश डाला गया है | ७. मानव जाति के पतन का कारण जो मतवादियों की मिथ्या धारणाएँ हैं, उनका पूर्णतया निष्पक्ष, सप्रमाण और युक्तिपूर्ण खण्डन इसमें किया गया है | ८. इसमें मूल दार्शनिक सिद्धान्तों को ऐसी सरल रीति से समझाया गया है कि इसे पढ़कर साधारण शिक्षित व्यक्ति भी एक अच्छा दार्शनिक बन सकता है | जिस ने इस ग्रन्थ को न पढ़कर नव्य (नये) महाकाव्य अनार्ष ग्रन्थों के आधार पर दार्शनिक सिद्धान्तों को पढ़ा है उस की मिथ्या धारणाओं का खण्डन और सत्य मान्यताओं का मण्डन इस ग्रन्थ का अध्ययन करने वाला कर सकता है | ९. ऋषि मन्तव्यों पर इस ग्रन्थ को पढ़ने से पूर्व जितनी भी शंकाएं किसी को होती हैं, वे सब इस के पढ़ने से समूल नष्ट हो जाती है, क्योंकि उन सब शंकाओं का समाधान इसमें विद्यमान है | १०. धर्म के मौलिक और वास्तविक स्वरूप का पूर्ण परिचय केवल इस ग्रन्थ में मिलता है | ११. इसकी एक विशेषता यह भी है कि अध्याय शब्द के स्थान पर समुल्लास शब्द का प्रयोग किया गया है, जो दो शब्द (सम् + उल्लास = समुल्लास) हुआ है, जिसका अर्थ है (सम्) यानि समान और (उल्लास) यानि प्रसन्नता | इनको मिलाने पर समुल्लास का अर्थ हुआ समान प्रसन्नतापूर्ण | अर्थात् सत्यार्थप्रकाश में सभी समुल्लासों को लिखते समय एक जैसा प्रसन्न भाव रखा गया है | किसी भी विषय की व्याख्या करने, खण्डन - मण्डन करने अथवा समीक्षा करने में एक जैसा प्रसन्न भाव रखा गया है | लेशमात्र भी कहीं कोई नाराजगी, द्वेष, ईर्ष्या, अन्यथा भाव या पूर्वाग्रह युक्त होकर इस ग्रन्थ को नहीं लिखा गया है | १२. ऋषि दयानन्द से पूर्ववर्ती ऋषियों के काल में संस्कृत की व्यापक रूप में व्यवहार था और वेदों के सत्य अर्थ का ही प्रचार था | उस समय के सभी आर्ष ग्रन्थ संस्कृत भाषा में ही उपलब्ध होते हैं | महाभारत के पश्चात् सत्य वेदार्थ का लोप और संस्कृत का अति ह्रास हुआ | विद्वानों ने अल्प विद्या और स्वार्थ के वशीभूत होकर जनता को भ्रम में डाला एवं मतवादियों ने बहुत से आर्ष ग्रन्थ नष्ट करके ऋषि - मुनियों के नाम पर मिथ्या ग्रन्थ बनाये | उन के ग्रन्थों में प्रक्षेप किया जिस से सत्यविज्ञान का लोप हुआ | उस नष्ट हुए विज्ञान को महर्षि ने इस ग्रन्थ में प्रकट किया है | महर्षि ने इस ग्रन्थ में बहुमूल्य मोतियों को चुन-चुनकर आर्यभाषा में अभूतपूर्व माला तैयार की, जिस से सर्वसाधारण शास्त्रीय सत्य मान्यताओं को जानकर स्वार्थी विद्वानों के चंगुल से बच सकें | १३. महर्षि दयानन्द कृत ग्रन्थों में सत्यार्थप्रकाश प्रधान ग्रन्थ है | इसमें उनके सभी ग्रन्थों का सारांश आ जाता है | १४. इसके पढ़े बिना कोई भी आर्य ऋषि के मन्तव्यों और उनके कार्यक्रमों को भली प्रकार नहीं समझ सकता एवम् अन्यों के उपदेशों में प्रतिपादित मिथ्या सिद्धान्तों को नहीं पहचान सकता | जिसे अनेक भ्रान्त धारणाएं मस्तिष्क में बैठ जाती हैं जिनके निराकरण के लिए इस ग्रन्थ का अनेक बार अध्ययन सर्वथा अनिवार्य है | १५. इस में आर्य समाज के मत - मतान्तरों के अन्तर को अनेक स्थानों पर एवम् एकादश समुल्लास में विशेष रूप से खुलकर समझाया गया है | १६. द्वादश समुल्लास में, नास्तिक और बौद्ध, जैन, तथा त्रयोदश समुल्लास में, ईसाई मत और चतुर्थ समुल्लास में, मुस्लिम मत की समीक्षा किया गया है | १७. सत्यार्थप्रकाश को पढ़ने से मन में राष्ट्रभक्ति की भावना जागृत होती है और देश के लिए मर - मिटने के लिए व्यक्ति को शिक्षा मिलती है | इसमें हमारे देश के गौरव के बारे में बतलाया गया है | इसे पढ़ने से क्रान्तिकारी विचार उत्पन्न होते हैं और देश के लिए कुछ करने के विचार आते हैं | इसे पढ़ने वाला व्यक्ति अपने देश, संस्कृति से प्रेम करने लगता है | इस पुस्तक से निम्नलिखित क्रान्तिकारियों को राष्ट्र के लिए मर मिटने की शिक्षा मिली -- # रामप्रसाद बिस्मिल # शहीद भगत सिंह # चन्द्रशेखर आजाद # लाला लाजपत राय # वीर सावरकर # स्वामी श्रद्धानन्द # श्याम जी कृष्ण वर्मा # भाई परमानन्द # पंडित गुरूदत्त # हंसराज आदि | इन क्रान्तिकारियों, राष्ट्रभक्तों की जीवनी, आत्मकथा में उन्होंने स्वयं यह लिखा है कि सत्यार्थप्रकाश ने उनके जीवन का तख्ता पलट दिया और उन्होंने स्वयं यह लिखा है कि वे सत्यार्थप्रकाश से प्रेरित है | १८. सत्यार्थप्रकाश को पढ़ने वाला व्यक्ति सत्य को जान जाता है, वह सभी तरह के पाखण्डों, अंधविश्वासों, कुरीतियों, मिथ्या बातों को जान जाता है और उस व्यक्ति को कभी भूत - प्रेत नहीं सताते, कभी किसी ग्रह का योग उसका कुछ बिगाड़ नहीं पाता | जो इस ग्रन्थ को पढ़ लेता है, वह समस्त पाखण्डों, अंधविश्वासों और मिथ्या बातों से पूर्णतः मुक्त हो जाता है | १९. सत्यार्थप्रकाश में वैदिक जीवन पद्धति की सारी विशेषताओं का वर्णन किया गया है | २०. सत्यार्थप्रकाश को पढ़ने वाला व्यक्ति ईश्वर का सच्चा स्वरूप जान जाता है | ईश्वर क्या है ? ईश्वर के क्या - क्या कार्य हैं ? ईश्वर कैसे इस जगत का पालन करता है ? इस ग्रन्थ में वेदों और अनेक वैदिक ग्रन्थों से प्रमाण दिये गये हैं | ........ वैदिक विचार |
ସମଗ୍ର ବିଶ୍ୱବ୍ରହ୍ମାଣ୍ଡର ସୃଷ୍ଟିକର୍ତ୍ତା ହେଉଛନ୍ତି ଈଶ୍ୱର ।
20-04-2022
ସମଗ୍ର ବିଶ୍ୱବ୍ରହ୍ମାଣ୍ଡର ସୃଷ୍ଟିକର୍ତ୍ତା ହେଉଛନ୍ତି ଈଶ୍ୱର । ଈଶ୍ୱର ହେଉଛନ୍ତି ନିରାକାର । ସତ୍ୟ ସନାତନ ବୈଦିକ ଧର୍ମରେ ଈଶ୍ୱରଙ୍କ ମୁଖ୍ୟ ନାମ ହେଉଛି 'ଓମ୍' । ସେଥିପାଇଁ ପ୍ରତ୍ୟେକ ମନ୍ତ୍ର ଆରମ୍ଭରୁ ' ଓମ୍ ' ଉଚ୍ଚାରଣ କରାଯାଇଥାଏ । ଈଶ୍ଵରଙ୍କ ଗୁଣ-କର୍ମ-ସ୍ଵଭାବ ଅନେକ ହୋଇଥିବାରୁ ତାଙ୍କର ନାମ ମଧ୍ୟ ଅନେକ ରହିଛି । ଈଶ୍ଵରଙ୍କ_ସତ୍ୟ_ସ୍ୱରୂପ:- ଓ୩ମ୍, ସୃଷ୍ଟିକର୍ତ୍ତା, ସଚିଦାନନ୍ଦସ୍ୱରୁପ, ନିରାକାର, ସର୍ବଶକ୍ତିମାନ୍, ନ୍ୟାୟକାରୀ, ଦୟାଳୁ, ଅଜନ୍ମା, ଅନନ୍ତ, ନିର୍ବିକାର, ଅନାଦି, ଅନୁପମ, ସର୍ବାଧାର, ସର୍ବେଶ୍ଵର, ସର୍ବବ୍ୟାପକ, ସର୍ବାନ୍ତର୍ଯ୍ୟାମୀ, ଅଜର, ଅମର, ଅଭୟ, ନିତ୍ୟ, ପବିିତ୍ର ଏହି ପରି ଅନେକ ନାମ ଅଟେ । ଗାୟତ୍ରୀ ମନ୍ତ୍ର :- ଓମ୍ ଭୂ ଭୂର୍ଵଃ ସ୍ଵଃ ତତ୍ସବିତୁବରେଣ୍ୟମ୍ ଭର୍ଗୋ ଦେବସ୍ୟ ଧୀମହୀ ଧିୟୋ ୟୋନଃ ପ୍ରାଚୋଦୟାତ୍ ।। ( ଯଜୁଃ-୩୬:୩) ଶବ୍ଦାର୍ଥ:- ଓ୩ମ୍ = ପରମାତ୍ମା ଙ୍କ ମୁଖ୍ୟ ନାମ । ଭୂ = ପ୍ରାଣଦାତା । ଭୁବଃ = ଦୁଃଖନାଶକ । ସ୍ୱଃ = ସୁଖସ୍ଵରୁପ । ତତ୍ସବିତୁଃ = ସେ ସକଳ ଜଗତର ଉତ୍ପତ୍ତିକର୍ତ୍ତା । ବରେଣ୍ୟମ୍ = ବରଣୀୟ, ସର୍ବଶ୍ରେଷ୍ଠ । ଭର୍ଗୋ = ପବିତ୍ରକାରୀ, ଶୁଦ୍ଧ-ବୁଦ୍ଧ-ବ୍ରହ୍ମ ସ୍ୱରୂପ । ଦେବସ୍ୟ = ସର୍ବକାମ୍ୟ, ସର୍ବତ୍ର ବିଜୟପ୍ରଦାତା, ଆପଣଙ୍କର ସେହି ସ୍ୱରୂପକୁ । ଧୀମହୀ = ଆମେ ଧାରଣ, ଧ୍ୟାନ କରୁଅଛୁ । ଧୀୟୋ = ବୁଦ୍ଧିକୁ । ୟୋ = ଆପଣ । ନଃ = ଆମ୍ଭମାନଙ୍କର । ପ୍ରଚୋଦୟାତ୍ = ସତ୍ ମାର୍ଗରେ ପ୍ରେରିତ କରନ୍ତୁ । ଭାବାର୍ଥ:- ହେ ସର୍ବବ୍ୟାପୀ ପରମାତ୍ମା ଆମ୍ଭମାନଙ୍କର ପ୍ରାଣଦାତା , ଦୁଃଖନାଶକ ଓ ସୁଖସ୍ଵରୁପ ଅଟନ୍ତି । ଆମ୍ଭେମାନେ ସେହି ସର୍ବଶ୍ରେଷ୍ଠ ପରଂବ୍ରହ୍ମଙ୍କ ତେଜକୁ ଧ୍ୟାନ ଓ ଧାରଣ କରୁଅଛୁ । ହେ ବିଶ୍ୱପିତା ପରମାତ୍ମା ଆମ୍ଭମାନଙ୍କ ବୁଦ୍ଧିକୁ ଅସତ୍ ମାର୍ଗରୁ ନିବୃତ୍ତ କରି ସତ୍ ମାର୍ଗରେ ପ୍ରେରିତ କରନ୍ତୁ । # Dr. Yajnya Dutta
महात्मा हंसराज की 158वी जयन्ती 19 अप्रैल पर
19-04-2022
ओ३म् -महात्मा हंसराज की 158वी जयन्ती 19 अप्रैल पर- “देश, धर्म और संस्कृति को समर्पित डीएवी शिक्षा आन्दोलन के प्रमुख संस्थापक जीवनदानी महात्मा हंसराज” ============ लगभग 5,100 वर्ष पूर्व महाभारत युद्ध की समाप्ति से देश का पतन आरम्भ हुआ व लगातार चलता रहा। इस प्रकार चलते चलते उन्नीसवीं शताब्दी का सन् 1825 आ गया जब गुजरात प्रदेश के मोरवी राज्य के टंकारा नामक ग्राम में पं. करषन जी तिवारी के यहां 12 फरवरी को एक विलक्षण बालक मूलशंकर का जन्म हुआ जो ईश्वर, वेद, देश, धर्म प्रेम सहित निर्भीकता और विशेष तर्कणा शक्ति को लेकर जन्में थे। उनके समय में समाज अनेक सामाजिक कुप्रथाओं व मिथ्या प्रथाओं से ग्रस्त था। ईश्वर के सच्चे स्वरूप, उसकी उपासना व भक्ति की सच्ची यथार्थ वैदिक पद्धति को भुला दिया गया था और उसका स्थान अनेकानेक आडम्बरों से युक्त मूर्तिपूजा व अनेक प्रकार के मिथ्याचारों ने ले लिया था। ऋषि दयानन्द ने सन् 1860 में वेद प्रचार का, जो यथार्थ धर्म प्रचार का पर्याय है, उसका आगरा से शुभारम्भ किया था। वह देश के अनेक भागों में घूमें, वेद प्रचार किया, विरोधी मत वालों से शास्त्रार्थ, वार्तालाप व शंका समाधान आदि भी किये। ऋषि दयानन्द ने सन् 1875 में मुम्बई नगरी में आर्यसमाज नाम से वेद प्रचार का एक अपूर्व संगठन बनाया। पंजाब में भी इस सगठन का गहरा प्रभाव था। शिक्षित व अशिक्षित सभी लोग इसे उत्साहपूर्वक अपना रहे थे। महात्मा हंसराज जी उन दिनों लाहौर में पढ़ते थे। महान मनीषी पं. गुरुदत्त विद्यार्थी और देशभक्त लाला लाजपतराय जी गवर्नमेन्ट कालेज, लाहौर में उनके सहपाठी थे। आप तीनों मित्र आर्यसमाज लाहौर जाते थे और उसकी गतिविधियों में सक्रिय भाग लेते थे। आप तीनों मित्रों पर ऋषि दयानन्द, आर्यसमाज और इनकी वैदिक विचारधारा का गहरा रंग चढ़ा। तीनों मित्रों ने अपना समस्त जीवन निःस्वार्थ भाव से आर्यसमाज व ऋषि दयानन्द जी के शिक्षा संबंधी विचारों को देश के जन जन में प्रचार को अपना मिशन बना लिया और उसे सफलतापूर्वक आगे बढ़ाया। आपने जिस संस्था को अपना जीवन समर्पित किया वह आर्यसमाज के विचारों से प्रभावित उसकी शिक्षा प्रचार की शाखा डी.ए.वी. स्कूल वा कालेज थी जिसकी बिना वेतन लिए आजीवन सेवा करने की भीष्म प्रतिज्ञा आपने की और अपने पूरे जीवन उसे सफलता पूर्वक निभाया। इस भीष्म प्रतिज्ञा को करके आपने अपनी समकालीन व भावी पीढ़ियों के लिए एक अनोखी मिसाल प्रस्तुत की जिसका पालन विरले मनुष्य ही कर सकते हैं। आपने एक त्यागी, तपस्वी, योगी व देश-समाज-भक्त आदर्श व्यक्ति का जीवन व्यतीत किया। युग-युगान्तरों तक आपके जीवन से देशवासी प्रेरणा ग्रहण कर अपने मनुष्य जीवन को सफल करने के साथ यश एवं कीर्ति भी अर्जित कर सकते हैं। महात्मा हंसराज जी ने दयानन्द ऐंग्लो वैदिक स्कूल की स्थापना व संचालन के लिए अपने जीवन का जो दान किया, उसी कारण वह महात्मा कहे जाते हैं। उनका जीवन भी अनेक बड़ें बड़े महात्माओं से कहीं उच्च व आदर्श था। एक दीपक के समान वह सारे जीवन आर्थिक अभावों में तप व कष्टों से युक्त जीवनयापन करते रहे और सहस्रों जीवन को अपने ज्ञान की ज्योति से प्रदीप्त कर उन्हें देश व समाज के लिए उपयोगी बनाया। विद्या एवं शारीरिक बल आदि अनेक क्षमताओं से युक्त होने पर भी महात्मा जी ने कभी अपना एक निजी मकान तक नहीं बनाया, न कभी कोई वाहन ही खरीदा, साधारण भोजन व साधारण वस्त्रों में रहे और ऋषि दयानन्द मिशन व उनके वैदिक सिद्धान्तों का पालन करते रहे। आपके संकल्प व डीएवी संस्था के लिए जीवन दान से आप जिस अर्थाभाव से गुजरे वह आपने अकेले नहीं अपितु आपके परिवार के सभी सदस्यों को उसे सहन करना पड़ा। महात्मा जी सरकारी शिक्षा संस्थाओ में पढ़े व योग्य बने। आर्यसमाज ने उन पर कोई घन व साधन व्यय नहीं किेये थे। दूसरी ओर हम अपने आज के गुरुकुलों को देखते हैं जिन्होंने आज सरकारी विद्यालयों जैसा वातावरण धारण कर लिया है। गुरुकुल दान से चलते हैं, किसी की आर्थिक स्थिति अच्छी व किसी की कम होती है। यदि हमारे वर्तमान गुरुकुलों में कोई विद्यार्थी योग्य बन भी जाये तो फिर वह लेक्चरार या प्रोफेसर बनना अधिक पसन्द करता है। आर्यसमाज के कार्य की सभी को प्रायः उपेक्षा करते ही देखा है। महात्मा हंसराज जी ने जिस परम्परा का शुभारम्भ व निर्वाह किया था, उन जैसा आज एक भी जीवन कहां हैं? हां, कुछ नाम दृष्टि पटल पर अवश्य उभरते हैं। स्वामी श्रद्धानन्द, पं. लेखराम, प. गुरुदत्त विद्यार्थी आदि की श्रृंखला में पं. ब्रह्मदत्त जिज्ञासु, पं. युधिष्ठिर मीमांसक, आचार्य डा. रामनाथ वेदालंकार, स्वामी विद्यानन्द सरस्वती, आचार्य विजयपाल जी आदि कुछ नाम हैं जिनका जीवन भी आदर्श एवं गौरवपूर्ण रहा है। ऐसे अनेक और भी नाम हैं परन्तु अब यह श्रृंखला कमजोर पड़ रही है। जिन नामों का उल्लेख किया है, उन ऋषि भक्तों का जीवन भी त्याग व तपस्यापूर्ण जीवन था और इन्होंने भी वेदसेवा व समाजसेवा के प्रशंसनीय उदाहरण प्रस्तुत किये हैं। प्रत्येक ऋषिभक्त को ऋषि जीवन और महात्मा हंसराज जी के जीवन से प्रेरणा ग्रहण कर उनका अनुसरण करना चाहिये। इससे न केवल इस जन्म व भावी जीवन में हमें लाभ होगा अपितु इससे हम देव (ईश्वर) ऋण, ऋषि ऋण, वेद ऋण आदि से उऋ़ण भी होंगे। महात्मा जी का जन्म 19 अप्रैल, सन् 1864 को बजवाड़ा ग्राम जिला होशियारपुर में लाला चुनीलाल जी के यहां हुआ था। 15 वर्ष की आयु में आर्यसमाज लाहौर के प्रधान लाला साईंदास के सत्संग से आप पर आर्यसमाज का रंग चढ़ा। सन् 1880 में आपने मिशन स्कूल, लाहौर से मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की। बी.ए. की परीक्षा आपने सन् 1885 में लाहौर के गवर्नमेन्ट कालेज से उत्तीर्ण की थी। आप पंजाब विश्वविद्यालय में इस परीक्षा में द्वितीय रहे थे। यह भी जानने योग्य है कि उन दिनों पंजाब में पूरा पाकिस्तान व दिल्ली तक के प्रदेश सम्मिलित थे। दिनांक 30 अक्तूतबर, 1883 को अजमेर में ऋषि दयानन्द का बलिदान हुआ था। उनकी स्मृति में पंजाब के आर्यनेताओं ने उनका एक स्मारक बनाने का निश्चय किया जिसका स्वरूप ऐसा था कि जहां प्राचीन व अर्वाचीन शिक्षा विषयों का देश के बालकों को अध्ययन कराना था। आपने इस योजना के लिए 27 फरवरी, सन् 1886 को बिना वेतन लिए अपनी सेवायें देने की सार्वजनिक घोषणा की थी। एक प्रकार से आपने अपना जीवन ही दयानन्द कालेज को दान कर दिया था। आप 1 जून, 1886 को डी.ए.वी. स्कूल के मुख्याध्यापक बनेे। सन् 1891 में आर्य प्रतिनिधि सभा तथा सन् 1893 में आप आर्य प्रादेशिक सभा के प्रधान बने। आपका हृदय देश व समाज सेवा की भावनाओं से भरा हुआ था। आपके समय में जब भी कहीं भूकम्प, दुष्काल, बाढ़, दंगे व महामारी आदि का प्रकोप हुआ तो आप पीड़ितों की सहायता के लिए पहुंचते थे अथवा अपने मित्रों व सहयोगियों के दल वहां पीड़ितों की सेवा करने भेजते थे। सन् 1911 में आप मात्र 47 वर्ष के थे। आपने स्कूल के प्राचार्य पद से त्याग पत्र दे दिया जबकि कालेज कमेटी ने आपको त्याग पत्र न देने व उसे वापिस लेने की प्रार्थना की थी। यह भी बता दें इन दिनों डी.ए.वी. कालेज उन्नति के शिखर पर था, ऐसे में त्याग पत्र देना सबको हैरानी में डालने वाला था। सन् 1913 में आप कालेज कमेटी के प्रधान चुने गये थे। आपकी पत्नी माता ठाकुर देवी जी का सन् 1914 में देहान्त हो गया था। सन् 1918 में आप पंजाब शिक्षा सम्मेलन के अध्यक्ष बनाये गये थे। इससे यह सहज अनुमान होता है कि आप उस समय के प्रमुख शिक्षा शास्त्रियों में एक थे। स्वामी श्रद्धानन्द जी के कार्यों में भी आपने सहयोग किया। सन् 1923 में स्वामी श्रद्धानन्द जी ने मथुरा, आगरा व उसके निकटवर्ती स्थानों के मलकान राजपूतों की शुद्धि की थी। इस कार्य में महात्मा हंसराज जी ने स्वामी श्रद्धानन्द जी को अपना सक्रिय सहयोग दिया। इसके अगले वर्ष सन् 1924 में आप अखिल भारतीय शुद्धि सभा के प्रधान बने। आर्यसमाज ने सन् 1927 में अपना प्रथम आर्य महासम्मेलन आयोजित किया जिसका प्रधान आपको ही बनाया गया। सन् 1937 में आपने आर्य प्रादेशिक सभा के प्रधान पद से त्याग पत्र दे दिया था। 15 नवम्बर, 1938 को लाहौर में आपका देहान्त हुआ। पाठकों के लाभार्थ हमने महात्मा जी की संक्षिप्त जीवनयात्रा को प्रस्तुत किया है। इससे ज्ञात होता है कि महात्मा जी ने डीएवी स्कूल के मुख्याध्यापक से कार्य आरम्भ किया, डीएवी स्कूल व कालेज निरन्तर प्रगति करते रहे, महात्मा जी कालेज के प्राचार्य बने और 47 वर्ष की वय में स्वेच्छा से पद का त्याग कर दिया। आप डीएवी विद्यालय के संगठनों की प्रशासनिक संस्था आर्य प्रादेशिक सभा के प्रधान भी रहे और आर्य प्रतिनिधि सभा, पंजाब के भी प्रधान रहे। आपने समय समय पर भूकम्प, बाढ़, आपदा, महामारियों जैसे कठिन अवसरों पर पीड़ितों की प्रशंसनीय सेवा भी की व कराई। शुद्धि आन्दोलन में भी आपने स्वामी श्रद्धानन्द जी को सहयोग दिया। आपका जीवन युगों युगों तक देश के लोगों व विद्यार्थियों को प्रेरणा देता रहेगा और आपके जीवन व कार्यों को पढ़कर, जानकर व सुनकर लोग मानसिक रूप से आपको अपना मानस पिता, मार्गदर्शन व प्रणेता स्वीकार करने सहित आपके अनुरूप श्रेष्ठ कार्यों को करने की प्रेरणा ग्रहण करते रहेंगे। महात्मा हंसराज जी ऋषि दयानन्द, आर्यसमाज, वेद, वैदिक शास्त्रों के विचारों, उनके अध्ययन व संगति की देन थे। आपने जो पढ़ा, जाना व समझा, उसे अपने जीवन का अंग बनाया न कि किसी उपयोगी बात की उपेक्षा की। ऋषि दयानन्द ने ईश्वर व सत्य ज्ञान की खोज में अपने माता-पिता, परिवार, घर व धन-सम्पत्ति का त्याग कर दर दर की ठोकरे खाईं थी और अन्ततः अमृत को प्राप्त किया था। आपने उसी अमृत का पान कर अपने जीवन को देश व समाज के लिए उपयोगी व कल्याणकारी रूप दिया जिसका परिणाम देश से अज्ञान क अन्धकार को मिटाने में आपको उल्लेखनीय सफलता मिली और इतिहास में आपका अक्षुण स्थान बना। शहीद भगत सिंह जैसे अनेक क्रान्तिकारी लोग डी.ए.वी. कालेज की ही देन थे। महात्मा जी के बड़े भाई का उनके जीवनदान के व्रत को निभाने में सर्वाधिक योगदान है। हमें समय समय पर उनको भी याद करना चाहिये। वह पोस्ट आफीस में काम करते थे और महात्मा जी की लगन को देखकर उन्होंने जीवनभर अपना आधा वेतन महात्मा जी को उनके परिवार के निर्वाहार्थ प्रदान किया। अपना जीवन वह आधे वेतन में निर्वाह करते रहे। इतिहास में ऐसा उदाहरण मिलना असम्भव है। इसे पढ़कर तो राम व लक्ष्मण जी की स्मृति होती है। वस्तुतः यह दोनों भाई राम व कृष्ण के समान ही थे। यह भी बता दें कि आर्य विद्वान प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने महात्मा जी का जीवन चरित एवं उनके लेख व विचारों का संग्रह तैयार कर उसे ‘विजयकुमार गोविन्दराम हासानन्द, दिल्ली’ से अप्रैल, 1986 में चार खण्डों में प्रकाशित किया था। महात्मा जी का जीवन बहुआयामी जीवन था। एक लेख में उनके सभी गुणों को समाविष्ट नहीं किया जा सकता। इसके लिए तो पाठकों को महात्मा हंसराज ग्रन्थावली का अध्ययन करना ही समीचीन है। 19 अप्रैल, 2022 को उनके 158 वें जन्म दिन पर उनकी ग्रन्थावली का स्वाध्याय ही उनको सबसे अच्छी श्रद्धांजलि हो सकती है। इसी के साथ लेख को विराम देते हैं। ओ३म् शम्। - Vedic Vichar
महर्षि दयानन्द सरस्वती जी के जीवन के प्रमुख (vedic vichar)
18-04-2022
प्रेरणादायक प्रसंग लेखक- पं० उम्मेद सिंह विशारद, वैदिक प्रचारक धन्य है तुमको ए ऋषि तूने हमें जगा दिया। सो सो के लुट रहे थे हम तूने हमें बचा लिया।। तुझमें कुछ ऐसी बात थी कि तेरी बात पर ऋषि। लाखों शहीद हो गए लाखों ने सर कटा दिया।। अन्तिम सन्देश ये वक्त है आखरी मेरा अब तो मैं यहां से जाता हूँ। वेदों की शमां जलती रहे तुमसे आर्यों यह चाहता हूँ।। इस घर के पहरेदार हो तुम अब आपकी जिम्मेदारी है। अब तो हम यहां से जाते हैं हुई ड्यूटी खत्म हमारी है। वेदों की शमां जलती रहे आर्यों तुमसे यह चाहता हूँ।। महर्षि दयानन्द सरस्वती जी की अद्भुत धारणा शक्ति महर्षि दयानन्द जी की धारणा शक्ति अपूर्व थी, उन्होंने एक बार पं० भगवान वल्लभ से सुश्रुत संहिता जो हजारों पृष्ठ का ग्रन्थ था, मंगवाकर देखा, और एक दो दिन में ही उस पर इतना अधिकार कर लिया कि प्रश्न उठने पर प्रत्येक, प्रसंग का वाक्य उद्धत करने लगे। महर्षि को वेद कंठस्थ थे गुजरात में महाराज वेद भाष्य के कार्य में व्यस्त रहते थे, वह पंडितों को वेद भाष्य लिखाया करते थे। उनके हाथ में कोई पुस्तक नहीं रहती थी। फिर वह इतनी शीघ्रता से वेद भाष्य लिखाते थे कि लेखकों को लिखने का अवकाश नहीं मिलता था। उन्हें वेद कण्ठस्थ थे। महर्षि से उपासना में मन लगाने की विधि पूछी पं० आदित्य नारायण ने महर्षि से उपासना में मन लगाने की विधि पूछी। स्वामी जी ने उससे कहा, यम-नियम का पालन करो। उन्होंने द्वितीय, तृतीय बार यही प्रश्न पूछा, स्वामी जी ने हर बार यही उत्तर दिया। पण्डित जी इस पर चिढ़ गए कि हमारा आना व्यर्थ हुआ। फिर उन्होंने सोचा स्वामी जी के उत्तर का क्या कारण है। उन्हें स्पष्ट ज्ञात हो गया एक मुकदमें में झूठी साक्षी देकर आए थे। और फिर भी देने वाले थे। महर्षि दयानन्द यह वृत अपनी योग विभूति से जान गए थे। महर्षि दयानन्द सरस्वती जी में अपूर्व ब्रह्मचर्य बल था जोधपुर नगर में एक पहलवान रहता था जिसे अपने बल पर बहुत घमण्ड था। वह अकेला ही रहट चलाकर अपने स्नान के लिए हौज भरा करता था। लोग यही समझते थे कि इस हौज को कोई दूसरा नहीं भर सकता। महर्षि दयानन्द जी नगर में प्रातः काल भ्रमण के लिए जाया करते थे। एक दिन स्वामी जी ने उस हौज को भरते देख लिया। उस दिन वायु सेवन के लिए उधर से गुजरे तो उनके जी में आया कि हौज को भर देवें। और स्वामी जी ने उस हौज को भर दिया और वायु सेवन को चल पड़े। जब पहलवान आया तो उसने हौज भरा देखा तो आश्चर्य चकित रह गया। स्वामी जी जब उधर आये तो पहलवान ने कहा- बाबा! हौज तुमने भरा? स्वामी जी ने कहा- हां! मैंने भरा। फिर पूछा तुम थके नहीं, स्वामी जी ने कहा कि उससे भी व्यायाम पूरा नहीं हुआ। पहलवान हक्का-बक्का रह गया। महर्षि दयानन्द सरस्वती जी की शिष्टता व निर्भयता कर्णवास में कर्ण सिंह बड़े गुर्जर क्षत्रीय थे व जमीदार रईस थे, महर्षि दयानन्द जी को प्रमाण करके बोले कि हम कहां बैठे? स्वामी जी ने कहा कि जहां आपकी इच्छा है। कर्ण सिंह घमण्ड से बोले जहां आप बैठे हैं हम तो वहां बैठेंगे। एक ओर हटकर स्वामी जी बोले आइए बैठिये। उसने स्वामी जी से पूछा आप गंगा को मानते हैं। उन्होंने उत्तर दिया गंगा जितनी है उतनी मानते हैं, वह कितनी है। फिर कहा हम संन्यासियों के लिए कमण्डल भर है। कर्ण सिंह गंगा स्तुति में कुछ श्लोक पढ़ता है। स्वामी जी ने कहा यह तुम्हारी गप्प, भ्रम है। यह तो जल है इससे मोक्ष नहीं होता, मोक्ष तो सत्य कर्मों से होता है। फिर कर्ण सिंह बोले हमारे यहां रामलीला होती है, वहां चलिए। स्वामी जी ने कहा तुम कैसे क्षत्रिय हो महापुरुषों का स्वांग बनाकर नाचते हो। यदि कोई तुम्हारे महापुरुषों का स्वांग बनाकर नाचे तो कैसा लगेगा। उसके ललाट पर चक्रांकित का तिलक देखकर कहा तुम कैसे क्षत्रिय हो, तूने अपने माथे पर भिखारियों का तिलक क्यों लगाया है और भुजाएं क्यों दुग्ध की हैं? कर्ण सिंह बोले यह हमारा परम मत है यदि तुमने खण्डन किया तो हम बुरी तरह पेश आयेंगे। किन्तु स्वामी जी शान्त मन से खण्डन करते रहे। फिर कर्ण सिंह को क्रोध आ गया। उसने म्यान से तलवार निकाल ली। स्वामी जी ने निर्भीकता से कहा यदि सत्य कहने से सिर कटता है तो काट लो, यदि लड़ना है तो राजाओं से लड़ो, शास्त्रार्थ करना है तो अपने गुरु रंगाचार्य को बुलाओ और प्रतिज्ञा लिख लो यदि हम हार गये तो अपना वेद मत छोड़ देंगे। कर्ण सिंह ने कहा उनके सामने तुम कुछ भी नहीं हो। स्वामी जी बोले रंगा स्वामी की मेरे सामने क्या गति है। क्रोधित कर्ण सिंह स्वामी जी को गाली देता रहा किन्तु स्वामी जी हंसते रहे। कर्ण सिंह ने तलवार चलाई, स्वामी जी ने तलवार छीन ली और कहा चाहूं तो तेरे शरीर में घुसा दूं और तलवार टेककर दो टुकड़े कर दिए और शान्त रहे। शिष्यों ने रिपोर्ट लिखने को कहा किन्तु स्वामी जी ने उसको माफ कर दिया और पूर्ववत् शान्त होकर उपदेश करने लगे। अभ्यस्त अपराधी भी महर्षि दयानन्द योगी से डर भागे कर्णवास में एक रात को कर्ण सिंह ने अपने तीन आदमियों को स्वामी जी का सिर काटने भेजा। किन्तु उन अपराधियों को कुटी में जाने का साहस न हुआ। स्वामी जी खटका सुनकर बैठ गये। राव साहब ने अपने आदमियों को पुनः धमकाकर भेजा और कहा स्वामी जी का सिर काट लाओ। स्वामी जी चौकी पर बैठ कर ध्यान मगन हो गए। वह जब स्वामी जी की हत्या करने दरवाजे पर आए तो स्वामी जी ने द्वार पर आकर भयंकर स्वर में ध्वनि की और वे लोग ध्वनि की आवाज सुनकर घबरा गए और चित्त होकर गिर पड़े, तलवारें छूट गईं और किसी प्रकार उठकर भाग गये। सत्य के पथिक में बड़ी आत्म शक्ति होती है। सन् १८६७ में अनूप शहर में मूर्ति पूजा पर शास्त्रार्थ स्वामी को अनूप शहर में आये। अध्यापक लाला बाबू ने स्वामी की से कुछ पूछने का आग्रह किया। स्वामी जी ने कहा कोई दूसरा व्यक्ति तुमको समझा देवे तो मैं तैयार हूं, मैं संस्कृत में ही बोलूंगा और वहां पर पण्डित अम्बादत्त से मूर्ति पूजा पर शास्त्रार्थ हुआ और अम्बादत्त हट गए। बहुतों ने उसी समय से मूर्ति पूजा छोड़ दी और मूर्तियों को पानी में विसर्जन कर दिया और अम्बादत्त दुबारा शास्त्रार्थ करने का साहस न कर सका। दयालु महर्षि दयानन्द जी ने विष देने वाले को क्षमा किया अनूप शहर की घटना है, कि एक दिन एक ब्राह्मण ने स्वामी जी को विष दे दिया क्योंकि वह स्वामी जी की मूर्ति पूजा खण्डन से तंग आ चुका था। स्वामी जी समझ गये और न्योली क्रिया से विष निकाल कर बच गये पर उस विष देने वाले को कुछ न कहा। सैय्यद मोहम्मद तहसीलदार ने उस ब्राह्मण को बन्दी बना लिया। वह स्वामी जी से बहुत प्रेम करते थे और दर्शनार्थ रोज आया करते थे। स्वामी जी ने तहसीलदार से बोलना बन्द कर दिया। उसने कारण पूछा तो स्वामी जी ने कहा- "मैं संसार को बन्दी बनाने नहीं आया हूँ परन्तु उनको छुड़ाने आया हूँ। यदि वह अपनी दुष्टता नहीं छोड़ता तो मैं अपनी श्रेष्ठता क्यों छोड़ूं।" अन्त में तहसीलदार से कहकर उसको छुड़वा दिया। महर्षि दयानन्द सरस्वती जी की सेवा भाव की चरम सीमा एक बीमार कोढ़ी को उठाना सोमनाथ मन्दिर में मेला लगा हुआ था और मेले के बाहर एक कोढ़ी बीमार पड़ा हुआ था और चलने की स्थिति में नहीं था, कोई कहता मर गया कोई कहता जिन्दा है। पता चला कि पुलिस वालों ने मारते-मारते उसको बाहर फैंक दिया था। कोई कहता पैरों पर रस्सी बांध के बाहर फैंक दो। उसके सारे शरीर में खून और पीप बह रहा था। स्वामी जी ने कपड़ा भिगाकर उसके मुंह में पानी डाला, तब उसने आंखें खोल दी थी और कातर दृष्टि से दया के भण्डार दयानन्द को देखने लगा। और उसको छोड़ना अच्छा न लगा और चिकित्सा केन्द्र का पता करके कोढ़ी को पीठ में उठाकर चिकित्सा केन्द्र में भर्ती करा दिया। विदाई के समय उसने कहा- बाबा! मुझे मरने का आशीर्वाद दो, और उसके कुछ देर में देह त्याग दिया। स्वामी जी नदी नहा करके योग गुरुओं की खोज में निकल पड़े। महर्षि दयानन्द सरस्वती जी का ज्ञानत्व, व्यक्तित्व, कर्मत्व की एक रूपता संसार का कल्याण कर गई श्रद्धेय पाठकगण- अनेकों पुस्तकों का पढ़ना मात्र ज्ञान नहीं है। वास्तव में ज्ञानी वह है, जिसके सिद्धान्त पवित्र हों तथा नियमपूर्वक सदा उत्तम कर्मों को करता हो। महर्षि दयानन्द जी ने वेदानुकूल मनुष्य मात्र को उपदेश देकर बतलाया कि ईश्वर सर्वत्र जो सर्वव्यापक, सर्व सामर्थ्य वाला समदर्शी है वह सब जीवों के कर्मों को जानता है। उसी के अनुकूल सबको यथोचित फल देता है। अठाहरवीं व उन्नीसवीं सदी के अन्धेरे युग में एक महाज्ञानी ईश्वर भक्त ही इतनी ऊंची बात कह सकता था। यह ईश्वर का नियम है कि अत्यन्त अन्धकार के पीछे प्रकाश और दु:ख के पीछे सुख आता है। उसी के अनुकूल जब भारत की सन्तानें अपार दुःखों में फंस गई तो ईश्वर ने अपने अनुग्रह से भारत का उद्धार करने ऋषि दयानन्द जी को भारत धरती पर भेजा। जिन्होंने ब्रह्मचर्य व्रत धारण कर वेदों के ज्ञान से प्रकाशित हो, अपनी विद्या गुरु स्वामी विरजानन्द सरस्वती की आज्ञा सिर पर धर भारत की दुर्दशा को देख उसने भ्रमण कर वैदिक धर्म का उपदेश करना आरम्भ कर दिया और सारे संसार की आत्माओं को शान्ति मिलने का एक मात्र उपाय बतला दिया जिसके कारण अब और तबसे समस्त भूगोल में वेदों की महिमा फैलती जा रही है। महर्षि दयानन्द जी का सम्पूर्ण जीवन की गति एक विशाल ग्रन्थ बन सकता है, छोटे से प्रसंग लेख में नहीं समा सकता है। [स्त्रोत- आर्य मर्यादा : आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब का प्रमुख पत्र का मार्च २०२० का अंक; प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ]
किस-किसके किरदार (vedic vichar)
18-04-2022
विजय मनोहर तिवारी संवेदनशील भावनाओं को ठेस न पहुंचे इसलिए नाम बदले हैं। ये तो बस हर शहर की आर्थिक गतिविधियों के तरह-तरह के किरदार हैं। जैसे-मुजाहिद (बदला हुआ नाम) 16 साल का है। मदरसे में कुछ साल पढ़ा। फिर रहमान के गैराज में लग गया। महात्मा गाँधी मार्ग के एक कोने में पहले गुमटी की शक्ल में गैराज थी। काम बढ़ा तो फैलती गई। अब मुजाहिद की ही उम्र के पाँच लड़के लगे हैं। अशरफ 19 साल का है। नेहरू रोड पर ऑटोमोबाइल के शोरूम में उसी जैसे सात मेहनती लड़के हैं। 27 साल का फहीम कोरिअर के सामान का बैग अपनी बाइक पर लादे दिन भर पचास किलोमीटर घूमता है और दस से ज्यादा ठिकानों पर जाकर सामान पहुंचाता है। उसी की उम्र का मजीद होटलों से ऑनलाइन ऑर्डर पर खाने के पैक ले जाता है। बीस साल के सलमान और शाहरुख को चिकन शॉप के लिए उस मजार के बगल में गुमटियाँ मिल गई हैं, जो मौलवी मुहम्मद अब्दुल्ला की कोशिशों से खूब फैल गई है। आशिक की उम्र 19 साल है और उसके साथ छह लड़कों का समूह रंगाई-पुताई में हुनरमंद है। साल भर उनका काम शहर की नई कॉलोनियों में चलता है। फर्नीचर का काम करने वाले 24 वर्षीय अब्दुल को भी साल भर काम मिल जाता है। उसके साथ भी उसी जैसे आठ लड़के हैं। तीन मामू के और पाँच चाची-फूफी के। इनमें से किसी ने भी स्कूल की पूरी पढ़ाई नहीं की है। ज्यादातर मदरसों में मौलवियों से ज्ञान प्राप्त करके निकले हैं। फुटपाथ पर, सड़क किनारे, खाली प्लॉट या नुक्कड़ पर लगे सब्जी और फलों के हजारों गुमटी-ठेले भी किसी न किसी रहीम या रहमान की आजीविका का हिस्सा हैं, जो ज्यादातर गैर मुस्लिम इलाकों पर निर्भर हैं। इनमें से ज्यादातर किराया नहीं देते। कोई टैक्स नहीं। नाजायज कब्जों पर नेताओं और नगरीय निकायों के भ्रष्ट अफसरों का नियंत्रण है, जो ज्यादातर हिंदू ही हैं। यह गंगा-जमनी धारा का एक अजूबा प्रवाह है। अमृत और विष का सेक्युलर कॉकटेल! पाँचों वक्त की नमाज के वक्त अपना काम छोड़कर पास की ही किसी मस्जिद में इबादत करने बिलानागा जाते ही हैं। जिन इलाकों में ये काम करते हैं, वे ज्यादातर गैर मुस्लिम हैं। बड़े मार्केट, कारोबारी मुख्य मार्ग, प्रेस कॉम्पलैक्स, इंडस्ट्रियल एरिया, रेलवे स्टेशन, बस स्टैंड, कोर्ट-कचहरी और दूसरे प्राइवेट या सरकारी दफ्तर वगैरह। यहां के 99 फीसदी रहवासी या कारोबारी जैन, सिख या हिंदू ही हैं, जहां ऊपर बताई गई सेवाओं में लगे बड़ी तादाद में मेहनतकश मुस्लिम होते हैं, जो आसपास या दूर की किसी सघन बस्ती के छोटे घरों से आते हैं। इन बस्तियों में किसी को नहीं मालूम कि जिंदगी कैसी है? वहाँ दीन की खिदमत में लगे मौलवियों की नेटवर्किंग से मदरसे और मस्जिदों की रौनक आबादी से भी तेज रफ्तार में बढ़ रही है। अब हम रामनवमी के दिन हमलों की वारदातों पर आते हैं। वे 90 चेहरे कौन हैं, जो मध्यप्रदेश के खरगोन में पकड़े गए? वे सब ऐसे ही चेहरे हैं। वे किसी इबरील-जिबरील नाम के फरिश्ते की उंगली थामकर सात आसमान से नहीं उतरे हैं। वे सब साल के बाकी दिन नुक्कड़ पर पंचर जोड़ते हैं ताकि हम अाराम से गाड़ी का मजा ले सकें। ऑनलाइन ऑर्डर पर पसंदीदा भोजन हम तक लाते हैं। वे पिछली दिवाली घर की उम्दा पुताई करके गए थे। जो कपड़े, किराने और ऑटोमोबाइल के शोरूम्स में हर दिन नजर आते हैं और जो चिकन, मीट, मटन की चमचमाती गुमटियों में गोश्त के टुकड़े करते हैं और पास ही कहीं से अजान की आवाज आने पर टोपी लगाकर चुपचाप इबादत के लिए निकल पड़ते हैं। इन्हीं की तरह कल तक जो सब्जी और फलों की दुकानों पर भावताव और तोलमोल करने में लगे थे, एक सुबह चेहरे पर नकाब बांधकर निकले और उनका किरदार बदल गया। हमलों में अनगिनत हाथ ऐसे ही होते हैं। जो नहीं पकड़े गए वे आज फिर हमारे बीच, बाजारों में, गलियों में, नुक्कड़ों पर, गुमटी-ठेलों पर मुस्कुराते हुए अपने काम में लगे हैं। कश्मीर में किसी गंजू या किसी टिक्कू का कत्ल करने वाले आज कहीं तो होंगे। किसी औरत के साथ बारी-बारी से रेप करके आरे से चीरने वाले भी अपने कामकाज में लगे होंगे। लाशों के टुकड़े-टुकड़े करने वाले भी किसी दुकान पर बैठे होंगे। खून से सने चावल खिलाने वालों के दाएं-बाएं हाथ जिनके होंगे, वे भी अपने घर-परिवार में जिंदगी का लुत्फ ले रहे होंगे। शहर के कारोबार में सबके कारोबार चल रहे हैं। दीन के भी, दीनहीन के भी। जहां जंगल हैं, वहां नाजायज कटाई और कब्जे के काम बेखटके जारी हैं। शिकार पर कानूनी रोक बाहर वालों के लिए एक सूचना है। खुली जीपों में रात के अंधेरे में कब किस रास्ते से कूच करना है, उन्हें मालूम है। हिरण या बारहसिंघे कब कहां पानी पीने आएंगे, यह रेंजर ने ही बता दिया है, क्योंकि डीएफओ साहब को मैसेज आ गया था। मुस्लिम वोटर बहुल इलाका है, हर बार सेक्युलर पार्टी के टिकट पर कोई याकूब कुरैशी या कोई प्यारे मियां की ताजपोशी हो जाती है, जिनके बूचड़खानों में गोवंश बेखटके आता रहा है। एक बंद फैक्ट्री के महफूज दरवाजे से एक बार में तीस टन मीट मटन ढोने के लिए अनगिनत फिरोज, नवाज, आमिर, सुहैल, अनवर और रईस को काम मिला हुआ है। सरकार अपनी हो तो पूरा जंगल अपना ही समझो। डीएफओ और रेंजर को भी तो अपने हिस्से के साथ इज्जत से रहना है। जंगलों का जंगलराज जंगली ही जानते हैं। कोई कभी दिल्ली में उपराष्ट्रपति रहा हो या मुख्य चुनाव आयुक्त के ऑफिस में दिखाई दिया हो या कानपुर में कमिश्नर बनाया गया हो। आईएएस हों या आईआईटियन या किसी मीडिया पोर्टल में बैठी और ट्विटर पर चहकती मोहतरमा हों। खवातीन हों या हजरात हों। नाम कुछ भी हों। सारे दिमाग एक ही फ्रीक्वेंसी पर सेट हैं। सबका सुर एक ही है। अब वह सुर आम श्राेताओं की पकड़ में आ गया है। यही गड़बड़ हो गई है। अब तक जिस प्रोडक्ट को सेक्युलर मार्केटिंग ने खुशबूदार बताया था, उसका ढक्कन खुल गया है और सब नाक दबाकर जान बचाए हुए हैं! जिंदगी की दौड़भाग में किसे यह देखने की फुरसत थी कि नाला किनारे एक दरख्त के नीचे कब एक मौलवी आकर हरी चादर डाल गया। कौन ईंटें और सीमेंट पटक गया। किसने कब्र बना दी। साल भर बाद कोई एक साइन बोर्ड भी टांग गया। फिर लोभान का धुआं उड़ने लगा। हरी चादरों के ठेले सज गए। सजदा करने वाले तो कभी कम थे ही नहीं। कुछ सालों बाद जब आसपास बाजार बढ़े, कारोबार चमके तो कब्र की किस्मत भी जागने लगी। मौलवी का कैश काउंटर अब अगली अंगड़ाई के लिए तैयार था। देखते ही देखते आसपास की खाली जमीन को नाले तक नाप दिया। पाँच मंजिला कांक्रीट का स्ट्रक्चर तनकर खड़ा होने लगा। एक सुबह हरे आइल पेंट से पुते ईंटें और पत्थर बाहर सड़क पर नजर आए। दरख्त गायब था और कब्र को उखाड़ दिया गया था। गुमटी अब चार मंजिला शोरूम में बदल गई, जिस पर चारों दिशाओं में टंगे लाउड स्पीकर पांचों वक्त अपनी फतह का ऐसा ऐलान करने लगे कि आसपास के दफ्तरों में मीटिंग मुहाल हो गई। जुमे के दिन सड़क से निकलना भी मुश्किल हो गया। जबकि यह पूरा कॉम्पलैक्स हिंदू, सिंधी और सिख कारोबारियों का है। कोई मुस्लिम कॉलोनी नहीं है। लेकिन शोरूम और गैराज, ठेलों और गुमटियों पर अपनी आजीविका कमाने वालों को एक शानदार इबादतगाह बिल्कुल वहीं उनके ही हिसाब से मिल गई। मौलवी फरमाते हैं कि अल्लाह सबका हिसाब रखता है। वह सब्र करने वालों का साथ देता है। पता चला कि मौलवी ऐसी पांच दरगाहों के नेटवर्क में अपने पूरे परिवार को लगाए हुए हैं। कहीं घोड़े वाले पीर, कहीं झब्बू बाबा, कहीं रंगीले-छबीले की मजार, कहीं छोटे मियाँ-बड़े मियाँ की दरगाह। मौलवी के रिश्ते सेक्युलर पार्टियों में ही नहीं, सांप्रदायिक पार्टियों में भी बराबर हैं। पहली बीवी का तीसरा बेटा सियासत में दाव आजमा रहा है। एमएलए का दायां हाथ है। इस नए रसूख का ही जलवा है कि शौक के मुताबिक अफसरों काे उनका हिस्सा फार्म हाऊसों की दावतों में मुहैया करा दिया जाता है। मौलवी तो सबके लिए दुआ मांगते हैं।रहमतउल्लाअलैह की मेहरबानी है। दुआए खैर में सबको सब याद कर लेते हैं। जलेसर से लेकर जबलपुर तक और मुरादाबाद से लेकर मुर्शिदाबाद तक, अहमदाबाद से लेकर हैदराबाद तक सब कुछ यूं ही आबाद है। खुशगवार माहौल में सब कुछ चल रहा है। आंखों के सामने। अब तक धीमी आँच पर उबलते मेंढक की तरह भारतीय समाज को बस अपने खत्म होने का इंतजार अब नहीं रहा है। उसके सामने से हर परदा हट रहा है। हर नकाब उतर गया है। हसीन चेहरे के पीछे छिपा वहशी विचार उजागर है। इतना ही क्या कम है कि वह सच को जान गया है। जब जान गया है तो देर-अबेर संभल भी जाएगा। नहीं भी संभला और खत्म भी होना पड़ा तो उसे मरते वक्त याद रहेगा कि असलियत यह थी और मैं इसके खिलाफ खड़ा हुआ था! अपवादस्वरूप जो रहीम, रहमत और पठान साब के मददगार और रहमदिल किरदार होंगे भी तो उन्हें सलीम और जावेद फिल्मों के ओवरडोज में दिखा ही चुके हैं। कश्मीर में तो 1990 में रामनवमी के जुलूस नहीं निकले थे। सिंध में आज भी कौन जयश्री राम के नारे लगा रहा है? बांग्लादेश में किसने मंदिर वहीं बनाने की मांग की? अफगानिस्तान में किस वजह से गुरु ग्रंथ साहिब को सिर पर रखकर निकलना पड़ा? न्यूयार्क या लंदन में कौन से बजरंग दली सक्रिय थे? ये ऐसे सवाल हैं, जिन्हें किसी से पूछने की जरूरत नहीं है। जवाब संसार में सबके संज्ञान में आ गए हैं। मैंने यहां नाम बदले हैं। वह महात्मा गांधी मार्ग की जगह एमजी रोड भी हो सकता है और जवाहरलाल नेहरू पथ की जगह बाबर या हुमायूं रोड भी हो सकता है। नाम में क्या रखा है। वह तो कम्बख्त एक इशारा भर है!
सप्तपदी (vedic vichar)
18-04-2022
सनातन धर्म मे विवाह के समय पति और पत्नी मिलकर सातवचन बोलते हैं। इसे सप्तपदी कहते हैं। इन संस्कृत वाक्यों मे पति पत्नी से कहता है - ओम इषे एकपदी भव सा मामनुव्रता भव विष्णुस्त्वानयतु पुत्रान् विन्दावहै बहूंस्ते संतु जरदष्टय: ।। 1।। हे देवि ! तुम संपत्ति तथा ऐश्वर्य और दैनिक खाद्य और पेय वस्तुओं की प्राप्ति के लिए पहला पग बढ़ाओ , सदा मेरे अनूकूल गति करने वाली रहो। सर्वव्यापक परमात्मा तुम्हें इस व्रत में दृढ़ करें और तुम्हें श्रेष्ठ संतान से युक्त करें जो बुढापे में हमारा सहारा बनें । ओम ऊर्जे द्विपदी भव सा मामनुव्रता भव विष्णुस्त्वानयतु पुत्रान् विन्दावहै बहूंस्ते संतु जरदष्टय: ।। 2 ।। हे देवी ! तुम त्रिविध बल तथा पराक्रम की प्राप्ति के लिए दूसरा पग बढ़ाओ । सदा मेरे अनूकूल गति करने वाली रहो। सर्वव्यापक परमात्मा तुम्हें इस व्रत में दृढ़ करें और तुम्हें श्रेष्ठ संतान से युक्त करें जो बुढापे में हमारा सहारा बनें... ओम रायस्पोषाय त्रिपदी भव सा मामनुव्रता भव विष्णुस्त्वानयतु पुत्रान् विन्दावहै बहूंस्ते संतु जरदष्टय: ।। 3 ।। -हे देवि ! धन संपत्ति की वृद्धि के लिए तुम तीसरा पग बढ़ाओ ,सदा मेरे अनूकूल गति करने वाली रहो। सर्वव्यापक परमात्मा तुम्हें इस व्रत में दृढ़ करें और तुम्हें श्रेष्ठ संतान से युक्त करें जो बुढापे में हमारा सहारा बनें ।। ओम मयोभवाय चतुष्पदी भव सा मामनुव्रता भव विष्णुस्त्वानयतु पुत्रान् विन्दावहै बहूंस्ते संतु जरदष्टय: ।। 4।। . हे देवि ! तुम आरोग्य शरीर और सुखलाभवर्धक धन संपत्ति के भोग की शक्ति के लिए चौथा पग आगे बढ़ाओ और सदा मेरे अनुकूल गति करने वाली रहो सर्वव्यापक परमात्मा तुम्हें इस व्रत में दृढ़ करें और तुम्हें श्रेष्ठ संतान से युक्त करें जो बुढापे में हमारा सहारा बनें ।। ओम पशुभ्यो: पंचपदी भव सा मामनुव्रता भव विष्णुस्त्वानयतु पुत्रान् विन्दावहै बहूंस्ते संतु जरदष्टय: ।। 5 ।। हे देवि ! तुम पशुओं ,(गाय घोड़ा ) के पालन और रक्षा के लिए पांचवा पग आगे बढ़ाओ और सदा मेरे अनुकूल गति करने वाली रहो सर्वव्यापक परमात्मा तुम्हें इस व्रत में दृढ़ करें और तुम्हें श्रेष्ठ संतान से युक्त करें जो बुढापे में हमारा सहारा बनें ।। ओम ऋतुभ्य षट्पदी भव सा मामुनव्रता भव विष्णुस्त्वानयतु पुत्रान् विन्दावहै बहूंस्ते संतु जरदष्टय: ।। 6 ।। हे देवि ! तुम 6 ऋतुओं के अनुसार यज्ञ आदि और विभिन्न पर्व मनाने के लिए और ऋतुओं के अनुकूल खान पान के लिए छठा पग आगे बढ़ाओ और सदा मेरे अनुकूल गति करने वाली रहो सर्वव्यापक परमात्मा तुम्हें इस व्रत में दृढ़ करें और तुम्हें श्रेष्ठ संतान से युक्त करें जो बुढापे में हमारा सहारा बनें ।। ओम सखे सप्तपदी भव सा मामनुव्रता भव विष्णुस्त्वानयतु पुत्रान् विन्दावहै बहूंस्ते संतु जरदष्टय: ।। 7 ।। हे देवि ! जीवन का सच्चा साथी बनने के लिए तुम सातवां पग आगे बढ़ाओ और सदा मेरे अनुकूल गति करने वाली रहो सर्वव्यापक परमात्मा तुम्हें इस व्रत में दृढ़ करें और तुम्हें श्रेष्ठ संतान से युक्त करें जो बुढापे में हमारा सहारा बनें ।।
Vedic vichar
17-04-2022
हनुमानजी के भक्त भारत भर में उसे धूमधाम से मनाएंगे । अधिकांश लोग हनुमानजी को वानर(बंदर) मानते है पर क्या वह वास्तव में वानर (बंदर) थे ? आइये विचार करते है : १- हनुमान जी की माता जी का नाम 'अंजनी' था और पिता जी का नाम 'पवन' था। ये दोनों मनुष्य थे या बन्दर ? यदि ये दोनों मनुष्य थे। तो क्या मनुष्यों के मनुष्य पैदा होते हैं या बन्दर ? यदि बन्दर पैदा नहीं होते, तो विचार करें, कि जब हनुमान जी के माता पिता मनुष्य थे, तो उनका बेटा श्री हनुमान जी भी तो मनुष्य सिद्ध हुआ। २- यदि कोई छोटा बच्चा कहीं पर भीड़ में खो जाये, तो एक बन्दर से कहो, कि वह उस बच्चे का फोटो देख कर भीड़ में से उस बच्चे को पहचान कर ले आये। अब सोचिये क्या वह बन्दर भीड़ में से बच्चे को पहचान कर ले आयेगा। यदि नहीं। तो क्या हनुमान जी सीता जी को लंका से ढूंढ कर उनकी खबर ले आये या नहीं। यदि उनकी खबर ढूंढ लाये, तो अब बताइये, बन्दर तो यह काम नहीं कर सकता। ३- आपने रामायण सीरिअल में बाली, सुग्रीव और उनकी पत्नियाँ तो देखी ही होंगी। उस सीरिअल में बाली और सुग्रीव तो बन्दर दिखाए गए। परन्तु उनकी पत्नियाँ मनुष्यों वाली स्त्रियाँ दिखाई गईं या बंदरियां दिखाईं। यदि उनकी पत्नियाँ मनुष्य जाति की थी, तो उनके पति भी मनुष्य होने चाहियें अर्थात बाली और सुग्रीव भी मनुष्य दिखने चाहिए थे। परन्तु वे दोनों बन्दर दिखाए गए। यदि वे बन्दर थे, तो सोचिये क्या मनुष्यों की स्त्रियों की शादी बंदरों के साथ होती है ? या आजकल भी कोई मनुष्य स्त्रियाँ बंदरों के साथ शादी करने को तैयार हैं ? यदि उनकी पत्नियाँ मनुष्य थीं, तो उनके पति = बाली और सुग्रीव भी मनुष्य ही सिद्ध हुए. और श्री हनुमान जी उनके महामंत्री थे. वे भी उसी जाति के थे। तो श्री हनुमान जी भी मनुष्य सिद्ध हुए। ४- वाल्मीकि रामायण में श्री हनुमान जी की योग्यता लिखी है, कि वे ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद के विद्वान थे तथा संस्कृत व्याकरण शास्त्र में बहुत कुशल थे। सोचिये, क्या बन्दर ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद तथा संस्कृत व्याकरण पढ़ सकता है ? यदि नहीं, तो बताइये, श्री हनुमान जी बन्दर कैसे हुए ? ५- हनुमान चालीसा के प्रारंभ में चौथे/पांचवें वाक्य में लिखा है, कि " काँधे मूंज जनेऊ साजे, हाथ बज्र और धजा बिराजे " अर्थात श्री हनुमान जी के कंधे पर मूंज की जनेऊ अर्थात यज्ञोपवीत सुशोभित होता था। उनके एक हाथ में वज्र (गदा) और दूसरे हाथ में ध्वज रहता था. अब सोचिये हनुमान चालीसा बहुत लोग पढ़ते हैं. फिर भी इस बात पर ध्यान नहीं देते, कि क्या बन्दर के कंधे पर मूंज की जनेऊ हो सकती है. क्या बन्दर के एक हाथ में गदा और दूसरे हाथ में ध्वज होता है ? यदि नहीं, तो श्री हनुमान जी बन्दर कैसे हुए ? मेरा सभी महानुभावों से विनम्र अनुरोध है, कृपया गुस्सा न करें और ठंडे दिल - दिमाग से सोचें, कि वेदों के महान विद्वान, महाबलवान, ब्रह्मचारी, तपस्वी श्री हनुमान जी को बन्दर बना कर उनका अपमान न करें, और पाप के भागी न बनें. बल्कि उनको एक महापुरुष 'मनुष्य' मानते हुए, अपना आदर्श बना कर उनके जीवन से उत्तम गुणों को धारण करें और अपना जीवन सफल बनायें। श्री हनुमान जी की तरह ही वेदों का अध्ययन करें, व्यायाम करके अपने शरीर को बलवान बनायें। इन्द्रियों पर संयम रखते हुए ब्रह्मचर्य का पालन करें और ईश्वर की भक्ति करें। तभी कल्याण होगा, अन्यथा नही l
୧୪.୦୪.୨୨ ରିଖ ଦିନ ପଣା ସଂକ୍ରାନ୍ତି ଉପଲକ୍ଷରେ ଦେବୟଜ୍ଞ ( Vedic Vichar Berhampur)
13-04-2022
*ଓ୩ମ୍* *ନମସ୍ତେ ଜୀ* *।।ଆୟୁର୍ୟଞେନ କଳ୍ପତାମ୍ ।।* ଆସନ୍ତା କାଲି ତା ୧୪.୦୪.୨୨ ରିଖ ଦିନ ପଣା ସଂକ୍ରାନ୍ତି ଉପଲକ୍ଷରେ ଦେବୟଜ୍ଞ ଅନୁଷ୍ଠାନ କରାଯିବ। ସମସ୍ତ ଆର୍ୟବନ୍ଧୁମାନଙ୍କ ଉପସ୍ଥିତି କାମନା କରୁଅଛୁ। *ନିବେଦକ/(ସ୍ଥାନ) -* *ବୈଦିକ ବିଚାର କାର୍ଯ୍ୟାଳୟ, ପ୍ରେମ ନଗର, ପଞ୍ଚମ ଗଳି ବ୍ରହ୍ମପୁର* *କାର୍ଯ୍ୟସୂଚୀ* ପ୍ରାତଃ 08.00 ଘଟିକା ସମୟରେ ଦେବୟଜ୍ଞ ପ୍ରାରମ୍ଭ । * 09.30 ପ୍ରବଚନ * 10.00 ସ୍ୱଳ୍ପାହାର * 10.30 ପଣା @Vedic Vichar
सांप को दूध पिलाना ? (Vedic vichar )
13-04-2022
प्रथम विश्व युद्ध 1914-1919। ब्रिटिश जीत में सबसे बड़ा योगदान भारतीय सैनिकों का रहा. 1912 तक बहुत कम भारतीय ब्रिटिश सेना का हिस्सा थे. बहुत से जातिवादी नेताओं ने भारतीयों को सेना में भर्ती करवाया. यही नेता थे जो बाद में साइमन कमिशन के स्वागत में खड़े थे. प्रथम विश्वयुद्ध में ब्रिटिश सेना में शामिल 62000 भारतीय मूल के सैनिक मोर्चे पर मारे गए इन 62000 सैनिकों का अंतिम संस्कार भी उनकी धार्मिक मान्यताओं के अनुसार नहीं हुआ था। और 67000 सैनिक घायल हुए। बाद में लगभग 12000 घायल सैनिक भी मर गए। आधिकारिक आंकड़े के अनुसार ब्रिटिश सेना में शामिल 74187 भारतीय सैनिक मारे गए। इनकी सेना में भर्ती को किन नेताओं ने प्रोत्साहन दिया था उन्हें आप गूगल पर ढूंढ सकते हैं। 6 फरवरी, साल 1919 में ब्रिटिश सरकार ने इंपीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल में एक ‘रॉलेक्ट’ नामक बिल को पेश किया था। इस अधिनियम के अनुसार भारत की ब्रिटिश सरकार किसी भी व्यक्ति को देशद्रोह के शक के आधार पर गिरफ्तार कर सकती थी और उस व्यक्ति को बिना किसी जूरी के सामने पेश किए जेल में डाल सकती थी. इसके अलावा पुलिस दो साल तक बिना किसी भी जांच के, किसी भी व्यक्ति को हिरासत में भी रख सकती थी. इस अधिनियम ने भारत में हो रही राजनीतिक गतिविधियों को दबाने के लिए, ब्रिटिश सरकार को एक ताकत दे दी थी. 13 अप्रैल को अमृतसर के जलियांवाला बाग में कई संख्या में लोगों इक्ट्ठा हुए थे. इस दिन इस शहर में कर्फ्यू लगाया गया था लेकिन इस दिन बैसाखी का त्योहार भी था. जिसके कारण काफी संख्या में लोग अमृतसर के हरिमन्दिर साहिब यानी स्वर्ण मंदिर आए थे. जलियांवाला बाग, स्वर्ण मंदिर के करीब ही था. जिसमें से कुछ लोग अपने नेताओं की गिरफ्तारी के मुद्दे पर शांतिपूर्ण रूप से सभा करने के लिए एकत्र हुए थे. डायर करीब 4 बजे अपने दफ्तर से करीब 150 सिपाहियों के साथ आया और लोगों को बिना कोई चेतावनी दिए अपने सिपाहियों को गोलियां चलाने के आदेश दे दिए और कुछ समय में ही इस बाग की जमीन का रंग लाल हो गया था. इस घटना की जाँच के लिए 14 अक्टूबर 1919 को हन्टर कमीशन बिठाया गया। इसमें चार ब्रिटिश और तीन हिंदुस्तानी- पंडित जगतनारायण मुल्ला, सर चिमनलाल हरीलाल सेतलवाड़, सरदार साहिबज़ादा सुल्तान अहमद खान थे। जलियांवाला के बाद जनरल डायर की क्रूरता में कमी नहीं थी। अमृतसर में सैनिक शासन स्थापित कर दिया गया। बाग के पास की सड़क पर भारतीयों के लिए रेंग के जाने का नियम लगाया गया। 8 बजे के बाद कर्फ्यू लगा दिया जाता था। जनरल डायर ने स्वीकार किया कि यदि मशीन गन अंदर ले जाने की संभावना होती तो वह अवश्य उसे उपयोग करता। जनरल डायर की मृत्यु सेरिब्रल हेमरेज से 1927 में हुई। तत्कालीन पंजाब के गवर्नर माइकल ओड्वायर का वध शहीद उधम सिंह ने 13 मार्च 1940 में की। ऐसी दुर्दांत घटना के बाद तत्कालीन पंजाब के गवर्नर माइकल ओड्वायर को स्वर्ण मंदिर में सम्मानित किया गया था। मृत्यु के बाद उसके परिवार को पंजाब से ही कुंज बिहारी थापर, उम्र हयात खान, चौधरी गज्जन सिंह और राय बहादुर लाल चंद की ओर से 1,75,000 रुपये दिए गए। यहाँ कुछ नाम बहुत महत्वपूर्ण हैं। यदि पाठक इन पर ध्यान नहीं देंगे तो मेरा लिखना बेकार हो जाएगा। समय मिलने पर इनमे से प्रत्येक नाम की कहानी लिखुंगा। 1- पंडित जगतनारायण मुल्ला - प्रसिद्ध काकोरी क्रांतिकारी रामप्रसाद बिस्मिल व अन्य 4 को मृत्युदण्ड दिलवाने में इनकी बहुत अधिक महत्वपूर्ण भूमिका थी। ये सरकारी वकील थे। इसके विपरीत आर्यसमाजी चन्द्र्भानु गुप्ता जी क्रांतिकारियों के वकील थे जिन्हें नेहरू ने छल से मुख्यमंत्री पद से हटा दिया था। 2- सर चिमनलाल हरीलाल सेतलवाड़- तीस्ता सीतलवाड़ इनकी पोती है इनके पुत्र और तीस्ता के पिता M C सीतलवाड़ नेहरू के बेहद विश्वसनीय 1950 से 1963 तक भारत के अटॉर्नी जनरल थे। 3- कुंज बिहारी थापर -- कुंज बिहारी थापर के तीन बेटे थे दया राम, प्रेम नाथ तथा प्राण नाथ। इसके अलावा उन्हें पांच बेटियां भी थीं। पत्रकार करण थापर के पिता जनरल प्राण नाथ थापर एकमात्र ऐसे सेना प्रमुख थे जिन्होंने युद्ध हारा था। 1962 में चीन से लड़ाई हारने के कारण ही उन्हें 19 नवंबर 1962 को अपमानित होकर जबरन इस्तीफा देना पड़ा था। 1936 में प्राण नाथ थापर ने गौतम सहगल की बहन बिमला बशिराम सहगल से शादी की थी। वहीं 1944 में गौतम सहगल की नयनतारा सहगल से शादी हुई। नयनतारा सहगल जवाहरलाल नेहरू की बहन विजया लक्ष्मी की तीन बेटियों में से दूसरी बेटी थी। 4- सर शोभा सिंह -- शोभा सिंह ही 8 अप्रैल 1929 को संसद में हुए बम विस्फोट के मुख्य गवाह थे। शोभा सिंह ने ही भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त की पहचान की थी। उन्हीं की पहचान और गवाही के आधार पर भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी दी गई थी। शोभा सिंह की वफादारी ब्रिटिश सरकार के प्रति वैसे ही थी जैसे कुंज बिहारी थापर की थी। इसी वजह से दोनों वंशजों को अकूत संपत्ति के साथ प्रतिष्ठा भी मिली। भारत के तत्कालिन वायसराय लॉर्ड हार्डिंग ने जैसे ही भारत की राजधानी कलकत्ता से दिल्ली स्थानांतरित करने की घोषणा की ब्रिटिश सरकार ने सुजान सिंह के साथ उन्हें भी लुटियंस दिल्ली बनाने का ठेका देकर पुरस्कृत किया। साउथ ब्लॉक, और वार मेमोरियल आर्क (अब इंडिया गेट) के लिए यही अशिक्षित सोभा सिंह एकमात्र बिल्डर थे। सोभा सिंह दिल्ली में जितनी जमीन खरीद सकते थे उतनी ख़रीदते गए ।2 रुपये प्रति गज़ के हिसाब से उन्होंने कई व्यापक साइटें खरीदीं और वो भी फ़्री होल्ड के रूप में.. उस समय उन्हें आधी दिल्ली दा मलिक (दिल्ली के आधे हिस्से का मालिक) कहा जाता था। उन्हें 1944 के बर्थडे ऑनर्स में सर की उपाधि से विभूषित किया गया था। शोभा सिंह के छोटे भाई सरदार उज्जल सिंह सांसद बन गए जो बाद में पंजाब और तमिलनाडु के राज्यपाल भी बने।सर शोभा सिंह के चार बेटे थे भगवंत, खुशवंत, गुरबक्श और दलजीत और एक बेटी थी मोहिंदर कौर। खुशवंत सिंह एक नामी पत्रकार और लेखक होने के साथ ही एक राजनीतिज्ञ थे। उन्होंने 1980 से 86 तक राज्य सभा के सदस्य व इंदिरा गांधी के आपातकाल के समर्थक खुले रूप से कांग्रेस के समर्थक थे। इसके एवज में उन्हें 1974 में पद्म-भूषण पुरस्कार से और 2007 में उनको दूसरे सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार पद्म विभूषण से सम्मानित भी किया गया। इनके परिवार से थापर परिवार की रिश्तेदारी थी।
Vedic vichar
13-04-2022
ओ३म्! या ते जिह्वा मधुमती सुमेधा अग्ने देवेषूच्यत उरूची | तयेह विश्वाँ अवसे यजत्राना सादय पापया चा मधूनि || ऋग्वेद 3|57|5 शब्दार्थ अग्ने............ पुरोहित या...............जो ते................तेरी मधुमति..........मीठी सुमेधा:...........उत्तम मेधायुक्त अर्थात सुबुद्धिपूर्वक उरूची............विशाल अर्थों का ज्ञान कराने वाली जिह्वा............वाणी देवेषु.............देवौं में, विद्वानो में उच्यते............कही जाती है, प्रसिद्ध है तया.............उसके द्वारा अवसे............प्रीति के लिए, प्रयोजन सिद्धि के लिए विश्वाऩ्...........सब यजत्राऩ्..........याज्ञिकों को इह..............यहाँ आ+सादय........ला बिठा और मधूनि............मधुर पदार्थ पायल............पिला | व्याख्या - बहुत से लोग एक विशेष समुदाय के साथ मधुरता का व्यवहार करते हैं | वेद संकेत कर रहा है कि भाई! तू सबके साथ मीठी वाणी बोल | ऋषि ने इसी का अनुकरण करते हुए कहा है - सबसे प्रीतिपूर्वक, धर्मानुसार यथायोग्य व्यवहार करना चाहिए | अथर्ववेद 16/2/2 में कहा है - मधुमतीस्थ मधुमतीं वाचमुदेयम् - हे प्रजाओ! तुम मिठासयुक्त होओ, मैं मिठासयुक्त वाणी बोलूँ अर्थात जो चाहता है कि लोग उसके साथ मीठा व्यवहार करें, उसे दूसरों के साथ स्वयं मीठा व्यवहार करना चाहिए | भगवान ने उपदेश किया है कि सृष्टि के सारे पदार्थ मधुरता का व्यवहार कर रहे हैं, तू भी मधुरता का व्यवहार कर | देखिए, कितने मधुरमान्=मधुर हैं ये मन्त्र ! मधु वाता ऋतायते मधु क्षरन्ति सिन्धवः | माध्वीर्नः सन्त्वोषधीः ||.....ऋग्वेद 1/90/6 सृष्टि नियम की अनुकूलता से चलनेवाले के लिए वायु मिठास लाती है, नदियाँ मिठास बहाती हैं, औषधियाँ हमारे लिए मीठी हों | मधु नक्तमुतोषसो मधुमत्पार्थिवं रजः | मधु द्यौरस्तु नः पिता ||.......ऋग्वेद 1/90/7 रात मीठी है, प्रभात मीठे हैं, पृथिवी की धूलि या पृथिवीलोक भी मीठा है, पिता द्यौ भी हमारे लिए मधुर हो | मधुमान्नो वनस्पतिर्मधुमाँ अस्तु सूर्यः | माध्वीर्गावो भवन्तु नः ||......ऋग्वेद 1/90/8 वनस्पति हमारे लिए मीठी हो, सूर्य्य भी हमारे लिए मधुमान् हो | हमारी गौवें माध्वी=मिठासवाली होंवे | यह सब मिठास ऋतानुसारी के लिए है | ऋत कहते हैं सरल सीधे, सृष्टिनियमानुकूल व्यवहार को | प्रकृत मन्त्र में वाणी को मधुमती के साथ सुमेधाः भी कहा गया है | मीठा बोलो, किन्तु बुद्धि के साथ बोलो | बुद्धिरहित मीठा भाषण किस काम का | मीठे वचन को बुद्धियुक्त कहने का प्रयोजन है, यदि वक्ता में बुद्धि हो, तो वह अप्रिय सत्य को भी प्रिय बना लेगा | स्मृतिकार कहते हैं - सत्यं ब्रूयात्प्रियं ब्रूयान्न ब्रूयात्सत्यमप्रियम् | सच बोले, किन्तु अप्रिय सत्य न बोले | बड़ी उलझन है | क्या चुप रहा जाए ? नहीं. यही मनु महाराज कहते हैं - मौनात्सत्यं विशिष्यते - चुप रहने से सत्य बोलना अच्छा है | वेद भी यही कहता है - वदन् ब्रह्माSवदतो वनीयान् - बोलनेवाला ज्ञानी न बोलने वाले से अधिक पूज्य है, अर्थात सत्य तो अवष्य बोलना है, चुप नहीं रहना | हाँ उसे अप्रिय भी नहीं रहने दें | प्रिय बनाने के लिए बुद्धि चाहिए | इसी कारण वेद ने कहा या ते जिह्वा मधुमती सुमेधाः - जो तेरी मीठी सुबुद्धियुक्त वाणी है, उस सुबुद्धियुक्त वाणी से सब जनो को इकट्ठा कर और मिठास पिला | सबसे मीठा वेद है, उन्हे वह पिला | बता, तू वेद का मधुरपान दूसरों को पिलाता है ? या नहीं पिलाता, अब तो पिला | वेद बहुत मीठा है | एक बार स्वयं पी, फिर तू बार बार पिएगा, और विवश होकर दूसरों को भी पिलाएगा | स्वामी वेदानन्दतीर्थ सरस्वती (स्वाध्याय सन्दोह से साभार)
Vedic vichar
13-04-2022
ओ३म्! या ते जिह्वा मधुमती सुमेधा अग्ने देवेषूच्यत उरूची | तयेह विश्वाँ अवसे यजत्राना सादय पापया चा मधूनि || ऋग्वेद 3|57|5 शब्दार्थ अग्ने............ पुरोहित या...............जो ते................तेरी मधुमति..........मीठी सुमेधा:...........उत्तम मेधायुक्त अर्थात सुबुद्धिपूर्वक उरूची............विशाल अर्थों का ज्ञान कराने वाली जिह्वा............वाणी देवेषु.............देवौं में, विद्वानो में उच्यते............कही जाती है, प्रसिद्ध है तया.............उसके द्वारा अवसे............प्रीति के लिए, प्रयोजन सिद्धि के लिए विश्वाऩ्...........सब यजत्राऩ्..........याज्ञिकों को इह..............यहाँ आ+सादय........ला बिठा और मधूनि............मधुर पदार्थ पायल............पिला | व्याख्या - बहुत से लोग एक विशेष समुदाय के साथ मधुरता का व्यवहार करते हैं | वेद संकेत कर रहा है कि भाई! तू सबके साथ मीठी वाणी बोल | ऋषि ने इसी का अनुकरण करते हुए कहा है - सबसे प्रीतिपूर्वक, धर्मानुसार यथायोग्य व्यवहार करना चाहिए | अथर्ववेद 16/2/2 में कहा है - मधुमतीस्थ मधुमतीं वाचमुदेयम् - हे प्रजाओ! तुम मिठासयुक्त होओ, मैं मिठासयुक्त वाणी बोलूँ अर्थात जो चाहता है कि लोग उसके साथ मीठा व्यवहार करें, उसे दूसरों के साथ स्वयं मीठा व्यवहार करना चाहिए | भगवान ने उपदेश किया है कि सृष्टि के सारे पदार्थ मधुरता का व्यवहार कर रहे हैं, तू भी मधुरता का व्यवहार कर | देखिए, कितने मधुरमान्=मधुर हैं ये मन्त्र ! मधु वाता ऋतायते मधु क्षरन्ति सिन्धवः | माध्वीर्नः सन्त्वोषधीः ||.....ऋग्वेद 1/90/6 सृष्टि नियम की अनुकूलता से चलनेवाले के लिए वायु मिठास लाती है, नदियाँ मिठास बहाती हैं, औषधियाँ हमारे लिए मीठी हों | मधु नक्तमुतोषसो मधुमत्पार्थिवं रजः | मधु द्यौरस्तु नः पिता ||.......ऋग्वेद 1/90/7 रात मीठी है, प्रभात मीठे हैं, पृथिवी की धूलि या पृथिवीलोक भी मीठा है, पिता द्यौ भी हमारे लिए मधुर हो | मधुमान्नो वनस्पतिर्मधुमाँ अस्तु सूर्यः | माध्वीर्गावो भवन्तु नः ||......ऋग्वेद 1/90/8 वनस्पति हमारे लिए मीठी हो, सूर्य्य भी हमारे लिए मधुमान् हो | हमारी गौवें माध्वी=मिठासवाली होंवे | यह सब मिठास ऋतानुसारी के लिए है | ऋत कहते हैं सरल सीधे, सृष्टिनियमानुकूल व्यवहार को | प्रकृत मन्त्र में वाणी को मधुमती के साथ सुमेधाः भी कहा गया है | मीठा बोलो, किन्तु बुद्धि के साथ बोलो | बुद्धिरहित मीठा भाषण किस काम का | मीठे वचन को बुद्धियुक्त कहने का प्रयोजन है, यदि वक्ता में बुद्धि हो, तो वह अप्रिय सत्य को भी प्रिय बना लेगा | स्मृतिकार कहते हैं - सत्यं ब्रूयात्प्रियं ब्रूयान्न ब्रूयात्सत्यमप्रियम् | सच बोले, किन्तु अप्रिय सत्य न बोले | बड़ी उलझन है | क्या चुप रहा जाए ? नहीं. यही मनु महाराज कहते हैं - मौनात्सत्यं विशिष्यते - चुप रहने से सत्य बोलना अच्छा है | वेद भी यही कहता है - वदन् ब्रह्माSवदतो वनीयान् - बोलनेवाला ज्ञानी न बोलने वाले से अधिक पूज्य है, अर्थात सत्य तो अवष्य बोलना है, चुप नहीं रहना | हाँ उसे अप्रिय भी नहीं रहने दें | प्रिय बनाने के लिए बुद्धि चाहिए | इसी कारण वेद ने कहा या ते जिह्वा मधुमती सुमेधाः - जो तेरी मीठी सुबुद्धियुक्त वाणी है, उस सुबुद्धियुक्त वाणी से सब जनो को इकट्ठा कर और मिठास पिला | सबसे मीठा वेद है, उन्हे वह पिला | बता, तू वेद का मधुरपान दूसरों को पिलाता है ? या नहीं पिलाता, अब तो पिला | वेद बहुत मीठा है | एक बार स्वयं पी, फिर तू बार बार पिएगा, और विवश होकर दूसरों को भी पिलाएगा | स्वामी वेदानन्दतीर्थ सरस्वती (स्वाध्याय सन्दोह से साभार)
वह था “दयानन्द”. (Vedic vichar)
13-04-2022
“तीस करोड नामर्दों में जो अकेला मर्द होकर जन्मा, बरसाती घास-फूस और मच्छरों की तरह फैले हुए मनुष्य जन्तु की मूर्खता की चरमसीमा के प्रमाण स्वरुप मत-मतान्तरों का जिसने मर्दानगी से विध्वंसिनी ज्वाला की तरह विध्वंस किया, मरे हुए हिन्दू धर्म को अपने जादू के चमत्कार से जीवित कर दिया और उसे नोंच नोंच कर खाने वाले गीदडो को एक ही हुंकार से जिसने भगा दिया, कीडे-मकोडों की तरह रेंगकर पलने वाले हिन्दू बच्चों के लिये जिसने पूण्यधाम गुरुकुलों और अनाथालयों की रचना की, निर्दयी हिन्दूओं की आंखों के सामने उकराती, गर्दन कटाती गायों के आंसू जिसने अग्नि के नेत्रों की तरह देखे, अबला विधवाओं के उपर जिसने संजीवनी मरहम लगाया, जो करोडों व्यभिचारीयों में अकेला अखण्ड ब्रह्मचारी था, जिसके प्रकाण्ड पाण्डित्य ने नदिया (नवद्वीप) और काशी की पुरानी ईंटों को हिला दिया, सारी पृथ्वी पर जिसकी आवाज गूंज गई थी, युग के देवता की तरह जिसने वेदों का उद्धार किया, जो प्रत्येक हिन्दू के दरवाजे पर निरन्तर ५९ वर्ष तक ऊंची आवाज में पुकारता रहा “उठो, जागो, निर्भय रहो, खडे रहो” और सच्चे सिपाही की तरह घाव खाकर जिसने बीच रणक्षेत्र में प्राणों का विसर्जन किया, वह “दयानन्द” था...” – आचार्य चतुरसेन शास्त्री ● स्त्रोत : “महर्षि दयानन्द: हिन्दी साहित्यकारों की दृष्टि में” (पृ. 33) ● संपादक: डॉ. भवानीलाल भारतीय [ डॉ. भारतीय जी द्वारा संपादीत इस ग्रंथ में हिन्दी के कतिपय कवीयों, लेखकों तथा साहित्यकारों के ऋषि दयानन्द एवं आर्यसमाज विषयक भावों, विचारों और उद्गारों का संकलन किया गया है. आचार्य चतुरसेन शास्त्री के उपरोक्त उद्गार “आर्य मित्र” के दयानन्द जन्म-शताब्दी अंक से लिये गये है. ] ● लेखक परीचय : आचार्य चतुरसेन शास्त्री (२६.८.१८९१ – २.२.१९६०) एक प्रसिद्ध हिन्दी साहित्यकार थे. इनका अधिकतर लेखन ऐतिहासिक घटनाओं पर आधारित है. साहित्य के अलावा उन्होनें धर्म, राजनीति, इतिहास, समाजशास्त्र एवं चिकित्सा पर भी अधिकारपूर्वक लिखा है. उनकी प्रमुख कृतियां है : "वैशाली की नगरवधू", "वयंरक्षामः", "सोना और खून", "धर्मपुत्र", "उत्सर्ग", "सिंहगढ विजय", "मौत के पंजे में जिन्दगी", "भारत में इस्लाम", आदि... ◆ प्रस्तुति : राजेश आर्य
Vedic vichar
12-04-2022
मानव निर्मित सभी व्यवस्थाये जब असफल हो जाती है अर्थात सभी सहारे छूट जाते है तब एक ईश्वर ही सहायक है ,इसलिए ओ३म् का स्मरण और उसकी व्यवस्थाओं का पालन करना ही कर्तव्य , सुख का आधार है।
Vedic vichar
12-04-2022
ईश्वर उपदेश देते हैं कि हे मनुष्यों! जो अल्पबुद्धि अज्ञानी अपनी अज्ञानता के कारण तुम्हारा अपराध करते हैं तुम उन्हें दण्ड ही देने मे प्रवृत्त न होओ और जो अपराध करके लज्जित होकर क्षमा मांगते हैं उनपर क्रोध न करो बल्कि उनका अपराध सहो और यथावत दण्ड भी दो।-ऋग्वेद-१-२५-२
Vedic vichar
12-04-2022
जब आपस मे भाई भाई लडते हैं तभी तीसरा विदेशी आकर पंच बन बैठता है।-ऋषि दयानंद
Vedic vichar
12-04-2022
दुराचारी मनुष्य संसार मे निन्दा का पात्र बनता है वह निरन्तर रोगी रहने वाला दुःख भोगी और शीघ्र मृत्यु को प्राप्त होता है।मनु-४-१५७
Vedic vichar
12-04-2022
सुख मन का विषय है और सुविधा शरीर का विषय इसलिए यह आवश्यक नहीं की सुविधाओ से सुख प्राप्त हो ही जाय।
Vedic vichar
12-04-2022
वासन्ती - वसन्त, नव-नये, सस्ये-अन्न, इष्टि-यज्ञ।पर्व-जोडना( मिलकर) वैदिक संस्कृति अनुपम।सब मिलकर पहले अग्नि मे आहुत करके देवो को खिलायें फिर स्वयं खायें।
Vedic vichar
12-04-2022
तन जल से शुद्ध होता है।मन सत्य से शुद्ध होता है और धन दान से शुद्ध होता है।
Vedic vichar
12-04-2022
कोई भी वस्तु जो बिना पुरुषार्थ के प्राप्त होती है सदैव परिणाम मे (हानि ) दुःख का कारण बनती है।
Vedic vichar
12-04-2022
मत्वा कर्माणि सीव्यतीति -निरुक्त-३-७ जो सोच विचार करने के बाद कर्म करता है ,उसे मनुष्य कहते है।
Vedic vichar
12-04-2022
आलस्य ही मनुष्याणां महान रिपु। आलस्य मनुष्य के शरीर में स्थित सबसे बडा़ शत्रु है।
Vedic vichar
12-04-2022
एकता केवल सत्य के, धर्म के आधार पर हो सकती है , झूठ, पाखंड मत ,पंथो के आधार पर नहीं ।क्योंकि जहां मत होगे वहां मतभेद होने से विवाद अवश्य होंगे।
Vedic vichar
12-04-2022
एकता केवल सत्य के, धर्म के आधार पर हो सकती है , झूठ, पाखंड मत ,पंथो के आधार पर नहीं ।क्योंकि जहां मत होगे वहां मतभेद होने से विवाद अवश्य होंगे।
Vedic vichar
12-04-2022
ईर्ष्या करने वाला,घृणा करनेवाला, असन्तोषी,क्रोधी, सदा शंका करनेवाला और दूसरे के आश्रय पर जीने वाला ये छः प्रकार के लोग सदैव दुःखी रहते हैं। -विदुर नीति-१-८८
Vedic vichar
12-04-2022
यह जो उलूखल विद्या कूटने पीसने आदि की क्रिया भोजन सिद्ध करने वाली है इसे स्त्रियों को नित्य ग्रहण करनी और दूसरों को भी सिखानी चाहिए।जहाँ भोजन बनता हो वहां ओखली मूसल व सिल बट्टा आदि स्थापन करना चाहिए, क्योंकि इनके बिना कूटना पीसना नहीं हो सकता। ऋग्वेद-१-२८-३
Vedic vichar
12-04-2022
मनुष्य अपवित्र है क्योंकि वह झूठ बोलता है,जल पवित्र है इसलिए ईश्वर की स्तुति प्रार्थना उपासना व यज्ञ से पूर्व जल से आचमन करना आवश्यक है।-शतपथ
Vedic vichar
12-04-2022
मूर्ख व्यक्ति अपने कार्य की असफलता का दोष दूसरों को मानकर उनसे द्वेष पूर्ण व्यवहार करता है।जबकि बुद्धिमान मनुष्य अपनी गलतियों को जानकर दूर करता है।
Vedic vichar
11-04-2022
फलित ज्योतिष की अमान्य मान्यताओं से मानव जगत् से सबसे बड़ा भ्रामिक वैचारिक शोषण लेखक- पण्डित उम्मेद सिंह विशारद, वैदिक प्रचारक उन्नीसवीं शताब्दी के सबसे महान् समाजिक सुधारक आर्ष और अनार्ष मान्यताओं का रहस्य बताने वाले युगपुरुष महर्षि दयानन्द सरस्वती जी अपने अमरग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश के द्वितीय समुल्लास के प्रश्नोत्तर में लिखते हैं। प्रश्न- तो क्या ज्योतिष शास्त्र झूठा है? उत्तर- नहीं, जो उसमें अंक, बीज, रेखागणित विद्या है, वह सब सच्ची, जो फल की लीला है, वह सब झूठी है। फलित ज्योतिष के द्वारा अवैदिक व सृष्टिक्रम विज्ञान के अमान्य अनार्ष मान्यताओं को चतुर लोगों द्वारा भारत की जनता का वैचारिक शोषण करके अपना मनोरथ तो पूर्ण किया ही है, अपितु भारत वर्ष को गुलामी के दलदल में धकेलने का भी कार्य किया है। बड़े अफसोस के साथ लिखना पड़ रहा है कि यह पाखण्ड इस वैज्ञानिक युग में भी दिनोदिन बढ़ता जा रहा है। स्वार्थी और चतुर किन्तु ज्ञान विज्ञान से शून्य लोग भोली-भाली जनता को फलित ज्योतिष की आड़ में कई प्रकार से लूट रहे हैं। इस माह का लेख फलित ज्योतिष पर लिखने का मन बना इसलिए प्रस्तुत लेख में क्लेवर क्षमता के अनुसार कई उदाहरण सहित लिखा जा रहा है। विस्तार आप स्वयं करके आगे भी प्रेषित करने की कृपा करें। फलित ज्योतिष का पाखण्ड कृतं मेदक्षिणे हस्ते जयोमेसव्य आहित: (अथर्व.) ईश्वरीय व्यवस्था में मानव कर्म करने के लिये स्वतन्त्र है और कर्मानुसार फल प्राप्ति ईश्वरीय व्यवस्था में होती है। मानव जैसा कर्म करता है वैसा ही फल उसके ईश्वर द्वारा दिया जाता है। अतः मनुष्यों को अपने दिल में भरोसा रखना चाहिए कि यदि पुरुषार्थ मेरे दायें हाथ में है तो सफलता मेरे बायें हाथ में है। अतः संसार में जितने भी कार्य सिद्ध होते हैं वह पुरुषार्थ से होते हैं। मनुष्य के जीवन में अगले क्षण क्या होने वाला है वह नहीं जानता है। ज्योतिषों द्वारा फलित आश्वासन भ्रामिक हैं, यह केवल मनुष्य को गुमराह करने वाला है। उदाहरण 1- भारत में मुगल साम्राज्य की नींव डालने वाले लुटेरे बाबर की जीवन की एक घटना है। जब वह भारत पर आक्रमण करने आया तो भारत के प्रसिद्ध भविष्य बताने वाले ज्योतिष ने बाबर से कहा कि अभी आप भारत पर आक्रमण न करें, इससे आपको सफलता नहीं मिलेगी। बाबर ने पूछा आपको यह जानकारी कैसे मिली। ज्योतिष ने कहा हमारे फलित ज्योतिष शास्त्र में लिखा है। बाबर ने कुछ सोचकर कहा ज्योतिष जी आप यह भी जानते होंगे कि आप और कितने वर्ष जिन्दा रहोगे, ज्योतिष ने कहा अभी मैं 37 वर्ष और जिन्दा रहूंगा, बाबर ने म्यान से तलवार निकाली और एक ही झटके में ज्योतिषी का सिर धड़ से अलग कर दिया और कहा कि जिसको अपने अगले क्षण का पता नहीं ऐसे पाखण्डी पर क्या विश्वास किया जा सकता है और उस ऐतिहासिक युद्ध में बाबर की विजय हुई और ज्योतिष की बात मिथ्या हुई। उदाहरण 2- आप कल्पना करो कि मेरे सामने एक भोजन का थाल पड़ा है और उसमें दस कटोरियां हैं अलग-अलग व्यंजनों की है। पहले मैं कौनसी कटोरी का पदार्थ खाऊंगा ज्योतिष तो क्या स्वयं ईश्वर भी नहीं बता सकते हैं पहले मैं कौनसी चीज खाऊंगा क्योंकि कर्म करना मेरे स्वतन्त्रता के अधिकार में है। उदाहरण 3- एक ब्राह्मण काशी में दस वर्ष ज्योतिष विद्या पढ़ के अपने गांव में आया गांव का एक उलट जाट लाठी लिये अपने खेत में जा रहा था, नमस्ते पश्चात् जाट ने पूछा आप कहां से आ रहे हैं, ब्राह्मण बोला मैं दस वर्ष काशी से ज्योतिष विद्या पढ़ के अ रहा हूं। जाट ने पूछा महाराज ज्योतिष क्या होता है। ब्राह्मण ने बताया हम अगले क्षण आने वाली बातों को पहले बता देते हैं। जाट ने पूछा महाराज मैं पूछूं तो आप बतायेंगे, क्यों नहींअवश्य पूछिये। ब्राह्मण बोला मैं उच्च कोटि का भविष्यवक्ता बन गया हूं। अब जाट ने कन्धे से लाठी उठाकर घुमाकर पूछा बता मैं तेरे इस लाठी को कहां मारूंगा। यह सुनकर ब्राह्मण नीचे ऊपर देखने लगा, यदि मैंने कहा कि सिर पर मारेगा तो वह पैरों पर ठोकेगा यदि पैरों पर कहा तो यह सिर पर ठोकेगा। ब्राह्मण सिर झुकाकर नीचे देखने लगा। इसलिए फलित ज्योतिष पाखण्ड है। नवग्रहों को मानव पर लगाने का भ्रम प्रश्न (सत्यार्थप्रकाश)- जब किसी ग्रहस्थ ज्योतिर्विदाभास के पास जाके कहते हैं कि महाराज इसको क्या है? तब वह कहते हैं इस पर सूर्यादि क्रूर ग्रह चढ़े हैं। जो तुम इनकी शान्ति, पाठ, पूजा, दान कराओ तो इसको सुख हो जाए, नहीं तो बहुत पीड़ित और मर जाये तो भी आश्चर्य नहीं है। उत्तर- कहिए ज्योतिर्विद्! जैसी यह पृथ्वी जड़ है, वैसे ही सूर्य आदि लोक हैं। वे ताप और प्रकाशादि से भिन्न कुछ नहीं कर सकते। क्या ये चेतन है, जो क्रोधित होके दुःख और शान्त होकर सुख दे सकें। भोली-भाली जनता को ठगने के लिये ग्रहों का प्रकोप का डर उनके दिलों में बिठा रखा है। प्रत्येक ग्रह जड़ हैं और पृथ्वी से लाखों गुना बड़े हैं फिर वह एक छोटे से मनुष्य पर कैसे चढ़ सकते हैं। उदाहरण- दो नवयुवक एक बलिष्ठ शरीर बालक और दूसरा मरियल-सा कमजोर शरीर वाले ज्योतिष के पास जाकर पूछने लगे, महाराज हम पर कौन से ग्रह चढ़े हैं, जो हमारे कोई भी कार्य सिद्ध नहीं होते। ज्योतिष ने बलिष्ठ शरीर वाले युवक से कहा तुम पर सूर्य ग्रह मेहरबान है, तुम्हारा कुछ भी अनिष्ट नहीं होगा और दूसरे कमजोर शरीर वाले युवक से कहा कि तुम पर सूर्य ग्रह चढ़े हैं, तुम्हारा यह अनिष्ट करेंगे, जल्दी पूजा-पाठ, दान करो हम सूर्य ग्रह को शान्त कर देंगे। यह सब कौतूहल एक विद्वान् युवक देख रहा था, उससे रहा नहीं गया वह चुप भी कैसे रह सकता था ऋषि दयानन्द का भक्त जो था। उसने ज्योतिषी से कहा मैं अभी इन दोनों की परीक्षा ले सकता हूं क्या? ज्योतिषी जी ने अहंकार में कहा अवश्य-अवश्य हमारा कथन कभी गलत नहीं होता है, अस्तु! जून का महीना था, दोपहर का समय था, विद्वान् युवक ने दोनों पीड़ित युवकों से कहा मैं तुम्हारी परीक्षा लूंगा दोनों के कपड़े उतरवाये और नंगे पैर दोनों को पक्के फर्श पर खड़ा कर दिया और आधा घण्टा खड़े रहने को कहा। किन्तु यह क्या जो बलिष्ठ शरीर वाला युवक था जिस पर सूर्य ग्रह मेहरबान था वह चक्कर खाकर गिर गया और कमजोर शरीर वाला किन्तु दृढ़ इच्छा वाला वह युवक जिस पर सूर्य ग्रह कुपित थे ज्यों का त्यों खड़ा रहा। अब आर्य युवक ज्योतिष से कहने लगा कहिए महाराज प्रत्यक्ष में आपकी भविष्यवाणी असफल क्यों हुई। वास्तव में सूर्य ग्रह जड़ है और ताप से अधिक कुछ नहीं दे सकता है। सूर्य की गरमी का प्रभाव दोनों पर बराबर पड़ा किन्तु सहन क्षमता में दोनों अलग-अलग थे। इसलिए नवग्रहों का ज्योतिष भ्रम है, धोखा है। शनिग्रह- शनिग्रह पृथ्वी से लाखों मील दूर है और कई लाख गुना बड़ा है- बताइए ज्योतिष महाराज वह शनिग्रह एक छोटे से आदमी पर कैसे लग सकता है, शनि ग्रह के लगने से तो सारी पृथ्वी ही दब जायेगी। वास्तव में ईश्वरीय व्यवस्था में प्रत्येक ग्रह जड़ हैं और अपनी-अपनी धुरी पर केन्द्रित हैं। इस सृष्टिक्रम की व्यवस्था को बनाए रखते हैं। यह मानव जगत् का उपकार ही करते हैं, किन्तु अपकार कभी नहीं करते हैं। उदाहरण- आश्चर्य होता है शनिवार को कुछ लोगों का धन्धा खूब चलता है। वह एक बाल्टी में तेल लेकर जगह-जगह चौराहों पर घरों में शनि के नाम से लोगों को ठगते रहते हैं और अन्धविश्वासी लोग उनकी बाल्टी को सिक्कों से भर देते हैं। क्या शनिदेव मांगने वाले लोगों पर मेहरबान होते हैं। नहीं, यह उनका धन हरण का मार्ग है और अधिक आश्चर्य होता है अब शनि को देवता बनाकर उनकी मूर्ति भी बना दी गई है और मन्दिर भी बना दिया गया है। ईश्वर भारतवासियों को सुमति दें। परिवारों के प्रत्येक शुभकार्यों में शुभदिन मुहूर्त निकालना भी भ्रम है- वास्तव में पृथ्वी पर सब दिन बराबर होते हैं और एक जैसे होते हैं। ऋतुओं के अनुसार व जलवायु के अनुसार अपना प्रभाव दिखाते हैं। वैसे प्रत्येक शुभकार्य करने के लिये प्रत्येक दिन शुभ होता है किन्तु आप अपना शुभकार्य तब करें जब ऋतु अनुकूल हो, स्वास्थ्य अनुकूल हो, परिवार सुख-शान्ति में हो, वह दिन किसी भी समय शुभकार्य के लिए शुभ होता है। एक ज्वलन्त उदाहरण- श्री रामचन्द्र जी कोई साधारण पुरुष न थे वह मर्यादा पुरुषोत्तम थे और उनके कुलगुरु वशिष्ठ भी ऋषि ब्रह्मा के पुत्र थे, श्रीराम को गद्दी पर बैठाने का मुहूर्त वशिष्ठ ऋषि ने निकाला था। इसी मुहूर्त में श्रीराम को चौदह वर्ष के लिये वनवास जाना पड़ा था। पीछे श्रीराम के पिता दशरथ को पुत्र वियोग में मृत्यु हो गई। तीनों रानियां विधवा हो गयीं, आगे चलकर सीता का हरण हुआ, वशिष्ठ की शुभ मुहूर्त शुभकार्य हेतु व्यर्थ गया। इस ऐतिहासिक उदाहरण से स्पष्ट हो जाता है कि शुभ व अशुभ मुहूर्त ज्योतिष का चलन भी भ्रामिक है। गणित ज्योतिष अन्त में- वेदों की शिक्षा के आधार पर गणित ज्योतिष सत्य है, गणित ज्योतिष द्वारा हम सौ वर्ष पहले बता सकते हैं कि क्या होगा। जैसे कि तिथियों का हिसाब, दिनों का हिसाब, ऋतुओं का परिवर्तन, सूर्य व चन्द्रग्रहण। चूंकि यह सारी चीजें चांद, सूर्य और जमीन इन तीनों को नियमानुसार गति पर निर्भर है, जिसमें एक पल का भी अन्तर नहीं आता। अतः हम सौ साल पहले बतला सकते हैं कि अमुक तिथि, अमुक वार को अमुक ऋतु में और अमुक समय में सूर्य व चन्द्रग्रहण होगा तथा कारण को देखकर कार्य का अनुमान अर्थात् कारण को देखकर होने वाले काम का अनुमान आदि। आर्यसमाज के चौथे नियम में महर्षि दयानन्द सरस्वती जी कहते हैं कि- सत्य के ग्रहण करने और असत्य के छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिए। [स्रोत- आर्य प्रतिनिधि : आर्य प्रतिनिधि सभा हरियाणा का पाक्षिक मुख्यपत्र का दिसम्बर २०१८ का अंक; प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ]
ईसाई पादरी को निरुत्तर किया (vedic vichar)
11-04-2022
एक बुद्धिमान हिन्दू की आपबीती. ( कोपी पेस्ट) चर्च में जाने पर -- मैंने फ़ादर से कहा की मुझे कन्वर्ट करने से पहले क्रिस्चियन और हिन्दू को कम्पेयर करते हुए उसके मेरिट और डिमेरित बताएँ। मैं कन्वर्ट होने से पहले बाइबिल पर आपके साथ चर्चा करना चाहता हूँ कृपिया मुझे आधा घण्टे का समय दें और मेरे कुछ प्रश्नों का उत्तर दें। 【मैंने पूछा फ़ादर " क्रिश्चियनिटी हिन्दूत्व से किस तरह बेहतर है, परमेश्वर और बाइबिल में से कौन सत्य है,अगर बाइबिल और यीशु में से एक चुनना हो तो किसको चुनें"】 1.यीशु ही एक मात्र परमेश्वर है और होली बाइबिल ही दुनियाँ में मात्र एक पवित्र क़िताब है। बाइबिल में लिखा एक एक वाक्य सत्य है वह परमेश्वर का आदेश है। परमेश्वर ने ही पृथ्वी बनाई है। 2.क्रिश्चियनिटी में ज्ञान है जबकि हिन्दुओँ की किताबों में केवल अंध विश्वास है। 3.क्रिश्चियनिटी में समानता है जातिगत भेदभाव नही है जबकि हिंदुओं में जातिप्रथा है। 4.क्रिश्चियनिटी में महिलाओं को पुरुषों के बराबर सम्मान हैं जबकि हिन्दुओँ में लेडिज़ का रेस्पेक्ट नही है , हिन्दू धर्म में लेडिज़ के साथ सेक्सुअल हरासमेंट ज़्यादा है। 5.क्रिस्चियन कभी भी किसी को धर्म के नाम पर नही मारते जबकि हिन्दू धर्म के नाम् पर लोगों को मारते हैं बलात्कार करते हैं हिन्दू बहुत अत्याचारी होते हैं। 6.हिंदुओ में नंगे बाबा घूमते हैं सबसे बेशर्म धर्म है हिन्दू। अब मैंने बोलना शुरू किया की फ़ादर मैं आपको बताना चाहता हूँ की 1. जैसा आपने कहा की परमेश्वर ने पृथ्वी बनाई है और बाईबल में एक एक वाक्य सत्य लिखा है और वह पवित्र है, तो बाईबल के अनुसार पृथ्वी की उत्त्पति ईशा के जन्म से 4004 वर्ष पहले हुई अर्थात बाइबिल के अनुसार अभी तक पृथ्वी की उम्र 6020 वर्ष हुई जबकि भूगर्भ विज्ञान के अनुसार पृथ्वी 2 अरब वर्ष की है जो बाइबिल में बतायी हुई वर्ष के बहुत ज़्यादा है। 2.आपने कहा की क्रिश्चियनिटी में ज्ञान है तो आपको बता दूँ की क्रिश्चियनिटी में ज्ञान नाम का कोई शब्द नही है , याद करो जब "ब्रूनो" ने कहा था की पृथ्वी सूरज की परिक्रमा लगाती है तो चर्च ने ब्रूनो को 'बाइबिल को झूंठा साबित करने के आरोप में जिन्दा जला दिया था और गैलीलियो को इस लिए अँधा कर दिया गया क्योंकि उसने कहा था 'पृथ्वी के आलावा और भी ग्रह हैं' जो बाइबिल के विरुद्ध था । अब आता हूँ हिंदुत्व में तो फ़ादर हिंदुत्व के अनुसार पृथ्वी की उम्र ब्रह्मा के एक दिन और एक रात के बराबर है जो लगभग 1 अर्ब 97 करोड़ वर्ष है जो साइंस के बताये हुए समय के बराबर है और साइंस के अनुसार ग्रह नक्षत्र तारे और उनका परिभ्रमण हिन्दुओँ के ज्योतिष विज्ञानं पर आधारित है 3. आपने कहा की 'क्रिश्चियनिटी में समानता है जातिगत भेदभाव नही है तो आपको बता दूँ की क्रिश्चियनिटी पहली शताब्दी में तीन भागों में बटी हुई थी जैसे Jewish Christianity , Pauline Christianity, Gnostic Christianity. जो एक दूसरे के घोर विरोधी थे उनके मत भी अलग अलग थे। फिर क्रिश्चियनिटी Protestant, Catholic Eastern Orthodoxy, Lutherans में विभाजित हुई जो एक दूसरे के दुश्मन थे, जिनमें ' कुछ लोगों को मानना था की "यीशु" फिर जिन्दा हुए थे तो कुछ का मानना है की यीशु फिर जिन्दा नही हुए, और कुछ ईसाई मतों का मानना है की "यीशु को सैलिब पर लटकाया ही नही गया" आज ईसाईयत हज़ार से ज़्यादा भागों में बटी हुई है, जो पूर्णतः रँग भेद (श्वेत अश्वेत ) और जातिगत आधारित है आज भी पुरे विश्व में कनवर्टेड क्रिस्चियन की सिर्फ़ कनवर्टेड से ही शादी होती है। आज भी अश्वेत क्रिस्चियन को ग़ुलाम समझा जाता है। फ़ादर भेदभाव में ईसाई सबसे आगे हैं हैम के वँशज के नाम पर अश्वेतों को ग़ुलाम बना रखा है। 4. आपने कहा की क्रिश्चियनिटी में महिलाओं को पुरुष के बराबर अधिकार है, तो बाईबल के प्रथम अध्याय में एक ही अपराध के लिये परमेश्वर ने ईव को आदम से ज्यादा दण्ड क्यों दिया, ईव के पेट को दर्द और बच्चे जनने का श्राप क्यों दिया आदम को ये दर्द क्यों नही दिया अर्थात आपका परमेश्वर भी महिलाओं को पुरुषों के समान नही समझता। आपके ही बाइबिल में "लूत" ने अपनी ही दोनों बेटियों का बलात्कार किया और इब्राहीम ने अपनी पत्नी को अपनी बहन बनाकर मिस्र के फिरौन (राजा) को सैक्स के लिए दिया। आपकी ही क्रिश्चियनिटी ने पोप के कहने पर अब तक 50 लाख से ज़्यादा बेक़सूर महिलाओं को जिन्दा जला दिया। ये सारी रिपोर्ट आपकी ही बीबीसी न्यूज़ में दी हुईं हैं। आपकी ही ईसाईयत में 17वीं शताब्दी तक महिलाओं को चर्च में बोलने का अधिकार नही था, महिलाओं की जगह प्रेयर गाने के लिए भी 15 साल से छोटे लड़को को नपुंसक बना दिया जाता था उनके अंडकोष निकाल दिए जाते थे महिलाओं की जगह उन बच्चों से प्रेयर करायी जाती थी। बीबीसी के सर्वे के अनुसार सभी धर्मों के धार्मिक गुरुवों में सेक्सुअल केस में सबसे ज़्यादा "पोप और नन" ही एड्स से मरे हैं जो ईसाई ही हैं। फ़ादर क्या यही क्रिश्चियनिटी में नारी सम्मान है। अब आपको हिंदुत्व में बताऊँ। दुनियाँ में केवल हिन्दू ही है जो कहता है " यत्र नारियन्ति पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता" अर्थात जहाँ नारी की पूजा होती है वहीँ देवताओं का निवास होता है,। 5. फ़ादर आपने कहा की क्रिस्चियन धर्म के नाम पर किसी को नही मारते तो आपको बता दूँ 'एक लड़का हिटलर जो कैथोलिक परिवार में जन्मा उसने जीवनभर चर्च को फॉलो किया उसने अपनी आत्मकथा "MEIN KAMPF" में लिखा ' वो परमेश्वर को मानता है और परमेश्वर के आदेश से ही उसने 10 लाख यहूदियों को मारा है' हिटलर ने हर बार कहा की वो क्रिस्चियन है। चूँकि हिटलर द्वितीय विश्वयुद्ध का कारण था जिसमें सारे ईसाई देश एक दूसरे के विरुद्ध थे इसलिए आपके चर्च और पादरियों ने उसे कैथोलिक से निकाल कर Atheist(नास्तिक) में डाल दिया। फ़ादर मैं इस्लाम का हितेषी नही हूँ लेकिन आपको बता दूँ क्रिस्चियनों ने सन् 1096 में ने "Crusade War" धर्म के आधार पर ही स्टार्ट किया था जिसमें पहला हमला क्रिस्चियन समुदाय ने मुसलमानों पर किया। जिसमें लाखों मासूम मारे गए। फ़ादर "आयरिश आर्मी" का इतिहास पढ़ो किस तरह कैथोलिकों ने धर्म के नाम पर क़त्ले आम किया जो आज के isis से भी ज़्यादा भयानक था। धर्म के नाम पर क़त्लेआम करने में क्रिस्चियन मुसलमानों के समान ही हैं, वहीँ आपने हिन्दुओँ को बदनाम किया तो आपको बता दूँ की "हिन्दू ने कभी भी दूसरे धर्म वालों को मारने के लिए पहले हथियार नही उठाया है, बल्कि अपनी रक्षा के लिए हथियार उठाया है। 6. फ़ादर आपने कहा की हिन्दुओँ में नंगे बाबा घूमते हैं "हिन्दू बेशर्म" हैं तो फ़ादर आपको याद दिला दूँ की बाइबिल के अनुसार यीशु ने प्रकाशितवाक्य (Revelation) में कहा है की " nudity is best purity" नग्नता सबसे शुद्ध है। यीशु कहता है की मेरे प्रेरितों अगर मुझसे मिलना है तो एक छोटे बच्चे की तरह नग्न हो कर मुझसे मिलों क्योंकि नग्नता में कोई लालच नही होता। फ़ादर याद करो यूहन्ना का वचन 20:11-25 और लूका के वचन 24:13-43 क्या कहते नग्नता के बारे में। फ़ादर ईसाईयत में सबसे बड़ी प्रथा Bapistism है, जो बाइबिल के अनुसार येरूसलम की यरदन नदी में नग्न होकर ली जाती थी। अभी पिछले वर्ष फ़रवरी में ही न्यूजीलैंड के 1800 लोगों ने जिसमे 1000 महिलाएं थी ने पूर्णतः नग्न होकर बपिस्टिसम लिया। और आप कहते हो की हिन्दू बेशर्म है। --------------- अब फ़ादर ने काफ़ी सोच समझकर रविश स्टाइल में मुझसे पूछा 'आप किस जाति से हो' मैंने भी चाणक्य स्टाइल में ज़वाब दे दिया , "मैं सेवार्थ शुद्र, आर्थिक वैश्य, रक्षण में क्षत्रिय, और ज्ञान में ब्राह्मण हूँ। और हाँ फ़ादर मैं कर्मणा "हिंदुत्व फ़ौजी" हूँ और जाति से "हिन्दू" अब चर्च में बहुत शोर हो चूका था मेरे जूनियर बहुत खुश थे बाकि सभी ईसाई मुझ पर नाराज़ थे, लेकिन करते भी क्या मैने उनकी ही हर बात को काटने के लिए बाइबिल को आधार बना रखा था और हर बात पर बाइबिल को ही ख़ारिज कर रहा था। मैंने फ़ादर से कहा मेरे ऊपर ये जाति वाला मन्त्र ना फूँके, आप सिर्फ़ मेरे सवालों का ज़वाब दें। आप सभी को बता दूँ की एक सरकारी रिपोर्ट के अनुसार भारत में धार्मिक आधार पर सबसे ज़्यादा जमीन क्रिस्चियन ट्रस्टों पर हैं, जिन्हें आप जैसे मासूम कन्वर्ट होने वालो से परमेश्वर के नाम पर डरा कर हड़प लिया गया है। मैंने फ़ादर से कहा की आपने मेरे सवालों का ज़वाब नही दिया मैं आपसे बाइबिल पर चर्चा करने आया था,
Vedic vichar
11-04-2022
हे ईश्वर ! तू ही हमारा योग्य मित्र है विष्णोः कर्माणि पश्यत यतो व्रतानि पस्पशे । इन्द्रस्य युज्यः सखा ।। ( ऋग्वेद - १/२/७/१९ ) व्याख्यान -- हे जीवो ! "विष्णोः" व्यापकेश्वर के किये "कर्माणि" जगत् की उत्पत्ति , स्थिति , प्रलय आदि दिव्य कर्मों को "पश्यत" तुम देखो । ( प्रश्न ) -- किस हेतु से हम लोग जानें कि ये व्यपाक विष्णु के कर्म हैं ? ( उत्तर ) -- "यतो व्रतानि पस्पशे" जिससे हम जीव लोग ब्रह्मचर्यादि व्रत तथा सत्य-भाषणादि व्रत और ईश्वर के नियमों का अनुष्ठान करने को सशरीरधारी होके समर्थ हुए हैं , यह काम उसी के सामर्थ्य से है , क्योंकि "इन्द्रस्य , युज्यः , सखा" इन्द्रियों के साथ वर्तमान कर्मों का कर्त्ता , भोक्ता जो जीव इसका वही एक योग्य मित्र है , अन्य कोई नहीं , क्योंकि ईश्वर जीव का अन्तर्यामी है , उससे परे जीव का हितकारी कोई और नहीं हो सकता , इससे परमात्मा से सदा मित्रता रखनी चाहिए । ~ आर्याभिविनयः ( स्वामी दयानन्द सरस्वती ) *** O immortal souls ! Behold the divine acts of the Omnipresent God Almighty , namely the creation , sustenance and dissolution of the wonderful world . Question -- By which logic we should know that these are the acts of Omnipresent God ? Answer -- These acts are of the same Mighty Lord with whose grace we have been able to observe the vows of celibacy and speak truth . Moreover , by getting sound body we have become capable of adhering to the Laws of God . God only and none else is the worthy friend of the soul which is endowed with sound organs of sense and action , and is doer of actions and enjoyer ( of fruits of good and bad actions ) . God is the immanent of the Soul . There is none in world more benefactor of the souls than He . Therefore , we should always have friendship with God . ~ English translation by Swami Jagdishwaranand Saraswati
Valmiki Ramayan - The Great Epic (vedicvichar)
11-04-2022
(Published on the occasion of Ramnavami) D.S.Bala ji Arya The greatest epic of all time, The Ramayana, the tale of Shri Ram. The legacy of a great warrior. The story of an obedient son, a loving husband, and a trustworthy friend. Which the world remembers till date. The story which guides us for a better life leads us towards a better society. This greatest epic compiled and written at the Shri Ram time being was The Ramayana. Valmiki Ramayana was written by a great sage Maharishi Valmiki. This great scripture holds the most superior authority concerned with the life and journey of Shri Ram. This great scripture guided many generations for the establishment of an ideal society - The Ram Rajya. Unfortunately, with time passing by and people losing access to the true scriptures and fighting against continuous invasions. Spirituality and religious practices become least of people's concern. Around all these turbulence, some righteous and some mischievous poets emerged with their own versions of Ramayana. Some were really appreciable but some versions distorted this Epic Story in a blunder manner. Some famous versions of Ramayana - -Kambh Ramayana - Written In Tamil by Poet Kamban in 12th Century -Raghuvansham - Written in Sanskrit By Kalidas in 5th Century -Shri Ranganath Ramayan Written in Telugu By Gona Reddy in 12th Century. -Kumudendu Ramayana Written in Kannada in the 13th Century. -Satpakanda Ramayan written in Assamese by Madhav Kandali in 14th Century. -Kritivasi Ramayan written in Bengali by Kritibas Ojha in 15th Century. -Ramcharitmanas; Written In Awadhi by Tulsi Das in 16th Century. -Bhavarta Ramaya; Written in By Eknath in 16th Century -Ramavatara Charitra Written in Jammu And Kashmir in the 19th Century Factual and an enlightening thing to be observed here is that all these versions were mostly created during 14 to 17th Century. As this was the time when the country was going through a very brutal struggle. And all these poets either created these versions to be presented in a metaphorical manner or under some rulers pressure. Even different cults and factions have their own versions of Ramayana. Buddhism has its own Version of Ramayana, Jainism has a version of their own - Paumachariyam. We as the decedents of that great warrior Shri Ram. Should make sure that nobody distorts his heroism, his dharma by making flawed versions. Some Versions of Ramayana where The Great Warrior Shri Ram's and the great epic has been tarnished in a very unethical way- (1). Buddhism - Dasaratha Jataka - Mentions Ram And Sita as siblings, who married each other to maintain the purity of a dynasty. (2). Ramcharitmanas - Mentions Hanuman as a Monkey, Added the Episode of Agni Pariksha, Added the episode of Shambukh Vadh by Shri Ram, Picturized Hanuman in a monkey form; flying over the sea and many such unscientific and illogical incidents. (3). Jain Ramayana describes Hanuman as a married person, which is a clear insult to a Brahmachari. (4). During Mughal Times, even flawed version were published in the name of Maharishi Valmiki, in which Uttar Kand was added as an interpolation. Today we live in a time with uncountable possibilities, with scientific advancements like never before. Today we live in a world where illogical, superstitions have no place. We as proud Hindus should take this upon us to revive the Great Valmiki Ramayan. Establish it as the one and only authority to describe the epic tale of Shri Ram.
Who was Rama – Myth or Historical Hero (vedicvichar)
11-04-2022
The existence of Rama is basically a question of faith for millions of people. Therefore, no government or any other party can deny the existence of Rama. Some of these so-called “great advocates” of Hinduism did not show guts to take on the Government/Karunanidhi, and proved that Rama is as historical fact and not a myth. Nevertheless, they were supported from unexpected quarters like the Hurriyat conference from Kashmir. Hurriayat also claimed that scientific or historical evidence is not the yardstick to judge various issues related to religion. Hence, whether Rama existed or not cannot be decided on basis of scientific or historical findings. This is basically associated with religious sentiments of millions of people around the world, and therefore the interference of any government or political party is undesired. As of now, many scientists, based on astronomical data, have propounded that Rama existed around 5044 BC. In such a perplexing situation it becomes very difficult for common masses to arrive at any conclusive view regarding the existence of Rama. Hence, we have to first analyze various facts regarding Rama, and his epic, Ramayana, before arriving on any final verdict. Maharishi Valmiki, in order to guide the future generations, decided to write a historical epic that can help everyone follow a path of morality and righteousness. He ended up in a dilemma regarding this issue. Later on, he consulted Narada Muni, who in return suggested him to write about Rama, the son of Dasratha, who was born in the clan of Raghu. Similarly, Mahakavi Kalidas wrote Raghuvansham. This book throws light on the lineage of Raghu, and also states various kings who ruled after Rama. So, now the point of the argument is that if Rama was a mythological character, then how did Valmiki provide the history of Rama’s forefathers? In Raghuvansham, how did Kalidasa provide details of Rama’s forefathers, and his various Santatis (successors) who ruled after him? In present times various books dealing with stories of Rama are prevalent in India and around the world. We will throw light on this issue in the latter part of this article. WHEN WAS RAMA BORN: (based on Valmiki`s Ramayana) One of the most anticipated topics in this modern era is that when was Rama born? Before dwelling onto this point, we have to understand that our great Maharishies have systematically divided the period of shristi into Manvantars. Each Manvantar is further divided into chaturyugis. Each chaturyugis consist of Krita (satyuga), traita, dwapar, and kaliyuga. The present Manvantar is Vaivast Manvantar. So far, twenty-seven chaturyugies have already been passed. Right now, it is the 28th chaturyugi, and we are still in the first charan (period) of this chaturyugi. It is a well-known fact that Rama was born during the latter part of traita. Hence, if we assume that Rama was born in the present chaturyugi, then it means that he was born at least 1,000,000 years ago. The period of his birth will probably be more than this. However, Vayu purana provides us the correct chronological period of Ramayana. If we take Vayu purana’s period into consideration then the period of Rama becomes at least 18,000,000 years old. Hence, we can easily conclude that the period of Rama in the time scale is at least 1000,000 to 8,000, 000 years. This issue will be resolved in another topic called “Blunders of Indian History”). This particular view is also supported by the fact that when Hanuman travelled to Shri Lanka in the search of Sita, over there he saw elephants having four teeth. Hence, this is now an issue for archaeologists/biologists to ascertain when did such elephants exist on earth? (The calculations of chaturyugies will be dealt with in another topic called “Age of present shristi”). The difficulties encountered in establishing chronological correctness of historical events for the period before Christ will be dealt with in the other article called “Blunders of History.” Another interesting fact that has been mentioned in Valmiki’s Ramayana is that the maternal home of Bharat and Shatrughan was in a country where transportations took place in the form of vehicles being propelled by dogs or deers. When the two brothers returned to Ayodhya from their maternal home, they crossed many places covered by snow, and were also dressed up in clothes made of wool. Now, the location in which this episode took place is yet to be ascertained. According to our logic, this episode took place in Russia, and phonetically Russia sounds like misnomer of a Rishi, but this has been taken care of in our article called “Blunder of Indian/World history”. From the facts mentioned above, it clearly gives us an insight into the period of Rama’s birth. So, those who claim that Rama is only a mythological character have been proven wrong since we have provided them with so much evidence in this article. We will also establish that before the advent of Christianity and Islam, Rama was revered throughout the world as an international cult figure. LEGENDS OF RAMAYANA IN VARIOUS PARTS OF GLOBE 1) RAMAYANA IN RUSSIA AND MANGOLIA: The Deccan Herald, on 15th December 1972, on its front page gave the news in which it stated that a story relating to Ramayana was published in Elista, capital city of Kalmyk, in Russia. The news further stated that various legends of Ramayana were popular among people of Kalmyk. Many versions of Ramayana are already stored in the libraries of Kalmyk. The news clearly stated that legends of Ramayana were extremely popular since time immemorial. Domodin Suren, a Russian writer, has mentioned various legends that were popular among Mongolian and Kalmyk people. Prof C F Glostunky`s manuscript called “Academy of Sciences”, is located at Siberian Branch of Erstwhile, U.S.S.R. This book deals with various legends popular along the Coast of Volga River, and its manuscript is in the Kalmyk language. Last, but not the least, in Leningrad, a great number of books dealing with stories of Ramayana are still available and preserved even today in Russian and Mongolian languages. 2) RAMAYANA IN CHINA:- In China, a large collection of Jatak stories related to various events of Ramayana, which date back to 251 A.D, were compiled by Kang Seng Hua. Another book from 742 AD, which relates the story of plight of Dasratha after Rama, was ordered to go for Vanvasa is still present in China. Similarly, in 1600 AD, His-Yii-Chii wrote a novel called Kapi (monkey) which elaborated on the stories of Ramayana, predominantly that of Hanuman. 3) RAMAYANA IN SRILANKA:- Naresh Kumar Dhatusena also known as Kumardasa, who ruled Sri Lanka in 617 AD, wrote a book called, “Janakiharan”. This is the oldest Sanskrit literature available in Sri Lanka. In Modern Times, C. Don Bostean and John D`Silva have written stories based on Ramayana. Till now, majority of the population adore and highly respect the duo of Rama and Sita. 4) RAMAYANA IN COMBODIA (KAMPUCHIA): Today, there are many rock inscriptions belonging to 700 AD, which are located in Khmer region of Cambodia. These rock inscriptions are based on the events of Ramayana. Many temples were constructed during the reign of Khmer dynasty, and currently, their walls depict many scenes and events of Ramayana. The temples of Ankor are very famous for the stories of Ramayana and Mahabharata. These temples belong to the earliest parts of the time period dating back from 400 AD to 700 AD. One astonishing fact in these engraved pictures is that Hanuman and the rest of the other Vanars are not shown with their tails as it is against the popular belief of the masses. (Whether Hanuman was a monkey or not, this issue will be examined later on) 5) RAMAYANA IN INDONESIA: According to De Casperis, there was a temple named “Chandi Loro Jongrong”, which had some scenes of Ramayana engraved on its walls. This temple was from the 9th century AD. In Indonesia, another version of a story from Ramayana named Kakavin is very popular. This story is a bit different from that of Prambanan. Besides this, there were other various versions of Ramayana related stories, which were present in those early centuries after Christ, and also proves itself that Ramayana was very popular among Indonesian people before advent of Islam. It is also an astonishing fact that the first international convention on Ramayana was organized in Indonesia, a few years back. 6) RAMAYANA IN LAOS: When local people pronounce Loas in their language, it phonetically sounds like the name of one of the sons of Rama. Besides, the temple of Vat- She-Fum and Vat-Pa-Kev also depict many scenes of Ramayana on their walls. The temples of Vat-Pra-Kev and Vat-Sisket carry books that contain the epic of Ramayana. Lafont, a French traveler translated the story of, “Pa laka-Pa lama” in his book called, “P`ommachak”, in French. This book also deals with the story of Ramayana, which is still popular among the masses of Laos. 7) RAMAYANA IN THAILAND:- The stories of Ramayana are still very popular among the masses. In the early centuries after Christ, many kings who ruled this country had Rama as the prefix or suffix in their name. Just like in India how we organize the play of Ramayana, till today, many dramatic versions of Ramayana are organised in Thailand as well. Similarly, many dramatic versions of Ramayana are still being organized in various South East Asian countries like Indonesia, Malaysia, and Cambodia. 8) RAMAYANA IN MALAYSIA:- In Malaysia till today plays are oraganised based on the stories of ‘HIKAYAT SERI RAMA’ ,written in 14 century AD,. Dalang society organize nearly 200-300 plays relating to Ramayana. Before commencement of the play people conduct various prayers and abulations revering RAMA and SITA. 9) RAMAYANA IN BURMA:- King Kayanjhitha who reigned during 1084 –1112 AD; regarded himself as desecendant of clan of Rama. Various books relating to the stories of Ramayana as earlier as 15 century AD are still found in Burma. Books like ‘Kavyadarsh’ , ‘Subhasit Ratanidhi’ are based on the stories of Ramayana. Zhang-Zhungpa, commentary of Ramayana was written by Taranath, which is not available in modern times. In Burma also various form of plays are conducted based on the stories of Ramayana. 10) RAMAYANA IN NEPAL:- Oldest version of Ramayana, belonging ot 1075 AD is still found in Nepal. 11) RAMAYANA IN PHILIPINES:- Effect of stories of Ramayana can easily felt in the customs, traditions and legends of majority of masses. Prof Juon R Francisco found that in Marineo Muslims, legend based on Ramayana is popular, in which Rama has been depicted as Incarnation of God. Similarly among Magindanao or Sulu folk Muslims also various legends based on the stories of Ramayana are popular. 12) RAMAYANA IN IRAN: In Hyderabad city, capital of Andhra Pradesh, there is museum name Salarjung. There one portrait which is depicting a burly monkey having a very big stone in its hand. This portrait reminds one of Hanuman holding Dronagiri. Similarly Marco Polo in his book (translated by Sir Henry Yule in English) wrote at page no 302, vol II about a peculiar belief among Muslims, spread from Afganistan to Morocco and Algeria. These Muslims believed that members of imperial house of Trebizond were endowed with short tails while mediavel continentals had like stories about Englishmen as- Mathew Paris relates…. ; . We are of the belief that if one seriously start investigating various legends prevalent, before advent of Islam and Christianity, in Arabic countries and European countries than existence of Ramayana and Mahabharta can be proved. Due to barbaric and dogmatic acts of these peoples wide range of literature and buildings of historical importance has been wiped out. 13) RAMAYANA IN EUROPE: In Italy, when excavation were carried out in the remains of Astrocon civilization, then various houses were found having peculiar type of paintings on their wall. These paintaings, on closure investigation, seems to be based on the stories of Ramayana. Some of the paintings shows peculiar persons having tails along with two men bearing bows and arrow on their shoulders, while a lady is standing besides them. These paintings are of 7 century BC. It should be remembered that once Astrocon civilization was spread over 75 pct of Italy. Sir Henry Yule in his translation of works of Marcopolo has refered to the belief prevalent among Medival Europeans that there Ancestors were having small tails. The same fact has been referred by Maharishi Dayanand in his magnum opus ‘Satyarth Prakash’. There Swamiji state that people of Europe were called as Vanaras(monkeys) ,due to their appreance in our epic like Mahabharta, Valmiki Ramayana etc. If we a analyse this statement in present context, then how we are going to define various statements like kangaroos(Australian team) meet men in blue(Indian team) at Calcutta. Similar sort of epithets were used during World war to describe armies of different countries or else we see that we have helicopters named cheetah etc. As these words(epithets) are just a way to describe different set of people, arms etc, similarly world like Rakshas, Vanaras etc were used in our legends. These facts clearly indicates that legends of Ramayana are not work of fiction and were very popular around the world . 14) RAMAYANA IN AFRICA(CONTINENT): People of Ethiopia call themselves as descendents of Cushites. This word Cush is basically phonectic misnomer of Kush, the son of Rama. This fact is verly established by Satpath Brahamans, commentary on Vedas. These Brahamans while explaining various mantras of Vedas uses many histrorical events to elucidate the topic. Astonishingly in Satpath Brahaman we find reference regarding the rule of King Bharata (predecessor of Kaurav and Pandavs) in Rhodesia . Besides many inconsistent legends inspired by epic of Ramayana are prevalent in African Communities and they basically refers to various activities of vanars. Egypt basically derives its name from Ajpati which is one of the name of forefather of Rama. If analyse various legends prevalent in Egypt there we will found references of Dasratha(father of Rama). These facts can be very well established from various historical refernces of Brahamans.(for the proof of it see our article Blunders of Indian/World history) 15) RAMAYANA IN NORTH AMERICAN AND SOUTH AMERICAN CONTINENTS: Before Columbus discovered North American continent European people were not knowing about it. However A DE QNATREFAGES in his book, THE HUMAN SPECIES, categorically says that Chinese people were aware about the American continent and the use to have trade relations with them America was referred as Fad-Sang. Similarly in Japanese people it was known as Fad-See. Similarly, if we refer to various historical reference in Mahabharata, Valmiki Ramayana etc we will find that American continent has been reffered as Patal Desh(Patal means below foot). If we geographically see then we will find that American continent is just below the Indian Subcontinent. We will throw greater light on this issue in our topic, BLUNDERS OF INDIAN HISTORY/WORLD HISTORY. But for your reference we are providing you some prevalent legends. a) Beautiful girl in Mexican tribal area till today are called as Ulopy. If we see in Mahabharata we find reference of Arjuna marrying girl named Ulopy who was daughter of King of Patal Desh. b) W H Prescott in his book , ‘ History of conquest of Mexico’, provides various reference which prove that earlier civilization of American subcontinent have major similarities with that of Indian(Aryan) civilization. However here we are providing you one reference which clearly state that Ramayana is not mythological epic but it bears historical testimony. According to writer of the book there is popular legend in Aztec community which state that a beautiful person named Quevtsal Katal came there from east and taught them various aspects of advanced civilization as a result his period was treated as golden era. He then went back to his original homeland because of persecution by some divine creature. This legends surprisingly does not throw light on the reasons why he returned. Another interesting fact that has been stated by Prescott is that this legend is available in documented form. Now, none except Indian tradition can claim that they bear root to this legend. The same story has been narrated in Valmiki Ramayana, in uttarkand where it is mentioned that Salkantak Rakshas who dwelled in Lanka were persecuted by Vishnu. Due to this persecution they left Lanka and went to Patal Desh. The leader of this group was Sumali. According to Ramayana they lived in Patal Desh for long time. When they found condition congenial they returned to their homeland. It is for readers to decide when such conclusive proof are there to establish that epic of Ramayana is not mythological legend but it is historical evidence which bears testimony to various legends prevalent around the world. Till today play named Ramasitotav is played in various communities of Mexico. To our amazement Rama has been mentioned in Bible, new testament, Mathew ch 2/18, where it is mentioned “ his voices was heard in RAMA”. Rama is proper noun there, now it is for biblical society to define who was Rama and why he has been mentioned in Bible. Even the name of Dasratha and Ayodhya are there in Bible. We will be referring to these facts in Blunders of Indian/world History. Now we would pose some tickling questions to the sickular historians: 1) Why month of fasting among muslims is called Ramadhan ? 2) Why place in Gazastrip is called Ramallaha ? 3) Why place in London is named as Ramsgate ? 4) Why capital of Italy is known as Rome(misnomer of Rama) We can provide various examples where word Rama has been used as suffix or prefix with the names of various historical places/persons or misnomer of Rama has been used as name for historical places/persons. None of the historical evidence provides conclusive answer to these facts unless we take Indian historical evidences into account. It is widely accepted that the King Alexander invaded India. It really sounds ironical that we are accepting this theory without any historical evidence, on the other hand we go on to deny existence of Rama despite various historical evidences are there to prove that he was not mythical but a historical Mahanayak. These historians in order to refute Rama`s existence are ridiculously harping the same old tone of theory of evolution which does not have any scientific proof. (Why and how theory of evolution gained importance will be dealt in our article – How the universe is created. The only thing of significance regarding theory of evolution, we want to state here is that it was a tool which was invented to challenge the draconian supremacy of church. The church use to claim that this world was created by God out of nothing and the age of this Universe is not more than 10000 years. By the help of evolutionary theory scientific world challenged the supremacy of church and overcame the clergy.) This is for readers to decide by themselves how they are going to treat Rama. We think that we have provided lot of food for thought. Those who are illogically biased may still refute the existence of Rama while those who are logical and believe that mythological character can never gain such world wide respect/reverence will start looking upon Rama from wider historical evidences. Here we want to clarify following points: 1) Rama was a Mahanayak, a legendary person who lived a pristine life and is an example to be emulated till today. 2) Its immaterial whether Ramasetu, on which lot of controversy is being created, was built by Rama so far proving authenticity of Rama is concerned. Regardless of whether they prove Ramsetu to be manmade or natural creation, existence of Ram cannot be denied. 3) Valmiki Ramayana is not fiction but an epic based on historical evidence. For those who are questioning existence of Rama, let them first justify whether their forefathers ever existed, by using the same yardstick that they are using to question the existence of Rama. At least there are more evidences of Rama being a historical hero than existence of forefathers of these historians. This article was contributed by Rajveer Arya.
Lord Rama and Shambuka episode (vedicvichar)
10-04-2022
Ramayana is the glorious tale of Lord Rama. Lord Rama is addressed as Maryada Puroshatam which means one who had highly reputed dignity and one who lived his whole life with ethics and principles. The killing of Shambuka by Lord Rama is one of frequently asked doubt. The main allegation is that Shambuka was a Shudra and he was killed helplessly for no crime. The killing of Shambuka appears in the Uttar kand of Valmiki Ramayana, Book 7, Chapter 73-76. The story is as follows. An aged peasant, a brahmin, bearing his dead child in his arms came to the palace gate, weeping and crying out again and again “What sin did I commit in a previous existence?" Overcome with paternal grief, he repeated “0 My Son, My Son! Ah! Of what fault was I formerly guilty in another body that I should see mine only son meet with death ? This boy had not yet reached adolescence, his fourteenth year not having been completed! To my misfortune, before his time, this dear child has been struck down by death! In a few days, I and thy mother too will die of grief, 0 Dear Child! I do not recollect ever to have uttered a lie; I do not remember ever inflicting an injury on any animal or doing harm to any person! People perish under the unrighteous rule of an impious monarch. The evil conduct of a king brings about the premature death of his subjects. When, in the cities and country, crimes are committed and no supervision is exercised, then death is to be feared! Undoubtedly the king will be held to be at fault in city and country, hence the death of this child." Such were the countless recriminations that the unfortunate father addressed to the king whilst he clasped his son to his breast. The piteous lamentations of that unfortunate brahmin reached the ears of the king and he, in the profound distress, called together his ministers, Vasishtha and Vamadeva, with his brothers and the elders of the city also. Then eight brahmins were ushered into the king's presence by Vasishtha, who resembled a God, and they said "May prosperity attend thee!" Thereafter those foremost of the Twice-born, Markandeya, Maudgajya, Vamadeva, Kashyapa, Katyayana, Javali, Gautama and Narada took their seats, and those Rishis being assembled, Rama paid obeisance to them with joined palms. Then the ministers and citizens received a cordial welcome, as was fitting, and all those highly effulgent persons being seated near him, Raghava informed them of the reproaches of that Twice-born One. Hearing the words of the prince, who was fined with distress, Narada himself made this memorable reply in the assembly of the Sages “Learn, 0 King, what has caused the untimely death of this child! When thou art conversant therewith, do what thou considerest to be thy duty ! 0 Prince, Joy of the Raghus, formerly in the Krita Yuga, the brahmins alone practiced asceticism; he who was not a brahmin in no wise undertook it. At the close of that age, all was consumed and absorbed into Brahman. Thereafter the 5 brahmins were re-born enlightened and endowed with the gift of immortality. In that age, none died prematurely and all were wise. The Treta Yuga followed when the sons of Manu were born, one who practiced austerities; these noble men were the rulers, and full of power and heroism. In that era, Brahmins and Kshatriyas were equal in power nor could any distinction be found amongst them; it was then that the four castes were established. In the Treta Yuga, brahmins and warriors practiced asceticism and the rest were under the supreme obligation of obedience, proper to the Vaishya and Shudra classes; the Shudras' duty being to serve the other three. 0 Great King, in the Dwapara Yuga, untruth and evil increased, unrighteousness having placed a second foot on the earth, and then the Vaishyas began to practice penance, so that dharma, in the form of asceticism, was performed by the three castes, but the Shudras were not permitted to undertake it during that time, 0 Foremost of Men. 0 Prince, a man of the lowest caste may not give himself up to penance in the Dwapara Yuga; it is only in the Kali Yuga that the practice of asceticism is permitted to the Shudra caste. During the Dwapara Yuga it is a great crime for one of Shudra birth to perform such practices. At this time, in thine empire, a rigid penance is being undertaken by a wretched Shudra, 0 Prince, and this is the cause of the death of that child. An act of mortification that is prescribed is well done and a sixth of the merit goes to the king who rules with justice. But how should he, who does not protect his people, enjoy the sixth portion? 0 Lion among Men, thou should investigate the happenings in thy kingdom and put down evil wherever it is practised, so righteousness may flourish, man's life be prolonged and the child be revived." Rama makes a Tour of Inspection of his Kingdom hearing the nectar-like words of Narada, Rama was delighted and said to Lakshmana “0 Dear Friend, thou who art faithful to thy vows, go and console that leading brahmin and cause the body of the child to be placed in a jar of oil with precious unguents and fragrant salves so that it is covered and does not suffer decomposition. Act in such a way that the body of the child does not dissolve or decay." Having issued this command to Lakshmana, who was endowed with auspicious marks, the highly illustrious Kakutstha thought of Pushpaka, and said “Come hither!" Conscious of his intention, the golden chariot appeared before him in the same hour and bowing, said to him “U Behold, I am here at thy service, 0 Long-armed Prince! U Listening to the gracious words of Pushpaka, Rama paid obeisance to the great Rishis and ascended the chariot. Armed with his bow, his two quivers and his glittering sword, Raghava left the city in the charge of his two brothers, Saumitri and Bharata, and thereafter that monarch directed his course to the western region which he explored on every side; then he went to the northern region bounded by the Himalayas, but found no one. No trace of evil-doing there; later the eastern region was carefully searched by him and that long-armed Prince, from on high in his chariot, beheld people of pure morals there, as stainless as a mirror. Then he, who causes felicity to the great Rishis, ranged the southern region and, on the side of the Shaivaja Mountain, a vast lake appeared to him, on the banks of which the blessed Raghava beheld an ascetic practicing an extremely rigorous penance, his head hanging downwards. On this that Prince approached the one who had given himself up to rigorous practices and said "Blessed art thou, 0 Ascetic, who art faithful to thy vows ! From what caste art thou sprung, 0 Thou who hast grown old in mortification and who art established in heroism. I am interested in this matter, I, Rama, the son of Dasaratha. What purpose hast thou in view? Is it heaven or some other object? What boon dost thou seek by means of this hard penance? I wish to know what thou desire in performing these austerities, o Ascetic. May prosperity attend thee! Art thou a brahmin ? Art thou an invincible Kshatriya? Art thou a Vaishya, one of the third caste or art thou a Shudra? Answer me truthfully !" Then the ascetic, who was hanging head downwards, thus questioned by Rama, revealed his origin to that Prince born of Dasaratha, the foremost of kings, and the reason why he was practicing penance. Hearing the words of Rama of imperishable exploits, that ascetic, his head still hanging downwards, answered "0 Rama, I was born of a Shudra alliance and I am performing this rigorous penance in order to acquire the status of a God in this body. I am not telling a lie, 0 Rama, I wish to attain the Celestial Region. Know that I am a Shudra and my name is Shambuka." As he was yet speaking, Raghava, drawing his brilliant and stainless sword from its scabbard, cut off his head. The Shudra being slain, all the Gods and their leaders with Agni's followers, cried out, “Well done! Well done!" overwhelming Rama with praise, and a rain of celestial flowers of divine fragrance fell on all sides, scattered by Vayu. In their supreme satisfaction, the Gods said to that hero, Rama “Thou hast protected the interests of the Gods, 0 Highly Intelligent Prince, now ask a boon, 0 Beloved Offspring of Raghu, Destroyer of Thy Foes. By thy grace, this Shudra will not be able to attain heaven!" [English translation of chapter 73–76 from The Ramayana of Valmiki: Translated by Hari Prasad Shastri. ] An analytic view of Shambuk tale from Ramayana Do Vedas support an inferior status towards Shudras? Is it possible to kill someone by Prayers? Did Lord Rama follow caste system ? Stand of Vedas on Shudra Vedas nowhere support any discrimination or inferior status towards Shudras. Yajurveda 30/5 says one who is hard working, brave, accomplishes difficult tasks is a Shudra. Yajurveda 16/27 says Shudra/Nishad involved in architecture & craft work must be respected and regarded. Atharveda 19/62/1 says I pray to God that O God! Let all Brahmans, Kshatriyas, Vaishyas and Shudras glorify me. Yajurveda 18/46 says that O God make me so gentle that all Brahmans, Kshatriyas, Vaishyas and Shudras have affection for me. Rigveda 5/60/5 says There is no one superior or inferior in the Vedas. All are equal just like brothers. All should help each other to attain the pleasures of this as well as the other world. These are few examples from the Vedas which clearly says that Vedas grant equal status as well as respect to the Shudras. Thus, the Shambuk episode from Ramayana is not in accordance with the teachings of the Vedas.So, its a myth. Even we get multiple examples from different texts like Ramayana and Upanishads where Shudras progressed to higher Varna through their efforts. Satyakama Jabali in Chandogya Upanishad became a Rishi due to his qualities. Is it possible to Kill someone by Prayer? This is again a very absurd thought that anyone can be killed by prayers. If this is possible then why did not Rama kill Ravana by praying? Why he built a bridge over the ocean? He could have simply killed Ravana by prayers. Why did warrior need to train with weapons? Why did King need to keep large cumbersome forces with high expenses ? There is no answer to these doubts. So, its a mere nonsense talk which no wise person will believe. Lord Rama relation with Shudras in Ramayana There are many examples from Ramayana which prove that Lord Rama enjoyed a healthy relationship with different members of Shudra community. In Bal Kanda ( 1/37-40 ) of Ramayana Lord Rama enjoyed hospitality of Nishad King Guha and even accepted the food served by him. In Arayanak Kand (74/7) of Ramayana Lord Rama accepted the half eaten berries from Shabri. Shabri belonged to Bhil/Tribal community. The testimony of Narada Muni in Bal Kanda 1/16 of Ramayana that Lord Rama is noble, unbiased and affectionate towards everyone. Moreover searching of Shambuka by Rama with help of Pushpak Viman is again a self contradiction. Its written clearly in Ramayana that Lord Rama returned Pushpak Viman to its original owner Kuber after returning to Ayodhaya. So, this again supports our theory of interpolation in Ramayana. These examples prove that Lord Rama was a humble, kindhearted person. The episode of Sambuka described in 73 - 76 Sargas of Uttara Kanda clearly contradicts the true image of Lord Rama. Than what is the truth? Truth is that in the Vedic age there was no caste system. Only Varna system was in practice. In the middle ages caste system came into practice. Few ignorant priests interpolated the Texts like Ramayana and Manu smriti with verses supporting caste system. These interpolations were done with vested interests. Neither Vedas support caste system, neither a prayer can kill anyone nor Ramayana supports Caste system. The main culprit behind the Shambuk episode are interpolations. Blaming Lord Rama for Shambuk killing is inappropriate and immoral accuse.
रामायण-सार (vedicvichar)
10-04-2022
✍???? लेखक- स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती श्री रामचन्द्रजी के भक्तो! दिन-रात रामायण के पढ़नेवालो! महाराज रामचन्द्रजी को अपना बड़ा माननेवालो ! देश के क्षत्रिय जनो ! आप रामायण को, जो आर्यकुलभूषण, क्षत्रिय-कुलदिवाकर, वेदवित्, वेदोक्त कर्मप्रचारक, देशरक्षक, शूर-सिरताज, रघुकुलभानु, दशरथात्मज, महाराजाधिराज महाराज रामचन्द्रजी का जीवन-चरित सदा पढ़ते-सुनते हैं, परन्तु शोक है कि आप उस महानुभाव के दिव्य जीवन से कुछ भी लाभ नहीं उठाते । महाशयो! यह रामचरित्र ऐसा उत्तम है कि यदि मनुष्य इसके अनुसार अपना जीवन व्यतीत करें तो अवश्य मुक्ति-पद को प्राप्त हो जाएँ। महाशयो ! रामायण के आदि में महाराज रामचन्द्रजी के जन्म का वृत्तान्त लिखा है, जिससे बोध होता है कि हमारे देश के राजाओं को जब सन्तान की आवश्यकता होती थी तब वे लोग विद्वान् ब्राह्मणों को बुलाकर यज्ञ कराते थे। इस समय के लोगों की भाँति गाजीमियाँ की क़ब्रों में जाने और पूजा करने के ढकोसले नहीं करते थे। वे कभी सण्डों-मुष्टण्डों से सन्तान न चाहते थे। वे गूगापीर और मसानी को नहीं मानते थे। वे टोने और धागे नहीं कराते थे। ये सब शिक्षाएँ आपको महाराज रामचन्द्रजी के जन्म से प्राप्त होती हैं। हे रामायण के पढ़नेवालो! ऐसी मूर्खता की बातों को शीघ्र त्यागकर यज्ञादि कर्म प्रारम्भ करो। पुनः महाराज का वसिष्ठजी से विद्याभ्यास करना है, जिससे बोध होता है कि पूर्व-समय में सभी क्षत्रिय, ब्राह्मण और वैश्य-द्विजातिमात्र पढ़ते थे। आजकल की भाँति ऐसा न था कि विद्योपार्जन को आजीविका के लिए समझें, अपितु विद्याभ्यास मनुष्यत्व का हेतु माना जाता था । मूर्ख को मनुष्य की संज्ञा ही नहीं मिलती थी। हे रामायण के पढ़नेवालो ! शीघ्र विद्याभ्यास करो और उस वेद-विद्या को पढ़ो जिसे महाराज रामचन्द्रजी ने पढ़ा था। उस वेद-ज्ञान को समस्त संसार में फैलाओ। तत्पश्चात् महाराज रामचन्द्रजी का विश्वामित्र के साथ जाना है, जो इस बात का पूरा प्रमाण है कि पूर्व-समय में विद्वानों और तपस्वियों का कैसा मान था ! देखो, राजा दशरथ ने प्राणों से अधिक प्यारे अपने दोनों पुत्र विश्वामित्र को दे दिये। दूसरे, उस काल में क्षत्रियों के बालक ऐसे बली होते थे कि रामचन्द्रजी छोटी-सी अवस्था में भी ऋषि के साथ वन जाने से भयभीत नहीं हुए और दोनों भाइयों ने सहस्रों दुष्ट राक्षसों को मार गिराया। ब्रह्मचर्य, विद्या और धर्म के ऐसे प्रताप को देखकर भी हम लोग धर्म नहीं करते। तत्पश्चात् रामचन्द्रजी का जनकपुर में जाकर धनुष तोड़ना लिखा है। इससे भी उनके बल की महिमा विदित होती है। इसके पश्चात् महाराजा रामचन्द्रजी के विवाह का वृत्तान्त है, जिससे यह विदित होता है कि उस काल में स्वयंवर की रीति थी। आजकल की भाँति गुडे-गुडियों का विवाह, अर्थात बाल-विवाह का प्रचार न था। कन्या और वर दोनों ब्रह्मचर्य का पालन करते थे और जब वे पूर्ण विद्वान और बल-वीर्य में पुष्ट हो जाते थे तब विवाह करते थे, जिससे पति और पत्नी में सदा प्रीति रहती थी और उनके गृहस्थाश्रम सुख से व्यतीत होते थे तथा सन्तान हष्ट-पुष्ट और शुद्ध बुद्धिवाली उत्पन्न होती थी। रामायण के माननेवालो! आप क्यों बालविवाह करके अपनी सन्तान को नष्ट करते हो? इसके पश्चात् महाराज को राज मिलने का लेख है और कैकेयी के आदेश से महाराज का वन को जाना और दशरथ महाराज की मृत्यु लिखी है। इससे क्या ज्ञात होता है? प्रथम तो यह कि नीच के संग से सदा हानि होती है। देखो, कैकेयी ने मन्थरा के संग से अपना सुहाग नष्ट किया। संसार को दुःख दिया, जगत् में अपयश लिया। जिस पुत्र के लिए यह अधर्म किया था, उस पुत्र ने भी उसको बुरा कहा। क्या इससे कुसंग से बचने की शिक्षा नहीं मिलती? जो लोग अधर्म करते हैं उनके घर के लोग भी उन्हें बुरा कहते हैं। दूसरे, महाराज दशरथ ने राज्य त्याग दिया, अपने प्यारे, नहीं-नहीं, नयनों के तारे पुत्र को चौदह वर्ष का वनवास दिया, अपने प्राणप्रिय पुत्र का वियोग स्वीकार किया, परन्तु अपना वचन नहीं तोड़ा। जिससे संसारभर में यश लिया और संसार को यह शिक्षा दी कि मनुष्य को जो कुछ किसी को देना हो शीघ्र दे दे, परन्तु किसी से प्रतिज्ञा न करे, न जाने कब कैसा समय आ जाए! क्योंकि, राजा दशरथ कैकेयी को यदि वर न देते तो उनको यह कष्ट और पुत्र का वियोग न सहना पड़ता। यहाँ बन्धुओ, बहुत-सी शिक्षाएँ मिलती हैं, जैसे अन्धे माता-पिता अपने पुत्र श्रवण की मृत्यु से मर गये। इसी के फल से राजा दशरथ भी अपने पुत्र के वियोग से मरे। महाराज रामचन्द्रजी के वन-गमन के समय लक्ष्मणजी का सङ्ग में जाना भी अत्यन्त शिक्षापूर्ण है। देखो, उस समय के लोग कैसे पितृभक्त होते थे! महाराजा रामचन्द्रजी ने पिता के कहने से राज ही नहीं त्यागा, वनवास भी स्वीकार किया। क्या आजकल रामायण के पढ़नेवाले अपने पितरों की आज्ञा का पालन करते। हैं? दूसरे, लक्ष्मणजी का सङ्ग जाना भाइयों की प्रीति का प्रमाण देता है। लक्ष्मणजी ने भाई के लिए देश व माता-पिता का सुख त्याग दिया। सच्चे भाइयों की प्रीति ऐसी होती है। क्या आजकल के रामायण पढ़नेवाले अपने भाइयों से ऐसी प्रीति करते हैं? महाराज के साथ सीताजी का वन गमन लिखा है, जिससे स्वयंवर की रीति का गुण और सीताजी का पतिव्रत-धर्म झलकता है। क्या आजकल के लोग बालविवाह से इस पतिव्रत-धर्म की आशा रखते हैं? सीताजी ने अपने पति के लिए माता-पिता, सास, राजगृह का सुख त्याग दिया और पति के साथ वन-वन घूमना स्वीकार किया तथा पति के बिना सब सुखों को दुःखस्वरूप समझा। आह! क्या ही उत्तम पतिव्रत धर्म उस समय देश में प्रचलित था! आजकल की बालविवाह की पत्नी तो सदा मेलों में गङ्गा के किनारे मन्दिरों में घूमना धर्म समझती हैं, सच्चे पतिव्रत-धर्म का तो उनमें लेश भी नहीं रहा। पश्चात् महाराजा भरत का रामचन्द्रजी को लेने जाना लिखा है। वह क्या ही देश के सौभाग्य का समय था कि अधिकारी के अधिकार का इतना ध्यान रखा जाता था! भरतजी में राज्य की तृष्णा नहीं थी। सबसे अधिक भाई की प्रीति दिखाई। फिर वन में रावण की बहिन सूर्पनखा का रामचन्द्रजी के पास जाकर विवाह करने की प्रार्थना करना और महाराज का मना करना, उसका न मानना और हठ करना, लक्ष्मणजी का उसकी नाक काटने का वर्णन है। इससे रामचन्द्र का एक ही स्त्री से सन्तुष्ट रहकर परस्त्री-गमन व विवाह से घृणा करना प्रकट है। क्या रामायण के पढ़नेवाले यहाँ से शिक्षा ग्रहण कर परस्त्री-गमन के दोषों का त्याग करेंगे? प्यारे देशवासियो ! परस्त्री-गमन जैसे घोर पाप को शीघ्र त्यागो! यह भी यौवन के विवाह का फल है कि पति और पत्नी में ऐसी प्रीति है कि पत्नी उसके लिए घर-बार सब-कुछ त्याग दे और पति उसके लिए संसारभर की स्त्रियों को काक-विष्ठा के समान माने। इससे यह भी शिक्षा मिलती है कि जो अधर्म पर हठ करता है उसकी नाक काटी जाती है। वीर क्षत्रियगण ऐसे हठी और दुराचारी को सदा दण्ड ही दिया करते थे। इसके पश्चात् रावण का योगी-स्वरूप में आना लिखा है। इससे ज्ञात होता है कि जब दुष्ट अपने में बल नहीं देखता तब इसी प्रकार के छल करके सत्पुरुषों को कष्ट देता है। इससे यह भी ज्ञात होता है कि किसी के बाह्यस्वरूप पर नहीं रीझना चाहिए, क्योंकि दुष्टजन भी अच्छे पुरुषों का आकार बना सकते हैं। शोक है कि इस बात को देखकर भी हमारे देशवासी अपनी स्त्रियों को मुष्टण्डे वेषधारियों के पास जाने से नहीं रोकते ! जब सीता जैसी पतिव्रता स्त्री को एक कपटी पुरुष धोखा देकर निकाल ले-गया तो और साधारण स्त्रियों को वे क्या समझते हैं ! इसके पश्चात् जटायु का रावण के साथ युद्ध करके प्राण देना लिखा है, जिससे सच्चे मित्रों का मित्र-भाव ज्ञात होता है। जटायु ने प्राण दिये, परन्तु अपने जीतेजी अपने मित्र दशरथ की पतोहू को दुष्ट रावण से बचाया। क्या रामायण-प्रेमी अपने मित्रों का इस पक्षी से भी न्यून उपकार करेंगे? उसके आगे रामचन्द्र जी का सीताजी से वियोग और विलाप है, जिससे ज्ञात होता है कि संसार में संयोग का वियोग अच्छे-अच्छे महात्माओं को भी घबराहट में डाल देता है। उसके पश्चात् रामचन्द्रजी को सुग्रीव का मिलना है, जिससे ज्ञात होता है कि संसार में दो प्राणियों के मेल से दोनों का कार्य सिद्ध होता है। तत्पश्चात् रामचन्द्रजी की बाली को मारना लिखा है। इससे यह स्पष्ट होता है कि जो किसी से शत्रुता रखता है उसका एक दिन अवश्य नाश हो जाता है। फिर महाराज का समुद्र पर पुल बाँधना है, जो उस समय की विशाल विद्या और उन महात्माओं के महान् प्रयत्न का साक्षी है। इससे यह भी सिद्ध होता है कि यदि मनुष्य दृढ़ निश्चय रखता हो तो अवश्य कृतकार्य होगा। इसके पश्चात् विभीषण का रावण से विरुद्ध होकर रामचन्द्रजी से मिलना है। इससे स्पष्ट ज्ञात होता है कि जब बुरे दिन आते हैं तब भाई भी शत्रु बन जाते हैं और जिस घर में दो मत होते हैं वह एक दिन अवश्य नष्ट होता है। कारण यह कि रावण और विभीषण का एक मत न था, इसी से विभीषण उससे अप्रसन्न हो गया और यही मतवाद भारत का नाशक है। तीसरे, इससे यह भी ज्ञात होता है कि जब घर में फूट पड़ती है तब शीघ्र सत्यानाश हो जाता है, अतः हे सज्जन पुरुषो! तुम सदा फूट से अलग रहो । हे रामायण के पढ़नेवालो! तुम कभी भी अपने भाई से विरोध न करो और मतवाद को नष्ट करो। इसके पश्चात रावणादि का महाराजा रामचन्द्रादि के हाथ से मारा जाना है, जिससे जात होता है कि जो अपने बल से बढ़कर छल के आश्रय काम करता है, वह अवश्य नष्ट हो जाता है। देखो, रावण ने रामचन्द्र के बल को जानते हुए यह ढीठपन किया। यदि वह रामचन्द्र के बल को न जानता तो पहले ही बल से सीता को लाता, छल न करता। रावण का छल करना ही उसकी निर्बलता को प्रकट करता है। रावण ने जान-बूझकर यह कार्य किया, अन्त में नष्ट हो गया। इससे यह भी ज्ञात होता है कि जो लोग झूठे अभिमानी मनुष्य के भरोसे संसार से बिगाड करते हैं और उस कपटी के व्यवहारों को नहीं विचारते, वे सदैव हानि उठाते हैं। देखो, यदि रावण के साथी इस बात का विचार करते कि रावण चोरी करके सीता को लाया है तो कभी रामचन्द्रजी से विरोध न करते और उनका नाश न होता। दूसरे, रावण ने जो पाप किया उसका फल पाया; कोई उसे पाप के फल से बचा न सका। जो परस्त्री पर कुदृष्टि करेगा उसकी यही दशा होगी! इसके अतिरिक्त और भी बहुत-से अशुभ फल प्राप्त होते हैं। शोक है कि हमारे देश के लोग रामायण पढ़ते हैं, नित्य रामलीला देखते हैं, परन्तु उस पर विचार कुछ भी नहीं करते । उनका लीला देखना या नित्य रामायण पढ़ना ऐसा है जैसे एक बकरी का बाग में जाना। वह कभी घास चरती है तो कभी पत्तों पर मुँह मारती है। उसके लिए बार और जंगल एक-समान हैं। वह हानिकारक स्थलों से हानि तो उठाती है, वन में गढे में गिर पड़े तो टाँग टूट जाए, परन्तु बाग की उपयोगिता से उसे कोई मतलब नहीं ! इसी प्रकार हमारे देशीय भाई यदि दूषित और गन्दी पुस्तकों को पढ़ते हैं तो शीघ्र उनमें डूब जाते हैं, परन्तु उत्तम पुस्तकों को पढ़कर उनसे कुछ भी लाभ नहीं उठाते। यदि बहुत किया तो कहीं की दो चार चौपाई कण्ठस्थ कर लीं और जब कहीं कोई बातचीत हुई तो अपना पाण्डित्य जताने के लिए सभा में कह दीं। मैं बहुत-से लोगों को रामायण पढ़ते देखता हूँ, परन्तु उसके अनुकूल आचरण करनेवाले बहुत ही न्यून हैं। अब इस रामायण-सार का सूक्ष्मता से आशय कहते हैं। रामायण में महावीरजी के चरित्र से सच्चे सेवकों का व्यवहार जान पड़ता है और रावण के इतिहास से जाना जाता है कि यदि कुल में एक भी दुष्ट पुरुष उत्पन्न हो जाए तो सारे कुल को नष्ट कर देता है। दूसरे, रावण पुलस्त्य मुनि का पौत्र था, शिवजी का भक्त था, वेदों का पण्डित था, परन्तु इतने पर भी मांस खाने और मदिरापान और परस्त्री-गमन करने से उसकी पदवी राक्षस की हो गई। अब तो रामायण के पढ़नेवाले लाखों दुराचार करते हैं, परन्तु अपने आपको साधु और ब्राह्मण ही मानते हैं। देखो महात्मा लोगो ! विचारो, जिस परस्त्री-गमन ने रावण को राक्षस बना दिया क्या जो अब करते हैं वा करेंगे वे राक्षस नहीं? रावण शिव का भक्त था, परन्तु मांसाहार ने उसे राक्षस बना दिया। रामायण के पढ़नेवालो ! शीघ्र इस राक्षसी व्यवहार को त्याग दो। परस्त्री-गमन, मादक द्रव्यों का सेवन और मांस-भक्षण का शीघ्र त्याग करो और रामायण से जो शिक्षा मिलती है उसका संसार में प्रचार करो! यज्ञादिक कर्म करो! वर्णाश्रम धर्म को ग्रहण करो ! सम्प्रदायों को मिटाओ, वेद का प्रचार करो! विद्या को पढ़ो-पढ़ाओ ! विद्वान् तपस्वियों का मान करो ! मूर्ख वेषधारियों का अपमान करो ! मूर्ख वेषधारियों से बचो ! ब्राह्मण वेषधारियों से बचो ! ब्राह्मण वेद का अभ्यास करें, क्षत्रिय वीर बनें । बालविवाह को दूर करो ! ब्रह्मचर्य का प्रचार करो? वर-कन्या का गुण-कर्म की योग्यता अनुसार विवाह करो। आजकल साठ वर्ष का वर और नौ वर्ष की कन्या-दादा और पोती का विवाह हज़ार-दो हज़ार रुपये के लोभ से कर देते हैं और थोड़े दिनों में वह विधवा होकर कुलकलङ्कनी हो जाती है-ऐसा मत करो! हे रामायण के पढ़नेवालो! अयोग्य से लालचवश विवाह मत करो! धर्म को नष्ट मत करो! माता-पिता की आज्ञा का पालन करो! माता को देवता मानो! उसकी श्रद्धापूर्वक सेवा करो! भाइयों से प्रीति रक्खो! थोड़ी बातों में उनसे विरोध मत करो! जहाँ तक हो सके प्राणान्त-पर्यन्त भाई को कष्ट मत दो ! यदि तुम इस प्रकार का जीवन व्यतीत करोगे तो अत्यन्त सुख होगा। अपनी स्त्रियों को पतिव्रत-धर्म सिखलाओ, तुम स्वयं स्त्रीव्रत धारण करो। स्त्रियों को मुष्टण्डे साधुओं के पास मत जाने दो! उन्हें दुराचारी पुजारियों से अर्थात् पूजा के शत्रुओं से बचाओ! अकेले मन्दिरों में उन्हें जाने से रोको ! उन्हें समझाओ कि स्त्री के लिए पति ही देवता है! पति को छोड़कर जो स्त्री दूसरे देवता का पूजन करती है, उसका धर्म नष्ट हो जाता है ! आप कभी परस्त्री-गमन मत करो? सदा वेश्याओं से बचो, कुसंग मत करो! कु-ढङ्गों से बचो ! मित्रों को लाभ पहुँचाओ! आपस में मेल करो ! घर में फूट मत करो! दृढव्रत रहो। जहाँ तक बने सच्चे महात्माओं की सेवा करो! हे पाठको ! ये सब कार्य करने से आपकी रामचन्द्रजी के प्रति भक्ति पूर्ण होगी और आप सदा सुख पाओगे, नहीं तो तुमको कुछ फल न होगा। प्रायः मनुष्य परमेश्वर का भजन करते है, परन्तु फल नहीं मिलता, कारण यह है कि मनुष्य दश दोषों से नहीं बचते। वे दश दोष ये हैं । ???? सन्निन्दासतिनाम वैभवकथा श्रीशेशयोर्भेदधीरश्रद्धा श्रुतिशास्त्रदैशिकगिरां नाम्न्यर्थवादभ्रमः। नामास्तीति निषिद्धवृत्तिविहितत्यागो हि धर्मान्तरैः साम्यं नाम्नि जये शिवस्य च हरेर्नामापराधा दशः ॥ अर्थ-जो सत्पुरुषों की निन्दा करता है, उसे परमेश्वर नाम-फल नहीं देता। जो ऐसे नास्तिकों का नाम-माहात्म्य सुनाता है, जो महादेव और विष्णु को देव समझता है, जिसे वेदशास्त्र और गुरु की आज्ञा में श्रद्धा न हो, उसके लिए ईश्वर का नाम जपना व्यर्थ है। जो नाम के सहारे से मांस-मदिरा आदि दूषित वस्तुओं का सेवन करता है और नित्य-नैमित्तिक धर्म को छोड़कर केवल नाम ही जपा करता है अथवा ईश्वर के नाम को अन्य कार्यों के बराबर ही एक काम समझता है, उसे सब कामों से श्रेष्ठ नहीं मानता-ऐसे मनुष्य को नाम जपने से कोई फल प्राप्त नहीं होता। ✍???? लेखक- स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती ???? पुस्तक - दर्शनानन्द ग्रन्थ संग्रह प्रस्तुति - ???? ‘अवत्सार’
रामनवमी के अवसर पर प्रकाशित (vedicvichar)
10-04-2022
श्री रामचन्द्र जी के जन्मदिवस के अवसर उनके महान जीवन से प्रेरणा आज आर्यकुलभूषण, क्षत्रिय कुलदीवाकर, वेदवित, वेदोक्त कर्मप्रचारक, देशरक्षक, शुर सिरताज, रघुकुलभानु, दशरथात्मज, महाराजाधिराज रामचन्द्रजी का जन्म दिवस है। सदियों से श्री राम जी का पावन चरित्र हमें प्रेरणा देता आ रहा हैं। यह कहने में हमें गर्व होता हैं की यदि मनुष्य रामचरित के अनुसार अपना जीवन व्यतीत करें तो अवश्य मुक्ति पद को प्राप्त हो जाएँ। श्री रामचन्द्र जी का जीवनकाल देखिये। जिस प्रकार माता कौशलया राजमहल में रहकर वेद का स्वाध्याय एवं अग्निहोत्र करती थी उन्हीं वेदों के स्वाध्याय के लिए श्री राम अपने अन्य भाइयों के साथ वसिष्ठ मुनि जी के आश्रम में गए। इससे यही शिक्षा मिलती हैं की बिना वेदों के स्वाध्याय, चिंतन, मनन एवं वेद की शिक्षाओं के अनुसार जीवन यापन करने से कोई भी व्यक्ति महान नहीं बन सकता। शिक्षा काल के पश्चात ब्रह्मचर्य, विद्या एवं धर्म का प्रताप देखिये की अभी रामचन्द्र जी युवा ही थे की उनके पिता महाराज दशरथ ने उन्हें वन में राक्षसों का अंत करने के लिए ऋषि विश्वामित्र के संग भेज दिया। यह ऋषि मुनियों के प्रताप एवं तपस्या का भी प्रभाव था जो राजा लोग उनकी सेवा में सत्संग एवं जीवन निर्माण हेतु अपनी संतानों को भेजते थे। सीता स्वयंवर में शिव धनुष के तोड़ने से न केवल श्री राम जी की शूरवीरता सिद्ध होती हैं अपितु यह भी सिद्ध होता हैं की उस काल में वधु वर का चयन पूर्ण विद्या प्राप्ति के पश्चात, माता-पिता की आज्ञा से वर के गुण, कर्म और स्वभाव देखकर करती थी। इससे न केवल वर-वधु में प्रीति रहती थी अपितु उनकी संतान भी स्वस्थ एवं शुद्ध बुद्धि वाली उत्पन्न होती थी। आज के समाज में वासना में बहकर बेमेल विवाह करने के कारण ही कमजोर संतान उत्पन्न होती हैं और गृहस्थ जीवन भी क्लेशों के रूप में व्यतीत होता हैं। कैकयी द्वारा राजा दशरथ के साथ युद्ध में भाग लेना यह सिद्ध करता हैं कि उस काल में स्त्रियां अबला नहीं अपितु क्षत्राणी होती थी जो अपनी वीरता के प्रताप से बड़े बड़े युद्धों में भाग लेती थी। वही कैकयी जो राजा दशरथ की प्रिय स्त्री थी पर बुरे संग का प्रभाव देखिये की दासी मंथरा की बातों में बहक कर तथा पुत्र मोह में आकर उसने श्री राम जी को वनवास दिलवाया। इससे यही सिद्ध होता है कि जैसे बुरी संगत से बुद्धि नष्ट होती है वैसे ही वेद के मंत्र का सन्देश कि एक से अधिक पत्नी रखने वाला ठीक उस प्रकार से पिसता है जिस प्रकार से पत्थर के चक्की के दो पाटों में गेहूँ पिसता हैं सिद्ध होता हैं। दशरथ ने न केवल पुत्र वियोग का दुःख सहा अपितु संसार में अपयश का भागी भी इसी कारण से बना। श्री राम जी की पितृ भक्ति भी हमारे लिए आदर्श हैं। केवल राज का ही त्याग नहीं किया अपितु वनवास भी स्वीकार किया। भाई लक्ष्मण का भ्रातृप्रेम देखिये की राज्य का सुख, माता पिता की शीतल छाया, पत्नी का संग त्याग कर केवल अपने भाई की सेवा सुश्रुता के लिए वन का आश्रय लिया और भाई भरत का भ्रातृप्रेम देखिये की जिस सिंहासन के लिए भरत की माता कैकयी ने राम को वनवास दिया उसी सिंहासन का त्याग कर राम जी की चरण पादुका को प्रतीक रूप में रखकर राजमहल का त्याग कर कुटिया में रहकर 14 वर्ष त्यागी एवं तपस्वी समान जीवन व्यतीत किया। आज के समाज में दशरथ पुत्रों के समान अगर परिवार में भाइयों में प्रेम हो तो आदर्श समाज क्यों स्थापित नहीं हो सकता? वन में प्रवास करते समय श्री राम एवं लक्ष्मण द्वारा शूर्पनखा के विवाह के प्रस्ताव को अस्वीकार करना उनके महान चरित्र के आदर्श को स्थापित करता है। एक ओर उदाहरण लक्ष्मण जी के चरित्र को सुशोभित करता हैं। जब सुग्रीव ने राम जी को सीता द्वारा सर पर पहने जाने वाले आभूषण चूड़ामणि को दिखाया तब श्री राम जी लक्ष्मण से उसे पहचानने के लिए पूछा तो लक्ष्मण जी के मुख से निकले शब्द कितने प्रेरणादायक हैं। लक्ष्मण जी कहते है भ्राता जी मैं केवल माता सीता द्वारा चरणों में पहनी जाने वाली पायल को पहचानता हूँ क्योंकि मैंने आज तक उनका मुख नहीं देखा है और मैंने केवल उनके चरण स्पर्श करते हुए उनके चरणों को देखा हैं। समाज में व्यभिचार को जड़ से समाप्त करने के लिए ऐसे महान आदर्श की अत्यंत आवश्यकता हैं। जटायु द्वारा मित्र दशरथ की पुत्र वधु रक्षणार्थ अपने प्राण दे देना मित्रता रूपी धर्म के पालन का श्रेष्ठ उदाहरण हैं। राम द्वारा अत्याचारी बाली का वध कर सुग्रीव को किष्किन्धा का राजा बनाना भी मित्र धर्म का पालन है और सुग्रीव द्वारा रावण से युद्ध में श्री राम की सहायता करना भी उसी मित्र धर्म का पालन हैं। आज समाज के सभी सदस्य एक दूसरे की सहायता मित्र भाव से करे तो सभी का कल्याण होगा। रावण वध के पश्चात विभीषण को लंका का राजा बनाना भी श्री राम के नैतिक गुणों को दर्शाता हैं की दूसरे देश पर राज्य करना उनका उद्देश्य नहीं था अपितु उसे अपना मित्र बनाना उनका उद्देश्य था। रावण एवं विभीषण का सम्बन्ध यही दर्शाता है की जब एक घर में दो विभिन्न मत हो जाये तो उस का नाश निश्चित हैं। आपस की फुट दो भाइयों में दूरियां ही पैदा कर देती है जिसका परिणाम केवल नाश हैं। इसीलिए वेद की आज्ञा हम एक जैसा सोचे, एक साथ मिलकर चले और हमारे मन एक दूसरे के अनुकूल हो अनुकरणीय हैं। संसार में सभी प्रकार के वैमनस्य का नाश अपने मनों को के अनुकूल बनाने से हो सकता हैं। रावण द्वारा अपनी पत्नी द्वारा रोके जाने पर भी वासना से अभिभूत होकर परस्त्री का छलपूर्वक हरण करना एवं बंधक बनाना तथा श्री राम द्वारा क्षत्रिय धर्म का पालन करते हुए उसे मार डालना यही सन्देश देता हैं की पापी, अभिमानी, छलि, व्यभिचारी, बलात्कारी का अंत सदा नाश ही होता हैं। रावण शिव का भक्त था एवं वेदों का विद्वान था मगर वेदों की आज्ञा का उल्लंघन कर उसने सीता हरण जैसा महापाप किया। रावण की बुद्धि नष्ट होने का कारण भी मांसाहार, शराब एवं परस्त्री गमन आदि दोष थे। आज के सभ्य समाज में भी यही नियम मान्य हैं जो उस काल में था। जो भी व्यक्ति इन बुरी आदतों को अपनी दिनचर्या का भाग बना लेगा उसकी बुद्धि नष्ट होने से उसका नाश निश्चित हैं। आइये आज रामनवमी के दिवस पर हम यही प्रण ले की श्री राम जी द्वारा स्थापित आदर्शों का जीवन में पालन कर अपने जीवन में आध्यात्मिक उन्नति कर उसे यथार्थ सिद्ध करेंगे।
श्रीराम द्वारा दी गई शिक्षाएं (vedicvichar)
10-04-2022
●निर्मर्यादस्तु पुरुष: पापाचारसमन्वित:। मानं न लभते सत्सु भिन्नचारित्रदर्शन:।। जो मनुष्य मर्यादारहित, पापचरण से युक्त और साधु-सम्मत शास्त्रों के विरुद्ध आचरण करनेवाला है वह सज्जन पुरुषों में सम्मान प्राप्त नहीं कर सकता। ●कुलीनमकुलीनं वा वीरं पुरुषमानिनम्। चारित्रमेव व्याख्याति शुचिं वा यदि वाऽशुचिम्।। कुलीन अथवा अकुलीन, वीर हैं अथवा भीरु, पवित्र हैं अथवा अपवित्र- इस बात का निर्णय चरित्र ही करता है। ●ऋषयश्चैव देवाश्च सत्यमेंव हि मेनिरे। सत्यवादी हि लोकेऽस्मिन परमं गच्छति क्षयम।। ऋषि और विद्वान् लोग सत्य ही उत्कृष्ट मानते हैं, क्योंकि सत्यवादी पुरुष ही इस संसार में अक्षय [परान्तकाल तक] मोक्ष सुख को प्राप्त होते हैं। ●उद्विजन्ते यथा सर्पान्नरादनृतवादिन:। धर्म: सत्यं परो लोके मूलं स्वर्गस्य चोच्यते।। मिथ्यावादी पुरुष से लोग वैसे ही डरते हैं, जैसे सर्प से। संसार में सत्य ही सबसे प्रधान धर्म माना गया है। स्वर्ग प्राप्ति का मूल साधन भी सत्य ही है। ●सत्यमेवेश्वरो लोके सत्यं पद्माश्रिता सदा। सत्यमूलानि सर्वाणि सत्यान्नास्ति परं पदम्।। संसार में सत्य ही ईश्वर है। सत्य ही लक्ष्मी= धन-धान्य का निवास है। सत्य ही सुख-शान्ति एवं ऐश्वर्य का मूल है। संसार में सत्य से बढ़कर और कोई वस्तु नहीं है। ●दत्तामिष्टं हुतं चैव तप्तानि च तपांसि च। वेदा: सत्यप्रतिष्ठानास्तस्मात्सत्यपरो भवेत्।। दान, यज्ञ, हवन, तपश्चर्या द्वारा प्राप्त सारे तप और वेद- ये सब सत्य के आश्रय पर ही ठहरे हुए हैं, अत: सभी को सत्यपरायण होना चाहिए।
*बोध कथा* (vedicvichar)
07-04-2022
*एक राजा था | उसका मन्त्री बहुत बुद्धिमान था | एक बार राजा ने अपने मंत्री से प्रश्न किया – मन्त्री जी! भेड़ों और कुत्तों की पैदा होने कि दर में तो कुत्ते भेड़ों से बहुत आगे हैं, लेकिन भेड़ों के झुण्ड़ के झुण्ड़ देखने में आते हैं और कुत्ते कहीं-कहीं एक आध ही नजर आते है | इसका क्या कारण हो सकता है ?* *मन्त्री बोला – “ महाराज! इस प्रश्न का उत्तर आपको कल सुबह मिल जायेगा |* *राजा के सामने उसी दिन शाम को मंत्री ने एक कोठे में बीस कुत्ते बन्द करवा दिये और उनके बीच रोटियों से भरी एक टोकरी रखवा दी |* *दूसरे कोठे में बीस भेड़े बन्द करवा दी और चारे की एक टोकरी उनके बीच में रखवा दी | दोनों कोठों को बाहर से बन्द करवा कर, वे दोनों लौट गये |* *सुबह होने पर मंत्री राजा को साथ लेकर वहां आया | उसने पहले कुत्तों वाला कोठा खुलवाया | राजा को यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि बीसो कुत्ते आपस में लड़-लड़कर अपनी जान दे चुके हैं और रोटियों की टोकरी ज्यों की त्यों रखी है | कोई कुत्ता एक भी रोटी नहीं खा सका था |* *इसके पश्चात मन्त्री राजा के साथ भेड़ों वाले कोठे में पहुंचा | कोठा खोलने के पश्चात राजा ने देखा कि बीसो भेड़े एक दूसरे के गले पर मुंह रखकर बड़े ही आराम से सो रही थी और उनकी चारे की टोकरी एकदम खाली थी |* *मन्त्री राजा से बोला – महाराज! कुत्ते एक भी रोटी नहीं खा सके तथा आपस में लड़-लड़कर मर गये | उधर भेड़ों ने बड़े ही प्रेम से मिलकर चारा खाया और एक दूसरे के गले लगकर सो गयी | यही कारण है, कि भेड़ों के वंश में वृद्धि है ,समृद्धि है | उधर कुत्ते हैं, जो एक-दूसरे को सहन नहीं कर सकते | जिस बिरादरी में इतनी घृणा तथा द्वेष होगा | उसकी वृद्धि भला कैसे हो सकती है |* *राजा मन्त्री की बात से पूरी तरह सन्तुष्ट हो गया | उसने उसे बहुत सा पुरस्कार दिया | वह मान गया था, कि आपसी प्रेम तथा भाईचारे से ही वंश वृद्धि होती है |* ऒ३म् नमस्ते जी ????????????????????????????????????️????️????️????️????️????️
सत्यार्थ प्रकाश के सभी समुल्लास का संक्षिप्त विवरण अथ सत्यार्थ प्रकाश ज्ञान (vedicvichar)
07-04-2022
हमने सत्यार्थ प्रकाश का नाम अनेकों बार सुना है और हमारे बहुत से हिन्दू युवाओं और युवतियों को इसके बारे में जानने की जिज्ञासा सदा बनी रहती है, इसलिये अब सत्यार्थ प्रकाश की विषय सूची को सबके लिये खोलकर लिखा जाता है :- सत्यार्थ प्रकाश में कुल 14 समुल्लास (अध्याय) हैं। जिनमें से पहले 10 तो वेद आधारित वैदिक धर्म के मंडन पर लिखे हैं और शेष ४ अवैदिक मत मतांतरों के खंडन पर लिखे गए हैं। ये 14 समुल्लास इस प्रकार हैं :- 1 , (१.) प्रथम समुल्लास :---- इस पूरे ब्रह्माण्ड में ईश्वर से सर्वश्रेष्ठ और कोई नहीं है ईश्वर ने ही मनुष्यों की हर प्रकार की उन्नति के लिये वेद में पूरे ब्रह्माण्ड का ज्ञान विज्ञान दिया है। उसी ईश्वर का सर्वश्रेष्ठ नाम 'ओ३म्' है और वेद में इसी एक ईश्वर के बहुत सारे नाम हैं जैसे कि रुद्र, मित्र, शिव, विष्णु, प्रजापति, इन्द्र, सूर्य, वरुण, सोम, पर्वत, लक्ष्मी, सरस्वति आदि। तो इस समुल्लास में ऋषि दयानन्द ने ऐसे मुख्य अत्यन्त प्रसिद्ध १०० नामों की व्याख्या की है। जिससे कि ईश्वर के स्वरूप के बारे में सबकी शंकाओं का समाधान हो जाए। 2 , (२.) द्वितीय समुल्लास :--- इस समुल्लास में संतानों की शिक्षा के बारे में लिखा गया है क्योंकि बिना शीक्षित हुए मनुष्य पशु के समान होता है। हम मनुष्य में तो स्वाभाविक व्यवहार भी बिना शिक्षा के नहीं आता है। इसी कारण बिना विद्या के मनुष्य अनेकों छल-कपट भूत पिशाच, चुड़ैल आदि में मिथ्या विश्वास और उनको दूर करने का ढोंग करने वाले पाखंडियों के जाल में फँसकर अपने धन, सम्मान, ऊर्जा, समय आदि नष्ट करते हैं। तभी ऋषि ने ये लिखा है कि जो मनुष्य अपनी संतानों को सुशीक्षित नहीं करते वे अपनी संतानो के परम शत्रु हैं। 3 , (३.) तृतीय समुल्लास :--- इस समुल्लास में ऋषि ने पठन पाठन की व्यवस्था पर प्रकाश डाला है। कि पढ़ना लिखना किस प्रकार का होना चाहिए। गुरुकुल शिक्षा प्रणाली, प्रमाणों के आधार पर परीक्षा करके सत्य और असत्य को जानना, पढ़ने योग्य वेद और आर्ष ग्रंथ, त्याग करने योग्य शुद्र ग्रंथ, ब्रह्मचर्य की अवधी, गायत्री महामंत्र के अर्थ सहित जाप की विधी, प्राणायाम के चार प्रकार, आचमन सहित संध्योपासना, यज्ञ अग्निहोत्र समेत पंच महायज्ञ (ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, बलिवैश्वदेवयज्ञ, पितृयज्ञ, अतिथियज्ञ)। इन विषयों पर प्रकाश डाला है जो कि मनुष्य को सुशीक्षित करने हेतु हैं। यही वो शिक्षा है जिससे कि हमारे आर्यावर्त देश में राम, कृष्ण, जैमिनी, अहिल्या, कणाद, कपिल, गौतम, भरद्वाज, गार्ग्य, आग्रगायण, सीता, सावित्री, रुक्मिणी, पतंजली, पाणीनि आदि उत्पन्न हुए हैं। और इसी गुरुकुलीय शिक्षा और आर्ष पाठ्यक्रम को लागू करके वैसे ही सभ्य मनुष्य उत्पन्न करने के उद्देश्य से ये समुल्लास लिखा गया है। 4 , (४.) चतुर्थ समुल्लास :---- जैसा कि कहा गया है कि चारों आश्रमों में गृहस्थाश्रम सर्वोत्तम माना गया है। क्योंकि ये आश्रम ही बाकी के तीनों आश्रमों (ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ और सन्यास) का पोषण करता है। इसलिए इसमें विवाह और उसके ८ प्रकारों पर प्रकाश डाला गया है। विवाह किन किन स्त्री पुरुषों का होना चाहिए? किनका विवाह उत्तम होता है? किन किन को विवाह करने का अधिकार नहीं है? उत्तम गुणों वाली संतानें कैसे उत्पन्न हो सकती हैं? विवाह करने में किन गुणों और दोषों को विचारना चाहिए? विधवा विवाह। नियोग विषय आदि पर महर्षि ने वेदमंत्रों और अन्य शास्त्रीय प्रमाणों से उत्तम गृहस्थी की रचना कैसे की जाए? इन सब विषयों पर प्रकाश डाला है। 5 , (५.) पञ्चम समुल्लास :---- हमारी संस्कृति के आधार हमारे चार वर्णाश्रम हैं। हमारे जीवन की तीन चौथाई भाग वन में बीतता था (ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ, सन्यास)। जिनमें अंतिम दो यानी कि वानप्रस्थ और सन्यास जिनमें प्रत्येक मनुष्य को वन में रहकर समाज के हित में कार्य करना होता है। जब तक वानप्रस्थ और सन्यास की परम्परा हमारे देश में रही तबतक हमारे देश को तपस्वी वेद प्रचारक, गुरु शिक्षक आदि प्राप्त होते रहे लेकिन जब से ये सब बंद हुआ। तब से बुड्ढे होकर रिटायर होकर घर में व्यर्थ बैठ पोते पोतियों के मोह में बेटे बहु के ताने सुनकर पारिवारिक माहौल खराब किया और समाज को भी कोई लाभ न हुआ। इसी कारण राष्ट्र दुर्दशा को प्राप्त हुआ। इस समुल्लास में किन किन लोगों को वानप्रस्थी या सन्यासी होना चाहिए? और उनके क्या क्या कर्तव्य होने चाहियें? इस पर लिखा गया है। 6 , (६.) षष्ठ समुल्लास :---- इसमें ऋषि ने मनुस्मृति आधारित राजतंत्र विषय पर लिखा है। क्योंकि जबतक हमारे देश में ऋषियों ने राजतंत्र रखा तबतक हमारा देश पूरे विश्व में चक्रवर्ती शासन करने में अत्यन्त समर्थ था और पूरी दुनिया को एकजुट करते हुए वैदिक धर्म के अधीन रखकर सुख और शांती बनाए रक्खी। पूरे विश्व में कभी आर्यों का चक्रवर्ती शासन था जब से मनु का राजतंत्र लुप्त हुआ तब से आर्य शासन खंडित होता गया और पूरी पृथिवी पर से वैदिक धर्म घटता गया। क्योंकि मनुस्मृति में राजा के कर्तव्य, उसकी दिनचर्या, शिक्षा, प्रजा से संवाद, दान, वर्णव्यवस्था की रक्षा और राज्य में योजनाएँ आदि लागू करवाना आदि लिखा है। इसी के प्रमाण मनुस्मृति से देकर ऋषि दयानंद ने मनु के राजतंत्र को सुदृढ़ करके देश को वही आर्यावर्त बनाने के संकल्प से लिखा था। क्योंकि उनका मानना था कि राजा के अधीन प्रजा और प्रजा के अधीन राजा रहें तो शासन निरंकुश नहीं होता। महर्षि चाहते थे कि हिन्दू के हाथ से खोया हुआ उसका चक्रवर्ती शासन उसे पुनः प्राप्त हो जाए और पृथिवी पर पनप रहे अवैदिक इस्लाम- ईसाई मत आदि का दमन करके उनका स्मूल नाश करके केवल एकछत्र वैदिक राष्ट्र ही पूरी पृथिवी पर लागू किया जाए। 7 , (७.) सप्तम समुल्लास :-------- इस समुल्लास में ऋषि दयानन्द जी ने वेद और ईश्वर विषय पर लिखा है। क्योंकि आदिकाल में सृष्टि की रचना करके ईश्वर ने हम मनुष्यों की मानसिक, शारीरिक, आध्यात्मिक, सामाजिक हर प्रकार की उन्नति करने के लिये वेद का ज्ञान चार उत्कृष्ट ऋषियों के द्वारा दिया जिन्होंने आगे ब्रह्मा ऋषि और फिर आगे गुरु शिष्य परम्परा में ये ज्ञान मनुष्य जाति में फैलता गया। इस समुल्लास में ऋषि दयानंद जी ने अनेकों वेदमंत्र और कई दर्शन शास्त्रों के प्रमाण देकर ईश्वर के स्वरूप को सिद्ध किया है तांकि किसी को ईश्वर के विषय में कोई शंका न रहे। और वेद जो कि ईश्वर का नित्य ज्ञान है उसकी नित्यता के बारे विचार किया है। 8 , (८.) अष्टम समुल्लास :---- यह आठवाँ समुल्लास सृष्टि के त्रैतवाद विषय पर लिखा गया है । क्योंकि यह सृष्टि तीन कारणों (परमात्मा, जीव, प्रकृति) से उत्पन्न हुई है। जिस कारण इनको क्रम से (निमित्त कारण, साधारण कारण, उपादान कारण) भी कहा गया है। इस त्रैतवाद विषय को सरल ढंग से समझाने के लिये ऋषि ने इसमें वेदमंत्रों के प्रमाण दिए हैं क्योंकि ईश्वर की रचना को ईश्वरीय ज्ञान वेद ही समझाने में समर्थ है और उसके आधार पर ऋषियों द्वारा लिखे तर्क शास्त्र भी इस रचना को समझने में सहायक होते हैं। 9 , (९.) नवम समुल्लास :----- इसमें ऋषि ने बँधन और मुक्ति अर्थात् मोक्ष के विषय में लिखा है। तांकि मनुष्य पातंजल योगशास्त्र के अनुसार ईश्वरोपासना करके अपने अंदर का मिथ्याज्ञान नष्ट कर तत्वज्ञान प्राप्त कर ले। इसी को समझाने के लिये ऋषि ने ब्रह्म तत्व, उसके ज्ञान, बल, सामर्थ्य आदि को समझाते हुए बँधन के कारण और उसके नाश करने की विधी को संक्षेप में इस समुल्लास में लिखा है। 10 , (१०.) दशम समुल्लास :---- कोई भी मनुष्य समाज में उत्तम व्यवहार किए बिना सुख को प्राप्त नहीं हो सकता। कम पढ़ा लिखा मनुष्य भी उचित व्यवहार करके समाज में सम्मान का पात्र बन जाता है तो दूसरी ओर अधिक पढ़ा लिखा भी अनुचित व्यवहार करके अपमानित और तिरस्कृत होता है। इसी लिये ऋषि ने मनुष्यों को उत्तम व्यवहार और भक्ष्य एवं अभक्ष्य पदार्थों के विषय में शिक्षा देते हुए ये समुल्लास लिखा है। 11 , (११.) एकादश समुल्लास :---- महाभारत काल से पहले तक पूरे विश्व में केवल वैदिक धर्म ही फैला हुआ था और हमारा देश आर्यावर्त पूरी दुनिया का केन्द्र था। हमारे आर्य राजाओं का चक्रवर्ती शासन था पूरी दुनिया के राजा हमारे देश को कर देते थे। हमारे वेद प्रचारक ऋषिमुनि पूरे विश्व में वेद प्रचार को जाते थे। महाभारत के भीष्ण युद्ध में हमारे प्रचारक मारे गए और पूरा विश्व वेद की शिक्षा से रहित हो गया हमारा देश आर्यावर्त भी इससे अछूता न रहा। वेद शिक्षा से विरुद्ध कई कपोल्कल्पित मत पंथ आर्यावर्त में चल पड़े और इन मत मतांतरों की कई शाखाएँ और प्रतिशाखाएँ फूट निकलीं। जिसने कि हमारे आर्यावर्त में मनुष्यो के बीच में कई लकीरें खींच डालीं, वर्णव्यवस्था विकृत होकर जातिवाद में बदल गई। ऐसे ही कितने गुरु, अवतार, बाबा, संत आदि अपने आधार पर कई मत पंथ बनाते गए और लोगों को वेद की शिक्षा से कोसों दूर ले गए। इस समुल्लास में ऋषि दयानंद ने इन्हीं सब पंथों आदि की अवैदिक मान्यताओं का खंडन करके वेद मत का मंडन किया है। क्योंकि इन पंथों ने लोगों को ईश्वर के दर्शन करवाने का ठेका ले लिया था और हर पंथ मात्र अपने अनुयायीयों की संख्या बढ़ाने में ही लगा था। इसी धार्मिक फूट के कारण हमारा देश 3000 वर्षों में बहुत निर्बल हुआ और 1200 वर्षों तक विदेशियों से पराधीन होकर जूझता रहा। इसी फूट की समीक्षा करके मात्र एक वेद स्थापित करने के उद्देश्य से ऋषि ने ये समुल्लास लिखा। 12 , (१२.) द्वादश समुल्लास :---- ये समुल्लास भारत में पनपे वेद विरोधी नास्तिक बौद्धमत, जैनमत, चारवाक आदि के खंडन में है क्योंकि आर्यावर्त में बाकी जितने मत मंतातर पैदा हुए उनमें से अधिकांश तो ईश्वर और वेद को आंशिक रूप में किसी न किसी रूप में मानते थे परन्तु ये जैन, बौद्ध मत तो नितान्त नास्तिक और उग्र वेद विरोधी मत थे। इसी कारण बहुत से बौद्धों ने ब्राह्मणों और क्षत्रियों से घृणावश होकर देश द्रोह तक किया और मुसलमान आक्रमणकारीयों की पूरी सहायता करते हुए उनको अपने बौद्ध विहारों में ठहराया और आर्य हिन्दू राजाओं के राज्यों के गुप्त पते बताते हुए उनपर आक्रमण करने में पूरा सहयोग किया। इस समुल्लास में ऋषि दयानंद ने मुख्य बौद्ध, जैन, चारवाक आदि ग्रंथों के साक्ष्य उठाकर उनके अनीश्वरवाद का खंडन प्रबल युक्तियों से किया है और वेद के आस्तिकवाद का मंडन बड़े सुंदर ढंग से किया है। 13 , (१३.) त्रयोदश समुल्लास :--- भारत में अंग्रेज़ों ने वैटिकन के ईशारे पर यहाँ की हिन्दू जनता को ईसाई बनाने के लिये जीतोड़ प्रयास किए। इसलिये यहाँ ग्रामीण अनपढ़ लोगों को ईसाई बनाने हेतु ये ईसाई पादरी और पास्टर गाँव गाँव बाईबल लेकर घूमा करते थे और हिन्दू देवी देवताओं की निंदा करते और यीशू मसीह की महानता बताते रहते थे। इस कार्य के लिये अंग्रेज़ों द्वारा पानी की तरह पैसा बहाया जा रहा था। ऋषि दयानंद जी ने इनकी मान्य पुस्तक बाईबल उठाकर उसकी चुनिंदा आयतों की समीक्षा की और बाईबल का जंगलीपन, निकृष्टता को लोगों के सामने खोलकर रखा और ये सिद्ध किया कि विदेश में पनपा ईसाई मत भारत के लोगों के योग्य नहीं है। इसलिये ये समुल्लास ईसाई मत खंडन पर लिखा तांकि सभी मनुष्य बाईबल की ऊटपटांग बातों को बुद्धिपूर्वक पढ़ें और तुल्नात्मक रूप से वैदिक धर्म की श्रेष्ठता को स्वीकार करें। बहुत से ईसाई लोग और पादरी इस समुल्लास को पढ़कर ईसाई मत त्यागकर वैदिक धर्मी हो चुके हैं। 14 , (१४.) चतुर्दश समुल्लास :---- अरब में पनपी इस्लाम की विचारधारा शुरु से ही हिंसा पर आधारित रही है। इस्लाम के संस्थापक पैगम्बर माने जाने वाले मुहम्मद साहब हैं जिन्होंने मक्का में जन्म लिया था। उनके अनुयायीयों और खलीफाओं ने अरबी साम्राज्य के विस्तार के उद्देश्य से इस्लाम को मज़हब यानी की एक संप्रदाय बनाया। इस्लाम में अनेकों प्रकार के फिरके हैं। इन सबकी मान्य पुस्तक एक ही कुरान है। भारत में हिन्दुओं को मुसलमान बनाने के उद्देश्य से कुरान के मानने वालों ने 678 ईं से लेकर अबतक यहाँ भीष्ण अत्याचार किए हैं। पूरी दुनिया में हो रही आतंकवादी घटनाएँ, सीरिया, इराक, यमन आदि में हो रहा गृहयुद्ध और सामूहिक रक्तपात कुरान की इसी वहाबी विचारधारा से प्रेरित है। इसलिये ऋषि दयानंद ने इस समुल्लास मे लगभग 200 से ऊपर कुरान की आयतें उठाकर उनकी समीक्षा की और समझने का प्रयास किया। ऋषि ने ये समुल्लास किसी को चिढ़ाने के लिये नहीं बल्कि मुसलमानों के लिये विचार करने के लिये लिखा है। मुस्लिम संगठनों द्वारा इस समुल्लास का विरोध भी हुआ परन्तु ऋषि के तर्कों को काटने साहस किसी में भी आजतक न हुआ। सत्यार्थ प्रकाश का खंडन लिखने की भूल करने वाले बहुत से मौलवी और मुफ्ती स्वयं ही वेद की विचारधारा से प्रभावित होकर इस्लाम छोड़ बैठे और शुद्धि करवाकर वेद प्रचारक तक बन गए। नोट :- सत्यार्थ प्रकाश प्रत्येक हिन्दू के रक्त में उबाल लाने वाला उत्तम ग्रंथ है। इसे अवश्य पढ़ें औरों को भी पढ़ाएं, और सत्य को जानें।
वेदों के पांच ऋषि (vedicvichar)
07-04-2022
ऋग्वेद 10/150/ 1-5 मन्त्रों में अग्नि रूप परमेश्वर को सुखप्राप्ति के लिए आवहान करने का विधान बताया गया है। ईश्वर से प्रार्थना करने और यज्ञ में पधारकर मार्गदर्शन करने की प्रार्थना की गई है। धन, संसाधन, बुद्धि, सत्कर्म इच्छित पदार्थों, दिव्या गुणों आदि की प्राप्ति के लिए व्रतों का पालन करने वाले ईश्वर की उपासना का विधान बताया गया है। अग्निदेव रूपी ईश्वर संग्राम में बुलाने पर अत्रि, भरद्वाज, गविष्ठिर, कण्व और त्रसदस्यु इन पांच ऋषियों की रक्षा करते है। आनंदप्राप्ति का कार्य पुरोहित वशिष्ट के माध्यम से गुणों को धारण करने पर होता है। ईश्वर अपनी आदित्य, रूद्र और वसु तीन दिव्यशक्तियों के साथ आकर हमें आन्दित करता हैं। इस सूक्त में आये पांच ऋषि अत्रि, भरद्वाज, गविष्ठिर, कण्व और त्रसदस्यु हैं। अत्रि:- भोजन में संयम रखने वाला अथवा काम, क्रोध, लोभ आदि को अपने अंदर प्रविष्ट नहीं होने देने वाला। भरद्वाज: - अपने अंदर शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक शक्तियों को विकसित करने वाला। गविष्ठिर:- अपनी वाणी पर स्थिर रहने वाला अर्थात वचन को पूरे मनोयोग से पूर्ण करने वाला। कण्व:- कण कण में गति करता हुआ चरम उत्कर्ष पर पहुंचने वाला। त्रसदस्यु- दस्यु/शत्रुओं को दूर करने वाला। ये पांच ईश्वरीय गुणों वाले ऋषि है और अग्नि रूपी ईश्वर की आदित्य, रूद्र और वसु तीन दिव्यशक्तियाँ हैं। वसु 24 वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन करने वाला है और शरीर को स्वस्थ और पूर्णायु तक बसाए रखने की शक्ति रखने वाला है। रूद्र 44 वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए अपने ज्ञान और कर्म से रोगों को दूर करने वाला है। आदित्य 48 वर्ष तक संयम का पालन करने वाला देवता है। इस यज्ञ का पुरोहित वशिष्ठ अर्थात वह जो कुल, समाज और राष्ट्र को बसाता है। किसी को उजाड़ता नहीं है। उसे वशिष्ठ कहते है। इस सूक्त में ऋषियों का अनुकरण करके स्वयं ऋषि गुणों को धारण करने वाले की ईश्वर अपनी दिव्य शक्तियों द्वारा रक्षा करते है। यही ऋषि बनने का साधन है। यही उत्कृष्ट ज्ञान ज्योति को प्राप्त करने का मार्ग है। यही अंतिम ध्येय है। आईये! वेदों को जाने
झूठ की खेती (vedicvichar)
07-04-2022
झूठ को हज़ार बार बोलें तो झूठ सच लगने लगता है। -- आर्यों का बाहर से आक्रमण, यहाँ के मूल निवासियों को युद्ध कर हराना, उनकी स्त्रियों से विवाह करना, उनके पुरुषों को गुलाम बनाना, उन्हें उत्तर भारत से हरा कर सुदूर दक्षिण की ओर खदेड़ देना, अपनी वेद आधारित पूजा पद्धति को उन पर थोंपना आदि अनेक भ्रामक, निराधार बातों का प्रचार जोर-शोर से किया जाता है। ---- वैदिक वांग्मय और इतिहास के विशेषज्ञ स्वामी दयानंद सरस्वती जी का कथन इस विषय में मार्ग दर्शक है। स्वामीजी के अनुसार किसी संस्कृत ग्रन्थ में वा इतिहास में नहीं लिखा कि आर्य लोग ईरान से आये और यहाँ के जंगलियों से लड़कर, जय पाकर, निकालकर इस देश के राजा हुए (सन्दर्भ-सत्यार्थप्रकाश 8 सम्मुलास) जो आर्य श्रेष्ठ और दस्यु दुष्ट मनुष्यों को कहते हैं वैसे ही मैं भी मानता हूँ, आर्यावर्त देश इस भूमि का नाम इसलिए है कि इसमें आदि सृष्टि से आर्य लोग निवास करते हैं इसकी अवधि उत्तर में हिमालय दक्षिण में विन्ध्याचल पश्चिम में अटक और पूर्व में ब्रहमपुत्र नदी है इन चारों के बीच में जितना प्रदेश है उसको आर्यावर्त कहते और जो इसमें सदा रहते हैं उनको आर्य कहते हैं। (सन्दर्भ-स्वमंतव्यामंतव्यप्रकाश-स्वामी दयानंद)। -- स्वयं वेद क्या कहता है अकर्मा दस्युरभि नो अमन्तुरन्यव्रतो अमानुष: । त्वं तस्यामित्रहन् वध: दासस्य दम्भय ।। ऋग्वेद 10/22/8 ऋग्वेद कहता है - (1)"अकर्मा दस्यु: "। जो कर्मशील नही है, जो निष्क्रिय है, उदासीन है, जो आनंद प्रमोद में मस्त है, वह अकर्मा है । जिसका अच्छा खाना-पीना और मौज करना ही लक्ष्य है, वह अकर्मा है । जो अन्य के लिए कुछ सोचता नहि, वह अकर्मा है । अच्छे कार्य क्या क्या है, वह जानते हुए भी उसमें जो प्रवृत नहीं होता, वह अकर्मा है । अकर्मा दस्यु है । जो मनुष्य करनेयोग्य कार्य करने मे समर्थ है, फिर भी वह कार्य में परिणित नही होता, वह दस्यु है । दस्यु रहना अपराध है, दंडनीय है । हम अकर्मा नही, सुकर्मा बने । सुकर्मा का जीवन ओजस्वी, दीर्घायु औऱ सभी के लिए अनुकरणीय होता है । जो मनुष्य वेदादि शास्त्र पढ़ता है, पढाता भी है, परंतु व्यवहार में शून्य है अथवा तो विपरीत है, वह दस्यु है अर्थात् पृथ्वी पर भार रूप है । (2) अमन्तु: दस्यु: - अर्थात् जो मंतव्यहीन है, जिसका जीवन मे कोई खास उद्देश्य नही, जो मर्यादाओ का उल्लंघन करनेवाला है,जो मनमानी करेवाला है, वह दस्यु है , राक्षस है । दुराचारी सदा अपनी मनमानी करता है । श्रेष्ठ एवम् शालीन आचरण नही करनेवाला दस्यु है । जिसकी शिष्टाचार, सत्य, न्याय, धर्म , पुनर्जन्म, कर्म , आत्मा, ईश्वर किसी में भी कोई श्रद्धा विश्वास नही, वह दस्यु है, पापी है । जिसमें मननशीलता और समझदारी का अभाव है, वह दस्यु है । बिना सोचे समजे काम करनेवाले अमन्तु है । जोश में होंश खोनेवाला, क्रोधादि के आवेग में संयम न रखनेेवाला दस्यु है । उद्वेगी, असहनशीलता, छिछोरापन, नासमझी दस्युपन है, हेय है, हानिकारक है । (3) अन्यव्रत: दस्यु: - अर्थात् जो अन्य व्रती है, विपरीत व्यवहार करनेवाला है , वह निंदनीय है । जो मनुष्य बाहर से तो धार्मिक है, अच्छे सात्विक वस्त्र धारण करते है, सभा सत्संग में सत्य और मधुर वाणी भी प्रगट करते है, किन्तु आचरण बिलकुल उसके विपरीत है, वह दस्यु है । जो अपने निहित स्वार्थ की सिद्धि की लिए सब के सामने व्रत भी ले लेते है, परंतु वर्तन सर्वथा उल्टा करते है, एसे पोंगा पंडितो से बचना चाहिए, क्योकि वह अंदर से दस्यु, दानव होते है । (4) अमानुष: दस्यु: - जिस मानव में मानवता नहि, वह अमानुष है, दस्यु है । जिस मनुष्य में मनुष्यता का अभाव है, उसे अमानुष कहते है । पशु और मनुष्य के बीच का अलगावपन धर्म के कारण है । पशु कभी पशुधर्म से च्युत होता नहि, परंतु मनुष्य एक चाय की प्याली के लिए अपना ईमान खो देता है, अपने धर्म से पतित हो जाता है । अपने विचार, आचार-व्यवहार से सभी जीवमात्र का हित करनेवाला मनुष्य है, देव है । जिसके विचार, वाणी तथा व्यवहार से मानवजाति में दुश्चरित्रता फैलती है, वह अमानुष दस्यु है, कठोर दंड के भागी है । असुरता, दस्युपन, अनार्यता, दानवता प्राणिमात्र के लिए दुःखदायक है, कलंकित है ।ज्यादातर मनुष्य आर्यत्व से दूर जा रहे है । महदअंश में सभी का लक्ष्य 'येन केन प्रकारेण' केवल धन हो गया है । कैसे भी हो, सभी को बहुत जल्दी , बहुत सारा धन चाहिए, पद- प्रतिष्ठा चाहिए, कंचन- कामिनी चाहिए । नेता लोग अपने कुछ स्वार्थ के लिए राष्ट्र को बेचने के तक तैयार हो जाते है । नेताओ को केवल वोट चाहिए । कैसे भी अपना काम होना ही चाहिए । कुछ भी हो जाए, कितनी भी मारपीट करनी पड़े, जरूर हो तो दंगल - फसाद भी किया जाए, किन्तु अपनी गद्दी सलामत रहनी चाहिए । सारा समाज, सभी क्षेत्र, सारे आश्रम, सारी वर्णव्यवस्था नष्ट - भ्रष्ट हो चुकी है । अच्छे व्यक्तिओ की कोई सुनता नही, सज्जन लोग निष्क्रिय हो गए है । थोड़े से गुंडे, थोड़े से देशद्रोही सारे राष्ट्र पर हामी हो गए है । राष्ट्र खतरे में है, मानवजाति खतरे में, हिंदु (आर्य) जाति सिकुड़ चुकी है । क्या होगा मानवजीति का ? क्या होगा धर्म का, वेद का, सत्य ज्ञानविज्ञान का ? वेद उत्तर देता है (तस्य दासस्य दंभय) उस दस्यु का नाश करो । हे परमेश्वर ! आप ऐसे दस्युओं का विनाश करके विभिन्न नारकीय योनियों में डालते हो । हमें भी ऐसी शक्ति, साहस, ओजस्वीता, बल व उत्साह प्रदान करे, जिससे संगठित होकर उसे हम रोक सके और परिवार, समाज, राष्ट्र तथा विश्व की रक्षा कर सके । आवश्यकता है सभी सज्जन संगठित हो जाए, एक समान विचारवाले हो जाए, एक समान गतिवाले हो जाए, एक लक्ष्य तथा एक मान्यतावाले हो जाए । समाज तथा राष्ट्र में दस्युओं के विनाश के लिए सर्वस्व की आहुति देने हेतु सुकर्मा संत- महात्मा मानवसमाज को प्रेरित करे और धर्म का सुस्थापन हो ऐसा घोर पुरुषार्थ किया जाय । दुष्टो का हनन और सज्जन की रक्षा होनी चाहिए ।
भारतीय नववर्ष मनाने का उद्देश्य (vedicvichar)
07-04-2022
१. सृष्टि संवत्सर-सृष्टि की उत्पत्ति, वसन्त ऋतु चैत्र मास शुक्ल पक्ष प्रतिपदा को हुई थी। अतः सृष्टि संवत्सर का शुभारम्भ इसी समय हुआ था। ज्योतिष के हिमाद्रि ग्रन्थ के अनुसार- चैत्रमासि जगद् ब्रह्म ससर्ज प्रथमेऽहनि। शुक्लपक्षे समग्रन्तु तदा सूर्योदये सति।। चैत्र शुक्लपक्ष प्रतिपदा को सृष्टि की उत्पत्ति के साथ ही प्रथम सूर्योदय होने पर मेष संक्रान्ति और काल के विभाजन वर्ष, अयन, ऋतु, मास, पक्ष, तिथि, दिन, नक्षत्र, मुहूर्त, लग्न, पल, विपल आदि एक साथ प्रारम्भ हुए। उसी समय से यह सृष्टि संवत्सर के नाम से प्रचलित हुआ। २. मानव संस्कृति, धर्म, कर्म, ज्ञान, उपासना के मूलाधार पवित्र ग्रन्थ वेद हैं। ऋग्, यजु:, साम और अथर्व इन चारों वेदों का ज्ञान उस निराकार परमपिता परमात्मा ने मानव-सृष्टि के आदि में अग्नि, वायु, आदित्य और अङ्गिरा ऋषियों के हृदय में प्रकाशित किया था। वेदों का ज्ञान सदैव सत्य, सनातन, शाश्वत, अपरिवर्तनीय, सार्वभौम, अपौरुषेय एवं सर्वमान्य है। अतः वेदों का प्रादुर्भाव भी मानव-सृष्टि के आदि में हुआ था, जिससे सूर्य के प्रकाश के साथ-साथ वेदज्ञान का प्रकाश भी चहुंदिशि विस्तृत हुआ। ३. विक्रमी संवत् महान् सम्राट् चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य की महत्त्वपूर्ण विजयों के उपलक्ष्य में विक्रमी संवत् का शुभारम्भ हुआ। आज भी यह संवत् हमें अन्याय पर विजय-प्राप्ति व स्वराज्य की रक्षा करने के लिए प्रेरित कर रहा है। ४. वैदिक धर्म के सतत प्रचारार्थ और मानव जाति के उपकार के लिए आर्यसमाज की स्थापना महर्षि दयानन्द सरस्वती ने बम्बई (मुम्बई) में चैत्र शुक्लपक्ष प्रतिपदा संवत् १९३२ तदनुसार ७ अप्रैल, १८७५ में किया था, जो आज भी वैदिक सन्देशों को जन-जन तक पहुंचाने हेतु प्रयासरत है। ५. चैत्रमास में वसन्त ऋतु का आगमन होता है। इस ऋतु में प्रकृति की अनुपम छटा होती है। आकाश स्वच्छ और निर्मल होता है। पेड़-पौधों एवं लताओं पर रंग-बिरंगे खिले हुए फूलों को देखकर मन की कली भी खिल उठती है। यह मौसम चित्त और मन के लिए सुखदायी होता है, इसलिए वसन्त ऋतु को ऋतुराज भी कहा जाता है। अतः इसी वसन्त ऋतु में नववर्ष का प्रारम्भ मानना वैज्ञानिक दृष्टि से उचित है। प्रत्येक नववर्ष हमारे लिए आत्मोन्नति का पर्व होता है। हमें सम्पूर्ण वर्ष में किए गए कार्यों का निरीक्षण करना चाहिए। शुभ कार्यों को धारण करने में और अशुभ कार्यों को छोड़ने में बाध्य होना चाहिए। यह नववर्ष आप सभी के जीवन के लिए सुख, समृद्धि, प्रेम, गौरव, उन्नति और प्रसन्नता से परिपूर्ण हो। इस परम पुनीत अवसर पर हम सभी सेवा, परोपकार, सदाचार, सद्व्यवहार, मानवकल्याण, राष्ट्रीय एकता, अखण्डता, संस्कृति, सभ्यता, प्राचीन गौरव को प्राप्त करने का व्रत लें। इसी सन्देश के साथ आप सभी को नववर्ष विक्रम संवत् 2079 की हार्दिक शुभकामनाएं! -Arya Samaj Team
स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी का उपदेश (vedicvichar)
07-04-2022
( स्वामी जी की पुण्यतिथि 3 अप्रैल पर विशेष रूप से प्रकाशित) एक बार आर्य समाज के स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी भिक्षा माँगते हुए एक घर के सामने खड़े हुए और उन्होंने आवाज लगायी - “वैदिक धर्म की जय !” घर से महिला बाहर आयी। उसने उनकी झोली में भिक्षा डाली और कहा, “महात्माजी, कोई उपदेश दीजिए !” स्वामी जी बोले, “आज नहीं, कल दूँगा।” दूसरे दिन स्वामीजी ने पुन: उस घर के सामने आवाज दी – “वैदिक धर्म की जय !”उस घर की स्त्रीने उस दिन खीर बनायीं थी, जिसमे बादाम-पिस्ते भी डाले थे।वह खीर का कटोरा लेकर बाहर आयी। स्वामीजीने अपना कमंडल आगे कर दिया। वह स्त्री जब खीर डालने लगी, तो उसने देखा कि कमंडल में गोबर और कूड़ा भरा पड़ा है। उसके हाथ ठिठक गए। वह बोली, “महाराज ! यह कमंडल तो गन्दा है।” स्वामीजी बोले, “हाँ, गन्दा तो है, किन्तु खीर इसमें डाल दो।” स्त्री बोली, “नहीं महाराज, तब तो खीर ख़राब हो जायेगी। दीजिये यह कमंडल, में इसे शुद्ध कर लाती हूँ।” स्वामीजी बोले, मतलब जब यह कमंडल साफ़ हो जायेगा, तभी खीर डालोगी न ?” स्त्री ने कहा : “जी महाराज !” स्वामीजी बोले, “मेरा भी यही उपदेश है। मन में जब तक चिन्ताओ का कूड़ा-कचरा और बुरे संस्करो का गोबर भरा है, तब तक उपदेशामृत का कोई लाभ न होगा। यदि उपदेशामृत पान करना है, तो प्रथम अपने मन को शुद्ध करना चाहिए, कुसंस्कारो का त्याग करना चाहिए, तभी सच्चे सुख और आनन्द की प्राप्ति होगी।”
"लाला लाजपतराय की शिमला में स्थापित प्रतिमा" एवं "आर्य स्वराज्य सभा" का इतिहास(vedicvichar)
07-04-2022
आप सभी शिमला रिज की सैर करने जाते है, तो आपको लाला लाजपतराय की प्रतिमा के दर्शन होते है। लाला जी की प्रतिमा के नीचे लिखे पट्ट पर आपको आर्य स्वराज्य सभा द्वारा स्थापित लिखा मिलता हैं। यह आर्य स्वराज्य सभा क्या थी? इसकी स्थापना किसने की थी? "आर्य स्वराज्य सभा" की स्थापना - क्यों और कार्य" 1947 से पहले लाहौर आर्यसमाज का गढ़ था। आर्यसमाज के अनेक मंदिर, DAV संस्थाएं, पंडित गुरुदत्त भवन, विरजानन्द आश्रम, दयानन्द ब्रह्म विद्यालय, हज़ारों कार्यकर्ता आदि लाहौर में थे। आर्यसमाज के अनेक कार्यकर्ताओं में एक थे पंडित रामगोपाल जी शास्त्री वैद्य। आप पहले डीएवी में शिक्षक, शोध विभाग आदि में कार्यरत थे। आपने भगत सिंह को कभी नेशनल कॉलेज में पढ़ाया भी था। कुशल और सफल चिकित्सक होने के अतिरिक्त श्री पं० रामगोपालजी शास्त्री वैद्य एक आस्थाशील दृढ़ आर्यसमाजी, ऋषि दयानन्द के अटूट भक्त और रक्त की अन्तिम बूंद तक हिन्दुत्व के सजग प्रहरी तथा अडिग राष्ट्रसेवक थे। देश में जब गांधीजी और कांग्रेस के नेतृत्व में इस सदी के दूसरे दशक में- जलियांवाला बाग, अमृतसर हत्याकाण्ड के बाद स्वराज्य का तीव्र आन्दोलन चल रहा था, उस समय गांधीजी ने स्वराज्य प्राप्ति के लक्ष्य के साथ मुसलमानों को खुश करने के लिए खिलाफत का मसला भी जोड़ दिया था, यद्यपि विश्व के समस्त मुसलमानों का -केवल भारत के मुसलमानों का नहीं- खलीफा टर्की में रहता था और उसे पदच्युत टर्की के राष्ट्रपति कमाल पाशा ने ही किया था। भारत की स्वतन्त्रता का इस प्रश्न के साथ दूर का भी सरोकार नहीं था। गांधीजी की इस अदूरदर्शिता का परिणाम यह हुआ कि कांग्रेस हर कीमत पर मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति को अपनाकर भारत की बहुसंख्यक हिन्दु-जाति को पद दलित करने लगी। फलतः मुसलमानों में मजहबी जोश इतना भड़क गया कि उनके द्वारा कोहाट, सहारनपुर, मुलतान, बरेली, शाहजहांपुर इत्यादि उत्तर भारत के नगरों में भयंकर दङ्गे हुए, सैकड़ों हिन्दु मारे गये, लाखों-करोड़ों की सम्पत्ति नष्ट हुई, हिन्दु अबलाओं पर नृशंस और रोमांचकारी अत्याचार, बलात् धर्मपरिवर्तन, नारी-अपहरण, स्वामी श्रद्धानन्दजी सहित दर्जनों आर्य हिन्दु नेताओं की हत्या इत्यादि अनेक अमानुषिक अत्याचार हुए। मालाबार का मोपला काण्ड तो औरंगजेब के अत्याचारों को भी मात कर गया था। मुसलमान स्वराज्य का अभिप्राय इस्लामी सल्तनत समझने लग गये थे। 1922 में "आर्य स्वराज्य सभा" की स्थापना वैद्य पं० रामगोपाल जी शास्त्री तथा उनके अन्य सहयोगियों ने की थी। आप यद्यपि कट्टर देशभक्त, राष्ट्रप्रेमी स्वराज्य प्राप्ति के लिये अधिक से अधिक त्याग करने में अग्रण्य थे पर उनका यह कथन था कि मुसलमानों के विपरीत हिन्दू ही एक ऐसा सुदृढ़ वर्ग है जो बहुसंख्यक होता हुआ इस भारत भूमि को ही लाखों-करोड़ों वर्षों से अपनी मातृभूमि और पितृभूमि समझता रहा है और अब भी समझता है। उसे दूसरे स्तर का नागरिक बना, उसके अधिकारों को कुचल कर अल्पसंख्यक बना देना सर्वथा असह्य, अमान्य और सतत संघर्ष के बीज का वपन करना है। "आर्य स्वराज्य सभा" ने शुद्धि, नारी-रक्षा, हरिजन-सेवा, अस्पृश्यता-निवारण सर्वजातीय प्रीति-भोज, कुंओं पर से हरिजनों को जल लेने देना इत्यादि उपायों द्वारा लाहौर और पंजाब में प्रशंसनीय कार्य किया। आर्य स्वराज्य सभा की ओर से एक केन्द्रीय आश्रम (रामकृष्ण सेवा आश्रम) लाहौर में रावी मार्ग पर स्थित था, जहां प्रतिदिन यज्ञ, सत्संग, शिक्षण इत्यादि कार्यों के अतिरिक्त हिन्दुत्व रक्षक और हिन्दुत्व प्रवर्धक विविध प्रवृत्तियां निरन्तर चलती रहती थीं। सभा की ओर से लाला लाजपतराय की प्रतिमा का अनावरण 1929 दिसम्बर में पं० जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में लाहौर में हुए कांग्रेस अधिवेशन के अवसर पर कई कांग्रेसी नेताओं के विरोध के बावजूद आर्य स्वराज्य सभा की ओर से लाहौर के गोल बाग में स्थापित ला० लाजपतराय की प्रतिमा का अनावरण केन्द्रीय धारा सभा के अध्यक्ष श्री विट्ठल भाई पटेल (सरदार पटेल के बड़े भाई) द्वारा कराया गया। यह समारोह अत्यन्त सफल और प्रभावी था। विभाजन के बाद यह प्रतिमा लाहौर से शिमला में स्थानांतरित कर दी गई। इसी प्रतिमा के आपको रिज पर दर्शन होते है। रामगोपाल शास्त्री जी विभाजन के उपरांत लाहौर से करोलबाग दिल्ली में बस गए। आपकी स्मृति में आर्यसमाज करोलबाग में प्रतिवर्ष वैदिक स्मृति व्याख्यान होता हैं।
शंका- केवल ईश्वर की भक्ति से मुक्ति संभव है उसके लिए भावना होनी चाहिए।(vedicvichar)
07-04-2022
समाधान- ईश्वर की भक्ति में ज्ञान, कर्म और उपासना तीनों की आवश्यकता होती हैं। केवल वैदिक ग्रंथों के शाब्दिक ज्ञान पर ध्यान दिया जाये और उनके अनुकूल कर्म और उपासना न किया जाये तो भी ईश्वर प्राप्ति संभव नहीं हैं। अगर ज्ञान और उपासना की अवहेलना कर केवल कर्म पर ध्यान दिया जाये तो भी आपके कर्म कभी भी 100% वेदानुकूल नहीं हो सकते क्योंकि बिना मार्गदर्शक ज्ञान के श्रेष्ठ कर्म संभव नहीं है और बिना उपास्य के मार्गदर्शन संभव नहीं है। अगर केवल उपासना पर ध्यान दिया जाये और ज्ञान एवं कर्म की अवहेलना कर दी जाये तो भी ईश्वर प्राप्ति संभव नहीं है क्योंकि बिना ज्ञान के उपासना किसकी करेंगे और बिना सांसारिक कर्म करे तदनुरूप फल की प्राप्ति नहीं हो सकती। इसलिए ज्ञान, कर्म और उपासना तीनों की आवश्यकता है। केवल भावना ही पर्याप्त नहीं है क्योंकि जब यह ज्ञान नहीं होगा की किस ईश्वर की आराधना करनी है एवं कैसे कर्म करने है तो जीवन के अंतिम लक्ष्य की प्राप्ति संभव नहीं हैं।
सत्यार्थ प्रकाश ने ईसाई होने से बचाया (vedicvichar)
07-04-2022
सठियाला गांव, जिला अमृतसर के रहने वाले डॉ विश्वनाथ जी बोताला में प्रतिदिन पढ़ने जाया करते थे। वहां एक ईसाई मिशनरी रहता था, जो ईसाई मत का खूब प्रचार करता था। स्कूल के विद्यार्थियों को वह सदा रिझाने की फिराक़ में रहता था। वह विद्यार्थियों में बाइबिल की कहानियां सुनाने , छोटे छोटे ट्रैक्ट बाँटने के चक्कर में हिन्दू धर्म के विरुद्ध उपदेश करता था। डॉ विश्वनाथ जी "मैं आर्यसमाजी कैसे बना?" नामक ग्रन्थ में लिखते है- "मुझे भी उस मिशनरी ने कई ट्रैक्ट पढ़ने को दिए तथा एक प्रति बाइबिल की भी दी। मैंने बाइबिल को बड़े ध्यान से पढ़ा। उसको पढ़ने से मेरे विचारों में परिवर्तन होने लगा एवं मुझे हिन्दू धर्म से घृणा होने लगी। मैं उस इसे मिशनरी से हर रोज वार्तालाप किया करता था। मेरे विचारों में परिवर्तन देख कर ईसाई मिशनरी ने मुझे कहा कि आप दीनानगर चलें, मैं आपकी हर प्रकार से सहायता करूँगा। मैंने दूसरे दिन विचार कर उत्तर देना मान लिया। दूसरे दिन प्रातः मुझे बोताला की तरफ आते हुए एक साधु मिले। उन्होंने मुझसे पूछा- तुम कहाँ जा रहे हो? मैंने कहा मैं स्कूल जा रहा हूँ। उन्होंने फिर मुझसे पूछा कि पढ़कर क्या करोगे? मैंने उत्तर दिया कि सांसारिक ज्ञान प्राप्त हो जायेगा। मैंने साधु का नाम पूछा। उन्होंने अपना नाम स्वामी योगेन्दरपाल बताया और कहा की उनके गुरु का नाम स्वामी दयानंद है। उन्होंने मुझसे पूछा की क्या मैंने स्वामी दयानंद नाम का नाम सुना है? मैंने कहा नहीं। फिर उन्होंने कहा तुम्हारे स्कूल पहुंचने का समय हो गया है ,तुम मुझे चार बजे साँय मिलना। मैं स्वामी जी से साँय को चार बजे मिला तो उन्होंने कहा तुम्हारे विचार अच्छे है। मैं तुम्हें उपदेश देता हूँ कि प्रतिदिन सत्यार्थ प्रकाश पढ़ा करो और सच्चे दिल से इसकी प्रतिज्ञा करो। मैंने सत्यार्थ प्रकाश को पढ़ने की प्रतिज्ञा की और इस ग्रन्थ रत्न को अनेक बार पढ़ा। सत्यार्थ प्रकाश के पाठ से मेले सारे सन्देहों की निवृति हो गई और जिस बाइबिल से मुझे प्रेम था, उस पर मेरा विश्वास न रहा। मैंने बाइबिल की असत्य मान्यताओं का खंडन और वेद की सत्य सिद्धांतों का मंडन प्रारम्भ कर दिया। स्वामी योगेन्दरपाल जी की कृपा से सत्यार्थ प्रकाश पढ़कर मैं दृढ़ वैदिक धर्मी बन गया और ईसाई होने से बच गया। " मैं जीवन भर स्वामी दयानंद के उपकार का ऋणी रहूँगा। #SwamiDayanand #SatyarthPrakash #Back2Vedas
होली पर्व क्या है ? वास्तव मे (vedic vichar)
06-04-2022
इस पर्व का प्राचीनतम नाम वासन्ती नव सस्येष्टि है अर्थात् बसन्त ऋतु के नये अनाजों से किया हुआ यज्ञ, परन्तु होली होलक का अपभ्रंश है। क्योंकि *तृणाग्निं भ्रष्टार्थ पक्वशमी धान्य होलक: (शब्द कल्पद्रुम कोष) अर्धपक्वशमी धान्यैस्तृण भ्रष्टैश्च होलक: होलकोऽल्पानिलो मेद: कफ दोष श्रमापह।*(भाव प्रकाश) *अर्थात्*―तिनके की अग्नि में भुने हुए (अधपके) शमो-धान्य (फली वाले अन्न) को होलक कहते हैं। यह होलक वात-पित्त-कफ तथा श्रम के दोषों का शमन करता है। *(ब) होलिका*―किसी भी अनाज के ऊपरी पर्त को होलिका कहते हैं-जैसे-चने का पट पर (पर्त) मटर का पट पर (पर्त), गेहूँ, जौ का गिद्दी से ऊपर वाला पर्त। इसी प्रकार चना, मटर, गेहूँ, जौ की गिदी को प्रह्लाद कहते हैं। होलिका को माता इसलिए कहते हैं कि वह चनादि का निर्माण करती *(माता निर्माता भवति)* यदि यह पर्त पर (होलिका) न हो तो चना, मटर रुपी प्रह्लाद का जन्म नहीं हो सकता। जब चना, मटर, गेहूँ व जौ भुनते हैं तो वह पट पर या गेहूँ, जौ की ऊपरी खोल पहले जलता है, इस प्रकार प्रह्लाद बच जाता है। उस समय प्रसन्नता से जय घोष करते हैं कि होलिका माता की जय अर्थात् होलिका रुपी पट पर (पर्त) ने अपने को देकर प्रह्लाद (चना-मटर) को बचा लिया। *(स)* अधजले अन्न को होलक कहते हैं। इसी कारण इस पर्व का नाम *होलिकोत्सव* है और बसन्त ऋतुओं में नये अन्न से यज्ञ (येष्ट) करते हैं। इसलिए इस पर्व का नाम *वासन्ती नव सस्येष्टि* है। यथा―वासन्तो=वसन्त ऋतु। नव=नये। येष्टि=यज्ञ। इसका दूसरा नाम *नव सम्वतसर* है। मानव सृष्टि के आदि से आर्यों की यह परम्परा रही है कि वह नवान्न को सर्वप्रथम अग्निदेव पितरों को समर्पित करते थे। तत्पश्चात् स्वयं भोग करते थे। हमारा कृषि वर्ग दो भागों में बँटा है―(1) वैशाखी, (2) कार्तिकी। इसी को क्रमश: वासन्ती और शारदीय एवं रबी और खरीफ की फसल कहते हैं। फाल्गुन पूर्णमासी वासन्ती फसल का आरम्भ है। अब तक चना, मटर, अरहर व जौ आदि अनेक नवान्न पक चुके होते हैं। अत: परम्परानुसार पितरों देवों को समर्पित करें, कैसे सम्भव है। तो कहा गया है– *अग्निवै देवानाम मुखं* अर्थात् अग्नि देवों–पितरों का मुख है जो अन्नादि शाकल्यादि आग में डाला जायेगा। वह सूक्ष्म होकर पितरों देवों को प्राप्त होगा। हमारे यहाँ आर्यों में चातुर्य्यमास यज्ञ की परम्परा है। वेदज्ञों ने चातुर्य्यमास यज्ञ को वर्ष में तीन समय निश्चित किये हैं―(1) आषाढ़ मास, (2) कार्तिक मास (दीपावली) (3) फाल्गुन मास (होली) यथा *फाल्गुन्या पौर्णामास्यां चातुर्मास्यानि प्रयुञ्जीत मुखं वा एतत सम्वत् सरस्य यत् फाल्गुनी पौर्णमासी आषाढ़ी पौर्णमासी* अर्थात् फाल्गुनी पौर्णमासी, आषाढ़ी पौर्णमासी और कार्तिकी पौर्णमासी को जो यज्ञ किये जाते हैं वे चातुर्यमास कहे जाते हैं आग्रहाण या नव संस्येष्टि। *समीक्षा*―आप प्रतिवर्ष होली जलाते हो। उसमें आखत डालते हो जो आखत हैं–वे अक्षत का अपभ्रंश रुप हैं, अक्षत चावलों को कहते हैं और अवधि भाषा में आखत को आहुति कहते हैं। कुछ भी हो चाहे आहुति हो, चाहे चावल हों, यह सब यज्ञ की प्रक्रिया है। आप जो परिक्रमा देते हैं यह भी यज्ञ की प्रक्रिया है। क्योंकि आहुति या परिक्रमा सब यज्ञ की प्रक्रिया है, सब यज्ञ में ही होती है। आपकी इस प्रक्रिया से सिद्ध हुआ कि यहाँ पर प्रतिवर्ष सामूहिक यज्ञ की परम्परा रही होगी इस प्रकार चारों वर्ण परस्पर मिलकर इस होली रुपी विशाल यज्ञ को सम्पन्न करते थे। आप जो गुलरियाँ बनाकर अपने-अपने घरों में होली से अग्नि लेकर उन्हें जलाते हो। यह प्रक्रिया छोटे-छोटे हवनों की है। सामूहिक बड़े यज्ञ से अग्नि ले जाकर अपने-अपने घरों में हवन करते थे। बाहरी वायु शुद्धि के लिए विशाल सामूहिक यज्ञ होते थे और घर की वायु शुद्धि के लिए छोटे-छोटे हवन करते थे दूसरा कारण यह भी था। *ऋतु सन्धिषु रोगा जायन्ते*―अर्थात् ऋतुओं के मिलने पर रोग उत्पन्न होते हैं, उनके निवारण के लिए यह यज्ञ किये जाते थे। यह होली शिशिर और बसन्त ऋतु का योग है। रोग निवारण के लिए यज्ञ ही सर्वोत्तम साधन है। अब होली प्राचीनतम वैदिक परम्परा के आधार पर समझ गये होंगे कि होली नवान्न वर्ष का प्रतीक है। *पौराणिक मत में कथा इस प्रकार है―होलिका हिरण्यकश्यपु नाम के राक्षस की बहिन थी। उसे यह वरदान था कि वह आग में नहीं जलेगी। हिरण्यकश्यपु का प्रह्लाद नाम का आस्तिक पुत्र विष्णु की पूजा करता था। वह उसको कहता था कि तू विष्णु को न पूजकर मेरी पूजा किया कर। जब वह नहीं माना तो हिरण्यकश्यपु ने होलिका को आदेश दिया कि वह प्रह्लाद को आग में लेकर बैठे। वह प्रह्लाद को आग में गोद में लेकर बैठ गई, होलिका जल गई और प्रह्लाद बच गया। होलिका की स्मृति में होली का त्यौहार मनाया जाता है जो नितान्त मिथ्या है।इसलिए आओ सब मिलकर अपने इस पवित्र पर्व को इसके वास्तविक स्वरूप मे मनाये।
Vedic vichar
06-04-2022
स्वर्ग का अर्थ है जहां सुख हो और सुख के साधन हो उसे स्वर्ग कहते है।स्वर्ग मे रहना सब चाहते है लेकिन मनुष्य ऐष्णाओ मे इतना फंस जाता है कि स्वर्गवासी होना कोई नहीं चाहता। जैसे एक बार नारद जी घूमते - २ स्वर्गलोक जा पहुँचे , वहाँ देखा कि चारों ओर सुख के साधन भरे पडे है। दु:ख दर्द का अभाव का कहीं कोई नामोनिशां नहीं सुख ही सुख है , लेकिन उन्हें यह देखकर आश्चर्य हुआ कि स्वर्ग तो खाली पडा है वहाँ कोई मनुष्य दिखाई नहीं दिया केवल भगवान जी अपने सिंहासन पर विराजमान है नारद जी ने उनसे पूछा कि स्वर्ग खाली क्यों पडा है तो कहने लगे अब जमाना बदल गया है कोई स्वर्ग मे आना ही नहीं चाहता। नारद जी बोले ऐसा कैसे हो सकता है पूरा जीवन मनुष्य भाग दौड सुख के लिए ही तो करता है जिससे भी पूछो कि तुम ऐसा क्यों करते हो ?तो कहता है सुख के लिए ।भगवान जी बोले तुम परीक्षण करलो।अब नारद जी चले संसार मे लोगों को स्वर्ग मे ले जाने के लिए । शुरु मे उन्हें एक ऐसा वृद्ध मिला जिसके न मुह मे दांत और न पेट मे आंत ।नारद जी ने कहा स्वर्गवासी बनोगे यह सुनकर वह बूढा बोला तेरा दिमाग खराब है वहाँ तो वे जाते है जिसके कोई आगे पीछे नहीं होता ,मेरा तो भरा पूरा परिवार है बेटे पोते बहु पत्नी सब है धन की कोई कमी नहीं सब मेरा बडा ध्यान रखते है मैं वहाँ क्यों जाउं। नारद जी निराश होकर आगे चले रास्ते मे एक लडका मिला उससे वही प्रश्न पूछा तो वह गुस्से से बोला वहाँ जाने का काम तो बूढो का है हमे तो अभी जीवन के सुख भोगने है।आगे अपंग आदि से पूछने पर भी यही उत्तर मिला।अब नारद जी निराश होकर बैठ गये ।अचानक उन्हें एक तिलकधारी धनी जमींदार दिखाई दिया वे दौडकर उसके पास गये और कहा स्वर्ग की सैर करोगे वे बोले चाहता तो मैं भी यही हूं।लेकिन घर की कुछ जिम्मेदारी है पुत्र का विवाह हो जाय उसे घर बार सौंपकर फिर चलूंगा बाद मे आना।अब नारद जी कुछ समय बाद पहुँचे तो उसके बेटे का विवाह हो गया था और वह गृहस्थ के काम मे लगा था।फिर नारद जी ने पूछा तो कहने लगा बस थोड़े दिन और रुको पोते का मुह देखने की इच्छा है उसे पूरी कर लू।बाद मे आना।नारद जी चले गये और कई वर्ष बाद आये देखा कि सेठ जी के पास पोता खेल रहा है नारद जी ने फिर पूछा तो कहने लगे जीवन मे सब सुख देख लिए यदि पोते का विवाह हो जाय तो यह इच्छा भी पूरी हो जाय। अब नारद जी निराश होकर सोचने लगे कि संसार मे यह क्या हो रहा है सुख सब चाहते है लेकिन सुख प्राप्त हो उस मार्ग पर कोई नहीं चलता।हम प्रकृति मे सांसारिक वस्तुओ मे सम्बन्धों मे सुख ढूढते है जहां सुख है ही नहीं सुख तो ईश्वर की शरण मे ही मिलेगा।ऐष्णाओ मे तो केवल दु:ख है( यह काल्पनिक कथा है जो जीवन की सच्चाई बताती है)
Vedic vichar
06-04-2022
एक दिन एक सज्जन कह रहे थे ,कि आर्य समाज को खंडन - मंडन के बेकार के चक्कर मे नहीं पड़ना चाहिये ,क्योंकि इससे आपस मे मनमुटाव होताहै ।इसलिए हिंदूओ की एकता के लिए खंडन नहीं करना चाहिये । मैने कहा बडी अच्छी बात है किन्तु विवाद से बचने और एक होने के लिये हमे क्या करना चाहिए ? फिर मैने पूछा कि दो व्यक्ति दौड़ रहे है एक आगे है दूसरा पीछे है उनको साथ चलने के लिए या तो आगे वाले को रुककर पीछे हटना पडेगा या पीछे वाले को अधिक बल लगाकर तेज दौड़ना पडेगा । इसी प्रकार वे साथ हो सकते है इसलिए निश्चित रुप से पीछे वाले को जोर लगाना पडेगा। यदि घर मे दो भाई है एक स्नातक है दूसरा आठवी पास है तो उन्हें बराबर होने के लिए क्या पढा लिखा अपनी विद्या भूल कर अनपढ़ हो जाय या कम पढा मेहनत करके पढकर वह भी स्नातक हो जाय निश्चित रुप से उसे पढकर आगे जाना होगा।आगे चलने वाले आर्य समाज है और पीछे पौराणिक है। तो क्या समान होने के लिये आर्य समाजी भी हाथ मे थाली लेकर आरती उतारने लगे ,मूर्ति पूजा करने लगे।या पौराणिक भाई मूर्ति पूजा छोडकर एक निराकार ईश्वर की पूजा करने लगे।तभी समानता हो सकती है।अब एक विचार करते है मैने कहा जब तुम मन्दिर मे मूर्ति को भगवान कहते हो तो तुम भगवान मूर्ति के आकार को ,आकृति को मानते हो या उस पदार्थ को भगवान मानते हो जिससे वह मूर्ति बनी है। यहां दो बातें हो सकती है पहली यदि मूर्ति की आकृति को भगवान मानते हो तो दूसरी कोई मूर्ति भगवान नहीं हो सकती क्योंकि सभी मूर्ति अलग आकार व आकृति की होती है।और यदि पदार्थ को जिससे वह मूर्ति बनी है भगवान मानते हो तो सभी पदार्थ भगवान है क्योंकि उन पदार्थो से ही मूर्ति बनी है। अक्सर मनुष्य मन्दिर मे मन्नत मांगने जाते है।एक विद्यार्थी मन्दिर मे प्रसाद चढाकर कहता है भगवान मुझे परीक्षा मे सफल कर दे और वह कुछ पढकर पास हो जाता है तो क्या सभी विद्यार्थी पास हो जायेंगे? ऐसा नहीं होता।एक बार एक तीन साल की लड़की अपनी गुड़िया से खेल रही थी यज्ञ के बाद प्रसाद के रुप मे हलवा बांटा जा रहा था वह लड़की हलवा लेकर अपनी गुड़िया को खिलाने लगी उसने कई बार उसे हलवा खिलाया लेकिन उसने नहीं खाया।अब उस बच्ची को गुस्सा आ गया और उसने गुड़िया को दिवार मे दे मारा और कहने लगी मैने इतनी कोशिश की लेकिन मान ही नहीं रही।एक बुजुर्ग कहने लगे यह बच्ची छोटी है नादान है यह जानती नहीं कि मूर्ति नहीं खाती। मैने कहा यह बच्ची तो नादान है लेकिन तुम तो सत्तर साल के बूढे हो जानते हो कि मूर्ति नहीं खा सकती फिर भी मन्दिर मे जाकर मूर्ति को खिलाते हो । क्या यह बुद्धिमानी है?वास्तव मे मनुष्य कहता कुछ और है मानता और है करता कुछ और है।
Vedic vichar
06-04-2022
ईश्वर की स्तुति ,प्रार्थना और उपासना करनी चाहिये । क्या ईश्वर की उपासना करना बहुत कठिन काम है ? यजुर्वेद के ग्यारहवाँ अध्याय का चौथा मन्त्र है - युञ्जते मनअ्उत युञ्जते धियो विप्रा विप्रस्य बृहतो विपश्चित:।---। मन्त्र कहता है स्तुति करना बहुत आसान है।हमे इसके लिए कुछ भी तो नहीं करना बस केवल सोचना है।और हम दिन भर करते क्या है केवल सोचते ही तो है ,कभी अपने खेत खलिहान के बारे मे सोचते है,कभी अपनी दुकान व्यापार के बारे मे सोचते है ,कभी कार्यालय के बारे मे सोचते है ,कभी अपने परिवार बच्चो ,पत्नी ,माँ बाप मित्र के बारे मे सोचते है ,कभी अपनी हानि लाभ के बारे मे सोचते है बस सोचते ही तो हो ।अब ईश्वर की स्तुति के लिए और कुछ नहीं करना केवल सोचने का पात्र बदलना है।जितनी गहराई से ,जितने लगन से ,जितनी तन्मयता से हम अपने बारे मे सोचते है उतनी ही लगन से निरन्तरता से ईश्वर के बारे मे सोचना है और उतना ही सोचना है।ये सम्भव कैसे हो ? जरा सोचे इतनी बडी दुनिया है हम सबके बारे मे तो नहीं सोचते , केवल अपने ही लोगो के बारे मे सोचते है, अपने प्रिय के बारे मे सोचते है,जिनसे हमे लाभ मिलता है ,सुख मिलता है उनके बारे मे सोचते है। अर्थात् आधार यह है कि जो मेरा है ,जो मेरे लिए लाभदायक है, जिससे मेरा सम्बन्ध है मै उसके बारे मे सोचता हूं।अब हमे पहले यह तय करना है कि मेरे लिए वास्तव मे लाभदायक कौन है? मेरा अपना कौन है ? यदि मै यह बात अच्छी तरह से सोच लूं जान लूं तो यह मेरा स्वभाव है कि जो मुझे अच्छा लगे उसको अपने आप स्वीकार कर लेता हूं और जिससे मेरा लाभ नहीं होता तो उससे मेरा प्रेम हट जाता है। दुनिया मे यह निश्चित नहीं कि प्रेम पति से होगा ,पत्नी से होगा ,बेटा बेटी से होगा, प्रेमी प्रेमिका से होगा। प्रेम केवल परिस्थिति से होता है । परिस्थिति यदि अनुकूल है तो होगा और प्रतिकूल है तो नहीं । अर्थात् इनसे प्रेम हो भी सकता है नहीं भी ।यह जरूरी नहीं कि पति है तो प्रेम होगा ही बेटा है तो प्रेम होगा ही। यदि यह अपने काम का है तो होगा नहीं तो नहीं । अर्थात् प्रेम ऐसा पौधा नहीं जिसे आप उखाड कर दूसरी जगह लगा दे। बेटा हमे प्रिय है और यदि वही बेटा हमारा अपमान करे तो हम उसे बेदखल कर देते है।ठीक यही बात ईश्वर के विषय मे है ,जिस दिन हमे यह समझ मे आ जायेगा कि ईश्वर बडे काम की चीज है तो फिर हमे बल पूर्वक इधर नहीं आना पडेगा। हम बिना प्रयत्न के सहज रुप मे बिना परिश्रम किये ईश्वर के पास आजायेगे। जब हम किसी को पसन्द करते है तो कहते है कि तू बडा अच्छा है ,मेरी बेटी बडी अच्छी है, मेरा मित्र बडा अच्छा है।यह अच्छा शब्द बडे कमाल की चीज है ,बहुत प्यारा शब्द है।बस सोचने कीबात है।मन मे एक भाव आना चाहिये कि यह अच्छा लगता है। यह जो अच्छा लगने का भाव है यही स्तुति है।दुनिया मे सभी चीजे अच्छी लगती है केवल भगवान ही है जो अच्छा नहीं लगता ।जो हमे अच्छा लगता है हम उसे पाने का प्रयास करते है। भगवान हमसे दूर है इसका अर्थ है वह हमे अच्छा नहीं लगता ।जिस दिन हमे वह अच्छा लगने लगेगा तब हम उससे दूर नहीं रह पायेगे।उसका गुणगान करेगे स्तुति करेगे।
Impact of Ukraine Russia War on World Economy
01-04-2022
Respected Sir/ Madam It gives us immense pleasure to invite you to International conference on “Impact of Ukraine Russia War on World Economy” to be organized By Nayagarh Auto. College Nayagarh, Odisha (India), ALPHA Group of Institutions, Puducherry & LIISPRING on 03 April, 2022 (Sunday) ISD 11.00 AM to 1.00 PM Registration https://docs.google.com/forms/d/e/1FAIpQLSdq6ZOadO_KNo07ORDvGKmHlY3-qadb_K6Y4CPcSvNQvmZfUg/viewform?usp=sf_link Abstract will be published in e-book: Liispring and e-Certificate will be provided. May Submit your abstract (500-750 words) to liispring.org@gmail.com for e-publication. Website: www.liispring.com Meeting Details Topic: International Conference "Impact of Ukraine Russia War on World Economy Time: Apr 3, 2022 11:00 AM India Join Zoom Meeting https://us02web.zoom.us/j/86591127093?pwd=Ry81d0t2Z1NIKzVKYjhEeFoyLzhPUT09 Meeting ID: 865 9112 7093 Passcode: 3422
Vedic Vichar
17-03-2022
"आप जो कुछ सोचते हैं, जो कुछ निर्णय लेते हैं, जो कुछ आचरण करते हैं, आपकी इन सारी बातों को सबसे अधिक या तो ईश्वर समझता है, या आप स्वयं समझते हैं।" "परन्तु जब आप समाज के लोगों के साथ व्यवहार करते हैं, तो समाज के बुद्धिमान लोग भी धीरे-धीरे आप को पहचानने समझने लगते हैं।" "2/ 4/ 5/ 10/ 20 बार व्यवहार करके पता चलने लगता है, कि सामने वाला व्यक्ति सरल नम्र बुद्धिमान धार्मिक जिज्ञासु ईश्वरभक्त चरित्रवान सज्जन है, अथवा कुटिल अभिमानी मूर्ख लड़ाकू दुष्ट छली कपटी और बेईमान है।" इस प्रकार से लोग एक दूसरे को पहचानने लगते हैं। आप भी व्यवहार से दूसरों के मन की बहुत सी बातें जानते हैं। जैसे आप हैं, वैसे ही दूसरे लोग भी हैं। यदि आप दूसरों के मन की बात जान सकते हैं, तो दूसरे भी आपके मन की बात जान सकते हैं। इसलिए सावधानी से कार्य करना चाहिए, और यह कभी नहीं सोचना चाहिए, कि "मेरे मन की बात दूसरा व्यक्ति क्या जाने?" यह ठीक है, सामान्य लोग, किसी दूसरे व्यक्ति के मन की बात कम जान पाते हैं। "लेकिन विशेष बुद्धिमान अनुभवी लोग, कुछ व्यवहारों के पश्चात, दूसरे व्यक्ति की बोलचाल से चेहरे के लक्षणों से शरीर की चाल ढाल से आदि आदि कारणों से उसके मन की बात बहुत सी जान लेते हैं।" अतः सावधानी का प्रयोग करें। सबको मूर्ख न समझें। "बुद्धिमान लोग जब आप की सच्चाई को जान लेंगे, तब आपको व्यवहार में बहुत सी हानियां उठानी पड़ेंगी। 'इसलिए सबसे बड़ी बात यह है, कि अपने मन को शुद्ध करें। राग द्वेष को अपने मन से निकाल फेंके। तीन/चार वर्ष के बच्चे के समान निश्छल व्यवहार करें। ईश्वर को साक्षी मानकर सब अच्छे अच्छे काम करें, और अपने जीवन को सफल बनाएं।' ऐसी स्थिति में आप को बुद्धिमान समाज भी सुख देगा, और ईश्वर भी। अन्यथा दोनों से आप को दंड भोगना पड़ेगा।" Dr. Yajnya Dutta
ସୁଖମୟ ଜୀବନ ଯାତ୍ରା
17-03-2022
ସୁଖମୟ ଜୀବନ ଯାତ୍ରା ପାଇଁ ଧନ ଅର୍ଥାତ୍ ଅର୍ଥର ମହତ୍ତ୍ଵ ଭୂମିକା ଅଛି। ଅର୍ଥ ଅଭାବରେ ଗୋଟିଏ ସୁଖମୟ ସୁସ୍ଥ ଜୀବନର କଳ୍ପନା ବ୍ୟର୍ଥ। ବିନା ଅର୍ଥରେ ଆମେ କୌଣସି ଧର୍ମ ପାଳନ କରି ପାରିବା ନାହିଁ। ଦାନ,ଯଜ୍ଞ,ପରୋପକାର ସବୁ କିଛି ପାଇଁ ଧନର ଆବଶ୍ୟକତା ନିଶ୍ଚୟ ଅଛି। କିନ୍ତୁ ବିଡମ୍ବନା ଏହା ଯେ,ଆମେ ଧନ ପ୍ରାପ୍ତି ପାଇଁ ଯେତେ ବ୍ୟାକୁଳ ହେଉଛୁ,ଏଥିପାଇଁ ଆମେ ଉଚିତ୍ ପୁରୁଷାର୍ଥ ଅର୍ଥାତ୍ କର୍ମ କରି ପାରୁନାହୁଁ। ଆମ ମୁନି ଋଷିମାନେ କହିଛନ୍ତି,ସଦା ପରିଶ୍ରମ କରୁଥିବା ଏବଂ ଧର୍ମଯୁକ୍ତ ପୁରୁଷାର୍ଥ କରୁଥିବା ବ୍ୟକ୍ତିକୁ ଲକ୍ଷ୍ମୀ ପ୍ରାପ୍ତ ହୋଇଥାଏ। ଭାଗ୍ୟ ଉପରେ ଭରସା ରଖିଥିବା ବ୍ୟକ୍ତି ଏବଂ ଆଳସ୍ୟ ପରାୟଣ ବ୍ୟକ୍ତିଙ୍କୁ ଲକ୍ଷ୍ମୀ ତ୍ୟାଗକରି ପୁରୁଷାର୍ଥ କରୁଥିବା ବ୍ୟକ୍ତି ଉପରେ ପ୍ରସନ୍ନ ହୋଇଥାନ୍ତି। Vedic Vichar, Purna Chandra Nayak, Founder
ଏ ସୃଷ୍ଟିର ମଣିଷ ଶ୍ରେଷ୍ଠ ଜୀବ
17-03-2022
ଏ ସୃଷ୍ଟିର ମଣିଷ ଶ୍ରେଷ୍ଠ ଜୀବ ଏଇଥିପାଇଁ ଇତର ପ୍ରଣୀମାନଙ୍କର ଜୀବନ ଅଛି,ଚେତନା ନାହିଁ।କିନ୍ତୁ ମଣିଷର ଜୀବନ ଅଛି ଚେତନା ବି ଅଛି।ଚେତନା ଶକ୍ତିର ପ୍ରଭାବରେ ମଣିଷ ଅନ୍ୟ ମାନଙ୍କ ତୁଳନାରେ ନିଜର ସ୍ଥିତିକୁ ବୁଝିପାରେ। ଯାହାର ଚେତନା ଯେତିକି ଉର୍ଦ୍ଧ୍ବ ଗାମୀ,ସେ ସେତିକି ସଫଳ ମଣିଷ। ସଫଳ ମଣିଷର ଅର୍ଥ,ସଂସାରର ଅଳିକତାକୁ ବୁଝି ପରମାତ୍ମାଙ୍କ ସହ ନିବିଡ ସମ୍ପର୍କ ସ୍ଥାପନ କରିବା। ଏହା ହେଉଛି ଜୀବନର ପରମ ଲକ୍ଷ୍ୟ। ଆମେ ଜାଣିବା ଆବଶ୍ୟକ ପରମାତ୍ମା ହେଉଛନ୍ତି ସୁଖ,ଶାନ୍ତିର ଆଧାର। ସେ ସର୍ବ ବ୍ୟାପକ। ସେ ଆମ ଭିତରେ ବାହାରେ ଚାରି ପାଖରେ ଅଛନ୍ତି।ତଥାପି କିଛି ଅବୁଝା ମଣିଷ ଏ ସୌଭାଗ୍ୟକୁ ଛାଡ଼ି ନିଜ ପଦ,ପ୍ରତିଷ୍ଠା,ସମ୍ପତ୍ତି ସନ୍ଧାନରେ ଜୀବନ ବିତାଇ ଜୀବନର ଚିର ସୁଖକୁ ହାତ ଛଡା କରିଦିଅନ୍ତି। Dr. Yajnya Dutta Nayak, Khallikote University, Berhampur
Stress Management
17-03-2022
ସଂସାରରେ ମଣିଷ ମାନଙ୍କ ମଧ୍ୟରେ ପ୍ରାୟତଃ ଅର୍ଦ୍ଧାଧିକ ଲୋକ ଅଭାବର ତାଡ଼ନାରେ ମୁହ୍ୟମାନ,ବ୍ୟତିବ୍ୟସ୍ତ। ଜେତେଆଡୁ ଯେତେ ଉପାୟରେ ଅର୍ଥ କମାଇଲେ ମଧ୍ୟ ଏହା ଅଭାବ ପୂରଣରେ ଯଥେଷ୍ଟ ହେଉନାହିଁ। ଆମେ ଯଦି କୌଣସି ଅଭାବ ବୋଧକୁ ଅନୁଭବ କରିବା,ତେବେ ପ୍ରଥମେ ଚିନ୍ତା କରିବାକୁ ହେବ ଅଭାବ କେତେଦୂର ଯଥାର୍ଥ। ଏହାଦ୍ବାରା ମଣିଷର ପ୍ରକୃତରେ କିଛି ହାନି ବା କ୍ଷତି ହୋଇ ପାରେକି ନାହିଁ। ଏହି ଅଭାବ ମୁଣ୍ଡ ଟେକୁଥିବା ବେଳେ ଟିକିଏ ଧୀର ସ୍ଥିର ଭାବରେ ବିଶ୍ଳେଷଣ କଲେ ଅନେକ ଅଭାବର ଆବଶ୍ୟକତା ସ୍ଵତଃ ଦୂର ହୋଇ ଯାଇଥାଏ। ମନୁଷ୍ୟ ଜୀବନରେ ଏ ଅଭାବ ବା ଅଶାନ୍ତିରୁ ମୁକ୍ତି ଲାଭର ଏକମାତ୍ର ଉପାୟ ହେଲା ଆବଶ୍ୟକତାକୁ ସୀମିତ କରିବା,ସର୍ବୋପରି ସଞ୍ଜମ ଅବଲମ୍ବନ କରିବା। Vedic Vichar, Stress Management Cell, Berhampur
ଈଶ୍ବରଙ୍କ ସହାୟତାର ସୀମା ନାହିଁ
17-03-2022
ଈଶ୍ବରଙ୍କ ସହାୟତାର ସୀମା ନାହିଁ। ତେବେ ଏହି ସହାୟତା ପାଇଁ ଆବଶ୍ୟକ ହୁଏ ଈଶ୍ବରଙ୍କ ନିର୍ଦ୍ଦେଶିତ କର୍ମ କରିବା ଓ ତାଙ୍କୁ ହୃଦୟରେ ଧାରଣ କରିବା। ମଣିଷ ତା ' ସାଧାରଣ ବୁଦ୍ଧିରେ କାମନା,ବାସନା ଜଡ଼ିତ ହୋଇ ଈଶ୍ୱରଙ୍କୁ ବହୁତ କିଛି ମାଗେ। ସେ ସବୁ ହୁଏତ ଫଳପ୍ରଦ ହୋଇ ନପାରେ। କାରଣ ଆମ ଇଚ୍ଛା ଅନୁସାରେ ସବୁ ଘଟଣା ଯେ ଘଟିବ ତା ' ନୁହେଁ। କିନ୍ତୁ ଏକଥା ସତ୍ୟ ଯେ, ଆମ ସମସ୍ତଙ୍କ ପାଇଁ ଈଶ୍ବରଙ୍କ ନିକଟରୁ ସହାୟତାର ଶକ୍ତି ସବୁବେଳେ ମିଳିଥାଏ। ଈଶ୍ବରଙ୍କ ସହାୟତା ପାଇବା ପାଇଁ ଆମେ ଅନ୍ତରରେ ନିରବ ରହି ତାଙ୍କ ପ୍ରତି ଉନ୍ମୁଖ ହେଲେ ଦିବ୍ୟ କରୁଣା କ୍ରିୟାଶୀଳ ହୋଇ କାର୍ଯ୍ୟରେ ସମସ୍ତ ପ୍ରକାର ଅସମ୍ଭବକୁ ଦୂରକରେ। Sanghamitra Kar Vedic Vichar
ଓ୩ମ
17-03-2022
ଗୁଣ ଅନୁସାରେ ଇଶ୍ୱରଙ୍କ ଅନେକ ନାମ ଥିଲେ ମଧ୍ୟ ତାଙ୍କର ଶ୍ରେଷ୍ଠ ନାମ ହେଉଛି ' ଓ୩ମ ' । ପ୍ରତ୍ୟେକ ମନ୍ତ୍ର ଉଚ୍ଚାରଣ ଓ ଈଶ୍ବରଙ୍କ ନାମ ଜପ ପୂର୍ବରୁ ଓମ୍ ଶବ୍ଦର ପ୍ରୟୋଗ କରାଯାଏ। ଆମେ ପ୍ରତ୍ୟେହ ଦିବସର ସନ୍ଧି ସମୟରେ ଅର୍ଥାତ୍ ପ୍ରଭାତ ଓ ସନ୍ଧ୍ୟା ସମୟରେ ଇଶ୍ଵରଙ୍କର ଏହି ଶ୍ରେଷ୍ଠ ନାମ ' ଓମ୍ ' କୁ ଉଚ୍ଚାରଣ କଲେ ମନୁଷ୍ୟକୁ ସବୁ କ୍ଷେତ୍ରରେ ସିଦ୍ଧି ପ୍ରାପ୍ତ ହୋଇଥାଏ। ଏହାଦ୍ବାରା ସଂପୂର୍ଣ୍ଣ ଶରୀର ଚାପ୍ ମୁକ୍ତ ହେବା ସହିତ ମନ ମଧ୍ୟରୁ ଭୟ ଓ ଆଶଙ୍କା ଆଦି ଦୂରୀଭୂତ ହୁଏ। ଶରୀର ମଧ୍ୟରେ ରକ୍ତ ସଞ୍ଚାଳନ ସ୍ଵାଭାବିକ ଏବଂ ସନ୍ତୁଳିତ ହେବା ସହ ପାଚନ ପ୍ରକ୍ରିୟା ସକ୍ରିୟ ତଥା ଦ୍ରୁତ ହୋଇଥାଏ। ନିରୋଗ ଜୀବନର ଏହା ଚାବିକାଠି।* Dr. Yajnya Dutta
उपनिषद में ईश्वर का विवरण (vedic vichar)
16-03-2022
*यद्वाचाऽनभ्युदितं, येन वागभ्युद्यते ।* *तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि,नेदं यदिदमुपासते ।।-(केन० 1/4)* जो वाणी द्वारा प्रकाशित नहीं होता,जिससे वाणी का प्रकाश होता है,उसी को तू ब्रह्म जान।जिसका वाणी से सेवन किया जाता जाता है,वह ब्रह्म नहीं है। *यन्मनसा न मनुते,येनाहुर्मनो मतम् ।* *तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि,नेदं यदिदमुपासते ।।-(केन० 1/5)* जिसका मन से मनन नहीं किया जाता,जिसकी शक्ति से मन मनन करता है,उसी को तू ब्रह्म जान।जिसका मन से मनन किया जाता है वह ब्रह्म नहीं है। *यच्चक्षुषा न पश्यति,येन चक्षूंषि पश्यन्ति ।* *तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि,नेदं यदिदमुपासते ।।-(1/6)* जो आंख से नहीं देखा जाता,जिसकी शक्ति से आँख देखती है,उसी को तू ब्रह्म जान।जो आँख से देखा जाता है वह ब्रह्म नहीं है। *यच्छ्रोत्रेण न श्रृणोति,येन श्रोत्रमिदं श्रुतम् ।* *तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि,नेदं यदिदमुपासते ।।-(1/7)* जो कान से नहीं सुना जाता,जिससे कान सुनता है,उसी को तू ब्रह्म जान।जो कान से सुना जाता है वह ब्रह्म नहीं है।। *यत्प्राणेन न प्राणिति,येन प्राणः प्रणीयते ।* *तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि,नेदं यदिदमुपासते ।।-(केन० 1/8)* जो प्राण से प्राण के व्यापार में नहीं आता,जिससे प्राण अपना व्यापार करता है, उसी को तू ब्रह्म जान।जो प्राण के व्यापार में आता है वह ब्रह्म नहीं है। उपर्युक्त उपनिषद्-वाक्यों में यह सुस्पष्ट शब्दों में बताया गया है कि परमात्मा आकार रहित होने के कारण इन्द्रियों द्वारा ग्रहण करने की वस्तु नहीं ।यदि इन्द्रियाँ समर्थ होती तो यहनहीं कहा जाता - यतो वाचो निवर्तन्ते इन्द्रियाणि मनसा सह । जहाँ से मन के साथ इन्द्रियाँ और वाणी बिना उसको प्राप्त किये ही लौट आते हैं ।भला चेतन निराकार परमात्मा को ये जड़ इन्द्रियां प्राप्त भी कैसे कर सकती हैं ।
सुत्तनिपात में संस्कृत शास्त्रों का वर्णन (vedic vichar)
16-03-2022
- कार्तिक अय्यर ।।ओ३म्।। आजकल कुछ वामपंथी ईर्ष्यालु लोगों ने भाषा विज्ञान का आडंबर रचकर संस्कृत को बहुत नवीन भाषा कहना शुरु किया है। वे लोग बौद्ध साहित्य में भी आये वेदादिशास्त्रों के नाम को ऊटपटांग अर्थ करके जान बचाना चाहते हैं। इनके सिपहसालार राजेंद्र प्रसाद ने तो "त्रैविद्यासुत्त" को प्रक्षेप ही घोषित कर रखा है। इनके एक चेले ने विनयपिटक, क्षुद्रकस्कंधक में आये "छांदस् यानी वैदिक संस्कृत" का भी कपोलकल्पित अर्थ किया है, जो न पालि से सिद्ध हो सकता है, न बौद्ध साहित्य में है न कोई बौद्ध विद्वान उसको मानता है। यदि हम बारीकी से देखें तो त्रिपिटक में सैकड़ो जगह वेदादिशास्त्रों के नाम आ जायेंगे। हम पूछते हैं कि वादी कितने प्रमाणों को मिलावट कहकर अपनी जान छुड़ायेंगे? हम केवल सुत्तनिपात से ही कई प्रमाण देते हैं जहां स्पष्ट रूप से वेदादिशास्त्रों का वर्णन है। इससे सिद्ध है कि जब बुद्ध के अब्बा को पजामे का नाड़ा बांधना भी नहीं आता था, तब से वेदादिशास्त्रों का अस्तित्व है। हमारे प्रमाणों की वर्षा देखिये, और आनंद लूटिये:- (१):- गौतम बुद्ध कहते हैं कि वो गायत्री मंत्र जानते थे!:- तं सावित्तिं पुच्छामि , तिपदं चतुवीसतक्खरं।।३३।। " तुम अपने को ब्राह्मण कहते हो और मुझे अब्राह्मण कहते हो, तो तुमसे त्रिपद और चौबीस अक्षरों वाले सावित्री मंत्र को पूछता हूं।।३३।। ( सुंदरिकभारद्वाज सुत्त ३,४, पेज ११५) (२):- प्राचीन ब्राह्मणों के धर्म के विषय में सुत्तनिपात में एक "ब्राह्मणधम्मिक सुत्त" है। इसमें गौतम बुद्ध प्राचीन ब्राह्मणों के धर्म को कहते हुये बताते हैं;- ब्राह्मणों के पास न पशु होते थे न हिरण्य तथा धान्य स्वाध्याय = वेदों का पाठ करना ही उनका धन धान्य था।।२।। ( ब्राह्मणधम्मिक सुत्त,२,७ पेज ७३) बुद्ध के अनुसार पहले यज्ञ में ब्राह्मण गौ आदि पशु नहीं हवन करते थे। पर बाद में कुछ स्वार्थी लोग राजा इक्ष्वाकु के पास मंत्र रचकर गये व वेदविरुद्ध यज्ञ वेद के नाम पर किये।इसी सुत्त की २० वीं गाथा में अश्वमेध,पुरुषमेध आदि यज्ञ का वर्णन है। क्या ये यज्ञ भी बिना संस्कृत के मंत्र के होते थे? (३):- वासेट्ठ सुत्त में बुद्ध जी एक वसिष्ठ नामक ब्राह्मण से, जोकि जन्मना जातिव्यवस्था मानता था, का खंडन किया है। वसिष्ठ कहता है:- हे! हम अनुज्ञात प्रविज्ञात त्रैविद्य हैं।।१।। पद, व्याकरण और जल्प(वाद) में हम अपने आचार्य के समान हैं।।२।। यहां त्रैविद्य का अर्थ वेदत्रयी को जानने वाला किया है। ( वासेट्ठ सुत्त, ३,९ पेज १६१) इससे सिद्ध है कि वसिष्ठ वेदादिशास्त्र जानता था। (४):- सेलसुत्त में शैल नामक ब्राह्मण का वर्णन है जो तीन सौ विद्यार्थियों को वेद पढ़ाता था:- "उस समय निघंटु,कल्प,अक्षर प्रभेद सहित तीनों वेदों तथा पांचवे इतिहास में पारंगत,पदक= कवि, वैयाकरण, लोकायत शास्त्र तथा महापुरुष लक्षण में निपुण शैल नाम ब्राह्मण आपण में वास करता था....और तीन सौ विद्यार्थियों को वेद पढ़ाता था।" ( सुत्तनिपात, सेलसुत्त ३,७- पेज १४४) (५):- वत्थुगाथा में बावरी नामक ब्राह्मण का वर्णन है। इस प्रकरण में भी तीन चार बार वेद का नाम है व संस्कृत ग्रंथों का भी:- "तब वेदों में पारंगत ब्राह्मण शिष्यों को उसने संबोधित किया। ।।२२।। वेदों में महापुरुष लक्षण आये हैं।।२५।।" ( वत्थुगाथा ५,१ सुत्तनिपात, पेज २५९) भगवाव बुद्ध कहते हैं- "तिणिस्स लक्खणा गत्ते, तिण्णं वेदान पारगू।।४४।।" " उसकी (बावरी ब्राह्मण की) आयु सौ वर्ष है, वह गोत्र बावरी है... वह तीनों वेदों में पारंगत है।।४४।। वह लक्षण शास्त्र, इतिहास, तथा निघंटु सहित कैटुभ( यानी कल्पसूत्र) को पांच सौ को पढ़ाता है।।४५।।" ( वत्थुगाथा, ५,१ पेज २६३) निष्कर्ष- इतने सारे स्पष्ट प्रमाणों से सिद्ध है कि वेदादिक का अस्तित्व बौद्ध मत के बहुत पहले से था। यहां तक की बुद्ध जी ही वेदों को जानते थे। सभी प्रमाणों को प्रक्षेप कहना ही हास्यास्पद और दुराग्रह है। भीमटो के कुछ मूर्ख आकाओं को छोड़कर कोई भी बौद्ध विद्वान इनको प्रक्षेप नहीं कहेगा। धन्यवाद । संदर्भ ग्रंथ एवं पुस्तकें;- सुत्तनिपात- अनुवादक भिक्षु धर्मरक्षित
वेद विचार
05-03-2022
जो लोग दूसरों की कमियों को देखने में अपना समय खर्च करते हैं, उनके पास अपनी कमियों को सुधारने के लिये वक्त ही नहीं बचता है स्वयं का इलाज करें! हंमेशा ध्यान में रखिये कि आपका सफल होने का संकल्प किसी और संकल्प से महत्वपूर्ण है सुगन्ध के बिना पुष्प, तृप्ति के बिना प्राप्ति, ध्येय के बिना कर्म एवं प्रसन्नता के बिना जीवन व्यर्थ है !! #vedic Vichar
ମଣିଷ ତା ' ର ପୂର୍ବ ଜନ୍ମ ପୁଣ୍ୟ କର୍ମ
04-03-2022
ମଣିଷ ତା ' ର ପୂର୍ବ ଜନ୍ମ ମାନଙ୍କରେ ଯେତେ ପୁଣ୍ୟ କର୍ମ ମାନ କରିଛି ସେ ସବୁର ପ୍ରତିଦାନରେ ସେ ମଣିଷ ଜନ୍ମ ଲାଭ କରିଛି। ତେଣୁ ସେ ଯେଉଁଥି ପାଇଁ ଆସିଛି ତାହା ତାକୁ ପୂରଣ କରିବାକୁ ହେବ। ମଣିଷ ଆସିଛି ତା ଅନ୍ତରରେ ଥିବା ଦୈବତ୍ୱକୁ ପ୍ରକଟିତ କରିବା ପାଇଁ। ଏହାର ସୁଲଭ ସହଜ ମାର୍ଗ ହେଉଛି ସେବା। ଏକନିଷ୍ଠ ହୃଦୟରେ ସେବା କରିବା ଦ୍ଵାରା ମଣିଷ ତା ' ର ଲକ୍ଷ୍ୟ ସାଧନ କରି ପାରିବ। ଏହାଦ୍ବାରା ପରମାତ୍ମା ଦେଇଥିବା ମନୁଷ୍ୟ ଜନ୍ମ ସାର୍ଥକ ହୋଇଯିବ। Vedic Vichar
ଦୁର୍ମୂଲ୍ୟ ଉପହାର
03-03-2022
ଈଶ୍ୱରଙ୍କୁ ଆମେ ଧନ୍ୟବାଦ୍ ଦେବା ଆମକୁ ସେ ସବୁଠାରୁ ଦୁର୍ମୂଲ୍ୟ ଉପହାର ମନୁଷ୍ୟ ଜୀବନ ଦେଇଛନ୍ତି। ଜୀବନକୁ ଭଲଭାବେ ଜାଣିବା ପାଇଁ ତିନୋଟି ସ୍ଥାନକୁ ଯାଇ ଜୀବନର ରହସ୍ୟକୁ ବୁଝିବା। ତା ' ହେଲା ଚିକିତ୍ସାଳୟ, ବନ୍ଦୀଶାଳ ଓ ମଶାଣୀ।ଚିକିତ୍ସାଳୟରେ ଭଲଭାବରେ ବୁଝିଯିବା ସ୍ବାସ୍ଥ୍ୟ ଠାରୁ ବଡ ସମ୍ପଦ କିଛି ନାହିଁ। ବନ୍ଦୀଶାଳାରେ ଜାଣିବା ମୁକ୍ତିର ଆନନ୍ଦ କେତେ ଆସୁମାର ଆଉ ମଶାଣିରେ ଏହା ବୁଝା ପଡେ ଯେ,ଜୀବନ କିଛି ନୁହେଁ। ଆମେ କିଛି ନେଇ ଆସି ନାହେଁ କି କିଛି ନେଇ ଯାଇ ପାରିବା ନାହିଁ। ଏଣୁ ବିଜୟୀ ହେବା ଓ ପରମାତ୍ମା ସବୁ କିଛି ଦେଇଥିବାରୁ ତାଙ୍କୁ ପ୍ରତିଦିନ ଧନ୍ୟବାଦ୍ ଦେବା। Life History Loving Memory, Lifehist.com
ଏହି ସଂସାରରେ ମଣିଷ ଭିତରେ କେହି ନଗଣ୍ୟ ନୁହନ୍ତି
03-03-2022
ଏହି ସଂସାରରେ ମଣିଷ ଭିତରେ କେହି ନଗଣ୍ୟ ନୁହନ୍ତି କି କେହି ମହାନ୍ ନୁହନ୍ତି। କିଏ ନଗଣ୍ୟ,କିଏ ମହାନ୍ ଏସବୁ ଆମ ଅସ୍ଥିର ମନର ବିଚାର ଧାରା। ପରମାତ୍ମା ପ୍ରତ୍ୟେକ ମନୁଷ୍ୟକୁ ଦ୍ୱେଷ ରହିତ ସମାନ ପବିତ୍ର ହୃଦୟ, ସମାନ ମନ ପ୍ରଦାନ କରିଛନ୍ତି। ହୃଦୟର ପବିତ୍ରତା ହିଁ ପ୍ରତ୍ୟେକଙ୍କର ସର୍ବ ଶ୍ରେଷ୍ଠ ସମ୍ପଦ।ଏଣୁ ସଭିଙ୍କୁ ସମାନ ଦୃଷ୍ଟିରେ ଦେଖିବା ଉଚିତ୍। ଯାହାର ହୃଦୟରେ ପବିତ୍ରତା ଥାଏ, ତା ଦୃଷ୍ଟିରେ ସଂସାରରେ କେହି ନଗଣ୍ୟ କି କେହି ମହାନ୍ ନୁହନ୍ତି। ହୃଦୟର ପବିତ୍ରତା ରୂପୀ ମୂଳଦୁଆ ଉପରେ ହିଁ ଭକ୍ତି,ପ୍ରେମ,କରୁଣାର ପ୍ରାସାଦ ମୁଣ୍ଡ ଟେକିଥାଏ। Life History, www.lifehist.com
ଜ୍ଞାନ ଶକ୍ତି
03-03-2022
ଆଚାର୍ଯ୍ୟ ଚାଣକ୍ୟ ମନୁଷ୍ୟକୁ ପଶୁଠାରୁ ଭିନ୍ନ ହେବାର ଯେଉଁ ବିଶେଷ ଗୁଣ ସମ୍ପର୍କରେ କହିଛନ୍ତି,ତାହା ହେଲା ତା ' ର ଜ୍ଞାନ ଶକ୍ତି। ଜ୍ଞାନ ବଳରେ ମନୁଷ୍ୟ ଉତ୍ତମ ପଦବାଚ୍ୟ ହୋଇଥାଏ। ଏହା ବଳରେ ମନୁଷ୍ୟ ମୋକ୍ଷ ପ୍ରାପ୍ତ ହୁଏ। ଜ୍ଞାନ ବଳରେ ହିଁ ମନୁଷ୍ୟର ନୈତିକ ଗୁଣ ରାଜି ବିକଶିତ ହୋଇଥାଏ। ନୈତିକ ଗୁଣ ସ୍ୱରୂପ ସତ୍ୟ,ନ୍ୟାୟ,ଧର୍ମ,ଅହିଂସା,ଦାନ, ନ୍ୟାୟଶିଳତା ଆଦି ଗୁଣ ପରିପୁଷ୍ଟ ହୋଇଥାଏ। ସର୍ବୋପରି ପରୋପକାର ପ୍ରକୃତି ମଧ୍ୟ ଉଦ୍ରେକ ହୋଇଥାଏ। ଯାହାଠାରେ ନୈତିକ ଗୁଣ ବିକଶିତ ହୋଇଥାଏ,ତାର ମଣିଷ ଜନ୍ମ ସଫଳ ହୋଇଥାଏ। ନୈତିକ ଗୁଣ ମଧ୍ୟରେ ପରୋପକାର ଶ୍ରେଷ୍ଠତମ। Vedic Vichar, Sanghamitra Kar, Founder, Shalvi Infofine Private limited
ମହାର୍ଷି ଦୟାନନ୍ଦ ବୋଧୋତ୍ସବ
28-02-2022
ବେଦପ୍ରଚାର ସଙ୍ଘ, ଆର୍ୟ ସମାଜ, ବ୍ରହ୍ମପୁର ଦ୍ୱାରା "ମହାର୍ଷି ଦୟାନନ୍ଦ ବୋଧୋତ୍ସବ" ପାଳନ। ସ୍ଥାନ:- ଗୋଷାଣିନୁଆଗାଁ ଓଭରବ୍ରିଜ୍ ଶେଷ, ହାଇଓ୍ୱେ ସଂଲଗ୍ନ "ଓ୩ମ୍ ଡେଭ୍ଲପର୍" ଦୟାନନ୍ଦ ରେସିଡେନ୍ସି। ଦିନାଙ୍କ :- ଫାଲ୍ଗୁନ କୃଷ୍ଣ ଚତୁର୍ଦଶୀ ତା:- ୦୧.୦୩.୨୦୨୨ ସମୟ ନିର୍ଘଣ୍ଟ:- ସକାଳ ଘ୯.୦୦ ଠାରୁ ୧୦.୦୦ ଦେବ ୟଜ୍ଞ। ଘ୧୦.୦୦ ଠାରୁ୧୦.୩୦ ଭଜନ । ଘ ୧୦.୩୦ ଠାରୁ ୧୨.୦୦ ମହର୍ଷିଙ୍କ ସ୍ମୃତି ଚାରଣ। ଘ୧୨.୦୦ ଅନ୍ନ ପ୍ରସାଦ ସେବନ। ନିଶ୍ଚିତ ଯୋଗଦାନ ପାଇଁ ବ୍ରହ୍ମପୁର ବେଦ ପ୍ରଚାର ସଂଘର ସଦସ୍ୟ ମାନଙ୍କୁ ଅନୁରୋଧ କରାଯାଉଛି।ଇତି। ସଂପାଦକ, ଆର୍ୟ ସମାଜ, ବ୍ରହ୍ମପୁର। Vedic Vichar News
ଜୀବନ ରୂପୀ ବିଦ୍ୟାଳୟରୁ
25-02-2022
ଜୀବନ ରୂପୀ ବିଦ୍ୟାଳୟରୁ ମୃତ୍ୟୁ ପର୍ଯ୍ୟନ୍ତ ଅନେକ କିଛି ଶିକ୍ଷାଲାଭ କରିବାର ଅଛି। କିନ୍ତୁ ଶିକ୍ଷା ସଂପୂର୍ଣ୍ଣ ହୋଇ ଯାଇଛି,ନିଜକୁ ଜ୍ଞାନର ଜଳଧି ବୋଲି ଥରେ ଭାବିନେଲେ ଏହା ଅଧିକ କିଛି ଶିଖିବାର ଆଙ୍କାକ୍ଷାକୁ ସବୁଦିନ ପାଇଁ ରୁଦ୍ଧ କରି ଦେଇଥାଏ। ନିଜକୁ ଶ୍ରେଷ୍ଠ ଜ୍ଞାନୀ ବୋଲି ଭବିନେଲେ ମନରେ ଅହଂଭାବ ଆସିଯାଏ ଆମେ ଯେତିକି ଜ୍ଞାନର ଅଧିକାରୀ,ଯାହା ଜାଣିଛୁ ତାହା କେବେ ବି ପର୍ଯ୍ୟାପ୍ତ ନୁହେଁ। ପ୍ରତ୍ୟେକଙ୍କ ଠାରୁ କିଛି ନା କିଛି ଶିଖିବାର ଅଛି। ଏହି ମନୋଭାବ ରଖିଲେ ଜଣେ ଜ୍ଞାନର ଅଧିକାରୀ ହୋଇ ପାରିବ। Vedic Vichar, Dr. Yajnya Dutta
କ୍ଷମା ଏକ ଐଶ୍ୱରୀୟ ଗୁଣ
25-02-2022
କ୍ଷମା ଏକ ଐଶ୍ୱରୀୟ ଗୁଣ,ଯାହା ଏକ ସୁଗନ୍ଧିତ ପୁଷ୍ପ ସଦୃଶ। ଯିଏ ଯେତେ କ୍ଷମା ଦିଏ,ସିଏ ବାସନା ଫୁଲ ପରି ସମସ୍ତଙ୍କୁ ବାସେ। ଏହା ବ୍ୟକ୍ତିର ମହାନତା ପ୍ରତିପାଦନ କରେ ଓ ମଣିଷକୁ ଦେବତାର ଆସନରେ ଅଧିଷ୍ଠିତ କରେ। କିନ୍ତୁ ସମସ୍ତେ ଏ ମହାନ୍ ଗୁଣର ଅଧିକାରୀ ହୋଇ ପାରି ନଥାନ୍ତି। କାରଣ ଏହା ନିଜର ବିବେକ ଉପରେ ନିର୍ଭର କରେ। ପ୍ରତ୍ୟେକ ବ୍ୟକ୍ତି " କ୍ଷମା " ପରି ଏକ ଐଶ୍ୱରୀୟ ଗୁଣକୁ ହୃଦୟରେ ସାଇତି ରଖିବା ଆବଶ୍ୟକ ଯାହା ବ୍ୟକ୍ତିକୁ କାହା ମନରେ ନୁହେଁ ବରଂ ଅନ୍ୟର ହୃଦୟରେ ସ୍ଥାନ ଦେବାରେ ସାହାଯ୍ୟ କରିଥାଏ। Vedic Club, Dr. Yajnya Dutta Nayak (Vedic Vichar)
Vedic Vichar
25-02-2022
ସଂସାରରେ ଅନେକ ମଣିଷ ନିଜ ଯୋଗ୍ୟତା,ଅଭିଜ୍ଞତା,ଶିକ୍ଷାଦୀକ୍ଷା ନେଇ ନିର୍ଦ୍ଧିଷ୍ଟ କର୍ତ୍ତବ୍ୟ ସମ୍ପାଦନ କରିଥାନ୍ତି। କିନ୍ତୁ ଯେଉଁମାନେ ଉପସ୍ଥିତ ନିର୍ଦ୍ଧିଷ୍ଟ କର୍ତ୍ତବ୍ୟ ନକରି ଭବିଷ୍ୟତର ବଡ ସୁଯୋଗକୁ ଝୁରି ହୁଅନ୍ତି,ଅଥବା ଛୋଟ ଭିତରେ ପୂର୍ଣ୍ଣ ତାର ଆଶା ନଦେଖି ବଡ ହେବାର ଅଭିଳାଷ ପୋଷଣ କରିଥାନ୍ତି ସେ ନିର୍ବୋଧ ବ୍ୟତିତ ଅନ୍ୟ କିଛି ନୁହନ୍ତି। କର୍ମ ଫଳ ଠାରୁ ଯେଉଁମାନେ ଅଧିକ ଲୋଡିଥାନ୍ତି ସେମାନେ କେବଳ ଦୁଃଖକୁ ଆମନ୍ତ୍ରଣ କରିଥାନ୍ତି। Dr. Yajnya Dutta Nayak, Khallikote University, Berhampur, Odisha
ମନୁଷ୍ୟ ପାଖରେ ପ୍ରଚୁର ସମ୍ପତ୍ତି ଥିଲେ ମଧ୍ୟ ସେ ଜଣେ ଧନୀ ନୁହେଁ।
25-02-2022
ମନୁଷ୍ୟ ପାଖରେ ପ୍ରଚୁର ସମ୍ପତ୍ତି ଥିଲେ ମଧ୍ୟ ସେ ଜଣେ ଧନୀ ନୁହେଁ। ଯିଏ ଅଳ୍ପକେ ସନ୍ତୁଷ୍ଟ ସେ ହେଉଛି ପ୍ରକୃତ ଧନୀ। ଯେତେ ଧନ ସଂପତ୍ତି ପାଇଲେ ବି ଯାହାର ମନ ଆହୁରି ଚାହୁଁଥାଏ ସେ ହେଉଛି ଦରିଦ୍ର। ପାଖରେ ଅଳ୍ପ ଧନ ଥିଲେ ବି ଯିଏ ତାହାର ସଦ ବ୍ୟବହାର କରେ, ଦାନ ଦକ୍ଷିଣା ଦିଏ,ସିଏ ହେଉଛି ପ୍ରକୃତ ଧନୀ। ବହୁତ ଧନ ଥିବା ବ୍ୟକ୍ତି ଯଦି ତା ' ଧନକୁ ବିଳାସ ବ୍ୟସନରେ ଉଡ଼ାଏ,ସେ ଦରିଦ୍ର ପଦବାଚ୍ୟ। ଏଥି ପାଇଁ ମହତ୍ମାମାନେ ଧନବାନ ଲୋକମାନଙ୍କୁ ବି ଦରିଦ୍ର ତାଲିକାରେ ରଖିଛନ୍ତି। #Vedic Club Odisha #Sanghamitra Kar
Vedic Health
19-02-2022
ମେଦବହୁଳତା, ଶରୀରରେ ଆବଶ୍ୟକତା ଠାରୁ ଅଧିକ ଚର୍ବି ଜମାହୋଇ ମଣିଷକୁ ଅତିଶୟ ମୋଟା କରିଦେବା ଅବସ୍ଥାକୁ ସ୍ତୁଳତା ପୃଥୁଲତା ବା ମେଦବହୁଳତା କୁହାଯାଏ । ସାଧାରଣ ଭାବରେ ଦେଖିବାକୁ ଗଲେ , ବୟସ ଓ ଉଚ୍ଚତାକୁ ଚାହିଁ ବ୍ୟକ୍ତିର ଓଜନ ଯେତେକି ରହିବା କଥା , ତାହାଠାରୁ 20 ପ୍ରତିଶତ ଅଧିକ ଓଜନ ରହିଥିଲେ , ସେ ପୃଥଳାକାୟ ବୋଲି ଧରାଯାଏ । ଶରୀରରେ ଚର୍ବିଭାଗ ପୁରୁଷଙ୍କ କ୍ଷେତ୍ରରେ 20 ପ୍ରତିଶତରୁ ଅଧିକ ଏବଂ ମହିଳାଙ୍କ କ୍ଷେତ୍ରରେ 30 ପ୍ରତିଶତ ଅଧିକ ହୋଇଥିଲେ ମେଦବାହୁଲତାର ଶିକାର ହୋଇଛନ୍ତି ବୋଲି ଜଣାଯାଏ । ଶ୍ଵେତସାର , ସ୍ନେହସାର ଆଦି ଭଳି ଶକ୍ତି ଯୋଗାଉଥିବା ଖାଦ୍ୟ ଉପାଦାନରୁ ଶକ୍ତିର ପରିମାନ ଏବଂ ବିଭିନ୍ନ କାର୍ଯ୍ୟଦ୍ଵାରା ବ୍ୟକ୍ତି ଶରୀରର ଶକ୍ତି ବ୍ୟୟ ମଧ୍ୟରେ ଅସନ୍ତୁଳନ ଅବସ୍ଥା ଉପୁଜି ଦେହରେ ଅଧିକ ଚର୍ବି ଜମିଗଲେ ଏଭଳି ଅବସ୍ଥା ସୃଷ୍ଟି ହୁଏ । ତେବେ ଜଣେ ସଚେତନ ବ୍ୟକ୍ତି ଏହାର କାରଣ ସମ୍ପର୍କରେ ଜାଣିବା ଆବଶ୍ୟକ । ଏହାଛଡା ବର୍ତ୍ତମାନ ସ୍ଥିତିରେ ଏହାର ଅତ୍ୟାଧୁନିକ ଚିକିତ୍ସା ପ୍ରଣାଳୀ ଉପଲ୍ଲବ୍ଧ ହେଉଥିବାରୁ ଏହାର ସୁବିଧା ନେବା ନିହାତି ଜରୁରୀ । କାରଣ : ମେଦବହୁଳତାର ନିର୍ଦ୍ଧିଷ୍ଟ କାରଣ ଜଣା ନପଡିଲେ ମଧ୍ୟ ବ୍ୟକ୍ତିର ବୟସ ଓ ତାର ଆର୍ଥିକ ଏବଂ ସାମାଜିକ ସ୍ଥିତି ଏହାକୁ ପ୍ରଭାବିତ କରିଥାଏ । ବଂଶାନୁଗତିକ : ଯଦି ବ୍ୟକ୍ତି ର ମାତା ବା ପିତା କିମ୍ବା ଉଭୟ ମେଦବହୁଳତାର ଶିକାର ହୋଇଥାନ୍ତି , ତେବେ ଜିନଗତ କାରଣରୁ ମେଦବହୁଳତା ସମ୍ଭାବନା ଥାଏ । ଖାଦ୍ୟଜନିତ ସମସ୍ୟା : ଶରୀର ଦ୍ଵାରା ଖର୍ଚ୍ଚ ହେଉଥିବା ଶକ୍ତିଠାରୁ ଅଧିକ ଶକ୍ତି ବା କ୍ୟାଲେରୀ ଯୁକ୍ତ ଖାଦ୍ୟ ଶରୀର ଗ୍ରହଣ କଲେ , ତାହା ଶରୀରରେ ଜମାହୋଇ ମେଦବହୁଳତା ହୋଇଥାଏ । ଏହା ବ୍ୟତୀତ ଅଧ୍ୟାଧିକ ଚର୍ବି ଜାତୀୟ ଖାଦ୍ୟ ଖାଇବା ଦ୍ଵାରା ମେଦବହୁଳତା ହୋଇଥାଏ । ଅତ୍ୟାଧୁନିକ ଶାରୀରିକ ପରିଶ୍ରମର ଜୀବନଶୈଳୀ : ଆଧୁନିକ ବୈଜ୍ଞାନିକ ଯନ୍ତ୍ରପାତିର ପ୍ରୟୋଗ ଦ୍ଵାରା ଆମେ କମ ଶାରୀରିକ ପରିଶ୍ରମରେ ବହୁ କାର୍ଯ୍ୟ କରିପାରୁଛେ । ଯେଉଁମାନଙ୍କ ପୃଷ୍ଠିସାଧନ ଉପାଦାନ ସ୍ତର କମ ଏବଂ ଯେଉଁମାନେ ପୃଷ୍ଟିସାଧନ ଉପାଦାନ ସ୍ତର କମ ଏବଂ ଯେଉଁମାନେ ଅଳ୍ପ ଶାରୀରିକ ପରିଶ୍ରମ କରନ୍ତି , ସେମାନେ କମ ଶକ୍ତି ଆବଶ୍ୟକ କରନ୍ତି । ତଦ୍ଵାରା ଅବଶିଷ୍ଟ ଶକ୍ତି ଶରୀରରେ ଚର୍ବି ଆକାରରେ ଜମା ହୋଇ ଶରୀରକୁ ସ୍ଥୂଲ କରିଦେଇଥାଏ । ମାନସିକ ବିଷାଦଗ୍ରସ୍ତ / ମାନସିକ ଚାପ : ମାନସିକ ଚାପ କିମ୍ବା ମାନସିକ ବିଷାଦଗ୍ରସ୍ତ ଦ୍ଵାରରା ମନୁଷ୍ୟର ସୁନିଦ୍ରାରେ ବାଧା ସୃଷ୍ଟି ହୋଇଥାଏ । ନିଦ୍ରାରେ ବ୍ୟାଘାତ ଯୋଗୁଁ ଶରୀରରେ ପୃଷ୍ଟିସାଧନ କ୍ଷମତା କମିଯାଏ ; ଯାହାକି ମେଦ ବହୁଳତାର କାରଣ ହୋଇଥାଏ । ୟୋ ୟୋ ଡାଏଟିଙ୍ଗ : ଖୁବଶୀଘ୍ର ଓଜନ କମାଇବା ପାଇଁ ବହୁ ମେଦବହୁଳ ରୋଗୀ ଖାଦ୍ୟ କମ ପରିମାଣରେ ଖାଇଥାନ୍ତି । ଉପଯୁକ୍ତ ପୃଷ୍ଟିସାରର ଅଭାବରେ ଚର୍ବିବଦଳରେ ମାଂସପେଶୀରେ ଓଜନ କମିଯାଇଥାଏ ମାତ୍ର ହାଲିଆ ବା ଥକ୍କା ଲାଗିବା ଯୋଗୁଁ ସେହି ଲୋକମାନେ ଶାରୀରିକ ପରିଶ୍ରମ କରିନଥାନ୍ତି । ଅତ୍ୟଧିକ ଥକ୍କା ଲାଗିବାରୁ ସେମାନେ ପୁନର୍ବାର ସମସ୍ତ ଖାଦ୍ୟ ଖାଇବା ଦ୍ଵାରା ଶରୀରର ଓଜନ ବଢିଯାଏ । ତେଣୁ ଉତ୍ସାହିତ ହୋଇ ସେମାନେ ଓଜନ କମାଇବା ପାଇଁ ଚେଷ୍ଟା କରନ୍ତି ନାହିଁ । ଗର୍ଭଧାରଣ ଓ ପ୍ରସୂତି : ଗର୍ଭଧାରଣ ସମୟରେ ଫିଜିଓ ଥେରାପିଷ୍ଟଙ୍କ ସହାୟତାରେ ଉପଯୁକ୍ତ ବ୍ୟାୟାମ ନ କାଲେ ଶରୀରରେ ଓଜନ ବୃଦ୍ଧି ହୋଇଥାଏ । ଗର୍ଭଧାନ ରେ ଯଦି ମେଦବହୁଳତାର ଶିକାର ହୁଅନ୍ତି , ଏହାର କୁପ୍ରଭାବ ଶିଶୁ ଉପରେ ମଧ୍ୟ ପଡିଥାଏ । ଅସ୍ତ୍ରୋପଚାର ପ୍ରସାବ ହୋଇଥିଲେ , ସାଧରାଣତଃ ପେଟରେ ଥିବ ମାଂସପେଶୀରେ ଓଜନ କମିଯାଇଥାଏ ମାତ୍ର ହାଲିଆ ବା ଥକ୍କା ଲାଗିବା ଯୋଗୁଁ ସେହି ଲୋକମାନେ ଶାରୀରିକ ପରିଶ୍ରମ କରିନଥାନ୍ତି । ଅତ୍ୟଧିକ ଥକ୍କା ଲାଗିବାରୁ ସେମାନେ ପୁନର୍ବାର ସମସ୍ତ ଖାଦ୍ୟ ଖାଇବା ଦ୍ଵାରା ଶରୀରର ଓଜନ ବଢିଯାଏ । ତେଣୁ ହିତତ୍ସାହିତ ହୋଇ ସେମାନେ ଓଜନ କମାଇବା ପାଇଁ ଚେଷ୍ଟା କରନ୍ତି ନାହିଁ । ମଦ୍ୟପାନ : ଅତ୍ୟଧିକ ମଦ୍ୟପାନ ମଧ୍ୟ ଓଜନ ବୃଦ୍ଧିର କାରଣ ହୋଇଥାଏ । ଔଷଧ ସେବନ : ବହୁ ମାନସିକ ରୋଗ ପାଇଁ ସେବନ କରୁଥିବା ଔଷଧ ବେଳେ ବେଳେ ଓଜନ ବୃଦ୍ଧିର ଆଶଙ୍କା ଥ୍ବାଏ । ଦୀର୍ଘଦିନ ଧରି ଗର୍ଭନିରୋଧ ବଟିକା ସେବନ କାଲେ ମଧ୍ୟ ଓଜନ ବୃଦ୍ଧିର ଆଶଙ୍କା ଥାଏ । ଚିକିତ୍ସା : ମେଡବାହୁଲତାର ଚିକିତ୍ସା ଅତ୍ୟାଧୁନିକ ପ୍ରଣାଳୀରେ ଫଳବତୀ ହୋଇଥାଏ । ସ୍ନେହସାର ଓ ଶ୍ଵେତସାର ଜାତୀୟ ଖାଦ୍ୟର ପରିମାଣ ହ୍ରାସ କରିବା ଏବଂ ନିୟମିତ ବ୍ୟାୟାମ ତଥା କାୟିକ ପରିଶ୍ରମ କରିବା ଦ୍ଵାରା ଯଥେଷ୍ଟ ଉପକାର ମିଳିଥାଏ , ସନ୍ତୁଳିତ ଆହାର ଦ୍ଵାରା ଓଜନ କମ କରିବା ଆବଶ୍ୟକ । ଜଣେ ସ୍ଥୁଳ ବ୍ୟକ୍ତି ପ୍ରତିଦିନ କେତେ କ୍ୟାଲେରୀ ଖାଦ୍ୟ ଖାଇବା ଆବଶ୍ୟକ ସେଥିପ୍ରତି ଜଣେ ଅଭିଜ୍ଞ ଡାଏଟସିଆଣଙ୍କ ପରାମର୍ଶ ନେବା ଉଚିତ । ପ୍ରତିଦିନ 40-45 ମିନିଟ ଫିଜିଓଥେରାଫି ପରାମର୍ଶରେ ବ୍ୟାୟମ କାଲେ ଅନାବଶ୍ୟକ ଚର୍ବିର ପରିମାଣ ହ୍ରାସ ହୋଇଥାଏ । ଏହାଦ୍ଵାରା ଅତିରିକ୍ତ ଚର୍ବି ନଷ୍ଟ ହେବା ସହ ପାଚନ କ୍ଷମତା ବଢିଥାଏ । ଯେଉଁମାନେ ଖାଦ୍ୟ ଓ ବ୍ୟାୟମ ଦ୍ଵାରା ମେଦବହୁଳତାକୁ ରୋକା ପାରନ୍ତି , ସେମାନେ ବିନା ଅସ୍ତ୍ରୋପଚାରରେ ଅତ୍ୟାଧୁନିକ ଚିକିତ୍ସା ସହାୟତାରେ ଚର୍ବିକୁ କମାଯାଇ ମାଂସପେଶୀକୁ ସବଳ କରାଯାଇପାରେ । ଓଜନ କମିଗଲେ କିମ୍ବା ଚର୍ବି ହ୍ରାସ ପରେ ମାଂସ ପେଶୀକୁ ଶାକ୍ତ କରାଯାଉଥିବାରୁ ଉପଯୁକ୍ତ ବ୍ୟାୟମ ଓ ଖାଦ୍ୟପେୟକୁ ଅନୁସରଣ କାଲେ ପରବର୍ତ୍ତୀ ଅବସ୍ଥାରେ ଆଉ ମେଦବହୁଳତା ହେବାର ସମ୍ଭାବନା କମ ହୋଇଥାଏ । ଉପରୋକଟ ଚିକିତ୍ସା ପ୍ରଣାଳୀର କୌଣସି ପାର୍ଶ୍ଵ ପ୍ରତିକ୍ରିୟା ନ ଥାଏ । ଏହାଦ୍ଵାରା ମେଦବହୁଳତାକୁ ସଂପୂର୍ଣ୍ଣ ରୂପେ ନିରାକରଣ କରାଯାଇପାରେ ।
ଈଶ୍ୱର ହିଁ ସ୍ଵୟଂ ସଂପୂର୍ଣ୍ଣ ଓ ସବୁରି ଉର୍ଦ୍ଧ୍ବରେ
19-02-2022
ଈଶ୍ୱର ହିଁ ସ୍ଵୟଂ ସଂପୂର୍ଣ୍ଣ ଓ ସବୁରି ଉର୍ଦ୍ଧ୍ବରେ। ମଣିଷ ଅଳ୍ପଜ୍ଞ ହୋଇଥିବାରୁ କିଛି ମାତ୍ରାରେ ଭଲ,କିଛି ମାତ୍ରାରେ ଖରାପ,ଉଭୟ ଗୁଣ ସମ୍ପନ୍ନ। କେବଳ ଫରକ ଏତିକି କହାଠାରେ ନିର୍ଦ୍ଧିଷ୍ଟ ଗୁଣ ଅଧିକ ତ କାହାଠାରେ କମ୍ ଥାଏ। ଏହି କାରଣରୁ ଆମର କର୍ତ୍ତବ୍ୟ ହେଲା ଉତ୍ତମକୁ ଗ୍ରହଣ କରି ଅଧମ (ଖରାପ)କୁ ତ୍ୟାଗ କରିବା। ଏହା କଲେ ଆମ ଜୀବନ ସୁଖମୟ ସୁରକ୍ଷିତ ହୋଇପାରିବ ନିଶ୍ଚୟ। ହଂସ ଯେପରି ନୀରରୁ କ୍ଷୀରକୁ କେବଳ ଗ୍ରହଣ କରିଥାଏ,ସେହିପରି ଆମକୁ କୁଗୁଣକୁ ତ୍ୟାଗ ପୂର୍ବକ କେବଳ ସୁଗୁଣକୁ ଗ୍ରହଣ କରିବାକୁ ହେବ। Dr. Yajnya Dutta Nayak, Vedic Vichar
ସୁନ୍ଦର ଜୀବନ
18-02-2022
ମଣିଷକୁ ପରମାତ୍ମା କେତେ ସୁନ୍ଦର ଜୀବନ ଦେଇଛନ୍ତି। ମଣିଷ ଭିତରେ ଦୟା,କ୍ଷମା,ପରୋପକାର ଆଦି ଦିବତ୍ଵ ଗୁଣ ମଧ୍ୟ ଦେଇଛନ୍ତି। ମାତ୍ର ଅନେକ ମଣିଷ ସାମାଜିକ ପ୍ରତିଷ୍ଠା,ଧନ,ସମ୍ପତ୍ତି,କ୍ଷମତା ଇତ୍ୟାଦିରେ ଏପରି ମତୁଆଲା ହୋଇଥାନ୍ତି ଯେ,ସେ ମଣିଷର ଦିବତ୍ୱ ଗୁଣକୁ ଗ୍ରହଣ କରିବା ପରିବର୍ତ୍ତେ ତା ଭିତରୁ ଖରାପ ଗୁଣ ଖୋଜି ଖୋଜି ମୂଲ୍ୟବାନ ସମୟଟିକୁ ସାରି ଦେଉଛନ୍ତି। ଅନେକ ମଣିଷ ଅଛନ୍ତି ସେମାନେ ଅନ୍ୟର ଯେତେ ଦୋଷ,ଦୁର୍ବଳତା ଦେଖିଲେ ମଧ୍ୟ ତାହା ପ୍ରତି ଦୃଷ୍ଟିପାତ କରନ୍ତି ନାହିଁ। ବରଂ ତାଙ୍କ ଭିତରେ ସୁଗୁଣକୁ ଖୋଜନ୍ତି।ଏଣୁ ଆସନ୍ତୁ! ଆମେ କାହାଠାରେ ଦୂର୍ଗୁଣକୁ ନଖୋଜି, ସୁଗୁଣକୁ ଖୋଜି ସମାଜରେ ପ୍ରତିଷ୍ଠା ଲାଭ କରିବା ଓ ଗୁଣଗ୍ରାହୀ ହେବା। Vedic Vichar (Purna Chandra Nayak)
ଦାନ ଦେବା ନିଶ୍ଚିତ ଏକ ପୁଣ୍ୟ କର୍ମ
18-02-2022
ଦାନ ଦେବା ନିଶ୍ଚିତ ଏକ ପୁଣ୍ୟ କର୍ମ। କିନ୍ତୁ ଦାନର ଉଦ୍ଦେଶ୍ୟ ହେଲା ଦୁସ୍ଥ,ନିପୀଡ଼ିତ ଲୋକଙ୍କ ଦୁର୍ଦ୍ଦଶା ମୋଚନରେ ସହାୟତା କରିବା। ଏହାର ଅର୍ଥ ନୁହେଁ,ସେମାନଙ୍କୁ ପରଜୀବୀ କରାଇ ଦେବା। ଏହା ଧ୍ୟାନରେ ରଖିବାକୁ ପଡିବ ଦାନ ଦେବା ପ୍ରକ୍ରିୟାରୁ କିଛି ଲୋକ ଯେପରି ଅନୁଚିତ ଫାଇଦା ନ ଉଠାନ୍ତି। ବିନା ଶ୍ରମରେ କିଛି ଆହରଣ କରିବା କିଛି ଲୋକଙ୍କ ପ୍ରବୃତ୍ତି। ଏହା ଯେତେବେଳେ ଏପରି ଲୋକଙ୍କ ଅଭ୍ୟାସରେ ପରିଣତ ହୋଇଯାଏ,ସେତେବେଳେ ସେମାନଙ୍କର ପରିଶ୍ରମ କରି ଉପାର୍ଜନ କରିବା ପ୍ରବୃତ୍ତି ଲୋପ ପାଇଯାଏ। ପରାଙ୍ଗପୁଷ୍ଟ ହୋଇ ଜୀବନ ବିତାଇବାକୁ ସେମାନେ ଭଲ ପାଇଥାନ୍ତି। ଏଣୁ ଦାତା ସୁବିଚାର କରି ଦାନ ଦେବା ଉଚିତ। Dr. Yajnya Dutta Nayak
Vedic Vichar
17-02-2022
ସୃଷ୍ଟିର ପ୍ରତ୍ୟେକ କୋଣ,ଅନୁକୋଣ ଓ ପରମାଣୁ ଭିତରେ ଭଗବତ୍ ସତ୍ତା ପୂର୍ଣ୍ଣ ଭାବରେ ବିଦ୍ୟମାନ। ଏ ସବୁ ସତ୍ତ୍ୱେ ସାଧାରଣ ମଣିଷଟିଏ ଅନେକ ସମୟରେ ନିଜକୁ ଖୁବ୍ ଦୁଃଖୀ, ନିସ୍ୱ ଏବଂ ଅସହାୟ ମଣେ। ନିଜର ସୀମିତ ଧନ,ଜ୍ଞାନ,ସାମର୍ଥ୍ୟ ତାକୁ ଏପରି ଭାବିବାକୁ ବାଧ୍ୟ କରେ। ନିଜକୁ ବିରାଟ ଅସ୍ତିତ୍ବ ଠାରୁ ଅଲଗା ବା ସ୍ଵତନ୍ତ୍ର ମନେ କରିବା ଏହାର ଏକମାତ୍ର କାରଣ। ଜୀବର ଅହଙ୍କାର ତାକୁ ଏଭଳି ଅନୁଭବ କରାଏ। ମଣିଷର ଜୀବନ ଧାରଣ ପାଇଁ ସାମାଜିକ ପରିଚୟ ଏବଂ କିଛି ପାର୍ଥିବ ପଦାର୍ଥ ଅର୍ଜନ କରିବା ଅପରିହାର୍ଯ୍ୟ। ମାତ୍ର ଏ ସବୁକୁ ହିଁ ଏକମାତ୍ର ସତ୍ୟ ମାନିନେବା ଉଚିତ୍ ନୁହେଁ। ଏପରି ଆଭରଣକୁ ମନରୁ ହଟେଇ ଦେଲେ ନିଜ ଭିତରେ ଅନନ୍ତର ଅନୁଭବ ସମ୍ଭବ ହୋଇଯିବ। Dr. Yajnya Dutta
ଚିନ୍ତା ଓ ଚେତନାକୁ ନେଇ ମଣିଷର ସୃଷ୍ଟି
17-02-2022
ବିଭିନ୍ନ ଚିନ୍ତା ଓ ଚେତନାକୁ ନେଇ ମଣିଷର ସୃଷ୍ଟି। ଆଶା ବା ବାସନା ନଥିଲେ ମଣିଷ ଜୀବନ ବୋଧହୁଏ ସାର୍ଥକ ହୁଏ ନାହିଁ। କାମନା ଶୂନ୍ୟ ମାନବ ଦିବ୍ୟତ୍ୱର ଶ୍ରେଷ୍ଠ ଅବସ୍ଥାରେ ଉପନୀତ ହୋଇଥାଏ। ଆମେ ସମସ୍ତେ ଜାଣିଛୁ କାମନା ହିଁ ଦୁଃଖର କାରଣ। କିନ୍ତୁ ଆମେ ସମସ୍ତେ କେବଳ କାମନାରେ ମଜ୍ଜି ରହିଛୁ। ପରମ ପିତା ପରମାତ୍ମାଙ୍କ ଶ୍ରେଷ୍ଠ ସୃଷ୍ଟି ମଣିଷ ପ୍ରକୃତ ସତ୍ୟ ପଥର ଅନୁଗାମୀ ହୋଇ କାମନାକୁ ସୀମାଙ୍କନ କରି ପାରିଲେ ତା ଭିତରେ ଦିବ୍ୟତ୍ଵ ପ୍ରକାଶ ପାଇବ ଓ ପରମ ଶାନ୍ତି,ଆନନ୍ଦ ଲାଭ କରିବାକୁ ସକ୍ଷମ ହୋଇ ପାରିବ। Vedic Vichar
ଉପଯୁକ୍ତ କର୍ମ
17-02-2022
ଆମକୁ ଯେତିକି ପାଇବାର ଅଛି,ସେତିକି ଆମକୁ ମିଳିଥାଏ। ବେଳେ ବେଳେ ଆମେ ଉପଯୁକ୍ତ କର୍ମ ନକରି ତା ' ଠାରୁ ଅଧିକ ପାଇବାକୁ ଇଛା କରିଥାଉ। ତାହା କଣ ଆମେ ସତରେ ପାଇ ପାରିବା ? ଆମ ଚାରି ପାଖରେ ଅନେକ ଜିନିଷ ଥାଏ ମାତ୍ର ସେ ସବୁ ହୁଏତ ଆମ ଉଦ୍ଦେଶ୍ୟରେ ନଥାଇ ପାରେ। ଆମ ପାଇଁ ଯାହା ଅଛି,ତାହା ହିଁ ମିଳିବ। ଅଯଥାରେ ବ୍ୟସ୍ତ ବିବ୍ରତ ହୋଇ କିଛି ଲାଭ ନାହିଁ। କର୍ମ ନକରି ସବୁ ମିଳିଯିବ ଭାବିବା ବୃଥା। ଯେତିକି ମିଳୁଛି ତାହା ପୂର୍ବ କର୍ମର ଫଳ। ପରମାତ୍ମା ଆମର ମାଲିକ। ସେ ହେଉଛନ୍ତି କର୍ମ ଫଳ ଦାତା। ଏବେ ଯାହା ପାଉଛେ ତାହା ଆମ ପୂର୍ବ ଅର୍ଜିତ କର୍ମର ଫଳ। ଏବେ ଯାହା କରିବା, ତା ' ର ଫଳ ଭବିଷ୍ୟତରେ ନିଶ୍ଚୟ ମିଳିବ। Purna Chandra Nayak, Vedic Vichar
Vedic Vichar
17-02-2022
ଆମେ ସମସ୍ତେ ଦେଖୁ ଗୋଟିଏ ବୃକ୍ଷରେ ପାଚିଲା,ଶୁଖିଲା ପତ୍ର ଗୁଡ଼ିକ ଝଡି ନୂତନ ପତ୍ର ହୋଇଥାଏ। ସେହିପରି ଆମ ଭିତରେ ଥିବା କୁପ୍ରବୃତି,ରାଗ, ଦ୍ୱେଷ ଆଦିକୁ ପାଚିଲା ତଥା ଶୁଖିଲା ପତ୍ର ସଦୃଶ ନିଜ ଭିତରୁ ତ୍ୟାଗ କରିଦେବା ଉଚିତ। କାରଣ ଏ ସବୁ ଦୁଃଖର କାରଣ ହୋଇଥାଏ। ମାନସିକ ଅଶାନ୍ତି, ଉଦ୍ବେଗକୁ ବଢାଇ ଥାଏ। ଯାହା ଉନ୍ନତି ପଥରେ ଦୂର୍ଲଘ୍ନ୍ୟ ପ୍ରାଚୀର ସଦୃଶ ଠିଆ ହୁଏ। ଆଗକୁ ଆଗେଇବା ଦିଗରେ ବାଧକ ସାଜୁଥିବା ଏ ସବୁକୁ ତ୍ୟାଗ କରିବା ଅତି ଜରୁରୀ। ସବୁକୁ ତ୍ୟାଗ କଲେ ଆମ ଭିତରେ ସତ୍ୟ,ଶାନ୍ତି,ଦୟା,କ୍ଷମା ଆଦି ଗୁଣ ଗୁଡ଼ିକ ଆପେ ଆପେ ସଞ୍ଚାରିତ ହୋଇଯିବ। Dr. Yajnya Dutta
Vedic vichar
12-02-2022
संसार मे अच्छाई बुराई , धर्म अधर्म सदैव रहते है।कभी धार्मिक लोग अधिक तो कभी अधार्मिक।ईश्वर सृष्टि का उत्पन्न करने वाला ,अनुशासन मे रखने वाला व प्रलय काल मे कारण रूप मे परिवर्तित करने वाला है।जो बढता है ,वह घटता भी है कारण चाहे कुछ भी हो यही जगत है।पहले यहां धर्म का पालन होता था। आर्यों का चक्रवृति राज्य था।लेकिन जब धन बल अधिक हो जाता है तो यह अहंकार अकर्मण्यता आदि बुराई उत्पन्न करता है। महाभारत से पहले ऐसा ही हुआ जिसका परिणाम महाभारत युद्ध था।फिर सब वर्ण व्यवस्था नष्ट हो गई।धर्म का वास्तविक स्वरूप बाह्य आडम्बरो के पीछे विलुप्त हो गया।धर्म के नाम पर केवल बाहरी चिन्ह ही रह गए। वर्ण व्यवस्था के छिन्न भिन्न होने से स्त्रियों और शूद्रो को पढने के अधिकार से वंचित कर दिया गया।उन्हें वेद पढने व सुनने का अधिकार भी नहीं था। बाल विवाह व सती प्रथा के नाम पर स्त्रियों पर अत्याचार होते थे।समाज मे ऊँच नीच के रूप मे भेदभाव होते थे।संस्कृत विद्या का प्रचार घट गया था।और वेद आदि सत्य शास्त्रो का स्थान कल्पित मनुष्य कृत पुराणों ने ले लिया था। ऐसे समय मे सामप्रदायिक लोग ईसाई और मुसलमान पुराणों की काल्पनिक कथाओं मे लिखी असम्भव बातों को बताकर देवी देवताओं महापुरुषों का अपमान करते और भोले लोगों को धर्म से विहीन करते थे।पूजा का स्वरूप मूर्ति पूजा ने ले लिया था।मूर्ति पूजा के कारण लोग पुरुषार्थहीन और धर्म भीरु हो गए। ऐसी विकट परिस्थितियों मे गुजरात के टंकारा मे एक महापुरुष ने जन्म लिया।उनका बचपन का नाम मूलशंकर था। मनुष्य के जीवन मे कुछ ऐसी घटनाये हो जाती है जिससे उसका पूरा जीवन ही बदल जाता है।ऐसी ही एक घटना मूलशंकर जी के जीवन मे शिवरात्रि को घटी।जिससे उनके जीवन का लक्ष्य ही बदल गया।वे सच्चे शिव की खोज मे निकल पडे। फिर बहिन और चाचाजी की मृत्यु ने उनके लक्ष्य को और दृढ़ कर दिया।वे सब स्थान पर गये।जिसने जैसा कहा किया लेकिन उन्हें सच्चा शिव न मिला। हरिद्वार मे संयास गृहण किया।इसके बाद दयानंद नाम मिला।और फिर गुरु विरजानन्द जी से व्याकरण की शिक्षा ली।गुरु दक्षिणा मे अपना पूरा जीवन अविद्या और पाखण्ड के खंडन मे लगाने का संकल्प लिया।हम आज सोचते है कि जिन विषम परिस्थितियों मे खण्डन मंडन का कार्य ऋषि ने किया वह कितना कठिन होगा।अनेक बार उनके प्राण हरण के प्रयास किये गये लेकिन अपने उद्देश्य से विचलित न हुये।और अन्त मे उनको भंयकर विष दिया गया फिर चिकित्सा मे लापरवाही की गई जिस कारण से वे संसार को छोड़ कर चले गये।हम उनके जन्म दिन पर यही संकल्प ले कि उनके अधूरे कार्य को आगे बढाते रहे यदि उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि होगी। ऋषि वर को कोटि-कोटि नमन्।
ମହର୍ଷି ଦୟାନନ୍ଦ ଆର୍ଯ୍ୟସମାଜର ସଂସ୍ଥାପକ
12-02-2022
ମହର୍ଷି ଦୟାନନ୍ଦ ଆର୍ଯ୍ୟସମାଜର ସଂସ୍ଥାପକ ଆଧୁନିକ ବିଶ୍ଵ ଇତିହାସରେ ସର୍ଵୋତ୍ତମ ବେଦବେତ୍ତା, ବେଦଜ୍ଞ, ବେଦ ପ୍ରଚାରକ, ବେଦୋଦ୍ଧାରକ, ବେଦମୂର୍ତି, ବେଦର୍ଷି, ବେଦଭାଷ୍ୟକାର, ବେଦରକ୍ଷକ ଓ ବେଦକୁ ଈଶ୍ଵର ପ୍ରଦତ୍ତ ଜ୍ଞାନ ମାନିବା ତଥା ନିଜର ଏହି ମାନ୍ୟତାକୁ ତର୍କ, ପ୍ରମାଣ ଦ୍ଵାରା ସତ୍ୟ ସିଦ୍ଧ କରିଥିବା ଅପୂର୍ଵ ମହାପୁରୂଷ ଅଟନ୍ତି। ଏ ସମସ୍ତ ଗୁଣ ସହିତ ଋଷି ଦୟାନନ୍ଦ ମହାନ ଦେଶଭକ୍ତ, ଦେଶକୁ ସର୍ଵପ୍ରଥମ ସ୍ଵରାଜ୍ୟ ବା ସ୍ୱତନ୍ତ୍ରତାର ବିଚାର ପ୍ରଦାନ କରିଥିବା ସ୍ଵରାଜ୍ୟର ପ୍ରଥମ ଉଦ୍ଘୋଷକ, ଋଷି ମନୁ, ପତଂଜଳି, କପିଳ, କଣାଦ, ଗୌତମ, ବ୍ୟାସ, ଜୈମିନୀ ଆଦିଙ୍କ ପ୍ରତି ଶ୍ରଦ୍ଧାବାନ, ନିଜ ଗୁରୁ ଦଣ୍ଡୀ ସ୍ଵାମୀ ବିରଜାନନ୍ଦଙ୍କ ଅତି ପ୍ରିୟ, ସ୍ଵୟଂ ତଥା ନିଜ ଗୁରୁଙ୍କ ଯଶ ଏବଂ କୀର୍ତିକୁ ଦିଗ୍ଦିଗନ୍ତ ପ୍ରସାରିତ କରିଥିବା, ସିଦ୍ଧ ଯୋଗୀ, ସତ୍ୟକୁ ହିଁ ଧର୍ମର ପର୍ଯ୍ୟାୟ ଭାବେ ଗ୍ରହଣ କରିଥିବା ଅଦ୍ଵିତୀୟ ଏବଂ ଅପୂର୍ଵ ସମାଜ ସୁଧାରକ, ଅଛୂତୋଦ୍ଧାରର ଜନକ, ସ୍ତ୍ରୀ ଏବଂ ଶୂଦ୍ରଙ୍କୁ ବେଦାଧ୍ୟୟନର ଅଧିକାର ପ୍ରଦାନ କରିଥିବା, ନାରୀ ସମ୍ମାନ ଏବଂ ସେମାନଙ୍କ ମାନ ମର୍ୟାଦାର ରକ୍ଷକ, ନାରୀ ଉଦ୍ଧାରକ, ସମଗ୍ର ମାନବ ଜାତିରେ ସମାନତାର ପୋଷକ, ଅଜ୍ଞାନ-ଅନ୍ଧବିଶ୍ଵାସ-କୁରୀତି-ଅନ୍ୟାୟ ନିବାରକ ଆଦି ଅନେକାନେକ ଗୁଣ ଦ୍ୱାରା ବିଭୂଷିତ ଏବଂ ପରିପୂର୍ଣ୍ଣ ମହାପୁରୁଷ ଥିଲେ। ସ୍ୱାମୀ ଦୟାନନ୍ଦ ସରସ୍ଵତୀ ଙ୍କ ଜନ୍ମ ଫାଲ୍ଗୁନ କୃଷ୍ଣ ପକ୍ଷ ଦଶମୀ ସଂବତ 1881 ଅର୍ଥାତ 12 ଫେବୃଆରୀ 1825 ଶନିବାର ଦିନ ଗୁଜୁରାଟ ପ୍ରଦେଶର ରାଜକୋଟ ଜିଲ୍ଲା କାଠିୟାୱାଡ଼ କ୍ଷେତ୍ର ନିକଟସ୍ଥ ମୋରବୀ ରିୟାସତ ଅନ୍ତର୍ଗତ ଟଂକାରାଗାଓଁ ରେ ହୋଇଥିଲା। ଋଷି ଦୟାନନ୍ଦ ଏପରି ଏକ ମହାପୁରୁଷ ଥିଲେ ଯିଏ “ନ ଭୂତୋ ନ ଭବିଷ୍ୟତି” କଥନ କୁ ଜୀବନରେ ନିଜ ଜ୍ଞାନ, ଯୋଗ୍ୟତା, ତପ ଏବଂ କାର୍ଯ୍ୟ ଦ୍ଵାରା ଚରିତାର୍ଥ କରିଥିଲେ। ବେଦର ପୁନରୂଦ୍ଧାର କରି ବିଶ୍ଵ ମାନବତା ର ଯେଉଁ ସେବା କରିଛନ୍ତି ତାର ମୂଲ୍ୟାଂକନ କରିବା ଅସମ୍ଭବ । ମହର୍ଷି ଦୟାନନ୍ଦ ବେଦର ସତ୍ୟ ଅର୍ଥକୁ ସମଗ୍ର ଦେଶ ତଥା ବିଶ୍ୱରେ ପ୍ରଚାର କରିବା ସହ ସଂସ୍କୃତ ସହିତ ହିନ୍ଦୀ ସାହିତ୍ୟର ମଧ୍ୟ ସମୃଦ୍ଧ କରିଥିଲେ। ଦୀର୍ଘକାଳ ଧରି ଯେଉଁ ବେଦ କେବଳ ଏକ ବର୍ଗ ବିଶେଷର ଅଧିକାର ରେ ଥିଲା, ସେହି ବେଦକୁ ଋଷି ଦୟାନନ୍ଦ ପ୍ରତ୍ୟେକ ବର୍ଗର ବ୍ୟକ୍ତି ପର୍ଯ୍ୟନ୍ତ ପହଞ୍ଚେଇବାରେ ସକ୍ଷମ ହୋଇଥିଲେ। ଏଥିରୁ ଜ୍ଞାତ ହୁଏ ଯେ ବେଦର ନାମ ନେଇ ସ୍ୱାର୍ଥୀ ଲୋକମାନେ ନିଜ ସ୍ୱାର୍ଥର ପୂର୍ତ୍ତି ପାଇଁ ଯେଉଁ ସବୁ ମିଥ୍ୟା ମାନ୍ୟତା ଆମ ଜନତାଙ୍କ ମଧ୍ୟରେ ପ୍ରଚଳିତ କରି ରଖିଥିଲେ ତାହା ବେଦ ସହିତ ଦେଶର ପରାଭବର ମଧ୍ୟ କାରଣ ସିଦ୍ଧ ହୋଇଥିଲା। ବେଦର ପୁନରୂଦ୍ଧାର ଏବଂ ସତ୍ୟ ବେଦାର୍ଥ ଦ୍ୱାରା ସମାଜୋତ୍ଥାନର ମୂଳଦୁଆ ପଡିଥିଲା। ମହର୍ଷି ଦୟାନନ୍ଦଙ୍କ ପ୍ରେରଣାରେ ଆର୍ଯ୍ୟସମାଜ ସମଗ୍ର ଦେଶରେ କ୍ଷିପ୍ର ଗତିରେ ସଂସ୍କୃତ ଶିକ୍ଷା ନିମିତ୍ତ ବୈଦିକ ଗୁରୂକୁଳ ଏବଂ ଆଧୁନିକ ଶିକ୍ଷା ପାଇଁ ଦୟାନନ୍ଦ ଐଂଗ୍ଲୋଂ ବୈଦିକ କାଲେଜ (DAV Public School/College) ଆଦିର ସ୍ଥାପନ କଲେ। ଋଷି ଦୟାନନ୍ଦଙ୍କ ସ୍ଥାପିତ ଆର୍ଯ୍ୟସମାଜର ଏହି କ୍ରାନ୍ତିକାରୀ କାର୍ଯ୍ୟ ଦ୍ୱାରା ଦେଶରେ ଅଜ୍ଞାନ ଅନ୍ଧକାର ଦୂର ହୋଇ ଜ୍ଞାନର ପ୍ରକାଶ ପ୍ରସାରିତ ହେଲା। ସ୍ଵାମୀ ଦୟାନନ୍ଦ ଯଜ୍ଞ କରିବା ଏବଂ ୟଜ୍ଞୋପବୀତ ଧାରଣ କରିବାର ଅଧିକାର ସମସ୍ତ ଦ୍ଵିଜ ଅର୍ଥାତ ବ୍ରାହ୍ମଣ, କ୍ଷତ୍ରିୟ, ବୈଶ୍ୟଙ୍କ ସହିତ ସ୍ତ୍ରି ଏବଂ ଶୂଦ୍ରଙ୍କୁ ମଧ୍ୟ ପ୍ରଦାନ କଲେ ଯଦ୍ୱାରା ସ୍ତ୍ରୀ ଏବଂ ଶୂଦ୍ର ବର୍ଣର ସମସ୍ତ ଆର୍ଯ୍ୟ ଜନତା ବେଦ ମନ୍ତ୍ରୋଚ୍ଚାରଣ ପୂର୍ବକ ଯଜ୍ଞ କରିବା ଆରମ୍ଭ କରିଦେଲେ। ଏ ସମସ୍ତ କାର୍ଯ୍ୟ ମହର୍ଷି ଦୟାନନ୍ଦଙ୍କ କ୍ରାନ୍ତିକାରୀ କାର୍ଯ୍ୟ ଗୁଡିକ ମଧ୍ୟରେ ଅନ୍ୟତମ। ଆର୍ଯ୍ୟସମାଜର ମନ୍ଦିର ମାନଙ୍କରେ ପ୍ରବେଶ ନିମନ୍ତେ ଜାତି ଏବଂ ସମ୍ପ୍ରଦାୟର କୌଣସି ପ୍ରତିବନ୍ଧକ ନ ରହିବାରୁ ପୌରାଣିକ ହିନ୍ଦୁ ମାନଙ୍କ ସହିତ ବୌଦ୍ଧ, ଜୈନ, ଶିଖ, ଈସାଈ, ମୁସଲମାନ ଆଦି ସମ୍ପ୍ରଦାୟର ଲୋକମାନେ ମଧ୍ୟ ସନାତନ ଆର୍ଯ୍ୟ ବୈଦିକ ଧର୍ମ କୁ ସ୍ଵୀକାର କରିବା ସହିତ ସେମାନଙ୍କ ମଧ୍ୟରୁ ଅନେକ ବେଦ ପ୍ରଚାରର କାର୍ଯ୍ୟରେ ନିଜର ସମ୍ପୂର୍ଣ୍ଣ ଜୀବନ ସମର୍ପିତ କରିଦେଲେ। ଦୀର୍ଘକାଳ ଧରି ଚାଲି ଆସୁଥିବା ଅସ୍ପୃଶ୍ୟତା ବା ଛୁଆଁ-ଅଛୁଆଁ ର ସମସ୍ୟା ଦୁର୍ବଳ ହୋଇ ପ୍ରାୟତଃ ସମାପ୍ତ ଆଡକୁ ଅଗ୍ରସର ହୋଇ ପଡ଼ିଲା। ଆର୍ଯ୍ୟସମାଜ କନ୍ୟା ବିଦ୍ୟାଳୟ/ଗୁରୁକୂଳ ଆଦିର ଶୁଭାରମ୍ଭ କରି ସମାଜକୁ ନୂତନ ଦିଗ ପ୍ରଦାନ କଲା। ଯେଉଁ ଲୋକମାନେ ସ୍ତ୍ରୀଶିକ୍ଷାର ବିରୋଧୀ ଥିଲେ ସେମାନେ ମଧ୍ୟ ଆର୍ଯ୍ୟସମାଜର ଅନୁସରଣ କରି ନିଜ କନ୍ୟା ମାନଙ୍କୁ ଆର୍ଯ୍ୟ କନ୍ୟା ପାଠଶାଳା ମାନଙ୍କୁ ପଠେଇ ସେମାନଙ୍କୁ ବିଦ୍ୟା ଶିକ୍ଷ୍ୟା ଦେବା ଆରମ୍ଭ କଲେ। ଧାର୍ମିକ କ୍ଷେତ୍ରରେ ଆର୍ଯ୍ୟସମାଜ ପ୍ରତିମାପୂଜାର ଖଣ୍ଡନ କଲା। ଋଷି ଦୟାନନ୍ଦ କାଶୀରେ ଦେଶର ସମସ୍ତ ପ୍ରାନ୍ତରୁ ଏକତ୍ରିତ ହୋଇଥିବା ୪୦ରୁ ଅଧିକ ଶୀର୍ଷସ୍ଥ ପୌରାଣିକ ପଣ୍ଡିତଙ୍କ ସହିତ ମୂର୍ତିପୂଜା ଉପରେ ଏକାକୀ ଶାସ୍ତ୍ରାର୍ଥ କରି ସେମାନଙ୍କୁ ପରାଜିତ କଲେ। ସମସ୍ତ ପୌରାଣିକ ପଣ୍ଡିତ ମିଶି ବେଦରେ ମୂର୍ତିପୂଜାର ବିଧାନ ସିଦ୍ଧ କରିପାରିଲେ ନାହିଁ। ବହୁ ସଂଖ୍ୟାରେ ଲୋକମାନେ ସ୍ଵାମୀ ଦୟାନନ୍ଦଙ୍କ ଦ୍ଵାରା ପ୍ରଭାବିତ ହୋଇ ମୂର୍ତିପୂଜାକୁ ତ୍ୟାଗ କରି ଆର୍ଯ୍ୟଧର୍ମକୁ ସ୍ୱୀକାର କଲେ। ଏହି ଭଳି ଭାବରେ ମହର୍ଷି ଦୟାନନ୍ଦ ମୃତକ ଶ୍ରାଦ୍ଧ, ଜନ୍ମନା ଜାତିପ୍ରଥା, ଅମେଳ ବିବାହ, ବାଲ୍ୟ ବିବାହ, ସତିପ୍ରଥା ଆଦି ଅନେକାନେକ କୁପ୍ରଥା ମାନଙ୍କର ଖଣ୍ଡନ କରିବା ସହିତ ବିଧବା ମାନଙ୍କ ପୁନର୍ଵିବାହ ତଥା ଯୁବାବସ୍ଥାରେ ହିଁ କନ୍ୟା ମାନଙ୍କୁ ସେମାନଙ୍କ ଗୁଣ, କର୍ମ ଏବଂ ସ୍ଵଭାବର ଅନୁରୂପ ଯୁବକ ମାନଙ୍କ ସହିତ ବିବାହର ସମର୍ଥନ ଏବଂ ପ୍ରଚାର କଲେ ଯଦ୍ୱାରା ଭାରତୀୟ ହିନ୍ଦୂ ସମାଜରେ ନୁଆଁ ଚେତନା ଏବଂ ଉତ୍ସାହ ଉତ୍ପନ୍ନ ହେଲା ତଥା ବିଧର୍ମି ଇସାଇ ମୁସଲିମ ମାନଙ୍କ ଧର୍ମାନ୍ତରଣ କରିବାର କୁଚକ୍ର ଧୂଳିସାତ ହୋଇଗଲା । ଋଷି ଦୟାନନ୍ଦ ଯୋଗକୁ ଈଶ୍ୱର ଉପାସନାରେ ସର୍ଵୋପରି ମହତ୍ଵ ଦେଲେ। ଋଷି ଦୟାନନ୍ଦଙ୍କ ଧରା ପୃଷ୍ଠକୁ ଆସିବା ପୂର୍ବରୁ ଯଜ୍ଞ ମାନଙ୍କରେ ପଶୁହିଂସା ହେଉଥିଲା ଏବଂ ଗାଈ, ମଇଁଷି, ଛେଳି, କୁକୁଡ଼ା ଆଦି ପଶୁ ପକ୍ଷୀଙ୍କୁ ଯଜ୍ଞ ସ୍ଥଳରେ ବଳି ନାମରେ ହତ୍ୟା କରା ଯାଉଥିଲା। ଏହାର ବିରୂଦ୍ଧରେ ବେଦର ବ୍ୟବସ୍ଥା ଦେଇ ଯଜ୍ଞକୁ ହିଂସା ମୁକ୍ତ କଲେ। ଅଗ୍ନିହୋତ୍ର ଯଜ୍ଞର ବୈଜ୍ଞାନିକ ଏବଂ ପର୍ଯ୍ୟାବରଣୀୟ ମହତ୍ଵ ବୁଝେଇବା ସହିତ ଦୈନିକ ତଥା ବୃହତ ଯଜ୍ଞ କରିବାର ବେଦ ସମ୍ମତ ବିଧି ପ୍ରସ୍ତୁତ କରି ଦେଶବାସିଙ୍କୁ ପ୍ରଦାନ କଲେ ଯଦ୍ୱାରା ଯଜ୍ଞ ସମଗ୍ର ଦେଶରେ ଲୋକପ୍ରିୟ ତଥା ସର୍ବାଦୃତ ହୋଇ ପାରିଲା। ଯଜ୍ଞର ଉଦ୍ଦେଶ୍ୟ ପର୍ଯ୍ୟାବରଣର ଶୁଦ୍ଧି, ରୋଗ ସୃଷ୍ଟିକାରୀ କିଟାଣୁ ମାନଙ୍କ ନାଶ, ସ୍ଵାସ୍ଥ୍ୟ ଲାଭ, ତଥା ଇଚ୍ଛାନୁସାର ବର୍ଷା ହେବା ସହିତ ମନୁଷ୍ୟଙ୍କ ସମସ୍ତ ଉଚିତ ମନୋକାମନା ଗୁଡିକର ପୁରଣ ହେବା ଅଟେ। ଯଦି ମହର୍ଷି ଦୟାନନ୍ଦ ଭଗବାନ ବୁଦ୍ଧଙ୍କ ପୂର୍ଵରୁ ଆସିଥାନ୍ତେ ତେବେ ହୁଏତ ବୌଦ୍ଧ ସମ୍ପ୍ରଦାୟର ସ୍ଥାପନା ହୋଇ ନଥାନ୍ତା ଯାହାର ସ୍ଥାପନା ମୁଖ୍ୟତଃ ଯଜ୍ଞସ୍ଥଳରେ ହେଉଥିବା ହିଂସାର ବିରୁଦ୍ଧରେ ଥିଲା। ସ୍ଵାମୀ ଦୟାନନ୍ଦ ଏକ ଈଶ୍ଵର, ସମସ୍ତ ମନୁଷ୍ୟଙ୍କ ଏକ ଧର୍ମ, ବେଦହିଁ ଏକମାତ୍ର ପୂର୍ଣ୍ଣ ଧର୍ମ ପୁସ୍ତକ ଏବଂ ସମସ୍ତଙ୍କ ବିଚାରଧାରା ଏକ ହେଉ, ଏହାର ଉଦ୍ଘୋଷ କରି ସେ ସମାଜ ଏବଂ ବିଶ୍ଵ କୁ ଏକ ନୂତନ ବିଚାର ପ୍ରଦାନ କଲେ ଯାହାର କ୍ରିୟାନ୍ଵୟନ ହେବା ଦ୍ୱାରା ଦେଶ ବିଦେଶରେ ପରସ୍ପର ଅନେକ ଝଗଡା, ଅଶାନ୍ତି ଏବଂ ବିବାଦ ସମାପ୍ତ ହେବା ସମ୍ଭବ। ଏ ସମସ୍ତ ତାଙ୍କ ବେଦ ପ୍ରଚାରର ଅଂଶ ଅଟେ। ଏ ସମସ୍ତ କାର୍ଯ୍ୟ ପାଇଁ ଉପଦେଶ, ପ୍ରବଚନ, ବ୍ୟାଖ୍ୟାନ, ବାର୍ତାଳାପ, ଶଂକା ସମାଧାନ, ଶାସ୍ତ୍ରାର୍ଥ, ଅନେକ ବିଷୟ ଉପରେ ଗ୍ରନ୍ଥର ଲେଖନ, ବେଦର ସଂସ୍କୃତ ଏବଂ ହିନ୍ଦୀ ଭାଷାରେ ଭାଷ୍ୟ ଏବଂ ଭାବାର୍ଥ ଆଦି ଅନେକ କାର୍ଯ୍ୟ କଲେ। ଋଷିଙ୍କ ପ୍ରମୁଖ ପ୍ରସିଦ୍ଧ ଗ୍ରନ୍ଥ ଓ ଲଘୁ ପୁସ୍ତକ ଗୁଡିକ ହେଉଛି, ସତ୍ୟାର୍ଥପ୍ରକାଶ, ଋଗ୍ଵେଦାଦିଭାଷ୍ୟଭୂମିକା, ଋଗ୍ଵେଦର ସପ୍ତମ ମଣ୍ଡଳ ପର୍ଯ୍ୟନ୍ତ ସଂସ୍କୃତ-ହିନ୍ଦୀ ଭାଷ୍ୟ, ସମ୍ପୂର୍ଣ ଯଜୁର୍ଵେଦର ସଂସ୍କୃତ-ହିନ୍ଦୀ ଭାଷ୍ୟ, ଚତୁର୍ଵେଦବିଷୟସୂଚୀ, ସଂସ୍କାରବିଧି, ପଂଚମହାୟଜ୍ଞବିଧି, ଆର୍ୟାଭିବିନୟ, ଗୋକରୁଣାନିଧି, ଆର୍ୟୋଦ୍ଦେଶ୍ୟରତ୍ନମାଳା, ଭ୍ରାନ୍ତିନିବାରଣ, ଅଷ୍ଟାଧ୍ୟାୟୀଭାଷ୍ୟ, ବେଦାଂଗପ୍ରକାଶ, ସଂସ୍କୃତବାକ୍ୟପ୍ରବୋଧ, ବ୍ୟବହାରଭାନୁ, ଉପଦେଶ ମଂଜରୀ, ବେଦବିରୁଦ୍ଧମତ–ଖଣ୍ଡନ, ବେଦାନ୍ତିଧ୍ଵାନ୍ତ–ନିବାରଣ, ଆତ୍ମଚରିତ୍ର, ଗୌତମ ଅହଲ୍ୟା କୀ କଥା, ଭ୍ରମୋଚ୍ଛେଦନ, ଅନୁଭ୍ରମୋଚ୍ଛେଦନ, ଶାସ୍ତ୍ରର୍ଥ ସଂଗ୍ରହ ଏବଂ ସମସ୍ତ ପତ୍ରବ୍ୟବହାର ଇତ୍ୟାଦି। ସେ ବୈଦିକ ଧର୍ମ ଏବଂ ସଂସ୍କୃତିର ପ୍ରଚାର କରିବା ପାଇଁ ନିଜର ଜଣେ ସୁଯୋଗ୍ୟ ଶିଷ୍ୟ ପଂ. ଶ୍ୟାମଜୀକୃଷ୍ଣ ବର୍ମାଙ୍କୁ ଲଣ୍ଡନ ପଠେଇ ବିଶ୍ଵରେ ବେଦ ପ୍ରଚାର ଦ୍ଵାରା ବୈଦିକ ଧର୍ମ ପ୍ରଚାରର ମୂଳଦୁଆ ରଖିଥିଲେ। ଦେଶ ବାସିଙ୍କ ସ୍ଵାସ୍ଥ୍ୟ ଏବଂ ଦେଶର ଅର୍ଥ ବ୍ୟବସ୍ଥା ସହିତ ଜଡିତ ଗୋରକ୍ଷା ଉପରେ ସେ "ଗୋକୃଷ୍ୟାଦି ରକ୍ଷିଣୀ ସଭା" ତିଆରି କରିବା ସହିତ ଅପୂର୍ଵ ପୁସ୍ତକ “ଗୋକରୂଣାନିଧି” ଲେଖି ଗୋଧନ ର ଧାର୍ମିକ ଏବଂ ଆର୍ଥିକ ମହତ୍ଵ ସିଦ୍ଧ କରିଥିଲେ। ଆଜୀ ମଧ୍ୟ ଏହା ଉପରେ ଅନୁସଂଧାନ କରାଯିବାର ଆବଶ୍ୟକତା ରହିଛି। ଦେଶର ସ୍ବତନ୍ତ୍ରତାରେ ମଧ୍ୟ ସର୍ବାଧିକ ଶ୍ରେୟ ଋଷି ଦୟାନନ୍ଦ ଏବଂ ଆର୍ଯ୍ୟସମାଜର ସତ୍ୟର ପ୍ରଚାର ପ୍ରତି ଯାଇଥାଏ। ପରତନ୍ତ୍ରତାର କାଳରେ ଆର୍ଯ୍ୟସମାଜ ହିଁ ଦେଶରେ ଡୀଏବୀ ସ୍କୂଲ/ କାଲେଜ ସହିତ ଗୁରୁକୁଳ ସ୍ଥାପନା କରି ଶିକ୍ଷା ଜଗତରେ କ୍ରାନ୍ତି ଆଣିପାରିଥିଲା। ଋଷି ଦୟାନନ୍ଦଙ୍କ ବିଚାର ଧାରାରେ ଅନୁପ୍ରାଣିତ ହୋଇଥିବା ମହାପୁରୁଷଙ୍କ ସଂଖ୍ୟା ଅନେକ, ସେ ଭିତରେ ପ୍ରମୁଖ ହେଉଛନ୍ତି ସ୍ଵାମୀ ଶ୍ରଦ୍ଧାନନ୍ଦ, ଶ୍ୟାମଜୀ କୃଷ୍ଣ ବର୍ମା, ମହାତ୍ମା ହଂସରାଜ, ଲାଲା ଲାଜପତରାୟ, ପଣ୍ଡିତ ଗୁରୁଦତ୍ତ ବିଦ୍ୟାର୍ଥୀ, ରାମପ୍ରସାଦ ବିସ୍ମିଲ, ଭାଈ ପରମାନନ୍ଦ, ବୀର ସାବରକର, ମହାଦେବ ଗୋବିନ୍ଦ ରାନାଡେ, ଶହୀଦ ଭଗତସିଂହ ସହିତ ଅନେକ ଦେଶଭକ୍ତ, ଧର୍ମ ଏବଂ ସଂସ୍କୃତିର ଶୀର୍ଷ ବିଦ୍ଵାନ ଏବଂ କ୍ରାନ୍ତିକାରୀ ଯୋଦ୍ଧା । ଆର୍ଯ୍ୟସମାଜର ସ୍ଥାପନାର ସୁପରିଣାମ ଦ୍ଵାରାହିଁ ଆଜି ଆମ ଦେଶ ସ୍ଵତନ୍ତ୍ର ହୋଇ ପାରିଛି। କଂଗ୍ରେସ ଇତିହାସର ଲେଖକ ପଟ୍ଟାଭି ସିତାରାମୈୟା History of Indian national Congress ରେ ଲେଖନ୍ତି ଦେଶର ସ୍ୱତନ୍ତ୍ରତା ସଂଗ୍ରାମରେ ବଳିବେଦୀରେ ଆତ୍ମହୁତି ଦେଇଥିବା କ୍ରାନ୍ତିକାରୀ ଙ୍କ ମଧ୍ୟରେ ୮୦ ପ୍ରତିଶତ କ୍ରାନ୍ତିକାରୀ ହେଉଛନ୍ତି ଆର୍ଯ୍ୟସମାଜୀ।" ଋଷି ଦୟାନନ୍ଦଙ୍କ ବାର୍ତାର ପୂର୍ଣରୂପରେ ପାଳନ ନକରିବା ଯୋଗୁଁ ହିଁ ଆମ ଦେଶରେ ଅନେକ ଗମ୍ଭୀର ସମସ୍ୟା ସୃଷ୍ଟି ହୋଇଛି। ଏଥିପାଇଁ ସର୍ଦାର ବଲ୍ଲଭ ଭାଇ ପଟେଲ କହିଥିଲେ ,"ଯଦି ଋଷି ଦୟାନନ୍ଦ ଜୀ ଙ୍କ ସମସ୍ତ କଥାକୁ ଦେଶବାସୀ ଗ୍ରହଣ କରିନେଇଥାନ୍ତେ ତେବେ ଆଜି ଦେଶର ବିଭାଜନ ତଥା ଅନ୍ୟ ପ୍ରମୁଖ ସମସ୍ୟା କିଛି ନଥାନ୍ତା। ସାମ୍ପ୍ରଦାୟିକ ସଂକୀର୍ଣ୍ଣ ବିଷୟ ଗୁଡିକର ପ୍ରବଳ ଖଣ୍ଡନ ଏବଂ ସମାଜ ସୁଧାର କାର୍ଯ୍ୟ,ସ୍ୱାମୀଜୀଙ୍କ ସ୍ପଷ୍ଟୋକ୍ତି ଓ ସତ୍ୟନିଷ୍ଠା ଯୋଗୁଁ ସ୍ୱାମୀଜୀଙ୍କୁ ଅନେକଥର ଖାଦ୍ୟରେ ବିଷ ଦେଇ ମାରିବାର ଷଡଯନ୍ତ୍ର କରାଯାଇଥିଲା । ସ୍ୱାମୀଜୀଙ୍କ ଜୋଧପୁର ପ୍ରବାସର ଘଟଣା। ଦିନେ ସ୍ଵାମିଜୀ ଜୋଧପୁର ରାଜପ୍ରାସାଦକୁ ଆସିଥିବା ସମୟରେ ମହାରାଜାଙ୍କ ପ୍ରେମିକା ନନହୀ ଭଗତନ ପାଲିଙ୍କିରେ ଆସିଲେ। ଜୋଧପୁର ନରେଶ ତାଙ୍କୁ ସ୍ଵାଗତ କରିବାକୁ ଯାଇ ବେଶ୍ୟାର ପାଲିଙ୍କିକୁ କିଛି ଦୂର ନିଜ କାନ୍ଧରେ ଧରି ଆଣିଲେ। ସ୍ଵାମିଜୀ ଏହାକୁ ସ୍ଵଚକ୍ଷୁରେ ଦେଖି ଅତ୍ୟନ୍ତ କ୍ଷୁବ୍ଧ ହେଲେ। ପରେ ସେ ମହାରାଜାଙ୍କୁ କହିଲେ-ରାଜପୁରୁଷ ସିଂହ ହେଲାବେଳେ ବେଶ୍ୟା ହେଉଛନ୍ତି ମାଈ କୁକୁର। ଆଜି ବେଶ୍ୟାଗାମୀ ମହାରାଜାଙ୍କ ଯୋଗୁଁ ପ୍ରଜାଙ୍କ ଦୁଃଖସୁଖ ବୁଝିବା ପାଇଁ କେହି ନାହିଁ।? ” ନନହୀ ବୈଷ୍ଣବ ସମ୍ପ୍ରଦାୟର ଶିଷ୍ୟା ଥିଲା। ପୂର୍ବରୁ ମନ୍ତ୍ରୀ ପଇଜୁଲ ଖାନ୍ ସ୍ୱାମିଜୀଙ୍କ ପ୍ରତି ଈର୍ଷାପୋଷଣ କରୁଥିଲେ। ମୂର୍ତ୍ତିପୂଜାର ଖଣ୍ଡନ ଯୋଗୁଁ ହିନ୍ଦୁ ପୁରୋହିତମାନେ ମଧ୍ୟ କୃଦ୍ଧ ହୋଇଥିଲେ। ଇଂରେଜମାନେ ତ ସ୍ୱାମୀଜୀଙ୍କ କାର୍ଯ୍ୟକଳାପ ପ୍ରତି ସର୍ବଦା ତୀକ୍ଷ୍ଣ ନଜର ରଖିଥିଲେ। ଏଣେ ପ୍ରଭାବଶାଳୀ ନନହୀ ବେଶ୍ୟାର କୋପାଗ୍ନି ପ୍ରଜ୍ବଳିତ ହେଲା। ସମସ୍ତ ଷଡଯନ୍ତ୍ରକାରୀ ଏକତ୍ର ହୋଇ ସ୍ୱାମୀଜୀଙ୍କୁ ହତ୍ୟା କରିବାର ଷଡଯନ୍ତ୍ର ଆରମ୍ଭ କଲେ। ସାମ ଦାମ ଦଣ୍ଡ ଭେଦ ସମସ୍ତ କୌଶଳ ଆପଣେଇ ସ୍ୱାମୀଜୀଙ୍କ ବିଶ୍ୱସ୍ତ ରୋଷେଇଆ ମାଧ୍ୟମରେ ଖାଦ୍ୟରେ ସୂକ୍ଷ୍ମ କାଚଗୁଣ୍ଡ ଏବଂ ବିଷର ପ୍ରୟୋଗ କଲେ। ସ୍ୱାମୀଜୀ ଅସୁସ୍ତ ହେବାପରେ ଜୋଧପୁର ମହାରାଜଙ୍କ ଭାଇ ସ୍ୱାମିଜୀଙ୍କ ଚିକିତ୍ସା ପାଇଁ ଆଲିମର୍ଦ୍ଦାନି ଖାଁ ନାମକ ଚିକିତ୍ସକର ନିଯୁକ୍ତି କଲେ। ଚିକିତ୍ସା ନାମରେ ସେହି ମୁସଲିମ ଡାକ୍ତର ସ୍ୱମୀଜୀଙ୍କୁ ବିଷ ଇଂଜେକସନ ଦେଇ ଚାଲିଥିଲା। ଯା ଫଳରେ ସ୍ୱାମିଜୀଙ୍କ ଅବସ୍ଥା ଆହୁରି ସାଙ୍ଘାତିକ ହେବାକୁ ଲାଗିଲା। ସ୍ୱାମୀଜୀଙ୍କ ଅନ୍ତିମ ସମୟ ଅତ୍ୟନ୍ତ ବିସ୍ମୟକର ଥିଲା। ସନ୍ଧ୍ୟା ସାଢ଼େ ପାଞ୍ଚଟା ବେଳେ ଉପସ୍ଥିତ ଲୋକଙ୍କୁ ପଛକୁ ଚାଲିଯିବାକୁ କହି କୋଠରୀର ସବୁ କବାଟ ଝରକା ଖୋଲିଦେବା ପାଇଁ ସଂକେତ କଲେ। ପକ୍ଷ ତିଥି ଓ ବାର ଜିଜ୍ଞାସା କଲେ। ଉତ୍ତର ଆସିଲା କାର୍ତ୍ତିକ ଅମାବାସ୍ୟା ଦୀପାବଳୀ (ଅକ୍ଟୋବର ୩୦, ୧୮୮୩ ଖ୍ରୀଷ୍ଟାବ୍ଦ) । ଏହାପରେ ଚତୁର୍ଦିଗରେ ଦୃଷ୍ଟିପାତ କଲେ, ଦୀର୍ଘକାଳ ଧରି ବେଦ ମନ୍ତ୍ର ଦ୍ୱାରା ଈଶ୍ୱରଙ୍କ ସ୍ତୁତି ପ୍ରାର୍ଥନା କଲେ। ଗମ୍ଭୀର ସ୍ୱରରେ ନିଜ ପ୍ରିୟ ମନ୍ତ୍ର ବିଶ୍ବାନି ଦେବ ସବିତ... ତଥା ଗାୟତ୍ରୀମଂତ୍ରର ବହୁବାର ଉଚ୍ଚାରଣ କଲେ ଓ କିଛି ସମୟ ସମାଧିସ୍ଥ ରହିଲେ। ପୁଣି ଆଖି ଖୋଲି ନିଜର ଅନ୍ତିମ ଉଦ୍ଗାର ବ୍ୟକ୍ତ କଲେ,‘ପ୍ରଭୁ ! ତୂନେ ଅଚ୍ଛୀ ଲୀଲା କୀ! ତେରୀ ଇଚ୍ଛା ପୂର୍ଣ୍ଣ ହୋ।’ ଶେଷରେ ସ୍ଵଧର୍ମ, ସ୍ଵଭାଷା, ସ୍ଵରାଷ୍ଟ୍ର, ସ୍ଵସଂସ୍କୃତି ଏବଂ ସ୍ଵଦେଶୋନ୍ନତି ର ଅଗ୍ରଦୂତ ସ୍ଵାମୀ ଦୟାନନ୍ଦଜୀଙ୍କ ଶରୀର ପଂଚତତ୍ଵ ରେ ବିଲୀନ ହୋଇଗଲା । ଋଷି ଦୟାନନ୍ଦଙ୍କ ଜୀବନ ଯେପରି ଦିବ୍ୟ ଥିଲା, ମୃତ୍ୟୁ ମଧ୍ୟ ସେହିପରି ପ୍ରେରଣାଦାୟକ ଥିଲା। ପଞ୍ଜାବର ଯୁବ ବୈଜ୍ଞାନିକ ଗୁରୁଦତ୍ତ ବିଦ୍ୟାର୍ଥୀ ଯୋଗିରାଜଙ୍କ ମୃତ୍ୟୁର ଦୃଶ୍ୟ ଦେଖି ଈଶ୍ୱର ସମ୍ବନ୍ଧୀୟ ସମସ୍ତ ସନ୍ଧେହ ମନରୁ ଦୂର କରି ପୂର୍ଣ୍ଣ ଅସ୍ତିକ ପାଲଟିଗଲେ। ଗୁରୁଦତ୍ତ ବିଦ୍ୟାର୍ଥୀ ସେତେବେଳେ ବୈଜ୍ଞାନିକ ଜଗଦୀଶ ଚନ୍ଦ୍ର ବୋଷଙ୍କ ବ୍ୟତୀତ ଏକମାତ୍ର ଭାରତୀୟ ବିଜ୍ଞାନର ପ୍ରଫେସର ଥିଲେ। ଲାଲା ଲାଜପତ୍ ରାୟ, ମହାତ୍ମା ହଂସରାଜଙ୍କ ଆତ୍ମୀୟ ମିତ୍ର ଥିଲେ ଓ DAV College ନିର୍ମାଣର ଫାଉଣ୍ଡିଙ୍ଗ ମେମ୍ବର ମଧ୍ୟ ଥିଲେ। DAV College ର ସ୍ଥାପନରେ ଲାଲା ଲାଜପତ୍ ରାୟ, ମହାତ୍ମା ହଂସରାଜ ଙ୍କ ସହିତ ଗୁରୁଦତ୍ତ ବିଦ୍ୟାର୍ଥୀ ମହତ୍ୱପୂର୍ଣ୍ଣ ଭୂମିକା ଗ୍ରହଣ କରିଥିଲେ। ଉନବିଂଶ ଶତାବ୍ଦୀର ଅପ୍ରତିମ ଧର୍ମାଚାର୍ଯ୍ୟ, ସମାଜ ସଂସ୍କାରକ, ପ୍ରଖର ବ୍ରହ୍ମଚାରୀ ତଥା ମନୁ, ବ୍ୟାସ, ଯାଜ୍ଞବଳ୍କ୍ୟ, ପତାଞ୍ଜଳି, ଜୈମିନୀଙ୍କ ଋଷି ପରମ୍ପରାର ପ୍ରବକ୍ତା ମହର୍ଷି ଦୟାନନ୍ଦ ଇହଲୀଳା ସମ୍ବରଣ କଲେ। ଆଧୁନିକ ଭାରତର ନିର୍ମାତା, ମହାନ ସମାଜ-ସୁଧାରକ, ଅଛୁତୋଦ୍ଧାରକ, ସ୍ୱରାଜ୍ୟର ପ୍ରଥମ ଉଦ୍ଘୋଷକ, ସର୍ବୋତ୍ତମ ବେଦବେତ୍ତା, ବେଦ ପ୍ରଚାରକ, ତଥା ଆର୍ଯ୍ୟସମାଜର ସଂସ୍ଥାପକ ମହର୍ଷି ଦୟାନନ୍ଦ ସରସ୍ବତୀ ଙ୍କ ଜୟନ୍ତୀର ହାର୍ଦ୍ଧିକ ଶୁଭକାମନା ✍️ମହିମା ସାଗର
स्वामी दयानंद सरस्वती का जन्म 12 फरवरी 1824 को टंकारा गुजरात में हुआ था।
12-02-2022
स्वामी दयानंद सरस्वती का जन्म 12 फरवरी 1824 को टंकारा गुजरात में हुआ था। भारतीय समाज में ऐसे कई समाज सुधारक हुए जिन्होंने समाज के ढ़ांचे को पूरी तरह बदल कर रख दिया । ऐसे ही समाज सुधारकों में से एक हैं आर्य समाज के संस्थापक और महान समाज सुधारक स्वामी दयानंद सरस्वती । महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती आर्य समाज के प्रवर्तक और प्रखर सुधारवादी सन्यासी थे । दयानंद सरस्वती ने भारतीय समाज को पिछडेपन से दूर करने के लिए पुराने रीति रिवाजों को बंद करने का आह्वान तो किया ही साथ ही उन्होंने ज्ञान से लिए संस्कृत भाषा का भी प्रयोग किया जो यह दिखाता है कि वह नए और पुराने में सामंजस्य बना कर रखते थे । गृह त्याग के बाद मथुरा में स्वामी विरजानंद के शिष्य बने । शिक्षा प्राप्त कर गुरु की आज्ञा से धर्म सुधार हेतु 'पाखण्ड खण्डिनी पताका' फहराई । स्वामी जी के जीवन की कुछ अहम घटनाएं घटी जिनकी उनके जीवन पर बेहद असर पड़ा । चौदह वर्ष की अवस्था में मूर्तिपूजा के प्रति विद्रोह (जब शिवचतुर्दशी की रात में इन्होंने एक चूहे को शिव की मूर्ति पर चढ़ते तथा उसे गन्दा करते देखा) किया और इक्कीस वर्ष की आयु में विवाह का अवसर उपस्थित जान, घर से निकल पड़े । घर त्यागने के पश्चात 18 वर्ष तक इन्होंने सन्यासी का जीवन बिताया । इन्होंने बहुत से स्थानों में भ्रमण करते हुए कतिपय आचार्यों से शिक्षा प्राप्त की । इस तरह बचपन से ही दयानंद सरस्वती ने आध्यात्म की तरफ रुख मोड़े रखा । धर्म सुधार हेतु अग्रणी रहे दयानंद सरस्वती ने 1875 में मुंबई में आर्य समाज की स्थापना की थी । वेदों का प्रचार करने के लिए उन्होंने पूरे देश का दौरा करके पंडित और विद्वानों को वेदों की महत्ता के बारे में समझाया । स्वामी जी ने धर्म परिवर्तन कर चुके लोगों को पुन: हिंदू बनने की प्रेरणा देकर शुद्धि आंदोलन चलाया । सन् 1886 में लाहौर में स्वामी दयानंद के अनुयायी लाला हंसराज ने दयानंद एंग्लो वैदिक कॉलेज की स्थापना की थी । हिन्दू समाज को इससे नई चेतना मिली और अनेक संस्कारगत कुरीतियों से छुटकारा मिला । स्वामी जी एकेश्वरवाद में विश्वास करते थे । उन्होंने जातिवाद और बाल-विवाह का विरोध किया और नारी शिक्षा तथा विधवा विवाह को प्रोत्साहित किया । उनका कहना था कि किसी भी अहिन्दू को हिन्दू धर्म में लिया जा सकता है । इससे हिंदुओं का धर्म परिवर्तन रूक गया । समाज सुधारक होने के साथ ही दयानंद सरस्वती जी ने अंग्रेजों के खिलाफ भी कई अभियान चलाए । "भारत, भारतीयों का है " यह अँग्रेजों के अत्याचारी शासन से तंग आ चुके भारत में कहने का साहस भी सिर्फ दयानंद में ही था । उन्होंने अपने प्रवचनों के माध्यम से भारतवासियों को राष्ट्रीयता का उपदेश दिया और भारतीयों को देश पर मर मिटने के लिए प्रेरित करते रहे । स्वामी दयानंद सरस्वती ने अपने विचारों के प्रचार के लिए हिन्दी भाषा को अपनाया । उनकी सभी रचनाएं और सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ 'सत्यार्थ प्रकाश' मूल रूप में हिन्दी भाषा में लिखा गया । आज भी उनके अनुयायी देश में शिक्षा आदि का महत्त्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं । स्वामी जी का देहांत 30 अक्तूबर सन् 1883 को दीपावली के दिन संध्या के समय हुआ । #कृण्वन्तोविश्वमार्यम् #जय_आर्य_जय_आर्यावर्त # Vedic Vichar, Berhampur Odisha
Vedic Culture
07-02-2022
ऋषि दयानंद के सपनों का भारत,वो किस भारत को देखना चाहते थे। जिस भारत में ज्ञान की प्रथम किरण स्फूटित हुई हो, जहां ऋषियों द्वारा परमात्मा ने चार वेदों को उनके ह्रदय में संचार किया हो वह कैसा भारत होगा? जिस भारत का स्वरूप ऋषिवर देव दयानंद ने सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम समुल्लास से लेकर चौदहवां समुल्लास में व्यक्त किया है जिसमें सत्य का मंडन असत्य का खंडन यह उनकी हृदय स्पर्शी वेदना को प्रकट करती है। प्रथम समुल्लास में ईश्वर के स्वरूप एवं उनके गुण वाचक नामों की व्याख्या की गई है।उसके बाद द्वितीय समुल्लास में उस माता पिता की व्याख्या की गई है उसके द्वारा उतम संतानों की उत्पति होने से श्रेष्ठ परिवार या राष्ट्र का निर्माण हो। द्वितीय समुल्लास में उन्होंने शतपथ ब्रहम्मन का प्रमाण देते लिखा, मातृमान पितृममानाचार्यवान पुरुषो वेद। तीन उतम शिक्षक माता पिता, आचार्य,हो तो संतान को अति उत्तम बनाया जा सकता है। जैसे सोनार सोना को संस्कारित कर अनेक प्रकार के आभूषणों को निर्माण कर देता है।उसी प्रकार धार्मिक विद्विषी माता अपनी संतान को गर्भ में धारण कर गर्भ से हीं सुसंस्कृत बनाना आरंभ करदेती है। और जब संतान आठ वर्ष की हो जाए तो आचार्य उसे अपने गर्भ में धारण कर सोलह संस्कार रूपी भट्ठी में डाल कर संस्कारीत शिष्यो को जन्म देकर परिवार वा राष्ट्र का निर्माण करता है। दयानंद एक उच्च कोटि के तत्वदर्शी ऋषि व दार्शनिक थे। राष्ट्र को आर्य सनातन वैदिक राष्ट्र बनाना है तो सभी सनातनियो हिंदुओ को आपसी वैर भाव त्याग कर ऋषिवर देव दयानंद का मार्ग सारे संसार को आर्य बनाओ को अपनाना होगा। ओउम ओउम ओउम। Vedic Culture, Vedic Museum, Berhampur, Odisha
ମୁଖ ଭ୍ରଣ କଣ ପାଇଁ ହୁଏ ଏବଂ ତାର ସମାଧାନ
06-02-2022
ବର୍ତ୍ତମାନ ବହୁତ ଲୋକଙ୍କ ଏହି ସମସ୍ୟା ରହୁଛି ଏବଂ ଏହାର ସହଜ ସମାଧାନ ବର୍ତ୍ତମାନ ବଜାରରେ ମିଳୁଥିବା ଗୋଟିଏ ଫଳ ପାଖରେ ଅଛି ତାହା ହେଲା ମିଠା କମଳା ବା ସାନ୍ତରା l ଏହି ଫଳ ସୌନ୍ଦର୍ଯ୍ୟ ବୃଦ୍ଧି ପାଇଁ ବହୁତ ସାହାଯ୍ୟ କରେ l ତେବେ ଆସନ୍ତୁ ଦୃଷ୍ଟି ପକେଇବା ଆଜିର ଆଲୋଚନାର ବିନ୍ଦୁମାନଙ୍କ ଉପରେ… ମୁଖ ବ୍ରଣ କଣ ପାଇଁ ହୁଏ? ଏହାର ସହଜ ସମାଧାନ ମୁହଁରେ ଚର୍ମ ଛିଦ୍ର ହେଲେ କଣ କରିବେ? ସୌନ୍ଦର୍ଯ୍ୟ ଚେହେରା ପାଇଁ କଣ ସବୁ କରିବେ? ମୁହଁରେ ବ୍ରଣ ହେବାର କାରଣ ଭିତରେ ସବୁଠୁ ବଡ଼ କାରଣ ହେଲା ଆମ ପଞ୍ଚ ମହାଭୁତରେ ଯେଉଁ 5 ଟି ତତ୍ତ୍ୱ ରହିଛି ପୃଥିବୀ ତତ୍ତ୍ୱ ରେ ଗଡ଼ବଡ଼ି ଦେଖାଯିବା l ଆମ ଶରୀରରେ ବର୍ଜ୍ୟବସ୍ତୁ ଯେତେବେଳେ ବାହାରିପାରେ ନାହିଁ ଏବଂ ଶରୀରରେ ପଡି ରହି ବିଷାକ୍ତ ଜିନିଷ ଉତ୍ପନ୍ନ କରେ l ଆଜ୍ଞା ହଁ, ପେଟ ସଫା ଯଦି ଠିକ ଭାବେ ହେଉନି ତାହେଲେ ଏହା ପୃଥିବୀ ତତ୍ତ୍ୱ ରେ ଗଡ଼ବଡ଼ି କରିବ ଯାହାର ପ୍ରଭାବରେ ସମସ୍ତ ସପ୍ତଧାତୁ – ରସ, ରକ୍ତ, ମାଂସ, ମେଦ, ଅସ୍ଥି, ମଜ୍ଜା ଓ ଶୁକ୍ର ଦୂଷିତ ହେବା ଆରମ୍ଭ ହୁଏ l ଗୋଟିଏ ସୁସ୍ଥ ଲୋକ ଦିନକୁ ଅତିକମରେ ଥରେ କିମ୍ବା 2 ଥର (ଯଦି ସନ୍ଧ୍ୟା ସମୟରେ) ପରିଷ୍କାର ଭାବରେ ପେଟ ସଫା ପାଇଁ ଯାଏ l ସକାଳେ ଯେଉଁ ବ୍ୟକ୍ତି ଦୁଇ ରୁ ଅଧିକ ଥର ଝାଡା ଯାଆନ୍ତି ତାହା ମଧ୍ୟ ଠିକ ନୁହଁ l ଡାକ୍ତର ବହୁତ ସମୟରେ କୁହନ୍ତି ରକ୍ତ ମଇଳା ହେଲେ ମୁଖ ବ୍ରଣ ହୁଏ ଏହା ଠିକ ଅଟେ ଏହି ଠାରୁ ଜାଣିପାରୁଥିବେ କାରଣ ରକ୍ତ ସପ୍ତଧାତୁ ର ଗୋଟିଏ ଅଂଶ ଅଟେ l ବୟସ ବଢ଼ିବା ସହିତ ଶୁକ୍ର ଧାତୁ ମଧ୍ୟ ସକ୍ରିୟ ହେବା ଆରମ୍ଭ କରେ ଯଦି ଏହି ଧାତୁ ଅଶୁଦ୍ଧ ହୁଏ (କାରଣ ଅନେକ ଅଛି) ତାହେଲେ ମଧ୍ୟ ମୁଖ ବ୍ରଣ ହେବ ନିଶ୍ଚିତ l ଉତ୍ତେଜନା କୁ ଶାନ୍ତ ରଖିବା ପାଇଁ ଚେଷ୍ଟା କରିବା ଉଚିତ ସେଥିପାଇଁ ସାତ୍ତ୍ୱିକ ଚିନ୍ତାଧାରା ଆଣିବା ସାତ୍ତ୍ୱିକ ଭୋଜନ ପ୍ରତି ଦୃଷ୍ଟି ଦେବା ଉଚିତ l ସମାଧାନ କଣ ରହିଛି? ???? ଆପଣଙ୍କ ଓଜନ ଯେତିକି ତାର ଏକ ଦଶମାଂଶ ପାଣି ପିଇବା ଉଚିତ l ପାଣିକୁ ବସିକି ଧୀରେ ଧୀରେ ପିଇବେ l ସକାଳେ ଦାନ୍ତ ଘଷିବା ପୂର୍ବରୁ ନିଶ୍ଚିତ ପାଣି ପିଇବେ l ???? ସପ୍ତାହରେ 2-3 ଦିନ ସମ୍ପୂର୍ଣ୍ଣ ପେଟ ସଫା କରାନ୍ତୁ l ଏଥିପାଇଁ ଆପଣ 1:2:3 ବିଶିଷ୍ଟ ତ୍ରିଫଳା ବା ଦେଶୀ ଘିଅର ପ୍ରୟୋଗ କରିପାରିବେ। ???? ସକାଳର ବାସି ଛେପ ରେ ଅନେକ ତତ୍ତ୍ୱ ରହିଛି ଏହାକୁ ମୁହଁ ରେ ଲଗାନ୍ତୁ ଏହା ସମାଧାନ ପାଇଁ ସାହାଯ୍ୟ କରିବ ଯେତେବି ବଡ଼ ମୁଖ ସମସ୍ୟା ହେଉ l ଧୈର୍ଯ୍ୟର ସହିତ ସକାଳୁ ଉଠୁ ଉଠୁ ବାସି ଛେପ ଲଗାନ୍ତୁ l ???? ଘିଅକୁଆଁରୀ ପତ୍ର ରସ ମଧ୍ୟ ଦୁଇ ତିନି ଥର ପ୍ରତି ଦିନ ଲଗେଇବେ 7 ଦିନ ଭିତରେ ଠିକ ହେଇଯିବ l ???? ନିମ୍ବ ପତ୍ର ଓ ହଳଦୀର ପେଷ୍ଟ ଲଗେଇପାରିବେ ଏହା ନିୟନ୍ତ୍ରଣ କରିବାରେ ସାହାଯ୍ୟ କରିବ l ???? ଡାଲଚିନିକୁ ଗୋମୁତ୍ରରେ ଘୋରି ଲଗେଇଲେ ଶୀଘ୍ର ଉପଶମ କରିଦିଏ l ???? ଲେମ୍ବୁ ରସକୁ ଫ୍ରିଜରେ ରଖି ଦିନକୁ ଦୁଇ ତିନି ଥର ବ୍ରଣ ଉପରେ ଘସନ୍ତୁ ଯଦି ଭଲ ହେଇଯିବ l ???? ସପ୍ତାହରେ 2 ଦିନ ନିମ୍ବ ପତ୍ର ମୁଠାଏକୁ ଅଧ ଲିଟର ପାଣିରେ କେବଳ ଫୁଟାଇ ପିଇବେ ଉଷୁମ ଉଷୁମ ଥାଇ l ଘିଅକୁଆଁରୀ ର ତାଜା ପତ୍ର ରସ କୁ ଅଧା ଲିଟର ଗରମ ପାଣିରେ ପକାଇ ପିଇ ପାରିବେ l ???? ହଳଦୀ ଏକ ରକ୍ତ ଶୋଧକ ଅଟେ ଏହାକୁ ପ୍ରତିଦିନ ଦେଶୀ ଗାଇର ଉଷୁମ କ୍ଷୀର ବା ଉଷୁମ ପାଣିରେ ଅଧ ଚାମଚ ପକାଇ ରାତିରେ ଶୋଇବା ପୂର୍ବରୁ ପିଇବା ଉଚିତ l ଆସିବା ମୁଖ ଚର୍ମ ଛିଦ୍ରର ଉପାୟ ଆଡକୁ ଛିଦ୍ର ହେବାର କାରଣ ଖଣ୍ଡିଆ ବା କୌଣସି ଘା ବା ବ୍ରଣ ହେବା କାରଣରୁ ହୁଏ l ସେଥିପାଇଁ ବ୍ରଣ ହେଲେ ତାକୁ ନଖରେ କେବେବି ବାହାର କରିବେ ନାହିଁ l ତାକୁ ପ୍ରାକୃତିକ ଉପାୟରେ ଠିକ କରିବେ ଯାହା ଆଈମା ଉପରେ ବର୍ଣ୍ଣନା କଲେ l ଏବେ ଛିଦ୍ରକୁ କେମିତି ପୂରଣ କରିପାରିବେ l ଏଥିପାଇଁ ଆପଣଙ୍କୁ କିଛି ଜିନିଷ ଖାଇବାକୁ ପଡିବ, କିଛି ଜିନିଷ ଲଗେଇବାକୁ ପଡିବ ଏବଂ କିଛି ଜିନିଷ ଖାଇବା ପ୍ରତି ସତର୍କ ହେବାକୁ ପଡିବ l ???? ???? ବର୍ତ୍ତମାନ କମଳା ଖୁବ ମିଳୁଛି ଏହାକୁ ଆଣି ପ୍ରତିଦିନ ଗୋଟିଏ କମଳାର ଜୁସ ଯେତିକି ହେବ ସେଥିରେ ସ୍ୱାଦ ଅନୁସାରେ ମିଶ୍ରି ମିଶାଇ ଏବଂ ଆବଶ୍ୟକ ଅନୁସାରେ ପାଣି ମିଶାଇ ଦିନକୁ ଖାଲି ପେଟରେ ସକାଳେ ଓ 4 ଟା ବେଳେ ପିଇବେ l ଏହାର ଛାଲି କୁ ଶୁଖାଇ ରଖୁଥିବେ l ଏହା ମୁଖର ଔଜ୍ୱଳତା ବଢାଇବା ସହିତ ଛିଦ୍ରକୁ ଭରୁବାରେ ସାହାଯ୍ୟ କରିବ l ???? କମଳା ଛାଲିକୁ ଭଲକରି ଦେଖନ୍ତୁ ଏହାର ଉପର ଅଂଶ ମୁଖର ଛିଦ୍ର ଭଳିଆ ହେଇଛି ଏହା ବିଶେଷ ଭାବରେ ଏହି ସମସ୍ୟା ପାଇଁ ପ୍ରକୃତି ମଣିଷ ମାନଙ୍କୁ ଦେଇଛି l କରିବେ କଣ? ଏହାକୁ ଶୁଖାନ୍ତୁ ଏବଂ ଚୁର୍ଣ୍ଣ କରନ୍ତୁ ଏହି ଚୁର୍ଣ୍ଣ କୁ ମହୁ ସାଙ୍ଗରେ ଲଗାନ୍ତୁ l ଯଦି ମହୁ ନାହିଁ ହଳଦୀ ସହିତ ଲଗେଇପାରିବେ l ଏହା ଆଶ୍ଚର୍ଯ୍ୟଜନକ ଭାବେ କାମ କରିବ l ???? ବାହାର ତେଲିଆ ଜିନିଷ ଫାଷ୍ଟଫୁଡ, ଥଣ୍ଡା ଜିନିଷ, ରସୁଣ ଓ ପିଆଜ ଅଧିକ ପଡୁଥିବା ଜିନିଷ, ଅଧିକ ମିଠା ଜିନିଷ ଖାଇବା ମଧ୍ୟ କମ କରିବା ଉଚିତ l ଏବେ ଆସନ୍ତୁ ଜାଣିବା ସୌନ୍ଦର୍ଯ୍ୟ ବୃଦ୍ଧି ପାଇଁ କଣ କରିବେ? ???? ସବୁଦିନ ସକାଳେ ଫଳ ଓ ମୂଳ ବା ସାଲାଡ଼ ଭଳି ଜିନିଷ ନିଅନ୍ତୁ l ଏହା ପ୍ରତି ବ୍ୟକ୍ତି ପାଇଁ l କିନ୍ତୁ ଖାଇବା ର ଅଧ ଘଣ୍ଟା ପର୍ଯ୍ୟନ୍ତ ପାଣି କି କୌଣସି ଖାଦ୍ୟ ଖାଇବେ ନାହିଁ l ଜୁସ ନେଉଥିଲେ ମଧ୍ୟ ସମୟ ନେଇ ଅନ୍ୟ ଜିନିଷ ଖାଇବେ l ???? ମୁହଁରେ କେବେବି ରାସାୟନିକ ସାବୁନ ବା କ୍ରିମ ବ୍ୟବହାର କରନ୍ତୁ ନାହିଁ l ସମ୍ପୂର୍ଣ୍ଣ ସ୍ବଦେଶୀ ଆୟୁର୍ବେଦ ଜିନିଷ ଯେଉଁଠି କୌଣସି ରାସାୟନିକ ପ୍ରିଜରଭେଟିବ ପଡିନଥିବ ତାକୁ ବ୍ୟବହାର କରନ୍ତୁ l ( ନପାଇଲେ ଆମ ସଂସ୍ଥା ସହିତ ଯୋଗାଯୋଗ କରିପାରିବେ) l ???? ଗାଈ କ୍ଷୀର ହେଉଛି ସବୁଠୁ ଭଲ ଜିନିଷ ମୁହଁ ଧୋଇବା ପାଇଁ ଏହା ସୁନ୍ଦର ଭାବରେ ମୁଖର ମଇଳା ସଫା କରିଦିଏ l ଏହା ଆଣ୍ଟି ଏଜିଙ୍ଗ ମଧ୍ୟ ଅଟେ l ଏଥିରେ ହଳଦୀ ମିଶାଇ ଲଗେଇଲେ ଆହୁରି ଲାଭ ମିଳେ l ???? ପାଣି ଖୁବ ପିଇବେ l ( ନିୟମ ପାଳନ କରି ) ???? ପ୍ରାଣାୟାମ ରେ ଅନୁଲୋମ ଵିଲୋମ ଓ କପାଳଭାତି ବହୁତ ଲାଭ କରେ l ଯୋଗରେ ସର୍ବାଙ୍ଗାସନ, ଶୀର୍ଷାସନ, ସୂର୍ଯ୍ୟନମସ୍କାର, ପଦ୍ମାସନ, ଇତ୍ୟାଦି ନିଶ୍ଚିତ କରିବେ l ଏହା ସମସ୍ତ ହିରୋ ହିରୋଇନମାନେ ମଧ୍ୟ କରନ୍ତି l ଏହା ବିନା ଅନ୍ୟଗତି ନାହିଁ କାରଣ ଏହା ମାନସିକ ଚାପକୁ ଠିକ ରଖେ l ???? ଖୁବ ଶୁଅନ୍ତୁ l ଶୋଇବା ଦ୍ୱାରା ସୌନ୍ଦର୍ଯ୍ୟ ବୃଦ୍ଧି ପାଏ l ନିହାତି 7-8 ଘଣ୍ଟା ଶୋଇବା ଦରକାର l କିନ୍ତୁ ସୂର୍ଯ୍ୟୋଦୟ ପୂର୍ବରୁ ନିହାତି ଉଠିବା ଦରକାର କାରଣ ଏହା ଉଜ୍ଵଳତା ବୃଦ୍ଧି କରେ l କିଛି ଦିନ ଶୋଇବା ପୂର୍ବରୁ ଦେଶୀ ଗାଈ ଘିଅ କୁ ଅଳ୍ପ ଉଷୁମ କରି ନାକରେ ପକାନ୍ତୁ ଶୀଘ୍ର ନିଦ ହେବ ଏବଂ ଏହା ସୌନ୍ଦର୍ଯ୍ୟ ବଢାଇବାରେ ସାହାଯ୍ୟ କରିବ l ଏହା ସୁନ୍ଦର କେଶ ତିଆରି କରିବ l ଝଡ଼ିବାକୁ ଦେବ ନାହିଁ l ???? ତେଲ ମାଲିସ ପ୍ରତି ଦିନ କରନ୍ତୁ ଏହା ସୌନ୍ଦର୍ଯ୍ୟ ବଢାଇବ l ???? କେଶର ଯତ୍ନ ନେବେ ମଇଳା ଧୂଳି ରୁ ରକ୍ଷା କରିବେ କେବଳ ଆୟୁର୍ବେଦିକ ସେମ୍ପୁ ବିନା କେମିକାଲଯୁକ୍ତ ଵାଲା ବ୍ୟବହାର କରିବେ l ତେଲ ମଧ୍ୟ ସମ୍ପୂର୍ଣ୍ଣ ଶୁଦ୍ଧ ତେଲ ବ୍ୟବହାର କରନ୍ତୁ l ଏବେ ଆପଣଙ୍କ ଯାହାବି ସନ୍ଦେହ ରହୁଛି ପଚାରିପାରିବେ l ଯଦି କୌଣସି ଶୁଦ୍ଧ ଜିନିଷ ପାଇବା ପାଇଁ ଅସୁବିଧା ହେଉଛି ତାହେଲେ ମଧ୍ୟ ଆମ ସହିତ ଯୋଗାଯୋଗ କରିପାରିବେ l Vedic Vichar
ପେଟ ବଢିବା ସମସ୍ଯା ତାର ଉପଚାର
06-02-2022
ବୟସ ବୃଦ୍ଧି ହେବା ସହ ବହୁତ ଲୋକଙ୍କର ପେଟ ଫୁଲିବା ସମସ୍ୟା ଦେଖାଯାଏ । ଏହି କାରଣରୁ ତାଙ୍କ ପେଟରେ ଅସହନୀୟ ପୀଡା ହୋଇଥାଏ , ପେଟ ଫୁଲିବା ଏକ ରୋଗ ହୋଇଥାଏ , ଯାହାକୁ ଇଂରାଜୀରେ ବ୍ଲୋଟିଙ୍ଗ୍ କୁହାଯାଏ , ବାରମ୍ବାର ପେଟ ଫୁଲିବା ଯୋଗୁଁ ଆପଣଙ୍କୁ ନାନାଦି ରୋଗ ଆକ୍ରାନ୍ତ ହୋଇଥାଏ , ଯଦି ଆପଣଙ୍କ ପେଟ ଫୁଲିଯାଉଛି ତେବେ ତାକୁ ଅଣଦେଖା କରନ୍ତୁ ନାହିଁ , ଏଥିପାଇଁ ଆପଣ ତୁରନ୍ତ ଚିକିତ୍ସା କରନ୍ତୁ , ଆପଣ ଘରୋଇ ଉପାୟ କରି ଏହି ସମସ୍ୟାରୁ ମୁକ୍ତି ପାଇପାରିବେ । ପେଟ ଗ୍ୟାସ୍ ହେବା କିମ୍ବା କୌଣସି ଖାଦ୍ୟର ଆଲର୍ଜି ହେବା କବଜ୍ ପରି ସମସ୍ୟା, ଅଧିକା ତେଲ ଯୁକ୍ତ ଓ ମସଲାଯୁକ୍ତ ଖାଦ୍ୟ ସେବନ କରିବା ଇତ୍ୟାଦି କାରଣ ହୋଇଥାଏ ,ଏହା ଆମର ପାଚନ ତନ୍ତ୍ରକୁ ନଷ୍ଟ କରି ଦେଇଥାଏ , ଏହା ସହ ଅନ୍ୟ ରୋଗଗୁଡିକ ସହଜରେ ପ୍ରବେଶ କରିଯାଆନ୍ତି । ଜୁଆଣି– ପେଟ ଫୁଲିବା ସମସ୍ୟା ହେଲେ ଆପଣ ଖାଇବା ପରେ ଜୁଆଣିର ସେବନ କରନ୍ତୁ , ଆପଣ ଜୁଆଣି ସହ ସୈନ୍ଧବ ଲୁଣ ମିଶାଇ ଖାଆନ୍ତୁ , ଓ ତାପରେ ଅଳ୍ପ ନଖ ଉଷୂମ ପାଣି ପିଅନ୍ତୁ , ଜୁଆଣି ଖାଇଲେ ଆପଣଙ୍କର ଗ୍ୟାସ୍ ସମସ୍ୟା ରହିବ ନାହିଁ ଓ ପେଟ ବି ଫୁଲିବ ନାହିଁ , ତାହାସହ ପାଚନ ତନ୍ତ୍ର ମଧ୍ଯ ଭଲ ରହିବ। ତୁଳସୀ ପତ୍ର– ପେଟର ରୋଗ ସଂମ୍ବନ୍ଧିତ ଉପଚାର ନିମନ୍ତେ ତୁଳସୀ ପତ୍ରକୁ ପ୍ରାଥମିକତା ଦିଆଯାଇଛି, ତୁଲସୀ ପତ୍ରକୁ ସେବନ କଲେ ପେଟ ସହ ଯୋଡି ହୋଇଥିବା ସମସ୍ୟାଗୁଡିକ ଦୂରିଭୁତ ହୋଇଥାଏ , ପେଟ ଫୁଲିବା ସମୟରେ ତୁଳସୀର ୪-୫ ଟି ପତ୍ରକୁ ସେବନ କରନ୍ତୁ , ଏହା ଦ୍ୱାରା ପେଟ ଫୁଲିବା ସମସ୍ୟା ଦୂର ହୋଇଯିବ। ଧନିଆଁ – ଗୋଟେ କପ୍ ଗରମ ପାଣିରେ ଏକ ଚାମଚ ଧନିଆଁ ପକାନ୍ତୁ , ଓ ଏହି ପାଣିକୁ ଥଣ୍ତା ହେବାପାଇଁ ରଖିଦିଅନ୍ତୁ , ଯେବେ ପାଣି ଥଣ୍ତା ହୋଇଯିବ ତେବେ ଏହାକୁ ଛାଣିନିଅନ୍ତୁ , ଓ ପାଣିକୁ ପିଇନିଅନ୍ତୁ , ଦିନରେ ଦୁଇଥର ଏହି ପାଣିକୁ ସେବନ କଲେ ଆପଣଙ୍କ ଗ୍ୟାସ୍ ହେବ ନାହିଁ , ଧନିଆଁରେ ଆଣ୍ଟି ମାଇକ୍ରୋବିୟଲ୍ ମହଜୁତ୍ ଥାଏ , ଯାହା ପେଟରେ ଗ୍ୟାସକୁ ହେବାରେ ରୋକିଥାଏ । କଖାରୁ – କଖାରୁର ସେବନ କରିଲେ ଆପଣଙ୍କ ଖାଦ୍ୟ ସହଜରେ ହଜମ ହୋଇଯାଏ , କାରଣ ଏହି ପରିବା ରେ ଭିଟାମିନ୍ ଇ ଓ ପୋଟାସିୟମ୍ ଅଧିକା ମାତ୍ରାରେ ରହିଥାଏ , ଓ ଏହା ପାଚନ କ୍ରିୟାରେ ସଠିକ୍ କରିଥାଏ , ଯଦି ଆପଣଙ୍କ ପାଚନ କ୍ରିୟା ଦୂର୍ବଳ ଅଛି ତେବେ କମ୍ ସେ କମ୍ କଖାରୁର ସେବନ ନିଶ୍ଚିତ କରନ୍ତୁ । ଯୋଗ ଏବଂ ବ୍ୟାୟାମ – ଯେଉଁ ଲୋକ ଯୋଗ କିମ୍ବା କୁସ୍ତି କରୁଛନ୍ତି , ସେମାନଙ୍କୁ ପେଟ ଫୁଲିବା ସମସ୍ୟା ହୁଏ ନାହିଁ , ଯୋଗ ଓ କୁସ୍ତି କରିଲେ ପେଟର ମାଂସପେଶୀଗୁଡିକ ମଜବୁତ ହୋଇଥାଏ , ଓ ପେଟରେ ଗ୍ୟାସ୍ କିମ୍ବା କବଜ୍ ହେବାକୁ ଦିଏ ନାହିଁ , ସେମିତି ଯଦି ଯୋଗ କିମ୍ବା କୁସ୍ତି କରିବାକୁ ପସନ୍ଦ କରୁନାହାନ୍ତି , ତେବେ ସବୁଦିନ ସକାଳେ ବାହାରକୁ ମର୍ଣ୍ଣିଙ୍ଗ୍ ୱାର୍କ ରେ ଯାଆନ୍ତୁ , ସବୁ ଦିନ ଏପରି କଲେ ଆପଣଙ୍କ ପେଟ ଫୁଲିବ ନାହିଁ । ଫାଇବର ଯୁକ୍ତ ଖାଦ୍ୟ – ଆପଣ ଯଦି ଫାଇବର ଯୁକ୍ତ ଖାଦ୍ୟର ସେବନ କରୁଛନ୍ତି ତେବେ ଏହା ସ୍ୱାସ୍ଥ୍ୟ ପାଇଁ ଭଲ ହୋଇଥାଏ , ଏହା ଦ୍ୱାରା ପେଟରେ ଗ୍ୟାସ୍ ହୁଏ ନାହିଁ , ଓ ପେଟ ଫୁଲେ ନାହିଁ , ଏହା ସହ ଡାଇଟ୍ ରେ କଦଳି, କମଳା, ଆମ୍ବ, ରୁଟି , ପରିବା , ଓ ଡାଲି ପରି ଫାଇବର୍ ବାଲା ଜିନିଷର ସେବନ କରନ୍ତୁ , ଏହା ସହ ଆପଣ କେବଳ ସନ୍ତୁଳିତ ମାତ୍ରାରେ ଫାଇବର ଯୁକ୍ତ ଖାଦ୍ୟର ସେବନ କରନ୍ତୁ , ଅଧିକା ମାତ୍ରାରେ ଫାଇବର ସେବନ କରିଲେ ଏହା ପେଟକୁ ଖରାପ ପ୍ରଭାବ ପକାଇଥାଏ । ସୋଢ଼ା ଏବଂ ଡ୍ରିଙ୍କ୍ସ – ଯେଉଁ ଲୋକଙ୍କର ଗ୍ୟାସ୍ ର ସମସ୍ୟା ଅଛି ସେମାନଙ୍କ ପେଟ ଫୁଲିଲେ ସୋଢା ଓ କାର୍ବୋନେଟେଡ୍ ଡ୍ରିଙ୍କ୍ସ ସେବନ କରନ୍ତୁ ନାହିଁ , କାରଣ ଏହା ମଧ୍ୟରେ ଗ୍ୟାସ୍ ରହିଥାଏ , ଯାହାକୁ ନେଇ ପେଟ ଫୁଲିଥାଏ , ଏହି ପରି ଆପଣ ଅଧିକା ରାଗଯୁକ୍ତ ଖାଦ୍ୟର ସେବନ କରନ୍ତୁ ନାହିଁ , ସେମିତି ଓଟୋମୋଲ୍ ଯେଉଁଥିରେ ଅଧିକା ମାତ୍ରାରେ ଫାଇବର୍ ଥାଏ , ତାହାର ସେବନ ଅଧିକା ମାତ୍ରାରେ କରନ୍ତୁ ନାହିଁ , ଏହା ପେଟ ମଧ୍ୟରେ ଗ୍ୟାସ୍ ଓ କବଜ୍ ପରି ସମସ୍ୟା ସୃଷ୍ଟି କରିପାରେ । Vedic Vichar
ଗୁଣବର୍ଦ୍ଧକ ଗୁଡ ଏବଂ ମହୁ
06-02-2022
ପୂର୍ବ କାଳରୁ ଆମର ପୂର୍ବ ପୁରୁଷମାନେ କୌଣସି ଭଲ ଜିନିଷ ଟେ ପାଉଥିଲେ ତାକୁ ଭବିଷ୍ୟତ ପାଇଁ ସଂଚିତ କରି ରଖୁଥିଲେ l ବିଶେଷ କରି ଭଲ ଭଲ ଖାଦ୍ୟ ପଦାର୍ଥ ଜିନିଷ ଉପରେ ତାଙ୍କର ଏକ ସଂଚୟ ମନୋବୃତ୍ତି ଥିଲା ସେଇଟା ନିଜ ଘର ତିଆରି କୌଣସି ଜିନିଷ ହେଉ ବା ବାହାର କୌଣସି ଜିନିଷ ହେଉ ଆମର ଅଜା, ଆଇଁ, ଜେଜେ ବା ଜେଜେମା ଏହି କାମ ପ୍ରତି ଯଥେଷ୍ଟ ଯତ୍ନବାନ ଥିଲେ l କୋଉଠୁ ଭଲ ଗୁଡ଼ ଟିକେ ମିଳିଲେ, ମହୁ ଟିକେ ମିଳିଲେ ଶୀଘ୍ର ତାକୁ କିଣିଆଣି ଘରେ ରଖି ଦେଉଥିଲେ l ତାଙ୍କର ଏକ ବିଶ୍ୱାସ ଥିଲା କି ଭଲ ଜିନିଷ ଯେତେବେଳେ ବି ଯୁଆଡେ ପାଉଛ ତାକୁ ଆଣି ଘରେ ରଖିବା ଦରକାର ବେଳେ କାମରେ ଆସିବ l ଆଜିର ଆଈମା ସ୍ୱାସ୍ଥ୍ୟ କଥା ପୂର୍ବର ଏକ କଥା ଉପରେ ଆଲୋକପାତ କରିବାକୁ ଯାଉଛୁ ତାହା ହେଲା ପୁରୁଣା ମହୁ ଓ ଗୁଡ଼ର ବିଶେଷ ଉପକାରିତା ତାକୁ ନିଜେ ଜାଣିବା ସହିତ ଅନ୍ୟମାନଙ୍କୁ ମଧ୍ୟ ଜଣାଇବା l ଆୟୁର୍ବେଦରେ ମହୁ ଓ ଗୁଡ଼କୁ ଗୁଣବର୍ଦ୍ଧକ କୁହାଯାଇଛି l ମାନେ ହେଲା ଯଦି କୌଣସି ଔଷଧ ସହିତ ଗୁଡ଼ ବା ମହୁ ମିଶାଇ ଖିଆଯାଏ ସେଇ ଔଷଧର କାର୍ଯ୍ୟ କରିବା କ୍ଷମତା ଏବଂ ଗୁଣଗୁଣିତ ହୋଇଯାଏ l ମହୁ ନ ମିଳିଲେ ଗୁଡ଼କୁ ବ୍ୟବହାର କରିବା କଥା ମଧ୍ୟ ଆୟୁର୍ବେଦ କହାଯାଇଛି l ଏଥିରେ ଯେଉଁ ସବୁ ପୋଷାକ ତତ୍ତ୍ୱ ଥାଏ ଏହାକୁ ଅମୃତ କୁହାଯାଇପାରିବ କାରଣ କେବଳ ଗୁଡ଼ ବା ମହୁରୁ ପଞ୍ଚାମୃତ ତିଆରି ହୁଏ l ବୈଜ୍ଞାନିକ ଭାବରେ ଦେଖିଲେ ଏଥିରେ ଶରୀର ଚାଲିବା ପାଇଁ ଯେଉଁ ଷାଠିଏ ଟି ପୋଷକ ତତ୍ତ୍ୱ ଦରକାର ସବୁ ଯାକ ଏକ ପ୍ରାକୃତିକ ଅନୁପାତରେ ଏଥିରୁ ମିଳେ l ନୂଆ ଗୁଡ଼ ବା ମହୁ ପୁଷ୍ଟିକାରକ ହୋଇଥିବା ବେଳେ ପୁରୁଣା ଗୁଡ଼ ବା ମହୁ ପୁଷ୍ଟିକାରକ ହେବା ସହିତ ତ୍ରିଦୋଷ ନାଶକ ହୋଇଥାଏ l କେମିତି?? 1)-କଫ – ଅଦା+ପୁରୁଣା ଗୁଡ଼ ବା ମହୁମହୁ । 2)-ପିତ୍ତ – ହରିଡ଼ା+ପୁରୁଣା ଗୁଡ଼ ବା ମହୁ । 3)-ଥଣ୍ଡା ବାତ – ଶୁଣ୍ଠୀ+ପୁରୁଣା ଗୁଡ଼ ବା ମହୁ । 4)-ଗରମ ବାତ – କ୍ଷୀର ଜାତୀୟ ଜିନିଷ ସହିତ ପୁରୁଣା ଗୁଡ଼ ବା ମହୁ ଅସମାନ ଅନୁପାତରେ । ସମସ୍ତ ପ୍ରକାରର କଫ ରୋଗ ପାଇଁ ଅଦା ସହିତ ପୁରୁଣା ଗୁଡ଼ ମିସାଇ ଯଦି ଖିଆଯାଏ ଏହା ଅଦାର କଫ ନାଶକ ଗୁଣ ବଢାଇବା ସହିତ ଗୁଡ଼ର ପୁଷ୍ଟିକାରକ ଗୁଣ ଯୋଗୁଁ ଏହା କଫ ସମସ୍ୟା ଦୂର କରିବା ସହିତ ବଳ ଯୋଗାଇ ରୋଗୀକୁ ରୋଗମୁକ୍ତ କରେ l ସମସ୍ତ ପ୍ରକାର ପିତ୍ତ ରୋଗ ପାଇଁ ଯାହାକି ପେଟ ସମ୍ବନ୍ଧୀୟ ଅଟେ ପୁରୁଣା ଗୁଡ଼ 2-3 ଗ୍ରାମ ସହିତ ହରିଡ଼ା ଚୁର୍ଣ୍ଣ 2-3 ଗ୍ରାମକୁ ମିସାଇ ଯଦି ସକାଳେ, ଦ୍ବିପ୍ରହର ଓ ସନ୍ଧ୍ୟାରେ ଖାଲି ପେଟରେ ଖିଆଯାଏ ଏହା ପିତ୍ତ ନାଶକର କାମ କରିବ l ସମସ୍ତ ପ୍ରକାର ଥଣ୍ଡା ବାତ ରୋଗ ପାଇଁ ସମସ୍ତ ପ୍ରକାର ଥଣ୍ଡା ବାତ ରୋଗରେ ଏହାକୁ ଯଦି ଶୁଣ୍ଠୀ ସହିତ ଖିଆଯାଏ ତାହେଲେ ଏହା ଥଣ୍ଡା ବାତ ଦୂର କରିବ l ଗୁଡ଼- 2-3 ଗ୍ରାମ ସହିତ ଶୁଣ୍ଠୀ ଗୁଣ୍ଡ – 2-3 ଗ୍ରାମ ଖାଇବା ପରେ ସକାଳେ, ଦୁଇପ୍ରହର ଏବଂ ରାତିରେ l ସମସ୍ତ ପ୍ରକାର ଗରମ ବାତ ରୋଗ ପାଇଁ ସମସ୍ତ ପ୍ରକାର ଗରମ ବାତ ଦୋଷ ପାଇଁ ଦେଶୀ କ୍ଷୀରରୁ ପ୍ରସ୍ତୁତ ହେଉଥିବା ଜିନିଷ ସହିତ ପୁରୁଣା ଗୁଡ଼ ଅସମାନ ଅନୁପାତରେ ମିଶାଇ ଖାଲିପେଟରେ ସକାଳେ ଓ ସନ୍ଧ୍ୟାରେ ଠିକ ସୂର୍ଯୋଦୟ ଏବଂ ସୂର୍ଯ୍ୟାସ୍ତ ସମୟରେ ଖାଇଲେ ଗରମ ବାତ ରୋଗ ଦୂର ହେବ l କୋଷ୍ଟକାଠିନ୍ୟ ରୋଗ ପାଇଁ ଯେଉଁମାନେ ଶାରୀରିକ ଶ୍ରମ କମ କରୁଛନ୍ତି ସେମାନେ ଯଦି କୋଷ୍ଟକାଠିନ୍ୟ ସମସ୍ୟାରେ ପୀଡିତ ସେମାନଙ୍କୁ ପ୍ରତିଦିନ ପୁରୁଣା ଗୁଡ଼ ସହିତ ଜୁଆଣି ଶୋଇବା ପୂର୍ବରୁ ଉଷୁମ ପାଣି ସହିତ ଖାଇବା ଉଚିତ ଦେଖିବେ ଆପଣଙ୍କ ପେଟ ଭଲ ସଫା ହେବ l ଆଜିର ବିଶେଷ ସ୍ୱାସ୍ଥ୍ୟ କଥା ଆମେ ଆମର ପୂର୍ବଜମାନଙ୍କୁ ଉତ୍ସର୍ଗ କରୁଛୁ ଯାହାଙ୍କ ପାଇଁ ଏହି ଅଦ୍ଭୁତ ଜ୍ଞାନ ବଳରେ ଶ୍ରୀ ଗୋବିଜ୍ଞାନ ଓଡିଶା ବହୁତ ରୋଗୀମାନଙ୍କ କାମରେ ଆସିପାରୁଛି l Vedic Vichar
ର୍ବେଦିକ ଗର୍ଭସଂସ୍କାର ଉପରେ
06-02-2022
ଆୟୁର୍ବେଦିକ ଗର୍ଭସଂସ୍କାର ଉପରେ…* ସ୍ୱାସ୍ଥ୍ୟ କଥା ଏକ ଜରୁରୀ ବିନ୍ଦୁ ଉପରେ ଆଲୋଚନା କରିବାକୁ ଯାଉଛି ଏହା ପ୍ରତ୍ୟେକ ଯୁବକ ଯୁବତୀମାନଙ୍କୁ ଉତ୍ତମ ଜ୍ଞାନ ପ୍ରଦାନ କରିବା ସହିତ ଉତ୍ତମ ପରିବାର ନିୟୋଜନ ବିଷୟରେ ଆଲୋକପାତ କରିବ l ଗର୍ଭାବସ୍ଥାରେ, ପ୍ରସବ ସମୟରେ ଏବଂ ଆପଣଙ୍କ ପିଲା ଦୁଇ ବର୍ଷ ନହେବା ପର୍ଯ୍ୟନ୍ତ ଆପଣଙ୍କୁ ଆପଣଙ୍କର ଶିଶୁ ବିଷୟରେ ସବୁକିଛି ଜାଣିବା ଆବଶ୍ୟକ l ପ୍ରାଚୀନ ଶାସ୍ତ୍ର ଏବଂ ଆୟୁର୍ବେଦ ଗର୍ଭବତୀ ମହିଳାଙ୍କ ଖାଦ୍ୟ, ଯୋଗ ଏବଂ ନିୟମିତ ଶରୀରର ଯତ୍ନ ଟିପ୍ସ, ତଥା ପଢ଼ିବା ସାମଗ୍ରୀ ଏବଂ ସଙ୍ଗୀତ ଶୁଣିବା ପାଇଁ ନିର୍ଦ୍ଦେଶ ପ୍ରଦାନ କରିଥାଏ ଏବଂ ଏହାକୁ ଗର୍ଭ ସଂସ୍କାର କୁହାଯାଏ l ଏହା ପାରମ୍ପାରିକ ଭାବରେ ବିଶ୍ୱାସ କରାଯାଏ ଯେ ଶିଶୁର ମାନସିକ ଏବଂ ଆଚରଣଗତ ବିକାଶ ଗର୍ଭରେ ଆରମ୍ଭ ହୁଏ କାରଣ ଏହା ମାତାର ଭାବପ୍ରବଣତା ଦ୍ୱାରା ପ୍ରଭାବିତ ହୋଇଥାଏ l ପ୍ରାଚୀନ କାଳରୁ ଏହି ଅଭ୍ୟାସ ହିନ୍ଦୁ ପରମ୍ପରାର ଏକ ଅଂଶ ହୋଇଆସୁଛି ଏବଂ ଏକ ଉଦାହରଣ ସ୍ୱରୂପ ଅଭିମନ୍ୟୁ, ଅଷ୍ଟବକ୍ର ଏବଂ ପ୍ରହ୍ଲାଦ ପରି ପୌରାଣିକ ଚରିତ୍ର ଉପରେ ଗର୍ଭସଂସ୍କାରର ଆବଶ୍ୟକତା ବେଶ ସୁସ୍ପଷ୍ଟ ହୋଇଥାଏ l ଭଗବାନ ବିଷ୍ଣୁଙ୍କ ଭଳି ପ୍ରତ୍ୟେକ ଜୀବ ମା ଗର୍ଭେ ଦଶାବତାରୀ ହୋଇ ଜନ୍ମ ନିଏ l ଭୃଣଟି ମୀନ, କଚ୍ଛପ, ବରାହ ଆଦି ରୂପ ନେଇ 9 ମାସ ପରେ ଏକ ପୂର୍ଣ୍ଣାଙ୍ଗ ଶିଶୁ ଅବସ୍ଥା ପ୍ରାପ୍ତ ହୁଏ l ଏବେ ଆସନ୍ତୁ ଭଲ ଭାବେ ଆଲୋଚନା କରିବା କେମିତି ପ୍ରକାର ସତର୍କତା ଅବଲମ୍ବନ କଲେ ଆମେ ଏକ ଉତ୍ତମ ସନ୍ତାନ ପ୍ରାପ୍ତ କରିପାରିବା l 1. ଯଦି କୌଣସି ମାତା କିମ୍ବା ପିତା ସେମାନଙ୍କ ଜୀବନର ସର୍ବୋତ୍ତମ ସନ୍ତାନ ଚାହାଁନ୍ତି, ତେବେ ସେମାନଙ୍କୁ ଯୋଜନା କରିବାକୁ ପଡିବ l ସଂଯମତା ରକ୍ଷା କରିବାକୁ ହେବ l – ବିନା ସଂଯମ ବା ଯୋଜନାରେ ଯେଉଁ ପିଲା ହୁଅନ୍ତି ସେମାନେ ମାତା ପିତା ଓ ସମାଜ ପାଇଁ ଶତ୍ରୁ ତୁଲ୍ୟ ବ୍ୟବହାର କରନ୍ତି l – ଯୋଜନାରେ କ’ଣ କରିବା? ସର୍ବପ୍ରଥମେ ଯୋଜନାକୁ ନିୟନ୍ତ୍ରଣ କରିବାକୁ ପଡିବ l ବ୍ରହ୍ମଚର୍ଯ୍ୟଙ୍କୁ ଅଧିକ ସମୟ ମାନିବା l ଜଣେ ମହିଳାଙ୍କ ପାଇଁ ସଂଯମ ହେବା ଅତ୍ୟନ୍ତ ସହଜ, ଏହା ପୁରୁଷମାନଙ୍କ ପାଇଁ କଷ୍ଟକର l ବର୍ଷକୁ ଥରେ କିମ୍ବା 2 ଥର ସମ୍ପର୍କ ରଖନ୍ତୁ କିମ୍ବା ଅତିବେଶୀରେ ମାସରେ ଥରେ l ଏଥିପାଇଁ ସଂକଳ୍ପ ଦୃଢ଼ ରହିବା ଉଚିତ ଏବଂ ଏହାକୁ ଶକ୍ତିଶାଳୀ କରିବା ପାଇଁ ଅଦା ବଢ଼ିଆ କାମ କରିବ, ଅଦାକୁ ପାଟିରେ ରଖି ଏହାକୁ ଚୋବାଇବ l ଏହି ଅଦା ସମସ୍ତ ପ୍ରକାରର ସଂକଳ୍ପକୁ ମଜବୁତ କରିବାରେ ସାହାଯ୍ୟ କରେ l ଦୁଇ ନମ୍ବର ଉପାୟ ହେଲା ଏକାଦଶୀ ଉପବାସ କରିବା ମାସକୁ ଦୁଇ ଥର l ଏହା ଦ୍ୱାରା ଶକ୍ତିକୁ ସଞ୍ଚିତ କରି ରଖାଯାଇପାରିବ l 2. ନିୟମିତ ଉଭୟ ପୁରୁଷ ଏବଂ ମହିଳା ଚୂନ ଖାଇବା ଉଚିତ୍ l – କ୍ଷୀର ବ୍ୟତୀତ ଜଣେ ବ୍ୟକ୍ତି ଦିନକୁ ମାତ୍ର 1 ଗ୍ରାମ ଚୂନ ଖାଇବା ଉଚିତ ଏବଂ ଏହାକୁ ଯେ କୌଣସି ତରଳ ପଦାର୍ଥରେ ଦ୍ରବଣ କରି ଏହାକୁ ପିଇବା ଉଚିତ l କେବଳ ପଥରୀ ରୋଗୀଙ୍କ ପାଇଁ ଚୂନ ନିଷେଧ ଅଟେ l 3. ଖାଦ୍ୟ ଏବଂ ପାନୀୟର ଯତ୍ନ ନିଅନ୍ତୁ ଯଦି ଆପଣ ରାଣା ପ୍ରତାପ ଏବଂ ଶିବାଜୀଙ୍କ ପରି ପିଲାମାନଙ୍କୁ ଚାହାଁନ୍ତି, ତେବେ ମହିଳାମାନେ ସାତ୍ତ୍ୱିକ ଖାଦ୍ୟ ଖାଇବା ଉଚିତ୍ l ମାଂସ, ମାଛ, ଅଣ୍ଡା, ମଦ୍ୟପାନ, ସିଗାରେଟ୍ ସବୁ ନିଷେଧ l ସମ୍ପୂର୍ଣ୍ଣ ଶାକାହାରୀ ଜୀବନ ଶ୍ରେୟସ୍କର ଅଟେ l ଶାକାହାରୀ ଖାଦ୍ୟରେ କିଛି ଜିନିଷ ରହିବା ଆବଶ୍ୟକ, ଯେପରିକି ଦେଶୀ ଗାଈର କ୍ଷୀର, ଦହି, ଘିଅ, ଋତୁକାଳୀନ ଫଳମୂଳ ଇତ୍ୟାଦି l ନିୟମିତ ଭାବେ ଲହୁଣୀ ସହିତ ଶୁଦ୍ଧ ମିଶ୍ରି ଖାଇବାକୁ ନିଶ୍ଚିତ ଚେଷ୍ଟା କରନ୍ତୁ l ପରିମାଣ: 25 ଗ୍ରାମ ଲହୁଣୀ ସହିତ 10 ଗ୍ରାମ ମିଶ୍ରି l – ଚୋପା ଯୁକ୍ତ ଡାଲି ଖାଇବା ଦରକାର l ବିନା ଚୋପାଯୁକ୍ତ ଭଲ ନୁହେଁ l – ଖାଦ୍ୟ ସହିତ କଦାପି ଫଳ ଖାଆନ୍ତୁ ନାହିଁ, ଫଳଗୁଡିକ ପୃଥକ ଭାବରେ ଖାଆନ୍ତୁ l 2-3 ଘଣ୍ଟା ଖାଇବା ପରେ ଫଳ ଖାଆନ୍ତୁ, କିମ୍ବା କେବଳ ଫଳ ଦିଅନ୍ତୁ, ରାତିରେ ଫଳ ଖାଆନ୍ତୁ ନାହିଁ l 4. ଉଭୟ ସ୍ୱାମୀ ଏବଂ ସ୍ତ୍ରୀ ନିୟମିତ ଭାବେ ଶାରୀରିକ ପରିଶ୍ରମ କରିବା ଉଚିତ୍ – ମହିଳାମାନେ ପରିଶ୍ରମ କରିବା ଉଚିତ ଯାହା ଗର୍ଭାଶୟର ଗତି ସହିତ ଜଡିତ l ଚଟନି ତିଆରି କରିବା, ପୋଷାକ ଧୋଇବା, ରୁଟି ତିଆରି କରିବା, ଏହି ସବୁ କାର୍ଯ୍ୟ ହାତରେ କର l ଚକି ସର୍ବୋତ୍ତମ, ଦିନରେ ମାତ୍ର 15 ମିନିଟ୍ l ଏହା ଦ୍ୱାରା ସର୍ବୋତ୍ତମ ସନ୍ତାନ ହେବ l ପୁରୁଷମାନଙ୍କ ପାଇଁ ଶରୀର ଶ୍ରମ: ଯଦି କୃଷକ ତାହେଲେ ଲଙ୍ଗଳରେ ହଳ କରିବା l ଯଦି ବସିକି କାମ କରନ୍ତି ତାହେଲେ ନିୟମିତ ଭାବେ 4-5 km ଚାଲିବା ଉଚିତ l 5. ପିଲାମାନଙ୍କର ସଫା ରଙ୍ଗ ପାଇବା ପାଇଁ ନିଜ ସନ୍ତାନର ରଙ୍ଗ ସ୍ପଷ୍ଟ ହେବାକୁ ଚାହାଁନ୍ତି, ସେମାନେ ହଳଦିଆ ଦୁଗ୍ଧ ପିଇବା ଉଚିତ୍, ଉଭୟ ସ୍ୱାମୀ ଏବଂ ସ୍ତ୍ରୀ, ରାତିରେ କ୍ଷୀରରେ ହଳଦୀ ମିଶାନ୍ତୁ l ଏହା କିଛିକାଂଶରେ ନିଶ୍ଚିତ ସାହାଯ୍ୟ କରିବ l ହରିଡ଼ା କ୍ଷୀର ମଧ୍ୟ ବହୁତ ଭଲ କାମ କରେ ଯଦି ପିଇଲେ l 6. ଅତି ତୀକ୍ଷ୍ଣ ବୁଦ୍ଧି ଥିବା ପିଲାମାନଙ୍କୁ ପାଇବା: – ଚୂନ ସହିତ ମିଶ୍ରିତ ଦହି ଖାଇବା; ଦେଶୀ ଗାଈର କ୍ଷୀର ନିଅ, ଏହାର ଦହିକୁ ଏକ ରୂପା ପାତ୍ରରେ ସକାଳେ ଖାଲି ପେଟରେ ଫ୍ରିଜ୍ କରି ଚୂନ ସହିତ ଖାଅ, ଉଭୟ ସ୍ୱାମୀ ଏବଂ ସ୍ତ୍ରୀ l 1 ଗ୍ରାମ ମାନେ ଗୋଟିଏ ଗହମ ମଞ୍ଜି ଆକାରର l ପଥରୀ ରୋଗୀଙ୍କ ପାଇଁ ଚୂନ ନିଷେଧ, ମନେରଖବେ l 7. ତେଜସ୍ୱୀ ସନ୍ତାନ ପାଇଁ ସମାଗମ ହେବାକୁ ଆଦର୍ଶ ଦିନ: – ପତ୍ନୀଙ୍କ ମାସିକ ଆରମ୍ଭ ଦିନର 10 ଦିନ ଏବଂ 18 ଦିନ ପୂର୍ବରୁ, 7 ଦିନ ମଧ୍ୟରେ ପିଲା ପାଇବା ପାଇଁ ସର୍ବୋତ୍ତମ ସମୟ l ଚମତ୍କାର ଏବଂ ଗୁଣାତ୍ମକ ସନ୍ତାନ ପାଇବେ l – ଏଥିରେ 2 ପ୍ରକାର ଦିନ ରହିବ, ଯୁଗ୍ମ ଏବଂ ଅଯୁଗ୍ମ ; ଯଦି ତୁମେ ଯୁଗ୍ମ ଦିନରେ ସାକ୍ଷାତ କର, ତେବେ ତୁମର 99% ପୁଅ ସେଠାରେ ରହିବେ, ଏବଂ ଯଦି ତୁମେ ଅଯୁଗ୍ମ ଦିନରେ ସାକ୍ଷାତ କର, ତୁମର ଏକ ଝିଅ ହେବ l 8. ଶୁକ୍ଳପକ୍ଷ ଦିନ, ପୁଅ କିମ୍ବା ଝିଅ ହେଲେ 99% ମହାନ୍, ଉଜ୍ଜ୍ୱଳ, ଯୋଦ୍ଧା ହେବେ, କୃଷ୍ଣପକ୍ଷରେ ଜନ୍ମିତ ଲୋକ ଭଲ ସାହିତ୍ୟିକ, ବୈଜ୍ଞାନିକ, ଡାକ୍ତର, ଇଞ୍ଜିନିଅର, CA ରହିବେ l 9. ଅବହେଳିତ ପିଲାମାନେ କେଉଁଠୁ ଆସନ୍ତି? – କ୍ୟାଲସିୟମ ଅଭାବ ଥିବା ମାତା ପିତାଙ୍କ ଠାରୁ ବିକଳାଙ୍ଗ ପିଲା ଜନ୍ମ ହେବାର ସମ୍ଭାବନା ଅଧିକ l ତେଣୁ ଗର୍ଭବତୀ ମା ପ୍ରତିଦିନ ଦହି ସହିତ ଗୋଟେ ଗ୍ରାମ ଚୂନ ଖାଲି ପେଟରେ ସକାଳେ ଖାଇବା ଉଚିତ l – ମହାରାଷ୍ଟ୍ରର କୋଙ୍କଣ ବେଲ୍ଟର ପିଲାମାନେ ଅତ୍ୟନ୍ତ ତୀକ୍ଷ୍ଣ, ସେମାନଙ୍କର ଆଖି ମଧ୍ୟ ଦୁନିଆର ସବୁଠାରୁ ସୁନ୍ଦର | ଆଇକ୍ୟୁ ସର୍ବାଧିକ, ସେମାନଙ୍କର ମାଟି ଲାଲ୍, ପ୍ରତ୍ୟେକ ଶସ୍ୟ ଏବଂ ଫଳରେ ଅଧିକ କ୍ୟାଲସିୟମ୍ ଏବଂ ଆଇରନ୍ ଥାଏ l ଲାଲ୍ ମାଟିରେ କ୍ୟାଲସିୟମ୍ ଏବଂ ଆଇରନ୍ ଭରପୂର ଥାଏ l ଜଣେ ଗର୍ଭବତୀ ମାତା ଆଧ୍ୟାତ୍ମିକ, ଜ୍ଞାନବାନ ପୁସ୍ତକ ପଢ଼ିବା ଉଚିତ୍ ପିଲାଟି ଉପରେ ଉତ୍ତମ ପ୍ରଭାବ ପକାଇଥାଏ! କୁହାଯାଏ ଅର୍ଜୁନଙ୍କ ପୁଅ ଅଭିମନ୍ୟୁ ଗର୍ଭରେ ଥାଇ ଚକ୍ରବ୍ୟୁହକୁ ପ୍ରବେଶ କରିବାର ପଦ୍ଧତି ଶିଖିଯାଇଥିଲେ l 10- ଯଦି ସ୍ୱାମୀ ଏବଂ ସ୍ତ୍ରୀର ରକ୍ତ ଗୋଷ୍ଠୀ ଅଲଗା ତେବେ ଏହା ଭଲ ଅଟେ l 11. ସ୍ୱାମୀ ଏବଂ ସ୍ତ୍ରୀ ସର୍ବଦା ଦକ୍ଷିଣ ଦିଗରେ ଶୋଇବା ଉଚିତ l 12. ଗର୍ଭବତୀ ମା ଟି ଉତ୍ତମ ସନ୍ତାନ ପାଇବା ପାଇଁ କଣ କରିବେ? – ଆପଣଙ୍କ ଭୋକ ଓ ଇଚ୍ଛା ଅନୁଯାଇ ଖାଦ୍ୟ ଗ୍ରହଣ କରିବା ଉଚିତ l 300 କ୍ୟାଲୋରୀ କେବଳ ଅତିରିକ୍ତ ଖାଦ୍ୟ ଖାଇବା ଉଚିତ l ଇଚ୍ଛା କୁ ସମ୍ମାନ ଦେବା ସ୍ୱାମୀଙ୍କର ମଧ୍ୟ କର୍ତ୍ତବ୍ୟ ହେବା ଉଚିତ l ସବୁବେଳେ ସକାରାତ୍ମକ ଚିନ୍ତା ସୃଷ୍ଟି କରିବା ପାଇଁ ଚେଷ୍ଟା କରିବା ଉଚିତ l ଘରେଲୁ ହିଂସା ଠାରୁ ଦୁରେଇ ରହିବା ଉଚିତ l ପ୍ରଥମ ମାସରୁ ସପ୍ତମ ମାସ ପର୍ଯ୍ୟନ୍ତ, ଅଳ୍ପ ପରିଶ୍ରମ କରିବା, ଚଲାବୁଲା କରିବା, ଚଟନି ତିଆରି କରିବା, ପୋଷାକ ଧୋଇବା, ଘର ଅଗଣା ସଫା କରିବା, ମେସିନ୍ ବ୍ୟବହାର କମ କରି ନିଜ ହାତ ଓ ଗୋଡ଼ରେ ଶାରୀରିକ ପରିଶ୍ରମ କରିବା l – ପ୍ରଥମ ଦିନରୁ 9 ମାସ, 9 ଦିନ, 9 ଘଣ୍ଟା ପାଇଁ ଗର୍ଭବତୀ ମାତାଙ୍କୁ ମାନସିକ ଚାପ ଦିଅନ୍ତୁ ନାହିଁ, ତେବେ ପିଲାଟି ଏହାର ପରିଣାମ 10 ଗୁଣ ପାଇବ l – ଗର୍ଭବତୀ ମା ଯାହା ପସନ୍ଦ କରନ୍ତି ନାହିଁ, ସେ ସେହି ଦିନ ପର୍ଯ୍ୟନ୍ତ ଘରେ ରହିବା ଉଚିତ୍ ନୁହେଁ l ଯଦି ଏହି ଜିନିଷଗୁଡ଼ିକର ଯତ୍ନ ନିଆଯାଏ ନାହିଁ, ତେବେ ପିଲାଟି ବାହାରକୁ ଆସିବ ଏବଂ ତୁମକୁ ସାରା ଜୀବନ ଦୁଃଖଦ ଘଟଣା ଦେବ l – ସୂର୍ଯ୍ୟ ଗ୍ରହଣରେ ରକ୍ତଚାପ ବୃଦ୍ଧି ପାଇଥାଏ, ତେଣୁ ମାତା ବିଶ୍ରାମ ନେବା ଉଚିତ୍ ଏବଂ ବାହାରକୁ ଯିବା ଉଚିତ୍ ନୁହେଁ l Vedic Vichar Stress Management Cell, Berhampur
कब्र पूजा – मुर्खता अथवा अंधविश्वास (vedic vichar)
04-02-2022
आज के समाचार पत्रों में देश के प्रधानमंत्री मोदीजी द्वारा अजमेर में दरगाह शरीफ पर चादर चढ़ाने के लिए बीजेपी के वरिष्ठ नेता मुख्तार अब्बास नक़वी को अजमेर भेजने एवं उसके साथ अपना पैगाम भेजने का समाचार छपा हैं। पूर्व में भी बॉलीवुड का कोईप्रसिद्द अभिनेता अभिनेत्री अथवा क्रिकेट केखिलाड़ी अथवा राजनेता चादर चदाकर अपनीफिल्म को सुपर हिट करने की अथवा आने वाले मैच मेंजीत की अथवा आने वाले चुनावो में जीत की दुआमांगता रहा हैं। भारत की नामी गिरामी हस्तियोंके दुआ मांगने से साधारण जनमानस में एक भेड़चालसी आरंभ हो गयी है की अजमेर में दुआ मांगे से बरकतहो जाएगी , किसी की नौकरी लग जाएगी ,किसी के यहाँ पर लड़का पैदा हो जायेगा , किसीका कारोबार नहीं चल रहा हो तो वह चलजायेगा, किसी का विवाह नहीं हो रहा हो तोवह हो जायेगा। कुछ सवाल हमे अपने दिमाग पर जोर डालने कोमजबूर कर रहे हैं जैसे की यह गरीब नवाज़ कौन थे ?कहाँ से आये थे? इन्होने हिंदुस्तान में क्या कियाऔर इनकी कब्र पर चादर चदाने से हमे सफलता कैसेप्राप्त होती है? गरीब नवाज़ भारत में लूटपाट करने वाले , हिन्दूमंदिरों का विध्वंश करने वाले ,भारत के अंतिम हिन्दूराजा पृथ्वी राज चौहान को हराने वाले वजबरदस्ती इस्लाम में धर्म परिवर्तन करने वाले मुहम्मदगौरी के साथ भारत में शांति का पैगाम लेकर आयेथे। पहले वे दिल्ली के पास आकर रुके फिर अजमेरजाते हुए उन्होंने करीब 700 हिन्दुओ को इस्लाम मेंदीक्षित किया और अजमेर में वे जिस स्थान पर रुकेउस स्थान पर तत्कालीन हिन्दू राजा पृथ्वी राजचौहान का राज्य था। ख्वाजा के बारे मेंचमत्कारों की अनेको कहानियां प्रसिद्ध है कीजब राजा पृथ्वी राज के सैनिको ने ख्वाजा केवहां पर रुकने का विरोध किया क्योंकि वह स्थानराज्य सेना के ऊँटो को रखने का था तो पहले तोख्वाजा ने मना कर दिया फिर क्रोधित होकरशाप दे दिया की जाओ तुम्हारा कोई भी ऊंटवापिस उठ नहीं सकेगा। जब राजा के कर्मचारियोंने देखा की वास्तव में ऊंट उठ नहीं पा रहे है तो वेख्वाजा से माफ़ी मांगने आये और फिर कहीं जाकरख्वाजा ने ऊँटो को दुरुस्त कर दिया। दूसरी कहानीअजमेर स्थित आनासागर झील की हैं। ख्वाजा अपनेखादिमो के साथ वहां पहुंचे और उन्होंने एक गायको मारकर उसका कबाब बनाकर खाया। कुछखादिम पनसिला झील पर चले गए कुछ आनासागरझील पर ही रह गए। उस समय दोनों झीलों केकिनारे करीब 1000 हिन्दू मंदिर थे, हिन्दू ब्राह्मणोंने मुसलमानो के वहां पर आने का विरोध किया औरख्वाजा से शिकायत कर दी। ख्वाजा ने तब एक खादिम को सुराही भरकर पानीलाने को बोला। जैसे ही सुराही को पानी मेंडाला तभी दोनों झीलों का सारा पानी सुखगया। ख्वाजा फिर झील के पास गए और वहांस्थित मूर्ति को सजीव कर उससे कलमा पढवायाऔर उसका नाम सादी रख दिया। ख्वाजा के इसचमत्कार की सारे नगर में चर्चा फैल गई। पृथ्वीराजचौहान ने अपने प्रधान मंत्री जयपाल को ख्वाजाको काबू करने के लिए भेजा। मंत्री जयपाल ने अपनीसारी कोशिश कर डाली पर असफल रहा औरख्वाजा नें उसकी सारी शक्तिओ को खत्म करदिया। राजा पृथ्वीराज चौहान सहित सभी लोगख्वाजा से क्षमा मांगने आये। काफी लोगो नेंइस्लाम कबूल किया पर पृथ्वीराज चौहान ने इस्लामकबूलने इंकार कर दिया। तब ख्वाजा नेंभविष्यवाणी करी की पृथ्वी राज को जल्द हीबंदी बना कर इस्लामिक सेना के हवाले कर दियाजायेगा। निजामुद्दीन औलिया जिसकी दरगाहदिल्ली में स्थित हैं ने भी ख्वाजा का स्मरण करतेहुए कुछ ऐसा ही लिखा है। बुद्धिमान पाठकगन स्वयं अंदाजा लगा सकते हैं कीइस प्रकार के करिश्मो को सुनकर कोई मुर्ख ही इनबातों पर विश्वास ला सकता है। भारत में स्थानस्थान पर स्थित कब्रे उन मुसलमानों की हैं जो भारतपर आक्रमण करने आये थे और हमारे वीर हिन्दू पूर्वजोने उन्हें अपनी तलवारों से परलोक पंहुचा दिया था। कुछ सामान्य से 10 प्रश्न हम पाठको से पूछनाचाहेंगे? 1 .क्या एक कब्र जिसमे मुर्दे की लाश मिट्टी मेंबदल चूँकि है वो किसी की मनोकामनापूरी करसकती है? 2. सभी कब्र उन मुसलमानों की है जो हमारे पूर्वजोसे लड़ते हुए मारे गए थे, उनकी कब्रों पर जाकर मन्नतमांगना क्या उन वीर पूर्वजो का अपमान नहीं हैजिन्होंने अपने प्राण धर्म रक्षा करते की बलि वेदीपर समर्पित कर दियें थे? 3. क्या हिन्दुओ के राम, कृष्ण अथवा 33कोटि देवीदेवता शक्तिहीन हो चुकें है जो मुसलमानों कीकब्रों पर सर पटकने के लिए जाना आवश्यक है? 4. जब गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहाँ हैं की कर्मकरने से ही सफलता प्राप्त होती हैं तो मजारों मेंदुआ मांगने से क्या हासिल होगा? 5. भला किसी मुस्लिम देश में वीर शिवाजी,महाराणा प्रताप, हरी सिंह नलवा आदि वीरो कीस्मृति में कोई स्मारक आदि बनाकर उन्हें पूजाजाता है तो भला हमारे ही देश पर आक्रमण करनेवालो की कब्र पर हम क्यों शीश झुकाते है? 6. क्या संसार में इससे बड़ी मुर्खता का प्रमाणआपको मिल सकता है? 7.. हिन्दू जाति कौन सी ऐसी अध्यात्मिक प्रगतिमुसलमानों की कब्रों की पूजा कर प्राप्त कर रहीं हैजिसका वर्णन पहले से ही हमारे वेदों- उपनिषदोंआदि में नहीं है? 8. कब्र पूजा को हिन्दू मुस्लिम एकता की मिसालऔर सेकुलरता की निशानी बताना हिन्दुओ कोअँधेरे में रखना नहीं तो ओर क्या है? 9. इतिहास की पुस्तकों कें गौरी – गजनी का नामतो आता हैं जिन्होंने हिन्दुओ को हरा दिया थापर मुसलमानों को हराने वाले राजा सोहेल देव का नाम तक न मिलना क्या हिन्दुओं कीसदा पराजय हुई थी ऐसी मानसिकता को बना करउनमें आत्मविश्वास और स्वाभिमान की भावनाको कम करने के समान नहीं है? 10. क्या हिन्दू फिर एक बार 24 हिन्दू राजाओकी भांति मिल कर संगठित होकर देश पर आये संकटजैसे की आंतकवाद, जबरन धर्म परिवर्तन,नक्सलवाद,लव जिहाद, बंगलादेशी मुसलमानों कीघुसपैठ आदि का मुंहतोड़ जवाब नहीं दे सकते? आशा हैं इस लेख को पढ़ कर आपकी बुद्धि में कुछ प्रकाश हुआ होगा।यदि आप आर्य राजा राम और कृष्ण जी महाराज की संतान हैं तो तत्काल इस मुर्खता पूर्ण अंधविश्वास को छोड़ दे और अन्य हिन्दुओ को भी इस बारे में प्रकाशित करें।
परमात्मा का अस्तित्व (vedic vichar)
04-02-2022
शास्त्रार्थ महारथी- पंडित रामचंद्र दहेलवी 3 फरवरी को पंडित रामचंद्र जी दहेलवी का देहांत हुआ था। हम संसार में जो कुछ भी कार्य करते है, वे सब उस परम पिता परमात्मा के द्वारा किये गये कार्यों की नकल ही है। अपने द्वारा किये गये समस्त क्रियाकलापों से ही हम उस परम पिता को जान और पहचान सकते हैं। हमारे सामने कई सज्जन व्यक्ति ये शंका करते हैं कि भगवान हमारी शंकाओं का समाधान क्यों नहीं करता? परन्तु उन भोले व्यक्तियों को यह समझना चाहिए कि भगवान के द्वारा किये गये कार्यों पर शंका समाधान हमारे द्वारा किये गये क्रियाकलापों से ही होता है। आप जगत का कोई भी पदार्थ लीजिए, उसका बनाने वाला कोई न कोई अवश्य है, मकान, कपड़ा, पुस्तक आदि को भी बनाने वाला कोई न कोई अवश्य है। यहाँ यह बात विचारणीय है कि क्या जड़ पदार्थ स्वयं कोई क्रिया कर सकता है? यह देखिये, ये पुस्तक मेरे दायें हाथ की तरफ रक्खी है, परन्तु यह स्वयं चलकर अपने आप मेरे बाये हाथ की तरफ नहीं आ सकती। यदि आपकी किसी पुस्तक को कोई स्थान से उठाकर अन्य स्थान पर रखे तो आप तुरन्त यही पूछेंगे कि मेरी पुस्तक यहां पर किसने रक्खी है? इन बातों से सिद्ध है कि संसार के सभी पदार्थ परतन्त्र हैं अर्थात् प्रबंध के आधीन है। रेलवे स्टेशन पर यदि कोई बच्चा अपने पिता से बिछड़ जाये तो पिता के पुकारने पर वो तुरन्त बोल पड़ता है पर यदि किसी बक्सा रेलगाड़ी में छूट जाये तो कोई पुरुष आवाज देकर न पुकारेगा। यदि कोई पुकारेगा तो अन्य सभी उसे नासमझ या पागल समझेंगे कि बेजान वस्तु को पुकार रहा है। अपने दैनिक व्यवहारों से ही हम भगवान के कार्यों को अर्थात् उसके अस्तित्व को पहिचानते तथा मानते हैं। एक बार मैं रात्रि के समय आर्यसमाज की अंतरंग सभा के अधिवेशन में गया, तो जाते समय अपनी हाथ की छड़ी मुझे नहीं मिली, अन्ततः मैं बिना छड़ी के ही चला गया, अंतरंग सभा की बैठक से मैं जब वापस लौटा, तो घर पर सब बच्चे सो गये थे। प्रातःकाल होने पर मैंने अपने दौहित्र से पूछा कि मेरी छड़ी तुमने कहीं रक्खी है क्या? वह बोला- नहीं। फिर उसकी छोटी बहन से पूछा, उसने भी यही कहा कि- मैंने नहीं उठाई। फिर मैंने इन दोनों बच्चों की मां अर्थात् अपनी बेटी से पूछा- वह बोली, पिताजी मुझे भी मालूम नहीं है। अब अन्त में चौथा केवल मैं ही बाकी रह गया और मैँ भी सत्य कहता हूँ कि मैंने भी उसे कहीं भी उठाकर नहीं रक्खा है। इसके पश्चात मैं बच्चों से बोला- मेरी छड़ी की आदत ही कुछ खराब हो गयी है, वह मुझे बिना बताये ही कही पर चली जाती है। यह सुनकर छोटी लड़की तुरन्त बोल उठी-- नानाजी ! ऐसा कमी नहीं हो सकता, छड़ी अपने आप कहीं नहीं जा सकती, भइया ही छड़ी से बंदरों को भगाया करते हैं, इन्होंने ही उठायी होगी। छड़ी अपने आप कही नहीं जा सकती। देखिये! अब आपने देख लिया कि एक छोटा-सा बच्चा भी इस बात को जानता है कि संसार में जड़ पदार्थ स्वयं कोई क्रिया नहीं कर सकता, क्योंकि वह परतंत्र है। इसी प्रकार के अपने दैनिक व्यवहार के कार्यों से हम परमात्मा के कार्यों को पहचानते है और उसकी सत्ता को अपने दिलो-दिमाग में अनुभव करते हैं। संसार का कोई भी जड़ पदार्थ आज तक स्वयं नहीं बना, बल्कि उसका बनाने वाला अन्य कोई ना कोई अवश्य हैं, परन्तु जगत का रचयिता वह परमात्मा है सोते समय हम लोग इतने बेसुध होते हैं कि कोई हमें जान से मार जाये या हमारे घर से कोई सामान ही क्यों न चुराकर ले जाये हमें कुछ मालूम नहीं होता। उस समय हम आनन्द स्वरूप उस परम पिता के समीप पहुँच जाते है और जागते हुए अनेकों प्रकार की चिन्ताएं हमें घेरे रहती हैं, हम श्वास लेते हैं, किन्तु वह भी स्वयं नहीं लेते। इसमें भी किसी का इन्तजाम जरूर होता है। जिसने इस समस्त शरीर रूपी भवन का निर्माण किया है। उसी के इन्तजाम में यह सब कुछ हो रहा है। कुछ लोग कहते है कि- सूर्य, चन्द्र, समुद्र, नदी, वायु, अग्नि को प्रकृति स्वयं बना लेती है। यदि ऐसा है तो वह जमीन बनाने के बाद क्यों रूक जाती है? आगे घड़ा, तश्तरी आदि क्यों नहीं बना देती? अपितु ज्ञानी परमात्मा ही यह सब बनाता है। जिस प्रकार स्कूल का मास्टर बच्चों को शुरू में एक लाइन लिखकर देता है और फिर उसे देखकर बच्चा उसी प्रकार लिखता है। इसी तरह मनुष्य की सामर्थ्य जहां तक नहीं पहुँच सकती थी, वहां तक उस ज्ञानी परमात्मा ने इस सृष्टि को बनाया और उसके बाद फिर मनुष्य बनाता है।
ମଣିଷର ଚାରୋଟି ଅନ୍ତକରଣ ଥାଏ
04-02-2022
ମଣିଷର ଚାରୋଟି ଅନ୍ତକରଣ ଥାଏ। ଯେଉଁ ଗୁଡ଼ିକର ନାମ ମନ,ବୁଦ୍ଧି,ଚିତ୍ତ ଓ ଅହଙ୍କାର। ବୁଦ୍ଧିଦ୍ୱାରା ମଣିଷ ଭଲ ମନ୍ଦ ବିଚାର କରିଥାଏ। ବୁଦ୍ଧି ମଣିଷର ପରିଚୟ ଦେଇଥାଏ। ମନ ଅନେକ ଭାବନା ବୋହି ଆଣିଥାଏ। କ୍ରିୟା କରିବା ପାଇଁ ପ୍ରେରଣା ଦିଏ ବୁଦ୍ଧି। ବୁଦ୍ଧି ସେ ସବୁକୁ ସମୀକ୍ଷା କରେ। ଯାହା କରିବା ଉଚିତ୍,ତାହା କରିବା ପାଇଁ ନିର୍ଦ୍ଦେଶ ଦିଏ। ଶରୀର ସେହି ଅନୁସାରେ ପରିଚାଳିତ ହୁଏ। ବୁଦ୍ଧିଥିବା ମଣିଷ ସଂସାରରେ ଭଲରେ ଚଳେ।କୌଣସି କାମ ସହଜ,ସରଳ ଭାବରେ କିପରି କରା ଯାଇ ପାରିବ,ତାହାର ଉପାୟ ଏହି ବୁଦ୍ଧି ବତାଇ ଦିଏ। ବୁଦ୍ଧିଆ ମଣିଷଟି ସଂସାରରେ ଅନ୍ୟ ମାନଙ୍କ ଅପେକ୍ଷା ଟିକିଏ ଆଗରେ ଥାଏ। କିନ୍ତୁ ସଦବୁଦ୍ଧି ମଣିଷକୁ ଆହୁରି ଉପର ସ୍ତରକୁ ନେଇଯାଏ। Vedic Vichar Stress Management Cell, Berhampur
ମନୁଷ୍ୟ ଭବିଷ୍ୟତ ବିଷୟରେ ଚିନ୍ତନ
04-02-2022
ଯଦି କେହି ମନୁଷ୍ୟ ଭବିଷ୍ୟତ ବିଷୟରେ ଚିନ୍ତନ ନକରି ସ୍ବର୍ଗ,ନର୍କ କି ଅନ୍ୟ କିଛି ସଂପର୍କ ବିଷୟରେ ନଭାବି ନିଃସ୍ୱାର୍ଥ ସେବାକରେ ତା ' ହେଲେ ସେ ମହାପୁରୁଷ ହୋଇ ଯାଆନ୍ତି। ଏହା ହିଁ ତାଙ୍କ ନିଜସ୍ଵ ଶକ୍ତିର ମହତ୍ତ୍ଵ ଅଭିବ୍ୟକ୍ତି। ସେଥିପାଇଁ ପ୍ରବଳ ସଂଯମତା ଆବଶ୍ୟକ ପଡିଥାଏ। ଅନ୍ୟ ସବୁ ବହିର୍ମୁଖୀ କର୍ମ ଅପେକ୍ଷା ଆତ୍ମ ସଞ୍ଜମ ଦ୍ଵାରା ଶକ୍ତି ଅଧିକ ପ୍ରକାଶିତ ହୋଇଥାଏ। ମନର ବହିର୍ମୂଖୀ ସ୍ଥିତି ସ୍ବାର୍ଥ ପୂର୍ଣ୍ଣ ଉଦ୍ଦେଶ୍ୟ ପ୍ରତି ଗତିକଲେ ଶକ୍ତିର ମହତ୍ତ୍ଵ ଛିନ୍ନ ଭିନ୍ନ ହୋଇଯାଏ। ଆଦର୍ଶ ବ୍ୟକ୍ତି ସେହିମାନେ ଯେଉଁମାନେ ଶାନ୍ତ ଚିତ୍ତରେ ନିଜର କର୍ମଶୀଳତାକୁ ଅନୁଭବ କରି ନିଃସ୍ଵାର୍ଥ ସେବାରେ ବ୍ରତୀ ହୋଇଥାନ୍ତି। ସେହିମାନେ ହିଁ ଈଶ୍ବରଙ୍କ ସମିପବର୍ତ୍ତୀ ହୋଇ ଯାଆନ୍ତି। lifehist.com
ଆଦର ଓ ସମ୍ମାନ
04-02-2022
ଏ ସଂସାରରେ ଅନେକ ଲୋକ ଅଛନ୍ତି ଯେଉଁମାନେ ଗୁଣୀଙ୍କୁ ଆଦର ଓ ସମ୍ମାନ କରିଥାନ୍ତି,ଆଉ କେହି ଧନୀ ଓ ସମ୍ପତ୍ତି ବାନଙ୍କୁ ଆଦର ଓ ସମ୍ମାନ କରନ୍ତି। ଆମ ସତ୍ ଶାସ୍ତ୍ର ମାନଙ୍କରେ ଅଛି ଧନୀ ହେଲେ ମଧ୍ୟ ଗୁଣହୀନ ଜନଙ୍କୁ ଆଦର କରିବ ନାହିଁ ଯାହାର ମାନବୀୟ ସଦଗୁଣ ନାହିଁ। ଯେଉଁ ଧନୀମାନେ ଅନ୍ୟ ଧନୀକୁ ଏବଂ ବିଦ୍ୱାନ ଓ ଗୁଣବାନ ଲୋକଙ୍କୁ ଈର୍ଷା କରନ୍ତି ସେମାନଙ୍କଠାରୁ ସର୍ବଦା ଦୂରେଇ ରହିବା ଆବଶ୍ୟକ। କାରଣ ନୀଚମନା ଧନୀ ଲୋକ ସାମାନ୍ୟ ଅସୁବିଧାରେ ପଡ଼ିଲେ ସେ ନିଜର ପ୍ରିୟ ଲୋକଙ୍କର କ୍ଷତି କରିବାକୁ ପଛାନ୍ତି ନାହିଁ। ଏଣୁ ଆତ୍ମ ସମ୍ମାନ ଥିବା ଲୋକ ଏମାନଙ୍କଠାରୁ ଦୂରେଇ ରହିବା ଉଚିତ। Dr. Yajnya Dutta Nayak, Khallikote University, Berhampur
Life History (www.lifehist.com)
03-02-2022
ଯଦି କେହି ମନୁଷ୍ୟ ଭବିଷ୍ୟତ ବିଷୟରେ ଚିନ୍ତନ ନକରି ସ୍ବର୍ଗ,ନର୍କ କି ଅନ୍ୟ କିଛି ସଂପର୍କ ବିଷୟରେ ନଭାବି ନିଃସ୍ୱାର୍ଥ ସେବାକରେ ତା ' ହେଲେ ସେ ମହାପୁରୁଷ ହୋଇ ଯାଆନ୍ତି। ଏହା ହିଁ ତାଙ୍କ ନିଜସ୍ଵ ଶକ୍ତିର ମହତ୍ତ୍ଵ ଅଭିବ୍ୟକ୍ତି। ସେଥିପାଇଁ ପ୍ରବଳ ସଂଯମତା ଆବଶ୍ୟକ ପଡିଥାଏ। ଅନ୍ୟ ସବୁ ବହିର୍ମୁଖୀ କର୍ମ ଅପେକ୍ଷା ଆତ୍ମ ସଞ୍ଜମ ଦ୍ଵାରା ଶକ୍ତି ଅଧିକ ପ୍ରକାଶିତ ହୋଇଥାଏ। ମନର ବହିର୍ମୂଖୀ ସ୍ଥିତି ସ୍ବାର୍ଥ ପୂର୍ଣ୍ଣ ଉଦ୍ଦେଶ୍ୟ ପ୍ରତି ଗତିକଲେ ଶକ୍ତିର ମହତ୍ତ୍ଵ ଛିନ୍ନ ଭିନ୍ନ ହୋଇଯାଏ। ଆଦର୍ଶ ବ୍ୟକ୍ତି ସେହିମାନେ ଯେଉଁମାନେ ଶାନ୍ତ ଚିତ୍ତରେ ନିଜର କର୍ମଶୀଳତାକୁ ଅନୁଭବ କରି ନିଃସ୍ଵାର୍ଥ ସେବାରେ ବ୍ରତୀ ହୋଇଥାନ୍ତି। ସେହିମାନେ ହିଁ ଈଶ୍ବରଙ୍କ ସମିପବର୍ତ୍ତୀ ହୋଇ ଯାଆନ୍ତି। Life history www.lifehist.com
ମଣିଷର ଚାରୋଟି ଅନ୍ତକରଣ ଥାଏ
03-02-2022
ମଣିଷର ଚାରୋଟି ଅନ୍ତକରଣ ଥାଏ। ଯେଉଁ ଗୁଡ଼ିକର ନାମ ମନ,ବୁଦ୍ଧି,ଚିତ୍ତ ଓ ଅହଙ୍କାର। ବୁଦ୍ଧିଦ୍ୱାରା ମଣିଷ ଭଲ ମନ୍ଦ ବିଚାର କରିଥାଏ। ବୁଦ୍ଧି ମଣିଷର ପରିଚୟ ଦେଇଥାଏ। ମନ ଅନେକ ଭାବନା ବୋହି ଆଣିଥାଏ। କ୍ରିୟା କରିବା ପାଇଁ ପ୍ରେରଣା ଦିଏ ବୁଦ୍ଧି। ବୁଦ୍ଧି ସେ ସବୁକୁ ସମୀକ୍ଷା କରେ। ଯାହା କରିବା ଉଚିତ୍,ତାହା କରିବା ପାଇଁ ନିର୍ଦ୍ଦେଶ ଦିଏ। ଶରୀର ସେହି ଅନୁସାରେ ପରିଚାଳିତ ହୁଏ। ବୁଦ୍ଧିଥିବା ମଣିଷ ସଂସାରରେ ଭଲରେ ଚଳେ।କୌଣସି କାମ ସହଜ,ସରଳ ଭାବରେ କିପରି କରା ଯାଇ ପାରିବ,ତାହାର ଉପାୟ ଏହି ବୁଦ୍ଧି ବତାଇ ଦିଏ। ବୁଦ୍ଧିଆ ମଣିଷଟି ସଂସାରରେ ଅନ୍ୟ ମାନଙ୍କ ଅପେକ୍ଷା ଟିକିଏ ଆଗରେ ଥାଏ। କିନ୍ତୁ ସଦବୁଦ୍ଧି ମଣିଷକୁ ଆହୁରି ଉପର ସ୍ତରକୁ ନେଇଯାଏ। (ସୁରେନ୍ଦ୍ର ନାଥ ଛୋଟରାୟ) Vedic Vichar
मनुष्य मांसाहारी या शाकाहारी? (Vedic vichar)
02-02-2022
हवा-पानी-भोजन सभी जीवधारियों के जीवन आधार हैं। हवा-पानी साफ हों प्रदूषित न हों, यह भी सर्वमान्य है। मनुष्य को छोड़ कर शेष सभी शरीरधारी अपने भोजन के बारे में भी स्पष्ट हैं उनका भोजन क्या है? यह कितनी बड़ी विड़म्बना है कि सबसे बुद्धिमान् शरीरधारी मनुष्य अपने भोजन के बारे में स्पष्ट नहीं है। मैं अपने मनुष्य बन्धुओं से यह बात कहते हुए क्षमा चाहूँगा कि भोजन के निर्णय में मनुष्य की स्थिति एक गधे से भी नीचे है। मनुष्य को भोजन के बारे में बताने वाले डाॅक्टर, वैज्ञानिक, अर्थशास्त्री, धर्मगुरु दोगली बातें करते हैं। स्पष्ट निर्णय किससे लें? भोजन के बारे में स्पष्ट निर्णय हमें सिद्धान्त से ही मिल सकता है, क्योंकि सिद्धान्त सर्वोपरी होता है। हम यह निर्णय करें कि मनुष्य का भोजन क्या है?, कुछ आधारभूत बातों के आधार पर करेंगे। ये आधारभूत बातें इस प्रकार हैं - 1. किसी मशीन के बारे में जानकारी, प्रयोग करने वाले से बनाने वाले को अधिक होती है। 2. मशीन का ईंधन और शरीर का भोजन उसकी बनावट के अनुसार निश्चित होता है। 3. उपयुक्त (बनावट के अनुसार) ईंधन वा भोजन से मशीन वा शरीर अच्छा काम करेंगे व देर तक कार्य करेंगे अन्यथा ईंधन या भोजन से कम काम करेंगे और शीघ्र खराब हो जायेंगे। 4. ईंधन या भोजन वह पदार्थ है, जिससे मशीन कार्य करे और शरीर जीवित रहे। जिस पदार्थ को शरीर में भोजन रूप में डाला जाये और शरीर जीवित न रहे, वह भोजन नहीं हो सकता। 5. सभी शरीर (आस्तिकों के लिए) ईश्वर ने बनाए या (नास्तिकों के लिए) प्रकृति ने बनाये। एक भी शरीर किसी डाॅक्टर, वैज्ञानिक, अर्थशास्त्री या धर्मगुरु ने नहीं बनाया। 6. हम सृष्टि में अपने चारों ओर दो प्रकार के शरीर देख रहे हैं - मांसाहारी और शाकाहारी। यहाँ हम 1, 2, 5 और 6 के आधार पर निर्णय करेंगे कि मनुष्य का भोजन मांसाहार है या शाकाहार है? सभी शरीर ईश्वर या प्रकृति ने बनाये, ईश्वर या प्रकृति की जानकारी मनुष्य से अधिक है और भोजन बनावट के हिसाब से होता है। हमारे सामने दो प्रकार के शरीर मांसाहारी (शेर, चीता, तेंदूआ, भेड़िया आदि) और शाकाहारी (गाय, बकरी, घोड़ा, हाथी, ऊँट आदि) उपस्थित हैं, तो सबसे आधारभूत बात है कि भोजन शरीर की बनावट के हिसाब से शरीर बनाने वाले ईश्वर या प्रकृति ने निश्चित किया है और ईश्वर या प्रकृति की बात मनुष्य के मुकाबले ज्यादा ठीक होगी, इस आधार का प्रयोग करके हम मनुष्य का भोजन निश्चित करेंगे। उस निर्णय के लिये हम शाकाहारी और मांसाहारी के शरीरों की बनावट की तुलना करते हैं और देखते हैं कि मनुष्य शरीर की बनावट किससे मेल खाती है? मनुष्य शरीर की रचना शाकाहारी शरीरों जैसी है, तो मनुष्य का भोजन शाकाहार और यदि रचना मांसाहारी शरीरों से मेल खाती है, तो मनुष्य का भेाजन मांसाहार होगा। यह अन्तिम निर्णय होगा और हमें किसी धर्मगुरु, वैज्ञानिक या डाॅक्टर से पूछने की आवश्यकता नहीं हैं, क्योंकि ईश्वर या प्रकृति के मुकाबले इनकी कोई औकात नहीं होती और वैसे भी मनुष्य का निष्पक्ष होना बड़ा मुश्किल होता है। निम्न. तालिका में मांसाहारी-शाकाहारी शरीरों की रचना की तुलनात्मक जानकारी दी जा रही है - 1. मांसाहारी - आँखें गोल होती हैं, अंधेरे में देख सकती हैं, अंधेरे में चमकती हैं और जन्म के 5-6 दिन बाद खुलती हैं। शाकाहारी - आँखे लम्बी होती हैं, अंधेरे में चमकती नहीं और अंधेरे में देख नहीं सकती और जन्म के साथ ही खुलती हैं। 2. मांसाहारी - घ्राण शक्ति (सूंघने की शक्ति) बहुत अधिक होती है। शाकाहारी - घ्राण शक्ति मांसाहारियों से बहुत कम होती है। 3. मांसाहारी - बहुत अधिक आवृत्ति वाली आवाज को सुन लेते हैं। शाकाहारी - बहुत अधिक आवृत्ति वाली आवाज को नहीं सुन पाते हैं। 4. मांसाहारी - दांत नुकीले होते हैं। सारे मुँह में दांत ही होते हैं, दाढ़ नहीं होती हैं और दांत एक बार ही आते हैं। शाकाहारी - दांत और दाढ़ दोनों होते हैं, चपटे होते हैं और एक बार गिर कर दोबारा आते हैं। 5. मांसाहारी - ये मांस को फाड़ कर निगलते हैं, तो इनका जबड़ा केवल ऊपर-नीचे चलता है। शाकाहारी - ये भोजन को पीसते हैं, तो इनका जबड़ा ऊपर-नीचे और बायें-दायें चलता है। 6. मांसाहारी - मांस खाते समय बार-बार मुँह को खोलते व बन्द करते हैं। शाकाहारी - भोजन करते समय एक बार भोजन मुँह में लेने के बाद निगलने तक मुँह बन्द रखते हैं। 7. मांसाहारी - जीभ आगे से चपटी, व पतली होती है और आगे से चैड़ी होती है। शाकाहारी - जीभ आगे से चैड़ाई में कम व गोलाईदार होती है। 8. मांसाहारी - जीभ पर टैस्ट बड्ज (Teste Buids), जिनकी सहायता से स्वाद की पहचान की जाती है, संख्या में काफी कम होते हैं (500 - 2000) शाकाहारी - जीभ पर टैस्ट बड्ज की संख्या बहुत अधिक होती है (20,000 - 30,000) मनुष्य की जीभ पर यह संख्या (24,000 - 25,000) तक होती है। 9. मांसाहारी - मुँह की लार अम्लीय होती है। (acidic) शाकाहारी - मुँह की लार क्षारीय होती है। (alkaline) 10. मांसाहारी - पेट की बनावट एक कक्षीय होती है। शाकाहारी - पेट की बनावट बहुकक्षीय होती है। मनुष्य का पेट दो कक्षीय होता है। 11. मांसाहारी - पेट के पाचक रस बहुत तेज (सान्द्र) होते हैं। शाकारियों के पाचक रसों से 12-15 गुणा तेज होते हैं। शाकाहारी - शाकाहारियों के पेट के पाचक रस मांसाहारियों के मुकाबले बहुत कम तेज होते हैं। मनुष्य के पेट के पाचक रसों की सान्द्रता शाकाहारियों वाली होती है। 12. मांसाहारी - पाचन संस्थान (मुँह से गुदा तक) की लम्बाई कम होती है। आमतौर पर शरीर लम्बाई का 2.5 - 3 गुणा होती है। शाकाहारी - पाचन संस्थान की लम्बाई अधिक होती है। प्रायः शरीर की लम्बाई का 5-6 गुणा होती है। 13. मांसाहारी - छोटी आंत व बड़ी आंत की लम्बाई-चैड़ाई में अधिक अन्तर नहीं होता। शाकाहारी - छोटी आंत चैड़ाई में काफी कम और लम्बाई में बड़ी आंत से काफी ज्यादा लम्बी होती है। 14. मांसाहारी - इनमें कार्बोहाईड्रेट नहीं होता, इस कारण मांसाहारियों की आंतों में किण्वन बैक्टीरिया (Fermentation bacteria) नहीं होते हैं। शाकाहारी - इनकी आंतों में किण्वन बैक्टीरिया (Fermentation bacteria) होते हैं, जो कार्बोहाइडेªट के पाचन में सहायक होते हैं। 15. मांसाहारी - आंते पाईपनुमा होती है अर्थात् अन्ददर से सपाट होती हैं। शाकाहारी - आंतों में उभार व गड्ढे (grooves) अर्थात् अन्दर की बनावट चूड़ीदार होती है। 16. मांसाहारी - इनका लीवर वसा और प्रोटीन को पचाने वाला पाचक रस अधिक छोड़ता है। पित को स्टोर करता है। आकार में बड़ा होता है। शाकाहारी - इनके लीवर के पाचक रस में वसा को पचाने वाले पाचक रस की न्यूनता होती है। पित को छोड़ता है। तुलनात्मक आधार में छोटा होता है। 17. मांसाहारी - पैंक्रियाज (अग्नाशय) कम मात्रा में एन्जाईम छोड़ता है। शाकाहारी - मांसाहारियों के मुकाबले अधिक मात्रा में एन्जाईम छोड़ता है। 18. मांसाहारी - खून की प्रकृति अम्लीय (acidic) होती है। शाकाहारी - खून की प्रकृति क्षारीय (alkaline) होती है। 19. मांसाहारी - खून (blood) के लिपो प्रोटीन एक प्रकार के हैं, जो शाकाहारियों से भिन्न होते हैं। शाकाहारी - मनुष्य के खून के लिपो प्रोटीन (Lipo - Protein) शाकाहारियों से मेल खाते हैं। 20. मांसाहारी - प्रोटीन के पाचन से काफी मात्रा में यूरिया व यूरिक अम्ल बनता है, तो खून से काफी मात्रा में यूरिया आदि को हटाने के लिये बड़े आकार के गुर्दे (Kidney) होते हैं। शाकाहारी - इनके गुर्दें मांसाहारियों की तुलना में छोटे होते हैं। 21. मांसाहारी - इनमें (रेक्टम) गुदा के ऊपर का भाग नहीं होता है। शाकाहारी - इनमें रेक्टम होता है। 22. मांसाहारी - इनकी रीढ़ की बनावट ऐसी होती है कि पीठ पर भार नहीं ढो सकते। शाकाहारी - इनकी पीठ पर भार ढो सकते हैं। 23. मांसाहारी - इनके नाखून आगे से नुकीले, गोल और लम्बे होते हैं। शाकाहारी - इनके नाखून चपटे और छोटे होते हैं। 24. मांसाहारी - ये तरल पदार्थ को चाट कर पीते हैं। शाकाहारी - ये तरल पदार्थ को घूंट भर कर पीते हैं। 25. मांसाहारी - इनको पसीना नहीं आता है। शाकाहारी - इनको पसीना आता है। 26. मांसाहारी - इनके प्रसव के समय (बच्चे पैदा करने में लगा समय) कम होता है। प्रायः 3-6 महिने। शाकाहारी - इनके प्रसव का समय मांसाहारियों से अधिक होता है। प्रायः 6 महिने से 18 महिने। 27. मांसाहारी - ये पानी कम पीते हैं। शाकाहारी - ये पानी अपेक्षाकृत ज्यादा पीते हैं। 28. मांसाहारी - इनके श्वांस की रफ्तार तेज होती है। शाकाहारी - इनके श्वांस की रफ्तार कम होती है, आयु अधिक होती है। 29. मांसाहारी - थकने पर व गर्मी में मुँह खोल कर जीभ निकाल कर हाँफते हैं। शाकाहारी - मुँह खोलकर नहीं हाँफते और गर्मी में जीभ बाहर नहीं निकालते। 30. मांसाहारी - प्रायः दिन में सोते हैं, रात को जागते व घूमते-फिरते हैं। शाकाहारी - रात को सोते हैं, दिन में सक्रिय होते हैं। 31. मांसाहारी - क्रूर होते हैं, आवश्यकता पड़ने पर अपने बच्चे को भी मार कर खा सकते हैं। शाकाहारी - अपने बच्चे को नहीं मारते और बच्चे के प्रति हिंसक नहीं होते। 32. मांसाहारी - दूसरे जानवर को डराने के लिए गुर्राते हैं। शाकाहारी - दूसरे पशु को डराने के लिए गुर्राते नहीं। 33. मांसाहारी - इनके ब्लड में रिस्पटरों की संख्या अधिक होती है, जो ब्लड में कोलेस्ट्राॅल को नियन्त्रित करते हैं। शाकाहारी - इनके ब्लड में रिस्पटरों की संख्या कम होती है। मनुष्य के ब्लड में भी संख्या कम होती है। 34. मांसाहारी - ये किसी पशु को मारकर उसका मांस कच्चा ही खा जाते हैं। शाकाहारी - मनुष्य जानवर को मारकर उसका कच्चा मांस नहीं खाता। 35. मांसाहारी - इनके मल-मूत्र में दुर्गन्ध होती है। शाकाहारी - इनके मल-मूत्र में दुर्गन्ध नहीं होती (मनुष्य यदि शाकाहारी है और उसका पाचन स्वस्थ है, तो मनुष्य के मल-मूत्र में भी बहुत कम दुर्गन्ध होती है।) 36. मांसाहारी - इनके पाचन संस्थान में पाचन के समय ऊर्जा प्राप्त करने के लिये अलग प्रकार के प्रोटीन उपयोग में लाये जाते हैं, जो शाकाहारियों से भिन्न हैं। शाकाहारी - इनके ऊर्जा प्राप्ति के लिये भिन्न प्रोटीन प्रयोग होते हैं। 37. मांसाहारी - इनके पाचन संस्थान, जो एन्जाइम बनाते हैं, वे मांस का ही पाचन करते हैं। शाकाहारी - इनके पाचन संस्थान, जो एन्जाइम बनाते हैं, वे केवल वनस्पतिजन्य पदार्थों को ही पचाते हैं। 38. मांसाहारी - इनके शरीर का तापमान कम होता है, क्योंकि मांसाहारियों का BMR (Basic Metabolic Rate) शाकाहारियों से कम होता है। शाकाहारी - मनुष्य के शरीर का तापमान शाकाहारियों के आस-पास होता है। 39. मांसाहारी - दो बर्तन लें, एक में मांस रख दें और दूसरे में शाकाहार रख दें, तो मांसाहारी जानवर मांस को चुनेगा। शाकाहारी - मनुष्य का बच्चा शाकाहार को चुनेगा। उपर्युक्त तथ्यों के अनुसार मनुष्य शरीर की बनावट बिना किसी अपवाद के शत-प्रतिशत शाकाहारी शरीरों की बनावट से मेल खाती है और भोजन को बनावट के अनुसार निश्चित किया जाता है, तो मनुष्य का भोजन शाकाहार है, मांसाहार कतई नहीं। हमें निश्चिन्त होकर शाकाहार करना चाहिये और मांसाहार से होने वाली अनेक प्रकार की हानियों से बचना चाहिये। शाकाहार में मानव का कल्याण है और मांसाहार विनाशकारी है। प्राकृतिक सिद्धान्त की उपेक्षा करके होने वाले विनाश से बचने का कोई मार्ग नहीं है। ✍️ डाॅ. भूपसिंह, रिटायर्ड एसोशिएट प्रोफेसर, भौतिक विज्ञान भिवानी (हरियाणा)
नास्तिकों के तर्कों की समीक्षा (vedic vichar)
02-02-2022
प्रश्न 1. जब संसार बिना बनाये वाले के बन जाता है (बिना ईश्वर के) तो कुम्हार के बिना घड़ा और चित्रकार के बिना चित्र भी बन जाना चाहिए ? प्रश्न 2. जब ईश्वर नाम की कोई चीज नहीं तो जड़ प्रकृति कैसे गतिशील होगी? हमने देखा है कि जो भी प्रकृति से बनी अर्थात् भौतिक वस्तुएँ हैं, उनको अगर मनुष्य गति न दे तो वे एक जगह ही स्थिर रहती हैं। नास्तिकों के अनुसार जब प्रकृति चेतनवत् कार्य करती है (क्योंकि नास्तिकों की दृष्टि में ईश्वर नाम की कोई वस्तु नहीं और प्रकृति ही चेतनवत् कार्य करती है) तो प्रकृति से बनी भौतिक वस्तुओं को भी चेतनवत् कार्य करना चाहिए। अर्थात् कुर्सी को अपने आप चलकर बैठनेवाले के पास जाना चाहिए, भरी हुई या खाली बाल्टी को स्वयं चलकर यथास्थान जाना चाहिए। नल से अपने आप पानी निकलना चाहिए, साइकिल को अपने आप बिना मनुष्य के चलाये चलना चाहिए; लेकिन हम देखते हैं कि बिना मनुष्य के गति दिये कोई भी भौतिक पदार्थ स्वयं गति नहीं करता। फिर प्रकृति चेतन कैसे हुई? प्रश्न 3. जब ईश्वर नाम की कोई सत्ता नहीं तो फिर कर्मों का भी कोई महत्त्व नहीं रह जाता, चाहे कोई अच्छे कर्म करे या बुरे, उसको कोई फल नहीं मिलेगा, वह आजाद है। क्योंकि ईश्वर कर्मफल प्रदाता है लेकिन नास्तिकों के अनुसार ईश्वर है ही नहीं तो फिर जड़ प्रकृति में इतनी सामर्थ्य नहीं कि किसी व्यक्ति को उसके कर्मों का अच्छा या बुरा फल दे सके। इस पर नास्तिक कहते हैं कि जो व्यक्ति दुःख या सुख भोग रहे हैं, वे स्वभाव से भोग रहे हैं। लेकिन यह बात तर्कसंगत नहीं क्योंकि यदि स्वभाव से दुःख, सुख भोगते तो या तो केवल दुःख ही भोगते या सुख; दोनों नहीं क्योंकि स्वभाव बदलता नहीं। और दूसरी बात यह है कि फिर कर्मों का कोई महत्त्व नहीं रह जाता। फिर व्यक्ति चाहे अच्छे कर्म करे या बुरे; उनका कोई फल नहीं मिलेगा क्योंकि सुख-दुःख स्वभाव से हैं। प्रश्न 4. जब नास्तिकों की दृष्टि में ईश्वर नहीं है तो फिर उनको कर्मों के फल का भी कोई डर नहीं रहेगा, चाहे कोई कितने ही पाप करें, कितनी ही दुष्टता करें; किसी का डर ही नहीं। क्योंकि जिसका डर था उसी को वे मानते नहीं और प्रकृति कर्मों के फल दे नहीं सकती। प्रश्न 5. जब व्यक्ति पाप-कर्म (चोरी, जारी आदि) करता है तो उसके अन्तःकरण में भय, शङ्का, लज्जा आदि उत्पन्न होते हैं, ये ईश्वर की प्रेरणा से उत्पन्न होते हैं; इससे भी ईश्वर की सिद्धि होती है। क्योंकि प्रकृति जड़त्व के कारण इन विचारों को मनुष्य के अन्तःकरण में करने में असमर्थ है। क्योंकि ये भाव मनुष्य के अन्दर तभी उजागर होते हैं, जब वह पाप-कर्म करना आरम्भ करता है। इससे सिद्ध होता है कि परमात्मा ही उसके अन्दर ये भाव उजागर करता है। जिससे मनुष्य पाप-कर्म करने से बच जाये। फिर नास्तिक ईश्वर की मान्यता कैसे स्वीकार नहीं करते? प्रश्न 6 जब किसी नास्तिक पर बड़ी आपत्ति या दुःख (रोगादि या अन्य) आता है तो हमने देखा है कि बड़े से बड़ा नास्तिक भी ईश्वर की सत्ता स्वीकार करने को विवश हो जाता है और ईश्वर के प्रति श्रद्धा रखते हुए कहता है कि―"हे ईश्वर! अब तो मेरे दुःख को दूर कर दो, मैंने कौन से बुरे कर्म किये हैं, जिनके कारण मुझे ये दुःख मिला है।" जब नास्तिक ईश्वर को मानता ही नहीं तो दुःख के समय उसे ईश्वर और अपने बुरे कर्म क्यों याद आते हैं। पं० गुरुदत्त विद्यार्थी बड़े नास्तिक थे लेकिन स्वामी दयानन्द की मृत्यु के समय उन्हें भी ईश्वर की याद आई और पक्के आस्तिक बन गये। फिर नास्तिक क्यों ईश्वर को न मानने का ढोल पीटते हैं ? केवल दिखावे के लिए, जबकि परोक्ष रुप से वे ईश्वर की सत्ता स्वीकार करते हैं। प्रश्न 7. जब नास्तिकों से प्रश्न किया जाता है कि मृत्यु को क्यों नहीं रोक लेते हो, तो वे कहते हैं कि "टी.वी. क्यों खराब होती है, जैसे टी.वी. यन्त्रों का बना है ऐसे ही शरीर कोशिकाओं का बना है।" ठीक है कौशिकाओं का बना है तो जब टी.वी. के यन्त्र बदलकर उसको सही कर देते हो तो मृत्यु होने पर शरीर के भी यन्त्र बदल दिया करो। जब टी.वी. खराब हुआ चल जाता है तो शरीर भी तो उसके यन्त्र बदलकर चलाया जा सकता है। लेकिन नहीं, बड़े से बड़ा वैज्ञानिक भी मृत्यु के बाद शरीर को चला नहीं सकता। क्यों? क्योंकि यह ईश्वर का कार्य है, जब टी.वी. आदि भौतिक चीजें खराब होने पर उनके यन्त्र, पुर्जे आदि बदलने पर चल जाता है तो शरीर भी उसके कोशिकाओं को बदलने पर चल जाना चाहिए? क्या कोई वैज्ञानिक शरीर के अन्दर की मशीनरी बना सकता है या प्रकृति मृत्यु के समय शरीर को ठीक क्यों नहीं करती, जब प्रकृति से बना शरीर है तो उसको प्रकृति को ठीक कर देना चाहिए (क्योंकि नास्तिकों के अनुसार प्रकृति ही गर्भ के अन्दर शरीर का निर्माण भी करती है, ईश्वर नहीं करता अर्थात् प्रकृति चेतनवत् कार्य करती है), फिर उस शरीर को अग्नि में क्यों जलाया जाता है? न प्रकृति उसको चला सकती, न वैज्ञानिक फिर नास्तिक क्यों प्रकृति और वैज्ञानिकों की रट लगाते हैं? जबकि सत्य यह है कि शरीर की मृत्यु 'आत्मा और शरीर का वियोग होना' है। इस सत्यता को नास्तिक क्यों नहीं स्वीकार करते? प्रश्न 8. नास्तिक कहते हैं कि ज्ञान-विज्ञान वेदों में नहीं है, प्रत्युत् वैज्ञानिकों ने ही समस्त विज्ञान की रचना की है। मैं नास्तिकों से पूछता हूँ कि प्राचीन काल में ऋषि-मुनि एक से बढ़कर एक आविष्कार करते थे। ऋषि विश्वामित्र ने श्रीराम व लक्ष्मण को ब्रह्मास्त्र जैसे अनेक अस्त्र-शस्त्रों की शिक्षा दी थी। और उनका अनुसन्धान ऋषि-मुनि करते थे। क्योंकि उनके पास वेदों का ज्ञान-विज्ञान था। नास्तिक वैज्ञानिकों की दुहाई देते हैं, उस समय वैज्ञानिक नहीं थे, उस समय ऋषि-मुनि ही बड़े-बड़े आविष्कार करते थे। ऋषि-मुनि ही उस समय बड़े वैज्ञानिक थे। एक से एक विमान बनाते थे। रावण के पास ऐसा पुष्पक विमान था जो विधवाओं को अपने ऊपर नहीं बिठा सकता था अर्थात् विधवा औरत अगर उस पर विमान पर बैठ जाये तो वह उड़ नहीं सकता था। यह सब विवरण रामायण में 'त्रिजटा व सीता संवाद' में है; जिसका उसके स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती ने वाल्मीकि रामायण के भाष्य में किया है। पूरा विवरण इस प्रकार है―"जब युद्ध हो रहा था तो रावण के पुत्र इन्द्रजित् ने अदृश्य होकर सर्प के समान भीषण बाणों से, शरबन्ध से बाँध दिया और उनको मूर्छित कर दिया और हंसता हुआ अपने राजमहल में आया। रावण ने त्रिजटा-सहित सभी राक्षसियों को अपने पास बुलाया और कहा कि तुम जाकर सीता से कहो कि इन्द्रजित् ने राम और लक्ष्मण को युद्ध में मार डाला है, फिर उसे पुष्पक विमान में बैठाकर रण भूमि में मरे हुए उन दोनों भाइयों को दिखाओ। जिसके बल के गर्व से गर्वित होकर मुझे कुछ नहीं समझती उसका पति भाई सहित युद्ध में मारा गया। दुष्टात्मा रावण के इन वचनों को सुनकर और "बहुत अच्छा" कहकर वे राक्षसियाँ वहाँ गई जहाँ पुष्पक-विमान रखा था। तत्पश्चात् त्रिजटा-सहित सीता को पुष्पक विमान में बैठा वे राक्षसी सीता को राम-लक्ष्मण का दर्शन कराने के लिए ले चलीं। उन दोनों वीर भाइयों को शरशय्या पर बेहोश पड़े देखकर सीता अत्यन्त दु:खी हो, उच्च स्वर से बहुत देर तक विलाप करती रही।तब विलाप करती हुई सीता से त्रिजटा राक्षसी ने कहा―तुम दु:खी मत होओ। तुम्हारे पति मरे नहीं, जीवित हैं। हे देवी ! मैं अपने कथन के समर्थन में तुम्हें स्पष्ट और पूर्व-अनुभूत कारण बतलाती हूँ जिससे तुम्हें निश्चय हो जायेगा कि राम-लक्ष्मण जीवित हैं।― इदं विमानं वैदेहि पुष्पकं नाम नामत: । दिव्यं त्वां धारयेन्नैवं यद्येतौ गतजीवितौ ।। ―(वा० रा०,युद्ध का०,सर्ग २८) भावार्थ―हे वैदेहि ! यदि ये दोनों भाई मर गये होते तो यह दिव्य पुष्पक-विमान तुम्हें बैठाकर नहीं उड़ाता (क्योंकि यह विधवाओं को अपने ऊपर नहीं चढ़ाता।) नोट―बीसवीं शताब्दी को विज्ञान का युग बताया जाता है, परन्तु वैज्ञानिक अब तक ऐसा विमान नहीं बना पाएँ हैं। (स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती)" उस समय ऋषि-मुनियों के काल में ऐसे-ऐसे आविष्कार थे जिनकी नास्तिक कल्पना भी नहीं कर सकते। क्या आजकल वैज्ञानिक पुष्पक विमान जैसा आविष्कार कर लेंगे। कदापि नहीं। फिर नास्तिक क्यों वैज्ञानिकों की दुहाई देते हैं और ये क्यों नहीं मानते कि समस्त ज्ञान-विज्ञान के स्रोत वेद हैं। (इस विषय में एक लेख है मेरे पास―"प्राचीन भारत में विज्ञान की उज्ज्वल परम्परा" वह अवश्य पढ़ें) । प्रश्न 9. अष्टाङ्ग योग द्वारा लाखों योगियों ने उस सृष्टिकर्त्ता का साक्षात्कार किया है। ऋषि ब्रह्मा से लेकर जैमिनी तक अनेकों ऋषि-मुनि तथा राजा-महाराजा भी ईश्वर-उपासना किया करते थे और आज भी अनेकों लोगों की उस परम चेतन सत्ता में श्रद्धा है। वेद-शास्त्रों में भी मनुष्य का प्रथम लक्ष्य ईश्वर-प्राप्ति ही है। प्राचीनकाल में सभी ऋषि-मुनि, योगी, महापुरुष और सन्त लोग ईश्वर में अटूट श्रद्धा रखते थे तथा बिना सन्ध्योपासना किये भोजन भी नहीं करते थे। एक से बढ़कर ब्रह्मज्ञानी थे। उन लोगों वेद-शास्त्रों के अध्ययन से यही निचोड़ निकाला कि बिना ईश्वर-भक्ति के हमारा कल्याण नहीं हो सकता। और घण्टों तक समाधि लगाकर उस ईश्वर का साक्षात्कार किया करते थे और उस परमसत्ता की भक्ति से मिलनेवाले आनन्द में लीन रहते थे। वाकई जो ईश्वर-उपासना से आनन्द मिलता है, उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। तो जब करोड़ों, अरबों लोगों (ईश्वर-भक्तों ) की उस परम चेतनसत्ता में श्रद्धा है तो कुछ तथाकथित नास्तिक कैसे ईश्वर की सत्ता को नकार सकते हैं या उनके न मानने से ईश्वर की सत्ता नहीं होगी ? क्या ये करोड़ों-अरबों (ईश्वर-उपासक) लोग ईश्वर-उपासना में व्यर्थ का परिश्रम कर रहे हैं/रहे थे? इसका भी नास्तिक जवाब दें। प्रश्न 10 नास्तिक कहते हैं कि ईश्वर के बिना ब्रह्माण्ड अपने आप ही बन गया। इसका उत्तर यह है कि बिना ईश्वर के ब्रह्माण्ड अपने आप नहीं बन सकता। क्योंकि प्रकृति जड़ है और ईश्वर चेतन है। बिना चेतन सत्ता के गति दिये जड़ पदार्थ कभी भी अपने आप गति नहीं कर सकता। इसी को न्यूटन ने अपने गति के पहले नियम में कहा है―( Every thing persists in the state of rest or of uniform motion, until and unless it is compelled by some external force to change that state ―Newton's First Law Of Motion ) तो ये चेतन का अभिप्राय ही यहाँ External Force है । इस बात पर नास्तिक कहते हैं― "External Force का अर्थ तो बाहरी बल है तो यहाँ पर आप चेतना का अर्थ कैसे ले सकते हो ?" इसका उत्तर यह है―"क्योंकि "बाहरी बल" किसी बल वाले के लगाए बिना संभव नहीं । तो निश्चय ही वो बल लगाने वाला मूल में चेतन ही होता है । आप एक भी उदाहरण ऐसा नहीं दे सकते जहाँ किसी जड़ पदार्थ द्वारा ही बल दिया गया हो और कोई दूसरा पदार्थ चल पड़ा हो ।
Vedic vichar
02-02-2022
ईश्वर सच्चिदानंद ईश्वर निराकार ईश्वर सर्वशक्तिमान ईश्वर सर्वज्ञ ईश्वर न्यायकारी ईश्वर दयालु ईश्वर अजन्मा ईश्वर अनन्त ईश्वर निर्विकार ईश्वर सर्वेश्वर ईश्वर अजर ईश्वर अमर ईश्वर सर्वव्यापक ईश्वर अनुपम ईश्वर सर्वधर ईश्वर अनादि ईश्वर सृष्टिकर्ता ईश्वर पवित्र ईश्वर नित्य ईश्वर अभय ईश्वर सर्वअन्तर्यामी पूरी दुनिया को केवल एकमात्र ईश्वर द्वारा प्रबंधित किया जाता है। प्रश्न :- क्या वेदों में ऐसी कोई मंत्र है जहां लिखा है कि ईश्वर एक ही है? उत्तर:- ।। इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्य: स सुपर्णो गरुत्मान् ।। ।। एकं सद् विप्रा बहुधा वदंत्यग्नि यमं मातरिश्वानमाहु: ।। -ऋग्वेद (1-164-46) भावार्थ :जिसे लोग इन्द्र, मित्र, वरुण आदि कहते हैं, वह सत्ता केवल एक ही है; ऋषि लोग उसे भिन्न-भिन्न नामों से पुकारते हैं। ॐ।। यो भूतं च भव्य च सर्व यश्चाधितिष्ठति।। स्वर्यस्य च केवलं तस्मै ज्येष्ठाय ब्रह्मणे नम:।। -(अथर्ववेद 10-8-1) भावार्थ :जो भूत, भविष्य और सब में व्यापक है, जो दिव्यलोक का भी अधिष्ठाता है, उस ब्रह्म (परमेश्वर) को प्रणाम है। सुपर्णं विप्राः कवयो वचोभिरेकं सन्तं बहुधा कल्पयन्ति । छन्दांसि च दधतो अध्वरेषु ग्रहान्त्सोमस्य मिमते द्वादश ॥-ऋग्वेद (10-114-5) भावार्थ : अपना विशेषरूप से पूरण करनेवाले क्रान्तदर्शी ज्ञानी लोग उस उत्तम पालनात्मक व पूरणात्मक कर्मोंवाले प्रभु को एक होते हुए को भी वेदवाणियों से अनेक प्रकार से कल्पितम करते है। सृष्टि के उत्पादक के रूप में वे उसे ’ब्रह्मा’ कहते हैं, तो धारण करनेवाले को ’विष्णु’ तथा प्रलयकर्ता के रूप में वे उसे ’रूद्र व शिव’ कहते हैं। और प्रभु स्मरण के साथ हिंसारहित यज्ञात्मक कर्मों में वेद-मन्त्रों को धारण करते हुए ये लोग मन्त्रोच्चारण पूर्वक यज्ञों को करते हुए, इन मन्त्रों को अपना पाप से बचानेवाला बनाते हुए दस इन्द्रियों, मन व बुद्धि’ इन बारह को सोम का, वीर्यशक्ति का ग्रहण करनेवाला बनाते हैं। सोमयज्ञों में बारह सोमपात्रों की तरह ये ’इन्द्रियों, मन व बुद्धि’ भी बारह सोमपात्र कहते हैं। तदेवाग्निस्तदादित्यस्तद्वायुस्तदु चन्द्रमा:। तदेव शुक्रं तद् ब्रह्म ताऽआप: स प्रजापति:||—यजुर्वेद(32/1) भावार्थ : "वह अग्नि (उपासनीय) है,वह आदित्य (नाश-रहित) है, वह वायु (अनन्त बल युक्त) है वह चंद्रमा (हर्ष का देने वाला) है, वह शुक्र (उत्पादक) है, वह ब्रह्म (महान्) है, वह आप: (सर्वव्यापक) है, वह प्रजापति (सव प्राणियों का स्वामी) है।" वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्णं तमस: परस्तात्। तमेव विदित्वाति मृत्युमेति नान्य: पन्था विद्यतेऽयनाय॥— यजुर्वेद(31/18) भावार्थ : "यदि मनुष्य इस लोक-परलोक के सुखों की इच्छा करें तो सबसे अति बड़े स्वयंप्रकाश और आनन्दस्वरूप अज्ञान के लेश से पृथक् वर्त्तमान परमात्मा को जान के ही मरणादि अथाह दुःखसागर से पृथक् हो सकते हैं, यही सुखदायी मार्ग है, इससे भिन्न कोई भी मनुष्यों की मुक्ति का मार्ग नहीं है।" परीत्य भूतानि परीत्य लोकान् परीत्य सर्वा: प्रदिशो दिशश्च। उपस्थाय प्रथमजामृतस्यात्मनाऽऽत्मानमभि सं विवेश।।—यजुर्वेद(32/11) भावार्थ : "हे मनुष्यो! तुम लोग धर्म के आचरण, वेद और योग के अभ्यास तथा सत्सङ्ग आदि कर्मों से शरीर की पुष्टि और आत्मा तथा अन्तःकरण की शुद्धि को संपादन कर सर्वत्र अभिव्या परमात्मा को प्रा हो के सुखी होओ।" हिरण्यगर्भ: समवर्त्तताग्रे भूतस्य जात: पतिरेकऽ आसीत्। स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम॥—यजुर्वेद(13/4) भावार्थ : "हे मनुष्यो! तुम को योग्य है कि इस प्रसिद्ध सृष्टि के रचने से प्रथम परमेश्वर ही विद्यमान था, जीव गाढ़ निद्रा सुषुप्ति में लीन और जगत् का कारण अत्यन्त सूक्ष्मावस्था में आकाश के समान एकरस स्थिर था, जिसने सब जगत् को रच के धारण किया और जो अन्त्य समय में प्रलय करता है, उसी परमात्मा को उपासना के योग्य मानो।" ओर भी बहुत सारी मंत्र हैं वेदों में जहां लिखा है कि ईश्वर एक ही है। ।।नमस्ते।।
Vedic vichar
02-02-2022
*????ओ३म्????* *????ईश्वर की भक्ति करो????* मनुष्य कई प्रकार के नशों का पान करता है, भांग, शराब, गांजा, अफीम, आदि का सेवन करता है उससे मनुष्य को एक प्रकार का नशा सा प्रतीत होता है जो उसका नाश करने वाला होता है। प्रभु भक्ति भी एक नशा है जिसके सेवन से नाश या ह्रास नहीं अपितु उसका विकास होने लगता है। मानव उन्नति की ओर अग्रसर होने लगता है, भक्ति रुपी सोम रस के पान से क्या मिलता है इसका वर्णन वेद ने इस प्रकार किया है― (1) वह भगवान् अमर है, न मरने वाला है। जो उसकी भक्ति करता है वह भी अमर हो जाता है, मृत्यु के भय से रहित हो जाता है, उसे किसी प्रकार का कोई भय भयभीत नहीं कर सकता। (2) भक्ति रस का पान करके मनुष्य आनन्दमय हो जाता है। इस परमानन्द का अनुभव करने लगता है जिसमें दु:ख नहीं, शोक नहीं, राग नहीं, द्वेष नहीं, मस्ती ही मस्ती है। न हटने वाली मस्ती है। (3) भक्ति रस का पान करने से मानव के समीप देवों का सत्पुरुषों का आगमन होने लगता है। गुणी, ज्ञानी लोगों का उसके पास एक मेला सा लगा रहता है। जिससे स्वत: उसे सत्संगति प्राप्त होने लगती है। (4) भक्ति रस का पान करने तथा ज्ञानी भक्तों की संगति से भक्त में सहसा दिव्य गुणों का आधान और दुर्गुणों का ह्रास होने लगता है। उसमें सद्विचार और सद्गुण आने लगते हैं, दुर्गुण और दुर्विचार दूर भाग जाते हैं। (5) भक्ति रस का पान करने से मानव के अन्त:करण में अन्त:ज्योति वा प्रकाश उदय हो जाता है। जिससे अन्दर का सारा तम और अज्ञान परे हट जाता है। उस अन्त:ज्योति को प्राप्त करके भक्त कभी ठोकर नहीं खाता अपितु उसके मार्ग अपने आप सुन्दर और सुहावने बनते जाते हैं और अन्त में वह प्रभु के सुन्दर धाम को प्राप्त कर लेता है। (6) भक्त के सब प्रकार के आन्तरिक तथा वाह्य शत्रु परास्त हो जाते हैं। काम, क्रोध, मोह, अहंकार आदि आन्तरिक कुप्रवृत्तियाँ और दुष्ट पुरुषों की कुरीतियां उसका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकती। धूर्त मनुष्यों की धूर्तताएं भी उसके समक्ष सतत् विफल रहती हैं व भक्त के मार्ग निष्कण्टक होते जाते हैं। *वेद कहता है कि―* *अपाम सोमममृताभूमागन्म ज्योतिरविदाम देवान् ।* *किं नूनमस्मान् कृण्वदराति: किमु धूर्तिरमृत मर्त्यंस्य ।।* ―(ऋ० ८/४८/३) *भावार्थ―*हे अमृत रुप ईश्वर, हे जरा मृत्यु रहित देव ! हमने तेरे सोम का भक्ति रस का पान किया है। अत: हम अमर हो गये हैं। हमने तेरी ज्योति को प्राप्त कर लिया है भला शत्रु हमारा क्या बिगाड़ सकता है। और दुष्ट मनुष्य की धूर्तता भी हमारा क्या बिगाड़ सकती हैं। *प्रस्तुति: भूपेश आर्य* *[ 'अनुपम उपदेश रत्नावली' पुस्तक से, लेखक: _आचार्य हरिदेव_ ]*
Vedic vichar
02-02-2022
*ओ३म्* *????योग ????* *????योग के लक्षण:-* "युज" धातु से योग शब्द सिद्ध होता है जिस धातु के अर्थ मिलना-जुलना आदि के हैं।युज्यतेsसौ योगः।जो युक्त करे,मिलाये उसे योग कहते हैं।योगदर्शन के भाष्यकार महर्षि व्यास ने योगस्समाधिः कहकर योग को समाधि बतलाया है।इसका भाव यह है कि जीवात्मा इस उपलब्ध समाधि के द्वारा सच्चिदानन्दस्वरुप ब्रह्म का साक्षात्कार करे। *????योग के आठ अंग:-* योगदर्शन में आठ अंगों का विधान किया गया ह।वेए अंग इस प्रकार हैं:-(१)यम,(२)नियम,(३)आसन,(४)प्राणायाम,(५)प्रत्याहार,(६)धारणा,(७)ध्यान और (८)समाधि। *????(१) यम:-* कर्म विज्ञान का यह प्रारम्भिक पाठ है कि मनुष्य को यह समझ लेना चाहिये कि सुख दुःख प्राप्ति के दो साधन होते हैं।एक मनुष्य के अपने कर्मफल और दूसरा अन्यों के कर्म।इसलिए मनुष्य के दो कर्तव्य बताये हैं कि वह अपने को भी अच्छा बनाये और अपने को अच्छा बनाने के साथ ही अन्यों को भी अच्छा बनाये।एक मनुष्य अपने को कितना ही अच्छा क्यों न बना ले परन्तु यदि उसके पड़ोसी बुरे हों तो वह कभी भी सुख और शान्ति से नहीं रह सकता.उसे सदैव अपने पड़ोसी के दुष्ट कर्मों से दुःखी होना पड़ेगा।यदि कोई व्यक्ति योग की प्रक्रिया को काम में लेना चाहता है तो यह अत्यन्त आवश्यक है कि उसके चारों और शान्ति का वातावरण हो अन्यथि वह कुछ भी नहीं कर सकता।इसलिए योग के आठ अंगों में सबसे पहले शान्ति का विधान किया गया।उस वातावरण के उत्पन्न करने का साधन यम है।यम पांच हैं-(१)अहिंसा,(२)सत्य,(३)अस्तेय,(४)ब्रह्मचर्य,(५)अपरिग्रह। *(1)अहिंसा:* -मन,वाणी और क्रिया से किसी भी प्राणी को तकलीफ न देना।जब योगी पूर्णरुप से अहिंसक हो जाता है तब उसके प्रति सब प्राणी वैर का त्याग कर देते हैं।महाकवि बाण ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ "हर्षचरितम्" में लिखा है कि एक बार राजा हर्षवर्धन एक तपोभूमि में गया जहां का आचार्य दिवाकर था और जहां अनेक ब्रह्मचारी शिक्षा पाते थे,वहाँ राजा ने देखा कि उन अहिंसक गुरु-शिष्यों के प्रभाव से शेरों ने उनके लिए हिंसावृत्ति को त्याग दिया था और वे उनकी तपोभूमि में इस प्रकार रहते थे जैसे पाले हुए घरेलू कुत्ते। *(2) सत्य:* -मन,वचन और क्रिया तीनों में सत्य के प्रतिष्ठित होने से योगदर्शन भाष्यकार व्यास के लेखानुसार ,योगी की वाणी अमोघ हो जाती है और फिर वह जो कुछ भी कहता है वह सत्य ही हो जाता है।यदि वह किसी को कह दे कि तू धार्मिक हो जा तो वह धार्मिक हो जाता है इत्यादि।(देखें योगदर्शन २/३६ का व्यासभाष्य) *(3) अस्तेय:-* मन,वाणी और क्रिया किसी से भी चोरी न करना और न चोरी की भावना रखना अस्तेय कहलाता है। *(4) ब्रह्मचर्य:-* शरीर में उत्पन्न हुए रज-वीर्य की रक्षा करते हुए लोकोपकारक विद्याओं का अध्ययन करना।मनुष्य के भीतर ब्रह्मचर्य से "मातृवत्परदारेषु की भावना" उत्पन्न होकर उसे संसार के लिए निर्दोष बना देती है। *(5) अपरिग्रह:-* धन के संग्रह करने,रखने और खाये जाने,धन की इन तीनों आवश्यकताओं को दुःखजनक समझ उससे अधिक जिससे जीवन यात्रा पूरी हो सके,धन की इच्छा न करना अपरिग्रह कहा जाता है। *????(2) नियम:-* अपने कर्म के फल से दुःखी न होना पड़े इसलिए योगी को नियमों का पालन करना चाहिये,वे नियम ये हैं- *(1) शौच:-* वाह्य और अन्तःकरणों को पवित्र रखना शौच है। *(2) सन्तोष:-* पुरुषार्थ से जो कुछ प्राप्त हो उससे अधिक की इच्छा न करना और अन्यों के धनादि को अपने लिए लोष्ठवत्(मिट्टी के समान)समझना सन्तोष है। *(3) तप:-* सर्दी-गर्मी,भूख-प्यास,हानि-लाभ,सुख-दुःख,मान-अपमान को समान समझते हुए संयमित जीवन व्यतीत करना तप कहलाता है। *(4) स्वाध्याय:-* ओंकार का श्रद्धापूर्वक जप करना और वेद,उपनिषद आदि उद्देश्य साधक ग्रन्थों का निरन्तर अध्ययन करना स्वाध्याय है। *(5) ईश्वरप्रणिधान:-* ईश्वर का प्रेम ह्रदय में रखते हुए और उसको अत्यन्त प्रिय और परमगुरु समझते हुए ,अपने समस्त कर्मों को उसके अर्पण करना । ये पाँच नियम हैं।इनसे मनुष्य अधर्म और पाप से बचा रहता है। *????(3) आसन:-* जिस स्थिति में मनुष्य सुखपूर्वक बैठ सके,जिससे विघ्न न पड़े।यद्यपि आसनों की संख्या ८४ कहीं जाती है और उनमें स प्रत्येक की उपयोगिता भी है परन्तु राजयोग में आसन सुखपूर्वक बैठने ही का नाम है। *????(4) प्राणायाम:-* योगियों में प्राणायाम की बड़ी उपयोगिता है।योगदर्शन में बताया गया है कि प्राणायाम से प्रकाश पर जो तमादि का आवरण आ जाता है वह क्षीण हो जाता है।(योगदर्शन २/५२) और प्रत्याहार आदि आगे के अंगों के सिद्ध करने की योग्यता भी आ जाती है।(योगदर्शन २/५३) प्राणायाम के तीन भाग हैं-पूरक,रेचक और कुम्भक। नथूनों द्वारा श्वासवायु को ग्रहण करना पूरक है।नथूनों से उस वायु को बाहर निकालना रेचक है।बाहर या भीतर श्वास न लेजाकर श्वास को जहाँ का तहाँ रोके रहना कुम्भक है। कुम्भक दो प्रकार के होते हैं पूरकान्तक कुम्भक और रेचकान्तक कुम्भक। कुम्भक का दूसरा नाम स्तम्भवृत्ति अर्थात् गतिविच्छेद होना। महर्षि दयानन्द जी द्वारा प्रदर्शित प्राणायाम :- जैसे वमन करते हैं,उसके समान श्वास को थोड़ा जोर से बाहर निकाल द़े और सुखपूर्वक जितना बाहर रोक सकें,रोकें अर्थात् वाह्य कुम्भक करें।फिर धीरे धीरे श्वास को अन्दर भरें,फिर उस श्वास को सुगमतापूर्वक अन्दर ही रोक दें,अर्थात् आभ्यान्तर कुम्भक करें।फिर श्वास को बाहर निकाल दें। प्राणायाम के समय श्वास-प्रश्वास की क्रियाऐं नाक द्वारा ही होनी चाहिये,मुख बन्द रहे।यह एक प्राणायाम हुआ।इस प्रकार बार बार प्राणायाम करने पर प्राण उपासक के वश में हो जाते हैं,और प्राणों के स्थिर हो जाने पर मन भी एकाग्र हो जाता है।मन के एकाग्र हो जाने से आत्मा भी स्थिर और एकाग्र हो जाती है।(ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका) *????(5)प्रत्याहार:-* इन्द्रियों का अपने विषयों से पृथक हो जाना प्रत्याहार कहलाता है।इसका अर्थ यह है कि आत्मा का सामर्थ्य जो बहिर्मुखी वृत्ति द्वारा चित्त और इन्द्रियों के माध्यम में व्यय हो रहा था अब काम में आने से रुककर आत्मा में लौट गया इसीलिए प्रत्याहार का उद्देश्य योग-जगत में आत्म-शक्ति का एकत्रीकरण समझा जाता है।आत्मशक्ति शरीर से पृथक होकर,आत्मा को हाथ के शस्त्र की तरह समझने लगता है और वह अपना अधिकार समझता है कि उसे जब चाहे ,हाथ की वस्तु की तरह पृथक कर दे।जब योगी यम और नियम का पालन करते हुए भोजनादि की व्यवस्था,योगियों की मर्यादानुकूल रखने लगता है और प्राणायाम का अभ्यास करते हुए १० मिनट तक साँस रोके रखता है तब उसका अपनी इन्द्रियों पर अधिकार हो जाता है और वह धारणा के अभ्यास करने मैं समर्थ होता है। *????(6) धारणा:-* चित्त को किसी केन्द्र पर केन्द्रित करना धारणा है।जो शक्ति प्रत्याहार के अभ्यास से एकत्रित हुई है उसे नाभिचक्र,नासिका के अग्रभागादि पर लगा देना धारणा है।प्रत्याहार से इन्द्रियों पर अधिकार होता है तो धारणा से मन अधिकृत हुआ करता है।जब प्राणायाम का अभ्यास इतना बढ़ जाता है कि २१ मिनट ३६ सैकेण्ड बिना श्वास के रह सके तब इनसे अनायास धारणा की सिद्धि से 'ध्यान' के अभ्यास करने योग्य योगी हो जाता है। *????(7)ध्यान:-* योगदर्शन में,धारणा में ज्ञान का एक सा बना रहना ध्यान कहा गया है।इसका तात्पर्य यह है कि जिस लक्ष्य पर चित्त एकाग्र हुआ है,इस एकाग्रता का ज्ञान,एक सा निरन्तर बना रहे।सांख्य के आचार्य महामुनि कपिल ने "ध्यानं निर्विषयं मनः" सूत्र के द्वारा मन के निर्विषय होने का नाम ध्यान बतलाया है।परन्तु भाव दोंनो का एक ही है।जब मन किसी लक्ष्य पर एकाग्र हो रहा है तब निश्चित है कि वह निर्विषय है क्योंकि युगपज्ज्ञानानुत्पत्तिर्मनसो लिंगम् की व्यवस्थानुसार ,मन एक समय में,दो विषयों का ग्रहण नह़ी कर सकता।विषय का अभिप्राय साधारणतया इन्द्रिय विषय होता है,इसलिए मन जब किसी लक्ष्य पर एकाग्र है और एकाग्रता में निरन्तरता है,तब यह योगदर्शनानुसार ध्यान है और इस ध्यान में मन निर्विषय है।स्पष्ट है कि भाव दोनों का एक ही है।प्राणायाम का अभ्यास इतना हो जाने पर जिससे योगी ४२ मिनट १२ सैकेण्ड़ श्वास रोके रखे यह ध्यान की अवस्था योगी को प्राप्त हो जाती है। ???? *(8) समाधि:-* ध्यानावस्था में ध्याता,ध्यान और ध्येय इन तीनों का ज्ञान योगी को बना रहता है,परन्तु जब ध्याता भूल जाये कि वह ध्याता है और यह भी कि ध्यान रुपी कोई क्रिया वह कर रहा है,इसका भी उसे ज्ञान नहीं रहता और केवल ध्येय उसके लक्ष्य में रह जाता है तो उस अवस्था को समाधि कहा जाता है। इस अवस्था में योगी को दुःख,सुख,शीतोष्णादि का कुछ भी ज्ञान नहीं रहता।जब उसकी दृष्टि में न कोई मित्र है और न शत्रु।वह न तो किसी बात में अपना मान समझता है और न अपमान;सोना और चाँदी उसके लिए मिट्टी के ढेले से अधिक प्रतिष्ठा की वस्तु नहीं रह जाती। प्राणायाम के द्वारा जब १ घंटा २६ मिनट और २४ सैकेण्ड़ तक योगी बिना श्वास के रहने लगता है,तब उसे समाधि की सिद्धि हो जाती है। *????अष्टांग योग का परिणाम:-* जब इस प्रकार से योगी अष्टांग योग का अभ्यास करता है तब इससे उसका चित्त स्थिर रीति से एकाग्र हो जाता है और इस चित्त की एकाग्रता से उसे सम्प्रज्ञात योग की सिद्धि हो जाती है। *????योग के दो भेद हैं:-*(1) सम्प्रज्ञात,(2) असम्प्रज्ञात। इन्हीं को सबीज और निर्बीज समाधि भी कहते हैं।सम्प्रज्ञात योग को समझने के लिए इस योग के चार भेदों को समझना चाहिये।इन भेदों का समष्टि नाम "समापत्ति" है। बाकी शेष विषय अगले लेख में बताया जायेगा। *प्रस्तुति: भूपेश आर्य* *[ "योग रहस्य" पुस्तक से, लेखक: _महात्मा नारायण स्वामी_ ]*
नास्तिकता भी एक अन्धविश्वास है! (Vedic vichar)
02-02-2022
नास्तिक बनने के मुख्य क्या क्या कारण है? नास्तिक बनने के प्रमुख कारण है 1. ईश्वर के गुण, कर्म और स्वभाव से अनभिज्ञता। 2. धर्म के नाम पर अन्धविश्वास जिनका मूल मत मतान्तर की संकीर्ण सोच है। 3. विज्ञान द्वारा करी गई कुछ भौतिक प्रगति को देखकर अभिमान होना। 4. धर्म के नाम पर दंगे, युद्ध, उपद्रव आदि। ईश्वर के नाम पर अत्याचार, अज्ञानता को बढ़ावा देना, चमत्कार आदि में विश्वास दिलाना, ईश्वर को एकदेशीय अर्थात एक स्थान जैसे मंदिर, मस्जिद आदि अथवा चौथे अथवा सातवें आसमान तक सिमित करना, ईश्वर द्वारा अवतार लेकर विभिन्न लीला करना, एक के स्थान पर अनेक ईश्वर होना, निराकार के स्थान पर साकार ईश्वर होना, ईश्वर द्वारा अज्ञानता का प्रदर्शन करना आदि कुछ कारण है। जो एक निष्पक्ष व्यक्ति को भी यह सोचने पर मजबूर कर देते हैं की क्या ईश्वर का अस्तित्व है की नहीं अथवा ईश्वर मनुष्य के मस्तिष्क की कल्पना मात्र है। उदाहरण के तौर पर हिन्दू समाज में शूद्रों को मंदिरों में प्रवेश की मनाही है एवं अगर कोई शूद्र मंदिर में प्रवेश कर भी जाये तो उसे दंड दिया जाता है और मंदिर को पवित्र करने का ढोंग किया जाता है। यह सब पाखंड किया तो ईश्वर के नाम पर जाता है मगर इसके पीछे मूल कारण मनुष्य का स्वार्थ है नाकि ईश्वर का अस्तित्व है। ईश्वर गुण, कर्म और स्वाभाव से दयालु एवं न्यायकारी है इसलिए वह किसी भी प्राणिमात्र में कोई भेदभाव नहीं करते। ईश्वर गुणों से सर्वव्यापक एवं निराकार है अर्थात सभी स्थानों पर है और आकार रहित भी है। जब ईश्वर सभी स्थानों पर है तो फिर उन्हें केवल मंदिर में या क्षीर सागर पर या कैलाश पर या चौथे आसमान पर या सातवें आसमान पर ही क्यों माने। इससे यही सिद्ध होता हैं की मनुष्य ने अपनी कल्पना से पहले ईश्वर को निराकार से साकार किया, उन्हें सर्वदेशीय अर्थात सभी स्थानों पर निवास करने वाला से एकदेशीय अर्थात एक स्थान पर सिमित कर दिया। फिर सिमित कर कुछ मनुष्यों ने अपने आपको ईश्वर का दूत, ईश्वर और आपके बीच मध्यस्थ, ईश्वर तक आपकी बात पहुँचने वाला बना डाला। यह जितना भी प्रपंच ईश्वर के नाम पर रचा गया यह इसीलिए हुआ क्योंकि हम ईश्वर के निराकार गुण से परिचित नहीं है। अपनी अंतरात्मा के भीतर निराकार एवं सर्वव्यापक ईश्वर को मानने से न मंदिर की, न मूर्ति की, न मध्यस्थ की, न दूत की, न अवतार की, न पैगम्बर की और न ही किसी मसीहा की आवश्यकता है। ईश्वर के नाम पर सबसे अधिक भ्रांतियां मध्यस्थ बनने वाले लोगों ने फैलाई है चाहे वह छुआ छूत का समर्थन करने वाले एवं शूद्रों को मंदिरों में प्रवेश न देने वाले हिन्दू धर्म के पुजारी हो , चाहे इस्लाम से सम्बन्ध रखने वाले मौलवी-मौलाना हो जिनके उकसाने के कारण इतिहास में मुस्लिम हमलावरों ने मानव जाति पर धर्म के नाम पर ऐसा कोई भी अत्याचार नहीं था जो उन्होंने नहीं किया था , चाहे ईसाई समाज से सम्बंधित पोप आदि हो जिन्होंने चर्च के नाम पर हज़ारों लोगों को जिन्दा जला दिया एवं निरीह जनता पर अनेक अत्याचार किये। न यह मध्यस्थ होते न ईश्वर के नाम पर इतने अत्याचार होते और न ही इस अत्याचार के फलस्वरूप प्रतिक्रिया रूप में विश्व के एक बड़े समूह को ईश्वर के अस्तित्व को अस्वीकार कर नास्तिकता का समर्थन करना पड़ता। सत्य यह हैं यह प्रतिक्रिया इस व्याधि का समाधान नहीं थी अपितु इसने रोग को और अधिक बढ़ा दिया। आस्तिक व्यक्ति यथार्थ में ईश्वर विश्वासी होने से पाप कर्म में लीन होने से बचता था। दोष मध्यस्थों का था जो आस्तिकों का गलत मार्गदर्शन करते थे । मगर ईश्वर को त्याग देने से पाप-पुण्य का भेद मिट गया और पाप कर्म अधिक बढ़ता गया, नैतिक मूल्यों को ताक पर रख दिया गया एवं इससे विश्व अशांति और अराजकता का घर बन गया। ईश्वर में अविश्वास का एक बड़ा कारण अन्धविश्वास है। सामान्य जन विभिन्न प्रकार के अंधविश्वासों में लिप्त हैं और उन अंधविश्वासों का नास्तिक लोग कारण ईश्वर को बताते है। सत्य यह हैं की ईश्वर ज्ञान के प्रदाता है अज्ञान को बढ़ावा देने का मुख्य कारण मनुष्य का स्वार्थ है। अपनी आजीविका, अपनी पदवी, अपने नाम को सिद्ध करने के लिए अनेक धर्म गुरु अपने अपने ढंग से अपनी अपनी दुकान चलाते है। कोई झाड़ फूंक से ,कोई गुरुमंत्र से, कोई गुरु के नाम स्मरण से ,कोई गुरु की आरती से, कोई गुरु की समाधी आदि से जीवन के सभी दुखों का दूर होना बताता है, कोई गंडा तावीज़ पहनने से आवश्यकताओं की पूर्ति बताता है, कुछ लोग और आगे बढ़कर अंधे हो जाते है और कोई कोई निस्संतान संतान प्राप्ति के लिए पड़ोसी के बच्चे की नरबलि देने तक से नहीं चूकता है। विडंबना यह हैं की इन मूर्खों के क्रियाकलापों को दिखा दिखा कर अपने आपको तर्कशील कहने वाले लोग नास्तिकता को बढ़ावा देते है। कोई भी अन्धविश्वास वैज्ञानिक प्रयोगों से सिद्ध नहीं हो सकता इसलिए नास्तिकता को प्रोत्साहन वालों द्वारा विज्ञान का सहारा लेकर नास्तिकता का प्रचार करना भी एक प्रकार से अन्धविश्वास को मिटाने के स्थान पर एक और अन्धविश्वास को बढ़ावा देना ही है। चमत्कार में विश्वास अन्धविश्वास की उत्पत्ति का मूल है। आस्तिक समाज में मुसलमान पैगम्बरों की चमत्कार की कहानियों में अधिक विश्वास रखते है, ईसाई समाज में ईसा मसीह और संतों के नाम पर चमत्कार की दुकानें चलाई जाती है। हिन्दू समाज में चमत्कार पुराणों में लिखी देवी-देवताओं की कहानियों से लेकर गुरुडम की दुकानों तक फल फूल रहा है। इन सभी का यह मानना हैं की ईश्वर सब कुछ कर सकता है। स्वामी दयानंद सत्यार्थ प्रकाश में इस दावे की परीक्षा करते हुए लिखते हैं की अगर ईश्वर सब कुछ कर सकता है तो क्या ईश्वर अपने आपको मार भी सकता है? क्या ईश्वर अपने जैसा एक और ईश्वर बना सकता है जिसके गुण-कर्म और स्वाभाव उसी के समान हो। इसका उत्तर स्पष्ट है नहीं। फिर ईश्वर सब कुछ कैसे कर सकता है? इस शंका का समाधान यह है की जो जो कार्य ईश्वर के है जैसे सृष्टि की उत्पत्ति, पालन-पोषण, प्रलय, मनुष्य आदि का जन्म-मरण, पाप-पुण्य का फल देना आदि कार्य करने में ईश्वर स्वयं सक्षम है उन्हें किसी की आवश्यकता नहीं है। नास्तिक लोग आस्तिकों की चमत्कार के दावों की परीक्षा लेते हुए कहते है की सृष्टि को नियमित मानते हो अथवा अनियमित। चमत्कार नियमों का उल्लंघन है। अगर ईश्वर की बनाई सृष्टि को अनियमित मानते हो तो उसे बनाने वाले ईश्वर को भी अनियमित मानना पड़ेगा। जोकि असंभव है। इसलिए चमत्कार को मनुष्य के मन की स्वार्थ वश कल्पना मानना सत्य को मानने के समान है। न इससे ईश्वर का नियमित होने का खंडन होगा और न ही अन्धविश्वास को बढ़ावा मिलेगा। नास्तिकता को बढ़ावा देने में एक बड़ा दोष अभिमान का भी है। भौतिक जगत में मनुष्य ने जितनी भी वैज्ञानिक उन्नति की है उस पर वह अभिमान करने लगता है और इस अभिमान के कारण अपने आपको जगत के सबसे बड़ी सत्ता समझने लगता है। एक उदाहरण लीजिये सभी यह मानते हैं की न्यूटन ने Gravitation अर्थात गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत की खोज की थी। क्या न्यूटन से पहले गुरुत्वाकर्षण की शक्ति नहीं थी? थी मगर मनुष्य को उसका ज्ञान नहीं था अर्थात न्यूटन ने केवल अपनी अल्पज्ञता को दूर किया था और इसी क्रिया को आविष्कार कहा जाता है। सत्य यह हैं की जितनी भी भौतिक वैज्ञानिक उन्नति हैं वह अपनी अलपज्ञता को दूर करना है। मनुष्य चाहे कितनी भी उन्नति क्यों न कर ले वह ज्ञान की सीमा को कभी प्राप्त नहीं कर सकता क्योंकि एक तो मनुष्य की शक्तियां सिमित है जबकि ज्ञान की असीमित है दूसरी असीमित ज्ञान का ज्ञाता केवल एक ही है और वो हैं ईश्वर जिनमें न केवल वो ज्ञान भी पूर्ण है जो केवल मानव के लिए है अपितु वह ज्ञान भी है जो मानव से परत केवल ईश्वर के लिए है। स्वयं न्यूटन की इस सन्दर्भ में धारणा कितनी प्रासंगिक है -- “I do not know what I may appear to the world, but to myself I seem to have been only like a boy playing on the sea-shore, and diverting myself in now and then finding a smoother pebble or a prettier shell than ordinary, whilst the great ocean of truth lay all undiscovered before me.” न्यूटन ने हमारी अवधारणा का समर्थन कर अपनी निष्पक्षता का परिचय दिया है। अब प्रश्न यह है की धर्म और विज्ञान में क्या सम्बन्ध है और क्योंकि नास्तिक लोगों का यह मत है की धर्म और विज्ञान एक दूसरे के शत्रु है। नास्तिक लोगों की इस सोच का मुख्य कारण यूरोप के इतिहास में चर्च द्वारा बाइबिल के मान्यताओं पर वैज्ञानिकों द्वारा शंका करना और उनकी आवाज़ को सख्ती से दबा देना था। उदाहरण के लिए गैलिलियो को इसलिए मार डाला गया क्योंकि उसने कहा था की पृथ्वी सूर्य के चारों और भ्रमण करती हैं जबकि चर्च की मान्यता इसके विपरीत थी। चर्च ने वैज्ञानिकों का विरोध आरम्भ कर दिया और उन्हें सत्य को त्याग कर जो बाइबिल में लिखा था उसे मानने को मजबूर किया और न मानने वालों को दण्डित किया गया। इस विरोध का यह परिणाम निकला की यूरोप से निकलने वाले वैज्ञानिक चर्च को अर्थात धर्म को विज्ञान का शत्रु मानने लग गए और उन्होंने ईश्वर की सत्ता को नकार दिया। दोष चर्च के अधिकारियों का था नाम ईश्वर का लगाया गया। यह विचार परम्परा रूप में चलता आ रहा हैं और इस कारण से वैज्ञानिक अपने आपको नास्तिक कहते हैं। अब प्रश्न यह उठता है की धर्म और विज्ञान में क्या सम्बन्ध है? इसका उत्तर है की "Religion and Science are not against each other but they are allies to each other" अर्थात धर्म और एक दूसरे के विरोधी नहीं अपितु सहयोगी है। जैसे विज्ञान यह बताता है की जगत कैसे बना है जबकि धर्म यह बताता है की जगत क्यूँ बना है। जैसे मनुष्य का जन्म कैसे हुआ यह विज्ञान बताता है जबकि मनुष्य का जन्म क्यूँ हुआ यह धर्म बताता है। भौतिक विज्ञान के लिए आध्यात्मिक शंकाओं का समाधान करना असंभव है मगर इनका समाधान धर्म द्वारा ही संभव है। धर्म और विज्ञान दोनों एक दूसरे के सहयोगी है और इसी तथ्य को आइंस्टीन ने सुन्दर शब्दों में इस प्रकार से कहा है – “Science without religion is a lame and religion without science is blind.” विज्ञान धर्म के मार्गदर्शन के बिना अधूरा हैं और सत्य धर्म विज्ञान के अनुकूल है, अन्धविश्वास अवैज्ञानिक होने के कारण त्याग करने योग्य है। एक कुतर्क यह भी दिया जाता है की अगर ईश्वर है तो उन्हें वैज्ञानिक प्रयोगों से सिद्ध करके दिखाए। इसका समाधान वायु के अतिरिक्त मन, बुद्धि, सुख, दुःख, गर्मी, सर्दी, काल, दिशा, आकाश ये सभी निराकार है। क्या ये सभी वैज्ञानिक प्रयोगों से सिद्ध होते है? नहीं। परन्तु फिर भी इनका अस्तित्व माना जाता है फिर केवल ईश्वर को लेकर यह शंका उठाना नास्तिकता का समर्थन करने वाले की निष्पक्षता पर प्रश्न उठाता है। सत्य यह हैं की वैज्ञानिक प्रयोगों से ईश्वर की सत्ता को सिद्ध न कर पाना आधुनिक विज्ञान की कमी है जबकि आध्यात्मिक वैज्ञानिक जिन्हें हम ऋषि कहते है चिरकाल से निराकार ईश्वर को न केवल अपनी अंतरात्मा में अनुभव करते आ रहे है अपितु जगत के कण कण में भी विद्यमान पाते है। दंगे, युद्ध, उपद्रव आदि का दोष ईश्वर को देना एक और मूर्खता है। यह पहले ही स्पष्ट किया जा चूका है की दंगे, उपद्रव आदि मज़हब या मत-मतान्तर आदि को मानने वालों के स्वार्थ के कारण होता है नाकि धर्म के कारण होता है। एक उदाहरण लीजिये 1947 से पहले हमारे देश में अनेक दंगे हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच में हुए थे। इन दंगों का मुख्य कारण यह बताया जाता था की हिन्दुओं के धार्मिक जुलूस के मस्जिद के सामने से निकलने से मुसलमानों की नमाज़ में विघ्न पड़ गया जिसके कारण यह दंगे हुए। मेरा स्पष्ट प्रश्न है कि जो व्यक्ति ईश्वर की उपासना या नमाज़ में लीन होगा उसके सामने चाहे बारात भी क्यों न निकल जाये। उसे मालूम ही नहीं चलेगा परन्तु जो व्यक्ति यह बांट जो रहा हो की कब हिन्दुओं का जुलूस आये कब हम नमाज़ आरम्भ करे और कब दंगा हो। तो इसका दोष ईश्वर को देना कहा तक उचित है? संसार में जितनी भी हिंसा ईश्वर के नाम पर होती है उसका मूल कारण स्वार्थ है नाकि धर्म है। नास्तिक लोग धर्म की मूलभूत परिभाषा से अनभिज्ञ है और मत-मतान्तर की संकीर्ण सोच एवं अन्धविश्वास को धर्म समझकर उसकी तिलांजलि दे देते है। धर्म संस्कृत भाषा का शब्द है जोकि धारण करने वाली धृ धातु से बना है। "धार्यते इति धर्म:" अर्थात जो धारण किया जाये वह धर्म है। अथवा लोक परलोक के सुखों की सिद्धि के हेतु सार्वजनिक पवित्र गुणों और कर्मों का धारण व सेवन करना धर्म है। दूसरे शब्दों में यह भी कह सकते हैं की मनुष्य जीवन को उच्च व पवित्र बनाने वाली ज्ञानानुकुल जो शुद्ध सार्वजनिक मर्यादा पद्यति है वह धर्म है। धैर्य, क्षमा, मन को प्राकृतिक प्रलोभनों में फँसने से रोकना, चोरी का त्याग, शौच अर्थात पवित्रता , इन्द्रियों का निग्रह अर्थात उन्हें वश में करना , बुद्धि अथवा ज्ञान, विद्या, सत्य और अक्रोध ये धर्म के दस लक्षण है। सदाचार परम धर्म है। अन्धविश्वास मत मतान्तर की संकीर्ण सोच है। उसे धर्म समझना अन्धविश्वास है। धर्म का आचरण से सम्बन्ध है। मत का सम्बन्ध आचरण से नहीं अपितु मान्यता से है। मान्यता सही भी हो सकती है गलत भी हो सकती है। इसलिये मत को धर्म समझना गलत है। ईश्वर में विश्वास रखने के निम्नलिखित लाभ है। 1. आदर्श शक्ति में विश्वास से जीवन में दिशा निर्धारण होता है। 2. सर्वव्यापक एवं निराकार ईश्वर में विश्वास से पापों से मुक्ति मिलती है। 3. ज्ञान के उत्पत्ति कर्ता में विश्वास से ज्ञान प्राप्ति का संकल्प बना रहता है। 4. सृष्टि के रचना कर्ता में विश्वास से ईश्वर की रचना से प्रेम बढ़ता है। 5. अभयता, आत्मबल में वृद्धि, सत्य पथ का अनुगामी बनना, मृत्यु के भय से मुक्ति, परमानन्द सुख की प्राप्ति, आध्यात्मिक उन्नति, आत्मिक शांति की प्राप्ति, सदाचारी जीवन आदि गुण की आस्तिकता से प्राप्ति होती है। 6. स्वार्थ, पाप कर्म, अत्याचार, दुःख, राग, द्वेष, ईर्ष्या, अहंकार आदि दुर्गुणों से मुक्ति मिलती है। तार्किक होना गलत नहीं है। ऋषि दयानंद 19वीं सदी के सबसे बड़े तार्किक थे मगर वह पूर्णरूप से आस्तिक थे। दर्शनों में तर्क को ऋषि कहा गया है। बशर्ते तर्क का प्रयोजन सत्य को ग्रहण करना एवं असत्य का त्याग हो। तर्क का नाम लेकर धर्म का बहिष्कार कर भोग वादी होने के बहाने बनाना अपने आपको अँधेरे में रखने के समान है। नास्तिकता अपने आप में अन्धविश्वास है। अगर किसी व्यक्ति के पैर में फोड़ा निकला हो तो उसका ईलाज करना चाहिये न कि पैर काट देना चाहिये। नास्तिकता इसी प्रकार का पाखण्ड है। धर्म के नाम पर किये जाने वाले पाखंड को देखकर पाखंड के त्याग के स्थान पर धर्म का बहिष्कार करना नास्तिकता रूपी अन्धविश्वास मात्र है।
शुद्धि इतिहास से एक पृष्ठ ( vedic vichar )
02-02-2022
सत्यार्थ प्रकाश का चमत्कारी इतिहास ******************************* सन 1968 की बात है । दिल्ली टेलीफोन में रामचन्द्र के नाम से एक किशोर की भर्ती हुई ही थी । तब रामचन्द्र की आयु 19 वर्ष की रही होगी । उसी टेलीफोन विभाग के ही कर्मचारी एक अधेड़ आयु के मोहम्मद अल्लादीन शेख भी थे । ईमान के पक्के और 5 वक्त के नमाज़ी । अपने विभाग में काम से फुर्सत मिलते ही लोगों को इस्लाम की हिदायत देना और इस्लाम की दावत देना उनकी रोजाना की रूटीन में शामिल हो गया था । एक दिन वह किशोर रामचन्द्र भी अल्लादीन द्वारा लगाए गए मजमें की भीड़ का हिस्सा बना तो उसने अल्लादीन पर अपनी किशोर बुद्धि के आधार पर सवाल जड़ दिए । सवाल सुनते ही अल्लादीन कुछ देर मौन हो गया और फिर उसी ने ही रामचन्द्र से पूछ लिया कि तुम आर्य समाजी हो क्या ? तुम ने सत्यार्थ प्रकाश पढ़ी ली है क्या ? वास्तव में रामचन्द्र न तो उस समय तक आर्य समाजी था और न ही उसने सत्यार्थ प्रकाश का नाम सुना था । हुआ यूं कि रामचन्द्र लगभग उन दिनों एक पुरानी सी किताब पढ़ने में लगा हुआ था जिसके आगे और पीछे के कुछेक पृष्ठ , जिल्द आदि गायब थे । कुशाग्र बुद्धि और तार्किक बुद्धि के रामचन्द्र ने वो पुस्तक पढ़नी शुरू की तो सारे उपलब्ध पन्ने खूब गम्भीरता से पढ़े लिए थे, भले ही वह उस समय उस पुस्तक के सत्यार्थ प्रकाश होने या उसके नाम से अनभिज्ञ था और अल्लादीन को पूछे सवाल उसी किताब के आधार पर थे जिसके आगे अल्लादीन लाजवाब हो गया था । फिर क्या था । रामचन्द्र रोज़ रोज़ अल्लादीन पर अपने सवालों की बदौलत अपने महकमें में भी लोकप्रिय सा हो गया । उधर अल्लादीन की चिंता और मायूसी बढ़ने लगी । सवालों पर अल्लादीन की खामोशी उसे सोचने पर मजबूर कर देती थी । संयोग की बात यह थी कि रामचन्द्र का मामा आर्य समाजी था और रामचन्द्र ने कुछ समय पश्चात अपने मामा से ही आर्य समाज और सत्यार्थ प्रकाश के बारे में सब जान लिया था । तब रामचन्द्र को सत्यार्थ प्रकाश की जिल्द सहित नई कॉपी मिल चुकी थी और इस दौरान वह सत्यार्थ प्रकाश को पूरी गम्भीरता से एक बार फिर पढ़ गया था । अल्लादीन और उसके बीच रोज़ रोज़ के सवाल जवाब उन दोनों के बीच नज़दीकियों का हेतु बन गए । दोनों सहकर्मी तो थे ही अब वो उम्र में काफी अंतर होने पर भी मित्रवत से हो चुके थे । हालात तो ऐसे हो गए कि अल्लादीन की बेटी आयशा, जो रामचन्द्र से लगभग दो एक साल छोटी थी रामचन्द्र को चाचा बोलने लगी और दोनों के पारिवारिक सम्बन्ध से बन गए थे । क्योंकि अल्लादीन और रामचन्द्र एक ही महकमें दिल्ली टेलीफोन में थे और भाइयों जैसे समंध बन गए थे इसलिए आयशा भी रामचन्द्र को चाचा कह कर ही संबोधित करती थी । अल्लादीन इसी बीच अपनी नौकरी से रिटायर हो गए । रिटायरमेंट के लगभग डेढ़-दो साल बाद आयशा जब मुँह बोले चाचा रामचन्द्र से मिली तो बोली, "चाचा अब तो तुम्हारी वजह से हमने अपनी नमाज़ का ढंग भी बदल लिया है ।" चाचा रामचन्द्र जब यह बात समझ न पाए तो पूछे, "मतलब?" तब आयशा ने चेहरे पर रहस्य उद्घाटन करती मुस्कराहट के साथ खुलासा किया, "चाचा अपने पापा नमाज़ की जगह घर में रोज़ संध्या - हवन करते हैं । नमाज़ तो जो पढ़नी थी वो पढ़ ली अब हम सब नमाज़ी से आर्य समाजी बन गए हैं ।" रामचन्द्र ने घर परिवार का हाल चाल पूछा तो पता लगा कि नई पीढ़ी अर्थात अल्लादीन के पौते - पौतियों के नाम भी अरबी भाषा की बजाए हिंदी भाषी भारतीय नाम ही रखे गए हैं । फिर दोनों परिवारों में मधुर संबंध चलते रहे । सन 1981-82 तक दोनों परिवारों में सम्बन्ध बने रहे परन्तु उसके बाद संपर्क कुछ कम सा रहा । इधर रामचन्द्र भी एक सुदृढ़ आर्य समाजी बनने के बादऔर स्वाध्याय के पथ पर आगे बढ़ते रहे । धीरे धीरे उनका वैदुष्य निखरता चला गया । आज वे आर्य जगत में आचार्य श्री राम चन्द्र आर्य के नाम से प्रसिद्ध हैं । वानप्रस्थ आश्रम , ज्वालापुर ( हरिद्वार) में निवास के साथ साथ वे गुरुकुल नजीबाबाद आदि में भी बीच बीच में अपने स्वाध्याय से वैदिक मत के प्रसार में लगे रहते हैं । (उपरोक्त घटना आचार्य श्री रामचन्द्र आर्य जी ने स्वयं ही हाल ही में गुरुकुल नजीबाद में मेरे प्रवास के दौरान मुझे बताई थी, जिसके आधार पर मैंने यह लिखा है - सुभाष दुआ, 31.01.2022 )
क्या श्री राम जी मांसाहारी थे? (Vedic vichar)
02-02-2022
साम्यवादी या कम्युनिस्ट मानसिकता मानसिक प्रदूषण के रूप में युवाओं को भ्रमित कर उन्हें धर्मविरोधी नास्तिक और भोगवादी बनाती हैं। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण एक मित्र ने मुझे उपलब्ध करवाया। हिन्दुओं की संतान प्रक्षिप्त अर्थात मिलावटी रामायण से श्री राम जी और माता सीता के मांस भक्षण के कुछ नकली प्रमाण सोशल मीडिया में पोस्ट कर अपने दिमागी खोखले पन का उदाहरण दिया। पाठकों की संतुष्टि के लिए इस शंका का समाधान होना अत्यंत आवश्यक है। क्योंकि श्री राम के साथ भारतीय जनमानस की आस्था जुड़ी है। वैष्णव मत को मानने वाले गोस्वामी तुलसी दास द्वारा रचित रामचरित मानस के प्रभाव से , वैष्णव मत की मूलभूत मान्यता शाकाहार के समर्थन में होने से भारतीय जनमानस का यह मानना है कि ऐसा नहीं हो सकता की श्री राम जी मांसाहारी थे। मेरा भी यही मानना है कि श्री राम चन्द्र जी पूर्ण रूप से शाकाहारी थे। मेरे विश्वास का कारण स्वयं ईश्वर की वाणी वेद है। वेदों में अनेक मंत्र मानव को शाकाहारी बनने के लिए प्रेरित करते हैं, मांसाहारी की निंदा करते हैं, निरीह पशुओं की रक्षा करना आर्य पुरुषों का कर्तव्य बताते हैं और जो निरीह पशुओं पर अत्याचार करते हैं। उनको कठोर दंड देने की आज्ञा वेद में स्पष्ट रूप से वेदों में हैं। श्रीरामचन्द्र जी का काल पुराणों के अनुसार करोड़ों वर्षों पुराना हैं। हमारा आर्यावर्त देश में महाभारत युद्ध के काल के पश्चात और उसमें भी विशेष रूप से पिछले 2500 वर्षों में अनेक परिवर्तन हुए हैं। जैसे ईश्वरीय वैदिक धर्म का लोप होना और मानव निर्मित मत मतान्तर का प्रकट होना। जिनकी अनेक मान्यताएं वेद विरुद्ध थी। ऐसा ही एक मत था वाममार्ग जिसकी मान्यता थी की माँस, मद्य, मीन आदि से ईश्वर की प्राप्ति होती हैं। वाममार्ग के समर्थकों ने जब यह पाया की जनमानस में सबसे बड़े आदर्श श्री रामचंद्र जी है। इसलिए जब तक उनकी अवैदिक मान्यताओं को श्री राम के जीवन से समर्थन नहीं मिलेगा तब तक उनका प्रभाव नहीं बढ़ेगा। इसलिए उन्होंने श्री राम जी के सबसे प्रमाणिक जीवन चरित वाल्मीकि रामायण में यथानुसार मिलावट आरंभ कर दी जिसका परिणाम आपके सामने हैं। महात्मा बुद्ध के काल में इस प्रक्षिप्त भाग के विरुद्ध "दशरथ जातक" के नाम से ग्रन्थ की स्थापना करी जिसमें यह सिद्ध किया की श्री राम पूर्ण रूप से अहिंसा व्रत धारी थे और भगवान बुद्ध पिछले जन्म में राम के रूप में जन्म ले चुके थे। कहने का अर्थ यह हुआ की जो भी आया उसने श्री राम जी की अलौकिक प्रसिद्धि का सहारा लेने का प्रयास लेकर अपनी अपनी मान्यताओं का प्रचार करने का पूर्ण प्रयास किया। यही से प्रक्षिप्त श्लोकों की रचना आरंभ हुई। इस लेख को हम तीन भागों में विभाजित कर अपने विषय को ग्रहण करने का प्रयास करेंगे। १. वाल्मीकि रामायण का प्रक्षिप्त भाग २. रामायण में मांसाहार के विरुद्ध स्वयं की साक्षी ३. वेद और मनु स्मृति की माँस विरुद्ध साक्षी वाल्मीकि रामायण का प्रक्षिप्त भाग इस समय देश में वाल्मीकि रामायण की जो भी पांडुलिपियाँ मिलती हैं वह सब की सब दो मुख्य प्रतियों से निकली हैं। एक है बंग देश में मिलने वाली प्रति जिसके अन्दर बाल, अयोध्या, अरण्यक, किष्किन्धा ,सुंदर और युद्ध ६ कांड हैं और कूल सर्ग ५५७ और श्लोक संख्या १९७९३ हैं। जबकि दूसरी प्रति बम्बई प्रान्त से मिलती हैं जिसमें बाल, अयोध्या, अरण्यक, किष्किन्धा ,सुंदर और युद्ध इन ६ कांड के अलावा एक और उत्तर कांड हैं, कूल सर्ग ६५० और श्लोक संख्या २२४५२८ हैं। दोनों प्रतियों में पाठ भेद होने का कारण सम्पूर्ण उत्तर कांड का प्रक्षिप्त होना, कई सर्गों का प्रक्षिप्त होना हैं एवं कई श्लोकों का प्रक्षिप्त होना हैं। प्रक्षिप्त श्लोक इस प्रकार के हैं १. वेदों की शिक्षा के प्रतिकूल:- जैसे वेदों में माँस खाने की मनाही हैं जबकि वाल्मीकि रामायण के कुछ श्लोक माँस भक्षण का समर्थन करते हैं अत: वह प्रक्षिप्त हैं। २. श्री रामचंद्र जी के काल में वाममार्ग आदि का कोई प्रचलन नहीं था इसलिए वाममार्ग की जितनी भी मान्यताएँ हैं , उनका वाल्मीकि रामायण में होना प्रक्षिप्त हैं। ३. ईश्वर का बनाया हुआ सृष्टि नियम आदि से लेकर अंत तक एक समान हैं इसलिए सृष्टि नियम के विरुद्ध जो भी मान्यताएँ हैं वे भी प्रक्षिप्त हैं जैसे हनुमान आदि का वानर (बन्दर) होना, जटायु आदि का गिद्ध होना आदि क्योंकि पशु का मनुष्य के समान बोलना असंभव हैं। हनुमान, जटायु आदि विद्वान एवं परम बलशाली श्रेष्ठ मनुष्य थे। ४. जो प्रकरण के विरुद्ध हैं वह भी प्रक्षिप्त हैं जैसे सीता की अग्नि परीक्षा आदि असंभव घटना हैं जिसका राम के युद्ध में विजय के समय हर्ष और उल्लास के बीच तथा १४ वर्ष तक जंगल में भटकने के पश्चात अयोध्या वापसी के शुभ समाचार के बीच एक प्रकार का अनावश्यक वर्णन हैं। रामायण में मांसाहार के विरुद्ध स्वयं की साक्षी श्री राम और श्री लक्ष्मण द्वारा यज्ञ की रक्षा रामायण के बाल कांड में ऋषि विश्वामित्र राजा दशरथ के समक्ष जाकर उन्हें अपनी समस्या बताते है कि जब वे यज्ञ करने लगते है तब से मारीच और सुबाहु नाम के दो राक्षस यज्ञ में विघ्न डालते है। माँस, रुधिर आदि अपवित्र वस्तुओं से यज्ञ को अपवित्र कर देते हैं। राजा दशरथ श्री रामचंद्र एवं लक्ष्मण जी को उनके साथ राक्षसों का विध्वंस करने के लिए भेज देते हैं। जिसका परिणाम यज्ञ का निर्विघ्न सम्पन्न होना एवं राक्षसों का संहार होता हैं। जो लोग यज्ञ आदि में पशु बलि आदि का विधान होना मानते है, वाल्मीकि रामायण में राजा दशरथ द्वारा किये गये अश्वमेध यज्ञ में पशु बलि आदि का होना मानते है। उनसे हमारा यह स्पष्ट प्रश्न है कि अगर यज्ञ में पशु बलि का विधान होता तो फिर ऋषि विश्वामित्र की तो राक्षस उनके यज्ञ में माँस आदि डालकर उनकी सहायता कर रहे थे नाकि उनके यज्ञ में विघ्न डाल रहे थे। इससे तो यही सिद्ध होता हैं की रामायण में अश्वमेध आदि में पशु बलि का वर्णन प्रक्षिप्त है और उसका खंडन स्वयं रामायण से ही हो जाता है। ऋषि वशिष्ठ द्वारा ऋषि विश्वामित्र का सत्कार एक आक्षेप यह भी लगाया है कि प्राचीन भारत में अतिथि का सत्कार माँस से किया जाता था। इस बात का खंडन स्वयं वाल्मीकि रामायण में है। जब ऋषि विश्वामित्र ऋषि वशिष्ठ के आश्रम में पधारते है तब ऋषि वशिष्ठ ऋषि विश्वामित्र का सत्कार माँस आदि से नहीं अपितु सब प्रकार से गन्ने से बनाये हुए पदार्थ, मिष्ठान, भात खीर, दाल, दही आदि से किया। यहाँ पर माँस आदि का किसी भी प्रकार का कोई उल्लेख नहीं हैं। सन्दर्भ -वाल्मीकि कांड बाल कांड सर्ग ५२ एवं सर्ग ५३ श्लोक १-६ श्री राम जी की मांसाहार की विरुद्ध स्पष्ट घोषणा अयोध्या कांड सर्ग २ के श्लोक २९ में जब श्री राम जी वन में जाने की तैयारी कर रहे थे तब माता कौशल्या से श्री राम जी ने कहाँ मैं १४ वर्षों तक जंगल में प्रवास करूँगा और कभी भी वर्जित माँस का भक्षण नहीं करूँगा और जंगल में प्रवास कर रहे मुनियों के लिए निर्धारित केवल कंद मूल पर निर्वाह करूँगा। इससे स्पष्ट साक्षी रामायण में माँस के विरुद्ध क्या हो सकती है? श्री राम जी द्वारा सीता माता के कहने पर स्वर्ण हिरण का शिकार करने जाना एक शंका प्रस्तुत की जाती है कि श्री रामचंद्र जी महाराज ने स्वर्ण मृग का शिकार उसके माँस का खाने के लिए किया था। इस शंका का उचित उत्तर स्वयं रामायण में अरण्य कांड में मिलता है। माता सीता श्री रामचंद्र जी से स्वर्ण मृग को पकड़ने के लिए इस प्रकार कहती है- यदि आप इसे जीवित पकड़ लेते तो यह आश्चर्य प्रद पदार्थ आश्रम में रहकर विस्मय करेगा- अरण्यक कांड सर्ग ४३ श्लोक १५ और यदि यह मारा जाता हैं तो इसकी सुनहली चाम को चटाई पर बिछा कर मैं उस पर बैठना पसंद करुँगी।- अरण्यक कांड सर्ग ४३ श्लोक १९ इससे यह निश्चित रूप से सिद्ध होता है कि स्वर्ण हिरण का शिकार माँस खाने के लिए तो निश्चित रूप से नहीं हुआ था। वीर हनुमान जी का सीता माता के साथ वार्तालाप वीर हनुमान जब अनेक बाधाओं को पार करते हुए रावण की लंका में अशोक वाटिका में पहुँच गये तब माता सीता ने श्री राम जी का कुशल क्षेम पूछा तो उन्होंने बताया की राम जी न तो माँस खाते है और न ही मद्य पीते है। :-वाल्मीकि रामायण सुंदर कांड ३६/४१ सीता का यह पूछना यह दर्शाता है कि कहीं श्री राम जी शोक से व्याकुल होकर अथवा गलत संगत में पढ़कर वेद विरुद्ध अज्ञान मार्ग पर न चलने लगे हो। अगर माँस भक्षण उनका नियमित आहार होता तब तो सीता जी का पूछने की आवश्यकता ही नहीं थी। इससे वाल्मीकि रामायण में ही श्री राम जी के माँस भक्षण के समर्थन में दिए गये श्लोक जैसे अयोध्या कांड ५५/३२,१०२/५२,९६/१-२,५६/२४-२७ अरण्यक कांड ७३/२४-२६,६८/३२,४७/२३-२४,४४/२७ किष्किन्धा कांड १७/३९ सभी प्रक्षिप्त सिद्ध होते हैं। वेद और मनु स्मृति की माँस विरुद्ध साक्षी वेद में माँस भक्षण का स्पष्ट विरोध ऋग्वेद ८.१०१.१५ – मैं समझदार मनुष्य को कहे देता हूँ की तू बेचारी बेकसूर गाय की हत्या मत कर, वह अदिति हैं अर्थात काटने- चीरने योग्य नहीं है ऋग्वेद ८.१०१.१६ – मनुष्य अल्पबुद्धि होकर गाय को मारे कांटे नहीं अथर्ववेद १०.१.२९ –तू हमारे गाय, घोड़े और पुरुष को मत मार अथर्ववेद १२.४.३८ -जो(वृद्ध) गाय को घर में पकाता हैं उसके पुत्र मर जाते हैं अथर्ववेद ४.११.३- जो बैलों को नहीं खाता वह कष्ट में नहीं पड़ता है ऋग्वेद ६.२८.४ –गो वधशाला में न जाये अथर्ववेद ८.३.२४ –जो गोहत्या करके गाय के दूध से लोगों को वंचित करे , तलवार से उसका सर काट दो यजुर्वेद १३.४३ –गाय का वध मत कर , जो अखंडनीय है अथर्ववेद ७.५.५ –वे लोग मूढ़ हैं जो कुत्ते से या गाय के अंगों से यज्ञ करते है यजुर्वेद ३०.१८-गोहत्यारे को प्राण दंड दो स्वामी दयानंद के अनुसार मनु स्मृति में वही ग्रहण करने योग्य है जो वेदानुकुल है और वह त्याग करने योग्य हैं जो की वेद विरुद्ध है। महाभारत में मनु स्मृति के प्रक्षिप्त होने की बात का समर्थन इस प्रकार किया हैं:- महात्मा मनु ने सब कर्मों में अहिंसा बतलाई है, लोग अपनी इच्छा के वशीभूत होकर वेदी पर शास्त्र विरुद्ध हिंसा करते है। शराब, माँस, द्विजातियों का बली, ये बातें धूर्तों ने फैलाई है, वेद में यह नहीं कहा गया है। महाभारत शांति पर्व मोक्ष धर्म अध्याय २६६ माँस खाने के विरुद्ध मनु स्मृति की साक्षी जिसकी सम्मति से मारते हो और जो अंगों को काट काट कर अलग करता हैं। मारने वाला तथा क्रय करने वाला, विक्रय करनेवाला, पकाने वाला, परोसने वाला तथा खाने वाला ये ८ सब घातक हैं। जो दूसरों के माँस से अपना माँस बढ़ाने की इच्छा रखता हैं, पितरों, देवताओं और विद्वानों की माँस भक्षण निषेधाज्ञा का भंग रूप अनादर करता हैं उससे बढ़कर कोई भी पाप करने वाला नहीं हैं।-मनु स्मृति ५/५१,५२ मद्य, माँस आदि यक्ष, राक्षस और पिशाचों का भोजन हैं। देवताओं की हवि खाने वाले ब्राह्मणों को इसे कदापि न खाना चाहिए।-मनु स्मृति ११/७५ जिस द्विज ने मोह वश मदिरा पी लिया हो उसे चाहिए की आग के समान गर्म की हुई मदिरा पीवे ताकि उससे उसका शरीर जले और वह मद्यपान के पाप से बचे।- मनुस्मृति ११/९० इसी अध्याय में मनु जी ने श्लोक ७१ से ७४ तक मद्य पान के प्रायश्चित बताये हैं। इस सब प्रमाणों और सन्दर्भों को पढ़कर मेरे विचार से पाठकों के मन में जो शंका हैं उसका समाधान निश्चित रूप से हो गया होगा। कुछ लोग श्री रामचन्द्र जी द्वारा वन प्रवास के समय मृग के शिकार करने को मांसाहार से जोड़ कर देखते है। मृग शब्द को लेकर भ्रान्ति होने का मूल कारण मृग शब्द से हिरण का ग्रहण करना हैं। वास्तविकता यह है कि मृग का अर्थ हिरण नहीं अपितु सिंह अर्थात जंगली पशु है। कुछ प्रमाणों से इस तथ्य को समझने का प्रयास करते हैं। 1. वाल्मीकि रामायण आरण्यक कांड 14/33 में जटायु राम से कहते हैं "इदं दुर्गमं ही कान्तारं मृग राक्षससेवितम्" अर्थात हे राम यह दुर्गम्य वन मृग राक्षसों से भरा है। यहाँ पर मृग का अर्थ हिंसक जंगली पशु निकलेगा क्योंकि शांतिप्रिय हिरण से किसी को कोई खतरा नहीं होता। 2. संस्कृत में सिंह के मृगेन्द्र कहा जाता है। जैसे नरों के राजा को नरेंदर कहते है वैसे ही जंगली पशुओं के राजा को मृगेन्द्र संज्ञा दी गई हैं। 3. वेद में भी मृग को सिंह कहा गया है जैसे "मृगों न भीम: कुचरों गरिष्ठ:" 4. जंगली पशुओं के शिकार करने को मृगया कहते हैं। हिमाचल आदि पहाड़ी क्षेत्रों में सिंह को मृग के नाम से जाना जाता हैं। इन प्रमाणों के आधार पर यह सिद्ध होता है कि रामायण में वर्णित मृग सिंह था न कि हिरण था। प्राण रक्षा के लिए हिंसक सिंह का शिकार करना हिंसा नहीं है। अंततः साम्यवादियों के बहकावे में मत आये। अपनी बुद्धि लगाए।
Vedic vichar
02-02-2022
मेरी पूजा मत शुरू कर देना, मैं भगवान नहीं हूँ, मैं एक सामान्य पुरुष हूँ। मेरे मरने के बाद मेरी अस्थियाँ चुपचाप किसी खेत में डाल देना ताकि किसी को पता ही न चले। मेरी समाधि मत बनाना वरना ये भोले लोग मेरी पूजा शुरू कर देंगे। ये पाखंड मत करना। मैं संसार को अज्ञान से निकालने आया हूँ। -महर्षि दयानंद सरस्वती।
Vedic vichar
01-02-2022
ईश्वर के संबंध में महर्षि दयानन्द सरस्वती जी के विचार चारों वेदों में ऐसा कहीं नहीं लिखा जिससे अनेक ईश्वर सिद्ध हों। किन्तु यह तो लिखा है कि ईश्वर एक है। देवता दिव्य गुणों के युक्त होने के कारण कहलाते हैं जैसा कि पृथ्वी, परन्तु इसको कहीं ईश्वर तथा उपासनीय नहीं माना है।जिसमें सब देवता स्थित हैं, वह जानने एवं उपासना करने योग्य देवों का देव होने से महादेव इसलिये कहलाता है कि वही सब जगत की उत्पत्ति, स्थिति, प्रलयकर्ता, न्यायाधीश, अधिष्ठाता है। ईश्वर दयालु एवं न्यायकारी है। न्याय और दया में नाम मात्र ही भेद है, क्योंकि जो न्याय से प्रयोजन सिद्ध होता है वही दया से। दण्ड देने का प्रयोजन है कि मनुष्य अपराध करने से बंध होकर दुखों को प्राप्त न हो, वही दया कहलाती है। जिसने जैसा जितना बुरा कर्म किया है उसको उतना है दण्ड देना चाहिये , उसी का नाम न्याय है। जो अपराध का दण्ड न दिया जाय तो न्याय का नाश हो जाय। क्योंकि एक अपराधी को छोड़ देने से सहस्त्रों धर्मात्मा पुरुषों को दुख देना है। जब एक को छोड़ने से सहस्त्रों मनुष्यों को दुख प्राप्त होता हो तो वह दया किस प्रकार हो सकती है? दया वही है कि अपराधी को कारागार में रखकर पाप करने से बचाना। निरन्तर एवं जघन्य अपराध करने पर मृत्यु दण्ड देकर अन्य सहस्त्रों मनुष्यों पर दया प्रकाशित करना। संसार में तो सच्चा झूठा दोनों सुनने में आते हैं। किन्तु उसका विचार से निश्चय करना अपना अपना काम है। ईश्वर की पूर्ण दया तो यह है कि जिसने जीवों के प्रयोजन सिद्ध होने के अर्थ जगत में सकल पदार्थ उत्पन्न करके दान दे रक्खे हैं। इससे भिन्न दूसरी बड़ी दया कौन सी है? अब न्याय का फल प्रत्यक्ष दीखता है कि सुख दुख की व्याख्या अधिक और न्यूनता से प्रकाशित कर रही है। इन दोनों का इतना ही भेद है कि जो मन में सबको सुख होने और दुख छूटने की इच्छा और क्रिया करना है वह दया और ब्राह्य चेष्टा अर्थात बंधन छेदनादि यथावत दण्ड देना न्याय कहलाता है। दोनों का एक प्रयोजन यह है कि सब को पाप और दुख से प्रथक कर देना। ईश्वर यदि साकार होता तो व्यापक नहीं हो सकता। जब व्यापक न होता तो सर्वाज्ञादि गुण भी ईश्वर में नहीं घट सकते। क्योंकि परिमित वस्तु में गुण, कर्म, स्वभाव भी परिमित रहते हैं तथा शीतोष्ण, क्षुधा, तृष्णा और रोग, दोष, छेदन, भेदन आदि से रहित नहीं हो सकता। अतः निश्चित है कि ईश्वर निराकार है। जो साकार हो तो उसके नाक, कान, आँख आदि अवयवों को बनाने वाला ईश्वर के अतिरिक्त कोई दूसरा होना चाहिये। क्योंकि जो संयोग से उत्पन्न होता हो उसको संयुक्त करने वाला निराकार चेतन आवश्य होना चाहिये। कोई कहता है कि ईश्वर ने स्वैच्छा से आप ही आप अपना शरीर बना लिया। तो भी यही सिद्ध हुआ कि शरीर बनाने के पूर्व वह निराकार था। इसलिये परमात्मा कभी शरीर धारण नहीं करता। किन्तु निराकार होने से सब जगत को सूक्ष्म कारणों से स्थूलाकार बना देता है। सर्वशक्तिमान का अर्थ है कि ईश्वर अपने काम अर्थात उत्पत्ति, पालन, प्रलय आदि और सब जीवों के पाप पुण्य की यथा योग्य व्यवस्था करने में किंचित भी किसी की सहायता नहीं लेता अर्थात अपने अनंत सामर्थ्य से ही सब अपना काम पूर्ण कर लेता है। इसका अर्थ यह कदापि नहीं है की परमेश्वर वह सब कर सकता है जो उसे नहीं करना चाहिये। जैसे- अपने आपको मारना, अनेक ईश्वर बनाना, स्वयं अविद्वान, चोरी, व्यभिचारादि पाप कर्म कर और दुखी भी हो सकना। ये काम ईश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव से विरूद्ध हैं। ईश्वर आदि भी है और अनादि भी। ईश्वर सबकी भलाई एवं सबके लिये सुख चाहता है परन्तु स्वतंत्रता के साथ किसी को बिना पाप किये पराधीन नहीं करता। ईश्वर की स्तुति प्रार्थना करने से लाभः- स्तुति से ईश्वर से प्रीति, उसके गुण, कर्म, स्वभाव से अपने गुण, कर्म, स्वभाव को सुधारना। प्रार्थना से निरभयता, उत्साह और सहाय का मिलना। उपासना से परब्रह्म से मेल और साक्षात्कार होना। ईश्वर के हाथ नहीं किन्तु अपने शक्ति रूपी हाथ से सबका रचन, ग्रहण करता। पग नहीं परन्तु व्यापक होने से सबसे अधिक वेगवान। चक्षु का गोलक नहीं परन्तु सबको यथावत देखता। श्रोत नहीं तथाकथित सबकी बातें सुनता। अंतःकरण नहीं परन्तु सब जगत को जानता है और उसको अवधि सहित जानने वाला कोई भी नहीं। उसको सनातन, सबसे श्रेष्ठ, सबमें पूर्ण होने से पुरुष कहते हैं। वह इन्द्रियों और अंतःकरण के बिना अपने सब काम अपने सामर्थ्य से करता है। न कोई उसके तुल्य है और न उससे अधिक। उसमें सर्वोत्तम शक्ति अर्थात जिसमें अनंत ज्ञान, अनंत बल और अनंत क्रिया है। यदि परमेश्वर निष्क्रिय होता तो जगत की उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय न कर सकता। इसलिये वह विभू तथापि चेतन होने से उस क्रिया में भी है। ईश्वर जितने देश काल में क्रिया करना उचित समझता है उतने ही देशकाल में क्रिया करता है। न अधिक न न्यून क्योंकि वह विद्वान है। परमात्मा पूर्ण ज्ञानी है, पूर्ण ज्ञान उसे कहते हैं जो पदार्थ जिस प्रकार का हो उसे उसी रूप में जानना। परमेंश्वर अनंत है। तो उसको अनंत ही जानना ज्ञान, उसके विरुद्ध अज्ञान अर्थात अनंत को सांत और सांत को अनंत जानना भ्रम कहलाता है। यथार्थ दर्शन ज्ञानमिति, जिसका जैसा गुण, कर्म, स्वभाव हो उस पदार्थ को वैसा जानकर मानना ही ज्ञान और विज्ञान कहलाता है और उससे उल्टा अज्ञान। ईश्वर जन्म नहीं लेता, यदुर्वेद में लिखा है ‘अज एकपात्’ सपथर्यगाच्छुक्रमकायम। यदा यदा…………..सृजाम्यहम्। यह बात वेद विरुद्ध प्रमाणित नहीं होती। ऐसा हो सकता है कि श्रीकृष्ण धर्मात्मा धर्म की रक्षा करना चाहते थे कि मैं युग युग में जन्म लेके श्रेष्ठों की रक्षा और दुष्टों का नाश करूँ तो कुछ दोष नहीं। क्योंकि ‘परोपकाराय सतां विभूतयः’ परोपकार के लिये सत्पुरुषों का तन, मन, धन होता है। किन्तु इससे श्रीकृष्ण ईश्वर नहीं हो सकते। वेदार्थ को न जानने, सम्प्रदायी लोंगो के बहकावे और अपने आप अविद्वान होने से भ्रमजाल में फँसके ऐसी ऐसी अप्रमाणिक बातें करते और मानते हैं। जो ईश्वर अवतार शरीर धारण किये बिना जगत की उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय करता है उसके लिये कंस और रावणादि एक कीड़ी के समान भी नहीं हैं। वह सर्वव्यापक होने से कंस रावणादि के शरीर में भी परिपूर्ण हो रहा है। जब चाहे उसी समय मर्मच्छेदन कर नाशकर सकता है। भला वह अनंत गुण, कर्म स्वभावयुक्त परमात्मा को एक शूद्र जीव को मारने के लिये जन्म मरण युक्त कहने वाले को मूर्खपन से अन्य कुछ विशेष उपमा मिल सकती है और जो कोई कहे कि भक्तजन के उद्धार करने के लिये जन्म लेता है तो भी सत्य नहीं है। क्योंकि जो भक्तजन ईश्वर की आज्ञानुकूल चलते हैं उसके उद्धार करने का पूरा सामर्थ्य ईश्वर में है। क्या ईश्वर पृथ्वी, सूर्य, चन्द्रादि जगत के बनाने से कंस रावाणादि का वध और गोवर्धनादि का उठाना बड़े कार्य हैं। जो कोई इस सृष्टि में परमेश्वर के कर्मों का विचार करे तो ‘न भूतो न भविष्यति’ ईश्वर के सद्श्य न कोई है न होगा। इस युक्ति से भी ईश्वर का जन्म सिद्ध नहीं होता। जैसे कोई अनंत आकाश को कहे कि गर्भ में आया और मुठ्ठी में भर लिया, ऐसा कहना कभी सच नहीं हो सकता। क्योंकि आकाश अनंत और सब में व्यापक है इससे न आकाश बाहर आता और न भीतर जाता, वैसे ही अनंत सर्वव्यापक परमात्मा के होने से उसका आना जाना कभी सिद्ध नहीं हो सकता। आना और जाना वहाँ हो सकता है जहाँ न हो। क्या परमेशवर गर्भ में व्यापक नहीं था जो कहीं से आया और बाहर नहीं था जो भीतर से निकला। ऐसा ईश्वर के विषय में कहना और मानना विद्याहीनों के सिवाय कौन कह और मान सकेगा। इसलिये परमेश्वर का आना जाना और जन्म-मरण कभी सिद्ध नहीं हो सकता। इसलिये ईसा आदि को ईश्वर का अवतार नहीं समझना चाहिये। वे राग, द्वेष, क्षुधा, तृष्णा, भय, शोक, दुख, सुख, जन्म,मरण आदि गुणायुक्त होने से मनुष्य थे। ईश्वर पाप क्षमा नहीं कर सकता। ऐसा करने से उसका न्याय नष्ट हो जाता है और मनुष्य क्षमा दान मिलने की आशा से महापापी बन सकता है। तथा वह निर्भय एवं उत्साह पूर्वक पाप कर्म करने में संलग्न हो जायगा। जिस प्रकार अपराधी को यह भरोसा हो जाय कि कानून के द्वारा उसके अपराध करने पर कोई सजा नहीं मिल सकती तो वह निर्भय पूर्वक अपराध करता है। सभी प्रणियों को कर्मानुसार फल देना ईश्वर का कार्य है, क्षमा करना नहीं। मनुष्य अपने कर्मों में स्वतंत्र एवं ईश्वर की व्यवस्था में परतंत्र है। मजदूर ने पहाड़ से लोहा निकाला, दुकानदार ने खरीदा, लौहार ने तलवार बनाई, सिपाही ने तलवार ली, उसने किसी को मार दिया। अब अपराधी लोहे का निकालने वाला मजदूर, खरीदने वाला दुकानदार और बनाने वाला लौहार नहीं होगा। बल्कि केवल वह सिपाही होगा जिसने किसी की हत्या की। इसलिये शरीर आदि की उत्पत्ति करने वाला ईश्वर व्यक्ति के कार्यों का भोक्ता नहीं होगा। क्योंकि कर्म करने वाला परमेशवर नहीं होता। यदि ऐसा होता तो क्या किसी को पाप करने की प्रेरणा देता। अतः मनुष्य कार्य करने के लिये स्वतंत्र है। उसी तरह ईश्वर भी कर्मानुसार फल देने के लिये स्वतंत्र है। जीव और ईश्वर दोंनो चेतन स्वरूप हैं। स्वभाव दोनों का पवित्र, अविनाशी एवं धार्मकिता आदि है। परन्तु परमेश्वर के सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय, सबको नियम में रखना, जीवों का पाप पुण्य के फल देना आदि धर्मयुक्त कार्य हैं। और जीव में पदार्थों को पाने की अभिलाषा (इच्छा), द्वेष दुखादि की अनिच्छा, बैर, (प्रयत्न) पुरुषार्थ, बल, (सुख) आनन्द, (दुख) विलाप, अप्रसन्नता, (ज्ञान) विवेक पहचानना ये तुल्य हैं। किन्तु वैशेषिक में प्राण वायु को बाहर निकालना, फिर उसे बाहर से भीतर लेना, (निमेष) आँख को मींचना, (उन्मेष) आँखों को खोलना, (जीवन) प्राण धारण करना, (मनन) निश्चय स्मरण अहंकार करना, (गति) चलना, (इन्दिय) सब इन्दियों को चलाना, (अंतर्विकार) भिन्न-भिन्न सुधा, तृष्णा, हर्ष, शोकादि युक्त होना, ये जीवात्मा के गुण परमात्मा से भिन्न हैं। ईश्वर को त्रिकालदर्शी कहना मूर्खता के अतिरिक्त और कुछ नहीं। क्योंकि जो ईश्वर होकर न रहे वह भविष्यकाल कहलाता है। क्या ईश्वर को कोई ज्ञान रहके नहीं रहता? तथा न होके होता है? इसलिये परमात्मा का ज्ञान एक रस अखण्डित वर्तमान रहता है। भूत, भविष्यत् जीवों के लिये है। जीवों के कर्म की अपेक्षा से त्रिकालज्ञाता ईश्वर में है, स्वतः नहीं। जैसा स्वतंत्रता से जीव करता है, वैसा ही सर्वज्ञता से ईश्वर जानता है और जैसा ईश्वर जानता है वैसा जीव करता है अर्थात् भूत, भविष्य, वर्तमान के ज्ञान और फल देने में ईश्वर स्वतंत्र और जीव किंचित वर्तमान और कर्म करने में स्वतंत्र है। ईश्वर का अनादि ज्ञान होने से जैसा कर्म का ज्ञान है वैसा ही दण्ड देने का भी ज्ञान अनादि है। दोनों ज्ञान उसके सत्य हैं। क्या कर्म ज्ञान सच्चा और दण्ड ज्ञान मिथ्या कभी हो सकता है। इसलिये इसमें कोई भी दोष नहीं आता। परमेश्वर सगुण एवं निर्गुण दोनों है। गुणों से सहित सगुण, गुणों से रहित निर्गुण। अपने अपने स्वाभाविक गुणों से सहित और दूसरे विरोधी के गुणों से रहित होने से सब पदार्थ सगुण और निर्गुण हैं। कोई भी ऐसा पदार्थ नहीं है जिसमें केुवल निर्गुणता या केवल सगुणता हो। किन्तु एक ही में निर्गुणता एवं सगुणता सदा रहती है। वैसे ही परमेश्वर अपने अनंत ज्ञान बलादि गुणों से सहित होने से सगुण रूपादि जड़ के तथा द्वेषादि के गुणों से प्रथक होने से निर्गुण कहलाता है। यह कहना अज्ञानता है कि निराकार निर्गुण और साकार सगुण है। परमेश्वर न रागी है, न विरक्त। राग अपने से भिन्न प्रथक पदार्थों में होता है, सो परमेश्वर से कोई पदार्थ प्रथक तथा उत्तम नहीं है, अतः उसमें राग का होना संभव नहीं है। और जो प्राप्त को छोड़ देवे उसको विरक्त कहते हैं। ईश्वर व्यापक होने से किसी पदार्थ को छोड़ ही नहीं सकता। इसलिये विरक्त भी नहीं है। ईश्वर में प्राणियों की तरह की इच्छा नहीं होती। जो स्वयंभू, सर्वव्यापक, शुद्ध, सनातन, निराकार परमेश्वर है वह सनातन जीवरूपी प्रजा के कल्याणार्थ यथावत् रीतिपूर्वक वेद द्वारा सब विद्याओं का उपदेश करता है। परमेश्वर के सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापक होने से जीव को अपनी व्याप्ति से वेदविद्या के उपदेश करने में कुछ भी मुखादि की अपेक्षा नहीं है। क्योंकि मुख जिव्हा से वर्णोंच्चारण अपने से भिन्न को बोध होने के लिये किया जाता है, कुछ अपने लिये नहीं। क्योंकि मुख जिव्हा के व्यावहार करे बिना ही मन के अनेक व्यावहारों का विचार और शब्दोंच्चारण होता रहता है। कानों का उँगुलियों से मूँद कर देखो, सुनों कि बिना मुख जिव्हा ताल्वादि स्थानों के कैसे कैसे शब्द हो रहे हैं? जब परमात्मा निराकार, सर्वव्यापक है तो अपनी अखिल वेद विद्या का उपदेश जीवस्थ स्वरूप से जीवात्मा में प्रकाशित कर देता है। फिर वह मनुष्य अपने मुख से उच्चारण करके दूसरे को सुनाता है। इसे ही वेद ज्ञान कहते हैं जो समस्त प्राणियों के कल्याण के लिए ईश्वर द्वारा दिया गया हैं।
Vedic vichar
01-02-2022
ईश्वर के संबंध में महर्षि दयानन्द सरस्वती जी के विचार चारों वेदों में ऐसा कहीं नहीं लिखा जिससे अनेक ईश्वर सिद्ध हों। किन्तु यह तो लिखा है कि ईश्वर एक है। देवता दिव्य गुणों के युक्त होने के कारण कहलाते हैं जैसा कि पृथ्वी, परन्तु इसको कहीं ईश्वर तथा उपासनीय नहीं माना है।जिसमें सब देवता स्थित हैं, वह जानने एवं उपासना करने योग्य देवों का देव होने से महादेव इसलिये कहलाता है कि वही सब जगत की उत्पत्ति, स्थिति, प्रलयकर्ता, न्यायाधीश, अधिष्ठाता है। ईश्वर दयालु एवं न्यायकारी है। न्याय और दया में नाम मात्र ही भेद है, क्योंकि जो न्याय से प्रयोजन सिद्ध होता है वही दया से। दण्ड देने का प्रयोजन है कि मनुष्य अपराध करने से बंध होकर दुखों को प्राप्त न हो, वही दया कहलाती है। जिसने जैसा जितना बुरा कर्म किया है उसको उतना है दण्ड देना चाहिये , उसी का नाम न्याय है। जो अपराध का दण्ड न दिया जाय तो न्याय का नाश हो जाय। क्योंकि एक अपराधी को छोड़ देने से सहस्त्रों धर्मात्मा पुरुषों को दुख देना है। जब एक को छोड़ने से सहस्त्रों मनुष्यों को दुख प्राप्त होता हो तो वह दया किस प्रकार हो सकती है? दया वही है कि अपराधी को कारागार में रखकर पाप करने से बचाना। निरन्तर एवं जघन्य अपराध करने पर मृत्यु दण्ड देकर अन्य सहस्त्रों मनुष्यों पर दया प्रकाशित करना। संसार में तो सच्चा झूठा दोनों सुनने में आते हैं। किन्तु उसका विचार से निश्चय करना अपना अपना काम है। ईश्वर की पूर्ण दया तो यह है कि जिसने जीवों के प्रयोजन सिद्ध होने के अर्थ जगत में सकल पदार्थ उत्पन्न करके दान दे रक्खे हैं। इससे भिन्न दूसरी बड़ी दया कौन सी है? अब न्याय का फल प्रत्यक्ष दीखता है कि सुख दुख की व्याख्या अधिक और न्यूनता से प्रकाशित कर रही है। इन दोनों का इतना ही भेद है कि जो मन में सबको सुख होने और दुख छूटने की इच्छा और क्रिया करना है वह दया और ब्राह्य चेष्टा अर्थात बंधन छेदनादि यथावत दण्ड देना न्याय कहलाता है। दोनों का एक प्रयोजन यह है कि सब को पाप और दुख से प्रथक कर देना। ईश्वर यदि साकार होता तो व्यापक नहीं हो सकता। जब व्यापक न होता तो सर्वाज्ञादि गुण भी ईश्वर में नहीं घट सकते। क्योंकि परिमित वस्तु में गुण, कर्म, स्वभाव भी परिमित रहते हैं तथा शीतोष्ण, क्षुधा, तृष्णा और रोग, दोष, छेदन, भेदन आदि से रहित नहीं हो सकता। अतः निश्चित है कि ईश्वर निराकार है। जो साकार हो तो उसके नाक, कान, आँख आदि अवयवों को बनाने वाला ईश्वर के अतिरिक्त कोई दूसरा होना चाहिये। क्योंकि जो संयोग से उत्पन्न होता हो उसको संयुक्त करने वाला निराकार चेतन आवश्य होना चाहिये। कोई कहता है कि ईश्वर ने स्वैच्छा से आप ही आप अपना शरीर बना लिया। तो भी यही सिद्ध हुआ कि शरीर बनाने के पूर्व वह निराकार था। इसलिये परमात्मा कभी शरीर धारण नहीं करता। किन्तु निराकार होने से सब जगत को सूक्ष्म कारणों से स्थूलाकार बना देता है। सर्वशक्तिमान का अर्थ है कि ईश्वर अपने काम अर्थात उत्पत्ति, पालन, प्रलय आदि और सब जीवों के पाप पुण्य की यथा योग्य व्यवस्था करने में किंचित भी किसी की सहायता नहीं लेता अर्थात अपने अनंत सामर्थ्य से ही सब अपना काम पूर्ण कर लेता है। इसका अर्थ यह कदापि नहीं है की परमेश्वर वह सब कर सकता है जो उसे नहीं करना चाहिये। जैसे- अपने आपको मारना, अनेक ईश्वर बनाना, स्वयं अविद्वान, चोरी, व्यभिचारादि पाप कर्म कर और दुखी भी हो सकना। ये काम ईश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव से विरूद्ध हैं। ईश्वर आदि भी है और अनादि भी। ईश्वर सबकी भलाई एवं सबके लिये सुख चाहता है परन्तु स्वतंत्रता के साथ किसी को बिना पाप किये पराधीन नहीं करता। ईश्वर की स्तुति प्रार्थना करने से लाभः- स्तुति से ईश्वर से प्रीति, उसके गुण, कर्म, स्वभाव से अपने गुण, कर्म, स्वभाव को सुधारना। प्रार्थना से निरभयता, उत्साह और सहाय का मिलना। उपासना से परब्रह्म से मेल और साक्षात्कार होना। ईश्वर के हाथ नहीं किन्तु अपने शक्ति रूपी हाथ से सबका रचन, ग्रहण करता। पग नहीं परन्तु व्यापक होने से सबसे अधिक वेगवान। चक्षु का गोलक नहीं परन्तु सबको यथावत देखता। श्रोत नहीं तथाकथित सबकी बातें सुनता। अंतःकरण नहीं परन्तु सब जगत को जानता है और उसको अवधि सहित जानने वाला कोई भी नहीं। उसको सनातन, सबसे श्रेष्ठ, सबमें पूर्ण होने से पुरुष कहते हैं। वह इन्द्रियों और अंतःकरण के बिना अपने सब काम अपने सामर्थ्य से करता है। न कोई उसके तुल्य है और न उससे अधिक। उसमें सर्वोत्तम शक्ति अर्थात जिसमें अनंत ज्ञान, अनंत बल और अनंत क्रिया है। यदि परमेश्वर निष्क्रिय होता तो जगत की उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय न कर सकता। इसलिये वह विभू तथापि चेतन होने से उस क्रिया में भी है। ईश्वर जितने देश काल में क्रिया करना उचित समझता है उतने ही देशकाल में क्रिया करता है। न अधिक न न्यून क्योंकि वह विद्वान है। परमात्मा पूर्ण ज्ञानी है, पूर्ण ज्ञान उसे कहते हैं जो पदार्थ जिस प्रकार का हो उसे उसी रूप में जानना। परमेंश्वर अनंत है। तो उसको अनंत ही जानना ज्ञान, उसके विरुद्ध अज्ञान अर्थात अनंत को सांत और सांत को अनंत जानना भ्रम कहलाता है। यथार्थ दर्शन ज्ञानमिति, जिसका जैसा गुण, कर्म, स्वभाव हो उस पदार्थ को वैसा जानकर मानना ही ज्ञान और विज्ञान कहलाता है और उससे उल्टा अज्ञान। ईश्वर जन्म नहीं लेता, यदुर्वेद में लिखा है ‘अज एकपात्’ सपथर्यगाच्छुक्रमकायम। यदा यदा…………..सृजाम्यहम्। यह बात वेद विरुद्ध प्रमाणित नहीं होती। ऐसा हो सकता है कि श्रीकृष्ण धर्मात्मा धर्म की रक्षा करना चाहते थे कि मैं युग युग में जन्म लेके श्रेष्ठों की रक्षा और दुष्टों का नाश करूँ तो कुछ दोष नहीं। क्योंकि ‘परोपकाराय सतां विभूतयः’ परोपकार के लिये सत्पुरुषों का तन, मन, धन होता है। किन्तु इससे श्रीकृष्ण ईश्वर नहीं हो सकते। वेदार्थ को न जानने, सम्प्रदायी लोंगो के बहकावे और अपने आप अविद्वान होने से भ्रमजाल में फँसके ऐसी ऐसी अप्रमाणिक बातें करते और मानते हैं। जो ईश्वर अवतार शरीर धारण किये बिना जगत की उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय करता है उसके लिये कंस और रावणादि एक कीड़ी के समान भी नहीं हैं। वह सर्वव्यापक होने से कंस रावणादि के शरीर में भी परिपूर्ण हो रहा है। जब चाहे उसी समय मर्मच्छेदन कर नाशकर सकता है। भला वह अनंत गुण, कर्म स्वभावयुक्त परमात्मा को एक शूद्र जीव को मारने के लिये जन्म मरण युक्त कहने वाले को मूर्खपन से अन्य कुछ विशेष उपमा मिल सकती है और जो कोई कहे कि भक्तजन के उद्धार करने के लिये जन्म लेता है तो भी सत्य नहीं है। क्योंकि जो भक्तजन ईश्वर की आज्ञानुकूल चलते हैं उसके उद्धार करने का पूरा सामर्थ्य ईश्वर में है। क्या ईश्वर पृथ्वी, सूर्य, चन्द्रादि जगत के बनाने से कंस रावाणादि का वध और गोवर्धनादि का उठाना बड़े कार्य हैं। जो कोई इस सृष्टि में परमेश्वर के कर्मों का विचार करे तो ‘न भूतो न भविष्यति’ ईश्वर के सद्श्य न कोई है न होगा। इस युक्ति से भी ईश्वर का जन्म सिद्ध नहीं होता। जैसे कोई अनंत आकाश को कहे कि गर्भ में आया और मुठ्ठी में भर लिया, ऐसा कहना कभी सच नहीं हो सकता। क्योंकि आकाश अनंत और सब में व्यापक है इससे न आकाश बाहर आता और न भीतर जाता, वैसे ही अनंत सर्वव्यापक परमात्मा के होने से उसका आना जाना कभी सिद्ध नहीं हो सकता। आना और जाना वहाँ हो सकता है जहाँ न हो। क्या परमेशवर गर्भ में व्यापक नहीं था जो कहीं से आया और बाहर नहीं था जो भीतर से निकला। ऐसा ईश्वर के विषय में कहना और मानना विद्याहीनों के सिवाय कौन कह और मान सकेगा। इसलिये परमेश्वर का आना जाना और जन्म-मरण कभी सिद्ध नहीं हो सकता। इसलिये ईसा आदि को ईश्वर का अवतार नहीं समझना चाहिये। वे राग, द्वेष, क्षुधा, तृष्णा, भय, शोक, दुख, सुख, जन्म,मरण आदि गुणायुक्त होने से मनुष्य थे। ईश्वर पाप क्षमा नहीं कर सकता। ऐसा करने से उसका न्याय नष्ट हो जाता है और मनुष्य क्षमा दान मिलने की आशा से महापापी बन सकता है। तथा वह निर्भय एवं उत्साह पूर्वक पाप कर्म करने में संलग्न हो जायगा। जिस प्रकार अपराधी को यह भरोसा हो जाय कि कानून के द्वारा उसके अपराध करने पर कोई सजा नहीं मिल सकती तो वह निर्भय पूर्वक अपराध करता है। सभी प्रणियों को कर्मानुसार फल देना ईश्वर का कार्य है, क्षमा करना नहीं। मनुष्य अपने कर्मों में स्वतंत्र एवं ईश्वर की व्यवस्था में परतंत्र है। मजदूर ने पहाड़ से लोहा निकाला, दुकानदार ने खरीदा, लौहार ने तलवार बनाई, सिपाही ने तलवार ली, उसने किसी को मार दिया। अब अपराधी लोहे का निकालने वाला मजदूर, खरीदने वाला दुकानदार और बनाने वाला लौहार नहीं होगा। बल्कि केवल वह सिपाही होगा जिसने किसी की हत्या की। इसलिये शरीर आदि की उत्पत्ति करने वाला ईश्वर व्यक्ति के कार्यों का भोक्ता नहीं होगा। क्योंकि कर्म करने वाला परमेशवर नहीं होता। यदि ऐसा होता तो क्या किसी को पाप करने की प्रेरणा देता। अतः मनुष्य कार्य करने के लिये स्वतंत्र है। उसी तरह ईश्वर भी कर्मानुसार फल देने के लिये स्वतंत्र है। जीव और ईश्वर दोंनो चेतन स्वरूप हैं। स्वभाव दोनों का पवित्र, अविनाशी एवं धार्मकिता आदि है। परन्तु परमेश्वर के सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय, सबको नियम में रखना, जीवों का पाप पुण्य के फल देना आदि धर्मयुक्त कार्य हैं। और जीव में पदार्थों को पाने की अभिलाषा (इच्छा), द्वेष दुखादि की अनिच्छा, बैर, (प्रयत्न) पुरुषार्थ, बल, (सुख) आनन्द, (दुख) विलाप, अप्रसन्नता, (ज्ञान) विवेक पहचानना ये तुल्य हैं। किन्तु वैशेषिक में प्राण वायु को बाहर निकालना, फिर उसे बाहर से भीतर लेना, (निमेष) आँख को मींचना, (उन्मेष) आँखों को खोलना, (जीवन) प्राण धारण करना, (मनन) निश्चय स्मरण अहंकार करना, (गति) चलना, (इन्दिय) सब इन्दियों को चलाना, (अंतर्विकार) भिन्न-भिन्न सुधा, तृष्णा, हर्ष, शोकादि युक्त होना, ये जीवात्मा के गुण परमात्मा से भिन्न हैं। ईश्वर को त्रिकालदर्शी कहना मूर्खता के अतिरिक्त और कुछ नहीं। क्योंकि जो ईश्वर होकर न रहे वह भविष्यकाल कहलाता है। क्या ईश्वर को कोई ज्ञान रहके नहीं रहता? तथा न होके होता है? इसलिये परमात्मा का ज्ञान एक रस अखण्डित वर्तमान रहता है। भूत, भविष्यत् जीवों के लिये है। जीवों के कर्म की अपेक्षा से त्रिकालज्ञाता ईश्वर में है, स्वतः नहीं। जैसा स्वतंत्रता से जीव करता है, वैसा ही सर्वज्ञता से ईश्वर जानता है और जैसा ईश्वर जानता है वैसा जीव करता है अर्थात् भूत, भविष्य, वर्तमान के ज्ञान और फल देने में ईश्वर स्वतंत्र और जीव किंचित वर्तमान और कर्म करने में स्वतंत्र है। ईश्वर का अनादि ज्ञान होने से जैसा कर्म का ज्ञान है वैसा ही दण्ड देने का भी ज्ञान अनादि है। दोनों ज्ञान उसके सत्य हैं। क्या कर्म ज्ञान सच्चा और दण्ड ज्ञान मिथ्या कभी हो सकता है। इसलिये इसमें कोई भी दोष नहीं आता। परमेश्वर सगुण एवं निर्गुण दोनों है। गुणों से सहित सगुण, गुणों से रहित निर्गुण। अपने अपने स्वाभाविक गुणों से सहित और दूसरे विरोधी के गुणों से रहित होने से सब पदार्थ सगुण और निर्गुण हैं। कोई भी ऐसा पदार्थ नहीं है जिसमें केुवल निर्गुणता या केवल सगुणता हो। किन्तु एक ही में निर्गुणता एवं सगुणता सदा रहती है। वैसे ही परमेश्वर अपने अनंत ज्ञान बलादि गुणों से सहित होने से सगुण रूपादि जड़ के तथा द्वेषादि के गुणों से प्रथक होने से निर्गुण कहलाता है। यह कहना अज्ञानता है कि निराकार निर्गुण और साकार सगुण है। परमेश्वर न रागी है, न विरक्त। राग अपने से भिन्न प्रथक पदार्थों में होता है, सो परमेश्वर से कोई पदार्थ प्रथक तथा उत्तम नहीं है, अतः उसमें राग का होना संभव नहीं है। और जो प्राप्त को छोड़ देवे उसको विरक्त कहते हैं। ईश्वर व्यापक होने से किसी पदार्थ को छोड़ ही नहीं सकता। इसलिये विरक्त भी नहीं है। ईश्वर में प्राणियों की तरह की इच्छा नहीं होती। जो स्वयंभू, सर्वव्यापक, शुद्ध, सनातन, निराकार परमेश्वर है वह सनातन जीवरूपी प्रजा के कल्याणार्थ यथावत् रीतिपूर्वक वेद द्वारा सब विद्याओं का उपदेश करता है। परमेश्वर के सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापक होने से जीव को अपनी व्याप्ति से वेदविद्या के उपदेश करने में कुछ भी मुखादि की अपेक्षा नहीं है। क्योंकि मुख जिव्हा से वर्णोंच्चारण अपने से भिन्न को बोध होने के लिये किया जाता है, कुछ अपने लिये नहीं। क्योंकि मुख जिव्हा के व्यावहार करे बिना ही मन के अनेक व्यावहारों का विचार और शब्दोंच्चारण होता रहता है। कानों का उँगुलियों से मूँद कर देखो, सुनों कि बिना मुख जिव्हा ताल्वादि स्थानों के कैसे कैसे शब्द हो रहे हैं? जब परमात्मा निराकार, सर्वव्यापक है तो अपनी अखिल वेद विद्या का उपदेश जीवस्थ स्वरूप से जीवात्मा में प्रकाशित कर देता है। फिर वह मनुष्य अपने मुख से उच्चारण करके दूसरे को सुनाता है। इसे ही वेद ज्ञान कहते हैं जो समस्त प्राणियों के कल्याण के लिए ईश्वर द्वारा दिया गया हैं।
SWAMI PRANABANANDA SARASWATI
31-01-2022
SWAMI PRANABANANDA SARASWATI ( NOV 09 1932 - JAN 31 2022 ) Swami Pranabananda Saraswati (1932-2022) was the famous personality and Developer of Arya Samaj in Odisha. His Birth name was Gopal Pradhan. He (Gopal Pradhan) was born in the year 1932 in Arakili Village of Anugul District (Odisha). His Father's Name was Ghasiram Pradhan and mother's name was Apparna Devi. he had left his family in the age of 12 for spirituality. he visited several village and palaces in Odisha as wells as India to spread Atya Samaj, Swami Dayanada thought & spirituality and also to include the Vedic spirit among the odisha people. Swami Pranabananda Saraswati was dedicated his total life for religious purpose. he joined with Swami Dayanada Saraswati concept i.e Arya Samaj and done many social and welfare activities and also published several arya samaj articles and books on Arya Samaj and Hinduism. he has done his level best to spread the arya samaj sprit among the people and also thought veda, yoga, vedic culture, vedic vichar to the odia people as well as to the other states. he was a humble and a kind man was linked by the odia people and to the Indian Arya Samaj for his soft approach on them. he also gave teaching on spiritualism and explained about the importance of Veda, Arya Samaj to the odisha and others state's people. he was a noble and soft spoken person and never hated others. he has rendered the Arya Samaj social services, in order to make others happy and to live a p[peaceful and blessed live. PROFESSION ARYA SAMAJ, HINDU YOGI AND SAINT ADDRESS VEDAVYAS, ROURKELA (ARYA SAMAJ), ODISHA
ଓ୩ମ୍ ଶାନ୍ତିଃ
31-01-2022
ଓ୩ମ୍ କ୍ରତୋ ସ୍ମର କ୍ଲିବେ ସ୍ମର କ୍ରୁତଂ ସ୍ମର ା ଏକ ମହାନ ଆତ୍ମା ଈଶ୍ବରଙ୍କ ନିକଟକୁ ପ୍ରତ୍ଯାବର୍ତ୍ତନ କଲେ ା ଆମେ ଏକ ମହାନ ଆତ୍ମା, ମାନବ ଦରଦୀ ସନ୍ୟାସୀ ଙ୍କୁ ହରାଇଲୁ ା ଓ୩ମ୍ ଶାନ୍ତିଃ ଶାନ୍ତିଃ ଶାନ୍ତିଃ ଓ୩ମ୍ ା ସମସ୍ତ ଆର୍ଯ୍ଯ ସମାଜ ବିଚାର ଧାରା ର ଅନୁଗାମୀ ତଥା କୌଣସି ପ୍ରକାର ରେ ସ୍ବାମିଜୀ ଙ୍କ ନିକଟରେ ଋଣୀ ଭାବୁଥିବା ସତ୍ଜଜନ ମା ଭାଇ ଓ ଭଉଣୀ ମାନଙ୍କୁ ନିବେଦନ ଅମର ଆତ୍ମାର ସଦ୍ ଗତି କାମନା କରି ଆସନ୍ତା କାଲି ସବୁଠାରେ ଶାନ୍ତି ଯଜ୍ଞ କରିବାକୁ ଆକୁଳ ନିବେଦନ କରୁଛୁ ା ଓ୩ମ୍ ାାVedic Vichar
ସ୍ଥୂଳ ଶରୀରକୁ ଆତ୍ମା ଛାଡିବା ପୂର୍ବରୁ କ'ଣ କରିବା ଉଚିତ୍।
30-01-2022
ସ୍ଥୂଳ ଶରୀରକୁ ଆତ୍ମା ଛାଡିବା ପୂର୍ବରୁ କ'ଣ କରିବା ଉଚିତ୍। ଏହା ହିଁ ଆତ୍ମା ଓ ପରମାତ୍ମାଙ୍କର ମିଳନସ୍ଥଳ ଅଟେ । ଏହି ଶରୀର ଏ ଭବସାଗର ପାର ପାଇଁ ଏକ ସ୍ଵତନ୍ତ୍ର ନୌକା ***********************************ଶରୀର ମଧ୍ୟରେ ଆତ୍ମାଭିନ୍ନ ବୋଲି ବିଶ୍ଳେଷଣ କରିବା କ୍ଲିଷ୍ଟ ଅଟେ। ତଥାପି ଏହା ଆଲୋଚ୍ୟ ବିଷୟ । ଏଠାରେ ଯର୍ଜୁବେଦ କହନ୍ତି" ବାୟୁର ନିଳମମୃତ ମଥେଦମ୍ ଉସ୍କାନ୍ତ ଶରୀରମ୍ । ଓ ୩ମ୍ କ୍ରତୋସ୍ମର କ୍ଲ୍କିବେ ସ୍ମର କୃତମ୍ ସ୍ମର ॥୪୦/୧୫ ॥ ଅର୍ଥାତ୍ ଦେହରୁ ଆତ୍ମା ଚାଲିଗଲା ପରେ ଏ ଶରୀର ଭସ୍ମ ବା ପାଉଁଶ ହୋଇଯାଏ, ଏହି ଶରୀର ପ୍ରାର୍ଥିବ କିନ୍ତୁ ଆତ୍ମା ଆପାର୍ଥିବ (ଇଳ_ପୃଥିବୀ ଅଟେ ଯାହା ପାର୍ଥିବ ଅନିଳ ଅର୍ଥ ଆପାର୍ଥିବ ଯାହା ଆତ୍ମାକୁ କୁହାଯାଇଅଛି। ଆତ୍ମା ଅମର,ପବିତ୍ର, ସତ୍ୟ ଓ ଅମୃତ ଅଟେ। ଜୀବନ୍ତ ଦେହ ପବିତ୍ର ଓ ପୂଜ୍ୟ ଏଣୁ ମୃତ୍ୟୁ ପୂର୍ବରୁ( କ୍ର ତୋ ସ୍କର) ହେ କର୍ମ ସମ୍ପନ୍ନ ଜୀବ(ଓ ୩ମ୍) ସର୍ବ ରକ୍ଷକପରମାତ୍ମାଙ୍କୁସ୍ମରଣ କର।( କୃତମସ୍ମର) କରିଥିବା କର୍ମକୁ ସ୍ମରଣ କର। କାରଣ ଏଠାରେ ତୃଟି ମାର୍ଜନା ହୁଏ । କ୍ଲ୍କିବେ ସ୍ମର- ଉନ୍ନତି ପାଇଁ ନା ଜନ୍ମ ନାମୃତ୍ୟୁ, ନା ପୃଥିବୀ, ଆକାଶଦ୍ୟୁ ଲୋକ ଉର୍ଦ୍ଧ୍ ସମସ୍ତରେ ବ୍ୟାପ୍ତ ଥିବା ସେହିପରମାତ୍ମାଙ୍କୁ ସ୍ମରଣ କର। କାରଣ ଜନ୍ମରୁ ସ୍ମରଣ କରିଥାଏ ସେ ମୃତ୍ୟୁ ଶଯ୍ୟାରେ ମଧ୍ୟ ସେହିପର ମାତ୍ମାଙ୍କର ଶ୍ରେଷ୍ଠ ଓ ୩ମ୍ ସ୍ମରଣ କରିପାରିବ। ମରଣାସନ୍ନକାଳରେ ମନୁଷ୍ୟକର୍ମ କରିବା ସ୍ଵତନ୍ତ୍ରତା ନ ଥାଏ। ଏଠାରେ ବେଦମନ୍ତ୍ର ଉପଦେଶ ଦେଇ କହନ୍ତି ସର୍ବ ନିୟନ୍ତା ପ୍ରଭୁଙ୍କ ଠାରେ ଯେ ସର୍ବଦା ଧ୍ୟାନ ରଖେ ସେ ମୃତ୍ୟୁ ଶର୍ଯ୍ୟାରେ ମଧ୍ୟ ସ୍ମରଣ କରିପାରିବ। ସେ ପର ଜୀବନର ସଂଶୋଧନ ପାଇଁ କୃପାଭିକ୍ଷା କରିପାରିବ ଅନ୍ୟମାନେ ନୁହଁନ୍ତି। ଇତି ଓ ୩ମ୍ । ରାଜକିଶୋର ।
ईश्वर (vedic vichar)
29-01-2022
प्र. 1: ईश्वर का मुख्य नाम क्या है ? उत्तर: ईश्वर का मुख्य नाम ‘ओ३म्’ है। प्र. 2: ईश्वर के कुल कितने नाम हैं ? उत्तर: ईश्वर के असंख्य नाम हैं। प्र. 3: ईश्वर के नामों से हमें क्या पता चलता है ? उत्तर: ईश्वर के नामों से हमें उसके गुण, कर्म और स्वभाव का पता चलता है। प्र. 4: ईश्वर एक है या अनेक ? उत्तर: ईश्वर एक ही है उसके नाम अनेक हैं। प्र. 5: क्या ईश्वर कभी जन्म लेता है ? उत्तर: नहीं, ईश्वर कभी जन्म नहीं लेता। वह अजन्मा है। प्र. 6: स्तुति, प्रार्थना, उपासना किसकी करनी चाहिए ? उत्तर: स्तुति, प्रार्थना, उपासना केवल ईश्वर की ही करनी चाहिए। प्र. 7: ईश्वर से अध्कि सामर्थ्यशाली कौन है ? उत्तर: ईश्वर से अध्कि सामर्थ्यशाली और कोई नहीं है। वह सर्वशक्तिमान् है। प्र. 8: ‘इन्द्र’ नाम किसका है ? उत्तर: जिसमें सबसे अधिक ऐश्वर्य होता है उसे इन्द्र कहते हैं अर्थात् ‘इन्द्र’ ईश्वर का नाम है। प्र. 9: दुःख कितने प्रकार के और कौन-कौन से होते हैं ? उत्तर: दुःख तीन प्रकार के होते हैं - (1) आध्यात्मिक, (2) आधिभौतिक, (3) आधिदैविक दुःख। प्र. 10: आध्यात्मिक दुःख किसे कहते हैं ? उत्तर: अविद्या, राग-द्वेष, रोग इत्यादि से होने वाले दुःख को आध्यात्मिक दुःख कहते हैं। प्र. 11: आधिभौतिक दुःख किसे कहते हैं ? उत्तर: मनुष्य, पशु-पक्षी, कीट-पतंग, मक्खी-मच्छर, सांप इत्यादि से होने वाले दुःख को आधिभौतिक दुःख कहते हैं। प्र. 12: आधिदैविक दुःख किसे कहते हैं ? उत्तर: अधिक सर्दी-गर्मी-वर्षा, भूख-प्यास, मन की अशान्ति से होने वाले दुःख को आधिदैविक दुःख कहते हैं। प्र. 13: ईश्वर के कोई दस नाम बताइए। उत्तर: (1) विष्णु, (2) वरुण, (3) परमात्मा, (4) पिता, (5) ब्रह्मा, (6) महादेव, (7) महेश, (8) सरस्वती, (9) शिव, (10) गणेश। यह नाम ईश्वर के गुणवाचक हैं इन नामों के चित्र नहीं बन सकते। प्र. 14: ईश्वर के तीन गुण बताइए। उत्तर: ईश्वर के तीन गुण हैं - न्याय, दया और ज्ञान। प्र. 15: ईश्वर के तीन कर्म बताइए। उत्तर (1) ईश्वर संसार को बनाता है। (2) ईश्वर वेदों का उपदेश करता है। (3) ईश्वर कर्मों का फल देता है। प्र. 16: ‘अनन्त’ का अर्थ क्या है ? उत्तर: जिसका कभी अन्त नहीं होता उसे अनन्त कहते हैं। ईश्वर अनन्त है। प्र. 17: क्या ‘गणेश’ ईश्वर का नाम है? क्यों ? उत्तर: हाँ, क्योंकि वह पूरे संसार का स्वामी है और सबका पालन करता है। प्र. 18: ‘सरस्वती’ से आप क्या समझते हैं ? उत्तर ‘सरस्वती’ ईश्वर का एक नाम है। संसार का पूर्ण ज्ञान जिसे होता है, उसे सरस्वती कहते हैं। प्र. 19: ईश्वर को ‘निराकार’ क्यों कहते हैं ? उत्तर: ईश्वर का कोई आकार, रुप, रंग, मूर्ति नहीं है। अतः उसे निराकार कहते हैं । प्र. 20: क्या राहु और केतु ग्रहों के नाम हैं। उत्तर: नहीं, इस नाम के कोई ग्रह नहीं होते। ये दोनों नाम ईश्वर के हैं। प्र. 21: ईश्वर के किन्हीं दो नामों की व्याख्या कीजिए। उत्तर (क) ब्रह्मा - ईश्वर जगत् को बनाता है इसलिए उसे ब्रह्मा कहते हैं। (ख) शुद्ध - राग-द्वेष, छल-कपट, झूठ इत्यादि समस्त बुराइयों से वह दूर है। उसका स्वभाव पवित्र है। प्र. 22: ‘सत्यार्थ प्रकाश’ नामक ग्रन्थ की रचना किसने की थी ? उत्तर: ‘सत्यार्थ प्रकाश’ नामक ग्रन्थ की रचना महर्षि दयानन्द ने की थी।
ଉତ୍ତମ ବିଚାରଧାରା
28-01-2022
ମୁକ୍ତ ମସ୍ତିଷ୍କଟିଏ ସବୁବେଳେ ଉତ୍ତମ ବିଚାରଧାରା ଯୁକ୍ତ ହୋଇଥାଏ। ନିଜ ଅଜାଣତରେ ଆମେ ଯାବତୀୟ ଅଦରକାରୀ ଭାବନାକୁ ମୁଣ୍ଡରେ ଭର୍ତ୍ତିକରି ଜାମ କରିଦେଉ। ଫଳରେ ଅଯଥା ମୋହ ଗସ୍ତ ହୋଇ ସତ୍ ଚିନ୍ତା ଏବଂ ସତ୍ ମାର୍ଗରୁ ବଞ୍ଚିତ ହୋଇଥାଉ। ଆମେ ଧରିନେଉ ଯେ ଯାହା ଆମ ପାଖରେ ଅଛି ସବୁ ଆମ ଆୟତରେ। ଯଦି ଆମେ ନିଜେ ସେଇ ଅଦରକାରୀ ଭାବନା ସବୁକୁ ନିଜ ଭିତରୁ ଦୂରେଇ ଦେଇ ପାରିବା ତେବେ ଦିବ୍ୟ ଆଲୋକରେ ଉଦ୍ଭାସିତ ହୋଇ ଉଠିବ ଆମର ସତ୍ତା। Vedic Vichar Stress Management Cell
ବିନମ୍ରତା ଉତ୍ତମ ମଣିଷର ଭୂଷଣ
28-01-2022
ବିନମ୍ରତା ଜଣେ ଉତ୍ତମ ମଣିଷର ଭୂଷଣ। ଯେଉଁ ବ୍ୟକ୍ତି ଏହି ବିନମ୍ରତା ଭୂଷଣରେ ଭୂଷିତ ହୋଇଥାଏ ସେ ସମାଜରେ ସବୁ କ୍ଷେତ୍ରରେ ପୂଜା ପାଇଥାଏ। ନମ୍ରତା ଗୁଣ ଦ୍ଵାରା ସେ ଅସମ୍ଭବକୁ ମଧ୍ୟ ସମ୍ଭବ କରି ଦେଇଥାଏ। ଆମେ ଜାଣିଛୁ ଫଳ ଭରା ବୃକ୍ଷ ଯେପରି,ବର୍ଷା ସମୟରେ ବାଦଲ ଯେପରି ନମ୍ରତା ଗୁଣକୁ ଦେଖାଇଥାନ୍ତି,ସେହିପରି ସଜ୍ଜନ ଯେତେ ସମ୍ପତ୍ତି, ପଦ ପଦବୀର ଅଧିକାରୀ ହୋଇଥିଲେ ମଧ୍ୟ ନିଜର ନମ୍ରତା ଗୁଣକୁ ପ୍ରକାଶ କରିଥାନ୍ତି। ଏହାଦ୍ବାରା ମଣିଷର ଜୀବନକୁ ଉଜ୍ଜ୍ବଳ କରି ସର୍ବାଙ୍ଗ ସୁନ୍ଦର କରିଥାଏ। ଏହାଦ୍ବାରା ମଣିଷର ବାହ୍ୟ ଓ ଆନ୍ତରିକ ଉଭୟ ଜୀବନ ସୁଖମୟ ହୋଇ ଯାଇଥାଏ। (Sekhar Chandra Panigrahi, Berhampur, Odisha)
Republic Day 2022
26-01-2022
Vedic Vichar, Berhampur, Odisha celebrated the Republic Day 2022 at Vedic Vichar office. In the occasion Dr. Deepak Kumar Mishra, Dr. Jatin Bishoyi, Dr. Yajnya Dutta Nayak, Dr. Bibhuti Prasad Barik and Prof. Laxman Maharana were present. Jai Hind, Jai Arya Samaj, Jai Dayanand Saraswati ????????????????????
वेद विचार
25-01-2022
कालोऽयं प्रलयो वदन्ति कवयो हेतौ विलीना गुणाः न व्यक्तं समुपैति यत्र करणं साम्यं सदा तिष्ठति। स्रष्टा याति तदा प्रयत्नरहितो भोक्तापि मूढायते रात्रौ भाति यथा प्रसुप्तनगरी चास्ते तथा संक्षयः।। ଅର୍ଥ :-- କବିମାନେ ଏହି ସମୟକୁ ପ୍ରଳୟ ବୋଲି କହିଥାଆନ୍ତି। ଯେଉଁଠାରେ ସତ୍ତ୍ୱ, ରଜଃ ଓ ତମୋଗୁଣଗୁଡିକ ହେତୁ ( ପ୍ରକୃତି) ରେ ବିଲୀନ ହୁଅନ୍ତି। ଯେଉଁଠାରେ କରଣ( ପ୍ରକୃତି) ପ୍ରକାଶିତ ହୁଏନାହିଁ, ବରଂ ସର୍ବଦା ସାମ୍ୟରୂପରେ ରହିଥାଏ। ସେତେବେଳେ ସ୍ରଷ୍ଟା ପ୍ରୟତ୍ନବିହୀନ ହୁଅନ୍ତି ଓ ଭୋକ୍ତା ଜୀବାତ୍ମାମାନେ ମୋହରୂପରେ ଥାଆନ୍ତି । ରାତ୍ରିରେ ଯେପରି ପ୍ରସୁପ୍ତନଗରୀ ( କୋଳାହଳଶୂନ୍ୟ/ଶାନ୍ତ) ଶୋଭାପାଏ, ଠିକ୍ ସେହିପରି ପ୍ରଳୟକାଳ ରହିଥାଏ।
ईश्वर को न भूलें (vedic vichar)
24-01-2022
*ओम् वायुरनिलममृतमथेदं भस्मान्तंशरीरम् ।* *ओ३म् क्रतो स्मर क्लिवे स्मर कृतं स्मर ।।* ―(यजुर्वेद 40-15) *शब्दार्थ―*_हे (क्रतो) कर्म करने वाले जीव ! तू शरीर छूटते समय (ओ३म्) इस नाम वाच्य ईश्वर को (स्मर) स्मरण कर (क्लिवे) अपने सामर्थ्य के लिए परमात्मा और अपने स्वरुप का (स्मर) स्मरण कर, (कृतम्) अपने किए का (स्मर) स्मरण कर। इस संसार का (वायुः) धनञ्जयादिरुप वायु (अनिलम्) को, कारण रुप वायु (अमृतम्) अविनाशी कारण को धारण करता (अथ) इसके अनन्तर (इदम्) यह (शरीरम्) नष्ट होने वाला सुखादि का आश्रय शरीर (भस्मान्तम) अन्त में भस्म होने वाला होता है। ऐसा जानो।_ अर्थात्, इस वेद मन्त्र में कहा गया है कि हे कर्मशील जीव तथा प्रगति करने वाले जीवात्मा! तू अनिलम्–वायु अप्राकृत अर्थात् प्रकृति का बना हुआ नहीं है, अपितु अमृत पुत्र अमर आत्मा है और यह जो शरीर है, मरने के बाद राख हो जाने वाला है, इसलिए तू शरीर के त्यागते समय परमात्मा के अनेक नामों में से श्रेष्ठ और प्यारा जो 'ओ३म्' नाम है, उसका वाणी से जाप कर और मन में उस प्रभु का चिन्तन कर, परन्तु अन्त समय में तो तभी स्मरण आएगा जब अपने जीवन काल में ही परमपिता परमात्मा को अपना साथी बनाएंगे और उसके नाम का स्मरण करेंगे। तभी तो आदेश दिया गया है कि पहले तो जीवन भर ईश्वर का स्मरण कर, सामर्थ्य प्राप्ति के लिए, फिर कहा कि "क्रतोस्मर" अर्थात् आगामी जीवन के लिए जो कर्तव्य कर्म करने हैं, उनको भी याद कर और वर्तमान जीवन को सार्थक बना और मंत्र के अन्तिम भाग में कहा है कि तू वर्तमान जीवन मैं कृत कर्मों को भी देख और अपना निरीक्षण कर कि मैं कौन हूँ, कहाँ से आया हूँ, मुझे क्या करना चाहिए था और क्या नहीं करना चाहिए था और प्रतिदिन मेरी क्या दिनचर्या है। यदि मनुष्य रात को सोते समय अपने दिन भर के किए हुए कर्मों की पड़ताल ही कर ले और विचार कर ले कि यह कर्म मेरा कल्याणकारी नहीं था तो अगले दिन से अपने कार्यों में सुधार करता जाएगा और ऐसा करते-करते उसका सारा जीवन ही सुधर जाएगा, पर इसके लिए कड़े अभ्यास और वैराग्य की आवश्यकता है। शास्त्र कहता है कि आत्मा चैतन्य है और यह शरीर जो है, यह योनि कला है, इसके निर्मात्रा हम स्वयं हैं, हमने जो पूर्व जन्मों में अच्छे कर्म किए हैं उनके फलस्वरुप ही हमें यह मनुष्य जन्म और सुन्दर काया मिली है। इसी प्रकार आगामी जीवन के निर्माता हम स्वयं ही हैं। कहा है कि *"तपो राज्य और राज्यो नर्क"* इसका अभिप्राय यह है कि वर्तमान राजा ने अपने पूर्व जन्मों में अच्छे कर्म किए, तपस्वी जीवन व्यतीत किया तो वर्तमान जीवन में राजा बना, यदि इस जीवन में कर्तव्यपरायण होकर और त्याग भावना से व धर्म का पालन करके राज्य करेगा तो मोक्ष का अधिकारी बनेगा और यदि इसके विपरित विषय-वासनाओं में फंसकर स्वार्थ भावना से राज्य करेगा तो उसके लिए नरक का द्वार खुला है। जीव कर्म करने में स्वतन्त्र है पर उसका फल भुगतने के लिए परतन्त्र अर्थात् परमेश्वर के न्याय से उसको फल मिलता है। इसलिए जैसा कर्म करेगा, उसी को अनुसार उसको फल मिलेगा। परमात्मा साक्षी रुप में उसे देख रहा है और सर्वव्यापक होकर हमारे साथ हर समय जुड़ा हुआ है। हम उसको अपने साथ न समझें, यह अलग बात है। बस इस सारे वृत्तांत का यही अभिप्राय है कि हर समय उस प्रभु को अपना सहायक समझें, उसी का स्मरण करें। स्वार्थ भावना को त्याग कर निष्काम भाव से उसी की आज्ञानुसार सब कार्य करें और सदा *'ओ३म्'* नाम का जाप करें। यदि हमारा सारा जीवन ऐसा बीतेगा तो अन्त समय प्रभु स्वयं हमारे सामने प्रकाश की किरण बनकर आएंगे और हम प्रभु का स्मरण करते हुए संसार से विदा हो जाएंगे। जैसा सन्तों का कथन है― *ओ३म् नाम की लूट पड़ी है, लूट सके तो लूट।* *अन्त समय पछताएगा जब प्राण जाएगा छूट।।*
The Vedas — Backbone of Our Culture (vedic vichar)
24-01-2022
- Swami (Dr.) Satya Prakash Saraswati (1905-1995) (Published on the occasion of Swami Satya Prakash ji Death Anniversary) The Vedas constitute the back-bone of our entire culture and development through the millennia not only in India but also abroad. For most of us, they constitute the first literature that dawned on us at the earliest time of man's appearance on this globe. In India, we regard them as the revealed knowledge. What the effulgent sun is to animate and inanimate activity on the terrestrial earth, the Vedic enlightenment is to the prestigious life of man on this planet for the majority of humanity. Man with his most highly evolved physico-psychic complex is a gem in our divine creation, much above the animal level. For his fulfillment, the necessary code of conduct is incorporated in the Vedic texts. It is the most precious gift to humanity from our benign Creator and Lord. ● Origin of Language We are told that the divine revelation came to man at a time when the world was in its infancy. I shall not take you to primitive man and his group as conceived by an evolutionist of the modern age – a society which was least conducive for the type of revelation we received from the divine source. Undoubtedly, the primitive and mentally unevolved man could have been least receptive to the highest type of enlightenment. I shall not refer you to the history or the geography of the event of revelation, for the time-space reckoning must have started very long ago in our history. I am talking of days when man had no language, though he had a complete set of vocal and hearing organs. Think of the days when man had existed without a vocabulary; he had not yet called the sun the sun, the moon the moon, and the earth the earth. How surprising it was that he was flourishing in surroundings to which he had not yet given names. He was moving, sitting, sleeping, eating and drinking but he had no terminology for these functions. His gesture had no words. He was enjoying colorful Nature; he had no terms for white, red, pink, blue, green or black. In the midst of such a state of affairs now inconceivable, the divine knowledge was revealed to him through exceptional personalities with high receptivity, stupendous memory and superb understanding. The earliest contribution of men of this group was to assign names to the objects of surroundings in the most general terms. The language of the divine Rigveda itself has an astonishing stock of about 35,000 words in 10,000 verses with immense intrinsic potentiality for coining new terms. With the revealed Vedas starts the concept of human language in terms of which man not only talked with contemporary man, but also continued his link with posterity. Without having an instinct to communicate to posterity, man could not have made any history, culture, philosophy, science and technology. This communication could have been possible only through a language, as divine as Creation. Philosophy or science assumes the pre-existence of orderliness in Creation, the Rita, another name for eternal consistency. According to a theistic concept, there is a concomitant relationship between the Veda, Creation and science. A theist is one who submits or surrenders himself to the Divine Creator, the Divine Language (WORD) and the Divine Creation – the three realities. Thousands of years have passed since the divine knowledge was first revealed to a small group of seers (the four Samhitas to the first four – Agni, Vayu, Aditya and Angiras, so named traditionally). There was another group of seers with stupendous memory, who passed on this knowledge to the successive generations. The art of script and writing was invented and developed at a much later stage. ● Phenomenon of Oral Communication In the British Museum, one may see a written Bible of the third and fourth centuries A.D.; the Holy Quran of thirteen hundred years ago beautifully scribed, but one would rarely find a script of the Veda of such an ancient date. Such an amazing phenomenon of preserving the most ancient texts of 20,000 verses through all the years of history could not have occurred in any other land. The credit goes to the traditional Brahmanas of India who against all hazards of human history could keep the texts so well preserved with the right phonetic accents and accuracy to this day. ● Dynamism in the Vedic Period Man was very dynamic in the Vedic Age when he for the first time domesticated cattle and developed barley, rice and lentils. He with regularity introduced innovations in agriculture. The Rishis of the days of the Yajnas laid the foundations of the earliest physical and life sciences including mathematics and astronomy. The places where these yajnas were performed were known as yajnashalas; they were man's earliest temples of learning, his academies and his open-air laboratories and observatories. There could not have been any limit to man's achievement and his collaborative accomplishments. The Veda stands for the philosophy of dynamic realism, against that of static mysticism. ● Knowledge and Theism It was the Veda that inspired earliest man. In other words, the ancients drew inspiration from God, God's Words and God's Creation. You cannot think of knowledge by eliminating God from His Creation. After all, what is knowledge? What is physics? Or metaphysics? Is it not with reference to our Great Creation? It is just the study of a little activity in the dynamic world in a particular parameter. The world is the source-book of all such studies. In our own body complex, there is something, the study of which is beyond the dimensions of our physics – how does a sense-organ function? How do the vital forces operate and how does the mind work? These questions pertain to that realm of creation which is also as real as the physical realm. Raising questions in their context, the exploring mysteries and finding out the generalities take us to the disciplines of psychology and metaphysics and so, ultimately, it is our creation (ultra-micro, micro and macro) which has to be studied and explored. The Veda takes you even a little beyond this creation. While the Vedic texts present to you a little picture of the mysteries of this creation, they by and by lift you up a little beyond the physical or metaphysical reality. They raise you from creation to the Creator. They take you from the Sun to the Sun that shines behind the Sun, to the Fire that glows behind the mundane fire; they take you to Light that enlightens all the lights familiar to us. They take you to Beauty and Pleasure behind the so called beauty and pleasure that exist in our everyday life. And thus the Veda becomes the source-book of the para vidya (mundane knowledge) and apara vidya both (science of Ultimate Reality). In the lower stages, all the disciplines of knowledge are distinct and separate. What botany is is not physics; what hearing is is not seeing, what knowing is is not feeling but in the apara vidya (the knowledge of the Supreme), all these distinctive disciplines merge into one. The highest knowledge is merely one, the integrated knowledge, and this is the knowledge, not gained through our sense-organs, vital organs or through our mental behaviors. This is the final knowledge that we aspire for. This is then the establishment of a personal link between an aspirant and the Supreme One. ● Beauty in Nature The Vedic verses enable you to enjoy the glory of God in His creation. May you enjoy to the full the charm of the damsel of Dawn a little before sunrise; some of the verses draw your attention to the glory of the rising sun, the vast luminary that enlightens our globe throughout the day. The verses take you to the thrilling evenings and to the calmness of night, cool and refreshing. The sky and the firmament have their own beauty with stars set like pearls and diamonds on a blue background. This is, however, one aspect of Nature's glory. The rays of the sun take away moisture from the surface of oceans; the moisture takes the form of dark clouds which during particular months of the year proceed with high speed thousands of miles at a height of 4,000 to 20,000 feet high in the firmament. Whilst the clouds move, the mid space wind also attains a stupendous velocity. The water particles of the clouds are surcharged with electricity. The result is thunder and lightning. The thunder, lightning and high speed wind, all the three integrate themselves to provide dread to the living beings on the terrestrial globe. For days together, the sun is rendered invisible and is shrouded as if with layers of clouds. And finally the rain falls in torrents, and the sky again becomes clear. Man gets light and warmth both from the mighty sun. The clouds are known as Vrittra in Vedic terminology. More than a dozen names are given to these clouds; they are the demons, they are serpents (ahih);they are the varahas (meaning boars also). The sun is also given dozens of names. The Vedic verses take delight in referring to the eternal conflict between Indra or the sun and the shrouder, the clouds, which obstruct light and warmth of the sun. Ultimately, it is the sun that becomes victorious. But again the story is repeated everywhere. The Divine Poet of the Veda is never tired of narrating this parable; and He takes us to another conflict of the same nature which exists within the interior of all of us – a constant struggle between our divine tendencies and our devilish ones. The incessant conflict between Truth and Non-truth, between Good and Evil, or Enlightenment and Nescience, Knowledge and Ignorance. While the Vedas narrate this parable, their reference to the sun and clouds is merely symbolic. The real conflict which they intend to stress is between the self and the dark forces within our own personal make-up. One one side we have truth, light and immortality and on the other evil, darkness and death. ● Theism of the Veda In the verses of the Vedas, we invoke the Supreme Lord, the Sole Master of Creation and the living beings. Man is also an architect or potter in certain respects, but his creation, his art, his pot exists at a place where he does not stay. But the Supreme Divine as an architect produces everything withinHim, for there is nothing that exists outside Him and He is withinall. For we have in a passage of the Yajur, where there is a reference to the Supreme Reality: It moves, it moves not. It is far, and it is near, It is within all this, And it is outside all this. (Yajur. 22.5) In Vedic terminology, by creation we mean a purposeful well-ordained transformation of the unmanifest to the manifest form, from asat to sat. In that sense, all the rich and wonderful creation is within the existence of our Lord (in Time-Space parameters). He is also known as the hiranyagarbha or the Golden Embryo. We have in a Vedic verse: The Golden Embryo existed prior to all. It was the source of everything that was born. It was the sole Lord of Existence. It maintains or upholds every- thing that exists between earth and heaven. Only to that Lord, and to none else, shall we offer our affection and homage (Rig. 10.121.1; Atharva. 4.2.7) This Supreme Reality is not merely a philosophical abstract concept; it is a reality which we have to invoke and evoke for our personal becoming or for the fulfillment of our life. In this sense, Vedic Theism is a concept of dynamic reality. The Supreme Reality is our concern every moment. We might ignore Him, and so we usually do, but He does not neglect us. While He is near, He leaves it not; though it is near, it sees Him not. Behold the Art of God, His Poetry that shall not die and shall never grow old. (Atharva. 10.8.32). God Himself is unmanifest, but He is manifested behind his Divine Art. The effulgence behind His creation is His effulgence; the mighty force behind Nature's force is His force. He is light behind the light, terror behind the terror, the sweetness behind everything that is sweet, and the Supreme Activity behind all activities. We admire His forces, invoke all bounties of Nature, and through Nature, we proceed to the unmanifest Reality, the Supreme Source of Enlightenment and Bliss. We invoke our Lord in terms of attributes and functions, and we try to establish a personal relationship with Him. In Vedic poetry, the tiny little soul and the Supreme Self are both taken to be two birds (Suparna), mutual friends and companions. Two birds, which are closely associated and intimate friends, perch on the same tree. Of them One (the lower soul) tastes of its fruits; the other (the Supreme Lord) shines resplendently without tasting (Rig. 1.164.20). Coupled with a few more verses of the Great Hymn (1.164, 21, 22), one can enter into the depths of the mystic meaning of the intimate relationship of the two birds perching on one and the same fig tree. The Supreme Reality is known by different names in regard to its functions, attributes and nature. Taken out of the context of its creation and suzerainty over souls, the Reality would have no name other than OM (==A-U-M), the all-comprehensive syllable, embracing the limits of the entire phonetic alphabet with potential creativity, sustenance and dissolution in it (Om Kham Brahma – Yajur.60.17). The functional and attributive names of the Supreme Reality are numberless. Primarily, they are the names of our Lord; in their narrow connotations, they are the names of Nature's Bounties also – primarily the sun, and secondarily the bounties of mid space and the earth. Society is also a living organism, with its head, its shoulders, its eyes, and its limbs. The same functional terms as are used for the Supreme Reality may be used for offices in an organized society. Again, man, his entire body-complex, is a huge sovereignty by itself with the soul as the supreme ruler, and the sense organs (and the functional organs) as his subordinates. The seers of the Vedic age not only discovered this fire, they devised the means of controlling and harnessing it. They finally introduced certain elaborate fire-rituals called the yajnas. Apart from small and big fire-rituals, the Vedic Samhitas refer to the cosmic yajna which goes on incessantly in Nature, producing sunshine, clouds, rainfall, vegetation, and completion of Nature's cycles of various types. In analogy to the benevolent and purposeful cosmic yajna,and activity of man, intended to contribute something to society with selfless intentions, came to be known as yajna.The entire 18th chapter of the Yajurveda deals with this type of yajna, contributing to the general human good. Many of the verses end with a refrain yajnena kalpatam. This yajna is not a fire-ritual; it refers to man's dynamic activity to explore and utilize Nature's resources for our common good. Motivated by the spirit of these yajnas, our seers of yore explored the flora and fauna, surveyed organic and inorganic resources, and laid the foundations of a welfare state. The domestication of animals, the science and craft of agriculture, and the utilization of all types of resources for food, clothing and housing were S()me of the earliest undertakings of the Vedic age. These yajnashalas were, in away, the open air academies, laboratories and observatories for the advancement of culture and enlightenment. A concerted, coordinated well-planned effort for human good is yajna.This is a sacred act and hence is technically known as sacrifice, a selfless act. The Vedic concept of God is perfectly ethical, and hence the Vedic verses uphold high moral values of life. God is Truth personified, Activity personified, Purity personified, Love personified and Bliss personified. We crave to imbibe within us a bit of His qualities. The Vedic Dharma is thus the morality-based Dharma based on truth and its acceptance for life, i.e., faith (Shraddha), austerity (Tapas), pity (Daya) and selfless service and dedication (Yajna), generosity (Dana), peace (Shanti), friendship (Mitrata), fearlessness (Abhaya) and mutual understanding (Saumanasam). Above all, is the essential quality of complete reliance on God (the lone alambana or skambha, the pillar of strength). The Vedic verses refer to a type of coordinated life. Man is not an individual. He is a social organism. God loves him only who serves other beings: men, cattle and other creatures. His glory lies in being a member of a big family. On the one hand, man is bound by blood-kinship – his parents, his wife, his sons and individual of society, whether near or far from him. It is given to man to link himself with those who constitute his ancestry, and also think of those who would be his posterity. Man thus lives, works- and dies for society. The Vedic verses refer to this dynamism. Man is expected to develop his craft, sciences and technology, and lead society from poverty to prosperity, with a happy today and a happier tomorrow. [Extract from the preface to the book, THE HOLY VEDAS] Courtesy: Aryan Heritage - English monthly, Sept-1992 Presented by: Bhavesh Merja
ईश्वर के गुण (vedic vichar)
24-01-2022
(1) वह चेतन दिव्य शक्ति परमेश्वर एक ही है।अर्थात् कोई दूसरा उसके तुल्य अधिक वा तुल्य नहीं,अकेला अर्थात् उससे भिन्न न कोई दूसरा न तीसरा है,अनेक नहीं। (2) वह द्रष्टा है और सब जगत में परिपूर्ण होके जड़ तथा चेतन दोनों प्रकार के जगत को देखता है,उसका कोई द्रष्टा (अध्यक्ष) नहीं और वह स्वयं किसी का दृश्य भी नहीं हो सकता। (3) वह सर्वज्ञ है अर्थात् सब कुछ जानता है और उसका ज्ञान संसार की सब वस्तुओं से प्रकट होता है। (4) वह सर्वव्यापक है अर्थात् सूक्ष्म से सूक्ष्म और महान् पदार्थ के अन्दर और बाहर ओत-प्रोत है।वह इस ब्रह्माण्ड में पूर्ण (सर्वत्र व्याप्त) हो रहा है और वह जीव के भीतर भी व्यापक अर्थात् अन्तर्यामी है।वह सूक्ष्मतर से भी सूक्ष्मतम और महत्तर से भी महत्तम है।इससे कोई सूक्ष्म तथा बड़ी वस्तु न तो है,न होगी और न थी। (5) वह स्वयं स्थिर है।जैसे एक वृक्ष शाखा,पत्र तथा पुष्पादिकों को धारण करता है,उसी प्रकार परमेश्वर पृथिवी सूर्यादि समस्त जगत् को धारण करता हुआ उसमें व्यापक होकर ठहरा हुआ है। जैसे आकाश के बीच में सब पदार्थ रहते हैं,परन्तु आकाश सबसे अलग रहता है,अर्थात् किसी से बंधता नहीं,इसी प्रकार परमेश्वर को भी जानना चाहिए। (6) वह सर्वव्यापक और सर्वशक्तिमान है,क्योंकि उसकी महिमा ब्रह्माण्ड के प्रत्येक स्थान और प्रत्येक कार्य से प्रगट होती है तथा वह सृष्टि-निर्माण,संचालन व संहार के लिये आंख-कान-नाक आदि इन्द्रिययुक्त शरीर या (प्रकृति या जीव के अतिरिक्त) अन्य किसी पदार्थ (उपकरण-साधन-निमित्त) के सहाय की अपेक्षा नहीं रखता।जो कुछ करता है,बिना किसी साधन व व्यक्ति (पैगम्बर-अवतार) की सहायता के करता है । (7) वह निराकार है क्योंकि सर्वव्यापक है और किन्हीं दो वस्तुओं के शरीर से नहीं बना है।इसलिये उसको इन्द्रियों का विषय नहीं बनाया जा सकता।अर्थात् वह अशब्द,अस्पर्श,अरुप,अगन्ध,अस्वाद,अपाणिपाद,अमल और अयोनि(अकारण) है।तथा न उसकी कोई मूर्ति है और न बन सकती है।उसका रुप और शरीर नहीं है।सर्वव्यापक होने से वह मूर्ति में भी व्यापक है,पर मूर्त्ति वह नहीं।जैसे लोह खण्ड में ताप व्याप्त है,पर लोह खण्ड 'ताप' नहीं। दूसरे यदि साकार होता तो,व्यापक न होता ,व्यापक न होता तो सर्वज्ञादि गुण भी ईश्वर में न घट सकते,क्योंकि परिमित वस्तु में गुण कर्म स्वभाव भी परिमित रहते हैं तथा शीत-उष्ण,राग-द्वेष,सुख-दुःख तथा भूख-प्यास,रोग-दोष और छेदन-भेदन से रहित न हो सकता। (वह अजन्मा और निर्विकार है अर्थात् वह मनुष्य के समान जन्म,बाल्य,तारुण्य,प्रौढ़ता,वार्धक्य,मरण में नहीं आता। उसका जन्म नहीं होता क्योंकि उसने जन्म के हेतु कर्म नहीं किये तथा उसको जन्म देने वाला कोई नहीं।जो पदार्थ जन्म ग्रहण करता है,उसमें ही षड्भाव विकार होते हैं,वही विकारी होता है।ईश्वर विकारी नहीं,इसलिये अजन्मा है। (9) वह एक रस है उसमें कभी परिवर्तन नहीं होता।यदि वह परिवर्तनशील होता,तो दूसरी वस्तुओं में परिवर्तन न कर पाता तथा निर्विकार न होता,परिणामी होता। (10) ईश्वर का अवतार नहीं होता।उन्नत स्थान से निम्न स्थान को पहुँचना अवतार है और यह कर्म गतियुक्त पदार्थ में ही सम्भव है।ईश्वर सर्वव्यापक व अचल है,इसलिये उसका अवतार मानना ठीक नहीं है।परमेश्वर का आना-जाना और जन्म-मरण कभी सिद्ध नहीं हो सकते।क्योंकि इसका भाव है-"ईश्वर का परिमित समय के लिए देहधारी बनना',यह ईश्वर के सर्वज्ञत्व,सर्वव्यापकत्व आदि गुणों के विरुद्ध है। उपरोक्त लक्षण सहित परमेश्वर ही को यथावत जानकर मनुष्य ज्ञानी होता है,अन्यथा नहीं। उसी को जान के और प्राप्त होके जीव जन्म-मरण आदि क्लेशों के समुद्र समान दुःख से छुटकर परमानन्द-स्वरुप मोक्ष को प्राप्त होता है।अन्यथा किसी प्रकार से मोक्षसुख नहीं हो सकता।मोक्ष को देने वाला एक परमेश्वर के बिना दूसरा कोई नहीं है।
सत्यार्थप्रकाश - सम्पूर्ण समाधान (vedic vichar)
24-01-2022
पूर्ण मनुष्यता का विकास. *सत्यार्थप्रकाश* पूर्ण व्यक्तित्व का विकास. *सत्यार्थप्रकाश* सच्ची सभ्यता का विकास. *सत्यार्थप्रकाश* सच्ची संस्कृति का विकास. *सत्यार्थप्रकाश* विश्वसनीयता का प्रतीक. *सत्यार्थप्रकाश* सरस सलिलता का प्रतीक. *सत्यार्थप्रकाश* सत्यनिष्ठ आधुनिकता *सत्यार्थप्रकाश* सद्ज्ञान का प्रकाशक *सत्यार्थप्रकाश* अज्ञान का विनाशक *सत्यार्थप्रकाश* सत्यधर्म का पहरेदार. *सत्यार्थप्रकाश* सच्चे ईश्वर का नम्बरदार. *सत्यार्थप्रकाश* सज्जनों की पहचान. *सत्यार्थप्रकाश* माता-पिता का सम्मान. *सत्यार्थप्रकाश* षड़यंत्रों का पर्दाफास. *सत्यार्थप्रकाश* नारी जाति का संरक्षक. *सत्यार्थप्रकाश* कन्याओं को बनाये देवी *सत्यार्थप्रकाश* युवाओं को समाजसेवी *सत्यार्थप्रकाश* गंदी नजरों का भक्षक. *सत्यार्थप्रकाश* जीवन जीने की कला *सत्यार्थप्रकाश* सर्वसमाज का भला *सत्यार्थप्रकाश* पवित्र चार वेद की कुंजी *सत्यार्थप्रकाश* सच्चे विद्वानों की पूँजी *सत्यार्थप्रकाश* सब ग्रंथों का सार. *सत्यार्थप्रकाश* मत-पंथों पर मार. *सत्यार्थप्रकाश* मजहबों की मौत. *सत्यार्थप्रकाश* लाल किताब की सौत. *सत्यार्थप्रकाश* वैदिक विद्वानों का सबाब. *सत्यार्थप्रकाश* झुठी किताबों का जबाब. *सत्यार्थप्रकाश* गुरुडम का इलाज. *सत्यार्थप्रकाश* पोंगापंथ का इलाज. *सत्यार्थप्रकाश* गंडा तबीज का नाश. *सत्यार्थप्रकाश* झाड़-फूंक का विनाश. *सत्यार्थप्रकाश* मूर्खताओं का ईलाज. *सत्यार्थप्रकाश* कुटिलता का ईलाज. *सत्यार्थप्रकाश* मक्कारों का ईलाज. *सत्यार्थप्रकाश* हर जेहाद का इलाज *सत्यार्थप्रकाश* धर्मांतरण का इलाज *सत्यार्थप्रकाश* आतंकवाद का इलाज *सत्यार्थप्रकाश* देशद्रोह का इलाज. *सत्यार्थप्रकाश* अशिक्षा का इलाज. *सत्यार्थप्रकाश* पाखंडों का इलाज. *सत्यार्थप्रकाश* आडम्बरों का इलाज. *सत्यार्थप्रकाश* जातिवाद का इलाज. *सत्यार्थप्रकाश* भेदभाव का इलाज. *सत्यार्थप्रकाश* छुआछूत का इलाज. *सत्यार्थप्रकाश* ऊँचनीच का इलाज. *सत्यार्थप्रकाश* मॉसाहार लत का इलाज. *सत्यार्थप्रकाश* ढोंगी बाबाओं का ईलाज. *सत्यार्थप्रकाश* तार्किक शक्ति बढ़ाने का उपाय *सत्यार्थ प्रकाश* शाकाहारी बनने की प्रेरणा *सत्यार्थप्रकाश* शारीरिक शक्ति बढ़ाने की प्रेरणा *सत्यार्थ प्रकाश*
Vedic Vichar
20-01-2022
सृष्टिर्नैव चकास्ति पुष्करतले लोकास्तदा नासते नाकाशो न धनञ्जयो न भुवनं वातो न वा मृत्तिका। नैवायं तपनो ग्रहो नच विधुस्तारा न वोल्कातनुः शून्यं शास्ति सदा तमश्छदयते गाढं विशालं नभः।। ଅର୍ଥ:--- ସେତେବେଳେ ଆକାଶରେ ସୃଷ୍ଟି ନ ଥିଲା, ଭୁବନଗୁଡିକ ନଥିଲା। ଆକାଶ ନ ଥିଲା,ଅଗ୍ନି ନ ଥିଲା, ଜଳ, ପବନ ଓ ମାଟି ନ ଥିଲା। ଏହି ସୂର୍ଯ୍ୟ, ଗ୍ରହ, ଚନ୍ଦ୍ର, ତାରା କିମ୍ୱା ଉଲ୍କା ମଧ୍ୟ ନ ଥିଲେ। ସଦାବେଳେ ଶୂନ୍ୟ ରାଜୁତିକରୁଥାଏ ଏବଂ ବିଶାଳ ଆକାଶକୁ ଗାଢ ଅନ୍ଧକାର ଆଚ୍ଛାଦିତକରି ରଖିଥାଏ। #Vedic Vichar
जीवात्मतन्वोः सखिता विचित्रा
11-01-2022
जीवात्मतन्वोः सखिता विचित्रा न दृश्यते सेव भुवां कदाचित्। कर्माणि चैकत्र सदा विधत्तः परन्न वित्तो ह्यपरस्य वृत्तिम्।। ଅର୍ଥ :-- ଜୀବାତ୍ମା ଏବଂ ଶରୀରର ମିତ୍ରତା ବଡ ବିଚିତ୍ର, ସଂସାରରେ ତାହାପରି କଦାପି ଦେଖାଯାଏ ନାହିଁ। ସଦାବେଳେ ଏକାଠି ରହି କର୍ମଗୁଡିକୁ କରନ୍ତି, ମାତ୍ର ଦୁହେଁ ଅପରର ବ୍ୟବହାରକୁ ଜାଣିପାରନ୍ତି ନାହିଁ। @ Kishore Chandra Kar
Life History #lifehist.com
10-01-2022
"Life History is records of individuals’ personal experiences and the connections between them and past social events, while auto/biography treats these accounts not as established facts but as social constructions requiring further investigation and re-interpretation. lifehistory.org@gmail.com, lifehist.com
Vedic vichar
08-01-2022
संसार मे दो प्रकार के मनुष्य है ,कुछ ईश्वर की सत्ता को स्वीकार करते है कुछ नहीं करते जिन्हें नास्तिक कहते है।जो आस्तिक है ईश्वर को मानते है , उनमे भी कुछ उसे साकार मानकर उसकी मूर्ति की पूजा करते है जबकि दूसरे निराकार मानकर उपासना करते है।अब मूर्ति पूजा करने वाला तो डर कर या कुछ मांगने के लिए मूर्ति पूजा करता है ,परन्तु मूर्ति पूजा न करने वाला उससे द्वेष करता है। वास्तव मे ये दोनो बाते अज्ञानता के कारण है ,क्योंकि यह सत्य है कि जड पूजा की मानसिकता मनुष्य मे सदा से है ,अगर ऐसा न होता तो वेद को यह न कहना पडता कि "न तस्य प्रतिमाअ्स्ति" उस ईश्वर की कोई मूर्ति नहीं है।मूर्ति पूजा अज्ञानता के कारण है।संसार मे सत्य असत्य ,ज्ञान -अज्ञान ,धर्म -पाखंड सदा रहते है।आस्तिक लोग ईश्वर को मानते है ।अब प्रश्न उठता है कि वह कैसा है ,कैसा हो सकता है या कैसा माना जा सकता है? इसका उत्तर है वह या तो साकार होगा या निराकार ।सामान्यत मनुष्य को साकार मानना सरल लगता है।मानने से पहले यह जानना भी आवश्यक है कि हम उसे जड मानते है या चेतन।यदि हम साकार मानते है तो वह निश्चित ही जड ,निर्जीव होगा ,और चेतन है तो निराकार होगा क्योंकि कोई भी चेतन वस्तु साकार नहीं होती ।अब यदि जड है तो हमारी इच्छा के अनुसार चलेगा ,उठेगा ,बैठेगा ,खायेगा ,पीयेगा।क्योंकि हमने उसे बनाया है इसलिए जैसा हम चाहेंगे वह वैसा ही करेगा ।ईश्वर को हम मानते है ,परन्तु हमारी उससे भेंट कभी नहीं हुई और न कभी साक्षात्कार हुआ इसलिए हम उसे अपनी कल्पना से बनाते है क्योंकि बनाने मैं हम स्वतन्त्र है।अब मूर्ति पूजा के समर्थन मे दो तर्क दिये जाते है पहला यह कि मूर्ति पूजा करने वाले लोगों की संख्या बहुत अधिक है इतने सारे लोग गलत कैसे हो सकते है? इसका उत्तर है कि किसी काम के करने वाले लोगों की संख्या से उस काम के अच्छा या बुरा होने का निर्णय नहीं हो सकता , जैसे गांव मे कई हजार लोग रहते है और उनमे सौ ,दो सौ लोग शिक्षित है तो निश्चित रूप से शिक्षित लोगों को ही श्रेष्ठ कहा जायेगा ।संसार मे अज्ञानी लोगों की संख्या सदा अधिक ही रहेगी क्योंकि जो बात स्वाभाविक है उसकी मात्रा ,संख्या और स्वरूप सदा अधिक होगा और जिसे बनाया जाता है वह कम होगा ।मनुष्य जन्म से शुद्र ,अज्ञानी है ।ज्ञानी बनना पडता है।मनुष्य साकार की उपासना अज्ञानता वश करता है, निराकार उपासना के लिए ज्ञान की आवश्यकता होती है।अज्ञान स्वाभाविक है और ज्ञान नैमितिक है।स्वाभाविक ज्ञान सब जीवो मे है लेकिन नैमितिक ज्ञान केवल मनुष्य ही प्राप्त कर सकता है इसलिए मनुष्य को श्रेष्ठ योनि कहा गया है।मूर्ति पूजा केवल हिन्दूओं मे ही नहीं बल्कि मुसलमानों मे भी है वे कब्रों को ,स्थानो को ,काबा के पत्थर को पूजते है उसे पवित्र मानते है।यह साकार उपासना ही है।दूसरा तर्क मूर्ति पूजा वाले कहते है कि क्या हमारे माता पिता व उनके पूर्वज गलत थे जो मूर्ति पूजा करते थे? और यदि हम मूर्ति पूजा छोड दे तो उनकी परम्परा को तोड कर क्या हम उनका अपमान नहीं करेंगे ? वास्तव मे ये धारणा गलत है।क्या ऐसे बहुत से काम जो वे करते थे हमने नहीं छोड दिये?वे अनपढ थे हम क्यों पढने लगे?वे पैदल चलते थे हम गाडी मे बाइक पर क्यों चलते है?हमने अपना रहन सहन भूषा ,खान पान क्यों बदल दिया? क्या ऐसा करने से उनका अपमान नहीं होता? कुछ लोगों की धारणा है कि ईश्वर के अनेक रूप है आप किसी भी रूप मे करलो।अब यदि वह साकार है जो जड है और निराकार है तो कोई रूप नहीं ।यह सत्य है कि वह सब वस्तुओ मे है लेकिन सब वस्तुए ईश्वर नहीं हो सकती।इसलिए मूर्ति पूजा ईश्वर की उपासना नहीं है।कुछ लोग कहते है कि जब ईश्वर सर्वव्यापक है तो वह मूर्ति मे भी है। हां यह सच है कि ईश्वर मूर्ति मे भी है ,लेकिन हम उसे वहाँ मिल नहीं सकते क्योंकि मिलन वहाँ होता है जहां दोनो मिलने वाले उपस्थित हो क्योंकि मूर्ति मे ईश्वर तो है लेकिन हम जीवात्मा नहीं है आत्मा शरीर के अन्दर है।और ईश्वर भी वहीं है इसलिए मिलने भी वहीं शरीर के अन्दर ही होगा बाहरी वस्तुओ मे नहीं ।
महर्षि दयानन्द की हितकारी शिक्षाएं (vedic vichar)
06-01-2022
भाग 1 1. मनुष्यों को चाहिए कि जितना अपना जीवन शरीर, प्राण, अन्तःकरण, दशों इन्द्रियाँ और सब से उत्तम सामग्री हो उसको यज्ञ के लिये समर्पित करें जिससे पापरहित कृत्यकृत्य होके परमात्मा को प्राप्त (योग से) होकर इस जन्म और द्वितीय जन्म में सुख को प्राप्त हों। -महर्षि दयानन्द (यजु० 22/33) 2. जैसे प्रत्येक ब्रह्माण्ड में सूर्य प्रकाशमान है, वैसे सर्वजगत में परमात्मा प्रकाशमान है। जो योगाभ्यास से उस अन्तर्यामी परमेश्वर को अपने आत्मा से युक्त करते हैं, वे सब ओर से प्रकाश को प्राप्त होते हैं। -महर्षि दयानन्द (यजु० 23/5) 3. जैसे सब जीवों के प्रति ईश्वर उपदेश करता है कि मैं कार्य्य कारणात्मक जगत में व्याप्त हूँ। मेरे विना एक परमाणु भी अव्याप्त नहीं है। सो मैं जहां जगत नही है वहां भी अनन्त स्वरूप से परिपूर्ण हूँ। जो इस अतिविस्तारयुक्त जगत को आप लोग देखते हैं सो यह मेरे आगे अणुमात्र भी नहीं है इस बात को कैसे ही विद्वान सब को जनावें। -महर्षि दयानन्द (यजु० 23/50) 4. सब मनुष्यों को परमेश्वर के विज्ञान और विद्वानों के संग से बहुत बुद्धियों को प्राप्त होकर सब ओर से धर्म का आचरण कर नित्य सब की रक्षा करने वाले होना चाहिए। -महर्षि दयानन्द (यजु० 25/14) 5. सब विद्वान लोग सब मनुष्यों के प्रति ऐसा उपदेश करें कि जिस सर्वशक्तिमान निराकार सर्वत्र व्यापक परमेश्वर की उपासना (योग) हम लोग करें तथा उसी को सुख और ऐश्वर्य को बढ़ाने वाला जानें, उसी की उपासना तुम भी करो और उसी को सब की उन्नति करने वाला जानो। -महर्षि दयानन्द (यजु० 25/18) 6. जो मनुष्य पर्वतों के निकट और नदियों के सङ्गम में योगाभ्यास से ईश्वर की और विचार से विद्या की उपासना करें वह उत्तम बुद्धि वा कर्म से युक्त विचारशील बुद्धिमान होता है। -महर्षि दयानन्द (यजु० 26/15) 7. जैसे विद्वान् लोग ब्रह्म को स्वीकार करके आनन्द मङ्गल को प्राप्त होते और दोषों को निर्मूल नष्ट कर देते हैं वैसे जिज्ञासु लोग ब्रह्मवेत्ता विद्वानों को प्राप्त होके आनन्द मङ्गल का आचरण करते हुए बुरे स्वभावों के मूल नष्ट करें और आलस्य को छोड़ के विद्या की उन्नति किया करें। -महर्षि दयानन्द (यजु० 27/3)
सूर्य नमस्कार, वन्दे मातरम और स्वामी दयानंद (vedic vichar)
06-01-2022
हमारे मुस्लिम भाइयों को सूर्य नमस्कार करने में आपत्ति है क्योंकि उनका मानना हैं कि एक खुदा को छोड़कर अन्य किसी कि पूजा का इस्लाम में निषेध है। सूर्य नमस्कार में सूर्य, वन्दे मातरम में पृथ्वी की स्तुति करनी बताई गई हैं जो इस्लामिक मान्यताओं के प्रतिकूल हैं। उनका मानना है कि अग्नि, वायु, जल, पवन, पृथ्वी को मनुष्य सेवा के लिए अल्लाह द्वारा निर्मित किये गए हैं तो सेवक की पूजा कैसे की जा सकती हैं? एक मुस्लिम विद्वान तो यहाँ तक कह गए की चपरासी अफसर की खिदमत के लिए होता है , कभी अफसर को चपरासी को नमन करते देखा है? उनका कहना था कि अल्लाह के फरमान से बढ़कर उनके लिए कोई फरमान नहीं है। हमारे मुस्लिम भाइयों कि इस समस्या का समाधान स्वामी दयानंद ने 'देवता' शब्द की परिभाषा में बहुत पहले कर दिया था। केवल चिंतन करने की आवश्यकता है। आपकी इस शंका का समाधान ईश्वर और देव शब्द में अंतर को समझने से हो जाता हैं। निरुक्त 7/15 में यास्काचार्य के अनुसार देव शब्द दा, द्युत और दिवु इस धातु से बनता हैं। इसके अनुसार ज्ञान, प्रकाश, शांति, आनंद तथा सुख देने वाली सब वस्तुओं को देव कहा जा सकता हैं। यजुर्वेद 14/20 में अग्नि, वायु, सूर्य, चन्द्र वसु, रूद्र, आदित्य, इंद्र इत्यादि को देव के नाम से पुकारा गया हैं। परन्तु वेदों में तो पूजा के योग्य केवल एक सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, भगवान को ही बताया गया हैं। देव शब्द का प्रयोग सत्यविद्या का प्रकाश करनेवाले सत्यनिष्ठ विद्वानों के लिए भी होता हैं क्योंकि वे ज्ञान का दान करते हैं और वस्तुओं के यथार्थ स्वरूप को प्रकाशित करते हैं। देव का प्रयोग जीतने की इच्छा रखनेवाले व्यक्तियों विशेषत: वीर, क्षत्रियों, परमेश्वर की स्तुति करनेवाले तथा पदार्थों का यथार्थ रूप से वर्णन करनेवाले विद्वानों, ज्ञान देकर मनुष्यों को आनंदित करनेवाले सच्चे ब्राह्मणों, प्रकाशक, सूर्य,चन्द्र, अग्नि, सत्य व्यवहार करने वाले वैश्यों के लिए भी होता हैं। स्वामी दयानंद देव शब्द पर विचार करते हुए ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका वेदविषयविचार अध्याय 4 में लिखते हैं की दान देने से 'देव' नाम पड़ता हैं और दान कहते हैं अपनी चीज दूसरे के अर्थ दे देना। 'दीपन' कहते हैं प्रकाश करने को, 'द्योतन' कहते हैं सत्योपदेश को, इनमें से दान का दाता मुख्य एक ईश्वर ही है की जिसने जगत को सब पदार्थ दे रखे है तथा विद्वान मनुष्य भी विद्यादि पदार्थों के देनेवाले होने से देव कहाते है। दीपन अर्थात सब मूर्तिमान द्रव्यों का प्रकाश करने से सूर्यादि लोकों का नाम भी देव हैं। तथा माता-पिता, आचार्य और अतिथि भी पालन, विद्या और सत्योपदेशादी के करने से देव कहाते हैं। वैसे ही सूर्यादि लोकों का भी जो प्रकाश करनेवाला हैं, सो ही ईश्वर सब मनुष्यों को उपासना करने के योग्य इष्टदेव हैं, अन्य कोई नहीं। कठोपनिषद 5/15 का भी प्रमाण हैं की सूर्य, चन्द्रमा, तारे, बिजली और अग्नि ये सब परमेश्वर में प्रकाश नहीं कर सकते, किन्तु इस सबका प्रकाश करनेवाला एक वही है क्योंकि परमेश्वर के प्रकाश से ही सूर्य आदि सब जगत प्रकाशित हो रहा हैं। इसमें यह जानना चाहिये की ईश्वर से भिन्न कोई पदार्थ स्वतन्त्र प्रकाश करनेवाला नहीं हैं , इससे एक परमेश्वर ही मुख्य देव हैं। देव और ईश्वर के मध्य भेद को समझने से आपकी भ्रान्ति का निवारण हो जाता है। वेद केवल और केवल एक ईश्वर की उपासना का संदेश देते है। अग्नि, वायु, सूर्य, चन्द्र वसु, रूद्र, आदित्य, इंद्र,सत्यनिष्ठ विद्वान,वीर क्षत्रिय, सच्चे ब्राह्मण, सत्यनिष्ठ वैश्य, कर्तव्यपरायण शूद्र से लेकर माता-पिता, आचार्य और अतिथि तक सभी मनुष्यों के लिए कल्याणकारी हैं इसलिए सम्मान के योग्य हैं। जिस प्रकार से माता-पिता, आचार्य आदि सभी खिदमत करने वाले मगर उनका सम्मान हर मुसलमान करता हैं कोई उन्हें यह नहीं कहता कि हम सेवक का नमन क्यों करे उसी प्रकार से सूर्य, वायु, अग्नि,पृथ्वी, पवन आदि भी मनुष्य कि सेवा करते हैं इसलिए सम्मान के योग्य हैं। सूर्य नमस्कार और वन्दे मातरम सम्मान देने के समान है न कि पूजा करना है। सम्मान करना एवं पूजा करने में भेद को समझने से इस शंका का समाधान सरलता से हो जाता है जिसका श्रेय स्वामी दयानंद को जाता है।
Yogendra Maharaj Shri Krishna : A Big Troublemaker and Warmonger ? (Vedic vichar)
06-01-2022
Was lord Krishna just a warmonger and a ‘Hindu’ troublemaker ? Was he unfair and biased in the way that he dealt between the Pandavas and Kauravas? Were his war ethics, which involved a disregard for the pre-ordained rules of warfare, justifiable? These are common questions that are brought up against Shri Krishna, particularly with regards to the unflinching help he gave to the Pandavas in their struggle against the Kauravas, and with reference to Krishna’s tacit encouragement to Bhima to strike Duryodana’s thigh during the final mace dual between Duryodhana and Bhima on the banks of the Godavari River. Even though it was against the warrior code to strike a man below the waist, on seeing that Bhima was losing, Krishna encouraged Bhima to strike low. Thus was Duryodhana slain. There are several other examples in which Krishna encouraged the Pandavas to break the warrior code in order to secure victory. The slaying of Drona and Karna, great warriors who arguably the Pandavas were otherwise incapable of defeating, were achieved through schemes engineered by Krishna. How can such incidents in the Mahabharata be explained against the general ethical and compassionate basis of Krishna’s overall teachings? ========================= Krishna’s support of the Pandavas ========================= Krishna’s obsession throughout the entire Mahabharata was to establish a society where Dharma was the guiding principle. This is a society where there is protection and happiness for all, and where people live in a balanced, spiritually orientated way, with respect for other people, creatures and all of nature. Krishna’s support for the Pandavas was based solely on shared ideals, not on any intrinsic favouritism. There is an incident in the Mahabharata where Duryodhana complains that Krishna always favoured the Pandavas. Krishna’s reply was simple - “Adopt a Dharmic way of life, and I will give you, Duryodhana, the same support and guidance I give to the Pandavas.” The Pandavas, consciously strove to act for the betterment of the masses rather than for their own personal gain. They were rulers who could be instrumental in bringing about such a society as Krishna wanted to create. On the other hand, Duryodhana stood for hedonism and self-aggrandisement. As such, it would have been disastrous for society if he had come to hold sway over the most influential and powerful kingdom of that era. A Kaurava victory would have meant a rule of darkness over Hastinapoor, Indrapastha and beyond. ============= The Warrior Code ============= Rules and regulations, such as the warrior code that was then in vogue, were created for a limited purpose – to make sure that men of arms did not resort to excessive cruelty in battle, as well as to prevent them from harassing non-combatant civilians. The rules were created to protect the people, and are only relevant so long as they served that purpose. If Duryodhana and the Kauravas had won the Mahabharata War, then society would be far more vulnerable as compared with a Pandava victory. The Epic is full of examples where Duryodhana and his followers dishonoured women and acted aggressively towards men who dared speak up against them. If the Pandavas had abided by all the rules of warfare, but as a result of this ended up losing the War, society would have suffered greatly – the common man, woman and child would be deprived of an ethical and fair government. In such a case, the rules that comprise the warrior’s code would have actually hindered the very purpose that they were set up to serve (viz. the protection of the people). Following the written rules would have in fact violated the spirit that gave rise to them in the first place. In such circumstances, rules become a hindrance, and should be discarded. Men have to serve the principles behind rules, not worship the rules as if they are irrevocable. When Dharma itself is at stake, a warrior should not be too choosy about the means of victory against an adversary who has no respect for Dharma. =========== War ethics =========== Krishna also advised the Pandavas that it is suicidal to behave honourably and courteously towards an enemy who is willing to stoop to any level to kill you. By the time Krishna devised his seemingly cunning schemes to remove the key players in the opposing army, all of them had themselves flouted the rules of warfare too. The most brutal example of this was the slaying of Arjuna’s son, Abhimanyu. In such circumstances, it is foolish to maintain decency towards people who themselves have no decency and are trying to kill you at any cost. ============== Unarmed casualties ============== Despite all of this, it should be noted that there was no advice nor any incident in the Mahabharata where Krishna would accept or justify the killing on non-combatants. The struggle was only ever directed against the individuals who were directly involved in upholding Duryodhana’s powers through the force of arms. ----------------------------------------------------------------------- Conclusion In this brief overview, it can be seen that Krishna’s guidance to the Pandavas reflects a universal and valid approach to certain predicaments that will always face mankind. His efforts to help the Pandavas should be understood in the sole context of the establishment of a righteous society in the face of tyranny, rather than any favouritism.
ओ३म् की महिमा (vedic vichar )
06-01-2022
वेद ने भी और उपनिषदों ने भी 'ओ३म्' द्वारा प्रभु दर्शन का आदेश दिया है। यजुर्वेद में कहा है- *ओ३म् क्रतो स्मर ।।-(यजु० ४०/१५)* "हे कर्मशील ! 'ओ३म् का स्मरण कर।" यजुर्वेद के दूसरे ही अध्याय में यह आज्ञा है- *ओ३म् प्रतिष्ठ ।।-(यजु० २/१३)* " 'ओ३म्' में विश्वास-आस्था रख !" गोपथ ब्राह्मण में आता है- *आत्मभैषज्यमात्मकैवल्यमोंकारः ।।-(कण्डिका ३०)* "ओंकार आत्मा की चिकित्सा है और आत्मा को मुक्ति देने वाला है।" माण्डूक्योपनिषद् का पहला ही आदेश यह है- *ओमित्येतदक्षरमिदं सर्वं तस्योपव्याख्यानम् ।* *भूतं भवद् भविष्यदिति सर्वमोङ्कार एव ।। १।।* "यह 'ओ३म्' अक्षर क्षीण न होने वाला अविनाशी है,यह सम्पूर्ण भूत,वर्तमान और भविष्यत् ओंकार का व्याख्यान् है।सभी कुछ ओंकार में है।" अर्थात् ओंकार से बाहर कुछ नहीं,कुछ भी नहीं। छान्दोग्योपनिषद् का ऋषि कहता है- *ओ३म् इत्येतदक्षरमुद्गीथमुपासीत ।* "मनुष्य 'ओ३म्' इस अक्षर को उद्गीथ समझकर उपासना करे।" 'योगदर्शन' समाधिपाद में 'ओ३म्' का जप और उसके अर्थों का चिन्तन करने का आदेश दिया है इसके साथ ही योग-साधना में जो विघ्न आकर खड़े होते हैं,उनको दूर करने का यह उपाय बताया है- *तत्प्रतिषेधार्थमेकतत्त्वाभ्यासः ।। ३२ ।।* "उन (विक्षेप-विघ्नों) को दूर करने के लिए एक तत्त्व (ओ३म्) का अभ्यास करना चाहिए।" *सिक्ख पन्थ और गुरुवाणी में ओ३म् की महिमा* गुरुनानक जी कहा करते थे-"एक ओंकार सत् नाम"। इसी ओंकार सत् नाम से गुरुमंत्र निर्मित हुआ।जो इस प्रकार है- *एक ओंकार सत् नाम कर्ता पुरखु निरभउ,निखैर,अकाल- मूरति,अजूनी,सैभं,गुरु-प्रसादि।"* अर्थात् एक ओंकार ,सत नाम,वह एक है,ओंकार स्वरुप है,सत्यस्वरुप है,करता पुरुख है,समस्त जड़-चेतन जगत् की उत्पत्ति करता,उसकी पालन-पोषण करता और संहार करता है,निरभउ-भय से रहित है,निरवैर है अर्थात् सबका मित्र है।अकाल मूरति,काल तथा समय से रहित।कालातीत-अपरिवर्तनशील,सदा एकरस,सदा से मौजूद है वह 'अजूनी' अर्थात् किसी योनि से नहीं आया,सैभं अर्थात् वह अपने आप है,उसको उत्पन्न करने वाला कोई नहीं,वह उत्पन्न ही नहीं हुआ वह सदा से मौजूद है और "गुरु-प्रसादि" सच्चे गुरु की कृपा से प्राप्त होता है। अतः गुरुनानक जी ने भी ओंकार को महत्व दिया है। गुरु नानक जी कहते हैं ,एक ओंकार सत्य नाम,वह एक है।सत्य नाम है।वह जिस नाम से पुकारा जाता है,वह ओ३म् नाम उसका अपना ही है,वह हमने नहीं दिया और नाम तो मनुष्यों के दिये हुए हैं,वह अपना आप ही है।यह ओम् नाम तो किसी ने नहीं दिया। यजुर्वेद में कहा है- *ओ३म् खं ब्रह्म*-(यजु० ४०/१७) अर्थात् "मैं आकाश की तरह सर्वत्र व्यापक और महान् हूं मेरा नाम ओम् है।" *अन्य मत मतान्तरों में ओ३म्* अन्य मत मतान्तरों में भी ओ३म् की महिमा और ओ३म् का परिवर्तित नाम विद्यमान हैं।मुसलमानो़ में आमीन,यहूदियों का एमन,सिक्खों का एक ओंकार,अंग्रेजों का Omnipresent,Omnipotent,Omniscient । सम्पूर्ण विश्व में ही नहीं,सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में ओ३म् शब्द की महिमा है।विपत्ति में,मृत्यु में,ध्यान के अन्तिम क्षणों में बस ओ३म् ही शेष रह जाता है,शेष सब मन्त्र,ज्ञान-विज्ञान धूमिल हो जाता है।पौराणिकों की मूर्तियों व मन्दिरों के ऊपर ओ३म्,आरती में ओ३म्,नवजात शिशु के मुख में ओ३म्,सब स्थानों में ओ३म् ही ओ३म् है।
आर्यसमाज के बलिदान (VEDIC VICHAR)
06-01-2022
लाला नन्दलाल जी बच्छोवाली पाकिस्तान लेखक :- स्वामी ओमानंद जी महाराज पुस्तक :- आर्य समाज के बलिदान प्रस्तुतकर्ता :- अमित सिवाहा यश्च धर्मरतः स गतिं लभते । वेदहित जीवन हमारा , वेद हित मरना भला ॥ श्री नन्दलाल जी लाला निहालचन्द के पुत्र थे । इनकी माता का नाम भगवान्देवी जी था । यह दो भाई और एक बहन थे । इनका जन्म ३ नवम्बर सन् १९०८ ई ० में लाहौर में हुआ था । इन्होंने नवमी श्रेणी तक डी० ए० वी० हाई स्कूल में शिक्षा पाई । पश्चात् घर की निर्धनता के कारण पढ़ना छोड़ दिया । आर्यसमाज के संस्कार इन्होंने लाला गणेशीलाल जी से लिये , और इनके सङ्ग से दृढ़ आर्य समाजी हो गये । लाला गणेशीलाल जी से ही इन्होंने बजाजी का काम सीखा । बजाजी का काम सीख कर वह फेरी करके ग्रामों में कपड़ा बेचा करते थे । लाला गणेशीलाल जी आर्यसमाज बच्छोवाली के सदस्य थे और लाला नन्दलाल जी भी आर्य समाज बच्छोवाली के सदस्य होगये । ये प्रायः प्रति दिवस दो घण्टे समाज का काम किया करते थे । जब समाज का उत्सव होता था तब ये आठ दिन घर का काम छोड़कर समाज का ही काम करते थे । धर्मचर्चा में ये अच्छे पटु हो गये थे । लाला गणेशीलाल जी कुरान का पाठ भी जानते । उन्होंने यही लगन इनको भी लगा दी । इन्होंने कुरान का पाठ अच्छी तरह किया और विशेषस्थल कंठस्थ कर लिये और इनका यथावसर उपयोग करते थे । एक ग्राम में एक दिन हलाल और मुर्दार पर विवाद हुआ । इनका पक्ष था , हलाल भी । प्रकार से मुर्दार ही होता है , प्रत्युत स्वयं मृत्यु होने पर जिसे मुर्दार कहते हो , उसको खाने की अपेक्षा मारकर खाने में अधिक पाप है । एक बार खुदा के शरीरी और अशरीरी होने पर चर्चा हुई । आपने कुरान और मिशाकात के प्रमाण देकर दिखाया कि पिंडली आदि अङ्ग होने से खुदा शरीरी सिद्ध होता है । इन दोनों बातों का मुसलमान कुछ उत्तर तो न दे सके परन्तु मतान्धता के कारण इनके शत्रु बन गये । ऊपर की बातों से बिगड़ कर मुसलमान इनके मारने का ढ़ंग सोचने लगे । मुसलमान मौलवियों ने धर्म के नाम पर लोगों को उभारा और धन संग्रह करके एक दो व्यक्तियों को मारने के लिये नियत कर दिया । नन्दलाल जी ने तीन साल फेरी का काम किया । जहां यह कपड़ा विक्रय करते थे वहां धर्म प्रचार भी करते थे । कई बार धर्म - चर्चा में ही समय बिताते । इनके प्रचार काल में एक मुसलमान देवी समाज में आकर शुद्ध हुई और उसका विवाह किसी आर्य पुरुष के साथ कर दिया था । सासियों की शुद्धि में लाला गणेशीलाल जी तथा नन्दलाल जी ने आर्य प्रतिनिधि सभा पञ्जाब के आदेशानुसार कार्य किया था । जिन दिनों मुसलमानों ने बाजीगरों को मुसलमान बनाना चाहा , तब इन्होंने उनमें कार्य करना प्रारम्भ किया और स्वयं जाकर उनको पढ़ाया करते थे । ला० गणेशीलाल जी का नियम था कि फेरी का कार्य ग्रामों में सायंकाल तीन बजे बन्द कर देना और लाहौर लौट आना । यही आदत उन्होंने नन्दलाल को डाल दी थी । वह भी सायंकाल को घर पहुँच जाते थे । एक बार जब वह फेरी पर गये हुये थे षड्यन्त्र के अनुसार गांववालों ने प्रथम बातचीत करने में पश्चात् सौदा खरीदकर दाम देने में अधिक समय लगा दिया । वे समय पर कार्य समाप्त न कर सके और उन्हें वहां सूर्य्यास्त हो गया । लाहौर शहर को आते हुए रास्ते में जब सग्गीयां से आ रहे थे तब किसी ने उन पर आक्रमण करके उनका जीवन समाप्त कर दिया । यह घटना १२ नवम्बर १९२७ की है । सायंकाल को जब वे नहीं आये तो उनकी माता को चिंता हुई । दूसरे दिन सवेरे उसने गणेशी लाल जी से कहा । आर्यसमाज के स्वयंसेवक उन्हें ढूंढ़ने निकले । १५ नवम्बर १९ २७ को उनका शव रावी नदी में मिला । दायें हाथ की पीठ पर लाठी का निशान था और गला घोंटकर मारा गया था । मजंग थाना की पुलिस ने लाश हस्पताल में पहुंचा दी । डॉक्टरी निरीक्षण के बाद १६-११-२७ को महाधन की अर्थी उठी । आर्यसमाज बच्छोवाली ने उनका दाह संस्कार धूमधाम से किया । नन्दलाल जी आर्यसमाज की बड़ी लगन से सेवा करने वाले थे । युवकों के संगठन में उनकी विशेष रुचि थी । वे सत्यवक्ता । पूर्ण प्रचारवान् थे । लाला गणेशीलाल की को वे पिता कहा करते थे । आर्य वीर को शत शत नमन
चमत्कार (vedic vichar)
06-01-2022
हम चमत्कार को स्वीकार करते हैं क्योंकि हमें यह आसान लगता है। सभी को आसान रास्ता चाहिए। सफलता का संबंध चमत्कार से नहीं परिश्रम से है। धर्म पालन बुरा लगता है क्योंकि उसमें आत्म सुधार की जरूरत होती है। हम कड़वा सच स्वीकार नहीं करना चाहते। इसीलिए चमत्कार को खोजते रहते हैं। कभी निर्मल बाबा में, कभी राम रहीम में, कभी राधे माँ में और कभी रामपाल में। चमत्कार का आरम्भ होता है विचार ना करने से। हम विचार और परिश्रम के स्थान पर तावीज और आशीर्वाद को महत्व देने लगे तो समझिए हम चमत्कार के पक्ष में खड़े हैं। सर्दी के दिन थे। एक रात एक आदमी ने पंसारी की दुकान से शक्कर की 2 बोरी चुरा ली। चौकीदार ने शोर मचाया । कुछ आदमी पीछे भागे। चोर ने पकड़े जाने के डर से सोचा- क्यों ना बोरी कुएँ में फेंक दूँ । एक तो वह जैसे तैसे रात के अँधेरे में पास वाले कुएँ में फेंक दी, लेकिन जब दूसरी बोरी कुएं में डालने लगा तो अंधेरे और किनारे की फिसलन के कारण खुद भी बोरी के साथ कुएँ में गिर गया। रात भर कुएं में फंसा रहा। सुबह शोर सुनकर लोग इकट्ठे हो गए। कुएँ में रस्सियाँ डाली गईं। उस आदमी को बाहर निकाल लिया गया. परन्तु सर्दी के कारण और रात भर पानी में रहने से वह कुछ घंटों के बाद मर गया। मरने के बाद दफना दिया गया । दूसरे दिन जब लोगों ने इस्तेमाल के लिए कुएँ में से पानी निकाला तो वह मीठा था। नजदीक की मस्जिद के मौलवी साहब ने इसे चमत्कार बताया। उस आदमी को पीर घोषित किया। उसकी कब्र को आलीशान दरगाह बना दिया। हजारों हिन्दू हनुमान जी को छोड़ कर दरगाह पर जाने लगे। उनमें वह पंसारी भी था जिसकी दुकान में चोरी हो गई। पीर के चमत्कारों की कहानियां चारों तरफ फ़ैल गई। हर साल उस दरगाह पर उर्स मनाया जाता है। करोड़ों का चढ़ावा चढ़ाया जाता है। समझदार समझ ले अन्धविश्वास और चमत्कार में क्या सम्बन्ध होता है?
ओ३म् की महिमा ( vedic vichar )
06-01-2022
????गोपथ ब्राह्मण में ओंकार की महिमा:-* गोपथ ब्राह्मण में ओ३म् की महिमा विषेश ध्यान देने योग्य है।यथा श्लोक (गो० 1/22) जिसके अर्थ इस प्रकार हैं, कि जो ब्रह्मोपासक इस अक्षर 'ओ३म्' की जिस किसी कामना पूर्ति की इच्छा से तीन रात्रि उपवास रखकर तेज-प्रधान पूर्व दिशा की ओर मुख करके, कुशासन पर बैठकर सहस्र बार जाप करता है उसके सब मनोरथ (शुभ कामनाएं) सिद्ध होते हैं। इस कथन में जप करने के विधान का उपदेश भी किया गया है। आजकल प्रायः सभी जिज्ञासु जप करने की विधि जानना चाहते हैं,उनके लिए यह सुगम विधि है। *????प्रश्नोपनिषद में ओंकार की महिमा:-* एक समय शिवि के पुत्र सत्यकाम ने पिप्पलाद ऋषि से पूछा-हे भगवन् ! मनुष्यों में वह व्यक्ति जो प्राण के अन्त तक ओंकार का ध्यान करता है, उसकी क्या गति होती है? पिप्पलाद ऋषि ने उत्तर दिया कि जो उपासक उस सर्वव्यापक परमेश्वर का 'ओ३म्' शब्द द्वारा ध्यान करता है, वह ब्रह्म को प्राप्त करता है। उस सर्वज्ञ अन्तर्यामी परमात्मा को सर्वसाधारण ओंकार के द्वारा प्राप्त होते हैं। जो साधक त्रिमात्र ओम् का ध्यान करे, वह तेज में सूर्यलोक से सम्पन्न हो जाता है, एकमात्र की उपासना करने वाला पृथ्वी लोक में, द्विमात्र की उपासना करने वाला सोमलोक अर्थात् चन्द्रलोक में और त्रिमात्र की उपासना करने वाला सूर्यलोक में पहुंचता है।सूर्यलोक ओर चन्द्रलोक दोनों कही बाहर नहीं,अपने भीतर ही हैं। ऐसे व्यक्ति का जीवन सूर्य की ज्योति के समान जगमगाता है।ज्योतिर्मयी हो जाता है।। जैसे सांप केंचुली से मुक्त हो जाता है । इसी क्रम में पिप्पलाद ऋषि ओंकार की एकमात्र, द्विमात्र, त्रिमात्र उपासना का बखान करते हैं। एकमात्र ओंकार का अर्थ है, ओंकार की कुछ कुछ उपासना, द्विमात्र का अर्थ है बहुत काफी उपासना, त्रिमात्र का अर्थ है-ओंकार की उपासना में ही रत हो जाना, मग्न हो जाना। पृथ्वीलोक, चन्द्रलोक तथा सूर्यलोक भी मानसिक स्थितियों को सूचित करते हैं। पिप्पलाद ऋषि इन तीनों लोकों का संकेत दे रहे हैं। पृथ्वीलोक का अर्थ है भौतिक सुख लाभ; चन्द्रलोक का अर्थ है मानसिक शान्ति; सूर्यलोक का अर्थ है-आध्यात्मिक प्रकाश। अतः ऋक्,यजु,साम भी ओंकार की त्रिमात्राओं की तरह त्रया-विद्या के प्रतिनिधि हैं। ऋक, यजु, साम को ज्ञान, कर्म तथा भक्ति का प्रतीक भी समझा जा सकता है। इन शब्दों का शाब्दिक अर्थ न लेकर अर्थवादपरक अर्थ लेना चाहिये। अर्थात् जब किसी बात की महिमा का बखान करना हो, तब कोई अच्छी बात कह दी जाती है,जिसका अभिप्रायः सिर्फ पढ़ने सुनने वाले को प्रेरणा देना होता है।
କ୍ରୋଧକେଉଁଠାରୁ ସୃଷ୍ଟି ହୁଏ
05-01-2022
କ୍ରୋଧକେଉଁଠାରୁ ସୃଷ୍ଟି ହୁଏ ଓ କ୍ରୋଧ ସୃଷ୍ଟି ହେଲେ କ'ଣ କ୍ଷତି ହୁଏ ? *************************************************** ଚକ୍ଷୁ ଶ୍ରୋତ୍ରାଦି ବାହ୍ୟ ଇନ୍ଦ୍ରିୟମାନଙ୍କୁ ନିରୁଦ୍ଧ କଲେ ସୁଦ୍ଧା ମନେମନେ ଯଦି ରୂପ ଓ ଶବ୍ଦାଦି ବିଷୟ ଚିନ୍ତା କରାଯାଏ ତେବେ ସେହି ପଦାର୍ଥ ପାଇବାପାଇଁ ଆସକ୍ତି ଅର୍ଥାତ୍ ପାଇବାର ଇଚ୍ଛା ହୁଏ। ସେସବୁ ପଦାର୍ଥ କେବେ କେଉଁଠାରୁ କିପରି ମିଳିବ କେବେ ଓ କେଉଁଠାରୁ ମିଳିବ ଇତ୍ୟାଦି କାମନା ହୁଏ । କାମନା ସିଦ୍ଧନ ହେଲେ କ୍ରୋଧଉତ୍ପନ୍ନ ହୁଏ । ଏଠାରେ ଗୀତ । ରେ ଶ୍ରୀକୃଷ୍ଣ କହନ୍ତି"କ୍ରୋଧାତ୍ ଭବତି ସମ୍ମୋହ, ସମ୍ମୋହାତ ସ୍ମୃତି ବିଭ୍ରମଃ | ସ୍ମୃତିଭ୍ରଶାଂତ୍ ବୁଦ୍ଧିନାଶୋ, ବୁଦ୍ଧିନାଶାତ୍ ପ୍ରଣଶ୍ୟତି।୨/୬୩ । ଅର୍ଥାତ୍ କ୍ରୋଧରୁ ମୋହ, ମୋହରୁ ସ୍ମରଣଶକ୍ତି ବିନାଶ ହୁଏ । ସ୍ମରଣଶକ୍ତି ନଷ୍ଟରୁ ବୁଦ୍ଧି ନାଶ ହୁଏ । ବୁଦ୍ଧି ନାଶ ହେଲେ ପ୍ରାଣୀ ମୃତ ପରି ନିଶ୍ଚେଷ୍ଟ ହୁଏ । ଅର୍ଥାତ୍ ବୁଦ୍ଧିହୀନ ବ୍ୟକ୍ତି ଆତ୍ମ ଜ୍ଞାନ ବଞ୍ଚିତ ହୋଇ ନିତ୍ୟସତ୍ୟ ନିରାକାର ପରମବ୍ରହ୍ମଙ୍କୁ ଜାଣି ନ ପାରି ଭ୍ରମରେ ପଡି ମୁକ୍ତିକାମୀ ହୋଇପାରେନାହିଁ। ଇତି ଓ ୩ମ୍ । ରାଜକିଶୋର, Vedic Vichar
"ଅଭିବାଦନ ଶିଳସ୍ୟ ନିତ୍ୟ ବୃଦ୍ଧୋପସେବିନମ୍ । ଚତ୍ବାରି ତତ୍ର ବର୍ଦ୍ଧନ୍ତେ ଆୟୁଃ, ବିଦ୍ୟା, ଯଶବଳଂ।"
04-01-2022
ଅର୍ଥାତ୍ ଯେଉଁମାନେ ଗୁରୁଜନ ଯଥା , ପିତା, ମାତା, ଜ୍ୟେଷ୍ଠ, ଶ୍ରେଷ୍ଠ, ସାଧୁ ଓ ସନ୍ଥମାନଙ୍କୁ ସମ୍ମାନ ଦେଇ ସେବା ଓ ଯତ୍ନ ନିଅନ୍ତି ସେମାନଙ୍କର ଆୟୁଷ ବଢେ ଅର୍ଥ କିପରି ଖାଇବେ, କ'ଣ ଖାଇବେ କେତେବେଳେ ଖାଇବେ ଓ ଉଚିତ୍ ଅନୁଚିତ୍ ର ପରମର୍ଶ ସେମାନଙ୍କଠାରୁପାଇଥାନ୍ତି। ସାଧୁ ସଙ୍ଗ ଓ ସତ୍ସଙ୍ଗ କରିବା ଫଳରେ ଜନ୍ମଜନ୍ମାନ୍ତରକୁ ସଂସ୍କାର ସମାପ୍ତ ଘଟି ସୁସଂସ୍କାରଲିପିବଦ୍ଧ ହୁଏ । ଫଳରେ ଦେହ ମନ ଓ ଚିତ୍ତଶାନ୍ତରହେ । ଭୁଲ୍ କୁ ସ୍ୱୀକାର କରିବା ଫଳରେ ମଦ୍ୟ ମାଂସ, ରାଗ, ଦ୍ୱେଷ, ଅହଙ୍କାର, କାମ,କ୍ରୋଧ, ଲୋଭ , ମୋହ, ମଦମାତ୍ସାର୍ଯ୍ୟ , ପରନିନ୍ଦା,ପର ଚର୍ଚ୍ଚା ଇତ୍ୟାଦି ମନ୍ଦ କର୍ମ ଦୂରହୁଏ, ଫଳରେ ସମାଜ ରେ ସମସ୍ତେ ଆଦର କରନ୍ତି ଫଳରେଯଶ ବଢେ, ଶକ୍ତିଶାଳିହୁଏ, ବିଦ୍ୟା ଓ ବୁଦ୍ଧି ବୃଦ୍ଧିପାଏ । ଇତି | ଓ ୩ମ୍ । ରାଜକିଶୋର । Vedic Vichar
ଜାଣିବା ଦ୍ଵାରା ଆତ୍ମା ଶାନ୍ତ ହୁଏ
04-01-2022
କାହାକୁ ଜାଣିବା ଦ୍ଵାରା ଆତ୍ମା ଶାନ୍ତ ହୁଏ ???? ************************* "ଯତୋ ବା ଇମାନି ଭୂତାନି ଜାୟନ୍ତେ ଯେନ ଜାତା ନି ଜୀବନ୍ତୀ । ଯତ୍ ପ୍ରଯନ୍ତ୍ଯ ଦ୍ଭି ସଂ ବିଶନ୍ତି ତଦ୍ଵିଜିଜ୍ଞାସ ସ୍ୱତଦ୍ ବ୍ରହ୍ମ" ଅର୍ଥାତ୍ ଯେଉଁ ପରାମାତ୍ମାଙ୍କ ଠାରୁ ପୃଥିବୀ ଆଦି ସମସ୍ତ ପଦାର୍ଥ ଯଥା-ଅଣୁ ପରମାଣୁଠାରୁ ଗ୍ରହ ନକ୍ଷତ୍ର ସମସ୍ତ ଜୀବଜଗତ ସୃଷ୍ଟି ପୁନଃଯାହାଙ୍କଠାରେ ଏ ସବୁ ସ୍ଥିତି ଓ ଲୀନ ହୋଇଯାଏ ତାହାଙ୍କୁ ଜାଣିବାକୁ ଇଚ୍ଛାକର । ଉଦାହରଣଯୋଗ୍ୟ,_ ଯାଜ୍ଞବୈଳିକ ଋଷିଙ୍କର ଦୁଇ ଜଣ ପତ୍ନି ଥିଲେ, ତାଙ୍କର ସମସ୍ତ ସମ୍ପତି କୁ ଦୁଇ ଭାଗ କରି ସନ୍ୟାସ୍ ଗ୍ରହଣ କରିଗଲା ବେଳେ ମୈତ୍ରୀୟୀ ଓ କାତ୍ୟାୟନୀ ପ୍ରଶ୍ନ କଲେ । ଆମେ ଦୁଇ ଦୁଇ ଜଣ ପତ୍ନି ଥାଇ ଏ ସଂସାର ତୁମକୁ ସୁଖ ଓଶାନ୍ତି ଦେଉନାହିଁକି? ଋଷି ବର କହିଲେ "ଆତ୍ମା ବାଆର୍ୟ ଦ୍ରଷ୍ଟୋବ୍ୟୋ8 ଶ୍ରୋତ୍ରଂବ୍ୟୋ8,ନିଦ୍ଧିଧ୍ଯ।ସନତ୍ଵବ୍ୟୋ8|" ଅର୍ଥାତ୍ କେବଳ କେବଳ ପରମାତ୍ମା ହିଁ ଶୁଣିବା, ମନନ ,ଚିନ୍ତନ ।ଅନୁଭବ ଓ ପ୍ରାପ୍ୟ ଯୋଗ୍ୟ ଅଟନ୍ତି ସେ ସର୍ବତ୍ର ବିଦ୍ୟମାନ ତେଣୁ ତାଙ୍କୁ ଉପାସନା କରିବାଦ୍ୱାରା ତାଙ୍କର ପ୍ରାପ୍ତି ହୋଇଗଲେ ଆତ୍ମାର ଶାନ୍ତି ହୁଏ ଅନ୍ୟ ଗୁଡିକ ଅଶାନ୍ତିର ଉପାଦାନ ଅଟନ୍ତି । ଇତି ଓ ୩ମ। ରାଜକିଶୋର । Vedic Vichar
ପ୍ରବୃତ୍ତି ଓ ନିବୃତ୍ତି ମାର୍ଗରେ କେଉଁମାନେ ଗତି କରନ୍ତି ଓ କାହିଁକି?
04-01-2022
ଓ ୩ମ୍ ପ୍ରବୃତ୍ତି ଓ ନିବୃତ୍ତି ମାର୍ଗରେ କେଉଁମାନେ ଗତି କରନ୍ତି ଓ କାହିଁକି ? ସାଧାରଣତଃ ଆମେ ଜଣଙ୍କର ମୃତ୍ୟୁ ଦକ୍ଷିଣାୟନ ରେ ହେଲେ ପିତୃମାନ ଓ ଉତ୍ତାରାୟଣରେ ହେଲେ ଦେବଯାନ କହିଥାଉ । ତେବେ ପ୍ରଶ୍ନୋପନିଷଦକହନ୍ତି"ତଦୈହ ହ ବୈ ତତ୍ ପ୍ରଜାପତିବ୍ରତମ୍ ଚ଼ରତି ତେ ମିଥୁନମୁତ୍ପାଦୟନ୍ତେ।ଶେଷା ମେବୈଷ ବ୍ରହ୍ମଲୋକୋ ଯେଷାଂ ତପୋ ବ୍ରହ୍ମଚର୍ଯ୍ୟମ୍ ଯେଷୁ ସତ୍ୟମ୍ ପ୍ରତିଷ୍ଠିତ୧/୫ ଅର୍ଥ।ତ "ଯେଉଁମାନେ ପ୍ରଜାପତିବ୍ରତ ପାଳନ କରନ୍ତି ସେମାନଙ୍କର ସନ୍ତାନ ଯୋଗ୍ୟ ହୁଅନ୍ତି କାରଣ ପ୍ରାଣ ଶକ୍ତି ଓ ରୟିଶକ୍ତି ପରଷ୍ପର ପରିପୂରକ ।ବ୍ୟଭିଚାର ରହିତ ନିୟମ ପୂର୍ବକ ଗୃହସ୍ଥ ଧର୍ମ ଏମାନେ ପାଳନ କରିଥାନ୍ତି । ଏମାନେ ଦକ୍ଷିଣାୟନ ବା ପିତୃ ଯାନ ବା ପ୍ରବୄତିମାର୍ଗର ପଥିକ ହୁଅନ୍ତି । ସେମାନଙ୍କ ମଧ୍ୟରୁ ଯେଉଁମାନେ ତପ ଓ ବ୍ରହ୍ମଚର୍ଯ୍ୟ ଓ ସତ୍ୟରେ ପ୍ରତିଷ୍ଠିତ ସେମାନେ ଉତ୍ତାରାୟଣ ବା ଦେବଯାନ ଓ ନିବୃତ୍ତ ମାର୍ଗରେ ଅଗ୍ରସର ହୁଅନ୍ତି। ଓ ଚାରି ଆଶ୍ରମ ସ୍ଵଭାବିକ ଶୃଙ୍ଖଳା ଅବଲମ୍ବନ କରି ସକଳ ଶୁଭ ଗୁଣ ଲାଭ କରି ସତ୍ୟରେ ପ୍ରତିଷ୍ଠିତ ହୁଅନ୍ତି । ପୁନଃ କୁଟିଳତା ମିଥ୍ୟାବାଦୀ ସଂପର୍କ ରେ ପ୍ରଶ୍ନୋପନିଷଦକହନ୍ତି।" ତେଷାଂ ଅସୌବିରଜଃ ବ୍ରହ୍ମଲୋକ8 ଯେଷୁ ଜିହମମନୃତମ୍ ନ ମାୟା ଚେତି" ଅର୍ଥାତ୍ (ଯେଷୁ ,) ଯେଉଁମାନଙ୍କ ମଧ୍ୟରେ (ଜିହ୍ମମ ) କୁଟିଳତା (ଅନୃତମ୍,) ମିଥ୍ୟା ଅସତ୍ୟ (ନ)ନାହିଁ (ମାୟ ଚ଼ ନ) ଆତ୍ମାବିରୁଦ୍ଧ କର୍ମ ନାହିଁ (ତେଷାମ୍) ସେମାନଙ୍କର ପକ୍ଷରେ(ଅସୌ ବିରଜ8 ବ୍ରହ୍ମଲୋକ ) ଏହି ନିର୍ମଳ ବ୍ରହ୍ମଲୋକ ସହଜ ଲଭ୍ୟ ହୁଏ । ସଫଳତା, ସତ୍ୟ ଆତ୍ମ ବୋଧରୁ ଆନନ୍ଦ ଉତ୍ପନ୍ନ ହୁଏ। ଯେଉଁମାନେ ଛଳ କପଟ ଶୂନ୍ୟ ଓ ମଥ୍ୟାଚାର ରହିତ ସେମାନେ ଆନନ୍ଦର ଅଧିକାରୀ ଅଟନ୍ତି । ଆତ୍ମବିରୁଦ୍ଧ କର୍ମ କଲେ ଦୁଃଖ ମିଳେ। ଅପବିତ୍ର ଓ ମଳିନ ବୁଦ୍ଧି ସଂପନ୍ନ ବ୍ୟକ୍ତି ସର୍ବଦା ଦୁଃଖିରହେ । ବ୍ରହ୍ମଲୋକ, ମୋକ୍ଷ ଓ ସ୍ୱର୍ଗ ଆଦି ସମାନ ଅର୍ଥ ବୋଧକ । ଇହସଂସାର ଓ ଇହଜୀବନରେ ତପ,ସଂଯମ, ଓ ଶୁଭକର୍ମ ଦ୍ଵାରା ଶୁଭଫଳ ମିଳେ, 'ଏଣୁ ଆମେ ପ୍ରଜତ୍ନ କରିବା ଉଚିତ୍।ନାହିଁ ଓ ୩ମ୍.. ରାଜକିଶୋର, Vedic Vichar
ଯଚ୍ଛେଦ୍ କ'ଣ ? ଏହାଜାଣିଗଲେ ଈଶ୍ଵର ଦର୍ଶନ ମାର୍ଗ ଦୃଶ୍ୟ ହୁଏ ।
04-01-2022
ସମସ୍ତ ପ୍ରାଣୀ ଓ ଅପ୍ରାଣୀ ମଧ୍ୟରେ ପରମାତ୍ମା ଗୁପ୍ତ ଭାବରେ ବ୍ୟାପକ ଅଟନ୍ତି । ଭୌତିକ ଇନ୍ଦ୍ରିୟ ଗୁଡିକ ଦ୍ୱାରା ପରମାତ୍ମା ଜ୍ଞାତ ହୁଅନ୍ତି ନାହିଁ ଏଣୁ ଯୋଗୀ ଭିନ୍ନ ଏହା କାହାକୁ ଦୃଶ୍ୟ ହୁଅନ୍ତି ନାହିଁ। ଯୋଗୀମାନେ (ଅଗ୍ର୍ୟୟା ସୂକ୍ଷ୍ମାୟା ବୁଦ୍ଧ୍ୟା) କୁଶ୍ୟା ଗ୍ର ସୂକ୍ଷ୍ମ ବୁଦ୍ଧି ଦ୍ଵାରା ପରିମାତ୍ମା ଜ୍ଞାତ ହୁଅନ୍ତି। ଏଣୁ କଠୋପନିଷଦକହନ୍ତି "ଯଚ୍ଛେଦ୍ ବାଙମନସୀ ପ୍ରାଜ୍ଞ ଯଚ୍ଛେଦ୍ ଜ୍ଞାନ ଆତ୍ମନି । ଜ୍ଞାନମାତ୍ମାନି ମହତି ନିୟଚ୍ଛେଦ୍ ତତ୍ ଯଚ୍ଛେଦ୍ ଶାନ୍ତ ଆତ୍ମନି" ଅର୍ଥାତ୍ ଜ୍ଞାନଯୁକ୍ତ ପୁରୁଷ ମନରେ(ବାକ୍ ଯଚ୍ଛେଦ୍)ବାଣୀ ଆଦି ଇନ୍ଦ୍ରିୟ ସଂଯମ କରେ । ସେହିପରି ମନକୁ ଜ୍ଞାନରେ , ଜ୍ଞାନକୁ ଆତ୍ମାରେ,ଆତ୍ମାକୁ ପରମାତ୍ମା ଠାରେ ସଂଗତ କରେ।ଏଣୁ ବାହ୍ୟ ଇନ୍ଦ୍ରିୟଗୁଡ଼ିକୁ ଜ୍ଞାନ ଇନ୍ଦ୍ରିୟରେ,ଜ୍ଞାନଇନ୍ଦ୍ରିୟକୁ ଅହଙ୍କାରରେ, ଅହଙ୍କାରକୁ ଶୁଦ୍ଧମନରେ ଓ ଶୁଦ୍ଧମନକୁ ପରମାତ୍ମା ଠାରେ ସ୍ଥାପନ କରି ସୂକ୍ଷ୍ମଜୀବାତ୍ମା ସୂକ୍ଷ୍ମଦର୍ଶୀ ହୋଇ ପରମାତ୍ମାଙ୍କୁ ଦର୍ଶନ କରେ। ସନ୍ୟାସୀମାନେ ମଧ୍ୟ ପ୍ରଜ୍ଞାନ ଦ୍ୱାରା ଈଶ୍ଵର ଦର୍ଶନରୁ ବଞ୍ଚିତ ହୁଅନ୍ତି। କାରଣ ସେମାନଙ୍କୁ ମଧ୍ୟ ଦୁରାଚରଣ ରୁ ପୃଥକ୍ ହେବାକୁ ପଡ଼େ । ଜିତେନ୍ଦ୍ରିୟ ହୋଇ ମନୋବୃତ୍ତିକୁ ଶୁଦ୍ଧ ଓ ଅନ୍ତ8ମୂଖୀ ହେବାକୁ ପଡ଼େ । ଏଣୁ ଯଚ୍ଛେଦ୍ ଅର୍ଥ ସଂଯମ ଦ୍ଵାରା ସଂଗତ ହୁଏ । ଇତି ଓ ୩ମ୍ । ରାଜକିଶୋର, Vedic Vichar
ଅବିଦ୍ୟା ଦୂର ହେଲେ ଆତ୍ମ ଜ୍ଞାନପ୍ରାପ୍ତ ହୁଏ ?
04-01-2022
କଠୋପନିଷଦରେ ଯମାଚାର୍ଯ୍ୟ , ନଚିକେତା ସମ୍ବାଦରେ ଗୁରୁ ଯମାଚାର୍ଯ୍ୟ ରୂପବତୀସ୍ତୀ, ପୁତ୍ର ପୋତ୍ର, ଧନସମ୍ପତ୍ତି ସାଂସାରିକ ସମସ୍ତ ପ୍ରଲୋଭନ ଦେଖାଇଥିଲେ କିନ୍ତୁନଚିକେତା ଏ ସମସ୍ତ ଆତ୍ମ ଜ୍ଞାନର ବାଧକ ଜାଣି କହିଲେ, ସମସ୍ତ ସାଂସାରିକ ବସ୍ତୁ ଯାହା ଅନିଶ୍ଚିତ, ଅବାସ୍ତବ,ଚୀର ନୁହେଁ ତେଣୁ ତିରସ୍କାର କଲିଏବଂ ସେ କହିଲେ ଏହା ସବୁ ଆପଣଙ୍କ ନିକଟରେ ରଖନ୍ତୁ ମୋତେ ଆତ୍ମଜ୍ଞାନ ହିଁ ପ୍ରଦାନ କରନ୍ତୁ। ସେ ତାଙ୍କର ଅଭୀଷ୍ଟ ଲକ୍ଷ୍ୟରୁ କେବେ ଚ୍ୟୁତ ହୋଇନଥିଲେ କାରଣ ତାଙ୍କର ବିବେକ ଶୁଦ୍ଧ ଓ କାମନା ସ୍ୱାତ୍ତିକ ଥିଲା। ଏଣୁ ଯମାଚାର୍ଯ୍ୟ କହିଥିଲେ ।"ଦୂର ମେତେ ବିପରୀତେ ବିଷୂଚୀ ଅବିଦ୍ଯା ଯା ଚ ବିଦ୍ୟତି ଜ୍ଞାତା। ବିଦ୍ୟାଽଭୀପ୍ସିନଂ ନଚିକେତସଂ ମନ୍ୟେ ନ ତ୍ବା କାମା ବହବୋଽଲୋଲୁପନ୍ତ ।(୨/୪) ଅର୍ଥାତ୍ ଶ୍ରେୟ ଓ ପ୍ରେୟ ମାର୍ଗ ପରଷ୍ପର ବିରୋଧି ଅଟେ। ଦୁଃଖହେଉଅଛିସାଂସାରିକ ସୁଖର ପରିଣାମ । ଏହି ଦୁଃଖକାରକ ଭୋଗକୁ ସୁଖ ମଣିମା ଅବିଦ୍ୟା ଅଟେ। ଅବିଦ୍ୟା ଅନ୍ଧକାର ସଦୃଶ କାରଣ ଏହି ଶରୀର ବା ଦେହ ଓ ଅନିତ୍ୟ ଅଟେ। ଅନିତ୍ୟ କୁ .ନିତ୍ୟ ମନେକରିବା ଅବିଦ୍ୟା ଅଟେ । ଏପରି ଅବିଦ୍ୟା ଯୋଗୁଁ ଯଥାର୍ଥ ପଦାର୍ଥର ସ୍ୱରୂପ କୁ ଜାଣିହୁଏ ନାହିଁ।ଅବିଦ୍ୟା ଅସତ୍ୟ ଓ କୃତ୍ତିମ ର ପରିଣାମଦୁଃଖ ହୁଏ। ଏଣୁ ଯେଉଁମାନେ ସାଂସାରିକ କାମ୍ୟ ବସ୍ତୁ ଦ୍ଵାରା ଯେଉଁମାନେ ନିତାନ୍ତ ଆବଦ୍ଧ ହୁଅନ୍ତି ସେମାନେ ଅନ୍ଧ ଦ୍ଵାରା ପରିଚାଳିତ ହୋଇ ଅନ୍ଧ ହୋଇ ସାଂସାରିକ ଚକ୍ର ରେ ଘୂରିବୁଲିଥାନ୍ତି।(ଯଥା ଅ6ନ୍ଧନନୀୟ ମାନା ଯଥା ଽନ୍ଧା 8) ଅର୍ଥାତ୍ ମୁକ୍ତି ମାର୍ଗ ବହୁ ଦୂରରୁ ଦୂରକୁ ଚାଲିଯାଏ । ଏଣୁ ପ୍ରଥମେ ଅବିଦ୍ୟା ଅନ୍ଧକାରକୁ ତ୍ୟାଗ କରିବାକୁ ଚେଷ୍ଟିତ ହେବା ଆବଶ୍ୟକ।ଇତି ଓ ୩ମ୍ । ରାଜକିଶୋର, Vedic Vichar
ଭାରତର ପୂର୍ବଗୌରବ ଫେରିବ ନିଶ୍ଚିତ।
04-01-2022
ଭାରତର ପୂର୍ବଗୌରବ ଫେରିବ ନିଶ୍ଚିତ। ******************************* ଆର୍ଯ୍ୟବର୍ତ୍ତ ଜମ୍ଭୁଦୀପ, ଭାରତବର୍ଷକୁ ଇଣ୍ଡିଆ କହିଲା କିଏ ?ଏଣୁ ଭାରତରେ ମୋଗଲ ଶାସନ ପୂର୍ବରୁ ଯାହାଥିଲା ସେହି ଇତିହାସ କୁ ପାଠ୍ୟପୁସ୍ତକରେ ପଠନ ନ ହେବା ପର୍ଯ୍ୟନ୍ତ ଆମ ମଧ୍ୟରେ ଧର୍ମ ଓ ଜାତି ନାମରେ ଅନ୍ଧବିଶ୍ୱାସରେ ଆମେ ସମସ୍ତେ ଅନ୍ଧ ଭଳି ବାଡି ବୁଲାଉଥିବା ସିନା ସଠିକ୍ କିଛି ବୁଝିହେବ ନାହିଁ। ପରସ୍ପର ବିରୋଧ ଭାଷ ଯୋଗୁଁ ବିଦେଶୀ ଗୋଡ଼ାଣିଆ ଫାଇଦା ଉଠାଇବେ ଓ ଧର୍ମନିରପେକ୍ଷ ନାମରେ ଭାରତ ର ଅଶେଷ କ୍ଷତି ହେବାରେ ଲାଗିଥିବା । ଏହାକୁ ଜାଣିବା ପାଇଁ ଆମର ସମୟ ଅଭାବ, ଯାହାର ସମୟ ଅଛି ପ୍ରାୟତଃ ଶତା କଡ଼ା ୮୦ %ସେମାନେ ଧୂର୍ତ୍ତ, ସ୍ଵାର୍ଥୀ ଓ ଅହଙ୍କାରୀ ଶିଳ୍ପପତି ଓ ବ୍ୟୁରକ୍ରାଟ(ଉଚ୍ଚ ପ୍ରଶାସକ)ତାହାଙ୍କୁ ବ୍ରିଟିଶ ଓ ମୋଗଲ ଶାସନ ଅନୁକୂଳ ହୋଇଅଛି। ଏଣୁ ମଧ୍ୟ ବିତ୍ତଶାଳୀମାନେ ସ୍ଵର ଉତ୍ତୋଳନ କରିବା ଆବଶ୍ୟକ। ନିମ୍ନବିତ୍ତଶାଳୀ ମାନେ କିଛି ଜାତି ନାମରେ ଫାଇଦା ଉଠାଇ ଚାଲିଛନ୍ତି ତ କିଛି ସରକାରର ଅନୁକମ୍ପାକୁ ଅପେକ୍ଷା କରିଛନ୍ତି। ଏଣୁ ଏହାକୁ ଭାରତର ସମସ୍ତସମାଜସେବୀ ବିଚାର କରିବା ଆବଶ୍ୟକ ଓ କର୍ତ୍ତବ୍ଯ ଅଟେ। ଇତି ଓ ୩ମ। Vedic Vichar
ରଜତାମସ ଯୁକ୍ତ ଜନ । କରନ୍ତି ସବୁ କର୍ମେ ବିଘ୍ନ।
04-01-2022
ଅଷ୍ଟାଦଶୋଽଧ୍ୟାୟ ୨୮ ଶ୍ଳୋକରେ ଯୋଗେଶ୍ଵର ଶ୍ରୀକୃଷ୍ଣ କହନ୍ତି।"ଅଯୁକ୍ତ8ପ୍ରାକୃତସ୍ତବ୍ଧ8,ଶଠନୈଷ୍କୃତି କୋଽଳସଃ। ବିଷାଦୀ ଦୀର୍ଘସୂତ୍ରୀ ଚ, କର୍ତ୍ତା ତାମସ ଉଚ୍ୟତେ । " ଅର୍ଥାତ୍ ସାତ୍ତ୍ଵିକ,ରାଜସିକ ଓ ତାମସିକ ଏହି ୩ଟି ଗୁଣରେ ଆମେ ପ୍ରାୟତଃ୧୩୫ କୋଟି ଜୀବ ରୂପରେ ସମାଜରେ ବସବାସ କରୁଅଛେ । ସେଥିମଧ୍ୟରୁ ପ୍ରାୟତଃ ୯୦ % ଲୋକ ରାଜସିକ ଓତାମସିକ ଗୁଣ ଲୋକ ଅଛେ । ଏ ସମ୍ପର୍କରେ ଗୀତ କହନ୍ତି ତାମସିକ ଓ ରାଜସିକ ଅର୍ଦ୍ଧ ମିଶି ନିମ୍ନଲିଖିତ ଗୁଣ ପ୍ରକାଶ କରନ୍ତି । ଯଥା- ୧. ତାମସ ଯୁକ୍ତ ଜନମନ ନିଶ୍ଚଳନ ଥିବାରୁ କର୍ତ୍ତବ୍ଯ ଓ କର୍ମରେସାବଧାନ ହୋଇପାରେନାହିଁ। ୨. ଶାସ୍ତ୍ରପାଠ ବିବେଚନାମୂଳକ ନକରିବାରୁ ଅସତ୍ କାର୍ଯ୍ୟ ଓ ସଙ୍ଗରେ ମିଶିଅହଙ୍କାରି ହୋଇଥାଏ। ୩. ବିନୟ ଭାବର ଅଭାବ ଯୋଗୁଁ ଗୁରୁ , ଦେବତା, ଜ୍ୟେଷ୍ଠ ଓ ଶ୍ରେଷ୍ଠଙ୍କୁ ମାନ୍ୟତା ଦେବାରେ କୁଣ୍ଠାବୋଧ ପ୍ରକାଶ କରେ । ୪. ସର୍ବଦା ଗର୍ବଯୁକ୍ତ ଥିବାରୁ ଆପଣାର ଉପକାରୀ ବ୍ୟକ୍ତିଙ୍କୁ ଆମାନ୍ୟକରେ । ପ୍ରକୃତ ଘଟଣା ଅନ୍ୟ ପ୍ରକାର ବର୍ଣ୍ଣନା କରି ପ୍ରତାରଣା କରେ । ୫. ଆଳସ୍ୟ ତା ଯୋଗୁଁ ଇଷ୍ଟଲାଭରେ ସାମାନ୍ୟ ବାଧା ହେଲେ ବା କିଛି ଅଂଶଙ୍କା ହେଲେ ଶୋକ ଗ୍ରସ୍ତ ହୁଏ । ହତ୍ୟା କରିବାକୁ ପଛଘୁଞ୍ଚା ଦିଏନାହିଁ। ୬. ଦୀର୍ଘସୂତ୍ରୀ ଯୋଗୁଁ ଦୁଇ ଦିନର କାର୍ଯ୍ୟଙ୍କୁ ଏକ ବା ତତୋଧିକ ଦିନ ରେ ନିଷ୍ପନ୍ନ କରେ। ଏଗୁଡ଼ିକ ଜାଣିବା ଫଳରେ ଯଦି ଆମ ମନର ବା ଚିତ୍ତରେ ବିକଶିତ ହେଉ ଥାଏ ଶିଘ୍ର ତୀ ଯଥାଶିଘ୍ର ଅଭ୍ୟାସ ଓ ତପ ପୂର୍ବକ ଏହି ମନ୍ଦ ଗୁଣଗୁଡ଼ିକୁ ଦୂର କରି ସାତ୍ତ୍ଵିକ ଗୁଣଧାରଣ କରିପାରିଲେ। ନିଜର ଓ ସମାଜର ଯଥେଷ୍ଟ ମଙ୍ଗଳ ହୋଇ ପାରିବ । ଇତି ଓ ୩ମ୍ । ରାଜକିଶୋର
କାମ,କ୍ରୋଧ ଓ ଲୋଭ ଏହି ତିନୋଟି ନରକର ଦ୍ଵାର ଅଟନ୍ତି
04-01-2022
ଗୀତାରେ ଯୋଗେଶ୍ଵର ଶ୍ରୀକୃଷ୍ଣ କହନ୍ତି" ତ୍ରିବିଧଂନରକ 6ସ୍ୟଦଂ, ନାଶନମାତ୍ମାସନଃ । କାମ8 କ୍ରୋଧସ୍ତଥା ଲୋକ, ସ୍ତସ୍ମାଦେତ ତ୍ରୟମ୍ ତ୍ୟ ଜେତ୍ (୧୬ ଅ୨୧ ଶ୍ଳୋକ) ଅର୍ଥାତ୍ ଯେତେ ପ୍ରକାର ଅ।ସୁର ସମ୍ପତ୍ତି ଅଛି ତାହାକୁ ଯତ୍ନପୂର୍ବକ ପରିତ୍ୟାଗ କରିବା ଏ ଜନ୍ମର ଆୟୁଷ କମ୍ ହେବ ତେବେ ମୁକ୍ତିର କଥା ପ୍ରଶ୍ନ ଉଠୁନାହିଁ। ଅଜ୍ଜୁନଙ୍କର ଏହି ଅଶଙ୍କା ସୃଷ୍ଟି ହେବା ପୂର୍ବରୁ ଶ୍ରୀକୃଷ୍ଣ କହୁଛନ୍ତି କେବଳ କାମ, କ୍ରୋଧ, ମୋହ ଏହି ତିନୋଟି ର ମୂଳ କାରଣ ଯୋଗୁଁ ଜୀବକୁ ବ୍ୟାଘ୍ର, ସର୍ପ ଓ ବୃକ୍ଷାଦିଯୋନୀ ଲାଭ କରିବାକୁ ପଡିଥାଏ। ଏପରିକି ତିନୋଟି ଜୀବାତ୍ମା କୁ ସ୍ଵର୍ଗରୁ ନରକକୁ ଅଧୋଗତି କରିଥାଏ । ଅତଏବ ଏହି ୩ଟି ପରିତ୍ୟାଗ କଲେ ସମସ୍ତ ଆସୁରୀ ସମ୍ପତି ସହଜରେ ଜୟଲାଭ କରି ହେବ । ଇତି ଓ ୩ମ୍ । ରାଜକିଶୋର
ନୀଳବର୍ଣ୍ଣଶୃଗାଳଙ୍କୁ
04-01-2022
ଆମଦେଶର ନୀଳବର୍ଣ୍ଣଶୃଗାଳଙ୍କୁ ସାବଧାନ, ଘରଢିଙ୍କି କୁମ୍ଭୀର, ଅଣ୍ଟିଛୁରୀ ତଣ୍ଟିକାଟେ, ପରି ଆମ ଭାରତରେ କିଛି ସ୍ଵାର୍ଥୀମାନେ ଦୁଇଧାରିଆ ଖଣ୍ଡା ଧରି ବୁଲୁଛନ୍ତି। ଏଣୁ ସାବଧାନ୍ । କାରଣ ଆମେ ଆମ ରଧର୍ମର ଗ୍ରନ୍ଥ ନାମ ଜାଣିନାହୁଁ ଶୁଣିବି ନାହୁଁ କିନ୍ତୁ ସବୁ କଥାରେ ବିଦେଶର ପ୍ରସଂସାର ଉଦାହରଣ ଦେଇ ଥାଉ।ସତ୍ୟସନାତନ ଧର୍ମ ସାରା ବିଶ୍ଵର ଧର୍ମ ଅଟେ କାରଣ ଏଥିରେ ମାନବବାଦର ତତ୍ତ୍ଵ ରହିଅଛି।ଗ୍ରନ୍ଥ ଟିରନାମ ""ବେଦ" । ଯାହାକୁ ସାନ୍ଦିପନୀଗୁରୁ ଆଶ୍ରମରୁ ଶିକ୍ଷା କରି ତାହାକୁ ଦ୍ଵାପରେ ଯୁଗରେ ମହାଭାରତ ଯୁଦ୍ଧରେଶ୍ରୀକୃଷ୍ଣ ଅର୍ଜ୍ଜୁନଶୁଣାଇଥିଲେ ତାହା ଥିଲା ଶ୍ରୀମଦ୍ ଗୀତ । ଯାହାକୁ ବ୍ୟାସଦେବ ରଚନା କରିଥିଲେ। ମହାଭାରତ ର ମହାଯୋଦ୍ଧା ଅର୍ଜ୍ଜୁନ ଶ୍ରୀକୃଷ୍ଣ ଠାରୁ ଶ୍ରବଣ କରି କ୍ଷତ୍ରିୟ ଓ ଯୁଦ୍ଧକ୍ଷେତ୍ରରଯୋଦ୍ଧର କର୍ତ୍ତବ୍ଯ ଜ।ଣି ଯୁଦ୍ଧ କରି ଧର୍ମରକ୍ଷା କରିଥିଲେ। ତେବେ ଆସନ୍ତୁ ଆମେ ଜାଣିବା ଶ୍ରୀ ମଦ୍ଭଗବଦ୍ ଗୀତା ପ୍ରଚାର ର ପ୍ରସାରରେ ବିଦେଶୀମାନଙ୍କ ଆଗ୍ରହ ଓ ଭୂମିକା ବିଷୟରେ ସଂକ୍ଷିତ୍ର ପ୍ରମାଣ। ୧୫୮୪ ଖ୍ରୀଷ୍ଟାବ୍ଦରେ ଆକବର ବାଦଶାହ"'ଫୟଜୀ" ମହାଭାରତକୁ ପାରସ୍ୟ ଭାଷାରେ ଅନୁବାଦ କରିଥିଲେ, ତାହାର ନାମ'ରଜନାମା "ଅର୍ଥାତ୍ ରଣାଖ୍ୟାନ ଏଥିରେ ଗୀତାର ଅନୁବାଦ ହୋଇ ଅଛି । ୧୭୪୪ ଖ୍ରୀଷ୍ଟାବ୍ଦରେ ଚାର୍ଲସ ଭାଇକିନ୍ସCharles Wilkins_ଗୀତର ଇଂରାଜୀ ଅନୁବାଦ କରି ତାତ୍କାଳିକ ଲାଟ୍ ସାହେବ ଉଅରେନ ହେଷ୍ଟିଙ୍ଗସ୍ ଙ୍କୁ ଉପହାର ଦେଇଥିଲେ । ବଡ଼ଲାଟ ତତ୍ ପାଠରେ ମୋହିତ ହୋଇ କୋର୍ଟ ଅଫ୍ ଡାଇରେକକ୍ଟର ଅଧ୍ୟକ୍ଷଙ୍କୁ ଜଣାଇ୧୭୪୫ ଖ୍ରୀଷ୍ଟାବ୍ଦରେ ମୁଦ୍ରିତ କଲେ । ୧୮୫୫ ଖ୍ରୀଷ୍ଟାବ୍ଦରେ ଟମ୍ ସନ୍ ୧୮୮୨ ଖ୍ରୀଷ୍ଟାକରେJohn Davis ସ୍ୱ ସ୍ୱ ମନ୍ତବ୍ୟ ଗୀତ । କୁ ଇଂରାଜୀ ଗଦ୍ୟରେ ପ୍ରକାଶିତ କରିଥିଲେ। ଇଂରେଜୀ ବିଖ୍ୟାତ୍ କବି ଏଡ଼ ଉଇନ୍ଆର୍ଣ୍ଣଲ୍ଡ ଗୀତର ଇଂରାଜୀ ପଦ୍ୟାନୁବାଦ୍ କରିଥିଲେ। ୧୮୨୩ ମସିହାରେ ଜର୍ମାନ୍ ପଣ୍ଡିତA.W Schlegelଦେବନାଗରୀ ଭାଷାରେ ଲାଟିନ୍ ଭାଷାରେ ଅନୁବାଦ କରିଥିଲେ ଏହି ପରି ଆମେରିକ। ଇଟାଲି ରୁଷିୟ ପଣ୍ଡିତମାନେ ଗୀତ ର ଆଲୋଚନା କରି ତାହାର ଗୂଢ ତତ୍ତ୍ଵ ଗୀତର ମହାତ୍ମ ପ୍ରଚାର ପ୍ରସାର କରି ନିଜକୁ ଧନ୍ୟ ମନେକରିଛନ୍ତି। କିନ୍ତୁ ଭାରତ ଭୂମିର ଜଳ, ବାୟୁମୂର୍ତ୍ତିକ ।ର ଶସ୍ୟରେଭରଣଭୋଷଣ କରି ଜୀବନ ଜୀଇଁଥିବା ପୂଣ୍ୟଭୂମି, ଋଷି ପୁତ୍ର ହୋଇ ବିଦେଶୀ ପାଠକୁ ସଭ୍ୟତା ଓ ସଂସ୍କାର କୁନେଇ ଗର୍ବ ଅନୁଭବ କରନ୍ତି। ଧନ୍ୟ ରେ ଆମେ ଭାରତମାତାର ଯୋଗ୍ୟପୁତ୍ର । ମନେପଡ଼େମାତ୍ର ଦୁଇ ଧାଡି ପ୍ରକୃତିପ୍ରେମୀ ଗଙ୍ଗାଧର ମେହେର କବିତା"ମାତୃଭାଷା, ମାତୃଭୂମିର ମମତା ଯାହୃଦେ ଜନମି ନାହିଁ। ତାଙ୍କୁ ଯଦି ଜ୍ଞାନୀଗଣରେ ଗଣିବ, ଅଜ୍ଞାନ ରହିବେ କାହିଁ ।" ଓ ୩ମ୍ ରାଜକିଶୋର
Vedic vichar
02-01-2022
ईश्वर की स्तुति ,प्रार्थना और उपासना करनी चाहिये । क्या ईश्वर की उपासना करना बहुत कठिन काम है ? यजुर्वेद के ग्यारहवाँ अध्याय का चौथा मन्त्र है - युञ्जते मनअ्उत युञ्जते धियो विप्रा विप्रस्य बृहतो विपश्चित । वि होत्रा दधे वयुनाविदेक अ्इन्मही देवस्य सवितुः परिष्टुति ।। यजुर्वेद-११-४ मन्त्र कहता है स्तुति करना बहुत आसान है।हमे इसके लिए कुछ भी तो नहीं करना बस केवल सोचना है।और हम दिन भर करते क्या है केवल सोचते ही तो है ,कभी अपने खेत खलिहान के बारे मे सोचते है,कभी अपनी दुकान व्यापार के बारे मे सोचते है ,कभी कार्यालय के बारे मे सोचते है ,कभी अपने परिवार बच्चो ,पत्नी ,माँ बाप मित्र के बारे मे सोचते है ,कभी अपनी हानि लाभ के बारे मे सोचते है बस सोचते ही तो हो ।अब ईश्वर की स्तुति के लिए और कुछ नहीं करना केवल सोचने का पात्र बदलना है।जितनी गहराई से ,जितने लगन से ,जितनी तन्मयता से हम अपने बारे मे सोचते है उतनी ही लगन से निरन्तरता से ईश्वर के बारे मे सोचना है और उतना ही सोचना है।ये सम्भव कैसे हो ? जरा सोचे इतनी बडी दुनिया है हम सबके बारे मे तो नहीं सोचते , केवल अपने ही लोगो के बारे मे सोचते है, अपने प्रिय के बारे मे सोचते है,जिनसे हमे लाभ मिलता है ,सुख मिलता है उनके बारे मे सोचते है। अर्थात् आधार यह है कि जो मेरा है ,जो मेरे लिए लाभदायक है, जिससे मेरा सम्बन्ध है मै उसके बारे मे सोचता हूं।अब हमे पहले यह तय करना है कि मेरे लिए वास्तव मे लाभदायक कौन है? मेरा अपना कौन है ? यदि मै यह बात अच्छी तरह से सोच लूं जान लूं तो यह मेरा स्वभाव है कि जो मुझे अच्छा लगे उसको अपने आप स्वीकार कर लेता हूं और जिससे मेरा लाभ नहीं होता तो उससे मेरा प्रेम हट जाता है। दुनिया मे यह निश्चित नहीं कि प्रेम पति से होगा ,पत्नी से होगा ,बेटा बेटी से होगा, प्रेमी प्रेमिका से होगा। प्रेम केवल परिस्थिति से होता है । परिस्थिति यदि अनुकूल है तो होगा और प्रतिकूल है तो नहीं । अर्थात् इनसे प्रेम हो भी सकता है नहीं भी ।यह जरूरी नहीं कि पति है तो प्रेम होगा ही बेटा है तो प्रेम होगा ही। यदि यह अपने काम का है तो होगा नहीं तो नहीं । अर्थात् प्रेम ऐसा पौधा नहीं जिसे आप उखाड कर दूसरी जगह लगा दे। बेटा हमे प्रिय है और यदि वही बेटा हमारा अपमान करे तो हम उसे बेदखल कर देते है।ठीक यही बात ईश्वर के विषय मे है ,जिस दिन हमे यह समझ मे आ जायेगा कि ईश्वर बडे काम की चीज है तो फिर हमे बल पूर्वक इधर नहीं आना पडेगा। हम बिना प्रयत्न के सहज रुप मे बिना परिश्रम किये ईश्वर के पास आजायेगे। जब हम किसी को पसन्द करते है तो कहते है कि तू बडा अच्छा है ,मेरी बेटी बडी अच्छी है, मेरा मित्र बडा अच्छा है।यह अच्छा शब्द बडे कमाल की चीज है ,बहुत प्यारा शब्द है।बस सोचने कीबात है।मन मे एक भाव आना चाहिये कि यह अच्छा लगता है। यह जो अच्छा लगने का भाव है यही स्तुति है।दुनिया मे सभी चीजे अच्छी लगती है केवल भगवान ही है जो अच्छा नहीं लगता ।जो हमे अच्छा लगता है हम उसे पाने का प्रयास करते है। भगवान हमसे दूर है इसका अर्थ है वह हमे अच्छा नहीं लगता ।जिस दिन हमे वह अच्छा लगने लगेगा तब हम उससे दूर नहीं रह पायेगे।उसका गुणगान करेगे स्तुति करेगे।
Vedic vichar
31-12-2021
"दूसरों को दुख देना, मूर्खता एवं दुष्टता है। स्वयं सुखी होना, बुद्धिमत्ता एवं सभ्यता है। और दूसरों को सुख देना, परोपकार एवं श्रेष्ठता है।" इस संसार में सब प्रकार के लोग हैं। किन्हीं लोगों के संस्कार घटिया किस्म के हैं। किन्हीं के मध्यम, और किन्हीं के उत्तम संस्कार भी हैं। जिसके जैसे संस्कार हैं, वह व्यक्ति वैसे ही कर्म करता है। "जो बुरे संस्कारों वाला व्यक्ति है, वह बुरे कर्म करता है, अर्थात दूसरों का शोषण करता है, उनको परेशान करता है, दुख देता है। झूठ छल कपट चोरी बेईमानी आदि करता है। संसार के बुद्धिमान लोग, और ईश्वर भी उसे मूर्ख और दुष्ट कहते हैं। ऐसे लोगों को समाज, राजा और ईश्वर अनेक प्रकार से दंड देते हैं।" समाज के लोग उस को अपमानित करते हैं। राजा उसे जेल में डाल देता है। यदि वह दुष्ट व्यक्ति इनकी पकड़ में नहीं आया, तो अंत में ईश्वर उसे कीड़ा मकोड़ा पशु पक्षी वृक्ष वनस्पति जंगली जानवर या समुद्री जीव के रूप में जन्म देकर अनेक दुख देता है। उनकी सारी स्वतंत्रता छीन लेता है। इसलिए ऐसे काम नहीं करने चाहिएं। "दूसरे प्रकार के लोग ऐसे हैं, जो स्वयं सुखी रहते हैं। उनके संस्कार अच्छे हैं। वे बुद्धिमत्ता से काम करते हैं। सब काम समय पर करते हैं। नियम अनुशासन का पालन करते हैं। ऐसे लोग बुद्धिमान कहलाते हैं।" ईश्वर उन्हें सुख देता है। समाज के बुद्धिमान लोग भी उन्हें सुख देते हैं, और उन्हें अच्छा मानते हैं। "तीसरे प्रकार के लोग बहुत अच्छे संस्कारी हैं। वे स्वयं तो सुखी रहते ही हैं, साथ ही साथ दूसरों को भी वे अनेक प्रकार से सुख देते हैं। उनकी सेवा करते हैं। परोपकार के कर्म करते हैं। यज्ञ करते हैं। वेदों का प्रचार करते हैं। वैदिक गुरुकुल आदि का संचालन करते हैं। गौशाला और अनाथालय चलाते हैं। धर्मार्थ औषधालय का संचालन करते हैं। वे गरीब तथा रोगी लोगों की सेवा और रक्षा करते हैं। इस प्रकार के कर्म करने वाले जो परोपकारी लोग हैं, वे श्रेष्ठ कहलाते हैं। ईश्वर ऐसे श्रेष्ठ व्यक्तियों का सम्मान करता है।" इन तीनों की तुलना करें और देखें, कि इन तीनों में से कौन अधिक अच्छा है? "फिर आप अपना भी परीक्षण करें, कि आप इन तीनों में से किस वर्ग में आते हैं। धीरे-धीरे अपने स्तर को ऊंचा उठाते हुए तीसरे वर्ग में आना चाहिए। सेवा परोपकार का आदि कर्म करके श्रेष्ठ बनना चाहिए।" "जब आप तीसरे वर्ग में अर्थात 'श्रेष्ठ' की श्रेणी में आ जाएंगे, तो ईश्वर आपका 'सम्मान' करेगा। ईश्वर, श्रेष्ठ व्यक्तियों का सम्मान करता है। जो व्यक्ति ऐसे श्रेष्ठ बनकर ईश्वर से सम्मानित होता है, वही वास्तव में देवता है, उसी का जीवन सफल है।"
ଜୀବହତ୍ୟାର ପାପ ଆଠ ଜଣଙ୍କୁ ଯାଏ ଯଥା-୧)ସମର୍ଥକ ୨)ହତ୍ୟାକାରୀ ୩)ମାଂସ କଟାଳୀ ୪)ମାଂସ ବିକ୍ରେତା ୫)କ୍ରେତା ୬)ରାନ୍ଧିବା ବ୍ୟକ୍ତି ୭)ପରଷିବା ଲୋକ ୮)ଖାଇବା ବ୍ୟକ୍ତି।ଏମାନେ ଜୀବହତ୍ୟାର ଅଷ୍ଟଘାତକ ଅଟନ୍ତି।
28-12-2021
ଓ୩ମ୍ ବେଦବାଣୀ ସତ୍ୟବାଣୀ ବେଦମନ୍ତ୍ରରେ ଅନ୍ୟର ମାଂସ ସେବନ କରିବା ପାପ ବୋଲି କୁହାଯାଇଛି।ଜୀବହତ୍ୟାର ପାପ ଆଠ ଜଣଙ୍କୁ ଯାଏ ଯଥା-୧)ସମର୍ଥକ ୨)ହତ୍ୟାକାରୀ ୩)ମାଂସ କଟାଳୀ ୪)ମାଂସ ବିକ୍ରେତା ୫)କ୍ରେତା ୬)ରାନ୍ଧିବା ବ୍ୟକ୍ତି ୭)ପରଷିବା ଲୋକ ୮)ଖାଇବା ବ୍ୟକ୍ତି।ଏମାନେ ଜୀବହତ୍ୟାର ଅଷ୍ଟଘାତକ ଅଟନ୍ତି। #ମନ୍ତ୍ର କହେ-"ଓ୩ମ୍ ଯଃ ପୌରୁଷେୟେଣ ପଶୁନା ଯାତୁଧାନଃ" ଅର୍ଥାତ୍ ଅନ୍ୟମାନଙ୍କୁ ପୀଡା ଦେଇ ମାଂସ ଭକ୍ଷଣ କରୁଥିବା ଲୋକେ ପାପୀ। #ଏମାନଙ୍କ ପାଇଁ ଦଣ୍ଡ ନିଶ୍ଚିତ। ପରନ୍ତୁ ଜୀବ ପ୍ରତି ଦୟା କରିବା ଗୌରବ ବୃଦ୍ଧି କରାଏ।(ଋଗ୍ ବେଦ,୧୦,୮୭,୧୬) Laxman Maharana, Berhampur
Vedic vichar
26-12-2021
क्या जीसस का जन्म सचमुच 25 दिसम्बर को ही हुआ था ? -------------------------------------------------------------------------- अभी यूरोप, अमरीका और ईसाई जगत में इस समय क्रिसमस डे की धूम है। क्या आप जानते है कि बाइबिल के न्यू टेस्टमेंट्स के किसी भी गॉस्पेल में जीसस की जन्म तिथि अथवा ऋतु की चर्चा नही लिखी हुई है । चर्च के लोग विभिन्न मतभेदों के साथ गोस्पेल ऑफ़ ल्यूक और मैथ्यूज की फिक्शन कहानियों के दम पर कुछ अंदाजा लगाने की कोशिश अवश्य करते है । जर्मनी के जेसुइट प्राइस्ट Karl Rahner तो साफ साफ लिखते है कि गोस्पेल्स के लेखक कही भी जीसस के डेट ऑफ बर्थ के विषय मे कुछ भी नही लिखते है , जिससे आज के इतिहासकार सहमत हो सके । तो अब प्रश्न यह है कि आखिर चर्च के लोगो ने जीसस की जन्मतिथि केैसे निकाली ? चर्च के लोगो ने जीसस की जन्मतिथि दो गोपेल्स की निम्न दो पंक्तियों से लगाया । मैथ्यू अपने गॉस्पेल 2:1 में लिखा है कि, "हेरोदेस जब राज कर रहा था, उन्हीं दिनों यहूदिया के बैतलहम में यीशु का जन्म हुआ। कुछ ही समय बाद कुछ विद्वान जो सितारों का अध्ययन करते थे, पूर्व से यरूशलेम आये।" वही ल्यूक अपने गॉस्पेल 1:5 में लिखा है कि , "उन दिनों जब यहूदिया पर हेरोदेस का राज था वहाँ जकरयाह नाम का एक यहूदी याजक था जो उपासकों के अबिय्याह समुदाय का था। उसकी पत्नी का नाम इलीशिबा और वह हारून के परिवार से थी।" वही गोस्पेल्स ऑफ़ ल्यूक दावे के साथ कहता है कि जीसस का जन्म उस समय हुआ जब सीरिया का गवर्नर Quirinius था , 6 A.D. में । गॉस्पेल की कथा के अनुसार अगस्टस कैंसर की ओर से जनगणना हुई थी । ल्यूक 2:2 में जीसस के जन्म के समय की अपनी गॉस्पेल में लिखता है कि , यह पहली जनगणना थी। यह उन दिनों हुई थी जब सीरिया का राज्यपाल क्विरिनियुस था । ध्यान रहे कि बाइबिल के अनुसार यह जनगणना इस बात को देखकर हो रही थी , जिसके अनुसार हेरोद्स जीसस को मारना चाहता है , और इस प्रकार बेथलेहम राज्य के सभी 2 साल तक के बच्चो को मारने का आदेश देता है । परन्तु गोस्पेल्स ऑफ मैथ्यू के अनुसार ही जीसस का परिवार सौभाग्य से इजिप्ट भाग जाता है और वहाँ हेरोद के मरने तक रहता है । अब प्रश्न यह उठता है कि Herod the Great कब मरा ? अब तक का तथ्य यह है कि कोई भी इतिहासकार हेरोद्स के मृत्यु दिवस पर भी एकमत नही है और न ही गॉस्पेल ऑफ मैथ्यू में दी गई नरसघार वाली कथा को ही पुष्ट करते है । मैथ्यू गॉस्पेल के अनुसार , जीसस का जन्म हेरोद के शासन काल मे हुआ था , जैसा कि यह ऐतिहासिक तथ्य है कि हेरोद द ग्रेट की मृत्यु को लेकर तीन मत प्रचलित हैं , 4 B.C., 6 B.C., 7 B.C , फिर भी अगर Jewish historian Josephus की गणना को लेकर चले कि 4 बीसी० में हेरोद्स मरा । .... जीसस का जन्म 4 बी०सी० से पहले ही हुआ होगा , गोस्पेल्स के अनुसार । परन्तु ज्यादातर हेरोद्स काल के इतिहासकार , खुद बिबलिकल स्कॉलर हेरोद्स का व्यक्तिगत मित्र व मंत्री Nicolas of Damascus और पहली शताब्दी में हुआ यहूदी इतिहासकार Josephus तक गॉस्पेल ऑफ़ मैथ्यू के हेरोद्स द्वारा 2 साल तक बच्चो के नरसघार के कथाओं के विषय मे अनभिज्ञ है । वह मैथ्यू के नरसंघार वाले दावों की पुष्टि नही करता यहाँ तक गोस्पेल्स ऑफ मैथ्यू के इस दावे को खुद गॉस्पेल ऑफ़ ल्यूक पुष्ट नही करता । Classical historian Michael Grant , सेंट मैथ्यू के दावे पर हास्यप्रद टिप्पणी करते हुए लिखते है कि “The tale is not history but myth or folk-lore” इतिहासकार Richardson लिखते है कि असल मे जो कथा मैथ्यू ने नोट किया है वह किसी जीसस के विषय मे सत्य कथा नही बल्कि खुद हेरोद्स की हत्या से प्रेरित है , जिसे उसके बेटे ने मारा था । अतः कहना कि 25 दिसम्बर जीजस का जन्म दिन है , यह बात कहना तो महामूर्खता है । वेटिकन सिटी के पोप तक को जीसस के जन्मदिन का ज्ञान नही है । वह इसे विवाद का विषय नही कहते है । जिसे विश्वास न हो जाकर Pope Benedict की book, Jesus of Nazareth: The Infancy Narratives पढ़ ले । वह कहते है कि जीसस चाहे 25 दिसम्बर को जन्मे हो या अब तक हज़ार सालो से उतपत्ति में आये अन्य 150 अन्य तिथियों के दिन यह विवाद का विषय नही है क्योकि जीसस का जन्म एक आध्यात्मिक जन्म है । एक सच यह भी है कि आज भी ईसाई दुनिया मे यह कोई नही जानता कि जीसस का जन्म कहां हुआ था , क्या जीसस का जन्म नाजरेथ में हुआ अथवा बेथलेहम में , अगर बेथलेहम में हुआ तो क्या बेथलेहम जुड़िया में है अथवा गलीली में ? ऐसे हज़ारो प्रश्न आज भी अप्रमाणिक अपुष्ट तथ्यो से अनुत्तरित है । कृण्वन्तो_विश्वमार्यम वेदो_की_ओर_लौटो
इतिहास की अमर गाथा
24-12-2021
आर्यसमाज के इतिहास में अनेक प्रेरणादायक संस्मरण हैं जो अमर गाथा के रूप में सदा सदा के लिए प्रेरणा देते रहेंगे। एक ऐसी ही गाथा रोपड़ के लाला सोमनाथ जी की हैं। आप रोपड़ आर्यसमाज के प्रधान थे। आपके मार्गदर्शन में रोपड़ आर्यसमाज ने रहतियों की शुद्धि की थी। यूँ तो रहतियों का सम्बन्ध सिख समाज से था मगर उनके साथ अछूतों सा व्यवहार किया जाता था। आपके शुद्धि करने पर रोपड़ के पौराणिक समाज ने आर्यसमाज के सभी परिवारों का बहिष्कार कर दिया एवं रोपड़ के सभी कुओं से आर्यसमाजियों को पानी भरने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। आखिर में नहर के गंदे पानी को पीने से अनेक आर्यों को पेट के रोग हो गए जिनमें से एक सोमनाथ जी की माता जी भी थी। उन्हें आन्त्रज्वर (Typhoid) हो गया था। वैद्य जी के अनुसार ऐसा गन्दा पानी पीने से हुआ था। सोमनाथ जी के समक्ष अब एक रास्ता तो क्षमा मांगकर समझोता करने का था और दूसरा रास्ता सब कुछ सहते हुए परिवार की बलि देने का था। आपको चिंताग्रस्त देखकर आपकी माताजी जी आपको समझाया की एक न एक दिन तो उनकी मृत्यु निश्चित हैं फिर उनके लिए अपने धर्म का परित्याग करना गलत होगा। इसलिए धर्म का पालन करने में ही भलाई हैं। सोमनाथ जी माता का आदेश पाकर चिंता से मुक्त हो गए एवं और अधिक उत्साह से कार्य करने लगे। उधर माता जी रोग से स्वर्ग सिधार गई तब भी विरोधियों के दिल नहीं पिघले। विरोध दिनों दिन बढ़ता ही गया। इस विरोध के पीछे गोपीनाथ पंडित का हाथ था। वह पीछे से पौराणिक हिन्दुओं को भड़का रहा था। सनातन धर्म गजट में गोपीनाथ ने अक्टूबर 1900 के अंक में आर्यों के खिलाफ ऐसा भड़काया की आर्यों के बच्चे तक प्यास से तड़पने लगे थे। सख्त से सख्त तकलीफें आर्यों को दी गई। लाला सोमनाथ को अपना परिवार रोपड़ लेकर से जालंधर लेकर जाना पड़ा। जब शांति की कोई आशा न दिखी दी तो महाशय इंदरमन आर्य लाल सिंह (जिन्हें शुद्ध किया गया था) और लाला सोमनाथ स्वामी श्रद्धानन्द (तब मुंशीराम जी) से मिले और सनातन गजट के विरुद्ध फौजदारी मुकदमा करने के विषय में उनसे राय मांगी। मुंशीराम जी उस काल तक अदालत में धार्मिक मामलों को लेकर जाने के विरुद्ध थे। कोई और उपाय न देख अंत में मुकदमा दायर हुआ जिस पर सनातन धर्म गजट ने 15 मार्च 1901 के अंक में आर्यसमाज के विरुद्ध लिखा "हम रोपड़ी आर्यसमाज का इस छेड़खानी के आगाज़ के लिए धन्यवाद अदा करते हैं की उन्होंने हमें विधिवत अदालत के द्वारा ऐलानिया जालंधर में हमें निमंत्रण दिया हैं। जिसको मंजूर करना हमारा कर्तव्य हैं। " 3 सितम्बर 1901 को मुकदमा सोमनाथ बनाम सीताराम रोपड़ निवासी" का फैसला भी आ गया। सीताराम अपराधी ने बड़े जज से माफ़ी मांगी। उसने अदालत में माफीनामा पेश किया। "मुझ सीताराम ने लाला सोमनाथ प्रधान आर्यसमाज रोपड़ के खिलाफ छपवाई थी, मुझे ऐसा अफ़सोस से लिखना हैं की इसमें आर्यों की तोहीन के खिलाफ बातें दर्ज हो गई थी। जिससे उनको सख्त नुकसान पहुंचा। इस कारण मैं बड़े अदब (शिष्टाचार) से मांफी मांगता हूँ। मैं लाला साहब के सुशील हालत के लिहाज से ऐसी ही इज्जत करता हूँ जैसा की इस चिट्ठी के छपवाने से पूर्व करता था। मैं उन्हें बरादारी से ख़ारिज नहीं समझता, उनके अधिकार साधारण व्यक्तियों सहित वैसे ही समझता हूँ जोकि पहिले थे। मुझे आर्य लोगों से कोई झगड़ा नहीं हैं। साधारण लोगों को सूचना के वास्ते यह माफीनामा अख़बार सत्यधर्म प्रचारक और अख़बार पंजाब समाचार लाहौर में और जैन धर्म शरादक लाहौर में प्रकाशित कराता हूँ। " इस प्रकार से अनेक संकट सहते हुए आर्यों ने दलितोद्धार एवं शुद्धि के कार्य को किया था। मौखिक उपदेश देने में और जमीनी स्तर पर पुरुषार्थ करने में कितना अंतर होता हैं इसका यह यथार्थ उदहारण हैं। सोमनाथ जी की माता जी का नाम इतिहास के स्वर्णिम अक्षरों में अंकित हैं। सबसे प्रेरणादायक तथ्य यह हैं की किसी स्वर्ण ने अछूतों के लिए अपने प्राण न्योछावर किये हो ऐसे उदाहरण केवल आर्यसमाज के इतिहास में ही मिलते हैं। #vedicvichar
ପରିବ୍ରାଜକ ସ୍ଵାମୀ ସର୍ବଦାନନ୍ଦ ସରସ୍ୱତୀ ଙ୍କ ୯୭ ବର୍ଷ ବୟସରେ
20-12-2021
ପରିବ୍ରାଜକ ସ୍ଵାମୀ ସର୍ବଦାନନ୍ଦ ସରସ୍ୱତୀ ଙ୍କ ୯୭ ବର୍ଷ ବୟସରେ ବାଲେଶ୍ଵର ଜିଲ୍ଲାର ଆକିନିଆ ଗ୍ରମରେ ଶ୍ରୀଯୁକ୍ତ ଗୋପୀନାଥ ସାହୁ (ଶିଷ୍ୟ) ଙ୍କ ବାସଭବନରେ ଗତକାଲି ତା୧୯/୧୨/୨୧ରିଖ ଅପରାହ୍ନ ୪ଟା ୫ମି ସମୟରେ ମହାପ୍ରୟାଣ ଘଟିଥିଲା ।। ଆଜି ତା ୨୦/୧୨/୨୧ରିଖ ସୋମବାର ଆକିନିଆ ଗ୍ରମରେ ସମସ୍ତ ଶିଷ୍ୟ ଓ ଶିଷ୍ୟାଙ୍କ ଉପସ୍ଥିତିରେ ସ୍ଵାମୀଜୀ ଙ୍କର ଅନ୍ତ୍ୟେଷ୍ଟି ସଂସ୍କାର ସମ୍ପନ୍ନ ହୋଇଥିଲା ।।
ध्यान (Meditation) का वास्तविक स्वरूप (Vedic vichar )
20-12-2021
आजकल प्रत्येक मत पन्थ सम्प्रदाय अपने आपको आध्यात्मिक सिद्ध करने के लिए ध्यान कराने का नाटक करता है। ओशो ध्यान, माँ निर्मला का सहज योग, ब्रह्मकुमारी का राजयोग, डबल श्री का आर्ट ऑफ लाइफ, राधास्वामी का सुरत योग और विपश्यना आदि अनेक तरीके प्रचलित हैं। जैसे अंधकार को दूर करने की एकमात्र विधि प्रकाश है उसी तरह ध्यान करने की एकमात्र विधि वेद और योगदर्शन प्रतिपादित अष्टांग योग है। ओशो ध्यान जोर जोर से चिल्लाना, नाचना, कूदना, हँसना, नाचना, गाना, जानवरों जैसी हरकतें करना इसे ओशो ध्यान कहना मूर्खता हैं। धर्मानुसार जीवन अर्पण करने में संयम विज्ञान का अपना महत्व हैं। मनुष्यों को भोग का नशेड़ी बनाने का जो यह अभियान ओशो ध्यान के नाम से चलाया जा रहा हैं उसने अनेक घरों को बर्बाद कर दिया हैं। अनेक नौजवानों को बर्बाद कर दिया हैं। वेदों में सदाचार, पाप से बचने, चरित्र निर्माण, ब्रहमचर्य आदि पर बहुत बल दिया गया हैं जैसे- यजुर्वेद ४/२८ – हे ज्ञान स्वरुप प्रभु मुझे दुश्चरित्र या पाप के आचरण से सर्वथा दूर करो तथा मुझे पूर्ण सदाचार में स्थिर करो। ऋग्वेद ८/४८/५-६ – वे मुझे चरित्र से भ्रष्ट न होने दे। यजुर्वेद ३/४५- ग्राम, वन, सभा और वैयक्तिक इन्द्रिय व्यवहार में हमने जो पाप किया हैं उसको हम अपने से अब सर्वथा दूर कर देते हैं। यजुर्वेद २०/१५-१६- दिन, रात्रि, जागृत और स्वपन में हमारे अपराध और दुष्ट व्यसन से हमारे अध्यापक, आप्त विद्वान, धार्मिक उपदेशक और परमात्मा हमें बचाए। ऋग्वेद १०/५/६- ऋषियों ने सात मर्यादाएं बनाई हैं. उनमे से जो एक को भी प्राप्त होता हैं, वह पापी हैं. चोरी, व्यभिचार, श्रेष्ठ जनों की हत्या, भ्रूण हत्या, सुरापान, दुष्ट कर्म को बार बार करना और पाप करने के बाद छिपाने के लिए झूठ बोलना। अथर्ववेद ६/४५/१- हे मेरे मन के पाप! मुझसे बुरी बातें क्यों करते हो? दूर हटों. मैं तुझे नहीं चाहता। अथर्ववेद ११/५/१०- ब्रहमचर्य और तप से राजा राष्ट्र की विशेष रक्षा कर सकता हैं। अथर्ववेद११/५/१९- देवताओं (श्रेष्ठ पुरुषों) ने ब्रहमचर्य और तप से मृत्यु (दुःख) का नष्ट कर दिया हैं। ऋग्वेद ७/२१/५- दुराचारी व्यक्ति कभी भी प्रभु को प्राप्त नहीं कर सकता। इस प्रकार अनेक वेद मन्त्रों में संयम और सदाचार का उपदेश हैं। सृष्टि के आदि से लेकर अंत तो सत्य सदा एक रहता हैं। इसलिए वेदाधारित सदाचार के सार्वभौमिक एवं सर्वकालिक नियमों की अनदेखी करना अज्ञानता का बोधक हैं।
आर्य समाज के प्रमुख वक्ता पं. प्रकाश वीर शास्त्री जी ( vedic vichar )
15-12-2021
आर्य समाज के जो प्रमुख वक्ता हुए, कुशल राजनेता हुए उनमें पं. प्रकाश वीर शास्त्री जी का नाम प्रमुख रुप से लिया जाता है। आप का नाम प्रकाशचन्द्र रखा गया। आप का जन्म गांव रहरा जिला मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश मे हुआ। आप के पिता का नाम श्री दिलीपसिंह त्यागी था, जो आर्य विचारों के थे। उस काल का प्रत्येक आर्य परिवार अपनी सन्तान को गुरुकुल की शिक्षा देना चाहता था। इस कारण आप का प्रवेश भी पिता जी ने गुरुकुल महाविद्यालय ज्वालापुर में किया। इस गुरुकुल में एक अन्य विद्यार्थी भी आप ही के नाम का होने से आप का नाम बदल कर प्रकाशवीर कर दिया गया। इस गुरुकुल में अपने पुरुषार्थ से आपने विद्याभास्कर तथा शास्त्री की परीक्षायें उतीर्ण कीं। तत्पश्चात आप ने संस्कृत विषय में आगरा विश्वविद्यालय से एम. ए. की परीक्षा प्रथम श्रेणी से पास की। पण्डित जी स्वामी दयानन्द जी तथा आर्य समाज के सिद्धान्तों में पूरी आस्था रखते थे। इस कारण ही आर्य समाज की अस्मिता को बनाए रखने के लिए आपने १९३९ में मात्र १६ वर्ष की आयु में ही हैदराबाद के धर्मयुद्ध में भाग लेते हुए सत्याग्रह किया तथा जेल गये। आप की आर्य समाज के प्रति अगाध आस्था थी, इस कारण आप अपनी शिक्षा पूर्ण करने पर आर्य प्रतिनिधि सभा उतर प्रदेश के माध्यम से उपदेशक स्वरुप कार्य करने लगे। आप इतना ओजस्वी व्याख्यान देते थे कि कुछ ही समय में आप का नाम देश के दूरस्थ भागों में चला गया तथा सब स्थानों से आपके व्याख्यान के लिए आप की मांग देश के विभिन्न भागों से होने लगी। पंजाब में सरदार प्रताप सिंह कैरो के नेतृत्व में कार्य कर रही कांग्रेस सरकार ने हिन्दी का विनाश करने की योजना बनाई। आर्य समाज ने पूरा यत्न हिन्दी को बचाने का किया किन्तु जब कुछ बात न बनी तो यहां हिन्दी रक्षा समिति ने सत्याग्रह आन्दोलन करने का निर्णय लिया तथा शीघ्र ही सत्याग्रह का शंखनाद १९५८ ईस्वी में हो गया। आप ने भी इस समय अपनी आर्यसमाज के प्रति निष्टा व कर्तव्य दिखाते हुए सत्याग्रह में भाग लिया। इस आन्दोलन ने आप को आर्य समाज का सर्वमान्य नेता बना दिया। इस समय आर्य समाज के उपदेशकों की स्थिति कुछ अच्छी न थी। इन की स्थिति को सुधारने के लिए आप ने अखिल भारतीय आर्य उपदेशक सम्मेलन स्थापित किया तथा लखनऊ तथा हैदराबाद में इस के दो सम्मेलन भी आयोजित किये। इससे स्पष्ट होता है कि आप आर्योपदेशकों के कितने हितैषी थे। आप की कीर्ति ने इतना परिवर्तन लिया कि १९५८ ईस्वी को आप को लोकसभा का गुड़गांव से सदस्य चुन लिया गया। इस प्रकार अब आप न केवल आर्य नेता ही बल्कि देश के नेता बन कर राजनीति में उभरे। १९६२ तथा फ़िर १९६७ में फ़िर दो बार आप स्वतन्त्र प्रत्याशी स्वरूप लोकसभा के लिए चुने गए। एक सांसद के रूप में आप ने आर्य समाज के बहुत से कार्य निकलवाये। १९७५ में प्रथम विश्व हिन्दी सम्मेलन, जो नागपुर में सम्पन्न हुआ, में भी आप ने खूब कार्य किया तथा आर्य प्रतिनिधि सभा मंगलवारी नागपुर के सभागार में, सम्मेलन मे पधारे आर्यों की एक सभा का आयोजन भी किया। आप ने अनेक देशों में भ्रमण किया तथा जहां भी गए, वहां आर्य समाज का सन्देश साथ लेकर गये तथा सर्वत्र आर्य समाज के गौरव को बटाने के लिए सदा प्रयत्नशील रहे। जिस आर्य प्रतिनिधि सभा उत्तर प्रदेश के उपदेशक बनकर आपने कार्यक्षेत्र में कदम बटाया था, उस आर्य प्रतिनिधि सभा उत्तर प्रदेश के आप अनेक वर्ष तक प्रधान रहे। आप के ही पुरुषार्थ से मेरठ, कानपुर तथा वाराणसी में आर्य समाज स्थापना शताब्दी सम्बन्धी सम्मेलनों को सफ़लता मिली। इतना ही नहीं, आप की योग्यता के कारण सन १९७४ इस्वी में आप को परोपकारिणी सभा का सदस्य मनोनीत किया गया। आप का जीवन यात्राओं में ही बीता तथा अन्त समय तक यात्राएं ही करते रहे। अन्त में जयपुर से दिल्ली की ओर आते हुए एक रेल दुर्घटना हुई। इस रेल गाडी में आप भी यात्रा कर रहे थे। इस दुर्घटना के कारण २३ नवम्बर १९७७ ई० को आप की जीवन यात्रा भी पूर्ण हो गई तथा आर्य समाज का यह महान योद्धा हमें सदा के लिए छोड कर चला गया। Source-thearyasamaj
काले धागे का कलंक (vedic vichar )
15-12-2021
क्या आपके गले या हाथ में भी कोई ताबीज, नीला, लाल या काला धागा बांधा हुआ है? क्या आप भी बुरी नजर से बचने के लिए, ऊपरी बला से बचने के लिए, शारीरिक रोग के लिए, धन की कमी के लिए, भूत प्रेत से बचने के लिए, परिवारिक सदस्य को वश में करने के लिए पहनते हैं? जुलाई 2018 मे दिल्ली के बुराड़ी मे एक ही परिवार के 11 सदस्यों ने अंधविश्वास के कारण आत्म ह्त्या कर ली थी। पुलिस को हाथ से लिखे नोट्स भी मिले मिले थे, जिसमें वह पूरी प्रक्रिया लिखी हुई थी जिसके तहत परिवार को फांसी लगानी थी. डायरी में अंतिम एंट्री में एक पन्ने पर लिखा था कि घर का रास्ता. 9 लोग जाल में, बेबी (विधवा बहन) मंदिर के पास स्टूल पर, 10 बजे खाने का ऑर्डर, मां रोटी खिलाएगी, एक बजे क्रिया, शनिवार-रविवार रात के बीच होगी, मुंह में ठूंसा होगा गीला कपड़ और हाथ बंधे होंगे. इसमें आखिरी पंक्ति है- ‘कप में पानी तैयार रखना, इसका रंग बदलेगा, मैं प्रकट होऊंगा और सबको बचाऊंगा. अनेक बार उन नव युवतियों को समझाने का मौका मिला है जो लव जेहाद के चक्कर मे थी। इसी क्रम में उनकी परिवारिक पृष्ठभूमि भी पता चली। लगभग सभी युवतियों के गले, पैर या कलाई में काला धागा बंधा हुआ था। यह धागा उनकी माँ, दादी, मौसी या बुआ आदि ने नजदीकी मौलवी से लाकर दिया था। इस धागे को बुरी नजर से बचाने के लिए बांधा गया था। परन्तु सच्चाई यह है कि इसी धागे के कारण वह उस लड़के के लव जेहाद में फंसी। वास्तव में यह धागा कमजोर मनोबल व अंधश्रद्धा का प्रतीक है। इससे पता चल जाता है कि लड़की का आसानी से मानसिक दोहन किया जा सकता है। घर मे नवयुवती (नव विवाहिता बहू या बेटी) के मानसिक रोग का इलाज इसी काले धागे से मिया जी करते हैं। इसी काले धागे के बहाने मियाँ जी घर तक पहुंच जाते हैं और उसी के साथ घर से नकदी और गहने गायब होने का सिलसिला शुरू होता है। उस नवयुवती के अजीब व्यवहार का कारण सैयद या पीर नहीं दबी हुई इच्छा या मनोरोग है. इसका इलाज काला धागा , झाड फूंक या ताबीज नहीं मनोचिकित्सक है. इस धागे के कारण शोषण का रास्ता खुल जाता है. विचार करिए- यदि कलमा पढ़े हुए और फूंक मारे हुए धागे में कोई शक्ति होती तो बड़े अपराधी, राजनेता, अधिकारी और उद्योगपतियों के शरीर पर सैंकड़ों धागे बंधे होते। बुरी नजर, ओपरी पराई, जिन्न, भूत, सैयद, चुड़ैल और पीर आदि केवल मानसिक भ्रम हैं। आजप्रत्येक शहर में हजारों CCTV लगे हुए हैं। यदि कोई जिन्न या पीर होता तो इनमे अवश्य दिखाई देता। क्या गले आदि में ताबीज बांधने से कोई लाभ होता है? नहीं, इससे कोई लाभ नही होता और न ही हो सकता है। मनोवैज्ञानिक प्रभाव अवश्य होता है। यह मनोवैज्ञानिक प्रभाव तो बिना ताबीज भी हो सकता है स्वयं का मनोबल बढ़ाने से। मैंने जीवन मे अनेक बार मौलवी और पुजारियों के ताबीजों को खोल कर पढा है। सभी मे रेखाओं से कुछ रेखांकित किया होता है, अस्पष्ट शब्द और अंक होते हैं। पूरे लेख का उद्देश्य यही है कि गले/हाथ मे किसी भी तरह धागा, लॉकेट, ताबीज और नजर रक्षा यन्त्र बांधना, अष्टधातु की अंगूठी पहनना आदि केवल मानसिक और बौद्धिक अज्ञानता है। इनसे कोई लाभ नही होता। आज ही इन्हें फेंक दें। अपनी आर्थिक क्षमता के अनुसार केवल सोने चांदी आदि के आभूषण पहने। परन्तु छोटे बच्चों को सोने चांदी आदि के आभूषण भी न पहनाए। यह ताबीज, अष्टधातु की अंगूठी आदि सब मानसिक कमजोरी की निशानी हैं। इन्हें फेंके और कभी किसी को भी इन्हें पहनने की सलाह न दें।
शंका (vedic vichar )
15-12-2021
वैदिक काल मे विशिष्ट अतिथियो के लिए गोमांस/बैल का परोसा जाना सम्मान सूचक माना जाता था। कक्षा 6-पुस्तक -प्राचीन भारत लेखिका- #रोमिला_थापर समाधान ऋग्वेद के मंत्र 10 /68 /3 में अतिथिनीर्गा: का अर्थ अतिथियों के लिए गौए किया गया हैं जिसका तात्पर्य यह प्रतीत होता है कि किसी प्रतिष्ठित व्यक्ति के आने पर गौ को मारकर उसके मांस से उसे तृप्त किया जाता था।यहाँ पर जो भ्रम हुआ है उसका मुख्य कारण अतिथिनी शब्द को समझने कि गलती के कारण हुआ है। यहाँ पर उचित अर्थ बनता है ऐसी गौएं जो अतिथियों के पास दानार्थ लाई जायें, उन्हें दान कि जायें। Monier Williams ने भी अपनी संस्कृत इंग्लिश शब्दकोश में अतिथिग्व का अर्थ "To whom guests should go " (P.14) अर्थात जिसके पास अतिथि प्रेम वश जायें ऐसा किया है। श्री Bloomfield ने भी इसका अर्थ "Presenting cows to guests" अर्थात अतिथियों को गौएं भेंट करनेवाला ही किया है। अतिथि को गौ मांस परोसना कपोलकल्पित है।इस भ्रान्ति का कारण मैकडोनाल्ड (वैदिक माइथोलॉजी पृष्ठ 145 ) एवं कीथ (दी रिलिजन एंड दी फिलोसोफी ऑफ़ दी वेदास एंड उपनिषदस ) द्वारा अतिथिग्व शब्द का अर्थ अतिथियों के लिए गोवध करना बताया जाना हैं जिसका समर्थन काणे (हिस्ट्री ऑफ़ धर्म शास्त्र भाग 2 पृष्ठ 749-56 ) ने भी किया है। यह भी एक भ्रान्ति है कि वेदों में बैल को खाने का आदेश है। वेदों में जैसे गौ के लिए अघन्या अर्थात न मारने योग्य शब्द का प्रयोग है उसी प्रकार से बैल के लिए अघ्न्य शब्द का प्रयोग है। यजुर्वेद 12/73 में अघन्या शब्द का प्रयोग बैल के लिए हुआ है। इसकी पुष्टि सायणाचार्य ने काण्वसंहिता में भी कि है। इसी प्रकार से अथर्ववेद 9/4/17 में लिखा है कि बैल सींगों से अपनी रक्षा स्वयं करता है, परन्तु मानव समाज को भी उसकी रक्षा में भाग लेना चाहिए। अथर्ववेद 9/4/19 मंत्र में बैल के लिए अधन्य और गौ के लिए अधन्या शब्दों का वर्णन मिलता है। यहाँ पर लिखा है कि ब्राह्मणों को ऋषभ (बैल) का दान करके यह दाता अपने को स्वार्थ त्याग द्वारा श्रेष्ठ बनाता है। वह अपनी गोशाला में बैलों और गौओं कि पुष्टि देखता है। अथर्ववेद 9/4/20 मंत्र में जो सत्पात्र में वृषभ (बैल) का दान करता है उसकी गौएं संतान आदि उत्तम रहती है।
आध्यात्मिकता (vedic vichar )
15-12-2021
लेखक- महात्मा नारायण स्वामी प्रस्तोता- दीपक हाडा, प्रियांशु सेठ संसार के अधिकतर मनुष्य आध्यात्मिकता को अच्छा समझते हैं, परन्तु बहुत थोड़े मनुष्य ऐसे मिलेंगे जो शब्द को अच्छा मानने के साथ इनका प्रायोजन भी समझते हैं। मानव का बाह्य भाग शरीर है तथा भीतरी भाग आत्मा, अत: आध्यात्मिकता शब्द ही (जो आत्मा से सम्बन्धित है) यह स्पष्ट करता है कि आध्यात्मिकता का प्रयोजन मनुष्य के बाह्य रुप से सम्बन्धित नहीं हो सकता, प्रत्युत इसका सम्बन्ध भीतरी भाग से है। रूह (आत्मा) को हम गुणी तथा रुहानियत (आध्यात्मिकता) को गुण कह सकते हैं। आध्यात्मिकता का प्रायोजन self study (आत्म-स्वाध्याय) है। मनुष्य जब बाहर न देखकर अपने भीतर देखता है और अपनी ही स्थिति पर विचार करता है, तभी उसको यह योग्यता प्राप्त होती है कि वह अपनी की हुई बुराई-भलाई पर निःस्वार्थ भाव से निष्पक्षता से दृष्टि डाल सके। मानो वह किसी अन्य के खरे-खोटे कर्मों का अवलोकन कर रहा है। इस योग्यता का नाम आध्यात्मिकता है। बहुत-से मनुष्य ऐसे होते हैं जो पाप करके उसको छुपाया करते हैं और डरते रहते हैं कि उनकी पोल न खुल जाय। कुछ ऐसे व्यक्ति भी होते हैं जो सोच-विचारकर, सद्भावनापूर्वक भूल (पाप) करते हैं, परन्तु वे इसे पाप नहीं मानते। ये दोनों प्रकार के व्यक्ति वास्तव में आध्यात्मिकता से रहित होते हैं। आध्यात्मिकता का प्रथम प्रयोजन या काम यही है कि मनुष्य को उसकी भूलों से परिचित कर देवे। जब मनुष्य भूल को समझता है तभी उसको तजता है। इस रीति से जब एक दोष उससे छूट जाता है तब वह देवपुरुष व धर्मात्मा बन जाता है। पाप छोड़ने के परिणाम का एक दूसरा पहलू है और उसका नाम आत्म-बल है। आत्मा कैसे बलवान् होता है और कैसे निर्बल होता है- इस प्रश्न का उत्तर यही है कि जितने कर्म आत्मा के प्रतिकूल किए जाते हैं उनसे आत्मा में दुर्बलता आ जाती है, तथा जितने काम आत्मा के अनुकूल किये जाते हैं उनसे आत्मा बलवान् हुआ करता है। ऊपर लिखी सब बातों को मिलाकर विचारने से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि आत्मा के बलवान् बनाने का साधन आध्यात्मिकता ही है। जिस प्रकार शरीर का बाहर-भीतर होता है, उसी प्रकार से आत्मा का भीतर-बाहर होता है। जब आत्मा निर्बल होता है तब वह अपने बाहर कार्य करनेवाला होता है, परन्तु यह आवश्यक नहीं कि बाहर कार्य करनेवाला प्रत्येक आत्मा निर्बल ही हो। परन्तु यह आवश्यक है कि निर्बल आत्मा अपने बाहर ही कार्य करनेवाला होता है; अपने भीतर कार्य नहीं कर सकता। अपने भीतर वही आत्मा कार्य करता है या कर सकता है जिसमें आध्यात्मिकता से बल आ चुका है। इसलिए आध्यात्मिकता का दूसरा कार्य यह है कि उससे आत्मा में अपने भीतर कार्य करने की शक्ति आती है। इस योग्यता का नाम योगदर्शन के बतलाए आठ अंगों में से सातवां अंग 'ध्यान' है। आत्मा के बाहर शरीर (प्रकृति) है व भीतर परमात्मा। जब आत्मा बाहर कार्य करता है तो उसका सम्बन्ध प्राकृतिक जगत् से रहता है, परन्तु जब अपने भीतर कार्य करता है तब उसकी प्रवृत्ति परमात्मा की ओर होती है। परमात्मा की ओर आत्मा की प्रवृत्ति होने का नाम ही ध्यान है। जब हम कहते हैं 'आत्मा की प्रवृत्ति' तो अच्छी प्रकार समझ लेना चाहिए कि 'शरीर की प्रवृत्ति' अभिप्राय नहीं है। आत्मा की प्रवृत्ति जब अपने भीतर होती है तब उसके बाहर के सब इन्द्रिय-सम्बन्धी कार्य बन्द हो जाते हैं। उसीको मन का 'निर्विषय' होना कहते हैं। जब आत्मा की प्रवृत्ति भीतर की ओर होती है तब वह ईश्वर के प्रेम में लीन हो जाता है। इस अवस्था की जो सर्वोच्च स्थिति होती है जिसमें आत्मा स्वयं से बेसुध हो जाता है, उसे यदि खबर रहती है तो केवल अपने इष्ट ईश्वर की, और फिर वही सर्वत्र उसे दिखलाई देने लगता है। इस अवस्था का नाम योग का आठवां अंग 'समाधि' है। यही आत्म-दर्शन मानव-जीवन का अन्तिम लक्ष्य है और यही संसार-यात्रा का अन्तिम पड़ाव अथवा ध्येयधाम है। यहीं पहुंचने का प्रयास सब मनुष्यों को करना चाहिए। इसका आरम्भ तो आध्यात्मिकता से ही हो सकता है। इसलिए यत्न करना चाहिए कि मानव केवल आध्यात्मिकता के प्यारे शब्द से ही परिचित न हो, प्रत्युत उसके प्रयोजन को भी समझे तथा उससे काम भी ले। [साभार- वैदिक ज्ञान-धारा]
वैदिक विचार
14-12-2021
हिन्दू धर्म का इतिहास सबसे प्राचीन है।इस धर्म को वेदकाल से भी पूर्व का माना जाता है, क्योंकि वैदिक काल और वेदों की रचना का काल अलग-अलग माना जाता है। यहां शताब्दियों से मौखिक (तु वेदस्य मुखं) परंपरा चलती रही, जिसके द्वारा इसका इतिहास व ग्रन्थ आगे बढ़ते रहे। उसके बाद इसे लिपिबद्ध (तु वेदस्य हस्तौ) करने का काल भी बहुत लंबा रहा है। हिन्दू धर्म के सर्वपूज्य ग्रन्थ हैं वेद। वेदों की रचना किसी एक काल में नहीं हुई। विद्वानों ने वेदों के रचनाकाल का आरंभ २००० ई.पू. से माना है। यानि यह धीरे-धीरे रचे गए और अंतत: पहले वेद को तीन भागों में संकलित किया गया- ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद जिसे वेदत्रयी कहा जाता था। कहीं कहीं ऋग्यजुस्सामछन्दांसि को वेद ग्रंथ से न जोड़ उसका छंद कहा गया है। मान्यता अनुसार वेद का विभाजन राम के जन्म के पूर्व पुरुंरवा राजर्षि के समय में हुआ था। बाद में अथर्ववेद का संकलन ऋषि अथर्वा द्वारा किया गया। वहीं एक अन्य मान्यता अनुसार कृष्ण के समय में वेद व्यास कृष्णद्वैपायन ऋषि ने वेदों का विभाग कर उन्हें लिपिबद्ध किया था। मान्यतानुसार हर द्वापर युग में कोई न कोई मुनि व्यास बन वेदों को ४ भागों में बाटते हैं। .. Dr Yajnya Dutta
पूजा अथवा पूजन (Worshipping)
14-12-2021
पूजा अथवा पूजन (Worshipping) भगवान को प्रसन्न करने हेतु हमारे द्वारा उनका अभिवादन होता है। पूजा दैनिक जीवन का शांतिपूर्ण तथा महत्वपूर्ण कार्य है। .. Dr. Yajnya Dutta
वेद विचार
14-12-2021
वेद, प्राचीन भारत के पवित्र साहित्य हैं जो हिन्दुओं के प्राचीनतम और आधारभूत धर्मग्रन्थ भी हैं। वेद, विश्व के सबसे प्राचीन साहित्य भी हैं। भारतीय संस्कृति में वेद सनातन वर्णाश्रम धर्म के, मूल और सबसे प्राचीन ग्रन्थ हैं। 'वेद' शब्द संस्कृत भाषा के विद् ज्ञाने धातु से बना है। इस तरह वेद का शाब्दिक अर्थ 'ज्ञान' है। इसी धातु से 'विदित' (जाना हुआ), 'विद्या' (ज्ञान), 'विद्वान' (ज्ञानी) जैसे शब्द आए हैं। आज 'चतुर्वेद' के रूप में ज्ञात इन ग्रंथों का विवरण इस प्रकार है ऋग्वेद - सबसे प्राचीन तथा प्रथम वेद जिसमें मन्त्रों की संख्या 10527 है। ऐसा भी माना जाता है कि इस वेद में सभी मंत्रों के अक्षरों की संख्या 432000 है। इसका मूल विषय ज्ञान है। विभिन्न देवताओं का वर्णन है तथा परमेेश्वर की स्तुति आदि। यजुर्वेद - इसमें कार्य (क्रिया) व यज्ञ (समर्पण) की प्रक्रिया के लिये 1975 गद्यात्मक मन्त्र हैं। सामवेद - इस वेद का प्रमुख विषय उपासना है। संगीत में गाने के लिये 1875 संगीतमय मंत्र। अथर्ववेद - इसमें गुण, धर्म, आरोग्य, एवं यज्ञ के लिये 5977 कवितामयी मन्त्र हैं। वेदों को अपौरुषेय (जिसे कोई व्यक्ति न कर सकता हो, यानि परमेश्वर कृत) माना जाता है। यह ज्ञान विराटपुरुष से वा कारणब्रह्म से श्रुति परम्परा के माध्यम से सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी ने प्राप्त किया माना जाता है। यह भी मान्यता है कि परमात्मा ने सबसे पहले चार महर्षियों जिनके अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा नाम थे के आत्माओं में क्रमशः ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद का ज्ञान दिया, उन महर्षियों ने फिर यह ज्ञान ब्रह्मा को दिया। इन्हें श्रुति भी कहते हैं जिसका अर्थ है 'सुना हुआ ज्ञान'। अन्य आर्य ग्रंथों को स्मृति कहते हैं, यानि वेदज्ञ मनुष्यों की वेदानुगत बुद्धि या स्मृति पर आधारित ग्रन्थ। वेद मंत्रों की व्याख्या करने के लिए अनेक ग्रंथों जैसे ब्राह्मण-ग्रन्थ, आरण्यक और उपनिषद की रचना की गई। इनमे प्रयुक्त भाषा वैदिक संस्कृत कहलाती है जो लौकिक संस्कृत से कुछ अलग है। ऐतिहासिक रूप से प्राचीन भारत और हिन्द-आर्य जाति के बारे में वेदों को एक अच्छा सन्दर्भ श्रोत माना जाता है। संस्कृत भाषा के प्राचीन रूप को लेकर भी इनका साहित्यिक महत्व बना हुआ है। वेदों को समझना प्राचीन काल में भारतीय और बाद में विश्व भर में एक वार्ता का विषय रहा है। इसको पढ़ाने के लिए छः अंगों- शिक्षा, कल्प, निरुक्त, व्याकरण, छन्द और ज्योतिष के अध्ययन और उपांगों जिनमें छः शास्त्र- पूर्वमीमांसा, वैशेषिक, न्याय, योग, सांख्य, और वेदांत व दस उपनिषद्- ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, मांडुक्य, ऐतरेय, तैतिरेय, छान्दोग्य और बृहदारण्यक आते हैं। प्राचीन समय में इनको पढ़ने के बाद वेदों को पढ़ा जाता था। प्राचीन काल के , वशिष्ठ, शक्ति, पराशर, वेदव्यास, जैमिनी, याज्ञवल्क्य, कात्यायन इत्यादि ऋषियों को वेदों के अच्छे ज्ञाता माना जाता है। ..... Dr. Yajnya Dutta
कर्मकांड लिए श्रौतसूत्र देखें। गृहस्थ लिए हवन देखें
14-12-2021
कर्मकांड लिए श्रौतसूत्र देखें। गृहस्थ लिए हवन देखें। यज्ञ मंडप यज्ञ, कर्मकांड की विधि है जो परमात्मा द्वारा ही हृदय में सम्पन्न होती है। जीव के अपने सत्य परिचय जो परमात्मा का अभिन्न ज्ञान और अनुभव है, यज्ञ की पूर्णता है। यह शुद्ध होने की क्रिया है। इसका संबंध अग्नि से प्रतीक रूप में किया जाता है। .. Dr. Yajnya Dutta
मनु और बुद्ध के स्त्री सम्बन्धी विचारों का तुलनात्मक अध्ययन (vedic vichar )
12-12-2021
महर्षि मनु कृत मनु स्मृति में-- यत्र नार्य्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः। यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्रऽफलाः क्रियाः। मनुस्मृति 3/56 अर्थात जिस समाज या परिवार में स्त्रियों का सम्मान होता है, वहां देवता अर्थात् दिव्यगुण और सुख़- समृद्धि निवास करते हैं और जहां इनका सम्मान नहीं होता, वहां अनादर करने वालों के सभी काम निष्फल हो जाते हैं। पिता, भाई, पति या देवर को अपनी कन्या, बहन, स्त्री या भाभी को हमेशा यथायोग्य मधुर-भाषण, भोजन, वस्त्र, आभूषण आदि से प्रसन्न रखना चाहिए और उन्हें किसी भी प्रकार का क्लेश नहीं पहुंचने देना चाहिए। -मनुस्मृति 3/55 जिस कुल में स्त्रियां अपने पति के गलत आचरण, अत्याचार या व्यभिचार आदि दोषों से पीड़ित रहती हैं। वह कुल शीघ्र नाश को प्राप्त हो जाता है और जिस कुल में स्त्री-जन पुरुषों के उत्तम आचरणों से प्रसन्न रहती हैं, वह कुल सर्वदा बढ़ता रहता है। -मनुस्मृति 3/57 जो पुरुष, अपनी पत्नी को प्रसन्न नहीं रखता, उसका पूरा परिवार ही अप्रसन्न और शोकग्रस्त रहता है और यदि पत्नी प्रसन्न है तो सारा परिवार प्रसन्न रहता है। - मनुस्मृति 3/62 पुरुष और स्त्री एक-दूसरे के बिना अपूर्ण हैं, अत: साधारण से साधारण धर्मकार्य का अनुष्ठान भी पति-पत्नी दोनों को मिलकर करना चाहिए।-मनुस्मृति 9/96 ऐश्वर्य की कामना करने हारे मनुष्यों को योग्य है कि सत्कार और उत्सव के समयों में भूषण वस्त्र और भोजनादि से स्त्रियों का नित्यप्रति सत्कार करें। मनुस्मृति पुत्र-पुत्री एक समान। आजकल यह तथ्य हमें बहुत सुनने को मिलता है। मनु सबसे पहले वह संविधान निर्माता है जिन्होंने जिन्होंने पुत्र-पुत्री की समानता को घोषित करके उसे वैधानिक रुप दिया है- ‘‘पुत्रेण दुहिता समा’’ (मनुस्मृति 9/130) अर्थात्-पुत्री पुत्र के समान होती है। पुत्र-पुत्री को पैतृक सम्पत्ति में समान अधिकार मनु ने माना है। मनु के अनुसार पुत्री भी पुत्र के समान पैतृक संपत्ति में भागी है। यह प्रकरण मनुस्मृति के 9/130 9/192 में वर्णित है। आज समाज में बलात्कार, छेड़खानी आदि घटनाएं बहुत बढ़ गई है। मनु नारियों के प्रति किये अपराधों जैसे हत्या, अपहरण , बलात्कार आदि के लिए कठोर दंड, मृत्युदंड एवं देश निकाला आदि का प्रावधान करते है। सन्दर्भ मनुस्मृति 8/323,9/232,8/342 नारियों के जीवन में आनेवाली प्रत्येक छोटी-बडी कठिनाई का ध्यान रखते हुए मनु ने उनके निराकरण हेतु स्पष्ट निर्देश दिये है। पुरुषों को निर्देश है कि वे माता, पत्नी और पुत्री के साथ झगडा न करें। मनुस्मृति 4/180 इन पर मिथ्या दोषारोपण करनेवालों, इनको निर्दोष होते हुए त्यागनेवालों, पत्नी के प्रति वैवाहिक दायित्व न निभानेवालों के लिए दण्ड का विधान है। मनुस्मृति 8/274, 389,9/4 मनु की एक विशेषता और है, वह यह कि वे नारी की असुरक्षित तथा अमर्यादित स्वतन्त्रता के पक्षधर नहीं हैं और न उन बातों का समर्थन करते हैं जो परिणाम में अहितकर हैं। इसीलिए उन्होंने स्त्रियों को चेतावनी देते हुए सचेत किया है कि वे स्वयं को पिता, पति, पुत्र आदि की सुरक्षा से अलग न करें, क्योंकि एकाकी रहने से दो कुलों की निन्दा होने की आशंका रहती है। मनुस्मृति 5/149, 9/5- 6 इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि मनु स्त्रियों की स्वतन्त्रता के विरोधी है| इसका निहितार्थ यह है कि नारी की सर्वप्रथम सामाजिक आवश्यकता है -सुरक्षा की। वह सुरक्षा उसे, चाहे शासन-कानून प्रदान करे अथवा कोई पुरुष या स्वयं का सामर्थ्य। उपर्युक्त विश्लेषण से हमें यह स्पष्ट होता है कि मनुस्मृति की व्यवस्थाएं स्त्री विरोधी नहीं हैं। वे न्यायपूर्ण और पक्षपातरहित हैं। मनु ने कुछ भी ऐसा नहीं कहा जो निन्दा अथवा आपत्ति के योग्य हो। . . बौद्ध मत में नारी सम्बन्धी विचार ( साभार श्री कार्तिक अय्यर ) ये सब हमने बौद्ध मत के मान्य ग्रंथों से ही लिखा है राहुल सांकृत्यायन, कौसल्यायन आदि आदि ने जो लिखा, वो हमने नकल कर दिया। यदि इनमें बुराई हो, तो बुराई का दोष उन ग्रन्थों का है. प्रकाशक लेखक अनुवादक आदि सभी बौद्ध हैं. १:- स्त्री वर्ग संतापी,ईर्ष्यालु,मूर्ख,मत्सरी और बुद्घिहीन है। (अंगुत्तरनिकाय चक्कतुनिपात) २:- स्त्रियां धूर्त,झूठी,कारस्थानी,अप्रामाणिक,गुप्त व्यवहार करने वाली है। " (जातककथा ६२/१९२) ३:-"भिक्षुओं! काले सांप में पांच दुर्गुण हैं। अस्वच्छता,दुर्गंध,बहुत सोने वाला,भयकारक और मित्रद्रोही(विश्वासघाती)। ये सारे दुर्गुण स्त्रियों में भी हैं। वे अस्वच्छ,दुर्गंधयुत,बहुत सोने वाली,भय देने वाली और विश्वासघाती है।" (अंगु.पांचवा निपात,दीपचारिका वग्गो,पठण्हसुत्त ५/२३/९) **स्त्रियां नरकगामी हैं** १:- अधिकतर स्त्रियों को मैंने नरक में देखा है। उसके तीन कारण हैं जिससे स्त्रियां नरकगामी बनती हैं:- -वो पूर्वाह्न काल में, सुबह, कृपण और मलिन चित्त की होती है। -दोपहर में मत्सर युक्त होती हैं। -रात को लोभ और काम युक्त चित्त की होती है। (संयुक्त निकाय,मातुगामसंयुत्त,पेयाल्लवग्गो , तीहिधम्मोसुत्त ३५/१/४) **स्त्रियों को बुद्ध बनने का अधिकार नहीं है** १:- स्त्री कभी भी बुद्ध नहीं बन सकती। (पाली जातक,अट्ठकथानिदान,निदानकथा १९) वैदिक मान्यता में स्त्रियाँ ऋषियों के समान ऋषिका भी हैं. २:- स्त्री बुद्ध नहीं बन सकती। केवल तभी बन सकती है जब पुरुष का जन्म ले ले। स्त्री चक्रवर्ती सम्राट भी नहीं बन सकती । केवल पुरुष ही राजा बन सकता है। केवल पुरुष ही शक्र,मार,ब्रह्मा बन सकता है। (अंगुत्तरनिकाय, एककनिपात,असंभव वग्गो,द्वितीय वर्ग, १/१५/१) **बौद्ध धम्मसंघ में स्त्रियों की स्थिति** १:- स्त्री को संन्यास लेने की शर्त बताते हुये बुद्ध कहते हैं कि- -भले ही भिक्षुणी सौ साल की ही क्यों न हो,अपने से छोटे उम्र के भिक्षु को नमस्कार करेगी। उसके आते ही उठ जायेगी। -किसी भी स्थिति में स्त्री भिक्षु का अनादर न करे,न उसको अपशब्द कहे। -भिक्षु को कोई भिक्षुणी कभी भी उपदेश न करे। भिक्षु ही भिक्षुणी को उपदेश दे सकता है। (अंगुत्तरनिकाय, आठवां निपात,गोतमीवग्गो,गोतमीसुत्त) २:- बुद्ध मना कर देते हैं कि भिक्षु अपने से बड़ी आयु की भिक्षुणी को नमस्कार करे,आदर करे। ( विनयपिटक, चुल्लवग्गो,भिक्षुणी स्कंधक पेज ५२८, राहुल सांकृत्यायन) **स्त्रियों की निंदा** १:- स्त्रियां पुरुष का मन विचलित करती हैं।स्त्री का गंध,आवाज,स्पर्श विचलित करता है। स्त्री मोह में डालती है। (अंगुत्तरनिकाय एककनिपात रुपादिवर्ग १) २:- जब भिक्षु भिक्षापात्र लेकर जाये,कोई कन्या या युवती दिखे तो कोई और भिक्षु उसके साथ होना चाहिये । (संयुक्तनिकाय २०-२०) ३:- स्त्री मार का बंधन है यानी बुरी शक्ति है। जिसके हाथ में तलवार हो,पिशाच हो,विष देने वाला हो,उससे बात कर लो। पर स्त्री से कभी मत बोलो। (अंगुत्तरनिकाय पांचवानिपात,विवरणवग्गो मातापुत्तसुत्त ५/६/५)
मनुर्भव (मनुष्य बनो) (Vedic vichar )
12-12-2021
वेद कहता है कि तू मनुष्य बन। जब कोई जैसा बन जाता है तो वैसा ही दूसरे को बना सकता है। जलता हुआ दीपक ही बुझे हुए दीपक को जला सकता है। बुझा हुआ दीपक भला बुझे हुए दीपक को क्या जलाएगा? मनुष्य का कर्त्तव्य है कि स्वयं मनुष्य बने और दूसरों को मनुष्यत्व की प्रेरणा दे। स्वयं अच्छा बने और दूसरों को अच्छा बनाए। यदि मनुष्य स्वयं तो अच्छा बनता है, परन्तु दूसरों को अच्छा नहीं बनाता तो उसकी साधना अधूरी हो जाती है। यदि स्वयं तो अच्छा है, परन्तु अपनी सन्तान को अच्छा नहीं बनाता तो वह अपने लक्ष्य में आधा सफल होता है। वास्तव में मानव की मानवता ही उसका आभूषण है। वेद, मनुष्य को उपदेश देता है कि तू मनुष्य बन। कोई कहता है मुसलमान बन, कोई कहता है तू ईसाई बन। कोई कहता है तू बौद्ध बन, परन्तु वेद कहता है तू मनुष्य बन। यह और इस जैसी विशेषताएँ वेद के आसन को अन्य धर्मग्रन्थों के आसन से बहुत ऊँचा उठा देती है। वेद का उपदेश संकीर्णता और संकुचितता से परे है। वेद का उपदेश सभी स्थानों, सभी कालों और सभी मनुष्यों पर समान रुप से लागू होता है।. जब संसार में यह वेदोपदेश चरितार्थ था तब संसार में मानव वस्तुतः मानव था। मानवता का भेद करने वाले कारण उपस्थित नहीं थे। संसार में जितने जलचर, नभचर और भूचर प्राणी हैं, उनमें से सर्वश्रेष्ठ प्राणी मनुष्य की शरीर–रचना, अन्य प्राणियों से अति श्रेष्ठ है। उसे बुद्धि से विभूषित करके परमात्मा ने चार चाँद लगा दिये। शतपथ ब्राह्मणकार ने बहुत ही सुन्दर कहा है― *पुरुषो वै प्रजापतेर्नेदिष्ठम्।* *अर्थात्―*प्राणियों में से मनुष्य परमेश्वर के निकटतम है। अन्य कोई प्राणी परमेश्वर की इतनी निकटता को प्राप्त किये हुए नहीं है जितनी कि मनुष्य। यदि मानव अपनी मानवता को पहचानता रहे तो वह मनुष्य है, अन्यथा उसमें पशुत्व उभरकर उसे पशु बना देता है। संस्कृत के एक कवि ने कहा है― *खादते मोदते नित्यं शुनकः शूकरः खरः।* *तेषामेषां को विशेषो वृत्तिर्येषां तु तादृशी।।* _कुत्ते, सूअर और गधे आदि भी खाते–पीते और खेलते–कूदते हैं। यदि मनुष्य भी केवल इन्हीं बातों से अपने जीवन की सार्थकता मानता है तो फिर उसमें और पशु में अन्तर ही क्या है?_ कवि तो केवल खाने–पीने और खेलने–कूदने तक ही कहकर रह गया, परन्तु ऐसे भी मनुष्य हैं जिनमें और पशुओं में कोई अन्तर नहीं है। मूर्खता में कई व्यक्ति गधे के समान होते हैं। बस्तियाँ उजाड़ने वाले मनुष्य उल्लुओं से भी अधिक भयंकर होते हैं। कड़वी और तीखी बातें कहनेवाले ततैयों से भी अधिक पीड़क होते हैं। व्यसनी व्यक्ति जो दूसरों को भयंकर व्यसनों का शिकार बना लेते हैं, साँपों और बिच्छुओं से भी अधिक भयंकर होते हैं, क्योंकि उनके व्यसन व्यक्ति को जीवन–पर्यन्त पीड़ित करते रहते हैं। क्रोधी और निर्बलों को दबाने वाले व्यक्ति भेड़िये के समान होते हैं। परस्पर लड़नेवालों में कुत्ते की मनोवृत्ति पाई जाती है। अभिमानी व्यक्तियों में गरुड़ की मनोवृत्ति प्रधान है। लोभी व्यक्ति गीध के समान होते हैं। शब्द–रस में फँसे हुए प्राणी हिरण के समान, स्पर्श–सुख के वशीभूत मनुष्य हाथी के समान, रुपरस के शिकार मनुष्य पतंगे के समान, गन्धरस के शिकार भँवरे के समान, स्वाद के वशीभूत प्राणी मछली के समान होते हैं। कायर व्यक्ति को भेड़ और गीदड़ की उपमा दी जाती है। हरिचुग व्यक्तियों को गिरगिट के तुल्य ठहराया जाता है। ये पशुवृत्तियाँ केवल अपठित और अर्द्धशिक्षित व्यक्तियों में ही नहीं पायी जातीं, अपितु पढ़े–लिखे और शिक्षित–प्रशिक्षित भी इनका शिकार हैं। बी० ए०, एम० ए० भी ईर्ष्या और द्वेष की दलदल में फँसे हुए हैं। शास्त्री और आचार्य भी संकीर्णता और संकुचितता के रोगों से ग्रसित हैं। पढ़े–लिखे भी दूसरों को धोखा देते हैं। वे भी छल–कपट करते हुए झिझकते नहीं हैं। शिक्षा भूषण के स्थान पर दूषण बन गई है। मनुष्य, शिक्षा प्राप्त करने से ही मनुष्य बन जाए, यह कोई आवश्यक नहीं है। मनुष्यत्व तो एक साधना है। यह कुछ वर्षों की साधना नहीं, अपितु जीवनभर की साधना है। मनुष्यत्व की प्राप्ति के लिए मनुष्य को जागरुक रहना पड़ता है, आत्मनिरीक्षण करना पड़ता है। तभी मनुष्य मनुष्यत्व का अधिकारी बनता है। ऊँचे मनुष्यों का संसार में मिलना बहुत कठिन है― रुसो ने कहा है―"हमारा मनुष्य बनना हमारी सबसे पहली पढ़ाई है।" मुंशी प्रेमचन्द के शब्दों में,"मनुष्य बहुत होते हों, पर मनुष्यता विरले में ही होती है।"
Vedic Vichar
11-12-2021
. ????????ଓ୩ମ୍???????? ????ଗାୟତ୍ରୀ ମନ୍ତ୍ର???? ଓ୩ମ୍ ଭୂର୍ଭୁବଃ ସ୍ୱଃ । ତତ୍ସବିତୁର୍ବରେଣ୍ୟଂ ଭର୍ଗୋ ଦେବସ୍ୟ ଧୀମହି । ଧିୟୋ ୟୋ ନଃ ପ୍ରଚୋଦୟାତ୍ ।(ଯଜୁଃ. ୩୬.୩ ) ????ଗାୟତ୍ରୀ ମନ୍ତ୍ର ଭାବାନୁବାଦ???? (ରାଗ-ଚୋଖି) ପ୍ରଣବେ ପରମେଶ୍ୱର , ପ୍ରକାଶେ ନାମ ମଧୁର, ଗତି ମୁକ୍ତି ଦାତା ପ୍ରଭୁ, ତୃପ୍ତି ଆଧାର । ପାପ ତାପ ବିନାଶକ,. ସର୍ବବ୍ୟାପି ପ୍ରକାଶକ, ସଚ୍ଚିଦାନନ୍ଦ ସ୍ୱରୂପ ପ୍ରଭୁ ଓଙ୍କାର । ଅକାର-ଉକାର-ମକାର, ତ୍ରିବର୍ଣ୍ଣତ୍ରି ଭୁବନରେ ତୋଳେ ଝଙ୍କାର ାା୧ାା ଅନିତ୍ୟ ଜଗତେ ନିତ୍ୟ, ଯୁଗେ ଯୁଗେ ବିରାଜିତ, ପ୍ରାଣ ପ୍ରିୟ ପ୍ରାଣ ଦାତା "ଭୂଃ'' ନାମେ ଖ୍ୟାତ, ଲଭି ତବ ଦିବ୍ୟ ଜ୍ଞାନ, ଲିଭେ ଦୁଃଖ ଶୋକ ମାନ, ମୋକ୍ଷଦାତା "ଭୁବଃ'' ନାମେ ଭବେ ବିଦିତ ା ସ୍ୱଃ ସ୍ୱରୂପରେ ପ୍ରକାଶ, ନିତ୍ୟାନନ୍ଦମୟ ପ୍ରଭୋ ! ଜଗତ ଈଶ ାା୨ାା ସେହୁ ସବିତା ଦେବତା,. ସାରା ସଂସାର କରତା, ଦିବ୍ୟ ଗୁଣ ପରମାତ୍ମା ସଦା ବରେଣ୍ୟ, ପବିତ୍ର ପାପ-ରହିତ, ନିର୍ମଳ-ନିର୍ଗୁଣ ମୁକ୍ତ, ଭର୍ଗ ସ୍ୱରୂପକୁ ଆମ୍ଭେ କରୁ ଧାରଣ ା ତବ ତେଜ ଓଜକୁ ପାଇ, ତେଜସ୍ୱୀ ଓଜସ୍ୱୀ ହେବୁ ଜଗତ ସାଇଁ ାା୩ାା ଆଖିଳ-ବ୍ରହ୍ମାଣ୍ଡପତି, ଜଣାଉ ଆମ ପ୍ରଣତି, ଏତିକି ମିନତି ପ୍ରଭୁ କରିବ ଘେନା, ତୁମରି ଶାଶ୍ୱତ ବାଣୀ, ଦେଖାଉ ସତ୍ୟ-ସରଣୀ, ଭରିଯାଉ ଜୀବନରେ ତବ ପ୍ରେରଣା ା ବୁଦ୍ଧି-ମନ-କର୍ମ-ବଚନ, ତବଗୁଣେ ତବନାମେ ହେଉ ମଗନ ାା୪ାା
Our Family and Culture (Odia) : By Dr. Yajnya Dutta Nayak
08-12-2021
https://www.youtube.com/watch?v=1YxJHAtP5Os
Stress Management Mantra (odia) : By Dr. Yajnya Dutta Nayak
08-12-2021
https://www.youtube.com/watch?v=gRWjqnIsYBE
BHAGAVAD GITA JAYANTI - PART 6 - FINAL POSTING
08-12-2021
BHAGAVAD GITA JAYANTI - PART 6 - FINAL POSTING NEVER BE AFRAID - NEVER BE NERVOUS We know very well that if a farmer, out of fear of losing his crops, were to fail to thoroughly plough his land and carefully sow his seeds at the right time, he would have no harvest at all. The Bhagavad Gita inspires us to understand that the past has gone, and the future is not here. What is here is today, now, the present. Our future is carved out from our present, and our present is shaped to a large extent by our past. If we use experience from the past and plough and sow today, we will reap tomorrow. Today requires us to act without being unnecessarily troubled by outcomes. So the Gita counsels us: You are to act – that’s your privilege. You cannot dictate the outcomes of your actions [Karmanyevaa’dhikaaras te, maa phaleshu kadaachana]. Do what you have to do, do it zestfully, surrender yourself to the Higher Power, and rid yourself of unjustifiable hopes and useless fears. In this way, you will be content with, and you will take delight in, whatever comes your way as fruits of your action. BE A MUNI - DEVELOP STEADY WISDOM For a greater part of the day, the common man is subject to multiple agitations. Most times, the ordinary person walking on the street is afraid, he feels insecure, he is attached, he is stressed, he is angry, greedy, lustful, and infatuated. And so, he scowls much more than he smiles. The great majority of human beings fall in the category of this ordinary individual. The question is: Is there a strategy whereby we can rise above all these causes for agitation? The Gita makes the following suggestions: An-ud-vigna-manaah – Do not grieve over life's sorrows Veeta-raaga – Free yourself of unnecessary attachment Naa’bhi-nandati na dweshti – Do not be overjoyed, do not hate Koormo’ngaani sanharate – Withdraw your senses like a tortoise does When this happens, you and I will be Munih – a silent sage, moved by inner impulse Sthita Dheeh – our understanding will be steady and calm In other words, we will have risen above causes for agitations. FINALLY, LET'S EMULATE SHRI KRISHNA At the beginning of Chapter 4 in the Bhagavad Gita, Shri Krishna explained to Arjuna that he had given knowledge to the earliest human beings, and that the later Rishis, through a tradition of teaching and learning, had acquired this knowledge, but unfortunately, after a long time, this knowledge became lost. Arjuna was curious and asked: The two of us are cousins and we were born just a number of years ago. How can you then say that you taught this wisdom in the beginning? And Krishna explained the multiple births of all human beings, and told Arjuna that he, Krishna, remembered all his previous births, whereas Arjuna could not. He, Krishna was a Maha Yogi, a liberated soul, and that while there is no need for him to be born like Arjuna, he still takes birth age after age to root out wickedness from society, to protect what is righteous, and to re-establish Dharma on firm foundations. One of the purposes of celebrating Bhagavad Gita Jayanti every year in the month of December is to remind ourselves that we need to emulate Krishna, to act like him, to thrill humanity to rise to higher levels of awareness, and thus bring Dharma back on track. Krishna reminds Arjuna of past history when he said: Veeta raaga bhaya krodhaa Man-mayaa maam upaashritaah Bahavo jyaana tapasaa Pootaa mad bhaavam aagataah – 4:10 Many people overcame desire, fear, and anger, they dedicated themselves to my practices, followed my leadership, and having purified themselves by knowledge and austerity, they ultimately attained my state of liberated existence. So, O people all over the world, in every age we need to have the ideal pair of Krishna and Arjuna, the one who motivates, and the one to be motivated. Wherever this pair can be found, there we will always find good fortune, victory, success, and good judgment. Yatra yogeshwarah Krishno Yatra Paartho dhanur-dharah Tatra shreer vijayo bhootir Dhruvaa neetir matir mama – 18:78 DR SATISH PRAKASH
Vedic Vichar : Dr. Yajnya Dutta Nayak
08-12-2021
मनुष्य संसार में आया है तो सामान्य मनुष्यों की भांति सभी कार्य करने पड़ते हैं। परन्तु जो मनुष्य निष्काम कर्म करते हुए साक्षी भाव से जीवन व्यतीत करता है। वैराग्य पूर्वक नित्य योग के अभ्यास में लगा रहता है तथा योग्य गुरु के निर्देशन में श्रद्धा पूर्वक साधना करता है वह शीघ्र ही अपवर्ग की प्राप्ति कर लेता है । ... Dr Yajnya Dutta Nayak
Vedic Vichar : Dr. Yajnya Dutta Nayak
08-12-2021
मनुष्य संसार में आया है तो सामान्य मनुष्यों की भांति सभी कार्य करने पड़ते हैं। परन्तु जो मनुष्य निष्काम कर्म करते हुए साक्षी भाव से जीवन व्यतीत करता है। वैराग्य पूर्वक नित्य योग के अभ्यास में लगा रहता है तथा योग्य गुरु के निर्देशन में श्रद्धा पूर्वक साधना करता है वह शीघ्र ही अपवर्ग की प्राप्ति कर लेता है । Dr Yajnya Dutta Nayak
ईश्वर मनुष्यों को अच्छे गुण, कर्म और स्वभाव में प्रवृत करने वाला है ( vedic vichar )
05-12-2021
एक बार एक आचार्य अपने शिष्यों की कक्षा ले रहे थे। उन्होंने गुरु द्रोणाचार्य का उदाहरण दिया। गुरु द्रोणाचार्य ने एक बार युधिष्ठिर और दुर्योधन की परीक्षा लेने का निश्चय किया। द्रोणाचार्य ने युधिष्ठिर से कहा की जाओ और कहीं से कोई ऐसा मनुष्य खोज कर लाओ जिसमें कोई अच्छाई न हो। द्रोणाचार्य ने फिर दुर्योधन से कहा की जाओ और कहीं से कोई ऐसा व्यक्ति खोज कर लाओ जिसमें कोई बुराई न हो। दोनों को व्यक्ति की खोज करने के लिए एक माह का समय दिया गया। एक माह पश्चात युधिष्ठिर एवं दुर्योधन दोनों गुरु द्रोणाचार्य के पास वापिस आ गए। दोनों अकेले ही वापिस आ गए। द्रोणाचार्य ने युधिष्ठिर से खाली हाथ आने का कारण पूछा। युधिष्ठिर ने विनम्रता से द्रोणाचार्य को उत्तर दिया, "गुरु जी मुझे संसार में कोई ऐसा व्यक्ति नहीं मिला जिसमें कोई न कोई गुण, कोई न कोई अच्छाई न हो। इस सृष्टि में सभी मनुष्यों में कोई न कोई अच्छाई अवश्य हैं। इसलिए मैं ऐसा कोई मनुष्य खोजने में असमर्थ रहा जिसमें कोई अच्छाई न हो। " द्रोणाचार्य ने दुर्योधन से खाली हाथ आने का कारण पूछा। दुर्योधन ने उत्तेजित वाणी से द्रोणाचार्य को उत्तर दिया," गुरु जी मुझे संसार में कोई ऐसा व्यक्ति नहीं मिला जिसमें कोई न कोई दुर्गुण, कोई न कोई बुराई न हो। इस सृष्टि में सभी मनुष्यों में कोई न कोई बुराई अवश्य हैं। इसलिए मैं ऐसा कोई मनुष्य खोजने में असमर्थ रहा जो सभी बुराइयों से मुक्त हो।" आचार्य ने अब अपने शिष्यों से पूछा। एक ही संसार में सभी प्राणियों में युधिष्ठिर सभी प्राणियों में केवल अच्छाई देख पाते हैं और दुर्योधन केवल बुराई देख पाते हैं। इस भेद का कारण बताये? एक बुद्धिमान शिष्य ने उत्तर दिया, "आचार्य जी। इस भेद का मुख्य कारण परीक्षा लेने वाले की मनोवृति, उसकी रुचि और उसका सोच की दिशा हैं। " आचार्य जी ने उत्तर दिया, "बिलकुल ठीक। "व्यक्ति की वृतियां उसके विचारों और कर्मों दोनों पर प्रभाव डालती हैं। इसीलिए वेद मनुष्यों को सात्विक वृत्ति वाला बनाने के लिए ईश्वर से प्रार्थना करने का सन्देश देते हैं। यजुर्वेद 3/36 मंत्र में मनुष्य को सात्विक वृतियों की प्राप्ति के लिए अत्यंत शुद्ध ईश्वर से प्रार्थना करने का सन्देश दिया गया हैं। इस संसार में सबसे उत्तम गुण, कर्म और स्वभाव ईश्वर का है। इसीलिए सभी प्राणी मात्र को सर्वश्रेष्ठ गुण, कर्म और स्वभाव वाले ईश्वर की ही स्तुति, प्रार्थना और उपासना करनी चाहिए। अपनी आत्मा में धारण एवं प्राप्त किया हुआ ईश्वर मनुष्यों को अच्छे गुण, कर्म और स्वभाव में प्रवृत करता हैं। मनुष्यों को जैसी उत्तम प्रार्थना करनी चाहिए वैसा ही पुरुषार्थ उत्तम कर्मों और सदाचरण के लिए भी करना चाहिए।
महर्षि दयानन्द सरस्वती जी के अमूल्य उपदेश (vedic vichar)
05-12-2021
प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ भाग 1 १. जैसे शीत से आतुर पुरुष का अग्नि के पास जाने से शीत निवृत्त हो जाता है वैसे परमेश्वर के समीप प्राप्त होने से सब दोष दुःख छूटकर परमेश्वर के गुण कर्म स्वभाव के सदृश जीवात्मा के गुण कर्म स्वभाव पवित्र हो जाते हैं। (सत्यार्थप्रकाश समुल्लास ७) २. जो परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना नहीं करता वह कृतघ्न और महामूर्ख भी होता है क्योंकि जिस परमात्मा ने इस जगत् के सब पदार्थ सुख के लिए दे रखे हैं उसके गुण भूल जाना ईश्वर ही को न मानना कृतघ्नता और मूर्खता है। (सत्यार्थप्रकाश समुल्लास ७) ३. जैसे कोई अनन्त आकाश को कहे कि गर्भ में आया या मूठी में धर लिया ऐसा कहना कभी सच नहीं हो सकता क्योंकि आकाश अनन्त और सब में व्यापक है। इससे न आकाश बाहर आता और न भीतर जाता वैसे ही अनन्तर सर्वव्यापक परमात्मा के होने से उसका आना कभी नहीं सिद्ध हो सकता। (सत्यार्थप्रकाश समुल्लास ७) ४. जो मनुष्य जिस बात की प्रार्थना करता है उसको वैसा ही वर्तमान करना चाहिए अर्थात् जैसे सर्वोत्तम बुद्धि की प्राप्ति के लिए परमेश्वर की प्रार्थना करे उसके लिए जितना अपने से प्रयत्न हो सके उतना किया करे। अर्थात् अपने पुरुषार्थ के उपरान्त प्रार्थना करनी योग्य है। (सत्यार्थप्रकाश समुल्लास ७) ५. दिन और रात्रि के सन्धि में अर्थात् सूर्योदय और अस्त समय में परमेश्वर का ध्यान और अग्निहोत्र अवश्य करना चाहिए। (सत्यार्थप्रकाश समुल्लास ४) ६. जब तक इस होम का प्रचार रहा तब तक आर्य्यावर्त्त देश रोगों से रहित और सुखों से पूरित था अब भी प्रचार हो तो वैसा ही हो जाये। (सत्यार्थप्रकाश समुल्लास ७) ७. इस प्रत्यक्ष सृष्टि में रचना विशेष आदि ज्ञानादि गुणों के प्रत्यक्ष होने से परमेश्वर का भी प्रत्यक्ष है। (सत्यार्थप्रकाश समुल्लास ७) ८. 'जो इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख और ज्ञानादि गुणयुक्त अल्पज्ञ नित्य है उसी को "जीव" मानता हूँ।' (सत्यार्थ.-स्वमन्त.) ९. क्या पाषाणादि मूर्तिपूजा से परमेश्वर को ध्यान में कभी लाया जा सकता है? नहीं नहीं, मूर्तिपूजा सीढ़ी नहीं किन्तु एक बड़ी खाई है जिसमें गिर कर चकनाचूर हो जाता है। (सत्यार्थप्रकाश समुल्लास ११) १०. जैसे "शक्कर-शक्कर" कहने से मुख मीठा नहीं होता वैसे सत्यभाषणादि कर्म किये बिना "राम-राम" कहने से कुछ भी नहीं होगा। (सत्यार्थप्रकाश समुल्लास ११)
आर्यसमाज के बलिदान (vedic vichar )
05-12-2021
स्वामी कल्याणानन्द जी किनौनी मुजफ्फरनगर लेखक :- स्वामी ओमानंद जी महाराज प्रस्तुतकर्ता :- अमित सिवाहा परोपकार ही करते करते जिनके पाप हुए सब क्षीण। भेदभाव जिनके मन नाहीं प्राचरण जिनका है स्वाधीन।. काम क्रोध तज मन वश करके ईशभक्ति में ध्यान लगावें। ऐसे ब्रह्मज्ञान - अभिलाषी सांचहु जीवनमुक्त कहावें। भाग्यनगर का धर्म युद्ध छिड़ा हुआ था । सर्वत्र एक जागृति की लहर दौड़ रही थी । जहाँ देखो , लोग सत्याग्रह की बातें करते दिखाई देते थे । समाचारपत्र सत्याग्रह की खबरों से भरे रहते थे । प्रायः वहाँ की जेलों की अमानुषिक अत्याचार की खबरें प्रकाशित होती रहती थीं । वे खबरें जहाँ कायरों के हृदयों में कंपकंपो पैदा करती थीं वहां वीरों के हृदयों को धर्म पर मरने के लिये उछाल देती थी । गाड़ियों में ओ३म् के झण्डे लहराते और वैदिक धर्म के जयघोष सुनाई देते थे । स्टेशनों पर सत्याग्रहियों के स्वागत सत्कार और चढ़ने उतरने से सदा चहल पहल रहती थी । सर्वत्र जोश और रोष का साम्राज्य था । सत्याग्रही धड़ाधड़ बड़ी संख्या में युद्ध क्षेत्र की ओर कूच कर रहे थे । स्वामी कल्याणानन्द ने भी इन समाचारों को पढ़ा - सुना और देखा । उनकी मुखाकृति गम्भीर हो गई । उन्होंने सोचा- मेरा जोवन ही धर्म के लिये है । अन्याय और अत्याचार आग बनकर बरस रहे हों और एक आर्य संन्यासी उन्हें खड़ा खड़ा देखता रहे , यह असम्भव है । उनके अन्तःकरण ने भी उन्हें कुछ मौन परामर्श दिया । उसी समय उन्होंने सत्याग्रह का संकल्प किया और जत्था लेकर शोलापुर पहुंच गये । वहाँ जाकर उन्होंने शिविर में आसन किया । वहां वे गाया करते थे - " यह दुनियां रेन बसेरा है । " उनकी बातें भी प्रायः वैराग्य की हुआ करती थीं । एक दिन मैंने हंसते हुए इन्हें कहा - कल्याणानन्द जी ! आज कल वैराग्य का क्या अवसर है ? सत्याग्रह का जोर है । धर्मयुद्ध तेजी पर है । अब तो वीर रस गाओ । " उन्होंने उत्तर दिया- " स्वामी जी ! मैंने भी कई बार यही विचार किया है । परन्तु मन में वैराग्य के संस्कार अधिक आ रहे हैं । पता नहीं परमात्मा क्या चाहता है । सत्याग्रह का दिन नियत हो गया । सत्याग्रही सुसज्जित हो गये । जत्थे का चित्र लिया गया और उसे स्टेशन तक पहुंचा कर विदाई दी गई । जत्था उसी दिन गुलबर्गा में जाकर गिरफ्तार हो गया । निजाम सरकार ने अभियोग का हास्यास्पद स्वांग रचा तथा सबको दण्ड सुनाकर कारागृह की कोठरियों में कैद कर दिया । कुछ दिन पीछे स्वामी कल्याणानन्द रुग्ण हुए । जेल कर्मचारियों के यहां सत्याग्रहियों के रोगों की रामबाण औषध कष्टदान था । उन्होंने स्वामी जी को कष्ट देना प्रारम्भ किया । कल्याणानन्द कुछ दिनों तक तो दृढ़ता पूर्वक सब सहते रहे परन्तु ७५ वर्ष का वृद्ध रोगी शरीर उनका साथ न दे सका । कष्टों के प्रबल प्रहारों ने उसे क्षीण कर दिया । जेल वालों ने उन्हें चिकित्सालय में तो पहुँचा दिया परन्तु औषध और अनुपान सब पूर्ववत् ही रखा । भला उनकी रामबाण औषध भी कभी व्यर्थ हो सकती थी ? स्वामी कल्याणनन्द जी ने आखिर उन भूखे सरकारी यमदूतों को ८ जुलाई १९३९ को अपना शरीर बलि देकर कल्याण पद प्राप्त किया । न्याय भावना से शून्य अधिकारियों ने उस शव को सत्याग्रहियों को दे दिया । सत्याग्रहियों ने उस नश्वर शरीर को “ भस्मान्तं शरीरम् " पढ़कर अग्निदेव को भेंट कर दिया । १० जुलाई को सरकारी तौर पर उनकी मृत्यु की घोषणा की गई परन्तु कारण कोई नहीं बताया गया । अमर - महाधन स्वामी कल्याणानन्द जी का शरीर संयुक्त प्रान्त का था । उनका पूर्व परिचय इस प्रकार है । उन्होंने सन् १८७४ ई० में ग्राम किनौनी डाकखाना वघरा जिला मुजफ्फरनगर के चौधरी शाहमलसिंह के गृह में जन्म लिया । वे जाट कौम के थे । कल्याणानन्द जी के ५ भाई थे । लज्जाराम , घासीराम और भरतसिंह तीन भाई उनसे बड़े थे । कन्हैयासिंह छोटे थे । आपकी माता का नाम सुजानकौर था । बचपन में उनकी शिक्षा का कुछ प्रबन्ध नहीं हुआ । १६ वर्ष की आयु में पढ़ना आरम्भ किया और १२ फरवरी सन् १८९८ में चौबी कक्षा पास की । जानसठ जाकर पाँचवीं में प्रविष्ट हुए परन्तु बीमारी के कारण वापस चले आये । कुछ दिनों बाद प्राइवेट पढ़कर मिडिल पास किया । तत्पश्चात् पटवारियान में दाखिल हुए परन्तु असफल रहे और घर के काश्त के काम में लगे रहे । पुनः रोजगार की खोज में इधर उधर घूमते रहे और ग्राम मौलहेडी के चौधरी घासीराम के यहां दो मास नौकर रहे । फिर किनौनी की पाठशाला में सहायक हो गये और १ मई १९०३ ई० को हरसौली में स्थायी अध्यापक नियुक्त होकर गये । इन दिनों इन्होंने वैदिक धर्म की दीक्षा लेली थी । हरसौली में वे ५ वर्ष २ मास रहे । वहाँ लोगों के साथ पुरानी रूढ़ियों , रस्म - रिवाजों पर उनका वाद - विवाद होता रहा । १९०३ से उन्होंने वेदों का सहारा लिया , किताबों की देखभाल प्रारम्भ की और यज्ञोपवीत ग्रहण करके नियमपूर्वक संध्यादि नित्य - कर्म करने लगे । इसी समय उन्होंने प्रिय ताराचन्द का उपनयन संस्कार करा उसे संध्या सिखा दी थी । इनके दो पुत्र और दो कन्यायें उत्पन्न हुईं । पहला पुत्र ज्येष्ठ वदी ५ सम्वत् १९५१ में पैदा हुआ । श्रावण कृष्ण १० , संवत् १९५३ वि ० को भगवान् देई उत्पन्न हुई । ज्येष्ठ कृष्ण ५ सम्वत् १९५७ को रणजीतसिंह पैदा हुआ और २२ फरवरी सन् १९०३ को सबसे छोटी लड़की खजानी पैदा हुई । हरसौली से उनका तबादला दतयाने की पाठशाला में हुआ । यहां से उन्हें प्रचार का शौक लगा । मास्टरी से त्यागपत्र देकर वे प्रचार में लग गये । वे एक प्राचीन शैली के भजनोपदेशक थे । त्याग पत्र देने के बाद कुछ दिन गुरुकुल बदायूं में तत्पश्चात् गुरुकुल सिकन्दराबाद में प्रचारक रहे । इसके बाद जाट क्षत्रिय सभा मुजफ्फरनगर में १२ ) मासिक पर प्रचारक नियत हुए और १८ ) तक उन्नति की । इसके बाद कुछ जगहों पर इन्होंने पाठशालायें स्थापित की जिनमें वे शिक्षा देते थे और प्रचार भी करते रहे । अपने छोटे पुत्र रणजीतसिंह को उन्होंने ८ वर्ष की आयु में गुरुकुल कांगड़ी में प्रविष्ट कराया था । अार्थिक कारणों से विवश हो उसे १३ वीं श्रेणी से गुरुकुल छोड़ना पड़ा । उसके बाद वह युद्ध के दौरान में फौज में भर्ती हो गया । वहां वह तारबाबू का काम करता था । उसी युद्ध में उसकी मृत्यु हो गई । लड़ाई के तीन वर्ष पश्चात् स्वामी जी को एक मानपत्र १ तमगा ५०० ) पांच सौ रुपये तथ ८ ) रुपये मासिक की पेंशन जिन्दगी भर के लिये मिलती रही । प्रचार के सिलसिले में जब वे ग्राम में पधारते थे तो स्कूल में ठहरते थे और दो चार दिन प्रचार करने के बाद गायब हो जाते थे । ४० वर्ष की आयु में उनकी धर्मपत्नी का देहांत हो चुका था। हरिद्वार के कुम्भ पर जब वे गये तब उनकी आयु ५५ वर्ष की थी । चित्त में वैराग्य था । साधुओं की संगति ने उनके दिल को और रंग दिया । तब तीव्र वैराग्यवान् होकर इन्होंने निश्चय किया कि संन्यासाश्रम में दीक्षित हो जाऊं । मायापुर वाटिका में इन्होंने श्री स्वामी ओङ्कार सच्चिदानन्द जी से संन्यास की दीक्षा ली । कुछ समय गुरु महाराज जी की संगति में रह कर साधुओं की रीति नीति सीखी । पश्चात् स्वामी कार सच्चिदानन्द जी तो बम्बई की तरफ चले गये और स्वामी कल्यारणानन्द जी पंजाब में प्रचारार्थ पधारे । उन्होंने ग्रामों में घूम घूम कर प्रचार किया । जि० बुलन्दशहर , मेरठ , मुजफ्फरनगर , सहारनपुर में आर्य समाज का कार्य बड़ी लगन से किया । वेद का सन्देश सीमान्त प्रदेश में भी जा सुनाया | स्वामी जी स्वभाव के बड़े नम्र और मिलनसार थे । पवित्र और सदाचारी थे । स्त्री शिक्षा पर वे विशेष बल देते थे । संन्यासी होते हुए भी वे दैनिक हवन नियमपूर्वक करते थे । जहां पर जाते वहाँ पवित्रता का सदा उपदेश करते थे । सत्याग्रह में वे अपने व्यय से गये थे । उन्होंने भजनों की कुछ पुस्तकें भी लिखी हैं
VEDIC MONOTHEISM (vedic vichar )
05-12-2021
Vedic philosophy revolves round singularity of God. There is no mention of plurality of God in Vedas. Vedic religion is pure unadulterated Monotheism. According to Hoy Vedas, God is one, not many : Verily He is one Single, indivisible, supreme reality. - Atharva Veda 13/4/20 Oneness of God is the axis round which the philosophy of Vedas revolves. None but God alone reigns and rules over the whole universe. True kingship belongs to Creator of the cosmos. He alone is the Supreme Sovereign of the universe : He is the sole sovereign Of the universe. - Rig Veda 6/36/4 There is none who equals him. He is One, without parallel : He is one, unparalleled Through His wondrous, mighty And formidable laws and deeds. - Rig Veda 8/1/27 Vedic philosophy does not approve of polytheism. There are no gods except one God, who is the Lord of lords. Only He is worthy to be worshipped and fit to be adored : There is only One Who ought to be adored By the people. - Atharva Veda 2/2/1 Holy Vedas declare that God alone is the unchallenged Lord of the whole creation. All sorts of eulogy, adoration and prayer befit Him only. Man does not deserve to be eulogised and deified by man. The deification of man by man is not permitted by Vedic religion. Therefore, it behoves man to worship the Great Lord of the cosmos only : O friends, Adore none else but Providence Who is supreme bestower of bliss And thus thou wilt not suffer; Eulogise Him in congregation And sing songs of His glory repeatedly - Sam Veda 242 God is singular, but his names are plural. All the epithets mentioned in Holy Vedas are ascribed to one God, who is Creator of the cosmos. Shiva, Shankara, Brahma, Vishnu, Mahesh, Ganesh, Indra, Mitra, Varuna, Agni, Yama etc. are the epithets of one Supreme Being, who is formless, featureless, birthless and bodiless. He is unborn, eternal, immortal and everlasting. He has no agents, no intermediaries, no representatives, no incarnations and no partners. He has neither father, nor mother. He has neither wife, nor sons, nor daughters. He has no attachment. But He is Benevolent Father of all his children, and imparts equal love impartially to all his creatures. He is kind to all, cruel to, none. His first name is Om. But He is evoked and adored by several other names which are written in Vedas He is One Brahma The Creator of the cosmos Who pervades and protects And enlightens aft beings He is One Supreme Entity Whom sages call by various names Such as Indra, the glorious Mitra, the benign friend Varuna, the greatest, the noblest Agni, the resplendent, the bright Yama, the dispenser of justice Matarishwa, the almighty. - Rig Veda 1/164/46 He is Omnipotent, Omnipresent and Omniscient. He is All-powerful and All-pervasive. He pervades, permeates and penetrates all things and all hearts He, the all-pervasive Pervades all beings Within and without. - Yajur Veda 32/8 He reigns magnificently and munificently over the whole universe. He is unparalleled and unequalled emperor of the cosmos created by Him. He is the One and the sole Sovereign of all creation, animate and inanimate. He is the unchallenged Master of. the whole cosmos : Thou art Lord of lords. - Rig Veda 1/94/13 God does not have face, form, features, signs and symbols. He has no body. He is formless, featureless and bodiless. He is birthless and deathless. When He does not take birth, He cannot assume body. He cannot be seen, He can be felt. Hence no picture or portrait, idol or statue of God can be made. God has no image. - Yajur Veda 32/3 The Western scholars, who drank deep from Vedic spring, have never lagged behind in admiring and appreciating the oneness of God as revealed in Vedas, from the core of their hearts. Count Bjornstjerne, the Norway’s national poet, who was awarded the Nobel Prize for literature in 1903, observes : “These truly sublime ideas cannot fail to convince us that the Vedas recognise only one God, who is Almighty, Infinite, Eternal, Self-existent, the Light and Lord of the Universe.” - Count Bjornstjerne Colebrook, the British scholar, states : “The ancient Hindu religion as found in the Hindu scriptures (the Vedas) recognises but one God.”- Colebrook Charles Coleman acknowledges in his book ‘Theophany of the Hindus’, the oneness of God as revealed in Holy Vedas as under : “The Almighty, Infinite, Eternal, Incomprehensible, Self-existent Being, He who sees everything though never seen is Brahm, the one unknown, True Being, the Creator, the Preserver and Destroyer of the Universe. Under such and innumerable other definitions is the Deity acknowledged in the Vedas.”- Charles Coleman Livi, the famous Arabic poet, honours and admires the blessed land of Hindusthan and Holy Vedas as under : “Blessed land of Hind (Hindusthan), thou art worthy of reverence, for in thee has God revealed true knowledge of Himself. What a pure light do these four revealed books afford to our mind’s eyes like the charming and cool lustre of the dawn ! These four God revealed upon His prophets (Rishis) in Hind. Those treasuries are the Sama and Yajur which God has preached. O my brothers, revere these, for they all tell us the good news of salvation. The next two of these four, the Rig and the Atharva, teach us lessons of universal brotherhood. These two (Vedas) are the beacons that warn us to turn towards that goal (universal brotherhood).” - Livi Dara Shakoh, the son of king Shah Jehan and elder brother of Aurangzeb, comes to the conclusion in Persian language as under : “After gradual research, I have come to the conclusion that long before all heavenly books like the Quran, the Old Testament and the New Testament etc., God had revealed to the Hindus through the Rishis of Yore, of whom BRAHAM was the chief, His four books of knowledge, the Rigveda, the Yajurveda, the, Samveda, and the AtharvaVeda.” - Dara Shakoh
कन्यादान का वास्तविक स्वरूप (vedic vichar )
03-12-2021
आजकल लिबरल के नाम एक नया कुतर्क दिया जा रहा है। विवाह के समय कन्या कोई वस्तु थोड़े ही है जिसका दान दिया जाये। ऐसा कुतर्क दिया जा रहा है। इस शंका का समाधान स्वामी विद्यानन्द सरस्वती ने अपनी कृति "संस्कार भास्कर" में इस प्रकार किया है- कन्यादान का स्वरुप -- दान का अर्थ है - ' स्वस्वत्व-निवृत्तिपूर्वक परस्वत्वापदनं दानम् ' अर्थात् देय वस्तु पर अपना अधिकार त्याग कर उसे दूसरे के अधिकार में देना । क्या कन्या भी इसी प्रकार से दे दी जाती है ? निश्चय ही अन्य पदार्थों की भाँति कन्यादान का स्वरूप स्वस्वत्व-निवृत्तिपूर्वक परस्वत्वापादन नहीं है , क्योंकि कन्यादान के पश्चात् भी न तो स्वत्व-निवृत्ति ही होती है और न ही कन्या गाय-बैल की तरह ऐसी सम्पत्ति है जिसका इस प्रकार दान दिया जा सके । यदि कन्यादान के पश्चात् स्वत्व-निवृत्ति हो जाती तो फिर लोक में मेरी पुत्री , मेरी बहिन , मेरी धेवती , मेरी भानजी , मेरी भतीजी आदि व्यवहार कन्या के विषय में नहीं होने चाहिएँ थे , क्योंकि जब कन्या अपनी नहीं रही तो उसकी सन्तान के साथ अपनापन कैसे रह सकता है ? परन्तु कन्या के विषय में इस प्रकार के प्रयोग देर तक और दूर तक (मेरा परधेवता) चलते रहते हैं । पारस्करगृह्य सूत्र के १-४-१६ पर भाष्य करते प्रसिद्ध पण्डित गदाधर लिखते हैं- ( हिन्दी अर्थ ) - स्वत्व त्यागपूर्वक परस्वत्वापादन दान है , परन्तु स्वकन्या किसी प्रकार से स्वकन्या न रहे , ऐसा नहीं किया जा सकता और न ही कन्या किसी और की हो जाती है , यतः विवाहोपरान्त भी " यह मेरी कन्या है " इस कथन से । इसलिए विवाह-संस्कार में कन्या के लिये दान शब्द का गौण प्रयोग जानना चाहिए । आपस्तम्बसूत्र ( ६-१३-१० ) में लिखा है - " यथादानं क्रयविक्रयधर्माश्चापत्यस्य न विद्यते " - अन्य वस्तुओं की भाँति कन्या का दान नहीं होता , क्योंकि शास्त्र सन्तान के क्रय विक्रय का निषेध करता है । कन्या के साथ दान शब्द मुख्यार्थ में कहीं भी प्रयुक्त नहीं होता । मनुस्मृति में दान शब्द ब्राह्य , दैव , आर्ष तथा प्राजापत्य विवाह में उसके भरण-पोषण तथा उसकी मान-मर्यादा की रक्षार्थ दायित्व सौंपने एवं सख्यभाव से परस्पर मिलकर गृहस्थाश्रम में रहते धर्माचरणपूर्वक धनोपार्जन कर उसका उपभोग करने तथा प्रजोत्पादन करने की अनुमति देने के अर्थ में ही आया है , वैखानसगृह्यसूत्र में पढ़े गये ब्राह्मादि विवाहों के संकल्प से स्पष्ट होता है - ( अन्वयार्थ ) - ब्राह्मविवाह में यज्ञानुष्ठानादि , धर्माचरण , प्रजोत्पादन तथा गृहस्थाश्रम सम्बन्धी कार्यों में सहयोग के लिये , दैव में धर्माचरण , प्रजोत्पादन एवं धनोपार्जनादि गृहस्थाश्रम सम्बन्धी कार्यों के सहयोग के लिये , आर्ष में यज्ञानुष्ठानादि पुण्यकर्मो , सन्तानोत्पत्ति तथा गृहस्थाश्रम सम्बन्धी कार्यों के सहयोग के लिये , प्राजापत्य में ब्रह्मयज्ञादि के अनुष्ठान , देव , ऋषि और पितरजनों की सेवा-सुश्रूषा , सन्तानोत्पत्ति तथा गृहस्थाश्रम सम्बन्धी कार्यों में सहयोग के लिये धर्मपत्नी के रुप में अपनी कन्या को सौंपता हूँ - ऐसा कहकर उदक प्रदानपूर्वक कन्या वर को सौंपे । कन्यादान का अभिप्राय व्यक्त करते हुए आचार्य शौनक कहते हैं - ' कन्यां सगर्व कर्मभ्यः करोति प्रतिपा्नम् ' अर्थात् परस्पर मिलकर प्रजोत्पादन तथा श्रौत-स्मार्त्त कर्मों का अनुष्ठान करने के लिए पिता अपनी पुत्री वर को सौंपता है । उपर्युक्त सन्दर्भों से स्पष्ट हो जाता है कि कन्या स्वत्वनिवृत्तिपूर्वक गोवृषादिवत् या दास-दासीवत् वर को नहीं दी जाती , वरन् गृहस्थाश्रम के दायित्वों को निभाने के लिये एक सहयोगी के रुप में दी जाती है । " कन्यादान का वर्त्तमान दूषित भावना मध्यकाल की देन है । " कन्यादान का परिभाषित अर्थ -- कन्या पिता के घर में प्रायः न्यूनतम 18 से 25 वर्ष तक रही । इस बीच वह माता-पिता , भाई-बहिन , सखी-सहेलियों का भरपूर प्यार पाती रही । विवाह-संस्कार के पश्चात् वह उन सबसे दूर पति के घर चली जाएगी । उस दुःखद चिरकालीन विदाई के समय परिवार के सभी सदस्य , सखी-सहेली आदि अपनी प्रेमवती भेंट उसे भेंट करते हैं । वास्तव में इसे " कन्यादान " कहा जा सकता है - ' कन्यायै दानमिति कन्यादानम् ' । विवाह के अवसर पर कन्या को मिलनेवाली यह सम्पूर्ण राशि कन्या-धन होता है । पुरोहित लोग कन्यादान के नाम से ही यह धन कन्या को दिलवाते हैं अतः कन्या के लिये दिये भेंटस्वरुप धन का ही मुख्य अथवा परिभाषित नाम कन्यादान है ॥ विवाह शब्द का अर्थ भी 'विधिपूर्वक एक दूसरे को प्राप्त करके परस्पर दायित्व को वहन करना-निभाना हैं। ' इस सन्दर्भ में वेद भी उचित निर्देशन देते हैं- अथर्ववेद 1/14 प्रथम कांड के सूक्त में 4 मंत्र विवाह व्यवस्था से सम्बंधित हैं। पहले मंत्र में वधु के गुणों का वर्णन है। वधु कुलवधू भगं अर्थात आतंरिक एवं वाह्य सौंदर्य से परिपूर्ण एवं वर्च: अर्थात तेजस्विता से युक्त हो। दूसरे मंत्र में वर के गुणों का वर्णन है। वर नियमितता अर्थात नियमित जीवन वाला और संयमित अर्थात संयम रखने वाला हो। तीसरे मंत्र में श्वसुर दामाद से कहता है।हे राजन (दामाद के लिए सम्मान व श्रेष्ठतासूचक शब्द) एषा (यह कन्या) ते (तेरे) कुलपा (कुल को पालन करने वाली/ पवित्र करने वाली ) है। इसे मैं तुम्हे दे रहा हूं। चौथे मन्त्र में वर को असित अर्थात विषयों से अबद्ध, कश्यप अर्थात वस्तुओं को ठीक रूप में देखनेवाला एवं गय अर्थात प्राणशक्ति से संपन्न कहा गया हैं। वधु को अन्तकोष: अर्थात आध्यात्मिक संपत्ति के समान बताया गया है। इन मन्त्रों से यह सिद्ध होता है कि विवाह व्यवस्था गुणवान वर और गुणवती पत्नी का मेल करने की वयवस्था का नाम हैं। ताकि उत्तम संतति से समाज सुशोभित हो।
धर्म के विषय में भ्रांतियां और उनका निवारण (VEDIC VICHAR)
03-12-2021
शंका 1:- धर्म का अर्थ क्या हैं? उत्तर:- १. धर्म संस्कृत भाषा का शब्द हैं जोकि धारण करने वाली धृ धातु से बना हैं। "धार्यते इति धर्म:" अर्थात जो धारण किया जाये वह धर्म हैं। अथवा लोक परलोक के सुखों की सिद्धि के हेतु सार्वजनिक पवित्र गुणों और कर्मों का धारण व सेवन करना धर्म हैं। दूसरे शब्दों में यह भी कह सकते हैं की मनुष्य जीवन को उच्च व पवित्र बनाने वाली ज्ञानानुकुल जो शुद्ध सार्वजनिक मर्यादा पद्यति हैं वह धर्म हैं। २. जैमिनी मुनि के मीमांसा दर्शन के दूसरे सूत्र में धर्म का लक्षण हैं लोक परलोक के सुखों की सिद्धि के हेतु गुणों और कर्मों में प्रवृति की प्रेरणा धर्म का लक्षण कहलाता हैं। ३. वैदिक साहित्य में धर्म वस्तु के स्वाभाविक गुण तथा कर्तव्यों के अर्थों में भी आया हैं। जैसे जलाना और प्रकाश करना अग्नि का धर्म हैं और प्रजा का पालन और रक्षण राजा का धर्म हैं। ४. मनु स्मृति में धर्म की परिभाषा धृति: क्षमा दमोअस्तेयं शोचं इन्द्रिय निग्रह: धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणं ६/९ अर्थात धैर्य, क्षमा, मन को प्राकृतिक प्रलोभनों में फँसने से रोकना, चोरी त्याग, शौच, इन्द्रिय निग्रह, बुद्धि अथवा ज्ञान, विद्या, सत्य और अक्रोध धर्म के दस लक्षण हैं। दूसरे स्थान पर कहा हैं आचार:परमो धर्म १/१०८ अर्थात सदाचार परम धर्म हैं ५. महाभारत में भी लिखा हैं धारणाद धर्ममित्याहु:,धर्मो धार्यते प्रजा: अर्थात जो धारण किया जाये और जिससे प्रजाएँ धारण की हुई हैं वह धर्म हैं। ६. वैशेषिक दर्शन के कर्ता महा मुनि कणाद ने धर्म का लक्षण यह किया हैं यतोअभयुद्य निश्रेयस सिद्धि: स धर्म: अर्थात जिससे अभ्युदय (लोकोन्नति) और निश्रेयस (मोक्ष) की सिद्धि होती हैं, वह धर्म हैं।
Vedic Vicar Annual Meet -2001 and Vedic Vichar outstanding Award -2021
02-12-2021
Vedic vichar, A leading spiritual Organization working for Arya Samaj and Swami Dayananda Saraswati all India Level. Vedic vichar successfully Organized “ Annual Meet -2001 at Berhampur, Prem Nagar, Head Office on dated 1st December 2021. In the present event of Prof. Jagannath Panda, (Former Professor, Berhampur University) was Chief Guest, Pandit Birendra Kumar Panda ( Arya Samaj Speaker & Guide)was chief speaker. And Dr. Yajnya Dutta Nayak, Vedic Vichar adviser & Biswanath Sastri, Organizing Secretary, Laxman Maharana, (Motivator) and Sanghamitra Kar, vedic vichar, Berhampur , coordinator (director Shalvi Infofine private Limited ) conducted the Vedic vichar Meeting. in this meeting Vedic Vichar Presented Vedic Vichar outstanding Award -2021 to 1. Best Contribution in Women Empowerment is Proudly Presented to K. KUSUMA General Legal Council (GLC) JCI Berhampur ladies & Vice President, Kalinga Vysya Mahila Sangh, 2. Best Contribution in Education Services is Proudly Presented to Sri Prasant Kumar Satapathy (Former Principal, Khallikote Auto. College, Berhampur, Odisha) 3. Best Contribution in Health Care Services is Proudly Presented to Dr. Sambit Begray (MBBS, MS (O&G), MBA (HA) Superintendent, Community Health Center, Patrapur , Ganjam) 4. Best Contribution in Education Services Is Proudly Presented to Dr. Manas Ranjan Misra (Lecturer in English, Gopalpur College, Gopalpur on Sea, Ganjam, Odisha)
दुर्जन से मित्रता न करें
28-11-2021
दुष्टों और सज्जनों की मित्रता में अन्तर होता है– *आरम्भगुर्वी क्षयिणी क्रमेण लघ्वी पुरा वृद्धिमती च पश्चात् ।* *दिनस्य पूर्वार्धपरार्धभिन्ना छायेव मैत्री खलसज्जनानाम् ।।* *भावार्थ―* दुर्जनों की मैत्री आरम्भ में गहरी होती है, फिर क्रम से क्षय (घटती) हो जाती है। सज्जनों की मैत्री आरम्भ में अल्प और बाद में वृद्धि को प्राप्त होने वाली होती है―दिन के पूर्वार्ध के समान, जो दिन के परार्ध से भिन्न है, अर्थात् जो बढ़ती है, घटती नहीं तथा छाया के समान साथ देने वाली होती है। दुर्दिन में जो साथ दे वही सच्चा मित्र है। समृद्धि की दशा में तो दुर्जन भी मित्र बन जाते हैं। मित्र का दूसरा लक्षण यह है कि सामने आलोचना करे, मित्र की कमियाँ बताए और पीठ-पीछे प्रशंसा करे। जो सामने प्रशंसा करे और पीठ-पीछे बुराइयों की चर्चा करे वह शत्रु होता है। *परोक्षे कार्यहन्तारं प्रत्यक्षे प्रियवादिनम् ।* *वर्जयेत्तादृशं मित्रं विषकुम्भं पयोमुखम् ।।* ―(चाणक्यनीति २/५) *भावार्थ―* पीठ-पीछे कार्य बिगाड़ने वाले या बुराई करने वाले और सामने मीठी-मीठी बातें बनाने वाले मित्र को ऐसे छोड़ देना चाहिए जैसे मुख पर दूध-लगे और भीतर से विष-भरे घड़े को त्याग दिया जाता है। मित्र में तीसरा गुण यह होना चाहिए कि वह मित्र को सत्प्रेरणा प्रदान करे, सन्मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करे, उसमें शुभ गुणों का समावेश कराए और अवगुणों को दूर करे। जो मित्र इसके विपरित, मित्र में अवगुणों का समावेश कराए, वह मित्र नहीं, अपितु शत्रु के तुल्य है। चाणक्य जी ने लिखा है— *दुराचारी च दुर्दृष्टिर्दुराऽऽवासी च दुर्जन: ।* *यन्मैत्री क्रियते पुम्भिर्नर: शीघ्रं विनश्यति ।।* *भावार्थ―* आचारहीन, बुरी दृष्टि वाले, बुरे स्थान में रहने वाले और दुर्जन मनुष्य के साथ यदि मेल-मिलाप किया जाता है तो वह मैत्री करने वाला मनुष्य शीघ्र नष्ट हो जाता है। * प्रस्तुति: पंकज शाह*
PANDIT BIRENDRA PANDA , PRABACHANA
27-11-2021
DAYANANANDA GURUKULA SIKHYA KENDRA RUPSA DWARA BALASORE ZILLA LANGALESWARA NUAGAON THARE SJ SURESH CHANDRA PANI NKA SANJOJANARE AYOJITA TRIDIBASIYA YOGA YANGA O SATSANGA KARYAKRAMA27/11/21 RA PRATHAMA DIBASIYA SAYANG KALINA PRABACHANA KARYAKRAMA RE BAIDIK BIDWAN PANDIT BIRENDRA PANDA MAHODAYA NKA DWARA PRABACHANA
Vedic vichar
22-11-2021
ईश्वर को अपने कर्म ( सृष्टि की उत्पत्ति ,स्थिति और प्रलय तथा जीवों को उनके कर्मों का फल देना)करने के लिए किसी साधन (शरीर या अस्त्र-शस्त्र )की आवश्यकता नहीं पडती।क्योंकि साधनों की आवश्यकता अल्प सामर्थ्य मनुष्य को है ,सर्वशक्तिमान ईश्वर को नहीं।
Vedic vichar
22-11-2021
*ईश्वर और समाज के बुद्धिमान लोग पुरुषार्थी व्यक्ति का सहयोग करते हैं, आलसी का नहीं। यही न्याय है।* मान लीजिए आप व्यापार करते हैं। आपके पास एक दुकान है। दुकान पर आपको एक नौकर रखना है। आप कैसे व्यक्ति को नौकर के रूप में रखना पसंद करेंगे? आलसी को या पुरुषार्थी को? मूर्ख को या बुद्धिमान को? निश्चित रूप से आपका यही उत्तर होगा, कि "हम एक पुरुषार्थी और बुद्धिमान व्यक्ति को नौकर के रूप में रहना चाहेंगे।" क्यों? क्योंकि यही न्याय है। नौकर को आप जितना वेतन देंगे, उसी हिसाब से आपको उस व्यक्ति से लाभ भी तो मिलना चाहिए। यदि किसी व्यक्ति को आपने नौकर के रूप में रख लिया, कुछ दिन उसने काम किया। और आपने देखा, कि "यह तो आलसी व्यक्ति है। ठीक प्रकार से मेहनत नहीं करता। मूर्ख भी है। हमारी बात को ठीक से समझता नहीं, और ठीक प्रकार से काम नहीं करता।" ऐसा परीक्षण हो जाने के बाद क्या आप उसे आगे नौकरी पर चालू रखना चाहेंगे? नहीं चाहेंगे। उसे नौकरी से हटा देंगे। यह तो हुई नौकर की बात। यही बात दान / सहयोग के क्षेत्र में भी लागू होती है। समाज में, देश दुनियां में समय समय पर अनेक प्रकार की आपत्तियां आती रहती हैं। ऐसे आपत्ति काल में लोग ईश्वर से तथा दूसरे मनुष्यों से सहायता मांगते हैं। ईश्वर तथा सहयोग देने वाले लोग भी उक्त नियम का पालन करते हैं। वे भी यही चाहते हैं, कि हम जिस को सहायता देवें, दान देवें, रक्षा करें, वह व्यक्ति भी पुरुषार्थी होना चाहिए। यदि कोई व्यक्ति आलसी है, मेहनत नहीं करता, और मुफ्त में सहयोग या दान लेना चाहता है, तो ईश्वर का यह नियम है कि वह ऐसे लोगों को दान सहयोग नहीं देता। उन आलसी लोगों पर ईश्वर कोई कृपा नहीं करता। जब व्यक्ति ईमानदारी से पूरी मेहनत करके थक जाता है, और फिर भी उसका जीवन ठीक प्रकार से नहीं चल पाता, अनेक कठिनाइयों से घिरा रहता है, तब वह ईश्वर से प्रार्थना करता है, कि *हे ईश्वर! अब आप मेरी रक्षा कीजिए। मेरे परिवार की रक्षा कीजिए। मैं तो अपनी पूरी शक्ति लगा चुका हूं।* तो ऐसी स्थिति में ईश्वर उस पुरुषार्थी व्यक्ति को सहयोग देता है। कैसे सहयोग देता है? वह पुरुषार्थी व्यक्ति अपनी प्रार्थना ईश्वर से करने के साथ साथ अपनी ख़राब स्थिति समाज के बुद्धिमान दयालु व्यक्तियों को भी बताता है। उनसे भी सहयोग की प्रार्थना करता है। तब ईश्वर उन लोगों के मन में प्रेरणा और उत्साह उत्पन्न कर देता है। फिर वे लोग, उस आपत्ति ग्रस्त व्यक्ति की सहायता करते हैं। इस प्रकार से ईश्वर, समाज के बुद्धिमान और दयालु लोगों के माध्यम से उसकी रक्षा करता है। *आलसी तथा दुष्ट व्यक्ति को न तो ईश्वर सहयोग देता है, और न ही समाज के बुद्धिमान लोग।* *इसलिए पूरी ईमानदारी से मेहनत करें। पुरुषार्थी बनें। तपस्या करें। फिर यदि आप के लक्ष्य में कोई कमी रह जाए, तब ईश्वर से और समाज के बुद्धिमान लोगों से प्रार्थना करें। तब दोनों ही आपको सहयोग देंगे।* *आज इस कोरोनावायरस के आपत्ति काल में बहुत से लोग आलसी बनकर बैठे हैं। वे अपनी रक्षा के लिए उचित पुरुषार्थ नहीं करते। सावधानी नहीं रखते, बल्कि सुरक्षा नियमों को लापरवाही से और कभी कभी तो जानबूझकर भी भंग करते हैं। फिर ईश्वर तथा समाज या सरकार से केवल कोरी प्रार्थना करते हैं। कि हमारी रक्षा करो। ऐसे आलसी अपात्र और दुष्ट लोगों की प्रार्थना न तो ईश्वर सुनेगा, और न ही समाज/सरकार के लोग। ये लोग स्वयं तो दंड भोग ही रहे हैं और दूसरों के लिए भी समस्या बने हुए हैं। ईश्वर ऐसे लोगों को सद्बुद्धि दे, कि ये मूर्खता आलस्य आदि दोषों को छोड़कर बुद्धि से काम लेवें। ये लोग अपना भी भला करें और दूसरों का भी। कम से कम दूसरों के लिए समस्या तो न ही बनें।* *स्वामी विवेकानंद परिव्राजक, रोजड़, गुजरात।*
Swami Dayanand and Ramanujacharya (vedic vichar )
22-11-2021
D.S.Balaji Arya Recently Shri Nishchalaland Ji Sarawati; Shankaracharya of Govardhan Math Puri has made a statement about Shri Ramanujacharya and Swami Dayanand. According to him, Swamy Dayanand followed the theories and interpretation of Ramanujacharya, except Avtar and Idol worship. Nishchalanand Ji is very much correct but there is a very a little glitch in his statement. Swami Dayanand did not follow Ramanujacharya or any other medieval saint while interpreting the Vedas. The only source and texts Swamy Dayanand followed were Vedas. Keeping in mind the logics and natural laws which govern the multiverse, he came to the most obvious conclusions concerned with the Vedic Dharma. Undoubtedly, Ramanujacharya was one of the very few saints who preserved and conserved the Vedic Religion in his times. Ramanujacharya and his established Sri Vaishnav sect is the reason nobody can today Shri Ram and Krishna in major parts of South India. Shri Ramanujacharya revived the Vedic Varnashram while destroying the ruthless birth Based Caste system. Shri Ramanujacharya denounced Animal Sacrifice and many such misconceptions about Vedas. Shri Ramanujacharya revived the tradition of Women Education, which was prohibited by many anti-Vedic forces. So if Swami Dayanand seems to be akin to Ramanujacharya, it's nothing but a matter of pride. As it is undoubtedly at par with the divine Vedas. Similarities between Shri Ramanujacharya and Swami Dayananda (1). Both Swami Dayananda and Ramanujacharya acknowledged the existence of three eternal realities - Jivatma, Prakruti and Paramatma. (2). Both gave more emphasis on the Shrutis (Vedas, Upanishads). Unlike other medieval sects like Shaiv, Shakti with moved far away from Vedas got stuck into their respective Purans alone. (3).Swami Dayananda rejected all the Puranas. While Ramanuja accepted the Puranas partially only by explicitly rejecting anything which goes against Vedas. The only Puran that his sect fully accepts is Vishnu Puran. They even reject portions of Bhagwad Puran. They don't believe in the existence of Puranic characters which do not find mention in Itihaasas or Shrutis, like Radha. (4). Both worked for eradication of untouchability and upliftment of Shudras. Ramanujacharya ensured that every devotee is allowed inside temples and is treated respectfully, irrespective of caste or creed. Ramanuja challenged the existing notion of his times that only a Brahmin by birth is eligible for Moksha. He said that every true devotee of Narayana (God) can achieve Moksha and that it has nothing to do with one's caste. In his sect, it is believed that a true devotee of Narayana (irrespective of his or her caste) is superior to all mortal humans including Brahmins. Ramanuja belonged to the tradition which was started by 12 Azhvars, of whom the most venerated is Nammazhvar (Shatkopa muni), who was a Shudra by caste. Ramanuja's entire sect worships Nammazhvar as a liberated devotee who shows the path to Narayana. (5). Dayananda believed that individual Moksha is a very selfish pursuit, one must strive for Moksha for all. Going against the wishes of his Guru, Ramanuja made the mantra of 'Om Namo Narayana' public, stating that liberation of all the people is more important to him than his liberation. (6). At old age, Ramanuja used to take support from his brahmin followers while walking to the river for bathing. But during his way back home, he used to take support from his Shudra followers. One day, one of his followers asked him that why he puts himself on the shoulders of a Shudra just after cleaning himself in the river. He answered that water cleans his body while taking support from a Shudra cleans his ego of being born in a high caste, which he said is akin to internal dirt. (7). Both of Ramanujacharya and Dayananda give special emphasis on Yajna. The recently held Chaturved Swahakar yajna by VHP in New Delhi was conducted by Sri Vaishnava pundits under the supervision of Chinna Jeeyar Swami. (8). Both Ramanujacharya And Swami Dayanand condemned any existence of Animal Sacrifice in Vedas and considered a Vegetarian diet the only Sattvik way of life. Minute Differences between both of these great Saint - (1). Dayananda believed God is internally formless. Ramanuja believed God has the most beautiful form. (2). Dayananda believed God never takes avatars, but Ramanuja supported this view, which seems to be his way of collecting and uniting the people at his time. (3). Dayananda condemned Idol worship. Ramanuja taught that God can be perceived in fiveways, out of which one is Archa (worshippable idol). Even Shri Ramanujacharya never mentioned idol worship as a part of Vedas but he upheld the authorities of certain Agamas which mentions Idol Worship. Swami Dayanand in his revolutionary book Satyarth Prakash's Chapter 11 critically analyses all the major sects of Hinduism. In which he analyzes the Vishishtadvait philosophy of Sri Ramanujam too. Comparing it with the typical Advait philosophy which propagates Brahma and Jeeva as one. With a line - Brahma Satyam, Jagat Mitya, which means god is true and the world is a myth. Whereas Sri Ramanujacharya calls jeeva, brahma and maya all as nitya(Consistent). These are a few facts about Shri Ramanujacharya and Swami Dayanand. Which seems to be very much similar as both are close to the Vedas leaving away the pollutants.
Vedic vichar
22-11-2021
"इन्द्रियों में आत्मा (इन्द्र) द्वारा जो तेज आता है और जो इन्द्रियों के विषयभोगों में पड़ने से क्षीण होता रहता है, उस तेज को संयम द्वारा संरक्षित कर अपनी मानसिक वर्चस्विता को प्राप्त होवो।" ***** यद् वर्चो हिरण्यस्य, यद्वा वर्चो गवामुत। सत्यस्य ब्रह्मणो वर्चस्तेन मा स सृजामसि।। -साम०६।४।१० ऋषि - सर्वादिशः। देवता - विश्वे देवा। छन्द - अनुष्टुप्। विनय - मैं पूरा वर्चस्वी बनूंगा, तेजस्वी बनूंगा। मैं प्रत्येक वस्तु से वर्चस् का संग्रह करूंगा और प्रत्येक प्रकार के वर्चस का संग्रह करूंगा। असली हिरण्य जो वीर्य है, उसके वर्चस् से तथा गौओं, इंद्रियों के वर्चस् से एवम् सत्यस्वरूप ब्रहा के वर्चस् से मैं अपने आपको पूरी तरह संयुक्त कर लूंगा। हिरण्यों के, तैजस पदार्थों के सेवन द्वारा मैं शारीरिक वर्चस् को, वीर्य को अपने में उत्पन्न करूँगा तथा ब्रह्मचर्य द्वारा इस शरीर में संस्थापित कर लूंगा। मेरी इन्द्रियों में आत्मा (इन्द्र) द्वारा जो तेज आता है और जो इन्द्रियों के विषयभोगों में पड़ने से क्षीण होता रहता है, उस तेज को संयम द्वारा संरक्षित कर अपनी मानसिक वर्चस्विता को प्राप्त करूंगा। और आत्मिक तेज पाने के लिए मैं सत्यज्ञान के, वेदज्ञान के, सत्यस्वरूप ब्रह्म के तेज को अपनी आत्मा में धारण करूंगा। इस प्रकार ब्रह्मतेज पाकर जागृत हुआ मेरा आत्मा अपने अनन्त तेज से चमक उठेगा और मेरे मन और देह को सहज में तेजोमय बना देगा। तब मैं संसार में एक चमकती हुई प्रदीप्त ज्योति की तरह फिरूँगा। जो कोई मेरे सम्पर्क में आयेगा उसके भी शरीर-मनआत्मा को प्रदीप्त, प्रज्वलित और उदबद्ध करता हुआ विचरूँगा। मैं वर्चोमय वर्चस्वी बन जाऊँगा। शब्दार्थ - (हिरण्यस्य) वीर्य का (यत्) जो (वर्चः) तेज है (उत) और (गवां) इन्द्रियों का (यद् वा) जो कुछ (वर्चः) तेज है तथा (सत्यस्य) सत्यस्वरूप (ब्रह्मणः) ब्रह्म का, ज्ञान का, वेद का (वर्चः) जो तेज है (तेन) उस सब तेज से (मा) मुझे, अपने-आपको (सं सृजामसि) पूरी तरह संयुक्त करता हूँ। ********** स्रोत - वैदिक विनय। (कार्तिक २०) लेखक - आचार्य अभयदेव।
THE ETERNAL MESSAGE OF THE VEDIC RISHIS (vedic vichar )
22-11-2021
Acharya Gyaneshwar ji Arya 1. Enjoying the objects of senses, with a view to quelling sensual desires, is like pouring fuel onto fire thinking that the fire will be extinguished. 2. Only ignorance will make you believe that you can satisfy the senses by enjoying the things of this world. This ignorance is manifested in thoughts like "I will never die." “This body is very pure.” "There is complete and lasting happiness in enjoying the things of this world." “This body is the soul - I am, in essence, this body." 3. Good and bad thoughts do not arise in your mind on their own. It is you who generate them in the mind out of your own free will. The mind is inert like a car engine, incapable of independent motion. You are the conscious driver, directing the engine to move or to stop. 4. In the world, it is seen that people perform good and bad actions and do not experience commensurate fruits immediately. Do not believe that these actions are without fruits. No one can escape the result of good and bad actions, because God, who awards the fruits of all actions committed, is Omnipresent, Omniscient and the Dispenser of Justice. 5. Only in understanding the nature of the world, your own soul and God you can bring to an end all your suffering, fear and depression. The world is made up of matter, the soul is the enjoyer of the world, and God is the Creator of the world. 6. Human birth is given to you only for you to realize God. Realizing God should, therefore, take precedence in all your daily involvements. Giving importance to pursuits other than that of God-realization is the greatest tragedy in life. 7. Real success in life lies in destroying the evil habitual-potencies (sanskaaras) of ignorance that manifest themselves in Lust, anger, greed, infatuation and vanity. This is the most efficient means of becoming free from painful experiences. 8. As long as you are lost in sensual pleasures and fail to understand suffering and its causes, you will never succeed in developing a spirit of detachment. Without detachment, your fickle mind will never be concentrated; without concentration, you will never have Samadhi and without Samadhi, you will never realize God. Without God-realization, the ignorance in you will never be destroyed. Without ignorance destroyed, your suffering will never cease. [Samadhi : absorption in God.] 9. When someone is sunk in ignorance, he sees inert things (like land, house and gold ), and conscious entities (like wife, husband, son, friend) as integral parts of his soul. When these inert and conscious entities increase, the person is happy, and when these entities decrease, he is unhappy. Increase and decrease of material things constantly goes on, and the resultant experience of happiness and unhappiness in an ignorant soul never stops. This is an indisputable truth about ignorant people that we must understand in our effort to be free. 10. Your mind is like iron-filings, and sense-enjoyment is like a magnet. Sense-enjoyments continually attract the mind. A wise man foresees the disaster that results from a life of sense-enjoyments and so, does not get attached. People sunk in ignorance get entangled and are finally ruined. 11. God is a Conscious Entity and He is a virtual Storehouse of great bounties like knowledge, strength and happiness. Such a Supreme One is your Friend from beginningless time. He has never been, nor will ever be, separate from you. We should all, therefore, glorify that Supreme Formless Lord, pray to Him and commune with Him, for He is the Creator and Sustainer of the world, and He protects everyone. “To God alone, worship is due.” (Maharshi Dayananda Saraswati)
Vedic vichar
22-11-2021
"दयानन्द ने यह अनुभव किया था कि देश के समाज को अवरुद्ध करने वाला वर्ग पौराणिकों, पुरोहितों, साम्प्रदायिकों तथा महन्तों का है। यह इतना बड़ा निहित स्वार्थो का वर्ग बन गया है जो अपनी शक्ति में बहुत व्यापक और समर्थ है। सामाजिक जीवन में जितने अन्ध-विश्वास, कुरीतियाँ, नृशंसताएँ और अन्याय फैले हुए हैं उनके पीछे इसी वर्ग का समर्थन है।" ***** यह एक ऐतिहासिक संयोग ही कहा जायेगा कि गौतम संसार के कष्ट, पीड़ा, दुःख-दर्द, जरा-मरण को देख कर इनसे मुक्त होने के उपाय की खोज में घर से निकले और बुद्ध ने अन्ततः पाया व्यक्ति के निर्वाण का मार्ग। पर मूलशंकर घर से निकले थे संसार के बन्धनों से मुक्त होकर शुद्धस्वरूप शिव की खोज में और दयानन्द को मिला दुःखी, संतप्त, हीन भाव से ग्रस्त, अनेक कुरीतियों, पाखण्डों, दुराचारों से पीड़ित, कुंठित, गतिरुद्ध भारतीय समाज। और फिर वे व्यक्तिगत मोक्ष के मार्ग को भूल कर अपने समाज के उद्धार में प्राण-प्रण से लग गये। न कोई गौतम बुद्ध को अपने मार्ग से विचलित कर सका और न स्वामी दयानन्द को ही कर सकता था। दयानन्द की संवेदन-क्षमता के समान उनकी विवेक-बुद्धि बहुत प्रखर थी। उन्होंने भारतीय समाज की यथार्थ स्थिति का जितना मार्मिक अनुभव प्राप्त किया, उतनी ही गहराई से उन्होंने इस समाज के अधःपतन के कारणों का विवेचन-विश्लेषण किया। भारतीय समाज की धारावाहिक परम्परा का बहुत सटीक विश्लेषण उन्होंने किया, और उसके द्वारा वे ठीक निदान भी कर सके हैं। स्मरणीय है दयानन्द स्वामी विरजानन्द के पास पढ़ने के लिए मथुरा जब पहुँचे तो उनकी अवस्था लगभग छत्तीस वर्ष की थी। इस प्रकार चालीस वर्ष की अवस्था तक दयानन्द विभिन्न शास्त्रों, दार्शनिक सिद्धान्तों और आध्यात्मिक साधनाओं के अध्ययन और अभ्यास में लगे रहे थे। अतः एक ओर उनको तत्कालीन भारतीय समाज की यथार्थ स्थिति का सही ज्ञान था, तो दूसरी और भारतीय संस्कृति का उन्होंने मन्थन भी किया था। स्वामी विरजानन्द ने आर्य ग्रन्थों और वैदिक संस्कृति की ओर उनका ध्यान आकर्षित करके उनको दिशा-निर्देश दिया था। अपने परिभ्रमण काल में दयानन्द ने यह अनुभव किया था कि देश के समाज को अवरुद्ध करने वाला वर्ग पौराणिकों, पुरोहितों, साम्प्रदायिकों तथा महन्तों का है। यह इतना बड़ा निहित स्वार्थो का वर्ग बन गया है जो अपनी शक्ति में बहुत व्यापक और समर्थ है। सामाजिक जीवन में जितने अन्ध-विश्वास, कुरीतियाँ, नृशंसताएँ और अन्याय फैले हुए हैं उनके पीछे इसी वर्ग का समर्थन है। उन्होंने इस बीच भारतीय दर्शन, धर्म, अध्यात्म, आचार-शास्त्र, साधना का गहरा अध्ययन और अभ्यास किया था, इसके माध्यम से उन्हें भारतीय संस्कृति की मूल धारा की स्वछन्दता, गतिशीलता और मौलिकता की सही पहचान भी हुई। अपनी संस्कृति के उच्चतम मूल्यों के अनुभव और साक्षात्कार से उनके मन में यह प्रश्न बारबार उमड़ता रहा कि इस महान् संस्कृति के देश और समाज की पतनावस्था का कारण क्या है ? जिस जाति ने जीवन के उच्चतम मूल्यों की उपलब्धि की, व्यक्ति और समाज तथा व्यावहारिक और आध्यात्मिक जीवन के समन्वय तथा सामंजस्य की श्रेयस्कर भूमिकाएँ प्रस्तुत की हैं, सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक क्षेत्रों की सुन्दर व्यवस्थाएं दी हैं, उस जाति की ऐसी दीन-हीन अवस्था का कारण क्या है? ऐसे शक्तिशाली और समर्थ मानस की ऐसी कुंठित, गतिरुद्ध और विवेकहीन अवस्था क्यों हो गई है? स्वामी विरजानन्द ने दयानन्द का ध्यान अनार्ष ग्रन्थों की ओर से हटा कर आर्ष ग्रन्थों की ओर आकर्षित किया। उस प्रज्ञाचक्षु संन्यासी ने यह समझ लिया था कि वैदिक काल के बाद के ब्राह्मण और पुरोहित वर्ग ने स्वार्थवश और शक्ति की प्रतिद्वंद्विता में शुद्ध आर्षग्रन्थों की मनमानी, टीकाएँ और व्याख्याएँ की हैं, अनेक समानान्तर ग्रन्थों की रचना की है। इन संहिताओं, स्मृतियों, उपनिषदों और पुराणों में अपने स्वार्थ-सिद्धि के नियमों और , सिद्धान्तों का समाहार किया। इतना ही नहीं, मनमाने ढंग से आर्ष ग्रन्थों में प्रक्षेप भी किये गये। इसलिए उन्होंने दयानन्द को विदा देते समय यही गुरु-दक्षिणा माँगी कि भारतीय संस्कृति के ऊर्जस्वी स्रोतों का आर्षग्रन्थों में अनुसन्धान करके भारतीय जन-समाज को पुनः आन्दोलित और गतिशील करो। इस दिशा को पाकर दयानन्द ने भारतीय समाज के पुनर्जागरण का जो मार्ग प्रशस्त किया है, और उसके लिए जिन सिद्धान्तों और मूल्यों की विवेचना-स्थापना की है, वे उनकी दिव्य दृष्टि के परिचायक हैं। उन्होंने भारतीय समाज का यथार्थ साक्षात्कार किया, उसकी दीनावस्था के ऐतिहासिक-सांस्कृतिक कारणों का वैज्ञानिक विवेचन किया और अपने युगीन परिवेश के अनुकूल समाज की नई रचना के लिए मार्ग दिखाया। क्योंकि उन्होंने सम्पूर्ण भारतीय समाज से अपना तादात्म्य स्थापित किया था, इस समाज की पहचान उनकी सही थी। उन्होंने पूरी आत्मीय संवेदना के साथ अपने समाज की पीड़ा-व्यथा को ग्रहण किया था, अतः उनमें समाज के प्रति गहरा आन्तरिक भाव था, उसके उद्धार के लिए जीवन भर वे पूरी तन्मयता के साथ लगे रहे। दयानन्द ने बार-बार अनेक अवसरों पर घोषित किया है कि अपने समाज के उत्थान और सेवा कार्य के सम्मुख वे अपने निजी आत्मोद्धार और मोक्ष को कुछ भी महत्त्व नहीं देते। इस कार्य को वे अगले जन्मों के लिए स्थगित कर सकते हैं, पर उनका जीवन पूर्णतः अपने समाज के लिए उत्सर्ग है। उनका जीवन और अन्त में मृत्यु भी इसका प्रमाण है। उनके सामने एक मात्र लक्ष्य था - भारतीय समाज का उत्थान, भारतीय मानस की मुक्ति। ********** स्रोत - स्वामी दयानन्द सरस्वती - व्यक्तित्व, विचार और मूल्यांकन। लेखक - डॉ रघुवंश - (पुनरुत्थान युग का द्रष्टा : दयानन्द।) सम्पादक - डॉ भवानीलाल भारतीय। प्रस्तुति - आर्य रमेश चन्द्र बावा।
Vedic vichar
20-11-2021
एक मित्र ने आज प्रातः: एक सुन्दर प्रश्न पूछा कि हिन्दू समाज को निर्मल बाबा जैसे पाखंडी गुरुओं से बचाने के लिए क्या करना चाहिए? उत्तर भी बड़ा सुन्दर था। हिन्दू समाज वेद को ईश्वरीय वाणी के रूप में सर्वोपरि मानते हुए वेद की आज्ञा का पालन करना चाहिए। इस संसार में सबसे बड़ा और उपासना करने योग्य कौन हैं? जिससे इस जगत का जन्म, स्थिति और प्रलय होता है वह ब्रह्मा है। (ब्रह्म सूत्र 1/1/2) उपनिषद भी उन्हीं ब्रह्मा को उपास्य देव मानते है। अथर्ववेद 10/4/8/16 में ईश्वर को सबसे बड़ा बताते है- मैं उसी को बड़ा मानता हूँ जिससे सूर्य उदय और अस्त होता है। उससे भिन्न अन्य कोई बड़ा नहीं है। स एष पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात् । ( योग दर्शन 1/26) में ईश्वर को गुरुओं का भी गुरु बताया गया हैं क्योंकि ईश्वर जन्म-मृत्यु दोष से मुक्त है। वह परमेश्वर काल द्वारा नष्ट न होने के कारण पूर्व ऋषियों-महर्षियों का भी गुरु है। सारांश- उपासना के योग्य केवल वह ईश्वर है जो सबसे बड़ा है और जो जगत का उत्पत्ति कर्ता, पालनकर्ता और प्रलय कर्ता है। किसी भी मत-प्रवर्तक, पंथ गुरु, मठाधीश में ईश्वर द्वारा मानव कल्याण के लिए किये जाने वाले कार्य करने की क्षमता नहीं हैं। इसलिए कोई भी गुरु कभी भी ईश्वर का स्थान नहीं ले सकता।
वेदों में राष्ट्रवाद (vedic vichar)
20-11-2021
# मा नः स्तेन ईशतः | (यजुर्वेद १/१) भ्रष्ट व चोर लोग हम पर शासन न करें | # वयं तुभ्यं बलिहृतः स्याम | (अथर्व० १२.१.६२) हम सब मातृभूमि के लिए बलिदान देने वाले हों । # यतेमहि स्वराज्ये । (ऋ० ५.६६.६) हम स्वराज्य के लिए सदा यत्न करें । # धन्वना सर्वाः प्रदिशो जयेम | (यजु० २९.३९) हम धनुष अर्थात् युद्ध-सामग्री से सब दिशाओं पर विजय प्राप्त करें । # सासह्याम पृतन्यतः । (ऋ० १.८.४) हमला करने वाले शत्रु को हम पीछे हटा देवें । # माता भूमिः पुत्रो अहं पृथिव्याः । (अथर्व० १२.१.१२) भूमि मेरी माता है और मैं उस मातृभूमि का पुत्र हूंँ । # उप सर्प मातरं भूमिमेताम् । (ऋग्वेद : १०.१८.१०) हे मनुष्य ! तू इस मातृभूमि की सेवा कर । # नमो मात्रे पृथिव्यै नमो मात्रे पृथिव्यै । (यजुर्वेद ९.२२) मातृभूमि को हमारा नमस्कार हो, हमारा बार-बार नमस्कार हो । अथर्ववेद का १२वां सम्पूर्ण काण्ड ही राष्ट्रीय कर्तव्यों का द्योतक है | # ये ग्रामा यदरण्यं या: सभा अधि भूम्याम् । ये संग्रामा: समितयस्तेषु चारु वदेम ते ।। (अथर्ववेद १२.१.५६) हे मातृभूमि ! जो तेरे ग्राम हैं, जो जंगल हैं, जो सभा - समिति (कौन्सिल, पार्लियामेन्ट आदि) अथवा संग्राम-स्थल हैं, हम उन में से किसी भी स्थान पर क्यों न हो सदा तेरे विषय में उत्तम ही विचार तथा भाषण आदि करें | तेरे हित का विचार हमारे मन में सदा बना रहे । # उपस्थास्ते अनमीवा अयक्ष्मा अस्मभ्यं सन्तु पृथिवि प्रसूता: । दीर्घं न आयु: प्रतिबुध्यमाना वयं तुभ्यं बलिहृत: स्याम ॥ (अथर्व० १२.१.६२) हे मातृभूमि ! हम सर्व रोग-रहित और स्वस्थ होकर तेरी सेवा में सदा उपस्थित रहें । तेरे अन्दर उत्पन्न और तैयार किए हुए स्वदेशी पदार्थ ही हमारे उपयोग में सदा आते रहें । हमारी आयु दीर्घ हो । हम ज्ञान-सम्पन्न होकर आवश्यकता पड़ने पर तेरे लिए प्राणों तक की बलि को लाने वाले हों । इससे उत्तम *राष्ट्रीय धर्म* क्या हो सकता है ? राष्ट्र के ऐश्वर्य को भी खूब बढ़ाने का यत्न करने के लिए भी वेद उपदेश देता है । जहाँ ईश्वर से वैयक्तिक, पारिवारिक और सामाजिक कल्याण के लिए प्रार्थना की जाती है, वहाँ प्रत्येक देशभक्त को यह प्रार्थना भी करनी चाहिए, # स नो रास्व राष्ट्रमिन्द्रजूतं तस्य ते रातौ यशस: स्याम । (अथर्ववेद : ६.३९.२) हे ईश्वर ! आप हमें परम ऐश्वर्य सम्पन्न राष्ट्र को प्रदान करें । हम आपके शुभ-दान में सदा यशस्वी होकर रहें । राष्ट्र की उन्नति इन गुणों का धारण , # सत्यं बृहद्दतमुग्रं दीक्षा तपो ब्रह्म यज्ञ: पृथिवीं धारयन्ति । (अथर्ववेद : १२.१.१) सत्य, विस्तृत अथवा विशाल ज्ञान, क्षात्र-बल, ब्रह्मचर्य आदि व्रत, सुख-दु:ख, सर्दी-गर्मी, मान-अपमान आदि द्वन्द्वों को सहन करना, धन और अन्न, स्वार्थ-त्याग, सेवा और परोपकार की भावना ये गुण हैं, जो पृथ्वी को धारण करने वाले हैं । इन सब भावनाओं को एक शब्द 'धर्म' के द्वारा धारित की जाती हैं । ........ संकलन |
ईश्वरोपासना(मूर्तिपूजा) (vedic vichar)
20-11-2021
????व्याख्याता - शास्त्रार्थ-महारथी पं॰ रामचंद्र देहलवी जी प्रस्तुति - ???? ‘अवत्सार’ ????ओ३म् भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवाः भद्रपश्येमाक्षभिर्यजत्राः। स्थिरैरंगैस्तुष्टुवाँ सस्तनुभिर्व्यशेमहि देवहितं यदायुः॥ यजु० २५।२१ स्तुति किसकी करनी चाहिए और क्यों करनी चाहिए, यह प्रश्न आज साधारण जनता के मस्तिष्क में उत्पन्न होता है। केवल इतना ही नहीं इसके साथ अन्य अनेक प्रश्न भी वे करते हैं । किन्तु प्राचीन काल के पुरुष यह शंका नहीं किया करते थे कि स्तुति, प्रार्थना और उपासना किसे कहते हैं और यह क्यों करनी चाहिए। उनका आचार ऊंचा था। आजकल के मनुष्यों में समझ कम और कुतर्क अधिक है, आचार नहीं है। जो परमात्मा को नहीं मानते उनसे तो हमें कुछ भी नहीं कहना है, लेकिन मानने वाले भी कई बार कहते हैं कि जब परमात्मा हमें कर्मों का फल देगा, तो उसकी स्तुति आदि हम क्यों करें ? उसकी स्तुति आदि करना उसकी खुशामद ही तो है । यह भी देखने में आता है कि उपासना करने वाले झूठे और बेईमान हैं तथा उपासना न करने वाले अकसर अच्छे होते है फिर यह भी प्रश्न है कि भगवान नास्तिक क्यों उत्पन्न किये ? इसका भी कारण है। परमात्मा ने इस संसार में जो कुछ किया है, ठीक ही किया है । भगवान को किसी काम से कोई हानि लाभ नहीं । वह पूर्ण है। उसमें किसी भी प्रकार का कोई जोड़ या बाकी नहीं। मनुष्यों को शिक्षा देने के लिए हो उसने यह सब इन्तजाम किया। नास्तिक लोगों को उत्पन्न करने का लाभ यह है कि जो मनुष्य अपने को ईश्वर भक्त कहते हैं, किन्तु इनके कर्म गिरे हुये हैं और नास्तिक का आचरण ऊंचा है, तो फिर ईश्वर को मानने से और स्तुति प्रार्थना और उपासना करने से क्या लाभ ? भगवान के गुणों का कोई प्रदर्शन नहीं होता। जो नाम के उपासक हैं, वे अपने काम से भगवान को नहीं मानते हैं लेकिन जो नाम के उपासक नहीं, वे काम से भगवान को मानते हैं। यह शंका करने वालों ने उन्हें पेश किया। भगवान तो सदा भक्तों का साथी होता है। वह भक्त के वश में सदा से होता आया है। भगवान हमें कर्मों का फल देगा, उपासना का फल देगा। भगवान ने हमें बहुत सी चीजें दी हैं हमें उसको धन्यवाद देना चाहिए । शंका करने वाले कहते हैं कि यह बात तो है, लेकिन इतनी सन्ध्या करने की क्या आवश्यकता है ? नहीं इसका भी फल है । क्या ? मन को दो वृत्तियां होती हैं, अन्तमुख और बहिर्मुख । वृत्तियों का केन्द्र नाभि है । वृत्तियां जितनी भी दूर जाती हैं, उनको कौन रोकता है ? नाभि । जिस प्रकार कोई गधा या घोड़ा एक खूटे में बधी रस्सी से बन्धा हुआ है, वह गधा या घोड़ा उस रस्सी से बाहर नहीं जा सकता । जगत में जहां तक लाभ लेना चाहिए वहां तक हमारी प्रवृत्ति जानी चाहिए, सीमा से बाहर नहीं । अति सब जगह बुरी होती है- "अति सर्वत्र वर्जयेत" जिस प्रकार आचार तो ठीक है यदि उसके साथ अति लगा दें तो अत्याचार हो जाता है। इसलिए जगत में अति किसी काम में नहीं करनी चाहिए और मर्यादा में हो रहना चाहिए। ????ईशावास्यमिदं सर्व यत्किञ्च जगत्यां जगत्। तेन त्यक्तेन भुजीथाः मा गृधः कस्य स्विद्वनम्॥ यजु०४०।१ इस संसार में जो कुछ भी है उसमें परमात्मा बसा हुआ है। इसलिये इस जगत को त्याग-भाव से ही भोगना चाहिए इसमें फंसना नहीं चाहिये और लिप्त नहीं होना चाहिये संसार की ओर खिंचना नहीं चाहिए लेकिन इसका मुकाबला करना चाहिये। लार्ड वेम्ले की माता अपने पुत्र से कहती है कि यदि तुम यह मालूम करना चाहो कि कौन-सा आनन्द ग्राह्य है और कौन-सा त्याज्य है, तो सदा इस नियम को याद रखो कि जो बात तुम्हारी विवेक शक्ति को निर्बल कर दे, तुम्हारी कोमलता को बिगाड़ दे ईश्वर सम्बन्धी विचारों को क्षीण कर दे, जो शरीर के प्रभाव और शक्ति को मन पर चढ़ा दे वह तुम्हारे लिये पाप है। सन्ध्या में भी यही बात है । परमात्मा का चिन्तन करते हुए हम संसार की मर्यादा से बाहर न हो जायें, यही फल सन्ध्या का है। यदि कहें कि तब तो हर समय ही सन्ध्या करते रहना चाहिये, नहीं ऐसा करने से तो अव्यवस्था हो जायेगी । निरन्तर किसी काम के करने में कोई आनन्द नहीं है। यदि हम पेट-भर कर हलवा खा लें, उसके बाद फिर कोई कहे कि हलवा और खा लो तुम्हारी इच्छा हलवा खाने के लिए बिलकुल न होगी । एक विद्यार्थी परीक्षा में पास होने के लिए कितना परिश्रम करता है, लेकिन जब एक बार पास हो गया तो इस बात को सुनकर जो उसे आनन्द हुआ वह प्रतिक्षण घटता चला जाता है। इससे यह पता लगता है कि इष्ट पदार्थ की प्राप्ति में ही आनन्द है। एकाग्रता होने से आनन्द की प्राप्ति होती है। परमात्मा की लहर हममें दौड़ जाती है। परमात्मा आनन्दधन है उसकी शरण में जाने से कोई भी दुःख शेष नहीं रहता। तो क्या बिना सन्ध्या किये परमात्मा हमारे दुःख दूर नहीं कर सकता? ऐसी बात नहीं है। मन में दुःख दूर करने की भावना तो रखनी ही पड़ेगी। यदि आपके मन में न हो तो भला आप अपनी अंगुलियां को फैला कैसे सकते हैं? जब अंगुलियों को फैलाने की बात मन में होगी तभी अंगुलियां फैलेंगी। इसलिए यदि हम सदा परमात्मा का चिन्तन रखेंगे, तो मर्यादा से बाहर नहीं हो सकेंगे। शंका करने वाले कहते हैं कि सन्ध्या एक समय ही पर्याप्त है फिर प्रातः और सायं दो बार सन्ध्या करना क्यों बताया? देखिये आप साफ कुर्ता पहनते हैं, आप यह नहीं चाहते कि वह मैला हो जाये, बहुत सावधानी आप रखते हैं कि आपका कुर्ता साफ हो रहे, किन्तु फिर भी वह मैला हो हो जाता है। इसी प्रकार आप एक बार सन्ध्या करके अपना मन पवित्र बनाते हैं तो फिर उसको पवित्र रखने का प्रयत्न करते रहने से भी उसमें अपवित्रता आ ही जाती है। जब हमारा स्वार्थ दूसरे के स्वार्थ से टकराता है, तब मन में मलिनता का आ जाना भी स्वाभाविक हो जाता है। प्रातःकाल की सन्ध्या से रात के पाप नष्ट होते हैं और सायं काल की सन्ध्या से दिन में किये हुए पाप नष्ट हो जाते हैं । मुसलमानों ने भी पांच बार की नमाज को महत्व दिया है। उनका कुरान कहता है कि अपनी नमाजों की हिफाजत करो और बीच की नमाज की भी हिफाजत करो । बीच की नमाज को विशेष रूप से इसलिए कहा कि इस नमाज का समय दिन के तीसरे पहर ४ बजे का होता है, उस समय सब मनुष्य अपने काम धन्धे में जुटे रहते हैं। कुरान का अभिप्राय यह है कि जब तुम अपने सांसारिक कार्यों में उलझे हुए हो, उस समय भी परमात्मा का चिन्तन करते रहो । हम प्रातः सायं भगवान के गुणों से वंचित न हो जायें इसलिए दोनों समय सन्ध्या करना आवश्यक है। स्तुति का अर्थ प्रशंसा करना है। उस परमात्मा का परिचय प्राप्त करना स्तुति कहलाता है। जब परिचय हो गया तब उसके प्रति प्रेम भी उत्पन्न होगा ।जब हमें यह मालूम होगा कि भगवान ने हमें कैसे अच्छे पदार्थ दिये हैं तभी उसके प्रति हमारा प्रेम उत्पन्न होगा। माता हमें अच्छे पदार्थ देती है। हमारे हित का काम करती है इसलिए हम उससे प्रेम करते हैं । इसी प्रकार भगवान् का गुणानुवाद करके यदि हम उसका नाम लेंगे तभी तो हम रस का स्वाद मिलेगा और परमात्मा के प्रति प्रेम उत्पन्न होता है । आज जनता सूरैया से परिचित है, उसकी स्तुति करती है इसलिए उसके प्रति जनता का प्रेम है। उसके देखने के लिए अपार जन-समूह एकत्र हो जाता है। किन्तु उस भगवान की स्तुति आज जनता नहीं करती, उसकी प्रशंसा में तो यदि घण्टा व्यतीत हो जाये, तब भी कम है। परमात्मा के पास वह कौन सी मशीन लगी है जिससे वह समुद्र के खारे जल को स्वच्छ और मघुर बना देता है, फिर उसे किस सुन्दरता से बरसाता है ? उसे देखने में भी कितना आनन्द आता है। आपके बढ़िया फव्वारे को देखकर भी वह आनन्द प्राप्त नहीं होता। ईश्वर की स्तुति करते हुए हमें मन में यह धारणा बनानी चाहिये कि मैं किस प्रकार उसके इन अमृत पुत्रों को आनन्द पहुंचा सकता हूं? हम परमात्मा के गुणों को अपने अन्दर धारण करें। परमात्मा के गुणों का चिन्तन करते हुए हमें परमात्मा की सोहबत में बैठना चाहिए : शंतान की सोहबत में हम न रहें जो कि दुनियां को सन्मार्ग से भटकाने वाला है। पुलिस सुपरिटेण्डेण्ट सदा ही सोचता है कि मैं अपराधी को किस प्रकार जेल भेजू ? हमें भगवान की सोहबत में रहकर भगवान के गुणों को धारण करना चाहिए । सन्ध्या करने से हम भगवान् की सोहबत में बैठते हैं । देखिये जब कोई सन्ध्या करने बैठता है तब उसके आस-पास के सब मनुष्यों और बाल-बच्चों को भी चुप कर दिया जाता है कि देखो वे सन्ध्या कर रहे हैं ? वे भगवान को सोहबत में बैठे हैं, इस समय चुप रहो। ऐसा न हो कि तुम्हारे शोर मचाने से वे भगवान् की सोहबत में न रह सकें। सन्ध्या का तात्पर्य इसके सिवाय कुछ भी नहीं है कि आप परमात्मा जैसा अपने आपको बनाने का प्रयत्न करें। स्तुति से प्रेम उत्पन्न होने के बाद प्रार्थना की जाती है। उसका प्रकार यह है - ????तेजोऽसि तेजो मयि धेहि, वीर्यमसि वीर्य मयि धेहि । बलमसि बलं मयि धेहि, प्रोजोऽस्योजो मयि घेहि । मन्युरसि मन्यु मयि धेहि, सहोऽसि सहो मयि धेहि । यजु० हे भगवान! आप तेजस्वी हैं, मुझे भी तेज प्रदान करो। आप उत्पादक शक्ति से युक्त हैं, मुझे भी उत्पादन शक्ति प्रदान करो। आप बलवान हैं मुझे भी बल प्रदान करो। आप दुष्टों के दण्ड देने वाले हैं। मुझे भी दुष्टों को दण्ड देने की सामर्थ्य प्रदान करो। आप सबसे बढ़कर सहनशील हैं, मुझे भी सहन शीलता प्रदान करो। प्रार्थना के बाद उपासना करनी चाहिये । उपासना का अर्थ है- निकट बैठना। परमात्मा के गुणों को धारण करके उसके समीप बैठना ही उपासना कहलाता है। जो सच्चा उपासक है वह पहाड़ जैसा बड़े से बड़ा दुःख आने पर भी नहीं घबरायेगा और बड़े से बड़े सुख में भी इतरायेगा नहीं। स्तुति से प्रेम उत्पन्न होता है प्रार्थना से अभिमान का नाश होता है, उत्साह में वृद्धि होती है और सहायता मिलती है । उपासना करने वाले को कोई भी भय नहीं रहता। लोग कहते हैं कि मूर्तिपूजा से क्या हानि है ? मैं पूछता हूं कि क्या मूर्ति कुछ अनुभव करती है ? मैं मूर्ति के विरुद्ध नहीं किन्तु आप तो उस मूर्ति के प्रति चेतनवान व्यवहार करते हैं । आपके पिता जी की मृत्यु हो गई और उनका शव वहां पर पड़ा है आप अपने मृत-पिता के मुख में दवाई डालें, तो क्या उससे उन्हें कुछ लाभ होता है ? राम की मूर्ति आप रखें, फिर राम राम कहते रहें, तो उससे क्या होगा? यदि राम की मूर्ति की देख-देख कर उनके चरित्र को याद करें और तदनुकूल व्यवहार करें, तो कुछ लाभ हो भी सकता है। किसी के चरित्र से कोई लाभ नहीं । हम मूर्ति के सामने बैठ जाते हैं, किन्तु अपने चरित्र को नहीं बनाते । गुजरे हुए महापुरुषों के चित्रों को हम इनके चरित्र के आधार पर ही बनाते हैं, तो फिर उनके चित्र बनाने की आवश्यकता ही नहीं। जब कि चरित्रों के आधार पर ही हम उनके चित्र की भो कल्पना कर सकते हैं, फिर चित्र बनाने की आवश्यकता ही क्या रही? हमने एक पत्थर को खुद ही काट-छांट कर रख दिया और उसका नाम भगवान रख लिया। यह बहुत उचित कैसे हो सकता है? हमें करना तो कुछ और था और हम करने लगे कुछ और - ????बुतपरस्तों का है दस्तूर निराला देखो। खुद तराशा है मगर नाम खुदा रखा है॥ ????व्याख्याता - शास्त्रार्थ-महारथी पं॰ रामचंद्र देहलवी जी प्रस्तुति - ???? ‘अवत्सार’
Vedas and Sati Pratha (vedic vichar )
20-11-2021
Sati Pratha is one among the most favorite topic discussed by Hindu-bashers. There are special groups working on intellectual platform whose duty is to dishonor Hindus as one who oppress Women-hood equality and Rights. Most of these groups belongs to Christian and Islamic institutions. Surprisingly Christian’s refrains from any comment on alive burning of thousands of women on name of witchcraft in Europe for centuries.While Islamic's groups refrains from any comment on their support to ill practices like Female Genitalia mutilation, Polygamy, Triple Talaq and Halala on name of Sharia. On contrary to that they judges an outdated, extinct and almost forgotten ill practice of Sati Pratha on name of Human Rights watching. Origin of Sati Pratha is being attributed to Vedas. This is a big misconception. In reality Sati Pratha is nowhere mentioned in Hindu scriptures. There is no advice of forceful widow burning in Vedas.This confusion was created in middle ages by ignorant commentators of Vedas. Atharvaveda 18.3.1 is mostly quoted as Vedic Mantra which supports Sati Pratha. This mantra is interpreted as Choosing her husband's world, O man, this woman lays herself down beside thy lifeless body. Preserving faithfully the ancient custom. Bestow upon here both wealth and offspring. [Translation by Griffith] In this Mantra the word ‘Choosing her husband's world’ is often interpreted as Wife is advised to join the Dead Husband in afterlife in next world. So she must burn herself in funeral pyre of her husband. The Correct interpretation of this Mantra is This Women have chosen her Husband’s world earlier. Today she is sitting besides your dead body. Now Bestow upon here both wealth and offspring for rest of her life to continue her afterlife in this world. Thus, this mantra speaks about continuation of worldly affairs by Women in this world after her husband’s death. In the very next Mantra of Atharvaveda 18.3.2 the same advise is attested by the authority of the Vedas. It says.. Rise, come unto the world of life, O woman: come, he is lifeless by whose side thou liest. Wife hood with this thy husband was thy portion who took thy hand and wooed thee as a lover. [Translation by Griffith] This Mantra clearly speaks to Women to rise besides the dead body of her husband and start worldly affairs in this living world. Even Vedas speaks of Widow Remarriage for a Widow. Evidence from Rigveda 10:18:8 The Rigveda contains a famous passage mentioning Sati and preventing it. To a widow who is with her husband on his funeral pyre, the text says: rise up, abandon this dead man and re-join the living. This mis-interpretation of Vedic Mantras were done in the middle ages by ignorant class of Priests. The fraud related to interpretation of Rigveda 10.18.7 was exposed by none other than Maxmuller. In this mantra widow women as was advised to go ahead (Agre) in her life rather than go in funeral pyre (Agne means fire) after her husband’s death. The word Agre was mis-interpreted as Agni. Maxmuller condemned this fraud widely. He quotes ,“ This is perhaps the most flagrant instance of what can be done by an unscrupulous priesthood. Here have thousands of life be sacrificed, and a practical rebellion threatened on the authority of a passage which was mangled, mistranslated and misapplied.” In Mahabharata Madri burned herself to death not due to custom of Sati Pratha but due to regret. She felt that it was her who was responsible for death of her husband Pandu. There is no evidence of Women performing Sati Pratha in Mahabharata post war whose husbands were killed in the Great War. Thus it is proved that Vedas never supports Sati Pratha. Its mere a palpable falsification of a Vedic Hymn which forcibly killed thousands of innocent widows. This ill practice prevailed in middle ages only. Vedas advise a widow to return from her Husband’s corpse and live a happy life in her remarriage. First sincere attempt to stop Sati Pratha was taken by Raja Ram Mohan Rai in 1829 with help of British Government. A special law as enacted by the Government against Sati Pratha. This law was not consummated widely by the Society. Even if it was accepted by few it lead to sudden rise in large number of Widow in country. The reason being the institution of widow remarriage was still not in practice. Ishwar Chandra Vidya Sagar started few attempts of remarriage. But wide acceptance of remarriage begin only in early 20th century when Aryasamaj started a crusade movement in support of Widow Remarriage. Swami Dayanand was first eminent in Modern India to support Widow Remarriage.
नियमित स्वाध्याय सब मनुष्यों के जीवन का आवश्यक अंग होना चाहिये
20-11-2021
ओ३म् “नियमित स्वाध्याय सब मनुष्यों के जीवन का आवश्यक अंग होना चाहिये” ========= मनुष्य की आत्मा अनादि, नित्य, अजर, अमर, सूक्ष्म, ससीम, जन्म-मरणधर्मा, कर्म के बन्धनो में बंधी हुई, वेद ज्ञान प्राप्त कर उसके अनुसार कर्म करते हुए मोक्ष को प्राप्त होने वाली एक चेतन सत्ता है। चेतन सत्ता में ज्ञान एवं प्रयत्न गुण होता है। जीवात्मा एकदेशी होने से अल्पज्ञ होता है। इसको सुख व मोक्ष प्राप्ति के लिए ज्ञान की आवश्यकता होती है। ज्ञान प्राप्ति के मुख्य साधन तो माता, पिता व आचार्य होते हैं। इसके साथ ही मनुष्य ईश्वरीय वेद एवं आप्त ऋषियों के ग्रन्थों का स्वाध्याय द्वारा धर्म-अधर्म तथा कर्तव्य व अकर्तव्य सहित अनेक विषयों का ज्ञान प्राप्त कर सकता है। महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश सहित अनेक ग्रन्थों की रचना की है। इन ग्रन्थों में वेद की सत्य मान्यताओं का प्रकाश है। ईश्वर का सत्यस्वरूप तथा उपासना क्यों, किसकी व कैसे करनी चाहिये, इसका बोध भी ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों से होता है। अतः वेद, दर्शन, उपनिषद, मनुस्मृति, रामायण, महाभारत तथा ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों के अध्ययन सहित अन्यान्य वैदिक विद्वानों के ग्रन्थों के अध्ययन से मनुष्य अपने ज्ञान में वृद्धि कर निःशंक वा निभ्र्रान्त हो सकता है। ऐसा करना इस लिये आवश्यक है कि उसे अपने धर्म व कर्तव्य का बोध हो सके और वह अज्ञानी, चतुर, चालाक व स्वार्थी लोगों से धर्म पालन विषय में धोखे व ठगे जाने से बच सके। उसका जीवन सत्य के ग्रहण और असत्य के त्याग का एक उदाहरण बन जाये और वह धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष के मार्ग पर चलता हुआ अपनी आत्मा की उन्नति करने सहित जन्म-जन्मान्तरों में कल्याण को प्राप्त हो सके। स्वाध्याय शब्द ‘स्व’ अर्थात स्वयं का अध्ययन करने के कहते हैं। स्व अर्थात् अपनी आत्मा और शरीर का ज्ञान हमें माता-पिता तथा आचार्य दे सकते हैं। वर्तमान में सभी माता-पिता व आचार्य इतने ज्ञानी नहीं है कि वह अपनी सन्तानों व शिष्यों की इस आवश्यकता की पूर्ति कर सकें। इसके लिये आर्यसमाज का सदस्य बनकर और वहां रविवार को होने वाले सत्संग, वार्षिकोत्सव तथा आर्यसमाजों की सभाओं व संस्थाओं सहित गुरुकुलों में होने वाले उत्सवों में भाग लेकर वहां विद्वानों के उपदेशों को सुनकर तथा विद्वानों से शंका-समाधान करके ईश्वर, आत्मा व धर्म-अधर्म, उपासना, अग्निहोत्र यज्ञ तथा सामाजिक नियमों आदि सभी प्रकार का ज्ञान ग्रहण किया जा सकता है। कुछ विषय जटिल होते हैं जिसके लिये हमें उन विषयों के ग्रन्थों को पढ़ कर समझना होता है। स्वाध्याय में हम वेदों सहित योग्य विद्वानों के ग्रन्थों का अध्ययन कर विद्वान बन सकते हैं और निभ्र्रान्त होकर अपने अन्य बन्धुओं में भी ज्ञान का प्रचार व प्रसार कर सकते हैं। आर्यसमाज के सक्रिय एवं स्वाध्यायशील सदस्यों का धर्म अधर्म तथा कर्तव्य-अकर्तव्य सहित धार्मिक एवं सामाजिक विषयों का ज्ञान अन्य समानधर्मी संस्थाओं से अधिक होता है। इसका कारण यह है कि आर्यसमाज में प्रत्येक सप्ताह विद्वानों के प्रवचनों सुनने को मिलते है और निजी जीवन में वेदादि अनेक ग्रन्थों का नियमित स्वाध्याय किया जाता है। अन्य मतों व संस्थाओं में अपने ही धर्म गुरुओं की पुस्तकों का अध्ययन कराया जाता है। उन ग्रन्थों में लिखी बातों की सत्यासत्य की परीक्षा नहीं की जाती। उनमें जो सत्य व असत्य लिखा है, उसे ही स्मरण करना व मानना होता है। शंका-समाधान को वहां बुरा माना जाता है। इस कारण अन्य मतों के अनुयायी अनेक प्रकार के अज्ञान, अन्धविश्वासों व पाखण्डों से युक्त होते हैं। आर्यसमाज का नियम ही है कि सत्य के ग्रहण और असत्य के त्याग में सर्वदा उद्यत रहना चाहिये। अतः आर्यसमाज में मनुष्य को सत्य ज्ञान प्राप्त करने की सबसे अधिक सुविधा है। ईश्वर का सच्चा व तर्कसंगत स्वरूप केवल वेदों के विद्वान व उनके अनुयायी आर्यसमाज के अनुगामी जिज्ञासु ही जानते, मानते व उसका प्रचार करते हैं। वेद वर्णित अग्निहोत्र-यज्ञ को भी आर्यसमाज के विद्वानों ने ही तर्क और युक्ति की कसौटी पर कसकर अपनाया है व इसका प्रचार भी वह करते हैं। यज्ञ करने वाले मनुष्य को उसके लाभों का स्वयं अनुभव करने व जानने का अवसर मिलता है और वह यज्ञ करके सन्तुष्ट व प्रसन्न देखे गये हैं। स्वाध्याय से मनुष्य अज्ञान से मुक्त होता है व ज्ञानी बनता है। अज्ञान दूर होने से मनुष्य अनाचार अर्थात् सद्कर्मों के आचारण में अरुचि की हानियों को जानकर उनसे भी पृथक होता है। वह सदाचार को अपना साध्य मानकर उसके अनुरूप आचरण करता है। वेद व वैदिक ग्रन्थों के स्वाध्याय से मनुष्य ईश्वर, माता-पिता, आचार्यों सहित देश व समाज का भक्त व हितकारी बनता है। स्वाध्याय मनुष्य को सच्चे ईश्वर का उपासक भी बनाता है। स्वाध्याय करने वाला अपने सभी मित्रों, सम्बन्धियों तथा सामजिक बन्धुओं के प्रति अपने कर्तव्यों को जानकर उनसे सत्य का व्यवहार करता है। इससे समाज में अन्धविश्वास एवं पाखण्ड दूर होने के साथ समाज में किसी प्रकार का भेदभाव व मिथ्या परम्परायें उत्पन्न नहीं होती तथा जो अन्ध-परम्परायें अस्तित्व में होती हैं वह स्वाध्याय से अर्जित ज्ञान व आत्म-चिन्तन की प्रक्रिया से दूर हो जाती हैं। स्वाध्यायशील मनुष्य समाज के सभी लोगों का उनकी सभी समस्याओं के निवारण में मार्गदर्शन कर सकता है। मनुष्य अपने स्वास्थ्य और व्यवसाय की समस्याओं को किस प्रकार से हल कर सकता है, स्वाध्यायशील व्यक्ति इसका भी सुझाव अपने साथियों को दे सकता है। ज्ञान एवं पुरुषार्थ से युक्त मनुष्य कोई भी कार्य करेगा तो उसमें उसको निश्चित रूप से सफलता मिलेगी। अतः स्वाध्याय से अनेक लाभ मनुष्य प्राप्त कर सकता है। जीवन भर स्वाध्याय से जुड़े रहना चाहिये। सभी मनुष्यों को एक निश्चित समय प्रतिदिन, दो-तीन घण्टे या अधिक, स्वाध्याय में लगाने चाहिये। इसके शुभ परिणाम स्वाध्याय करने वाले मनुष्य जीवन में शीघ्र सामने आते हैं। स्वाध्याय क्यों करना चाहिये? स्वाध्याय अज्ञान को दूर करने तथा ज्ञान की प्राप्ति के लिये किया जाता है। स्वाध्याय आत्म-चिन्तन को भी कहते हैं। स्वाध्याय और सन्ध्या में परस्पर समानता है। स्वाध्याय में हम अनेक विषयों का प्रामाणिक अध्ययन पुस्तकों तथा आत्म-चिन्तन व मनन के द्वारा करते हैं। सन्ध्या ईश्वर के ध्यान व चिन्तन-मनन को कहते हैं। स्वामी दयानन्द जी ने सन्ध्या करने की विधि की पुस्तक भी लिखी हैं। इसमें हम आत्मा और परमात्मा विषयों का वेदादि ग्रन्थों के स्वाध्याय सहित विद्वानों के प्रवचनों व उनसे वार्तालाप से ज्ञान प्राप्त करते हैं। इसके अनुरूप ईश्वर के मुख्य नाम ओ३म् तथा गायत्री मन्त्र का जप करते हुए ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना से सम्बन्धित वेदमन्त्रों के अर्थों पर विचार करते हुए ईश्वर के स्वरूप में प्रविष्ट व उसमें स्थिर होने का प्रयास करते हैं। ऐसा करने से आत्मा पर पड़े अज्ञानरूपी मल, विक्षेप व आवरण कटते हैं और आत्मा में ज्ञान का प्रकाश उत्पन्न होता है। अभ्यास करते हुए ईश्वर के ध्यान में अपने मन को स्थिर रखने का प्रयत्न करते हुए मन की एकाग्रता की स्थिति के अनुरूप लाभ होता है। ऐसा करने से ईश्वर का ध्यान व चिन्तन करने मनुष्य को ईश्वर का प्रत्यक्ष हो सकता है। वेद में उपासक ईश्वर की स्तुति व प्रार्थना करते हुए कहता है कि वह महानतम पुरुष ईश्वर को जानता है। वह ईश्वर सूर्य के समान प्रकाशमान है तथा अन्धकार से सर्वथा पृथक व दूर है। उस ईश्वर को जानकर ही हम अपनी मृत्यु से पार मोक्ष सुख को प्राप्त कर सकते हैं। अतः स्वाध्याय से प्राप्त ज्ञान के क्रियात्मक रूप को सन्ध्या कह सकते हैं। स्वाध्याय से हमें जो ज्ञान प्राप्त होता है उसके अनुसार जीवन व्यतीत करना होता है। इस ज्ञान के क्रियात्मक उपयोग वा आचरण को ही सामाजिक नियमों का पालन कहा जाता है। ऐसा करने से मनुष्य की सामाजिक उन्नति होती है। स्वाध्याय के महत्व व लाभ का उदाहरण देना हो तो हम आर्यसमाज के एक सदस्य के रूप में दे सकते हैं। एक व्यक्ति आर्यसमाज जाता है। वहां वह सन्ध्या एवं अग्निहोत्र यज्ञ करता है। भजन सुनता, सामूहिक प्रार्थना सुनता व करता है तथा विद्वानों के प्रवचनों को सुनकर उन पर चिन्तन व मनन करता है। इसके साथ ही वह वहां से सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों को लेकर उनका अध्ययन करता है। सत्यार्थप्रकाश के अध्ययन से उसका अज्ञान दूर हो जाता है। उसके बाद वह उपनिषद, दर्शन, वेद, मनुस्मृति, रामायण, महाभारत आदि ग्रन्थों सहित आर्य विद्वानों के विविध विषयों के ग्रन्थों का अध्ययन करता है। ऐसा करने से उसकी अविद्या दूर हो जाती है। वह ऐसा करके एक अच्छा वक्ता व लेखक भी बन सकता है। यज्ञों व संस्कारों को कराने वाला पुरोहित भी बन जाता है। वर्तमान में वेद, उपनिषद, दर्शन, मनुस्मृति, रामायण, महाभारत आदि सभी ग्रन्थ हिन्दी में अनुदित व टीकाओं सहित मिलते हैं। अतः हिन्दी भाषी लोगों को शास्त्र ज्ञान प्राप्त करने में सबसे अधिक सुविधा है। ऋषि दयानन्द ने ही शास्त्रीय ग्रन्थों का हिन्दी में अनुवाद व भाष्य करने की परम्परा को जन्म दिया है। स्वाध्याय कर मनुष्य धर्म, अर्थ व काम आदि साधनों से मोक्ष की प्राप्ति की पात्रता को प्राप्त कर उसके निकट पहुंच सकता है। यही जीवन का लक्ष्य भी है जिसे मनुष्य मुख्यतः स्वाध्याय से प्राप्त कर सकता है। जीवन के अन्य सभी क्षेत्रों में भी स्वाध्याय से लाभ होता है। अतः हमें स्वाध्याय करने में कभी भी प्रमाद नहीं करना चाहिये। ऋषि दयानन्द ने बताया है कि ज्ञान की प्राप्ति होने पर मनुष्य को असीम सुख वा आनन्द की प्राप्ति होती है। ज्ञान से प्राप्त सुख की तुलना हम अन्य साधनों से प्राप्त सुखों से नहीं कर सकते। हम जो स्वादिष्ट पदार्थों का भक्षण करते हैं, उससे रोग का भय होता है। अनुचित कार्यों से धन कमायेंगे तो सरकारी दण्ड का भय होता है। परमात्मा की व्यवस्था से भी दण्डित होंगे। यदि सच्चाई से धन कमाते हैं तो भी चोरों का भय होता है परन्तु ज्ञान कितना भी अर्जित कर लें, उसे हमसे कोई छीन नहीं सकता। ज्ञान को तो शिष्य बन कर ही प्राप्त किया जा सकता है जिससे गुरु व शिष्य दोनों का कल्याण होता है। अतः स्वाध्याय के द्वारा ज्ञान प्राप्ति का प्रयास सभी स्त्री व पुरुषों को करना चाहिये। इससे स्वाध्याय करने वालों का सर्वविध कल्याण होना सम्भव एवं निश्चित है। ओ३म् शम्। -मनमोहन कुमार आर्य.... Vedic Vichar
वेद में पाप और क्षमा (vedic vichar)
20-11-2021
शंका:- जब ईश्वर पाप को क्षमा नहीं करता तो फिर ये स्तुति व प्रार्थना किस एतबार से ईश्वर करवा रहा है अपने भक्त से क्या ईश्वर भक्तों को भ्रम में रखना चाहता है ? समाधान:- सर्वप्रथम आपने जो अर्थ दिया है इसे पूरा कर लेते हैं ताकि समझने में सरलता हो। अव नो वृजिना शिशीह्यृचा वनेमानृच:। नाब्रह्मा यज्ञ ऋधग्जोषति त्वे।। -ऋग्वेद १०/१०५/८ भावार्थ:- हे प्रभो! आप हमारे पापों को हमारे से दूर करिये। स्तुति के द्वारा अस्तुत्य कर्मों को पराजित करें। स्तुति करते हुए हम ऐसे कर्मों से दूर रहें जो स्तुति के योग्य नहीं हैं। स्तुतिरहित यज्ञ सचमुच तुझे प्रीणित करनेवाला नहीं होता। स्तुतिरहित यज्ञ में यज्ञकर्ता को गर्व हो जाने की आशंका है। ऐसा यज्ञ संगरहित न होने से सात्त्विक नहीं रहता। यज्ञ का अभिमान यज्ञ के उत्कर्ष को समाप्त कर देता है। यज्ञ के साथ स्तुति के होने पर उस यज्ञ को हम प्रभु से होता हुआ अनुभव करते हैं और इस प्रकार हमें यज्ञ का गर्व नहीं होता। उपरोक्त वेद मन्त्र में हम ईश्वर से केवल प्रार्थना कर रहे हैं कि हमारे पापों को हमसे दूर करिये इसका अर्थ यह नहीं कि ईश्वर हमारे पापों को क्षमा कर देगा यदि पाप क्षमा हो जाएं तो ईश्वर न्यायकारी कैसे हुआ? इस तरह तो व्यक्ति पाप करता जाएगा और ईश्वर से क्षमा मांगता जाएगा एवं फिर यह उस व्यक्ति स्वभाव बन जाएगा। वेद मन्त्र को सिर्फ पढ़ने से ही सम्पूर्ण मानव जाति का कल्याण नहीं हो सकता यह तभी सम्भव है जब व्यक्ति उस मन्त्र को समझे एवं तदानुकूल आचरण करे। वेद के मन्त्रों को समझना कोई बच्चों का खेल नहीं इसके लिए गहन अध्ययन करना पड़ता है। उपरोक्त मन्त्र में हमें वेद भगवन् यह सन्देश दे रहे हैं कि हम आपके (ईश्वर) स्तुति द्वारा कुकर्मों को पराजित करें एवं सुकर्म करते हुए सन्मार्ग पर चलें। हमारे भीतर कभी अभिमान का भाव पैदा न हो अन्यथा हमारा भी वही हाल होगा जो अभिमान के कारण रावण का हुआ था। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि हमारे अंदर कभी अभिमान न होवे हम कभी पाप न करें। मनुष्य आत्मनिरीक्षण और आत्म नियंत्रण से शुद्ध और प्रकाशित हो जाता है। ऐसा मनुष्य इतनी शक्ति को प्राप्त करता है कि पापों से दूर हो जाता है। उसके जीवन में एक नई ऊर्जा का संचार होता है, और वह विकास के पथ पर अग्रसित हो जाता है। तू गुरु प्रजेश भी तू है, पाप-पुण्य फलदाता है। तू ही सखा बन्धु मम तू ही, तुझसे ही सब नाता है।। भक्तों को इस भव-बन्धन से, तू ही मुक्त कराता है। तू है अज, अद्वैत, महाप्रभु सर्वकाल का ज्ञाता है।। वेद भगवन् ने तो बहुत सुंदर शब्दों के माध्यम से हमें यह संकेत किया है कि आप (ईश्वर) सदैव हमारे कुकर्मों को छुड़ाकर हमारी सहायता करें एवं हम पाप से बचें रहें- प्राणी जगत का रक्षक, प्रकृष्ट ज्ञान वाला प्रभु हमें पाप से छुडाये। -अथर्व० ४/२३/१ हे सर्वव्यापक प्रभु जैसे मनुष्य नौका द्वारा नदी को पार कर जाते हैं, वैसे ही आप हमें द्वेष रुपी नदी से पार कीजिये। हमारा पाप हमसे पृथक होकर दग्ध हो जाये। -अथर्व० ४/३३/७ हे ज्ञानस्वरूप प्रभु आप हमे अज्ञान को दूर रख पाप को दूर करों। -ऋ० ४/११/६ ओ३म् अग्ने नय सुपथा रायेअस्मान् विश्वानि देव वयुनानि विद्वान्। युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठां ते नम उक्तिं विधेम॥ -ऋग्वेद १/१८९/१ भवार्थः- इस वेदमंत्र में ईश्वर से प्रार्थना की गयी है कि हे ज्योतिर्मय परमेश्वर ! मुझे सुपथ पर ले चलो, मैं सन्मार्ग पर चलते-चलते ही धन और ऐश्वर्य का स्वामी बनूं और मुझे उन्ही मार्गों पर चलाना। ज्ञानी, सिद्ध और आदर्श पुरुष जिस मार्ग पर चलते गए हैं वह मार्ग मुझे भी देना। भक्त पुनः ईश्वर से प्रार्थना करता है कि जो भी मेरे अंदर कुटिलता, कुविचार एवं पाप कर्म हैं उन्हें दूर करने की शक्ति दीजिये, अनेक प्रकार से आपकी स्तुति के गीत की क्षमता मेरे जीवन में बनी रहे। प्रत्येक स्थिति परिस्थिति में मैं आपकी स्तुति कर सकूँ। धन का लालच, संसार की परिस्थितियां मेरी भक्ति में बाधा न बनें। शरीर का रोग, घर की कलह आपकी भक्ति में बाधक न बन जावें अर्थात् अपनी भक्ति के लिए मुझे अवसर देते रहना और मैं आपकी भक्ति के गीत जाता रहूं। अंग्रेजी भाषा में एक मुहावरा हैं कि "Prevention is always better than cure" अर्थात् बचाव ईलाज से हमेशा उत्तम हैं। दुःख, अशान्ति आदि से बचने के लिए एक मात्र उपाय ईश्वर प्रदित मार्ग पर चलते हुए पाप कर्मों से दूर रहना हैं। वेद भगवान का सन्देश अपने जीवन में आत्मसात कर ही ऐसा संभव है, इस प्रकार उन्हें निरुत्तर किया।
वेदों के पांच ऋषि (vedic vichar)
20-11-2021
ऋग्वेद 10/150/ 1-5 मन्त्रों में अग्नि रूप परमेश्वर को सुखप्राप्ति के लिए आवहान करने का विधान बताया गया है। ईश्वर से प्रार्थना करने और यज्ञ में पधारकर मार्गदर्शन करने की प्रार्थना की गई है। धन, संसाधन, बुद्धि, सत्कर्म इच्छित पदार्थों, दिव्या गुणों आदि की प्राप्ति के लिए व्रतों का पालन करने वाले ईश्वर की उपासना का विधान बताया गया है। अग्निदेव रूपी ईश्वर संग्राम में बुलाने पर अत्रि, भरद्वाज, गविष्ठिर, कण्व और त्रसदस्यु इन पांच ऋषियों की रक्षा करते है। आनंदप्राप्ति का कार्य पुरोहित वशिष्ट के माध्यम से गुणों को धारण करने पर होता है। ईश्वर अपनी आदित्य, रूद्र और वसु तीन दिव्यशक्तियों के साथ आकर हमें आन्दित करता हैं। इस सूक्त में आये पांच ऋषि अत्रि, भरद्वाज, गविष्ठिर, कण्व और त्रसदस्यु हैं। अत्रि:- भोजन में संयम रखने वाला अथवा काम, क्रोध, लोभ आदि को अपने अंदर प्रविष्ट नहीं होने देने वाला। भरद्वाज: - अपने अंदर शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक शक्तियों को विकसित करने वाला। गविष्ठिर:- अपनी वाणी पर स्थिर रहने वाला अर्थात वचन को पूरे मनोयोग से पूर्ण करने वाला। कण्व:- कण कण में गति करता हुआ चरम उत्कर्ष पर पहुंचने वाला। त्रसदस्यु- दस्यु/शत्रुओं को दूर करने वाला। ये पांच ईश्वरीय गुणों वाले ऋषि है और अग्नि रूपी ईश्वर की आदित्य, रूद्र और वसु तीन दिव्यशक्तियाँ हैं। वसु 24 वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन करने वाला है और शरीर को स्वस्थ और पूर्णायु तक बसाए रखने की शक्ति रखने वाला है। रूद्र 44 वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए अपने ज्ञान और कर्म से रोगों को दूर करने वाला है। आदित्य 48 वर्ष तक संयम का पालन करने वाला देवता है। इस यज्ञ का पुरोहित वशिष्ठ अर्थात वह जो कुल, समाज और राष्ट्र को बसाता है। किसी को उजाड़ता नहीं है। उसे वशिष्ठ कहते है। इस सूक्त में ऋषियों का अनुकरण करके स्वयं ऋषि गुणों को धारण करने वाले की ईश्वर अपनी दिव्य शक्तियों द्वारा रक्षा करते है। यही ऋषि बनने का साधन है। यही उत्कृष्ट ज्ञान ज्योति को प्राप्त करने का मार्ग है। यही अंतिम ध्येय है। आईये! वेदों को जाने
Vedic Vichar
19-11-2021
Vedic Vichar Berhampur Celebrating Deva Dipavali today. 10.30 onwards..
सामवेद के मंत्र ५८६ में सृष्टिकर्ता परमात्मा से यश की प्रार्थना की गई है।
19-11-2021
वेद विचार ====== सामवेद के मंत्र ५८६ में सृष्टिकर्ता परमात्मा से यश की प्रार्थना की गई है। मंत्र के अनुसार हम इस प्रकार ईश्वर की स्तुति व प्रार्थना करें - हे परम यशस्वी परमात्मन्! आप हमें अत्यधिक प्रशंसनीय, अत्यधिक ओजस्वी, पूर्णता देने वाला अथवा पालन करने वाला यश प्रदान कीजिए, जिस यश को, हम धारण करना चाहें। हे वज्रहस्त के समान यशोबाधक पाप, दुर्व्यसन आदि को चूर-चूर करने वाले! हे सर्वव्यापक! आपने भूमि-आकाश दोनों को अपने यश से पूर्ण किया हुआ है। मंत्र का भावार्थ है कि जैसे परमेश्वर से रचा हुआ सारा ब्रह्माण्ड यशोमय है, वैसे ही हम भी यशस्वी बनें। यशस्वी बनने के लिए हमें ईश्वर के गुण, कर्म और स्वभाव को जानना होगा और उन्हें अपनी क्षमता के अनुसार जीवन में धारण करना होगा। हमें वेद एवं वैदिक साहित्य का स्वाध्याय करने सहित ईश्वर की समर्पित भावनाओं से उपासना करनी चाहिए। -प्रस्तुतकर्ता मनमोहन आर्य
ସ୍ଵାମୀ ଦୟାନନ୍ଦ ମୋର ଗୁରୁ
17-11-2021
“ସ୍ଵାମୀ ଦୟାନନ୍ଦ ମୋର ଗୁରୁ । ମୁଁ ସଂସାରରେ କେବଳ ତାହାଙ୍କୁ ହିଁ ଗୁରୁ ବୋଲି ସ୍ବୀକାର କରିଛି । ସେ ମୋର ଧର୍ମର ପିତା ଓ ଆର୍ଯ୍ୟସମାଜ ମୋର ଧର୍ମର ମାତା । ଏ ଦୁହିଙ୍କ କୋଳରେ ମୁଁ ପାଳିତ ହୋଇଛି । ମୁଁ ଗର୍ବ ଅନୁଭବ କରେ ଯେ ମୋର ଗୁରୁ ସ୍ଵତନ୍ତ୍ର ଭାବରେ ବିଚାର କରିବା, କହିବା ଓ କର୍ତ୍ତବ୍ୟ ପାଳନ କରିବା ପାଇଁ ମୋତେ ଶିକ୍ଷା ଦେଇଛନ୍ତି ଓ ମୋର ମାତା ସଂଘବଦ୍ଧ ଓ ନିୟମାନୁକୁଳ ହେବା ପାଇଁ ମୋତେ ପ୍ରେରଣା ଦେଇଛନ୍ତି ।" #ଲାଲା_ଲଜପତ_ରାୟ ଆର୍ଯ୍ୟସମାଜର ଉଜ୍ଜ୍ୱଳ ରତ୍ନ, ପ୍ରସିଦ୍ଧ ଆର୍ଯ୍ୟ ପ୍ରଚାରକ ତଥା ମହାନ କ୍ରାନ୍ତିକାରୀ ସ୍ୱତନ୍ତ୍ରତା ସଂଗ୍ରାମୀ ଲାଲା ଲଜପତ ରାୟଙ୍କ ବଳିଦାନ ଦିବସ ଅବସରରେ ସେହି ମହାନ ଆତ୍ମାଙ୍କୁ ଶତ ପ୍ରଣାମ I
सामवेद मंत्र ५८३ में परमात्मा क्या करता है, इस विषय का वर्णन है।
16-11-2021
मंत्र में ईश्वर भक्त ईश्वर से प्रार्थनापूर्वक निवेदन करता है - हे प्रिय पवित्रताकारी सोम परमात्मन्! आप निश्चय ही विद्वानों के हितकर कर्म को धारण करते हो। सबसे अधिक देदीप्यमान आप जन्मधारी सदाचारी विद्वान मनुष्यों को सांसारिक दुखों से मुक्ति के लिए अधिकारी घोषित करते हो। मंत्र का भावार्थ है कि परमेश्वर कर्मानुसार फल प्रदान करता हुआ देव पुरुष वा सदाचारी विद्वानों का हित ही सिद्ध करता है। वही मोक्ष के अधिकारी जनों को मोक्ष (आवागमन से रहित ईश्वर के सान्निध्य में ३१ नील १० खरब वर्षों से अधिक अवधि तक अनेक शक्तियां, आनंद व सुख) देकर सत्कृत करता है। अतः हमें परमेश्वर के सत्यस्वरूप को जानकर उसकी स्तुति, प्रार्थना व उपासना करते हुए उसकी वेद विहित आज्ञाओं का पालन करना चाहिए जिससे हम मोक्ष प्राप्त कर सकें। -प्रस्तुतकर्ता मनमोहन आर्य
Was there only one Veda before? Later Ved Vyas ji did four departments of it?
16-11-2021
- Many people who do not study the traditional method of Vedas etc. say that there was only one Vedas before. But this belief is due to the Shrimad Bhagwat Maha Purana in the people, A shloka is found in the Shrimad Bhagwat Maha Purana where it is written that चातुर्होत्रं कर्म शुद्धं प्रजानां वीक्ष्य वैदिकम्। व्यदधाद्यज्ञसन्तत्यै वेदमेकं चतुर्विधम् ।।९९ ऋग्यजुः सामाथर्वाख्या वेदाश्चत्वार उधृताः। इतिहासपुराणं च पंचमो वेद उच्यते।।२०।। (भागवतमहापुरण, प्रथम स्कंध , चतुर्थोsध्याय श्लोक ,९९,१००) Here In the nineteenth verse ( वेदमेकं चतुर्विधम् )Means that four divisions of one Veda were done ! But these verses of Bhagwat Maha Purana are completely against the Vedas and also against other texts. It is written in the Yajurveda itself तस्माद् यज्ञात् सर्वहुत ऋचः सामानि जज्ञिरे। छन्दांसि जज्ञिरे तस्माद् यजुस्तास्मादजायत॥1॥ —यजुः॰ अ॰ 31। मं॰ 7॥ This means that the God Sachidananda generates the Rigveda, Yajurveda, Samaveda and Atharva Veda in the beginning of creation. The same thing is also found in the Atharva Veda that four Vedas were received by humans through God in the beginning of creation. यस्मादृचो अपातक्षन् यजुर्यस्मादपाकषन्। सामानि यस्य लोमान्यथर्वाङ्गिरसो मुखम् स्कम्भं तं ब्रूहि कतमः स्विदेव सः॥2॥ Yajnavalkya ji who has been long before Maharishi Ved Vyas ji. He also says that the Vedas were four from the beginning. That is why it is written in the Yajurveda Brahmin text, that is, in the Shatpath Brahmin एवं वा अरेऽस्य महतो भूतस्य निःश्वसितमेतद्यदृग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्वाङ्गिरसः इत्यादि। श॰ कां॰ 14। अ॰ 5। This means that the all-pervading God has produced the Rigveda, Yajurveda, Samaveda, Atharva Veda etc. There are many such proofs which prove that the Vedas were four from the beginning. Ved Vyas ji has done four divisions of Vedas, this thing is against Veda itself, therefore it is not acceptable Therefore, to have any kind of belief about the Vedas, one should study the Vedas and its branch book, not the Puranas themselves. ©️Nishant Arya
-क्या आपको ज्ञात है कि अग्निहोत्र का आरम्भिक कर्म सायंकाल से होता है।
16-11-2021
अग्निहोत्र रात और दिन में दो बार किया जाता है। दोनों समय का मिलकर एक अग्निहोत्र कर्म होता है। अग्निहोत्र का आरम्भ- आधान कर्म मध्याह्नोत्तर तक समाप्त होता है। तत्पश्चात् अग्निहोत्र का प्राप्त होने वाला काल सायं है। अतः अग्निहोत्र कर्म का आरम्भ सायंकाल से होता है। तत्पश्चात् प्रातः काल उपस्थित होने पर प्रातः कालिक अग्निहोत्र किया जाता है। यजुर्वेद के तृतीय अध्याय में भी पहले सायंकालीन अग्निहोत्र के मन्त्र पढ़े हैं, तदनन्तर प्रातः कालीन अग्निहोत्र के। सायंकाल के आरम्भ करने का कारण- अग्निहोत्र का आरम्भ सायंकाल से क्यों होता है, इस का एक कारण हम पूर्व लिख चुके हैं। इसका दूसरा कारण है-जैसे दिन से पूर्व रात होती है, उसी प्रकार इस सृष्टि-सर्गरूप अह दिन से पूर्व रात्रि-प्रलयकाल होता है। वर्तमानकाल का भूतकाल के साथ नित्य सम्बन्ध है। अतः सर्ग का व्याख्यान करने से पूर्व प्रलयकाल का व्याख्यान आवश्यक होता है, अन्यथा सर्ग-उत्पत्ति का बोध नहीं हो सकता। ऋग्वेद मण्डल १० के नासदीय (१२९ वें) सूक्त में जिसे भाववृत्त (=भाव का वर्तन-सृष्टि की उत्पत्ति) सूक्त कहा जाता है, उस में भी प्रथम मन्त्र में प्रलयावस्था का वर्णन किया है। हमारे मानव धर्म-शास्त्र जिस का सम्बन्ध उत्पन्न हुए मानवों को उनके कर्त्तव्यकर्म का बोध कराने से है, उस का आरम्भ भी आसीदिदं तमोभूतम्' से होता है। इसी दृष्टि से यजुर्वेद में भी अग्निहोत्र का आरम्भ सायंकालीन अग्निहोत्र से किया है। #अग्निहोत्र_नाम_का_कारण- '#अग्निहोत्र' का अर्थ है - अग्नये हूयते अस्मिन् तद् अग्निहोत्रम्- अर्थात- जिस कर्म में अग्नि के लिये होम किया जाता है। यद्यपि अग्निहोत्र कर्म के दो देवता हैं- सायंकालीन कर्म का अग्नि, और प्रातः कालीन कर्म का सूर्य, तथापि इस होमकर्म का आरम्भ सायंकाल से होता है, रात्रि का देवता अग्नि है। मानव रात्रि में अग्नि के सहारे ही कार्य करने में समर्थ होता है, इस कारण उभयकालीन कर्म की संज्ञा अग्निहोत्र रखी गई है। अग्निहोत्र का काल - प्रातः कालीन अग्निहोत्र के काल मानव धर्मशास्त्र में तीन कहे हैं- उदित, अनुदित और समयाध्युषित । यथा ―उदितेऽनुदिते चैव समयाध्युषिते तथा । सर्वथा वर्तते यज्ञ इतीयं वैदिकी श्रुतिः ॥ मनु० १.२५ ॥ उदित काल से अभिप्राय है-जब सूर्य का उदय-दर्शन हो जाये। अनुदित काल वह माना जाता है, जब तक सूर्योदय से पूर्व नक्षत्र दिखाई देते हैं। समयाध्युषित काल वह कहा जाता है, जब नक्षत्रों का दर्शन बन्द हो जाये, और सूर्य का उदय भी न होवे । यथा तथा प्रभातसमये नष्टे नक्षत्रमण्डले रविर्यावन्न दृश्येत समयाध्युषितं हि तत् ॥ उपलब्ध ब्राह्मण ग्रन्थों में उदित और अनुदित दो कालों में ही अग्निहोत्र करने का उल्लेख मिलता है। इस काल विभाग के अनुसार ऋग्वेदी, शुक्ल यजुर्वेदी और सामवेदी अनुदित कालवाले हैं तथा कृष्ण यजुर्वेदी तैत्तिरीय और मैत्रायणीय शाखावाले अनुदित होते हैं। परन्तु न्यायदर्शन २.१.५७ के वात्स्यायन भाष्य में उदिते होतव्यम्, अनुदिते होतव्यम्, समयाध्युषिते होतव्यम् तीनों कालों में अग्निहोत्र के विधायक वचन और यथाविहित समय में अग्निहोत्र न करने के निन्दारूप वचन उद्धृत हैं। इससे स्पष्ट है कि जिन शाखाओं और ब्राह्मणों में समयाध्युषित काल में अग्निहोत्र का विधान था, वे सम्प्रति लुप्त हो गये हैं। प्रातः कालीन अग्निहोत्र के तीन कालों का विधान होने पर भी सायंकालीन अग्निहोत्र सूर्य के अस्त होने पर ही होता है। .... Vedic Vichar Berhampur Odisha
सामवेद मंत्र ५८३ में परमात्मा क्या करता है, इस विषय का वर्णन है।
16-11-2021
मंत्र में ईश्वर भक्त ईश्वर से प्रार्थनापूर्वक निवेदन करता है - हे प्रिय पवित्रताकारी सोम परमात्मन्! आप निश्चय ही विद्वानों के हितकर कर्म को धारण करते हो। सबसे अधिक देदीप्यमान आप जन्मधारी सदाचारी विद्वान मनुष्यों को सांसारिक दुखों से मुक्ति के लिए अधिकारी घोषित करते हो। मंत्र का भावार्थ है कि परमेश्वर कर्मानुसार फल प्रदान करता हुआ देव पुरुष वा सदाचारी विद्वानों का हित ही सिद्ध करता है। वही मोक्ष के अधिकारी जनों को मोक्ष (आवागमन से रहित ईश्वर के सान्निध्य में ३१ नील १० खरब वर्षों से अधिक अवधि तक अनेक शक्तियां, आनंद व सुख) देकर सत्कृत करता है। अतः हमें परमेश्वर के सत्यस्वरूप को जानकर उसकी स्तुति, प्रार्थना व उपासना करते हुए उसकी वेद विहित आज्ञाओं का पालन करना चाहिए जिससे हम मोक्ष प्राप्त कर सकें। -प्रस्तुतकर्ता मनमोहन आर्य
आर्य प्रतिनिधि सभा कानपुर नगर.
15-11-2021
ईश्वर की असीम अनुकंपा से नवशील धाम फेस टू कल्याणपुर कानपुर में तीन दिवसीय पर्यावरण शुद्धि महायज्ञ एवं वेद कथा बहुत ही सकुशल संपन्न हुई कार्यक्रम का मुख्य आकर्षण रहा दो सज्जनों का यज्ञोपवीत संस्कार किया गया प्रतिदिन प्रातः सायं यज्ञ संपन्न किया गया शनिवार सायंकाल युवाओं का सम्मेलन हुआ जिसमें कर्मठ युवाओं को दंड वा ओम ध्वज दे करके उनका उत्साहवर्धन स्वामी जी के हाथों से कराया गया तथा नवशील धाम में आर्य समाज का शिलान्यास स्वामी आर्यवेश जी के हाथों से किया गया कार्यक्रम में पुस्तक स्टाल भी लगा।सत्यार्थ प्रकाश भी भेंट की गई। कार्यक्रम में स्वामी आर्यवेश जी दिल्ली प्रधान सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा युवा संन्यासी स्वामी आदित्यवेश जी रोहतक हरियाणा स्वामी लक्ष्मणानंद जी गुरुकुल एटा भजन उपदेशक कैलाश कर्मठ जी कोलकाता भजनोंपदेशक विनोद दधीचि जी सहारनपुर ढोलक वादक धर्मेंद्र श्री संतोष आर्य प्रधान जिला प्रतिनिधि सभा कानपुर नगर गुरुकुलों के अन्य आचार्य प्रोफेसर पूर्व कमिश्नर तथा अनेकानेक उच्च पदों पर आसीन विभूतियों ने कार्यक्रम की शोभा बढ़ाई कार्यक्रम में सैकड़ों की संख्या में श्रद्धालु जन उपस्थित हुए कार्यक्रम के मुख्य संयोजक श्री सुखबीर शास्त्री पुरोहित एवं धर्माचार्य अंधेरी आर्य समाज मुंबई रहे तथा संचालन व यज्ञ संपन्न कराने का कार्य विनोद कुमार आर्य ने किया मैं उपरोक्त कार्यक्रम की अनंत शुभकामनाएं सभी कार्यकर्ताओं उपस्थित विद्वानों तथा श्रोताओं को देता हूं विनोद कुमार आर्य वैदिक कक्षा संचालक तथा पूर्व मंत्री जिला आर्य प्रतिनिधि सभा कानपुर नगर.
संगठन का उपदेश (vedicvichar )
13-11-2021
सङ्गच्छध्वं सं वदध्वं सं वो मनांसि जानताम् । देवा भागं यथा पूर्वे सञ्जानाना उपासते ॥1॥ -ऋ॰ अ॰ 8। अ॰ 8। व॰ 49। मं॰ 2॥ (सं गच्छध्वं) देखो, परमेश्वर हम सभी के लिये धर्म का उपदेश करता है कि, हे मनुष्य लोगो! जो पक्षपातरहित न्याय सत्याचरण से युक्त धर्म है, तुम लोग उसी को ग्रहण करो, उस से विपरीत कभी मत चलो, किन्तु उसी की प्राप्ति के लिए विरोध को छोड़ के परस्पर सम्मति में रहो, जिस से तुम्हारा उत्तम सुख सब दिन बढ़ता जाय और किसी प्रकार का दुःख न हो (संवदध्वं॰) तुम लोग विरुद्ध वाद को छोड़ के परस्पर अर्थात् आपस में प्रीति के साथ पढ़ना पढ़ाना, प्रश्न उत्तर सहित संवाद करो, जिस से तुम्हारी सत्यविद्या नित्य बढ़ती रहे (सं वो मनांसि जानताम्) तुम लोग अपने यथार्थ ज्ञान को नित्य बढ़ाते रहो, जिस से तुम्हारा मन प्रकाशयुक्त होकर पुरुषार्थ को नित्य बढ़ावे, जिस से तुम लोग ज्ञानी होके नित्य आनन्द में बने रहो और तुम लोगों को धर्म का ही सेवन करना चाहिए, अधर्म का नहीं। (देवा भागं यथा॰) जैसे पक्षपातरहित धर्मात्मा विद्वान् लोग वेदरीति से सत्यधर्म का आचरण करते हैं, उसी प्रकार से तुम भी करो। क्योंकि धर्म का ज्ञान तीन प्रकार से होता है- एक तो धर्मात्मा विद्वानों की शिक्षा, दूसरा आत्मा की शुद्धि तथा सत्य को जानने की इच्छा, और तीसरा परमेश्वर की कही वेदविद्या को जानने से ही मनुष्यों को सत्य असत्य का यथावत् बोध होता है, अन्यथा नहीं॥1॥ ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका से
Vedicvichar
13-11-2021
???? ओ३म् ???? जीवन की सात मर्यादाओं का भंग न करो क्रान्तदर्शी विद्वानों ने व्यक्ति को पाप से बचाने के लिए सात मर्यादाओं का निर्माण किया है उन मर्यादाओं का उल्लंघन किसी को कभी भूलकर भी नहीं करना चाहिए यथा― (१) स्तेय―चोरी न करना, मालिक की दृष्टि बचाकर उसकी वस्तु का अपने लिये उपयोग करना यह साधारण चोरी है। उसकी उपस्थिति में बलपूर्वक छीन लेना 'लूट' कहाता है, जो व्यापारी पूरे पैसे लेकर कम तोलता है, कम नापता है, बढ़िया पैसे माल के लेकर घटिया देता है, वस्तुओं में मिलावट करके बेचता है, पूरा वेतन लेकर कम काम करता है, जो अधिकारी या नौकर घूंस (रिश्वत) लेता है, जो आवश्यकता से अधिक संग्रह करता है वह चोर, डाकू, लुटेरा है। सब प्रकार की चोरी, डाका, लूट से बचना ही अस्तेय है। अर्थात् प्रत्येक प्रकार की शारीरिक , मानसिक चोरी का त्याग अस्तेय है। (२) तल्पारोहण त्याग―किसी भी पराई स्त्री से भोग करना तल्पारोहण कहलाता है। परस्त्री सम्पर्क का दोष दर्शाते हुए नीतिकारों ने कहा है:― बधो बन्धो धनभ्रंशस्तापः शोक कुलक्षयः । आयासः कलहो मृत्युर्लभ्यन्ते पर दारकै ।। भावार्थ― पराई स्त्री से सहवास करने वालों को कतल होना, कैद में पड़ना, धन का नाश, सन्ताप प्राप्ति, शोकाकुलता, कुल का नाश, थकान का आना, कलह और मृत्यु से दो चार होना पड़ता है।अतः इससे बचना बहुत आवश्यक है। मनु महाराज ने भी कहा है― न हीदृशमनायुष्यं लोके किञ्चन विद्यते । यादृशं पुरुषस्येह परदारोपसेवनम् ।। ―(मनु० ४।१३४) अर्थात्― इस संसार में मनुष्य की आयु को क्षीण करनेवाला और कोई वैसा कार्य नहीं है, जैसा दूसरे की स्त्री का सेवन करना, [ अतः इसे सर्वथा त्याग देना चाहिए । ] (३) भ्रूण हत्या का त्याग―अर्थात् गर्भपात से बचना अथवा अण्डे, माँस, आदि का न खाना, किसी कवि का वचन है― पेट भर सकती हैं तेरा जब सिर्फ दो रोटियाँ । किस लिये फिर ढूंढता है बे-जुबां की बोटियां ।। गर हिरस है तो हिरस का पेट भर सकता नहीं । दुनिया का सब कुछ मिले तो तृप्त कर सकता नहीं। (४) मादक वस्तुओं का त्याग―सुरापान, भंग, चरस, अफीम,तम्बाकू, बीड़ी,सिगरेट आदि बुद्धिनाशक वस्तुओं का त्याग, नशीली वस्तुओं का प्रयोग बड़ा हानिकारक है। क्योंकि नशीले पदार्थों के सेवन से बुद्धि विकृत होकर चित्त में भ्रान्ति हो जाती है, चित्त के भ्रान्त होने पर मनुष्य पाप करता है, पाप करके दुर्गति को प्राप्त होता है। (५) दुष्कृत कर्मों का त्याग:―बुरे कर्मों की बार-बार जीवन में आवृत्ति नहीं करनी चाहिए, बुरे कर्मों से सदा बचना चाहिए,― भलाई कर चलो जग में तुम्हारा भी भला होगा । तुम्हारे कर्म का लेखा किसी दिन बरमला होगा । (६) ब्रह्महत्या से बचना:―अर्थात् भक्ति का त्याग न करना, भक्ति तीन प्रकार की होती है―जाति भक्ति, देश भक्ति,प्रभु भक्ति अथवा किसी ईश्वरभक्त, वेदपाठी सदाचारी विद्वान् की हत्या न करना या उसे किसी प्रकार से कष्ट न पहुँचाना। (७) पाप करके उसे न छिपाना―पाप छिपाने से बढ़ता और प्रकट करने से घटता है। इसलिये बुद्धिमान को पाप करके छिपाना नहीं चाहिए। जो उपरोक्त मर्यादाओं का पालन करता है वही श्रेष्ठ पुरुष है। उस पर पाप का कभी भी आक्रमण नहीं होता, वह सदा सुख की और अग्रसर होता है। वेद का सन्देश इस प्रकार है– स॒प्त म॒र्यादा॑: क॒वय॑स्ततक्षु॒स्तासा॒मेका॒मिद॒भ्यं॑हु॒रो गा॑त् । आ॒योर्ह॑ स्क॒म्भ उ॑प॒मस्य॑ नी॒ळे प॒थां वि॑स॒र्गे ध॒रुणे॑षु तस्थौ ॥ - ऋग्वेद १०.५.६ भावार्थ― क्रान्तदर्शी विद्वानों ने सात मर्यादाएं बनाई हैं उनमें से एक को भी जो तोड़ता है वह पापी है। निश्चय से दीर्घायु की इच्छा वाले जितेन्द्रिय उत्पादक ईश्वर के आश्रय में रहते हुए और कुमार्गों का त्याग करके उत्तम लोकों को प्राप्त करते हैं उत्तम गति पाते हैं। [ साभार: "अनुपम उपदेश रत्नावली" से, प्रस्तुतकर्ता: भूपेश आर्य ]
Vedicvichar
13-11-2021
(तेजोऽसि॰) अर्थात् हे परमेश्वर! आप प्रकाशरूप हैं, मेरे हृदय में भी कृपा से विज्ञानरूप प्रकाश कीजिए। (वीर्यमसि॰) हे जगदीश्वर! आप अनन्त पराक्रम वाले हैं, मुझ को भी पूर्ण पराक्रम दीजिए। (बलमसि॰) हे अनन्त बलवाले महेश्वर! आप अपने अनुग्रह से मुझ को भी शरीर और आत्मा में पूर्ण बल दीजिए। (ओजो॰) हे सर्वशक्तिमन्! आप सब सामर्थ्य के निवासस्थान हैं, अपनी करुणा से यथोचित सामर्थ्य का निवासस्थान मुझ को भी कीजिये। (मन्युरसि॰) हे दुष्टों पर क्रोध करनेहारे! आप दुष्ट कामों और दुष्ट जीवों पर क्रोध करने का स्वभाव मुझ में भी रखिये। (सहोऽसि॰) हे सब के सहन करनेहारे ईश्वर! आप जैसे पृथिवी आदि लोकों के धारण और नास्तिकों के दुष्टव्यवहारों को सहते हैं, वैसे ही सुख, दुःख, हानि, लाभ, सरदी, गरमी, भूख, प्यास और युद्ध आदि का सहने वाला मुझ को भी कीजिये अर्थात् सब शुभ गुण मुझ को देके अशुभ गुणों से सदा अलग रखिये॥1॥ ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका से।
मनुर्भव (मनुष्य बनो) (vedicvichar)
13-11-2021
वेद कहता है कि तू मनुष्य बन। जब कोई जैसा बन जाता है तो वैसा ही दूसरे को बना सकता है। जलता हुआ दीपक ही बुझे हुए दीपक को जला सकता है। बुझा हुआ दीपक भला बुझे हुए दीपक को क्या जलाएगा? मनुष्य का कर्त्तव्य है कि स्वयं मनुष्य बने और दूसरों को मनुष्यत्व की प्रेरणा दे। स्वयं अच्छा बने और दूसरों को अच्छा बनाए। यदि मनुष्य स्वयं तो अच्छा बनता है, परन्तु दूसरों को अच्छा नहीं बनाता तो उसकी साधना अधूरी हो जाती है। यदि स्वयं तो अच्छा है, परन्तु अपनी सन्तान को अच्छा नहीं बनाता तो वह अपने लक्ष्य में आधा सफल होता है। वास्तव में मानव की मानवता ही उसका आभूषण है। वेद, मनुष्य को उपदेश देता है कि तू मनुष्य बन। कोई कहता है मुसलमान बन, कोई कहता है तू ईसाई बन। कोई कहता है तू बौद्ध बन, परन्तु वेद कहता है तू मनुष्य बन। यह और इस जैसी विशेषताएँ वेद के आसन को अन्य धर्मग्रन्थों के आसन से बहुत ऊँचा उठा देती है। वेद का उपदेश संकीर्णता और संकुचितता से परे है। वेद का उपदेश सभी स्थानों, सभी कालों और सभी मनुष्यों पर समान रुप से लागू होता है।. जब संसार में यह वेदोपदेश चरितार्थ था तब संसार में मानव वस्तुतः मानव था। मानवता का भेद करने वाले कारण उपस्थित नहीं थे। संसार में जितने जलचर, नभचर और भूचर प्राणी हैं, उनमें से सर्वश्रेष्ठ प्राणी मनुष्य की शरीर–रचना, अन्य प्राणियों से अति श्रेष्ठ है। उसे बुद्धि से विभूषित करके परमात्मा ने चार चाँद लगा दिये। शतपथ ब्राह्मणकार ने बहुत ही सुन्दर कहा है― *पुरुषो वै प्रजापतेर्नेदिष्ठम्।* *अर्थात्―*प्राणियों में से मनुष्य परमेश्वर के निकटतम है। अन्य कोई प्राणी परमेश्वर की इतनी निकटता को प्राप्त किये हुए नहीं है जितनी कि मनुष्य। यदि मानव अपनी मानवता को पहचानता रहे तो वह मनुष्य है, अन्यथा उसमें पशुत्व उभरकर उसे पशु बना देता है। संस्कृत के एक कवि ने कहा है― *खादते मोदते नित्यं शुनकः शूकरः खरः।* *तेषामेषां को विशेषो वृत्तिर्येषां तु तादृशी।।* _कुत्ते, सूअर और गधे आदि भी खाते–पीते और खेलते–कूदते हैं। यदि मनुष्य भी केवल इन्हीं बातों से अपने जीवन की सार्थकता मानता है तो फिर उसमें और पशु में अन्तर ही क्या है?_ कवि तो केवल खाने–पीने और खेलने–कूदने तक ही कहकर रह गया, परन्तु ऐसे भी मनुष्य हैं जिनमें और पशुओं में कोई अन्तर नहीं है। मूर्खता में कई व्यक्ति गधे के समान होते हैं। बस्तियाँ उजाड़ने वाले मनुष्य उल्लुओं से भी अधिक भयंकर होते हैं। कड़वी और तीखी बातें कहनेवाले ततैयों से भी अधिक पीड़क होते हैं। व्यसनी व्यक्ति जो दूसरों को भयंकर व्यसनों का शिकार बना लेते हैं, साँपों और बिच्छुओं से भी अधिक भयंकर होते हैं, क्योंकि उनके व्यसन व्यक्ति को जीवन–पर्यन्त पीड़ित करते रहते हैं। क्रोधी और निर्बलों को दबाने वाले व्यक्ति भेड़िये के समान होते हैं। परस्पर लड़ने वालों में कुत्ते की मनोवृत्ति पाई जाती है। अभिमानी व्यक्तियों में गरुड़ की मनोवृत्ति प्रधान है। लोभी व्यक्ति गीध के समान होते हैं। शब्द–रस में फँसे हुए प्राणी हिरण के समान, स्पर्श–सुख के वशीभूत मनुष्य हाथी के समान, रुपरस के शिकार मनुष्य पतंगे के समान, गन्धरस के शिकार भँवरे के समान, स्वाद के वशीभूत प्राणी मछली के समान होते हैं। कायर व्यक्ति को भेड़ और गीदड़ की उपमा दी जाती है। हरिचुग व्यक्तियों को गिरगिट के तुल्य ठहराया जाता है। ये पशुवृत्तियाँ केवल अपठित और अर्द्धशिक्षित व्यक्तियों में ही नहीं पायी जातीं, अपितु पढ़े–लिखे और शिक्षित–प्रशिक्षित भी इनका शिकार हैं। बी० ए०, एम० ए० भी ईर्ष्या और द्वेष की दलदल में फँसे हुए हैं। शास्त्री और आचार्य भी संकीर्णता और संकुचितता के रोगों से ग्रसित हैं। पढ़े–लिखे भी दूसरों को धोखा देते हैं। वे भी छल–कपट करते हुए झिझकते नहीं हैं। शिक्षा भूषण के स्थान पर दूषण बन गई है। मनुष्य, शिक्षा प्राप्त करने से ही मनुष्य बन जाए, यह कोई आवश्यक नहीं है। मनुष्यत्व तो एक साधना है। यह कुछ वर्षों की साधना नहीं, अपितु जीवनभर की साधना है। मनुष्यत्व की प्राप्ति के लिए मनुष्य को जागरुक रहना पड़ता है, आत्मनिरीक्षण करना पड़ता है। तभी मनुष्य मनुष्यत्व का अधिकारी बनता है। ऊँचे मनुष्यों का संसार में मिलना बहुत कठिन है― रुसो ने कहा है―"हमारा मनुष्य बनना हमारी सबसे पहली पढ़ाई है।" मुंशी प्रेमचन्द के शब्दों में,"मनुष्य बहुत होते हों, पर मनुष्यता विरले में ही होती
Sum-total of Maharshi Dayananda’s teachings (vedicvichar)
13-11-2021
- Munshi Rama Jijnasu (later on known Swami Shraddhananda) Because Dayananda was a true Brahmachary, therefore he was a Rishi (ऋषि), a seer. In his waking hours he preached a hundred and one truths by word of mouth, but there was one truth which he practically preached day and night, in his waking hours and in profound sleep, sitting, walking, speaking, in all his activities and in all his ascetic practices— the truth of Divine Brahmacharya. “There is no purity without Brahmacharya and divorced from the purity of body and mind, there is no salvation," that was the sum-total of Dayananda’s teachings. [Source: Foreword to Prof. Tarachand Gajra's book "The Life of Swami Dayanand Saraswati," p. iii, 1st edn, 1915, Lahore. Presented here by: Bhavesh Merja]
Greatness of Swami Dayananda Saraswati (vedicvichar)
13-11-2021
√ Swami did what he said, and he said what he felt √ Swami was as blunt in expressing his opinion as he was honest in forming it √ Swami blurted out the truth in its naked form ---------------------------- - L. Dwarkadas M.A. Swami Dayanand Saraswati was a man of very earnest convictions, and his faith in the future of the Hindu face was so large that he never allowed the faintest shadow of a doubt to cross his mind in this respect. His optimism was entirely due to his unshaken belief in the Divine origin of the Vedas. So firmly persuaded was he of the truth of this doctrine that he gave it the first place in his system and looked upon it as the very rock upon which his whole creed was broad-based. His other beliefs were all grouped round this central fact, and they received all their colour and shape from it. The Vedas were to this Archimedes, the lever with which he proposed to lift the Hindus out of the rut of their degeneration, and he had not the least doubt that it was a lever of the right sort. His whole nature was so strongly suffused with the enthusiasm born of this belief that with this as his only weapon, he was willing to fight out the whole religious world single-handed. Swami Dayanand was greatly aided in his work of reform by the life of celibacy and renunciation which he undertook to live when he was hardly out of his teens. It was a purely providential act that determined him to cut off, very early, all his connection with his family and relations. His love for his fellow-beings was too wide and too deep to be satisfied with the scope which the narrow affairs of a small family afforded it. His broad heart took, in its sweep, the whole of mankind, and it was only fit that he should look at them from an entirely disinterested point of view. No personal interests tied him down to any particular line of conduct or opinion, and no bias, arising out of personal relations with others, ever interfered with the free exercise of his unfettered judgment. He did what he said, and he said what he felt. It was not necessary for him to shape and express his opinions in accordance with the wishes or the idiosyncrasies of any person or class of persons. He was perfectly free to form whatever opinions he thought were true and to express them as he realised them. This gave him an independence which formed such a conspicuous part of his character on all occasions. There was no earthly power or consideration, which could either induce or coerce him to swerve, in the least degree, from what he thought to be the truth and its straight course. He stood firm by it like a veritable rock, and the waves of the ocean beat against it in vain. The dictates of what passes as mere policy had no recommendation for him, and he set his face against them as something inconsistent with straightforwardness. He was as blunt in expressing his opinion as he was honest in forming it. He hated shilly-shallying as a mean trick, and his mind was too magnanimous to stoop down to the devices of the cunning. He blurted out the truth in its naked form and he did not care to study whether it was dressed up to suit the tastes of his hearers or not. His standpoint, for this reason, was so much above that of the people, that he spoke to them irrespective of what pleased their sophisticated palates. I would not be true to Swami Dayanand, if I ended without mentioning another and a more important piece of his work. He not only delivered lectures and founded Arya Samajes in various places to continue the work he started, but he has also left behind him a number of writings, some of them of very high merit. The most monumental among them is his translation of the Rig and the Yajur Vedas, to which he devoted a good deal of scholarship and research. It is, by itself, sufficient to place his learning on a par with that of the most learned Rishis who ever lived in this land of sages. Among Sanskrit Pandits, it is regarded as one of the highest flights of scholarship for one to be able to read and understand the Vedas. Swami Dayanand was not only fully acquainted with every text of these most difficult works, but he handled them with an ease and insight which were among the most surprising of his accomplishments. [Source: Swami Dayananda Saraswati, pp. 26-28, Arya Samaj Calicut, 1924, Presented here by: Bhavesh Merja]
तीर्थ (vedicvichar)
12-11-2021
✍???? लेखक - स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी ???? प्रश्न-तीर्थस्नान से पाप का नाश और पुण्य की उत्पत्ति अथवा आत्मा की शुद्धि होती है वा नहीं? ???? उत्तर-पाप का नाश पुण्य की उत्पत्ति और आत्मा की शुद्धि का विचार तो पीछे करेंगे, प्रथम तीर्थ क्या है यही सोचना चाहिए। ???? प्रश्न-गंगादि जो अनेक पवित्र स्थान हैं वही तीर्थ हैं, इसको तो सब लोग जानते हैं। इसमें सोचने की कौन सी गुह्य बात है? ???? उत्तर-इतना तो ठीक है, साधारण लोग गङ्गादि स्थानों को तीर्थ कहते हैं, किन्तु सोचने की बात यह है, कि ये स्थान वास्तव में तीर्थ हैं वा नहीं? और धर्म-पुस्तकों में इनको तीर्थ लिखा भी है वो नहीं ? ???? प्रश्न-क्या लोग बिना लिखे ही कहते हैं ? पुराणों में, महाभारत में तीर्थों का वर्णन है। वेद में तीर्थ शब्द आता है, अतः यह निर्विवाद विषय है। इस पर सोचने की आवश्यकता नहीं है। हाँ पाप-नाश और पुण्य उत्पत्ति की बात कहो। ???? उत्तर-वह भी कहेंगे, किन्तु प्रथम तो तीर्थ ही चिन्तनीय है, क्योंकि तीर्थ शब्द के अर्थ हैं, जिसके द्वारा लोग तर जाएं। क्या गंगादि स्नान से वा गंगा से ही लोग तर जाते हैं ? देखा तो यह जाता है, यदि किसी को तैरना न आता हो, वह किसी समय गंगा के गहरे जल में पड़ जाए तो डूब जाता है। और गंगास्नान से भी पाप का नाश और पुण्य की उत्पत्ति प्रतीत नहीं होती। इसलिए न तो यह तीर्थ है और न ही गंगा आदि स्नान से पाप का नाश और पुण्य की उत्पत्ति होती है। इसी कारण मनुस्मृति में मनु जी ने साफ लिखा है। ???? अद्भिर्गात्राणि शुध्यन्ति मनः सत्येन शुध्यति। विद्यातपोभ्यां भूतात्मा बुद्धिर्ज्ञानेन शुध्यति । -मनु ५।१०९ जल के स्नान से शरीर शुद्ध होता है, मन सत्य बोलने, सत्य व्यवहार से शुद्ध होता है, विद्या और तप से आत्मा शुद्ध होता है बुद्धि यथार्थ ज्ञान से शुद्ध होती है। मनु जी ने इस श्लोक में स्नान से शरीर के बाह्य अवयवों की शुद्धि लिखी है, आत्मा की शुद्धि के कारण विद्या और तप ही बताये हैं। आप गंगादि स्नान से आत्मा की शुद्धि कहते हैं, सो बात ठीक नहीं है। जो मनुस्मृति में लिखा है, वही युक्तियुक्त और ठीक है। आपने कहा था कि महाभारत में तीर्थ का वर्णन है सो महाभारत में ऐसा लेख है, जब महाभारत युद्ध समाप्त हो गया, भीष्मपितामह जी शरशय्या पर विराजमान थे। उस समय श्री कृष्ण जी की सम्मति से पाण्डव उनकी सेवा में गये, वहाँ जाकर युधिष्ठिर जी ने भीष्मपितामह जी से अनेक विषयों के प्रश्न पूछे थे, उन प्रश्नों के भीष्मपितामह जी ने जो उत्तर दिये थे, वह महाभारत के अनुशासन पर्व में लिखे हुए हैं। वहाँ तीर्थ विषयक भी एक प्रश्न का उस समय भीष्म जी ने जो उत्तर दिया था, उसमें से कुछ श्लोक यहाँ लिखते हैं, जिससे महाभारत में तीर्थ विषयक सिद्धान्त का पता लग जाएगा। युधिष्ठिर उवाच ???? यद्वरं सर्वतीर्थानां तन्मे ब्रूहि पितामह। यत्र चैव परं शौचं तन्मे व्याख्यातुमर्हसि॥१॥ युधिष्ठिर जी ने कहा-हे पितामह सब तीर्थों में जो श्रेष्ठ है और जो उत्तम शौच, अर्थात् पवित्रता होती है, वह आप मुझे बतलायें। भीष्म उवाच- ???? सर्वाणि खलु तीर्थानि गुणवन्ति मनीषिणाम्। यत्तु तीर्थं च शौचं च तन्मे शृणु समाहितः ॥ २ ॥ सब तीर्थ मनीषियों के लिए गुणवान् हैं, उनमें जो पवित्र तीर्थ है। वह समाहित होकर सुन। ???? अगाधे विमले शुद्धे सत्यतोये धृतिहदे। स्नातव्यं मानसे तीर्थे सत्यमाश्रित्य शाश्वतम् ॥ ३॥ ???? तीर्थं शौचमनर्थित्वमार्जवं सत्त्वमार्दवम्। अहिंसा सर्वभूतानामानृशंस्यं दमः शमः ॥ ४॥ ???? निर्ममा निरहङ्कारा निर्द्वन्द्वा निष्परिग्रहा। शुचयस्तीर्थभूतास्ते ये भैक्ष्यमुपभुञ्जते ॥ ५ ॥ गम्भीर, दोषरहित, पवित्र सत्यरूपी जल और धैर्य रूपी तालाब युक्त मानस तीर्थ में शाश्वत सत्य का अवलम्बन करके स्नान करना चाहिए। (अनर्थत्वं) किसी को अर्थी न होना, (आर्जवं) सरलता, (मार्दवं) नरमचित्त, सब जीवों की अहिंसा, अनृशंसता और शम (मन को वश में रखना) दम (इन्द्रिय दमन करना) ही पवित्र तीर्थ हैं। जो लोग ममतारहित, निरहंकारी, अर्थात् अहंकार शून्य, सुख, दु:ख, शीत, आतप आदि द्वन्द्व सहन करनेवाले और निष्परिग्रह, अर्थात् संग्रह रहित, दानादि के लालच से रहित हैं और जो लोग भिक्षा धन से जीवन व्यतीत करनेवाले संन्यासी हैं, वे ही पवित्र तीर्थरूप हैं। इस प्रकरण में भीष्म जी ने आपके कहे गंगादि स्नान को कहीं तीर्थ नहीं बताया है। उसके विपरीत सत्य, धैर्घ्य, निर्लोभतो, सरलता, नम्र चित्त, अहिंसा, दया, शम, दम, ममतारहित, अहंकार वर्जित, द्वन्द्वों के सहन करनेवाले तपस्वी और भिक्षा से निर्वाह करनेवालों को ही तीर्थ बताया है। इससे सिद्ध है कि वास्तव में यही सच्चे तीर्थ हैं। जो मनुष्य को पवित्र करनेवाले हैं, यही वे तीर्थ हैं, जिनके सेवन से मनुष्य संसार-सागर से तर जाता है, गंगादि तीर्थ तो स्वार्थी लोगों ने साधारण प्रजा को ठगने के लिए बना लिये हैं और ये गंगादि तीर्थ तारनेवाले तो किसी अवस्था में भी नहीं होते हैं। उसी प्रकरण में स्नान के विषय में भी भीष्म जी ने कहा है। यथा- ???? नोदकक्लिन्नगात्रस्तु स्नात इत्यभिधीयते। स स्नातो यो दमस्नातः स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः॥ ???? मनसा च प्रदीप्तेन ब्रह्मज्ञानजलेन च। स्नाति यो मानसे तीर्थे तत्स्नानं तत्त्वदर्शिनाम्॥ (महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय १०८) जल से स्नान करनेवाले मनुष्य को स्नान (स्नान किया हुआ) नहीं कहते हैं। जो लोग दमस्नात हैं उन्हीं ने स्नान किया है और वे ही बाहर तथा भीतर पवित्र होते हैं। ज्ञान से निर्मल किये हुए मन और ब्रह्म ज्ञान के जल के सहारे जो लोग मानस तीर्थ में स्नान करते हैं, उनका नहाना ही स्नान है। तत्त्वदर्शियों को ऐसा ही स्नान अभिमत है। यहाँ भीष्मपितामह जी ने जल स्नान से आत्मशुद्धि का सर्वथा ही निषेध किया है, अतः जलादि के स्नान से मनु जी के लिखे अनुसार केवल शरीर की शुद्धि होती है। आत्मशुद्धि के लिए जल स्नान का कोई प्रयोजन नहीं है। ???? प्रश्न-यदि महाभारत में इस प्रकार निषेध है तो लोग गंगादि तीर्थों में स्नान करने क्यों आते हैं ? और पण्डे तीर्थों पर रहते हैं और वे बाहर जाकर तीर्थों का प्रचार भी करते हैं। क्या वे महाभारत नहीं पढ़े हैं? ???? उत्तर-महाभारत तो वे पढ़े हैं, परन्तु उन्हें तीर्थ स्नान करनेवालों को तीर्थ का माहात्म्य बताकर बहकाना है और उनका धनहरण करके अपनी जीविका चलानी है। और इसलिए वे तो स्वार्थी हैं, उनका कथन प्रमाण नहीं है। ???? प्रश्न-किसी आचार्य्य ने तीर्थ विषयक कुछ लिखा है ? ???? उत्तर-हाँ लिखा है। ???? प्रश्न-वह बतलाओ, क्या लिखा है? ???? उत्तर-महर्षि दयानन्द जी ने सत्यार्थप्रकाश में तीर्थ विषयक निम्न पाठ लिखा है-और ये तीर्थ (प्रथम भारतवर्ष में) नहीं थे, जब जैनियों ने गिरनार, पालिटाना शिखर शत्रुञ्जय और आबू आदि तीर्थ बनाये। उनके अनुकूल इन लोगों ने भी बना लिये। जो कोई इनके आरम्भ की परीक्षा करना चाहे, वे पण्डों की पुरानी से पुरानी बही और तांबे के पत्र आदि लेख देखें तो निश्चय हो जाएगा कि ये सब तीर्थ पांच सौ अथवा एक सहस्र वर्ष से इधर ही बने हैं, सहस्र वर्ष से उधर का लेख किसी के पास नहीं निकलता, इससे आधुनिक हैं। ???? प्रश्न-जो जो तीर्थ का माहात्म्य, अर्थात् ???? 'अन्यक्षेत्रे कृतं पापं काशीक्षेत्रे विनश्यति।' इत्यादि बातें हैं, वे सच्ची हैं वो नहीं ? ???? उत्तर-नहीं, क्योंकि यदि पाप छूट जाते हों तो दरिद्रों को धन, राजपाट, अन्धों को आँखें मिल जातीं, कोढ़ियों का कोढ़ आदि रोग छूट जाता, ऐसा नहीं होता, इसलिए पाप वा पुण्य किसी का नहीं छूटता।। ???? प्रश्न-???? गङ्गा गङ्गेति यो ब्रूयाद् योजनानां शतैरपि। मुच्यते सर्वपापेभ्यो विष्णुलोकं स गच्छति॥ जो सैकड़ों सहस्रों कोस दूर से भी गंगा-गंगा कहे तो उसके पाप नष्ट हो कर वह विष्णु लोक, अर्थात् वैकुण्ठ को जाता है। क्या झूठ हो जाएगा? ???? उत्तर-मिथ्या होने में क्या शङ्का?, क्योंकि गङ्गा.......नाम स्मरण से पाप कभी नहीं छूटता, जो छूटे तो दु:खी कोई न रहे और पाप करने से कोई भी न डरे। वैसे आजकल पोपलीला में पाप बढ़कर हो रहे हैं। मूढ़ों को विश्वास है कि हम.......तीर्थयात्रा करेंगे तो पापों को निवृत्ति हो जाएगी। इसी विश्वास पर पाप करके इस लोक और परलोक का नाश करते हैं, परन्तु किया हुआ पाप भोगना ही पड़ता है। ???? प्रश्न-तो कोई तीर्थ.......सत्य है वा नहीं? ???? उत्तर-है, वेदादि सत्यशास्त्रों का पढ़ना, पढ़ाना, धार्मिक विद्वानों का संग, परोपकार, धर्मानुष्ठान, योगाभ्यास, निर्वैर, निष्कपट, सत्यभाषण, सत्य का मानना, सत्य करना, ब्रह्मचर्य्य, आचार्थ्य, अतिथि, मातापिता की सेवा करना, परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना, उपासना, शान्ति, जितेन्द्रियता, सुशीलता, धर्मयुक्त, पुरुषार्थ, ज्ञान, विज्ञान आदि शुभ गुण, कर्म दुःखों से तारनेवाले होने से तीर्थ हैं। और जो जलस्थलमय हैं। वे तीर्थ कभी नहीं हो सकते, क्योंकि ???? ‘जना यैस्तरन्ति तानि तीर्थानि' मनुष्य जिसे करके दुःखों से तरें उनका नाम तीर्थ है। जलस्थल तरानेवाले नहीं, किन्तु डुबोकर मारनेवाले हैं। ???? पूर्वपक्षी-महर्षि दयानन्द जी का लेख सुनकर तो अब पूरा-पूरा निश्चय हो गया कि गङ्गादि तीर्थ केवल पोपों के बनाये हुए हैं। आगे को मैं भी जैसा महर्षि ने उपदेश किया है, वैसा करने का यत्न करूंगा।(‘‘वेदपथ'' से साभार) ✍???? लेखक - स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी साभार - राजेंद्र जिज्ञासु जी (पुस्तक - वैदिक विचारधारा) प्रस्तुति - ???? अवत्सार ॥ ओ३म् ॥
प्रकाश सदा द्रव्य से ही उत्तपन्न होता है
12-11-2021
ऐसा भी है _ प्रकाश सदा द्रव्य से ही उत्तपन्न होता है और फैलाने वाली गति से जहां तक उसकी क्षमता है फैल कर रुक जाता है और अपने उत्पन्न होने वाले स्थान को तब तक नहीं छोड़ता जब तक वो द्रव्य नष्ट नहीं हो जाता जिससे वह उत्पन्न हुआ है। प्रकाश गुण है तेज का । आत्मा भी द्रव्य है और आत्मा व परमात्मा भी तेजोमय ( प्रकाश स्वरूप ) हैं ।परन्तु इनका प्रकाश कभी नष्ट नहीं होता , क्योंकि नित्य द्रव्य हैं अतः इनका प्रकाश भी नित्य है । जबकि अन्य द्रव्य नित्य नहीं है अतः उनका प्रकाश भी नित्य नहीं है । जब प्रकाश को उत्पन्न करने वाला द्रव्य नष्ट हो जाता है तो प्रकाश भी उस द्रव्य की ओर से नष्ट होना आरंभ होकर वहां तक नष्ट हो जाता है जहां तक प्रकाश फैला था और प्रकाश के स्थान पर अंधकार फैल जाता है , इस अंधकार में भी फैलाने वाली ही गति होती है । जैसा कि किसी भाई ने प्रश्न उठाया है कि किसी नक्षत्र का प्रकाश पृथ्वी की ओर बढ़ रहा है तो सकता है कि हो सकता है कि पीछे समाप्त हो गया हो । पहली बात तो इन्होंने संभावना ही जताई है , निश्चित नहीं माना है ।दूसरी बात जब तक प्रकाश के उत्पन्न होने का कारण नष्ट नहीं होगा तब तक प्रकाश भी नष्ट नहीं होगा और गति भी फैलने वाली ही रहेगी , किसी प्राणी के आगे बढ़ने जैसी नहीं । नमस्ते
“देह-दान संकल्पित श्री सुशील भाटिया, चण्डीगढ़ और उनका परिवार”
12-11-2021
ओ३म् “देह-दान संकल्पित श्री सुशील भाटिया, चण्डीगढ़ और उनका परिवार” ========== देहरादून में तपोवन के नाम से प्रसिद्ध वैदिक साधन आश्रम, नालापानी रोड में हमें इस आश्रम के मई, 2017 में आयोजित व सम्पन्न हुए उत्सव में एक ऐसे दानी परिवार के सदस्यों से मिलने का सौभाग्य मिला जो न केवल अर्थ दान ही करते हैं अपितु जिनके सभी सदस्यों, 8 भाई-बहिनों, ने अपनी अपनी मृत्यु होने पर अपने पूरे शरीर व इसके अंगों का भी दान किया है। ऐसा परिवार जिसके सभी 8 सदस्यों ने अपने देह वा शरीर के अंग परोपकारार्थ दान देना का संकल्प लिया हो, हमारी दृष्टि में दूसरा कोई परिवार देखने में नहीं आया है। भारत में अभी भी देह दान के प्रति लोगों में अनेक भ्रम हैं जिस कारण वह देह दान करने में संकोच करते हैं। हमारे देहरादून के एक मित्र श्री कृष्ण कान्त वैदिक जी, पूर्व ज्वाइंट कमिश्नर, बिक्री कर विभाग ने भी अपनी देह को मृत्यु होने पर दान करने का संकल्प-पत्र संबंधित अधिकारियों को प्रस्तुत कर दिया है। हमें ऐसे लोगों के मध्य समय बिताते हुए प्रसन्नता होती है कि यह सकारात्मक सोच के धनी हैं। ऐसे लोगों के दान से ही आज मेडिकल साइंस और शल्य चिकित्सा विज्ञान वर्तमान स्थिति तक पहुंचा है। इससे आज सारा संसार लाभान्वित हो रहा है। वह लोग भी लाभान्वित हो रहे हैं जो देह व अंग दान करना उचित नहीं समझते और साथ ही अनेकों भ्रम व अज्ञान से ग्रस्त हैं। हमारे चिकित्सा विज्ञान की शिक्षा लेने वाले विद्यार्थियों को न केवल अध्ययन के लिए मृत मनुष्य शरीर की ही आवश्यकता होती है अपितु इसके अनेक अंग आजकल भारत में ही दूसरे रोगियों वा अस्वस्थ लोगों में प्रत्यारोपित किये जाते हैं जिनसे उनका भावी जीवन सुखद अनुभवों सहित सुख व शान्ति से व्यतीत होता है। हम ऐसे सभी देशवासी बन्धुओं का अभिनन्दन करते हैं। तपोवन आश्रम के ग्रीष्मोत्सव में मई, 2017 में सम्पन्न उत्सव में चण्डीगढ़ से श्री सुशील भाटिया जी व उनकी बड़ी बहिन प्रेम भाटिया भी पधारी थी। श्रीमती प्रेम भाटिया जी अपने पति की पारिवारिक पेंशन से अपने जीवन का निर्वाह करती हैं। आपका भरा पूरा परिवार है। पेंशन से आप जो धनराशि बचाती हैं, उसे यत्र तत्र आर्य संस्थाओं को यज्ञ, धर्मप्रचार तथा परोपकार आदि कार्यों में दान देती हैं। वर्ष 2017 तथा अक्टूबर, 2021 में आपने वैदिक साधन आश्रम तपोवन को चुना और यहां आकर आश्रम के मंत्री जी श्री प्रेम प्रकाश शर्मा जी को एक लाख रूपये का चैक प्रदान किया। अक्टूबर 2021 में भी एक बड़ी धनराशि की है। इससे पूर्व भी आपकी सगी बड़ी बहिन श्रीमती वेद भाटिया जी भी आश्रम को एक लाख रूपये का दान दे चुकी हैं। यह भी बता दें की श्री सुशील भाटिया जी माता श्रीमती प्रेम भाटिया जी के छोटे भाई हैं और आप सभी 8 बहिन व भाईयों ने छोटे भाई श्री सुशील भाटिया जी प्रेरणा एवं परामर्श से अपने देह व इसके अंगों के दान का संकल्प पत्र संबंधित अधिकारियों को प्रस्तुत किया है। जब हमने इस बात को सुना तो हमने श्रीमती प्रेम भाटिया के अभिनन्दन व सम्मान में कुछ शब्द लिखे जिन्हें हम प्रस्तुत कर रहे हैं। तपोवन आश्रम के सभी बन्धु भाई सुशील भाटिया जी से परिचित हैं। आप का अलग प्रकार व्यक्तित्व ही आपका परिचय है। आप प्रत्येक वर्ष तपोवन आश्रम के उत्सवों में आते हैं और यहां सभी विद्वानों, अतिथियों एवं अपनी आयु से छोटे बन्धुओं की भी यथासम्भव सेवा, सहायता एवं मार्गदर्शन करते हैं। आप भजन व प्रवचन में व्यवस्था देखते है और प्रयास करते हैं कि सभी लोग भली प्रकार से सभा मण्डप में बैठकर कार्यक्रम का आनन्द लें। भोजन आदि के वितरण कार्यं में भी आप सहयोग करते हैं। ऋषि जन्म भूमि टंकारा में भी आप हर वर्ष पहुंचते हैं और वहां भी सभी सत्संगों में उपस्थित होकर व्यवस्था का ध्यान रखते हुए उसे चुस्त व दुरस्त रखने में सहयोग करते हैं। श्री सुशील भाटिया जी आर्य माता-पिता की संतान है। पाकिस्तान बनने से पूर्व आपका परिवार वर्तमान पाकिस्तान के स्यालकोट में रहा करता था। पिता व्यवसाय से शिक्षक थे और माता जी आर्य संस्कारों की गृहिणी थी। बच्चों को भोजन से पूर्व सन्ध्या करने को कहा जाता था। सन्ध्या करने पर भोजन मिलता था। पाकिस्तान बनने पर आप स्यालकोट से अपने पूरे परिवार के साथ ‘गढ़-शंकर’ स्थान पर आकर रहे। 10 वर्ष यहां रहकर आप जालन्धर आकर रहने लगे। यहां आपके पिता व भाईयों ने केरोसीन तेल व कपड़े आदि के व्यवसाय किये। खूब आर्थिक उन्नति व समृद्धि इन कार्यों से प्राप्त की। सन् 1984 में पंजाब में आतंकवाद चरम सीमा पर पहुंच गया था। आप हिन्दू संगठन के लिए राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ आदि संस्थाओं के साथ मिलकर पूर्ण निर्भयता से कार्य करते थे। आतंकवादी तत्वों का आपसे नाराज होना स्वाभाविक ही था। एक दिन आप अपनी दुकान पर थे तो आप पर तीन गोलियां चलाई गई जो आपके दायें बायें होकर निकल गईं। इस घटना में आप बाल बाल बचे। आपकी दुकान पर बैठे हुए कुछ लोग घायल हुए। ऐसी स्थिति में सुरक्षा की समुचित व्यवस्था न होने के कारण आपको जालन्धर छोड़कर दिल्ली आकर अपने एक भाई के फ्लैट में जीवनयापन करना पड़ा। यहां रहते हुए आपको व आपके परिवार को बहुत संघर्ष करना पड़ा। शरीर से स्वस्थ व बलवान होने के कारण आपने जो कठोर पुरुषार्थ किया उससे आप अपने परिवार की नाव को किनारे पर लगाने में सफल हुए और आज आप पुनः सुखद आर्थिक स्थिति में चण्डीगढ़ में फूलों का कारोबार करते हैं। चण्डीगढ़ में आपका अपना सुविधाजनक निवास है। दो पुत्र, बहुयें, पौत्र व पौत्रियों के साथ आप सुखद जीवन बिता रहे हैं। यज्ञ एवं सत्संग के आप विशेष प्रेमी है। आपका स्वभाव बच्चों की तरह सबके प्रति विनम्र एवं आदर लिये हुए होता है। आपकी श्रीमती जी लगभग 19 वर्ष पूर्व संसार से विदा ले चुकी हैं। एक वर्ष पूर्व आपके एक बड़े भ्राता जी का भी वियोग हुआ है। अपने जीवन की इस स्थिति में आप अपने परिवार व भाई बहिनों के सुख-दुख में शामिल होकर सुखद जीवन व्यतीत कर रहे हैं। आपकी बड़ी बहिन श्रीमती प्रेमवती भाटिया जी के धन दान के अवगर पर हमने अभिनन्दन में लिखा था कि आप ऋषिभक्त माता श्रीमती सुहागवती भाटिया एवं पिता श्री फकीर चन्द्र भाटिया जी की सुयोग्य सन्तान हैं। श्रीमती प्रेम भाटिया (पत्नी स्व. श्री राजेन्द्र कुमार भाटिया जी), चण्डीगढ़ मई 2017 के उत्सव में स्वयं वैदिक साधन आश्रम तपोवन में उपस्थित हुई थीं। आप यद्यपि कुछ अस्वस्थ थी परन्तु आपका धर्म प्रेम आपको इस आश्रम में ले आता है। आपकी उपस्थिति से सब आश्रमवासी प्रसन्न व गौरवान्वित होते हैं। आपने व आपके सभी भाई व बहिनों ने अपने देह व अंग परोपकार के लिए दान देकर समाज में एक अनूठा उदाहरण प्रस्तुत किया है। देश के समाचार पत्रों, दूरदर्शन, सभा संस्थाओं में आपकी चर्चा हुई है व अब भी होती रहती है। सभी लोगों द्वारा आपके संकल्प की सराहना की जाती है। लेख में यह भी बता दें कि श्री सुशील भाटिया जी को देह दान की प्रेरणा अपने 60 वर्ष पूर्ण होने पर तपोवन आश्रम में किये जा रहे यज्ञ के अवसर पर हुई थी। आपने अपने विचारों पर गहराई से पुनर्विचार किया था और आप आगे बढ़ते गये। चण्डीगढ़ में पीजीआई के अनेक वरिष्ठ डाक्टरों से आपका इस विषय पर समय समय पर सम्पर्क व संवाद होता रहा। आप उनसे मिलते रहे और वहां जाकर मृत देहों का किस प्रकार से उपयोग करते हैं, इसे भी आपने पूर्णतः जाना, अपनी आंखों से देखा और समझा। आपको लगा कि यदि हमारे शरीर के अंग अंगहीनों को मिलने से उनका संसार व जीवन संवर सकता है तो वह यह कार्य अवश्य करेंगे। सभी पक्षों पर विचार कर उन्होंने अपनी देह व अंगों के दान का निर्णय कर लिया। इसके बाद चुनौती थी कि वह अपने अन्य तीन भाई व चार बहिनों को भी इस महत् कार्य के लिए सहमत करें। उन्होंने प्रयास किये और सफलता प्राप्त की। यह कार्य सरल नहीं था। हम शायद अनुमान भी नहीं लगा सकते कि कैसे उन्होंने स्वयं को सहमत किया होगा और उसके बाद अपने अन्य सात पारिवारिक सदस्यों को। उनके इस निर्णय और उस पर अडिग रहने तथा उसका दूसरों में प्रचार करने के लिए श्री सुशील भाटिया जी साधुवाद व शुभकामनाओं के पात्र हैं। हम उनका अभिनन्दन एवं वन्दन करते हैं। जब हम इस विषय पर विचार करते हैं तो हमें लगता है कि जो लोग अपना देह दान नहीं करते उनके भीतर कुछ भय, आशंकायें एव भ्रम होते हैं। कुछ व अनेकों में एक भ्रम यह भी हो सकता है कि मरने के बाद उनका पुनर्जन्म होगा। कहीं ऐसा न हो कि देह-दान करने के कारण उनकों परजन्म में यह इन्द्रियां व अन्य शरीर में कुछ अंग स्वस्थ अवस्था में प्राप्त न हों? हमने विचार किया तो हमारा ध्यान पशु, पक्षियों आदि पर गया। अनेक मांसाहारी पशु-पक्षी हैं जो दूसरे छोटे व निर्बल पशु-पक्षियों को मारकर उनका पूरा शरीर ही खा जाते हैं। संसार में इतने पशु-पक्षी हैं और यह मरते भी हैं परन्तु इनके शव जंगल व खेतों में पड़े दिखाई नहीं देते हैं। सभी व अधिकांश के शव अन्य मांसाहारी पशु खा जाते हैं, यही अनुमान होता है। आज तो मनुष्य भी विदेशियों के सम्पर्क में आकर ऐसे मांसाहारी बने है कि भेड़, बकरियों, मुर्गे व मच्छलियों तक ही सीमित नहीं रहे अपितु परम उपयोगी व माता के समान पालन करने वाली गो माता का भी संहार करते हैं और उसके मांस व शरीर को स्वाद लेकर खा जाते हंै। क्या ये मांसाहारी बन्धु वस्तुतः मनुष्य हैं? हमें तो मनुष्यों की यह प्रवृत्ति शाकाहारी पशुओं से भी अधिक अज्ञानतापूर्ण व अविवेकपूर्ण प्रतीत होती है। वेद में परमात्मा इस समस्या के हल के लिए ही कहते हैं कि ऐसे लोगों को प्रताड़ित करना चाहिये। जो भी हो, यदि इन असंख्य पशुओं के मरने व उनके शरीर के अंगों को दूसरे पशुओं व मनुष्यों द्वारा खा लेने पर उन प्राणियों की जीवात्माओं को परजन्म में सभी प्रकार स्वस्थ शरीर व इन्द्रियां मिल सकते हैं, तो उन लोगों को जो दूसरों के सुख के लिए देह-दान का विचार करते हैं, किंचित शंका नहीं करनी चाहिये। भय दूर करने का एक उपाय यह है कि हम इस विषय का साहित्य पढ़े, हमारे विद्वान समय समय पर इस पर चर्चा करते रहें, इस विषय से जुड़े हमारे चिकित्सा विज्ञान के वैज्ञानिक भी अपने लेख आदि समाचार पत्रों में प्रकाशित करते रहे तो हमें लगता है कि इस विषय में भ्रम व सभी शंकायें दूर हो सकती हैं जिससे अंग-दान एक आन्दोलन बन सकता है और यह लाखों अपंग व रोगी लोगों को खुशियां दे सकता है। श्री सुशील भाटिया जी व उनके परिवार को आश्रम से विशेष प्रेम है। आपके माता-पिता ने इस आश्रम के निर्माण में सशरीर उपस्थित होकर एक मजदूर की भांति सेवा व श्रमदान किया था। आप अपने माता-पिता और यहां आश्रम के लोगों की सेवा भावना से परिचित व अभिभूत हैं। इन कारणों से ही आप अपने पवित्र धन का एक बड़ा भाग यहां चल रहे कार्यों को पूरा करने में सहयोग प्रदान करने के लिए देते हैं। हमस ब आश्रम प्रेमियों को भी श्री सुशील भाटिया जी व उनके परिवार से प्रेरणा ग्रहण करनी चाहिये और आश्रम का आर्थिक दृष्टि से सहयोग करना चाहिये। वैदिक साधन आश्रम, तपोवन का शरदोत्सव आश्रम में दिनांक 20 अक्टूबर से 24 अक्टूबर 2021 तक आयोजित कया गया था। इस उत्सव में श्री सुशील भाटिया जी अपनी बहिन व उनकी तीन पीढ़ी के सदस्यों के साथ पधारे थे। परिवार के सभी सदस्य आश्रम में आयोजित यज्ञ एवं सत्संग में सम्मिलित हुए। आश्रम की ओर से सभी का सम्मान किया गयां। हम आशा करते हैं कि भविष्य में भी श्री सुशील भाटिया जी का परिवार आश्रम में आता रहेगा और अपनी उपस्थिति एवं सेवा कार्यों से अन्यों को प्रेरणा देता रहेगा। ओ३म् शम्। -मनमोहन कुमार आर्य
पाँच प्रकार के मानव (vedicvichar )
08-11-2021
१ ) असुरा - जो प्राण इन्द्रियों पर आश्रित रहते हुए इन्हीं द्वारा अपना सारा जीवन व्यतीत कर देते हैं । ये सन्तान पर भी उचित ध्यान नहीं देते । २ ) पितर - जो पिता बनकर अपनी सन्तान के प्रति अपना कर्तव्य समझकर उन्हें योग्य बनाते हैं , किन्तु परिवार तक ही सीमित रहते हैं । ३ ) मनुष्य - जो मनन करते हैं । परिवार की सीमा से निकलकर सारे समाज के हित-अहित का विचार कर , सामाजिक गतिविधियों में सम्मिलित होते हैं । ४ ) देव - जो सामाजिक गतिविधियों में सम्मिलित होने के साथ उस के सुधार की चिन्ता करते हैं ; शासन के सुधार के लिये उसे नई दिशा देने के लिये उसमें सम्मिलित होते हैं । ५ ) ऋषय - ये वो मनीषी है , जो समाज को नई दिशा देने के लिये क्रान्तदर्शी बनकर क्रान्ति का बीज बोते हैं । अथवा परमात्मदर्शन के लिये अपनी एकान्त साधना में संलग्न रहते हैं । ये लोग समाज को सुधारने के लिये समाज में आकर शासन में सम्मिलित नहीं होते न इन्हें अपना कोई स्वार्थ होता है
THE RENAISSANCE RISHI (vedicvichar )
08-11-2021
By Brigadier Chitranjan Sawant,VSM Indeed it was a dark age in India. Speaking of the political scene, one may say that the ruler and the ruled were both down and almost out. Militarily speaking, the morale of captains and commoners was down in the dumps. Speaking of Science, research was at a standstill. Religion was confined to the closets and common man relied on rituals that were empty and provided little support emotionally when a man or a woman needed it most. Pundit, padre and mullah had become parasites that lived off others and did little to repay to the social set up from where they received sustenance. Dharma was an unknown phenomenon and religion was just a bye word for tantra or hocus-pocus entwined in stratagem to help thugs. Women and the have-not sections of the society were exploited out and out and no leader or administrator worth the name gave a damn to take a look at the exploited masses, what to say of ameliorating their religious and social penury. The situation was grave. There was no light at the end of the tunnel. In that gloomy scenario appeared a man of sterling worth in the region of Kathiawad, India. He gave a clarion call “Go back to the Vedas “. His thrust line was this: Human beings should lead their lives happily as per the tenets of the Vedas that were revealed by the Almighty right at the beginning of the human Creation, through the Rishis or saints of high caliber, and eventually attain Emancipation or Moksha from the bondage of birth, death and rebirth. Vedas are for all and sundry, irrespective of caste creed, colour or sex of the person. All human beings have a right to read and meditate on the mantra. This was a Religious Renaissance par excellence that brought immense joy to men and women all over the world. The Renaissance Rishi who heralded this freedom of faith was known as Swami Dayanand Saraswati, a disciple of a great grammarian and Vedic scholar named Swami Virjanand Saraswati. Swami Dayanand Saraswati was born in a village, Tankara in Rajkot district of Kathiawar, now Saurashtra, India in 1824.His father, Karsanji Tewari, a state revenue official, named his son – Moolshankar. The young precocious boy went through a normal system of learning Sanskrit and religious text. At a young age, he memorized the text of the Yajurveda and impressed his teachers and class fellows with his extra-ordinary memory. Indeed a bright future was in the offing. Life was ambling by along the Demi River that lay meandering on the periphery of the village. On its banks stood a small Shiva temple where young Moolshankar’s folks assembled in strength on the Maha-Shivratri to worship the Lord. An incident in the temple was the turning point in Moolshankar’s life, nay in the life and times of the then India, and later the world. The thirteen-year old boy, Moolshankar was a devoted Shaivite in the making when history took a turn. A small rat ascended the Shivlinga and started eating all edible offerings that had been made earlier in the evening. Rat’s friends followed suit. Devotees were in deep slumber at that late hour of the night. Only young Moolshankar, fired by an ardent desire to have a darshan (see face to face) of Lord Shiva had kept awake. On seeing the Shivlinga being desecrated by the lowly mice and the idol haplessly bearing this insult, Moolshankar had a nagging doubt that the idol could never be the Almighty Himself. He woke up his father but was chided for his untimely and irrelevant inquisitiveness. He returned to his house from the temple where his mother happily gave him a sumptuous meal to break his day-long fast. Young Moolshankar had made up his mind to go in quest of the real God, the Almighty that the Vedas had talked about and the Omnipresent One who could never be bound by a form or an image. It was the beginning of the Renaissance of religion in India. The foundations of a great mental and spiritual movement, later known as the Arya Samaj, had indeed been laid. Of course, the formal formation had to wait till 1875. The great Quest had begun. Meeting many mahatmas, after the young lad left his parental home at age 22 when pressed to get married and abandon the spiritual quest and imbibing spiritual knowledge, Moolshankar became Shuddh Chaitanya. In this relentless quest of the Almighty, he was even cheated at times by false god men but he never abandoned the great quest. Moving from place to place and meeting mahatmas, the young explorer chose to enter the fourth ashram of the varnashram dharma, that is, Sanyas. Swami Poornanand Saraswati, a great Vedic scholar, initiated him into the Sanyas Ashram. Thus was born an ascetic, Swami Dayanand Saraswati, who turned into a great Vedic scholar, a writer of Ved Bhashya (Vedic explanations of mantras) and many treatises like the Satyarth Prakash, Rigvedadi Bhashya Bhumika and Sanskar Vidhi. He became a preacher of the true Vedic Dharma himself and traveled far and wide in India. The great Awakening of masses, the rank and file of Indians in slumber, had begun. His religious discourses were well attended by captains and commoners alike. We may recall some of the anecdotes of his life that go to show that he placed great reliance on the social unity of the masses, besides uniting them in one Vedic Dharma, to make the nation strong. Swami Dayanand Saraswati advised all Arya Samajes to run their show in a democratic manner. On Saturday, April 10, 1875 when the first Arya Samaj was founded at Kakarwadi, Mumbai, India, the great Swami was requested by the congregation to assume Presidentship of the organization but he declined and chose to be “just a simple member”. He had great faith in local talent taking over the reigns and not depending on an individual, howsoever great the individual might be. Whenever, the members of the newly founded Arya Samaj elsewhere had indulged in mutual recrimination and indulged in senseless accusation and became a prey to dissensions, the Swami advised them to sort out the religious and social problems themselves instead of requesting him to come to the scene or rushing to courts of law en block. He was dead against entering into legal litigation to solve problems of social nature. He made a mention of it in black and white in his WILL twice, first at Meerut and later again in 1883 in Udaipur, Rajputana. One only wishes the Arya stalwarts of later times had heeded to the advice of their mentor, the great Rishi and avoided rushing into quagmire of courts of law where angels feared to tread. Indeed the image of the Arya Samaj would have been brighter than what it is today. Swami Dayanand Saraswati advised the Aryas of the Arya Samaj to stand solidly behind their co-religionists who face fearful odds, like a solid rock. A case from Moradabad, UP, may be cited. Munshi Indramani who wrote many tracts and books criticizing the Islamic attack on the tenets of the Vedic Dharma and launched a counter-attack on the contradictions in Islam was hauled up before a court of law to face a trial. Swami Dayanand Saraswati wrote letters and made verbal appeals to all and sundry to stand by Munshi Indramani and provide him both moral and material support. Aid started pouring in. Initially, Munshi ji was found guilty but when the Aryas went in appeal, he was eventually acquitted. Such was the rewarding result of unity among the Aryas forged by the Swami . Swami Dayanand Saraswati was a great protagonist of a common link language to bring about unity among the Aryas and Indians at large. He favoured the Arya Bhasha or Hindi. The Swami was himself A Gujarati and spoke mother tongue as an adolescent, had his studies in Sanskrit but promoted Hindi as a language of unity among Indians. No wonder, all his treatises are written in Sanskrit and Hindi. When the Government of India, under the British Raj, appointed the Hunter Commission to decide on the issue of an official court language in various provinces, Swami Dayanand campaigned for Hindi. Although he had only partial success in Bihar and Central Provinces but he pressed on, notwithstanding success in parts. The common man was motivated and his morale was raised high. The flag of Vedic principles was raised high and it fluttered in the air to be seen by all and sundry. The founder of the Arya Samaj paid utmost attention to unity and solidarity in the society. He never intended to be known as a founder of a sect that would cut itself away from the vast society of the Hindus. He stressed that the ancient Vedic Dharm was his creed and the Ved mantras in original text were the ultimate forum to decide what constituted Dharma and what did not. He had seen and known how infallible the Brahmos of Bengal had become by moving away from the path of their forefathers and by tilting towards Christianity. Roots were roots, if diseased-these were to be cleansed and treated with a dose of reform; and under no circumstances were the roots to be cut or the original tree to be uprooted. While writing the Satyarth Prakash, the great Swami made the point crystal clear. Thus he did not hesitate even for a single moment in launching a frontal attack on those men and organizations that were destroying the Indian economy by slaughtering cows. He spearheaded the anti cow slaughter movement and enlisted the support of kings and commoners by obtaining their signatures on a petition to be submitted to Queen Victoria, the reigning Empress of India. Above all, it was a movement of solidarity of society and should be viewed as such. Unfortunately, Dayanand Saraswati’s untimely demise gave a severe blow to this movement of solidarity but the point had been made and it was for the followers to pick up the thread from where he had left. The Renaissance Rishi was not dogmatic. He had an open mind and acted on the suggestions made to him in good faith. Acharya Keshav Chandra Sen of the Brahmo Samaj had met the Rishi in Calcutta and suggested that the latter give his discourses in Hindi, instead of Sanskrit, for the common man to understand and appreciate. Further, the educated ladies wished to form a part of the audience to listen to the learned interpretations of the Ved mantras but fought shy of his scantily covered body. The Rishi accepted both the suggestions and acted accordingly. The numbers of men and women in the audiences swelled indeed. The people came from far and wide to see and hear him. His preaching missions were a great success in the land of intellectuals in Bengal. The aim of writing this article is to highlight Rishi’s life and times and narrate those events and anecdotes that had far-reaching consequences historically. Among these must figure his travels to preach and propagate the true and ancient Vedic Dharma. Multan in the north to Pune in the Deccan; Rajkot in the west to Calcutta in the east form the large canvas that he painted in the Vedic colours. Of course, there were many cities, villages and towns in various provinces in between where he had hoisted the flag of OM and given discourses. Many a time he traveled in great discomfort risking his life and limb but he remained determined to carry on with his mission. Of course, the Punjab became the citadel of the Arya Samaj after his founding the Arya Samaj in 1877 in Lahore. It was there that the 28 principles of the Arya Samaj formulated in Bombay in 1875 were abbreviated and rearranged to TEN. These are observed and remain valid right to the present day. We must make a mention of Rajputana that the Rishi had made his work place in the last years of his life. The Rishi’s aim was to make rulers well versed in the principles and practice of good governance as mentioned in the Sanskrit texts of yore like the Manu Smriti. Thereafter both the ruler and the ruled will be happy and carry on with their lives as per the teachings of the Vedas. He had a roaring success in the big State of Mewar where the Ruler, His Highness Maharana Sajjan Singh Ji became his devoted disciple. The Maharana studied Sanskrit and Manusmriti at the feet of the Rishi. Consequently, the education system of Mewar was reoriented to meet the Vedic standards. The Ruler personally performed daily Havan in his palace. It was going great guns for the Arya Samaj. Another princely state to follow the principles of the Vedic Dharma was Shahpura. Its ruler, His Highness Sir Nahar Singh Varma became a devout Arya himself and reformed the education system of his small principality. Both these rulers had, in turn become the president of the Paropkarini Sabha established by Swami Dayanand Saraswati and made a successor to his mission in the Swami’s last will and testament. Nonetheless, it was the state of Jodhpur that failed to preserve the person of the Swami and the poison potion administered to him by enemies of the Renaissance and reformation marked the beginning of the end of his life. Swami Dayanand Saraswati demonstrated till his last breath that he indeed practiced what he preached. His ardent faith and belief in God remained unflinching till he breathed his last at Ajmer after a grave illness of one month and one day. At times the treatment was faulty and at times movement of his ailing body unnecessary. The Renaissance Rishi bore it with a smile. On the Diwali evening, 30 October 1883, came his end. The swami sat in his bed, recited Ved mantras, said hymns in Hindi and bowing to the will of the Almighty let his soul leave his body. A young man from the Punjab, Guru Datt, who had entertained atheistic ideas became an ardent Arya on seeing the Swami breathe his last with courage and forbearance. Indeed the lamp of life of the renaissance Rishi was thus extinguished and it in turn lighted many million lamps to lead men and women from darkness unto light.
Vedicvichar
08-11-2021
क्या आप जाक्या आप जानते हैं औरंगजेब ने भी पटाखों पर लगाया था प्रतिबंध, पढ़िए मुगल आक्रान्ता का 1667 का आदेश दिवाली के मौके पर पटाखों पर लगने वाला बैन अक्सर सवाल खड़ा करता है कि क्या सारे प्रदूषण के लिए एक पर्व ही जिम्मेदार है। पिछले कुछ सालों से वायु प्रदूषण का रोना रोकर दिवाली आते ही कई राज्यों में प्रतिबंध लग जाता है। लोग सोशल मीडिया पर सवाल करते हैं लेकिन कोई सुनवाई नहीं होती। कुछ लोग ये भी कहते हैं कि ये सब सिर्फ पिछले कुछ सालों में बढ़े प्रदूषण के कारण हो रहा है लेकिन बता दें कि पटाखों पर प्रतिबंध लगाकर भावनाओं को ठेस पहुँचाना कोई नई बात नहीं है। 350 साल पहले मुगल आक्रांता औरंगजेब ने भी ऐसे ही पटाखे फोड़ने पर प्रतिबंध लगाया था। आज दिवाली के मौके पर और वर्तमान हालातों को देखते हुए ये जानना जरूरी है कि हिंदू मंदिरों को ध्वस्त करने वाले औरंगजेब ने भी अपने काल में पटाखे फोड़ने पर रोक लगवाई थी। उसका आदेश बीकानेर के स्टेट अर्काइव में सुरक्षित है। आदेश 8 अप्रैल 1667 का है। आदेश में लिखा है- “बादशाह के सूबों के अफसरों को लिख दीजिए कि वे आतिशबाजी पर रोक लगा दें। शहर में भी घोषणा कर दें कि कोई आतिशबाजी न करें।” इस आदेश में किसी त्यौहार का जिक्र नहीं है। न ही कोई समय का उल्लेख है। बस इससे इतना पता चलता है कि उसने आतिशबाजी पर रोक लगाई थी इस आदेश के हिसाब से लंबे समय तक आतिशबाजी पर रोक लगाई गई थी। दैनिक भास्कर की रिपोर्ट के मुताबिक, राजस्थान स्टेट आर्काइव के निदेशक महेंद्र सिंह खड़गावत ने कहा, “औरंगजेब के समय आतिशबाजी पर प्रतिबंध लगाया गया था। अप्रैल 1667 का औरंगजेब के समय का लेटर आर्काइव में हमारे पास सुरक्षित है। उस लेटर में दिवाली का जिक्र नहीं है, लेकिन वह लेटर सही है।” इतिहास की इस घटना को लेकर सोशल मीडिया पर लोग सवाल करते रहते हैं। लोग तंज कसते हैं कि औरंगजेब ने भी पटाखों पर प्रतिबंध लगाया था। कितना महान पर्यावरणविद् और दूरदर्शी है। दिवाली के आते ही पटाखों से उठने वाले धुएँ पर कई वामपंथी-कट्टरपंथी अपनी सांस फुलाते हैं। इस सूची में प्रियंका चोपड़ा जैसे नाम हैं जिन्हें सिगरेट या सिगार पीने से समस्या नहीं है लेकिन उन्हें दिवाली के मौके पर सांस की शिकायत हो जाती है। इसी तरह रोशनी अली से जुड़ा विवाद हाल का है। उन्हीं की याचिका पर सुनवाई करते हुए कलकत्ता हाई कोर्ट ने दीवाली/काली पूजा के दौरान पूरे पश्चिम बंगाल में सभी प्रकार के पटाखों पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने का आदेश दिया था। Source opindiaनते हैं औरंगजेब ने भी पटाखों पर लगाया था प्रतिबंध, पढ़िए मुगल आक्रान्ता का 1667 का आदेश दिवाली के मौके पर पटाखों पर लगने वाला बैन अक्सर सवाल खड़ा करता है कि क्या सारे प्रदूषण के लिए एक पर्व ही जिम्मेदार है। पिछले कुछ सालों से वायु प्रदूषण का रोना रोकर दिवाली आते ही कई राज्यों में प्रतिबंध लग जाता है। लोग सोशल मीडिया पर सवाल करते हैं लेकिन कोई सुनवाई नहीं होती। कुछ लोग ये भी कहते हैं कि ये सब सिर्फ पिछले कुछ सालों में बढ़े प्रदूषण के कारण हो रहा है लेकिन बता दें कि पटाखों पर प्रतिबंध लगाकर भावनाओं को ठेस पहुँचाना कोई नई बात नहीं है। 350 साल पहले मुगल आक्रांता औरंगजेब ने भी ऐसे ही पटाखे फोड़ने पर प्रतिबंध लगाया था। आज दिवाली के मौके पर और वर्तमान हालातों को देखते हुए ये जानना जरूरी है कि हिंदू मंदिरों को ध्वस्त करने वाले औरंगजेब ने भी अपने काल में पटाखे फोड़ने पर रोक लगवाई थी। उसका आदेश बीकानेर के स्टेट अर्काइव में सुरक्षित है। आदेश 8 अप्रैल 1667 का है। आदेश में लिखा है- “बादशाह के सूबों के अफसरों को लिख दीजिए कि वे आतिशबाजी पर रोक लगा दें। शहर में भी घोषणा कर दें कि कोई आतिशबाजी न करें।” इस आदेश में किसी त्यौहार का जिक्र नहीं है। न ही कोई समय का उल्लेख है। बस इससे इतना पता चलता है कि उसने आतिशबाजी पर रोक लगाई थी इस आदेश के हिसाब से लंबे समय तक आतिशबाजी पर रोक लगाई गई थी। दैनिक भास्कर की रिपोर्ट के मुताबिक, राजस्थान स्टेट आर्काइव के निदेशक महेंद्र सिंह खड़गावत ने कहा, “औरंगजेब के समय आतिशबाजी पर प्रतिबंध लगाया गया था। अप्रैल 1667 का औरंगजेब के समय का लेटर आर्काइव में हमारे पास सुरक्षित है। उस लेटर में दिवाली का जिक्र नहीं है, लेकिन वह लेटर सही है।” इतिहास की इस घटना को लेकर सोशल मीडिया पर लोग सवाल करते रहते हैं। लोग तंज कसते हैं कि औरंगजेब ने भी पटाखों पर प्रतिबंध लगाया था। कितना महान पर्यावरणविद् और दूरदर्शी है। दिवाली के आते ही पटाखों से उठने वाले धुएँ पर कई वामपंथी-कट्टरपंथी अपनी सांस फुलाते हैं। इस सूची में प्रियंका चोपड़ा जैसे नाम हैं जिन्हें सिगरेट या सिगार पीने से समस्या नहीं है लेकिन उन्हें दिवाली के मौके पर सांस की शिकायत हो जाती है। इसी तरह रोशनी अली से जुड़ा विवाद हाल का है। उन्हीं की याचिका पर सुनवाई करते हुए कलकत्ता हाई कोर्ट ने दीवाली/काली पूजा के दौरान पूरे पश्चिम बंगाल में सभी प्रकार के पटाखों पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने का आदेश दिया था। Source opindia
श्रीराम द्वारा दी गई शिक्षाएं (vedicvichar )
08-11-2021
अयोध्या काण्ड सर्ग 109 श्लोक 3-14 ●निर्मर्यादस्तु पुरुष: पापाचारसमन्वित:। मानं न लभते सत्सु भिन्नचारित्रदर्शन:।। जो मनुष्य मर्यादारहित, पापचरण से युक्त और साधु-सम्मत शास्त्रों के विरुद्ध आचरण करनेवाला है वह सज्जन पुरुषों में सम्मान प्राप्त नहीं कर सकता। ●कुलीनमकुलीनं वा वीरं पुरुषमानिनम्। चारित्रमेव व्याख्याति शुचिं वा यदि वाऽशुचिम्।। कुलीन अथवा अकुलीन, वीर हैं अथवा भीरु, पवित्र हैं अथवा अपवित्र- इस बात का निर्णय चरित्र ही करता है। ●ऋषयश्चैव देवाश्च सत्यमेंव हि मेनिरे। सत्यवादी हि लोकेऽस्मिन परमं गच्छति क्षयम।। ऋषि और विद्वान् लोग सत्य ही उत्कृष्ट मानते हैं, क्योंकि सत्यवादी पुरुष ही इस संसार में अक्षय [परान्तकाल तक] मोक्ष सुख को प्राप्त होते हैं। ●उद्विजन्ते यथा सर्पान्नरादनृतवादिन:। धर्म: सत्यं परो लोके मूलं स्वर्गस्य चोच्यते।। मिथ्यावादी पुरुष से लोग वैसे ही डरते हैं, जैसे सर्प से। संसार में सत्य ही सबसे प्रधान धर्म माना गया है। स्वर्ग प्राप्ति का मूल साधन भी सत्य ही है। ●सत्यमेवेश्वरो लोके सत्यं पद्माश्रिता सदा। सत्यमूलानि सर्वाणि सत्यान्नास्ति परं पदम्।। संसार में सत्य ही ईश्वर है। सत्य ही लक्ष्मी= धन-धान्य का निवास है। सत्य ही सुख-शान्ति एवं ऐश्वर्य का मूल है। संसार में सत्य से बढ़कर और कोई वस्तु नहीं है। ●दत्तामिष्टं हुतं चैव तप्तानि च तपांसि च। वेदा: सत्यप्रतिष्ठानास्तस्मात्सत्यपरो भवेत्।। दान, यज्ञ, हवन, तपश्चर्या द्वारा प्राप्त सारे तप और वेद- ये सब सत्य के आश्रय पर ही ठहरे हुए हैं, अत: सभी को सत्यपरायण होना चाहिए।
गोबर्द्धन पूजा (vedicvichar )
08-11-2021
महर्षि दयानन्द का एक महत्त्वपूर्ण लघु ग्रन्थ 'गोकरुणानिधि' लेखक- डॉ० रामनाथ वेदालंकार प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ महर्षि दयानन्द रचित पुस्तकों में एक छोटी से पुस्तक 'गोकरुणानिधि' है। देखने में तो छोटी सी है, किन्तु महत्त्व में यह कम नहीं है। इसकी रचना स्वामी जी ने आगरा में की थी। पुस्तक के अन्त में स्वामी जी ने स्वयं लिखा है कि यह ग्रन्थ संवत् १९३७ फाल्गुन कृष्णा दशमी गुरुवार के दिन बन कर पूर्ण हुआ। यह १५ दिन में ही छप कर तैयार हो गया और शीघ्र ही बिक कर समाप्त हो गया। एक वर्ष के अन्दर ही इसका द्वितीय संस्करण प्रकाशित करना पड़ा। स्वामी जी ने इसका अंग्रेजी अनुवाद भी करवाया था। गोकरुणानिधि तीन भागों में विभक्त है। प्रथम भाग में गाय आदि पशुओं की रक्षा के विषय में समीक्षा लिखी गयी है। यह समीक्षा भी दो प्रकरणों में है। प्रथम प्ररण में गाय आदि पशुओं की रक्षा का महत्त्व बताया गया है। दूसरे प्रकरण में हिंसक और रक्षक का संवाद है, जिसमें मांसभक्षण के पक्ष में जो भी बातें कहीं जा सकती हैं, वे सब एक-एक करके हिंसक के मुख से कहला कर रक्षक द्वारा उन सबका उत्तर दिलाया गया है। इससे अन्त में यह परिणाम निकलता है कि मांसभक्षण सर्वथा अनुचित है। यह संवाद बड़ा ही रोचक और शिक्षाप्रद है। शिक्षणालयों में एक छात्र को हिंसक तथा दूसरे को रक्षक बना कर इसका अभिनय किया जा सकता है। हिंसक और रक्षक के संवाद के बाद मद्यपान तथा भांग आदि के सेवन के दोष बताये गये हैं, क्योंकि मांसभक्षण से मद्यपान तथा भांग आदि नशीले पदार्थों के सेवन की आदत भी पड़ जाती है। पुस्तक के दूसरे भाग में गोकृष्यादिरक्षिणी सभाओं के नियम लिखे हैं तथा तीसरे भाग में उपनियम हैं। भूमिका में ग्रन्थ का प्रयोजन बताते हुए महर्षि लिखते हैं- "यह ग्रन्थ इसी अभिप्राय से रचा गया है, जिससे गौ आदि पशु जहां तक सामर्थ्य हो बचायें जावें और उनके बचाने से दूध, घी और खेती के बढ़ने से सबको सुख बढ़ता है।" गाय आदि पशुओं की रक्षा क्यों आवश्यक है यह समझाने के लिए महर्षि हिसाब लगाकर बताते हैं कि एक गाय की पीढ़ी रक्षा करने पर कितना लाभ पहुंचा सकती है, जबकि उसे काट कर उसका मांस खाने से उसकी तुलना में कुछ भी उपकार नहीं होता। वे लिखते हैं- "जो एक गाय न्यून से न्यून दो सेर दूध देती हो और दूसरी बीस सेर, तो (औसत से) प्रत्येक गाय के ग्यारह सेर दूध होने में कोई शंका नहीं। इस हिसाब से एक मास में सवा आठ मन दूध होता है। एक गाय कम से कम ६ महीने और दूसरी अधिक से अधिक १८ महीने तक दूध देती है तो दोनों का मध्य भाग प्रत्येक गाय के दूध देने में १२ महीने होते हैं। इस हिसाब से १२ महीनों का दूध ९९ मन होता है।" "इतने दूध को औटाकर प्रति सेर में छटांक चावल और डेढ़ छटांक चीनी डाल कर खीर बना खावे, तो प्रत्येक पुरुष के लिए दो सेर दूध की खीर पुष्कल होती है, क्योंकि यह भी एक मध्यमान की गिनती है, अर्थात् कोई दो सेर दूध की खीर से अधिक खाएगा और कोई न्यून। इस हिसाब से एक प्रसूता गाय के दूध से एक हजार नौ सौ अस्सी मनुष्य एक बार तृप्त होते हैं। गाय न्यून से न्यून ८ और अधिक से अधिक १८ बार ब्याहती है, इसका मध्यभाग १३ आया। तो पच्चीस हजार सात सौ चालीस मनुष्य एक गाय के जन्मभर के दूध मात्र से एक बार तृप्त हो सकते हैं।" "इस गाय की एक पीढ़ी में छ: बछिया और सात बछड़े हुए। इनमें से एक की मृत्यु रोगादि से होना सम्भव है, तो भी बारह रहे। उन छ: बछियाओं के दूध मात्र से उक्त प्रकार एक लाख चौवन हजार चार सौ चालीस मनुष्यों का पालन हो सकता है। अब रहे छ: बैल। उनमें एक जोड़ी से दोनों साख में दो सौ मन अन्न उत्पन्न हो सकता है। इस प्रकार तीन जोड़ी ६०० मन अन्न उत्पन्न कर सकती हैं। और उनके कार्य का मध्यभाग आठ वर्ष है। इस हिसाब से चार हजार आठ सौ मन अन्न उत्पन्न करने की शक्ति एक जन्म में तीनों जोड़ी की है।" "४८०० मन अन्न से प्रत्येक मनुष्य का तीन पाव अन्न भोजन में गिने, तो दो लाख छप्पन हजार मनुष्यों का एक बार भोजन होता है। दूध और अन्न को मिला कर देखने से निश्चय है कि चार लाख दस हजार चार सौ चालीस मनुष्यों का पालन एक बार के भोजन से होता है। अब छः गाय की पीढ़ी पर-पीढ़ियों के हिसाब लगा कर देखा जावे तो असंख्य मनुष्यों का पालन हो सकता है। और इसके मांस से अनुमान है कि केवल ८० मांसाहारी मनुष्य एक बार तृप्त हो सकते हैं। देखो, तुच्छ लाभ के लिए लाखों प्राणियों को मार असंख्य मनुष्यों की हानि करना महापाप क्यों नहीं?" इस प्रकार बकरी के लिए भी हिसाब लगा कर दिखाया है परन्तु महर्षि केवल गाय और बकरियों की ही रक्षार्थ सचेष्ट नहीं थे, प्रत्युत सभी उपयोगी पशुओं की रक्षा आवश्यक समझते थे, और किसी भी पशु का मांस खाने के सर्वथा विरुद्ध थे। गाय आदि पशुओं की रक्षा के लिए महर्षि दयानन्द की आतुरता उनकी निम्नलिखित पंक्तियों से प्रकट हो रही है- "गौआदि पशुओं के नाश होने से राजा और प्रजा का ही नाश होता है क्योंकि जब पशु न्यून होते हैं, तब दूध आदि पदार्थ और खेती आदि कार्यों की घटती होती है। देखो, इसी से जितने मूल्य से जितना दूध और घी आदि पदार्थ तथा बैल आदि पशु सात सौ वर्ष पूर्व मिलते थे, उतना घी दूध और बैल आदि पशु इस समय दशगुणे मूल्य से भी नहीं मिल सकते।" "हे मांसाहारियों! तुम लोगों को जब कुछ काल पश्चात् पशु न मिलेंगे तब मनुष्यों का मांस भी छोड़ोगे या नहीं? हे परमेश्वर तू क्यों इन पशुओं पर जो कि बिना अपराध मारे जाते हैं, दया नहीं करता? क्या उन पर तेरी प्रीति नहीं है? क्या इसके लिए तेरी न्यायसभा बन्द हो गई है?" दयामय दयानन्द ने गाय आदि पशुओं की हत्या रुकवाने के लिए देशव्यापी हस्ताक्षर-अभियान चलाया था। उनका प्रयत्न था कि गौ हत्या रोकने विषयक प्रार्थनापत्र पर दो करोड़ भारतवासियों के हस्ताक्षर करवा कर ब्रिटिशसम्राज्ञी विक्टोरिया को वह प्रार्थनापत्र भेजा जाए। इसके लिए उन्होंने राजा से रंक तक सभी को प्रेरित किया था। इस प्रार्थनापत्र पर उदयपुर के महाराजा श्री सज्जन सिंह, जोधपुर के महाराजा यशबन्तसिंह, शाहपुराधीश, नाहरसिंह, महाराजा बूंदी आदि ने भी हस्ताक्षर किये थे तथा अपनी प्रजा से भी कराये थे। महर्षि के असामयिक देहावसान के कारण यह कार्य बीच में ही रुक गया। स्वामी दयानन्द गोकृष्यादिरक्षिणी सभा की स्थापना करना चाहते थे। इसे वे विश्वव्यापी बनाना चाहते थे। सब विश्व को विविध सुख पहुंचाना इस सभा का मुख्य उद्देश्य नियमों में वर्णित किया गया है तथा लिखा है कि जो मनुष्य इस परमहितकारी कार्य में तन-मन-धन से प्रयास और सहायता करेगा, वह इस सभा के प्रतिष्ठायोग्य होगा। यह भी लिखा है कि क्योंकि यह कार्य सर्वहितकारी है, इसलिए यह सभा भूगोलस्थ मनुष्यजाति से सहायता की पूरी आशा रखती है। जो सभा देशदेशान्तर और द्वीप-द्वीपान्तर में परोपकार ही करना अभीष्ट रखती है, वह सभा की सहकारिणी समझी जायेगी। महर्षि के १२ जनवरी सन् १८८२ ई० के पत्र से ज्ञात होता है कि उन्होंने आगरा में एक "गो-रक्षिणी सभा" स्थापित की थी और उसके नियमोपनियम भी बनाये थे। सम्भवतः वे ही नियमोपनियम गोकरुणानिधि में उन्होंने छपवाये होंगे। गोकृष्यादिरक्षिणी सभा के नियमों में लिखा है कि जो सभा के उद्देश्य के अनुकूल आचरण करने को उद्यत हो तथा जिसकी आयु १८ वर्ष से न्यून न हो वह इस सभा में प्रविष्ट हो सकता है। जो इस सभा में सदाचारपूर्वक एक वर्ष रह चुका हो और अपनी आय का शतांश या अधिक देता रहा हो, वह 'गौ रक्षक सभासद्' हो जायेगा और उसे सम्मति देने का अधिकार प्राप्त हो जायेगा। वर्ष भर सभा में रहने के नियम को विशेष परिस्थितियों में अन्तरंग सभा शिथिल भी कर सकती है। राजा, सरदार, बड़े-बड़े साहूकार आदि को सभा के सभासद् बनने के लिए शतांश देना आवश्यक नहीं होगा। वे एक बार या मासिक या वार्षिक अपने उत्साह वा सामर्थ्य के अनुसार देकर सभासद् बन सकते हैं। अन्तरंग सभा किसी विशेष हेतु से चन्दा न देने वाले को भी गौ रक्षक सभासद् बना सकती है। उपनियमों में अंकित है कि सभा के समस्त कार्यप्रबन्ध के लिए एक अन्तरंग सभा नियत की जायेगी और उसके तीन प्रकार के सभासद होंगे एक प्रतिनिधि दूसरे प्रतिष्ठित और तीसरे अधिकारी। प्रत्येक दो सप्ताह बाद अन्तरंग सभा अवश्य हुआ करेगी और मन्त्री तथा प्रधान भी आज्ञा से या जब अन्तरंग सभा के पांच सदस्य मन्त्री को पत्र लिखें तब भी हो सकती है। गोकृष्यादिरक्षिणी सभा का कार्य क्या होगा एतदर्थ लिखा है कि संप्रति इस सभा के धन का व्यय गौ आदि पशु लेने, उनका पालन करने, जंगल और घास के क्रय करने, उनकी रक्षा के लिए भृत्य वह अधिकारी रखने, तालाब, कूप, बावड़ी अथवा बाड़ा बनाने के निमित्त किया जायेगा। पुनः अत्युन्नत होने पर सर्वहित कार्य में भी व्यय किया जा सकेगा। यह भी निर्देश है कि इस सभा के जो पशु प्रसूत होंगे, उनका दूध एक मास तक उनके बछड़े को पिलाना चाहिए और अधिक होने पर उसी पशु को अन्न के साथ खिला देना चाहिए। दूसरे मास से तीन स्तनों का दूध बछड़े को देना चाहिए और एक स्तन का स्वयं लेना चाहिए। तीसरे मास के आरम्भ से आधा दूध लेना और आधा बछड़े को तब तक देते रहना चाहिए जब तक गाय दूध देती है। सभा जब किसी को स्वरक्षित पशु देवें, तब यह व्यवस्था कर ले कि जब वह पशु असमर्थ हो जायेगा, उसके काम का न रहेगा, तब वह पुनः उसे सभा के अधीन कर देगा। स्वामी दयानन्द का अभिप्राय था कि गाय-बैलों की रक्षा होगी तो घी-दूध, अन्न प्रचुर मात्रा में मिलेगा, कृषि उन्नत होगी, देशवासी बलवान् तथा बुद्धिमान बनेंगे और इस प्रकार प्रत्येक देश के समुन्नत होने पर यह धरती गरिमामयी बन सकेगी। ग्रन्थ को समाप्त करते हुए महर्षि ने एक बड़ा ही मार्मिक श्लोक लिखा है- धेनुः परा दया पूर्वा यस्यानन्दाद् विराजते। आख्यायां निर्मितस्तेन ग्रन्थो गोकरुणानिधि:।। अर्थात् जिसके नाम में आनन्द शब्द के बाद 'धेनु' विराजमान है और आनन्द शब्द से पूर्व 'दया' है, उस 'दयानन्द सरस्वती' ने यह गोकरुणानिधि नामक ग्रन्थ निर्मित किया है। सरस्वती के अनेक अर्थों में एक अर्थ धेनु (गाय) भी होता है, इस दृष्टि से आनन्द शब्द के बाद धेनु का होना लिखा है। इससे यह सूचित होता है कि मेरे नाम का ही यह अर्थ है कि 'धेनुओं पर करुणा करके आनन्द मानने वाला' अतः मेरा 'गोकरुणानिधि' ग्रन्थ लिखना स्वाभाविक ही है। गो-रक्षा और पशु-रक्षा का प्रश्न जैसा महर्षि दयानन्द सरस्वती के समय था, वैसा ही आज भी है और उनके द्वारा किये गये गौ आदि पशुओं की रक्षा के प्रयास आज हमें भी अपने कर्त्तव्य का बोध करा रहे हैं। [साभार]
आदि शंकराचार्य एवं स्वामी दयानन्द ( vedicvichar )
08-11-2021
(आदि शंकराचार्य जी की प्रतिमा का प्रधानमंत्री मोदी जी ने केदारनाथ में उद्घाटन किया है। आदि शंकराचार्य जी का योगदान अप्रतिम है। इस लेख में आदि शंकराचार्य जी और स्वामी दयानन्द जी के योगदान पर चर्चा की गई है। ) #डॉ_विवेक_आर्य आदि शंकराचार्य एवं स्वामी दयानन्द हमारे देश के इतिहास की दो सबसे महान विभूति है। दोनों ने अपने जीवन को धर्म रक्षा के लिए समर्पित किया था। दोनों का जन्म एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था और दोनों ने जातिवाद के विरुद्ध कार्य किया। दोनों के बचपन का नाम शंकर और मूलशंकर था। दोनों को अल्पायु में वैराग्य हुआ और दोनों ने स्वगृह त्याग कर देशाटन किया। दोनों ने धर्म के नाम पर चल रहे आडम्बर के विरुद्ध संघर्ष किया। दोनों की कृतियां त्रिमूर्ति के नाम से प्रसिद्ध है। आदि शंकराचार्य की तीन सबसे प्रसिद्ध कृतियां है उपनिषद भाष्य, गीता भाष्य एवं ब्रह्मसूत्र। स्वामी दयानन्द की तीन सबसे प्रसिद्ध कृतियां है सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका एवं संस्कार विधि। दोनों की मृत्यु भी असमय विष देने से हुई थी। आदि शंकराचार्य एवं स्वामी दयानन्द 1. आदि शंकराचार्य का जिस काल में प्रादुर्भाव हुआ उस काल में उनका संघर्ष जैन एवं बुद्ध मतों से हुआ जबकि स्वामी दयानन्द का संघर्ष रूढ़िवादी एवं कर्मकांडी हिन्दू समाज के साथ साथ विधर्मियो के साथ भी हुआ। 2. आदि शंकराचार्य का संघर्ष भारत देश में ही उत्पन्न हुए विभिन्न मतों से हुआ जबकि स्वामी दयानन्द का संघर्ष देश के साथ साथ विदेश से आये हुए इस्लाम और ईसाइयत से भी हुआ। 3. आदि शंकराचार्य को मुख्य रूप से नास्तिक बुद्ध मत एवं जैन मत के वेद विरुद्ध मान्यताओं की तर्कपूर्ण समीक्षा करने की चुनौती मिली थी। जबकि स्वामी दयानन्द को न केवल वेदों को महान आध्यात्मिक ज्ञान के रूप में पुन: स्थापित करना था। अपितु विदेशी मतों द्वारा वेदों पर लगाए गए आक्षेपों का भी निराकरण करना था। हमारे ही देश में प्रचलित विभिन्न मत-मतान्तर की धार्मिक मान्यताएं भी विकृत होकर वेदों के अनुकूल नहीं रही थी। उनका मार्गदर्शन करना भी स्वामी जी के लिए बड़ी चुनौती थी। 4. आदि शंकराचार्य के काल में शत्रु को भी मान देने की वैदिक परम्परा जीवित थी। जबकि स्वामी दयानन्द का विरोध करने वाले न केवल स्वदेशी थे अपितु विदेशी भी थे। स्वामी जी का विरोध करने में कोई पीछे नहीं रहा। मगर स्वामी दयानन्द भी बिना किसी सहयोग के केवल ईश्वर विश्वास एवं वेदों के ज्ञान के आधार पर सभी प्रतिरोधों का सामना करते हुए आगे बढ़ते रहे। 5. आदि शंकराचार्य को केवल वैदिक धर्म का प्रतिपादन करना था जबकि स्वामी दयानन्द को वैदिक धर्म के प्रतिपादन के साथ साथ विदेशी मतों की मान्यताओं का भी पुरजोर खंडन करना पड़ा। 6. आदि शंकराचार्य के काल में धर्मक्षेत्र में कुछ प्रकाश अभी बाकि था। विद्वत्त लोग सत्य के ग्रहण एवं असत्य के त्याग के लिए प्राचीन शास्त्रार्थ परम्परा का पालन करते थे। जिसका मत विजयी होता था उसे सभी स्वीकार करते थे। पंडितों का मान था एवं राजा भी उनका मान करते थे। शंकराचार्य ने उज्जैन के राजा सुन्धवा से जैन मत के धर्मगुरुओं से शास्त्रार्थ का आयोजन करने के लिए प्रेरित किया। राजा की बुद्धि में ज्ञान का प्रकाश था। जैन विद्वानों के साथ हुए शास्त्रार्थ में शंकराचार्य विजयी हुए। राजा के साथ जैन प्रचारकों ने वैदिक धर्म को स्वीकार किया। स्वामी दयानन्द के काल में यह परम्परा भुलाई जा चुकी थी। स्वामी जी ने भी शास्त्रार्थ रूपी प्राचीन परिपाटी को पुनर्जीवित करने के लिए पुरुषार्थ किया। काशी में उन्होंने मूर्तिपूजा पर बनारस के सकल पंडितों के साथ काशी नरेश के सभापतित्व में शास्त्रार्थ का आयोजन किया। शास्त्रार्थ में स्वामी दयानन्द के विजय होने पर भी काशी नरेश ने उनका साथ नहीं दिया और पंडितों का साथ दिया। काशी नरेश और पंडितों के विरोध का स्वामी दयानन्द ने पुरजोर सामना किया मगर सत्य के पथ से स्वामी जी विचलित नहीं हुए। अडिग स्वामी दयानन्द को केवल और केवल ईश्वर का साथ था। 7. आदि शंकराचार्य के काल में वेदों का मान था। स्वामी दयानन्द के काल में स्थिति में परिवर्तन हो चूका था। स्वामी जी को एक ओर विदेशियों के समक्ष वेदों को उत्कृष्ट सिद्ध करना था। दूसरी ओर स्थानीय विद्वानों द्वारा वेदों के विषय में फैलाई जा रही भ्रांतियों का भी निराकरण करना था। वेदों को यज्ञों में पशुबलि का समर्थन करने वाला, जादू-टोने का समर्थन करने वाला, अन्धविश्वास का समर्थन करने वाला बना दिया गया था। स्वामी जी के वेदों के नवीन भाष्य को करने का उद्देश्य इन्हीं भ्रांतियों का निवारण करना था। स्वामी जी के पुरुषार्थ के दर्शन उनके यजुर्वेद और ऋग्वेद भाष्य को देखकर होते हैं। हमारे समाज को स्वामी जी के इस योगदान के लिए आभारी होना चाहिए। 8. आदि शंकराचार्य के काल में पंडित लोग सत्यवादी थे। सत्य को स्वीकार करने के लिए अग्रसर रहते थे। स्वामी दयानन्द के काल में पंडितों को सत्य से अधिक आजीविका की चिंता थी। वेदों को सत्य भाष्य को स्वीकार करने से उन्हें आजीविका छीनने का भय था, उनकी गुरुडम की दुकान बंद होने क भय था, उनकी महंत की गद्दी छीनने का भय था। इसलिए उन्होंने स्वामी दयानन्द को सहयोग देने के स्थान पर उनके महान कार्य का पुरजोर विरोध करना आरम्भ कर दिया। वैदिक धर्म सत्य एवं ज्ञान पर आधारित धर्म है। सत्य और ज्ञान अन्धविश्वास के शत्रु है। दयानन्द के भाग्योदय करने वाले वचनों को स्वीकार करने के स्थान पर उनका पुरजोर विरोध करना हिन्दू समाज के लिए अहितकारी था। काश हिन्दू समाज ने स्वामी दयानन्द को ठीक वैसे स्वीकार किया होता जैसा शंकराचार्य के काल में स्वीकार किया था। तो भारत देश का स्वर्णिम युग आरम्भ हो जाता। 9. आदि शंकराचार्य को विदेशी मतों के साथ संघर्ष करने की आवश्यकता नहीं पड़ी। जबकि स्वामी दयानन्द के तो अपनों के साथ साथ विदेशी भी बैरी थे। इस्लामिक आक्रांताओं ने हिन्दुओं के आत्मविश्वास को हिला दिया था। वीर शिवाजी और महाराणा प्रताप सरीखे वीरों से हिन्दुओं की कुछ काल तक रक्षा तो हो पायी। मगर आध्यात्मिक क्षेत्र में हिन्दुओं की जो व्यापक हानि हुई उसे पुनर्जीवित करना अत्यंत कठिन था। रही सही कसर अंग्रेजों ने पूरी कर दी। उन्होंने हमारे देश की आत्मा पर इतना कठोर आघात किया कि हिन्दू समाज अपने प्राचीन गौरव को भूलकर बैठा। स्वामी दयानन्द को हमारे देशवासियों को अपनी प्राचीन ऋषि परम्परा एवं इतिहास से परिचित करवाने के लिए अत्यंत पुरुषार्थ करना पड़ा। भारतीयों के आत्मविश्वास को जगाने के लिए एवं विदेशी मतों को तुच्छ सिद्ध करने के लिए उन्हें उन्हीं की कमी से परिचित करवाना अत्यंत आवश्यक था। इसी प्रयोजन से स्वामी दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश के 13 वें एवं 14 वें समुल्लास की रचना की थी। स्वामी जी के इस पुरुषार्थ का मूल्याङ्कन नहीं हो पाया। अन्यथा समस्त हिन्दू समाज उनका आभारी होता। हिन्दू समाज की व्याधि को स्वामी दयानन्द ने बहुत भली प्रकार से न केवल समझा अपितु उस बीमारी का उपचार भी वेद रूपी औषधि के रूप में खोज कर दिया। शंकराचार्य के काल में हमारे देश में स्वदेशी राजा था जबकि स्वामी जी के काल में विदेशी राज था। आदि शंकराचार्य से स्वामी दयानन्द का पुरुषार्थ किसी भी प्रकार से कमतर नहीं था। इसके विपरीत स्वामी जी को आदि शंकराचार्य से अधिक विषम चुनौतियों का सामना करना पड़ा। हमें उनके आर्य जाति के लिए किये गए उपकार का आभारी होना चाहिए। यही उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि होगी। मैं इस लेख को थियोसोफिकल सोसाइटी की संस्थापक कर्ता मैडम ब्लावट्स्की के कथन से पूर्ण करना चाहूँगा। "इस कथन में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि भारत देश ने आदि शंकराचार्य के पश्चात आधुनिक काल में स्वामी दयानन्द के समान संस्कृत का विद्वान नहीं देखा, आध्यात्मिक रोगों का चिकित्सक नहीं देखा, असाधारण वक्ता नहीं देखा और अज्ञान का ऐसा निराकरण करने वाला नहीं देखा। " (नोट- इस लेख का उद्देश्य आदि शंकराचार्य एवं स्वामी दयानन्द के मध्य तुलना करना नहीं है। दोनों हमारे लिए महान एवं प्रेरणादायक है। इस लेख का उद्देश्य यह सिद्ध करना है कि स्वामी दयानन्द को अधिक विपरीत परिस्थितियों का सामना करना पड़ा था। इस लेख के लेखन में बावा छज्जू सिंह कृत स्वामी दयानन्द चरित्र का प्रयोग किया गया है।- लेखक)
आदर्श आचार-व्यवहार (vedicvichar )
08-11-2021
(दार्शनिक विचार) *पूर्वाभिभाषी,सुमुखः,होता,यष्टा,दाता,अतिथीनां पूजकः,काले हितमितमधुररार्थवादी,वश्यात्मा,धर्मात्मा,हेतावीर्ष्यु,फलेनेर्ष्युः,निश्चिन्तः,निर्भीकः,ह्रीमान्,धीनाम्,महोत्साहः,दक्षः,क्षमावान्,धार्मिकः,आस्तिकः,मंगलाचारशीलः ।।* ―(चरक० सूत्र० ८/१८) *अर्थ*―मनुष्य को चाहिये कि यदि अपने पास कोई मिलने के लिए आये तो उससे स्वयं ही पहले बोले। वह सदा प्रसन्नमुख, हँसता और मुस्कराता हुआ रहे। प्रतिदिन हवन और यज्ञ करने वाला हो। मनुष्य को अपनी सामर्थ्य के अनुसार दान देना चाहिये, अतिथियों का आदर-सत्कार करना चाहिए। समय पर हितकर, थोड़े और मधुर, अर्थवाले वचनों को बोलना चाहिए।जितेन्द्रिय और धर्मात्मा होना चाहिए। दूसरे की उन्नति के कार्यों में स्पर्धा रखनी चाहिए, परन्तु उसके फल में ईर्ष्या नहीं करनी चाहिए। चिन्ताओं से मुक्त रहना चाहिए। निडर होना चाहिए। निन्दनीय कामों को करने में लज्जाशील होना चाहिए। बुद्धिमान, अत्यधिक उत्साही और प्रत्येक काम में चतुर होना चाहिए। क्षमाशील, धार्मिक और आस्तिक (ईश्वर, वेद और पुनर्जन्म में विश्वास रखने वाला) होना चाहिए। इस प्रकार मनुष्य को मंगल आचार से युक्त होना चाहिए। *सर्वप्राणिषु बन्धुभूतः स्यात्,क्रुद्धानामनुनेता,भीतानामाश्वासयिता,दीनानामभ्युपपत्ता,सत्यसन्धः,सामप्रधानः,परपरुषवचनसहिष्णुः,अमर्षघ्नः,प्रशमगुणदर्शी,रागद्वेषहेतूनां हन्ता च ।।* ―(चरक० सूत्र० ८/१८) *अर्थ*―मनुष्य को सब प्राणियों के साथ भाई के समान व्यवहार करने वाला होना चाहिए, कुद्ध मनुष्यों को अनुनय-विनय से प्रसन्न करने वाला होना चाहिए, भयभीत=डरे हुए मनुष्यों को आश्वासन=ढाढस, तसल्ली देने वाला होना चाहिए, दीन-दुखियों का सहायक होना चाहिए, सत्य प्रतिज्ञ होना चाहिए, साम, दाम, दण्ड, और भेद-इन चारों उपायों में से साम (शान्ति) का ही प्रधान रुप से आलम्बन करने वाला, अर्थात् सदा शान्त रहना चाहिए, दूसरों के कठोर वचनों को सहने वाला होना चाहिए, अमर्ष=क्रोध का नाशक होना चाहिए, शान्ति को गुण की दृष्टि से देखने वाला होना चाहिए, राग-द्वेष उत्पन्न करने वाले कारणों का त्याग करने वाला होना चाहिए। *सत्त्वसम्पन्नो,वृद्धदर्शी,सत्यवाक्,अविसंवादकः,कृतज्ञः,स्थूललक्षः,अदीर्घसूत्रः,दृढबुद्धिः,विनयकामः,इत्याभिगामिका गुणाः ।।* ―(कौटिल्य अर्थ० ६/१/३) *अर्थ*―मनुष्य को आत्मिक बल से सम्पन्न होना चाहिए, वृद्ध पुरुषों का उपासक होना चाहिए, सत्यवादी होना चाहिए, वचन और आचरण में एकता रखनी चाहिए, कृतज्ञ (किये हुए उपकार को मानने वाला) होना चाहिए, अपना लक्ष्य सदा ऊँचा और महान् रखना चाहिए, दीर्घसूत्री नहीं होना चाहिए―सब काम यथासम्भव शीघ्रता से करने चाहिएँ, अपनी बुद्धि को दृढ़ रखना चाहिए-ढुल-मुल नहीं, शास्त्र मर्यादा का पालन करने वाला होना चाहिए-ये आभिगामिक गुण हैं-इन गुणों के कारण मनुष्य के पास जाने की इच्छा होती है। *वाग्मी, प्रगल्भः, स्मृति-मति-बलवान्, उदग्रः, स्ववग्रहः, दीर्घदूरदर्शी, पैशुन्यहीन इत्यात्मसम्पत् ।।* ―(कौटि० ६/१/६) *अर्थ*―मनुष्य को वाग्मी (अर्थपूर्ण भाषण करने में समर्थ, उत्तम वक्ता=बोलने वाला) होना चाहिए, बोलने में निर्भीक और प्रौढ़ होना चाहिए, स्मरणशील, मतिमान् और बलवान् होना चाहिए, वीर, पराक्रमी और साहसी होना चाहिए, नमनशील स्वभाव का होना चाहिए, हठी एवं कठोर स्वभाव का नहीं, शिल्प और कला में कुशल होना चाहिए, दीर्घदर्शी और दूरदर्शी होना चाहिए, पिशुनता=चुगली नहीं करनी चाहिए, यह मनुष्य की आत्मसम्पत्ति है। *यद्यदात्मनि चेच्छेत तत्परस्यापि चिन्तयेत् ।।* ―(महाभा० शा० २५९/२२) अपने लिए जिन-जिन बातों की इच्छा हो ,उनकी दूसरों के लिए भी इच्छा करनी चाहिए। *न तत्परस्य सन्दध्यात्प्रतिकूलं यदात्मनः ।* ―महाभा० उद्योग० ३८/७१) जो बात अपने लिए प्रतिकूल जान पड़े,वह दूसरों के प्रति भी नहीं करनी चाहिए। *ईक्षितः प्रतिवीक्षेत मृदु वल्गु च सुष्ठु च ।* ―(महाभा० शा० ६७/३९) यदि कोई अपनी और देखे तो उसकी और मृदु,मधुर एवं सौजन्यपूर्ण दृष्टि से देखना चाहिए।
Vedicvichar
05-11-2021
गोवर्धन - गौ + वर्धन अर्थात् गौ का वर्धन करना ।पूजा अर्थात् उनकी रक्षा व पालन करना और उनसे लाभ लेना।
Vedicvichar
04-11-2021
आज महर्षि दयानन्द सरस्वती जी के १३८ वे बलिदान दिवस पर उन्हें कोटि - २ नमन।ऋषि दयानंद इस संसार मे केवल ५९ वर्ष की प्रतिनियुक्ति पर आये थे।समय थोडा था और काम बहुत क्योंकि चारों ओर अधर्म का पाखंड का बोलबाला था। वेद आदि सत्य शास्त्र जैसे विलुप्त ही हो गये थे।सत्य को असत्य ने धर्म को पाखंड ने ढक लिया था। स्त्रियो की दशा समाज मे ठीक नहीं थी।ऐसे विपरीत वातावरण मे ऋषि ने अपना कार्य शुरु किया।वास्तव मे महापुरुषो के जीवन दो भागो मे बंटे होते है पहले वे संकल्प धारण करते है फिर उसे पुरुषार्थ से प्राप्त करते है चाहे कितनी भी बाधा आये अपने मार्ग से विचलित नहीं होते। बहन की मृत्यु और शिवरात्रि की घटना ने ऋषि के जीवन मे खलबली मचा दी।उन्होनें अपना लक्ष्य सच्चे शिव की तलाश और मृत्यु को जानना बना लिया और अनेकों कष्ट झेलकर प्राप्त किया ।हम दयानन्द पर गर्व इस लिए नही करते कि वे जाति विशेष के थे ,गर्व इसलिए नहीं करते धर्म विशेष के थे,गर्व इसलिए नहीं करते कि प्रान्त विशेष या देश विशेष के थे। बल्कि हम ऋषि पर गर्व इसलिए करते है कि उन्होनें कभी घटिया बात नही कही,कभी छोटी बात नहीं कही ,कभी टुच्ची बात नही कही उन्होनें वह बात कही जिससे सबका भला हो।व्यक्ति अपना भला चाहता है,परिवार का भला चाहता है,समाज का भला चाहता है , देश का भला चाहता है किन्तु दयानन्द संसार का भला चाहता है।जड़ और चेतन दोनों का भला चाहता है।सत्य को ग्रहण करने और असत्य को छोडने के लिए उद्यत रहना चाहिए ।ये बात कहने वाला ऋषि के अलावा कोई है क्या कहीं से एक पंक्ति कोई ढूंढ कर तो दिखादे। ऋषि ने वो बात कही जो किसी के विरोध मे नहीं जाती किसी को हानि नहीं पहुंचाती जो उसको माने उसका भी भला जो सुने उसका भी भला ।ऋषि सबका भला चाहता है,क्योंकि ऋषि की वाणी वेद की वाणी है,ईश्वर की वाणी है।ईश्वर सबका भला चाहता है ,वेद सबका भला चाहता है और दयानन्द भी सबका भला चाहता है।ऋषि का योगदान प्रत्येक क्षेत्र मे है।राजनीति मे उनका चिन्तन आर्याभिनव पुस्तक मे ऋषि प्रार्थना करते है कि आर्यो का चक्रवृति साम्राज्य हो,जब अपने देश मे भी अपना राज्य नहो ऐसे मे चक्रवृति साम्राज्य की बात करना ऋषि की सोच को दिखाता है।आज हम सामाजिक एकता की बात करते है ऋषि के समय मे जब चारो छुआछूत जाति वाद फैला था तब ऋषि कहते है चाहे दरिद्र का बच्चा हो या राजा का सबको समान वस्त्र समान भोजन और समान शिक्षा मिलनी चाहिए ।हम आज स्त्रियो की समानता की बात करते है।उस समय ऋषि कहते है कि यदि ईश्वर इन्हें वेद पढने सुनने से वंचित रखना चाहता तो इन्हें कान व वाणी क्यों देता।आर्थिक क्षेत्र मे हम लघु उद्योग के प्रचार के लिए गांधी का नाम लेते है लेकिन ये भूल जाते है कि जब गांधी घुटनो के बल चल रहे थे तब ऋषि जर्मनी से पत्र व्यवहार करके यह सुनिश्चित कर रहे थे कि हमारे नवयुवको को हस्त कौशल की शिक्षा कैसे मिले।उनके पत्रो से यह स्पष्ट है।ऋषि ने अपनी ओर से कुछ नहीं कहा बल्कि ब्रह्मा से लेके जैमिनि पर्यन्त ऋषियो की बात कही।सत्य का ऐसा वक्ता ढूँढ़ने पर भी नहीं मिलेगा जिसने ये कहा हो कि चाहे मेरी अगुली को मोमबत्ती की भांति जला दी जाय फिर भी सच ही कहूंगा।संसार के कल्याण की ऐसी भावना कि जाते समय केवल यही मलाल कि काश वेदभाष्य पूरा हो जाता ।भ्रांति निवारण मे कहते है मै वेद भाष्य पूरा करने के लिये दोबारा जन्म लूंगा।ऋषि को अपनी मुक्ति की चिन्ता नहीं बल्कि कहते है कि मै अपने मोक्ष के लिए नही बल्कि दीन दु:खियो की खुशी के लिए आया हू।गुरु भक्त ऐसा कि गुरु के कहने पर अपना पूरा जीवन दान कर दिया । ऋषि घर से पाखंड का खंडन करने नहीं निकला था लेकिन जब गुरुजी ने वचन लिया तो पूरा जीवन सत्य के मंडनऔर पाखंड के खंडन मे लगा दिया । दयालु ऐसा कि शत्रुओ को भी क्षमा यहकह कर कि मै लोगो को बन्धन मे डालने नहीं मुक्त कराने आया हूं।काशी का एक पंडित रोज उन्हें गाली देता था उनकी मृत्यु पर वह रो रहा था किसी ने पूछा क्यों रो रहे हो?तो कहने लगा कि दयानन्द धरती पर निष्कलंक आया था और निष्कलंक ही चला गया ।उस पर कोई कलंक नहीं लगा। ऋषि ने जीवन के अन्तिम समय मे केवल एक संस्था बनाई और नाम भी रखा परोपकारिणी सभा। आर्य समाज के रूप मे एक विचार दिया सोई हुई आर्य जाति को जगाने का ।आर्य समाज के रूप मे वे आज भी हमारे साथ है ।दयानन्द भले ही भौतिक रुप मे आज न हो लेकिन वे हमारे दिलो मे सदा रहेगे। ऐ आर्यो आओ आज हम यह व्रत ले की आपस के मन मुटाव , ईर्ष्या द्वेष मिटाकर सब मिलकर ऋषि के सपने को साकार करे यही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी। "बहुत याद करते है ऋषिवर को हम"
ଶାରଦୀୟ ନବଶସ୍ୟେଷ୍ଟି (ଦୀପାବଳୀ) ଏବଂ ଋଷି ଦୟାନନ୍ଦ ବଳିଦାନ ଦିବସ
02-11-2021
ଆସନ୍ତୁ ଦୀପାବଳି ପର୍ବର ବାସ୍ତବିକ ସତ୍ୟତା ଜାଣିବା ଏବଂ ଋଷି ଦୟାନନ୍ଦ ବଳିଦାନ ଦିବସ ସମ୍ବନ୍ଧରେ ଜାଣିବା। ଆର୍ଯ୍ୟ ମାନଙ୍କ ଏକ ବିଶେଷ ପର୍ବ ହେଉଛି ଦୀପାବଳି। ବାସ୍ତବରେ ବର୍ତ୍ତମାନ ସମୟରେ ପ୍ରକୃତ ଦୀପାବଳୀ ଲୁପ୍ତ ହୋଇ କେବଳ ଲୋକ ଦେଖାଣିଆ ପର୍ବ ହୋଇ ରହିଯାଇଛି!! ଏହି ଦୀପାବଳି ପର୍ବକୁ ବିଭିନ୍ନ ସମ୍ପ୍ରଦାୟ ବିଭିନ୍ନ ପ୍ରକାରେ ପରିଭାଷିତ କରିଥାନ୍ତି। ???? ହିନ୍ଦୁମାନେ କହିଥାନ୍ତି ଦୀପାବଳିର ଦିନରେ ମର୍ଯ୍ୟାଦା ପୁରୁଷୋତ୍ତମ ଶ୍ରୀରାମଚନ୍ଦ୍ର ଲଙ୍କେଶ ରାବଣ ଉପରେ ବିଜୟ ପ୍ରାପ୍ତ କରି ଚଉଦ ବର୍ଷର ବନବାସ ସମ୍ପୂର୍ଣ କରି ଅଯୋଧ୍ୟାରେ ପହଞ୍ଚି ଥିଲେ ଓ ନଗରବାସି ଦୀପ ପ୍ରଜ୍ବଳିତ କରି ତାଙ୍କୁ ସ୍ୱାଗତ କରିଥିଲେ। ???? ଶିଖ ମାନେ କହନ୍ତି ଦୀପାବଳୀ ଏଇଥିପାଇଁ ପାଳନ କରାଯାଏ ଯେ ଏହିଦିନ ସେମାନଙ୍କ ଷଷ୍ଠ ଗୁରୁ ହରଗୋବିନ୍ଦ ସିଂହଙ୍କୁ ବାଦସାହ ଜାହାଙ୍ଗିରଙ୍କ ଜେଲରୁ ମୁକ୍ତ କରାଯାଇଥିଲା। ???? ଜୈନି ମାନେ କହନ୍ତି ଦୀପାବଳୀ ଏଇଥିପାଇଁ ପାଳନ କରାଯାଏ ଯେ ଏହିଦିନ ଜୈନ ସମ୍ପ୍ରଦାୟର ୨୪ତମ ତୀର୍ଥଙ୍କର ମହାବୀର ନିଜ ଶରୀର ତ୍ୟାଗ କରିଥିଲେ। ???? ଆଉ ଏହି ପ୍ରକାରେ ବୌଦ୍ଧ ମାନେ ମଧ୍ୟ କହିଥାନ୍ତି ଗୌତମ ବୁଦ୍ଧ ଗୃହ ତ୍ୟାଗ କରିବାର ୧୭ ବର୍ଷ ପରେ ନିଜ ଅନୁଗାମୀ ମାନଙ୍କ ସହିତ କପିଳବାସ୍ତୁ ଫେରିଥିଲେ ଓ ରାଜ୍ୟବାସୀ ଦୀପ ଜଳେଇ ତାଙ୍କ ସ୍ୱାଗତ କରିଥିଲେ। ଏହିସବୁ ତଥ୍ୟ ମାନଙ୍କ ଭିତରେ କିଛି ହେଉଛି ସମ୍ପୂର୍ଣ୍ଣ ଭାବେ କପୋଳକଳ୍ପନା ଉପରେ ଆଧାରିତ। ଯେପରି ମର୍ଯ୍ୟାଦା ପୁରୁଷୋତ୍ତମ ଶ୍ରୀରାମଙ୍କ ଅଯୋଧ୍ୟା ଫେରିବା କଥା। ମହର୍ଷି ବାଲ୍ମିକୀ ରଚିତ ରାମାୟଣର ଅୟୋଧ୍ୟା କାଣ୍ଡ ତୃତୀୟ ସର୍ଗରେ ସ୍ପଷ୍ଟ ଉଲ୍ଲେଖ ଅଛି ଶ୍ରୀରାମଙ୍କ ରାଜ୍ୟାଭିଷେକ ଚୈତ୍ର ମାସରେ ହେବାର ଥିଲା ― ଚୈତ୍ରଶ୍ଶ୍ରୀମାନୟଂ ମାସଃ ପୁଣ୍ୟଃ ପୁଷ୍ପିତକାନନଃ। ୟୌବରାଜ୍ୟାୟ ରାମସ୍ୟ ସର୍ଵମେବୋପକଲ୍ପ୍ୟତାମ୍॥୦୨/୦୩/୦୪॥ ଅତଏବ ବନବାସର ଚଉଦ ବର୍ଷ ମଧ୍ୟ ଚୈତ୍ର ମାସରେ ହିଁ ପୂର୍ଣ ହେବ। ଯଦି କେହି କହିବେ ଯେ ହଁ ଯୁଦ୍ଧରେ ବିଳମ୍ବ ହୋଇଥାଇ ପାରେ। ତେବେ ବି ଏହା ଭୂଲ ହିଁ ହେବ। କାହିଁକି ନା ଚିତ୍ରକୁଟରେ ଭରତ ଶ୍ରୀରାମଙ୍କୁ କହି ଦେଇଥିଲେ ଯେ --- ନ ଦ୍ରକ୍ଷ୍ୟାମି ୟଦି ତ୍ଵାଂ ତୁ ପ୍ରବେକ୍ଷ୍ୟାମି ହୁତାଶନମ୍॥୦୨/୧୧୨/୨୬॥ ଯଦି ଚଉଦ ବର୍ଷ ସମାପ୍ତ ପରେ ପରେ ଆପଣଙ୍କୁ ମୁଁ ଅୟୋଧ୍ୟାରେ ନଦେଖେ ତେବେ ମୁଁ ଅଗ୍ନି ରେ ପ୍ରବିଷ୍ଟ ହୋଇ ଭସ୍ମ ହୋଇଯିବି ।" ବାଲ୍ମିକୀ ରାମାୟଣ ଯୁଦ୍ଧ କାଣ୍ଡ ସର୍ଗ ୧୨୪ ରେ ରାବଣ ବଧ ପରେ ଶ୍ରୀରାମ ବିଭୀଷଣକୁ କହନ୍ତି ମୁଁ ଆଉ ଜମା ବିଳମ୍ବ କରି ପାରିବିନି ମୋତେ ତୁରନ୍ତ ଯିବାକୁ ହେବ...କାହିଁକି ନା ଅଯୋଧ୍ୟାରେ ମୋ ଭାଇ ଭରତ ମୋର ପ୍ରତିକ୍ଷାରେ ଥିବ। ତାପରେ ବିଭୀଷଣ ପ୍ରାର୍ଥନା କରି କହନ୍ତି ମୁଁ ଆପଣଙ୍କୁ ପୁଷ୍ପକ ବିମାନ ସାହାଯ୍ୟରେ ଗୋଟିଏ ଦିନରେ ଅଯୋଧ୍ୟାରେ ପହଞ୍ଚେଇ ଦେବି। ଏଥିରୁ ସ୍ପଷ୍ଟ ସିଦ୍ଧ ହେଉଛି ଯେପରି ଶ୍ରୀରାମଙ୍କ ରାଜ୍ୟାଭିଷେକ ଚୈତ୍ର ମାସରେ ହେବାର ଥିଲା ସେହିପରି ଶ୍ରୀରାମଙ୍କ ଚଉଦ ବର୍ଷର ବନବାସ ମଧ୍ୟ ଚୈତ୍ର ମାସରେ ହିଁ ସମ୍ପୂର୍ଣ୍ଣ ହେଲା। ଦୀପାବଳୀ ବା କାର୍ତ୍ତିକ ଅମାବାସ୍ୟାରେ ଶ୍ରୀରାମଚନ୍ଦ୍ରଙ୍କ ଲଙ୍କାରୁ ଅଯୋଧ୍ୟାକୁ ଫେରିବା ଘଟଣା ସମ୍ପୂର୍ଣ୍ଣ ମନଗଢା ! ତେବେ ଆସନ୍ତୁ ଏହାର ସତ୍ୟତା ଜାଣିବା, କେବେଠାରୁ, କାହିଁକି ଏବଂ କେଉଁମାନେ ଦୀପାବଳୀ ପର୍ବ ପାଳନ କରି ଆସୁଛନ୍ତି? ???? ଏହି ଦୀପାବଳି ବାସ୍ତବରେ ହେଉଛି ସନାତନ ଆର୍ଯ୍ୟଙ୍କ ପର୍ବ ଶାରଦୀୟ ନବଶସ୍ୟେଷ୍ଟି ଓ ଏହି ପର୍ବ ସୃଷ୍ଟି ଆରମ୍ଭରୁ ପାଳିତ ହୋଇ ଆସୁଅଛି । କାରଣ ଏହା ଏକ ନିର୍ଦ୍ଦିଷ୍ଟ ବ୍ୟକ୍ତି ବିଶେଷ ବା ଘଟଣା ବିଶେଷ ସହିତ ସଂଶ୍ଳିଷ୍ଟ ନୁହେଁ । ଏହାର ମୂଳ କାରଣ ହେଉଛି ନୂତନ ଫସଲର ଆଗମନ ଏବଂ ସେହି ଫସଲର ସ୍ୱାଗତ ଏବଂ ଆନନ୍ଦ ପ୍ରକାଶ କରିବା ପାଇଁ କୃଷକ ଆୟୋଜନ କରୁଥିବା ଉତ୍ସବ । ଏଥିରେ ସମସ୍ତଙ୍କ ସହିତ ମିଶି ଭଗବାନଙ୍କୁ ଧନ୍ୟବାଦ ଦେବା ପାଇଁ ଏକ ସ୍ୱତନ୍ତ୍ର ଯଜ୍ଞ ଆୟୋଜିତ ହୋଇଥାଏ, ଯେଉଁଥିରେ ନୂତନ ଫସଲରୁ ପ୍ରସ୍ତୁତ ଖାଦ୍ୟ ଯଜ୍ଞାଗ୍ନିରେ ଦିଆଯାଏ ଏବଂ ତା’ପରେ ସମସ୍ତେ ଏହାକୁ ନିଜ ନିଜ ଘର ମାନଙ୍କରେ ଉପଭୋଗ କରନ୍ତି । ଏହି ଯଜ୍ଞକୁ *ଶାରଦୀୟ ନବଶସ୍ୟେଷ୍ଟି* କୁହାଯାଏ। ନବଶସ୍ୟେଷ୍ଟି = (ନବ=ନବୀନ + ଶସ୍ୟ=ଫସଲ + ଇଷ୍ଟି=ୟଜ୍ଞ, ଅର୍ଥାତ୍ ନୂତନ ଫସଲ ପାଇଁ ଅନ୍ନ ର ଯଜ୍ଞ) କରାଯାଉଥିବା ବିଧାନ। ଶାରଦୀୟ ର ଅର୍ଥ ହେଉଛି ଶରତ ଋତୁରେ କରାଯାଉଥିବା ଯଜ୍ଞ। ଯଜ୍ଞର ଅର୍ଥ ହେଉଛି ଦେବପୂଜା-ସଂଗତିକରଣ-ଦାନ। ଦୀପାବଳି ଦିନ, କୃଷକ ଯଜ୍ଞ କାର୍ଯ୍ୟ କରନ୍ତି, ଅର୍ଥାତ୍ ତାଙ୍କ କଠିନ ପରିଶ୍ରମରେ ତାଙ୍କୁ ସମର୍ଥନ କରିଥିବା ଈଶ୍ବରଙ୍କୁ ଧନ୍ୟବାଦ ଦିଅନ୍ତି ଅର୍ଥାତ୍ ଯିଏ ଉଚିତ ସମୟରେ ବର୍ଷା, ଖରା ଆଦି ପ୍ରଦାନକଲେ,.. ଯାହା ଫସଲ ଉତ୍ପାଦନ ସହିତ ଅନାବଶ୍ୟକ କୀଟପତଙ୍ଗରୁ ରକ୍ଷା କଲା, ସେହି ଭଗବାନଙ୍କୁ ଧନ୍ୟବାଦ ଅର୍ପଣ କରିବା ଦ୍ଵାରା *ଦେବପୂଜା* ହୋଇଥାଏ। ସମସ୍ତ କୃଷକ ପରସ୍ପର ମିଳିତ ଭାବରେ ଯଜ୍ଞ କର୍ମ କରନ୍ତି ଯାହା *ସଂଗତିକରଣ* ଅଟେ ଏବଂ ସମାଜର ଗରିବ ଲୋକଙ୍କୁ ଅନ୍ନର *ଦାନ* କରି ଯଜ୍ଞର ପରିଭାଷାକୁ ସାର୍ଥକ କରାଯାଏ । ମୁଖ୍ୟତଃ ଦୁଇଟି ଫସଲ ହୋଇଥାଏ। ୧) ରବି ଫସଲ ୨) ଖରିଫ ଫସଲ ଯେପରି ଏହି ଦୁଇଟି ଫସଲ ଆଜି ହେଉଛି ସେପରି ଶ୍ରୀରାମଚନ୍ଦ୍ରଙ୍କ ଯୁଗରେ ମଧ୍ୟହେଉଥିଲା ଏବଂ ସେମାନଙ୍କ ପୂର୍ବଜଙ୍କ ଯୁଗରେ ମଧ୍ୟ ହେଉଥିଲା। ଗୌତମ ମହାବୀରଙ୍କ ଠାରୁ ଆରମ୍ଭ କରି ଗୁରୁ ନାନକ ଆଦିଙ୍କ ସମୟରେ ମଧ୍ୟ ଫସଲ ଉତ୍ପନ୍ନ ହେଉଥିଲା ଏବଂ ଉତ୍ସବ ପାଳନ କରାଯାଉଥିଲା। ଆର୍ଯ୍ୟ ଶିରୋମଣି ଶ୍ରୀରାମଚନ୍ଦ୍ର ଏବଂ ତାଙ୍କ ପିତା ଦଶରଥ ମଧ୍ୟ ନବଶସ୍ୟେଷ୍ଟି ଯଜ୍ଞ କରିଥିଲେ...କାହିଁକିନା ସେହି କାଳରେ ଅନ୍ନ ଏହି ଋତୁରେ ହିଁ ଉତ୍ପନ୍ନ ହେଉଥିଲା ଏବେ ମଧ୍ୟ ହେଉଛି ଏବଂ ଆଗକୁ ମଧ୍ୟ ହେଉଥିବ। ଶ୍ରୀରାମଙ୍କ କଥା ଛାଡ଼ନ୍ତୁ ରାବଣ ମଧ୍ୟ ନବଶସ୍ୟେଷ୍ଟି ଯଜ୍ଞ କରୁଥିଲା । ଏହି ପର୍ବର ସମ୍ବନ୍ଧ କୌଣସି ନିର୍ଦିଷ୍ଟ ବ୍ୟକ୍ତି କିମ୍ବା ଘଟଣା ସହିତ ନହୋଇ ପ୍ରକୃତି ସହିତ ଜଡିତ । ଦୀପାବଳି ଦିବସର ଆଉ ଏକ ମହତ୍ତ୍ୱ ହେଉଛି ଏହି ଦିବସ ଆର୍ୟସମାଜର ପ୍ରତିଷ୍ଠାତା *ମହର୍ଷି ଦୟାନଂଦ ସରସ୍ୱତୀଙ୍କ ବଳିଦାନ ବା ମୋକ୍ଷ ଦିବସ* । ମହର୍ଷି ଦୟାନନ୍ଦ ଆର୍ଯ୍ୟସମାଜର ସଂସ୍ଥାପକ ଆଧୁନିକ ବିଶ୍ଵ ଇତିହାସରେ ସର୍ଵୋତ୍ତମ ବେଦବେତ୍ତା, ବେଦଜ୍ଞ, ବେଦ ପ୍ରଚାରକ, ବେଦୋଦ୍ଧାରକ, ବେଦମୂର୍ତି, ବେଦର୍ଷି, ବେଦଭାଷ୍ୟକାର, ବେଦରକ୍ଷକ ଓ ବେଦକୁ ଈଶ୍ଵର ପ୍ରଦତ୍ତ ଜ୍ଞାନ ମାନିବା ତଥା ନିଜର ଏହି ମାନ୍ୟତାକୁ ତର୍କ, ପ୍ରମାଣ ଦ୍ଵାରା ସତ୍ୟ ସିଦ୍ଧ କରିଥିବା ଅପୂର୍ଵ ମହାପୁରୂଷ ଅଟନ୍ତି। ଏ ସମସ୍ତ ଗୁଣ ସହିତ ଋଷି ଦୟାନନ୍ଦ ମହାନ ଦେଶଭକ୍ତ, ଦେଶକୁ ସର୍ଵପ୍ରଥମ ସ୍ଵରାଜ୍ୟ ବା ସ୍ୱତନ୍ତ୍ରତାର ବିଚାର ପ୍ରଦାନ କରିଥିବା ସ୍ଵରାଜ୍ୟର ପ୍ରଥମ ଉଦ୍ଘୋଷକ, ଋଷି ମନୁ, ପତଂଜଳି, କପିଳ, କଣାଦ, ଗୌତମ, ବ୍ୟାସ, ଜୈମିନୀ ଆଦିଙ୍କ ପ୍ରତି ଶ୍ରଦ୍ଧାବାନ, ନିଜ ଗୁରୁ ଦଣ୍ଡୀ ସ୍ଵାମୀ ବିରଜାନନ୍ଦଙ୍କ ଅତି ପ୍ରିୟ, ସ୍ଵୟଂ ତଥା ନିଜ ଗୁରୁଙ୍କ ଯଶ ଏବଂ କୀର୍ତିକୁ ଦିଗ୍ଦିଗନ୍ତ ପ୍ରସାରିତ କରିଥିବା, ସିଦ୍ଧ ଯୋଗୀ, ସତ୍ୟକୁ ହିଁ ଧର୍ମର ପର୍ଯ୍ୟାୟ ଭାବେ ଗ୍ରହଣ କରିଥିବା ଅଦ୍ଵିତୀୟ ଏବଂ ଅପୂର୍ଵ ସମାଜ ସୁଧାରକ, ଅଛୂତୋଦ୍ଧାରର ଜନକ, ସ୍ତ୍ରୀ ଏବଂ ଶୂଦ୍ରଙ୍କୁ ବେଦାଧ୍ୟୟନର ଅଧିକାର ପ୍ରଦାନ କରିଥିବା, ନାରୀ ସମ୍ମାନ ଏବଂ ସେମାନଙ୍କ ମାନ ମର୍ୟାଦାର ରକ୍ଷକ, ନାରୀ ଉଦ୍ଧାରକ, ସମଗ୍ର ମାନବ ଜାତିରେ ସମାନତାର ପୋଷକ, ଅଜ୍ଞାନ-ଅନ୍ଧବିଶ୍ଵାସ-କୁରୀତି-ଅନ୍ୟାୟ ନିବାରକ ଆଦି ଅନେକାନେକ ଗୁଣ ଦ୍ୱାରା ବିଭୂଷିତ ଏବଂ ପରିପୂର୍ଣ୍ଣ ମହାପୁରୁଷ ଥିଲେ। ଋଷି ଦୟାନନ୍ଦ ଏପରି ଏକ ମହାପୁରୁଷ ଥିଲେ ଯିଏ “ନ ଭୂତୋ ନ ଭବିଷ୍ୟତି” କଥନ କୁ ଜୀବନରେ ନିଜ ଜ୍ଞାନ, ଯୋଗ୍ୟତା, ତପ ଏବଂ କାର୍ଯ୍ୟ ଦ୍ଵାରା ଚରିତାର୍ଥ କରିଥିଲେ। ବେଦର ପୁନରୂଦ୍ଧାର କରି ବିଶ୍ଵ ମାନବତା ର ଯେଉଁ ସେବା କରିଛନ୍ତି ତାର ମୂଲ୍ୟାଂକନ କରିବା ଅସମ୍ଭବ । ମହର୍ଷି ଦୟାନନ୍ଦ ବେଦର ସତ୍ୟ ଅର୍ଥକୁ ସମଗ୍ର ଦେଶ ତଥା ବିଶ୍ୱରେ ପ୍ରଚାର କରିବା ସହ ସଂସ୍କୃତ ସହିତ ହିନ୍ଦୀ ସାହିତ୍ୟର ମଧ୍ୟ ସମୃଦ୍ଧ କରିଥିଲେ। ଦୀର୍ଘକାଳ ଧରି ଯେଉଁ ବେଦ କେବଳ ଏକ ବର୍ଗ ବିଶେଷର ଅଧିକାର ରେ ଥିଲା, ସେହି ବେଦକୁ ଋଷି ଦୟାନନ୍ଦ ପ୍ରତ୍ୟେକ ବର୍ଗର ବ୍ୟକ୍ତି ପର୍ଯ୍ୟନ୍ତ ପହଞ୍ଚେଇବାରେ ସକ୍ଷମ ହୋଇଥିଲେ। ଏଥିରୁ ଜ୍ଞାତ ହୁଏ ଯେ ବେଦର ନାମ ନେଇ ସ୍ୱାର୍ଥୀ ଲୋକମାନେ ନିଜ ସ୍ୱାର୍ଥର ପୂର୍ତ୍ତି ପାଇଁ ଯେଉଁ ସବୁ ମିଥ୍ୟା ମାନ୍ୟତା ଆମ ଜନତାଙ୍କ ମଧ୍ୟରେ ପ୍ରଚଳିତ କରି ରଖିଥିଲେ ତାହା ବେଦ ସହିତ ଦେଶର ପରାଭବର ମଧ୍ୟ କାରଣ ସିଦ୍ଧ ହୋଇଥିଲା। ବେଦର ପୁନରୂଦ୍ଧାର ଏବଂ ସତ୍ୟ ବେଦାର୍ଥ ଦ୍ୱାରା ସମାଜୋତ୍ଥାନର ମୂଳଦୁଆ ପଡିଥିଲା। ମହର୍ଷି ଦୟାନନ୍ଦଙ୍କ ପ୍ରେରଣାରେ ଆର୍ଯ୍ୟସମାଜ ସମଗ୍ର ଦେଶରେ କ୍ଷିପ୍ର ଗତିରେ ସଂସ୍କୃତ ଶିକ୍ଷା ନିମିତ୍ତ ବୈଦିକ ଗୁରୂକୁଳ ଏବଂ ଆଧୁନିକ ଶିକ୍ଷା ପାଇଁ ଦୟାନନ୍ଦ ଐଂଗ୍ଲୋଂ ବୈଦିକ କାଲେଜ (DAV Public School/College) ଆଦିର ସ୍ଥାପନ କଲେ। ଋଷି ଦୟାନନ୍ଦଙ୍କ ସ୍ଥାପିତ ଆର୍ଯ୍ୟସମାଜର ଏହି କ୍ରାନ୍ତିକାରୀ କାର୍ଯ୍ୟ ଦ୍ୱାରା ଦେଶରେ ଅଜ୍ଞାନ ଅନ୍ଧକାର ଦୂର ହୋଇ ଜ୍ଞାନର ପ୍ରକାଶ ପ୍ରସାରିତ ହେଲା। ସ୍ଵାମୀ ଦୟାନନ୍ଦ ଯଜ୍ଞ କରିବା ଏବଂ ୟଜ୍ଞୋପବୀତ ଧାରଣ କରିବାର ଅଧିକାର ସମସ୍ତ ଦ୍ଵିଜ ଅର୍ଥାତ ବ୍ରାହ୍ମଣ, କ୍ଷତ୍ରିୟ, ବୈଶ୍ୟଙ୍କ ସହିତ ସ୍ତ୍ରି ଏବଂ ଶୂଦ୍ରଙ୍କୁ ମଧ୍ୟ ପ୍ରଦାନ କଲେ ଯଦ୍ୱାରା ସ୍ତ୍ରୀ ଏବଂ ଶୂଦ୍ର ବର୍ଣର ସମସ୍ତ ଆର୍ଯ୍ୟ ଜନତା ବେଦ ମନ୍ତ୍ରୋଚ୍ଚାରଣ ପୂର୍ବକ ଯଜ୍ଞ କରିବା ଆରମ୍ଭ କରିଦେଲେ। ଏ ସମସ୍ତ କାର୍ଯ୍ୟ ମହର୍ଷି ଦୟାନନ୍ଦଙ୍କ କ୍ରାନ୍ତିକାରୀ କାର୍ଯ୍ୟ ଗୁଡିକ ମଧ୍ୟରେ ଅନ୍ୟତମ। ଆର୍ଯ୍ୟସମାଜର ମନ୍ଦିର ମାନଙ୍କରେ ପ୍ରବେଶ ନିମନ୍ତେ ଜାତି ଏବଂ ସମ୍ପ୍ରଦାୟର କୌଣସି ପ୍ରତିବନ୍ଧକ ନ ରହିବାରୁ ପୌରାଣିକ ହିନ୍ଦୁ ମାନଙ୍କ ସହିତ ବୌଦ୍ଧ, ଜୈନ, ଶିଖ, ଈସାଈ, ମୁସଲମାନ ଆଦି ସମ୍ପ୍ରଦାୟର ଲୋକମାନେ ମଧ୍ୟ ସନାତନ ଆର୍ଯ୍ୟ ବୈଦିକ ଧର୍ମ କୁ ସ୍ଵୀକାର କରିବା ସହିତ ସେମାନଙ୍କ ମଧ୍ୟରୁ ଅନେକ ବେଦ ପ୍ରଚାରର କାର୍ଯ୍ୟରେ ନିଜର ସମ୍ପୂର୍ଣ୍ଣ ଜୀବନ ସମର୍ପିତ କରିଦେଲେ। ଦୀର୍ଘକାଳ ଧରି ଚାଲି ଆସୁଥିବା ଅସ୍ପୃଶ୍ୟତା ବା ଛୁଆଁ-ଅଛୁଆଁ ର ସମସ୍ୟା ଦୁର୍ବଳ ହୋଇ ପ୍ରାୟତଃ ସମାପ୍ତ ଆଡକୁ ଅଗ୍ରସର ହୋଇ ପଡ଼ିଲା। ଆର୍ଯ୍ୟସମାଜ କନ୍ୟା ବିଦ୍ୟାଳୟ/ଗୁରୁକୂଳ ଆଦିର ଶୁଭାରମ୍ଭ କରି ସମାଜକୁ ନୂତନ ଦିଗ ପ୍ରଦାନ କଲା। ଯେଉଁ ଲୋକମାନେ ସ୍ତ୍ରୀଶିକ୍ଷାର ବିରୋଧୀ ଥିଲେ ସେମାନେ ମଧ୍ୟ ଆର୍ଯ୍ୟସମାଜର ଅନୁସରଣ କରି ନିଜ କନ୍ୟା ମାନଙ୍କୁ ଆର୍ଯ୍ୟ କନ୍ୟା ପାଠଶାଳା ମାନଙ୍କୁ ପଠେଇ ସେମାନଙ୍କୁ ବିଦ୍ୟା ଶିକ୍ଷ୍ୟା ଦେବା ଆରମ୍ଭ କଲେ। ଧାର୍ମିକ କ୍ଷେତ୍ରରେ ଆର୍ଯ୍ୟସମାଜ ପ୍ରତିମାପୂଜାର ଖଣ୍ଡନ କଲା। ଋଷି ଦୟାନନ୍ଦ କାଶୀରେ ଦେଶର ସମସ୍ତ ପ୍ରାନ୍ତରୁ ଏକତ୍ରିତ ହୋଇଥିବା ୪୦ରୁ ଅଧିକ ଶୀର୍ଷସ୍ଥ ପୌରାଣିକ ପଣ୍ଡିତଙ୍କ ସହିତ ମୂର୍ତିପୂଜା ଉପରେ ଏକାକୀ ଶାସ୍ତ୍ରାର୍ଥ କରି ସେମାନଙ୍କୁ ପରାଜିତ କଲେ। ସମସ୍ତ ପୌରାଣିକ ପଣ୍ଡିତ ମିଶି ବେଦରେ ମୂର୍ତିପୂଜାର ବିଧାନ ସିଦ୍ଧ କରିପାରିଲେ ନାହିଁ। ବହୁ ସଂଖ୍ୟାରେ ଲୋକମାନେ ସ୍ଵାମୀ ଦୟାନନ୍ଦଙ୍କ ଦ୍ଵାରା ପ୍ରଭାବିତ ହୋଇ ମୂର୍ତିପୂଜାକୁ ତ୍ୟାଗ କରି ଆର୍ଯ୍ୟଧର୍ମକୁ ସ୍ୱୀକାର କଲେ। ଏହି ଭଳି ଭାବରେ ମହର୍ଷି ଦୟାନନ୍ଦ ମୃତକ ଶ୍ରାଦ୍ଧ, ଜନ୍ମନା ଜାତିପ୍ରଥା, ଅମେଳ ବିବାହ, ବାଲ୍ୟ ବିବାହ, ସତିପ୍ରଥା ଆଦି ଅନେକାନେକ କୁପ୍ରଥା ମାନଙ୍କର ଖଣ୍ଡନ କରିବା ସହିତ ବିଧବା ମାନଙ୍କ ପୁନର୍ଵିବାହ ତଥା ଯୁବାବସ୍ଥାରେ ହିଁ କନ୍ୟା ମାନଙ୍କୁ ସେମାନଙ୍କ ଗୁଣ, କର୍ମ ଏବଂ ସ୍ଵଭାବର ଅନୁରୂପ ଯୁବକ ମାନଙ୍କ ସହିତ ବିବାହର ସମର୍ଥନ ଏବଂ ପ୍ରଚାର କଲେ ଯଦ୍ୱାରା ଭାରତୀୟ ହିନ୍ଦୂ ସମାଜରେ ନୁଆଁ ଚେତନା ଏବଂ ଉତ୍ସାହ ଉତ୍ପନ୍ନ ହେଲା ତଥା ବିଧର୍ମି ଇସାଇ ମୁସଲିମ ମାନଙ୍କ ଧର୍ମାନ୍ତରଣ କରିବାର କୁଚକ୍ର ଧୂଳିସାତ ହୋଇଗଲା । ଋଷି ଦୟାନନ୍ଦ ଯୋଗକୁ ଈଶ୍ୱର ଉପାସନାରେ ସର୍ଵୋପରି ମହତ୍ଵ ଦେଲେ। ଋଷି ଦୟାନନ୍ଦଙ୍କ ଧରା ପୃଷ୍ଠକୁ ଆସିବା ପୂର୍ବରୁ ଯଜ୍ଞ ମାନଙ୍କରେ ପଶୁହିଂସା ହେଉଥିଲା ଏବଂ ଗାଈ, ମଇଁଷି, ଛେଳି, କୁକୁଡ଼ା ଆଦି ପଶୁ ପକ୍ଷୀଙ୍କୁ ଯଜ୍ଞ ସ୍ଥଳରେ ବଳି ନାମରେ ହତ୍ୟା କରା ଯାଉଥିଲା। ଏହାର ବିରୂଦ୍ଧରେ ବେଦର ବ୍ୟବସ୍ଥା ଦେଇ ଯଜ୍ଞକୁ ହିଂସା ମୁକ୍ତ କଲେ। ଅଗ୍ନିହୋତ୍ର ଯଜ୍ଞର ବୈଜ୍ଞାନିକ ଏବଂ ପର୍ଯ୍ୟାବରଣୀୟ ମହତ୍ଵ ବୁଝେଇବା ସହିତ ଦୈନିକ ତଥା ବୃହତ ଯଜ୍ଞ କରିବାର ବେଦ ସମ୍ମତ ବିଧି ପ୍ରସ୍ତୁତ କରି ଦେଶବାସିଙ୍କୁ ପ୍ରଦାନ କଲେ ଯଦ୍ୱାରା ଯଜ୍ଞ ସମଗ୍ର ଦେଶରେ ଲୋକପ୍ରିୟ ତଥା ସର୍ବାଦୃତ ହୋଇ ପାରିଲା। ଯଜ୍ଞର ଉଦ୍ଦେଶ୍ୟ ପର୍ଯ୍ୟାବରଣର ଶୁଦ୍ଧି, ରୋଗ ସୃଷ୍ଟିକାରୀ କିଟାଣୁ ମାନଙ୍କ ନାଶ, ସ୍ଵାସ୍ଥ୍ୟ ଲାଭ, ତଥା ଇଚ୍ଛାନୁସାର ବର୍ଷା ହେବା ସହିତ ମନୁଷ୍ୟଙ୍କ ସମସ୍ତ ଉଚିତ ମନୋକାମନା ଗୁଡିକର ପୁରଣ ହେବା ଅଟେ। ଯଦି ମହର୍ଷି ଦୟାନନ୍ଦ ଭଗବାନ ବୁଦ୍ଧଙ୍କ ପୂର୍ଵରୁ ଆସିଥାନ୍ତେ ତେବେ ହୁଏତ ବୌଦ୍ଧ ସମ୍ପ୍ରଦାୟର ସ୍ଥାପନା ହୋଇ ନଥାନ୍ତା ଯାହାର ସ୍ଥାପନା ମୁଖ୍ୟତଃ ଯଜ୍ଞସ୍ଥଳରେ ହେଉଥିବା ହିଂସାର ବିରୁଦ୍ଧରେ ଥିଲା। ସ୍ଵାମୀ ଦୟାନନ୍ଦ ଏକ ଈଶ୍ଵର, ସମସ୍ତ ମନୁଷ୍ୟଙ୍କ ଏକ ଧର୍ମ, ବେଦହିଁ ଏକମାତ୍ର ପୂର୍ଣ୍ଣ ଧର୍ମ ପୁସ୍ତକ ଏବଂ ସମସ୍ତଙ୍କ ବିଚାରଧାରା ଏକ ହେଉ, ଏହାର ଉଦ୍ଘୋଷ କରି ସେ ସମାଜ ଏବଂ ବିଶ୍ଵ କୁ ଏକ ନୂତନ ବିଚାର ପ୍ରଦାନ କଲେ ଯାହାର କ୍ରିୟାନ୍ଵୟନ ହେବା ଦ୍ୱାରା ଦେଶ ବିଦେଶରେ ପରସ୍ପର ଅନେକ ଝଗଡା, ଅଶାନ୍ତି ଏବଂ ବିବାଦ ସମାପ୍ତ ହେବା ସମ୍ଭବ। ଏ ସମସ୍ତ ତାଙ୍କ ବେଦ ପ୍ରଚାରର ଅଂଶ ଅଟେ। ଏ ସମସ୍ତ କାର୍ଯ୍ୟ ପାଇଁ ଉପଦେଶ, ପ୍ରବଚନ, ବ୍ୟାଖ୍ୟାନ, ବାର୍ତାଳାପ, ଶଂକା ସମାଧାନ, ଶାସ୍ତ୍ରାର୍ଥ, ଅନେକ ବିଷୟ ଉପରେ ଗ୍ରନ୍ଥର ଲେଖନ, ବେଦର ସଂସ୍କୃତ ଏବଂ ହିନ୍ଦୀ ଭାଷାରେ ଭାଷ୍ୟ ଏବଂ ଭାବାର୍ଥ ଆଦି ଅନେକ କାର୍ଯ୍ୟ କଲେ। ଋଷିଙ୍କ ପ୍ରମୁଖ ପ୍ରସିଦ୍ଧ ଗ୍ରନ୍ଥ ଓ ଲଘୁ ପୁସ୍ତକ ଗୁଡିକ ହେଉଛି, ସତ୍ୟାର୍ଥପ୍ରକାଶ, ଋଗ୍ଵେଦାଦିଭାଷ୍ୟଭୂମିକା, ଋଗ୍ଵେଦର ସପ୍ତମ ମଣ୍ଡଳ ପର୍ଯ୍ୟନ୍ତ ସଂସ୍କୃତ-ହିନ୍ଦୀ ଭାଷ୍ୟ, ସମ୍ପୂର୍ଣ ଯଜୁର୍ଵେଦର ସଂସ୍କୃତ-ହିନ୍ଦୀ ଭାଷ୍ୟ, ଚତୁର୍ଵେଦବିଷୟସୂଚୀ, ସଂସ୍କାରବିଧି, ପଂଚମହାୟଜ୍ଞବିଧି, ଆର୍ୟାଭିବିନୟ, ଗୋକରୁଣାନିଧି, ଆର୍ୟୋଦ୍ଦେଶ୍ୟରତ୍ନମାଳା, ଭ୍ରାନ୍ତିନିବାରଣ, ଅଷ୍ଟାଧ୍ୟାୟୀଭାଷ୍ୟ, ବେଦାଂଗପ୍ରକାଶ, ସଂସ୍କୃତବାକ୍ୟପ୍ରବୋଧ, ବ୍ୟବହାରଭାନୁ, ଉପଦେଶ ମଂଜରୀ, ବେଦବିରୁଦ୍ଧମତ–ଖଣ୍ଡନ, ବେଦାନ୍ତିଧ୍ଵାନ୍ତ–ନିବାରଣ, ଆତ୍ମଚରିତ୍ର, ଗୌତମ ଅହଲ୍ୟା କୀ କଥା, ଭ୍ରମୋଚ୍ଛେଦନ, ଅନୁଭ୍ରମୋଚ୍ଛେଦନ, ଶାସ୍ତ୍ରର୍ଥ ସଂଗ୍ରହ ଏବଂ ସମସ୍ତ ପତ୍ରବ୍ୟବହାର ଇତ୍ୟାଦି। ସେ ବୈଦିକ ଧର୍ମ ଏବଂ ସଂସ୍କୃତିର ପ୍ରଚାର କରିବା ପାଇଁ ନିଜର ଜଣେ ସୁଯୋଗ୍ୟ ଶିଷ୍ୟ ପଂ. ଶ୍ୟାମଜୀକୃଷ୍ଣ ବର୍ମାଙ୍କୁ ଲଣ୍ଡନ ପଠେଇ ବିଶ୍ଵରେ ବେଦ ପ୍ରଚାର ଦ୍ଵାରା ବୈଦିକ ଧର୍ମ ପ୍ରଚାରର ମୂଳଦୁଆ ରଖିଥିଲେ। ଦେଶ ବାସିଙ୍କ ସ୍ଵାସ୍ଥ୍ୟ ଏବଂ ଦେଶର ଅର୍ଥ ବ୍ୟବସ୍ଥା ସହିତ ଜଡିତ ଗୋରକ୍ଷା ଉପରେ ସେ "ଗୋକୃଷ୍ୟାଦି ରକ୍ଷିଣୀ ସଭା" ତିଆରି କରିବା ସହିତ ଅପୂର୍ଵ ପୁସ୍ତକ “ଗୋକରୂଣାନିଧି” ଲେଖି ଗୋଧନ ର ଧାର୍ମିକ ଏବଂ ଆର୍ଥିକ ମହତ୍ଵ ସିଦ୍ଧ କରିଥିଲେ। ଆଜୀ ମଧ୍ୟ ଏହା ଉପରେ ଅନୁସଂଧାନ କରାଯିବାର ଆବଶ୍ୟକତା ରହିଛି। ଦେଶର ସ୍ବତନ୍ତ୍ରତାରେ ମଧ୍ୟ ସର୍ବାଧିକ ଶ୍ରେୟ ଋଷି ଦୟାନନ୍ଦ ଏବଂ ଆର୍ଯ୍ୟସମାଜର ସତ୍ୟର ପ୍ରଚାର ପ୍ରତି ଯାଇଥାଏ। ପରତନ୍ତ୍ରତାର କାଳରେ ଆର୍ଯ୍ୟସମାଜ ହିଁ ଦେଶରେ ଡୀଏବୀ ସ୍କୂଲ/ କାଲେଜ ସହିତ ଗୁରୁକୁଳ ସ୍ଥାପନା କରି ଶିକ୍ଷା ଜଗତରେ କ୍ରାନ୍ତି ଆଣିପାରିଥିଲା। ଋଷି ଦୟାନନ୍ଦଙ୍କ ବିଚାର ଧାରାରେ ଅନୁପ୍ରାଣିତ ହୋଇଥିବା ମହାପୁରୁଷଙ୍କ ସଂଖ୍ୟା ଅନେକ, ସେ ଭିତରେ ପ୍ରମୁଖ ହେଉଛନ୍ତି ସ୍ଵାମୀ ଶ୍ରଦ୍ଧାନନ୍ଦ, ଶ୍ୟାମଜୀ କୃଷ୍ଣ ବର୍ମା, ମହାତ୍ମା ହଂସରାଜ, ଲାଲା ଲାଜପତରାୟ, ପଣ୍ଡିତ ଗୁରୁଦତ୍ତ ବିଦ୍ୟାର୍ଥୀ, ରାମପ୍ରସାଦ ବିସ୍ମିଲ, ଭାଈ ପରମାନନ୍ଦ, ବୀର ସାବରକର, ମହାଦେବ ଗୋବିନ୍ଦ ରାନାଡେ, ଶହୀଦ ଭଗତସିଂହ ସହିତ ଅନେକ ଦେଶଭକ୍ତ, ଧର୍ମ ଏବଂ ସଂସ୍କୃତିର ଶୀର୍ଷ ବିଦ୍ଵାନ ଏବଂ କ୍ରାନ୍ତିକାରୀ ଯୋଦ୍ଧା । ଆର୍ଯ୍ୟସମାଜର ସ୍ଥାପନାର ସୁପରିଣାମ ଦ୍ଵାରାହିଁ ଆଜି ଆମ ଦେଶ ସ୍ଵତନ୍ତ୍ର ହୋଇ ପାରିଛି। କଂଗ୍ରେସ ଇତିହାସର ଲେଖକ ପଟ୍ଟାଭି ସିତାରାମୈୟା History of Indian national Congress ରେ ଲେଖନ୍ତି ଦେଶର ସ୍ୱତନ୍ତ୍ରତା ସଂଗ୍ରାମରେ ବଳିବେଦୀରେ ଆତ୍ମହୁତି ଦେଇଥିବା କ୍ରାନ୍ତିକାରୀ ଙ୍କ ମଧ୍ୟରେ ୮୦ ପ୍ରତିଶତ କ୍ରାନ୍ତିକାରୀ ହେଉଛନ୍ତି ଆର୍ଯ୍ୟସମାଜୀ।" ଋଷି ଦୟାନନ୍ଦଙ୍କ ବାର୍ତାର ପୂର୍ଣରୂପରେ ପାଳନ ନକରିବା ଯୋଗୁଁ ହିଁ ଆମ ଦେଶରେ ଅନେକ ଗମ୍ଭୀର ସମସ୍ୟା ସୃଷ୍ଟି ହୋଇଛି। ଏଥିପାଇଁ ସର୍ଦାର ବଲ୍ଲଭ ଭାଇ ପଟେଲ କହିଥିଲେ ,"ଯଦି ଋଷି ଦୟାନନ୍ଦ ଜୀ ଙ୍କ ସମସ୍ତ କଥାକୁ ଦେଶବାସୀ ଗ୍ରହଣ କରିନେଇଥାନ୍ତେ ତେବେ ଆଜି ଦେଶର ବିଭାଜନ ତଥା ଅନ୍ୟ ପ୍ରମୁଖ ସମସ୍ୟା କିଛି ନଥାନ୍ତା। ସାମ୍ପ୍ରଦାୟିକ ସଂକୀର୍ଣ୍ଣ ବିଷୟ ଗୁଡିକର ପ୍ରବଳ ଖଣ୍ଡନ ଏବଂ ସମାଜ ସୁଧାର କାର୍ଯ୍ୟ,ସ୍ୱାମୀଜୀଙ୍କ ସ୍ପଷ୍ଟୋକ୍ତି ଓ ସତ୍ୟନିଷ୍ଠା ଯୋଗୁଁ ସ୍ୱାମୀଜୀଙ୍କୁ ଅନେକଥର ଖାଦ୍ୟରେ ବିଷ ଦେଇ ମାରିବାର ଷଡଯନ୍ତ୍ର କରାଯାଇଥିଲା । ସ୍ୱାମୀଜୀଙ୍କ ଜୋଧପୁର ପ୍ରବାସର ଘଟଣା। ଦିନେ ସ୍ଵାମିଜୀ ଜୋଧପୁର ରାଜପ୍ରାସାଦକୁ ଆସିଥିବା ସମୟରେ ମହାରାଜାଙ୍କ ପ୍ରେମିକା ନନହୀ ଭଗତନ ପାଲିଙ୍କିରେ ଆସିଲେ। ଜୋଧପୁର ନରେଶ ତାଙ୍କୁ ସ୍ଵାଗତ କରିବାକୁ ଯାଇ ବେଶ୍ୟାର ପାଲିଙ୍କିକୁ କିଛି ଦୂର ନିଜ କାନ୍ଧରେ ଧରି ଆଣିଲେ। ସ୍ଵାମିଜୀ ଏହାକୁ ସ୍ଵଚକ୍ଷୁରେ ଦେଖି ଅତ୍ୟନ୍ତ କ୍ଷୁବ୍ଧ ହେଲେ। ପରେ ସେ ମହାରାଜାଙ୍କୁ କହିଲେ-ରାଜପୁରୁଷ ସିଂହ ହେଲାବେଳେ ବେଶ୍ୟା ହେଉଛନ୍ତି ମାଈ କୁକୁର। ଆଜି ବେଶ୍ୟାଗାମୀ ମହାରାଜାଙ୍କ ଯୋଗୁଁ ପ୍ରଜାଙ୍କ ଦୁଃଖସୁଖ ବୁଝିବା ପାଇଁ କେହି ନାହିଁ।? ” ନନହୀ ବୈଷ୍ଣବ ସମ୍ପ୍ରଦାୟର ଶିଷ୍ୟା ଥିଲା। ପୂର୍ବରୁ ମନ୍ତ୍ରୀ ପଇଜୁଲ ଖାନ୍ ସ୍ୱାମିଜୀଙ୍କ ପ୍ରତି ଈର୍ଷାପୋଷଣ କରୁଥିଲେ। ମୂର୍ତ୍ତିପୂଜାର ଖଣ୍ଡନ ଯୋଗୁଁ ହିନ୍ଦୁ ପୁରୋହିତମାନେ ମଧ୍ୟ କୃଦ୍ଧ ହୋଇଥିଲେ। ଇଂରେଜମାନେ ତ ସ୍ୱାମୀଜୀଙ୍କ କାର୍ଯ୍ୟକଳାପ ପ୍ରତି ସର୍ବଦା ତୀକ୍ଷ୍ଣ ନଜର ରଖିଥିଲେ। ଏଣେ ପ୍ରଭାବଶାଳୀ ନନହୀ ବେଶ୍ୟାର କୋପାଗ୍ନି ପ୍ରଜ୍ବଳିତ ହେଲା। ସମସ୍ତ ଷଡଯନ୍ତ୍ରକାରୀ ଏକତ୍ର ହୋଇ ସ୍ୱାମୀଜୀଙ୍କୁ ହତ୍ୟା କରିବାର ଷଡଯନ୍ତ୍ର ଆରମ୍ଭ କଲେ। ସାମ ଦାମ ଦଣ୍ଡ ଭେଦ ସମସ୍ତ କୌଶଳ ଆପଣେଇ ସ୍ୱାମୀଜୀଙ୍କ ବିଶ୍ୱସ୍ତ ରୋଷେଇଆ ମାଧ୍ୟମରେ ଖାଦ୍ୟରେ ସୂକ୍ଷ୍ମ କାଚଗୁଣ୍ଡ ଏବଂ ବିଷର ପ୍ରୟୋଗ କଲେ। ସ୍ୱାମୀଜୀ ଅସୁସ୍ତ ହେବାପରେ ଜୋଧପୁର ମହାରାଜଙ୍କ ଭାଇ ସ୍ୱାମିଜୀଙ୍କ ଚିକିତ୍ସା ପାଇଁ ଆଲିମର୍ଦ୍ଦାନି ଖାଁ ନାମକ ଚିକିତ୍ସକର ନିଯୁକ୍ତି କଲେ। ଚିକିତ୍ସା ନାମରେ ସେହି ମୁସଲିମ ଡାକ୍ତର ସ୍ୱମୀଜୀଙ୍କୁ ବିଷ ଇଂଜେକସନ ଦେଇ ଚାଲିଥିଲା। ଯା ଫଳରେ ସ୍ୱାମିଜୀଙ୍କ ଅବସ୍ଥା ଆହୁରି ସାଙ୍ଘାତିକ ହେବାକୁ ଲାଗିଲା। ସ୍ୱାମୀଜୀଙ୍କ ଅନ୍ତିମ ସମୟ ଅତ୍ୟନ୍ତ ବିସ୍ମୟକର ଥିଲା। ସନ୍ଧ୍ୟା ସାଢ଼େ ପାଞ୍ଚଟା ବେଳେ ଉପସ୍ଥିତ ଲୋକଙ୍କୁ ପଛକୁ ଚାଲିଯିବାକୁ କହି କୋଠରୀର ସବୁ କବାଟ ଝରକା ଖୋଲିଦେବା ପାଇଁ ସଂକେତ କଲେ। ପକ୍ଷ ତିଥି ଓ ବାର ଜିଜ୍ଞାସା କଲେ। ଉତ୍ତର ଆସିଲା କାର୍ତ୍ତିକ ଅମାବାସ୍ୟା ଦୀପାବଳୀ (ଅକ୍ଟୋବର ୩୦, ୧୮୮୩ ଖ୍ରୀଷ୍ଟାବ୍ଦ) । ଏହାପରେ ଚତୁର୍ଦିଗରେ ଦୃଷ୍ଟିପାତ କଲେ, ଦୀର୍ଘକାଳ ଧରି ବେଦ ମନ୍ତ୍ର ଦ୍ୱାରା ଈଶ୍ୱରଙ୍କ ସ୍ତୁତି ପ୍ରାର୍ଥନା କଲେ। ଗମ୍ଭୀର ସ୍ୱରରେ ନିଜ ପ୍ରିୟ ମନ୍ତ୍ର ବିଶ୍ବାନି ଦେବ ସବିତ... ତଥା ଗାୟତ୍ରୀମଂତ୍ରର ବହୁବାର ଉଚ୍ଚାରଣ କଲେ ଓ କିଛି ସମୟ ସମାଧିସ୍ଥ ରହିଲେ। ପୁଣି ଆଖି ଖୋଲି ନିଜର ଅନ୍ତିମ ଉଦ୍ଗାର ବ୍ୟକ୍ତ କଲେ,‘ପ୍ରଭୁ ! ତୂନେ ଅଚ୍ଛୀ ଲୀଲା କୀ! ତେରୀ ଇଚ୍ଛା ପୂର୍ଣ୍ଣ ହୋ।’ ଶେଷରେ ସ୍ଵଧର୍ମ, ସ୍ଵଭାଷା, ସ୍ଵରାଷ୍ଟ୍ର, ସ୍ଵସଂସ୍କୃତି ଏବଂ ସ୍ଵଦେଶୋନ୍ନତି ର ଅଗ୍ରଦୂତ ସ୍ଵାମୀ ଦୟାନନ୍ଦଜୀଙ୍କ ଶରୀର ପଂଚତତ୍ଵ ରେ ବିଲୀନ ହୋଇଗଲା । ଋଷି ଦୟାନନ୍ଦଙ୍କ ଜୀବନ ଯେପରି ଦିବ୍ୟ ଥିଲା, ମୃତ୍ୟୁ ମଧ୍ୟ ସେହିପରି ପ୍ରେରଣାଦାୟକ ଥିଲା। ପଞ୍ଜାବର ଯୁବ ବୈଜ୍ଞାନିକ ଗୁରୁଦତ୍ତ ବିଦ୍ୟାର୍ଥୀ ଯୋଗିରାଜଙ୍କ ମୃତ୍ୟୁର ଦୃଶ୍ୟ ଦେଖି ଈଶ୍ୱର ସମ୍ବନ୍ଧୀୟ ସମସ୍ତ ସନ୍ଧେହ ମନରୁ ଦୂର କରି ପୂର୍ଣ୍ଣ ଅସ୍ତିକ ପାଲଟିଗଲେ। ଗୁରୁଦତ୍ତ ବିଦ୍ୟାର୍ଥୀ ସେତେବେଳେ ବୈଜ୍ଞାନିକ ଜଗଦୀଶ ଚନ୍ଦ୍ର ବୋଷଙ୍କ ବ୍ୟତୀତ ଏକମାତ୍ର ଭାରତୀୟ ବିଜ୍ଞାନର ପ୍ରଫେସର ଥିଲେ। ଲାଲା ଲାଜପତ୍ ରାୟ, ମହାତ୍ମା ହଂସରାଜଙ୍କ ଆତ୍ମୀୟ ମିତ୍ର ଥିଲେ ଓ DAV College ନିର୍ମାଣର ଫାଉଣ୍ଡିଙ୍ଗ ମେମ୍ବର ମଧ୍ୟ ଥିଲେ। DAV College ର ସ୍ଥାପନରେ ଲାଲା ଲାଜପତ୍ ରାୟ, ମହାତ୍ମା ହଂସରାଜ ଙ୍କ ସହିତ ଗୁରୁଦତ୍ତ ବିଦ୍ୟାର୍ଥୀ ମହତ୍ୱପୂର୍ଣ୍ଣ ଭୂମିକା ଗ୍ରହଣ କରିଥିଲେ। ଉନବିଂଶ ଶତାବ୍ଦୀର ଅପ୍ରତିମ ଧର୍ମାଚାର୍ଯ୍ୟ, ସମାଜ ସଂସ୍କାରକ, ପ୍ରଖର ବ୍ରହ୍ମଚାରୀ ତଥା ମନୁ, ବ୍ୟାସ, ଯାଜ୍ଞବଳ୍କ୍ୟ, ପତାଞ୍ଜଳି, ଜୈମିନୀଙ୍କ ଋଷି ପରମ୍ପରାର ପ୍ରବକ୍ତା ମହର୍ଷି ଦୟାନନ୍ଦ ଇହଲୀଳା ସମ୍ବରଣ କଲେ। ଦୀପାବଳୀ ତଥା ମହର୍ଷି ଦୟାନନ୍ଦଙ୍କ ୧୩୮ତମ ବଳିଦାନ ଦିବସ ଅବସରରେ ମହର୍ଷିଙ୍କୁ ନିଜର ଶ୍ରଦ୍ଧା ସୁମନ ସମର୍ପଣ କରିବା ସହିତ ସମସ୍ତଙ୍କୁ ଦୀପାବଳି ନବଶସ୍ୟେଷ୍ଟି ପର୍ବ(୦୪/୧୧/୨୦୨୧)ର ଅନେକ ଅନେକ ଅଗ୍ରୀମ ଶୁଭକାମନା। ✍️ମହିମା ସାଗର ????9937686656
ऋषि को अश्रुपूरित अन्तिम विदाई। (vedicvichar)
31-10-2021
ऋषि दयानंद ने भयंकर विपरीत परिस्थितियों मे सत्य का मण्डन और पाखंड का खंडन किया इसलिए सभी उनके विरोधी हो गये।उनके प्राण हरण की भयंकर चेष्टा की गई।जो उनके भरोसेमन्द थे वे सब निकम्मे निकले।पहले उनके साथ भरतपुर का कल्लू कहार जिस पर स्वामी जी बहुत भरोसा और उससे प्रेम करते थे ।वह छ: सात सौ रूपये का माल लेकर खिड़की के रास्ते भाग गया।फिर २९ सितम्बर १८८३ को रात मे शाहपुरा निवासी धोड मिश्र रसोईया द्वारा दिये गये दूध को पीकर सोये। उसी रात मे उन्हें उदरशूल व वमन हुआ। फिर डाक्टर अलिमर्दान खां की चिकित्सा आरंभ हुई लेकिन रोग बढता गया।उनके इलाज से दस्त अधिक आने लगे।लेकिन इससे भी बड़ी बात यह कि किसी आर्य समाज या अन्य को ऋषि की बीमारी की सूचना नहीं दी गई। बाद मे १२ अक्टूबर १८८३ को अजमेर के आर्य सभासद ने राजपूताना गजट मे रोग का समाचार पढा।तब दूसरे लोगों को पता लगा।लेकिन १५ अक्टूबर तक स्वामी जी की दशा पूर्णतः निराशाजनक हो गई। वहाँ से उन्हें आबू और फिर अन्त मे भक्तो केआग्रह करने पर उन्हें अजमेर पहुँचाया गया। अजमेर पहुँचने पर डाक्टर लछमन दास ने चिकित्सा आरम्भ की लेकिन कोई लाभ न हुआ २९ अक्टूबर को हालत और खराब हो गई उनके पूरे शरीर पर फफोले पड गये।जी घबराने लगा ।बैठना चाहते थे लेकिन बैठा न गया ।अन्त मे आखिर वह दिन आया ३० अक्टूबर सन १८८३ अमावस्या संवत १९४० मंगल वार दीपावली का दिन ।दूसरा डाक्टर बुलाया गया पीर इमाम अली हकीम अजमेर से बुलाये गये।बडे डाक्टर न्यूटन साहब ने भी इलाज किया ।लेकिन लाभ न हुआ ।कहते है उनका मूत्र कोयले के समान काला हो गया था।स्वामी जी ने अपने आप पानी लिया हाथ धोये दातुन की और बोले हमे पलंग पर ले चलो पलंग पर थोड़ी देर बैठे फिर लेट गये।श्वास तेज चल रहे थे जिन्हें रोककर वे ईश्वर का ध्यान करते थे।फिर लोगो ने हाल पूछा तो कहने लगे एक मास बाद आज आराम का दिन है।इस तरह चार बज गये।स्वामी जी ने आत्मानन्द से कहा हमारे पीछे आकर खडे हो जाओ या बैठ जाओ। फिर आत्मानन्द से पूछा क्या चाहतेहो?उन्होनें कहा सब यही चाहते है कि आप ठीक हो जाय।स्वामी जी ठहर कर बोले कि यह शरीर है इसका क्या अच्छा होगा और हाथ बढाकर उसके सिर पर धरा और कहा आनन्द से रहना ।फिर स्वामी जी ने काशी से आये संयासी गोपाल गिरि से भी पूछा।उसने भी यही उत्तर दिया ।जब यह हाल अन्य बाहर अलीगढ मेरठ कानपुर आदि से आये लोगो ने देखा तो वे स्वामी जी के सामने आकर खडे हो गये आँखो से आंसू बह रहेथे तब स्वामी जी ने उन्हें ऐसी कृपा दृष्टि से देखा कि उसको बोला या लिखना असम्भव है।मानो ईश्वर से कह रहे हो कि हे ईश्वर मे अपने इन बच्चो को तेरे सहारे छोडकर जा रहा हूं।और उनसे कह रहे हो उदास मत हो धीरज रखो।दो दुशाले और दो सौ रु भीमसेन और आत्मानन्द को देने को कहा ,किन्तु उन्होनें न लिए ।लोगो ने पूछा आपका चित्त कैसा है कहने लगे अच्छा है तेज व अन्धकार का भाव है। इस तरफ साढ़े पांच बज गये स्वामी जी बोले सब आर्य जनो को बुलाओ और मेरे पीछे खड़ा कर दो केवल आज्ञा की देर थी तुरंत सब आगये।तब स्वामी जी बोले चारो ओर के द्वार खोल दो ,छत के दोनों द्वार भी खोल दिये।फिर रामलाल पण्डे से पूछा आज कौनसा पक्ष तिथि व वार है?किसी ने कहा आज कृष्ण पक्ष का अन्त और शुक्ल पक्ष काआदि अमावस्या ,मंगल वार है।यह सुनकर कोठे की छत और दिवारो पर नजर डाली फिर वेद मन्त्र पढे,उसके बाद संस्कृत मे ईश्वर की उपासना की।फिर ईश्वर का गुणगान करके बडी प्रसन्नता से गायत्री का पाठ करने लगे।फिर कुछ समय तक समाधि मे रहकर आँख खोलकर बोले "हे दयामय ,हे सर्वशक्तिमान ,ईश्वर ,तेरी यही इच्छा है,तेरी यही इच्छा है,तेरी इच्छा पूर्ण हो,अहा!तैने अच्छी लीला की"।बस इतना कह स्वामी जी महाराज ने जो सीधा लेट रहे थे ,स्वयं करवट ली। और एक झटके से श्वास रोककर बाहर निकाल दिया ।इस तरह कलयुग का यह महामानव शरीर रुपी पिंजरा छोडकर आर्यो को रोता बिलखता छोड़कर परलोक की यात्रा पर चल दिया । उस समय शाम के छ:बजे दिवाली का दिन ३०अक्टूबर १८८३ का समय था।बाहर पंक्तिबद्ध दीपक जलते हुये मानो इस वेद रुपी ज्ञान का प्रकाश करने वाले अस्त होते सूर्य को अन्तिम विदाई दे रहे हो। चमकेंगे जब तक ये सूरज चांद और तारे। हम है ऋषि दयानंद तब तक ऋणी तुम्हारे ।। ऋषिवर को कोटि - २ नमन।
ऋषि की प्यारी बाते (vedicvichar)
28-10-2021
१- एक व्यक्ति ने पूछा महाराज क्या कारण है धर्मोपदेश सुनते समय नींद आ जाती है ,परन्तु नाच गाने मे व्यक्ति सारी रात जागता है?स्वामी जी ने उत्तर दिया धर्मोपदेश तो मन को शांति देने तथा शरीर को स्वास्थ्यलाभ देने वाली फूलो की सेज है इसलिए नींद आती है।जब कि नाच गाना वासना को उत्तेजित करने वाले कांटे है वहाँ नींद कहाँ से आयेगी।२- फर्रुखाबाद मे पादरी जे जे लूकस ने स्वामी जी से कहा यदि आपको तोप के मुँह पर रखकर कहा जाय कि मूर्ति पूजा का समर्थन करो अन्यथा तोप से उडा दिये जाओगे तो आप क्या कहेंगे स्वामी जी ने उत्तर दिया भले ही उडा दो।मै जीवन रहते मूर्ति पूजा का समर्थन नहीं करुगा।३-बम्बई के आर्य समाजी हरिश्चन्द्र चिंता मणि ने आग्रह करके स्वामी जी को फोटो के लिए तो राजी कर लिया किन्तु साथ ही आदेश दिया आर्य समाज मे मेरा फोटो न लगाया जाय वैसे तो आज समाजो मे ऋषि के फोटो मिलते है लेकिन बम्बई की पहली काकडवाडी आर्य समाज मे आज भी ऋषि का फोटो नहीं है।४- एक महात्मा ने स्वामी जी से कहा कि यदि आप संसार के उपकार का व्रत लेकर लोकहित मे न लगते तो इसी जन्म मे आपको मोक्षप्राप्ति हो जाती ।महाराज ने कहा मुझे अपनी मुक्ति की चिन्ता नहीं ,मै दीन दुखी और दरिद्र लोगो का कष्ट दूर करने आया हूं।५-पुराणो मे गणेश की कथा को झूठा कहते हुऐ स्वामी जी ने कहा पार्वती ने अपने शरीर के मैल से बालक बनाकर द्वार पाल के रुप मे खड़ा कर दिया ।यहाँ शिव का गणेश से युद्ध हुआ आश्चर्य है पार्वती को इसका पता न लगा शिव ने गणेश का शिर काट दिया और पार्वती के कहने पर हाथी का शिर लगा दिया येसब पाखंड है्६-आर्य समाज मुलतान की स्थापना के समय उसके केवल सात सदस्य थे किसी ने हंसी मे कहा केवल सात ही सदस्य आपके साथ है स्वामी जी बोले चिन्ता न करो मौ०साहब के साथ तो शुरु मे केवल उनकी पत्नी ही साथ थी।७-लाहोर मे जब किसी हिंदू ने अपने घर मे स्वामी जी को नहीं ठहराया तो डाक्टर रहीम खां ने उन्हें अपने निवास पर रखा एक दिनस्वामी जी ने इस्लाम की कुछ बातो कीआलोचना की।तो एकांत मे डाक्टर साहब ने हंसते हुए कहा आज तो आपने हम पर भी कृपा कर दी स्वामी जी मुस्करा कर बोले मेरा तो स्वभाव ही है जहाँ गन्दगी व अपवित्रता देखता हू पहले उसकी सफाई करता हूं।डाक्टर साहब हंसने लगे।९-अजमेर मे रायबहादुर श्यामसुन्दरलाल ने स्वामी जी से कहा आप मूर्ति पूजा पर इतना कडा आक्रमण क्यो करते हो क्या कोमलता से आलोचना करके आपका ध्येय पूरा नहीं होता?उत्तर मे स्वामी जी ने कहा मृदु आक्रमण या किसी भी रुप मे इस धार्मिक बुराई से समझौता करना हानि कारक होगा ।ऐसा करते -करते कुछ समय बाद आर्य समाज भी पौराणिक समाज बन जायेगा।और आर्य समाज अपना तेज गौरव खो देगा।
अथर्ववेद विवरण
27-10-2021
अथर्ववेद धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की साधनों की कुन्जी है। जीवन एक सतत संग्राम है। अथर्ववेद जीवन-संग्राम में सफलता प्राप्त करने के उपाय बताता है। अथर्ववेद युद्ध और शान्ति का वेद है। शरीर में शान्ति किस प्रकार रहे, उसके लिए नाना प्रकार की औषधियों का वर्णन इसमें है। परिवार में शान्ति किस प्रकार रह सकती है, उसके लिए भी दिव्य नुस्खे इसमें हैं। राष्ट्र और विश्व में शान्ति किस प्रकार रह सकती है, उन उपायों का वर्णन भी इसमें है। यदि कोई देश शान्ति को भंग करना चाहे तो उससे किस प्रकार युद्ध करना, शत्रु के आक्रमणों से अपने को किस प्रकार बचाना और उनके कुचक्रों को किस प्रकार समाप्त करना, इत्यादि सभी बातों का विशद् वर्णन अथर्ववेद में है। -----------------------Mr. Purna Chandra Nayak, Vedic Vichar , Odisha
सामवेद विवरण
27-10-2021
इस वेद में कुल 1875 मन्त्र संग्रहित हैं। उपासना को प्रधानता देने के कारण चारों वेदों में आकार की दृष्टि से लघुतम सामवेद का विशिष्ट महत्व है। श्रीमद्भगवद्गीता स्वविभूतियों का उल्लेख करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण ने स्वयं को वेदों में सामवेद कहकर इसकी महिमा का मण्डन किया है – "वेदानां सामवेदोऽस्मि।(श्रीमद्भगवद्गीता 10/22)- वेदों में मैं सामवेद हूँ।" -----------------------Mr. Purna Chandra Nayak, Vedic Vichar , Odisha
यजुर्वेद विवरण
27-10-2021
जो कर्मकांड है, सो विज्ञान का निमित्त और जो विज्ञानकांड है, सो क्रिया से फल देने वाला होता है। कोई जीव ऐसा नहीं है कि जो मन, प्राण, वायु, इन्द्रिय और शरीर के चलाये बिना एक क्षण भर भी रह सके, क्योंकि जीव अल्पज्ञ एकदेशवर्त्ती चेतन है। इसलिये जो ईश्वर ने ऋग्वेद के मन्त्रों से सब पदार्थों के गुणगुणी का ज्ञान और यजुर्वेद के मन्त्रों से सब क्रिया करनी प्रसिद्ध की है, क्योंकि (ऋक्) और (यजुः) इन शब्दों का अर्थ भी यही है कि जिससे मनुष्य लोग ईश्वर से लेके पृथिवीपर्यन्त पदार्थों के ज्ञान से धार्मिक विद्वानों का संग, सब शिल्पक्रिया सहित विद्याओं की सिद्धि, श्रेष्ठ विद्या, श्रेष्ठ गुण वा विद्या का दान, यथायोग्य उक्त विद्या के व्यवहार से सर्वोपकार के अनुकूल द्रव्यादि पदार्थों का खर्च करें, इसलिये इसका नाम यजुर्वेद है। और भी इन शब्दों का अभिप्राय भूमिका में प्रकट कर दिया है, वहां देख लेना चाहिये, क्योंकि उक्त भूमिका चारों वेद की एक ही है॥ इस यजुर्वेद में सब चालीस अध्याय हैं, उन एक-एक अध्याय में कितने-कितने मन्त्र हैं, सो पूर्व संस्कृत में कोष्ठ बनाके सब लिख दिया है और चालीसों अध्याय के सब मिलके १९७५ (उन्नीस्सौ पचहत्तर) मन्त्र हैं॥ ----------------------------------------------------------------------Mr. Purna Chandra Nayak, Vedic Vichar , Odisha
ऋग्वेद विवरण
27-10-2021
इस ऋग्वेद से सब पदार्थों की स्तुति होती है अर्थात् ईश्वर ने जिसमें सब पदार्थों के गुणों का प्रकाश किया है, इसलिये विद्वान् लोगों को चाहिये कि ऋग्वेद को प्रथम पढ़के उन मन्त्रों से ईश्वर से लेके पृथिवी-पर्य्यन्त सब पदार्थों को यथावत् जानके संसार में उपकार के लिये प्रयत्न करें। ऋग्वेद शब्द का अर्थ यह है कि जिससे सब पदार्थों के गुणों और स्वभाव का वर्णन किया जाय वह ‘ऋक्’ वेद अर्थात् जो यह सत्य सत्य ज्ञान का हेतु है, इन दो शब्दों से ‘ऋग्वेद’ शब्द बनता है। ‘अग्निमीळे’ यहां से लेके ‘यथा वः सुसहासति’ इस अन्त के मन्त्र-पर्यन्त ऋग्वेद में आठ अष्टक और एक एक अष्टक में आठ आठ अध्याय हैं। सब अध्याय मिलके चौसठ होते हैं। एक एक अध्याय की वर्गसंख्या कोष्ठों में पूर्व लिख दी है। और आठों अष्टक के सब वर्ग 2024 दो हजार चौबीस होते हैं। तथा इस में दश मण्डल हैं। एक एक मण्डल में जितने जितने सूक्त और मन्त्र है सो ऊपर कोष्ठों में लिख दिये हैं। प्रथम मण्डल में 24 चौबीस अनुवाक, और एकसौ इक्कानवे सूक्त, तथा 1976 एक हजार नौ सौ छहत्तर मन्त्र। दूसरे में 4 चार अनुवाक, 43 तितालीस सूक्त, और 429 चार सौ उन्तीस मन्त्र। तीसरे में 5 पांच अनुवाक, 62 बासठ सूक्त, और 617 छः सौ सत्रह मन्त्र। चौथे में 5 पांच अनुवाक 58 अठ्ठावन सूक्त, 589 पांच सौ नवासी मन्त्र। पांचमें 6 छः अनुवाक 87 सतासी सूक्त, 727 सात सौ सत्ताईस पैंसठ मन्त्र। 6 छठे में छः अनुवाक, 75 पचहत्तर सूक्त, 765 सात सौ पैंसठ मन्त्र। सातमे में 6 छः अनुवाक, 104 एकसौ चार सूक्त, 841 आठ सौ इकतालीस मन्त्र। आठमे में 10 दश अनुवाक, 103 एकसौ तीन सूक्त, और 1726 एक हजार सातसौ छब्बीस मन्त्र। नवमे में 7 सात अनुवाक 114 एकसौ चौदह सूक्त, 1097 और एक हजार सत्तानवे मन्त्र। और दशम मण्डल में 12 बारह अनुवाक, 191 एकसौ इक्कानवे सूक्त, और 1754 एक हजार सातसौ चौअन मन्त्र हैं। तथा दशों मण्डलों में 85 पचासी अनुवाक, 1028 एक हजार अठ्ठाईस सूक्त, और 10589 दश हजार पांचसौ नवासी मन्त्र हैं। ................Mr. Purna Chandra Nayak, Vedic Vichar , Odisha
-वैदिक साधन आश्रम तपोवन का शरदुत्सव सफलतापूर्वक समाप्त
26-10-2021
ओ३म् -वैदिक साधन आश्रम तपोवन का शरदुत्सव सफलतापूर्वक समाप्त- “अविद्या होने के कारण ही हम दोषों से युक्त होते हैं: साध्वी प्रज्ञा” ========== वैदिक साधन आश्रम तपोवन, देहरादून का शरदुत्सव 20 अक्टूबर से आरम्भ होकर 24 अक्टूबर, 2021 को सोल्लास समाप्त हो गया। इन पांच दिवसों में आश्रम में आयोजित वृहद वेद पारायण यज्ञ में अथर्ववेद के मन्त्रों से आहुतियां दी गईं। यज्ञ के ब्रह्मा स्वामी मुक्तानन्द सरस्वती, रोजड़ थे। यज्ञ में मन्त्रपाठ गुरुकुल पौंधा-देहरादून के दो ब्रह्मचारियों ने किया। कार्यक्रम में धर्म प्रेमी सज्जनों को स्वामी चित्तेश्वरानन्द सरस्वती, आचार्य आशीष दर्शनाचार्य जी, साध्वी प्रज्ञा जी, पं. विष्णुमित्र वेदार्थी, पं. शैलेश मुनि सत्यार्थी जी, पं. सूरतराम शर्मा जी, प्रसिद्ध भजनोपदेशक श्री दिनेश पथिक जी, भजनोपदेशक श्री रुवेल सिंह जी, भजनोपदेशक श्री रमेश स्नेही जी, आचार्या डा. अन्नपूर्णा जी, डा. श्रीमती सुखदा सोलंकी जी, डा. नवदीप कुमार एवं अन्य अनेक विद्वानों का सान्निध्य प्राप्त रहा। पांच दिन योग, ध्यान, आसन, यज्ञ, भजन एवं वेदोपदेश होते रहे। दिनांक 24 अक्टूबर, 2021 को शरदुत्सव का समापन हुआ। हम इस दिवस के आयोजन का विवरण इससे पूर्व दो लेखों के द्वारा दे चुके हैं। आज शेष कार्यक्रम का विवरण प्रस्तुत कर रहे हैं। शरदुत्सव के समापन दिवस हुए मंत्री श्री प्रेमप्रकाश शर्मा, आचार्या डा. अन्नपूर्णा जी, आचार्य विष्णुमित्र वेदार्थी जी के सम्बोधनों सहित श्री दिनेश पथिक जी, पं. रूहेल सिंह आर्य तथा श्री के.एन. पाण्डेय जी के भजनों का विवरण हम पूर्व प्रस्तुत दो लेखों में दे चुके हैं। श्री पाण्डेय जी के भजन के बाद आचार्य आशीष दर्शनाचार्य जी का सम्बोधन हुआ। आचार्य आशीष जी ने अपने सम्बोधन के विषय ‘राष्ट्रोत्थान में आर्यसमाज की प्रासंगिकता एवं योगदान’ की चर्चा की। उन्होंने पूछा कि हम आर्यसमाज की ओर से राष्ट्र के उत्थान में क्या योगदान दे सकते हैं? इसका स्वयं उत्तर देते हुए आचार्य जी ने कहा कि आर्यसमाज ने राष्ट्र की उन्नति में अनेक योगदान दिये हैं। हम सब भी योगदान दे रहे हैं। हम देश की उन्नति में क्या योगदान दे सकते हैं इसकी आचार्य जी ने अपने सम्बोधन में चर्चा की। आचार्य जी ने वेदोक्त वर्ण व्यवस्था एवं आश्रम व्यवस्था का उल्लेख किया और इस पर प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि वानप्रस्थ आश्रम का एक प्रमुख उद्देश्य मनुष्य द्वारा सत्कर्मों को करके अगले जन्म में पुनः मनुष्य-जीवन को प्राप्त होकर मुक्ति पथ पर कुछ आगे बढ़ने के लिए प्रयत्न करना है। वानप्रस्थ आश्रम के मुख्य उद्देश्य को हमें समझने की आवश्यकता है। वह उद्देश्य यह है कि हमें जीवन के जिन विषयों का अनुभव है, अपने उस ज्ञान व अनुभव को हम समाज को निष्पक्ष व निस्वार्थ भाव से प्रदान करें। आचार्य जी ने कहा कि आपको ऐसा बहुत कुछ ज्ञान व अनुभव है जिससे राष्ट्र को लाभ हो सकता है। उस ज्ञान व अनुभव से युवा पीढ़ी को लाभ हो सकता है। अपने उस ज्ञान व अनुभवों को आप युवा पीढ़ी को प्रदान करें। आचार्य जी ने कहा कि आप घर में उस सोच के साथ रहिये कि मुझे जो आता है उसे मैं नई युवा पीढ़ी को सिखाऊंगा व बताऊंगा। आपका यह कार्य आपको समाज व इसकी युवा पीढ़ी से जोड़ेगा। आचार्य जी ने मनुष्य के भीतर संकोच की प्रवृत्ति होने की चर्चा की तथा उस पर भी प्रकाश डाला। उन्होंने कहा हम विचार व निर्णय करें कि हमें जो कुछ आता है उसे हम दूसरों को सिखायें। छोटे-छोटे कार्य करने से नई पीढ़ी आप से जुड़ेगी। आचार्य जी ने कहा कि आप गणित, हिन्दी व अंग्रेजी के साथ बच्चों को सन्ध्या व यज्ञ की बातें भी सिखा सकते हैं। हमें ऐसा व्यक्ति नहीं बनना है जिस प्रकार के व्यक्ति को हम पसन्द नहीं करते हैं। पहले अपनी नापसन्द के व्यक्ति से जुड़ियें और उनको सुधारने का कार्य करें। आशीष जी का सम्बोधन समाप्त होने के बाद कार्यक्रम का संचालन कर रहे श्री अनिल आर्य जी ने प्रोफेसर डा. नवदीप कुमार जी को वीर सावरकर पर सम्बोधन के लिए आमंत्रित किया। अपने सम्बोधन में डा. नवदीप कुमार जी ने कहा कि राष्ट्र में ऐसी परिस्थिति आई हुई है जिसमें उन देशभक्त नायकों पर मिथ्या आरोप लगाये जा रहे हैं जिन्होंने देश के लिए अपना सर्वस्व समर्पण किया है। डा. नवदीप कुमार जी ने बताया कि रक्षा मंत्री श्री राजनाथ सिंह जी ने एक पुस्तक के विमोचन में कहा था कि गांधी जी के कहने से वीर सावरकर जी ने अंग्रेजों से माफी मांगी थी। इस बात का देश के कथाकथित बुद्धिजीवियों द्वारा विरोध किया गया। इसके विरोध में यूट्यूब पर सावरकर जी के विरोधियों ने अनेक वीडियों डाली हैं। डा. नवदीप कुमार जी ने कहा कि गांधी और सावरकर जी में मतभेद था मनभेद नहीं था। इसके कुछ उदाहरण विद्वान वक्ता डा. नवदीप कुमार जी ने अपने सम्बोधन में प्रस्तुत किये। उन्होंने कहा कि एक बार वीर सावरकर जी का मर्यादा पुरुषोत्तम राम चन्द्र जी पर एक भाषण सुनकर गांधी जी ने कहा था कि उन्होंने अपने जीवन में भगवान राम पर उससे अधिक सुन्दर व प्रभावशाली व्याख्यान नहीं सुना। अपने व्याख्यान में डा. नवदीप कुमार जी वीर सावरकर जी के देश की आजादी में महनीय योगदान की चर्चा की और उन्हें राष्ट्र का वन्दीय नायक बताया। डा. नवदीप कुमार जी के व्याख्यान के बाद दिल्ली से पधारी श्रीमती प्रवीण आर्या जी ने एक गीत सुनाया। गीत के बोल थे ‘कभी प्यासे को पानी पिलाया नहीं बाद अमृत पिलाने से क्या फायदा।’ इस गीत ने सभागार में उपस्थित श्रोताओं का मन मोह लिया। इस गीत के बाद आश्रम की ओर से स्वामी चित्तेश्वरानन्द सरस्वती, स्वामी मुक्तानन्द जी तथा साध्वी प्रज्ञा जी का सम्मान किया गया। आश्रम के उत्सव में वागेश्वर उत्तराखण्ड से आर्यनेता श्री गोविन्दसिंह भण्डारी जी 24 घण्टे की यात्रा करके पधारे थे। उनका भी उत्सव में सम्बोधन हुआ। उन्होंने कहा कि आर्यसमाज ने राष्ट्रोन्नति में जो योगदान किया है उसे सभी जानते हैं। आर्यसमाज ने ही देश को आजादी का मूल मन्त्र दिया था। उन्होंने कहा कि दासता से भरा जीवन चाहे कितना ही सुखमय क्यों न हो, वह सोने के पिंजड़े में रहने वाले पक्षी के समान ही होता है। श्री गोविन्द सिंह भण्डारी जी ने कहा कि स्त्री शिक्षा आर्यसमाज की ही देन है। ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज ने स्त्रियों को वेद पढ़ने का अधिकार दिया जो सदियों से बन्द था। विद्वान वक्ता ने कहा कि आर्यसमाज ने ही देश में सबसे पहले स्त्री शिक्षा की पाठशालायें व विद्यालय खोले थे। इसके बाद कीर्तिशेष महात्मा दयानन्द वानप्रस्थी जी की सुपुत्री माता श्रीमती सुरेन्द्र अरोड़ा जी का सम्मान किया गया। इस सम्मान के बाद साध्वी प्रज्ञा जी का सम्बोधन हुआ। साध्वी प्रज्ञा जी ने अपने सम्बोधन के आरम्भ में वेदमन्त्र ‘अग्ने नए सुपथा राये अस्मान विश्वानि’ का पाठ कराया। उन्होंने कहा कि इस मन्त्र में प्रार्थना है कि ईश्वर हमें सुपथ पर ले चले। धन प्राप्ति के लिए ले चले जिसे हम निर्धनों व अभावग्रस्तों को बांट सकें। साध्वी जी ने कहा कि हम मनुष्यों में बुराईयां होती हैं जिन्हें हम दूर करना चाहते हैं। इसलिए हम परमात्मा से सब बुराईयों एवं कुटिल पापों को दूर करने की प्रार्थना करते हैं। साध्वी प्रज्ञा जी ने कहा कि हममें अविद्या होने के कारण हम दोषों से युक्त होते हैं। जितना जितना हमारा ज्ञान शुद्ध होता जाता है उतना उतना हमारा कर्म व जीवन शुद्ध होता जाता है। साध्वी जी ने इस पर एक गुरु व शिष्य का व्यंगात्मक उदाहरण भी प्रस्तुत किया। उच्च कोटि की योग साधिका साध्वी प्रज्ञा जी ने कहा कि हमें अपने किये हुए कर्मों को प्रतिदिन स्मरण करना चाहिये और अपने दोषों व दुष्कर्मों को छोड़ने का प्रयत्न करना चाहिये। ऐसा करने से ही हमारे दोष व पाप कर्म हमसे दूर हो सकते हैं। उन्होंने कहा कि हम जो उपदेश करते हैं वह पूरा हमारे आचरण में भी होना चाहिये। माता प्रज्ञा जी ने सत्कर्म करने पर अपनी एक स्वरचित कविता सुनाई जिसकी प्रथम पंक्ति थी ‘तन मन प्राण दिये ईश्वर ने बस उसका ही गुणगान करो।’ साध्वी प्रज्ञा जी के बाद डीएवी महाविद्यालय में संस्कृत की प्रोफेसर डा. सुखदा सोलंकी जी का सम्बोधन हुआ। श्रीमती सुखदा जी ने अपने सम्बोधन में श्री प्रेम प्रकाश शर्मा जी के गुणों पर प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि उन्हें महात्मा प्रेम प्रकाश शब्द से सम्बोधित किया जाना चाहिये। उन्होंने आगे कहा कि उनके पति भी सोलंकी जी कहलाना पसन्द नहीं करते। वह चाहते कि उन्हें लोग आर्य जी शब्द से सम्बोधित करें। डा. सुखदा सोलंकी जी ने कहा कि हमारा देश स्वतन्त्र है, यह आर्यसमाज की ही देन है। इसके बाद श्री शैलेश मुनि सत्यार्थी जी का सम्बोधन हुआ। श्री सत्यार्थी जी ने कहा कि ऋषि दयानन्द ने हमें निधि व विधि के रूप में गोकरुणानिधि तथा संस्कारविधि ग्रन्थ दिए हैं। सत्यार्थी जी ने कहा कि ऋषि दयानन्द व आर्यसमाज ने देश को इसके प्राचीन गौरवपूर्ण नाम ‘आर्यावर्त’ से परिचित कराया है। उन्होंने आगे कहा कि परमात्मा के अगणित नामों में एक नाम आर्य भी है। सत्यार्थी जी ने बताया कि ऋषि दयानन्द ने हिन्दी को अपनाया और इसके प्रचार व उन्नति में अपना महान योगदान दिया। उनके व आर्यसमाज के प्रयासों से ही हिन्दी राष्ट्र भाषा के रूप में प्रतिष्ठित हुई है। ऋषि दयानन्द ने परमात्मा को सर्वव्यापक अर्थात् कण-कण में विद्यमान व व्यापक बताया है। अपने विचारों को विराम देते हुए उन्होंने कहा कि केवल आर्यसमाज परमात्मा के अमरज्ञान वेद का सन्देश विश्व में प्रचारित व प्रसारित करता है। कार्यक्रम की समाप्ति से पूर्व सभा के अध्यक्ष 98 वर्षीय ऋषिभक्त श्री सुखवीर सिह वर्मा जी ने अपने सम्बोधन में कहा कि आर्यसमाज सबके हित व उन्नति की बात करता है। आर्यसमाज विश्व व इसके सभी लोगों का कल्याण चाहता है। यह गुण संसार की किसी अन्य संस्था में नहीं मिलेगा। आर्यसमाज के अनुयायी विश्व के सब मनुष्यों व प्राणियों के कल्याण के लिए यज्ञ करते हैं। यह भी ऋषि दयानन्द की ही देन एवं विशेषता है। उन्होंने कहा कि आर्यसमाज ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की भावना में विश्वास रखता है। इस दिव्य भावना से युक्त अन्य कोई संस्था संसार में देखने को नहीं मिलती। वयोवृद्ध वर्मा जी ने कहा कि लोगों को जो रोग हो रहे हैं वह गोदुग्ध न मिलने व उसका सेवन न करने से हो रहे हैं। उन्होंने गोदुग्ध को अमृत बताया। उन्होंने कहा कि उन्होंने बचपन से ही अपने घर के शुद्ध गोदुग्ध का सेवन किया है। इसी कारण वह स्वस्थ हैं। वर्मा जी ने उत्सव में पधारे व उपस्थित सभी लोगों का धन्यवाद कर अपनी वाणी को विराम दिया। इसके बाद आसाम से कार्यक्रम में पधारे ऋषिभक्त श्री तेज नारायण आर्य जी का सम्बोधन भी हुआ। इसी के साथ पांच दिनों से चल रहे वैदिक साधन आश्रम तपोवन, देहरादून के शरदुत्सव का समापन हुआ। इसके बाद सभी आगन्तुकों ने मिलकर ऋषि लंगर प्राप्त किया। लंगर के बाद सब ऋषिभक्त अपने अपने घरों की ओर प्रस्थान कर गये। इस वर्ष के शरदुत्सव में लोगों की बड़ी संख्या में उपस्थिति से आश्रम के अधिकारी सन्तुष्ट व प्रसन्न दिखाई दिए। उत्सव की सभी व्यवस्थायें इसके अधिकारियों एवं कर्मचारियों ने बहुत ही उत्तम की थी जिनसे आश्रम में पधारे सभी लोग सन्तुष्ट दिखाई दिए। ओ३म् शम्। -मनमोहन कुमार आर्य
आज का चिन्तन
25-10-2021
क्षमा एक आभूषण है,जिसे धारण करना बहुत मुश्किल कार्य है क्रोध का शमन कर लेना शक्तिशाली व्यक्ति की क्षमाशीलता की पहचान है। अच्छे संस्कार क्षमाशीलता को पुष्पित और पल्लवित करते हैं |प्रतिशोध की भावना मानव स्वभाव का अंग है। क्षमाशीलता से ही इसका नियंत्रण संभव है। ????जो क्रोध के प्रभाव में आ जाता है उसका अहित होना निश्चित है। हमें किन्हीं अपेक्षाओं के बगैर क्षमा के गुण का विकास करना चाहिए। क्षमाशील दिखने और होने में बहुत फर्क है। क्षमाशील होने में जो परमानंद है, वह अकल्पनीय है। क्षमावान व्यक्ति ही प्रभु के बहुत नजदीक होते है। ✍️आचार्य धर्मराज........ .... Vedic Vichar
बुरा नशा, बुरी बीमारी और अच्छा नशा, अच्छी बीमारी।
25-10-2021
वैसे तो नशा और बीमारी ये शब्द अच्छे अर्थ में प्रयोग नहीं होते, खराब अर्थ में प्रयोग होते हैं। जैसे *किसी को भांग पीने का नशा है, किसी को शराब पीने का नशा है। किसी को खाँसी की बीमारी है। किसी को टीबी की बीमारी है, किसी को कैंसर की बीमारी है इत्यादि।* परंतु कभी-कभी लोग आलंकारिक भाषा में इस नशा तथा बीमारी शब्द का अच्छे अर्थ में भी प्रयोग करते हैं। जब किसी अच्छे काम को व्यक्ति बार-बार करता है, बहुत बार करता है, पूरे जोश के साथ करता है, तब उस अच्छी चीज को भी लोग आलंकारिक भाषा में नशे के नाम से बोल देते हैं। जैसे किसी ने कहा कि *इस व्यक्ति को तो दान देने का नशा है। इस व्यक्ति को उत्तम सुझाव देने का नशा है। इस व्यक्ति को सेवा करने का नशा है। इस व्यक्ति को वेदप्रचार करने का नशा है।* तो ऐसे वाक्यों में नशा शब्द खराब अर्थ में प्रयोग नहीं किया गया, बल्कि *अच्छे अर्थ में प्रयोग किया गया है।* फिर हम और आप यह भी देखते हैं कि जो व्यक्ति कोई नशा करता है और लंबे समय तक करता है तो उसको कोई-न-कोई बीमारी भी लगती है। जैसे लंबे समय तक सिगरेट शराब आदि का नशा करने से उसको टीबी, कैंसर आदि की बीमारी भी लग जाती है। तो यहाँ पर बीमारी शब्द अच्छे अर्थ में नहीं है। परंतु उसी प्रकार से कहीं कहीं अच्छे अर्थ में भी बीमारी शब्द का प्रयोग होता है। जैसे किसी व्यक्ति को दान देने का नशा है, व जगह जगह दान देता है, और जगह जगह उस को सम्मान भी मिलता है। तो लोग कहते हैं , *इसको दान देने का नशा है, और सम्मान प्राप्ति की बीमारी है।* यहां बीमारी शब्द उत्तम अर्थ में प्रयोग किया गया है, खराब अर्थ में नहीं। ऐसे ही *जो लोग आलसी होते हैं, आलस्य के नशे में रहते हैं, उनको असफलता की खराब बीमारी लगती है। यह दुखदायक है।* और अच्छे अर्थ में यदि कहें , तो *जो पुरुषार्थी होते हैं, पुरुषार्थ का नशा करते हैं, उनको सफलता प्राप्ति की अच्छी बीमारी लगती है।* यहाँ बीमारी शब्द अच्छे अर्थ में कहा है। इस सफलता की अच्छी बीमारी में आनंद है। - *स्वामी विवेकानंद परिव्राजक*... ............ Vedic Vichar
Vedic Vichar
25-10-2021
======================= ======================= त्वं हि नः पिता वसो त्वं माता शतक्रतो बभूविथ | अथा ते सुम्नमीमहे ॥ —उ० ४. २. १३.२ शब्दार्थ :— हे वसो=अन्तर्यामी रूप से सब में वास करनेवाले प्रभो ! शतक्रतो= हे जगतों के उत्पत्ति स्थिति प्रलय आदिकर्तः ! त्वं हि नः पिता= आप ही हमारे पालक और जनक हैं त्वं माता= हमारी मान करनेवाली सच्ची माता भी आप ही बभूविथ= थे और अब भी हैं, अथ= इसलिए आपसे ही सुम्नम्= सुख को ईमहे= हम माँगते हैं। भावार्थ :— हमें योग्य है कि जिस वस्तु की इच्छा हो आपसे माँगें। आप अवश्य देंगे, क्योंकि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड हमारे लिए ही आपने बनाये हैं। आप तो आनन्द स्वरूप हो किसी पदार्थ की भी अपने लिए कामना नहीं करते, यदि वस्तु माँगने पर भी हमें नहीं देते तो वह वस्तु हमें हानि करनेवाली है, इसलिए नहीं देते। हम सब को जो सुख मिले और मिल रहे हैं, वह सब आपकी कृपा है, हम आपकी भक्ति में मग्न रहेंगे तो कोई ऐसा सुख नहीं जो हमें न मिल सके। .... Vedic Vichar
वेद विचार
25-10-2021
समावेद मंत्र ५६१ में ब्रह्मानंद रस के प्रवाह की प्रार्थना ईश्वर से की गई है। प्रार्थना है कि हे परब्रह्म परमात्मन्! ध्यान द्वारा भलीभांति जाने गए व प्राप्त किए गए तुम जीवात्मा के लिए प्राप्त होओ तथा हमारे हृदय में आनंद-रस को प्रवाहित करो। तुम्हारी सहायता से काम-क्रोध आदि रूप राक्षस के सहित मन का संताप रूप रोग हमसे दूर हो जाए। मन में कुछ तथा वाणी में कुछ, इस प्रकार दोहरे आचरण वाले कपटी, धूर्त, ठग लोग तुम्हारे आनंद-रस का स्वाद न ले सकें। हम सरल स्वभाव वाले वेद व ईश्वर भक्तों के अंदर आर्द्र करने वाले ब्रह्मानंद रस समृद्ध एवं सबल होवें। मंत्र का भावार्थ है कि सरल वृत्ति वाले मनुष्य ही ब्रह्मानंद-रस का पान करने के अधिकारी होते हैं, कुटिल वृत्ति वाले और दूसरों को ठगने व धोखा देने वाले नहीं होते। हमें चाहिए कि हम वेद मंत्र के अनुसार अपना जीवन बनाएं। -प्रस्तुतकर्ता मनमोहन आर्य....... Vedic Vichar
आज एक परिवार में
25-10-2021
आज एक परिवार में एम एम उपाध्याय जी के यहाँ स्पर्शी के जन्मदिवस को वैदिक मंत्रों के द्वारा आहुति देकर ईश्वर से यश और बल विधा ' बुद्धि की कामना करते हुए वैदिक भजनों व उपदेशो के माध्यम से वैदिक विचारो से भी अवगत कराया । जिसमें हम ..सुखदेव आर्य.. व ओम देव ..और सभी परिवार के सदस्य व बहार से आये उनके गेस्ट लोग भी शामिल हुए । सबने मिल कर वैदिक मन्त्रो के द्वारा अनेको प्रकार की औषधी व घी आदि साकिल्य पंच प्रकार की मेवा से निर्मित सामग्री से आहुति देकर अपने जीवन को सफल बनाया । बेटी को जन्मदिवस की शुभकामनाएँ देते हुए ' ईश्वर से प्रार्थना कर कि यह बिटियाँ अपने मेहनत व परिश्रम से अपने जीवन को सफल बनाए ॥ ????????????????जीवेम् शरदाः शतम्
वैदिक साधन आश्रम तपोवन
25-10-2021
वैदिक साधन आश्रम तपोवन, देहरादून के शरदुत्सव में आज हमे आश्रम एवं केंद्रीय आर्य युवक परिषद, दिल्ली के प्रधान श्री अनिल आर्य जी द्वारा सम्मानित किया गया। हम वैदिक साधन आश्रम तपोवन एवं केंद्रीय आर्य युवक परिषद का हृदय से आभार व्यक्त करते हैं और उन्हें धन्यवाद देते हैं। सादर।
आर्यसमाज की स्थापना से
24-10-2021
आर्यसमाज की स्थापना से लेकर तीन पीढ़ी तक आर्यसमाज में सच्चे-श्रेष्ठ,त्यागी-तपस्वी,समर्पित प्रचारक, आचार्य, शास्त्रज्ञ,उपदेशक,नेता और अधिकारी वर्ग था,इसलिए उस युग में आर्यसमाज का गुणगान,गौरव,यश-कीर्ति सेवाकार्य आदि के कारण दिशोदिशाओं फैली थीं और आज के युग में आर्यसमाज में अधिकांश लोग झूठे,लोभी,पाखण्डी, लुटेरे,कब्जागैंग और आर्यसमाज का दोहन करने वाले अधिक हैं। इसलिए आर्यसमाज का अस्तित्व प्रायः मृत प्राण जैसे है??? जैसे किसी अकेली सुन्दर-सुशील असहाय महिला को नोचने हेतु बलात्कारी गंदी सोच वाले लोग एक अबला पे टूट पड़ते हैं,वैसे ही वर्तमान में आर्यसमाज का दोहन अधिकांश धूर्त्त लोग कर रहे हैं ??? जो सच्चे, श्रेष्ट , समर्पित व सैद्धांतिक आर्य हैं, उनपे ये बात लागूं नहीं होती है।। एक समय था कि सैकड़ों लोग अपनी अरबों की भूमि, घर, प्लाट और सबकुछ आर्यसमाज में दान दें देते और आज लुटेरों की लूट के कारण अधिकांश जानकर लोग अपनी धन-सम्पत्ति अलग-अलग जगह अपने ढ़ंग से दान करते हैं।। वैसे आज भी कुछ आर्य संस्थान श्रेष्ठ हैं, लेकिन बेईमान अधिक हैं ??? नमस्ते।
Vedicvichar
22-10-2021
जो भौतिक अग्नि संसार मे होम के लिए युक्ति से ग्रहण किया हुआ प्राणियों की प्रसन्नता कराने वाला है, उस अग्नि की सात जीभें हैं। १-काली--जो सफेद आदि रंग का प्रकाश करती है। २- कराली - सहने मे कठिन है। ३ - मनोजवा - मन के समान वेग वाली ४ - सुलोहिता - जिसका उत्तम रक्त वर्ण है। ५ - सूधूम्रवर्णा - जिसका सुन्दर धुमलासा वर्ण है। ६ - स्फुल्लिंगिंनी - जिसमें बहुत सी चिंगारियां उठती है। ७ - विश्व रूपी - जिसका सब रूप है। ये देवी अर्थात् अतिशय करके प्रकाश मान और लेलायमाना - प्रकाश से सब जगह जाने वाली सात जिव्हा है अर्थात् सब पदार्थों को ग्रहण करनेवाली है।इन सात प्रकार की अग्नि की जीभों से सब पदार्थों मे मनुष्यों को उपकार लेना चाहिए। -ऋग्वेद१-१-१३-३
*आर्यवीर उत्तराखंड-रत्न जयानंद भारती की 141वीं जयंती पर उनको श्रद्धापूर्ण स्मरण* (vedicvichar)
21-10-2021
खूबसूरत पहाड़ों की शीतल हवाएँ,जहाँ तक नजरें जाएं मनमोहक वादियाँ, नदियों एवं झरनों के कल कल स्वर फिर भी मन व्यथित क्योंकि एक तरफ जहां भारत माँ गुलामी की बेड़ियों में जकड़ी ब्रिटिश हुकूमत के से त्रस्त थी वहीं सामाजिक विषमता की व्याधि से ग्रस्त समाज निरंतर परिस्थितियों को विकट से अतिविकट बनाए जा रहा था।ऐसी दशा में निश्चित रूप से सामाजिक सरोकार से परिपूर्ण व्याकुल राष्ट्रभक्त मन पहाड़ी शीतलता में भी कैसे शांत रह पाता।एक ऐसा ही मन था क्रांतिकारी समाजसुधारक #जयानंद_भारती जी का। *श्री भारती का जन्म पौड़ी जनपद के अरकंडाई गांव में 17 अक्टूबर 1881 को हुआ था।* जैसा कि उक्त अंकित है सामाजिक तानाबाना एवं देश की गुलामी के माहौल ने बाल मन में ही राष्ट्र व समाज के लिए कुछ विशिष्ठ करने की ठानी। समाज में व्याप्त अंधविश्वास एवं बुराइयों से भारती जी दुःखी थे। *इन्हीं समस्याओं के समाधान तथा वेदों के अध्ययन की इच्छा से इन्होंने गुरूकुल-कांगड़ी के संस्थापक #स्वामी_श्रद्धानन्द से भेंट की। आर्य समाज के महात्मा, समाज सुधारक एवं राष्ट्रवादी नेता के रूप में प्रख्यात स्वामी जी ने भारती जी को वेदों का वृहद् ज्ञान दिया।उनके कौशल को ही देखते हुए स्वामी जी ने यह भी पूर्व घोषणा कर दी कि "मुझे तुम्हारे अन्दर एक क्रान्ति छिपी हुई नजर आती है।” तुम चाहो तो आर्य समाज के माध्यम से उत्तराखण्ड के हिन्दू समाज में फैली सामाजिक एवं धार्मिक बुराइयों को दूर कर सकते हो”।गुरु के इन शब्दों को मानों जयानंद जी ने ब्रह्म वाक्य के रूप में लिया एवं आर्यसमाज के सिद्धांतों एवं विचारों के अनुसार जनजागरण में लग गए।* इन्हीं उद्देश्यों एवं रोजगार की तलाश में भटकते हुए युवक भारती का परिचय अनेक मुसलमानों और ईसाईयों से हुआ।आज जो भारत में धार्मिक विषमता की स्थिति में धर्म पलायन की स्थिति बनी हुई है जिसके अंतर्गत एक साजिश के तहत हिंदुओं का जातीय भेद के नाम पर धर्मांतरण करवाया जा रहा है ऐसे समय मे भारती जी के संदेश आज भी सारगर्भित प्रतीत होते हैं क्योंकि उस दौर में *उन्हें भी धर्म-परिवर्तन के लिए अनेक प्रलोभन दिये गये किन्तु इन्होंने न केवल इन प्रलोभनों को ठुकराया अपितु स्पष्ट कहा कि ”मैं हिन्दू धर्म छोड़कर कोई दूसरा धर्म स्वीकार नहीं कर सकता हूँ। मेरे इस अटल विश्वास के आगे दुनिया का बड़े से बड़ा सम्मान एवं वैभव भी तुच्छ है। आर्य समाज का प्रचार-प्रसार करते हुए इन्होंने अपना धर्म छोड़कर ईसाई धर्म अपनाने वाले कई शिल्पकारों को फटकारते हुए कहा कि धर्म में रहकर संगठित बनकर अपने अधिकारों को ये करो।” इस प्रकार आर्य समाज पद्धति से इन्होंने कई ईसाई बने शिल्पकारों को #शुध्दिकरण द्वारा पुनः सनातन धर्म में सम्मिलित किया। ???????????????????????????????????? ऐसे ही जनजागरण के कार्यों की श्रृंखला के रूप में उन्होनें ‘डोला-पालकी आन्दोलन’ चलाया।उस दौर में उनकी जाति के लोगों अर्थात शिल्पकारों के दूल्हे-दुल्हनों को डोला-पालकी में बैठने से वंचित रखा जाता था। लगभग 20 वर्षों तक चलने वाले *इस आन्दोलन के समाधान के लिए भारती जी ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में मुकदमा दायर किया जिसका निर्णय शिल्पकारों के पक्ष में हुआ।* ???????????????????????????????????? भारतीय स्वतन्त्रता की लड़ाई में भी भारती जी के बहुमूल्य योगदान को भुलाया नहीं जा सकता है। *28 अगस्त 1930 को इन्होंने राजकीय विद्यालय जयहरीखाल की इमारत पर तिरंगा झंडा फहराकर ब्रिटिश शासन के विरोध में भाषण देकर छात्रोें को स्वतन्त्रता आन्दोलन के लिए प्रेरित किया।* इसका परिणाम यह हुआ कि 30 अगस्त 1930 को लैंसडाउन न्यायालय द्वारा इन्हें तीन माह का कठोर कारावास दिया गया। साथ ही धारा 144 का उल्लंघन करते हुए जब इन्होंने *अंग्रेजी शासन के विरूद्ध दुगड्डा में जनसभा की* तो इन्हें छः माह के कठोर कारावास की सजा सुनाई गई। पूरे भारत वर्ष में प्रचंड गांधीवादी लहर के बीच जब गढ़वाल पौड़ी की अमन सभा ने उत्तर प्रदेश के गर्वनर जनरल सर मैलकम हेली को अभिनंदन समारोह के लिए आमंत्रित किया तो जेल में ही भारती जी ने कसम खाई कि वे इस अभिनंदन समारोह को सफल नहीं होने देंगे। सौभाग्य से जिस दिन अभिनंदन समारोह था ठीक उसी दिन भारती जी भी जेल से मुक्त हुए। *मैलकम हेली जैसे ही स्वागत भाषण के लिये उठा उसी समय भारती जी बड़ी ही मुस्तेदी के साथ मंच पर चढ़े एवं पूरे आत्मविश्वास के साथ सिंहनाद रूपी स्वर में नारा लगाया ”गो बैक मैलकम हेली, भारत माता की जय”।* परिस्थिति बिगड़ती देख गर्वनर को किसी तरह सुरक्षित डाक बंगला पहुंचाया गया किन्तु भारती जी जो कि अंजाम के लिए पूरी तरह से तैयार थे पुलिस वालों ने उन्हें पकड़ कर अंधाधुंध पीटना शुरू कर दिया। लाठियों से लगातार पीटते पीटते दृष्ट पुलिसकर्मियों ने उनके मुंह में रूमाल ठूंस कर ऊपर से दरी डाल दी। इस तरह अमानवीय यातनाओं के साथ हथकड़ी पहनाकर उन्हें एक वर्ष के कठोर कारावास में डाल दिया गया। भारती जी द्वारा दुष्ट गवर्नर के आगे मातृभूमि के सम्मान में प्रदर्शित यह अद्भुत साहस *‘ऐतिहासिक पौड़ी कांड’* के नाम से प्रसिद्ध है जिसे जनपद के मुख्यालय के गजट में भी अंकित किया गया है। ???????????????????????????????????? आगे भी आजादी का यह मतवाला इतनें कष्टों को सहने के बाद भी शांत नहीं रहा अभी जीवन में और जेल यातनाएं बाकी थी।गाधी जी ने जब व्यापक रूप से आह्वान किया कि शासन को किसी भी प्रकार की जन-धन से सहायता न दी जाय तब अंग्रेजी शासन के विरुद्ध उन्होनें इस निर्देशानुसार उन्हें उस समय रोका जब अंग्रेज 11 अक्टूबर 1940 को लैंसडाउन से बाहर युद्ध के लिए जानें की तैयारी में थे। इस अपराध पर उन्हें 4 माह कारावास और 15 रुपये अर्थदण्ड की सजा दी गई। ???????????????????????????????????? इस प्रकार क्रांति का यह मतवाला अंतिम दिनों में अत्यंत गंभीर रोग से ग्रस्त होकर अपने ग्राम अरकंडाई में ही 71 वर्ष की आयु में 9 सितम्बर 1952 को सदा सदा के लिए इस संसार से विदा हो गया।किन्तु पीछे *वीरता की एक ऐसी गाथा छोड़ गया जो सदा सदा के लिए पीढ़ियों के लिए प्रेरणास्रोत का कार्य करेगी।* मातृभूमि सेवा संस्था भारत माँ के ऐसे सच्चे सपूत को उनकी जयंती पर उन्हें शत शत नमन करती है। ???????????????????????????????????? ✍️ प्रशांत टेहल्यानी, राष्ट्रीय सह-संयोजक, *मातृभूमि सेवा संस्था*
"महर्षि दयानन्द एवं ब्रह्मचर्य" (vedicvichar)
21-10-2021
लेखक- ब्रह्मचारी इन्द्रदेव "मेधार्थी" (गुरुकुल झञ्जर) प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ समय-समय पर अनेक ऐसे लोकोत्तर महापुरुष हुये हैं जिन्होंने अपनी अद्भुत प्रतिभा एवं कर्मशीलता से संसार में मानवता की स्थापना की है। और ब्रह्मचर्य को अपने जीवन में धारण के साथ साथ लोक में भी प्रचार करने का यत्न किया है। किन्तु इस विषय में जितना उत्कर्ष महर्षि दयानन्द जी महाराज को उपलब्ध हुआ ऐसा अन्य महापुरुषों के जीवन में प्रायः नहीं दीख पड़ता। ब्रह्मचर्य के सब प्राणियों का विकास उनके जीवन में अन्तिम सीमा तक पहुंचा हुआ था। उनको हम ब्रह्मचर्य की साक्षात् साकार प्रतिमा एवं आप्त पुरुष मान सकते हैं। ब्रह्मचर्य शब्द की संसार में जितनी व्याख्याएं विद्यमान हैं, उन सबके वे आदर्श उदाहरण स्वरूप हैं। उनके इस ब्रह्मचर्य के महान् गुण को सभी विरोधी एवं प्राणघाती शत्रुओं तक ने मुक्त-कण्ठ से स्वीकार किया है। ब्रह्मचर्य का पालन सामान्य कार्य नहीं है। जिन लोगों को इस मार्ग पर चलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है, वही इसकी दुरूहता को अनुभव कर पाते हैं। वास्तव में यह कार्य तलवार की धार पर चलने से भी कठिनतम साधना है। मन या आचरण की क्षणिक असावधानी बहुत भयंकर परिणाम को लाकर उपस्थित कर सकती है। ब्रह्मचर्य रक्षा की चिन्ता योगियों की उन्निद्र आंखों में, ऋषियों के चेहरों की झुर्रियों में और ब्रह्मचारियों की नियमित नियन्त्रित दिनचर्या में किसे नहीं दीख पड़ती? वास्तव में यह एक कठिन परीक्षा है, तपस्या है। बिना ब्रह्मचारी बने कोई भी मनुष्य भगवान् को भी नहीं पा सकता। महर्षि दयानन्द एक निष्कलंक ब्रह्मचारी थे, जो मनुष्य अपने जीवन को जीवन रूप में देखना चाहते हैं, तथा मानव जीवन के आनन्द का उपभोग करना चाहते हैं, उन्हें इस ब्रह्मचर्य मार्ग का पथिक अवश्य बनना चाहिए। वर्तमान युग में लोग ब्रह्मचर्य पालन को असम्भव सा मान बैठे हैं। किन्तु निराश होने की आवश्यकता नहीं, मनुष्य पतन के गर्त में जाने के पश्चात् भी तथा कुसंस्कारों से परिवेष्टित होने पर भी यत्न करके अपने जीवन को पवित्र बना सकता है। हमारे समक्ष महर्षि दयानन्द जी जैसे दिव्य ब्रह्मचारियों के जीवन तथा आदेश प्रकाश-स्तम्भ के रूप में उपस्थित है। जिस मनुष्य को जीवन में ब्रह्मचर्य रक्षा के आनन्द का एक बार भी आस्वादन हो गया, बस फिर तो वह इस अमूल्य रत्न के लिए सर्वस्व वारने को भी उद्यत हो जाता है। महर्षि दयानन्द जी महाराज ने 'सब सुधारों के सुधार' ब्रह्मचर्य को ही माना है। जिस आर्य जाति में किसी समय ब्रह्मचर्य को सर्वोपरि स्थान दिया जाता था, और जीवन का सारा कार्यक्रम ब्रह्मचर्य पालन को मुख्य मान कर निर्धारित होता था, आज वही जाति ब्रह्मचर्य से हीन होकर पद्दलित हो चुकी है। आज की कामज सन्तान और फिर ये नाच-गाने स्वाङ्ग-सिनेमे तथा श्रृंगार की प्रधानता ब्रह्मचर्य को समूल नष्ट करने पर तुले हुये हैं, किन्तु यह निश्चित ही सत्य सिद्धान्त है कि ब्रह्मचर्य की समाप्ति के साथ संसार की भी इतिश्री हो जावेगी। जो मनुष्य थोड़ी भी बुद्धि रखते हैं, उनका प्रधान कर्तव्य है कि वे अपने भोजन, दिनचर्या, वेशभूषा, पठन-पाठन तथा अन्य बाह्य एवं आन्तरिक व्यवहार को ब्रह्मचर्य के अनुकूल बनावें, और ब्रह्मचर्य का सन्देश को अपनी शक्ति अनुसार चारों दिशाओं में फैला दें। महर्षि दयानन्द जी ने किन मौलिक तत्त्वों को जीवन में धारण करके ब्रह्मचर्य में सिद्धि प्राप्त की थी यह तो पृथक् ही लेख का विषय है। हम लोग ब्रह्मचर्य के महत्त्व को समझ सकें, अतः महर्षि के ग्रन्थों से ब्रह्मचर्य विषयक वचनों का संग्रह मैं पाठकों के समक्ष उपस्थित कर रहा हूं। हमारा सभी का कर्तव्य है कि हम अपने आचार्य के दिव्य वचनों को धारण करके जीवन को पवित्र बनावें। १. मनुष्य ब्रह्मचर्यादि उत्तम नियमों से त्रिगुण चतुर्गुण आयु कर सकता है, अर्थात् चार सौ वर्ष तक भी सुख से जी सकता है। (ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, वेदसंज्ञाविचार) २. जिसके शरीर में वीर्य नहीं होता, वह नपुंसक, महाकुलक्षणी और जिसको प्रमेह रोग होता है, वह दुर्बल, निस्तेज-निर्बुद्धि और उत्साह-साहस-धैर्य-बल, पराक्रम आदि गुणों से रहित होकर नष्ट हो जाता है। (सत्यार्थप्रकाश, २ समुल्लास) ३. आयु वीर्यादि धातुओं की शुद्धि और रक्षा करना तथा युक्तिपूर्वक ही भोजन-वस्त्र आदि का जो धारण करना है, इन अच्छे नियमों से आयु को सदा बढ़ाओ। (ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, वेदोक्तधर्मविषय) ४. देखो, जिसके शरीर में सुरक्षित वीर्य रहता है, उसको आरोग्य, बुद्धि, बल और पराक्रम बढ़ कर बहुत सुख की प्राप्ति होती है। इसके रक्षण की यही रीति है कि विषयों की कथा, विषयी लोगों का सङ्ग, विषयों का ध्यान, स्त्री दर्शन, एकान्त सेवन, सम्भाषण और स्पर्श आदि कर्म से ब्रह्मचारी लोग सदा पृथक् रहकर उत्तम शिक्षा और पूर्ण विद्या को प्राप्त होवें। (सत्यार्थप्रकाश, २ समुल्लास) ५. जो तुम लोग सुशिक्षा और विद्या के ग्रहण और वीर्य की रक्षा करने में इस समय चूकोगे तो पुनः इस जन्म में तुमको यह अमूल्य समय प्राप्त नहीं हो सकेगा। जब तक हम लोग गृह कार्यों को करने वाले जीते हैं, तभी तक तुमको विद्या ग्रहण और शरीर का बल बढ़ाना चाहिये। (सत्यार्थप्रकाश, २ समुल्लास) ६. जो सदा सत्याचार में प्रवृत्त, जितेन्द्रिय और जिनका वीर्य अधःस्खलित कभी न हो उन्हीं का ब्रह्मचर्य सच्चा होता है। (सत्यार्थप्रकाश, ४ समुल्लास) ७. जिस देश में ब्रह्मचर्य विद्याभ्यास अधिक होता है, वही देश सुखी और जिस देश में ब्रह्मचर्य, विद्याग्रहणरहित बाल्यावस्था वाले अयोग्यों का विवाह होता है, वह देश दुःख में डूब जाता है। क्योंकि ब्रह्मचर्य विद्या के ग्रहणपूर्वक विवाह के सुधार ही से सब बातों का सुधार और बिगड़ने से बिगाड़ हो जाता है। (सत्यार्थप्रकाश, ४ समुल्लास) ८. जिस देश में यथायोग्य ब्रह्मचर्य विद्या और वेदोक्त धर्म का प्रचार होता है, वही देश सौभाग्यवान् होता है। (सत्यार्थप्रकाश, ३ समुल्लास) ९. ब्रह्मचर्य जो कि सब आश्रमों का मूल है। उसके ठीक-ठीक सुधरने से सब आश्रम सुगम होते हैं और बिगड़ने से बिगड़ जाते हैं। (ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, वर्णाश्रमविषय) १०. सर्वत्र एकाकी सोवे। वीर्य स्खलित कभी न करें। जो कामना से वीर्य स्खलित कर दे तो जानो कि अपने ब्रह्मचर्य व्रत का नाश कर दिया। (सत्यार्थप्रकाश, ३ समुल्लास) ११. ब्रह्मचर्य सेवन से यह बात होती है कि जब मनुष्य बाल्यावस्था में विवाह न करे, उपस्थेन्द्रिय का संयम रखे, वेदादिशास्त्रों को पढ़ते-पढ़ाते रहें। विवाह के पीछे भी ऋतुगामी बने रहें। तब दो प्रकार का वीर्य अर्थात् बल बढ़ता है, एक शरीर का और दूसरा बुद्धि का। उसके बढ़ने से मनुष्य अत्यन्त आनन्द में रहता है। (ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, उपासनाविषय) १२. अड़तालीस वर्ष के आगे पुरुष और चौबीस वर्ष के आगे स्त्री को ब्रह्मचर्य न रखना चाहिये। परन्तु यह नियम विवाह करने वाले पुरुष और स्त्रियों के लिए है। और जो विवाह करना ही न चाहें वे मरणपर्यन्त ब्रह्मचारी रह सकें तो भले ही रहें। परन्तु यह काम पूर्ण विद्या वाले, जितेन्द्रिय और निर्दोष योगी स्त्री और पुरुष का है। यह बड़ा कठिन कार्य है कि जो काम के वेग को थाम के इन्द्रियों को अपने वश में रख सके। (सत्यार्थप्रकाश, ३ समुल्लास) १३. ब्रह्मचारी और ब्रह्मचारिणी मद्य, मांस, गन्ध, माला, रस, स्त्री और पुरुष का संग, सब खटाई, प्राणियों की हिंसा, अङ्गों का मर्दन, बिना निमित्त उपस्थेन्द्रिय का स्पर्श, आंखों में अञ्जन, जूतों और छत्रधारण, काम-क्रोध, लोभ-मोह-भय-शोक-ईर्ष्याद्वेष, नाच-गान और बाजा बजाना, द्यूत, जिस किसी की कथा, निन्दा, मिथ्याभाषण, स्त्रियों का दर्शन, आश्रय, दूसरों की हानि आदि कुकर्मों को छोड़ देवें। (सत्यार्थप्रकाश, ३ समुल्लास) १४. पाठशाला से एक योजन अर्थात् चार कोश दूर ग्राम वा नगर रहे। (सत्यार्थप्रकाश, ३ समुल्लास) १५. जहां विषयों वा अधर्म की चर्चा भी होती हो, वहां ब्रह्मचारी कभी खड़े भी न रहें। भोजन छादन ऐसी रीति से करें कि जिससे कभी रोग-वीर्य हानि, वा प्रमाद न बढ़े। जो बुद्धि का नाश करने हारे नशे के पदार्थ हों उनको ग्रहण कभी न करें। (व्यवहारभानु) १६. जिससे विद्या, सभ्यता, धर्मात्मना, जितेन्द्रियता आदि की बढ़ती होवे और अविद्या आदि दोष छूटें उसको शिक्षा कहते हैं। (स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाश) १७. सब को तुल्य वस्त्र, खान-पान और तुल्य आसन दिया जावे। चाहे वे राजकुमार वा राजकुमारी हो, चाहे दरिद्र की सन्तान हों। सबको तपस्वी होना चाहिये। (सत्यार्थप्रकाश, ३ समुल्लास) १८. उनके माता-पिता अपनी सन्तानों से वा सन्तान माता-पिता से न मिल सकें और न किसी प्रकार का पत्र-व्यवहार एक-दूसरे से कर सकें। जिससे संसारिक चिन्ता से रहित होकर केवल विद्या पढ़ने की चिन्ता रखें। जब भ्रमण की जावे, तब उनके साथ अध्यापक रहें। जिससे किसी प्रकार की कुचेष्टा न कर सकें और न आलस्य प्रमाद करें। (सत्यार्थप्रकाश, ३ समुल्लास) १९. जो वहां अध्यापिका और अध्यापक पुरुष वा भृत्य अनुचर हों, वे कन्याओं की पाठशाला में सब स्त्री और पुरुषों की पाठशाला में पुरुष रहें। स्त्रियों की पाठशाला में पांच वर्ष का लड़का और पुरुषों की पाठशाला में पांच वर्ष की लड़की भी न जाने पावे। अर्थात् जब तक वे ब्रह्मचारी वा ब्रह्मचारिणी रहें, तब तक स्त्री वा पुरुष का दर्शन-स्पर्शन, एकान्तसेवन, भाषण, विषयकथा, परस्परक्रीड़ा, विषय का ध्यान और सङ्ग इन आठ प्रकार के मैथुनों से अलग रहें और अध्यापक लोग उनको इन बातों से बचावें। जिससे उत्तम विद्या, शिक्षाशील, स्वभाव, शरीर और आत्मा से बलयुक्त होके आनन्द को नित्य बढ़ा सकें। (सत्यार्थप्रकाश, ३ समुल्लास) २०. यथावत् ब्रह्मचर्य में आचार्यानुकूल वर्तकर धर्म से चारों, तीन वा दो, अथवा एक वेद को साङ्गोपाङ्ग पढ़ के जिसका ब्रह्मचर्य खण्डित न हुआ हो वह पुरुष वा स्त्री गृहाश्रम में प्रवेश करे। (सत्यार्थप्रकाश, ४ समुल्लास) २१. स्त्रियां आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत धारण करती थीं, और साधारण स्त्रियों के भी उपनयन और गुरु गेह में वासादि संस्कार होते थे। (उपदेश मञ्जरी) २२. ब्रह्मचर्य पूर्ण करके गृहस्थ और गृहस्थ होके वानप्रस्थ तथा वानप्रस्थ होके संन्यासी होवे। (संस्कार विधि, संन्यास संस्कार) २३. परन्तु जो ब्रह्मचर्य से संन्यासी होकर जगत् को सत्यशिक्षा कर जितनी उन्नति कर सकता है, उतनी गृहस्थ वा वानप्रस्थ आश्रम करके संन्यास आश्रमी नहीं कर सकता। (सत्यार्थप्रकाश, ५ समुल्लास) २४. जिस पुरुष ने विषय के दोष और वीर्य संरक्षण के गुण जाने हैं, वह विषयासक्त कभी नहीं होता, और उनका वीर्य विचार अग्नि का ईंधनवत् है अर्थात् उसी में व्यय हो जाता है। जैसे वैद्य और औषधियों की आवश्यकता रोगी के लिये होती है, वैसे निरोगी के लिये नहीं, इस प्रकार जिस पुरुष वा स्त्री को विद्या धर्म वृद्धि और सब संसार का उपकार करना ही प्रयोजन हो, वह विवाह न करे। (सत्यार्थप्रकाश, ५ समुल्लास) २५. जो मनुष्य इस ब्रह्मचर्य को प्राप्त होकर लोप नहीं करते, वे सब प्रकार के रोगों से रहित होकर धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को प्राप्त होते हैं। (सत्यार्थप्रकाश, ३ समुल्लास) २६. सब आश्रमों के मूल, सब उत्तम कर्मों में उत्तम कर्म और सब के मुख्य कारण ब्रह्मचर्य को खण्डित करके महादुःख सागर में कभी नहीं डुबना। (संस्कार विधि, वेदारम्भ संस्कार) २७. यदि कोई इस सर्वोत्तम धर्म से गिराना चाहे, उसको ब्रह्मचारी उत्तर देवे कि अरे छोकरों के छोकरे! मुझ से दूर रहो। तुम्हारे दुर्गन्ध रूप भ्रष्ट वचनों से मैं दूर रहता हूं। मैं इस उत्तम ब्रह्मचर्य का लोप कभी न करूंगा। (संस्कार विधि, वेदारम्भ संस्कार) इस प्रकार महर्षि दयानन्द जी महाराज ने अपने ग्रन्थों एवं प्रवचनों में ब्रह्मचर्य को जीवन का मूल आधार बताया है। यदि हम चाहते हैं कि हमारा देश पुनः अपने प्राचीन गौरव को प्राप्त करे तो इसके लिए सब आर्यों को कटिबद्ध होना चाहिए।
क्या पहले वेक्या पहले वेद एक था और द्वापरान्त में वेदव्यास ने उसके चार विभाग किए? (Vedicvichar)
21-10-2021
लेखक- पण्डित भगवद्दत्त बी०ए० आर्यावर्तीय मध्यकालीन अनेक विद्वान् लोग ऐसा मानते थे कि आदि में वेद एक था। द्वापर तक वह वैसा ही चला आया और द्वापर के अन्त में व्यास भगवान् ने उसके चार अर्थात् ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद, विभाग किए। पूर्व पक्ष देखिए मध्यकालीन ग्रन्थकार क्या लिखते हैं- १. महीधर अपने यजुर्वेद-भाष्य के आरम्भ में लिखता है- "तत्रादौ ब्रह्मपरम्परया प्राप्तं वेदं वेदव्यासो मन्दमतीन्मनुष्यान्विचिन्त्य तत्कृपया चतुर्धा व्यस्य ऋग्यजु:सामाथर्वाख्यांश्चतुरो वेदान् पैलवैशम्पायनजैमिनीसमुन्तुभ्य: कमादुपदिदेश।" अर्थात्- वेदव्यास को ब्रह्मा की परम्परा से वेद मिला और उसने उसके चार विभाग किए। २. महीधर का पूर्ववर्ती भट्टभास्कर अपने तैत्तिरीय संहिता-भाष्य के आरम्भ में लिखता है- "पूर्वे भगवता व्यासेन जगदुपकारार्थमेकीभूयस्थिता वेदा व्यस्ता: शाखाश्च परिच्छिन्ना:।" अर्थात्- भगवान् व्यास ने एकत्र स्थित वेदों का विभाग करके शाखाएं नियत कीं। ३. भट्टभास्कर से भी बहुत पहले होने वाला आचार्य दुर्ग निरुक्त १/२० की वृत्ति में लिखता है- "वेदं तावदेकं सन्तमतिमहत्त्वाद् दुरध्येयमनेकशाखाभेदेन समाम्नासिषु:, सुखग्रहणाय व्यासेन समाम्नातवन्त:।" अर्थात्- वेद पहले एक था, पीछे व्यास रूप में उसकी अनेक शाखाएं समाम्नान हुई। इस मत का स्वल्प मूल पुराणों में मिलता है। विष्णु पुराण में लिखा है- जातुकर्णो ऽभवन्मत्त: कृष्णद्वैपायनस्तत:। अष्टाविंशतिरित्येते वेदव्यासा: पुरातना:।। एको वेदश्चतुर्धा तु यै: कृतो द्वापरादिषु। -विष्णु पु० ३/३/१९,२० वेदश्चैकश्चतुर्धा तु व्यस्यते द्वापरादिषु। -मत्स्य पु० १४४/११ अर्थात्- प्रत्येक द्वापर के अन्त में एक ही चतुष्पाद वेद चार भागों में विभक्त किया जाता है। यह विभागीकरण अब तक २८ बार हो चुका जी। जो कोई उस विभाग को करता है उसका नाम व्यास होता है। उत्तर पक्ष दयानन्द सरस्वती स्वामी इस मत का खण्डन करते हैं। सत्यार्थप्रकाश समुल्लास एकादश में लिखा है- ...जो कोई यह कहते हैं कि वेदों को व्यास जी ने इकट्ठे किये, यह बात झूठी है। क्योंकि व्यास के पिता, पितामह, [प्रपितामह] पराशर, शक्ति वसिष्ठ और ब्रह्मा आदि ने भी चारों वेद पढ़े थे। इन दोनों पक्षों में से कौन सा पक्ष प्राचीन और सत्य है, यह अगली विवेचना से स्पष्ट हो जाएगा। मन्त्रों में अनेक वेदों का उल्लेख १- समस्त वैदिक इस बात पर सहमत हैं कि मन्त्र अनादि हैं। मन्त्रों में दी गई शिक्षा सर्वकालों के लिए हैं। अतः यदि मन्त्रों में बहुवचनान्त वेदा: पद आ जाए तो निश्चय जानना चाहिए कि आदि से ही वेद बहुत चले आये हैं। अब देखिए अगला मन्त्र क्या कहता है- यस्मिन् वेदा निहिता विश्वरूपा:। -अथर्व० ४/३५/६ अर्थात्- जिस परब्रह्म में समस्त विद्याओं का भण्डार वेद स्थिर हैं। २- पुनः- ब्रह्म प्रजापतिर्धाता लोका वेदा: सप्त ऋषयोऽग्नय:। तैर्मे कृतं स्वस्त्ययनमिन्द्रो मे शर्म यच्छतु।। -अथर्व० १९/९/१२ यहां भी वेदा: बहुवचनान्त पद आया है। इस मन्त्र पर भाष्य करते हुए आचार्य सायण लिखता है- वेदा: साङ्गाश्चत्वार:। अर्थात्- इस मन्त्र में बहुवचनान्त वेद पद से चारों वेदों का अभिप्राय है। ३. पुनरपि तैत्तिरीय संहिता में एक मन्त्र आया है- वेदेभ्य: स्वाहा।। -७/५/११/२ ४. यही पूर्वोक्त मन्त्र काठकसंहिता ५/२ में भी मिलता है। इन प्रमाणों से ज्ञात होता है कि प्राचीनतम काल से वेद अनेक चले आए हैं। ब्राह्मण ग्रन्थों का मत इस विषय में ब्राह्मणों की भी यही सम्मति है। इतना ही नहीं, उनमें तो यह भी लिखा है कि चारों वेद आदि से ही चले आ रहे हैं। माध्यन्दिन शतपथब्राह्मण काण्ड ११ के स्वाध्याय-प्रशंसा ब्राह्मण के आगे आदि से ही अनेक वेदों का होना लिखा है। ऐसा ही ऐतरेयादि दूसरे ब्राह्मणों में भी लिखा है। १- काठकब्राह्मण में लिखा है- चत्वारि शृङ्गा इति वेदा वा एतदुक्ता:। अर्थात्- चत्वारि शृङ्गा प्रतीक वाले प्रसिद्ध मन्त्र में चारों वेदों का कथन मिलता है। पुनः- २- काठ के शताध्य्यन ब्राह्मण के आरम्भ में ब्रह्मौदन प्रकरण में अथर्ववेद की प्रधानता का वर्णन करते हुए चार ही वेदों का उल्लेख किया है- ...आथर्वणो वै ब्रह्मण: समान:...चत्वारो हीमे वेदास्तानेव भागिन: करोति, मूलं वै ब्रह्मणो वेदा:, वेदानामेतन्मूलं, यदृत्विज: प्राश्नन्ति तद् ब्रह्मौदनस्य ब्रह्मौदनत्वम्। अर्थात्- चार ही वेद हैं। अथर्व उनमें प्रथम है, इत्यादि। ३- गोपथ ब्राह्मण पूर्वभाग १/१६ में लिखा है- ब्रह्म ह वै ब्रह्माणं पुष्करे ससृजे। स...सर्वोश्च वेदान्...। अर्थात्- परमात्मा ने ब्रह्मा को पृथिवी-कमल पर उत्पन्न किया। उसे चिन्ता हुई। किस एक अक्षर से मैं सारे वेदों को अनुभव करूँ। उपनिषदों का मत श्वेताश्वतरों की उपनिषद् मन्त्रोपनिषद् कही जाती है। उसका एक मन्त्र विद्वान्मण्डल में बहुत काल से प्रसिद्ध चला आता है। उससे न केवल व्यास से पूर्व ही वेदों का एक से अधिक होना निश्चित होता है, प्रत्युत सर्गारम्भ में ही वेद एक से अधिक थे, ऐसा सुनिर्णीत हो जाता है। वह सुप्रसिद्ध मन्त्र यह है- यो ब्रह्माणं विदधाति पूर्वे यो वै वेदांश्च प्रहिणोति तस्मै। इत्यादि ६/१८ अर्थात्- जो ब्रह्मा को आदि में उत्पन्न करता है और उसके लिए वेदों को दिलवाता है। हमारे पक्ष में यह प्रमाण इतना प्रबल है कि इसके अर्थों पर सब ओर से विचार करना आवश्यक है। (क) शंकराचार्य का अर्थ वेदान्त सूत्र भाष्य १/३/३० तथा १/४/१ पर स्वामी शंकराचार्य लिखते हैं- ईश्वराणां हिरण्यगर्भादीनां वर्तमानकल्पादौ प्रादुर्भवतां परमेश्वरानुगृहीतानां सुप्तप्रबुद्धवत् कल्पान्तरव्यवहारानुसंधानोपपत्ति:। तथा च श्रुति:- यो ब्रह्माणं...इति। शंकर स्वामी ब्रह्मा से हिरण्यगर्भ अभिप्रेत मानते हैं। यही उनका ईश्वर है। वह मनुष्यों से ऊपर है। उस देव ब्रह्मा को कल्प के आरम्भ में परमेश्वर की कृपा से अपनी बुद्धि में वेद प्रकाशित हो जाते हैं। वाचस्पतिमिश्र 'ईश्वर' का अर्थ धर्मज्ञानवैराग्यैश्वर्यातिशयसंपन्न करता है। वैदिक देवतावाद में ऐसे स्थानों पर 'देव' का अर्थ विद्वान् मनुष्य भी होता है। अतः पहले सर्वत्र अधिष्ठातृ-देवता का विचार करना, पुनः वैदिक ग्रन्थों की तदनुसार संगति लगाना क्लिष्टकल्पना मात्र है। अतः अलमनया क्लिष्टकल्पनया। ब्रह्मा आदि सृष्टि का विद्वान् मनुष्य है, इस अर्थ में मुण्डकोपनिषद् का प्रथम मन्त्र भी प्रमाण है- ब्रह्मा देवानां प्रथम: सम्बभूव विश्वस्य कर्ता भुवनस्य गोप्ता। स ब्रह्मविद्यां सर्वविद्याप्रतिष्ठामथर्वाय ज्येष्ठपुत्राय प्राह।। यहां पर भी शंकर वा उसके चरण चिन्हों पर चलने वाले लोग देवानां पद के आ जाने से ब्रह्मा को मनुष्येतर मानते हैं। पर आगे 'ज्येष्ठपुत्राय' पद जो पढ़ा गया है, वह उनके लिए आपत्ति का कारण बनता है। क्योंकि अधिष्ठाता ब्रह्मा के पुत्र ही नहीं हैं, तो उनमें से कोई ज्येष्ठ कैसे होगा? इसलिए पूर्व प्रमाण में ब्रह्मा को मनुष्येतर मानना युक्तियुक्त नहीं। इसी ब्रह्मा को आदि सृष्टि में अग्नि आदि से चार वेद मिले। (ख) श्रीगोविन्द की व्याख्या वेदान्त सूत्र १/३/३० के शांकरभाष्य की व्याख्या करते हुए श्रीगोविन्द लिखता है- पूर्वं कल्पादौ सृजति तस्मै ब्रह्मणे प्रहिणोति=गमयति=तस्य बुद्धौ वेदानाविर्भावयति। यहां भी चाहे उसका अभिप्राय अधिष्ठातृदेवता-वाद से ही हो, पर वह भी वेदों का आरम्भ में ही अनेक होना मानता है। (ग) आनन्दगिरिय व्याख्या इस सूत्र के भाष्य पर आनन्दगिरि लिखता है- विपूर्वो दधाति: करोत्यर्थं। पूर्वं कल्पादौ प्रहिणोति ददाति। आनन्दगिरि भी ब्रह्मा को ही वेदों का मिलना मानता है। चार वेद के जानने से ब्रह्मा होता है। ऐसे ब्रह्मा आदिसृष्टि से अनेक होते आए हैं। व्यास जी के प्रपितामह का पिता भी एक ब्रह्मा ही था। इन सब में से पहला अथवा आदिसृष्टि का ब्रह्मा मुण्डकोपनिषद् के प्रथम मन्त्र में कहा गया है। उसी उपनिषद् में उसका वंश ऐसा लिखा है- ब्रह्मा अथर्वा अङ्गिर: भारद्वाज सत्यवाह अङ्गिरस् शौनक यह शौनक, बृहद्देवता आदि के कर्ता, आश्वलायन के गुरु शौनक से बहुत पूर्व का होगा। अतः कृष्ण द्वैपायन वेदव्यास और पुराण से स्वीकृत प्रथम वेदव्यास से भी बहुत पहले का है। इसी शौनक को उपदेश देते हुए भगवान् अङ्गिरस् कह रहे हैं- ऋग्वेदो यजुर्वेद: सामवेदोऽथर्ववेद:। जब इतने प्राचीन काल में चारों वेद विद्यमान थे, तो यह कहना कि प्रत्येक द्वापरान्त में कोई व्यास एक वेद का चार वेदों में विभाग करता है, अथवा मन्त्रों को इकट्ठा करके चार वेद बनाता है, युक्त नहीं। प्राचीन इतिहास में पूर्व दिए गए प्रमाण इतिहासेतर ग्रन्थों के हैं। हमारा प्राचीन इतिहास रामायण, महाभारत आदि ग्रन्थों में मिलता है। इनसे भी प्राचीनकाल के अनेक उपाख्यान अब इन्हीं ग्रन्थों में सम्मिलित हैं। कृष्णद्वैपायन वेदव्यास एक ऐतिहासिक व्यक्ति था। उसी के शिष्य प्रशिष्यों ने ब्राह्मणादि ग्रन्थों का संकलन किया। उसी ने महाभारत रचा। उसी के पिता पितामह पराशर, शक्ति आदि हुए हैं। वही आर्यज्ञान का अद्वितीय पण्डित था। हम अगले प्रमाण महाभारत से ही देंगे। हमारी दृष्टि में यह ग्रन्थ वैसा ही प्रामाणिक है, जैसा संसार के अन्य ऐतिहासिक ग्रन्थ। नहीं, नहीं, यह तो उनसे भी अधिक प्रामाणिक है। यह इतिहास ऋषिप्रणीत है। हां इसके साम्प्रदायिक भाग नवीन हैं। क- महाभारत शल्यपर्व अध्याय ४१ में कृतयुग की एक वार्ता सुनाते हुए मुनि वैशंपायन महाराज जनमेजय को कहते हैं- पुरा कृतयुगे राजन्नार्ष्टिषेणो द्विजोत्तम:। वसन् गुरुकुले नित्यं नित्यमध्ययने रत:।।३।। तस्य राजन् गुरुकुले वसतो नित्यमेव च। समाप्तिं नागमद्विद्या नापि वेदा विशांपते।।४।। अर्थात्- प्राचीन काल में कृतयुग में आर्ष्टिषेण गुरुकुल में पढ़ता था। तब वह न ही विद्या को समाप्त कर सका और न ही वेदों को। ख- दाशरथि राम के राज्य का वर्णन करते हुए महाभारत द्रोणपर्व अध्याय ५१ में लिखा है- वेदैश्चतुर्भि: सुप्रीता: प्राप्नुवन्ति दिवौकस:। हव्यं कव्यं च विविधं निष्पूर्तं हुतमेव च।।२२।। अर्थात्- राम के राज्य में चारों वेद पढ़े विद्वान् थे। ग- आदि पर्व ७६/१३ में ययाति देवयानी से कहता है कि मैंने सम्पूर्ण वेद पढ़ा है- ब्रह्मचर्येण कृत्स्नो मे वेद: श्रुतिपथं गत:। घ- शान्तिपर्व ७३/५ से भीष्म जी उशना के प्राचीन श्लोक सुना रहे हैं। उशना कहता है- राज्ञश्चाथर्ववेदेन सर्वकर्माणि कारयेत्।।७।। अर्थात्- अथर्ववेद से राजा के सारे काम पुरोहित कराए। ङ- महाभारत वनपर्व अ० २९ में द्रौपदी को उपदेश देते हुए महाराज युधिष्ठिर एक प्राचीन गाथा सुनाते हैं- अत्राप्युदाहरन्तीमा गाथा नित्यं क्षमावताम्। गीता: क्षमावतां कृष्णे काश्यपेन महात्मना।।३८।। क्षमा धर्म: क्षमा यज्ञ: क्षमा वेदा: क्षमा श्रुतम्। यस्तमेवं विजानाति स सर्वं क्षन्तुमर्हति।।३९।। अर्थात्- महात्मा काश्यप की गाई हुई यह गाथा है कि क्षमा ही वेद हैं। महाभारत के ये क, ख, घ और ङ प्रमाण कुम्भघोण संस्करण से दिए गए हैं। इनकी तथ्यता का अभी पूरा निर्णय नहीं कर सकते। परन्तु ग और अगला प्रमाण मित्रवर श्री सुखथंकर के प्रामाणिक संस्करण से दिए गए हैं। इसका अभी तक आदि पर्व ही मुद्रित हुआ है, अतः अगले पर्वों के लिए हम इसे देख नहीं सके। महाभारत आदिपर्व में शकुन्तलोपाख्यान प्रसिद्ध है। राजर्षि दुःषन्त काश्यप कण्व के अत्यन्त सुरम्य आश्रम में प्रवेश कर रहे हैं। उस समय का चित्र भगवान् द्वैपायन ने खींचा है। देखो अध्याय ६४ में लिखा है- ऋचो बह्वृचमुख्यैश्च प्रेर्यमाणा: पदक्रमै:। शुश्राव मनुजव्याघ्रो विततेष्विह कर्मसु।।३१।। अथर्ववेदप्रवरा: पूययाज्ञिकसंमता:। संहितामीरयन्ति स्म पदक्रमयुतां तु ते।।३३।। अर्थात्- ऋग्वेदियों में श्रेष्ठ-जन पद और क्रम से ऋचाएं पढ़ रहे थे। और अथर्ववेद में प्रवीण विद्वान् पद, क्रमयुक्त संहिता को पढ़ते थे। यह कैसा स्पष्ट प्रमाण है। इसमें स्पष्ट लिखा है कि व्यास जी से सैकड़ों वर्ष पूर्व महाराज दु:षन्त के काल में भी अथर्ववेद की संहिता पद और क्रम सहित पढ़ी जाती थी। यह उस काल का वर्णन है जब वेदों की सम्प्राप्त शाखाएं न बनीं थीं, परन्तु जब मन्त्रों के व्याख्यारूप पाठान्तर आर्यावर्त के अनेक गुरुकुलों में प्रसिद्ध थे, तथा जब ब्राह्मण आदि ग्रन्थों की सामग्री भी अनेक आचार्य-परम्पराओं में एकत्र हो चुकी थी। इन्हीं वेदों की पाठान्तर आदि व्याख्या होकर आगे अनेक शाखाएं बनीं। तब ये वेद किसी ऋषि प्रवक्ता के नाम से प्रसिद्ध नहीं थे। यही वेद सनातन काल से चले आए हैं। व्यास जी ने अनेक ऋषि मुनियों की सहायता से उन पाठान्तरों को एकत्र करके वेद-शाखाएं बनाई, और ब्राह्मण ग्रन्थों की सामग्री को भी क्रम देकर तत् तत् शाखानुकूल उनका संकलन किया। कई लोग ब्राह्मणादिकों को भी वेद कहते थे, अतः उन्होंने यही कहना आरम्भ कर दिया कि व्यास जी ने ही वेदों का विभाग किया। वेदव्यास जी ने तो ब्राह्मण आदि का ही विभाग किया था। वेद तो सदा से चले आए हैं। वस्तुतः पुराणों में भी इसके विपरीत नहीं कहा गया। वहां भी यही लिखा है कि वेद आरम्भ से ही चतुष्पाद था, अर्थात् एक वेद की चार ही संहिताएं थीं। [स्त्रोत- वैदिक वाङ्मय का इतिहास]द एक था और द्वापरान्त में वेदव्यास ने उसके चार विभाग किए? लेखक- पण्डित भगवद्दत्त बी०ए० आर्यावर्तीय मध्यकालीन अनेक विद्वान् लोग ऐसा मानते थे कि आदि में वेद एक था। द्वापर तक वह वैसा ही चला आया और द्वापर के अन्त में व्यास भगवान् ने उसके चार अर्थात् ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद, विभाग किए। पूर्व पक्ष देखिए मध्यकालीन ग्रन्थकार क्या लिखते हैं- १. महीधर अपने यजुर्वेद-भाष्य के आरम्भ में लिखता है- "तत्रादौ ब्रह्मपरम्परया प्राप्तं वेदं वेदव्यासो मन्दमतीन्मनुष्यान्विचिन्त्य तत्कृपया चतुर्धा व्यस्य ऋग्यजु:सामाथर्वाख्यांश्चतुरो वेदान् पैलवैशम्पायनजैमिनीसमुन्तुभ्य: कमादुपदिदेश।" अर्थात्- वेदव्यास को ब्रह्मा की परम्परा से वेद मिला और उसने उसके चार विभाग किए। २. महीधर का पूर्ववर्ती भट्टभास्कर अपने तैत्तिरीय संहिता-भाष्य के आरम्भ में लिखता है- "पूर्वे भगवता व्यासेन जगदुपकारार्थमेकीभूयस्थिता वेदा व्यस्ता: शाखाश्च परिच्छिन्ना:।" अर्थात्- भगवान् व्यास ने एकत्र स्थित वेदों का विभाग करके शाखाएं नियत कीं। ३. भट्टभास्कर से भी बहुत पहले होने वाला आचार्य दुर्ग निरुक्त १/२० की वृत्ति में लिखता है- "वेदं तावदेकं सन्तमतिमहत्त्वाद् दुरध्येयमनेकशाखाभेदेन समाम्नासिषु:, सुखग्रहणाय व्यासेन समाम्नातवन्त:।" अर्थात्- वेद पहले एक था, पीछे व्यास रूप में उसकी अनेक शाखाएं समाम्नान हुई। इस मत का स्वल्प मूल पुराणों में मिलता है। विष्णु पुराण में लिखा है- जातुकर्णो ऽभवन्मत्त: कृष्णद्वैपायनस्तत:। अष्टाविंशतिरित्येते वेदव्यासा: पुरातना:।। एको वेदश्चतुर्धा तु यै: कृतो द्वापरादिषु। -विष्णु पु० ३/३/१९,२० वेदश्चैकश्चतुर्धा तु व्यस्यते द्वापरादिषु। -मत्स्य पु० १४४/११ अर्थात्- प्रत्येक द्वापर के अन्त में एक ही चतुष्पाद वेद चार भागों में विभक्त किया जाता है। यह विभागीकरण अब तक २८ बार हो चुका जी। जो कोई उस विभाग को करता है उसका नाम व्यास होता है। उत्तर पक्ष दयानन्द सरस्वती स्वामी इस मत का खण्डन करते हैं। सत्यार्थप्रकाश समुल्लास एकादश में लिखा है- ...जो कोई यह कहते हैं कि वेदों को व्यास जी ने इकट्ठे किये, यह बात झूठी है। क्योंकि व्यास के पिता, पितामह, [प्रपितामह] पराशर, शक्ति वसिष्ठ और ब्रह्मा आदि ने भी चारों वेद पढ़े थे। इन दोनों पक्षों में से कौन सा पक्ष प्राचीन और सत्य है, यह अगली विवेचना से स्पष्ट हो जाएगा। मन्त्रों में अनेक वेदों का उल्लेख १- समस्त वैदिक इस बात पर सहमत हैं कि मन्त्र अनादि हैं। मन्त्रों में दी गई शिक्षा सर्वकालों के लिए हैं। अतः यदि मन्त्रों में बहुवचनान्त वेदा: पद आ जाए तो निश्चय जानना चाहिए कि आदि से ही वेद बहुत चले आये हैं। अब देखिए अगला मन्त्र क्या कहता है- यस्मिन् वेदा निहिता विश्वरूपा:। -अथर्व० ४/३५/६ अर्थात्- जिस परब्रह्म में समस्त विद्याओं का भण्डार वेद स्थिर हैं। २- पुनः- ब्रह्म प्रजापतिर्धाता लोका वेदा: सप्त ऋषयोऽग्नय:। तैर्मे कृतं स्वस्त्ययनमिन्द्रो मे शर्म यच्छतु।। -अथर्व० १९/९/१२ यहां भी वेदा: बहुवचनान्त पद आया है। इस मन्त्र पर भाष्य करते हुए आचार्य सायण लिखता है- वेदा: साङ्गाश्चत्वार:। अर्थात्- इस मन्त्र में बहुवचनान्त वेद पद से चारों वेदों का अभिप्राय है। ३. पुनरपि तैत्तिरीय संहिता में एक मन्त्र आया है- वेदेभ्य: स्वाहा।। -७/५/११/२ ४. यही पूर्वोक्त मन्त्र काठकसंहिता ५/२ में भी मिलता है। इन प्रमाणों से ज्ञात होता है कि प्राचीनतम काल से वेद अनेक चले आए हैं। ब्राह्मण ग्रन्थों का मत इस विषय में ब्राह्मणों की भी यही सम्मति है। इतना ही नहीं, उनमें तो यह भी लिखा है कि चारों वेद आदि से ही चले आ रहे हैं। माध्यन्दिन शतपथब्राह्मण काण्ड ११ के स्वाध्याय-प्रशंसा ब्राह्मण के आगे आदि से ही अनेक वेदों का होना लिखा है। ऐसा ही ऐतरेयादि दूसरे ब्राह्मणों में भी लिखा है। १- काठकब्राह्मण में लिखा है- चत्वारि शृङ्गा इति वेदा वा एतदुक्ता:। अर्थात्- चत्वारि शृङ्गा प्रतीक वाले प्रसिद्ध मन्त्र में चारों वेदों का कथन मिलता है। पुनः- २- काठ के शताध्य्यन ब्राह्मण के आरम्भ में ब्रह्मौदन प्रकरण में अथर्ववेद की प्रधानता का वर्णन करते हुए चार ही वेदों का उल्लेख किया है- ...आथर्वणो वै ब्रह्मण: समान:...चत्वारो हीमे वेदास्तानेव भागिन: करोति, मूलं वै ब्रह्मणो वेदा:, वेदानामेतन्मूलं, यदृत्विज: प्राश्नन्ति तद् ब्रह्मौदनस्य ब्रह्मौदनत्वम्। अर्थात्- चार ही वेद हैं। अथर्व उनमें प्रथम है, इत्यादि। ३- गोपथ ब्राह्मण पूर्वभाग १/१६ में लिखा है- ब्रह्म ह वै ब्रह्माणं पुष्करे ससृजे। स...सर्वोश्च वेदान्...। अर्थात्- परमात्मा ने ब्रह्मा को पृथिवी-कमल पर उत्पन्न किया। उसे चिन्ता हुई। किस एक अक्षर से मैं सारे वेदों को अनुभव करूँ। उपनिषदों का मत श्वेताश्वतरों की उपनिषद् मन्त्रोपनिषद् कही जाती है। उसका एक मन्त्र विद्वान्मण्डल में बहुत काल से प्रसिद्ध चला आता है। उससे न केवल व्यास से पूर्व ही वेदों का एक से अधिक होना निश्चित होता है, प्रत्युत सर्गारम्भ में ही वेद एक से अधिक थे, ऐसा सुनिर्णीत हो जाता है। वह सुप्रसिद्ध मन्त्र यह है- यो ब्रह्माणं विदधाति पूर्वे यो वै वेदांश्च प्रहिणोति तस्मै। इत्यादि ६/१८ अर्थात्- जो ब्रह्मा को आदि में उत्पन्न करता है और उसके लिए वेदों को दिलवाता है। हमारे पक्ष में यह प्रमाण इतना प्रबल है कि इसके अर्थों पर सब ओर से विचार करना आवश्यक है। (क) शंकराचार्य का अर्थ वेदान्त सूत्र भाष्य १/३/३० तथा १/४/१ पर स्वामी शंकराचार्य लिखते हैं- ईश्वराणां हिरण्यगर्भादीनां वर्तमानकल्पादौ प्रादुर्भवतां परमेश्वरानुगृहीतानां सुप्तप्रबुद्धवत् कल्पान्तरव्यवहारानुसंधानोपपत्ति:। तथा च श्रुति:- यो ब्रह्माणं...इति। शंकर स्वामी ब्रह्मा से हिरण्यगर्भ अभिप्रेत मानते हैं। यही उनका ईश्वर है। वह मनुष्यों से ऊपर है। उस देव ब्रह्मा को कल्प के आरम्भ में परमेश्वर की कृपा से अपनी बुद्धि में वेद प्रकाशित हो जाते हैं। वाचस्पतिमिश्र 'ईश्वर' का अर्थ धर्मज्ञानवैराग्यैश्वर्यातिशयसंपन्न करता है। वैदिक देवतावाद में ऐसे स्थानों पर 'देव' का अर्थ विद्वान् मनुष्य भी होता है। अतः पहले सर्वत्र अधिष्ठातृ-देवता का विचार करना, पुनः वैदिक ग्रन्थों की तदनुसार संगति लगाना क्लिष्टकल्पना मात्र है। अतः अलमनया क्लिष्टकल्पनया। ब्रह्मा आदि सृष्टि का विद्वान् मनुष्य है, इस अर्थ में मुण्डकोपनिषद् का प्रथम मन्त्र भी प्रमाण है- ब्रह्मा देवानां प्रथम: सम्बभूव विश्वस्य कर्ता भुवनस्य गोप्ता। स ब्रह्मविद्यां सर्वविद्याप्रतिष्ठामथर्वाय ज्येष्ठपुत्राय प्राह।। यहां पर भी शंकर वा उसके चरण चिन्हों पर चलने वाले लोग देवानां पद के आ जाने से ब्रह्मा को मनुष्येतर मानते हैं। पर आगे 'ज्येष्ठपुत्राय' पद जो पढ़ा गया है, वह उनके लिए आपत्ति का कारण बनता है। क्योंकि अधिष्ठाता ब्रह्मा के पुत्र ही नहीं हैं, तो उनमें से कोई ज्येष्ठ कैसे होगा? इसलिए पूर्व प्रमाण में ब्रह्मा को मनुष्येतर मानना युक्तियुक्त नहीं। इसी ब्रह्मा को आदि सृष्टि में अग्नि आदि से चार वेद मिले। (ख) श्रीगोविन्द की व्याख्या वेदान्त सूत्र १/३/३० के शांकरभाष्य की व्याख्या करते हुए श्रीगोविन्द लिखता है- पूर्वं कल्पादौ सृजति तस्मै ब्रह्मणे प्रहिणोति=गमयति=तस्य बुद्धौ वेदानाविर्भावयति। यहां भी चाहे उसका अभिप्राय अधिष्ठातृदेवता-वाद से ही हो, पर वह भी वेदों का आरम्भ में ही अनेक होना मानता है। (ग) आनन्दगिरिय व्याख्या इस सूत्र के भाष्य पर आनन्दगिरि लिखता है- विपूर्वो दधाति: करोत्यर्थं। पूर्वं कल्पादौ प्रहिणोति ददाति। आनन्दगिरि भी ब्रह्मा को ही वेदों का मिलना मानता है। चार वेद के जानने से ब्रह्मा होता है। ऐसे ब्रह्मा आदिसृष्टि से अनेक होते आए हैं। व्यास जी के प्रपितामह का पिता भी एक ब्रह्मा ही था। इन सब में से पहला अथवा आदिसृष्टि का ब्रह्मा मुण्डकोपनिषद् के प्रथम मन्त्र में कहा गया है। उसी उपनिषद् में उसका वंश ऐसा लिखा है- ब्रह्मा अथर्वा अङ्गिर: भारद्वाज सत्यवाह अङ्गिरस् शौनक यह शौनक, बृहद्देवता आदि के कर्ता, आश्वलायन के गुरु शौनक से बहुत पूर्व का होगा। अतः कृष्ण द्वैपायन वेदव्यास और पुराण से स्वीकृत प्रथम वेदव्यास से भी बहुत पहले का है। इसी शौनक को उपदेश देते हुए भगवान् अङ्गिरस् कह रहे हैं- ऋग्वेदो यजुर्वेद: सामवेदोऽथर्ववेद:। जब इतने प्राचीन काल में चारों वेद विद्यमान थे, तो यह कहना कि प्रत्येक द्वापरान्त में कोई व्यास एक वेद का चार वेदों में विभाग करता है, अथवा मन्त्रों को इकट्ठा करके चार वेद बनाता है, युक्त नहीं। प्राचीन इतिहास में पूर्व दिए गए प्रमाण इतिहासेतर ग्रन्थों के हैं। हमारा प्राचीन इतिहास रामायण, महाभारत आदि ग्रन्थों में मिलता है। इनसे भी प्राचीनकाल के अनेक उपाख्यान अब इन्हीं ग्रन्थों में सम्मिलित हैं। कृष्णद्वैपायन वेदव्यास एक ऐतिहासिक व्यक्ति था। उसी के शिष्य प्रशिष्यों ने ब्राह्मणादि ग्रन्थों का संकलन किया। उसी ने महाभारत रचा। उसी के पिता पितामह पराशर, शक्ति आदि हुए हैं। वही आर्यज्ञान का अद्वितीय पण्डित था। हम अगले प्रमाण महाभारत से ही देंगे। हमारी दृष्टि में यह ग्रन्थ वैसा ही प्रामाणिक है, जैसा संसार के अन्य ऐतिहासिक ग्रन्थ। नहीं, नहीं, यह तो उनसे भी अधिक प्रामाणिक है। यह इतिहास ऋषिप्रणीत है। हां इसके साम्प्रदायिक भाग नवीन हैं। क- महाभारत शल्यपर्व अध्याय ४१ में कृतयुग की एक वार्ता सुनाते हुए मुनि वैशंपायन महाराज जनमेजय को कहते हैं- पुरा कृतयुगे राजन्नार्ष्टिषेणो द्विजोत्तम:। वसन् गुरुकुले नित्यं नित्यमध्ययने रत:।।३।। तस्य राजन् गुरुकुले वसतो नित्यमेव च। समाप्तिं नागमद्विद्या नापि वेदा विशांपते।।४।। अर्थात्- प्राचीन काल में कृतयुग में आर्ष्टिषेण गुरुकुल में पढ़ता था। तब वह न ही विद्या को समाप्त कर सका और न ही वेदों को। ख- दाशरथि राम के राज्य का वर्णन करते हुए महाभारत द्रोणपर्व अध्याय ५१ में लिखा है- वेदैश्चतुर्भि: सुप्रीता: प्राप्नुवन्ति दिवौकस:। हव्यं कव्यं च विविधं निष्पूर्तं हुतमेव च।।२२।। अर्थात्- राम के राज्य में चारों वेद पढ़े विद्वान् थे। ग- आदि पर्व ७६/१३ में ययाति देवयानी से कहता है कि मैंने सम्पूर्ण वेद पढ़ा है- ब्रह्मचर्येण कृत्स्नो मे वेद: श्रुतिपथं गत:। घ- शान्तिपर्व ७३/५ से भीष्म जी उशना के प्राचीन श्लोक सुना रहे हैं। उशना कहता है- राज्ञश्चाथर्ववेदेन सर्वकर्माणि कारयेत्।।७।। अर्थात्- अथर्ववेद से राजा के सारे काम पुरोहित कराए। ङ- महाभारत वनपर्व अ० २९ में द्रौपदी को उपदेश देते हुए महाराज युधिष्ठिर एक प्राचीन गाथा सुनाते हैं- अत्राप्युदाहरन्तीमा गाथा नित्यं क्षमावताम्। गीता: क्षमावतां कृष्णे काश्यपेन महात्मना।।३८।। क्षमा धर्म: क्षमा यज्ञ: क्षमा वेदा: क्षमा श्रुतम्। यस्तमेवं विजानाति स सर्वं क्षन्तुमर्हति।।३९।। अर्थात्- महात्मा काश्यप की गाई हुई यह गाथा है कि क्षमा ही वेद हैं। महाभारत के ये क, ख, घ और ङ प्रमाण कुम्भघोण संस्करण से दिए गए हैं। इनकी तथ्यता का अभी पूरा निर्णय नहीं कर सकते। परन्तु ग और अगला प्रमाण मित्रवर श्री सुखथंकर के प्रामाणिक संस्करण से दिए गए हैं। इसका अभी तक आदि पर्व ही मुद्रित हुआ है, अतः अगले पर्वों के लिए हम इसे देख नहीं सके। महाभारत आदिपर्व में शकुन्तलोपाख्यान प्रसिद्ध है। राजर्षि दुःषन्त काश्यप कण्व के अत्यन्त सुरम्य आश्रम में प्रवेश कर रहे हैं। उस समय का चित्र भगवान् द्वैपायन ने खींचा है। देखो अध्याय ६४ में लिखा है- ऋचो बह्वृचमुख्यैश्च प्रेर्यमाणा: पदक्रमै:। शुश्राव मनुजव्याघ्रो विततेष्विह कर्मसु।।३१।। अथर्ववेदप्रवरा: पूययाज्ञिकसंमता:। संहितामीरयन्ति स्म पदक्रमयुतां तु ते।।३३।। अर्थात्- ऋग्वेदियों में श्रेष्ठ-जन पद और क्रम से ऋचाएं पढ़ रहे थे। और अथर्ववेद में प्रवीण विद्वान् पद, क्रमयुक्त संहिता को पढ़ते थे। यह कैसा स्पष्ट प्रमाण है। इसमें स्पष्ट लिखा है कि व्यास जी से सैकड़ों वर्ष पूर्व महाराज दु:षन्त के काल में भी अथर्ववेद की संहिता पद और क्रम सहित पढ़ी जाती थी। यह उस काल का वर्णन है जब वेदों की सम्प्राप्त शाखाएं न बनीं थीं, परन्तु जब मन्त्रों के व्याख्यारूप पाठान्तर आर्यावर्त के अनेक गुरुकुलों में प्रसिद्ध थे, तथा जब ब्राह्मण आदि ग्रन्थों की सामग्री भी अनेक आचार्य-परम्पराओं में एकत्र हो चुकी थी। इन्हीं वेदों की पाठान्तर आदि व्याख्या होकर आगे अनेक शाखाएं बनीं। तब ये वेद किसी ऋषि प्रवक्ता के नाम से प्रसिद्ध नहीं थे। यही वेद सनातन काल से चले आए हैं। व्यास जी ने अनेक ऋषि मुनियों की सहायता से उन पाठान्तरों को एकत्र करके वेद-शाखाएं बनाई, और ब्राह्मण ग्रन्थों की सामग्री को भी क्रम देकर तत् तत् शाखानुकूल उनका संकलन किया। कई लोग ब्राह्मणादिकों को भी वेद कहते थे, अतः उन्होंने यही कहना आरम्भ कर दिया कि व्यास जी ने ही वेदों का विभाग किया। वेदव्यास जी ने तो ब्राह्मण आदि का ही विभाग किया था। वेद तो सदा से चले आए हैं। वस्तुतः पुराणों में भी इसके विपरीत नहीं कहा गया। वहां भी यही लिखा है कि वेद आरम्भ से ही चतुष्पाद था, अर्थात् एक वेद की चार ही संहिताएं थीं। [स्त्रोत- वैदिक वाङ्मय का इतिहास]
Know thy Vedas (vedicvichar)
21-10-2021
Quest # 1: Why to believe the Vedas to be authoritative and of Divine origin and true? Answer: “The book in which God is described as He is viz., Holy, Omniscient, Pure in nature, character and attributes, Just, Merciful, etc., and in which nothing is said that is opposed to the laws of nature, reason, the evidence of direct cognisance, etc., the teaching of the highly learned altruistic teachers of humanity (A’ptas), and the intuition of pure souls, and in which the laws, nature, and properties of matter and the soul are propounded as they are to be inferred from the order of nature as fixed by God, is the book of Divine revelation. Now The Vedas alone fulfil all the above conditions, hence they are the revealed books.” [Light Of Truth—-VII] Man is finite in knowledge of his surroundings where he stays and does mistakes hence cannot be perfect, because he is infinitesimal unity, whilst God is infinite, All-pervading, Omniscient, so His knowledge —The Vedas are the only ATHOROTATIVE AND TRUSTED by all. The Vedas being Divine in origin, are free from error and axiomatic (Swatah-Pramana), in other words the Vedas are their own authority, whilst other books, dependent upon the Vedas for their authority. “As the parents are kind to their children and wish for their welfare, so has the Supreme Spirit, out of kindness to all men, revealed. The Vedas by whose study men are freed from ignorance and error, and may attain the light of true knowledge and thereby enjoy extreme happiness as well as advance knowledge and promote their welfare” [S.P. VII] Since time immemorial, till the Great War of Mahabharata the scholars treated The Vedas as the repository of all true knowledge and interpreted them accordingly. If The Vedas had not possessed science the various scientific developments would not have taken place. Great sage Vyasa, the author of the Vedanta Darshana unequivocally accepted this idea. Shri Shankaracharya comments in his Sutra “Shastrayonitvat (1-1-3)” Vedas are the scriptures of all true-knowledge. He attributes them with the adjectives “Saravidyo-pvrinhita” and “Sarvajnakalpa” The great sage of modern era “Maharishi Dayanand Saraswati” confidently declared in his book “Rigvedaadi-Bhaashyabhumika” ‘in which he collected some very conspicuous facts of science “The Vedas are the scripture of all true knowledge, is such a gift to mankind on his part that he deserves the gratitude of posterity.” Quest # 2: The Vedas are the creation of God. Any proof? Answer: There are many proofs in the Vedas that show that the Vedas are the books of Divine revelation. The Yajurveda (31-3) explains that Agni = Rigveda (glorification), Vayu = Yajurveda (communion), Aaditya = Samaveda (emancipation) and Angira = Atharvaveda = sacred word i.e. God’s word. · “Tasmaad Yajyaat Sarvahuta RrichahSaamaani jagyire” (Rigveda 10-90-9) i.e. “God has created the Rig, Yajur, Sama and Atharva Vedas”. · “Brahma Padavaayam BraahmanemaAdheepatihi” (Atharvaveda 12-5-4) Which mean, “God is knower and revealer of the Vedas”. The Yajur Veda (31-7) says: “The Rigveda, the Yajurveda, the Samaveda and the Atharvaveda were produced by the Supreme and perfect Being, Parabrahman, who possesses the attributes of self-existence, consciousness and bliss, who is Omnipotent and universally adored. The meaning is that the four Vedas were revealed by God alone.” · The Atharvaveda (10-23-4-10) says— “Who is that Great Being who revealed the Rig Veda, the Yajur Veda, the Sama Veda and the Atharva Veda? He is the Supreme Spirit who created the universe and sustains it.” · The Yajur Veda (XL-8) says— “The Great Ruler of the universe, who is self-existent, All-pervading, Holy, Eternal and Formless, has been eternally instructing His subjects –the immortal souls –in all kinds of knowledge for their good through the Veda.” [For further information inquisitive readers should refer and study –Atharvaveda 12 Th. Khanda, 5 Th. Sukta and mantra # 1 to 73] (Atharvaveda 19-5-13, 12-5-4, 10-7-14) (Yajurveda 2/21, 23/61, 23/62, 31/7), the all-sustaining God is the author of the Vedas. Quest # 3: How many Vedas are there three or four? Answer: There are four Vedas, which contain the knowledge of three subjects, i.e. Knowledge, action and communion. [Glorification–communion–emancipation] The books called the Rigveda, the Yajur Veda, the Sama Veda and the Atharva Veda—mantras Samhitas only and no other. One who believes that there are three Vedas is completely wrong and should rectify him self. The Vedas are four in number. Quest # 4: Why there are only four Vedas? Answer: God has given us a beautiful body hence it is our duty to protect it. What is the use of this precious body if there is no knowledge. Human race is the best because only in this race one gets a proper knowledge of the soul, Prakriti and God, and this he acquires only from the Vedas. Knowledge, deeds, communion and emancipation (science) are the four subjects of the Vedas and are complete when combined, otherwise there is no use of studying only one subject or the other. God has revealed His true knowledge to men only because man has intellect to grasp the proper knowledge from the Rig-Veda and after getting that proper knowledge he should act accordingly, which is taught in the Yajur-Veda. There is a possibility that man may become egoistic after getting knowledge and performing good deeds, so God has given him the Sama- Veda for balancing him i.e. communion with God. When man has developed himself with knowledge, virtuous deeds and communion with the Supreme Being, he becomes happy in his life, but still wanders in search for something more. Lastly God provides the Atharva-Veda in which man gets the knowledge of true science i.e. the science of the soul and the Supreme Soul (God). The bliss of God is possible through the Atharva Veda. Hence all the four Vedas are essential to acquire the correct and complete knowledge of the matter (Prakriti), the soul and God with which he is free from all sorrows and pains, when he renounces the worldly attraction and temptation, and gets the Bliss of God. When a man acquires the knowledge of the four Vedas (Knowledge–deeds–communion–science), he is qualified enough to proceed to his life’s goal i.e. to get the bliss of God. The four Vedas are the four pillars of success in a man’s life, hence the four Vedas are essential. “WHAT IS MAN’S CAPACITY AND CAPABILITY TO ACQUIRE THE TRUE KNOWLEDGE FOR HIS EMANCIPATION, GOD HAS REVEALED THE TRUE KNOWLEDGE COMPLETE AND CORRECT IN THE VEDAS NO LESS, NO MORE.” There are mantra revelated by knowledge in the Rigveda. The Yajur Veda mantras are revelated by actions i.e. what is right and what is wrong, and what to do and what is prohibited by virtue. In the Sama Veda most mantras are about communion with God. Lastly in the Atharva Veda there are root mantras of science on different subjects along with mantras related to medical science. THE GREAT SAGE MAHARISHI SWAMI DAYANAND SARASVATI HAS SAID IN THE TEN COMMANDMENTS OF ARYA SAMAJ ” THE VEDAS ARE THE SCRIPTURES OF TRUE KNOWLEDGE AND IT IS THE PREMIER DUTY OF ALL ARYANS TO RECITE AND TEACH THE VEDAS. God is Omniscient and only He is the true friend of the soul, because the soul has limited power and knowledge. God is the greatest teacher and guide who revealed His knowledge in the beginning of the world after human life had been created, for the betterment of mankind. “As parents are kind to their children and wish for their welfare, so does the Supreme Spirit, out of kindness to all mankind revealed the Vedas by whose study men are freed from ignorance and error, and may attain the light of true knowledge and thereby enjoy extreme happiness as well as advance knowledge and promote their welfare” [S.P. VII] “The Vedas are the true knowledge of God. In the beginning after human being had been created, the Supreme Spirit made the Vedas known to Brahma through Agni, etc., i.e., Brahma learnt the four Vedas from Agni, Vayu, Aaditya and Angira (Manu Smriti 1-23).” Quest # 5: If infinite God’s full knowledge is in the Vedas, then knowledge of God will become finite? Answer: Whatever knowledge, the soul required for its salvation, God has revealed the same in the Vedas. To get more knowledge than required is of no use. God is Omniscient. He knows better about the soul’s capacity for acquiring knowledge. GOD is infinite by nature, His essence, powers, attributes are all infinite, so is His knowledge. The soul is an infinitesimal unity hence, remains, finite in knowledge, though pure in nature. He acquires the knowledge according to its capacity. God has given him correct and complete knowledge; no less no more “A’rsha Granthas” or Religious books? Answer: There exists the four Vedas, i.e. the Rigveda, the Yajur Veda, the Sama Veda and the Atharva Veda. (1) In the Rig-Veda there are 10 Mandalas (Volumes), 85 Anuvakas (Sections), 1028 Suktas and 10589 Mantras (verses) (2) In the Yajur Veda there are 40 Adhyaaya (Chapters) in which contains 1975 Mantras. (3) In the Sama Veda there are 1875 Mantras. And (4) In the Atharva Veda three are 10 Mandalas (Volumes), 20 Khandas (Sections) and 5977 Mantras. The total mantras in the four Vedas are 10589 + 1975 + 1875 + 5977 = 20,416 i.e. Twenty thousand four hundred and sixteen mantras. Readers will be surprised to know that the total letters of the four Vedas is 864000, which is God’s creation and are eternal. The Vedas are the religious books for all mankind. There are four UpVedas+ or Sub-Veda (Here the word ‘Veda’ stands for education), under which comes six Vedangas (Limbs)*, six Upangas (sub-limbs)**, i.e. six school of thought propounded by seers and sages, four Brahmans*** and –the Vedas alone are held to be Divine in origin, the rest were made by R’shis–seers of the Veda and nature. There are ten Upanishads. [They are four in number: –(i) the Ayurveda or the medical scriptures; (ii) the Arthaveda or the technological sciences; (iii) the Dhanurveda or the science of archery; devastating weapon and missiles and diplomacy; and (iv) the Gandharvaveda or the science of music.] {* They are six in number: –(I) Shiksha [Phonetics science of morals and duties]; (ii) Kalpa [geometry]; (iii) Vyakarana [Grammar]; (iv) Chhanda [metrics i.e. Philology]; (v) Nirukta [etymology] and (vi) Jyotisha [astronomy and astrology].} {** They are six in number: –Purva Mimansa, Vaisheshika, Nyaaya, Yoga, Sankhya and Vedanta these are also commonly called the six schools of Indian philosophy. They have profound respect for the four Vedas. These philosophical system show that human mind soared to highest peak of the imagination. Usually most people believe Vedanta means ending portion of the Veda, which is wrong. The real meaning of “Vedanta” is so called “the theory of the Vedas.” Here ‘Anta’ stands for the theory and not for the end.} [*** They are four in number: — Aitreya, Shatapatha, Sama and Gopatha.] [++ There are also ten Upanishads e.g. I’sh, Kena, Katha, Prashna, Munduka, Muanduka, Aitreya, Taitreya, Chhandogya and Vrihadaranyka. Upanishads, which deal with the spiritual science as well as physical science in some cases, are the offshoots of the careful examination of the Vedic verses.] Whatever is enjoined by the Vedas, are right, whilst whatever is condemned by them we believe to be wrong. Among the Shruties, manu Smriti alone is authoritative, the interporated verses being excepted. Quest # 7: What does “Shakha” (division of the Vedas) mean and how many Shakhas are there in the Vedas? Answer: According to the great sage Gemini, writer of Meemansa Shastra (1-130), the teaching pattern it is called “Shakha”. Branch, part or division etc. are not the correct meaning of Shakha but these Shakhas are the pattern of teaching –the way of teaching, –the style of teaching of the Vedas. It is written in the Mahabhashya-Karika (Ashtadhyayi 4-1-63) that Charan is meant for Gotra, here Charan means –the style of teaching. In short the branches of The Vedas means the style / pattern of teaching and they are not division or tree-like branches. According to the Mahabhashya, it is written that there are 1131 branches of the Vedas. In the Sarvanukrammi its number is 1130, in the Chakraviyuh its number is only 116. Swami Dayanand Saraswati has quoted the number of the branches of The Vedas as 1127, in his immortal book “Light of Truth”. First it was the great sage named “Shakal” who had taught the style of teaching of The Vedas. Shakal is very ancient. By way of Mandalas–Anuvakas–Suktas, Shakal has popularized his brand what is known as that “the teaching of Shakal”. It is said that all other patterns of teaching (Shakhas) are come in existence after Shakal. Where there are Mandalas, Anuvakas, Sukta, they are known as Shakal’s literature. om shanti shanti shanti
सत्यार्थप्रकाश की दार्शनिक विशेषतायें ( vedicvichar)
21-10-2021
लेखक- आचार्य वैद्यनाथ शास्त्री प्रस्तोता- प्रियांशु सेठ सत्यार्थप्रकाश के लेखक जगद्विख्यात महान् आचार्य महर्षि दयानन्द सरस्वती हैं। ऋषि साक्षात्कृत्धर्मा होते हैं। उनकी प्रत्येक बात महत्त्वपूर्ण होती है। अतः सत्यार्थप्रकाश में प्रत्येक बात तथ्य पूर्ण है और अपना विशेष महत्व रखती है। दार्शनिक दृष्टिकोण की कुछ बातें यहां पर लिखी जाती हैं। सत्यार्थप्रकाश के प्रथम समुल्लास में परमेश्वर के अनेक नामों का वर्णन है। उनमें विशेष और श्रेष्ठ नाम 'ओ३म्' है। 'ओ३म्' नाम से जगत् की तीनों स्थितियों का वर्णन मिल जाता है। 'ओ३म्' यह एक अक्षर है और समस्त जगत् उसका व्याख्यान है। परन्तु अन्य नामों के देने का प्रयोजन क्या था? उत्तर होगा कि एक परमेश्वर की उपासना को दृढ़ करने के लिए ही इस समुल्लास का यह विस्तार किया गया है। दूसरी बात सत्यार्थप्रकाश में यह मिलती है कि परमेश्वर को प्रत्यक्ष माना गया है। जिस प्रकार जगत् के पदार्थों में गुणों का प्रत्यक्ष इन्द्रियों को होता है द्रव्य का नहीं फिर भी द्रव्य का प्रत्यक्ष स्वीकार किया जाता है उसी प्रकार परमात्मा के ज्ञान-गुण और ज्ञानपूर्विका क्रिया का प्रत्यक्ष होने से परमेश्वर का भी प्रत्यक्ष है। यहां समझने की बात यह है कि इन्द्रियों में गुणों का ही प्रत्यक्ष होता है, द्रव्य का नहीं। द्रव्य का प्रत्यक्ष आत्मा और मन से होता है। इसी प्रकार परमेश्वर का भी प्रत्यक्ष आत्मा से होता है। प्रत्यक्ष लक्षण तो ऋषि ने न्याय का दिया परन्तु उसमें रहस्य क्या है- इसको भी खोल दिया और इस विशेष बात की ओर ध्यान को आकृष्ट किया। तीसर बात कारण चर्चा की सत्यार्थप्रकाश में मिलती है। महर्षि ने निमित्त, उपादान और साधारण- ये तीन कारण स्वीकार किये हैं। वे निमित्त समवायि और असमवायि भी नवीन नैयायिकों की तरह कह सकते थे। परन्तु फिर भी साधारण को अलग कार्य मानना ही पड़ता। माता-पिता पुत्र के कौन से कारण हैं? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए यदि उन्हें निमित्त कारण माना जावे तो ठीक नहीं क्योंकि जो जिस कार्य का निमित्त कारण होता है उसका पूरा ज्ञान रखता है परन्तु माता-पिता को पुत्र का पूरा ज्ञान नहीं है। निमित्त कारण के रूप आदि कार्य में नहीं आते। परन्तु पुत्र में कई वस्तुयें माता-पिता से आती हैं। अतः ये निमित्त कारण नहीं- निमित्त कारण परमात्मा है। ये उपादान कारण हो नहीं सकते हैं क्योंकि उपादान कारण में ही अन्त में कार्य का लय है। मिट्टी का घड़ा टूट टूटकर बाद में मिट्टी रह जाता है। पुत्र के विना के बाद वह माता-पिता में लीन नहीं होता है। अतः माता-पिता उपादान कारण भी नहीं हैं। यदि इन्हें असमवायि कारण माना जावे तो भी ठीक नहीं क्योंकि तन्तु में समवेत रूप पट में आता है उसी प्रकार पुत्र माता-पिता में समवेत गुण नहीं हैं। ऐसी स्थिति में यही उत्तर बन सकेगा कि माता-पिता साधारण कारण हैं। चौथी बात ध्यान देने की यह है कि सत्यार्थप्रकाश में जीव को कहीं पर अणु नहीं लिखा गया है। जीव को परिच्छन्न लिखा गया है। जिसका अर्थ यह है कि 'न अणु, न मध्यम और न विभु।' मध्यम परिमाण जीव हो नहीं सकता है क्योंकि फिर तो अनित्य ठहरेगा। विभु परिमाण भी नहीं है क्योंकि विभु तो परमेश्वर है और वह सर्वज्ञ, सर्वान्तर्यामी भी है- जीव वैसा नहीं है। अणु परिमाण भी जीव नहीं है- क्योंकि अणु से भी वह सूक्ष्म है। एक अणु में दूसरा अणु नहीं समा सकता है परन्तु जीव अणु में भी रह सकता है। और एक अणु में कई जीव रह सकते हैं। इसका विशेष विवेचन आर्य सिद्धान्त सागर में हमने किया है। पांचवीं बात यह मिलती है कि परमात्मा को प्रकृति और जीव से सूक्ष्म माना गया है। प्रकृति से जीव सूक्ष्म है और जीव से भी परमेश्वर सूक्ष्म है। परमेश्वर प्रकृति और जीव दोनों में व्यापक है। उद्योतकर आदि दार्शनिक जीव में परमात्मा को व्यापक नहीं मानते हैं। वे इस प्रश्न को कि आत्मा परमात्मा का व्याप्य व्यापक सम्बन्ध है वा सयोग सम्बन्ध है। अव्याकरणीय कहकर छोड़ देते हैं। परन्तु महर्षि ने व्याप्य व्यापक सम्बन्ध माना है। -'आर्योदय' (विक्रमी संवत् २०२०) के अंक से साभार
जवानों! जवानी यूं ही न गंवाना (vedicvichar)
21-10-2021
(ब्रह्मचर्य का व्रत धारण करने से मनुष्य ऐश्वर्यशाली बनता है। आज नौजवान ब्रह्मचर्य के व्रत को भूलकर भोगवाद की ओर भाग रहे हैं। ब्रह्मचर्य के अभाव में मनुष्य शारीरिक, मानसिक और आत्मिक उन्नति से वंचित हो रहा है। आर्यसमाज के सुप्रसिद्ध विद्वान् स्व० पं० बुद्धदेव विद्यालंकार जी (स्वामी समर्पणानन्द जी) का यह लेख 'आर्य गजट' हिन्दी (मासिक) के मार्च १९७४ के अंक में प्रकाशित हुआ था। ब्रह्मचर्य की शक्ति को जानने के लिए नौजवानों यह लेख अवश्य पढ़ना चाहिए। -डॉ विवेक आर्य, प्रियांशु सेठ] मूर्ख और बुद्धिमान में बड़ा अन्तर होता है। मूर्ख अच्छी बात को भी बुरा बना लेता है और बुद्धिमान बुरी चीज को भी अच्छी बना लेता है। काजल का अगर सही प्रयोग किया जाये तो आंखों में डाला हुआ सुन्दरता को चार चांद लगा देता है मगर गलत ढंग से प्रयोग किया हुआ वही काजल इधर-उधर लग जाये तो अच्छी सूरत को भी भद्दा बना देता है। एक बुद्धिमान पुरुष ने आग पर चढ़ी हुई देगची को देखा, उसने अनुभव किया कि वो पानी जो पहले चुपचाप था भाप बनकर कितना जबरदस्त बन गया है जिसने ढक्कन को धकेल कर फेंक दिया है, बुद्धिमान ने इस शक्ति को संभाला और इंजिन तैयार कर लिया- मूर्ख ने पानी और आग को इक्ट्ठा किया और हुक्का बनाकर गुड़गुड़ करता रहा और अपना समय और स्वास्थ्य खराब करता रहा, मनुष्य पर भी एक समय आता है जब उसके सामने अपनी शक्ति सम्भालने का अवसर आता है, जवानी मस्तानी बनकर आता है। जब वह चलता है तो कन्धे मारकर चलता है। पूछो तो कहेगा देखते नहीं जवानी आ रही है। स्टीम पैदा हो रही है। समझदार ने इसे संभाला और लाखों लोगों को पीछे लगा लिया लेकिन मूर्ख यह कहता रहा। इस दिल के टुकड़े हजार हुए, कोई यहां गिरा कोई वहां गिरा। अपनी जवानी का नाश कर लेता है, नौजवानों में ही संभलने का समय होता है लेकिन आज का नौजवान कौन-सी ऐसी खराबी है जिसको निमन्त्रण नहीं देता, मैंने एक जानकार नौजवान को जिसको शराब की लत लग गई थी कहा कि क्यों अपना नाश कर रहे हो, कहने लगा पण्डित जी, आपने कभी पी ही नहीं- शेख क्या जाने मय का मजा, पूछो कम्बख्त ने कभी पी है। पी लेते तो ऐसा न कहते। मैंने कहा पीने से क्या होता है, कहने लगा सब गम गलत हो जाते हैं। मैंने कहा और होश? तो कहने लगा कि होश रहता ही नहीं। मैंने कहा कि इससे बढ़कर और क्या बेवकूफी होगी कि मनुष्य पैसे खर्च कर अपने होश खो दे, अरे मजा तो तब है कि होश कायम हों और फिर नशा चढ़ा रहे। नाम खुमारी नानका चढ़ी रहे दिन रात। (लेकिन उस नानक के पुजारी आज सबसे अधिक शराब पीते हैं।) अभिमन्यु की लाश पड़ी है, सब रोते हैं। सुभद्रा का बुरा हाल है, कृष्ण आते हैं। कहते हैं कि सुभद्रा क्या कर रही हो, सुभद्रा रो पड़ती है। कहती है कि भाई तुम मुझे यह कह रहे हो कि क्या कर रही हो? मेरा जवान बेटा छिन गया है। मैं अधीर न होऊं तो क्या करूँ? कृष्ण कहते हैं कि सुभद्रा तू याद कर, तू क्षत्रिय की पुत्री है, क्षत्रिय की बहिन है, क्षत्रिय की पत्नी है और उस क्षत्रिय वीर की माता है। जो धर्म पर वीर गति को प्राप्त हुआ है क्षत्रिय का सबसे बड़ा कर्तव्य धर्म और न्याय की रक्षा के लिए मर मिटना है। तेरा पुत्र तो अमर हो गया है और तू रो रही है। सुभद्रा को होश आ जाता है। उसका चेहरा दमक उठता है। यह है वो खुमारी। पुत्र सामने मरा पड़ा है और होश कायम रखे जाते हैं। यह हालत तब आती है जब मनुष्य नाम की खुमारी में रंग जाये। ब्रह्मचारी बने। ब्रह्मचारी का मतलब है जो ब्रह्म में निवास करे, अपने सत को, वीर्य को संभाल कर रखे यह वीर्य असली रसायन है इससे बढ़कर और कोई रसायन नहीं, आज तो लोग असली रसायन को खोकर फिर इंजेक्शन लगवाने लगते हैं। मूर्खता और किसको कहोगे। आज सुन्दरता के लिए सुरखी और लिपस्टिक लगाये जाते हैं, होठों और गालों पर सुरखी और लाली लगायी जाती है। इस रहस्य को भुला दिया है कि असली खूबसूरती और लाली होठों और गालों पर कैसे आती है। आओ आपको इसका रहस्य भी बतला दें। होंठ बहुत कोमल हिस्सा होता है। वहां खून की लाली उभरती है। शरीर में खून हो और उसका दौरा ठीक हो तो होठों पर लाली खुद-ब-खुद आ जाती है। शरीर में खून हो इस तरफ ध्यान नहीं दिया जाता। नकली रंग लगाकर बाह्यप्रदर्शन किया जाता है। अच्छा भला आदमी हो, कुछ देर पानी में रहे तो खून का दौरा रुक कर होंठ नीले पड़ जाते हैं। ये खून के करिश्मे हैं, अरे अपने सत को, वीर्य को कायम रख कर तो देखो कितना आनन्द आता है? गंवाने में तो क्षणिक मजा और फिर पछतावा लगा रहता है लेकिन इसे कायम रख कर देखो कितना आनन्द आयेगा। आप कहेंगे पण्डित जी क्यों तरसा रहे हो। इसे कायम रखने के लिए कोई रास्ता तो बताओ। रास्ता सुन लो आपको ब्रह्मचारी बनना होगा और हमेशा प्रभु की याद रखनी होगी, कहा जाता है कि प्रभुभजन और प्रभु भक्ति तो बुढ़ापे की चीज है। याद रखना अगर आपने अभी से आदत न बनाई तो बुढ़ापे में कुछ न होगा। सावन का महीना है। आमों का टोकरा सामने पड़ा है। मनुष्य आम चूस कर गुठलियों को एक थाली में सजा-सजा कर रख रहा है। मैंने पूछा ये क्यों सजाई जा रही है? कहने लगे यह भगवान की भेंट होगी। अरे मीठा रस तो शैतान के लिए और गुठलियां भगवान के लिए। जब शरीर काम का न रहेगा खाक भगवान की याद करोगे। जवानी बेकार खो दी तो बुढ़ापे में भगवान हाथ न आएगा। एक यह भी सवाल किया जाता है कि प्रभुभजन क्या करें दिल तो लगता नहीं, लगेगा पहले भूख पैदा करो। भोजन और भजन का एक ही कानून है। भोजन तभी अच्छा लगता है जब भूख हो, भूख में सूखे टुकड़े भी मजा देते हैं। परमात्मा के भजन के लिए भी भूख की जरूरत है। गीता ने चार प्रकार के भक्त कहे हैं। पहला भक्त वह होता है जो दु:खी हो। आप कहेंगे क्या हम दु:खी हो जायें? हां! आप कहोगे अच्छे उपदेश देने बैठे। माता-पिता जीवित हैं, घर में सबकुछ है, किसी चीज की कमी नहीं, खाने को खूब मिलता है। दु:खी क्यों हों? इस पर भी दु:खी हो जाओ। अपने लिए नहीं, दूसरों के दु:ख को अपना दु:ख समझ लो। अगर तुम्हारे पास कोई भूखा आये तो पहिले उसे खिलाओ। कोई दु:खी है तो उसका दु:ख दूर करो। परोपकार करो। सब कुछ रखते हुए सेवा का व्रत धारण करो। सबसे बड़ी ईश्वर भक्ति यही है। किसी के काम आकर तो देखो कितना आनन्द आता है। दुनियां में जितने दुःख और झगड़े हैं उनके तीन कारण हैं, इनमें से एक तुम ले लो। आज शिक्षा के रहस्य को लोगों ने भुला दिया है, हमारे ऋषियों ने इसे खूब समझा था। वो विद्यार्थियों को दुनिया के इन तीन प्रकारों के दु:खों को दूर करने के लिए तैयार करते थे। हमारी वैदिक शिक्षा सच्चे देश, सच्चे क्षत्रिय और सच्चे ब्राह्मण पैदा करने के लिए होती थी, जो तीन प्रकार के दु:ख दूर करने के लिए तैयार किये जाते थे। पहला दु:ख अभाव से पैदा होता है। देश का काम है कि वह वस्तुओं का निर्माण करे और सब लोगों को दे लेकिन आज का देश तो ब्लैक मार्कीटियों का हो रहा है। वो अपना स्टाक भर लेता है, वस्तुएं गायब हो जाती हैं, न मिलें तो सब दु:खी। अगर देश अपने धर्म पर कायम है तो ब्लैक मार्कीट और अभाव न आयेगा। बांट ठीक हो तो दु:ख न होगा। दूसरा दुःख का कारण अन्याय है। कुछ गुण्डे उठते हैं और दूसरों की वस्तु छीन कर घर में डाल लेते हैं। क्षत्रिय का काम है ऐसे लोगों से समाज को बचाये। कोई चोर न हो, कोई डाकू न हो। कोई किसी पर अन्याय न करे, सब सुखी हो जायें। इस काम के लिए क्षत्रिय तैयार किये जाते थे जो न्याय को कायम रखने के लिए व्रत लेते थे और अन्याय को मिटाने के लिए जान पर भी खेल जाते थे। तीसरा दु:ख अविद्या की वजह से होता है। अविद्या और अज्ञान को दूर करने का काम ब्राह्मण करता था। सारा संसार सुखी था। ये तीन प्रकार के दुनिया के दु:खों को दूर करने के लिए ही शिक्षा दी जाती थी और यही प्रभुभक्ति है। जो प्रभु को याद रखता है और सेवा और परोपकार की जिन्दगी व्यतीत करता है, वही प्रभु-भक्त है। ऐसा ब्रह्मचारी ब्रह्म में विचरता है और मृत्युन्जय हो जाता है। नौजवानों दुनिया पर और अपने आप पर विजय पानी है तो ब्रह्मचर्य-व्रत को धारण करो। प्रभु-भजन और सेवा का व्रत लो, संसार तुम्हें सर पर उठाएगा। [स्त्रोत- शांतिधर्मी मासिक पत्रिका का अप्रैल २०२० का अंक]
THE RENAISSANCE RISHI (vedicvichar)
21-10-2021
By Brigadier Chitranjan Sawant,VSM Indeed it was a dark age in India. Speaking of the political scene, one may say that the ruler and the ruled were both down and almost out. Militarily speaking, the morale of captains and commoners was down in the dumps. Speaking of Science, research was at a standstill. Religion was confined to the closets and common man relied on rituals that were empty and provided little support emotionally when a man or a woman needed it most. Pundit, padre and mullah had become parasites that lived off others and did little to repay to the social set up from where they received sustenance. Dharma was an unknown phenomenon and religion was just a bye word for tantra or hocus-pocus entwined in stratagem to help thugs. Women and the have-not sections of the society were exploited out and out and no leader or administrator worth the name gave a damn to take a look at the exploited masses, what to say of ameliorating their religious and social penury. The situation was grave. There was no light at the end of the tunnel. In that gloomy scenario appeared a man of sterling worth in the region of Kathiawad, India. He gave a clarion call “Go back to the Vedas “. His thrust line was this: Human beings should lead their lives happily as per the tenets of the Vedas that were revealed by the Almighty right at the beginning of the human Creation, through the Rishis or saints of high caliber, and eventually attain Emancipation or Moksha from the bondage of birth, death and rebirth. Vedas are for all and sundry, irrespective of caste creed, colour or sex of the person. All human beings have a right to read and meditate on the mantra. This was a Religious Renaissance par excellence that brought immense joy to men and women all over the world. The Renaissance Rishi who heralded this freedom of faith was known as Swami Dayanand Saraswati, a disciple of a great grammarian and Vedic scholar named Swami Virjanand Saraswati. Swami Dayanand Saraswati was born in a village, Tankara in Rajkot district of Kathiawar, now Saurashtra, India in 1824.His father, Karsanji Tewari, a state revenue official, named his son – Moolshankar. The young precocious boy went through a normal system of learning Sanskrit and religious text. At a young age, he memorized the text of the Yajurveda and impressed his teachers and class fellows with his extra-ordinary memory. Indeed a bright future was in the offing. Life was ambling by along the Demi River that lay meandering on the periphery of the village. On its banks stood a small Shiva temple where young Moolshankar’s folks assembled in strength on the Maha-Shivratri to worship the Lord. An incident in the temple was the turning point in Moolshankar’s life, nay in the life and times of the then India, and later the world. The thirteen-year old boy, Moolshankar was a devoted Shaivite in the making when history took a turn. A small rat ascended the Shivlinga and started eating all edible offerings that had been made earlier in the evening. Rat’s friends followed suit. Devotees were in deep slumber at that late hour of the night. Only young Moolshankar, fired by an ardent desire to have a darshan (see face to face) of Lord Shiva had kept awake. On seeing the Shivlinga being desecrated by the lowly mice and the idol haplessly bearing this insult, Moolshankar had a nagging doubt that the idol could never be the Almighty Himself. He woke up his father but was chided for his untimely and irrelevant inquisitiveness. He returned to his house from the temple where his mother happily gave him a sumptuous meal to break his day-long fast. Young Moolshankar had made up his mind to go in quest of the real God, the Almighty that the Vedas had talked about and the Omnipresent One who could never be bound by a form or an image. It was the beginning of the Renaissance of religion in India. The foundations of a great mental and spiritual movement, later known as the Arya Samaj, had indeed been laid. Of course, the formal formation had to wait till 1875. The great Quest had begun. Meeting many mahatmas, after the young lad left his parental home at age 22 when pressed to get married and abandon the spiritual quest and imbibing spiritual knowledge, Moolshankar became Shuddh Chaitanya. In this relentless quest of the Almighty, he was even cheated at times by false god men but he never abandoned the great quest. Moving from place to place and meeting mahatmas, the young explorer chose to enter the fourth ashram of the varnashram dharma, that is, Sanyas. Swami Poornanand Saraswati, a great Vedic scholar, initiated him into the Sanyas Ashram. Thus was born an ascetic, Swami Dayanand Saraswati, who turned into a great Vedic scholar, a writer of Ved Bhashya (Vedic explanations of mantras) and many treatises like the Satyarth Prakash, Rigvedadi Bhashya Bhumika and Sanskar Vidhi. He became a preacher of the true Vedic Dharma himself and traveled far and wide in India. The great Awakening of masses, the rank and file of Indians in slumber, had begun. His religious discourses were well attended by captains and commoners alike. We may recall some of the anecdotes of his life that go to show that he placed great reliance on the social unity of the masses, besides uniting them in one Vedic Dharma, to make the nation strong. Swami Dayanand Saraswati advised all Arya Samajes to run their show in a democratic manner. On Saturday, April 10, 1875 when the first Arya Samaj was founded at Kakarwadi, Mumbai, India, the great Swami was requested by the congregation to assume Presidentship of the organization but he declined and chose to be “just a simple member”. He had great faith in local talent taking over the reigns and not depending on an individual, howsoever great the individual might be. Whenever, the members of the newly founded Arya Samaj elsewhere had indulged in mutual recrimination and indulged in senseless accusation and became a prey to dissensions, the Swami advised them to sort out the religious and social problems themselves instead of requesting him to come to the scene or rushing to courts of law en block. He was dead against entering into legal litigation to solve problems of social nature. He made a mention of it in black and white in his WILL twice, first at Meerut and later again in 1883 in Udaipur, Rajputana. One only wishes the Arya stalwarts of later times had heeded to the advice of their mentor, the great Rishi and avoided rushing into quagmire of courts of law where angels feared to tread. Indeed the image of the Arya Samaj would have been brighter than what it is today. Swami Dayanand Saraswati advised the Aryas of the Arya Samaj to stand solidly behind their co-religionists who face fearful odds, like a solid rock. A case from Moradabad, UP, may be cited. Munshi Indramani who wrote many tracts and books criticizing the Islamic attack on the tenets of the Vedic Dharma and launched a counter-attack on the contradictions in Islam was hauled up before a court of law to face a trial. Swami Dayanand Saraswati wrote letters and made verbal appeals to all and sundry to stand by Munshi Indramani and provide him both moral and material support. Aid started pouring in. Initially, Munshi ji was found guilty but when the Aryas went in appeal, he was eventually acquitted. Such was the rewarding result of unity among the Aryas forged by the Swami . Swami Dayanand Saraswati was a great protagonist of a common link language to bring about unity among the Aryas and Indians at large. He favoured the Arya Bhasha or Hindi. The Swami was himself A Gujarati and spoke mother tongue as an adolescent, had his studies in Sanskrit but promoted Hindi as a language of unity among Indians. No wonder, all his treatises are written in Sanskrit and Hindi. When the Government of India, under the British Raj, appointed the Hunter Commission to decide on the issue of an official court language in various provinces, Swami Dayanand campaigned for Hindi. Although he had only partial success in Bihar and Central Provinces but he pressed on, notwithstanding success in parts. The common man was motivated and his morale was raised high. The flag of Vedic principles was raised high and it fluttered in the air to be seen by all and sundry. The founder of the Arya Samaj paid utmost attention to unity and solidarity in the society. He never intended to be known as a founder of a sect that would cut itself away from the vast society of the Hindus. He stressed that the ancient Vedic Dharm was his creed and the Ved mantras in original text were the ultimate forum to decide what constituted Dharma and what did not. He had seen and known how infallible the Brahmos of Bengal had become by moving away from the path of their forefathers and by tilting towards Christianity. Roots were roots, if diseased-these were to be cleansed and treated with a dose of reform; and under no circumstances were the roots to be cut or the original tree to be uprooted. While writing the Satyarth Prakash, the great Swami made the point crystal clear. Thus he did not hesitate even for a single moment in launching a frontal attack on those men and organizations that were destroying the Indian economy by slaughtering cows. He spearheaded the anti cow slaughter movement and enlisted the support of kings and commoners by obtaining their signatures on a petition to be submitted to Queen Victoria, the reigning Empress of India. Above all, it was a movement of solidarity of society and should be viewed as such. Unfortunately, Dayanand Saraswati’s untimely demise gave a severe blow to this movement of solidarity but the point had been made and it was for the followers to pick up the thread from where he had left. The Renaissance Rishi was not dogmatic. He had an open mind and acted on the suggestions made to him in good faith. Acharya Keshav Chandra Sen of the Brahmo Samaj had met the Rishi in Calcutta and suggested that the latter give his discourses in Hindi, instead of Sanskrit, for the common man to understand and appreciate. Further, the educated ladies wished to form a part of the audience to listen to the learned interpretations of the Ved mantras but fought shy of his scantily covered body. The Rishi accepted both the suggestions and acted accordingly. The numbers of men and women in the audiences swelled indeed. The people came from far and wide to see and hear him. His preaching missions were a great success in the land of intellectuals in Bengal. The aim of writing this article is to highlight Rishi’s life and times and narrate those events and anecdotes that had far-reaching consequences historically. Among these must figure his travels to preach and propagate the true and ancient Vedic Dharma. Multan in the north to Pune in the Deccan; Rajkot in the west to Calcutta in the east form the large canvas that he painted in the Vedic colours. Of course, there were many cities, villages and towns in various provinces in between where he had hoisted the flag of OM and given discourses. Many a time he traveled in great discomfort risking his life and limb but he remained determined to carry on with his mission. Of course, the Punjab became the citadel of the Arya Samaj after his founding the Arya Samaj in 1877 in Lahore. It was there that the 28 principles of the Arya Samaj formulated in Bombay in 1875 were abbreviated and rearranged to TEN. These are observed and remain valid right to the present day. We must make a mention of Rajputana that the Rishi had made his work place in the last years of his life. The Rishi’s aim was to make rulers well versed in the principles and practice of good governance as mentioned in the Sanskrit texts of yore like the Manu Smriti. Thereafter both the ruler and the ruled will be happy and carry on with their lives as per the teachings of the Vedas. He had a roaring success in the big State of Mewar where the Ruler, His Highness Maharana Sajjan Singh Ji became his devoted disciple. The Maharana studied Sanskrit and Manusmriti at the feet of the Rishi. Consequently, the education system of Mewar was reoriented to meet the Vedic standards. The Ruler personally performed daily Havan in his palace. It was going great guns for the Arya Samaj. Another princely state to follow the principles of the Vedic Dharma was Shahpura. Its ruler, His Highness Sir Nahar Singh Varma became a devout Arya himself and reformed the education system of his small principality. Both these rulers had, in turn become the president of the Paropkarini Sabha established by Swami Dayanand Saraswati and made a successor to his mission in the Swami’s last will and testament. Nonetheless, it was the state of Jodhpur that failed to preserve the person of the Swami and the poison potion administered to him by enemies of the Renaissance and reformation marked the beginning of the end of his life. Swami Dayanand Saraswati demonstrated till his last breath that he indeed practiced what he preached. His ardent faith and belief in God remained unflinching till he breathed his last at Ajmer after a grave illness of one month and one day. At times the treatment was faulty and at times movement of his ailing body unnecessary. The Renaissance Rishi bore it with a smile. On the Diwali evening, 30 October 1883, came his end. The swami sat in his bed, recited Ved mantras, said hymns in Hindi and bowing to the will of the Almighty let his soul leave his body. A young man from the Punjab, Guru Datt, who had entertained atheistic ideas became an ardent Arya on seeing the Swami breathe his last with courage and forbearance. Indeed the lamp of life of the renaissance Rishi was thus extinguished and it in turn lighted many million lamps to lead men and women from darkness unto light.
???? स्वाध्याय में प्रमाद न करें???? (vedicvichar)
21-10-2021
मिमीहि श्लोकमास्ये पर्जन्य इव ततन: । गाय गायत्रमुक्थ्यम् ।। ―(ऋ० १/३८/१४) हे विद्वान् मनुष्य ! तू (आस्ये) अपने मुख में (श्लोकम्) वेद की शिक्षा से युक्त वाणी को (मिमीहि) निर्माण कर और उस वाणी को (पर्जन्य इव) जैसे मेघ वृष्टि करता है, वैसे (ततन:) फैला और (उक्थ्यम्) कहने योग्य (गायत्रम्) गायत्री छन्दवाले स्तोत्ररुप वैदिक सूक्तों को (गाय) पढ़ तथा पढ़ा। वेद मनुष्य को प्रेरणा दे रहा है कि तू वेदवाणी का स्वाध्याय कर। वेदवाणी के स्वाध्याय से जो ज्ञान तुझे प्राप्त हो, तू उसे ऐसे फैला जैसे बादल वर्षा फैलाता है।अर्थात् ज्ञान को अपने तक ही सीमित न रक्खें बल्कि उसको लोगों में फैलायें, प्रचार करें। स्वाध्याय और प्रवचन दोनों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। स्वाध्याय शब्द के दो अर्थ हैं। स्वाध्याय का पहला अर्थ है वेद और वेदसम्बन्धी ग्रन्थों का अध्ययन। दूसरा अर्थ है स्व + अध्याय अर्थात् अपना अध्ययन। अपने अध्ययन से अभिप्राय है आत्म-निरीक्षण स्वाध्याय का पहला अर्थ है सद्ग्रन्थों का पाठ। आध्यात्मिक उन्नति के तीन साधन हैं―ईश्वरभक्ति, सत्सङ्ग और स्वाध्याय। सदग्रन्थों का पाठ अमृतपान के समान होता है और असदग्रन्थों का पाठ विष-पान के समान। वैदिक साहित्य में स्वाध्याय की बहुत महिमा गाई गई है। स्वाध्यायान्मा प्रमद: । –(तैत्तिरीयोपनिषद् १/११) 'स्वाध्याय करने में प्रमाद न करना।' योगदर्शन में स्वाध्याय की महिमा का वर्णन करते हुए महर्षि पतञ्जलि ने लिखा है― तप: स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोग: । ―(योग० २/१) तप, स्वाध्याय और ईश्वरप्रणिधान इनको क्रियायोग कहते हैं। क्रियायोग का अर्थ है योग के साधन। इनके करने से अस्थिर चित्तवाला भी योग को प्राप्त हो जाता है। इन तीनों में एक 'स्वाध्याय' है आगे कहा है― समाधिभावनार्थ: क्लेशतनूकरणार्थश्च । ―(योग० २/२) उक्त क्रियायोग समाधि को सिद्ध करता है और अविद्यादि क्लेशों को शिथिल करता है। कहने का आशय यह है कि समाधि को सिद्ध करने और क्लेशों को शिथिल करने का एक साधन स्वाध्याय भी है। मनुमहाराज ने मनुस्मृति में स्वाध्याय पर बहुत बल दिया है। गृहस्थ के लिए मनु महाराज ने पाँच यज्ञों का विधान किया है। उन पाँच में से पहला यज्ञ ब्रह्मयज्ञ है― अध्यापनं ब्रह्मयज्ञ: । ―(मनु० ३/७०) अर्थात् स्वाध्याय, सन्ध्या और योगाभ्यास ब्रह्मयज्ञ कहलाते हैं। ब्रह्मयज्ञ का अर्थ है―ईश्वरभक्ति और स्वाध्याय। आगे कहा है― स्वाध्यायेनार्चयेतर्षिन्। –(मनु० ३/८१) स्वाध्याय से ऋषियों की पूजा करे अर्थात् ऋषियों की पूजा स्वाध्याय से होती है। मनु महाराज ने नित्य कर्मों और स्वाध्याय में किसी प्रकार की छुट्टी नहीं मानी है― नैत्यके नास्त्यनध्यायो ब्रह्मसत्रं हि तत्स्मृतम् । ब्रह्माहुतिहुतं पुण्यमनध्यायवषट्कृतम् ।। ―(मनु० २/१०६) भावार्थ―नित्य कर्मों में कभी छुट्टी नहीं हुआ करती। यह तो निश्चय से ब्रह्म-सत्र ही होता है। यज्ञ, सन्ध्या, स्वाध्याय पुण्य के कारण होते हैं। अनध्याय तो निन्दित कर्मों में होना चाहिए। चाणक्य जी ने भी स्वाध्याय के सन्दर्भ में कहा है― श्लोकेन वा तदर्धेन पादेनैकाक्षरेण वा । अवन्ध्यं दिवसं कुर्याद् दानाध्ययनकर्मभि: ।। ―(चा० नी० २/१३) भावार्थ―मनुष्य को चाहिए कि प्रतिदिन एक श्लोक, आधा श्लोक, एक पाद अथवा एक अक्षर का स्वाध्याय करे और दान-अध्ययन करता हुआ ही दिन को सार्थक करे।
Swami Dayanand and Ramanujacharya (vedicvichar)
21-10-2021
Published on the occasion of Ramanujacharya Jayanti on 29th, April,2020 D.S.Balaji Arya Recently Shri Nishchalaland Ji Sarawati; Shankaracharya of Govardhan Math Puri has made a statement about Shri Ramanujacharya and Swami Dayanand. According to him, Swamy Dayanand followed the theories and interpretation of Ramanujacharya, except Avtar and Idol worship. Nishchalanand Ji is very much correct but there is a very a little glitch in his statement. Swami Dayanand did not follow Ramanujacharya or any other medieval saint while interpreting the Vedas. The only source and texts Swamy Dayanand followed were Vedas. Keeping in mind the logics and natural laws which govern the multiverse, he came to the most obvious conclusions concerned with the Vedic Dharma. Undoubtedly, Ramanujacharya was one of the very few saints who preserved and conserved the Vedic Religion in his times. Ramanujacharya and his established Sri Vaishnav sect is the reason nobody can today Shri Ram and Krishna in major parts of South India. Shri Ramanujacharya revived the Vedic Varnashram while destroying the ruthless birth Based Caste system. Shri Ramanujacharya denounced Animal Sacrifice and many such misconceptions about Vedas. Shri Ramanujacharya revived the tradition of Women Education, which was prohibited by many anti-Vedic forces. So if Swami Dayanand seems to be akin to Ramanujacharya, it's nothing but a matter of pride. As it is undoubtedly at par with the divine Vedas. Similarities between Shri Ramanujacharya and Swami Dayananda (1). Both Swami Dayananda and Ramanujacharya acknowledged the existence of three eternal realities - Jivatma, Prakruti and Paramatma. (2). Both gave more emphasis on the Shrutis (Vedas, Upanishads). Unlike other medieval sects like Shaiv, Shakti with moved far away from Vedas got stuck into their respective Purans alone. (3).Swami Dayananda rejected all the Puranas. While Ramanuja accepted the Puranas partially only by explicitly rejecting anything which goes against Vedas. The only Puran that his sect fully accepts is Vishnu Puran. They even reject portions of Bhagwad Puran. They don't believe in the existence of Puranic characters which do not find mention in Itihaasas or Shrutis, like Radha. (4). Both worked for eradication of untouchability and upliftment of Shudras. Ramanujacharya ensured that every devotee is allowed inside temples and is treated respectfully, irrespective of caste or creed. Ramanuja challenged the existing notion of his times that only a Brahmin by birth is eligible for Moksha. He said that every true devotee of Narayana (God) can achieve Moksha and that it has nothing to do with one's caste. In his sect, it is believed that a true devotee of Narayana (irrespective of his or her caste) is superior to all mortal humans including Brahmins. Ramanuja belonged to the tradition which was started by 12 Azhvars, of whom the most venerated is Nammazhvar (Shatkopa muni), who was a Shudra by caste. Ramanuja's entire sect worships Nammazhvar as a liberated devotee who shows the path to Narayana. (5). Dayananda believed that individual Moksha is a very selfish pursuit, one must strive for Moksha for all. Going against the wishes of his Guru, Ramanuja made the mantra of 'Om Namo Narayana' public, stating that liberation of all the people is more important to him than his liberation. (6). At old age, Ramanuja used to take support from his brahmin followers while walking to the river for bathing. But during his way back home, he used to take support from his Shudra followers. One day, one of his followers asked him that why he puts himself on the shoulders of a Shudra just after cleaning himself in the river. He answered that water cleans his body while taking support from a Shudra cleans his ego of being born in a high caste, which he said is akin to internal dirt. (7). Both of Ramanujacharya and Dayananda give special emphasis on Yajna. The recently held Chaturved Swahakar yajna by VHP in New Delhi was conducted by Sri Vaishnava pundits under the supervision of Chinna Jeeyar Swami. (8). Both Ramanujacharya And Swami Dayanand condemned any existence of Animal Sacrifice in Vedas and considered a Vegetarian diet the only Sattvik way of life. Minute Differences between both of these great Saint - (1). Dayananda believed God is internally formless. Ramanuja believed God has the most beautiful form. (2). Dayananda believed God never takes avatars, but Ramanuja supported this view, which seems to be his way of collecting and uniting the people at his time. (3). Dayananda condemned Idol worship. Ramanuja taught that God can be perceived in fiveways, out of which one is Archa (worshippable idol). Even Shri Ramanujacharya never mentioned idol worship as a part of Vedas but he upheld the authorities of certain Agamas which mentions Idol Worship. Swami Dayanand in his revolutionary book Satyarth Prakash's Chapter 11 critically analyses all the major sects of Hinduism. In which he analyzes the Vishishtadvait philosophy of Sri Ramanujam too. Comparing it with the typical Advait philosophy which propagates Brahma and Jeeva as one. With a line - Brahma Satyam, Jagat Mitya, which means god is true and the world is a myth. Whereas Sri Ramanujacharya calls jeeva, brahma and maya all as nitya(Consistent). These are a few facts about Shri Ramanujacharya and Swami Dayanand. Which seems to be very much similar as both are close to the Vedas leaving away the pollutants.
Adi Shankracharya and Swami Dayananda (vedicvichar)
21-10-2021
Published on the occasion of Adi Shankracharya Jayanti on 28th April Dr Vivek Arya Adi Shankracharya and Swami Dayananda are two greatest pillars in the History of our country. The mission of both personalities was the revival of Vedic Dharma. Both were born in Brahmin family and they fought against birth based Caste system. Both shared same childhood name Shankar and Mool Shankar. Both left their home at tender age. Both attained Vairagya at early age and practiced highest order of celibacy in their life. Both fought against the dogmatic practices on name of Religion. Their books are famous as trinity (three books). Adi Shankracharya’s famous works are the commentary of Gita, Brahamsukta and Upanishads. Swami Dayananda’s famous works are Satyarth Prakash, Rigvedadibashya-bhumuka and Sanskar Vidhi. Adi Shankracharya raised his voice against the anti Vedic sects like Buddhism and Jainism while Swami Dayananda faced different ritualistic sects/sub-sects among Hindus along with foreign sects like Islam and Christianity. No doubt that the work of both was difficult and herculean. Adi Shankracharya faced the indigenous sects shaped and fashioned in same workshop of our country. While Swami Dayananda had to contend against both indigenous and alien faiths. Adi Shankracharya needed to counter the arguments of Buddhists on which they rejected the authority of the Vedas. Swami Dayananda apart form the propagation of the Vedas needed to disapprove the claims of any foreign religion along with the different sects and subsets flourishing in the country. The opponents of Adi Shankracharya never looked him with hatred. His all opponents were his own countryman. And it is inherent philosophy of Hinduism to respect even our enemy. Swami Dayananda faced stiff resistance from his countryman as well as the foreign countryman. Dayananda the marathon champion accepted this challenge and neutralized all his opponents. His only supporter was the one and only one almighty God. In case of Adi Shankracharya an extensive knowledge of Hindu metaphysics was altogether necessary to do his work. While in case of Swami Dayananda had to work under entirely different circumstances. He had, unlike Shankracharya, to defend the Vedas not only against the attacks of those who did not admit their authority. He also fought against those who confined them to the unmeaning practices and grand absurd rituals. Adi Shankracharya era was scholarly era of our country. People used to accept the truth by participating in debates or Shastrarth. This was a huge support to Adi Shankracharya. He managed to implement his vision working on the same methodology. He advised Ujjain King Sunadhava to organize his Shastrarth with the Jain Scholars. The rule was defined that the views of the winner would be acceptable to all. Adi Shankracharya won the debate and he thus earned the supporters as well as the royal patronage in form of the King. On the other hand in the age of Swami Dayananda the Vedic glory was almost forgotten. Dense ignorance prevailed for centuries. Swami ji need to do gigantic effort to remind our countryman about the vast knowledge of Vedas. Our tradition of Shastrarth was forgotten. Swami Dayananda did all efforts to revive it. He even involved the King of Kashi in his debate with the learned Pundits of Benaras. But the Kashi King was different from the King of Ujjain. Instead of supporting the truth,the King of Kashi sided with the Benaras Pundits to dampen the voice of Dayananda. But the God believer Dayananda crossed all obstruction and defended one and only one the Truth. The Vedas were regarded and given due respect in the age of Adi Shankracharya. The age of Swami Dayananda was quite different. On one side there were disbelievers of the Vedas while on the other side their was a class of Vedic scholars for whom the Vedas were mere ritualistic texts supporting animal sacrifice, black magic and numerous superstitions. A close analytical study by Swami Dayananda convinced him that our people had completely forgotten the strictly scientific and etymological system of understanding the Vedas. Rishis of the Vedic age formulated the means to understand the Vedas but their directions were neglected. Swami Dayananda commentary on Rigveda and Yajurveda fully testifies the difficulties he had to confront when dealing with these people. One can understand his contribution towards the understanding of the Vedas by thoroughly reading his works. The minds of opponent Pundits in the age of Adi Shankracharya were not so polluted. They were sincere, readily gave-in their support to him at the moment they were proved incorrect. Shankracharya needed to demonstrate their insufficiency and un-tenability of their few opinions. The King as well as the masses followed the Pundits faithfully. Thus, the Shankracharya got early success in his mission of revival of the Hinduism. Swami Dayananda on contrary had to deal with the men of entirely different order. The priestly class of our country was not only ignorant but also lacked knowledge to differentiate between the true and false beliefs. Also the irrational religious practices and ceremonies were their source of income, worldly prosperity, continuation of life and inspiration for their followers. So, they instead of supporting Swami Dayananda opposed him with full force for fulfilling their personal vested interests. They started movement against Swami Dayananda to oppose him up-to any extent. This uphill task already difficult became more difficult due to the wrong attitude by our countrymen. And the foreign based sects added spice to the dish. They also raised their voice in the same tone and frequency against Swami Dayananda. Hindus who had lost the habit of testing the truth long back, instead of learning from Dayananda, preferred to remain blind. They could not respond to the appeal of Swami Dayananada. He offered them a religion which demanded from its votaries the highest exercise of the intellect. The Vedic religion is a religion of reason and no one can fully carry out its behests without intellect. Words of Dayananda fell on the deaf ears of Hindus while in the era of Shankara the knowledge and intellect had not touched so low. Adi Shankracharya was lucky that he did not face Islam and Christianity. Islamic invaders outraged the Hindus and degraded their intellectual status. Islamic faith lowered the educational and mental status of the Hindus. Hindus lost the capability of appreciating the beauty and truth of their ancient Religion. Hindus somehow survived the torture and cruel rule of Islamic invaders by constant opposition and brave attempts of brave hearts like Shiva Ji and Maharana Pratap. But, the rule of Britishers gave it a last blow. Hindus lost the confidence to counter the allegation raised by the Christian missionary on the religious beliefs and the practices of the Hindus. English education immensely accentuated this effect. Young Hindu mind was so influenced that it started thinking that the western culture and beliefs were always superior to those of our country. Swami Dayananda far vision was readily able to diagnose this disease as well as he invented the remedy for this problem. Swami Dayanand through his analytical research and comparative religion study established the superiority of Vedic Philosophy over the foreign ideas. We are amazed to learn his depth of comparative study in the 13th and 14th Chapter of his famous work, Satyarth Prakash. This remedy was like an instant cure to the diseased body of Hinduism. Thus, the era of both reformers was entirely different. Shankracharya was born in the age when our country was governed by Hindu polity while Dayananda worked in the age of foreign rule. Though by no means inferior to Shankracharya, either in intellect or in the intensiveness and extensiveness of his learning, Swami Dayananda had to fight against more heavier and greater odds. Greater, much greater in proportion, is then his title to the glory he won, and deeper, much deeper the debt of gratitude which we owe him. I will like to conclude my article with the statement of Madam Blavatsky, the founder of the Theosophical Society that- "It is perfectly certain that India never saw a more learned Sanskrit scholar, a deeper meta physician, a more wonderful orator, and a more fearless denunciator of any evil than Dayanand, since the time of Shankracharya." (Note- We have no intention to compare the two great reformers Adi Shankracharya and Swami Dayananda to prove the superiority of anyone. We respect both of them with full sincerity. We only compared the circumstances and challenges faced by the both reformers- Writer) With inputs from Life and teachings of Swami Dayanand by Bawa Chajju Singh and Swami Dayananda Saraswati, a critical review of his career together with a short life sketch.
वेदाध्ययन की आवश्यकता (vedicvichar)
21-10-2021
लेखक- स्वामी वेदरक्षानन्द सरस्वती प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ वेदों के अध्ययन एवं प्रचार की आज अत्यन्त आवश्यकता है। वेदों के साचार अध्ययन में ही मानव की सुख-शान्ति एवं उज्ज्वल भविष्य निहित है। परन्तु यह हो कैसे? हम वेद को दिव्य काव्य मानते हैं। हम वेद को सत्यविद्याओं की पुस्तक स्वीकारते हैं कि वैदिकधर्म ही सार्वभौम धर्म है। किन्तु इस मान्यता इस स्वीकारोक्ति तथा इस दावे का मूल्य क्या है? जब तक कि हम वेदों को सर्वगम्य बनाकर उन्हें मनुष्यमात्र तक नहीं पहुंचाते? भारतीय इतिहास इस बात का साक्षी है कि जब तक वेद की विचारधारायें मानवों में प्रचलित रहीं, तभी तक इस देश की संस्कृति एवं सभ्यता संसार में सर्वोपरि रही। जब से वेदों का संकोच प्रारम्भ हुआ है, तभी से वेदानुयायियों के दैन्य-भावनायुक्त जीवन के प्रकरण का प्रारम्भ हुआ है। यही नहीं, शनै: शनै: वेद से हम इतने दूर होते गये कि कालान्तर में वेदों के लुप्त हो जाने तक की कल्पना कर ली गई। वर्तमान युग में वेदों का तात्पर्य इतना दुर्गम हो गया है कि उनके वास्तविक अभिप्राय की अटकले-मात्र लगाई जा रही हैं। वेद एक है और उसके चार काण्ड हैं। प्रथम ज्ञानकाण्ड का नाम ऋग्वेद है। दूसरे कर्मकाण्ड का नाम यजुर्वेद है। तीसरे उपासना काण्ड का नाम सामवेद है। चौथे विज्ञान काण्ड का नाम अथर्ववेद है। ज्ञानकाण्ड ऋग्वेद के अन्तिम सूक्त में कर्म के यथावत् पालन का संकेत करके कर्मकाण्ड यजुर्वेद में श्रेष्ठतम कर्म की शिक्षा दी गई है। कर्मकाण्ड यजुर्वेद का उपसंहार जिस अध्याय में हुआ है उसके अन्तिम मन्त्रों में उपासना का संकेत किया गया है और उपासना काण्ड सामवेद में उपासना की प्रतिष्ठा की गई है। सामवेद के अन्तिम मन्त्र में स्वस्तिपाठ है। स्वस्ति का अर्थ है सु-अस्ति, सु-अस्तित्व, विज्ञानमयपूर्ण जीवन। शरीर, बुद्धि, मेधा, चित्त और आत्मा की पूर्णता से मानव का स्वस्तिमय अथवा विज्ञानमय जीवन बनता है। स्वस्तिमय अथवा विज्ञानमय जीवन से युक्त पूर्ण पुरूष को ही विज्ञान की प्राप्ति होती है। सृष्टि, आत्मा और परमात्मा के इन्द्रियजन्य बोध का नाम ज्ञान है। आत्म-अवस्थिति द्वारा ब्रह्मस्थ होकर तीनों के साक्षात्कृत ज्ञान का नाम विज्ञान है। स्वस्ति का सम्पादन करके विज्ञान की प्राप्ति वेद के विज्ञानकाण्ड अथर्ववेद का प्रतिपाद्य है। स्वस्ति का सम्पादन और विज्ञान की उपलब्धि अभ्यास का विषय है। इसके लिए विज्ञानवेत्ता गुरु की आवश्यकता होती है। विज्ञानवान् गुरु के बिना इस मार्ग पर गति नहीं होती। मानव की प्रत्येक सम्पत्ति, उसकी प्रत्येक उपलब्धि, उसकी बुद्धि, हृदय, चित्त, मन, ज्ञान-कर्मन्द्रियां उसके विचार व भावनायें, उसके संस्कार व प्रवृत्तियां, उसकी भौतिक प्राप्तियां- सबकुछ 'भूताय' भूतमात्र, प्राणिमात्र के लिए हैं। मानव ने जब-जब इस चेतावनी की उपेक्षा की है, तब-तब ही ठोकरें खानी पड़ी हैं। न केवल भौतिक उपलब्धियां, अपितु मानसिक व बौद्धिक विचारधारायें भी इसी विशाल लक्ष्य को लिये हैं। जिस प्रकार भौतिक शक्तियों के संग्रह एवं संकुचित प्रयोग से मानवजाति ओर संकट आये हैं तथैव विचारों एवं विद्याओं का संकोच से भी भयंकर आपदायें आई हैं। भौतिक संकुचन से वैचारिक एवं विद्यासम्बन्धी संकुचन कहीं अधिक भयानक होता है। इस दूसरे प्रकार के संकोच का परिणाम अनन्तकाल तक मानवों को भोगना पड़ता है। यही नहीं, स्वयं विचारों और विद्याओं के स्वस्थ अस्तित्व एवं अभिवर्धन के लिए भी यह नितान्त आवश्यक है कि संकोच के स्थान में 'विश्व जनहिताय' का लक्ष्य अभिमुख रहे। अन्ततः किसी भी वस्तु के अस्तिव का अभिप्राय परार्थ ही तो है। यदि परार्थ के स्थान में उसका लघु स्वार्थों के लिए उपयोग होने लगे, तो न केवल उपयोक्ता, परन्तु वस्तु भी, दोनों ही भ्रष्ट एवं नियति-नियत कर्त्तव्य से च्युत होने के दोषभागी बनते हैं। हमारे देश में इसी कारण विद्या के लक्ष्य रखा गया था 'विमुक्ति'। विद्या वह है जो स्वयं मुक्त हो, उदार हो, विशाल हो और अपने व्यसनी को भी उदार, मुक्त और विशाल बना दे। इसी कसौटी पर हम यदि वेद और वैदिक विद्याओं को परखें, तो हम मानवों के मस्तक लज्जा एवं ग्लानि से झुक जाते हैं। हमने वेदों को संकुचित कर दिया। उनके पठन-पाठन, अध्ययन-अध्यापन, श्रवण-मनन सब पर कठिन अंकुश लगा दिये। इतना डराया और घबराया गया अबोध जनता को कि अशुद्ध पाठ के भय से सर्वनाश की आशंका आ गई और फलतः समाज का एक अत्यन्त विशाल भाग वेदों से वंचित हो गया। मानवता की जड़ों पर कुठाराघात करने वाली वेद के तथाकथित ठेकेदारों की निकृष्ट एवं संकुचित मनोवृत्ति का इससे बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है कि समाज के श्रमिक शूद्रवर्ग तथा उस नारी वर्ग को जिसकी पूजा को स्वर्गोपलब्धि का साधन कहा गया था, एकबारगी ही वेद के अध्ययन से अधिकारच्युत कर दिया गया। 'वसुधैव कुटुम्बकम्' के उद्घोषक महामानव किस प्रकार अपने हृदय को इतना कठोर बना सके कि 'स्त्रीशूद्रो नाधीयताम' के वचन उनके मुख से निकल पाये। यह कैसी विडम्बना है? वेद के संकोच के भयंकर अपराध का फल आज तक हम ही नहीं समस्त मानवजाति भोग रही है। कहां वेदों के उदात्त, महतो महान्, हिमालय के सर्वोच्च शिखर के समान उज्ज्वल, प्राणपोषक एवं उदारतम विचार व भावनायें और कहां इस युग में प्रचलित भय, आशंका, निराशा, मृत्यु एवं स्वार्थ की चरमसीमा को भी पार करनेवाली महाविनाशकारी, जघन्य, कुत्सितातीत अमानवीय भावनायें। वेद जीवन में विश्वास करना सिखाता है मृत्यु में नहीं। वेद 'उद्यानं ते पुरुष' का उद्घोष करता है तो वर्तमान विचारधारायें दुःखमय जीवन, अनास्था, अनुत्साह, नीरसता, अकर्मण्यता, भीरुता, अविश्वास एवं अत्यंत काले भविष्य की ओर संकेत करने वाली हैं। मानवजाति का भविष्य तभी समुज्ज्वल होगा, जब वेद की उदात्त शिक्षाओं का मनन एवं आचरण होने लगेगा। आइये, वेद में श्रद्धा रखने वाले हम सब मानव इस यज्ञ की सफलता के लिए कटिबद्ध हो जायें। -'सर्वहितकारी' से साभार
पुरातत्त्व संग्रहालय की स्थापना (स्वामी जी का पुरुषार्थ) (vedicvichar)
21-10-2021
श्री आचार्य जी महाराज के स्वभाव में दो गुण बहुत प्रमुख हैं । प्रथम वे ऐसे कार्य को अवश्य करते हैं जो श्रेष्ठ हो, किन्तु कठिन होने के कारण जिसको करने का साहस कोई अन्य नहीं कर पाये । दूसरा, वे जिस भी कार्य को करते हैं उसमें अपनी पूरी शक्ति लग देते हैं । उसमें समय और साधन का अभाव कभी बाधक नहीं बन सकता । एक समय में अनेक कार्य ये करते हैं परन्तु प्रमुखता एक ही कार्य की होती है और उसको तब तक करते रहते हैं जब तक वह अपनी पूर्णता को न छू ले । गुरुकुल में समय समय पर पनपी और फूली-फली विविध प्रवृत्तियों का यही एक रहस्य है । वे सब आचार्य जी महाराज के इस स्वभाव की वास्तविक प्रतिविम्ब हैं । गुरुकुल झज्जर में पुरातत्त्व संग्रहालय की स्थापना के पीछे भी कदाचित् यही रहस्य है पुरातत्त्व संग्रहालय का विधिवत् उद्घाटन गुरुकुल के ४६वें वार्षिकोत्सव पर १३ फरवरी १९६१ ई० के दिन राजस्थान के प्रसिद्ध नेता चौ० कुम्भराम आर्य के करकमलों द्वारा हुआ । इस संग्रहालय का पूरा नाम "हरयाणा प्रान्तीय पुरातत्त्व संग्रहालय" रखा गया । उद्घाटन के समय पुरातत्त्वीय सामग्री केवल एक छोटे से प्रकोष्ठ (कमरे) में फैलाकर रखी गई थी । उस समय कुछ सिक्के, ठप्पे और प्राचीन इंटें ही संग्रहालय में थीं । सिक्के कांसे की थालियों में सजाकर रखे गये थे । सम्भवतः स्वयं आचार्य जी महाराज को भी नहीं पता था कि बहुत शीघ्र ही यह संग्रहालय विशाल रूप धारण कर लेगा किन्तु सभी समझदार व्यक्ति उस समय कह रहे थे कि शीघ्र ही समय आयेगा जब ये थोड़े से दीखने वाले सिक्के एक आधुनिक ढ़ंग के विशाल संग्रहालय का रूप धारण कर लेंगे । कारण कि यह कार्य परम तपस्वी कर्मठ नेता श्री आचार्य जी द्वारा आरम्भ जो हुआ है । हुआ भी यही । २३ फरवरी १९६३ ई० को संग्रहालय के फैलाव को विस्तृत रूप दिया गया । अब नये भवनों के सात प्रकोष्ठों में भी सामग्री नहीं समा रही थी । संग्रहालय में हजारों प्राचीन सिक्के, मुद्रा-सांचे, मोहरें, मूर्तियां, शिलालेख और पांडुलिपियां आदि आचार्य जी ने एकत्र कर लीं थीं । दुर्लभ सामग्री दिन प्रतिदिन बढ़ रही थी । प्रारम्भिक दिनों में ब्र० धर्मपाल (महाराष्ट्र) संग्रहालय का काम संभालता था । सन् १९६२ से मैंने (योगानन्द) तथा कुछ दिन उपरान्त ब्र० विरजानन्द जी ने मिलकर संग्रहालय का कार्य संभालना प्रारम्भ किया । श्री आचार्य जी महाराज इस कार्य में इतनी अधिक लग्न से जुट गये कि हर एक सप्ताह/ दस दिन के बाद इतनी अधिक सामग्री लाने लग गये कि उसको संभालना कठिन हो गया । देखते ही देखते दुर्लभ स्वर्ण मुद्रायें भी लाने लगे । उनसे भी अधिक मूल्यवान् और महत्त्वपूर्ण अन्य सामग्री भी इन्होंने एकत्रित की । उन सबका वर्गीकरण और संरक्षण भी बड़ा कठिन कार्य था । थोड़े दिन बाद ही संग्रहालय की ख्याति दूर-दूर तक फैलने लगी । भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग और संग्रहालयों के अधिकारी यहां आने लगे । यहां के संग्रहालय को वे विस्फारित नेत्रों से देखते और कहते - हम तो कभी कल्पना भी नहीं कर सकते थे कि केवल एक व्यक्ति भी इतना बड़ा और महत्वपूर्ण संग्रहालय बना सकता है और वह भी बिना किसी सरकारी या गैर-सरकारी सहायता के ही । वास्तव में यह बड़ा अद्भुत और अनूठा प्रयोग आचार्य जी का है । जिस बहुमूल्य सामग्री को प्राप्त करने के लिये शासन-तंत्र पानी की तरह पैसा बहाता है उसे श्री आचार्य जी बहुधा या तो भेंट में प्राप्त कर लेते हैं या नाममात्र के मूल्य पर । यह सब इनके महान् व्यक्तित्व और सेवा का ही फल है । अल्पकाल में इतने बड़े संग्रहालय (म्यूजियम) का निर्माण केवलमात्र श्री पूज्य आचार्य जी के अटूट उत्साह, गम्भीर अध्यवसाय, प्रबल लग्न, दृढ़ संकल्प और विशिष्ठ कार्यक्षमता का ही परिणाम है । अनेक संस्थाओं का कार्यभार तथा अहर्निश जनजागृति एवं जनकल्याण की चिन्ता और इस पर भी अत्यल्प सीमित साधन होते हुये इतने बड़े राष्ट्रीय स्तर के संग्रहालय का निर्माण उनके अपने विशिष्टगुणसम्पन्न कर्मठ व्यक्तित्व की ओर संकेत कर रहा है । जिन सज्जनों ने इस संग्रहालय को अपनी सूक्ष्मेक्षिका से एवं अध्ययनात्मक दृष्टि से देखा है वे जानते हैं यहां कितनी महत्त्वपूर्ण, दुर्लभ और उपादेय ऐतिहासिक सामग्री एकत्रित है । इसको एकत्रित करने के लिए कितना कष्टसाध्य परिश्रम और व्यय करना पड़ा है ? यह कल्पना से परे की बात है । संग्रहालय में काम करते हुये हमने आचार्य जी के साथ अनेक बार यात्रायें की हैं । उन लंबी यात्राओं की अपनी ही कहानी है । सन् १९६७ की बात है । ज्येष्ठ का तपता हुआ मास था । इलाहाबाद से लगभग ६४ किलोमीटर की दूरी पर दक्षिण पश्चिम में यमुना के तट पर प्राचीन नगर कौशाम्बी के खण्डहरों पर हम घूम रहे थे । यहां एक विशेष उद्देश्य से हम आये थे । हमें सूचना मिली थी कि यहां किसी व्यक्ति को ताम्रपत्र मिले हैं । खोजते हुए हम उसके घर पहुँचे । पता चला कि वह ताम्रपत्रों को किसी दूसरे व्यक्ति को बेच चुका है । हम उसके यहां पहुंचे । वह उसका महत्त्व व मूल्य बढ़ाने के लिये आसानी से दिखाना नहीं चाहता था । बहुत कठिनाई से उस व्यक्ति ने एक-एक करके वे चारों ताम्रपत्र और राजा की वह मोहर हमें दिखलाई जो उनमें लगी थी । अगले दिन ११ बजे तक हम उसको देने के लिये राजी कर पाये । वह उनके तीस हजार रुपये मांगता था । जबकि सौदा हुआ तीन हजार में । इन ताम्रपत्रों में कम से कम २५ किलो वजन तो है ही । ठीक ग्यारह बजे हम उनको सिर पर उठाकर चले । यहां से लगभग १५ किलोमीटर दूर सराय आकिल पहुंचकर हमें इलाहाबाद के लिये बस पकड़नी थी । इस बार हमारे पास जीप नहीं थी । गांववालों ने कहा कि दोपहर का समय है, तांगा नहीं मिलेगा, आप मत जाइये । परन्तु आचार्य जी ने एक बार जो ठान लिया उसको कैसे मोड़ा जा सकता था । श्री पूज्य आचार्य जी सदा नंगे पैरों रहते हैं । मैं भी नंगे पैर था । उस दिन इतनी तेज धूप और गर्मी थी कि जीवन में शायद ही कभी मैंने देखी होगी । सच मानिये मैं उस समय नहीं चलना चाहता था । धूप से घबरा रहा था । इस बात को आचार्य जी भी जान गये । इसलिये अब तो चलना और भी आवश्यक हो गया । वे अपने ब्रह्मचारी को इतना निर्बल देखना कैसे पसन्द कर सकते थे । किन्तु ब्रह्मचारी के सामने "दुबली को दो आषाढ़" वाली कहावत याद आ रही थी । एक तो भयंकर तपती धरती पर नंगे पैर चलना और दूसरे सिर पर ताम्रपत्रों का भार । श्रद्धावश मैं आचार्य जी को वे दे नहीं सकता था किन्तु जब हम कई किलोमीटर चलकर आ चुके तो न जाने वह श्रद्धा कहां काफूर हो गई । मैं मन ही मन चाहने लगा कि किसी तरह आचार्य जी एक बार फिर ताम्रपत्र लेने के लिये कह दें तो मैं झट इस भार को दे दूं । थोड़ी देर में उन्होंने फिर कहा और मैंने थोड़ी राहत महसूस की । मुझे आठ वर्ष गुरुकुल में रहते हुये हो गये थे । दुनियावी दृष्टि से वहां तपस्या भी कर रहे थे किन्तु उस दिन मैंने जाना, वास्तविक तपस्या तो आज हुई है जिसको आचार्य जी रोज ही करते हैं । उस दिन मैंने इनको जितना निकट से देखा शायद पहले कभी नहीं । नंगे सिर, पैर, भूखे पेट, सूखे ओठ निर्जन वन में से १५ किलोमीटर यात्रा करके जिसके चेहरे पर कोई रेखा नहीं आई वह आदमी किस धातु का बना होगा, यह आप अनुमान लग सकते हैं । दूसरी ओर मैं था जो इस यात्रा को महादुःख मान रहा था किन्तु आचार्यप्रवर के लिये यह सामान्य बात थी । एक के मन में यात्राजन्य विषाद था तो दूसरे के मन में लक्ष्यप्राप्ति का उत्साह । कितना बड़ा अन्तर है दोनों के बीच । शायद यही अन्तर इनको महान् बनाता है । इस तरह की न जाने आचार्य-प्रवर ने कितनी यात्रायें की हैं, तब इस संग्रहालय का निर्माण हुआ है । इस कार्य पर वे छः जीप जीर्ण कर चुके हैं । इससे सहज में जाना जा सकता है उन्होंने इस कार्य के लिये कितना परिश्रम किया है । एक बार कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में प्राचीन इतिहास, पुरातत्त्व व संस्कृति विभाग के रीडर डा० सूरजभान हमारे साथ हरयाणा की ऐतिहासिक यात्रा पर थे । वे भी गर्मी के ही दिन थे । उस समय अनेक पुरातत्त्वीय महत्त्व के प्राचीन खंडहरों का सर्वेक्षण हमने किया । यात्रा के उपरान्त उन्होंने कहा - आचार्य जी महाराज जितना कर्मठ और धुन का धनी आदमी मैंने आज तक न तो देखा है और शायद न ही अपने जीवन में देख ही पाऊंगा । सन् १९६३ में आचार्य जी ने कन्या गुरुकुल नरेला में भी पुरातत्त्व संग्रहालय की स्थापना की । यह संग्रहालय भी झज्जर गुरुकुल संग्रहालय की भांति अति समृद्ध और महत्त्वपूर्ण संग्रहालय है । यहां भी संग्रहालय को यहां की स्नातिकायें या ब्रह्मचारिणियां ही संभालती हैं । झज्जर संग्रहालय का सम्पूर्ण कार्यभार ब्र० विरजानन्द दैवकरणि पर है । वे पिछले अठारह वर्ष से इस कार्य में जुटे हैं । उनका गहन अध्ययन है । ब्राह्मी, खरोष्ठी और इण्डोग्रीक आदि प्राचीन लिपियों के वे विद्वान् हैं । अरबी फारसी का भी अध्ययन उन्होंने किया है । श्री आचार्य जी सामग्री लाकर उन्हें सौंप निश्चिन्त हो जाते हैं । वे जिस आत्मीयता से उनका रख-रखाव व अध्ययन करते हैं वह वास्तव में प्रशंसनीय है । पूज्य आचार्य जी को अपने कार्य व तपस्या के अनुरूप ही वे मिले हैं । इसी कारण आचार्य जी (स्वामी जी) प्रचार आदि के कार्य के लिये समय निकाल लेते हैं । कई वर्ष तक स्वयं मैंने भी संग्रहालय को संभाला है किन्तु श्री विरजानन्द मुझ से कहीं अधिक तन्मयता, लगन, श्रद्धा और परिश्रम से कार्य करते हैं । इस युग में ऐसे कर्मठ आचार्य और उसके अनुरूप शिष्य का मिलना अपने आप में एक बड़ी उपलब्धि है । श्री आचार्य जी द्वारा स्थापित ये दोनों संग्रहालय आज देश के प्रमुख संग्रहालयों में से हैं । यहां बहुत सारी ऐसी पुरातत्त्वीय सामग्री है जो दूसरे किसी म्यूजियम में नहीं है । प्राचीन सिक्कों का संग्रह इन दोनों में ही बेजोड़ है । सिक्कों की दृष्टि से देशभर का कोई भी संग्रहालय इनकी बराबरी नहीं कर सकता । प्राचीन गणतंत्रों के सिक्के, प्राचीन मुद्रा सांचे, शुंग, कुषाण और गुप्तकालीन मृण्मूर्तियां और हजारों मोहरें यहां की अपनी विशेषता है । प्रस्तर-मूर्तियां व पांडुलिपियां ताम्रपत्र और शिलालेख भी यहां पर्याप्त मात्रा में हैं । ये संग्रहालय विशुद्ध पुरातत्त्वीय संग्रहालय हैं । ताम्रयुगीन शस्त्राशस्त्रों का भी यहां अनूठा संग्रह है । संग्रहालय के निर्माण में अनेक लोगों का योगदान रहा है । मास्टर भरतसिंह बामला, स्वामी नित्यानन्द, वानप्रस्थी रामपत, गंगाविष्णु शर्मा सिहोल आदि अनेक लोगों मे संग्रहालय को सामग्री दी है । संग्रहालय प्रारम्भ करने का भी एक रोचक इतिहास है । श्री अचार्य जी की इतिहास में प्रारम्भ से ही रुचि थी । ये यत्र-तत्र अपने भाषणों में भी इतिहास व पुरातत्त्व संबन्धी चर्चा करते रहते थे । इनके सभी श्रद्धालु इनकी इस रुचि से परिचित थे । एक दिन ये गढ़ी (बोहर) गांव में थे कि श्री महाशय सूबेसिंह आर्य ने एक काली मिट्टी का गोल सा ठप्पा लाकर दिया और कहा कि एक बूढ़ा आदमी इसको हुक्के की चिलम में ठीकरी का प्रयोग करता है । उस समय यह किसी को नहीं पता था कि यह किसी प्राचीन टकसाल का सांचा है । यह बहुत ही गोल व व्यवस्थित बना था । कुछ चिह्न भी उस पर अंकित थे । श्री आचार्य जी ने वह मिट्टी की वस्तु परीक्षण के लिए श्री पं० जयचन्द्र विद्यालंकार के पास भेज दी किन्तु वे भी इसको नहीं जान पाये । कई वर्ष तक श्री आचार्य जी भी उसको नहीं पढ़ पाये । वास्तव में उस पर आदि देवनागरी लिपि में 'राह' ये दो अक्षर अंकित थे । बाद में जब कुछ और उसी प्रकार के मुद्रा-सांचे मिले तो पता चला कि यह गुर्जर प्रतिहार राजा आदि बराह मिहिर भोज के मुद्रा-सांचे हैं जिनमे किसी पर 'आदि' और किसी पर 'राह' शब्द अंकित है । उसके बाद मैं तथा ब्र० दयानन्द वहां गये । तीन दिन हम उस खण्डहर पर खुदाई करते रहे । वहां हमें पूरी टकसाल मिली । वहां गुर्जर प्रतिहार सामन्तदेव और गधैय्या वंशों की तीन टकसालें थीं । इन टकसालों से लगभग छः हजार सांचे हमने निकाले । टकसाल के दूसरे उपकरण भी मिले । वहां लोगों से बात करने पर पता चला कि यहां ये सांचे-ठप्पे गोफियों में डालकर चिड़िया उड़ाने के लिये फेंके जाते रहे हैं और इस प्रकार यह अमूल्य निधि वर्षों से नष्ट हो रही थी । श्री आचार्य जी की प्रेरणा पर हमने जाकर इसे बचाया । दो प्राचीन खंडहरों पर श्री आचार्य जी ने उत्खनन (excavation) भी कराया । अगस्त १९६४ में औरंगाबाद के टीले पर तथा सन् १९६९ में मित्ताथल (भिवानी) में यह खुदाई हुई । गुरुकुल झज्जर के ब्रह्मचारियों ने इन दोनों उत्खननों में भाग लिया । इनसे भी संग्रहालय को सामग्री मिली । नौरंगाबाद से तो बहुत ही महत्त्वपूर्ण सामग्री समय-समय पर मिलती रही है । यहां आहत मुद्राओं, 'यौधेयानां बहुधान्यके' प्रकार की मुद्राओं, इण्डोग्रीक तथा कुषाण मुद्राओं की टकसालें मिली हैं । इन से प्राचीन भारत में मुद्रा-निर्माण पद्धति पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश पड़ता है । मुख्य रूप से इन्हीं के आधार पर श्री स्वामी ओमानन्द सरस्वती (आचार्य भगवानदेव) जी ने "भारत के प्राचीन लक्षण स्थान" नामक ग्रन्थ की रचना की है । संग्रहालय की दुर्लभ और महत्त्वपूर्ण सामग्री के आधार पर इनका दूसरा ग्रन्थ "भारत के प्राचीन मुद्रांक" (Seals and Sealings of Ancient India) भी प्रकाशित हो चुका है । ये दोनों ही ग्रन्थ भारतीय इतिहास और पुरातत्त्व की अमूल्य निधि हैं । मुद्रा-निर्माण पद्धति पर तो इतना विस्तृत ग्रन्थ पहली बार सामने आया है । दर्जनों प्राचीन नई टकसालों को प्रकाश में लाकर इन्होंने इतिहास जगत् को अमूल्य देन दी है जिसका मूल्यांकन भविष्य में अधिक हो सकेगा । इन ग्रन्थों के लिखने में श्री ब्र० विरजानन्द जी ने महत्त्वपूर्ण कार्य किया है । स्वामी जी महाराज अब अपना अगला ग्रन्थ "ताम्रयुगीन शस्त्राशस्त्र" लिखने में संलग्न हैं । श्री आचार्य जी ने संग्रहालय में जो सामग्री एकत्रित की है वह राष्ट्र की अमूल्य निधि है । इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुये समय-समय पर भारत सरकार और हरयाणा सरकार संग्रहालय को आर्थिक अनुदान देती रही है । यद्यपि कार्य और संग्रह के प्रदर्शन और रख-रखाव की दृष्टि से वह अनुदान नगण्य सा ही है तथापि शासन द्वारा उसकी स्वीकृति मात्र ही कार्य की महत्ता के लिये कम नहीं । वैसे यह हमारे देश की विडंबना ही है कि व्यर्थ के कामों में शासन का धन पानी की तरह बहता है और अच्छे कार्यों के लिये अपेक्षित सहायता और प्रोत्साहन नहीं मिलता । इसी कारण यहां राष्ट्रीय हित के कार्यों में रुचि लेने की प्रवृत्ति साधारण लोगों में दृष्टिगत नहीं होती । वास्तव में आचार्य जी द्वारा संग्रहालयों का निर्माण राष्ट्र को उनकी एक बहुत बड़ी देन है । संग्रहालय की स्थापना के साथ ही आचार्य जी महाराज ऐतिहासिक शोध की ओर अधिक प्रवृत्त हुये । इन्होंने कई ऐसी खोजें की हैं जो अभूतपूर्व तो हैं ही, साथ ही भारतीय इतिहास की बहुत बड़ी उपलब्धि भी हैं । इसी कारण इनको कई बार विदेशों से निमन्त्रण आये और इन्होंने वहां अपने शोध लेख प्रस्तुत किये । इसका उल्लेख हम इनकी विदेश यात्रा प्रसंग में करेंगे । एक यात्रा में मैं भी इनके साथ था । योरोपीय देशों में भी इनके व्यक्तित्व की छाप पड़े बिना नहीं रहती थी, यह मैंने देखा । पुस्तक :- स्वामी ओमानंद सरस्वती जीवन चरित् लेखक :- श्री वेदव्रत शास्त्री (आचार्य प्रिंटिंग प्रेस रोहतक)
पुरातत्त्व संग्रहालय की स्थापना (स्वामी जी का पुरुषार्थ) (vedicvichar)
21-10-2021
श्री आचार्य जी महाराज के स्वभाव में दो गुण बहुत प्रमुख हैं । प्रथम वे ऐसे कार्य को अवश्य करते हैं जो श्रेष्ठ हो, किन्तु कठिन होने के कारण जिसको करने का साहस कोई अन्य नहीं कर पाये । दूसरा, वे जिस भी कार्य को करते हैं उसमें अपनी पूरी शक्ति लग देते हैं । उसमें समय और साधन का अभाव कभी बाधक नहीं बन सकता । एक समय में अनेक कार्य ये करते हैं परन्तु प्रमुखता एक ही कार्य की होती है और उसको तब तक करते रहते हैं जब तक वह अपनी पूर्णता को न छू ले । गुरुकुल में समय समय पर पनपी और फूली-फली विविध प्रवृत्तियों का यही एक रहस्य है । वे सब आचार्य जी महाराज के इस स्वभाव की वास्तविक प्रतिविम्ब हैं । गुरुकुल झज्जर में पुरातत्त्व संग्रहालय की स्थापना के पीछे भी कदाचित् यही रहस्य है पुरातत्त्व संग्रहालय का विधिवत् उद्घाटन गुरुकुल के ४६वें वार्षिकोत्सव पर १३ फरवरी १९६१ ई० के दिन राजस्थान के प्रसिद्ध नेता चौ० कुम्भराम आर्य के करकमलों द्वारा हुआ । इस संग्रहालय का पूरा नाम "हरयाणा प्रान्तीय पुरातत्त्व संग्रहालय" रखा गया । उद्घाटन के समय पुरातत्त्वीय सामग्री केवल एक छोटे से प्रकोष्ठ (कमरे) में फैलाकर रखी गई थी । उस समय कुछ सिक्के, ठप्पे और प्राचीन इंटें ही संग्रहालय में थीं । सिक्के कांसे की थालियों में सजाकर रखे गये थे । सम्भवतः स्वयं आचार्य जी महाराज को भी नहीं पता था कि बहुत शीघ्र ही यह संग्रहालय विशाल रूप धारण कर लेगा किन्तु सभी समझदार व्यक्ति उस समय कह रहे थे कि शीघ्र ही समय आयेगा जब ये थोड़े से दीखने वाले सिक्के एक आधुनिक ढ़ंग के विशाल संग्रहालय का रूप धारण कर लेंगे । कारण कि यह कार्य परम तपस्वी कर्मठ नेता श्री आचार्य जी द्वारा आरम्भ जो हुआ है । हुआ भी यही । २३ फरवरी १९६३ ई० को संग्रहालय के फैलाव को विस्तृत रूप दिया गया । अब नये भवनों के सात प्रकोष्ठों में भी सामग्री नहीं समा रही थी । संग्रहालय में हजारों प्राचीन सिक्के, मुद्रा-सांचे, मोहरें, मूर्तियां, शिलालेख और पांडुलिपियां आदि आचार्य जी ने एकत्र कर लीं थीं । दुर्लभ सामग्री दिन प्रतिदिन बढ़ रही थी । प्रारम्भिक दिनों में ब्र० धर्मपाल (महाराष्ट्र) संग्रहालय का काम संभालता था । सन् १९६२ से मैंने (योगानन्द) तथा कुछ दिन उपरान्त ब्र० विरजानन्द जी ने मिलकर संग्रहालय का कार्य संभालना प्रारम्भ किया । श्री आचार्य जी महाराज इस कार्य में इतनी अधिक लग्न से जुट गये कि हर एक सप्ताह/ दस दिन के बाद इतनी अधिक सामग्री लाने लग गये कि उसको संभालना कठिन हो गया । देखते ही देखते दुर्लभ स्वर्ण मुद्रायें भी लाने लगे । उनसे भी अधिक मूल्यवान् और महत्त्वपूर्ण अन्य सामग्री भी इन्होंने एकत्रित की । उन सबका वर्गीकरण और संरक्षण भी बड़ा कठिन कार्य था । थोड़े दिन बाद ही संग्रहालय की ख्याति दूर-दूर तक फैलने लगी । भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग और संग्रहालयों के अधिकारी यहां आने लगे । यहां के संग्रहालय को वे विस्फारित नेत्रों से देखते और कहते - हम तो कभी कल्पना भी नहीं कर सकते थे कि केवल एक व्यक्ति भी इतना बड़ा और महत्वपूर्ण संग्रहालय बना सकता है और वह भी बिना किसी सरकारी या गैर-सरकारी सहायता के ही । वास्तव में यह बड़ा अद्भुत और अनूठा प्रयोग आचार्य जी का है । जिस बहुमूल्य सामग्री को प्राप्त करने के लिये शासन-तंत्र पानी की तरह पैसा बहाता है उसे श्री आचार्य जी बहुधा या तो भेंट में प्राप्त कर लेते हैं या नाममात्र के मूल्य पर । यह सब इनके महान् व्यक्तित्व और सेवा का ही फल है । अल्पकाल में इतने बड़े संग्रहालय (म्यूजियम) का निर्माण केवलमात्र श्री पूज्य आचार्य जी के अटूट उत्साह, गम्भीर अध्यवसाय, प्रबल लग्न, दृढ़ संकल्प और विशिष्ठ कार्यक्षमता का ही परिणाम है । अनेक संस्थाओं का कार्यभार तथा अहर्निश जनजागृति एवं जनकल्याण की चिन्ता और इस पर भी अत्यल्प सीमित साधन होते हुये इतने बड़े राष्ट्रीय स्तर के संग्रहालय का निर्माण उनके अपने विशिष्टगुणसम्पन्न कर्मठ व्यक्तित्व की ओर संकेत कर रहा है । जिन सज्जनों ने इस संग्रहालय को अपनी सूक्ष्मेक्षिका से एवं अध्ययनात्मक दृष्टि से देखा है वे जानते हैं यहां कितनी महत्त्वपूर्ण, दुर्लभ और उपादेय ऐतिहासिक सामग्री एकत्रित है । इसको एकत्रित करने के लिए कितना कष्टसाध्य परिश्रम और व्यय करना पड़ा है ? यह कल्पना से परे की बात है । संग्रहालय में काम करते हुये हमने आचार्य जी के साथ अनेक बार यात्रायें की हैं । उन लंबी यात्राओं की अपनी ही कहानी है । सन् १९६७ की बात है । ज्येष्ठ का तपता हुआ मास था । इलाहाबाद से लगभग ६४ किलोमीटर की दूरी पर दक्षिण पश्चिम में यमुना के तट पर प्राचीन नगर कौशाम्बी के खण्डहरों पर हम घूम रहे थे । यहां एक विशेष उद्देश्य से हम आये थे । हमें सूचना मिली थी कि यहां किसी व्यक्ति को ताम्रपत्र मिले हैं । खोजते हुए हम उसके घर पहुँचे । पता चला कि वह ताम्रपत्रों को किसी दूसरे व्यक्ति को बेच चुका है । हम उसके यहां पहुंचे । वह उसका महत्त्व व मूल्य बढ़ाने के लिये आसानी से दिखाना नहीं चाहता था । बहुत कठिनाई से उस व्यक्ति ने एक-एक करके वे चारों ताम्रपत्र और राजा की वह मोहर हमें दिखलाई जो उनमें लगी थी । अगले दिन ११ बजे तक हम उसको देने के लिये राजी कर पाये । वह उनके तीस हजार रुपये मांगता था । जबकि सौदा हुआ तीन हजार में । इन ताम्रपत्रों में कम से कम २५ किलो वजन तो है ही । ठीक ग्यारह बजे हम उनको सिर पर उठाकर चले । यहां से लगभग १५ किलोमीटर दूर सराय आकिल पहुंचकर हमें इलाहाबाद के लिये बस पकड़नी थी । इस बार हमारे पास जीप नहीं थी । गांववालों ने कहा कि दोपहर का समय है, तांगा नहीं मिलेगा, आप मत जाइये । परन्तु आचार्य जी ने एक बार जो ठान लिया उसको कैसे मोड़ा जा सकता था । श्री पूज्य आचार्य जी सदा नंगे पैरों रहते हैं । मैं भी नंगे पैर था । उस दिन इतनी तेज धूप और गर्मी थी कि जीवन में शायद ही कभी मैंने देखी होगी । सच मानिये मैं उस समय नहीं चलना चाहता था । धूप से घबरा रहा था । इस बात को आचार्य जी भी जान गये । इसलिये अब तो चलना और भी आवश्यक हो गया । वे अपने ब्रह्मचारी को इतना निर्बल देखना कैसे पसन्द कर सकते थे । किन्तु ब्रह्मचारी के सामने "दुबली को दो आषाढ़" वाली कहावत याद आ रही थी । एक तो भयंकर तपती धरती पर नंगे पैर चलना और दूसरे सिर पर ताम्रपत्रों का भार । श्रद्धावश मैं आचार्य जी को वे दे नहीं सकता था किन्तु जब हम कई किलोमीटर चलकर आ चुके तो न जाने वह श्रद्धा कहां काफूर हो गई । मैं मन ही मन चाहने लगा कि किसी तरह आचार्य जी एक बार फिर ताम्रपत्र लेने के लिये कह दें तो मैं झट इस भार को दे दूं । थोड़ी देर में उन्होंने फिर कहा और मैंने थोड़ी राहत महसूस की । मुझे आठ वर्ष गुरुकुल में रहते हुये हो गये थे । दुनियावी दृष्टि से वहां तपस्या भी कर रहे थे किन्तु उस दिन मैंने जाना, वास्तविक तपस्या तो आज हुई है जिसको आचार्य जी रोज ही करते हैं । उस दिन मैंने इनको जितना निकट से देखा शायद पहले कभी नहीं । नंगे सिर, पैर, भूखे पेट, सूखे ओठ निर्जन वन में से १५ किलोमीटर यात्रा करके जिसके चेहरे पर कोई रेखा नहीं आई वह आदमी किस धातु का बना होगा, यह आप अनुमान लग सकते हैं । दूसरी ओर मैं था जो इस यात्रा को महादुःख मान रहा था किन्तु आचार्यप्रवर के लिये यह सामान्य बात थी । एक के मन में यात्राजन्य विषाद था तो दूसरे के मन में लक्ष्यप्राप्ति का उत्साह । कितना बड़ा अन्तर है दोनों के बीच । शायद यही अन्तर इनको महान् बनाता है । इस तरह की न जाने आचार्य-प्रवर ने कितनी यात्रायें की हैं, तब इस संग्रहालय का निर्माण हुआ है । इस कार्य पर वे छः जीप जीर्ण कर चुके हैं । इससे सहज में जाना जा सकता है उन्होंने इस कार्य के लिये कितना परिश्रम किया है । एक बार कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में प्राचीन इतिहास, पुरातत्त्व व संस्कृति विभाग के रीडर डा० सूरजभान हमारे साथ हरयाणा की ऐतिहासिक यात्रा पर थे । वे भी गर्मी के ही दिन थे । उस समय अनेक पुरातत्त्वीय महत्त्व के प्राचीन खंडहरों का सर्वेक्षण हमने किया । यात्रा के उपरान्त उन्होंने कहा - आचार्य जी महाराज जितना कर्मठ और धुन का धनी आदमी मैंने आज तक न तो देखा है और शायद न ही अपने जीवन में देख ही पाऊंगा । सन् १९६३ में आचार्य जी ने कन्या गुरुकुल नरेला में भी पुरातत्त्व संग्रहालय की स्थापना की । यह संग्रहालय भी झज्जर गुरुकुल संग्रहालय की भांति अति समृद्ध और महत्त्वपूर्ण संग्रहालय है । यहां भी संग्रहालय को यहां की स्नातिकायें या ब्रह्मचारिणियां ही संभालती हैं । झज्जर संग्रहालय का सम्पूर्ण कार्यभार ब्र० विरजानन्द दैवकरणि पर है । वे पिछले अठारह वर्ष से इस कार्य में जुटे हैं । उनका गहन अध्ययन है । ब्राह्मी, खरोष्ठी और इण्डोग्रीक आदि प्राचीन लिपियों के वे विद्वान् हैं । अरबी फारसी का भी अध्ययन उन्होंने किया है । श्री आचार्य जी सामग्री लाकर उन्हें सौंप निश्चिन्त हो जाते हैं । वे जिस आत्मीयता से उनका रख-रखाव व अध्ययन करते हैं वह वास्तव में प्रशंसनीय है । पूज्य आचार्य जी को अपने कार्य व तपस्या के अनुरूप ही वे मिले हैं । इसी कारण आचार्य जी (स्वामी जी) प्रचार आदि के कार्य के लिये समय निकाल लेते हैं । कई वर्ष तक स्वयं मैंने भी संग्रहालय को संभाला है किन्तु श्री विरजानन्द मुझ से कहीं अधिक तन्मयता, लगन, श्रद्धा और परिश्रम से कार्य करते हैं । इस युग में ऐसे कर्मठ आचार्य और उसके अनुरूप शिष्य का मिलना अपने आप में एक बड़ी उपलब्धि है । श्री आचार्य जी द्वारा स्थापित ये दोनों संग्रहालय आज देश के प्रमुख संग्रहालयों में से हैं । यहां बहुत सारी ऐसी पुरातत्त्वीय सामग्री है जो दूसरे किसी म्यूजियम में नहीं है । प्राचीन सिक्कों का संग्रह इन दोनों में ही बेजोड़ है । सिक्कों की दृष्टि से देशभर का कोई भी संग्रहालय इनकी बराबरी नहीं कर सकता । प्राचीन गणतंत्रों के सिक्के, प्राचीन मुद्रा सांचे, शुंग, कुषाण और गुप्तकालीन मृण्मूर्तियां और हजारों मोहरें यहां की अपनी विशेषता है । प्रस्तर-मूर्तियां व पांडुलिपियां ताम्रपत्र और शिलालेख भी यहां पर्याप्त मात्रा में हैं । ये संग्रहालय विशुद्ध पुरातत्त्वीय संग्रहालय हैं । ताम्रयुगीन शस्त्राशस्त्रों का भी यहां अनूठा संग्रह है । संग्रहालय के निर्माण में अनेक लोगों का योगदान रहा है । मास्टर भरतसिंह बामला, स्वामी नित्यानन्द, वानप्रस्थी रामपत, गंगाविष्णु शर्मा सिहोल आदि अनेक लोगों मे संग्रहालय को सामग्री दी है । संग्रहालय प्रारम्भ करने का भी एक रोचक इतिहास है । श्री अचार्य जी की इतिहास में प्रारम्भ से ही रुचि थी । ये यत्र-तत्र अपने भाषणों में भी इतिहास व पुरातत्त्व संबन्धी चर्चा करते रहते थे । इनके सभी श्रद्धालु इनकी इस रुचि से परिचित थे । एक दिन ये गढ़ी (बोहर) गांव में थे कि श्री महाशय सूबेसिंह आर्य ने एक काली मिट्टी का गोल सा ठप्पा लाकर दिया और कहा कि एक बूढ़ा आदमी इसको हुक्के की चिलम में ठीकरी का प्रयोग करता है । उस समय यह किसी को नहीं पता था कि यह किसी प्राचीन टकसाल का सांचा है । यह बहुत ही गोल व व्यवस्थित बना था । कुछ चिह्न भी उस पर अंकित थे । श्री आचार्य जी ने वह मिट्टी की वस्तु परीक्षण के लिए श्री पं० जयचन्द्र विद्यालंकार के पास भेज दी किन्तु वे भी इसको नहीं जान पाये । कई वर्ष तक श्री आचार्य जी भी उसको नहीं पढ़ पाये । वास्तव में उस पर आदि देवनागरी लिपि में 'राह' ये दो अक्षर अंकित थे । बाद में जब कुछ और उसी प्रकार के मुद्रा-सांचे मिले तो पता चला कि यह गुर्जर प्रतिहार राजा आदि बराह मिहिर भोज के मुद्रा-सांचे हैं जिनमे किसी पर 'आदि' और किसी पर 'राह' शब्द अंकित है । उसके बाद मैं तथा ब्र० दयानन्द वहां गये । तीन दिन हम उस खण्डहर पर खुदाई करते रहे । वहां हमें पूरी टकसाल मिली । वहां गुर्जर प्रतिहार सामन्तदेव और गधैय्या वंशों की तीन टकसालें थीं । इन टकसालों से लगभग छः हजार सांचे हमने निकाले । टकसाल के दूसरे उपकरण भी मिले । वहां लोगों से बात करने पर पता चला कि यहां ये सांचे-ठप्पे गोफियों में डालकर चिड़िया उड़ाने के लिये फेंके जाते रहे हैं और इस प्रकार यह अमूल्य निधि वर्षों से नष्ट हो रही थी । श्री आचार्य जी की प्रेरणा पर हमने जाकर इसे बचाया । दो प्राचीन खंडहरों पर श्री आचार्य जी ने उत्खनन (excavation) भी कराया । अगस्त १९६४ में औरंगाबाद के टीले पर तथा सन् १९६९ में मित्ताथल (भिवानी) में यह खुदाई हुई । गुरुकुल झज्जर के ब्रह्मचारियों ने इन दोनों उत्खननों में भाग लिया । इनसे भी संग्रहालय को सामग्री मिली । नौरंगाबाद से तो बहुत ही महत्त्वपूर्ण सामग्री समय-समय पर मिलती रही है । यहां आहत मुद्राओं, 'यौधेयानां बहुधान्यके' प्रकार की मुद्राओं, इण्डोग्रीक तथा कुषाण मुद्राओं की टकसालें मिली हैं । इन से प्राचीन भारत में मुद्रा-निर्माण पद्धति पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश पड़ता है । मुख्य रूप से इन्हीं के आधार पर श्री स्वामी ओमानन्द सरस्वती (आचार्य भगवानदेव) जी ने "भारत के प्राचीन लक्षण स्थान" नामक ग्रन्थ की रचना की है । संग्रहालय की दुर्लभ और महत्त्वपूर्ण सामग्री के आधार पर इनका दूसरा ग्रन्थ "भारत के प्राचीन मुद्रांक" (Seals and Sealings of Ancient India) भी प्रकाशित हो चुका है । ये दोनों ही ग्रन्थ भारतीय इतिहास और पुरातत्त्व की अमूल्य निधि हैं । मुद्रा-निर्माण पद्धति पर तो इतना विस्तृत ग्रन्थ पहली बार सामने आया है । दर्जनों प्राचीन नई टकसालों को प्रकाश में लाकर इन्होंने इतिहास जगत् को अमूल्य देन दी है जिसका मूल्यांकन भविष्य में अधिक हो सकेगा । इन ग्रन्थों के लिखने में श्री ब्र० विरजानन्द जी ने महत्त्वपूर्ण कार्य किया है । स्वामी जी महाराज अब अपना अगला ग्रन्थ "ताम्रयुगीन शस्त्राशस्त्र" लिखने में संलग्न हैं । श्री आचार्य जी ने संग्रहालय में जो सामग्री एकत्रित की है वह राष्ट्र की अमूल्य निधि है । इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुये समय-समय पर भारत सरकार और हरयाणा सरकार संग्रहालय को आर्थिक अनुदान देती रही है । यद्यपि कार्य और संग्रह के प्रदर्शन और रख-रखाव की दृष्टि से वह अनुदान नगण्य सा ही है तथापि शासन द्वारा उसकी स्वीकृति मात्र ही कार्य की महत्ता के लिये कम नहीं । वैसे यह हमारे देश की विडंबना ही है कि व्यर्थ के कामों में शासन का धन पानी की तरह बहता है और अच्छे कार्यों के लिये अपेक्षित सहायता और प्रोत्साहन नहीं मिलता । इसी कारण यहां राष्ट्रीय हित के कार्यों में रुचि लेने की प्रवृत्ति साधारण लोगों में दृष्टिगत नहीं होती । वास्तव में आचार्य जी द्वारा संग्रहालयों का निर्माण राष्ट्र को उनकी एक बहुत बड़ी देन है । संग्रहालय की स्थापना के साथ ही आचार्य जी महाराज ऐतिहासिक शोध की ओर अधिक प्रवृत्त हुये । इन्होंने कई ऐसी खोजें की हैं जो अभूतपूर्व तो हैं ही, साथ ही भारतीय इतिहास की बहुत बड़ी उपलब्धि भी हैं । इसी कारण इनको कई बार विदेशों से निमन्त्रण आये और इन्होंने वहां अपने शोध लेख प्रस्तुत किये । इसका उल्लेख हम इनकी विदेश यात्रा प्रसंग में करेंगे । एक यात्रा में मैं भी इनके साथ था । योरोपीय देशों में भी इनके व्यक्तित्व की छाप पड़े बिना नहीं रहती थी, यह मैंने देखा । पुस्तक :- स्वामी ओमानंद सरस्वती जीवन चरित् लेखक :- श्री वेदव्रत शास्त्री (आचार्य प्रिंटिंग प्रेस रोहतक)
आदि शंकराचार्य एवं स्वामी दयानन्द (vedicvichar)
21-10-2021
(28 अप्रैल को आदि शंकराचार्य जयंती के उपलक्ष में प्रकाशित) आदि शंकराचार्य एवं स्वामी दयानन्द हमारे देश के इतिहास की दो सबसे महान विभूति है। दोनों ने अपने जीवन को धर्म रक्षा के लिए समर्पित किया था। दोनों का जन्म एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था और दोनों ने जातिवाद के विरुद्ध कार्य किया। दोनों के बचपन का नाम शंकर और मूलशंकर था। दोनों को अल्पायु में वैराग्य हुआ और दोनों ने स्वगृह त्याग कर देशाटन किया। दोनों ने धर्म के नाम पर चल रहे आडम्बर के विरुद्ध संघर्ष किया। दोनों की कृतियां त्रिमूर्ति के नाम से प्रसिद्द है। आदि शंकराचार्य की तीन सबसे प्रसिद्द कृतियां है उपनिषद भाष्य, गीता भाष्य एवं ब्रह्मसूत्र। स्वामी दयानन्द की तीन सबसे प्रसिद्द कृतियां है सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका एवं संस्कार विधि। दोनों की मृत्यु भी असमय विष देने से हुई थी। आदि शंकराचार्य एवं स्वामी दयानन्द 1. आदि शंकराचार्य का जिस काल में प्रादुर्भाव हुआ उस काल में उनका संघर्ष जैन एवं बुद्ध मतों से हुआ जबकि स्वामी दयानन्द का संघर्ष रूढ़िवादी एवं कर्मकांडी हिन्दू समाज के साथ साथ विधर्मियों के साथ भी हुआ। 2. आदि शंकराचार्य का संघर्ष भारत देश में ही उत्पन्न हुए विभिन्न मतों से हुआ जबकि स्वामी दयानन्द का संघर्ष देश के साथ साथ विदेश से आये हुए इस्लाम और ईसाइयत से भी हुआ। 3. आदि शंकराचार्य को मुख्य रूप से नास्तिक बुद्ध मत एवं जैन मत के वेद विरुद्ध मान्यताओं की तर्कपूर्ण समीक्षा करने की चुनौती मिली थी। जबकि स्वामी दयानन्द को न केवल वेदों को महान आध्यात्मिक ज्ञान के रूप में पुन: स्थापित करना था। अपितु विदेशी मतों द्वारा वेदों पर लगाए गए आक्षेपों का भी निराकरण करना था। हमारे ही देश में प्रचलित विभिन्न मत-मतान्तर की धार्मिक मान्यताएं भी विकृत होकर वेदों के अनुकूल नहीं रही थी। उनका मार्गदर्शन करना भी स्वामी जी के लिए बड़ी चुनौती थी। 4. आदि शंकराचार्य के काल में शत्रु को भी मान देने की वैदिक परम्परा जीवित थी। जबकि स्वामी दयानन्द का विरोध करने वाले न केवल स्वदेशी थे अपितु विदेशी भी थे। स्वामी जी का विरोध करने में कोई पीछे नहीं रहा। मगर स्वामी दयानन्द भी बिना किसी सहयोग के केवल ईश्वर विश्वास एवं वेदों के ज्ञान के आधार पर सभी प्रतिरोधों का सामना करते हुए आगे बढ़ते रहे। 5. आदि शंकराचार्य को केवल वैदिक धर्म का प्रतिपादन करना था जबकि स्वामी दयानन्द को वैदिक धर्म के प्रतिपादन के साथ साथ विदेशी मतों की मान्यताओं का भी पुरजोर खंडन करना पड़ा। 6. आदि शंकराचार्य के काल में धर्मक्षेत्र में कुछ प्रकाश अभी बाकि था। विद्वत लोग सत्य के ग्रहण एवं असत्य के त्याग के लिए प्राचीन शास्त्रार्थ परम्परा का पालन करते थे। जिसका मत विजयी होता था उसे सभी स्वीकार करते थे। पंडितों का मान था एवं राजा भी उनका मान करते थे। शंकराचार्य ने उज्जैन के राजा सुन्धवा से जैन मत के धर्मगुरुओं से शास्त्रार्थ का आयोजन करने के लिए प्रेरित किया। राजा की बुद्धि में ज्ञान का प्रकाश था। जैन विद्वानों के साथ हुए शास्त्रार्थ में शंकराचार्य विजयी हुए। राजा के साथ जैन प्रचारकों ने वैदिक धर्म को स्वीकार किया। स्वामी दयानन्द के काल में यह परम्परा भुलाई जा चुकी थी। स्वामी जी ने भी शास्त्रार्थ रूपी प्राचीन परिपाटी को पुनर्जीवित करने के लिए पुरुषार्थ किया। काशी में उन्होंने मूर्तिपूजा पर बनारस के सकल पंडितों के साथ काशी नरेश के सभापतित्व में शास्त्रार्थ का आयोजन किया। शास्त्रार्थ में स्वामी दयानन्द के विजय होने पर भी काशी नरेश ने उनका साथ नहीं दिया और पंडितों का साथ दिया। काशी नरेश और पंडितों के विरोध का स्वामी दयानन्द ने पुरजोर सामना किया मगर सत्य के पथ से स्वामी जी विचलित नहीं हुए। अडिग स्वामी दयानन्द को केवल और केवल ईश्वर का साथ था। 7. आदि शंकराचार्य के काल में वेदों का मान था। स्वामी दयानन्द के काल में स्थिति में परिवर्तन हो चूका था। स्वामी जी को एक ओर विदेशियों के समक्ष वेदों को उत्कृष्ट सिद्ध करना था। दूसरी ओर स्थानीय विद्वानों द्वारा वेदों के विषय में फैलाई जा रही भ्रांतियों का भी निराकरण करना था। वेदों को यज्ञों में पशुबलि का समर्थन करने वाला, जादू-टोने का समर्थन करने वाला, अन्धविश्वास का समर्थन करने वाला बना दिया गया था। स्वामी जी के वेदों के नवीन भाष्य को करने का उद्देश्य इन्हीं भ्रांतियों का निवारण करना था। स्वामी जी के पुरुषार्थ के दर्शन उनके यजुर्वेद और ऋग्वेद भाष्य को देखकर होते हैं। हमारे समाज को स्वामी जी के इस योगदान के लिए आभारी होना चाहिए। 8. आदि शंकराचार्य के काल में पंडित लोग सत्यवादी थे। सत्य को स्वीकार करने के लिए अग्रसर रहते थे। स्वामी दयानन्द के काल में पंडितों को सत्य से अधिक आजीविका की चिंता थी। वेदों को सत्य भाष्य को स्वीकार करने से उन्हें आजीविका छीनने का भय था, उनकी गुरुडम की दुकान बंद होने क भय था, उनकी महंत की गद्दी छीनने का भय था। इसलिए उन्होंने स्वामी दयानन्द को सहयोग देने के स्थान पर उनके महान कार्य का पुरजोर विरोध करना आरम्भ कर दिया। वैदिक धर्म सत्य एवं ज्ञान पर आधारित धर्म है। सत्य और ज्ञान अन्धविश्वास के शत्रु है। दयानन्द के भाग्योदय करने वाले वचनों को स्वीकार करने के स्थान पर उनका पुरजोर विरोध करना हिन्दू समाज के लिए अहितकारी था। काश हिन्दू समाज ने स्वामी दयानन्द को ठीक वैसे स्वीकार किया होता जैसा अदि शंकराचार्य के काल में स्वीकार किया था। तो भारत देश का स्वर्णिम युग आरम्भ हो जाता। 9. आदि शंकराचार्य को विदेशी मतों के साथ संघर्ष करने की आवश्यकता नहीं पड़ी। जबकि स्वामी दयानन्द के तो अपनों के साथ साथ विदेशी भी बैरी थे। इस्लामिक आक्रांताओं ने हिन्दुओं के आत्मविश्वास को हिला दिया था। वीर शिवाजी और महाराणा प्रताप सरीखे वीरों से हिन्दुओं की कुछ काल तक रक्षा तो हो पायी। मगर आध्यात्मिक क्षेत्र में हिन्दुओं की जो व्यापक हानि हुई उसे पुनर्जीवित करना अत्यंत कठिन था। रही सही कसर अंग्रेजों ने पूरी कर दी। उन्होंने हमारे देश की आत्मा पर इतना कठोर आघात किया कि हिन्दू समाज अपने प्राचीन गौरव को भूलकर बैठा। स्वामी दयानन्द को हमारे देशवासियों को अपनी प्राचीन ऋषि परम्परा एवं इतिहास से परिचित करवाने के लिए अत्यंत पुरुषार्थ करना पड़ा। भारतीयों के आत्मविश्वास को जगाने के लिए एवं विदेशी मतों को तुच्छ सिद्ध करने के लिए उन्हें उन्हीं की कमी से परिचित करवाना अत्यंत आवश्यक था। इसी प्रयोजन से स्वामी दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश के 13 वें एवं 14 वें समुल्लास की रचना की थी। स्वामी जी के इस पुरुषार्थ का मूल्याङ्कन नहीं हो पाया। अन्यथा समस्त हिन्दू समाज उनका आभारी होता। हिन्दू समाज की व्याधि को स्वामी दयानन्द ने बहुत भली प्रकार से न केवल समझा अपितु उस बीमारी का उपचार भी वेद रूपी औषधि के रूप में खोज कर दिया। शंकराचार्य के काल में हमारे देश में स्वदेशी राजा था जबकि स्वामी जी के काल में विदेशी राज था। आदि शंकराचार्य से स्वामी दयानन्द का पुरुषार्थ किसी भी प्रकार से कमतर नहीं था। इसके विपरीत स्वामी जी को आदि शंकराचार्य से अधिक विषम चुनौतियों का सामना करना पड़ा। हमें उनके आर्य जाति के लिए किये गए उपकार का आभारी होना चाहिए। यही उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि होगी। मैं इस लेख को थियोसोफिकल सोसाइटी की संस्थापककर्ता मैडम ब्लावट्स्की के कथन से पूर्ण करना चाहुँगा। "इस कथन में कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी कि भारत देश ने आदि शंकराचार्य के पश्चात आधुनिक काल में स्वामी दयानन्द के समान संस्कृत का विद्वान् नहीं देखा, आध्यात्मिक रोगों का चिकित्सक नहीं देखा, असाधारण वक्ता नहीं देखा और अज्ञान का ऐसा निराकरण करने वाला नहीं देखा। " (नोट- इस लेख का उद्देश्य आदि शंकराचार्य एवं स्वामी दयानन्द के मध्य तुलना करना नहीं है। दोनों हमारे लिए महान एवं प्रेरणादायक है। इस लेख का उद्देश्य यह सिद्ध करना है कि स्वामी दयानन्द को अधिक विपरीत परिस्थितियों का सामना करना पड़ा था।इस लेख के लेखन में बावा छज्जू सिंह कृत स्वामी दयानन्द चरित्र का प्रयोग किया गया है।- लेखक)
आर्यसमाज पानीपत (vedicvichar)
21-10-2021
लेखक - डॉ सत्यकेतु विद्यालंकार पुस्तक - आर्यसमाज का इतिहास -२ प्रस्तुति - अमित सिवाहा स्थानीय अनुश्रुति के अनुसार लुधियाना से दिल्ली आते हुए महर्षि दयानन्द सरस्वती पानीपत होकर गये थे , पर वह वहाँ ठहरे नहीं थे । रेलवे के निर्माण से पूर्व जाने - आने के लिए प्रायः घोड़ा गाड़ियों और ऊँट गाड़ियों का उपयोग किया जाता था । दिल्ली से पंजाब जाने वाले ग्रान्ट ट्रंक रोड पर तब ऊँट गाड़ियाँ चला करती थीं , और डाक भी उन्हीं द्वारा भेजी जाया करती थी । महर्षि जब इसी प्रकार यात्रा करते हुए पानीपत पहुँचे , तो उनकी भेंट वहाँ के प्रसिद्ध रईस रायबहादुर लाला ताराचन्द से हो गई । उन्होंने महर्षि से प्रार्थना की , कि वह पानीपत रुककर उस नगरी को पवित्र करें , पर महर्षि को जल्दी दिल्ली पहुँचना था । पानीपत के लिए वह समय नहीं निकाल सके । पर जो कुछ समय के लिए लाला ताराचन्द महर्षि के सम्पर्क में आए , उसी से उनपर अत्यधिक प्रभाव पड़ा और उनके तथा उनके परिवार में वैदिक धर्म के प्रति आस्था का बीज अंकुरित हो गया । इन्हीं लाला ताराचन्द के सुपुत्र रायजादा लाला योगध्यान थे , जिनके सहयोग से सन् १८८३ में पानीपत में आर्यसमाज की स्थापना हुई । इस समाज की स्थापना के विषय में ज्ञात जानकारी का उल्लेख इस ' इतिहास ' के प्रथम भाग में किया जा चुका है । पानीपत आर्य समाज की प्रगति तथा आर्थिक साधनों को जुटाने में सबसे अधिक सहयोग सपाटू वाले सिंघला परिवार से प्राप्त हुआ । इस परिवार ने आर्यसमाज को अनेक ऐसे व्यक्ति प्रदान किए , जिनके कारण पानीपत नगर तथा समीपवर्ती क्षेत्र में वैदिक धर्म का बहुत प्रचार हुआ । इनमें लाला खेमचन्द रईस , लाला अनूपचन्द आफताब , लाला चतुर्भुज , श्री ओमप्रकाश सिंघला और श्री रामानन्द सिंघला के नाम उल्लेखनीय हैं । हरयाणा और उनके साथ लगे हुए क्षेत्र में आर्य समाज का जो प्रचार - प्रसार हुआ , उसमें पानीपत के समाज का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा । इसी समाज के सम्पर्क में आकर चौधरी फूलसिंह वैदिक धर्म के अनुयायी बने , और आर्यसमाज के लिए उन्होंने अपने जीवन की बलि दे दी । श्री फूलसिंह ने पटवारी के कार्य का प्रशिक्षण पानीपत में प्राप्त किया और सन् १९०८ में अपने मित्र पटवारी प्रीतसिंह के साथ कुछ समय वह पटवारी से सम्बन्धित कार्य के लिए पानीपत में रहे भी थे । प्रीतसिंह आर्यसमाजी थे , और समय समय पर वह फूलसिंह जी को आर्यसमाज विषयक पुस्तकें पढ़ने की प्रेरणा देते रहते थे । इसी के परिणामस्वरूप चौधरी फूलसिंह के जीवन में परिवर्तन आया और उन्होंने आर्य समाजी बनने का निश्चय कर लिया । वह पानीपत आर्यसमाज के वार्षिकोत्सव पर गये , और पण्डित ब्रह्मानन्द से यज्ञोपवीत ग्रहण कर उन्होंने समाज में प्रवेश ले लिया । भक्त फूलसिंह जैसे महान् आर्य नेता के जीवन में परिवर्तन लाने का श्रेय इसी समाज को प्राप्त है । हरयाणा में सींख पाथरी के आर्यसमाज का विशेष महत्व है । उसकी स्थापना एक ऐसे व्यक्ति ने की थी , जो अपने इलाके का प्रसिद्ध डाकू था । मुगला नाम का यह व्यक्ति पानीपत आर्यसमाज के सम्पर्क में आया , जिसके कारण डकैती सदृश कुकृत्यों का परि त्याग कर वह आर्य समाज की सेवा में लग गया , और उसी द्वारा सींख पाथरी में समाज की स्थापना की गई । चौधरी मामनसिंह एक अन्य सज्जन थे , जिन्होंने पानीपत समाज से प्रेरणा प्राप्त कर अपना जीवन वैदिक धर्म के प्रचार में लगा दिया था । यमुना नदी के पूर्वी तट के साथ का जो प्रदेश हरयाणा के साथ लगा हुआ है , चौधरी साहब ने उसे अपना कार्यक्षेत्र बनाया और वहाँ अनेक आर्य समाजों की स्थापना की । पानीपत आर्यसमाज ने वैदिक धर्म के प्रचार के लिए जिन साधनों को अपनाया , उनमें स्त्री शिक्षा शास्त्रार्थ और उपदेश प्रधान थे । स्त्री शिक्षा के लिए उस द्वारा कन्या पाठशाला मोहल्ला अन्सार , आर्य कन्या हाईस्कूल वीर भवन और गर्ल्स कॉलिज ग्राण्ट ट्रंक रोड की स्थापना की गई । इन शिक्षण संस्थानों के कारण जहाँ बालिकाओं को सुशिक्षित होने का अवसर मिला , वहाँ साथ ही वैदिक धर्म से भी उन्होंने परिचय प्राप्त किया । बालकों की शिक्षण संस्थाएँ भी इस समाज द्वारा चलायी गई । वैदिक धर्म के प्रचार के प्रयोजन से जिन अनेक शास्त्रार्थों का इस समाज द्वारा पानीपत में आयोजन किया गया , उनमें कुछ महत्त्व के हैं । पहला महत्त्वपूर्ण शास्त्रार्थ एप्रिल , सन् १९२३ में ईसाइयों से हुआ , जिसमें आर्य समाज की ओर से पण्डित रामचन्द्र देहलवी थे , और ईसाइयों की ओर से पादरी हरनन्द राय । शास्त्रार्थ की अध्यक्षता राय बहादुर लाला लक्ष्मीचन्द जैन ने की थी , और इसमें आर्यसमाज को विजयी घोषित किया गया था । इसके कुछ दिन पश्चात् एक शास्त्रार्थ फिर ईसाइयों के साथ हुआ , जिसका विषय ' सृष्टि की उत्पत्ति एवं इलहाम ' था । दोनों पक्षों का प्रतिनिधित्व वही विद्वान् कर रहे थे , जिन्होंने कुछ दिन पूर्व शास्त्रार्थ किया था । तीसरा शास्त्रार्थ सन् १९२७ में आर्यसमाज के वार्षिकोत्सव पर मुसलमानों से हुआ । इसमें भी आर्य समाज का प्रतिनिधित्व पण्डित रामचन्द्र देहलवी ने किया था । पानीपत में मुसलमानों की बहुत अधिक संख्या थी , और उनकी ओर से मौलवी मुहम्मद इस्माईल आदि अनेक विद्वानों ने शास्त्रार्थ में भाग लिया था । इस शास्त्रार्थ का इतना अधिक प्रभाव हुआ कि मुसलमानों पर भी वैदिक धर्म की युक्तियुक्तता का सिक्का जम गया । सन् १९३१ में जैनियों के साथ शास्त्रार्थ हुआ , जो चार दिनों तक चलता रहा । शास्त्रार्थ का विषय था— ' क्या वेद ईश्वरीय ज्ञान है ? " जैनियों का कहना था कि वेद को ईश्वरीय ज्ञान मानना सृष्टि के नियम के अनुकूल नहीं है । आर्य समाज की ओर से इस शास्त्रार्थ में पण्डित देवेन्द्रनाथ शास्त्री , पण्डित रामचन्द्र देहलवी , पण्डित ब्रह्मदेव विद्यालंकार तथा श्री कर्मानन्द थे , जैनियों की ओर से श्री मक्खनलाल शास्त्री , श्री अजितकुमार शास्त्री , श्री राजेन्द्रकुमार शास्त्री और श्री माणकचन्द्र वर्णी आदि एक दर्जन पण्डित थे । जैनियों से हुए शास्त्रार्थ में ' क्या सृष्टि का कर्ता कोई ईश्वर है ' यह भी एक विषय था । इसमें दोनों पक्षों की युक्तियाँ सुनकर जनता इस परिणाम पर पहुँची , कि आर्य समाज के मन्तव्य सही व तर्कसंगत हैं । पानीपत में मुसलमानों का पर्याप्त जोर होने के कारण समय - समय पर आर्यसमाज से उनका टकराव होता रहता था । इस्लाम के अन्यतम सम्प्रदाय ग्रहमदियों से पानीपत में अनेक बार शास्त्रार्थ हुए , जिनमें आर्यसमाज का जो वर्चस्व प्रकट हुआ , उससे कुछ मुसलिम विद्वान् अपने ऊपर काबू नहीं रख सके । गुलाम हुसैन कादियानी नामक पानीपत के एक अध्यापक ने स्वामी दयानन्द और उनकी तालीम ' नाम से एक पुस्तक लिखी , जिसमें महर्षि पर अनेक असत्य प्रक्षेप किये गये , और जिसकी भाषा भी अमर्यादित थी । इसका उत्तर पानीपत आर्य समाज के तत्कालीन प्रधान लाला अनूपचन्द आफताब ने ' ऋषि का बोलबाला ' नामक पुस्तक लिखकर दिया । इस पुस्तक में गुलाम हुसैन कादियानी के आक्षेपों का ऐसा मुंहतोड़ उत्तर दिया गया था , कि फिर उन्होंने महर्षि के विरुद्ध अपनी जुबान नहीं खोली । आर्य समाज के प्राय : सभी संन्यासी , महात्मा और विद्वान् समय - समय पर वैदिक धर्म के प्रचार के लिए पानीपत आते रहे । इनमें स्वामी श्रद्धानन्द , स्वामी सर्वदानन्द , पण्डित गणपति शर्मा , महात्मा नारायण स्वामी , स्वामी वेदानन्द तीर्थ , स्वामी स्वतन्त्रानन्द , स्वामी केवलानन्द , लाला लाजपत राय , स्वामी भीष्मजी , ठाकुर अमरसिंह ( महात्मा अमर स्वामी ) , कुँवर सुखलाल और श्री रामचन्द्र देहलवी के नाम उल्लेखनीय हैं । इन महात्माओं तथा सुयोग्य प्रचारकों के कारण पानीपत आर्यसमाज वैदिक धर्म के प्रचार प्रसार का समर्थ केन्द्र बना रहा । विधवा विवाह , अन्तर्जातीय विवाह , दलितोद्धार , दहेज प्रथा तथा मृतकभोज का विरोध , परदा प्रथा एवं बाल विवाह का विरोध , मद्य सेवन के विरुद्ध प्रचार और अन्य विविध सामाजिक कुरीतियों के निवारण आदि सभी सुधार कार्यक्रमों में पानीपत आर्यसमाज का महत्वपूर्ण योगदान रहा है । आर्य समाज की ओर से समय - समय पर धार्मिक अधिकारों की रक्षा के लिए जो भी संघर्ष किए गये , उन सबमें पानीपत समाज के सदस्य उत्साहपूर्वक भाग लेते रहे हैं । हैदराबाद सत्याग्रह में लाला हरगुलाल , लाला सुगनचन्द , लाला ज्योतिप्रसाद , श्री लालचन्द पालीवाल और लाला कैलाशचन्द आदि कितने ही आर्य सभासदों ने पानीपत समाज की ओर से भाग लिया था । इसी प्रकार गौरक्षा आन्दोलन आदि में भी इस समाज के सदस्य सक्रिय रूप से भाग लेते रहे । लाला देशबन्धु गुप्त केवल राजनीतिक नेता ही नहीं थे , वह आर्य समाज के भी उत्साही कार्यकर्ता थे । स्वामी श्रद्धानन्द उन्हें सार्वजनिक जीवन में लाये थे , और उनके अनुयायी के रूप में उन्होंने दलितोद्धार आदि के लिए महत्वपूर्ण कार्य किया था । देशबन्धु जी पानीपत के निवासी थे , और वहाँ के आर्यसमाज से ही उन्होंने देश भक्ति और धर्म प्रेम की शिक्षा ग्रहण की थी । पानीपत आर्यसमाज की एक अन्य विशेषता भी उल्लेखनीय है । उसका पुस्तकालय इस दृष्टि से बहुत समृद्ध है , कि उसमें पुरानी पुस्तकों तथा हस्तलिखित ग्रन्थों का बहुत बड़ा संग्रह है । वहाँ अनेक ऐसी पुस्तकें भी विद्यमान हैं , जो अन्यत्र कहीं प्राप्तव्य नहीं हैं । भारत के इतिहास में पानीपत का विशिष्ट स्थान है , क्योंकि उसके रणक्षेत्र में अनेक ऐसे युद्ध लड़े गये जो ऐतिहासिक दृष्टि से निर्णायक सिद्ध हुए । आर्य समाज के क्षेत्र में भी पानीपत का कम महत्त्व नहीं है । हरयाणा में वैदिक धर्म के प्रचार - प्रसार में उसका योग दान विशेष स्थान रखता है ।
Swami Sharddhananda and Untouchability (vedicvichar)
21-10-2021
Our country history is full of leaders from dalit background who devoted their life for the work of dalit upliftment. But we found rare persons from no- dalit background but worked for dalit upliftment. Swami Shraddhanda work from the platform of Aryasamaj. He was isnpired from revolutionary teachings of Swami Dayanand. Swami Dayanand in his magnus opus Satyarth Prakash declared equal rights for all castes. He advocated equal right for education, equl right for reading Vedas. He also advocated to stop all sorts of social discrimination and start intercaste dinning and caste marriage. According to Swami Dayanand any Varna was based on qualities and not on the basis of birth. Aryasamaj propagated the same teaching of Swami Dayanand to eradicate caste system. Swami Shraddhanand and congress Since joining politics Swami Shraddhanand ji was continuously motivating Indian national congress to deal with the problem of untouchability at national level with extensive measures. In his chairman address of Amritsar congress (1919) he strongly expressed his feelings as “Is it not true that so many among you who make the loudest noises about the acquisition of political rights, are not able to overcome their feeling of revulsion for those sixty millions of India who are suffering injustice, your brothers whom you regard as untouchable ? How many are there who take these wretched brothers of theirs to their heart?…give deep thought…and consider how your sixty million brothers-broken fragments of your own hearts which you have cut off and thrown away- how these millions of children of mother India can well become the anchor of the ship of a foreign government. I make this one appeal to all of you, brothers and sisters. Purify your hearts with the water of the love of the motherland in this national temple, and promise that these millions will not remain for you untouchables, but become brothers and sisters. Their sons and daughters will study in our schools, their men and women will participate in our societies, in our fight for independence they will stand shoulder-to-shoulder with us, and all of us will join hands to realize the fulfillment of our national goal” (Quotations from original Hindi texts of the swami’s Amritsar conference address obtained from Gandhi memorial museum, Delhi) Swami Ji difference with Gandhi Ji increased with the passage of time when he draw attention of the congress towards the harassment of Christian chamars by police in environs of Delhi who had accepted Suddhi and returned back to Hinduism by Aryasamaj. In April 1919 he published a booklet of eighty pages entitled ‘jati ke dinon ko mat tyago’ (do not abandon the poor of our nation). Books first seventy pages dealt with the methods used by Christian missionaries in India. Nearly half of the book was taken up by translations from an article in the theosophist about the nefarious activities of Portuguese missionaries and the inquisition, followed by an indictment of protestant missionary work, in particular that of the Delhi Cambridge mission. Thus nearly ninety percent of the pamphlet was aimed at demonstrating missionaries had always used unfair, immortal and underhand mean. The last ten pages deled with constructive point. Since the untouchables were becoming Christians for other than religious reasons, the way to prevent those happenings was by educating their children, by protecting them from the police, and by helping them to achieve social uplift. Since the orthodox would not take up that task, it had become a duty of the aryas to be a crucial one because the greatest danger of the conversion of the untouchables to Christianity was that they became denationalized and supporters of the raj. The swami wrote “if the seven crores of untouchables of India, exasperated by the attitude of the twice born, become Christian , then our orthodox leaders, supporters of independence, will not be able to do anything, except be very sorry.” (Jati ke dinon ko mat tyago. P-72) In 1920 Calcutta congress session Swami Ji proposed three-point program with special section on the untouchables, but congress declared consideration of this inopportune.(shraddha 13 august,14,17 sept. 1920). Swami Ji writes in liberator that “even Mahatma Gandhi had not realized its importance and was taken up with his resolution of non-violent non-cooperation resolution had been passed by the khilafat committee and Mahatma Ji threatened to sponsor it outside the congress, if it was not passed there. I thought it to be a misfortune if Mahatma Ji would be obliged to sever his connection with the oldest political movement in India” (INCON-p 121) Swami Ji was surprised on hearing Maulana Shaukat Ali’s doings in Calcutta session in hearing of more than 50 persons, while the merits of non-violence were being discussed. Maulana said “Mahatma Gandhi is a shrewd bania. You do not understand his real object. By putting you under discipline, he is preparing you for guerilla warfare. He is not such an out-an-out non-violencist as you all suppose” (INCO P-122) Swami Ji forwarded his message to Gandhi Ji secretary that his motives were being misrepresented by his trusted colleagues. The next year 1921 Nagpur session Swami Ji again noticed the same pranks being played by the big Ali brothers. In Delhi the Aryasamaj had been working for the depressed classes, and the swami tried to get the local congress to allow them access to the wells. But it was in vain……….. Swami Ji reached Delhi on 17th august, 1921 and found that the question of removal of untouchability was becoming very acute. He called a few of chief chaudharies and asked the full story. They gave the following story- “The secretary of the Delhi congress committee called the chaudharies of the chamars and requested them to give to the congress as many as four-Anna paying members as they could. The reply of the elders was that unless their grievance as regards the taking of water from the public wells was removed, they could not induce their brethren to join the congress. The secretary was a choleric man of hasty temper and said they wanted Swarajya at once but the grievance of the chamars could wait and would be removed by and by. One of the young men got up and said-our trouble from which we are suffering for centuries must wait solution, but the laddu of Swarajya must go into your mouth at once! We shall see how you obtain Swarajya immediately!!” He wrote to Gandhi Ji after Nagpur session in sept. 1921- “I wired from Lahore that I would apply for financial aid through the Delhi provincial congress committee but on reaching the deli I found that the uplift of the depressed classes through the congress was difficult. The Delhi and Agra chamars simply demand that they be allowed to draw water from wells used by the Hindus and Mohammedans and that water be not served to them through bamboos and leaves. Even that appears impossible for the congress committee to accomplish. Not only this; a Muslim trader of sadar went to the length of saying that even if Hindus allowed (these man) to draw water from common wells, the Muslims would forcibly restrain them from drawing water because they (the chamars) ate carrion. I know that there are thousands of these chamars who do not either drink wine or eat flesh of any kind and few of them who eat carrion are being weaned by the aryasamajists from that filthy habit. But I ask – do Hindu and Muslim meat eaters devour flesh of living cattle? Do they not eat the flesh of the cattle when they are dead? At Nagpur you laid down that one of the conditions for obtaining Swarajya within 12 months was to give their rights to the depressed classes and without waiting for the accomplishment of their uplift, you have decreed that if there is a complete boycott of foreign cloth up till 30th September, Swarajya will be an accomplished fact on the 1st of October. The extension of the use of Swadeshi cloth is absolutely necessary but as long as six and half crores of our suppressed classes are taking refuge with the British bureaucracy so long will the extension of Swadeshi be impossible”. (INCO.P-134,135) Swami Ji in his letter dated June 30th 1922 wrote to general secretary of all India congress committee that the following demands of the depressed classes ought to be complied with at once namely that - 1. They are allowed to sit on the same carpet with citizens of other classes 2. They get the right to draw water from common wells and 3. Their children get admission into national schools and colleges and are to mix freely with students drawn from the so-called higher castes. Swami Ji went to the Lucknow A.I.C.C. meeting of June 1922 especially to push a plan of action for the removal of untouchability. His proposal to appoint a sub-committee on untouchability was accepted, but some parts of it were amended. The sum of two lakhs of rupees was first substituted for the original five lakhs proposed and then even that was watered down by substituting the phrase ‘as much as could be spared’. But misunderstandings kept cropping orally, but when he started preparatory work and asked for some money, he was informed that the working committee had appointed until a report had been received from the sub-committee. It was all a sorry mess, letters came and went, nothing was being done, and the swami resigned in disgust. His postscript to the whole story as follows- The subcommittee did no business in placing the annual report of the congress before its session at Gaya; the secretary simply remarked that no work could be done by the sub-committee as no substitute for Swami Sharddhananda could be found. (INCO.P-181) Swami Sharddhananda did not receive any support from the congress and Mahatma Gandhi for eradicating the sin of untouchability. Instead of that he received the message from Cocanada session of congress in which Maulana Mohammad Ali the president of that session proposed to divide the so-called untouchables in equal halves between Hindus and the Muslims. (INCO.p-188) Swami Ji in South India Swami Ji first tour to south India was between 27 April to 5th June visiting Bangalore, Cochin, Mangalore, Calicut and madras. The main theme of his lecture was untouchability. In Poona he pleaded with the Hindus to abolish immediately the untouchability and raise the depressed classes to the status of kshatriyas or protectors of the Hindu religion (leader, 5 may 1924) he presided Andhra untouchable’s conference at Bangalore and went on to observe Vaikom Satyagraha. He made it clear that he could not personally take part in the struggle as he was not a member of congress. He argued against Gandhi’s directive that the struggle should be kept local, and suggested that a deputation be sent to the Mahatma to see if he could at least allow the committee to receive outside help. If the congress gave up the struggle, he said, it should be continued independently. He offered help and money and even, in that case, to take up the struggle under the auspices of the Hindu sabha. (Leader -12 may 1924) Vaikom Satyagraha Aryasamajists working in the area had converted some depressed class members. At first these were allowed to use the roads previously closed to them, but then the authorities, under orthodox pressure, announced that conversion to the Aryasamaj did not take the convert out of the depressed classes,. The Swami and Pt. Rishi ram issued a manifesto of protest, “it means that a member of the depressed classes cannot have his social disabilities removed unless he forsakes the Hindu society and religion.” The manifesto invited the whole of Hindu society and in particular Pt. Madan Mohan Malviya as head of Hindu Mahasabha to take action. (Leader 11, 12 may 1924) Distressed by the condition of the Hindus of south India he wired Mahatma Gandhi “Kindly propose that every Hindu member of the all India congress committee who can afford should engage at least one servant from among the untouchables for personal service, those not conforming to this rule to vacate office. If even this is impossible then leave the question of the removal of untouchability for the Hindu Mahasabha” (leader 27 June 1924) Palghat Court Verdict On 13th Nov. 1925 name of Aryasamaj and swami ji published in all major newspapers of south India. On the opening day of car festival the divisional magistrate promulgated an order prohibiting Aryasamaj converts from entering the orthodox Hindu streets. This led to a public protest meeting, which passed among others the following resolution. That “this meeting begs to express its unqualified condemnation of the utterly illegal procedure and policy of religious interference adopted by the madras government in extending its order of prohibition to the Aryasamaj converts from the depressed classes while such converts to Christianity and Mohammedanism are not so prohibited ” (leader 19.nov,1924) The leader of 21st Nov., 1925 condemned the intolerant and wholly short sighted attitude of the orthodox Hindus and praised Swami Sharddhananda for taking up their cause and valiantly leading the movement. Swami Ji in response started a new weekly name liberator in English for special purpose of communicating his views to the intelligentsia of south India where the evil of untouchability existed in most objectionable and inhuman form (leader 5, April 1925) Its aim was strongly stated by swami ji- The uplift of the untouchables and their assimilation in the Hindu polity is the very plinth on which alone the edifice of free India can be constructed. Therefore, the liberator will make the cause of the so-called untouchables its main concern. This doctrine of untouchability is the gangrene of Hindu polity. Diehard vanity, deep- rooted prejudice, degenerating ignorance and doping superstition are the germs that feed this gangrene. Each one of these has to be attacked for getting rid of this gangrene. (Leader 4, April 1926) Thus we reach a conclusion that the later years of swami ji life were devoted entirely for the upliftment of the depressed Hindus. INCO- Inside the congress. This book is collection of lectures by Swami Shraddhananda.
रावण के नाम पर बौद्धिक प्रदुषण (vedicvichar)
21-10-2021
- कार्तिक अय्यर जूठ को हज़ार बार चिल्लाओ सत्य लगने लगेगा। यही काम आज अम्बेडकरवादी ,भीमसैनिक, ओशोवादी, वामपंथी जैसे कि सुरेंद्रकुमार अज्ञात व राकेश नाथ, पेरियार समर्थक आदि कर रहे हैं। रावण को खूब महान बताते है। किसी किसी ने तो दशहरे के अवसर पर रावण के दहन पर रोक लगाने के लिए न्यायालय में याचिका भी दाखिल की हैं। उनका कहना है कि रावण उनके महान पूर्वज थे। उनके पुतले का दहन करना उनका अपमान हैं। इसलिए दशहरे पर रावण दहन पर प्रतिबन्ध लगना चाहिए। प्रथम तो दलित समाज द्वारा रावण को अपना पूर्वज बताना मिथक है क्यूंकि रावण ब्राह्मण कुल में पैदा हुआ ऋषि पुलस्त्य पौत्र था। कमाल है दलित समाज का पूर्वज ब्राह्मण कुल मैं पैदा हुआ था। यह अविष्कार तो अनोखा ही कहा जायेगा। चलो मान भी ले रावण दलित समाज का पूर्वज भी था तथापि भी अगर किसी के कुल में किसी का पूर्वज अगर शराबी हो व्यसनी हो व्यभिचारी हो तो क्या वह आदर्श कहलायेगा? नहीं। तो पहले रावण को जान तो लो। रावण का चरित्र हम वाल्मीकीय रामायण से प्रस्तुत करते हैं। पाठकगण समझ जायेंगे कि रावण कितना "चरित्रवान" था:- (क) रावण यहां वहां से कई स्त्रियां हर लाया था:- रावण संन्यासी का कपट वेश त्यागकर सीताजी से कहता है:- बह्वीनामुत्तमस्त्रीणामाहृतानामितस्ततः । सर्वासामेव भद्रं ते ममाग्रमहिषी भव ॥ २८ ॥ मैं यहां वहां से अनेकों सुंदर स्त्रियों को हरण करके ले आया।उन सबमें तू मेरी पटरानी बन,इसमें तेरी भलाई है।।२८।। (अरण्यकांड सर्ग ४७/२८) परस्त्रीगमन राक्षसों का धर्म है:- रावण ने सीता से कहा: - स्वधर्मो रक्षसां भीरु सर्वथैव न संशयः । गमनं वा परस्त्रीणां हरणं संप्रमथ्य वा ॥ ५ ॥ "भीरू! तू ये मत समझ कि मैंने तुझे हरकर कोई अधर्म किया है।दूसरों की स्त्रियों का हरण व परस्त्रियों से भोग करना राक्षसों का धर्म है-इसमें संदेह नहीं ।।५।।" ( सुंदरकांड सर्ग २०/५) लीजिये महाराज! रावण ने खुद स्वीकार किया है कि वो इधर उधर से परस्त्रियों को हरकर उनसे संभोग करता है। अब हम आपकी मानें या रावण की? निश्चित ही रावण की गवाही अधिक माननीय होगी, क्योंकि ये तो उसका अपना अनुभव है और आप केवल वकालत कर रहो हैं।वाल्मीकीय रामायण से इस विषय पर सैकड़ों प्रमाण दिये जा सकते हैं। मंदोदरि का रावणवध के बाद विलाप करते हुये रोती है तथा कहती है। धर्मव्यवस्थाभेत्तारं मायास्रष्टारमाहवे । देवासुरनृकन्यानां आहर्तारं ततस्ततः ।। ५३ ।। आप(रावण) धर्मकी व्यवस्था को तोड़ने वाले,संग्राम में माया रचने वाले थे। देवता,असुर व मनुष्यों की कन्याओं यहां वहां से हरण करके लाते थे।।५३।। ( युद्धकांड सर्ग १११) लीजिये, अब रावण की पटरानी,बीवी की गवाही भी आ गई कि रावण परस्त्रीगामी था। यही नहीं, रावण ने वेदवती,पुंजिकास्थिलिका नामक अप्सरा और बहुत सी नारियों से बलात्कारपूर्वक भोग किया था। बहुत सी नारियों से बलात्कारपूर्वक भोग किया था। ये बात आपके दादागुरु ललईसिंह यादव ने पेरियार की बात के समर्थन में कही है। देखिये, पेरियार ने सीताजी पर आक्षेप करते हुये नंबर ३६ में कहा है:- आक्षेप- सीता स्वयं रावण पर मोहित हो गई थी। सीता ने रावण के प्रचि विषयेच्छा का अनुसरण किया था।सीता के मोहित न होने की दशा में वो उसको छू तक नहीं सकता था क्योंकि उसे शाप था-"वह किसी स्त्री को उसके इच्छा के विरुद्ध स्पर्श करेगा चो उसका सिर टुकड़े-टुकड़े हो जायेगा। । ललईसिंह ने इस पर पेरियार का समर्थन लिखा है १:-युद्धकांड १३.१३-१५:- रावण ने पुंजिकास्थिलिका नामक अप्सरा से शक्ति पूर्वक संभोग किया तब ब्रह्मा जी ने उसको शाप दिया कि किसी स्त्री से यदि वो बलपूर्वक संभोग करेगा तो उसके सर के टुकड़े हो जायेंगे । २:- उत्तरकांड २५/५५-५६ का प्रमाण देकर लिखा है कि रावण ने नलकूबर की स्त्री से बलपूर्वक संभोग किया तब उसको शाप मिला कि वो किसी स्त्री से बल पूर्वक संभोग करेगा तो उसका सर फट जायेगा। ऐसे कई प्रमाण रामायण से दर्ज किये जा सकते हैं जहां रावण परस्त्रीगामी ,बलात्कारी और लंपट सिद्ध होता है। जब हद पार हो गई, तब ब्रह्माजी ने उसे शाप दिया कि यदि वो फिर आगे से किसी स्त्री से बलात्कार करेगा, तो उसका सर फोड़ देंगे। अंततः जब उसने देवी सीता को चुराया, तो उसकी सीताजी पर भी गंदी दृष्टि थी। पर जीते जी उनसे व्यभिचार न कर सका और उन पतिव्रता देवी के पातिव्रत्य तेज से जलकर खाक हो गया! देखिये, मंदोदरि के शब्दों में:- ऐश्वर्यस्य विनाशाय देहस्य स्वजनस्य च । सीतां सर्वानवद्याङ्गीं अरण्ये विजने शुभाम् । आनयित्वा तु तां दीनां छद्मनाऽऽत्मस्वदूषणम् ।। २२ ।। अप्राप्य तं चैव कामं मैथिलीसंगमे कृतम् । पतिव्रतायास्तपसा नूनं दग्धोऽसि मे प्रभो ।। २३ ।। प्राणनाथ! सर्वांगसुंदरी शुभलक्षणा सीता को वन में आप उनके निवास से , छल द्वारा हरकर ले आये,ये आपके लिये बहुत बड़े कलंक की बात थी।मैथिली से संभोग करने की जो आपके मन में कामना थी,वो आप पूरी न कर सके उलट उस पतिव्रता देवी की तपस्या में भस्म हो गये अवश्य ऐसा ही घटा है।।२२-२३। ( युद्धकांड सर्ग १११) ऐसे व्यभिचारी, व्यसनी, बलात्कारी, शराबी, अधर्मी व्यक्ति रावण को अपना महान पूर्वज बताने वालों को यह प्रमाण पढ़कर तत्काल सत्य को स्वीकार कर लेना चाहिए। ऐसे दुष्ट का नाश करने वाले मर्यादापुरुषोत्तम श्री राम ही हमारे लिए वर्णीय और आदरणीय हो सकते है।
रावण के नाम पर बौद्धिक प्रदुषण (vedicvichar)
21-10-2021
- कार्तिक अय्यर जूठ को हज़ार बार चिल्लाओ सत्य लगने लगेगा। यही काम आज अम्बेडकरवादी ,भीमसैनिक, ओशोवादी, वामपंथी जैसे कि सुरेंद्रकुमार अज्ञात व राकेश नाथ, पेरियार समर्थक आदि कर रहे हैं। रावण को खूब महान बताते है। किसी किसी ने तो दशहरे के अवसर पर रावण के दहन पर रोक लगाने के लिए न्यायालय में याचिका भी दाखिल की हैं। उनका कहना है कि रावण उनके महान पूर्वज थे। उनके पुतले का दहन करना उनका अपमान हैं। इसलिए दशहरे पर रावण दहन पर प्रतिबन्ध लगना चाहिए। प्रथम तो दलित समाज द्वारा रावण को अपना पूर्वज बताना मिथक है क्यूंकि रावण ब्राह्मण कुल में पैदा हुआ ऋषि पुलस्त्य पौत्र था। कमाल है दलित समाज का पूर्वज ब्राह्मण कुल मैं पैदा हुआ था। यह अविष्कार तो अनोखा ही कहा जायेगा। चलो मान भी ले रावण दलित समाज का पूर्वज भी था तथापि भी अगर किसी के कुल में किसी का पूर्वज अगर शराबी हो व्यसनी हो व्यभिचारी हो तो क्या वह आदर्श कहलायेगा? नहीं। तो पहले रावण को जान तो लो। रावण का चरित्र हम वाल्मीकीय रामायण से प्रस्तुत करते हैं। पाठकगण समझ जायेंगे कि रावण कितना "चरित्रवान" था:- (क) रावण यहां वहां से कई स्त्रियां हर लाया था:- रावण संन्यासी का कपट वेश त्यागकर सीताजी से कहता है:- बह्वीनामुत्तमस्त्रीणामाहृतानामितस्ततः । सर्वासामेव भद्रं ते ममाग्रमहिषी भव ॥ २८ ॥ मैं यहां वहां से अनेकों सुंदर स्त्रियों को हरण करके ले आया।उन सबमें तू मेरी पटरानी बन,इसमें तेरी भलाई है।।२८।। (अरण्यकांड सर्ग ४७/२८) परस्त्रीगमन राक्षसों का धर्म है:- रावण ने सीता से कहा: - स्वधर्मो रक्षसां भीरु सर्वथैव न संशयः । गमनं वा परस्त्रीणां हरणं संप्रमथ्य वा ॥ ५ ॥ "भीरू! तू ये मत समझ कि मैंने तुझे हरकर कोई अधर्म किया है।दूसरों की स्त्रियों का हरण व परस्त्रियों से भोग करना राक्षसों का धर्म है-इसमें संदेह नहीं ।।५।।" ( सुंदरकांड सर्ग २०/५) लीजिये महाराज! रावण ने खुद स्वीकार किया है कि वो इधर उधर से परस्त्रियों को हरकर उनसे संभोग करता है। अब हम आपकी मानें या रावण की? निश्चित ही रावण की गवाही अधिक माननीय होगी, क्योंकि ये तो उसका अपना अनुभव है और आप केवल वकालत कर रहो हैं।वाल्मीकीय रामायण से इस विषय पर सैकड़ों प्रमाण दिये जा सकते हैं। मंदोदरि का रावणवध के बाद विलाप करते हुये रोती है तथा कहती है। धर्मव्यवस्थाभेत्तारं मायास्रष्टारमाहवे । देवासुरनृकन्यानां आहर्तारं ततस्ततः ।। ५३ ।। आप(रावण) धर्मकी व्यवस्था को तोड़ने वाले,संग्राम में माया रचने वाले थे। देवता,असुर व मनुष्यों की कन्याओं यहां वहां से हरण करके लाते थे।।५३।। ( युद्धकांड सर्ग १११) लीजिये, अब रावण की पटरानी,बीवी की गवाही भी आ गई कि रावण परस्त्रीगामी था। यही नहीं, रावण ने वेदवती,पुंजिकास्थिलिका नामक अप्सरा और बहुत सी नारियों से बलात्कारपूर्वक भोग किया था। बहुत सी नारियों से बलात्कारपूर्वक भोग किया था। ये बात आपके दादागुरु ललईसिंह यादव ने पेरियार की बात के समर्थन में कही है। देखिये, पेरियार ने सीताजी पर आक्षेप करते हुये नंबर ३६ में कहा है:- आक्षेप- सीता स्वयं रावण पर मोहित हो गई थी। सीता ने रावण के प्रचि विषयेच्छा का अनुसरण किया था।सीता के मोहित न होने की दशा में वो उसको छू तक नहीं सकता था क्योंकि उसे शाप था-"वह किसी स्त्री को उसके इच्छा के विरुद्ध स्पर्श करेगा चो उसका सिर टुकड़े-टुकड़े हो जायेगा। । ललईसिंह ने इस पर पेरियार का समर्थन लिखा है १:-युद्धकांड १३.१३-१५:- रावण ने पुंजिकास्थिलिका नामक अप्सरा से शक्ति पूर्वक संभोग किया तब ब्रह्मा जी ने उसको शाप दिया कि किसी स्त्री से यदि वो बलपूर्वक संभोग करेगा तो उसके सर के टुकड़े हो जायेंगे । २:- उत्तरकांड २५/५५-५६ का प्रमाण देकर लिखा है कि रावण ने नलकूबर की स्त्री से बलपूर्वक संभोग किया तब उसको शाप मिला कि वो किसी स्त्री से बल पूर्वक संभोग करेगा तो उसका सर फट जायेगा। ऐसे कई प्रमाण रामायण से दर्ज किये जा सकते हैं जहां रावण परस्त्रीगामी ,बलात्कारी और लंपट सिद्ध होता है। जब हद पार हो गई, तब ब्रह्माजी ने उसे शाप दिया कि यदि वो फिर आगे से किसी स्त्री से बलात्कार करेगा, तो उसका सर फोड़ देंगे। अंततः जब उसने देवी सीता को चुराया, तो उसकी सीताजी पर भी गंदी दृष्टि थी। पर जीते जी उनसे व्यभिचार न कर सका और उन पतिव्रता देवी के पातिव्रत्य तेज से जलकर खाक हो गया! देखिये, मंदोदरि के शब्दों में:- ऐश्वर्यस्य विनाशाय देहस्य स्वजनस्य च । सीतां सर्वानवद्याङ्गीं अरण्ये विजने शुभाम् । आनयित्वा तु तां दीनां छद्मनाऽऽत्मस्वदूषणम् ।। २२ ।। अप्राप्य तं चैव कामं मैथिलीसंगमे कृतम् । पतिव्रतायास्तपसा नूनं दग्धोऽसि मे प्रभो ।। २३ ।। प्राणनाथ! सर्वांगसुंदरी शुभलक्षणा सीता को वन में आप उनके निवास से , छल द्वारा हरकर ले आये,ये आपके लिये बहुत बड़े कलंक की बात थी।मैथिली से संभोग करने की जो आपके मन में कामना थी,वो आप पूरी न कर सके उलट उस पतिव्रता देवी की तपस्या में भस्म हो गये अवश्य ऐसा ही घटा है।।२२-२३। ( युद्धकांड सर्ग १११) ऐसे व्यभिचारी, व्यसनी, बलात्कारी, शराबी, अधर्मी व्यक्ति रावण को अपना महान पूर्वज बताने वालों को यह प्रमाण पढ़कर तत्काल सत्य को स्वीकार कर लेना चाहिए। ऐसे दुष्ट का नाश करने वाले मर्यादापुरुषोत्तम श्री राम ही हमारे लिए वर्णीय और आदरणीय हो सकते है।
वाल्मीकि समाज हिन्दू समाज का अभिन्न अंग क्यों है? ( Vedicvichar)
21-10-2021
अरुण लवानिया अंग्रेजों के समय से ही हिंदुत्व की इमारत से एक-एक कर ईंटों को हटाने का षड़यंत्र चला आ रहा है। इसके पीछे ईसाइयों और मुसलमानों का हाथ तो है ही , स्वतंत्रता पश्चात उपजी नयी प्रजातियां जैसे नवबौध्द , बामसेफ और वामपंथी भी इस कार्य में जुटी हैं।जातिविहीन समाज की बात करने वाले ऐसे तत्व जातियों की ही दुहाई देकर हिंदू समाज को तोड़ने में लगे हैं। अंबेडकर तो बिना आरक्षण के विपरीत परिस्थितियों में अपने पुरुषार्थ के बल पर उन्नति किये।लेकिन आज के नवबौध्दों और बामसेफियों को तो सरकार से आरक्षण और अनेक प्रकार की आर्थिक सुविधायें उपलब्ध हैं।फिर भी अंबेडकर के नाम पर दुकानें चलाना पाखंड के सिवाय कुछ नहीं है।ये अंबेडकर का जयकारा केवल आरक्षण के लिये ही लगाते हैं परंतु अंबेडकर के अन्य राष्ट्रवादी विचारों से इन्हें कोई सरोकार नहीं है। बुध्द से तो ये कोसों दूर हैं।आरक्षण समाप्त , अंबेडकर गायब ! इसीलिये, बिना अपवाद के, सभी तथाकथित अंबेडकरवादी अपनी-अपनी जातियों को मजबूती से पकड़कर जातिवाद के विरोध में हो-हल्ला करते हैं। दोहराने की आवश्यकता नहीं कि आर्य समाज अपने उद्भव से ही छूआछूत , जातिवाद और विधर्मियों के विरुध्द सार्थक परिणामों के साथ संपूर्ण देश में संघर्षरत है।अंबेडकर भी इसीलिये प्रारम्भ से ही इन मुद्दों पर आर्य समाज के साथ मधुर संबंधों सहित आजीवन खड़े दिखाई देते हैं। बस यही बामसेफियों और नवबौध्दों की छटपटाहट का कारण है।इसी छटपटाहट में वो दलित आंदोलन की शुरुआत 1920 के दशक से ही मानकर वाल्मीकियों को को दिग्भ्रमित करते हुये कहते हैं कि 1925 से पहले इतिहास में हमें वाल्मीकि शब्द नहीं मिलता। इनको हिंदू धर्म में बनाये रखने , वाल्मीकि से जोड़ने और वाल्मीकि नाम देने की योजना बीस के दशक में आर्य समाज ने बनाई थी और इस काम को अंजाम दिया था एक आर्य समाजी अमीचंद शर्मा ने। अमीचंद शर्मा से इतना क्रोध मात्र इसलिये कि वो वाल्मीकियों की बस्तियों में उनके उत्थान और शिक्षा के लिये लंबे समय से ईमानदारी से कार्यरत थे। उन्होंने इसी दौरान 'श्री बाल्मीकि प्रकाश' नामक पुस्तक लिखकर वाल्मीकियों को उनके गौरवशाली अतीत और महर्षि वाल्मीकि से उनके अटूट संबंधों को साबित कर फैलाये जा रहे समस्त भ्रम दूर कर दिये। फलस्वरूप अपने उद्देश्य में असफल होने पर इनकी झल्लाहट कुछ यूं निकलती रही है : " अमीचंद शर्मा का षड़यंत्र सफल हुआ ,सबके सामने है। आदि कवि वाल्मीकि के नाम से सफाई कर्मी समाज वाल्मीकि समुदाय के रूप में पूरी तरह स्थापित हो चुका है। 'वाल्मीकि समाज' के संगठन पंजाब से निकल कर पूरे उत्तर भारत में खड़े हो गए हैं।आज भी जब हम वाल्मीकि समाज के लोगों के बीच जाते है तो सफाईकर्मी वाल्मीकि के खिलाफ सुनना तक पसंद नहीं करते। " कहावत है चोर चोरी से जाये सीनाजोरी से न जाये।हालांकि वाल्मीकि समाज इनके षड़यंत्र को समझ जागरूक हो गया , चोर सेंधमारी में फिर भी लगे रहे। अमीचंद के साठ साल पश्चात् लगातार हो रही सेंधमारी से तंग आकर फरीदाबाद के प्रबुध्द वाल्मीकियों ने 14 प्रश्न हिंदू धार्मिक विद्वानों को उत्तर देने के लिये भेजे। ये प्रश्न दैनिक प्राण , फरीदाबाद , बुधवार 8 मार्च 1989 के अंक में प्रकाशित हुये।ये प्रश्न थे : 1- हमारा धर्म क्या है ? 2- अगर हम हिंदू हैं तो अस्पृश्यता क्यों है ? 3- कोई भी धर्म हमें बराबर मानने को तैयार नहीं।ऐसा क्यों ? 4- हमें इतना नीचे क्यों जाना पड़ा ? 5- हम कहां के रहने वाले हैं और हमारी जायदाद कहां है ? 6- हमारी संस्कृति क्या है ? 7- हमें ही भूत पूजा क्यों करनी पड़ी ? 8- अब हम सामाजिक , आर्थिक व राजनीतिक समानता किस तरह हासिल कर सकते हैं ? 9- हमारा महर्षि वाल्मीकि जी से क्या रिश्ता है ? 10- अकेले महर्षि वाल्मीकि जी के नाम पर एक कौम का नाम वाल्मीकि क्यों पड़ा ? 11- महर्षि जी ने शिक्षा कहां प्राप्त की जबकि हरिजनों के लिये स्कूल के दरवाजे चार हजार साल बंद रहे ? 12- महर्षि वाल्मीकि जी ने रामायण में अपने लिये दो शब्द क्यों नहीं लिखे जबकि उन्हें समाज द्वारा चोर डाकू कहा गया है ? 13- महर्षि वाल्मीकि जी ने श्रीराम के पुत्रों को शिक्षा दी । क्या एक भी अछूत शिक्षा के काबिल नहीं था ? 14- महर्षि जी जब इतने अज्ञानी थे कि जब उन्हें राम-राम के दो शब्द भी याद नहीं रहे और वह मरा-मरा रटने लगे तो इतनी बड़ी रामायण उन्होंने कैसे लिख दी ? आज से नब्बे वर्ष पूर्व अमीचंद शर्मा ने अपनी पुस्तक में इनसे मिलते जुलते प्रश्नों के उत्तर संक्षेप दे दिये थे। दोबारा राजेंद्र सिंह ने अत्यंत विस्तार से इन सभी 14 प्रश्नों के उत्तर श्रुति और स्मृतियों से प्रामाणिक संदर्भों के साथ दिये जो इसी पत्रिका के संपादकीय पृष्ठों पर लगातार 9 अप्रिल 1989 तक छपते रहे। आइये अत्यंत संक्षेप में जाने कैसे राजेंद्र सिंह के प्रश्नवार उत्तरों ने विधर्मियों के झूठ का सदा के लिये पर्दाफाश कर दिया। प्रश्न 1- हमारा धर्म क्या है ? उत्तर - अच्छे और बुरे कर्मों को अलग अलग भलीभांति जानकर सदाचार का पालन करना हर मनुष्य का कर्तव्य है। भारत में लंबे समय की मुस्लिम- अंग्रेजी दासता के प्रभाव से शास्त्र से अनभिज्ञ बुध्दिजीवियों ने रिलीज़न और मजहब शब्दों का अनुवाद धर्म कर दिया। धर्म का पर्यायवाची शब्द विश्व की किसी भी प्राचीन या अर्वाचीन भाषा में प्राप्त नहीं है।शास्त्र में सदाचार को धर्म और दुराचार को अधर्म कहा गया है। मनुस्मृति 6/12 के अनुसार धैर्य , क्षमा , मन को वश में रखना , इंद्रियों का निग्रह, बुध्दि का कल्याणकारी सदुपयोग करना , विद्या प्राप्त करना , सत्य का पालन और क्रोध न करना ये धर्म के दस लक्षण हैं। यही मानव धर्म हैं जिसका सर्वप्रथम परिचय विश्व में हमें ही हुआ।इसी तरह धर्म के विपरीत अधर्म होता है।जो भी इन दस आचारों को जान , समझ और मानकर इनके अनुसार जीवन यापन करता है वह हिंदू है।वाल्मीकि समाज भी चूंकि इन दस मर्यादाओं को मन से मानता और कर्म में ढालता है, वह हिंदूधर्मी है।उसके कुछ और होने का प्रश्न ही नहीं है। प्रश्न 2- अगर हम हिंदू हैं तो अस्पृश्यता क्यों है ? उत्तर - हिंदूधर्मी होने के कारण नहीं बल्कि अज्ञानतावश ऐसा मान लिया गया है।शास्त्र में स्पृश्य और अस्पृश्य का किसी वर्ग विशेष से कोई संबंध नहीं बताया गया है।परिस्थितिवश कोई भी अस्पृश्य हो सकता है।एक ब्राह्मण भी यदि मैले और दुर्गंधयुक्त वस्त्र पहन समाज में स्वच्छंद घूमता है तो धर्म के पांचवें लक्षण शौचधर्म के उल्लंघन से अस्पृश्य हो जाता है। उल्लंघन करने वाला यदि राजा भी है तो शास्त्र के अनुसार अशौचकाल तक वह अस्पृश्य ही माना जायेगा।अत: अस्पृश्यता को किसी भी एक वर्ग विशेष के मत्थे मढ़ देना अशास्त्रीय और दुर्भाग्यपूर्ण है। प्रश्न 3- कोई भी धर्म हमें बराबर मानने को तैयार नहीं।ऐसा क्यों ? उत्तर - धर्म की सही परिभाषा और इसका मजहब के अर्थ से अंतर प्रथम प्रश्न के उत्तर में में देखें ।वाल्मीकि समाज को यदि कोई मजहब अपने समान नहीं मानता तो यह उस मजहब विशेष की विचारधारा-विशेष का विषय है , धर्म का विषय नहीं।इसलिये किसी मजहब विशेष की एकपक्षीय विचारधारा को छोड़कर वाल्मीकि समाज को यह देखना चाहिये कि वह धर्म के कितना अनुकूल है।दो विभिन्न मजहब तो किसी न किसी अंश में विरोधी होते ही हैं।उनमें जो सदाचार की सांझी बातें थोड़ी-बहुत कहीं-कहीं देखने को मिलती है, वो धर्म के कारण है। अत: महत्व किसी मजहब की समानता-असमानता का नहीं अपितु महत्व धर्म के अनुकूल होने में है। हिंदू समाज ने इस तथ्य को भलीभांति समझा है।इसी कारण वह इतना सहिष्णु बन पाया है। धर्म के इस महत्व को विदेशी मजहब ना समझ पाने के कारण असहिष्णु हो गये। प्रश्न 4- हमें इतना नीचे क्यों जाना पड़ा ? उत्तर - जब कोई मानव या मानव समाज स्वाध्याय और अभ्यास को आलस और अज्ञानता के कारण त्याग देता है तो एक दिन उसका पतन हो जाता है।ऐसी ही असावधानी के काल में विदेशी ताकतों का आक्रमण हुआ।प्रथम मुसलमान आक्रांता और फिर अंग्रेजों के दुष्प्रभाव से मनीषी वर्ग प्रताड़ित और पथभ्रष्ट दोनों एक साथ बड़ी संख्या में व्यापक स्तर पर हुये।परिणामस्वरूप शास्त्रज्ञ ब्राह्मणों के स्थान पर शास्त्र से अनभिज्ञ ब्राह्मणों का प्रभाव बढ़ गया।ऐसा होने पर राष्ट्र का क्षत्रिय वर्ग असावधान और उदंड रहने लगा। दुष्परिणाम यह हुआ कि शास्त्र के कल्याणकारी मार्ग पर चलने वाली वर्णव्यवस्था अपने गुण कर्म के शास्त्र सम्मत आधार को त्याग कर मात्र जन्म के आधार पर स्वीकार कर ली गयी। मानवधर्मशास्त्र मनुस्मृति में स्पष्ट कहा गया है : ब्राह्मण की श्रेष्ठता ज्ञान से होती है (2/155) , सिर के सफेद बालों से कोई बड़ा नहीं होता (2/156) और अनपढ़ विप्र नाममात्र का ब्राह्मण होता है (2/157) इत्यादि।जन्मना अनपढ़ ब्राह्मणों के अभिमान और शूद्रवर्ण की हीनभावना के मिलेजुले विचारों के कारण वाल्मीकि समाज का पतन हुआ है। शास्त्र में अनपढ़ व्यक्ति को शूद्र कहा गया है , दुराचारी को नहीं दुराचारी अधर्मी होता है , उसका कोई वर्ण नहीं होता।इसलिये वह म्लेच्छ कहलाता है।इसलिये मिथ्या थोपी हुई हीन भावना का त्याग करें। ब्राह्मणादि वर्ण किसी वर्ग या समुदाय विशेष की बपौती नहीं है।कोई भी व्यक्ति पढ़ लिखकर अच्छे आचार को धारण कर इन पदों को प्राप्त कर सकता है।आवश्यकता अपने अंदर ऐसे गुणों को उत्पन्न करने की है।इसी संदर्भ में शुक्राचार्य का भी स्पष्ट कथन है कि इस संसार में जन्म से कोई भी ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य , शूद्र या म्लेच्छ नहीं होता है।वस्तुत: इन सबके भेद का कारण गुण-कर्म ही हैं (शुक्रनीतिसार 1/38)। महर्षि वाल्मीकि का जीवन , आचार और लेखनी भी यही कहती है। अत: महर्षि वाल्मीकि के आप सब अनुयायी भी किसी आचारवान ,सुयोग्य शास्त्रज्ञ से ज्ञान प्राप्त करें तो कोई कारण नहीं कि आपकी उन्नति न हो सके। प्रश्न 5- हम कहां के रहने वाले हैं और हमारी जायदाद कहां है ? उत्तर - वाल्मीकि समाज भारत का ही वासी है और पूरा भारत उसका अपना है।यह उसका और हम सबका बड़ा सौभाग्य है कि हम सबको इस श्रेष्ठ कर्मभूमि भारतवर्ष में जन्म प्राप्त हुआ है।अत: वाल्मीकि समाज भी अपने आपको बड़ा सौभाग्यशाली समझे कि सारा भारत उसका अपना है तथा उसे इसको अपना समझकर ही श्रेष्ठ कर्मभूमि से लाभान्वित होना चाहिये।इसके लिये बड़े विवेक की आवश्यकता है। प्रश्न 6- हमारी संस्कृति क्या है ? उत्तर - अपनी ज्ञानेंद्रियों के माध्यम से मनुष्य जो अनुभव प्राप्त करता है उस अनुभव से बने संस्कारों से जो उसका स्वभाव परिपक्व होता है उसे संस्कृति कहते हैं।ये संस्कार धर्म के अनुकूल भी हो सकते हैं और प्रतिकूल भी। यह संस्कृति मानव की व्यक्तिगत पूंजी अर्थात् संपदा होती है।धर्म के अनुकूल संस्कृति दैवी संपदा और अधर्म के अनुकूल संस्कृति आसुरी संपदा कहलाती है।वाल्मीकि समाज चूंकि धर्म की शास्त्रसम्मत परिभाषा से सहमत है , इसलिये मानसिक रूप से वो हिंदू संस्कृति का पक्षधर है।हिंदू संस्कृति दैवी संपदा की समर्थक है।वाल्मीकि समाज स्वयं दैवी संपदा के कितना अनुकूल है , यह वह स्वयं आत्मविश्लेषण कर जान सकता है। प्रश्न 7- हमें ही भूत पूजा क्यों करनी पड़ी ? उत्तर - भूत-पूजा शब्द दो अर्थों में आता है।एक है पंचमहाभूतों से बने भौतिक जगत की पूजा।दूसरा अर्थ है भूत-प्रेतों की पूजा।आपका प्रश्न किस अर्थ में है स्पष्ट करना चाहिये था।यहां दोनों ही अर्थ के अनुसार उत्तर दिये जाते हैं। भौतिक जगत मोक्ष प्राप्ति का एक साधन मात्र है साध्य नहीं।जब मनुष्य इसे साध्य समझ लेता है तो वह अज्ञानमय स्वप्नलोक में विचरने लगता है।आकाश में किन्हीं स्वर्ग-नर्क इत्यादि लोकों के होने की मिथ्या कल्पना करके भूत-प्रेतों और भटकती आत्माओं के अशास्त्रीय और कल्पनापूर्ण कुविचारों से भयभीत होकर यह जन्म और अगला जन्म दोनों बिगाड़ लेता है। पृथ्वी पर उत्पन्न होने वाले सभी पदार्थ पंचमहाभूतों के संयोग से बने हैं।सुयोग्य गुरु के मार्गदर्शन में इन पदार्थों का समुचित मात्रा में निष्काम भाव से प्रयोग मानव को मोक्ष दिलाने में सहायक सिध्द होता है। विद्या और कलाओं के ज्ञाता होने के कारण महर्षि वाल्मीकि सुयोग्य गुरू थे।जो गुण कर्म से शुद्र अर्थात अनपढ़ थे उन्हें महर्षि ने विभिन्न कलाओं जैसे शिल्पकर्म में पारंगत होने की शिक्षा दी , हस्तकौशल से मानव के कल्याण के लिये जीवनोपयोगी वस्तुओं को बनाना सिखाया।ऐसा करने के कारण वह पंचमहाभूतों का उचित दिशा में सदुपयोग करने के कारण भूतपूजक माना जाता है।इस दृष्टि से वाल्मीकि समाज विद्या में पारंगत अथवा प्रशिक्षित न होने पर भी अपने हस्तकौशल द्वारा भौतिक वस्तुओं का सुयोग्य निर्माता होने से सही अर्थों में भूतपूजक था।इसी कारण उसे शास्त्र सम्मत भूत पूजा करनी पड़ी।कोई भी वाल्मीकि गुण कर्म से विद्या पूजन भी कर दूसरे वर्ण में प्रवेश कर सकता है। यही शास्त्रों का कथन है। प्रश्न 8- अब हम सामाजिक , आर्थिक व राजनीतिक समानता किस तरह हासिल कर सकते हैं ? उत्तर - धर्म के सत्त्वगुणी मार्ग पर चलते हुये विद्या ग्रहण कर समानता प्राप्त हो सकती है।इसके लिये हीन भावना त्यागनी होगी कि हम असहाय और असमर्थ हैं।कोई भी मनुष्य जन्म से नहीं अपितु सद्गुण और सत्कर्म से श्रेष्ठ बनता है।जन्म से सभी शूद्र अर्थात् अनपढ़ होते हैं।पुरुषार्थ में अशक्त मनुष्य ही नपुंसको की भांति भाग्य भरोसे बैठे रहते हैं।पुरुषार्थ करते रहने से मनुष्य एक दिन मोक्ष भी पा लेता है , फिर पढ़ा-लिखा द्विज बनना कौन सी बड़ी बात है। प्रश्न 9- हमारा महर्षि वाल्मीकि जी से क्या रिश्ता है ? उत्तर - महर्षि वाल्मीकि विद्या और कला दोनों के सुयोग्य अधिकारी विद्वान थे।अमर ऐतिहासिक महाकाव्य वाल्मीकीय रामायण के अतिरिक्त भी उन्होंने अनेक ग्रंथों की रचना की थी।वो विमान निर्माण कला के एक प्रमुख आचार्य थे। उन्हीं के शिष्य भरद्वाज ने यंत्रकला पर ' यंत्रसर्वस्व ' नामक एक ग्रंथ रचा था। इस ग्रंथ में 40 प्रकरण थे।इनमें से एक का नाम वैमानिक प्रकरण है।वैमानिक प्रकरण मूलत: 8 अध्याय , 100 अधिकरण और 500 सूत्रों में रचा गया है। इससमय यह ग्रंथ बृहद् विमानशास्त्र के नाम से अधूरा उपलब्ध होता है। विमान निर्माण कला संबंधी इस वैज्ञानिक तकनीकि ग्रंथ पर यति बोधानंद ने वृत्ति टीका लिखी है।वृत्तिकार बोधानंद ने अपनी इस महत्वपूर्ण टीका में वाल्मीकि द्वारा रचित वाल्मीकीय गणितम् नामक ग्रंथ के अनेक अंशों को कई स्थलों पर उद्धृत किया है।वाल्मीकीय गणितम् से ज्ञात होता है कि वाल्मीकि मुनि को आकाश परिमंडल के रेखामार्ग , मंडल ,कक्ष्य , शक्तिपथ और केंद्रमंडल आदि की निश्चित संख्या का ज्ञान था जिनका उन्होंने इस गणितशास्त्र में सविस्तार उल्लेख किया है ( बृहद् विमानशास्त्र , सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा , नई दिल्ली , माघ 2015 विक्रमी , पृष्ठ 19-20)।वस्तुत: महर्षि वल्मीकि 32 विद्याओं और विविध कलाओं के असाधारण ज्ञाता थे। जो व्यक्ति अपने गुण कर्म के अनुरूप शास्त्र में वर्णित ब्राह्मकर्म , क्षत्रिय कर्म अथवा वैश्य कर्म को कुशलता पूर्वक धारण करने में समर्थ नहीं , उसकी जीविका का निर्वहन कैसे हो ? इस प्रश्न के उत्तर में शास्त्र का कथन है कि ऐसा व्यक्ति यदि किसी के अधीन रहना नहीं चाहता तो वह अपने जीवन यापन के लिये कला पक्ष का विकास करे।इसप्रकार वह आत्मनिर्भर हो सकता है। महर्षि के गुरुकुल में जो विद्यार्थी विद्या और इससे जुड़े सूक्ष्म विषयों ठीक से समझने की योग्यता नहीं रखते थे उनको ऐसी कलाओं में प्रवीण बनाया जाता था। एक अनपढ़ अर्थात शूद्र भी राष्ट्रीय कार्य में समान रूप से सहायक हो इसलिये उसे इन कलाओं में पारंगत बनाया जाता था।यह इसलिये भी आवश्यक था क्योंकि विद्याविहीन स्वयं को हीन भावना से ग्रसित कर जुआ , मद्यपान और चोरी जैसे दुष्कर्म से बचा रहे। ऐसा नहीं कि कोई जन्म से शुद्र अर्थात अनपढ़ होकर विद्या योग्य नहीं था। जो योग्यता रखते थे वो शास्त्रों के ज्ञाता होकर गुण कर्म से ब्राह्मण हो जाते थे।ऐसे लोगों के प्रेरणा के स्त्रोत होने के कारण महर्षि वाल्मीकि शूद्रों के गुरु कहलाये।इसलिये वाल्मीकि समाज का महर्षि वाल्मीकि से वही संबंध है जो एक प्रज्ञावान सुयोग्य गुरु और एक श्रद्धावान् शिष्य में होता है। प्रश्न 10- अकेले महर्षि वाल्मीकि जी के नाम पर एक कौम का नाम वाल्मीकि क्यों पड़ा ? उत्तर - वाल्मीकि नाम किसी कौम का नाम नहीं है।वाल्मीकि समाज ने महर्षि वाल्मीकि के नाम से 'वाल्मीकि कौम' की कल्पना कर स्वयं को संदेहास्पद बना दिया है। वाल्मीकि कौम की कल्पना का अभिप्राय तो यह हुआ कि जो अशास्त्रीय वर्णव्यवस्था मात्र जन्म पर आधारित मानने की महती भूल से भारत के चतुर्दिक् पतन का कारण बनी , उसी जन्म पर आधारित कथित वर्णव्यवस्था को प्रकारांतर से स्वीकार कर लेना।शास्त्र के अनुसार वर्ण गुणकर्म के आधार पर माना गया है।कौम की कल्पना जन्ममात्र पर आधारित होती है।जब आप स्वयं ही कौम शब्द का प्रयोग करके अपने आप को जन्म पर आधारित करने लगे हैं तब आप सामाजिक , धार्मिक , आर्थिक और राजनैतिक समानता कैसे प्राप्त करेंगे? फिर तो वही बात हो गई कि किसी वेदों के विद्वान ब्राह्मण के घर में जन्म लेने मात्र से उनके अनपढ़ बेटे को केवल इसलिये वेदों का विद्वान मान लिया जाये क्योंकि उसके पिता वैदिक विद्वान हैं। कौम शब्द में निहित संकीर्णता को महर्षि वाल्मीकि के उदार विचारों के समतुल्य बैठाना उचित नहीं है। इस शब्द में निहित आसुरी विचार महर्षि के धर्मसम्मत शास्त्रीय विचारों से मेल नहीं खाते।इसलिये यदि वाल्मीकि समाज स्वयं को महर्षि का सच्चा और श्रद्धावान अनुयायी मानता है तो उसे अपने आप को कौम मान लेने का राष्ट्रघाती विचार त्यागना होगा।वैदिक वर्णव्यवस्था के अनुसार उसे ज्ञान द्वारा ब्राह्मण बनने का पूरा अधिकार है। यही महर्षि का उपदेश है। प्रश्न 11- महर्षि जी ने शिक्षा कहां प्राप्त की जबकि हरिजनों के लिये स्कूल के दरवाजे चार हजार साल बंद रहे ? उत्तर - आपका प्रश्न भ्रांतिकारक है। इसमें सबसे बड़ी भ्रांति है महर्षि वाल्मीकि को हरिजन समझ लेना और वह भी चार हजार वर्ष पूर्व का।प्राचीन भारत में शिक्षा गुरुकुलों में दी जाती थी। उस समय हरिजन शब्द का प्रयोग कहीं नहीं होता था।इस शब्द का प्रयोग गांधी ने किया।प्राचीन काल की गुरुकुल शिक्षा व्यवस्था के अनुसार प्रत्येक भारतीय के लिये पढ़ना अनिवार्य था।यदि पाठशालाओं में जाकर कोई सीख न सके, वह दूसरी बात थी। वस्तुत: किसी के लिये भी पाठशाला के द्वार बंद नहीं थे। प्रश्न 12- महर्षि वाल्मीकि जी ने रामायण में अपने लिये दो शब्द क्यों नहीं लिखे जबकि उन्हें समाज द्वारा चोर डाकू कहा गया है ? उत्तर - महर्षि वाल्मीकि ने वाल्मीकीय रामायण में अपने कुल का परिचय दिया है।आश्चर्य है कि उनके अनुयायी होते हुये भी आपने रामायण के उस विशेष स्थल का अध्ययन नहीं किया।उनका कुल और उनके कुल से शिक्षा प्राप्त विद्वान मनीषी वंदनीय हैं। वाल्मीकि मुनि को भ्रमवश चोर-डाकू कहा जाता है। प्रश्न 13- महर्षि वाल्मीकि जी ने श्रीराम के पुत्रों को शिक्षा दी । क्या एक भी अछूत शिक्षा के काबिल नहीं था ? उत्तर : निवेदन है कि महर्षि वाल्मीकि त्रेता युग में हुये थे।उस प्राचीन काल में अछूतपन की कल्पना भी नहीं थी।छूआछूत संबंधी कल्पना मुस्लिम-अंग्रेजी गुलामी काल की देन है। अत: इस निराधार कल्पना को त्रेता युग में देखना अदापि उचित नहीं है। विशेषकर अंग्रेजों और उनके मानसपुत्रों ने अछूत प्रसंग को अतिरंजित रूप से उभारा था। इन मानसपुत्रों ने इसे सांप्रदायिक वैमनस्य की राष्ट्रघाती सीमा तक उभार दिया।वामपंथी लेखक भी दशकों से इस घातक प्रसंग को उछाले जा रहे हैं। प्रश्न 14- महर्षि जी जब इतने अज्ञानी थे कि जब उन्हें राम-राम के दो शब्द भी याद नहीं रहे और वह मरा-मरा रटने लगे तो इतनी बड़ी रामायण उन्होंने कैसे लिख दी ? उत्तर - महर्षि वाल्मीकि अज्ञानी नहीं थे।अज्ञानी व्यक्ति किसी साधारण से काव्य की भी रचना नहीं कर सकता , रामायण जैसी अति श्रेष्ठ कृति की रचना करना तो बहुत दूर है।रामायण काव्य मात्र नहीं अपितु यह एक काव्यात्मक ऐतिहासिक ग्रंथ है जो अधर्म और अन्याय पर धर्म और न्याय की महत्वपूर्ण विजय का प्रतीक है।भारतवर्ष के प्राचीन मनीषियों के मत में किसी पूर्वघटित घटना विशेष को लेखनीबध्द कर देना मात्र इतिहास नहीं है।किसी लेखनीबध्द घटना में जबतक पुरुषार्थ चातुष्टय संबंधी दिशा निर्देश न हो तबतक वह इतिहास नहीं कहला सकती।अत: इतिहास की एक विशिष्ट परिभाषा है। इतिहास पूर्ववर्ती सत्य घटनाओं की स्मृति पर आधारित होता है।दीर्घदर्शी वाल्मीकि की स्मृति जन्म-जन्मांतर तक का ज्ञान रखती थी।राम-राम के स्थान पर मरा-मरा रूप उल्टे मंत्र को जपना किसी अज्ञानी का नहीं अपितु महाज्ञानी का काम है। वाल्मीकीय रामायण का प्रारम्भ तप:स्वाध्यायनिरतं तपस्वी वाग्विदां वरम् शब्दों से होता है। जिस ग्रंथ का प्रारंम्भ ही तप और स्वाध्याय ( कर्म और विद्या ) से होता हो उसका रचयिता कदापि अज्ञानी नहीं हो सकता। प्रश्नों के उत्तर पाने के पश्चात् फरीदाबाद का प्रबुध्द वाल्मीकि समाज संतुष्ट और प्रसन्न हो गया। उनके समस्त भ्रम दूर हो गये।तुरंत ही समाचार पत्र के 26 जुलाई 1989 के अंक में नीलम-बाटा मार्ग पर स्थित अंबेडकर नगर के वाल्मीकि मंदिर में महर्षि की प्रतिमा स्थापित होने का समाचार वाल्मीकि समुदाय के नाम से प्रकाशित हुआ।इस समारोह में वाल्मीकि समुदाय के प्रतिनिधि रमेश पारछा ने धन्यवाद देते हुये कहा: " पत्र में प्रकाशित उत्तर से हमें पता चला कि हम अछूत नहीं बल्कि हिंदू समाज के अभिन्न अंग हैं।" और इस प्रकार हिंदुओं को विभाजित करने वालों को मुंह की खानी पड़ी। विदेशी ताकतों के हाथ की कठपुतली बने अम्बेडकरवादी राष्ट्रवादी और हिंदुत्ववादी वाल्मीकियों को भ्रमित करने का प्रयास कर रहे है। इस लेख को पढ़कर कोई भी छदम अम्बेडकरवादियों के मुँह बंद कर सकता है।
ईश्वर स्तुति प्रार्थना उपासना मंत्र व भावार्थ (vedicvichar)
21-10-2021
१. ओ३म् विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव। यद् भद्रं तन्न आसुव।। यजुर्वेद-३०.३ तू सर्वेश सकल सुखदाता शुद्धस्वरूप विधाता है। उसके कष्ट नष्ट हो जाते शरण तेरी जो आता है।। सारे दुर्गुण दुर्व्यसनों से हमको नाथ बचा लीजै। मंगलमय गुण कर्म पदार्थ प्रेम सिन्धु हमको दीजै २.ओ३म् हिरण्यगर्भः समवर्त्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत्। स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम।। यजुर्वेद-१३.४ तू स्वयं प्रकाशक सुचेतन, सुखस्वरूप त्राता है सूर्य चन्द्र लोकादिक को तो तू रचता और टिकाता है।। पहिले था अब भी तू ही है घट-घट में व्यापक स्वामी। योग, भक्ति, तप द्वारा तुझको, पावें हम अन्तर्यामी।। ३.ओ३म् य आत्मदा बलदा यस्य विश्व उपासते प्रशिषं यस्य देवाः। यस्यच्छायामृतं यस्य मृत्युः कस्मै देवाय हविषा विधेम।। यजुर्वेद-२५.१३ तू आत्मज्ञान बल दाता, सुयश विज्ञजन गाते हैं। तेरी चरण-शरण में आकर, भवसागर तर जाते हैं।। तुझको जपना ही जीवन है, मरण तुझे विसराने में। मेरी सारी शक्ति लगे प्रभु, तुझसे लगन लगाने में।। ४. ओ३म् यः प्राणतो निमिषतो महित्वैक इद्राजा जगतो बभूव। य ईशेsअस्य द्विपदश्चतुश्पदः कस्मै देवाय हविषा विधेम।। यजुर्वेद-२६.३ तूने अपनी अनुपम माया से जग ज्योति जगाई है। मनुज और पशुओं को रचकर निज महिमा प्रगटाई है।। अपने हृदय सिंहासन पर श्रद्धा से तुझे बिठाते हैं। भक्ति भाव की भेंटें लेकर शरण तुम्हारी आते हैं।। ५.ओ३म् येन द्यौरुग्रा पृथिवी च दृढा येन स्वः स्तभितं येन नाकः।। योsअन्तरिक्षे रजसो विमानः कस्मै देवाय हविषा विधेम।। यजुर्वेद -३२.६ तारे रवि चन्द्रादि रचकर निज प्रकाश चमकाया है धरणी को धारण कर तूने कौशल अलख जगाया है।। तू ही विश्व-विधाता पोषक, तेरा ही हम ध्यान धरें। शुद्ध भाव से भगवन् तेरे भजनामृत का पान करें।। ६.ओ३म् प्रजापते न त्वदेतान्यन्यो विश्वा जातानि परिता बभूव। यत्कामास्ते जुहुमस्तन्नोsअस्तु वयं स्याम पतयो रयीणाम्।। ऋग्वेद-१०.१२१.१० तूझसे बडा न कोई जग में, सबमें तू ही समाया है। जड चेतन सब तेरी रचना, तुझमें आश्रय पाया है।। हे सर्वोपरि विभो! विश्व का तूने साज सजाया है। शक्ति भक्ति भरपूर दूजिए यही भक्त को भाया है ७.ओ३म् स नो बन्धुर्जनिता स विधाता धामानि वेद भुवनानि विश्वा। यत्र देवा अमृतमानशानास्तृतीये धामन्नध्यैरयन्त।। यजुर्वेद-३२.१० तू गुरु प्रजेश भी तू है, पाप-पुण्य फलदाता है। तू ही सखा बन्धु मम तू ही, तुझसे ही सब नाता है।। भक्तों को इस भव-बन्धन से, तू ही मुक्त कराता है तू है अज अद्वैत महाप्रभु सर्वकाल का ज्ञाता है।। ८. ओ३म् अग्ने नय सुपथा राये अस्मान् विश्वानि देव वयुनानि विद्वान्। युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठान्ते नम उक्तिं विधेम ।। यजुर्वेद -४०.१६ तू स्वयं प्रकाश रूप प्रभो सबका सिरजनहार तू ही रसना निश दिन रटे तुम्हीं को, मन में बसना सदा तू ही।। कुटिल पाप से हमें बचाना भगवन् दीजै यही विशद वरदान।।
चाँदपुर के मेले में स्वामी ने केसे “कबीर पंथियों” की मुसलमानो ओर ईसाई से इज़्ज़त बचाई (vedicvichar)
21-10-2021
उन्हीं दिनों शाहजहाँपुर ( उ०प्र० ) के समीप चाँदपुर गाँव में मेला लग रहा था । पहले वर्ष इसी मेले में पादरियों , मुसलमानों और कबीर पंथियों में वाद - विवाद हुआ था । इस चर्चा में मुसलमानों का पलड़ा भारी रहा था । उस गाँव में कबीरपंथियों की संख्या ज्यादा थी । उनके कारोबार दूर तक फैले हुए थे । उनमें प्यारेलाल और उनके भाई मुक्ताप्रसाद प्रमुख थे । वे जब अपने काम से इधर - उधर जाते तो मुसलमान उन्हें चिढ़ाते “ मेले में आप लोगों ने देख लिया कि इस्लाम धर्म ही सच्चा धर्म है । अब आपको इसे स्वीकार कर लेना चाहिए । ' वे लोग उनकी इस बात का कोई उत्तर न दे पाते । इसलिए इस वर्ष के मेले में वे कोई ऐसा विद्वान् लाना चाहते थे जो वाद - विवाद में मुसलमानों और पादरियों को निरुत्तर कर सके । इसके लिए उन्होंने आर्यसमाज के एक सज्जन मुंशी इन्द्रमणि मुरादाबादी से सम्पर्क किया । उन्होंने उन्हें वचन दिया कि मैं तो मेले में अवश्य ही आऊँगा , परन्तु मेरी पकड़ इस विषय में गहरी नहीं है । आप वेदों के महापण्डित स्वामी दयानन्द जी को आमन्त्रित कीजिए । उनकी विद्वत्ता के सामने कोई भी मतावलम्बी नहीं ठहर पाता । स्वामी जी को आमन्त्रित करने का कार्य इन्द्रमणि जी को ही सौंप दिया गया । उन्होंने सहारनपुर जाकर स्वामी जी से सम्पर्क किया । स्वामी जी ने सहर्ष स्वीकृति दे दी । यथासमय मुंशी इन्द्रमणि जी स्वामी जी को लेकर चाँदपुर पहुँच गए । कबीरपंथियों की प्रसन्नता का ठिकाना नहीं रहा । वे लोग स्वामी जी के दिव्य दर्शन पाकर कृतकृत्य हो उठे । उन्होंने स्वामी जी को श्रद्धापूर्वक गाँव में ठहराना चाहा , परन्तु स्वामी जी ने स्वीकार न किया । गाँव से दूर उन्होंने अपने डेरे की व्यवस्था कराई । शास्त्रार्थ के लिए तम्बू लगवा दिए गए । 19 मार्च सन् 1877 को मेला आरम्भ हुआ । अगले दिन शास्त्रार्थ की तिथि निश्चित कर दी गई । मुसलमान दूर - दूर से इस शास्त्रार्थ को सुनने के लिए आ रहे थे । इन्द्रमणि उनकी भारी संख्या देखकर आशंकित हो गया । उसने स्वामी जी से कहा — ' मुसलमान भारी संख्या में उपस्थित हैं । ये लोग शीघ्र ही उत्तेजित हो जाते हैं । इसलिए महाराज शास्त्रार्थ में कठोर शब्दावली का प्रयोग न करें तो अच्छा है । स्वामी जी ने इन्द्रमणि को उत्साहित करते हुए कहा — ' इन्द्रमणि , तुम किसी प्रकार की कोई चिन्ता मत करो । दयानन्द कभी सत्य की प्रतिष्ठा करने से चूकता नहीं है । सत्य मेरा अपना नहीं है । सत्य सनातन है , उसका प्रचार - प्रसार मेरा ध्येय है । इस मार्ग से मुझे कोई विचलित नहीं कर सकता | ' ' 20 मार्च को शास्त्रार्थ सभा का आयोजन किया गया । समय पर पण्डित , मौलवी और पादरी उसमें आ विराजे । विशाल पण्डाल ठसाठस भर गया । लगता था कि सारा मेला ही सभा - स्थल पर उपस्थित हो गया निम्न पाँच विषय शास्त्रार्थ के समय विचारार्थ निश्चित किए गए 1 . सृष्टि की रचना ईश्वर ने कब , क्यों और किस वस्तु से की ? 2 . ईश्वर सर्वव्यापक है या नहीं ? 3 . ईश्वर दयालु और न्यायकारी किस प्रकार है ? 4 . किस कारण वेद , बाइबिल और कुरान ईश्वर वचन हैं ? 5 . मोक्ष से क्या अभिप्राय है ? वह कैसे प्राप्त किया जा सकता है ? शास्त्रार्थ आरम्भ हुआ तो मौलवी और पादरी आपस में उलझ गए । एक दूसरे को कटु वचनों से सम्बोधित करने लगे । स्वामी जी ने कहा कि हम लोग यहाँ सत्य के निर्णय के लिए उपस्थित हुए हैं । आपत्तिजनक भाषा का प्रयोग करना शोभनीय नहीं है । स्वामी जी ने बोलना आरम्भ किया तो पूरी सभा ने दत्तचित्त होकर सुना । मौलवी और पादरी उदास हुए घर लौटे । अगले दिन मोक्ष विषय पर ही चर्चा हुई । इस विषय का आरम्भ स्वामी जी ने ही किया । उन्होंने कहा — ' सुख - दु : ख से छूट कर परमानन्द की प्राप्ति ही मोक्ष है । इससे मनुष्य जन्म - मरण के बन्धन से मुक्त हो जाता है । ' ' मौलवियों और पादरियों को विशेष रुचि से नहीं सुना गया । परिणाम यह हुआ कि पादरी अगले ही दिन मेला छोड़कर चले गए । मौलवी भी नहीं ठहरे । एक - दो पादरी जो महाराज से अत्यधिक प्रभावित थे , वहीं बने रहे। स्वामी जी उनके साथ धर्म - चर्चा करते रहे । स्वामी जी ने उनसे कहा कि बाइबिल में कहीं भी ऐसा नहीं लिखा कि ईसा पर विश्वास लाने से मनुष्य को मोक्ष प्राप्त होता है । यह पादरियों की कल्पना मात्र लगता है । साभार :- पुस्तक - कालजयी संत ⚜️महर्षि दयानंद सरस्वती ⚜️
Vedicvichar
21-10-2021
यस्मादृचो अपातक्षन् यजुर्यस्मादपाकषन्। समानि यस्य लोकमान्यथर्वांगिरसो मुखम्। स्कम्भन्तं ब्रूहि कतमः स्विदेव सः।। अथर्व० १०/७/२० जो परमात्मा सबको उत्पन्न करके धारण कर रहा है, उसी परमात्मा से ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद उत्पन्न हुए हैं। जैसे माता पिता अपनी संतानों पर, कृपादृष्टि कर उन्नति चाहते हैं, वैसे ही सृष्टि के आरंभ में स्वयंभू, सर्वव्यापक, शुद्ध, सनातन, निराकार परमेश्वर सनातन जीवरूप प्रजा के कल्याणार्थ वेद द्वारा सब विद्याओं का उपदेश करते हैं। जिससे मनुष्य अविद्या अंधकार और भ्रमजाल से छूटकर विद्या विज्ञान रूप सूर्य को प्राप्त होकर अत्यानंद में रहे। और विद्या तथा सुखों की वृद्धि करते जायें। अब कोई शंका करे कि जब परमेश्वर निराकार है तो बिना मुख के उपदेश कैसे करेगा? परमेश्वर सर्वव्यापक है और जीवों के भीतर भी अन्तर्यामि रूप मे स्थित है। मन में विचार और शब्दोच्चारण हेतु मुख और जीह्वा की आवश्यकता नहीं होती। अन्तर की आवाज कान बंद करके भी सुनी जा सकती है। इसलिए जीव में स्थित होने के कारण बिना मुख से बोले ही वह परमात्मा अखिल वेद विद्या का उपदेश जीवात्मा में प्रकाशित कर देता है। सृष्टि के आरंभ में परमात्मा ने अग्नि ऋषि के ह्रदय मे ऋग्वेद, वायु ऋषि के ह्रदय मे यजुर्वेद, आदित्य ऋषि के ह्रदय में सामवेद और अंगिरा ऋषि के ह्रदय में अथर्ववेद का प्रकाश किया। ये ही चार ऋषि सभी जीवों में अधिक पवित्र-आत्मा थे।अतः पवित्र विद्या का प्रकाश भी उन्हीं के ह्रदय में वेदभाषा (संस्कृत) में किया गया। जिसे पढ़ने में सबको एक जैसा परिश्रम करना पड़ता है। अतः ईश्वर पर पक्षपात का दोष नहीं आता। अब यदि कोई कहे कि वेदज्ञान की क्या आवश्यकता थी? व्यक्ति अपने अनुभवों से सीख लेता। यह उचित नहीं। अनुभव से सीमित ज्ञान ही प्राप्त किया जा सकता है। जंगली मनुष्य सृष्टि देखकर भी विद्वान नहीं होते जब तक उन्हें ज्ञान न दिया जाये। गुरू शिष्य परम्परा से ही ज्ञानधारा का प्रवाह चला करता है। यदि परमात्मा उन आदि ऋषियों को वेद-विद्या न पढ़ाता तो वे आगे अन्यों को न पढ़ा पाते तो सब मनुष्य अविद्वान ही रह जाते। किसी बालक को जन्म से एकांत देश, अविद्वानों या पशुओं के साथ रख दें तो वह जैसी संगति में रहेगा वैसा ही हो जायेगा। जब तक आर्यावर्त देश से शिक्षा न गयी तब तक मिस्र, यूनान और यूरोप आदि देशों के मनुष्यों में कोई भी विद्या नहीं थी। इससे स्पष्ट है कि परमात्मा से विद्या और सुशिक्षा पाकर ही मनुष्य उत्तरोत्तर काल में विद्वान होते चले आ रहे हैं। जैसे परमेश्वर नित्य है वैसे ही उसके द्वारा प्रदत्त वेदज्ञान भी नित्य है। वेद शब्द- अर्थ और संबंध के रूप में नित्य है पुस्तक के रूप मे नहीं क्योंकि पत्र और स्याही से बनी पुस्तक नित्य नहीं हो सकती। 'परमात्मा ने ऋषियों को ज्ञान दिया होगा और उस ज्ञान से उन लोगों ने वेद बना लिए होंगे।' .....यह कहना भी ठीक नहीं है। ज्ञान ज्ञेय के बिना नहीं होता। सर्वज्ञ परमात्मा के बिना किसी का यह सामर्थ्य नहीं कि वह षडजादि और उदात्तादि स्वर के ज्ञान पूर्वक तथा गायत्र्यादि छन्दों से युक्त सर्वज्ञानमय शास्त्र बना सके। हाँ वेद के पढ़ने के पश्चात व्याकरण ,निरुक्त,और छन्द आदि ग्रंथ ऋषि मुनियों ने विद्या के प्रकाश के लिए बनाए हैं। अतः वेदों का ज्ञान, भाषा, लिपि सब ईश्वर प्रदत्त है। ईश्वरीय ज्ञान में मिलावट संभव नहीं। वेद सृष्टि के आरंभ में जिस रूप मे थे आज भी वैसे ही हैं और सृष्टि के अंत तक वैसे ही रहेंगे। हाँ अज्ञानवश कुछ लोगों ने इसके अर्थ जरूर गलत कर दिये..... लेकिन मंत्रों में बदलाव संभव नहीं। अतः वेदों को परमेश्वरोक्त ही माना और जाना जाता है। वेद ज्ञान किसी वर्ग विशेष, जाति विशेष या प्रांत विशेष के लिए नहीं यह सम्पूर्ण मानवता के कल्याण हेतु है। जो परमात्मा वेदों का प्रकाश न करे तो कोई कुछ भी नहीं बना सके। वेद परमेश्वरोक्त हैं इसलिए इन्हीं के अनुसार सब लोगों को चलना चाहिए। ।।ओ३म्।।
वेद मे जीवात्मा (vedicvichar )
21-10-2021
अपश्यं गोपामनिपद्यमानमा च परा च पथिभिश्चरन्तम् | स सध्रीची: स विषूचीर्वसान आ वरीवर्ति भुवनेष्वन्त: || ऋग्वेद 1.164.31 शब्दार्थ : अनिपद्यमानम् = अविनाशी आ = सीधे = आगे च = और परा = उलटे, वापसी च = भी पथिभि: = मार्गों से चरन्तम् = विचरण करनेवाले गोपाम् = इन्द्रियों के स्वामी को अपश्यम् = मैने देखा है, अनुभव किया है, जान लिया है स = वह् सघ्रीची: = सरल दशाओं को स: = वही विषूची: = विषम दशाओं को वसान: = धारण करता हुआ भुवनेषु+अन्त: = लोकों के बीच आ=वरीवर्ति = पुन: पुन: आता है | अविनाशी सीधे, आगे और् उलटे, वापसी भी, मार्गों से विचरण करनेवाले, व्यवहार करने वाले, इन्द्रियों के स्वामी को मैने देखा है, अनुभव किया है, जान लिया है | वह् इन्द्रिय स्वामी, सरल दशाओं को, और वही विषम दशाओं को धारण करता हुआ लोकों के बीच पुन: पुन: आता है | (स्वामी वेदानन्द तीर्थ सरस्वती) व्याख्या : इस छोटे से मन्त्र में कईं बातें कही गईं हैं (1) आत्मा को यहां गोपा कहा गया है | गोपा का अर्थ इन्द्रियों का स्वामी है अर्थात आत्मा इन्द्रियों से भिन्न है | इन्द्रियां आत्मा नहीं हैं, वरन् वह इनका स्वामी है | गोपा का अर्थ 'इन्द्रियों का रक्षक' भी होता है | इन्द्रियां तभी तक शरीर में कार्य करती हैं , जब तक आत्मा शरीर में रहता है | विचार से देखो, स्वामी के लिए वेद ने रक्षक होने का विधान कर दिया है | (2) इन्द्रियों के आत्म पन का खण्डन कर वेद आत्मा को अनिपद्यमान = नष्ट न होने वाला बताता है | इन्द्रियां विनाशी हैं, शरीर भी विनाश को प्राप्त हो जाता है किन्तु आत्मा अनिपद्यमान = अविनाषी है अर्थात शरीर नाश के साथ आत्मा का नाश नहीं होता | इन्द्रियों के विकार से आत्मा नष्ट नहीं होता | इसी शब्द को मन में रखते हुए ब्रह्मविद्या के पारंगत आचार्य याग्वल्क्य ने बड़े प्रबल शब्दों मे कहा है अविनाशी वा अरेSयमात्माSनुच्छित्तिधर्मा | बृ0 4.5.14 अरे मैत्रयि ! यह आत्मा अविनाशी है, इसका उच्छेद कभी नही होता | यदि आत्मा को अनित्य माना जाए तो दो बड़े भारी दोष आते हैं, आत्मा को नित्य माने बिना जिनका समाधान नहीं हो सकता | पहला तो यह कि आत्मा को अनित्य मानने का अर्थ है कि शरीर की उत्पत्ति के साथ आत्मा की भी उत्पत्ति होती है | उस अवस्था में प्रश्न होता है - क्यों कोई दरिद्र के घर पैदा हुआ ? क्यों कोई ऐश्वर्य सम्पन्न दशा में उत्पन्न हुआ ? क्यों कोई अंगविकल उत्पन्न होता है ? क्यों किसी को सुडौल सुन्दर शरीर मिलता है | बिना कारण के भले बुरे शरीर के साथ संयोग से होने वाले सुख दुख भोगने का नाम है - अकृताभ्यागम - न किये को प्राप्त करना | दूसरा दोष है - कृतहान किए हुए का नाश | विनाशी आत्मा शरीर विनाश के साथ ही नष्ट हो जाना चाहिए | अन्त के कर्मों का फल भोगे बिना आत्मा नष्ट हो गया यह अव्यवस्था है, किन्तु संसार में सर्वत्र व्यवस्था है , अत: इस युक्ति विरुद्ध बात को मानो निराश करने के लिए ही वेद ने आत्मा को अनिपद्यमान कहा है | आत्मा को अविनाशी मानने से संसार रचना का प्रयोजन भी सिद्ध हो जाता है | आत्मा के कर्मों का फल देने के लिए यह जगत रचा गया है | जो लोग आत्मा की उत्पत्ति मानकर उसका नाश नहीं मानते, वे मानो तर्क से कोरे हैं | क्या कोई ऐसी वस्तु है जो उत्पन्न तो हो किन्तु नष्ट न होती हो ? (3) आ च परा च पथिभिश्चरन्तम् कहकर वेद ने आत्मा की स्वतन्त्रता की घोषणा कर दी है | उलटे सीधे रास्तों से विचरना तभी हो सकता है जब चलने में , विचरने में स्वतन्त्रता हो | इस मन्त्र को लेकर आत्मतत्वग्यों ने आत्मा का स्थूल लक्षण माना है _ कर्त्तुमकर्तुमन्यथा कर्तुं समर्थ: जो करने , न करने अथवा उलटा करने में समर्थ हो | महात्मा लोग कहते हैं स्वतन्त्र: कर्त्ता = कर्त्ता उसे मानना चाहिए, जो कर्म करने में स्वतन्त्र हो | (4) अच्छे मार्ग से चले, अच्छे कर्म करे, तो परिणाम भी अच्छा हो| बुरे आचरण का , पाप कर्म का फल भी विषम होता है | जो करता है , वही भरता है | स्वतन्त्रता का जैसा उपयोग किया जाएगा , उसका परिणाम भी वैसा ही होगा , इस बात को स सध्रीची: स विषूचीर्वसान: शब्दों के द्वारा प्रकट किया गया है | संक्षेप में कर्म्मफलवाद का संकेत कर दिया गया है | (5) इस बात को अधिक स्पष्ट करने के लिए आ वरीवर्ति भुवनेष्वन्त: कहा गया है | वह संसारों में बार बार आता है | दूसरे शब्दों में उसे बार बार जन्म लेना प्ड़ता है | अर्थात् संसार में जब कोई प्राणी दुर्गति की अवस्था में दीखे, समझना चाहिए कि उसने स्वतन्त्रता का दुरुपयोग किया था | उसकी दुर्गति आकस्मिक, अहेतुक कारण के बिना नहीं है | कर्म करने में स्वतन्त्र होता हुआ आत्मा फल भोगने में परतन्त्र है | आत्मा के सम्बन्ध में जो कुछ कहा गया है, वह युक्तियों से सिद्ध है; किन्तु वेद में अपश्यम् (मैने देख लिया है) शब्द कुछ और ही इशारा कर रहा है | वेद कहना चाहता है, आत्मा सम्बन्धी इन तत्वों को देखो, अनुभव करो , साक्षात करो , वैदिक योगी कह गये हैं -
Vedicvichar
21-10-2021
परिवार मे अपमानित व तिरस्कृत हुई स्त्रियां जिन घरों को शाप देती है (क्रोधित होकर कोसती है) और अनिष्ट करने को उद्यत हो जाती है तब वे कुल सभी प्रकार से सामुहिक विनाश करने वाली भयंकर दुर्घटना के समान नष्ट भ्रष्ट हो जाते हैं।-मनु-३-५८
Vedicvichar
21-10-2021
प्र०- पढाने वाले कैसे होने चाहिये ? उ०- जिसे ईश्वर व जीव का यथार्थ ज्ञान हो, आलसी न हो,सुख दु:ख से विचलित न हो, सदा धर्म का पालन करे,और लालची न हो। वही पढाने वाला हो। प्र०- पढने वाले कैसे होने चाहिये ? उ०- आलस्य , नशा करना ,मूढ़ता , चंचलता , व्यर्थ बकना, कभी पढना कभी न पढना , अभिमान करना और लालच करना ये सात दोष विद्यार्थियो मे नहीं होने चाहिये ।जिनमें ये दोष होते है उन्हें विद्या नहीं आती। प्र०- पंडित किसे कहते है ? उ०- जो शास्त्र और दूसरे की बात को शीघ्र समझ लेता है, धार्मिक विद्वानों की बातों को ध्यान से सुने और निराभिमानी होकर शांत होकर उत्तर दे,ईश्वर से लेकर पृथ्वी पर्यन्त सब पदार्थों को जानकर उनसे उपकार लेने मे तत्पर हो।जो काम , क्रोध ,लोभ मोह और अहंकार आदि दोषो से रहित हो उसे पंडित कहते है। प्र०- मूर्ख किसे कहते है? उ०- जो किसी विद्या को न पढकर और किसी विद्वान का उपदेश न सुनकर बडा घमंडी दरिद्र होकर बडे -२ कामो की इच्छा करे,बडे सपने देखे आलसी होकर परिश्रम न करे उसे मूर्ख कहते है। प्र०- विद्या किनको नहीं देनी चाहिये ? उ०-जो विद्वानों का सम्मान न करे , छल कपट से प्रश्न पूछें , अपनी प्रशंसा स्वयं करे अतिशीघ्रता करे। इन्हें विद्या नहीं देनी चाहिये । प्र०-शिक्षा किसे कहते है? उ०- जिससे मनुष्य विद्या आदि शुभ गुणों को धारण करे और अविद्या आदि दोषो को त्याग कर सदा आनंद मे रहे उसे शिक्षा कहते है। प्र०- विद्या किसे कहते है ? उ०- जिससे पदार्थों का यथार्थ स्वरूप जानकर उससे उपकार लेके अपने व दूसरो के लिए सुख प्राप्त करे उसे विद्या कहते है। प्र०- विद्या कैसे आती है? उ०- विद्या चार प्रकार से आती है १- आगम ,२-स्वाध्याय ,३- प्रवचन ,४- व्यवहारकाल। प्र०- विद्या प्राप्त करने के कर्म कौन से है? उ०- पहले श्रवण - सुनना , फिर मनन - मनन करना , निदिध्यासन- जो मनन किया उससे सत्य व असत्य का निर्णय करना और साक्षात्कार सत्य को ग्रहण व असत्य का त्याग करना ।
Vedicvichar
21-10-2021
महाऋषि दयानन्द के उपकारो को हम अक्सर याद करते है लेकिन उस महामानव जिन्होने ऋषि को ऋषि बनाया के उपकार को भूल जाना बहुत बडा अन्याय होगा।और वे थे गुरुवर विरजानन्द सरस्वती जी।उन्होनें बचपन से ही कष्ट सहे पांच वर्ष की आयु मे चेचक के कारण आंखें चली गई।बारह वर्ष की आयु मे माता पिता की मृत्यु के बाद भाई भाभी द्वारा तिरस्कृत होने पर घर छोड़ दिया और ऋषिकेश पहुचे ,वहाँ पर तीन वर्ष तक जल मे खडे होकर गायत्री का जप किया ।भूखे प्यासे रहे लेकिन किसी से कुछ नही मांगा।जो मिला खा लिया।इसके बाद हरिद्वार पहुँचे जहाँ एक विद्वान स्वामी पूर्णानन्द सरस्वती से संयास की दीक्षा ली और नाम विरजानन्द रखा।वहाँ कौमुदी आदि पढते व पढाते भी रहे।लेकिन ज्ञान की पिपासा शान्त न हुई।इसी तरह एक दिन एक दण्डी ब्राह्मण के मुख से अष्टाध्यायी का पाठ सुना,जब महऋषि पाणिनी के सूत्रो पर चिन्तन किया तो यथार्थ ज्ञान का पता लगा फिर महाभाष्य पढा और इस प्रकार व्याकरण के महा विद्वान बने।देश की अवस्था पर मन ही मन घुटते थे।चारो ओर पाखण्ड ,मूर्ति पूजा फैली थी।मन मे जो देश के लिए धर्म के लिए कुछ करने की पाखण्ड मिटाने की इच्छा की ज्वाला दहक रही थी लेकिन उसको हवा देने वाला नहीं था।बाद मे ऋषि दयानन्द को शिष्य के रुप मे पाकर आशा बंधी।शिक्षा प्राप्त करने के बाद जब ऋषि कुछ लोंग लेकर गुरु से विदा लेने गये तो अन्दर का दर्द आंसुओ के रुप मे निकल आया बोले बेटा मुझे कोई संसार की वस्तु नही चाहिए मुझे तो वह चाहिए जो केवल तुम दे सकते हो ।मुझे तुम्हारा जीवन चाहिए ।देश मे फैले पाखण्ड को हटाने और सत्य ज्ञान वेद के प्रचार के लिये ।गुरु भक्त दयानन्द ने तुरंत हां करदी।नब्बे वर्ष की आयु मे उनके जाने पर ऋषि ने कहा संसार से आज व्याकरण का सूर्य अस्त हो गया ।ऋषि उनका शिष्य होने पर गर्व महसूस करते थे।सत्यार्थ प्रकाश और वेद भाष्य के प्रत्येक अध्याय के अन्त मे वे परम विद्वान ऋषि विरजानन्द सरस्वती के शिष्य दयानन्द सरस्वती ही लिखते थे।ऐसे व्याकरण के महा विद्वान देश मे फैले आडम्बर मूर्ति पूजा के विरोधी वेद के प्रचारक सत्य का मण्डन व पाखण्ड का खण्डन करने वाले तपस्वी को कोटि -२ नमन्।
Vedicvichar
19-10-2021
पाप करने से बचाता है, परोपकार मे लगाता है।मित्र की गुप्त बातो को छिपाता है, गुणों को प्रचारित करता है।आपत्ति काल मे मित्र की सहायता करता है।यही सच्चे मित्र के लक्षण है।-भर्तृहरि
Vedicvichar
19-10-2021
बुरी सलाह देने पर राजा का नाश हो जाता है।अधिक लाड प्यार से सन्तान का नाश हो जाता है।स्वाध्याय न करने से ब्राह्मण का नाश हो जाता है।चरित्रहीन पुत्र से खानदान का नाश हो जाता है।शराब पीने से लज्जा शर्म समाप्त हो जाती है।देखभाल न करने से खेती नष्ट हो जाती है।आलस्य करने से धन का नाश हो जाता है।
Vedicvichar
19-10-2021
विवाह संस्कार से गृहस्थ आश्रम आरंभ होता है। विवाह का अर्थ है गृहस्थ के उत्तरदायित्व को विशेष रूप से वहन करना ।विवाह के समय विशेष सावधानी रखनी चाहिये ।मनु महाराज कहते है कि चाहे कितना भी सम्पन्न कुल हो धन सम्पत्ति खूब हो फिर भी इन दस कुलो मे विवाह नहीं करना चाहिये ।१-सत्क्रिया से हीन अर्थात् जहाँ चोरी ,जारी,लूटपाट ,हत्या आदि बुरे कामो से जीविका चलती हो।२- जहाँ आलसी ,पुरुषार्थ हीन लोग हो।३-जहाँ कोई विद्वान न हो।४-जहाँ शरीर पर बडे-२ बाल हो।५ जहाँ बवासीर का रोग हो। ६-जहाँ दमे का रोग हो। ७-जहाँ मन्दाग्नि का रोग हो।८-जहाँ मिरगी का रोग हो।९-जहाँ श्वेत कुष्ठरोग हो।और १०- जहाँ गलित कुष्ठरोग हो।क्योंकि यदि इन कुलो मे विवाह किया जाय तो ये दोष व रोग दूसरे कुलो मे भी आ जाते है। परन्तु आज कल तो विवाह करते समय चमडी व दमडी देखी जाती है। जिसका परिणाम बाद मे भुगतना पडता है।वैदिक धर्म मे वर व वधू के गुण ,कर्म और स्वभाव का मिलान करने पर बल दिया गया है।विवाह से पहले दोनों स्त्री पुरुष की न केवल यह जाँच होनी चाहिये कि वे विवाह योग्य है बल्कि ये भी देखना चाहिये कि क्या वे एक दूसरे को खुश रख सकते है।विवाह केवल एक संस्कार ही नहीं बल्कि दो हृदयो का मेल है ।इसमें दोनों प्रतिज्ञा करते है कि "समञ्जतु विश्वेदेवा:-----"हे यज्ञशाला मे बैठे लोगो हम दोनों अपनी खुशी से गृहस्थाश्रम मे प्रवेश कर रहे है ।हम दोनों के हृदय जल के समान मिल जाय।जैसे प्राणवायु सभी को प्रिय है वैसे ही हम दोनों एक दूसरे को चाहेंगे। जैसे ईश्वर संसार को धारण कर रहा है वैसे हम एक दूसरे को धारण करेगे।और जैसे उपदेशक श्रोता से प्रेम करता है ,वैसे ही हम एक दूसरे से प्रेम करेंगे।।यहाँ एक विशेष बात कही है कि हमारा हृदय जल के समान मिल जाय। यदि दो तालाबो के जल को एक साथ मिला दिया जाय तो दुनिया को कोई ताकत ,कोई वैज्ञानिक ,कोई विधि उनको अलग नहीं कर सकती। वैदिक धर्म मे सम्बन्ध विच्छेद (तलाक ) नाम का कोई शब्द नहीं है।क्योंकि विवाह समझौता नहीं बल्कि दो हृदयो का मेल है।और यह तभी सम्भव है जब दोनों के गुण कर्म और स्वभाव और पसन्द के बाद किया जाय। केवल माँ बाप की इच्छानुसार नहीं ।
गांधी जी के विचार क्या थे? (Vedicvichar)
19-10-2021
१- हवन मे घी जलाये यह तो हिंसा हुई।(हरिजन सेवक २०मई १९५० काका कालेकर संस्मरण । २-महाभारत के कृष्ण कभी भूमंडल पर नही हुए।(तेज ५ अक्टूबर १९२५) ३-दयानन्द ने सूक्ष्म मूर्ति पूजा चलाई है क्योंकि उन्होनें वेद को ईश्वरीय ज्ञान कहा है।वेद अक्षर है और सब सत्य विद्याओ का होना वेद मे बताया है।(यंग इंडिया २८ मई १९२४) ४ मैने सत्यार्थप्रकाश से अधिक निराशाजनक और कोई पुस्तक नहीं पढी।दयानन्द ने संसार भर के एक अत्यंत विशाल व उदार धर्म को संकुचित बना दिया ।आर्यसमाजी स्त्रियो को भगाकर लाने का प्रयास करते है।(यंग इंडिया २८ मई १९२४)अन्तरजातीय विवाह को न जानने के कारण। ५-दूध को हम किसी भी तरह शाकाहार मे नहीं गिन सकते।सच मे तो यह मांसाहार का ही रूप है।अण्डा सामान्यतः मांसाहार मे गिने जाते है मगर वह मांस नही।अण्डा शाकाहार होता है।(आरोग्य की कुंजी पृष्ठ ११ नवजीवन प्रकाश मन्दिर अहमदाबाद ) ६-हिन्दुस्तान मे गौ हत्या रोकने का कोई कानून बन ही नहीं सकता इसका मतलब तो जो लोग हिंदू नहीं है उनके साथ जबरदस्ती करना होगा।(प्रार्थना सभा २५ जोलाई १९४७) ७-भगत सिंह ने हिंसा व पापपूर्ण कार्य किया है उन्हें इसका दंड अवश्य मिलना चाहिए ।(गांधी साहित्य ) ८-अब्दुल रसीद (स्वामी श्रद्धा नन्द का हत्यारा )मेरा भाई है।पट्टाभि सीतारमैया हिस्ट्री आफ काग्रेस पृष्ठ ५१६) आदि अनेक वक़्तव्य है जो उनकी संकीर्ण मानसिकता व साम्प्रदायिक विचारधारा को बताते है।
आर्यसमाज और भारतीय शिक्षा पद्धति ( vedicvichar)
18-10-2021
लेखक - डॉ० भवानीलाल भारतीय अजमेर स्त्रोत - सुधारक (गुरुकुल झज्जर का मासिक पत्र) जुलाई 1976 प्रस्तुतकर्ता - अमित सिवाहा लाला लाजपतराय ने अपनी पुस्तक ' दुःखी भारत ' ( Unhappy India ) में यह बताया है कि अंग्रेजों के भारत में आगमन से पूर्व भारत में एक व्यवस्थित शिक्षा प्रणाली प्रचलित थी । गांव - गांव में पाठशालायें स्थापित थीं जिनमें छात्र व्यवस्थित रूप से विभिन्न विद्याओं और शास्त्रों का अभ्यास करते थे । कालान्तर में विदेशी शासन स्थापित होने पर शिक्षा की व्यवस्था में कुछ ऐसे परिर्वतन किये गये जिनके कारण इस देश के लोग अपनी अस्मिता को भूलने लगे और उनमें विदेशी संस्कार बद्धमूल होते गये । ईसाई प्रचारकों ने भी शिक्षा में हाथ बटाया , परन्तु उनका प्रयोजन स्पष्ट ही अपने धर्म का प्रचार करना था । उनके द्वारा कहा गया कि इस शिक्षा के द्वारा उन लोगों को सच्चे ईश्वर तथा ईसा मसीह का वास्तविक ज्ञान प्राप्त कराया जायेगा जो मूर्तियों की घृणास्पद पूजा में लगे हुये हैं । भारत की शिक्षा नीति को पाश्चात्य सांचे के अनुसार ढालने का प्रयास अंग्रेज शासकों ने किया ही ब्रह्मसमाज के प्रवर्तक राजा राम मोहनराय ने भी लार्ड मैकाले के स्वर में स्वर मिलाकर अंग्रेजी शिक्षा पद्धति का ही गौरव गान किया । लार्ड एम हर्स्ट को लिखे गये अपने पत्र में उन्होंने संस्कृत के अध्ययन को क्लिस्ट बताते हुए लिखा - " संस्कृत भाषा इतनी क्लिष्ट है कि उसे सीखने में लगभग सारा जीवन लगाना पड़ता है । ज्ञान वृद्धि के मार्ग में यह शिक्षा कई युगों से बाधक सिद्ध हो रही है । इसे सीखने पर जो लाभ होता है , वह इसको सीखने में किये गये परिश्रम की तुलना में नगण्य है । संस्कृत व्याकरण , वेदान्त , मीमांसा , न्याय आदि विषयों के शास्त्रीय अध्ययन की निरर्थकता तथा निस्सारता का प्रतिपादन करते हुए अन्त में उपसंहार रूप में लिखा गया है -- " यह संस्कृत शिक्षा प्रणाली देश को अन्धकार में गिरा देगी । क्या ब्रिटिश शासन की यही नीति है ? " संस्कृत शिक्षा और स्वामी दयानन्द - जिस समय में राजा राममोहनराय ने अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली के प्रचलन का हार्दिक समर्थन किया । नवजागरण के उसी युग में नवोदय के एक अन्य सूत्रधार स्वामी दयानन्द ने शिक्षा के विषय में अपना मौलिक चिंतन प्रस्तुत किया तथा देश की परम्परागत शिक्षा प्रणाली के पुनरुद्धार का अभूतपूर्व प्रयास किया । शिक्षा शास्त्री के रूप में स्वामी दयानन्द ने शिक्षा विषयक जो सूत्र अपने लेखों , ग्रन्थों तथा वक्तृताओं में दिये हैं , उनका संकलन और आंकलन किया जाना आवश्यक है । अपने प्रमुख ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश के द्वितीय और तृतीय समुल्लास में उन्होंने इस विषय को उठाया है । ' अथ शिक्षा प्रवक्ष्यामः ' इस सूत्र के साथ द्वितीय समुल्लास का प्रारम्भ होता है तथा ' अथाऽध्ययनाऽध्ययनविधि व्याख्यास्याम ' के साथ तृतीय समुल्लास की रचना आरम्भ होती है । दोनों अध्यायों में शिक्षा विषयक भारत की शास्त्रीय आर्य परिपाटी का विस्तृत विवेचन करते हुए स्वामी दयानन्द ने ब्रह्मचर्य आश्रम , स्वाध्याय और प्रवचन , अध्ययन समाप्ति के पश्चात् दीक्षान्त अनुशासन , संस्कृत के शास्त्रीय वाङ्मय का अध्ययन क्रम और पाठविधि , त्याज्य और ग्राह्य पाठ्य पुस्तकें , स्त्रियों और शूद्रों का शास्त्राध्ययन अधिकार , स्त्री शिक्षा जैसे महत्त्वपूर्ण विषयों का सांगोपांग वर्णन किया है । संस्कृत के पठन - पाठन के लिए स्वामी दयानन्द ने एक विशिष्ट क्रम निर्धारित किया था । इसका उल्लेख सत्यार्थप्रकाश के अतिरिक्त ऋग्वेदा दिभाष्य भूमिका के पठन - पाठन विषय तथा संस्कार विधि के वेदारम्भ संस्कार के अन्तर्गत किया है । पठन - पाठन प्रणाली का यह विस्तृत निर्देश यह सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है कि स्वामी दयानन्द संस्कृत शिक्षा प्रणाली के मर्मज्ञ थे तथा वे उसमें क्रान्तिकारी परिवर्तन करना चाहते थे । अपनी इस पाठविधि का क्रियान्वयन करने के लिए स्वामी जी ने स्वयं उत्तरप्रदेश के कई नगरों में संस्कृत पाठशालाओं की स्थापना की । धनी वर्ग के लोगों को उन्होंने पाठशाला संस्थापन के पवित्र कार्य में आर्थिक सहायता देने के लिए प्रेरित किया । इन पाठशालाओं प्राचीन गुरुकुल प्रणाली के अनुरूप ही रक्खा गया जिसके अनुसार छात्र और अध्यापक एक दूसरे के निकट सम्पर्क में रहकर चरित्र निर्माण के साथ - साथ शास्त्राध्ययन में प्रवृत्त हो सकें । स्वामी जी ने ये पाठशालायें कासगंज , फर्रुखाबाद , मिर्जापुर , छलेसर , काशी श्रादि स्थानों में स्थापित कीं । योग्य अध्यापकों के अभाव तथा आर्ष ग्रन्थों के पठन - पाठन में छात्रों द्वारा विशेष अभिरुचि व्यक्त न किये जाने के कारण स्वामी जी को अपने जीवनकाल में ही इन पाठशालाओं को बन्द कर देना पड़ा था । तथापि यह तो स्वीकार करना ही पड़ेगा कि संस्कृत के उद्धार हेतु स्वामी जी का पाठशाला संस्थापन का कार्य वस्तुतः श्लाघनीय था | इन पाठ शालाओं में ही आर्यसमाज द्वारा कालान्तर में स्थापित गुरुकुल शिक्षा प्रणाली के बीज छिपे थे जिसने भारतीय शिक्षा क्षेत्र में युगान्तरकारी परिवर्तन उपस्थित किया । स्वामी दयानन्द ने संस्कृत शिक्षा प्रणाली को सुगम बनाने के लिए ' पठन - पाठन व्यवस्था ' के अन्तर्गत कतिपय पाठ्य - ग्रन्थ भी लिखे । ऐसे ग्रन्थों में संस्कृत वाक्य प्रबोध , व्यवहारभानु तथा वेदांगप्रकाश के चौदह भाग उल्लेखनीय हैं । संस्कृत वाक्य प्रबोध की रचना छात्रों में संस्कृत सम्भाषण में रुचि उत्पन्न करना तथा उनमें दैनन्दिन विषयों पर संस्कृत के माध्यम से सुगमरीत्या वार्तालाप करने की क्षमता उत्पन्न करने हेतु की । ' व्यवहारभानु ' छात्रों और अध्यापकों की आचार संहिता है जिसमें गुरु शिष्य सम्बन्ध का विवेचन एवं उनके प्रचार व्यवहार तथा नीति रीति विषयक स्वर्णिम सूत्रों का गुंफन हुआ है । वेदांगप्रकाश पाणिनीय व्याकरण के विविध अंगों को सुगम रूप से सीखने का अद्भुत ग्रन्थ है । स्वामी दयानन्द केवल पुस्तकीय ज्ञान के ही पक्षपाती नहीं थे । उनकी दृढ़धारणा थी कि जब तक देश के नवयुवकों को उद्योग , कला कौशल तथा तकनीकी व्यवसायों की शिक्षा नहीं दी जायेगी , तब तक देश आर्थिक दृष्टि से समृद्ध नहीं होगा । इसी दृष्टि से उन्होंने कुछ युवकों को जर्मनी भेजा था , ताकि वहां रहकर वे औद्योगिक प्रशिक्षण प्राप्त कर सकें तथा देश की सम्पन्नता में अपना योगदान कर सकें । स्वामी दयानन्द के शिक्षा - सिद्धान्त संक्षेप में स्वामी दयानन्द के शिक्षा विषयक सूत्रों को इस प्रकार निबद्ध किया जा सकता--- १. विद्यार्थी का मुख्य प्रयोजन शास्त्राभ्यास के साथ - साथ चरित्र निर्माण करना है । चरित्र निर्माण की शिक्षा गुरुकुल शिक्षा प्रणाली में ही सम्भव है अतः प्राचीन पद्धति में गुरुकुलों की स्थापना आवश्यक है । २- पाठ्य ग्रन्थों में उन्हीं पुस्तकों का समावेश होना चाहिए , जो साक्षात् कृतधर्मा मन्त्रद्रष्टा ऋषियों की कृतियां हैं । अनार्ष ग्रन्थों का पठन पाठन क्रम में समावेश नहीं होना चाहिए । ३- ईश्वरीय ज्ञान वेद तथा संस्कृत शास्त्रों की शिक्षा को सर्वोपरि प्राथमिकता दी जानी चाहिए । ४- शास्त्रों के साथ - साथ प्राविधिक कला - कौशल की शिक्षा भी जीवन यापन की दृष्टि से आवश्यक है । ५- शिक्षा का माध्यम मातृभाषा हो । भारत की राष्ट्रभाषा आर्यभाषा ( हिन्दी ) ही देश की शिक्षा का सार्वदेशिक माध्यम होना चाहिए । ६- बालक और बालिकाओं का सहशिक्षण चरित्रविघातक फलतः हानिकर है । ७- कन्याओं की शिक्षा भी उतनी ही आवश्यक है जितनी बालकों की । ८- शिक्षा के क्षेत्र में राजा और रंक , गरीब और अमीर का भेदभाव अवांछनीय है । प्रत्येक छात्र को अपनी योग्यता के अनुसार शिक्षा प्राप्त करने का समान रूप से अधिकार मिलना चाहिए । ६- अवसर और अनुकूलता होने पर विदेशी भाषायें भी सीखना वांछनीय है । १०- शिक्षा के द्वारा स्वाभिमान , स्वदेश प्रेम , ईश्वरभक्ति तथा स्वावलम्बन जैसे गुणों का विकास किया जाना अपेक्षित है । स्वामी जी के दिवंगत होने के पश्चात् उनके स्थानापन्न आर्यसमाज ने अपने शिक्षा विषयक कार्यक्रम को इसी आधार पर मूर्तरूप दिया ।
● Dayānanda – the great spiritual hero of his days ● ( Vedicvichar )
18-10-2021
Author: Ved Mitra Thākore ('Fakire Dayānanda') Dayānanda believed in the Vedas and the Vedas alone. He made the Vedas, the anchor-sheet of his life, upon which he stood adamantine like a rock and cracked and crushed anything and everything that came in his way, while preaching the superb and sublime wisdom of the Vedas. He was always victorious and glorious and never defeated. He roared like a lion the mighty philosophical uproars of the Vedas and Vedic literature. Pundits, Prophets and Popes of India were startled. They all came to meet him half way but all were smashed to the level, one after another without any exception whatsoever. He, with his sparkling talents and unbeaten genius, beautifully blended with bold understanding and gigantic will-force, came out with flying colors, with the grace of a mighty champion. A formidable aggression, from different scholars of the different branches of the different sects, followed him day and night. From dawn to dusk he was busy discussing, preaching, talking, and arguing with these scholars. No scholar ever defeated him. Why? Why Dayānanda was always successful? This is the question. Here goes the answer: Dayānanda was successful because: His was the voice of the Vedas. His was the vision of the Vedas. His was the eye of the Vedas. His was the thought of the Vedas. He never believed in dogmas and dogmatism, just like other sectarian Āchāryas – Shankara, Rāmānuja, Madhva and Vallabha etc. These sectarian Āchāryas preached their own individual thoughts and emotions in the name of religion and philosophy. And, as such they have polluted and desecrated the entire range of the Vedic literature. It was the eye of Dayānanda that perceived this particular mischief played by these Āchāryas and declared aloud from the top of his voice that the Vedas are quite free from dogmas and dogmatism. The Vedas are the Divine revelation unto humanity by Almighty God, whose name be exalted and whose perfection be extolled. My most beloved readers! Here in India or abroad! I would like to impress upon you that the most outstanding feature of Dayānanda was that he never believed in any sort of mental creations, human imaginations and individual thoughts. He never advocated his own ways and means. This is the secret of his grand success. He believed in the Vedas and he preached the wisdom of the Vedas alone. No mixture at all. No hotchpotch at all. His works are, therefore, free from personal emotions, individual thoughts and ideology. His works are solid, substantial, soul-stirring, intellectual, logical and at once scientific. Study his monumental treatise 'Satyārtha-Prakāsha' (The Light of Truth) and believe me, you will be altogether a changed being. In order to understand Hinduism in its entirety you have got to understand Dayānanda. Without understanding Dayānanda, you cannot understand the Hindu religion, culture and philosophy, if at all you take seven births in this world. Why? Because Dayānanda alone has thrown flood-light on all aspects of Hindu religion and philosophy. He first gave us the true vision about the Vedas as the base of Hinduism. No other Āchāryas have done so, so far. This is all I have to say. And therefore, Glory! Glory! To Dayānanda Mahārāja. Hail! Hail! To Dayānanda Mahārāja. The great world preacher! [Source: Dayananda the Great, Preamble]
* ओ३म्* सन्ध्या से दीर्घायु ( Vedicvichar )
18-10-2021
महर्षि मनु ने कहा है– *ऋषयो दीर्घ सन्ध्यत्वाद् दीर्घमायुरवाप्नुयुः।* *प्रज्ञां यशश्च कीर्तिं च ब्रह्यवर्चसमेव च।।* ―(मनु० 9/94) *भावार्थ―*_ऋषियों ने दीर्घ जप करके अर्थात् लम्बे समय तक सन्ध्या की, उसी के अनुसार दीर्घायु प्राप्त की, बुद्धि और यश प्राप्त किया और मरने के पश्चात् अमर कीर्ति प्राप्त की, और दीर्घकालीन जप से ब्रह्मतेज भी प्राप्त किया।_ *गायत्री के जप करने का स्थान* *अपां समापे नियतो नैत्यिकं विधिमास्थितः।* *सावित्रीमप्यधीयीत गत्वाऽरण्यं समाहितः।।* *भावार्थ-*_जङ्गल में अर्थात् एकान्त देश में सावधान होकर जल के समीप स्थित होकर नित्यकर्म को करता हुआ सावित्री अर्थात् गायत्री मन्त्र का उच्चारण, अर्थज्ञान और उसके अनुसार अपने चाल चलन को करे, परन्तु यह जप मन से करना उत्तम है।_ *ओ३म् का स्मरण* *ओं क्रतो स्मर (यजु० 40/15)* *अर्थात्―*_हे जीव! तू ओ३म् का स्मरण कर।_ स्नान के पश्चात् सन्ध्या करके प्रभु का चिन्तन करना भी मनुष्य को अपनी दिनचर्या का एक मुख्य अंग बना लेना चाहिए। प्रभु–भक्ति आत्मिक भोजन तो है ही, किन्तु इससे शरीर भी स्वस्थ, बलवान् और निरोग बनता है। उस सर्वशक्तिमान ईश्वर का एकाग्र चित्त होकर चिन्तन करने से साधक को शारीरिक, मानसिक तथा आत्मिक–शक्ति प्राप्त होगी, इसमें कुछ भी संदेह नहीं। ईश्वर–भक्ति के द्वारा जो मनुष्य को एक अलौकिक आनन्द और अद्भुत शक्ति प्राप्त होती है, उसका शरीर के ऊपर भी बहुत गहरा असर पड़ता है। शरीर की सब धातुओं उपधातुओं की विषमता दूर होकर उसमें समता व शक्ति का संचार होता है। संत महात्मा तथा योगी जनों के स्वस्थ, बलवान् और दीर्घजीवी होने का ईश्वर भक्ति ही एक मुख्य कारण है। _महाभारत_ में लिखा है– *'ऋषयः दीर्घसन्ध्यत्वाद् दीर्घमायुरवाप्नुयुः।'* _अर्थात् ऋषियों ने दीर्घकाल तक सन्ध्या अर्थात् ईश्वर भक्ति करने से ही दीर्घ (लम्बी) आयु को प्राप्त किया है।_ संत कबीर ने भी _'मैं तो अपने प्रभु को रिझाऊं'_ अपने इस भजन में कहा है― *औषध खाऊं न बूटी खाऊं, न कोई वैद्य बुलाऊं।* *एक ही वैद्य मिलो अविनाशी, वाही को नबज दिखाऊं।।* ईश्वर भक्ति जहाँ शारीरिक उन्नति के लिये आवश्यक है, वहाँ आत्म–कल्याण के लिए भी परम आवश्यक है। जिस प्रकार भोजन के बिना शरीर का काम नहीं चल सकता उसी प्रकार ईश्वर–भक्ति के बिना आत्मा का काम नहीं चलता। सच पूछा जाय तो शरीर के लिए भोजन इतना आवश्यक नहीं, जितना आत्मा के लिए ईश्वर भक्ति। इसीलिए ईश्वर भक्ति को आत्मिक खुराक कहा गया है। ईश्वर भक्ति से ही अज्ञान तिमिर का नाश होकर आत्मा में ज्ञान–ज्योति का प्रकाश होता है। ईश्वर भक्ति के बल से ही मनुष्य संसार में अपनी सब शुभ कामनाएँ पूर्ण कर सकता है, अतः आत्मकल्याणाभिलाषी जनों को प्रतिदिन प्रभु का चिंतन अवश्य करना चाहिए। यदि हम प्रातः एक घण्टे तक एकाग्रचित्त होकर प्रभु की उपासना करें, एकमात्र प्रभु को छोड़कर दूसरा कोई भी विचार मन में न आने दें तो सब प्रकार की शारीरिक तथा मानसिक पीड़ाएँ केवल प्रभु–भक्ति से ही दूर हो
बकरी को शेर कैसे बनाए? ( Vedicvichar )
18-10-2021
मोहन गुप्ता पौराणिक हिन्दू परिवार से थे। आप पेशे से कंप्यूटर इंजीनियर थे। आपका मूर्ति पूजा एवं पौरणिक देवी देवताओं की कथाओं में अटूट विश्वास था। आप बहुराष्ट्रीय कंपनी में कार्यरत थे। आपको अनेक बार कंपनी की ओर से विदेश में कई महीनों के लिए कार्य के लिए जाना पड़ता था। एक बार आपको अफ्रीका में केन्या कुछ महीनों के लिए जाना पड़ा। केन्या की राजधानी नैरोबी में आपको कंपनी की ओर से मकान मिला। आपकी कंपनी द्वारा हैदराबाद से एक अन्य इंजीनियर भी आया था जिसके साथ आपको मकान साँझा करना था। हैदराबाद से आया हुआ इंजीनियर कट्टर मुस्लमान, पांच वक्त का नमाज़ी और बकरे जैसे दाढ़ी रखता था। उसने आते ही मोहन गुप्ता से धार्मिक चर्चा आरम्भ कर दी। मोहन गुप्ता से कभी वह पूछता आपके श्री कृष्ण जी ने नहाती हुई गोपियों के कपड़े चुराये थे। क्या आप उसे सही मानते है। कभी कहता आपके इंद्र ने वेश बदलकर अहिल्या के साथ शारीरिक सम्बन्ध बनाया था। क्या आप ऐसे इंद्र को देवता मानेगे? मोहन गुप्ता के लिए यह अनुभव बिलकुल नवीन था। उन्होंने अपने जीवन में धर्म का अर्थ मंदिर जाना, मूर्ति पूजा करना, भोग लगाना, ब्राह्मणों को दान-दक्षिणा देना, तीर्थ यात्रा करना ही समझा था। धर्म ग्रंथों में क्या लिखा है। यह तो पंडित लोगों का विषय है। यह संस्कार उन्हें अपने घर में मिला था। उनका मज़हबी साथी आते-जाते इस्लाम का बखान और पुराणों पर आक्षेप करने में कोई कसर नहीं छोड़ता था। तंग आकर उन्होंने अपने ऑफिस में एक भारतीय जो हिन्दू था से अपनी समस्या बताई। उस भारतीय ने कहा यहाँ नैरोबी में हिन्दू मंदिर है। उसमें जाकर पंडितों से अपनी समस्या का समाधान पूछिए। मोहन गुप्ता अत्यन्त श्रद्धा और विश्वास के साथ स्थानीय हिन्दू मंदिर गए। मंदिर के पुजारी को अपनी समस्या बताई। पुजारी पहले तो अचरज में आया फिर हरि ओम कह चुप हो गया। मोहन निराश होकर भारी क़दमों से वापिस लौट आये। हताशा और भारी क़दमों के साथ वह लौट रहे थे कि उन्हें नैरोबी का आर्यसमाज मंदिर दिखा। उन्होेंने मंदिर में प्रवेश किया तो अग्निहोत्र चल रहा था। उन्होंने अग्निहोत्र के पश्चात प्रवचन सुना और उससे स्वामी दयानन्द, वेद और सत्यार्थ प्रकाश के विषय में उन्हें जानकारी मिली। प्रवचन के पश्चात उन्होंने अपनी समस्या से समाज के अधिकारीयों को अवगत करवाया। समाज के प्रधान ने उन्हें स्वामी दयानन्द कृत सत्यार्थ प्रकाश देते हुए कहा- आपकी समस्या का समाधान इस पुस्तक में है। 14 वें समुल्लास में आपको आपकी सभी शंकाओं का समाधान मिल जायेगा। मोहन गुप्ता धन्यवाद देते हुए लौट गए। अगले एक सप्ताह तक उन्होंने सत्यार्थ प्रकाश का स्वाध्याय किया। 14 वें समुल्लास को पढ़ते ही उनके निराश चेहरे पर चमक आ गई। बकरी अब शेर बन चुकी थी। शाम को उनके साथ कार्य करने वाले मुस्लिम इंजीनियर वापिस आये। मुस्लिम इंजीनियर ने आते ही मोहन गुप्ता से पूछा आपको मेरे प्रश्नों का उत्तर नहीं मिला तो इस्लाम स्वीकार कर लो। अब मोहन गुप्ता की बारी थी। उन्होेंने सत्यार्थ प्रकाश के 14 वें समुल्लास के आधार पर क़ुरान के विषय पर प्रश्न पूछने आरम्भ कर दिए। मजहबी मुसलमान के होश उड़ गए। उसने पूछा तुम्हें यह सब किसने बताया। मोहन ने उसे सत्यार्थ प्रकाश के दर्शन करवाए। देखते ही मजहबी मुसलमान के मुंह से निकला। इस किताब ने तो हमारे सारे मंसूबों पर पानी फेर दिया। नहीं तो अभी तक हम सारे हिन्दुओं को मुसलमान बना चुके होते। मोहन ने अपने ह्रदय से स्वामी दयानन्द और आर्यसमाज का धन्यवाद किया। भारत वापिस आकर वह सदा के लिए आर्यसमाज से जुड़ गए एवं आर्यसमाज के समर्पित कार्यकर्ता बन गए। (सत्य इतिहास पर आधारित) वीर सावरकर के शब्दों में स्वामी दयानन्द कृत सत्यार्थ प्रकाश ने हिन्दू जाति की ठंडी पड़ी रगों में उष्णता का संचार कर दिया। अगर समस्त हिन्दू समाज स्वामी दयानन्द कृत सत्यार्थ प्रकाश के उपदेश को मानने लग जाये तो हिन्दू (आर्य) जाति संसार में फिर से विश्व गुरु बन जाये।
बकरी को शेर कैसे बनाए? ( Vedicvichar )
18-10-2021
मोहन गुप्ता पौराणिक हिन्दू परिवार से थे। आप पेशे से कंप्यूटर इंजीनियर थे। आपका मूर्ति पूजा एवं पौरणिक देवी देवताओं की कथाओं में अटूट विश्वास था। आप बहुराष्ट्रीय कंपनी में कार्यरत थे। आपको अनेक बार कंपनी की ओर से विदेश में कई महीनों के लिए कार्य के लिए जाना पड़ता था। एक बार आपको अफ्रीका में केन्या कुछ महीनों के लिए जाना पड़ा। केन्या की राजधानी नैरोबी में आपको कंपनी की ओर से मकान मिला। आपकी कंपनी द्वारा हैदराबाद से एक अन्य इंजीनियर भी आया था जिसके साथ आपको मकान साँझा करना था। हैदराबाद से आया हुआ इंजीनियर कट्टर मुस्लमान, पांच वक्त का नमाज़ी और बकरे जैसे दाढ़ी रखता था। उसने आते ही मोहन गुप्ता से धार्मिक चर्चा आरम्भ कर दी। मोहन गुप्ता से कभी वह पूछता आपके श्री कृष्ण जी ने नहाती हुई गोपियों के कपड़े चुराये थे। क्या आप उसे सही मानते है। कभी कहता आपके इंद्र ने वेश बदलकर अहिल्या के साथ शारीरिक सम्बन्ध बनाया था। क्या आप ऐसे इंद्र को देवता मानेगे? मोहन गुप्ता के लिए यह अनुभव बिलकुल नवीन था। उन्होंने अपने जीवन में धर्म का अर्थ मंदिर जाना, मूर्ति पूजा करना, भोग लगाना, ब्राह्मणों को दान-दक्षिणा देना, तीर्थ यात्रा करना ही समझा था। धर्म ग्रंथों में क्या लिखा है। यह तो पंडित लोगों का विषय है। यह संस्कार उन्हें अपने घर में मिला था। उनका मज़हबी साथी आते-जाते इस्लाम का बखान और पुराणों पर आक्षेप करने में कोई कसर नहीं छोड़ता था। तंग आकर उन्होंने अपने ऑफिस में एक भारतीय जो हिन्दू था से अपनी समस्या बताई। उस भारतीय ने कहा यहाँ नैरोबी में हिन्दू मंदिर है। उसमें जाकर पंडितों से अपनी समस्या का समाधान पूछिए। मोहन गुप्ता अत्यन्त श्रद्धा और विश्वास के साथ स्थानीय हिन्दू मंदिर गए। मंदिर के पुजारी को अपनी समस्या बताई। पुजारी पहले तो अचरज में आया फिर हरि ओम कह चुप हो गया। मोहन निराश होकर भारी क़दमों से वापिस लौट आये। हताशा और भारी क़दमों के साथ वह लौट रहे थे कि उन्हें नैरोबी का आर्यसमाज मंदिर दिखा। उन्होेंने मंदिर में प्रवेश किया तो अग्निहोत्र चल रहा था। उन्होंने अग्निहोत्र के पश्चात प्रवचन सुना और उससे स्वामी दयानन्द, वेद और सत्यार्थ प्रकाश के विषय में उन्हें जानकारी मिली। प्रवचन के पश्चात उन्होंने अपनी समस्या से समाज के अधिकारीयों को अवगत करवाया। समाज के प्रधान ने उन्हें स्वामी दयानन्द कृत सत्यार्थ प्रकाश देते हुए कहा- आपकी समस्या का समाधान इस पुस्तक में है। 14 वें समुल्लास में आपको आपकी सभी शंकाओं का समाधान मिल जायेगा। मोहन गुप्ता धन्यवाद देते हुए लौट गए। अगले एक सप्ताह तक उन्होंने सत्यार्थ प्रकाश का स्वाध्याय किया। 14 वें समुल्लास को पढ़ते ही उनके निराश चेहरे पर चमक आ गई। बकरी अब शेर बन चुकी थी। शाम को उनके साथ कार्य करने वाले मुस्लिम इंजीनियर वापिस आये। मुस्लिम इंजीनियर ने आते ही मोहन गुप्ता से पूछा आपको मेरे प्रश्नों का उत्तर नहीं मिला तो इस्लाम स्वीकार कर लो। अब मोहन गुप्ता की बारी थी। उन्होेंने सत्यार्थ प्रकाश के 14 वें समुल्लास के आधार पर क़ुरान के विषय पर प्रश्न पूछने आरम्भ कर दिए। मजहबी मुसलमान के होश उड़ गए। उसने पूछा तुम्हें यह सब किसने बताया। मोहन ने उसे सत्यार्थ प्रकाश के दर्शन करवाए। देखते ही मजहबी मुसलमान के मुंह से निकला। इस किताब ने तो हमारे सारे मंसूबों पर पानी फेर दिया। नहीं तो अभी तक हम सारे हिन्दुओं को मुसलमान बना चुके होते। मोहन ने अपने ह्रदय से स्वामी दयानन्द और आर्यसमाज का धन्यवाद किया। भारत वापिस आकर वह सदा के लिए आर्यसमाज से जुड़ गए एवं आर्यसमाज के समर्पित कार्यकर्ता बन गए। (सत्य इतिहास पर आधारित) वीर सावरकर के शब्दों में स्वामी दयानन्द कृत सत्यार्थ प्रकाश ने हिन्दू जाति की ठंडी पड़ी रगों में उष्णता का संचार कर दिया। अगर समस्त हिन्दू समाज स्वामी दयानन्द कृत सत्यार्थ प्रकाश के उपदेश को मानने लग जाये तो हिन्दू (आर्य) जाति संसार में फिर से विश्व गुरु बन जाये।
Vedicvichar
18-10-2021
निन्दन्तु नीति निपुणाः यदि वास्तुवन्तु, लक्ष्मीः समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम्। चिंतामणि वर्मा महर्षि दयानंद गंगा नदी के तट पर एक कुटिया बना कर डेरा डाले हुए थे। उनकी कुटिया से थोड़ी ही दूर एक साधू की कुटिया थी। वह साधू महर्षि दयानंद को नास्तिक समझता था और इसी कारण उन्हें खूब गालियां देता था। उनकी कुटिया के सामने आकर उनका नाम ले लेकर गाली देना उसका नित्य नियम था। महर्षि दयानंद पर उसकी गालियों का कोई भी प्रभाव नहीं पड़ता था। एक दिन किसी भक्त ने महर्षि दयानंद के लिए मिठाई और फल की टोकरी भेजी। महर्षि ने उसमें से थोड़ा सा अपने लिए रख लिया, कुछ भक्तों में बाँट दी और बहुत सी मिठाइयां तथा फल उस गाली देने वाले साधू के पास भिजवा दिया। एक व्यक्ति मिठाइयों और फल की टोकरी लेकर उस गाली देने वाले साधू के पास गया। कहा – साधू जी ये फल और मिठाइयां ले लीजिए। स्वामी दयानंद ने आपके लिए भेजा है। वह साधू बोला – क्या कहा! दयानंद ने भिजवाया है। अरे उसे तो मैं रोज गाली दिया करता हूँ वह मेरे लिए फल और मिठाइयां क्यों भिजवाएगा? वापस ले जाओ। किसी दूसरे के लिए भिजवाया होगा। वह व्यक्ति टोकरी लिए वापस महर्षि दयान्द के पास पहुंचा। सारी बातें बता दी। महर्षि ने कहा – मैंने उसी के लिए भिजवाया है। उसी को देना है। आप उसे दे आइए। वह व्यक्ति फिर उस साधू के पास गया। कहा कि - स्वामी दयानंद जी ने ये फल और मिठाइयां आप के लिए ही भिजवाई हैं। रख लीजिए। वह साधू फिर बोला - अरे तुमसे गलती हो गई होगी। मैं जिस दयानंद को रोज गाली दिया करता हूँ वह मेरे लिए फल और मिठाइयां भिजवाया है यह मैं कैसे मान लूँ। जाओ-जाओ जिस के लिए भेजा है उसने, उसके पास ले कर जाओ। वह व्यक्ति टोकरी लिए फिर स्वामी दयानंद के पास पहुंचा – बोला – स्वामी जी वह तो कहता है – मैं उन्हें रोज गालियाँ दिया करता हूँ वे मेरे लिए मिठाइयां और फल क्यों भिजवाएंगे। किसी दुसरे के लिए भिजवाया होगा। स्वामी जी ने कहा - देखो उस झोपड़ी में रहने वाले साधू को देना है। यह ठीक है कि वे मुझे रोज गालियाँ देते हैं। परन्तु इससे क्या हुआ। जो गालियाँ देता है उसे भी तो भूख लगती है। वह भी तो भोजन करता है। उस गाली देने वाले साधू के लिए ही मैं यह फल और मिठाइयां भेज रहा हूँ। उनको अच्छी तरह बतलाना। मैं ने यह उन्ही के लिए भिजवाया है। वे सज्जन टोकरी लिए फिर एक बार गए। कहा - साधू जी महाराज, स्वामी दयानंद ने कहा है - ठीक है उस गाली देने वाले साधू जी को ही यह टोकरी देनी है। कृपा करके आप यह फल और मिठाई स्वीकार कर लीजिए। इतना सुनना था की वह साधू, जो रोज ही नियम से स्वामी दयानंद को गालियाँ देता रहता था, दौड़ा, आकर महर्षि दयानंद के पैरों पर गिर पड़ा और क्षमा माँगने लगा। बोला - महाराज आपका ह्रदय तो अत्यंत कोमल है। मैं आपको इतनी गालियाँ देते रहता हूँ। परन्तु आपने उस पर ध्यान नहीं दिया और मेरे लिए मिठाई और फल भिजवाया। महर्षि दयानंद उसकी गालियों को सुनकर दुखी नहीं होते थे। और जब वह स्वामी दयानंद के पैरों पर गिर कर क्षमा माँगने लगा तब भी उनको कोई प्रसन्नता नहीं हुई। वे निंदा और स्तुति से ऊपर उठ चुके थे। स्थितप्रज्ञ, महान आत्मा थे। धीर पुरुष थे। इस प्रकार की निंदा और स्तुति की घटनाएं महर्षि दयानंद के जीवन में कई बार घटी। परन्तु वे सदा ही निंदा और स्तुति से ऊपर रहे। निन्दन्तु नीति निपुणाः यदि वास्तुवन्तु, लक्ष्मीः समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम्। जितनी इच्छा हो उतना धन मिल जाए, अन्यथा अपने पास का धन भी हाथ से निकल जाए। प्रलोभन, लोभ, लालच बहुत ही बुरा है। लोभ के कारण लोग धर्म पथ को छोड़ देते हैं। अन्याय का रास्ता पकड़ लेते हैं। धन पाने की चाह से सारे बुरे कर्म करने की तैयार हो जाते हैं। कोई व्यक्ति झूठी गवाही देने के लिए धन का लालच देता है। कोई व्यक्ति गलत कामों में सहायता के लिए धन का लोभ देता है। कभी कभी कुछ लोग अनैतिक कामों को करने के बदले में मनमाना धन देने की, मुंहमांगी कीमत देने की बात करते हैं। परन्तु यह नीति वाक्य कहता है जो धीर पुरुष होते हैं, विद्वान होते हैं, उत्तम पुरुष होते हैं, वे यथेष्ट धन पाने के लोभ में भी धर्म पथ, न्याय पथ से विचलित नहीं होते हैं। इसी प्रकार कभी कोई कहता है की तुम मेरे लिए यह अनैतिक काम कर दो, गलत काम कर दो, नहीं तो तुम्हारा धन छीन लिया जाएगा। हमारे लिए झूठ बोलो नहीं तो तुम्हारे कारोबार को हानि पहुंचाई जाएगी। अपने धर्म से, अपनी जाति से, द्रोह करो, विशवासघात करो, नहीं तो तेरा सारा धन मार-पीट कर ले लेंगे। ऐसी परिस्थिति में भी धीर पुरुष, विद्वान पुरुष, धर्म की धुरी धारण करनेवाले लोग, न्याय-पथ से विचलित नहीं होते हैं। धर्म को नहीं छोड़ते हैं। झूठा व्यवहार नहीं करते हैं। धन के नाश हो जाने के डर से धर्म और जाति के प्रति द्रोह नहीं करते हैं। महर्षि दयानन्द को धन का लोभ दिया गया और कहा गया कि आप वेद मार्ग को छोड़ दें। वैदिक धर्म को छोड़ दें। परन्तु उन्होने स्वीकर नही किया। धन पाने की आशा, धन पाने का लोभ, उन्हें वैदिक धर्म से विमुख नहीं कर पाया। उदयपुर के महाराणा सज्जनसिंह ने महर्षि दयानंद को उदयपुर आने का निमंत्रण दिया। महर्षि दयानंद उदयपुर पधारे। छः महीनों तक उदयपुर में प्रवास रहा। महाराणा सज्जनसिंह महर्षि के भक्त थे। उन्होंने ऋषिवर से संस्कृत एवं मनुस्मृति तथा अन्य ग्रंथो का अध्ययन किया। उनके विलासी जीवन में भी महर्षि की कृपा से बहुत कुछ सुधार आया। महाराणा शंकाएं उपस्थित करते महर्षि उसका उचित उत्तर देते। एक दिन महाराणा ने कहा - यदि आप व्यवहार नीति पर चलते हुए वैदिक धर्म पर जोर न दें, वेद के अनुसार धर्म पालन पर जोर न दें, तो आसानी से बहुत से लोग आपके शिष्य बन जाएंगें। आपको धन की कमी भी नहीं होगी। उन्होंने आगे कहा यदि आप भगवान एकलिंग के मंदिर का महंत बन जाएं, तो आपको बहुत धन की प्राप्ति हो जाएगी। इस मंदिर की वार्षिक आय लाखों रुपये हैं। वह सब धन आपका हो जाएगा। महर्षि ने शांत परन्तु ओजस्वी वाणी में कहा - महाराणा जी, आप मुझे धन का लोभ देकर बांधना चाहते हैं। मुझे वैदिक धर्म के प्रचार से रोकने का यत्न कर रहे हैं। मैं ईश्वर की वाणी वेद के प्रचार से कभी भी विमुख नहीं होऊंगा। ऋषि की धीर गंभीर वाणी सुन कर, अडिग निर्णय सुन कर, महाराणा सज्जनसिंह अवाक् रह गए। उनसे कुछ कहते न बना। उन्होंने महर्षि दयानंद की दृढ़ निष्ठा को देखा। उन्होंने पहले नहीं समझा था की यह संन्यासी धन की चाह से बहुत दूर, आगे निकल चुका हैं। महर्षि दयान्द जब काशी पहुंचे थे, तब काशी नरेश ने भी उन्हें वैदिक मार्ग छोड़ने के लिए निवेदन किया। वेदों के विद्वान दयानंद ने जब इसे स्वीकार नहीं किया, तब उन्होंने धन का लोभ देना चाहा। काशी नरेश ने कहा - यदि आप वेद मार्ग के प्रति इतना आग्रह न दिखाएं, तो मैं आप को जीवन भर १०० रुपये प्रति माह दिया करूँगा। यह ध्यान देने की बात हैं कि उन दिनों में, जब कि, एक मनुष्य की महीने भर की कमाई ४-५ रुपये होती थी, ऐसे युग में काशी नरेश ने १०० रुपये देने की बात कही थी। परन्तु तब महर्षि दयानंद ने स्पष्ट शब्दों में कह दिया - यदि आप अपना संपूर्ण राज्य भी मुझे दे दें, तो भी मैं वैदिक धर्म को नहीं छोड़ सकता हूँ। काशी नरेश को यह ज्ञात नहीं था कि यह व्यक्ति भरी जवानी में अपने जमींदार पिता के धन-वैभव को छोड़ कर संन्यासी बना है। यह धन का लोभी नहीं है। यह किसी भी सांसारिक चाहनाओं से दूर है। ईश्वर का सच्चा भक्त हैं। धन का लोभ इसे ईश्वर की आज्ञा पालन से नहीं छुड़ा सकेगा। धन का भक्त नहीं, यह ईश्वर का भक्त हैं। २१ वर्ष का नवयुवक मूलशंकर, जब अन्य सभी लोग लौकिक धन के पीछे पागल बने रहते हैं वह अवस्था, जमींदार का बेटा मुलशंकर, अपने इलाके का कर उगाहने वाले अधिकारी का बेटा, धन दौलत से भरे पूरे परिवार का नवयुवक, पिता का बड़ा बेटा – मूलशंकर। परन्तु उसके मन में तो कोई और ही भावनाएं उठ रही थीं। जब ईश्वर का दर्शन करने की चाह अत्यंत तीव्र हो उठी, उसे यह समझ में आ गया कि ये धन दौलत ईश्वर प्राप्ति के मार्ग में सहायक नहीं है, तो उसने अपने पिता के धन का त्याग करने में थोड़ी भी देर नहीं की। उसने अपने पिता के धन वैभव पर लात मार दिया। नवयुवक मुलशंकर घर छोड़ कर निकल पड़ा। उसे सच्चे शिव को ढूंढाना था। मृत्यु के फन्दें से बचने का रास्ता ढूंढना था। मृत्यु से बचना था। जब घर छोड़ कर आगे बढ़ा, उसकी इच्छा को कुछ तथाकथित साधुओं ने जाना। उन्होंने देखा कि इसके शरीर पर कीमती कपड़े हैं, सोने की गहने हैं। उन्होंने नवयुवक को ब्रह्मचर्य व्रत धारण करने के लिए कहा, ब्रह्मचारियों का बाना धारण करने को कहा। उसके रेशमी कीमती कपड़े उतरवा दिए। नवयुवक मूलशंकर ईश्वर की खोज में निकल पड़ा था। उसे कपड़े और गहनों की क्या परवाह थी। उसने तुरंत उतार दिए। ब्रह्मचारियों के कपड़े पहन लिए। क्या आप जानते है वे कीमती कपड़े-गहने क्या हुए? उन लोभी साधुओं ने उसके कपड़े गहने तुरंत ले लिए। हड़प लिए। परन्तु मूलशंकर को उनका तनिक भी मोह न था। ईश्वर की खोज में, मुक्ति की खोज में, मूलशंकर ने घर-परिजन का, माता-पिता भाई-बहनों का, त्याग तो किया ही, अपने पिता के धन वैभव को भी बड़ी सरलता पूर्वक त्याग दिया था। उसे दो चार कपड़े और कुछ सोने के गहनों का क्या मोह हो सकता था? चाहे धन मिले, चाहे अपना धन भी हाथ से निकल जाए। इसकी उसे कुछ भी चिंता नहीं थी। वह धर्म पथ का पथिक बन गया था। वह वेद मार्ग का पथिक बन गया था। वह ईश्वर की खोज में निकल पड़ा था। महर्षि दयानंद ने जगह जगह संस्कृत पाठशालाएं आरम्भ करवाई थी। इन पाठशालाओं को चलाने के लिए धन की आवश्यकता होती थी। महर्षि दयानंद वेद भाष्य कर रहे थे। जिस को छपवाने के लिए धन की आवश्यकता थी। अतः इन परोपकार के कार्यों के लिए महर्षि दयानंद धन दान स्वीकार करते थे। विशेष कर वेद भाष्य के लिए धन की अत्यंत आवश्यकता थी। उन्ही दिनों की बात है, एक व्यक्ति ने जो किसी झंझट में फंसा था, महर्षि दयानंद के एक भक्त पं. कृष्णराम से कहा – आप स्वामी जी से कहें कि वे राज्य के अधिकारी से कह कर मेरा मामला हल करवा दें तो मैं वेद भाष्य के लिए स्वामी जी को बीस हजार रूपए की राशि भेंट करूँगा। जब स्वामी जी के कानों में यह बात पड़ी तब उन्होंने अत्यंत कठोर शब्दों में पं. कृष्णराम को मना कर दिया और कहा – इस प्रकार का लालच देकर अपना काम करवाने की बात करना भी बड़ा अन्याय है, अधर्म है। हाँ, यदि मेरे कहने से किसी व्यक्ति का धर्मानुसार कल्याण हो जाता है, तो मैं अवश्य ही कह दूंगा। परन्तु इस काम के लिए मैं पैसे लूँ यह तो उत्कोच है, अन्याय है। महर्षि दयानंद के कहने से सर माधवराव ने उचित हस्तक्षेप किया और उस मामले का ठीक-ठीक समाधान हो गया। इसके लिए स्वामी दयानंद ने एक पैसा भी स्वीकार नहीं किया। यद्यपि उन्हें संस्कृत पाठशालाओं और वेद भाष्य के प्रकाशन के लिए धन की आवश्यकता थी। वे धर्म पथ पर अडिग रहे। किसी प्रकार की भी अनीति का, अन्याय का, वे तीव्र विरोध करते थे। धन के लोभ में अपने सिद्धांतों से, वैदिक मार्ग से, वे लेश मात्र भी विचलित होना स्वीकार नहीं करते थे। वैदिक सिद्धांतों की रक्षा के लिए वे सर्वस्व त्याग सकते थे। एक बार महाराजा वेंकटगीरि ने महर्षि दयानंद से कहा - सर्वमान्य वैदिक सिद्धांतों को तो अपने भाषण में, अपने कार्यक्रम में प्रथम स्थान दें और उन वैदिक सिद्धांतों को जिन्हें जनता नहीं सुनना चाहती है पीछे रखें, गौण रूप में रखें, इस तरह छिपा कर रखें की जन साधारण उस पर दृष्टिपात न सके तो मैं वेद भाष्य के खर्चे के लिए पूरा धन अकेले ही एकत्र कर दूंगा। आपको इसके लिए इधर उधर भटकना नहीं पड़ेगा। महर्षि को यह बात कदापि सहन नहीं हुई। उन्होंने तुरंत कहा – क्या आपने मुझे दुकानदार समझ रखा है जो धन के लालच में पड़ कर मैं धर्म पथ को छोड़ दूँ। ऐसे थे महर्षि दयानंद।
आर्यावर्त क्या है? ( Vedicvichar )
18-10-2021
✍???? लेखक - प्रो० उमाकान्त उपाध्याय, एम० ए० *प्रस्तुति - ???? ‘अवत्सार’* जब कभी भ्रान्त विचार चल पड़ते हैं तो उनके अवश्यम्भावी अनिष्टकारी परिणामों से बचना दुष्कर हो जाता है। इसी प्रकार का एक अशुद्ध भ्रान्त विचार यह है कि आर्यावर्त की सीमा उत्तर भारत तक ही है और आर्यावर्त की दक्षिणी सीमा उत्तर प्रदेश के दक्षिण और मध्यप्रदेश के उत्तर में स्थित तथाकथित विन्ध्य पर्वत तक है । इस भ्रान्त धारणा ने एक महा अनिष्टकारी कुफल की सृष्टि कर दी कि विन्ध्य के उत्तर अर्थात् उत्तरी भारत में आर्य बसते हैं और दक्षिणी भारत में द्रविड़ बसते हैं । फलस्वरूप राजनीतिक समस्याएँ उठती रहती हैं । आज जो उत्तर और दक्षिण भारत में आर्य और द्रविड़ समस्याएँ खड़ी हो गई हैं, उनके मूल में भी यही भ्रान्त विचार है कि आर्यावर्त उत्तर भारत को ही कहते हैं । आर्य समाज से बाहर इस प्रकार के विचार रखने वाले बहुत से लोग हैं । इनकी प्रेरणा स्थली यथासम्भव पश्चिम की विद्वत्मण्ड़ली है। जो आर्य विचार विद्वेषिणी है। भारतवर्ष में इस विचारधारा के प्रवक्ता के रूप में श्री रामधारी सिंहजी 'दिनकर' का नाम लिया जा सकता है। अपने महान् ग्रन्थ *‘संस्कृत के चार अध्याय’* में श्री दिनकर जी स्वामी दयानन्दजी पर खूब बरसते हैं और उत्तर दक्षिण के आर्य-द्रविड़ विवाद का दायित्व स्वामी दयानन्द सरस्वती पर थोपने का असफल प्रयास करते हैं । श्री दिनकरजी ने लिखा है - “स्वामी दयानन्द ने तो संस्कृत की सभी सामग्रियों को छोड़कर केवल वेदों को पकड़ा और उनके सभी अनुयायी भी वेदों की दुहाई देने लगे। परिणाम इसका यह हुआ कि वेद और आर्य, भारत में ये दोनों सर्व प्रमुख हो उठे और इतिहासकारों में भी यह धारणा चल पड़ी कि भारत की सारी संस्कृति और सभ्यता वेद वालों अर्थात् आर्यों की रचना है।'' “हिन्दू केवल उत्तर भारत में ही नहीं बसते और न यही कहने का कोई आधार था कि हिन्दुत्व की रचना में दक्षिण भारत का कोई योगदान नहीं है। फिर भी स्वामीजी ने आर्यावर्त की जो सीमा बाँधी है, वह विन्ध्याचल पर समाप्त हो जाती है । आर्य-आर्य कहने, वेद-वेद चिल्लाने तथा द्राविड़ भाषाओं में सन्निहित हिन्दुत्व के उपकरणों से अनभिज्ञ रहने का ही यह परिणाम है कि आज दक्षिण में आर्य-विरोधी आन्दोलन उठ खड़ा हुआ है।'' “इस सत्य पर यदि उत्तर के हिन्दू ध्यान देते तो दक्षिण के भाइयों को वह कदम उठाना नहीं पड़ता, जिसे वे आज उपेक्षा और क्षोभ से विचलित होकर उठा रहे हैं।'' श्री दिनकरजी यदि सत्यार्थ प्रकाश के तत्सम्बन्धी स्थल देख जाते तो इतना भ्रामक विचार देने में चिन्ता करते । ऐसी उद्धत शब्दावली और ऐसा उपहसनीय आक्षेप सचमुच दिनकरजी को शोभा नहीं देता । इधर आर्यसमाज के विद्धानों में भी एकाध की धारणा है कि आर्यावर्त उत्तरी भारत को ही कहते हैं । प्रो० सत्यव्रत सिद्धान्तालङ्कार गुरुकुल कांगड़ी के मान्य विद्वान हैं, संसद सदस्य हैं । आपने एक लेख लिखा है *‘‘इस देश के भिन्न-भिन्न नाम।''* यह लेख कई जगह छपा है । इस लेख से जहां महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती का विरोध है वहीं उस अनिष्टकारी विचारधारा की पुष्टि भी होती है कि उत्तर भारत के लोग आर्य हैं और दक्षिण भारत के लोग आर्य नहीं हैं। श्री सिद्धान्तलङ्कारजी ने कई प्रमाण देकर एक निष्कर्ष निकाला है, “इन सब प्रमाणों से स्पष्ट है कि सर्वप्रथम इस देश (उत्तर भारत) का नाम ‘आर्यावर्त' या ‘आर्य देश' था। इस देश से भिन्न-भिन्न देशों को यहाँ के निवासी ‘म्लेच्छ देश' या ‘दस्यु देश' कहते थे । वे लोग अपने देश को ‘आर्य देश' इसलिए कहते थे क्योंकि वे अपने को ‘आर्य' या श्रेष्ठ कहते थे, ठीक ऐसे जैसे आज के युग में पाकिस्तान वाले अपने को पाक या पवित्र कहने लगे हैं।'' यह धारणा चिन्त्य है, ये विचार भ्रान्त हैं । इस पर विचार अवश्य होना चाहिये । गुरुकुल कांगड़ी आर्यसमाज का दुर्ग है । वहाँ से ऋषि की मान्यता को बल दिया जाता है । वहाँ के विद्वानों, अनुसन्धानकर्ताओं पर आर्यजगत् गर्व करता है । “वैदिक एज' जैसे भारतीय विचारधारा विरोधी ग्रन्थ का उत्तर ‘गुरुकुल कांगड़ी, के सुयोग्य विद्वान् श्री धर्मदेवजी विद्यामार्तण्ड ने लिखकर अपनी यशोवृद्धि तो की है, गुरुकुल की भी यशश्चन्द्रिका को अधिक चारु कर दिया । स्वयं सिद्धान्तालङ्कार जी भी ऋषि दयानन्द के भक्त और आर्यसमाज के मान्य विद्वान हैं । पर जाने, अनजाने उनसे ऋषि दयानन्द का और भारतीय परम्परा का विरोध हो गया । फिर श्री दिनकरजी का क्या दोष ? उनको उपालम्भ किस बात का ? श्री सिद्धान्तालङ्कारजी ने यह सिद्ध करने के लिए कि आर्यावर्त केवल उत्तर भारत को कहते हैं, निम्न प्रमाण दिये हैं - ▪️ (१) ????आसमुद्रात्तुवै पूर्वादासमुद्रात्तु पश्चिमात् । तयोरेवान्तरं गिर्योरार्यावर्त विदुर्बधाः ।। मनु० २-२२ अर्थात्, पूर्व के समुद्र (बंगाल की खाड़ी) से लेकर पश्चिम के समुद्र (अरब सागर) तक तथा उत्तर में हिमालय पर्वत से दक्षिण में विन्ध्य पर्वत तक का प्रदेश ‘आर्यावर्त' है । ▪️ (२) ????कः पुनरार्यावर्तः। प्रागादर्शात् प्रत्यक् कालक वनात् दक्षिणेन हिमवन्तं उत्तरेण पारियात्रम् । —महाभाष्य (हिमालय के दक्षिण और विन्ध्याचल के उत्तर आर्यावर्त है ।) ▪️ (३) ????आर्यावर्तः प्रागादर्शात प्रत्यक् कालकवनाद् उदक् पारियात्रात् दक्षिणेन हिमवतः उत्तरेण च विन्ध्यस्य । -वसिष्ठ धर्मसूत्र ये सारे प्रमाण उन ग्रन्थों के हैं जो प्रत्येक भारतीय को मान्य हैं। इनमें से कुछ को तो स्वामी दयानन्दजी ने भी प्रसङ्गानुपात से उद्धृत किया है । यदि ये प्रमाण मान्य हैं तो इनमें तो सुस्पष्ट लिखा है कि आर्यावर्त की दक्षिणी सीमा पर विन्ध्य पर्वत है । पर यह विन्ध्य पर्वत कहाँ है ? क्या उत्तर और दक्षिण भारत को पृथक करने वाले विन्ध्याचल को ही प्राचीन ग्रन्थकार विन्ध्य के नाम से अभिहित कर रहे हैं या किसी अन्य पर्वत का विन्ध्य नाम है। एक क्षण के लिए स्वीकार कर लेते हैं कि नर्मदा नदी के उत्तर उत्तर प्रदेश के दक्षिण विन्ध्य है । अब मनुस्मृति के श्लोक की सङ्गति लगाइये। यह आज का तथाकथित विन्ध्य कर्क रेखा के निकट है। यदि इसे ही दक्षिणी सीमा मान लें तो पूर्व में ब्रह्म देश पड़ेगा, समुद्र नहीं, और पश्चिम में भी समुद्र अत्यल्प नाम मात्र को पड़ेगा और ९९ प्रतिशत सीमा स्थल की बनेगी जो पश्चिम के अफगानिस्तान इत्यादि देश होंगे । फिर मनु का वाक्य, ????“आसमुद्रात्तुवैपूर्वादासमुद्रात्तु पश्चिमात्’’ सङ्गत नहीं हुआ । वस्तुतः आज के तथा कथित विन्ध्य का भारत के प्राचीन भूगोल में विन्ध्य नाम नहीं था और मनुस्मृति में या अन्य ग्रंथों में जो विन्ध्य पर्वत का वर्णन है वह समुद्र तटवर्ती पर्वत है जिसे हम पूर्वीघाट पश्चिमी घाट पर्वतमाला का नाम देते हैं । इस सम्बन्ध में स्वामी दयानन्दजी का वक्तव्य बिलकुल सुस्पष्ट है। वे लिखते हैं- *‘‘हिमालय की मध्यरेखा से दक्षिण और पहाड़ों के भीतर रामेश्वर पर्यन्त विन्ध्याचल के भीतर जितने देश हैं उन सबको आर्यावर्त इसलिये कहते हैं कि यह आर्यावर्त देव अर्थात् विद्वानों ने बसाया और आर्य जनों के निवास करने से आर्यावर्त कहाया है।* सत्यार्थ प्रकाश, अष्टम समुल्लासे यहाँ ऋषि दयानन्दजी ने उत्तर और दक्षिण दोनों भारत को आर्यावर्त माना है और दोनों जगह के निवासियों को आर्य माना है । इससे श्री दिनकरजी का आक्षेप तो निर्मूल हो ही जाता है, साथ ही यह भी सुस्पष्ट है कि श्री दिनकरजी ने शीघ्रता का परिचय दिया है न कि धैर्यपूर्वक मनन का । अस्तु, एक प्रश्न यह रह जाता है कि स्वामी दयानन्दजी ने विन्ध्याचल को रामेश्वर के पास कैसे कह दिया। वैसे सत्यार्थप्रकाश के उस स्थल के पढ़ने से ऐसा प्रतीत होता है कि वे विन्ध्य की व्याख्या करने की आवश्यकता तो समझते हैं पर उसे विवादास्पद नहीं समझते। अन्यथा उसके भी प्रभूत प्रमाण वे दे ही देते । किन्तु आज तो यह विवादास्पद हो गया है। श्री सिद्धान्तालङ्कारजी ने इसे उत्तर और दक्षिण का भेदक पर्वत ही माना है । वस्तुतः प्राचीन संस्कृत वाङ्मय में इसे दक्षिण समुद्र तटवर्ती पर्वत कहा गया है । वाल्मीकि रामायण के किष्किन्धा काण्ड में वर्णन आता है । वहाँ कई श्लोकों में विन्ध्य पर्वत का प्रसंग उठा हुआ है । सन्दर्भ यह है कि रावण सीता को चुराकर ले जा चुका है। जटायु मारा जा चुका है। बालि को मारकर राम ने सुग्रीव को राजा बना दिया है और हनुमान आदि सीता की खोज में निकले हैं । वहाँ समुद्र के किनारे एक पर्वत पर सम्पाति से अङ्गद हनुमान आदि मिले हैं और उनका वार्तालाप होता है । कई श्लोक हमारे सहायक सिद्ध होते हैं - सुग्रीव बालि के भय से दक्षिण दिशा को भागा था उसका वर्णन है- ▪️ (१) ????दिशस्तस्यास्ततो भूयः प्रस्थितो दक्षिण दिशम् । विन्ध्यपादपसंकीर्णा चन्दनद्रुम शोभिनाम् ४६ ।।१।। अर्थ-उस दिशा को छोड़ कर मैं फिर दक्षिण दिशा की ओर प्रस्थित हुआ जहाँ विन्ध्य पर्वत पर वृक्ष और चन्दन के वृक्ष शोभा बढ़ाते हैं । यदि विन्ध्य के पास चन्दन के वृक्ष हैं तो यह कर्क रेखा पार कर विन्ध्य नहीं, रामेश्वर का विन्ध्य है । तीन दिशाओं से सुग्रीव के सैनिक लौट आये, सीता का पता न चला। किन्तु दक्षिण दिशा के सैनिक वीर हनुमान - ▪️ (२) ????“ततो विचित्य विन्ध्यस्य गुहाश्चगहनानि च” ४८।२। आगे स्वयं प्रभा तापसी ने हनुमान से कहा - ▪️ (३) ????एष विन्थ्यो गिरिः श्रीमान् नाना द्रुमलता युतः । एष प्रस्रवणः शैलः सागरोऽयं महोदधिः। ५२॥३९॥३२ यहाँ विन्ध्यपर्वत, प्रस्रवण गिरि और सागर महोदधि तीनों पास ही हैं। और देखिये - ▪️ (४) ????विन्ध्यस्य तु गिरेः पादे सम्प्रपुष्पितपादपे। उपविश्य महात्मानश्चिन्तामापेदिरे तदा। ५३।३ सीता को न पाकर हनुमान आदि विन्ध्य पर्वत की तलहटी में बैठकर चिन्ता करने लगे । पुनरपि सम्पाति विन्ध्य की कन्दरा से निकल कर हनुमान आदि से बोला - ▪️ (५) ????कन्दरादभिनिष्क्रम्य स विन्ध्यस्य महागिरेः उपविष्टान् हरीन् दृष्टिवा हृष्टात्मा गिरमब्रवीत् ।।५६।३।। सम्पाति कहता है । ▪️ (६) ????निर्दग्धपत्रः पतितो विन्ध्येऽहं वानारर्षभाः ।। यों तो और भी बहुत से प्रमाण हैं जिनसे सुस्पष्ट है कि विन्ध्ये पर्वत दक्षिण समुद्र तट पर है न कि नर्मदा नदी के उत्तर । एक प्रमाण और देखिए - ▪️ (७) ????दक्षिणस्योदधेः तीरे विन्ध्योऽयमिति निश्चितः ।। इन सारे प्रमाणों से सिद्ध होता है कि विन्ध्य पर्वत रामेश्वर के पास है, उत्तर दक्षिण भारत को विभक्त करने वाला नहीं । एक बार जब यह निश्चय हो गया कि विन्ध्याचल पर्यन्त आर्यावर्त की सीमा का अर्थ है कन्या कुमारी पर्यन्त सम्पूर्ण भारत न कि केवल उत्तर भारत। अब इस सन्दर्भ में मनु के ‘‘आसमुद्रातु वै पूर्वादासमुद्रात्तु पश्चिमात'' की भी सङ्गति बैठती है । जब सम्पूर्ण भारत ही आर्यावर्त है तब जैसा श्री सिद्धान्तालङ्कारजी ने लिखा है कि पूर्व में बङ्गाल की खाड़ी और पश्चिम में अरब सागर है यह ठीक है। अन्यथा नहीं । अब ऐसी धारणा बना लेना कि उत्तर भारत वाले अपने को पवित्र और दक्षिण भारत वालों को हीन समझते थे यह केवल कल्पनामात्र है और है अत्यन्त अनिष्टकारी कल्पना । आज आवश्यकता इस बात की है कि हम अपने इतिहास को ठीक रूप में देखें । सम्पूर्ण देश एक है, एक संस्कृति है, एक इतिहास है। पाश्चात्य विद्वान हम में फूट डालने के लिये उत्तर भारत को आर्यावर्त कहकर दक्षिण भारत को उत्तर भारत से फोड़ना चाहते थे । किन्तु हमें तो अपनी स्थिति सुस्पष्ट करनी चाहिये । यह क्षेत्र है जिसमें कार्य करने की आवश्यकता है। हमें प्रचार करना चाहिये कि सारा भारत आर्यावर्त हैं । यहाँ के सभी निवासी आर्य हैं । द्रविड़ या आदिवासी और बनवासी इत्यादि समस्याएँ तो अंग्रेजों की भेदनीति के फल हैं हमें अपनी जनता को बचा लेना चाहिये । यहाँ जो कुछ लिखा गया है केवल एक ही दृष्टिकोण से - *सत्य के ग्रहण करने और असत्य के छोड़ने में सदा उद्यत रहना चाहिये।* यदि आर्य, द्रविड़, आदिवासी, बनवासी, इत्यादि की कल्पित भेद भित्तियाँ ध्वस्त की जा सकें तो भारतीय जनता का अति कल्याण हो । (आर्य संसार १९६६ से संङ्कलित) *प्रस्तुति - ???? ‘अवत्सार’* ॥ ओ३म् ॥
*????विश्वशान्ति केवल वेद द्वारा सम्भव????* (vedicvichar)
18-10-2021
आइये वेद के कुछ मन्त्रों का अवलोकन करें,कैसी दिव्य भावनाएं हैं:- अज्येष्ठासो अकनिष्ठास एते सं भ्रातरो वावृधुः सौभाय ।-(ऋग्वेद ५/६०/५) अर्थ:-ईश्वर कहता है कि हे संसार के लोगों ! न तो तुममें कोई बड़ा है और न छोटा।तुम सब भाई-भाई हो।सौभाग्य की प्राप्ति के लिए आगे बढ़ो। ईश्वर इस मन्त्र में मनुष्य-मात्र की समानता का उपदेश दे रहे हैं।इसके साथ साम्यवाद का भी स्थापन कर रहे हैं। अथर्ववेद के तीसरे काण्ड़ के तीसवें सूक्त में तो विश्व में शान्ति स्थापना के लिए जो उपदेश दिये गये हैं वे अद्भूत हैं।इन उपदेशों जऐसे उपदेश विश्व के अन्य धार्मिक साहित्य में ढूँढने से भी नहीं मिलेंगे। वेद उपदेश देता है- सह्रदयं सांमनस्यमविद्वेषं कृणोमि वः । अन्यो अन्यमभि हर्यत वत्सं जातमिवाघ्न्या ।।-(अथर्व० ३/३०/१) अर्थ:-मैं तुम्हारे लिए एकह्रदयता,एकमनता और निर्वेरता करता हूं।एक-दूसरे को तुम सब और से प्रीति से चाहो,जैसे न मारने योग्य गौ उत्पन्न हुए बछड़े को प्यार करती है। वेद हार्दिक एकता का उपदेश देता है। वेद आगे कहता है- ज्यायस्वन्तश्चित्तिनो मा वि यौष्ट संराधयन्तः सधुराश्चरन्तः । अन्यो अन्यस्मै वल्गु वदन्त एत सध्रीचीनान्वः संमनसस्कृणोमि ।।-(अथर्व० ३/३०/५) अर्थ:-बड़ों का मान रखने वाले,उत्तम चित्त वाले,समृद्धि करते हुए और एक धुरा होकर चलते हुए तुम लोग अलग-अलग न होओ,और एक-दूसरे से मनोहर बोलते हुए आओ।तुमको साथ-२ गति वाले और एक मन वाले मैं करता हूं। इस मन्त्र में भी एक-दूसरे से लड़ने का निषेध किया गया है और मिलकर चलने की बात की गई है। और देखिये- सं गच्छध्वं सं वदध्वं सं वो मनांसि जानताम् । देवां भागं यथापूर्वे संजानाना उपासते ।।-(ऋ० १०/१९१/२) अर्थ:-हे मनुष्यो ! मिलकर चलो,परस्पर मिलकर बात करो।तुम्हारे चित्त एक-समान होकर ज्ञान प्राप्त करें।जिस प्रकार पूर्वविद्वान,ज्ञानीजन सेवनीय प्रभु को जानते हुए उपासना करते आये हैं,वैसे ही तुम भी किया करो। इस मन्त्र में भी परस्पर मिलकर चलने,बातचीत करने और मिलकर ज्ञान प्राप्त करने की बात कही गई है। इस मन्त्र में भी वैचारिक और मानसिक एकता की बात कहकर वेद सन्देश देता हैँ- समानी व आकूतिः समाना ह्रदयानि वः । समानमस्तु वो मनो यथा वः सुसहासति ।।-(ऋ०१०/१९१/४) अर्थ:-हे मनुष्यों ! तुम्हारे संकल्प समान हों,तुम्हारे ह्रदय परस्पर मिले हुए हों,तुम्हारे मन समान हों जिससे तुम लोग परस्पर मिलकर रहो। एकता तभी हो सकती है जब मनुष्यों के मन एक हों।वेदमन्त्रों में इसी मानसिक एकता पर बल दिया गया है।संगठन का यह पाठ केवल भारतीयों के लिए ही नहीं,अपितु धरती के सभी मनुष्यों के लिए है।यदि संसार के लोग इस उपदेश को अपना लें तो उपर्युक्त सभी कारण जिन्होंने मनुष्य को मनुष्य से पृथक कर रखा है,वे सब दूर हो सकते हैं,संसार स्वर्ग के सदृश्य बन सकता है। वेद से ही विश्व शान्ति संभव है।संसार का कोई अन्य तथाकथित धर्म-ग्रन्थ इसकी तुल्यता नहीं कर सकता।वेद का सन्देश संकीर्णता,संकुचितता,पक्षपात,घृणा,जातीयता,प्रान्तीयता और साम्प्रदायिकता से कितना ऊंचा है।
अपने भीतर के रावण का दहन कब? ( Vedicvichar )
18-10-2021
मर्यादापुरुषोत्तम श्री रामचन्द्र जी महाराज ने रावण का वध कर संसार के समक्ष वह आदर्श प्रस्तुत किया की परनारी का हरण करने वाले का क्या अंतिम परिणाम होना चाहिए। रावण महाप्रतापी, शक्तिशाली, वेदों का विद्वान, पौलतस्य ऋषि वंशज था मगर उसकी आचरणहीनता एवं दुराचार भावना ने उसका नाश कर दिया। रावण के वध पर उसकी स्त्री मंदोदरी के वचन उसके जीवन से शिक्षा लेने के लिए प्रेरित करते है। वाल्किमी रामायण युद्धकाण्ड 111/51 में मंदोदरी कहती है, "अनेकों यज्ञों के विलोम करने वाले,धर्मव्यवस्थाओं को तोड़ने वाले,देव-असुर मनुष्यों की कन्याओं का जहाँ-तहाँ से हरण करने वाले, आज तू अपने पाप कर्मों से वध को प्राप्त हुआ। " आज समाज में हजारों रावण छोटी छोटी बच्चियों को अपना शिकार बना रहे हैं। उनका निष्क्रिय करने के लिए अर्थात समाज में अश्लीलता, व्यभिचार, नीच कर्म को रोकने के लिए आपको आज राम के समान गुणवान, माता-पिता का आज्ञाकारी, भ्रातिप्रेम के उच्च आदर्श को स्थापित करने वाला, महान तपस्वी, वीर,आस्तिक,धार्मिक, संयमी होना होगा। आदर्श समाज के सभी सदस्य संयमी एवं गुणवान होने चाहिए। आईये हम सब श्री राम के समान सदाचारी बन अपने भीतर के दुर्गुणों रूपी रावण का नाश करे। विजयलक्ष्मी के पावन पर्व की सभी को बधाई।
असली दशानन (रावण) कौन? (Vedicvichar )
18-10-2021
प्रत्येक वर्ष की भांति दशहरे का त्योहार आ गया। सब लोग विशेष रूप से रावण के जलने का इंतजार कर रहे हैं। सभी मर्यादा पुरुषोतम श्री रामचन्द्र जी महाराज को याद करते है कि किस प्रकार से उन्होंने राक्षस रावण का वध कर धरती को पापी से मुक्त किया था। आज उनके उस पवित्र तप की स्मृति में रावण के पुतले का दहन किया जाता है। ताकि जनमानस को प्रेरणा मिले की बुराई पर किस प्रकार अच्छाई की विजय होती है। एक प्रश्न मेरे मन में सदा आता है कि क्या आज के समाज में रावण फिर से जीवित हो उठा है? उत्तर है हाँ। रावण न केवल आज फिर से जीवित हो उठा है अपितु पहले से भी शक्तिशाली हो उठा है। वह रावण कौन है और कहाँ रहता है? उत्तर है। वह रावण है। हमारी आतंरिक बुराइयाँ, जो हमारे भीतर ही है और हमें दिन प्रतिदिन धर्म मार्ग से विचलित करती हैं। उसके दस सिर है जिन पर यम-नियम रुपी दस तलवारों से विजय प्राप्त की जा सकती है। अब पाठकगण सोच रहे होगे की यह दस तलवारे कौन सी हैं और उनसे किन-किन बुराइयों पर विजय प्राप्त करी जा सकती हैं। इस आंतरिक रावण से लड़ने की दस तलवारे है- यम और नियम। यम पांच है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रहमचर्य और अपरिग्रह। नियम भी पांच है। शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान। यम-नियम के पालन करने से हम अपनी आंतरिक बुराईयों को जो की रावण के दस सिर के समान हैं का सामना कर सकते है। 1. अहिंसा सर्वदा सभी प्राणियों के साथ वैरभाव को छोड़कर प्रीति से वर्तना अहिंसा है। सभी प्राणियों में मनुष्य के साथ साथ पशु आदि की भी आते है। जहाँ अपनी जिह्वा के स्वाद अथवा उदर की भूख की पूर्ति के लिए निरीह प्राणियों की हत्या करना निश्चित रूप से हिंसा हैं। वहीं विचार मात्र से किसी व्यक्ति विशेष की हानी करने की इच्छा करना भी हिंसा है। यदि किसी व्यक्ति को चोरी आदि करने पर उसके सुधार के लिए दंड दिया जाये, तो वह कर्म अहिंसा कहलाता है, हिंसा नहीं कहलाता है क्यूंकि वह कर्म प्राणिमात्र के उद्धार के लिए किया जा रहा है। इसी प्रकार किसी आदमखोर जानवर को मारना भी हिंसा नहीं कहलाता क्यूंकि वह जन कल्याण के लिए है। आज धर्म के नाम पर विश्व भर में दंगे फसाद, लूट, बलात्कार क़त्ल आदि सुनने को मिलते है। हर कोई अपने अपने मजहब, अपने अपने मत,अपनी अपनी विचारधारा,अपने अपने गुरु को श्रेष्ठ और दूसरे को नीचा समझने लगा है। जिसके कारण चारों तरफ असुरक्षा, अविश्वास और डर का माहोल बन गया है। अगर मनुष्य अहिंसा के इस पाठ को समझ जाये तो और सभी के साथ प्रीतिपूर्वक वर्तने लगे तो इस हिंसा रुपी रावण का नाश किया जा सकता है। 2 सत्य जैसा देखा हो, अनुमान से जाना हो और सुना हो, वैसा ही मन और वाणी में होना सत्य है अर्थात जो पथार्थ जैसा है, उसको वैसा ही जानना, मानना, बोलना और शरीर से उसको आचरण में लाना सत्य है। सत्य को परीक्षा पूर्वक जानना और उसका सर्व हितार्थ बोलना और आचरण में लाना सत्य है। वस्तु के स्वरुप के विपरीत जानना, मानना, बोलना, आचरण में लाना असत्य है। परन्तु हित के नाम से सत्य के स्थान में असत्य का आचरण करना सत्य नहीं है। इतिहास इस बात का साक्षी रहा है कि जो भी व्यक्ति सत्य बोलते है। वे विश्व में श्रेष्ठ कहलाते है। जबकि जो भी व्यक्ति असत्य के मार्ग पर चलते है। वे अप्रसिद्धि का पात्र बने है। आज मनुष्य मनुष्य पर विश्वास नहीं करता। क्यूंकि असत्य वचन के कारण विश्वास के स्थान पर कुटिलता ही कुटिलता दिखती है। एक दूसरे से घृणा का कारण भी यहीं असत्य वचन है। सत्य बोलने से व्यक्ति न केवल निडर, शक्तिशाली और दृढ बनता है। अपितु सभी के द्वारा सम्मान का पात्र भी बनता है। जबकि असत्य वचन करने वाला क्षणिक सफलता और तात्कालिक सुख का भोग तो कर सकता है। पर कालांतर में भय, आशंका और रोग उसे अपना शिकार बना लेते है। जिससे उसका नाश हो जाता है। इसलिए असत्य रुपी इस रावण का नाश सत्य से किया जा सकता है। 3. अस्तेय मन, वाणी और शरीर से चोरी का परित्याग करके उत्तम कार्यों में तन, मन, धन से सहायता करना अस्तेय है। आज देश की सबसे बड़ी समस्या भ्रष्टाचार है। बड़े बड़े नेताओं से लेकर दफ्तर के छोटे कर्मचारी तक अपवाद रूप किसी किसी को छोड़कर सब इस पाप से धीरे धीरे ग्रसित हो गए है। यह भी एक प्रकार की चोरी ही है। किसी दूसरे के धन, संपत्ति आदि की इच्छा रखने से सबसे बड़ी हानि हमारी आंतरिक शांति का समाप्त हो जाना है। मनुष्य जीवन अनेक योनियों में जन्म लेने के बाद मिलता है। इस अमूल्य जीवन को हम इतनी अशांति में गुजार दे क्यूंकि हम सदा दूसरे के धन की इच्छा रखते रहे अथवा प्रयास करते रहे अथवा चोरी करते रहे। ऐसे करने वाले व्यक्ति को आप अज्ञानी नहीं कहेगे तो फिर क्या कहेगे? इसलिए मन, वचन और शरीर से चोरी का परित्याग करके हम इस रावण का नाश कर सकते है। 4. ब्रह्मचर्य वेदों का पढना , ईश्वर की उपासना करना और वीर्य की रक्षा करना ब्रह्मचर्य कहलाता है। जब योगी मन, वचन और शरीर से ब्रह्मचर्य का दृढ पालन बना लेता है। तब बौधिक और शारीरिक बल की प्राप्ति होती है। उससे वह अपनी तथा अन्यों की रक्षा करने में, विद्या प्राप्ति तथा विद्या दान में समर्थ हो जाता है। ब्रह्मचर्य के पालन से शारीरिक और बौधिक बल की प्राप्ति होती है। शरीर का बल बढ़ने से शरीर निरोग एवं दीर्घ आयु होता है और उत्तम स्वास्थ्य को प्राप्त करता है। बौद्धिक बल के बढ़ने से वह अति सूक्षम विषयों को जानने में और अन्यों को विद्या पढ़ाने में सफल हो जाता है। अथर्ववेद 11/5/19 में कहा भी गया है कि ब्रह्मचर्य के तप से देव मृत्यु को जीत लेते है। महाभारत में भीष्म युधिष्ठिर से कहते है – हे राजन! तू ब्रह्मचर्य के गुण सुन। जो मनुष्य इस संसार में जन्म से लेकर मरण पर्यंत ब्रह्मचर्य होता है। उसको कोई शुभ अशुभ अप्राय नहीं रहता, ऐसा तू जान कि जिसके प्रताप से अनेक करोड़ो ऋषि ब्रह्मलोक अर्थात सर्वानन्द स्वरुप परमात्मा में वास करते और इस लोक में भी अनेक सुखों को प्राप्त होते है। जो निरंतर सत्य में रमण, जितेन्द्रिय, शांत आत्मा, उत्कृष्ट, शुभ गुण स्वाभाव युक्त और रोग रहित पराकर्मयुक्त शरीर, ब्रह्मचर्य अर्थात वेदादि सत्य शस्त्र और परमात्मा की उपासना का अभ्यास कर्मादी करते है। वे सब बुरे काम और दुखों को नष्ट कर सर्वोत्तम धर्मयुक्त कर्म और सब सुखों की प्राप्ति कराने हारे होते है। और इन्हीं के सेवन से मनुष्य उत्तम अध्यापक और उत्तम विद्यार्थी हो सकते है। ब्रह्मचर्य के विपरीत कर्म व्यभिचार कहलाता है। आज समाज में यह रावण विकराल रूप धारण कर समाज में अनैतिकता फैला रहा है। जिसके दुष्कर परिणामों से सभी परिचित है। भोगवाद की व्यभिचार रुपी लहर में बहकर युवक युवती अपना पूरा जीवन बर्बाद कर लेते है। आदि कच्ची उम्र में बलात्कार जैसा घृणित पाप कर डालते है। जिसके कारण पूरा जीवन अंधकारमय हो जाता है। मीडिया इस अपराध में सबसे बड़ा जिम्मेदार है। क्यूंकि अपरिपक्व मानसिक अवस्था में सही या गलत की पहचान कम ही को होती है। इस व्यभिचार रुपी रावण के कारण न जाने कितनो का जीवन बर्बाद हो रहा है और कितनो का होगा। इसलिए ब्रह्मचर्य रुपी उत्तम नियम के पालन से इस रावण का नाश किया जा सकता है। 5. अपरिग्रह विषयों में उपार्जन, रक्षण, क्षय, संग, हिंसा दोष देखकर विषय भोग की दृष्टी से उनका संग्रह न करना अपरिग्रह है। अर्थात हानिकारक अनावश्यक वस्तु और अभिमान आदि हानिकारक,अनावश्यक अशुभ विचारों को त्याग देना अपरिग्रह है। जो जो वस्तु अथवा विचार ईश्वर प्राप्ति में बाधक है उन सबका परित्याग और जो जो वस्तु , विचार ईश्वर प्राप्ति में साधन है। उनका ग्रहण करना अपरिग्रह है। आज के समाज में अपनी आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का संग्रह करने की होड़ सी लगी हुई है। हर कोई अपने जीवन के उद्देश्य को भूलकर एक मशीन की भांति संग्रह करने के पीछे भाग रहा है, जिससे व्यक्ति मानसिक तनाव, दुःख, भय आदि का शिकार होकर अपने जीवन को साक्षात् नरक बनाये हुए है। भोगवाद की लहर में बहकर हम जीवन के वास्तविक उद्देश्य को भूल गए है। हमारे चारों ओर इसके अनेक उदहारण मिलेगे कोई काला बाजारी करता है ताकि सुख मिले, क्या सुख मिलेगा? कोई धोखे से किसी की संपत्ति पर कब्ज़ा कर रहा है, क्या सुख मिलेगा? बिलकुल नहीं। कोई दिन रात एक कर धन इकट्ठा करने में लगा हुआ है। पर उसे यह नहीं मालूम की एक सीमा के पश्चात यह धन एक एक प्रकार का भोझ ही है। हमारे देश के नेता ओर बड़े व्यापारी इसके साक्षात् उदहारण है। इतनी धन-संपत्ति को इकठ्ठा करने के बावजूद घोटाले पर घोटाले किये जा रहे है। अंत में सब कुछ छोड़कर मृत्यु को ही तो प्राप्त होना है। अगर समाज अपरिग्रह के सन्देश को समझ ले तो सभी सुखी हो सकते है। अपरिग्रह के इस सन्देश को अगर जनमानस समझ ले तो भटक रहे समाज को अज्ञानता रुपी रावण से मुक्ति मिल जाएगी। 6. शौच शौच का एक अर्थ शुद्धि भी है। शुद्धि दो प्रकार की होती है। एक बाह्य और एक आन्तरिक। जल आदि से, पवित्र भोजन से शरीर की बाह्य शुद्धि होती है जबकि चित की मलिनताओं को दूर करने से शरीर की आन्तरिक शुद्धि होती है। मनुष्य अपने शरीर की बाह्य शुद्धता पर हर प्रकार से ध्यान देता है। ताकि वो सुन्दर दीख सके। इस सुन्दरता के कारण वो भ्रमित होकर अपने शरीर पर अभिमान कर बैठता है और दूसरे के शरीर को घृणा की दृष्टी से देखता है। इस अभिमान से मनुष्य सत्य से दूर चला जाता है। और अपना बहुत सारा बहुमूल्य समय शरीर को सुन्दर बनाने में लगा देता है। सत्संग, स्वाध्याय, ईश्वर उपासना, आत्म निरिक्षण के लिए उसके पास समय ही नहीं रहता। आन्तरिक मलिनता की शुद्धि इन्हीं कर्मों से होती है। कोई कोई मनुष्य दुसरे के शरीर की सुन्दरता पर मोहित हो जाता है। जिससे काम वासना की उत्पत्ति होती है। अभिमान और काम वासना दोनों व्यक्ति को आन्तरिक रूप से असुद्ध कर देती है। आन्तरिक शुद्धि से बुद्धि की शुद्धि होती है। जिससे मन में प्रसन्नता और एकाग्रता आती है, जिससे इन्द्रियों पर विजय प्राप्त होती है, उससे बुद्धि ईश्वर की उपासना में लीन होती है, जिससे ईश्वरीय सुख की प्राप्ति होती है। आज के समाज में मांसाहार से भोजन की अपवित्रता होती है। जिससे न केवल शरीर अशूद्ध होता है। अपितु विचारों में भी मलिनता आती है। अभिमान और काम वासना से मनुष्य जाति का जितना नाश हुआ है। उसकी कोई कल्पना भी नहीं कर सकता। समाज में फैल रही अराजकता को मांसाहार, अभिमान, कामवासना रुपी रावण से मुक्ति तभी मिल सकती है। जब शौच (शुद्धि) के मार्ग पर चला जाये। 7. संतोष संपूर्ण प्रयास के पश्चात जो भी उपलब्ध हो, उसी में संतुष्ट रहना, उससे अधिक की इच्छा न करना संतोष है। जो व्यक्ति अपने पूर्ण पुरुषार्थ के पश्चात अपने उपलब्ध साधनों से अधिक पदार्थों की इच्छा नहीं करता, तो उसको अनुपम सुख की प्राप्ति होती है। जब व्यक्ति इन्द्रियों के भोगों में आसक्त रहता है तो उसकी विषय भोग की तृष्णा बढ़ती जाती है और वो उस तृष्णा की पूर्ती के लिए प्रयासशील रहता है। प्रयास में परिणाम पाने के लिए या तो वह अपराध कर बैठता है अथवा विफल होने पर दुखों का भोगी बनता है। इसलिए संतोष का पालन करने चाहोये जिससे सात्विक सुख की प्राप्ति होती है नाकि क्षणिक सुखों की प्राप्ति होती है। संतोष का पालन करने से व्यवहार में भी सुख की प्राप्ति होती है और दुखों की निवृति होती है। जब कोई हानिकारक घटना घट जाती है तो संतोषी व्यक्ति को नयून दुःख होता है इसलिए संतोष जीवन में सुख प्राप्ति का उपयोगी मार्ग है। आज समाज में हर कोई दुखी है। उसका एक कारण संतोष का नहीं होना है। इसलिए असंतोष रुपी रावण को त्याग कर संतोष का पालन करने से अनुपम सुख की प्राप्ति की जाये। 8 . तप धर्म आचरण करते हुए हानि लाभ, सुख दुःख, मान अपमान , सर्दी गर्मी, भूख प्यास आदि को शांत चित से सहन करना तप है। जिन जिन उत्तम कार्यों के करने में स्वयं का और अन्यों का दुःख दूर होता है और सुख की प्राप्ति होती है। उनको करते रहना और न छोड़ना धर्म आचरण है। धर्म आचरण करने में जो जो दुःख व्यक्ति को सहना पड़ता है। उसको तप कहते है। आज समाज में अराजकता का एक कारण सज्जन व्यक्तियों द्वारा तप न करना है और दुर्जन व्यक्तियों द्वारा करे जा रहे दुष्ट कार्यों को न रोकना है। श्री राम सतयुग के विशेष उदहारण है। जिन्होंने अपने तप से राक्षस रावण को समाप्त किया। उनसे प्रेरणा पाकर आज हमे भी समाज में फैल रही बुराइयों को समाप्त करने के लिए तप करना चाहिए जिससे अधर्म रुपी रावण का नाश किया जा सके। 9 . स्वाध्याय वेद आदि धर्म शास्त्रों को पढ़कर ईश्वर के स्वरुप को जानना और ईश्वर का चिंतन मनन करना, अपने दैनिक कार्यों का मानसिक अवलोकन कर अपनी गलतियों को पहचानना और उनको भविष्य में दोबारा न करने की प्रतिज्ञा करना स्वाध्याय कहलाता है। धर्म शास्त्रों के अध्ययन से और उनका पालन करने से व्यक्ति के आचरण में इतनी योग्यता आ जाती है कि वह अन्यों को भी धर्म मार्ग पर चला सकता है। समाज में सदा श्रेष्ठ मनुष्यों की कीर्ति हुई है। सर्व प्रथम व्यक्ति को अपना ही स्वाध्याय करना चाहिए कि उसमे क्या क्या बुराइयाँ समाहित है। फिर उन पर विजय प्राप्त करनी चाहिए। इस कार्य में ईश्वर ही केवल सहाय है और उन ईश्वर को जानने के लिए वेदादि धर्म शास्त्रों का स्वाध्याय करना चाहिए। आज समाज में हर व्यक्ति अपने आपको सबसे सही और अन्य को सबसे गलत मान रहा है। इसका कारण है वह अपने आपको न जानना। अगर व्यक्ति अपनी वास्तविकता को समझे और धर्म ग्रंथों का स्वाध्याय कर उसी अनुसार वर्ते तो वह किसी को कष्ट नहीं देगा। ऐसा व्यक्ति न केवल बुद्धिमान कहलायगा अपितु समाज का मार्ग दर्शन भी करेगा। स्वाध्यायशील ज्ञानी व्यक्ति ही समाज का नेतृत्व कर सकते है। आज समाज का नेतृत्व अज्ञानी भोगी व्यक्ति कर रहे है। जिसके कारण समाज गर्त में जा रहा है। अपने आपको स्वाध्यायशील और ईश्वर प्रेमी बनाकर समाज का नेतृत्व योग्य व्यक्ति द्वारा होने से समाज में अज्ञान रुपी रावण का नाश होगा। 10 . ईश्वर प्रणिधान समस्त विद्याओं को देने वाले परम गुरु ईश्वर में समस्त कर्मों को समर्पित कर देना, उसकी भक्ति करना, व्यवहार में उसके आदेशों का पालन करना, शरीर आदि पदार्थों को उसके मानकर धर्माचरण करना, कर्मों का लौकिक फल न चाहना, ईश्वर को ही लक्ष्य बनाकर कार्यों को करना ईश्वर प्रणिधान है। कोई भी मनुष्य गलत कार्य तभी करता है। जब वह ईश्वर को सर्वथा भूल जाता है। अगर मनुष्य किसी भी कार्य को करने से पहले ईश्वर के अनुकूल अथवा प्रतिकूल की परीक्षा करे तो वह पाप कार्य से अपने आपको बचा सकता है। समाज में पाप कर्म को रोकने यह सबसे कारगर तरीका है। इससे न केवल पाप आचरण कम होगा अपितु सात्विक वातावरण का माहौल भी बनेगा। पाप रुपी रावण का नाश करने का यह सबसे कारगर तरीका है। आशा है कि यम नियम की अहिंसा, सत्य, अस्तेय , ब्रहमचर्य, अपरिग्रह, शौच, संतोष,तप, स्वाध्याय, ईश्वर प्रणिधान रुपी तलवारों से हिंसा, असत्य, चोरी, व्यभिचार, भ्रष्ट आचार, अशुद्धि, असंतोष,अकर्मयता, अज्ञान और पाप आचरण रुपी रावण के दस सिरों का नाश होगा। अपने जीवन को योगी लोग इन्हीं सीढियों पर चलकर श्रेष्ठ बनाते है और अपने भीतर छिपे हुए आन्तरिक रावण का नाश करते है। आशा है कि जिज्ञासु भी योग मार्ग का अनुसरण कर अपने जीवन को यथार्थ करेगे। #Ravana #Dussehra #Vijayadashmi
शौर्य, पराक्रम और क्षात्रधर्म का पर्व : विजय दशमी ( vedicvichar )
18-10-2021
-डॉ० भवानीलाल भारतीय आर्यों के प्रमुख पर्वों में आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि विजयदशमी के नाम से जानी जाती है। यह एक वैदिक पर्व है जो आर्य जाति के शौर्य, तेज, बल तथा क्षात्रवृत्ति का परिचायक है। अज्ञानवश इसे राम द्वारा लंकाधिपति रावण को युद्ध में पराजित करने का दिवस मान लिया है। वस्तुतः इस पर्व का राम की लंका विजय से कोई सम्बन्ध नहीं है। यह तो भगवान् राम के आविर्भाव से पहले से चला आ रहा क्षात्रधर्म का प्रतीक पर्व है। वैदिक धर्म में ब्रह्म शक्ति और क्षत्र शक्ति के समन्वित विकास की बात कही गई है। यजुर्वेद में कहा गया है- यत्र ब्रह्मं च क्षत्रं च सम्यञ्चौ चरत: सह:। जहां ब्रह्म और क्षत्र विद्वता और पराक्रम का समुचित समन्वय रहता है वहां पुण्य, प्रज्ञा तथा अग्नि तुल्य तेज और ओज रहता है। वाल्मीकीय रामायण के अनुसार लंका पर राम की विजय चैत्र मास में हुई थी अतः आश्विन मास की दशमी का लंका विजय से कोई सम्बन्ध नहीं है। विजयदशमी तक वर्षा ऋतु समाप्त हो जाती है। प्राचीन काल में लगभग तीन चार मास तक निरन्तर वर्षा होती रहती थी। वीरों की विजय यात्राएं बंद हो गईं। अब बरसात के समाप्त होने पर रास्ते खुल गए। सेनाओं के आने जाने की कठिनाई दूर हो गई। इस ऋतु परिवर्तन का लाभ उठाकर प्राचीन काल में क्षत्रिय इस दिन अपने शस्त्रास्त्रों की सफाई करते थे। उन्हें पुनः काम में लाने लायक बनाते थे तथा राजाज्ञा से शास्त्रों की प्रदर्शनी लगाई जाती थी। वीर लोगों को अपनी अस्त्र शस्त्र विद्या के सार्वजनिक प्रदर्शन का अवसर मिलता था। आम जनता भी इन वीरों की शस्त्र विद्या तथा शौर्य प्रदर्शन को देखने के लिए बड़ी संख्या में एकत्रित होती थी। महाभारत में यह प्रसंग विस्तार से आता है जहां यह उल्लिखित हुआ है कि पितामह भीष्म के आदेश से आचार्य द्रोण ने अपने शिष्यों (कौरव एवं पाण्डव) को शस्त्रास्त्र कौशल को दिखाने के लिए एकत्र किया था। यह प्रदर्शन सार्वजनिक था। भारत के इतिहास तथा परम्परा में क्षात्रवृत्ति का अनुसरण करने वाले वीरों की गौरव गाथा का विस्तारपूर्वक उल्लेख मिलता है। त्रेतायुग के दशरथ पुत्र वीरों का उल्लेख हमें स्मरण दिलाता है कि अत्याचार, अनाचार तथा आसुरी वृत्तियों को पराजित करने के लिए राम ने कितना पुरुषार्थ किया था। उनका वन गमन इसी उद्देश्य से हुआ था। मानसकार ने राम के मुख से कहलाया है- निशिचरहीन करौ मही भुज उठाय प्रण कीन। राम ने भुजा उठाकर प्रतिज्ञा की- मैं इस धरती को असुरों से रहित कर दूंगा। द्वापर में भगवान श्री कृष्ण तथा पाण्डवों के पराक्रम और पौरुष की गाथा भगवान् श्री कृष्ण द्वैपायन व्यास ने अपने अमरग्रन्थ महाभारत में विस्तार से गाई है। यहां श्री कृष्ण को वेद वेदांग का ज्ञाता तो कहा ही है, भीष्म के शब्दों में वे बल में भी तत्कालीन सब वीरों में अग्रगण्य हैं। (द्रष्टव्य महाभारत सभा पर्व में पितामह का कथन) वेद वेदांग विज्ञान बलं चाप्यधिकं तथा। नृणां लोके कोऽन्योस्ति विशिष्ट: केशवाहते।। मनुष्य लोक में सुदर्शन चक्रधारी श्री कृष्ण से बढ़कर कोई बलशाली तथा शास्त्रज्ञ नहीं हुआ। जहां तक अर्जुन का सम्बन्ध है उसकी तो दो प्रतिज्ञाएं सर्वविदित हैं- अर्जुनस्य प्रतिज्ञे द्वे न दैन्यं न पलायनम्। अर्जुन ने युद्ध में न तो दीनता दिखलाई और न कभी पलायन किया। गाण्डीवधारी पार्थ तथा गदाधारी भीम अपने युग के महावीर थे। आर्य धर्म में शस्त्र और शास्त्र को तुल्य महत्व मिला था। यहां यह स्वीकार किया गया था कि शस्त्र के द्वारा रक्षित राष्ट्र में ही शास्त्र का चिन्तन सम्भव होता है- शस्त्रेण रक्षिते राष्ट्रे शास्त्र चिन्ता प्रवर्त्तते। भारतीय इतिहास में परशुराम शस्त्र और शास्त्र दोनों में सफल बताए गए हैं। उनके एक हाथ में शस्त्र है तो दूसरे में शास्त्र है। बाण (शर) क्षात्रधर्म का प्रतीक है तो शास्त्र ब्राह्मण धर्म का प्रतीक है। परशुराम के शब्दों में- इदं ब्रह्मं इदं क्षत्रं शापादऽपि शराद्ऽपि। मैं शत्रु से लोहा लेने के लिए हर तरह से तैयार हूं। यदि वे युद्ध करना चाहते हैं तो मेरा परशु (फरसा) तैयार है और यदि वे ब्राह्मण के शाप को ग्रहण करने की शक्ति रखते हैं तो वह भी तैयार है। वीरों की यह परम्परा अद्यपर्यन्त चली आई है। सम्राट चन्द्रगुप्त की वीरता को बल मिला विष्णुगुप्त चाणक्य की नीति तथा शास्त्रज्ञता से। मध्यकाल के वीरों में महाराणा प्रताप, मराठा वीर शिवाजी तथा दशम गुरु गोविन्द सिंह की वीरत्रयी का उल्लेख आवश्यक है। महाराणा ने तो (मेवाड़) उदयपुर की स्वाधीनता की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व बलिदान किया। स्त्री और सन्तान सहित वर्षों तक वनों में भटकते रहे। अन्ततः उन्होंने अपनी प्रजा के हित को सर्वोपरि रखा और मुगल बादशाह की सत्ता को अस्वीकार किया। उदयपुर के राजचिन्ह के साथ क्षात्र धर्म का आदर्श सदा अंकित रहा। राजस्थान के अन्य राज्यों ने भी वीरता के आदर्श को ही स्वीकार किया था। जोधपुर के राठौड़ राजाओं के लिए यह उक्ति प्रसिद्ध है- क्षत्रियस्य परमोधर्मः प्रजानामेव पालनम्। प्रजा का पालन ही क्षत्रिय का परम धर्म है। रणबंका राठौड़- राठौड़ क्षत्रिय युद्ध में बांके सिद्ध हुए हैं। शिवाजी के पराक्रम कूटनीति तथा शस्त्र कौशल का लोहा तो मुगल बादशाह औरंगजेब को भी स्वीकार करना पड़ा था। शिवाजी ने हिन्दू धर्म, संस्कृति और मानवता के मूल्यों की रक्षा के लिए आजीवन संघर्ष किया। महाकवि भूषण का यह कथन शतप्रतिशत सत्य है- शिवाजी न होतो तो सुनत होती सबकी। उधर पंजाब के सिख गुरु गोविन्द सिंह ने अपने शिष्यों में वीर भावना जगाई। उनका कहना था कि अब तक हिन्दू चिड़िया की भांति सीधे साधे थे, अत्याचारों का मुकाबला करने की सामर्थ्य उनमें नहीं थी। गुरु महाराज की प्रतिज्ञा थी, मैं चिड़ियों को बाज बनाऊँगा अर्थात् बाज जैसे शक्तिशाली पक्षी की भांति शत्रु पर टूट पड़ने का साहस उनमें पैदा करूंगा। वस्तुतः सिख मत में जो क्षात्र भावना जगी उसका प्रयोग हिन्दू धर्म की आततायियों से रक्षा करना था। नवम गुरु तेजबहादुर के बारे में कहा गया है- गुरु महाराज ने हिन्दू धर्म के प्रतीक यज्ञोपवीत, शिखा तथा तिलक की रक्षा की। सचमुच उन्होंने कलियुग में वीरता, त्याग और बलिदान का अपूर्व आदर्श प्रस्तुत किया। विजयदशमी से हमें यही प्रेरणा लेनी है। स्वाधीनता सेनानी बलिदानी लोगों ने क्षात्र धर्म के प्रतीक बसन्ती चोले को पहना और देश के लिए आत्म बलिदान किया था। अहिंसा के साथ-साथ दुष्टों के दमन के लिए शस्त्रों का प्रयोग सर्वथा वांछनीय है। परमात्मा भी बलशाली है, अतः उससे हम बल की ही प्रार्थना करते हैं- बलमसि बलमयि धेहि। हे परमात्मन्! आप बल के भण्डार हैं, हममें बल को धारण कराएं। [स्त्रोत- वैदिक सार्वदेशिक : सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा, नई दिल्ली का साप्ताहिक मुख-पत्र का २२-२८ अक्टूबर, २०२० का अंक; प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ]
राष्ट्रभाषा में छुपा है राष्ट्रीय एकता का बीज ( vedicvichar )
18-10-2021
मातृभाषा को मात्र भाषा ना समझें. नहीं तो मातृभाषा को मृत भाषा बनने से कोई नहीं रोक सकता. ---------- 1- अफ्रिका महाद्वीप - 46 पिछडे देश 21 देश फ्रांसीसी में सीखते हैं। 18 देश अंग्रेज़ी में सीखते हैं।, 5 देश पुर्तगाली में सीखते हैं।, 2 देश स्पेनिश में सीखते हैं।, उन देशों के लिए ये सारी परदेशी भाषाएँ हैं। उनपर शासन करने वालों की भाषाएँ. इनमें से कितने देश आगे बढे हैं? शून्य ---------- 2- जापान दुनिया की 6 भाषाओं से शोधपत्र (रिसर्च पेपर)का अनुवाद जर्मन, फ्रांसीसी, रूसी, अंग्रेज़ी, स्पेनिश और डच भाषाओं से शोधपत्रों का जापानी में अनुवाद करवाते है। , जापानी भाषा में मात्र ३ सप्ताह में प्रकाशित किया जाता है।अनुवाद छापकर जापानी विशेषज्ञों को मूल कीमत से भी सस्ते मूल्य पर बेचे जाते हैं. जापान की उन्नति का कोई प्रमाण देने की जरूरत नहीं. --------------------------- 3- पाकिस्तान - आपको जानकार आश्चर्य होगा कि पाकिस्तान की अपनी भाषा क्या है यह आज भी विवाद का विषय है. सरकारी कामकाज + उच्च शिक्षा - अंग्रेजी संसद की भाषा + मिडिया की भाषा -- उर्दू घर की भाषा- पंजाबी, सिन्धी, बलोच आदि. 1947 से पहले पाकिस्तान के किसी भी हिस्से की मुख्य भाषा उर्दू नहीं थी. पाकिस्तान के हालत -- 60 % पाकिस्तान में पीने लायक पानी नहीं. 25% पाकिस्तान इतना अधिक अशान्त है कि वहां पाकिस्तान का प्रधानमन्त्री भी नहीं जा सकता. ---- 4--इजरायल देश से आप परिचित ही हैं जो द्वितीय विश्व युद्ध के बाद 1948 में विश्व भर में फैले यहूदियों को एक स्थान पर बसाने के लिए बनाया गया। आज वहाँ की मुख्य राजभाषा हिब्रू है और सहयोगी भाषाएँ अँग्रेजी एवं अरबी हैं। अँग्रेजी और अरबी तो आज विश्व के अनेक देशों में बोली जाती हैं, पर हिब्रू ऐसी भाषा है जो दुनिया के नक़्शे से लगभग गायब ही हो गई थी। इसके बावजूद यदि आज वह जीवित है और एक देश की राजभाषा के प्रतिष्ठित पद पर आसीन है • दुनिया में प्रति व्यक्ति पेटेंट कराने वालों में इजरायलियों का स्थान पहला है. इजरायल की जनसंख्या न्यूयॉर्क की आधी जनसंख्या के बराबर है. इजराइल का कुल क्षेत्रफल इतना है कि तीन इजराइल मिल कर भी राजस्थान जितना नहीं हो सकते. इजरायल दुनिया का इकलौता ऐसा देश है, जो समूचा एंटी बैलिस्टिक मिसाइल डिफेंस सिस्टम से लैस है. इजरायल के किसी भी हिस्से में रॉकेट दागने का मतलब है मौत. इजरायल की ओर जाने वाला हर मिसाइल रास्ते में ही दम तोड़ देता है. इजरायल अपने जन्म से अब तक 7 लड़ाइयां लड़ चुका है. जिसमें अधिकतम में उसने जीत हासिल की है. इजरायल दुनिया में जीडीपी के प्रतिशत के मामले में सर्वाधिक खर्च रक्षा क्षेत्र पर करता है इजरायल के कृषि उत्पादों में 25 साल में सात गुणा बढ़ोतरी हुई है, जबकि पानी का इस्तेमाल जितना किया जाता था, उतना ही अब भी किया जा रहा है. इजरायल अपनी जरुरत का 93 प्रतिशत खाद्य पदार्थ खुद पैदा करता है. खाद्यान्न के मामले में इजरायल लगभग आत्मनिर्भर है. एक भाषा से एकता का उदाहरण है इजरायल . ------------------ 5-राष्ट्र भाषा और महर्षि दयानन्द -- भारतवर्ष के इतिहास में महर्षि दयानन्द पहले व्यक्ति हैं जिन्होंने अहिन्दी भाषी गुजराती होते हुए पराधीन भारत में सबसे पहले राष्ट्रीय एकता एवं अखण्डता के लिए हिन्दी को सर्वाधिक महत्वपूर्ण जानकर मन, वचन व कर्म से इसका प्रचार-प्रसार किया। दिसम्बर, 1872 को स्वामीजी वैदिक मान्यताओं के प्रचारार्थ भारत की तत्कालीन राजधानी कलकत्ता पहुंचे थे और वहां उन्होंनें अनेक सभाओं में व्याख्यान दिये। ऐसी ही एक सभा में स्वामी दयानन्द के संस्कृत भाषण का बंगला में अनुवाद गवर्नमेन्ट संस्कृत कालेज, कलकत्ता के उपाचार्य पं. महेशचन्द्र न्यायरत्न कर रहे थे। दुभाषिये वा अनुवादक का धर्म वक्ता के आशय को स्पष्ट करना होता है परन्तु श्री न्यायरत्न महाशय ने स्वामी जी के वक्तव्य को अनेक स्थानों पर व्याख्यान को अनुदित न कर अपनी उनसे विपरीत मान्यताओं को सम्मिलित कर वक्ता के आशय के विपरीत प्रकट किया जिससे व्याख्यान में उपस्थित संस्कृत कालेज के छात्रों ने उनका विरोघ किया। विरोध के कारण श्री न्यायरत्न बीच में ही सभा छोड़कर चले गये थे। प्रसिद्ध ब्रह्मसमाजी नेता श्री केशवचन्द्र सेन भी इस सभा में उपस्थित थे। बाद में इस घटना का विवेचन कर उन्होंने स्वामी जी को सुझाव दिया कि वह संस्कृत के स्थान पर लोकभाषा हिन्दी को अपनायें। गुण ग्राहक स्वाभाव वाले स्वामी दयानन्द जी ने तत्काल यह सुझाव स्वीकार कर लिया। यह दिन हिन्दी के इतिहास की एक प्रमुख घटना थी कि जब एक 48 वर्षीय गुजराती मातृभाषा के संस्कृत के अद्वितीय विद्वान ने हिन्दी को अपना लिया। ऐसा दूसरा उदाहरण इतिहास में अनुपलब्ध है। इसके बाद स्वामी दयानन्द जी ने जो प्रवचन किए उनमें वह हिन्दी का ही प्रयोग करने लगे। थियोसोफिकल सोसासयटी की नेत्री मैडम बैलेवेटेस्की ने स्वामी दयानन्द से उनके ग्रन्थों के अंग्रेजी अनुवाद की अनुमति मांगी तो स्वामी दयानन्द जी ने 31 जुलाई 1879 को विस्तृत पत्र लिख कर उन्हें अनुवाद से हिन्दी के प्रचार-प्रसार एवं प्रगति में आने वाली बाधाओं से परिचित कराया। स्वामी जी ने लिखा कि अंग्रेजी अनुवाद सुलभ होने पर देश-विदेश में जो लोग उनके ग्रन्थों को समझने के लिए संस्कृत व हिन्दी का अध्ययन कर रहे हैं, वह समाप्त हो जायेगा। हिन्दी के इतिहास में शायद कोई विरला ही व्यक्ति होगा जिसने अपनी हिन्दी पुस्तकों का अनुवाद इसलिए नहीं होने दिया जिससे अनुदित पुस्तक के पाठक हिन्दी सीखने से विरत होकर हिन्दी प्रसार में बाधक हो सकते थे। हरिद्वार में एक बार व्याख्यान देते समय पंजाब के एक श्रद्धालु भक्त द्वारा स्वामीजी से उनकी पुस्तकों का उर्दू में अनुवाद कराने की प्रार्थना करने पर उन्होंने आवेश पूर्ण शब्दों में कहा था कि अनुवाद तो विदेशियों के लिए हुआ करता है। देवनागरी के अक्षर सरल होने से थोड़े ही दिनों में सीखे जा सकते हैं। हिन्दी भाषा भी सरल होने से आसानी से कुछ ही समय में सीखी जा सकती है। हिन्दी न जानने वाले एवं इसे सीखने का प्रयत्न न करने वालों से उन्होंने पूछा कि जो व्यक्ति इस देश में उत्पन्न होकर यहां की भाषा हिन्दी को सीखने में परिश्रम नहीं करता उससे और क्या आशा की जा सकती है? ---------------------------------------- आज जरूरत है भाषा गौरव जगाने की
नहले पर दहला (vedicvichar )
18-10-2021
एक मतान्ध आकर बोला की आर्यसमाज और इस्लाम तो एक ही हैं। दोनों निराकार ईश्वर को मानते है और दोनों मूर्तिपूजा में विश्वास नहीं करते। मैंने कहा आपको पूरी जानकारी नहीं हैं। ईश्वर और अल्लाह एक नहीं हैं। ईश्वर वो है जिनके विषय में वेदों में बताया गया हैं। अल्लाह वो है जिनके विषय में क़ुरान में बताया गया हैं। १) वैदिक ईश्वर सर्वव्यापक (omnipresent) है, जबकि अल्लाह सातवें आसमान पर रहता है अर्थात एकदेशी है। २) ईश्वर सर्वशक्तिमान (omnipotent) है, वह कार्य करने में किसी की सहायता नहीं लेता, जबकि अल्लाह को फरिश्तों और जिन्नों की सहायता लेनी पडती है। ३) ईश्वर न्यायकारी है, वह जीवों के कर्मानुसार नित्य न्याय करता है, जबकि अल्लाह केवल क़यामत के दिन ही न्याय करता है, और वह भी उनका जो की कब्रों में दफनाये गए हैं। ४) ईश्वर क्षमाशील नहीं, वह दुष्टों को दण्ड अवश्य देता है, जबकि अल्लाह दुष्टों, बलात्कारियों के पाप क्षमा कर देता है। मुसलमान बनने वाले के पाप माफ़ कर देता है। ५) ईश्वर कहता है, "मनुष्य बनों" *मनु॑र्भव ज॒नया॒ दैव्यं॒ जन॑म् - ऋग्वेद 10.53.6*, जबकि अल्लाह कहता है, मुसलमान बनों. सूरा-2, अलबकरा पारा-1, आयत-134,135,136 ६) ईश्वर सर्वज्ञ है, जीवों के कर्मों की अपेक्षा से तीनों कालों की बातों को जानता है, जबकि अल्लाह अल्पज्ञ है। उसे पता ही नहीं था की शैतान उसकी आज्ञा पालन नहीं करेगा, अन्यथा शैतान को पैदा क्यों करता? ७) ईश्वर निराकार होने से शरीर-रहित है, जबकि अल्लाह शरीर वाला है, एक आँख से देखता है। मैंने (ईश्वर) ने इस कल्याणकारी वेदवाणी को सब लोगों के कल्याण के लिए दिया है-यजुर्वेद ''अल्लाह 'काफिर' लोगों (गैर-मुस्लिमो ) को मार्ग नहीं दिखाता'' (१०.९.३७ पृ. ३७४) (कुरान 9:37) . ८- ईशवर कहता है सं गच्छध्वं सं वदध्वं सं वो मनांसि जानताम् ।देवां भागं यथापूर्वे संजानाना उपासते ।।-(ऋ० १०/१९१/२) अर्थ:-हे मनुष्यो ! मिलकर चलो,परस्पर मिलकर बात करो। तुम्हारे चित्त एक-समान होकर ज्ञान प्राप्त करें। जिस प्रकार पूर्व विद्वान,ज्ञानीजन सेवनीय प्रभु को जानते हुए उपासना करते आये हैं,वैसे ही तुम भी किया करो। क़ुरान का अल्ला कहता है ''हे 'ईमान' लाने वालों! (मुसलमानों) उन 'काफिरों' (गैर-मुस्लिमो) से लड़ो जो तुम्हारे आस पास हैं, और चाहिए कि वे तुममें सखती पायें।'' (११.९.१२३ पृ. ३९१) (कुरान 9:123) . ९- अज्येष्ठासो अकनिष्ठास एते सं भ्रातरो वावृधुः सौभाय ।-(ऋग्वेद ५/६०/५) अर्थ:-ईश्वर कहता है कि हे संसार के लोगों ! न तो तुममें कोई बड़ा है और न छोटा।तुम सब भाई-भाई हो। सौभाग्य की प्राप्ति के लिए आगे बढ़ो। ''हे 'ईमान' लाने वालो (केवल एक आल्ला को मानने वालो ) 'मुश्रिक' (मूर्तिपूजक) नापाक (अपवित्र) हैं।'' (१०.९.२८ पृ. ३७१) (कुरान 9:28) १० क़ुरान का अल्ला अज्ञानी है वे मुसलमानों का इम्तिहान लेता है तभी तो इब्रहीम से पुत्र की क़ुर्बानी माँगीं। वेद का ईशवर सर्वज्ञ अर्थात मन की बात को भी जानता है उसे इम्तिहान लेने की अवशयकता नही। ११ अल्ला जीवों के और काफ़िरों के प्राण लेकर खुश होता है लेकिन वेद का ईशवर मानव व जीवों पर सेवा भलाई दया करने पर खुश होता है। ऐसे तो अनेक प्रमाण है, किन्तु इतने से ही बुद्धिमान लोग समझ जायेंगे की तो ईश्वर और अल्लाह एक नहीं हैं। न ही आर्यसमाज और इस्लाम एक हैं। ????????सनातन धर्म की जय हो????????
महर्षि दयानन्द सरस्वती के अनुयायी क्यों बनें ? (Vedicvichar)
18-10-2021
1. दयानन्द का सच्चा अनुयायी भूत-प्रेत, पिशाच, डाकिनी, शाकिनी आदि कल्पित पदार्थों से कभी भयभीत नहीं होता । 2. आप फलित ज्योतिष, जन्म-पत्र, मुहूर्त, दिशा-शूल, शुभाशुभ ग्रहों के फल, झूठे वास्तु शास्त्र आदि धनापहरण के अनेक मिथ्या जाल से स्वयं को बचा लेंगें । 3. कोई पाखण्डी साधु, पुजारी, गंगा पुत्र आपको बहका कर आपसे दान-पुण्य के बहाने अपनी जेब गरम नहीं कर सकेगा । 4. शीतला, भैरव, काली, कराली, शनैश्चर आदि अप-देवता, जिनका वस्तुतः कोई अस्तित्व ही नहीं है, आपका कुछ भी अनिष्ट नहीं कर सकेंगे । जब वे हैं ही नहीं तो बेचारे करेंगे क्या ? 5. आप मदिरापान, धूम्रपान, विभिन्न प्रकार के मादक से बचे रह कर अपने स्वास्थ्य और धन की हानि से बच जायेंगे । 6. बाल-विवाह, वृद्ध-विवाह, नारी-प्रताडना, पर्दा-प्रथा, अस्पृश्यता आदि सामाजिक बुराइयों से दूर रहकर सामाजिक सुधार के उदाहरण बन सकेंगे । 7. जीवन का लक्ष्य सादगी को बनायेंगे और मित व्यवस्था के आदर्श को स्वीकार करने के कारण दहेज, मिलनी, विवाहों में अपव्यय आदि पर अंकुश लगाकर आदर्श उपस्थित करेंगे । 8. दयानन्द का अनुयायी होने के कारण अपने देश की भाषा, संस्कृति, स्वधर्म तथा स्वदेश के प्रति आपके हृदय में अनन्य प्रेम रहेगा । 9. आप पश्चिम के अन्धानुकरण से स्वयं को तथा अपनी सन्तान को बचायेंगे तथा फैशन परस्ती, फिजूलखर्ची, व्यर्थ के आडम्बर तथा तडक-भडक से दूर रहेंगे । 10. आप अपने बच्चों में अच्छे संस्कार डालेंगे ताकि आगे चलकर वे शिष्ट, अनुशासन प्रिय, आज्ञाकारी बनें तथा बडों का सम्मान करें । 11. आप अपने कार्य, व्यवसाय, नौकरी आदि में समय का पालन, ईमानदारी, कर्त्तव्यपरायणता को महत्त्व देंगे ताकि लोग आपको मिसाल के तौर पर पेश करें । 12. वेदादि सद् ग्रन्थों के अध्ययन में आपकी रुचि बढेगी, फलतः आपका बौद्धिक स्तर ऊंचा होगा । इसलिए आइये लौट चले वेदों की ओर ।
कौन जानता है हमने क्या पाप किया ? (Vedicvichar)
18-10-2021
किं स्विन्नो राजा जगृहे कदस्या अति व्रतं चकृमा को वि वेद | मित्रश्चिद्धि ष्मा जुहुराणो देवाञ्छ्लोको न यातामपि वाजो अस्ति || ( ऋग्वेद 10-12-5 ) व्याख्या - यदि सेना अपने शस्त्रों से प्रजा की रक्षा न करके उसकी हत्या करने लग जाए , तो चतुर धार्मिक राज या राज्यसत्ता सेना से हथियार छीन लेती है और अन्य उचित दण्ड भी देती है । इसी प्रकार जीव जब अपने हथियारों से उपकार के स्थान में संसार का अपकार करने लगता है और सीमा का उल्लंघन कर जाता है तो न्यायकारी भगवान् उससे उस हथियार को , साधन को छीन लेते हैं और उसे ऐसी योनि देते हैं , जहाँ उसे पाप का अवसर न मिले । अल्पज्ञ राजा के दण्डविधान में भले ही स्खलन हो सकता है , किन्तु सर्वज्ञाननिधान भगवान् के व्यवस्थाविधान में स्खलन होने की कोई सम्भावना नहीं है , अतः जब किसी से कोई साधन छिन जाता है , तब यदि वह विवेकी होता है तो कहता है --- किं स्विन्नो राजा जगृहे = अरे राजा ने हमारा किया लिया है अर्थात कुछ नहीं लिया है । यह कैसे ? सुनो --- कदस्याति व्रतं चकृमा को विवेद = कौन जानता है कि किस किस तरह हमने उसके नियम तोड़े हैं ? पाप करने के पश्चात् प्रायः मनुष्य अपनी करतूत को भूल जाता है । जब उसका फल मिलने लगता है तब तिलमिलाता है और भगवान् को उपालम्भ देता है , किन्तु बुद्धिमान मनुष्य जानता है कि दुःख पाप का फल है । पाप के बिना दुःख मिल नहीं सकता । जहाँ दुःख देखो , समझ लो , पाप फल रहा है , अतः वह उपालम्भ न देकर कहता है --- कदस्याति व्रतं चकृमा को विवेद = कौन जानता है कि किस किस तरह हमने उसके नियम तोड़े हैं ? और जो पाप का फल भोगते हुए धर्ममार्ग नहीं छोड़ते , धर्म पर दृढ धारणा धारे रखते हैं , उन --- श्लोको न यातामपि वाजो अस्ति = विचलित न होनेवालों के लिए कीर्ति भी है और वाज भी , अथवा विचलित होनेवालों की न कीर्ति होती है और न जीवन-गति । जो विचलित नहीं होते केवल उनका यश ही नहीं बढ़ता , वरन् उनको सब प्रकार की जीवन सामग्री भी मिलती है और जो विचलित हो जाते हैं , उनको न यश मिलता है न सम्पदा । व्याख्याकर्ता -- स्वामी वेदानन्द 'तीर्थ
कौन तुझे भजते हैं ( vedicvichar )
18-10-2021
ईळते त्वामवस्यवः कण्वासो वृक्तबर्हिषः । हविष्मन्तो अरंकृतः ॥ ऋ 1/14/5 अर्थ- हे परमेश्वर! (अवस्यवः) अपनी सुरक्षा चाहनेवाले, जिज्ञासु [अव गतौ] (कण्वासः) मेधावी [रण शब्दे] जो तुम्हारी स्तुति करते और कण-कण का ज्ञान अर्जन करते हैं (वृक्तबर्हिषः) जिन्होंने अपने हृदयों के झाड़-झंखाड़ों (वासनाओं) को काटकर तुम्हारे बैठने के लिये अपना हृदय सिंहासन सजाया है। (हविष्मन्तः) जिनका जीवन हवि के समान पवित्र बन गया है, (अरंकृतः) जो यम-नियमों के पालन से सुशोभित हो गये हैं या जिन्होंने संसार के भोगों से अलं=‘बस’ कर लिया है (त्वाम्) तुझे वे जन (ईडते) भजते हैं। परमात्मा की भक्ति तो अपने-अपने विश्वास के अनुसार बहुत से लोग करते हैं। यहाँ तक कि चोर-लुटेरे भी अपने कार्य की सिद्धि के लिये देवी-देवताओं की मनौती मनाते हैं। गीता में इन सभी भक्तों को चार श्रेणियों में विभक्त किया है चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन। आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभः।। तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एक भक्तिर्विशिष्यते। गीता 7.16-17।। दुखों से ग्रस्त, जिज्ञासु=जानने की इच्छा वाले, सांसारिक धनैश्वर्य को चाहने वाले और ज्ञानी, ये चार प्रकार के लोग भगवान् की भक्ति करते हैं जिनमें परमात्मा में अनन्य प्रेम, भक्ति रखने वाला ज्ञानी ही सबसे श्रेष्ठ है। सर्वप्रथम दुखी लोगों को ही भगवान् का नाम स्मरण होता है ‘दुख में सुमरिन सब करें सुख में करे न कोय’। जब व्यक्ति सभी ओर से अपने आपको संकटों से घिरा हुआ पाता है और उसे कोई दूसरा उपाय नहीं सूझता तब वह भगवान् की शरण में जाता है। दूसरी श्रेणी के लोग इसलिये भी भगवान् का नाम स्मरण करते हैं कि चलो देखें तो सही कि भगवान् कैसा है और उसकी भक्ति से कुछ लाभ होता है या नहीं। तीसरी श्रेणी में वे लोग हैं जो सांसारिक धन-सम्पत्ति या अपने कार्य की सफलता, पद-प्राप्ति आदि को ध्यान में रख जप, तप, अनुष्ठान आदि करते हैं। इनका दृष्टिकोण विशुद्ध व्यापारिक होता है। चतुर्थ श्रेणी में ज्ञानी आते हैं जिन्हें किसी प्रकार के दुख निवारण, जिज्ञासा और सांसारिक वस्तु की इच्छा नहीं है। वे अनन्य भाव से उसके प्रेम और भक्ति में श्रद्धान्वित होकर लगे रहते हैं। ईश्वर-प्राप्ति के उपायों में भक्तियोग सबसे सुगम है कहहु भक्ति पथ कवन प्रयासा, जोग न मख जप तप उपवासा। सरल स्वभाव न मन कुटिलाई, जथा लाभ सन्तोष सुहाई।। (रामचरित. उ. का.) परमात्मा में अनन्य प्रेम होना ही भक्ति है। वेद का यह मन्त्र मार्गदर्शन करते हुये कहता है 1. अवस्यव- जिन्हें मृत्यु सामने दिखाई देती है और वे उससे बचना चाहते हैं तो दूसरे उपायों को सुरक्षित न मान वे प्रभु की शरण को सर्वोत्तम जान उसी के शरणागत हो जाते हैं। 2. कण्वास- मेधावी लोग ही ठीक प्रकार से भक्तियोग का अभ्यास कर सकते हैं। परमात्मा को इन्द्रियों द्वारा देखा जाना सम्भव नहीं। उसे केवल ज्ञान-नेत्र अर्थात्- अन्तःकरण से अनुभव मात्र किया जा सकता है। जैसे कि हमें भूख-प्यास की अनुभूति होती है। भक्ति केवल अन्ध श्रद्धा न होकर ज्ञान सहित सर्वात्मना अपने आपको परमात्मा में निमग्न कर देना है। यह कार्य बुद्धिमान् ही कर सकता है, अज्ञानी नहीं। 3. वृक्तबर्हिष- जैसे यज्ञादि में झाड़-झंखाड़ और पत्थरों को हटाकर भूमि को समतल कर सुन्दर आसन बिछाये जाते हैं जिन पर ऋत्विक् लोग बैठते हैं वैसे ही परमात्मा का आवाहन करने के लिये हृदयवेदि के चारों ओर उगी काम-क्रोध की खरपतवार और राग-द्वेष के कण्टकों को हटाकर श्रद्धा का आसन बिछाया जाता है तब कहीं वे परमदेव आकर बैठते हैं। 4. हविष्मन्त- यज्ञ में जिन पदार्थ़ों की आहुति दी जाती है, पहले उन्हें शुद्ध करते हैं और फिर शाकल्य बना विधि-विधान से अग्नि में उसकी आहुति देते हैं। इसी भाँति जिनका जीवन पवित्र हो गया है उन्हीं पर परमात्मा कृपादृष्टि करते हैं। अतप्ततनूर्न तदामो अश्नुते=जिसने अपने आपको तप की भट्ठा् में तपाया नहीं वह कच्चा है और जैसे कच्चे घड़े में पानी नहीं ठहरता वैसे ही उसे परमात्मा का दर्शन नहीं होता। 5. अरङ्कृत- जब किसी के यहाँ कोई अतिथि आता है तो घर का स्वामी स्वयं स्वच्छ वत्र पहनकर अन्य कार्य़ों से निवृत्त होकर द्वार पर उसकी प्रतीक्षा करता है। ऐसे ही उस प्रभु को अपना अतिथि बनाने के लिये यम-नियमों से सुसज्जित और सांसारिक झंझटों से विरक्त होकर उत्सुकता से उसकी प्रतीक्षा में पलक-पांवड़े बिछाने होते हैं। भक्ति का नशा इतना चढ़ जाये कि क्षणभर भी प्रभु से दूर होना कष्टदायक हो, तब कहीं जाकर उसकी कृपादृष्टि होती है। जिसके दर्शन हो जाने पर अन्य किसी को जानने या देखने की इच्छा शेष नहीं रहती।
Vedic vichar
18-10-2021
शंका- वेदों की क्या आज के काल में प्रासंगिकता है क्यूंकि आज किसी कि भी वेदों को पढ़ने में विशेष रूचि नहीं हैं। यहाँ तक वेद को पढ़े तो अत्यंत रूखे लगते है। समाधान- आप पानी तभी पीते है, जब आपको प्यास लगती है। अगर आप को प्यास नहीं है, तो चाहे कितने भी पानी के गिलास आपके सामने रख दिए जाये। आपको पानी पीने की कोई इच्छा नहीं होगी और अगर आपको जोर से प्यास लगी हो तो पानी देखते ही आपकी ऑंखें चमक उठती हैं, मन आनंद से भर जाता है और पानी पीकर आपको तृप्ति का अनुभव होता है। इसी प्रकार से वेदों में रूचि भी उसी की बनती हैं। जिसे आध्यात्मिक प्यास होती है। आज समाज में भोगवाद की लहर के चलते सभी भोग के साधन जुटाने एवं उनसे आनंद प्राप्त करने में मग्न है। इसलिए जीवन के उद्देश्य को जानने के लिए वेदों के ज्ञान को प्राप्त करने की आध्यात्मिक प्यास किसी को भी नहीं है। सांसारिक जगत की चकाचोंध के समक्ष मानव भूल गया है कि उसनें जन्म क्यों लिया हैं। इसी आध्यात्मिक प्यास को बनाये रखने के लिए ऋषियों ने घरों में संस्कार कराने का विधान रखा था। इसी आध्यात्मिक प्यास को बनाये रखने के लिए सन्यास आश्रम के माध्यम से विरक्ति का सन्देश दिया जाता था। इसी आध्यात्मिक प्यास को बनाये रखने के लिए विद्वानों का सत्संग और स्वाध्याय का प्रावधान बनाया गया था। मनुष्य जो बहुर्मुखी से अंतरमुखी बनाने का प्रयोजन भी यही था। संसार के भौतिक पदार्थ मनुष्य को अंतरमुखी से बहुर्मुखी बनाते हैं। जबकि अध्यात्म मनुष्य को बहुर्मुखी से अंतरमुखी बनाता है। बहुर्मुखी व्यक्ति को वेदादि शास्त्र रूखे एवं अनावश्यक लगते है, जबकि अंतरमुखी व्यक्ति वेदों की ज्ञान गंगा में बार बार डुबकी लगाना चाहता हैं। एक उदहारण लीजिये बचपन में जिस प्रकार रूचि लेने पर बड़ी से बड़ी गणित की समस्या को विद्यार्थी सुलझा लेता हैं, उसी प्रकार अध्यात्म में रूचि लेने पर वेद विषय भी आसान हो जाता है। इसलिए यह कहना की वेद रूखे है, अप्रासंगिक है, भ्रान्ति है क्यूंकि रूखे वेद नहीं अपितु रुखा व्यक्ति का मानसिक चिंतन है, जिसमे ज्ञान रूपी बीज बंजर भूमि में वृक्ष नहीं बन पाता है।
परमपिता परमात्मा
18-10-2021
परमपिता परमात्मा से हमें मिला ये आध्यात्मिक ऐश्वर्य सांसारिक ऐश्वर्य से कई गुना बहुमूल्य है। उपासना हमारे जीवन का सबसे उत्तम आभूषण है। इसमें आर्य समाज और महर्षि दयानंद का योगदान उल्लेखनीय है। – आर्या मनु (मैत्रेयी)
शास्त्रों ने अर्थात् उपनिषदों का कथन है कि --- " मातृ देवो भव , पितृ देवो भव , आचार्य देवो भव , अतिथि देवो भव । "
14-10-2021
अर्थात् माता के समान कोई महान व्यक्तित्व इस असार संसार में नहीं है , ऐसा हमारे शास्त्र मानते हैं । मताता को बहुत ऊंचा दर्जा दिया है । उन्होंने कहा है --- " नास्ति मात्रा समं तीर्थ , नास्ति मात्रा समा गतिः । नास्ति मात्रा समं त्राण , नास्ति मात्रा समा प्रपा ।। " ' माता के समान कोई तीर्थ नहीं । माता के समान गति नहीं , मान के सामान कोई रक्षक नहीं । माता की पूजा के समान कोई पुण्य नहीं । जिसकी माँ जीवित है उसे किसी भी दूसरे तीर्थ पर जाने की आवश्यकता नहीं । उसका तीर्थ घर में विद्यमान है । हमारे शास्त्रों ने माँ को यह दर्जा दिया तो बिना सोचे समझे नहीं । माँ ही इस संसार सागर को तरने के लिए मनुष्य को शरीर रूपी नौका प्रदान करती है । वह सुन्दर विचारों के चप्पू देकर कहती , जा बेटा ! अब इन चप्पुओं की सहायता से इस नौका को चला , जा तू भवसागर से पार हो जावेगा ।' इसलिए ही माता को देवता कहा । इस प्रकार पिता को आचार्य और अतिथि को भी देवता कहा । इन सब की पूजा करना , सत्कार करना , यह देव यज्ञ है । वैदिक प्रवक्ता - आचार्य जैमिनी मुनि परिव्राजक ।
ଓ୩ମ୍ ଭଗ ପ୍ରଣେତର୍ଭଗ ସତ୍ୟରାଧୋ ଭଗେମାଂ ଧିୟମୁଦବା ଦଦନ୍ନଃ ।* *ଭଗ ପ୍ରଣୋ ଜନୟ ଗୋଭିରଶ୍ୱୈର୍ଭଗ ପ୍ରର୍ନୂଭିନୃବନ୍ତଃ ସ୍ୟାମ ॥ଯଜୁର୍ବେଦ. ୩୪/୩୬॥
14-10-2021
*ବ୍ୟାଖ୍ୟା* :- ହେ ଭଗବନ୍ ! ପରମୈଶ୍ୱର୍ଯ୍ୟବାନ୍ ଭଗ ଐଶ୍ୱର୍ଯ୍ୟଦାତା, ସଂସାର ଅଥବା ପରମାର୍ଥରେ ଆପଣ ହିଁ ଏକ ଅର୍ଥାତ୍ ଅଦ୍ୱିତୀୟ ଅଟନ୍ତି । "ଭଗପ୍ରଣେତଃ'' ସକଳ ଐଶ୍ୱର୍ଯ୍ୟ ଆପଣଙ୍କ ସ୍ଵାଧୀନ ଅଟେ, ଅନ୍ୟ କାହାରି ଅଧୀନରେ ତାହା ନାହିଁ । ତେଣୁ ହେ ପ୍ରଭୋ ! ଆମର ସକଳ ପ୍ରକାର ଦାରିଦ୍ର୍ୟତାକୁ ଦୂରକରି ପରମେଶ୍ୱର୍ଯ୍ୟଯୁକ୍ତ କରନ୍ତୁ ; କାରଣ, ଆପଣ ସକଳ ଐଶ୍ୱର୍ଯ୍ୟର ପ୍ରେରକ ଅଟନ୍ତି । ହେ "ସତ୍ୟରାଧଃ'' ଭଗବନ୍ ! ସତ୍ୟୈଶ୍ୱର୍ଯ୍ୟ ସିଦ୍ଧି-କର୍ତ୍ତା ଆପଣ ଅଟନ୍ତି, ଦୟାକରି ଆମକୁ ନିତ୍ୟ, ସତ୍ୟ ଶାଶ୍ୱତ ଐଶ୍ୱର୍ଯ୍ୟ ପ୍ରଦାନ କରନ୍ତୁ । ତଥା ଆପଣ ମୁକ୍ତି ଦାତା ଅଟନ୍ତି, ଆପଣଙ୍କ ବ୍ୟତୀତ ଅନ୍ୟ କେହି ନୁହନ୍ତି । ହେ ସତ୍ୟଭଗ ! ପୂର୍ଣ୍ଣ ଐଶ୍ୱର୍ଯ୍ୟ ବୃଦ୍ଧି ଆମକୁ ପ୍ରଦାନ କରନ୍ତୁ, ଯଦ୍ଦ୍ୱାରା ଆପଣଙ୍କ ଗୁଣ ଓ ଆଜ୍ଞା ପାଳନ ଅନୁଷ୍ଠାନ-ଜ୍ଞାନରେ ଆମେ ସମର୍ଥ ହୋଇ ପାରିବୁ । ଆମକୁ ସତ୍ୟ ବୁଦ୍ଧି, ସତ୍ୟକର୍ମ ଓ ସତ୍ୟଗୁଣରେ "ଉଦବଃ'' (ଉଦ୍ଗମୟ ପ୍ରାପୟ) ପ୍ରେରିତ କରନ୍ତୁ, ଯାହା ଫଳରେ ସୂକ୍ଷ୍ମାତିସୂକ୍ଷ୍ମ ପଦାର୍ଥ ଜ୍ଞାନ ଲାଭ କରିପାରିବୁ । "ଭଗ ପ୍ର ନୋ ଜନୟ'' ହେ ସର୍ବେଶ୍ୱର୍ଯ୍ୟୋତ୍ପାଦକ ! ଆମପାଇଁ ଐଶ୍ୱର୍ଯ୍ୟକୁ ଉତ୍ତମ ରୀତିରେ ଉତ୍ପାଦନ କରନ୍ତୁ, ଉତ୍ତମ ଗାଈ, ଅଶ୍ୱ, ମାନବ ସହିତ ଅତ୍ୟୁତ୍ତମ ଐଶ୍ୱର୍ଯ୍ୟ ମଧ୍ୟ ସର୍ବଦା ଦାନ କରନ୍ତୁ । ହେ ସର୍ବଶକ୍ତିମନ୍ ! ଆପଣଙ୍କ କୃପାକଟାକ୍ଷରେ ହିଁ ଆମ୍ଭେମାନେ ଉତ୍ତମ ପୁରୁଷ, ଉତ୍ତମ ସ୍ତ୍ରୀ, ଉତ୍ତମ ସନ୍ତାନ-ସନ୍ତତି, ଆଜ୍ଞାପାଳକ ଭୃତ୍ୟ ପାଇ ସୁଖରେ କାଳାତିପାତ କରିବୁଁ । ସଂସାରରେ କେହିହେଲେ ଦୁଷ୍ଟ-ସ୍ୱଭାବଯୁକ୍ତ ମୁର୍ଖ ନ ରହନ୍ତୁ ଏହାହିଁ ଆପଣଙ୍କ ଠାରେ ମୋର ଅଭ୍ୟର୍ଥନା । ପ୍ରଭୋ ! ସର୍ବତ୍ର କୀର୍ତ୍ତି ଓ ଯଶ ପ୍ରଦାନ କର । *- ମହର୍ଷି ଦୟାନନ୍ଦ ସରସ୍ୱତୀ (ଆର୍ଯ୍ୟାଭିବିନୟ)*
Vedic Vichar
12-10-2021
एक कृषक का "योग" से बहुत गहरा संबंध होता है। एक स्वाध्याय शील कृषक ईश्वर के सबसे निकट होता है। कृषि करते समय उसके मन की सात्विकता का प्रभाव उसके द्वारा उत्पन्न अन्न पर पड़ता है, फिर वही अन्न खाकर लोगों के भी मन पर वैसा ही प्रभाव होता है। परंतु आज बड़ी विडंबना है, आज का कृषक को केवल उत्पादन के लिए अपनी मूल प्रकृति से समझौता करना पड़ रहा है। .... Vedic Vichar,
Vedicvichar
11-10-2021
ऋषियों ने मनुष्य के लिये संस्कारों का विधान किया है जिससे कि मनुष्य उन्नति के पथ पर आगे बढे। तो क्या संस्कारो के द्वारा मनुष्य को उत्कृष्ट बनाया जा सकता है? इस विषय मे दो विचार है कुछ कहते है कि प्राणी जो कुछ है वह वंशानुसंक्रमण heridity का परिणाम है , दूसरे कहते है कि वंशानुसंक्रमण मे इच्छित पर्यावारण से बदलाव लाया जा सकता है ,लेकिन संस्कार प्रणाली मे दोनो का मेल है। इस संस्कार प्रणाली मे संस्कारो को दो भागो मे बांटा गया है पहले वे संस्कार जो गर्भ के समय किये जाते है इन्हें गर्भस्थ संस्कार कहते है दूसरे वे संस्कार जो जन्म के बाद किये जाते है, जिन्हें जन्मस्थ संस्कार कहते है। आधुनिक विज्ञान कहता है कि माता पिता मे एक ऐसा तत्व होता है जो उनके शरीर और मनो को लेकर संतानों मे पहुंचता है जिससे माता पिता के शारीरिक व मानसिक गुण सन्तान मे आते है जिसे germ plasm उत्पादक कोष्ठको का तत्व कहते है , यह तत्व पीढीदर पीढी बना रहता है यही कारण है कि कभी - २ मनुष्य मे उसके दादा के गुण आ जाते है।प्रत्येक जीव का शरीर दो प्रकार के कोष्ठको (cell) से बना होता है जिनमें पहले उत्पादक सैल और दूसरे शरीर कोष्टक( somatic cell ) । इन दूसरे प्रकार के शरीर कोष्ठको से शरीर के अंगो का निर्माण होता है व शरीर बनता है और ये शरीर कोष्ठक शरीर की रचना के बाद मर जाते है।परन्तु इन नश्वर कोष्ठको से बने शरीर मे उत्पादक कोष्टक रहते है जिनकी रक्षा शरीर करता है और ये उत्पादक कोष्टक generative cell ही माता पिता से सन्तानों मे जाकर बने रहते है नर के cell को sperm और मादा के cells को ova कहते है इनके संयोग से शरीर बनता है और आगे संतति चलती है। यहाँ ध्यान रखना है कि germ plasm और generative cell दोनो अलग है।germ plasm वह पदार्थ है जो generative cell मे रहता है और माता पिता के गुण सन्तान मे लाता है। germ plasm मे एक गांठ सी होती है जिसे न्यूक्लियस कहते है इसमें भी छोटे-२ रेशे होते है इन्हें वर्ण सूत्र chromosome कहते है ये रंग पकड सकते है इसलिएवर्ण और रेशो के कारण सूत्र कहलाते है ये वर्णसूत्र ही पैत्रिक गुणों के वाहक है और ये ही ऊचाई लम्बाई कालापन गोरापन नीली भूरी आंखें आदि गुणों के कारक होते है।अब विचार करे कि जब माता पिता के गुण सन्तानों मे जाते है तो एक माँ बाप की सब सन्तानों मे समान गुण होने चाहिये लेकिन ऐसा नहीं होता।यहाँ तक की जुडवा सन्तानों के भी नहीं ।वैसे जुडवा दो प्रकार के होते है एक तो वह जो एक स्त्री के दो ova के संयोग से और दूसरे एक ova के दो भाग मे टूटने से जन्म होता है इनके भी गुण अलग होते है। अब वैदिक शास्त्रो के अनुसार मनुष्य जब कर्म करता है तो एक तो कर्म का फल जो कर्त्ता को मिलता है दूसरा परिणाम जिसके कारण कर्त्ता के साथ दूसरो को भी दु:ख सुख मिलते है।और तीसरा उस कर्म का संस्कार जो सूक्ष्म रूप मे सूक्ष्म शरीर पर चित्त पर बनता है जिससे अगला जन्म का स्थान व भोग बनते है।अब जैसे मनुष्य कर्म करता है वैसे ही संस्कार बनते है और आगे ऐसे ही गर्भ मे जाता है जहां उन संस्कारो को बढ़ने का अवसर मिले।अब सोचे एक मनुष्य ने जीवन भर बुरे काम किये इसलिए उसके चित्त पर बुरे संस्कार पडे है जिस कारण से वह दुष्ट माता पिता के यहाँ जन्म लेगा ।अब यहाँ संस्कार का महत्व है। दुनिया मे कोई भी माँ बाप नहीं चाहता की उसके सन्तान बुरी हो। चाहे स्वयं कितना भी दुष्ट हो पापी हो लेकिन संतान अच्छी चाहते है।अब एक माँ जिसमें दोष है बुराईयां है वह सोचती है कि मैं चाहे कैसी हूँ लेकिन मेरा बच्चा अच्छा होना चाहिये और अगर मैं गलत काम करुंगी तो बच्चे पर बुरा असर पडेगा।इसलिए वह बुराईयां छोड़ देती है।यहाँ देखे माँ का बलिदान कभी कभी माँ अपनी इच्छा भी त्याग देती है कि कहीं बच्चे पर बुरा असर न पडे।वह अपने अन्दर अच्छे संस्कार उत्पन्न करती है इसीलिए तो माँ को जाया कहा है। पिता की बारी तो बाद मे आती है पहले माँ सन्तानों का निर्माण करती है इसीलिए कहा है माता निर्माता भवति ।और यह सब संस्कारो से होता है। अर्थात् संस्कार मनुष्य को उत्तम बनाते है।
Vedicvichar
11-10-2021
ऋषियों ने मनुष्य के लिये संस्कारों का विधान किया है जिससे कि मनुष्य उन्नति के पथ पर आगे बढे। तो क्या संस्कारो के द्वारा मनुष्य को उत्कृष्ट बनाया जा सकता है? इस विषय मे दो विचार है कुछ कहते है कि प्राणी जो कुछ है वह वंशानुसंक्रमण heridity का परिणाम है , दूसरे कहते है कि वंशानुसंक्रमण मे इच्छित पर्यावारण से बदलाव लाया जा सकता है ,लेकिन संस्कार प्रणाली मे दोनो का मेल है। इस संस्कार प्रणाली मे संस्कारो को दो भागो मे बांटा गया है पहले वे संस्कार जो गर्भ के समय किये जाते है इन्हें गर्भस्थ संस्कार कहते है दूसरे वे संस्कार जो जन्म के बाद किये जाते है, जिन्हें जन्मस्थ संस्कार कहते है। आधुनिक विज्ञान कहता है कि माता पिता मे एक ऐसा तत्व होता है जो उनके शरीर और मनो को लेकर संतानों मे पहुंचता है जिससे माता पिता के शारीरिक व मानसिक गुण सन्तान मे आते है जिसे germ plasm उत्पादक कोष्ठको का तत्व कहते है , यह तत्व पीढीदर पीढी बना रहता है यही कारण है कि कभी - २ मनुष्य मे उसके दादा के गुण आ जाते है।प्रत्येक जीव का शरीर दो प्रकार के कोष्ठको (cell) से बना होता है जिनमें पहले उत्पादक सैल और दूसरे शरीर कोष्टक( somatic cell ) । इन दूसरे प्रकार के शरीर कोष्ठको से शरीर के अंगो का निर्माण होता है व शरीर बनता है और ये शरीर कोष्ठक शरीर की रचना के बाद मर जाते है।परन्तु इन नश्वर कोष्ठको से बने शरीर मे उत्पादक कोष्टक रहते है जिनकी रक्षा शरीर करता है और ये उत्पादक कोष्टक generative cell ही माता पिता से सन्तानों मे जाकर बने रहते है नर के cell को sperm और मादा के cells को ova कहते है इनके संयोग से शरीर बनता है और आगे संतति चलती है। यहाँ ध्यान रखना है कि germ plasm और generative cell दोनो अलग है।germ plasm वह पदार्थ है जो generative cell मे रहता है और माता पिता के गुण सन्तान मे लाता है। germ plasm मे एक गांठ सी होती है जिसे न्यूक्लियस कहते है इसमें भी छोटे-२ रेशे होते है इन्हें वर्ण सूत्र chromosome कहते है ये रंग पकड सकते है इसलिएवर्ण और रेशो के कारण सूत्र कहलाते है ये वर्णसूत्र ही पैत्रिक गुणों के वाहक है और ये ही ऊचाई लम्बाई कालापन गोरापन नीली भूरी आंखें आदि गुणों के कारक होते है।अब विचार करे कि जब माता पिता के गुण सन्तानों मे जाते है तो एक माँ बाप की सब सन्तानों मे समान गुण होने चाहिये लेकिन ऐसा नहीं होता।यहाँ तक की जुडवा सन्तानों के भी नहीं ।वैसे जुडवा दो प्रकार के होते है एक तो वह जो एक स्त्री के दो ova के संयोग से और दूसरे एक ova के दो भाग मे टूटने से जन्म होता है इनके भी गुण अलग होते है। अब वैदिक शास्त्रो के अनुसार मनुष्य जब कर्म करता है तो एक तो कर्म का फल जो कर्त्ता को मिलता है दूसरा परिणाम जिसके कारण कर्त्ता के साथ दूसरो को भी दु:ख सुख मिलते है।और तीसरा उस कर्म का संस्कार जो सूक्ष्म रूप मे सूक्ष्म शरीर पर चित्त पर बनता है जिससे अगला जन्म का स्थान व भोग बनते है।अब जैसे मनुष्य कर्म करता है वैसे ही संस्कार बनते है और आगे ऐसे ही गर्भ मे जाता है जहां उन संस्कारो को बढ़ने का अवसर मिले।अब सोचे एक मनुष्य ने जीवन भर बुरे काम किये इसलिए उसके चित्त पर बुरे संस्कार पडे है जिस कारण से वह दुष्ट माता पिता के यहाँ जन्म लेगा ।अब यहाँ संस्कार का महत्व है। दुनिया मे कोई भी माँ बाप नहीं चाहता की उसके सन्तान बुरी हो। चाहे स्वयं कितना भी दुष्ट हो पापी हो लेकिन संतान अच्छी चाहते है।अब एक माँ जिसमें दोष है बुराईयां है वह सोचती है कि मैं चाहे कैसी हूँ लेकिन मेरा बच्चा अच्छा होना चाहिये और अगर मैं गलत काम करुंगी तो बच्चे पर बुरा असर पडेगा।इसलिए वह बुराईयां छोड़ देती है।यहाँ देखे माँ का बलिदान कभी कभी माँ अपनी इच्छा भी त्याग देती है कि कहीं बच्चे पर बुरा असर न पडे।वह अपने अन्दर अच्छे संस्कार उत्पन्न करती है इसीलिए तो माँ को जाया कहा है। पिता की बारी तो बाद मे आती है पहले माँ सन्तानों का निर्माण करती है इसीलिए कहा है माता निर्माता भवति ।और यह सब संस्कारो से होता है। अर्थात् संस्कार मनुष्य को उत्तम बनाते है।
ପରମାତ୍ମାଙ୍କ ପ୍ରିୟତମ
07-10-2021
ପରମାତ୍ମାଙ୍କ ପ୍ରିୟତମ ସୃଷ୍ଟିରେ ଅବସ୍ଥାନ ପାଇଁ ବେଶ,ପୋଷାକ,ବିଦ୍ୟା,ବିଭୂତି,ଜାତି,ବର୍ଣ୍ଣ, ମାନ,ସମ୍ମାନ,ସୁନ୍ଦର,ଅସୁନ୍ଦର ବିଚାର ନଥାଏ। ସାଧୁବେଶ ଧାରଣ କରି ଈର୍ଷା,ଦ୍ୱେଷ,ପରଶ୍ରିକାତରତା,ହିଂସାକୁ ହୃଦୟରେ ସ୍ଥାନ ଦେଇ କେହି କେବେ ଈଶ୍ବରଙ୍କ ପ୍ରିୟ ହୋଇ ପାରି ନଥାଏ। କେବଳ ଅନ୍ୟାୟ,ଅସତ୍ୟକୁ ଦୂର କରି ମନକୁ ସହଜ,ସରଳ,ନିର୍ମଳ କରି ସତ୍କର୍ମ୍ ସହିତ ଈଶ୍ୱରଙ୍କୁ ଅନୁଭବ କରି ପାରିଲେ ହୃଦୟ ମନ୍ଦିରଟି ଭଗବାନଙ୍କ ନିବାସ ସ୍ଥଳି ହୋଇଯିବା ସହିତ ସମଗ୍ର ସମାଜରେ ସତ୍ ଚିନ୍ତା, ସଦ ଭାବନାର ଉଦ୍ରେକ ହୋଇଯିବ ନିଶ୍ଚୟ। (ସୁରେନ୍ଦ୍ର ନାଥ ଛୋଟରାୟ)
ଅନନ୍ତ କୋଟି ଜୀବ ଜଗତ
07-10-2021
ଏ ଅନନ୍ତ କୋଟି ଜୀବ ଜଗତ ମଧ୍ୟରେ କେବଳ ମନୁଷ୍ୟ ହିଁ ଜ୍ଞାନ ବାନ୍ ଅଟେ। ଏଣୁ କେବଳ ମନୁଷ୍ୟ ହିଁ ଈଶ୍ୱର ପ୍ରାପ୍ତି ଅଭିମୁଖେ ଅଗ୍ରସର ହୋଇ ପାରିବ ଏବଂ ଦୁଃଖ,ଯନ୍ତ୍ରଣା,ଶୋକ ସନ୍ତାପ,ପୀଡ଼ା ହାହାକାର,କଷ୍ଟ କ୍ଳେଶ,ବ୍ୟଥା ବେଦନା ଏବଂ ଜନ୍ମ ମୃତ୍ୟୁର ବଂଧନରୁ ନିଜ ଆତ୍ମାକୁ ମୁକ୍ତ କରି ପାରିବ। କିନ୍ତୁ ଦୁଃଖର କଥା,ଚଉରାଶି ଲକ୍ଷ ଯୋନିକୁ ବହୁ ଦୁଃଖ କଷ୍ଟ ସହି ଅତିକ୍ରମ କଲାପରେ,ଯେତେବେଳେ ଆତ୍ମା ମନୁଷ୍ୟ ଶରୀର ଧାରଣ କରୁଛି,ସେ ପୁଣି ସେହି ପାପ କର୍ମ ଓ ଭୋଗ ବିଳାସ ଆଦି ପଶୁ ଆଚରଣ କରୁଛି। ଯେଉଁ ସ୍ତରରୁ କେତେ ଦୁଃଖ ସହି ସେ ମନୁଷ୍ୟ ସ୍ତରରେ ଆସି ପହଞ୍ଚିଛି,ପୁଣି ପଶୁ ଶରୀର ପାଇବାର ଯୋଗ୍ୟତା ଅର୍ଜନ କରୁଛି। (ସୁରେନ୍ଦ୍ର ନାଥ ଛୋଟରାୟ)
ईश्वर को कहां खोजे? (Vedicvichar)
04-10-2021
एक प्रसिद्द संत थे। उनके सदाचारी जीवन और आचरण से सामान्य जन अत्यंत प्रभावित होते और उनके सत्संग से अनेक सांसारिक प्राणियों को प्रेरणा मिलती। सृष्टि का अटल नियम है। जिसका जन्म हुआ उसकी मृत्यु भी होगी। वृद्ध होने पर संत जी का भी अंतिम समय आ गया। उन्हें मृत शैया पर देखकर उनके भक्त विलाप करने लगे। उन्होंने विलाप करते हुए शिष्यों को अंदर बुलाकर उनसे रोने का कारण पूछा। शिष्य बोले आप नहीं रहेंगे तो हमें ज्ञान का प्रकाश कौन दिखलायेगा। संत जी ने उत्तर दिया, " प्यारे शिष्यों प्रकाश तो आपके भीतर ही हैं। उसे केवल खोजने की आवश्यकता हैं। जो अज्ञानी है वे उसे संसार में तीर्थों, नदियों, मंदिरों, मस्जिदों आदि में खोजते हैं। अंत में वे सभी निराश होते है। इसके विपरीत मन, वाणी और कर्म से एकनिष्ठ होकर निरंतर तप और साधना करने वाले का अन्तकरण दीप्त हो उठता है। इसलिए ज्ञान चाहते हो तो ज्ञान देने वाले को अपने भीतर ही खोजो। वह परमात्मा हमारे अंदर जीवात्मा में ही विराजमान हैं। केवल उसे खोजने का पुरुषार्थ करने की आवश्यकता है। वेद में इस सुन्दर सन्देश को हमारे शरीर के अलंकृत वर्णन के माध्यम से बताया गया है। अथर्ववेद के 10/2/31 मंत्र में इस शरीर को 8 चक्रों से रक्षा करने वाला (यम, नियम से समाधी तक) और 9 द्वार (दो आँख, दो नाक, दो कान, एक मुख, एक मूत्र और एक गुदा) से आवागमन करने वाला कहा गया हैं। इस शरीर के भीतर सुवर्णमय कोष में अनेक बलों से युक्त तीन प्रकार की गति (ज्ञान, कर्म और उपासना ) करने वाली चेतन आत्मा हैं। इस जीवात्मा के भीतर और बाहर परमात्मा है और उसी परमात्मा को योगी जन साक्षात करते है। वेद दीर्घ जीवन प्राप्त करके सुखपूर्वक रहने की प्रेरणा देते हैं। वेद शरीर के माध्यम से अभुय्दय (लोक व्यवहार) एवं नि:श्रेयस (परलौकिक सुख) की प्राप्ति के लिए अंतर्मन में स्थित ईश्वर का ध्यान करने की प्रेरणा देते है।
वेदों में शराब आदि नशे को करने से मना किया गया है। क्यूंकि इससे बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है। (vedicvichar)
04-10-2021
1. वेद में मनुष्य को सात मर्यादायों का पालन करना निर्देश दिया गया हैं। ऋग्वेद 10/5/6 इनके विपरीत अमर्यादाओं में से कोई एक का भी जो सेवन करता हैं तो वह पापी हो जाता हैं। ये अमर्यादाएँ हैं चोरी, व्यभिचार, ब्रह्म हत्या, गर्भपात , असत्य भाषण , बार बार बुरा कर्म करना और शराब पीना। 2. शराबी लोग मस्त होकर आपस में नग्न होकर झगड़ा करते और अण्ड बण्ड बकते हैं इसलिए शराब आदि नशे का ग्रहण नहीं करना चाहिए। - ऋग्वेद 8/2/12 3.सुरा और जुए से व्यक्ति अधर्म में प्रवृत होता हैं- ऋग्वेद 7/86/6 4. मांस, शराब और जुआ ये तीनों निंदनीय और वर्जित हैं। - अथर्ववेद 6/70/1 5. शतपथ के अनुसार सोम अमृत है तो सुरा विष है। इस पर विचार करना चाहिए। शतपथ 5/1/2 वेदों में नशे का स्पष्ट निषेध जनहित को ध्यान में रखकर किया गया हैं। हमारी राजतन्त्र का कर्तव्य बनता है कि वेदों की कल्याणकारी शिक्षा को सामान्य जनों के लाभार्थ लागु करे।
क्रान्ति के पुरोधा (vedicvichar)
04-10-2021
ब्रह्मर्षि स्वामी विरजानन्द सरस्वती दो शताब्दी पूर्व , ( सन् १७७८, ई० ) में जन्म लेकर , छह वर्ष की अल्पायु में ही शीतला माता के प्रकोप से दोनों आंखें खो देने वाला अनाथ बालक ब्रजलाल सारे देश की दृष्टि बन जाएगा , यह कौन कह सकता था ? माता - पिता के न रहने पर उचित देखभाल के अभाव में १३–१४ वर्ष की अवस्था में घर से भाग जाने वाला ढोंग , पाखण्ड और अन्धविश्वास को भगाने का दृढ़ - संकल्प अपने शिष्यों में फूंका करेगा , किसने कल्पना की थी ? किन्तु होनी कल्पना की मोहताज तो नहीं है न ! ब्रजलाल ऋषिकोश पहुंच गया और १२ वर्ष तक कठोर तप साधना की। आठ - आठ प्रहर गंगा जल में खड़े - खड़े निरन्तर गायत्री जप करना और साधु - सन्तों , विद्वानों की संगति उसकी दिनचर्या बन गई। कनखल के प्रबुद्ध सन्त स्वामी पूर्णानन्द जी से विद्याध्ययन , देश - प्रेम की शिक्षा और वेद - प्रचार की अद्वितीय लगन पाकर यह युवक ' दण्डी विरजानन्द ' बन गया। एक बार तीर्थ यात्रा करते हुए दण्डी जी सौरों पहुंचे। वहां अलवर नरेश इनके विष्णु - स्रोत के पाठ और विद्वत्ता से इतने प्रभावित हुए कि नित्यप्रति ३ घण्टा संस्कृत पढ़ने की शर्त लगाने पर भी अपने साथ ले गये। अलवर पहुंचकर दण्डी जी ने संस्कृत अध्यापन के साथ - साथ ' शब्द - बोध ' नामक ग्रन्थ की रचना की जो आज भी वहां सुरक्षित है। एक दिन नरेश संस्कृताध्ययन के लिए उपस्थित न हो सके तो उसी दिन दण्डी जी ने अलवर त्याग दिया। अलवर - प्रवास के मध्य ही अंग्रेज रेजीडेण्ट का भारतीयों के प्रति शुष्क व्यवहार देखकर उन्होंने अंग्रेजी राज्य के बहिष्कार का निश्चय किया। इसके लिए उन्होंने मथुरा को अपना केन्द्र चुना क्योंकि यह हिन्दुओं का प्रसिद्ध तीर्थ स्थान था तथा दिल्ली , मेरठ , लखनऊ , आगरा , अजमेर जाने वाले यात्री मथुरा होकर ही जाते थे। मथुरा में रहते हुए उनके विचारों से प्रभावित होकर बहुत से हिन्दू - मुसलमान उनके शिष्य बन गये थे। स्वामी विरजानन्द को ' भारत गुरुदेव ' की उपाधि तत्कालीन साधु - समाज ने प्रदान की थी। उनकी विद्वत्ता के सम्बन्ध में अंग्रेजी के एक लेखक ने भी कहा है- " स्वामी विरजानन्द सरस्वती एक महान् थे। अपने समकालीन भारतीय विद्वानों के वे सिरमौर थे। वह एक महान् थे जिनकी जोड़ का देश में समकालीन गुरुओं में अन्य कोई न था। " स्वामी विरजानन्द स्वभाव से उग्र थे। सत्य के इस उपासक को ढोंग और पाखण्ड से बड़ी घृणा थी। प्रबल इच्छाशक्ति के इस धनी का यह दृढ़ विश्वास था कि समस्त दुःखों और कष्टों का मूल स्रोत अज्ञान , अंधविश्वास और छल - कपट है। अतः उन्होंने इन सब कुरीतियों का निराकरण कर लोगों के हृदय को सत्य से प्रकाशित करने का बीड़ा उठा लिया। वे अपने शिष्यों से कहा करते थे कि " मैं तुम में उस आग को जला रहा हूँ जो समय आने पर भारत में व्याप्त अंध - विश्वासों , पाखण्डों और मिथ्या - विचारों को भरमीभूत कर देगी। " महर्षि दयानन्द ने समाज और राष्ट्र के लिये जो कुछ किया उस सबके पीछे प्रेरणा गुरु विरजानन्द की ही थी। गुरु दक्षिणा के रूप में लौंग लाने वाले अपने इस शिष्य से दण्डी जी ने प्रतिज्ञा कराई थी कि- " भारत देश में दीन - हीन जन अनेक विध दुःख पा रहे हैं , जाओ उनका उद्धार करो। मत - मतान्तरों के कारण जो कुरीतियाँ प्रचलित हो गई हैं , उनका निवारण करो। आर्य जनता की बिगड़ी हुई दशा को सुधारो। आर्य - सन्तान का उपकार करो। मनुष्यकृत ग्रन्थों में परमात्मा और ऋषि - मुनियों की निन्दा भरी पड़ी है। आर्ष ग्रन्थों में इस दोष का लेश नहीं। आर्ष और अनार्ष ग्रन्थों की यही बड़ी परख है। " वैदिक धर्म का प्रचार और देशोद्धार करने की प्रतिज्ञा ही गुरु की दक्षिणा थी और इस प्रतिज्ञा को पूर्ण करने में ही स्वामी दयानन्द ने अपना सर्वस्व अर्पित कर दिया। ▶️ सन् ५७ की तैयारी ▶️ सन् १८५७ में ब्रिटिश शासकों के विरुद्ध पहला भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम १० मई को मेरठ से प्रारम्भ हुआ। इसकी तैयारी तो पाँच - छह वर्ष पूर्व से ही हो रही थी। इस संग्राम का संयोजन गुरु - शिष्य परम्परा में चार - पीढ़ी आर्य संन्यासी वेदज्ञ योगी कर रहे थे , जिनके नाम हैं- ( १ ) स्वामी ओमानन्द , ( २ ) स्वामी पूर्णानन्द ( ३ ) स्वामी विरजानन्द और स्वामी दयानन्द। उस समय इन चारों संन्यासियों ने स्वतन्त्रता - प्राप्ति के लिए दो हजार साधु प्रचार के लिए तैयार किए थे। ये साधु सैनिकों की छावनियों में , क्रान्तिकारियों में और हरिद्वार , गढ़मुक्तेश्वर , मथुरा आदि के तीर्थ स्थानों पर जाकर जनता में भी अंग्रेजों के दमन के विरुद्ध प्रचार करते थे। इनमें हिन्दू और मुसलमान दोनों प्रकार के साधु थे। ( द्रष्टव्य लेख - आर्य जगत् अंक -१८ मई , १६८० ) ऐसे संकेत मिलते हैं कि ये सारे साधु सन् १८५२ से ही सैनिक छावनियों में स्वतन्त्रता की योजना का प्रचार करने लग गये थे। साथ ही गुप्तचर का कार्य भी करते थे और अंग्रेजों की गतिविधियों का ब्यौरा अपने साधु - समाज के प्रमुख को देते रहते थे। यद्यपि स्वामी विरजानन्द तथा स्वामी दयानन्द आदि संन्यासियों का नाम क्रान्ति के इतिहास में नहीं आता तथापि यह तथ्य सर्वविदित है कि सैनिक छावनियों में कमल के फूल और चपाती वितरित करने वाले अज्ञात साधुवेषधारी संन्यासी थे और वे इसका प्रयोग ब्रिटिश विरोधी प्रचार के लिये करते थे। चौधरी कबूलसिंह , मन्त्री सर्वखाप पंचायत ने पंजाब आर्य प्रतिनिधि सभा की नई दिल्ली से प्रकाशित होने वाली पत्रिका ' आर्य मर्यादा ' के सम्पादक ( पं० जगदेव सिंह सिद्धान्ती ) को मीर मुश्ताक मीरासी का उर्दू में लिखा हुआ पत्र प्रकाशनार्थ भेजा था , जिसका सार इस प्रकार है- “ सन् १८५६ में मथुरा तीर्थ नगरी में एक पंचायत हुई , उसमें हिन्दू - मुसलमान तथा अन्य धर्मावलम्बी सम्मिलित हुए थे। इसमें एक हिन्दू ‘ दरवेश ' को पालकी में बिठाकर लाया गया। उनके आने पर सब लोगों ने उनका सम्मान किया , तथा जब वह चौकी पर बैठ गए तब सभी हिन्दू - मुस्लिम फकीरों ने उनकी चरण - वन्दना की। सभी उपस्थित पंचायत के लोगों ने उनका सम्मान किया। सबकी अभ्यर्थना के बाद नाना साहब पेशवा , मौलवी अजीमुल्लाखान , रंगू बाबू और तत्कालीन बादशाह बहादुरशाह जफर के पुत्र फिरोजशाह ने मिलकर इन संन्यासी महोदय के सम्मान में सोने की अशर्फियां भेंट - स्वरूप दीं। इसके बाद एक हिन्दू तथा एक मुस्लिम फकीर ने यह घोषणा की कि अब हमारे गुरु आप सब उपस्थित सज्जनों को सम्बोधित करेंगे जो हमारे राष्ट्र के लिए उपयोगी होगा , अतः ध्यान से सुनें। यह संन्यासी बहु भाषाविद् तथा हमारा और राष्ट्र का सम्मानित व्यक्ति है जो ईश्वर की कृपा से ही हमारे मध्य उपस्थित हुआ है। ' इस वृद्ध संन्यासी ने सर्वप्रथम ईश - स्तुति की और उसका उर्दू में अनुवाद किया। तत्पश्चात् उपस्थित सज्जनों को संबोधित कर कहा कि स्वतन्त्रता स्वर्ग है तथा परतन्त्रता नरक के समान है। स्वराष्ट्र शासन की अपेक्षा अधिक अच्छा है। क्योंकि विदेशी शासन में रहना बेइज्जती है। हमें किसी जाति से घृणा नहीं अपितु परतन्त्रता से घृणा है। क्योंकि विदेशी , खासकर ' फिरंगी ' , हमें गुलाम समझकर पशुवत् व्यवहार करते हैं। ईश्वर के राज्य में सभी मनुष्य भाई - भाई हैं किन्तु विदेशी शासन हमें भाई की अपेक्षा गुलाम समझता है। यों तो फिरंगियों में बहुत - सी अच्छी बातें हैं , किन्तु राजनीतिक दृष्टि से वे अपने वचन धर्म आदि का पालन नहीं करते। वे अपने राष्ट्र की समृद्धि के लिए इस देश का और इसके वासियों का शोषण करते हैं। अतः हिन्द वासियों से मेरी प्रार्थना है कि तुम सब भी अपने राष्ट्र से वैसा ही प्रेम करो जैसा अपने धर्म से करते हो। देश भक्त बनकर प्रत्येक देशवासी के साथ भाई जैसा ही सम्बन्ध बनाओ । हिन्दुस्तान में रहने वाले सभी हिन्दी भाई हैं। " नोट- इस महात्मा संन्यासी का नाम मालूम करने पर ज्ञात हुआ कि इनका नाम स्वामी विरजानन्द था और वे बहुत समय से मथुरा में रहते हैं , संस्कृत की शिक्षा देते हैं तथा ईश्वर के भक्त हैं। " तसनीफ करदह मीरमुश्ताक मीरासी कासिद सर्वखाप पंचायत इस प्रकार स्वामी विरजानन्द क्रान्ति के भी प्रथम पुरोधा थे। अंग्रेजों ने तो इस प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम को ' गदर ' का नाम दिया था। किन्तु स्वामी विरजानन्द ने इस योजना को ' राज बदलो क्रान्ति ' या ' जंगे आज़ादी ' का नाम दिया था। उपरोक्त कमल और रोटी के अतिरिक्त रेशम , खरबूजे और तीतर का निशान भी प्रचलित किया था। अभिप्राय यह था कि देश को रेशम के समान मजबूत चमकदार बनाओ और खरबूजे के समान ऊपर की धारी अलग - अलग पर अन्दर से हिन्दू - मुसलमान सब एक रहो , तीतर के समान शत्रु को अपने देश की सीमा से बाहर निकालो। ८२ वर्ष की आयु में , सन् १८६० में , दिवंगत इस सन्त के ग्राम गंगापुर ( करतारपुर , जालन्धर पंजाब ) में श्री विरजानन्द स्मारक भवन की स्थापना करना या १४ सितम्बर १६७० को भारत सरकार द्वारा डाक टिकट जारी करना साधुवाद के योग्य अवश्य है , किन्तु क्या उतने भर से हमारे कर्त्तव्य की इतिश्री हो जाएगी ? यह लेख "स्वामी दयानंद ओर प्रथम स्वतंत्रता संग्राम" नामक पुस्तक में प्रकाशित है। जिसके संकलनकर्ता "डॉ. सुरेन्द्र सिंह कादियान" हैं। लेखक :- श्रीमती विश्ववारा, एम. लिट् प्रस्तुतकर्ता :- अमित सिवाहा
Vedicvichar
04-10-2021
ब्रह्मज्ञानी , ज्ञान का अभिमान नहीं करते ! यस्यामतं तस्य मतं मतं यस्य न वेद सः | अविज्ञातं विजानतां विज्ञातमविजानताम् || ( केनोपनिषद २-३ ) पदार्थ -- ( यस्य ) जिसका अर्थात जिस ब्रह्मज्ञानी विद्वान का ( अमतम् ) मन से उसे नहीं जान सकते , ऐसा ज्ञान है ( तस्य ) उस विद्वान का ( मतम् ) माना हुआ अर्थात यथार्थ ज्ञान है , क्योंकि उसने ब्रह्म को जान लिया है ( मतम् ) ब्रह्म को मैंने जान लिया है , ऐसा ज्ञान ( यस्य ) जिसका है ( न ) नहीं ( वेद ) जानता है ( सः ) वह ( अविज्ञातम् ) नहीं जाना हुआ होता है ( विजानताम् ) ब्रह्मज्ञान के अभिमानियों का ( विज्ञानम् ) जाना हुआ होता है ( अविजानताम् ) ब्रह्मज्ञान का अभिमान न रखने वालों का । भावार्थ -- जो मनुष्य यह विचार करता है कि ब्रह्म मन से नहीं जाना जाता , वह सचमुच ब्रह्म को जानता है और जो यह विचारता है कि उसे इन्द्रियों से जान सकते हैं , वह ब्रह्म को सर्वथा नहीं जानता है । जिनको ब्रह्मज्ञान का अभिमान होता है उनको ब्रह्मज्ञान सर्वथा नहीं होता । जो ब्रह्मज्ञानी हैं वे किसी अवस्था में ज्ञान का अभिमान नहीं करते । इस उपनिषद ने झूठे योगियों तथा ब्रह्मज्ञानियों से जनसाधारण को सावधान करने और बचाने के लिये स्पष्टया कह दिया है कि जो लोग ब्रह्मज्ञान का अभिमान करते हैं , वे ब्रह्म को सर्वथा नहीं जानते और न ही उन्हें योग का रहस्य ज्ञात है । संसार में देखा जाता है कि जिनके पास रत्न होते हैं , वे उन्हें पेटियों में छिपाकर रखते हैं और जिनके पास कौड़ियाँ होती हैं , वे उन्हें बाजार में बोली दे देकर बेचते हैं । प्रत्येक मोक्षाभिलाषी जिज्ञासु को चाहिये की वह इस उपनिषद के तात्पर्य को ध्यान में रखकर आजकल के झूठे ब्रह्मज्ञानियों के धोखे से बचकर शान्ति प्राप्त करे और अपनी मूर्खता से योग और ब्रह्मविद्या से सर्वथा अपरिचित , अनभिज्ञ लोगों को योगी और ब्रह्मज्ञानी मानकर उनसे अपनी आशा पूरी होते न देखकर ब्रह्मज्ञान का ही विरोध न करने लग जाये । प्रत्येक मनुष्य को अवश्य इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि जो लोग संसारासक्त हैं , उनसे ब्रह्मज्ञान का कोई सम्बन्ध नहीं और जो लोग सचमुच ब्रह्मज्ञानी हैं , वे संसारासक्त और संसारजनों से परे रहते हैं क्योंकि उनके संग से ब्रह्मोपासना में विघ्न होता है । ईश्वर के भक्त ही ब्रह्मज्ञानी को जान सकते हैं और ब्रह्मज्ञानी भी ईश्वरभक्तों से मिलना पसन्द करते हैं , संसारासक्तों से उन्हें कोई लाभ नहीं होता । -- स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
स्वामी दयानन्द का मुंबई में आर्यसमाज की स्थापना के समय दिया गया सन्देश (vedicvichar)
04-10-2021
“आप यदि समाज से पुरुषार्थ कर परोपकार कर सकते हो, तो समाज कर लो. इस में मेरी कोई मनाई नहीं. परन्तु इस में यथोचित व्यवस्था न रखोगे तो आगे गड़बड़ाध्याय हो जायेगा. मैं तो मात्र जैसा अन्य को उपदेश करता हूँ वैसा ही आप को भी करूँगा और इतना लक्ष में रखना कि कोई स्वतन्त्र मेरा मत नहीं है और मैं सर्वज्ञ भी नहीं हूँ. इस से यदि कोई मेरी भी गलती पाई जाए, युक्तिपूर्वक परीक्षा करके इसको भी सुधार लेना. यदि ऐसा न करोगे तो आगे यह भी एक मत हो जायेगा और इसी प्रकार से ‘बाबावाक्यं प्रमाणम्’ करके भारत में नानाप्रकार के मतमतान्तर प्रचलित होके, भीतर-भीतर दुराग्रह करके धर्मान्ध होके, लड़के नाना प्रकार की सद्विद्या का नाश करके यह भारत दुर्दशा को प्राप्त हुआ है.” -स्वामी दयानन्द
Vedas on Animal Sacrifice (vedicvichar)
04-10-2021
This is again a big misconception that the Vedas supports Animal Sacrifice in Yajnas. The main reason for this misconception is wrong interpretation of the Vedic Mantras. In the middle ages a class of ignorant pundits arise in scenario who were fond of meat eating. To support their sinful act they started wrong interpretation of the Vedic Mantras. This unjustified act lead to killing of countless innocent animals on name of Vedas. More than that it brought mischief to the name of Vedas as Holy Texts. There are many evidences from the Vedas which proves that Vedas never supports any violence in form of Animal Sacrifice. Vedas against Animal Sacrifice Look on all (Humans as well as Animals) with the eye of a friend. (Yajur Veda). Friend to all should the Arya be! Friend to all! Sure he cannot destroy the life of any. Therefore he is ordered in the sacred scriptures. (Yajur 42-49).” Thou shalt not kill the horse; thou shalt not kill the cow; thou shalt not kill the sheep or goat; thou shalt not kill the bipeds;oh man! Protect the gregarious deer; kill not the milch or otherwise useful animals.”Elsewhere the scripture says: “They that trouble others for the sake of their own good are Rakshas (monsters) and they that eat the flesh of birds and beasts are Pishachas (devils) (Yajur 34-51). For flesh-eating, drinking, gambling and adultery, all, destroy and mar the mental faculties of a man (Atharva VI.7-70-71) They are sinners as eat raw or cooked flesh or eggs go to destruction. (Atharva VIII.2-26-23). The Veda considers the protection of animals to be a very sacred act—so, so very sacred that it lays down that a husband should solemnly ask his wife on the occasion of marriage “to be kind to animals and to try to protect the happiness of all bipeds and quadrupeds.” In return the husband promises to do the same.Further the Veda lays down that they who kill men or slay cows should be outlawed and ostracised (Rig I.16-114). We must also learn about the meaning of word Yajna. The Yajna word is derived from Diva which has the following meanings: (1) Krida.. Play and Diversion. (2) Vijigisha.. Desire for Victory. (3) Vyavahar.. Social Relations. (4)Dyuti.. Sight. (5)Stuti.. Praise. (6)Moda.. Happiness. (7)Mada.. Self-Consciousness. (8)Swapana.. Negation of motion. (9)Kanti.. Glory. (10)Gatishu.. Knowledge, motion, and attainment. Thus Yajna may be defined as “the association of men and concentration of powers for social happiness, conquest over nature or enemy (of one’s county or humanity); promotion of the well-being of society; the propagation and dissemination of enlightened principles; the maintenance of national self-respect; the increase of national glory; and the cultivation of acts of peace and war. It may also be added that Yajna also means such concentrated effort as secures man spiritual advancement and salvation. That the word Yajna was used in the above sense by the Vedic Aryas may be established by referring to certain well-known practices of the Rishis. THE ASHWAMEDHA—HORSE SACRIFICE. A great mischief has been caused by the misinterpretation of this Yajna. To understand the true significance of this Yajna we must understand what Ashwa is. As it is usually with the Vedic words, this word has a great number of meanings. Aurovindo Ghosh has emphasized the fact that the Vedic roots have various meanings. In supporting his position he has referred to the words ’Chandra’ and ’Gau.’ Ashwa according to the Shatapatha Brahmana (XIII.3.3) means God. Taking hold of this meaning we can without the least hesitation say that Ashwa Medha has spiritual significance. Ashwa means horse as well as all such physical forces which can enable us to move quickly. In another place we read Ashwa, the Agni (heat) carries, like the animals of conveyance, the learned who recognize its distance-carrying properties (Rig. 1.27-1). This idea is also supported by Shatapatha (III.3.29-30). On this principle Pt. Gurudatta translates the hymn of the Rig Veda. His translation of the opening verse is as under: “We will describe the power generating virtues of the energetic horses endowed with brilliant properties or the virtues of the vigorous force of heat which learned or scientific men can evoke to work for purposes of appliances (not sacrifice).Let not philanthropists, noble men, judges, learned men, rulers, wise men and practical mechanics ever disregard these properties.” Ashwamedha also refers to polity. Political wisdom should so pervade the notion as Ashwa(God) pervades the universe. This is supported by the Shatapatha in the following words: “A king administers justice to his subjects, governs them properly, encourages learning among them, and performs homa by throwing the samagri (odoriferous materials),clarified butter in fire. This is Ashwamedha.” On this principle the great Swami Dayanand Saraswati translates the 23rd chapter of the Yajur Veda. The learned writer strengthens his position by quoting [Rigveda] i.21, Shatapatha XIII.2.12.14-17, XIII.1.3.2, 2.6.15-17 and also XIII.2.2.4-5 and several other authorities. The greatest argument in favor of this translation is that in it there is nothing immoral, obscene and disgusting as is to be seen in the sacrificial translation. The Mimansis—our great authority on interpretation—say that we must always take for granted that the teaching of the Rishis are always reasonable and rational. THE GOMEDHA—COW-SACRIFICE. It is a well-known fact that from ages immemorial the Hindus have been looking upon the cow as a sacred animal, so much so that they call it their ’Mata’ (mother). One cannot conceive how this people could have ever offered their most sacred animal to fiendish gods. But the priests and orientalists say so; and for their statement they find support in the Shastras. As in the case of Ashwa Medha so here their dogmatism is founded in ignorance of the true significance of the words, ’ Go’ and ’Gomedha.’ Gomedha Yajna, therefore, is the method of improving, controlling and purifying speech. Go means earth. This meaning is also given in Nirukta. It also can be seen in such English compounds as Geography,Geometry, Geology, etc. (the hard sound being changed up soft one). Therefore Gomedha means cultivation and purification of earths. Go means ray of light. This would make Gomedha, a science which teaches us the proper use of the rays of the sun and moon. This meaning of Go is clear from Gotaw which is another word for the moon (Chandra).Go means a sense. This meaning can be seen in the Sanskrit word Go char a which means the range or object of our senses. With this meaning Gomedha becomes an attempt or effort to control one’s senses. That the above meanings are the real ones is proved by the following passage of the Shatapatha Brahmana as given by Swami Dayanand: “Gomedha means control of senses, purification of the days of light, of earth, dwelling place, etc.” The same Brahman calls speech a Yajna (III.r.) That Gomedha cannot mean cow sacrifice could be established by referring to: (i).Shatapatha (III.1.2.21) wherein it is said that he that eats the flesh of a cow or an ox is destroyer of all. (ii).Rig Veda (1.16.5-40) and Atharva Veda (IX.5.10.5) says that where cow is called Aghanya (that which should not be killed). (iii). Nighantu (1-8) wherein a Yajna is said to be Adhvara or such act as does not permit any kind of injury Thus its clear by the evidences from Vedas as well as related Texts that Vedas do not support animal sacrifice in any way. Well, then, may it be said that the practice of killing before God and in His name His own creatures being against Ahimsa is decidedly irreligious!
आपका सच्चा मित्र कौन है? (Vedicvichar)
04-10-2021
किसी शहर में एक आदमी रहता था। उसके तीन मित्र थे। पहले मित्र के लिए वह अपनी जान भी देने के लिए तैयार था। दूसरे मित्र के विषय में उसका मानना था की यह कभी न कभी मौके पर काम आ ही जायेगा।तीसरे मित्र की और वह कभी कभी ही ध्यान देता था। एक बार उस पर मुसीबत आ पड़ी, उस पर गंभीर मुकदमा दायर हो गया जिससे बचने की उसकी कोई आशा न थी। वह भागा भागा अपने सबसे प्रिय मित्र के समीप गया। उसने अपने मित्र को अपनी सारी राम-कहानी कह सुनाई। सबसे प्रिय मित्र ने कहा- मित्र, आपकी मेरी अटूट मित्रता तो है। परन्तु यह मामला आपके घर का निजी मामला है। इसलिए मैं इसमें आपका कोई साथ नहीं दे सकता। निराश होकर वह आदमी दूसरे मित्र के समीप गया और उसे भी अपनी व्यथा कह सुनाई। दूसरा मित्र बोला। मैं आपका साथ तो दूंगा मगर अदालत के बाहर तक। भीतर जाने के पश्चात तो मुकदमा आपको अकेले ही लड़ना पड़ेगा। दोनों की बात से निराश होकर वह आदमी अपने तीसरे मित्र के समीप गया.जिस पर वह कभी कभी ही ध्यान देता था। उसे भी अपनी व्यथा कह सुनाई। तीसरे मित्र तत्काल उसके साथ हो गया। वह अदालत भी गया और उसका मुकदमा भी लड़ा। मित्रों जानते है प्रत्येक आदमी के ये तीन मित्र कौन हैं? पहला मित्र है- धन-संपत्ति। जो आदमी को सबसे अधिक प्रिय है। मगर जब मृत्यु अर्थात जीवन के समाप्त होने का समय आता है तब चाहे कितना भी धन क्यों न हो किसी काम का नहीं रहता। दूसरा मित्र है- सगे सम्बन्धी, मित्र आदि। वे मृत्यु के पश्चात अदालत (शमशान) के दरवाजे तक ले जाकर छोड़ देते आते हैं। मगर अंदर साथ देने कोई नहीं आता। तीसरा मित्र है- सत्कर्म अर्थात अपने निस्वार्थ भाव से किये गए कर्म। अकेले हमारे कर्म हमारे साथ जाते है। वही हमारा मुकदमा अदालत में लड़ते है। जिसके आधार पर हमें अगला जन्म मिलता हैं। ऋग्वेद 1/181/3 में इसी भाव को अत्यंत सुन्दर शब्दों में बताया गया है। वेद कहते है यह शरीर रूपी रथ हमें शोभन आचरण के लिए प्राप्त हो। हम अपने शरीर से किसी भी प्रकार का अशोभनीय कार्य न करे। यह शरीर सदा गतिवाला अर्थात क्रियाशील बना रहे। इस शरीर रूपी रथ का उद्देश्य ईश्वर के साथ संगतिकरण करना है। मनुष्य अपने जीवन में धन को सबसे अधिक महत्व देता है। उसके पश्चात परिवार, सगे-सम्बन्धी को महत्व देता हैं। मगर मनुष्य अपने कर्मों और जीवन के लक्ष्य पर सबसे कम ध्यान देता है। हमें यह स्मरण रहना चाहिए कि इस शरीर का उद्देश्य धन का संग्रह करना नहीं हैं। न ही सदा परिवार की सेवा सुश्रुता हैं। सांसारिक साधनों का सही प्रकार से प्रयोग करते हुए सत्कर्म करना। मोक्ष रूपी आनंद और सुख को प्राप्त करना ही इस जीवन कालक्ष्य हैं। सच्चे मित्र का संग करने वाला ही इस लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है।
आर्यसमाज और महात्मा गांधी (vedicvichar)
04-10-2021
लेखक- पं० चमूपति जी प्रस्तोता- प्रियांशु सेठ सहयोगी- डॉ विवेक आर्य (आर्यजगत के सुविख्यात विद्वान् पं० चमूपति जी के बलिदान दिवस पर, आज १५ जून को प्रकाशित यह लेख) 'यंग इंडिया' में प्रकाशित महात्मा गांधी के लेख का वह अंश जिसमें ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज का उल्लेख है, यहां उद्धृत किया जा रहा है। इसे देखते ही पाठकों को अवगत हो जाएगा कि महात्माजी को निम्नलिखित विषयों पर एतराज है- १. स्वामी श्रद्धानन्द के व्याख्यानों पर और उनके इस विश्वास पर कि हर एक मुसलमान आर्य बनाया जा सकता है। २. स्वामी श्रद्धानन्द जी की जल्दबाजी और शीघ्र रुष्ट हो जाने की प्रकृति पर जो उन्हें आर्यसमाज से दायभाग में मिली है। ३. स्वामी दयानन्द की शिक्षा पर जिन्होंने भूमण्डल के एक विशाल और उदारतम धर्म को संकुचित बना दिया है और अनजाने जैन धर्म, इस्लाम, ईसाई मत और खुद हिन्दू धर्म की मिथ्या व्याख्या की है। ४. सत्यार्थप्रकाश पर, जो एक सुधारक की निराशाजनक कृति है। ५. वेदों के अक्षरशः सत्य माने जाने और सम्पूर्ण विद्याओं का कोष होने पर, जिसे वे एक सूक्ष्म प्रकार की मूर्तिपूजा मानते हैं। ६. हिन्दू धर्म में शुद्धि का विधान नहीं। ७. आर्यसमाज ने अपनी प्रचार प्रणाली में ईसाइयों के अनुकरण किया है जिससे लाभ के स्थान पर हानि हुई है। ८. वास्तविक शुद्धि तो यह है कि प्रत्येक नर-नारी अपने धर्म में रह कर पूर्णता प्राप्त करे। ९. यदि आर्यसमाज का शुद्धि का भाव अन्तरात्मा की आवाज है तो उसे रोका नहीं जा सकता। उस पर समय की कैद नहीं हो सकती और ना ही प्रतिकूल अनुभव के कारण उसे बन्द किया जा सकता है। १०. मुझे कहा गया कि आर्यसमाजी और मुसलमान औरतों को बहका ले जाते हैं और उन्हें अपने मत में प्रविष्ट कराने का यत्न करते हैं। •स्वामी श्रद्धानन्द जी के व्याख्यान हम आज यत्न करेंगे कि इनमें से हर एक आक्षेप का जो आर्यसमाज और उसके प्रवर्तक पर लगाने का यत्न किया गया है ठंडे हृदय से उत्तर दें। स्वामी श्री श्रद्धानन्दजी के व्याख्यान कैसे होते हैं उनके सम्बन्ध में इस लेख में विचार करने की आवश्यकता नहीं। महात्माजी ने स्वामीजी की वक्तृताओं से कोई वाक्य उद्धृत नहीं किये, जिनके आधार पर किये गए आक्षेप का समर्थन या निराकरण किया जा सके। मौलाना मोहम्मद अली की वक्तृता से, जो उन्होंने कांग्रेस के सभापति की हैसियत से दी थी, एक भाग महात्मा ने मौलाना के सामने रख दिया कि यह भाग आक्षेपयुक्त है, मौलाना ने अपनी अशुद्धि को स्वीकार किया। यद्यपि स्वीकृति सर्वसाधारण में नहीं हुई तो भी महात्माजी सन्तुष्ट हो गए कि मौलाना का व्यवहार दोषयुक्त नहीं। श्री स्वामीजी पर महात्माजी की यह कृपा न सही कि उनसे एकान्त में बातचीत कर लें, कम से कम पत्र में ही उनके कुछ वाक्य उद्धृत कर देते, स्वामीजी उनका उत्तर दे देते तो हम भी अपनी सम्मति प्रकट करते। इस समय महात्माजी का यह आक्षेप विचार का विषय नहीं हो सकता कि श्री स्वामीजी की वक्तृताएँ असन्तोष पैदा करती हैं। क्या प्रत्येक मुसलमान आर्य बनाया जा सकता है? हाँ! स्वामीजी का यह विश्वास कि हर एक मुसलमान आर्य बनाया जा सकता है सारे आर्यसमाज का विश्वास है। बनाया जा सके या नहीं, यत्न आवश्यक है और वह धार्मिक कारणों से, राजनैतिक कारणों से नहीं। स्वराज्य प्राप्त हो सकता है यदि मुसलमान आर्य धर्म को स्वीकार न भी करें! हां! उन्हें आर्यों के साथ मिलकर रहना आना चाहिए। भारतीय नागरिकता के कर्तव्य सीखने चाहियें, अपने पड़ोसियों पर हाथ नहीं डालना चाहिए। यदि इस्लाम यह शिक्षा दे सके तो पर्याप्त है, नहीं तो यह शिक्षा भी उन्हें आर्य धर्म से लेनी होगी अथवा महात्मा गांधी ही उन्हें समझ दें। केवल इसी आवश्यकता के लिए हम उन्हें आर्यसमाज का सभासद् बनाना नहीं चाहते। कुछ हो, इस बात पर विश्वास होना कि हर एक मुसलमान आर्य बन सकेगा दौर्भाग्य का निशाना क्यों है?- यदि मौलाना मोहम्मद अली प्रतिदिन यह प्रार्थना कर सकते हैं कि महात्मा गांधी मुसलमान हो जाएं तो स्वामी श्रद्धानन्द जी क्यों यह विश्वास नहीं रख सकते कि हर एक मुसलमान आर्य बन जायेगा। आर्यसमाज का बच्चा बच्चा ही इसी विश्वास के साथ जीता है कि केवल मुसलमान ही नहीं किन्तु समस्त संसार एक दिन आर्य बन जायेगा। श्रीकृष्ण ने कहा है- "तेरा अधिकार काम करने का है फल के लिए आग्रह करने का नहीं।" श्रीकृष्ण का यह कहना आर्यसमाजियों की कार्य प्रणाली का सुनहरा नियम है। हम यत्न करते जाते हैं उसमें सफलता वा असफलता देना परमात्मा का काम है। हम वैदिक धर्म को परमात्मा का धर्म समझते हैं। वेद कहता है- 'इन्द्रं वर्धन्तोऽअप्तुर: कृण्वन्तो विश्वमार्यम्' परमात्मा का राज्य बढ़ाओ, आतुनि से, धैर्य से इस कार्य में कदम बढ़ाओ। प्रश्न हो सकता है कैसे बढ़ाएं?- वेद कहता है- सारे संसार को आर्य बना कर। हम वेद की इस आज्ञा से बद्ध हैं- वह आर्य नहीं जिसका सिर वेद की आज्ञाओं के सामने रात दिन झुका न रहता हो। हमें शान्ति हराम है, हमें सुख हराम है, नींद हराम है, यदि हम रात दिन यही न सोचा करें कि संसार आर्य हो जाए। मौलाना मोहम्मद अली ने कोकानाडा में भाषण करते हुए शुद्धि की व्यवस्था की थी और वह व्याख्या ठीक है। उन्होंने शिकायत की थी कि हिन्दू धर्म प्रचारक धर्म नहीं है। उन्होंने कहा था कि "अगर आज जबकि मेरे हिन्दू भाइयों की सरगर्मियों में तबलीगी जोश के निशानात पाये जाते है मैं उनकी अपने धर्म फैलाने की कोशिशों से नाराज हूँ, तो ताज्जुब है।" मौलाना मोहम्मद अली स्वामी श्रद्धानन्द जी के उक्त विश्वास से रुष्ट नहीं हो सकते, हां! महात्मा गांधी के लिए रुष्टता का कारण है। क्या सचमुच यह दुर्भाग्य होगा कि मौलाना मोहम्मद अली जो महात्मा गांधी के मित्र हैं आर्य बन जाएं और वह मित्रता जो अपनी वर्तमान अवस्था में कहने सुनने की मित्रता है रहने सहने की, मेल मिलाप की, दिल की और दीन की मित्रता बन जाए। •हिन्दू धर्म में शुद्धि महात्मा गांधी का विचार यह है कि हिन्दू धर्म में शुद्धि नहीं। क्या यही हिन्दू धर्म की उदारता और विशालता है? हम ऊपर कह आए हैं कि वेद की इस विषय में स्पष्ट आज्ञा है। देवल स्मृति में शुद्धि की इस विधि का पूरा विवरण दिया गया है। हिन्दू से अहिन्दू होने पर जिससे कोई व्यक्ति फिर हिन्दू बनाया जा सकता है। भविष्यपुराण में कण्व ऋषि का वर्णन आया है कि वह मिश्र देश में गए और हजारों मिश्रियों को अपना अनुयायी बनाकर अपने धर्म में प्रविष्ट किया। जो जो जिस वर्ण के योग्य था उसे वही वर्ण दिया गया। अभी यदुनाथ सरकार ने जो वर्तमान समय के उच्चतम ऐतिहासिकों में से एक हैं शिवाजी की जीवन से एक घटना का उल्लेख किया है कि उनके Master Of The Horse नेताजी पालकर को औरंगजेब ने मुसलमान बना लिया था। १० (दस) साल तक मुसलमान रहे। पंजाब और अन्य सूबों में काम करते रहे। बाद में वह शिवाजी के पास आये और उनकी शुद्धि की गई। वहां भी शुद्धि का प्रयोग किया गया है। इस लेख का समर्थन हौलेंड के कोठीदारों के एक पत्र से होता है जो उन्होंने सूरत से लिखा था। अतः शुद्धि प्रथम तो वेद के आदेश से आवश्यक हुई, फिर स्मृति ने यह विधि भी बता दी जिससे शुद्धि होती है, इतिहास ने इस बात की साक्षी दी कि शुद्धि की जाती रही है। यदि अब भी महात्माजी का यही विश्वास है कि हिन्दू धर्म में शुद्धि का विधान नहीं तो इसका इलाज सिवाय इसके क्या हो सकता है कि महात्माजी जी से प्रार्थना की जाए कि वह हिन्दू धर्म की व्याख्या करें अर्थात् बतायें कि वह कौनसा हिन्दू धर्म है जिसमें शुद्धि की आज्ञा नहीं? •हिन्दू धर्म को किसने संकुचित किया? गत हिन्दू सभा की बैठक में सनातन धर्म के पण्डितों की उपस्थिति में शुद्धि का प्रस्ताव पास हुआ। अहिन्दू हिन्दू बनाया जा सकता है- यह घोषणा हिन्दू धर्म के प्रतिष्ठित पण्डितों की ओर से की जा चुकी है। भिन्न भिन्न मठों के शंकराचार्यों ने व्यवस्था दे दी है कि आज के ही नहीं पांच पांच सौ साल के पतित हुए लोगों की सन्तान भी यदि आज वह चाहे तो उसे आर्य बनाया जा सकता है। आखिर वह हिन्दू धर्म कौन सा है जो शंकराचार्यों का नहीं, हिन्दू सभा का नहीं, वेद का नहीं, स्मृति का नहीं, पुराण का नहीं, छत्रपति शिवाजी का नहीं- महात्माजी का है? क्या कोई ऐसा ही हिन्दू धर्म है जिसे स्वामी दयानन्द की शिक्षा ने संकुचित बना दिया? इस संकोच के दो अर्थ हो सकते हैं- 'एक विचारों का संकोच' दूसरा 'क्षेत्र का संकोच'। ऋषि दयानन्द ने हिन्दू धर्म के विचारों को विस्तृत किया है वा संकुचित? इसके क्षेत्र को घटाया है वा बढ़ाया? वह हिन्दू धर्म जो पहिले केवल हिन्दुओं की सन्तानों का ही दायभाग था, उसका दरवाजा ऋषि ने मनुष्य मात्र के लिए खोल दिया। वह हिन्दू धर्म जो पहिले चौके और चूल्हे में बन्द था, जिसकी दृष्टि में अहिन्दू पतित थे अपवित्र थे- इसलिए नहीं कि उनके आचरण अपवित्र हैं किन्तु इसलिए कि उनका जन्म हिन्दुओं के घर नहीं हुआ- वह हिन्दू धर्म जो बंगाल की खाड़ी और अरब के समुद्र के बाहर कदम रखने से भ्रष्ट हो जाता था, जिसके भूगोल में सिवाय भारत के और कोई देश न था, और भारतवर्ष की भी मस्जिदें, गिरजे, जैनियों, बौद्धों और पारसियों के मन्दिर, उनके रहने के मकान, नहीं नहीं उनके शूद्रों, बच्चों, औरतों और मर्दों के कान, स्वयं हिन्दू जनता के १/५ भाग के कान इस योग्य न थे कि इस धर्म की दिल को मोहित करने वाली दुंदुभि से पवित्र होते, उसे दयानन्द ने सारे संसार के लिए समान कर दिया है। यह वह संकोच है जिसे दयानंद संसार के एक विशालतम और उदारतम धर्म में लाया है! वस्तुतः ने अत्याचार किया है। हां! हिन्दू धर्म विशाल था, उदार था क्योंकि हिन्दू धर्म का कोई लक्षण न था। कोई परमात्मा को मानो न मानो। वेद की प्रतिष्ठा करो न करो। जीवों की रक्षा करो या कुर्बानी, कुछ करो अपने आप को हिन्दू कहो। प्रत्येक कार्य हिन्दू कार्य है। प्रत्येक विचार हिन्दू विचार है। हां! अहिन्दू की सन्तान को अपवित्र समझो और उससे घृणा करो। दयानन्द ने ऐसे हिन्दू धर्म को संकुचित किया। उसके विचारों को भी संकुचित किया और क्षेत्र को भी। यदि झूठ को सचाई की परिधि से निकाल देना सचाई का क्षेत्र तंग करने है, यदि दुराचार को सदाचार के क्षेत्र से बाहर करना सदाचार का दम घोंटना है तो दयानन्द वस्तुतः दोषी है। उसने हिन्दू धर्म के क्षेत्र को संकुचित किया, उसका दम घोंटा, संकुचित करने के स्यात् यह अर्थ हों कि हिन्दू धर्म में भिन्न भिन्न मतों की समालोचना करने की प्रणाली का आविष्कार किया गया है। स्वामी दयानंद के आने से पहिले हिन्दू धर्म एक भक्त था जिसके विषय में निम्न कथा वर्णित की गई है- एक दिन एक महात्मा खाना पका रहे थे। भजन भी करते जाते थे, तवे से रोटी भी उतारते जाते थे। उन्होंने एक रोटी उतारी ही थी कि कुत्ता झपटा और रोटी उठा कर ले गया। महात्मा ने उस रोटी को अभी चुपड़ा न था। महात्मा ने घी की प्याली उठाई और कुत्ते के पीछे भागे। प्याली आगे आगे करते थे और कहते थे "रूखी न खाइयो प्रभु! रूखी न खाइयो।" •उदार हिन्दू धर्म अहिन्दू होने में लाभ था, हिन्दू होने में नुकसान। अपने दलित भाइयों को ही देख लो। जब तक वह हिन्दू हैं हमारे साथ नहीं छू सकते। ज्यूँ ही मुसलमान या ईसाई हुए उनकी छूत हट गई। यह हिन्दुओं की उदारता थी। इनको घर पेश, बार पेश, घर का माल असबाब सब पेश, कोई कुछ कह जाए चूँ नहीं करनी, चोर को कम्बल दे आना कि कहीं वह असफलता से निराश न हो, यह हिन्दुओं का काम था। अपनों से लड़ते थे। हिन्दुओं के दर्शन पढ़ जाओ, शास्त्रार्थों से परिपूर्ण हैं, लेकिन हिन्दुओं के साथ पिछले आचार्यों के आगे अहिन्दुओं का प्रश्न न आया था। स्वामी दयानंद के सामने यह नई कठिनता थी कि हिन्दुओं के मत मतान्तरों के अतिरिक्त अहिन्दू मतों ने भी डेरे डाले हुए थे। ऋषि के आने से पहिले प्रत्येक अहिन्दू प्रत्येक हिन्दू का अतिथि था। खाने पीने में उससे घृणा करनी लेकिन उसके मत पर अंगुली न उठानी, वह गाली दे, गलोच दे, वेदों की निंदा करे, शास्त्रों की निन्दा करे, हमारे महापुरुषों की निंदा करे, चुप रहना। ऋषि आया और उसने सबसे पहिले यह पाठ पढ़ाया कि चोर और अतिथि में भेद करो। स्वामी से पहिले हिन्दुओं की ओर से दूसरे मतों का उत्तर दिया जा रहा था किन्तु उसे जाति न सुनती थी, और वह उत्तर अश्लील था। यदि महात्मा सत्यार्थप्रकाश के साथ-साथ मुंशी इंद्रमणि इत्यादि के लेखों का अध्ययन कर लेते तो उन्हें मालूम होता कि ऋषि ने अहिन्दू मतों के साथ नरमी से काम लिया है वा कठोरता से। ऋषि को न हिन्दू का पक्षपात था और न अहिन्दू का। सत्यार्थप्रकाश, जो महात्मा गांधी के लिए निराशाजनक सिद्ध हुआ है, उसकी भूमिका में महर्षि लिखते हैं "यद्यपि मैं आर्यावर्त देश में उत्पन्न हुआ और बसता हूँ तथापि जैसे इस देश के मत मतान्तरों की मिथ्या बातों का पक्षपात न कर यथातथ्य प्रकाश करता हूँ वैसे ही दूसरे देशस्थ वा मतोन्नति चाहने वालों के साथ भी बर्तता हूँ।" आगे चलकर फिर कहा है- "जैसा मैं पुराण, जैनियों के ग्रन्थ, बाइबिल और कुरान को प्रथम ही बुरी दृष्टि से न देखकर उनमें गुणों का ग्रहण और दोषों का त्याग करता हूँ वैसा सबको करना चाहिए।" ऋषि के सामने हिन्दूजाति पर अन्य मतों की मार हो रही थी, हमले हो रहे थे, परन्तु यह चुप थी। कुछ मनचले ऐसे हिन्दू भी थे जो पत्थर का उत्तर पत्थर से और मुक्के का उत्तर मुक्के से दे रहे थे। दूसरी ओर अन्य मत थे जो अपने को सच्चा और आर्यधर्म को झूठा बता रहे थे। यदि ऋषि पक्षपात करते तो अन्य मतों के प्रचारकों की तरह हिन्दुओं की बात-बात का समर्थन करते, अहिन्दुओं की भलाइयों को भी बुरा कहते, परन्तु ऐसा करना उनके उच्च मनुष्यभाव के प्रतिकूल था। यदि अन्य मतों में शुद्धि सचाई होती और हिन्दू असत्य के ठेकेदार होते तो ऋषि उन्हें प्रेरित करते कि हिन्दूमत को छोड़ दो और अहिन्दू हो जाओ। ऋषि ने सब मतों का अध्ययन किया और इस परिणाम पर पहुँचे कि हर मत में सत्य भी है और असत्य भी। ऋषि ने विवाह न किया। वह ब्रह्मचारी रहे। एक ही धुन सवार रही। ३० वर्ष की आयु तक लगातार अध्ययन किया जिससे उन्हें विश्वास हुआ कि वर्तमान हिन्दू धर्म में संशोधन की आवश्यकता है, वर्तमान इस्लाम में संशोधन की आवश्यकता है। महात्मा गांधी ने भी जेल में इन मतों का अध्ययन किया है- आखिर कितना समय! फिर इसमें क्या देखा है? महात्मा इस अध्ययन से किस परिणाम पर पहुंचे हैं? महात्मा कहते हैं- "मेरी हिन्दू प्रकृति मुझे बताती है कि हर मजहब थोड़ा सच्चा है।" इनका सारा लेख पढ़ जाओ ऐसा मालूम होता है कि उनकी दृष्टि में यदि कोई कतल करने योग्य मजहब है तो हिन्दुओं का, क्योंकि हिन्दुओं की पवित्र पुस्तक वेद तक का उपहास कर दिया गया है। अहिन्दू मतों ने संसार को शान्ति दी। इस्लाम और शांति? इन दो भावों को महात्मा ही एक स्थान पर रख सकते हैं। साधारण जनों की शक्ति में यह चमत्कार नहीं, महात्मा ने वेद को पढ़ा भी है? •जल्दबाज श्री स्वामी श्रद्धानन्द जल्दबाज हों- आर्यसमाज जल्दबाज हो, शायद ऋषि दयानंद भी जल्दबाज हों, किन्तु उनमें से किसी ने यह जल्दबाजी नहीं की कि एक पुस्तक को देखा ही नहीं और उसके प्रतिकूल सम्मति उद्घोषित करने लग गए हों। महात्मा गांधी को जल्दबाज कौन कहे? वह महात्मा हैं। महात्मा जल्दी नहीं तिलमिलाए- उन्होंने तो स्वामी श्रद्धानन्दजी के कुछ स्वभावों को जो उनके विचार में अक्षिप्य हैं, आर्यसमाज का दायभाग बताने में बड़े सोच विचार, बड़े धैर्य, बड़ी शान्ति से काम लिया है। आर्यसमाज पर ही बस नहीं आर्यसमाज के प्रवर्तक पर भी अत्यन्त निडरता से हाथ साफ किया है। वेद तक इनके आक्षेपों से बच न सके। कौन कहे महात्माजी तिलमिला गए हैं। कुछ हो! अपने विषय पर रहना चाहिए। स्वामी दयानंद ने अन्य मत-मतान्तरों के गुणों को स्वीकार किया और बुराइयों की समालोचना की। सत्यार्थप्रकाश के अन्त में भी स्वामीजी लिखते हैं- "जो-जो बात सबके सामने माननीय है उसको मानना अर्थात् जैसे सत्य बोलना सबके सामने अच्छा और मिथ्या बोलना बुरा, ऐसे सिद्धान्तों को स्वीकार करता हूं और जो परस्पर मत-मतान्तरों के विरुद्ध झगड़े हैं उनको मैं पसन्द नहीं करता क्योंकि इन्हीं मतवालों ने अपने मतों का प्रचार कर मनुष्यों को फंसा परस्पर शत्रु बन दिया है।" ऋषि को मत मतान्तरों के झगड़े पसन्द न थे। उन्हें शान्ति की खोज थी किन्तु शांति को झूठ के दामों पर खरीद नहीं कर सकते थे। ऋषि ने पक्षपात को अपने पास फटकने तक न दिया। दस समुल्लासों में वह लिखा जो आपको पसन्द था और जो सबके मानने योग्य था। यह सचाईयाँ हिन्दुओं की मलकीयत नहीं, जैसी वेद की प्राचीन शिक्षा को हिन्दुओं के वर्तमान रीतिरिवाजों ने बिगाड़ दिया था, वैसे ही अन्य मतमतान्तर भी वेद ही से निकले थे किन्तु उन्होंने उस पवित्र शिक्षा को अपनी मौलिक शुद्ध अवस्था में न रहने दिया था। ऋषि ने दस समुल्लासों में सब मत मतान्तरों की सांझी सचाईयों का वर्णन किया। वेद सब मत मतान्तरों का सांझा स्त्रोत है। उसी का प्रमाण दिया। मत मतान्तरों के प्रमाण पेश करना व्यर्थ में बात को तूल देना होता। मनुष्यकृत प्रमाणों में केवल मनुस्मृति आदि आर्ष ग्रन्थों के प्रमाण दिए क्योंकि मनुस्मृति सबसे पहली धर्म पद्धति है जिससे दूसरे धर्मशास्त्रों का प्रादुर्भाव हुआ। इससे ऋषि को यह दिखाना भी अभीष्ट था कि अन्य मनुष्यकृत ग्रन्थों का अध्ययन भी किस दृष्टि से किया जाए? जैसे मनुस्मृति की परख वेद की कसौटी पर की गई है वैसे ही कुरान और इञ्जील आदि की भी होनी चाहिए। उनके जो हिस्से वेदानुकूल हों वे ठीक हैं जो विरुद्ध हों वह अशुद्ध हैं। •अनजाने में मिथ्याकथन महात्मा कहते हैं ऋषि ने अनजाने में मिथ्या कथन किया है। 'अनजाने में मिथ्या कथन' से महात्मा का तात्पर्य क्या है? क्या ऋषि ने इन मत मतान्तरों का भाव अशुद्ध समझा? यह सम्भव है! अन्ततोगत्वा ऋषि भी मनुष्य थे। दूसरा यह कि समझा तो ठीक किन्तु स्वभाव से बाधित होकर उनको अशुद्ध रूप में पेश किया, यह बात ऋषि के स्वभाव से इतनी ही दूर थी जितनी कि महात्मा गांधी के स्वभाव से मत मतान्तरों की सत्यासत्य निर्णायक समालोचना। ऋषि को यदि अहिन्दू मतों की धज्जियां उड़ानी होती तो उनसे पहले ऐसी पुस्तकें विद्यमान थीं। उनमें से किसी एक का प्रचार करते। सबसे पहिले ऋषि ने हिन्दू मत की बुराइयों का वर्णन किया। यह समुल्लास सत्यार्थप्रकाश का सबसे लम्बा समुल्लास है। जैसे महात्मा गांधी को हिन्दुओं से विशेष प्यार है। हिन्दुओं को कारण निष्कारण दोषी ठहराते हैं। उन्हीं को झाड़ते हैं, दूसरों को नहीं। ऋषि भी हिन्दू घराने में पैदा हुए थे। हिन्दुओं के रीतिरिवाज देखा करते थे। उनकी त्रुटियों से अधिक परिचित थे, इसलिए उनकी पुस्तकों की अधिक समीक्षा की। अन्य मत मतान्तरों को नमूने के तौर पर थोड़ा-थोड़ा परखा। महात्मा इसे मिथ्या वर्णन बताते हैं और कहते हैं कि अनजाने से हो गया होगा। महात्मा के लेख का बड़ा भाग हिन्दू-मुस्लिम के झगड़ों के विषय में मिथ्याकथन है। मुसलमानों के अत्याचारों से वे अच्छी तरह परिचित हैं। हिन्दुओं पर अत्याचारों की उनके पास शिकायतें की गई हैं। इस डर से कि कहीं यह शिकायतें सत्य सिद्ध न हो जाएं, महात्माजी ने उनके विषय में खोज करने की आवश्यकता नहीं समझी। एक भी घटना ऐसी नहीं लिखी जिसे सिद्ध या सत्य कहा जा सके। यही खोज न करना ही अनजाने की मिथ्यावादिता है, स्वामी दयानंद ने ऐसी अनजाने की मिथ्यावादिता नहीं की। ऋषि ने जो किया, इसका परिणाम यह है कि सब मत मतान्तरों ने अपना संशोधन किया है। कुरान के भाष्य बदल गये। जिस आयत में औरतों को उजरत (उजूरहुन्न) देकर उनसे व्यभिचार करने की शिक्षा दी, जिसके आधार पर आज भी ईरानी खुला 'मुता' करते हैं, मजहब के नाम पर सतीत्व का विक्रय होता है, आज उस आयत का मतलब बदल गया है 'उजूरहुन्न' के नए अर्थ हैं हक्कमेहर (स्त्रीधन)। यह अर्थ केवल नये भाष्य में आते हैं, पुराने भाष्यों में नहीं। ऋषि का 'मिथ्या वर्णन' भारत ही में रहा और इसका प्रभाव यह है कि इस्लाम शुद्ध हो रहा है। परमात्मा इसे ईरान में ले जावे। वहां की औरतों पर से भी इस्लामी अत्याचार (शाप) हट जाएगा। महात्मा कुछ कहें, संसार भर की औरतों के रोम रोम से ऋषि के उपकारों के लिए धन्यवाद की ध्वनि उठ रही है। स्थानाभाव अन्य मतों के उदाहरण उद्धृत करने में बाधक है। •सत्यवादिता का प्रभाव अब जरा महात्मा गांधी के सत्य वर्णन का प्रभाव देखना। ख्वाजा हसन निजामी की 'दावते इस्लाम' से गैर मुस्लिमों के अन्तःपुर सुरक्षित नहीं। लज्जा और सतीत्व सुरक्षित नहीं। नवयुवकों का सदाचार खतरे में है। महात्मा की "सत्यवादिता" यह है कि उस महात्मा का नाम तक नहीं लेते। संकेतों में बात करते हैं। उस हज़रत का नाम रखा है- रसूल के महान् सन्देश का अशुद्ध अनुवादक। रियासत हैदराबाद में इस अशुद्धानुवाद से प्रतिपादित हुई 'शुद्ध' प्रचार प्रणाली पर काम होना शुरू हो गया है। दिल्ली से समाचार आ रहे हैं कि वहां यह इस्लामी नीति अपना फल दिखा रही है। भला यह अशुद्ध अनुवाद कैसे हुआ? एक भी मुसलमान है? कोई मौलाना? कोई प्रचारक? कोई राजनैतिक नेता? जिसने इस अशुद्ध अनुवादक के विरुद्ध आवाज उठाई है। कहा हो कि यह इस्लाम का मन्तव्य नहीं। सब देख रहे हैं और दिल खुश हो रहे हैं कि इस्लाम अपने वास्तविक रूप में फैल रहा है। यह है अरबी रसूल का महान् सन्देश जिसने तड़पती दुनिया को शान्ति प्रदान की है। यदि यह सत्यवादिता है तो ऐसी लाखों सत्यवादिताएँ ऋषि की एक "असत्यवादिता" पर न्योछावर है, जिसने स्त्री जाति की रक्षा की, जिसने केवल हिन्दू स्त्रियों का ही नहीं किन्तु मुसलमान महिलाओं का भी मान रख लिया। •शुद्धि महात्मा का कथन है कि प्रत्येक नर-नारी अपने धर्म में पूर्णता प्राप्त करे यह सच्ची शुद्धि है। एक मुसलमान अवश्य मुसलमान रहे, अगर उसे आर्य बनने में अपनी आत्मा का कल्याण नजर आवे तो उसे सुना दिया जाए कि महात्मा गांधी अपने विशालतम और उदारतम धर्म में तुझे दाखिल नहीं होने देते। इस्लाम के कुर्बानी के सिद्धान्त को ले लो। महात्मा अहिंसा के धर्म प्रचारक हैं। उनकी दृष्टि में किसी पशु को सताना सबसे बड़ा अपराध है। दूसरी ओर एक धर्म जो निरपराध जानवरों का वध करना न केवल विहित किन्तु आवश्यक बतलाता है, धार्मिक कर्तव्य ठहराता है। एक मुसलमान है, उसे अहिंसा का सिद्धान्त पसन्द आता है, वह क्या करे? कुर्बानी न करे तो वह मुसलमान नहीं। महात्मा के पास आये तो उनका उपदेश ही यह हुआ कि अपने धर्म में पूर्णता प्राप्त करो, अर्थात् खूब 'कुर्बानी' करो। आखिर यह कैसा तर्क है। महात्मन्! आंखें मीच लेने का नाम सत्यवादिता नहीं। दुनियाँ में मजहब हैं। हां, मजहब हैं जो दुराचार पर बल देते हैं, बुरे से बुरे आचरण से मनुष्यों का उद्धार बतलाते हैं। इनमें पूर्णता प्राप्त करें- यह अच्छी शुद्धि है। क्या सत्यार्थप्रकाश इसलिए निराशाजनक है कि ऐसी शुद्धि का विधान नहीं करता है? संसार के लोगों के सामने एक धर्मपद्धति रखता है जिसके मानने और आचरण में लीन होने से ही आत्मा का कल्याण होता है। सत्यार्थप्रकाश की दृष्टि में वाममार्ग की पराकाष्ठा शुद्धि नहीं। इस्लाम की पराकाष्ठा शुद्धि नहीं। सचाई की पराकाष्ठा ही शुद्धि है। सदाचार की पराकाष्ठा ही शुद्धि की पराकाष्ठा है। वैदिक धर्म की पराकाष्ठा ही शुद्धि की पराकाष्ठा है। •अन्तरात्मा की आवाज महात्मा ने एक बात बड़े पते की कही है। लिखते हैं- शुद्धि यदि आर्यसमाजियों की अन्तरात्मा की आवाज है तो उसे रोका न जायेग। महात्मा को हम कैसे विश्वास कराएं कि शुद्धि हमारे अन्तरात्मा की आवाज है? महात्मा किसी आर्यसमाजी का दिल चीर कर देखें तो पता लगे कि उसमें किन आकांक्षाओं का दरिया ठाठें मार रहा है। सत्यार्थप्रकाश आर्यसमाजी का हृदय है। इससे महात्मा को निराशा हुई। वेद आर्यसमाजी का प्राण है- महात्मा ने उसे 'बुत' कहा। तोड़ा इसलिए नहीं कि महात्मा 'मूर्तिभञ्जक' नहीं। अब और क्या प्रमाण है जो महात्मा के आगे प्रस्तुत करें? लेखराम की लाश? जिसने शुद्धि की छुरी पर अपना कलेजा रक्खा, कटार खा ली और उफ न की। मारने वाले को मारना तो दूर रहा, उसके लिए एक अपशब्द भी न कहा। तुलसीराम का खून? जो अहिंसा धर्म के अवतारों, जैनियों के हाथों बलिदान हो गया। रामचन्द्र का ठिठुरा हुआ शरीर? जिसे माघ मास की ठिठुराती शाम को लाठियों की बौछार ने सर्वदा के लिए चुप करा दिया। ये सब शुद्धि के मतवाले थे। यदि उनकी तड़पती लाशें बोलें और अपनी आवाज महात्मा गांधी के कानों तक पहुंचाएं तो पता लगे कि उनकी तड़प शुद्धि की उत्कण्ठा की तड़प है। उनकी मृत्यु शुद्धि का जीवन है। यही लोग आर्यसमाज की अन्तरात्मा हैं। जो उनकी साक्षी है वही आर्यसमाज की साक्षी है। एक बात शेष रह गई है। महात्मा गांधी शुद्धि की आज्ञा दे सकते हैं पर कैसे? आर्य धर्म की चार कसौटियां हैं- सबसे मुख्य वेद, फिर स्मृति, फिर सदाचार। ये तीनों महात्मा गांधी की अदालत में प्रमाणिक नहीं। चौथी और सबसे छोटी कसौटी है 'स्वस्य च प्रियमात्मन:' इसी को दूसरे शब्दों में अपने अन्तरात्मा की आवाज कह सकते हैं। इसी के आधार पर महात्माजी शुद्धि की आज्ञा दिये देते हैं। इतना ही सही- फिर गनीमत है। अब आक्षेप है तो शुद्धि के ढंग पर। इसमें हमें कोई आपत्ति नहीं। हम ढंग बदल देंगे, जब महात्माजी वर्तमान ढंग से कोई उत्तम ढंग पेश करेंगे तो हम उसी का अनुसरण करेंगे। •ईसाइयों की नकल पर प्रश्न यह है कि वर्तमान ढंग में दोष क्या है? महात्माजी फरमाते हैं कि यह ईसाइयों से ढंग की नकल है। ईसाइयों के ढंग में क्या दोष है- यह नहीं बताया। क्या कोई काम इसलिए भी दूषित हो सकता है कि वह ईसाइयों का है? लो! महात्माजी खुद फैसला फरमायें। स्वामी दयानन्द का हृदय संकुचित हुआ या महात्मा गांधी का? स्वामीजी तो लिखते हैं कि मैं सब मतों के गुण ग्रहण करता और बुराइयाँ छोड़ता हूँ। पर यहां तो कोई चीज दूषित ही इसीलिए है कि वह ईसाइयों की है। महात्मा गांधी को ईसाइयों से भी न्याय का बर्ताव करना चाहिए। वे भी तो परमात्मा के पुत्र हैं, केवल मुसलमान नहीं। क्या जो दोष ईसाइयों के प्रचार में हैं वे दोष आर्यसमाज के प्रचार में हैं भी! सिद्ध करना होगा! दावा बे दलील बे शहादत मानने योग्य नहीं। •वेद विहीन हिन्दू महात्मा का कथन है कि शुद्धि की कसौटी सदाचार होना चाहिए। हम महात्मा के इस कथन की प्रशंसा करते हैं परन्तु स्वयं सदाचार की कसौटी क्या है। शुद्धि के औचित्य अनौचित्य पर विचार करते हुए हमने निवेदन किया था कि जिस शुद्धि की आत्मा वेद में है, स्मृति में है, जिसके उदाहरण पुराण में है, और जिसके क्रियारूप में आने की साक्षी इतिहास देता है, वह महात्मा की दृष्टि में उचित नहीं। महात्मा की व्यवस्था अपनी होती तो हानि न थी। महात्मा कहते हैं कि शुध्दि का हिन्दू मत में विधान नहीं। हमने पूछा था कि किस हिन्दू मत में? महात्माजी की आशा सत्यार्थप्रकाश ने पूरी नहीं की। क्या वेद करते हैं? महात्मा का कथन है कि वेद के प्रत्येक शब्द पर विश्वास रखना एक सूक्ष्म प्रकार की मूर्तिपूजा है। यह खूब रही! आखिर वेद का अपराध क्या है? यही कि आपकी मांग पूरी नहीं करता। आप किसी अहिन्दू को अपना धर्मभाई नहीं बनाना चाहते और वेद बनाता है। अब सदाचार के विषय में भी कठिनता है। इसकी कसौटी क्या है? हमें स्वामी श्रद्धानंद की चिंता नहीं, आर्यसमाज की चिंता नही, स्वामी दयानंद की चिंता नहीं। यह न रहे तो क्या? इनका नाम मिट गया तो क्या? महात्मा तो वेद को ही मिटाने पर कमर कसे हुए हैं। ले देकर आर्यजाति की यही पूंजी रह गई है। महात्मा को वह भी एक आंख नहीं भाती। हिन्दू मुस्लिम संगठन की वेदी पर सब कुछ कुर्बान करते। दयानंद का सिर हाजिर! आर्यसमाज की जान हाजिर! लेकिन परमात्मा का वास्ता! एक वेद की बलि न चढ़ाना। किसी की मांग हो यह पूरी न होगी। ब्रह्मा से लेकर दयानन्द पर्यन्त सब ऋषियों ने वेद को परम प्रमाण माना है। हिन्दुओं के दर्शनों में, साहित्य में, कलाओं में सब तरह के मतभेद हैं लेकिन वेद के आगे सिर झुकाती हैं तो इतिहास वेद की पूजा के गीत गाते हैं। आश्चर्य यह है कि महात्मा ने वेद को पढ़ा ही नहीं। क्या उसके पढ़ने में भी मूर्तिपूजा का डर है? आखिर वह हिन्दू मजहब कौनसा है जिसमें वेद को ही तिलाञ्जलि दे दी जाय। मुसलमानों के कुरान को भी 'बुत' कह देते। हिन्दू वेद छोड़ते, मुसलमान कुरान को जवाब देते- और इस अश्रद्धा व विश्वासहीनता का नाम होता हिन्दू मुस्लिम संगठन। परन्तु नहीं। इस हिन्दू मुस्लिम संगठन में तो हिन्दुओं को देना ही देना है और मुसलमानों को लेना ही लेना। हिन्दुओं की आखिरी पूंजी वेद है, इसपर भी महात्मा के किसी मित्र की नजर होगी। •दोष! महादोष!! परन्तु झूठा हां! एक दोष बताया और वह ईसाइयों का नहीं, मुसलमानों और आर्यसमाजियों का। वह क्या? वह यह कि वे दोनों औरतों को बहका कर ले जाते और उन्हें शुद्ध करने का यत्न करते हैं। यह झूठ है जो महात्मा के किसी भक्त ने महात्मा से कहा है। यह झूठ उस भक्ति से कहीं बड़ा है, जो महात्मा के लिए उस भक्त के हृदय में है। महात्मा ने उस पर विश्वास करके उसे और भी बड़ा बना दिया है। हिन्दुओं पर इतनी आपत्तियाँ तोड़ी ही थीं, कहे सुने के आधार पर काल्पनिक अत्याचारों का दोष लगाया ही था। 'मुझसे कहा गया है' कि आखिर कोई हद्द! कोई उदाहरण दिया होता, कोई घटना पेश की होती। आर्यसमाजी पापी हैं, दोषी हैं, अपराधी हैं। एक बाल ब्रह्मचारी का नाम जपते हैं और उनमें से अकसर में ब्रह्मचर्य नाम को नहीं। आदित्य के चेले हैं और उनमें अकसर तेजोहीन हैं। लाख निर्बलताओं के शिकार होंगे लेकिन औरतें बहकाने का इल्जाम! यह इनसे इतना ही दूर है जितना महात्मा से पड़ताल का परिश्रम। आर्यों की जल्दबाजी इसी में है कि जरा से अपराध पर बड़े से बड़े मनुष्य को आर्यसमाज से बाहर कर देते हैं। जरा जरा सी बात पर तिलमिला उठते हैं। परमात्मा करे इस इल्जाम से और तिलमिला उठें और बाल ब्रह्मचारी के समाज को वस्तुतः ब्रह्मचारियों का समाज बनायें। •अन्तिम निवेदन महात्मन्! अन्त में आपसे एक निवेदन है। आज के हिन्दू दो बरस पहिले के हिन्दू नहीं हैं। वे दिन गये जब यह रोटी उठा ले जाने वाले कुत्ते के पीछे घी की प्याली लेकर दौड़ते थे कि 'रूखी न खाइयो प्रभु! रूखी न खाइयो।' उन्हें चोर और मेहमान में विवेक है। वेद और शास्त्र तो क्या छोड़े, ये तो अब सांसारिक सम्पत्ति भी नहीं छोड़ने के। आखिर आप मुसलमानों को कब तक मेहमान समझेंगे। हम तो उन्हें अपना भाई जानते हैं। उन्हें भारत में बसते सदियां हो गईं। बच्चा घर संभालने के योग्य हुआ। मेहमान ने अपना घर बसा लिया। अब उनका हमारा बराबर का पड़ोस है, हम आपस में लड़ेंगे, झगड़ेंगे, हाथ मिलायेंगे और गले मिलेंगे। हमेशा कौन आतिथ्य कर सकता है? और जिसने प्रलय तक अतिथि रहने की कसम खा ली हो वह भी तो आदरणीय अतिथि नहीं। कवि ने कहा है- 'मक्खी बनकर पड़ा रहे वह अतिथि प्रतिष्ठा खोता है।' फिर अतिथि के भी तो कर्तव्य हैं। जितना शील गृहपति के लिये आवश्यक है उससे कम अतिथि के लिये नहीं। आप हिन्दुओं को कहते हैं कि तुम मुसलमानों पर छोड़ दो कि वे जो अधिकार चाहें तुम्हें दें। क्यों? इसलिए कि हिन्दुओं की संख्या अधिक है। बहुत अच्छा, पंजाब की अवस्था इससे ठीक उलटी है। जरा यहां के मुसलमानों से कह दीजिये कि तुम अपने अधिकरों से हाथ उठा लो और हिंदुओं को फैसला करने दो कि तुम्हें क्या मिले और उन्हें क्या? मुस्लिम लीग से पूछिए, वह क्या उत्तर देती है? लीग का तो प्रस्ताव ही है कि यहां हमें अधिक अधिकार चाहियें कि हम अधिक हैं और दूसरे प्रान्तों में इसलिए कि हम वहां कम हैं। ना!! क्या भोलापन है। यह हैं परमात्मा के सरल सूधे बच्चे! मगर नहीं, हम तो यहां भी न्याय चाहते हैं और वहां भी। आपके शील से डर इसलिये होता है कि अब आप धर्म तक की बलि देने को तैयार हो गये हैं। यह हम नहीं होने देंगे। आपका हिन्दूधर्म जो हो, हमारा तो वेद का, शास्त्र का, ऋषियों और मुनियों का आर्य धर्म है।
गढ़वाल में डोला-पालकी समस्या और आर्यसमाज (vedicvichar)
04-10-2021
गढ़वाल में सवर्णों तथा स्थानीय मुसलमान युवक -युवतियां के विवाह के अवसरों पर डोला-पालकी के उपयोग की परंपरा सदियों से रही है। बारात में डोला-पालकी उठाने का कार्य मुख्यत शिल्पकार ही करते थे। किन्तु सवर्ण समाज ने उन्हें अपने ही पुत्र पुत्रियों के विवाह के अवसर पर डोला-पालकी के प्रयोग से वंचित कर दिया था। शिल्पकार वर वधुओं को डोला-पालकी तथा ऐसी सवारियों पर बैठने का सामजिक अधिकार नहीं दिया गया था। नियम के प्रतिकूल आचरण करने वाले शिल्पकारों को दण्डित किया जाता था। गढ़वाल में आर्य समाज की स्थापना के प्रारम्भ में गंगादत जोशी (तहसीलदार) जोतसिंह नेगी (सेंताल्मेंट आफसर),नरेंद्र सिंह (चीफ रीडर) आदि प्रबुद्ध लोगों ने आर्य समाज के विचारों को जनता तक पहुँचाने का कार्य किया था। किन्तु असंगठित और कम व्यापक होने के कारण इनके प्रयत्न सीमित क्षेत्र तक ही प्रभाव स्थापित कर सके। यह वर्ग सवर्णों की अपेक्षा आर्थिक दृष्टि से भी बहुत पिछड़ा हुआ था। 20वीं शताब्दी के नवजागरण के प्रभाओं से उत्पन्न चेतना के फलस्वरूप शिल्पकार नेतृत्व के रूप में जयानंद भारती का आविर्भाव हुआ। सन 1920 के पश्चात जयानंद भारती के नेतृत्व मैं शिल्पकारों की सामजिक,आर्थिक,समस्याओं तथा,उनमें व्याप्त कुरीतियों के हल के लिए संघठित प्रयास किये गए। नेता जयानंद भारती ने सवर्ण नरेंद्र सिंह तथा सुरेन्द्र सिंह के साथ मिलकर शिल्पकारों में व्याप्त कुरीतियाँ दूर करने बच्चों को शिक्षा के लिए स्कूल भेजने के लिए प्रेरित किया। कुमाऊ में लाला लाजपत राय की उपस्थिति में सन 1913 में आर्य समाज के शुद्धिकरण के समारोह में शिल्पकारों को जनेऊ देने का कार्यकर्म चलाया गया। शिल्पकारों को जनेऊ दिए जाने के फलस्वरूप गढ़वाल में भी आर्य समाज द्वारा सन 1920 के पश्चात् जनेऊ देने का कार्यक्रम चलाया गया था। शिल्पकारों के मध्य जन-जागरण कार्यक्रम के अर्न्तगत सवर्णों के एक वर्ग विशेष द्वारा शिल्पकारों के साथ संघर्ष की घटनाएं इस तथ्य की ओर संकेत करती है कि रूढिवादी व्यक्ति समाज मैं परिवर्तन में अवरोधक बन गए थे। गढ़वाल में ईसाई मिशनरियों के कारण निर्बल शिल्पकार वर्ग में धर्मांतरण की बढती रूचि बढ़ना एक बड़ी चुनौती थी । फलस्वरूप आर्यसमाज द्वारा ईसाई मिशनरियों के कुचक्र को रोकने के लिए शिल्पकारों के मध्य उनके सामाजिक, आर्थिक पिछडेपन को दूर करने के लिए प्रयत्न किये गए। इन प्रयासों में 1910 में दुग्गाडा में पहला आर्य समाज का स्कूल स्थापित किया गया था। तत्पश्चात 1913 में स्वामी श्रद्धानंद द्वारा आर्य समाज का स्कूल प्रारंभ किया गया। गढ़वाल में आर्य समाज से इन प्रारम्भिक प्रयत्नों से एक ओर जहाँ आर्य समाज के कार्य क्षेत्र में अपेक्षाकृत वृद्धि ही वही दूसरी ओर शिल्पकार में शिक्षा के प्रति रुझान भी बढ़ा। इससे शिल्पकारों के ईसाईकरण के प्रयास शिथिल पड़ने लगे। शिल्पकारों में अशिक्षा कितनी थी इसका अनुमान इसी तथ्य से चलता है कि प्रथम विश्व युद्ध से पूर्व तक गढ़वाल में एक भी शिल्पकार इंट्रेस परीक्षा उतीर्ण नहीं था। गढ़वाल मेंआर्य समाज को विस्तार देकर शिल्पवर्ग की सहानुभूति अपने पक्ष में करने के उद्देश्य से आर्य प्रतिनिधि सभा के उपदेशक सन 1920 में गढ़वाल के प्रमुख नगरो कोटद्वार,दुगड्डा,लेंसिदौन,प ोडी,श्रीनगर में भेजे गए। इनमें गुरुकुल कांगडी के प्रचारक नरदेव शास्त्री जी प्रमुख व्यक्ति थे। गढ़वाल में आर्य समाज के आन्दोलन के रूप में गाँवों तक पहुँचने के उद्देश्य से नगर-कस्बों के पश्चात् चेलू सैन,बीरोंखाल,उदयपुर,अवाल्सु ं,खाटली,रिन्ग्वाद्स्युं आदि ग्रामीण क्षेत्रों में आर्य समाज की शाखाएं और विद्यालय आदि स्थापित कर ईसाई मिशनरी की चुनौती को स्वीकार किया गया। 1920 में आर्य समाज के तत्वावधान में अकाल राहत व शैक्षणिक कर्यकर्मों के प्रारम्भ होने के पश्चात् शिल्पकारों को सवर्णों के समान सामजिक अधिकार दिलाने के उद्देश्य से उनका जनेऊ संस्कार भी आर्यसमाज द्वारा आरंभ किया गया। इस प्रकार सन1924 में जयानंद भारती के नेतृत्व में डोला-पालकी बारातें संगठित की गई। इस प्रयास में कुरिखाल तथा बिंदल गाँव के शिल्पकारों की बारात ने डोला-पालकी के साथ कुरिखाल से बिंदल गाँव के लिए प्रस्थान किया। मार्ग में कहीं भी सवर्णों के गाँव नहीं पड़ते थे। कुरिखाल के कोली शिल्पकार भूमि हिस्सेदार होने के कारण अन्य शिल्पकारों की तुलना में संपन्न थे। दूसरी ओर उन्नी व्यवसाय के कुशल शिल्पी के रूप में इनके कुटीर उद्योग भी समृद्ध थे। इस स्थिति का लाभ उठाकर जातिवाद को चुनौती देने के उद्देश्य से आर्य समाजी नेताओं के संरक्षण में डोला-पालकी बारात निकाली गई। किन्तु एक घटना के अनुसार दुगड्डा के निकट चर गाँव के संपन्न मुस्लिम परिवार के हैदर नामक युवक के नेतृत्व में हिन्दू सवर्णों द्वारा जुड़ा स्थान पर शिल्पकारों की बारात रोकी गई। तत्पश्चात डोला-पालकी तोड़कर बारातियों के साथ मार- पीट की गयी। प्रशासन के हस्तक्षेप किये जाने के उपरांत भी चार दिन तक बारात मार्ग में ही रुकी रही। ऐसी अनेक घटनाएं उस काल में हुई। आर्य समाज के प्रभाव में आकर जब जब दलितों ने डोला-पालकी में नवविवाहितों को बैठाने का प्रयास किया तब तब उनके साथ मारपीट और लूटपाट की गयी। ऐसा व्यवहार दलितों की सैकड़ों बारातों के साथ हुआ। भारती जी न केवल संघर्ष के मोर्चे पर खड़े हुए बल्कि अदालतों में भी वाद दायर किये। इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा दलित शिल्पकारों के हक़ में फैसला दिया गया। लेकिन सवर्णों का अत्याचार रुका नहीं। जयानंद भारतीय ने सत्याग्रह समिति बना कर इन अत्याचारों के विरुद्ध लड़ाई जारी रखी। देश के बड़े नेताओं गोविन्द बल्लभ पन्त, जवाहर लाल नेहरु और महात्मा गांधी को भी उन्होंने इन अत्याचारों से अवगत कराया गया। गांधी जी को पत्र लिख कर,उन्होंने आग्रह किया कि गढ़वाल में शिल्पकारों की बारातों पर अत्याचार बंद होने तक वे व्यक्तिगत सत्याग्रह पर रोक लगा दे। गांधी जी ने भारतीय जी के पत्र को गंभीरता पूर्वक लिया और गढ़वाल में हरिजनों के उत्पीड़न बंद होने तक व्यक्तिगत सत्याग्रह पर रोक लगा दी। अखिल राष्ट्रीय स्तर पर डोला-पालकी के लिए यह संघर्ष किया गया। अंत में अनेक प्रयासों जनजागरण के पश्चात शिल्पकारों को अपना हक आर्यसमाज ने दिलवाया। डोला-पालकी आंदोलन लगभग 20 वर्ष तक चला। इस आंदोलन के प्राण जयानंद भारती थे। एक निम्न शिल्पकार परिवार में जन्म लेकर जयानंद भारती ने स्वामी दयानंद के समानता के सन्देश को जनमानस तक पहुँचाने के लिए जो संघर्ष किया। यह अपने आप में एक कीर्तिमान है। आज हमारे देश की दलित राजनीति में जयानंद भारती और आर्यसमाज के दलितौद्धार के कार्य को पुनः स्मरण तक नहीं किया जाता। केवल डॉ अम्बेडकर और ज्योतिबा पहले के प्रयासों का स्मरण किया जाता हैं। कारण वोट बैंक की राजनीती है। आईये हम उन महापुरुषों के योगदान से समाज को अवगत करवाये।
शिव, शंकर, महादेव, गणेश, भगवान आदि शब्दों का अर्थ (vedicvichar)
04-10-2021
वेदों में एक ईश्वर के अनेक नाम बताये गए है। ईश्वर का हर नाम ईश्वर के गुण का प्रतिपादन करता हैं। ईश्वर के असंख्य गुण होने के कारण असंख्य नाम है। 1- शिव --(शिवु कल्याणे) इस धातु से ‘शिव’ शब्द सिद्ध होता है। ‘बहुलमेतन्निदर्शनम्’ इससे शिवु धातु माना जाता है, जो कल्याणस्वरूप और कल्याण का करनेहारा है, इसलिए उस परमेश्वर का नाम ‘शिव’ है। 2- शंकर --(डुकृञ् करणे) ‘शम्’ पूर्वक इस धातु से ‘शङ्कर’ शब्द सिद्ध हुआ है। ‘यः शङ्कल्याणं सुखं करोति स शङ्करः’ जो कल्याण अर्थात् सुख का करनेहारा है, इससे उस ईश्वर का नाम ‘शङ्कर’ है। 3-महादेव -‘महत्’ शब्द पूर्वक ‘देव’ शब्द से ‘महादेव’ सिद्ध होता है। ‘यो महतां देवः स महादेवः’ जो महान् देवों का देव अर्थात् विद्वानों का भी विद्वान्, सूर्यादि पदार्थों का प्रकाशक है, इसलिए उस परमात्मा का नाम ‘महादेव’ है। 4- गणेश- (गण संख्याने) इस धातु से ‘गण’ शब्द सिद्ध होता है, इसके आगे ‘ईश’ वा ‘पति’ शब्द रखने से ‘गणेश’ और ‘गणपति शब्द’ सिद्ध होते हैं। ‘ये प्रकृत्यादयो जडा जीवाश्च गण्यन्ते संख्यायन्ते तेषामीशः स्वामी पतिः पालको वा’ जो प्रकृत्यादि जड़ और सब जीव प्रख्यात पदार्थों का स्वामी वा पालन करनेहारा है, इससे उस ईश्वर का नाम ‘गणेश’ वा ‘गणपति’ है। 5 -शक्ति -(शकॢ शक्तौ) इस धातु से ‘शक्ति’ शब्द बनता है। ‘यः सर्वं जगत् कर्तुं शक्नोति स शक्तिः’ जो सब जगत् के बनाने में समर्थ है, इसलिए उस परमेश्वर का नाम ‘शक्ति’ है। 6- भगवान् - (भज सेवायाम्) इस धातु से ‘भग’ इससे मतुप् होने से ‘भगवान्’ शब्द सिद्ध होता है। ‘भगः सकलैश्वर्यं सेवनं वा विद्यते यस्य स भगवान्’ जो समग्र ऐश्वर्य से युक्त वा भजने के योग्य है, इसीलिए उस ईश्वर का नाम ‘भगवान्’ है।
ଦେବଯଜ୍ଞ
02-10-2021
ପୂଜ୍ୟ ଡ.ସୁଦର୍ଶନ ଦେବାଚାର୍ୟ, ତାଙ୍କର ଦିବଂଗତ ପିତା କିନ୍ତାଲା କୃଷ୍ଣମୂର୍ତ୍ତିଙ୍କର ପ୍ରଥମ ପୁଣ୍ୟ ତିଥି ଆସନ୍ତା ୦୩.୧୦.୨୦୨୧ ରବିବାର ଦିନ ନିଜ ଜନ୍ମସ୍ଥାନ ଜଗଦଳପୁର ଗ୍ରାମରେ ପାଳନ କରିବେ । ସକାଳ ଘ୧୦.୦୦ ରେ ଦେବଯଜ୍ଞ ଅନୁଷ୍ଠିତ ହେବ। ତଦୁପରାନ୍ତ ସ୍ୱଳ୍ପ ବେଦୋପଦେଶ ପରେ ଘ.୧୨.୦୦ରେ ମଧ୍ୟାହ୍ନ ଭୋଜନର ବ୍ୟବସ୍ଥା କରିଛନ୍ତି। ଆର୍ୟ ସମାଜର ୦୩.୧୦.୨୧ ରବିବାର ଦିନର ସପ୍ତାହିକ ସତ୍ସଙ୍ଗ ବ୍ରହ୍ମପୁର ପରିବର୍ତ୍ତେ ଜଗଦଳପୁର ଠାରେ ଅନୁଷ୍ଠିତ ହେବ। ସମସ୍ତ ଆର୍ୟ ସମାଜି ଓ ଶ୍ରଦ୍ଧାଳୁ ମାନଙ୍କୁ ଏହି ଯଜ୍ଞାନୁଷ୍ଠାନରେ ଯୋଗ ଦେବାପାଇଁ ଅନୁରୋଧ କରାଯାଉଛି।ଇତି। ସଭାପତି, ଆର୍ୟସମାଜ, ବ୍ରହ୍ମପୁର।
वेद विचार
28-09-2021
====== ईश्वर आनंद का सागर है। वह हमें मधुर आनंद प्राप्त करे। ईश्वर हम पर सब ओर से आनंद की वर्षा कर हमें पवित्र करे। वह हमारे कर्मों को आच्छादित करते हुए हमारी अविनाशी उन्नत आत्मा में अधिरोहण करे। अतिशय आनंदमय, आनंदप्रद, जीवात्मा से पान किए जाने योग्य परमात्मा हमारे तेजोमय इंद्रिय, मन और प्राण आदि में अवरोहण करे। परमात्मा से युक्त होकर व उसकी संगति से ही हमारा कल्याण हो सकता है। अतः हम परमात्मा की वेद विहित सभी आज्ञाओं का पालन करें और दूसरों को भी ऐसा करने की प्रेरणा करें। -प्रस्तुतकर्ता मनमोहन आर्य
*ଓ୩ମ୍ ଉର୍ଦ୍ଧ୍ୱୋ ନ ପାହ୍ୟଂହସୋ ନି କେତୁନା ବିଶ୍ୱଂ ସମତ୍ରିଣଂ ଦହ ।* *କୃଧୀ ନ ଉର୍ଧ୍ୱାଞ୍ଚରଥାୟ ଜୀବସେ ବିଦା ଦେବେଷୁ ନୋ ଦୁବଃ ॥ ଋଗ୍-ବେଦ.୧/୩/୧୦/୧୪॥*
28-09-2021
*ବ୍ୟାଖ୍ୟା* :- ହେ ସର୍ବୋପରି ବିରାଜିତ ପରଂବ୍ରହ୍ମନ୍ ! ଆପଣ "ଉର୍ଧ୍ୱଃ' ସର୍ବୋତ୍କୃଷ୍ଟ ଅଟନ୍ତି, ଦୟାକରି ଆମ୍ଭମାନଙ୍କୁ ଉତ୍କୃଷ୍ଟ ଗୁଣ ପ୍ରଦାନ କରି ଉର୍ଦ୍ଧ୍ୱଦେଶରେ ଥାଇ ଆମକୁ ରକ୍ଷା କରନ୍ତୁ । ହେ ସର୍ବ ପାପପ୍ରଣାଶକେଶ୍ୱର ! ଆମକୁ "କେତୁନା' ବିଜ୍ଞାନ ଅର୍ଥାତ୍ ବିବିଧ ବିଦ୍ୟା-ପ୍ରଦାନ କରି "ଅହଂସଃ' ଅବିଦ୍ୟାଦି ମହାପାପରୁ "ନିପାହି' (ନିତରାଂପାହି) ସର୍ବଥା ଦୂରେଇ ରଖନ୍ତୁ ଓ "ବିଶ୍ୱମ୍' ଏହି ସକଳ ସଂସାରର ପାଳନ ନିତ୍ୟପ୍ରତି କରନ୍ତୁ । ହେ ସତ୍ୟମିତ୍ର ନ୍ୟାୟକାରିନ୍ ! ଯେଉଁ ପ୍ରାଣୀ (ସମତ୍ରିଣମ୍ ) ଆମଠାରେ ଶତ୍ରୁତା କରନ୍ତି ତାଙ୍କୁ ଓ କାମ କ୍ରୋଧ ଲୋଭ-ମୋହାଦି ଶତ୍ରୁମାନଙ୍କୁ "ସନ୍ଦହ' ସମୂଳେ ଭସ୍ମସାତ୍ କରିଦିଅ "କୃଧୀନ ଉର୍ଧ୍ୱାନ୍' ହେ କୃପାନିଧେ ! ଆମକୁ ଉତ୍ତମ ବିଦ୍ୟା, ଶୌର୍ଯ୍ୟ, ଧୈର୍ଯ୍ୟବିନୟ ସାମ୍ରାଜ୍ୟା, ସମ୍ମତି, ସଂପ୍ରୀତି, ସ୍ୱଦେଶ ସୁଖ ସଂପାଦନଗୁଣ ଅଧିକାଧିକ ଭାବେ ପ୍ରଦାନ କରନ୍ତୁ ଓ "ଚରଥାୟ ଜୀବସେ' ସର୍ବାଧିକ ଆନନ୍ଦ ଉପଭୋଗ, ସମସ୍ତ ଦେଶରେ ଅବ୍ୟାହତ ଗମନ, ଆରୋଗ୍ୟ, ସୁସ୍ଥଶରୀର, ଶୁଦ୍ଧମାନସିକବଳ ଓ ବିଜ୍ଞାନ ଇତ୍ୟାଦି ପାଇଁ ଆମକୁ ଉତ୍ତମତା ସ୍ୱପାଳନାଯୁକ୍ତ କରନ୍ତୁ । "ବିଦା' ବିଦ୍ୟାଦି ଉତ୍ତମ ଧନ "ଦେବେଷୁ' ବିଦ୍ୱାନ୍ମାନଙ୍କ ମଧ୍ୟରୁ ଆମକୁ ପ୍ରାପ୍ତ କରାନ୍ତୁ ; ଅର୍ଥାତ୍ ବିଦ୍ୱଜ୍ଜନ ମଧ୍ୟରେ ମଧ୍ୟ ଆମେ ଉତ୍ତମ ପ୍ରତିଷ୍ଠା ଲାଭକରୁ । ???????????????????????????????????? ମହିମା ସାଗର https://www.facebook.com/100005865663557/posts/1037000523172127/
ଆମ ଆର୍ଯ୍ୟାବର୍ତ୍ତ ଭାରତରେ
28-09-2021
ଆମ ଆର୍ଯ୍ୟାବର୍ତ୍ତ ଭାରତରେ ବ୍ୟାସ,ବଶିଷ୍ଠ,ବିଶ୍ଵାମିତ୍ର,ଅଙ୍ଗିରା, ଜୈମିନୀ, କପିଳ,ଗୌତମ, କଣାଦ ଆଦି ଋଷି ମଣ୍ଡଳ ଚିନ୍ତା,ତପସ୍ୟା ଓ ସାଧନା ଫଳରେ ଯେଉଁ ଆଧ୍ୟାତ୍ମିକ ତତ୍ତ୍ଵ ମାନ ବଖାଣି ଯାଇଛନ୍ତି,ତାହା ଦ୍ଵାରା ପୃଥିବୀ ପୃଷ୍ଠରୁ ଅଜ୍ଞାନ ଅନ୍ଧାର ଦୂରୀଭୂତ ହୋଇଯାଇଛି କହିଲେ ଅତ୍ୟୁକ୍ତି ହେବନାହିଁ।ଏହି ଭାରତରେ ଈଶ୍ବରଙ୍କ ସୃଷ୍ଟି ସମ୍ବନ୍ଧୀୟ ତଥ୍ୟ ମାନ ପ୍ରଥମେ ଆମ ଧର୍ମ ଗ୍ରନ୍ଥ ବେଦରେ ପ୍ରକାଶିତ ହୋଇଅଛି।ଜୀବାତ୍ମା କଣ,ପରମାତ୍ମା ଙ୍କ ସଙ୍ଗେ ଏହାର କି ସମ୍ପର୍କ, ଏ ସୃଷ୍ଟିର ଉତ୍ପତ୍ତି କେଉଁଠୁ,କାହିଁକି ହେଲା ଓ ଏହାର ଲକ୍ଷ୍ୟ ଓ ଉଦ୍ଦେଶ୍ୟ କଣ, ଏ ସମ୍ବଦ୍ଧରେ ଆମ ମୁନି ଋଷିମାନେ ଆଲୋକପାତ କରି ମାନବ ସମାଜକୁ ସତ୍ୟ,ନ୍ୟାୟ ଓ ଧର୍ମ ପଥରେ ଚାଲିବା ପାଇଁ ପଥ ପ୍ରଦର୍ଶନ କରି ଯାଇ ଅଛନ୍ତି। ଆମେ ଯଦି ଏହାକୁ ଅନୁଧ୍ୟାନ କରିପାରିବା ତେବେ ଜାଣିବା ଆମ ଜନ୍ମର ରହସ୍ୟ ଓ ଜୀବନର ଲକ୍ଷ୍ୟ। (ସୁରେନ୍ଦ୍ର ନାଥ ଛୋଟରାୟ)
ଜଗତ ତାହାକୁ ଆଦରି ନେଇଥାଏ,ଯାହାର ଈଶ୍ବରଙ୍କ ସହିତ ପ୍ରେମ ହୋଇଥାଏ
28-09-2021
ସାରା ଜଗତ ତାହାକୁ ଆଦରି ନେଇଥାଏ,ଯାହାର ଈଶ୍ବରଙ୍କ ସହିତ ପ୍ରେମ ହୋଇଥାଏ। ବଳ,ବୁଦ୍ଧି,ବିଦ୍ୟା,ଯୋଗ୍ୟତା ସବୁ କିଛି ପରାଜିତ ହେବାପରେ ମଣିଷ ପାଖରେ ଆସେ ସମର୍ପଣ ଭାବ। ଯେଉଁଠି ଜିତିବାର ଆଶା ନଥାଏ। ଥାଏ କେବଳ ହାରିବାର ସୂଚନା। ଏହି ହାରିବାରୁ ଯଦି ଦୟା,କ୍ଷମା,ସ୍ନେହ ଜନ୍ମ ନେଇଥାଏ, ତହିଁରୁ ସୁନ୍ଦର ବୃକ୍ଷ ଟିଏ ଜନ୍ମ ନେଇଥାଏ,ଯାହାର ନାମ ପ୍ରେମ। ଜୀବନରେ ପ୍ରେମ ପାଖରେ ହାରିବା ନଥାଇ କେବଳ ଥାଏ ଜିତିବା। ବେଦ କୁହନ୍ତି ହେ ମଣିଷ ! ମୁଁ ତୁମକୁ ଦ୍ୱେଷ ରହିତ ସମାନ ହୃଦୟ ଓ ସମାନ ମନ ପ୍ରଦାନ କରିଛି। ଗାଈ ଯେପରି ତାର ସଦ୍ୟ ଜାତ ବାଛୁରୀକୁ ପ୍ରେମ କରେ ତୁମ୍ଭେମାନେ ସେହିପରି ପରଷ୍ପର ସ୍ନେହ ଶିଳ ହୁଅ। ଏଣୁ ଆମେ ପରଷ୍ପର ପ୍ରତି ସ୍ନେହ ଶିଳ ହୋଇ ପ୍ରେମପୂର୍ଣ୍ଣ ହୃଦୟରେ ଜୀବନକୁ ଉପଭୋଗ କଲେ ଜୀବନରେ ହାରିବାର ପ୍ରଶ୍ନ ହିଁ ଉଠିବ ନାହିଁ। (ସୁରେନ୍ଦ୍ର ନାଥ ଛୋଟରାୟ)
Yogarṣi Swami Ramdevji
28-09-2021
Founder Patanajali Yog Peeth Yogarṣi Swami Ramdevji studied Sanskrit and Yoga, and earned a postgraduate (Ācārya) degree with specialization in Sanskrit Vyākaraṇa, Yoga, Darśana, Vedas and Upaniṣads, later he was very much inspired by the life and writings of Maharṣi Dayanand and he thoroughly studied Satyārtha Prakāśa, Ṛgvedādibhāṣyabhūmikā etc. Yogi Ramdev ji focuses on: Propagation of yoga and Āyurveda, and reforming the social, political and economic system of India. Swamiji’s main focus is on making the people of India as well as of the whole world adopts yoga and Āyurveda as their lifestyle. Yogi Ramdevji is Founder Divya Yog Mandir (Trust) in 1995 at Kankhal, Hardwar, Uttarakhand, India, which was followed by Meditation Centre at Gangotri in the Himalayas, Brahmakalpa Chikitsalaya, Divy Pharmacy, Divya Prakashan, Divya Yog Sadhana, Patañjali Yogpeeth (Trust) in Delhi in 2005, Patañjali Yogpeeth, Hardwar, Mahashaya Hiralal Arsh Gurukul, Kishangarh Ghaseda, Mahendragarh, Haryana, Yog Gram and recently Bharat Swabhiman (Trust) in Delhi. ..... Vedic Vichar
Vedic Vidyalayas
28-09-2021
Vedic Vidyalayas are reaching out to Hindu families across the country and briefing them about Vedas, Vedic knowledge, traditional education system and Vedic education tradition. The move aims to promote Vedic tradition among children in Hindu community and to set up more Vedic Vidyalayas in each district of the country. Focus is being laid on making people aware about the right and traditional method of studying Vedas. ..... Vedic Vichar
Vedic Yajna
28-09-2021
Yajna refers in Hinduism to any ritual done in front of a sacred fire, often with mantras. Yajna has been a Vedic tradition, described in a layer of Vedic literature called Brahmanas, as well as Yajurveda. .................... Vedic Vichar
वेद शिक्षा और उदात्त भावनाएँ (vedicvichar)
28-09-2021
विश्व-कल्याण ========== यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तस्य त्वं प्राणेना प्यायस्व । आ वयं प्यासिषीमहि गोभिरश्वै: प्रजया पशुभिर्गृहैर्धनेन ।। (अथर्ववेद ७/८१/५) भावार्थ― हे परमात्मन् ! जो हमसे वैर-विरोध रखता है और जिससे हम शत्रुता रखते हैं तू उसे भी दीर्घायु प्रदान कर। वह भी फूले-फले और हम भी समृद्धिशाली बनें। हम सब गाय, बैल, घोड़ों, पुत्र, पौत्र, पशु और धन-धान्य से भरपूर हों। सबका कल्याण हो और हमारा भी कल्याण हो। विश्व-प्रेम ======= वेद हमें घृणा करनी नहीं सिखाता। वेद तो कहता है― उत देवा अवहितं देवा उन्नयथा पुन: । उतागश्चक्रुषं देवा देवा जीवयथा पुन: ।। (अथर्ववेद ४/१३/१) भावार्थ― हे दिव्यगुणयुक्त विद्वान् पुरुषो ! आप नीचे गिरे हुए लोगों को ऊपर उठाओ। हे विद्वानो ! पतित व्यक्तियों को बार-बार उठाओ। हे देवो ! अपराध और पाप करनेवालों को भी ऊपर उठाओ। हे उदार पुरुषो ! जो पापाचरणरत हैं, उन्हें बार-बार उद्बुद्ध करो, उनकी आत्मज्योति को जाग्रत् करो। यस्मिन्त्सर्वाणि भूतान्यात्मैवाभूद्विजानत: । तत्र को मोह: क: शोक एकत्वमनुपश्यत: ।। (यजुर्वेद ४०/७) भावार्थ― ब्रह्मज्ञान की अवस्था में जब प्राणीमात्र अपनी आत्मा के तुल्य दीखने लगते हैं तब सबमें समानता देखने वाले आत्मज्ञानी पुरुष को उस अवस्था में कौन-सा मोह और शोक रह जाता है, अर्थात् प्राणिमात्र से प्रेम करनेवाले, प्राणिमात्र को अपने समान समझनेवाले मनुष्य के सब शोक और मोह समाप्त हो जाते हैं। अद्या मुरीय यदि यातुधानो अस्मि यदि वायुस्ततप पूरुषस्य । (अथर्ववेद ८/४/१५) भावार्थ― यदि मैं प्रजा को पीड़ा देनेवाला होऊँ अथवा किसी मनुष्य के जीवन को सन्तप्त करुँ तो आज ही, अभी, इसी समय मर जाऊँ। यथा भूमिर्मृतमना मृतान्मृतमनस्तरा । यथोत मम्रुषो मन एवेर्ष्योर्मृतं मन: ।। (अथर्ववेद ६/१८/२) भावार्थ― जिस प्रकार यह भूमि जड़ है और मरे हुए मुर्दे से भी अधिक मुर्दा दिल है तथा जैसे मरे हुए मनुष्य का मन मर चुका होता है उसी प्रकार ईर्ष्या, घृणा करनेवाले व्यक्ति का मन भी मर जाता है, अत: किसी से भी घृणा नहीं करनी चाहिए। ब्रह्म और क्षात्रशक्ति ================= यत्र ब्रह्म च क्षत्रं च सम्यञ्चौ चरत: सह । तं लोकं पुण्यं प्रज्ञेषं यत्र देवा: सहाग्निना ।। (यजुर्वेद २०/२५) भावार्थ― जहाँ, जिस राष्ट्र में, जिस लोक में, जिस देश में, जिस स्थान पर, ज्ञान और बल, ब्रह्मशक्ति और क्षात्रशक्ति, ब्रह्मतेज और क्षात्रतेज संयुक्त होकर साथ-साथ चलते हैं तथा जहाँ देवजन=नागरिक राष्ट्रोन्नति की भावनाओं से भरपूर होते हैं, मैं उस लोक अथवा राष्ट्र को पवित्र और उत्कृष्ट मानता हूँ। चरित्र-निर्माण ============ प्र पदोऽव नेनिग्धि दुश्चरितं यच्चचार शुद्धै: शपैरा क्रमतां प्रजानन् । तीर्त्वा तमांसि बहुधा विपश्यन्नजो नाकमा क्रमतां तृतीयम् ।। (अथर्ववेद ९/५/३) भावार्थ― हे मनुष्य ! तूने जो दुष्ट आचरण किये हैं उन दुष्ट आचरणों को अच्छी प्रकार दो डाल। फिर शुद्ध निर्मल आचरण से ज्ञानवान् होकर आगे बढ़। पुन: अनेक प्रकार के पापों और अन्धकारों को पार करके ध्यान एवं योग-समाधि द्वारा अजन्मा ब्रह्म के दर्शन करता हुआ शोक और मोह आदि से पार होकर परम आनन्दमय मोक्षपद पर आरुढ़ हो। प्रभु-प्रेम =========== महे चन त्वामद्रिव: परा शुल्काय देयाम् । न सहस्राय नायुताय वज्रिवो न शताय शतामघ ।। (ऋग्वेद ८/१/५) भावार्थ―हे अविनाशी परमात्मन् ! बड़े-से-बड़े मूल्य व आर्थिकलाभ के लिए भी मैं कभी तेरा परित्याग न करुँ। हे शक्तिशालिन् ! हे ऐश्वर्यों के स्वामिन् ! मैं तुझे सहस्र के लिए भी न त्यागूँ, दस सहस्र के लिए भी न बेचूँ और अपरमित धनराशि के लिए भी तेरा त्याग न करुँ। सुपथ-गमन ============ मा प्र गाम पथो वयं मा यज्ञादिन्द्र सोमिन: । मान्य स्थुर्नो अरातय: ।। (अथर्ववेद १३/१/५९) भावार्थ― हे इन्द्र ! परमेश्वर ! हम अपने पथ से कभी विचलित न हों। शान्तिदायक श्रेष्ठ कर्मों से हम कभी च्युत न हों। काम, क्रोध आदि शत्रु हमपर कभी आक्रमण न करें। मधुर-भाषण ============ वाचं जुष्टां मधुमतीमवादिषम् । (अथर्ववेद ५/७/४) हम अतिप्रिय और मीठी वाणी बोलें होतरसि भद्रवाच्याय प्रेषितो मानुष: सूक्तवाकाय सूक्ता ब्रूहि । यजुर्वेद २१/६१) भावार्थ― हे विद्वन् ! उपदेष्ट: ! तू कल्याणकारी उपदेश के लिए भेजा गया है। तू मननशील मनुष्य बनकर भद्रपुरुषों के लिए उत्तम उपदेश कर। दिव्य-भावना =========== यो न: कश्चिद्रिरिक्षति रक्षस्त्वेन मर्त्य: । स्वै: ष एवै रिरिषीष्ट युर्जन: ।। (ऋग्वेद ८/१८/१३) भावार्थ― जो मनुष्य अपने हिंसक स्वभाव के वशीभूत होकर हमें मारना चाहता है वह दु:खदायी जन अपने ही आचरणों से―अपनी टेढ़ी चाल और बुरे स्वभाव से स्वयं ही मर जाता है, फिर मैं किसी को क्यों मारूँ।_
ARYA SAMAJ AND WOMEN EDUCATION
26-09-2021
The Arya Samaj aimed at restructuring and regenerating society by removing the evils which were prevalent among Hindus. Since woman was considered as lower sex, and great effort was made by Arya Samaj to lift up her status through the medium of education in the province. The efforts which were made in this direction led to the establishment of a large number of educational institutions for girls. In 1880, the Amritsar Arya Samaj took up the initiative and opened a girls‟ school named, Kanya Mahavidyala. After the death of Swami Dayanand, DAV High School was founded at Lahore in 1886 as a memorial to Swami. It became a college in 1889. To fulfil his dreams, the Dayanand AngloVedic College Committee was constituted which formed a Society i.e. Dayanand Anglo-Vedic College Trust and Management Society. The main objects of this Society were to establish in Punjab an Anglo-Vedic College Institution which should include a School, a College, and a Boarding House, to encourage, improve and implement the study of Hindi Literature, English Literature, Classical Sanskrit, and Sciences both theoretical and applied and also the study of Vedas. The Society, it also aimed at imparting the most humble and fair form of education to the girls, the main object was to bring out good wives and good mothers. The Samajists at Amritsar, Jullundur, Ferozepore, and Gujarat, they organised primary girl‟s schools at their respective places in 1890s. ..................... Dr. Yajnya Dutta Nayak, Khallikote Auto. College, Berhampur, Odisha
शास्त्रार्थ: क्या मृतक श्राद्ध वेदानुकूल है ? ( Vedicvichar)r
26-09-2021
दिनांक:३ फरवरी सन् १९१६ ई० आर्य समाज की ओर से शास्त्रार्थ: श्री पंडित ठाकुर अमर सिंह जी 'शास्त्रार्थ केसरी'(आगे चलकर आप पूज्य अमर स्वामी सरस्वती के नाम से ख्यात हुए) V/S पौराणिक पक्ष की ओर से शास्त्रार्थ कर्ता : पौराणिक पं० श्री गोता राम जी शास्त्री। श्री पण्डित सीताराम जी शास्त्री- सज्जन पुरुषो ! यजुर्वेद के अध्याय १६ में, मन्त्र ५७ और ५८ इस प्रकार हैं- उपहूताः पितरः सोम्यासो बहिष्येषु निधिषु प्रियेषु । त आगमन्तु तइह श्रुवन्त्वधि ब्रु वन्तु तेऽवन्त्वस्मान ॥५७॥ आयन्तु न पितरः सोम्यासोऽग्निध्वात्ता पभिभि दॅबयानः । अस्मिन् यज्ञे स्वधया मदन्तोऽधि ब्र.बन्तु तेऽवन्त्वस्मान् ॥५॥ इन दोनों मन्त्रों में "मृतक श्राद्ध" का स्पष्ट विधान है। इन मन्त्रों में कहा गया है कि-जो पितर अग्नि में जलाये गये हैं, वे श्राद्ध में आवें और भोजन करें वेद में "मृतक श्राद्ध" का विधान है, और मृतक श्राद्ध को आर्य समाज नहीं मानता, तो आर्य समाज वेद विरोधी समाज हुआ कि नहीं ? उत्तर दीजिए। (नोट-श्री पण्डित सीताराम जी शास्त्री को बोलने के लिए १० मिनट दिये गये थे, परन्तु वह केवल तीन मिनट बोलकर बैठ गये।) शास्त्रार्थ केसरी श्री पण्डित ठाकुर अमर सिंह जी- सत्य अभिलाषा सज्जनो! श्री पं० जी ने यजुर्वेद के दो मंत्र बोले हैं । और उनसे "मृतक श्राद्ध" सिद्ध होता है, यह प्रतिज्ञा की है, परन्तु दोनों मंत्रों में न तो "मृतक" शब्द है और न "श्राद्ध" । “छिन्ने मूले नैव शाखा न पत्रम्" । जड़ ही कट गई, अब न शाखा होगी न पत्ते । इन मंत्रों के शब्दों से सिद्ध होता है कि-जीवित माता-पिता तथा पितामह आदि को बुलाकर भोजन कराने का इनमें वर्णन है। सुनिये मैं इनका अर्थ बोलता हूं। "उपहार... ..पितरः......आगमन्तु" इसका अर्थ यह है, "बुलाये हुए पितर आ। अब आप ही विचारिये, एक नाम के दो मनुष्य हों, उनमें से एक मर गया हो आप मुझे ही मान लीजिये । अमर सिंह दो थे, एक मर गया और एक जीवित है, एक गृहस्थ पुरुष किसी को कहे कि अमर सिंह को बुला लाओ वह भोजन करके । आप सोचिए ! जिस व्यक्ति को भेजा जाय, वह यह पूछेगा कि कौन से अमर सिंह को बुला लाऊं? क्या जो मर गया उसको ? कहिये ऐसा पूछने वाले को पागल कहा जायेगा या नहीं ? मेरे विचार से तो अवश्य ही सब लोग उसे पागल बतायेंगे । और कहेंगे कि अरे मूर्ख ! कहीं मरे हुए भी बुलाये जाते हैं। जो जीवित है उसे बुलाकर ला । स्पष्ट है कि जीवित पितरों को बुलाने की बात है, मरे हुओं की नहीं। दूसरी बात यह ध्यान देने मंत्रों मैं चार शब्द हैं जो जीवों के लिए ही कहे जा सकते हैं, मरे हुओं के लिए नहीं। १. "श्रुवन्तु ते" अर्थात् वे हमारे वचन सुनें । अब आप लोग पण्डित जी से पूछिये कि कैसे सुनेगा ! जब कोई व्यक्ति मरता है, तब उसके सम्बन्धी रो रोकर कहते हैं, "कुछ हमारी भी सुनो !मरे हुए की लाश पड़ी है, उसके कान भी हैं, फिर भी नहीं सुनता शव जलने के साथ-साथ कानों के नष्ट हो जाने पर वह कैसे बनेगा? २."अधिब्रुवन्तु-अर्थात् हम से भली प्रकार से बोलो । लाश पड़ी होने पर सारे सम्बन्धी कहते हैं, "कुछ हमको तो कह जाओ" अपनी पत्नी अपने पुत्रों को कुछ कहो, वह कुछ भी नहीं बोलता, जलने के बाद वह कैसे बोलेगा? ३. "अवन्त्वस्मान" अर्थात् हमारी रक्षा करें मरा हुआ अपनी लाश की रक्षा नहीं कर सका, जलने के बाद वह रक्षा करने को कैसे आयेगा? क्या बुद्धि इन बातों को स्वीकार करती है ? पण्डित जी महाराज ! चुप क्यों हो? कुछ तो सांस निकालो। और देखो चौथा शब्द है। ४, "स्वाध्याय दन्तः" अर्थात् अन्न के द्वारा भोजन से तृप्त होते हुए । क्यों भाइयो ! मुर्दा-भोजन कैसे करेगा ? अगर किसी ने मुर्दे को कहीं पानी भी पीते देखा हो तो खड़ा होकर बताये। भोजन की तो दूर की बात है । कोई खड़ा न हुआ, (जनता में हंसी)। स्पष्ट है कि-जीवित पितरों को बुलाकर उनसे यह कामना की जा सकती है कि ये लोग यहां हमारे घर में-१. भोजन से तृप्त हों। २ हमारी बातें अर्थात् प्रार्थनाएं आदि सुनें। ३. हमको उपदेश करें। ४ हमारी बातों के उत्तर दें। ५. हमारी रक्षा करें। इन मंत्रों में क्या चारों वेदों में कहीं मृतक श्राद्ध का संकेत भी नहीं है। आर्य समाज वेदों को है मानता है उनका सम्मान करता है वेदों की निन्दा तो क्या अवहेलना भी कभी नहीं करता है, इसलिए जानता आर्य समाज पूर्णरूपेण आस्तिक समाज है । श्री शास्त्री जी के प्रश्न का उत्तर मैंने दे दिया कहिये पंडित जी महाराज! क्या पूछना है ? श्री पंडित सीताराम जी शास्त्री: हैं ? (श्री शास्त्री जी खड़े होकर बड़े जोश में बोले कि)-यह अर्थ आप किस का. किया हुआ बोलते हो? शास्त्रार्थ केसरी श्री पंडित ठाकुर अमर सिंह जी- ( श्री ठाकुर साहब ने खड़े होकर पंडित जी से भी दुगने जोश के साथ कड़कती हुई आवाज में कहा)- पंडित जी महाराज ! यह अर्थ मेरा किया हुआ है अगर इसमें कोई दोष नजर आता हो तो बताइये। श्री पंडित सीताराम जी शास्त्री- शास्त्री जी कहने लगे कि-लो भाइयो ! सुना है आपने, हम तो श्री शङ्कराचार्य जी महाराज का किया हुआ अर्थ बोलते हैं । और ये महाराज जी अपना किया हुआ अर्थ बोलते हैं ! कहो सज्जनो !! श्री शंकराचार्य जी का अर्थ माने या ना माने ? भाई हम तो श्री शङ्कराचार्य जी का ही अर्थ मानेंगे। शास्त्रार्थ केसरी श्री पंडित ठाकुर अमर सिंह जी- (ठाकुर जी गर्जकर बोले कि)-श्री शंकराचार्य जी ने किसी वेद या एक भी वेद मन्त्र का भाष्य नहीं किया, आप बिल्कुल झूठ बोलते हैं। नोट :-"श्री पं० गीताराम जी के साथ दो पंडित सनातन धर्मी ही थे," उनकी तरफ श्री ठाकुर साहब ने इशारा करके कहा कि तिलक छाप लगाए हुए "आप बताइये पंडित जी ! आपने श्री शंकराचार्य जी का वेद भाष्य पढ़ा अ यदि हां तो बताइये कि किस वेद का भाष्य उन्होंने किया है और कहां छपा है ?" नाट:-श्रा प्रधान लाला अमरचंद जी रिटायर्ड तहसीलदार के बार-बार विशेष आग्रह करने पर यह दोनों पण्डित उठ खड़े हुए तथा हाथ जोड़कर बोले-"श्री शङ्कराचार्य जी ने किसी भी वेद का भाष्य नहीं किया"। यह सुनकर श्री पं० गीताराम जी शास्त्री क्रोध में भर गये, और अपने पोथी, पत्रे आदि उठाकर अपने दोनों साथियों को कोसते हुए तथा गाली देते हुए उठकर चले गये। और उन पण्डितों आर्य समाजियों की गवाही दे दी-मैं तुम्हारे लिए लड़ता था, तुम उनके साथी हो गये । मरो। लो मैं जाता हूं। वह चले गये । शास्त्रार्थ समाप्त हो गया, और पं० ठाकुर अमर सिह जी को उसी दिन से कहने लगे कि से समाज के लोगों ने "शास्त्रार्थ केशरी" की पदवी दे दी। और पं० ठाकुर अमर सिंह जी उसी दिन से शास्त्रार्थ महारथी हो गये। शास्त्रार्थ के समय आर्य प्रादेशिक सभा के महोपदेशक श्री महता रामचन्द्र जी शास्त्री, श्री पण्डित अमर नाथ जी मास्टर तथा श्री पं० यज्ञदत्त जी शास्त्री उक्त सभा के तीनों उपदेशक उपस्थित थे तीनों उपदेशकों ने श्री ठाकूर जी को बारबार गले लगाया, ठाकुर जी को बहुत ही प्यार किया तथा बहुत ही प्रशंसा की सारे नगर - "पण्डी घेप" में आर्य समाज की धूम मच गई और उत्सव में उस दिन भी तथा अन्तिम दिन ४ फरवरी को भी बहुत भीड़ आती रही। आर्य समाज के प्रधान श्री लाला अमीरचन्द जी रिटायर्ड तहसीलदार तथा मन्त्री श्री लाला नत्थूराम जी एडबोकेट थे। (नोट :- "श्री पं० ठाकुर अमर सिंह जी की आयु उस समय केवल लगभग २५ पच्चीस वर्ष की थी तथा यह शास्त्रार्थ उनके जीवन का प्रथम शास्त्रार्थ था" । इस शास्त्रार्थ में केवल २० मिनट ही लगे थे।) "जो बोले सो अभय - सत्य सनातन वैदिक धर्म की जय"
शाकाहार और मांसाहार (vedicvichar)
26-09-2021
1. एथलीट्स को मजबूत होने के लिये मीट खाने की जरूरत होती है।” अनेक ओलंपिक पदक विजेता शाकाहारी है। मांसाहारी देश जैसे पाकिस्तान, बांग्लादेश, सोमालिया, सऊदी अर्ब, ईरान, ईराक आदि ओलंपिक सूची मे कहाँ हैं? अमेरिका चीन के खिलाड़ियों के गोल्ड मैडल जीतने के कारण अलग हैं। 2. “अकेले मेरे मांसाहार छोड़ने से कुछ नहीं बदलेगा।” फ़र्क पड़ता है।1 परिवार कम से कम 30 पशुओं को हर साल बचा सकता हैं। 3. “हमें प्रोटीन के लिये मांस खाना चाहिये।” नहीं, ऐसा जरूरी नहीं है। प्रोटीन वनस्पतीय भोजन में भी प्रचुरता से भरे होते हैं। दाल और अनाज से आपको पर्याप्त है। प्रोटीन प्राप्त करने के लिये मांसाहार की जरूरत नहीं है। यह एक मिथक है। । यदि मांस और प्रोटीन से ही स्वास्थ्य होता तो -- अमेरिका मे 62% मोटे ना होते। पाकिस्तान मे दुनिया की सबसे अधिक जेनिटिक (अनुवानशींक) बीमारी नहीं होती। 4. “फ़ार्म में पशुओं के साथ मानवीय व्यवहार होता है।” दूर-दूर तक नहीं। खाने के लिये पाले जाने वाले पशुओं में 95 प्रतिशत से अधिक फ़ैक्ट्री फ़ार्म में घोर कष्टमय जीवन जीते हैं। गंदे, तंग पिंजरे में खचाखच ठूँसे हुए, बिना दर्दनिबारक के अंग-भंग की पीड़ा सहने को मजबूर, और निर्दयतापूर्वक बध किये जाते हैं। यकीन नहीं होता ? तो youtube पर टर्की पक्षी के पंख हटाने की प्रक्रिया देखिए। इतना ही नही फार्महाउस पर पशुओं और पक्षियों को बड़ी मात्रा मे अंटीबायोटिक व कृमिनाशक दवाई दी जाती है। यह दवाइया मांस के साथ अल्प मात्रा मे हमारे शरीर मे पहुँचती है। मानव शरीर मे जीवाणु इन दवाइयों के प्रति प्रतिरोध उत्पन्न कर लेते हैं। इससे हमारी बीमारी आदिक जटिल होती जा रही हैं। 5. “मुझे शाकाहारी आहार पसंद नहीं है।” तो क्या आपको फ़्रेंच-फ़्राइज और पास्ता पसंद नहीं है? डोसा,-चटनी और ढोकला के बारे में क्या ख्याल है? मिठाइयाँ सभी पसंद करते हैं। आप अक्सर शाकाहारी भोजन खाते हैं और पसंद भी करते हैं लेकिन सिर्फ़ कहते नहीं है। 6. “शाकाहारी होना अस्वास्थ्यकर है।” यदि मांसाहारी स्वस्थ होते तो पाकिस्तान ब्ंग्लादेश मे 100 % स्वस्थ होते. शाकाहारी प्रदेश हरियाणा, राजस्थान के लोग मांसाहारी बंगाल या केरल से अधिक स्वस्थ हैं। 7. “लोग हमेशा से मांस खाते आए हैं और खाते रहेंगे।” माफ़ कीजिए...! यह सत्य नहीं है। मानव इतिहास में कई संस्कृतियाँ मांसाहार से परहेज करती हैं। वैदिक मान्यता के अनुसार जीने वाले प्राचीन भारतीय मांस नहीं खाते थे। कुछ चीजें बीते समय में होती थी तो इसका मतलब यह नहीं कि हम उसे जारी रखें। कल तक TB जानलेवा थी। आज नहीं। तो क्या आज भी इसका इलाज ना करवाएँ? 8. “मेरे शरीर को मीट की जरूरत है।” नहीं, कोई जरूरत नहीं है। आपका शरीर इसके बिना कहीं ज़्यादा अच्छा रहेगा। शाकाहारी भी स्वस्थ और बलवान रह सकते हैं। 9. “मांसाहार छोड़ दिया तो पूरे पृथ्वी पर मुर्गी और बकरी ही होंगी।” अगर लोग मांस खाना छोड़ देंगे तो फ़ार्मर्स पशुओं की ब्रीडिंग करना छोड़ देंगे। 99% मांस और अंडा मीट फार्मिंग से ही आता है. 10. “पूरी दुनियाँ को खिलाने का एक मात्र उपाय फ़ैक्ट्री फ़ार्मिंग ही है।" एक मिनट..! फ़ैक्ट्री फ़ार्मिंग न केवल जलवायु परिवर्तन का मुख्य कारण है बल्कि इससे भारी बर्बादी भी होती है। एक किलो मांस के उत्पादन के लिये 16 किलो अनाज लगता है। जरा सोचिये...! उन अनाज से कितने लोगों का पेट भर सकता है। 11- मांसाहारी बुद्धिमान होते हैं. जैसे अमेरिका, यूरोपीय देश या चीन.-- . 55 मुस्लिम देश. 100% मांसाहारी. विश्व की मुख्य 500 युनिवर्सिटी में 1 भी इनमे नहीं. 100 बड़े चिकित्सालय में इनका नाम नहीं . जमीन तेल निकालने की योग्यता नहीं. अमेरिकन इंजिनियर निकालते हैं. बड़ी बिल्डिंग जैसे बुर्ज खलीफा के निर्माण योजनाकार अमेरिकी और यूरोपीय. . 12- . टीवी में भी कहते हैं. सन्डे हो या मंडे रोज खाओ अंडे. यह विज्ञापन पैसे के कारण दिखाई देता है. अंडा उत्पादन करने वालों की यूनियन इसके लिए पैसा देती है. 13- कसाई (Butcher} शरीर से मजबूत होते हैं. इसका कारण उनका व्यवसाय नहीं मानसिकता है. अत्यन्त निर्दयी होने से उनमे मानव सुलभ संवेदनाए नहीं रहती. वे किसी भी बात को लेकर कभी आत्मग्लानि या पश्चाताप नहीं करते. चिन्ता से परेशान नहीं होते. हरियाणा में जो चरवाहे ( जिन्हें हरियाणा में पाली} कहते हैं शाकाहारी होते थे. आज से 30 साल पहले मजबूत शरीर के होते थे.क्योंकि वे सारा दिन मस्त रहते थे और चिन्ता नहीं करते थे.. कुछ सालों से शराब और नशे ने उनके स्वास्थ्य को चौपट कर दिया है.
वेद ही क्यों?
26-09-2021
बाइबिल मे पाप मुक्ति बाइबिल के देवता, याहवेह द्वारा बनाए गए पहले मनुष्यों -द्वारा पाप किया गया था। उन्हें एडम और ईव नाम दिया गया था। एडम को पहली बार मिट्टी से बनाया गया था और उसे एडन नामक स्वर्ग में रखा गया था। उसे सभी जानवरों और भूमि पर प्रभुत्व दिया गया था। वह एक को छोड़कर किसी भी पेड़ से फल खाने के लिए स्वतंत्र था: अच्छे और बुरे के ज्ञान का पेड़। बाइबिल मे लिखा है और भगवान ने मनुष्य को आज्ञा दी, “तुम बगीचे के किसी भी पेड़ से खाने के लिए स्वतंत्र हो; लेकिन आपको अच्छे और बुरे के ज्ञान के पेड़ से नहीं खाना चाहिए, जब आप इसे खाते हैं तो आप निश्चित रूप से मर जाएंगे। ” (Genesis 2:16-17) बाद में, इस भगवान याहवे ने आदम की पसली (RIBS) से उसके लिए एक साथी बनाया, जिसका नाम ईव था। वे दोनों ईडन में रहते थे, आनंद से …लेकिन एक दिन, ईव ने एक बात कर रहे सर्प को देखा और सर्प ने उससे कहा कि इस पेड़ से खाना ठीक है। बाइबिल मे लिखा है “आप निश्चित रूप से नहीं मरेंगे,” नागिन ने महिला से कहा। “क्योंकि परमेश्वर जानता है कि जब आप इसे खाते हैं तो आपकी आँखें खुल जाएँगी, और आप ईश्वर के समान होंगे, अच्छाई और बुराई जानना”। (Genesis 3:4-5) इस तरह चर्च प्रत्येक मनुष्य को पापी मानता है और केवल यीशू ही उसको पाप से मुक्त कर सकता है। वेद मे पापमुक्ति भारत मे जब भी वेद विषयक विमर्श होता है तभी मैक्समूलर और ग्रिफिथ जैसे विदेशियों को प्रमाण माना जाता है। ग्रिफिथ अनर्थ और वेद मे पाप मुक्ति - उलूकयातुं शुशुलूकयातुं जहि श्वयातुमुत कोकयातुम् | सुपर्णयातुमुत गृध्रयातुं दृषदेव प्र मृण रक्ष इन्द्र || ऋग्वेद मण्डल 7 सूक्त 104 मन्त्र 22 । टी.एच.ग्रिफिथ द्वारा किस मंत्र का अनुवाद निम्न प्रकार से किया गया है जिसका अर्थ है "उल्लू या उल्लू के आकार के राक्षस को नष्ट करो, उसे कुत्ते या कोयल के रूप में नष्ट करो।" "उसे एक बाज के रूप में या एक पत्थर के रूप में एक गिद्ध के रूप में नष्ट कर दो, हे इंद्र, राक्षस को कुचल दो।" ___________________ वास्तविक अर्थ स्वामी वेदानन्द जी तीर्थ कृत स्वाध्याय संदोह पुस्तक से . उलूकयातुं = उल्लू के चाल को शुशुलूकयातुं = भेडिये की चाल को श्वयातुमुत = कुत्ते की चाल को उत = और कोकयातुम् = चिडे की चाल को सुपर्णयातुम् = गरुड़ की चाल को उत = और गृध्रयातुं = गिद्ध की चाल को जहि = नाश कर, त्याग दे | हे इन्द्र = ऐश्वर्याभिलाषी आत्मन् ! रक्ष : = राक्षस को दृषदा + इव + प्र + मृण = मानो पत्थर से, पत्थर-समान कठोर साधन से मसल दे | . व्याख्या – योगिजन कामक्रोधादि विकारों को पशु-पक्षियों से उपमा देते हैं | उनका यह व्यवहार इस मंत्र के आधार पर है | . उलूक = उल्लू अन्धकार से प्रसन्न होता है | अन्धकार और मोह एक वस्तु है | मूढ़जन मोह के कारण अज्ञानान्धकार में निमग्न रहना पसंद करते हैं | उलूकयातु का सीधा-सादा अर्थ हुआ मोह | मोह सब पापों का मूल है | वात्स्यायन ऋषि ने लिखा है – मोह: पापीयान् = मोह सबसे बुरा है, राग-द्वेषादि इसी से उत्पन्न होते हैं | . शुशुलूक – भेड़िया | मोह से राग-द्वेष उत्पन्न होता है | भेड़िया क्रूर होता है, बहुत द्वेषी होता है | शुशुलूकयातुम् का भाव हुआ द्वेष की भावना | द्वेषी मनुष्य में क्रोध की मात्रा बहुत होती है | . श्वान = कुत्ता | कुत्ते से स्वजातिद्रोह तथा चाटुकारिता बहुत अधिक मात्रा में होती है | स्वजाति-द्रोह द्वेष का ही एक रूप है और मत्सर=जलन के कारण होता है | दूसरे की उन्नति न सह सकना मत्सर है | चाटुकारिता लोभ के कारण होती है | लोभ राग के कारण हुआ करता है | श्वयातु का अभिप्राय हुआ – मत्सरयुक्त लोभवृत्ति | लोभवृत्ति की जब पूर्ति नहीं होती, तो मत्सर और क्रोध उत्पन्न होते हैं | . कोक=चिड़ा | चिड़ा बहुत कामातुर होता है, कोक का अर्थ हंस भी होता है | हंस भी बहुत कामी प्रसिद्ध है | कोकयातु का तात्पर्य हुआ कामवासना | . सुपर्ण = सुन्दर परों वाला गरुड़ | गरुड़ पक्षी को अपने सौन्दर्य का बहुत अभिमान होता है | सुपर्णयातु का भाव हुआ – अहंकार-वृत्ति-मन | . गृध्र = गिद्ध | गिद्ध बहुत लालची होता है | गृध्रयातुम् का भाव हुआ लोभवृत्ति | . वेद ने इन सबका एक नाम रक्ष:=राक्षस रखा है, अर्थात् मोह, क्रोध, मत्सर, काम, मद और लोभ राक्षस हैं | राक्षस या रक्षस् शब्द का अर्थ है – जिससे अपनी रक्षा की जाए, अपने-आपको बचाया जाए | मोह आदि आत्मा के शत्रु हैं | इनको मार देना चाहिए | जिसे आध्यात्मिक या लौकिक किसी भी प्रकार के ऐश्वर्य की कामना हो, वह इन राक्षसों को मसल दे | मोह आदि में से एक-एक ही बहुत प्रबल एवं प्रचण्ड होता है | यदि किसी मनुष्य पर ये छहों एक साथ आक्रमण कर दें, तो उसकी क्या अवस्था होगी ? अतः मनुष्य को सदा सावधान एवं जागरूक रहना चाहिए और इनको नष्ट करना चाहिए –‘प्राक्तो अपाक्तो अधरादुदक्तोऽभि जहि रक्षस: पर्वतेन’ [अथर्व.८/४/१९] = आगे से, पीछे से, नीचे से, ऊपर से, सब ओर से राक्षसों को वज्र से मार दे, अर्थात् दुष्टवृत्तियों का सर्वथा सफाया कर दे |
सोते समय बोलने के मन्त्र
26-09-2021
*ओ३म् यज्जाग्रतो दूरमुदैति दैवं तदु सुप्तस्य तथैवैति ।* *दूरङ्गमं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ।।*-(यजुर्वेद 34/1) *भावार्थ:-*जो दिव्य गुणों वाला मन जागते तथा सोते समय दूर-दूर चला जाता है,जो दूर जाने वाला,ज्योतियों का प्रकाशक ज्योति है,वह मेरा मन अच्छे विचारों वाला होवे। *ओ३म् येन कर्माण्यपसो मनीषिणो यज्ञे कृण्वन्ति विदथेषु धीराः ।* *यदपूर्वं यक्षमन्तः प्रजानां तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ।।*-(यजुर्वेद 34/2) *भावार्थ:-*जिस मन के द्वारा मननशील मनुष्य यज्ञ आदि में वैदिक तथा अन्य कर्त्तव्य-कर्म करते हैं तथा युद्धों के अन्दर धीर और गम्भीर नेता लोग विचार-विमर्श करते हैं,जो अपूर्व शक्ति वाला,पूजनीय लोगों के अन्तःकरण में है वह मेरा मन अच्छे सङ्कल्प वाला हो। *ओ३म् यत्प्रजानमुत चेतो धृतिश्च यज्ज्योतिरन्तरमृतं प्रजासु ।* *यस्मान्न ऋते किंचन कर्म क्रियते तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ।।*-(यजुर्वेद 34/3) *भावार्थ:-*जिस मन के अन्दर ज्ञान,शक्ति,चिन्तनशक्ति,धैर्य-शक्ति रहती है,जो मन प्रजाओं में अमृतमय और तेजोमय है,जो इतना शक्तिशाली है कि इसके बिना मनुष्य कोई भी कर्म नहीं कर सकता।सब कर्म इसी की सहायता से किये जाते हैं,वह मेरा मन शुभ सङ्कल्प वाला हो। *ओ३म् येनेदं भूतं भुवनं भविष्यत्परिगृहीतममृतेन सर्वम् ।* *येन यज्ञस्तायते सप्त होता तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ।।*-(यजुर्वेद 34/4) *भावार्थ:-*भूत,भविष्य और वर्तमान काल जो कुछ होता है,वह इसी मन द्वारा ग्रहण किया जाता है।पांच ज्ञानेन्द्रियों और अहङ्कार तथा बुद्धि द्वारा जो जीवन यज्ञ चल रहा है,उसका तथा मन,बुद्धि और कार्यकारी इन्द्रियों का जो अधिष्ठाता है,वह मेरा मन शुभ सङ्कल्प वाला बने और कदापि अशुभ सङ्कल्प न करे। *ओ३म् यस्मिन्नृचः साम यजूंषि यस्मिन् प्रतिष्ठिता रथनाभाविवाराः ।* *यस्मिँश्चित्तं सर्वमोतं प्रजानां तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ।।*-(यजुर्वेद 34/5) *भावार्थ:-*जिस मन में सम्पूर्ण वेद और सब शास्त्र तथा ज्ञान ओतप्रोत रहता है,जिस मन की शक्ति ऐसी है कि जिसमें यह सब ज्ञान रह सके,सब बुद्धिमान् लोग इसी से मनन करते हैं,वह शक्तिशाली मेरा मन सदा शुभ विचारों से युक्त हो। *ओ३म् सुषारथिरश्वानिव यन्मनुष्यान्नेनीयतेऽभीशुभिर्वाजिन इव ।* *ह्रत्प्रतिष्ठं यदजिरं जविष्ठं तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ।।*-(यजुर्वेद 34/6) *भावार्थ:-*जैसे अच्छा सारथी घोड़ों को लगाम लगाकर नियम में रखता है,उसी प्रकार वश में किया हुआ मन मनुष्यों को अभीष्ट स्थान पर ले जाता है।जो मन ह्रदयस्थ है,जो कभी बूढ़ा नहीं होता,जो सबसे तीव्र गति वाला है,वह मेरा मन अच्छे संकल्प वाला हो।
जानिए वेद की आज्ञाओं के उलंघन का कितना भयंकर परिणाम हो सकता है ? भारत की दुर्गति के पीछे वेद की आज्ञाओं का उल्लंघन ही था । (vedicvichar)
25-09-2021
"अक्षैर्मा दिव्य:" (ऋ 10/34/13) ???? अर्थात् "जुआ मत खेलो ।" इस आज्ञा का उलंघन हुआ । इस आज्ञा का उलंघन धर्मराज कहे जाने वाले युधिष्टर ने किया । ???? परिणाम : एक स्त्री का भरी सभा में अपमान । महाभारत जैसा भयंकर युद्ध जिसमें लाखों, करोड़ों योद्धा और हज़ारों विद्वान मारे गए । आर्यवर्त पतन की ओर अग्रसर हुआ । "मा नो निद्रा ईशत मोत जल्पिः" (ऋ 8/48/14) ???? अर्थात् "आलस्य, प्रमाद और बकवास हम पर शासन न करें ।" लेकिन इस आज्ञा का भी उलंघन हुआ । महाभारत के कुछ समय बाद भारत के राजा आलस्य प्रमाद में डूब गये । ???? परिणाम : विदेशियों के आक्रमण ।धर्म के नाम पर अंधविश्वास का पाखण्ङ फैल जाना। " सं गच्छध्वं सं वदध्वम" (ऋ 10/191/2) ???? अर्थात् "मिलकर चलो और मिलकर बोलो ।" वेद की इस आज्ञा का भी उलंघन हुआ । जब विदेशियों के आक्रमण हुए तो देश के राजा मिलकर नहीं चले । बल्कि कुछ ने आक्रमणकारियों का ही सहयोग किया । ???? परिणाम : लाखों लोगों का कत्ल, लाखों स्त्रियों के साथ दुराचार, अपार धन-धान्य की लूटपाट, गुलामी ।l "कृतं मे दक्षिणे हस्ते जयो में सव्य आहितः" (अथर्व 7/50/8) ???? अर्थात् "मेरे दाएं हाथ में कर्म है और बाएं हाथ में विजय ।" वेद की इस आज्ञा का उलंघन हुआ । लोगों ने कर्म को छोड़कर ग्रहों फलित ज्योतिष आदि पर आश्रय पाया । "उतिष्ठत सं नह्यध्वमुदारा: केतुभिः सह । सर्पा इतरजना रक्षांस्य मित्राननु धावत ।। " (अथर्व 11/10/1) ???? अर्थात् "हे वीर योद्धाओ ! आप अपने झण्डे को लेकर उठ खड़े हो और कमर कसकर तैयार हो जाओ । हे सर्प के समान क्रुद्ध रक्षाकारी विशिष्ट पुरुषों ! अपने शत्रुओं पर धावा बोल दो ।" ???? परिणाम : कर्महीनता, भाग्य के भरोसे रहकर आक्रान्ताओं को मुँहतोड़ जवाब न देना । धन-धान्य का अपव्यय, मनोबल की कमी और मानसिक दरिद्रता
इतिहास की अमर गाथा (vedicvichar)
25-09-2021
आर्यसमाज के इतिहास में अनेक प्रेरणादायक संस्मरण हैं जो अमर गाथा के रूप में सदा सदा के लिए प्रेरणा देते रहेंगे। एक ऐसी ही गाथा रोपड़ के लाला सोमनाथ जी की हैं। आप रोपड़ आर्यसमाज के प्रधान थे। आपके मार्गदर्शन में रोपड़ आर्यसमाज ने रहतियों की शुद्धि की थी। यूँ तो रहतियों का सम्बन्ध सिख समाज से था मगर उनके साथ अछूतों सा व्यवहार किया जाता था। आपके शुद्धि करने पर रोपड़ के पौराणिक समाज ने आर्यसमाज के सभी परिवारों का बहिष्कार कर दिया एवं रोपड़ के सभी कुओं से आर्यसमाजियों को पानी भरने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। आखिर में नहर के गंदे पानी को पीने से अनेक आर्यों को पेट के रोग हो गए जिनमें से एक सोमनाथ जी की माता जी भी थी। उन्हें आन्त्रज्वर (Typhoid) हो गया था। वैद्य जी के अनुसार ऐसा गन्दा पानी पीने से हुआ था। सोमनाथ जी के समक्ष अब एक रास्ता तो क्षमा मांगकर समझोता करने का था और दूसरा रास्ता सब कुछ सहते हुए परिवार की बलि देने का था। आपको चिंताग्रस्त देखकर आपकी माताजी जी आपको समझाया की एक न एक दिन तो उनकी मृत्यु निश्चित हैं फिर उनके लिए अपने धर्म का परित्याग करना गलत होगा। इसलिए धर्म का पालन करने में ही भलाई हैं। सोमनाथ जी माता का आदेश पाकर चिंता से मुक्त हो गए एवं और अधिक उत्साह से कार्य करने लगे। उधर माता जी रोग से स्वर्ग सिधार गई तब भी विरोधियों के दिल नहीं पिघले। विरोध दिनों दिन बढ़ता ही गया। इस विरोध के पीछे गोपीनाथ पंडित का हाथ था। वह पीछे से पौराणिक हिन्दुओं को भड़का रहा था। सनातन धर्म गजट में गोपीनाथ ने अक्टूबर 1900 के अंक में आर्यों के खिलाफ ऐसा भड़काया की आर्यों के बच्चे तक प्यास से तड़पने लगे थे। सख्त से सख्त तकलीफें आर्यों को दी गई। लाला सोमनाथ को अपना परिवार रोपड़ लेकर से जालंधर लेकर जाना पड़ा। जब शांति की कोई आशा न दिखी दी तो महाशय इंदरमन आर्य लाल सिंह (जिन्हें शुद्ध किया गया था) और लाला सोमनाथ स्वामी श्रद्धानन्द (तब मुंशीराम जी) से मिले और सनातन गजट के विरुद्ध फौजदारी मुकदमा करने के विषय में उनसे राय मांगी। मुंशीराम जी उस काल तक अदालत में धार्मिक मामलों को लेकर जाने के विरुद्ध थे। कोई और उपाय न देख अंत में मुकदमा दायर हुआ जिस पर सनातन धर्म गजट ने 15 मार्च 1901 के अंक में आर्यसमाज के विरुद्ध लिखा "हम रोपड़ी आर्यसमाज का इस छेड़खानी के आगाज़ के लिए धन्यवाद अदा करते हैं की उन्होंने हमें विधिवत अदालत के द्वारा ऐलानिया जालंधर में हमें निमंत्रण दिया हैं। जिसको मंजूर करना हमारा कर्तव्य हैं। " 3 सितम्बर 1901 को मुकदमा सोमनाथ बनाम सीताराम रोपड़ निवासी" का फैसला भी आ गया। सीताराम अपराधी ने बड़े जज से माफ़ी मांगी। उसने अदालत में माफीनामा पेश किया। "मुझ सीताराम ने लाला सोमनाथ प्रधान आर्यसमाज रोपड़ के खिलाफ छपवाई थी, मुझे ऐसा अफ़सोस से लिखना हैं की इसमें आर्यों की तोहीन के खिलाफ बातें दर्ज हो गई थी। जिससे उनको सख्त नुकसान पहुंचा। इस कारण मैं बड़े अदब (शिष्टाचार) से मांफी मांगता हूँ। मैं लाला साहब के सुशील हालत के लिहाज से ऐसी ही इज्जत करता हूँ जैसा की इस चिट्ठी के छपवाने से पूर्व करता था। मैं उन्हें बरादारी से ख़ारिज नहीं समझता, उनके अधिकार साधारण व्यक्तियों सहित वैसे ही समझता हूँ जोकि पहिले थे। मुझे आर्य लोगों से कोई झगड़ा नहीं हैं। साधारण लोगों को सूचना के वास्ते यह माफीनामा अख़बार सत्यधर्म प्रचारक और अख़बार पंजाब समाचार लाहौर में और जैन धर्म शरादक लाहौर में प्रकाशित कराता हूँ। " इस प्रकार से अनेक संकट सहते हुए आर्यों ने दलितोद्धार एवं शुद्धि के कार्य को किया था। मौखिक उपदेश देने में और जमीनी स्तर पर पुरुषार्थ करने में कितना अंतर होता हैं इसका यह यथार्थ उदाहरण हैं। सोमनाथ जी की माता जी का नाम इतिहास के स्वर्णिम अक्षरों में अंकित हैं। सबसे प्रेरणादायक तथ्य यह हैं की किसी स्वर्ण ने अछूतों के लिए अपने प्राण न्योछावर किये हो ऐसे उदाहरण केवल आर्यसमाज के इतिहास में ही मिलते हैं।
सत्यार्थ प्रकाश नवनीत (vedicvichar)
25-09-2021
१. जैसे शीत से आतुर पुरुष का अग्नि के पास जाने से शीत निवृत्त हो जाता है वैसे परमेश्वर के समीप प्राप्त होने से सब दोष दुःख छूटकर परमेश्वर के गुण कर्म स्वभाव के सदृश जीवात्मा के गुण कर्म स्वभाव पवित्र हो जाते हैं। (सत्यार्थप्रकाश समुल्लास ७) २. जो परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना नहीं करता वह कृतघ्न और महामूर्ख भी होता है क्योंकि जिस परमात्मा ने इस जगत् के सब पदार्थ सुख के लिए दे रखे हैं उसके गुण भूल जाना ईश्वर ही को न मानना कृतघ्नता और मूर्खता है। (सत्यार्थप्रकाश समुल्लास ७) ३. जैसे कोई अनन्त आकाश को कहे कि गर्भ में आया या मूठी में धर लिया ऐसा कहना कभी सच नहीं हो सकता क्योंकि आकाश अनन्त और सब में व्यापक है। इससे न आकाश बाहर आता और न भीतर जाता वैसे ही अनन्तर सर्वव्यापक परमात्मा के होने से उसका आना कभी नहीं सिद्ध हो सकता। (सत्यार्थप्रकाश समुल्लास ७) ४. जो मनुष्य जिस बात की प्रार्थना करता है उसको वैसा ही वर्तमान करना चाहिए अर्थात् जैसे सर्वोत्तम बुद्धि की प्राप्ति के लिए परमेश्वर की प्रार्थना करे उसके लिए जितना अपने से प्रयत्न हो सके उतना किया करे। अर्थात् अपने पुरुषार्थ के उपरान्त प्रार्थना करनी योग्य है। (सत्यार्थप्रकाश समुल्लास ७) ५. दिन और रात्रि के सन्धि में अर्थात् सूर्योदय और अस्त समय में परमेश्वर का ध्यान और अग्निहोत्र अवश्य करना चाहिए। (सत्यार्थप्रकाश समुल्लास ४) ६. जब तक इस होम का प्रचार रहा तब तक आर्य्यावर्त्त देश रोगों से रहित और सुखों से पूरित था अब भी प्रचार हो तो वैसा ही हो जाये। (सत्यार्थप्रकाश समुल्लास ७) ७. इस प्रत्यक्ष सृष्टि में रचना विशेष आदि ज्ञानादि गुणों के प्रत्यक्ष होने से परमेश्वर का भी प्रत्यक्ष है। (सत्यार्थप्रकाश समुल्लास ७) ८. 'जो इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख और ज्ञानादि गुणयुक्त अल्पज्ञ नित्य है उसी को "जीव" मानता हूँ।' (सत्यार्थ.-स्वमन्त.) ९. क्या पाषाणादि मूर्तिपूजा से परमेश्वर को ध्यान में कभी लाया जा सकता है? नहीं नहीं, मूर्तिपूजा सीढ़ी नहीं किन्तु एक बड़ी खाई है जिसमें गिर कर चकनाचूर हो जाता है। (सत्यार्थप्रकाश समुल्लास ११) १०. जैसे "शक्कर-शक्कर" कहने से मुख मीठा नहीं होता वैसे सत्यभाषणादि कर्म किये बिना "राम-राम" कहने से कुछ भी नहीं होगा। (सत्यार्थप्रकाश समुल्लास ११)
प्रेरणादायक संस्मरण (vedicvichar)
25-09-2021
स्वामी दर्शनानन्द जी महाराज का सम्पूर्ण जीवन एक आदर्श सन्यासी के रूप में गुजरा। उनका परमेश्वर में अटूट विश्वास एवं दर्शन शास्त्रों के स्वाध्याय से उन्नत हुई तर्क शक्ति बड़ो बड़ो को उनका प्रशंसक बना लेती थी। संस्मरण उन दिनों का हैं जब स्वामी जी के मस्तिष्क में ज्वालापुर में गुरुकुल खोलने का प्रण हलचल मचा रहा था। एक दिन स्वामी जी हरिद्वार की गंगनहर के किनारे खेत में बैठे हुए गाजर खा रहे थे। किसान अपने खेत से गाजर उखाड़कर , पानी से धोकर बड़े प्रेम से खिला रहा था। उसी समय एक आदमी वहां पर से घोड़े पर निकला। उसने स्वामी जी को गाजर खाते देखा तो यह अनुमान लगा लिया की यह बाबा भूखा हैं। उसने स्वामी जी से कहा बाबा गाजर खा रहे हो भूखे हो। आओ हमारे यहां आपको भरपेट भोजन मिलेगा। अब यह गाजर खाना बंद करो। स्वामी जी ने उसकी बातों को ध्यान से सुनकर पहचान कर कहा। तुम ही सीताराम हो, मैंने सब कुछ सुना हुआ हैं। तुम्हारे जैसे पतित आदमी के घर का भोजन खाने से तो जहर खाकर मर जाना भी अच्छा हैं। जाओ मेरे सामने से चले जाओ। सीताराम दरोगा ने आज तक अपने जीवन में किसी से डांट नहीं सुनी थी। उसने तो अनेकों को दरोगा होने के कारण मारापीटा था। आज उसे मालूम चला की डांट फटकार का क्या असर होता हैं। अपने दर्द को मन में लिए दरोगा घर पहुंचा। धर्मपत्नी ने पूछा की उदास होने का क्या कारण हैं। दरोगा ने सब आपबीती कह सुनाई। पत्नी ने कहा स्वामी वह कोई साधारण सन्यासी नहीं अपितु भगवान हैं। चलो उन्हें अपने घर ले आये। दोनों जंगल में जाकर स्वामी जी से अनुनय-विनय कर उन्हें एक शर्त पर ले आये। स्वामी जी को भोजन कराकर दोनों ने पूछा स्वामी जी अपना आदेश और सेवा बताने की कृपा करे। सीताराम की कोई संतान न थी और धन सम्पति के भंडार थे। स्वामी जी ने समय देखकर कहा की सन्यासी को भोजन खिलाकर दक्षिणा दी जाती हैं। सीताराम ने कहा स्वामी जी आप जो भी आदेश देंगे हम पूरा करेंगे। स्वामी जी ने कहा धन की तीन ही गति हैं। दान, भोग और नाश। इन तीनों गतियों में सबसे उत्तम दान ही हैं। मैं निर्धन विद्यार्थियों को भारतीय संस्कृति के संस्कार देकर, सत्य विद्या पढ़ाकर विद्वान बनाना चाहता हूँ। इस पवित्र कार्य के लिए तुम्हारी समस्त भूमि जिसमें यह बंगला बना हुआ हैं। उसको दक्षिणा में लेना चाहता हूँ। इस भूमि पर गुरुकुल स्थापित करके देश, विदेश के छात्रों को पढ़कर इस अविद्या, अन्धकार को मिटाना चाहता हूँ। स्वामी जी का संकल्प सुनकर सीताराम की धर्मपत्नी ने कहा। हे पति देव हमारे कोई संतान नहीं हैं और हम इस भूमि का करेंगे क्या। स्वामी जी को गुरुकुल के लिए भूमि चाहिए उन्हें भूमि दे दीजिये। इससे बढ़िया इस भूमि का उपयोग नहीं हो सकता। सीताराम ने अपनी समस्त भूमि, अपनी सम्पति गुरुकुल को दान दे दी और समस्त जीवन गुरुकुल की सेवा में लगाया। एक जितेन्द्रिय, त्यागी, तपस्वी सन्यासी ने कितनों के जीवन का इस प्रकार उद्धार किया होगा। इसका उत्तर इतिहास के गर्भ में हैं मगर यह प्रेरणादायक संस्मरण चिरकाल तक सत्य का प्रकाश करता रहेगा।
जीवन में सुख का आधार क्या है? ( vedicvichar)
25-09-2021
एक बार एक महात्मा ने अपने शिष्यों से अनुरोध किया कि वे कल से प्रवचन में आते समय अपने साथ एक थैली में बडे आलू साथ लेकर आयें, उन आलुओं पर उस व्यक्ति का नाम लिखा होना चाहिये जिनसे वे ईर्ष्या, द्वेष आदि करते हैं । जो व्यक्ति जितने व्यक्तियों से घृणा करता हो, वह उतने आलू लेकर आये। अगले दिन सभी लोग आलू लेकर आये, किसी पास चार आलू थे, किसी के पास छः या आठ और प्रत्येक आलू पर उस व्यक्ति का नाम लिखा था जिससे वे नफ़रत करते थे । अब महात्मा जी ने कहा कि, अगले सात दिनों तक ये आलू आप सदैव अपने साथ रखें, जहाँ भी जायें, खाते-पीते, सोते-जागते, ये आलू आप सदैव अपने साथ रखें । शिष्यों को कुछ समझ में नहीं आया कि महात्मा जी क्या चाहते हैं, लेकिन महात्मा के आदेश का पालन उन्होंने अक्षरशः किया । दो-तीन दिनों के बाद ही शिष्यों ने आपस में एक दूसरे से शिकायत करना शुरू किया, जिनके आलू ज्यादा थे, वे बडे कष्ट में थे । जैसे-तैसे उन्होंने सात दिन बिताये, और शिष्यों ने महात्मा की शरण ली । महात्मा ने कहा, अब अपने-अपने आलू की थैलियाँ निकालकर रख दें, शिष्यों ने चैन की साँस ली । महात्मा जी ने पूछा – विगत सात दिनों का अनुभव कैसा रहा ? शिष्यों ने महात्मा से अपनी आपबीती सुनाई, अपने कष्टों का विवरण दिया, आलुओं की बदबू से होने वाली परेशानी के बारे में बताया, सभी ने कहा कि बड़ा हल्का महसूस हो रहा है। महात्मा ने कहा – यह अनुभव मैंने आपको एक शिक्षा देने के लिये किया था। जब मात्र सात दिनों में ही आपको ये आलू बोझ लगने लगे, तब सोचिये कि आप जिन व्यक्तियों से ईर्ष्या या द्वेष करते हैं। उनका कितना बोझ आपके मन पर होता होगा। वह बोझ आप लोग तमाम जिन्दगी ढोते रहते हैं। सोचिये कि आपके मन और दिमाग की इस ईर्ष्या के बोझ से क्या हालत होती होगी ? यह ईर्ष्या तुम्हारे मन पर अनावश्यक बोझ डालती है, उनके कारण तुम्हारे मन में भी बदबू भर जाती है, ठीक उन आलुओं की तरह। इसलिये अपने मन से इन भावनाओं को निकाल दो। शिष्यों ने अपने मन से ईर्ष्या, द्वेष रूपी पाप विचार को निकाल दिया। वे प्रसन्न चित होकर आनंद में रहने लगे। आज समाज में व्यक्ति मन में एकत्रित पाप विचारों से सर्वाधिक दुःखी हैं। दूसरे से ईर्ष्या व द्वेष करते करते उसका आंतरिक वातावरण प्रदूषित हो गया हैं। वेद भगवान बड़े सुन्दर शब्दों में मन से ईर्ष्या , द्वेष रूपी पाप विचारों को दूर करने का सन्देश देते हैं। अथर्ववेद 6/45/1 में लिखा है ओ मन के पाप विचार! तू परे चला जा, दूर हो जा। क्योंकि तू बुरी बातों को पसंद करता है। तू पृथक (अलग) हो जा, चला जा। मैं तुझे नहीं चाहता। मेरा मन तुझ पाप की ओर न जाकर श्रेष्ठ कार्यों में रहे। जीवन में सुख का आधार मन से पाप कर्म जैसे ईर्ष्या, द्वेष आदि न करने का संकल्प लेना है।
शम्बूक वध का सत्य
25-09-2021
मर्यादापुरुषोतम श्री रामचंद्र जी महाराज के जीवन को सदियों से आदर्श और पवित्र माना जाता हैं। कुछ विधर्मी और नास्तिकों द्वारा श्री रामचन्द्र जी महाराज पर शम्बूक नामक एक शुद्र का हत्यारा होने का आक्षेप लगाया जाता हैं। सत्य वही हैं जो तर्क शास्त्र की कसौटी पर खरा उतरे। हम यहाँ तर्कों से शम्बूक वध की कथा की परीक्षा करके यह निर्धारित करेगे की सत्य क्या हैं। सर्वप्रथम शम्बूक कथा का वर्णन वाल्मीकि रामायण में उत्तर कांड के 73-76 सर्ग में मिलता हैं। शम्बूक वध की कथा इस प्रकार हैं- एक दिन एक ब्राह्मण का इकलौता बेटा मर गया। उस ब्राह्मण ने लड़के के शव को लाकर राजद्वार पर डाल दिया और विलाप करने लगा। उसका आरोप था की बालक की अकाल मृत्यु का कारण राज का कोई दुष्कृत्य हैं। ऋषि- मुनियों की परिषद् ने इस पर विचार करके निर्णय दिया की राज्य में कहीं कोई अनधिकारी तप कर रहा हैं। रामचंद्र जी ने इस विषय पर विचार करने के लिए मंत्रियों को बुलाया। नारद जी ने उस सभा में कहा- राजन! द्वापर में भी शुद्र का तप में प्रवत होना महान अधर्म हैं (फिर त्रेता में तो उसके तप में प्रवत होने का प्रश्न ही नहीं उठता?)। निश्चय ही आपके राज्य की सीमा में कोई खोटी बुद्धिवाला शुद्र तपस्या कर रहा हैं। उसी के कारण बालक की मृत्यु हुई हैं। अत: आप अपने राज्य में खोज कीजिये और जहाँ कोई दुष्ट कर्म होता दिखाई दे वहाँ उसे रोकने का यतन कीजिये। यह सुनते ही रामचन्द्र जी पुष्पक विमान पर सवार होकर शुम्बुक की खोज में निकल पड़े और दक्षिण दिशा में शैवल पर्वत के उत्तर भाग में एक सरोवर पर तपस्या करते हुए एक तपस्वी मिल गया जो पेड़ से उल्टा लटक कर तपस्या कर रहा था। उसे देखकर श्री रघुनाथ जी उग्र तप करते हुए उस तपस्वी के पास जाकर बोले- “उत्तम तप का पालन करते हए तापस! तुम धन्य हो। तपस्या में बड़े- चढ़े , सुदृढ़ पराक्रमी पुरुष! तुम किस जाति में उत्पन्न हुए हो? मैं दशरथ कुमार राम तुम्हारा परिचय जानने के लिए ये बातें पूछ रहा हूँ। तुम्हें किस वस्तु के पाने की इच्छा हैं? तपस्या द्वारा संतुष्ट हुए इष्टदेव से तुम कौन सा वर पाना चाहते हो- स्वर्ग या कोई दूसरी वस्तु? कौन सा ऐसा पदार्थ हैं जिसे पाने के लिए तुम ऐसी कठोर तपस्या कर रहे हो जो दूसरों के लिए दुर्लभ हैं? तापस! जिस वस्तु के लिए तुम तपस्या में लगे हो, उसे मैं सुनना चाहता हूँ। इसके सिवा यह भी बताओ की तुम ब्राह्मण हो या अजेय क्षत्रिय? तीसरे वर्ण के वैश्य हो या शुद्र हो?” कलेश रहित कर्म करने वाले भगवान् राम का यह वचन सुनकर नीचे मस्तक करके लटका हुआ वह तपस्वी बोला – हे श्री राम ! मैं झूठ नहीं बोलूँगा। देव लोक को पाने की इच्छा से ही तपस्या में लगा हूँ। मुझे शुद्र जानिए। मेरा नाम शम्बूक हैं। वह इस प्रकार कह ही रहा था की रामचन्द्र जी ने म्यान से चमचमाती तलवार निकाली और उसका सर काटकर फेंक दिया। शम्बूक वध की कथा की तर्क से परीक्षा इस कथा को पढ़कर मन में यह प्रश्न उठता हैं की क्या किसी भी शुद्र के लिए तपस्या धर्म शास्त्रों में वर्जित हैं? क्या किसी शुद्र के तपस्या करने से किसी ब्राह्मण के बालक की मृत्यु हो सकती हैं? क्या श्री रामचन्द्र जी महाराज शूद्रों से भेदभाव करते थे? इस प्रश्न का उत्तर वेद, रामायण ,महाभारत और उपनिषदों में अत्यंत प्रेरणा दायक रूप से दिया गया हैं। वेदों में शूद्रों के विषय में कथन 1. तपसे शुद्रम- यजुर्वेद 30/5 अर्थात- बहुत परिश्रमी ,कठिन कार्य करने वाला ,साहसी और परम उद्योगों अर्थात तप को करने वाले आदि पुरुष का नाम शुद्र हैं। 2. नमो निशादेभ्य – यजुर्वेद 16/27 अर्थात- शिल्प-कारीगरी विद्या से युक्त जो परिश्रमी जन (शुद्र/निषाद) हैं उनको नमस्कार अर्थात उनका सत्कार करे। 3. वारिवस्कृतायौषधिनाम पतये नमो- यजुर्वेद 16/19 अर्थात- वारिवस्कृताय अर्थात सेवन करने हारे भृत्य का (नम) सत्कार करो। 4. रुचं शुद्रेषु- यजुर्वेद 18/48 अर्थात- जैसे ईश्वर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र से एक समान प्रीति करता हैं वैसे ही विद्वान लोग भी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र से एक समान प्रीति करे। 5. पञ्च जना मम – ऋग्वेद अर्थात पांचों के मनुष्य (ब्राह्मण , क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र एवं अतिशूद्र निषाद) मेरे यज्ञ को प्रीतिपूर्वक सेवें। पृथ्वी पर जितने मनुष्य हैं वे सब ही यज्ञ करें। इसी प्रकार के अनेक प्रमाण शुद्र के तप करने के, सत्कार करने के, यज्ञ करने के वेदों में मिलते हैं। वाल्मीकि रामायण से शुद्र के उपासना से महान बनने के प्रमाण मुनि वाल्मीकि जी कहते हैं की इस रामायण के पढ़ने से (स्वाध्याय से) ब्राह्मण बड़ा सुवक्ता ऋषि होगा, क्षत्रिय भूपति होगा, वैश्य अच्छा लाभ प्राप्त करेगा और शुद्र महान होगा। रामायण में चारों वर्णों के समान अधिकार देखते हैं देखते हैं। -सन्दर्भ- प्रथम अध्याय अंतिम श्लोक इसके अतिरिक्त अयोध्या कांड अध्याय 63 श्लोक 50-51 तथा अध्याय 64 श्लोक 32-33 में रामायण को श्रवण करने का वैश्यों और शूद्रों दोनों के समान अधिकार का वर्णन हैं। महाभारत से शुद्र के उपासना से महान बनने के प्रमाण श्री कृष्ण जी कहते हैं - हे पार्थ ! जो पापयोनि स्त्रिया , वैश्य और शुद्र हैं यह भी मेरी उपासना कर परमगति को प्राप्त होते हैं। गीता 9/32 उपनिषद् से शुद्र के उपासना से महान बनने के प्रमाण यह शुद्र वर्ण पूषण अर्थात पोषण करने वाला हैं और साक्षात् इस पृथ्वी के समान हैं क्यूंकि जैसे यह पृथ्वी सबका भरण -पोषण करती हैं वैसे शुद्र भी सबका भरण-पोषण करता हैं। सन्दर्भ- बृहदारण्यक उपनिषद् 1/4/13 व्यक्ति गुणों से शुद्र अथवा ब्राह्मण होता हैं नाकि जन्म गृह से। सत्यकाम जाबाल जब गौतम गोत्री हारिद्रुमत मुनि के पास शिक्षार्थी होकर पहुँचा तो मुनि ने उसका गोत्र पूछा। उन्होंने उत्तर दिया था की युवास्था में मैं अनेक व्यक्तियों की सेवा करती रही। उसी समय तेरा जन्म हुआ, इसलिए मैं नहीं जानती की तेरा गोत्र क्या हैं। मेरा नाम सत्यकाम हैं। इस पर मुनि ने कहा- जो ब्राह्मण न हो वह ऐसी सत्य बात नहीं कर सकता। सन्दर्भ- छान्दोग्य उपनिषद् 3/4 महाभारत में यक्ष -युधिष्ठिर संवाद 313/108-109 में युधिष्ठिर के अनुसार व्यक्ति कूल, स्वाध्याय व ज्ञान से द्विज नहीं बनता अपितु केवल आचरण से बनता हैं। कर्ण ने सूत पुत्र होने के कारण स्वयंवर में अयोग्य ठह राये जाने पर कहा था- जन्म देना तो ईश्वर अधीन हैं, परन्तु पुरुषार्थ के द्वारा कुछ का कुछ बन जाना मनुष्य के वश में हैं। आपस्तम्ब धर्म सूत्र 2/5/11/10-11 – जिस प्रकार धर्म आचरण से निकृष्ट वर्ण अपने से उत्तम उत्तम वर्ण को प्राप्त होता हैं जिसके वह योग्य हो। इसी प्रकार अधर्म आचरण से उत्तम वर्ण वाला मनुष्य अपने से नीचे वर्ण को प्राप्त होता हैं। जो शुद्र कूल में उत्पन्न होके ब्राह्मण के गुण -कर्म- स्वभाव वाला हो वह ब्राह्मण बन जाता हैं उसी प्रकार ब्राह्मण कूल में उत्पन्न होकर भी जिसके गुण-कर्म-स्वाभाव शुद्र के सदृश हों वह शुद्र हो जाता हैं- मनु 10/65 चारों वेदों का विद्वान , किन्तु चरित्रहीन ब्राह्मण शुद्र से निकृष्ट होता हैं, अग्निहोत्र करने वाला जितेन्द्रिय ही ब्राह्मण कहलाता हैं- महाभारत वन पर्व 313/111 ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र सभी तपस्या के द्वारा स्वर्ग प्राप्त करते हैं।महाभारत अनुगीता पर्व 91/37 सत्य,दान, क्षमा, शील अनृशंसता, तप और दया जिसमें हो वह ब्राह्मण हैं और जिसमें यह न हों वह शुद्र होता हैं। वन पर्व 180/21-26 श्री रामचन्द्र जी महाराज का चरित्र वाल्मीकि रामायण में श्री राम चन्द्र जी महाराज द्वारा वनवास काल में निषाद राज द्वारा लाये गए भोजन को ग्रहण करना (बाल कांड 1/37-40) एवं शबर (कोल/भील) जाति की शबरी से बेर खाना (अरण्यक कांड 74/7) यह सिद्ध करता हैं की शुद्र वर्ण से उस काल में कोई भेद भाव नहीं करता था। श्री रामचंद्र जी महाराज वन में शबरी से मिलने गए। शबरी के विषय में वाल्मीकि मुनि लिखते हैं की वह शबरी सिद्ध जनों से सम्मानित तपस्वनी थी। अरण्यक 74/10 इससे यह सिद्ध होता हैं की शुद्र को रामायण काल में तपस्या करने पर किसी भी प्रकार की कोई रोक नहीं थी। नारद मुनि वाल्मीकि रामायण (बाल कांड 1/16) में लिखते हैं राम श्रेष्ठ, सबके साथ समान व्यवहार करने वाले और सदा प्रिय दृष्टी वाले हैं। अब पाठक गन स्वयं विचार करे की श्री राम जी कैसे तपस्या में लीन किसी शुद्र कूल में उत्पन्न हुए शम्बूक की हत्या कैसे कर सकते हैं? जब वेद , रामायण, महाभारत, उपनिषद्, गीता आदि सभी धर्म शास्त्र शुद्र को तपस्या करने, विद्या ग्रहण से एवं आचरण से ब्राह्मण बनने, समान व्यवहार करने का सन्देश देते हैं तो यह वेद विरोधी कथन तर्क शास्त्र की कसौटी पर असत्य सिद्ध होता हैं। नारद मुनि का कथन के द्वापर युग में शुद्र का तप करना वर्जित हैं असत्य कथन मात्र हैं। श्री राम का पुष्पक विमान लेकर शम्बूक को खोजना एक और असत्य कथन हैं क्यूंकि पुष्पक विमान तो श्री राम जी ने अयोध्या वापिस आते ही उसके असली स्वामी कुबेर को लौटा दिया था-सन्दर्भ- युद्ध कांड 127/62 जिस प्रकार किसी भी कर्म को करने से कर्म करने वाले व्यक्ति को ही उसका फल मिलता हैं उसी किसी भी व्यक्ति के तप करने से उस तप का फल उस तप कप करने वाले dव्यक्ति मात्र को मिलेगा इसलिए यह कथन की शम्बूक के तप से ब्राह्मण पुत्र का देहांत हो गया असत्य कथन मात्र हैं। सत्य यह हैं की मध्य काल में जब वेद विद्या का लोप होने लगा था, उस काल में ब्राह्मण व्यक्ति अपने गुणों से नहीं अपितु अपने जन्म से समझा जाने लगा था, उस काल में जब शुद्र को नीचा समझा जाने लगा था, उस काल में जब नारी को नरक का द्वार समझा जाने लगा था, उस काल में मनु स्मृति में भी वेद विरोधी और जातिवाद का पोषण करने वाले श्लोकों को मिला दिया गया था, उस काल में वाल्मीकि रामायण में भी अशुद्ध पाठ को मिला दिया गया था जिसका नाम उत्तर कांड हैं। इस प्रकार के असत्य के प्रचार से न केवल अवैदिक विचाधारा को बढावा मिला अपितु श्री राम को जाति विरोधी कहकर कुछ अज्ञानी लोग अपने स्वार्थ की सिद्धि के लिए हिन्दू जाति की बड़ी संख्या को विधर्मी अथवा नास्तिक बनाने में सफल हुए हैं। इसलिए सत्य के ग्रहण और असत्य के त्याग में सदा तत्पर रहते हुए हमें श्री रामचंद्र जी महाराज के प्रति जो अन्याय करने का विष वमन किया जाता हैं उसका प्रतिकार करना चाहिए तभी राम राज्य को सार्थक और सिद्ध किया जा सकेगा।
Vedic
25-09-2021
वेदों से ईश्वर के अजन्मा, सर्वव्यापक, अजर, निराकार होने के प्रमाण। ईश्वर के अजन्मा होने के प्रमाण १. न जन्म लेने वाला (अजन्मा) परमेश्वर न टूटने वाले विचारों से पृथ्वी को धारण करता है। ऋग्वेद १/६७/३ २. एकपात अजन्मा परमेश्वर हमारे लिए कल्याणकारी होवे। ऋग्वेद ७/३५/१३ ३. अपने स्वरुप से उत्पन्न न होने वाला अजन्मा परमेश्वर गर्भस्थ जीवात्मा और सब के ह्रदय में विचरता है। यजुर्वेद ३१/१९ ४. परमात्मा सर्वशक्तिमान, स्थूल, सूक्षम तथा कारण शरीर से रहित, छिद्र रहित, नाड़ी आदि के साथ सम्बन्ध रूप बंधन से रहित, शुद्ध, अविद्यादि दोषों से रहित, पाप से रहित सब तरफ से व्याप्त हैं। जो कवि तथा सब जीवों की मनोवृतिओं को जानने वाला और दुष्ट पापियों का तिरस्कार करने वाला हैं। अनादी स्वरुप जिसके संयोग से उत्पत्ति वियोग से विनाश, माता-पिता गर्भवास जन्म वृद्धि और मरण नहीं होते वह परमात्मा अपने सनातन प्रजा (जीवों) के लिए यथार्थ भाव से वेद द्वारा सब पदार्थों को बनाता हैं।- यजुर्वेद ४०/८ ईश्वर सर्वव्यापक है। १. अंत रहित ब्रह्मा सर्वत्र फैला हुआ है। अथर्ववेद १०/८/१२ २. धूलोक और पृथ्वीलोक जिसकी (ईश्वर की) व्यापकता नहीं पाते। ऋग्वेद १/५२/१४ ३. हे प्रकाशमय देव! आप और से सबको देख रहे है। सब आपके सामने है। कोई भी आपके पीछे है देव आप सर्वत्र व्यापक है। ऋग्वेद १/९७/६ ४. वह ब्रह्मा मूर्खों की दृष्टी में चलायमान होता है। परन्तु अपने स्वरुप से (व्यापक होने के कारण) चलायमान नहीं होता है। वह व्यापकता के कारण देश काल की दूरी से रहित होते हुए भी अज्ञान की दूरिवश दूर है और अज्ञान रहितों के समीप है। वह इस सब जगत वा जीवों के अन्दर और वही इस सब से बाहर भी विद्यमान है। यजुर्वेद ४०/५ ५. सर्व उत्पादक परमात्मा पीछे की ओर और वही परमेश्वर आगे, वही प्रभु ऊपर, और वही सर्वप्रेरक नीचे भी हैं। वह सर्वव्यापक, सबको उत्पन्न करने वाला हमें इष्ट पदार्थ देवे और वही हमको दीर्घ जीवन देवे।ऋग्वेद १०/२६/१४ ६. जो रूद्र रूप परमात्मा अग्नि में है। जो जलों ओषधियों तथा तालाबों के अन्दर अपनी व्यापकता से प्रविष्ट है।- अथर्ववेद ७/८७/१ ईश्वर अजर (जिन्हें बुढ़ापा नहीं आता) है। १. हे अजर परमात्मा, आपके रक्षणों के द्वारा मन की कामना प्राप्त करें। ऋग्वेद ६/५/७ २. जो जरा रहित (अजर) सर्व ऐश्वर्य संपन्न भगवान को धारण करता है। वह शीघ्र ही अत्यन्त बुद्धि को प्राप्त करता है। ऋग्वेद ६/१ ९/२ ३. धीर ,अजर, अमर परमात्मा को जनता हुआ पुरुष मृत्यु या विपदा से नहीं घबराता है।- अथर्ववेद १०/८/४४ ४. हम उसी महान श्रेष्ठ ज्ञानी अत्यंत उत्तम विचार शाली अजर परमात्मा की विशेष रूप से प्रार्थना करें।- ऋग्वेद ६/४९/१० ईश्वर निराकार है। १. परमात्मा सर्वशक्तिमान, स्थूल, सूक्षम तथा कारण शरीर से रहित, छिद्र रहित, नाड़ी आदि के साथ सम्बन्ध रूप बंधन से रहित, शुद्ध, अविद्यादि दोषों से रहित, पाप से रहित सब तरफ से व्याप्त है। जो कवि तथा सब जीवों की मनोवृतिओं को जानने वाला और दुष्ट पापियों का तिरस्कार करने वाला हैं। अनादी स्वरुप जिसके संयोग से उत्पत्ति वियोग से विनाश, माता-पिता गर्भवास जन्म वृद्धि और मरण नहीं होते वह परमात्मा अपने सनातन प्रजा (जीवों) के लिए यथार्थ भाव से वेद द्वारा सब पदार्थों को बनाता हैं।-यजुर्वेद ४०/८ २. परमेश्वर की प्रतिमा, परिमाण उसके तुल्य अवधिका साधन प्रतिकृति आकृति नहीं है अर्थात परमेश्वर निराकार है। यजुर्वेद ३२/३ ३. अखिल अखिल ऐशवर्य संपन्न प्रभु पाँव आदि से रहित निराकार है। ऋग्वेद ८/६९/११ ४. ईश्वर सबमें हैं और सबसे पृथक हैं। (ऐसा गुण तो केवल निराकार में ही हो सकता हैं) यजुर्वेद ३१/१ ५. जो परमात्मा प्राणियों को सब और से प्राप्त होकर, पृथ्वी आदि लोकों को सब ओर से व्याप्त होकर तथा ऊपर नीचे सारी पूर्व आदि दिशाओं को व्याप्त होकर, सत्य के स्वरुप को सन्मुखता से सम्यक प्रवेश करता है, उसको हम कल्प के आदि में उत्पन्न हुई वेद वाणी को जान कर अपने शुद्ध अन्तकरण से प्राप्त करें। (ऐसा गुण तो केवल निराकार में ही हो सकता हैं) यजुर्वेद ३२/११ इनके अलावा और भी अनेक मंत्र से वेदों में ईश्वर का अजन्मा, निराकार, सर्वव्यापक, अजर आदि सिद्ध होता हैं। जिस दिन मनुष्य जाति वेद में वर्णित ईश्वर को मानने लगेगी उस दिन संसार से धर्म के नाम पर हो रहे सभी प्रकार के अन्धविश्वास एवं पापकर्म समाप्त हो जायेगे
Yoga is the only way to Moksha
24-09-2021
We act as we think. An act consists of thought, word and deed. Man’s mind therefore needs to be purified, refined, disciplined and controlled if he has to benefit himself and his environment. He must allow his mind to be amenable to Reason of intellect (Buddhi), the discriminating organ of Man. Reason in turn must be attuned to the real External Self that pervades the universe and is in the heart of each and all. It is the almighty God which pervades outside as well as inside us. Therefore for the search of Truth or reality we must turn inwards. The process of self-realization is invariably accompanied by self-purification and self-refinement. Only a transparent mind can realize the Truth. In practical terms, ‘say the Vedas, “Search Within”. This search by balanced attitude of mind is called Yoga. We are shown that the really strong and trustworthy are not those who cling to material things and worldly attachments but those who perform their respective duties and professions selflessly, without fear, favor, attachment, partiality or self-interest, with honesty, knowledge and efficiency, unmoved by victory or defeat. The soul selflessly integrates with the God through Yoga. The God is purest so as the souls become pure by integrating with the purest. Thus a Yogi is intellectually, actively and emotionally in tune with the God. The true Yogi accepts his place in life and performs his duty to the best of his ability without envying another. The actions done by the Yogi are based on moral law or Dharma. Dharma is established through moral conduct. Dharma leads to advancement and growth. Dharma helps to protects and upholds all creatures. Dharma, Artha, Kama and Moksha are four legitimate aims of man. Artha and Kama are both realized through Dharma. The final goal to achieve is Moksha of freedom from rebirth and sufferings. So be Yogi, follow Dharma, realize the God and achieve Moksha or emancipation. Dr Vivek Arya Buy Yogdarshan by Udayveer Shastri Whatsapp 7015591564
धर्म बदलने पर राष्ट्र के प्रति आस्था भी बदल जाती है।
24-09-2021
आदरणीय सावरकर जी कहते थे- हिन्दूओं की पुण्यभूमि भारत है इसलिए उनकी निष्ठा भारत में है. इसाई और मुस्लिम की पुण्यभूमि भारत के बाहर है. जब एक सनातनी धर्म परिवर्तन करके मुस्लिम या ईसाई बनता है तो उसकी निष्ठा भारत के लिए न होकर मक्का या वेटिकन के लिए हो जाती है ऐसे में वह भारत के लिए किसी कार्य को करने से पहलर मक्का या वेटिकन के आदेश को मानेगा चाहे वो कार्य देशद्रोह ही क्यों न हो। एक भारतीय मुस्लिम किसी भारतीय राजा का आदर करने के स्थान पर विदेशी आक्रमणकारी व् लुटेरो जैसे मुहम्मद गौरी, गजनवी, बाबर आदि को अधिक सम्मान देगा। कलाम और अश्फाक जैसे मुस्लिम या सी ऍफ़ एंड्रयूज जैसे ईसाई बहुत कम होते हैं. भारतीय संविधान के निर्माण के समय जब संविधान सभा की बैठकों में धर्म के अधिकार का प्रश्न आया तो ईसाइयों के दबाव पर यह निर्णय लिया गया कि अनुच्छेद 25 (ए)के अन्तर्गत किसी भी धर्म के प्रचार या मानने की स्वतंत्रता का स्पष्ट उल्लेख किया जाए। हमारे राष्ट्रवादी नेताओं का विचार था कि धर्म के प्रचार और मानने की स्वतन्त्रता पर कोई प्रतिबन्ध ही नहीं लगाया जा रहा तो ऐसे में इस अधिकार के लिखने की क्या आवश्यकता है। परन्तु फिर भी ईसाइयों के हठ और आग्रह पर यह प्रावधान जोड़ा गया। सरदार बल्लभभाई पटेल ने जब संविधान सभा के समक्ष एक अन्तरिम रिपोर्ट प्रस्तुत की तो कन्हैयालाल माणिक लाल मुंशी ने उसमें निम्न प्रावधान जोड़ने का प्रस्ताव किया- ‘‘कोई भी धर्मान्तरण यदि धोखे, दबाव या लालच के द्वारा या 18 वर्ष से कम आयु के व्यक्ति का होता है तो उसे कानून की मान्यता नहीं होगी।’’ श्री मुंशी के इस प्रस्ताव का ईसाई सदस्यों ने एक जुट होकर विरोध किया। इस प्रकार के धर्मांतरण को रोकने के लिए स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद मध्यप्रदेश और उड़ीसा की राज्य सरकारों द्वारााी समय -समय पर कानून बनाये गये । इन कानूनों को भी ईसाइयों ने सर्वोच्च न्यायालय तक चुनौती दी। परिणाम स्वरूप सर्वोच्च न्यायालय ने भी यह राय व्यक्त की कि लोभ, लालच और दबाव से कराया गया धर्मान्तरण धर्म प्रचार की स्वतन्त्रता का अंग नही है। आस्था बदलने से देशभक्ति बदलती है इसका प्रमाण खिलाफत आंदोलन है। (कैसे भारतीय मुस्लिम अपना संबंध तुर्की से जोड़ते हैं) भारतीय इतिहास में खिलाफत आन्दोलन का वर्णन तो है किन्तु कही विस्तार से नहीं बताया गया कि खिलाफत आन्दोलन वस्तुत: भारत की स्वाधीनता के लिए नहीं अपितु वह एक राष्ट्र विरोधी व हिन्दू विरोधी आन्दोलन था। खिलाफत आन्दोलन दूर स्थित देश तुर्की के खलीफा को गद्दी से हटाने के विरोध में भारतीय मुसलमानों द्वारा चलाया गया आन्दोलन था . भारत में मोहम्मद अली जौहर व शौकत अली जौहर दो भाई खिलाफत आंदोलन का नेतृत्व कर रहे थे. गांधी ने 1921 में अखिल भारतीय खिलाफत कमेटी से जुड कर ‘खिलाफत आंदोलन' की घोषणा कर दी. इस आंदोलन की पहली मांग खलीफा पद की पुनर्स्थापना थी. मोहम्मद अली जौहर ने भारत को दारुल हरब (संघर्ष की भूमि जहाँ काफिर का शासन है.) कहकर मौलाना अब्दुल बारी से हिजरत का फतवा जारी करवाया। इस पर हजारों मुसलमान अपनी सम्पत्ति बेचकर अफगानिस्तान चल दिये इनमें उत्तर भारतीयों की संख्या सर्वाधिक थी पर वहां उनके ही तथाकथित मजहबी भाइयों ने ही उन्हें खूब मारा तथा उनकी सम्पत्ति भी लूट ली। उन दिनों कांग्रेस के अधिवेशन वंदेमातरम के गायन से प्रारम्भ होते थे, 1923 का अधिवेशन आंध्र प्रदेश में काकीनाड़ा नामक स्थान पर था,, मोहम्मद अली जौहर उस समय कांग्रेस के अध्यक्ष थे जब प्रख्यात गायक विष्णु दिगम्बर पलुस्कर ने वन्देमातरम गीत प्रारम्भ किया, तो मोहम्मद अली जौहर ने इसे इस्लाम विरोधी बताकर रोकना चाहा इस पर श्री पलुस्कर ने कहा कि यह कांग्रेस का मंच है, कोर्इ मस्जिद नहीं और उन्होंने पूरे मनोयोग से वन्दे मातरम गाया। इस पर जौहर विरोधस्वरूप मंच से उतर गया था। गाँधी ने बिना विचार किये ही इस आन्दोलन को अपना समर्थन दे दिया जबकि इससे हमारे देश का कुछ भी लेना-देना नहीं था जब यह आन्दोलन असफल हो गया, जो कि होना ही था, तो केरल के मुस्लिम बहुल मोपला क्षेत्र में अल्पसंख्यक हिन्दुओं पर अमानुषिक अत्याचार किये गए, माता-बहनों का शील भंग किया गया और हत्याएं की गयीं मूर्खता की हद तो यह है कि गाँधी ने इन दंगों की कभी आलोचना नहीं की और दंगाइयों की गुंडागर्दी को यह कहकर उचित ठहराया कि वे तो अपने धर्म का पालन कर रहे थे।
जीवन में सुख का आधार क्या है?
24-09-2021
एक बार एक महात्मा ने अपने शिष्यों से अनुरोध किया कि वे कल से प्रवचन में आते समय अपने साथ एक थैली में बडे आलू साथ लेकर आयें, उन आलुओं पर उस व्यक्ति का नाम लिखा होना चाहिये जिनसे वे ईर्ष्या, द्वेष आदि करते हैं । जो व्यक्ति जितने व्यक्तियों से घृणा करता हो, वह उतने आलू लेकर आये। अगले दिन सभी लोग आलू लेकर आये, किसी पास चार आलू थे, किसी के पास छः या आठ और प्रत्येक आलू पर उस व्यक्ति का नाम लिखा था जिससे वे नफ़रत करते थे । अब महात्मा जी ने कहा कि, अगले सात दिनों तक ये आलू आप सदैव अपने साथ रखें, जहाँ भी जायें, खाते-पीते, सोते-जागते, ये आलू आप सदैव अपने साथ रखें । शिष्यों को कुछ समझ में नहीं आया कि महात्मा जी क्या चाहते हैं, लेकिन महात्मा के आदेश का पालन उन्होंने अक्षरशः किया । दो-तीन दिनों के बाद ही शिष्यों ने आपस में एक दूसरे से शिकायत करना शुरू किया, जिनके आलू ज्यादा थे, वे बडे कष्ट में थे । जैसे-तैसे उन्होंने सात दिन बिताये, और शिष्यों ने महात्मा की शरण ली । महात्मा ने कहा, अब अपने-अपने आलू की थैलियाँ निकालकर रख दें, शिष्यों ने चैन की साँस ली । महात्मा जी ने पूछा – विगत सात दिनों का अनुभव कैसा रहा ? शिष्यों ने महात्मा से अपनी आपबीती सुनाई, अपने कष्टों का विवरण दिया, आलुओं की बदबू से होने वाली परेशानी के बारे में बताया, सभी ने कहा कि बड़ा हल्का महसूस हो रहा है। महात्मा ने कहा – यह अनुभव मैंने आपको एक शिक्षा देने के लिये किया था। जब मात्र सात दिनों में ही आपको ये आलू बोझ लगने लगे, तब सोचिये कि आप जिन व्यक्तियों से ईर्ष्या या द्वेष करते हैं। उनका कितना बोझ आपके मन पर होता होगा। वह बोझ आप लोग तमाम जिन्दगी ढोते रहते हैं। सोचिये कि आपके मन और दिमाग की इस ईर्ष्या के बोझ से क्या हालत होती होगी ? यह ईर्ष्या तुम्हारे मन पर अनावश्यक बोझ डालती है, उनके कारण तुम्हारे मन में भी बदबू भर जाती है, ठीक उन आलुओं की तरह। इसलिये अपने मन से इन भावनाओं को निकाल दो। शिष्यों ने अपने मन से ईर्ष्या, द्वेष रूपी पाप विचार को निकाल दिया। वे प्रसन्न चित होकर आनंद में रहने लगे। आज समाज में व्यक्ति मन में एकत्रित पाप विचारों से सर्वाधिक दुःखी हैं। दूसरे से ईर्ष्या व द्वेष करते करते उसका आंतरिक वातावरण प्रदूषित हो गया हैं। वेद भगवान बड़े सुन्दर शब्दों में मन से ईर्ष्या , द्वेष रूपी पाप विचारों को दूर करने का सन्देश देते हैं। अथर्ववेद 6/45/1 में लिखा है ओ मन के पाप विचार! तू परे चला जा, दूर हो जा। क्योंकि तू बुरी बातों को पसंद करता है। तू पृथक (अलग) हो जा, चला जा। मैं तुझे नहीं चाहता। मेरा मन तुझ पाप की ओर न जाकर श्रेष्ठ कार्यों में रहे। जीवन में सुख का आधार मन से पाप कर्म जैसे ईर्ष्या, द्वेष आदि न करने का संकल्प लेना है। #डॉ_विवेक_आर्य........ Vedic Vichar, Arya samaj
GOD
24-09-2021
VEDIC THEISM ● ------------------------------- God – the Supreme Spirit is believed to be one of the most subtle topics of philosophy. Faith in Supreme Power seems almost universal encompassing the human life from time immemorial. But unfortunately the concept of God has been blurred by the fog of numerous wrong, perverse and sectarian notions. Consequently, today we come across a variety of pictures, images and descriptions of God, which are highly conflicting with each other, finally leading people towards sectarian narrow-mindedness, bigotry, dogmas, superstitions, prejudice, skepticism, atheism, frictions, wars, terrorism, dense materialism and a host of similar other vicious and inhuman traits. That is the reason why we find amongst us many persons entangled and even lost in some sort of spiritual confusion and so many of them have already turned into either atheists or skeptics. Just to harbour a belief or a faith in any so-called theistic notion is obviously an easy task. Sometimes it may be merely an intelligent recognition. But the most difficult venture is to divinize one's whole being according to the right principles of spiritual science. A true spiritual person should desperately seek to know the ultimate truth of life and set out for the realization of the Supreme as the ultimate destination of his human existence. The true theistic attitude of a person needs to get fully manifested through his way of life – through his thoughts, intension, actions and devotion. There could be no doubt about the omni-presence of God, but the most pertinent question is that whether we always keep ourselves conscious of His presence or not. Unless we have a reasoned and unflinching faith in His invisible presence everywhere, unless we are sincere in our endeavor, unless our convictions are intense and grounded in truth, we cannot say that our adopted version of theism is genuine and rewarding. Because the true theism confers on us joy, happiness, satisfaction, fearlessness and other divine powers; a perfect sense to the spiritual dimension of our being. Moreover, it also provides us sustenance, strength, solace and comfort in the moments of great distresses, failures and disappointment, which occur almost to everybody when one struggles to resolve the tangles plaguing one in the course of one's daily life. Generally it is believed that to define is to limit, and God being the most mysterious entity, it is beyond the human capacity to define Him or to express Him fully through any human language. Even the most consistent intelligent speculations or hypothesis may not be in a position to guarantee one of the realization of God. God can be realized only with the help of True knowledge, True actions and True meditation – the practice of Yoga with total surrender to Him. Hence mere logical propositions or linguistic symbols could not be of much help in this divine endeavor. But this does not mean that the existence of God is to be regarded merely based on any sort of speculation. The speculations leading one towards theism should also essentially be based on some definite observations, thoughts, logic, analytical approach and wisdom, in other words on sound and convincing philosophy of reality. ................... Dr. Yajnya Dutta Nayak
ଆମ ସମାଜରେ
24-09-2021
ଆମ ସମାଜରେ ଯିଏ ଯେଉଁଭଳି ବ୍ୟକ୍ତି,ତାଙ୍କୁ ସେହିପରି ବ୍ୟବହାର ମିଳିଥାଏ। ଅନେକ ସମୟରେ କିଛି ଲୋକ ଅନ୍ୟ ମାନଙ୍କଠାରୁ ଭଲ ବ୍ୟବହାର ଦାବି କରିଥାନ୍ତି। ଏଠାରେ ବ୍ୟବହାର ଦାବି କରୁଥିବା ଲୋକଟି ନିଜକୁ ଜଣେ ଭଲ ମଣିଷ ବୋଲି ପ୍ରତିପାଦିତ କରିଥାଏ। ଆମେ ନିଜ ପାଖରେ ଭଲ ହୋଇଥାଉସିନା,କିନ୍ତୁ ଅନ୍ୟ ପାଖରେ କେତେ ଭଲ,ତାହା ଆମକୁ ମିଳୁଥିବା ବ୍ୟବହାରରୁ ସହଜରେ ଜାଣିପାରିବା। ବ୍ୟବହାର କର୍ତ୍ତାର ମନରେ ଆମ ପ୍ରତି ଯେଉଁ ଧାରଣା,ତାହା ତା ' ର ବ୍ୟକ୍ତିଗତ ଧାରଣା। ମାତ୍ର ଆମେ ତା ' ହୃଦୟରେ କିପରି ବସିଛେ,ତାହା ତା ' ର ବ୍ୟବହାର ମାଧ୍ୟମରେ ଜଣାଇ ଦେଇଥାଏ। ଆମେ ଅନ୍ୟକୁ ଯେପରି ବ୍ୟବହାର ଦେବା,ସେ ତା ' ର ସଂସ୍କାର ଅନୁସାରେ ଆମକୁ ମଧ୍ୟ ସେହିପରି ବ୍ୟବହାର ଦେଇଥାଏ। ଏଥିରୁ ଆମେ ଏତିକି ଜାଣିବା ବ୍ୟବହାର ହିଁ ମଣିଷକୁ ସର୍ବୋଚ୍ଚ ସ୍ଥାନ ଦେଇଥାଏ। (ସୁରେନ୍ଦ୍ର ନାଥ ଛୋଟରାୟ)
ଓ୩ମ୍ ଅମୃତୋପସ୍ତରଣମସି ସ୍ବାହା।
23-09-2021
ସଜ୍ଜନବୃନ୍ଦ! ସାଦର ନମସ୍ତେ। ଭାରତୀୟ ନବଜାଗରଣର ପ୍ରତାପୀ ପୁରୋଧା ପ୍ରାତଃ ସ୍ମରଣୀୟ ବେଦୋଦ୍ଧାରକ ମହର୍ଷି ସ୍ବାମୀ ଦୟାନନ୍ଦ ସରସ୍ବତୀଙ୍କ ଯୁଗାନ୍ତକାରୀ ବିଚାର ଓଡିଶା ମାଟିକୁ ବିଂଶ ଶତାବ୍ଦୀର ପ୍ରଥମ ଦଶକରୁ ପହଂଚିଯାଇଥିବାର ଜନଶ୍ରୁତି ଥିଲେ ହେଁ ୧୯୧୫ ମସିହାରୁ ସଂସ୍କାରକ ଶ୍ରୀବତ୍ସ ପଣ୍ଡା ହିଁ ବିଧିବଦ୍ଧ ଭାବରେ ଓଡ଼ିଶାରେ ବୈଦିକ ଧର୍ମର ପୁନଃପ୍ରଚାର ପ୍ରାରମ୍ଭ କଲେ।ଇତିମଧ୍ୟରେ ବିଗତ ୧୦୫ବର୍ଷ ଭିତରେ ଅନେକ ଯଶସ୍ବୀ ମହାନୁଭବ ତଥା ଅନେକ ଆଶ୍ରମ, ସଂଗଠନ ଆଦି ଓଡିଶାରେ ବୈଦିକ ଧର୍ମ-ସଂସ୍କୃତିର ପ୍ରଚାର ଦିଗରେ ନିରନ୍ତର ପ୍ରୟାସଶୀଳ ହୋଇଆସିଛନ୍ତି। ସାମ୍ପ୍ରତିକ ସମୟରେ ସ୍ବକୀୟ ପ୍ରଭାବଶାଳୀ ପ୍ରଭା ଯୋଗୁଁ ବାରିହୋଇପଡୁଥିବା ପୂଜ୍ୟ ସ୍ବାମୀ ସୁଧାନନ୍ଦ ସରସ୍ବତୀ ଯେ ତନ୍ମଧ୍ୟରୁ ଜଣେ ବିଲକ୍ଷଣ ପ୍ରତିଭା, ଏହା ଅନସ୍ବୀକାର୍ଯ୍ୟ।ଜୀବନର ପୂର୍ବାର୍ଦ୍ଧରେ ଶୁଦ୍ଧପୂତ ପରିବ୍ରାଜକ ଜୀବନଯାପନ କରି ନିରନ୍ତର ଭ୍ରମଣ ଓ ସଘନ ପ୍ରଚାରଦ୍ବାରା ପୂଜ୍ୟ ସ୍ବାମୀଜୀ ଯେ ବୈଦିକ ବିଚାରକୁ ଏକ ଜନଆନ୍ଦୋଳନରେ ପରିଣତ କରିସାରିଛନ୍ତି, ଏହା କହିବା ବାହୁଲ୍ୟମାତ୍ର। ତେବେ ଅନ୍ତରଂଗ କାର୍ଯ୍ୟକର୍ତ୍ତା ତଥା ଉତ୍ସାହୀ ସହଯୋଗୀଙ୍କ ଆଗ୍ରହ କ୍ରମେ ପ୍ରଚାର କାର୍ଯ୍ୟକୁ ଏକ ବ୍ୟବସ୍ଥିତ ରୂପ ଦେବା ସହ ବୈଦିକ ଆଶ୍ରମ ବ୍ୟବସ୍ଥାକୁ କେବଳ ଭାଷଣ ଓ ସାହିତ୍ୟ ଭିତରେ ସୀମିତ ନ ରଖି ଜିଜ୍ଞାସୁ ସୁଗୃହସ୍ଥମାନଙ୍କୁ ଉତ୍ତମ ବାନପ୍ରସ୍ଥ ଭାବରେ ଗଢିତୋଳିବା ଉଦ୍ଦେଶ୍ୟରେ କଟକ-ଭୁବନେଶ୍ୱର ମଧ୍ୟବର୍ତ୍ତୀ ଫୁଲନଖରା ନିକଟସ୍ଥ ଉଷୁମାଠାରେ "ବେଦଧାମ"ରେ ଏକ ଭବ୍ୟ ବାନପ୍ରସ୍ଥ ସାଧକ ଆଶ୍ରମ ନିର୍ମାଣ କାର୍ଯ୍ୟ ଆଗେଇ ଚାଲିଛି। ଏହି କ୍ରମରେ ଆଜି ହେଉଛି ଆମ ସମସ୍ତଙ୍କ ପାଇଁ ଏକ ଏକ ବିଶେଷ ଉତ୍ସାହ ଓ ଉଦ୍ଦୀପନାର ଦିବସ। ଆମର ଦୀର୍ଘଦିନର ପ୍ରତୀକ୍ଷାର ଅବସାନ ଘଟି ପରମପିତା ପରମାତ୍ମାଙ୍କ ମହତୀ ଅନୁକମ୍ପାରୁ ବାନପ୍ରସ୍ଥ-ସାଧକ ଆଶ୍ରମର ପ୍ରଥମ ଛାତ ପଡିବାକୁ ଯାଉଛି। ସମସ୍ତ କାର୍ଯ୍ୟ ନିର୍ବିଘ୍ନରେ ହେଉ ଏତିକି ପ୍ରାର୍ଥନା। ତେବେ କୌଣସି ରାଜନୈତିକ ସହଯୋଗର ଅପେକ୍ଷା ନ ରଖି କେବଳ ଉତ୍ସାହୀ ସହଯୋଗୀଙ୍କ ସାତ୍ତ୍ଵିକ ସହଯୋଗରେ ନିର୍ମିତ ହେଉଥିବା ଏହି ପୁଣ୍ୟମୟୀ ପ୍ରକଳ୍ପରେ ଆପଣ ମଧ୍ୟ ଉଦାର ଭାବରେ ସହଯୋଗର ହାତ ବଢାଇ ଯଶ ଓ ପୁଣ୍ୟ ଅର୍ଜନ କରନ୍ତୁ,ଏତିକି ମାତ୍ର ବିନମ୍ର ଅନୁରୋଧ। ନମସ୍ତେ। ନିବେଦକ ଶ୍ରୁତିନ୍ୟାସ ପରିବାର
महर्षि दयानन्द का यज्ञ विषयक् वैज्ञानिक पक्ष
22-09-2021
लेखक- पं० वीरसेन वेदश्रमी प्रस्तोता- डॉ विवेक आर्य, प्रियांशु सेठ यज्ञ में मन्त्रोच्चारण कर्म के साथ आवश्यक है- महर्षि स्वामी दयानन्द जी ने यज्ञ की एक अत्यन्त लघु पद्धति या विधि हमें प्रदान की जो १० मिनट में पूर्ण हो जावे। उसमें मन्त्र के साथ कर्म और आहुति का योग किया। बिना मन्त्र के यज्ञ का कोई कर्म, यज्ञ का अंग नहीं बन सकता। बिना मन्त्र उच्चारण किये किसी भी पदार्थ को अग्नि में जला देने से, वह यज्ञाहुति का स्वरूप प्राप्त नहीं कर सकती और न वह उस महान् लाभ को भी उत्पन्न करने में उतनी समर्थ हो सकती है। इसलिए विधिवत् यज्ञ करने से ही यथोचित लाभ होगा, अन्यथा नहीं। यज्ञ की प्रथम क्रिया और प्रथम मन्त्र का भाव- भगवान् दयानन्द ने प्राणिमात्र पर अपार दया करके यज्ञ की प्रथम क्रिया प्रारम्भ करने के लिए एक छोटा सा मन्त्र दिया। कहा कि इस महान् कार्य के लिये अग्नि प्रदीप्त करना हो तो- ओ३म् भूर्भुवः स्व:- यह छोटा सा मन्त्र बोलकर घृत का दीपक प्रज्वलित कर लेना। क्योंकि यही घृत दीप की मूलाधार प्रारम्भ ज्योति ही व्याप्त रूप में विराट बनकर भू अर्थात् पृथिवी, भुवः अर्थात् अन्तरिक्ष और स्व: अर्थात् द्युलोक के लिये ओ३म् रक्षा करने वाली है। इसी घृत युक्त अग्नि शिखा में भू: अर्थात् प्राणों को उत्पन्न करने की शक्ति है। इसी में भुवः अर्थात् दुखनाशक शक्ति है और इसी में स्व: अर्थात् लोक और परलोक का समस्त सुख प्रदान करने की शक्ति है। यज्ञ में द्वितीय क्रिया और उसका मन्त्र- केवल घृत का दीपक जलाने से यज्ञ नहीं हो जाता। इस घृत दीप की अग्नि से कपूर को प्रज्वलित कर चन्दनादि की समिधा रखकर उसे एक पात्र में रखना चाहिए और- ओ३म् भूर्भुवः स्वर्द्यौरिव भूम्ना०- यह सम्पूर्ण मन्त्र बोलकर कुण्ड मध्य में उसे स्थापित करना चाहिए। मन्त्रों में जो अपूर्व विज्ञान भरा है वह मन्त्र बोलने से ही जाना जाता है। बिना मन्त्र के वह प्रकाशित नहीं होता। द्वितीय क्रिया के मन्त्र का भाव- इस अग्न्याधान मन्त्र का भाव निम्न प्रकार हृदयंगम करना चाहिए। ओ३म् भूर्भुवः स्वर्द्यौरिव भूम्ना= यह भूर्भुवः स्व: आदि तीन ज्योतियों से युक्त अग्नि है जो प्रकाशमय द्यु लोक के समान महान्, विशाल और पृथिवीव वरिम्णा= अन्तरिक्ष के समान महिमाशाली है, सामर्थ्यवान् एवं सर्व सुखोत्पादक है। तस्यास्ते पृथिवी देवयजनि पृष्ठे= उस देव यजनि अर्थात् देवों की यज्ञस्थली पृथिवी के ऊपर- अग्नि- मन्नादं= अन्नों के पक्व करने वाली अग्नि को- अनाद्यादधे= अन्नों को भोज्य रूप प्रदान करने के लिए स्थापित करता हूं। अन्नों को भोज्य रूपता प्रदान करने का एक गूढ़ तात्पर्य यह है कि यज्ञ से जो अन्न की उत्पत्ति एवं पक्वता होती है उस अन्न में से विष का भाग दूर होता जाता है। उसमें रोगोत्पादकता का दोष नहीं होता और वह अन्न अत्यन्त स्वादिष्ट, बल, वीर्य, बुद्धिवर्धक तथा पुष्टिकारक हो जाता है। तृतीय क्रिया उसका मन्त्र और भाव- इस प्रकार पूर्वोक्त मन्त्र पूर्वक अग्नि स्थापन क्रिया होने पर तीसरी क्रिया- ओ३म् उद्बुध्यस्वाग्ने० मन्त्र से उस अग्नि को प्रदीप्त करने से सम्बन्धित है। उस स्थापित अग्नि को लक्ष्य में रख भावना करनी चाहिए कि ओम् उद्बुध्यस्वाग्ने- अर्थात् हे अग्नि तू ऊपर की ओर बढ़, प्रतिजागृहि- अत्यन्त प्रदीप्त हो, क्योंकि- त्वमिष्टापूर्ते संसृजेथाम्- अर्थात् तुम हमारे लिए इष्ट अर्थात् अभीष्ट सिद्धि, इष्ट भोगों के दाता हो, तुम हमारी समस्त इष्टियाँ- यज्ञयागादि- के साधक हो और आपूर्त्त अर्थात् कुंआ, बावड़ी, तालाब, उद्यान, गृह, भवन आदि की पूर्ति करने वाले अर्थात् उनको भरने, पूर्ण करने वाले हो। चतुर्थ क्रिया ३ समिधादान चार मन्त्रों से ३ अग्नियों के लिए यज्ञ की आधारभूत प्रक्रिया से पूर्वोक्त मन्त्र में समिधा का कार्य प्रथम है। अतः अग्नि प्रदीप्त होने पर उसमें समिधादान की क्रिया करनी चाहिए। अतः ४ मन्त्रों से ३ समिधादान की क्रिया का विधान किया गया है। ४ मन्त्र चारों दिशा अर्थात् समस्त दिशाओं के बोधक हैं। उन समस्त दिशाओं का पृथिवी, अन्तरिक्ष और द्यौ या भू:, भुवः, स्व: इन तीन रूप से विभाग है। इन तीन स्थलों में तीन प्रकार की अग्नियाँ हैं। पृथिवी लोक की अग्नि को पवमान कहा गया- अन्तरिक्ष लोक की अग्नि को पाबक कहा गया और द्यु स्थानीय अग्नि को शुचि कहा गया है। अतः तीनों अग्नियों के लिए ३ समिधादान की क्रिया का विधान किया गया। इन तीनों समिधाओं द्वारा इस स्थापित यज्ञाग्नि को तीनों लोकों में क्रियाशील करके यज्ञ को ब्रह्माण्ड में व्याप्त किया जाता है। समिधादान के चार मन्त्रों के अन्त में जो- इदं न मम- का पाठ है वह ध्यान देने योग्य है। प्रथम मन्त्र में इदमग्नये जातवेदसे, द्वितीय मन्त्र में इदमग्नये, तृतीय मन्त्र में- प्रथम मन्त्रवत् पाठ है और चतुर्थ मन्त्र में इदमग्नये अङ्गिरसे- पाठ है। अर्थात् तीन ही अग्नि हैं। एक अग्नि, दूसरी अङ्गिरस, तीसरी जातवेद। अतः तीन अग्नियों की समिधा हुई। पांचवी क्रिया पांच घृत आहुतियां- समिधाग्नि दुवस्यत, इसके बाद- घृतैर्बोधयतातिथिम्- पद है। पहले पद समिधाग्निं दुवस्यत के अनुसार समिधादान की क्रिया सम्पूर्ण हो गई अतः घृतैर्बोधयतातिथिम्- की क्रिया होनी चाहिए। अतः ५ घृताहुतियों का विधान किया गया। पांच घृताहुति क्यों? (१) इस ब्रह्माण्ड में पूर्वोक्त तीनों लोकों में तीन अग्नियों से तथा तीन लोक रूपी समिधाओं से ५ अग्नियां क्रियाशील होती हैं। उससे सबकी रचना व पालन होता है। उपनिषदों में तथा शतपथब्राह्मण में उसे पञ्चाग्नि कहकर वर्णन किया है। अतः पांच अग्नियों के लिये ५ घृताहुति का एक कर्म रखा गया है। पांच घृताहुति क्यों? (२) जगत् पर दृष्टिपात करें तो यह पांच भौतिक ही है। प्राणिजगत् को देखें तो यह पांच प्राणों से ही जीवित है और मनुष्य की प्रधान रूप से पांच ही कामनाएं- प्रजा, पशु, ब्रह्म, तेज, अन्न (भोजन) एवं उपभोग शक्ति है। पंच घृताहुति मन्त्र में ही इन्हीं पांच से अपने को समिद्ध एवं समृद्ध करने की यज्ञ से प्रार्थना है। अतः ५ घृताहुति का विधान यज्ञ में करने से पंच, भूत, पंच प्राण के लिए आहुति से उनकी पुष्टिपूर्वक अपनी पंच सूत्री योजना की पूर्ति का भाव है। षष्ठक्रिया जलसिंचन पञ्च घृताहुतियों से जब हमने अग्नि को- इध्यस्व वर्धस्व किया तो अग्नि से उस स्थान विशेष में तापाधिक्य होगा ही। ताप की वृद्धि से उस तृप्त वायुमण्डल की परिधि के बाहर चारों ओर का जो वायु का आचरण होगा वह अपेक्षाकृत अर्द्रतापूर्ण होगा। अर्थात् ताप के चारों ओर आर्द्रता का मण्डल स्वभावतः संचित या निर्मित होता है इसी रहस्य को यज्ञ में भी प्रकट करने के लिए पांच घृताहुतियों के पश्चात् जलसिंचन का विधान है। अर्थात् सृष्टि की कार्य प्रणाली में अग्नि होने पर, ताप होने पर जल अवश्य प्रकट होता है। उपनिषद्कारों ने इसीलिए अग्नेरापः= अर्थात् अग्नि से जल की उत्पत्ति कहा है। हमारे शरीर में भी जब अग्नि-ताप बढ़ जाता है तो जल से ही उसना शमन सन्तुष्टि होती है। अग्नि में यदि जल डालेंगे तो अग्नि शान्त हो जायेगी। अग्नि को तो प्रदीप्त रखना है, अतः अग्नि के चारों ओर जल सिंचन करके जल का मण्डल बनाकर, ताप के चारों ओर आर्द्रता स्थापित एवं उत्पन्न हो जाती है। जो सृष्टि विज्ञान के स्वरूप का प्रदर्शन ही है। सप्तमक्रिया-आघारावाज्य आहुतियां जल सिंचन के पश्चात्- अग्नये स्वाहा- की आहुति से सोम की उत्पत्ति होती है। क्योंकि ताप के साथ जलीय अंश मिश्रित होने लगा। उस उत्पन्न सोम के लिए आहुति सोमाय स्वाहा- से देनी चाहिए। इन दोनों अग्नि और सोम शक्तियों से प्रजनन अर्थात् प्रजापति शक्ति और बल पराक्रम अर्थात् इन्द्र शक्ति का सृष्टि में संचार होता है। इसी को प्रजापतये स्वाहा- और इन्द्राय स्वाहा- के रूप में आहुति देकर सृष्टि में इन शक्तियों को सामर्थ्यवान् बनाया जाता है, यज्ञ प्रातःकाल एवं सायंकाल करना चाहिए सृष्टि में अग्नि और सोम का उद्गम तथा उनकी परस्पर में आहुतियां प्रातःकाल सूर्योदय होने पर प्रारम्भ होने लगती है जिससे प्रजापति एवं इन्द्र शक्ति सामर्थ्य का वर्धन होता है। वही क्रम सायंकाल भी होता है। जब सृष्टि में प्रकृति का यह यज्ञ प्रारम्भ हो तो हमें भी अपना यज्ञ सूर्योदय एवं सूर्यास्त समय में करना चाहिए। अहोरात्र की सन्धियों में किया गया यज्ञ अहोरात्र में व्याप्त हो जाता है। यज्ञ की २४ आहुतियों का काल से साम्य यज्ञ में २४ आहुतियां हैं। काल भी अहोरात्र रूप से २४ घण्टों के रूप में विभक्त है। २४ घण्टों का अहोरात्र का काल है। प्राचीन ज्योतिष शास्त्र की दृष्टि से ६० घटिका (घड़ी) का अहोरात्र होता है। जिससे एक घड़ी २४ मिनट की हो जाती है। इस प्रकार दैनिक यज्ञ का सम्बन्ध जहां सृष्टि के तत्वों से है वहां साथ ही अहोरात्र के काल से भी है। इस प्रकार काल सृष्टि से भी यज्ञ गायत्री स्वरूप में स्थित है। अष्टम क्रिया प्रातःकालीन होम को ४ आहुतियां इस प्रकार से यज्ञ पृथिवी के अन्तरिक्ष को क्रियाशील करता हुआ द्यु लोकस्थ अग्नि अर्थात् सूर्य से सम्बन्ध स्थापित करता है जिससे अग्नि में दी गई आहुतियां सूर्यमण्डल में पहुंचती हैं। उस समय सूर्यो ज्योतिर्ज्योति सूर्य: स्वाहा- आदि मन्त्रों से ४ आहुतियां दी जाती हैं। नवम क्रिया ४ व्याहृति आहुतियां सूर्य मण्डल को प्राप्त आहुतियों से इस त्रिलोकी में बस भू:, भुवः, स्व: लोकों में अग्नि, वायु और आदित्य से प्राण, अपान और व्यान प्रवाह गति करता है। अतः भूरग्नये प्राणाय स्वाहा- आदि ४ मन्त्रों की आहुतियों का विधान किया गया है। इस प्रकार सृष्टिक्रिया विज्ञान रहस्य की प्रक्रिया के बोध के लिए यज्ञ का अनुष्ठान समादरणीय प्रतीत होने लगता है। दशम क्रिया आपो ज्योति० मन्त्र से आहुति यज्ञ की पूर्वोक्त प्रक्रिया अब हमें परम लक्ष्य की ओर भी ले जाती है। सृष्टि में जो यज्ञ चल रहा है उसका संचालक परब्रह्म ओ३म् ही है। जल और अग्नि (तेज ज्योति) ही इस विश्व में प्रधान रूप से कार्य कर रहे हैं। वृक्ष, वनस्पति, अन्न, फलादि में इन दोनों के कारण रस उत्पन्न हो रहा है। अर्थात् आपो ज्योति रस: यह क्रम चल रहा है और उस रस में- अमृतं- जीवन विद्यमान है। अतः मन्त्र- आपो ज्योति रसो अमृतम् इस क्रम से अमृत के सञ्चार करने वाले जीवनदाता- ब्रह्म की ओर बढ़ने को कहता है। वही सर्वाधार, सर्वव्यापक, सब सुखों का दाता, सब दुःख हर्त्ता, सर्वरक्षक भू:, भुवः, स्व: इन तीनों लोकों में ऋग्यजु: साम में व्याप्त ओ३म् परम लक्ष्य है। उसे प्राप्त करने के लिए ओ३म्- आपो ज्योति रसो अमृतं ब्रह्म भूर्भुवः स्वरोम् स्वाहा- मन्त्र से आहुति का विधान किया है। यह यज्ञ प्रक्रिया सृष्टि विज्ञान के माध्यम से अन्ततोगत्वा परब्रह्म तक हमें ले जाती है। आध्यात्म पक्ष में आप: ही श्रद्धा है उससे उत्तरोत्तर सूक्ष्मता प्रकाश आनन्द अमृत, (मोक्ष सुख) ब्रह्म की प्राप्ति, ब्रह्म के भूर्भुवः स्व: भर्ग की प्राप्ति होती है। जिससे जीवन उन्नत होता है। ग्यारहवीं क्रिया ३ याचनायें प्रभु से इस सम्पूर्ण यज्ञ की क्रिया के करने के उपरान्त ३ मन्त्रों से निम्म याचनायें की गई हैं- (१) यां मेधां देवगणा:- इस मन्त्र में मेधावी करने की याचना। (२) विश्वानि देव- इस मन्त्र से सर्व दुःखादि दूर और कल्याणकारक गुण, कर्म, स्वभाव की प्राप्ति की याचना। (३) अग्ने नय सुपथा राये- इस मन्त्र से ऐश्वर्य युक्त सुपथ की प्राप्ति की निष्पाप जीवन करने की याचना है जिससे परमात्मा की उपासना, यज्ञादि शुभकर्मों में बार-बार प्रवृत्ति होती रहे। अतः उपरोक्त तीन मन्त्रों से आहुति का विधान यज्ञ में किया गया है। बारहवीं क्रिया- पूर्णाहुति यज्ञ की यह सौरभ सर्वत्र व्याप्त हो- सभी को इसका शुभ लाभ परमात्मा प्रदान करें और अपना शुभ आशीर्वाद प्रदान करें अतः ओ३म् सर्वं वै पूर्णं स्वाहा। मन्त्र को तीन बार बोलते हुए तीन आहुतियां प्रदान की जाती हैं। ओ३म् भूर्भुवः स्व: कहकर जिस यज्ञाग्नि को प्रदीप्त किया था जो तीन प्रकार की हैं तीनों लोकों में व्याप्त है उसी के लिए अन्त में पुनः आहुतियों से यज्ञ क्रिया पूर्ण ही जाती है। यज्ञ महाविज्ञान है। इस दृष्टि से देखने पर यज्ञ सृष्टि विज्ञान, प्रकृति विज्ञान, मनोविज्ञान, आध्यात्म विज्ञान, स्वास्थ्य विज्ञान, वायुमण्डल शोधन विज्ञान आदि अनेक विद्या विज्ञानों से ओत-प्रोत है। अतः यज्ञ महाविज्ञान् है। इस संक्षिप्त लेख में इसका कुछ लाभ प्रदर्शित किया है आशा है पाठकगण इस यज्ञ कार्य में रुचि-ग्रहण कर यज्ञ को अपनायेंगे।
डा. ज्वलन्तकुमार शास्त्री एवं आचार्य आशीर्ष दर्शनाचार्य
20-09-2021
======== आर्यसमाज के दो शीर्ष वैदिक धर्म प्रचारक विद्वान। यह चित्र हमने वैदिक साधन आश्रम तपोवन देहरादून में दिनांक 25-11-2017 को लिया था। डा. ज्वलन्त कुमार शास्त्री जी आर्यसमाज धामावाला देहरादून में वेद प्रवचनों के लिए आमंत्रित किए गये थे। इस अवसर पर एक दिन हम उन्हें अपने स्कूटर एक्टिवा पर वैदिक साधन आश्रम तपोवन ले गये थे। वहां उनकी भेंट आचार्य आशीष दर्शनाचार्य जी से हुई थी और परस्पर विचारों का आदान प्रदान हुआ था। यह चित्र उसी अवसर पर लिया गया था। आज इस पुरानी स्मृति को साझा करने की इच्छा हुई। हम ईश्वर से इन दोंनो विद्वानों के स्वस्थ एवं दीर्घ जीवन की कामना करते हैं। -मनमोहन आर्य... Vedic Vichar... Arya Samaj
आज का चिन्तन
15-09-2021
जीवन में कभी किसी का बुरा ना करें । क्योंकि प्रकृति का नियम है कि हम जो भी करेंगे , उसे वह हमको इस जन्म में या अगले जन्म में सौ गुना वापिस करके देगी । यदि हमने किसी को एक रुपया दिया है तो समझो हमारे खाते में सौ रुपये जमा हो गये हैं । यदि हमने किसी का एक रुपया छीना है तो समझो हमारी जमा राशि से सौ रुपये निकल गये । ज़रा सोचिये , "हम कौन सा धन साथ लेकर आये थे और कितना साथ लेकर जाऐंगे ? जो चले गये , वो कितना सोना - चाँदी साथ ले गये ? मरने पर जो सोना - चाँदी , धन - दौलत बैंक में पड़ा रह गया , समझो वो व्यर्थ ही कमाया । औलाद अगर अच्छी और लायक है तो उसके लिए कुछ भी छोड़कर जाने की जरुरत नहीं है , खुद ही खा - कमा लेगी और औलाद अगर बिगड़ी या नालायक है तो उसके लिए जितना मर्ज़ी धन छोड़कर जाओ , वह चंद दिनों में सब बरबाद करके ही चैन लेगी ।" मैं , मेरा , तेरा और सारा धन यहीं का यहीं धरा रह जायेगा , कुछ भी साथ नहीं जायेगा । साथ यदि कुछ जायेगा भी तो सिर्फ *नेकियाँ* ही साथ जायेंगी । इसलिए जितना हो सके *नेकी* करें *सत्कर्म* करें । आचार्य धर्मराज. . ..... ............ Vedic Vichar
दंडी स्वामी विरजानन्द सरस्वती का निर्वाण
15-09-2021
दंडी स्वामी विरजानन्द सरस्वती का निर्वाण 14 सितम्बर 1868 को मथुरा में हुआ था। उनके देहावसान का समाचार सुनकर प्रिय शिष्य दयानन्द ने कहा था आज 'व्याकरण का सूर्य अस्त हो गया'। यह एक शिष्य की अपने गुरु के प्रति सच्ची भावना थी। मूलशंकर से लेकर महर्षि दयानन्द बनने तक का सफर इस महान गुरु की ही देन है। बहुत से स्थानों में भ्रमण करते हुए कतिपय आचार्यों से शिक्षा प्राप्त करते हुए मूलशंकर मथुरा में वेदों के प्रकाण्ड विद्वान् प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द की कुटिया के बाहर खड़ा है। साथ मे किताबों का बोझ। अन्दर से आवाज आती है-कौन है? बाहर से उत्तर था-मैं कौन हूँ, यही तो जानने आया हूँ। अंदर से आवाज आई - किसलिए? उधर से आवाज आई- ज्ञान अर्जन के लिए। दरवाजा खुल गया। सामने 81 वर्षीय चक्षुहीन प्रज्ञा पुरुष विरजानन्द को देखकर आगन्तुक उनके चरणों में झुक गया। प्रश्न-- तुमने अब तक क्या पढ़ा है? फिर आदेश मिलता है-यदि इन मनुष्य कृत ग्रंथों को पढ़ा है तो उस विद्या को भूल कर पहले इन ग्रंथों को पानी में बहा दो। युवक तुरन्त बिना किसी हिचक के उन आदेश का पालन करता है। प्रज्ञाचक्षु संपन्न गुरु ने ऐसे जिज्ञासु साधक को अन्दर बुला लिया। युवक को गले से लगाकर कहा, 'मुझे तुम्हारा ही तो इंतजार था।' मूलशंकर नाम का यह युवक कोई और नहीं, बल्कि दयानंद जी थे, जिन्होंने आर्य समाज जैसी क्रांतिकारी संस्था की स्थापना की। गुरु ने उनकी हर तरह से परीक्षा ली। स्वामी विरजानन्द उच्च कोटि के विद्वान थे, उन्होंने वेद मंत्रों को नई दृष्टि से देखा था और वेदों को एक नवीन व्यवस्था प्रदान की थी। उन्होंने दयानन्द जी को वेद शास्त्रों का अभ्यास कराया। वेद की शिक्षा दे चुकने के बाद उन्होंने इन शब्दों के साथ दयानन्द को छुट्टी दी "मैं चाहता हूँ कि तुम संसार में जाओं और मनुष्यों में ज्ञान की ज्योति फैलाओ।" शिष्य दयानन्द की शिक्षा पूरी होने पर गुरु विरजानन्द ने शिष्य से गुरु दक्षिणा मांगते हुए निर्देश दिया कि समाज में व्याप्त अनाचार, कुरीतियों, धर्म के नाम पर छाये आडम्बरों को मिटाने अकेले निकल जाओ। गुरु की शक्ति लेकर शिष्य चल पड़ा और अपने गुरु को दिये वचन के अनुसार अपना सपूर्ण जीवन संस्कृति के सरंक्षण और भारत माता के उत्थान में लगा दिया। धीरे-धीरे दयानन्द सारे समाज पर छा गए। स्वामी विरजानंद से ज्ञान प्राप्त करने के बाद महर्षि दयानन्द ने समाज में फैली सामाजिक कुरीतियों और अंधविश्वासों के प्रति लोगों को जागृत करने के लिए एक महा अभियान आरम्भ किया। उन्होंने जन्म के आधार पर जाति व्यवस्था का विरोध करते हुए कर्म के आधार पर जाति व्यवस्था बनाने पर जोर दिया। दलितोद्धार, स्त्रियों की शिक्षा, बाल विवाह निषेध, सती प्रथा और विधवा विवाह को लेकर समाज में क्रांति पैदा की। अहिन्दी भाषी होते हुए भी स्वामी जी हिन्दी के प्रबल समर्थक थे। उनके शब्द थे - ‘मेरी आँखें तो उस दिन को देखने के लिए तरस रहीं हैं, जब कश्मीर से कन्याकुमारी तक सब भारतीय एक भाषा को बोलने और समझने लग जायेंगे।’ हम जब भी उनके जीवन संघर्ष के बारे में गहराई से सोचते हैं तो आखों में पानी सा आ जाता है। जिनके जीवन की अंतिम इच्छा'पथिक' जी के शब्दों में-- हे आर्यों समाधी, मेरी नही बनाना मेरे तन की राख लेकर, खेतों में जा गिराना वेदों के पथ पर चलना, संसार को चलाना बन जायें पथिक ये जीवन,ऋषिवर महान जैसा देखा ना कोई ऐसा ऋषिवर महान जैसा। ✍️ मदन शर्मा / आर्यसमाज चौक प्रयाग
আজ অনুষ্ঠিত হল আমাদের সেন্টারের
15-09-2021
আজ অনুষ্ঠিত হল আমাদের সেন্টারের যোগ আবৃত্তি এবং মহাপুরুষ সেজে বানী পাঠ প্রতিযোগিতা।। ছাত্রছাত্রীরা খুবই উৎসাহের সঙ্গে অংশগ্রহণ করেছে।। কেউ সেজেছে রামকৃষ্ণ পরমহংসদেব, কেউ মা সারদা, কেউ স্বামী বিবেকানন্দ, কেউ গান্ধীজি, কেউ ভগবান শ্রীকৃষ্ণ।।। বিচারকের আসন অলংকৃত করেছিলেন বিশিষ্ট আবৃত্তি প্রশিক্ষক Belal Uddin মহাশয় , Mitul Basuroy মহাশয়া , Anupam Manna মহাশয়, Rupsadeya Mandal মহাশয়া... সাংস্কৃতিক সম্পাদিকা হিসেবে উপস্থিত ছিলেন আমাদের যোগ সেন্টারের সহ-সম্পাদিকা Anita Karan Samanta মহাশয়া।।। সমস্ত ছাত্রছাত্রীসহ সকল অভিভাবক ও অভিভাবিকাগণ খুবই আনন্দিত এমন একটি সুন্দর উপস্থাপনায়।।
वैदिक दर्शन और आधुनिक विज्ञान द्वारा तत्त्व-मीमांसा
15-09-2021
----------------------- - स्वामी (डॉ०) सत्यप्रकाश सरस्वती महर्षि दयानन्द ने आर्य मन्तव्यों के निर्धारण में जिन आर्ष ग्रन्थों को प्रामाणिक और पठनीय माना, उनमें वेदांगों और उपांगों को विशेष स्थान दिया है। वेदांग हमारे वे ग्रन्थ हैं जो वेदार्थ समझने में हमारी मौलिक सहायता करते हैं, जैसे - शिक्षा, व्याकरण, छन्द, कल्प, ज्योतिष और निरुक्त। ये 6 वेदांग किसी विशेष ग्रन्थ के नाम नहीं हैं। हमारे वाङ्मय के इतिहास में आचार्यों ने इन सब पर समय-समय पर मूल्यवान् ग्रन्थ लिखे हैं, जिनमें पाणिनि की शिक्षा और अष्टाध्यायी, पिंगल का छन्दशास्त्र, लगध का वेदांग ज्योतिष, यास्क का निरुक्त और कल्प-सम्बन्धी श्रौतसूत्र, गृह्यसूत्र आदि हैं (मेरे निजी विचार में रसायन, शिल्प आदि शास्त्र भी एक प्रकार से कल्प हैं - यज्ञेन कल्पन्ताम्)। वेदांगों के अनन्तर उपांगों की महत्ता है जिन्हें हम अपने दर्शनशास्त्र कह सकते हैं। भारतीय परम्परा में तीन वर्गों में विभक्त 6 उपांग निम्न हैं - (1) वैशेषिक और न्याय, (2) सांख्य और योग, (3) उत्तर मीमांसा अर्थात् शारीरक सूत्र (वेदान्त) और पूर्व मीमांसा। इन 6 दर्शनों के आचार्य क्रमशः कणाद मुनि, गोतम मुनि, कपिल मुनि, पतञ्जलि, बादरायण व्यास और जैमिनि हैं। इन सभी दर्शनों पर अनेक आचार्यों की वृत्तियाँ और भाष्य हैं जिनके माध्यम से विचारधाराओं का विस्तार सूक्ष्मता से किया गया है। ऋषि दयानन्द ने स्पष्ट अन्ध-गज न्याय का संकेत करके यह स्पष्ट कहा है कि इन उपांग या दर्शनग्रन्थों में कोई विरोध नहीं है, और ये सभी वेद के तत्त्वज्ञान को अपने-अपने क्षेत्रों में व्यक्त करते हैं। इन दर्शन-ग्रन्थों पर हमारे आचार्यो ने भी तर्कसम्मत भाष्य किये हैं। ऋषि दयानन्द के लेख के अनुसार - “पूर्व-मीमांसा पर व्यासमुनिकृत व्याख्या, वैशेषिक पर गोतममुनिकृत, न्यायसृत्र पर वात्स्यायनमुनिकृत भाष्य, पतञ्जलिकृत सूत्र पर व्यासमुनिकृत भाष्य, कपिलमुनिकृत सांख्यसूत्र पर भागुरिमुनिभाष्य, व्यासमुनिकृत वेदान्तसूत्र पर वात्स्यायनमुनिकृत भाष्य, अथवा बौधायनमुनिकृत भाष्य वृत्ति-सहित पढ़ें-पढ़ावें ।” ऋषि दयानन्द ने जिन भाष्यों का उल्लेख किया है, वे सब इस समय उपलब्ध नहीं हैं। आर्य जनता स्वामी दर्शनानन्दजी के सांख्य और वैशेषिक-भाष्यों से परिचित है। स्वामी दयानन्द को अपने जीवन में दर्शनों के भाष्य करने का अवसर न मिला; किन्तु उन्होंने विशेष बात यह घोषित की कि सांख्यदर्शन नास्तिकता का प्रतिपादक नहीं है। कपिलजी की ईश्वर और वेद के सम्बन्ध में वैसी ही आस्था है, जैसी अन्य दर्शनों के आचार्यो की ! वर्तमान युग में भौतिक विज्ञान और रसायनशास्त्रों ने प्रकृति और द्रव्य के नवीनतम रहस्यों का जो उद्घाटन किया है, वह अपने वैचित्र्य के लिए प्रसिद्ध है। उन्नीसवीं शती के अन्त में ऊर्जा, द्रव्य, गति, आवेग, चर (momentum) आदि के सम्बन्ध में जो कल्पनाएँ थीं, वे बीसवीं शती के वर्तमान दशकों में पूर्णतया बदल गई हैं - डाल्टन, न्यूटन, जे० जे० टामसन, जी० पी० टामसन, क्यूरी, रुदरफोर्ड, ऐस्टन, फर्मी, चैडविक, डिराक, मैक्सप्लांक, श्रौडिंजर, हाइजनवर्ग (Dalton, Newton, JJ Thomson, GP Thomson, Curie, Rutherford, Aston, Fermi, Dirac, Chadwick, Max Planck, Schrodinger, Heisenberg) आदि अनेक भौतिकी और रसायनशास्त्र, एवं सांख्यिकी के आधुनिक अनुशीलकों ने द्रव्य, ऊर्जा और उनके रूपान्तरों एवं पारस्परिक सम्बन्धों के क्षेत्रों में प्रायोगिक एवं सैद्धान्तिक कल्पनाएँ प्रस्तुत की हैं। दर्शनशास्त्रों पर आचार्य उदयवीर जी ने गहन अध्ययन किया है। सांख्यदर्शन के इतिहास पर तो उनका अद्वितीय अध्ययन रहा है, वे इस दर्शन के निर्विवाद मूर्धन्य विद्वान् हैं। उनके वैशेषिक और सांख्यदर्शनों के विद्योदय-भाष्यों में यह प्रयास किया गया है कि कपिल और कणाद मुनियों के तत्त्व-विज्ञानों का आज के वैज्ञानिक विचारों के साथ समन्वय किया जाए। यह कार्य कोई सरल नहीं है। रसायनशास्त्र में पंचमहाभूत अथवा वैशेषिक के नव द्रव्यों के स्थान पर तत्त्वों की संख्या 106 या 110 के निकट तक पहुँच गई है, जिनमें से यूरेनियम (92वाँ तत्त्व) से आगे के समस्त तत्त्व, जिन्हें हम ट्रांस-यूरेनियम तत्त्व कहते हैं, वे सभी कृत्रिम तत्त्व हैं जिनको वर्तमान विज्ञानवेत्ताओं ने प्रयोगशाला में स्वयं निर्मित किया है। इनकी जीवन-अवधि भी बहुत थोड़ी ही है। नेप्ट्यूनियम और प्लूटिनियम को छोड़कर ये तत्त्व प्रकृति में स्वत: नहीं पाए जाते हैं। वैशेषिक विचारधारा के ही परमाचार्य प्रशस्तपाद ने एकाणुक, द्वैणुक, त्रश्वैणुक आदि की कल्पना प्रस्तुत की, जिसके आधार पर संसार महर्षि कणाद को अणुसिद्धान्त का जन्मदाता स्वीकार करता है। किन्तु बॉयल और डॉल्टन के बाद परमाणु और अणु के भेद समझने का प्रयास रसायनज्ञों ने किया। एक अणु में केवल एक परमाणु भी हो सकता है, जैसे कि हिलियम, आर्गन आदि। इसी प्रकार तत्त्व के अणु में दो भी परमाणु हो सकते हैं और इससे अधिक भी। बाद को मोसली (Mosely) आदि रासायनिक वैज्ञानिकों ने परमाणु-संख्या की कल्पना प्रस्तुत की जिससे स्पष्ट हुआ कि हाइड्रोजन से लेकर यूरेनियम तत्त्व तक तत्त्वों की संख्या केवल 92 है। वैज्ञानिक विचारों की प्रामाणिकता, उपादेयता आदि का मूल्यांकन करने के लिए ऐतिहासिक दृष्टिकोण की आवश्यकता है। न कपिल या कणाद पूर्णज्ञ थे और न आज के वैज्ञानिक पूर्णज्ञ हैं। कणाद और कपिल का अपने युगों में वही विशिष्ट स्थान था जो आज के युग में वैज्ञानिकों का है। पू्र्व समय में यदि वे न होते तो हम विज्ञान की वर्तमान स्थिति तक भी न पहुँच सकते। हमें प्रसन्नता है कि आचार्य उदयवीर जी ने अपने सांख्य और वैशेषिक भाष्यों में प्राचीनतम से लेकर नूतनतम विचारधाराओं से हमें परिचित कराया है। निश्चय है कि इन उपांग दर्शनों के आचार्यों में उदयवीर जी का श्रेष्ठ स्थान है और हमें गर्व है कि वे अपनी वर्तमान दीर्घ आयु में अभी तक हमारे बीच में विद्यमान हैं। 95 वर्ष से अधिक के इस आचार्य के प्रति हमारी अनेकानेक वन्दना है। प्रसन्नता की बात है आर्य-संसार के प्रसिद्ध प्रकाशक श्री गोविन्दराम हासानन्द (दिल्ली) आचार्य श्री उदयवीर जी के दर्शनों के प्रकाशन की व्यवस्था कर रहे हैं। [स्रोत : पण्डित उदयवीर शास्त्री कृत वैशेषिक दर्शन के भाष्य की स्वामी सत्यप्रकाश सरस्वती लिखित “प्रस्तावना”, प्रस्तुतकर्ता : भावेश मेरजा]
आज भारत में हिन्दी दिवस है ॥
15-09-2021
हिन्दी दिवस ॥ मैंने कभी किसी अंग्रेजी भाषी देश में अंग्रेजी के लिए अलग दिवस के बारे में नहीं सुना, लेकिन मैं भारत में हिन्दी दिवस के बारे में सुनता हूँ - हिन्दी पर ध्यान केंद्रित करने के लिए अलग रखा गया दिन। यह तथ्य की बात है कि भारत का असाधारण इतिहास है । इस इतिहास में यह पाया जाता है कि भारत की भूमि और संस्कृति पर बाहरी राष्ट्रों का आक्रमण हुआ एवं भारतीय भाषाओं के साथ समझौता किया गया । मैं यह स्वीकार करने को तैयार हूँ कि हिन्दी दिवस नामक एक दिन होना आवश्यक हो सकता है और इसलिए आज के दिन मैं हम सभी को इस प्रकार प्रतिज्ञा लेने के लिए प्रोत्साहित कर रहा हूँ कि हिन्दी बोलते समय मैं आधी हिन्दी और आधी अंग्रेजी का मिश्रण नहीं करूँगा - मैं अंग्रेजी वाक्यांशों को हिन्दी वाक्यांशों के साथ नहीं मिलाऊंगा। मैं हिन्दी शब्दावली के साथ हिन्दी ही बोलूँगा । यदि आप इस नैतिकता का पालन करने के इच्छुक हैं, तो आप वास्तव में भारत और हिंदी का सम्मान कर रहे हैं , अन्यथा नहीं। मैंने इस विज्ञापन को अंग्रेजी में भी प्रस्तुत किया है । हिन्दी के लिए गहरे प्रेम के साथ - *डॉ सतीश प्रकाश - न्यूयॉर्क ( अमेरिका )* ।
वेद विचार
15-09-2021
वेद विचार ====== जीवात्मा शरीर का वहनकर्ता है। वह जीवात्मा ज्ञान, विचार तथा जिह्वा के कंठ, तालु आदि के संयोग से जन्य शब्द रुप में विद्यमान त्रिविध वाणियों को प्रकट करता है। वही जीवात्मा सत्य के धारण और उपार्जित ज्ञान के मनन को करता है। मन सहित शरीर की पांचों ज्ञानेंद्रियां मानो कर्तव्य अकर्तव्य को पूछती हुई इंद्रियों के स्वामी आत्मा के पास पहुंचती हैं। मनुष्य की बुद्धि सत्य कर्तव्यों का निश्चय करने में साधन बनना चाहती हुई ज्ञाता आत्मा के पास पहुंच रही हैं। ऐसा होने पर जीवात्मा सत्य कर्तव्यों सहित परमात्मा के स्वरूप को भी जान लेता है। ************************************ Dr. Yajnya Dutta Nayak, Khallikote Auto. College, Berhampur, Odisha
मृत्यु भोज खाने से ऊर्जा नष्ट होती है
15-09-2021
ओ३म् ===================== जिस परिवार में विपदा आई हो उसके साथ संकट की घड़ी मे जरूर खडे़ हो और तन,मन,और घन से सहयोग करे पर मृतक भोज का बहिष्कार करें ! महाभारत युद्ध होने का था, अतः श्री कृष्ण ने दुर्योधन के घर जा कर युद्ध न करने के लिए संधि करने का आग्रह किया, तो दुर्योधन द्वारा आग्रह ठुकराए जाने पर श्री कृष्ण को कष्ट हुआ और वह चल पड़े, तो दुर्योधन द्वारा श्री कृष्ण से भोजन करने के आग्रह पर कहा कि --- ’’सम्प्रीति भोज्यानि आपदा भोज्यानि वा पुनैः’’ हे दुयोंधन - जब खिलाने वाले का मन प्रसन्न हो, खाने वाले का मन प्रसन्न हो, तभी भोजन करना चाहिए ! लेकिन जब खिलाने वाले एवं खाने वालों के दिल में दर्द हो, वेदना हो। तो ऐसी स्थिति में कदापि भोजन नहीं करना चाहिए ! हिन्दू धर्म में मुख्य 16 संस्कार बनाए गए है, जिसमें प्रथम संस्कार गर्भाधान एवं अन्तिम तथा 16 वाँ संस्कार अन्त्येष्टि है। इस प्रकार जब सत्रहवाँ संस्कार बनाया ही नहीं गया तो सत्रहवाँ संस्कार तेरहवीं संस्कार कहाँ से आ टपका ! इससे साबित होता है कि तेरहवी संस्कार समाज के चन्द चालाक लोगों के दिमाग की उपज है ! किसी भी धर्म ग्रन्थ में मृत्युभोज का विधान नहीं है। बल्कि महाभारत के अनुशासन पर्व में लिखा है कि मृत्युभोज खाने वाले की ऊर्जा नष्ट हो जाती है। लेकिन जिसने जीवन पर्यन्त मृत्युभोज खाया हो, उसका तो ईश्वर ही मालिक है। इसी लिए महर्षि दयानन्द सरस्वती ने मृत्युभोज का जोरदार ढंग से विरोध किया है ! जिस भोजन बनाने का कृत्य जैसे लकड़ी फाड़ी जाती तो रोकर, आटा गूँथा जाता तो रोकर एवं पूड़ी बनाई जाती है तो रोकर यानि हर कृत्य आँसुओं से भीगा। ऐसे आँसुओं से भीगे निकृष्ट भोजन एवं तेरहवीं भेाज का पूर्ण रूपेण बहिष्कार कर समाज को एक सही दिशा दें! जानवरों से सीखें :--- जिसका साथी बिछुड़ जाने पर वह उस दिन चारा नहीं खाता है। जबकि 84 लाख योनियों में श्रेष्ठ मानव, जवान आदमी की मृत्यु पर हलुवा पूड़ी खाकर शोक मनाने का ढ़ोंग रचता है। इससे बढ़कर निन्दनीय कृत्य कोई दूसरा नहीं हो सकता ! Vedic Vichar... Vedic culture..... Vedic literature .... Vedic Darshan.... Vedic Family ........ Vedic Spirituality ..... Vedic Education .........
Vedic Vichar
15-09-2021
अपने आत्मा की पवित्रता विद्या के अनुकूल अर्थात जैसा अपने को सुख प्रिय और दुःख अप्रिय है वैसे ही सर्वत्र समझ लेना चाहिए कि मैं भी किसी को दुःख या सुख दूँगा तो वह भी अप्रसन्न व प्रसन्न होगा। ................................... Dr. Yajnya Dutta Nayak, ............... Vedic Vichar
Vedic Vichar
11-09-2021
एक शिष्य एक आदर्श गुरु की तलाश में भटकता-भटकता रात के २:०० बजे एक गुरु के द्वार पर पहुंचा। उसने द्वार पर दस्तक दी, दरवाजा खटखटाया। अन्दर से आवाज आई, "कोऽसि अर्थात कौन हो ?" शिष्य बोला, "न जानामि"। मैं नहीं जानता कि मैं कौन हूं ? अन्दर लेटे गुरु ने समझ लिया कि यही सच्चा शिष्य है। मेरे लायक यही है। मुझे इसे बुला लेना चाहिए ! रात को २:०० बजे गुरु ने दरवाजा खोला और शिष्य को अन्दर बुला लिया ! शिष्य के सिर पर एक काफी बड़ी पुस्तकों की गठरी थी। गुरु ने कहा, "यह क्या है ?" शिष्य बोला, "गुरुजी यह कुछ पुस्तके हैं जो मैंने अब तक पढ़ी हैं ।" तो गुरु ने कहा, "जब आपने इतनी पुस्तकें पढ़ ली हैं तो मेरे पास क्यों आए हो ?" शिष्य बोला ! "गुरुजी अभी मन को शान्ति नहीं मिली ! इसलिए आपसे और अध्ययन करने आया हूं ।" तो गुरुजी ने कहा", "यदि मुझ से पढ़ना चाहते हो तो इन सारी पुस्तकों को पहले यमुना में बहा आओ।" वह तत्काल वहां से चला गया। वह यमुना के तट पर गया और उसने अपनी पुस्तकों से भरी पूरी गठरी यमुना में फेंक दी और वह वहां से लौट कर गुरु के पास वापस आकर गुरु के चरणों में बैठ गया। गुरु ने उसको अपने गले से लगा लिया गुरु बोले, "प्रभु तेरा कोटि-कोटि धन्यवाद। जो शिष्य मुझे चाहिए था वह मुझे मिल गया ।" गुरु ने तीन वर्ष तक शिष्य को संस्कृत व्याकरण की सारी की सारी पुस्तकें पढ़ाईं। अपना पूरा का पूरा ज्ञान शिष्य के मस्तिष्क में उडेल दिया। तीन वर्ष बाद जब शिष्य की शिक्षा पूरी हो गई तब उसने सोचा कि अब मैं यहां से जाऊं किन्तु जाने से पहले गुरु को गुरु दक्षिणा तो देनी होती है ! उसने सोचा कि मैं गुरु को क्या गुरु दक्षिणा दूँ ? शिष्य ने काफी परिश्रम करके एक सेर लौंग एकत्रित की। उस एक सेर लौंग को लेकर वह गुरु के पास पहुंचा। उसने कहा - "गुरु जी यह आपकी गुरु दक्षिणा है।" गुरु की आंखों में आंसू आ गए। "गुरु ने कहा" -- "ऐ शिष्य मेरी इतने मेहनत की इतनी सी गुरु दक्षिणा ? यह तो मुझे स्वीकार नहीं है ! शिष्य रुआंसा हो गया बोला ! "गुरुजी ! मेरे पास तो और कुछ नहीं है ! जो कुछ मैं एकत्र कर सकता था यही एकत्र कर पाया ! मेरे पास इसके अलावा मेरे पास सिर्फ मेरा यह शरीर है। इसे ले लीजिए !" यह कहकर शिष्य की आंखों से आंसू टपकने लगे ! गुरु ने कहा - "ऐ शिष्य मुझे यही चाहिए ! मुझे तुम्हारा पूरा का पूरा जीवन चाहिए ! देखो ! आज भारत विदेशी दासता की बेड़ियों में जकड़ा हुआ है ! अंग्रेजों के द्वारा यहां की जनता बुरी तरह पददलित है ! भारतवर्ष को अंग्रेजी दासता से मुक्ति दिलाओ। यहां की जनता में अज्ञान का अंधकार फैला हुआ है। भांति-भांति के अंधविश्वासों ने प्रगति के रास्ते को रोका हुआ है। जाओ और अपने तर्कों से, अपने ज्ञान से भारत देश की जनता के अज्ञान के अन्धकार को मिटाओ। शिष्य ने कहा -"गुरु जी ऐसा ही होगा। मैं अपना पूरा जीवन इस देश की जनता की सेवा में लगाऊँगा। अज्ञानता के अंधकार को उखाड़ फेंकूँगा। और इस देश को ऐसा सत्य ज्ञान दूंगा जिसे प्राप्त कर ऐसे शूरवीर पैदा होंगे जो इस देश से अंग्रेजों को बाहर निकाल सकेंगे। गुरु जी आप के आदेश का मैं पूरा पालन करूंगा ! पूरे जीवन भर पालन करूंगा ! यह कहकर शिष्य ने गुरु से भरी आँखों से विदा ली और अपना पूरा जीवन अपनी प्रतिज्ञा के पालन में लगाया ! आप पूछेंगे कि यह शिष्य और यह गुरु कौन थे ? मित्रो! यह शिष्य थे स्वामी दयानन्द सरस्वती और यह गुरु थे प्रज्ञा चक्षु स्वामी विरजानन्द सरस्वती । स्वामी विरजानन्द ने स्वामी दयानन्द को वह ज्ञान दिया जिससे उनके ज्ञान चक्षु खुल गए ! उन्हें सत्य और असत्य का बोध हो गया ! अच्छे और बुरे का ज्ञान हो गया ! अपने और पराए का ज्ञान हो गया ! विदेशी और स्वदेशी के महत्व का ज्ञान हो गया ! इसके आधार पर उन्होंने अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ाई लड़ी ! प्रत्यक्ष रूप में उन्होंने यह लड़ाई नहीं लड़ी क्योंकि वह जानते थे कि यदि प्रत्यक्ष रूप में लड़ाई लड़ेंगे तो उनको पकड़ लिया जाएगा और उनका समाज सुधार का कार्य अधूरा रह जाएगा ! उन्होंने समस्त विश्व का पथ-प्रदर्शन करने वाली सत्यार्थ प्रकाश नामक एक अत्यन्त महत्वपूर्ण पुस्तक लिखी ! सत्यार्थ प्रकाश में उन्होंने लिखा कि विदेशी राजा चाहे कितना ही न्यायप्रिय, कितना ही सत्यनिष्ठ क्यों न हो किन्तु ! स्वदेशी राजा सदा विदेशी राजा से अच्छा होता है । सत्यार्थ प्रकाश से प्रेरणा लेकर असंख्य नौजवानों ने देश के लिए मर मिटने की कसम खाई ! इनमें थे पंजाब केसरी लाला लाजपतराय, शहीदे आजम सरदार भगत सिंह, अमर शहीद राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खान, चंद्रशेखर आजाद और ऐसे ही असंख्य नौजवान ! इन सब ने स्वतंत्रता की बलिवेदी पर हंसते-हंसते अपने प्राणों की आहुति दे दी ! मैं आपको बता दूं कि लगभग सात लाख (7,00,000) देशभक्त शूरवीरों ने अपने प्राणों की आहुति अपने देश को आजाद कराने के लिए दी ! उन में से 85 प्रतिशत से अधिक स्वामी दयानन्द सरस्वती के विचारों से प्रभावित थे या कहें कि स्वामी दयानन्द के शिष्य थे, धन्यवाद ! उस महान गुरु स्वामी विरजानन्द का और धन्यवाद ! उस श्रेष्ठतम शिष्य विश्व गुरु स्वामी दयानन्द का ! *********************************************** Dr. Yajnya Dutta Nayak, Khallikote Unitary University
May we always get such strength and strength in our life by your grace and inspiration
11-09-2021
Through the above Veda mantra, we wish God to live a hundred autumn everyday, that is, at least one hundred years of holy life! Just like the Sun gods always do clean, pure, sacred, welfare work for the welfare of the world, we should also see holy with our eyes for hundred years, listen holy for hundred years, speak holy for hundred years. Every type From living life with holiness we pray to live healthy and holy life by strong knowledgeable people and centers without dependent on anyone! Life to live is also lived by a bad, patient, addictive, violent, corrupt, miserable, greedy and sinful person, this is not living! One thing has special importance here, 'God' is sacred. We also live life, so live a holy, pure life, live a religious life, live a altruistic life, live a good life, live a happy life without disease! Oh my God! May we always get such strength and strength in our life by your grace and inspiration! *********************************************** Dr. Yajnya Dutta Nayak, Khallikote Unitary University
न्यायात् पथः प्रविचलन्ति पदं न धीरा:
11-09-2021
महर्षि दयानन्द ने अपने ५९ साल के अल्पकालीन जीवन में धर्म की उन्नती के लिए बहुत बड़ा कार्य कर दिखाया। उनमें कार्य करने की अद्भुत क्षमता थी। असीम शक्ति थी। वे निडर और साहसी थे। कर्मठ थे। कार्य करते हुए थकते नहीं थे। अपने लक्ष्य की ओर बिना रुके बढ़े जाते थे। अपने पथ से विचलित हुए बिना लगातार अपने लक्ष्य पथ पर बढ़ते रहने की शक्ति का स्रोत उनके हृदय में निरन्तर बहता रहता था। ऐसी शक्ति उन्होंने कहाँ से प्राप्त की थी? अवश्य ही वेदों के अध्ययन द्वारा उनको यह शक्ति प्राप्त हुई थी। जैसा कि सभी जानते हैं महर्षि दयानन्द वेदों के अप्रतिम विद्वान थे। उन्होंने विधिवत् वेद का अध्ययन किया था। उनका पूर्ण जीवन ही वेद के अध्ययन के फल स्वरूप अद्भुत आभा से चमकता रहा। अतः वेदों के अध्ययन द्वारा उनको निश्चय ही ऐसी दृढ़ कार्य शक्ति प्राप्त हुई होगी जिसके रहते वे अपने लक्ष्य पथ पर निरंतर बढ़ते रहे। वेद के स्वाध्याय ने ही उनके हृदय में धर्मोन्नति की भावना का संचार किया था। यह तो है ही इसके साथ ही कुछ नीति वाक्य भी उनके कार्य शक्ति को अवश्य ही बल देते होंगे। पिछले दिनों एक पुस्तक देखने को मिली "महर्षि दयानन्द सरस्वती के पत्र और विज्ञापन"। इसमें महर्षि के पत्रों और विज्ञापनों का सुन्दर संकलन किया गया है। महर्षि दयानन्द के पत्रों में, एक से अधिक पत्रों में नीति का एक श्लोक मिलता है - जिसमें कर्मठ पुरुषों के बारे में अपने जीवन में निरंतर कार्य करते हुए सफलता प्राप्त करने वाले धीर पुरुषों के, महान पुरुषों के लक्षण बताए गए है। महर्षि दयानन्द अकसर अपने प्रिय जनों को धर्म पथ पर आरूढ़ रहने की प्रेरणा देते हुए उस श्लोक को उद्घृत करते थे। वह नीति वाक्य, श्लोक अवश्य ही हमारे लिए ज्ञानवर्धक और प्रेरणाप्रद होगा। श्लोक है - निन्दन्तु नीति निपुणाः यदि वास्तुवन्तु, लक्ष्मीः समा विशतु गच्छतु वा यथेष्टम्। अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा, न्यायात् पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः।। (निन्दन्तु) अर्थात् निंदा करें, (नीति निपुणाः) - नीति में चतुर लोग जो लोग व्यवहार कुशल हैं, (स्तुवन्तु) अर्थात् स्तुति करें गुण गाएं। (लक्ष्मी) अर्थात धन-दौलत रुपया पैसा, (समाविशतु) - प्राप्त हो, (लक्ष्मीः समाविशतु) - धन दौलत रुपया पैसा प्राप्त हो - कितना? (यथेष्टम्) - जितनी इच्छा हो, जितना चाहें उतना धन दौलत मिल जाए। (वा गच्छतु) - या चली जाए। या धन दौलत अपने हाथ से निकल जाए। धन की हानि हो जाए। (अद्य एव) - आज ही - (अद्यैव वा मरणमस्तु) - चाहे आज ही मरना पड़ जाए - चाहे आज ही मृत्यु हो जाए। (युगान्तरे वा) - या कई युगों के पश्चात मृत्यु हो। (न्यायात् पथः) न्याय के रास्ते से, सही रास्ते से, उचित कार्य से - (न प्रविचलन्ति) - विचलित नहीं होते हैं - नहीं हटते हैं - (पदं) - अर्थात् एक पग भी। (धीराः) अर्थात् धीर पुरुष, विद्वान पुरुष, उत्तम पुरुष, धर्म पर चलने वाले लोग। अर्थ है नीति निपुण लोग निन्दा करें या स्तुति करें, चाहे खूब अधिक धन मिल जाए या अपने पास का धन भी चला जाए, नष्ट हो जाए, चाहे आज ही मृत्यु हो जाए या कई युगों बाद मृत्यु हो, धीर पुरुष, न्याय के पथ से कभी भी, एक कदम भी विचलित नहीं होते हैं। नहीं हटते हैं। निन्दन्तु नीति निपुणाः - नीति में निपुण लोग, व्यवहार कुशल लोग, चतुर लोग क्या करते है? कार्य की सिद्धि को देखते हुए व्यवहार करते है। जिस व्यवहार से अपना पक्ष सिद्ध हो, अपना काम निकले वैसा व्यवहार करते है। उचित और अनुचित का विचार किए बिना कुछ लोग अपने स्वार्थ की सिद्धि के लिए अच्छे को बुरा और बुरे को अच्छा कहने लगते हैं। ऐसे लोग बड़ी चतुराई से सही को गलत और गलत को सही प्रमाणित कर देते हैं। साधारण लोग उनकी बातों में आ जाते हैं और उनकी गलत बातों को भी सही मानने लगते हैं। निन्दन्तु नीति निपुणाः यदि वास्तुवन्तु - चतुर लोग अपने स्वार्थ से ही किसी की स्तुति करते हैं जिससे अपने स्वार्थ पूरे न हों उसकी निन्दा करते हैं। अतः ऐसे पुरुषों की निन्दा और स्तुति, किसी का भी कोई महत्व नहीं होता हैं। जब उनका काम पड़ेगा तब स्तुति करेंगे और जब काम निकल जाएगा निन्दा करेंगे। ऐसे व्यक्ति धर्म और अधर्म का विचार नहीं करते। उचित अनुचित का विचार नहीं करते। केवल अपने स्वार्थ का विचार करते है। अतः ऐसे स्वार्थी व्यक्तियों की निन्दा से घबड़ाना नहीं चाहिए और ऐसे व्यक्तियों की स्तुति का भी प्रभाव अपने पर नहीं पड़ने देना चाहिए, संयम धारण करना चाहिए। दुष्ट विचार के व्यक्ति भी अपनी ओछी विचार धारा के कारण किसी सज्जन पुरुष की निन्दा बड़ी चतुराई से करने लगते हैं। ऐसे चतुर लोग चाहे निन्दा करें चाहे गुण गाएं, स्तुति करें, न्याय पथ पर चलने वाले लोग, धर्म पर स्थिर रहने वाले लोग, उनके द्वारा निन्दा की बातें सुन कर या स्तुति गुणगान सुन कर घबड़ाते नहीं है। संयम नहीं खोते है। वे पहले की तरह ही न्याय पथ पर धर्म के रास्ते पर चलते रहते हैं। जो व्यक्ति निन्दा और स्तुति से परे हो जाता है, निन्दा और स्तुति पर ध्यान नहीं देता है, अपने कार्य अपने लक्ष्य की ओर बढ़ता जाता है - वही अपने कार्य में सफल होता है। महर्षि दयानन्द के जीवन को देखें तो वे ऐसे ही महान पुरुष थे जो निन्दा और स्तुति से उपर उठ चुके थे। कोई उनकी निन्दा करें वे दुखी नहीं होते थे। कोई उनकी प्रशंसा करें संयम नहीं खोते थे। धर्म पथ पर चले चलते थे। धर्म पथ से विचलित नहीं होते थे। महर्षि दयानन्द पूना पहुँचे। उनके प्रवचन की धूम थी। बड़े बड़े विद्वान उनके प्रवचन सुनने के लिए आते थे। अज्ञान मिट रहा था। ज्ञान का प्रकाश फैल रहा था। धर्म और जाति से प्रेम करने वाले लोग महर्षि के उपदेश से लाभान्वित होकर प्रसन्न थे। परन्तु जैसे उल्लू को दिन का प्रकाश अच्छा नहीं लगता है, चोर को पूनम की रात अच्छी नहीं लगती है उसी प्रकार दुष्ट लोगों को सत्य ज्ञान का उपदेश अच्छा नहीं लगता हैं।उनको डर लगता है कि सत्य ज्ञान के उपदेश से उनके स्वार्थ पर कुठारा घात होगा। यदि सत्य ज्ञान का प्रकाश फैल जाएगा तो लोगों को धर्म के नाम पर मूर्ख बना कर अपनी कमाई नहीं कर पाएंगे।अतः उन्होंने महर्षि को अपमानित करने की योजना बनाई। महर्षि दयानन्द बैठे थे। तभी एक भक्त दौड़ा-दौड़ा आया और बोला - स्वामी जी अनर्थ हो गया। स्वामी जी ने पूछा - क्या हुआ? वह बोला - स्वामी जी कैसे कहें कि क्या हुआ? लोग आप को बहुत अपमानित कर रहे हैं। महर्षि ने पूछा कुछ कहो तो जानें क्या कर रहे है? वह बोला - महाराज क्या बताएँ। एक व्यक्ति को स्वामी दयानन्द बना दिया गया है।उसके गले में जूतों की माला डाल दी गई है। गधे पर बैठा दिया गया है। उसे नगर में घुमा रहे हैं। चारों ओर से लोगों-बच्चों की भीड़ ताली पीटती हुई जा रही है। महाराज बड़ा अपमान हो रहा है। निन्दा और स्तुति से उपर उठे महर्षि ने स्वाभाविक सरल भाव में कहा - यह तो उचित ही है। जो व्यक्ति नकली दयानन्द बनेगा उसकी यही गति होनी चाहिए। असली दयानन्द तो यहाँ बैठा है। इसका अपमान करने की शक्ति किसी में भी नही है। जो बिना वेद पढ़े दयानन्द बनना चाहेगा उसे तो लोग अपमानित करेंगे ही। जूतों की माला डाल कर, लोग गधे पर बैठाएंगे। नगर में घुमाएंगे ही। ऐसे थे स्वामी दयानन्द सरस्वती। निन्दा का, सार्वजनिक रूप से निन्दा करने का भी उन पर लेश मात्र भी प्रभाव नहीं पड़ा। आप जानते हैं, काशी में शास्त्रार्थ हुआ। एक ओर दयानन्द अकेले, परन्तु वेदों के महान पण्डित। ऐसे विद्वान जैसा कि इधर पाँच हजार वर्षों में कोई नहीं हुआ। दूसरी ओर वैदिक ज्ञान से हीन तथिकथित पंडितों का झुण्ड। शास्त्रार्थ हुआ। वेद ज्ञान से रहित पंडितों का समूह स्वामी दयानन्द सरस्वती का सामना नहीं कर सका तो उन्होंने छल से काम लिया। अकारण ही "दयानन्द हार गया - दयानन्द हार गया" का शोर करने लगे। इस छल में काशी नरेश ने भी उनका साथ दिया।उन्होंने भी स्वामी दयानन्द के पराजय की बात कह कर शोर करने वालों का समर्थन किया। शास्त्रार्थ सभा बिखर कर समाप्त हो गई। नगर कोतवाल रघुनाथ प्रसाद सावधानी पूर्वक स्वामी दयानन्द को उस भीड़ में से निकाल ले गए। महर्षि दयानन्द पर इस पक्षपात पूर्ण व्यवहार का क्या असर पड़ा है यह देखने के लिए पंडित ईश्वरसिंह नाम के एक निर्मला साधु उनके पास गए। वे जानना चाहते थे कि इस दुखद घटना से महर्षि दयानन्द कितने दुखी हैं। परन्तु उन्होंने देखा स्वामी दयानन्द के मुख मंडल पर दुख की, विषाद की, ग्लानि की, कोई रेखा तो दूर छाया तक नहीं है। वे शान्त भाव से आसन पर विराजमान थे। तब उस साधू ने कहा - मैं अब तक आपको वेद का अद्वितीय विद्वान ही समझता था। परन्तु मुझे अब यह विश्वास हो गया कि आप वीतराग स्थितप्रज्ञ महात्मा भी हैं। काशी नरेश ने स्वामी दयानन्द को अपमानित करने में अपनी ओर से पूरा प्रयास किया। परन्तु विद्वानों, बुद्धिमानों को वास्तविकता का ज्ञान था। वे अच्छी तरह जानते थे कि दयानन्द की हार नहीं, जीत हुई है। जब महर्षि दयानन्द दूसरी बार काशी पधारे काशी नरेश ने उन्हें आमन्त्रित किया।काशी नरेश के प्रतिनिधि ने महर्षि दयानन्द से निवेदन किया - काशी नरेश आप का दर्शन करना चाहते हैं। मैं आप को लिवा जाने के लिए आया हूँ। महर्षि दयानन्द काशी नरेश के महल में गए। काशी नरेश ने उन्हें सोने के सिंहासन पर बैठाया। स्वयं स्वामी जी के पैरों के पास बैठ गए।उन्होंने स्वामी जी से निवेदन किया - महाराज जब पिछली बार आप काशी आए थे। मुझसे आप का अपमान हो गया था। मैं आप से क्षमा चाहता हूँ। महर्षि दयानन्द ने सरल भाव से उत्तर दिया - "राजन पिछली बातों का मेरे मन पर कोई संस्कार नहीं है"। काशी नरेश ने महर्षि दयानन्द का भव्य आतिथ्य किया। बाद में भी उनके लिए फल मिष्ठान आदि भिजवाए। स्वामी दयानन्द का सामूहिक रूप से अपमान करने का प्रयास किया जाए या स्वर्ण सिंहासन पर बैठा कर स्तुति की जाए - इसका प्रभाव उन पर नहीं पड़ता था। वे न तो अपमान का अनुभव कर दुखी हुए और न ही स्वागत सत्कार पा कर, स्तुति सुन कर प्रसन्न हुए - वे निन्दा और स्तुति दोनों से उपर उठ चुके थे। इनके चक्कर में पड़ कर अपने पथ से विचलित होने वाले नहीं थे। यदि उनके मन में काशी नरेश का अशिष्ट व्यवहार घर कर लिया होता तो वे काशी नरेश के निमन्त्रण पर उनके महल में कदापि न जाते। ........................................................................... Dr. Yajnya Dutta Nayak, Khallikote Unitary University
If you want happiness and peace, then study the books of Vedas and sages, meditation of God, and service of society, do these three things.
11-09-2021
Every person needs happiness and peace. A lot of people are rich. They don't lack any material things food clothes houses motor cars etc. There are all facilities. *" They don't have peace even after all this. There is no satisfaction in the mind. They are not fully satisfied with their lives. Somebody, some where, complaint remains. "* In such a situation people ask, who have physical means etc everything, yet why are they unsatisfied? Why is there no perfection in their lives? The answer to this question is in such a way, that -- *" When the soul wears the body, it needs physical means to live a happy life, some food, clothes, houses, etc; and some for its satisfaction Knowledge and pleasure are also required. "* Nowadays, people earn money by studying, getting degree, doing job business, at least they get physical means from it. *" But knowledge and happiness are often not attained. So there is a sense of incomplete, dissatisfaction, dissatsatisfaction in their lives "* If you want to get knowledge and happiness, you need to do three things for it. *" First - Studying the books of Vedas and sages. Second - Meditating on God, applying tomb. Third - Serving the society with no sense. ′′ The person who does these three things with full devotion and excellence, he attains knowledge and joy. He experience fulfillment or satisfaction in his life "* Everyone has a little bit of knowledge, but it is half incomplete with delusion and suspicion. Unless knowledge is pure, joy will not be attained *" Pure knowledge comes from the books of Vedas and sages. That's why the books of Vedas and sages should be read from a worthy Guru ji "* Only reading books does not bring fullness of joy. Reading books gives knowledge and also gives happiness. But as much joy a man should have, the joy he gets from the books, is one third of it *" For the second third he should also meditate on God. That also attains a third of the joy. That's why meditate on God as well as reading books "* One third of the leftover joy. *" He is achieved by serving the society with unsuccessful spirit. "* Studying whatever Vedas etc. scriptures you gained knowledge, the joy you got from worshiping God *" by sharing your experience of knowledge and joy to others, by doing unnecessary deeds, one third of joy Part and God gives. This is how we feel joy in life to the fullest "* *" Those who want to experience the fullness of joy in their life without material means, study the Vedas etc. Satya Shastras. Meditate on God as Vedokta, formless, just, merciful, joyful. This will make them smile on the inside. And then when they will serve the society without any reason, the society will also smile. That will make heavenly atmosphere on earth. We all should create such a heavenly environment on this earth together. Only then will the success of human life be considered ". .............................................................................. Sanghamitra Kar (founder Shalvi Infofine Private limited)
You will not succeed in your actions until you have inner power. So strengthen your inner power.
11-09-2021
Both types of powers are essential to achieve success in any work. *"Both types of powers"* these words mean, outside power and inner power. There is no success in work without these two powers. "Outside power" the words mean, your body should be healthy strong. You must have food, clothes, houses, money, associates, etc. in good quantity and quality *" If you have this kind of external power, you can succeed in your works. "* Additionally *"inner power"* these words mean, that your soul and mind should be strong. You must have two types of faith. A belief - then it must be, that " the work I am doing is in favor of God's constitution. This is a good deed. This will increase the happiness of me and everyone in the society "* Second belief *" You should have faith in yourself, that God has given me so much strength, knowledge and strength, that I can complete this task with the power given by God. I can. So I will definitely get success in this work "* This is the power within. *" When you have outside power and inner power, both these powers are complete, then you will definitely get success in your work, and you will be able to live your life happily. " " Those who have external power, but do not have inner power, such people often misuse that external power too. And they destroy the actions of others. "* Because by not having God's blessings, they profit others less and harm others more. *" like a bird's egg, if you force it from outside, it will break. The result will be, that the life that was being built inside him, will end " but " if inside the egg God continues to build that child by his strength, and by the power within God when the construction is completed Blast that egg, it will produce a life. "* This should be understood everywhere. *" This is why inner power is more important than outside power. "* *" outside powers are still found. It is very important to have the strength within. To get the inner power, you must study the books of Vedas and sages and worship God. So study the Vedas and the books of the sages. Behave in his favor. Worship the devotion of God. God will give you great power and you will succeed in your works and in your life . ............................................................................. Dr. Yajnya Dutta Nayak ...........Vedic Vichar
Who is the real human being
11-09-2021
Those who consider the happiness and sorrow of others as their own happiness and sorrow "* It is said in Vedo, *" Manurbhav "*, means God gives message to humans that *" O man! You become a human "* The question is here, that *" Is this preaching for humans, or for animals and birds?"* Answer - for humans. Because animals and birds neither listen nor understand such preachings, nor they can become humans in the birth of animals and birds. So the preaching of the Vedas is not directly for animals and birds, but for humans, who can listen, understand and act upon it *" So those who are body-bearing, humans are living in vagina, those people This is the preaching given by God for. "* Then the next question will be, that *" when this preaching is for humans, and humans are already humans, then why are they being said so? That ′′ you become a human being "* It means that *" no one is called a human just by body shape. Because even though the body shape is of a man, he is being advised, ′′ You become a human ".* This means that *" Man, is called a real man only when he has humanity in him. "* He should think about humanity and do deeds with humanity. Hence it was advised to the human body-bearing soul, that *"You become a human". That is, you should have such qualities in yourself, which will be called a real human. "* Now the next question is, that *" What are those qualities and karma, by which a person is actually called a human?"* The answer is, that, *" as he wants happiness for himself, so are other humans and animals - Birds etc. wish happiness for all creatures. As he strives for his own happiness, he strives for everyone's happiness. Just as he himself wants to be free from suffering, so do other creatures, that all other creatures should be free from suffering. And just as he does to remove his sorrows, he should do the same to remove everyone's sorrows "* Because of these virtues, he is actually called human. *" According to the Vedas, such people are called real humans or real humans. So you and all of us should try, think, think, think and behave like this, that we can become real human beings. Only then will this world be happy " .............................................................................................................................. Subrata Kumar Mohanty (Social Expert)
Yagna in Satyarth Prakash's
11-09-2021
Maharishi Dayanand Saraswati ji defines Yagna in Satyarth Prakash's Swamantavyamantavyaprakash writes, ′′ Yagna is called that in which scholars are honored and worthy craftsmanship, aka chemicals which are used by Vidya and the gift of Vidyaadi auspicious qualities, Agnihotradi Jinse Vayu, Vishti I think it is best to provide happiness to all living beings by purifying water and medicine. ′′ Yagna has been the root of our lives since the Vedic period. The sages have written in Atharvveda Ignorant people, don't worry. That is, a man without sacrifice gets destroyed. If you want to remain Tejaswi, then you should continue performing Yagna. प्राचं यज्ञं प्रणतया स्वसाय। - Rigveda 10/101/2 That is, start every auspicious work with yagna. The works started with Yagna are successful and pleasant. Bhadro no fire relief. Yajurveda 15.32 That is, the sacrifices given in Yagna are good. Those who want their welfare, do yagna. अरं कृण्वन्तु वेदिं समग्निमिन्धतां पुर:। Rigveda 1.170.4 That is, God's commandment is that you decorate the Yagnyavedi and light the fire in it. Modern day scientists have also stamped the authenticity of yagna. A research conducted by the National Botanical Research (NBRI) Institute has found that up to 94 percent of the harmful bacteria in the air are destroyed by smoke arising during Yagna and Havan. Arya House of Representatives, Uttar Pradesh is going to launch the Mahabhiyan ' Yagyotsav ' under the leadership of its successful Prime Minister Hon ' ble Devendrapal Verma ji and Shri Pankaj Jaiswal Minister Arya Representative Assembly Uttar Pradeshi to deliver Yagna to every home. Yagna in every house, every house is conveying the message of Yagna. Yagyotsav will be started from the city of religion Prayagraj on 25 September 2021 Saturday at 11 am. After this, programs will be organized in different districts of the state under this Mahabhiyan every month. May you encourage the participants with your dignified presence in this mega campaign and kindly contribute your valuable contribution in making the event successful. Laxman Maharana, Literal Speaker, Berhampur, Odisha.
Vedic Vichar
11-09-2021
गणानां त्वा गणपतिꣳहवामहे प्रियाणां त्वा प्रियपतिꣳहवामहे निधीनां त्वा निधिपतिꣳ हवामहे वसो मम। आहमजानि गर्भधमा त्वमजासि गर्भधम्।। यजुर्वेद -हे जगदीश्वर! हम लोग (गणानाम्) गणों के बीच (गणपतिम्) गणों के पालनेहारे (त्वा) आपको (हवामहे) स्वीकार करते (प्रियाणाम्) अतिप्रिय सुन्दरों के बीच (प्रियपतिम्) अतिप्रिय सुन्दरों के पालनेहारे (त्वा) आपकी (हवामहे) प्रशंसा करते (निधीनाम्) विद्या आदि पदार्थों की पुष्टि करनेहारों के बीच (निधिपतिम्) विद्या आदि पदार्थों की रक्षा करनेहारे (त्वा) आपको (हवामहे) स्वीकार करते हैं। हे (वसो) परमात्मन् ! जिस आप में सब प्राणी वसते हैं, सो आप (मम) मेरे न्यायाधीश हूजिये, जिस (गर्भधम्) गर्भ के समान संसार को धारण करने हारी प्रकृति को धारण करने हारे (त्वम्) आप (आ, अजासि) जन्मादि दोषरहित भलीभाँति प्राप्त होते हैं, उस (गर्भधम्) प्रकृति के धर्त्ता आपको (अहम्) मैं (आ, अजानि) अच्छे प्रकार जानूँ ॥१९ ॥ भावार्थभाषाः हे मनुष्यो ! जो सब जगत् की रक्षा, चाहे हुए सुखों का विधान, ऐश्वर्य्यों का भलीभाँति दान, प्रकृति का पालन और सब बीजों का विधान करता है, उसी जगदीश्वर की उपासना सब करो।। - महर्षि दयानन्द सरस्वती वेदों में एक निराकार और सर्वव्यापक परमात्मा के उसके गुणों के अनेक नाम बताये गये हैं । ईश्वर का प्रत्येक नाम ईश्वर के गुणों का प्रतिपादन करता हैं। ईश्वर के असंख्य गुण होने के कारण असंख्य नाम हैं। ब्रह्मा विष्णु महेश शिव शंकर गणेश महादेव आदि सब नाम एक ही ईश्वर के हैं। आइये सर्वप्रथम गणेश शब्द पर विचार करते हैं। महर्षि दयानन्द के अनुसार गणेश- (गण संख्याने) इस धातु से ‘गण’ शब्द सिद्ध होता है, इसके आगे ‘ईश’ वा ‘पति’ शब्द रखने से ‘गणेश’ और ‘गणपति शब्द’ सिद्ध होते हैं। ‘ये प्रकृत्यादयो जडा जीवाश्च गण्यन्ते संख्यायन्ते तेषामीशः स्वामी पतिः पालको वा’ जो प्रकृत्यादि जड़ और सब जीव प्रख्यात पदार्थों का स्वामी वा पालन करनेहारा है, इससे उस ईश्वर का नाम ‘गणेश’ वा ‘गणपति’ है। माता पार्वती द्वारा शरीर की मैल से गणेश की उत्पत्ति व पिता शिव द्वारा उस गणेश का सिर काट कर हाथी का सिर लगाना ये सब मनघडंत कहानियां हैं, पुराणों की अवैज्ञानिक गप्पें हैं। ये ऐसे लोगों द्वारा लिखित बातें हैं जिन्हें विज्ञान की तनिक भी जानकारी नही है। वास्तव में देखा जाय तो अहिंसा सत्य अस्तेय ब्रह्मचर्य अपरिग्रह शौच सन्तोष तप स्वाध्याय ईश्वर प्रणिधान आदि यम नियमों का पालन करते हुये परमात्मा का नित्य ध्यान करना और वेदों में वर्णित परमात्मा की आज्ञाओं का पालन करना ही सच्ची गणेश पूजा है। आर्ष ग्रन्थों में ओ३म् तथा अथ शब्द से मंगलाचरण होता है न कि श्री गणेशाय नमः से। वेद मंत्रों के पाठ व यज्ञ से हर कार्य का शुभारंभ करना चाहिये। पुजारियों द्वारा करवाई गई सूंड़ युक्त गणेश की पूजा मात्र एक पाखण्ड ही है। इन पुजारियों ने अपने कर्मों से पुजारी का अर्थ ही बदल दिया है जिसके तहत अब पुजारी का अर्थ हो गया है पूजा का अरि अर्थात पूजा का शत्रु। केवल चित्रों, मूर्तियों या थाली में जल रही धूप अगरबत्ती को मत्था टेकने का नाम पूजा करना नहीं है। पूजा का अर्थ महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने ‘‘आर्योद्देश्यरत्नमाला’’ में इस प्रकार लिखा है-"जो ज्ञानादि गुण वाले को यथायोग्य सत्कार करना है, उसको ‘पूजा’ कहते हैं।’’ आज जो कुछ दिखावे के लिए हो रहा है, वह पूजा न होकर अपूजा है। ................................................................................................................................................................................................................................ Dr. Yajnya Dutta Nayak, Khallikote Unitary University, Berhampur Odisha
Swami Agnivesh
11-09-2021
Swami Agnivesh, born on September 21,1939 in Srikakulam, winner of the Alternative Nobel Peace Prize (the Right Livelihood Award), 2004, is a cyclonic Swami. At the young age of 28, he abandoned a promising career as a professor of law and Business Management Xt. Xavier's College , Calcutta for a life of activism. Born into a Brahmin - upper caste - South Indian family, he shed his name, caste, religion, family, and all his belongings and property to adopt the life of a 'Swami' or renunciate, and began his life's crusade for social justice and compassion. The term 'Swami' is misused and misunderstood. It denotes, as with Christian or Buddhist monks and renunciates, one who gives up all his individual, social and birth based identities and belongings to serve humanity and pursue spiritual truth. In 1994, he was appointed the Chairperson of the UN Trust Fund on Contemporary Forms of Slavery. He is better known across the globe in general and India in particular for his campaigns against bonded labor, and is founder-Chairperson of the Bandhua Mukti Morcha (Bonded Labor Liberation Front). Swami Agnivesh has spearheaded the interfaith and inter-religious movement nationally and globally. Applied Spirituality by Swami Agnivesh is taught in University of America. Glen Martin prescribes this book in Radford University. Many times he was attacked by BJP Hindu fanatics, Brutal attack in Pakur, Jharkhand on 17th July 2018 damaged his liver which ultimately led to his sad demise on September 11, 2020. - Vedic Vichar
वेद ही ईश्वर कृत क्यों
09-09-2021
१.वेद हर सृष्टि के आदि में चार ऋषियों के मन में ध्यान योग द्वारा स्वयं ईश्वर द्वारा प्रगट किये गए। २.वेद समस्त मनुष्य जाती के कल्याण हेतु हैं, एवं समस्त वर्गो के मनुष्यों लिये हैं । ३.वेद संस्कृत भाषा में हैं जिसे सिखने के लिए सबको एक जैसी मेहनत करनी पडती है। ४.वेद ईश्वरीय ज्ञान स्वरूप सदा सर्वदा सबके लिए उपलब्ध है जिसमे सब प्रकार का ज्ञान विज्ञान सूत्र रुप में है अर्थात समग्र पदार्थविद्या का मूल ईश्वर तथा उसी के द्वारा प्रदत्त ज्ञान अर्थात वेद। ५.वेद का समग्र ज्ञान ईश्वर के गुण कर्म स्वभाव अनुसार हैं। ६.वेदका समग्र ज्ञान सृष्टि नियमों के अनुसार हैं । ७.वेद में कोई इतिहास वा किस्से कहानियां नहीं । ८.वेद ही ईश्वरीय ज्ञान/वाणी है- इसका साक्ष्य स्वयं ईश्वर ने किया है। ९.वेद किसीभी प्रकार के अन्धविश्वास, पाखंड, पशुबलि, पाषाण पूजा, मांसाहार, भूतप्रेत, जादूटोना आदि का प्रचारक अथवा समर्थक नहीं है । १०.वेद में सब प्रकार की समस्त मनुष्य जाति के प्रगति के उपाय बताए गए हैं। ११.वेद में कोई परिवर्तन नहीं- वेद शाश्वत एवं एकरस हैं। १२. वेद में ईश्वर, जीव, प्रकृति व सृष्टि का यथार्थ ज्ञान है। १३. वेद समस्त सत्य विद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं उनका आदि मूल है । १४. वेद पूरी मानव जाति का संविधान है। वेद का पढना पढाना सुनना सुनाना सब मनुष्यों का परम कर्तव्य/धर्म है । १५. वेद मनुर्भव, वसुधैवकुटुम्बकम्, कृण्वन्तोविश्वार्यम्, प्रेम, सदाचार, परोपकार, यज्ञ व योग का संदेश देता है । *वेद को सार रुप में जानने के लिये ऋषि दयानंद कृत सत्यार्थ प्रकाश व ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका बहुत सहायक है जिसे प्ले स्टोर से डाऊनलोड कर पढा जा सकता है ।* मनुर्भवः... वसुधैव कुटुंबकम.. कृण्वन्तो विश्वार्यम...... Vedic Vichar...... Arya Samaj...... Swami Dayanand Saraswati.... www.vedicvichar.com
“द्रोणस्थली कन्या गुरुकुल के संस्थापक डा. वेदप्रकाश गुप्ता से जुड़ी कुछ स्मृतियां”
09-09-2021
ओ३म् -आज तीसरी पुण्य तिथि पर- “द्रोणस्थली कन्या गुरुकुल के संस्थापक डा. वेदप्रकाश गुप्ता से जुड़ी कुछ स्मृतियां” ======== डा. वेद प्रकाश गुप्ता जी देहरादून की प्रसिद्ध हस्तियों में से एक थे। आपने जहां एक ओर देहरादून में होम्योपैथी की ओषधियों का उद्योग स्थापित कर नाम कमाया, वहीं आपने वैदिक धर्म से जुड़े कार्यों को करके भी आर्यजगत् में कीर्ति व प्रसिद्धि अर्जित की थी। हमारा सौभाग्य है कि हम देहरादून में रहने के कारण उनके अनेक कार्यों से परिचित हुए। तीन वर्ष पूर्व दिनांक 7-9-2018 को देहरादून में उनका देहावसान हुआ था। इससे पूर्व वह स्वस्थापित उद्योग ‘‘व्हीजल लैबोरेटरीज” का कार्य देखते रहे जहां होम्योपैथी की अधिकांश दवायें बनती थी और जिनका पूरे देश व विदेश में प्रेषण वा वितरण होता था। हम जब युवावस्था में ही थे, तब हमें अपने मित्रों से गुप्ता जी के जीवन एवं कार्यों के बारे में पता चला तो डा. वेद प्रकाश गुप्ता जी के प्रति हमारी श्रद्धा में वृद्धि हुई थी। एक वैदिक धर्म को जानने व मानने वाला व्यक्ति विज्ञान पर आधारित ओषधि निर्माण के वृहद उद्योग का भी सफलतापूर्वक संचालन कर सकता है, इससे हमें प्रेरणायें मिली। गुप्ता जी देहरादून के प्रसिद्ध राजपुर-मसूरी रोड पर राजपुर के निकट किशनपुर स्थित स्थान पर अपने निजी भव्य निवास में रहते थे। सड़क के किनारे स्थित होने के कारण हम राजपुर व मसूरी आते-जाते समय उनके निवास पर भी दृष्टि डालते थे। डा. वेदप्रकाश गुप्ता जी के तीन प्रमुख मित्र थे। श्री देवेन्द्र रैहनुवाल, श्री चमनलाल रामपाल तथा श्री गुरुनारायण दुबे जी। हमने आर्यसमाज के अनेक कार्यक्रमों में गुप्ता जी को श्री चमनलाल जी तथा श्रीगुरुनारायण दुबे जी के साथ उपस्थित वा विद्यमान देखा है। गुप्ता जी के पास अनेक आधुनिक सुविधाओं से युक्त गांडियां थी। वह अपने इन तीनों मित्रों को साथ लेकर आर्यसमाज के अनेक स्थानों पर होने वाले आयोजनों में पधारते थे। तपोवन आश्रम देहरादून, गुरुकुल पौंधा-देहरादून तथा आर्यसमाज देहरादून तथा देहरादून के अन्य आर्यसमाजों के उत्सव इन कुछ स्थानों में सम्मलित होते थे। हमारा सौभाग्य रहा कि हम गुप्ता जी की इस मित्र मण्डली से परिचित रहे। श्री रैहनुवाल जी ने हमारे कक्षा 11 व 12 में अध्ययन के दिनों में हमें अंग्रेजी पढ़ाई थी। बाद में वह डीएवी महाविद्यालय, देहरादून में बीएड प्रभाग में प्रोफेसर नियुक्त हो गये थे। हमने रैहनुवाल जी से पढ़ा भी और उनके व्याख्यानों को भी सुना है। हमारे जीवन में हमारे जो शिक्षक रहे हैं उनमें रैहनुवाल जी जैसा प्रभावशाली शिक्षक अन्य नहीं रहा। वह, दुबे जी तथा श्री चमनलाल जी भी राष्ट्रवादी विचारधारा से ओत-प्रोत व्यक्ति थे। एक बार सन् 1994 में गुरुनारायण दुबे जी का आर्यसमाज धामावाला देहरादून में प्रवचन हुआ था। इन दिनों समाज के कार्यक्रमों का संचालन इन पंक्तियों के लेखक द्वारा किया जाता था। दूबे जी भारतीय सर्वे आफ इण्डिया विभाग में उच्च प्रशासनिक अधिकारी के पद पर कार्यरत रहे। इस विभाग के हमारे एक पड़ोसी श्री महेशचन्द्र जोशी जी हमें इनकी कठोर अनुशासन प्रियता के विषय में बताया करते थे। दुबे जी आर्य विद्वान प्रा. अनूप सिंह जी के निकट मित्र थे। इन्हीं के द्वारा हमारा दुबे जी से निकट परिचय हुआ था। अब दुबे जी और रैहनुवाल जी दिवंगत हो चुके हैं। यदाकदा हमें उनकी यादें आ जाया करती हैं। हमारा सौभाग्य रहा कि हम इन चारों विभूतियों के सम्पर्क में आये। गुप्ता जी एक राष्ट्रवादी कवि भी थे। वह तपोवन तथा स्वस्थापित मानव कल्याण केन्द्र के आयोजनों में अपनी देशभक्ति एवं समाज सुधार की कविताओं का पाठ किया करते थे। वृद्धावस्था में ओजस्वी वाणी में उनकी कवितायें सुनकर हमें प्रसन्नता होती थी और उनके आचरण, व्यवहार तथा काव्यपाठ से प्रेरणायें भी मिलती थी। गुप्ता जी के एक अन्य मित्र व सहयोगी देहरादून में तपोवन आश्रम के मैनेजर श्री भोलानाथ आर्य जी थे। इनसे भी हमारी अत्यन्त निकटता रही। यह भी गुप्ता जी के साथ निकटता से जुड़े रहे। इनसे भी हमें गुप्ता जी के कार्यों के बारे में जानकारी मिलती रहती थी। श्री भोलानाथ आर्य जी वैदिक साधन आश्रम तपोवन की स्थापना के समय से इसके सदस्य व संचालक-मैनेजर आदि रहे थे। वह आश्रम के संस्थापक बावा गुरमुख सिंह जी तथा महात्मा आनन्द स्वामी जी के अत्यन्त निकट थे। आश्रम के भवनों के निर्माण तथा धनसंग्रह आदि कार्यों में उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा। उन्होंने एक प्रकार से अपना पूरा जीवन आश्रम की सेवा में व्यतीत किया परन्तु दुःख से कहना पड़ता है कि जीवन के अन्तिम समय में इन्हें आश्रम से सहयोग के स्थान पर उपेक्षा प्राप्त हुई थी। वैदिक साधन आश्रम तपोवन, देहरादून के मंत्री श्री प्रेमप्रकाश शर्मा जी डा. वेदप्रकाश गुप्ता जी के निकटस्थ मित्रों में रहे। वह जब भी आश्रम के कार्यक्रमों में आते थे उनको सम्मान दिया जाता था और उनके विचार व कवितायें सुनी जाती थीं। श्री वेद प्रकाश गुप्ता जी के प्रति हमारी श्रद्धा का कारण उनके द्वारा देहरादून में स्थापित ‘‘मानव कल्याण केन्द्र” की स्थापना करना था। यह आश्रम वर्तमान में भी सफलतापूर्वक चल रहा है। हमने विगत लगभग 30 वर्षो में यहां सम्पन्न हुए अनेक वार्षिकोत्सवों में भाग लिया। स्वामी सत्यपति जी महाराज इस आश्रम के प्रायः अधिकांश आयोजनों में भाग लिया करते थे। उन दिनों स्वामी जी ने रोजड़ में दर्शन योग महाविद्यालय की स्थापना नहीं की थी। हमने मानव कल्याण केन्द्र सहित वैदिक साधन आश्रम तपोवन तथा आर्यसमाज देहरादून में भी स्वामी जी के विद्वतापूर्ण उपदेशों को सुना था। स्वामी जी के उपदेश उच्च कोटि के होते थे। उनकी उपदेश शैली हमें प्रभावित करती थी। इसी कारण हम उनके अधिकांश उपदेशों में सम्मिलित होने का प्रयत्न करते थे। गुप्ता जी ने इस केन्द्र की स्थापना के कुछ वर्ष इस केन्द्र के निकट वानप्रस्थ आश्रम की भी स्थापना की थी। इस आश्रम का एक भव्य भवन निर्मित कराया गया था। इस आश्रम की वर्तमान प्रगति से हम अनभिज्ञ हैं। अब नगर के दूरस्थ स्थानों पर हमारा आना-जाना कम हो पाता है। डा. वेद प्रकाश गुप्ता जी का एक महत्वपूर्ण कार्य देहरादून में मानव कल्याण केन्द्र के भवन के साथ द्रोणस्थली कन्या गुरुकुल की स्थापना करना था। यह गुरुकुल अनेक वर्षों से सफलतापूर्वक चल रहा है। प्रसिद्ध वेद विदुषी डा. अन्नपूर्णा जी इसकी आचार्या हैं। इस गुरुकुल में आचार्या जी ने अनेक सुयोग्य कन्याओं को वैदिक धर्म व संस्कृति के संस्कार व दीक्षा दी है। डा. वेदप्रकाश गुप्ता जी ने अपने निवास से कुछ दूरी पर अपनी ही भूमि व भवन में आर्यसमाज, राजपुर-किशनपुर की स्थापना की थी। वैदिक साधन आश्रम तपोवन के यशस्वी मंत्री श्री प्रेम प्रकाश शर्मा जी इस समाज की व्यवस्था को देखते हैं। इस आर्यसमाज के अनेक वार्षिकोत्सवों में हमने भाग लिया है। इस समाज के सभी सदस्य आर्यसमाज की विचारधारा का अधिक से अधिक प्रचार करने के लिए उत्सुक दीखते हैं। इससे हमें प्रसन्नता होती है। प्रत्येक वर्ष दिसम्बर या जनवरी में इस समाज का वार्षिकोत्सव धूमधाम से मनाया जाता है। हमने डा. वेदप्रकाश गुप्ता जी में दान की प्रवृत्ति के गुण का भी अनुभव किया था। कुछ वर्ष पूर्व वैदिक साधन आश्रम तपोवन में पर्वतों पर स्थित इकाई में एक वृहद यज्ञशाला के निर्माण की योजना पर विचार हुआ था। इस बैठक में हम भी उपस्थित थे। इसका प्रस्ताव आश्रम की उस इकाई में आयोजित वेद पारायण यज्ञ के समापन पर स्वामी चित्तेश्वरानन्द सरस्वती जी ने किया था। इसकी योजना पर विचार करते हुए अनेक लोगों ने दान की घोषणा की थी। इस अवसर पर गुप्ता जी ने भी एक लाख रुपये दान देने का संकल्प सूचित किया था। कुछ ही महीने बाद वहां पर एक वृहद भव्य यज्ञशाला बनी जो देहरादून की वृहद एवं भव्य यज्ञशालाओं में से एक है। इस स्थान पर यज्ञ करने का अपना ही महत्व है। यह यज्ञशाला पर्वतों पर वनों से चारों ओर से आच्छादित है। स्थान सभी प्रकार के कोलाहलों से मुक्त शान्त है। प्रत्येक वर्ष यहां यज्ञ एवं सत्संग सहित चतुर्वेद पारायण यज्ञ आयोजित होते हैं। आश्रम के वर्ष में दो बार उत्सव होते हैं। दोनों उत्सवों का एक दिन का सत्संग व यज्ञ इस पर्वतीय इकाई में किया जाता है। आध्यात्मिक रूचि रखने वाले ऋषि भक्तों के लिए इस स्थान का विशेष महत्व है। इस स्थान पर महात्मा आनन्द स्वामी एवं महात्मा प्रभु आश्रित जी ने साधना कर योग की सिद्धियों वा उच्च स्थिति को प्राप्त किया था। आज दिनांक 7-9-2021 को मानव कल्याण केन्द्र एवं द्रोणस्थली आर्ष कन्या गुरुकुल महाविद्यालय, देहरादून की ओर से कीर्तिशेष डा. वेदप्रकाश गुप्ता जी की तीसरी पुण्य तिथि पर श्रद्धांजलि अर्पित करने का आयोजन किया गया। हम इस आयोजन में सम्मिलित नहीं हो सके। हम गुप्ता जी को श्रद्धांजलि देते हैं और उनके द्वारा स्थापित सभी संस्थाओं की उन्नति की कामना करते हैं। ओ३म् शम्। -मनमोहन कुमार आर्य #Vedic Vichar Vedic Vichar Publication vedicvichar.org@gmail.com
Vedic Astrology
08-09-2021
Astrology is a portion of Veda. The ancient sages brought out wonderful thoughts regarding planets and their significance. As a science astrology has discovered correct methods and knowledge about the influence of planets on the human mind and on the day to day activities of the human beings. The predictive part of Astrology is as scientific as the mathematical one as the former is directly based upon the latter. The ancient Maharshis who have propounded the rules of astrology were sages of a high psychic development and examined terrestrial and celestial phenomena by their divine sight or Dvya- drishti. All the authors of Dharma Shastras and other writers, poets and seers like Vyasa, Valmiki, Kalidasa have cherished and developed this science of astrology which is one of the cornerstones of Indian Culture. Astrology is the study of the movements and relative positions of celestial objects as a means for divining information about human affairs and terrestrial events. The word astrology comes from the early Latin word astrologia, from astron (” star”) and logia (“study of”- account of stars”) Astrology as developed by Maharshis, makes appraise study of the position and inter-relation of the stars and planets. ...Dr. Yajnya Dutta Nayak.. Khallikote University, Berhampur Odisha
Vedic Darshan
08-09-2021
Darshan, (Sanskrit: “viewing”) also spelled darshana, in Indian philosophy and religion, particularly in Hinduism, the beholding of a deity (especially in image form), revered person, or sacred object. The experience is considered to be reciprocal and results in the human viewer’s receiving a blessing. The Rathayatras (chariot festivals), in which images of gods are taken in procession through the streets, enable even those who in former days were not allowed to enter the temple to have darshan of the deity. Darshan is also imparted by personal spiritual teachers to their followers, by rulers to their subjects, and by objects of veneration such as pilgrimage shrines to their visitors. In Indian philosophy the term designates the distinctive way in which each philosophical system looks at things, including its exposition of sacred scriptures and authoritative knowledge. The six principal Hindu darshans are Samkhya, Yoga, Nyaya, Vaisheshika, Mimamsa, and Vedanta. Non-Hindu darshans include Buddhism and Jainism. .... Dr. Yajnya Dutta Nayak Khallikote University, Berhampur Odisha
आज तीसरी पुण्य तिथि पर
07-09-2021
ओ३म् “द्रोणस्थली कन्या गुरुकुल के संस्थापक डा. वेदप्रकाश गुप्ता से जुड़ी कुछ स्मृतियां” ======== डा. वेद प्रकाश गुप्ता जी देहरादून की प्रसिद्ध हस्तियों में से एक थे। आपने जहां एक ओर देहरादून में होम्योपैथी की ओषधियों का उद्योग स्थापित कर नाम कमाया, वहीं आपने वैदिक धर्म से जुड़े कार्यों को करके भी आर्यजगत् में कीर्ति व प्रसिद्धि अर्जित की थी। हमारा सौभाग्य है कि हम देहरादून में रहने के कारण उनके अनेक कार्यों से परिचित हुए। तीन वर्ष पूर्व दिनांक 7-9-2018 को देहरादून में उनका देहावसान हुआ था। इससे पूर्व वह स्वस्थापित उद्योग ‘‘व्हीजल लैबोरेटरीज” का कार्य देखते रहे जहां होम्योपैथी की अधिकांश दवायें बनती थी और जिनका पूरे देश व विदेश में प्रेषण वा वितरण होता था। हम जब युवावस्था में ही थे, तब हमें अपने मित्रों से गुप्ता जी के जीवन एवं कार्यों के बारे में पता चला तो डा. वेद प्रकाश गुप्ता जी के प्रति हमारी श्रद्धा में वृद्धि हुई थी। एक वैदिक धर्म को जानने व मानने वाला व्यक्ति विज्ञान पर आधारित ओषधि निर्माण के वृहद उद्योग का भी सफलतापूर्वक संचालन कर सकता है, इससे हमें प्रेरणायें मिली। गुप्ता जी देहरादून के प्रसिद्ध राजपुर-मसूरी रोड पर राजपुर के निकट किशनपुर स्थित स्थान पर अपने निजी भव्य निवास में रहते थे। सड़क के किनारे स्थित होने के कारण हम राजपुर व मसूरी आते-जाते समय उनके निवास पर भी दृष्टि डालते थे। डा. वेदप्रकाश गुप्ता जी के तीन प्रमुख मित्र थे। श्री देवेन्द्र रैहनुवाल, श्री चमनलाल रामपाल तथा श्री गुरुनारायण दुबे जी। हमने आर्यसमाज के अनेक कार्यक्रमों में गुप्ता जी को श्री चमनलाल जी तथा श्रीगुरुनारायण दुबे जी के साथ उपस्थित वा विद्यमान देखा है। गुप्ता जी के पास अनेक आधुनिक सुविधाओं से युक्त गांडियां थी। वह अपने इन तीनों मित्रों को साथ लेकर आर्यसमाज के अनेक स्थानों पर होने वाले आयोजनों में पधारते थे। तपोवन आश्रम देहरादून, गुरुकुल पौंधा-देहरादून तथा आर्यसमाज देहरादून तथा देहरादून के अन्य आर्यसमाजों के उत्सव इन कुछ स्थानों में सम्मलित होते थे। हमारा सौभाग्य रहा कि हम गुप्ता जी की इस मित्र मण्डली से परिचित रहे। श्री रैहनुवाल जी ने हमारे कक्षा 11 व 12 में अध्ययन के दिनों में हमें अंग्रेजी पढ़ाई थी। बाद में वह डीएवी महाविद्यालय, देहरादून में बीएड प्रभाग में प्रोफेसर नियुक्त हो गये थे। हमने रैहनुवाल जी से पढ़ा भी और उनके व्याख्यानों को भी सुना है। हमारे जीवन में हमारे जो शिक्षक रहे हैं उनमें रैहनुवाल जी जैसा प्रभावशाली शिक्षक अन्य नहीं रहा। वह, दुबे जी तथा श्री चमनलाल जी भी राष्ट्रवादी विचारधारा से ओत-प्रोत व्यक्ति थे। एक बार सन् 1994 में गुरुनारायण दुबे जी का आर्यसमाज धामावाला देहरादून में प्रवचन हुआ था। इन दिनों समाज के कार्यक्रमों का संचालन इन पंक्तियों के लेखक द्वारा किया जाता था। दूबे जी भारतीय सर्वे आफ इण्डिया विभाग में उच्च प्रशासनिक अधिकारी के पद पर कार्यरत रहे। इस विभाग के हमारे एक पड़ोसी श्री महेशचन्द्र जोशी जी हमें इनकी कठोर अनुशासन प्रियता के विषय में बताया करते थे। दुबे जी आर्य विद्वान प्रा. अनूप सिंह जी के निकट मित्र थे। इन्हीं के द्वारा हमारा दुबे जी से निकट परिचय हुआ था। अब दुबे जी और रैहनुवाल जी दिवंगत हो चुके हैं। यदाकदा हमें उनकी यादें आ जाया करती हैं। हमारा सौभाग्य रहा कि हम इन चारों विभूतियों के सम्पर्क में आये। गुप्ता जी एक राष्ट्रवादी कवि भी थे। वह तपोवन तथा स्वस्थापित मानव कल्याण केन्द्र के आयोजनों में अपनी देशभक्ति एवं समाज सुधार की कविताओं का पाठ किया करते थे। वृद्धावस्था में ओजस्वी वाणी में उनकी कवितायें सुनकर हमें प्रसन्नता होती थी और उनके आचरण, व्यवहार तथा काव्यपाठ से प्रेरणायें भी मिलती थी। गुप्ता जी के एक अन्य मित्र व सहयोगी देहरादून में तपोवन आश्रम के मैनेजर श्री भोलानाथ आर्य जी थे। इनसे भी हमारी अत्यन्त निकटता रही। यह भी गुप्ता जी के साथ निकटता से जुड़े रहे। इनसे भी हमें गुप्ता जी के कार्यों के बारे में जानकारी मिलती रहती थी। श्री भोलानाथ आर्य जी वैदिक साधन आश्रम तपोवन की स्थापना के समय से इसके सदस्य व संचालक-मैनेजर आदि रहे थे। वह आश्रम के संस्थापक बावा गुरमुख सिंह जी तथा महात्मा आनन्द स्वामी जी के अत्यन्त निकट थे। आश्रम के भवनों के निर्माण तथा धनसंग्रह आदि कार्यों में उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा। उन्होंने एक प्रकार से अपना पूरा जीवन आश्रम की सेवा में व्यतीत किया परन्तु दुःख से कहना पड़ता है कि जीवन के अन्तिम समय में इन्हें आश्रम से सहयोग के स्थान पर उपेक्षा प्राप्त हुई थी। वैदिक साधन आश्रम तपोवन, देहरादून के मंत्री श्री प्रेमप्रकाश शर्मा जी डा. वेदप्रकाश गुप्ता जी के निकटस्थ मित्रों में रहे। वह जब भी आश्रम के कार्यक्रमों में आते थे उनको सम्मान दिया जाता था और उनके विचार व कवितायें सुनी जाती थीं। श्री वेद प्रकाश गुप्ता जी के प्रति हमारी श्रद्धा का कारण उनके द्वारा देहरादून में स्थापित ‘‘मानव कल्याण केन्द्र” की स्थापना करना था। यह आश्रम वर्तमान में भी सफलतापूर्वक चल रहा है। हमने विगत लगभग 30 वर्षो में यहां सम्पन्न हुए अनेक वार्षिकोत्सवों में भाग लिया। स्वामी सत्यपति जी महाराज इस आश्रम के प्रायः अधिकांश आयोजनों में भाग लिया करते थे। उन दिनों स्वामी जी ने रोजड़ में दर्शन योग महाविद्यालय की स्थापना नहीं की थी। हमने मानव कल्याण केन्द्र सहित वैदिक साधन आश्रम तपोवन तथा आर्यसमाज देहरादून में भी स्वामी जी के विद्वतापूर्ण उपदेशों को सुना था। स्वामी जी के उपदेश उच्च कोटि के होते थे। उनकी उपदेश शैली हमें प्रभावित करती थी। इसी कारण हम उनके अधिकांश उपदेशों में सम्मिलित होने का प्रयत्न करते थे। गुप्ता जी ने इस केन्द्र की स्थापना के कुछ वर्ष इस केन्द्र के निकट वानप्रस्थ आश्रम की भी स्थापना की थी। इस आश्रम का एक भव्य भवन निर्मित कराया गया था। इस आश्रम की वर्तमान प्रगति से हम अनभिज्ञ हैं। अब नगर के दूरस्थ स्थानों पर हमारा आना-जाना कम हो पाता है। डा. वेद प्रकाश गुप्ता जी का एक महत्वपूर्ण कार्य देहरादून में मानव कल्याण केन्द्र के भवन के साथ द्रोणस्थली कन्या गुरुकुल की स्थापना करना था। यह गुरुकुल अनेक वर्षों से सफलतापूर्वक चल रहा है। प्रसिद्ध वेद विदुषी डा. अन्नपूर्णा जी इसकी आचार्या हैं। इस गुरुकुल में आचार्या जी ने अनेक सुयोग्य कन्याओं को वैदिक धर्म व संस्कृति के संस्कार व दीक्षा दी है। डा. वेदप्रकाश गुप्ता जी ने अपने निवास से कुछ दूरी पर अपनी ही भूमि व भवन में आर्यसमाज, राजपुर-किशनपुर की स्थापना की थी। वैदिक साधन आश्रम तपोवन के यशस्वी मंत्री श्री प्रेम प्रकाश शर्मा जी इस समाज की व्यवस्था को देखते हैं। इस आर्यसमाज के अनेक वार्षिकोत्सवों में हमने भाग लिया है। इस समाज के सभी सदस्य आर्यसमाज की विचारधारा का अधिक से अधिक प्रचार करने के लिए उत्सुक दीखते हैं। इससे हमें प्रसन्नता होती है। प्रत्येक वर्ष दिसम्बर या जनवरी में इस समाज का वार्षिकोत्सव धूमधाम से मनाया जाता है। हमने डा. वेदप्रकाश गुप्ता जी में दान की प्रवृत्ति के गुण का भी अनुभव किया था। कुछ वर्ष पूर्व वैदिक साधन आश्रम तपोवन में पर्वतों पर स्थित इकाई में एक वृहद यज्ञशाला के निर्माण की योजना पर विचार हुआ था। इस बैठक में हम भी उपस्थित थे। इसका प्रस्ताव आश्रम की उस इकाई में आयोजित वेद पारायण यज्ञ के समापन पर स्वामी चित्तेश्वरानन्द सरस्वती जी ने किया था। इसकी योजना पर विचार करते हुए अनेक लोगों ने दान की घोषणा की थी। इस अवसर पर गुप्ता जी ने भी एक लाख रुपये दान देने का संकल्प सूचित किया था। कुछ ही महीने बाद वहां पर एक वृहद भव्य यज्ञशाला बनी जो देहरादून की वृहद एवं भव्य यज्ञशालाओं में से एक है। इस स्थान पर यज्ञ करने का अपना ही महत्व है। यह यज्ञशाला पर्वतों पर वनों से चारों ओर से आच्छादित है। स्थान सभी प्रकार के कोलाहलों से मुक्त शान्त है। प्रत्येक वर्ष यहां यज्ञ एवं सत्संग सहित चतुर्वेद पारायण यज्ञ आयोजित होते हैं। आश्रम के वर्ष में दो बार उत्सव होते हैं। दोनों उत्सवों का एक दिन का सत्संग व यज्ञ इस पर्वतीय इकाई में किया जाता है। आध्यात्मिक रूचि रखने वाले ऋषि भक्तों के लिए इस स्थान का विशेष महत्व है। इस स्थान पर महात्मा आनन्द स्वामी एवं महात्मा प्रभु आश्रित जी ने साधना कर योग की सिद्धियों वा उच्च स्थिति को प्राप्त किया था। आज दिनांक 7-9-2021 को मानव कल्याण केन्द्र एवं द्रोणस्थली आर्ष कन्या गुरुकुल महाविद्यालय, देहरादून की ओर से कीर्तिशेष डा. वेदप्रकाश गुप्ता जी की तीसरी पुण्य तिथि पर श्रद्धांजलि अर्पित करने का आयोजन किया गया। हम इस आयोजन में सम्मिलित नहीं हो सके। हम गुप्ता जी को श्रद्धांजलि देते हैं और उनके द्वारा स्थापित सभी संस्थाओं की उन्नति की कामना करते हैं। ओ३म् शम्। -मनमोहन कुमार आर्य .... Vedic Vichar
Role of Teachers in Human Welfare
05-09-2021
Vedic Vichar Respected Madam and Sir, It gives us immense pleasure to invite you to Vedic Vichar Webinar on “Role of Teachers in Human Welfare” to be organized on Sep 5, 2021 06:30 PM. (Today) By VEDIC VICHAR, & LIISPRING, Odisha. Topic : Role of Teachers in Human Welfare Speaker: Prof. Jagannath Panda (Former Professor, Berhampur University) Speaker: Pandit Birendra Kumar Panda, (Spiritual Speaker Otv, Arya Samaj) Organizing Secretary: Biswanath Shastri Coordinators: Dr. Manas Ranjan Mishra & Dr. Yajnya Dutta Nayak Time: Sep 5, 2021 06:30 PM (Mumbai, Kolkata, New Delhi) Join Zoom Meeting https://us02web.zoom.us/j/87207590583?pwd=T2tndHB3cXR2N1hrZXVRbkkrRDlQdz09 Meeting ID: 872 0759 0583 Passcode: 123 With Regards, Vedic Vichar https://www.vedicvichar.com/
ईश्वर सृष्टि की रचना व संचालन क्यों व किसके लिए करता है?
03-09-2021
ओ३म् =========== मनुष्य, आस्तिक हो या नास्तिक, बचपन से ही उसके मन में सृष्टि व इसके विशाल भव्य स्वरूप को देखकर अनेक प्रश्न व शंकायें होती हैं। एक प्रश्न यह होता है कि इस सृष्टि का रचयिता कौन है और उसने किस उद्देश्य से इसकी रचना की है? इसका उत्तर या तो मिलता नहीं है और यदि मिलता भी है तो प्रायः यह होता है कि ईश्वर ने इस सृष्टि को बनाया है अथवा यह अपने आप बनी है। सृष्टि को बनाने वाला वह ईश्वर कौन है, कैसा है, कहां है, वह क्या करता है, आदि प्रश्नों का सत्य व यथार्थ उत्तर हमें अपने घर के बड़ो व मनीषियों से भी मिलता नहीं है। हमारे अनेक मतों के धर्माचार्य व उनकी पुस्तकें भी इस विषय पर यथार्थ रूप में प्रकाश नहीं डालती हैं। इन सभी प्रश्नों का समाधान न होने से मनुष्य के भीतर ही यह शंकायें व प्रश्न विलीन होकर खो जाते हैं। संसार में लाखों व करोड़ों में से कोई एक जिज्ञासु ऐसा भी होता है कि जो इन प्रश्नों की उपेक्षा नहीं करता और इनके हल ढूंढने में ही अपना जीवन लगा देता है। ऐसे ही एक महापुरुष का नाम था ऋषि दयानन्द सरस्वती। ऋषि दयानन्द को अपनी आयु के चैदहवें वर्ष में शिवरात्रि के दिन शिव की पूजा व उपासना करते हुए शिव मन्दिर में स्थित शिव की पिण्डी वा मूर्ति के सच्चे शिव होने में शंका हुई थी। उन्होंने अपने पिता व धर्म के आचार्यों से अपनी शंकाओं के उत्तर जानने का प्रयास किया था परन्तु उनको किसी से सत्य व यथार्थ बृद्धिसंगत व विवेकपूर्ण उत्तर नहीं मिले। इस कारण अध्ययन करते हुए उन्हें अपने माता-पिता के गृह व परिवारजनों को छोड़कर सच्चे ईश्वर के सत्यस्वरूप को जानने सहित मृत्यु रूपी क्लेश पर विजय पाने जैसे अनेक रहस्यमय प्रश्नों की खोज में जाना पड़ा था। सन् 1836 से सन् 1863 तक वह अपनी सभी शंकाओं के समाधान तथा विद्या प्राप्ति में लगे रहे। इस अवधि में उनको न केवल अपने प्रश्नों के उत्तर मिले अपितु वह योग विद्या में निष्णात भी हुए। वह ईश्वर साक्षात्कार व प्रत्यक्ष करने की ध्यान व समाधि की प्रक्रिया के अभ्यासी भी बन गये। उनके द्वारा प्रदत्त ज्ञान से हम ईश्वर व सृष्टि से जुड़े सभी प्रश्नों के समाधान जानते हैं। हमारे ज्ञान का आधार ऋषि दयानन्द के सत्यार्थप्रकाश व ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका आदि अनेक ग्रन्थ हैं। ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों में जो विद्या व ज्ञान है उसका आधार ईश्वरीय ज्ञान वेद, दर्शन, उपनिषद, मनुस्मृति आदि ग्रन्थों के वेदानुकूल कथन, मान्यतायें व सिद्धान्त हैं जिन्हें महाभारत युद्ध के बाद लोगों ने विस्मृत कर दिया था। महाभारत के बाद के काल में अवैदिक, अज्ञान व अन्धविश्वासों से युक्त मूर्तिपूजा, अवतारवाद की कल्पना, मृतक श्राद्ध व फलित ज्योतिष आदि की कृत्रिम मिथ्या मान्यताओं तथा विधि विधानों ने समाज में स्थान बना लिया था जो आज भी बना हुआ है। ऋषि दयानन्द ने इन्हीं अवैदिक विधानों व परम्पराओं को मनुष्य जाति की अवनति सहित देश की परतन्त्रता एवं अन्य दुःखों का मुख्य कारण बताया है जो कि उचित ही है। यह विशाल सृष्टि मनुष्य एवं सभी प्राणियों के जीवन का आधार है। सृष्टि की रचना एवं संचालन एक अपौरूषेय सत्ता के कार्य हैं। अपौरूषेय का अर्थ होता है कि जिस कार्य को मनुष्य नहीं कर सकते तथा जिसे मनुष्य के अतिरिक्त अन्य चेतन सत्ता जो अनादि, नित्य, सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वशक्तिमान एवं सर्वव्यापक आदि गुणों से युक्त है, सम्पन्न करती है। इस सत्ता जो कि ईश्वर की सत्ता है, उसका विस्तृत उल्लेख व परिचय सृष्टि की रचना के आरम्भ में वेदों में ईश्वर द्वारा स्वयं कराया गया है। वेदों के अतिरिक्त भी जब हम वैज्ञानिक रीति से तर्क व वितर्क पूर्वक विचार करते हैं तो हमें ईश्वर का सत्यस्वरूप उपस्थित होता है। वेदों में ईश्वर को सत्य, चेतन और आनन्दस्वरूप बताया गया है। ईश्वर निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। वह जीवों को उनके पूर्वजन्मों के कर्मानुसार भिन्न भिन्न योनियों में जन्म देकर उनके पूर्वकर्मों का सुख व दुःखरूपी भोग कराने वाला है। वह सृष्टि की उत्पत्ति, पालन व प्रलय सहित सृष्टि के आरम्भ में अमैथुनी सृष्टि को करके चार ऋषियों को उत्पन्न करता है और उन्हें एक-एक वेद ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद का ज्ञान देता है। वेदज्ञान के मिलने और ऋषियों द्वारा उनके प्रचार से ही इतर सभी मनुष्य ईश्वर, आत्मा, कर्तव्य व अकर्तव्य सहित ईश्वर की उपासना, परोपकार तथा दान आदि के अपने श्रेष्ठ कर्तव्यों से परिचित होते हैं। इस प्रकार से सृष्टि प्रचलन में आती है और मनुष्य ईश्वर प्रदत्त शरीर व इसमें विद्यमान बुद्धि, मस्तिष्क, ज्ञान व कर्मेन्द्रियों के सहयोग से पुरुषार्थ के द्वारा अपने ज्ञान में वृद्धि करते रहते हैं और उनके द्वारा देश व समाज के लोगों के जीवन को सुख व सुविधाओं से युक्त करते रहते हैं। ईश्वर ने सृष्टि क्यों बनाई है, इसके लिये हमें ईश्वर, जीव और प्रकृति की अनादि और नित्य सत्ताओं तथा उनके गुण, कर्म, स्वभाओं सहित इनके द्वारा हो सकने व की जाने वाली सम्भव क्रियाओं को समझना होगा। इस ब्रह्माण्ड में एक ही ईश्वर है। उसके मुख्य गुण, कर्म व स्वभाव वहीं है जो उपर्युक्त पंक्तियों में दिये गये हैं। जीवात्मा ईश्वर से पृथक अस्तित्व, कार्य व व्यवहार की दृष्टि से एक स्वतन्त्र सत्ता है। जीवात्मा कर्म करने में स्वतन्त्र है परन्तु उनके फल भोगने में ईश्वर के अधीन वा परतन्त्र हैं। जीवात्मा सत्य व चेतन पदार्थ है। यह अल्पज्ञ, अल्पशक्तिमान, आकार रहित, सूक्ष्म, एकदेशी, ससीम, ईश्वर से व्याप्य, अनादि, नित्य, अविनाशी, अमर, शस्त्रों से अकाट्य, अग्नि में न जलने वाला, वायु से न सूखने वाला, कर्म-बन्धनों में बंधा हुआ, जन्म-मरण धर्मा, वैदिक मार्ग पर चल कर वा विद्या प्राप्त कर मृत्यु से पार होने वा मोक्ष प्राप्त करने वाली सत्ता है। ब्रह्माण्ड में जीवों की संख्या अनन्त हैं। इन्हीं जीवों के पूर्वजन्म के कर्मों का सुख व दुःखरूपी फल देने के लिये ईश्वर प्रकृति नामक पदार्थ व सत्ता से जो कि अत्यन्त सूक्ष्म है, इस सृष्टि को बना़़़ते हंै। प्रकृति सत्व, रज व तम गुणों वाली त्रिगुणात्मक सत्ता है। प्रलय अवस्था में यह पूरे ब्रह्माण्ड में फैली हुई होती है। ईश्वर प्रकृति के सूक्ष्म कणों में भी व्यापक रहता है। वह अपनी सर्वव्यापकता, सर्वज्ञता और सर्वशक्तिमत्ता से इस इस प्रकृति में विकार उत्पन्न कर इसे महत्तत्व आदि अनेक पदार्थों में परिवर्तित करते हंै। ऋषि दयानन्द ने सांख्यसूत्रों के आधार पर सत्यार्थप्रकाश में मूल प्रकृति की सत्ता में सृष्टि निर्माण की प्रक्रिया आरम्भ होने पर होने वाली विकृतियों वा रचनाओं का सारगर्भित वर्णन किया है। वह लिखते हैं कि (सत्व) शुद्ध (रजः) मध्य (तमः) जाड्य अर्थात् जड़ता, यह तीन वस्तु मिलकर इनका जो एक संघात है उस का नाम प्रकृति है। इस से महत्तत्व बुद्धि, उस से अहंकार, उससे पांच तन्मात्रा सूक्ष्म भूत और दश इन्द्रियां तथा ग्यारहवां मन, पांच तन्मात्राओं से पृथिव्यादि पांच भूत ये चैबीस और पच्चीसवां पुरुष अर्थात् जीव और परमेश्वर है। इन में से प्रकृति साम्यवस्था में अविकारिणी और महत्तत्व अहंकार तथा पांच सूक्ष्म भूत प्रकृति का कार्य और इन्द्रियां मन तथा स्थूल भूतों का कारण है। पुरुष अर्थात् परमात्मा न प्रकृति का उपादान कारण है और न वह प्रकृति और उसके किसी विकार का कार्य है। इस प्रक्रिया से ईश्वर ने सत्व, रजः व तमः गुणों वाली त्रि़गुणात्मक प्रकृति से इस सृष्टि व इसके सूर्य, चन्द्र, पृथिवी, ग्रह व उपग्रहादि नाना लोकों का निर्माण किया है। यह भी जानने योग्य है कि बिना किसी सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, चेतन सत्ता के इस सृष्टि की रचना व निर्माण नहीं हो सकता। यदि हो भी जाये, जो कि असम्भव है, तो फिर इसका संचालन ईश्वर के समान चेतन सत्ता के बिना नहीं हो सकता। प्रलय के लिए भी ईश्वर की सत्ता का होना व उसे स्वीकार करना आवश्यक है अन्यथा प्रलय के बाद सृष्टि रचना का कार्य होना सम्भव नहीं होगा। अतः सृष्टि की उत्पत्ति प्रक्रिया का सम्पादन सांख्य दर्शन व ऋषि दयानन्द द्वारा किये गये उसके सूत्रों के अनुवाद व क्रम के अनुरूप ही होता है जो कि वेदों के सर्वथा अनुकूल है। सृष्टि की उत्पत्ति अनन्त व अगण्य जीवों के कल्याण तथा उनके पूर्वकल्प एवं पूर्वजन्मों में किये शुभ अशुभ व पाप पुण्य कर्मों सहित सुख-दुःख रूपी फल समस्त जीवों को प्रदान करने के लिये की गई है। यही ईश्वर का सृष्टि बनाने का प्रयोजन है। ईश्वर सृष्टि की रचना वा उत्पत्ति करने में सर्वथा समर्थ हैं, यह भी सृष्टि की रचना का कारण है। इस प्रकार से सृष्टि की रचना किसने, क्यों व किसके लिये की है, इन सभी प्रश्नों का उत्तर मिल जाता है। यही सृष्टि की रचना, क्या, क्यों व कैसे आदि प्रश्नों के सत्य व यथार्थ उत्तर हैं। हमें नहीं पता कि संसार के किसी बड़े वैज्ञानिक ने कभी इस सृष्टि उत्पत्ति के वर्णन को पढ़ने व समझने का प्रयास किया है और यदि किया है तो उसने इसके पक्ष-विपक्ष में क्या टिप्पणी की है? जो भी हो ऋग्वेद के दसवें मण्डल में सृष्टि की रचना का वर्णन किया गया है। वही वर्णन सृष्टि की रचना का सत्य वर्णन है। इसको स्वीकार कर ही जीवों के जन्म-मरण व मनुष्य जन्म के लक्ष्य ‘मोक्ष’ का भी ज्ञान होता है। सृष्टि की उत्पत्ति कब हुई इसका उत्तर भी वैदिक साहित्य से मिलता है। इस विषय में यह जानना महत्वपूर्ण है कि ईश्वर का एक दिन 4.32 अरब वर्षों का होता है। इतनी ही अवधि की रात्रि होती है जिसे प्रलय काल कहते हैं। पूरी सृष्टि का काल 14 मन्वन्तरों में विभाजित किया गया है। 1 मन्वन्तर में 71 चतुर्युगी होती हैं। इस प्रकार एक कल्प में कुल 994 चतुर्युगी होती हैं। शेष 6 चतुर्युगी का काल 43.20 लाख x 6 = 25.92 करोड़ वर्ष होता है। यह समय सृष्टि की उत्पत्ति में लगने वाला समय है। इस अवधि में सृष्टि बनने के बाद मानव की अमैथुनी सृष्टि व आविर्भाव होता है। सृष्टि के आदि काल से ही अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न मनुष्यों वा ऋषियों ने मानव सृष्टि संवत् की गणना आरम्भ कर दी थी। इस समय मानव सृष्टि व वदोत्पत्ति संवत् 1,96,08,53,122 वां वर्ष चल रहा है। इतने वर्ष पूर्व ही हमारी यह सृष्टि वा समस्त ब्रह्माण्ड अस्तित्व में आये हैं। 4.32-1.96-0.26=2.10 अरब वर्षों बाद इस सृष्टि की प्रलय होनी है। प्रलय तक इस सृष्टि में मनुष्य एवं अन्य प्राणियों के उनके पूर्वजन्मों के शुभाशुभ कर्मों के अनुसार जन्म व मरण होते रहेंगे। इस प्रकार हमें सृष्टि के उत्पत्तिकर्ता वा निमित्त कारण ईश्वर, सृष्टि के उपादान कारण प्रकृति तथा जिसके लिये सृष्टि बनाई गई उन जीवों का सत्य व यथार्थ उत्तर मिल जाता है। लेख का जो विषय है, उसमें सम्मिलित सभी शंकाओं का समाधान हो गया है। सृष्टि विषयक इन प्रश्नों का समाधान केवल वैदिक धर्म में ही उपलब्ध होता है। वैज्ञानिक भी अभी इस जानकारी को प्राप्त कर इसकी पुष्टि व खण्डन नहीं कर सके हैं। हम ईश्वर, वेद, सभी वेदर्षियों सहित ऋषि दयानन्द के भी आभारी हैं जिन्होंने हमें विलुप्त व विस्मृत इन सभी प्रश्नों व शंकाओं का युक्ति संगत समाधान प्रदान किया है। हम उन्हें सादर नमन करते हैं। ओ३म् शम्। -मनमोहन कुमार आर्य..... Vedic Vichar
गुरुकुल में वेद पाठ करते हुए ब्रह्मचारी
31-08-2021
गुरुकुल में वेद पाठ करते हुए ब्रह्मचारी संत श्री ओधवराम वैदिक गुरुकुल के ब्रह्मचारी ऋग्वेद के प्रथम सूक्त का पाठ करते हुए। इसमें सुपुत्र देवांश आर्य और दिव्यांशु आर्य अपने सहपाठियों और आचार्य श्री कश्यप जी के साथ ईश्वर वाणी का साक्षात पाठ कर रहे हैं।भगवान से इनकी दीर्घायु की कामना करता हूं। धन्यवाद।
“महाभारत के कृष्ण आदर्श योगी
31-08-2021
ओ३म् “महाभारत के कृष्ण आदर्श योगी, आप्त विद्वान एवं अनुकरणीय महापुरुष” ========== योगेश्वर श्री कृष्ण जी पूरे विश्व में विख्यात हैं। इसका कारण उनका श्रेष्ठ आदर्श जीवन, उनके कार्य और श्रीमद्भगवद् गीता में उनके द्वारा अर्जुन को दिया गया उपदेश है। योगेश्वर कृष्ण लगभग 5,200 वर्ष से कुछ पूर्व इस भारत भूमि के मथुरा नामक नगर में जन्मे थे। उनकी माता देवकी, पिता वसुदेव तथा मामा कंस थे। पिता व दादा वैदिक धर्मावलम्बी धार्मिक प्रकृति वाले थे तथा कंस अधर्म के मूर्तरूप थे। जो मनुष्य धर्म का पालन करता है, धर्म भी उसकी रक्षा करता है और जो धर्म का पालन न कर अधर्म का सेवन करता है धर्म भी उसकी रक्षा नहीं करता। यह मनुस्मृति की वेदसम्मत शिक्षा व ज्ञान है। जीवन का यह अधर्म ही कंस, उसके बाद में दुर्योधन व उसके सभी भाईयों व साथियों की पराजय व युद्ध में मृत्यु का कारण बना। दूसरी ओर श्री कृष्ण व उनके मित्र पाण्डव धर्म के पालन करने वाले व सदाचारी थे। वह सत्यपथानुगामी थे। ईश्वरीय ज्ञान वेद मनुष्य को सतपथानुगामी बनने की शिक्षा व आज्ञा देता है। वेदोद्धारक ऋषि दयानन्द (1825-1883) ने भी अपने जीवन में अपूर्व रीति से वेद प्रचार किया और सत्य के ग्रहण करने व असत्य को छोड़ने पर विशेष बल दिया। सत्याचरण को ही वह धर्म स्वीकार करते थे और असत्याचरण ही अधर्म व इसका पर्याय है। सत्य ही धर्म का मूल है और लोभ ही अधर्म का कारण होता है। श्री कृष्ण सत्य को धारण किये हुए धर्म के मूर्त रूप थे। यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि धर्म के अन्तर्गत ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना का विशेष महत्व होता है। ईश्वर की पूजा व भक्ति से अभिप्राय भी ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना ही होता है। ईश्वर अजन्मा व अमर है। वह कभी जन्म नहीं लेता। जन्म ले भी नहीं सकता क्योंकि सर्वव्यापक सत्ता किसी एक शरीर में समा भी नहीं सकती। मनुष्य शरीर में जन्म व अवतार लेने पर उसका थोड़ा सा भाग शरीर में तथा शेष भाग ब्रह्माण्ड में फैला रहेगा। सर्वव्यापक व सर्वशक्तिमान ईश्वर के लिए ऐसा कोई कार्य अशक्य नहीं है जिसके लिए उसको जन्म लेना पड़े। यदि ईश्वर बिना मनुष्य जन्म व अवतार लिए संसार व ब्रह्माण्ड की रचना कर सकता है, इसका पालन व प्रलय कर सकता है, मनुष्यों को व सभी योनियों में जीवात्माओं को जन्म देकर उनको उनके पाप-पुण्य रूप कर्मों का फल दे सकता है, तो कौन सा ऐसा कार्य बचता है जिसे वह बिना जन्म व अवतार लिये नहीं कर सकता? अतः अवतारवाद का सिद्धान्त असत्य व त्याग करने योग्य है। श्री कृष्ण ही एक ईश्वर भक्त, वेदभक्त, आप्त पुरुष, गोभक्त व गोसेवक, महापुरुष, महात्मा, राजपुरुष व राजा, शूरवीर, बलवान्, योगेश्वर, सद्गृहस्थी, मातृ-पितृ भक्त, कर्तव्यपालक, देशभक्त, सत्य व न्याय के रक्षक, पक्षपात से रहित, प्रजापालक, वेदों के विद्वान, ईश्वर के साक्षात्कर्ता, आदर्श जीवन के धनी, ब्रह्मचर्य से युक्त जीवन के धनी व सदाचारी आदर्श व श्रेष्ठ मनुष्य व युगपुरुष थे। श्री कृष्ण जी के समान महान व्यक्तित्व का जो मनुष्य अनुकरण व अनुसरण करेगा, वह भी उनके अनुरूप ईश्वर भक्त, वेदभक्त, गोभक्त, ब्रह्मचर्य का सेवनकर्ता, देशभक्त, समाजभक्त, प्रजापालक, सत्य व न्याय का पालक होगा। दिनांक 30 अगस्त, 2021 सोमवार को उनका जन्म दिवस है। अतः ऐसे महापुरुष का जन्म दिवस इस दिन उनके जीवन व चरित्र को स्मरण कर उनके जैसा जीवन बनाने का संकल्प लेने का दिवस है। जो ऐसा करेंगे वह देश, समाज सहित अपना स्वयं का हित सिद्ध करेंगे, यह सुनिश्चित है। श्री कृष्ण जी का जन्म 5247 वर्ष पूर्व महाभारत युद्ध से पहले हुआ था। उन दिनों विश्व में सर्वत्र वेद और वैदिक विद्यायें प्रतिष्ठित थीं। अतः कृष्ण जी के जीवन का निर्माण वेद और वैदिक शिक्षाओं के आधार पर ही हुआ। ऋषि सन्दीपनी के आश्रम में वह पढ़े थे जहां उनके साथ सुदामा नामक एक निर्धन ब्राह्मण भी पढ़े थे। ब्राह्मण अपरिग्रही प्रवृत्ति का होने से भौतिक साधनों व ऐश्वर्य की दृष्टि से निर्धन ही होता है परन्तु ज्ञान सम्पन्न होता है। संसार में बड़े से बड़ा व्यक्ति यहां तक की राजा भी सच्चे ब्राह्मणों के सम्मुख श्रद्धा से अवनत होता व सिर झुकाता है। इतिहास में कृष्ण व सुदामा की मित्रता प्रसिद्ध है। यह वैदिक शिक्षा व आदर्श ही हैं जिसमें श्री कृष्ण के समान एक सर्वोत्तम राजा अपने एक अति निर्धन ब्राह्मण मित्र के प्रति अत्यधिक संवेदनशील व भावुक होता है। मर्यादा पुरुषोत्तम राम और ऋषि दयानन्द के जीवन में भी इन गुणों के दर्शन होते हैं। इससे उनके भक्तों को भी शिक्षा लेनी चाहिये जो कि अपवादरूप में ही दिखाई देती है। श्री कृष्ण जी का जीवन अन्याय के विरोध करने व उस पर विजय प्राप्त करने में ही व्यतीत हुआ है। यही गुण श्री राम और ऋषि दयानन्द जी में भी प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। बाल्यकाल में ही उन्होंने अपने मामा कंस के अत्याचारों का विरोध किया और उसे उसके अधर्मयुक्त कार्यों का दण्ड दिया। आजकल देश की व्यवस्था ऐसी है कि जिसमें सभी अधर्म, अन्याय व अत्याचार करने वाले दण्डित नहीं हो पाते हैं। किसी अपराधी को दण्ड या तो मिलता ही नहीं है और यदि मिलता है तो वह वर्षों बाद अल्प मात्रा में ही मिलता है। वैदिक राज्य वेद ज्ञान के आधार पर चलता था जिसे ऋषि मुनि राजाओं के द्वारा चलाते थे। श्री कृष्ण जी ने अपनी सत्य व न्यायप्रियता के गुण के कारण ही एक अत्याचारी राजा जरासन्ध का वध किया व कराया था। बाद में जब कुरुवंश के पाण्डव व कौरव कुलों में वैमनस्य हुआ तो धर्म पर स्थिर उन्होंने पाण्डवों का साथ दिया। उनकी राज-नीतिज्ञता, युद्धप्रवीणता और उच्च ज्ञान के कारण ही वह पाण्डवों को सही सलाह देते थे और अनेक अवसरों व विपत्तियों में उन्होंने उनकी सहायता व रक्षा भी की। कर्ण, भीष्म पितामह हों या गुरु द्रोणाचार्य, इनकी पराजय व वध में भी श्री कृष्ण जी की युद्ध नीतियां काम आयीं। यहां तक की एक बार युधिष्ठिर जी द्वारा अर्जुन के गाण्डीव धनुष के प्रति अनुचित शब्द कह देने पर हुए विवाद को समाप्त करने में भी श्री कृष्ण जी ने ही अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी और उस विवाद को समाप्त किया था। यदि उस अवसर पर वह पाण्डवों के साथ न होते तो देश का इतिहास कुछ और, वर्तमान से भी खराब व बुरा हो सकता था। ऐसे अनेक अवसर आये जब पाण्डव किंकर्तव्यविमूढ़ अवस्था को प्राप्त हुए, तब भी श्री कृष्ण जी ने ही पाण्डवों को उन विपरीत परिस्थितियों से उबारा था। इन सब कारणों से महाभारत एक पठनीय ग्रन्थ बन गया है। स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती तथा पं. सन्तराम, बी.ए. ने महाभारत पर जो ग्रन्थ लिखे हैं वह सभी के लिए पठनीय हैं। इनके अध्ययन से कृष्ण जी, कौरव व पाण्डवों के इतिहास व धर्म-अधर्म सहित सत्य-असत्य को जानने में सहायता मिलती है। महाभारत युद्ध में यदि किसी एक व्यक्ति को इसकी विजय का श्रेय दिया जा सकता है तो वह श्री कृष्ण जी ही हो सकते हैं। उनके समय के सभी लोग उनका आदर व सम्मान करते थे। वस्तुतः श्री कृष्ण जी संसार में वैदिक शिक्षा के आधार पर राज्य स्थापित करना चाहते थे जिसे वर्तमान में हम राम राज्य का रूप मान सकते हैं। वह इस कार्यक्रम को आगे बढ़ा रहे थे परन्तु दुभाग्र्य से महाभारत काल के बाद देश में लोगों ने वेदाध्ययन अध्यापन में रूची नहीं ली जिससे अज्ञानता व अन्धविश्वास उत्पन्न हुए और नाना प्रकार की कुरीतियां एवं मिथ्या परम्परायें प्रचलित हो गई। यज्ञों में हिंसा की जाने लगी, जिसके परिणाम स्वरूप नास्तिक मत बौद्ध और जैन मतों का प्रचलन हुआ। इसके बाद अन्धविश्वास और मिथ्या परम्पराओं में वृद्धि होने से पुराणों की रचना हुई जिससे शुद्ध वैदिक धर्म विलुप्त हुआ और उसका स्थान वर्तमान पुराणों पर आधारित सनातन वा पौराणिक मत ने ले लिया। मूर्तिपूजा, मृतक श्राद्ध, फलित ज्योतिष, अवतारवाद, स्त्री व शूद्रों का वेदाध्ययन में अनधिकार, बाल विवाह, विधवाओं पर अत्याचार, छुआछूत जैसी कुरीतियां व अन्य वेदविरुद्ध पम्परायें वेदों क्े लुप्त व अप्रचलित होने व पुराणों के आधार पर ही आरम्भ हुईं। इनसे देश का पतन हुआ और छोटे छोटे राज्य स्थापित होकर देश का संगठन कमजोर हुआ जिसका परिणाम मुस्लिम व अंग्रेजों की दासता व शोषण सहित हिन्दुओं का बड़ी संख्या में धर्मान्तरण के रूप में सामने आया। सौभाग्य से ऋषि दयानन्द जी का सन् 1863 में एक सत्य वैदिक धर्म प्रचारक के रूप में प्रादुर्भाव हुआ। उन्होंने वेदों का पुनर्रुद्धार किया। इससे देश व समाज से अविद्या वा अज्ञानता दूर हुई और देश से अनेक बुराईयां भी समाप्त हुईं। इन्हीं के परिणामस्वरूप कालान्तर में देश स्वतन्त्र हुआ। ऋषि दयानन्द के देश की आध्यात्मिक, सामाजिक व राजनैतिक उन्नति में योगदान पर उनका सही मूल्याकंन किया जाना अभी शेष है। इस पक्षपात के समय में ऐसा होना सम्भव नहीं दीखता। आजकल तो वोट बंैक की राजनीति का युग है जिसने समाज में सत्य सिद्धान्तों व मान्यताओं को गौण बना दिया है। हम जब श्री कृष्ण जी के जीवन पर दृष्टि डालते हैं तो हमें उनके अध्यात्मिक पुरुष होते हुए भी उनका देश को संगठित कर धार्मिक व सात्विक गुणों वाले पाण्डवों को संगठित व विजयी बनाकर देश को आदर्श राष्ट्र बनाने में विशेष योगदान दिखाई देता है। उनके समय में कौरव व पाण्डवों में राजनीतिक सत्ता प्राप्ति के लिए धर्म व अधर्म के नाम पर द्वन्द हो रहा था। कृष्ण जी ने धार्मिक व सत्य पक्ष पर होने के कारण पाण्डवों का साथ दिया व महाभारत युद्ध में उन्हें विजयश्री प्रदान कराई। श्री राम व ऋषि दयानन्द के जीवन में भी हम इन महापुरुषों को देश, राष्ट्र व इसके सुधार को मुख्य स्थान देते हुए प्रतीत होते हैं। हमें ऐसा लगता है कि धर्म से पहले राष्ट्र का स्थान है। राष्ट्र यदि राष्ट्र धर्म, वेद के अनुसार, के सिद्धान्तों पर चल पड़ें तो फिर धर्म भी अपनी सही स्थिति को प्राप्त हो जाता है। धर्म की विजय के लिए ही श्री कृष्ण जी राष्ट्र को शक्ति सम्पन्न बनाने का कार्य किया जिसके लिए उन्होंने आसुरी शक्तियों का पराभव किया था। देश की वर्तमान परिस्थितियों में श्री कृष्ण जी के समान एक महापुरुष की आवश्यकता है जो कृष्ण जी के समान बुद्धिमान, ज्ञानी, बलवान व सूझबूझ वाला हो। योगेश्वर कृष्ण जी के समय में पारसी, बौद्ध, जैन, पौराणिक, ईसाई, मुस्लिम व सिख आदि मत विद्यमान नहीं थे। तब सभी एक धर्म व एक मत ‘वैदिक धर्म’ के अनुयायी थे। कृष्ण जी भी वैदिक धर्मानुयायी ही थे। महाभारतकालीन अन्य सभी पुरुष आदि भी वैदिक धर्मानुयायी थे। कृष्ण जी वैदिक धर्म के आदर्श रूप हैं। वर्तमान के सभी देशवासी वैदिक धमिर्यों की ही सन्तानें व सन्ततियां हैं। यह भी सत्य है कि बाद में विदेशी विधर्मियों के डर, आतंक व प्रलोभनों आदि के कारण उन्होंने अपने मत परिवर्तन किये हैं। अब समय बदल चुका है अतः उन्हें पुनर्विचार करना चाहिये। श्री कृष्ण जी का आदर्श महापुरुष का सर्वश्रेष्ठ जीवन होने के कारण सभी देशवासियों को उनको अपना आदर्श मानकर उनके जीवन का अनुकरण करना चाहिये। ऋषि दयानन्द ने श्री कृष्ण जी को आप्त पुरुष बताते हुए कहा है कि उन्होंने जन्म से मृत्यु पर्यन्त कोई बुरा काम नहीं किया। 18 पुराण ग्रन्थों को वह प्रमाणिक ग्रन्थ नहीं मानते थे। पुराण की अधिकांश बाते न तो बुद्धिसंगत ही हैं और न ही प्रमाणिक। अतः सभी को कृष्ण जी के महाभारत ग्रन्थ वाले स्वरूप को ही स्वीकार करना चाहिये और उनके जीवन पर लिखे पं. चमूपति, डा. भवानीलाल भारतीय, लाला लाजपतराय, पं. सन्तराम बीए तथा स्वामी जगदीश्वरानन्द जी के महाभारत ग्रन्थों का अध्ययन करना चाहिये। इसी के साथ इस लेख को विराम देते हैं। ओ३म् शम्। -मनमोहन कुमार आर्य
पुनर्जन्म
29-08-2021
===== जब किसी की मृत्यु पर वेद कहता है कि वह पितरों के पास जाए, तो उसका अर्थ यह है कि वह माता-पिता की गोदी को बसाये, अर्थात् दोबारा जन्म ले। नए जन्म लेने वाले बच्चे का पितृलोक यही माता-पिता का घर है, जैसे विवाहिता वधु का पति-लोक उसके पति का घर ही है। -पं. चमूपति (वैदिक स्वर्ग पुस्तक से) -प्रस्तुतकर्ता मनमोहन आर्य
सुप्रभातम्
25-08-2021
सुप्रभातम्!अथ आदि शंकराचार्य कृतं प्रातस्मरणम् !:::प्रातस्मरामि हृदि संस्फुरदात्मतत्वं;सच्चित्सुखं परमहंसगतिं तुरीयम्। यत्स्वप्न जागर सुषुप्तिमवैति नित्यं;तद्ब्रह्म निष्कलमहं न च भूतसङ्घः।१।::प्रातर्भजामि मनसा वचसामगम्यं;वाचो विभान्ति निखिला यदनुग्रहेण।यन् नेति नेति वचनैर्निगमा अवोचं स्तं देव देवमजमच्युतमाहुरग्र्यम्।२।::प्रातर्नमामि तमसः परमर्कवर्णं;पूर्णं सनातनपदं पुरुषोत्तमाख्यम्। यस्मिन्निदं जगदशेषमशेषमूर्तौ;रज्ज्वां भुजङ्गम इव प्रतिभासितं वै।३।:::::इति।
“भजनोपदेशक पं. ओमप्रकाश वर्मा के जीवन का कश्मीर में प्रचार विषयक एक प्रेरक एवं रोचक प्रसंग”
24-08-2021
ओ३म् ======== पं. ओमप्रकाश वर्मा आर्यसमाज की पिछली पीढ़ियों से परिचित एकमात्र ऐसे आर्योपेदेशक थे जिन्हें आर्यसमाज के वरिष्ठ संन्यासियों, भजनोपदेशकों, आर्यविद्वानों के साथ कार्य करने का अनुभव प्राप्त था। उनके स्मृति-संग्रह में आर्यसमाज के गौरव को बढ़ाने वाली अनेक ऐतिहासिक घटनायें थी जिन्हें आर्यजन एवं इसके शीर्ष विद्वान भी उनसे लेखबद्ध करने का आग्रह करते रहे थे। वर्मा जी ने अपने ऐसे अनेक संस्मरण पं. इन्द्रजित् देव जी को लिखवायें थे। यह सभी प्रसंग पाठकों के लिए अत्यन्त प्रेरणादायक होने के साथ उनकी ज्ञानवृद्धि में भी सहायक हैं। वर्मा जी द्वारा श्री इन्द्रजित् देव जी को बोलकर लिखवाये गये सभी प्रेरक प्रसंगों की एक पुस्तक प्रकाशित हो चुकी है। इस पुस्तक का शीर्षक है ‘रोचक एवं प्रेरक संस्मरण वरिष्ठ भजनोपदेशक श्री ओम प्रकाश जी वर्मा’। एक प्रसंग सन् 1956 से सम्बन्धित इस प्रकार है कि वर्मा जी उस वर्ष आर्यसमाज हजूरी बाग, श्रीनगर जम्मू-कश्मीर में वेद प्रचार-सप्ताह के सिलसिले में गये थे। इस कार्यक्रम में उनके अतिरिक्त स्व. पं. शिव कुमार शास्त्री, पं. प्रकाशवीर शास्त्री, प्रिंसिपल पं. लक्ष्मीदत्त दीक्षित (स्वामी विद्यानन्द सरस्वती) तथा लाला रामगोपाल शालवाले भी पधारे थे। एक दिन आर्यसमाज मन्दिर में वर्मा जी के कार्यक्रम के समय पर ब्रिग्रेडियर राजेन्द्र सिंह भी श्रोताओं में विराजमान थे। वर्मा जी के भजन, गीत तथा विचार सुनकर वे बोले कि कल जन्माष्टमी का त्यौहार है तथा यहां के सैनिक मन्दिर में यह त्यौहार मनाया जायेगा। क्या कल वहां यही भजन, गीत व विचार उनके सैनिकों को भी सायं 7.00 बजे सुनायेंगे? वर्मा जी ने उनके प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। बिग्रेडियर राजेन्द्र सिंह जी अगले दिन आये तथा वर्मा जी को सेना के मन्दिर में अपनी गाड़ी में बिठाकर ले गये। यह मन्दिर डा. कर्णसिंह की कोठी के पास ही था। वर्मा जी ने वहां योगेश्वर कृष्ण जी के विषय में महर्षि दयानन्द सरस्वती जी के विचारों के आधार पर गीत, भजन व विचार प्रस्तुत किये। वर्मा जी के कार्यक्रम को सुनकर सैनिकों व उनके उच्चाधिकारियों में अद्भुत उत्साह का संचार हुआ। वापसी के लिये वर्मा जी जब ब्रिगेडियर साहब की गाड़ी के भीतर बैठे ही थे कि 2 व्यक्ति सामने वाली सड़क से उनके पास आए तथा बोले ‘क्या पं. ओम प्रकाश वर्मा आप ही हैं?’ वर्मा जी ने उत्तर दिया कि हां, मैं ही ओमप्रकाश वर्मा हूं। तब बख्शी गुलाम मुहम्मद वहां के मुख्यमंत्री थे। वर्मा जी थोड़े समय के लिये चिन्तित हुए व स्मरण करने लगे कि उन्होंने इस्लाम व मुसलमानों के विरोध में क्या कहा है? ऐसा उन्होंने कुछ भी नहीं कहा था। फिर तुरन्त उनके मन में विचार आया कि जब ब्रिगेडियर राजेन्द्र सिंह मेरे साथ हैं तो चिन्ता किस बात की करनी है? वर्मा जी जीप से नीचे उतर गये तथा उन 2 व्यक्तियों से उनका परिचय पूछा? उनमें से एक व्यक्ति ने उत्तर दिया कि वह यहां के राज्यपाल डा. कर्णसिंह के मामा ओकार सिंह हैं। वर्मा जी ने पूछा ‘मेरे योग्य सेवा बताइए’। उन्होंने कहा कि यहां आपने जो विचार सुनाए हैं, हमने सड़क पार उस कोठी में बैठकर पूरी तरह सुने हैं। क्या आप यही विचार वहां आकर भी सुनाएंगे? ठीक है, मैं कल सायं 7.00 बजे आर्यसमाज हजूरीबाग में मिलूंगा। आप मुझे कल वहां से लेकर आने की व्यवस्था कीजिये तो मैं आ जाऊंगा। उन्होंने कहा कि वह कल उन्हें वहां से ले जाएंगे। आर्यसमाज मन्दिर लौटकर वर्मा जी ने पूरा वृतान्त आर्यसमाज के अपने साथी विद्वानों को सुनाया जो वहां उनके साथ पधारे हुए थे। वह सभी विद्वान वर्मा जी के इन बातों को सुन कर बहुत प्रसन्न हुवे। उन विद्वानों ने कहा कि महर्षि दयानन्द सरस्वती के तीन ग्रन्थ ‘सत्यार्थप्रकाश’, ‘संस्कारविधि’ तथा ‘ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका’ डा. कर्णसिंह को भेंट करना तथा अपने उपदेश में महर्षि दयानन्द सरस्वती महाराज तथा आर्यसमाज का नाम अवश्य लेना। डा. कर्ण सिंह की माताजी के नाम पर बने ‘तारादेवी निकेतन’ में तब डा. कर्णसिंह जी सपरिवार रहते थे। उन दिनों वे जम्मू व कश्मीर के राज्यपाल थे। वह शासकीय बंगले में न रहकर ‘तारादेवी निकेतन’ में ही रहते थे। इसके आगामी दिन वर्मा जी जब निश्चित कार्यक्रमानुसार वहां पहुंचें तो वहां एक श्वेत वस्त्रधारी महानुभाव को भी उन्होंने देखा। उसने वर्मा जी ने पूछा आपका परिचय? वर्मा जी ने कहा कि मैं आर्यसमाज का एक उपदेशक-प्रचारक ओमप्रकाश वर्मा हूं। उन्होंने पूछा कि आजकल आर्यसमाज क्या कर रहा है? वर्मा जी ने बताया कि आजकल आर्यसमाज हिन्दी रक्षा आन्दोलन चलाने की तैयारी कर रहा है। वर्मा जी ने उनसे उनका परिचय भी पूछा। उन्होंने कहा कि लोग मुझे जनरल करिअप्पा कहते हैं। वर्मा जी प्रसन्न होकर बोले वाह! आप तो हमारे रक्षक सेनापति है। डा. कर्णसिंह ने हस्तक्षेप करते हुए कहा कि आजकल आर्यसमाज की गतिविधियां तो हम पढ़ते रहते हैं परन्तु यह बताइए कि आर्यसमाज को स्थापित हुये लगभग अस्सी वर्ष बीत गये हैं, इन वर्षों में आर्यसमाज ने क्या किया है? वर्मा जी बोले ‘आप जैसे राजाओं को ईसाई बनने से बचाया है।’ यह शब्द वर्मा जी ने सहज व निडर होकर कहे। कर्णसिंह जी बोले क्यों गलत बोलते हो, हमें आर्यसमाज ने ईसाई होने से बचाया है? नहीं, हम यह कदापि नहीं मान सकते। ओम प्रकाश वर्मा जी ने कहा कि आपको नहीं, आपके दादा महाराज प्रताप सिंह को ईसाई बनने से बचाया है। यदि वे तब ईसाई बन गये होते तो आज आप भी ईसाई होते। कर्ण सिंह जी ने पूछा कि आप कैसे कहते हैं कि मेरे दादा जी को ईसाई बनने से आर्यसमाज ने बचाया? वर्मा जी ने कहा सुनिए, डा. साहब! आपके दादा प्रताप सिंह के शासनकाल तक जम्मू-कश्मीर में पौराणिक पंडितों के दबाव के कारण आर्यसमाज पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगा हुआ था। आर्यसमाज इसे कैसे सहन कर सकता था। राजस्थान के पं. गणपति शर्मा लाहौर स्यालकोट के मार्ग से जम्मू में पहुंच गये । श्रीनगर से 23 किमी. दूर स्थित नीचे एक हाऊस बोट में रहने लगे। उन्हीं दिनों पादरी जानसन श्रीनगर में पहुंचा व महाराजा प्रताप सिंह से कहने लगा कि अपने पण्डितों से मेरा शास्त्रार्थ कराओ। यदि मैं शास्त्रार्थ में पराजित हो गया तो आपका धर्म स्वीकार करूंगा तथा आपके पण्डित यदि हार गये तो आपको ईसाई बनना होगा। निश्चित तिथि पर राज-दरबार में शास्त्रार्थ हुआ। विषय था ‘मूर्तिपूजा’। भगवान की मूर्ति बन ही नहीं सकती क्योंकि उसकी काई आकृति ही नहीं है। मूर्ति को भगवान् मानकर इसकी पूजा करनी चाहिये, इसे सिद्ध करें। कई दिनों तक पण्डित इसे सिद्ध न कर सके। महाराजा अपने पण्डितों का पक्ष कमजोर पड़ता देखकर बपतिस्मा पढ़कर ईसाई बनने को तैयार हो रहे थे कि तभी पं. गणपति शर्मा, जो बहुत देर से सभा में बैठे थे, खड़े हो गये व महाराज प्रतापसिंह को सम्बोधित करके बोले। महाराज! मुझे आज्ञा दें तो मैं जानसन से शास्त्रार्थ करूंगा। महाराज की पराजय हो रही थी। उन्होंने आज्ञा दे दी परन्तु पराजित पण्डितों व पादरी जानसन ने यह कहकर पं. गणपति जी का विरोध किया कि यह तो आर्यसमाजी पण्डित है। महाराज ने यह सोचकर कि यह जानसन को तो ठीक कर ही देगा, पण्डितों व जानसन की आपत्तियां निरस्त कर दीं व गणपति शर्मा जी को जानसन से शास्त्रार्थ करने को कहा। पं. गणपति जी बोले, पादरी जी। आप प्रश्न करें, मैं उत्तर दूंगा। जानसन बोले, हम आपसे शास्त्रार्थ करेंगे। पंण्डित गणपति शर्मा ने उन्हें कहा कि पहले यह बताएं कि शास्त्रार्थ शब्द का अर्थ क्या है? क्या शास्त्र से मतलब आपका छः शास्त्रों, योग, सांख्य, न्याय, वैशेषिक, वेदान्त तथा मीमांसा से है? यदि इनसे ही आपका मतलब है तो बताइये कि इन दर्शन शास्त्रों में से किस का अर्थ करने आप यहां आए हैं? क्या आपको ज्ञान है कि अर्थ शब्द अनेकार्थक है। अर्थ का एक अर्थ धन होता है। दूसरा अर्थ प्रयोजन होता है जबकि तीसरा अर्थ द्रव्य, गुण व कर्म (वैशेषिक दर्शनानुसार) भी है। आप कौन-सा अर्थ समझने-समझाने आये हैं? शास्त्र भी केवल छः नहीं हैं। धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र, कामशास्त्र व नीतिशास्त्र आदि कई शास्त्र विषयों की दृष्टि से भी हैं। आप ‘शास्त्रार्थ’ शब्द का अर्थ समझायेंगे तो हम आगे बात चलायेंगे। जानसन ने गड़बड़ायी बाणी में उत्तर दिया कि हम इसका उत्तर न दे सकेंगे। इस पर प्रतापसिंह जी ने सिर हिलाकर कहा अब काहे को उत्तर आयेगा। तब पं. जी ने फिर कहा, महाराज! जानसन उत्तर नहीं दे रहा है। इस पर प्रतापसिंह जी बोले, पण्डित जी! यह तो आप पहले ही प्रश्न का उत्तर नहीं दे पा रहा है व मौन खड़ा है तो अब जाये यह अपने घर। पण्डित जी! आपने मुझे ही नहीं, पूरे जम्मू-कश्मीर की प्रतिष्ठा बचाई है। पूरे जम्मू-कश्मीर को ईसाई होने से बचाया है। हम आपसे बहुत प्रसन्न हैं। बताईये, आपको क्या भेंट दूं? महाराज! मुझे अपने लिये कुछ नहीं चाहिये। देना ही है तो दो काम कीजिये। प्रथम तो यह कि आर्यसमाज पर लगा प्रतिबन्ध हटा दें तथा दूसरा यह काम करें कि यहां आर्यसमाज को स्थापना हो जाये। वर्मा जी ने यह घटना डा. कर्णसिंह को पूरी सुनाई और उन्हें यह भी बताया कि श्रीनगर में हजूरी बाग का आर्यसमाज मन्दिर आपके दादा प्रतापसिंह जी द्वारा दी भूमि पर ही स्थापित हुआ था। प्रतापसिंह जी ने आर्यसमाज पर अपने पिता रणवीर सिंह द्वारा पौराणिक पण्डितों के दबाव व धमकियों के कारण लगाए प्रतिबन्धों को तुरन्त हटा दिया था। श्री ओमप्रकाश वर्मा जी की बातें सुनकर डा. कर्णसिंह मौन हो गये। वर्मा जी ने उन्हें बताया कि यह घटना पं. इन्द्र विद्यावाचस्पति जी द्वारा लिखित ‘आर्यसमाज का इतिहास प्रथम भाग’ में पृष्ठ 254 पर संक्षेप में वर्णित है। बाद में डा. कर्णसिंह के घर पर वर्मा जी के भजन, गीत व उपदेश हुये तथा उनकी गाड़ी उन्हें हजूरी बाग आर्यसमाज मन्दिर, श्रीनगर में वापिस छोड़ गई। वर्मा जी ने आर्यसमाज में उनके साथ पधारे पं. शिवकुमार शास्त्री आदि चारों उपदेशकों को उक्त पूरी घटना विस्तारपूर्वक सुनाई तो वे सभी बहुत प्रसन्न हुये और उन्होंने वर्मा जी को बहुत शाबाशी दी। इन पंक्तियों के लेखक ने उपर्युक्त प्रसंग पं. इन्द्रजित् देव जी लिखित तथा आचार्य सोमदेव आर्य जी द्वारा सम्पादित पुस्तक ‘रोचक एवं प्रेरक संस्मरण वरिष्ठ भजनोपदेशक श्री ओम प्रकाश जी वर्मा’ से लिया है। हम पुस्तक के लेखक एवं सम्पादक जी का हृदय से धन्यवाद करते हैं। इस लेख में प्रस्तुत साम्रगी को हमने कुछ परिवर्तित रूप में प्रस्तुत किया है। हम आशा करते हैं कि पाठकों को लेख की सामग्री एवं घटनायें पढ़कर प्रसन्नता होगी। यदि वर्मा जी पं. इन्द्रजित् देव जी को इस व अन्य संस्मरणों को न लिखवाते तो आर्य जनता इस महत्वपूर्ण इतिहास से अनभिज्ञ रह जाती है। अतः वर्मा जी एवं श्री इन्द्रजित् देव जी का धन्यवाद है। ओ३म् शम्। -मनमोहन कुमार आर्य .... #Vedic Vichar .......... #Arya Samaj ........ #Swami Dayanand Saraswati........ www.vedicvichar.com
श्रावणी-उपाकर्म, ऋषि-तर्पण, वेद-स्वाध्याय पर्व, रक्षा-बन्धन, विश्व-संस्कृत दिवस को कैसे मनायें ꫰
24-08-2021
*१) श्रावणी उपाकर्म -* *"श्रावणी"* शब्द श्रु श्रवणे धातु से ल्युट् प्रत्यय पूर्वक छन्दसि (वेदार्थ) में स्त्री लिंग में श्रावणी शब्द सिद्ध होता है। जिसका अर्थ होता है सुनाये जाने वाली। क्या सुनाये जाने वाली? जिसमें वेदों की वाणी को सुना जाये। वह *"श्रावणी"* कहाती है। अर्थात् जिसमें निरन्तर वेदों का श्रवण-श्रावण और स्वाध्याय और प्रवचन होता रहे। वह श्रावणी है। *"उपाकर्म"* उप+आ+कर्म = उपाकर्म। उप= सामीप्यात् , आ=समन्ताद, कर्म =यज्ञीय कर्माणि। जिसमें ईश्वर और वेद के समीप ले जाने वाले यज्ञ कर्मादि श्रेष्ठ कार्य किये जायें वह *"उपाकर्म"* कहाता है। *"अध्ययनस्य उपाकर्म उपाकरणं वा"* (पारस्कर गृह्य सूत्र २,१०,१-२) अर्थात् यह समय स्वाध्याय का उपकरण था। उप=समीप+आकरण ले आना, जनता को ऋषि-मुनियों, समाज के विद्वानों के समीप ले आना। *२) ऋषि तर्पण -* जिस कर्म के द्वारा ऋषि मुनियों का और आचार्य, पुरोहित, पंडित जो विशेषकर वेदों के विद्वान है उनका तर्पण किया जाता है उन्हें यथेष्ट दान देना अर्थात् उनके वचनों को सुनकर उनका सम्मान करना ही *"ऋषि-तर्पण"* कहाता है। *३) वेद स्वाध्याय पर्व -* स्वाध्याय भारत की संस्कृति का प्रधान अंग है। ब्रह्मचारी के लिए आदेश है - *"आचार्याधीनो वेदमधीष्व"* आचार्य के अधीन रहकर वेदाध्ययन करते रहो। स्नातक हो जाने पर गृहस्थी के लिए आदेश है - *"स्वाध्यायान्मा प्रमदः" *"स्वाध्याय प्रवचनाभ्यां न प्रमदितव्यम्* विद्याध्ययन कर चुकने के बाद भी स्वाध्याय करते रहना। वानप्रस्थी के लिए आदेश है - *"स्वाध्याये नित्य युक्तः स्यात्"* सदा स्वाध्याय में युक्त रहे। सन्यासी के लिए आदेश है - *"संन्यसेत्सर्वकर्माणि वेदमेकं न संन्यसेत्"* सब कुछ छोड़ दें परंतु वेद का स्वाध्याय ना छोड़ें। श्रावण माह में ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ, सन्यासी, ब्राह्मण क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र सभी को स्वाध्याय में लगने का आदेश है। *४) यज्ञोपवीत धारण -* यज्ञोपवीत ज्ञान ग्रहण करने का बाह्य चिह्न है। इसीलिए इस समय जिन लोगों ने यज्ञोपवीत नहीं धारण किया हुआ है, उन्हें नया यज्ञोपवीत धारण करना चाहिए। अर्थात इस बात का संकल्प करना चाहिए कि वे अज्ञान, अंधकार से बाहर निकलेंगे और और ज्ञानवान होकर परिवार, समाज, राष्ट्र को प्रकाशित करेंगे। जिन लोगों ने यज्ञोपवीत धारण किया हुआ है, उन्हें पुराने यज्ञोपवीत को उतारकर नया धारण करना चाहिए। अर्थात् इस बात का संकल्प करना चाहिए कि वह अपने जीवन में स्वाध्याय और यज्ञ को कभी नहीं छोडेंगे। विशेषकर यज्ञोपवीत में तीन धागे होते है वे तीन ऋणों के प्रतीक है। ऋषि ऋण, देव ऋण, पितृ ऋण। मनुष्य को इन तीनों ऋणों का बोध हो यही उद्देश्य है। *५) विश्व संस्कृत दिवस -* *"सा प्रथमा संस्कृति विश्ववाराः"* संसार की सबसे प्राचीनतम संस्कृति "वैदिक संस्कृति" है। जो समस्त विश्व को वरणीय है अर्थात सारा संसार जिस सभ्यता और संस्कृति का गुणगान गाता है वह संस्कृति और कोई नहीं अपितु वैदिक संस्कृति है। जो संस्कृत पर अवलंबित है। आज जबसे हमने संस्कृत भाषा से नाता तोड़ लिया है मानो यह वसुंधरा हमसे रूठ सी गई है। संस्कृत के छोड़ देने से हमारी संस्कृति छूट गई, हमारी सभ्यता छूट गई, हमारा ज्ञान विज्ञान छूट गया है। संस्कृत भाषा तो देवों की वाणी है। संस्कृत भाषा ईश्वर की वाणी है। संस्कृत भाषा वेद की भाषा है। संस्कृत भाषा सभी भाषाओं की जननी है। यही वह भाषा है जिसकी अपनी ध्वनि व देवनागरी लिपि है। जो पूर्ण रूप से वैज्ञानिक और ईश्वर द्वारा प्रदत्त है। संस्कृत भाषा भारतीय संस्कृति की प्राण है। संस्कृत के बिना भारत की संस्कृति अधूरी है। दुनिया में सबसे अधिक वांगमय साहित्य संस्कृत भाषा के हैं। सबसे अधिक शब्दों का भंडार संस्कृत भाषा का है। वेद स्वाध्याय के इस महान पर्व पर संस्कृत के प्रचार प्रसार के लिए समाज के मनीषियों ने इस दिन को संस्कृत दिवस के रूप में मनाने का निश्चय किया है। संस्कृत भाषा कठिन नहीं अपितु सरल मधुर कर्णप्रिय बोलने में अति रुचिकर है। इस देश में महाभारत काल के पश्चात स्वामी शंकराचार्य तक आपस में सभी संस्कृत में ही वार्तालाप किया करते थे यहां तक जब स्वामी दयानन्द कार्य क्षेत्र में उतरे तो उनकी व्याख्यान की भाषा भी संस्कृत हुआ करती थी अर्थात् भारत के लोग स्वामी दयानन्द के काल में भी अच्छी तरह से संस्कृत समझ लिया करते थे। आइए संस्कृत भाषा के संरक्षण, संवर्धन, प्रचार, प्रसार में योगदान दें। इसकी उन्नति में अपनी उन्नति समझें। किसी ने कहा है - *मातुः स्तन्यं बिना बालो याथा नो पुष्टिमर्हति।* *समाजो भारतीयोsयं अपुष्टः संस्कृतं विना।।* अर्थ - जैसे माता के स्तनपान के बिना बालक पुष्ट नही होता है। अर्थात् बालक के सम्पूर्ण विकास के लिये जैसे माता का दुध अत्यावश्यक है ठीक वैसे ही संस्कृत के बिना भारतीयता भी अपुष्ट है। *६) रक्षाबन्धन -* रक्षाबंधन का पर्व भारत की संस्कृति से जुड़ा पर्व है। राजपूत काल में अबलाओं द्वारा अपनी रक्षा के लिए वीरों के हाथ में राखी बांधने की परिपाटी का प्रचार हुआ। जिस किसी वीर क्षत्रियों को कोई अबाला राखी भेजकर अपना राखी बंद भाई बना लेती थी वो उसकी रक्षा करना अपना कर्तव्य समझता था। इतिहास में ऐसी बहुत सारी घटनाएं दर्ज है जहां पर भाइयों ने अपने प्राणों की आहुति दे कर बहनों की रक्षा की है। ध्यान देने की बात यह है कि यह त्यौहार सिर्फ अपने देश में मनाया जाता है अन्य किसी देश में नहीं। अपना ही ऐसा देश है जिसमें कोई भी अबला किसी पुरुष के हाथ में राखी बांधकर उसे जीवन भर का अपना भाई बना लेती है और वह भाई उस बहन को आश्वासन देता है कि वह जीवन भर उसकी सहायता रक्षा करेगा। इस दृष्टि से यह त्यौहार भारत की संस्कृति के आध्यात्मिक पथ पर गहरा प्रकाश डालता है। *विशेष - अवश्य रुप से अपने घरों में यज्ञ करें। श्रावणी उपाकर्म के विशेष मंत्रों से आहुति प्रदान करें। घर के बालक जो दस बारह वर्ष से अधिक आयु के हो गए हैं या समझदार हैं। उनका यज्ञोपवीत संस्कार अवश्य रुप से करायें। यज्ञोपवीत का महत्व बताएं। जिन्होंने यज्ञोपवीत धारण किया हुआ है वह पुराना उतार कर नया यज्ञोपवीत धारण करें। वेद पढ़ने-पढ़ाने का संकल्प लें, स्वाध्याय करने का संकल्प लें, प्रतिदिन यज्ञ करने का संकल्प लें, अपने बहनों एवं मातृशक्ति के रक्षा करने का संकल्प लें, बस यही संदेश है श्रावणी पूर्णिमा। इस संदेश को घर-घर पहुंचाएं, ऐसे ही मनाएं श्रावणी पर्व।* श्रावणी-उपाकर्म, ऋषि-तर्पण, वेद-स्वाध्याय पर्व, रक्षा-बन्धन, विश्व-संस्कृत दिवस की आप सभी को शुभकामनाएं। परमात्मा आप सभी को उत्तम स्वास्थ्य, दीर्घायु, ऐश्वर्य, यश, कीर्ति प्रदान करें। और ऐसे ही व्यस्त रहें, स्वस्थ रहें, मस्त रहें।
THERE IS A DEMON AND A BOAR IN OUR HEART
22-08-2021
THERE IS A DEMON AND A BOAR IN OUR HEART Sa id daasam tuvee-ravam patir dan Ṣhaḍ akṣham tri sheerṣhaaṇam damanyat Asya tṛito nu ojasaa vṛidhaano Vipaa varaaham ayo agrayaa han – Rig Veda 10:99:6 There is a hostile demon in the heart of each one of us. This demon has six eyes and three heads, and he roars loudly. The Soul, the lord of this body, subdues the demon, tearing him into pieces. In addition, there is also a wild boar in us. When we are made strong by the might that the Soul infuses in us, we become empowered in thoughts, words and deeds. We then strike down this boar with the iron-pointed shaft of our intellect. 1. Name: The name of the demon is Vicious Resolve. 2. It has six eyes: They are lust, anger, greed, infatuation, arrogance and jealousy. 3. It has three heads: They focus on violating knowledge, practicing untruth and engaging in lewd behavior. 4. It roars loudly. This demon inspires fear in the minds of those who come near to the person in whose heart he resides. This demon attacks us on the inside by forcing us to see through his six perverted eyes. We consequently become lustful, angry, greedy, infatuated, arrogant or jealous. This demon can attack us further by forcing its head [mind] on us. We then think in terms of 1. opposing knowledge and teachers of knowledge, 2. embracing untruth, and 3. becoming shamelessly lewd in our behavior. The above is the damage that this demon causes us and those around us. This demon, however, is not the only enemy stalking us. There is also a wild boar in our heart. Wild boars are known to host at least 20 different parasitic worm species. They carry parasites that infect humans, they are frequently infested with ticks and hog lice and they suffer from the bites of blood-sucking flies. The wild boar is an omnivore. In addition to plants, it consumes garbage, earthworms, insects, mollusks, fish, rodents, insectivores, bird eggs, lizards, snakes, frogs, carrion and even fungi. Metaphorically speaking, it is the wild boar in us that motivates us to eat what is not wholesome for human beings. The logical question is: Are we meant to be subjected to dictates coming from both demon and wild boar? Presented by: DR SATISH PRAKASH FOUNDER ACHARYA MAHARSHI DAYANANDA GURUKULA, NEW YORK
जीवन में सुखी होने के लिए केवल अच्छी आर्थिक स्थिति ही पर्याप्त नहीं है। मन भी प्रसन्न होना चाहिए। ज्ञान भी ठीक (वैदिक) होना चाहिए।
22-08-2021
*"जैसे नदी के दो किनारे होते हैं, ऐसे ही जीवन रूपी नदी के भी दो किनारे हैं। एक किनारा सुख का है, और दूसरा किनारा दुख का है।"* इसलिए जीवन में सब दिन सुखमय नहीं होते। कभी सुख, कभी दुख आता ही रहता है। जब जीवन में सुख आता है, तब तो लोग बड़े खुश रहते हैं, और उन्हें कोई शिकायत नहीं होती। परन्तु जब दुख आता है, कोई परेशानी आती है, लोग रोगी हो जाते हैं, कोई व्यक्ति उनसे नाराज हो जाता है, द्वेष करने लगता है, वह तरह-तरह से उनकी हानियां करता है, झूठे आरोप लगाता है, उनकी संपत्ति चुरा या छीन लेता है, उनको अपमानित करता है इत्यादि। *"जब इस प्रकार के दुख आते हैं, तब व्यक्ति के पास वेदों का ज्ञान न होने के कारण वह इधर उधर भटक जाता है। और व्यर्थ की बातें मानने लगता है। पाखंडों में फंस जाता है। क्योंकि समाज का अधिकांश वातावरण भी ऐसा ही है।"* समाज में ऐसे बहुत कम लोग हैं, जो वेदों को पढ़ते और समझते हैं। इसलिए वैदिक ज्ञान की कमी के कारण लोग स्वयं भटके हुए हैं, और दूसरों को भी भटकाते रहते हैं। *"किसी कार्य के बिगड़ने पर उन्हें गृह दोष, वास्तु दोष, पितृ दोष, शनि दोष, कालसर्प दोष आदि सब दिखाई देने लगते हैं। केवल अपना दोष नहीं दिखाई देता।"* वे लोग अपना दोष स्वीकार नहीं करते, बल्कि पाखंडों में फंसे रहते हैं। उल्टा और अधिक अपने धन तथा समय की हानि करते हैं। अनेक प्रकार की चिंता तनाव आदि में डूबे रहते हैं। वास्तव में ये गृह दोष, वास्तु दोष, पितृ दोष, शनि दोष, कालसर्प दोष आदि सब भ्रांतियां हैं। वेदो में ऐसी कोई चर्चा नहीं है। जब कोई काम बिगड़ जाए, तो वेदों के सिद्धांत के अनुसार अपना दोष देखना चाहिए, कि हमारे काम में कहां और क्या कमी रही। जैसे कि -- *"क्या हमें काम करना नहीं आता। या हमारे अंदर आलस्य प्रमाद आदि दोष हैं। या व्यापार में हम ठीक से संपत्ति का विनियोग नहीं करते। क्या दोष है। उस दोष को देखें। उस को दूर करें। इन पाखंडों से बचें।"* इससे आप की आर्थिक स्थिति भी अच्छी होगी, तथा मानसिक स्थिति भी प्रसन्नता वाली होगी। *"परंतु यह सब तभी होगा जब आप का ज्ञान ठीक हो। अपने ज्ञान को वेदों के अनुसार ठीक करें। वेद आदि शास्त्रों का अध्ययन करें, तथा जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सफलता प्राप्त करें।"* --- *स्वामी विवेकानंद परिव्राजक, रोजड़, गुजरात।* #Vedic Vichar #Arya Samaj
सभी सदस्यो से आग्रह
22-08-2021
!!!---: सभी सदस्यो से आग्रह :---!!! ======================= किसी भी पोस्ट को यूं ही कापी पेस्ट मत किया कीजिए, भगवान ने दिमाग दिया है , उसका इस्तेमाल भी किया कीजिए । ???????????????? उसका निहितार्थ समझिए.. आज कल एक फैशन हो गया है , कि मुल्ले की पिटाई चाहे उचित वजह से की हो , उसका वीडियो बनाकर वायरल कर देते है, मस्जिद, मजारों पर तोड-फोड वायरल कर देते है .. गलत है .. सौ गुनी मार मारो, सभी मस्जिद , मजार को तोड़ो , किसने रोका है , पर उसका वीडियो वायरल मत करो । याद है छत्तीसगढ़ में एक साईकल चौर तबरेज की पिटाई, भीड ने उसे चोर समझकर मारा , उसने हिंदु नाम बताया , तो भीड ने बोला "बोलो जय श्रीराम" उसका वीडियो बनाकर किसी बंदे ने वाट्सअप , फेसबुक पर शेयर किया, तब जाकर हंगामा मचा । इसी प्रकार जब कोई हिंदु लडका मुल्ली के साथ विवाह करता है , तो उसकी फोटो को वायरल कर देते है , कभी सोचा की उस लडके , उस मुल्ली का जीवन संकट में पड जायेगा । प्रचार प्रिय समाज है, मुल्ले तमाम गलत हरकत करते है पर वो मुस्लिम ग्रुप के सामने हिंदुऔ की पिटाई , मंदिर में तोड-फोड का विडियो बनाते ही नही । ऐसी कई पोस्ट मैंने पढी है कि फलाने राजा ने तीन सौ मस्जिदों को गिराया , वो राजा था , वो चाहता तो राज्य से मुसलमान खदेड़ सकता था, मार सकता था, तीन सौ क्या तीन हजार मस्जिदें तोडी,पर जरुरी है क्या पोस्ट को आगे बढाने की.... मुसलमानों से सीखों , करीब तीन लाख मंदिर तोडकर मस्जिद बना ली , कभी उनके मुंह से मंदिर तोडने की बात सुनी है? नही न.....!!! वो विक्टीम कार्ड खेलना अच्छी तरह से जानते है कि मारो, लुटो और बोलो कि इसी ने हमें मारा है । हिन्दू कब सीखेगा? ये धर्मयुद्ध है । भगवान कृष्ण ने द्रोणार्चाय वध के लिए महाभारत मे भी युधिष्ठिर के मुंह से आधा सच ही बुलवाया था .. यही सीखने की जरुरत है । योगाचार्य डॉ. प्रवीण कुमार शास्त्री
सभी सदस्यो से आग्रह
22-08-2021
!!!---: सभी सदस्यो से आग्रह :---!!! ======================= किसी भी पोस्ट को यूं ही कापी पेस्ट मत किया कीजिए, भगवान ने दिमाग दिया है , उसका इस्तेमाल भी किया कीजिए । ???????????????? उसका निहितार्थ समझिए.. आज कल एक फैशन हो गया है , कि मुल्ले की पिटाई चाहे उचित वजह से की हो , उसका वीडियो बनाकर वायरल कर देते है, मस्जिद, मजारों पर तोड-फोड वायरल कर देते है .. गलत है .. सौ गुनी मार मारो, सभी मस्जिद , मजार को तोड़ो , किसने रोका है , पर उसका वीडियो वायरल मत करो । याद है छत्तीसगढ़ में एक साईकल चौर तबरेज की पिटाई, भीड ने उसे चोर समझकर मारा , उसने हिंदु नाम बताया , तो भीड ने बोला "बोलो जय श्रीराम" उसका वीडियो बनाकर किसी बंदे ने वाट्सअप , फेसबुक पर शेयर किया, तब जाकर हंगामा मचा । इसी प्रकार जब कोई हिंदु लडका मुल्ली के साथ विवाह करता है , तो उसकी फोटो को वायरल कर देते है , कभी सोचा की उस लडके , उस मुल्ली का जीवन संकट में पड जायेगा । प्रचार प्रिय समाज है, मुल्ले तमाम गलत हरकत करते है पर वो मुस्लिम ग्रुप के सामने हिंदुऔ की पिटाई , मंदिर में तोड-फोड का विडियो बनाते ही नही । ऐसी कई पोस्ट मैंने पढी है कि फलाने राजा ने तीन सौ मस्जिदों को गिराया , वो राजा था , वो चाहता तो राज्य से मुसलमान खदेड़ सकता था, मार सकता था, तीन सौ क्या तीन हजार मस्जिदें तोडी,पर जरुरी है क्या पोस्ट को आगे बढाने की.... मुसलमानों से सीखों , करीब तीन लाख मंदिर तोडकर मस्जिद बना ली , कभी उनके मुंह से मंदिर तोडने की बात सुनी है? नही न.....!!! वो विक्टीम कार्ड खेलना अच्छी तरह से जानते है कि मारो, लुटो और बोलो कि इसी ने हमें मारा है । हिन्दू कब सीखेगा? ये धर्मयुद्ध है । भगवान कृष्ण ने द्रोणार्चाय वध के लिए महाभारत मे भी युधिष्ठिर के मुंह से आधा सच ही बुलवाया था .. यही सीखने की जरुरत है । योगाचार्य डॉ. प्रवीण कुमार शास्त्री
ଆମ ବୈଦିକ ସଂସ୍କୃତି
22-08-2021
ଆମ ବୈଦିକ ସଂସ୍କୃତି ଜ୍ଞାନରେ ସମ୍ମୂଜ୍ଵଳ ମୁନି ଋଷିମାନେ କହିଛନ୍ତି,ଆମେ କୌଣସି କାର୍ଯ୍ୟ କରିବା ପୂର୍ବରୁ ଆମର ଭାବନାକୁ ପ୍ରଥମେ ଈଶ୍ୱର ଜାଣି ପାରନ୍ତି।ତେଣୁ ତାଙ୍କ ନାମ ଭାବଗ୍ରାହୀ। ଆମେ ଜାଣି ରଖିବା ଉଚିତ ଯାହାର ଯେପରି ଭାବ,ତାହାର ସେପରି ଲାଭ। ସତ୍ ପୁରୁଷଙ୍କୁ କେବଳ ସତସଙ୍ଗ ଓ ଈଶ୍ୱରୀୟ କଥା ହିଁ ଭଲ ଲାଗେ। କିନ୍ତୁ ଯେଉଁମାନେ ବଦ୍ଧ ଜୀବ ସେମାନଙ୍କୁ ସତ୍ ଶାସ୍ତ୍ର ଆଲୋଚନା ବା କଥା ବିଷ ତୁଲ୍ୟ ଲାଗିଥାଏ। ସେମାନେ କେବଳ କାମିନୀ ଓ କାଞ୍ଚନ କୁ ଧରି ସାରା ଜୀବନ ପଶୁପ୍ରାୟ ଜୀବନ ବିତାଇବାକୁ ଭଲ ପାଇଥାନ୍ତି। (ସୁରେନ୍ଦ୍ର ନାଥ ଛୋଟରାୟ)
ଆମକୁ ମିଳିଥିବା କର୍ମ ଫଳ
20-08-2021
ଆମକୁ ମିଳିଥିବା କର୍ମ ଫଳ ସେ ସୁଖ ହେଉ ଅବା ଦୁଃଖ ହେଉ ଆମେ ତାକୁ ଭୋଗ କରୁଥାଏ। କିଛି ଲୋକ ଦୁଃଖ,କଷ୍ଟ ଅଭାବ,ଅସୁବିଧାରେ ଥିଲାବେଳେ ସେହି କଷ୍ଟ ସମୟରୁ ପାରି ହେବାପାଇଁ କିଛି ଅନ୍ୟାୟ ଅନୀତି କରିଥାଆନ୍ତି। କର୍ମ ଫଳ ଭୋଗୁଥିବା ଲୋକ ଦୁଃଖରେ ଥିଲେ ମଧ୍ୟ ସତ୍ ଉପାୟରେ ଚଳିଲେ ହୁଏତ ତାକୁ ଅଧିକ କାଳ କଷ୍ଟ ଭୋଗିବାକୁ ପ ଡନ୍ତା ନାହିଁ। ଏକେତ ମନ୍ଦ କର୍ମର ଫଳ ମନୁଷ୍ୟ ଭୋଗ କରୁଥାଏ,ଅପର ପକ୍ଷରେ ଅନ୍ୟାୟ କରି ଆଉ କିଛି ମନ୍ଦ କର୍ମ ଫଳ ମଧ୍ୟ ଯୋଗାଡ କରିଥାଏ। ଆମେ ମନେ ରଖିବା ଉଚିତ ଯଦି ଭଲ କାମ କରୁଥିବା ଲୋକକୁ ମନ୍ଦ ଫଳ ମିଳୁଛି,ତେବେ ବୁଝିବାକୁ ହେବ ଏହା ପୂର୍ବ କୃତ କର୍ମର ଫଳ। ସଂସାରରେ କାହାରି ମନ୍ଦ କର୍ମ ପାଇଁ ଭଲ ଫଳ ନାହିଁ କିମ୍ବା ଭଲ କର୍ମ ପାଇଁ ମନ୍ଦ ଫଳ ନାହିଁ। ଏହା ଈଶ୍ବରଙ୍କ ନ୍ୟାୟ ବ୍ୟବସ୍ଥା। (ସୁରେନ୍ଦ୍ର ନାଥ ଛୋଟରାୟ)
" The relationship between two persons lasts long only when both have same thoughts and both have the desire to maintain the relationship. "
17-08-2021
For example, between two brothers, two sisters, brother and sister, husband and wife, or two friends, the relationship lasts only until both have the desire to maintain the relationship, and the thoughts of both. Let's see you. If one out of two people wishes to maintain the relationship, and the other does not, then in such a situation that relationship can last for few days. " The person who doesn't want to have a relationship, gets tired after a few days. And then a few more days later that relationship / relationship breaks down " Why does this happen? This is the reason, that *" the thoughts of two people in the world are not 100 " Then when most of the thoughts of two persons are similar, that is 70/80 % similar, then both of them get 70/80 /% happiness. When two people find happiness with each other, then only the relationship is formed and lasts. ′′ Because everyone wants happiness. No one wants sorrow. They keep taking 70/80 /% pleasure among themselves. And 20/30 % of the sorrows are tolerated, then the relationship lasts. " And when two people don't have mutual thoughts, they have clashes, or conflict increases, they don't even find pleasure in each other. " When happiness does not come from each other, then mutual love, attraction, devotion, dedication also starts to decrease slowly. And 1 days of shortening ends. When love, attraction, devotion, dedication is over, then that relationship / relationship breaks " This situation sometimes happens from both sides, which means both have defects, or deficiencies. " Because of those flaws or shortcomings, mutual love is removed, and the relationship is broken. Sometimes this situation is from one side too. " For example, a person has more qualities, and less defects. The other person has more defects, and less qualities. Earlier, when there was a new introduction, they became friends due to some qualities. Slowly, when the faults were discovered, the other person started to suffer losses and sufferings from his faults. The result was that her interest started slowly decreasing. So he even reduced to cooperate with him " but the more guilty person was benefiting from that qualified person. Why would he want to lose that gain? He wanted me to have a relationship, and I was benefited. " But psychology is, the other person would not want to have a relationship with him, being unhappy with his faults. " Then sometimes it happens, that family members or society people put pressure on him, that you don't break up with it, keep it. How long will he maintain a forceful relationship in such a situation? Finally one day the relationship will break " So be careful before such situation arises. " both or the one who has flaws, let him remove his flaws, and develop the best qualities within himself. With which the relationship lasts long, or even a lifetime " " When a person is very sad with another person, the question arises whether the person should forcefully maintain the relationship or break it? So the answer to this question is, it is better to break up the relationship in such a situation. Often a person gets mad in a forced relationship, and he can take any wrong move, which is more harmful. So it's better to break the relationship and stay single. Even if he has to live alone for the rest of his life, he will be relatively happier and live a life with self respect. Instead of forcefully maintaining the relationship with the pressure of others, and keep getting sad " " Yes, before breaking the relationship, think this much, that without her I will live my life properly or not? If you can't live alone, then you will have to maintain the relationship like that. It's okay not to break up then. " ----- Swami Vivekananda Parivrajak, Rojad, Gujarat.
The relationship between two persons lasts long only when both have same thoughts and both have the desire to maintain the relationship.
17-08-2021
or example, between two brothers, two sisters, brother and sister, husband and wife, or two friends, the relationship lasts only until both have the desire to maintain the relationship, and the thoughts of both. Let's see you. If one out of two people wishes to maintain the relationship, and the other does not, then in such a situation that relationship can last for few days. *" The person who doesn't want to have a relationship, gets tired after a few days. And then a few more days later that relationship / relationship breaks down "* Why does this happen? This is the reason, that *" the thoughts of two people in the world are not 100 *" Then when most of the thoughts of two persons are similar, that is 70/80 % similar, then both of them get 70/80 /% happiness. When two people find happiness with each other, then only the relationship is formed and lasts. ′′ Because everyone wants happiness. No one wants sorrow. They keep taking 70/80 /% pleasure among themselves. And 20/30 % of the sorrows are tolerated, then the relationship lasts. "* And when two people don't have mutual thoughts, they have clashes, or conflict increases, they don't even find pleasure in each other. *" When happiness does not come from each other, then mutual love, attraction, devotion, dedication also starts to decrease slowly. And 1 days of shortening ends. When love, attraction, devotion, dedication is over, then that relationship / relationship breaks "* This situation sometimes happens from both sides, which means both have defects, or deficiencies. *" Because of those flaws or shortcomings, mutual love is removed, and the relationship is broken. Sometimes this situation is from one side too. "* For example, a person has more qualities, and less defects. The other person has more defects, and less qualities. Earlier, when there was a new introduction, they became friends due to some qualities. Slowly, when the faults were discovered, the other person started to suffer losses and sufferings from his faults. The result was that her interest started slowly decreasing. So he even reduced to cooperate with him *" but the more guilty person was benefiting from that qualified person. Why would he want to lose that gain? He wanted me to have a relationship, and I was benefited. "* But psychology is, the other person would not want to have a relationship with him, being unhappy with his faults. *" Then sometimes it happens, that family members or society people put pressure on him, that you don't break up with it, keep it. How long will he maintain a forceful relationship in such a situation? Finally one day the relationship will break "* So be careful before such situation arises. *" both or the one who has flaws, let him remove his flaws, and develop the best qualities within himself. With which the relationship lasts long, or even a lifetime "* *" When a person is very sad with another person, the question arises whether the person should forcefully maintain the relationship or break it? So the answer to this question is, it is better to break up the relationship in such a situation. Often a person gets mad in a forced relationship, and he can take any wrong move, which is more harmful. So it's better to break the relationship and stay single. Even if he has to live alone for the rest of his life, he will be relatively happier and live a life with self respect. Instead of forcefully maintaining the relationship with the pressure of others, and keep getting sad "* *" Yes, before breaking the relationship, think this much, that without her I will live my life properly or not? If you can't live alone, then you will have to maintain the relationship like that. It's okay not to break up then. "* ----- * Swami Vivekananda Parivrajak, Rojad, Gujarat. *
ईश्वर और भगवान में अन्तर
17-08-2021
1.ईश्वर एक ही है, भगवान अनेक हो सकते है। ईश्वर का मुख्य नाम ' ओ३म् ' है।सैकड़ों गुणवाचक नाम और भी है जैसे विष्णु, महेश आदि । 2. ' भज' धातु से बना है संस्कृत ( Sanskrit) का शब्द - ' भग ' और इससे ही बना है -' भगवान ' । जैसे धनवान का अर्थ है धनवाला,इसी तरह भगवान का अर्थ है भग वाला। भग में शामिल है --श्री, ज्ञान,ऐश्वर्य, अनासक्ति, वीर्य ( एन्द्रियता) व यश । जिनमें ये छह चीज़े पायी जाती है, वे भगवान है। उक्त कसौटी पर राम व कृष्ण को भगवान मानना वैदिक मान्यता के विपरीत नहीं है। वेद ने इन छह चीज़ो से युक्त भगवानो को भी सम्मान योग्य माना है। 3. यजुर्वेद 37-16 के अनुसार ईश्वर जन्म नहीं लेता,वह तो तप से ह्रदय में प्रादुर्भूत होता है। ***********************************
पुरुष एव इदं सर्वं यद् भूतं यच्च भव्यम्। उतामृतत्वस्य ईशानो यद् अन्नेन अतिरोहति।। ऋग्वेद. 10.90.2
17-08-2021
(इदं सर्वं)- सृष्टि में यह जो कुछ भी इस समय विद्यमान है, (यद् भूतं)- जो कुछ पहले हो चुका है, (यत् च भव्यम्)- और जो कुछ भविष्य में होगा, वह सब, (पुरुष एव)- पुरुष ही है। (उत)- और, वह पुरुष, (यद् अन्नेन अतिरोहति)- जो इस अन्नमय अर्थात भौतिक जगत के ऊपर है उस, (अमृतत्वस्य)- अमरत्व का, (ईशान:)- स्वामी है। वर्तमान में जो कुछ है, अतीत में जो कुछ था और भविष्य में जो होनेवाला है यह सब केवल अनन्त पुरुष ही है। वह ईश्वर उस अमृतत्व का भी स्वामी है जो इस दृश्यमान भौतिक जगत के ऊपर है। हमारी सभी अनुभूतियां हमसे परे किसी स्रोत से आती हैं, पर मन के सदा अशांत रहने के कारण हम अपनी अनुभूतियों के स्रोत को जान नहीं पाते। यदि हम ध्यान द्वारा अपने मन को सर्वथा शांत कर सकें तो हम देखेंगे कि हमारी अनुभूतियों और विचारों में एक ही अरूप चैतन्य अभिव्यक्त हो रहा है। वही चैतन्य पुरुष हमारा आंतरिक जीवन भी है और हमारे बाहर का जगत भी। मनुष्य के जीवन के मूल तत्व उसके शरीर, मन और विचार आदि नहीं हैं अपितु उसके अंदर उठने वाली विभिन्न प्रकार की अनुभूतियां हैं। जिसे हम सकारात्मक रूप से ले सकते हैं और नकारात्मक रूप में भी ले सकते हैं। यह दृष्टिकोण ही जीवन का मूलभूत लक्ष्य तय करता है, आपकी मंजिल तय करता है। योगिराज कृष्ण ने गीता में कहा है युद्ध एक नजरिया है, यह तुम्हे निश्चित करना है कि तुम धर्म के पक्ष में हो या अधर्म के। जो मनुष्य अपने दृष्टिकोण को सही तरीके से प्रयोग नही करता है वो अंधकार के समुंदर में डूबता चला जाता है। जो मनुष्य ज्ञान और कर्म को एक ही रूप में देखता है उसी का दृष्टिकोण सत्य सिद्ध होता है। मैनेजमेंट के दो छात्रों को एक बेहद पिछड़े आदिवासी इलाके में यह पता लगाने के लिए भेजा गया कि उस इलाके में जूते के कारोबार की क्या संभावनाएं हैं? दोनों छात्रों को अलग एक अंतराल में भेजा गया और ऐसी व्यवस्था की गई कि उनका किसी भी तरह एक दूसरे से सम्पर्क ना होने पाए। उस पिछड़े इलाके से वापस आकर दोनों ने अपने अनुभव लिखे। एक ने लिखा- जहां तक मेरी समझ है उस पिछड़े इलाके में जूते के कारोबार की कोई संभावना नहीं है, क्योंकि उस इलाके के लोग जूते ही नहीं पहनते। दूसरे ने लिखा- उस इलाके में जूते के कारोबार की अपार संभावनाएं हैं। मैंने वहां किसी को भी जूते पहने नही देखा जिससे प्रतीत होता है कि उन लोगों को जूतों के बारे में पता नहीं है। यदि हम कोशिश करें तो वहां हर व्यक्ति हमारा ग्राहक हो सकता है और वहां हमारा कोई प्रतिद्वंद्वी ही नहीं होगा। एक ही इलाके की दो रिपोर्ट और वो भी एक दूसरे से बिल्कुल अलग। इसका मुख्य कारण था व्यक्ति का दृष्टिकोण। इसीलिए एक विचारधारा जब दूसरी विचारधारा को अपने दृष्टिकोण से देखती है, तो उसे वह गलत लगती है। इसलिए वह उस विचार को रद्द भी कर देती है। नजरिये महत्व के मामले में एक जैसे होते हुए भी अलग अलग हो सकते हैं। आज तक ऐसा कोई भी व्यक्ति पैदा नहीं हुआ, जिसे कभी न कभी कठिन समय ने नहीं घेरा हो। परंतु केवल एक ही चीज ऐसी है, जो हमें उस कठिन समय से निकलने में मदद कर सकती है और वह है हमारी सोच। ये ज़िंदगी का एक अहम पहलू हैं अगर सभी लोग इसको अपने जीवन में अपना लें, तो जीवन में कितने भी उतार चढ़ाव आयें उससे निकले का रास्ता भी मिल ही जाता है। परिस्थितियाँ कितनी ही विपरीत क्यों न हो मंज़िल ख़ुद-ब-ख़ुद मिल जाती है। बस ज़रूरत है जीवन में सकारात्मक सोच अपनाने की। ... मदन शर्मा / आर्यसमाज चौक प्रयाग
एक कलेक्टर
16-08-2021
कोज़ीकोड शहर (केरल ) का एक प्राइमरी स्कूल सुप्रीमकोर्ट के आदेश से सील कर दिया गया , इसके बाद उसमे पढ़नेवाले बच्चे अपनी पढ़ाई से वंचित रह गए । लेकिन वहीँ के कलेक्टर श्री प्रशांत कुमार ने इन बच्चों की पढ़ाई जारी रखने के लिए अपने डी एम कार्यालय में जो बहुत बड़ा है इन बच्चों की पढ़ाई के लिए जगह उपलब्ध करायी , यहीं स्कूल का स्टाफ भी बैठता है । कलेक्टर महोदय ने इन बच्चों के लिए खाने की भी मुफ्त सुविधा उपलब्ध करायी है । लगभग 100 से अधिक रेस्टोरेंटों के बाहर ड्राप बॉक्स रखवाये हैं जिनमे लोग अपनी श्रद्धा से रूपये इन बच्चों के भोजन के लिए डालते हैं । इस राशि को प्रतिदिन एकत्र किया जाता है , और बच्चों को निश्चित राशि के फ़ूड कूपन दिए जाते हैं । अब बच्चे अपनी रूचि के अनुसार बाजार जाकर भोजन कर रहे हैं ।
ଆମର ଜ୍ଞାନେନ୍ଦ୍ରିୟ
16-08-2021
ଆମର ଜ୍ଞାନେନ୍ଦ୍ରିୟ ମଧ୍ୟରେ ଜିହ୍ୱା ସତ୍ୟ ଓ ମଧୁର କଥା କହି ଥାଏ। ସତ୍ୟବାଦୀ ଓ ମଧୁର ଭାଷୀ ବ୍ୟକ୍ତି ମେହେନତ କରି ଯାହା କମାଏ,ଉପାର୍ଜିତ ଅର୍ଥରେ ସେଥିରେ ସାତ୍ତ୍ୱିକ ଭୋଜନ କରିଥାଏ। ସାତ୍ତ୍ୱିକ ଭୋଜନ କରୁଥିବା ବ୍ୟକ୍ତିର ହୃଦୟ ସ୍ନେହ,ମମତା,ପ୍ରେମ,କରୁଣା,ସହାନୁଭୂତି,ପରୋପକାର ଆଦି ଦେବୋତ୍ତମ ଗୁଣା ବଳିରେ ପରିପୂର୍ଣ୍ଣ ହୋଇଥାଏ। ଏହାର ବିପରୀତ କାହାରି କାହାରି ଜିହ୍ୱା ଅସତ୍ୟ ଓ କଟୁବଚନ କହିବାରେ ଅଭ୍ୟସ୍ତ ହୋଇଯାଏ। ଖାଦ୍ୟ,ଅଖାଦ୍ୟ ପ୍ରତି ଧ୍ୟାନ ନଦେଇ ନିଜ ରୁଚି ଅନୁଯାୟୀ ଯାହା ଅହିତକର ଓ ନିଷିଦ୍ଧ ଖାଦ୍ୟ ଗ୍ରହଣ କରିଥାଏ। ଏହିପରି ଖାଦ୍ୟ ଗ୍ରହଣ କରୁଥିବା ମଣିଷ ନିର୍ଦ୍ଦୟ ସ୍ୱଭାବର ହେବା ସ୍ବାଭାବିକ। ଏଣୁ ଆମେ ସାତ୍ତ୍ୱିକ ଭୋଜନ କରି ଦେବୋପମ ଗୁଣା ବଳୀରେ ପରିପୂର୍ଣ୍ଣ ନହେବା କାହିଁକି ? ଶାସ୍ତ୍ରରେ ଅଛି - " ଜୈସେ ଖାଏ ଅନ୍ନ, ଐସେ ହୋଏ ମନ"। (ସୁରେନ୍ଦ୍ର ନାଥ ଛୋଟରାୟ)
Introduction to Vedic Vichar
15-08-2021
All are invited to join the meeting Introduction to Vedic Vichar Meeting : 15th August 2021. Time 4.00 to 5.00 PM (today) To join the meeting on Google Meet, click this link: https://meet.google.com/dtq-oguv-ttw Or open Meet and enter this code: dtq-oguv-ttw From: Vedic Vichar www.vedicvichar.com
महाभारत और गीता भाग - 14(चौदह)
13-08-2021
भगवत् गीता के अंतर्गत् अर्जुन एवं श्री कृष्ण का संबंध बड़ा विचित्र है।अर्जुन एवं श्री कृष्ण का आपसी संबंध सखावत् है। भगवत गीता में श्री कृष्ण ने अर्जुन को सखा ही कहा है । अर्जुन एवं श्री कृष्ण दोनों आपस में संबंधी भी हैं। श्री कृष्ण अर्जुन के साले लगते हैं । अतः साले की बात पर अपनी श्रेष्ठता साबित करने का अर्जुन ने असफल प्रयास किया है। अर्जुन ने अपने को श्री कृष्ण का शिष्य भी घोषित किया है। साधारणत: हम देखते हैं कि शिष्य अपने गुरु से ज्यादा तर्क - वितर्क नहीं करता । गुरु के वचन को अंतिम सत्य मानकर शिष्य चुप हो जाता है। भगवत् गीता में अर्जुन श्री कृष्ण से केवल प्रश्न ही नहीं करता , अपितु अपने विचारों को खुलकर प्रकट करता है। भगवत् गीता का पहला अध्याय इसका उदाहरण है , जहां अर्जुन ने अपने विचारों को खुलकर प्रकट किया है । श्री कृष्ण अर्जुन को अपनी बात मनवाने की कोशिश नहीं कर रहे हैं , बल्कि अर्जुन को और खोलने की कोशिश कर रहे हैं ताकि अर्जुन अपनी पात्रता को बढ़ा पाने में सक्षम हो सके। धृतराष्ट्र - संजय संवाद में धृतराष्ट्र का प्रश्न आदेशात्मक है। धृतराष्ट्र के प्रश्न को सुनकर संजय उनकी आदेश का पालन करते हुए उत्तर देते हैं । परंतु अर्जुन का प्रश्न आदेशात्मक नहीं ,वरन् जिज्ञासात्मक है । भगवान श्री कृष्ण उत्तर देकर अर्जुन को कृतार्थ करते हैं । अर्जुन के अंतः करण में श्री कृष्ण ज्ञान का दीप जलाते हैं , फलस्वरूप अर्जुन युद्ध संबंधी प्रश्न छोड़कर तत्व - ज्ञान संबंधी प्रश्न करने लगता है। अर्जुन केवल प्रश्न ही नहीं बदलता , अपितु प्रश्न के स्तर को भी ऊंचा उठाता है । अर्जुन के भीतर यह परिवर्तन भगवान श्री कृष्ण के उत्तर के फलस्वरूप हुआ है। भगवान श्रीकृष्ण के उत्तर की यही खासियत है। विश्व में कहीं भी प्रश्नोत्तरीमय संवाद में प्रश्नकर्ता एवं उत्तरदाता का नाम साधारणतया बदलता नहीं है , पर भगवत् गीता इसका अपवाद है। प्रश्नकर्ता अर्जुन ने उत्तरदाता श्रीकृष्ण को कई नामों से संबोधित किया है । यथा - अच्युत , केशव , गोविंद , मधुसूदन , जनार्दन , माधव , वार्ष्णेय आदि । ठीक इसी प्रकार श्रीकृष्ण ने भी अर्जुन को कई नामों से संबोधित किया है। यथा - पार्थ , कौन्तेय , पुरुषऋषभ , कुरुनंदन , भारत आदि । यही नहीं , तो संजय ने भी अर्जुन एवं श्री कृष्ण को विभिन्न नामों से संबोधित किया है । विश्व के किसी भी प्रश्नोत्तरीमय ग्रंथ में भगवत् गीता की भांति नाम का इतना बहुलीकरण नहीं किया गया है। सबसे आश्चर्यजनक तथ्य तो यह है कि एक ही शब्द से दो पात्रों का संबोधन भगवत् गीता में किया गया है । जहां भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को "भारत" से संबोधित किया है , वहीं संजय ने धृतराष्ट्र को "भारत" से संबोधित किया है । ऐसे विचित्र भगवत् गीता को मैं अद्भुत गीता कहता हूं।
ଏ ସୁନ୍ଦର ସୃଷ୍ଟିର ପ୍ରୟୋଜନ କ'ଣ?
12-08-2021
********************** ପ୍ରାୟ ୧୯୭୦ ମସିହାରୁ ଜନଶ୍ରୁତିପଟରୁ ଶ୍ରବଣ କରିଆସୁ ଅଛି, ଯେ ସୃଷ୍ଟି ଏବେ କିଛିଦିନ ପରେ ପ୍ରଳୟ ହୋଇଯିବ, ବର୍ତ୍ତମାନ ମଧ୍ୟ ୨୦/୨୫ ଦିନ ପୂର୍ବରୁ ଦୂରଦର୍ଶନ ପ୍ରଚାରିତ ହେଉଥିଲା ଯେ ଖୁବ୍ କମ୍ ଦିନ ଭିତରେ ଏପରି ତାରିଖ ଦେଇ କହନ୍ତି ସୃଷ୍ଟି ପ୍ରଳୟ ହୋଇଯିବ ।ଏହା କିଛି ବୈଜ୍ଞାନିକ, ଜ୍ୟୋତିର୍ବିଦ୍ ଓ ମାଳିକ ବିଚାରକମାନେ ଭବିଷ୍ୟତ ବାଣୀ ଶ୍ରବଣ କରାଇଥାନ୍ତି। ପରନ୍ତୁ ସୃଷ୍ଟି କର୍ତ୍ତା ବ୍ୟତିତ ସୃଷ୍ଟିର ପ୍ରାରମ୍ଭ ଓ ପ୍ରଳୟର ଅବଧି କେହି ବି ଜାଣିଥାନ୍ତି .ନଥାନ୍ତି। ଆସନ୍ତୁ ଋଗବେଦ ଏ ସଂପର୍କରେକ'ଣ କହିଛନ୍ତି ଜାଣିବା .................... ॥କାମସ୍ତଦଗ୍ରେ ସମବର୍ତତାଧି ମନସୋ ରୋତଃ ପ୍ରଥୄମଂ ଯଦାସୀତ୍ ସତେ ବନ୍ଧୁମସତି ନିରବିନ୍ଦନ୍ ହୃଦି ପ୍ରତୀଷ୍ୟା କବିୟୋ ମନୀଷା ".............. ଅର୍ଥାତ୍ ପ୍ରଳୟ ଅବଧି ସମାପ୍ତ ହେବାପରେ ପରମାତ୍ମା ସୃଷ୍ଟି ରଚନା ପାଇଁ ସଂକଳ୍ପ ଧାରଣ କରନ୍ତି।ପୁନରାୟ ନିର୍ମାଣର କାରଣ କ'ଣ? ଉପରୋକ୍ତ ମନ୍ତ୍ରରେ ଉତ୍ତରଦର୍ଶାଇ ଦିଆଯାଇଅଛି। ପ୍ରଳୟ ପୂର୍ବରୁ ଯେଉଁ ସୃଷ୍ଟି ଥିଲା ସେଥିରେ ଯେଉଁ ଜୀବଗଣ ପୂଣ୍ୟାପୂଣ୍ୟ କର୍ମ ସମ୍ପାଦନ କରିଥିଲେ ସେମାନେ ପ୍ରଳୟକାଳରେ ସୁପ୍ତ ଅବସ୍ଥାରେ ଥିଲେ ସେମାନେ, ତାଙ୍କର ସୁଖ ଓ ଦୁଃଖ ଭୋଗ କରିପାରିନଥିଲେ ଏଣୁ ପୁନଃରାୟ ସୃଷ୍ଟିର ପ୍ରୟୋଜନ ହେଲା ଏହିପରି ପୂର୍ବ କଳ୍ପର କର୍ମ ନୂତନ ଜନ୍ମ , ଦେହ ଓ ସଂସ୍କାରର କାରଣ ହୁଏ । ଏହି ମନ୍ତ୍ରରେ ପୂର୍ବବର୍ତ୍ତୀ ଶୁଭଶୁଭା କର୍ମକୁ ପରବର୍ତ୍ତୀ ଜନ୍ମ ପାଇଁ ରେତଃ ବା ବୀଜ କୁହାଯାଇଅଛି । ଜୀବାତ୍ମା ନିଜର ବିକାଶ ନିମନ୍ତେ ଦେହର ବ୍ୟବହାର ବା ଧାରଣ କରେ । ଦେହ ପ୍ରକୃତିର ରୂପାନ୍ତର । ଜୀବାତ୍ମା ର କଲ୍ୟାଣ ନିମନ୍ତେ ସୃଷ୍ଟି ପ୍ରଳୟ ପରେ ପୁନଃ ସୃଷ୍ଟି ପ୍ରାରମ୍ଭ ହୋଇଥାଏ। ବେଦର କାଳଗଣନା ଅନୁସାରେ ଆଉ ପ୍ରଳୟ ହେବାପାଇଁ ଅନେକ ଯୁଗ ଓ ମନ୍ୱନ୍ତରଅଛି । ଏଣୁ ମାଳିକା ବିଚାର, ଜ୍ୟୋତିର୍ବିଜ୍ଞାନ ବିଚାର , ଓ ବୈଜ୍ଞାନିକମାନଙ୍କ ହିସାବକୁକେହି ବିଶ୍ୱାସ କରିବା ଉଚିତ୍ ନୁହେଁ। ଏହା କୌଣସି ଗ୍ରହଚାଳନା କି ପାଣି ପାଗ ବିଷୟ ନୁହେଁ। ଇତି ଓ ୩ମ୍ । କା
‘भक्ष्य व अभक्ष्य भोजन तथा गोरक्षा पर ऋषि दयानन्द के विचार’
12-08-2021
ओ३म् ========== मनुष्य मुख्यतः दो प्रकार के होते हैं, ज्ञानी व अज्ञानी। रोग के अनेक कारणों में से मुख्य कारण भोजन भी होता है। रोगी व्यक्ति डाक्टर के पास पहुंचता है तो कुशल चिकित्सक जहां रोगी को रोग निवारण करने वाली ओषधियों के सेवन के बारे में बताता है वहीं वह उसे पथ्य अर्थात् भक्ष्य व अभक्ष्य अर्थात् खाने व न खाने योग्य भोजन के बारे में भी बताता है जिससे रोगी का रोग दूर हो जाता है। महर्षि दयानन्द वेद एवं वैदिक साहित्य सहित वैद्यक व चिकित्सा शास्त्र आयुर्वेद के भी विद्वान थे। उन्होंने धर्माधर्म व वैद्यक शास्त्रोक्त दृष्टि से भक्ष्य व अभक्ष्य पदार्थों पर अपने विचार सत्यार्थप्रकाश में प्रस्तुत किये हैं। उनके विचार आज भी प्रासंगिक एवं अज्ञानियों के लिए मार्गदर्शक हैं। अतः उन्हें सबके लाभ हेतु प्रस्तुत कर रहे हैं। वह लिखते हैं कि भक्ष्याभक्ष्य दो प्रकार का होता है। एक धर्मशास्त्रोक्त तथा दूसरा वैद्यकशास्त्रोक्त। जैसे धर्मशास्त्र में- ’अभक्ष्याणि द्विजातीनाममेध्यप्रभवाणि च।। मनुस्मृति।।’ इसका अर्थ है कि द्विज अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों को मलीन विष्ठा मूत्रादि के संसर्ग से उत्पन्न हुए शाक फल मूल आदि न खाना। इसका तात्पर्य है कि शाक, फल व अन्न आदि पदार्थ शुद्ध व पवित्र भूमि में ही उत्पन्न होने चाहिये तभी वह भक्ष्य अर्थात् भोजन करने योग्य होते हैं। मलीन विष्ठा मूत्रादि से दूषित भूमि में उत्पन्न खाद्य पदार्थ भक्ष्य श्रेणी में नहीं आते। महर्षि दयानन्द आगे लिखते हैं-‘वर्जयेन्मधुमांसं च।। मनु0।।’ अर्थात् जैसे अनेक प्रकार के मद्य, गांजा, भांग, अफीम आदि। ‘बुद्धि लुम्पति यद् द्रव्यं मदकारी तदुच्यते।।’ वचन को उद्धृत कर वह कहते हैं कि जो-जो बुद्धि का नाश करने वाले पदार्थ हैं, उन का सेवन कभी न करें और जितने अन्न सड़े, बिगड़े दुर्गन्धादि से दूषित, अच्छे प्रकार न बने हुए और मद्य, मांसाहारी म्लेच्छ कि जिन का शरीर मद्य, मांस के परमाणुओं ही से पूरित है, उनके हाथ का (पकाया व बना) न खावें। वह आगे लिखते हैं कि जिस में उपकारक प्राणियों की हिंसा अर्थात् जैसे एक गाय के शरीर से दूध, घी, बैल, गाय उत्पन्न होने से गाय की एक पीढ़ी में चार लाख पचहत्तर सहस्र छः सौ मनुष्यों को सुख पहुंचता है वैसे पशुओं को न मारें, न मारने दे। जैसे किसी गाय से बीस सेर और किसी से दो सेर दूध प्रतिदिन होवे उस का मध्यभाग ग्यारह सेर प्रत्येक गाय से दूध होता है। कोई गाय अठारह और कोई छः महीने दूध देती है, उस का भी मध्य भाग बारह महीने हुए। अब प्रत्येक गाय के जन्म भर के दूध से 24960 (चैबीस सहस्र नौ सौ साठ) मनुष्य एक बार में तृप्त हो सकते हैं। उसके छः बछियां छः बछड़े होते हैं उन में से दो मर जाये तो भी दश रहें। उनमें से पांच बछड़ियों के जन्म भर के दूध को मिला कर 124800 (एक लाख चैबीस सहस्र आठ सौ) मनुष्य तृप्त हो सकते हैं। अब रहे पांच बैल, वे जन्म भर में 5000 (पांच सहस्र) मन अन्न न्यून से न्यून उत्पन्न कर सकते हैं। उस अन्न में से प्रत्येक मनुष्य तीन पाव खावे तो अढ़ाई लाख मनुष्यों की तृप्ति होती है। दूध और अन्न मिला कर 374800 (तीन लाख चौहत्तर हजार आठ सौ) मनुष्य तृप्त होते हैं। दोनों संख्या मिला के एक गाय की एक पीढ़ी से 475600 (चार लाख पचहत्तर सहस्र छः सौ) मनुष्य एक बार में पालित होते हैं और पीढ़ी परपीढ़ी बढ़़ा कर लेखा करें तो असंख्यात मनुष्यों का पालन होता है। इस से भिन्न बैलगाड़ी सवारी भार उठाने आदि कर्मों से मनुष्यों के बड़े उपकारक होते हैं तथा गाय दूध से अधिक उपकारक होती है परन्तु जैसे बैल उपकारक होते हैं वैसे भैंस भी है परन्तु गाय के दूध घी से जितने बुद्धिवृद्धि से लाभ होते हैं उतने भैंस के दूध से नहीं। इससे मुख्योपकारक आर्यों ने गाय को गिना है और जो कोई अन्य विद्वान होगा वह भी इसी प्रकार समझेगा। बकरी के दूध से 25920 (पच्चीस सहस्र नौ सौ बीस) आदमियों का पालन होता है वैसे हाथी, घोड़े, ऊंट, भेड़, गदहे आदि से भी बड़े उपकार होते हैं । इन पशुओं को मारने वालों को सब मनुष्यों की हत्या करने वाले जानियेगा। देखो ! जब आर्यो (वेद के मानने वाले श्रेष्ठ मनुष्यों) का राज्य था तब ये महोपकारक गाय आदि पशु नहीं मारे जाते थे, तभी आर्यावर्त वा अन्य भूगोल देशों में बड़े आनन्द में मनुष्यादि प्राणी वर्तते थे। क्योंकि दूध, घी, बैल आदि पशुओं की बहुताई होने से अन्न व रस पुष्कल प्राप्त होते थे। जब से विदेशी मांसाहारी इस देश में आके गो आदि पशुओं के मारने वाले मद्यपानी राज्याधिकारी हुए हैं तब से क्रमशः आर्यों के दुःख की बढ़ती होती जाती है। क्योंकि “नष्टे मूले नैव फलं न पुष्पम्।“ जब वृक्ष का मूल ही काट दिया जाय तो फल फूल कहां से हों? महर्षि दयानन्द एक काल्पनिक प्रश्न यथा जो सभी अंहिसक हो जायें तो व्याघ्रादि पशु इतने बढ़ जायें कि सब गाय आदि पशुओं को मार खायें तुम्हारा पुरूषार्थ ही व्यर्थ जाय? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए वह कहते हैं कि यह राजपुरुषों का काम है कि जो हानिकारक पशु वा मनुष्य हों उन्हें दण्ड देवें और प्राण भी वियुक्त कर दें। (प्रश्न) फिर क्या उन का मांस फेंक दें? (उत्तर) चाहें फेंक दें, चाहें कुत्ते आदि मांसाहारियों को खिला देवें वा जला देवें अथवा कोई मांसाहारी खावे तो भी संसार की कुछ हानि नहीं होती किन्तु उस मांस खाने वाले मनुष्य का स्वभाव मांसाहारी होकर हिंसक हो सकता है। जितना हिंसा, चोरी, विश्वासघात, छल व कपट आदि से पदार्थों को प्राप्त होकर भोग करना है, वह अभक्ष्य और अहिंसा व धर्मादि कर्मों से प्राप्त होकर भोजनादि करना भक्ष्य है। जिन पदार्थों से स्वास्थ्य रोगनाश बुद्धि-बल-पराक्रम-वृद्धि और आयु-वृद्धि होवे उन तण्डुलादि, गोधूम, फल, मूल, कन्द, दूध, घी, मिष्टादि पदार्थों का सेवन यथायोग्य पाक मेल करके यथोचित समय पर मिताहार भोजन करना सब भक्ष्य कहाता है। जितने पदार्थ अपनी प्रकृति से विरुद्ध विकार करने वाले हैं, जिस-जिस के लिए जो-जो पदार्थ वैद्यकशास्त्र वा वैदिक चिकित्सा शास्त्र में वर्जित किये हैं, उन-उन का सर्वथा त्याग करना और जो-जो जिस के लिए विहित है उन-उन पदार्थों का ग्रहण करना, यह भी भक्ष्य है। गोकरुणानिधि पुस्तक में पशु हिंसक मनुष्य का काल्पनिक पक्ष प्रस्तुत कर महर्षि दयानन्द जी ने लिखा है कि देखो ! जो शाकाहारी पशु और मनुष्य हैं वे बलवान् और जो मांस नहीं खाते वह निर्बल होते हैं, इसलिए मांस खाना चाहिये। इसका प्रतिवाद करते हुए महर्षि दयानन्द पशु रक्षक की ओर से कहते हैं कि क्यों ऐसी अल्प समझ की बातें मानकर कुछ भी विचार नहीं करते। देखो, सिंह मांस खाता और सुअर वा अरणा भैंसा मांस कभी नहीं खाता, परन्तु जो सिंह बहुत मनुष्यों के समुदाय में गिरे तो एक वा दो को मारता और एक दो गोली या तलवार के प्रहार से मर भी जाता है और जब जंगली सुअर वा अरणा भैंसा जिस प्राणि समुदाय में गिरता है, तब उन अनेक सवारों और मनुष्यों को मारता और अनेक गोली, बरछी तथा तलवार आदि के प्रहार से भी शीघ्र नहीं गिरता, और सिंह उस से डर के अलग सटक जाता है और वह अरणा भैंसा सिंह से नहीं डरता। जिस देश में सिवाय मांस के अन्य कुछ नहीं मिलता, वहां आपत्काल अथवा रोगनिवृति के लिये क्या मांस खाने में दोष होता है? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए महर्षि दयानन्द लिखते हैं कि यह कहना व्यर्थ है क्योंकि जहां मनुष्य रहते हैं, वहां पृथिवी अवश्य होती है। जहां पृथिवी है वहां खेती वा फल-फूल आदि होते हैं और जहां कुछ भी नहीं होता, वहां मनुष्य भी नहीं रह सकते। और जहां ऊसर भूमि है, वहां मिष्ट जल और फल-आहार आदि के न होने से मनुष्यों का रहना भी दुर्घट है। आपत्काल में भी मनुष्य अन्य उपायों से अपना निर्वाह कर सकते हैं जैसे मांस के न खाने वाले करते हैं। बिना मांस के रोगों का निवारण भी ओषधियों से यथावत् होता है, इसलिये मांस खाना अच्छा नहीं। महर्षि दयानन्द ने मनुस्मृति के आधार पर लिखा है कि जो मनुष्य वेदोक्त धर्म और जो वेद से अविरुद्ध मनुस्मृति युक्त धर्म का अनुष्ठान करता है वह इस लेाक में कीर्ति और मर कर सर्वोत्तम सुख को प्राप्त होता है। यहां बताया गया है कि वेद और वेदानुकूल मनुस्मृति के वचनों का पालन करने पर इस लोक में उन्नति होती है और मर कर भी जीवात्मा को सर्वोत्तम सुखों की प्राप्त होती है। हमारे मांसाहारी भाई कभी यह जानने का प्रयास ही नहीं करते कि मरने के बाद आत्मा का अस्तित्व रहता है वा नहीं? यदि रहता है तो उसको सुख व दुःख क्यों, कैसे व किस प्रकार से प्राप्त होते हैं व उनका आधार क्या होता है। महर्षि दयानन्द जी लिखते हैं कि जो विद्या नहीं पढ़ा है वह जैसा काष्ठ का हाथी, चमड़े का मृग होता है वैसा अविद्वान मनुष्य जगत् में नाममात्र मनुष्य कहलाता है। इसलिए वेदादि विद्या को पढ़, विद्वान्, धर्मात्मा होकर निर्वैरता से सब प्राणियों के कल्याण का उपदेश करें और उपदेश में वाणी को मधुर और कोमल बोलें। जो सत्योपदेश से धर्म की वृद्धि और अधर्म का नाश करते हैं, वे पुरुष धन्य हैं। महर्षि दयानन्द गोकरुणानिधि पुस्तक में उपदेश करते हुए कहते हैं कि ध्यान देकर सुनिये कि जैसा दुःख-सुख अपने को होता है, वैसा ही औरों को भी समझा कीजिये। और यह भी ध्यान में रखिये कि वे पशु आदि और उन के स्वामी तथा खेती आदि कर्म करने वाले प्रजा के पशु आदि और मनुष्यों के अधिक पुरुषार्थ ही से राजा का ऐश्वर्य अधिक बढ़ता और न्यून से नष्ट होता जाता है, इसीलिये राजा प्रजा से कर लेता है कि उन की रक्षा यथावत् करे न कि राजा और प्रजा के जो सुख के कारण गाय आदि पशु हैं उनका नाश किया जावे। इसलिये आज तक जो हुआ सो हुआ आगे आंखे खोल कर सब के हानिकारक कर्मों को न कीजिये और न करने दीजिये। हां हम लोगों का यही काम है कि आप लोगों को भलााई और बुराई के कामों को जता देवें, और आप लोगों का यही काम है कि पक्षपात छोड़ सब की रक्षा और उन्नति करने में तत्पर रहें। सर्वशक्तिमान जगदीश्वर हम और आप पर पूर्ण कृपा करें कि जिस से हम और आप लोग विश्व के हानिकारक कर्मों को छोड़, सर्वोपकारक कर्मों को कर के सब लोग आनन्द में रहें। इन सब बातों को सुन मत डालना, किन्तु सुन कर उसके अनुसार आचरण करना। इन अनाथ पशुओं के प्राणों को शीघ्र बचाना। हे महाराजधिराज जगदीश्वर ! जो इन (गाय आदि पशुओं) को कोई न बचावे तो आप इन की रक्षा करने और हमसे कराने में शीघ्र उद्यत हुजिये। लेख को विराम देने से पूर्व हम यह भी उल्लेख करना चाहते हैं कि वेद और महर्षि दयानन्द संसार के सभी मनुष्यों को एक ही ईश्वर की सन्तान के रूप में मानते हैं। वेद में किसी मत विशेष के मनुष्य के प्रति कोई पूर्वाग्रह व पक्षपात करने का विधान नहीं है जैसा कि अन्य मतों में देखा जाता है कि सब अपने अपने समुदाय के प्रति ही उन्नति आदि के इच्छुक होते हैं। इसी कारण महर्षि दयानन्द ने न केवल भारतीय आर्य-हिन्दू-बौद्ध-जैन आदि के हित व लाभ के लिए ही वैदिक धर्म का प्रचार किया अपितु संसार के अन्य मतों के अनुयायियों के प्रति भी अपनी शुभेच्छा का परिचय दिया। वह संसार के सभी लोगों का एक वैदिक सत्य धर्म, एक संस्कृति, एक मत, एक भाषा, एक सुख-दुख, समानता व निष्पक्षता के पक्षधर थे। उनकी यह विशिष्टता वैदिक विचारधारा के कारण से थी। इसी विचारधारा को अपनाकर ही संसार में सभी विवादों का हल, शान्ति व सुख का वातावरण तैयार हो सकता है। ओ३म् शम्। -मनमोहन कुमार आर्य
ईश्वर स्तुति प्रार्थना उपासना मंत्र व भावार्थ-
12-08-2021
१. ओ३म् विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव। यद् भद्रं तन्न आसुव।। यजुर्वेद-३०.३ तू सर्वेश सकल सुखदाता शुद्धस्वरूप विधाता है। उसके कष्ट नष्ट हो जाते शरण तेरी जो आता है।। सारे दुर्गुण दुर्व्यसनों से हमको नाथ बचा लीजै। मंगलमय गुण कर्म पदार्थ प्रेम सिन्धु हमको दीजै २.ओ३म् हिरण्यगर्भः समवर्त्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत्। स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम।। यजुर्वेद-१३.४ तू स्वयं प्रकाशक सुचेतन, सुखस्वरूप त्राता है सूर्य चन्द्र लोकादिक को तो तू रचता और टिकाता है।। पहिले था अब भी तू ही है घट-घट में व्यापक स्वामी। योग, भक्ति, तप द्वारा तुझको, पावें हम अन्तर्यामी।। ३.ओ३म् य आत्मदा बलदा यस्य विश्व उपासते प्रशिषं यस्य देवाः। यस्यच्छायामृतं यस्य मृत्युः कस्मै देवाय हविषा विधेम।। यजुर्वेद-२५.१३ तू आत्मज्ञान बल दाता, सुयश विज्ञजन गाते हैं। तेरी चरण-शरण में आकर, भवसागर तर जाते हैं।। तुझको जपना ही जीवन है, मरण तुझे विसराने में। मेरी सारी शक्ति लगे प्रभु, तुझसे लगन लगाने में।। ४. ओ३म् यः प्राणतो निमिषतो महित्वैक इद्राजा जगतो बभूव। य ईशेsअस्य द्विपदश्चतुश्पदः कस्मै देवाय हविषा विधेम।। यजुर्वेद-२६.३ तूने अपनी अनुपम माया से जग ज्योति जगाई है। मनुज और पशुओं को रचकर निज महिमा प्रगटाई है।। अपने हृदय सिंहासन पर श्रद्धा से तुझे बिठाते हैं। भक्ति भाव की भेंटें लेकर शरण तुम्हारी आते हैं।। ५.ओ३म् येन द्यौरुग्रा पृथिवी च दृढा येन स्वः स्तभितं येन नाकः।। योsअन्तरिक्षे रजसो विमानः कस्मै देवाय हविषा विधेम।। यजुर्वेद -३२.६ तारे रवि चन्द्रादि रचकर निज प्रकाश चमकाया है धरणी को धारण कर तूने कौशल अलख जगाया है।। तू ही विश्व-विधाता पोषक, तेरा ही हम ध्यान धरें। शुद्ध भाव से भगवन् तेरे भजनामृत का पान करें।। ६.ओ३म् प्रजापते न त्वदेतान्यन्यो विश्वा जातानि परिता बभूव। यत्कामास्ते जुहुमस्तन्नोsअस्तु वयं स्याम पतयो रयीणाम्।। ऋग्वेद-१०.१२१.१० तूझसे बडा न कोई जग में, सबमें तू ही समाया है। जड चेतन सब तेरी रचना, तुझमें आश्रय पाया है।। हे सर्वोपरि विभो! विश्व का तूने साज सजाया है। शक्ति भक्ति भरपूर दूजिए यही भक्त को भाया है ७.ओ३म् स नो बन्धुर्जनिता स विधाता धामानि वेद भुवनानि विश्वा। यत्र देवा अमृतमानशानास्तृतीये धामन्नध्यैरयन्त।। यजुर्वेद-३२.१० तू गुरु प्रजेश भी तू है, पाप-पुण्य फलदाता है। तू ही सखा बन्धु मम तू ही, तुझसे ही सब नाता है।। भक्तों को इस भव-बन्धन से, तू ही मुक्त कराता है तू है अज अद्वैत महाप्रभु सर्वकाल का ज्ञाता है।। ८. ओ३म् अग्ने नय सुपथा राये अस्मान् विश्वानि देव वयुनानि विद्वान्। युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठान्ते नम उक्तिं विधेम ।। यजुर्वेद -४०.१६ तू स्वयं प्रकाश रूप प्रभो सबका सिरजनहार तू ही रसना निश दिन रटे तुम्हीं को, मन में बसना सदा तू ही।। कुटिल पाप से हमें बचाना भगवन् दीजै यही विशद वरदान।।
आज का चिन्तन
12-08-2021
शिव होने का अर्थ है, एक ऐसा जीवन जो मैं और मेरे से ऊपर जिया गया हो। जहाँ जीवन तो है मगर जीवन के प्रति आसक्ति नहीं और जहाँ रिश्ते तो हैं मगर किसी के भी प्रति राग और द्वेष नहीं। जहाँ प्रेम तो है मगर मोह नहीं और जहाँ अपनापन तो है मगर मेरापन नहीं। जहाँ ऐश्वर्य तो है मगर विलास नहीं और जहाँ साक्षात माँ अन्नपूर्णा है मगर भोग नहीं। जहाँ नृत्य भी है, संगीत भी है, त्याग भी है और योग भी है मगर अभिमान नहीं। जीवन की वह स्थिति जब हम विषमता में भी जीना सीख जाएँ, जब हम निर्लिप्त रह कर बांटकर खाना सीख जाएँ और जब हम काम की जगह राम में जीना सीख जाएँ, वास्तव में शिव हो जाना ही है। कल्पना कल्पित लेख हैं । कोई अन्यथा में ना लें। शिक्षा महत्वपूर्ण है। ....आचार्य धर्मराज
କୂପମଣ୍ଡୁକ କାହାକୁ କହନ୍ତି?
12-08-2021
*******************" ଏକ ବଡ଼ କୂପ ରେବାସ କରୁଥିବା ମଣ୍ଡୁକ(ବେଙ୍ଗ) ଟିଏ ଅନ୍ୟ ମଣ୍ଡୁକକୁ ହଠାତ୍ ଦେଖି ପଚାରିଲା ତୁମେ କିଏ ? ମୁଁ ଆଗରୁ କେବେ ତୁମକୁ ଦେଖିନାହିଁ ତ! ତୁମେ କେଉଁଠାରୁ ଆସିଅଛକି?ସେ ନୂତନବାସୀ ମଣ୍ଡୁକ କହିଲେ "ମୁଁ ନଦୀ ଓ ସାଗର ମୁହାଁଣ (ମିଳନସ୍ଥଳ )ରେ ବାସ କରେ ବଡ଼ବଢିରେ ଭାସି ଆସିଲି ଏଠାରେ ପଡି ଗଲି ଆଉ ଯାଇ ପାରିଲି ନାହିଁ। ଠିକ୍ ଅଛି ରୁହ ତୁମେ ତ ଆମ ଜାତିର କିଛି ଅସୁବିଧା ନାହିଁ, ତେବେ କୁହ ଏ ନଦୀ ଓ ସାଗର ପୁଣିକ'ଣ?ସେ କହିଲେ ଏହାଠାରୁ ବହୁତ ବଡ଼। କୂପମଣ୍ଡୁକଟି ତା'ର ଦୁଇ ଗୋଡ଼ ଓସାର କରି ଖୋଲି ଦେଖାଇ କହିଲେ ଏତେ ବଡ଼ କି! ସେ କହିଲେ ବହୁତ ବଡ଼, କୂପମଣ୍ଡକ ବଡ଼ ଡିଆଁଟେ ମାରି ପଚାରିଲେ ଏତେ ବଡ଼ କି ! ସେ କହିଲେ ବହୁତ ବହୁତ ଢେର ସାରା ବଡ଼ ଆଖି ପାଇବ ନାହିଁ ଏତେବଡ଼। କୂପମଣ୍ଡକ ହସିକହିଲେ ମିଛ କଥା ପୁରା ଟାଉଟର ତୁମେ ।କାହିଁ ମୋର ବାପ ଦାଦା ଯେଜ ଅଣପଣ ଯେଜ ଏହା ପୂର୍ବରୁ ବହୁ ପୂର୍ବରୁ ମୋର ପୂର୍ବପୁରୁଷ ମାନେ ଏପରି କୂପ କଥା ଆମ କେବେ କହି ନାହଁନ୍ତି କି ଆମେ ଶୁଣିନାହୁଁ ମଧ୍ୟ,ସାଗର କୂଳର ମଣ୍ଡୁକ କହିଲେ " ଆପଣ ଖୋଜିଲେ ମିଳିବ ସିନା,ଏହି ପରି ଗୋଟିଏ ଛୋଟ ସ୍ଥାନରେ ରହିଲେ କିପରି ଜାଣିବେ ?ସଂସାରରେ ଅନେକ ଆଶ୍ଚର୍ଯ୍ୟ କଥା ଅଛି ତାହା ବୁଝିଲେ ପଚାରିଲେ ଜାଣିପାରିବେ, ନଚେତ୍ ଯାହା ଜାଣିଥିବେ ସେହିଥିରେ ମୃତ୍ୟୁ ସାରହେବ ? ଏହି କୂପରୁ ଅନ୍ୟକୂପକୁ ଯାଅ,ସେମାନେ କେତେ କ'ଣ ଜାଣିଛନ୍ତି କହିବେ ? ଯେଉଁମାନେ ନିଜ ଜନ୍ମସ୍ଥାନରେ ରହି କେବଳ ତାହାରି ପ୍ରସଂସା ଗାନ କରୁଥିବେ, ନିଜ ବଂଶବୁନିୟାଦି ଯେତେ କୁସଂସ୍କାର ଥିଲେ ମଧ୍ୟ ଅହଙ୍କାର କରି ମହାନ୍ ବୋଲାଉଥିବେ ସେମାନେ ଏହିପରି ମଣ୍ଡୁକ ଭଳି କୂପମଣ୍ଡୁକ ଅଟନ୍ତି । ।ବେଦ, ବେଦାନ୍ତ ଉପନିଷଦ, ଦର୍ଶନ ବଜ୍ରଗମ୍ଭୀର କଣ୍ଠରେ ଉଦ୍ଘୋଷଣ କରି କହିଛନ୍ତି" ଯେ ଇଶ୍ଵର ସର୍ବାଧାର ନିରାକାର ,ସର୍ବଜ୍ଞ ,ସର୍ବଶକ୍ତିମାନ,................... ସର୍ବବ୍ୟାପୀ ,ଅଜର ,ଅମର,ଅଜନ୍ମା ଅଖଣ୍ଡ, ଅବିନାଶୀଏପରି ଅନେକ ଗୁଣରେ ଭରପୂର ପୂର୍ଣ୍ଣବ୍ରହ୍ମ ଅଟନ୍ତି ।.............. .......... କହିବାର ଅର୍ଥ ଯେଉଁମାନେ ପୁରାଣ ପଢି ରାଜା ମହାରାଜା କୀର୍ତ୍ତିକୁ ସନ୍ଦର୍ଶନ କରି ତା'ର ଆଗକୁ ଯାଇପାରୁନାହିଁନ୍ତି ସେମାନଙ୍କୁ କ'ଣ ବେଦ କେଦାନ୍ତ, ଦର୍ଶନ ଓଉନିଷଦର ତତ୍ତ୍ଵ ଓ ଗୂଢ଼ ରହସ୍ୟଗୁଡିକୁ ବୁଝାଇଲେ ବୁଝିପାରିବେକି ? ଉଦାହରଣ ସ୍ୱରୂପ- ଶ୍ରୀଜଗନ୍ନାଥ ମୂର୍ତ୍ତି ନିର୍ମାଣ ପଛରେ ଏପରିକ'ଣ ତତ୍ତ୍ଵ ରହିଅଛି ଯେ ଇଶ୍ଵର ଙ୍କ ର ନିରାକାର ସ୍ୱରୂପ କୁ ଖଣ୍ଡନ କରେ । ମୁଁ ଭାବିଛି ଲୋକେ ବୁଝିପାରୁନାହିଁନ୍ତି କି?ହଁ ଯେଉଁ ବ୍ୟକ୍ତି ଏହି ମୂର୍ତ୍ତିକୁ ନିର୍ମାଣ କରିଛନ୍ତି ସେ ରାଜା ହୁଅନ୍ତି କି ଦେବଦୂତ ବା ବ୍ୟକ୍ତି ହୁଅନ୍ତୁ ସେ ଜଣେ ମଣିଷ । ଯେକି ନିଜ ହାତରେ ଠକ୍ ଠକ୍ କରି ନିହଣ ଓ ମୁଗୁରରେ ନିର୍ମାଣ କରିଛନ୍ତି କିନ୍ତୁ ସେ ନିଶ୍ଚୟ ଶ୍ଵେତାଶ୍ଵତର ଉପନିଷଦ ର (୩/୧୯) ଶ୍ଳୋକଟି ସ୍ଵାଧ।ୟ କରିଥିବେ।ବର୍ତ୍ତମାନ ସେହି ଶ୍ଳୋକ କ'ଣ କହୁଛନ୍ତି ଜାଣିବା " "ଆପାଣିପାଦେ। ଜବନୋ ଗ୍ରହୀତା, ପଶ୍ୟତ୍ୟଚକ୍ଷୁଃ ସ ଶୃଣୋତ୍ୟ କର୍ଣ୍ଣ8| ସ ବେତ୍ତି ବୈଦ୍ୟମ୍ ନ ଚ ତସ୍ୟାସ୍ତି ବେତ୍ତା, ତମାହୁର ଗ୍ରୟମ୍ ପୁରୁଷଂ ମହାନ୍ତମ୍" ଅର୍ଥାତ୍(ଅପାଣିପାଦୋ) ସେ ପରମାତ୍ମା ହସ୍ତ ପଦ ଯୁକ୍ତ ନୁହନ୍ତି। (ଜବନ8 ଗ୍ରହୀତା)କିନ୍ତୁ ସେ ଶୀଘ୍ରଗାମୀ ଓ ଗ୍ରହଣ କରିପାରି ଥାନ୍ତି।(ସ8 ଅଚ଼କ୍ଷୁଃ ପଶ୍ୟତି ) ସେ ବିନା ଚକ୍ଷୁରେ ଦର୍ଶନ କରିପାରନ୍ତି ।(ଅକର୍ଣ୍ଣ8 ଶୃଣୋତି) ସେ ବିନା କର୍ଣ୍ଣ ଶ୍ରବଣ କରିପାରନ୍ତି।(ସଃ ବେଦ୍ୟମ୍) ସେ ସମସ୍ତ ଜ୍ଞାତବ୍ୟ ଅର୍ଥ ସର୍ବଜ୍ଞ ।(ପୂର୍ଣ୍ଣତୟା ତସ୍ୟ ବେତ୍ତା ନଅସ୍ତି) ପୂର୍ଣ୍ଣ ଭାବରେ ତାଙ୍କର ଜ୍ଞାତା କେହି ନାହିଁନ୍ତି.. ଅର୍ଥାତ୍ ତାଙ୍କୁ ସମୂର୍ଣ୍ଣକେହି ଜାଣିବାକୁ ଜନ୍ମ ହୋଇନାହିଁନ୍ତି କି ହେବାର ସମ୍ଭାବନାନାହିଁ, (ତମ୍ ଅଗ୍ର୍ୟମ୍) ସେ ଅଗ୍ରଣୀୟଙ୍କୁ(ମହାନ୍ତମ୍ ପୁରୁଷ ମ୍ ଆହୁ8)ପରମପୁରୁଷ କହନ୍ତି। ଏଣୁଜଗନ୍ନାଥ ଅଧା ଗଢାଅଟନ୍ତି । କାରଣ ତାଙ୍କର ଆକାର ନାହିଁ ସେ ନିରାକାର ଏହା କୁ ବୁଝିଗଲେ ଜଗନ୍ନାଥଙ୍କର ମୂର୍ତ୍ତି ଏକ ନିରାକ।ର,ବାଦ୍କୁ ସୂଚନା ଦେଉଅଛି( ଇତି ଓ ୩ମ୍) #ରାଜକିଶୋର
ଗୃହତ୍ନୀକିଏ?
12-08-2021
ବୈଦିକ ସମାଜରେ ବିବାହ ବନ୍ଧନ ଓ ପାରିବାରିକ ସଂଗଠନ ସୁଦୃଢ ଓ ପବିତ୍ରଥିଲା କିନ୍ତୁ ଦୁଃଭାଗ୍ୟ ବଶତଃ କିଛିଆଧୁନିକତାକୁ ଦ୍ୱାହିଦେଇ ଆଜିର ନରନାରୀ ବିବାହ ପରେ କିଛି ପର ପୁରୁଷ ଓ ସ୍ତ୍ରୀ ସହିତ ଅବୈଧ ସଂପର୍କ ପ୍ରତିଷ୍ଠା କରି ଉତ୍ତମ ସନ୍ତାନୋତ୍ପତି,ପାରିପାରିବ ପ୍ରେମ , ପିତାମାତାଙ୍କ ଓ ଅତିଥି ସେବା ପାଇଁ ସେମାନଙ୍କ ମନ କୁ ବିଷାକ୍ତ ଓ ପତିପତ୍ନୀଙ୍କ ମଧ୍ୟରେ ବିଭେଦ ଓ ବିରୋଧ ଭାଷ କରି ପରଷ୍ପରିକ ମନାନ୍ତର ମଧ୍ୟରେ ତିକ୍ତତା କରି ପକାଇଛନ୍ତି। ଏହାର କିଛି ସାଂପ୍ରତିକ ଘଟଣା ନେଇ ମୁଁ ପ୍ରକାଶ କରିବାକୁ ବାଧ ହୋଇଛି କାରଣ ଏତେ ସ୍ଵାର୍ଥପର ଅପକ୍ଷୋ ମୃତ୍ୟୁ ହେବା ଭଲ। ସମସ୍ତେ ପାଟିରେ ସ୍ଵାର୍ଥ ରୂପକ ଜଉମୁଦଦିଅନ୍ତୁ ନାହିଁ।ସମସ୍ତଙ୍କ ପାଇଁ ନୁହେଁ ବୈଷ୍ଣବ କବି ଜୀନକୃଷ୍ଣ କହନ୍ତି "ବ୍ୟାଧି ଅଳପ ହୋଇ ସଞ୍ଚରଇ । ହେଲା ମାତ୍ରକେ ପରାଣ ମାରଇ । ଯଥା- ଭସ୍ମକୁଢ ରେ ଅଗ୍ନିକଣାଥାଇ । ମନ୍ଦ ପବନେ ଗରିଷ୍ଠ ହୁଆଇ । ମୋର ସମସ୍ତ ମାଓ ଭଉଣୀ ଙ୍କୁ ନିବେଦନ ବୈଦିକ ଯୁଗ କୁ ଫେରିବା। ଛେନାରୁ ଚୋପା ଛଡାଇବା କଥାକହି ଏହି କଥାକୁ ଏଡି ଦେବା ଉଚିତ୍ ନୁହେଁ। ହଁଆସନ୍ତୁ ଏ ସଂପର୍କରେ ଅଥର୍ବବେଦ କ'ଣ କହୁଛନ୍ତି ଜାଣିବା। """""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""" " ପ୍ରଜାୟୈ ସମୃଧ୍ଯ ତାମସ୍ମିନଗୃହେ ଗାର୍ହପତ୍ୟାୟଜା ଗୃହି । ଏନା ପତ୍ୟା ତନ୍ବାମ୍ ସଂ ସ୍ମୃଶସାଥ ଜିର୍ବି ବିଜଥମା ବଦ।" ................... ଅର୍ଥାତ୍ ହେ ନବବଧୁ ଏହି ଗୃହବାସୀ ବୃଦ୍ଧ, ବୃଦ୍ଧ। ଯୁବକ, ଯୁବତୀ , ବାଳକ ବାଳିକା, ଗୃହପାଳିତ ପଶୁ ନିର୍ବଶେଷରେ ସମସ୍ତେ ତୁମର ପ୍ରଜା ଅଟନ୍ତି । ତୁମେ ଗୃହ ସଂସ୍ଥାନରେ ସେହି ପ୍ରଜାମାନଙ୍କର ହିତ ସମ୍ପାଦନ ପାଇଁ ଯତ୍ନଶୀଳ ହୁଅ । ଜ୍ୟେଷ୍ଠ ସେବା ଓ କନିଷ୍ଠ ର ସୁପୋଷଣରେ ଆତ୍ମନିୟୋଗ କର। ଗୃହର ପ୍ରତ୍ୟେକ କାର୍ଯ୍ୟ ଯଥାସମୟରେ, ଯଥା କ୍ରମରେ ଯଥା ନିୟମରେ ସୁସମ୍ପନ୍ନ ହେଉ । ପାରିବାରିକ ଦିନ ଚନ୍ୟା,ଆତିଥ୍ୟ , ଧର୍ମାନୁଷ୍ଠାନ, ଆତ୍ମସାଧନା, ଦାନପୂଣ୍ୟାଦି ଦ୍ଵାରା ଗୃହର ଶୋଭା ଓ କୀର୍ତ୍ତି ବର୍ଦ୍ଧନ କର। କିନ୍ତୁ ଆଜିର ବଧୁ ଦିନଚର୍ଯ୍ୟା କେଉଁଠାରେ,ପତିକୁ ଛାଡ଼ି ପରପୁରୁଷ ସ୍ପର୍ଶ ପତି ସହିତ ଅଭିନ୍ନ ମତ ,ଶାଶୁ ଶଶ୍ବରଙ୍କୁ ଚାକରଠାରୁ ହୀନମନ୍ୟତା ପ୍ରକାଶ କରିବାରେ ପଶ୍ଚାତପଦ ହେଉନାହିଁନ୍ତି ।ଏହାକ 'ଣ ଆର୍ଯ୍ୟାବର୍ତ୍ତ ଭାରତ ର ସଂସ୍କୃତିକି? ତେଣୁ ବେଦକୁ ଫେର ନଚେତ୍ ଅଚିରେ ଇଂରେଜ ସଭ୍ୟତାରେ ପରିପୁଷ୍ଟହୋଇ ଯିବ । ଓ ୩ମ୍ । #Vedic Vichar
ଅଥର୍ବ ବେଦରେ ନାରୀର ଛଅଟି ଭୂଷଣ
12-08-2021
ଅଥର୍ବ ବେଦରେ ନାରୀର ଛଅଟି ଭୂଷଣ ମଧ୍ୟରୁ ଗୋଟିଏ ହେଉଛି " ଅନଶ୍ରୁ " ହେବା। ଅର୍ଥାତ୍ ଅଶୃପାତ ନକରିବା।ନାରୀ ସର୍ବଦା ସୁପ୍ରସନ୍ନା ରହିବା ଉଚିତ୍।ପ୍ରତି କଥାରେ ଲୋତକ ଝରାଇବା ଉଚିତ୍ ନୁହେଁ। ପୁରୁଷ ଏପରି ବଚନ ନାରୀକୁ ନ କହୁ ଯଦ୍ୱାରା ତାହାର ଆଖିରୁ ଲୋତକ ପାତ ହେବ। ଯେଉଁ ଗୃହରେ ନାରୀର ଚକ୍ଷୁରୁ ସଦା ସର୍ବଦା ଲୋତକ ଝରେ ସେ ଗୃହ ଦୁଃଖ, ଦୈନ୍ୟ, ଅଶାନ୍ତି ଓ ଉତ୍ପୀଡର କ୍ରୀଡା ସ୍ଥଳୀ ରୂପେ ପରିଗଣିତ ହୁଏ। ତେଣୁ ନାରୀ ସର୍ବଦା ସୁପ୍ରସନ୍ନ ରହିବା ଉଚିତ। ଏଥିପାଇଁ ଗୃହ ସ୍ବାମୀ ପ୍ରଯତ୍ନ କରିବା ଆବଶ୍ୟକ। (ସୁରେନ୍ଦ୍ର ନାଥ ଛୋଟରାୟ)
VEDIC WISDOM
11-08-2021
जीवात्मा Aspects of soul (Continued) ३१) मनुष्य के मरने के बाद ८४ लाख योनियों में घूमने के बाद ही मनुष्य जन्म मिलता है | क्या यह मान्यता सही है ? उत्तर = नहीं, मनुष्य के मृत्यु के बाद तुरंत अथवा कुछ जन्मों के बाद ( अपने कर्फल भोग अनुसार ) मनुष्य जन्म मिल सकता है | Man gets the human form again after moving in 84 lakhs species (Yonies). Is this assumption correct? Answer: No, human after death can get human body immediately or after certain births depending upon his deeds/fruits in previous births. ३२) शरीर छोड़ने के बाद (मृत्यु पश्च्यात) कितने समय में जीवात्मा दूसरा शरीर धारण करता है? उत्तर = जीवात्मा शरीर छोड़ने के बाद (मृत्यु पश्च्यात) ईश्वर की व्यवस्था के अनुसार कुछ पलों में शिघ्र ही दूसरे शरीर को धारण कर लेता है | यह सामान्य नियम है | How much time after death, soul adopts/enters the second body? Answer: Soul (after death) adopts second body very soon in a few seconds after leaving the first body. It is a common rule. ३३) क्या इस नियम का कोई अपवाद भी होता है ? उत्तर = जी हाँ , इस नियम का अपवाद होता है | मृत्यु पश्च्यात जब जीवात्मा एक शरीर को छोड़ देता है लेकिन अगला शरीर प्राप्त करने के लिए अपने कर्मोंनुसार माता का गर्भ उपलब्ध नहीं होता है तो कुछ समय तक ईश्वर की व्यवस्था में रहता है | पश्च्यात अनुकूल माता-पिता मिलने से ईश्वर की व्यवस्थानुसार उनके यहाँ जन्म लेता है | Is there any exception to this rule/system? Answer: Yes, there may be exception to this rule. When the soul leaves the body after death, but the womb of mother is not available as per his his deeds: soul remains in the system of God for some time. As per system of God, soul takes birth after getting compatible parents .(Continued) (Vedic Scriptures – Maharshi Dayanand Saraswati) presented by Bhogi Prasad.) English Translation by Avinash Mehta
बहुत से हमें कहते है आचार्य
11-08-2021
बहुत से हमें कहते है आचार्य जी सब कुछ सच बोलने से घर व्यापार नहीं चल सकता हम कहते अच्छा मौन तो रह सकते हो झूठ ना बोले मौन रहे । झूठ बोलने से मनुष्य अकाल मृत्यु को प्राप्त हो जाता है हमने देखा है एक संन्यासी को अखंड ब्रह्मचारी उच्च कोटि का संन्यासी था । वेद प्रचार योग प्रचार करते. करते बहुत लोगों ने मिल एक संगठन बनाया एक तपस्वी ने तो अपना आश्रम भी इस संन्यासी के नाम रजिस्टरी कर दिया । संन्यासी ने विवाह किया नहीं था इसलिए पुत्र कोई था ही नहीं हाँ भाई भतीजे थे सब ठीक. ठाक चल रहा था संन्यासी की प्रसिद्धि देश विदेशों तक थी बहुत दान दक्षणा आता था देश से भी विदेश से भी । संन्यासी के मन में भाई भतिजों के प्रति मोह उत्पन्न हो गया मोह के उत्पन्न होने से संन्यासी महाराज धन दक्षीणा संगठन के पैसे में हेराफेरी करने लगे । जब संगठन के सदस्यों एवं दान दाताओं की बैठक मीटिंग होती धन दक्षिणा पैसे हिसाब में फर्क होता गडबड पायी जाती संन्यासी महाराज से सवाल जवाब किया जाता । तब ये संन्यासी महाराज झूठ बोलते अपने झूठ को सत्य साबित करने की कोशिश करते झूठ बोलते. बोलते जबान लडखडा जाती मुख लाल हो जाता होंठ कांपने लगते । झूठ बोलने भाई भतिजो के मोह में फंस ये उच्च कोटि का संन्यासी संगठन में निंदा का पात्र बन दुर्गति को प्राप्त हो असमय अकाल मृत्यु को प्राप्त हो संसार से विदा हो गया । ये है झूठ बोलने का परिणाम । शैलेश मुनि सत्यार्थी।आर्य वानप्रस्थ आश्रम हरिद्वार
ମହର୍ଷି ଦୟାନନ୍ଦ ସରସ୍ୱତୀଙ୍କ ଅମର ଗ୍ରଂଥ ସତ୍ୟାର୍ଥ ପ୍ରକାଶ ର ଧାରାବାହିକ ପ୍ରବଚନ
10-08-2021
https://www.youtube.com/watch?v=orclPajtxdY ମହର୍ଷି ଦୟାନନ୍ଦ ସରସ୍ୱତୀଙ୍କ ଅମର ଗ୍ରଂଥ ସତ୍ୟାର୍ଥ ପ୍ରକାଶ ର ଧାରାବାହିକ ପ୍ରବଚନ- ଭୂମିକା -ଭାଗ-01 ରୁ 138- https://youtube.com/playlist?list=PLS... ପ୍ରଥମ ସମୁଲ୍ଲାସ- -ଭାଗ-01 ରୁ 76- https://youtube.com/playlist?list=PLS... ଦ୍ୱିତୀଯ ସମୁଲ୍ଲାସ - https://youtube.com/playlist?list=PLS... ~ Swami Sudhanand Saraswati Shrutinyasa, Odisha
সকল আর্য
10-08-2021
সকল আর্য বন্ধু তথা সনাতনীদের নমস্কার এবং আন্তরিক অভিনন্দন। আমার এই আইডিটা খোলার একমাত্র উদ্দেশ্য বেদ তথা আর্য ধর্ম প্রচার করা। কুসংস্কার ও অন্ধ গোড়ামীর বিরুদ্ধে সবাইকে সোচ্চার করা। আমি প্রতিদিন একটা করে টপিক পোষ্ট করবো আশা করি সবাই পাশে থাকবেন।
ଆତ୍ମାକୁ ଆଠଟି ପାହାଚ ଦେଇ ଯିଵାକୁ ହେବ,୧ମ
10-08-2021
ମମ ଅଭିନ୍ନ ଆତ୍ମନ୍ ଵନ୍ଧୁଗଣ ନମସ୍ତେ, ଋଷିପତଞ୍ଜଳି ଯୋଗ:ଦ ରେ ପରମାତ୍ମାଙ୍କ ସହ ରହିଵାକୁ ହେଲେ ଆତ୍ମାକୁ ଆଠଟି ପାହାଚ ଦେଇ ଯିଵାକୁ ହେବ,୧ମପାହାଚ ଯମ,୨ୟ ନିୟମ,୩ୟ ଆସନ,୪ର୍ଥ ପ୍ରାଣାୟାମ =ଶ୍ଵାସ-ପ୍ରଶ୍ବାସର ଗତିକୁ ଵନ୍ଦକରିବା ଯେଉଁ କ୍ରିୟା ,ତାହା ଚାରିପ୍ରକରର=ଵାହ୍ୟ,ପ୍ରାଣଵାୟୁକୁ ବାହାରେ ଵନ୍ଦ କରିବା, ଆଭ୍ୟନ୍ତର=ପ୍ରାଣଵାୟୁକୁ ଭିତରେ ବନ୍ଦ କରିବା, ସ୍ଥମ୍ଵଵୃତ୍ତି =ଶ୍ବାସ-ପ୍ରଶ୍ବାସ ଯିବା ଆସିବା ସମୟରେ ହଠାତ ବନ୍ଦ କରିବା ଓ ବାହ୍ୟ ଆଭ୍ୟନ୍ତର ବିଷୟାକ୍ଷେପୀ=ପ୍ରାଣଵାୟୁକୁ ଅଧିକ ରୁ ଅଧିକ ଵାହାରେ ବନ୍ଦକରିବା ପୁଣି ଭିତରକୁ ଅଧିକ ରୁଅଧିକନେଇ ବନ୍ଦ କରିବା ଏହି ଭଳି ଚାରି ପ୍ରକାର ପ୍ରଣାୟାମ କଲେ ଆତ୍ମାର ପ୍ରକାଶ(ଜ୍ଞାନ)ଉପରେ ଢାଙ୍କି ହୋଇଥିବା ଆବରଣ ନଷ୍ଟ ହୋଇଯାଏ।ମସ୍ତକ ନାସିକା,ହୃଦୟ ଆଦି ସ୍ଥାନ ମାନଙ୍କ ଉପରେ ମନକୁ ବନ୍ଦ କରିବାର ଯୋଗ୍ୟତାର ଵୃଦ୍ଧି ହୋଇଯାଏ ।
ଆମ ପିଲାମାନେ ଅନେକ ସମୟରେ ଭୁଲ କରିଥାନ୍ତି।
10-08-2021
ଆମ ପିଲାମାନେ ଅନେକ ସମୟରେ ଭୁଲ କରିଥାନ୍ତି। ସେହି ଭୁଲକୁ ବାପା ମାଆ ମାନେ ମଧ୍ୟ ଦେଖି ଥାଆନ୍ତି। ସେତିକି ବେଳେ ତାକୁ ସଂଶୋଧନ କରିଦେଲେ ପିଲାମାନେ ଆଉ ଥରେ ଭୁଲ କରନ୍ତେ ନାହିଁ। କିନ୍ତୁ ଅନେକ ବାପା ମାଆ ନିଜର ସମ୍ମାନ ଓ ଅହଙ୍କାରକୁ ଗୁରୁତ୍ବ ଦେଇ ପିଲାଙ୍କର ଭୁଲକୁ ଲୁଚାଇ ଦେଇଥାନ୍ତି। ଫଳରେ ପିଲାମାନେ ନୂଆ ନୂଆ ଭୁଲ କରିବାକୁ ପ୍ରେରଣା ପାଇଥାନ୍ତି। ଚାଣକ୍ୟ କହିଛନ୍ତି - " ଲାଳୟତେ ପଞ୍ଚ ବର୍ଷାଣି ଦଶ ବର୍ଷାଣି ତାଡ଼ ୟେତ"। ଯଦି ଆମେ ଆମ ମୁନି,ଋଷି,ମହାପୁରୁଷଙ୍କ ବାଣୀକୁ ଅଣଦେଖା ନକରି ପିଲାମାନଙ୍କୁ ପାଳନ କରିବା ତେବେ ଆମ ସହିତ ଆମ ପିଲାମାନେ ମଧ୍ୟ ଭଲ ମଣିଷ ହୋଇଯିବେ। (ସୁରେନ୍ଦ୍ର ନାଥ ଛୋଟରାୟ)
रोगी होने पर एक व्यक्ति शहर के बडे डोक्टर के पास गया पर्चा बनवाया डोक्टर को दिखाया डोक्टर ने रोग देख कर समझ कर पर्चे पर दवाई लिख दी ।
09-08-2021
रोगी होने पर एक व्यक्ति शहर के बडे डोक्टर के पास गया पर्चा बनवाया डोक्टर को दिखाया डोक्टर ने रोग देख कर समझ कर पर्चे पर दवाई लिख दी । यह व्यक्ति डोक्टर को दिखा दवाई लिखवा पर्चा जेब में डाल आ गया दो दिन तीन दिन हो गये रोग ठीक नहीं हुआ कोई आराम नहीं हुआ रोग औऱ अधिक बढता ही जा रहा था । इसके मित्रों ने पुछा क्या हुआ डोक्टर को दिखाया की नहीं तुम तो औऱ अधिक बीमार लग रहे हो तुम्हें बतलाया था शहर का वो बडा होशियार डोक्टर है उसे दिखाना दिखाया की नहीं । इसने कहाँ क्या बात करते हो में गया था उस डोक्टर के पास जिसके बारे में आप सब ने बताया था ये देखो पर्चा औऱ पर्चे पर लिखी दवाई । इसने जेब से निकाल डोक्टर का पर्चा दिखा दिया मित्रों ने पर्चा भी देखा लिखी गई दवाई भी देखी बोले यार डोक्टर तो ये होशियार है दवाई भी ठीक लिखी है फिर रोग ठीक क्यों नहीं हो रहा आराम क्यों नहीं लग रहा । इसके मित्रों ने कहाँ ओये जरा दवाई तो दिखा जो तू लाया है औऱ खाई है औऱ डोक्टर ने जो फरेज बताया वो तो तूने किया ही होगा देखें दवाई असली भी है या नहीं किस कम्पनी की है देखें जरा । इस व्यक्ति ने कहाँ दवाई तो में लाया नहीं ना मैने दवाई खाई है जब दवाई नहीं खाई तो फरेज ही क्या करता? में तो दवाई का पर्चा जेब में डाले रखता हूँ । इसके मित्रों ने कहाँ अरे पगले अच्छे डोक्टर को दिखाया दवाई लिखा लाया लेकिन दवाई खायी नहीं तो आराम कैसे होगा मेडिकल स्टोर से खरीद कर दवाई खा फरेज कर तभी तो रोग ठीक होगा आराम आयेगा ऐसे ही डोक्टर को भी बदनाम कर रहा है डोक्टर की दवाई से आराम नहीं हुआ जी । शैलेश मुनि सत्यार्थी।आर्य वानप्रस्थ आश्रम, हरिद्वार
आज का चिन्तन
09-08-2021
???? प्रेम की वास्तविक परिभाषा हमें भगवान् शिव से सीखनी चहिए। दुनियां वाले भी प्रेम करते हैं मगर सिर्फ़ उस वस्तु को जो उनके उपयोग की हो। अनुपयोगी अथवा बिना कारण किसी से अगर कोई प्रेम करता है तो वो भगवान् शिव ही हैं। इसलिए वो भूत भावन भी कहलाते हैं। ???? भूतों से प्रेम करना अर्थात् समाज में उन लोगों से भी प्रेम करना जो समाज द्वारा तिरस्कृत हों अथवा समाज जिन्हें उपेक्षित समझता हो व उनसे नफरत करता हो। ???? भूत भावन भगवान् शिव से हमें यह प्रेरणा लेनी चाहिए कि समाज का चाहे कोई भी वर्ग अथवा चाहे कोई भी व्यक्ति क्यों न हो अगर हम उन्हें ज्यादा कुछ न दे सके तो कोई बात नहीं, कम से कम एक प्रेम भरी मुस्कान जरूर दे दिया करें। ???? *कल्पना कल्पित लेख हैं कोई अन्यथा में न लें । शिक्षा महत्वपूर्ण है ।* ???? ✍️ आचार्य धर्मराज
ପ୍ରାଚୀନ ବୈଦିକ ସୈଦ୍ଧାନ୍ତିକ ଜ୍ଞାନ
09-08-2021
*ପ୍ରଶ୍ନ ୧୧- ଅନାଦି ବସ୍ତୁ କେତୋଟି ʔ* ଉତ୍ତର- ଅନାଦି ବସ୍ତୁ ହେଉଛି ତିନୋଟି ଏବଂ ସେମାନେ ହେଲେ- ଈଶ୍ୱର, ଜୀବ ଏବଂ ପ୍ରକୃତି। *ପ୍ରଶ୍ନ ୧୨- ବେଦ ପୁସ୍ତକ ରୂପରେ କେବେ ଆସିଲା ʔ* ଉତ୍ତର- ସୃଷ୍ଟି ପ୍ରାରଂଭର କିଛି କାଳ ପରେ ବେଦ ପୁସ୍ତକ ରୂପରେ ଆସିବାର ସମ୍ଭାବନା କରାଯାଏ । *ପ୍ରଶ୍ନ ୧୩- ଅନାଦି କାହାକୁ କହନ୍ତି ʔ* ଉତ୍ତର- ଯେଉଁ ବସ୍ତୁର ଉତ୍ପତ୍ତି ହୋଇ ନଥାଏ ତାକୁ ଅନାଦି କହନ୍ତି । *ପ୍ରଶ୍ନ ୧୪- ଈଶ୍ୱରଙ୍କ ମୁଖ୍ୟ କର୍ମ ସବୁ କଅଣ ʔ* ଉତ୍ତର-ଈଶ୍ୱରଙ୍କ ମୁଖ୍ୟ କର୍ମ ହେଉଛି ପାଞ୍ଚୋଟି- ୧ ସଂସାରର ରଚନା କରିବା, ୨ ସଂସାରକୁ ପାଳନ କରିବା, ୩ ସଂସାରର ବିନାଶ କରିବା, ୪ ବେଦ ର ଜ୍ଞାନ ଦେବା ଏବଂ ୫ ଭଲ ମନ୍ଦ କର୍ମ ସବୁର ଫଳ ପ୍ରଦାନ କରିବା । *ପ୍ରଶ୍ନ ୧୫- ଈଶ୍ୱରଙ୍କ ମନୁଷ୍ୟ ମାନଙ୍କ ସାଥିରେ କଅଣ ସମ୍ବନ୍ଧ ରହିଛି ʔ* ଉତ୍ତର- ଈଶ୍ୱରଙ୍କ ମନୁଷ୍ୟ ମାନଙ୍କ ସହିତ ପିତା-ପୁତ୍ର, ମାତା-ପୁତ୍ର, ଗୁରୁ-ଶିଷ୍ୟ, ରାଜା—ପ୍ରଜା, ସାଧ୍ୟ-ସାଧକ, ଉପାସ୍ୟ-ଉପାସକ, ବ୍ୟାପ୍ୟ-ବ୍ୟାପକ ଆଦି ଅନେକ ସମ୍ବନ୍ଧ ରହିଛି । *ପ୍ରଶ୍ନ ୧୬- ବେଦରେ ଈଶ୍ୱରଙ୍କ ସ୍ୱରୂପ କଅଣ କୁହା ଯାଇଛି ʔ* ଉତ୍ତର-ବେଦରେ ଈଶ୍ୱରଙ୍କୁ ସର୍ବବ୍ୟାପକ, ସର୍ବଜ୍ଞ, ନିରାକାର, ନ୍ୟାୟକାରୀ, କର୍ମଫଳଦାତା ଆଦି ଗୁଣଯୁକ୍ତ ବର୍ଣ୍ଣନା କରାଯାଇଛି । *ପ୍ରଶ୍ନ ୧୭- ଏହି ସଂସାର କେବେ ସୃଷ୍ଟି ହେଲା ʔ* ଉତ୍ତର- ଏହି ସଂସାର୧୯୬,୦୮,୫୩,୧୨୨ ବର୍ଷ (ଵିକ୍ରମାବ୍ଦ ୨୦୭୮ ସୁଦ୍ଧା) ପୂର୍ବେ ସୃଷ୍ଟି ହେଲା । *ପ୍ରଶ୍ନ ୧୮- ଏହି ସଂସାର କେତେ ବର୍ଷ ପର୍ଯ୍ୟନ୍ତ ଆହୁରି ରହିବ ʔ* ଉତ୍ତର- ଏହି ସଂସାର ୨,୩୫,୯୯,୪୬,୮୭୮ ବର୍ଷ ପର୍ଯ୍ୟନ୍ତ ଆହୁରି ରହିବ। *ପ୍ରଶ୍ନ ୧୯- ରାମାୟଣ କାଳ କେତେ ପୂର୍ବର ʔ* ଉତ୍ତର- ରାମାୟଣର କାଳ ପ୍ରାୟ ୧୦ ଲକ୍ଷ ବର୍ଷ ପୂର୍ବର । *ପ୍ରଶ୍ନ ୨0- ମହାଭାରତ ସମୟ କେତେ ପୂର୍ବର ʔ* ଉତ୍ତର- ମହାଭାରତର ସମୟ ପ୍ରାୟ ୫୨00 ବର୍ଷ ପୂର୍ବର । *ପ୍ରଶ୍ନ ୨୧- ପାରସୀ ମତ କେତେ ପୂର୍ବର ʔ* ଉତ୍ତର-ପାରସୀ ମତ ପ୍ରାୟ ୪,୫00 ବର୍ଷ ପୂର୍ବର । *ପ୍ରଶ୍ନ ୨୨- ଯହୂଦୀ ମତ କେତେ ପୂର୍ବର ʔ* ଉତ୍ତର-ଯହୂଦୀ ମତ ପ୍ରାୟ ୪000 ବର୍ଷ ପୂର୍ବର । *ପ୍ରଶ୍ନ ୨୩- ଜୈନବୌଦ୍ଧ ମତ ର କାଳ କେତେ ପୂର୍ବର ʔ* ଉତ୍ତର-ଜୈନବୌଦ୍ଧ ମତ ସମୟ ପ୍ରାୟ ୨୫00 ବର୍ଷ ପୂର୍ବର । *ପ୍ରଶ୍ନ ୨୪- ଶଂକରାଚାର୍ୟଙ୍କ ସମୟ କେତେ ପୂର୍ବର ʔ* ଉତ୍ତର- ଶଂକରାଚାର୍ୟଙ୍କ ସମୟ ପ୍ରାୟ ୨୩00 ବର୍ଷ ପୂର୍ବର । *ପ୍ରଶ୍ନ ୨୫- ହିନ୍ଦୁ-ପୁରାଣ ମତର ସମୟ କେତେ ପୂର୍ବର ʔ* ଉତ୍ତର- ହିନ୍ଦୁ-ପୁରାଣ ମତର ସମୟ ପ୍ରାୟ ୨୨00 ବର୍ଷ ପୂର୍ବର । *ପ୍ରଶ୍ନ ୨୬- ଈସାଈ ମତ କେତେ ପୂର୍ବର ʔ* ଉତ୍ତର- ଈସାଈ ମତ ପ୍ରାୟ ୨000 ବର୍ଷ ପୂର୍ବର । *ପ୍ରଶ୍ନ ୨୭- ଇସ୍ଲାମ ମତ କେତେ ପୂର୍ବର ʔ* ଉତ୍ତର-ଇସ୍ଲାମ ମତ ପ୍ରାୟ ୧୪00 କେତେ ପୂର୍ବର । *ପ୍ରଶ୍ନ ୨୮- ସିକ୍ଖ ମତ କେତେ ପୂର୍ବର ʔ* *ଉତ୍ତର- ସିକ୍ଖ ମତ ପ୍ରାୟ ୫00 ବର୍ଷ ପୂର୍ବର ।* *ପ୍ରଶ୍ନ ୨୯- ବ୍ରହ୍ମକୁମାରୀ, ରାଧାସ୍ୱାମୀ, ଗାୟତ୍ରୀ ପରିବାର, ସ୍ୱାମୀ ନାରାୟଣ, ଆନନ୍ଦ ମାର୍ଗ ଇତ୍ୟାଦି ମତ-ପଂଥ-ସମ୍ପ୍ରଦାୟ କେତେ ବର୍ଷ ପୂର୍ବର ʔ* ଉତ୍ତର-ଦେଶ ରେ ଶହ ଶହ ସଂଖ୍ୟାରେ ପ୍ରଚଳିତ ବର୍ତମାନ ସମ୍ପ୍ରଦାୟ ପାଖାପାଖି ୧00-୧୫0 ବର୍ଷ ପୂର୍ବ ସମୟର । *ପ୍ରଶ୍ନ ୩0- ଈଶ୍ୱରଙ୍କୁ ମୂର୍ତି ରୂପରେ ଟତିଆରିକରି ପୂଜିବା କେବେ ଆରମ୍ଭ ହେଲା ʔ* ଉତ୍ତର- ଈଶ୍ୱରଙ୍କୁ ମୂର୍ତି ରୂପରେ ତିଆରିକରି ପୂଜିବା ପ୍ରାୟ ୨୫00 ବର୍ଷ ପୂର୍ବେ ଆରମ୍ଭ ହେଲା । ଏହା ପୂର୍ବରୁ ଲୋକେ ନିରାକର ଈଶ୍ୱରଙ୍କ ହିଁ ଉପାସନା କରୁଥିଲେ । *ପ୍ରଶ୍ନ ୩୧- ବେଦରେ ଧର୍ମର ଲକ୍ଷଣ କଅଣ ʔ* ଉତ୍ତର- ଧୈର୍ଯ୍ୟ ଧାରଣ କରିବା, କ୍ଷମା କରିବା, ମନ ଉପରେ ନିୟନ୍ତ୍ରଣ, ଚୋରୀ ନ କରିବା, ପବିତ୍ରତା, ଇନ୍ଦ୍ରିୟ ନିଗ୍ରହ, ବୁଦ୍ଧି ବଢ଼ାଇବା, ଜ୍ଞାନ-ବିଜ୍ଞାନ ପ୍ରାପ୍ତ କରିବା, ସତ୍ୟ କହିବା, କ୍ରୋଧ ନକରିବା । *ପ୍ରଶ୍ନ ୩୨- ପୃଥ୍ୱୀ ପୃଷ୍ଠରେ ସର୍ବ ପ୍ରଥମେ ମନୁଷ୍ୟ କେଉଁଠି ଉତ୍ପନ୍ନ ହେଲେ ʔ* ଉତ୍ତର- ପୃଥ୍ୱୀ ପୃଷ୍ଠରେ ସର୍ବ ପ୍ରଥମେ ମନୁଷ୍ୟ ତିବ୍ବତ ରେ ଉତ୍ପନ୍ନ ହେଲେ । *ପ୍ରଶ୍ନ ୩୩- ଆର୍ଯ୍ୟ କାହାକୁ କହନ୍ତି ʔ* ଉତ୍ତର- ଉତ୍ତମ ଗୁଣ-କର୍ମ-ସ୍ୱଭାବ ଯୁକ୍ତ ମନୁଷ୍ୟଙ୍କ ନାମ ଆର୍ଯ୍ୟ ହୋଇଥାଏ । *ପ୍ରଶ୍ନ ୩୪- କଅଣ ଆର୍ଯ୍ୟ ଲୋକମାନେ ଭାରତବର୍ଷକୁ ବାହାରୁ ଆସିଥିଲେ ʔ* ଉତ୍ତର- ଆର୍ଯ୍ୟ ଲୋକମାନେ ଭାରତବର୍ଷକୁ ବାହାରୁ ଆସିନଥିଲେ । *ପ୍ରଶ୍ନ ୩୫- ଇତିହାସ ପୁସ୍ତକ ମାନଙ୍କରେ ଏପରି ପଢ଼ାଯାଇଥାଏ କି ଆର୍ଯ୍ୟ ମାନେ ବାହାରୁ ଆସିଥିଲେ ʔ* ଉତ୍ତର- ଇତିହାସ ପୁସ୍ତକ ମାନଙ୍କରେ ଭୂଲ ପଢ଼ାଯାଉଅଛି। ପ୍ରକୃତରେ ଆର୍ଯ୍ୟ ମାନେ ହିଁ ଏ ଦେଶର ମୂଳନିବାସୀ । *ପ୍ରଶ୍ନ ୩୬- ଚକ୍ରବର୍ତୀ ସମ୍ରାଟ କାହାକୁ କହନ୍ତି ʔ* ଉତ୍ତର- ସମ୍ପୂର୍ଣ ପୃଥ୍ୱୀର ରାଜାଙ୍କୁ ଚକ୍ରବର୍ତୀ ସମ୍ରାଟ କହନ୍ତି । *ପ୍ରଶ୍ନ ୩୭- ଚକ୍ରବର୍ତୀ ସମ୍ରାଟ କେଉଁ ସମୟରେ ଥିଲେ ʔ* ଉତ୍ତର- ସୃଷ୍ଟିର ପ୍ରାରମ୍ଭରୁ ମହାଭାରତ କାଳ ପର୍ଯ୍ୟନ୍ତ ଏହି ପୃଥ୍ୱୀ ଉପରେ ଚକ୍ରବର୍ତୀ ରାଜାହିଁ ହୋଇ ଆସୁଥିଲେ । *ପ୍ରଶ୍ନ ୩୮- ଅନ୍ତିମ ଚକ୍ରବର୍ତୀ ରାଜା କିଏ ଥିଲେ ʔ* ଉତ୍ତର- ଯୁଧିଷ୍ଠିର ଭାରତବର୍ଷର ଅନ୍ତିମ ଚକ୍ରବର୍ତୀ ରାଜା ଥିଲେ । *ପ୍ରଶ୍ନ ୩୯- ପୃଥ୍ୱୀ ଉପରେ ବୈଦିକ ସାମ୍ରାଜ୍ୟ କେତେ କାଳ ପର୍ଯ୍ୟନ୍ତ ରହିଲା ʔ* ଉତ୍ତର- ପୃଥ୍ୱୀ ଉପରେ ବୈଦିକ ସାମ୍ରାଜ୍ୟ ସୃଷ୍ଟିର ପ୍ରାରମ୍ଭରୁ ମହାଭାରତ କାଲ ପର୍ଯ୍ୟନ୍ତ ଅର୍ଥାତ୍ ପ୍ରାୟ ୧,୯୬,0୮,୪୮,000 ବର୍ଷ ପର୍ଯ୍ୟନ୍ତ ରହିଲା । *ପ୍ରଶ୍ନ ୪0- ବୈଦିକ କାଳରେ ବିଶ୍ୱର ଲୋକ ମାନେ କେଉଁ ଈଶ୍ୱରଙ୍କୁ ମାନୁଥିଲେ ʔ* ଉତ୍ତର- ବୈଦିକ କାଳରେ ବିଶ୍ୱର ଲୋକମାନେ କେବଳ ଏକ ନିରାକାର ଈଶ୍ୱରଙ୍କୁ ମାନୁଥିଲେ । *ପ୍ରଶ୍ନ ୪୧- ବୈଦିକ ସାମ୍ରାଜ୍ୟର ସମୟରେ ବିଶ୍ୱ ଶାସନର ଭାଷା କଣ ଥିଲା ʔ* ଉତ୍ତର- ବୈଦିକ ସାମ୍ରାଜ୍ୟର ସମୟରେ ବିଶ୍ୱ ଶାସନର ଭାଷା ସଂସ୍କୃତ ଥିଲା । *ପ୍ରଶ୍ନ ୪୨- ବୈଦିକ କାଲରେ ଶିକ୍ଷା ପ୍ରଣାଳି କଅଣ ଥିଲା ʔ* .....କ୍ରମଶଃ ମୂଳ ହିନ୍ଦୀ: ଜ୍ଞାନେଶ୍ୱରାର୍ଯ୍ୟ ଓଡ଼ିଆ ଅନୁବାଦ: ମହିମା ସାଗର (ଏ ସମ୍ବନ୍ଧୀୟ ସପ୍ରମାଣ ବିସ୍ତୃତ ବର୍ଣ୍ଣନା ଜାଣିବା ପାଇଁ *'ସତ୍ୟାର୍ଥ ପ୍ରକାଶ'* ଓ *'ଋଗ୍ବେଦାଦିଭାଷ୍ୟଭୂମିକା* ପୁସ୍ତକ ସ୍ୱାଧ୍ୟାୟ କରନ୍ତୁ।)
सूक्ष्मतर आत्मा शरीर में
08-08-2021
१-परमाणु से भी सूक्ष्मतर आत्मा शरीर में बस कर प्राणों के सहारे शरीर के विभिन्न अंगों को अभीष्ट गति देता रहता है। २- सुक्ष्मतम परमात्मा सब में और सर्वत्र व्यापते हुए प्रकृति और आत्माओं को अभीष्ट गतियां देता रहता है,आत्माओं को पात्रता के अनुरूप सुख, दुख वा आनन्द प्रदान करता रहता हे। ३-सच्चिदानन्द स्वरूप सर्वगतिदाता ईश्वर स्वयं गति नहीं करता और सुख दुख नहीं भोगता।
महर्षि स्वामी दयानंद से पूर्व के जिन विद्वानों के जो वेद भाष्य प्राप्त होते हैं , वह २६ भाष्यकार हैं।
08-08-2021
वह कब हुए किन-किन वेदों का उन्होंने भाष्य किया यह क्रम से मैं यहां उल्लेख कर रहा हूं । किंतु महर्षि दयानंद से पूर्व के और महाभारत के बाद के जो मध्य काल के भाष्यकारों का जो वेद भाष्य प्राप्त होता है , वह ऋषियों की परंपरा के विरुद्ध है वेद के वास्तविक अर्थ के विरुद्ध है , महर्षि दयानंद से पूर्व के भाष्यकारों की सूची इस प्रकार है:- (१) देव स्वामी यह विक्रमी संवत से पूर्व हुए थे इन्होंने ऋग्वेद का भाष्य किया था। (२) स्कंद स्वामी इनका जन्म ६३० ईस्वी में हुआ था, यह बल्लभी गुजरात के निवासी थे इन्होंने ऋग्वेद का भाष्य किया था। (३) नारायण इनका जन्म ६३० ईस्वी में हुआ था, इन्होंने ऋग्वेद का भाष्य किया था। (४) उद्गीथ इनका जन्म ६८० ईस्वी के आसपास हुआ था, इन्होंने ऋग्वेद का भाष्य किया था जब इन्होंने व्याख्या वेद की तब यह वानप्रस्थ में थे। (५) हस्तमालक इनका जन्म ७०० ईस्वी में हुआ था, इन्होंने ऋग्वेद का भाष्य किया था। (६) हरि स्वामी इनका जन्म ७३८ ईस्वी में हुआ था, इन्होंने यजुर्वेद का भाष्य से किया था। (७) वेंकट माधव इनका जन्म १०५० ईस्वी में हुआ था, यह चोल प्रदेश में कावेरी नदी के बाएं किनारे पर स्थित गमन ग्राम के निवासी थे, इन्होंने ऋग्वेद का भाष्य किया था। (८) उव्वट इनका जन्म १०५० ईस्वी में हुआ था, यह उज्जैन के निवासी थे, इन्होंने ऋग्वेद तथा यजुर्वेद का भाष्य किया था (९) लक्ष्मण इनका जन्म ११०० ईस्वी में हुआ था इन्होंने ऋग्वेद का भाष्य किया था। (१०) आनंद तीर्थ इन्हें माधवाचार्य भी कहते हैं, इनका जन्म ११९८ ईस्वी में हुआ था ,इन्होंने ऋग्वेद का भाष्य किया था, इनकी मृत्यु १२७८ ईस्वी में हुई थी। (११)भट्टभास्कर इनका जन्म ११ वी शताब्दी में दक्षिण भारत में हुआ था, इन्होंने ऋग्वेद का भाष्य किया था। (१२) आत्मानंद इनका जन्म १२५० ईस्वी में हुआ था, इन्होंने ऋग्वेद का भाष्य किया था। (१३)धनुषक्याजवा इनका जन्म १३वी शताब्दी में हुआ था, इन्होंने ऋग्वेद का भाष्य किया था। (१४) गुण विष्णु इनका जन्म १३वी शताब्दी में हुआ था उन्होंने सामवेद का भाष्य किया था। (१५) भरत स्वामी इन्हें सरयषा भी कहते हैं, इनका जन्म विक्रमी संवत १३७२ में हुआ था, यह विजय नगर के निवासी थे, इन्होंने सामवेद का भाष्य किया था, इनकी मृत्यु १४४४ विक्रमी संवत को हुई थी। (१६)गौराधार इनका जन्म १३०० ईस्वी में हुआ था, यह कश्मीर के निवासी थे, इन्होंने यजुर्वेद का भाष्य किया था। (१७)सायण आचार्य इनका जन्म १३१५ ईस्वी में हुआ था, यह विजय नगर के निवासी थे, इन्होंने ऋग्वेद तथा अथर्ववेद का भाष्य किया था, इनकी मृत्यु १३८७ ईस्वी में हुई थी। (१८)मुद्गल इनका जन्म १४१३ ईस्वी में हुआ था इन्होंने ऋग्वेद का भाष्य किया था। (१९)रावण इनका जन्म १४५० ईस्वी में हुआ था, इन्होंने ऋग्वेद का तथा यजुर्वेद का भाष्य से किया था। (२०) शौनक इन्होंने यजुर्वेद का भाष्य किया था , इनकी जन्मतिथि का कहीं उल्लेख नहीं मिलता है। (२१) महास्वामी इनका जन्म १४वी शताब्दी में हुआ था, इन्होंने साम वेद का भाष्य किया था। (२२) सोभाकर भट्ट इनका जन्म १४०८ ईसवी में हुआ था, इन्होंने सामवेद का भाष्य किया था। (२३) चतुर्वेद स्वामी इनका जन्म १५वी शताब्दी में हुआ था, इन्होंने ऋग्वेद का भाष्य किया था। (२४) सूर्य देवाज्ञा इनका जन्म १५३० ईस्वी में हुआ था, इन्होंने सामवेद का भाष्य किया था। (२५) माधव इनका जन्म विक्रमी संवत की 7वी शताब्दी में हुआ था, इन्होंने सामवेद का भाष्य किया था। (२६)महीधर इनका जन्म काशी बनारस में १६०० ईस्वी में हुआ था इन्होंने यजुर्वेद का भाष्य किया था। (२७) महर्षि स्वामी दयानंद इनका जन्म १८२५ ईस्वी में हुआ था, इन्होंने ऋग्वेद तथा यजुर्वेद का भाषण किया था इनकी मृत्यु १८८३ ईस्वी में हुई थी, यह गुजरात काठियावाड़ के टंकारा ग्राम निवासी थे। ओमेद्रार्य मुरादाबाद इतिओउम् शम्
आओ मित्रों! हम सब मिलकर कृण्वंतो विश्वमार्यम् सार्थक करे
08-08-2021
आओ मित्रों! हम सब मिलकर कृण्वंतो विश्वमार्यम् सार्थक करे आप _हमारे समस्त मित्रों के लिए एक आदर्श आचार संहिता मित्रवर ! सादर नमस्ते बंधुवर ! ईश्वर की असीम तथा महती कृपा से आप एक श्रेष्ठ मित्र के रूप में हमारे मित्र हैं।आपके हमारे अधिकांश मित्र वैदिक धर्म सिद्धांतों को जानने तथा मानने वाले हैं हम भी परस्पर और अधिक जाने तथा आत्मसात करें और अधिक से अधिक महानुभाव तक वैदिक ज्ञान पहुंचा कर धर्म, राष्ट्र तथा मानव जाति की रक्षार्थ अपना योगदान दे। तभी हमारी मित्रता सार्थक है।धन्यवाद आपसे विनम्र अनुरोध है कि उपरोक्त बातों का विशेष ध्यान रखें। १: वैदिक धर्म सिद्धांतों के विपरीत किसी भी प्रकार की मूर्ति पूजा, अवतारवाद,जन्मना जातिवाद , जादू टोना, चमत्कार, भविष्यफल तथा भविष्यवाणियां, गुरुडमवाद, विज्ञान विरुद्ध कपोल कल्पित पौराणिक दंत कथाओं आदि की गतिविधियां प्रचारित प्रसारित ना करें। २: ईश्वर को जन्म लेने वाला अर्थात साकार रूप में प्रदर्शित करने वाले मूर्ति,चित्र आदि तथा अवतारवाद आदि की ऐसी कोई पोस्ट ना करें जिससे अंधविश्वास पाखंड फैलता हो। ३: जन्मना जातिवाद जो मनुष्य जाति का सबसे बड़ा अभिशाप होकर मनुष्य जाति के विघटन और इस देश की परतंत्रता तथा पतन का प्रमुख कारण है अत: इसे प्रचारित न करें व इसे समाप्त करने की दिशा में कार्य करें। ४: हमारा ऐसा मानना है की फिल्मों ने वैदिक धर्म संस्कृति के मूल्य तथा मानवीय सभ्यता कि रक्षार्थ योगदान कम और हानि अधिक पहुंचाई है। अत: फिल्मों से संबंधित किसी भी प्रकार की कोई पोस्ट ना करें। ५: गुरु शब्द का अर्थ है अज्ञान के अंधकार को दूर करने वाला। यह कार्य वही कर सकता है जो परमपिता परमात्मा के प्रदत्त ज्ञान वेद तथा वेद अनुकूल शास्त्रों का ज्ञाता हो किंतु वर्तमान में वेद ज्ञान विहीन गुरु घंटालो की बाढ़ आई हुई है इन्होंने सर्वाधिक धर्म संस्कृति की हानि की है तथा स्वयंभू भगवान बन बैठे हैं अतः हम गुरुडमवाद के पक्षधर नहीं है आप से भी अपेक्षा करेंगे कि आप भी इससे दूर रहें। ६: परमपिता परमात्मा ने हमें यह मनुष्य जीवन आध्यात्मिक उन्नति के लिए दिया है। आत्मा अजर अमर है तथा शरीर नाशवान है अतः हम शरीर के लिए आवश्यक कार्य ही करें तथा विशेष प्रयास आत्मिक उन्नति का करें। इस हेतु आवश्यक है कि हम सर्वाधिक पुरुषार्थ वेद ज्ञान अर्जित करने हेतु करें। सर्वप्रथम इसके लिए आवश्यक है कि हम शरीर के श्रंगार प्रदर्शन पर आवश्यकता से अधिक केंद्रित न रहे तथा इस सूचना क्रांति के माध्यम का उपयोग सर्वाधिक आध्यात्मिक उन्नति के प्रचार-प्रसार हेतु करें। यह विशेष ध्यान रखें व्यक्तिगत चित्र आदि का प्रदर्शन अनावश्यक रूप से ना करें। ७: मनु महाराज ने व्यवस्था दी है कि राजा वेद का ज्ञाता हो।राजनीति अत्यंत पवित्र तथा धर्म संस्कृति के लिए आवश्यक विषय है। राजनीति के बगैर राष्ट्र की सुदृढ़ता तथा संचालन संभव नहीं। और राष्ट्र के बगैर धर्म संस्कृति सुरक्षित नहीं । राजनीति तपस्या है किंतु वर्तमान में वेद ज्ञान विहीन शूद्र राजनीति ने देश, धर्म ,संस्कृति की दशा दिशा ही बदल कर रख दी है। ऐसी परिस्थिति में घृणा विद्वेष फैलाने वाली स्वार्थ परक राजनीति से संबंधित सूचना समाचारों को उसके परिणाम व मानवीय पक्ष को विचार करने के बाद ही प्रेषित करें। ८: वैदिक धर्म संस्कृति में मातृशक्ति का सम्मान तथा स्थान सर्वोपरि है। अतः मातृशक्ति के संबंध में प्रेषित किसी प्रकार के विचार तथा चित्र आदि में मातृशक्ति के सम्मान व स्थान की गरिमा बनाए रखें। अश्लीलता कतई स्वीकार्य नहीं है। ९: महर्षि दयानंद सरस्वती जी ने मानव जाति की एकता हेतु एक भाषा पर जोर दिया है। जब तक संस्कृत भाषा अपनी गरिमा को पुनः प्राप्त नहीं कर लेती तब तक हम हिंदी भाषा को प्राथमिकता दें। १०: मित्रवर! इस जगत में कोई व्यक्ति नहीं है जिसका कोई मित्र ना हो। प्राणी मात्र के जीवन में मित्र की प्रमुख भूमिका है। प्रत्येक मनुष्य को उसके माता-पिता सुसंस्कार देते हैं एक अच्छा सच्चरित्र व्यक्ति बनाने का प्रयास करते हैं कोई भी माता-पिता अपने बच्चे को दुष्ट दुर्गुणी बनाना नहीं चाहते किंतु फिर भी मनुष्य में दोष दुर्गुण आ जाते हैं, कहां से आते हैं? मित्र ही वह माध्यम है जो माता पिता के दिए संस्कारों मैं और वृद्धि कर मनुष्य को एक सफलतम मनुष्य बना सकते हैं और मित्र ही वह माध्यम है जो माता-पिता के दिए संस्कारों को मिट्टी में मिला कर मनुष्य को पतन की राह पर धकेल सकते हैं। आपके मित्र प्रत्यक्ष जीवन में तथा सोशल मीडिया पर कैसे हैं?वे आपके वास्तविक मित्र हैं अथवा शत्रु इस का सूक्ष्म निरीक्षण करना आपका अपना दायित्व है। ११: हमारा ऐसा विश्वास है कि निष्क्रिय सदस्य स्वयं का कल्याण नहीं कर सकता तो वह धर्म संस्कृति तथा राष्ट्र की रक्षा कैसे कर पाएगा। अतः हम अपने मित्र से अपेक्षा रखेंगे कि वह समय सुविधानुसार सक्रिय रहे। धन्यवाद सहयोग की अपेक्षा में आपका मित्र सुखदेव शर्मा प्रकाशक वैदिक संसार मासिक पत्रिका
“परम दयालु, कृपालु और हमारा हितैषी परमेश्वर”
08-08-2021
ओ३म् ========= यदि हम विचार करें कि संसार में हमारे प्रति सर्वाधिक प्रेम, दया, सहानुभूति कौन रखता है, कौन हमारे प्रति सर्वाधिक सम्वेदनशील, हमारे सुख में सुखी व दुःखी में दुखी, हमारे प्रति दया, कृपा व हित की कामना करने वाला है, तो हम इसके उत्तर में अपने माता-पिता, आचार्य और परमेश्वर को सम्मिलित कर सकते हैं। इसमें कहीं कोई अपवाद भी हो सकता है। हम जब इस प्रश्न पर विचार करते हैं तो हमें मनुष्य वा मनुष्य शरीर में निवास कर रही जीवात्मा का सर्वाधिक हितैषी जो इसे प्रेम करने के साथ इस पर मित्र भाव रखकर असीम दया व कृपा करता है, वह सत्ता एकमात्र परमेश्वर ही है। अतः हमें उसके प्रति उसी के अनुरूप भावना के अनुसार प्रेम, मित्रता व कृतज्ञता का व्यवहार करना चाहिये। यदि ऐसा नहीं करेंगे, संसार में अधिकांश अज्ञान व अन्य कारणों से ऐसा ही करते हैं, तो हम कृतघ्न होंगे जिस कारण हमें जन्म-जन्मान्तरों में अपने इस मूर्खतापूर्ण आचरण व व्यवहार की भारी कीमत चुकानी पड़ेगी। अतः हमें अपने इस जीवन में प्रतिदिन समय निकाल कर इस प्रश्न पर अवश्य विचार करने के साथ इसका समाधान खोजना चाहिये। पहला प्रश्न है कि ईश्वर हमारा परम हितैषी किस प्रकार से है? इस प्रश्न का उत्तर जानने के लिए हमें ईश्वर व आत्मा के स्वरुप को जानना होगा। ईश्वर का स्वरूप हम आर्यसमाज के पहले व दूसरे नियम को पढ़ व समझकर जान सकते हैं। पहला नियम है कि ‘सब सत्य विद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं, उन सबका आदि मूल परमेश्वर है।’ दूसरा नियम है कि ‘ईश्वर सच्चिदानन्द-स्वरुप, निराकार, सर्वशक्तिमान्, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकत्र्ता है। उसी की उपासना करनी योग्य है।’ पहले नियम में समस्त विद्या व समस्त सांसारिक पदार्थों, सूर्य, चन्द्र, पृथिवी व पृथिवीस्थ सभी पदार्थों, का आदि मूल परमेश्वर को कहा गया है। जहां तक विद्या का प्रश्न है, यह परमेश्वर में सदा सर्वदा अर्थात् अनादिकाल से विद्यमान है। इस विद्या का मनुष्यों के लिए जो उपयोगी भाग है उसे ईश्वर बीज रुप में चार वेदों के माध्यम से सृष्टि के आरम्भ में चार ऋषियों द्वारा प्रदान करता है। वेदों के मन्त्रों में जो शब्द, अर्थ और सम्बन्ध हैं, उनका अर्थ व उदाहरणों सहित ज्ञान भी परमेश्वर उन ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा को कराता है। अतः मनुष्यों को प्राप्त होने वाली समस्त विद्याओं का आदि मूल परमात्मा ही निश्चित होता है जिसका आधार वेद है। मनुष्य समय समय पर अपने ऊहापोह व चिन्तन मनन आदि कार्यों से उसका विस्तार कर उससे लाभ लेने के लिए नाना प्रकार के सुख-सुविधाओं के साधन आदि बनाते रहते हैं। हमें लगता है कि मनुष्य तो केवल अध्ययन, चिन्तन-मनन व पुरुषार्थ करते हैं परन्तु उनके मस्तिष्क में जो नये विचार व प्रेरणायें होती हैं वह ईश्वर के द्वारा उनके पुरुषार्थ आदि के कारण होती हैं। इसी प्रकार से ज्ञान-विज्ञान का विस्तार होकर आज की स्थिति आई है। आर्यसमाज के दूसरे नियम में ईश्वर के इतर स्वरूप पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। यह सब बातें वेदों के आधार पर निश्चित की हुईं हैं। वेदों में इनका यत्र-तत्र वर्णन पाया जाता है। इसमें हम यह भी जोड़ सकते हैं कि जीवात्मा को उसके जन्म-जन्मान्तरों के अवशिष्ट कर्मों का सुख-दुःख रूपी फल प्रदान करने के लिए ही ईश्वर इस सृष्टि को बनाकर उसमें मनुष्यों व अन्य प्राणियों को उत्पन्न करता है। मनुष्य व इतर प्राणी योनियां भी जीवात्मा के पूर्व जन्म के कर्मों के आधार पर ही उन्हें परमेश्वर से प्राप्त होती हैं। ईश्वर ने जीवात्माओं के लिए इस सृष्टि को बनाया, आदि सृष्टि में वेदों का ज्ञान देकर मनुष्यों को उनके कर्तव्य-अकर्तव्य वा धर्म-अधर्म से परिचित कराया और जीवात्मा को जन्म देकर उन्हें नाना व विविध प्रकार के सुखों से पूरित किया, इन व ऐसे अनेक उपकारी कार्य करने के लिए ईश्वर सभी जीवात्माओं व मनुष्यों का परम हितकारी व हितैशी सिद्ध होता है। जीवात्मा का स्वरुप भी वेदों में तर्कपूर्ण शब्दों में बताया गया है जो कि अनादि, अविनाशी, अनुत्पन्न, अमर, नित्य, सूक्ष्म, अल्पज्ञ, एकदेशी, जन्म-मरण वा सुख-दुख रूपी कर्म-फल के बन्धनों में बन्धा हुआ है। असत्य व अधर्म का पूर्णतः त्याग कर जीवात्मा जन्म-मरण के बन्धनों से छूट कर मुक्ति को प्राप्त करता है। मनुष्य का शरीर संसार के सभी प्राणियों के शरीरों में सर्वोत्तम है। इसकी रचना अद्भुत है। मनुष्य वा अन्य प्राणियों के शरीरों की रचना का कार्य ईश्वर के अतिरिक्त अन्य कोई नहीं कर सकता। आईये, इस मानव शरीर का वर्णन भी ऋषि दयानन्द के शब्दों में देखे लेते हैं। सत्यार्थ प्रकाश के अष्टम् समुल्लास में ऋषि दयानन्द लिखते हैं कि ‘(प्रलय की अवधि समाप्त होने के बाद) जब सृष्टि का समय आता है तब परमात्मा (सत्व, रज व तम गुणों वाली कारण प्रकृति के) परमसूक्ष्म पदार्थों को इकट्ठा करता है। उस को प्रथम अवस्था में जो परमसूक्ष्म प्रकृतिरूप कारण से कुछ स्थूल होता है उस का नाम महत्तत्व और जो उस से कुछ स्थूल होता है उसका नाम अहंकार और अहंकार से भिन्न-भिन्न पांच सूक्ष्मभूतः श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, जिह्वा, घ्राण पांच ज्ञानेन्द्रियां, वाक्, हस्त, पाद, उपस्थ, और गुदा ये पांच कर्म-इन्द्रियां हैं और ग्यारहवां मन कुछ स्थूल उत्पन्न होता है। और उन पंचतन्मात्राओं से अनेक स्थूलावस्थाओं को प्राप्त होते हुए क्रम से पांच स्थूलभूत जिन को हम लोग प्रत्यक्ष देखते हैं उत्पन्न होते हैं। उन से नाना प्रकार की ओषधियां, वृक्ष आदि, उन से अन्न, अन्न से वीर्य और वीर्य से शरीर होता है। परन्तु आदि सृष्टि मैथुनी (स्त्री-पुरुष संसर्ग द्वारा) नहीं होती। क्योंकि जब स्त्री पुरुषों के शरीर परमात्मा बना कर उन में जीवों का संयोग कर देता है तदनन्तर मैथुनी सृष्टि चलती है।’ इसी क्रम में ऋषि दयानन्द आगे लिखते हैं कि ‘देखो ! (ईश्वर ने) शरीर में किस प्रकार की ज्ञानपूर्वक सृष्टि रची है कि जिस को विद्वान् लोग देखकर आश्चर्य मानते हैं। भीतर हाड़ों का जोड़, नाड़ियों का बन्धन, मांस का लेपन, चमड़ी का ढक्कन, प्लीहा, यकृत्, फेफड़ा, पंखा कला का स्थापन, रुधिरशोधन, प्रचालन, विद्युत् का स्थापन, जीव का संयोजन, शिरोरूप मूलरचन, लोम, नखादि का स्थापन, आंख की अतीव सूक्ष्म शिरा का तारवत् ग्रन्थन, इन्द्रियों के मार्गों का प्रकाशन, जीव के जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति अवस्था के भोगने के लिये स्थान विशेषों का निर्माण, सब धातु का विभागकरण, कला, कौशल, स्थापनादि अद्भुत सृष्टि को विना परमेश्वर के कौन कर सकता है?’ इस प्रकार ईश्वर ने मनुष्य का शरीर बनाकर हम पर जो उपकार किया है, उसका हम किसी प्रकार से भी प्रतिकार वा ऋण, दया, कृपा आदि से उऋ़ण नहीं हो सकते। हम ईश्वर के इन सब उपकारों के लिए कृतज्ञ हैं और यही भाव जीवन भर बना रखें तभी हम मनुष्य कहलाने के अधिकारी हो सकते हैं। कृतघ्न मनुष्य को मनुष्य नहीं कहा व माना जा सकता। इतना ही नहीं, वेदों व वैदिक साहित्य का अध्ययन कर हम अपनी इस मनुष्य योनि में संसार के यथार्थ स्वरूप को जान सकते हैं व अर्जित ज्ञान से ईश्वरोपासना, अग्निहोत्र यज्ञ, पितृयज्ञ, अतिथि यज्ञ और बलिवैश्वदेव यज्ञ सहित परोपकार, सेवा, दान आदि कार्यों को करके जन्म-मरण के दुःखों से मुक्त हो सकते हैं। इसके अतिरिक्त वैदिक जीवन का अवलम्बन कर हम मुक्ति को प्राप्त कर 31 नील 10 खरब 40 अरब वर्षों तक बिना जन्म व मृत्यु के ईश्वर के सान्निध्य को प्राप्त कर उसके आनन्द का भोग कर सकते हैं। ऋषि दयानन्द ने अपने जीवन के उदहारण से मनुष्यों को धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष की शिक्षा दी और इसके साथ सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थ लिख कर मोक्ष के सभी साधनों पर व्यापक रूप से प्रकाश डाला है। मोक्ष के साधनों को व्यवहार में लाना असम्भव नहीं तो कुछ असुविधाजनक तो है ही। इसी को धर्म व तप कहते हैं और यही हमारे भावी जन्म को सुधारने के साथ हमें मोक्ष की ओर अग्रसर करता है। मोक्ष में असीम सुख प्राप्त करना ही प्रत्येक जीवात्मा का लक्ष्य है। यह भी एक तथ्य है कि हम सभी जीवात्मायें अनेक बार मोक्ष में रहे हैं और इसके अतिरिक्त अनेक बार अधर्म के कार्य करके नाना व प्रायः सभी पाप योनियों में रहकर हमने अनेक दुःखों को भी भोगा है। हमें यह भी जानना है कि माता-पिता और आचार्य हमारे मित्रवत् हितकारी एवं कृपालु हैं परन्तु इन्हें प्रदान कराने वाला भी वही एक ईश्वर है। यह लोग भी हमारी ही तरह ईश्वर के कृतज्ञ हैं। अतः हम इन सभी के भी ऋणी हैं परन्तु ईश्वर का ऋण सबसे अधिक है। हमें इन सबके ऋणों से उऋण होने के लिए प्रयास करने हैं। ईश्वर का सत्य स्वरुप वेद, वैदिक साहित्य व महर्षि दयानन्द के ग्रन्थों में वर्णित है। इसे पढ़कर ईश्वर के यथार्थ स्वरूप और उसके गुण-कर्म-स्वभाव को विस्तार से जाना जा सकता है। इससे ईश्वर की जीवों पर दया, कृपा व हित की कामनाओं के प्रति कृतज्ञता का भाव प्रकट करके उसकी स्तुति, प्रार्थना उपासना आदि के द्वारा अपने मानव जीवन को उन्नत बनाने के साथ भावी जन्मों में सुखों की प्राप्ति के लिए धर्म व सुखदायक कर्मों की पूंजी संचित की जा सकती है जो जन्म जन्मान्तरों में हमें मोक्ष प्रदान करा सकती है। आईये ! ईश्वर की दया, कृपा व हितकारी भावना के प्रति अपनी नित्यप्रति कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए वेद एवं वैदिक ग्रन्थों के स्वाध्याय सहित ईश्वर की ऋषियों के विधान के अनुसार स्तुति, प्रार्थना व उपासना करने का संकल्प लेकर उसे अपने जीवन में चरितार्थ करें। इसी से हमारा मानव जीवन सफल हो सकता है। नान्यः पन्था विद्यते अयनायः। जीवन की उन्नति का इससे अधिक उत्तम अन्य कोई मार्ग नहीं है। ओ३म् शम्। -मनमोहन कुमार आर्य
यज्ञोपवीत
08-08-2021
यज्ञोपवीत (15) यज्ञोपवीत के तीन धागे ब्रह्मग्रन्थि द्वारा आपस में जुड़े रहते हैं। यह इस बात का बोधक है कि मनुष्य को ज्ञान, कर्म और उपासना इन तीनों को प्राप्त करके उस ब्रह्म से जुड़ना है। इस प्रकार तीन तीन के अनेक जोड़े हैं, जिनका समावेश यज्ञोपवीत के तीन तारों में हो जाता है। इसलिए यज्ञोपवीत के तीन तारों में समस्त विश्व का विज्ञान भरा हुआ है। -------- क्रमशः
What is the Veda?
08-08-2021
The Aryans called their most sacred text Veda, meaning the ‘knowledge’. It was believed to have arisen from the infallible ‘hearing’ (śruti), by ancient seers, of the sacred deposit of words whose recitation and contemplation bring stability and wellbeing to both the natural and human worlds. The Veda is believed to have developed over a span of 2000 years in four traditional phases. The first phase started with hymns, chants, incantations and other compositions in an early form of Sanskrit. The hymns in particular were largely directed at transcendent powers, most of whom were called devas and devīs (misleadingly translated as ‘gods’ and ‘goddesses’). These powers, individually or in groups, were thought to exercise control over the world through cosmic forces. In this early phase of the Veda, there is reference to a One (ekam) that undergirds all being. ---- Dr. Yajnya Dutta Nayak, Assistant Professor, Khallikote Auto. College, Berhampur, Odisha
Vedic religion
08-08-2021
Vedic religion, also called Vedism, the religion of the ancient Indo-European-speaking peoples who entered India about 1500 BCE from the region of present-day Iran. It takes its name from the collections of sacred texts known as the Vedas. Vedism is the oldest stratum of religious activity in India for which there exist written materials. It was one of the major traditions that shaped Hinduism. Purna Chandra Nayak, Retired Head master, Nayagarh, Odisha
Vedas
08-08-2021
The Vedas are a large body of religious texts originating in ancient India. Composed in Vedic Sanskrit, the texts constitute the oldest layer of Sanskrit literature and the oldest scriptures of Hinduism. There are four Vedas: the Rigveda, the Yajurveda, the Samaveda and the Atharvaveda. # Dr. Yajnya Dutta Nayak
झूठ बोलने वाले
08-08-2021
झूठ बोलने वाले झूठे व्यक्ति पर यदि वह सच भी बोल रहा है तब भी लोगों को विश्वास नहीं होता । कुछ भक्त हमसे भी कहते है आचार्य जी सत्य बोलने से पेट नहीं भरता हम उनसे कहते पेट तो भर जाता लेकिन पेटियां नहीं भरती औऱ यदि सत्य के साथ लगे रहे त़ो एक दिन पेटियां भी भर जाएंगी तुम सत्य के साथ लग कर तो देखो तुम सत्य के साथ चलकर तो देखो तुम झूठ छोड़ सत्य का व्यवहार करके तो देखो । प्रत्येक शहर कस्बे में कोई एक या दो दुकान ऐसी होती है जहाँ लिखा होता है एक दाम की दुकान औऱ हमने देखा है आप भी देखें ऐसी एक दाम की दुकानें बहुत अच्छी चलती है औऱ चल रहीं है । हमारे यहाँ हरिद्वार में विशाल मेगामार्ट करीशमा बजार है जहाँ एक दाम होते है प्रत्येक सामान पर लिखा भी होता है एक दाम ये सब प्रतिदिन लाखों करोड़ों का व्यापार करते है । बहार की विदेशी कम्पनियों के शोरूम मार्ट सबके एक दाम एक रेट करोड़ों अरबों का व्यापार हमारे देश में करके अरबों रुपये अपने देशों को भेज रहीं है । हम आजतक इसी में लगे है अजी रेट ठीक कर लो अजी कुछ कम कर लो अजी वहाँ तो इतने का मिल रहा है अजी देख लो तुम्हारी मर्जी चलो रहने दो कोई बात नहीं जी हाँ? जब इन एक दाम की विदेशी शोरूम मार्ट में हम जाते है वहाँ कुछ नहीं बोलते कम या ज्यादा बस एक बात बोलते है!पैक कर दो!
ଈଶ୍ୱର ଆମକୁ ଚେତାଇ ଦେଇଥାନ୍ତି।
08-08-2021
ଆମେ ମନେ ରଖିବା ଉଚିତ ଅନ୍ୟାୟରେ ଅନ୍ୟର ଦ୍ରବ୍ୟ,ବସ୍ତୁ ଆଣିବାର ପରିଣାମ ସର୍ବଦା ଭୟଙ୍କର ହୋଇଥାଏ। ଏପରି ଗର୍ହିତ କାର୍ଯ୍ୟ ପାଇଁ ଈଶ୍ୱର ଆମକୁ ଚେତାଇ ଦେଇଥାନ୍ତି। ମାତ୍ର ଆମେ ଏହାକୁ ଅଣଦେଖା କରିଥାଉ। ସର୍ବଦା ନ୍ୟାୟ ସମ୍ମତ ଓ ସତ୍ କର୍ମ କରିବା ଉଚିତ୍। ପଥ ହୁଡ଼ିଲେ ଗୁରୁ ହେଉ ଅଥବା ଲଘୁ ହେଉ ଏହାର ପରିଣାମ ଭୋଗିବାକୁ ହିଁ ହୋଇଥାଏ। ଏହି କାରଣରୁ ବୁଝି ବିଚାରି ଶ୍ରେଷ୍ଠ ପଥ ଆଦରି ନେବା ବୁଦ୍ଧିମତାର କାର୍ଯ୍ୟ।ଏଣୁ ଆମେ ନ୍ୟାୟ ସମ୍ମତ ଓ ସତ୍ କର୍ମ କରିବା ପାଇଁ ଚେଷ୍ଟା କଲେ ଈଶ୍ବରଙ୍କ ସହାୟତା ମିଳିବ। (ସୁରେନ୍ଦ୍ର ନାଥ ଛୋଟରାୟ)
ପ୍ରାଚୀନ ବୈଦିକ ସୈଦ୍ଧାନ୍ତିକ ଜ୍ଞାନ
08-08-2021
ପ୍ରଶ୍ନ ୧- ଆମ ଦେଶର ପ୍ରାଚୀନ ଏବଂ ପ୍ରଥମ ନାମ କଅଣ ଥିଲା ʔ ଉତ୍ତର- ଆମ ଦେଶର ପ୍ରାଚୀନ ଏବଂ ପ୍ରଥମ ନାମ ଥିଲା 'ଆର୍ଯ୍ୟାବର୍ତ୍ତ'। ପ୍ରଶ୍ନ ୨- ଆମ ଭାରତବାସୀ ମାନଙ୍କର ପ୍ରାଚୀନ ନାମ କଅଣ ଥିଲା ʔ* ଉତ୍ତର- ଆମ ଭାରତବାସୀ ମାନଙ୍କର ପ୍ରାଚୀନ ନାମ ଥିଲା 'ଆର୍ଯ୍ୟ' । ପ୍ରଶ୍ନ ୩- ଆମ ଭାରତବାସୀ ମାନଙ୍କର ପ୍ରାଚୀନତମ ଧର୍ମ କଅଣ ଅଟେ ʔ* ଉତ୍ତର-ଆମ ଭାରତବାସୀ ମାନଙ୍କର ପ୍ରାଚୀନତମ ଧର୍ମ ହେଉଛି 'ବୈଦିକ ଧର୍ମ'। ପ୍ରଶ୍ନ ୪- ଆମ ବୈଦିକଧର୍ମୀ ମାନଙ୍କର ଧାର୍ମିକ ପୁସ୍ତକ କିଏ ʔ ଉତ୍ତର-ଆମ ବୈଦିକଧର୍ମୀ ମାନଙ୍କର ଧାର୍ମିକ ପୁସ୍ତକ ହେଉଛି 'ବେଦ' । ପ୍ରଶ୍ନ ୫- ବେଦ କେତୋଟି ʔ ଉତ୍ତର- ଚାରି- ଋଗ୍ୱେଦ, ଯଜୁର୍ବେଦ, ସାମବେଦ, ଅଥର୍ବବେଦ। ପ୍ରଶ୍ନ ୬- ବେଦ କେତେ ପୁରୁଣା ଅଟେ ʔ ଉତ୍ତର- ବେଦ ୧୯୬,୦୮,୫୩,୧୨୨ ବର୍ଷ ପୂର୍ବର । (ଵିକ୍ରମାବ୍ଦ ୨୦୭୮ ସୁଦ୍ଧା) ପ୍ରଶ୍ନ ୭- ଚାରି ବେଦରେ କେତେ ମନ୍ତ୍ର ଅଛି ʔ ଉତ୍ତର- ଚାରି ବେଦରେ ୨୦୩୭୯ ମନ୍ତ୍ର ଅଛି । ଋଗ୍ୱେଦ ରେ ୧୦୫୫୨, ଯଜୁର୍ବେଦ ରେ ୧୯୭୫, ସାମବେଦରେ ୧୮୭୫ ଔର ଅଥର୍ବବେଦରେ ୫୯୭୭ ମନ୍ତ୍ର ଅଛି । ପ୍ରଶ୍ନ ୮- ବେଦର ଭାଷା କଅଣ ʔ ଉତ୍ତର- ବେଦର ଭାଷା ହେଉଛି 'ବୈଦିକ ସଂସ୍କୃତ' । ପ୍ରଶ୍ନ ୯- ବେଦ ମାନଙ୍କରେ କେଉଁ ବିଷୟ ସବୁ ବର୍ଣ୍ଣିତ ଅଛି ʔ ଉତ୍ତର- ବେଦ ମାନଙ୍କରେ ମନୁଷ୍ୟ ମାନଙ୍କ ପାଇଁ ଆବଶ୍ୟକ ସମସ୍ତ ଜ୍ଞାନ-ବିଜ୍ଞାନ ରହିଛି । ସଂକ୍ଷେପରେ ଈଶ୍ୱର, ଜୀବ, ପ୍ରକୃତିର ବିଜ୍ଞାନ ଅଥବା ଜ୍ଞାନ-କର୍ମ-ଉପାସନାର ବିଷୟ ରହିଛି । ପ୍ରଶ୍ନ ୧୦- ବେଦ ମାନଙ୍କର ଜ୍ଞାନ ମନୁଷ୍ୟ ମାନଙ୍କୁ କିପରି ମିଳିଲା ʔ ଉତ୍ତର- ବେଦ ମାନଙ୍କର ଜ୍ଞାନ ସୃଷ୍ଟି ଆରମ୍ଭରେ ଈଶ୍ୱର ଅଗ୍ନି, ବାୟୁ, ଆଦିତ୍ୟ ଏବଂ ଅଂଗିରା ନାମକ ଚାରି ଋଷିଙ୍କୁ ପ୍ରଦାନ କଲେ । ପ୍ରଶ୍ନ ୧୧- ଅନାଦି ବସ୍ତୁ କେତୋଟି ʔ .....କ୍ରମଶଃ ମୂଳ ହିନ୍ଦୀ: ଜ୍ଞାନେଶ୍ୱରାର୍ଯ୍ୟ ଓଡ଼ିଆ ଅନୁବାଦ: ମହିମା ସାଗର (ଏ ସମ୍ବନ୍ଧୀୟ ସପ୍ରମାଣ ବିସ୍ତୃତ ବର୍ଣ୍ଣନା ଜାଣିବା ପାଇଁ 'ସତ୍ୟାର୍ଥ ପ୍ରକାଶ'ଓ ଋଗ୍ବେଦାଦିଭାଷ୍ୟଭୂମିକା ପୁସ୍ତକ ସ୍ୱାଧ୍ୟାୟ କରନ୍ତୁ।)
ଓ୩ମ୍ ପୁରୁତ୍ତମଂ ପୁରୂଣାମୀଶନଂ ବାର୍ଯ୍ୟାଣାମ୍। ଇନ୍ଦ୍ରଂ ସୋମେ ସଚା ସୁତେ ॥ ଋଗ୍ ବେଦ ୧/୧/୯/୨॥
07-08-2021
*ବ୍ୟାଖ୍ୟା* :- ହେ ପରାତ୍ପର ପରମାତ୍ମନ୍ ! ଆପଣ *"ପୁରୁତ୍ତମମ୍''* ଅତ୍ୟନ୍ତୋତ୍ତମ ଓ ସର୍ବଶତ୍ରୁ ସଂହାରକ ଅଟନ୍ତି ତଥା ବହୁବିଧ ଜାଗତିକ ପଦାର୍ଥର *"ଈଶାନମ୍''* ସ୍ୱାମୀ ଓ ଉତ୍ପାଦକ ଅଟନ୍ତି; *"ବାର୍ଯ୍ୟାଣାମ୍''* ବର, ବରଣୀୟ, ପରମାନନ୍ଦ ମୋକ୍ଷାଦି ପଦାର୍ଥ ସମୂହର ମଧ୍ୟ ଈଶାନ ଅଟନ୍ତି । *"ସୋମେ'* ଉତ୍ପତ୍ତିସ୍ଥାନ ସଂସାର ଆପଣଙ୍କଠାରୁ *(ସୁତେ)* ଉତ୍ପନ୍ନ ହୋଇଥିବାରୁ *(ସଚା)* ପ୍ରୀତିପୂର୍ବକ *"ଇନ୍ଦ୍ରମ୍''* ପରମୈଶ୍ୱର୍ଯ୍ୟବାନ୍ ଆପଣଙ୍କ ଗୁଣଗାନ *(ଅଭିପ୍ରଗାୟତ)* ଅତ୍ୟନ୍ତ ପ୍ରେମଭରା ହୃଦୟରେ କରୁ, ଯଥାବତ୍ ସ୍ତୁତି ଦ୍ୱାରା ଆପଣଙ୍କ ପ୍ରେମଭାଜନ ହୋଇ ପରମୈଶ୍ୱର୍ଯ୍ୟଯୁକ୍ତ ପୂର୍ବକ ପରମାନନ୍ଦ ଲାଭ କରିବୁ ॥ *ମହିମା ସାଗର ସାହୁ* ବେଦବାଣୀ WhatsApp no: *9937686656* https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=1000390693499777&id=100005865663557
ସଦଗୁଣ ଓ ଦୁର୍ଗୁଣ
06-08-2021
ଭଲ ଓ ମନ୍ଦ ଉଭୟ ପ୍ରକାର ମାର୍ଗ ମନୁଷ୍ୟ ଜୀବନରେ ଆସେ।ଦୋଛକିରେ ଠିଆ ହୋଇଥିବା ବ୍ୟକ୍ତି ଭିତରେ ସଦଗୁଣ ଓ ଦୁର୍ଗୁଣ ଉଭୟଙ୍କ ମଧ୍ୟରେ ଦ୍ୱନ୍ଦ ହୋଇଥାଏ।ଶାସ୍ତ୍ରରେ ଏହାକୁ ଦେବାସୂର ସଂଗ୍ରାମ ଅଥବା ଦୈବୀ ଓ ଆସୁରୀ ବୃତ୍ତିର ସଙ୍ଘର୍ଷ ବୋଲି କୁହାଯାଇଛି। ଦେବଭାବ ମନୁଷ୍ୟର ଗୁଣାବଳୀର ସମ୍ବର୍ଦ୍ଧନ କରି କରି ତା' ର ମୁକ୍ତିର କାରଣ ହୋଇଥାଏ ଏବଂ ଆସୂରୀ ବୃତ୍ତିର ଅନୁସରଣରେ ଆତ୍ମାର ଅଧପତନ ଓ ବନ୍ଧନ ଦୃଢ଼ ହୋଇଥାଏ। (ସୁରେନ୍ଦ୍ର ନାଥ ଛୋଟରାୟ)
ସ୍ତ୍ରୀ ମାନଙ୍କର ବେଦାଧ୍ୟୟନ ଏବଂ ବୈଦିକ କର୍ମକାଣ୍ଡ ମାନଙ୍କରେ ଅଧିକାର
06-08-2021
*॥ ଓ୩ମ୍ ॥* *ସ୍ତ୍ରୀ ମାନଙ୍କର ବେଦାଧ୍ୟୟନ ଏବଂ ବୈଦିକ କର୍ମକାଣ୍ଡ ମାନଙ୍କରେ ଅଧିକାର* (ପୃଷ୍ଠା - ୩) ଋଗ୍ୱେଦରେ ଅନେକ ସରସ୍ୱତୀ ସୂକ୍ତ ଆସିଥାଏ ଯେଉଁଥିରେ ବିଦୁଷୀ ଦେବୀ ମାନଙ୍କର କର୍ତବ୍ୟ ଗୁଡିକର ବିଶେଷରୂପରେ ପ୍ରତିପାଦନ ରହିଛି । ସେ ଗୁଡିକରେ ସ୍ତ୍ରୀ ମାନଙ୍କର ବେଦ ଅଧ୍ୟୟନ ଅଧ୍ୟାପନ ତଥା ଯଜ୍ଞ କରିବା କରେଇବାର ସ୍ପଷ୍ଟ ବିଧାନ ରହିଛି । ଉଦାହରଣାର୍ଥ ଋଗ୍ୱେଦର ପ୍ରଥମ ମଣ୍ଡଳ ର ତୃତୀୟ ସୂକ୍ତରେ ନିମ୍ନ ମନ୍ତ୍ର ମିଳିଥାଏ ଯାହାକି ଏହି ପ୍ରକରଣ ରର ଅତ୍ୟନ୍ତ ମହତ୍ୱପୂର୍ଣ ହେବା କାରଣରୁ ବିଶେଷ ଉଲ୍ଲେଖନୀୟ ଅଟେ :- ଚୋଦୟନ୍ତୀ ସୂନୃତାନାଂ ଚେତନ୍ତୀ ସୁମତୀନାମ୍ । ଯଜ୍ଞଂ ଦଧେ ସରସ୍ୱତୀ। ଋ୦୧।୩।୧୧ ଏହାର ସ୍ପଷ୍ଟ ଅର୍ଥ ଏହା ଅଟେ କି ସରସ୍ୱତୀ ଅର୍ଥାତ୍ ବିଦୁଷୀ ସ୍ତ୍ରୀ ମଧୁର ଏବଂ ସତ୍ୟ ବଚନ ଗୁଡିକର ପ୍ରୟୋଗ କରି ଏବଂ ସେପରି ହିଁ କରିବା ପାଇଁ ଅନ୍ୟମାନଙ୍କୁ ପ୍ରେରଣା କରି, ଉତ୍ତମ ବୁଦ୍ଧି ଏବଂ ପରାମର୍ଶ ପ୍ରଦାନ କରି ସମସ୍ତ ପ୍ରକାରର ଯଜ୍ଞ ମାନଙ୍କୁ- ବ୍ରହ୍ମ ଯଜ୍ଞ, ଦେବ ଯଜ୍ଞାଦିକୁ ଧାରଣ କରେ । ସରସ୍ୱତୀ ଶବ୍ଦ ସୃ-ଗତୌ ଏହି ଧାତୁ ରେ ହୋଇଥାଏ ତଥା ଗତିର ଜ୍ଞାନ, ଗମନ ଏବଂ ପ୍ରାପ୍ତି ଏହି ୩ ଅର୍ଥ ହୋଇଥାଏ ଏଥିପାଇଁ ସରସ୍ୱତୀର ସ୍ପଷ୍ଟ ଅର୍ଥ ହେଉଛି ଜ୍ଞାନବତୀ । “ଯୋଷା ବୈ ସରସ୍ୱତୀ ବୃଷା ପୂଷା ॥ ଶତପଥ ୨ ॥ ୫॥ ୧।୧୧ ଇତ୍ୟାଦି ରେ ମଧ୍ୟ ସରସ୍ୱତୀ ଶବ୍ଦର ପ୍ରୟୋଗ ବିଦୁଷୀ ପତ୍ନୀ ନିମନ୍ତେ ସ୍ପଷ୍ଟ ଉଲ୍ଲେଖ ଅଛି । ଏସବୁ ଅତିରିକ୍ତ 'ବାକ୍ ସରସ୍ୱତୀ'। ଶତ୦ ୭/୫/୧/୩୧॥, ୧୧/୨/୪/୯॥, ୧୨/୬/୧/୧୩ ଐତରେୟ ୩/୨ ରେ ବାଗ୍ଧି ସରସ୍ୱତୀ ତଥା ନିଘଣ୍ଟୁ ୨/୧୧ ଅନୁସାରେ ସରସ୍ୱତୀ ବାଣୀ ନିମନ୍ତେ ମଧ୍ୟ ଉଲ୍ଲେଖ ରହିଛି । ଅତଃ ଉତ୍ତମ ବାଣୀର ପ୍ରୟୋଗ କରୁଥିବା ବିଦୁଷୀ ସ୍ତ୍ରୀ କୁ ମଧ୍ୟ ସରସ୍ୱତୀ ନାମରେ ସମ୍ବୋଧନ କରା ଯାଇପାରେ । ଏଭଳି ସରସ୍ବତୀଙ୍କ (ପୃଷ୍ଠା- ୪) କର୍ତବ୍ୟ ନିର୍ଦ୍ଧାରଣ କରି ବେଦରେ କୁହା ଯାଇଅଛି କି ସେ ସମସ୍ତ ଯଜ୍ଞର ଧାରଣ ଏବଂ ପୋଷଣ କରିଥାଏ (ଡୁଧାଞ୍ ଧାରଣ ପୋଷଣୟୋଃ) ଧାରଣ ପୋଷଣ କରିବାର ତାତ୍ପର୍ଯ୍ୟ ହେଉଛି ସେଗୁଡିକର ସ୍ୱୟଂ କରିବା, କରେଇବା ଏବଂ ସେଗୁଡିକର ପ୍ରଚାର କରିବା । ବ୍ରହ୍ମ ଯଜ୍ଞ, ଦେବ ଯଜ୍ଞ, ପିତୃ- ବଳିବୈଶ୍ୱଦେବ ଯଜ୍ଞ ଏବଂ ଅତିଥି ଯଜ୍ଞ ଏସବୁ ଦୈନିକ ପଞ୍ଚ ମହାଯଜ୍ଞ । ବିଦୁଷୀ ଦେବୀ ଏ ସମସ୍ତ ଯଜ୍ଞ ଗୁଡିକୁ ସମ୍ପାଦନ କରେ ଏବଂ କରାଏ । ବ୍ରହ୍ମ ଯଜ୍ଞ ଅର୍ଥ ମନୁସ୍ମୃତି ୩/୭୦ ରେ 'ଅଧ୍ୟାପନଂ ବ୍ରହ୍ମୟଜ୍ଞଃ ଏପରି କରାଯାଇଛି । ଏହାର ବ୍ୟାଖ୍ୟାରେ ମେଧାତିଥି କୁଲ୍ଲୂକ ଭଟ୍ଟାଦି ଲେଖିଛନ୍ତି 'ଅଧ୍ୟାପନ ଶବ୍ଦେନାଧ୍ୟୟନମପି ଗୃହ୍ୟତେ (ମେ୦) ଅତୋଽଧ୍ୟାପନ-ମଧ୍ୟୟନଂ ଚ ବ୍ରହ୍ମୟଜ୍ଞଃ (କୁ୦) ଅର୍ଥାତ୍ ବେଦର ଅଧ୍ୟୟନ ଏବଂ ଅଧ୍ୟାପନ ତଥା ସନ୍ଧ୍ୟୋପାସନା ବ୍ରହ୍ମଯଜ୍ଞ ବୋଲାଇଥାଏ । ଦେବଯଜ୍ଞର ତାତ୍ପର୍ଯ୍ୟ ଅଗ୍ନିହୋତ୍ର ବା ହବନ। ଏହା ମଧ୍ୟ ସ୍ତ୍ରୀମାନଙ୍କୁ କରିବା ଏବଂ କରେଇବା ଉଚିତ । ଯେଉଁ ଗୃହସ୍ଥ ଧର୍ମପତ୍ନୀ ବିନା ଯଜ୍ଞ କରିଥାଏ ତାକୁ ଶାସ୍ତ୍ର ମର୍ଯ୍ୟାଦା ଅନୁସାରେ ଯଜ୍ଞ କୁହାଯାଏ ନାହିଁ । "ଅୟଜ୍ଞୋ ବା ଏଷ ଯୋଽପତ୍ନୀକଃ" (ତୈତ୍ତିରୀୟ ସଂହିତା ୨।୨।୨।୬) ଇତ୍ୟାଦି ବଚନ ଗୁଡିକର ଏହି ତାତ୍ପର୍ଯ୍ୟ ଅଟେ । "ଅଥୋ ଅର୍ଧ୍ୟୋଵା ଏଷ ଆତ୍ମନଃ ଯତ୍ ପତ୍ନୀ" (ତୈ୦ ୩।୩।୩।୫।) ଅର୍ଥାତ୍ ପତ୍ନୀ ପତିଙ୍କ ଅର୍ଧାଙ୍ଗିନୀ ଅଟେ ଅତଃ ତାଙ୍କ ବିନା ଯଜ୍ଞ ଅପୂର୍ଣ । ଏହି ମନ୍ତ୍ର ଦ୍ୱାରା ସ୍ତ୍ରି ମାନଙ୍କୁ ବେଦାଧ୍ୟୟନ ଏବଂ ଯଜ୍ଞାଦି କରିବା ଏବଂ କରେଇବାର ଅଧିକାର ସ୍ପଷ୍ଟତଃ ସୂଚିତ ହୋଇଥାଏ । (ପୃଷ୍ଠା- ୫) ....କ୍ରମଶଃ ମୂଳ ହିନ୍ଦୀ: ପ. ଧର୍ମଦେବ ବିଦ୍ୟାବାଚସ୍ପତି ପ୍ରକାଶକ: ସାର୍ଵଦେଶିକ ଆର୍ଯ୍ୟ ପ୍ରତିନିଧି ସଭା ଓଡ଼ିଆ ଭାଷାନ୍ତର: ମହିମା ସାଗର
ତେନ ତ୍ୟକ୍ତେନ ଭୁଞ୍ଜିଥା
05-08-2021
ଈଶୋପନିଷଦରେ ଅଛି - " ତେନ ତ୍ୟକ୍ତେନ ଭୁଞ୍ଜିଥା"।ଅର୍ଥାତ୍ ତ୍ୟାଗମୟ ଭାବନାରେ ଭୋଗକର।ଆମକୁ ତ୍ୟାଗକରି ଭୋଗ କରିବାକୁ ଉପନିଷଦ ଉପଦେଶ ଦେଇଛନ୍ତି।ତ୍ୟାଗ ମୟ ଉପରେ ଗୁରୁତ୍ବ ନଦେଇ ମନୁଷ୍ୟ କେବଳ ଭୋଗବାଦୀ ହୋଇଗଲେ ସମାଜରେ ଅନେକ ପ୍ରକାର ବିଶୃଙ୍ଖଳା ଯଥା - ଅନ୍ୟାୟ,ଅତ୍ୟାଚାର,ଲୁଣ୍ଠନ,ପରସ୍ତ୍ରୀ ହରଣ,ଚୋରୀ, ଡକାୟତି ଆଦି ଦେଖା ଦେଇଥାଏ। ଭୋଗବାଦରୁ ଅନେକ ପ୍ରକାର ନୂଆ ନୂଆ ରୋଗ ମାନ ମଧ୍ୟ ଦେଖା ଦେଇଥାଏ।ଭୋଗରୁ ରୋଗ ବୋଲି ଭର୍ତ୍ତୃହରି କହିଛନ୍ତି - " ଭୋଗେ ରୋଗ ଭୟ°"।ଏଣୁ ଆମେ ଭୋଗ ଏବଂ ତ୍ୟାଗର ସମନ୍ଵୟ (ସମତା)ରକ୍ଷା କରିବା ପାଇଁ ଈଶ୍ୱରଙ୍କୁ ପ୍ରାର୍ଥନା କରିବା ଉଚିତ। @ Vedic Vichar
ଆର୍ଯ୍ୟସମାଜ ଭୁବନେଶ୍ୱର
05-08-2021
ଆର୍ଯ୍ୟସମାଜ ଭୁବନେଶ୍ୱର ଆସନ୍ତା ଅଗଷ୍ଟ ଦ୍ଵିତୀୟ ରବିବାର ତା.୦୮.୦୮.୨୦୨୧ ରିଖ ପ୍ରାତଃ 8:30 ରୁ 9:30 AM ମଧ୍ୟରେ ସାପ୍ତାହିକ ବୈଦିକ ସତସଙ୍ଗ ନିମ୍ନ Link ମାଧ୍ୟମରେ ଅନୁଷ୍ଠିତ ହେବ । ଏହି ଅଧିବେଶନରେ *ଆଚାର୍ଯ୍ୟ ବେଦପ୍ରକାଶ ଜୀ (ରୋଜଡ)* ତାଙ୍କର ପ୍ରେରଣାଦାୟୀ ବିଚାର ରଖିବେ। ତେଣୁ ସମସ୍ତ ଆର୍ଯ୍ୟସମାଜ ଭଉଣୀ ଓ ଭାଇ ତଥା ସମସ୍ତ ବରିଷ୍ଠ ଏବଂ ଗୁରୁଜନ ମାନଙ୍କୁ ଅନୁରୋଧ ଦୟାକରି କାର୍ଯ୍ୟକ୍ରମ ଆରମ୍ଭର ୧୦ ମିନିଟ ଆଗରୁ ଯୋଡ଼ି ହୋଇ ନିଜ ସ୍ଥାନ ସଂରକ୍ଷିତ କରିବା ସହ ଅନ୍ୟମାନଙ୍କୁ ଯୋଡିବାକୁ ପ୍ରୟାସ କରନ୍ତୁ। କାର୍ଯ୍ୟକ୍ରମ ସମୟରେ ଦୟାକରି ନିଜର Audio and Video କୁ Mute ରଖିବାକୁ ସମସ୍ତଙ୍କୁ ବିନମ୍ର ଅନୁରୋଧ Meeting URL: https://meet.google.com/odv-frpr-mat କାର୍ଯ୍ୟକ୍ରମ ସଞ୍ଚାଳକ ଓ ଯାନ୍ତ୍ରିକ ସହାୟତା-ସୁନିଲ କୁମାର ଦେ ଯୋଗାଯୋଗ-7008496441 ଧନ୍ୟବାଦ
इस पोस्ट में वेद अनुसार चारो वर्ण
05-08-2021
इस पोस्ट में वेद अनुसार चारो वर्ण (विभाग) में कार्यरत मानव ज़न को एक समान ज्ञान गुण नीति अपनाना कहा गया है l इसी प्रकार के श्लोक सबको एक समान अवसर देने वाले होते हैं इसलिए इस प्रकार के ही वेद अनुसार न्याय श्लोक होते है l सनातन धर्म लक्षण - सबजन स्मरण कर पालन करें फलस्वरुप अपराध मुक्त जीवन जिएं l 1.हिंसा नही करना , 2.सत्य बोलना , 3.चोरी नही करना , 4.स्वच्छता रखना , 5.दस इन्द्रियों पर नियंत्रण रखना , 6.श्राद्धकर्म करना (पूर्वज सम्मान), 7.अतिथि सत्कार करना , 8.दान / कर देना , 9.न्याय कर्म से धन लेना , 10.विनम्र भाव रखना , 11.पत्नी से संतान/योन सम्बंध प्राप्त करना , 12.दूसरे के शुभ कर्म से द्वेष नही करना l संक्षेप में चारो वर्ण (वर्ग) - ब्रह्म वर्ण (शिक्षन वर्ग), क्षत्रम वर्ण (शासन वर्ग), वैशम वर्ण (व्यापार वर्ग), शूद्रम वर्ण (उत्पादन निर्माण वर्ग) l इन्ही चारो वर्णो/वर्गों/विभागों में कार्य करने वाले स्वमं व्यवसायी जन एवं वेतन भोगी दास (सेवक/नौकर) जन को इन धर्म लक्षण नियमों को प्रतिदिन ॐ के जाप के साथ ध्यान कर स्मरण करना चाहिए l सनातन धर्म संस्कृति श्लोक l ॐ l अंहिसा सत्यमस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह: l श्राद्धकर्मातिथेयं च दानमस्तेयमार्जवम् l प्रजनं स्वेषु दारेषु तथा चैवानसृयता l एतं सामासिकं धर्मं चर्तुवण्र्येब्रवीन्मनु: ll जय सनातन धर्म l जय अखण्ड भारत l जय वसुधैव कुटुम्बकम l l
ଶାସ୍ତ୍ର ଅଧ୍ୟୟନ
04-08-2021
ଅନେକ ବ୍ୟକ୍ତି ଅନେକ ଶାସ୍ତ୍ର ଅଧ୍ୟୟନ କରି ସତ୍ ସଙ୍ଗରେ ଯୋଗଦେଇ ମଧ୍ୟ ସେମାନେ ଧର୍ମର ସାରବତ୍ତା, ନିର୍ଜାସ ଜାଣି ପାରନ୍ତି ନାହିଁ। ଧର୍ମର ସାରତତ୍ତ୍ଵ କେବଳ ବାହ୍ୟିକ ଉପଚାର ମଧ୍ୟରେ ନିହିତ ନାହିଁ।ଈଶ୍ବରଙ୍କ ଧ୍ୟାନ ଧାରଣାରେ ନିଷ୍ଠା ରହିବା ଉଚିତ।ହେଲେ ଏହାର ଅର୍ଥ ନୁହେଁ ଯେ,କେହି ବିପତ୍ତିରେ ପଡିଥିବାର ଦେଖି କିମ୍ବା ସାହାଯ୍ୟ ପାଇଁ ଆର୍ତ୍ତ ଚିତ୍କାର କରୁଥିବା ଶୁଣି ମଧ୍ୟ ଉପଯୁକ୍ତ ସହାୟତା ପରିବର୍ତ୍ତେ " ଧର୍ମହାନି " ଦ୍ୱାହି ଦେଇ ସେଥିପ୍ରତି ଆଖି ବୁଜିଡେବା। ଏହାତ ଘୋର ଧର୍ମ ବିରୋଧୀ କାର୍ଯ୍ୟ। ଧର୍ମର ଅସଲ ସାରବତ୍ତା ପୀଡିତ ମାନବର ସେବାରେ ହିଁ ନିହିତ। (ସୁରେନ୍ଦ୍ର ନାଥ ଛୋଟରାୟ)
Environmental Protection in Vedas
04-08-2021
Vedic literature (about 1500 BC) clearly speaks that there is an integral balance in Man, Nature and The God. Natural forces were considered to be expressions ofthe Lord Himself and are venerable entities. Vedas envisage a beautiful natural environment on earth and command the man not to pollute. In Rig Veda it is mentioned that universe consists of five basic elements namely Earth, Water, Air, Fire and Space (Ether). These five elements provide basis for life in everything and man is ordained to conserve them. Yajur Veda talks about propitiation and peace of all components of earth. Atharvana Veda considers earth to be the Mother and the creations are her offsprings. There is a command not to degrade the resources ofMother Earth. Water is considered to be the milk ofthe Mother Earth which fosters the growth of all its offsprings and makes them pure in 100 ways. Rivers are the source of power for life and water is the symbol of dignity. Veda commands the knowledgeable to keep the environment free from all impurities and that can be done by way ofYagnas or sacrificial fire. Yagnas have said to be the medium of relation between human and the Devatas. These Devatas are the natural forces who have to be kept propitiated. The Yagnas are done to worship the deity and to purify the air and keep the environment healthy. The ‘vid’ has been commanded to devote his life for the purpose of yagnas and thus balancing the interests of man and nature. ... @ Dr. Yajnya Dutta Nayak, Berhampur, Odisha
"सात्विक धन एवं पुण्य कर्म ही लोक-परलोक में जीवात्मा के सहायक”
04-08-2021
ओ३म् ===== मनुष्य को अपना जीवन जीनें के लिए धन की आवश्यकता होती है। भूमिधर किसान तो अपने खेतों में अन्न व गो पालन कर अपना जीवन किसी प्रकार से जी सकते हैं परन्तु अन्य लोग चाहें कितने विद्वान हों, यदि नौकरी या व्यापार न करें तो उनका जीवन व्यतीत करना दुष्कर होता है। आजकल जीवन जीनें की यह कसौटी उल्ट गयी है। वर्तमान समय में किसान निर्धनता के शिकार हैं और अनेक कारणों से कुछ किसानों को आत्महत्यायें तक करनी पड़ती हैं। वहीं आजकल नगरीय लोग जो कुछ पढ़ लिखकर छोटी मोटी सरकारी नौकरी प्राप्त कर लेते हैं तो उन्हें जीवन भर अपने भोजन, वस्त्र, बच्चों की शिक्षा, घूमना-फिरना, चिकित्सा आदि सभी प्रकार की सुविधायें प्राप्त एवं सुनिश्चित हो जाती हैं। जो जितना बड़े पद पर होता है उसकों उतना ही अधिक वेतन मिलता है जिससे वह उस अतिरिक्त धन से सम्पत्तियां खरीदनें, बहुमूल्य मकान व वाहन आदि खरीदनें सहित भूमि तथा स्वर्ण आदि खरीद कर अपने धन को वहां विनियोजित करता है। जो लोग श्रमिक हैं उनमें भी कुछ लोग तो अच्छा धनोपार्जन कर लेते हैं तथा बहुत से लोग अल्प-आय के होने तथा प्रभूत परिश्रम करने पर भी कठिनता से अपना जीवन जी पाते हैं। मनुष्य की आत्मा में इच्छा व द्वेष की प्रवृत्तियां भी स्वाभाविक रूप से होती हैं। इस कारण बहुत से मनुष्य प्रभूत धन होने पर भी लोभ लालच के कारण भ्रष्ट आचरण कर उत्कोच व अन्य निन्दित कार्यों से बहुत अधिक धन कमाते हैं। राजनीति व बड़े सरकारी पदों के लोगों में ऐसे लोगों की संख्या अधिक है। वहां लोगों के पास सैकड़ो व हजारों करोड़ की सम्पत्तियां हैं जिनसे एक मध्यम श्रेणी का परिवार हजारों जन्म तक सुखी जीवन व्यतीत कर सकता है। ऐसे धनाड्य लोगों के कारण ही हमारा समाज समरता से दूर अभाव व दुःखों से ग्रसित होता देखा जाता है। आजकल देखने में मिल रहा है कि उच्च शिक्षित लोग अधिक मात्रा में अनैतिक कार्यों का प्रयोग कर रहे हैं जिससे सामान्य लोगों का चिकित्सा आदि व्यवसासयों के प्रति विश्वास कम होता जा रहा है। इसका एक कारण हमारी धर्म निरपेक्षता वाली शिक्षा हैं जहां योग, ध्यान, वेदों के अध्ययन सहित नैतिक शिक्षा को महत्व नहीं दिया जाता। माता-पिता भी अपनी सन्तानों को नैतिक शिक्षा नहीं देते। शायद ही कोई शिक्षित व अशिक्षित माता-पिता हों, जो अपनी सन्तानों को यह कहते हों कि बुरे काम से व भ्रष्टाचार से धन मत कमाना। ऐसी शिक्षा का न होना यही बताता है कि माता-पिता येन-केन प्रकारेण स्वयं भी धनवान बनना चाहते हैं और अपनी सन्तानों को भी उचित व अनुचित तरीकों से धनवान देखना चाहते हैं। धन यदि धर्मपूर्वक व पवित्र आचरण से पुरुषार्थ व पसीना बहाकर कमाया जाता है तो वह धन सुधन होता है। यदि धन को बेईमानी व अनुचित साधनों से कमाया जाता है तो वह धन कुधन या चोर-धन कहा जा सकता है। कम परिश्रम करके अधिक धन कमाना, भले ही वह उचित साधनों से ही क्यों न हो, हमें लगता है कि ऐसा करना भी उचित नहीं होता। इसे व्यवस्था का दोष भी कह सकते हैं। हमारे शास्त्रों में धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की चर्चा आती है। इन पुरुषार्थ चतुष्टय को प्राप्त करना ही मनुष्य जीवन का लक्ष्य कहा जाता है। धर्म सत्य व न्याय का आचरण करने को कहते हैं। अर्थ का भाव यह है कि धर्म अर्थात् सत्य और न्याय का आचरण कर पदार्थों वा सुविधाओं को प्राप्त करना। काम की परिभाषा यह है कि धर्मपूर्वक प्राप्त अर्थ से इष्ट भोगों (सुखों) का सेवन करना। मोक्ष का अर्थ है कि सभी दुःखों से छूटकर सदा आनन्द में रहना। मोक्ष में जन्म व मरण का छूटना एक प्रमुख उपलब्धि होती है। जन्म व मरण दोनों में ही जीव को दुःख होता है। जन्म व मरण के बीच की अवधि में भी सभी धनाड्यों को भी अनेक प्रकार के दुःख आते हैं। इन सभी दुःखों से मुक्ति ही मोक्ष कहलाती है। अतः अर्थ वह होता है जिसे धर्म व पुरुषार्थ से प्राप्त कर उससे सुख देने वालों पदार्थों को प्राप्त किया जाये। अर्थ के साथ कर्म भी जुड़ा हुआ है। ऋषि दयानन्द कर्म की परिभाषा करते हुए कहते हैं कि जो मन, इन्द्रिय और शरीर में जीव चेष्टा-विशेष करता है वह कर्म कहलाता है। वह कर्म शुभ, अशुभ और मिश्र भेद से तीन प्रकार का होता है। ऋषि दयानन्द ने क्रियमाण कर्म पर प्रकाश डालते हुए कहा है कि जो वर्तमान में किया जाता है, वह ‘क्रियमाण कर्म’ कहलाता है। संचित कर्म वह होते हैं जो क्रियमाण का संस्कार ज्ञान में जमा होता है। तीसरे कर्म प्रारब्ध होते हैं। इसके विषय में ऋषि दयानन्द कहते हैं कि जो पूर्व किये हुए कर्मों के सुख-दुःख-रूप फल का भोग किया जाता है, उसको ‘प्रारब्ध’ कहते हैं। यह प्रारब्ध पूर्वजन्मों के अभुक्त कर्मों का संचय प्रायः होता है। पूर्वजन्म के प्रारब्ध कर्मों के कारण ही हमारा यह जन्म हुआ है और इस जन्म में हम जो कर्म करेंगे और जिनका मृत्यु से पूर्व भोग नहीं हो सकेगा, वह सब प्रारब्ध के रूप में हमारे भावी जन्म में निर्णायक होंगे। उनके प्रभाव से ही हमें अगला जन्म और सुख व दुःख प्राप्त होंगे। यह भी सम्भव है कि इस जन्म के अशुभ व पाप कर्मों के कारण हमें अगले जन्म में मनुष्य योनि के स्थान पर पशु व पक्षी योनि में जन्म मिले। श्रेष्ठ कर्म वह होते हैं जिनका परिणाम सुख व जीवन की उन्नति के रूप में होता है। सत्य-शास्त्र विहित धर्मयुक्त कर्मों को करके जो धन कमाया जाता है वह श्रेष्ठ धन होता है। जो कर्म शास्त्र द्वारा वर्जित हैं उनको किसी भी मनुष्य को नहीं करना चाहिये। घूस व भ्रष्टाचार सरकारी व्यवस्थाओं के द्वारा वर्जित कर्म होने से यह अनुचित व निकृष्ट कोटि के कर्म होते हैं जिनका परिणाम सरकारी व्यवस्था में भी दण्ड होता है और धार्मिक व ईश्वरीय दृष्टि से भी अहितकारी व दुःखदायी होता है। अतः ऐसा कोई कर्म नहीं करना चाहिये जिसे छुप कर करना पड़े और यदि पूछताछ हो तो उसे छुपाना पड़े या झूठ बोलना पड़े। मनुष्य को धन उन्हीं कर्मों से कमाना चाहिये जिन्हें वह किसी को भी पूछने पर बता सकता हो कि उसने वह धन किन साधनों से कमाया है। ऐसा करने से मनुष्य का जीवन सुखपूर्वक व्यतीत होता है और वह अभय व मन की शान्ति से युक्त रहता है। ऋषि दयानन्द ने एक बात यह भी कही है कि जब मनुष्य कोई अशुभ व बुरा काम करता है तो उसकी आत्मा में भय, शंका व लज्जा उत्पन्न होती है। यह भय, शंका एवं लज्जा का अनुभव परमात्मा मनुष्य की आत्मा में इसलिये कराता है जिससे मनुष्य उस पाप कृत्य को न करे। यह एक प्रकार से मनुष्य को परमात्मा की उस गलत काम को न करने की सलाह होती है। जो मनुष्य लोभवश अपनी आत्मा की उस सलाह को नहीं मानते, उन्हें बाद में सरकारी व्यवस्था व ईश्वरीय व्यवस्था से उस कर्म के दुःख रूपी फलों को भोगना पड़ता है। तब वह परमात्मा के सामने गिड़गिड़ाता है व उसके अन्य उपाय खोजता है। कई अज्ञानी लोग ऐसे अवसरों पर पौराणिक रीति से पूजा-पाठ कराते हैं। हमारा अध्ययन कहता है कि इसका प्रभाव उस समस्या या दुःख पर सीधा नहीं होता। इस कर्म का परिणाम तो हमारे भावी सुख व दुःखों पर पड़ सकता है। हमें भविष्य में दुःख न हो और हम चिन्ताओं से मुक्त होकर जीवन व्यतीत करें, इसके लिये यह आवश्यक है कि हम धर्म पर चलते हुए सत्य और न्याय का आचरण करें और कोई भी अशुभ व पाप कर्म को न करें। वेद आदि शास्त्रों का अध्ययन करने पर यह पता चलता है कि मनुष्य को अपनी शारीरिक, आत्मिक एवं सामाजिक उन्नति करनी चाहिये। यदि मनुष्य अपनी आत्मिक उन्नति कर लेता है तो हमारा विचार है कि उसकी सामाजिक उन्नति स्वतः होती है। आत्मिक उन्नति के लिये हमें सांसारिक ज्ञान के साथ शास्त्रीय ज्ञान को भी प्राप्त करना होता है। ज्ञान यदि हमारे आचरण में न हो तो वह ज्ञान किसी काम का नहीं होता। हमें अपने शास्त्रीय ज्ञान के अनुसार ही अपना जीवन बनाना चाहिये। सभी ग्रन्थ शास्त्र नहीं होते। शास्त्र केवल वही ग्रन्थ कहलाते हैं जिनमें शत-प्रतिशत बातें सत्य हों। ऐसे ग्रन्थों में शीर्ष स्थान पर ईश्वरीय ज्ञान चार वेद ही हैं। मिथ्या ग्रन्थों पर आस्था रखकर यदि हम उनके अनुसार आचरण करते हैं तो इससे हमें व दूसरों को भी दुःख होना सम्भावित होता है। हम जो भी ग्रन्थ पढ़े, हमें उसकी बातों को स्वीकार करने से पूर्व उसकी परीक्षा भी अवश्य करनी चाहिये। बहुत से लोग मांसाहार करते हैं परन्तु वह यह विचार नहीं करते कि मांसाहार भक्ष्य है या अभक्ष्य? निश्चय ही मांसाहार अभक्ष्य है और इससे रोग सहित ईश्वरी व्यवस्था से दण्ड मिलना स्वाभाविक है। इसी प्रकार से अन्य सभी बातों की भी परीक्षा कर उनके निरापद होने पर ही स्वीकार करना चाहिये। मनुष्य अपना जीवन कैसे जीये? इस पर विचार करते हैं तो हमारे सामने वृक्षों और पशुओं का जीवन एक आदर्श उपस्थित करता है। वृक्ष भूमि से उतना ही आहार लेते हैं जितनी की उनको आवश्यकता होती है। वह अपने भोजन का भण्डारण या संग्रह आदि नहीं करते। पशुओं में भी हम यही भावना देखते हैं। उन्हें यदि मिल जाये तो वह प्रसन्नतापूर्वक आवश्यकता के अनुसार ही ग्रहण करते हैं अन्यथा सन्तुष्ट प्रायः रहते हैं। पशु व पक्षी भी किसी प्रकार का भण्डारण करने की बात नहीं सोचते। कोई एक दो अपवाद हो सकते हैं। मनुष्यों को भी धन व पदार्थों का आवश्यकता से अधिक संग्रह नहीं करना चाहिये। ईश्वरोपासना एवं सद्ग्रन्थों के स्वाध्याय का त्याग कर अधिकतम व अमर्यादित धन कमाने की प्रवृत्ति अत्यन्न दोषपूर्ण हैं। इसका परिणाम अच्छा नहीं होता। मनुष्य अन्न व भोजन तो उतना ही ग्रहण कर सकता है जितनी की भूख होती है। उसे निद्रा भी एक 18 से 24 वर्ग फीट के पलंग पर ही होता है। वस्त्र साधारण हों या कीमती, कोई फर्क नहीं पड़ता। हां, ज्ञान न हो या कम हो तो अवश्य फर्क पड़ता है। ज्ञान बढ़ाने के लिये मनुष्य के भीतर उत्साह होना चाहिये। ऐसा मनुष्य अनेक प्रकार के दुःखों व मुसीबतों से बचा रहता है। अतः हमें सुखी जीवन पर विचार करना चाहिये। धन व सुख के प्रचुर साधनों से समृद्ध जीवन हर हाल में सुखी नहीं होता। बहुत से धनाड्य लोग अस्पताल में बिस्तर पर पड़े द्रव-ग्लूकोस का सेवन कर जीवित रहते हैं। ईश्वर न करे कभी हमारी ऐसी स्थिति हो। योगदर्शन में पतंजलि ऋषि भी योगी के लिये अपरिग्रही होने की बात कहते हैं। गीतकार कीर्तिशेष पंडित सत्यपाल पथिक जी ने एक भजन लिखा है जिसकी प्रथम दो पंक्तियां देकर हम इस लेख को विराम देते हैं। ‘श्रेष्ठ धन देना ओ दाता श्रेष्ठ धन देना जिसमें चिंतन और मनन हो ऐसा मन देना ओ दाता श्रेष्ठ धन देना।।’ ओम् शम्। -मनमोहन कुमार आर्य
Arya Samaj
01-08-2021
Arya Samaj is a monotheistic Indian Hindu reform movement that promotes values of based on the belief in the infallible authority of the Vedas. The samaj was founded by Maharishi Dayanand Saraswati on 10 April 1875. ........... Vedic Vichar www.vedicvihaar.com
Meaning in Life
01-08-2021
Meaning in Life is also an important factor in an individual’s life, because it is due to this factor, one finds his/her life worth living and meaningful. It is important in the elderly facet of life, as an elderly is free from all kinds of duties and responsibilities, as he/she gets retired, so to some extent, their life seems to be of no use for others and the society as they are contributing nothing in the society in terms of financial services, so they are being neglected by the society, hence, meaning in life provides them the strength and positivity to move ahead in their life. It plays a very important role in our lives, especially in the case of old-aged individuals. @ Dr. Yajnya Dutta Nayak, Berhampur, Odisha
ଆମର ଦୋଷ, ଦୁର୍ଗୁଣ ଦୂର କରିବା ପାଇଁ
31-07-2021
ଆମର ଦୋଷ, ଦୁର୍ଗୁଣ ଦୂର କରିବା ପାଇଁ ପ୍ରଥମେ ଆମେ ଏକାନ୍ତରେ ବସି ଆତ୍ମ ନିରୀକ୍ଷଣ ପୂର୍ବକ ଦୋଷ ସବୁର ସ୍ଥିତିକୁ ଠିକ୍ ଭାବେ ଜାଣିବା ଆବଶ୍ୟକ। ଭଗବାନ ମନୁଷ୍ୟକୁ ଏତିକି ବୁଦ୍ଧି ଦେଇଛନ୍ତି ଯେ ଆମର ଅନେକ ଦୋଷ, ଦୁର୍ଗୁଣ ଆମକୁ ଜଣା ପଡ଼ିଥାଏ। ସେଥିପାଇଁ କେବଳ ଟିକିଏ ସମୟ ଦେଇ ସ୍ଥିର ଚିତ୍ତରେ ଆନ୍ତରିକତା ସହ ଆତ୍ମ ନିରୀକ୍ଷଣ କରିବା ଆବଶ୍ୟକ। ଦୋଷକୁ ଜାଣିବା ପରେ ତାକୁ ଦୋଷ ରୂପେ ସ୍ବୀକାର କରିବା ପ୍ରଥମ ଆବଶ୍ୟକତା। ତତ୍ ପରେ ତା' ସହ ମିତ୍ରତା ନକରି ତାକୁ ଦୂର କରିବାର ମାର୍ଗ ଅନ୍ୱେଷଣ କରି ସେଥିପାଇଁ ପ୍ରଯତ୍ନ କରିବା ଉଚିତ। # Vedic Vichar
दशम ऑनलाइन साप्ताहिक सत्संग
31-07-2021
*निमंत्रण* *दशम ऑनलाइन साप्ताहिक सत्संग * आर्य समाज नोएडा आपको अपने दसवें ऑनलाइन साप्ताहिक सत्संग में आमंत्रित करता है। प्लैट्फ़ॉर्म: *गूगल मीट meeting on गूगल मीट app.* मुख्य वक्ता: *डा मँजू नारंग* ईश्वर भक्ति भजन: आप और हम संयोजक : श्रीमती गायत्री मीणा (मंत्री) धन्यवाद श्री शैलेन जगिया (प्रधान) और जयघोष: मास्टर पुरुषार्थ आर्य रविवार, 1 अगस्त 2021 समय:- प्रात: 9 बजे से 10 बजे तक *Google meet ID* आर्य समाज नोएडा का साप्ताहिक-१० Google Meet joining info Video call link: *https://meet.google.com/fqt-xnjv-kxh* समय से link को click कर join कर ले कृपया स्वयं जुडे व अपने मित्रों को भी शेयर करें। निवेदक: आर्य समाज नोएडा के समस्त अधिकारीगण
ସଂସାର ସାଗରରେ ମନୁଷ୍ୟ
30-07-2021
ସଂସାର ସାଗରରେ ମନୁଷ୍ୟ ଗୋଟିଏ ଘଟ ସଦୃଶ। ଏହି ଘଟ ଯଦି ଛିଦ୍ର ହୀନ ହେବ ତେବେ ସେ ସଂସାର ସାଗରରେ ଅନ୍ୟାୟାସରେ ବିଚରଣ କରି ପାରିବ। ଯଦି ଏହି ଘଟ ଦୂର୍ଗୁଣ ରୂପୀ ଛିଦ୍ର ମାନଙ୍କରେ ପୂର୍ଣ୍ଣ ହୋଇଯିବ ତେବେ ଘଟଟି ସଂସାର ସାଗରରେ ବୁଡ଼ିଯିବ।ଆମେ ଜାଣିଛୁ କାମ,କ୍ରୋଧ ଆଦି ଷଡ଼ ରିପୁ ଅଥବା ଈର୍ଷା,ଅସୂୟା ଇତ୍ୟାଦି ଏମାନେ ପ୍ରତ୍ୟେକ ଏକ ଏକ ଦୁର୍ଗୁଣ। ଯଦି ମନୁଷ୍ୟର ଶରୀର ରୂପୀ ଘଟରେ ଏମାନେ ଛିଦ୍ର ରୂପେ ପୂର୍ଣ୍ଣ ହୋଇଯିବେ ତେବେ ଏ ଘଟ ତାର ଅସ୍ତିତ୍ଵକୁ ହରାଇ ବସିବ। ଏହାର ପ୍ରଭାବରୁ ନିଜକୁ ମୁକ୍ତ ରଖି ପାରିଲେ ଏହି ଦୂର୍ଗୁଣରୁପୀ ଛିଦ୍ର ମଣିଷକୁ ବୁଡ଼ାଇବାରେ ସହାୟକ ହେବ ନାହିଁ ଓ ମନୁଷ୍ୟ ଅବାଧରେ ଏ ସଂସାର ସାଗରକୁ ପାରି ହୋଇଯିବ। #Vedic Vichar
Vedic Vichar
30-07-2021
ଆମ ଭିତରେ ଥିବା ଦୁରିତ ବା ଦୂର୍ଗୁଣ ଦୂରୀକରଣ ଓ ଭଦ୍ର ଆହରଣ ମୁଖ୍ୟତଃ ଅନ୍ତଃ ପ୍ରେରଣାର ବିଷୟ। କେବଳ ବାହ୍ୟ ଚେଷ୍ଟା ଦ୍ଵାରା ଦୂର୍ଗୁଣ ନିର୍ମୂଳ ହେବା ଅସମ୍ଭବ। ଦୂରିତ ବା ଦୂର୍ଗୁଣ ପ୍ରତି ଯେତେବେଳେ ମନୁଷ୍ୟ ଭିତରେ ଗ୍ଲାନି, ପଶ୍ଚାତାପ ଓ ଦ୍ଵେଷର ଭାବ ଉତ୍ପନ୍ନ ହୁଏ ସେତେବେଳେ ଯାଇ ତା' ର ଅନ୍ତକରଣରେ ଦୁରିତକୁ ତ୍ୟାଗ କରିବାର ଭାବନା ବଳବତୀ ହୁଏ। ସେତେବେଳେ ପ୍ରାର୍ଥନା ପ୍ରଭାବଶାଳୀ ହୋଇଥାଏ ଓ ଈଶ୍ବରଙ୍କ ସହାୟତା ମିଳିଥାଏ। @ Vedic Vichar
ସତ୍ୟାର୍ଥ ପ୍ରକାଶ ସନ୍ଦେଶ
28-07-2021
*ପ୍ରଶ୍ନ- ପରମେଶ୍ବରଙ୍କ ସ୍ତୁତି, ପ୍ରାର୍ଥନା ଓ ଉପାସନା କରିବା ଉଚିତ ନା ଅନୁଚିତ ?* ଉତ୍ତର- ନିଶ୍ଚୟ କରିବା ଉଚିତ । *ପ୍ରଶ୍ନ-ସ୍ତୁତି ବା ପ୍ରାର୍ଥନା କଲେ ଈଶ୍ଵର କଣ ନିଜ ନିୟମକୁ ପରିତ୍ୟାଗ କରି, ସ୍ତୁତି ପ୍ରାର୍ଥନାକାରୀର ପାପକୁ ଦୂର କରିଦେଇ ପାରିବେ ?* ଉତ୍ତର- ସେପରି କରିପାରିବେ ନାହିଁ । *ପ୍ରଶ୍ନ- ତେବେ ସ୍ତୁତି ପ୍ରାର୍ଥନା କରିବାର କି ଆବଶ୍ୟକତା ଅଛି ?* ଉତ୍ତର- ଏସବୁ କରିବାରେ ଅନ୍ୟ ପ୍ରକାର ଫଳ ଅଛି । *ପ୍ରଶ୍ନ – ତାହା ପୁଣି କଣ ?* ଉତ୍ତର- ସ୍ତୁତିଦ୍ବାରା ହୃଦୟରେ ଈଶ୍ବରଙ୍କ ପ୍ରତି ପ୍ରୀତି ଜାତ ହୁଏ । ତାଙ୍କ ଗୁଣ, କର୍ମ ଓ ସ୍ଵଭାବ ଅନୁସାରେ ନିଜ ଗୁଣ, କର୍ମ ଓ ସ୍ଵଭାବ ସଂଶୋଧିତ ହୋଇଥାଏ । ପ୍ରାର୍ଥନାଦ୍ଵାରା ନିରଭିମାନତା, ଉତ୍ସାହ ଓ ସାହାଯ୍ୟ ଲାଭ ହୁଏ । ଉପାସନାଦ୍ଵାରା ପରମେଶ୍ବରଙ୍କ ସହିତ ମିଳନ ଓ ସାକ୍ଷାତ୍କାର ହୁଏ । *ପ୍ରଶ୍ନ- ଏସବୁକୁ ସ୍ପଷ୍ଟ କରି ବୁଝାଇ ଦେବେ କି ?* ଉତ୍ତର- ଯଥା :- *ସ ପର୍ୟଗାଚ୍ଛୁକ୍ରମକାୟମଵ୍ରଣ- ମସ୍ନାଵିର ଶୁଦ୍ଧମପାପଵିଦ୍ଧମ୍ ।* *କଵିର୍ମନୀଷୀ ପରିଭୂଃ ସ୍ଵୟମ୍ଭୂର୍ୟାଥାତଥ୍ୟତୋଽର୍ଥାନ୍ ଵ୍ୟଦଧାଚ୍ଛାଶ୍ଵତୀଭ୍ୟଃ ସମାଭ୍ୟଃ ॥ ଯଜୁର୍ବେଦ ଅ୪୦ ମ-୮.॥* ଈଶ୍ଵର ସ୍ତୁତି- ସେହି ପରମାତ୍ମା ସର୍ବତ୍ର ବ୍ୟାପକ, ଶୀଘ୍ରକାରୀ, ଅନନ୍ତ ବଳଶାଳୀ । ସେ ହେଉଛନ୍ତି ଶୁଦ୍ଧ, ସର୍ବଜ୍ଞ; ସର୍ବାନ୍ତର୍ଯ୍ୟାମୀ, ସର୍ବୋପରି ବିରାଜମାନ, ସନାତନ ତଥା ସ୍ଵୟଂସିଦ୍ଧ । ସେହି ପ୍ରଭୁ ଜୀବରୂପକ ନିଜର ଅନାଦି ପ୍ରଜାବର୍ଗଙ୍କୁ ବେଦଦ୍ବାରା ସନାତନ ଜ୍ଞାନର ପ୍ରକାଶ କରି ତାହାର ଅର୍ଥକୁ ଯଥାଯଥ ଭାବେ ବୋଧ କରାନ୍ତି । ଏଭଳି ସ୍ତୁତିକୁ ସଗୁଣ ସ୍ତୁତି କୁହାଯାଏ । ଅର୍ଥାତ୍ ଯେଉଁ ଯେଉଁ ଗୁଣ ସହିତ ଈଶ୍ବରଙ୍କୁ ସ୍ତୁତି କରାଯାଏ ତାହାହିଁ ସଗୁଣ ସ୍ତୁତି । (ଅକାୟ) ଅର୍ଥାତ୍, ପରମେଶ୍ବର କେବେ ଜନ୍ମ ହୁଅନ୍ତି ନାହିଁ କି ଶରୀର ଧାରଣ କରନ୍ତି ନାହିଁ । ତାଙ୍କ ଭିତରେ କୌଣସି ଛିଦ୍ର ନାହିଁ । ସେ ନାଡ଼ି ତନ୍ତୁର ବନ୍ଧନରେ ଆବଦ୍ଧ ନୁହନ୍ତି । ସେ କେବେ ପାପାଚରଣ କରନ୍ତି ନାହିଁ । ସେ କେବେ ଦୁଃଖ, କଷ୍ଟ ଓ ଅଜ୍ଞାନତାର ଶିକାର ହୁଅନ୍ତି ନାହିଁ । ଏସବୁ ରାଗଦ୍ବେଷାଦି ଗୁଣ ପରମେଶ୍ବରଙ୍କଠାରେ ନାହିଁ, ତେଣୁ ସେପରି ଯେଉଁ ସ୍ତୁତି କରାଯାଏ, ତାକୁ ନିର୍ଗୁଣ ସ୍ତୁତି କହନ୍ତି । ଈଶ୍ଵରଙ୍କ ଗୁଣ, କର୍ମ, ସୃଭାବପରି ନିଜର ଗୁଣ କର୍ମ ସୃଭାବକୁ ଗଠନ କରିବାରେ ଯତ୍ନ କରିବା ହିଁ ଈଶ୍ଵର ସ୍ତୁତିର ପ୍ରକୃତ ଉଦ୍ଦେଶ୍ୟ । ଅର୍ଥାତ୍, ଈଶ୍ବର ଯେପରି ନାୟକାରୀ ଓ ପରୋପକାରୀ ନିଜେ ମଧ୍ୟ ସେପରି ନ୍ୟାୟକାରୀ ଓ ପରୋପକାରୀ ହେବା ଉଚିତ । କିନ୍ତୁ ଯେଉଁମାନେ ମୁଖରେ କେବଳ ପ୍ରଭୁଙ୍କର ସ୍ତୁତି କରି, ନିଜ ଚରିତ୍ର ଓ ସ୍ଵଭାବକୁ ସଂଶୋଧନ କରି ଶୁଦ୍ଧ ଓ ପବିତ୍ର କରିବାକୁ ଚେଷ୍ଟା କରନ୍ତି ନାହିଁ, ସେମାନେ କେବଳ ଭଣ୍ଡ ଓ ପାଖଣ୍ଡୀ ଅଟନ୍ତି । ସେମାନଙ୍କୁ ସ୍ତୁତିର ଫଳ ସାମାନ୍ୟ ଭାବେ ମଧ୍ୟ ମିଳେ ନାହିଁ । ....କ୍ରମଶଃ *ସପ୍ତମ ସମ୍ମୁଲ୍ଲାସ, ସତ୍ୟାର୍ଥ ପ୍ରକାଶ।* ପ୍ରକାଶକ: ଉତ୍କଳ ସାହିତ୍ୟ ସଂସ୍ଥାନ, ଗୁରୁକୂଳ ଆଶ୍ରମ ଆମସେନା ପ୍ରସ୍ତୁତି: ✍️ ମହିମା ସାଗର ସାହୁ।
ବୈଦିକ ଧର୍ମ ପ୍ରଶ୍ନୋତ୍ତରୀ
28-07-2021
ପ୍ରଶ୍ନ :- ବେଦ କାହାକୁ କହନ୍ତି ?* ଉତ୍ତର :- ବେଦ ଶବ୍ଦର ଅର୍ଥ ହେଉଛି ଜ୍ଞାନ । *ପ୍ରଶ୍ନ :- ସେହି ବେଦ କେତେ ଭାଗରେ ବିଭକ୍ତ ? ବେଦରେ କ'ଣ ସବୁ ଶିକ୍ଷା ଦିଆଯାଇଛି ?* ଉ :- ଋକ୍, ଯଜୁ, ସାମ ଓ ଅଥର୍ବ, ଏହିପରି ବେଦ ଚାରି ଭାଗରେ ବିଭକ୍ତ । ମନୁଷ୍ୟ କିପରି କାର୍ଯ୍ୟମାନ କରିବ, ଦେଶ, ସମାଜ ଓ ପରିବାର ପ୍ରତି ତାର କର୍ତ୍ତବ୍ୟ କଣ ? ସଂସାରରେ ଶାନ୍ତି ପ୍ରତିଷ୍ଠାପାଇଁ କି ପ୍ରକାର ପଦକ୍ଷେପ ନିଆଯିବ ? ଈଶ୍ୱରଙ୍କ ଉପାସନା କିପରି କରିବାକୁ ହେବ ? ଏପରି ସାରଗର୍ଭକ ଉପଦେଶମାନ ବେଦରେ ଶିକ୍ଷା ଦିଆଯାଇଛି । ସେସବୁକୁ ଜାଣିଲେ ନିଶ୍ଚିତଭାବେ ମନୁଷ୍ୟର ଉନ୍ନତି ସାଧୀତ ହେବ । *ପ୍ର :- ବେଦଜ୍ଞାନ କିଏ ଦେଇଛି ? ସେସବୁ ଦେବାର ଉଦ୍ଦେଶ୍ୟ କ'ଣ ?* ଉ :- ଯେଉଁ ଈଶ୍ୱର ସର୍ବଜ୍ଞ ଅର୍ଥାତ୍ ସବୁକିଛିକୁ ଜାଣନ୍ତି, ସେହିଁ ବେଦଜ୍ଞାନ ଦେଇଛନ୍ତି । ମନୁଷ୍ୟ ସମାଜ ସୁଖଶାନ୍ତିରେ ଆନନ୍ଦ ଉପଭୋଗକରି କିପରି ରହିବ, ତାପାଇଁ ଈଶ୍ୱର ବେଦଜ୍ଞାନ ଦେଇଛନ୍ତି । "ପିତାମାତାଙ୍କପରି ଈଶ୍ୱରଙ୍କ ଦୟା ଆମ ଉପରେ ରହିଛି'' ସନ୍ତାନ-ସନ୍ତତିଙ୍କ ଉନ୍ନତିପାଇଁ ପିତାମାତା ସବୁବେଳେ ସେମାନଙ୍କୁ ଉତ୍ତମ ଶିକ୍ଷା ଦେବାପରି ସମସ୍ତଙ୍କ ପରମପିତା ଓ ଦୟାଳୁ ମାତା ସେହି ପରମେଶ୍ୱର ଆମରି କଲ୍ୟାଣ ପାଇଁ ବେଦଜ୍ଞାନ ଦେଇଛନ୍ତି । କାରଣ ସବୁବେଳେ ସେ ଆମ ସମସ୍ତଙ୍କ ମଙ୍ଗଳକାମନା କରିଥାନ୍ତି । *ପ୍ର:- ବେଦର ସେହି ଜ୍ଞାନଗୁଡ଼ିକୁ ଈଶ୍ୱର କେବେ ଦେଇଛନ୍ତି ?* ଉ :- ଏହିଜ୍ଞାନ ଈଶ୍ୱର ମନୁଷ୍ୟକୁ ସୃଷ୍ଟିର ପ୍ରାରମ୍ଭରେ ଦେଇଛନ୍ତି । ସୃଷ୍ଟିପରେ ଈଶ୍ୱର ଯଦି ଏହିଜ୍ଞାନ ଦେଇଥାନ୍ତେ, ତେବେ ପୂର୍ବରୁ ସୃଷ୍ଟିହୋଇଥିବା ମନୁଷ୍ୟମାନେ ସେହିଲାଭ ପାଇପାରି ନଥାନ୍ତେ । *ପ୍ର:- ଈଶ୍ୱର ବେଦଜ୍ଞାନ କାହାକୁ ଓ କାହିଁକି ଦେଇଛନ୍ତି ?* ଉ :- ଈଶ୍ୱର ସୃଷ୍ଟିର ପ୍ରାରମ୍ଭରେ ଏହି ବେଦଜ୍ଞାନ ଋଷିମାନଙ୍କୁ ଦେଇଥିଲେ । ପ୍ରାରମ୍ଭରେ ଯଦି ଏପରି ଜ୍ଞାନ ଦେଇ ନଥାନ୍ତେ ତେବେ ମନୁଷ୍ୟ କିଛି ଶିଖି ପାରିନଥାନ୍ତା । କିମ୍ୱା କେଉଁ କାମ କରିବାକୁ ହେବ ତାହାମଧ୍ୟ ଜାଣେ ମନୁଷ୍ୟକୁ ନଶିଖାଇବା ପର୍ଯ୍ୟନ୍ତ ସେ କିଛି ଲେଖିଜାଣେନାହିଁ କିମ୍ୱା ପଢ଼ିପାରେ ନାହିଁ । ସୃଷ୍ଟିର ପ୍ରାରମ୍ଭରେ ଈଶ୍ୱରଙ୍କ ବ୍ୟତୀତ ଅନ୍ୟ କିଏବା ମନୁଷ୍ୟକୁ ଉପଦେଶ ଦେଇଥାନ୍ତା ? ତେଣୁ ଈଶ୍ୱର ଅଗ୍ନି, ବାୟୁ, ଆଦିତ୍ୟ ଓ ଅଙ୍ଗିରା ଏପରି ଚାରିଜଣ ଋଷିଙ୍କୁ ବେଦଜ୍ଞାନ ପ୍ରଦାନ କରିଥିଲେ । *ପ୍ର :- ଈଶ୍ୱର କାଗଜ, କଲମ ଓ କାଳୀରେ କଣ ସେସବୁ ଲେଖିଦେଲେ ? ନା ଅନ୍ୟ କେଉଁ ଉପାୟରେ ଋଷିମାନଙ୍କୁ ସେହି ବେଦଜ୍ଞାନ ଦେଇଥିଲେ ?* ଉ :- ଈଶ୍ୱର ସମସ୍ତଙ୍କ ହୃଦୟରେ ବ୍ୟାପି ରହିଛନ୍ତି । ସେହି ଚାରିଜଣ ଋଷିଙ୍କ ହୃଦୟ ଅତ୍ୟନ୍ତ ପବିତ୍ର ଥିଲା । ତେଣୁ ସେମାନଙ୍କ ହୃଦୟରେ କେବଳ ବେଦଜ୍ଞାନ ପ୍ରକଟ କରିଥିଲେ । ଈଶ୍ୱର ହେଉଛନ୍ତି ସର୍ବବ୍ୟାପକ ଓ ସର୍ବଶକ୍ତିମାନ୍। ତେଣୁ ଜ୍ଞାନଦେବାପାଇଁ ସେ କାଗଜ, କଲମ କିମ୍ୱା କାଳୀ ଲୋଡ଼ିନଥିଲେ । କିମ୍ୱା ମୁହଁରେ ତାଙ୍କୁ କହିବାକୁ ପଡି଼ନଥିଲା କେବଳ ହୃଦ୍ଦେଶରେ ପ୍ରେରଣା ପ୍ରଦାନ ହିଁ ତାଙ୍କପକ୍ଷରେ ଜ୍ଞାନ ଉଦ୍ରେକର ଯଥେଷ୍ଟ କାରଣ ଥିଲା । *ପ୍ର :- ଈଶ୍ୱରଙ୍କ ପ୍ରଦତ୍ତଜ୍ଞାନ ସାମୟିକଭାବେ ପରିବର୍ତ୍ତନ ହୋଇଥାଏ କି ?* ଉ :- ନାଁ, ଈଶ୍ୱରଙ୍କ ପ୍ରଦତ୍ତଜ୍ଞାନ ସବୁଦିନ ପାଇଁ ଠିକ୍ ସେହିପରି ରହିଥାଏ । ତାକୁ ପରିବର୍ତ୍ତନ କରିବାର ଆବଶ୍ୟକତା କେବେ ପଡ଼େନାହିଁ । *ପ୍ର :- ବେଦ କଣ କୌଣସି ଏକ ଜାତି ବିଶେଷ କିମ୍ୱା କୌଣସି ଏକ ଦେଶର ଲୋକଙ୍କପାଇଁ ଏହା ଉଦ୍ଦିଷ୍ଟ ?* ଉ :- ସଚରାଚର ସକଳ ପ୍ରାଣୀ ସୁଖରେ ବସବାସ କରନ୍ତୁ, ଏହାହିଁ ହେଉଛି ଈଶ୍ୱରଙ୍କ ମୁଖ୍ୟ ଉଦ୍ଦେଶ୍ୟ । ତେଣୁ ବେଦ ସମଗ୍ର ସଂସାରର ପ୍ରତ୍ୟେକ ମନୁଷ୍ୟଙ୍କ ପାଇଁ ଉଦ୍ଦିଷ୍ଟ । ଈଶ୍ୱର କୌଣସି ଜାତିବିଶେଷ, କିମ୍ୱା କୌଣସି ଏକ ଦେଶର ପିତା ନୁହନ୍ତି, ସେ ହେଉଛନ୍ତି ସକଳ ସଂସାରର ପିତା । ତେଣୁ ଯେକୌଣସି ଦେଶର ବ୍ୟକ୍ତି ଯଦି ଉତ୍ତମ ହେବାପାଇଁ ଇଚ୍ଛାକରେ, ତେବେ ତାର ବେଦପଢ଼ିବାର ସଂପୂର୍ଣ୍ଣ ଅଧିକାର ରହିଅଛି । ତେଣୁ ବେଦରେ ନିର୍ଦ୍ଦେଶ ଦିଆଯାଇଛି :- *"ଯଥେମାଂ ବାଚଂ କଲ୍ୟାଣୀମାବଦାନି ଜନେଭ୍ୟଃ ।* *ବ୍ରହ୍ମରାଜନ୍ୟାଭ୍ୟାଂ ଶୂଦ୍ରାୟ ଚାର୍ଯ୍ୟାୟାଚ ସ୍ୱାୟ ଚାରଣାୟ ।" (ଯଜୁ ଅ୨୬-ମ୨)* ପରମାତ୍ମା ଉପଦେଶ ଦେଇଛନ୍ତି "ଏହି କଲ୍ୟାଣକାରିଣୀ ବେଦଜ୍ଞାନକୁ ମୁଁ ବ୍ରାହ୍ମଣ, କ୍ଷତ୍ରିୟ, ବୈଶ୍ୟ, ଶୂଦ୍ର ନିର୍ବିଶେଷରେ ସମସ୍ତ ମନୁଷ୍ୟକୁ ପ୍ରଦାନ କରୁଅଛି । ମହର୍ଷି ଦୟାନନ୍ଦ ସରସ୍ୱତୀଙ୍କ ପ୍ରଣୀତ ଆର୍ଯ୍ୟସମାଜର ଦଶନିୟମ ମଧ୍ୟରୁ ତୃତୀୟ ନିୟମ ହେଉଛି "ବେଦ ହେଉଛି ସମସ୍ତ ସତ୍ୟ ବିଦ୍ୟାର ପୁସ୍ତକ । ବେଦକୁ ପଢ଼ିବା- ପଢ଼ାଇବା- ଓ ଶୁଣିବା-ଶୁଣାଇବା ପ୍ରତ୍ୟେକ ଆର୍ଯ୍ୟଙ୍କର ପରମ ଧର୍ମ ଅଟେ । ତାଙ୍କର ଏହି ମହନୀୟ ଉପଦେଶକୁ ଭୁଲିଯିବା କଦାପି ଉଚିତ ନୁହେଁ । ସର୍ବଦା ବେଦାଧ୍ୟୟନ ଦ୍ୱାରା ମନୁଷ୍ୟ ଜୀବନକୁ ସରସ-ସୁନ୍ଦର କରିବା ଏକାନ୍ତ ଆବଶ୍ୟକ ।''.....କ୍ରମଶଃ ସହାୟକ ପୁସ୍ତକ: "ବୈଦିକ ଧର୍ମ ଆର୍ଯ୍ୟସମାଜ ପ୍ରଶ୍ନୋତ୍ତରୀ", ଲେଖକ :- ପଣ୍ଡିତ ଧର୍ମଦେବ ସିଦ୍ଧାନ୍ତାଳଙ୍କାର ବିଦ୍ୟାବାଚସ୍ପତି । *ପ୍ରସ୍ତୁତି: ✍ ମହିମା ସାଗର ସାହୁ*
Kisee vastu ka moolye gun ke aadhar par aanka jaata hai.
27-07-2021
Yadi koi aadami keet patang ko maar de to use faaseen kee sajaa nahee hotee ' yadi manushye ko maar de to faaseen kee saja milatee hai. Bas yahee antar hai gaaye Aur kutte aadi main. Rahee baat gaaye ko maata kahane kee to is baat ko wah samajh sakataa hai Jo shareer Aur Aatmaa ka bhed jaa nata ho ' Sharee ke nirmaan kee vidhi ko samajhata ho. Kahaan Tak likhoon vishaye lambaa hai.
‘ईश्वर के सत्यस्वरूप के ज्ञान तथा वेद प्रचार से युक्त जीवन ही सर्वोत्तम एवं श्रेयस्कर है’
26-07-2021
ओ३म् ========== हम वर्तमान में मनुष्य हैं। हम इससे पहले क्या थे और परजन्म में क्या होंगे, हममें से किसी को पता नहीं। यह सुनिश्चित है कि इस जन्म से पूर्व भी हमारा अस्तित्व था और मृत्यु के बाद भी हमारी आत्मा का अस्तित्व रहेगा। हमारी विशेषता है कि हमारे पास अन्य पशु-पक्षियों से भिन्न प्रकार के दो हाथ, दो पैर और सत्यासत्य का विवेचन करने वाली बुद्धि विद्यमान है। मनुष्य को मनुष्य शरीर संसार में सर्वव्यापक रूप से विद्यमान सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वज्ञ एवं सर्वशक्तिमान परमेश्वर से ही प्राप्त होता है। ईश्वर के अतिरिक्त संसार में चेतन जीवात्मा और जड़ प्रकृति का अनादिकाल से अस्तित्व है जो कभी नाश अथवा अभाव को प्राप्त नहीं होता। ईश्वर अनादि, नित्य, अजन्मा, अमर तथा अनन्त स्वरूप वाली सत्ता वा पदार्थ है। महाभारत युद्ध के बाद देश व विश्व में ईश्वर के सत्यस्वरूप को लेकर अनेकानेक भ्रान्तियों सहित अनेक मिथ्या मत व मान्यतायें प्रचलित हो गयीं थी। इस काल में संसार के लोग ईश्वर के सनातन सत्यस्वरूप से परिचित वा अभिज्ञ नहीं थे। इस कारण मनुष्य जाति को ईश्वर द्वारा मनुष्य को जन्म देने के उद्देश्य व उसके कर्तव्यों का सत्य व यथार्थ ज्ञान भी नहीं था। इस अज्ञान व इससे जुड़ी भ्रान्तियों का समाधान ऋषि दयानन्द ने अपने अपूर्व पुरुषार्थ एवं ज्ञान पिपासा की पूर्ति कर प्राप्त किया था। ऋषि दयानन्द ईश्वर के सत्यस्वरूप को जानने सहित मृत्यु पर विजय प्राप्त करने के लिए ही अपने मातृ-पितृ गृह का त्याग कर ईश्वर के सत्यस्वरूप को जाननेवाले ज्ञानियों की खोज में देश-देशान्तर में घूमे थे। अनेक प्रयत्न करने पर भी ऋषि दयानन्द को देश में ऐसा कोई गुरु प्राप्त नहीं हुआ था जो ईश्वर के सत्यस्वरूप विषयक उनकी जिज्ञासाओं को दूर करता। ऋषि दयानन्द ने भी बिना निराश हुए सत्यज्ञान की खोज के अपने प्रयत्न छोड़े नही थे। वह एक स्थान के बाद दूसरे स्थान का चयन कर वहां जाते और वहां धार्मिक गुरुओं व विद्वानों से मिलते थे और उनका सत्संग व संगति कर उनसे उपलब्ध ज्ञान को प्राप्त करते थे। ऐसा करते हुए वह एक उच्च कोटि के योगी बने जिन्हें समाधि सिद्ध हुई थी। समाधि सिद्ध योगी को समाधि अवस्था में ईश्वर का साक्षात्कार हुआ करता है। सौभाग्य से स्वामी दयानन्द को संन्यास देने वाले आचार्य व संन्यासी स्वामी पूर्णानन्द जी से अपने एक शिष्य स्वामी विरजानन्द सरस्वती, मथुरा का पता ज्ञात हुआ था। वह सन् 1860 में विद्याध्ययन हेतु उनकी शरण में पहुंचे थे और उनका शिष्यत्व प्राप्त किया था। अद्वितीय गुरु विरजानन्द सरस्वती के चरणों में तीन वर्ष तक रहकर उन्होंने उनसे वेद-वेदांगों व व्याकरण का ज्ञान प्राप्त किया था। इससे उन्हें ज्ञान के आदि स्रोत ईश्वर प्रदत्त ज्ञान चार वेदों की जानकारी सहित वेदार्थ वा वेदों के सत्यार्थ की कुंजी अष्टाध्यायी-महाभाष्य एवं निरुक्त पद्धति का ज्ञान हुआ था। गुरु जी के पास रहकर उनको इस विद्या का प्रायः सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त हुआ। उनकी योग विद्या, योगाभ्यास में प्रवीणता एवं समाधि अवस्था की प्राप्ति भी वेदों के सत्य वेदार्थ जानने में उनकी सहयोगी बनीं थी। ऐसा करके वह वेदों के यथार्थस्वरूप एवं वेद के मन्त्रों के सत्य अर्थों को जानने में समर्थ हुए थे। अपने गुरु स्वामी विरजानन्द सरस्वती जी की प्रेरणा से उन्होंने अपने जीवन का लक्ष्य अज्ञान, अन्धविश्वास, पाखण्ड, कुप्रथाओं के निवारण सहित सामाजिक असमानताओं को दूर करने को बनाया था। उनका मुख्य उद्देश्य मनुष्य समाज की अविद्या को हटाकर सबको विद्या के ज्ञानसमुद्र में स्नान कराना था। इससे जहां ऋषि दयानन्द स्वयं लाभान्वित हुए थे वहीं उन्होंने सारे संसार को भी लुप्त व अनुपलब्ध ईश्वर, आत्मा और सृष्टि उत्पत्ति के ज्ञान से आलोकित व लाभान्वित किया था। ऋषि दयानन्द ने अज्ञान व अन्धविश्वास आदि को दूर करने के लिए वेदों के सत्यस्वरूप व सत्य वैदिक मान्यताओं का देश भर में प्रचार किया। उनकी सभी मान्यतायें एवं सिद्धान्त तर्क एवं युक्तियों पर आधारित होने सहित अकाट्य तथ्यों पर आश्रित थे। उन्होंने वेद विरुद्ध असत्य मान्यताओं व अज्ञान का खण्डन तथा वेदानुकूल विचारों व मान्यताओं का मण्डन किया था। उन्होंने बताया कि संसार में तीन पदार्थ अनादि व नित्य हैं। ये तीन पदार्थ हैं ईश्वर, जीव एवं प्रकृति। उन्होंने इन तीनों पदार्थों की सत्ताओं का सत्यस्वरूप अपने ग्रन्थ मुख्यतः सत्यार्थप्रकाश में विवेचनापूर्वक प्रस्तुत किया है जिससे कोई भी पाठक इन्हें समझ व जान सकता है। ऋषि दयानन्द ने ईश्वर को आर्यसमाज के दूसरे नियम, स्वमन्तव्यामन्तव्य प्रकाश तथा आर्योद्देश्यरत्नमाला में परिभाषित किया है। उनके सभी ग्रन्थों में ईश्वर के सत्यस्वरूप की विस्तारपूर्वक चर्चा हुई है। सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, आर्याभिविनय, वेदभाष्य आदि ग्रन्थों का अध्ययन कर ईश्वर के प्रायः सभी व अधिकांश सत्यस्वरूप से परिचित हुआ जा सकता है। हम यहां ईश्वर के सत्यस्वरूप पर संक्षेप में प्रकाश डाल रहे हैं। सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ में वह लिखते हैं ‘ईश्वर सच्चिदानन्द-स्वरुप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। उसी की उपासना करनी योग्य है।’ स्वमन्तव्यामन्तव्य प्रकाश में वह कहते हैं कि ‘ईश्वर’ कि जिस के ब्रह्म परमात्मादि नाम हैं, जो सच्चिदानन्दादि लक्षणयुक्त है, जिसके गुण, कर्म, स्वभाव पवित्र हैं। जो सर्वज्ञ निराकार, सर्वव्यापक, अजन्मा, अनन्त, सर्वशक्तिमान्, दयालु, न्यायकारी, सब सृष्टि का कर्ता, धर्ता, हर्ता, सब जीवों को कर्मानुसार सत्य न्याय से फलदाता आदि लक्षणयुक्त है, उसी को परमेश्वर मानता हूं।’ लघुग्रन्थ आर्योद्देश्यरत्नमाला में ऋषि दयानन्द लिखते हैं ‘जिसके गुण-कर्म-स्वभाव और स्वरूप सत्य ही हैं, जो केवल चेतनमात्र वस्तु है तथा जो एक, अद्वितीय, सर्वशक्तिमान्, निराकार, सर्वत्र व्यापक, अनादि और अनन्त, सत्यगुणवाला है, और जिसका स्वभाव अविनाशी, ज्ञानी, आनन्दी, शुद्ध, न्यायकारी, दयालु और अजन्मादि है, जिसका कर्म जगत् की उत्पत्ति, पालन और विनाश करना तथा सब जीवों को पाप-पुण्य के फल ठीक-ठीक पहुंचाना है, उसको ‘ईश्वर’ कहते हैं।’ ऋषि दयानन्द द्वारा उपर्युक्त पंक्तियों में ईश्वर का यथार्थ व सत्यस्वरूप प्रस्तुत किया गया है। वेदाध्ययन सहित उपनषिद, दर्शन आदि ग्रन्थों से भी ईश्वर का यही स्वरूप प्राप्त होता है। ईश्वर के गुणों व स्वरूप का चिन्तन मनन करने से भी यही स्वरूप सत्य सिद्ध होता है। अतः संसार के सभी मनुष्यों को अपने हित व लाभ के लिए भी ईश्वर के इसी स्वरूप को मानना चाहिये। जिस मनुष्य को ईश्वर के इस स्वरूप में कहीं भ्रम व शंका हो, उसे वैदिक विद्वानों से दूर कर लेना चाहिये। ईश्वर का सत्यस्वरूप जान लेने के बाद मनुष्य को अपने कर्तव्यों का ज्ञान प्राप्त करना चाहिये। इसे भी हम वैदिक साहित्य और मुख्यतः सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ से जान सकते हैं। मनुष्य का प्रमुख कर्तव्य ईश्वर के सत्यस्वरूप को जानना, वेदों का अध्ययन करना और सत्य वेदार्थ को प्राप्त होना है। सत्य वेदार्थ को प्राप्त होकर मनुष्य को अपना कर्तव्य बोध हो जाता है। इस आधार पर मनुष्य का कर्तव्य ईश्वर की प्रतिदिन स्तुति, प्रार्थना व उपासना करना, दैनिक अग्निहोत्र करने सहित पंच महायज्ञों को करना है। मनुष्य ब्रह्मचर्य, गृहस्थ तथा वानप्रस्थ आदि जिस आश्रम में भी हो, उसे उस आश्रम के कर्तव्यों को करते हुए अपनी अविद्या को दूर करने के साथ अपने ज्ञान को बढ़ाते जाना तथा परोपकार आदि से युक्त कर्मों को करना है। मनुष्य के सांसारिक जीवन में भी पवित्रता होनी चाहिये। वह सभी प्रकार का ज्ञान व विज्ञान पढ़े तथा सभी प्रकार के कामों को शुद्ध हृदय व पवित्र भावनाओं से युक्त होकर करे। देश और समाज के हित सहित परहित का ध्यान रखे। यम व नियमों का पालन करे। इन कार्यों को करने के साथ मनुष्य का कर्तव्य होता है कि वह अपने ज्ञान का सदुपयोग कर अपने सभी बन्धुओं की भी अविद्या वा अज्ञान को दूर करे। इसके लिए उसे संसार में सर्वोत्तम अमृत के समान वेदज्ञान के अनुसार देश व समाज लोगों को शिक्षित करना होता है। उन्हें वेद, उपनिषद, दर्शन, मनुस्मृति, रामायण तथा महाभारत आदि ग्रन्थों सहित उन शास्त्रों की शिक्षाओं का ज्ञान कराना होता है। ऐसा करने ये अल्पज्ञानी लोगों को लाभ होता है और ऐसे कार्यों से वेदज्ञान प्रचारक के पुण्य कर्म जो वर्तमान व भविष्य सहित परजन्म में सुख व आत्मा की उन्नति के लिए लाभकारी होते हैं, उन कर्मों वा सुखों का संचय होता है। वैदिक सिद्धान्त है कि वैदिक आचरण से मनुष्य को धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष की प्राप्ति होती है। मोक्ष का अर्थ आत्मा को होने वाले सभी प्रकार के दुःखों की मुक्ति होती है। यह केवल वेदाचरण करते हुए परोपकारमय जीवन व्यतीत करने से ही होती है। यदि जीवन में एक भी अशुद्ध आचरण होगा तो मनुष्य को उस अशुभ वा पाप कर्म को भोगना ही होगा जिससे उसकी मोक्ष प्राप्ति में बाधा आती है। अतः किसी भी मनुष्य को जीवन में कोई अवैदिक एवं अशुभ कर्म नहीं करना चाहिये और वेदाध्ययन करते हुए सभी वैदिक शुभ कर्मों को अधिकाधिक करना चाहिये। ऐसा करने में मनुष्य जीवन की सफलता होती है। हम देखते हैं कि प्राचीन काल में हमारे ऋषि, मुनि, योगी एवं विद्वान वेदाचरण, सत्याचरण व धर्माचरण किया करते थे। यह सब कार्य धर्म के पर्याय हैं। सामाजिक व्यवस्था में भी सभी आश्रम के लोग वैदिक धर्म का पूर्णतया पालन करते थे। राजा का कार्य भी प्रजा को वेदाध्ययन एवं वेदानुकूल आचरण में प्रवृत्त करना ही होता था। इसी से देश व समाज सहित मनुष्य की व्यक्तिगत उन्नति होती थी। उन्नीवसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में उत्पन्न ऋषि दयानन्द का जीवन एक महान पुरुष का आदर्श जीवन था। उनके प्रमुख शिष्यों का जीवन भी उन्हीं के अनुरूप वैदिक धर्म का पूर्णतया पालन करते हुए लोकोपकार के कार्यों को करने में ही व्यतीत हुआ। ऐसा ही सबको करना व होना चाहिये। हमें आधुनिक विषयों का ज्ञान प्राप्त करने सहित संस्कृत व हिन्दी भाषा का ज्ञान प्राप्त करना चाहिये। सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, वेदभाष्य सहित उपनिषद एवं दर्शन आदि ग्रन्थों का भी हमें अध्ययन करना चाहिये। ऐसा करने ये ही हमारा जीवन सफल होगा और हमारा सनातन वैदिक धर्म एवं संस्कृति बच सकेगी। अतः सफल एवं आदर्श जीवन व्यतीत करते हुए हमें अपने जीवन में सभी उचित कार्यों को करते हुए वेदाध्ययन एवं वेद प्रचार के कार्यों को भी करना चाहिये। इतिहास में महान व्यक्तियों में ऋषि दयानन्द का जीवन आदर्श एवं अनुकरणीय है। हमें उनसे प्रेरणा लेनी चाहिये। ओ३म् शम्। -मनमोहन कुमार आर्य
अथर्ववेद विवरण
24-07-2021
अथर्ववेद धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की साधनों की कुन्जी है। जीवन एक सतत संग्राम है। अथर्ववेद जीवन-संग्राम में सफलता प्राप्त करने के उपाय बताता है। अथर्ववेद युद्ध और शान्ति का वेद है। शरीर में शान्ति किस प्रकार रहे, उसके लिए नाना प्रकार की औषधियों का वर्णन इसमें है। परिवार में शान्ति किस प्रकार रह सकती है, उसके लिए भी दिव्य नुस्खे इसमें हैं। राष्ट्र और विश्व में शान्ति किस प्रकार रह सकती है, उन उपायों का वर्णन भी इसमें है। यदि कोई देश शान्ति को भंग करना चाहे तो उससे किस प्रकार युद्ध करना, शत्रु के आक्रमणों से अपने को किस प्रकार बचाना और उनके कुचक्रों को किस प्रकार समाप्त करना, इत्यादि सभी बातों का विशद् वर्णन अथर्ववेद में है। @ Vedic Vichar
सामवेद विवरण
24-07-2021
इस वेद में कुल 1875 मन्त्र संग्रहित हैं। उपासना को प्रधानता देने के कारण चारों वेदों में आकार की दृष्टि से लघुतम सामवेद का विशिष्ट महत्व है। श्रीमद्भगवद्गीता स्वविभूतियों का उल्लेख करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण ने स्वयं को वेदों में सामवेद कहकर इसकी महिमा का मण्डन किया है – "वेदानां सामवेदोऽस्मि।(श्रीमद्भगवद्गीता 10/22)- वेदों में मैं सामवेद हूँ।" @ Vedic Vichar
सामवेद विवरण
24-07-2021
इस वेद में कुल 1875 मन्त्र संग्रहित हैं। उपासना को प्रधानता देने के कारण चारों वेदों में आकार की दृष्टि से लघुतम सामवेद का विशिष्ट महत्व है। श्रीमद्भगवद्गीता स्वविभूतियों का उल्लेख करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण ने स्वयं को वेदों में सामवेद कहकर इसकी महिमा का मण्डन किया है – "वेदानां सामवेदोऽस्मि।(श्रीमद्भगवद्गीता 10/22)- वेदों में मैं सामवेद हूँ।" @ Vedic Vichar
यजुर्वेद विवरण
24-07-2021
जो कर्मकांड है, सो विज्ञान का निमित्त और जो विज्ञानकांड है, सो क्रिया से फल देने वाला होता है। कोई जीव ऐसा नहीं है कि जो मन, प्राण, वायु, इन्द्रिय और शरीर के चलाये बिना एक क्षण भर भी रह सके, क्योंकि जीव अल्पज्ञ एकदेशवर्त्ती चेतन है। इसलिये जो ईश्वर ने ऋग्वेद के मन्त्रों से सब पदार्थों के गुणगुणी का ज्ञान और यजुर्वेद के मन्त्रों से सब क्रिया करनी प्रसिद्ध की है, क्योंकि (ऋक्) और (यजुः) इन शब्दों का अर्थ भी यही है कि जिससे मनुष्य लोग ईश्वर से लेके पृथिवीपर्यन्त पदार्थों के ज्ञान से धार्मिक विद्वानों का संग, सब शिल्पक्रिया सहित विद्याओं की सिद्धि, श्रेष्ठ विद्या, श्रेष्ठ गुण वा विद्या का दान, यथायोग्य उक्त विद्या के व्यवहार से सर्वोपकार के अनुकूल द्रव्यादि पदार्थों का खर्च करें, इसलिये इसका नाम यजुर्वेद है। और भी इन शब्दों का अभिप्राय भूमिका में प्रकट कर दिया है, वहां देख लेना चाहिये, क्योंकि उक्त भूमिका चारों वेद की एक ही है॥ इस यजुर्वेद में सब चालीस अध्याय हैं, उन एक-एक अध्याय में कितने-कितने मन्त्र हैं, सो पूर्व संस्कृत में कोष्ठ बनाके सब लिख दिया है और चालीसों अध्याय के सब मिलके १९७५ (उन्नीस्सौ पचहत्तर) मन्त्र हैं॥ @ Vedic Vichar
ऋग्वेद विवरण
24-07-2021
इस ऋग्वेद से सब पदार्थों की स्तुति होती है अर्थात् ईश्वर ने जिसमें सब पदार्थों के गुणों का प्रकाश किया है, इसलिये विद्वान् लोगों को चाहिये कि ऋग्वेद को प्रथम पढ़के उन मन्त्रों से ईश्वर से लेके पृथिवी-पर्य्यन्त सब पदार्थों को यथावत् जानके संसार में उपकार के लिये प्रयत्न करें। ऋग्वेद शब्द का अर्थ यह है कि जिससे सब पदार्थों के गुणों और स्वभाव का वर्णन किया जाय वह ‘ऋक्’ वेद अर्थात् जो यह सत्य सत्य ज्ञान का हेतु है, इन दो शब्दों से ‘ऋग्वेद’ शब्द बनता है। ‘अग्निमीळे’ यहां से लेके ‘यथा वः सुसहासति’ इस अन्त के मन्त्र-पर्यन्त ऋग्वेद में आठ अष्टक और एक एक अष्टक में आठ आठ अध्याय हैं। सब अध्याय मिलके चौसठ होते हैं। एक एक अध्याय की वर्गसंख्या कोष्ठों में पूर्व लिख दी है। और आठों अष्टक के सब वर्ग 2024 दो हजार चौबीस होते हैं। तथा इस में दश मण्डल हैं। एक एक मण्डल में जितने जितने सूक्त और मन्त्र है सो ऊपर कोष्ठों में लिख दिये हैं। प्रथम मण्डल में 24 चौबीस अनुवाक, और एकसौ इक्कानवे सूक्त, तथा 1976 एक हजार नौ सौ छहत्तर मन्त्र। दूसरे में 4 चार अनुवाक, 43 तितालीस सूक्त, और 429 चार सौ उन्तीस मन्त्र। तीसरे में 5 पांच अनुवाक, 62 बासठ सूक्त, और 617 छः सौ सत्रह मन्त्र। चौथे में 5 पांच अनुवाक 58 अठ्ठावन सूक्त, 589 पांच सौ नवासी मन्त्र। पांचमें 6 छः अनुवाक 87 सतासी सूक्त, 727 सात सौ सत्ताईस पैंसठ मन्त्र। 6 छठे में छः अनुवाक, 75 पचहत्तर सूक्त, 765 सात सौ पैंसठ मन्त्र। सातमे में 6 छः अनुवाक, 104 एकसौ चार सूक्त, 841 आठ सौ इकतालीस मन्त्र। आठमे में 10 दश अनुवाक, 103 एकसौ तीन सूक्त, और 1726 एक हजार सातसौ छब्बीस मन्त्र। नवमे में 7 सात अनुवाक 114 एकसौ चौदह सूक्त, 1097 और एक हजार सत्तानवे मन्त्र। और दशम मण्डल में 12 बारह अनुवाक, 191 एकसौ इक्कानवे सूक्त, और 1754 एक हजार सातसौ चौअन मन्त्र हैं। तथा दशों मण्डलों में 85 पचासी अनुवाक, 1028 एक हजार अठ्ठाईस सूक्त, और 10589 दश हजार पांचसौ नवासी मन्त्र हैं। @ Vedic Vichar www.vedicvichar.com
ଗୁରୁ ପୂର୍ଣ୍ଣିମା
23-07-2021
ଓ୩ମ୍ ଆଜି ପବିତ୍ର ଆଷାଢ ମାସର ଗୁରୁ ପୂର୍ଣ୍ଣିମା ଉପଲକ୍ଷେ ସମସ୍ତ ସାଧୁ ସନ୍ଥ ବିଦ୍ବାନ ତଥା ଗୁରୁଜନ ମାନଙ୍କୁ ଅଭିନନ୍ଦନ ଜଣାଉଛି ------- पवित्र गुरु पूर्णिमा के उपलक्ष्य में सभी साधू संन्थ ओर गुरुजनों को हार्दिक अभिनन्दन
यज्ञोपवीत (5)
22-07-2021
यज्ञोपवीत में तीन दन्ड, नौ तन्तु, और पाँच गाँठें होती हैं। यज्ञोपवीत में तीन धागे होते हैं। तीन ही धागे क्यों? इसका भी वैज्ञानिक रहस्य है। हमारे यहाँ तीन की संख्या का बड़ा महत्व है। सत्व, रज, और तम प्रकृति के गुण 3 पृथिवी, अंतरिक्ष, द्यु, लोक भी 3 गार्हपत्य, आहवनीय, और दक्षिण ये अग्नियाँ भी 3 ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य, यज्ञोपवीत के अधिकारी भी 3 अतः यज्ञोपवीत में तीन धागों का होना भी सुसंगत है। - - - - - क्रमश:
सत्य संसार में ना कभी हारता है ना कभी जितता है
22-07-2021
सत्य संसार में ना कभी हारता है ना कभी जितता है क्योंकि सत्य तो परमात्मा है परमात्मा की हार कैसी औऱ जीत कैसी वह तो सदा है सदा से है सदा रहता है औऱ सदा रहेगा । हार औऱ जीत होतीं है व्यक्ति की जिसके जीवन में सत्य है जो सत्य को जीवन में व्यवहार में धारण करता है उसकी सच्ची जीत होती है । जिसके जीवन में असत्य है असत्य का व्यवहार औऱ आचरण है ऐसे व्यक्ति की हार ही होती है वो चाहे भौतिक दुनिया में जीत का नाटक छल कपट से जीत दिखावै लेकिन उसकी आत्मा सब जानती है क्योंकि आत्मा के अंदर. बहार वहीं परमात्मा है । रामायण श्रीराम की लंका विजय सत्य की विजय नहीं थी ये विजय श्रीराम जी की थी उनके जीवन में सत्य का व्यवहार औऱ आचरण था इसलिए विजय भी उन्हीं की थी । महाभारत युद्ध के प्रारंभ में सहायता के लिए दुर्योधन ने श्रीकृष्ण की यदुवंसी सेना लेकर हर्ष का अनुभव किया उधर धनूरधारी अर्जुन द्वारा श्रीकृष्ण को अपना सारथी योद्धा नहीं? सारथी बना कर मार्गदर्शन करने वाला बना कर युद्ध किया औऱ हुआ? परिणाम पांडवों की विजय । श्रीकृष्ण महाराज जी तो अर्जुन को युद्ध से पहले ही कह चूके थे की में युद्ध में हथियार नहीं उठाऊंगा लेकिन सत्य साथ था सत्य सारथी था इसलिए विजय पांडवों की हुई । आप भी यदि विजय चाहते है विजेता बनना चाहते है तो मेरा तेरा इसका उसका नहीं सत्य का आचरण व्यवहार धारण करें फिर विजेता बन आनन्द से जीवन जिये औऱ दूसरों को भी जिने दिया करें । , शैलेश मुनि सत्यार्थी।आर्य वानप्रस्थ आश्रम, हरिद्वार
ओ३म् ईश्वर का मुख्य नाम है।
22-07-2021
ओ३म् ईश्वर का मुख्य नाम है। योग दर्शन [१/२७,२८] में यह स्पष्ट है यह ओ३म् शब्द तीन अक्षरों से मिलकर बना है- अ, उ, म प्रत्येक अक्षर ईश्वर के अलग अलग नामों को अपने में समेटे हुए है. जैसे “अ” से व्यापक, सर्वदेशीय, और उपासना करने योग्य है. “उ” से बुद्धिमान, सूक्ष्म, सब अच्छाइयों का मूल, और नियम करने वाला है. “म” से अनन्त, अमर, ज्ञानवान, और पालन करने वाला है। ये तो बहुत थोड़े से उदाहरण हैं जो ओ३म् के प्रत्येक अक्षर से समझे जा सकते हैं। वास्तव में अनन्त ईश्वर के अनगिनत नाम केवल इस ओ३म् शब्द में ही आ सकते हैं। .... @ Vedic Vichar
गरीब बच्चों को भी पढने की उच्च व्यवस्था
22-07-2021
गरीब बच्चों को भी पढने की उच्च व्यवस्था D A V Gurukul की तरफ से अपने बच्चों का भविष्य सवारने का सुनहरा मौका कोरोना वायरस और लाक्डाउन के कारण बच्चों का शिक्षा रुक जाने के कारण Bairgania Dav Gurukul ने उच्च शिक्षा देने का प्रयास कर रही हैं धन्यवाद????vice principa Anshika jaiswal Admission open DAV gurukul Bairgania #Director: -SN sastri #principal: -Sanjay Jaiswal #vice_principal :-Anshika jaiswal Contact number: -9341613892
अस्य श्रवो नद्यः
22-07-2021
अस्य श्रवो नद्यः सप्त बिभ्रति द्यावाक्षामा पृथिवी दर्शतं वपुः। अस्मे सूर्याचन्द्रमसाभिचक्षे श्रद्धे कमिन्द्र चरतो वितर्तुरम्॥ ऋग्वेद १-१०२-२।। सातों समुद्र प्रभु की महिमा को दर्शाते हैं। पृथ्वी, आकाश सभी लोक प्रभु की महिमा के प्रकाश को दर्शाते हैं। सूर्य और चंद्र नियम पूर्वक गति कर प्रभु की महिमा को दर्शाते हैं। मनुष्य को चाहिए कि प्रभु के प्रति श्रद्धा अपने हृदय में उत्पन्न करें और उसके नियमों पर चलकर सुख पूर्वक गति करें। The seven seas revealed the glory of the Lord. The earth, the sky etc. all LOKS manifest the glory of the God. The Sun and the Moon revolve along the assigned course as per the law of the God, signify the glory of the Lord. A man should have faith in Him and move happily as per His Laws. (Rig Veda 1-102-2)
This is the real rain map situation across India.
22-07-2021
This is the real rain map situation across India. No we as human as two choise 1 wait for fake goverments fake hope for rains and finally losses seed capability to grow again 2. Improve our Aatmic quality by below actions A. Live with love with all who deserve so B. Serve our parents and Specially Gau Mata C. plant big leaf tress like Banyan tree D. Perform Dev Yage E. Be spiritual and worship ओउम् in our heart F. Give away dongs and show humanity in all acts I will all humans specially on earth go for choise 2 Regards VADIC Raja of Mother Earth
कृण्वन्तो विश्वमार्यम्
22-07-2021
अपने बच्चों को हिंसक, गिरोहबन्द ,और लुटेरा बनाने वालो ! यह आपस में ही लड़ भिड़ कर मारे जाएंगे जब इन्हें गिरोह से बाहर शिकार दिखाई नहीं देगा । कृण्वन्तो विश्वमार्यम्
ଯା' ମନ ଯେପରି ତାଫଳ ସେପରି ଫଳଥୋଇଥାଏ ବିଶ୍ଵ"....
22-07-2021
********************** "ୟତ୍ମନସାଧାୟତି, ତତ୍ବାବାବଦତି, ୟତ୍ ବାଚାବଦତି,ତ୍ କର୍ମଶାକରେ । ତି, ୟତ୍ କର୍ମଣାକରେ।ତି ତତ୍ ଅଭିସମ୍ପଦ୍ୟତେ " ଅର୍ଥାତ୍ ଶରୀର, ମନ,ଇନ୍ଦ୍ରିୟ ସ୍ୱାମୀ ଜୀବତ୍ମା ଯେପରି ବିଚାର କରେ ସେହିପରି ବାଣୀରେ ପ୍ରକାଶ କରେ ଏବଂ ଯେଉଁ ଶୁଭ ବା ଅଶୁଭକର୍ମ କରେ ସେହି ଫଳପ୍ରାପ୍ତ ହୁଏ । ଏଣୁ ସୁଖ ଓ ଦୁଃଖର ଉତ୍ପାଦକ ସ୍ଵୟମ୍ ହିଁ ଅଟେ । @ Raja Kishor Sahu, Rayagada
କର୍ମଫଳକୁ ପ୍ରାଧାନ୍ୟ ନଥାଇ ଭକ୍ତିମାର୍ଗ ର କିଛି ଭ୍ରମିତ ବାକ୍ୟ
22-07-2021
******************** ୧. ସବୁ ତା'ର ମାୟା ଓ ସବୁ ଈଶ୍ଵରଙ୍କ ଇଚ୍ଛାରେ ହୁଏ । ଏପରି ଗଛର ପତ୍ର ହେଲେନାହିଁ। ୨. ହରିନାମରେ ଏତେ ଶକ୍ତି, 'lପାପ ନକରିପାରେ ଏତେ ପାପୀ । । ୩.ଦୋଳେଷୁ ଦୋଳଗୋବିନ୍ଦମ୍, ଚା6ପଷୁମଧୂସୂଦନ ମ୍, Iରଥେ ଚ ବାମନ ଦୃଷ୍ଟା ପୁନଃ ଜନ୍ମ ନ ବିଦ୍ୟତେ । ୪. ବିଶ୍ଵାସେ ମିଳଇ ହରିତର୍କେ ବହୁ ଦୂର। ୫. ଦଇବ ଦଉଡ଼ି ମଣିଷ ଗାଇ,ଯେଣିକି ଟାଣିବ ସେଣିକି ଯାଇ । ୬. କରି କରାଉ ଥାଏ ମୁହିଁ ।ମୋବିନୁ ଆନ ଗତି ନାହିଁ. II ୭. ତାହାର କୃପାବଳେ, ପଙ୍ଗୁ ଗିରି ଲଙ୍ଘନ କରିପାରେ। ୮. ଯାହାକୁ ରଖିବେ ଅନନ୍ତ । କି କରିପାରେ ବଳବନ୍ତ । ୯.ତୀର୍ଥ, ଉପବାସ, ଭଜନ, କୀର୍ତ୍ତନ ଓ ରୁଦ୍ରା ଭିଷେକରେ ପାପ ନାଶ ହୁଏ । ୧୦.ବଳି, ଗୁଣୀ, ଗାରେଡ଼ି, ଫଳିତ ଜ୍ୟୋତିଷ ବିଦ୍ୟା ଦ୍ଵାରା ଗ୍ରହଶାନ୍ତି, ଡେଉଁରିଆ, ପବିଜ, ବିଭିନ୍ନ ଧାତୁ ନିର୍ମିତ ମୁଦ୍ରିକା ଦ୍ଵାରା ମଣିଷର ର୍ଦୁଭାଗ୍ୟକୁ ସୌଭାଗ୍ୟରେ ପରିଣତ କରି ହୁଏ । ଏ ସବୁ ଜୀବାତ୍ମା ର କର୍ମ କରିବାରେ ସ୍ଵତନ୍ତ୍ର ନ ଥିବାରୁ ଫଳ ଅଯଥାରେ ଭୋଗ କରୁଥିବା କୁ ବୁଝାଏ । ଯଦି ଇଶ୍ଵର କରୁଛନ୍ତି ସେ ଭୋଗ କରନ୍ତୁ,ଆମେ ମଣିଷକାହିଁକି ଭୋଗ କରିବୁ? ଏଣୁଏହି ବାକ୍ୟଗୁଡିକ ଓ କାର୍ଯ୍ୟ ଗୁଡିକ ଅବୈଦିକ ଅଟେ । @#vedic vichar
ଜନନୀ କେବେ ଭଗିନୀ କେବେ ସେ' ପୁଣି ଜାୟା
22-07-2021
ଝିଅକୁ ହୀନ ମଣିବା ପରା ଜଘନ୍ଯ ଅପରାଧ, ତଥାପି କିଆଁ ଚିଲିଚି ତାହା ନ ହୋଇ ଜମା ରୋଧ। ରୁପ ଗୁଣରେ ପୁଅ ପିଲା ତ ' ନ ହେବ ତାର ସରି , ଦୁହିତା ସିଏ ଦୁଇ କୂଳକୁ ରଖେ ଉଜ୍ଜଳ କରି ।ସରବସହା ହୋଇଣ ସିଏ ରଚେ ନୁଆ ଇତିହାସ,ସବୁ ବ୍ଯଥା କୁ ଅନ୍ତରେ ଚାପି ପରୁଶୁ ଥାଏ ହସ।ପାଠ ,ସାଠରେ କର୍ମ କୁଶଳେ ସେ 'ଅଟେ ଏକ ନମ୍ବର,ହୀନ ନମଣି ମଣିଷ ଜାତି ତାହାକୁ କର ଆଦର।କେବେ ଜନନୀ କେବେ ଭଗିନୀ କେବେ ସେ' ପୁଣି ଜାୟା , ତାହାରି ଦାନେ ସଂସାର ସାରା ସୁଖ ଶାନ୍ତି ନିରାମୟା।
कल्याण मार्ग का पथिक
21-07-2021
अपनी आत्मकथा “कल्याण मार्ग का पथिक” ऋषि दयानन्द सरस्वती के चरणों में सादर समर्पित करते हुवे स्वामी श्रद्धानन्द जी के मार्मिक शब्द… मैं तुम्हारा ऋणी हूँ; उस ऋण मे मुक्त होना चाहता हूँ… “ऋषिवर! तुम्हें भौतिक शरीर त्यागे ४१ वर्ष हो चुके, परन्तु तुम्हारी दिव्य मूर्ति मेरे हृदय-पटल पर अब तक ज्यों-की-त्यों अंकित है। मेरे निर्बल हृदय के अतिरिक्त कौन मरणधर्मा मनुष्य जान सकता है कि कितनी बार गिरते-गिरते तुम्हारे स्मरण मात्र ने मेरी आत्मिक रक्षा की है। तुमने कितनी गिरी हुई आत्माओं की काया पलट दी, इसकी गणना कौन मनुष्य कर सकता है? परमात्मा के बिना, जिनकी पवित्र गोद में तुम इस समय विचर रहे हो, कौन कह सकता है कि तुम्हारे उपदेशों से निकली हुई अग्नि ने संसार में प्रचलित कितने पापों को दग्ध कर दिया है? परन्तु अपने विषय में मैं कह सकता हूँ कि तुम्हारे सत्संग ने मुझे कैसी गिरी हुई अवस्था से उठाकर सच्चा जीवन-लाभ करने के योग्य बनाया?”...... “मैं क्या था इसे इस कहानी में मैंने छिपाया नहीं। मैं क्या बन गया और अब क्या हूँ, वह सब तुम्हारी कृपा का ही परिणाम है। इसलिए इससे बढकर मेरे पास तुम्हारी जन्म-शताब्दी पर और कोई भेंट नहीं हो सकती कि तुम्हारा दिया आत्मिक जीवन तुम्हें ही अर्पण करुं। तुम वाणी द्वारा प्रचार करनेवाले केवल तत्ववेत्ता ही न थे, परन्तु जिन सच्चाइयों का तुम संसार में प्रचार करना चाहते थे उनको क्रिया में लाकर सिद्ध कर देना भी तुम्हारा ही काम था। भगवान् कृष्ण की तरह तुम्हारे लिए भी तीनों लोकों में कोई कर्तव्य शेष नहीं रह गया था, परन्तु तुमने भी मानव-संसार को सीधा मार्ग दिखाने के लिए कर्म की उपेक्षा नहीं की”..... “भगवन् ! मैं तुम्हारा ऋणी हूँ; उस ऋण मे मुक्त होना चाहता हूँ। इसलिए जिस परमपिता की असीम गोद में तुम परमानन्द का अनुभव कर रहे हो, उसी से प्रार्थना करता हूँ कि मुझे तुम्हारा सच्चा शिष्य बनने की शक्ति प्रदान करे” । ............. - श्रद्धानन्द
माता पिता को समर्पित कविता
20-07-2021
पता नहीं कैसे पत्थर की मूर्ति के लिए घर में जगह बना लेते हैं वो लोग जिनके घर में साक्षात् भगवान अर्थात् माता पिता रूपी जीती जागती मूर्ति के लिए कोई स्थान नहीं होता आज मेरे माता पिता के वैवाहिक वर्षगांठ के शुभ अवसर पऱ कुछ पंक्तियाँ संसार के प्रत्येक माता पिता के प्रति समर्पित करती हूँ... और सावधान करती हूँ उन लोगों को जिन्हें सिर्फ माता पिता की संपत्ति से प्रेम है और जो माता पिता को देखना भी पसंद नहीं करते.. चिंता न करें कल ये दिन उन्हें भी अवश्य देखने पड़ेंगे और धन्यवाद करती हूँ उन लोगों का जो न केवल अपने माता पिता अपितु संसार के सभी बुजुर्गो का सम्मान करते हैं
“वेदों का महत्व एवं उनके प्रचार मे मुख्य बाधायें"
19-07-2021
ओ३म् ========= संसार में जड़ व चेतन अथवा भौतिक एवं अभौतिक दो प्रकार के पदार्थ हैं। भौतिक पदार्थों का ज्ञान विज्ञान के अध्ययन के अन्तर्गत आता़ है। अभौतिक पदार्थों में दो चेतन सत्ताओं ईश्वर एवं जीवात्मा का अध्ययन आता है। दोनों ही सूक्ष्म पदार्थ होने से हमें आंखों से दिखाई नहीं देते। जीवात्मा के अस्तित्व का अनुभव एवं प्रमाण अनेक प्रकार के प्राणियों के शरीरों में होने वाली क्रियाओं को देखकर होता है। परमात्मा मनुष्यों की तरह शरीरधारी नहीं है, अतः निराकार एवं सूक्ष्मतम सत्ता होने के कारण इसे आंखों व सूक्ष्मदर्शी यन्त्रों से नहीं देखा जा सकता। हम सृष्टि को देखकर और इसके सूर्य, चन्द्र, पृथिवी, अग्नि, वायु, जल आदि विशिष्ट रचनाओं को देखकर किसी एक ईश्वरीय व दैवीय सत्ता के होने का अनुमान व प्रत्यक्ष करते हैं जिसने सृष्टि के सूर्य, चन्द्र आदि अपौरुषेय रचनाओं को अस्तित्व प्रदान किया है। संसार की रचना एवं इसका पालन करने वाली ईश्वरीय सत्ता का पूर्ण ज्ञानयुक्त एवं सर्वशक्तिमान होना भी सभी चिन्तक एवं विचारक विद्वत्समुदाय अनुभव करते हैं। सृष्टि में सबसे पुरानी ज्ञान की पुस्तकों पर दृष्टि डालें तो ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद एवं अथर्ववेद विश्व की सबसे प्राचीन पुस्तकें निश्चित होती हैं। वेदों में जो ज्ञान है वह ईश्वर की अपनी भाषा वैदिक संस्कृत में दिया गया है। लौकिक संस्कृत भाषा एवं वेदों की संस्कृत भाषा में व्याकरण एवं अनेक बातों का अन्तर है। वैदिक ऋषि परम्परा से ज्ञात होता है कि वेद अपौरूषेय ग्रन्थ हैं। वेदों का रचयिता इस सृष्टि में निराकार स्वरूप से विद्यमान सत्ता परमात्मा है। वेद में निहित समस्त ज्ञान सत्य विद्याओं का पर्याय है। ऋषि दयानन्द एक ऋषि थे। उन्होंने ईश्वर का समाधि अवस्था में साक्षात्कार किया था। उन्होंने भी वेदों की परीक्षा कर बताया है कि वेद सब सत्य विद्याओं की पुस्तक हैं। वेद एवं ऋषिकृत वैदिक साहित्य में ईश्वर, जीवात्मा तथा कर्म-फल सिद्धान्त का तर्क एवं युक्ति से पुष्ट यथार्थ वर्णन मिलता है। ऐसा वर्णन संसार के किसी मत-मतान्तर के ग्रन्थ में उपलब्ध नहीं होता। वेदाध्ययन से ज्ञात होता है कि मनुष्य का धर्म व कर्तव्य सत्य ज्ञान की प्राप्ति करना व उसके अनुरूप आचरण करना है। अविद्या का त्याग भी ज्ञान प्राप्ति में निहित होता है। यदि हम ज्ञान प्राप्त होकर भी अज्ञान व अन्धविश्वास के कामों को करते हैं, तो हमारा ज्ञानी होना लाभप्रद व हितकारी नहीं होता। हमें व संसार के सभी लोगों को अपनी अविद्या का त्याग करना है तभी वह मनुष्य कहलाने के अधिकारी हो सकते हैं। वेदों का अध्ययन करने से मनुष्य विद्वान, अविद्या से पृथक एवं विद्या से युक्त होता है। ऋषि विद्वानों की वह कोटि है जो पूर्ण योगी होते हंै, जिन्हें ईश्वर का साक्षात्कार हुआ होता है तथा जो वेदों के सभी मन्त्रों के अर्थों को यथार्थ रूप में जानते व उनका प्रचार करते हैं। ऋषियों की यह प्रमुख विशेषता होती है कि वह अपने सभी स्वार्थों का त्याग कर देते हैं और परमार्थ के लिये ही अपने जीवन को अर्पित करते हैं। ऐसे ऋषियों में ऋषि दयानन्द का अग्रणीय व प्रमुख स्थान है। ऋषि दयानन्द बाल ब्रह्मचारी, सच्चे योगी, ईश्वर का साक्षात्कार किये हुए, स्वार्थों से ऊपर उठे हुए तथा परमार्थ में ही जीवन व्यतीत करने वाले, वेदों के सच्चे ज्ञानी व उसके सभी मन्त्रों के अर्थों के ज्ञाता विद्वान थे। उन्होंने वेदों पर भाष्य सहित मानव जीवन का मार्गदर्शन करने के लिए सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय आदि अनेक ग्रन्थ प्रदान किये हैं। इन सभी ग्रन्थों का अध्ययन एवं आचरण कर मनुष्य जीवन के उद्देश्य व लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। इसके विपरीत व इसकी उपेक्षा करने वाला व्यक्ति जीवन के उद्देश्य व लक्ष्य से भटक जाता है और कर्म-फल सिद्धान्त के अनुसार उसे जन्म-जन्मान्तर में अनेक कष्टों व दुःखों सहित पशु-पक्षियों आदि योनियों में जन्म लेकर दुःःख भोगने पड़ते हैं। संसार से धार्मिक एवं सामाजिक अज्ञान व अविद्या दूर करने का प्रमुख उपाय व साधन वेदों के ज्ञान व मान्यताओं आदि का प्रचार व प्रसार है। ऋषि दयानन्द ने वेदों का प्रचार करने सहित समस्त वैदिक मान्यताओं को लेखबद्ध करने एवं वेदों के अधिकांश भाग पर भाष्य व टीका भी प्रदान की है। उनके अनुगामी विद्वानों ने वेदों के शेष भाग सहित सम्पूर्ण वेदों पर वेदार्थ रूपी भाष्य व टीकायें लिखी हैं जिससे आज हम प्रत्येक मन्त्र के प्रत्येक शब्द का हिन्दी व अंग्रेजी आदि भाषाओं में अर्थ, तात्पर्य एवं भाव जानते व जान सकते हैं। वेदों में जो ज्ञान है वह संसार में किसी मत व सम्प्रदाय के ग्रन्थों सहित इतर किसी विद्वान के ग्रन्थों से सुलभ नहीं होता। ऋषि दयानन्द ईसा की उन्नीसवीं शताब्दी व सृष्टि संम्वत् के अनुसार सृष्टि की उत्पत्ति से 1.96 अरब वर्ष बाद संसार में आये थे। उनके समय में लगभग पांच हजार वर्ष पूर्व हुए महाभारत युद्ध के कारण समस्त संसार में अविद्या फैली थी। किसी मनुष्य को ईश्वर के सत्यस्वरूप का निश्चयात्मक वा निर्दोष ज्ञान नहीं था। कोई मूर्तिपूजा करता था तो कोई ईश्वर को आसमान में मानता था। किसी विद्वान ने यह प्रश्न नहीं किया कि मूर्ति व आसमान में निवास करने वाला ईश्वर संसार को बनाता व चलाता कैसे है? ऋषि दयानन्द ने वेदों के आधार पर सभी प्रश्नों के सत्य-सत्य उत्तर दिये। ईश्वर व आत्मा सहित सृष्टि के उपादान कारण, निमित्त कारण, साधारण कारण एवं सृष्टि उत्पत्ति में मूल प्रकृति से महतत्व, अहंकार, पांच तन्मात्रायें, पंचमहाभूत, सूक्ष्म शरीर आदि की उत्पत्ति पर ऋषि दयानन्द ने अपने ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में प्रकाश डाला है। दर्शन ग्रन्थों में सृष्टि रचना का जो वर्णन किया गया है वह पूर्णतः ज्ञान, विज्ञान, तर्क एवं युक्ति के अनुरूप तथा अज्ञान, अन्धविश्वासों एवं पाखण्डों से सर्वथा रहित है। मनुष्य के जीवन में किस अवस्था में क्या कर्तव्य होते हैं, इन पर भी ऋषि दयानन्द ने विस्तार से प्रकाश डाला है और संस्कारविधि नाम का एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ भी हमें दिया है। ईश्वर की प्रार्थना, उपासना सहित वायु व जल आदि की शुद्धि का पुस्तक पंचमहायज्ञविधि एवं संस्कारविधि का अग्निहोत्र प्रकरण भी उन्होंने तर्क एवं युक्ति के आधार पर प्रस्तुत किया है। ऋषि दयानन्द द्वारा प्रचारित व प्रस्तुत वेद सम्बन्धी ज्ञान को हमारे सभी मतों के आचार्यों को स्वीकार करना था परन्तु अविद्या के प्रसार के चार कारणों यथा अपने प्रयोजन की सिद्धि, हठ, दुराग्रह एवं अविद्यादि दोषों के कारण वेद एवं वैदिक साहित्य की सत्य मान्यताओं को अधिकांश मताचार्यों ने स्वीकार नहीं किया। विज्ञान एवं धर्म-मत-सम्प्रदायों में यही मुख्य भेद है। विज्ञान के विषय में संसार के सभी आचार्य एवं विद्यार्थी विज्ञान के सत्य सिद्धान्तों व नियमों को सहर्ष सोत्साह स्वीकार करते हैं वहीं दूसरी ओर मत-मतानतरों के आचार्य एवं उनके अनुयायी अपनी अविद्यायुक्त बातों का भी त्याग नहीं करते अपितु वह दूसरे मतों के लोगों को लोभ, छल एवं बल के आधार पर अपने मत में सम्मिलित करने के लिए उत्सुक एवं तत्पर रहते हैं। इसी प्रकार देश में अनेक समुदायों ने अपनी-अपनी जनसंख्या में वृद्धि की है और यह क्रम अब भी जारी है। वर्तमान एवं पुरानी सरकारें भी इस प्रक्रिया को रोकने में असफल सिद्ध हुई हैं। मत-मतान्तरों के लोग विधि-विधान को भी तोड़ते मरोड़ते रहते हैं। इन सब कारणों एवं परिस्थितियों में वैदिक सत्य मत संसार में स्थान नहीं पा सका है। मनुष्यों के सत्य मार्ग पर न चलने और असत्य व अविद्यायुक्त मतों व मान्यताओं को मानने व आचरण करने के कारण यदा-कदा अतिवृष्टि, सूखा, भूकम्प, आपदा, बादल फटने जैसी घटनायें भी घटती रहती हैं। आज स्थिति यह है कि कोई व्यक्ति जिस किसी मत में उत्पन्न होता है वह उससे बाहर की सत्य एवं उपयोगी बातों को स्वीकार कर उनका आचरण नहीं कर सकता। उस तक सत्य ज्ञान का प्रकाश पहुंचना ही कठिन व असम्भव प्रायः होता है। विश्व में सभी मत-मतान्तरों का तुलनात्मक अध्ययन करने कराने की व्यवस्था भी नहीं है। ऐसी स्थिति में अविद्या को दूर करना एक कठिन व असम्भव सा कार्य है तथापि ऋषि दयानन्द व उनके कुछ अनुयायियों ने वेद प्रचार के कार्य को तन-मन-धन से किया था व अब भी कर रहे हैं। आज का युग भौतिकवाद का युग है। आज हमारे आध्यात्मिक केन्द्रों में वेद आदि ग्रन्थों को पढ़ने व जानने वाले लोग भी आधुनिक व भौतिकवादी जीवन को जीने में ही गौरव का अनुभव करते हैं। बातें वह अवश्य वेदों व शास्त्रों की करेंगे परन्तु उनके जीवन में वैदिक सिद्धान्त पूर्ण रूप से क्रियान्वित होते दृष्टिगोचर नहीं होते। ऐसी विषम स्थिति में आर्यसमाज के विद्वानों एवं नेताओं को मिलकर इस विषय में चिन्तन कर वेद प्रचार की कोई ठोस योजना तैयार करनी चाहिये। यदि ऐसा नहीं हुआ तो संसार में अविद्या का विस्तार होता रहेगा जिसका परिणाम संसार के सभी लोगों में ‘दुर्भिक्ष, मरणं व भयं’ आदि का आतंक रहेगा। वैदिक धर्म के सिद्धान्त वसुधैव कुटुम्बकम्, सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः, द्यौ शान्तिः, पृथिवी शान्तिः, आपः शान्तिः सहित जियो और जीने दो पर आधारित हैं। केवल इसी से विश्व के सभी लोगों का कल्याण हो सकता है। यह भी एक तथ्य है कि सृष्टि के आरम्भ से महाभारत युद्ध तक तथा उसके कई सौ वर्षों बाद तक संसार में एक वैदिक धर्म ही विद्यमान था। इस कारण वर्तमान के सभी मतों के अनुयायियों व आचार्यों के पूर्वज वैदिक धर्मी ही सिद्ध होते हैं। इस तथ्य को भी मानने के लिये अनेक मतों के आचार्य तैयार नहीं होंगे? अतः वैदिक धर्म के प्रचारक संगठन आर्यसमाज को वेद प्रचार के कार्य को तीव्र गति देनी चाहिये। पूर्ण सत्य पर आधारित ईश्वर से प्राप्त वैदिक धर्म को विश्वधर्म बनने में कुछ शताब्दियों का समय लग सकता है। वेदों का पुनर्जन्म एवं कर्मफल सिद्धान्त सहित ईश्वर व जीवात्मा के स्वरूप एवं जीवन के लक्ष्य मोक्ष व उसकी प्राप्ति के उपायों को जानकर संसार के लोग भविष्य में वैदिक धर्म को ही स्वीकार करेंगे और सुखपूर्वक मनुष्य जीवन व्यतीत करते हुए अपने परजन्म वा अगले जन्म भी सुधारेंगे। ओ३म् शम्। -मनमोहन कुमार आर्य
Arya Samaj
18-07-2021
Arya Samaj (Hindi: आर्य समाज, "Noble Society") is a monotheistic Indian Hindu reform movement that promotes values of based on the belief in the infallible authority of the Vedas. The samaj was founded by Maharishi Dayanand Saraswati on 10 April 1875. Vedic Vichar
जीवन एक प्रतिध्वनि है,
18-07-2021
"जीवन एक प्रतिध्वनि है, यहाँ सब कुछ वापस लौटकर आ जाता हैं, अच्छा, बुरा, झूठ, सच, सम्मान, अपमान....॥ अतः दुनिया को आप सबसे अच्छा देने का प्रयास करें और निश्चित ही सबसे अच्छा आपके पास आएगा " ॥
क्षीणे शरीरे तव चास्ति वासो वसन्ति यत्राप्यसवो ह्यनित्याः। गोभाजमाधेहि विराजमाप्तुं न सन्त्यमूनीह यतश्च पातुम्।।
15-07-2021
ଅର୍ଥ:-- ଦୁର୍ବଳ ଶରୀରରେ ତୁମର ବାସ, ଯେଉଁଠାରେ ଅନିତ୍ୟପ୍ରାଣଗୁଡିକ ବାସକରନ୍ତି। ବିରାଟପୁରୁଷକୁ ପାଇବାପାଇଁ ବାଣୀଗୁଡିକୁ ସେବାକରୁଥିବା ବେଦକୁ ଧାରଣକର। ଯେହେତୁ ସେଗୁଡିକ ( ଦୁର୍ବଳଶରୀର ଓ ଅନିତ୍ୟ ପ୍ରାଣ) ଏଠାରେ ରକ୍ଷାକରିବାକୁ ସମର୍ଥନୁହନ୍ତି। ( ଅଶ୍ୱତ୍ଥେ ବୋ ନିଷଦନମ୍--ଯଜୁର୍ବେଦ ମନ୍ତ୍ରର ଭାବାର୍ଥ। )
GOOD KARMA
14-07-2021
HH DALAI LAMA’S INSTRUCTIONS FOR LIFE: By Ambassador C M Bhandari Yogguru. 1. Take into account that great love and great achievements involve great risk. 2. When you lose, don’t lose the lesson. 3. Follow the three R’s: • Repent for sins, • Respect others and be • Responsible for all your actions. 4. Remember that not getting what you want is sometimes a wonderful stroke of luck. 5. Learn the rules so you know how to break them properly. 6. Don’t let a little dispute injure a great relationship. 7. Take immediate steps to correct mistakes when realized. 8. Spend some time alone in silence every day. 9. Open your arms to change, but don’t let go of your values. 10. Remember that silence is sometimes the best answer. 11 Live a good honorable life. You will enjoy it for the rest of your life. 12. A loving atmosphere in your home is the foundation for your life. 13. In disagreements with loved ones, deal only with the current situation. Don’t bring up the past. 14 Share your knowledge. It is a way to achieve immortality. 15. Be gentle with the earth. Use it only as much as you need. 16. Once a year, go to some place you’ve never been before. 17. Remember the best relationship is that in which your love for each other exceeds your need for each other. 18. Judge your success by what you had to give up to get it. 19. Approach love and cooking with reckless abandon. Presented by Avinash Mehta
VEDIC WISDOM, Women's role as per Vedas -
14-07-2021
The ONLY culture where Divine is also described as a woman is Vedic! In the name of "feminism", which seems challenge to the notion of "womanhood" altogether, we have just boosted the egos and brought wrong notions to society. India’s customs regarding women were severely impacted by the centuries of invasions and foreign occupation. The careful protection of Hindu women became essential in those days. All aspects of Indian society have suffered more during the British-imposed educational system. The pious role that comes most naturally to most women—wife and mother, the children’s first guru, the Shakti of the home, the preserver-enhancer of the spiritual force field of the home and family—has been effectively disparaged. “May you be empress and lead all.” ~ Rig Veda 10/85/46 “O brilliant woman, remove ignorance with your bright intellect and provide bliss to all.” ~ Rig Veda 4/14/3 “O woman, may you be strong and powerful as a rock. May you gain brilliance of the sun and have a long prosperous life that benefits all.” ~ Atharva Veda 14/1/47 “O woman, realize your potential. You are a lioness who can destroy criminals, ignorance, and vices and protect the noble ones.” ~ Yajur Veda 5/10 “O woman, you provide bliss and stability to the world. You are the source of valour.” Yajur Veda 10/26 “O woman, you are as strong as earth and are on a very high pedestal. Protect the world from the path of vices and violence.” ~ Yajur Veda 13/18 “O woman, you do not deserve to be defeated by challenges. You can defeat the mightiest challenge. Defeat the enemies and their armies. You have valour of thousands. Please us all.” ~ Yajur Veda 13/26 (Continued) (Reference: Ruch Sexena on Rig Veda Site.) Presented by Avinash Mehta
आर्य समाज के सभी भजनोपदेशको भजनोपदेशिकाओ से निवेदन है की आर्य समाज का प्रचार
13-07-2021
आर्य समाज के सभी भजनोपदेशको भजनोपदेशिकाओ से निवेदन है की आर्य समाज का प्रचार जो वेदों की सत्यता कहने की शक्ति परमात्मा ने आप सभी को दी है इस समय कोरोना की वजह से प्रचार कार्य लगभग बंद सा पड़ा है परंतु आप घर बैठे ही अपने कर्तव्य का पालन करें। मिशनरी बनकर। और उसका सबसे सरल तरीका है सौशल मीडिया हां सौशल मीडिया।यू ट्यूब चैनल बनाईये सभी अपने नाम से और डालिये अपनी वीडियों बनाकर और एक दूसरे का हौशला बढाईये।ईश्वर की न्याय व्यवस्था अनुसार हमे अपने किये अच्छे कर्म का फल अवश्य मिलेगा। बहुत सारे भजनोपदेशको भजनोपदेशिकाओ ने अपने चैनल बना रखे हैं बहुत लोग देखते हैं सुनते हैं। हजारों व्यक्ति आपको यू ट्यूब पर सुनकर आर्य समाज की और आकर्षित हो रहें हैं हमारे पास बहुत सारे भाई बहनों के फोन आते हैं की आर्य जी हम आपके भजन सुनते हैं पंडित नरेश दत्त जी पंडित नरदेव जी सहदेव जी कुलदीप जी दिनेश पथिक जी आदि आदि भजनोपदेशको को सुनते हैं बहन पुष्पा शास्त्री जी बहन अंजली जी बहन अर्चना वंदना जी बहन संगीता जी आदि को यू ट्यूब पर सुनते हैं तो बहुत ही अच्छा लगता है और और कोरोना स्थिति सही होने पर कार्यक्रम रखने के लिए कहते हैं।और बहुत सारे वह व्यक्ति जो आर्य समाज से अब तक जुड़े नही है वह आर्य समाज मे आना चाहते हैं।इसलिए आप सभी से निवेदन है की आप सभी अपना धार्मिक कर्तव्य समझ कर इस कार्य को अवश्य करिये। जो कर रहे हैं उनको अति अति धन्यवाद और जिन्होंने अभी नही किया वह अवश्य करिये। और एक निवेदन सभी आर्य समाजो के पदाधिकारियों कार्यकर्ता गण से की सभी आर्य समाजों में कार्य प्रारंभ करिये अपने सन्यासियो आचार्यों भजनोपदेशको भजनोपदेशिकाओ को बुलाकर उनको संभालिये। जिस संस्था के पास प्रचारक होते हैं वह संस्था बढती है।यदि उचित बात लगे तो आप इस संदेश को अधिक से अधिक शेयर करे और कमेन्ट करके अपने सुझाव भी अवश्य देवें। और हाँ मैने बहुत सारे भजनोपदेशको भजनोपदेशिकाओ के नाम यहाँ नही दे पाया पोस्ट लंबी होने के कारण वह अन्यथा ना लें। । निवेदक। रामनिवास आर्य भजनोपदेशक पानीपत हरियाणा सम्पर्क सूत्र------9416437317एवं 7015785441 यू टयूब पर आपका अपना चैनल। आर्य विचार आर्य विचार।
प्रश्न:- वर्तमान मनुष्य सुख साधन समपन्न होते हुए भी तनावग्रस्त रहते हैं क्यों ?
13-07-2021
उत्तर :- व्यक्ति के तनावग्रस्त होने का संबंध मन से है और सुख साधनों का मन के द्वारा दुरुपयोग ही तनाव का कारण बनता है दुरुपयोग तब होता है जब मन पर नियंत्रण नहीं रहता* | *दुरुपयोग या सदुपयोग करने का उत्तरदायित्व हमारा अर्थात आत्मा का है मन और इंद्रियां तो जड़ हैं* *मन तो वास्तव में वस्तु का सही स्वरूप दिखाता है परंतु अविद्या से उत्पन्न मोह द्वेष के कारण उस वस्तु से प्रभावित होकर दुरुपयोग कर बैठता है* | *आइए सरलता से उदाहरण द्वारा समझते हैं कि मन को नियंत्रण करने के लिए आत्मा अर्थात मनुष्य को इस बात पर विचार करना चाहिए जैसे गाड़ी चलाने वाला गाड़ी की गति से अधिक मन की गति को करेगा तभी दुर्घटना से बच सकता है* *ऐसे ही आत्मा को अपनी इच्छाएं योजनाएं बदलने की गति को मन की गति से अधिक करना पड़ेगा तब मन विषयो से प्रभावित होने से पहले नियंत्रित हो जाएगा* | *तनाव से मुक्त होने के लिए आत्मा द्वारा मन को विषयों से प्रभावित होने से पहले नियंत्रण करना अति आवश्यक है* l *क्योंकि आत्मा यदि एक क्षण भी मन इंद्रियों पर नियंत्रण छोड़ देता है तो विनाशकारी कार्य कर लेता है और उन्हीं विनाशकारी कार्यों के परिणाम स्वरूप तनाव से ग्रस्त हो जाता है* | आर्य वरदान धर्मयोद्धा कर्मवीर कलम से...????️ आचार्य धर्मपाल कुरुक्षेत्र
“सत्याचरण से अमृतमय मोक्ष की प्राप्ति मनुष्य जीवन का लक्ष्य
13-07-2021
ओ३म् =============== हमारी जीवात्माओं को मनुष्य जीवन ईश्वर की देन है। ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान होने के साथ सर्वज्ञ भी है। उससे दान में मिली मानव जीवन रूपी सर्वोत्तम वस्तु का सदुपयोग कर हम उसकी कृपा व सहाय को प्राप्त कर सकते हैं और इसके विपरीत मानव शरीर का सदुपयोग न करने के कारण हमें नियन्ता ईश्वर के दण्ड का भागी होना पड़ सकता है। इस शिक्षा को एक उदाहरण से इस प्रकार समझ सकते हैं कि हमने किसी भूखे व्यक्ति को देखा। उसके पास भूख दूर करने के साधन नहीं है। उसके प्रति हमारे अन्दर दया उत्पन्न हुई। हमने उसे कुछ धन दिया जिससे वह भोजन कर सके। यदि वह भोजन कर अच्छे काम करेगा तो हमें स्वाभाविक रूप से प्रसन्नता होगी और यदि वह उस धन से भोजन न कर उस धन से अन्य किसी निकृष्ट पदार्थ मदिरापान का सेवन व अभक्ष्य पदार्थ को खाता है तो हमें अपने कृत्य पर पछतावा होगा। हम इसके बाद उसकी सहायत नहीं करेंगे। ईश्वर ने भी जीवात्मा पर दया करके उसे दुर्लभ व सर्वोत्तम मानव शरीर दिया है। अतः हमें इसका सदुपयोग कर ईश्वर की अधिक से अधिक सहायता व कृपा को प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिये। यदि ऐसा नहीं करेंगे तो हम ईश्वर की सुख, ऐश्वर्य-सम्पत्ति, आत्मोन्नति, अच्छा स्वास्थ्य, अच्छे ज्ञानी व महात्मा स्वभाव वाले विद्वानों व मित्रों की संगति आदि भावी कृपाओं से वंचित हो जायेंगे। बृहदारण्यक उपनिषद के ऋषि ने जीवन निर्माण के स्वर्णिम सूत्र ‘असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योर्तिगमय। मृत्योर्मा अमृतं गमय।।’ दिये हैं। यह सूत्र उस प्रत्येक व्यक्ति के लिए उपयोगी व लाभदायक हैं जो जीवन को इसके वास्तविक लक्ष्य पर ले जाना वा पहुंचाना चाहते हैं। इसके लिए इसमें पहली शिक्षा यह दी गई है कि ‘असतो मा सद्गमय’ अर्थात् मनुष्य जीवन को जीवात्मा में विद्यमान असत् को हटाकर सत्य मार्ग पर चलाना है। ऐसा इसलिये कहा गया है कि असत मार्ग अवनति वा दुःख की ओर ले जाता है और सत मार्ग उन्नति व सुख की ओर ले जाता है। संसार में कोई भी मनुष्य वा प्राणी दुःख नहीं चाहता। सभी कामना करते हैं कि मेरे सारे दुःख दूर हो जाये और सभी सुखों की उपलब्धि व प्राप्ति मुझे हो। इसका उपाय ही उपनिषद के ऋषि ने ‘असतो मा सद्गमय’ कहकर बताया है। महर्षि दयानन्द ने आर्यसमाज का चैथा नियम इसके समान ही बनाया है। नियम है कि ‘सत्य के ग्रहण करने और असत्य के छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिये।’ इसका प्रयोजन भी वही है जो कि ‘असतो मा सद्गमय’ का है। इस नियम को विचार कर हमें लगता है कि इसे देश व विश्व का ध्येय वाक्य बना देना चाहिये। शिक्षा व विद्यालयों में हर स्तर पर इसका विवेचन व प्रचार हो और यह हमारे जीवन के लिए एक कसौटी का कार्य करे। हमें प्रतिदन विचार करना चाहिये कि हमारे जीवन में इस आदर्श का कितना भाग विद्यमान है। महर्षि दयानन्द सहित हमारे सभी ऋषि-मुनि व महापुरुष इसी मार्ग पर चले थे। उन्होंने इस वैदिक ज्ञानयुक्त मान्यता का अपने जीवनों में पूरा-पूरा पालन किया था और इसी से वह सब महान बने थे। वर्तमान समय में हमें मनुष्य जाति का जो पतन देखने को मिलता है उसमें कहीं न कहीं इस नियम की अवहेलना व उपेक्षा ही दृष्टिगोचर होती दिखाई देती है। इस नियम के पालन न करने से ही प्राचीन काल में यज्ञों में पशुओं की हिंसा होती थी, इसी के कारण देश को मूर्तिपूजा, अवतारवाद की कल्पना, फलित ज्योतिष, वेदाध्ययन में प्रमाद, सामाजिक असमानता व विषमता, छोटे-बडे की भावना, बाल विवाह, मांसाहार, मदिरापान, धूम्रपान, असद् व्यवहार वा भ्रष्टाचार के रोग लगे। सन् 1863 से सन् 1883 तक महर्षि दयानन्द ने धार्मिक व सामाजिक इन अज्ञान, अविवेकपूर्ण व मिथ्या अन्धविश्वासों का खण्डन किया और सद्ज्ञान का प्रसार करने के लिए ईश्वर प्रदत्त सत्यज्ञान युक्त वेदों की मान्यताओं का देश व भूमण्डल में प्रचार किया। इसे जितने अंशों में देश समाज व विश्व ने अपनाया है उसी अनुपात में आज हम देश व समाज की उन्नति देख रहे हैं। उद्देश्य से अभी हम बहुत पीछे हैं। लगता है कि देश अब रूक गया है। लोग परा व आध्यात्म विद्या की उपेक्षा कर रहे हैं और केवल अपरा विद्या वा भौतिक ज्ञान में ही डुबकी लगा रहे हैं। अतः आध्यात्मिक विद्या की उन्नति द्वारा मनुष्य जीवन से असद् व्यवहार को हटाकर सद्व्यवहार को स्थापित करना ही ईश्वर को प्रसन्न करना व उससे सभी सात्विक सर्वोत्तम सम्पत्तियों व इष्ट पदार्थों को प्राप्त करने का मार्ग विदित होता है। उपनिषद के ऋषि ने इसके बाद ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ कह कर यह भी सुस्पष्ट कर दिया कि जीवन में तम, अज्ञान व मिथ्याचरण नाम मात्र का भी नहीं होना चाहिये। यदि जीवन में तम रूपी अज्ञान व अन्धकार होगा तो वह सद्गमय के हमारे ध्येय में बाधक होगा। इसलिये तम के अज्ञान व अन्धकार को ज्ञान की ज्योति से दूर करने की शिक्षा उन्होंने दी है। यह तम व अज्ञान ऐसा है कि कई बार यह बडे-बड़े ज्ञानियों को भी लग जाता है। यह तम मनुष्यों में राग, द्वेष, काम, क्रोध व अहंकार आदि मिथ्या बातों के स्वभाव में आ जाने पर प्रविष्ट हो जाता है जिन पर विजय पाना कठिन होता है। आज देखा जाये तो साधारण मनुष्य से लेकर विद्वान तक प्रायः सभी इन तमों से ग्रसित हैं। इसके लिये वेदादि सद्ग्रन्थों का स्वाध्याय व प्रातः सायं ईश्वरोपासना, योगाभ्यास, यज्ञाग्निहोत्रादि अनुष्ठान सहित सत्पुरुषों की संगति आवश्यक होती है। सन्ध्या में चिन्तन करते हुए भी यह देखना उचित होता है कि मेरे अन्तःकरण में ये मानसिक रोग व विकार हैं अथवा नहीं। यदि हों तो उन्हें विचार कर दूर करने का दृण संकल्प लेना चाहिये और प्रातः सायं उसकी विद्यमानता पर विचार कर उसको जीवन से दूर करने का प्रयत्न करना चाहिये। तम रहित ज्योतिर्मय जीवन ही सदगमय का प्रतीक सहित सात्विक व पारमार्थिक जीवन होता है। सत्य का धारण और तम रूपी असत्य का निरन्तर त्याग ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है और इसको करके ही हम मनुष्य कहलाते हैं। हमें मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम, योगेश्वर श्री कृष्ण और वेदभक्त महर्षि दयानन्द में सदाचार का धारण ही उनकी दिव्यताओं व आदर्शों का कारण अनुभव होता है। उन्हीं का अनुकरण हमें भी करके उनके समान बनना है। यही इन महापुरुषों को मानने व उनके गुण-कीर्तन करने का प्रयोजन है। सूत्र की तीसरी व अन्तिम शिक्षा है कि ‘मृत्योर्मा अमृतं गमय’ अर्थात् मैं मृत्यु पर विजय प्राप्त करूं और अमृत अर्थात् जन्म-मरण से अवकाश प्राप्त कर मोक्ष की प्राप्ति करूं। यह अमृत वा मोक्ष ही मनुष्य जीवन का सर्वोत्तम लक्ष्य व सम्पत्ति है। यही वास्तविक व सर्वोत्तम स्वर्ग, विष्णुलोक व निरन्तर ईश्वर की उपलब्धता की स्थिति है जिसमें जीवात्मा ईश्वर में निहित अमृतमय आनन्द का भोग करते हुए ईश्वर के साथ ईश्वर प्रदत्त अनेक शक्तियों से विद्यमान रहता है। इसके विपरीत विद्वानों, धार्मिक गुरुओं वा प्रचारकों द्वारा स्वर्ग आदि की जो कल्पनायें की जाति है वह यथार्थ नहीं है। उपनिषद की इसी शिक्षा के समान यजुर्वेद के अध्याय 30 का तीसरा मन्त्र ‘ओ३म् विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव। यद् भद्रन्तन्न आसुव।।’ भी है। इसका हम प्रतिदिन अर्थ सहित पाठ करते ही हैं जिसमें कहा गया है कि ‘हे सकल जगत् के उत्पत्तिकत्र्ता, समग्र ऐश्वर्ययुक्त शुद्धस्वरूप, सब सुखों के दाता परमेश्वर ! आप कृपा करके हमारे समस्त दुर्गुण, दुव्र्यसन और दुःखों को दूर कर दीजिए और जो कल्याणकारक गुण, कर्म, स्वभाव और पदार्थ हैं, वह सब हमको प्राप्त कीजिए।’ इस मन्त्र के अर्थ में ‘जो कल्याणकारक गुण, कर्म, स्वभाव और पदार्थ हैं, वह सब हमको प्राप्त दीजिए।’, इसमें सभी प्रकार के सात्विक सांसारिक सुखों के साधनों व सम्पत्तियों सहित अमृतमय मोक्ष सुख भी सम्मिलित हैं। हम आशा करते हैं कि पाठक इस लेख पर विचार कर उपनिषद वाक्य में वर्णित वैदिक शिक्षा को अपने जीवन में अपनायेंगे और महर्षि दयानन्द द्वारा जनसाधारण की भाषा में लिखित ‘सत्यार्थ-प्रकाश’ आदि अन्यान्य ग्रन्थों का अध्ययन वा स्वाध्याय कर अपने जीवन को मनुष्य जीवन के ध्येय सर्वोत्तम सुख मोक्ष की ओर अग्रसर करेंगे। -मनमोहन कुमार आर्य
ବାସ୍ତବିକ ରଥଯାତ୍ରା - ପ୍ରସ୍ତୁତି: ମହିମା ସାଗର
13-07-2021
କଠୋପନିଷଦ୍ ପ୍ରଥମ ଅଧ୍ୟାୟର ତୃତୀୟ ବଲ୍ଲୀରେ ଯମାଚାର୍ଯ୍ୟ ବାଜଶ୍ରବା ଋଷିଙ୍କ ପୁତ୍ର ନଚିକେତାଙ୍କୁ ଉପମା ମାଧ୍ୟମରେ ବାସ୍ତବିକ ରଥଯାତ୍ରା ସମ୍ବନ୍ଧରେ ଉପଦେଶ ଦେବାକୁ ଯାଇ କହନ୍ତି, ହେ ନଚିକେତା... *ଆତ୍ମାନଂ ରଥିନଂ ବିଦ୍ଧି ଶରୀରଂ ରଥମେବ ତୁ।* *ବୁଦ୍ଧିଂ ତୁ ସାରଥିଂ ବିଦ୍ଧି ମନଃ ପ୍ରଗ୍ରହମେବ ଚ ॥* କଠୋପନିଷଦ୍,୧/୩/୩ ''ଏହି ଶରୀରକୁ ରଥ ଏବଂ ଆତ୍ମାକୁ ରଥର ସ୍ୱାମୀ (ରଥୀ) ବୁଦ୍ଧିକୁ ସାରଥୀ ଏବଂ ମନକୁ କେବଳ ଘୋଡା ମାନଙ୍କ ଲଗାମ ବୋଲି ଜାଣ । Know the body for a chariot and the soul for the master of the chariot: know Reason for the charioteer and the mind for the reins only. *ଇନ୍ଦ୍ରିୟାଣି ହୟାନାହୁର୍ୱିଷୟାଂସ୍ତେଷୁ ଗୋଚରାନ୍।* *ଆତ୍ମେନ୍ଦ୍ରିୟମନୋୟୁକ୍ତଂ ଭୋକ୍ତେତ୍ୟାହୁର୍ମନୀଷିଣଃ ॥* କଠୋପନିଷଦ୍,୧/୩/୪ ''ମନୀଷୀଗଣ ଇନ୍ଦ୍ରିୟ ମାନଙ୍କୁ ଅଶ୍ୱ ତଥା ଇନ୍ଦ୍ରିୟଗୋଚର ବିଷୟ ମାନଙ୍କୁ ତାଙ୍କ ବିଚରଣର ମାର୍ଗ କହନ୍ତି। ମନ ତଥା ଇନ୍ଦ୍ରିୟ ମାନଙ୍କ ଦ୍ଵାରା ଯୁକ୍ତ ସେହି 'ଆତ୍ମା' ହିଁ କେବଳ ଭୋକ୍ତା ଅଟେ । The senses they speak of as the steeds and the objects of sense as the paths in which they move; and One yoked with Self and the mind and the senses is the enjoyer, say the thinkers. *ଯସ୍ତ୍ୱବିଜ୍ଞାନବାନ୍ଭବତ୍ୟମନସ୍କଃ ସଦାଽଶୁଚିଃ।* *ନ ସ ତତ୍ପଦମାପ୍ନୋତି ସଂସାରଂ ଚାଧିଗଚ୍ଛତି ॥* କଠୋପନିଷଦ୍,୧/୩/୭ ''ବସ୍ତୁତଃ ଯେଉଁମାନେ ଜ୍ଞାନହୀନ ଅଟନ୍ତି, ଅଚେତନମନା ତଥା ସଦା ଅଶୁଚିମୟ ଅଟନ୍ତି, ସେମାନେ ସେହି ପରମ ପଦକୁ ପ୍ରାପ୍ତ କରି ପାରନ୍ତି ନାହିଁ, ସେମାନେ ସଂସାର-ଚକ୍ରରେ ହିଁ ଭ୍ରମଣ କରୁଥାନ୍ତି । Yea, he that is without knowledge and is unmindful and is ever unclean, reaches not that goal, but wanders in the cycle of phenomena. *ଯସ୍ତୁ ବିଜ୍ଞାନବାନ୍ଭବତି ସମନସ୍କଃ ସଦା ଶୁଚିଃ।* *ସ ତୁ ତତ୍ପଦମାପ୍ନୋତି ଯସ୍ମାଦ୍ ଭୂୟୋ ନ ଜାୟତେ ॥* କଠୋପନିଷଦ୍,୧/୩/୮ ''ପରନ୍ତୁ ଯେଉଁମାନେ ଜ୍ଞାନବାନ୍ ହୋଇ ଥାନ୍ତି, ସଚେତନମନା ତଥା ସଦା ଶୁଚିମାନ୍ ହୋଇଥାନ୍ତି, ସେମାନେ ସେହି ପରମ ପଦକୁ ପ୍ରାପ୍ତ କରନ୍ତି ଯେଉଁଠାରୁ ସେମାନେ ପୁନଃ ଜନ୍ମ ନେଇ ନଥାନ୍ତି । But he that has knowledge and is mindful and pure always, reaches that goal whence he is not born again. *ବିଜ୍ଞାନସାରଥିର୍ୟସ୍ତୁ ମନଃ ପ୍ରଗ୍ରହବାନ୍ନରଃ।* *ସୋଽଧ୍ୱନଃ ପାରମାପ୍ନୋତି ତଦ୍ୱିଷ୍ଣୋଃ ପରମଂ ପଦମ୍ ॥* କଠୋପନିଷଦ୍,୧/୩/୯ ''ଯେଉଁ ମନୁଷ୍ୟ ମନକୁ ଲଗାମ ଭଳି ପ୍ରୟୋଗ କରିଥାଏ ତଥା ବିଜ୍ଞାନ (ବୁଦ୍ଧି) କୁ ସାରଥୀ କରିଥାଏ, ସେ ଶେଷକୁ ବିଷ୍ଣୁଙ୍କ ପରମ-ପଦକୁ ପ୍ରାପ୍ତ କରିଥାଏ । That man who uses the mind for reins and the knowledge for the driver, reaches the end of his road, the highest seat of Vishnu. ତେବେ ଆସନ୍ତୁ ପବିତ୍ର ଉପନିଷଦର ଗଙ୍ଗାରେ ଅବଗାହନ କରି ବାସ୍ତବ ରଥ, ଅଶ୍ୱ, ଲଗାମ, ରଥୀ, ସାରଥୀଙ୍କ ସହ ପରିଚିତ ହୋଇ ରଥୀ ଲକ୍ଷସ୍ଥଳରେ ପହଁଚିବା ପାଇଁ ଆମ ବାସ୍ତବ ରଥର ଅଶ୍ୱ ପଞ୍ଚ ଜ୍ଞାନେନ୍ଦ୍ରିୟ ପଞ୍ଚ କର୍ମେନ୍ଦ୍ରିୟଙ୍କୁ ଇନ୍ଦ୍ରିୟଗୋଚର ବିଷୟ ଶବ୍ଦ ସ୍ପର୍ଶ ରୂପ ରସ ଗନ୍ଧ ରୂପକ ମାର୍ଗରେ ଉପଯୁକ୍ତ ଭାବେ ପରିଚାଳିତ କରି ପ୍ରତଦିନ ପ୍ରତୀକ୍ଷଣ ପ୍ରତି ମୁହୂର୍ତ୍ତ ରଥଯାତ୍ରା କରିବା । ✍️ *ମହିମା ସାଗର* ଆଷାଢ଼ ଶୁକ୍ଳ ଦ୍ଵିତୀୟା ତା ୧୨/୦୭/୨୦୨୧ ରିଖ
‘प्रसिद्ध विद्वान एवं भजनोपदेशक पं. सत्यपाल सरल, देहरादून अस्वथ’
13-07-2021
देश के अनेक राज्यों में भजनोपदेश के लिए आमंत्रित किये जाने वाले प्रसिद्ध भजनोपदेशक ऋषिभक्त श्री सत्यपाल सरल जी आजकल अस्वस्थ चल रहे हैं। उन्हें रक्ताल्पता आदि कुछ रोग हैं जिनकी चिकित्सा के लिए वह देहरादून के प्रसिद्ध चिकित्सा संस्थान हिमालयन अस्पताल एवं चिकित्सा संस्थान सहित भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान, ऋषिकेश में उपाचाराधीन एवं परामर्शाधीन हैं। हम दिनांक 11-7-2021 को उनके निवास पर उनसे मिले हैं। दूरभाष पर भी उनकी जानकारी लेते रहते हैं। उनका उपचार चल रहा है। उन्हें शारीरिक दुर्बलता आ गई है। हम आशा करते हैं कि आदरणीय श्री सत्यपाल सरल जी ईश्वर की कृपा व दया से शीघ्र स्वस्थ होकर आर्यसमाज के प्रचार कार्य में संलग्न हो जायेंगे। ईश्वर श्री सरल जी को स्वस्थ व निरोग करें व रखें। वह स्वस्थ एवं दीर्घायु रहकर अपने गीतों एवं भजनोपदेशों के माध्यम से आर्यसमाज की सेवा करते रहे हैं, यह परमात्मा से हमारी कामना है। -मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।
ଭିଦ୍ୟତେ ହୃଦୟଗ୍ରନ୍ଥି ଶ୍ଥିଦ୍ୟନ୍ତେ ସର୍ବସଂଶୟଃ
12-07-2021
ଓ ୩ମ୍ ଭିଦ୍ୟତେ ହୃଦୟଗ୍ରନ୍ଥି ଶ୍ଥିଦ୍ୟନ୍ତେ ସର୍ବସଂଶୟଃ । କ୍ଷୀୟନ୍ତେ ଚାସ୍ୟ କର୍ମାଣୀ ତସ୍ମିନ୍ ଦୃଷ୍ଟେ ପର। ଽ ବରେ।( ମୁଣ୍ଡକ ଉପ-୨/୩୨/୮ ଅର୍ଥାତ୍ ସେହି ସୂକ୍ଷ୍ମତମ ଓ ମହାନ୍ତମ, ଆତ୍ମିକ ଓ ଭୌତିକ ଜଗତର ସ୍ଵାମୀଙ୍କୁ ଜାଣିବାପରେ ହୃଦୟରେ ବାସନା ରୂପକ ବନ୍ଧନ ଖୋଲିଯାଏ, ଏବଂ ସମସ୍ତ ସଂଶୟ ଦୂର ହୋଇଯାଏ । ଓ ୩ମ୍ । .... Raj Kishore Sahu, Rayagada
मनुष्य जाति के आदर्श ईश्वर
10-07-2021
मनुष्य जाति के आदर्श ईश्वर, जीवात्मा और जड़ जगत को यथार्थस्वरूप में जानने वाले ईश्वर प्रदत्त निर्दोष ज्ञान चार वेद से युक्त संसार व प्राणिमात्र से प्रेम करने व सबका हित चाहने वाले मनुष्य ही हो सकते हैं। ऐसे मनुष्य ही ऋषि,विद्वान व सच्चे योगी कहलाते हैं। ऐसे ऋषियों ब्रह्मा से जैमिनी और दयानंद जी के साहित्य का अध्ययन कर हमें उनका अनुगामी बनना चाहिए और जीवन के लक्ष्य आत्मा और शरीर की उन्नति सहित धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील होना चाहिए। - प्रस्तुतकर्ता मनमोहन आर्य
Sadhubani by Pandit Birendra Kumar Panda
10-07-2021
*Good Morning* Date - 10/07/2021 Topic - Sadhubani by Pandit Birendra Kumar Panda (OTV CHANNEL) TIME - 6Am to 7Am Joining Time - 5.55Am Link???? https://meet.google.com/jgx-jvde-emi Please join the Special Programme. *SAMSKRUTA GYANA PIYUSAM*
ତ୍ୟାର୍ଥ ପ୍ରକାଶ - ପ୍ରଥମ ସମୁଲ୍ଲାସ
09-07-2021
ନମସ୍ତେ, ଆଜି (09/07/2021) ରାତି 08.30 ରେ *ପୂଜ୍ୟ ସ୍ୱାମୀ ସୁଧାନନ୍ଦ ସରସ୍ବତୀଙ୍କ* ଠାରୁ *ସତ୍ୟାର୍ଥ ପ୍ରକାଶ - ପ୍ରଥମ ସମୁଲ୍ଲାସ* (ଭାଗ 57) Live ପଢ଼ିବା ପାଇଁ ଲିଙ୍କ - https://youtu.be/lo61hX74otY ଧନ୍ୟବାଦ ~ଶ୍ରୁତିନ୍ୟାସ ପରିବାର
जीवन में समस्याएं अधिक होने पर जीवन नीरस हो जाता है, फिर भी जीना तो है ही। तो इसे आनंद से क्यों न जिएँ
09-07-2021
जब जीवन में शारीरिक मानसिक आर्थिक सामाजिक व्यवहारिक आदि अनेक प्रकार की समस्याएं हों, तो खुश होकर जीवन को कैसे जी सकते हैं? जी हां। इसका उपाय भी है। *"समस्याएं तो कभी खत्म नहीं होंगी। जब तक जीवन है, तब तक कोई न कोई समस्या बनी ही रहेगी।"* और ऐसी समस्याएं भी जीवन में आती रहेंगी, जिनके बारे में आपने आज तक कभी सोचा भी नहीं। *"इसलिए समस्याओं से घबराएँ नहीं, बल्कि उनका सामना करने की शक्ति ईश्वर से मांगें। समाज के लोगों से सहयोग लेवें।"* पृथ्वी जल अग्नि वायु आकाश इन पंचमहाभूतों से, भोजन वस्त्र मकान यान आदि जड़ साधनों से, बहुत सी शक्तियां मिलती हैं। इनका सही उपयोग करना सीखें। *"विद्वानों से मार्गदर्शन प्राप्त करें। इस प्रकार से आप समस्याओं को पार कर जाएंगे।"* एक समाधान यह भी है। *"जब आप समस्याओं से परेशान हों, तो अपने मन को शांत करने के लिए, तनाव से बचने के लिए, उन कार्यों को करें, जो आपको बहुत पसंद हैं। जो आपके शौक हैं।"* जिन कार्यों में आप की रुचि हो, उन कार्यों को करें। जैसे बैडमिंटन खेलना, वॉलीबॉल खेलना, टेबल टेनिस खेलना, चैस खेलना, संगीत सुनना, कुछ गाना बजाना, कोई अच्छा रोचक कार्यक्रम टेलीविजन में देखना, डिस्कवरी चैनल देखना इत्यादि जो भी आपके शौक हों, उस तनाव के समय अपने शौक पूरे कीजिए। तो आपका मन प्रसन्न हो जाएगा। आपका तनाव हल्का हो जाएगा, और आप अच्छी प्रकार से उस संकट काल से पार हो जाएंगे। *"इससे जीवन में आनंद बना रहेगा, और जीवन नीरस नहीं लगेगा।"* समस्याओं से भागना, उनको दूर करने का उपाय ही न खोजना, यह कोई समाधान नहीं है। *"इसलिए समस्याओं से भागें नहीं। उनका सही उपाय माता पिता गुरुजनों समाज के बुद्धिमान लोगों डॉक्टर इंजीनियर वकील वैज्ञानिक आदि की सहायता से ढूंढें, और संघर्ष करें। आप अवश्य ही समस्याओं से जीत जाएंगे।"* --- *स्वामी विवेकानंद परिव्राजक, रोजड़, गुजरात।*
ईश्वर सच्चिदानन्द स्वरूप निराकार
09-07-2021
ईश्वर सच्चिदानन्द स्वरूप निराकार ( जिसका कोई आकार नहीं है) सर्वशक्तिमान न्यायकारी ( जो कभी अन्याय नहीं करता ) दयालु अजन्मा ( जो जन्म मरण के चक्र में नहीं आता )। ईश्वर अनन्त है ( जिसका कोई आदि और अन्त नहीं ) । ईश्वर निर्विकार है ( जिसमें कोई विकार नहीं है और मानव शरीर तो विकारों से परिपूर्ण है। इसलिए ईश्वर को अवतार लेने की आवश्यकता नहीं है। )। ईश्वर अनादि अनुपम सर्वाधार सर्वेश्वर सर्वव्यापक आदि गुणों से परिपूर्ण है ( मानव शरीर धारण करने के बाद एक स्थान पर रहना पड़ेगा तो बताईए ईश्वर सर्वव्यापी कैसे कहलाएगा ? ) ईश्वर सर्वान्तर्यामी अजर ( जिसे कभी भी किसी तरह से बुढ़ापे से नहीं गुजरना पड़ता ) और अमर ( जिसकी कभी मृत्यु नहीं होती परन्तु अवतार लेने के मृत्यु होती है ) अभय नित्य पवित्र आदि गुणों से परिपूर्ण ईश्वर को अवतार लेने के बाद इन सभी गुणों से वंचित होना पड़ेगा और सृष्टिकर्ता तो कहलाने का अधिकारी भी नहीं हो सकता। इस तरह के गुणों से परिपूर्ण ईश्वर की मूर्ति कैसे कोई बना सकता है ? ईश्वर निराकार है इसलिए उसकी कोई मूर्ति नहीं बन सकती। ...........Vedic Vichar............................
वेदोपदेश
08-07-2021
उत्तम प्रतिभा संपन्न विद्यार्थी उत्तम ज्ञानी गुरुओं से विद्या को प्राप्त होकर तृप्ति का लाभ करता है। वह बहुविद्या संपन्न आत्मा व्याप्त विद्या वाले आचार्य से व्रत पालन रूप कर्मों से परिपक्व ज्ञानरस का यथेच्छ पान करता है। विद्यार्थी द्वारा प्राप्त वह ज्ञान विद्यारस विशाल हृष्ट-पुष्ट शरीर वाले विद्यार्थी की आत्मा को महान समाज-सुधार आदि कर्म करने के लिए हर्षित करता है। दिव्य गुणों से युक्त वह सत्य विद्यारस दिव्य गुण वाले विद्यार्थी व विद्वान की आत्मा को निरंतर प्राप्त होता रहता है। ऐसा विद्या संपन्न आत्मा जीवन में समाज सुधार आदि महान कर्मों को करता है जिससे धर्म, संस्कृति व देश के लोग लाभान्वित होते हैं। हम भी वेदों का स्वाध्याय कर ईश्वर से महान प्रेरणाओं को प्राप्त करें। -मनमोहन आर्य
नायाति भूमीं मनुजो विहस्तः
08-07-2021
नायाति भूमीं मनुजो विहस्तः प्रयाति वेतो नहि शून्यहस्तः।गृह्णंश्च वै कर्मफलं स्वकीयं गतागतं चेह दधाति लोकः।। ଅର୍ଥ :---ମନୁଷ୍ୟ ଖାଲି ହାତରେ ପୃଥିବୀକୁ ଆସି ନ ଥାଏ, କିମ୍ୱା ଖାଲି ହାତରେ ଏଠାରୁ ଯାଏ ନାହିଁ। ନିଜର କର୍ମଫଳକୁ ଗ୍ରହଣକରି ମନୁଷ୍ୟ ଏଠାରେ ଗତାଗତକାର୍ଯ୍ୟକୁ ଧାରଣକରିଥାଏ। - Kishore Chandra Kar ---------------------------------------------ଏଠାରେ ସ୍ୱତଃ ପ୍ରଶ୍ନ ଉଠେ ପ୍ରାରବ୍ଧ କର୍ମ ଯଦି ଅବଧାରିତ,ତାହେଲେ ମଣିଷ ସେଥିପାଇଁ ନିଶ୍ଚୟ ଉତ୍ତର ଦାୟୀ । ତେବେ ମଣିଷ କଣ ଜନ୍ମ ଜନ୍ମାନ୍ତର କେବଳ ମଣିଷ ଜନ୍ମ ନେଇଥାଏ ? ଦୟାକରି ସନ୍ଦେହ ମୋଚନ କରିବେ ?ନମସ୍କାର Kartik Chandra Panda ???? Kartik Chandra Panda ମହାଶୟ, ନମସ୍କାର। ଆପଣଙ୍କର ସନ୍ଦେହ ଯଥାର୍ଥ। ବେଦାଦିଶାସ୍ତ୍ରରୁ ବିଚ୍ୟୁତ ହେବାରୁ ଆମେମାନେ ଏହିଭଳି ସନ୍ଦେହରେ ପଡୁଛେ। ପ୍ରକୃତରେ ମନୁଷ୍ୟ ଜନ୍ମରେ କରିଥିବା ଫଳ ଭୋଗିବା ପାଇଁ ମନୁଷ୍ୟେତର ଶରୀର କିମ୍ବା ମନୁଷ୍ୟ ଶରୀର ଜୀବାତ୍ମା ଧାରଣକରେ। ପଶୁପକ୍ଷୀଙ୍କର ଶରୀର କେବଳ କର୍ମଫଳଭୋଗ ପାଇଁ। ପଶୁ ପକ୍ଷୀର ଶରୀରର କର୍ମଫଳ ନଥାଏ, କାରଣ ସେମାନେ ପରାଧୀନ। ମାତ୍ର ମନୁଷ୍ୟ କର୍ମକରି ଶୁଭାଶୁଭ ଫଳ ପାଏ, ଗୋଟିଏ ସୃଷ୍ଟିରେ ସେମାନଙ୍କର କର୍ମଫଳ ଭୋଗ ହୋଇପାରିନଥାଏ, ତେଣୁ ପ୍ରଳୟପରେ ପୁଣି ସୃଷ୍ଟି କରି ଈଶ୍ଵର ଜୀବକୁ ବଳକାକର୍ମଫଳ ଭୋଗକରାନ୍ତି। ଏହି ସୃଷ୍ଟି ପ୍ରକ୍ରିୟା ପରମାନେଣ୍ଟ, ଏହାର ଲୋପ ନ ଥାଏ। ଏଣୁ ସମସ୍ତ ଜୀବ ମନୁଷ୍ୟ ହୋଇପାରନ୍ତି କିମ୍ୱା ଅନ୍ୟ ଶରୀର ମଧ୍ୟ ଧାରଣ କରିପାରନ୍ତି।
आओ मित्रों! हम सब मिलकर कृण्वंतो विश्वमार्यम् सार्थक करे
06-07-2021
आप हमारे समस्त मित्रों के लिए एक आदर्श आचार संहिता मित्रवर ! सादर नमस्ते बंधुवर ! ईश्वर की असीम तथा महती कृपा से आप एक श्रेष्ठ मित्र के रूप में हमारे मित्र हैं।आपके हमारे अधिकांश मित्र वैदिक धर्म सिद्धांतों को जानने तथा मानने वाले हैं हम भी परस्पर और अधिक जाने तथा आत्मसात करें और अधिक से अधिक महानुभाव तक वैदिक ज्ञान पहुंचा कर धर्म, राष्ट्र तथा मानव जाति की रक्षार्थ अपना योगदान दे। तभी हमारी मित्रता सार्थक है।धन्यवाद आपसे विनम्र अनुरोध है कि उपरोक्त बातों का विशेष ध्यान रखें। १: वैदिक धर्म सिद्धांतों के विपरीत किसी भी प्रकार की मूर्ति पूजा, अवतारवाद,जन्मना जातिवाद , जादू टोना, चमत्कार, भविष्यफल तथा भविष्यवाणियां, गुरुडमवाद, विज्ञान विरुद्ध कपोल कल्पित पौराणिक दंत कथाओं आदि की गतिविधियां प्रचारित प्रसारित ना करें। २: ईश्वर को जन्म लेने वाला अर्थात साकार रूप में प्रदर्शित करने वाले मूर्ति,चित्र आदि तथा अवतारवाद आदि की ऐसी कोई पोस्ट ना करें जिससे अंधविश्वास पाखंड फैलता हो। ३: जन्मना जातिवाद जो मनुष्य जाति का सबसे बड़ा अभिशाप होकर मनुष्य जाति के विघटन और इस देश की परतंत्रता तथा पतन का प्रमुख कारण है अत: इसे प्रचारित न करें व इसे समाप्त करने की दिशा में कार्य करें। ४: हमारा ऐसा मानना है की फिल्मों ने वैदिक धर्म संस्कृति के मूल्य तथा मानवीय सभ्यता कि रक्षार्थ योगदान कम और हानि अधिक पहुंचाई है। अत: फिल्मों से संबंधित किसी भी प्रकार की कोई पोस्ट ना करें। ५: गुरु शब्द का अर्थ है अज्ञान के अंधकार को दूर करने वाला। यह कार्य वही कर सकता है जो परमपिता परमात्मा के प्रदत्त ज्ञान वेद तथा वेद अनुकूल शास्त्रों का ज्ञाता हो किंतु वर्तमान में वेद ज्ञान विहीन गुरु घंटालो की बाढ़ आई हुई है इन्होंने सर्वाधिक धर्म संस्कृति की हानि की है तथा स्वयंभू भगवान बन बैठे हैं अतः हम गुरुडमवाद के पक्षधर नहीं है आप से भी अपेक्षा करेंगे कि आप भी इससे दूर रहें। ६: परमपिता परमात्मा ने हमें यह मनुष्य जीवन आध्यात्मिक उन्नति के लिए दिया है। आत्मा अजर अमर है तथा शरीर नाशवान है अतः हम शरीर के लिए आवश्यक कार्य ही करें तथा विशेष प्रयास आत्मिक उन्नति का करें। इस हेतु आवश्यक है कि हम सर्वाधिक पुरुषार्थ वेद ज्ञान अर्जित करने हेतु करें। सर्वप्रथम इसके लिए आवश्यक है कि हम शरीर के श्रंगार प्रदर्शन पर आवश्यकता से अधिक केंद्रित न रहे तथा इस सूचना क्रांति के माध्यम का उपयोग सर्वाधिक आध्यात्मिक उन्नति के प्रचार-प्रसार हेतु करें। यह विशेष ध्यान रखें व्यक्तिगत चित्र आदि का प्रदर्शन अनावश्यक रूप से ना करें। ७: मनु महाराज ने व्यवस्था दी है कि राजा वेद का ज्ञाता हो।राजनीति अत्यंत पवित्र तथा धर्म संस्कृति के लिए आवश्यक विषय है। राजनीति के बगैर राष्ट्र की सुदृढ़ता तथा संचालन संभव नहीं। और राष्ट्र के बगैर धर्म संस्कृति सुरक्षित नहीं । राजनीति तपस्या है किंतु वर्तमान में वेद ज्ञान विहीन शूद्र राजनीति ने देश, धर्म ,संस्कृति की दशा दिशा ही बदल कर रख दी है। ऐसी परिस्थिति में घृणा विद्वेष फैलाने वाली स्वार्थ परक राजनीति से संबंधित सूचना समाचारों को उसके परिणाम व मानवीय पक्ष को विचार करने के बाद ही प्रेषित करें। ८: वैदिक धर्म संस्कृति में मातृशक्ति का सम्मान तथा स्थान सर्वोपरि है। अतः मातृशक्ति के संबंध में प्रेषित किसी प्रकार के विचार तथा चित्र आदि में मातृशक्ति के सम्मान व स्थान की गरिमा बनाए रखें। अश्लीलता कतई स्वीकार्य नहीं है। ९: महर्षि दयानंद सरस्वती जी ने मानव जाति की एकता हेतु एक भाषा पर जोर दिया है। जब तक संस्कृत भाषा अपनी गरिमा को पुनः प्राप्त नहीं कर लेती तब तक हम हिंदी भाषा को प्राथमिकता दें। १०: मित्रवर! इस जगत में कोई व्यक्ति नहीं है जिसका कोई मित्र ना हो। प्राणी मात्र के जीवन में मित्र की प्रमुख भूमिका है। प्रत्येक मनुष्य को उसके माता-पिता सुसंस्कार देते हैं एक अच्छा सच्चरित्र व्यक्ति बनाने का प्रयास करते हैं कोई भी माता-पिता अपने बच्चे को दुष्ट दुर्गुणी बनाना नहीं चाहते किंतु फिर भी मनुष्य में दोष दुर्गुण आ जाते हैं, कहां से आते हैं? मित्र ही वह माध्यम है जो माता पिता के दिए संस्कारों मैं और वृद्धि कर मनुष्य को एक सफलतम मनुष्य बना सकते हैं और मित्र ही वह माध्यम है जो माता-पिता के दिए संस्कारों को मिट्टी में मिला कर मनुष्य को पतन की राह पर धकेल सकते हैं। आपके मित्र प्रत्यक्ष जीवन में तथा सोशल मीडिया पर कैसे हैं?वे आपके वास्तविक मित्र हैं अथवा शत्रु इस का सूक्ष्म निरीक्षण करना आपका अपना दायित्व है। ११: हमारा ऐसा विश्वास है कि निष्क्रिय सदस्य स्वयं का कल्याण नहीं कर सकता तो वह धर्म संस्कृति तथा राष्ट्र की रक्षा कैसे कर पाएगा। अतः हम अपने मित्र से अपेक्षा रखेंगे कि वह समय सुविधानुसार सक्रिय रहे। धन्यवाद सहयोग की अपेक्षा में आपका मित्र सुखदेव शर्मा प्रकाशक वैदिक संसार मासिक पत्रिका
ଯୁବ ଆର୍ଯ୍ୟ ସମାଜ ଓଡ଼ିଶା Yuba Arya Samaj Odisha
06-07-2021
ଯୁବ ଆର୍ଯ୍ୟ ସମାଜ ଓଡ଼ିଶା Yuba Arya Samaj Odisha is inviting you to a scheduled Zoom meeting. Topic: ଯୁବ ଆର୍ଯ୍ୟ ସମାଜ ଓଡ଼ିଶା Yuba Arya Samaj Odisha's Zoom Meeting Time: Jul 6, 2021 07:30 PM Mumbai, Kolkata, New Delhi Join Zoom Meeting https://us02web.zoom.us/j/5233302141?pwd=WGtwVXY1RFVQWitLNnVRVG5EVXB4dz09 Meeting ID: 523 330 2141 Passcode: YAS One tap mobile +12532158782,,5233302141#,,,,*420224# US (Tacoma) +13462487799,,5233302141#,,,,*420224# US (Houston) Dial by your location +1 253 215 8782 US (Tacoma) +1 346 248 7799 US (Houston) +1 669 900 9128 US (San Jose) +1 301 715 8592 US (Washington DC) +1 312 626 6799 US (Chicago) +1 646 558 8656 US (New York) Meeting ID: 523 330 2141 Passcode: 420224 Find your local number: https://us02web.zoom.us/u/klcOPNBab
Vedic Vichar
06-07-2021
इस संसार में जिसके पास जो है माता. पिता. भाई. बंधु. मित्र.रिश्तेदार.घर.परिवार ये सब आपके संकल्पों मेहनत पुरुषार्थ किये गये कर्मो का फल है । यदि आप औऱ कुछ इससे बेहतर अच्छा चाहते है तो अच्छे पुण्य कर्म करें संसार के उपकार के कार्य करें । पुण्य कर्म शुभ कर्म संसार के उपकार के कार्य करने के लिए धन भी जरूरी नहीं है । कभी आप सोचें हमारा अपना गुजारा नहीं हमारे पास इतना धन नहीं की हम पुण्य कर्म करें संसार का उपकार कैसे करें । चलिए बताते है आप बस में सफर कर रहे है सीट आपको मिल गई है आपके पास कोई महिला या बजुर्ग व्यक्ति या बच्चा खडा हुआ है आप उनको अपनी सीट देकर पुण्य कमाई कर सकते है । गर्मी का मौसम है पशु पक्षियों के लिए दाना. पानी. चारा आदि रखकर पुण्य कर्म कर सकते है । आप रेलगाड़ी में बस में चढते हुए आपाधापी के बीच दूसरों को पहले रेलगाड़ी. बस में चढने का अवसर देकर सेवा कर सकते है । कुछ को बात करते हुए बीच. बीच में गाली का प्रयोग करने की आदत होती है एक दूसरे की चुगली निंदा करने की आदत होती है चुगली निंदा गाली का प्रयोग न करके आप शब्दकोश पर्यावरण को शुद्धता प्रदान कर सकते है । शैलेश मुनि सत्यार्थी।आर्य वानप्रस्थ आश्रहरिद्वार
वेदामृत
06-07-2021
केतुं कृण्वन्नकेतवे पेशो मर्या अपेशसे। समुषद्भिरजायथा।। (यजुर्वेद- 29/37) अज्ञानियों को ज्ञान देते रहो। हे मरणधर्मा मनुष्यों ! तुम ज्ञानरहित व्यक्तियों को ज्ञान रूपी झंडे प्रदान करो। तुम ज्ञान रूपी सौंदर्य को फैलाओ। तुम अपनी एवं दूसरों की अविद्या को भस्म करो तथा उस अविद्या और अज्ञान को भस्म कर देने वाली शक्तियों के साथ चमको। - Satya Prakash Sharma
वेदामृत
06-07-2021
केतुं कृण्वन्नकेतवे पेशो मर्या अपेशसे। समुषद्भिरजायथा।। (यजुर्वेद- 29/37) अज्ञानियों को ज्ञान देते रहो। हे मरणधर्मा मनुष्यों ! तुम ज्ञानरहित व्यक्तियों को ज्ञान रूपी झंडे प्रदान करो। तुम ज्ञान रूपी सौंदर्य को फैलाओ। तुम अपनी एवं दूसरों की अविद्या को भस्म करो तथा उस अविद्या और अज्ञान को भस्म कर देने वाली शक्तियों के साथ चमको। - Satya Prakash Sharma
“ऋषियों का सन्देश कि संसार के सभी प्राणियों में एक समान आत्मा है”
06-07-2021
ओ३म् हम मनुष्य हैं। हम वेदों एवं अपने पूर्वज ऋषियों आदि की सहायता से जानते हैं कि संसार में जितनी मनुष्येतर योनियां पशु, पक्षी, कीट-पतंग व जीव-जन्तु आदि हैं, उन सबमें हमारी आत्मा के समान ही एक जैसी जीवात्मा विद्यमान है। यह जीवात्मा शरीर से पृथक एक सत्य, सनातन एवं चेतन सत्ता है। जीवात्मा इच्छा व द्वेष आदि गुणों से युक्त तथा अल्पज्ञ है। जीवात्मा में ज्ञान एवं कर्म करने की सामर्थ्य होती है जो परमात्मा द्वारा उसे मनुष्यादि जन्म मिलने पर शरीर की सहायता से ज्ञानपूर्वक कर्म करने में परिणत होती हैं। मनुष्य योनि उभय योनि है जिसमें जीवात्मा पूर्वजन्मों के कर्मों को भोगता है और नये कर्मों को स्वतन्त्रतापूर्वक करता भी है। मनुष्य जो कर्म करता है उनका फल उसे इस जन्म व परजन्मों में भोगना होता है। मनुष्य के पाप क्षमा नहीं होते। कोई मत व उसका आचार्य किसी मनुष्य के पाप कर्मों की ईश्वर से सिफारिश करके पाप कर्मों के दण्ड रूप फलों को क्षमा नहीं करा सकता। यदि कहीं ऐसा कहा व माना जाता है, तो वह असत्य एवं भ्रमित करने वाली मान्यता है। सत्य सिद्धान्त यह है कि मनुष्य जो शुभ व अशुभ तथा पाप व पुण्य रूपी कर्म करते हैं, उसके फल उन्हें अवश्यमेव भोगने पड़ते हैं। ईश्वर भी किसी के कर्मों के फलों को बिना भोगे क्षमा नहीं कर सकता। यदि ईश्वर पाप कर्मों को क्षमा करता तो उसकी न्याय व्यवस्था कायम नहीं रह सकती थी। वह व्यवस्था भंग होकर अव्यवस्था में बदल जाती। वेदों के अध्ययन के आधार पर हम कह सकते हैं कि ईश्वर ने अनादि काल से आज तक किसी मनुष्य व मत-सम्प्रदाय के अनुयायी व उनके आचार्यों के किसी पाप कर्म को क्षमा नहीं किया है। हम मनुष्य इस लिये बने हैं क्योंकि हमारे पूर्वजन्म के कर्म संख्या की दृष्टि से आधे से अधिक शुभ व पुण्य कर्म थे। जिन जीवात्माओं के पूर्वजन्मों में मनुष्य योनि में किये गये कर्म आधे से अधिक शुभ होते हैं, उनका मनुष्य जन्म होता है और जिन मनुष्यों के कर्म आधे से अधिक अशुभ या पाप कर्म होते हैं, उनका जन्म नीच मनुष्येतर प्राणी योनियों जो पशु, पक्षी एवं कीट, पतंग आदि योनियां हैं, उनमें होता है। इन पशु योनियों में सुख कम तथा दुःख अधिक होते हैं। इन पशु आदि योनियों को बनाकर परमात्मा ने यह सन्देश दिया है कि मनुष्य श्रेष्ठ कर्म करें और पशु आदि योनियों में जन्म लेने बचे। इस सृष्टि को बनाने वाला सच्चिदानन्दस्वरूप परमेश्वर जीवों का माता व पिता सहित आचार्य, राजा व न्यायाधीश भी है। ईश्वर, जीव व प्रकृति इस संसार में अनादि, नित्य व अविनाशी सत्तायें हैं। ईश्वर अपने गुण, कर्म व स्वभाव के अनुसार प्रत्येक कल्प के आरम्भ में मनुष्यादि प्राणियों की उत्पत्ति करते हैं और कल्प की अवधि पूर्ण होने पर सृष्टि की प्रलय करते हैं। सृष्टि की उत्पत्ति का कारण जीवों को जन्म देकर उनके पूर्वजन्मों व पूर्वकल्प में किये गये कर्मों का सुख व दुःख रूपी भोग प्रदान कराना है। ईश्वर इसके साथ सृष्टि के आरम्भ में मनुष्य योनि के जीवों के कल्याणार्थ उन्हें सब सत्य विद्याओं का ज्ञान वेद प्रदान कर करते व कराते हैं। वेद की शिक्षाओं का पालन ही मनुष्य का धर्म व वेदविरुद्ध आचरण ही अकर्तव्य व पाप होता है। मनुष्य को मनुष्य जीवन उसके पूर्वजन्मों में किये गये आधे से अधिक शुभ व पुण्य कर्मों के कारण मिलता है। ईश्वर, वेद, ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज की संसार के लोगों को यह सिद्धान्त एक बहुत बड़ी देन है। आश्चर्य है कि संसार के लोग मुख्यतः विदेशों में उत्पन्न मत-मतान्तर वेदों की इस सत्य व तर्कपूर्ण मान्यता को न तो स्वीकार करते हैं और न ही ध्यान देते हैं। यदि वह वेद प्रदत्त इस सत्य मान्यता को मान लें तो उनका मत व धर्म संकट में आकर समाप्त हो सकता हैं। विदेशी मतों के अनुयायियों सहित भारत के वह लोग जो वेदों से दूर हैं जो मांसाहार आदि का प्रयोग व सेवन करते हैं, उन्हें यह ज्ञान नहीं है कि सभी प्राणियों में हमारे ही समान जीवात्मा है जिन्हें हमारे ही समान सुख व दुःख की अनुभूति होती है। हम इस तथ्य से भी अपरिचित हैं कि अतीत के अनन्तावधि काल में हमारे इस जन्म से पूर्व इन सभी योनियों में जन्म हुए हैं। यह आवागमन चलता आ रहा है। इन सभी पशु आदि योनियों में हमारे कुटुम्बों के लोग जो हमसे पूर्व मृत्यु को प्राप्त हो चुके हैं, जन्म लिये हुए हो सकते हैं। यदि हम मांसाहार करते हैं, तो इसका अर्थ यह है कि हम परमात्मा की सन्तानो उसके पुत्र-पुत्रियों सहित अपने बिछुड़े हुए कुटुम्बियों, सम्बन्धियों तथा बन्धु-बांधवों का हनन कर उनका आहार कर करा रहे हैं। यह मनुष्य जैसे मननशील प्राणी के लिये किसी भी स्थिति में उचित नहीं है। यह पाप एवं अधर्म कर्म है। इसको हमें समझना है एवं तुरन्त मांसाहार का न केवल सेवन करना बन्द करना है अपितु किसी भी प्राणी को अनावश्यक किंचित कष्ट नहीं देना है। वर्तमान में देश देशान्तर के शिक्षित मनुष्य, मत-मतान्तरों के आचार्य एवं शासकगण इस तथ्य से अनभिज्ञ हैं कि जैसा जीवात्मा उन सबका है वैसे ही जीवात्मा सभी प्राणियों व जीव-जन्तुओं में भी विचरण कर रहे हैं। सभी प्राणियों को ईश्वर ने इनके पूर्वकर्मों का भोग करने के लिये उन योनियों में भेजा है। हमें मनुष्य जीवन में स्वयं भी अपने पूर्वकर्मों का भोग करना है और आगामी जीवन के लिये श्रेष्ठ कर्मों को करना है। हमें सत्यासत्य एवं ईश्वरीय जन्म-मरण व्यवस्था पर विचार करके सभी थल-जल-नभ चरों के लिये भी उनके जीवन के अनुकूल सुविधाजनक वातावरण प्रदान करना है जिससे वह अपने कर्मों का भोग कर सकें। यजुर्वेद में कहा गया है कि जो मनीषी अपनी आत्मा को दूसरे प्राणियों की आत्मा के समान जानता है और दूसरे प्राणियों की आत्मा को अपनी आत्मा के समान जानता था, उस धीर व विवेकी पुरुष को किसी प्रकार का शोक व मोह नहीं होता। जब हमें यह ज्ञान हो जाता है कि सभी प्राणी हमारे ही समान हैं व ईश्वर की प्रजा हैं, तो जिस प्रकार एक परिवार के सदस्य आपस में शोषण एवं अन्याय नहीं करते, उसी प्रकार वह विज्ञ व विप्रजन भी किसी प्राणी के प्रति अन्याय, शोषण व अत्याचार नहीं करते। इस ज्ञानयुक्त दृष्टि से पशु आदि प्राणियों की हत्या करना व मांसाहार जघन्यतम अपराध व पाप सिद्ध होता है। परमात्मा मनुष्यों को उनके इस कर्म का क्या दण्ड देगा, इसका विचार किया जा सकता है। हम कल्पना कर सकते हैं कि परमात्मा आगामी जीवन में भी हमें वैसे ही पशु बनायेगा जिनकी हमने हत्या की व कराई है और जिनका मांस खाया है। जब परजन्म में अन्य मनुष्य व प्राणी हमारा हनन करेंगे तो हमें कितना दुःख होगा इसकी हमें कल्पना कर लेनी चाहिये। आश्चर्य है कि हमारे अधिकांश मत-मतान्तर इस ज्ञान से कोरे हैं। वह स्वयं भी मांसाहार करते हैं व अपने अनुयायियों को भी कराते हैं अर्थात् उन्हें रोकते नहीं है। इससे हम अनुमान कर सकते हैं कि परजन्मों में परमात्मा इनकी क्या स्थिति कर सकता है। वैदिक धर्मी एवं वेदानुयायी होने के कारण हमें इस बात का सन्तोष है कि हम इस पाप से बचे हुए हैं। हम ईश्वर एवं उसके दिये वेदज्ञान के लिये आभारी हैं। ईश्वर व ऋषियों के द्वारा यह वेदज्ञान हम तक पहुंचा और हम जीवन के अनेक तथ्यों व रहस्यों को जानकर जिन्हें मत-मतान्तर के आचार्य एवं अनुयायी नहीं जानते, लाभान्वित हो रहे हैं। ईश्वर के इस संसार का त्यागपूर्वक भोग करते हुए अपने इस जन्म व भावी जन्म का सुधार कर रहे हैं। आर्यों अर्थात् वेदानुयायियों के पांच महायज्ञों व पांच महान् कर्तव्यों में बलिवैश्वदेव यज्ञ भी एक कर्तव्य वा यज्ञ है। इस कर्तव्य को सभी प्राणियों में एक समान जीव होने की भावना से ही निर्धारित किया गया प्रतीत होता है। इस यज्ञ में हम सभी प्राणियों को अन्न व भोजन प्रदान करने की कोशिश करते हैं। बलिवैश्वदेव यज्ञ में गो, कुत्ता, बिल्ली, आकाशस्थ विचरण करने वाले पक्षी एवं चींटी आदि को भी अन्न व भोजन प्रदान किया जाता है। मातायें भोजन बनाती हैं तो वह भी प्रथम रोटी गाय के लिये निकालती हैं। रसोई घर में तैयार लवणादिमुक्त पदार्थों से गृहणियां चूल्हें की अग्नि में आहुतियां दिया करती थीं। हमारा अनुमान है चूल्हें की अग्नि में जो अन्न व पकाये गये पदार्थों की आहुतियां दी जाती थी, उसका कारण वायुस्थ जीव-जन्तुओं तक भोजन पहुंचाना हो सकता है। उन तक भोजन पहुंचता है या नहीं, परन्तु भावना तो यही प्रतीत होती है। यह श्रेष्ठ एवं मंगल भावना है। हमारे एक दिवंगत मित्र श्री शिवनाथ आर्य कहा करते थे कि यज्ञ में बलिवैश्वदेव यज्ञ की जो आहुतियां दी जाती हैं उससे हम उस भोजन व अन्न को असंख्य सूक्ष्म जीव-जन्तुओं तक पहुंचाते हैं जिससे उस मात्रा में हम श्रेष्ठ कर्म करने के लाभार्थी बन जाते हैं। हम यज्ञ करके लाभार्थी बनते हैं या नहीं, इस भावना से ऊपर उठकर हमें श्रेष्ठ कर्मों को हमें बिना किसी स्वार्थ भावना के करना चाहिये। इससे निश्चय ही सृष्टि के संचालक एवं पालक परमात्मा की हमारे प्रति प्रसन्नता होगी जिससे हम अनेक हानियों से बच सकते हैं और हमें अनेक लाभ भी प्राप्त हो सकते हैं। हम ईश्वर, उसके वेदज्ञान सहित अपने सभी पूर्वज ऋषि-मुनियों-ज्ञानियों के ऋणी हैं जिन्होंने हमें ईश्वर-जीव-प्रकृति नामक त्रैतवाद के सिद्धान्त सहित सभी प्राणियों में एक समान जीवात्मा होने तथा उनके द्वारा मनुष्यों के समान ही सुख व दुःख का अनुभव किये जाने का ज्ञान व सिद्धान्त दिया है। सबसे अधिक आभारी हम ऋषि दयानन्द जी के हैं। उन्होंने सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय, पंचमहायज्ञविधि, गोकरुणानिधि आदि ग्रन्थ लिखकर हमें ईश्वर एवं ऋषियों के ज्ञान से सम्पन्न किया है जिससे हम अपने सभी कर्तव्यों व अकर्तव्यों को जानकर कर्तव्यों में प्रवृत्त होकर जन्म-जन्मान्तरों में सुख व आनन्द की प्राप्ति कर सकते हैं। सभी वैदिक धर्मियों का कर्तव्यों है कि वह बिना किसी लाभ के भी वेद का प्रचार जन-जन में करें जिससे हमारा प्रिय वैदिकधर्म और इसका प्रचारक आर्यसमाज जीवित रहते हुए मानवता का कल्याण करने के प्रमुख कर्तव्य व अग्रणीय भूमिका को निभा सके। वेदों का ज्ञान संसार को आर्यसमाज व उसके अनुयायी ही दे सकते हैं, अतः हमें अपने कर्तव्य पर ध्यान देना चाहिये। ओ३म् शम्। -मनमोहन कुमार आर्य
Vedic Vichar
06-07-2021
कर्मठ योगी, संन्यासी, विद्वान, दार्शनिक, ईश्वर भक्त, देशभक्त, समाज सुधारक, आर्य समाज रुपी आंदोलन के संस्थापक एवं विश्व प्रसिद्ध पुस्तक सत्यार्थप्रकाश के रचयिता महर्षि दयानंद जी को शत् शत् नमन ! पाखंडियों ने भारत के इस महान संत को सतरह बार विष दिया।
ईश्वर का मुख्य नाम ओ३म् है।
06-07-2021
"ईश्वर का मुख्य नाम ओ३म् है। इसका प्रमुख अर्थ है सर्वरक्षक। ईश्वर सब की रक्षा करता है। परंतु उसकी रक्षा को सब लोग अनुभव नहीं कर पाते।" जीवन में बहुत से लोग सही मार्ग पर चलते हैं। और बहुत से भटक भी जाते हैं। धर्म को छोड़कर अधर्म मार्ग पर चल पड़ते हैं। इसमें बहुत से कारण हैं। जिनमें से एक प्रमुख कारण संसार के लोगों का चाल-चलन है। "अधिकतर लोग शाब्दिक रूप से ईश्वर को मानते जानते हैं, वे ईश्वर को ठीक ठीक नहीं समझते।" वास्तव में, "ईश्वर एक महाबलवान सर्वश्रेष्ठ सर्वशक्तिमान राजा है, जिसकी नजर से बचना असंभव है।" जो सब आत्माओं के कर्मों को हर स्थान पर, हर समय, यथावत देखता है। और उचित समय आने पर उन कर्मों का ठीक-ठीक फल देता है। कभी किसी को माफ नहीं करता। "जैसे बिजली की तार छूने से तत्काल करंट लगता है। बिजली की तार एक बार भी माफ नहीं करती। ईश्वर का न्याय नियम भी ऐसा ही है। वह भी अपराध करने पर, एक बार भी माफ नहीं करता।" जैसे जैसे छोटे बड़े कर्म होते हैं, वैसे ही छोटे बड़े उनके फल भी, उसी प्रकार से ईश्वर देता है। जो लोग अच्छे काम करते हैं, उनको ईश्वर अच्छे फल देता है। "इसीलिए वह न्यायकारी कहलाता है, और संसार के लोग उसका सम्मान करते हैं।" परंतु संसार में सभी लोग इतने बुद्धिमान नहीं हैं, कि वे वास्तव में पूरा पूरा ईश्वर को ठीक से समझ लें। "कुछ लोग तो इतने लापरवाह और अज्ञानी हैं, कि वे अच्छे लोगों को भी बुरे मार्ग पर भटकाने की पूरी कोशिश करते हैं। दूसरों को लूटने ठगने में कोई कसर नहीं छोड़ते। ऐसे लोग ईश्वर के दंड से नहीं बच सकते। पशु पक्षी वृक्ष वनस्पति समुद्री जीव जंतु आदि योनियों में उन्हें भयंकर दुख भोगने पड़ते हैं।" जो लोग ईश्वर को ठीक प्रकार से समझते हैं, वे जानते हैं कि "ईश्वर हमारा मित्र है। वह माता पिता के समान हमारा रक्षक है। गुरु आचार्य के समान हमारा शिक्षक है। वह सदा हमें बुराई से बचाता रहता है, सन्मार्ग दिखाता रहता है। यह उसके द्वारा की गई हमारी बहुत बड़ी रक्षा है।" अब जो लोग इस बात को समझते हैं, वे ईश्वर की इस शिक्षा का लाभ लेते हैं। जब वे बुरे काम की योजना बनाते हैं, तब ईश्वर उन्हें अंदर से भय शंका लज्जा की अनुभूति उत्पन्न करके उन्हें बुराई से बचने का संकेत करता है। यह ईश्वर के द्वारा की गई उनकी रक्षा है। और जब वे अच्छे काम करते हैं, तो ईश्वर उन्हें अंदर से आनंद उत्साह निर्भयता आदि, इस प्रकार की अनुभूतियां उत्पन्न करके शुभ कर्म करने का संकेत देता है। यह भी उसकी रक्षा है। जो लोग ईश्वर की ऐसी रक्षा को समझते हैं, वे धैर्य पूर्वक पुरुषार्थ करते हुए स्वयं तो भटकते ही नहीं हैं, बल्कि दूसरों द्वारा भटकाने का प्रयास करने पर भी, ईश्वर उन्हें अच्छाई के मार्ग से गिरने से बचा लेता है। वे लोग बुराई के मार्ग पर नहीं जाते। ईश्वर उनकी सदा रक्षा करता है। "अतः आप और हम सबको ईश्वर की इस रक्षा का पूरा पूरा लाभ लेना चाहिए। ईश्वर हमारा सबसे बड़ा रक्षक है, जो 24 घंटे हमारे साथ रहकर सदैव हमारी रक्षा करता है। उसका सहारा कभी न छोड़ें।" ----- स्वामी विवेकानंद परिव्राजक, रोजड़, गुजरात।
वेदोपदेश एवं वेदाचारण
04-07-2021
वेदों में परमात्मा का उपदेश है कि परब्रह्म परमेश्वर सकल ब्रह्माण्ड का, अखंड जीवात्मा सकल शरीर का और प्रजाओं से निर्वाचित राजा सकल राष्ट्र का सम्राट है। परमात्मा सभी दोषों से सर्वथा रहित और सभी गुणों से पूर्णतया युक्त है। हमें ईश्वर की सभी गुणों को धारण करने का प्रयत्न करना है। मनुष्यों एवं प्रजा द्वारा निर्वाचित राजाओं में अनेक गुणों के साथ कुछ अवगुण भी देखने को मिलते हैं। हमें इनके सद्गुणों का ही सेवन करना होता है। हमें प्रत्येक दिवस अपने जीवन पर दृष्टि डालनी चाहिए और सभी अवगुणों व दोषों को दूर करना चाहिए। ऐसा करने से ही हमारा मनुष्य जन्म लेना सार्थक होगा। - मनमोहन आर्य
आर्य पत्र-पत्रिकाओं के माननीय सम्पादकों के सम्मान की योजना
04-07-2021
ओ३म् वैदिक धर्म के प्रचार-प्रसार में हमारे विद्वानों तथा भजनोपदेशकों सहित आर्य साहित्य के प्रकाशकों एवं नियमित प्रकाशित वैदिक विचारधारा प्रधान आर्य पत्र-पत्रिकाओं का भी प्रशंसनीय योगदान है। समाज में जो भी व्यक्ति वैदिक धर्म एवं ऋषि भक्ति से प्रभावित होकर वैदिक धर्म प्रचार में सहायक होता है, वह सभी सम्मानीय होते हैं। यह अनुभव किया गया है कि आर्यसमाज की पत्र-पत्रिकाओं के सम्पादकों का उत्साहवर्धन करने के लिये समाज में कोई योजना होनी चाहिये जिसका वर्तमान में अभाव है। इस उद्देश्य की पूर्ति करने के लिये आर्यसमाज की प्रमुख मासिक पत्रिका ‘‘अध्यात्म पथ” की ओर से आर्य पत्र-पत्रिकाओं के सम्पादक महानुभावों के सम्मान की योजना बनाई जा रही है। इसके अन्तर्गत चयनित सम्पादक बन्धुओं को प्रशस्ति-पत्र सहित सम्मान धनराशि दिये जाने का विचार है। इस कार्यक्रम को आनलाईन क्रियान्वित किया जा सकता है। इसके बाद आर्य पत्र-पत्रिकाओं के सम्पादक महानुभावों का एक आनलाइन सम्मेलन आयोजित किये जाने का भी विचार है। इन योजनाओं को क्रियान्वित करने के लिए विश्व के सभी आर्य पत्र-पत्रिकाओं के सम्पादक महानुभावों से सहयोग की अपेक्षा है। सभी से प्रार्थना है कि वह अधोलिखित ई-मेल अथवा व्हाट्सएप्प पर निम्न जानकारी प्रेषित करने की कृपा करें। 1- पत्र-पत्रिका का नाम, 2- प्रकाशन का आरम्भ किस वर्ष में हुआ, 3- पत्र-पत्रिका की प्रकाशन अवधि, 4- पत्र-पत्रिका की कुल पृष्ठ संख्या, 5- प्रकाशन का स्थान/नगर आदि, 6- पत्र-पत्रिका की प्रसार संख्या, 7- पत्रिका के वर्तमान सम्पादक जी का नाम व पता (मोबाइल/व्हटशप नम्बर सहित), 8- सम्पादक महोदय की जन्म तिथि एवं शिक्षा, 9- पत्रिका किस भाषा व भाषाओं में प्रकाशित होती है, 10- सम्पादक महोदय जी द्वारा अद्यावधि लिखे सम्पादकीय लेखों सहित वैदिक विषयपरक लेखों की संख्या। नोट- कृपया पत्र-पत्रिका के उपसम्पादक तथा सहसम्पादकों के विषय में भी उक्त जानकारी पृथक-2 प्रेषित करें। आर्य पत्र-पत्रिकाओं के सभी सम्मानित सम्पादक महोदयों से अनुरोध है कि वह उक्त विवरण निम्न पते, व्हटशप न. वा ईमेल पर प्रेषित करने की कृपा करें जिससे अभीष्ट कार्य सम्पादित किया जा सके। निवेदकः- चन्द्रशेखर शास्त्री, प्रधान सम्पादक अध्यात्म पथ (मासिक), फ्लैट नंबर-सी-1, पूर्ति अपार्टमेंट, विकासपुरी, नई दिल्ली-110018 मोबाईल न. 9810084806 [with whatsapp] Email: adhyatmapath@yahoo.com
ବୃକ୍ଷ ହିଁ ଜୀବନ
04-07-2021
ଯେଉଁ ସଂକଳ୍ପ ଆମେ ଦୟାନନ୍ଦ ଆଦର୍ଶ ଗୁରୁକୁଳ ତରଫରୁ ସମସ୍ତ ସଭ୍ୟ ନେଇଥିଲୁ ବିଶ୍ଵ ପରିବେଶ ଦିବସ ରେ, ଯେ ବୃକ୍ଷରୋପଣ କାର୍ଯ୍ୟକ୍ରମ ନିରନ୍ତର ଚାଲୁରହିବ ସେଥିପାଇଁ ଆମେ ସର୍ବଦା ତତ୍ପର। ସେ ଯାହା ହେଉ ଆମର ସୌଭାଗ୍ୟ ଯେ ଆଜି ଆମ ଗ୍ରହଣରେ ଆମର ମାର୍ଗଦର୍ଶକ ପଣ୍ଡିତ ବିରେନ୍ଦ୍ର କୁମାର ପଣ୍ଡା ଏବଂ ସମସ୍ତ କର୍ମକର୍ତ୍ତା ଉପସ୍ଥିତ ରହି ବୃକ୍ଷରୋପଣ କାର୍ଯ୍ୟକ୍ରମ କୁ ସଫଳ କରାଇଲୁ। ′′ पेड़ ही जीवन हैं ′′ विश्व पर्यावरण दिवस पर दयानंद आदर्श गुरुकुल की ओर से सभी सदस्यों को जो संकल्प लिया उसके लिए हम सदैव तत्पर हैं । जो भी हो सौभाग्य है कि आज हमारे मार्गदर्शक पंडित बिरेंद्र कुमार पांडा और सभी कार्यकर्ता उपस्थित होकर वृक्षारोपण कार्यक्रम को सफल बनाया । @ Birendra Kumar Panda
ସୃଷ୍ଟିକର୍ତ୍ତା ପ୍ରଜାମାନଙ୍କର କଲ୍ୟାଣପାଇଁ ବାରମ୍ବାର ଜଗତକୁ ସୃଷ୍ଟି କରନ୍ତି
04-07-2021
कल्याणार्थं प्रजानां सृजति स जगतीं सन्ततं सृष्टिकर्त्ता कल्पान्तं वै विधत्ते तदनु स जगतो दृश्यमानस्य चास्य। सृष्ट्यां नित्यं चकास्ति प्रविततधरणी लुप्यते संक्षयेऽसौ क्रीडां चैतां स्वकीयां रचयति महतीं विश्वरूपो महात्मा।। ଅର୍ଥ :-- ସେହି ସୃଷ୍ଟିକର୍ତ୍ତା ପ୍ରଜାମାନଙ୍କର କଲ୍ୟାଣପାଇଁ ବାରମ୍ବାର ଜଗତକୁ ସୃଷ୍ଟି କରନ୍ତି। ତାପରେ ସେ ଏହି ଦୃଶ୍ୟମାନ ଜଗତର ପ୍ରଳୟବିଧାନକରନ୍ତି। ସୃଷ୍ଟିରେ ସର୍ବଦା ଏହି ବିଶାଳଧରଣୀ ଶୋଭମାନ ହୁଏ ଏବଂ ପ୍ରଳୟରେ ଲୋପପାଇଯାଏ। ବିଶ୍ୱରୂପୀ ପରମାତ୍ମା ନିଜର ଏହି ମହତ୍-କ୍ରୀଡାକୁ ରଚନା କରିଥାଆନ୍ତି। Kishore Chandra Kar
Events
The Life and Teachings of Swami Dayanand Saraswati: A Path to Enlightenment
05-11-2023
Article on "The Life and T The Life and Teachings of Swami Dayanand Saraswati: A Path to Enlightenment Introduction Swami Dayanand Saraswati, a renowned Indian sage and reformer, played a significant role in the socio-religious landscape of 19th-century India. His life and teachings have left a profound impact on the nation, shaping its intellectual and spiritual thought. Swami Dayanand's pursuit of truth, promotion of Vedic knowledge, and commitment to social reform continue to inspire seekers of enlightenment and truth. Early Life and Transformation Swami Dayanand Saraswati was born in 1824 in the small village of Tankara in the western Indian state of Gujarat. His birth name was Mool Shankar, and from a young age, he displayed an inquisitive mind and a deep interest in spirituality. A pivotal moment in his life occurred when he survived a near-death experience as a child, which he believed was a divine intervention that set him on a path of spiritual awakening. Teachings and Reforms Swami Dayanand Saraswati is best known for his efforts to revive and propagate the teachings of the Vedas, the ancient sacred scriptures of India. He believed that the Vedas contained the ultimate truth and that by adhering to their principles, individuals could attain spiritual enlightenment. His key teachings and reforms can be summarized as follows: Vedic Revival: Swami Dayanand emphasized the study and understanding of the Vedas. He advocated for a return to the pristine Vedic religion and sought to remove the corruptions that had crept into Hinduism over the centuries. Monotheism: He promoted the belief in a single, formless God as described in the Vedas, rejecting polytheism and idol worship. Social Reform: Swami Dayanand was a strong advocate for social reforms. He condemned practices like caste discrimination, child marriage, and untouchability, advocating for social equality and justice. Educational Reform: He believed that education should be accessible to all and promoted the establishment of schools and the spread of Vedic knowledge. Legacy and Influence Swami Dayanand Saraswati's legacy continues to influence modern India. His teachings formed the foundation of the Arya Samaj, a socio-religious reform movement he founded. The Arya Samaj played a pivotal role in social reform, educational advancement, and the promotion of Vedic knowledge. His teachings also had a significant impact on other prominent leaders like Mahatma Gandhi and Swami Vivekananda, who were inspired by his ideals of truth, non-violence, and spiritual exploration. Conclusion The life and teachings of Swami Dayanand Saraswati are a beacon of enlightenment, guiding individuals towards the pursuit of truth, social justice, and spiritual awakening. His relentless efforts to revive the wisdom of the Vedas and reform society left an indelible mark on India's cultural and spiritual landscape. Swami Dayanand's commitment to the principles of truth and righteousness continues to inspire generations and serves as a path to enlightenment for those seeking spiritual and moral clarity. Author: Dr. Yajnya Dutta Nayak
ଉତ୍କଳୀୟ ନବବର୍ଷ, ପବିତ୍ର ମହାବିଶୁଭ ସଂକ୍ରାନ୍ତି ଅବସରରେ..
14-04-2023
ଉତ୍କଳୀୟ ନବବର୍ଷ, ପବିତ୍ର ମହାବିଶୁଭ ସଂକ୍ରାନ୍ତି ଅବସରରେ ଆପଣଙ୍କୁ ଅନେକ ଅନେକ ଶୁଭେଚ୍ଛା ଓ ଅଭିନନ୍ଦନ । ଏହି ନବବର୍ଷ ଆମ ସମସ୍ତଙ୍କ ପାଇଁ ସୁଖ, ସଂବୃଦ୍ଧି, ଉନ୍ନତି ଓ ପ୍ରଗତିର ବର୍ଷ ହେଉ.... ସନାତନ ସଂସ୍କୃତି ରେ ନବବର୍ଷ ପାଳନ ସୌରମାସ କିମ୍ବା ଚାନ୍ଦ୍ରମାସର ପାରମ୍ପରିକ ଗଣନା ଅନୁସାରେ ପାଳିତ ହୋଇଥାଏ । ଚାନ୍ଦ୍ରମାସର ଗଣନା ଅନୁସାରେ ଏହି ନବବର୍ଷ ଚୈତ୍ର ଶୁକ୍ଳ ପ୍ରତିପଦା ତିଥିରେ ପାଳିତ ହେଉଥିବା ବେଳେ ସୌରମାସର ଗଣନା ଅନୁସାରେ ଏହା ମେଷ ସଂକ୍ରାନ୍ତି ବା ମହାବିଷୁବ ସଂକ୍ରାନ୍ତି ଦିନ ପାଳନ ହୋଇଥାଏ । ଚାନ୍ଦ୍ରମାସ ଗଣନା ପଦ୍ଧତି ପୂର୍ଣ୍ଣିମା ଅଥବା ଅମାବାସ୍ୟା ଠାରୁ ଆରମ୍ଭ ହେଉଥିବା ସ୍ଥଳେ ସୌରମାସର ଗଣନା ପଦ୍ଧତି ସଂକ୍ରାନ୍ତି ଠାରୁ ଆରମ୍ଭ ହୋଇଥାଏ । ସୌରମାସ ଗଣନା ପଦ୍ଧତି ଅନୁଯାୟୀ ମେଷ ସଂକ୍ରାନ୍ତିକୁ ବର୍ଷର ପ୍ରଥମ ସଂକ୍ରାନ୍ତି ଭାବେ ଗଣନା କରାଯାଇଥାଏ । ମେଷ ସଂକ୍ରାନ୍ତି ଦିନ ସୂର୍ଯ୍ୟ ବିଷୁବ ରେଖା ଉପରେ ଅବସ୍ଥାନ କରୁଥିବାରୁ ଏହି ଦିନଟି ମହାବିଷୁବ ସଂକ୍ରାନ୍ତି ରୂପେ ନାମିତ । ତେଣୁ ଏହି ଦିନ ଆମ ଓଡ଼ିଶାରେ ନବବର୍ଷ ପାଳନ ସହିତ ନୂତନ ପଞ୍ଜିକା ପ୍ରଚଳନ ହୁଏ । ଏହି ଶୁଭ ନବବର୍ଷ ଦିନ ଅନେକ ବ୍ୟକ୍ତି ନିଜ ନିଜର ଅନେକ କାମ ମଧ୍ୟ ଅନୁକୂଳ କରିଥାନ୍ତି । ଏହି ମହାବିଷୁବ ସଂକ୍ରାନ୍ତି ଅବସରରେ ଓଡ଼ିଶାରେ ଘରେ ଘରେ ହୋମ ଯଜ୍ଞ ହୋଇଥାଏ ଏବଂ ଅନେକ ଗ୍ରାମରେ ସାମୁହିକ ଯଜ୍ଞ ମଧ୍ୟ ଅନୁଷ୍ଠିତ ହୋଇଥାଏ । ଏଥିସହିତ ଘରେ ଘରେ ପାଚିଲା ବେଲରୁ ପଣା ପ୍ରସ୍ତୁତ ହୋଇ ବଣ୍ଟାଯାଇଥାଏ । ତେଣୁ ଏହି ଦିବସଟିକୁ ‘ପଣା ସଂକ୍ରାନ୍ତି’ ବୋଲି ମଧ୍ୟ କୁହାଯାଇଥାଏ । ଲୋକମାନେ ଏହି ଶୀତଳତା ପ୍ରଦାନକାରୀ ପଣା ଗ୍ରହଣ କରି ରୌଦ୍ରତାପରୁ ରକ୍ଷା ପାଇଥାନ୍ତି । ଏହି ଦିନ ମଧ୍ୟ ପଥିକ ମାନଙ୍କର ତୃଷା ନିବାରଣ ପାଇଁ ବାଟେ ଘାଟେ ଜଳଛତ୍ର ମାନ ଖୋଲାଯାଇଥାଏ । ଏହି ଦିନ ଅନେକ ଧର୍ମପ୍ରେମୀ ଲୋକ ଧର୍ମାର୍ଜନ ପାଇଁ ପଥିକ ତଥା ଗରିବଙ୍କୁ ଛତ୍ର, ପାଦୁକା (ଛତା-ଜୋତା) ଆଦି ଦାନ କରିଥାନ୍ତି । ଓଡ଼ିଆ ସଂସ୍କୃତି ରେ ତଥା ଅନେକ ପ୍ରକାରର ଔଷଧୀୟ ଗୁଣ କାରଣରୁ ଆୟୁର୍ବେଦ ଶାସ୍ତ୍ରରେ ମଧ୍ୟ ତୁଳସୀ ଗଛର ମାହାତ୍ମ୍ୟ ସର୍ବାଧିକ । ଏଣୁ ସାଧାରଣତଃ ପ୍ରତ୍ୟେକ ଓଡିଆଙ୍କ ଅଗଣାରେ ତୁଳସୀ ଚଅଁରା ଦେଖିବାକୁ ମିଳିଥାଏ । ଏହି ଅବସରରେ ତୁଳସୀ ଗଛ ଉପରେ ଏକ ସରୁ ରନ୍ଧ୍ର ଥିବା ଘଟି ବା ଠେକି ସ୍ଥାପନ କରାଯାଇଥାଏ । ସେହି ଘଟିର ରନ୍ଧ୍ରରେ କୁଶ ସ୍ଥାପନ କରାଯାଇ ମହାବିଷୁବ ସଂକ୍ରାନ୍ତି ଦିନ ଜଳ ଦିଆଯାଇଥାଏ, ଯାହାଦ୍ଵାରା କି ଜଳ କୁଶ ମଧ୍ୟ ଦେଇ ଟୋପା ଟୋପା ହୋଇ ତୁଳସୀ ଗଛ ଉପରେ ପଡ଼ିଥାଏ ଓ ତୁଳସୀ ଗଛ ପ୍ରବଳ ଗ୍ରୀଷ୍ମରେ ମଧ୍ୟ ଚିର ସବୁଜ ରହିଥାଏ । ତେବେ ଆସନ୍ତୁ ନିଜ ମହାନ ଗୌରବମୟ ଉତ୍କଳୀୟ ସଂସ୍କୃତି ସହ ପରିଚିତ ହୋଇ ନିଜ ସଂସ୍କୃତି କୁ ସମ୍ମାନ ଦେଇ ସାମାଜିକ ସୌହାର୍ଦ୍ଦ୍ୟ ଓ ଭାତୃତ୍ୱର ଏହି ପର୍ବ ମହାବିଷୁବ ସଂକ୍ରାନ୍ତି ବା ପଣା ସଂକ୍ରାନ୍ତିକୁ ହର୍ଷୋଲ୍ଲାସ ର ସହିତ ପାଳନ କରିବା । ✍️ ମହିମା ସାଗର ମହାବିଷୁବ ସଂକ୍ରାନ୍ତି ବିକ୍ରମ ସମ୍ବତ :୨୦୮୦ ତା : ୧୪-୦୪-୨୦୨୩
ଆୟୁର୍ବେଦ ସିଦ୍ଧାନ୍ତ ରହସ୍ୟ
11-11-2022
ଅତିକୃଶତା ର କାରଣ ଅଧିକ ପତଳାପଣର ମୁଖ୍ୟ କାରଣ ଖାଦ୍ୟ-ପାନୀୟ, କମ ମାତ୍ରାରେ ଖାଇବା, ଶୋକ, ଚିନ୍ତା, କ୍ରୋଧ କରିବା, ସ୍ବାଭାବିକ ବେଗକୁ ରୋକିବା, କମ ମାତ୍ରାରେ ଶୋଇବା, ଅଧିକ ସ୍ନାନ କରିବା, ବମନ, ବିରେଚନ ଆଦି ସଂଶୋଧନ ଚିକିତ୍ସା ଅଧିକ ମାତ୍ରାରେ କରିବା, ଋକ୍ଷ ଦ୍ରବ୍ଯ ଗୁଡିକରେ ଉବଟନ କରିବା, ବାର୍ଦ୍ଧକ୍ୟ ଏବଂ ବଂଶଗତ ପ୍ରଭାବ ଆଦି। ଅତିକୃଶତାର ଚିକିତ୍ସା ୧) ଉତ୍ତମ ନିଦ୍ରା, ପ୍ରସନ୍ନତା, ଆରାମଦାୟକ ଶେଯ, ସନ୍ତୋଷ ଏବଂ ମନର ସ୍ଥିରତା। ୨) ଚିନ୍ତା, ସମ୍ଭୋଗ ଏବଂ ଅଧିକ ଶାରୀରିକ ଶ୍ରମରୁ ନିଜକୁ ଦୂରେଇ ରଖିବା। ୩) ଉତ୍ତମ ସ୍ବଭାବର ବ୍ୟକ୍ତିମାନଙ୍କ ସହିତ ମିଶିବା। ୪) ଦହି, ଘିଅ, କ୍ଷୀର, ଆଖୁ, ବିରି, ଗହମ ଏବଂ ଗୁଡ ଆଦିରେ ନିର୍ମିତ ଭୋଜନ ଗ୍ରହଣ କରିବା। ୫) ନିୟମିତ ତେଲ ମାଲିସ, ସ୍ନିଗ୍ଧ ପଦାର୍ଥର ଉବଟନ ଏବଂ ଗରମ ଜଳ ସ୍ନାନ। ୬) ସୌମ୍ୟ ଏବଂ କୋମଳ ବସ୍ତ୍ର ପରିଧାନ କରିବା। ପ୍ରାକୃତିକ ସୁଗନ୍ଧିତ ଅତରର ପ୍ରୟୋଗ। ୭) ସମସ୍ତ ପ୍ରକାରର ଚିନ୍ତାରୁ ମୁକ୍ତ ରହିବା ତଥା ଠିକ ସମୟରେ ପୌଷ୍ଟିକ ଖାଦ୍ୟ ଗ୍ରହଣ କରିବା। ୮) ନିୟମିତ ଆସନ, ପ୍ରାଣାୟାମ କରିବା। ପ୍ରାତଃ ଭ୍ରମଣ ଦ୍ବାରା ଶୁଦ୍ଧ ବାୟୁ ସେବନ କରିବା। ୯) ଶୀଘ୍ର ହଜମ ହେଉଥିବା ଖାଦ୍ୟ ଗ୍ରହଣ କରିବା, ମିଶ୍ରି ଯୁକ୍ତ କ୍ଷୀର ପିଇବା। ୧୦) ସୋୟାବିନ, ଗହମ, ଯବ, ଚଣା ଆଦି ପୁଷ୍ଟିସାର ଯୁକ୍ତ ପଦାର୍ଥର ଦଲିଆ ଖାଇବା। ଏହି ସବୁ ଉପାୟଗୁଡିକ ଦ୍ବାରା ଅତିକୃଶତା ତଥା ଏହାଦ୍ବାରା ହେଉଥିବା ରୋଗ ଗୁଡିକରୁ ରକ୍ଷା ମିଳିଥାଏ। Vedic Vichar
Vedic TV
27-09-2022
Vedic TV live www.vedicvichar.com Everyday Evening Vedic Vichar, Vedic culture, Vedic thought, Swami Dayanand Saraswati TV is Vedic TV, Berhampur TV, spritual TV means Vedic TV, Social TV is called Vedic TV, VEDIC TV opened by Vedic Vichar, India's First Spritual TV www.vedicvichar.com, VEDIC Media Means Vedic TV, International Vedic TV available in Vedic Vichar vedicvichar.com, Social TV is Vedic TV, Opened TV today at Vedic Vichar, spritual TV, VEDIC TELIVISION VEDIC TV, OMM TV IS VEDIC TV, KNOWLEDGE TV IS VEDIC TV, KNOW YOUR LIFE IN VEDIC TV, VEDIC TV IS A SPRITUAL AND SOCIAL CULTURAL TV, DAYANAND TV IS VEDIC TV, ARYA TV IS CALLED VEDIC TV, LANGUAGE TV IS CALLED VEDIC TV, GET YOUR CULTURE AT VEDIC TV, GET YOU IN VEDIC TV, VEDICVICHA TV , VICHAR TV IS VEDIC TV OPENED AT VEDIC VICHAR
VEDIC TV
12-09-2022
आपको सूचित किया जाता है कि वैदिक विचार संस्था की शुरुआत हुई वैदिक टीवी VEDIC TV प्रतिदिन शाम 7.30 से 8.30 आप यहाँ देख सकते हैं www.vedicvichar.com
MAA BIRASINGHI COLD STORAGE
21-08-2022
MAA BIRASINGHI COLD STORAGE, NH-5, NEAR HALADIA PADAR, BERHAMPUR, ODISHA, MASHROOM HOLESALE , Sekhar Chandra Panigrahi CONTACT : 9937184243, +919348800272
ଦେବତା ନାମରେ ପୂଜା କର୍ମ ହୁଏ ତାହାସବୁ ବୈଦିକ କୁହାଯାଏ
26-06-2022
ଆଜି ଯାଏଁଯେତେ ସଂସ୍କାର ଓ ଦେବତା ନାମରେ ପୂଜା କର୍ମ ହୁଏ ତାହାସବୁ ବୈଦିକ କୁହାଯାଏ କିନ୍ତୁ . . . . ସେମନ୍ତ୍ରଗୁଡିକ ଶ୍ଳୋକରେ ପରିଣତ କଲା କିଏ ? ********************* ଆଜକୁ ପ୍ରାୟ୫୦୦୦ ହଜାର ବର୍ଷ ପୂର୍ବେ ମହାଭାରତ ଯୁଦ୍ଧ ସମାପ୍ତି ହୋଇଥିଲା, ତାପରେ ପରେ ବେଦଶିକ୍ଷା ଲୁପ୍ତ ହୋଇଗଲା ସତ୍ୟ, କାରଣ ବୈଦିକ ବ୍ୟାକରଣ ମିଳେନାହିଁ,ବୁଝିହୁଏ ନାହିଁ ଏଣୁ ବୁଝିବୁଝାଇବା କ୍ଲିଷ୍ଟ ହୋଇ ଗଲା, ଏହା ମୂଖ୍ୟକାରଣ ଯେଉଁମାନେ ବଂଶାନୁକ୍ରମିକ ଭାବେ ବେଦ ପଠନ ପାଠନ କରୁଥିଲେ ସେମାନେ ଭୋଗବାଦରେ ବ୍ୟସ୍ତ ରହିଲେ, ବିଭିନ୍ନ ଦ୍ରବ୍ୟ ଭୋଗ ଲାଳଷାରେ ମସ୍ତି ହେଲେ ଓସ୍ଵାର୍ଥ ସିଦ୍ଧି ପାଇଁ କର୍ମକାଣ୍ଡ ରଚନା କରି ଅର୍ଥ ଉପାର୍ଜନ କଲେ ।ଫଳରେ ବିଦ୍ଵାନ ମାନେ ସହଜ ଓ ସୁବିଧା ଯନ୍ତ୍ର,ତନ୍ତ୍ର ଓ ପୁରାଣ ଆଦି ରଚନା କରିଚାଲିଲେ ବେଦ ସ୍ଥାନରେ ଏ ଗୁଡ଼ିକୁସ୍ଥାନିତ ହୋଇଗଲା ଫଳରେ ବହୁଶ୍ଵର ବାଦ, ଜନ୍ମଗତ ବର୍ଣ୍ଣ ପ୍ରଥା, ଅସ୍ପୃଶ୍ୟତା, ନାରୀ ଅବହେଳା,ଭାଗ୍ୟବାଦ ଇତ୍ୟାଦି ଅନ୍ଧବିଶ୍ୱାସ କାର୍ଯ୍ୟ ପ୍ରଚଳିତ ହୋଇ ଚାଲିଲା ।ଏବେ ଆମ ସମସ୍ତଙ୍କର ମନରେ ପ୍ରଶ୍ନ ଯେ ଏହା ତ କେବେ ଠାରୁ ଅଛି ତୁମେ କ'ଣ ବଡ଼ପଣ୍ଡିତ ସବୁ ଖଣ୍ଡନ କରି ପକାଉଛ? ହଁଏହା ସତ୍ୟ ପ୍ରାୟ ୫୦୦୦ ବର୍ଷ କ'ଣ କମ୍ କଥା କି!ଏହା ତ ରକ୍ତ, ଅସ୍ଥିମଜ୍ଜା ଗତ ହୋଇ ଗଲାଣି ସତେ ଇଶ୍ଵର ମୁଖ ନିସୃତ ବାଣୀ ପରି ମନେ ହେଉଅଛି। ଏ ସବୁ ଖଣ୍ଡନ କର୍ତ୍ତା ହେଉଛନ୍ତି ଊନବିଂଶ ଶତାବ୍ଦୀରେ ଯୋଗଜନ୍ମା ମହର୍ଷି ଦୟାନନ୍ଦ ସରସ୍ଵତୀ ସେ ବେଦର ପୁନଃ ଉଦ୍ଧାର କରିପ୍ରଚାର କରି ବସିଥିଲେ,ସେ ବ୍ୟାକରଣସୂର୍ଯ୍ୟଦଣ୍ଡି ବିରାଜ ନନ୍ଦ ସରସ୍ଵତୀଙ୍କ ଠାରୁ ବୈଦିକ ବ୍ୟାକରଣ ଶିକ୍ଷା କରି ଗୁରୁଙ୍କୁ ଦକ୍ଷିଣା ସ୍ୱରୂପ ରେବେଦ ପ୍ରଚାର ପ୍ରସାର ପାଇଁ ବ୍ରତ ନେଇଥିଲେ। ତେଣୁ ମହର୍ଷି ଦୟାନନ୍ଦ" ବେଦକୁ ପଢିବା, ପଢ଼ାଇବା, ଶୁଣିବା ଓ ଶ୍ରବଣ କରାଇବା ପ୍ରତ୍ୟେକ( ଆର୍ଯ୍ୟ-ସଦାଚାରୀ) ର ପରମ ଧର୍ମ ବୋଲି ସମସ୍ତ ଆର୍ଷ ଗ୍ରନ୍ଥରେ ପ୍ରେରଣା ଦେଇଛନ୍ତି।ଆଧୁନିକ କାଳରେ ପ୍ରାୟ୯୦ % ବେଦ ସମ୍ବନ୍ଧିତ ଗ୍ରନ୍ଥ ଗୁଡିକ ଦୟାନନ୍ଦଭାଷ୍ୟ ପ୍ରକାଶ କରୁଛନ୍ତି। ଭାରତ ସମସ୍ତ ଗୁରୁକୁଳ ଏପରିକି ବିଶ୍ଵ ଯୋଗଗୁରୁ ବାବା ରାମଦେବ ତାଙ୍କ ପ୍ରତିଶ୍ଵାସରେ ମହର୍ଷି ଦୟାନନ୍ଦ ରଚିତ ସତ୍ୟାର୍ଥ , ବ୍ୟବହାରଭାନୁ ଓ ଯାଜ୍ଞକ ପଦ୍ଧତି ,ବେଦ ଭାଷ୍ୟ ଗୁଡିକୁ ପ୍ରାଧାନ୍ୟ ଦେଇଚାଲିଛନ୍ତି। ଆଜି ଭାରତର ପ୍ରତି କୋଣ ଅନୁକୋଣରେ ଗୁରୁକୁଳମାନଙ୍କରେ ବ୍ୟାକରଣ ନିରୁକ୍ତ, ବେଦ , ଦର୍ଶନ, ଓ ଉପନିଷଦ ଆଦିର ଅଧ୍ୟାପନାର ବ୍ୟବସ୍ଥା ରହିଅଛି। ତଥାପି ଏହା ଯଥେଷ୍ଟ ନୁହେଁ କାରଣ ସରକାର ଏଗୁଡ଼ିକୁ ପ୍ରାଧାନ୍ୟ ଦେଉ ନାହିଁନ୍ତି। ସେମାନେ ମଧ୍ୟ ଏହାର ଭୂମିକା ସମ୍ବନ୍ଧରେ ଅନବିଜ୍ଞ । ସକଳ ପ୍ରକାର ରଙ୍ଗଭେଦ, ଜାତି(ବର୍ଣ୍ଣ) ଭେଦ, ସାଂପ୍ରଦାୟିକତା ଲୋପ ପାଇଗଲେ ତାଙ୍କର ସ୍ଵାର୍ଥରେ କ୍ଷତି ଘଟିବ କିନ୍ତୁ ଏଗୁଡ଼ିକ ଦୂର ନହେବା ପର୍ଯ୍ୟନ୍ତ ଆମ ମଧ୍ୟ ରେ ଧର୍ମଜ୍ଞାନ ଉଦ୍ରେକ ହେବାର ପ୍ରଶ୍ନହିଁ ନାହିଁ। ଏଣୁ ଇଶ୍ଵର ଋଗ୍ବେଦରେ ଶେଷ ଭାଗରେ ମଣିଷ ମାନଙ୍କୁ ପରାମର୍ଶ ଦେଇ କହନ୍ତି" ଓ ୩ମ୍ ସମାନୋ ମନ୍ତ୍ର8 ସମିତିଃ ସମାନୀ ସମାନଂ ମନଃ ସହ ଚିତ୍ତ ମେଷାମ୍ । ସମାନଂ ମନ୍ତ୍ରମ ଭିମନ୍ତ୍ରୟେ ବଃ ସମାନେ ନ ବୋ ହବିଷା ଜୁହୋମି(ମ ୧୦/ ସୂ୧୯୧/ମ୩) ଅର୍ଥାତ୍ ଏଷାମ୍- ଏହି ମନୁଷ୍ୟମାନଙ୍କର( ମନ୍ତ୍ର-ବିଚାର) ସମାନ8_ସମାନ ହେଉଅର୍ଥ ଏକ ହେଉ । ସମିତିଃ _ପରଷ୍ଵର ସଙ୍ଗତି ଏକ ହେଉ । (ମନଃ ସମାନମ୍ -ଅନ୍ତଃକରଣ ସମାନ ହେଉ ।(ଚିତ୍ତମ୍ ସହ-ଚିତ୍ତ ପରସ୍ପର ଅନୁକୂଳ ହେଉ ।(ବଃ । ତୁମ୍ଭମାନ ପାଇଁ ସମାନ ବିଚାର ଅଥବା ବେଦବାଣୀ( ଅଭିମନ୍ତ୍ର ୟେ) ମନ୍ତ୍ରଦାନ କରୁଅଛି।(ବଃ ସମାନେନହବିଷା ଜୁହୋମି) ତୁମ୍ଭମାନଙ୍କୁ ଏକ ପ୍ରକାର ଅନ୍ନାଦି ବସ୍ତୁର ସୁଯୋଗ ପ୍ରଦାନ କରୁଅଛି। ଏହି ମନ୍ତ୍ର ଶେଷଭାଗରେ ପ୍ରଭୁ ସାବଧାନ କରି କହୁଛନ୍ତି ହେମନୁଷ୍ୟଗଣ ମୁଁ ତୁମ ସମସ୍ତଙ୍କୁ ସମାନ ସୁଯୋଗ ଅର୍ପଣ କରୁଅଛି। ସମସ୍ତଙ୍କ ପାଇଁ ଚନ୍ଦ୍ର, ସୂର୍ଯ୍ୟ, ଭୂମି, ଜଳ, ଅଗ୍ନିଓ ବାୟୁ ଆଦି ସମାନ ଭାବରେ ମିଳିଛି ଏଣୁ ତୁମର ଶରୀର ଗଠନ ମଧ୍ୟ ଏକ ପ୍ରକାର ଓ ଶାସ୍ତ୍ର ଏକ ପ୍ରକାର ଏଣୁ ତୁମେ ମୋର ଏହି ହିତକାରୀ ଉପଦେଶ ଗ୍ରହଣ କର।ସମସ୍ତେ ଏକ ମନ୍ତ୍ର, ଏକ ସମିତି, ଏକ ଚିତ୍ତ ଏକ ଉପାସନା କର । କିନ୍ତୁ ଦୁଃଖ ଓ ପରିତାପର ବିଷୟର ଧର୍ମ ନାମରେ ଆମେ ହିଂସା ଓ ରକ୍ତପାତ କରିଚାଲିଅଛେ । ଏହାର ଗୋଟିଏ ମାତ୍ର କାରଣ ଆମର ଅଜ୍ଞାନ ରୂପକ ଅହଙ୍କାର ଏଠାରେ ପହଞ୍ଚାଇଦେଇଅଛି। ଏହାର ଅବସାନ ଘଟିବ ଯଦି ଆମେ ସମସ୍ତେ ବେଦର ଆଦେଶକୁ ମାନିନେବା । ଇତି ଓ ୩ମ୍ । ରାଜକିଶୋର ଆର୍ଯ୍ୟ
ସ୍ଵର୍ଗ ଓ ନର୍କ ନିଜର ଜ୍ଞାନ ଉପରେ ଦଣ୍ଡାୟମାନ ।
26-06-2022
ସ୍ଵର୍ଗ ଓ ନର୍କ ନିଜର ଜ୍ଞାନ ଉପରେ ଦଣ୍ଡାୟମାନ । ***""""""""""*****""""""""""***""" ଆମେ ଆଜିକାଲି ବିଚିତ୍ର କଳ୍ପନା କରି ବସିଅଛେ ଅବଶ୍ୟ ତାହା ପୁରାଣରୁ ସେ ଜ୍ଞାନ ଟି ଲବ୍ଧ ହୋଇଅଛି ତାହା ଏପରି ଯେ ସ୍ଵର୍ଗ ଏକ ସ୍ଥାନ ଯେଉଁଠାରେ ଦୁଧ, ମହୁ ନଦୀର ବନ୍ୟା ହୁଏ । ସୁନ୍ଦର ଉପବନରେ ଅପ୍ସରାଓ ଗନ୍ଧର୍ବମାନେ ନୃତ୍ୟ କରନ୍ତି ଓ ସେଠାରେ ରୋଗ, ଶୋକ ଓ ମୃତ୍ୟୁ ନାହିଁ। ବିଳାସ ବ୍ୟସନର ଅପୂର୍ବ ସ୍ଥଳ। ସଂପ୍ରଦାୟୀ ମାନେ ଯଥା ପୁରାଣ, ବାଇବେଲ ଓ କୋରାନ୍ଲ ଅନୁଗାମୀମାନେଏପରି ଚିନ୍ତାକରନ୍ତି ବୈକୁଣ୍ଠ ଧାମ, ୪ର୍ଥ ଆସମାନ ଓ ୭ମ ଆସମାନ ଅଛି ବୋଲି ମାନ୍ୟତା ମଧ୍ୟ ଦିଅନ୍ତି କିନ୍ତୁ ଅନୁଭବ ଓ ବିଚାର୍ଯ୍ୟ, ଦୃଶ୍ୟମାନ କଥା ନୁହେଁ କେବଳ କଳ୍ପନାର ବିଷୟ ମାତ୍ର। ଯେଉଁମାନେ ପୁର୍ନ8 ଜନ୍ମକୁ ବିଶ୍ୱାସ କରନ୍ତି ନାହିଁ ,ସେମାନେ ଗୋଟିଏ ଜନ୍ମରେ ଅନନ୍ତକାଳପର୍ଯ୍ୟନ୍ତ କିପରି ସୁଖ ପ୍ରାପ୍ତ ହୁଏ ର ପ୍ରଶ୍ନର ଉତ୍ତର ମଧ୍ୟଦେଇପାରନ୍ତିନାହିଁ । ଏହାର କାରଣ ସ୍ୱର୍ଗ ଶବ୍ଦଅର୍ଥକୁ ସେ ମାନେ ଠିକ୍ ରେ ବୁଝିପାରି ନାହଁ।ନ୍ତି। କି ବୁଝିବାକୁ ଇଚ୍ଛା ପ୍ରକାଶ କରନ୍ତି ନାହିଁ କାହିଁକ ଏହି କଳ୍ପନାବଡ଼ସୁଖଦିଏ ବୋଲି ମଜ୍ଜା ନିଅନ୍ତି। ଆସନ୍ତୁ ଜାଣିବା ୫୦୦୦ ବର୍ଷ ପୂର୍ବେ ବୈଦିକ କାଳରେ ସ୍ଵର୍ଗର ଅର୍ଥକୁ କିପରି ବୁଝୁଥିଲେ । ସ୍ଵର୍ଗ କୌଣସି ସ୍ଥାନ ବିଶେଷ ନୁହେଁ ,ଏହା ଏକ ଅବସ୍ଥାକୁ ବୁଝାଇଥାଏ ।ଅଥର୍ବବେଦ କହନ୍ତି"ୟତ୍ରା ସୁର୍ହ ଦ8 ସୁକୃତୋ ମଦାନ୍ତି ବିବାହ ରୋଗମ୍ ତନ୍ବା ସ୍ୱାୟା8 । ଅଶ୍ଳୋଣା ଅଙ୍ଗେୟୀ ର ହୁଏତାଃ ସ୍ୱର୍ଗେ ତତ୍ର ପଶ୍ୟେମପିତ ରୌ ଚପୁତ୍ରାନ (୩ କ।ଣ୍ଡ) ଅଥାର୍ତ ଯେଉଁ ଗୃହରେ ଗୃହବାସୀଙ୍କର କର୍ମ ପବିତ୍ର, ଦେହ ନୀରୋଗ ଓ ବିକଳାଙ୍ଗ ରହିତ, ମନ ଓ ବଚନ କୁଟୀଳତା ରହିତ ଥାଏ ଗୃହସ୍ଥ ଓ ଗୃହିଣୀମାତା, ପିତା,ଭଗ୍ନିପୁତ୍ର କନ୍ୟା ସହ ସମସ୍ତେ ଆନନ୍ଦରେ କାଳତିପାତ କରନ୍ତି ତାହା ସ୍ୱର୍ଗ ଅଟେ । ଅଚାର୍ଯ୍ୟଚାଣକ୍ୟ କହନ୍ତି " ଯେଉଁ ଘରେ ବୁଦ୍ଧିମାନ ପୁତ୍ର ପ୍ରିୟସକ୍ଷଣୀ ପତ୍ନୀ,(କେବଳ ମଧୁର ଦ୍ଭାଷିଣୀ ନୁହେଁ ସତ୍ ଚରିତ୍ର) ସତ୍ ଉପାଜିତ ଧନ, ଅତିଥି ସେବା, ଇଶ୍ଵର ପରାୟଣତା ଆତ୍ମ ସଂଯମ , ସାତ୍ତ୍ଵିକ ଆହାର , ସାଧୁସନ୍ଥଙ୍କ ସତ୍ସଙ୍ଗ ଲାଭ, ଉତ୍ତମ ମିତ୍ର ମିଳନ୍ତି ସେହି ଗୃହଧନ୍ୟ ଓ ସ୍ଵର୍ଗ ଅଟେ । ନରକ ବର୍ଣ୍ଣନାରେ ଚାଣକ୍ୟ କହନ୍ତି" ଅତ୍ୟନ୍ତ କୋପମ୍ କଟୁକା ଚବାଣୀ, ଦରିଦ୍ରତାଚ଼ ସ୍ୱଜନ ତେଷୁ ବୈରମ। ନୀଚ ପ୍ରସଙ୍ଗକୁଳହୀନ ସେବା, ଚିହ୍ନାନି ଦହେ ନରକ ସ୍ଥିତା ନାମ୍ " ଯେଉଁଠାରେ ଅତ୍ୟନ୍ତ କ୍ରୋଧ, କଟୁବଚନ, ଦରିଦ୍ରତା, ଦୁଜର୍ନସଂଗ, ସ୍ୱଜନ ବୈର,ଜୁର୍ଜନ ସେବା ରହିଥାଏ ତାହା ନରକ (ନର୍କ )ଅଟେ।ଏପରି ସ୍ଥାନ କୁ ଶ୍ମଶାନ ମଧ୍ୟ କୁହାଯାଏ।ପୁନଃ ଆଚ।ର୍ଯ୍ୟ କହନ୍ତି "ନ ବିପ୍ର ପାଦୋଦକ, କର୍ଦ୍ଦମାନି ନବେଦ ଶାସ୍ତ୍ର ଧ୍ଵନି ଗର୍ଜିତାନି,ସ୍ଵାହା ସ୍ୱାଧାକାର ବିବର୍ଜିତାନି ଶ୍ମଶାନ ତୁଲ୍ୟାନି ଗୃହାଣି ତାନି ।" ଅର୍ଥାତ ଯେଉଁ ଗୃହରେ ବ୍ରହ୍ମନିଷ୍ଠବ୍ରାହ୍ମଣ( ବେଦବେଦାନ୍ତ, ଦର୍ଶନ ଓ ଉପନିଷଦ ସାଧକ ) ଶାସ୍ତ୍ର ନ ଜାଣିଥିବା ଜନ୍ମଗତ ପୂଜାରୀ ନୁହେଁ) ଙ୍କ ଚରଣ ଧୌତ ହୁଏନାହିଁ, ବେଦଧ୍ୱନି ଶୁଣାଯାଏ ନାହିଁ ସେହି ଗୃହଶ୍ମଶାନ ବା ନର୍କ ଅଟେ। ମହାରାଜା ମହର୍ଷି ଅଶ୍ଵପତି(ସାବିତ୍ରୀଙ୍କପିତା) ତାଙ୍କ ଦେଶକୁ କିଛି ଆଗନ୍ତୁକ କହିଥିଲେ ଯେମୋ ଦେଶରେ" ନ ମେ ସ୍ତେନ ଜନ ପଦେ ନ କଦ6ର୍ଯ।ନଚମଦ୍ୟପଃ । ନାନା ହିତାଗ୍ନି ନ ସୈରୀ ନ6ସ୍ୱୟୀରିଣୀକୁତଃ" ଅର୍ଥାତ୍ ମୋ ରାଷ୍ଟ୍ରରେ କେହି ଚୋର,କୃପଣ, ଓ ମଦ୍ୟପି ନାହାନ୍ତି। ସମ୍ପୁର୍ଣ୍ଣ ରାଷ୍ଟ୍ରରେ ଏପରି କେହି ଗୃହସ୍ଥ ନାହିଁନ୍ତି ଯାହାଙ୍କ ଘରେ ଦୈନିକ ଅଗ୍ନିହୋତ୍ର ହୁଏ ନାହିଁ ଓ ଜଣେ ମଧ୍ୟ ଅବିଦ୍ଵାନ ନାହିଁନ୍ତି ଏଣୁ ବ୍ୟଭିଚାରୀ ଆସିବେ କେଉଁଠାରୁ? ବିଚାର୍ଯ୍ୟ ବିଷୟ ଯେ ଆମ ରାଷ୍ଟ୍ର ନାୟକ ମାନେ ଏଭଳି ଉନ୍ନତି ଆଣିବାକୁ କେବେ ମସ୍ତିସ୍କରେ କ୍ଷଣେ ମାତ୍ର ଚିନ୍ତା କରଛନ୍ତି କି? କେବଳ ଧନ ମାନ ଯଶପଛରେ ଧାବମାନ ହେଉଛନ୍ତି ।ଫଳରେ ସମାଜର ସମସ୍ତ ବ୍ୟବସ୍ଥା ଭୂଷିଡିବାରେ ଲାଗିଛି ସଜାଡିବ କିଏ? ଇତି ଓ ୩ମ୍ ରାଜକିଶୋର ଆର୍ଯ୍ୟ
ନାମ ସହିତ ଅର୍ଥ କେବଳ ପରମାତ୍ମା ନାମରେ ସାର୍ଥକ ହୋଇଥାଏ
26-06-2022
." ନାମ" ସହିତ ଅର୍ଥ କେବଳ ପରମାତ୍ମା ନାମରେ ସାର୍ଥକ ହୋଇଥାଏ , ଅନ୍ୟତ୍ର ନୁହେଁ। ************************************************** - ଆମେ ସାଧାରଣ ଜଣକୁ ସଂପର୍କରେ ପିତା, ପୁତ୍ର, ମାତୁଳ(ମାମୁଁ), ଭ୍ରାତା, ପତି, ରାଜା। ଦଳପତି ରାଜା, ପ୍ରଜା ବ୍ୟବସାୟୀ, ସଭାପତି ଏବଂ ନାରୀସ୍ଥାନରେ ମାତା, ମାଇଁ, ମାଉସୀ, ପିଉସୀ,ଭଉଣୀ , ଖୁଡି ଓ ବଡ଼ମା ଇତ୍ୟାଦି ଇତ୍ୟାଦି. ସମ୍ବୋଧନ କରିଥାଉ । କିନ୍ତୁ ପରମେଶ୍ଵର ଙ୍କ ଗୁଣ, କର୍ମ ଓ ଲକ୍ଷଣ ସମ୍ପନ୍ନ ହୋଇଥିବାରୁ ସେ ଅନନ୍ତ ନାମରେ ନାମିତ ହୋଇଥାନ୍ତି। ଏଣୁ ଯର୍ଜୁବେଦ କହନ୍ତି" ତଦେବାଗ୍ନି ସ୍ତ ଦାୟୁ ସ୍ତ ଦୁଚନ୍ଦ୍ରମା8,ତଦେବ ଶୁକ୍ରମ୍ ତଦ୍ବ୍ରହ୍ମ ତାଽଆପଃସପ୍ରଜାପତିଃ" ( ଅ୩୨/ ମନ୍ତ୍ର୧) ଅର୍ଥାତ୍ ତତ୍( ସେ ସର୍ବଜ୍ଞ ସର୍ବବ୍ୟାପକ ପ୍ରଭୁ( ଏବ) ହିଁ( ଅଗ୍ନି) ଅଗ୍ନି ,ତତ୍-ସେ, ଆଦିତ୍ୟ 8_ଆଦିତ୍ୟ, ତତ୍ - ସେ, ବାୟୁ8_ବାୟୁ, ତତ୍-ସେ ଚନ୍ଦ୍ରମା,ତତ୍ ଏବ_ସେହିଁ ଶୁକ୍ରମ- ଶୁକ୍ର ତତ୍-ସେ ବ୍ରହ୍ମ, ତା8_ସେ, ଆପ8_ଜଳ, ଉ_ଏବଂ ସ8 ପ୍ରଜାପତି 8_ପ୍ରଜା ପାଳକ ଅଟନ୍ତି । - . ବିଶେଷ ବର୍ଣ୍ଣନା_ ଅଳ୍ପ କେତେକ ଗୁଣ ଓ କର୍ମ ଥିବା ମନୁଷ୍ୟ ଅନେକ ନାମରେ ପରିଚିତ ହୁଅନ୍ତି ଯଥା- ଜଣେ ବ୍ୟକ୍ତିକୁ କେହି ସଂପର୍କ ଅନୁସାରେ, ବା କର୍ମ ଅନୁସାରେ ବିଭିନ୍ନ ନାମ ଜାତକରି ନାମ ଦେଇଥାନ୍ତ,କିନ୍ତୁ ପରମେଶ୍ଵର ଅନନ୍ତ ଗୁଣ, କର୍ମ ଓ ସ୍ଵଭାବ ଅନୁସାରେ ନାମିତ ହୁଅନ୍ତି, ଯଥା ସୃଷ୍ଟିର ଅଗ୍ରଣୀ ଓ ସ୍ୱୟଂ ପ୍ରକାଶ ହୋଇଥିବାରୁ ସେ ଅନେକ ନାମ ଧାରଣ କରଥାନ୍ତି। ଯଥା -ସେ ପ୍ରଳୟକାଳରେ ସମସ୍ତଙ୍କୁ ଧାରଣ କରିଥାନ୍ତି ଏବଂ ଅଖଣ୍ଡନୀୟ ହେବ। ଯୋଗୁଁ ନାମ ଆଦିତ୍ୟ ଅଟନ୍ତି । ସମସ୍ତଙ୍କର ଗତି ଦାତା ଓ ପ୍ରାଣପ୍ରିୟ ହୋଇଥିବାରୁ ବାୟୁ ଅଟନ୍ତି । ଆନନ୍ଦ ସ୍ଵରୂପ ଓ ଆହ୍ଲାଦକ ଯୋଗୁଁ ଚନ୍ଦ୍ରମାଅଟନ୍ତି । ଶୁଦ୍ଧ ବିଚାରଯୁକ୍ତ ହେବାରୁ ସେ ଶୁକ୍ର, ସର୍ବବୃହତ୍ତମ ଓ ସର୍ବୋତ୍ତମ ଯୋଗୁଁ ବ୍ରହ୍ମ, ସର୍ବବ୍ୟାପକ ଯୋଗୁଁ ଆପଃ । ସମସ୍ତ ପ୍ରାଣୀଙ୍କ ପାଳକ ଯୋଗୁଁ ପ୍ରଜାପତି ଅଟନ୍ତି । ପ୍ରଭୁଙ୍କ ପ୍ରତ୍ୟେକ ନାମ ବିଶ୍ଳେଷଣ କରିବା ଦ୍ଵାରା ତାହାଙ୍କର ତଦନୁକୂଳ ଗୁଣ ପରିଦୃଷ୍ଟ ହୁଏ । ଭକ୍ତ ବା ପାର୍ଥୀତାହାଙ୍କୁ ଯାହା ଯାଚନା କରେ ସେହି ଅନୁରୂପ ନାମରେ ସମ୍ବୋଧନ କରିବା ଉଚିତ୍ କାରଣ ସେହି ନାମର କୀର୍ତ୍ତନ ଓ ସ୍ମରଣ କରିବାଦ୍ୱାରା ପ୍ରାଣୀଠାରେ ସ୍ଵତଃ ସେହିଗୁଣ ଆରୋପିତ ହୁଏ । - କିନ୍ତୁ ନାମ ଦେବା ଦୀନବନ୍ଧୁ-ସେ ନିଷ୍ଠୁର ହୋଇପାରେ । ନାମ ସରସ୍ଵତୀ _ନିରକ୍ଷର ହୋଇପାରନ୍ତି ନାମ ଲକ୍ଷ୍ମୀ-ଭିକ୍ଷା କରିବଞ୍ଚିଥାଇପାରନ୍ତି । ନାମ ମହାବଳୀ- ଛେଳିକୁ ଦେଖି ଭୟଭୀତ ହୋଇପାରନ୍ତି, କିନ୍ତୁ ପରମାତ୍ମାଙ୍କ ପ୍ରତ୍ୟେକ ନାମ ସାର୍ଥକ ଅଟେ । ଏଣୁ ବେଦ ଏକ ଅଦ୍ଵିତୀୟ ପରମାତ୍ମାଙ୍କ ସ୍ତୁତି ଗାନ କରିଛନ୍ତି ଦୁଃଖ ପରିତାପର ବିଷୟ କିଛି ଭ୍ରମିତ ମୂଢବ୍ୟକ୍ତି ଗୋଟିଏ ଗୋଟିଏ ନାମରେ ପୃଥକ ପୃଥକ୍ ଦେବା 6ଦବୀ କଳ୍ପନା କରି ବେଦ ପ୍ରତିକୂଳ ଜ୍ଞାନ ପ୍ରଚାର ପ୍ରସାର କରି ଭରଣପୋଷଣରେ ଲାଗିପଡିଛନ୍ତି। ଏଥିରେ ସେମାନେ ଜନ୍ମ ଜନ୍ମାନ୍ତର ଦୁଃଖକୁ ଅର୍ଜନ କରିବାରେ ସେ ବ୍ୟସ୍ତ ରହିଛନ୍ତି, ସେମାନଙ୍କୁ ଅନୁରୋଧ ସତ୍ୟଜ୍ଞାନ ପ୍ରଚାର କରି ଭଲ ବଞ୍ଚି ହେବ ଧନପତି ନହୋଇପାର,ଏଣୁ ଜାଣିନେବା ଉଚିତ ଯେ ପାପକର୍ମର ଫଳ ଦୁଃଖ ହିଁ ଦୁଃଖ। । ଇତି ଓ ୩ମ୍ । - ରାଜକିଶୋର ଆର୍ଯ୍ୟ,
ସଂସାର ରେ କାହାକୁ ଭୟ ନାହିଁ?
26-06-2022
ସଂସାର ରେ କାହାକୁ ଭୟ ନାହିଁ? - - ସମାଜରେ ବଞ୍ଚିବାକୁ ହେଲେ ପରଷ୍ପର ମଧ୍ୟରେ ମଧୁର ସଂପର୍କ ରକ୍ଷାକରିବାକୁ ପଡିବ। ତାହାର କୌଶଳ ଜାଣି ନ ଥିବା ମଣିଷଟିଏ ପ୍ରତିମୂହର୍ତ୍ତରେ ବିପଦ ଓ ବିଶୃଙ୍ଖଳାର ସମ୍ମୁଖୀନ ହୋଇଥାଏ । ଏ ସଂପର୍କରେ ମହାରାଜା, ନୀତିଶାସ୍ତ୍ର ବେତ୍ତା, ବ୍ୟାକରଣିକ ତାଙ୍କ ରଚିତ ନୀତିଶତ କଂରେ କହନ୍ତି" ଧୈର୍ଯ୍ୟମ୍ ଯସ୍ୟ ପିତା କ୍ଷମା ଚ ଜନନୀ ଶାନ୍ତିଶ୍ଚିର6ଙ୍ଗହିନୀ, ସତ୍ୟମ୍ ମିତ୍ର ମିଦଂ ଦୟାଚ ଭଗିନୀ ଭ୍ରାତମନଃ ସଂଯମ । ଶଯ୍ୟା ଭୂମିତଳଂ ଦିଶୋଽପି ବସନଂ ଜ୍ଞାନାମୃତମ୍ ଭୋଜନମ୍ , ହ୍ୟେତେ ଯସ୍ୟ କୁଟୁମ୍ବିନୋ ବଦସଖେ କସ୍ମାଭୟଂ ଯୋଗୀନଃ । ଅର୍ଥାତ୍ ଧୈଯ୍ୟ ଯାହାର ପିତା, କ୍ଷମା ଯାହାର ମାତା ଶାନ୍ତି ଚିରକାଳ ନିକଟରେ ଥିବା ସ୍ତ୍ରୀ ଅଟେ, ସତ୍ୟ ଯାହାର ମିତ୍ର, ଦୟା ଯାହାର ଭଗିନୀ, ମନର ସଂଯମତା ଯାହାର ଭାଇ,ଭୂମି ଯାହାର ଶଯ୍ୟା , ଦିଗ ଯାହାର ବସ୍ତ୍ର, ଜ୍ଞାନାମୃତ ଯାହାର ଖାଦ୍ୟଦ୍ରବ୍ୟ ତେବେ ହେ ମିତ୍ର କୁହ , "ଏମାନେ ସବୁ ଯେଉଁଯୋଗୀଜନଙ୍କ ଆତ୍ମୀୟସ୍ବଜନ, ସେମାନେ ସଂସାରରେ କାହାକୁ ଭୟ କରିବେ" । ଇତି ଓ ୩ମ୍ । ରାଜକିଶୋର ଆର୍ଯ୍ୟ ।
https://www.youtube.com/watch?v=Fz5JCtlOjrc
24-06-2022
Education and Culture : Dr. Sudhanshu Shekhar Kar & Dr. Yajnya Dutta Nayak
https://www.youtube.com/watch?v=VcLFA5Qgoy8
24-06-2022
Family Management Part 2 ( Duty of Father) By Dr Yajnya Dutta Nayak
Role of Family Towards Child’ Education I Yajnya Dutta I Family Management I VEDIC VICHAR I
24-06-2022
https://www.youtube.com/watch?v=3GecFFGvxwU Role of Family Towards Child’ Education I Yajnya Dutta I Family Management I VEDIC VICHAR I
ସ୍ଵର୍ଗ ଓ ନର୍କ ନିଜର ଜ୍ଞାନ ଉପରେ ଦଣ୍ଡାୟମାନ ।
24-06-2022
ଆମେ ଆଜିକାଲି ବିଚିତ୍ର କଳ୍ପନା କରି ବସିଅଛେ ଅବଶ୍ୟ ତାହା ପୁରାଣରୁ ସେ ଜ୍ଞାନ ଟି ଲବ୍ଧ ହୋଇଅଛି ତାହା ଏପରି ଯେ ସ୍ଵର୍ଗ ଏକ ସ୍ଥାନ ଯେଉଁଠାରେ ଦୁଧ, ମହୁ ନଦୀର ବନ୍ୟା ହୁଏ । ସୁନ୍ଦର ଉପବନରେ ଅପ୍ସରାଓ ଗନ୍ଧର୍ବମାନେ ନୃତ୍ୟ କରନ୍ତି ଓ ସେଠାରେ ରୋଗ, ଶୋକ ଓ ମୃତ୍ୟୁ ନାହିଁ। ବିଳାସ ବ୍ୟସନର ଅପୂର୍ବ ସ୍ଥଳ। ସଂପ୍ରଦାୟୀ ମାନେ ଯଥା ପୁରାଣ, ବାଇବେଲ ଓ କୋରାନ୍ଲ ଅନୁଗାମୀମାନେଏପରି ଚିନ୍ତାକରନ୍ତି ବୈକୁଣ୍ଠ ଧାମ, ୪ର୍ଥ ଆସମାନ ଓ ୭ମ ଆସମାନ ଅଛି ବୋଲି ମାନ୍ୟତା ମଧ୍ୟ ଦିଅନ୍ତି କିନ୍ତୁ ଅନୁଭବ ଓ ବିଚାର୍ଯ୍ୟ, ଦୃଶ୍ୟମାନ କଥା ନୁହେଁ କେବଳ କଳ୍ପନାର ବିଷୟ ମାତ୍ର। ଯେଉଁମାନେ ପୁର୍ନ8 ଜନ୍ମକୁ ବିଶ୍ୱାସ କରନ୍ତି ନାହିଁ ,ସେମାନେ ଗୋଟିଏ ଜନ୍ମରେ ଅନନ୍ତକାଳପର୍ଯ୍ୟନ୍ତ କିପରି ସୁଖ ପ୍ରାପ୍ତ ହୁଏ ର ପ୍ରଶ୍ନର ଉତ୍ତର ମଧ୍ୟଦେଇପାରନ୍ତିନାହିଁ । ଏହାର କାରଣ ସ୍ୱର୍ଗ ଶବ୍ଦଅର୍ଥକୁ ସେ ମାନେ ଠିକ୍ ରେ ବୁଝିପାରି ନାହଁ।ନ୍ତି। କି ବୁଝିବାକୁ ଇଚ୍ଛା ପ୍ରକାଶ କରନ୍ତି ନାହିଁ କାହିଁକ ଏହି କଳ୍ପନାବଡ଼ସୁଖଦିଏ ବୋଲି ମଜ୍ଜା ନିଅନ୍ତି। ଆସନ୍ତୁ ଜାଣିବା ୫୦୦୦ ବର୍ଷ ପୂର୍ବେ ବୈଦିକ କାଳରେ ସ୍ଵର୍ଗର ଅର୍ଥକୁ କିପରି ବୁଝୁଥିଲେ । ସ୍ଵର୍ଗ କୌଣସି ସ୍ଥାନ ବିଶେଷ ନୁହେଁ ,ଏହା ଏକ ଅବସ୍ଥାକୁ ବୁଝାଇଥାଏ ।ଅଥର୍ବବେଦ କହନ୍ତି"ୟତ୍ରା ସୁର୍ହ ଦ8 ସୁକୃତୋ ମଦାନ୍ତି ବିବାହ ରୋଗମ୍ ତନ୍ବା ସ୍ୱାୟା8 । ଅଶ୍ଳୋଣା ଅଙ୍ଗେୟୀ ର ହୁଏତାଃ ସ୍ୱର୍ଗେ ତତ୍ର ପଶ୍ୟେମପିତ ରୌ ଚପୁତ୍ରାନ (୩ କ।ଣ୍ଡ) ଅଥାର୍ତ ଯେଉଁ ଗୃହରେ ଗୃହବାସୀଙ୍କର କର୍ମ ପବିତ୍ର, ଦେହ ନୀରୋଗ ଓ ବିକଳାଙ୍ଗ ରହିତ, ମନ ଓ ବଚନ କୁଟୀଳତା ରହିତ ଥାଏ ଗୃହସ୍ଥ ଓ ଗୃହିଣୀମାତା, ପିତା,ଭଗ୍ନିପୁତ୍ର କନ୍ୟା ସହ ସମସ୍ତେ ଆନନ୍ଦରେ କାଳତିପାତ କରନ୍ତି ତାହା ସ୍ୱର୍ଗ ଅଟେ । ଅଚାର୍ଯ୍ୟଚାଣକ୍ୟ କହନ୍ତି " ଯେଉଁ ଘରେ ବୁଦ୍ଧିମାନ ପୁତ୍ର ପ୍ରିୟସକ୍ଷଣୀ ପତ୍ନୀ,(କେବଳ ମଧୁର ଦ୍ଭାଷିଣୀ ନୁହେଁ ସତ୍ ଚରିତ୍ର) ସତ୍ ଉପାଜିତ ଧନ, ଅତିଥି ସେବା, ଇଶ୍ଵର ପରାୟଣତା ଆତ୍ମ ସଂଯମ , ସାତ୍ତ୍ଵିକ ଆହାର , ସାଧୁସନ୍ଥଙ୍କ ସତ୍ସଙ୍ଗ ଲାଭ, ଉତ୍ତମ ମିତ୍ର ମିଳନ୍ତି ସେହି ଗୃହଧନ୍ୟ ଓ ସ୍ଵର୍ଗ ଅଟେ । ନରକ ବର୍ଣ୍ଣନାରେ ଚାଣକ୍ୟ କହନ୍ତି" ଅତ୍ୟନ୍ତ କୋପମ୍ କଟୁକା ଚବାଣୀ, ଦରିଦ୍ରତାଚ଼ ସ୍ୱଜନ ତେଷୁ ବୈରମ। ନୀଚ ପ୍ରସଙ୍ଗକୁଳହୀନ ସେବା, ଚିହ୍ନାନି ଦହେ ନରକ ସ୍ଥିତା ନାମ୍ " ଯେଉଁଠାରେ ଅତ୍ୟନ୍ତ କ୍ରୋଧ, କଟୁବଚନ, ଦରିଦ୍ରତା, ଦୁଜର୍ନସଂଗ, ସ୍ୱଜନ ବୈର,ଜୁର୍ଜନ ସେବା ରହିଥାଏ ତାହା ନରକ (ନର୍କ )ଅଟେ।ଏପରି ସ୍ଥାନ କୁ ଶ୍ମଶାନ ମଧ୍ୟ କୁହାଯାଏ।ପୁନଃ ଆଚ।ର୍ଯ୍ୟ କହନ୍ତି "ନ ବିପ୍ର ପାଦୋଦକ, କର୍ଦ୍ଦମାନି ନବେଦ ଶାସ୍ତ୍ର ଧ୍ଵନି ଗର୍ଜିତାନି,ସ୍ଵାହା ସ୍ୱାଧାକାର ବିବର୍ଜିତାନି ଶ୍ମଶାନ ତୁଲ୍ୟାନି ଗୃହାଣି ତାନି ।" ଅର୍ଥାତ ଯେଉଁ ଗୃହରେ ବ୍ରହ୍ମନିଷ୍ଠବ୍ରାହ୍ମଣ( ବେଦବେଦାନ୍ତ, ଦର୍ଶନ ଓ ଉପନିଷଦ ସାଧକ ) ଶାସ୍ତ୍ର ନ ଜାଣିଥିବା ଜନ୍ମଗତ ପୂଜାରୀ ନୁହେଁ) ଙ୍କ ଚରଣ ଧୌତ ହୁଏନାହିଁ, ବେଦଧ୍ୱନି ଶୁଣାଯାଏ ନାହିଁ ସେହି ଗୃହଶ୍ମଶାନ ବା ନର୍କ ଅଟେ। ମହାରାଜା ମହର୍ଷି ଅଶ୍ଵପତି(ସାବିତ୍ରୀଙ୍କପିତା) ତାଙ୍କ ଦେଶକୁ କିଛି ଆଗନ୍ତୁକ କହିଥିଲେ ଯେମୋ ଦେଶରେ" ନ ମେ ସ୍ତେନ ଜନ ପଦେ ନ କଦ6ର୍ଯ।ନଚମଦ୍ୟପଃ । ନାନା ହିତାଗ୍ନି ନ ସୈରୀ ନ6ସ୍ୱୟୀରିଣୀକୁତଃ" ଅର୍ଥାତ୍ ମୋ ରାଷ୍ଟ୍ରରେ କେହି ଚୋର,କୃପଣ, ଓ ମଦ୍ୟପି ନାହାନ୍ତି। ସମ୍ପୁର୍ଣ୍ଣ ରାଷ୍ଟ୍ରରେ ଏପରି କେହି ଗୃହସ୍ଥ ନାହିଁନ୍ତି ଯାହାଙ୍କ ଘରେ ଦୈନିକ ଅଗ୍ନିହୋତ୍ର ହୁଏ ନାହିଁ ଓ ଜଣେ ମଧ୍ୟ ଅବିଦ୍ଵାନ ନାହିଁନ୍ତି ଏଣୁ ବ୍ୟଭିଚାରୀ ଆସିବେ କେଉଁଠାରୁ? ବିଚାର୍ଯ୍ୟ ବିଷୟ ଯେ ଆମ ରାଷ୍ଟ୍ର ନାୟକ ମାନେ ଏଭଳି ଉନ୍ନତି ଆଣିବାକୁ କେବେ ମସ୍ତିସ୍କରେ କ୍ଷଣେ ମାତ୍ର ଚିନ୍ତା କରଛନ୍ତି କି? କେବଳ ଧନ ମାନ ଯଶପଛରେ ଧାବମାନ ହେଉଛନ୍ତି ।ଫଳରେ ସମାଜର ସମସ୍ତ ବ୍ୟବସ୍ଥା ଭୂଷିଡିବାରେ ଲାଗିଛି ସଜାଡିବ କିଏ? ଇତି ଓ ୩ମ୍ ରାଜକିଶୋର ଆର୍ଯ୍ୟ
Vedic Family
02-06-2022
The Social structure during the Rig Vedic period was patriarchal in character. The head of the family was the oldest male member who enjoyed absolute control over his children. The relation between child and the parent was one of close affection and the father was regarded as the type of all those good and kind.
आचार्य सत्यानन्द वेदवागीश जी की पुस्तक दयानन्द-दृष्टान्त-निधि
18-04-2022
ओ३म् “आचार्य सत्यानन्द वेदवागीश जी की पुस्तक दयानन्द-दृष्टान्त-निधि” ======= हम वर्ष 2018 के परोपकारिणी सभा के उत्सव ऋषि मेले में देहरादून निवासी वैदिक विद्वान डा. कृष्णकान्त वैदिक जी के साथ गये थे। वहां हमने अनेक विद्वानों सहित आचार्य सत्यानन्द वेदवागीश जी के भी दर्शन किये थे। वहां एक दिन आचार्य जी की पुस्तक ‘दयानन्द-दृष्टान्त-निधिः’ निःशुल्क वितरित की गई थी। इसकी एक प्रति हमारे पास है। कल हमारी इस पुस्तक पर दृष्टि गई। विचार आया कि इस पुस्तक पर भी परिचय कुछ शब्द लिख देते हैं। पुस्तक में कुल 241 पृष्ठ है। पुस्तक के दो भाग वा खण्ड हैं। प्रथम खण्ड ‘स्वामी दयानन्द कृत ग्रन्थों से संकलित दृष्टान्त’ का हैं तथा उत्तर खण्ड में ‘स्वामी दयानन्द सरस्वती का संक्षिप्त जीवन-चरितः एक अकल्पित महादृष्टान्त’ नाम से दिया गया है। इस पुस्तक के संकलयिता-सम्पादक, प्रकाशक आचार्य सत्यानन्द वेदवागीश जी हैं। पुस्तक की यह दूसरी आवृत्ति है जिसका प्रकाशन विक्रमी संवत् 2072 में हुआ है। पुस्तक का मूल्य रुपये 90.00 है। पुस्तक के आरम्भ में ‘निवेदन’ शीर्षक से आचार्य जी ने पुस्तक के विषय में अपनी बात कही है जो पढ़ने योग्य है। स्वामी दयानन्द जी के विषय में विद्वान लेखक ने लिखा है कि “स्वामी दयानन्द सरस्वती ने सहस्रों वर्षों बाद वैदिक-धर्म की पुनः प्रतिष्ठापना की। उन्होंने वैदिक सत्य सिद्धान्तों को सिद्ध करने के लिये, उन्हें साधारण बुद्धिगम्य बनाने क लिये और अन्धविश्वासों, पाखण्डों तथा कुरीतियों के निराकरण के लिये अपने प्रवचनों, उपदेशों और ग्रन्थों में अनेक स्थानों पर दृष्टान्तों का समावेश किया है। वे दृष्टान्त इतने सटीक एवं उपादेय हैं, कि उनके कारण वह-वह विषय तत्काल हृदयंगम हो जाता है।” निवेदन के बाद पुस्तक ‘‘दयानन्द-प्रशस्तिः” शीर्षक से श्री रामदास छबीलदास वर्मा, कैम्ब्रिज, इंग्लैण्ड रचित संस्कृत के चार श्लोक उनके हिन्दी अनुवाद सहित दिये गये हैं जो पढ़ने योग्य हैं। इस दयानन्द-प्रशस्तिः के बाद पुस्तक की विस्तृत अनुक्रमणिका है जो कि 13 पृष्ठों की है। पुस्तक से ‘‘कर्मकर्ता ही फलभोक्ता” विषयक एक दृष्टान्त प्रस्तुत कर रहे हैं। शीर्षक कर्मकर्ता ही फलभोक्ता (स्वामी जी लिखते हैं कि ईश्वर, जीव और प्रकृति ये तीन पदार्थ नित्य हैं। जीव ईश्वर द्वारा निर्मित नहीं है। वह भी अनादि है। वह जैसे कर्म करता है, वैसे फल ईश्वर-व्यवस्था से पाता है। -आचार्य सत्यानन्द वेगवागीश) प्रश्न-जो परमेश्वर जीव को न बनाता और सामथ्र्य न देता तो जीव कुछ भी न कर सकता। इसलिये परमेश्वर की प्रेरणा ही से जीव कर्म करता है। उत्तर- जीव उत्पन्न कभी न हुआ, अनादि है। जैसा ईश्वर और जगत् का उपादान कारण नित्य है। और जीव का शरीर तथा इन्द्रियों के गोलक परमेश्वर के बनाये हुए हैं, परन्तु वे सब जीव के आधीन हैं। जो कोई मन, कर्म, वचन से पाप-पुण्य करता है वही भोक्ता है, ईश्वर नहीं। जैसे किसी कारीगर ने पहाड़ से लोहा निकाला, उस लोहे को किसी व्यापारी ने लिया, उसकी दुकान से लोहार ने ले तलवार बनाई, उससे किसी सिपाही ने तलवार ले ली, फिर उससे किसी को मार डाला। अब यहां जैसे वह लोहे को उत्पन्न करने, उससे लेने, तलवार बनाने वाले और तलवार को पकड़ कर राजा दंड नहीं देता, किन्तु जिसने तलवार से मारा वही दंड पाता है। इसी प्रकार शरीरादि की उत्पत्ति करने वाला परमेश्वर उनके कर्मों का भोक्ता नहीं होता, किन्तु जीव को भुगानेवाला होता है। जो परमेश्वर कर्म कराता होता, तो कोई जीव पाप नहीं करता, क्योंकि परमेश्वर पवित्र और धार्मिक होने से किसी जीव को पाप करने में प्रेरणा नहीं करता। इसलिये जीव अपने काम करने में स्वतन्त्र है। जैसे जीव अपने कामों के करने में स्वतन्त्र है वैसे ही परमेश्वर भी अपने कर्मों के करने में स्वतन्त्र है।। (सत्यार्थप्रकाश, सप्तम समुल्लास, पृष्ठ 136) पुस्तक के सभी दृष्टान्त पढ़ने योग्य हैं। आचार्य जी ने इस पुस्तक को लिखकर पाठकों के लिए अत्यन्त उपकार का कार्य किया है। हमारा कर्तव्य है कि हम इस पुस्तक का अध्ययन करें और इससे लाभ उठायें। पुस्तक पृष्ठ 236 पर समाप्त होती है। इसके बाद परिशिष्ट-1 में स्वामी दयानन्द सरस्वती कृत ग्रन्थों का परिचय दिया गया है। पुस्तक में स्वामी जी की कुल 26 पुस्तकों का परिचय है। पुस्तक में परिशिष्ट-2 में उन प्रकाशकों की सूची दी गई हैं जहां से स्वामी दयानन्द सरस्वती के ग्रन्थ तथा अन्य वैदिक साहित्य प्राप्त किया जा सकता है। पुस्तक के आवरण के अन्तिम बाहरी पृष्ठ पर ग्रन्थकार आचार्य सत्यानन्द वेदवागीश जी रचित एवं सम्पादित 17 ग्रन्थों की सूची पृष्ठ-संख्या एवं मूल्य सहित दी गई है। लेखक का ग्रन्थ ‘दयानन्द-दृष्टान्त-निधि’ स्वाध्याय के लिये उत्तम ग्रन्थ है। सभी पाठकों को इसका लाभ उठाना चाहिये। पुस्तक में ग्रन्थ प्राप्तव्य स्थानों की सूची भी दी गई है जो कि निम्न हैः- 1- आचार्य सत्यानन्द वेदवागीश, द्वारा जीवन प्रभाग (आर्यसमाज संचालित) सेक्टर 7, गांधीधाम (कच्छ) 370201 (गुजरात) 2- राष्ट्र सहायक विद्यालय, सेक्टर 5, जयनारायण व्यास कालोनी, बीकानेर-334004 (राजस्थान) 3- विजयकुमार गोविन्दराम हासानन्द, 4408 नई सड़क, दिल्ली-110006 4- श्री व्रतमुनि जी वानप्रस्थ, ए 13, लेखराम भवन, ऋषि उद्यान, पुस्कर रोड़, अजमेर-305001 (राजस्थान) दिनांक 14 अप्रैल, 2019 को आचार्य सत्यानन्द वेदवागीश जी को डीएवी प्रबन्धकत्र्री समिति, दिल्ली द्वारा पूना के औंध डीएवी कालेज में आयोजित हंसराज दिवस समारोह में आमंत्रित कर उनका सम्मान किया गया था। हम भी इस कार्यक्रम मंए सम्मिलित हुए थे। तब हमने आचार्य जी को बहुत निकटता से देखा था। हम समझते है कि हमने वहां पूरा के महात्मा हंसराज समारोह में जो दो-तीन दिन बिताये थे और आचार्य जी के दर्शन करते रहे थे, वह समय हमारे जीवन का महत्वपूर्ण अवसर था। आचार्य सत्यानन्द वेदवागीश जी की मृत्यु पूना से लौटने के बाद लगभग 8 माह बाद दिनांक 23 दिसम्बर, 2019 को हुई थी। आचार्य जी आज भी अपने शुभ व यशस्वी कार्यों से आज भी जीवित हैं। हमें उनके ग्रन्थों का स्वाध्याय करते हुए उनके पद्चिन्हों पर चलना चाहिये। यही उनको सच्ची श्रद्धांजलि हो सकती है। हम आशा करते हैं हमारे पाठक मित्र इस विवरण को उपयोगी पायेंगे। ओ३म् शम्। Vedic Vichar
राष्ट्रीय परिवर्तन
25-01-2022
राष्ट्रीय परिवर्तन दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष आर्य नेता डी पी यादव ने नामांकन से पूर्व वैदिक विद्वानों के द्वारा यज्ञ का आयोजन रखा जिसमें आचार्य अर्जुन देव आचार्य संजीव रूप डॉ कुंवर पाल सिंह आदि ने वैदिक विधि से यज्ञ संपन्न करवाया साथ में मनोज आर्य वीर विश्व बंधु शास्त्री स्वामी महानंद स्वामी धर्मदेव जी वानप्रस्थ गुरुकुल कोटरा रसूलपुर कला जनपद बदायूं के ब्रह्मचारी गण की उपस्थिति में यज्ञ संपन्न हुआ मुख्य यजमान कुणाल यादव एवं उनकी धर्मपत्नी रही दूसरे यजमान डी पी यादव एवं उनकी धर्मपत्नी रही और भी यज्ञ में वेद वसु आर्य आदि मौजूद रहे और यह विजय यज्ञ डी पी यादव आरी नेता की विजय के लिए किया गया और आचार्य अर्जुन देव ने भी वेद मंत्रों के माध्यम से इस वैदिक यज्ञ में ईश्वर से प्रार्थना की प्रभु इनको अवश्य विजयी करे आचार्य अर्जुन देव
आज आर्य समाज कालवन द्वारा
25-10-2021
आज आर्य समाज कालवन द्वारा साप्ताहिक यज्ञ किया गया। आज आर्य समाज कालवन के ज्यादातर आर्य रोहतक आर्य समाज में बैठक में भाग लेने गए हुए थे। इसलिए साप्ताहिक यज्ञ की जिमेवारी बच्चो द्वारा बड़े अच्छे ढंग से निभाई गई। यज्ञ में पुरोहित का कार्य गौतम आर्य (10 वर्ष) ने निभाई और अन्य सभी कार्य इच्छा आर्या,गुरवीर आर्य,दक्ष आर्य,कुशल आर्य,और अन्य बच्चो द्वारा किया गया। धन्य है वो माता पिता जिसने अपने बच्चो में वेद विद्या का समावेश किया है। ये बच्चे ही देश का भविष्य है। आइए एक अच्छे मार्ग पर चलते हुए विद्यावान जीवन जिए और अपने सुनहरे भविष्य और राष्ट्र उद्धार में कार्य करे।
चित्रकूट मंडल के मंडल स्तरीय शिविर में
24-10-2021
चित्रकूट मंडल के मंडल स्तरीय शिविर में तीसरे दिन शेर दंड सीखते हुए आर्यवीर सिखाते हुए सिखाते हुए शिक्षक डॉ हरी सिंह आर्य मास्टर कृष्ण पाल आर्य डॉ विवेक आर्य दिनेश आर्य पंकज आर्य
-वैदिक साधन आश्रम तपोवन का शरद-उत्सव-
24-10-2021
ओ३म् -वैदिक साधन आश्रम तपोवन का शरद-उत्सव- “परमात्मा मनुष्यों की प्रार्थनाओं को सुनता व उन्हें पूरा करता हैः स्वामी मुक्तानन्द सरस्वती” ============ आज वैदिक साधन आश्रम तपोवन देहरादून में आयोजित शरदुत्सव का तीसरा दिन था। हम प्रातः आश्रम में पहुंचे। आश्रम में अथर्ववेद के मंत्रों से आहुतियां दी जा रही थीं। देहरादून स्थित आर्ष गुरुकुल, पौंधा-देहरादून के दो ब्रह्मचारी मन्त्रपाठ कर रहे थे। मंच व वेदि पर स्वामी चित्तेश्वरानन्द सरस्वती, स्वामी मुक्तानन्द जी, माता साध्वी प्रज्ञा जी, पं. दिनेश पथिक जी, आचार्य शैलेश मुनि सत्यार्थी जी, पं. विष्णुमित्र मेधार्थी, पं. रूवेलसिंह जी भजनोपदेशक तथा पं. सूरतराम शर्मा जी विद्यमान थे। यज्ञ के मध्य कुछ महत्वपूर्ण मंत्रों की व्याख्या भी यज्ञ के ब्रह्मा स्वामी मुक्तानन्द जी द्वारा की जाती थी। हमें भी यज्ञ में कुछ आहुतियां देने का अवसर मिला। यज्ञ के मध्य एक मन्त्र की व्याख्या करते हुए स्वामी मुक्तानन्द सरस्वती जी ने कहा कि परमात्मा सब ऐश्वर्यों का स्वामी है। वह ईश्वर के भक्तों तथा सत्य धर्म में स्थित मनुष्यों के शत्रुओं का नाश करता है। जो मनुष्य दानशील होते हैं, परमात्मा उनको प्राप्त होता है। स्वामी जी ने कहा कि जो मनुष्य अपने स्वार्थो को त्याग कर दूसरों के हित व रक्षा में अपने जीवन को व्यतीत करता है, उसे परमात्मा प्राप्त होता है। स्वामी मुक्तानन्द जी ने यह भी कहा कि परमात्मा मनुष्यों की प्रार्थनाओं को सुनता है व उन्हें पूरा भी करता है। यज्ञ की समाप्ति पर पं. दिनेश पथिक जी ने वाद्य यन्त्रों पर गाकर यज्ञ प्रार्थना अत्यन्त मधुर स्वरों में प्रस्तुत की। यज्ञ प्रार्थना के बाद स्वामी मुक्तानन्द जी ने सभी यजमानों पर जल सिंचन कर आशीर्वाद दिया। यज्ञ के बाद पं. दिनेश पथिक जी ने एक भजन प्रस्तुत किया। आज 22 अक्टूबर, 2021 को आर्यजगत के महान गीतकार एवं भजनोपदेशक पं. सत्यपाल पथिक जी की प्रथम पुण्य तिथि थी। श्री दिनेश पथिक जी ने कार्यक्रम प्रस्तुत करते हुए इसका उल्लेख किया। इस अवसर श्री दिनेश पथिक जी ने पथिक जी की एक सर्वोत्तम रचना जिसे देश विदेश में ऋषिभक्त वैदिक धर्मी बड़ी श्रद्धा से सुनते हैं, उसे बहुत ही श्रद्धा के भावों में भरकर प्रस्तुत किया। गीत के बोल थे ‘प्रभु तुम अणु से भी सूक्ष्म हो, प्रभु तुम गगन से विशाल हो। मैं मिसाल दूं तुम्हें कौन सी, दुनियां में तुम बेमिसाल हो।।’ भजन की समाप्ति पर पं. शैलेश मुनि सत्यार्थी जी ने पं. सत्यपाल पथिक जी को भावपूर्ण श्रद्धांजलि दी। उन्होंने पथिक जी से जुड़ी अपनी अनेक स्मृतियों को बहुत ही श्रद्धा में भर कर भावपूर्ण शब्दों में प्रस्तुत किया। श्री शैलेश मुनि जी ने पं. सत्यपाल पथिक जी को सच्चा महात्मा बताया। उन्होंने पथिक जी का स्वामी रामदेव, पतंजलि योगपीठ से जुड़ा एक प्रेरक प्रसंग भी सुनाया जिसमें स्वामी रामदेव जी ने कहा था कि वह अपने कार्यक्रमों में अधिकांश गीत पं. सत्यपाल पथिक जी के लिखे हुए ही गाते हैं। स्वामी रामदेव जी ने हरिद्वार में पथिक जी को एक लाख रूपये से पुरस्कृत व सम्मानित किया था। कार्यक्रम का संचालन कर रहे श्री शैलेशमुनि सत्यार्थी जी ने स्वामी मुक्तानन्द सरस्वती जी को आशीर्वाद एवं मार्गदर्शन के लिए आमंत्रित किया। अपने सम्बोधन में स्वामी मुक्तानन्द सरस्वती जी ने अथर्ववेद के एक मंत्र को प्रस्तुत कर उसका उपदेश किया। स्वामी जी ने कहा की चींटी को मारना पाप है। किसी मनुष्य को मारना भी पाप है। स्वामी जी ने कहा कि यह दोनों ही पाप मनुष्यों को नहीं करने चाहियें। स्वामी जी ने कहा कि हमें किसी का सोना व धन चोरी नहीं करना चाहिये। मदिरा पान वा शराब पीने को स्वामी जी ने बड़ा पाप बताया। भ्रूण हत्या को भी स्वामी जी ने पाप की संज्ञा दी। स्वामी जी ने कहा कि गर्भस्थ शिशु संसार में अपने कर्मों को भोगने के लिए आता है। उस जीवात्मा को माता के गर्भ में ही मार देना पाप एवं निन्दनीय कर्म है। स्वामी जी ने कहा कि किसी वेद के विद्व़ान वा किसी ज्ञानी व विद्वान ब्राह्मण की हत्या करना भी पाप है। उन्होंने कहा कि आतंकवादियों को मारने से, राजा व सैनिकों आदि को, पुण्य मिलता है। किसी निरपराध मनुष्य या प्राणी को मारने से मनुष्य को पाप लगता है। विद्वान परोपकारी ब्राह्मण को मारने व सताने से मनुष्य को सबसे अधिक पाप लगता है। स्वामी जी ने कहा कि मनुष्य को पाप करने के बाद उसे छुपाना नहीं चाहिये। ऐसा करने से कालान्तर में वह बड़ा पापकर्मी वा पापी बनता है। स्वामी जी ने कहा कि छोटे पापों की बार बार आवृत्ति करने पर भी मनुष्य बड़ा पापी बन जाता है। स्वामी जी द्वारा अपने सम्बोधन को विराम देने के बाद कार्यक्रम का प्रभावशाली रूप से संचालन कर रहे आचार्य श्री शैलेश मुनि सत्यार्थी जी ने सत्र का समापन करते हुए यमुनानगर से पधारी बहिन सुदेश जी व उनके पतिदेव श्री नरेन्द्र जी द्वारा नगद दस हजार रूपये दान देने की सूचना दी। उन्होंने कहा कि बहिन जी ने पचास हजार रूपया आश्रम को दान में देने का संकल्प लिया है जिसकी दस हजार की दूसरी किश्त वह प्रदान कर रही हैं। इसके बाद वह शेष तीस हजार रूपये भी आश्रम को प्रदान करेंगी। बहिन सुदेश जी से आश्रम के पिछले उत्सव में हमारा भी संवाद हुआ था। वह प्रतिदिन यज्ञ करती हैं। यज्ञों में उनकी गहरी श्रद्धा व निष्ठा है। वह भजन भी बहुत सुन्दर गाती हैं। हमने तपोवन के पूर्व वर्षों के कार्यक्रमों में उनके भक्तिभाव में भर कर गाये भजनों को सुना व उनका आनन्द लिया है। सत्यार्थी जी ने आज के शेष कार्यक्रमों की सूचनायें भी दीं। इसके बाद आश्रम के धर्माधिकारी श्री पं. सूरतराम शर्मा जी ने शान्तिपाठ कराया। शान्ति पाठ के बाद प्रातःराश लेने के लिए अवकाश किया गया। प्रातराश के बाद प्रातः दस बजे से आश्रम के सभागार में महिला सम्मेलन का सफल आयोजन किया गया। ओ३म् शम्। -मनमोहन कुमार आर्य
ବୈଦିକ ଗୁରୁକୁଳ ଆଶ୍ରମ ପିଞ୍ଛାବଣିଆଁ
23-10-2021
ବୈଦିକ ବିଚାରକୁ ଅତ୍ୟନ୍ତ ସରଳ ଓ ସୁମଧୁର ଭାବରେ ଉପସ୍ଥାପନ କରି ସଦାସର୍ବଦା ଶ୍ରୋତାମାନଙ୍କୁ ବିମୁଗ୍ଧ କରାଇବା ରେ ଦକ୍ଷ ବୈଦିକ ପ୍ରବକ୍ତା ତଥା ଆମ୍ଭମାନଙ୍କର ମାର୍ଗଦର୍ଶକ (ଗୁରୁ) ପଣ୍ଡିତ ବୀରେନ୍ଦ୍ର କୁମାର ପଣ୍ଡାଙ୍କ ପୂଣ୍ୟ ଜନ୍ମ ଦିବସ ରେ ବୈଦିକ ଗୁରୁକୁଳ ଆଶ୍ରମ ପିଞ୍ଛାବଣିଆଁ ,ରୂପ୍ସା, ବାଲେଶ୍ୱର, ପରିବାର ତରଫରୁ କୋଟି କୋଟି ନମନ୍ ,ବନ୍ଦନ୍ ଓ ଅଭିନନ୍ଦନ .
ବେଦ ପ୍ରଚାର ସମିତି
17-10-2021
ବେଦ ପ୍ରଚାର ସମିତି, ବ୍ରହ୍ମପୁର ଆନୁକୂଲ୍ୟରେ 21 କୁଣ୍ଡୀୟ ବିଶ୍ବଶାନ୍ତି ବୈଦିକ ମହାଯଜ୍ଞ - 17-10-2021
गुरुकुल आश्रम आमसेना
12-10-2021
गुरुकुल आश्रम आमसेना में भव्य रुप से चल रहा है आर्य वीर दल एवं बाल प्रशिक्षण शिविर,गांव शहरों से 86 बच्चे ने लिया भाग उद्घाटन समारोह में नवापारा जिला के विधायक श्री राजू भाई ढोलकिया ने ध्वज फहराकर किया शुभारंभ,पूज्य स्वामी धर्मानंद जी महाराज ने दीया सभी आर्यवीरों को अपना आशीर्वाद,
ସଂସ୍କାରକ ଶ୍ରୀବତ୍ସ ପଣ୍ଡାଙ୍କ ୧୫୧ତମ ଜନ୍ମବାର୍ଷିକୀ
02-10-2021
ଶ୍ରୀବତ୍ସ ପଣ୍ଡା (୧୮୭୦ - ୧୯୪୩) ଜଣେ ଓଡ଼ିଆ ଭାଷାପ୍ରେମୀ ସାହିତ୍ୟିକ ଓ ସମାଜ ସଂସ୍କାରକ ଥିଲେ ।ସେ ଗଞ୍ଜାମ ଜିଲ୍ଲାର ଭଞ୍ଜନଗର ନିକଟବର୍ତ୍ତୀ ମନ୍ଦାର ଗ୍ରାମରେ ଏକ ରକ୍ଷଣଶୀଳ ବ୍ରାହ୍ମଣ ପରିବାରରେ ଅକ୍ଟୋବର ୧ ତାରିଖ, ୧୮୭୦ ମସିହାରେ ଜନ୍ମଗ୍ରହଣ କରିଥିଲେ । ତାଙ୍କର ପିତା ଥିଲେ ଧର୍ମ ପଣ୍ଡା ଓ ମାତା ରାଧାଦେବୀ । ସେ ଆନ୍ଧ୍ର ପ୍ରଦେଶର ରାଜମହେନ୍ଦ୍ରୀଠାରେ ଉଚ୍ଚ ଶିକ୍ଷା ଲାଭ କରିଥିଲେ । ଜାତିପ୍ରଥା, ବାଲ୍ୟବିବାହର ବିରୋଧ, ଅସ୍ମୃଶ୍ୟତା ନିବାରଣ, ବାଳିକା ଶିକ୍ଷା, ବିଧବା ଓ ଅନ୍ତର୍ଜାତୀୟ ବିବାହ ଏବଂ ଗୋରକ୍ଷା ଆଦି ଦିଗରେ ସେ ମହତ୍ୱପୂର୍ଣ୍ଣ ଭୂମିକା ନିର୍ବାହ କରିଥିଲେ । ଉତ୍କଳ ସମ୍ମିଳନୀର ଜନ୍ମ ପୂର୍ବରୁ ସେ ଗଞ୍ଜାମରେ ଜାତୀୟ-ସଭାର ପ୍ରତିଷ୍ଠା ଓ ବେଦର ପ୍ରଚାରରେ ବ୍ରତି ଥିଲେ । ଓଡିଶା ଭୂମିରେ ସର୍ବପ୍ରଥମେ ସେ ଅର୍ଯ୍ୟସମାଜର ଭିତ୍ତି ସ୍ଥାପନ କରିଥଲେ। ଆର୍ଯ୍ୟ ସମାଜର ଆଦର୍ଶାନୁରାଗୀ ହେତୁ ସେ ପ୍ରତି ଦିନ ପଞ୍ଚମହାଯଜ୍ଞ କରୁଥିଲେ। ମୋହନ ଦାସ ଗାନ୍ଧୀଙ୍କ ଅସହଯୋଗ ଆନ୍ଦୋଳନ ସହ ଜାତୀୟ କଂଗ୍ରେସ କାର୍ଯ୍ୟକ୍ରମ ସହିତ ସେ ସକ୍ରିୟ ରହୁଥିଲେ। ଅସୁସ୍ଥତା ସତ୍ତ୍ୱେ ତାଙ୍କୁ ଦୁଇଥର ଗଞ୍ଜାମ ଜିଲ୍ଲା କଂଗ୍ରେସ କମିଟିର ସଭାପତି ରୂପେ ମନୋନୀତ କରାଯାଇଥିଲା । ଭଞ୍ଜନଗର ନିକଟବର୍ତ୍ତୀ ତନରଡ଼ାଠାରେ ସେ ଗୋରକ୍ଷାଶ୍ରମ ଓ ବେଦଭବନ ପ୍ରତିଷ୍ଠା କରିଥିଲେ । ସରକାରୀ ଚାକିରି କାଳରେ ଯେଉଁ ସବୁ ସ୍ଥାନ ମାନଙ୍କରେ ସେ ରହୁଥିଲେ, ସେଠିକାର ଲୋକଙ୍କୁ ବୁଝାଇସୁଝାଇ ବାଳିକାଙ୍କ ପାଇଁ ବିଦ୍ୟାଳୟ ସ୍ଥାପନ କରିବା, ପରଦା ପ୍ରଥାର ଉନ୍ମୋଚନ, ଛୁଆଁଅଛୁଆଁ ଭେଦଭାବ ଦୂରୀକରଣ, ସ୍ୱତନ୍ତ୍ର ଓଡ଼ିଶା ଗଠନ ଓ ସ୍ୱରାଜ୍ୟ ପ୍ରାପ୍ତି ପାଇଁ ଉଦ୍ୟମ ଜାରି ରଖିଥିଲେ । ତାଙ୍କର ନିଜସ୍ୱ ସକଳ ସଂପତ୍ତି ସେ ଗୋରକ୍ଷାଶ୍ରମ, ବିଧବାଶ୍ରମ, ବାଳିକା ବିଦ୍ୟାଳୟ ଓ ଆର୍ଯ୍ୟସମାଜକୁ ଦାନ କରିଥିଲେ। ଓଡ଼ିଆ ଭାଷା ଓ ସାହିତ୍ୟକୁ ଶ୍ରୀବତ୍ସ ପଣ୍ଡାଙ୍କର ମହତ୍ୱପୂର୍ଣ ଅବଦାନ ରହିଥିଲା। ସରକାରୀ ଫାଇଲରେ ଇଂରାଜୀ ବା ତେଲଗୁ ଭାଷା ପରିବର୍ତ୍ତେ ଓଡ଼ିଆ ଭାଷାର ପ୍ରଚଳନ ପାଇଁ ସେ ଉଦ୍ୟମ କରିଥିଲେ । ଓଡ଼ିଆ ସାହିତ୍ୟର ପ୍ରସାର ପାଇଁ ସେ ସ୍ବୀୟ ବ୍ୟୟରେ ଗଞ୍ଜାମର ରସୁଲକୋଣ୍ଡା (ବର୍ତ୍ତମାନର ଭଞ୍ଜନଗର) ଠାରେ ‘ସ୍ଵଦେଶୀ ପ୍ରେସ୍’ ନାମକ ଏକ ଛାପାଖାନା ପ୍ରତିଷ୍ଠା କରିଥିଲେ। ସେ ୧୯୨୫ ମସିହାରେ ‘ସଂସ୍କାର’ ନାମକ ପତ୍ରିକାର ସମ୍ପାଦନା କରିଥିଲେ । ଗୋରକ୍ଷାଶ୍ରମ, ତନରଡ଼ା, ଗଞ୍ଜାମରୁ ସେ ୧୯୨୭ ମସିହାରେ 'ଆର୍ଯ୍ୟ' ନାମକ ଏକ ମାସିକ ପତ୍ରିକା ପ୍ରକାଶିତ କରିଥିଲେ ଓ ସେ ନିଜେ ଏହାର ସମ୍ପାଦକ ଥିଲେ । ପତ୍ରିକାର ଆଭିମୁଖ୍ୟ ଥିଲା ସମାଜସଂସ୍କାର, ବ୍ରାହ୍ମଣ୍ୟବାଦ, ଧର୍ମବିଶ୍ୱାସ, ମୂର୍ତ୍ତିପୂଜା, ଆର୍ଯ୍ୟସଭ୍ୟତା, ପାଶ୍ଚାତ୍ୟସଭ୍ୟତା, ପରଦାପ୍ରଥା ଇଦ୍ୟାଦିର ବ୍ୟାଖ୍ୟା କରିବା। ଦୀର୍ଘ ଚାରିବର୍ଷ କାଳ ପ୍ରକାଶିତ ହୋଇ ପତ୍ରିକାଟି ସମାଜର ବହୁ ଗୁରୁତ୍ୱପୂର୍ଣ୍ଣ ଦିଗ ପ୍ରତି ଆଲୋକପାତ କରିଥିଲା। ଶ୍ରୀବତ୍ସ ପଣ୍ଡାଙ୍କର ପ୍ରଥମ ପ୍ରବନ୍ଧ ସେ ମାଟ୍ରିକ୍ ପଢୁଥିବା ସମୟରେ ‘ସମ୍ବଲପୁର ହିତୈଷିଣୀ‘ ରେ ପ୍ରକାଶ ପାଇଥିଲା । ଏହା ପରେ ତାଙ୍କର ବିଭିନ୍ନ ଲେଖା ପ୍ରଜାବନ୍ଧୁ, ଉତ୍କଳବାସୀ, ଉତ୍କଳଦର୍ପଣ, ଉତ୍କଳ ସେବକ, ଉତ୍କଳବାର୍ତ୍ତା, ଉତ୍କଳ ଦୀପିକା, ସମ୍ବାଦବାହିକା, ଓଡ଼ିଆ ନବସମ୍ବାଦ, ଗଡ଼ଜାତବାସିନୀ, ଗଞ୍ଜାମ ଗୁଣଦର୍ପଣ, ଆଶା, ପ୍ରଜାମିତ୍ର, ସମାଜମିତ୍ର, ମୁକୁର ପ୍ରଭୃତି ପତ୍ରିକା ମାନଙ୍କରେ ପ୍ରକାଶିତ ହୋଇ ଓଡ଼ିଶାରେ ସମାଜ ସଂସ୍କାର ପ୍ରତି ଆଲୋଡ଼ନ ସୃଷ୍ଟି କରିଥିଲା। ସେ ଛୋଟ ବଡ଼ ଅନେକ ଗୁଡିଏ ସାହିତ୍ୟ ରଚନା କରିଯାଇଛନ୍ତି। ସେଗୁଡିକ ମଧ୍ୟରେ ଅଛବ ଜାତି, ଆରୋଗ୍ୟ ବିଧାନ, ଗୋଧନ, ପଞ୍ଚାୟତ, ଆର୍ଯ୍ୟଧର୍ମ, ଜାତୀୟ ସଙ୍ଗୀତ, ସଂସ୍କାର ସଂଗୀତାବଳୀ, ନିବେଦନ, ସଂସ୍କାରକ, ଜାତିଗୀତି, ମୋ ମାତୃଭାଷା, ବିଧବା ବିବାହ ନାଟ୍ଯ- ଶଶିକଳା ପରିଣୟ, ଜାତୀୟ ଜୀବନ, ପୋଷ୍ଯପୁତ୍ର, ପୁନର୍ମୂଷିକ ଭବ, ହିନ୍ଦୁମାନଙ୍କର ବ୍ରାହ୍ମଣପ୍ରିୟତା, ଭୁବନେଶ୍ୱର ଦର୍ଶନ, ତୀର୍ଥଯାତ୍ରା (ଦକ୍ଷିଣାଞ୍ଚଳ), ତୀର୍ଥଯାତ୍ରା (ଉତ୍ତରାଞ୍ଚଳ), ରେଙ୍ଗୁନ ଯାତ୍ରା, ପାର୍ବତୀପୁର ପ୍ରବନ୍ଧ ଇତ୍ୟାଦି ଅନ୍ୟତମ। ମହର୍ଷି ଦୟାନନ୍ଦ ସରସ୍ୱତୀଙ୍କର ଅମର ଗ୍ରନ୍ଥ ‘ସତ୍ୟାର୍ଥ ପ୍ରକାଶ’ କୁ ସର୍ବପ୍ରଥମେ ଓଡ଼ିଆ ଭାଷାରେ ମଧ୍ୟ ସେ ଅନୁବାଦ କରିଥିଲେ। ଅତ୍ୟନ୍ତ ପରିତାପର ବିଷୟ ଏହି ମହାନ ସାହିତ୍ୟିକଙ୍କର ଅନେକ ମୂଲ୍ୟବାନ ପାଣ୍ଡୁଲିପି ଏ ପର୍ଯ୍ୟନ୍ତ ପ୍ରକାଶ ହୋଇ ପାରିନାହିଁ। ବିଭିନ୍ନ ସ୍ଥାନରେ ସେଭିତରୁ ଅନେକ ନଷ୍ଟ ହୋଇ ସାରିଛି ଓ ଅନେକ ନଷ୍ଟପ୍ରାୟ ଅବସ୍ଥାରେ ରହିଛି। ବର୍ତମାନ ସମୟରେ ଏ ସମସ୍ତ ଦୁଷ୍ପ୍ରାପ୍ୟ ସାହିତ୍ୟ ଗୁଡିକର ସଂକଳନ କରି ଗ୍ରନ୍ଥାବଳୀ ଆକାରରେ ପ୍ରକାଶିତ କଲେ ଓଡିଶା ମାଟିର ଏହି ବରପୁତ୍ରଙ୍କର ସାହିତ୍ୟ ସବୁକୁ ସୁରକ୍ଷିତ ରଖାଯାଇ ପାରନ୍ତା। ବ୍ୟାସକବି ଫକୀର ମୋହନ ସେନାପତି, ସମ୍ବଲପୁର ଉତ୍କଳ ସମିଳନୀରେ ଶ୍ରୀବତ୍ସ ପଣ୍ଡା ମହୋଦୟଙ୍କୁ କହିଥିଲେ ଯେ, "ଆପଣଙ୍କ ଲେଖାରେ ସତ୍ୟବାଦିତା ଓ ସାହସ ଭରି ରହିଛି । ତେଣୁ ସ୍ୱାର୍ଥୀଲୋକେ ସମାଜ ସଂସ୍କାର ଚାହୁଁ ନାହାନ୍ତି ଓ ଆପଣଙ୍କୁ ଗାଳି ଦିଅନ୍ତି । ପରନ୍ତୁ, ସେଥିରେ ସମାଜର ହିତସାଧନ ହେବ, ଏଥିରେ ସନ୍ଦେହ ନାହିଁ" । ଉତ୍କଳ ଗୌରବ ମଧୁସୂଦନ ଦାସ, ଶ୍ରୀବତ୍ସ ପଣ୍ଡାଙ୍କୁ ଉତ୍କଳର ବିଦ୍ୟାସାଗର ଆଖ୍ୟା ଦେଇଥିଲେ। ଓଡ଼ିଶାର ଏହି ବରପୁତ୍ରଙ୍କର ୧୧ ମଇ, ୧୯୪୩ ମସିହାରେ ପରଲୋକ ଘଟିଥିଲା । ପରିତାପର ବିଷୟ ଯେଉଁ ଓଡ଼ିଶାର ବରପୁତ୍ର ନିଜର ସମ୍ପୂର୍ଣ୍ଣ ତନ-ମନ-ଧନ ଶିକ୍ଷାର ପ୍ରସାର, ସମାଜ ସଂସ୍କାର ଓ ବେଦର ପ୍ରଚାର ପାଇଁ ଉତ୍ସର୍ଗୀକୃତ କରିଦେଇଥିଲେ ସେହି ମହାନ ସମାଜ ସଂସ୍କାରକ, ସ୍ୱତନ୍ତ୍ରତା ସଂଗ୍ରାମୀ, ଆଜିର ଓଡ଼ିଆ ମାନଙ୍କ ନିକଟରେ ଅପରିଚିତ । .......✍️ମହିମା ସାଗର
ଦେବଯଜ୍ଞ
28-09-2021
ଅବସରପ୍ରାପ୍ତ A. S. C. ଶ୍ରୀଯୁକ୍ତ ସନ୍ତୋଷ କୁମାର ସାହୁ ଓ ଶ୍ରୀମତୀ ରାଜଶ୍ରୀ ଦେବୀଙ୍କ କନ୍ୟା ଆୟୁଷ୍ମତୀ ମିନାକ୍ଷୀ ସାହୁଙ୍କ ଜନ୍ମ ଦିବସ ଅବସରରେ ରେମୁଣା ବାସଭବନରେ ଦେବଯଜ୍ଞ ।
Vedic Vichar
28-09-2021
डॉ सुरेंद्र कुमार शास्त्री योगाचार्य के द्वारा यज्ञ हवन प्रवचन आदि करते हुए आर्य समाज मंदिर डेल्टा ग्रीन वैली हॉस्पिटल के सामने Greater Noida Jila Gautam Budh Nagar Uttar Pradesh
Vedic Mathematics
28-09-2021
Vedic Mathematics is a book written by the Indian monk Bharati Krishna Tirtha, and first published in 1965. It contains a list of mathematical techniques, which the author stated were retrieved from the Vedas and supposedly contained all mathematical knowledge. ...,.......... Vedic Vichar
महर्षि दयानन्द सरस्वती का सामाजिक, धार्मिक व राजनैतिक योगदान विषेशतः
26-09-2021
आर्य समाज की स्थापना के समय 1875 ई. में देश परतंत्र था | देशवासियो ने स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए अनगिनत रणबांकुरो को स्वतंत्रता संग्राम की बलिवेदी पर अर्पित कर दिया | परन्तु दुर्भाग्यवश यह यज्ञकुण्ड़ धधक कर न रह सका बल्कि सुलग कर रह गया | यह स्वतंत्रता प्राप्ति हेतु यज्ञकुण्ड़ की अग्नि विभिन्न निरोधकों द्वारा दबा दी गयी | परन्तु लाख प्रयास के बावजूद कुछ चिंगारिया शेष रह गयी और अनुकूल परिस्थितियों की तलाश में अवसर का इंतजार करने लगी | अवसर मिला स्वामी दयानन्द सरस्वती जैसे व्यक्तित्व ने छुपी व दबी चिंगारियों को भड़काया और देश विदेश में आर्य समाज की पत्र पत्रिकाओं के माध्यम से सम्पूर्ण विदेशी साम्राज्य को खाक में मिलाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया | आर्यजगत् में अनेक मासिक, पाक्षिक, त्रैमासिक पत्रिकाओं सहित साप्ताहिक पत्रों का प्रकाशन होता है। हम जब लगभग सन् 1970 में आर्यसमाज के सम्पर्क में आये तो वैदिक साधन आश्रम तपोवन, देहरादून में स्वामी विद्यानन्द विदेह जी के प्रभावशाली प्रवचनों को सुनकर सबसे पहले सन् 1974 में ‘सविता’ मासिक के सदस्य बने थे। आज भी इस पत्रिका के अकों को हमने जिल्द बंधवाकर सुरक्षित रखा हुआ है। इसके बाद सन् 1976 में मासिक ‘वेद प्रकाश, दिल्ली’ के सदस्य बने थे। कुछ काल बाद हम ‘परोपकारी’ और ‘वेदवाणी’ के सदस्य बने और इसके बाद यह सिलसिला बढ़ता गया। साप्ताहिक पत्रो में आर्यजगत, आर्यमर्यादा, आर्यसन्देश, सार्वदेशिक, आर्यमित्र आदि अनेक पत्रों के सदस्य बनकर हम इनका नियमित पाठ व अवलोकन करते रहे। इसके साथ ही हमें स्वाध्याय की लगन भी उत्पन्न हुई। हमनें ऋषि दयानन्द के ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश के साथ पुस्तक विक्रेताओं से छोटे-छोटे टै्रक्ट लेकर पढ़ते रहते थे। बाद में बड़े व विशालकाय ग्रन्थों के प्रति भी रूचि बढ़ी ओर अनेक ग्रन्थों को आद्यान्त पढ़ा । हम अपनी युवावस्था के आरम्भ में अध्ययन के साथ दैनिक पत्र-पत्रिकाओं के वितरण आदि कार्यों से भी कई वर्षों तक जुड़े रहे। हमें सन् 1970 व उसके बाद कुछ वर्षों तक प्रायः सभी पत्र-पत्रिकायें जो दिल्ली आदि से यहां आती थीं, देखने व पढ़ने का अवसर मिलता था। उनमें आर्यसमाज व ऋषि दयानन्द के प्रति कुछ भी सामग्री न देखकर पीड़ा होती थी । आर्य समाज व दयानंद सरस्वती को व्यापक जन समर्थन मिला और लगभग पूरा भारत वर्ष उनके नेतृत्व में चल पड़ा जो देश प्रेमी जहाँ था वही से अपने देश की मुक्ति के लिए प्रयासरत था | पत्र पत्रिकाओं में हिंदी, अंग्रेजी और उर्दू भाषाओ में भी अनेक पत्र पत्रिकायें निकली हैं | बहुत सी संस्थानों का जन्म हुआ और कई पत्र पत्रिकायें निकली गयी | जिनके द्वारा लोगो में वैदिक धर्म एवं वेदभावनाये जागरूक हो कुरीतियों और कुप्रथाओ का विनाश हो सके | सभी लोग सभ्य नागरिक बनकर सभ्य समाज तथा सुन्दर देश का निर्माण कर सके |.....Er. Manoj Kumar Sharma, Bhagwant University
Dayanand Educational Mission
26-09-2021
Dayanand Educational Mission was formed at Rawalpindi which also led to the opening of Arya Putri Pathshalas. Between 1904 and 1912, a number of Arya girls‟ schools were set up at Shimla, Jullundur, Ludhiana, Haryana, Ambala, Bhera, Amritsar, Patti, Hafizabad, Nurmahal, Kasauli, etc. There were in all 164 Arya girls‟ schools run by the Arya Samajists all over India. Arya Kanya Vidyalaya and Mahavidyala were founded at Ambala in 1922 and Nirvana in 1928 respectively. For Dayanand Saraswati, education was as much as necessary for the survival of society. Education without any aim was as meaningless, as a journey without any goal. Unless there was an obvious aim before education, it would not be possible to measure the accomplishment of the educand. The aim enabled both the educator and the educand to check their educational growth. According to him, in an ideal and an advanced community the aims of education were all determined or influenced by higher principles of life i.e. education for the character of one‟s personality, for individual and social development, for culture, for mental discipline for knowledge and so on. For Swami Dayanand, knowledge alone was an never-ending treasure; the more you spent it, the more it grew. All men and women had the right to study. To organize their children and give sound education, the parents and teachers should apply themselves to their maximum of what they can do for their children with all their hearts, souls and wealth, so Swami Dayanand advocated equal rights for men and women in all matters i.e. in education, in marriage and in the holding of property. Arya Samajists took up the initiative of women‟s education as early as 1886, though at first stages they opened educational institutions for boys only. They also established an Anglo-Vedic High School for boys at Lahore in June, 1886 which was later converted into College on May 18, 1889. Both the high school and college taught a set of courses similar to the government schools, but did so without any government support or the contribution of Englishmen on the faculty. It was highly successful, as students were trained in this institution which demonstrated the excellence of their education in the annual examination. This non-governmental institution constantly contributed to the development of women education. It was remarked in Arya Patrika that the Arya Samaj, unlike other societies could never sit loose on its country, it had been the first and primary work in the noble task, and had played a prominent part in giving respected means of improving the state of females. There was hardly any Arya Samaj to which a girls‟ school was not attached. The Arya Samajists believed that any lady could become a member of the Samaj and had the right to vote and also had the right to access in any field. The Pratinidhi Sabhas too had important ladies members in their working committees. The Gurukul branch of the Arya Samaj, also contributed significantly to the education of women in Punjab. The curriculum of the Gurukul desired the study of Sanskrit and Vedic literature. Students there were also taught Ayurvedic medicine, Economics, Agriculture, along with the instructions and the information in religious philosophy of Swami Dayanand. Gurukul for girls were started at Hathras in 1910, Indraprastha in 1923 and Sonepat in 1936. .... Dr Yajnya Dutta Nayak
संहिता मित्रवर ! सादर नमस्ते
20-09-2021
* आओ मित्रों! हम सब मिलकर कृण्वंतो विश्वमार्यम् सार्थक करे * आप _हमारे समस्त मित्रों के लिए एक आदर्श आचार संहिता मित्रवर ! सादर नमस्ते बंधुवर ! ईश्वर की असीम तथा महती कृपा से आप एक श्रेष्ठ मित्र के रूप में हमारे मित्र हैं।आपके हमारे अधिकांश मित्र वैदिक धर्म सिद्धांतों को जानने तथा मानने वाले हैं हम भी परस्पर और अधिक जाने तथा आत्मसात करें और अधिक से अधिक महानुभाव तक वैदिक ज्ञान पहुंचा कर धर्म, राष्ट्र तथा मानव जाति की रक्षार्थ अपना योगदान दे। तभी हमारी मित्रता सार्थक है।धन्यवाद आपसे विनम्र अनुरोध है कि उपरोक्त बातों का विशेष ध्यान रखें। १: वैदिक धर्म सिद्धांतों के विपरीत किसी भी प्रकार की मूर्ति पूजा, अवतारवाद,जन्मना जातिवाद , जादू टोना, चमत्कार, भविष्यफल तथा भविष्यवाणियां, गुरुडमवाद, विज्ञान विरुद्ध कपोल कल्पित पौराणिक दंत कथाओं आदि की गतिविधियां प्रचारित प्रसारित ना करें। २: ईश्वर को जन्म लेने वाला अर्थात साकार रूप में प्रदर्शित करने वाले मूर्ति,चित्र आदि तथा अवतारवाद आदि की ऐसी कोई पोस्ट ना करें जिससे अंधविश्वास पाखंड फैलता हो। ३: जन्मना जातिवाद जो मनुष्य जाति का सबसे बड़ा अभिशाप होकर मनुष्य जाति के विघटन और इस देश की परतंत्रता तथा पतन का प्रमुख कारण है अत: इसे प्रचारित न करें व इसे समाप्त करने की दिशा में कार्य करें। ४: हमारा ऐसा मानना है की फिल्मों ने वैदिक धर्म संस्कृति के मूल्य तथा मानवीय सभ्यता कि रक्षार्थ योगदान कम और हानि अधिक पहुंचाई है। अत: फिल्मों से संबंधित किसी भी प्रकार की कोई पोस्ट ना करें। ५: गुरु शब्द का अर्थ है अज्ञान के अंधकार को दूर करने वाला। यह कार्य वही कर सकता है जो परमपिता परमात्मा के प्रदत्त ज्ञान वेद तथा वेद अनुकूल शास्त्रों का ज्ञाता हो किंतु वर्तमान में वेद ज्ञान विहीन गुरु घंटालो की बाढ़ आई हुई है इन्होंने सर्वाधिक धर्म संस्कृति की हानि की है तथा स्वयंभू भगवान बन बैठे हैं अतः हम गुरुडमवाद के पक्षधर नहीं है आप से भी अपेक्षा करेंगे कि आप भी इससे दूर रहें। ६: परमपिता परमात्मा ने हमें यह मनुष्य जीवन आध्यात्मिक उन्नति के लिए दिया है। आत्मा अजर अमर है तथा शरीर नाशवान है अतः हम शरीर के लिए आवश्यक कार्य ही करें तथा विशेष प्रयास आत्मिक उन्नति का करें। इस हेतु आवश्यक है कि हम सर्वाधिक पुरुषार्थ वेद ज्ञान अर्जित करने हेतु करें। सर्वप्रथम इसके लिए आवश्यक है कि हम शरीर के श्रंगार प्रदर्शन पर आवश्यकता से अधिक केंद्रित न रहे तथा इस सूचना क्रांति के माध्यम का उपयोग सर्वाधिक आध्यात्मिक उन्नति के प्रचार-प्रसार हेतु करें। यह विशेष ध्यान रखें व्यक्तिगत चित्र आदि का प्रदर्शन अनावश्यक रूप से ना करें। ७: मनु महाराज ने व्यवस्था दी है कि राजा वेद का ज्ञाता हो।राजनीति अत्यंत पवित्र तथा धर्म संस्कृति के लिए आवश्यक विषय है। राजनीति के बगैर राष्ट्र की सुदृढ़ता तथा संचालन संभव नहीं। और राष्ट्र के बगैर धर्म संस्कृति सुरक्षित नहीं । राजनीति तपस्या है किंतु वर्तमान में वेद ज्ञान विहीन शूद्र राजनीति ने देश, धर्म ,संस्कृति की दशा दिशा ही बदल कर रख दी है। ऐसी परिस्थिति में घृणा विद्वेष फैलाने वाली स्वार्थ परक राजनीति से संबंधित सूचना समाचारों को उसके परिणाम व मानवीय पक्ष को विचार करने के बाद ही प्रेषित करें। ८: वैदिक धर्म संस्कृति में मातृशक्ति का सम्मान तथा स्थान सर्वोपरि है। अतः मातृशक्ति के संबंध में प्रेषित किसी प्रकार के विचार तथा चित्र आदि में मातृशक्ति के सम्मान व स्थान की गरिमा बनाए रखें। अश्लीलता कतई स्वीकार्य नहीं है। ९: महर्षि दयानंद सरस्वती जी ने मानव जाति की एकता हेतु एक भाषा पर जोर दिया है। जब तक संस्कृत भाषा अपनी गरिमा को पुनः प्राप्त नहीं कर लेती तब तक हम हिंदी भाषा को प्राथमिकता दें। १०: मित्रवर! इस जगत में कोई व्यक्ति नहीं है जिसका कोई मित्र ना हो। प्राणी मात्र के जीवन में मित्र की प्रमुख भूमिका है। प्रत्येक मनुष्य को उसके माता-पिता सुसंस्कार देते हैं एक अच्छा सच्चरित्र व्यक्ति बनाने का प्रयास करते हैं कोई भी माता-पिता अपने बच्चे को दुष्ट दुर्गुणी बनाना नहीं चाहते किंतु फिर भी मनुष्य में दोष दुर्गुण आ जाते हैं, कहां से आते हैं? मित्र ही वह माध्यम है जो माता पिता के दिए संस्कारों मैं और वृद्धि कर मनुष्य को एक सफलतम मनुष्य बना सकते हैं और मित्र ही वह माध्यम है जो माता-पिता के दिए संस्कारों को मिट्टी में मिला कर मनुष्य को पतन की राह पर धकेल सकते हैं। आपके मित्र प्रत्यक्ष जीवन में तथा सोशल मीडिया पर कैसे हैं?वे आपके वास्तविक मित्र हैं अथवा शत्रु इस का सूक्ष्म निरीक्षण करना आपका अपना दायित्व है। ११: हमारा ऐसा विश्वास है कि निष्क्रिय सदस्य स्वयं का कल्याण नहीं कर सकता तो वह धर्म संस्कृति तथा राष्ट्र की रक्षा कैसे कर पाएगा। अतः हम अपने मित्र से अपेक्षा रखेंगे कि वह समय सुविधानुसार सक्रिय रहे। धन्यवाद सहयोग की अपेक्षा में आपका मित्र सुखदेव शर्मा प्रकाशक वैदिक संसार मासिक पत्रिका
Vedic Vichar
15-09-2021
ୟୁରେକା ଷ୍ଗଡି ସେଣ୍ଟର, ବାଲେଶ୍ୱର ରେ ପଢ଼ୁଥିବା ଛାତ୍ର ଛାତ୍ରୀ ମାନଙ୍କର ନିଟ୍ ପରୀକ୍ଷା ଅବସରରେ ,ଷ୍ଟଡି ସେଣ୍ଟର ର ମୁଖ୍ୟ ପ୍ରଫେସର ଡ. ଜନାର୍ଦ୍ଦନ ବେହେରାଙ୍କ ସହଯୋଗରେ ଗୁରୁକୁଳରେ ବେଦ ପାରାୟଣ ଦେବଯଜ୍ଞ ଅନୁଷ୍ଠିତ ହୋଇଥିବାରୁ, ପ୍ରଫେସର ଡ. ଜନାର୍ଦ୍ଦନ ବେହେରାଙ୍କୁ ଅଶେଷ ଅଶେଷ ଧନ୍ୟବାଦ ଜଣାଇବା ସହିତ ଛାତ୍ରଛାତ୍ରୀଙ୍କ ସଫଳତା ପାଇଁ ଭଗବାନଙ୍କ ନିକଟରେ ପ୍ରାର୍ଥନା କରୁଅଛୁ । Vedic Vichar
वेद मंदिर
15-09-2021
वेद मंदिर मथुरा के श्रद्देय आचार्य स्वदेश नैष्टिक जी की सत्प्रेरणा से दो दिवसीय कार्यक्रम आयोजित किया जा रहा है, उसमें आप सभी को सादर निमन्त्रण है। कार्यक्रम में आचार्य शिवकुमार शास्त्री जी (कन्या गुरूकूल हसनपुर होडल, हरियाणा) कु.उदयवीर सिंह जी, पं.विपिन बिहारी जी प्रधान, श्री ब्रजकिशोर जी आर्य मंत्री जिला मथुरा,श्री धर्मवीर सिंह जी आर्य, भजनोपंदेशक, कु.योगिता कोंकरा,श्री रामवीर सिंह अकबरपुर, महाशय नरदेव जी भरतपुर, राजस्थान आदि विद्दान व भजनोपंदेशक आ रहे है जिसमें आप सपरिवार ईष्ट मित्रों सहित पधार कर कार्यक्रम की शोभा बढ़ाऐें। ..... Vedic Vichar .....Vedic Family
Life History (www.lifehist.com)
10-09-2021
Offers Family History Life History is an IT tool that allows users to connect with their passed away parents, family members, and others, including people who share a similar interest. Present Users can share, publish or store their parent’s pictures, videos, articles, achievements, views, suggestions and opinions etc. available with them and which they think are worthy to be cherished and remembered. The importance of the life history site is to publish life stories, Views, opinions, achievements and social obligation of parents across the world who have devoted countless hours to this society, but their contribution till date remains anonymous. The site Life History with your contribution may become an increasingly important way of obtaining information of all persons who have left the society today. Life History is the largest and most recognized Data Base, which makes it an excellent entry point for people looking to carry on their parent’s details. Compared to other IT Organisation, Life History is a unique exposure for your lovely parents to the widest audience with the most thorough set of tools. The historical tools offered by Life History allows you to share your Parents experience, work performed, views, opinions, photos, video clips and life history online, creating meaningful connections with Families and relatives, and increase overall output. Life History is the first IT tool to achieve sustained success. It introduces all human being’s History to a large and diverse audience, and it provides businesses with a thorough set of tools compared to other social media platforms. We are sober, we are really sad about his sudden departure, May the Creator accept our prayers on his behalf. ....,..... Life history www.lifehist.com
एक सच्चाई
01-09-2021
एक सच्चाई मैं बिना द्वेष भाव के सत्य कहता हूं कि हिन्दुओं ने अपने देवी ' देवताओं का मजाक पहले अपने आप उड़ाया और दूसरो को मौका दिया है ।क्योंकि मुसलमान ' ईसाई आदि किसी को पता नहीं था कि इनके देवी ' देवता पूंछ वाले ' हाथी के सिर वाले ' लड़कियों के साथ रास लीला करने वाले ' चार मुंह वाले आदि होते हैं इन्हें सबको आपने ही बताया है । फिर इन्हें क्यों दोष देते हो । अभी समय है संभल जाओ ' हिन्दू नहीं ' अपने को आर्य कहो ' आगे आपकी मर्जी । नमस्ते जी
जन्माष्टमी
31-08-2021
ओ३म् नमस्ते जी। परमपिता परमात्मा की कृपा व आपकी शुभकामनाओं के साथ *सोमवार श्रावण कृष्ण अष्टमी २०७८, ३० अगस्त जन्माष्टमी* के दिन हम दोनों *वानप्रस्थ दीक्षा* लेने जा रहे हैं। दीक्षा स्वामी विष्वड्. जी परिव्राजक के द्वारा एवं संस्कार स्वामी मुक्तानन्द जी परिव्राजक के द्वारा प्रातः १० से १२ बजे तक वानप्रस्थ साधक आश्रम, आर्यवन, रोजड़, गुजरात की यज्ञशाला में होंगे। दीक्षा के बाद प्रीतिभोज के साथ समारोह समाप्त होगा। कार्यक्रम का सीधा प्रसारण वानप्रस्थ साधक आश्रम के यूट्यूब चैनल पर देखा जा सकता है। यह यहीं बाद में भी उपलब्ध रहेगा। https://youtube.com/channel/UCnaILSJJJgmAPQbgrYSmpKA सत्यजित् आर्य अर्चना विनोद वानप्रस्थ साधक आश्रम, आर्यवन, रोजड़, गुजरात
यज्ञोत्सव आमंत्रण पत्र
29-08-2021
सादर नमस्कार, सत्यार्थ प्रकाश के स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाश : में स्वामी दयानंद सरस्वती जी यज्ञ को परिभाषित करते हैं। वह लिखते हैं, ' यज्ञ उसको कहते हैं कि जिस में विद्वानों का सत्कार यथा योग्य शिल्प अर्थात रसायन जोकि पदार्थ विद्या उससे उपयोग और विद्यादि शुभ गुणों का दान, अग्निहोत्रादि जिनसे वायु, वृष्टि, जल, औषधि की पवित्रता करके सब जीवों को सुख पहुंचाना है ; उसको उत्तम समझता हूं। यज्ञ वैदिक काल से हमारे जीवन का मूल रहा है. अथर्व वेद में ऋषि-मुनियों ने लिखा है अयज्ञियो हत वर्चो भवति। अर्थात, यज्ञ रहित मनुष्य का तेज नष्ट हो जाता है। यदि तेजस्वी रहना है तो यज्ञ करते रहना चाहिए। ऋग्वेद कहता है ,अरं कृण्वन्तु वेदिं समग्निमिन्धतां पुर: । अर्थात् ईश्वर की आज्ञा है कि ” तुम यज्ञवेदी को अलंकृत करो और उसमें अग्नि को प्रज्वलित करो ” । आधुनिक काल के वैज्ञानिकों ने भी यज्ञों की प्रमाणिकता पर मुहर लगाई है। राष्ट्रीय वनस्पति अनुसंधान (NBRI) संस्थान द्वारा किए गए एक शोध में पता चला है कि यज्ञ और हवन के दौरान उठने वाले धुएं से वायु में मौजूद हानिकारक जीवाणु 94 प्रतिशत तक नष्ट हो जाते हैं। आर्य प्रतिनिधि सभा उत्तर प्रदेश ने यज्ञ को हर घर तक पहुंचाने के लिए महाभियान ' यज्ञोत्सव ' की शुरुआत करने जा रहा है। घर-घर यज्ञ, हर घर यज्ञ का संदेश पहुंचा रहा है। यज्ञोत्सव की शुरुआत धर्म की नगरी प्रयागराज से 11 सितंबर 2021 को किया जाएगा। इसके बाद प्रत्येक माह क्रमवार प्रदेश के अलग-अलग जिलों में इस महाभियान के तहत कार्यक्रम आयोजित किए जाएंगे । प्रार्थना है कि आप धर्म की नगरी प्रयागराज से 11 सितंबर 2021 को शुरू हो रहे इस महा अभियान में अपनी गरिमामयी उपस्थिति से प्रतिभागियों का उत्साहवर्धन करें और समारोह को सफल बनाने में अपना योगदान देने की कृपा करें। कार्यक्रम : यज्ञोत्सव शहर : प्रयागराज तिथि : 11 सितंबर 2021 दिन : शनिवार समय : सुबह 10 बजे संपर्क सूत्र : 9793006777 सादर, आयोजक : अजय श्रीवास्तव मंत्री, आर्य समाज सिविल लाइंस नरही
श्रावणी पर्व
24-08-2021
श्रावणी पर्व/रक्षाबन्धन/संस्कृत दिवस के उपलक्ष्य में आर्य समाज बलांगीर पश्चिमओडिशा में वैदिक कार्यक्रम आचार्य र्धर्मराज, आचार्य आनन्द एवंश्रीसहदेव शास्त्री आचार्य कृष्ण देव शास्त्री जी के पौरोहित्य में चारों वेदोंके मन्त्रों से आहुतियां, तथा प्रवचन तथा आर्यसमाज के युवा संचालक श्री हितेश जी का यज्ञोपवीत संस्कार पूर्व एवं वर्तमान प्रधान श्री रामचन्द्र विश्वाल तथा सुव्रत बहिदार एवं आर्य नरनारी की उपस्थिति में कल प्रीतिभोज ससमारोह सम्पन्न हुआ!
SWAMI VEDA RAKSHANANDA
22-08-2021
Swamiji was one of my mentors at my Grammar School, Gurukula Kalwa in India. I lived in his company for three years. During this period, I had all the time to observe his disciplined conduct and hear him expound on Phonetics, Poetics, Grammar, Etymology and Philosophy in such a way that western scholars in these very fields of study might have found themselves lacking. I left Kalwa and the Swami’s company in 1980 to go study in other institutions. In 1998, I went back to India and visited Kalwa again. There I saw Swamiji, this time much older. He had written a number of books and I sought to acquire them. When I tried to include a decent monetary gift (dakshina) in the sum-total payment for the books, Swamiji graciously declined, saying that the amount was excessive! In paying tribute to the scholarly, gracious Swami, I unequivocally say that he is the very epitome of scholarship and non-attachment. Look at the way he is dressed. Since he left his home in his mid-teens, he never again saw his parents, siblings, relatives, home and village. Such souls, when they leave by way of death, never walk the earth again. Their mission becomes complete. This note was not easy to write. Namaste! DR SATISH PRAKASH
Prize Giving Ceremony
22-08-2021
August 18th, 2021 - Essay Writing Competition for HSC students, organised by Youth Wing 10 and Federation 10 of Mauritius Arya Ravi Ved Pracharini Sabha. We congratulate the 10 participants who were awarded a Certificate of Participation: 1. Yudhisthir Seewoolall 2. Hemshika Dhoorundhur 3. Shashudev Sharma Joysury 4. Vishesh Beekmunga 5. Rakshana Ramtohul 6. Dristhee Ramkirit 7. Anisha Seechurn 8. Yasodha Dursun 9. Sushish Puran 10. Shilpa Mohit Winner: Hemshika Dhoorundhur - Camp de Masque Pave 1st Runner-Up: Dristhee Ramkirit - Sebastopol 2nd Runner-Up: Anisha Seechurn - Sebastopol CONGRATULATIONS Stay tuned for our next event..
VERBAL TESTIMONY - SHABDA
13-08-2021
Aapta purush upadesh bakhaane Shab-da pramaanik uskaa mane Veda vachan hai shab-da pramaanaa Jo maane paawe sukh naanaa Instruction given by a trustworthy person is called Verbal Testimony or Shabda. In giving out such testimony, a trustworthy scholar ensures that what he says is authentic and in accord with Veda. Anyone who accepts such testimony experiences multiple joys. [Aaptas are those thorough scholars who are virtuous, benevolent, truthful, actively engaged, and controlled in senses. They are motivated solely by the desire to improve people’s lives through their knowledge, experience and convictions. They are versed in the knowledge of things ranging from the gross things on Earth to God, the most subtle. The instructive word of such sages is called Verbal Testimony. [Through such Testimony we discover what is truthful and acceptable.] God is the greatest of all Aaptas. His Instructive Word is Veda. Veda is also to be considered Verbal Testimony.] FROM THE NEW BOOK, SATYA SAAGAR DR SATISH PRAKASH
ओ३म् -आगामी श्रावणी व रक्षाबन्धन पर्व 3 अगस्त पर- “वेदों का स्वाध्याय एवं वैदिक जीवन जीने का पर्व है श्रावणी पर्व”
12-08-2021
============ श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन देश के आर्य व हिन्दू बन्धु श्रावणी पर्व को मनाते हैं। वैदिक धर्म तथा संस्कृति 1.96 अरब वर्ष पुरानी होने से विगत दो ढाई हजार वर्ष पूर्व उत्पन्न अन्य सब मत-मतान्तरों से प्राचीन हैं। वैदिक धर्म के दीर्घकाल के इतिहास में लगभग पांच हजार वर्ष हुए महाभारत युद्ध के कारण धार्मिक एवं सामाजिक अवनति का दौर चला जो अब तक न तो थमा है और न ही हम व विश्व के लोग पुनः अपने प्राचीन वैदिक धर्म की ओर लौट ही सके हैं। सौभाग्य से ईसा की उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरकाल में देश में ऋषि दयानन्द जी का आगमन हुआ था जिन्होंने प्राचीन वैदिक धर्म एवं संस्कृति का वैदिक काल के अनुरूप पुनरुद्धार किया। अविद्यायुक्त मत-मतान्तरों का सहयोग न होने के कारण देश व समाज से अविद्या दूर न हो सकी। परिणामतः आज भी वेद विरोधी व अविद्यायुक्त मत-मतान्तरों का प्रचलन व प्रभाव विद्यमान है। इन कारणो ंसे प्राचीन काल में प्रचलित वेद-सम्मत श्रावणी पर्व का वास्तविक स्वरूप अब भी प्रायः आंखों से ओझल है। वर्तमान काल में श्रावणी पर्व मनाया तो जाता रहा है परन्तु इसका स्वरूप वैदिक नहीं रहा है। मध्यकाल व मुस्लिम शासकों के समय से यह पर्व रक्षा बन्धन पर्व के रूप में प्रचलित हो गया जो वर्तमान में इसी रूप में मनाया जाता है। अप्रैल, 1875 में आर्यसमाज की स्थापना के बाद हमारे वैदिक विद्वानों ने इस पर्व की शास्त्रीय दृष्टि से जांच पड़ताल की तो ज्ञात हुआ कि प्राचीन काल में यह पर्व श्रावणी पर्व वा ऋषि तर्पण के रूप में मनाया जाता था जिसका उद्देश्य श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन वेदों का स्वाध्याय व पारायण आरम्भ किया जाता था जिसे उपाकर्म कहते हैं। इस दिन से पौष मास की पूर्णिमा जो चतुर्मास पूरे होने पर आती है, इस उपाकर्म का उत्सर्जन व समापन किया जाता था। अतः श्रावणी पर्व सृष्टि के आरम्भ से ऋषि तर्पण पर्व के रूप में मनाया जाता रहा है। पर्व का उद्देश्य पितृयज्ञ एवं अतिथियज्ञ के समान वेद के मर्मज्ञ ऋषियों को सन्तुष्ट करना होता था जिससे मनुष्य का अपना ही कल्याण होता है। ऋषियों की सबसे प्रिय वस्तु वेद का स्वाध्याय, उसका रक्षण व सभी मनुष्यों को वेदज्ञान से आलोकित करना था। वह हर समय इसी कार्य में संलग्न रहते थे। यही कार्य उनका प्रियतम व मानुष्यमात्र का कल्याणकारी था। जो लोग वेदों का अध्ययन करते व उसकी शिक्षाओं पर आचरण करते थे वह लोग ऋषियों को प्रिय होते थे। इसलिये ऋषियों को प्रसन्न व सन्तुष्ट करने के लिये प्राचीन काल में लोग श्रावण मास की पूर्णिमा को वेदों के स्वाध्याय व पारायण का उपाकर्म कर पौष मास की पूर्णिमा पर उसका उत्सर्जन किया करते थे। मध्यकाल में यह परम्परा टूट गई। इस काल में ऋषियों का उत्पन्न होना भी बन्द हो गया था। ऋषि दयानन्द ने वेदाध्ययन व अपनी योग-समाधि की सिद्धि से ऋषित्व को प्राप्त कर वेदों का पुनरुद्धार किया और मध्यकाल में अवरुद्ध सभी वैदिक पर्वों के यथार्थ स्वरूप का अनुसंधान कर उनको प्रचलित कराने का अभियान चलाया। इसी का परिणाम है कि वर्तमान में वैदिक धर्मी आर्यसमाजी लोग रक्षाबन्धन पर्व को श्रावणी पर्व के रूप में मनाते हैं। इस दिन समाज मन्दिरों व गुरुकुलों आदि में विशेष यज्ञों का आयोजन होता है, भजन व प्रवचन होते हैं। बड़ी संख्या में श्रोता समाज मन्दिरों में एकत्रित होते हैं और इस अवसर पर वेदों के महत्व तथा दैनिक जीवन में वेदों के स्वाध्याय तथा ऋषियों के ग्रन्थों का अध्ययन करने की प्रेरणा की जाती है। इस परम्परा से मोक्ष में विचरण करने वाली आत्मायें भी सन्तुष्ट होती होंगीं ऐसा हम अनुमान करते हैं। इस कारण से यह पर्व वर्तमान समय में भी ऋषि तर्पण के रूप में मनाये जाने की दृष्टि से सार्थक है। वेदों के स्वाध्याय से मनुष्य का कल्याण होता है। वेदाध्ययन करने से मनुष्य जीवन को पतन के मार्ग पर ले जाने वाले विचारों व कामों से बचता है। उसकी इस जन्म व जन्मान्तरों में श्रेष्ठ योनि व परिवेश में मानव पुनर्जन्म मिलने से उन्नति व कल्याण होता है। शास्त्रकारों ने वेदों के स्वाध्याय के अनेक लाभ बताये गये हैं। यह सभी लाभ इस पर्व को मनाते हुए इसकी मूल भावना से एकात्मता उत्पन्न करने से कर्ता को लाभान्वित करते हैं। अतः श्रावणी पर्व का प्राचीन काल के अनुसार ऋषि तर्पण वा वेद स्वाध्याय के उपाकर्म एवं चार मास बार उत्सर्जन के रूप में मानने से मनुष्य का जीवन सफलता को प्राप्त होता है। यही इस पर्व की आज के समय मे ंप्रासंगिकता व उपयोगिता है जिसे हमें श्रद्धापूर्वक करना चाहिये। श्रावणी पर्व के विषय में आर्य पर्व-पद्धति पुस्तक में कहा गया है कि शास्त्रीय विधान के अनुसार मनुष्य को स्वाध्याय से ऋषियों की, होम से देवों की, श्रद्धा से पितरों की, अन्न से अतिथियों की, बलिवैश्वदेव कर्म से कीट-पतंगों आदि प्राणियों की यथाविधि पूजा करनी चाहिये। मनुस्मृति आदि ग्रन्थों में विशेष अवसरों पर विशेष स्वाध्याय द्वारा विशेष ऋषि तर्पण का विधान है। वेदधर्म के अनुयायियो ंमें नित्य और नैमित्तिक कर्मों की शैली सर्वत्र विद्यमान व प्रचलित है। वैदिक काल में वेदों के अतिरिक्त अन्य गन्थों की अविद्यमानता वा विरलता के कारण वेदों और वैदिक साहित्य के ही पठन-पाठन का विशेष प्रचार था। लोग नित्य ही वेदपाठ में रत रहते थे किन्तु वर्षाऋतु में वेद के पारायण का विशेष आयोजन किया जात था। इसका कारण यह था कि भारत वर्षा बहुल तथा कृषि प्रधान देश है। यहां की जनता आषाढ़ और श्रावण में कृषि के कार्यों में विशेषतः व्यस्त रहती है। श्रावणी (सावनी) शस्य की जुताई और बुवाई आषाढ़ से प्राश्रम्भ होकर श्रावण के अन्त तक समाप्त हो जाती है। इस समय श्रावण पूर्णिमा पर ग्रामीण जनता कृषि के कार्यों से निवृत्ति पाकर तथा भावी शस्य के आगमन से आशान्वित होकर चित्त की शान्ति और अवकाश लाभ करती है। क्षत्रियवर्ग भी इस समय दिग्विजय यात्रा से विरत हो जाता है। वैश्य भी व्यापार, यात्रा, वाणिज्य और कृषि से विश्राम पाते हैं। इसलिए इस दीर्घ अवकाश-काल में विशेष रूप से वेद के पारायण और प्रवचन में जनता प्रवृत्त होती थी। उधर ऋषि-मुनियों, संन्यासी और महात्मा लोग भी वर्षा के कारण अरण्य और वनस्थली को छोड़कर ग्रामों के निकट आकर अपना चातुर्मास्य (चैमासा) बिताते थे। श्रद्धालु श्रोता और वेदाध्यायी लोग उनके पास रहकर ज्ञान श्रवण और वेद पाठ से अपने समय को सफल बनाते थे और ऋषियों के इस प्रिय कार्य से ऋषियों का तर्पण मनाते थे। जिस दिन से इस विशेष वेद पारायण का उपक्रम (प्रारम्भ) किया जाता था, उस को उपाकर्म कहते थे। और यह श्रावण शुदि पूर्णिमा वा श्रावण शुदि पंचमी को होता था। ऋषियों का तृप्तिकारक होने के कारण पीछे से उपाकर्म का नाम ऋषितर्पण भी पड़ गया। यह उपाकर्म वा ऋषि तर्पण विशेष विधि से होता था। इसका विवरण ऋषियों द्वारा निर्मित ग्रन्थों गृह्यसूत्रों में मिलता है। इस प्रकार यह विशेष वेदपाठ प्रारम्भ होकर साढ़े चार मास तक नियमपूर्वक बराबर चला जाता था और पौष मास में उसका ‘उत्सर्जन’ (त्याग या समापन) होता था। ‘उत्सर्जन’ भी एक विशेष संस्कार व पर्व के रूप में किया जाता था। उपाकर्म और उत्सर्जन के विधान विविध गृ्यसूत्र ग्रन्थों में कुछ परिवर्तनों के साथ वर्णित हैं। यह विषय विद्वानों द्वारा विचारणीय होता है और इससे वह उपयोगी बातों को समाज के लोगों के सम्मुख प्रस्तुत कर उससे लाभान्वित कर सकते हैं। सामान्य जनों को श्रावणी पर्व पर वेदाध्ययन व वेदपारायण का वैदिक पद्धति के अनुरूप उपाकर्म करना चाहिये, इसी में इस पर्व की सार्थकता है। हम समझते हैं कि वर्तमान काल में वैदिक परम्पराओं को जारी रखने के लिये सभी मनुष्यों को श्रावणी पर्व को ऋषि तर्पण के रूप में ही मान्यता देनी चाहिये और इस अवसर पर वेदाध्ययन का संकल्प लेने का निश्चय करना चाहिये। इससे वैदिक धर्म व संस्कृति का संरक्षण होगा और समाज से अविद्या दूर की जा सकेगी। इस अवसर पर उपलब्ध सम्पूर्ण वैदिक साहित्य के संरक्षण पर भी ध्यान देना चाहिये जिससे हमारी भावी पीढ़िया हमारे वर्तमान एवं पूर्व विद्वानों के उपयोगी वेद विषयक वैदिक साहित्य से वंचित न हो। श्रावणी पर्व के दिन सभी बन्धुओं को परिवार सहित समाज मन्दिरों तथा गुरुकुलों आदि में जाकर वहां वृहद् यज्ञों को करने के साथ भजनों व विद्वानों के सारगर्भित लाभकारी प्रवचनों से लाभ उठाना चाहिये। परस्पर मिलकर भोजन करना चाहिये। सत्संकल्प लेने चाहिये। वेद प्रचार में सहयोग करने हेतु अपना सहयोग देना चाहिये और ठोस वेद प्रचार की योजना बनाई जानी चाहिये। इस अवसर पर समाज में असंगठन की प्रवृत्तियों पर चिन्तन कर संगठन को सदृढ़ बनाने पर भी विचार कर सकते हैं। ऐसा करने में ही इस पर्व को मनाने और हमारे जीवन की सार्थकता है। श्रावणी पर्व को रक्षा बन्धन पर्व में निहित भाई व बहिन के प्रेम व परस्पर सहयोग की भावना की दृष्टि से जारी रखा जा सकता है, ऐसा आर्यसमाज के अनेक विद्वानों का विचार रहा है। इस रूप में भी हम इस पर्व को मना सकते हैं। इस दिन सभी बन्धु अपने यज्ञोपवीत भी बदलते हैं। इस कार्य को सामूहिक रूप से करना चाहिये जिससे वेदानुयायियों में उत्साह का संचार होता है। इस विषय पर भी विद्वानों के प्रेरक प्रवचन होने चाहिये। यदि हम वेदों के स्वाध्याय, सन्ध्या, अग्निहोत्र तथा वेद प्रचार में सहयोग के कार्य करते रहेंगे तो इससे हमारा कल्याण होगा तथा समाज व देश को भी लाभ होगा। वर्तमान समय में वैदिक धर्म पर अनेक खतरे मण्डरा रहे हैं। इसके लिये हमें संगठित होकर रहना होगा व प्रचार करना होगा। हमें देश की सरकार के धर्म और देश रक्षा के कार्यों में उनका सहयोगी होना चाहिये। आगामी श्रावणी पर्व व रक्षा-बन्धन पर्व को हम इन्हीं भावनाओं से मनायें, ऐसा हम उचित समझते हैं। ओ३म् शम्।
ଉତ୍କଳଆର୍ଯ୍ୟପ୍ରତିନିଧି ସଭା
09-08-2021
*ଉତ୍କଳଆର୍ଯ୍ୟପ୍ରତିନିଧି ସଭା* ଗୁରୁକୁଳ ଆଶ୍ରମ ଆମସେନା ------------------------------------- ସମ୍ମାନନୀୟ ଆର୍ଯ୍ୟବନ୍ଧୁ ସାଦର ସପ୍ରେମ ନମସ୍ତେ ପରମାତ୍ମାଙ୍କ ଅସୀମ ଅନୁକମ୍ପା ରୁ କୁଶଳ ଥିବେ ।ସୁଖର ବିଷୟ ଭୟଙ୍କର ବିଭୀଷିକା ରୁ କିଛିକିଛି ମୁକ୍ତି ମିଳିଛି।ଆମ ଦେଶର ସମସ୍ତ ଧାର୍ମିକ ଅନୁଷ୍ଠାନ ବନ୍ଦ ହୋଇଛି। ବର୍ତ୍ତମାନ ସ୍ଥିତି କିଛି ସାମାନ୍ୟ ହେବାରୁ ଉତ୍କଳ ଆର୍ଯ୍ୟ ପ୍ରତିନିଧି ସଭାର ଏକ ମହତ୍ୱପୂର୍ଣ୍ଣ ବୈଠକ ପୂଜ୍ୟ ସ୍ୱାମୀ ଧର୍ମାନନ୍ଦ ସରସ୍ୱତୀ ଙ୍କ ତତ୍ୱାବଧାନରେ ଏବଂ ଅଧ୍ୟାପକ ବିକାଶ ପଣ୍ଡାଙ୍କ ଅଧ୍ୟକ୍ଷତାରେ ଆସନ୍ତା ତା: *29।8।2021* ରିଖ ରବିବାର ସ୍ଥାନ -*ଗୁରୁକୁଳ ଆଶ୍ରମ* *ଆମସେନା* ରେ ଅନୁଷ୍ଠିତ ହେବ। ସମସ୍ତ ଆର୍ଯ୍ୟଜନ ଙ୍କୁ ସ୍ୱାଧୀନତା ଦିବସ ଓ ଶ୍ରାବଣୀ ଉପାକର୍ମ ତଥା ଜନ୍ମାଷ୍ଟମୀ ର ଅନେକ ଅଭିନନ୍ଦନ ଶୁଭେଚ୍ଛା କୋଭିଡ ନିୟମ ମାନି *ବେଦ ପ୍ରଚାର ସପ୍ତାହ* *ପାରିବାରିକ ସତ୍ସଙ୍ଗ ଯୋଗ ଯଜ୍ଞ* ଅନୁଷ୍ଠାନ କରିବା। ଏତଦ୍ବ୍ୟତୀତ ଏହି ବୈଠକରେ କୋରୋନା ପାଇଁ ବନ୍ଦ ହୋଇଥିବା ଅନେକ କାର୍ଯ୍ୟକ୍ରମ ଓ ସାଂଗଠନିକ ବିଷୟ ରେ ଆଲୋଚନା କରାଯାଇ ନିଷ୍ପତ୍ତି ଗ୍ରହଣ କରାଯିବ। ଏଣୁ ସମସ୍ତ ଅନ୍ତରଙ୍ଗ ସଦସ୍ୟ ସାଧାରଣ ସଦସ୍ୟ ବିଦ୍ୱାନ ସାଧୁ ସନ୍ନ୍ୟାସୀ ଆର୍ଯ୍ୟଜନଙ୍କୁ ଉପସ୍ଥିତ ରହିବା ପାଇଁ ଅନୁରୋଧ କରାଯାଉଛି। ବିନୀତ ସ୍ୱା:ଧର୍ମାନନ୍ଦସରସ୍ବତୀସଭାପତି ଶ୍ରୀ ବିକାଶ ପଣ୍ଡା ଉପସଭାପତି ଆନନ୍ଦକୁମାରଶାସ୍ତ୍ରୀସଂପାଦକ ପ:ଲକ୍ଷ୍ମଣ ଶାସ୍ତ୍ରୀ ସହ ସଂପାଦକ ମନୋରଞ୍ଜନବାବୁକୋଷାଧ୍ୟକ୍ଷ *ଉତ୍କଳଆର୍ଯ୍ୟପ୍ରତିନିଧିସଭା*
Are we all guards?
09-08-2021
VEDIC WISDOM "क्या हम सभी चौकीदार हैं ? Are we all guards? वेदा वदन्ति । Vedas Say by Jai Taneja कृष्यै त्वा क्षेमाय त्वा रय्यै त्वा पोषय त्वा । यजु:०- ३०-५ Krishyai twaa kshemaaya Twaa Poshaya Twaa. Yajur Veda 30.5 इसलिये वेद का आदेश है कि रक्षा के लिये राजा को नियुक्त करना चाहिये । यहाँ पर हमें यह स्मरण रखना चाहिये कि हमें जो कार्यविभाग सौंपे जाते हैं ,हम उनके द्वारपाल हैं ,चौकीदार हैं सेवक हैं ,चाहे वह गृहस्थ हो ,कार्यालय हो ,न्यायालय हो ,शिक्षणालय हो ,राजकीय कार्यविभाग हो अथवा स्वकीय । यदि हम कार्य के प्रति शुचिता से ,ईमानदारी से ,निश्छलता से निष्कपटता से अपने आप को समर्पित कर के सेवाभाव से कार्य करतेहैं तथा अपने को चौकीदार पहरेदार एवं संरक्षक समझते हैं तो इसका आनंद कुछ और ही होता है ,अधिकारी होने का अभिमान नष्ट हो जाता है । So there are instructions from Veda that king should be appointed for protection. We should remember it here that all the departments which are handed over to us, we are its protectors, guards, servants; may we be in families, offices, courts, schools, government department or self service. If we do our duties with purity,honesty, cordiality and sincerity fully devoted to work with the sense of service; then we consider ourselves to be chowkidars, guardians and patterns and it has a different kind of happiness and the ego of being an authority altogether vanishes. (Vedic Scriptures by Maharshi Dayanad Saraswati - Explained by Jai Taneja a renowned Vedic Scholar and Professor Emeritus in Sanskrit) English Translation – Avinash Mehta
आज सुल्तान सिंह आर्य के घर आमावस्या
09-08-2021
आज सुल्तान सिंह आर्य के घर आमावस्या व उनके बेटे के #जन्मदिवस पर #स्वामी_आत्मानंद_सरस्वती जी के कर कमलों द्वारा #वैदिक_संस्कृति से #यज्ञ किया इस अवसर पर परमपिता परमात्मा से प्रार्थना है कि दीर्द्यायु होने के साथ-साथ समाज,धर्म,राष्ट्र,ऋषियो की वैदिक सनातन भारतीय संस्कृति को आगे बढ़ाए परमात्मा तनिश बेटे को वेद मार्ग पर चलकर समाज और राष्ट्र के कल्याण करने का सामर्थ्य दे.. आप सभी का प्यार और आशीर्वाद बना रहे! जन्मदिवस मंगलमय हो... यज्ञ करते हुए कुछ दृश्य :-----
दिन रविवार महर्षि दयानन्द सरस्वती नगर शामली उत्तर प्रदेश में
08-08-2021
8.8.2021 दिन रविवार महर्षि दयानन्द सरस्वती नगर शामली उत्तर प्रदेश में माननीय श्री संसार सिंह तरार जी के पौत्र विराट तरार के जन्म दिवस पर यज्ञ की धूमधाम एवं भजन प्रवचन । विराट को जन्म दिवस पर शुभ आशीर्वाद परिवार एवं परिजनों को लख.लख बधाई एवं हार्दिक मंगलमय शुभकामनाएं । शैलेश मुनि सत्यार्थी आर्य वानप्रस्थ आश्रम हरिद्वार ।
दिन रविवार महर्षि दयानन्द सरस्वती नगर शामली उत्तर प्रदेश में
08-08-2021
8.8.2021 दिन रविवार महर्षि दयानन्द सरस्वती नगर शामली उत्तर प्रदेश में माननीय श्री संसार सिंह तरार जी के पौत्र विराट तरार के जन्म दिवस पर यज्ञ की धूमधाम एवं भजन प्रवचन । विराट को जन्म दिवस पर शुभ आशीर्वाद परिवार एवं परिजनों को लख.लख बधाई एवं हार्दिक मंगलमय शुभकामनाएं । शैलेश मुनि सत्यार्थी आर्य वानप्रस्थ आश्रम हरिद्वार ।
दिन रविवार महर्षि दयानन्द सरस्वती नगर शामली उत्तर प्रदेश में
08-08-2021
8.8.2021 दिन रविवार महर्षि दयानन्द सरस्वती नगर शामली उत्तर प्रदेश में माननीय श्री संसार सिंह तरार जी के पौत्र विराट तरार के जन्म दिवस पर यज्ञ की धूमधाम एवं भजन प्रवचन । विराट को जन्म दिवस पर शुभ आशीर्वाद परिवार एवं परिजनों को लख.लख बधाई एवं हार्दिक मंगलमय शुभकामनाएं । शैलेश मुनि सत्यार्थी आर्य वानप्रस्थ आश्रम हरिद्वार ।
आओ आर्य समाज आपको बुला रहा है।
08-08-2021
भारत में बढ़ता विधर्मियों का जाल। लालच में कर रहे मजहब परिवर्तन। सो रहा है आर्य समाज। केवल पदों पर कब्जा करके बैठे हैं सभाओं के अधिकारी रुक रहा है वेद प्रचार का कारवां। विशेषकर दलित बस्तियों में है वैदिक प्रचार की आवश्यकता। केवल और केवल आर्य समाज ही बचा सकता है विधर्मियों के बढ़ते प्रवाह को। प्रांतीय आर्य प्रतिनिधि सभाओं और सार्वदेशिक सभाओं को चाहिए कि भजनोपदेशको और उपदेशको को साथ लेकर उन लोगों के बीच में जाना चाहिए जहाँ ये विधर्मी संगठन लालच देकर या बहका कर उन लोगों को अपनी और खेंच रहे हैं और कुछ लालची लोग उधर जा रहे हैं। हम हिन्दू संगठनों से भी निवेदन करते हैं की मंदीरो मे आज भी तथाकथित पुजारी जो अपने को ऊँची जात का मानते हैं वह उन लोगों को मंदीरो मे प्रवेश नही करने देते।यहाँ तक की तथाकथित कथावाचक भी ऊँची जात मानने वालों के यहीं जाते हैं। एक भी कथावाचक कभी उनके घरमें भोजन करने नही जाता जहाँ अच्छा माल और दक्षिणा मिलती है उन्ही धनी लोगों के पास जाते हैं ऐसे ढोंगियों के चंगुल से निकलईये। हाँ मै यहाँ यह कहने में कोई संकोच नही करता की उनको तो केवल धन और ऐशोआराम चाहिये। आर्य समाजी भी निट्ठल्ले हो गये हैं।कुछ आर्यों को तड़फ है उनके पास इतने प्रचार के संसाधन नहीं है। सभाओं का उनको सहयोग नही मिलता है कई जगहों पर आपसी सभाओं की खेचतान(ग्रुप बाजी) के कारण विरोध अवश्य किया जाता है। मैने प्रयास किया कई बार हरियाणा में स्वयं फोन करके की आप अपने गाँव में प्रचार कार्य रखिये विशेषकर उन लोगों के बीच में जहाँ यह परिवर्तन का खेल चल रहा है परंतु किसी का सकारात्मक उत्तर नही आया। मै आज भी सभी आर्यों से निवेदन करता हूँ आप कार्यक्रम रखिये मै अपनी मंडली सहित आने के लिए तैयार हूँ।जिन आर्य समाजों में धन है वह अपने अपने अपने इलाके में प्रचार कार्य रखिये भजनोपदेशक और विद्वान हम भेजेगे आपके पास। मुझे पीड़ा तब अधिक हुई जब मै रविदास जयंती पर हरियाणा के एक गांव में गया और वह डाक्टर भीमराव अंबेडकर के नाम पर बनाये गये एक संगठन के कुछ लोगों ने प्रचार कार्य मे बाधा डाली और कुछ तथाकथित हिन्दुओं के ठेकेदारों की की हुई गलतियों का खामियाजा हमे भुगतना पड़ा।हालांकि हमने उनको समझाने का बहुत प्रयास किया परंतु भयंकर जहर उनके दिमाग मे घोल रखा है। आर्य समाज ने हमेशा जातिवाद छूआछूत के विरुद्ध आवाज उठाई है और उठाता रहेगा।आर्य समाज मे किसी को भी आने की मनाही नही है बल्कि उनको सम्मान दिया जाता है। आईये वैदिक सिद्धांत ही सर्वोपरि है सर्वहितकारी है उनका प्रचार प्रसार ही मनुष्य बनने की और ले जाता है आओ आर्य समाज आपको बुला रहा है।
बुटीक आर्य समाज,
08-08-2021
ओ३म् 56th SHRAVANI 08 AUG 2021 SHRAAVANI YAJ DAY 3 Poornahuti त्रिओले तीन बुटीक आर्य समाज, श्रावणी उपाकर्म महोत्सव पूर्णाहुति
किसानों के अब तक के सबसे महत्वपूर्ण फैसले का समस्त आर्य समाज स्वागत करता है जो हरिद्वार से कांवड ना लाने का आह्वान किया है।
08-08-2021
किसानों के अब तक के सबसे महत्वपूर्ण फैसले का समस्त आर्य समाज स्वागत करता है जो हरिद्वार से कांवड ना लाने का आह्वान किया है। इससे अरबों रुपये बचे हैं नोजवान जो नशा भांग आदि पीते थे उससे बचे हैं और सबसे विशेष बात एक आडम्बर से बचे पाखंड अंधविश्वास से बचे हैं। अरबों खरबो रुपये जिन कांवड बनाने वालों को देकर आते थे वह पैसा देश विरोधी कार्यों में लगाया जाता था।भोला बाबा बंब बंब डी जे का शौर शांत रहा है।बहुत से युवा तो कर्जा लेकर जाते थे माता-पिता से झगड़ा करके जाते थे पैर सूज जाते थे बिमार हो जाते थे और महान ॠषि योगी तपस्वी शिवजी को भी बदनाम करते की वह भांग पीते थे पार्वती को भी बदनाम करते थे। इस उचित फैसले का हम स्वागत करते हैं।
आप सबकी शुभकामनाओं एवम् सहयोग से बहुप्रतीक्षित दिवस आ ही गया।
05-08-2021
नमस्ते मित्रो! आप सबकी शुभकामनाओं एवम् सहयोग से बहुप्रतीक्षित दिवस आ ही गया। आर्ष गुरुकुल, वानप्रस्थ आश्रम एवम् गौ-शाला का उद्घाटन भारत के 75वें स्वतन्त्रता दिवस के पवित्र अवसर पर हो रहा है। आप सब का हार्दिक स्वागत है। कार्यक्रम स्थल:- आर्ष गुरुकुल, वानप्रस्थ आश्रम एवम् गौ-शाला आशापुरी तपोभूमि तीर्थ, भालिवली गाँव, विरार, मुंबई अहमदाबाद हाइवे जिला - पालघर, महाराष्ट्र, भारत - 401303 सम्पर्क:- पंडित नागेश चन्द्र शर्मा 9167724445 / 9769166396 भूपेश गुप्ता Bhupesh Gupta Bhupesh Meghraj Gupta 9819008822 अक्षय आर्य 9820255356
"SWARAJ AND WELFARE STATE : REFLECTIONS ON MAHATMA GANDHI"
04-08-2021
Dr. Acharya Sunil, Head of Religious Administration of Mauritius Arya Ravi Ved Pracharini Sabha, represented us as one of the esteemed speakers in an international virtual conference on the theme "SWARAJ AND WELFARE STATE : REFLECTIONS ON MAHATMA GANDHI" organised by the Department of History, Mohanlal Sukhadia University, Udaipur, Rajasthan, India, on June 30,2021. We present an extract of his intervention. He was also bestowed with a letter of appreciation from the institution.
Key Elements of Spirituality
01-08-2021
1. Not formal, structured, or organized 2. Non-denominational, above and beyond denominational 3. Inclusive, embracing everyone 4. The ultimate source and provider of meaning and purpose in life. 5. The awe we feel in the presence of the transcendent 6. The deep feeling of interconnectedness with all that isInner peace and calmness 7. An inexhaustible source of faith ..... Dr. Yajnya Dutta Nayak, Berhampur, Odisha
Bahin Anjali Arya
31-07-2021
I love this speech of Bahin Anjali Arya. She posits that it is Arya Samaj that has truly defended Hinduism. I totally agree with her. I met her once in Haryana years ago. Oh my! She has come a far way. Pandemic over, I will visit India perhaps early 2022 and meet with her. Let me say that Arya Samaj in India is comparatively small, but still powerful. Namaste! https://youtu.be/cEiEex9VLiU
स्वामी दयानन्द के निवास स्थान पर
29-07-2021
एक दिन स्वामी दयानन्द के निवास स्थान पर इनके प्रति सम्मान रखनेवाले बम्बई के सभ्रान्त गृहस्थों ने जाकर धार्मिक चर्चा करते करते बम्बई में आर्यसमाज की स्थापना के लिये स्वामीजी से प्रार्थना की। इस पर उन्होंने सबको उपदेश करके स्पष्ट बता दिया कि 'भाई, हमारा अपना कोई स्वतन्त्र मत नहीं। मैं तो वेद के अधीन हूँ। और हमारे भारत में पच्चीस कोटि आर्य हैं। कहीं-कहीं किसी -किसी बात में कुछ कुछ भेद है, सो विचार करने से आप ही छूट जायगा । मैं सन्यासी हूँ और मेरा कर्तव्य यही है कि जो आप लोगों का अन्न खाता हूँ इसके बदले जो सत्य समझता हूँ उसका निर्भयता से उपदेश करता हूँ। मैं कुछ कीर्ति का रागी नहीं हूँ। चाहे कोई मेरी स्तुति करे, या निन्दा करे, मैं अपना कर्तव्य समझ के धर्मोपदेश करता हूँ। कोई चाहे माने वा न माने इसमें मेरी कोई हानि -लाभ नहीं है।' एक भाई ने कहा कि हम जो समाज स्थापित करें तो इसमें कोई सार्वजनिक नुकसान है। इसका जवाब स्वामी जी ने दिया कि 'आप यदि समाज से पुरुषार्थ करके परोपकार कर सकते हो तो समाज स्थापित कर लो। इसमें मेरी कोई मनाही नहीं। परन्तु इसमें यथोचित व्यवस्था न रखोगे तो आगे गड़बड़ाध्याय हो जायगा। मैं तो मात्र जैसा अन्य को उपदेश करता हूँ वैसा ही आपको भी करूंगा। और इतना ध्यान में रखना कि मेरा कोई स्वतन्त्र मत नहीं है। और मैं सर्वज्ञ भी नहीं हूँ। इसलिये यदि कोई मेरी भी ग़लती आगे पाई जाय तो युक्तिपूर्वक परीक्षा करके इसको भी सुधार लेना। यदि ऐसा न करोगे तो आगे यह भी एक मत हो जाएगा। और इसी प्रकार से 'बाबावाक्यं प्रमाणम्' करके इस भारत में नाना प्रकार के मतमतान्तर प्रचलित होके, भीतर -भीतर दुराग्रह रखके धर्मान्ध हो के, आपस मे लड़ के नाना प्रकार की सदविद्या का नाश करके यह भारतवर्ष दुर्दशा को प्राप्त हुआ है। इसमें यह भी एक मत बढ़ेगा। मेरा अभिप्राय तो यह है कि इस भारतवर्ष में नाना प्रकार के मतमतान्तर प्रचलित है वे सब भी वेदों को मानते हैं। इससे वेदशास्त्र रूपी समुद्र में यह सब नदी-नाव पुनः मिला देने से धर्म ऐक्यता होगी। और धर्म ऐक्यता से सांसारिक और व्यावहारिक सुधारणा होगी और इससे कला-कौशलादि सब अभीष्ट सुधार होके मनुष्यमात्र का जीवन सफल होके अंत में अपने धर्मबल से अर्थ काम और मोक्ष मिल सकता है।" -ऋषि दयानन्द के पत्र और विज्ञापन द्वितीय भाग पृष्ठ ८ प्रस्तुति- मदन शर्मा / आर्यसमाज चौक प्रयाग
ସାମବେଦ: ୧/୧/୦୧/୦୧
28-07-2021
ଦେବତା: ଅଗ୍ନିଃ ଋଷି: ଭରଦ୍ଵାଜୋ ବାର୍ହସ୍ପତ୍ୟଃ ଛନ୍ଦ: ଗାୟତ୍ରୀ ସ୍ଵର: ଷଡ୍ଜଃ କାଣ୍ଡ: ଆଗ୍ନେୟଂ କାଣ୍ଡମ୍ ଅଗ୍ନ ଆ ଯାହି ବୀତୟେ ଗୃଣାନୋ ହବ୍ୟଦାତୟେ । ନି ହୋତା ସତ୍ସି ବର୍ହିଷି ॥୧॥ #ମନ୍ତ୍ରବିଷୟଃ ତତ୍ରାଦ୍ୟେ ମନ୍ତ୍ରେଽଗ୍ନିନାମ୍ନା ପରମାତ୍ମବିଦ୍ଵନ୍ନୃପାଦୀନାହ୍ଵୟନ୍ନାହ। ଏବେ ପ୍ରଥମ ପ୍ରପାଠକ, ପ୍ରଥମ ଅର୍ଧ ର ପ୍ରଥମ ଦଶତି ତଥା ପ୍ରଥମ ଅଧ୍ୟାୟ ର ପ୍ରଥମ ଖଣ୍ଡ ଆରମ୍ଭ କରା ଯାଉଅଛି। ପ୍ରଥମ ମନ୍ତ୍ର ରେ ଅଗ୍ନି ନାମ ଦ୍ୱାରା ପରମାତ୍ମା, ବିଦ୍ଵାନ୍, ରାଜା ଆଦି ଙ୍କ ଆହ୍ଵାନ କରାଯାଇ କୁହା ଯାଉଅଛି– #ପଦାର୍ଥଃ #ତତ୍ର_ପ୍ରଥମଃ—ପରମାତ୍ମପରଃ। ହେ (ଅଗ୍ନେ) ସର୍ଵାଗ୍ରଣୀଃ, ସର୍ଵଜ୍ଞ, ସର୍ଵବ୍ୟାପକ, ସର୍ଵସୁଖପ୍ରାପକ, ସର୍ଵପ୍ରକାଶମୟ, ସର୍ଵପ୍ରକାଶକ ପରମାତ୍ମନ୍ ! (ଗୃଣାନଃ) କର୍ତବ୍ୟାନି ଉପଦିଶନ୍ ତ୍ଵମ୍। ଗୄ ଶବ୍ଦେ, ଶାନଚ୍, ବ୍ୟତ୍ୟଯେନାତ୍ମନେପଦମ୍। (ବୀତୟେ) ଅସ୍ମାକଂ ପ୍ରଗତୟେ, ଅସ୍ମାକଂ ବିଚାରେଷୁ କର୍ମସୁ ଚ ବ୍ୟାପ୍ତୟେ, ହୃଦୟେଷୁ ସଦ୍ଗୁଣାନାଂ ପ୍ରଜନନାୟ, ଅସ୍ମାସୁ ସ୍ନେହିତୁମ୍, କାମକ୍ରୋଧାଦୀନାଂ ଚ ବହିଃପ୍ରକ୍ଷେପଣାୟ। ବୀ ଗତି-ବ୍ୟାପ୍ତି-ପ୍ରଜନ-କାନ୍ତି-ଅସନ-ଖାଦନେଷୁ ଇତ୍ୟସ୍ମାତ୍ 'ମନ୍ତ୍ରେ ବୃଷେଷପଚମନବିଦଭୂବୀରା ଉଦାତ୍ତଃ’ ଅ୦ ୩।୩।୯୬ ଅନେନ କ୍ତିନ୍ ପ୍ରତ୍ୟଯଃ, ଉଦାତ୍ତତ୍ଵଂ ଚ। (ହବ୍ୟଦାତୟେ)୩ ହୋତୁଂ ଦାତୁଂ ଯୋଗ୍ୟଂ ଦ୍ରବ୍ୟଂ ହବ୍ୟଂ ସଦ୍ବୁଦ୍ଧି-ସତ୍କର୍ମସଦ୍ଧର୍ମ-ସଦ୍ଧନାଦିକଂ ତସ୍ୟ ଦାତୟେ ଦାନାୟ ଚ। ହବଂ ଦାନମ୍ ଅର୍ହତୀତି ହବ୍ୟମ୍। 'ଛନ୍ଦସି ଚ' ଅ୦ ୫।୧।୬୭ ଇତ୍ୟର୍ହେଽର୍ଥେ ଯଃ ପ୍ରତ୍ୟଯଃ। ପ୍ରତ୍ୟଯସ୍ଵରେଣ ଅନ୍ଦୋଦାତ୍ତତ୍ଵମ୍। ତସ୍ୟ ଦାତିଃ ଦାନମ୍। ଦାସୀଭାରାଦିତ୍ଵାତ୍, ଅ୦ ୬।୨।୪୨ ସୂତ୍ରେଣ ପୂର୍ଵପଦପ୍ରକୃତିସ୍ଵରଃ। (ଆ ଯାହି) ଆଗଚ୍ଛ। (ହୋତା) ଶକ୍ତ୍ୟାଦିପ୍ରଦାତା ଦୌର୍ବଲ୍ୟାଦିହର୍ତା ଚ ସନ୍। ହୁ ଦାନାଦନୟୋଃ ଆଦାନେ ଚ ଇତି ଧାତୋଃ କର୍ତରି ତୃନ୍। (ବର୍ହିଷି) ହୃଦୟାନ୍ତରିକ୍ଷେ। ବର୍ହିରିତ୍ୟନ୍ତରିକ୍ଷନାମସୁ ପଠିତମ୍। ନିଘଂ୦ ୧।୩। (ନି ସତ୍ସି) ନିଷୀଦ। ଷଦ୍ଲୃ ବିଶରଣଗତ୍ୟବସାଦନେଷୁ ଇତି ଧାତୋର୍ଲେଟ୍। 'ବହୁଲଂ ଛନ୍ଦସି' ଅ୦ ୨।୪।୭୩ ଇତି ଶପୋ ଲୁକି ସୀଦାଦେଶାଭାବଃ। 'ନି ହୋତା ସତ୍ସି' ଇତି ଧାତୂପସର୍ଗୟୋର୍ଵ୍ୟବହିତପ୍ରୟୋଗଃ 'ବ୍ୟବହିତାଶ୍ଚ' ଅ୦ ୧।୪।୮୨ ଇତି ନିୟମେନ ଛାନ୍ଦସୋ ବୋଧ୍ୟଃ ॥ #ଅଥ_ଦ୍ଵିତୀୟଃ—ବିଦ୍ଵତ୍ପରଃ୪। ବିଦ୍ଵାନପ୍ୟଗ୍ନିରୁଚ୍ୟତେ, 'ଅ॒ଗ୍ନିର୍ଵିଦ୍ଵାଁ॒ ଋ॑ତ॒ଚିଦ୍ଧି ସ॒ତ୍ୟଃ' ଋ୦ ୧।୧୪୫।୫, 'ଅ॒ଗ୍ନିଃ ସ॑ନୋତି ବୀ॒ର୍ୟାଣି ବି॒ଦ୍ଵାନ୍'। ଋ୦ ୩।୨୫।୨ ଇତ୍ୟାଦିମନ୍ତ୍ରପ୍ରାମାଣ୍ୟାତ୍। ହେ (ଅଗ୍ନେ) ବିଦ୍ଵନ୍! (ଗୃଣାନଃ) ଯଜ୍ଞବିଧିଂ ଯଜ୍ଞଲାଭାଂଶ୍ଚୋପଦିଶନ୍ ତ୍ଵମ୍ (ବୀତୟେ) ଯଜ୍ଞସ୍ୟ ପ୍ରଗତୟେ (ହବ୍ୟଦାତୟେ) ହବିଷାଂ ଯଜ୍ଞାଗ୍ନୌ ଦାନାୟ ଚ (ଆ ଯାହି) ଆଗଚ୍ଛ। (ହୋତା) ହୋମନିଷ୍ପାଦକଃ ସନ୍ (ବର୍ହିଷି) ଦର୍ଭାସନେ (ନି ସତ୍ସି) ନିଷୀଦ। ଏବଂ ଯଜମାନାନାମସ୍ମାକଂ ଯଜ୍ଞଂ ନିରୁପଦ୍ରବଂ ସଞ୍ଚାଲୟେତ୍ୟର୍ଥଃ ॥ #ଅଥ_ତୃତୀୟଃ—ରାଜପରଃ। ରାଜାପ୍ୟଗ୍ନିରୁଚ୍ୟତେ, 'ତ୍ଵାମ॑ଗ୍ନେ॒ ଦମ॒ ଆ ବି॒ଶ୍ପତିଂ ବିଶ॒ସ୍ତ୍ଵାଂ ରାଜା॑ନଂ ସୁବି॒ଦତ୍ର॑ମୃଞ୍ଜତେ' ଋ୦ ୨।୧।୮, 'ଅ॒ଗ୍ନିର୍ହୋତା॑ ଗୃହପ॑ତିଃ॒ ସ ରାଜା॒।' ଋ୦ ୬।୧୫।୧୩ ଇତ୍ୟାଦିପ୍ରାମାଣ୍ୟାତ୍। ହେ (ଅଗ୍ନେ) ଅଗ୍ରଣୀ ରାଜନ୍ ! ତ୍ଵମ୍ (ଗୃଣାନଃ) ରାଜନିୟମାନ୍ ଶବ୍ଦୟନ୍ ଘୋଷୟନ୍, (ବୀତୟେ) ରାଷ୍ଟ୍ରସ୍ୟ ପ୍ରଗତୟେ, ସ୍ଵପ୍ରଭାବେନ ପ୍ରଜାସୁ ବ୍ୟାପ୍ତୟେ, ପ୍ରଜାସୁ ରାଷ୍ଟ୍ରିୟଭାବନାୟା ବିଦ୍ୟାନ୍ୟାୟାଦୀନାଂ ଚ ପ୍ରଜନନାୟ, ଆଭ୍ୟନ୍ତରାଣାଂ ବାହ୍ୟାନାଂ ଚ ଶତ୍ରୂଣାଂ ନିରସନାୟ ବା, (ହବ୍ୟଦାତୟେ) ରାଷ୍ଟ୍ରହିତାର୍ଥଂ ଦେହଂ ମନୋ ରାଜକୋଷାଦିକଂ ବା ସର୍ଵଂ କିଞ୍ଚିଦ୍ ହବ୍ୟଂ କୃତ୍ଵା ତସ୍ୟ ଦାତୟେ ଉତ୍ସର୍ଜନାୟ ଚ (ଆ ଯାହି) ଆଗଚ୍ଛ। (ହୋତା) ରାଷ୍ଟ୍ରୟଜ୍ଞସ୍ୟ ନିଷ୍ପାଦକଃ ସନ୍ (ବର୍ହିଷି) ରାଜ୍ୟାସନେ ରାଜସଭାୟାଂ ବା (ନି ସତ୍ସି) ନିଷୀଦ ॥୧॥ ଅତ୍ର ଶ୍ଲେଷାଲଙ୍କାରଃ। 'ତୟେ, ତୟେ' ଇତି ଛେକାନୁପ୍ରାସଃ ॥୧॥ #ପ୍ରଥମ—ପରମାତ୍ମା ଙ୍କ ପକ୍ଷ ରେ। ହେ (ଅଗ୍ନେ) ସର୍ଵାଗ୍ରଣୀ, ସର୍ଵଜ୍ଞ, ସର୍ଵବ୍ୟାପକ, ସର୍ଵସୁଖପ୍ରାପକ, ସର୍ଵପ୍ରକାଶମୟ, ସର୍ଵପ୍ରକାଶକ ପରମାତ୍ମନ୍ ! ଆପଣ (ଗୃଣାନଃ) କର୍ତବ୍ୟ ଗୁଡ଼ିକର ଉପଦେଶ କରି (ବୀତୟେ) ଆମର ପ୍ରଗତି ନିମନ୍ତେ, ଆମର ବିଚାର ଏବଂ କର୍ମ ରେ ବ୍ୟାପ୍ତ ହେବା ନିମନ୍ତେ, ଆମ ହୃଦୟରେ ସଦ୍ଗୁଣ ଗୁଡିକୁ ଉତ୍ପନ୍ନ କରିବା ପାଇଁ, ଆମଠି ସ୍ନେହ ଉତ୍ପନ୍ନ କରିବା ନିମନ୍ତେ, ଆମ ଭିତରେ ଉତ୍ପନ୍ନ କାମ-କ୍ରୋଧ ଆଦିକୁ ବହିଷ୍କାର କରିବା ନିମନ୍ତେ ଏବଂ (ହବ୍ୟ-ଦାତୟେ) ଦେୟ ପଦାର୍ଥ ଶ୍ରେଷ୍ଠ ବୁଦ୍ଧି, ଶ୍ରେଷ୍ଠ କର୍ମ, ଶ୍ରେଷ୍ଠ ଧର୍ମ, ଶ୍ରେଷ୍ଠ ଧନ ଆଦିର ଦାନ ନିମନ୍ତେ (ଆ ଯାହି) ଆସନ୍ତୁ। (ହୋତା) ଶକ୍ତି ଆଦିର ଦାତା ଏବଂ ଦୁର୍ବଲତା ଆଦିର ହର୍ତା ହୋଇ (ବର୍ହିଷି) ହୃଦୟରୂପ ଅନ୍ତରିକ୍ଷ ରେ (ନି ସତ୍ସି) ଉପବେସନ କରନ୍ତୁ॥ #ଦ୍ଵିତୀୟ—ବିଦ୍ଵାନଙ୍କ ପକ୍ଷ ରେ । ବିଦ୍ଵାନଙ୍କୁ ମଧ୍ୟ ଅଗ୍ନି କୁହାଯାଏ । ଏଥିରେ 'ବିଦ୍ଵାନ୍ ଅଗ୍ନି ଅଟନ୍ତି, ଯିଏ ଋତ ର ସଂଗ୍ରହୀତା ଏବଂ ସତ୍ୟମୟ ହୋଇଥାନ୍ତି ।’ ଋ୦ ୧।୧୪୫।୫।, 'ବିଦ୍ଵାନ୍ ଅଗ୍ନି ଅଟନ୍ତି, ଯିଏ ବଳ ପ୍ରଦାନ କରି ଥାନ୍ତି ।' ଋ୦ ୩।୨୫।୨ ଇତ୍ୟାଦି ମନ୍ତ୍ର ପ୍ରମାଣ ଅଟେ। ହେ (ଅଗ୍ନେ) ବିଦ୍ଵନ୍ ! (ଗୃଣାନଃ) ଯଜ୍ଞବିଧି ଏବଂ ଯଜ୍ଞର ଉପକାର ଗୁଡ଼ିକର ଉପଦେଶ କରି ଆପଣ (ବୀତୟେ) ଯଜ୍ଞକୁ ପ୍ରଗତି ଦେବା ନିମନ୍ତେ, ଏବଂ (ହବ୍ୟ-ଦାତୟେ) ହବି ଗୁଡିକୁ ଯଜ୍ଞାଗ୍ନିରେ ଦେବା ନିମନ୍ତେ (ଆ ଯାହି) ଆସନ୍ତୁ । (ହୋତା) ହୋମର ନିଷ୍ପାଦକ ହୋଇ (ବର୍ହିଷି) କୁଶ ଦ୍ୱାରା ନିର୍ମିତ ଯଜ୍ଞାସନ ଉପରେ (ନି ସତ୍ସି) ଉପବେସନ କରନ୍ତୁ। ଏହି ପ୍ରକାରେ ଆମ ଯଜମାନ ମାନଙ୍କର ଯଜ୍ଞ କୁ ନିରୁପଦ୍ରବ ରୂପ ରେ ସଂଚାଲିତ କରନ୍ତୁ ॥ #ତୃତୀୟ—ରାଜାଙ୍କ ପକ୍ଷ ରେ । ରାଜାଙ୍କୁ ମଧ୍ୟ ଅଗ୍ନି କୁହାଯାଇ ଥାଏ। ଏଠାରେ 'ହେ ନାୟକ ! ପ୍ରଜାପାଳକ, ଉତ୍ତମ ଦାନୀ ଙ୍କୁ ପ୍ରଜାମାନେ ରାଷ୍ଟ୍ରଗୃହ ରେ ରାଜା ରୂପରେ ଅଲଂକୃତ କରିଥାନ୍ତି ।' ଋ୦ ୨।୧।୮, 'ରାଜା ଅଗ୍ନି ଅଟନ୍ତି, ଯିଏ ରାଷ୍ଟ୍ରରୂପ ଗୃହ ର ଅଧିପତି ଏବଂ ରାଷ୍ଟ୍ରୟଜ୍ଞ ର ଋତ୍ଵିଜ୍ ହୋଇ ଥାନ୍ତି ।' ଋ୦ ୬।୧୫।୧୩ ଇତ୍ୟାଦି ପ୍ରମାଣ ଅଟେ । ହେ (ଅଗ୍ନେ) ଅଗ୍ରନାୟକ ରାଜନ୍ ! ଆପଣ (ଗୃଣାନଃ) ରାଜନିୟମ ଗୁଡିକୁ ଘୋଷିତ କରି (ବୀତୟେ) ରାଷ୍ଟ୍ରକୁ ପ୍ରଗତି ଦେବା ନିମନ୍ତେ, ନିଜ ପ୍ରଭାବ ଦ୍ୱାରା ପ୍ରଜାମାନଙ୍କ ମଧ୍ୟରେ ବ୍ୟାପ୍ତ ହେବା ନିମନ୍ତେ, ପ୍ରଜାମାନଙ୍କ ମଧ୍ୟରେ ରାଷ୍ଟ୍ର-ଭାବନା ଏବଂ ବିଦ୍ୟା, ନ୍ୟାୟ ଆଦିର ଉତ୍ପନ୍ନ କରିଵା ନିମନ୍ତେ ତଥା ଆନ୍ତରିକ ଏବଂ ବାହ୍ୟ ଶତ୍ରୁ ମାନଙ୍କୁ ପରାସ୍ତ କରିବା ନିମନ୍ତେ, ଏବଂ (ହବ୍ୟ-ଦାତୟେ) ରାଷ୍ଟ୍ରହିତ ନିମନ୍ତେ ଦେହ, ମନ, ରାଜକୋଷ ଆଦି ସର୍ଵସ୍ଵକୁ ହବି ସଦୃଶ ଉତ୍ସର୍ଗ କରିବା ନିମନ୍ତେ (ଆ ଯାହି) ଆସନ୍ତୁ। (ହୋତା) ରାଷ୍ଟ୍ରୟଜ୍ଞ ର ନିଷ୍ପାଦକ ହୋଇ (ବର୍ହିଷି) ରାଜ-ସିଂହାସନକୁ ଯାଇ ରାଜସଭା ରେ (ନି ସତ୍ସି) ଉପବେସନ କରନ୍ତୁ ॥୧॥ ଏହି ମନ୍ତ୍ରରେ ଶ୍ଲେଷାଳଙ୍କାର ରହିଛି। 'ତୟେ, ତୟେ' ଛେକାନୁପ୍ରାସ ଅଟେ ॥୧॥ #ଭାବାର୍ଥଃ ଯଥା ବିଦ୍ଵାନ୍ ପୁରୋହିତୋ ଯଜ୍ଞାସନେ ସ୍ଥିତ୍ଵା ଯଜ୍ଞଂ ସଂଚାଲୟତି, ଯଥା ରାଜା ରାଜସଭାୟାଂ ସ୍ଥିତ୍ଵା ରାଷ୍ଟ୍ରମୁନ୍ନୟତି, ତଥୈବ ପରମାତ୍ମାଗ୍ନିରସ୍ମାକଂ ହୃଦୟାନ୍ତରିକ୍ଷେ ସ୍ଥିତ୍ଵାସ୍ମାକଂ ମହତ୍ କଲ୍ୟାଣଂ କର୍ତୁଂ ଶକ୍ନୋତୀତ୍ୟସୌ ସର୍ଵୈରାହ୍ଵାତବ୍ୟଃ। ସର୍ଵେଷାଂ ଜନାନାଂ ହୃଦୟେ ପୂର୍ଵମେବ ବିରାଜମାନୋଽପି ପରମାତ୍ମା ଜନୈର୍ଵିସ୍ମୃତତ୍ଵାଦବିଦ୍ୟମାନକଲ୍ପ ଇତି ପୁନରପ୍ୟାହୂୟତେ। ସର୍ଵେ ଜନାଃ ସ୍ଵହୃଦି ତସ୍ୟ ସତ୍ତାମନୁଭବେୟୁଃ, ତତଃ ସତ୍କର୍ମସୁ ପ୍ରେରଣାଂ ଚ ଗୃହ୍ଣୀୟୁରିତ୍ୟାଶୟଃ ॥୧॥ ଯେପରି ବିଦ୍ଵାନ୍ ପୁରୋହିତ ଯଜ୍ଞାସନ ଉପରେ ଉପବେସନ କରି ଯଜ୍ଞକୁ ସଂଚାଲିତ କରିଥାନ୍ତି, ଯେପରି ରାଜା ରାଜସଭାରେ ଉପବେସନ କରି ରାଷ୍ଟ୍ରର ଉନ୍ନତି କରିଥାନ୍ତି ସେହି ପରି ପରମାତ୍ମା ରୂପ ଅଗ୍ନି ଆମର ହୃଦୟାନ୍ତରିକ୍ଷ ରେ ସ୍ଥିତ ହୋଇ ଆମର ମହାନ୍ କଲ୍ୟାଣ କରି ପାରନ୍ତି, ଏଥିପାଇଁ ସମସ୍ତଙ୍କୁ ତାଙ୍କର ଆହ୍ଵାନ କରିବା ଆବଶ୍ୟକ। ସମସ୍ତଙ୍କ ହୃଦୟରେ ପରମାତ୍ମା ପୂର୍ବରୁ ହିଁ ବିରାଜମାନ ଅଛନ୍ତି, ତଥାପି ମଧ୍ୟ ଯେହେତୁ ଲୋକମାନେ ତାଙ୍କୁ ପାସୋରି ଦେଇଥାନ୍ତି, ଏହି କାରଣରୁ ସେ ସେମାନଙ୍କ ହୃଦୟରେ ନହେବା ସଦୃଶ ଅଛନ୍ତି। ଏଥିପାଇଁ ତାଙ୍କୁ ପୁନଃ ସ୍ମରଣ ବା ନିମନ୍ତ୍ରଣ କରାଯାଉଅଛି। ଉଦେଶ୍ୟ ହେଲା, ସମସ୍ତେ ନିଜ ନିଜ ହୃଦୟରେ ସର୍ବଦା ଈଶ୍ୱରଙ୍କ ସତ୍ତା କୁ ଉପଲବ୍ଧି କରନ୍ତୁ ଏବଂ ତାଙ୍କ ନିକଟରୁ ସବୁ ସମୟରେ ସତ୍କର୍ମ କରିବାର ପ୍ରେରଣା ଗ୍ରହଣ କରନ୍ତୁ ॥୧॥ #ଟିପ୍ପଣୀ ୧. ଋ୦ ୬।୧୬।୧୦; ସାମ୦ ୬୬୦। ୨. ଅଗ୍ରେ ପ୍ରତିମନ୍ତ୍ରମ୍ 'ଅନ୍ଵିତ' ଶବ୍ଦମନୁଲ୍ଲିଖ୍ୟ କେବଲଂ 'ପଦାର୍ଥଃ' ଇତ୍ୟେବ ଲେଖିଷ୍ୟତେ। ୩. ଯଦ୍ଵା, (ହବ୍ୟଦାତୟେ) ହବ୍ୟାନାଂ ଦାତିଃ ଦାନଂ ଯସ୍ୟ ସ ହବ୍ୟଦାତିଃ ଯଜମାନଃ ଇତି ବହୁବ୍ରୀହିଃ ତସ୍ମୈ (ଗୃଣାନଃ) ଉପଦିଶନ୍ ତ୍ଵମ୍ ତସ୍ୟ (ବୀତୟେ) ପ୍ରଗତୟେ ଆୟାହି ଇତି ଯୋଜନା କାର୍ୟା। ବହୁବ୍ରୀହୌ ପୂର୍ଵପଦପ୍ରକୃତିସ୍ଵରଃ। ଯଜମାନୋ ବୈ ହବ୍ୟଦାତିଃ। ଶ୦ ୧।୪।୧।୨୪। ୪. ଦୟାନନ୍ଦର୍ଷିଣା ଋଗ୍ଭାଷ୍ୟେ (ଋ୦ ୬।୧୬।୧୦) ମନ୍ତ୍ରୋଽୟଂ ବିଦ୍ଵତ୍ପର ଏବ ବ୍ୟାଖ୍ୟାତଃ—'(ଅଗ୍ନେ) ବିଦ୍ଵନ୍ ! (ଆ ଯାହି) ଆଗଚ୍ଛ (ବୀତୟେ) ବିଦ୍ୟାଦିଶୁଭଗୁଣବ୍ୟାପ୍ତୟେ (ଗୃଣାନଃ) ସ୍ତୁବନ୍ (ହବ୍ୟଦାତୟେ) ଦାତବ୍ୟଦାନାୟ (ନି) (ହୋତା) ଦାତା (ସତ୍ସି) ସମବୈଷି (ବର୍ହିଷି) ଉତ୍ତମାୟାଂ ସଭାୟାମ୍' ଇତ୍ୟାଦି। ସାମବେଦ ଭାଷ୍ୟ: ଆଚାର୍ୟ ରାମନାଥ ବେଦାଲଙ୍କାର ବିଦ୍ୟାମାର୍ତଣ୍ଡ #ଓଡ଼ିଆ_ଭାଷାନୁବାଦ: ମହିମା ସାଗର
ଓ୩ମ୍ ଆୟୁର୍ୟଜ୍ଞେନ କଳ୍ପତାଂ ପ୍ରାଣୋୟଜ୍ଞେନ କଳ୍ପତାଂ ଚକ୍ଷୁର୍ୟଜ୍ଞେନ କଳ୍ପତାଂ ଶ୍ରୋତ୍ରଂ ୟଜ୍ଞେନ କଳ୍ପତାଂ ବାଗ୍ୟଜ୍ଞେନ କଳ୍ପତାଂ ମନୋ ୟଜ୍ଞେନ କଳ୍ପତାମାତ୍ମାୟଜ୍ଞେନ କଳ୍ପତାଂ ବ୍ରହ୍ମାୟଜ୍ଞେନ କଳ୍ପତାଂ ଜ୍ୟୋତିର୍ୟଜ୍ଞେନ କଳ୍ପତାଂ ସ୍ୱର୍ୟଜ୍ଞେନ କଳ୍ପତାଂ ପୃଷ୍ଠଂୟଜ୍ଞେନ କଳ୍ପତାଂ ୟଜ୍ଞୋ ୟଜ୍ଞେନ କଳ୍ପତାମ୍ । ସ୍ତୋମଶ୍ଚ ୟଜୁଶ୍ଚ ଋକ୍ ଚ ସାମ ଚ ବୃହଚ୍ଚ ରଥନ୍ତରଂ ଚ । ସ୍ୱର୍ବେଦା ଅଗନ୍ମମୃତା ଅଭୂମ ପ୍ରଜାପତେ ପ୍ରଜା ଅଭୂମ ବେଟ୍ ସ୍ୱାହା ॥ ଯଜୁର୍ବେଦ ୧୮/୨୯॥
28-07-2021
ବ୍ୟାଖ୍ୟା :- *(ଯଜ୍ଞୋ ବୈ-ବିଷ୍ଣୁଃ, ଯଜ୍ଞୋ ବୈ ବ୍ରହ୍ମେତ୍ୟାଦ୍ୟୈତରେୟ ଶତପଥବ୍ରାହ୍ମଣଶ୍ରୁଂ)* ଯଜ୍ଞ ଯଜନୀୟ, ସର୍ବପୂଜ୍ୟ ଇଷ୍ଟଦେବ ପରମୈଶ୍ୱରଙ୍କୁ ଅତି ଶ୍ରଦ୍ଧାର ସହିତ ସମର୍ପଣ କରିବା ପ୍ରତ୍ୟେକ ବ୍ୟକ୍ତିଙ୍କର ପରମ କର୍ତ୍ତବ୍ୟ । ଉକ୍ତ ମନ୍ତ୍ରରେ ଏହାହିଁ କେବଳ ଉପଦେଶ ଦିଆଯାଇଛି । ହେ ସର୍ବସ୍ୱାମିନ ଈଶ୍ୱର ! ଆପଣଙ୍କ ଆଦେଶଅନୁସାରେ ସମସ୍ତ ପଦାର୍ଥ ଆପଣଙ୍କୁ ହିଁ ସମର୍ପଣ କରୁଅଛୁ । ଆମ୍ଭେମାନେ *"ଆୟୁ''* ଆୟୁ, ପ୍ରାଣ, ଚକ୍ଷୁ, କର୍ଣ୍ଣ, ବାଣୀ, ମନ, ଆତ୍ମା, ଜୀବ, ବ୍ରହ୍ମ, ବେଦ, ବିଦ୍ୟା ଓ ବିଦ୍ୱାନ୍ ଜ୍ୟୋତି (ସୂର୍ଯ୍ୟାଦି ଲୋକ ଅଗ୍ନ୍ୟାଦି ପଦାର୍ଥ) ସ୍ୱର୍ଗ (ସୁଖ-ସାଧନ) ପୃଷ୍ଠ (ପୃଥିବ୍ୟାଦି ସକଳ ଲୋକ-ଆଧାର) ପୁରୁଷାର୍ଥ, ଯଜ୍ଞ (ସମସ୍ତ ଉତ୍ତମ କର୍ମ) ସ୍ତୋମ, ସ୍ତୁତି, ଋଗ୍ୱେଦ, ଯଜୁର୍ବେଦ, ସାମବେଦ, ଅଥର୍ବବେଦ, ବୃହଦ୍ରଥନ୍ତର, ସାମ, ଇତ୍ୟାଦି ସମସ୍ତ ପଦାର୍ଥ ଆପଣଙ୍କୁ ସମର୍ପଣ କରୁଅଛୁଁ । ଆପଣ ନିଜ ଇଚ୍ଛାନୁସାରେ ସେସବୁ ଆମକୁ ପ୍ରଦାନ କରନ୍ତୁ । ଆମେ ହେଉଛୁ ଆପଣଙ୍କ ସନ୍ତାନ ଏଣୁ ଦୟାକରି *"ସ୍ୱରଗନ୍ମ''* ଉତ୍ତମ ସୁଖ-ସୌଭାଗ୍ୟ ଆମକୁ ଉପଲବ୍ଧ କରାନ୍ତୁ । ଜୀବିତଥିବା ପର୍ଯ୍ୟନ୍ତ ଚକ୍ରବର୍ତ୍ତୀ ରାଜ୍ୟାଦି ଉପଭୋଗ କରି ଆମେ ସୁଖୀ ରହିବୁ ଓ ମୃତ୍ୟୁ ପରେ ମଧ୍ୟ ସୁଖୀ ହିଁ ହୋଇ ରହିବୁ । ହେ ମହାଦେବାମୃତ ! ଆମ୍ଭେମାନେ ଦେବ (ପରମ ବିଦ୍ୱାନ୍) ହୋଇ ଅମୃତ ମୋକ୍ଷ (ଆପଣଙ୍କୁ) ଉପଲବ୍ଧି କରି ପାରିବୁ । *"ବେଟ୍ ସ୍ୱାହା''* ଆପଣଙ୍କ ଆଦେଶ ପାଳନରେ ଓ ଆପଣଙ୍କୁ ପ୍ରାପ୍ତି ଦିଗରେ ସର୍ବଦା ଉଦ୍ୟମଶୀଳ ହୋଇ ରହିବୁ । ଆପଣ ହେଉଛନ୍ତି ଅନ୍ତର୍ଯ୍ୟାମୀ । ଆପଣ ଆମ ହୃଦୟ ରାଜ୍ୟରେ ବିରାଜମାନ ହୋଇ ହୃଦୟ ମନ୍ଦିରକୁ ସତ୍ୟାମୃତଦ୍ୱାରା ଭର୍ତ୍ତିକରି ଦିଅନ୍ତୁ, ତୁଣ୍ଡରୁ ସର୍ବଦା ସତ୍ୟ ବଚନ ହିଁ ବାହାରୁ । ହେ କୃପାନିଧେ ! ଆମ୍ଭମାନଙ୍କର ଯୋଗକ୍ଷେମ (ସମସ୍ତ ନିର୍ବାହ) ଆପଣହିଁ ସର୍ବଦା କରନ୍ତୁ । ଆପଣଙ୍କ କୃପାକଟାକ୍ଷରେ ଆମ୍ଭେମାନେ ସର୍ବଦା ବିଜୟ ଲାଭ କରି ପରମ ସୁଖ ଲାଭ କରି ପାରିବୁ । *- ମହର୍ଷି ଦୟାନନ୍ଦ ସରସ୍ୱତୀ (ଆର୍ଯ୍ୟାଭିବିନୟ)* ….... *ମହିମା ସାଗର ସାହୁ* ????ବେଦବାଣୀ????
ଯଜ୍ଞ ପ୍ରାର୍ଥନା(ଓଡ଼ିଆ)
28-07-2021
ବରଣୀୟ ପ୍ରଭୁ ଶରଣ, ମାଗୁ ଭକତି ଭରେ, ଲିଭିଯାଉ ଛଳ-କପଟ, ଶୁଦ୍ଧ ମାନସିକ ବଳେ ।୧ା କଣ୍ଠେ କଣ୍ଠେ ବେଦଗୀତି, ସତ୍ୟ କରୁ ଧାରଣ, ଝରିଯାଉ ହର୍ଷ ବରଷା, ପୁଲକି ଉଠୁ ପ୍ରାଣ ।୨ା ଅଶ୍ୱମେଧ ଯଜ୍ଞ ହେଉ, ଜଗତ ହିତକାରୀ, ଧର୍ମେ ଧରିତ୍ରୀ ଭରିଯାଉ, ମର୍ଯ୍ୟାଦା ଉପକାରୀ ।୩ା ଶୁଦ୍ଧ-ପୂତ ଭକ୍ତିଚିତ୍ତେ, ନିତ୍ୟ ପ୍ରତି ଅଗ୍ନିହୋତ୍ରେ, ଘୁଞ୍ଚିଯାଉ ପାପ-ତାପ, ଶାନ୍ତି ସେବିତ ଜଗତେ ।୪ା ଅନ୍ତରୁ ଅନ୍ତର ହେଉ, ପାପ-କଳୁଷ ଭାବନା, ଯଜ୍ଞଫଳେ ପୂର୍ଣ୍ଣ ହେଉ, ଆମ ଅନ୍ତର ବାସନା ।୫ା ଧରାବୁକେ ସର୍ବଜୀବେ, ଯଜ୍ଞ ହେଉ ଫଳବତୀ, ଗନ୍ଧଭରା ବାୟୁ-ଜଳେ, ସୁନ୍ଦର ଏ ବସୁମତୀ ।୬ା ପଲ୍ଲବି ଉଠୁ ପ୍ରେମ-ବଲ୍ଲରୀ, ସ୍ୱାର୍ଥ ବିନାଶ କର, "ଇଦନ୍ନମମ'' ର ମନ୍ତ୍ର ଛନ୍ଦେ, ମଗ୍ନ ହେଉ ଅନ୍ତର ।୭ା ଯଜ୍ଞରୂପେ ପୂଜା କରୁଁ, ପ୍ରେମ ପୁଲକିତ ଚିତ୍ତେ, କରୁଣାମୟ ! କରୁଣା, ଖେଳିଯାଉ ଏ ଜଗତ ।୮ା ???????????????????????????????????????? ???? #ଯଜ୍ଞ_ପ୍ରାର୍ଥନା(ହିନ୍ଦୀ)* ???? ପୁଜନୀୟ ପଭୋ ! ହମାରେ ଭାବ ଉଜ୍ଜଳ କିଜୀଏ । ଛୋଡ଼ ଦେଵେଁ ଛଳ କପଟ କୋ ମାନସିକ ବଳ ଦିଜୀଏ ॥୧ାା ବେଦ କୀ ବୋଲେ ଋଚାୟେଁ, ସତ୍ୟ କୋ ଧାରଣ କରେ । ହର୍ଷ ମେଁ ହୋଁ ମଗ୍ନ ସାରେ ଶୋକ ସାଗର ସେ ତରେ ॥୨ାା ଅଶ୍ୱ ମେଧାଦିକ୍ ରଚାଏଁ ଯଜ୍ଞ ପର ଉପକାର କୋ । ଧର୍ମ ମର୍ଯ୍ୟାଦା ଚଲାକର୍ ଲାଭ ଦେ ସଂସାର କୋ ॥୩ାା ନିତ୍ୟ ଶ୍ରଦ୍ଧା ଭକ୍ତି ସେ ଯଜ୍ଞାଦି ହମ କର ରହେଁ । ରୋଗ ପୀଡିତ ବିଶ୍ୱ କେ ସନ୍ତାପ ସବ୍ ହର ରହେଁ ॥୪ାା ଭାବନା ମିଟ୍ ଜାୟେ ମନ୍ସେ, ପାପ ଅତ୍ୟାଚାର କୀ । କାମନାୟେଁ ପୂର୍ଣ୍ଣ ହୋଵେଁ ଯଜ୍ଞସେ ନରନାରୀ କୀ ॥୫ାା ଲାଭକାରୀ ହୋ ହବନ ହର ପ୍ରାଣଧାରୀ କେ ଲିୟେ । ବାୟୁ, ଜଳ ସର୍ବତ୍ର ହୋଁ ଶୁଭ ଗନ୍ଧ କୋ ଧାରଣ କିୟେ ॥୬ାା ସ୍ୱାର୍ଥ ଭାବ ମିଟେ ହମାରା ପ୍ରେମ ପଥ ବିସ୍ତାର ହୋ । ଇଦନ୍ନ ମମ କା ସାର୍ଥକ ପ୍ରତ୍ୟେକ ମେଁ ବ୍ୟବହାର ହୋ ॥୭ାା ପ୍ରେମ ରସ୍ ମେଁ ତୃପ୍ତ ହୋ କର୍ ବନ୍ଦନା ହମ କର ରହେଁ । "ନାଥ'' କରୁଣା ରୂପ କରୁଣା ଆପକୀ ସବ୍ ପର ରହେଁ ॥୮ାା ???????????????????????????????????????? ???? #Vedic_Prayer made after the Yajnan / Hawan.*???? पूजनीय प्रभु हमारे भाव उज्ज्वल कीजिये Reverend God please help us to have pious feelings छोड़ देवें छल-कपट को, मानसिक बल दीजिये May we leave treachery, and be strong in mind and spirit वेद की बोलें ऋचाएँ, सत्य को धारण करें May we recite Veda-mantras , and hold on to the truth हर्ष में हों मग्न सारे, शोक-सागर से तरें May all of us be jubilant in joy, and be delivered from the sea of sorrow अश्वमेधादिक रचाएँ, यज्ञ पर-उपकार को May we perform Ashvamedha yajnas and help others धर्म-मर्यादा चला कर लाभ दें संसार को May we always live with faith and dignity and benefit the world नित्य श्रद्धा-भक्ति से यज्ञादि हम कर रहें May we keep on performing yajnas regularly with faith and reverence रोग-पीड़ित विश्व के संताप सब हर रहें And help to alleviate the world from the pain of disease and suffering भावना मिट जाए मन से पाप-अत्याचार की May our mind be free from the feelings of sin and atrocities कामनाएँ पूर्ण होवें यज्ञ से नर-नार की May the desires of all men and women be fulfilled by Yajna लाभकारी हो हवन हर जीवधारी के लिए May the hawan be beneficial for every living being वायु-जल सर्वत्र हों शुभ गन्ध को धारण किए May the air-water everywhere hold the auspicious smell स्वार्थ-भाव मिटे हमारा, प्रेम-पथ विस्तार हो May we get rid of our selfish feelings and enhance the path of love “इदन्न-मम” का सार्थक प्रत्येक में व्यवहार हो May we truly believe that “Nothing is mine” everything belongs to God and put it into practice प्रेमरस में तृप्त होकर वन्दना हम कर रहे We worship you feeling contented with love नाथ करुणा-रूप करुणा आपकी सब पर रहे O Lord, our protector may your kindness always be bestowed on everyone. ✍️ *ସଂଗ୍ରାହକ :ମହିମା ସାଗର ସାହୁ* Audio/Video. https://youtu.be/ovqazAb5HjU
ମହର୍ଷି ଦୟାନନ୍ଦ ସରସ୍ୱତୀଙ୍କ ଆଦର୍ଶ ବ୍ୟକ୍ତିତ୍ତ୍ୱ
28-07-2021
ପ୍ରସ୍ତୁତି: ମହିମା ସାଗର ସାହୁ *ମହର୍ଷି ଦୟାନନ୍ଦଙ୍କ ପ୍ରତି ବିଶ୍ୱର ପ୍ରସିଦ୍ଧ ମହାପୁରୁଷ ମାନଙ୍କ ମନ୍ତବ୍ୟ।* ???? ୧ - “ଯେଉଁ ଦୟାନନ୍ଦଙ୍କର ଦିବ୍ୟଦୃଷ୍ଟି ଭାରତର ଆଧାତ୍ମିକ ଇତିହାସରେ ସତ୍ୟ ଓ ଏକତାର ଦର୍ଶନ କରିଥିଲା, ସେହି ମହାନ୍ ଗୁରୁ ଦୟାନନ୍ଦଙ୍କୁ ମୋର ସାଦର ପ୍ରଣାମ । ଭାରତବର୍ଷକୁ ଅବିଦ୍ୟା, ଆଳସ୍ୟ ଓ ପ୍ରାଚୀନ ଇତିହାସ ସମ୍ବନ୍ଧୀୟ ଅଜ୍ଞତାରୁ ମୁକ୍ତ କରି ତାହାକୁ ସତ୍ୟ ଓ ପବିତ୍ରତାର ଜାଗୃତି ପ୍ରଦାନ କରିବା ଯେଉଁ ଗୁରୁଙ୍କର ଉଦ୍ଦେଶ୍ୟ ଥିଲା, ତାହାଙ୍କୁ ମୋର ବାରମ୍ବାର ପ୍ରଣାମ । ଯେଉଁ ମହାତ୍ମା ଦେଶର ପତିତାବସ୍ଥାରେ ହିନ୍ଦୁ ସମାଜକୁ ପ୍ରଭୁ ଭକ୍ତି ଓ ମାନବସେବାରେ ସରଳ ଓ ସତ୍ୟ ମାର୍ଗର ଦିଗ୍ଦର୍ଶନ କରାଇଥିଲେ, ଆଧୁନିକ ଭାରତର ମାର୍ଗଦର୍ଶକ ସେହି ଦୟାନନ୍ଦଙ୍କୁ ମୁଁ ଆଦର ସହକାରେ ଶ୍ରଦ୍ଧାଞ୍ଜଳି ଅର୍ପଣ କରୁଛି ।” *-ଵିଶ୍ଵକବି ରବୀନ୍ଦ୍ରନାଥ ଠାକୁର* ???? ୨- ଏହା ନିଶ୍ଚିତ ଯେ ଶଙ୍କରାଚାର୍ଯ୍ୟଙ୍କ ପରେ ଦୟାନନ୍ଦଙ୍କଠାରୁ ବଳି ସଂସ୍କୃତଜ୍ଞ, ଗମ୍ଭୀର ଅଧ୍ୟାତ୍ମବେତ୍ତା, ଆଶ୍ଚର୍ଯ୍ୟଜନକ ବକ୍ତା ଓ ଅସତ୍ୟର ନିଭୀକ ଖଣ୍ଡନକାରୀ ଭାରତରେ ଜନ୍ମି ନାହାନ୍ତି ।” *-ମେଡ଼େମ୍ ବ୍ଲେଭେସ୍କି* ???? ୩- ‘ଆର୍ଯ୍ୟସମାଜ ସମଗ୍ର ସଂସାରକୁ ବେଦାନୁଗାମୀ କରିବା ପାଇଁ ଅଭିଳାଷ ପୋଷଣ କରେ । ସ୍ଵାମୀ ଦୟାନନ୍ଦ ଥିଲେ ଉକ୍ତ ସିଦ୍ଧାନ୍ତ ଓ ପ୍ରେରଣାର ମୂଳ-ଉତ୍ସ । ତାଙ୍କର ବିଶ୍ବାସ ଥିଲା ଯେ ‘ଆର୍ଯ୍ୟ ହେଉଛି ଶ୍ରେଷ୍ଠ ଜାତି, ଭାରତ ହେଉଛି ଶ୍ରେଷ୍ଠ ଦେଶ ଓ ବେଦ’ ହେଉଛି ଶ୍ରେଷ୍ଠ ଶାସ୍ତ୍ର ।” *-ରେମଜେ ମେକଡୋନାଲଡ୍* ???? ୩- “ସ୍ଵାମୀ ଦୟାନନ୍ଦ ମୋର ଗୁରୁ । ମୁଁ ସଂସାରରେ କେବଳ ତାହାଙ୍କୁ ହିଁ ଗୁରୁ ବୋଲି ସ୍ବୀକାର କରିଛି । ସେ ମୋର ଧର୍ମର ପିତା ଓ ଆର୍ଯ୍ୟସମାଜ ମୋର ଧର୍ମର ମାତା । ଏ ଦୁହିଙ୍କ କୋଳରେ ମୁଁ ପାଳିତ ହୋଇଛି । ମୁଁ ଗର୍ବ ଅନୁଭବ କରେ ଯେ ମୋର ଗୁରୁ ସ୍ଵତନ୍ତ୍ର ଭାବରେ ବିଚାର କରିବା, କହିବା ଓ କର୍ତ୍ତବ୍ୟ ପାଳନ କରିବା ପାଇଁ ମୋତେ ଶିକ୍ଷା ଦେଇଛନ୍ତି ଓ ମୋର ମାତା ସଂଘବଦ୍ଧ ଓ ନିୟମାନୁକୁଳ ହେବା ପାଇଁ ମୋତେ ପ୍ରେରଣା ଦେଇଛନ୍ତି । *-ଲାଲା ଲଜପତ ରାୟ* ???? ୪- ‘ଋଷିବର ! ଆପଣଙ୍କର ଦିବ୍ୟମୁର୍ତ୍ତି ମୋ ହୃଦୟପଟରେ ଅବିକୃତ ଭାବରେ ଅଙ୍କିତ ହୋଇଛି । ଆପଣଙ୍କୁ ସ୍ମରଣ କରି ଅସଂଖ୍ୟ ବାର ମୁଁ ମୋର ଦୁର୍ଗତି ଦୂର କରିଛି । କେତେ ଯେ ଦୁର୍ଗତ ଆତ୍ମାକୁ ଆପଣ ପୁନର୍ଜୀବନ ଦେଇଛନ୍ତି, କୌଣସି ମନୁଷ୍ୟ ତାହା ଗଣନା କରି ନ ପାରେ ।”” “ଆପଣ କେବଳ ଉପଦେଶ ଦେଇ ପ୍ରଚାର କରୁ ଥିବା ତତ୍ତ୍ୱବେତ୍ତା ନଥିଲେ । ଯେଉଁ ସିଦ୍ଧାନ୍ତ ପ୍ରଚାର କରୁଥିଲେ, ତାହାକୁ କାର୍ଯ୍ୟକାରୀ କରି ଦେଖାଇବା ଥିଲା ଆପଣଙ୍କ କାର୍ଯ୍ୟ । ଭଗବାନ କୃଷ୍ଣଙ୍କ ପରି ଆପଣ ତିନି ଲୋକରେ କୌଣସି କର୍ତ୍ତବ୍ୟ ବାକି ରଖି ନାହାନ୍ତି । ମାନବକୁ ଯଥାର୍ଥ ମାର୍ଗ ଦେଖାଇବା ପାଇଁ କର୍ମରେ ତିଳେ ହେଲେ ଅବହେଳା କରି ନାହାନ୍ତି । “ଭଗବନ ! ମୁଁ ଆପଣଙ୍କଠାରେ ଚିର ଋଣୀ । ସେ ରଣରୁ ଉଦ୍ଧାର ପାଇବା ପାଇଁ ଉଦ୍ୟମ କରୁ ଅଛି । ଯେଉଁ ପରମାତ୍ମାଙ୍କ ସ୍ନେହମୟ କୋଳ ରେ ଆପଣ ପରମାନନ୍ଦ ଲାଭ କରୁଛନ୍ତି, ତାହାକୁ ମୁଁ ପ୍ରାର୍ଥନା କରୁଛି ଯେ ସେ ମୋତେ, ଆପଣଙ୍କର ପ୍ରକୃତ ଶିଷ୍ୟ ହେବା ପାଇଁ ଶକ୍ତି ପ୍ରଦାନ କରନ୍ତୁ । *-ସ୍ବାମୀ ଶ୍ରଦ୍ଧାନନ୍ଦ* ???? ୫- ‘‘ମହର୍ଷି ଦୟାନନ୍ଦ ଧର୍ମ-ଜାଗରଣ କରି ଥିଲେ । ସେ ଆର୍ଯ୍ୟସଂସ୍କୃତି, ବେଦାଧ୍ୟୟନ, ସଂସ୍କୃତ ଓ ହିନ୍ଦୀଭାଷାର ପ୍ରସାରଣରେ ଅଗ୍ରଣୀ ଥିଲେ । ଅସ୍ପୃଶ୍ୟତାର କଳଙ୍କକୁ ଦୂର କରିବା ପାଇଁ ସେ ପ୍ରଗାଢ଼ ପ୍ରଯତ୍ନ କରି ଥିଲେ । ଉକ୍ତ ମହତ୍ କାର୍ଯ୍ୟାବଳୀ ପାଇଁ ମହର୍ଷି ଚିରସ୍ମରଣୀୟ ହୋଇ ରହିବେ । ଏଥ୍ୟପାଇଁ ଲେଶମାତ୍ର ସନ୍ଦେହ ନାହିଁ । *-ମୋହନଦାସ କରମଚାନ୍ଦ ଗାନ୍ଧୀ* ???? ୬- “ସ୍ଵାମୀ ଦୟାନନ୍ଦ ନିଃସନ୍ଦେହ ଏକ ଋଷି ଥିଲେ । ସେ ନିଜ ବିରୋଧୀଙ୍କ ଦ୍ବାରା ନିକ୍ଷିପ୍ତ ଇଟାପଥରକୁ ସହର୍ଷ ବଦନରେ ସହନ କରିଥିଲେ । ସେ ନିଜଠାରେ ମହାନ୍ ଅତୀତ ଓ ଭବିଷ୍ୟତକୁ ମିଶାଇ ଦେଇଥିଲେ । ସେ ମରି ସୁଦ୍ଧା ଅମର । ମାନବକୁ ବନ୍ଦୀଶାଳାରୁ ମୁକ୍ତ କରିବା ପାଇଁ ଓ ତାହାର ଜାତିବନ୍ଧନ ଲୋପ କରିବା ପାଇଁ ଋଷି ପ୍ରାଦୁର୍ଭବ ହୋଇଥିଲେ । ତାହାଙ୍କର ସନ୍ଦେଶ ଥିଲା -ଆର୍ଯ୍ୟାବର୍ତ୍ତ, ଉଠ । ସମୟ ଆସିଛି । ନୂତନ ଯୁଗରେ ପ୍ରବେଶ କର ।” *-ପାର୍ଲ ରିଚାର୍ଡ* ???? ୭- “ସ୍ଵାମୀ ଦୟାନନ୍ଦ ସରସ୍ବତୀ ହିନ୍ଦୁ ଧର୍ମର ସଂସ୍କାର ପାଇଁ ମହାନ କାର୍ଯ୍ୟ କରିଥିଲେ । ସମାଜ-ସଂସ୍କାର କାର୍ଯ୍ୟରେ ସେ ଅତ୍ୟନ୍ତ ଉଦାର ଥିଲେ । ସେ ନିଜର ବିଚାର ଧାରାକୁ ବେଦାଧାରିତ ବୋଲି ଗ୍ରହଣ କରିଥିଲେ ଓ ବେଦକୁ ମନ୍ତ୍ରଦ୍ରଷ୍ଟା ଋଷିମାନଙ୍କ ଜ୍ଞାନ ବୋଲି ସ୍ବୀକାର କରୁଥିଲେ । ସେ ବେଦର ବୃହତ୍ ଭାଷ୍ୟ ରଚନା କରିଛନ୍ତି । ତହିଁରୁ ତାହାଙ୍କ ଅଗାଧ ପାଣ୍ଡିତ୍ୟର ପରିଚୟ ମିଳେ । *-ମେକ୍ସମୁଲେର* ???? ୮- ତାହାଙ୍କ ମୃତ୍ୟୁରେ ଭାରତ ନିଜର ଯୋଗ୍ୟତମ ସନ୍ତାନଙ୍କ ମଧ୍ୟରୁ ଜଣକୁ ହରାଇଲା । ‘‘ଅଧୋପତିତ, ସୁପ୍ତ ହିନ୍ଦୁଙ୍କ ମଧ୍ୟରେ ସେ ଗୋଟିଏ ତୀବ୍ର ଅସ୍ତ୍ର ନିକ୍ଷେପ କରି ସେମାନଙ୍କୁ ଜାଗ୍ରତ କରିଥିଲେ । ତାଙ୍କର ବିଚକ୍ଷଣ ବାଗ୍ନିତାର ପ୍ରଭାବରେ ଜନହୃଦୟ ଋଷିବାଣୀ ଓ ବୈଦିକ ଶିକ୍ଷା ପାଇଁ ପ୍ରେମରେ ଉଦ୍-ବେଳିତ ହୋଇ ଉଠୁଥିଲା । ସମଗ୍ର ଭାରତରେ ଦୟାନନ୍ଦଙ୍କ ଭଳି ହିନ୍ଦୀ ଓ ସଂସ୍କୃତ ଭାଷାର ବିଜ୍ଞ ଓ ତେଜସ୍ୱୀ ବକ୍ତା କେହି ନ ଥିଲେ । *-କର୍ଣ୍ଣେଲ ଆଲକଟ୍* ???? ୯- ମୁଁ ଲକ୍ଷ୍ୟ କରୁଛି ଯେ ଯେକୌଣସି ହିନ୍ଦୁ ଆର୍ଯ୍ୟସମାଜୀ ହେଲେ ତାଙ୍କଠାରେ ଅନେକ ବୈଶିଷ୍ଟ୍ୟ ପ୍ରକାଶିତ ହୁଏ । ତାଙ୍କଠାରେ ଉତ୍ସାହ, ଦେଶଭକ୍ତି, କର୍ମପ୍ରେରଣା ଓ ଅଭୁତ ଚେତନା ଜାଗ୍ରତ ହୁଏ । ଉଦାହରଣସ୍ୱରୂପ ଦେଶ ବିଷୟରେ ବିଚାର କଲେ ଦେଖାଯାଏ ଯେ ଅନ୍ୟ ଲୋକ ଯେତେବେଳେ ‘ସ୍ଵରାଜ୍ୟ’ର କଳ୍ପନା ସୁଦ୍ଧା କରି ନ ଥିଲେ, ସେତେବେଳେ ସ୍ବାମୀ ଦୟାନନ୍ଦ ଓ ଆର୍ଯ୍ୟସମାଜ ନିଜର ସଦ୍ ଗ୍ରନ୍ଥ ମାଧ୍ୟମରେ ସ୍ୱରାଜ୍ୟର ପ୍ରଚାର କରୁଥିଲେ । ମୁଁ ପ୍ରସନ୍ନ ଚିତ୍ତରେ କହୁଛି ଯେ ଅସହଯୋଗ ଆନ୍ଦୋଳନ ବେଳେ ଅନ୍ୟ ସଂଘ ଓ ସମିତିର ସଭ୍ୟମାନଙ୍କ ମଧ୍ୟରୁ ଅଧିକ ପକ୍ଷରେ ଶତକଡ଼ା ଦୁଇ ତିନି ଜଣ ସେଥିରେ ଭାଗ ନେଉଥିବାବେଳେ ଆର୍ଯ୍ୟସମାଜୀଙ୍କ ମଧ୍ୟରୁ ପ୍ରତି ଶହେରୁ ନବେ ଜଣ ସେଥିରେ ଅଗ୍ରଣୀ ଥିଲେ ।” *-ମୌଲନା ହସରତ ମୋହନି* ???? ୧୦- ସ୍ଵାମୀ ଦୟାନନ୍ଦ ଏପରି ସାଧୁ ଓ ବିଦ୍ଵାନ୍ ପୁରୁଷ ଥିଲେ ଯେ, ଯେକୌଣସି ଧର୍ମାବଲମ୍ବୀ ତାହାଙ୍କୁ ସମ୍ମାନ କରୁଥିଲେ । *-ସୟଦ୍ ଅହମ୍ମଦ ଖାଁ* ???? ୧୧- ଖ୍ରୀଷ୍ଟମତ ଓ ପାଶ୍ଚାତ୍ୟ ସଭ୍ୟତାର ଆକ୍ରମଣ ବେଳେ ଭାରତୀୟଙ୍କୁ ସତର୍କ କରାଇଥିବା ଶ୍ରେଷ୍ଠ ବ୍ୟକ୍ତିଙ୍କୁ ଚିହ୍ନଟ କରି ମୁକୁଟମଣ୍ଡିତ କରିବା ପାଇଁ ଯଦି କାହାରିକୁ ଆହ୍ବାନ କରାଯାଏ, ତେବେ ଉକ୍ତ ସମ୍ମାନ ଦୟାନନ୍ଦଙ୍କୁ ପ୍ରଦାନ କରିବା ପାଇଁ ମୁଁ ନିର୍ଦ୍ଦେଶ ଦେବି । ଉନବିଂଶ ଶତାବ୍ଦୀରେ ସ୍ବାମୀ ଦୟାନନ୍ଦ ଭାରତ ପାଇଁ ଯେଉଁ ଅମୂଲ୍ୟ କାର୍ଯ୍ୟ କରି ଯାଇଛନ୍ତି, ତାର କେବଳ ହିନ୍ଦୁ ଜାତି କାହିଁକି ମୁସଲମାନ ଓ ଅନ୍ୟ ଧର୍ମାବଲମ୍ବୀମାନଙ୍କର ଅଶେଷ ଉପକାର ସାଧିତ ହୋଇଛି ।” *-ପୀର ମହମ୍ମଦ ୟୁନିସ୍* ???? ୧୨- ମହର୍ଷି ଦୟାନନ୍ଦ ଭାତରମାତାର ସେହି ପ୍ରସିଦ୍ଧ ସନ୍ତାନ ଓ ପୁଣ୍ୟାତ୍ମାମାନଙ୍କ ମଧ୍ୟରେ ଅନ୍ୟତମ, ଯାହାଙ୍କର ନାମ ପୃଥିବୀ ଇତିହାସରେ ଜାଜ୍ଜଲ୍ୟମାନ ନକ୍ଷତ୍ର ପରି ଶୋଭା ପାଉଥିବ । ସେ ଭାରତମାତାର ଶ୍ରେଷ୍ଠ ସନ୍ତାନଙ୍କ ମଧ୍ୟରେ ଅନ୍ୟତମ, ଯାହାଙ୍କ ପାଇଁ ମାତା ଯେତେ ଅଭିମାନ କଲେ ମଧ୍ୟ ତାହା ଯଥେଷ୍ଟ ମନେ ହେବ ନାହିଁ । ନେପୋଲିଅନ୍, ସିକନ୍ଦର ପ୍ରଭୃତି ସମ୍ରାଟ ଓ ବିଜେତାଙ୍କଠାରୁ ସ୍ୱାମିଜୀ ଆହୁରି ଦୃଢ଼ମନା ଥିଲେ । *-ଖଦୀଜା ବେଗମ୍* ???? ୧୩- ‘‘ରଷି ଦୟାନନ୍ଦ ଜାଜ୍ଜଲ୍ୟମାନ ନକ୍ଷତ୍ର ସଦୃଶ ଭାରତୀୟ ଆକାଶରେ ନିଜର ଅଲୌକିକ ଆଭାରେ ଜ୍ୟୋତିଷ୍ମାନ୍ ହୋଇ ଉଠିଥିଲେ । ସେ ଗଭୀର ନିଦ୍ରାରେ ଶୋଇଥିବା ଭାରତକୁ ଜାଗ୍ରତ କରିଥିଲେ ତଥା ‘ସ୍ଵରାଜ୍ୟ’ର ସର୍ବପ୍ରଥମ ସନ୍ଦେଶବାହକ ଓ ମାନବତାର ଶ୍ରେଷ୍ଠ ଉପାସକ ଥିଲେ । *-ବାଳ ଗଙ୍ଗାଧର ତିଳକ* ???? ୧୪- ଦୟାନନ୍ଦ ଫରୁଖାବାଦର ଏକ ବିଶାଳ ଜନସଭାରେ ଆତ୍ମବିଶ୍ଵାସ ଓ ଦୃଢ଼ତାର ସହିତ ମୂର୍ଭପୂଜାର ଖଣ୍ଡନ କଲେ । ଲୋକେ ତାହାଙ୍କୁ ବିପୁଳ ସମ୍ବର୍ଦ୍ଧନା ଜଣାଇବା ଦେଖି ମୁଁ ବିସ୍ମିତ ହେଲି । ମୋର ଏବେ ମଧ୍ୟ ସ୍ମରଣ ଅଛି ଯେ ସେହି ମହାପୁରୁଷ ଉକ୍ତ ସଭାରେ କହିଥିଲେ ଯେ ନିରାକାର ପରମାତ୍ମାଙ୍କ ମୂର୍ତ୍ତୀପୂଜା କରିବା ପାଇଁ ତାଙ୍କୁ ବନ୍ଧୁକମୁନ ଦେଖାଇ ବାଧ୍ୟ କରାଗଲେ ମଧ୍ୟ ସେ କହିବେ ‘ଗୁଳି ଫୁଟାଇ ମୋତେ ମାରିଦିଅ; କିନ୍ତୁ ମୁଁ ସତ୍ୟ ହିଁ କହିବି ।’ ପରମେଶ୍ଵରଙ୍କ ପ୍ରତି ତାଙ୍କର ଶ୍ରଦ୍ଧା ଓ ଦୃଢ଼ତା ଦେଖ ମୁଁ ଆଚମ୍ବିତ ହୋଇ ପଡ଼ିଲି ।” *-ଜେ.ଜେ.ଲୁକାସ୍* ???? ୧୫- ଏବର ସ୍ବରାଜ୍ୟ ଆନ୍ଦୋଳନ ପାଇଁ ସ୍ବାମୀ ଦୟାନନ୍ଦଙ୍କୁ ଅନ୍ୟତମ ଭାରତନିର୍ମାତା ଭାବରେ ଅବଶ୍ୟ ସ୍ବୀକାର କରିବାକୁ ହେବ । ସେ ଥିଲେ ମହାନ୍ ଓ ପୁଣ୍ୟାତ୍ମା । ସେ ଭାରତର କୀର୍ତ୍ତିସ୍ତମ୍ଭ ସ୍ୱରୂପ ଥିଲେ ଏହା ଅନସ୍ବୀକାର୍ଯ୍ୟ । ତାଙ୍କ ତିରୋଧାନରେ ଭାରତର ଶୋଚନୀୟ କ୍ଷତି ଘଟିଛି । *-ଗ୍ରାସ୍ ବ୍ରୋବଡ଼ା* ???? ୧୬- ସ୍ଵାମୀ ଦୟାନନ୍ଦଙ୍କ ପ୍ରଚାରିତ ସିଦ୍ଧାନ୍ତ ସମ୍ବନ୍ଧରେ କିଏ କ’ଣ ମନ୍ତବ୍ୟ ଦିଅନ୍ତୁ ନା କାହିଁକି, ଏହା ସମସ୍ତଙ୍କୁ ସ୍ବୀକାର କରିବାକୁ ହେବ ଯେ ସେ ନିଜ ଦେଶର ଗୌରବ ସ୍ୱରୂପ ଥିଲେ । ଦୟାନନ୍ଦଙ୍କୁ ହରାଇ ଭାରତ ଅତିଶୟ କ୍ଷତିଗ୍ରସ୍ତ ହୋଇଛି । ସେ ଥିଲେ ମହାନ୍ ଓ ଶ୍ରେଷ୍ଠ ପୁରୁଷ । *-ଏ.ଓ.ହ୍ୟୁମ୍* ???? ୧୭- “ଦୟାନନ୍ଦଙ୍କ ବ୍ୟକ୍ତିତ୍ଵ ଓ ଚରିତ୍ର ଅସୀମ ସମ୍ମାନର ଅଧିକାରୀ । ସେ ଥିଲେ ପବିତ୍ରାତ୍ମା ଓ ଜୀବନର ଶେଷ ମୁହୁର୍ତ୍ତ ପର୍ଯ୍ୟନ୍ତ ନିଜ ନୀତିରେ ଅଟଳ ରହିଥିଲେ । ସେ ସ୍ୱାଧୀନ ବିଚାରଶୀଳ, ଦୃଢ଼ ଓ ଅଭେଦ୍ୟ ଯୋଦ୍ଧା ଥିଲେ । ବହୁକାଳ ଧରି ଦଳିତ ଓ ଲାଞ୍ଚିତ ହୋଇ ରହିଥିବା ଦେଶବାସୀଙ୍କ ଦୀନତା ବିରୁଦ୍ଧରେ ସେ ବୀରପୁରୁଷ ଭଳି ଲଢ଼ିଥିଲେ । ସେ ଥିଲେ ସତ୍ୟର ଉତ୍କଟ ପ୍ରେମିକ । *-ସି.ଏଫ୍.ଆଣ୍ଡ୍ରୁଜ୍* ???? ୧୮- “ଆମ୍ଭମାନଙ୍କୁ ବେଦାଧ୍ୟୟନରେ ପ୍ରବଳ ଉତ୍ସାହ ପ୍ରଦାନ କରିବା ଓ ପରମାତ୍ମାଙ୍କ ମୂର୍ତ୍ତୀପୂଜା ବେଦସମ୍ମତ ନୁହେଁ ବୋଲି ସପ୍ରମାଣ ସିଦ୍ଧ କରିବା - ଏହି ମହାନ୍ କାର୍ଯ୍ୟନିମନ୍ତେ ଦୟାନନ୍ଦ ଆମର ଚିରସ୍ମରଣୀୟ । ଅନ୍ୟ କଥା ଦୂରେ ଥାଉ, କେବଳ ଜାତିର ଅଜ୍ଞତା ଓ ସାମାଜିକ କୁରୀତିଗୁଡ଼ିକ ବିରୁଦ୍ଧରେ ନିଜର ଅନୁଗାମୀମାନଙ୍କୁ ପ୍ରସ୍ତୁତ କରିବା ଦ୍ଵାରା ଆର୍ଯ୍ୟସମାଜର ପ୍ରବର୍ତ୍ତକ ଆଧୁନିକ ଭାରତର ତୁଙ୍ଗ ନେତା ଭାବରେ ଅବଶ୍ୟ ସମ୍ମାନ ଲାଭ କରୁଥିବେ । *-ଉଇଣ୍ଟରନିଜ୍* ???? ୧୯- ଏହା ସ୍ବୀକାର କରିବାକୁ ହେବ ଯେ ଭାରତର ସାଂସ୍କୃତିକ ଓ ରାଷ୍ଟ୍ରୀୟ ନବଜାଗରଣରେ ସ୍ଵାମୀ ଦୟାନନ୍ଦଙ୍କର ସ୍ଥାନ ଅତ୍ୟନ୍ତ ମହତ୍ତ୍ୱପୂର୍ଣ୍ଣ । ତାହାଙ୍କ ମନ୍ତବ୍ୟ ଓ ସିଦ୍ଧାନ୍ତଗୁଡ଼ିକ ହୀନମନ୍ୟ ଜାତିକୁ ପୁନର୍ବାର ଅପୂର୍ବ ଉତ୍ସାହରେ ଉଦ୍ବୁଦ୍ଧ କରିଛି । *-ଇମର୍ସନ* ???? ୨୦- ‘ମୁଁ ସ୍ଵାମୀ ଦୟାନନ୍ଦ ସରସ୍ବତୀଙ୍କୁ ବିଗତ ଶତାବ୍ଦୀର ସେହି ମହାତ୍ମାମାନଙ୍କ ମଧ୍ୟରେ ପରି ଗଣିତ କରେ, ଯେଉଁ ମାନେ ପରମହଂସ ରାମକୃଷ୍ଣ ଓ ସ୍ବାମୀ ବିବେକାନନ୍ଦଙ୍କ ପରି ସନାତନ ହିନ୍ଦୁଧର୍ମର ଗଭୀର ଓ ଦୃଢ଼ ଭିତ୍ତି ସ୍ଥାପନ କରିଥିଲେ ଏବଂ ତାହାକୁ ପୌରାଣିକ ଭ୍ରାନ୍ତିରୁ ମୁକ୍ତ କରିଥିଲେ । *-ଏସ୍.ଏଲ୍.ମାଇକଲ୍* ???? ୨୧- “ସ୍ଵାମୀ ଦୟାନନ୍ଦ ଏକେଶ୍ୱରବାଦୀ ଓ ପ୍ରଗତିଶୀଳ ଦେଶୋଦ୍ଧାରକ ଥିଲେ । ସେ ନିଜର ସମସ୍ତ ସିଦ୍ଧାନ୍ତକୁ ବେଦଭିତ୍ତିକ ବୋଲି ଅବଧାରଣା କରିଥିଲେ । *-ମୋନିଏର୍ ବିଲିଏନ୍ସ* ???? ୨୨- ଆଜି (ଗାନ୍ଧିଜୀଙ୍କ ପରି) ଜଣେ ବୈଶ୍ୟ ଓ ଆଇନଜୀବୀ ସନ୍ନ୍ୟାସୀଙ୍କ ସ୍ଥାନ ଲାଭ କରିଛନ୍ତି । ତାଙ୍କ ସାମାଜିକ କାର୍ଯ୍ୟକ୍ରମ ତାଙ୍କର ଜଣେ ଗୁଜରାଟୀ ଭାଇ ଦୟାନନ୍ଦଙ୍କ ପ୍ରବର୍ତ୍ତିତ ଶୁଦ୍ଧିକ୍ରିୟାର ପୁନଃପ୍ରଚାର । ରଷି ଦୟାନନ୍ଦଙ୍କ ଦୂରଦୃଷ୍ଟି ସମ୍ପନ୍ନ ତଥା ବେଦାଧାରିତ ସିଦ୍ଧାନ୍ତଗୁଡ଼ିକ ଗାନ୍ଧିଜୀଙ୍କ ନୀତିରେ ପ୍ରତିଫଳିତ ହୋଇଥିବାରୁ ଭାରତୀୟ ଜନତା ତାହା ଗ୍ରହଣ କରିଅଛି । ଆଧୁନିକ ସଂସ୍କାରବାଦୀ ଓ ପ୍ରଗତିଶୀଳ ହିନ୍ଦୁଧର୍ମ ଦୟାନନ୍ଦ ସରସ୍ବତୀଙ୍କର ଏକ ମହନୀୟ ଦାନ । ସେ ଥିଲେ ବୁଦ୍ଧଙ୍କ ମାନବୀୟତା ଓ ଶଙ୍କରଙ୍କ ରକ୍ଷଣଶୀଳ ଜ୍ଞାନମାର୍ଗର ସୁନ୍ଦର ସମ୍ମିଶ୍ରଣ । ଲୁଥର ଯେପରି ୟୁରୋପୀୟମାନଙ୍କୁ ଆତ୍ମମୁକ୍ତିର ବାର୍ଭା ଶୁଣାଇଥିଲେ, ସନ୍ନ୍ୟାସୀ ଦୟାନନ୍ଦ ହିନ୍ଦୁମାନଙ୍କୁ ସେହିପରି ଆଧ୍ୟାତ୍ମିକ ଆତ୍ମୋତ୍ସର୍ଗର ମାର୍ଗ ବତାଇଥିଲେ । ତାଙ୍କର ବିଶେଷତ୍ୱ ହେଉଛି ଯେ ସେ ହିନ୍ଦୁ ଧର୍ମଶାସ୍ତ୍ର ମାଧ୍ୟମରେ ଆତ୍ମାର ଅନ୍ତରାଳରୁ ଏହି ମାର୍ଗ ପ୍ରଦର୍ଶନ କରିଥିଲେ । ତାଙ୍କର ପୂର୍ବାନୁଗାମୀ ବୁଦ୍ଧଙ୍କଠାରୁ ରାମମୋହନ ରାୟଙ୍କ ପର୍ଯ୍ୟନ୍ତ ସମସ୍ତ ସମାଜ-ସଂସ୍କାରକ ଯାହା କରିବାରେ ଅସମର୍ଥ ହୋଇଥିଲେ, ସେ ସେଥିରେ ସଫଳତା ଲାଭ କରିଥିଲେ । *-କେ.ପି.ଜୟସ୍ୱାଲ* ???? ୨୩- ସ୍ଵାମୀ ଦୟାନନ୍ଦ ପ୍ରଥମ ବ୍ୟକ୍ତି ଥିଲେ, ଯେ "ଭାରତ" ଭାରତୀୟଙ୍କ ପାଇଁ - ଏହି ଧ୍ବନି ଶୁଣାଇଥିଲେ । "ଆର୍ଯ୍ୟସମାଜ" ପାଇଁ ମୋ ହୃଦୟରେ ଶୁଭେଚ୍ଛା ଭରି ରହିଛି ଓ ସେହି ଆର୍ଯ୍ୟଜାତିର ସମ୍ମାନିତ ମହାପୁରୁଷଙ୍କ ପାଇଁ ମୋ’ ହୃଦୟରେ ପବିତ୍ର-ପୂଜାର ଭାବନା ରହିଛି । *-ଆନି ବେସାନ୍ତ* ???? ୨୪- ମହର୍ଷି ଦୟାନନ୍ଦ ମହାନ ତପୋମୂର୍ତ୍ତି ଥିଲେ । ସେ ଭାରତ ବର୍ଷ କୁ ଦିବ୍ୟଜ୍ୟୋତିରେ ଉଦ୍ଭାସିତ କରିଥିଲେ । ସେ ହିନ୍ଦୁ ସମାଜକୁ ପୁନର୍ଜନ୍ମ ଦେବା ପାଇଁ ଯଥାସାଧ୍ୟ ପ୍ରଯତ୍ନ କରିଥିଲେ ତଥା ଭାରତକୁ ସ୍ଵତନ୍ତ୍ର ଓ ଦିବ୍ୟ ଭାବରେ ଦେଖୁ ପାଇଁ ଅଭିଳାଷ ପୋଷଣ କରିଥିଲେ । ବୈଦିକ କାଳର ପୁନରୁଦ୍ଧାର ପାଇଁ ସେ ପ୍ରଯତ୍ନଶୀଳ ଥିଲେ । ମୃତପ୍ରାୟ ହିନ୍ଦୁଜାତି ମଧ୍ୟରେ ସେ ପୁନର୍ବାର ପ୍ରାଣସଞ୍ଚାର କରିଥିଲେ । ସେ ଥିଲେ ହିନ୍ଦୁସଂସ୍କୃତିର ଅପ୍ରତିମ ପ୍ରତିମା ଓ ଭାରତମାତାର ଅକ୍ଷୟ ଯଶ । *-ମଦନମୋହନ ମାଲବ୍ୟ* ???? ୨୫- ‘ଲୋକେ ମହର୍ଷି ଦୟାନନ୍ଦଙ୍କୁ ସାମାଜିକ ଓ ଧାର୍ମିକ ସଂସ୍କାରକ ନାମରେ ଜାଣନ୍ତ, ପରନ୍ତୁ ମୋ ଦୃଷ୍ଟିରେ ସେ ଜଣେ ସଚୋଟ ରାଷ୍ଟ୍ରବାଦୀ ପୁରୁଷ ଥିଲେ । ଆଜକୁ ଚାଳିଶବର୍ଷ ହେଲା କଂଗ୍ରେସ ଯେଉଁ ସମସ୍ତ କାର୍ଯ୍ୟକ୍ରମ ଗ୍ରହଣ କରିଛି, ତାହାକୁ ରଷି ଦୟାନନ୍ଦ ଷାଠିଏ ବର୍ଷ ପୂର୍ବେ ଦେଶ ସମ୍ମୁଖରେ ଉପସ୍ଥାପିତ କରିଥିଲେ । ସମଗ୍ର ଦେଶରେ ଏକ ଭାଷା ପ୍ରଚଳନ, ସ୍ବଦେଶୀ ବସ୍ତ୍ର ପରିଧାନ, ସ୍ଵଦେଶୀପ୍ରଚାର, ପଞ୍ଚାୟତ-ସ୍ଥାପନା, ଦଳିତୋଦ୍ଧାର, ରାଷ୍ଟ୍ରୀୟ ଓ ସାମାଜିକ ଏକତା ସ୍ଥାପନ, ଉତ୍କଟ ଦେଶାଭିମାନ ଓ ସରାଜ୍ୟର ଘୋଷଣା ଏସବୁ ବିଚାର ଦୟାନନ୍ଦ ହିଁ ସର୍ବପ୍ରଥମେ ପ୍ରସାର କରିଥିଲେ । ବର୍ତ୍ତମାନ କଂଗ୍ରେସ ପ୍ରତ୍ୟେକ ବିଭାଗ ମହାନ୍ ଦୟାନନ୍ଦ ହିଁ ନିର୍ମାଣ କରିଛନ୍ତି । ପ୍ରକୃତ ପକ୍ଷରେ ଆମେ ଭାଗ୍ୟହୀନ ଥିଲୁ । ଯଦି ଷାଠିଏ ବର୍ଷ ପୂର୍ବେ ଦୟାନନ୍ଦଙ୍କର କାର୍ଯ୍ୟକ୍ରମଗୁଡ଼ିକୁ କାର୍ଯ୍ୟକାରୀ କରାଯାଇଥାନ୍ତା, ତାହା ହେଲେ ଭାରତବର୍ଷ ବହୁ ପୂର୍ବରୁ ସ୍ବତନ୍ତ୍ର ହୋଇ ସାରିଥାନ୍ତା । ମୁଁ ରଷି ଦୟାନନ୍ଦଙ୍କୁ ମୋର ରାଜନୈତିକ ଗୁରୁ ରୂପରେ ମାନୁଅଛି । ମୋ ଦୃଷ୍ଟିରେ ସେ ଥିଲେ ମହାନ୍ ବିପ୍ଳବବାଦୀ ନେତା ଓ ରାଷ୍ଟ୍ରବିଧାୟକ ।” *-ବିଠଲଭାଇ ପଟେଲ* ???? ୨୬- ସ୍ଵାମୀ ଦୟାନନ୍ଦଙ୍କର ରାଷ୍ଟ୍ରପ୍ରେମ, ରାଷ୍ଟ୍ର ପାଇଁ ତାହାଙ୍କ ଅସୀମ କଷ୍ଟସହନ, ତାହାଙ୍କ ଧୈର୍ଯ୍ୟ, ବ୍ରହ୍ମଚର୍ଯ୍ୟ ଜୀବନ ଓ ଅନ୍ୟ ବହୁ ଗୁଣ ହେତୁ ମୁଁ ତାହାଙ୍କୁ ଅତ୍ୟନ୍ତ ସମ୍ମାନ କରେ । ନିଜ ସମାଜରେ ସେହି ସମୟରେ ଯେଉଁ ସବୁ ତୃଟି, କୁରୀତି, ଅଜ୍ଞାନ ଓ ଦୋଷ ରହିଥିଲା, ସ୍ୱାମିଜୀ ସେ ସବୁ ଦୂର କରିବା ପାଇଁ ସମସ୍ତ ଶକ୍ତି ପ୍ରୟୋଗ କରିଥିଲେ। ସେ ଆବିର୍ଭୂତ ହୋଇ ନ ଥିଲେ ହିନ୍ଦୁ ସମାଜର ଅବସ୍ଥା ଯେ କ’ଣ ହୋଇଥାନ୍ତା, ତାହା କଳ୍ପନା କରିବା କଷ୍ଟସାଧ୍ୟ । ଆଜି ଦେଶରେ ଯେଉଁ ସବୁ ଜନମଙ୍ଗଳ କାର୍ଯ୍ୟ ଚାଲୁଛି, ବହୁ ବର୍ଷ ପୂର୍ବେ ସ୍ୱାମିଜୀ ସେ ସବୁର ମାର୍ଗ ପ୍ରଦର୍ଶନ କରିଥିଲେ । ଶତାବ୍ଦୀ ଶତାବ୍ଦୀ ମଧ୍ୟରେ ଏପରି ମହାପୁରୁଷ କଦାଚିତ୍ ମିଳନ୍ତି । ସମାଜରେ ଯେତେବେଳେ ଦୋଷ ବ୍ୟାପିଯାଏ, ସେତେବେଳେ ପରମାତ୍ମା ଏଭଳି ସନ୍ଥଙ୍କୁ ପ୍ରେରଣ କରନ୍ତି । ଏମାନେ କେବେ ମରନ୍ତି ନାହିଁ ଓ ଆମର ଚିର ଆଦର୍ଶ ହୋଇ ରହନ୍ତି । *-ବଲ୍ଲଭଭାଇ ପଟେଲ* ???? ୨୭- ସ୍ଵାମୀ ଦୟାନନ୍ଦ ଆଧୁନିକ ଯୁଗର ଏକ ମହାନ୍ ଶକ୍ତିମାନ ପୁରୁଷ । ତାଙ୍କର ଉପଦେଶାବଳୀ ପ୍ରାଚୀନ ବୈଦିକ ଧର୍ମର ନିଗୁଢ଼ ସାରତତ୍ତ୍ୱର ପ୍ରତିପାଦନ କରେ । ସେ ଜାତିର ପୁନର୍ଜୀବନଦାତା ଏବଂ ସୁଦୂରପ୍ରସାରୀ ପ୍ରଭାବ ଓ ଆଦର୍ଶର ଅଧୁକାରୀ । ଏହି ସମୟରେ ଭାରତବର୍ଷରେ ଆଧାୟିକ ଜ୍ଞାନର ପ୍ରସାର ଏକାନ୍ତ ଆବଶ୍ୟକ ଥିଲା । ସ୍ଵାମୀ ଦୟାନନ୍ଦଙ୍କ ପରି ଦୂରଦ୍ରଷ୍ଟା ଓ ବିଚାରବନ୍ତ ପୁରୁଷ ହିଁ ଭାରତକୁ ମୁକ୍ତିପଥ ପ୍ରଦର୍ଶନ କରିବା ଓ ଉନ୍ନତିର ଶୀର୍ଷସ୍ଥାନରେ ପହୁଞ୍ଚାଇବାରେ ସମର୍ଥ ହୋଇଥିଲେ । *-ସରୋଜିନୀ ନାଇଡୁ* ???? ୨୮- ‘ଆଧୁନିକ ଭାରତର ପୁନରୁତ୍ଥାନ ଦିଗରେ ତିନୋଟି ସଂଗଠନ କାର୍ଯ୍ୟ କରିଥିବାର ଦେଖାଯାଏ । ସେଗୁଡ଼ିକ ହେଉଛି ବଙ୍ଗଳାର ବ୍ରହ୍ମସମାଜ, ବମ୍ବେର ପ୍ରାର୍ଥନା ସମାଜ ଓ ପଞ୍ଜାବର ଆର୍ଯ୍ୟସମାଜ । ନିରପେକ୍ଷ ବିଚାର କଲେ ଅଧୁନା ଆର୍ଯ୍ୟସମାଜ ଯେ ସର୍ବଶ୍ରେଷ୍ଠ ସ୍ଥାନ ଅଧିକାର କରିଛି, ଏଥିରେ କୌଣସି ଅତ୍ୟୁକ୍ତି ନାହିଁ । ଏହି ସମାଜର ଅନୁଗାମୀଙ୍କ ସଂଖ୍ୟା ଯେ ସର୍ବାଧିକ, କେବଳ ତାହା ନୁହେଁ, ଏହା ହିନ୍ଦୁସମାଜର ଦଳିତ ବ୍ୟକ୍ତିମାନଙ୍କ ମଧ୍ୟରେ ପ୍ରସାରିତ ।” *-ଡି.ଆର.ଭଣ୍ଡାରକର୍* ???? ୨୯- ଆଧୁନିକ ଭାରତର ନିର୍ମାତା ତଥା ତାହାର ଆଚାର ଓ ଧର୍ମ ବିଷୟର ପୁନରୁଦ୍ଧାରକ ମହାପୁରୁଷମାନଙ୍କ ମଧ୍ୟରେ ମହର୍ଷି ଦୟାନନ୍ଦ ଥିଲେ ଅନ୍ୟତମ । ହିନ୍ଦୁସମାଜର ଉଦ୍ଧାର ନିମନ୍ତେ ଆର୍ଯ୍ୟସମାଜର ପ୍ରଭୁତ ଅବଦାନ ରହିଛି । ରାମକୃଷ୍ଣମିଶନ ବଙ୍ଗପ୍ରଦେଷରେ ଯାହା କିଛି କରିଛି, ଆର୍ଯ୍ୟସମାଜ ପଞ୍ଜାବ ଓ ଉତ୍ତରପ୍ରଦେଶରେ ତାହା ଅପେକ୍ଷା ବହୁତ ଅଧିକ କାର୍ଯ୍ୟ କରିଛି । ପଞ୍ଜାବର ପ୍ରତ୍ୟେକ ନେତା ଯେ ଆର୍ଯ୍ୟସମାଜୀ ଏଥିରେ କୌଣସି ଅତ୍ୟୁକ୍ତି ନାହିଁ । ସ୍ଵାମିଜୀଙ୍କୁ ମୁଁ ଜଣେ ଧର୍ମନିଷ୍ଟ ଓ ସମାଜସଂସ୍କାରକ ତଥା କର୍ମଯୋଗୀ ମହାପୁରୁଷ ରୂପରେ ଗ୍ରହଣ କରେ । ସଂଗଠନ କାର୍ଯ୍ୟରେ ସାମର୍ଥ୍ୟ ଓ ପ୍ରସାର ଦୃଷ୍ଟିରୁ ଆର୍ଯ୍ୟସମାଜ ଅନୁପମ ସଂସ୍ଥା ।” “ସଙ୍ଗଠନ କାର୍ଯ୍ୟ, ଦୃଢ଼ତା, ଉତ୍ସାହ ଓ ସମନ୍ବୟାତ୍ମକ ଦୃଷ୍ଟିକୋଣରୁ ବିଚାର କରି କହିହୁଏ । ଆର୍ଯ୍ୟସମାଜ ସଙ୍ଗେ ଅନ୍ୟ କୌଣସି ଅନୁଷ୍ଠାନ ସମକକ୍ଷ ହୋଇପାରିବ ନାହିଁ ।”” *-ସୁଭାଷଚନ୍ଦ୍ର ବୋଷ* ???? ୩୦- “ଦୟାନନ୍ଦ ଉତ୍କଟ ଦେଶଭକ୍ତ ଥିଲେ । ମୁଁ ତାହାକୁ ରାଷ୍ଟ୍ରୀୟ ବୀର ରୂପରେ ବନ୍ଦନା କରୁଅଛି ।” *-ଟି.ଏଲ୍.ଭାସ୍ୱାନୀ* ???? ୩୧- “ଭାରତରେ ଇଂରେଜ ରାଜତ୍ଵ ଓ ପାଶ୍ଚାତ୍ୟ ଶିକ୍ଷା ପ୍ରଚଳିତ ହୋଇଥିବାରୁ । ଦେଶବାସୀଙ୍କର ଜୀବନ ଓ ଦୃଷ୍ଟିକୋଣ ରାଷ୍ଟ୍ରୀୟତାହୀନ ହେବାର ଆଶଙ୍କା ହୋଇଥିଲା । ଭୟ ହେଉଥି ଲା ଯେ ରକ୍ଷଣଶୀଳ ବିଚାରପଦ୍ଧତି ପ୍ରତି ଲୋକଙ୍କର ଅନ୍ଧବିଶ୍ବାସ ରାଷ୍ଟ୍ରୀୟ ଜୀବନ ଓ ଚରିତ୍ରର ଉନ୍ନତି ପଥରେ ପ୍ରତିବନ୍ଧକ ହେବ । ଜାତୀୟ ଜୀବନର ଏହି ସଂକଟମୟ ମୁହୁର୍ତ୍ତରେ ଆତ୍ମରକ୍ଷାମାର୍ଗର ପ୍ରଦର୍ଶକ ମହାପୁରୁଷଙ୍କ ମଧ୍ୟରେ ମହର୍ଷି ଦୟାନନ୍ଦ ଶୀର୍ଷସ୍ଥାନ ଅଧୁକାର କରିଲେ । ଅତ୍ୟନ୍ତ ଆନନ୍ଦର କଥା ଯେ, ମହର୍ଷିଙ୍କ ଉତ୍ତରାଧିକାରୀ ‘ଆର୍ଯ୍ୟସମାଜ' ଧର୍ମ କ୍ଷେତ୍ରରେ ନିଜର ଦ୍ଵାର ସର୍ବଦା ଉନ୍ମୁକ୍ତ ରଖୁଅଛି । *-ଶ୍ୟାମାପ୍ରସାଦ ମୁଖାର୍ଜୀ* ???? ୩୨- “ଦୟାନନ୍ଦ ହିନ୍ଦୁଙ୍କ ମନରେ ଏକେଶ୍ବର ନିରାକାର ପରମେଶ୍ୱରଙ୍କ ଉପାସନା ଓ ଅପୌରୁଷେୟ ବେଦପ୍ରତି ଶ୍ରଦ୍ଧା ସୃଷ୍ଟି କରିଥିଲେ । ବିଗତ ସହସ୍ର ସହସ୍ର ବର୍ଷ ମଧ୍ୟରେ ହିନ୍ଦୁଧର୍ମରେ ଯେଉଁ ମଳିନତା ଓ କଳଙ୍କ ପ୍ରବେଶ କରିଥିଲା, ତାହା ନିର୍ମଳ କରିବା ପାଇ ସେ ପ୍ରଗାଢ଼ ଉଦ୍ୟମ କରିଥିଲେ । “ଆଜି ଆର୍ଯ୍ୟସମାଜୀମାନେ ହିଁ ବେଦର ଏକନିଷ୍ଠ ଉପାସକ ଓ ପ୍ରଚାରକ "। ମୁସଲମାନମାନେ ସେମାନଙ୍କୁ କୋରାନ୍ ପ୍ରତି ଯେଉଁ ରୁପେ ଶ୍ରଦ୍ଧା ଓ ଭକ୍ତି ପୋଷଣ କରନ୍ତି, ଆର୍ଯ୍ୟସମାଜୀମାନେ ବେଦପ୍ରତି ସେହି ପରି ସର୍ବୋଚ୍ଚ ସମ୍ମାନ ପ୍ରଦର୍ଶନ କରନ୍ତି ।' *-ସି.ଭି. ବୈଦ୍ୟ* ???? ୩୩- ‘ଅନ୍ୟ ଆର୍ଯ୍ୟସମାଜୀଙ୍କ ସହିତ ମୁଁ ମଧ୍ୟ ତାଙ୍କର ପାର୍ଥିବ ଦେହକୁ କାନ୍ଧରେ ବହନ କରି ଶ୍ମଶାନ ପର୍ଯ୍ୟନ୍ତ ଯାଇଥିଲି । ସେହି ଓଜନଦାର ଦେହକୁ ଆମେ ଷୋହଳ ଜଣ ବ୍ୟକ୍ତି ବହନ କରି ଯାଉଥିଲୁ । ଆଜମୀରର ଗୋଟିଏ ଜନସଭାରେ ତାଙ୍କର ଗୋଟିଏ ଭାଷଣ । ମୋର ମନେ ପଡ଼ିଲା । ସେତେବେଳେ ସେ ବାଲ୍ୟବିବାହ ଓ ବୀର୍ଯ୍ୟନାଶର ଭୟଙ୍କର ପରିଣତି ବିଷୟ କହିଥିଲେ । ସେ କହିଥିଲେ ଯେ ବାଲ୍ୟବିବାହ କରିଥିବା ଓ ବ୍ରହ୍ମଚର୍ଯ୍ୟ ପାଳନ କରୁ ନ ଥିବା ବ୍ୟକ୍ତିର ଦେହ ଅତ୍ୟନ୍ତ ଦୁର୍ବଳ ହୋଇପଡ଼େ । ନିଜର ଅଖଣ୍ଡ ବ୍ରହ୍ମଚର୍ଯ୍ୟ ପାଳନ ବିଷୟ ଘୋଷଣା କରି ସେ କହିଥିଲେ ଯେ ମୃତ୍ୟୁ ପରେ ତାଙ୍କର ପାର୍ଥିବ ଦେହକୁ ବହନ କରିବା ପାଇଁ ଅନ୍ୟୁନ ଷୋହଳ ଜଣ ଲୋକ ଆବଶ୍ୟକ ହେବେ । *-ହରବିଳାସ ଶାରଦା* ???? ୩୪- ଅନ୍ୟ ରାଜ୍ୟ ତୁଳନାରେ ପଞ୍ଜାବରେ ରକ୍ଷଣଶୀଳତା, ଛୁଆଁ-ଅଛୁଆଁ ଭେଦଭାବ, ଜାତିଆଣ ବିଚାର, ପର୍ଦା ପ୍ରଥା, ନାରୀ ପରାଧୀନତା ଓ କୁସଂସ୍କାରପୂର୍ଣ୍ଣ ସମାଜ ନୀତି ଅପେକ୍ଷାକୃତ କମ୍ । ପଞ୍ଜାବୀ ନାରୀମାନଙ୍କର ସାହସ ଓ ସାମର୍ଥ୍ୟି ଅତୁଳନୀୟ । ଏ ସବୁ ମୂଳରେ ଆଚାର୍ଯ୍ୟ ଦୟାନନ୍ଦଙ୍କ ଶିକ୍ଷାର ପ୍ରଭାବ ପ୍ରତୀୟମାନ । *-ରାମେଶ୍ଵରୀ ନେହରୁ* ???? ୩୫- ଯେତେବେଳେ ଭାରତୀୟ ଅଭୁତ୍ଥାନର ଇତିହାସ ଲିପିବଦ୍ଧ ହେବ, ସେତେବେଳେ ଏହି ‘ଭଲଗ୍ନ ଫକୀର’ ଦୟାନନ୍ଦ ସରସ୍ବତୀଙ୍କର ନାମ ଶୀର୍ଷ ସ୍ଥାନ ଅଧିକାର କରିବ ।” ନିଷିୟ ଶ୍ରଦ୍ଧା ମରଣ ସ୍ଵରୂପ ଅଟେ । ପ୍ରତ୍ୟେକ ଧର୍ମ ଏହି କଷୋଟିରେ ପରୀକ୍ଷିତ ହୁଏ । ଦୟାନନ୍ଦଙ୍କ ପ୍ରବର୍ତିତ ସଂଗଠନ ଏହି ପରୀକ୍ଷାରେ ସଗୌରବେ ଉତ୍ତିର୍ଣ୍ଣ ହୋଇଛି ।” -ଯଦୁନାଥ ସରକାର “ଦୟାନନ୍ଦ ଉପଲବ୍ଧି କରିଥିଲେ ଯେ ଦେଶବାସୀଙ୍କ ଚରିତ୍ର ଦୋଷରୁ ରାଜନୈତିକ ଦୁର୍ଗତି ମିଳେ । ସେ ଯଥାର୍ଥ ବୁଝିଥିଲେ ଯେ ଭାରତୀୟମାନେ ଦୃଢ଼ ଦୈହିକ ବଳ, ପବିତ୍ର ଧାର୍ମିକତା ଓ ସରଳ ସାମାଜିକ ପ୍ରଥା ଅନୁସରଣ କଲେ ରାଜନୈତିକ ମୁକ୍ତି ଆପେ ଆପେ ଦ୍ବାରସ୍ଥ ହେବ । ତାଙ୍କର ମତ ଥିଲା ଯେ ବଳବାନ, ସାଧୁ, ସତ୍ୟପରାୟଣ, ଚରିତ୍ରବାନ୍ ଲୋକେ ଦୀର୍ଘକାଳ ରାଜନୈତିକ ଦାସ ହୋଇ ରହିବା ସମ୍ଭବ ନୁହେ ।” *-ଦୁର୍ଗାଦାସ* ???? ୩୬- ‘ଭାରତୀୟମାନଙ୍କୁ ଏକ ମହାଜାତି ରେ ପରିଣତ କରିବାକୁ । ସେମାନଙ୍କୁ ବିଦେଶୀ ଶାସନରୁ ମୁକ୍ତ କରିବା ଯେ ସର୍ବାଦୌ ଆବଶ୍ୟକ, ଦୟାନନ୍ଦ ହୃଦୟଙ୍ଗମ କରିଥିଲେ । ଭାରତୀୟମାନଙ୍କୁ ଏକ ସାମାଜିକ-ବନ୍ଧନରେ ଆବଦ୍ଧ କରିବା ନିମନ୍ତେ ସେମାନଙ୍କ ମଧ୍ୟରେ ଥିବା ଜନ୍ମ ଗତ ଜାତିଭେଦ, ସର୍ବାଦୌ ଦୂର କରିବା ଆବଶ୍ୟକ ବୋଲି ସେ ଚାହୁଁଥିଲେ । ଭାରତକୁ ଏକଧର୍ମାନୁଗାମୀ କରିବା ପାଇଁ ଦେଶରେ ପ୍ରଚଳିତ ସମସ୍ତ ସଂପ୍ରଦାୟ ବଦଳରେ ଏକ ସନାତନ ବୈଦିକ ଧର୍ମର ପ୍ରବର୍ତ୍ତନ କରିବା ତାଙ୍କର ଅଭିଳାଷ ଥୁଲା ।” *-ରାମାନନ୍ଦ ଚଟର୍ଜୀ* ???? ୩୭- “ପଚାଶ ବର୍ଷ ପୂର୍ବେ ଯେତେବେଳେ ଦୟାନନ୍ଦ ସମାଜ ସଂସ୍କାର ପାଇଁ ସ୍ୱର ଉତ୍ତୋଳନ କରିଥିଲେ, ସେ ନିଜ ଦେଶବାସୀଙ୍କୁ ବାଲ୍ୟବିବାହର ବିଷମ ପରିଣତି, ସ୍ତ୍ରୀ ଶିକ୍ଷାର ଆବଶ୍ୟକତା, ଅସ୍ପୃଶ୍ୟତା-ନିବାରଣ, ଦଳିତୋଦ୍ଧାର, ମୁର୍ତ୍ତିପୂଜା ଓ ଜାତିପ୍ରଥାର ଦୋଷ ବିଷୟରେ ସଜାଗ କରିଥିଲେ । ସଂକୀର୍ଣ୍ଣ ରୀତିନୀତି ପରିହାର କରିବା ପାଇଁ ଓ ଯଥାର୍ଥ ବର୍ଣାଶ୍ରମ ବ୍ୟବସ୍ଥା ପାଳନ କରିବା ନିମନ୍ତେ ସେ ହିନ୍ଦୁମାନଙ୍କୁ ଆହ୍ବାନ ଦେଇଥିଲେ । *-ମହାତ୍ମା ହଂସରାଜ* ???? ୩୮- ମେସମୁଲେର ୧୮୭୩ ମସିହାରେ ବେଦକୁ ‘ଗାଉଁଲୀ ଗୀତ' ବୋଲି ଅଭିହିତ କରୁଥିଲେ । ମାତ୍ର ୧୮୭୮ରେ ଦୟାନନ୍ଦଙ୍କ ‘ଋଗବେଦାଦିଭାଷ୍ୟଭୂମିକା’ ଗ୍ରନ୍ଥ ଅଧ୍ୟୟନ କରି ବେଦ ସମ୍ବନ୍ଧରେ ତାଙ୍କର ମତ ପରିବର୍ଭନ କରି କହିଲେ -'ଯଦି କେହି ନିଜ ପ୍ରତି, ନିଜ ପୂର୍ବ ପୁରୁଷମାନଙ୍କ ପ୍ରତି, ନିଜ ଇତିହାସ ଅଥବା ବୌଦ୍ଧିକ ବିକାଶ ପ୍ରତି ଅବିହିତ ହେବାରେ ଲାଳାୟିତ, ତେବେ ବୈଦିକ ଶାସ୍ତ୍ରମାନଙ୍କର ଅଧ୍ୟୟନ ତା' ପାଇଁ ଅନିବାର୍ଯ୍ୟ । *-ଜୈମିନି* ???? ୩୯- “ମହର୍ଷି ଦୟାନନ୍ଦଙ୍କ କାର୍ଯ୍ୟାବଳୀ ଆମ ସମାଜକୁ ଅନୁପ୍ରାଣିତ କରିଛି ଓ କରୁଅଛି । ସେ ଯେ କେବଳ ଆଧୁନିକ ଭାରତର ନିର୍ମାତା, ତାହା ନୁହେ – ସେ ବିଶ୍ଵଭାବନାରେ ଏକ ନୂତନଯୁଗ ସୂତ୍ରପାତ କରିଛନ୍ତି । *-ଆଚାର୍ଯ୍ୟ ରାମଦେବ* (ପ୍ରାଧ୍ୟାପକ, କାଙ୍ଗଡି ବିଶ୍ୱବିଦ୍ୟାଳୟ) ???? ୪୦- "ସ୍ୱାମୀ ଦୟାନନ୍ଦଙ୍କର ଉପଦେଶ ଉଚ୍ଚକୋଟୀର । ତାହା ହିନ୍ଦୁଧର୍ମରେ ଶାଶ୍ବତ ସ୍ଥାନ ଅଧିକାର କରିଛି । ସେହି ଶିକ୍ଷାଗୁଡିକୁ ପାଳନ କଲେ ହିନ୍ଦୁତ୍ ପରିପକ୍ୱ ହେବ । ସ୍ୱାମିଜୀଙ୍କୁ ହିନ୍ଦୁତ୍ବର ଉଦ୍ଧାରକ କୁହାଯାଇପାରେ । *-ଚକ୍ରବର୍ତ୍ତୀ ରାଜଗୋପାଳାଚାରୀ* ???? ୪୧- ଆର୍ଯ୍ୟସମାଜ ଦେଶରେ ଶିକ୍ଷାବିସ୍ତାର ପାଇଁ ତ୍ୟାଗ, ସେବା ଓ ମହତ୍ ଉଦ୍ଦେଶ୍ୟଜନିତ ଉତ୍ସର୍ଗିତ ଭାବନା ପ୍ରବର୍ତ୍ତନ କରିଛି । ଯୁଗ ଯୁଗ ଧରି ହିନ୍ଦୁସମାଜରେ ଏହି ଭାବନା ସୁପ୍ତ ହୋଇ ରହିଥିଲା । ‘‘ କିଛି ବର୍ଷ ପୂର୍ବେ ଆଧୁନିକ ଶିକ୍ଷାପ୍ରାପ୍ତ ଭାରତୀୟଗଣ ସଂସ୍କୃତ ସାହିତ୍ୟ ଓ ହିନ୍ଦୁଦର୍ଶନକୁ ଅସଭ୍ୟତାର ନିଦର୍ଶନ ବୋଲି ଘୃଣା ଚକ୍ଷୁରେ ଦେଖୁଥିଲେ । ପରନ୍ତୁ ଆଜିକାଲି ସେ ସବୁ ପ୍ରତି ଯେଉଁ ସମ୍ମାନ ଓ ଅନୁସନ୍ଧିତ୍ସା ଜାଗ୍ରତ ହୋଇଛି, ତାହା ମୁଖ୍ୟତଃ ଆର୍ଯ୍ୟସମାଜ ଯୋଗୁଁ ସମ୍ଭବ । *-ଅମରନାଥ ଝା* ???? ୪୨- ‘‘ଲାଲା ଲଜପତ ରାୟ ଓ ସ୍ବାମୀ ଶ୍ରଦ୍ଧାନନ୍ଦଙ୍କ ପରି ମହାନ ବ୍ୟକ୍ତିଙ୍କ ସମ୍ପର୍କରେ ଆସି ମୁଁ ସେମାନଙ୍କର ବରେଣ୍ୟ ଆଚାର୍ଯ୍ୟ ଦୟାନନ୍ଦଙ୍କ ବ୍ୟକ୍ତିତ୍ଵ ଓ ସିଦ୍ଧାନ୍ତ ସମ୍ବନ୍ଧରେ ଅବଗତ ହେଉଛି ।” "ଅପୌରୁଷେୟ ବେଦ ପ୍ରତି ହିନ୍ଦୁଙ୍କ ମଧ୍ୟରେ ଅସୀମ ଶ୍ରଦ୍ଧା ଜାତ କରାଇ ଦୟାନନ୍ଦ ଚିରନମସ୍ୟ ହୋଇଛନ୍ତି । ଅହିଂସା ବୈଦିକ ଧର୍ମର ମୁଖ୍ୟ ଅଙ୍ଗ । ଜୀବନର ଶେଷ ମୂହୁର୍ତ୍ତରେ ନିଜର ବିଷଦାତା ଆତତାୟୀକୁ ମଧ୍ୟ କ୍ଷମାପ୍ରଦାନ କରି ସେ ପ୍ରତିପାଦନ କରିଗଲେ ଯେ ପଥଭ୍ରାନ୍ତ ମନୁଷ୍ୟକୁ ସନ୍ମାର୍ଗ ପ୍ରଦର୍ଶନ ପାଇଁ ସେ ଅବତୀର୍ଣ୍ଣ ହୋଇଥିଲେ । *-ସି. ବିଜୟରାଘବାଚାରୀ* ???? ୪୩- “ମହର୍ଷ ବର୍ତ୍ତମାନ ଅନ୍ଧକାର-ଯୁଗ ନିମନ୍ତେ ‘ବୈଦିକସୂର୍ଯ୍ୟ’ ଥିଲେ । ତାଙ୍କର ଅନୁଗାମୀ ଭାବରେ ମୁଁ ଗର୍ବ-ଅନୁଭବ କରୁଛି । *-ଭାଇ ପରମାନନ୍ଦ* ???? ୪୪- “ସ୍ଵାମୀ ଦୟାନନ୍ଦ କେବଳ ମହାନ୍ ବିଦ୍ୱାନ ଓ ପ୍ରଖର କ୍ରାନ୍ତିକାରୀ ପୁରୁଷ ନ ଥିଲେ, ତାଙ୍କର ହୃଦୟରେ ସାମାଜିକ ଅନ୍ୟାୟଗୁଡ଼ିକୁ ଧ୍ବଂସ କରିବା ପାଇଁ ପ୍ରଚଣ୍ଡ ଅଗ୍ନି ବିଦ୍ୟାମାନ ଥିଲା। ଆମ ସମସ୍ତଙ୍କ ପାଇଁ ତାଙ୍କ ପ୍ରଦତ୍ତ ଶିକ୍ଷା ଅତ୍ୟନ୍ତ ମହତ୍ତ୍ଵପୂର୍ଣ୍ଣ । ସେ ଆମ୍ଭମାନଙ୍କୁ ମହାନ୍ ସନ୍ଦେଶ ଦେଇଥିଲେ ଯେ ସତ୍ୟର କଷଟିରେ ପରୀକ୍ଷା କରି ଯେକୌଣସି ବିଷୟ ଗ୍ରହଣ କରିବା ଉଚିତ ।” *-ସର୍ବପଲ୍ଲୀ ରାଧାକୃଷ୍ଣନ୍* ???? ୪୫- ମହର୍ଷି ଦୟାନନ୍ଦ ସ୍ୱାଧୀନତା ସଂଗ୍ରାମର ସର୍ବପ୍ରଥମ ଯୋଦ୍ଧା ଓ ହିନ୍ଦୁଜାତିର ରକ୍ଷକ । ତାହାଙ୍କ ପ୍ରତିଷ୍ଠିତ ‘ଆର୍ଯ୍ୟସମାଜ' ରାଷ୍ଟ୍ରର ମହାନ୍ ସେବା କରିଛି ଓ କରୁଅଛି । ସ୍ୱାଧୀନତା ସଂଗ୍ରାମରେ ଆର୍ଯ୍ୟସମାଜୀମାନେ ବିଶିଷ୍ଟ ଅଂଶ ଗ୍ରହଣ କରିଥିଲେ । ମହର୍ଷିଙ୍କ ସଂକଳିତ ଅମର ଗ୍ରନ୍ଥ ‘ସତ୍ୟାର୍ଥ ପ୍ରକାଶ' ହିନ୍ଦୁଜାତିର ଧମନୀରେ ଉଷ୍ମରକ୍ତ ସଞ୍ଚାର କରେ । *- ବିନାୟକ ଦାମୋଦର ସଭରକର* ???? ୪୬- "ସ୍ଵାମୀ ଦୟାନନ୍ଦ ସରସ୍ବତୀ ମୋର ମାର୍ଗଦର୍ଶକ ଗୁରୁ । ତାହାଙ୍କ ଚରଣ ତଳେ ବସି ମୁଁ ଶିକ୍ଷା ଲାଭ କରିଛି । ବିଦେଶରେ ବୈଦିକ ସଂସ୍କୃତିର ପ୍ରଚାର ପାଇଁ ସେ ମୋତେ ପ୍ରେରଣା ଦାନ କରିଥିଲେ । “ମୁଁ ରାଷ୍ଟ୍ର, ଜାତି ଓ ସମାଜର ଯାହା କିଛି ସେବା କରିଛି, ତାହା ମହର୍ଷିଙ୍କ କୃପା । ସେହି ସର୍ବହିତୈଷୀ, ବେଦଜ୍ଞ ଓ ତେଜସ୍ୱୀ ଯୁଗଦ୍ରଷ୍ଟାଙ୍କ ଉପଦେଶଦ୍ବାରା ମୋର ବ୍ୟକ୍ତିତ୍ଵ ନିର୍ମିତ ହୋଇଛି । ସେହି ମହାନ୍ ସ୍ୱାଧୀନ ବିଚାରକଙ୍କର ଶିଷ୍ୟ ବୋଲି ମୁଁ ଅଭିମାନ କରେ ।'' *-ଶ୍ୟାମଜୀ କୃଷ୍ଣ ବର୍ମା* ???? ୪୭- “ଆଚାର୍ଯ୍ୟ ଯାସ୍କଙ୍କ ମତ ହେଉଛି – ସତ୍ଯର ସାକ୍ଷାତ୍କାର କରୁଥିବା ବ୍ୟକ୍ତି ‘ଋଷି’ । ଆର୍ଯ୍ୟସମାଜର ପ୍ରବର୍ତ୍ତକ ସ୍ବାମୀ ଦୟାନନ୍ଦ ସେହି ଅର୍ଥରେ ଋଷି ଥିଲେ । *-ପଣ୍ଡିତ ଚମୂପତି* ???? ୪୮- “ସ୍ଵାମୀ ଦୟାନନ୍ଦ ସରସ୍ୱତୀ ଆଧୁନିକ ଭାରତର ସର୍ବପ୍ରଥମ ନିର୍ମାତା ଥିଲେ । ତାଙ୍କର ବିଦ୍ୟା ଥିଲା ଅଗାଧ, ଚରିତ୍ର ଥିଲା ମହାନ୍ । ସାଧାରଣ ରାଷ୍ଟ୍ରନିର୍ମାତାଙ୍କ ଦୃଷ୍ଟି ଅପେକ୍ଷା ତାଙ୍କର ଦୃଷ୍ଟି ବହୁଗୁଣରେ ସ୍ଵଚ୍ଛ ଓ ବିଶାଳ ଥିଲା । ଆଜିର ସଂସ୍କାରପ୍ରିୟ ହିନ୍ଦୁଧର୍ମରେ, ହିନ୍ଦୁ ମହାସଭାର ମନୋବୃତ୍ତିର ଓ ମହାତ୍ମା ଗାନ୍ଧିଙ୍କ କାର୍ଯ୍ୟପ୍ରଣାଳୀରେ ଆମେ ସ୍ୱାମିଜୀଙ୍କ ସ୍ଵଚ୍ଛ ଦୃଷ୍ଟି ଓ ରାଷ୍ଟ୍ରନୀତିର ପ୍ରଭାବ ଅନୁଭବ କରୁ । ଭାରତର ଭାବୀ ବଂଶଧରଙ୍କୁ ତାଙ୍କର ସ୍ମୃତି ନିଃସନ୍ଦହ ଉଦ୍ବୁଦ୍ଧ କରିବ । *-କହ୍ନାଇଲାଲ ମାଣିକଲାଲ ମୁନସି* ???? ୪୯- “ସ୍ଵାମୀ ଦୟାନନ୍ଦ ଭାରତବର୍ଷର ବିଖ୍ୟାତ ପୁରୁଷଙ୍କ ମଧ୍ୟରେ ଏକ ଉତ୍କଳ ନକ୍ଷତ୍ର ଥିଲେ । *-ଏମ୍.ରଙ୍ଗାଚାରୀ* ???? ୫୦- ମହର୍ଷି ଦୟାନନ୍ଦଙ୍କ ଉପଦେଶାବଳୀ କୋଟି କୋଟି ଜନକୁ ନବଜୀବନ, ନବଚେତନା ଓ ନବଦୃଷ୍ଟିକୋଣ ପ୍ରଦାନ କରିଛି । ତାହାକୁ ଶ୍ରଦ୍ଧାଞ୍ଜଳି ଅର୍ପଣ କରିବାବେଳେ ଆମମାନଙ୍କୁ ବ୍ରତ ନେବା ଉଚିତ ଯେ ତାଙ୍କର ପ୍ରଦର୍ଶିତ ମାର୍ଗ ଅନୁସରଣ କରିବା ଦ୍ଵାରା ହିଁ ଆମେ ସୁଖଶାନ୍ତି ଓ ସମୃଦ୍ଧି ଲାଭ କରିପାରିବା ।'' *- ଡ଼. ରାଜେନ୍ଦ୍ର ପ୍ରସାଦ* ???? ୫୧- ଗାନ୍ଧିଜୀଙ୍କ ପୂର୍ବ ରୁ ମହର୍ଷି ଦୟାନନ୍ଦ ରାଷ୍ଟ୍ର ହିତ ପାଇଁ ବହୁ କ।ର୍ଯ୍ୟ କରିଯାଇଥିଲେ । ସେ ଭାରତୀୟମାନଙ୍କୁ ସ୍ଵରାଜ୍ୟରେ ମାର୍ଗ ପ୍ରଦର୍ଶନ କରିଥିଲେ । ଋଷି ଏକ ପୂର୍ଣପୁରୁଷ ଥିଲେ । ସେ ଥିଲେ ଭାରତର ଯୁଗନିର୍ମାତା । *-ପଟ୍ଟାଭି ସୀତାରାମେୟା* ???? ୫୨- ମହର୍ଷି ଦୟାନନ୍ଦ ଥିଲେ ଜଣେ ମହାନ ରାଷ୍ଟ୍ରନାୟକ ଓ କ୍ରାନ୍ତିକାରୀ ମହାପୁରୁଷ । ଜୀବନର ପ୍ରତ୍ୟେକ କ୍ଷେତ୍ରରେ ବ୍ୟବହାରିକ ରୂପରେ ତାଙ୍କର ଅବଦାନ ରହିଛି । ତାହାଙ୍କୁ ଅତ୍ୟନ୍ତ ଶ୍ରଦ୍ଧାପୂର୍ବକ ସ୍ମରଣ କରିବା ଉଚିତ । ସେ ଦେଶ ପାଇଁ ଧାର୍ମିକ, ସାମାଜିକ ଓ ରାଜନୈତିକ କ୍ଷେତ୍ରରେ ଅଭୂତପୂର୍ବ କାର୍ଯ୍ୟ କରିଛନ୍ତି । ସେ ଯେଉଁ କାର୍ଯ୍ୟ ଆରମ୍ଭ କରୁଥିଲେ, ତାହାକୁ ସମ୍ପୂର୍ଣ୍ଣ ନ କରି ଛାଡ଼ୁ ନ ଥିଲେ । ସେ ହିନ୍ଦୁଧର୍ମର ଅଶେଷ କଲ୍ୟାଣ ସାଧନ କରିଥିଲେ । ସେ ଥିଲେ ଲୁହାର ମାନବ । ତାଙ୍କ ପରି କ୍ରାନ୍ତିକାରୀ ନେତା ଅତ୍ୟନ୍ତ ଦୁର୍ଲଭ । ଯେତେବେଳେ ସାମାଜିକ କୁରୀତିକୁ ସମାଲୋଚନା କରିବା ଅସମ୍ଭବ ମନେ ହେଉଥିଲା, ସେତେବେଳେ ସେ ଏ ଦେଶର ନେତୃତ୍ବ ନେଇଥିଲେ । ସେ ହିନ୍ଦୀକୁ ରାଷ୍ଟ୍ରଭାଷା କରିବା ପାଇଁ ସର୍ବପ୍ରଥମେ ଆହ୍ବାନ ଦେଇଥିଲେ । ଛୁଆଁଅଛୁଆଁ ଓ ଜାତି ପ୍ରଥା ବିରୁଦ୍ଧରେ ଆନ୍ଦୋଳନ ଆରମ୍ଭ କରିଥିଲେ । ସେ ସ୍ଵରାଜ୍ୟ ଓ ସ୍ଵଦେଶର ବିଚାରଧାରା ଏଭଳି ପ୍ରସାରିତ କଲେ ଯେ ତାହାର ପୃଷ୍ଠଭୂମିରେ ହିଁ ଭାରତୀୟ ଜାତୀୟ କଂଗ୍ରେସର ଭିତ୍ତି ସ୍ଥାପିତ ହେଲା ।'' *-ଲାଲବାହାଦୂର ଶାସ୍ତ୍ରୀ* ???? ୫୩- ଗାନ୍ଧିଜୀ ରାଷ୍ଟ୍ରପିତା ହେଲେ, ମହର୍ଷି ଦୟାନନ୍ଦ ହେଉଛନ୍ତି ରାଷ୍ଟ୍ରର ପିତାମହ । ମହର୍ଷି ଥିଲେ ଆମ ରାଷ୍ଟ୍ରୀୟ ପ୍ରବୃତ୍ତି ଓ ସ୍ୱାଧୀନତା ଆନ୍ଦୋଳନର ଆଦ୍ୟ ପ୍ରଦର୍ଶକ । ଗାନ୍ଧିଜୀ ତାହାଙ୍କ ପଦାଙ୍କାନୁସରଣ କରିଥିଲେ ।’ “ମହର୍ଷି ଦୟାନନ୍ଦଙ୍କ ଦିଗ୍ଦର୍ଶନ ବିନା ଇଂରେଜ ଶାସନ ଅମଳରେ ସମଗ୍ର ପଞ୍ଜାବ ମୁସଲମାନ ଧର୍ମରେ ଓ ବଙ୍ଗଳା ଖ୍ରୀଷ୍ଟଧର୍ମରେ ଦୀକ୍ଷିତ ହୋଇଥାନ୍ତି । ମହର୍ଷି ସମଗ୍ର ବିଶ୍ୱକୁ ଆର୍ଯ୍ୟ କରିବା ପାଇଁ ପ୍ରେରଣା ଦାନ କରିଥିଲେ । ସେ ସିଦ୍ଧ କରିଥିଲେ ଯେ ବିଶ୍ୱର ସମସ୍ତ ସଂସ୍କୃତି ମଧ୍ୟରେ ହିନ୍ଦୁ ସଂସ୍କୃତି ହେଉଛି ସର୍ବୋକୃଷ୍ଟ । ସେ ଥିଲେ ଏ ଦେଶର ଆଦର୍ଶ ପ୍ରତୀକ ଓ ଦିବ୍ୟ ମହାପୁରୁଷ । ସେ ଖ୍ରୀଷ୍ଟିଆନ ଓ ମୁସଲମାନ ମତର କବଳରୁ ଦେଶକୁ ରକ୍ଷା କରିଥିଲେ । ଆର୍ଯ୍ୟସମାଜ ଦେଶର ସଂହତିରକ୍ଷା ପାଇଁ ପ୍ରଶଂସନୀୟ କାର୍ଯ୍ୟ କରି ଆସୁଛି । *-ଅନନ୍ତଶୟନମ୍ ଆୟଙ୍ଗାର* ???? ୫୪- “ମହର୍ଷିଙ୍କର ସନ୍ତାନ ବୋଲି ଆମେ ଗର୍ବ ଅନୁଭବ କରୁ । ସେ ଆମଠାରୁ କିଛି ନ ନେଇ ଆମ୍ଭମାନଙ୍କୁ ଅନନ୍ତ ଜ୍ଞାନର ଭଣ୍ଡାର ସଦୃଶ ବେଦ ସହିତ ପରିଚିତ କରାଇଲେ । *- ସୂର୍ଯ୍ୟକାନ୍ତ ‘ନିରାଲା’* ???? ୫୫- ଯଦି ଆର୍ଯ୍ୟସମାଜ ହୋଇନଥାନ୍ତା ତେବେ ଭାରତର କିଭଳି ଦୁର୍ଦଶା ହୋଇଥାନ୍ତା ତାହାର କଳ୍ପନା କରିବା ମଧ୍ୟ ଭୟାବହ। ଆର୍ଯ୍ୟସମାଜର ଯେଉଁ ସମୟରେ କାର୍ଯ୍ୟ ଆରମ୍ଭ ହୋଇଥିଲା କଂଗ୍ରେସର କୌଣସି ଠିକଣା ମଧ୍ୟ ନଥିଲା।ସ୍ୱରାଜ୍ୟ ର ପ୍ରଥମ ଉଦ୍ଘୋସ ମହର୍ଷି ଦୟାନନ୍ଦ ହିଁ କରିଥିଲେ। ଏହା ଆର୍ଯ୍ୟସମାଜ ହିଁ ଥିଲା ଯିଏ ଭାରତୀୟ ସମାଜର କକ୍ଷଚ୍ୟୁତ ଯାନକୁ ପୁଣି ଉତ୍ତମ ଦିଗଦର୍ଶନ କରିବାର କାର୍ଯ୍ୟ କରିଥିଲା।ଯଦି ଆର୍ଯ୍ୟସମାଜ ନହୋଇଥାନ୍ତା ତେବେ ଭାରତ ଭାରତ ହୋଇ ରହିନଥାନ୍ତା। *-ଅଟଳ ବିହାରୀ ବାଜପେୟୀ* .....କ୍ରମଶଃ ସହାୟକ ପୁସ୍ତକ: ମହର୍ଷି ଦୟାନନ୍ଦ ସରସ୍ୱତୀ ଲେଖକ: ଇଂ. ପ୍ରିୟବ୍ରତ ଦାସ *ପ୍ରସ୍ତୁତି: ✍️ମହିମା ସାଗର ସାହୁ*
Arya Pratinidhi Sabha
26-07-2021
ओ३म् Arya Pratinidhi Sabha of Queensland Inc members held their Hawan Yajna Satsang program at Queensland Vedic Cultural Centre Sunday 25.07.2021.Yajmaan Mr.Bhupendra Sharma Ji Mrs. Noleen Sharma Ji & Family Compliments and nice feedback received from the participants who really enjoyed the enriching Havan Satsang program.Yajmaan family had made superb arrangements for delicious, flavoursome refreshments/mishtaan for all present. After the Havan Satsang there was special sangeet -musical program by the competent experienced musicians -Mr.Ramesh Kumar Singh Mrs.Satya B.Singh of Cherrybrook Sydney NSW and all the guests really enjoyed,loved and relished the proficiently produced melodious program. Mr.Jitendra Kumar Ji Mr.Raj Gohil Ji and Mr.Bhupendra Sharma Ji also very ably and skillfully assisted the artists. Members showed their enthusiasm and eagerness to extend the entertaining program. We express our deep gratitude, appreciation to everyone who contributed in any way and participated in the Samaj Satsang program. धन्यवाद नमस्ते जी ओ३म् ओ३म् ओ३म्
TODAY IS GURU PURNIMA
24-07-2021
As we always do when it’s a special day on the Vedic-Hindu Calendar, we seek today to shed some light on the meaning, importance and value of this day that is called Guru Purnima Day. Basically, it’s a day set aside to focus on one’s spiritual teacher. A teacher in a school setting, called an educator, is a person who helps students to acquire knowledge, competence or virtue. A teacher's role may vary among cultures, but basically, a teacher provides instruction in literacy and numeracy, craftsmanship or vocational training, the arts, religion, civics, community roles, or life skills. A teacher's professional duties may extend beyond formal teaching. Outside of the classroom he may accompany students on field trips, supervise study halls, help with the organization of school functions, and serve as supervisors for extracurricular activities. In some education systems, teachers may be responsible for student discipline. A teacher in a spiritual setting is practically the same as a teacher in a school setting. The principal difference is that a spiritual teacher helps his student to understand the mechanics of one day discovering spiritual freedom, called Mukti, something that the school teacher does not focus on. There are two principal words in Sanskrit that refer to ‘teacher’, and they are ‘Guru’ and ‘Acharya’. Sanskrit etymologists define ‘Guru’ as ‘a venerable teacher held in the highest esteem’, and ‘Acharya’ as ‘he who systematically arranges the intellect of the student, certifies for him meanings of important concepts and passes on to him acceptable norms of behavior’. A teacher so defined assumes critical importance in the evolving life of a student, someone who is expected to graduate from his course of study and take up a responsible role in society. Such a teacher must, of necessity, be a master of knowledge and also must be equipped with an ability to psychologize his student and understand his specific learning needs. He will not be addressed as Acharya or Guru if his knowledge and skills are questionable. A person can teach only if he knows. A Guru-Acharya knows, and so, he is qualified to teach. On today’s Guru Purnima Day, I bow to God, the initial teacher of the first asexually-born human beings, to the first four Rishis – Agni, Vayu, Aditya and Angiras – who received the four Vedas from God, to the long line of Rishis, Gurus, Yogis and Acharyas, to Adi Swami Shankar Acharya, to Brahma Rishi Swami Virjananda Saraswati, to Mahaa Rishi Dayananda Saraswati, and finally, to all Gurukula Acharyas, to missionaries coming from India, to teachers of Sanskrit, Hindi and Yoga, and to local pandits all over the world. Namaste! With deepest humility, DR SATISH PRAKASH
सुखी बसे संसार सब
22-07-2021
सुखी बसे संसार सब,,, दुखिया रहे न कोय..!!! यह अभिलाषा हम सब की,,, भगवन पूरी होय..!!! विद्या बुध्दि तेज बल सबके भीतर होय..!!! दूध पूत धन-धान्य से वंचित रहे न कोय..!!! आपकी भक्ति प्रेम से मन होवे भरपूर..!!! राग-द्वेष से चित्त मेरा कोसों भागे दूर..!!! मिले भरोसा आपका,,, हमें सदा जगदीश..!!! आशा तेरे धाम की,,, बनी रहे मम ईश..!!! हमें बचाओ पाप से,,, करके दया दयाल..!!! अपना भक्त बनाय कर,,, हमको करो निहाल..!!! दिल में दया उदारता मन में प्रेम अपार..!!! धैर्य हृदय में धीरता,,, सबको दो करतार..!!! नारायण तुम आप हो,,, कर्मफल देनेहार..!!! हमको बुध्दि दीजिए,,, सुखों के भंडार..!!! हाथ जोड़ विनती करूं सुनिए कृपा निधान..!!! साधु-संगत सुख दीजिए,,, दया नम्रता दान..!!!
ଦୟାନଦ ଗୁରୁକୂଳ ଆଶ୍ରମର ଆଧ୍ୟାତ୍ମିକ ସତସଙ୍ଗ
20-07-2021
15.07.2021 ରିଖ ଦୟାନଦ ଗୁରୁକୂଳ ଆଶ୍ରମର ଆଧ୍ୟାତ୍ମିକ ସତସଙ୍ଗ ସମାବେଶ ବିଶେଷ କାର୍ଯ୍ୟକ୍ରମ - ବୃକ୍ଷ ରୋପଣ ,ଯଜ୍ଞ,ପ୍ରବଚନ ଅନୁଷ୍ଠିତ ହୋଇଯାଇଛି । ଏଥିରେ ମୁଖ୍ୟ ଅତିଥି ଦୟାନନ୍ଦ ଆଦର୍ଶ ଗୁରୁକୂଳ ର ମାର୍ଗଦର୍ଶକ ପଣ୍ଡିତ୍ ବୀରେନ୍ଦ୍ର କୁମାର ପଣ୍ଡା
Background and brief history of the establishment of Gurukul Manjhavali
14-07-2021
Eight Gurukuls are being operated under Aarsh Gurukul Gautamnagar, Delhi. Gurukul Gautamnagar is the central branch of all other Gurukuls. Swami Pranavanand Saraswati ji established the first branch of Gurukul Gautamnagar on the coast of Yamuna in Faridabad district of Haryana on June 5, 1994 In the establishment of this Gurukul, Shri Devmuni ji became Vanprasthi. It happened that Shri Devmuni ji came as a seeker and listener at the anniversary of Gurukul Gautamnagar in December, 1993 He used to live with his wife in the Vanprasth Ashram established with his own resources in Manjhavali. This monastery had its own one acre of land with two rooms built. One room was for Devmuni ji and his wife and the other room was used for guest s' residence. There used to be a cow in Vanprasth Ashram. There was no other wealth and property in the form of humans and animals. When Shri Devmuni ji visited Gurukul Gautamnagar, he was affected by almost all the events there. He was especially impressed by the performance of different types of difficult and complex exercises under the Veda Mantrochar of the Brahmacharis and their exercise conference. He was so impressed to see him that he interacted with Swami Pranavanand ji, former name Acharya Haridev ji, and proposed to open a Gurukul similar to Gautamnagar Delhi at his Vanprastha Ashram, Manjhawali. It was decided among both the Rishi devotees that Swami Pranavanand ji will first visit Vanprastha Ashram Manjhavali and then decide to establish Gurukul there. Some time passed and Swami Pranavanand ji forgot this. About a month after this, suddenly Swami Pranavanand ji received a postcard letter written by Devmuni ji, reminding him of the discussion of opening Gurukul in Manjavali and inviting him to come to Manjhavali for inspection. After this letter, Swamiji Shri Charat Singh Verma (currently Swami Chitteshwaranand Saraswati) went to Manjhavali and inspected Vanprastha Ashram and its land. The total land of the ashram was 1 acres. Swami ji told Devmuni ji that this land is less, Gurukul will need more land. The land with this ashram belongs to Master Duni Chand ji. Talked to him about giving land for Gurukul. They are ready to give land at the rate of Rs 1.50 lakh per acre. Swami ji gave him a amount of Rs. in immediate advance and said that after a week, when you are convenient, register it. After meeting him a few days later, he rejected his ex's promise and started demanding 1.65 lakh per acre. Devmuni ji got angry on breaking his promise but Swami Pranavanand ji made him understand. Swami ji told him that it would not be fair to leave this land for a total of 30 thousand rupees. He got to agree. Then on the day of registry also he demanded five thousand rupees extra money. Swami ji gave that too to him from a colleague with him and in this way 3 acres of land near Gurukul. After this arrangement of land, Gurukul was established. Swami Pranavananda Saraswati Swami Omanand Saraswati, Swami Chitteshwarananda Sarasvati, Swami Dikshanand Saraswathi and Swami Anand Bodh Saraswati etc reached Vanprastha Ashram, Manjhavali on 5 June 1994 Yagna was performed in the Brahmatva of Swami Deekshanand ji. The foundation stone of Gurukul's Bhavan was laid due to the works of Swami Omanand ji. This event was conducted under the chairmanship of Swami Anand Bodh Saraswati. Vedic scholar and grammaracharya Acharya Pt with Swami Pranavanand ji. Bhimsen Vedwagish ji had arrived along with 32 Brahmacharis. Among these 32 Brahmacharis, one of the Brahmachari Dhananjay ji was also the Acharya of Gurukul Pondha of Dehradun today. After the establishment of Gurukul, in its early days, Acharya Bhimsen Vedwagish and Gurukul's Brahmachari remained in tents and roofs. In front of Gurukul Manjawali, there was also two bigha land of Shri Yadav ji. He was selling his land to set up a cardboard factory. When Swami Pranavanand got to know, he was worried. The reason was that if the cardboard factory is established there, the environment and climate will be adversely affected. Mosquitoes will be abundant. Celibacy could have suffered from many diseases. So, Swamiji consulted with Shri Devmuni ji and thought of buying that land. The plan was successful and this land was also registered in the name of Gurukul Manjhavali. Thus this Gurukul spread over three acres and two acres of land in those days. In this two bigha land, Swami ji had established Gurukul's cow-shell. After some time, 1 acres of land of Shri Ramchandra Dhobi ji along with Gurukul was also bought for Gurukul. This order went further and now Gurukul has land between 12 to 13 acres. After Gurukul was established and the land was arranged, the first sure and grand cottage was built by the present Swami Chitteshwaranand Saraswati ji. The second cottage was made by Shri Dev Muni ji who donated land for this Gurukul. Shri Devmuni has now completed 100 years of age and passed away last year October, 2021 Some other Rishi devotees have also made cottages in Gurukul land. In Gurukul, only 10 hostel rooms were built for the first Brahmacharis. Now this number has increased to about 30 here. There is a condition in Gurukul whose length is 118 feet and width is about 65 feet. This hall is built in the basement. There's a big hall on it. This is a two storey huge building. There is also arrangement for the residence of sadhaks in Gurukul Ashram. Here are 24 cottages for them. There is also a Yajnyashala and a cow-house. There are around 60 cows in the cow's house at the moment. Acharya Bhimsen Vedwagish ji was the first Acharya of Gurukul Manjhavali. You took charge of the post of Acharya till 2003 After him Shri Brahm Prakash ji became Acharya whose tenure lasted till 2003-2006 At present, Shri Jaikumar ji is the Acharya of Gurukul. Nowadays in Gurukul Swami Vratanand ji, Acharya Ankit Kumar, Acharyas Ashish ji, Achariya Abhishek ji and Acharya Rajat Sharma ji teach Brahmacharias. At this time the number of students in Gurukul is 125 Gurukul also has a very good library. Gurukul's anniversary is happening every year. The writer of these lines has got the opportunity to visit this Gurukul many times. When Swami Pranavanand ji and Swami Dharmeshwaranand ji had retired from Swami Chitteshwarananda ji, we were still present there. Till now three big events have taken place in Gurukul. Here in 2002, with 24 lakh Gayatri mantras, Swami Deekshanand Saraswati ji's Brahmatva was performed. After this in 2006, there was a huge yagna of 1 crore 25 twenty five lakh Gayatri mantra sacrifice which lasted for 5 months and 6 days. The Brahma Swami Satyamji of this Mahayagya was. The third big event was held in 2015 Including Chaturveda Parayan Mahayagya, this Gayatri Mahayagya also had 1 crore 25 lakh sacrifices. Swami Chitteshwarananda Saraswati and Swami Vidyadev ji had taken the responsibility of director of Yagna and Brahma. This yagna lasted for 5 months and eight days. Also tell that in all Gayatri Mahayagya, Chaturveda Brahma Parayana Mahayagya was compulsorily done. Gurukul Manjhavali has completed 25 years of his life and entered 26th year on 4 June, 2019 Silver jubilee celebrations are now planned. The event is planned to be held next March, 2022 In the first week of March 2022, Swami Pranavanand Saraswati ji's retirement day is also there. Hope by then the country will be free from the effect of Corona epidemic. We hope this event will be unforgettable in the history of Arya Jagat festivals. The life and every breath of Swami Pranavanand Saraswati is for these eight Gurukulas. All the Gurukuls run by Swami ji are on the path of progress. Along with the help and shelter of God, Swami Pranavanand Saraswati ji's penance and purusharth are also the main factors in this. Guests are felicitated in all the Gurukuls of Swami Pranavanand ji. That is why all their Gurukuls are blooming. We wish Swami Pranavanand Saraswati ji's healthy, healthy, long life and happy life and progress of all his Gurukuls on this occasion. We request the Rishi devotees to give their financial support and moral support to Swami Pranavanand Saraswati ji and be a part of the virtue in the operation of the Gurukuls. - Manmohan Kumar Arya
ପରିବେଶ ର ସୁରକ୍ଷା ପାଇଁ ବୃକ୍ଷରୋପଣ
11-07-2021
ପରିବେଶ ର ସୁରକ୍ଷା ପାଇଁ ରୋଟାରୀକ୍ଲବ୍ଅଫ୍ ବାଲେଶ୍ଵର ସେଣ୍ଟ୍ରାଲ ପକ୍ଷରୁ ବୈଦିକ ଗୁରୁକୁଳ ଆଶ୍ରମ, ପିଞ୍ଛାବଣିଆଁ ପରିସରରେ ବୃକ୍ଷରୋପଣ ଭଳି ମହତ କାର୍ଯ୍ୟ ସାଙ୍ଗକୁ ଆଶ୍ରମରେ ରହୁଥିବା ବ୍ରହ୍ମଚାରୀ (ପିଲାମାନ)ଙ୍କୁ ପାଠ୍ଯ ଉପକରଣ ପ୍ରଦାନ କରିଥିବାରୁ ଗୁରୁକୁଳ ତଥା ଆର୍ଯ୍ୟସେବା ସଂଘ ତରଫରୁ ରୋଟାରୀକ୍ଲବ୍ଅଫ୍ ବାଲେଶ୍ଵର ସେଣ୍ଟ୍ରାଲ ର ସମସ୍ତ ରୋଟାରୀୟାନ୍ ଭାଇମାନଙ୍କୁ ଧନ୍ୟବାଦ ଜଣାଇବା ସହିତ କ୍ଲବ୍ ର ସମ୍ମାନ ପାଇଁ , ସଭାପତି ରୋଟାରୀ ୟାନ୍ ନିରଞ୍ଜନ ମହାନ୍ତି ଙ୍କୁ ସମ୍ବର୍ଦ୍ଧନା କରାଯାଇଥିଲା ।।
स्वामी प्रणवानन्द जी को 75वें जन्मदिवस पर बधाई- “आर्यसमाज के गौरव, वैदिक धर्मानुरागी एवं ऋषिभक्त स्वामी प्रणवानन्द सरस्वती
09-07-2021
स्वामी प्रणवानन्द सरस्वती जी (जन्म दिवस 7-7-1947) आर्यजगत् के विख्यात संन्यासी है। आपने अपना पूरा जीवन वैदिक धर्म और आर्यसमाज की सेवा में लगाया है। आप ने आर्ष पाठविधि से गुरुकुल झज्जर तथा गुरुकुल कांगड़ी, हरिद्वार में अध्ययन किया है। स्वामी ओमानन्द सरस्वती तथा डा. रामनाथ वेदालंकार जी आपके आचार्य रहे हैं। डा. महावीर जी, डा. रघुवीर वेदालंकार, डा. सोमदेव शास्त्री, डा. ज्वलन्तकुमार शास्त्री आदि आपके पुराने सहपाठी एवं सहयोगी विद्वान है। आचार्य वेदप्रकाश श्रोत्रिय जी आर्यजगत के अन्यतम विद्वानों में से एक हैं। आप भी स्वामी जी के निकटम मित्रों व सहयेागियों में से हैं। स्वामी प्रणवानन्द सरस्वती जी वैदिक विषयों के मर्मज्ञ विद्वान है। विगत अनेक वर्षों से आप गुरुकुल गौतम नगर, दिल्ली का संचालन कर रहे हैं। इस गुरुकुल की उन्नति एवं संचालन के साथ आपने समय-समय पर भारत के अनेक भागों में अनेक गुरुकुलों की स्थापनायें की हैं। वर्तमान में आपके द्वारा देहरादून के ग्राम पौन्धा में ‘‘श्री मद्दयानन्द आर्ष ज्योतिर्मठ गुरुकल” का संचालन भी किया जा रहा है। इस गुरुकुल की स्थापना स्वामी प्रणवानन्द जी ने जून, 2000 में की थी। विगत 20 वर्षों की अवधि में इस गुरुकुल ने अनेक कीर्तिमान स्थापित किये हैं। यंुवा आर्य विद्वन डा. आचार्य धनंजय आर्य जी गुरुकुल-पौंधा के यशस्वी आचार्य हैं। आचार्यों के रूप में उन्हें आचार्य डा. यज्ञवीर जी, आचार्य शिवकुमार वेदि तथा आचार्य शिवदेव आर्य आदि का सहयोग प्राप्त है। स्वामी प्रणवानन्द सरस्वती और इन सभी आचार्यों के अध्यापन में यह गुरुकुल निरन्तर प्रगति पथ पर अग्रसर है। गुरुकुल पौंधा के अतिरिक्त मंझावली-हरयाणा, वेल्लिपेषी-केरल, उड़ीसा, अलीगढ-उत्तर प्रदेश तथा मुजफ्फरनगर-उत्तर प्रदेश में भी गुरुकुल स्थापित किये गये हैं। यह सभी गुरुकुल गतिशील एवं प्रगति पथ पर अग्रसर हैं। उड़ीसा के बरगड़ स्थान पर स्वामी जी द्वारा स्थापित एक कन्या गुरुकुल एवं एक बालकों का गुरुकुल संचालित किया जाता है। इतने गुरुकुलों का संचालन आज के समय में आश्चर्यजनक है। आर्यसमाज की संस्थाओं में अर्थाभाव देखा जाता है। हम अनेक पुरानी संस्थाओं को जानते हैं जहां की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है। उन्हें उतना दान प्राप्त नहीं होता जिससे वह संस्थायें सुगमतापूर्वक चल सकें। इसके लिये उन्हें सम्पत्ति को किराये पर भी देना पड़ता है। ऐसे समय में नये गुरुकुलों को स्थापित व संचालित करना, वहां आचार्यों की नियुक्ति और उनका विधि-विधान पूर्वक संचालन करने के लिये स्वामी प्रणवानन्द सरस्वती जी निश्चय ही आर्यजगत की ओर से बधाई के पात्र हैं। सभी आर्यजनों को स्वामी प्रणवानन्द सरस्वती जी की यथासम्भव आर्थिक सहायता करनी चाहिये जिससे ऋषि मिशन फले-फूले और आर्यसमाज की उन्नति में सर्वाधिक सहायक एवं महत्वपूर्ण हमारे सभी गुरुकुल बिना किसी बाधा के चलते रहे। यह गुरुकुल ही हमारी समाजों को पुरोहितों, विद्वान वक्ता, भनोपदेशक एवं ऋषिभक्त अधिकारी प्रदान करने के मुख्य स्रोत हैं। स्वामी प्रणवानन्द जी सरल स्वभाव के संन्यासी है। आपने अपने जीवन में अनेक आर्यसमाजी वृद्ध विद्वानों की सेवा की है। स्वामी जी को जीवन में कई बार गम्भीर रोग हुए परन्तु उपचार के बाद वह स्वस्थ हो गये। एक बार हमने उनसे पूछा था तो उन्होंने बताया था कि उन्होंने जीवन में आर्यसमाज के अनेक वृद्ध लोगांे की सेवा की है। इस सेवा व आशीर्वाद के कारण ही उन्हें लगता था कि वह बड़ी बड़ी व्याधियों पर भी विजय पा लेते हैं। हम विगत बीस वर्षों में अनेक अवसरों पर गुरुकुल गौतमनगर-दिल्ली, मंझावली एवं गोमत-अलीगढ़ के गुरुकुलों में भी गये हैं। स्वामी जी के साथ हम एक बार एटा के गुरुकुल भी गये थे। इन सब स्थानों में जाकर हमने स्वामी जी के अपने प्रति सद्व्यवहार को अनुभव किया है। उनके सद्व्यवहार एवं ऋषि मिशन के महनीय कार्यों को होते देखकर हमारे मन में उनके प्रति गहरे सम्मान की भावना उत्पन्न होती है। गुरुकल गौतम के उत्सव में हम जब जब गये हैं, वहां हमारा निवास अत्यन्त सुखद रहा है। स्वामी जी ही एक ऐसे विद्वान संन्यासी हैं जिनके पास हम निःसकोंच भाव से चले जाते हैं और वहां जाना हमें सुखदायक लगता है। ईश्वर से हमारी प्रार्थना है कि स्वामी जी सदा स्वस्थ रहें और दीर्घायु हों। वह आर्यसमाज में जो कार्य रहे हैं वह अत्यन्त महत्वपूर्ण एवं ऐतिहासिक है। वह जारी रहने चाहियें। हम स्वामी जी के द्वारा संचालित सभी गुरुकुलों की उन्नति की कामना भी करते हैं। स्वामी जी देश की आर्यसमाजों एवं आर्य संस्थाओं के आयोजनों में पधारने के साथ विदेशों की आर्य संस्थाओं के आयोजनो में भी जाते रहते हैं। स्वामीजी का देश-विदेश के सभी प्रमुख ऋषिभक्तों से परिचय एवं आत्मीय संबंध हैं। उनके सद्व्यवहार एवं कार्यों के कारण ही उन्हें गुरुकुलों के संचालन में सबसे सहयोग प्राप्त होता है। स्वामी जी को गुरुकुल गौतमनगर का संचालन करते हुए लम्बी अवधि हो चुकी है। आप युवावस्था में ही इसके आचार्य बने थे और इसे जर्जरित अवनत अवस्था से वर्तमान उन्नत अवस्था में पहुंचाया है। आर्यसमाज का सौभाग्य है कि उसके पास एक समर्पित ऋषिभक्त संन्यासी स्वामी प्रणवानन्द सरस्वती हंै जो रात-दिन आर्यसमाज की उन्नति के लिये भाग-दौड़ करते रहते हैं। हमें इस बात का भी सन्तोष है कि दिल्ली का गुरुकुल स्वामी जी के द्वारा उत्तमता से चलाया जा रहा है। इस गुरुकुल से आर्यजगत् को अनेक योग्य स्नातक मिले हैं जो अनेक संस्थाओं व स्थानों ंपर अपनी सेवायें दे रहे हैं। कुछ स्नातक विदेशों में भी निवास कर रहे हैं और उनके द्वारा वहां आर्यसमाज का प्रचार व संगठन की उन्नति के कार्य किये जा रहे हैं। आज ऋषिभक्त, वैदिकधर्म के अनुरागी एवं वैदिक धर्म के प्रचार व प्रसार में अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पित करने वाले स्वामी प्रणवानन्द सरस्वती जी का 75वां जन्म दिवस है। स्वामी जी ने आज अपने जीवन के प्रशंसनीय एवं यशस्वी 74 वर्ष पूर्ण कर लिए हैं। कोरोना के कारण वर्तमान में कोई वृहद आयोजन व समारोह नहीं किया जा सकता। यदि कोरोना न होता तो हम आज गुरुकुल गौतमनगर दिल्ली में जन्म दिवस व अमृत महोत्सव का एक भव्य आयोजन होने का अनुमान करते हैं जिसमें हम आर्यजगत के बड़ी संख्या में विद्वान व ऋषिभक्त सम्मिलित होते। आज के पावन अवसर पर हम स्वामी प्रणवानन्द सरस्वती जी को उनके 75वें जन्म दिवस पर अपनी हार्दिक शुभकामनायें देते हैं। स्वामी प्रणवानन्द जी स्वस्थ, दीर्घायु एवं यशस्वी हों, यह हमारी सर्वशक्तिमान एवं सब सद्कामनाओं को सिद्ध करने वाले ईश्वर से प्रार्थना है। ओ३म् शम्। -मनमोहन कुमार आर्य
ପୂଜ୍ୟ ସ୍ୱାମୀ ସୁଧାନନ୍ଦ ସରସ୍ବତୀଙ୍କ ଠାରୁ ସତ୍ୟାର୍ଥ ପ୍ରକାଶ - ପ୍ରଥମ ସମୁଲ୍ଲାସ (ଭାଗ 53)
06-07-2021
ପୂଜ୍ୟ ସ୍ୱାମୀ ସୁଧାନନ୍ଦ ସରସ୍ବତୀଙ୍କ ଠାରୁ ସତ୍ୟାର୍ଥ ପ୍ରକାଶ - ପ୍ରଥମ ସମୁଲ୍ଲାସ (ଭାଗ 53) Live ପଢ଼ିବା ପାଇଁ ଲିଙ୍କ - https://youtu.be/MMO5LNBg37o ଧନ୍ୟବାଦ ~ଶ୍ରୁତିନ୍ୟାସ ପରିବାର Vedic vichar: https://www.youtube.com/watch?v=FsPLJJKiGmc&t=2s
ସତ୍ୟାର୍ଥ ପ୍ରକାଶ - ପ୍ରଥମ ସମୁଲ୍ଲାସ
06-07-2021
ନମସ୍ତେ, (01/07/2021) ରାତି 08.30 ରେ ପୂଜ୍ୟ ସ୍ୱାମୀ ସୁଧାନନ୍ଦ ସରସ୍ବତୀଙ୍କ ଠାରୁ ସତ୍ୟାର୍ଥ ପ୍ରକାଶ - ପ୍ରଥମ ସମୁଲ୍ଲାସ (ଭାଗ 50) Live ପଢ଼ିବା ପାଇଁ ଲିଙ୍କ - https://youtu.be/OU_F1joTKis ଧନ୍ୟବାଦ - ଶ୍ରୁତିନ୍ୟାସ ପରିବାର
समस्त पृथिवी पर एक दयानन्द ही पूर्ण ब्रह्मचारी, पूर्ण योगी और पूर्ण ऋषि थाः आचार्य वेदप्रकाश श्रोत्रिय”
04-07-2021
(आचार्य वेदप्रकाश श्रोत्रिय जी आर्यजगत् के शीर्षस्थ विद्वान एवं प्रभावशाली वक्ता है। 3 वर्ष पूर्व दिनांक 2-6-2018 को उन्होंने गुरुकुल पौन्धा-देहरादून के उत्सव में एक अत्यन्त महत्वपूर्ण एवं प्रभावशाली व्याख्यान दिया था। उनका यह व्याख्यान आज भी प्रासंगिक एवं उपयोगी है। हम उनके उसी व्याख्यान को प्रस्तुत कर रहे हैं। ऐसे व्याख्यान बहुत कम ही सुनने को मिलते हैं। हमारा सौभाग्य था कि हमने उस व्याख्यान को सुना और उसे लेखबद्ध किया। आचार्य श्रोत्रिय जी का व्याख्यान प्रस्तुत है। -मनमोहन आर्य) श्रीमद्दयानन्द ज्यातिर्मठ आर्ष गुरुकुल, पौन्धा-देहरादून के तीन दिवसीय वार्षिकोत्सव के दूसरे दिन 2 जून, 2018 के सायंकालीन सत्र में आर्यसमाज के प्रसिद्ध विद्वान पं. वेदप्रकाश श्रोत्रिय का प्रभावशाली सम्बोधन हुआ। हम यहां उनका सम्बोधन प्रस्तुत कर रहे हैं। अपने सम्बोधन के आरम्भ आचार्य वेदप्रकाश श्रोत्रिय ने कहा कि विद्या ऐसी चीज है जिसे सारी दुनिया चाहती है। उन्होंने कहा कि सौभाग्यशाली मनुष्य वह होता है जिसे विद्या चाहती है। विद्वान वक्ता ने उन विद्वानों का वर्णन किया जो विद्या को चाहते थे। उन्होंने कहा कि इसके विपरीत विद्या ने महर्षि दयानन्द का उनके जीवन के समस्त गुणों के कारण वरण किया था। आचार्य श्रोत्रिय जी ने कहा कि कि ऋषि दयानन्द ने अपनी विद्या के कारण समस्त विश्व को आलोकित किया। उन्होंने आगे कहा कि स्वामी दयानन्द जी की विद्या का संसार के विद्वानों ने लोहा माना है। आचार्य जी ने अपनी न्यूजीलैण्ड यात्रा और वहां एक विश्वविद्यालय में व्याख्यान दिये जाने का उल्लेख किया। विश्वविद्यालय के डीन ने श्रोत्रिय जी से उनकी योग्यता को जानने के लिए कुछ प्रश्न किये। इस पर श्रोत्रिय जी ने कहा कि भारत प्राचीन काल से सभी परा व अपरा विद्यायों का केन्द्र रहा है। श्रोत्रिय जी ने उन्हें कहा कि यदि तुम मेरी परीक्षा लेते हो तो इसका यह अर्थ है कि सूर्य पूर्व से नहीं पश्चिम में उदय होता है। ऐसा कभी नहीं हो सकता। आचार्य वेदप्रकाश श्रोत्रिय ने कहा कि प्राचीन भारत में हमारे ऋषि व विद्वान जिस मार्ग पर चलते थे उसी मार्ग पर सारा संसार चलता था। उन्होंने कहा कि सूर्य पूर्व दिशा से उदित नहीं होता अपितु सूर्य जिस दिशा में उदित होता है उस दिशा को ही पूर्व दिशा कहा जाता है। विद्वान आचार्य जी ने कहा कि वेद ज्ञान के सूर्य हैं। वेदों का उदय भी भारत में ही हुआ था। उनसे प्रश्न किया गया था कि ब्रह्माण्ड कुल कितने तत्वों से मिलकर बना है। आचार्य वेदप्रकाश श्रोत्रिय जी ने बताया कि उन्होंने उत्तर में कहा कि वेदोें के अनुसार ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति कुल 3,342 तत्वों से मिलकर हुई है। आचार्य श्रोत्रिय जी ने कहा कि यदि समस्त ऋषियों के स्वरुप को देखना चाहते हैं तो आपको ऋषि दयानन्द के स्वरुप को देखना होगा। इससे आपको समस्त ऋषियों का स्वरुप विदित हो जायेगा। उन्होंने कहा कि स्वामी दयानन्द के वेद गुरु और योग गुरु अलग अलग थे। ऋषि दयानन्द ने मथुरा में दण्डी गुरु स्वामी विरजानन्द जी ने संस्कृत का आर्ष व्याकरण पढ़ा था। स्वामी दयानन्द एकमात्र ऐसे व्यक्ति हैं जो बिना परम्परा के महर्षि बने थे। उनके पास ऋषि बनने के लिए न पूर्वजन्म के कर्म थे, न प्रारब्ध था और न उसके अनुरुप आचार्य आदि ही थे। दयानन्द जी अपने पुरुषार्थ से ऋषि बने इसलिए मैं दयानन्द जी को महर्षि दयानन्द कहूंगा। आचार्य वेदप्रकाश श्रोत्रिय जी ने स्वामी दयानन्द के मथुरा में गुरु विरजानन्द जी से संस्कृत व्याकरण के अध्ययन का उल्लेख किया। उन्होंने कहा कि जब प्रथम स्वामी दयानन्द गुरु विरजानन्द जी की कुटिया पर पहुंचे थे तब कुटिया के भीतर से विरजानन्द जी ने पूछा था, बाहर कौन है? इसका उत्तर स्वामी दयानन्द जी ने यह कहकर दिया था कि यदि मुझे यह पता होता कि मैं कौन हूं, तो मुझे आपके पास आने की आवश्यकता नहीं थी। श्रोत्रिय जी ने अलंकारिक भाषा का प्रयोग करते हुए कहा कि जिस दिन स्वामी विरजानन्द जी ने दयानन्द के लिए अपनी कुटिया का द्वार खोला था उस दिन यह द्वार कुटिया का नहीं वरन् भारत के सौभाग्य का द्वार खुला था। श्रोत्रिय जी ने कहा कि स्वामी दयानन्द ने अपने वेद और शास्त्रों के ज्ञान के प्रकाश से सारे संसार को प्रकाशित किया है। विद्वान वक्ता ने कहा कि स्वामी दयानन्द ने लोगों की धमनियों वा जीवन में धर्म के यथार्थस्वरूप का संचार किया था। आर्यसमाज के प्रसिद्ध विद्वान आचार्य वेदप्रकाश श्रोत्रिय ने कहा कि महर्षि दयानन्द के समय व उनसे पूर्व के सहस्रो शताब्दियों के काल में कोई योगी था, कोई विद्वान था, परन्तु ऋषि कोई नहीं था। उन्होंने कहा कि एक दयानन्द ही था इस समस्त पृथिवी पर जो पूर्ण ब्रह्मचारी, पूर्ण योगी और पूर्ण ऋषि था। उन्होंने कहा कि ऋषि दयानन्द ने वाममार्गियों द्वारा वेदों पर लगाई कालिमा को सदा के लिए धो दिया। उन्होंने कहा कि दयानन्द जी का नाम लेने से हमें दुनिया सुरक्षित लगती है। श्रोत्रिय जी ने स्वामी दयानन्द जी के जीवन के अनेक पहलुओं का वर्णन किया। आचार्य श्रोत्रिय जी ने गुरुकुलों तथा उनमें संस्कृत व्याकरण एवं वेद विद्या के अध्ययन-अध्यापन का उल्लेख किया। गुरुकुल पौंधा के आचार्य डा. धनंजय जी को सम्बोधित कर उन्होंने कहा कि धनंजय! वेद विद्या की सुरक्षा करना तेरा काम है। तुम मर जाना पर वेद विद्या की रक्षा से कभी समझौता मत करना। ऋषि दयानन्द के बताये वेद विद्या अध्ययन-अध्यापन के उपदेशों से ही तुम्हारा मार्ग प्रशस्त होना चाहिये। आचार्य वेदप्रकाश श्रोत्रिय ने आगे कहा कि जब समाज के लोग गुरुकुल के वेद विद्या से सम्पन्न ब्रह्मचारियों को देखेंगे तो वह कहेंगे कि माता-पिता की आवश्यकता तो जन्म देने के लिए है परन्तु गुरुकुल के आचार्य व उसकी कोख में ब्रह्मचारी के माता व पिता दोनों का समावेश है जो किसी सन्तान को वेद विद्या से आलोकित व प्रकाशित कर सकती है। आचार्य श्रोत्रिय जी ने कहा कि आंख वस्तु या पदार्थ का दर्शन कराती है। पिता अपने पुत्र पर स्नेह दिखाता है। ब्रह्मचारी की माता भी अपने पुत्र पर स्नेह व आशीर्वादों की वर्षा करती है। आचार्य वेदप्रकाश श्रोत्रिय जी ने आचार्य धंनजय जी को कहा कि तुम गुरुकुल में दयानन्द जी की शिक्षाओं के अनुरुप ब्रह्मचारियों का निर्माण करना। ऐसे आचार्य के पीछे चलकर हम धन्य हो जायेंगे। आचार्य वेदप्रकाश श्रोत्रिय जी ने अलंकारिक भाषा का प्रयोग करते हुए कहा कि ऋषि दयानन्द के सामने सब उत्तमोत्तम विशेषण हाथ जोड़े खड़े हैं। दयानन्द जी अपने नाम के साथ कोई विशेषण नहीं लगाते। वह विशेषण कहते हैं कि दयानन्द हम तेरे साथ लग कर प्रकाशित हो जायेंगे, हमें अपने नाम के साथ लगा लो। श्रोत्रिय जी ने कहा कि दयानन्द जी ऐसे विलक्षण महापुरुष थे जो सभी एषणाओं से सर्वथा मुक्त थे। इन्हीं शब्दों के साथ पं. वेदप्रकाश श्रोत्रिय जी ने अपने वक्तव्य को विराम दिया। इससे पूर्व आर्य भजनोपदेशक श्री रमेश चन्द्र स्नेही ने एक भजन प्रस्तुत किया था जिसके बोल थे ‘वेद पढ़ा जाये और हवन किया जाये ऐसे ही परिवार को स्वर्ग कहा जाये।’ ओ३म् शम्। -मनमोहन कुमार आर्य